Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 2

मैं ने औटोरिकशा के बजाय बस से ही जाना ठीक समझा. एकांत से मुझे डर लग रहा था. बस  की भीड़ में शायद मेरा दुख अधिक तीव्रता धारण न कर पाए. मगर मेरा सोचना गलत था. भीड़भरी बस में भी मैं बिलकुल अकेली थी. मेरा दुख मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था.

‘बसस्टौप से धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए मैं घर पहुंची. मुझे देखते ही श्वेता दौड़ कर आई और मेरे गले लिपट गई, ‘ओह मां, कितनी देर लगा दी. मैं अकेली बैठी कब से बोर हो रही हूं.’

‘श्वेता, छोड़ो यह बचपना,’ मैं ने अपने गले से उस की बांहें हटाते हुए कहा.

मैं ने बेरुखी से उस के हाथ झटक तो दिए थे, पर तभी पुनीत की वह बात याद आई, ‘आप अपने व्यवहार से उसे किसी तरह का आभास न होने दें कि आप उस के बारे में सबकुछ जान चुकी हूं,’ सो, मैं ने सहज स्वर में कहा, ‘बेटे, जल्दी जा कर लेट जाओ, तुम्हें अभी भी बुखार है. थोड़ी देर में अंकित भी आता होगा, वह तुम्हें जरा भी आराम नहीं करने देगा.’

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श्वेता अपने कमरे में जा कर लेट गई. मैं एक पत्रिका ले कर पढ़ने बैठ गई, पर ध्यान पढ़ने में कहां था. मेरा मन तो किसी खुफिया अधिकारी की तरह श्वेता के पिछले व्यवहार की छानबीन करने लगा. वह अकसर पुनीत की प्रशंसा किया करती थी. सो, हम भी उन की योग्यता के कायल हो चुके थे, क्योंकि पिछले साल की अपेक्षा इस साल श्वेता को कैमेस्ट्री में काफी अच्छे अंक मिले थे.

जब पढ़ाने की तारीफ से आगे बढ़ कर उस ने उन के व्यक्तित्व की तारीफ शुरू की, तब भी मुझे कुछ अजीब नहीं लगा था. मैं सोचती, 14-15 वर्ष की उम्र यों भी सिर्फ योग्यता तोलने की नहीं होती. यदि वह उन्हें स्मार्ट कहा करती है  तो यह गलत नहीं. ऐसे ही शब्द तो इस उम्र में किसी के व्यक्तित्व को नापने का पैमाना होते हैं.

जब मैं उम्र के इस दौर से गुजर रही थी, मुझे भी अपनी शिक्षिका देविका कोई आसमानी परी मालूम होती थीं. मेरी मां और बाबूजी अकसर कहा करते थे, ‘इसे हमारी कोई बात समझ में ही नहीं आती, लेकिन वही बात अगर देविका कह दें तो तुरंत मान लेगी.’

यह तो बहुत बाद में समझ आया कि देविका भी औरों की तरह साधारण सी महिला थीं. मुझे महसूस होने वाला उन का पढ़ाने का जादुई ढंग उन के अपने बच्चों पर बेअसर रहा था. उन के दोनों बेटे क्लास में मुश्किल से ही पास होते थे.

बस, इसी तरह श्वेता का भी पुनीत का अतिरिक्त गुणगान करना मुझे जरा भी संदेहजनक नहीं लगा था.

दरवाजे की डोरबैल जोर से बज रही थी. शायद अंकित आ गया था. मैं ने भाग कर दरवाजा खोला.

अंकित को दूध का गिलास पकड़ा कर मैं रात के खाने की तैयारी में लग गई. श्वेता की समस्या ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया था, मगर फिर भी सोच लिया था कि जैसे भी हो, यह बात मैं इन के कानों में नहीं पड़ने दूंगी. इन का प्यार भी असीम था और गुस्सा भी. इन्हें यदि इस पत्र के बारे में पता चल जाता, तो शायद श्वेता को सूली पर चढ़ा देते.

शाम को ये लगभग 8 बजे घर पहुंचे. श्वेता और अंकित में किसी बात पर झगड़ा हो रहा था. टीवी जोरजोर से चल रहा था. इन्होंने आते ही पहले टीवी औफ किया, फिर बच्चों को जोरदार आवाज में डांटा. जब कोलाहल बंद हुआ तब मुझे खयाल आया कि मैं अपने विचारों में किस कदर खोई हुईर् थी.

‘क्या बात है, कुछ परेशान सी लग रही हो, बच्चों को इन की शैतानियों के लिए डांट नहीं रही हो?’ इन्होंने पास आ कर पूछा.

‘लीजिए, अब डांटना ही हमारे स्वस्थ होने का परिचायक हो गया. क्या मैं चुपचाप बैठी आप को अच्छी नहीं लग रही?’ मैं ने शरारत से पूछा.

‘नहीं, बिलकुल अच्छी नहीं लग रही हो. बच्चों की आवाजें, टीवी का शोर और इन सब से ऊपर तुम्हारी आवाज हो, तभी मुझे लगता है कि मैं अपने घर आया हूं’, इन्होंने नहले पे दहला मारा.

खाना खाते समय श्वेता खामोश ही रही. उस के पास सुनाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वह स्कूल जो नहीं गई थी. फिर भी एकाध बार पुनीत की तारीफ करना नहीं भूली.

योजना के मुताबिक अगले दिन पुनीत हमारे घर आए. श्वेता उन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘सर, आप? यहां कैसे? आप को कैसे पता चला कि मैं यहां रहती हूं? मैं बीमार थी, क्या इसीलिए मुझे देखने आए हैं?’ उस ने सवालों की झड़ी लगा दी.

पुनीत मुसकराते हुए बोले, ‘हां भई, मैं इस तरफ किसी काम से आया था, सोचा, तुम से भी मिलता चलूं. पता तो तुम ने ही मुझे दिया था.’

‘ओह, हां. मुझे तो याद ही नहीं रहा.’ श्वेता के चेहरे पर खुशी झलक रही थी. टीवी पर फिल्म चल रही थी. श्वेता फिल्म देखते हुए हमेशा अपनेआप को भी भूल जाती थी, मगर अब उसे फिल्म से भी कोई मतलब नहीं था. उस की दुनिया तो जैसे पुनीत में ही सिमट आई थी.

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‘सर, आप क्या खाएंगे?’ श्वेता इठला कर पूछ रही थी.

‘जो आप बना लाएं,’ उन्होंने शरारती स्वर में कहा.

‘जी, मैं तो सिर्फ चाय बना सकती हूं.’

‘जी हां, मैं तो भूल ही गया था, आप तो छोटी सी बच्ची हैं, आप को भला क्या बनाना आता होगा.’

श्वेता को हंसते देख उसे गुस्सा आ रहा था.

मैं रसोई में जा कर नमकीन, मठरी और गुलाबजामुन ले आई.

‘अरे, आप तो बहुत कुछ ले आईं,’ पुनीत शिष्टता से बोले.

‘कहां बहुत कुछ है सर, आप यह लीजिए. मैं आप के लिए पकौडि़यां तल कर लाती हूं.’

‘ नहीं भई, इतना काफी है,’ कहते हुए पुनीत अपने बारे में बताने लगे कि वे एक गरीब परिवार से हैं. पिता रिटायर्ड हैं, 2 छोटी बहनें और 1 भाई अभी पढ़ रहे हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.

हमारी योजना के मुताबिक ही वे अपने परिवार के हालात के बारे में जानबूझ कर बता रहे थे. यह वास्तविकता भी थी और कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी बताई जा रही थी, ताकि इस कठोर धरातल की ओर बढ़ते हुए श्वेता के नाजुक पांव अपनेआप कांप उठें.

इस घटना के 2-3 दिनों बाद मैं पुनीत से मिलने स्कूल गई. इस बार हम ने स्कूल के बाहर एक स्थान और समय निश्चित कर लिया था. वे आए और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा कर चले गए. डर था कि कहीं श्वेता हमें न देख ले. पत्र कुछ इस प्रकार था :

आदरणीय सर,

\आप मेरे पत्रों के उत्तर क्यों नहीं देते? क्या मैं आप को सुंदर नहीं लगती या अपनी गरीबी की वजह से ही आप आगे बढ़ने में डर रहे हैं? सर, जब से मुझे आप की आर्थिक स्थिति का पता चला है, आप की कर्तव्यभावना देख कर मेरे मन में आप के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया है. कृपया मुझे अपना लें. मैं आप का पूरापूरा साथ दूंगी. नमक के साथ सूखी रोटी खा कर भी दिन गुजार लूंगी. आप का परिवार मेरा परिवार है. हम मिलजुल कर यह जिम्मेदारी उठाएंगे.

आप की,

श्वेता.

पत्र पढ़ कर मैं ने सिर पीट लिया कि सारी योजना बेकार चली गई. नमक के साथ रोटी वाली बात पढ़ कर तो बेहद हंसी आई. खाने में पचासों नुक्स निकालने वाली श्वेता को मैं कल्पना में भी सूखी रोटी खाते हुए नहीं देख सकती थी. गरीबी उस के लिए सिर्फ फिल्मी अनुभव के समान थी. गरीबी का फिल्मीरूप जितना लुभावना होता है, असलियत उतनी ही जानलेवा. काश, श्वेता यह सब जान पाती.

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2-3 दिन श्वेता अनमनी सी रही, फिर कुछ सहज हो गई. 10-15 दिनों से पुनीत का भी कोई फोन नहीं आया था. हम ने तय कर लिया था कि श्वेता यदि उन्हें कोई पत्र लिखती है तो वे पहले मुझे फोन से खबर देंगे. मुझे लगने लगा कि पुनीत की बेरुखी या गरीबी की वजह से श्वेता अपनेआप ही संभल गई है.

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Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 3

उस रात मैं कई दिनों बाद निश्चिंत हो कर सोई. सुबह उठी तो सब से पहले श्वेता के कमरे की ओर गई. श्वेता गहरी नींद में थी, लेकिन उस के गोरे गालों पर आंसुओं के निशान थे. लगता था, जैसे वह देररात तक रोती रही थी. मेज पर कैमेस्ट्री की कौपी रखी थी. मैं ने खोल कर देखा तो उस में से एक पत्र गिरा. सलीमअनारकली, हीररांझा आदि के उदाहरण सहित उस में अनेक फिल्मी बातें लिखी हुई थीं.

लेकिन उस पत्र की अंतिम पंक्ति मुझे धराशायी कर देने के लिए काफी थी. ‘सर, यदि आप ने मेरा प्यार स्वीकार न किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगी.’

मैं भाग कर श्वेता के निकट पहुंची. उस की लयबद्ध सांसों ने मुझे आश्वस्त किया. फिर मैं ने उस की अलमारी की एकएक चीज की छानबीन की कि कहीं कोई जहर की शीशी तो उस ने छिपा कर नहीं रखी है, लेकिन ऐसी कोई चीज वहां नहीं मिली. मेरा धड़धड़ धड़कता हुआ कलेजा कुछ शांत हुआ. लेकिन चिंता अब भी थी.

मेरी नजरों के सामने अखबारी खबरें घूम गईं. एकतरफा प्रेम के कारण या प्रेम सफल न होने के कारण आत्महत्या की कितनी ही खबरें मैं ने तटस्थ मन से पढ़ी, सुनी थीं. लेकिन अब जब अपने ऊपर बीत रही थी, तभी उन खबरों का मर्मभेदी दुख अनुभव कर पा रही थी.

