किडनी स्टोन की समस्या बारबार हो रही है, इसका क्या इलाज है?

सवाल-

मेरी उम्र 32 वर्ष है. मुझे किडनी में स्टोन था जो दवा से ठीक हो गया पर अभी टैस्ट में पता चला कि फिर से स्टोन हो गया है. यह समस्या बारबार क्यों हो रही है तथा इस का क्या इलाज है?

जवाब-

एक बार किडनी स्टोन हो जाने पर दोबारा भविष्य में पुन: किडनी स्टोन होने की संभावना बनी रहती है. जीवनशैली में बदलाव ही दोबारा किडनी स्टोन होने की संभावना को कम कर सकता है. आप खूब पानी पीएं. यह किडनी स्टोन से बचाव का सब से अच्छा तरीका है. कैल्सियम युक्त भोजन का अधिक प्रयोग न करें, सोडियम की मात्रा को भोजन में कम करें, भोजन में ऐनिमल प्रोटीन बहुत कम लें, साथ ही विटामिन सी से युक्त चीजों से भी परहेज करें.

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यदि आप की किडनी में पथरी है तो आप को पता होगा कि लो ऑक्सीलेट डाइट क्या होती है. जिन लोगों को किडनी मे स्टोन कि समस्या होती है उन्हे डॉक्टर इसी प्रकार की डाइट सुझाते हैं. परन्तु क्या यह सच मे प्रभावकारी है? क्या इससे आप के किडनी स्टोन को कम होने में किसी प्रकार की मदद मिलती है या नहीं. आइए जानते हैं लो ऑक्सीलेट डाइट के बारे में. इसमें आप क्या क्या चीजें खा सकते हैं और कौन कौन सी चीजें खाने से आप को बचना है? आज हम इन सभी प्रश्नों के बारे में जानेंगे.

ऑक्सालिक एसिड एक तत्त्व है जोकि आप का शरीर बनाता है. यदि यह आप के शरीर द्वारा कम उपजता है तो आप इसे कुछ खाद्य पदार्थों द्वारा भी प्राकृतिक रूप से अपने शरीर में ले जा सकते हैं. इस तत्त्व का व कैल्शियम का आप के यूरिनरी ट्रैक्ट में कम मात्रा में होना आम तौर पर आप को किसी प्रकार की दिक्कत नहीं देता है..

परन्तु कुछ केस में यह दोनो तत्त्व इकठ्ठे हो जाते हैं और कैल्शियम ऑक्सीलेट नामक किडनी स्टोन बना लेते हैं. यह उन लोगों में आम होता है जिनका शरीर यूरिन की कम मात्रा बना पाता है. अतः यदि आप को इस प्रकार का किडनी स्टोन हो जाता है तो आप को अपनी डाइट से ऑक्सीलेट की मात्रा बहुत कम कर देनी चाहिए.

कैसे पालन करें एक लो ऑक्सीलेट डाइट का?

इस डाइट का मतलब है कि उन चीजों को कम करना जिनमे ऑक्सीलेट की मात्रा कम होती है. कुछ भोजन जोकि ऑक्सीलेट में हाई होते हैं वह कुछ फल व सब्जियां, नट्स, अनाज आदि होते हैं. बहुत से विशेषज्ञ यह मानते हैं कि आप को एक दिन में 40-50 मिली ग्राम से कम ऑक्सीलेट खाना चाहिए.

सिंगल वूमन के लिए जरूरी हैं ये 7 मैडिकल टैस्ट

जो महिलाएं शादी नहीं करतीं या तलाक अथवा पति की मृत्यु के कारण अकेली रह जाती हैं उन में उम्र बढ़ने पर अकेलेपन की भावना घर करने लगती है, क्योंकि जब तक वे 40 की होती हैं, उन के भाईबहनों, कजिंस और दोस्तों की शादियां हो जाती हैं और वे अपनेअपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं, जिस से वे एकदम अकेली पड़ जाती हैं. इस से उन में तनाव का स्तर बढ़ने लगता है, जो उन्हें कई बीमारियों का शिकार बना देता है. उन में वजन कम या अधिक होने, उच्च रक्त दाब, हृदय रोग, तंत्रिकातंत्र से संबंधित समस्याएं यहां तक कि कई प्रकार के कैंसर होने की आशंका तक बढ़ जाती है.

एकल जीवन बिता रही महिलाओं को अपनी सेहत का और अधिक खयाल रखना चाहिए. वे यह न सोचें कि हैल्थ चैकअप समय और पैसों की बरबादी है. चूंकि कई गंभीर बीमारियों के लक्षण प्रथम चरण में नजर नहीं आते, इसलिए मैडिकल टैस्ट जरूरी है ताकि बीमारी का पता चलने पर उस का समय रहते उपचार करा लिया जाए.

प्रमुख मैडिकल चैकअप

ओवेरियन सिस्ट टैस्ट: अगर आप को पेट के निचले हिस्से में दर्द हो या अनियमित मासिक धर्म हो अथवा मासिक धर्म के दौरान अत्यधिक ब्लीडिंग हो तो ओवेरियन सिस्ट का टैस्ट कराएं. अगर सामान्य पैल्विक परीक्षण के दौरान सिस्ट का पता चलता है, तो ऐब्डोमिनल अल्ट्रासाउंड किया जाता है. छोटे आकार के सिस्ट तो अपनेआप ठीक हो जाते हैं पर यदि ओवेरियन ग्रोथ या सिस्ट का आकार 1 इंच से बड़ा हो तो आप को ओवेरियन कैंसर होने की आशंका है. इस स्थिति में डाक्टर कुछ और टैस्ट कराने की सलाह देते हैं.

मैमोग्राम: यह महिलाओं के लिए सब से महत्त्वपूर्ण टैस्ट है. जब कैंसर हो जाने पर भी कोई बाहरी लक्षण दिखाई न दे तब यह टैस्ट कैंसर होने का पता लगा लेता है. क्लीनिकल ब्रैस्ट ऐग्जामिनेशन (सीबीई) किसी डाक्टर द्वारा किया जाने वाला ब्रैस्ट का फिजिकल ऐग्जामिनेशन है. इस में स्तनों के आकार में बदलाव जैसे गठान, निपल का मोटा हो जाना, दर्द, निपल से डिस्चार्ज बाहर आना और स्तनों की बनावट में किसी प्रकार के बदलाव की जांच की जाती है.

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कितने अंतराल के बाद: सीबीई साल में 1 बार और मैमोग्राम 2 साल में 1 बार.

कोलैस्ट्रौल स्क्रीनिंग टैस्ट: कोलैस्ट्रौल एक तरह का फैटी ऐसिड होता है. यह जांच यह बताने के लिए जरूरी है कि आप के दिल की बीमारियों की चपेट में आने की कितनी संभावना है. कोलैस्ट्रौल 2 प्रकार के होते हैं-एचडीएल या हाई डैंसिटी लिपोप्रोटीन्स और एलडीएल या लो डैंसिटी लिपोप्रोटीन्स. इस टैस्ट में रक्त में दोनों के स्तर की जांच होती है.

