कालिमा: भाग 3- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

भोजन करने के बाद वह रंजन से मिलने चला गया. 4 माह बीत गए. दोपहर के 12 बज रहे थे. बाबाअम्मां बेहद व्यस्त थे.

तभी बाहर एक रिकशा रुका.

रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू सुमंत और श्लेषा थे. श्लेषा ने अपनी भेदी नजरें चौराहे से ही घर पर गड़ा दी थीं. रिकशा रुकने के साथ ही उस ने घर का जायजा ले लिया. बाहर ढेर सारे स्कूटर मोटरसाइकिलें, अंदर लोगों की चहलपहल. यदि पहले से उसे यह जानकारी नहीं होती कि बाबा ने ‘ढाबा’ खोल लिया है तो घर पर लोगों की ‘भीड़’ देख वह यही समझती कि सासससुर में से कोई एक ‘खिसक’ गया है.

ईर्ष्या से उस ने दांत पीस लिए. पास बैठा सुमंत भी चोर नजरों से सब ताड़ रहा था. पिछले 4 महीनों में उस ने एक बार भी मातापिता की खोजखबर नहीं ली थी. वह आज भी यहां नहीं झांकता, मगर पिछले हफ्ते एक रिश्तेदार के यहां शादी में किसी परिचित ने उसे जानकारी दी कि उस के बाबा रिटायर्ड लाइफ में भी भरपूर कमाई कर रहे हैं, सर्विस लाइफ से भी ज्यादा.

उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ था. श्लेषा की तो छाती पर सांप लोट गया था. ऐसा कौन सा तीर मारा होगा बुढ़ऊ ने? कहीं मकान बेच कर ऐश तो नहीं कर रहे बुड्ढेबुढि़या? हिस्सा हमारा भी है उस में. श्लेषा ने तुरंत मोबाइल पर अपने मायके बात की और सारी जानकारियां जुटाने को कहा.

4-5 दिन में उस के भैया ने हैरतअंगेज जानकारियां दीं, ‘‘बाबा ने ऊपरी मंजिल पर दर्जन भर लड़कों का छात्रावास बना दिया…नीचे मेस चालू कर दी…इन छात्रों के कारण मेस में बीसियों और छात्र आने लगे. रंजन के परिचय की वजह से बिना परिवार के रहने वाले बैंककर्मी व अन्य लोग भी. ढाबा ही खोल लिया बाबा ने. टिफिन सर्विस भी है. 200 से ज्यादा परमानेंट मेंबर बन गए हैं.’’

‘‘200 मेंबर…?’’ सुमंत की आंखें आश्चर्य से 2 सेंटीमीटर फैल गईं. यदि प्रति मेंबर कमाई 100 रुपए भी हो तो महीने के 20 हजार…

‘‘बाप रे,’’ वह स्वयं महीने के 14 हजार कमाता था. श्लेषा गरदन तान कर रिश्तेदारों में इस का बखान करती थी. मगर बाबा की कमाई तो…इस बुढ़ापे में…हायहाय…

उस के अंगअंग में ईर्ष्या की आग लग गई. उस का युवा पुत्र सलिल साल भर से अपना व्यापार जमाने का यत्न कर रहा था. 2-3 लाइनें बदल ली थीं. सफलता दूरदूर तक नजर नहीं आ रही थी. उलटे 30-35 हजार रुपयों का घाटा हो गया था.

सुमंत के स्वार्थी जेहन में फौरन एक स्कीम आई. क्यों न सलिल को बाबा के साथ फिट कर दिया जाए? वैसे भी बाबा को सहारे की जरूरत होगी. थक जाते होंगे बेचारे.

निर्णय लेने में फिर उस ने एक मिनट की भी देरी नहीं की. श्लेषा को साथ ले कर वह तुरंत यहां आ धमका.

रिकशे से उतर दोनों लोहे के गेट तक आए, अंदर का दृश्य साफ दिख रहा था. बडे़ हाल को बाबा ने भोजनकक्ष बना दिया था. देसी ढंग से नीचे बैठ कर ग्राहक भोजन ग्रहण कर रहे थे. बाबा की आवाज बाहर तक आ रही थी. बाबा पारिवारिक वात्सल्य से आग्रह करकर के ग्राहकों को भोजन करवा रहे थे. वे घूमघूम कर परोसियों (बेयरों) को निर्देश भी दे रहे थे.

तभी एक नौकर की नजर सुमंत और श्लेषा पर पड़ी, अंगोछे से हाथ पोंछता वह इन की ओर लपका.

करीब आ कर उस ने पूछा, ‘‘भोजन करना है?’’ फिर सूटकेस आदि देख उस ने कहा, ‘‘लेकिन साहब, हमारे यहां ठहरने की व्यवस्था नहीं है. ठहरने के वास्ते आप को किसी होटल में…’’

‘‘अबे,’’ गुस्से से सुमंत ने दांत पीसे, ‘‘बेवकूफ, हमें पहचानता नहीं. हम यहां के मालिक हैं.’’

‘‘मालिक?’’ होंठों में बुदबुदा कर वह सिर खुजाने लगा. मालिक तो अंदर बैठे हैं, फिर फूलगोभी के कीडे़ की तरह  यह कौन एकाएक प्रगट हो गया.

सुमंत ने गुर्रा कर उसे सामान उठाने का हुक्म दिया. नौकर अनसुना कर के खड़ा रहा.

तभी अंदर से बाबा की आवाज आई, ‘‘फतहचंद? पानी लाना, बेटा.’’

‘‘जी, लाया, बाबा,’’ फतहचंद बिना सामान उठाए अंदर भागा. सुमंत सामान उठाने का निर्देश देता रह गया. इस अपरोक्ष अपमान ने सुमंत का चेहरा लाल कर दिया. इच्छा हुई अभी अंदर जा कर इस फत्तू को तड़ातड़ 2-4 थप्पड़ जमा दे. तभी उसे ध्यान आया कि फिलहाल गरज उस की है और यह नौकर बाबा का है. बाबा के नौकरों को डांटने पर बाबा नाराज हो सकते हैं.

दोनों बरामदे में आ कर ठिठक गए. घर में प्रवेश पहले बडे़ हाल से करते थे. वहां ग्राहक भोजन कर रहे थे इसलिए उधर से जाना उचित नहीं रहेगा. जूतेचप्पल उतार कर वे साइड वाले छोटे कमरे में आए. बाबा ने उसे आफिस बना दिया था. कमरे में कोई नहीं था. इस कमरे में अंदरूनी द्वार से वे गलियारे में आए. तभी बाबाअम्मां ने उन्हें देख लिया.

बाबा और अम्मां से नजरें मिलते ही सुमंत और श्लेषा ने अपने होंठों पर गजभर की मीठीमीठी आत्मीय मुसकान बिखेर ली और बेटे ने आगे बढ़ कर आदरपूर्वक अपने मातापिता के चरण स्पर्श किए. बाबाअम्मां मन ही मन मुसकरा दिए. बहुत मानसम्मान उमड़ रहा है बुड्ढेबुढि़या पर (श्लेषा उन्हें यही संबोधन देती थी).

वैसे उन्होंने सुमंत  और श्लेषा को रिकशे से उतरते ही देख लिया था. जानबूझ कर वे अपनेआप को व्यस्त दिखलाते रहे. उन के प्रणाम करने पर बाबाअम्मां ने भावशून्य चेहरे से आशीर्वाद दिया, फिर कुशलक्षेम की 2-3 बातें पूछ कर औपचारिकता निभाई और अपने काम में व्यस्त हो गए. बाबा हाल में चले गए, अम्मां किचन में.

रह गए सुमंत और श्लेषा. उन्हें सूझ नहीं रहा था कि अपना सामान घर के किस कोने में रखें, स्नानादि कहां करें. अपने ही घर में वे उपेक्षित से खडे़ थे.

अचानक श्लेषा को वे दिन याद आ गए जब बाबाअम्मां उस के घर रहने के लिए आए थे. दोनों बूढे़ इनसान अपने ही पुत्र के घर में किस तरह टुकुरटुकुर…बेबसी से अपनेआप में सिमटेदुबके रहते थे. ‘धरती का बोझ’ बोलता था सुमंत उन्हें.

3-4 मिनट बीत गए. बाबा, अम्मां, नौकर किसी ने भी उन की ओर ध्यान नहीं दिया. आखिरकार सुमंत अम्मां के पास गया, ‘‘अम्मां, तैयार होने के लिए हम ऊपर जाते हैं.’’

‘‘ऊपर तो कालिज के लड़के रहते हैं. अभी उन की परीक्षाएं चल रही हैं.’’

फिर सुमंत ने याचक दृष्टि अपनी जननी पर टिका दी.

अम्मां ने फतहचंद को इशारा किया. फतहचंद उन्हें किचन के बाजू वाले कमरे में ले गया.

4-5 माह पूर्व, जब बाबाअम्मां सुमंत के घर रहने गए थे, श्लेषा किचन में झांकती तक नहीं थी. बेचारी अम्मां अकेली खटती रहतीं. मगर आज अम्मां के घर, श्लेषा को किचन में जाने की बहुत जल्दी हो रही थी. आधे घंटे में नहाधो कर वह किचन में पहुंच गई.

अम्मांजी उस वक्त वहां 2 नौकरों से टिफिन भरवा रही थीं. श्लेषा बिना कहे नौकरों के संग काम में जुट गई. अम्मांजी ने इसरार भी किया कि ‘यहां का काम तुम्हें समझ नहीं आएगा,’ मगर श्लेषा ने उन की बात को अनसुना कर दिया और सुघड़ बहू की तरह सास के काम में हाथ  बंटाती रही. भोजन बनाने वालियों के संग रोटियां बेलने में भी उसे संकोच नहीं हुआ.

अम्मां मन ही मन मुसकरा कर स्टोर रूम की तरफ चली गईं. श्लेषा रसोईवाली बाइयों के संग बतियाते हुए फटाफट हाथ चलाने लगी. तभी अचानक उस के कान खडे़ हो गए. बाहर से अनंत और मेघा की आवाज आ रही थी.

देवरदेवरानी की आवाज सुनते ही वह चौंक पड़ी. तुरंत गरदन उचका कर गलियारे में झांका. अनंत और मेघा बतियाते हुए गलियारे में आ रहे थे. उन को देख श्लेषा सकते में आ गई. ये दोनों भला क्यों आए, कहीं इन की भी कोई प्लानिंग तो नहीं है? इन के अंकित ने इसी वर्ष ग्रेजुएशन किया है.

आशंका से श्लेषा की सांस जहां की तहां थम गई. अनंत और मेघा उसे अपने ‘दुश्मन नंबर वन’ नजर आने लगे. इधर रोटी बेल रही गोमतीबाई ने बतलाया, ‘‘दोनों कल शाम को आए थे. अभी कालोनी में शर्माजी से मिलने गए थे.’’

आगे पढ़ें- अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए….

कालिमा: भाग 2- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

सोचसोच कर श्रुति का कलेजा मुंह को आने लगा. श्रुति को बेटी समझ कर रखा था बाबाअम्मां ने. दरअसल, उन की स्वयं की बेटी का नाम श्रुतकीर्ति था. नाम की इस समरूपता ने बाबाअम्मां को कुछ ज्यादा ही जोड़ दिया था श्रुति से. अब ऐसे स्नेहिल मातापिता को छोड़ कर वह कैसे चल दे.

तभी नीचे टाटा सूमो के रुकने की आवाज आई. गांव से उस के सासससुर (मांबाबूजी) आने वाले थे. श्रुति उठी और आंसू पोंछतीपोंछती नीचे आई.

मांबाबूजी ही थे. श्रुति की उड़ी रंगत देख वे घबरा गए. श्रुति ने हाथ के इशारे से चुप रहने का संकेत किया और ऊपर आ कर उन्हें सब हाल कह सुनाया. सुन कर उन्हें गहरा सदमा लगा.

बाबा को अपना बड़ा भाई मानने लगे थे बाबूजी. बाबाअम्मां की आत्मीयता देख मांबाबूजी निश्चिंत रहते थे. गांव में रहते हुए उन्हें अपने बेटेबहू की चिंता करने की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.

उन्होंने फौरन निर्णय लिया, रंजन उस मकान को बेच देगा और यहीं रह कर बाबाअम्मां की सेवा करेगा.

बाबा को जब इस निर्णय की जानकारी हुई, उन्होंने इस का विरोध किया. उन्होंने समझाया, ‘‘गहने और मकान बनवा लिए तो बन जाते हैं, वरना योजनाएं ही बनती रहती हैं, इसलिए भावनाओं में बह कर अब हो रहे कार्य को टालो मत.’’

बाबा की दूरंदेशी भरी सलाह के आगे सब को झुकना पड़ा और रंजन के घर का गृह- प्रवेश हो गया.

रंजन अपने घर चला गया. वह तो 2-3 माह बाद जाना चाहता था, पर  बाबाअम्मां ने समझाया, ‘‘गृहप्रवेश के बाद घर सूना नहीं छोड़ते.’’

बाबा का घर खाली हो गया. उस पर ‘किराए से देना है’ की तख्ती लग गई. पूरे 7-8 वर्षों बाद लगी थी यह तख्ती.

रंजन के जाने के बाद बाबाअम्मां को बेहद सूनापन लगने लगा. एक सहारा था उस से. पता नहीं अब जो किराएदार आएं, उन का स्वभाव कैसा हो?

बाबा रोज अगले किराएदार का इंतजार करते. सुबह से शाम हो जाती पर कई दिन तक एक भी किराएदार नहीं आया. अब उन्हें घबराहट होने लगी. एफ.डी. के ब्याज के बमुश्किल 400 रुपए मिलने वाले थे. यदि कोई किराएदार नहीं आया तब? अगले माह का खर्च कहां से निकलेगा? इस किराए की आमदनी का ही तो सहारा था उन्हें? पास की नकदी अब चुकने लगी थी. बचत  खाते में भी कोई विशेष रकम नहीं थी. तो क्या अगले माह एफ.डी. तुड़वानी पड़ेगी?

सोचसोच कर वे परेशान  हो जाते. उन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता.  कितनी भारी गलती कर बैठे थे वे? उन के एक सहयोगी मित्र ने समझाया भी था, ‘जमाना बहुत खराब है, बदरीनाथ. मांबाप को अपनी मुट्ठी बंद रखने का दौर आ गया है. सब कुछ बच्चों के नाम मत करो.’

