Big Brother Story- बड़े भैया: स्मिता अपने भाई से कौन सी बात कहने से डर रही थी?

रविवार की सुबह मेरे पास बड़े भैया का फोन आ गया, ‘‘शेखर, आज सीमा के हाथ के बने मूली के परांठे खाने का दिल कर रहा है. सीमा से कहना कि मसाले में मिर्च ज्यादा तेज न रखे.’’

उन के आने की खबर सुनने के बाद ही मेरे घर में बेचैनी और तनाव के बादल घिर आए. मेरे परिवार के तीनों सदस्य मुझे घेरने वाले अंदाज में मेरे इर्दगिर्द आ बैठे थे.

किसी के बोलने से पहले ही मेरे बेटे समीर ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दे दी, ‘‘पापा, आज आप ताऊजी को रूपाली के बारे में जरूर बता दो. इस मामले को और लटकाना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम सब अपने ताऊजी की आदत को जानते नहीं हो क्या?’’ मैं एकदम चिढ़ उठा, ‘‘वे जातिपांति और धर्मकर्म में विश्वास रखने वाले इनसान हैं. मांसमछली खाने वाली बंगाली लड़की से तेरे विवाह की बात सुन कर वे बहुत नाराज होंगे. शादी होने के 2 महीने पहले उन्हें खबर दे कर घर में फालतू का क्लेश कराने की कोई तुक बनती है क्या?’’

‘‘पापा, आप ताऊजी से इतना क्यों घबराते हैं?’’ मेरी बेटी अंकिता मुझ से नाराज हो उठी.

मेरी पत्नी सीमा भी अपने बच्चों का साथ देते हुए बोली, ‘‘हमें अपने बेटे की खुशी देखनी है या भाई साहब की? मैं तो कहती हूं कि जो क्लेश होना है, अभी हो जाए. बाद में खुशी के मौके पर घर में कोई हंगामा हो, यह हमें बिलकुल सहन नहीं होगा.’’

मैं परेशानी भरे अंदाज में हाथ मलते हुए भावुक हो कर बोला, ‘‘इस वक्त मेरी मनोदशा को तुम में से कोई भी नहीं समझ रहा है. बड़े भैया के बहुत एहसान हैं मुझ पर. उन्होंने अपनी व अपने बच्चों की सुखसुविधाओं में कटौती कर के मुझे पढ़ाया था. उन के लिए अपनी सीमित पगार में मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की फीस भरना आसान काम नहीं था. उन के फैसले के खिलाफ मैं न कभी गया हूं और न जाना चाहता हूं.’’

‘‘पापा, आप मुझे यह बताओ कि अगर आप पढ़ने में होशियार न होते तो क्या इंजीनियरबन पाते?’’ अंकिता मुझ से भिड़ने को तैयार हो गई थी.

‘‘मैं इतना भी होशियार नहीं था कि मुझे राज्य सरकार वजीफा दे कर पढ़वा देती. बड़े भैया ने आर्थिक कठिनाइयां झेल कर मेरी फीस दी उन के इस एहसान का बदला…’’

‘‘आप कब तक उन के उस एक एहसान के तले दबे रहेंगे?’’ सीमा ने मुझे ऊंची आवाज में टोक दिया, ‘‘आप ने पिछले 28 साल में क्या उन की कम आर्थिक सहायता की है? अभी 6 महीने पहले उन की बहू की डिलीवरी में क्या आप ने 20 हजार रुपए नहीं दिए थे?’’

‘‘मैं ने जो भी किया अपना फर्ज समझ कर किया है. मुझे अपने ढंग से इस समस्या को सुलझाने दो. कोई भी मुझ पर दबाव बनाने की कोशिश न करे,’’ सख्त लहजे में मैं उन्हें ऐसी चेतावनी दे कर अपने शयनकक्ष में चला आया था.

उम्र में मुझ से 12 साल बड़े भैया के सामने मैं कभी ऊंची आवाज में नहीं बोल सकता. वे मुझ से हमेशा आदेशात्मक लहजे में बात करते हैं लेकिन मैं ने भी कभी उन के यों रोब मारने का बुरा नहीं माना.

अब मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं तो सीमा का नजरिया भी बदल गया है. ये तीनों हमारे आपसी संबंधों के समीकरण को समझने में असमर्थ हैं. बड़े भैया को मैं जो इज्जत देता हूं, उसे मेरे बच्चे मेरी कायरता और दब्बूपन समझते हैं.

12 बजे के करीब बड़े भैया मेरे घर आ गए थे. दीवान पर आराम से लेट जाने के बाद उन्होंने मुझे हुक्म सुनाया, ‘‘शेखर, आज शाम हमें पिताजी के दोस्त ओमप्रकाशजी के यहां चलना है.’’

‘‘किस लिए जाना है उन के यहां?’’ पहले से तनावग्रस्त मेरा मन फौरन अजीब सी चिढ़ का शिकार हो गया था.

‘‘उन का हालचाल पूछने चलेंगे. दिल की तकलीफ के कारण वे हफ्ते भर अस्पताल में रह कर आए हैं.’’

‘‘पर बड़े भैया, हम उन का हालचाल पूछने क्यों जाएं? मैं ने उन्हें दसियों साल से देखा ही नहीं है. मुझे तो उन की शक्ल भी ढंग से याद नहीं है.’’

‘‘यह कैसी नासमझी की बात कर रहा है तू? पिताजी के दोस्त का हालचाल पूछने जाना हमारा कर्तव्य है,’’ उन्होेंने मुझे डपट दिया.

अपने मन की परेशानी के चलते मैं जिंदगी में पहली बार जानबूझ कर भैया की इच्छा के खिलाफ बोला, ‘‘भैया, मेरे पास न समय है न मैं उन से मिलने जाने की जरूरत समझता हूं. आप कार ले कर उन से मिलने अकेले चले जाना.’’

मेरा ऐसा रूखा सा जवाब सुन कर वे हक्केबक्के से रह गए. उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि उन के सामने हमेशा ‘हां, हां’ करने वाला उन का छोटा भाई कभी इस सुर में बात करेगा.

‘‘मैं रिकशा कर के चला जाऊंगा,’’ उन की सुस्त हो गई आवाज मुझे अंदर तक हिला गई.

मैं ने भी उन के दिल पर लगे जख्म पर मरहम लगाने की कोई कोशिश नहीं की. मैं उन्हें अब किसी तरह के भुलावे में नहीं रखना चाहता था. आगे चल कर मेरे बच्चों से उन्हें ज्यादा मानसम्मान नहीं मिलने वाला था. मैं चाहता था कि भैया बच्चों के हाथों भविष्य में मिलने वाले सदमे झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाएं.

तभी सीमा चाय ले कर आई तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘सीमा, तुम्हारे हाथ के बने मूली के परांठे खाए कई दिन हो गए थे. अब तुम्हारी भाभी से रसोई में ज्यादा काम नहीं होता. बहू के हाथ के बने परांठों में वह करारापन नहीं होता जो तुम्हारे हाथ के बने परांठों में होता है.’’

‘‘भाई साहब, आज तो मैं ने सुबह से ही सरसों का साग बनाने की तैयारी कर ली थी. परांठा खाने आप किसी और दिन आ जाइएगा,’’ सीमा ने बिना उन से नजरें मिलाए दबे स्वर में जवाब दिया तो भैया चौंक पड़े.

कुछ पलों की खामोशी के बाद भैया बनावटी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘चलो, आज साग ही खा लेते हैं. मतलब तो पेट भरने से है.’’

मैं ने नोट किया कि पल भर में उन की आंखें बुझीबुझी सी हो गई थीं. वे सीधे लेट कर छत को ताकते हुए भजन गाने लगे. यह सभी जानते हैं कि अपने मन की चिंता व दुखदर्द छिपाने के लिए बड़े भैया भजन गाने का सहारा लेते थे.

मुझ से और सहन नहीं हुआ तो मैं बैठक से उठ कर अपने कमरे में आ गया. अचानक ही मेरी आंखों में आंसू भर आए थे.

‘‘पापा, आप रूपाली के बारे में ताऊजी से कब बात करोगे?’’ मेरे पीछेपीछे समीर ने कमरे में आ कर तीखी आवाज में मुझ से यह सवाल पूछा तो मेरे सब्र का घड़ा फूट गया.

‘‘बंगाली लड़की से शादी करने का फैसला तुम ने किया है न? तो अपने ताऊजी से बात भी तुम ही करो. मैं किसी से कुछ कहनेसुनने नहीं जा रहा हूं,’’ मैं उस पर अचानक गुर्राया तो समीर सहम कर दो कदम पीछे हट गया था.

मैं ने फौरन उसे ‘सौरी’ कहा. उस ने मेरी आंखों में छलक रहे आंसू देखे तो परेशान हो कर बोला, ‘‘पापा, आप इतनी ज्यादा टैंशन मत लो, प्लीज. आप उन से अभी कुछ नहीं कहना चाहते हो तो इट इज ओके. अगर आप का ब्लडप्रैशर हाई हो गया तो सब के लिए परेशानी खड़ी हो जाएगी.’’

मैं ने आंखें मलते हुए उस से सुस्त आवाज में कहा, ‘‘मैं मौका देख कर आज ही भाई साहब से बात करूंगा. तुम कुछ देर के लिए उन के पास जा कर बैठो. मैं मुंह धो कर आता हूं.’’

भाई साहब से बंगाली लड़की को घर की बहू बना लाने की बात खुल कर कहने का फैसला कर के जब मैं फै्रश हो कर बैठक में पहुंचा तो वे वहां मौजूद नहीं थे.

मेरा दिल धक से रह गया. अपने घर वालों पर मुझे एकाएक बहुत गुस्सा आया और मैं ने ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘भाई साहब को बिना खाना खाए क्यों जाने दिया तुम लोगों ने?’’

अंकिता फौरन भागती हुई बैठक में आई और नाराज लहजे में बोली, ‘‘बिना बात के इतनी जोर से मत चिल्लाओ पापा. भैया ताऊजी को साथ ले कर बाजार तक गए हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘रसमलाई लाने के लिए.’’

‘‘ओह, मुझे लगा कि वे नाराज हो कर बिना खाना खाए ही चले गए हैं,’’ मैं आंतरिक तनाव कम करने के लिए अपनी कनपटियां मसलने लगा तो अंकिता अजीब नजरों से मुझे घूरती हुई वापस अपने कमरे की तरफ चली गई.

भाई साहब को रसमलाई बहुत पसंद है. मूली के परांठे न मिलने की पीड़ा रसमलाई खा कर कुछ तो कम होगी, ऐसा सोचते हुए मेरे होंठों पर छोटी सी मुसकान उभर आई थी.

सोफे पर बैठेबैठे मेरी कुछ देर को आंख लग गई थी. जब वे दोनों घंटे भर बाद बाजार से लौटे तो बड़े भैया ने मुझे हिला कर जगाया था.

आंखें खोलते ही मैं ने नोट किया कि बड़े भैया के तेवर चढ़े हुए थे और उन के पीछे खड़ा समीर मुंह पर उंगली रख मुझ से चुप रहने की प्रार्थना कर रहा था.

‘अब होगा घर में क्लेश,’ ऐसा सोचते ही मेरा दिल चिंता के मारे जोर से धड़कने लगा था.

‘‘छोटे, तू कौन से जमाने में जी रहा है?’’ उन्होंने बड़े सख्त लहजे में मुझ से सवाल पूछा.

‘‘मैं कुछ समझा नहीं, बड़े भैया,’’ मैं चौंक कर सीधा बैठ गया.

‘‘छोटी सी बात को ले कर घर में तकरार मचाने का क्या औचित्य है?’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने क्या क्लेश मचाया है?’’

‘‘अब ज्यादा बन मत. तुझे क्या ऐसा लग रहा था कि बात मेरे कानों तक कभी पहुंचेगी ही नहीं?’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘मेरे भाई, अगर समीर बंगाली लड़की से ब्याह कर भी लेगा, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? और शादी के खिलाफ अपना फैसला सुनाने से पहले तू ने मुझ से इस बात पर चर्चा क्यों नहीं की? आज मुझे तू यह बता ही दे कि घर में बड़ा मैं हूं या तू है?’’

‘‘बड़े तो आप ही हो, लेकिन…’’

‘‘जब बड़ा मानता है, तो ‘लेकिन’ का दुमछल्ला क्यों लगा रहा है? अब मुझे बता कि हम अपने बच्चों की खुशियों को ध्यान में रख कर इस शादी के बारे में फैसला लें या जात के चक्कर में फंस कर अपने समीर की खुशियों का गला घोंटें?’’

उन के सवाल को सुन कर मेरा मुंह हैरानी से खुला का खुला रह गया. साथ ही एक झटके में सारी बात मेरी समझ में आ गई थी.

मैं ने अंदाजा लगाया कि समीर ने उन्हें बताया था कि इस अंतर्जातीय विवाह के मैं खिलाफ हूं. मुझे खलनायक बना कर उस ने बड़े भैया को हीरो बनने का मौका दे दिया था.

अब होने वाले नाटक में जान डालने के लिए मैं भी फौरन तैयार हो गया. ‘‘भैया, उस लड़की को ढंग से हिंदी बोलनी नहीं आती,’’ मैं ने अपने माथे पर बल डाल कर इसशादी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया.

‘‘अरे, तो इन दिस हाउस किस का हैंड इज कमजोर इन इंगलिश?’’ बड़े भैया की इस हिंगलिश को सुन कर मेरे लिए हंसी रोकना कितना मुश्किल हो रहा होगा, इस का अंदाजा कोई भी लगा सकता है.