कितने अंतराल के बाद: 3 वर्ष में 1 बार. लेकिन अगर जांच में यह बात सामने आती है कि आप के रक्त में कोलैस्ट्रौल का स्तर सामान्य से अधिक है या आप के परिवार में दिल की बीमारी का पारिवारिक इतिहास रहा है तो डाक्टर आप को हर 6 से 12 महीनों में यह जांच कराने की सलाह देते हैं.

ब्लड प्रैशर टैस्ट: नियमित रूप से ब्लड प्रैशर की जांच शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है. अगर आप का ब्लड प्रैशर 90/140 से अधिक या कम है तो आप के दिल पर दबाव पड़ता है, जिस से ब्रेन स्ट्रोक, हार्ट अटैक और किडनी फेल होने की आशंका बढ़ जाती है.

कितने अंतराल के बाद: साल में 1 बार, लेकिन अगर आप का ब्लड प्रैशर सामान्य से अधिक या कम है तो डाक्टर आप को 6 महीने में 1 बार कराने की सलाह देंगे.

ब्लड शुगर टैस्ट और डायबिटीज स्क्रीनिंग: ब्लड शुगर टैस्ट में यूरिन की जांच कर रक्त में शुगर के स्तर का पता लगाया जाता है. डायबिटीज स्क्रीनिंग में शरीर के ग्लूकोज के अवशोषण की क्षमता की जांच की जाती है.

कितने अंतराल के बाद: 3 साल में

1 बार. पारिवारिक इतिहास होने पर प्रति वर्ष.

बोन डैंसिटी टैस्ट: बोन डैंसिटी टैस्ट में एक विशेष प्रकार के ऐक्स रे के द्वारा स्पाइन, कलाइयों, कूल्हों की हड्डियों की डैंसिटी माप कर इन की शक्ति का पता लगाया जाता है ताकि हड्डियों के टूटने से पहले ही उन का उपचार किया जा सके.

कितने अंतराल में कराएं: हर 5 साल बाद.

पैप स्मियर टैस्ट: इस के द्वारा गर्भाशय के कैंसर की जांच की जाती है. अगर समय रहते इस के बारे में पता चल जाए तो इस का उपचार आसान हो जाता है. इस में योनि में एक यंत्र स्पैक्युलम डाल कर सर्विक्स की कुछ कोशिकाओं के नमूने लिए जाते हैं. इन कोशिकाओं की जांच की जाती है कि कहीं इन में कोई असमानता तो नहीं है.

कितने अंतराल के बाद: 3 साल में 1 बार.

-डा. नुपुर गुप्ता (कंसलटैंट ओस्टेट्रिशियन ऐंड गाइनोकोलौजिस्ट, निदेशक, लैव वूमन क्लीनिक, गुड़गांव)

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माइक्रोवेव में न रखें ये बर्तन, हो सकता है नुकसान

क्या आप जानती हैं कि भोजन को प्लास्टिक के डब्बे में रख कर माइक्रोवेव ओवन में पकाने पर आप को बांझपन, मधुमेह, मोटापा, कैंसर (कर्क रोग) आदि होने का खतरा हो सकता है?

दरअसल, विभिन्न अध्ययनों में वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्लास्टिक के डब्बे में भोजन को रख कर माइक्रोवेव ओवन में पकाने या गरम करने पर उच्च रक्तचाप की समस्या पैदा हो सकती है. इस से प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है, मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचता है, दूसरी तरह के और कई भयावह दुष्प्रभाव सामने आते हैं. दरअसल, माइक्रोवेव ओवन में प्लास्टिक के बरतन के गरम होने पर उस में मौजूद रसायनों का 95% तक रिसाव होता है.

सेहत की दुश्मन प्लास्टिक

प्लास्टिक के बरतनों को बनाने के लिए औद्योगिक रसायन बिस्फेनोल ए का इस्तेमाल किया जाता है. इस रसायन को सामान्य तौर पर बीपीए के नाम से जाना जाता है. इस रसायन का सीधा संबंध बांझपन, हारमोनों में बदलाव और कैंसर की बढ़ोतरी से है. यह लैगिंक लक्षणों में बदलाव लाता है यानी यह पुरुषोचित गुणों को भी कम करता है. यह मस्तिष्क की संरचना को नुकसान पहुंचाने, और मोटापा बढ़ाने का भी काम करता है.

प्लास्टिक में पीवीसी, डाइऔक्सिन और स्टाइरीन जैसे कैंसरकारी तत्त्व पाए जाते हैं, जिन का सीधा संबंध कैंसर से होता है.

चौंकाने वाला सच यह है कि जब प्लास्टिक के बरतन में भोज्यपदार्थों को रख कर माइक्रोवेव ओवन में पकाया जाता है तो प्लास्टिक के पात्र में मौजूद रसायन, ओवन की गरमी से पिघल कर खाद्य पदार्थ पर अपना असर छोड़ता हैं. भोजन गरम होने पर प्लास्टिक के गरम बरतन से निकलने वाले रसायनों के संपर्क में आता है और दूषित हो जाता है.

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माइक्रोवेव में किसी भी तरह का प्लास्टिक सुरक्षित नहीं है. हालांकि, इतना जरूर है कि सामान्य तौर पर इस्तेमाल में लिए जाने वाले प्लास्टिक की तुलना में प्लास्टिक के दूसरे विकल्प कम खतरनाक है, जिन में अपेक्षाकृत रूप से कम हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है.

जब भी माइक्रोवेव का इस्तेमाल करें उस से दूरी बनाए रखें, क्योंकि विभिन्न शोधों में पाया गया है कि माइक्रोवेव के इस्तेमाल के समय हानिकारक विकिरण निकलते हैं. हालांकि अधिकांश मामलों में यह जरूर पाया गया है कि माइक्रोवेव में भोजन पकाना या गरम करना नुकसानदेह नहीं है. माइक्रोवेव में गलत बरतन का प्रयोग आप की सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है. इसलिए प्लास्टिक का इस्तेमाल करना छोड़ दें.

कांच के बरतन अधिक सुरक्षित

भोजन को पैक करने के लिए कांच के बरतन अधिक सुरक्षित हैं. वे प्लास्टिक की तरह रसायन नहीं छोड़ते और भोजन को गरम करने के लिहाज से भी सुरक्षित होते हैं. आप अपने भोजन को बिना गरम किए भी खा सकते हैं, हालांकि यह इस पर निर्भर करता है कि खाद्य पदार्थ क्या है.

चूंकि प्लास्टिक का उपयोग सभी जगह हो रहा है, इसलिए प्लास्टिक के इस्तेमाल से खुद को दूर रखना काफी मुश्किल है. लेकिन प्लास्टिक का कम से कम उपयोग कर आप अपने भोजन और पेयपदार्थों को इस के विषैले असर से अधिक से अधिक दूर रख सकती हैं और शरीर में बीपीए का स्तर कम रख सकती हैं.