मुझे बरसों पहले की वह घटना याद आई जब कमरे में घुस आई एक नन्ही चिडि़या को उड़ाने के प्रयत्न में मैं पंखा बंद करना भूल गई थी. चिडि़या पंखे से टकरा कर मर गईर् थी. उस की क्षतविक्षत देह और कमरे में चारों ओर बिखरे कोमल पंख मुझे अकसर अतीत के गलियारों में खींच ले जाते, और तब मन में एक टीस पैदा होती.

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श्वेता के संदर्भ में उस चिडि़या का याद आना मुझे बड़ा अजीब लगा. मैं ने स्कूल में पुनीत को फोन किया. मेरी कंपकंपाहटभरी आवाज सुन कर शायद वे मेरी दुश्चिंता भांप गए और बोले, ‘धीरज रखिए, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आप के घर आऊंगा.’

निश्चित समय पर पुनीत आए. मैं जितनी बेचैन थी, वे उतने ही शांत लग रहे थे.

मैं ने कहा, ‘आप को सुन कर अवश्य आश्चर्य होगा, पर मैं आज कुछ अलग ही तरह की बात कहने जा रही हूं,’ मैं ने अपनेआप को स्थिर कर के कहा, ‘आप श्वेता से शादी कर लीजिए, कहीं वह प्रेम में पागल हो कर आत्महत्या न कर ले.’ यह कहतेकहते फफकफफक कर रो पड़ी.

‘अपनेआप को संभालिए. श्वेता अभी बच्ची है मेरी छोटी बहन के समान. उस की उम्र अभी शादी की नहीं, सुनहरे भविष्य के निर्माण की है, जिस की आधारशिला हमें अपने हाथों से रखनी होगी.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन आज उस ने पत्र लिखा है, जिस में…’

‘वह पत्र उस ने मुझे दिया है, आप घबराएं नहीं. जब तक मैं उसे नकारात्मक उत्तर नहीं दूंगा, तब तक कुछ नहीं होगा. अभी तक मैं ने उस के प्रेम को स्वीकारा नहीं है, तो नकारा भी नहीं है.’

‘लेकिन यह स्थिति कब तक कायम रहेगी?’ मैं ने पूछा.

‘अधिक दिन नहीं,’ वे बोले, ‘यह तो हम जान ही चुके हैं कि श्वेता का ऐसी हरकतें करना कुछ तो उस की किशोर उम्र का परिणाम है और कुछ फिल्मों का मायावी संसार उसे यह सबकुछ करने को उकसाता रहा है, क्योंकि वह फिल्में देखने की बहुत शौकीन है.’

‘जी हां, मगर फिल्म और वास्तविकता के बीच का फर्क उसे समझाएं तो कैसे. और समझ में आने पर भी क्या प्यार का भूत उस के सिर से उतर जाएगा?’

पुनीत कहीं और देख रहे थे, जैसे उन्होंने मेरा प्रश्न सुना ही न हो, फिर एकाएक बोल पड़े, ‘अब आप निश्चिंत रहिए. उस का यह फिल्मी तिलिस्म फिल्मी ढंग से ही टूटेगा.’ और वे चले गए.

मेरे मन में आया कि पति से इतनी गंभीर बात छिपा कर मैं कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं. मगर जब औफिस से लौटने पर इन का थकाहारा चेहरा देखती तो बस, यही लगता कि इन के सामने ऐसी गंभीर समस्या न ही रखूं. यदि मैं अपने स्तर पर यह समस्या सुलझा सकूं तो बहुत अच्छा होगा और फिर पुनीत का पूरा साथ है ही. दूसरी बात, इन के गुस्से का भी क्या ठिकाना. यदि गुस्से में आ कर इन्होंने कोई कठोर कदम उठाया तो श्वेता न जाने क्या कर बैठे.

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गनीमत यही थी कि पुनीत बहुत चरित्रवान थे. यदि वे छिछोरे युवकों जैसे होते तो हम कहीं के न रहते.

अगले दिन पुनीत हमारे घर फिर आए. श्वेता हमेशा की तरह बेहद खुश हुई. अब वे अकसर ही हमारे घर आने लगे. शायद श्वेता को इस बात से विश्वास हो चला था कि वे भी उसे चाहते हैं.

जब भी वे आते, अपने बारे में कुछ न कुछ ऊलजलूल बोलते चले जाते.

श्वेता कहती, ‘सर, यह चश्मा आप पर बहुत फबता है,’ तो कहते, ‘जानती हो, इस का नंबर है माइनस फाइव. 35 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते मैं अंधा हो जाऊंगा.’

श्वेता भी उन की बातों से कुछ ऊबती हुई नजर आती.

एक रोज वे घर पर आए. ठीक उसी वक्त फ्यूज उड़ जाने से   बिजली चली गई. श्वेता उन से बोली, ‘मैं फ्यूज वायर ला देती हूं, आप जोड़ दीजिए.’

‘मैं और फ्यूज?’ वे इस तरह घबराए, जैसे कोई अनोखी बात सुन ली हो, ‘श्वेता, फ्यूज तो दूर, मैं बिजली का मामूली से मामूली काम भी नहीं जानता. करंट लगने से मैं बेहद डरता हूं.’

श्वेता ने उन की ओर आश्चर्य से देखा, ‘सर, फ्यूज तो मैं भी जोड़ लेती हूं. बस, मीटर बोर्ड कुछ ऊंचा होने के कारण आप से कह रही हूं.’

श्वेता ने मेज पर स्टूल रखा और फ्यूज ठीक कर दिया. पुनीत यह सब खामोशी से देख रहे थे.

रात को खाना खाते समय श्वेता हंसतेहंसते यह घटना अपने पिताजी को सुना रही थी. इतना लंबाचौड़ा युवक और फ्यूज सुधारने जैसा साधारण काम नहीं कर सकता. उस की हीरो वाली छवि को इस घटना से बड़ा धक्का लगा था. पर उस रोज मैं न हंस पाई. मैं जानती थी कि पुनीत ने जानबूझ कर ऐसी हरकत की थी.

एक रोज उन्होंने एक और मनगढ़ंत घटना सुनाई कि जब वे कालेज में पढ़ते थे, एक चोर घर के अंदर घुस आया. वे चुपचाप सांस रोके लेटे रहे. चोर अलमारी में रखे 5-7 सौ रुपए ले कर भाग गया. श्वेता उन की ओर अविश्वास से ताकती रही, फिर बोली, ‘कुछ भी हो, आप को उसे पकड़ने की कोशिश तो करनी ही चाहिए थी. आप के साथसाथ समाज का भी कुछ भला हो जाता.’

‘समाज के लिए मरमिटूं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं,’ वे बोले. फिर कुछ क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘समाज हमारे लिए क्या करता है? यों तो लोग दहेज विरोधी बातें भी खूब करते हैं, पर मैं क्यों न लूं दहेज? क्या समाज मेरी बहनों की मुफ्त में शादी करवा देगा?’

श्वेता कुछ नहीं बोली, अपने सपनों के राजकुमार की खंडित प्रतिमा को वह किसी तरह जोड़ नहीं पा रही थी.

उस के कुछ दिन बड़ी मानसिक ऊहापोह में गुजरे. फिर एक रोज उस ने शायद अपने कमजोर मन पर विजय पा ही ली.

एक दिन वह बोली, ‘मां, कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं?’

‘कैसे?’ मैं उस के प्रश्न का रुख समझ रही थी, फिर भी पूछ लिया.

‘देखने में बड़े आदर्शवादी, समाज सुधारक और बड़ीबड़ी बातें करने वाले और अंदर से धोखेबाज, मक्कार और झूठे हैं. जैसे, जैसे पुनीत सर.’ आंसू छिपाती हुई वह अपने कमरे में चली गई. मुझे उस के दिए हुए ये विशेषण बिलकुल अच्छे नहीं लगे. मैं सोच रही थी कि मेरी बेटी को सही राह पर लाने वाला व्यक्ति सिर्फ महान, समझदार और व्यवहारकुशल हो सकता है और कुछ नहीं.

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मैं ने उसे समझाया, ‘बेटी, दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं. सभी हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप  नहीं होते. वे जैसे भी होते हैं, अपनी जगह पर सही होते हैं. इसलिए उन्हें बुराभला कहना ठीक नहीं.’

श्वेता ने मुझ से बहस नहीं की, पर धीरेधीरे उस का पुराना रूप लौटने लगा. मैं खुश थी.

एक दिन पुनीत का फोन आया कि श्वेता अब उन्हें पत्र नहीं लिखती, उन से दूसरी छात्राओं की तरह  ही पेश आती है. तब मैं ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.

जिस तरह नाजुक हाथों से उलझे हुए रेशम को सुलझाया जाता है, उसी तरह नफासत से उन्होंने श्वेता के दिल की गुत्थी को सुलझाया था.

उस वर्ष वह जैसेतैसे द्वितीय श्रेणी ही पा सकी, जोकि स्वाभाविक ही था. लगभग पूरा वर्ष उस ने प्रेमवर्ष के रूप में ही तो मनाया था. पर उस के बाद वह पूरी तरह पढ़ाई में जुट गई. और अब उस का सपना भी पूरा हो गया.

श्वेता के डाक्टर बन जाने की खबर मैं पुनीत को देना चाहती थी, मगर देती कैसे? एक वर्ष पहले ही वे नौकरी छोड़ कर कहीं दूसरी जगह जा चुके थे. शायद महान व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, किसी तरह के श्रेय या जयजयकार की कामना से दूर, खामोशी से हर कहीं सुगंध बिखेरने वाले.

Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 1

चिकित्सा महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एमबीबीएस की डिगरी और 2 विषयों में स्वर्णपदक लेती हुई श्वेता को देख कर खुशी से मेरी आंखें भर आईं. वह कितनी सुंदर लग रही थी. गोरा रंग, मोहक नैननक्श. उस पर आत्मविश्वास और बुद्धिमत्ता के तेज ने उस के चेहरे को हजारों में एक बना दिया था.

मैं उस की मां हूं, क्या इसीलिए अपनी बेटी में इतना सौंदर्य देख पाती हूं? मैं ने एक निगाह अपने इर्दगिर्द बैठी भीड़ पर डाली तो पाया कई जोड़ी आंखें श्वेता को एकटक निहार रही हैं.

श्वेता की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. अपना लक्ष्य उस ने पा लिया था. मेरा मन गर्व से भर उठा. साथ ही एक चिंता ने हृदय के किसी कोने से हलके से सिर उठाया कि अब हमें उस के लिए वर की तलाश करनी होगी. सही समय पर सही काम होना ही चाहिए, यही सफल व्यक्ति की निशानी है.

बरसों पहले की बात याद आई. नन्ही श्वेता को पैरों पर झुलाते हुए मैं उसे रटाया करती, ‘वर्क व्हाइल यू वर्क, प्ले व्हाइल यू प्ले…’

श्वेता ने यह कविता अच्छी तरह रट ली थी. जब वह अपनी तोतली आवाज में इसे सुनाती तो मैं भावविभोर हो जाती. मगर क्या इस का सही अर्थ वह समझ पाई थी.