‘‘वह मछली खाती है और हम ब्राह्मण हैं.’’

‘‘तो छोड़ देगी वह मछली खाना.’’

‘‘बड़े भैया, आप समझ नहीं रहे हो. वह आजकल के जमाने की तेजतर्रार लड़की है. इसलिए हमारे घर के सीधेसादे माहौल में वह फिट नहीं हो पाएगी.’’

‘‘यार, तू कैसी बच्चों जैसी बातें कर रहा है? उसे अपने घर के रंग में ढालना तो हम लोगों के हाथ में है. वह साग खिलाए तो साग खा लेंगे…जब परांठे खिलाए, तो परांठे खा लेंगे. अगर रोज खाना बाजार से आने लगे तो तू भी खाना सीख लेना, मेरे भाई,’’ मुझे लगा कि यों मजाक कर के शायद बड़े भैया अपने को ही समझा रहे थे.

‘‘आप सारी बात मजाक में मत लो, भैया.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं,’’ वह एकदम से संजीदा हो गए, ‘‘देख, अब हम जैसे रिटायर या रिटायरमैंट की तरफ बढ़ते लोग बच्चों के साथ नहीं चलेंगे… उन के साथ मिलजुल कर नहीं रहेंगे, तो घर में हमारा गुजारा होना मुश्किल हो जाएगा. अपने मानसम्मान व जातिपांति की दुहाई दे कर क्लेश करना और अपने बच्चों की खुशियों को दांव पर लगाना समझदारी की बात नहीं है. मेरा आदेश है कि इस शादी को ले कर तू घर में बिलकुल क्लेश नहीं करेगा.’’

‘‘जी, बड़े भैया,’’ अपनी आंखों में उभरी खुशी की चमक को उन से छिपाने के लिए मैं ने अपना सिर आज्ञा मानने वाले अंदाज में झुका लिया था.

‘‘देखा, तुम सब ने. कितना आज्ञाकारी है मेरा छोटा भाई. मेरे समझाने पर भी यह अपना फैसला नहीं बदलेगा, ऐसा सोच कर तुम सब खामखां ही परेशान हो रहे थे,’’ उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे प्यार से गले लगा लिया.

मैं भावविभोर हो उन की छाती से लग कर रो पड़ा. उन्होंने सब के सामने मुझ पर अपना रौब जमाने का यह मौका भी नहीं चूका और मुझे अगला आदेश दिया, ‘‘जब बात खुशी की हो रही है, तो यह लटका हुआ चेहरा नहीं चलेगा. चल, फटाफट सब को मुसकरा कर दिखा.’’

मैं फौरन दिल खोल कर मुसकराया था. आज मैं उन की समझदारी का कायल हो गया और मेरी नजरों में उन की इज्जत बहुत ज्यादा बढ़ गई थी.

Stranger- आंसू: आखिर कौन था वह अजनबी जिसने सुनीता की मदद की

‘‘कुमारी सुनीता, आप की पूरी फीस जमा है. आप को फीस जमा करने की आवश्यकता नहीं है,’’ बुकिंग क्लर्क अपना रेकौर्ड चैक कर के बोला. ‘‘मगर मेरी फीस किस ने जमा कराई है. वह भी पूरे 50 हजार रुपए,’’ सुनीता हैरानी से पूछ रही थी.

‘‘मैडम, आप की फीस औनलाइन जमा की गई है,’’ क्लर्क का संक्षिप्त सा उत्तर था. वह हैरानपरेशान कालेज से वापस लौट आई. उस की मां बेटी का परेशान चेहरा देख कर पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है बेटी?’’

‘‘मां, किसी व्यक्ति ने मेरी पूरी फीस जमा करा दी है,’’ वह हैरानी से बोली. ‘‘किस ने और क्यों जमा कराई?’’ सुनीता की मां भी परेशान हो उठी.

‘‘पता नहीं मां, कौन है और बदले में हम से क्या चाहता है?’’ बेटी की परेशानी इन शब्दों में टपक रही थी. उस की मां सोच में पड़ गई. आजकल मांगने के बाद भी मुश्किल से 5-10 हजार रुपए कोई देता है वह भी लाख एहसान जताने के बाद. इधर ऐसा कौन है जिस ने बिना मांगे 50 हजार रुपए जमा करा दिए. आखिर, बदले में उस की शर्त क्या है?

‘‘खैर, जाने दो जो भी होगा दोचार दिनों में खुद सामने आ जाएगा,’’ मां ने बात को समाप्त करते कहा. दोनों मांबेटी खाना खा कर लेट गईं. सुनीता की मां एक प्राइवेट हौस्पिटल में 4 हजार रुपए मासिक पर दाई की नौकरी करती है. आज से 15 साल पहले एक रेल ऐक्सिडैंट में वह पति को खो चुकी थीं. तब सुनीता मुश्किल से 5-6 साल की रही होगी. तब से आज तक दोनों एकदूसरे का सहारा बन जी रही हैं. सुनीता को पढ़ाना उस का एक फर्ज है. बेटी बीए कर रही थी.

सुनीता ने अपने पिता को इतनी कम उम्र में देखा था कि उसे उन का चेहरा तक ठीक से याद नहीं है. कोई नातेरिश्तेदार इन से मिलने नहीं आता था. ऐसे में यह कौन है जो उस की फीस भर गया? दोनों मांबेटी की आंखों में यह प्रश्न तैर रहा था. पिता के नाम के स्थान पर दिवंगत रामनारायण मिश्रा लिखा था मगर वे कौन थे और कैसे थे, इस की चर्चा घर में कभी नहीं होती थी. मगर आज…

सुनीता के चाचा, मामा, मौसा या किसी दूसरे रिश्तेदार ने आज तक कभी एक रुपए की मदद नहीं की, ऐसी स्थिति में इतनी बड़ी रकम की मदद किस ने की. बहरहाल, सुनीता उत्साह के साथ पढ़ाई में जुट गई. दोचार वर्षों में वह बैंक, रेलवे या कहीं भी नौकरी कर के घर की गरीबी दूर कर देगी. वह मां को इस तरह खटने नहीं देगी. मां ने विधवा की जिंदगी में काफी कष्ट झेला है.

सुनीता उस दिन अचकचा गई जब उस के प्राचार्य ने उसे एक खत दिया. और कहा, ‘‘बेटी, आप के नाम यह पत्र एक सज्जन छोड़ गए हैं, आप चाहें तो इस पते पर उन से संपर्क कर सकती हैं या फोन पर बात कर सकती हैं.’’ ‘‘जी, धन्यवाद सर,’’ कह कर वह उन के कैबिन से बाहर आ गई और सीधा घर जा कर खत पढ़ा. उस में लिखा था, ‘‘बेटी, आप की फीस मैं ने भरी है, बदले में मुझे तुम से कुछ भी नहीं चाहिए, न ही तुम्हें यह पैसा लौटाना है.’’ नीचे उन के हस्ताक्षर और मोबाइल नंबर था.

सुनीता की मां ने जब वह नंबर डायल किया तो तुरंत जवाब मिला, ‘‘जी, आप सुनीता या उस की मां?’’ ‘‘मैं उस की मां बोल रही हूं. आप ने मेरी बेटी की फीस क्यों भरी?’’

‘‘जी, इसलिए कि मुझे इन के पिता का कर्ज चुकाना था.’’ वह संक्षिप्त उत्तर दे कर चुप हो गया. ‘‘ऐसा कीजिए आप मेरे घर आ जाइए.‘‘

‘‘ठीक है, रविवार को दोपहर 1 बजे मैं आप के घर आऊंगा,’’ कह कर उस व्यक्ति ने फोन काट दिया. रविवार को वह समय पर हाजिर हो गया. करीब 28-30 वर्ष का वह नौजवान आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था. वह बाइक से आया और सुनीता की मां को मिठाई का डब्बा दे कर नमस्कार किया.

सुनीता ने भी उसे नमस्कार किया और पास में बैठते हुए अपना प्रश्न दोहराया. ‘‘मैं ने फोन पर बताया तो था कि आप का ऋण चुकता किया है,’’ वह सरल स्वर में बोला था.

‘‘कैसा ऋण? दोनों मांबेटी चौंकी थीं. ‘‘ऐसा है कि रामनारायणजी ने मेरे पिताजी की 3 हजार रुपए की मदद की थी. उस के बाद मेरे पिताजी जब तक वह पैसा लौटाते तब तक रामनारायणजी गुजर चुके थे. परिवार का कोई ठिकाना नहीं था. मेरे पिताजी ने आप लोगों को बहुत ढूंढ़ा पर खोज नहीं पाए,’’ वह स्पष्ट स्वर में जवाब दे रहा था, मैं पढ़लिख कर नौकरी में आ गया और स्टेट बैंक की उसी शाखा में आ गया जहां आप लोगों का खाता है. साथ ही, वहीं सुनीता के कालेज का भी खाता है. मुझे यहीं आप का परिचय और आप की माली हालत का पता चला. मैं ने आप की मदद का निश्चय किया और फीस भर दी.’’

‘‘मगर आप अपनेआप को छिपा कर क्यों रखना चाहते थे,’’ यह सुनीता का प्रश्न था. ‘‘वह इसलिए कि मुझे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए था और जमाने को देखते हुए मुझे चलना था.’’

‘‘फिर सामने क्यों आए?’’ यह सुनीता की मां का प्रश्न था. ‘‘जब आप लोगों को परेशान देखा, खास कर आप का यह डर की पता नहीं इस आदमी की छिपी शर्त क्या है? मैं ने आप का ऋण चुकाया था, डराना मेरा पेशा नहीं है. सो, सामने आ गया.’’

अब उस के इस जवाब से वे दोनों मांबेटी, आश्चर्य से भर उठीं. ‘‘मैं अब निकलना चाहूंगा. आप लोग चिंता न करें. मैं ने अपने पिताजी का ऋण चुकाया है,’’ वह उठते ही बोला.

‘‘ऐसे कैसे? वह भी 3 हजार के 50 हजार रुपए?’’ अभी भी सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी. ‘‘3 हजार रुपए नहीं, उन 3 हजार रुपए से मेरे पिता ने मेरी जान बचाई, मेरा इलाज कराया. मैं जीवित हूं, तभी आज बैंक में काम कर रहा हूं. गरीबी की हालत में मेरे पिताजी की रामनारायणजी ने मदद की थी. आज मेरे पास सबकुछ है, बस, पिताजी नहीं हैं,’’ वह भावुक हो कर बोल रहा था.

‘‘फिर तुम यह पैसा वापस क्यों नहीं लेना चाहते?’’ यह सुनीता की मां का प्रश्न था. ‘‘उपकार के बदले प्रत्युपकार हो गया. सो कैसा पैसा?’’ वह स्पष्ट बोला.

‘‘फिर भी…’’ सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे? ‘‘कुछ नहीं आंटीजी, आप ज्यादा न सोचें. अब मुझे इजाजत दें,’’ इतना कह कर वह चल दिया.

दोनों मांबेटी उसे जाता देख रही थीं. इन की आंखों से खुशी के आंसू झर रहे थे. ‘‘मां, आज भी ऐसे लोग हैं,’’ सुनीता बोली.

‘‘हां, तभी तो वह हमारी मदद कर गया.’’ ‘‘मैं नौकरी कर के उन का पैसा वापस कर दूंगी,’’ वह भावुक हो कर बोली.

‘‘बेटी, ऐसे लोग बस देना जानते हैं, लेना नहीं. सो, फीस की बात भूल जाओ. हां, बैंक में मेरा परिचय हो गया है, काम जल्दी हो जाएगा,’’ मां के बोल दुनियादारी भरे थे. दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू थे जो एक ही वक्त में 2 अलग सोच पैदा कर रहे थे. मां जहां पति को याद कर रो रही थी जिन के दम पर आज 50 हजार रुपए की मदद मिली, वहीं बेटी को यह व्यक्ति फरिश्ता नजर आ रहा था. काश, वह भी किसी की मदद कर पाती. 50 हजार रुपए कम नहीं होते.

अब बस, दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे.

Hum Kisise Kum Nahin- हम किसी से कम नहीं: समीर ने मानसी के साथ क्या किया?

मानसी की समीर से लैंडलाइन फोन पर रविवार की सुबह 11 बजे बात हुई. दिल्ली से मेरठ आए समीर को अपने घर का रास्ता समझने में मानसी को ज्यादा कठिनाई नहीं हुई. मानसी के मम्मीपापा उस के बीमार मामाजी का हाल पूछने गए हुए थे. उस ने अपने पापा से उन के मोबाइल पर बात कर के उन्हें समीर के आने की सूचना दे दी.

‘‘हमें लौटने में अभी करीब घंटा भर लग जाएगा. तब तक तुम समझदारी से उस के साथ बात करो और उसे नाश्ता भी जरूर करा देना,’’ हिदायत दे कर उस के पापा ने फोन काट दिया.

मानसी की मम्मी की बचपन की सहेली शीला का बेटा है समीर, जो उसी से मिलने आ रहा था. अगर वे इस पहली बार होने वाली मुलाकात में एकदूसरे को पसंद कर लेते हैं, तो यह रिश्ता पक्का होने में कोई और रुकावट नहीं आने वाली थी.

समीर 10 मिनट बाद उस के घर पहुंच गया. अपने सामने 2 सुंदर, स्मार्ट लड़कियों को देख समीर सकुचाया सा नजर आने लगा.

‘‘मैं मानसी हूं और यह है मेरी सब से अच्छी सहेली शिखा,’’ दरवाजे पर अपना व अपनी सहेली का परिचय दे कर मानसी उसे ड्राइंगरूम में ले आई. उन के बीच कुछ देर मामाजी की बीमारी, मौसम व ट्रैफिक की बातें हुईं और फिर मानसी उठ कर चाय बनाने चली गई.