– डा. निताशा गुप्ता, गाइनोकोलौजिस्ट ऐंड आईवीएफ ऐक्सपर्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्पिटल, नई दिल्ली

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कुछ दिनों से मुझे पेशाब करने में परेशानी हो रही है, मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल-

मेरी उम्र 50 वर्ष है. मुझे 10 वर्षों से शुगर की शिकायत है, जिस की दवा चल रही है. मगर कुछ दिनों से मुझे पेशाब करने में परेशानी हो रही है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

आप कुछ अच्छी आदतों को अपना कर तथा कुछ सावधानी बरत कर अपनी शुगर को नियंत्रित कर सकते हैं तथा सामान्य जीवन जी सकते हैं. आप को स्मोकिंग से बचना चाहिए. अपना ब्लड प्रैशर तथा कोलैस्ट्रौल लैवल नियंत्रित रखें, रोजाना व्यायाम करें, खाने में चीनी की तथा कार्बोहाइड्रेट की मात्रा में कमी लाएं, पानी ज्यादा पीएं, ज्यादा फाइबर वाली चीजें खाएं और विटामिन डी का अनुकूल स्तर बनाए रखें.

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हम सभी जानते हैं कि खाने-पीने के रेडीमेड सामानों और सॉफ्ट ड्रिंक्स के जरिए हम सबसे ज्यादा शुगर (चीनी) कंज्यूम करते हैं. ये शूगर ही हमारे शरीर को कई तरह से सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचाती है.

इस एक्स्ट्रा शुगर से आपकी सेहत को कोई भी फायदा नहीं होता बल्कि जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के मुताबिक ये शरीर में घटिया किस्म के कॉलेस्ट्रोल को बढ़ावा देती है जिससे आगे चलकर दिल से संबंधित बीमारियों का खतरा पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है.

ज्यादा शुगर वाली खाने-पीने की चीजें इस्तेमाल करने से डायबिटीज का खतरा भी बढ़ जाता है. एडल्ट्स को करीब 30 ग्राम शुगर एक दिन में कंज्यूम करने की सलाह दी जाती है जबकि 4 से 6 साल के बच्चों के लिए ये मात्रा 19 ग्राम और 7 से 10 साल के बच्चों के लिए 34 ग्राम है.

अगर आप मीठा खाने के बहुत ज्यादा शौकीन हैं और डायबिटीज जैसे इसके नुकसानों से भी बचे रहना चाहते हैं तो न्यूट्रीशन एक्सपर्ट डॉक्टर मर्लिन ग्लेनविल बता रहीं हैं ऐसे 6 तरीके जिससे आप अपनी आदत बदले बिना रह सकते हैं डायबिटीज से दूर.

1. बाहर संभल कर खाएं: सबसे ज्यादा शुगर बाहर से खाने-पीने वाली चीजों के जरिये कंज्यूम की जाती हैं. ऐसे में थोड़े सी सतर्कता से आप मीठा खाकर भी बीमारियों से बचे रह सकते हैं. आपको करना बस इतना है कि स्पैगिटी सॉस और मियोनीज की जगह ऑर्गनिक योगार्ट इस्तेमाल करें और ऐसी दुकानों पर खाएं जो अपने सॉस खुद तैयार करते हैं. घर में बने सॉस में अपेक्षाकृत कम शुगर होती है.

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कैंसर का दर्द: कैंसर का सबसे बड़ा डर

कैंसर की डायग्नोसिस के बाद से प्रभावित लोगों का जीवन बुरी तरह बदल जाता है. लोगों में इसके डर का बड़ा कारण अत्यंत दर्द होना और डायग्नोसिस से जुड़ी घबराहट है. इसका असर लगभग 28 फीसदी डायग्नोज लोगों पर, 50 से 70 फीसदी इलाज करा रहे लोगों पर और एडवांस्ड कैंसर से पीड़ित 64 से 80 फीसदी लोगों पर होता है. अक्सर दर्द के भय के कारण ही लोग चिकित्सा कराने पर मजबूर होते हैं और रोग का पता लगाने के लिए तैयार होते हैं. कैंसर का दर्द अक्सर आम होता है और यही वजह है कि लोग इलाज कराने को तैयार होते हैं, लिहाजा कोई कारण नहीं बनता है कि दर्द से राहत पाने को इलाज की प्राथमिकता में शामिल नहीं किया जाए. डॉ. आमोद मनोचा, मैक्स हॉस्पिटल, साकेत में पेन मैनेजमेंट सर्विसेज के प्रमुख , के मुताबिक

कैंसर के इलाज में प्रगति होने के कारण मरीज के बचने की दर में सुधार के साथ ही कैंसर मरीजों में गंभीर दर्द के मामले भी बढ़ रहे हैं. एक शोध के मुताबिक, कैंसर के लगभग 33 फीसदी मरीज लंबे समय तक दर्द से जूझते रहते हैं और शोध बताते हैं कि दर्द पर नियंत्रण के साथ प्रतिकूल जीवन गुणवत्ता सुधारने तक इलाज का लक्ष्य सिर्फ मरीज को जैसे—तैसे बचाना नहीं होता है. अनियंत्रित दर्द का प्रभाव मरीज को लंबे समय तक पीड़ित और विकलांगता का शिकार बना देता है जिस कारण वह शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं से जूझता रहता है. नियंत्रण का अभाव, ताकत और गतिशीलता की कमी, घबराहट, डर और अवसाद इस अनियंत्रित दर्द के साथ आम तौर पर जुड़े होते हैं. मरीज की बढ़ती परेशानियों के कारण तीमारदारों के साथ उनके रिश्तों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.

कैंसर के दर्द पर काबू पाना

कैंसर के दर्द पर काबू पाना वाकई एक चुनौती है क्योंकि कैंसर के अलावा अन्य अंगों और नसों पर अधिक दबाव, कब्ज, पेट या शरीर के अन्य हिस्सों में सूजन समेत कई कारण दर्द को बढ़ा देते हैं. सर्जरी, कीमोथेरापी या रेडियोथेरापी जैसे इलाज का दुष्प्रभाव भी उतना ही कष्टदायी होता है या फिर रीढ़ में अर्थराइटिस जैसी अन्य समस्या दर्द को बढ़ा देती है. इससे भी बड़ी चुनौती होती है जब कुछ प्रकार के कैंसर बड़े आक्रामक तरीके से बढ़ते हुए कई तरह के दर्द का कारण बन जाते हैं और इसके लिए नियमित जांच और थेरापी में सुधार की जरूरत पड़ती है.

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अच्छी खबर यह है कि कैंसर मरीजों के बड़े हिस्से को प्राथमिक उपचार पद्धति के साथ योजनाबद्ध इलाज से दर्द से संतोषजनक राहत मिल सकती है. इसमें मेडिकेशन, नर्व ब्लॉक, फिजियोथेरापी और मनोवैज्ञानिक तकनीकों समेत दर्द से निजात दिलाने की आधुनिक पद्धतियों के साथ ट्यूमर का इलाज भी शामिल है. शोध बताते हैं कि शुरुआती इलाज से बेहतर परिणाम मिलते हैं, इसलिए सलाह दी जाती है कि शुरुआती चरण में ही डॉक्टरी मदद लें. कम से कम साइड इफेक्ट के साथ अधिकतम राहत देने का लक्ष्य रखते हुए विशेष दर्द प्रबंधन इनपुट अधिक प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि इस बीमारी की जटिलता या दर्द की गंभीरता समय के साथ बढ़ती ही जाती है.