घबरा कर वे ऊपरी मंजिल में आए. खाली कमरे भांयभांय कर रहे थे. उन कमरों में घूमते हुए, उस की दीवारों पर हाथ फेरते हुए उन्हें वे दिन याद आ गए जब वह अपने सपनों के इस घर को बनवा रहे थे. इस की एकएक ईंट उन की जानीपहचानी थी. इसे बनवाते समय कितने रंगीन सपने देखे थे उन्होंने. तीनों बेटे बड़े होंगे. उन की शादियां होंगी. नीचे एक बेटा रहेगा, ऊपर दो. कितना अच्छा लगेगा उस वक्त. पूरा घर गुलजार रहेगा. उन का बुढ़ापा चैन से कट जाएगा.

नंगे फर्श पर बैठ वह फफकफफक कर रो पडे़. बुढ़ापे में ये दिन भी देखने थे.

नीचे किसी कार के रुकने की आवाज आई. आंसू पोंछ वह फुरती से उठे और भाग कर गैलरी में आए. श्रुतकीर्ति और निखिल कार से उतर रहे थे. बेटीदामाद को देखते ही उन का जी हरा हो गया.

उन की बूढ़ी थकी रगों में जान आ गई. जवानों की सी चपलता से वह दौड़ते हुए नीचे आए. पारो तब तक द्वार खोल चुकी थी.

श्रुतकीर्ति अंदर आई. मातापिता की दयनीय हालत देख उस का कलेजा मुंह को आ गया. हाय, 3 माह में ही बेचारे कितने बुढ़ा गए हैं.

श्रुतकीर्ति को अपनी रुलाई रोकना दुश्वार हो गया. उसे तो मालूम ही नहीं था कि बाबाअम्मां यहां आ चुके हैं? कल उन से बात करने के लिए उस ने बडे़ भैया के घर फोन लगाया था, भाभी से मालूम पड़ा, ‘बाबाअम्मां का मन नहीं लग रहा था तो वापस चले गए.’

रोरो कर श्रुतकीर्ति का बुरा हाल हो गया. तो इसलिए ‘मन नहीं लग रहा’ था. वह बारबार उलाहना देती. 3 माह में कम से कम 6 बार उस ने फोन पर बात की थी, बाबाअम्मां ने एक बार भी इशारा नहीं किया.

‘‘करते कैसे, बेटी?’’ बाबा का गला रुंध गया, ‘‘जब रहना उन्हीं के संग था… कैसे करते शिकायत?’’

‘‘यहां आने के बाद तो करते?’

अब कैसे कहें बाबा, कैसे बतलाएं अपनी दुर्दशा. आज महज 1 रुपया खर्च करने से पहले भी कईकई बार सोचना पड़ रहा है उन्हें. दूध तक तो बंद कर दिया है. सब्जी भी कंजूसी से खाते हैं.

कितने आशंकित मन से जी रहे थे वे दोनों. एक ही चिंता खाए जा रही थी, अगले माह एफ.डी. न तुड़वानी पडे़.

निखिल की तो क्रोध से मुट्ठियां भिंच गईं. जेब से मोबाइल निकाल लिया, ‘‘अभी लताड़ता हूं तीनों को.’’

श्रुतकीर्ति ने रोक दिया, ‘‘जाने दो, क्या फायदा ऐसे निठल्लों से कुछ कहने का. मातापिता के प्रति लेशमात्र भी दर्द होता तो क्या इस तरह व्यवहार करते.’’

निखिल कसमसा कर रह गया.

श्रुतकीर्ति रसोईघर में गई. वहां एक सरसरी नजर डालते ही सब ताड़ गई. पलट कर उस ने आंखोंआंखों में निखिल को इशारा किया. निखिल भी समझ गया. वह तुरंत बाहर निकल गया.

बाबाअम्मां कनखियों से यह सब देख रहे थे. बेटीदामाद का मंतव्य भांपते ही वे संकोच में पड़ गए. हाय, उन की रसोई का खर्च एक दिन बेटी उठाएगी, ऐसी बदहाली की कल्पना तो उन्होंने सपने में भी नहीं की थी. बुढ़ापा कैसेकैसे दिन दिखला रहा है. शर्मिंदगी से वह व्याकुल हो उठे.

अलमारी में 400 रुपए पडे़ थे. देने के लिए वह उठ कर दरवाजे की ओर लपके. श्रुतकीर्ति ने हाथ पकड़ कर वापस बैठा दिया, ‘‘कहां भागे जा रहे हो? कहीं रेस लगानी है?’’

‘‘बेटी,’’ बाबा का चेहरा एकदम कातर हो गया, ‘‘दामादजी पैसे ले कर तो गए ही नहीं?’’

‘‘आप भी बाबा,’’ श्रुतकीर्ति ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘क्या निखिल आप के बेटे नहीं हैं?’’

‘‘हैं क्यों नहीं…लेकिन, बेटी…जरा सोच…दामाद से यह सब…अच्छा लगेगा हमें?’’

‘‘और घुटघुट कर मन मार कर रहते हुए अच्छा लग रहा है आप को?’’ श्रुतकीर्ति का गला रुंध गया, ‘‘इन पुराने रिवाजों को छोड़ो, बाबा. 3-3 कमाऊ बेटे जब मुंह मोड़ लें तो क्या बेटीदामाद भी आंखकान बंद कर के बैठ जाएं? छोड़ दें मातापिता को लावारिसों की तरह?’’

चायनाश्ता करवा कर श्रुतकीर्ति रसोई बनाने लगी. निखिल और बाबाअम्मां भी वहीं बैठ कर हाथ बंटाने लगे. निखिल बाबाअम्मां को अपने संग चलने के लिए मनाने लगा. बाबाअम्मां संकोच में पड़ गए. बेटी के घर रहने की कल्पना वह कैसे कर सकते थे. उन्होंने दबे स्वर में अपनी लाचारगी जाहिर की. उन की मनोदशा समझ कर निखिल ने फिर और जिदद् नहीं की. वह एक दूसरी योजना पर विचार करने लगा. यदि यह योजना सफल हो गई तो बाबाअम्मां पूरे मानसम्मान से रह सकेंगे. इस में उसे रंजन का पूरा सहयोग चाहिए था, विशेषकर श्रुति का. श्रुति को ही अधिक समय देना पडे़गा इस में.

आगे पढ़े- रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू…

एक और आकाश: भाग 1- क्या हुआ था ज्योति के साथ

उस गली में बहुत से मकान थे. उन तमाम मकानों में उस एक मकान का अस्तित्व सब से अलग था, जिस में वह रहती थी. उस के छोटे से घर का अपना इतिहास था. अपने जीवन के कितने उतारचढ़ाव उस ने उसी घर में देखे थे. सुख की तरह दुख की घडि़यों को भी हंस कर गले लगाने की प्रेरणा भी उसे उसी घर ने दी थी.

कम बोलना और तटस्थ रहते हुए जीवन जीना उस का स्वभाव था. फिर भी दिन हो या रात, दूसरों की मुसीबत में काम आने के लिए वह अवश्य पहुंच जाती थी. लोगों को आश्चर्य था कि अपने को विधवा बताने वाली उस शांति मूर्ति ने स्वयं के लिए कभी किसी से कोई सहायता नहीं चाही थी.

अपने एकमात्र पुत्र के साथ उस घर की छोटी सी दुनिया में खोए रह कर वह अपने संबंधों द्वारा अपने नाम को भी सार्थक करती रहती थी. उस का नाम ज्योति था और उस के बेटे का नाम प्रकाश था. ज्योति जो बुझने वाली ही थी कि उस में अंतर्निहित प्रकाश ने उसे नई जगमगाहट के साथ जलते रहने की प्रेरणा दे कर बुझने से बचा लिया था.

तब से वह ज्योति अपने प्रकाश के साथ आलोकित थी. जीवन के एकाकी- पन की भयावहता को वह अपने साहस और अपनी व्यस्तता के क्षणों में डुबो चुकी थी. प्यार, कर्तव्य और ममता के आंचल तले अपने बेटे के जीवन की रिक्तताओं को पूर्णता में बदलते रहना ही उस का एकमात्र उद्देश्य था.

उस दिन ज्योति के बच्चे की 12वीं वर्षगांठ थी. पिछली सारी रात उस की बंद आंखों में गुजरे 11 वर्षों का पूरा जीवन चित्रपट की तरह आताजाता रहा था. उन आवाजों, तानों, व्यंग्यों, कटाक्षों और विषम झंझावातों के क्षण मन में कोलाहल भरते रहे थे, जिन के पुल वह पार कर चुकी थी. उस जैसी युवतियों को समाज जो कुछ युगों से देता आया था, वह उस ने भी पाया था. अंतर केवल इतना था कि उस ने समाज से पाया हुआ कोई उपहार स्वीकार नहीं किया था. वह चलती रही थी अपने ही बनाए हुए रास्ते पर. उस के मन में समाज की परंपरागत घिनौनी तसवीर न थी, उसे तलाश थी उस साफ- सुथरे समाज की, जिस का आधार प्रतिशोध नहीं, मानवीय हो, उदार हो, न्यायप्रिय और स्वार्थरहित हो.

अपनी जिंदगी याद करतेकरते अनायास ज्योति का मन कहीं पीछे क्यों लौट चला था, वह स्वयं नहीं जान पाई थी. मन जहां जा कर ठहरा, वहां सब से पहला चित्र उस की अपनी मां का उभरा था. उसे बच्चे की वर्षगांठ मनाने की परंपरा और संस्कार उसी मां ने दिए थे. वह स्वयं उस का और उस के भाई का जन्मदिन एक त्योहार की तरह मनाती थीं. याद करतेकरते मन में कुछ ऐसी भी कसक उठी जो आंखों के द्वारों से आंसू बन कर बहने के लिए आतुर हो उठी. उस ने आंखें पोंछ डालीं. यादों का सिलसिला चलता रहा…

काश, कहीं मां मिल जातीं. केवल उस दिन के लिए ही मिल जातीं. मां प्रकाश को भी उसी तरह आशीष देतीं जैसे उसे दिया करती थीं. उसे विश्वास था कि बड़ेबूढ़ों के आशीर्वाद में कोई अदृश्य शक्ति होती है. भले ही उस की मां के आशीर्वाद उस के अपने जीवन में फलदायक न हो सके हों, परंतु वह अब जो कुछ भी थी, उस में मां के आशीर्वाद के प्रभाव का अंश, बचपन में मां से मिले संस्कारों का असर अवश्य रहा होगा.

मन रुक न सका. सुबह होतेहोते ज्योति कागजकलम ले कर बैठ गई थी. भावनाओं के मोती शब्दों के रूप में कागज पर बिखरने लगे थे. 11 वर्ष की लंबी अवधि में मां के नाम ज्योति का यह पहला पत्र था. उसे भरोसा था कि वह उस पत्र को लिखने के बाद पोस्ट अवश्य करेगी. हमेशा की तरह वह पत्र टुकड़ों में बदल जाए, अब वह ऐसा नहीं होने देगी.

वह लिखे जा रही थी और आंखें पोंछती जा रही थी. कैसी विडंबना थी कि आज उसे उस घर की धुंधली पड़ गई छवि को नए रूप में याद करना पड़ रहा था जो कभी उस का अपना घर भी था. उस में वह 16 वर्ष की आयु तक पलीबढ़ी, पढ़ीलिखी थी. उस की बनाई हुई पेंटिंगों से उस घर की बैठक की दीवारों की शोभा बढ़ी थी. उस घर के आंगन में उस के नन्हेनन्हे हाथों ने एक नन्हा सा आम का पौधा लगाया था.

वह कल्पना में अपना अतीत स्पष्ट देख रही थी. पत्र को अधूरा छोड़ कर होंठों के बीच कलम दबाए हुए आंसू भरी आंखों के साथ सोच रही थी. मां बहुत बूढ़ी हो चली थीं, शायद अपनी उम्र से अधिक. पिता के चेहरे पर कुछ रेखाएं बढ़ जाने के बावजूद उन की आवाज में अब भी वही रोब था, शान थी और अपने ऊंचे खानदान में होने का अहंकार था. वह अपने समाज और खानदान में वयोवृद्ध सदस्य की तरह आदर पा रहे थे. भाई के सिर के बाल सफेद होने लगे थे. भाभी  आ गई थीं. घर के आंगन में नन्हेमुन्ने भतीजेभतीजी खेल रहे थे.

सोच रही थी ज्योति. बैठक की दीवार पर लगी पेंटिंगें हटाई नहीं गई थीं. शायद इसलिए कि घर वालों की दृष्टि में वह भले ही मर चुकी हो, लेकिन उन पेंटिंगों के बहाने उस की याद जिंदा रही. नित्य उन की धूलगर्द झाड़तेपोंछते समय उसे जरूर याद किया जाता होगा. कभी आंगन में लगाया गया आम का पौधा बढ़तेबढ़ते आज वृक्ष का रूप ले चुका था. उस में फल आने लगे थे और प्रत्येक फल की मिठास में एक विशेष मिठास थी, उस की याद की, उस घर की बेटी की यादों की.

इस तरह वह पत्र पूरा हो चला था, जगहजगह आंखों से टपके आंसू की मुहरों के साथ. उस पत्र में ज्योति ने अपने अब तक के जीवन की पुस्तक का एकएक पृष्ठ खोल कर रख दिया था, कहीं कोई दाग न था. वह पत्र मात्र पत्र न था, कुछ सिद्धांतों का दस्तावेज था. उस के अपने आत्मविश्वास की प्रतिछवि था वह. उस में आह्वान था एक नए आकार का, जिस के तले नई सुबहें होती हों, नई रातें आती हों. उस के तले जीने वाला जीवन, जीवन कहे जाने योग्य हो. ऐसा जीवन, जो केवल अपने लिए न हो कर दूसरों के लिए भी हो.

ज्योति ने उस पत्र की प्रतिलिपि को अपने पास सहेज कर एक हितैषी द्वारा दूसरे शहर के डाकघर से भिजवा दिया था.