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10वीं कक्षा में पहुंचते ही वह पढ़ाई और कैरियर की नींव बनाने की उम्र में राह भटक गई थी. अनजाने प्रदेश की ओर बढ़ते हुए उस के क्रमश: दूर जाते हुए कदमों की पद्चाप को मैं मां हो कर भी पहचान नहीं पाई थी. यदि वह नेक व्यक्ति मुझे उस बात की सूचना न देता तो न जाने श्वेता का क्या होता, क्या होता हम सब का, यदि उस की जगह कोई और होता तो…

मुझे वह दिन याद आया, जब दोपहर की डाक से वह पत्र मिला था :

मीनाजी,

जितनी जल्दी संभव हो, स्कूल आ कर मुझ से मिल लें. कृपया इस बात को गुप्त रखें. श्वेता को भी इस बारे में कुछ न बताएं.

-पुनीत.

वह नाम मेरे लिए कतई अपरिचित नहीं था. 3-4 महीनों से श्वेता के मुख से वह नाम सुनतेसुनते हमें ही नहीं, शायद पड़ोसियों को भी रट गया था. मगर मैं सोचने लगी कि यह पत्र… इस का मजमून ऐसी कौन सी बात की ओर इशारा कर रहा है, जोकि बेहद गोपनीय है, और शायद गंभीर भी. मेरा हृदय कांप उठा.

‘जैसेतैसे साड़ी लपेट कर मैं ने बालों को ढीलेढाले जूड़े की शक्ल में बांध लिया. श्वेता को उस दिन बुखार था, इसलिए वह स्कूल नहीं जा पाई थी. यह बात मेरे पक्ष में थी. उसे बता कर कि आवश्यक काम से बाहर जा रही हूं, मैं निकल पड़ी.

श्वेता के स्कूल की छुट्टी 4 बजे होती थी. मैं साढ़े 3 बजे ही स्कूल पहुंच चुकी थी. अभी मुझे आधा घंटा इंतजार करना था. मैं प्रवेशद्वार के समीप ही बैंच पर बैठ गई. इस तरह चोरीछिपे इंतजार करना मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, मगर करती भी क्या? बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. यदि वह श्वेता की पढ़ाई के संबंध में थी तो उस में गोपनीयता की क्या बात थी?

मासिक टैस्ट में उसे कैमेस्ट्री में अच्छे अंक मिलने लगे थे. हालांकि अन्य विषयों में वह कमजोर ही थी. 1-2 बार मैं ने इस बात के लिए उसे टोका भी था, मगर जोर दे कर कुछ नहीं कहा था. क्योंकि कैमेस्ट्री में उसे इंट्रैस्ट नहीं था, लेकिन अचानक इस वर्ष उस का इंट्रैस्ट देख कर मुझे मन ही मन बड़ा भला लगा था.

मेरी नींद पिछले महीने के टैस्ट के परिणाम के बाद भी नहीं खुली थी, अब अंगरेजी और फिजिक्स में उसे बहुत कम अंक मिले थे. उस समय भी मैं ने श्वेता को संबंधित विषयों में ध्यान देने की बस मामूली सी हिदायत ही दी थी.

हालांकि कुशाग्रबुद्धि श्वेता का अन्य विषयों में इतने कम अंक प्राप्त करना चिंता का विषय होना चाहिए था, परंतु मैं ने सोचा कि साल की शुरुआत ही है, धीरेधीरे वह सभी विषयों को गंभीरता से पढ़ने लगेगी. मैं सोचने लगी, क्या इन विषयों में कम अंक आने के कारण ही पुनीत ने मुझे बुलाया है? लेकिन भला उन्हें अन्य विषयों से क्या लेना? उन के विषय कैमेस्ट्री में तो श्वेता के बराबर ही अच्छे अंक आ रहे हैं.

‘विचारों के भंवर में मैं इस कदर डूब गई थी कि छुट्टी होने की घंटी भी मुझे सुनाई नहीं दी. जब क्लास से लड़कियों के झुंड बाहर निकलने लगे, तब मैं चौंकी. उसी समय देखा, सामने से एक युवक मेरी ओर चला आ रहा है.

‘क्या आप मीनाजी हैं?’ उस ने नम्रता से पूछा.

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मेरे हां कहने पर उस ने अपना परिचय दिया, ‘मैं, पुनीत हूं. आइए, हम पास वाले कौफीहाउस में कुछ देर बैठें. दरअसल, बात जरा नाजुक है, इस तरह सड़क पर बताना ठीक नहीं होगा.’

‘ठीक है,’ कहती हुई मैं उन के साथ चल दी. इस तरह अनजान व्यक्ति के साथ आना मुझे कुछ अजीब जरूर लग रहा था, पर गए बिना चारा भी नहीं था.

‘बगल में चलते हुए मैं ने पुनीत पर एक निगाह डाली. 6 फुट लंबा कद, गोरा रंग और आंखों पर चढ़ा चश्मा, जो उन के व्यक्तित्व को और भी अधिक प्रभावशाली बना रहा था. उन की आवाज धीर गंभीर थी.

शीघ्र ही हम कौफीहाउस पहुंच गए. कौफी का और्डर दे कर वे कुछ क्षणों के लिए चुप हो गए. चारों ओर नजर दौड़ा कर उन्होंने कमीज की जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाया, ‘पत्र है, श्वेता का, मेरे नाम.’

मैं ने थरथराते हाथों से पत्र ले कर पढ़ा. क्या नहीं था उस में, जन्मजन्मांतर का अटूट संबंध, रातरात भर जागते रहने का इजहार, याद, इंतजार, आरजू और न जाने कैसेकैसे शब्दों से भरा हुआ था वह पत्र.

पत्र पढ़तेपढ़ते मेरे आंसू निकल आए. ऐसा लगा, श्वेता की उच्चशिक्षा संबंधी सारी महत्त्वाकांक्षाओं का अंत हो गया. मेरी स्थिति को पुनीत भांप गए थे. वे कहने लगे, ‘यदि आप होश खो बैठेंगी तो श्वेता का क्या होगा.’

मैं ने उन की ओर देखा कि कहीं उन के इस वाक्य में मेरे प्रति उपहास तो नहीं, लेकिन नहीं, इस वाक्य का सहीसही अर्थ ही उन के चेहरे पर लिखा हुआ था. वे आगे बोले, ‘इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. दरअसल, श्रद्धा और प्रेम का अंतर हमें इस उम्र में समझ में नहीं आता. इसलिए आप इसे गंभीर अपराध के रूप में न लें. इसीलिए मैं ने आप से ही इस बारे में बात करना ठीक समझा. आप उस की मां हैं, उस के हृदय को समझ सकती हैं.’

‘परंतु ऐसा पत्र, जी चाहता है, उसे जान से मार डालूं.’

‘नहीं, आप इस बात को श्वेता को महसूस भी न होने दें कि आप को इस पत्र के बारे में सबकुछ मालूम है. हम इस समस्या को शांति से सुलझाएंगे. आप तो जानती ही हैं कि यदि अनुकूल परिस्थितियों में यह उम्र हवा का शीतल झोंका होती है तो प्रतिकूल परिस्थितियों में गरजता हुआ तूफान बन जाती है.’

‘आप कह तो ठीक ही रहे हैं,’ मैं ने मन ही मन उन के मस्तिष्क की परिपक्वता की सराहना की.

पुनीत से की गई 15-20 मिनट की बातचीत ने मेरे मन के बोझ को आंशिक रूप से ही सही, पर कुछ कम अवश्य किया था.

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‘क्या आप ने मनोविज्ञान पढ़ा है?’ मैं ने पूछा तो वे हंस पड़े, ‘जी, बाकायदा तो नहीं, परंतु हजारों मजबूरियों से घिरा हुआ मध्यवर्गीय घर है हमारा. मैं 5 भाईबहनों में सब से बड़ा हूं. सब की अपनीअपनी समस्याएं, उन के सुखदुख का मैं गवाह बना. उन का राजदार, मार्गदर्शक, सभी कुछ. मातापिता ने परिस्थितियों से शांतिपूर्वक जूझने के संस्कार दिए और इस तरह मेरा घर ही मेरे लिए अनुभवों की पाठशाला बन गया.’

उन के गजब के संतुलित स्वर ने मेरे उबलते हुए मन को मानो ठंडक प्रदान की.

‘तो योजना के मुताबिक, आप कल हमारे घर आ रहे हैं?’ मैं ने कहा और उन से विदा ली.

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रागविराग: भाग 2- कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

उस की आंखों में हलकी सी चमक आई.

‘‘उन के आशीर्वाद से ही तुम्हारा विवाह हो गया तथा जनार्दन का भी व्यवसाय संभल गया. मैं तो सब जगह से ही हार गया था,’’ पिता ने कहा.

एक दिन वह मां के साथ सत्संग आश्रम गई थी. वहां उमाशंकर भी आए हुए थे इसलिए बहुत भीड़ थी. सब को बाहर ही रोक दिया गया था. जब उन का नंबर आया तो वे अंदर गईं. भीतर का कक्ष बेहद ही सुव्यवस्थित था. सफेद मार्बल की टाइल्स पर सफेद गद्दे व चादरें थीं. मसनद भी सफेद खोलियों में थे. परदे भी सफेद सिल्क के थे. उमाशंकर मसनद के सहारे लेटे हुए थे. कुछ भक्त महिलाएं उन के पांव दबा रही थीं.

‘‘आप का स्वास्थ्य तो ठीक है?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी तो ठीक है, लेकिन क्या करूं भक्त मानते ही नहीं, इसलिए एक पांव विदेश में रहता है तो दूसरा यहां. विश्राम मिलता ही नहीं है.’’

शालिनी ने देखा कि उमाशंकरजी का सुंदर प्रभावशाली व्यक्तित्व कुछ अनकहा भी कह रहा था.

तभी सारंगदेव उधर आ गया.

‘‘तुम यहां कैसे? वहां ध्यान शिविर में सब ठीक तो चल रहा है न?’’

‘‘हां, गुरुजी.’’

‘‘ध्यान में लोग अधोवस्त्र ज्यादा कसे हुए न पहनें. इस से शिव क्रिया में बाधा पड़ती है. मैं तो कहता हूं, एक कुरता ही बहुत है. उस से शरीर ढका रहता है.’’

‘‘हां, गुरुजी मैं इधर कुरते ही लेने आया था. भक्त लोग बहुत प्रसन्न हैं. तांडव क्रिया में बहुत देर तक नृत्य रहा. मैं तो आप को सूचना ही देने आया था.’’

‘‘वाह,’’ गुरुजी बोले.

गुरुजी अचानक गहरे ध्यान में चले गए. उन के नेत्र मुंद से गए थे. होंठों पर थराथराहट थी. उन की गरदन टेढ़ी होती हुई लटक भी गई थी. हाथ अचानक ऊपर उठा. उंगलियां विशेष मुद्रा में स्थिर हो गईं.

‘‘यह तो शांभवी मुद्रा है,’’ सारंगदेव बोला. उस ने भावुकता में डूब कर उन के पैर छू लिए.

अचानक गुरुजी खिलखिला कर हंसे.

उन के पास बैठी महिलाओं ने उन से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने उन्हें संकेत से रोकते हुए कहा, ‘‘रहने दो, आराम आ गया है. मैं तो किसी प्रकार की सेवा इस शरीर के लिए नहीं चाहता. इस को मिट्टी में मिलना है, पर भक्त नहीं मानते.’’

‘‘पर हुआ क्या है?’’ मां को चैन नहीं था.