एक तरह की थेरेपी सभी मरीजों के लिए कारगर नहीं होती

कैंसर के दर्द पर नियंत्रण सिर्फ दवाइयों या इंजेक्शन से नहीं हो सकता है. संतोषजनक नियंत्रण के लिए विस्तृत जांच से दर्द का सटीक कारण जानना जरूरी होता है और मरीज को शिक्षित करने से उसे अपेक्षित परिणाम मिल सकता है. बीमारी के कारण अनुपयोगी मान्यताओं, मिजाज, घबराहट, असुरक्षा की भावना जैसे कारकों पर काबू पाना और इलाज, आध्यात्मिक एवं सामाजिक आवश्यकताएं पूरी करना जरूरी है क्योंकि बीमारी के साथ उनका दर्द बढ़ता जाएगा. मेडिटेशन जैसे सुकूनदायी थेरापी, नियोजित इलाज से मरीजों की सोच बदल सकती है, उनको राहत दिला सकती है. हर मर्ज की एक ही दवा नहीं होती है और किसी भी मरीज पर फार्मास्यूटिकल, इंटरवेंशनल, रिहैबिलिटेशन उपचार और अच्छा बर्ताव का इलाज पर खासा असर पड़ता है.

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आपको एक उदाहरण देता हूं. हाल ही में मैंने सीने के दर्द से पीड़ित एक बुजुर्ग मरीज का इलाज किया. उन्हें रीढ़ में बड़ा ट्यूमर होने के कारण नसों पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा था. उन्हें दर्द से तत्काल राहत देना जरूरी था और 80 डिग्री से कम तापमान पर प्रभावित नसों को फ्रीज करने जैसी क्रायोएब्लेशन पद्धति का इलाज दिया गया. कुछ ही घंटे में उनका दर्द कम होने लगा. आधुनिक टेक्नोलॉजी का यह एक बेहतरीन उदाहरण है. उनकी हर तरह से देखभाल की गई और उनके परिवारवालों ने भी महसूस किया कि वह अपने जीवन के आखिरी दिनों में अपने परिजनों के साथ बेहतर जिंदगी गुजारने लगे.

लाइलाज नहीं थाइराइड की बीमारी

40 साल की सुधा का वजन अचानक बढ़ने लगा, किसी काम में उसका मन नहीं लगता था रह-रहकर उसे घबराहट होती थी, उसने डाइट शुरू कर दिया, लेकिन उसका वजन कम नहीं हो रहा था. परेशान होकर उसने अपनी जांच करवाई और पता चला कि उसे थाइराइड है. दवाई लेने के बाद वजन और घबराहट दोनों कम हुआ. असल में थाइराइड की बीमारी महिलाओं में अधिक होती है. 10 में 8 महिलाओं को ये बीमारी होती है, लेकिन महिलाओं में इसे लेकर जागरूकता कम है. इसलिए इसे पकड़ पाने में मुश्किलें आती है और रोगी को सही इलाज समय पर नहीं मिल पाता.

इस बारें में थाइराइड एक्सपर्ट डा शशांक जोशी कहते है कि यहाँ हम हाइपोथायराइडिज्म के बारें में बात कर रहे है,क्योंकि इसमें ग्लैंड काम करना बंद कर देती है.जिसका सीधा सम्बन्ध स्ट्रेस से होता है. इतना ही नहीं इस बीमारी का सम्बन्ध हमारे औटो इम्युनिटी अर्थात सेल्फ डिस्ट्रक्सन औफ थाइराइड ग्लैंड से जुड़ा हुआ होता है, जो तनाव की वजह से बढती है. आज की महिला अधिकतर स्ट्रेस से गुजरती है, क्योंकि उन्हें घर के अलावा वर्कप्लेस के साथ भी सामंजस्य बैठाना पड़ता है जो उनके लिए आसान नहीं होता. ये सभी तनाव थाइराइड को बढ़ाने का काम करती है, क्योंकि इसके बढ़ने से एंटी बौडी तैयार होना बंद हो जाती है. इसके लक्षण कई बार पता करने मुश्किल होते है, लेकिन कुछ लक्षण निम्न है जिससे थाइराइड का पता लगाया जा सकता है,

  • मोटापे का बढ़ना,
  • थकान महसूस करना,
  • काम में मन न लगना,
  • केशों का झरना,
  • त्वचा का सूखना,
  • मूड स्विंग होना,
  • किसी बात पर चिड़चिड़ा हो जाना,
  • अधिक मासिक धर्म का होना,
  • किसी बात को भूल जाना आदि सभी इसके लक्षण है.

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ऐसा देखा गया है कि सर्दियों में थाइराइड अधिक बढ़ जाता है, इसलिए इस मौसम में रोगी को जांच के बाद नियमित दवा लेनी चाहिए. थाइराइड हार्मोन हमारे शरीर की मेटाबोलिज्म प्रक्रिया और एनर्जी को चार्ज करती रहती है, इसलिए अगर शरीर कोशिकाए सही तरह से चार्ज नहीं होगी, तो व्यक्ति सुस्त और हमेशा सोने की कोशिश करता है और ये समस्या अधिकतर ‘एक्सट्रीम क्लाइमेट’ वाले जगहों में होता है. ये बीमारी होने के बाद आयोडीन युक्त नमक लेना सबसे जरुरी होता है.

अधिकतर लोगों को जिन्हें हाइपोथायराइडिज्म की शिकायत है उनका ग्लैंड काम करना बंद कर देती है और उनकी समस्या धीरे-धीरे बढती जाती है, लेकिन दवा के नियमित सेवन से इस बीमारी से बचा जा सकता है.

थाइराइड हर उम्र के व्यक्ति को हो सकती है. जन्म से लेकर किसी भी उम्र में ये बीमारी हो सकती है. इसके होने से महिला इनफर्टिलिटी की भी शिकार हो सकती है. मोटापे के अलावा महिला ह्रदय रोग की भी शिकार हो सकती है.

कोई भी एन्द्रोक्रोनोलोजिस्ट डा.इस बीमारी का इलाज कर सकता है. इसमें मुख्यतः खून की जांच करनी पड़ती है. जिसमें टी3 टी4 और टीएसएच होता है. एक बार इसका पता लगने पर साल में दो बार खून की जांच करवाएं ताकि दवा का असर पता चलता रहे.

हाइपोथायराइडिज्म के तीन प्रकार होते हैं

-प्राइमरी, जिसमें जहाँ थाइराइड ग्लैंड में बीमारी है,

-सेकेंडरी में पिट्युटरी ग्लैंड में टीएस एच रस बनता है वहां कई बार ट्यूमर आ जाता है, जो एक बिलियन में  केवल एक व्यक्ति को ही होता है,

–  पिट्युटरी ग्लैंड,हाइपोथेलेमस के द्वारा कंट्रोल किया जाता है,जो टी आर एच बनाती है. उसे टरशियरी कहते है.