7 दिन बीत चुके थे. इस बीच ज्योति के मन के भीतर विचित्र अंतर्द्वंद्व चलता रहा था. कौन जाने उस के पत्र की प्रतिक्रिया घर वालों पर क्या हुई होगी. पत्र अब तक तो पहुंच चुका होगा. 33 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर के डाकघर से पत्र भेजने का अभिप्राय केवल इतना था कि वह पत्र का उत्तर आए बिना, अपना असली पता नहीं देना चाहती थी. जवाब के लिए भी उस ने दूसरे शहर में रहने वाले एक ऐसे सज्जन महेंद्र का पता दिया था जो उसे असली पते पर पत्र भेज देते.

ज्योति एकएक दिन उंगलियों पर गिनती रही थी. अब तक तो पत्रोत्तर आ जाना चाहिए था. क्यों नहीं आया था? उस के पत्र ने घर की शांति तो नहीं भंग कर दी थी? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. निश्चय ही उस के हाथ की लिखावट देखते ही उस की मां ने पत्र को चूम लिया होगा. फिर खूब रोई होंगी. पिता को भलाबुरा सुनाया होगा. खुशामद की होगी कि जा कर बेटी को लिवा लाएं. पिता ने कहा होगा कि बेटी ने सौगंध दी है कि उसे केवल पत्रोत्तर चाहिए. उत्तर के स्थान पर कोई उसे लिवाने न आए. यहां आना या न आना, उस का अपना निर्णय होगा.

फिर भी पिता के मन में छटपटाहट जागी होगी कि चल कर देखें अपनी बेटी को. अनायास पिता का भूलाबिसरा वास्तविक रूप उस को याद आ गया था. नहीं, नहीं, पिता मुझ तक आएं यह उन की शान के विरुद्ध होगा. पत्र पढ़ कर जब मां रोई होंगी तब पिता की दबंग आवाज ने मां को डांट दिया होगा. परंतु वह खुद भी भावुक होने से न बच पाए होंगे.

आगे पढ़ें- मां के सो जाने के बाद उन्होंने भी लुकछिप कर…

मन का घोड़ा

‘‘अंकुरकी शादी के बाद कौन सा कमरा उन्हें दिया जाए, सभी कमरे मेहमानों से भरे हैं. बस एक कमरा ऊपर वाला खाली है,’’ अपने बड़े बेटे अरुण से चाय पीते हुए सविता बोलीं.

‘‘अरे मां, इस में इतना क्या सोचना? हमारे वाला कमरा न्यूलीवैड के लिए अच्छा रहेगा. हम ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे,’’ अरुण तुरंत बोला.

यह सुन पास बैठी माला मन ही मन बुदबुदा उठी कि आज तक जो कमरा हमारा था, वह अब श्वेता और अंकुर का हो जाएगा. हद हो गई, अरुण ने मेरी इच्छा जानने की भी जरूरत नहीं सम?ा और कह दिया कि न्यूलीवैड के लिए यह अच्छा रहेगा. तो क्या 15 दिन पूर्व की हमारी शादी अब पुरानी हो गई?

तभी ताईजी ने अपनी सलाह देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम अपना कमरा क्यों छोड़ते हो? ऊपर वाला कमरा अच्छाभला है. उसे लड़कियां सजासंवार देंगी. और हां, अपनी दुलहन से भी तो पूछ लो. क्या वह अपना सुहागकक्ष छोड़ने को तैयार है?’’ और फिर हलके से मुसकरा दीं.

पर अरुण ने तो त्याग की मूर्ति बन ?ाट से कह डाला, ‘‘अरे, इस में पूछने वाली क्या बात है? ये नए दूल्हादुलहन होंगे और हम 15 दिन पुराने हो गए हैं.’’

ये शब्द माला को उदास कर गए पर गहमागहमी में किसी का उस की ओर ध्यान न गया. ससुराल की रीति अनुसार घर की बड़ी महिलाएं और नई बहू माला बरात में नहीं गए थे. अत: बरात की वापसी पर दुलहन को देखने की बेसब्री हो रही थी. गहनों से लदी छमछम करती श्वेता ने अंकुर के संग जैसे ही घर में प्रवेश किया वैसे ही कई स्वर उभर उठे, वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.

‘‘कैसी दूध सी उजली बहू है, अंकुर की यही तो इच्छा थी कि लड़की चांद सी उजली हो,’’ बूआ सास दूल्हादुलहन पर रुपए वारते हुए बोलीं.

माला चुपचाप एक तरफ खड़ी देखसुन रही थी. तभी सविताजी ने माला को नेग वाली थाली लाने को कहा और इसी बीच कंगन खुलाई की रस्म की तैयारी होने लगी. महिलाओं की हंसीठिठोली और ठहाके गूंज रहे थे पर माला अपनी कंगन खुलाई की यादों में खो गई…

 

फूल और पानी भरी परात से जब माला ने

3 बार अंगूठी ढूंढ़ निकाली तब सभी ने

एलान कर डाला, ‘‘भई, अब तो माला ही राज करेगी और अरुण इस का दीवाना बना घूमेगा.’’

पर माला तो अरुण का चेहरा देखने को भी तरसती रही. भाई की शादी की व्यस्तता व मेहमानों, दोस्तों की गहमागहमी में माला का ध्यान ही नहीं आया. माला के कुंआरे सपने साकार होने को तड़पते और मन में उदासी भर देते, फिर भी माला सब के सामने मुसकराती

बैठी रहती.

शाम 4 बजे रीता ने आवाज लगाई, ‘‘जिसे भी चाय पीनी हो वह जल्दी से यहां आ जाए. मैं दोबारा चाय नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘ला, मु?ो 1 कप चाय पकड़ा दे. फिर बाहर काम से जाना है,’’ अरुण ने भीतर आते हुए कहा.

‘‘ठहरो भाई, पहले एक बात बताओ. वह आप के हस्तविज्ञान व दावे का क्या रहा जब आप ने कहा था कि मेरी दुलहन एकदम गोरीचिट्टी होगी. यह बात तो अंकुर भाई पर फिट हो गई,’’ कह रीता जोरजोर से हंसने लगी.

‘‘अच्छा, एक बात बता, मन का लड्डू खाने में कोई बंदिश है क्या?’’ अरुण ने हंसते

हुए कहा.

तभी ताई सास ने अपनी बेटी रीता को डपट दिया, ‘‘यह क्या बेहूदगी है? नईनवेली बहुएं हैं, सोचसम?ा कर बोलना चाहिए… और अरुण तेरी भी मति मारी गई है क्या, जो बेकार की बातों में समय बरबाद कर रहा है?’’

शादी के बाद अंकुर और श्वेता हनीमून पर ऊटी चले गए ताकि अधिकतम समय एकदूसरे के साथ व्यतीत कर सकें, क्योंकि 20 दिनों के बाद ही अंकुर को लंदन लौटना था. श्वेता तो पासपोर्ट और वीजा लगने के बाद ही जा पाएगी. हनीमून पर जाने का प्रबंध अरुण ने ही किया था. ये सब बातें माला को पिछले दिन रीता ने बताई थीं. घर के सभी लोग अरुण की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे पर माला के मन में कांटा सा गड़ गया. मन में अरुण के प्रति क्रोध की ज्वाला उठने लगी.

‘हमारा हनीमून कहां गया? अपने लिए इन्होंने क्यों कुछ नहीं सोचा? क्यों? रोऊं, लडं़ू… क्या करूं?’ ये सवाल, जिन्हें संकोचवश अरुण से स्पष्ट नहीं कर पा रही थी, उस के मन को लहूलुहान कर रहे थे.

 

समय का पहिया अंकुर को लंदन ले गया. ऐसे में श्वेता अकेलापन अनुभव न

करे, इसलिए घर का हर सदस्य उस का ध्यान रखने लगा था. भानजी गीता तो उसे हर समय घेरे रहती. माला तो जैसे कहीं पीछे ही छूटती जा रही थी. तभी तो माला शाम के धुंधलके में अकेली छत पर खड़ी स्वयं से बतिया रही थी कि मानती हूं कि श्वेता को अंकुर की याद सताती होगी. पर सारा परिवार उसी से चिपका रहे, यह तो कोई बात न हुई. मैं भी तो 2 माह से यहीं रह रही हूं और अरुण भी तो दिल्ली से सप्ताह के अंत में 1 दिन के लिए आते हैं. मु?ा से हमदर्दी क्यों नहीं?

तभी किसी के आने की आहट से उस की विचारधारा भंग हो गई.

‘‘माला, तुम यहां अकेली क्यों खड़ी हो? चलो, नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. और हां कल सुबह की ट्रेन से दिल्ली निकल जाऊंगा. तुम श्वेता का ध्यान रखना कि वह उदास न हो. वैसे तो सभी ध्यान रखते हैं पर तुम्हारा ध्यान रखना और अच्छा रहेगा…’’

अरुण आगे कुछ और कहता उस से

पहले ही माला गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘उफ, सब के लिए आप के मन में कोमल भावनाएं हैं पर मेरे लिए नहीं. क्या मैं इतनी बड़ी हो गई हूं कि

मैं सब का ध्यान रखूं और खुद को भूल जाऊं? मेरी इच्छाएं, मेरी कल्पनाएं, मेरा हनीमून उस

का क्या?’’

अरुण हैरान सा माला को देखता रह गया, ‘‘आज तुम्हें यह क्या हो गया है माला? तुम श्वेता से अपनी तुलना कर रही हो क्या? उस के नाम से तुम इतना अपसैट क्यों हो गईं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी से तुलना क्यों करूंगी? मु?ो अपना स्थान चाहिए आप के दिल में… परसों कौशल्या बाई बता रही थी कि अरुण भैया तो ब्याह के लिए तैयार ही नहीं थे. वह तो मांजी

3 सालों से पीछे लगी थीं तब उन्होंने हामी भरी थी. तो क्या आप के साथ शादी की जबरदस्ती हुई है? और उस दिन रीता ने जो हस्तविज्ञान वाली बात कही थी, इस से लगता है कि आप की चाहत शायद कोई और थी पर…’’ माला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘उफ, तुम औरतों का दिमागी घोड़ा बिना लगाम के दौड़ता है. तुम इन छोटीछोटी व्यर्थ

की बातों का बतंगड़ बनाना छोड़ो और मन शांत करो. अब नीचे चलो. सब खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’’

 

वह दिन भी आ गया जब माला अरुण के साथ दिल्ली आ गई. यहां अपना घर

सजातेसंवारते उस के सपने भी संवर रहे थे. अरुण के औफिस से लौटने से पहले वह स्वयं को आकर्षक बनाने के साथ ही कुछ न कुछ नया पकवान, चाय आदि बनाती. फिर दोनों की गप्पों व कुछ टीवी सीरियल देखतेदेखते रात गहरा जाती तो दोनों एकदूसरे के आगोश में समा जाते.

हां, एक बार छुट्टी के दिन माला ने दिल्ली दर्शन की इच्छा भी व्यक्त की थी तो, ‘‘ये रोमानी घडि़यां साथ बिताने के लिए हैं, हमारा हनीमून पीरियड है यह. फिर दिल्ली तो घूमना होता ही रहेगा जानेमन,’’ अरुण का यह जवाब गुदगुदा गया था.

शनिवार की छुट्टी में अरुण अलसाया सा लेटा था कि तभी मोबाइल बज उठा. अरुण फोन उठा कर बोला, ‘‘हैलो… अच्छा ठीक है, मैं कल स्टेशन पहुंच जाऊंगा. ओ.के. बाय.’’

‘‘किस का फोन था?’’ चाय की ट्रे ले कर आती माला ने पूछा.

‘‘श्वेता का. वह कल आ रही है. उसे मैं रिसीव करने जाऊंगा,’’ कह अरुण ने चाय का कप उठा लिया.

श्वेता के आने की खबर से माला का उदास चेहरा अरुण से छिपा न रह सका, ‘‘क्या हुआ? अचानक तुम गुमसुम सी क्यों हो गईं?’’ अरुण ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अभी दिन ही कितने हुए हैं हमें साथ समय बिताते कि…’’

‘‘अरे यार, उस के आने से रौनक हो जाएगी, कितना हंसतीबोलती है. तुम्हारा भी पूरा दिन मन लगा रहेगा. सारा दिन अकेले बोर होती हो,’’ माला की बात बीच में ही काटते हुए अरुण ने कहा.

माला चुपचाप चाय की ट्रे उठा कर रसोई की ओर बढ़ गई.

‘फिर वही श्वेता. क्या वह अपने मायके या ससुराल में नहीं रह सकती थी कुछ महीने? फिर चली आ रही है दालभात में मूसलचंद. ‘खैर, मुसकराहट तो ओढ़नी ही होगी वरना अरुण न जाने क्या सोचने लगें.’ मन ही मन सोच माला नाश्ते की तैयारी करने लगी.

 

छुट्टी के दिन अरुण श्वेता और माला को एक मौल में ले गया. वहां की

चहलपहल और भीड़ का कोई छोर ही न था. श्वेता की खुशी देखते ही बन रही थी, ‘‘भाभी, आप तो बस जब मन आए यहीं चली आया करो. यहां शौपिंग का मजा ही कुछ और है,’’ माला की ओर देख उस ने कहा.

‘‘मु?ो तो अरुण, पहले कभी यहां लाए ही नहीं. यह सब तो तुम्हारे कारण हो रहा है,’’ माला उदासी भरे स्वर से बोली.

‘‘अच्छा,’’ श्वेता का स्वर उत्साहित हो उठा.

वहीं मौल में खाना खाते हुए श्वेता की आंखें चमक रही थीं. बोली, ‘‘वाह, खाना कितना स्वादिष्ठ है.’’

इस पर अरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मु?ो मालूम था कि श्वेता तुम ऐंजौय करोगी. तभी तो यहां लंच लेने की सोची.’’

‘‘और मैं?’’ माला ने अरुण से पूछ ही लिया.

‘‘अरे, तुम तो मेरी अर्द्धांगिनी हो, जो मु?ो पसंद वही तुम्हें भी पसंद आता है, अब तक मैं यह तो जान ही गया हूं. इसलिए तुम्हें भी यहां आना तो अच्छा ही लगा होगा.’’