शिखा ने मुसकराते हुए उसे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखा और फिर हलकेफुलके लहजे में कहा, ‘‘जोड़ी तो तुम दोनों की खूब जंचेगी.

तुम्हें कैसी लगी पहली नजर में मेरी सहेली?’’

‘‘मैं तो कहूंगा कि तुम दोनों सहेलियां एकदूसरे से बढ़चढ़ कर सुंदर और स्मार्ट हैं,’’ समीर ने लगे हाथ दोनों सहेलियों की तारीफ कर डाली.

शिखा खुश हो कर बोली, ‘‘तुम तो काफी समझदार इंसान लग रहे हो. अच्छा यह बताओ कि तुम अपने कैरियर से खुश हो या आगे और कोई कोर्स वगैरह करोगे?’’

‘‘इंजीनियरिंग के बाद मैं ने एमबीए कर लिया है. अब और ज्यादा पढ़ने की हिम्मत नहीं है मुझ में.’’

‘‘लेकिन मेरी सहेली अभी और पढ़ कर सीए बनना चाहती है. क्या तुम उसे आगे पढ़ने की सुविधा दोगे?’’

‘‘उसे मेरा पूरा सहयोग मिलेगा.’’

‘‘यानी आप उस की हर इच्छा पूरी करने को हमेशा तैयार रहेंगे?’’ शिखा ने बड़ी अदा के साथ सवाल किया.

‘‘बिलकुल.’’

‘‘और ऐसा करने पर

अगर लोग तुम्हें जोरू का गुलाम कहने लगे तो?’’ शिखा की खिलखिलाती हंसी ड्राइंगरूम में गूंज उठी. समीर को झेंपते देख शिखा के ऊपर हंसी का दौरा ही पड़ गया. जब उस की हंसी थमी तब समीर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां, कहो.’’

‘‘तुम्हारी हंसी बहुत सैक्सी है.’’

समीर की इस टिप्पणी को सुन कर उस के गाल गुलाबी हो उठे. फिर वह फौरन संभली और नाराज होते हुए बोली, ‘‘अरे, तुम तो पहली मुलाकात में ही जरूरत से ज्यादा खुल रहे हो.’’

‘‘सौरी. प्रौब्लम यह है कि सुंदर लड़कियों को देख कर मैं जरा ज्यादा ही अच्छे मूड में आ जाता हूं,’’ समीर शर्मिंदा दिखने के बजाय शरारती अंदाज में मुसकरा रहा था.

‘‘यानी तुम सुंदर लड़कियों से फ्लर्ट करने के शौकीन हो?’’ शिखा ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

‘‘थोड़ाथोड़ा, पर यह बात अपनी सहेली को मत बताना.’’

‘‘मैं तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘तुम नहीं बताओगी.’’

‘‘यह बात इतने विश्वास से कैसे कह रहे हो?’’ शिखा ने तुनक कर पूछा.

‘‘देखो, मानसी से मेरी शादी होगी तो तुम मेरी प्रिय साली बनोगी. क्या तुम अपने भावी जीजा की चुगली कर उस के साथ अभी से संबंध खराब करना चाहोगी?’’

‘‘बातें बनाने में तो तुम पूरे उस्ताद लग रहे हो. अच्छा यह बताओ कि नौकरी कहां कर रहे हो?’’

‘‘एक मल्टीनैशनल कंपनी में.’’

‘‘कितनी पगार मिलती है?’’

‘‘कटकटा कर 60 हजार रुपये मिल जाते हैं.’’

‘‘और कितने साल से नौकरी कर रहे हो?’’

‘‘लगभग 3 साल से.’’

‘‘तब तो तुम ने बहुत माल जमा कर रखा होगा?’’

‘‘तुम्हें कभी लोन चाहिए तो मांग लेना,’’ समीर ने फौरन दरियादिली दिखाई.

‘‘लेने के बाद अगर मैं ने लोन वापस नहीं किया तो?’’

‘‘कोई बात नहीं. अपनी प्यारी सी साली के लिए लोन को गिफ्ट में बदल कर मुझे बहुत खुशी होगी.’’

शिखा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘मानसी बहुत सीधी और भोली लड़की है. मुझे नहीं लगता कि वह तुम्हारे जैसे तेजतर्रार और चालू इंसान के साथ शादी कर के खुश रहेगी.’’

‘‘अब यह शादी तो तुम्हें करानी ही पड़ेगी,’’ समीर ने फौरन नाटकीय अंदाज में उस के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘वह क्यों?’’ शिखा ने चौंक कर पूछा.

‘‘मैं तुम जैसी अच्छी साली को नहीं खोना चाहता हूं.’’

‘‘सिर्फ अच्छी साली पाने के लिए तुम किसी के भी साथ शादी कर लोगे?’’

‘‘तुम जैसी शानदार साली को पाने के लिए ऐसा खतरा उठाया जा सकता है.’’

‘‘ऐ मिस्टर, मुझ पर ज्यादा लाइन मत मारो, नहीं तो मानसी नाराज हो जाएगी.’’

‘‘तब तुम अपनी अदाओं से मुझे लुभाना बंद कर दो.’’

शिखा उसे कोई तीखा जवाब दे पाती, उस से पहले ही मानसी चायनाश्ते की ट्रे उठाए वहां आ पहुंची. उस ने चाय का कप समीर को पकड़ाते हुए संजीदे स्वर में कहा, ‘‘मैं तुम दोनों की बातें रसोई में खड़ी सुन रही थी. मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है. क्या तुम शादी के बाद अपनी भावी पत्नी के प्रति वफादार रह सकोगे?’’

समीर ने फौरन लापरवाह अंदाज में जवाब दिया, ‘‘इस मामले में मैं कुछ नहीं कह सकता. मेरा मानना है कि जबरदस्ती कोई किसी से प्यार नहीं कर सकता.’’

‘‘वाह, क्या बात कही है,’’ शिखा ने फौरन उस के डायलौग की तारीफ की.

‘‘लेकिन मेरा मानना है कि एक बार शादी हो गई तो उस पवित्र रिश्ते को हमें जीवन भर निभाना चाहिए,’’ मानसी ने उसे अपना मत बता दिया.

‘‘जीवनसाथी अगर गले का फंदा बन जाए तो रिश्ता तोड़ देने में भी कोई बुराई नहीं है,’’ समीर ने उस की बात सुनने के बाद भी अपना नजरिया नहीं बदला था.

‘‘वाह, क्या बात कही है,’’ शिखा फिर बीच में बोल पड़ी.

‘‘तुम मेरी तारीफ कर रही हो या मजाक उड़ा रही हो?’’ समीर ने उसे नाटकीय अंदाज में घूरा.

‘‘तुम्हें क्या लगता है?’’ शिखा सवाल पूछ कर व्यंग्य भरे अंदाज में मुसकरा उठी.

समीर के जवाब देने से पहले ही मानसी बोल पड़ी, ‘‘मुझे तो तुम दोनों की आपस में ट्यूनिंग ज्यादा अच्छी लग रही

है. इसलिए अच्छा यही होगा कि मेरी जगह…’’

‘‘बस, आगे कुछ मत कहो मानसी,’’ समीर ने उसे टोक दिया, ‘‘मैं शादी तुम से ही करूंगा, क्योंकि यह तो साली बन कर मेरी जिंदगी में आ ही जाएगी.’’

फिर समीर ने अचानक शरारती अंदाज में शिखा को आंख मारी तो वह भड़क कर झटके से खड़ी हो गई और बोली, ‘‘तुम जरूरत से ज्यादा चालू इंसान हो, मिस्टर समीर. मैं ने तुम्हें अच्छी तरह परख लिया है.’’

‘‘अगर परख लिया है तो बता दो कि मुझे 100 में से कितने नंबर दोगी?’’ समीर ने शान से कौलर खड़ा करते हुए पूछा.

‘‘मैं यह शादी होने ही नहीं दूंगी,’’ शिखा का मुंह गुस्से से लाल हो उठा.

‘‘तुम गुस्सा करते हुए और भी ज्यादा खूबसूरत लगती हो,’’ समीर उस की तारीफ करने का यह मौका भी नहीं चूका.

‘‘मैं इन जनाब को और ज्यादा सहन नहीं कर सकती. अब तू ही इन्हें झेल,’’ कह कर शिखा तमतमाती हुई वहां से उठी और मकान के भीतरी भाग में चली गई.

‘‘अपने प्यार को हर लड़की पर लुटाते रहोगे तो कोई भी हाथ नहीं आएगी,’’ ऐसा तीखा जवाब दे कर मानसी शिखा के पीछे जाने को तैयार हुई कि तभी कालबैल की आवाज गूंज उठी.

मानसी दरवाजा खोलने चली गई और जब लौटी तो उस के मातापिता साथ अंदर आए.

‘‘कैसे हो तुम, समीर? कुछ खिलायापिलाया इन दोनों ने तुम्हें?’’ मानसी के पिता ने समीर से बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया.

तभी शिखा ने कमरे में प्रवेश किया और गुस्से से भरी आवाज में बोली, ‘‘हमारी शादी नहीं हो सकती, पापा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हो, बेटी?’’ उस के पापा की आंखों में चिंता के भाव थे.

अपने पापा को जवाब देने के बजाय शिखा समीर की तरफ घूमी और चुभते लहजे में बोली, ‘‘मैं इन्हें पापा इसलिए कह रही हूं, क्योंकि मैं मानसी हूं, शिखा नहीं. मैं तुम से खुल कर बातें करना चाहती थी, इसलिए शिखा बन कर मिली. जो कुछ हुआ बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि अब मैं कम से कम तुम्हारी असलियत तो पहचानती हूं. मैं तुम्हारे जैसे छिछोरे इंसान के साथ शादी कर के जिंदगी भर का रिश्ता बिलकुल नहीं जोड़ना चाहूंगी.’’

समीर परेशान दिखने के बजाय उत्साहित अंदाज में बोला, ‘‘लेकिन तुम जरा शांति से सोचोगी तो एक बात साफ हो जाएगी, मानसी. मैं फिदा तो तुम पर ही हुआ हूं और यह बात तो हमारी शादी होने के हक में जानी चाहिए.’’

‘‘सौरी, मिस्टर समीर, यही बात तो तुम्हारी नीयत व चरित्र में खोट होने का सुबूत है.’’

समीर अचानक गुस्से से भड़क उठा, ‘‘कुसूरवार तुम भी कम नहीं हो. तुम मुझे इतनी ज्यादा लिफ्ट क्यों दे रही थीं?’’

‘‘मुझे तुम्हारे साथ किसी बहस में नहीं पड़ना है. तुम अपने लिए कोई और लड़की

ढूंढ़ लो.’’

‘‘नहीं, मुझे तुम से ही शादी करनी है,’’ समीर उस के सामने तन कर खड़ा हो गया, ‘‘तुम मजाक करो तो मजाक और दूसरा मजाक करे तो चरित्रहीन. यह कहां का इंसाफ हुआ?’’

‘‘क्या मतलब हुआ तुम्हारी इस बात का?’’ मानसी एकदम से चौंक कर उलझन की शिकार बन गई.

‘‘तुम शिखा बन कर मुझ से मिलीं जरूर, पर सच यह है कि तुम मुझ से अपनी असलियत छिपा नहीं पाई थीं,’’ समीर अब खुल कर मुसकरा रहा था.

‘‘ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि हम जिंदगी में आज पहली बार मिले हैं,’’ मानसी को उस के कहे पर विश्वास नहीं हुआ था.

समीर ने अपने कोट की जेब से एक तसवीर निकाली और मानसी को दिखाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी कालेज की सहेली वंदना की शादी दिल्ली में हुई है. तुम्हारी यह तसवीर  मुझे 2 दिन पहले उसी से मिल गई थी. तभी मुझे आज तुम्हें पहचानने में दिक्कत नहीं हुई थी.’’

‘‘तुम्हें यह बात हमें शुरू में ही बतानी चाहिए थी,’’ मारे घबराहट के मानसी अब हकलाने लगी थी.

‘‘अगर मैं शुरू में ही यह सस्पैंस खोल देता तो फिर मुझे यह कैसे पता चलता कि मेरी होने वाली पत्नी कितनी नौटंकी करना जानती है,’’  समीर के इस मजाक पर मानसी को छोड़ बाकी तीनों ठहाका मार कर हंस पड़े.

‘‘यह आप ने बिलकुल ठीक नहीं किया,’’  मानसी के गोरे गाल गुलाबी हो उठे और वह पहली बार उसी अंदाज में शरमाई जैसे कोई भी लड़की अपने भावी पति को सामने देख कर शरमाती है.

‘‘मैं ऐसा न करता तो तुम्हें यह कैसे पता लगता कि नौटंकी करने में हम भी किसी कम नहीं हैं,’’ समीर द्वारा नाटकीय अंदाज में छाती फुला कर किए गए इस मजाक पर पूरा कमरा एक बार फिर ठहाकों से गूंजा तो मानसी लजातीशरमाती अपने कमरे में भाग गई.

सर्वस्व : क्या मां के जीवन में खुशियां ला पाई शिखा

बैठक में बैठी शिखा राहुल के खयालों में खोई थी. वह नहा कर तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते सूर्य की तरह था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी बिंदी, मांग में चमकता सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे. घर के सब लोग सो रहे थे, मगर शिखा को रात भर नींद नहीं आई. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी पैर फेरने और आज राहुल यानी उस का पति उसे वापस ले जाने आने वाला था. वह बहुत खुश थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आने लगा वह दिन जब वह बहुत छोटी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े सहमी सी दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपने बेटों और बहुओं की तरफ देखते हुए अपनी रोबदार आवाज में फैसला सुना रहे थे, ‘‘माला, अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ.

यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का. यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था, क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद इस की ससुराल वालों ने इस के साथ बहुत अन्याय किया.

उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर इस बेचारी का जीना हराम कर दिया. मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’’

फिर कुछ देर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतना सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं… मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे,’’ और फिर नानाजी ने बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बैठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी.

घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थी. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी एवं नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. सब के गले में एक लौकेट में उन की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी जरूरी होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था.

अत: वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन्हें मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठ कर पूजाध्यान करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती और गुरुजी से सिर्फ और सिर्फ एक ही दुआ मांगती कि गुरुजी, मुझे इतना बड़ा अफसर बना दो कि मैं अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सकूं जिन से वे वंचित रह गई हैं.

तभी खट की आवाज से शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा. तेज हवा के कारण खिड़की चौखट से टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने खिड़की का कुंडा लगा दिया. आंगन में झांका तो शांति ही थी. घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत में चला गया…

जब तक नानाजी जिंदा रहे उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों के हिस्से बहुत दिनों के लिए नहीं लिखा था. 1 वर्ष बीततेबीतते अचानक एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सब कुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा.

अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर आश्रित हो गईं और हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा कर दिया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा के हाथों में थमा दी.

अब घर में जो भी निर्णय होता वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही, पर उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश में जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं. सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं.

कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं, तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल अथवा समस्या का हल पूछे.

मगर मां को काम से ही फुरसत नहीं होती और वह कापीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठा कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर उसे पढ़ातीं.

यदि वह कभी मामा या मामी के पास किसी प्रश्न का हल पूछने जाती तो वे हंस कर उस की खिल्ली उड़ाते हुए कहते, ‘‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले. काम तो यही आएगा.’’

वह खीज कर वापस आ जाती. परंतु उन की ऐसी उपहास भरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.

मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से न ही मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं? और तो और जब भी घर में कोई बहुत स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को ज्यादा देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती.

सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से बोलतीं, ‘‘अरे बिटिया तू भी आ गई. आओआओ,’’ कह कर बचाखुचा कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं. तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उसे कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती, जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती.

मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.

एकाध बार उस ने गुरुजी से परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गई कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं.

जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी, मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी एवं ज्यादा ही समझदार हो गई.

उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, ऐशोआराम अब सब कुछ उस के पास था.

उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई. वे सभी लोग, जो वर्षों से उसे और उस की मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ‘ससुराल से निकाली गई’, ‘मायके में आ कर पड़ी रहने वाली’ समझ कर शक भरी निगाहों से देखते थे और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज वही सब लोग उन दोनों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे. मामामामी ने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.

समय का चक्र मानो फिर से घूम गया था. अब मां व शिखा के प्रति मामामामी का रवैया बदलने लगा था. हर बात में मामी कहतीं, ‘‘अरे जीजी, बैठो न. आप बस हुकुम करो. बहुत काम कर लिया आप ने.’’

मामी के इस रूप का शिखा खूब आनंद लेती. इस दिन के लिए तो वह कितना तरसी थी.

जब सरकारी बंगले में जाने की बात आई, तो सब से पहले मामामामी ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. मगर नानी ने जाने से मना कर दिया, यह कह कर कि इस घर में नानाजी की यादें बसी हैं. वे इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. जो जाना चाहे, वह जा सकता है. मां नानी के दिल की हालत समझती थीं. अत: उन्होंने भी जाने से मना कर दिया. तब शिखा ने भी शिफ्ट होने का प्रोग्राम फिलहाल टाल दिया.

इसी बीच एक बहुत ही सुशील और हैंडसम अफसर, जिस का नाम राहुल था की तरफ से शिखा को शादी का प्रस्ताव आया. राहुल ने खुद आगे बढ़ कर शिखा को बताया कि वह उसे बहुत पसंद करता है और उस से शादी करना चाहता है. शिखा को भी राहुल पसंद था.

राहुल शिखा को अपने घर, अपनी मां से भी मिलाने ले गया था. राहुल ने उसे बताया कि किस प्रकार पिताजी के देहांत के बाद मां ने अपने संपूर्ण जीवन की आहुति सिर्फ और सिर्फ उस के पालनपोषण के लिए दे दी. घरघर काम कर के, रातरात भर सिलाईकढ़ाईबुनाई कर के उसे इस लायक बनाया कि आज वह इतना बड़ा अफसर बन पाया है. उस की मां के लिए वह और उस के लिए उस की मां दोनों की बस यही दुनिया थी. राहुल का कहना था कि अब उन की इस 2 छोरों वाली दुनिया का तीसरा छोर शिखा है, जिसे बाकी दोनों छोरों का सहारा भी बनना है एवं उन्हें मजबूती से बांधे भी रखना है.

यह सब सुन कर शिखा को महसूस हुआ था कि यह दुनिया कितनी छोटी है. वह समझती थी कि केवल एक वही दुखों की मारी है, मगर यहां तो राहुल भी कांटों पर चलतेचलते ही उस तक पहुंचा है. अब जब वे दोनों हमसफर बन गए हैं, तो उन की राहें भी एक हैं और मंजिल भी.

राहुल की मां शिखा से मिल कर बहुत खुश हुईं. उन की होने वाली बहू इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी तथा सुशील है, यह देख कर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. झट से उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतार कर शिखा के गले में पहना दी और फिर बड़े स्नेह से शिखा से बोलीं, ‘‘बस बेटी, अब तुम जल्दी से यहां मेरे पास आ जाओ और इस घर को घर बना दो.’’

मगर एक बार फिर शिखा के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े आ गए. राहुल दूसरी जाति का था और उस के यहां मीटमछली बड़े शौक से खाया जाता था जबकि शिखा का परिवार पूरी तरह से पंडित बिरादरी का था, जिन्हें मीटमछली तो दूर प्याजलहसुन से भी परहेज था.

घर पर सब राहुल के साथ उस की शादी के खिलाफ थे. जब शिखा की मां माला ने शिखा को इस शादी के लिए रोकना चाहा तो शिखा तड़प कर बोली, ‘‘मां, तुम भी चाहती हो कि इतिहास फिर से अपनेआप को दोहराए? फिर एक जिंदगी तिलतिल कर के इन धार्मिक आडंबरों और दुनियादारी के ढकोसलों की अग्नि में अपना जीवन स्वाहा कर दे? तुम भी मां…’’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.

शिखा के इस तर्क के आगे माला निरुत्तर हो गईं. वे धीरे से शिखा के पास आईं और उस का सिर सहलाते हुए रुंधी आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी बेटी. बढ़ती उम्र ने नजर ही नहीं, मेरी सोचनेसमझने की शक्ति को भी धुंधला दिया था. मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़ कर और कुछ भी नहीं… हम आज ही यह घर छोड़ देंगी.’’

जब मामामामी को पता लगा कि शिखा का इरादा पक्का है और माला भी उस के साथ है, तो सब का आक्रोश ठंडा पड़ गया. अचानक उन्हें गुरुजी का ध्यान आया कि शायद उन के कहने से शिखा अपना निर्णय बदल दे.

बात गुरुजी तक पहुंची तो वे बिफर उठे. जैसे ही उन्होंने शिखा को कुछ समझाना चाहा, शिखा ने अपने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने गले में पड़ा उन की तसवीर वाला लौकेट उतार कर उन के सामने फेंक दिया.

सब लोग गुस्से में कह उठे, ‘‘यह क्या पागलपन है शिखा?’’

गुरुजी भी आश्चर्यमिश्रित रोष से उसे देखने लगे.

इस पर शिखा दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘बहुत कर ली आप की पूजा और देख ली आप की शक्ति भी, जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. मेरा सर्वस्व अब मेरा होने वाला पति राहुल है, उस का घर ही मेरा मंदिर है, उस की सेवा आप के ढोंगी धर्म और भगवान से बढ़ कर है,’’ कहते हुए शिखा तेजी से उठ कर वहां से निकल गई.

शिखा के इस आत्मविश्वास के आगे सब ने समर्पण कर दिया और फिर खूब धूमधाम से राहुल के साथ उस का विवाह हो गया.

अचानक बादलों की गड़गड़ाहट से शिखा की आंख खुल गई. आंगन में लोगों की चहलकदमी शुरू हो गई थी. आंखें मलती हुई वह उठी और सोचने लगी, यहां दीवान पर लेटेलेटे उस की आंख क्या लगी वह तो अपना अतीत एक बार फिर से जी आई.

‘राहुल अब किसी भी वक्त उसे लेने पहुंचने ही वाला होगा,’ इस खयाल से शिखा के चेहरे पर एक लजीली मुसकान फैल गई.

जोर का झटका: जब मजे के लिए अस्पताल पहुंचे वामनमूर्ति

भारत अस्पताल के पार्किंग एरिया में अपनी कार रोक कर वामनमूर्ति नीचे उतरे. ब्रीफकेस खोल कर नैशनल इंश्योरैंस द्वारा दी गई हैल्थ पौलिसी के कार्ड को अपनी जेब में रखा और शान से अस्पताल में प्रवेश किया.

भारत अस्पताल का शहर में कौरपोरेट अस्पताल के रूप में अच्छा नाम है. 20 एकड़ क्षेत्र में ऊंचे पहाड़ों पर फूलों के बगीचे के बीच बना भारत अस्पताल आधुनिकता दर्शाता एक फाइव स्टार होटल सा दिखाई पड़ता है.

वामनमूर्ति अस्पताल में प्रवेश करते ही कुछ देर तो आश्चर्यचकित हो कर अस्पताल को देखते रह गए. फिर अपने इंश्योरैंस कार्ड को देखते हुए, खुशी से रिसैप्शन रूम में दाखिल हुए और दीवार पर टंगे बोर्ड पर स्पैशलिस्ट डाक्टरों के नाम और उन की शैक्षणिक योग्यताओं को देख कर खुशी से झमते हुए वे मन ही मन बुदबुदाए, ‘वाऊ, क्या अस्पताल है.’

रिसैप्शन पर एक खूबसूरत युवती कंप्यूटर पर काम कर रही थी. उन्हें देख कर वह बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘वामनमूर्ति,’’ हौले से मुसकराते हुए उन्होंने कहा.

‘‘अच्छा नाम है.’’

‘क्या है इस में अच्छा होने के लिए,’ वे मन ही मन बुदबुदाए.

युवती बोली, ‘‘उम्र?’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘45 वर्ष.’’

‘‘प्रोफैशन.’’

‘‘कालेज लैक्चरर.’’

‘‘इंश्योरैंस है क्या?’’

‘‘हांहां है,’’ वामनमूर्ति खुशी से बोले.

‘‘क्या हैल्थ प्रौब्लम है?’’

‘‘हां सिर चकरा रहा है.’’

‘सिर चकराने से ही यहां आते हैं?’ वे फिर से बुदबुदाते हुए मन ही मन गुस्सा जाहिर करने लगे.

युवती बोली, ‘‘आप जनरल फिजीशियन, डायबिटीज स्पैशलिस्ट, हृदय रोग विशेषज्ञ किस से मिलेंगे?’’

‘‘जनरल फिजीशियन से,’’ वामनमूर्ति बोले.

‘‘ठीक है.’’

‘‘दाहिनी तरफ के कौरिडोर में दूसरा कमरा है डाक्टर नित्यानंद का, आप वहां जाइए.’’

वामनमूर्ति 500 रुपए फाइल के दे कर डाक्टर नित्यानंद से मिलने पहुंचे. वहां आधा घंटा इंतजार करने के बाद उन की डाक्टर नित्यानंद से मुलाकात हुई. डा. नित्यानंद की उम्र लगभग 50 वर्ष थी और सिर गंजा था. उन के पास स्पैशलाइजेशन की 4-5 मैडिकल डिग्रियां भी थीं.

डाक्टर नित्यानंद ने वामनमूर्ति को देखते हुए पूछा, ‘‘प्रौब्लम क्या है?’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘डाक्टर, 2-3 बार सिर चकराया है. ब्लडप्रैशर की समस्या भी है. इस के साथसाथ जनरल चैकअप भी करवाना चाहता हूं. यह देखिए, इंश्योरैंस कार्ड भी है.’’

‘‘इस के लिए आप को ऐडमिट होना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, मैं ऐडमिट हो जाऊंगा. मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आप टैस्ट लिखें,’’ वामनमूर्ति बोले.

फिर कुछ सोचते हुए डाक्टर ने कहा, ‘‘अस्पताल में रहने के लिए सीरियस प्रौब्लम बतानी पड़ती है. आप कितनी बार टौयलेट जाते हैं?’’

‘‘हर रोज 2-3 बार.’’

‘‘ठीक है, मैं ‘क्रौनिक लूज बोल सिंड्रोम’ लिखूंगा. आप के बाकी टैस्ट गैस्ट्रोलौजिस्ट और हृदय रोग विशेषज्ञ करेंगे. सभी टैस्ट को पूरा करने के लिए और औब्जर्वेशन में रखने के लिए कितने दिन ऐडमिट रहने के लिए लिखूं, 2 या 3 दिन अस्पताल में रहोगे?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘2 दिन रुक सकता हूं, उस से ज्यादा छुट्टी नहीं है.’’

‘‘ठीक है. आप ऐडमिट हो जाइए.’’