केवल टी एस एच की जांच से ही थाइराइड का पता लगाया जा सकता है. 8 से लेकर 10 तक की मात्रा होने पर डाक्टर की सलाह लेकर दवा शुरू करना जरुरी होता है. इसके साथ ही अगर कोलेस्ट्राल की मात्रा है, तो दवा शुरू कर लेनी चाहिए. इसके रिस्क फैक्टर निम्न है-

-अगर घर में किसी को थाइराइड की बीमारी हो खासकर मां, बहन या नानी तो भी अगली पीढ़ी को ये बीमारी 80 प्रतिशत होने के चांसेस होते है.

-ये वंशानुक्रम में चलती है.

-80 प्रतिशत ये महिलाओं को और 20 प्रतिशत पुरुषों को होती है.

-पुरुषों में जो अधिकतर धूम्रपान करते है, उन्हें थाइराइड हो सकता है, क्योंकि ये थाइराइड को ट्रिगर करता है.

डा. जोशी आगे कहते हैं कि लाइफस्टाइल को बदलने से थाइराइड की वजह से होने वाले मोटापे को कुछ हद तक काबू में किया जा सकता है,लेकिन थाइराइड की दवा लेना हमेशा जरुरी होता है. ये मिथ है कि मेनोपोज के बाद थाइराइड होता है. दरअसल तब ये पता चलता है कि महिला में थाइराइड है.

डाईबेटोलोजिस्ट डा.प्रदीप घाटगे कहते है कि थाइराइड के मरीज पिछले 10 सालों में दुगुनी हो चुकी है. इसमें कोई खास परिवर्तन शरीर में नहीं आने की वजह से आसानी से इसे समझना मुश्किल होता है. अगर समय पर जांच न हो पाय, तो रोगी एक्सट्रीम कोमा में चला जाता है. ये अधिकतर हाइपोथायराइडिज्म में होता है. इस लिए जब भी इसके लक्षण दिखे, तुरंत जांच करवा लेनी चाहिए.

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जिसमें रोगी का वजन कम होता जाता है, उसे हाइपरथायराइडिज्म कहते है. ये बीमारी अधिक खतरनाक होती है,क्योंकि इसमें रोगी के हार्ट पर उसका असर होता है.

थाइराइड होने पर निम्न चीजों को खाने से परहेज करें,

– पत्ता गोभी, फूल गोभी, ब्रोकोली, सोयाबीन और स्ट्राबेरी और नान वेज में क्रेबस, शेलफिश न खाएं,

– समय से खाएं, नियम से खाए.

कहीं बड़ी न बन जाएं छोटी बीमारियां

39 साल की देविका की त्वचा संवेदनशील है. एक दिन उस ने अपनी जांघ पर छोटेछोटे लाल रंग के चकत्ते देखे जिन में दर्द हो रहा था. उस ने इन चकत्तों को अनदेखा कर दिया. वैसे भी 2 बच्चों की मां की व्यस्त दिनचर्या में खुद के लिए वक्त कहां मिलता है. मगर धीरेधीरे देविका ने महसूस किया कि वह अकसर थकीथकी सी रहने लगी है. कुछ हफ्तों बाद एक दिन जब वह सोफे पर आराम कर रही थी तो उस ने अपने कूल्हे के पास एक गांठ देखी. वह घबरा गई और यह सोच कर रोने लगी कि उसे कैंसर हो गया है.

पति के कहने पर वह अस्पताल गई और वहां जांच कराई. तब डाक्टर ने बताया कि उसे शिंगल्ज नाम का चर्मरोग है और गांठ बनना इस बीमारी का एक लक्षण है जो लिंफ नोड की सूजन के कारण था. तुंरत डाक्टर के पास जाने से देविका जल्दी ठीक हो गई. ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है. जब भी त्वचा से जुड़ी कोई परेशानी दिखे तो डाक्टर से सलाह लें. ध्यान रखें कि ऐसी बहुत सी छोटीछोटी बीमारियां हैं जो घातक नहीं, मगर कभीकभी कैंसर जैसे घातक रोग का कारण भी हो सकती हैं. सो, इन बीमारियों के बारे में जानना जरूरी है.

सोरायसिस

यह एक त्वचा रोग है जिस में त्वचा पर लाल, परतदार चकत्ते दिखाई देते हैं. इन में खुजली व दर्द का एहसास भी होता है. हालांकि यह रोग शरीर के किसी भी हिस्से पर हो सकता है किंतु ज्यादातर यह सिर, हाथपैर, हथेलियों, पांव के तलवों, कुहनी तथा घुटनों पर होता है. अकसर यह 10 से 30 वर्ष की आयु में शुरू होता है. यह बीमारी बारबार हो सकती है. कभीकभी यह पूरी जिंदगी भी रहती है.

कैसे होता है :

शरीर के इम्यून सिस्टम यानी रोगप्रतिरोधक प्रणाली की गड़गड़ी से यह बीमारी होती है. जिस से त्वचा की बाहरी परत यानी एपिडर्मिस कोशिकाएं बहुत तेजी से बनने लगती हैं. बाद में चकत्ते दिखने लगते हैं. हालांकि, यह छूत की बीमारी नहीं है. शोधकर्ताओं का मानना है कि इस रोग के पीछे आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारक जिम्मेदार होते हैं. सोरायसिस होने का एक कारण तनाव, धूम्रपान और अधिक शराब का सेवन भी है. शरीर में विटामिन ‘डी’ की कमी व उच्च रक्तचाप की दवाइयां खाने से भी यह हो सकता है. इस के अलावा यदि घर में कोई इस बीमारी से पीडि़त है तो यह आप को भी हो सकती है.

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सोरायसिस के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में अलगअलग दिखाई देते हैं. ये लक्षण इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि व्यक्ति को किस तरह का सोरायसिस है. इलाज : सोरायसिस पर काबू पाने के लिए पहले स्टैप के तौर पर टौपिकल स्टीरौयड एक से 2 सप्ताह तक लगाया जा सकता है. जिस से चकत्ते घटने लगते हैं. हलकी धूप लेने से भी आराम मिलता है. विटामिन ‘डी’ सिंथेटिक फौर्म में, मैडिकेटेड शैंपू आदि भी तकलीफ घटाते हैं.

ध्यान रखें : सोरायसिस के लगभग 10 से 30 प्रतिशत मरीजों में गठिया होने की आशंका रहती है. इस के अलावा टाइप 2 डायबिटीज और कार्डियो वैस्कुलर डिजीज भी सोरायसिस की वजह से हो सकती हैं. शिंगल्ज

शिंगल्ज

एक त्वचा संक्रमण है. यह आमतौर पर जोड़ों में होता है. इस के अलावा यह पेट, चेहरे अथवा त्वचा के किसी भी हिस्से में हो सकता है. आम बोलचाल की भाषा में इसे दाद भी कहा जाता है. शिंगल्ज के कारण : यह रोग तब होता है जब चिकनपौक्स फैलाने वाला वायरस शरीर में दोबारा सक्रिय हो जाता है. जब आप चिकनपौक्स से उबर जाते हैं तो यह वायरस आप के शरीर की तंत्रिका प्रणाली में सुप्तावस्था में चला जाता है. कुछ लोगों में यह आजीवन इसी अवस्था में रहता है. वहीं कुछ व्यक्तियों में अधिक उम्र के कारण प्रतिरक्षा प्रणाली में होने वाली कमजोरी के चलते यह फिर सक्रिय हो जाता है. कुछ मामलों में दवाएं भी इस वायरस को जागृत करने में अहम भूमिका निभाती हैं और व्यक्ति को शिन्गाल्ज की शिकायत हो जाती है.