बुधवार की सुबह अखबार थामे श्वेता बोली, ‘‘बिग बाजार में 50% की बचत पर सेल लगी है. भैया, मु?ो क्व5,000 दे देंगे? क्व2000 तो हैं मेरे पास. मैं और भाभी ड्रैसेज लाएंगी. ठीक है न भाभी? लंदन में यही ड्रैसेज काम आ जाएंगी.’’

‘‘हांहां, क्रैडिट कार्ड ले लेगी माला… दोनों शौपिंग कर लेना.’’

माला अरुण को मुंह बाए खड़ी देखती रह गई कि क्या ये वही अरुण हैं, जिन्होंने कहा था कि पहले शादी में मिली ड्रैसेज को यूज करो, फिर नई खरीदना. तो क्या श्वेता को ड्रैसेज का ढेर नहीं मिला है शादी में? ये छोटीबड़ी बातें माला का मन कड़वाहट से भरती जा रही थीं.

उस दिन तो माला का मन जोर से चिल्लाना चाहा था जब श्वेता बिस्तर में सुबह 9 बजे तक चैन की नींद ले रही थी और वह रसोई में लगी हुई थी. तभी अरुण ने श्वेता को चाय दे कर जगाने को कह दिया. वह जानती थी कि अरुण को देर तक बिस्तर में पड़े रहना पसंद नहीं. फिर श्वेता से कुछ भी क्यों नहीं कहा जाता? मन में उठता विचारों का ज्वार, सुहागरात की ओर बहा ले गया कि मु?ो तो प्रथम मिलन की रात्रि में प्यार के पलों से पहले संस्कार, परिवार के नियमों आदि का पाठ पढ़ाया था अरुण ने… फिर तभी चाय उफनने की आवाज उसे वर्तमान में ले आई.

 

मैं आज और अभी अरुण से पूछ कर ही रहूंगी, सोच माला बाथरूम में शेव करते अरुण के

पास जा खड़ी हुई.

‘‘क्या बात है? कोई काम है क्या?’’ शेविंग रोक अरुण ने पूछा.

‘‘क्या मैं जबरदस्ती आप के गले मढ़ी गई हूं? क्या मु?ा में कोई अच्छाई नहीं है?’’

अरुण हाथ में शेविंगब्रश लिए हैरान सा खड़ा रहा.

पर माला बोलती रही, ‘‘हर समय बस श्वेताश्वेता. मु?ा से तो परंपरा निभाने की बात करते रहे और इस का बिंदासपन अच्छा लगता है. आखिर क्यों?’’ माला का चेहरा लाल होने के साथसाथ आंसुओं से भी भीग चला था.

‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. तुम्हारे मन में इतनी जलन, ईर्ष्या कहां से आ गई? श्वेता के नाम से चिढ़ क्यों हो रही है? देवरानी तो छोटी बहन जैसी होती है और तुम तो न जाने…’’

‘‘बस फिर शुरू हो गया मेरे लिए आप का प्रवचन. उस की हर बात गुणों से भरी होती है और मेरी बुराई से,’’ कह पांव पटकती माला अपने कमरे में चली गई.

अरुण बिना नाश्ता किए व लंच टिफिन लिए औफिस चला गया.

उस दिन माला को माइग्रेन का अटैक पड़ गया. सिरदर्द धीरेधीरे बढ़ता उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया. उलटियों के साथसाथ चक्कर भी आ रहा था. श्वेता ने मैडिकल किट छान मारी पर दर्द की कोई गोली नहीं मिली. उस ने अरुण को फोन किया तो सैक्रेटरी ने बताया कि वे मीटिंग में व्यस्त हैं.

इधर माला अपना सिर पकड़ रोए जा रही थी. तभी श्वेता 10 मिनट के अंदर औटो द्वारा मैडिकल स्टोर से दर्द की दवा ले आई और कुछ मानमनुहार तथा कुछ जबरदस्ती से माला को दवा खिलाई. माथे पर बाम मल कर धीरेधीरे सिरमाथे को तब तक दबाती रही जब तक माला को नींद नहीं आ गई.

करीब 2 घंटे बाद माला की आंखें खुलीं. तबीयत में काफी सुधार था. सिर हलका लग रहा था. उस ने उठ कर इधरउधर नजर दौड़ाई तो

देखा श्वेता 2 कप चाय व स्नैक्स ले कर आ रही है.

‘‘अरे भाभी, आप उठो नहीं… यह लो चाय और कुछ खा लो. शाम के खाने की चिंता मत करना, मैं बना लूंगी. हां, आप जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर ठीकठाक बना लूंगी,’’ कह उस ने चाय का प्याला माला को थमा दिया.

माला श्वेता के इस व्यवहार को देख उसे ठगी सी देखती रह गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’

‘‘मु?ो माफ कर दो श्वेता, मैं ने तो न मालूम क्याक्या सोच लिया था… तुम्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रही थी. और…’’

‘‘नहींनहीं भाभी, और कुछ मत कहिए आप, अब मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. सच में ही मु?ो अपने रंगरूप पर अभिमान रहा है. मु?ा में उतना धैर्य नहीं जितना आप में है. इसीलिए मैं आप को चिढ़ाने के लिए अपने में व्यस्त रही… आप की कोई मदद नहीं करती थी. भाभी, आप मु?ो माफ कर दीजिए. आज से हम रिश्ते में भले ही देवरानीजेठानी हैं पर रहेंगी छोटीबड़ी बहनों की तरह,’’ और फिर दोनों एकदूसरे के गले से लग गईं.

‘‘सच श्वेता. मैं आज से अपने मन को गलत दिशा की तरफ भटकने से रोकूंगी और तुम्हारे भैया से माफी भी मांगूंगी.’’

अब श्वेता व माला एकदूसरे को देख कर मुसकरा रही थीं.

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी- भाग 3

पहली मुलाकात के करीब 3 सप्ताह बाद एक दोपहर अंजलि ने औफिस से

महिमा के यहां फोन कर के बातें करीं, ‘‘मैं तुम से एक प्रार्थना कर रही हूं. तुम उस का बुरा न मानना, प्लीज.’’

अंजलि की आवाज में नाराजगी व शिकायत के भाव पढ़ कर महिमा मुसकराने लगी, ‘‘दीदी, आप की कैसी भी बात का मैं बुरा कैसे मान सकती हूं. आप प्रार्थना न करें बल्कि मु?ो आदेश दें,’’ महिमा ने भावुक लहजे में जवाब दिया.

‘‘महिमा, तुम मेरे पीछे दिन में मेरी मां से मिलने मत जाया करो, प्लीज.’’

‘‘ऐसा मत कहिए, दीदी. उन से मिल कर मेरा दिल बड़ा अच्छा महसूस करता है.’’

‘‘देखो, उन की तबीयत ठीक नहीं रहती है. दोपहर को उन्हें आराम न मिले, तो उन का सिर दर्द करने लगता है. तुम प्लीज…’’

‘‘नहीं दीदी, आप उन से मिलने की मेरी खुशी मु?ा से मत छीनिए. मैं आगे से और कम देर बैठा करूंगी, पर बिलकुल न जाने का आदेश आप मु?ो मत दीजिए.’’

‘‘नहीं, तुम्हें उन से मिलने नहीं जाना है. उन्हें तुम्हारी बातें पसंद नहीं आती हैं,’’ अंजलि की आवाज गुस्से से भर उठी.

‘‘मैं उन से भी गलत नहीं बोली हूं, दीदी,’’ महिमा ने विरोध प्रकट किया.

‘‘तुम मेरी शादी की बातें करती हो… सौरभ और मेरे बारे में सवालजवाब करती हो, मेरे भैयाभाभी को लानतें देती हो, तो उन का मन

दुखी और परेशान होता है. वे तुम से मिलना

नहीं चाहती हैं और तुम मेरे पीछे मेरे घर नहीं जाओगी, बस.’’

अंजलि के सख्त स्वर के ठीक उलट महिमा ने मीठे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आप की बात नहीं मान सकती क्योंकि मु?ो भी खुशी और शांति से जीने का अधिकार है. मु?ो आप की मां व आप से मिल कर मन की शांति मिलती है. जैसे आप मेरे कहने भर से सौरभ से मिलना बंद नहीं कर सकतीं, वैसे ही मैं भी आप के घर जाना नहीं बंद करूंगी. पत्नी पति की प्रेमिका को हमेशा से ?ोलती आईर् है, तो प्रेमिका को भी पत्नी को सहन करने की आदत डालनी चाहिए. अब चाह कर भी मु?ो अपनी व अपनी मां की जिंदगी से काट नहीं सकेंगी क्योंकि मैं दूर हो कर पागल हो जाऊंगी. आप ऐसा करने की कोशिश न खुद करना, न सौरभ से कराना, प्लीज.’’

अंजलि उस पर गुस्से से चिल्लाने लगी,

तो बड़ी शांति के साथ महिमा ने संबंधविच्छेद

कर दिया.

उस शाम सौरभ गुस्से से भरा घर में घुसा क्योंकि अंजलि ने महिमा के खिलाफ उस के अंदर खूब चाबी भरी थी.

‘‘तुम अंजलि के घर जाना आज से बंद कर दोगी,’’ शयनकक्ष में प्रवेश करते ही सौरभ ने उसे अपना आदेश सुना दिया क्योंकि अंजलि और उस की मां तुम से मिलना नहीं चाहती हैं.’’

‘‘आप उन के कहे में आ कर गुस्सा मत होइए. वे दोनों बहुत अच्छी हैं. मैं उन्हें कल जा कर मना लूंगी.’’

‘‘नहीं, तुम उन के घर मत जाना,’’ सौरभ चिल्ला पड़ा.

‘‘मत चिल्लाइए मु?ा पर,’’ महिमा रोंआसी हो उठी, ‘‘मु?ो अंजलि दीदी से सीखते रहना है कि आप के दिल की रानी बने रहने के लिए मेरा व्यवहार कैसा हो… मु?ा में क्या गुण हों.’’

‘‘तुम जैसी हो, अच्छी हो. बस, उन के घर…’’

‘‘मैं उन से मिलती नहीं रही, तो पिछड़ जाऊंगी और आप को खो दूंगी.’’

‘‘बेकार की बातें मत करो, महिमा,’’ सौरभ का गुस्सा फिर भड़का.

‘‘आप मेरे डर को क्यों नहीं सम?ा रहे हैं. मैं बांट तो रही हूं आप को अंजलि दीदी के साथ क्या बदले में वे 1-2 घंटे मु?ो सहन नहीं कर सकतीं,’’ महिमा उठ कर सौरभ की छाती से जा लगी और फिर किसी बच्चे की तरह से रोने लगी.

सौरभ उसे और नहीं डांट सका. उस ने

धीमे से उसे सम?ाने कीकोशिश करी पर वह असफल रहा क्योंकि महिमा की आंखों में प्यार का नशा उस की पलकें बो?िल करने लगा था. जल्द ही महिमा के बदन की मादक महक ने उस के जेहन से अंजलि की शिकायतों व नाराजगी को दूर भगा दिया.

अगले दिन औफिस जाते समय सौरभ ने महिमा से अंजलि के घर न जाने की बात कही, तो वह चुप रह कर रहस्यमयी अंदाज में बस मुसकराती रही.

दोपहर के समय वह अंजलि की मां सावित्री से मिलने पहुंच गई. उस की आवाज पहचान कर सावित्री ने दरवाजा खोलने से ही इनकार कर दिया.

‘‘तुम अपने घर लौट जाओ. मु?ो तंग करने मत आया करो,’’ सावित्री की आवाज में गुस्से के साथसाथ डर व घबराहट के भाव भी मौजूद थे.

‘‘आंटी, मैं तो आप से बस कुछ देर को हंसनेबोलने आती हूं. मु?ा से चिड़ने या डरने की आप को कोई जरूरत नहीं. अगर आप मु?ा से प्यार से मिलती रहेंगी, तो मैं कभी आप को कोई नुकसान पहुंचाने की सोचूंगी भी नहीं,’’ महिमा ने ऊंची आवाज कर के उन्हें आश्वस्त करने का प्रयास किया.

‘‘मु?ो नुकसान पहुंचाने की धमकी दोगी, तो मैं पुलिस बुला लूंगी.’’

‘‘अगर आप ने मु?ो अंदर न आने दिया, तो मैं गुस्से से पागल हो जाऊंगी, आंटी. फिर मु?ो होश नहीं रहेगा कि मैं ने अपनी जान ले ली या किसी और की.’’

‘‘तुम पूरी पागल हो. चली जाओ यहां से.’’

‘‘हां, मैं पागल हूं, और वह भी तुम्हारी बेटी के कारण जो मु?ा से मेरे पति को छीनना चाहती है. मु?ो यों तंग कर के मेरा अनादर कर के आप ठीक नहीं कर रही हैं, आंटी,’’ महिमा ने उन के घर की घंटी बजाने के साथसाथ दरवाजा भी पीटना शुरू कर दिया.

सामने व ऊपरनीचे के फ्लैटों के दरवाजे खुलने लगे और औरतें बाहर आ

कर तमाशा देखने लगीं. महिमा ने किसी से वार्त्तालाप आरंभ करने की कोई कोशिश नहीं करी, तो वे सावित्री से मामले को सम?ाने की कोशिश में बातें करने लगीं.

‘‘इस पगली को यहां से जाने को कहो. यह मु?ो मारने आई है,’’ अंदर से आती सावित्री की आवाज से साफ जाहिर हुआ कि वे रो रही हैं.

‘‘आप बेकार मु?ा से डर रहीं, आंटी. सौरभ के कारण मेरे आप के घर से संबंध हमेशा बने रहेंगे. हमें प्यार से मिल कर रहना चाहिए,’’ महिमा ने उन्हें सब के सामने बड़ी मीठी, कोमल आवाज में फिर सम?ाया.

‘‘नहीं, हमें नहीं रखना है तुम दोनों से कोई संबंध.’’

‘‘ऐसी गलत बात मुंह से न निकालें, आंटी. आप की बेटी ऐसा करने को कभी तैयार नहीं होगी. अच्छा, अभी मैं जाती हूं. कल आप

से मिलने जरूर आऊंगी और आप के सारे गिलेशिकवे दूर कर दूंगी,’’ महिमा ने पड़ोसिनों की तरफ मुसकरा कर देखा और फिर इमारत से बाहर आने के लिए सीढि़यां उतरने लगी.