‘‘दाएं पांव की पिंडली खिसक गई है, इसलिए दर्द रहता है. कई बार तो चला भी नहीं जाता. शरीर है, ठीक हो जाएगा. सब प्रकृति की इच्छा है, हमारा क्या?’’

‘‘क्यों?’’ उन की निगाहें शालिनी के चेहरे पर ठहर गई थीं, ‘‘आजकल क्या करती हो?’’

‘‘जी घर पर ही हूं.’’

‘‘श्रीमानजी कहां हैं?’’

‘‘जी वे बौर्डर डिस्ट्रिक्ट में हैं, कोई अभियान चल रहा है.’’

‘‘तो कभीकभी यहां आ जाया करो.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ मां ने प्रसन्नता से कहा था. और फिर उस का सत्संग भवन में आना शुरू हो गया था.

उस दिन दोपहर में वह भोजन के बाद इधर ही चली आई थी. उसे गुरुजी ने अपने टीवी सैट पर लगे कैमरे से देखा तो मोबाइल उठाया और बाहर सहायिका को फोन किया, ‘‘तुम्हारे सामने शालिनी आई है, उसे भीतर भेज देना.’’

सहायिका ने अपनी कुरसी से उठते हुए सामने बरामदे में आती हुई शालिनी को देखा.

‘‘आप शालिनी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह चौंक गई.

‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है,’’ वह मुसकराते हुए बोली.

वह अंदर पहुंची तो देखा गुरुजी अकेले ही थे. उन की धोती घुटने तक चढ़ी हुई थी.

‘‘लो,’’ उन्होंने पास में रखी मेवा की तश्तरी से कुछ बड़े काजू, बादाम जितने मुट्ठी में आए, बुदबुदाते हुए उस की हथेली पर रख दिए.

‘‘और लो,’’ उन्होंने एक मुट्ठी और उस की हथेली पर रख दिए.

वह यंत्रवत सी उन के पास खिसकती चली आई. उसे लगा उस के भीतर कुछ उफन रहा है. एक तेज प्रवाह, मानो वह नदी में तैरती चली जाएगी. उन्होंने हाथ बढ़ाया तो वह खिंची हुई उन के पास चली आई. और उन के पांव दबाने लग गई. उन की आंखें एकटक उस के चेहरे पर स्थिर थीं और उसे लग रहा था कि उस का रक्त उफन रहा है.

तभी गुरुजी ने पास रखी घंटी को दबा दिया. इस से बाहर का लाल बल्ब जल उठा. उन की बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे पर कुछ तलाश कर रही थीं.

‘‘शालू, वह माला तुम्हारी गोद में गिरी थी, जो मैं ने तुम्हें दी थी. वह तुम्हारा ही अधिकार है, जो प्रकृति ने तुम्हें सौंपा है,’’ वे बोले तो शालू खुलती चली गई. फिर उमाशंकरजी को उस ने खींचा या उन्होंने उसे, कुछ पता नहीं. पर उसे लगा उस दोपहर में वह पूरी तरह रस वर्षा से भीग गई है. उसे अपने भीतर मीठी सी पुलक महसूस हुई. वह चुपचाप उठी, बाथरूम जा कर व्यवस्थित हुई फिर पुस्तक ले कर कोने में पढ़ने बैठ गई.

सेवक भीतर आया. उस ने देखा गुरुजी विश्राम में हैं. उस ने बाहर जा कर बताया तो कुछ भक्त भीतर आए. तब शालिनी बाहर चली गई. सही या गलत प्रश्न का उत्तर उस के पास नहीं था, क्योंकि वह जानती थी कि गलती उस की ही थी. उसे अकेले वहां नहीं जाना चाहिए था. पर अब वह क्या कर सकती थी? चुप रहना ही नियति थी, क्योंकि वह उस की अपनी ही जलाई आग थी, जिस में वह जली थी. किस से कहती, क्या कहती? वही तो वहां खुद गई थी. विरोध करती पर क्यों नहीं कर पाई? उस प्रसाद में ऐसा क्या था? वह इस सवाल का उत्तर बरसों तलाश करती रही. पर उस दिन सुलभा ने ही बताया था कि मां, मुंबई की पार्टियों में कोल्डड्रिंक्स में ऐसा कुछ मिला देते हैं कि लड़कियां अपना होश खो देती हैं. वे बरबाद हो जाती हैं. मेरी कुछ सहेलियों के साथ भी ऐसा हुआ है. ये ‘वेव पार्टियां’ कहलाती हैं, तब वह चौंक गई थी. क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? वह सोचने लगी कि कभीकभी वर्षा ऋतु न हो तो भी अचानक बादल कहीं से आ जाते हैं. वे गरजते और बरसते हैं, तो क्यारी में बोया बीज उगने लगता है.

फिर सब कुछ यथावत रहा. सुभाष भी जल्दी ही लौट आया. उसे आने के बाद सूचना मिली कि वह पिता बनने वाला है तो वह बहुत खुश हुआ और शालिनी को अस्पताल ले गया.

आगे पढ़ें- पर शालिनी भीतर से ही सहम गई थी. जब..

Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ

 

 

 

 

रागविराग: भाग 1- कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

विकास की दर क्या होती है, यह बात सुलभा की समझ से बाहर थी. वह मां से पूछ रही थी कि मां, विकास की दर बढ़ने से महंगाई क्यों बढ़ती है? मां, बेरोजगारी कम क्यों नहीं होती? मां यानी शालिनी चुप थी. उस का सिरदर्द यही था कि उस ने जब एम.ए. अर्थशास्त्र में किया था, तब इतनी चर्चा नहीं होती थी. बस किताबें पढ़ीं, परीक्षा दी और पास हो गए. बीएड किया और अध्यापक बन गए. वहां इस विकास दर का क्या काम? वह तो जब छठा वेतनमान मिला, तब पता लगा सचमुच विकास आ गया है. घर में 2 नए कमरे भी बनवा लिए. किराया भी आने लगा. पति सुभाष कहा करते थे कि एक फोरव्हीलर लेने का इरादा है, न जाने कब ले पाएंगे. पर दोनों पतिपत्नी को एरियर मिला तो कुछ बैंक से लोन ले लिया और कार ले आए. सचमुच विकास हो गया. पर शालिनी का मन अशांत रहता है, वह अपनेआप को माफ नहीं कर पाती है.

जब अकेली होती है, तब कुछ कांटा सा गड़ जाता है. सुभाष, धीरज की पढ़ाई और उस पर हो रहे कोचिंग के खर्च को देख कर कुछ कुढ़ से जाते हैं, ‘‘अरे, सुलभा की पढ़ाई पर तो इतना खर्च नहीं आया, पर इसे तो मुझे हर विषय की कोचिंग दिलानी पड़ रही है और फिर भी रिपोर्टकार्ड अच्छा नहीं है.’’

‘‘हां, पर इसे बीच में छोड़ भी तो नहीं सकते.’’

सुलभा पहले ही प्रयास में आईआईटी में आ गई थी. बस मां ने एक बार जी कड़ा कर के कंसल क्लासेज में दाखिला करा दिया था. पर धीरज को जब वह ले कर गई तो यही सुना, ‘‘क्या यह सुलभा का ही भाई है?’’

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‘‘हां,’’ वह अटक कर बोली. लगा कुछ भीतर अटक गया.

‘‘मैडम, यह तो ऐंट्रैंस टैस्ट ही क्वालीफाई नहीं कर पाया है. इस के लिए तो आप को सर से खुद मिलना होगा.’’

सुभाषजी हैरान थे. भाईबहन में इतना अंतर क्यों आ गया है? हार कर उन्होंने उसे अलगअलग जगह कोचिंग के लिए भेजना शुरू किया. अरे, आईआईटी में नहीं तो और इतने प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज खुल गए हैं कि किसी न किसी में दाखिला तो हो ही जाएगा.

हां, सुलभा विकास दर की बात कर रही थी. वह बैंक में ऐजुकेशन लोन की बात करने गई थी. उस ने कैंपस इंटरव्यू भी दिया था, पर उस का मन अमेरिका से एमबीए करने का था. बड़ीबड़ी सफल महिलाओं के नाम उस के होस्टल में रोज गूंजते रहते थे. हर नाम एक सपना होता है, जो कदमों में चार पहिए लगा देता है. बैंक मैनेजर बता रहे थे कि लोन मिल जाएगा फिर भी लगभग क्व5 लाख तो खुद के भी होने चाहिए. ठीक है किस्तें तो पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शुरू होंगी. फीस, टिकट का प्रबंध लोन में हो जाता है, वहां कैसे रहना है, आप तय कर लें.

रात को ही शालिनी ने सुभाष से बात की.

‘‘पर हमें धीरज के बारे में भी सोचना होगा,’’ सुभाष की राय थी, ‘‘उस पर खर्च अब शुरू होना है. अच्छी जगह जाएगा तो डोनेशन भी देना होगा, यह भी देखो.’’

रात में सुलभा के लिए फोन आया. फोन सुन कर वह खुशी से नाच उठी बोली, ‘‘कैंपस में इंटरव्यू दिया था, उस का रिजल्ट आ गया है, मुझे बुलाया है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘मुंबई जाना होगा, कंपनी का गैस्टहाउस है.’’

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‘‘कब जाना है?’’

‘‘इसी 20 को.’’

‘‘पर ट्रेन रिजर्वेशन?’’

‘‘एजेंट से बात करती हूं, मुझे एसी का किराया तो कंपनी देगी. मां आप भी साथ चलो.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा?’’

‘‘वे भी चलें तो अच्छा होगा, पर आप तो चलो ही.’’

सुभाष खुश थे कि चलो अभी बैंक लोन की बात तो टल गई. फिर टिकट मिल गए तो जाने की तैयारी के साथ सुलभा बहुत खुश थी.

सुभाष तो नहीं गए पर शालिनी अपनी बेटी के साथ मुंबई गई. वहां कंपनी के गैस्टहाउस के पास ही विशाल सत्संग आश्रम था.

‘‘मां, मैं तो शाम तक आऊंगी. यहां आप का मन नहीं लगे तो, आप पास बने सत्संग आश्रम में हो आना. वहां पुस्तकालय भी है. कुछ चेंज हो जाएगा,’’ सुलभा ने कहा तो शालिनी सत्संग का नाम सुन कर चौंक गई. एक फीकी सी मुसकराहट उस के चेहरे पर आई और वह सोचने लगी कि वक्त कभी कुछ भूलने नहीं देता. हम जिस बात को भुलाना चाहते हैं, वह बात नए रूप धारण कर हमारे सामने आ जाती है.

उसे याद आने लगे वे पुराने दिन जब अध्यात्म में उस की गहरी रुचि थी. वह उस से जुड़े प्रोग्राम टीवी पर अकसर देखती रहती थी. उस के पिता बिजनैसमैन थे और एक वक्त ऐसा आया था जब बिजनैस में उन्हें जबरदस्त घाटा हुआ था. उन्होंने बिजनैस से मुंह मोड़ लिया था और बहुत अधिक भजनपूजन में डूब गए थे. उस के बड़े भाई जनार्दन ने बिजनैस संभाल लिया था. वहीं सुभाष से उन की मुलाकात और बात हुई. उस के विवाह की बात वे वहीं तय कर आए. उसे तो बस सूचना ही मिली थी.