शिंगल्ज का इलाज :

अगर शिंगल्ज के लक्षण नजर आएं तो तुरंत डाक्टर के पास जाना चाहिए. इसे दवाओं से ठीक किया जा सकता है. इन दवाओं में एंटीवायरल मैडिसिन और दर्दनिवारक दवाएं शामिल होती हैं. लगभग 72 घंटे के अंदर एंटीवायरल दवाएं लेने से रेशेज जल्दी ठीक हो जाते हैं और दर्द भी कम हो जाता है. इसे अनदेखा करने पर रिकवरी में 3 माह से 1 साल तक का समय लग सकता है.

एक्जिमा

यह ऐसा चर्मरोग है जिस में त्वचा लाल, शुष्क व पपड़ीदार हो जाती है. त्वचा की ऊपरी सतह पर नमी की कमी हो जाने के कारण रोगी को, खासतौर पर रात में, बहुत खुजली महसूस होती है. एक्जिमा के रैशेज आमतौर पर कुहनी, टखने के पास और घुटने के पीछे, जोड़ों के पास होते हैं. अगर इन का इलाज न किया जाए तो त्वचा खुरदरी होने लगती है. त्वचा के रंग में भी परिवर्तन आ जाता है.

एक्जिमा के कारण : यदि मातापिता इस बीमारी से पीडि़त हों तो संतान में भी एक्जिमा होने की आशंका बढ़ जाती है. इस के अलावा किसी चीज की एलर्जी से भी एक्जिमा हो सकता है. आप के आहार में भी कुछ तत्त्व एक्जिमा को ट्रिगर कर सकते हैं. यदि आप के मातापिता को अस्थमा, फीवर जैसी कोई बीमारी है तब भी आप को एक्जिमा होना संभव है.

उपाय : हर दिन स्नान करने के बाद तथा सोने से पहले अपनी त्वचा को मौइश्चराइज करना न भूलें. गंभीर स्थिति में टौपिकल कोर्टिको स्टेराइड क्रीम का उपयोग करें. जिद्दी एक्जिमा के उपचार हेतु फोटोथेरैपी जैसी तकनीक अपनाई जाती है, जिस में यूवीबी लाइट से गंभीर सूजन का इलाज होता है.

याद रखें : एक्जिमा भी त्वचा के कैंसर का लक्षण हो सकता है. त्वचा पर यदि 4 सप्ताह से अधिक समय तक धब्बे हों तो ये त्वचा के कैंसर का संकेत हो सकते हैं.

पित्ती

पित्ती (आर्टिकारिया) त्वचा रोग है जिस में शरीर पर खुजली वाले लाल चकत्ते निकल आते हैं. ये चकत्ते शरीर पर कुछ घंटों से ले कर कुछ हफ्ते तक रह सकते हैं. हलके पड़ने पर ये किसी नई जगह पर निकल आते हैं. पित्ती को आमतौर पर 2 भागों में बांटा जाता है. पहला, एक्यूट या अल्पकालिक जो कुछ समय के लिए रहती है और शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकती है. दूसरा, क्रोनिक या दीर्घकालिक पित्ती 6 हफ्ते से अधिक रहती है.

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पित्ती के कारण :

पित्ती निकलने के बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन ये अधिकतर शरीर से निकलने वाले हिस्टामिन्स से प्रतिक्रिया होने के कारण होते हैं जो आप को किसी खाद्य पदार्थ, दवा या अन्य किसी चीज की एलर्जी के कारण रिलीज होते हैं. हालांकि पित्ती होने के ज्यादातर मामलों में वजह का पता नहीं चलता. इस के कारणों में वायरल संक्रमण तथा अंदरूनी बीमारियां भी मानी जाती हैं.

पित्ती का इलाज : पित्ती के लक्षणों को कम करने और उस की रोकथाम के लिए ओवर द काउंटर एंटीहिस्टमीन का सेवन करना चाहिए. यदि आप को दीर्घकालिक पित्ती की समस्या है तो डाक्टर आप को एंटीहिस्टमीन की स्ट्रौंग डोज तथा एंटीइनफ्लैमेटरी दवाओं की सलाह देते हैं.

रौसेसिया

यह एक त्वचा संबंधी रोग है जो चेहरे की त्वचा पर दिखाई देता है. चेहरे की रक्त नलिकाएं जब लंबे समय तक बड़ी हो कर उसी अवस्था में रहती हैं तो यह स्थिति रौसेसिया कहलाती है. इस की वजह से चेहरे की त्वचा पर लालिमा के साथ दर्द भी रहता है जो पिंपल की तरह दिखाई देते हैं. कई बार यह छोटे लाल दानों की तरह भी निकल आता है. रौसेसिया से पीडि़त व्यक्ति की नाक के पास की त्वचा मोटी हो जाती है जिस की वजह से नाक उभरी हुई दिखाई देने लगती है.

रौसेसिया के कारण :

एक्जिमा की ही तरह यदि मातापिता रौसेसिया से पीडि़त हों तो संतान में भी इस के होने की आशंका बढ़ जाती है. इस के अलावा सूरज की तेज किरणों के संपर्क में आने से भी यह रोग हो सकता है. कुछ दवाओं के गलत प्रभाव से भी रक्त नलियां आकार में बड़ी हो जाती हैं. आमतौर पर ये गुलाबी मुंहासे हलकी त्वचा के रंग वालों में 35 वर्ष की आयु में आरंभ होने लगते हैं और उम्र बढ़ने के साथ गंभीर रूप धारण कर लेते हैं. रौसेसिया का इलाज : इस के इलाज के लिए कुछ ओरल एंटीबायोक्टिस व कुछ स्किन क्रीम वगैरह दी जाती हैं. छोटी रक्त वाहिकाओं से हुई त्वचा की लाली का सब से अच्छा उपचार लेजर द्वारा किया जा सकता है.

त्वचाशोथ या कौंटेक्ट डर्मेटाइटिस

त्वचाशोथ या त्वचा की सूजन और एक्जिमा दोनों को त्वचा की एक ही तरह की समस्या माना जाता है, क्योंकि दोनों ही बीमारियों में जलन, सूजन, खुजली तथा त्वचा लाल होने जैसे लक्षण देखे जाते हैं. वास्तव में डर्मेटाइटिस एक्जिमा की तरह कोई गंभीर समस्या नहीं है. यह रोग दाने के रूप में केवल उन हिस्सों में होता है जो हिस्से वैसी चीजों के संपर्क में आते हैं जिन से त्वचा को एलर्जी होती है.