उस रात सौरभ काफी देर से घर लौटा. महिमा को वह बड़ा उदास सा नजर आया. वह सीधा शयनकक्ष में गया और महिमा उस के पीछेपीछे वहां पहुंच गई, ‘‘मु?ो प्लीज, डांटना मत,’’ उस के कुछ बोलने से पहले ही महिमा ने उस के सामने हाथ जोड़े और घबराए लहजे में आगे बोलने लगी, ‘‘मैं ने कुछ गलत बात सावित्री आंटी से नहीं कही. वे अकारण मु?ा से डर रही थीं. मैं कल ही अंजलि दीदी से माफी मांगने आप के साथ चलूंगी.’’

कुछ देर खामोशी से उसे घूरने के बाद सौरभ ने सोचपूर्ण लहजे में टिप्पणी करी, ‘‘तुम बहुत चालाक हो… या एकदम बुद्धू.’’

‘‘अधिकतर लोग तो मु?ो पगली सम?ाते हैं… आप के प्यार में मैं पागल हूं भी और इसीलिए मु?ो डांटनाडपटना मत, प्लीज. मैं अंजलि दीदी से माफी…’’

सौरभ ने उस के मुंह पर हाथ रख कर उसे चुप किया और थके से स्वर में बोला, ‘‘अंजलि को भूल जाओ, महिमा. उस ने आज मु?ा से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. अपनी मां की सुखशांति की खातिर वह मु?ा से और विशेषकर तुम से भविष्य में कैसा भी संबंध रखने को तैयार नहीं है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. मैं उन्हें सम?ाऊंगी… मनाऊंगी. आप को दुख देने का उन्हें कोई हक नहीं है. हम अभी उन से मिलने चलते हैं,’’ महिमा फौरन परेशानी भरी उत्तेजना का शिकार बन गई.

‘‘पगली,’’ अपनी उदासी को भूल कर सौरभ मुसकराने को मजबूर हो गया.

महिमा की आंखों में आंसू छलक आए तो वह आगे बढ़ कर सौरभ की छाती से लग गई.

‘‘मु?ो आंसू बहाती महिमा को नहीं देखना है. मैं तो हनीमून वाली हंसमुख, चंचल, शोख, सैक्सी महिमा के साथ बिलकुल नई प्यारभरी जिंदगी की शुरुआत करने का इच्छुक हूं, पगली.’’

‘‘मैं तो वैसी ही हूं, पर अंजलि दीदी की आप के जीवन में मौजूदगी के कारण जरा पगला गई थी.’’

‘‘वह अध्याय अब समाप्त हुआ, महिमा. तुम्हारा पागलपन कारगर साबित हुआ. हमें अपने प्रेमसंबंध से खुशी कम और दुख ज्यादा मिलने लगा, तो उसे समाप्त करने को हम मजबूर हो गए. मेरी पगली जीत गई और इस जीत से मैं सचमुच बड़ी शांति… बड़ी खुशी महसूस कर रहा हूं,’’ सौरभ के बाजुओं की पकड़ महिमा के इर्दगिर्द मजबूत हुई, तो वह रहस्यमयी अंदाज में मुसकराती हुई उस की आंखों पर बारबार मधुर चुंबन अंकित करने लगी.

आशीर्वाद: कैसा था नीलम की कहानी का अंजाम

कभीकभी अपनी चिंताओं के बीच नीलम सोचती, ‘यदि आलोक जैसा साथी, उसे मिल गया तो उस की चिंताएं कम हो जाएंगी.’

नीलम ने आलोक के लिए चाय ला कर मेज पर रख दी और चुपचाप मेज के पास पड़ी कुरसी पर बैठ केतली से प्याले में चाय डालने लगी. आलोक ने नीलम के झुके हुए मुख पर दृष्टि डाली. लगता था, वह अभीअभी रो कर उठी है. आलोक रोजाना ही नीलम को उदास देखता है. वैसे नीलम रोती बहुत कम है. वह समझता है कि नीलम के रोने का कारण क्या हो सकता है, इसलिए उस ने पूछ कर नीलम को दोबारा रुलाना ठीक नहीं समझा. उस ने कोमल स्वर में पूछा, ‘‘मां और पिताजी ने चाय पी ली?’’

‘‘नहीं,’’ नीलम के स्वर में हलका सा कंपन था.

‘‘क्यों?’’

‘‘मांजी कहती हैं कि उन्हें इस कदर थकावट महसूस हो रही है कि चाय पीने के लिए बैठ नहीं सकतीं और पिताजी को चाय नुकसान करती है.’’

‘‘तो पिताजी को दूध दे देतीं.’’

‘‘ले गई थी, किंतु उन्होंने कहा कि दूध उन्हें हजम नहीं होता.’’

आलोक चाय का प्याला हाथ में ले कर मातापिता के कमरे की ओर जाने लगा तो नीलम धीरे से बोली, ‘‘पहले आप चाय पी लेते. तब तक उन की थकान भी कुछ कम हो जाती.’’

‘‘तुम पियो. मेरे इंतजार में मत बैठी रहना. मां को चाय पिला कर अभी आता हूं.’’

नीलम ने चाय नहीं पी. गोद में हाथ रखे खिड़की से बाहर देखती रही. काश, वह भी हवा में उड़ते बादलों की तरह स्वतंत्र और चिंतारहित होती.

नीलम के पिता एक सफल डाक्टर थे. पर उन की सब से बड़ी कमजोरी यह थी कि वे किसी को कष्ट में नहीं देख सकते थे. जब भी कोई निर्धनबीमार उन के पास आता तो वे उस से फीस का जिक्र तक नहीं करते, बल्कि उलटे उसे फल व दवाइयों के लिए कुछ पैसे अपने पास से दे देते. परिणाम यह हुआ कि वे जितना काम व मेहनत करते थे उतना धन संचित नहीं कर पाए. फिर उन की लंबी बीमारी चली, जो थोड़ाबहुत धन था वह खत्म हो गया.

उन की मृत्यु के बाद सिर्फ एक मकान के अलावा और कोई संपत्ति नहीं बची थी. सब से बड़ी बहन होने के नाते नीलम ने घर का भार संभालना अपना कर्तव्य समझा. उस ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली. छोटी बहन पूनम मैडिकल कालेज में चौथे साल में थी और भाई अनुनय बीए द्वितीय वर्ष में.

आलोक ने जब नीलम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस ने साफ इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि जब तक पूनम पढ़ाई पूरी कर के कमाने लायक नहीं हो जाती, तब तक वह विवाह की बात सोच भी नहीं सकती. इस पर आलोक ने आश्वासन दिया था कि विवाह में वह कुछ खर्च न होने देगा और विवाह के पश्चात भी नीलम अपना वेतन घर में देने के लिए स्वतंत्र होगी. आलोक का यह तर्क था कि वह एक मित्र के नाते उस के परिवार के प्रति सबकुछ नहीं कर सकता जो परिवार का सदस्य बन जाने के पश्चात कर सकेगा.

यह तर्क नीलम को भी ठीक लगा था. कभीकभी अपनी चिंताओं के बीच वह खुद को बहुत ही अकेला व असहाय सा पाती थी. उस ने सोचा यदि उसे आलोक जैसा साथी, जो उस की भावनाओं को अच्छी तरह समझता है, मिल गया तो उस की चिंताएं कम हो जाएंगी. फिर भी नीलम की आशंका थी कि अकेली संतान होने के कारण आलोक से उस के मातापिता को बहुत सी आशाएं होंगी और इसलिए शायद उन्हें दहेजरहित लड़की को अपनी बहू बनाने में आपत्ति हो सकती है, पर आलोक ने इस बात को भी टाल दिया था. उस का कहना था कि उस के मातापिता उसे इतना अधिक प्यार करते हैं कि उस की इच्छा के सामने वे दहेज जैसी बात पर सोचेंगे भी नहीं.

आलोक के पिता प्रबोध राय एक साधारण औफिस असिस्टैंट की हैसियत से ऊपर न उठ सके थे. आलोक उन की आशाओं से बहुत अधिक उन्नति कर गया था. घर के रहनसहन का स्तर भी ऊंचा उठ गया था. आलोक सोचता था कि उस के मातापिता उस की अर्जित आय से ही इतने अधिक संतुष्ट हैं कि नीलम के वेतन की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे. यही उस की भूल थी, जिसे वह अब समझ पाया था. उस के मातापिता ने पुत्र का विवाह बिना दहेज लिए केवल इसलिए किया था कि बहू अपने वेतन से वह कमी पूरी कर देगी. जब उन की वह आशा पूरी नहीं हुई तो वे क्षुब्ध हो उठे. उन्हें इस भावना ने जकड़ लिया कि उन्हें धोखा दिया गया.

आलोक कमरे में पहुंचा तो उस की मां सुमित्रा अपने पलंग पर लेटी हुई थीं. प्रबोध राय पास ही पड़ी कुरसी पर बैठे समाचारपत्र देख रहे थे. आलोक बोला, ‘‘मां, नीलम कह रही थी कि आप थकान महसूस कर रही हैं. चाय पी लीजिए, थकान कुछ कम हो जाएगी.’’

‘‘रहने दे बेटा, चाय के लिए मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है.’’

‘‘तो बताइए फिर क्या लेंगी? नीलम पिताजी के लिए मौसमी का रस निकाल रही है, आप के लिए भी निकाल देगी.’’

‘‘रहने दे, मैं रस नहीं पिऊंगी. मैं तेरी मां हूं. क्या मुझे अच्छा लगता है कि मैं अपने खर्चे बढ़ाबढ़ा कर तेरे ऊपर बोझ बन जाऊं? क्या करूं, उम्र से मजबूर हूं. अब काम नहीं होता.’’

‘‘तो फिर क्यों नहीं नीलम को रोटी बनाने देतीं? वह तो कहती है कि सुबह आप दोनों के लिए पूरा भोजन बना कर स्कूल जा सकती है.’’

‘‘कैसी बातें कर रहा है, आलोक?

7 बजे का पका खाना 12 बजे तक बासी नहीं हो जाएगा? तू ने कभी अपने पिताजी को ठंडा फुलका खाते देखा है?’’ फिर एक ठंडी सांस ले मां बोलीं, ‘‘मांबाप पुत्र का विवाह कितने अरमानों से करते हैं. घर में बहू आएगी, रौनक होगी. शरीर को आराम मिलेगा,’’ फिर एक और लंबी सांस छोड़ कर बोलीं, ‘‘खैर, इस में किसी का क्या दोष? अपनाअपना समय है. श्यामसुंदर लाल 25 लाख रुपए नकद और एक कार देने का वादा कर रहे थे.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, मां? जो लड़की इतनी रकम ले कर आती वह क्या आप को रस निकाल कर देती? कार में उसे फिल्में दिखाने और शौपिंग कराने में ही मेरा आधे से ज्यादा वेतन स्वाहा हो जाता. ऊपर से उस के उलाहने सुनने को मिलते कि उस के मायके में तो इतने नौकरचाकर काम करते थे. और मां, यदि मेरा विवाह अभी हुआ ही न होता तो क्या होता? यदि नीलम कुछ लाई नहीं, तो वह अपने ऊपर खर्च भी तो कुछ नहीं कराती. तुम से इतनी बार मैं ने कहा है कि नौकर रख लो, पर तुम्हें तो नौकर के हाथ का खाना ही पसंद नहीं. अब तुम ही बताओ कि यह समस्या कैसे हल हो?’’

सुमित्रा के पास जो समाधान था, वह उस के बिना बताए भी आलोक जानता था, सो, वह चुप रही. आलोक ही फिर बोला, ‘‘थोड़े दिन और धीरज रखो, मां, पूनम ने आखिरी वर्ष की परीक्षा दे दी है. अब उस का खर्च तो समाप्त हो ही जाएगा. अनुनय भी 1-2 वर्ष में योग्य हो जाएगा और उस के साथ नीलम का उस का उत्तरदायित्व भी खत्म हो जाएगा. वह नौकरी छोड़ देगी.’’

‘‘अरे, एक बार नौकरी कर के कौन छोड़ता है? फिर वह इसलिए धन

जमा करती रहेगी कि बहन का विवाह करना है.’’

आलोक हंस कर बोला, ‘‘इतने दूर की चिंता आप क्यों करती हैं मां? पूनम डाक्टर बन कर स्वयं अपने विवाह के लिए बहुत धन जुटा लेगी.’’

‘‘मुझे तो तेरी ही चिंता है. तेरे अकेले के ऊपर इतना बोझ है. मुझे तो छोड़ो, इन्हें तो फल इत्यादि मिलने ही चाहिए, नहीं तो शरीर कैसे चलेगा?’’

तभी नीलम 2 गिलासों में मौसमी का जूस ले कर कमरे में आई. आलोक हंस कर बोला, ‘‘देखो मां, तुम तो केवल पिताजी की आवश्यकता की बात कह रही थीं, नीलम तो तुम्हारे लिए भी जूस ले आई है. अब पी लो. नीलम ने इतने स्नेह से निकाला है. नहीं पिओगी तो उस का दिल दुखेगा.’’

इस प्रकार की घटनाएं अकसर होती रहतीं. मां का जितना असंतोष बढ़ता जाता है, आलोक का पत्नी के प्रति उतना ही मान और अनुराग. विवाह के पश्चात नीलम ने एक बार भी सुना कर नहीं कहा कि आलोक ने उसे जो आश्वासन दिए थे वे निराधार थे. उस ने कभी यह नहीं कहा कि आलोक के मातापिता की तरह उस के मातापिता ने भी उसे योग्य बनाने में उतना ही धन खर्च किया था. तब क्या उस का उन के प्रति इतना भी कर्तव्य नहीं है कि वह अपने बहनभाई को योग्य बनाने में सहायता करे. वह तो अपने सासससुर को संतुष्ट करने में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ती. स्कूल से आते ही घरगृहस्थी के कार्यों में उलझ जाती है.

कभी उस ने पति से कोई स्त्रीसुलभ मांग नहीं की. अपने मायके से जो साडि़यां लाई थी, अब भी उन्हें ही पहनती, पर उस के माथे पर शिकन तक नहीं आती थी. नीलम ने सरलता से परिस्थितियों से समझौता कर लिया था, उसे देख आलोक उस से काफी प्रभावित था. यही बात वह अपने मातापिता को समझाने का प्रयत्न करता था, किंतु वे तो जैसे समझना ही नहीं चाहते थे. वे घर के खर्चों को ले कर घर में एक अशांत वातावरण बनाए रखते, केवल इसलिए कि वे बहू को यह बतलाना चाहते थे कि वह अपने बहनभाई के ऊपर जो धन खर्च करती है वह उन के अधिकार का अपहरण है.