एडमिशन काउंटर पर अपना इंश्योरैंस कार्ड दे कर वामनमूर्ति फाइव स्टार होटल जैसे अस्पताल के कमरे में पेशैंट के रूप में भरती हुए. नर्स के बाहर जाते ही वामनमूर्ति ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए मन ही मन कहा, कितना अच्छा कमरा है. गैस्ट बैड, सीलिंग लाइट्स, टौयलेट आदि. कुछ सोचते हुए वह बुदबुदाए, कौन्फ्रैंस के समय में मैं शेयरिंग बेसिस पर ऐसे ही कमरे में रहता हूं. इंश्योरैंस करवाना कितना अच्छा साबित हुआ.

फिर उन्होंने पत्नी को फोन किया ओर कहा, ‘‘मैं अस्पताल में भरती हो गया हूं, तुम बच्ची को ले कर अस्पताल आ जाओ. हम 2 दिन यहां रुकेंगे.’’

इतने में चैकअप करने के लिए गैस्ट्रोलौजिस्ट आए और केस शीट देखते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘आज कितनी बार टौयलेट हो कर आए हो?’’

‘‘2 बार,’’ वामनमूर्ति झूठ का सहारा लेते हुए बोले, जबकि उस दिन वे टौयलेट गए ही नहीं थे.

‘‘ऐसा कब से हो रहा है?’’

‘‘6 महीने से. मुझे एक परेशानी और है डाक्टर, मेरा सिर चकराता है.’’

‘‘कब? शौच जाने की इच्छा होने पर या उस के बाद में?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘शौच के आरंभ से ले कर बाद में भी. काम करते हुए भी सिर चकराता है.’’

‘‘मुझे ऐसा लगता है आप को कोई न्यूरोलौजिकल समस्या है. मैं आप को न्यूरोलौजिस्ट के पास रेफर करता हूं.’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘ठीक है डाक्टर, लेकिन कल शाम तक पूरी चिकित्सा हो जानी चाहिए, क्योंकि मेरे पास और छुट्टी नहीं है.’’

‘‘ठीक है, आप के रैक्टम में गांठ हो सकती है, इस के लिए टैस्ट लिखता हूं. 1-2 घंटे कुछ मत खाइएगा. 4 घंटे बाद यह

टैस्ट होगा,’’ यह कहते हुए डाक्टर चले गए.

तभी एक नर्स ने अंदर आ कर वामनमूर्ति से कहा, ‘‘रक्त चाहिए, 6 घंटे में एक बार टैस्ट करना होगा.’’

‘‘अरे बाप रे, यह कौन सा टैस्ट है?’’ वामनमूर्ति ने सहमते हुए पूछा.

नर्स बोली, ‘‘यह टैस्ट आप के रक्त में बेसिक साल्ट की बदलती स्थिति को देखने के लिए है. इस से यह पता चलेगा कि लूजमोशन हो रहा है या नहीं. हमें इसे 24 घंटे तक देखना है.’’

नर्स ने बाहर जाते हुए वामनमूर्ति से कहा, ‘‘रात को

8 बजे ही भोजन करें, कल सुबह फास्टिंग, ब्लड सैंपल लेना है.

12 घंटे पहले कुछ भी नहीं खाना.’’

वामनमूर्ति बोले, ‘‘मुझे ऐसिडिटी है. रात के 3 बजे ही जाग जाता हूं. 2 बिस्कुट खा कर 1 कप दूध पीने पर भी नींद नहीं आती.’’

‘‘ऐसा होने पर कुछ भी नहीं खाना चाहिए,’’ नर्स ने कहा.

तभी हृदय रोग विशेषज्ञ आ गए. उन्होंने वामनमूर्ति का टैस्ट कर के कहा, ‘‘आप का बीपी व पल्स रेट नौर्मल ही है. आप का सिर चकराना बीपी के कारण से नहीं, फिर भी ईसीजी, इको टैस्ट करने के लिए लिख रह हूं. चैकअप करने से लाभ ही होगा.’’

‘‘हां ठीक है, मुझे वही चाहिए,’’ वामनमूर्ति बोले.

‘‘कल सुबह सभी टैस्ट करने होंगे, आप तैयार रहें.’’ यह कहते हुए डाक्टर चले गए.

डाक्टर के जाते ही वामनमूर्ति टीवी औन कर के पैर हिलाते हुए टीवी देखने लगे. ब्लड निकलने के कारण उन के बाएं हाथ में दर्द हो रहा था. हर आधे घंटे में एक बार हंस की चाल चलती हुई युवतियां कौफी, टी, टिफिन सभी पेशैंट को दे रही थीं.

तभी सिल्क साड़ी पहने एक सुंदर युवती ने वामनमूर्ति से पूछा, ‘‘आप की देखभाल ठीक से हो रही है या नहीं?’’

वामनमूर्ति ने ‘हां’ में जवाब दिया.

तभी न्यूरोलौजिस्ट ने कहा, ‘‘आप को न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर है या नहीं, यह जानने के लिए न्यूरोग्राफ निकालना पड़ेगा. ओ.के.?’’

‘‘उस टैस्ट में दर्द होता है क्या?’’ वामनमूर्ति डरते हुए बोले.

‘‘नोनो, एकदम नहीं,’’ न्यूरोलौजिस्ट बोला.

‘‘अगर दर्द नहीं होता तो ठीक है,’’ वामनमूर्ति ने राहत की सांस ली.

शाम के समय वामनमूर्ति की पत्नी बेटी के साथ अस्पताल पहुंची. अस्पताल आने से पहले पड़ोस में रहने वाली मीनाक्षी ने उन से पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘मेरे पति भारत अस्पताल में भरती हैं. उन्हीं के पास जा रही हूं. पता नहीं किस हाल में होंगे बेचारे.’’

पत्नी के अस्पताल पहुंचते ही वामनमूर्ति अपना बड़प्पन जाहिर करते हुए बोले, ‘‘देखा, हम कितने बड़े अस्पताल में मुफ्त में रह रहे हैं.’’ उस दिन सभी टैस्ट पूरे हुए. वामनमूर्ति ने अपना समय टीवी देखते हुए, कुछ खाते हुए और बातें करते हुए गुजारा. दूसरे दिन सुबह सभी टैस्ट होने के बाद दोपहर तक रिपोर्ट आ गई.

पूरी रिपोर्ट सही थी. डाक्टर नित्यानंद ने आ कर डिस्चार्ज शीट लिखी.

उन्होंने वामनमूर्ति से कहा, ‘‘आप को कोई भी डिसऔर्डर नहीं है. जब कभी आप मानसिक रूप से अपसेट होते हैं, तभी लूजमोशंस और सिर चकराने की समस्या होती है.’’

‘‘इस के लिए मैं क्या करूं?’’ वामनमूर्ति ने पूछा.

‘‘आप काम में तल्लीन हो जाइए. ऐसा करने से सभी उतारचढ़ाव अपनेआप कम हो जाएंगे,’’ डाक्टर ने कहा.

फिर डाक्टर वामनमूर्ति की पत्नी से बोले, ‘‘आप बिल सैक्शन में जा कर रसीद ले लीजिए.’’

कुछ देर बाद वामनमूर्ति की पत्नी बिलिंग सैक्शन से वापस आईं. अस्पताल वालों ने इंश्योरैंस वालों से बात की तो उन्होंने कहा कि पहले पेशैंट बिल भर दे, हम बाद में चैक भेजेंगे. आप चाहें तो इस फोन नंबर पर बात कर सकते हैं.

वामनमूर्ति ने बिल देखा… 50 हजार रुपए. ‘‘इतना ज्यादा बिल,’’ कहते हुए वामनमूर्ति ने फिर से बिल को देखा. स्पैशलिस्ट डाक्टर्स ने 5-5 हजार रुपए लिए, स्पैशल रूम व भोजन का खर्च 20 हजार रुपए. टैस्ट के लिए खर्च का विवरण भी उस में है. अब पैसों का भुगतान कैसे करें, कल तक यहीं ठहर कर पत्नी को बैंक भेजना सही नहीं होगा.

हड़बड़ाते हुए वामनमूर्ति ने ब्रीफकेस से एटीएम कार्ड निकाले और पत्नी से कुल 60 हजार रुपए एटीएम से लाने के लिए कहा.

‘‘हमें पैसे अदा करने की क्या जरूरत है, इंश्योरैंस है न?’’ फिर भी पति की जल्दबाजी को देख कर वे 1 घंटे में 60 हजार रुपए ले कर आ गईं. तब तक वामनमूर्ति पसीने से तरबतर हो रहे थे.

काउंटर पर बिल अदा कर के ‘जान है तो जहान है’ कहते हुए वह पत्नी के साथ अस्पताल से बाहर आए और कार में बैठते हुए अस्पताल की ओर देखा. भारत अस्पताल बोर्ड के नीचे यह वाक्य लिखा हुआ था- मानव सेवा ही हमारा कर्तव्य है.

दूसरे दिन वामनमूर्ति ने अस्पताल का बिल इंश्योरैंस कंपनी को भेजा. एक हफ्ते बाद इंश्योरैंस कंपनी द्वारा एक लिफाफा प्राप्त हुआ. लिफाफा खोलते समय वामनमूर्ति की खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन यह क्या, लिफाफे में चैक न हो कर एक जवाबी चिट्ठी थी. उस में लिखा था, ‘आप को टैस्ट के लिए हो या चिकित्सा के लिए अस्पताल में कम से कम 3 दिन रहना चाहिए था, लेकिन आप अस्पताल में सिर्फ 2 दिन ही रहे. इसलिए हम आप के क्लेम को वापस भेज रहे थे.’

वामनमूर्ति ने हड़बड़ाते हुए इंश्योरैंस डाक्यूमैंट देखा. उस के अंत में एक जगह छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘अस्पताल में कम से कम 3 दिन रहना जरूरी है.’ यह पढ़ते ही उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उनका सिर अब सही में चक्कर खाने लगा.

‘टैस्ट, चिकित्सा के नाम पर उन के 50 हजार रुपए व्यर्थ चले गए.’ वे हताश हो कर बैठ गए. भविष्य में अस्पताल में मौज मनाने के नाम से वामन मूर्ति ने तोबा कर ली.

Husband Wife Story- स्नेह के सहारे: पति के जाने के बाद सरला का कौन बना सहारा

लेखिका- प्रमिला नानिवडेकर

रोज की तरह नहा कर माताजी बगीचे में पहुंचीं. वहां से उन की नजर पडो़सी के बगीचे में पडी़. वहां कोई वृद्ध व्यक्ति बड़े ध्यान से काम कर रहा था.

‘शायद इन को माली मिल गया है,’ माताजी बुदबुदाईं. फिर उन्होंने सोचा, ‘पर माली इतनी जल्दी उठ कर काम कर रहा है. फिर उस केघ्कपडे़ भी तो एकदम साफ हैं. ऊंह, होगा कोई उन का रिश्तेदार.’

उन्होंने अपने मन को उधर से हटाने का प्रयास किया. लेकिन उन का ध्यान बारबार पडो़स केघ्बगीचे की ओर ही चला जाता था. वह सोचने लगीं, ‘कौन होगा वह वृú सज्जन?’

कई दिनों के बाद उन के मन को कुछ सोचने लायक मसाला मिला था. कुछ वर्षों से वह अपनी बेटी सरला के साथ रह रही थीं. पहले जब सरला के पिता थे तब चेन्नई के नजदीक के एक छोटे से गांव में वह उन के साथ अपने घर में रहती थीं. पति के रिटायर होने के बाद भी उन्होंने अपने पति के साथ इस तरह का रोज का कार्यक्रम बना लिया था कि उन्हें समय बीतने का पता ही नहीं चलता था. साल में एक बार सरला अपने बच्चों के साथ आती थी. तब कुछ दिनों के लिए उस वृú दंपती का जीवन बच्चों केघ्शोरगुल से भर जाता था. उन्हें यह शोरगुल अच्छा लगता था, लेकिन सरला की वापसी केघ्बाद घर में छाने वाली शांति भी उन्हें बेहद अच्छी लगती थी.

पति के देहांत केघ्बाद उन्हें सरला केघ्पास ही रहना पडा़. सरला के पति सांबशिवन वायुसेना में अफसर थे. वह ही माताजी को समझा कर ले आए थे.

फ्अकेली गांव में क्या करोगी मांजी? फिर हम लोगों को भी आप की चिता लगी रहेगी. इस से अच्छा है कि घर बेचबाच कर पैसे बैंक में जमा करा दो और बुढा़पा हमारे साथ आराम से गुजारो, सांबशिवन ने कहा था.

माताजी ने घर बेचा तो नहीं था, पर किराए पर चढा़ दिया था. पति केघ्बीमे के पैसे भी बैंक में जमा करवा दिए थे. उस के ब्याज का भी कुछ आ ही जाता था. वैसे खानेपीने की सरला केघ्घर में भी कमी नहीं थी, पर सिर्फ शरीर की जरूरतें पूरी होने से ही क्या इनसान खुश रहता है?

वायुसेना के कैंप में बूढों़ की कमी थी. शहर से दूर, अंगरेजी बोलचाल, रहनसहन का अलग तरीका, आधुनिक विचारों वाले बच्चे. माताजी का दम पहलेपहल तो उस वातावरण में घुटता रहता था. पर अब उन्हें इस जीवन की आदत हो गई थी. अब वह आराम से बैठी रहती थीं और मन को इधरउधर बगीचे में लगाने की कोशिश करती थीं.