कारण :

पौयजनस आईवी के पौधे, गहने, इत्र, फेसक्रीम या अन्य सौंदर्य उत्पादों से एलर्जी आदि त्वचाशोथ के मुख्य कारण हैं.

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इलाज :

यदि रोगी को सूजन है और साथ में अन्य कोई सक्रमण है तो उस के लिए एंटीबायोटिक दवा की आवश्यकता होती है. एक्जिमा की भांति त्वचाशोथ भी त्वचा के कैंसर का लक्षण हो सकता है. इसलिए सही उपचार हेतु विशेषज्ञ डाक्टर से संपर्क करें.

सावधान: ज्यादा तनाव लेना सेहत पर पड़ेगा भारी

तनाव हमेशा बुरा नहीं होता. जब तनाव छोटे स्तर पर होता है तो यह दबाव में बेहतर प्रदर्शन करने में आपकी मदद करता है, लेकिन यह काफी ज्यादा हो जाए तो आपकी सेहत के साथ आपका जीवनस्तर भी प्रभावित होता है. ज्यादा तनाव से औफिस या घर जीवन के हर क्षेत्र में आपका काम प्रभावित होगा और इससे आपके संबंध भी प्रभावित होंगे.

बार-बार सिर दर्द, बार-बार गुस्सा होने, ठीक से नींद न आने का संबंध तनाव से हो सकता है. ज्यादा तनाव के चलते व्यक्ति सहन करने की क्षमता खो देता है. इसके चलते उसका कामकाजी प्रदर्शन निचले स्तर पर चला जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि तनाव की लिमिट अलग-अलग व्यक्तियों, परिस्थितियों और व्यक्तिगत क्षमता (मानसिक और शारीरिक) के हिसाब से अलग-अलग होती है. आपका तनाव जब अपनी लिमिट को पार कर जाता है, तो यह आपके रोजमर्रा के काम को प्रभावित करने लगता है.

कैसे पहुंचाता है नुकसान

तनाव आपके सोचने-समझने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है. इसके सामान्य लक्षणों में बार-बार सिर दर्द होना, वजन घटना या बढ़ना, ठीक से नींद न आना, खाना-पीना ठीक से न होना, बार-बार बीमार पड़ना, ध्यान केंद्रित न कर पाना, मूड स्विंग होना और हाइपरएक्टिव और ओवरसेंसिटिव होना हैं. कुछ मामलों में तो डिप्रेशन भी हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘तनाव अक्सर आत्महत्या के विचारों के साथ आता है, खुद को या उसके परिजन को नुकसान पहुंचाने के विचारों को भी लाता है. इससे कोई व्यक्ति अपना आत्मसम्मान भी खो देता है. इससे बचने के लिए प्रोफेशनल्स की मदद लेनी चाहिए. यदि यह अपनी सीमा रेखा को पार कर जाता है, जिसमें कोई व्यक्ति इसे सहन नहीं कर सकता और दवाइयां काम नहीं करतीं, ऐसे में थेरेपिस्ट से कंसल्ट करना चाहिए.’

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लंबे समय तक तनाव में रहने से इम्‍युनिटी और हार्मोंस पर असर पड़ता है. नतीजतन आपको ज्यादा बेचैनी होती है और आपका ध्यान लगना कम हो जाता है. जब आपको तनाव होता है तब आप दफ्तर में मीटिंग्स, फोन पर बातचीत करने से बचते हैं. कई बार लोग जीवनसाथी से भी बात करने से बचने लगते हैं. उस समय वे खुद को असहाय पाते हैं.’

स्वास्थ्य पर असर

लंबे समय तक तनाव के रहने से दिल और ब्लड वेसल्स से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं. तनाव लंबे समय से परेशान कर रहा हो तो मस्क्युलोस्केलेटल सिस्टम, रेस्पिरेटरी सिस्टम, ओएसोफैगस बाउल मूवमेंट, नर्वस सिस्टम और रिप्राडक्टिव सिस्टम को प्रभावित करता है. इसके ज्यादा समय तक बने रहने से यह आपकी बौडी में स्ट्रेस हार्मोंस को बढ़ा देता है. कौर्टिकोस्टेरायड जैसे स्ट्रेस हार्मोंस ब्रेन के न्यूट्रान्स में केमिकल्स कम कर देते हैं, जिसके चलते याददाश्त कमजोर हो जाती है और आसपास की चीजों में व्यक्ति की दिलचस्पी कम होने लगती है. अगर आप घर या दफ्तर में कुछ खास स्थितियों से बचने की कोशिश कर रहे हों तो आप स्ट्रेस से परेशान हो सकते हैं

तनाव से निपटने का तरीका

– पिछले अनुभवों से मौजूदा कामकाज पर प्रभाव न पड़ने दें.

– असहायता, निराशा, विफलता को भूलकर अपनी ताकत पर फोकस करें.

– नियमित एक्सरसाइज, प्राणायाम और अच्छे खान-पान पर जोर दें.

– अपना बर्ताव बदलें, अवांछित चीजों के लिए ना कहना सीखें.

– कामकाज में प्राथमिकताएं तय कर उन्हें निपटाने का प्रयास करें.

– दोस्तों, परिवार के साथ अपनी बात साझा करें.

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एसीडिटी से छुटकारा देंगे ये 15 घरेलू नुस्खे

क्या आप जानते हैं कि आपके पेट में मौजूद हाइड्रोक्लोरिक नाम का एसिड पाचन तंत्र के पूरे कामों के लिए जिम्मेदार है. जब आप कोई जटिल चीज खाते हैं तो, उसको पचाने के लिए पेट मे एसिड का एक सामान्य स्तर में होना बहुत जरूरी है. जब शरीर में इस एसिड की मात्रा कम हो जाती है तो पाचन सही से नहीं हो पाता है. इसके अलावा पेट में एसिड के ज्यादा हो जाने पर भी पाचन क्रिया में असुविधा होने लगती है, इसे ही एसीडिटी कहते हैं.

एसीडिटी होने के कारण

1. तला हुआ और बहुत अधिक ठोस चीजों के खाने से एसीडिटी होती है और यही एसीडिटी का मुख्य कारण है.

2. अगर आपको किसी बात का तनाव है तो भी यह भी एसीडिटी होने को एक कारण बन सकता है.

3. सिगरेट और शराब की की अधिक आदत से भी एसीडिटी उत्पन्न होती है. इनके अलावा बहुत अधिक तीखा खाना खाने से भी एसीडिटी बढती है.

4. चाय,काफ़ी और अधिक बीडी उपयोग करने से एसिडिटी की समस्या पैदा होती है.

5. अचार,सिरका,तला हुआ भोजन,मिर्च-मसालेदार आदि चीजें खाने से  एसिडिटी हो जाती है.

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एसिडिटी के घरेलू उपचार

1. खाना खाने के तुरंत बाद किसी भी तरह के पेय चीजों का सेवन ना करें.

2. भोजन करने के पश्चात थोडा सा गुड लेकर चूसते रहें.
3. विटामिन युक्त सब्जियों का ही अधिक सेवन करें.
4. सुबह उठकर व्यायाम करें और दिनभर शारीरिक गतिविधियाँ करते रहें.