तभी वह एक दिन पिता के साथ स्वामी उमाशंकर के सत्संग में गई थी. उन्हें देखा था तो उन से प्रभावित हुई थी. सुंदर सी बड़ीबड़ी आंखें, जिस पर ठहर जाती थीं, वह मुग्ध हो कर उन की ओर खिंच जाता था. सफेद सिल्क की वे धोती पहनते थे और कंधे तक आए काले बालों के बीच उन का चेहरा ऐसा लगता था जैसे काले बादलों को विकीर्ण करता हुआ चांद आकाश में उतर आया हो.

शालिनी के पिता उन के पुराने भक्त थे. इसलिए वे आगे बैठे थे. गुरुजी ने उस की ओर देखा तो उन की निगाहें उस पर आ कर ठहर गईं.

शालिनी का जब विवाह हुआ, तब उस के भीतर न खुशी थी, न गम. बस वह विवाह को तैयार हो गई थी. पिता यही कहते थे कि यह गुरुजी का आशीर्वाद है.

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विवाह के कुछ ही महीने हुए होंगे कि सुभाष को विशेष अभियान के तहत कार्य करने के लिए सीमावर्ती इलाके में भेजा गया. शालिनी मां के घर आ गई थी.

तभी पिता ने एक दिन कहा, ‘‘मैं सत्संग में गया था. वहां उमाशंकरजी आने वाले हैं. वे कुछ दिन यहां रहेंगे. वे तुम्हें याद करते ही रहते हैं.’’

आगे पढ़ें- उस की आंखों में हलकी सी चमक आई.

Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ- भाग 1

लेखक- राजेश कुमार सिन्हा

आज सुबह उठते ही अनुज ने यह तय कर लिया था कि वह औफिस नहीं जाएगा, बस पूरे दिन आराम करेगा या कोई अच्छी सी साहित्यिक पत्रिका पढ़ेगा. इस से थोड़ा मानसिक तनाव कम हो जाएगा, यही सोच कर उस ने सब से पहले अपने सीनियर और सहकर्मी दोनों को ही मैसेज कर दिया और फिर अनमने मन से चाय बनाने की तैयारी करने लगा.

अनुज को किचन में जाना बिलकुल पसंद नहीं था. जब तक कोमल उस के साथ थी, वह शायद ही कभी किचन में गया था, पर उस के जाने के बाद से उस के पास किचन में न जाने का कोई विकल्प नहीं था.

पिछ्ले 5 महीनों से वह लंच कैंटीन में और डिनर पास के होटल में कर लेता था, पर चाय या कुछ लाइट स्नैक्स के लिए किचन में आना उस की मजबूरी थी.

अनुज जब बहुत छोटा था, तभी उस के मातापिता का देहांत एक सड़क दुर्घटना में हो गया था और उस की परवरिश उस की बूआ ने की थी, जो उसे बहुत प्यार करती थी, इसलिए वहां उस के जिम्मे कोई काम नहीं था. फिर कालेज और आगे की पढ़ाई उस ने होस्टल में रह कर की थी, जहां सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं. ऐसे में न तो उसे कोई काम करने का मौका मिला और न ही उस ने कभी ऐसी रुचि दिखाई.

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नौकरी शुरू करने के कुछ ही दिन बाद कोमल उस की जिंदगी में आ गई, फिर तो मानो उस की जिंदगी में पर लग गए…

वह इन्हीं खयालों में डूबा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बजी. फोन औफिस से ही था. उस ने फोन उठा लिया और बातें करने लगा. बातचीत लंबी चली और जब बात खत्म हुई, तब तक आधी चाय उबल कर नीचे आ चुकी थी. उसे बहुत गुस्सा आया और चाय पीने का मूड जाता रहा. तभी उसे खयाल आया कि अगर अभी कोमल यहां होती तो अब तक उसे दोबारा चाय मिल चुकी होती…

कोमल का खयाल आते ही वह गुस्से से भर गया. बेमन से उस ने टैलीविजन चालू कर दिया और अपने पसंदीदा चैनल की खोज में फटाफट चैनल बदलने लगा. तभी उसे याद आया कि वह जब भी ऐसा करता था तो कोमल उसे डांट दिया करती थी.

“क्या कर रहे हो, न खुद कुछ देखते हो और न दूसरों को देखने देते हो, मुझे पता है कि तुम गुस्से में हो, पर अपना गुस्सा इस पर क्यों निकाल रहे हो, कुछ खराब हो जाएगा तो बिना मतलब ही खर्च करना पड़ जाएगा. लाओ रिमोट… मुझे दो,” और वह रिमोट उस के हाथ से ले लिया करती थी.

“तुम्हें कैसे पता कि मैं गुस्से में हूं?”

“मुझे सब पता चल जाता है,” यह कह कर वह जोर से हंस दिया करती थी. उस की हंसी में मेरा गुस्सा न जाने कहां चला जाता था.

आज पता नहीं क्यों उसे कोमल की याद बारबार आ रही थी. वह उसे चाह कर भी भूल नहीं पा रहा था. अचानक उस के जेहन में कोमल से हुई उस की पहली मुलाकात का पूरा दृश्य किसी फिल्म की तरह घूमने लगा.

अनुज को एमबीए करते ही मुंबई की एक नामचीन एमएनसी में नौकरी मिल गई थी, और उस की कंपनी ने उसे रहने की सुविधा भी दे रखी थी, इसलिए वह बिलकुल टेंशन फ्री था. उस की बूआ भी यह जान कर बहुत खुश थीं क्योंकि मुंबई में मूल समस्या रहने की ही होती है.

अनुज को फ्लैट अंधेरी में मिला हुआ था और उस का औफिस नरीमन पाइंट में था और दोनों ही लोकेशन ऐसे थे कि उसे आनेजाने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी.

अनुज अपने व्यवहार और कुशल कार्यशैली के कारण कुछ ही समय में अपनी कंपनी में काफी लोकप्रिय हो गया था. उस की बौस उस के परफार्मेंस का उदाहरण दूसरों को दिया करती थीं.

एक दिन उस के बौस ने उसे बताया कि उस की कंपनी एक नया प्रोडक्ट लौंच करने वाली है, जिस की मार्केटिंग टीम को उसे ही लीड करना है. साथ ही, उस ने यह भी कहा कि उसे उस ऐड कंपनी से भी कोआर्डिनेट करना होगा, जिसे उस प्रोडक्ट का विज्ञापन तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है, ताकि सबकुछ दिए गए टाइम फ्रेम में हो सके.

यह सुन कर अनुज बहुत खुश हुआ और इस ने यह जानकारी अपनी बूआ को भी दी.

अगले दिन ही उसे ऐड कंपनी के औफिस जाने को कहा गया, जो अंधेरी में ही था, जहां उसे टीम लीडर कोमल शर्मा से मिलना था. साथ ही, उस की बौस ने उसे कोमल का नंबर भी दे दिया, ताकि औफिस ढूंढ़ने में अगर कोई परेशानी हो तो वह उस से बात कर सके.

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अनुज लंच के बाद अपने औफिस से निकला और बड़ी आसानी से ऐड कंपनी के औफिस में पहुंच गया. कुछ देर इंतजार करने के बाद औफिस ब्वाय ने उसे मीटिंग रूम तक पहुंचा दिया.

मीटिंग में कोमल के अलावा 2 और लोग थे पारुल और नवनीत, एक आम परिचय के बाद ऐड कैंपेन पर लंबी बातचीत चली. बीचबीच में अनुज अपनी बौस को भी अपडेट करता रहा.

टी ब्रेक में थोड़ी पर्सनल बातचीत भी हुई. अनुज ने अपने बारे में विस्तार से बताया और यह भी कहा कि वह इस प्रोजैक्ट को ले कर काफी उत्साहित है और यह चाहता है कि यह पूरी तरह से सफल हो जाए.

कोमल ने भी उसे एश्योर किया कि उस की पूरी टीम अपना बेस्ट देगी, भले ही हमें शार्ट नोटिस पर ही मिलना क्यों न पड़े.

अनुज ने धीरे से कहा कि वह बैचलर है, इसलिए उसे लेट सीटिंग से भी कोई दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि वह अंधेरी में ही रहता है.

इस पर कोमल ने मुसकराते हुए कहा कि बैचलर तो वह भी है और अंधेरी में ही रहती है. अगर जरूरत पड़ती है तो वह भी लेट सीटिंग को तैयार है.

उस दिन मीटिंग काफी देर तक चली. कोमल भी उस के साथ ही औफिस से निकली. दोनों कुछ दूर तक साथ ही रहे.

कोमल ने उसे बताया कि वह मूल रूप से राजस्थान की है, पर वह बौर्न ऐंड ब्रेट अप यहीं की है. उस के पापा का यहां अपना बिजनेस है.

अनुज ने भी उसे अपने बारे में बताया और फिर दोनों अलगअलग आटो ले कर निकल गए.

घर पहुंच कर अनुज बहुत देर तक इस प्रोजैक्ट के बारे में सोचता रहा. अगर वह इस में सफल हो जाता है तो जाहिर है, उस के कैरियर को अच्छा ग्रोथ मिल सकता है. उसे कोमल भी काफी अच्छी लगी. अपने काम की एक्सपर्ट, सुलझी हुई, मिलनसार और विनम्र भी, ठीक वैसी ही जैसी वह लाइफ पार्टनर चाहता है. उसे खुद पर हंसी भी आ गई, क्याक्या सोच लिया उस ने.

दूसरे दिन औफिस पहुंच कर उस ने अपनी बौस को पूरी जानकारी दी और उन्होंने अनुज के काम की प्रशंसा करते हुए कहा कि वह बाकी चीजों को छोड़ कर अभी सिर्फ इस प्रोजैक्ट पर ध्यान दे, क्योंकि कंपनी इसे अगले महीने ही बाजार में लाना चाहती है और इस के लिए अगर उसे हफ्तेभर अंधेरी में ही बैठना पड़े तो भी चलेगा, पर काम समय से पहले पूरा हो जाना चाहिए.

अनुज ने उन्हें बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा, “मैडम, प्लीज ट्रस्ट मी, आप ने जो ट्रस्ट मेरे ऊपर किया है, उसे कभी टूटने नहीं दूंगा, मेरे लिए भी यह एक चैलेंज की तरह है, जिसे मैं सही तरीके से अंजाम तक पहुंचा के ही कोई दूसरा काम करूंगा.”

“मुझे तुम पर पूरा ट्रस्ट है अनुज, तभी तो मैं ने इस के लिए तुम्हें सेलेक्ट किया है और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे.”

“बिलकुल नहीं मैडम, मैं जानता हूं कि मेरे कुछ सीनियर इस बात को ले कर आप से नाराज भी हैं, फिर भी आप मेरे साथ हैं.”

“गौड ब्लेस यू अनुज, डोंट वरी फौर आल सच इसुज, तुम बस इस काम पर ध्यान दो.”

“थैंक्स मैडम,” अनुज ने बहुत संजीदगी से कहा और अपने काम में लग गया.

पूरा एक हफ्ता मार्केटिंग स्ट्रेटेजी बनाने और मीटिंग में निकल गया और अगला हफ्ता उस ने पूरी तरह से ऐड कंपनी के लिए फ्री रखा था, ताकि इस बार सबकुछ फाइनल कर के सेल्स हेड और सीईओ के लिए प्रेजेंटेशन रखा जा सके.