फ्सरला, बच्चों ने ब्रश भी नहीं किया और नाश्ता खा रहे हैं. तुम ने सिर चढा़ रखा है इन को, शुरू में वह कहती थीं तो सरला हंस देती थी. बच्चे नानी को ‘ओल्ड फैशन’ यानी पुराने रिवाजों वाली कह कर चिढा़ते थे. कभी वह नौकरानी के गंदे काम पर बरस पड़ती थीं तो सरला नौकरानी केघ्जाने के बाद समझाती थी, फ्अम्मां, आजकल नौकर मिलते ही नहीं हैं. अब तुम्हारे वाला पुराना जमाना गया. यह नौकरानी चली गई तो स्वयं काम करना पडे़गा.

फ्तो कर लेंगे, वह गुस्से में बोलतीं.

फ्अम्मां, तुम्हें तो बस, किचन, घर और धर्म के सिवा दूसरा कुछ सूझता ही नहीं है. मेरे पास दूसरे हजारों काम हैं. बच्चों को पढा़ना, सिलाई, बुनाई, लेडीज क्लब, सामाजिक जीवन आदि. इसलिए मेरा काम नौकर के बिना नहीं चल सकता.

माताजी को पता चल गया था कि यहां लोग दिखावे के बल पर ही ऊंचे स्तर के माने जाते हैं. यहां बैठक की सजावट, कालीन, परदे और पेंटिग को देखा और सराहा जाता है. चौके में गंदे हाथों वाली आया, बिना नहाए, बिना सब्जी या चावल धोए खाना बनाती है, यह कोई नहीं देखता. बच्चे मन चाहे, तब नहाते हैं, मन चाहे जो पढ़ते हैं. खूब फिल्म देखते हैं और अनुशासन के नाम से नाकभौं चढा़ते हैं. पर इस की यहां कोई परवा नहीं करता. यह सब देखदेख कर अम्मां कुढ़ती रहतीं, लेकिन कर कुछ नहीं पातीं. अपना घर छोड़ने के साथ उन केघ्अधिकार भी भूतकाल में गल गए थे. कभीकभार धीरज छोड़ कर वह कुछ कहतीं तो सरला समझाती, फ्अम्मां, तुम क्यों चिता करती हो? आराम से रहो. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुम्हें क्या मालूम? सच, मुझे अगर तुम्हारे जितना आराम मिले तो मैं तो इधर की दुनिया उधर कर दूं. इस उम्र में घर के झंझट में दोबारा क्यों पड़ती हो?

लेकिन माताजी जानती थीं कि आराम भी एक हद तक ही किया जा सकता है. ज्यादा आराम व्यक्ति केघ्उत्साह को खत्म कर देता है.

माताजी पडो़स में आए वृú सज्जन के बारे में जानने केघ्लिए बहुत ही उत्सुक थीं. आखिर उन्होंने आया से पूछ ही लिया, फ्कौन हैं रे, वह बूढे़ बाबा?

फ्वह तो महंती साहब के चाचा हैं. अकेले हैं तो यहां रहने आ गए हैं, आया के पास पूरी जानकारी थी.

फ्पहले कहां थे?

फ्इन्हीं चाचाजी ने साहब को बडा़ किया, पढा़यालिखाया. पहले यह साहब के दूसरे भाईबहनों के साथ रहते थे. शादी नहीं की. भाई की मृत्यु के बाद भाई के परिवार के लिए ही इन्होंने अपनी जिदगी काट दी, आया ने पूरी बात बता दी. और माताजी उस से पूछती रहीं. हालांकि वह जानती थीं कि उन का आया से बतियाना भी सरला को पसंद नहीं.

अब माताजी  अकसर पडो़स के बगीचे की तरफ देखती रहतीं. कुछ ही समय में बगीचे में निखार आ गया था. रंगबिरंगे फूल क्यारियों में खिलने लगे थे. उन की देखादेखी माताजी भी थोेडा़बहुत अपना बगीचा संवारने लगीं.

एक दिन अचानक ही उन के कानों में आवाज आई, फ्लगता है, आप को भी बागबानी का शौक है.

माताजी ने चौंक कर देखा तो सामने वही वृú खडे़ थे. उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी. माताजी ने भी उत्तर में मुसकरा कर हाथ जोड़ दिए.

फिर इस के बाद उन की दोस्ती बढ़ती गई. दोनों बातें कर के समय गुजारने लगे और भाषा, जातपांत के कूडे़कचरे को नजरअंदाज करती हुई उन की मित्रता बढ़ती गई. अब वे घंटों बगीचे में खडे़ हो कर बातें करते. शाम को दोनों सब्जी लाने उत्साह से चल पड़ते. माताजी का चिड़चिडा़पन धीरेधीरे गुनगुनाहट में डूबता गया. चाचाजी भी अपने पास की दुनिया को मुसकान भरी आंखों से देखने लगे.

आया के जरिए माताजी को पता चल गया था कि बहू और भतीजे में चाचाजी के खर्चे को ले कर खटपट हो जाया करती है. एक आदमी के आने से उन का महीने का बजट चौपट हो गया था. बच्चों की फीस, शराब का खर्च, पत्नी की रमी और पति केघ्ब्रिज के अड्डों में अब कुछ अड़चनें सी आने लगी थीं.

फ्उन्हें भेज क्यों नहीं देते जेठजी के घर? श्रीमती महंती अपने पति से पूछतीं.

फ्वहां भी तो यही हाल है. उन्हें हम लोगों को छोड़ कर दूसरे किसी का सहारा नहीं है मालू. अगर हम चारों भाईबहन में से कोईघ्भी उन्हें नहीं रखेगा तो—

फ्तब उन्हें वृúाश्रम में भेज दो.

फ्क्या? तुम्हारी जबान इतनी चल कैसे गई? जिस ने हमारे लिए अपना घर नहीं बसाया, उसे मैं वृúाश्रम में छोड़ दूं? महंती चीखने लगे.

फ्मुझ से तो यह झंझट नहीं होगा. कभी चावल ज्यादा खिलाया तो गैस की तकलीफ, कभी रोटी ज्यादा खा गए तो पेट में गड़बड़.

फ्मालू, जरा तो खयाल करो. बुढा़पे पर उन का क्या बस चल सकता है.

फ्जब वह उस मद्रासी बुड्ढी के साथ हंसहंस कर बतियाते हैं तो बुढा़पा कहां गुम हो जाता है, श्रीमती महंती पूछतीं.

इधर सरला ने भी एक दिन झिझकते हुए माताजी से कह दिया, फ्अम्मां, चाचाजी से इतनी दोस्ती इस उम्र में अच्छी नहीं लगती. लोग मजाक उडा़ते हैं.

माताजी बिफर गईं. बोलीं, फ्अच्छे हैं तुम्हारे लोगबाग. पेड़ को सूखते हुए देख कर लोटा भर पानी तो देेंगे नहीं, अगर दूसरा कोई दे भी रहा हो तो जलेंगे भी. क्या हम लोगों को किसी बात करने वाले साथी की जरूरत नहीं है?

फ्मैं ने मना कब किया है? लेकिन— उसे आगे के शब्द नहीं सूझ रहे थे.

फ्हां, तुम्हारी सोसाइटी में स्त्रियां

औरों केघ्साथ खुलेआम नाच  तो सकती हैं, अविवाहित लड़केलड़कियां डेटिग तो कर सकते हैं लेकिन 2 बूढे़, जिन से कोई बात करने वाला नहीं, आपस में भी बातें नहीं कर सकते. यही सोसाइटी है तुम्हारी. वाहवाह.

एक दिन चाचाजी ने भतीजे से कहा,  फ्बेटे, मैं सोचता हूं कि मैं किसी आश्रम में जा कर अपना समय बिता दूं. तुम सभी भाई थोडे़थोडे़ पैसे भेजते रहोगे तो मेरा खर्च तो… मुझे पता है बेटे कि तुम्हारी तनख्वाह तुम्हारे लिए ही पर्याप्त नहीं, पर मैं—मेरा तोे कुछ है ही नहीं. बोझ बनना पड़ रहा है तुम सब पर—

महंती ने उन के पांव पकड़ लिए, फ्चाचाजी, हमें शमिरंा््दा न करें. मालू तो मूर्ख है. मैं उसे समझा दूंगा.

फ्नहीं बेटे, वह मूर्ख नहीं है. मूर्ख मैं हूं जो स्वावलंबी नहीं हूं. नौकरी सरकारी नहीं थी तो पेंशन कहां से मिलती. फिर भी, काश, मैं कुछ बचा कर रखता.

चाचाजी के इस सुझाव के बारे में जब माताजी को पता चला तो उन की आंखें भर आईं. मौका मिलते ही उन्होंने चाचाजी से कहा, फ्तुम मेरे साथ चलो, मेरा एक छोटा सा घर है गांव में. हां, भाषा तुम्हारी नहीं, पर मैं हूं वहां. मेरे साथ रहो. मैं भी तो नितांत अकेली हूं.

चाचाजी अवाक देखते रहे. फिर बोले, फ्लोग क्या कहेंगे, इस उम्र में हमारी दोस्ती लोगों की नजर में पवित्र नहीं हो सकती.

फ्तो हम शादी कर लेंगे. सच, मैं इस भरी दुनिया की तनहाई से तंग आ गई हूं. उस छोटे गांव में, अपने घर में शांति से रहना चाहती हूं. तुम भी चलो. दोनों के बाकी दिन कट जाएंगे, स्नेह केघ्सहारे.

फ्लेकिन लोग—लोग क्या कहेंगे? इतने बुढा़पे में शादी? फिर मैं तो—

फ्मुझे पता है कि तुम निर्धन हो, लेकिन तुम्हारे पास छलकते स्नेह और त्याग की जो दौलत है, उस की कोई कीमत नहीं है. और हां, उन लोगों की क्या परवा करनी जो तुम्हारी इस दौलत की कीमत नहीं जानते. फिर अब हमें कहां अपने बच्चे ब्याहने जाना है? वह हंस पडीं़.

फिर एक दिन उस फूलों से लदे बगीचे के पास एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से फूलों के हार पहने चाचाजी व माताजी उतरे. दोनों ने शादी कर ली थी. उसी टैक्सी में अपनाअपना सामान लदवा कर माताजी और चाचाजी गांव जाने के लिए स्टेशन चले गए.

इस के बाद सारे कैंप में ‘बूढी़ घोडी़, लाल लगाम’ के नारे, लतीफे और कहकहे कई दिनों तक गूंजते रहे. महंती और सांबशिवन का परिवार शरम के मारे कई दिनों तक मुंह छिपाए घर में बैठा रहा. घर से बाहर आने पर दोनों परिवारों ने गैरों से भी बढ़ कर अपने उन बूढों को गालियां दीं.

लेकिन उन बूढों के कानों तक यह सबकुछ कभी नहीं पहुंचा. वे दोनों आदमी स्नेह केघ्सहारे लंबी लगने वाली जिदगी को मजे से जीते रहे. अब वे अकेले जो नहीं रह गए थे.

इच्छा मृत्यु: क्यों भाई के लिए लाचार था डेनियल

‘‘मि. सिंह, क्या आप कुछ घंटे के लिए अपनी कार मुझे दे सकते हैं?’’ डेनियल डिपो ने संकोच भरे स्वर में कहा.

लहना सिंह ने हिसाबकिताब के रजिस्टर से अपना सिर उठाया और पढ़ने का चश्मा उतार कर सामने देखा. उस का स्थायी ग्राहक डेनियल डिपो, जो एक नीग्रो था, सामने खड़ा था.

उस के चेहरे पर याचना और संकोच के मिलजुले भाव थे. उस ने एक सस्ता ओवर कोट और हैट पहना हुआ था.

‘‘ओह, मि. डिपो, हाउ आर यू? क्या परेशानी है?’’ लहना सिंह ने आत्मीयता से पूछा.

‘‘आज ट्यूब बंद है. रेललाइन की मरम्मत चल रही है. मुझे परिवार सहित न्यूयार्क के बड़े अस्पताल अपने छोटे भाई को देखने जाना है. यहां का बस अड्डा दूर है. कैब (टैक्सी) का भाड़ा काफी महंगा पड़ता है. अगर आप की कार खाली हो तो…’’ डेनियल के स्वर में संकोच स्पष्ट झलक रहा था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, हमें आज कहीं नहीं जाना है. आप शौक से ले जाइए,’’ कहते हुए लहना सिंह ने कार की चाबी डेनियल को थमा दी.

‘‘थैंक्यू, थैंक्यू, मि. सिंह,’’ आभार व्यक्त करता डेनियल चाबी ले कर ग्रोसरी स्टोर के एक तरफ खड़ी कार की ओर बढ़ चला.

लहना सिंह को न्यूयार्क के एक उपनगर में किराने की बड़ी दुकान, जिसे ग्रोसरी स्टोर कहा जाता था, चलाते हुए 20 वर्ष से भी ज्यादा समय हो चुका था. उस ने शुरुआत छोटी सी दुकान के तौर पर की थी पर धीरेधीरे वह दुकान बड़े ग्रोसरी स्टोर में बदल गई थी.

भारत की तरह अमेरिका के महानगरों, शहरों और कसबों के आसपास निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय बस्तियां भी बसी हुई थीं. इन बस्तियों में रहने वाले परिवारों की जरूरतें भी आम भारतीय परिवारों जैसी ही थीं.

इन बस्तियों और परिवारों में रहने वालों की मानसिकता को समझने के बाद लहना सिंह को अपना व्यापार चलाने में थोड़ा समय ही लगा था.

आरंभ में उस की यह धारणा थी कि अमेरिका जैसे विकसित देश में महंगा और बढि़या खानेपीने का सामान ही बिक सकता था. मगर इस उपनगर में बसने के बाद उस की यह सोच बदल गई थी.