5. सुबह उठकर २-३ गिलास पानी पीयें.

6. बादाम खाने से एसीडिटी के कारण होने वाली आपके सीने की जलन कम होती है.

7. सुबह-शाम रोज २-३ किलोमीटर घूमने जाने की आदत डालें.

8. नियमित रूप से पुदीने का रस पीना, आपकी सेहत के लिए बहुत लाभकारी होगा.

9. पानी और नींबू मिलाकर पीने से एसीडिटी की जलन से तुरंत राहत मिलती है.

10. इनके अलावा जब भी एकीचिटी की शिकायत होती है, तब नारियल पानी का सेवन अधिक से अधिक करना शुरु करना चाहिए.

11. आंवला एक ऐसा फ़ल जिससे शरीर के कई रोग ठीक हो होते हैं. एसिडीटी के लिए भी आंवले का उपयोग करना लाभदायी होगा.

12. खीरा, ककड़ी और तरबूज खाएं.

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13. तुलसी के दो चार पत्ते दिन में कई बार चबाकर खाने से भी लाभ होता है. खाना खाने के बाद 2 ग्राम लौंग और 3 ग्राम ईलायची का पाउडर, चुटकी भर मुंह में रखकर चूसें.

14. एक गिलास पानी में २ चम्मच सौंफ़ डालकर उबाल कर इसे रात भर के लिए रख दें. सुबह इसे छानकर उसमें एक चम्मच शहद मिलाकर पीये.

15. फ़लों का सेवन एसीडिटी में बहुत फ़ायदेमंद होता हैं.

Dementia मानसिक बीमारी या बढ़ती उम्र के साथ होने वाली एक असहजता?

डिमेंशिया कोई विशेष बीमारी नहीं है बल्कि बढ़ती उम्र के साथ भूलने की समस्या है. इस बीमारी के कुछ लक्षण इस प्रकार है जैसे :- नई बातों को याद रखने में दिक्कत होना, किसी प्रकार के तर्क को ना समझ पाना ,लोगों से मेलजोल करने में परेशानी होना ,सामान्य कार्य को करने मे दिक्कत होना ,अपनी भावनाओं को काबू न कर पाना और धीरे-धीरे रोगी के व्यक्तित्व में बदलाव होना.

डिमेंशिया के प्रकार :-

डिमेंशिया अनेक कारणों से हो सकता है जैसे कि अल्ज़ाइमर, लुई बोडीज़, वासकूलर पार्किंसन इत्यादि. इसके अलावा कुछ भी लक्षण है जैसे हाल ही में हुई किसी घटना को भूल जाना, बातचीत करने के वक्त सही शब्दों का इस्तेमाल न कर पाना, भीड़ भाड़ में जाते समय घबरा जाना, मोबाइल चलाने की समझ भूल जाना, जरूरी निर्णय न ले पाना और साधारण सी चीजों के बारे में भी जानकारी नहीं समझ पाना. कई बार देखा जाता है कि रोगी लोगों पर बहुत अधिक शक भी करने लगता है. अपने आसपास के लोगों को मारने लगता है. झूठ मूठ के इल्जाम लगाने लगता है, छोटी-छोटी बातों पर उत्तेजित होने लगता है ,दिन भर चुपचाप बैठे रहने लगता है. डिमेंशिया के कुछ मरीजों में तो कई मरीज ऐसे भी मिलते हैं जो मारपीट करने में भी नहीं झिझकते हैं.

डिमेंशिया के कौन से लक्षण किस व्यक्ति में नजर आएंगे यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके मस्तिष्क के किस हिस्से को नुकसान हुआ है.भारत में ज्यादातर यह समझा जाता है कि बढ़ती उम्र के साथ यह लक्षण स्वभाविक हो जाते हैं. डिमेंशिया का एक मुख्य कारण अवसाद भी हो सकता है.

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डिमेंशिया होने के कारण:-

शालीमार बाग स्थित मैक्स हॉस्पिटल के न्यूरो साइंस विभाग के प्रिंसिपल कंसलटेंट डॉ शैलेश जैन के मुताबिक मस्तिष्क हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. लेकिन खराब लाइफस्टाइल और कई बीमारियां मस्तिष्क के लिए बड़ा खतरा बन जाती हैं.

इस बीमारी का एक मुख्य कारण निष्क्रिय या अति सक्रिय थायराइड हो सकता है क्योंकि अगर एक मरीज में यदि उसका थायराइड निष्क्रिय होगा तो उसे शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस हो सकता है, या वह व्यक्ति एकाग्रता से परेशान हो सकता है. इसके अलावा यदि थायराइड बहुत अधिक सक्रिय होगा तो इसकी वजह से रोगी के अंदर बेचैनी, निष्क्रिय पिट्यूटरी ग्रंथि ,यकृत और गुर्दे की बीमारियां पैदा हो सकती हैं. इस बीमारी की वजह से रोगी को ब्रेन ट्यूमर तक होने की संभावना हो सकती है और अब धीरे-धीरे विश्व भर में यह मामले तेजी से बढ़ रहे हैं हालांकि ट्यूमर को सर्जरी के बाद हटाया जा सकता है.

डिमेंशिया में सिर में चोट लगना भी एक बहुत बड़ी समस्या है. विशेषज्ञ मानते हैं कि सिर में बार-बार चोट लगने से भी याददाश्त संबंधी समस्याएं, मानसिक असंतुलन की समस्या , आसान गणित को हल करने की समस्या और खराब एकाग्रता के कारण अकेलेपन की शिकायत बढ़ने लगती है. भारत जैसे देश में हम यह मान लेते हैं कि यह बढ़ती उम्र के साथ यह चोट लगने के वजह से ऐसा होता है लेकिन यदि हम इन समस्याओं को अनदेखा करते हैं तो रोगी के स्वास्थ्य पर भी इसका बहुत अधिक बुरा प्रभाव पड़ता है.

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वृद्ध व्यक्तियों में विटामिन बी 12 की कमी होना भी चिंता की बात है, क्योंकि विटामिन B12 हमारी तांत्रिका कोशिकाओं को स्वस्थ रखने में और मेगालोब्लास्टिक एनीमिया को रोकने में मदद करता है. इसके अलावा विटामिन बी 12 तंत्रिका कोशिकाओं में मौजूद अनुवांशिक पदार्थ डीएनए बनाने के लिए भी सहायक होता है. यदि व्यक्ति के शरीर में विटामिन बी 12 की कमी होती है तो इस वजह से रोगी को अवसाद चिड़चिड़ापन दृष्टि दोष भूलने की बीमारी और एकाग्रता की समस्या आने लगती है. इस समस्या से निपटने के लिए रोगी के आहार में अंडा ,मांस, मछली शामिल करना चाहिए.

दुनियाभर मे अगले वर्ष तक लगभग डिमेंशिया से 144 लाख लोगों की प्रभावित होने की संभावना है . इस बीमारी से निपटने के लिए विशेषज्ञों की उचित सलाह लेनी चाहिए और रोगियों की उचित देखभाल करनी चाहिए.

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