नीलम स्कूल के लिए तैयार हो रही थी. उसे सास की पुकार सुनाई दी तो बाहर निकल आई. पड़ोस के 2 लड़कों ने उन्हें बताया कि प्रबोध राय जब अपने नियम के अनुसार सुबह की सैर के बाद घर लौट रहे थे, तब एक स्कूटर वाला उन्हें धक्का दे कर भाग निकला और वे सड़क पर गिरे पड़े हैं. नीलम तुरंत घटनास्थल पर पहुंची. ससुर बेहोश पड़े थे. नीलम कुछ लोगों की सहायता से उन्हें उठा कर घर लाई.

उस ने जल्दी से पूनम को फोन किया, पूनम ने कहा कि वे चिंता न करें, वह जल्दी ही एंबुलेंस ले कर आ रही है. नीलम ने छुट्टी के लिए स्कूल फोन कर दिया और घर आ कर अस्पताल के लिए जरूरी सामान रखने लगी. तभी पूनम आ गई. जितनी तत्कालीन चिकित्सा करना संभव था, उस ने की और उन्हें अस्पताल ले गई.

पूनम अपने स्वभाव व व्यवहार के कारण पूरे अस्पताल में सर्वप्रिय थी. यह जान कर कि उस का कोई निकट संबंधी अस्पताल में भरती होने आया है, उस के मित्रों और संबंधित डाक्टरों ने सब प्रबंध कर दिए.

घबराहट के कारण सुमित्रा को लग रहा था कि वह शक्तिरहित होती जा रही है. सारे अस्पताल में एक हलचल सी मची हुई थी. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि कभी उस के रिटायर्ड पति को इस प्रकार का विशेष इलाज उपलब्ध हो सकेगा. बीचबीच में नीलम आ कर सास को धीरज बंधाने का प्रयत्न करती.

आलोक औफिस के कार्य से कहीं बाहर गया हुआ था. नीलम ने उसे भी  इस घटना की सूचना दे दी. अनुनय समाचार पाते ही तुरंत आ गया था. दवाइयों के लिए भागदौड़ वही कर रहा था. मदद के लिए उस के एक मित्र ने उसे अपनी कार दे दी थी.

5-6 घंटे बाद प्रबोध राय कमरे में लाए गए. पूनम ने बारबार नीलम की सास को तसल्ली दी कि प्रबोध राय जल्दी ही ठीक हो जाएंगे. वातावरण में एक ठहराव सा आ गया था. सुमित्रा ने कमरे में चारों ओर देखा. अस्पताल में इतना अच्छा कमरा तो काफी महंगा पड़ेगा. जब उस ने अपनी शंका व्यक्त की तब अनुनय बोला, ‘‘मांजी, आप 2 बेटों की मां हो कर खर्च की चिंता क्यों करती हैं? मेरे होते यदि आप को किसी प्रकार का कष्ट हो तो मैं बेटा होने का अधिकार कैसे पाऊंगा?’’

नीलम हंस कर बोली, ‘‘मांजी, आज इस ने पिताजी को अपना रक्त दिया है न, इसीलिए यह बढ़बढ़ कर आप का बेटा होने का दावा कर रहा है.’’

यह सुन सुमित्रा की आंखें छलछला आईं. वे सोच रही थीं कि यदि नीलम ने बहन की पढ़ाई में सहायता न की होती तो क्या आज पूनम डाक्टर होती और क्या उस के पति को ये सुविधाएं मिल पातीं, श्यामसुंदर लाल का पुत्र क्या अपनी बहन को दहेज के बाद उस के ससुर को खून देने की बात सोचता?

प्रबोध राय जब घर आए, तब तक सुमित्रा की मनोस्थिति बिलकुल बदल चुकी थी और सारी कमजोरी भी गायब हो चुकी थी. रात को पति को जल्दी भोजन करा कर वे नीलम के लिए कार्डीगन बुन रही थीं. तभी उन्हें अनुनय के आने की आवाज सुनाई दी. प्रसन्नता से उन का मुख उज्ज्वल हो उठा. अनुनय ने एक डब्बा ला कर उन के पैरों के पास रख दिया और पूछने पर बोला, ‘‘मांजी, मैं ने एक पार्टटाइम जौब कर लिया है. पहला वेतन मिला तो आप से आशीर्वाद लेने चला आया.’’

यह सुन कर सुमित्रा चकित रह गईं. वे रुष्ट हो कर बोलीं, ‘‘क्या तेरा दिमाग खराब हुआ है? पढ़ना नहीं है, जो पार्टटाइम जौब करेगा?’’

‘‘पढ़ाई में इस से कुछ अंतर नहीं पड़ता, मां. बेशक अब आवारागर्दी का समय नहीं मिलता.’’

‘‘मैं तेरी बात नहीं मानूंगी. जब तक तू नौकरी छोड़ने का वादा नहीं करेगा, मैं इस डब्बे को हाथ भी नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘और मांजी, आप तो जीजाजी से भी ज्यादा धमकियां दे रही हैं. चलिए, मैं ने आप की बात मान ली. अब शीघ्र डब्बा खोलिए,’’ अनुनय ने आतुरता से कहा.

डब्बा खोला तो सुमित्रा स्तब्ध रह गईं और डबडबाई आंखों से बोलीं, ‘‘पगले, मैं बुढि़या यह साड़ी पहनूंगी? अपनी जीजी को देता न?’’

‘‘पहले मां, फिर बहन. अच्छा मांजी, अब जल्दी से आशीर्वाद दे दो,’’ और अनुनय ने सुमित्रा का हाथ अपने सिर पर रख लिया. सुमित्रा हंसे बिना न रह सकीं, ‘‘तू तो बड़ा शातिर है, आशीर्वाद लेने के लिए भी रिश्वत देता है. तुम सब भाईबहन सदा प्रसन्न रहो और दूसरों को प्रसन्न रखो, मैं तो कामना करती हूं.’’

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सपनों की राख तले

दौड़भाग, उठापटक करते समय कब आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह गश खा कर गिर पड़ी, याद नहीं.

आंख खुली तो देखा कि श्वेता अपने दूसरे डाक्टर सहकर्मियों के साथ उस का निरीक्षण कर रही थी. तभी द्वार पर किसी ने दस्तक दी. श्वेता ने पलट कर देखा तो डा. तेजेश्वर का सहायक मधुसूदन था.

‘‘मैडम, आप के लिए दवा लाया हूं. वैसे डा. तेजेश्वर खुद चेक कर लेते तो ठीक रहता.’’

आंखों की झिरी से झांक कर निवेदिता ने देखा तो लगा कि पूरा कमरा ही घूम रहा है. श्वेता ने कुछ देर पहले ही उसे नींद का इंजेक्शन दिया था. पर डा. तेज का नाम सुन कर उस का मन, अंतर, झंकृत हो उठा था. सोचनेविचारने की जैसे सारी शक्ति ही चुक गई थी. ढलती आयु में भी मन आंदोलित हो उठा था. मन में विचार आया कि पूछे, आए क्यों नहीं? पर श्वेता के चेहरे पर उभरी आड़ीतिरछी रेखाओं को देख कर निवेदिता कुछ कह नहीं पाई थी.

‘‘तकदीर को आप कितना भी दोष दे लो, मां, पर सचाई यह है कि आप की इस दशा के लिए दोषी डा. तेज खुद हैं,’’ आज सुबह ही तो मांबेटी में बहस छिड़ गई थी.

‘‘वह तेरे पिता हैं.’’

‘‘मां, जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके वह व्यक्ति समाज में रह कर समाज का अंग नहीं बन सकता और न ही सम्माननीय बन सकता है,’’ क्रोधित श्वेता कुछ ही देर में कमरा छोड़ कर बाहर चली गई थी.

बेटी के जाने के बाद से उपजा एकांत और अकेलापन निवेदिता को उतना असहनीय नहीं लगा जितना हमेशा लगता था. एकांत में मौन पड़े रहना उन्हें सुविधाजनक लग रहा था.

खयालों में बरसों पुरानी वही तसवीर साकार हो उठी जिस के प्यार और सम्मोहन से बंधी, वह पिता की देहरी लांघ उस के साथ चली आई थी.

उन दिनों वह बी.ए. फाइनल में थी. कालिज का सालाना आयोजन था. म्यूजिकल चेयर प्रतियोगिता में निवेदिता और तेजेश्वर आखिरी 2 खिलाड़ी बचे थे. कुरसी 1 उम्मीदवार 2. कभी निवेदिता की हथेली पर तेजेश्वर का हाथ पड़ जाता, कभी उस की पीठ से तेज का चौड़ा वक्षस्थल टकरा जाता. जीत, तेजेश्वर की ही हुई थी लेकिन उस दिन के बाद से वे दोनों हर दिन मिलने लगे थे. इस मिलनेमिलाने के सिलसिले में दोनों अच्छे मित्र बन गए. धीरेधीरे प्रेम का बीज अंकुरित हुआ तो प्यार के आलोक ने दोनों के जीवन को उजास से भर दिया.

अंतर्जातीय विवाह के मुद्दे को ले कर परिवार में अच्छाखासा विवाद छिड़ गया था. लेकिन बिना अपना नफानुकसान सोचे निवेदिता भी अपनी ही जिद पर अड़ी रही. कोर्ट में रजिस्टर पर दस्तखत करते समय, सिर्फ मांपापा, तेजेश्वर और निवेदिता ही थे. इकलौती बेटी के ब्याह पर न बाजे बजे न शहनाई, न बंदनवार सजे न ही गीत गाए गए. विदाई की बेला में मां ने रुंधे गले से इतना भर कहा था, ‘सपने देखना बुरा नहीं होता पर उन सपनों की सच के धरातल पर कोई भूमिका नहीं होती, बेटी. तेरे भावी जीवन के लिए बस, यही दुआ कर सकती हूं कि जमीन की जिस सतह पर तू ने कदम रखा है वह ठोस साबित हो.’

विवाह के शुरुआती दिनों में सुंदर घर, सुंदर परिवार, प्रिय के मीठे बोल, यही पतिपत्नी की कामना थी और यही प्राप्ति. शुरू में तेज का साथ और उस के मीठे बोल अच्छे लगते थे. बाद में यही बोल किस्सा बन गए. निवि को बात करने का ढंग नहीं है, पहननाओढ़ना तो उसे आता ही नहीं है. सीनेपिरोने का सलीका नहीं. 2 कमरों के उस छोटे से फ्लैट को सजातेसंवारते समय मन हर पल पति के कदमों की आहट को सुनने के लिए तरसता. कुछ पकातेपरोसते समय पति के मुख से 1-2 प्रशंसा के शब्द सुनने के लिए मन मचलता, लेकिन तेजेश्वर बातबात पर खीजते, झल्लाते ही रहते थे.

निवेदिता आज तक समझ नहीं पाई कि ब्याह के तुरंत बाद ही तेज का व्यवहार उस के प्रति इतना शुष्क और कठोर क्यों हो गया. उस ने तो तेज को मन, वचन, कर्म से अपनाया था. तेज के प्रति निवेदिता को कोई गिलाशिकवा भी नहीं था.

कई बार निवेदिता खुद से पूछती कि उस में उस का कुसूर क्या था कि वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. लोगों के बीच जल्द ही आकर्षण का केंद्र बन जाती थी या उस की मित्रता सब से हो जाती थी. वरना पत्नी के प्रति दुराव की क्षुद्र मानसिकता के मूल कारण क्या हो सकते थे? शरीर के रोगों को दूर करने वाले तेजेश्वर यह क्यों नहीं समझ पाए कि इनसान अपने मृदु और सरल स्वभाव से ही तो लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बनता है.

दिनरात की नोकझोंक और चिड़- चिड़ाहट से दुखी हो उठी थी निवेदिता. सोचा, क्या रखा है इन घरगृहस्थी के झमेलों में?

एक दिन अपनी डिगरियां और सर्टिफिकेट निकाल कर तेज से बोली, ‘घर में बैठेबैठे मन नहीं लगता, क्यों न मैं कोई नौकरी कर लूं?’

‘और यह घरगृहस्थी कौन संभालेगा?’ तेज ने आंखें तरेरीं.

‘घर के काम तो चलतेफिरते हो जाते हैं,’ दृढ़ता से निवेदिता ने कहा तो तेजेश्वर का स्वर धीमा पड़ गया.

‘निवेदिता, घर से बाहर निकलोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’

‘क्यों…’ लापरवाही से पूछा था उस ने.

‘लोग न जाने तुम्हें कैसीकैसी निगाहों से घूरेंगे.’

कितना प्यार करते हैं तेज उस से? यह सोच कर निवेदिता इतरा गई थी. पति की नजरों में, सर्वश्रेष्ठ बनने की धुन में वह तेजेश्वर की हर कही बात को पूरा करती चली गई थी, पर जब टांग पर टांग चढ़ा कर बैठने में, खिड़की से बाहर झांक कर देखने में, यहां तक कि किसी से हंसनेबोलने पर भी तेज को आपत्ति होने लगी तो निवेदिता को अपनी शुरुआती भावुकता पर अफसोस होने लगा था.

निरी भावुकता में अपने निजत्व को पूर्ण रूप से समाप्त कर, जितनी साधना और तप किया उतनी ही चतुराई से लासा डाल कर तेजेश्वर उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही बाधित करते चले गए.

दर्द का गुबार सा उठा तो निवेदिता ने करवट बदल ली. यादों के साए पीछा कहां छोड़ रहे थे. विवाह की पहली सालगिरह पर मम्मीपापा 2 दिन पहले ही आ गए थे. मित्र, संबंधी और परिचितों को आमंत्रित कर उस का मन पुलक से भर उठा था लेकिन तेजेश्वर की भवें तनी हुई थीं. निवेदिता के लिए पति का यह रूप नया था. उस ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि इस खुशी के अवसर को तेज अंधकार में डुबो देंगे और जरा सी बात को ले कर भड़क जाएंगे.