सस्ते और मोटे अनाज, सस्ते खाद्य तेल, साबुन, शैंपू, झाड़ू और अन्य सस्ते सामान की मांग यहां भी भारत के समान ही थी.

जिस तरह भारत का आम आदमी बड़े और महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरों में कदम रखने से कतराता था लगभग वही स्थिति यहां के आम निम्नवर्गीय लोगों की भी थी.

भारत के बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों में जैसे आम आदमी को उधार सामान मिलना संभव नहीं था, वैसे ही हालात आम अमेरिकी के लिए अमेरिका में भी थे. अमेरिका का निम्न बस्ती में बसने वाला परिवार चाहे श्वेत हो या अश्वेत, उधार सामान देने वाले दुकानदार को ही प्राथमिकता देता है.

लहना सिंह ने इस मानसिकता को समझ लिया और उस ने धीरेधीरे निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों में संपर्क बनाने शुरू किए. शुरुआत में थोड़े समय की थोड़ी रकम की उधार, फिर थोड़ी बड़ी उधार दे अपनी दुकान अच्छी जमा ली थी.

उस के ग्राहकों में अब श्वेत अमेरिकियों की तुलना में अश्वेत अमेरिकी, जिन्हें आम भाषा में ‘निगर’ कहा जाता है, थोड़े ज्यादा थे. दरअसल, इस उपनगर के करीब नीग्रो की बस्तियां ज्यादा थीं.

शुरुआत में लहना सिंह को इस उपनगर में दुकान खोलने में डर लगा था. कारण, उस के दिमाग में यह धारणा बनी कि नीग्रो उत्पाती और लुटेरे होते हैं. उन का काम ही बस लूटपाट करना है मगर बाद में यह धारणा अपनेआप बदल गई.

उस के साथी दुकानदारों, जिन में ज्यादातर उसी के समान सिख थे, ने उस को बताया था कि बदअमनी, लूटपाट, जबरन धन वसूली की घटनाएं अमेरिकी इन निम्नवर्ग वाले लोगों की बस्तियों की तुलना में अमेरिकी शहरों या महानगरों में ज्यादा थीं और भारत के अनेक प्रदेशों, जैसे बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश के कसबों में और भी ज्यादा थीं.

इन निगर कहे जाने वाले काले अमेरिकियों से मैत्रीसंबंध बनाने में लहना सिंह और अन्य एशियाई दुकानदारों व व्यापारियों को कोई ज्यादा समय नहीं लगा और दूसरी कोई दिक्कत भी पेश न आई.

जिस तरह किसी खूंखार पशु या जानवर को उस के अनुकूल व्यवहार और आहार दे कर वश में किया जा सकता है उसी तरह इन उत्पाती समझे जाने वाले काले हब्शियों को समयसमय पर सामान और डालर उधार दे कर और कभीकभार उन के साथ खानापीना खा कर लहना सिंह ने दोस्ताना संबंध बना लिए थे.

वह बेखौफ उन की बस्तियों में जा कर घूमफिर आता था, सामान दे आता था और उगाही कर आता था.

शाम को डेनियल उस की कार वापस करने आया. वह चाबी थमाते बारबार आभार व्यक्त करता थैंक्यू

मि. सिंह, थैंक्यू मि. सिंह बोल रहा था.

‘‘कोई बात नहीं मि. डेनियल, बहुत मामूली बात है.’’

‘‘मि. सिंह, मैं ने कार की टंकी में गैस भरवा दी है.’’

‘‘उस की क्या जरूरत थी. मामूली खर्च की बात है.’’

‘‘ओ.के. मि. सिंह, अब मैं चलूंगा.’’

‘‘एक कप कौफी तो पीजिए, भाई कैसा है आप का?’’

डेनियल की आंखें नम हो गईं. वह आर्द्र स्वर में बोला, ‘‘मि. सिंह, हम से उस की तकलीफ नहीं सही जाती है. वह बारबार जहर का इंजेक्शन लगाने को कहता है. डाक्टर बिना सरकारी आदेश के ऐसा करने में असमर्थता जताता है.’’

लहना सिंह ने आत्मीयता के साथ डेनियल का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाते हुए कौफी का कप पकड़ा दिया. डेनियल इस स्नेह स्पर्श से और भी नम हो उठा. वह चुपचाप कौफी पीने लगा.

डेनियल का छोटा भाई किसी जानलेवा लाइलाज बीमारी से ग्रस्त सरकारी अस्पताल में भरती था. इलाज के सभी प्रयास निष्फल रहे थे. अब उस की इच्छा मृत्यु यानी दया मृत्यु की याचिका अमेरिका के राष्ट्रपति के पास विचाराधीन थी.

कौफी समाप्त कर डेनियल उठा और धन्यवाद कह कर जाने लगा. लहना सिंह ने उस को ढाढ़स बंधाते हुए कहा, ‘‘मि. डेनियल, मैं कल आप के यहां आऊंगा.’’

अगले दिन लहना सिंह अपने लड़के को स्टोर संभालने को कह कर निगर बस्ती की तरफ चल पड़ा. आम भारतीय कसबों की तरह छोटी, संकरी, कच्चीपक्की गलियों से बनी यह बस्ती एक तरह की स्लम ही थी.

निगर बस्ती में मकानों की छतें ऊंचीनीची थीं. गलियों में कपड़े सूखने के लिए तारों पर लटके थे. कई जगह गलियों में पानी जमा था. ढाबेनुमा दुकान के बाहर खड़ेखड़े लोग खापी रहे थे. मांस खाने के बाद हड्डियां यहांवहां बिखरी पड़ी थीं.

एक पबनुमा दुकान के बाहर बीयर का मग थामे नौजवान लड़के- लड़कियां बीयर पी रहे थे. उन में हंसीमजाक हो रहा था. कोई वायलिन बजा रहा था, कोई माउथआरगन से धुनें निकाल रहा था.

अमेरिका की इन निम्न बस्तियों में छेड़छाड़ की घटनाएं कम सुनने में आतीं. कारण, लड़केलड़कियों का खुला मेलजोल होना, डेटिंग पर जाना आम बात थी.

भारत और अमेरिका के निम्न- मध्यवर्गीय लोगों में एक बात एक जैसी थी कि आदमी आदमी के करीब था. भारत में भी जैसेजैसे व्यक्ति पैसे वाला होता है वैसेवैसे वह आम आदमी से दूर होता जाता है.

स्वयं में सिमटने की प्रवृत्ति पाश्चात्य और अमेरिकी देशों में अमीरी बढ़ने के कई दशक पहले बढ़ चुकी थी. वही प्रवृत्ति अब भारत के नवधनाढ्य वर्ग में बढ़ रही है.

लहना सिंह का परिवार भारत में आम और निम्नवर्गीय लोगों के लिए दुकानदारी करता था अब अमेरिका में भी वह इन्हीं तबकों का दुकानदार था.

अमेरिका आने पर लहना सिंह कई महीने न्यूयार्क में कैब यानी टैक्सी चलाता रहा. सप्ताहांत में छुट्टी बिताने पबों, बारों, डिस्कोथैकों में जाता था, जहां उच्च वर्ग के लोग आते थे. उन के चेहरों पर बनावटी मुसकराहट, बनावटी हंसी, झलकती थी. बदन से बदन सटा कर नाचने वाले कितने एकदूसरे के समीप थे यह सभी जानते थे.

उन की तुलना में ये गरीब तबके के लोग खुल कर हंसते और एकदूसरे के समीप थे. दुखसुख में साथ देते थे.

डेनियल उस का इंतजार कर रहा था. उस के यहां लहना सिंह आमतौर पर आताजाता था. किराने का सामान साइकिल की टोकरी या कैरियर पर रख कर थमा जाता था. नियत तारीख पर भुगतान ले जाता था. ऐसा उस बस्ती के अनेक घरों के साथ था.

डेनियल की पत्नी ने लहना सिंह का अभिवादन किया. फिर सभी कौफी पीने लगे. घर का माहौल थोड़ी उदासी भरा था. संवेदना के स्वर हर जगह समान रूप से अपने सुरों का प्रभाव छोड़ते ही हैं.

इधरउधर की सामान्य बातों के बाद लहना सिंह ने डेनियल से उस के छोटे भाई के बाबत पूछा.

‘‘राष्ट्रपति के पास विचाराधीन पड़ी मर्सी किलिंग पेटिशन का फैसला दोचार दिन में होने की संभावना है,’’ डेनियल ने गम भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या इस के बिना कोई और रास्ता नहीं है?’’

‘‘निरंतर तकलीफ झेलते, तिलतिल कर मरने के बजाय अगर उसे एकबारगी मुक्ति दिला दी जाए तो क्या अच्छा नहीं है?’’

डेनियल के चेहरे से पीड़ा साफ झलक रही थी.

लहना सिंह भी अवसाद से भर उठा. कहां तो हर कोई मृत्यु से बचने की कोशिश करता था. कहां अब मृत्यु की इच्छा करते मार दिए जाने की दरख्वास्त लगा कर मौत का इंतजार कर रहा था.

‘‘आप अस्पताल कब जाओगे?’’

‘‘रोज ही जाता हूं. आज बड़े लड़के को भेजा है.’’

‘‘भाई का खानापीना?’’

‘‘क्या खा सकता है वह? ट्यूब नली द्वारा उसे तरल भोजन दिया जाता है. सब सरकारी खाना होता है. हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते, न कोई दवा दे सकते हैं, न कोई खुराक.’’

‘‘कल मैं भी चलूंगा.’’

अगले दिन लहना सिंह और डेनियल भूमिगत रेल, जिसे भारत में मेट्रो और अमेरिका व इंगलैंड में ट्यूब कहा जाता है, के द्वारा सरकारी अस्पताल पहुंचे.

एक बड़े बेड पर आक्सीजन मास्क नाक और आधे चेहरे पर चढ़ाए डेनियल का छोटा भाई लेटा था. उस की आंखें अधखुली थीं. उस के चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव साफ दिखाई पड़ रहे थे.

भाई ने भाई को देखा. दोनों ही लाचार थे. बड़ा छोटे को बचाना चाहते हुए भी बचा नहीं पा रहा था. छोटा उसे ज्यादा समय परेशानी नहीं देना चाहता था. संवेदना अपनेआप को खामोश रास्ते से व्यक्त कर रही थी.

अवसाद से भरा लहना सिंह डेनियल का कंधा थपथपा लौट आया था.

2 दिन बाद, राष्ट्रपति द्वारा दयामृत्यु की याचिका स्वीकार कर ली गई थी. आज जहर के इंजेक्शन द्वारा मृत्युदान दिया जाना था.

सगेसंबंधी, मित्र, पड़ोसी, लहना सिंह और अनेक समाचारपत्रों के संवाददाता डैथ चेंबर के शीशे से अंदर झांक रहे थे.

जहर का इंजेक्शन देने को नियुक्त डाक्टर का चेहरा भी अवसाद भरा था. उसे जल्लाद की भूमिका निभानी थी. डाक्टर का काम किसी की जान बचाना होता है, जान लेना नहीं. मगर कर्तव्य कर्तव्य था.

डाक्टर ने एकबारगी बाहर की तरफ देखा फिर सिरिंज बांह में पिरो कर उस में भरा द्रव्य शरीर में दाखिल कर दिया. मरने की इच्छा करने वाली आंखें धीरेधीरे बंद होती गईं. सर्वत्र खामोशी छा गई थी.

ताबूत को कब्र में उतार उस पर मिट्टी समतल कर एक पत्थर लगा दिया गया था. फूलों के गुलदस्ते कब्र पर चढ़ा सभी भारी मन से कब्रिस्तान से बाहर आ रहे थे.

Best Family Drama- विदाई: पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

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शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

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‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

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‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई. ‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

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नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी. घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.ॉ

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सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

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‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.

Social Story In Hindi : रूढ़ियों के साए में: दिव्या ने क्या बनाया था प्लान

दीपों की टेढ़ीमेढ़ी कतारों के कुछ दीप अपनी यात्रा समाप्त कर अंधकार के सागर में विलीन हो चुके थे, तो कुछ उजाले और अंधेरे के बीच की दूरी में टिमटिमा रहे थे. गली का शोर अब कभीकभार के पटाखों के शोर में बदल चुका था.

दिव्या ने छत की मुंडेर से नीचे आंगन में झांका जहां मां को घेर पड़ोस की औरतें इकट्ठी थीं. वह जानबूझ कर वहां से हट आई थी. महिलाओं का उसे देखते ही फुसफुसाना, सहानुभूति से देखना, होंठों की मंद स्मिति, दिव्या अपने अंतर में कहां तक झेलती? ‘कहीं बात चली क्या…’, ‘क्या बिटिया को बूढ़ी करने का इरादा है…’ वाक्य तो अब बासी भात से लगने लगे हैं, जिन में न कोई स्वाद रहता है न नयापन. हां, जबान पर रखने की कड़वाहट अवश्य बरकरार है.

काफी देर हो गई तो दिव्या नीचे उतरने लगी. सीढि़यों पर ही रंभा मिल गई. बड़ेबड़े फूल की साड़ी, कटी बांहों का ब्लाउज और जूड़े से झूलती वेणी…बहुत ही प्यारी लग रही थी, रंभा.

‘‘कैसी लग रही हूं, दीदी…मैं?’’ रंभा ने उस के गले में बांहें डालते हुए पूछा तो दिव्या मुसकरा उठी.

‘‘यही कह सकती हूं कि चांद में तो दाग है पर मेरी रंभा में कोई दाग नहीं है,’’ दिव्या ने प्यार से कहा तो रंभा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘चलो न दीदी, रोशनी देखने.’’

‘‘पगली, वहां दीप बुझने भी लगे, तू अब जा रही है.’’