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उस ने कोमल को पहले से ही फोन कर के अपने 3 दिन का प्रोग्राम बता दिया था और कोमल ने भी उस से वादा किया था कि उस की तरफ से सबकुछ तैयार है और डेडलाइन के पहले ही वह उसे फाइनल कौपी सौंप देगा.

आगे पढ़ें- आखिर सभी की मेहनत रंग लाई और…

Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ- भाग 2

लेखक- राजेश कुमार सिन्हा

अगले सोमवार को अनुज सीधे कोमल के औफिस पहुंच गया और पूरे दिन वहीं रहा. उस ने महसूस किया था कि कोमल पहले की तुलना में उस से काफी फ्री हो गई थी. कोमल के लिए यह ऐड एक चैलेंज की तरह ही था और वह भी पूरी शिद्दत से उस काम में लगी हुई थी. आखिर सभी की मेहनत रंग लाई और जो ऐड तैयार हुआ, वह काफी आकर्षक था, जिसे ऐड कंपनी के डायरेक्टर ने भी देखते ही ओके कर दिया था. उस दिन भी अनुज और कोमल साथसाथ ही निकले, तो अनुज ने कहा,
“कोमल, आज तो एक कौफी बनती है मेरी तरफ से, आप ने बहुत मेहनत की है.”

“अच्छा… तो आप कौफी से ही काम चलाना चाहते हैं.”

“अरे नहीं, मैं तो आप की पूरी टीम को लंच दूंगा, बस. एक बार प्रोजैक्ट लौंच हो जाने दीजिए.”

“और डिनर मेरी तरफ से,” कोमल ने कहा.

“मैं तैयार हूं, चलिए इस की शुरुआत कौफी से करते हैं,” और दोनो कौफी कौर्नर में जा कर बैठ गए.

“आज मैं अपने पसंद की कौफी और्डर करती हूं, एनी प्रोब्लम?”

“बिलकुल नहीं.”

उस ने वेटर को बुला कर 2 कैफे मोचा और सैंडविच और्डर कर दिया और बोली,
“आज थोड़ी भूख सी लग रही है. आप को भी लग रही है क्या?”

“भूख तो नहीं है, पर शेयर जरूर करूंगा.”

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हम ने करीब आधा घंटा साथ बिताया. इस दरमियान हम ने एकदूसरे से काफी बातें शेयर कीं, मसलन हमारी रुचि, हमारी फैमिली,फ्यूचर प्लान आदि. मैं ने उसे बताया कि मुझे मुंबई काफी पसंद है और मैं शायद यहीं सैटल होना पसंद करूंगा. उस ने भी मुझे बताया कि उस के पास तो मुंबई के अलावा कोई औप्शन नहीं है और न ही उसे किसी और शहर में इंट्रेस्ट है.

कौफी खत्म होते ही हम बाहर आ गए और बात करतेकरते मेन रोड पर आ गए, जहां से हम दोनों ने आटो लिया और एकदूसरे को बाई कहते हुए अपनेअपने घर को निकल पड़े.

घर पहुंच कर अनुज काफी देर तक कोमल के बारे में ही सोचता रहा. उसे कोमल के बातचीत करने का अंदाज बहुत पसंद आता था. ऐसा लगता था मानो वह किसी करीबी से बात कर रहा हो. जरा सा भी ईगो नहीं है उस के पास, कौन कहेगा कि वह मुंबई जैसे महानगर में पलीबढ़ी है. काश, उसे ऐसी ही लाइफ पार्टनर मिल जाती. उस पूरी रात वह इन्हीं सब विचारों और कल्पनाओं में उलझा रहा.

सुबह औफिस पहुंचते ही अनुज ने सब से पहले मैडम फोन्सेका को फाइनल डमी दिखाई और उन को साथ ले कर प्रेजेंटेशन के लिए बोर्ड रूम में चला गया, जहां पहले से ही सेल्स हेड और सीईओ मौजूद थे. शुरुआत में अनुज थोड़ा नर्वस जरूर था, पर उस ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ प्रोडक्ट लौंच की मार्केटिंग स्ट्रेटजी और तैयार किए गए विज्ञापन के सारे डिटेल्स के बारे में बताया, जिस की सभी ने खुले मन से सराहना की. सीईओ ने तो उस की पीठ थपथपाते हुए कहा,
“यंग मैन यू हैव ए ब्राइट फ्यूचर कीप इट अप.”

अनुज की खुशी का ठिकाना नहीं था. औफिस के सभी लोग उस की तारीफ कर रहे थे. सब से ज्यादा खुश तो मिसेज फोन्सेका थीं, उन्हें अपने निर्णय पर बहुत गर्व हो रहा था.

अनुज ने सब से पहले इस के बारे में अपनी बूआ को बताया और फिर कोमल को, दोनों ही बहुत खुश हुए. कोमल ने तो लंच की डेट भी फिक्स कर दी.

नियत तारीख को प्रोडक्ट लौंच हो गया. उस का रैस्पोंस काफी अच्छा था. सभी लोग अनुज के परफोर्मेंस की तारीफ कर रहे थे.

अनुज ने कोमल की पूरी टीम के साथ लंच का प्रोमिस किया था, पर उस की टीम के 2 लोग छुट्टी पर थे, इसलिए लंच की डेट फिक्स नहीं हो पा रही थी. तो यह तय हुआ कि पहले डिनर वाली पार्टी हो जाए, फिर लंच कर लेंगे.

अगले फ्राइडे की रात अंधेरी के ही एक रेस्तरां में मिलना तय हुआ. उस दिन औफिस से सीधे डिनर पर जाने के बजाय वह पहले घर गया और फिर रेस्तरां पहुंचा.

अनुज के पहुंचने के कुछ ही देर बाद कोमल भी आ गई. उस ने दूर से ही हाथ हिलाया, तो कुछ देर के लिए वह उसे पहचान ही नहीं पाया, क्योंकि अब तक उस ने कोमल को साधारण ड्रेस में ही देखा था और आज वह साड़ी में थी. जब वह उस के करीब आई, तो कोमल ने ही कहा, “ऐसे क्यों देख रहे हैं आप? मैं साड़ी में हूं इसलिए, दरअसल, मुझे साड़ी बहुत पसंद है, पर औफिस में कोई नहीं पहनता तो मैं कैसे पहनूं?”

“सच कहूं, प्लीज, बुरा नहीं मानिएगा. बहुत अच्छी लग रही हैं, इसलिए नजर नहीं हट रही.”

“क्यों मेरा मजाक उड़ा रहे हैं? आप चलिए, अंदर चलते हैं.”

“अरे नहीं कोमलजी, सच कह रहा हूं.”

“चलिएचलिए, अंदर चलते हैं,” कहते हुए वह आगे बढ़ गई.

वैसे तो काफी लोग वेटिंग में थे, पर उस ने पहले से ही सीट रिजर्व करा ली थी, इसलिए हमें परेशानी नहीं हुई.

मैं ने बैठते ही कहा,
“कोमल, आप और्डर दे दीजिए. आप को इस का अच्छा आइडिया है.”

“फिर, मैं अपने पसंद का दूंगी,” उस ने हंसते हुए कहा.

“आप को जो पसंद है वही और्डर दीजिए.”

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उस ने एक सूप, एक स्टार्टर और मेन कोर्स का और्डर साथ में ही दे दिया. कुछ देर हम शांत रहे और फिर उस ने ही चुप्पी तोड़ी, “मैं भी आप के प्रोजैक्ट को ले कर काफी टेंस थी, पता नहीं कैसा रहेगा, पर आप की कम्पनी को हमारा काम पसंद आया. मुझे बहुत खुशी हुई.”

“आप लोगों ने भी काफी मेहनत की थी, तो जाहिर है कि इसे अप्रूवल मिलना ही था, वैसे आप कितने सालों से इस फील्ड में हैं.”

“मुझे 4 साल हो गए. मैं ने ग्रेजुएशन के बाद मास कम्युनिकेशंस में एडवांस डिप्लोमा किया और फिर जौब में आ गई.”

“आप के रिलेटिव्स भी मुंबई में ही हैं या राजस्थान भी जाना होता है आप का?”

“हमारे अधिकांश रिलेटिव्स मुंबई में ही हैं, पर राजस्थान से कनेक्शन है अभी भी. पर अकसर पापा ही जाते हैं. मेरा तो जाना नहीं होता.”

तब तक वेटर ने खाना सर्व कर दिया, पर हमारी बातचीत चलती रही.

“एक बात पूछ सकता हूं, बुरा तो नहीं मानेंगी?”

“पूछने के लिए इजाजत की जरूरत नहीं. आप पूछ सकते हैं.”

“आप का कोई बौयफ्रेंड तो होगा ही?”

“ऐसा कैसे कह सकते हैं आप?” उस ने मुस्कुराते हुए कहा.

“सौरी,अगर आप को बुरा लगा.”

“देखिए, आप जिस सेंस में पूछ रहे हैं उस सेंस में मेरा कोई बौयफ्रेंड नहीं… हां, काफी लड़के मेरे फ्रेंड हैं.”

“शादी के बारे में क्या सोचा है आप ने?”

“आप तो आज इंटरव्यू लेने के मूड मे हैं.”

-नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. बस, ऐसे ही पूछ लिया.”

“शादी तो करना चाहती हूं. कुछ लड़कों से इस सिलसिले में मिली भी हूं, पर उन्हें मेरे जौब को ले कर प्रोब्लम थी, इसलिए बात आगे नहीं बढ़ी.”

“कैसी प्रॉब्लम?”

“अनुज, मैं जिस फील्ड में हूं, वहां वर्किंग आवर फिक्स नहीं होता. कभीकभी देर रात तक क्लाइंट के या अपने औफिस में रहना पड़ता है, या कभीकभी मुंबई से हफ्तेपंद्रह दिन के लिए बाहर जाना होता है, क्लाइंट के साथ लंच या डिनर भी करना होता है. और हरेक लड़के को ऐसी लड़की अच्छी नहीं लगती. उन्हें हमारे कैरेक्टर पर शक होने लगता है, तो फिर शादी का औचित्य ही क्या रह जाता है.

“तो बेहतर है कि ऐसे लोगों से बात ही आगे नहीं बढ़ाई जाए. मुझे मेरा जौब बहुत पसंद है और मैं इसे न तो छोड़ सकती हूं और न चेंज कर सकती हूं.”

“कोमल, अगर मैं आप से यह कहूं कि मुझे आप के जौब से कोई परेशानी नहीं है, तो क्या आप मुझ से शादी करना चाहेंगी?

“मैं सीरियसली बोल रहा हूं, पता नहीं, यह सब कैसे बोल गया.”

कोमल ने पलभर के लिए खाना रोक दिया और मेरी आंखों में देखा, शायद उसे इस सवाल की उम्मीद नहीं थी या वह इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी.

कुछ देर के लिए सिर्फ हम दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. चुप्पी कोमल ने ही तोड़ी, “अनुज,जहां तक मैं आप को समझ पाई हूं कि मुझे आप एक अच्छे इनसान लगे, शायद इसीलिए मैं आप से इतना क्लोज भी हो गई, पर थोड़ा वक्त दीजिए, मैं अभी आप को इस का जबाब नहीं दे पाऊंगी.”

“कोमलजी, आप भी मुझे अच्छी लगीं, इसीलिए मैं ने अपने मन की बात आप से कह दी. अगर आप ना कह देंगी, तब भी जो रेस्पेक्ट आप के लिए है, वही रहेगा. आप यह भी जानती हैं कि एक बूआ के अलावा मेरा और कोई नहीं है.