‘मटरमशरूम क्यों बनाया? शाही पनीर क्यों नहीं बनाया?’

छोटी सी बात को टाला भी जा सकता था पर तेजेश्वर ने महाभारत छेड़ दिया था. अकसर किसी एक बात की भड़ास दूसरी बात पर ही उतरती है. तेज का स्वभाव ही ऐसा था. दोस्ती किसी से करते नहीं थे, इसीलिए लोग उन से दूर ही छिटके रहते थे. आमंत्रित अतिथियों से सभ्यता और शिष्टता से पेश आने के बजाय, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही उन्होंने वह हंगामा खड़ा किया था. यह सबकुछ निवेदिता को अब समझ में आता है.

2 दिन तक मम्मीपापा और रहे थे. तेज इस बीच खूब हंसते रहे थे. निवेदिता इसी मुगालते में थी कि मम्मीपापा ने कुछ सुना नहीं था पर अनुभवी मां की नजरों से कुछ भी नहीं छिपा था.

घर लौटते समय तेज का अच्छा मूड देख कर उन्होंने मशविरा दिया था, ‘जिंदगी बहुत छोटी है. हंसतेखेलते बीत जाए तो अच्छा है. ज्यादा ‘वर्कोहोलिक’ होने से शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं. कुछ दिन कहीं बाहर जा कर तुम दोनों घूम आओ.’

इतना सुनते ही वह जोर से हंस दी थी और उस के मुंह से निकल गया था, ‘मां, कभी सोना लेक या बटकल लेक तक तो गए नहीं, आउट आफ स्टेशन ये क्या जाएंगे?’

मजाक में कही बात मजाक में ही रहने देते तो क्या बिगड़ जाता? लेकिन तेज का तो ऐसा ईगो हर्ट हुआ कि मारपीट पर ही उतर आए.

हतप्रभ रह गई थी वह तेज के उस व्यवहार को देख कर. उस दिन के बाद से हंसनाबोलना तो दूर, उन के पास बैठने तक से घबराने लगी थी निवेदिता. कई दिनों तक अबोला ठहर जाता उन दोनों के बीच.

उन्हीं कुछ दिनों में निवेदिता ने अपने शरीर में कुछ आकस्मिक परिवर्तन महसूस किए थे. तबीयत गिरीगिरी सी रहती, जी मिचलाता रहता तो वह खुद ही चली गई थी डा. डिसूजा के क्लिनिक पर. शुरुआती जांच के बाद डा. डिसूजा ने गर्भवती होने का शक जाहिर किया था, ‘तुम्हें कुछ टैस्ट करवाने पड़ेंगे.’

एक घंटा भी नहीं बीता था कि तेज घर लौट आए थे. शायद डा. डिसूजा से उन की बात हो चुकी थी. बच्चों की तरह पत्नी को अंक में भर कर रोने लगे.

‘इतनी खुशी की बात तुम ने मुझ से क्यों छिपाई? अकेली क्यों गई? मैं ले चलता तुम्हें.’

आंख की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े. खुद पर ग्लानि होने लगी थी. कितना छोटा मन है उन का…ऐसी छोटीछोटी बातें भी चुभ जाती हैं.

अगले दिन तेज ने डा. कुलकर्णी से समय लिया और लंच में आने का वादा कर के चले गए. 10 सालों तक हास्टल में रहने वाली निवेदिता जैसी लड़की के लिए अकेले डा. कुलकर्णी के क्लिनिक तक जाना मुश्किल काम नहीं था. डा. डिसूजा के क्लिनिक पर भी वह अकेली ही तो गई थी. पर कभीकभी अपना वजूद मिटा कर पुरुष की मजबूत बांहों के घेरे में सिमटना, हर औरत को बेहद अच्छा लगता है. इसीलिए बेसब्री से वह तेज का इंतजार करने लगी थी.

दोपहर के 1 बजे जूते की नोक से द्वार के पट खुले तो वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई थी. तेज बुरी तरह बौखलाए हुए थे. शायद थके होंगे यह सोच कर निवेदिता दौड़ कर चाय बना लाई थी.

‘पूरा दिन गंवारों की तरह चाय ही पीता रहूं?’ तेज ने आंखें तरेरीं तो साड़ी बदल कर, वह गाउन में आ गई और घबरा कर पूछ लिया, ‘आजकल काम ज्यादा है क्या?’

‘मैं आलसी नहीं, जो हमेशा पलंग पर पड़ा रहूं. काम करना और पैसे कमाना मुझे अच्छा लगता है.’

अपरोक्ष रूप से उस पर ही वार किया जा रहा है. यह वह समझ गई थी. सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट लिए निवेदिता अंदर ही अंदर घुटती रही थी. उस ने कई किताबों में पढ़ा था कि गर्भवती महिला को हमेशा खुश रहना चाहिए. इसीलिए पति के स्वर में छिपे व्यंग्य को सुन कर भी मूड खराब करने के बजाय चेहरे पर मुसकान फैला कर बोली, ‘एक बार ब्लड प्रैशर चेक क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह ही चिड़चिड़ाते रहते हो.’

इतना सुनते ही तेजेश्वर ने घर के हर साजोसामान के साथ कई जरूरत के कागज भी यत्रतत्रसर्वत्र फैला दिए थे. निवेदिता आज तक इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाई कि क्या पतिपत्नी का रिश्ता विश्वास पर नहीं टिका होना चाहिए. वह जहां जाती तेजेश्वर के साथ जाती, वह जैसा चाहते वैसा ही पहनती, ओढ़ती, पकाती, खाती. जहां कहते वहीं घूमने जाती. फिर भी वर्जनाओं की तलवार हमेशा क्यों उस के सिर पर लटकती रहती थी?

अंकुश के कड़े चाबुक से हर समय पत्नी को साध कर रखते समय तेजेश्वर के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि जो पति अपनी पत्नी को हेय दृष्टि से देखता है उस औरत के प्रति बेचारगी का भाव जतला कर कई पुरुष गिद्धों की तरह उस के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं. इस में दोष औरत का नहीं, पुरुष का ही होता है.

यही तो हुआ था उस दिन भी. श्वेता के जन्मदिन की पार्टी पर वह अपने कालिज की सहपाठी दिव्या और उस के पति मधुकर के साथ चुटकुलों का आनंद ले रही थी. मां और पापा भी वहीं बैठे थे. पार्टी का समापन होते ही तेज अपने असली रूप में आ गए थे. घबराहट से उन का पूरा शरीर पसीनेपसीने हो गया. लोग उन के गुस्से को शांत करने का भरसक प्रयास कर रहे थे पर तेजेश्वर अपना आपा ही खो चुके थे. एक बरस की नन्ही श्वेता को जमीन पर पटकने ही वाले थे कि पापा ने श्वेता को तेज के चंगुल से छुड़ा कर अपनी गोद में ले लिया था.

‘मुझे तो लगता है कि तेज मानसिक रोगी है,’ पापा ने मां की ओर देख कर कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ अनुभवी मां ने बात को संभालने का प्रयास किया था.

‘यदि यह मानसिक रोगी नहीं तो फिर कोई नशा करता है क्योंकि कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा अभद्र व्यवहार कभी नहीं कर सकता.’

उस दिन सब के सामने खुद को तेजेश्वर ने बेहद बौना महसूस किया था. घुटन और अवहेलना के दौर से बारबार गुजरने के बाद भी तेज के व्यवहार की चर्चा निवेदिता ने कभी किसी से नहीं की थी. कैसे कहती? रस्मोरिवाज के सारे बंधन तोड़ कर उस ने खुद ही तो तेजेश्वर के साथ प्रेमविवाह किया था पर उस दिन तो मम्मी और पापा दोनों ने स्वयं अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना था.

पापा ने साथ चलने के लिए कहा तो वह चुपचाप उन के साथ चली गई थी. सोचती थी, अकेलापन महसूस होगा तो खुद ही तेज आ कर लिवा ले जाएंगे पर ऐसा मौका कहां आया था. उस के कान पैरों की पदचाप और दरवाजे की खटखट सुनने को तरसते ही रह गए थे.

श्वेता, पा…पा…कहना सीख गई थी. हुलस कर निवेदिता ने बेटी को अपने आंचल में छिपा लिया था. दुलारते- पुचकारते समय खुशी का आवेग उस की नसों में बहने लगा और अजीब तरह का उत्साह मन में हिलोरें भरने लगा.

‘कब तक यों हाथ पर हाथ धर कर बैठी रहेगी? अभी तो श्वेता छोटी है. उसे किसी भी बात की समझ नहीं है लेकिन धीरेधीरे जब बड़ी होगी तो हो सकता है कि मुझ से कई प्रकार के प्रश्न पूछे. कुछ ऐसे प्रश्न जिन का उत्तर देने में भी मुझे लज्जित होना पड़े.’

घर में बिना किसी से कुछ कहे वह तेज की मां के चौक वाले घर में पहुंच गई थी. पूरे सम्मान के साथ तेजेश्वर की मां ने निवेदिता को गले लगाया था बल्कि अपने घर आ कर रहने के लिए भी कहा था. लेकिन बातों ही बातों में इतना भी बता दिया था कि तेज कनाडा चला गया है और जाते समय यह कह गया है कि वह निवेदिता के साथ भविष्य में कोई संबंध नहीं रखना चाहता है.

निवेदिता ने संयत स्वर में इतना ही पूछा था, ‘मांजी, यह सब इतनी जल्दी हुआ कैसे?’

‘तेज के दफ्तर की एक सहकर्मी सूजी है. उसी ने स्पांसर किया है. हमेशा कहता था, मन उचट गया है. दूर जाना है…कहीं दूर.’

सारी भावनाएं, सारी संवेदनाएं ठूंठ बन कर रह गईं. औरत सिर्फ शारीरिक जरूरत नहीं है. उस के प्रेम में पड़ना, अभिशाप भी नहीं है, क्योंकि वह एक आत्मीय उपस्थिति है. एक ऐसी जरूरत है जिस से व्यक्ति को संबल मिलता है. हवा में खुशबू, स्पर्श में सनसनी, हंसी में खिलखिलाहट, बातों में गीतों सी सरगम, यह सबकुछ औरत के संपर्क में ही व्यक्ति को अनुभव होता है.

समय की झील पर जिंदगी की किश्ती प्यार की पाल के सहारे इतनी आसानी से गुजरती है कि गुजरने का एहसास ही नहीं होता. कितनी अजीब सी बात है कि तेज इस सच को ही नहीं पहचान पाए. शुरू से वह महत्त्वाकांक्षी थे पर उन की महत्त्वाकांक्षा उन्हें परिवार तक छोड़ने पर मजबूर कर देगी, ऐसा निवेदिता ने कभी सोचा भी नहीं था. कहीं ऐसा तो नहीं कि बच्ची और पत्नी से दूर भागने के लिए उन्होंने महत्त्वाकांक्षा के मोहरे का इस्तेमाल किया था?

इनसान क्यों अपने परिवार को माला में पिरोता है? इसीलिए न कि व्यक्ति को सीधीसादी, सरल सी जिंदगी हासिल हो. निवेदिता ने विवेचन सा किया. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से अपनों को ही खुदगर्जी का लकवा मार जाए तो पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर ठंडे, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता है?

मन में विचार कौंधा कि अब यह घर उसे छोड़ देना चाहिए. आखिर मांबाप पर कब तक आश्रित रहेगी. और अब तो भाई का भी विवाह होने वाला था. उस की और श्वेता की उपस्थिति ने भाई के सुखद संसार में ग्रहण लगा दिया तो? उसे क्या हक है किसी की खुशियां छीनने का?

अगले दिन निवेदिता देहरादून में थी. सोचा कि इस शहर में अकेली कैसे रह सकेगी? लेकिन फौरन ही मन ने निश्चय किया कि उसे अपनी बिटिया के लिए जीना होगा. तेज तो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर विदेश जा बसे पर वह अपने दायित्वों से कैसे मुंह मोड़ सकती है?

श्वेता को सुरक्षित भविष्य प्रदान करने का दायित्व निवेदिता ने अपने कंधों पर ले तो लिया था पर वह कर क्या सकती थी? डिगरियां और सर्टि- फिकेट तो कब के तेज के क्रोध की आग पर होम हो चुके थे.

नौकरी ढूंढ़ने निकली तो एक ‘प्ले स्कूल’ में नौकरी मिल गई, साथ ही स्कूल की प्राध्यापिका ने रहने के लिए 2 कमरे का मकान दे कर उस की आवास की समस्या को भी सुलझा दिया, पर वेतन इतना था कि उस में घर का खर्चा चलाना ही मुश्किल था. श्वेता के सुखद भविष्य को बनाने का सपना वह कैसे संजोती?

मन ऊहापोह में उलझा रहता. क्या करे, कैसे करे? विवाह से पहले कुछ पत्रिकाओं में उस के लेख छपे थे. आज फिर से कागजकलम ले कर कुछ लिखने बैठी तो लिखती ही चली गई.

कुछ पत्रिकाओं में रचनाएं भेजीं तो स्वीकृत हो गईं. पारिश्रमिक मिला, शोहरत मिली, नाम मिला. लोग प्रशंसात्मक नजरों से उसे देखते. बधाई संदेश भेजते, तो अच्छा लगता था, फिर भी भीतर ही भीतर कितना कुछ दरकता, सिकुड़ता रहता. काश, तेज ने भी कभी उस के किसी प्रयास को सराहा होता.

निवेदिता की कई कहानियों पर फिल्में बनीं. घर शोहरत और पैसे से भर गया. श्वेता डाक्टर बन गई. सोचती, यदि तेज ने ऐसा अमानवीय व्यवहार न किया होता तो उस की प्रतिभा का ‘मैं’ तो बुझ ही गया होता. कदमकदम पर पत्नी की प्रतिभा को अपने अहं की कैंची से कतरने वाले तेजेश्वर यदि आज उसे इस मुकाम पर पहुंचा हुआ देखते तो शायद स्वयं को उपेक्षित और अपमानित महसूस करते. यह तो श्वेता का संबल और सहयोग उन्हें हमेशा मिलता रहा वरना इतना सरल भी तो नहीं था इस शिखर तक पहुंचना.