‘‘क्या करती दीदी, महल्ले की डाकिया रमा चाची जो आ गई थीं. तुम तो जानती हो, अपने शब्दबाणों से वे मां को कितना छलनी करती हैं. वहां मेरा रहना जरूरी था न.’’

दिव्या की आंखें छलछला आईं. रंभा को जाने का संकेत करती वह अपने कमरे में चली आई. बत्ती बुझाने के पूर्व उस की दृष्टि सामने शीशे पर चली गई, जहां उस का प्रतिबिंब किसी शांत सागर की याद दिला रहा था. लंबे छरहरे शरीर पर सौम्यता की पहनी गई सादी सी साड़ी, लंबे बालों का ढीलाढाला जूड़ा, तारे सी नन्ही बिंदी… ‘क्या उस का रूप किसी पुरुष को रिझाने में समर्थ नहीं है? पर…’

बिस्तर पर लेटते ही दिव्या के मन के सारे तार झनझना उठे. 30 वर्षों तक उम्र की डगर पर घिसटघिसट कर बिताने वाली दिव्या का हृदय हाहाकार कर उठा. दीवाली का पर्व सतरंगे इंद्रधनुष में पिरोने वाली दिव्या के लिए अब न किसी पर्व का महत्त्व था, न उमंग थी. रूढि़वादी परिवार में जन्म लेने का प्रतिदान वह आज तक झेल रही है. रूप, यौवन और विद्या इन तीनों गुणों से संपन्न दिव्या अब तक कुंआरी थी. कारण था जन्मकुंडली का मिलान.

तकिए का कोना भीगा महसूस कर दिव्या का हाथ अनायास ही उस स्थान को टटोलने लगा जहां उस के बिंदु आपस में मिल कर अतीत और वर्तमान की झांकी प्रस्तुत कर रहे थे. अभी एक सप्ताह पूर्व की ही तो बात है, बैठक से गुजरते हुए हिले परदे से उस ने अंदर देख लिया था. पंडितजी की आवाज ने उसे अंदर झांकने पर मजबूर किया, आज किस का भाग्य विचारा जा रहा है? पंडितजी हाथ में पत्रा खोले उंगलियों पर कुछ जोड़ रहे थे. कमरे तक आते हुए दिव्या ने हिसाब लगाया, 7 वर्ष से उस के भाग्य की गणना की जा रही है.

खिड़की से आती धूप की मोटी तह उस के बिस्तर पर साधिकार पसरी हुई थी. दिव्या ने क्षुब्ध हो कर खिड़की बंद कर दी.

‘‘दीदी…’’ बाहर से रंभा ने आते ही उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘बाहर क्या हो रहा है…’’ संभलते हुए दिव्या ने पूछा था.

‘‘वही गुणों के मिलान पर तुम्हारा दूल्हा तोला जा रहा है.’’

रंभा ने व्यंग्य से उत्तर दिया, ‘‘दीदी, मेरी समझ में नहीं आता…तुम आखिर मौन क्यों हो? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या बोलूं, रंभा?’’

‘‘यही कि यह ढकोसले बंद करो. 7 वर्षों से तुम्हारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है और तुम शांत हो. आखिर ये गुण मिल कर क्या कर लेंगे? कितने अच्छेअच्छे रिश्ते अम्मांबाबूजी ने छोड़ दिए इस कुंडली के चक्कर में. और वह इंजीनियर जिस के घर वालों ने बिना दहेज के सिर्फ तुम्हें मांगा था…’’

‘‘चुप कर, रंभा. अम्मां सुनेंगी तो क्या कहेंगी.’’

‘‘सच बोलने से मैं नहीं डरती. समय आने दो. फिर पता चलेगा कि इन की रूढि़वादिता ने इन्हें क्या दिया.’’

रंभा के जलते वाक्य ने दिव्या को चौंका दिया. जिद्दी एवं दबंग लड़की जाने कब क्या कर बैठे. यों तो उस का नाम रंभा था पर रूप में दिव्या ही रंभा सी प्रतीत होती थी. मां से किसी ने एक बार कहा भी था, ‘बहन, आप ने नाम रखने में गलती कर दी. रंभा सी तो आप की बड़ी बेटी है. इसे तो कोई भाग्य वाला मांग कर ले जाएगा,’

तब मां चुपके से उस के कान के पीछे काला टीका लगा जातीं. कान के पीछे लगा काला दाग कब मस्तक तक फैल आया, स्वयं दिव्या भी नहीं जान पाई.

बी.एड. करते ही एक इंटर कालेज में दिव्या की नौकरी लग गई तो शुरू हुआ सिलसिला ब्याह का. तब पंडितजी ने कुंडली देख कर बताया कि वह मंगली है, उस का ब्याह किसी मंगली युवक से ही हो सकता है अन्यथा दोनों में से कोई एक शीघ्र कालकवलित हो जाएगा.

पहले तो उस ने इसे बड़े हलकेफुलके ढंग से लिया. जब भी कोई नया रिश्ता आता, उस के गाल सुर्ख हो जाते, दिल मीठी लय पर धड़कने लगता. पर जब कई रिश्ते कुंडली के चक्कर में लौटने लगे तो वह चौंक पड़ी. कई रिश्ते तो बिना दानदहेज के भी आए पर अम्मांबाबूजी ने बिना कुंडली का मिलान किए शादी करने से मना कर दिया.

धीरेधीरे समय सरकता गया और घर में शादी का प्रसंग शाम की चाय सा साधारण बैठक की तरह हो गया. एकदो जगह कुंडली मिली भी तो कहीं लड़का विधुर था, कहीं परिवार अच्छा नहीं था. आज घर में पंडितजी की उपस्थिति बता रही थी कि घर में फिर कोई तामझाम होने वाला है.

वही हुआ, रात्रि के भोजन पर अम्मांबाबूजी की वही पुरानी बात छिड़ गई.

‘‘मैं कहती हूं, 21 गुण कोई माने नहीं रखते, 26 से कम गुण पर मैं शादी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘पर दिव्या की मां, इतनी देर हो चुकी है. दिव्या की उम्र बीती जा रही है. कल को रिश्ते मिलने भी बंद हो जाएंगे. फिर पंडितजी का कहना है कि यह विवाह हो सकता है.’’

‘‘कहने दो उन्हें, एक तो लड़का विधुर, दूसरे, 21 गुण मिलते हैं,’’ तभी वे रुक गईं.

रंभा ने पानी का गिलास जोर से पटका था, ‘‘सिर्फ विधुर है. उस से पूछो, बच्चे कितने हैं? ब्याह दीदी का उसी से करना…गुण मिलना जरूरी है लेकिन…’’

रंभा का एकएक शब्द उमंगों के तरकश से छोड़ा हुआ बाण था जो सीधे दिव्या ने अपने अंदर उतरता महसूस किया.

‘‘क्या बकती है, रंभा, मैं क्या तुम लोगों की दुश्मन हूं? हम तुम्हारे ही भले की सोचते हैं कि कल को कोई परेशानी न हो, इसी से इतनी मिलान कराते हैं,’’ मां की झल्लाहट स्वर में स्पष्ट झलक रही थी.

‘‘और यदि कुंडली मिलने के बाद भी जोड़ा सुखी न रहा या कोई मर गया तो क्या तुम्हारे पंडितजी फिर से उसे जिंदा कर देंगे?’’ रंभा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘अरे, कीड़े पड़ें तेरी जबान में. शुभ बोल, शुभ. तेरे बाबूजी से मेरे सिर्फ 19 गुण मिले थे, आज तक हम दोनों विचारों में पूरबपश्चिम की तरह हैं.’’

अम्मांबाबूजी से बहस व्यर्थ जान रंभा उठ गई. दिव्या तो जाने कब की उठ कर अपने कमरे में चली गई थी. दोचार दिन तक घर में विवाह का प्रसंग सुनाई देता रहा. फिर बंद हो गया. फिर किसी

नए रिश्ते की बाट जोहना शुरू हो गया. दिव्या का खामोश मन कभीकभी विद्रोह करने को उकसाता पर संकोची संस्कार उसे रोक देते. स्वयं को उस ने मांबाप एवं परिस्थितियों के अधीन कर दिया था.

रंभा के विचार सर्वथा भिन्न थे. उस ने बी.ए. किया था और बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. अम्मांबाबूजी के अंधविश्वासी विचारों पर उसे कुढ़न होती. दीदी का तिलतिल जलता यौवन उसे उस गुलाब की याद दिलाता जिस की एकएक पंखड़ी को धीरेधीरे समय की आंधी अपने हाथों तोड़ रही हो.

आज दीवाली की ढलती रात अपने अंतर में कुछ रहस्य छिपाए हुए थी. तभी तो बुझते दीपों के साथ लगी उस की आंख सुबह के हलके शोर से टूट गई. धूप काफी निकल आई थी. रंभा उत्तेजित स्वरों में उसे जगा रही थी, ‘‘दीदी…दीदी, उठो न…देखो तो भला नीचे क्या हो रहा है…’’

‘‘क्या हो रहा है नीचे? कोई आया है क्या?’’

‘‘हां, दीदी, अनिल और उस के घर वाले.’’

‘‘अनिल वही तो नहीं जो तुम्हारा मित्र है और जो मुंसिफ की परीक्षा में बैठा था,’’ दिव्या उठ बैठी.

‘‘हां, दीदी, वही. अनिल की नियुक्ति शाहजहांपुर में ही हो गई है. दीदी, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. सोचा था शादी की बात घर में चलाएंगे पर कल रात अचानक अनिल के घर वालों ने अनिल के लिए लड़की देखने की बात की तब अनिल ने उन्हें मेरे बारे में बताया.’’

‘‘फिर…’’ दिव्या घबरा उठी.

‘‘फिर क्या? उन लोगों ने तो मुझे देखा था, वह अनिल पर इस कारण नाराज हुए कि उस ने उन्हें इस विषय में पहले ही क्यों नहीं बता दिया, वे और कहीं बात ही न चलाते. वे तो रात में ही बात करने आ रहे थे पर ज्यादा देर हो जाने से नहीं आए. आज अभी आए हैं.’’

‘‘और मांबाबूजी, वे क्या कह रहे हैं?’’ दिव्या समझ रही थी कि रंभा का रिश्ता भी यों आसानी से तय होने वाला नहीं है.

‘‘पता नहीं, उन्हें बिठा कर मैं पहले तुम्हें ही उठाने आ गई. दीदी, तुम उठो न, पता नहीं अम्मां उन से क्या कह दें?’’

दिव्या नीचे पहुंची तो उस की नजर सुदर्शन से युवक अनिल पर पड़ी. रंभा की पसंद की प्रशंसा उस ने मन ही मन की. अनिल की बगल में उस की मां और बहन बैठी थीं. सामने एक वृद्ध थे, संभवत: अनिल के पिताजी. उस ने सुना, मां कह रही थीं, ‘‘यह कैसे हो सकता है बहनजी, आप वैश्य हम बंगाली ब्राह्मण. रिश्ता तो हो ही नहीं सकता. कुंडली तो बाद की चीज है.’’

‘‘पर बहनजी, लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं. हमें भी रंभा पसंद है. अच्छी लड़की है, फिर समस्या क्या है?’’ यह वृद्ध सज्जन का स्वर था.

‘‘समस्या यही है कि हम दूसरी जाति में लड़की नहीं दे सकते,’’ मां के सपाट स्वर पर मेहमानों का चेहरा सफेद हो गया. अपमान एवं विषाद की रेखाएं उन के अस्तित्व को कुरेदने लगीं. अनिल की नजर उठी तो दिव्या की शांत सागर सी आंखों में उलझ गई. घने खुले बाल, सादी सी धोती और शरीर पर स्वाभिमान की तनी हुई कमान. वह कुछ बोलता इस के पूर्व ही दिव्या की अपरिचित ध्वनि गूंजी, ‘‘यह शादी अवश्य होगी, मां. अनिल रंभा के लिए सर्वथा उपयुक्त वर है. ऐसे घर में जा कर रंभा सुखी रहेगी. चाहे कोई कुछ भी कर ले मैं जाति एवं कुंडली के चक्कर में रंभा का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

‘‘दिव्या, यह तू…तू बोल रही है?’’ पिता का स्वर आश्चर्य से भरा था.

‘‘बाबूजी, जो कुछ होता रहा, मैं शांत हो देखती रही क्योंकि आप मेरे मातापिता हैं, जो करते अच्छा करते. परंतु 7 वर्षों में मैं ने देख लिया कि अंधविश्वास का अंधेरा इस घर को पूरी तरह समेटे ले रहा है.

‘‘रंभा मेरी छोटी बहन है. उसे मुझ से भी कुछ अपेक्षाएं हैं जैसे मुझे आप से थीं. मैं उस की अपेक्षा को टूटने नहीं दूंगी. यह शादी होगी और जरूर होगी,’’ फिर वह अनिल की मां की तरफ मुड़ कर बोली, ‘‘आप विवाह की तिथि निकलवा लें. रंभा आप की हुई.’’

अब आगे किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ पर रंभा सोच रही थी, ‘दीदी नारी का वास्तविक प्रतिबिंब है जो स्वयं पर हुए अन्याय को तो झेल लेती है पर जब चोट उस के वात्सल्य पर या अपनों पर होती है तो वह इसे सहन नहीं कर पाती. इसी कारण तो ढेरों विवाद और तूफान को अंतर में समेटे सागर सी शांत दिव्या आज ज्वारभाटा बन कर उमड़ आई है.’

Family Story In Hindi- नैपकिंस का चक्कर : मधुश ने क्यों किया सास का शुक्रिया

शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

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