“जी, आप ने बताया है.”

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तब तक हमारा डिनर भी हो चुका था. कोमल ने पहले किए गए वादे के अनुसार पेमेंट किया और हम दोनों रेस्तरां से बाहर निकले और वहीं से आटो ले कर अपने अपने घर लौट गए.

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Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ- भाग 3

लेखक- राजेश कुमार सिन्हा

घर पहुंच कर मैं बारबार उस क्षण के बारे में हीं सोच रहा था कि मैं कैसे यह सब बोल गया, जबकि मैं इस के लिए तैयार हो कर नहीं गया था. इस में कोई दोराय नहीं कि कोमल मुझे पसंद नहीं थी, पर इतनी जल्दी मैं उसे प्रपोज कर दूंगा, यह मैं ने सोचा भी नहीं था,आखिर मेरे में इतनी हिम्मत आई कहां से, यह मैं खुद समझ नहीं पा रहा था. इसी उधेड़बुन में कब मेरी आंख लग गई, मैं खुद समझ नहीं पाया.

अचानक मोबाइल के लगातार बजने वाले रिंगटोन से मेरी नींद खुल गई. सब से पहले मैं ने घड़ी की तरफ देखा, 12 बज रहे थे. अभी कौन फोन कर रहा है, देखा तो कोमल का फोन था, मैं ने तुरंत फोन लिया, “सो गए थे आप, माफ कीजिएगा कि मैं ने जगा दिया आप को.”

“अरे नहीं, बस आंख लग गई थी. आप ठीक से घर तो पहुंच गई थीं?”

-हां, कोई परेशानी नहीं हुई. वहां से तो पास में ही है मेरा घर, अनुज मैं ने घर पहुंच कर बहुत सोचा और मेरे दिल और दिमाग दोनों ने यही कहा कि आप जैसा शख्स अगर लाइफ पार्टनर हो तो जिंदगी सुकून के साथ गुजारी जा सकती है, मैं ने आप के बारे में अपने पेरेंट्स को बता दिया है और वे आप से मिलना चाहते हैं. कल आ सकते हैं तो आ जाइए. एड्रेस व्हाट्सएप कर देती हूं.”

“मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि क्या कभी ऐसा होता है कि इनसान जो चाहे वह उसे इतनी जल्दी मिल जाए,” मैं ने धड़कते हुए दिल को किसी तरह थामा और कहा, “थैंक्स कोमल, मेरे पास शब्द नहीं हैं, मैं क्या कहूं आप को बस यही सोच रहा हूं कि कैसे कल की सुबह तक इंतजार कर पाऊंगा. आता हूं कल 11 बजे तक…”

उस ने हंसते हुए कहा, “रात गुजरेगी तो सुबह ही आएगी, हां, कल हम सब साथ में लंच करेंगे. आप अब सो जाइए, रात काफी हो गई है. कल मिलते हैं, बाई, गुड नाइट.”

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“टेक केयर, गुड नाइट…
अचानक मैं खुद को दुनिया का सब से भाग्यशाली इनसान समझने लगा था और ईश्वर को न जाने कितनी बार थैंक्स बोल चुका था. मेरी आंखों से नींद गायब हो चुकी थी और मुझे कल उस के घर जाने को ले कर टेंशन हो रही थी, पता नहीं वे लोग क्या पूछेंगे?कैसा व्यवहार करेंगे? पता नहीं, मुझे यह खुशी मिलेगी भी या नहीं? ऐसे ही अनेक सवाल मुझे परेशान कर रहे थे और ऐसे में नींद आती भी तो कैसे. मैं ने टीवी चालू कर दिया और यों ही चैनल बदलने लगा. शायद किसी चैनल पर कोई पुरानी फिल्म आ रही थी और मैं उसे ही देखतेदेखते सो गया.

सुबह करीब साढ़े 8 बजे नींद खुली तो देखा टीवी औन ही था. फटाफट चाय बनाई और पेपर ले कर बैठ गया, पर पेपर पढ़ने का बिलकुल मूड नहीं हुआ, जेहन में सिर्फ कोमल ही घूम रही थी और मन ही मन उस के पैरेंट्स द्वारा पूछे जाने वाले काल्पनिक प्रश्नों का पूर्वाभ्यास कर रहा था. पता नहीं, क्यों ऐसा लग रहा था कि आज घड़ी की सूई आगे बढ़ ही नहीं रही है, साढ़े 10 बजते ही मैं ने अपना सब से लकी ड्रैस निकाला, जिसे पहन कर मैं ने जौब का इंटरव्यू दिया था और तैयार हो कर बिल्डिंग के नीचे आ गया. सामने ही एक आटो खड़ा था. मैं ने उसे जेबी नगर बोला और बैठ गया. साथ ही, कोमल को मेसेज भी कर दिया.

मुझे कोमल का फ्लैट खोजने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. वह अपार्टमेंट के नीचे आ गई थी. मुझे देखते ही उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया और लिफ्ट की तरफ बढ़ने लगी. उस का फ्लैट सातवें फ्लोर पर था. उस ने जैसे ही अपने घर की बेल दबाई, तो मेरे दिल की धड़कन तेज होने लगी. उस ने धीरे से कहा, “आल द बेस्ट” और मुसकराने लगी. दरवाजा उस की मम्मी ने खोला था.

“आ जाओ बेटा. हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे. मैं ने उन का अभिवादन किया और सोफे पर बैठ गया.

मुझे वे बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व की सौम्य सी महिला लगीं. मैं ने एक नजर हाल पर डाली. सबकुछ बहुत ही व्यवस्थित और करीने से सजा हुआ था. सारे फर्नीचर सफेद रंग के थे और उन की बनावट बहुत ही कलात्मक थी. इसी बीच कोमल मेरे लिए पानी ले कर आ गई, शायद वह समझ गई थी कि मुझे उस की जरूरत थी. मैं ने अपना गला तर किया, जिस से मुझे काफी राहत मिली.

मम्मी ने ही बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाया.

“तुम भी शायद अंधेरी में ही रहते हो?”

“हां आंटीजी, मैं वर्सोवा में रहता हूं. मेरी कंपनी ने मुझे फ्लैट दे रखा है.”

“और रहने वाले कहा के हो?”

“मैं भोपाल से हूं. सारी पढ़ाई भी वहीं से की है. मेरे पैरेंट्स की डेथ बहुत पहले ही हो गई थी. मेरी परवरिश बूआजी ने ही की है और उन का भी मेरे सिवा कोई नहीं है. वैसे तो और भी रिश्तेदार हैं, पर मेरे ताल्लुकात उन से ज्यादा नहीं हैं. मैं ने गौर किया कि वे मेरे चेहरे को बड़े गौर से देख रही थीं. शायद उसे पढ़ने की कोशिश कर रही होंगी, तभी कोमल के पापा आते हुए दिखे. मैं ने खड़े हो कर उन का अभिवादन किया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, “यस यंग मैन, कैसे हो, बी रिलैक्सड.”

“ठीक हूं अंकल.”

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“मुझे तुम्हारे बारे में कोमल ने सबकुछ बताया था. सच कहूं, तो जितना भरोसा मुझे अपने उपर नहीं है उस से कहीं ज्यादा अपनी बेटी पर है. अगर इस ने तुम्हें पसंद किया है, तो जरूर कुछ सोच कर ही किया होगा.

“और मैं उस के हर डिसीजन में उस के साथ हूं. बस, एक बात कहना चाहता हूं कि कोमल मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी है. इस का दिल कभी मत दुखाना. बड़े प्यार से पाला है इसे, उन का चेहरा बता रहा था कि वे इमोशनल हो गए थे,” मैं ने धीरे से कहा.

“अंकल, आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं,भले ही कोमल से मेरी मुलाकात बहुत पुरानी नहीं है, पर इतना मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि इस से बेहतर पार्टनर मुझे नहीं मिल सकती.

“थैंक यू माई सन… गौड ब्लेस यू. तुम दोनों खुश रहो और मुझे क्या चाहिए,” तभी उस की मम्मी ने कहा.

“कोमल, अनुज को अपना घर दिखाओ तब तक मैं लंच की तैयारी करती हूं.”

कोमल मुझे ले कर अपने रूम में आ गई. वह बहुत खुश दिख रही थी. मैं ने ही कहा, “कोमल, आप की फैमिली कितनी अच्छी है.”

“सिर्फ मेरी ही नहीं अब वो आप की भी है, बाई द वे, ये आप आप क्या लगा रखा है.

“ओके… चलो सही कहा तुम ने, शायद मैं बहुत लकी हूं इसीलिए ईश्वर ने मुझे तुम से मिलवाया और तुम अब मेरी जिंदगी में शामिल होने जा रही हो.”

“तुम नहीं मैं भी लकी हूं. तुम रियली बहुत अच्छे हो. अनुज बूआजी को फोन करो ना, मम्मी को उन से बात करनी है और मुझे भी.”

मैं ने बूआ को फोन लगा कर उन्हें सारी बातें बताईं और फोन कोमल को दे दिया.

कोमल और उस की मम्मी ने काफी देर तक बूआ से बातचीत की, तब तक मैं उस के पापा से उन के बिजनेस और उन के परिवार के बारे में बात करता रहा.

मुझे वो काफी इंट्रेस्टिंग लगे, बिलकुल सहज सरल पर काफी अनुभवी. मम्मी और बूआ की बातचीत तकरीबन घंटेभर चली. फिर हम ने लंच किया. मेरे यह कहने पर कि खाना काफी स्वादिष्ठ है.”

मम्मी ने तुरंत कहा, “ऐसा है तो हर संडे तुम्हारा लंच हमारे साथ ही रहेगा, नो एक्सक्यूज प्लीज.”

“ओके आंटीजी, जैसा आप का आदेश.”

फिर मैं ने जब चलने की बात की तो उस के पापा ने मुझे ड्रॉप करने की बात की. पर, मेरे लाख मना करने के बावजूद वे नहीं माने, फिर तो सभी गाड़ी में बैठ गए.

गाड़ी कोमल ही ड्राइव कर रही थी. मैं उस की बगल में बैठा था और मम्मीपापा पीछे. उन्होंने मुझे मेरे अपार्टमेंट के पास छोड़ दिया. आज मानो मुझे जन्नत मिल गई थी. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था.

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मैं ने इस बारे में औफिस में किसी को नहीं बताया था, क्योंकि मैं उन्हें सरप्राइज देना चाहता था. इस के बाद से मैं काफी बदल सा गया था. औफिस में मेरी परफार्मेंस से सभी खुश थे. लगभग हरेक संडे को हम मिलते ही थे और घंटों बैठ कर अपने भावी जीवन के सपने संजोया करते थे.

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Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ- भाग 5

लेखक- राजेश कुमार सिन्हा

इसी सोचविचार में वह दिन भी आ गया, जिस दिन उसे मुंबई पहुंचना था. कोमल के पापा अपनी गाड़ी ले कर आ गए थे और अनुज को ले कर एयरपोर्ट पहुंच गए. नियत समय पर कोमल की फ्लाइट आ गई और वह कुछ ही देर में बाहर आ गई. उस ने दूर से ही चहकते हुए हाथ हिलाया और करीब आ कर सब से पहले अनुज से ही कहा था, “तुम्हें बहुत मिस किया मैं ने,” इस पर उस के पापा ने हंसते हुए कहा था कि फिर हम तो बेकार ही परेशान हो रहे थे.