दरवाजे पर दस्तक हुई, ‘‘निवेदिता,’’ किसी ने अपनेपन से पुकारा तो अतीत की यादों से निकल कर निवेदिता बाहर आई और 22 बरस बाद भी तेजेश्वर का चेहरा पहचानने में जरा भी नहीं चूकी. तेज ने कुरसी खिसका कर उस की हथेली को छुआ तो वह शांत बिस्तर पर लेटी रही. तेज की हथेली का दबाव निवेदिता की थकान और शिथिलता को दूर कर रहा था. सम्मोहन डाल रहा था और वह पूरी तरह भारमुक्त हो कर सोना चाह रही थी.

‘‘बेटी के ब्याह पर पिता की मौजूदगी जरूरी होती है. श्वेता के विवाह की बात सुन कर इतनी दूर से चला आया हूं, निवि.’’

यह सुन कर मोम की तरह पिघल उठा था निवेदिता का तनमन. इसे औरत की कमजोरी कहें या मोहजाल में फंसने की आदत, बरसों तक पीड़ा और अवहेलना के लंबे दौर से गुजरने के बाद भी जब वह चिरपरिचित चेहरा आंखों के सामने आता है तो अपने पुराने पिंजरे में लौट जाने की इच्छा प्रबल हो उठती है. निवेदिता ने अपने से ही प्रश्न किया, ‘कल श्वेता ससुराल चली जाएगी तो इतने बड़े घर में वह अकेली कैसे रहेगी?’

‘‘सूजी निहायत ही गिरी हुई चरित्रहीन औरत निकली. वह न अच्छी पत्नी साबित हुई न अच्छी मां. उसे मुझ से ज्यादा दूसरे पुरुषों का संसर्ग पसंद था. मैं ने तलाक ले लिया है उस से. मेरा एक बेटा भी है, डेविड. अब हम सब साथ रहेंगे. तुम सुन रही हो न, निवि? तुम्हें मंजूर होगा न?’’

बंद आंखों में निवेदिता तेज की भावभंगिमा का अर्थ समझ रही थी.

बरसों पुराना वही समर्थन, लेकिन स्वार्थ की महक से सराबोर. निवेदिता की धारणा में अतीत के प्रेम की प्रासंगिकता आज तक थी, लेकिन तेज के व्यवहार ने तो पुराने संबंधों की जिल्द को ही चिंदीचिंदी कर दिया. वह तो समझ रही थी कि तेज अपनी गलती की आग में जल रहे होंगे. अपनी करनी पर दुखी होंगे. शायद पूछेंगे कि इतने बरस उन की गैरमौजूदगी में तुम ने कैसे काटे. कहांकहां भटकीं, किनकिन चौखटों की धूल चाटी. लेकिन इन बातों का महत्त्व तेजेश्वर क्या जानें? परिवार जब संकट के दौर से गुजर रहा हो, गृहकलह की आग में झुलस रहा हो, उस समय पति का नैतिक दायित्व दूना हो जाता है. लेकिन तेज ने ऐसे समय में अपने विवेक का संतुलन ही खो दिया था. अब भी उन का यह स्पर्श उसे सहेजने के लिए नहीं, बल्कि मांग और पूर्ति के लिए किया गया है.

पसीने से भीगी निवेदिता की हथेली धीरेधीरे तेज की मजबूत हथेली के शिकंजे से पीछे खिसकने लगी, निवेदिता के अंदर से यह आवाज उठी, ‘अगर सूजी अच्छी पत्नी और मां साबित न हो सकी तो तुम भी तो अच्छे पिता और पति न बन सके.  जो व्यक्ति किसी नारी की रक्षा में स्वयं की बलि न दे सके वह व्यक्ति पूज्य कहां और कैसे हो सकता है? 22 बरस की अवधि में पनपे अपरिचय और दूरियों ने तेज की सोच को क्या इतना संकुचित कर दिया है?’

जेहन में चुभता हुआ सोच का टुकड़ा अंतर्मन के सागर में फेंक कर निवेदिता निष्प्रयत्न उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘तेज, दूरियां कुछ और नहीं बल्कि भ्रामक स्थिति होती हैं. जब दूरियां जन्म लेती हैं तो इनसान कुछ बरसों तक इसी उम्मीद में जीता है कि शायद इन दूरियों में सिकुड़न पैदा हो और सबकुछ पहले जैसा हो जाए, पर जब ऐसा नहीं होता तो समझौता करने की आदत सी पड़ जाती है. ऐसा ही हुआ है मेरे साथ भी. घुटनों चलने से ले कर श्वेता को डाक्टर बनाने में मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ी. रुकावटें आईं पर हम दोनों मांबेटी एकदूसरे का संबल बने रहे. आज श्वेता के विवाह का अनुष्ठान भी अकेले ही संपूर्ण हो जाएगा.’’

एक बार निवेदिता की पलकें नम जरूर हुईं पर उन आंसुओं में एक तरह की मिठास थी. आंसुओं के परदे से झांक कर उन्होंने अपनी ओर बढ़ती श्वेता और होने वाले दामाद को भरपूर निगाहों से देखा. श्वेता मां के कानों के पास अपने होंठ ला कर बुदबुदाई, ‘जीवन के मार्ग इतने कृपण नहीं जो कोई राह ही न सुझा सकें. मां, जिस धरती पर तुम खड़ी हो वह अब भी स्थिर है.’

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी- भाग 2

अंजलि अपनी विधवा मां के साथ 3 कमरों के फ्लैट में रहती थी. उस का इकलौता बड़ा भाई अमेरिका में 5 साल पहले जा कर बस गया था. मां को बेसहारा हालत में न छोड़ने के इरादे से उस ने शादी न करने का फैसला किया था.

महिमा उस से शाम को मिलने आएगी, फोन पर सौरभ से यह जानकर उसे कुछ हैरानी तो हुई, पर आत्मविश्वास का स्तर ऊंचा होने के कारण वह परेशान या चिंतित नहीं हुई.

उस शाम अंजलि और महिमा का पहली बार आमनासामना हुआ. दोनों ही औसत से ज्यादा खूबसूरत स्त्रियां थीं. महिमा खुल कर मुसकरा रही थी और अंजलि से गले लग कर मिली. दूसरी तरफ अंजलि जरा गंभीर बनी उसे आंखों से नापतोल ज्यादा रही थी.

कुछ देर उन के बीच औपचारिक सी बातें हुईं. उम्र में बड़ी अंजलि ने ही ज्यादा सवाल पूछे और महिमा प्रसन्न अंदाज में उन के जवाब देती रही.

फिर महिमा उठ कर रसोई में पहुंच गई. वहां अंजलि की मां सावित्री उन सब के लिए चायनाश्ता तैयार कर रही थीं.

काम में सावित्री का हाथ बंटाने के साथसाथ महिमा उन से उन के सुखदुख की ढेर सारी बातें भी करती जा रही थी. शुरू में खिंचाव सा महसूस कर रही सावित्री, महिमा के अपनत्व और व्यवहार के कारण जल्दी खुल कर उस से हंसनेबोलने लगीं.

 

करीब 20 मिनट बाद गरमागरम पकौड़े प्लेट

में रख कर महिमा अकेली ड्राइंगरूम में लौटी, तो सौरभ और अंजलि ?ाटके से चुप हो गए.

प्लेट को मेज पर रखने के बाद महिमा ने अपना पर्र्स खोल कर गिफ्ट पेपर में लिपटा छोटा सा बौक्स निकाला और उसे अंजलि को पकड़ाते हुए बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘दीदी, आप भी इन के दिल में रहती हैं और इस कारण मेरी जिंदगी में भी आप की जगह खास हो गई है. हमारे संबंध मधुर रहें, इस कामना के साथ यह छोटा सा गिफ्ट मैं आप को दे रही हूं.’’

‘‘थैंक यू, महिमा,’’ गिफ्ट लेने के बाद अंजलि ने गंभीर लहजे में धन्यवाद दिया, ‘‘बिलकुल रहेंगे,’’ अंजलि की आंखों में हल्की बेचैनी के भाव उभरे.

‘‘इन्हें मैं आप से दूर करने की कोशिश नहीं करूंगी और आप मु?ो इन से.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मेरा जब दिल करे तब क्या मैं आप से मिलने अकेली आ जाया करूं?’’

‘‘मैं तो बहुत व्यस्त रहती हूं, महिमा छुट्टी वाले दिन…’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, तो कोई बात नहीं मैं आंटी से मिलने आ जाया करूंगी. इस घर में मेरा मन बड़ा प्रेम और अपनापन सा महसूस कर रहा है,’’ महिमा ने खड़े हो कर कमरे में आई सावित्री के हाथ से पहले चाय की ट्रे ले कर मेज पर रखी और फिर उन्हें जोर से गले लगा लिया.

महिमा के खुले व्यवहार ने धीरेधीरे इन मांबेटी के होंठों की मुसकान उड़ा दी. सौरभ की पत्नी उन से इतने प्यार व आदरसम्मान के साथ पेश आए, यह बात न उन्हें सम?ा आ रही थी, न हजम हो रही थी. अजीब सी उल?ान का शिकार बना सौरभ भी अधिकतर चुप रहा.

विदा के समय सावित्री ने महिमा को एक खूबसूरत व कीमती साड़ी उपहार में दी. वह साड़ी देख कर बच्चे की तरह खुश हो गई, ‘‘अगली बार यही सुंदर साड़ी पहन कर मैं यहां आऊंगी और हम डिनर के लिए भी रुकेंगे, आंटी. मैं चाहती हूं कि आप मु?ो अपनी छोटी बेटी सम?ा कर खूब प्यार दें,’’ सावित्री के कई बार गले लग कर महिमा ने विदा ली.

अंजलि का हाथ पकड़ कर महिमा ने उस से

कहा, ‘‘दीदी, आप बे?ि?ाक हो कर हमारे घर आनाजाना शुरू कर दो. मम्मीपापा को मैं सम?ा लूंगी और दुनिया वालों के कुछ कहने की फिक्र मैं ने आज तक नहीं करी है और आप भी मत करना.’’

‘‘मैं आऊंगी,’’ जबरदस्ती मुसकराने के बाद अंजलि अपनी कनपटियां मसलने लगी क्योंकि पिछले घंटेभर से उस का ‘माइग्रेन’ का दर्द तेजी से बढ़ता जा रहा था.

पहली मुलाकात में महिमा ने एक शब्द भी अंजलि की शान के खिलाफ मुंह से नहीं निकाला, पर अपने पीछे वह अपनी इस ‘दीदी’ के मन में चिड़, गुस्से व कड़वाहट के भाव छोड़ गई.

सावित्री को लगा कि महिमा बेहद बातूनी पर सीधी और दिल की अच्छी लड़की है. लौटते हुए सौरभ ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस करी. उसे लगा रहा था कि उस की प्रेमिका और पत्नी वास्तव में एकदूसरे को पसंद करती हैं और उन के बीच अच्छी दोस्ती के संबंध जरूर कायम हो जाएंगे.

उस रात महिमा बहुत रोमांटिक मूड में थी. उस ने बड़े जोशीले अंदाज में सौरभ को प्यार करना शुरू किया.

‘‘एक बात बताओ,’’ सौरभ ने कुछ पलों के लिए उस की शरारती हरकतों को रोक कर पूछा, ‘‘क्या तुम ने अंजलि को अपनी एक अच्छी फ्रैंड के रूप में स्वीकार कर लिया है?’’

‘‘कर लिया है… आप की खुशी की खातिर कर लिया है,’’ महिमा ने उठ कर उस का माथा चूम लिया.

‘‘मेरी खुशी की बात छोड़ो. क्या वैसे वह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

‘‘मैं हैरान हूं यह देख कर कि तुम ने कितनी आसानी से हमारे रिश्ते को स्वीकार कर लिया है.’’

‘‘तुम्हारी खुशी की खातिर मैं कुछ भी सहन कर सकती हूं.’’

‘‘मेरी खुशी को बीच में मत लाओ. वैसे तुम्हारे मन के भाव क्या हैं अंजलि और मेरे रिश्ते के बारे में?’’

‘‘मेरा दिल तो कहता है कि तुम्हारी जान ले लूं,’’ महिमा के हाथ उस के गले के इर्दगिर्द हलके से कसे और आंखों में अचानक आंसू छलक आए, ‘‘लेकिन मेरे

मुंह से शिकायत का एक शब्द भी कभी निकल जाए, तो लानत है मु?ा पर. मैं तुम्हारे प्रेम में पागल हूं, सौरभ… माई डार्लिंग… माई स्वीटहार्ट… माई लव.’’

महिमा बेतहाशा उस के चेहरे पर चुंबन अंकित करने लगी. सौरभ ने भावुक हो कर उसे ‘आई एम सौरी’ कईर् बार कहना चाहा, पर महिमा के प्यार की तीव्रता के आगे ये 3 शब्द उस के गले से बाहर नहीं आ पाए.

अंजलि का प्लैट ज्यादा दूर नहीं था पर महिमा रोज नहीं जाती. अंजलि से उस की मुलाकात सौरभ, उस की जिद के कारण रात को कराता और सप्ताह में 2-3 बार महिमा उस के साथ भी अंजलि के घर जाती.

अपने सासससुर व ननद के सामने वह अंजलि के बारे में बात करने से जरा भी नहीं हिचकिचाती. सौरभ की उपस्थिति में भी उसे ऐसी चर्चा छेड़ने से परहेज नहीं था.

अपनी सास द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में महिमा ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मम्मी, अंजलि की बातें खुल कर करने

से मेरा मन हलका रहता है. अगर मैं सब बातें दबाने लगूं, तो मेरे मन में आप के बेटे व

अंजलि दोनों के प्रति गुस्से व नफरत के भाव बहुत बढ़ जाएंगे.’’

‘‘पता नहीं तुम कैसे उस चालाक, चरित्रहीन औरत से मिलने चली जाती हो. मैं तुम्हारी जगह होती, तो न कभी खुद उस से मिलती, न सौरभ को मिलने देती,’’ उस की सास का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था.

‘‘मम्मी, मैं जो कर रही हूं, वह आप के बेटे के हित व खुशियों को ध्यान में रख कर कर रही हूं,’’ महिमा के होंठों पर उभरी रहस्यमयी सी मुसकान उस की सास को उल?ान का शिकार बना गईर्.

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