एयरपोर्ट से निकल कर गाड़ी में बैठने तक के समय में ही कोमल ने पूरे एक महीने की रूटीन सुना डाली थी. उस की मम्मी ने जब कहा कि पहले उन के घर ही चलते हैं, तो कोमल ने मना कर दिया था कि नहीं, वह पहले अपने घर ही जाएगी.

घर पहुंचते ही सब से पहले कोमल ने बाहर से खाने का और्डर दे दिया और अस्तव्यस्त घर को ठीक करने मे लग गई. खाना आते ही दोनों ने खाना खाया और फिर कोमल ने उस के लिए बतौर गिफ्ट खरीदे गए. शर्ट, जींस, परफ्यूम का पैकेट देते हुए कहा, “यह सब मैं ने अपनी पसंद से खरीदा है. मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम्हें पसंद आएगा, मुझे पता है अनुज, तुम्हें बहुत तकलीफ हुई होगी, पर क्या करूं ऐसे मौके कम मिलते हैं, देखो ना अभी इस प्रोजैक्ट में मुझे कम से कम 2 हफ्ते और लगेंगे, तब जा कर यह कम्प्लीट होगा, बस थोड़ा सा और कोओपरेट कर दो, फिर मेरा पूरा समय तुम्हारे लिए होगा.

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“इटस ओके कोमल, बी हैप्पी.”

इस के बाद करीब 3 हफ्ते तक कोमल लगभग लेट ही आती थी, जबकि वह समय पर आ जाता था. कोमल यह महसूस करती थी कि अनुज उस से थोड़ा खिंचाखिंचा सा रहता है, पर अपनी तरफ से नौर्मल रहने की वह पूरी कोशिश करती थी.

कोमल को प्रोजैक्ट रिपोर्ट अगले संडे तक फाइनल करनी थी, जिस के लिए उसे संडे को औफिस जाना था और अनुज उस दिन मूवी देखने जाने के मूड में था, पर कोमल ने उस से कहा कि यह उस के कैरियर का सवाल है, इसलिए बस इस संडे तक वह बिजी है. उस के बाद कुछ दिन वह कोई नया काम नहीं लेगी.

नियत समय पर रिपोर्ट सबमिट हो गई. कोमल के काम को सभी ने सराहा और उसे प्रमोशन भी मिल गया.

कोमल ने अनुज से कहा कि एक दिन वर्किंग डे में ही छुट्टी लेते हैं और पूरे दिन बाहर घूमते हैं, पर अनुज ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी. उस रात डिनर के बाद कोमल ने अनुज से पूछ ही लिया, “अनुज, शायद तुम मुझ से नाराज हो. तुम्हारी परेशानी मैं समझ सकती हूं, पर क्या करूँ मैं उस औफर को छोड़ नहीं सकती थी.”

“नहीं, मैं नाराज नहीं हूं.”

“तुम झूठ बोल रहे हो. मैं समझ सकती हूं.”

“तो फिर पूछ क्यों रही हो?”

“मैं कितनी तुम्हें सचाई बता चुकी हूं, उन एक महीनों में शायद ही कोई दिन होगा, जिस दिन मैं ने तुम्हें मैसेज नहीं किया हो.”

“तो फिर गई ही क्यों थी, जब इतना प्यार था, तो जाना ही नहीं चाहिए था.”

“अनुज, मेरे औफिस में उस काम को मेरे अलावा और कोई नहीं कर सकता था, वह बहुत प्रेस्टीजियस कॉनट्रैक्ट था हमारी कंपनी के लिए.”

“मुझ से भी ज्यादा…”

“अनुज, तुम गलत समझ रहे हो. तुम से उस की तुलना कैसे हो सकती है? तुम मेरे लिए क्या हो, यह मुझे बताने की जरूरत थोड़े ही है.”

“इसीलिय शायद तुम ने मुझ से पूछने की भी जरूरत नहीं समझी कि तुम्हें सिंगापुर जाना भी चाहिए या नहीं.”


“अनुज, व्हाट डू यू मीन बाई पूछना यार, औफिस की जरूरत थी तो मुझे जाना था. हां, मैं ने तुम्हें तुरंत फोन इसलिए नहीं किया, क्योंकि मैं तुम्हें सरप्राइज देना चाहती थी.”

“क्यों पूछ लेती तो तुम्हारा कद छोटा हो जाता.”

“तुम बेवजह बात बढ़ा रहे हो. प्लीज, सो जाओ.”

“बात मैं ने शुरू की या तुम ने?”

“बेशक, मैं ने की, पर मुझे नहीं पता था कि तुम इस कदर भरे पड़े हो, छोटी सी बात को इतना बड़ा क्यों बना रहे हो? हम पतिपत्नी हैं, बौयफ्रेंडगर्लफ्रेंड नहीं. और हां, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, समझदार हो, फिर ये टिपिकल हसबैंड वाली लैंग्वेज क्यों बोल रहे हो?”

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“अच्छा… तो मैं टिपिकल हसबैंड टाइप हूं तो शादी ही क्यों की मुझ से?”

“अनुज, आई एम रियली सौरी. प्लीज, सो जाओ.”

“तुम सो जाओ. मुझे नींद नहीं आ रही है,” कह कर अनुज कमरे से बाहर आ कर ड्राइंगरूम में टीवी चालू कर बैठ गया.

2-3 दिन यों ही बगैर संवाद के गुजरा, जबकि कोमल पहल करती रही और सारी जिम्मेदारियां भी पूरी करती रही. एक दिन उस ने औफिस से ही फोन कर के अनुज को बताया कि मम्मी ने आज डिनर पर बुलाया है, तो मुझे उन की थोड़ी हेल्प करनी होगी, इसलिए वह पहले चली जाएगी और उसे औफिस से सीधे वहीं आने को कहा, तो अनुज ने कहा कि आज वर्कलोड ज्यादा है. उसे देर हो सकती है. अगर ज्यादा देर होगी तो वह नहीं भी आ सकता है.

इस पर कोमल ने कहा कि कोई फर्क नहीं पड़ता हम लोग वेट कर लेंगे. तुम जरूर आ जाना. दरअसल, अनुज वहां जाना नहीं चाहता था, इसलिए उस ने वर्कलोड का बहाना बना दिया और सीधे होटल से खाना पार्सल ले कर घर चला गया.

इस बीच कोमल का कई बार फोन आया, पर वह सिर्फ मैसेज दे कर छोड़ देता था. करीब रात 11 बजे कोमल का मैसेज आया कि हम ने तुम्हारा काफी वेट किया और अब रात ज्यादा हो गई है, इसलिए मैं यहीं रुक जाती हूं. कल औफिस के बाद घर आ जाऊंगी. उस ने उस मैसेज का कोई जवाब नहीं दिया.

शाम को दोनों लगभग एक समय पर ही घर लौटे. कोमल ने रोज की तरह 2 कप चाय तैयार की और सोफे पर बैठ गई. उस ने अनुज से पूछा, “चाय के साथ कुछ और लोगे?”

“नहीं, आज मेरा चाय पीने का ही मूड नहीं है.”

“तो पहले बता देते, नहीं बनाती. कौफी लोगे?”

“नहीं, मेरा मूड नहीं है.”

“तुम्हारे मूड को अचानक क्या हो गया? औफिस में कुछ हुआ क्या?”

“नहीं, सब ठीक है.”

“फिर कोई तो वजह होगी?”

“तुम्हें सबकुछ बताना जरूरी है.”

“क्यों नहीं, मैं तुम्हारी बेटर हाफ हूं.”

“प्लीज, बहस मत करो. पीसफुली जीने दो.”

“इतना रूडली क्यों बोल रहे हो?”

“मैं ऐसा ही हूं.”

“तुम ऐसे बिलकुल नहीं हो, इसीलिए बुरा लगा.”

“हां ऐसा था नहीं, पर अब हो गया हूं और अगर कुछ दिन और तुम्हारे साथ रहा, तो शर्तिया पागल हो जाऊंगा.”

“मैं इतनी बुरी हूं अनुज तो फिर साथ रहने का क्या फायदा? मैं अपने पापा के घर चली जाती हूं. ऐसे भी हम लड़कियों का कोई घर तो होता नहीं ना.”

“ऐज यू विश,” कह कर अनुज वहां से निकल गया.

दूसरे दिन दोनों में कोई बात नहीं हुई. औफिस जाने के समय अनुज ने लंच का डब्बा भी नहीं लिया और बिना कुछ बोले निकल गया.

कोमल ने उसे फोन भी किया. उस ने न तो फोन लिया, न ही उस के मैसेज का जवाब दिया. शाम में भी दोनों में कोई बात नहीं हुई.

हां, अनुज ने उसे मैसेज दिया कि वह घर जा रहा है और फिर उसे दिल्ली के लिए निकलना है. शायद लौटने में एक हफ्ता लग सकता है. उस दिन कोमल मम्मी के पास चली गई.

हालांकि उस के मूड को देख कर मम्मी को कुछ संदेह हुआ, पर उन्होंने पूछा नहीं. एक हफ्ते में अनुज का कोई फोन तो नहीं आया, पर हां, एकदो मैसेज का जवाब जरूर दिया उस ने.

दिल्ली से लौटने की कोई सूचना उस ने नहीं दी और कोमल ने भी पहल नहीं की.

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हां, उस की मम्मी ने जरूर अनुज से बात की, पर उस का जवाब बिलकुल औपचारिक सा था. कोमल ने भी अपनी मम्मी को सबकुछ बता दिया और कहा कि जब तक अनुज लेने नहीं आएगा, वह नहीं जाएगी.

कोमल की मम्मी ने अनुज की बूआ को फोन किया था, तो उन की बातों से लगा कि उन्हें इस की कोई जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने बताना भी उचित नहीं समझा, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जैसे ही दोनों का गुस्सा शांत होगा, सबकुछ ठीक हो जाएगा.
इसी कशमकश में 5 महीने गुजर गए थे.

आज न जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था कि उस से बहुत बड़ी गलती हो गई है. माना कि उस ने सिंगापुर के बारे में पहले नहीं बताया तो क्या हुआ, ऐसा तो वह कई बार करता है कि सीधे घर पहुंच कर उसे बताता है कि रात 12 बजे की फ्लाइट से चेन्नई जाना है और कोमल बिना किसी सवाल के आधे घंटे में उस का बैग तैयार कर देती है, और वह इतनी बेरुखी से उस से क्यों पेश आया. वहां रह कर भी वह उस के लिए कितनी परेशान रहा करती थी. अगर वह अपने कैरियर को ले कर सीरियस है तो इस में बुराई क्या है. क्या वह अपने कैरियर को ले कर सीरियस नहीं है? क्या अपने” स्यूडो मेल इगो” को संतुष्ट करने के लिए कोमल जैसी लड़की के लिए ऐसा अमानवीय व्यवहार करना उचित था.

उसे आज ऐसा लग रहा था मानो उस से कोई जघन्य अपराध हो गया हो और वह इस के लिए कभी खुद को माफ नहीं कर पाएगा. उस ने बगैर और देर किए व्हाटसएप पर एक छोटा सा मैसेज लिखा, “कोमल, कमिंग टू यू – प्रोमिस आई विल चेंज माइसेल्फ”
और बिना जवाब का इंतजार किए कोमल के औफिस के लिए निकल पड़ा.

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