Serial Story: एहसास (भाग-2)

लेखिका- रश्मि राठी

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

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सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

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सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

आगे पढ़ें- सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से…

Serial Story: एहसास (भाग-1)

लेखिका- रश्मि राठी

कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

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सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

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‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

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महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-8

अब तक की कथा :

फोन पर बात कर के यशेंदु संतुष्ट नहीं हो सके. आखिर उन की बेटी के भविष्य का प्रश्न उन के समक्ष अधर में लटक रहा था. मन में संदेह के बीज पड़ चुके थे. बेटी का चिड़चिड़ापन उन्हें प्रताड़ना दे रहा था. उन्होंने लंदन जा कर अपने संदेह का निराकरण करना चाहा. मानसिक तनाव व द्वंद्व में घिरे यशेंदु कार पार्क कर के सड़क पार करते समय ट्रक की चपेट में आ गए.

अब आगे…

पूजापाठ, ग्रहनक्षत्र, शुभअशुभ सब पंडितों से पूछ कर ही तो घर के सारे काम होते थे, फिर यशेंदु के साथ ऐसा अनिष्ट क्यों हुआ? कामिनी अब मांजी से इस सवाल का क्या जवाब मांगती. पंडितों ने तो उन की आंखों पर ऐसी पट़्टी बांध दी थी जिस के पार वह कुछ नहीं देख सकती थीं. लेकिन कामिनी  उस पार की तबाही साफ देख रही थी. ट्रक ड्राइवर के ब्रेक लगातेलगाते यशेंदु ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट दूर जा गिरे और बेहोश हो गए.

यशेंदु की ट्रक से दुर्घटना की खबर डाक्टर द्वारा घरवालों को मिली तो वे घबरा गए. वे शीघ्रातिशीघ्र अस्पताल पहुंच गए. वहां कई लोग मौजूद थे.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ सेठ ने अपने ड्राइवर से पूछा.

‘‘साब, पता नहीं चला कहां से ये साहब अचानक ही ट्रक के सामने आ गए और मैं ब्रेक लगा पाऊं इतनी देर में तो ये ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट ऊपर उछल कर गिर कर बेहोश हो गए,’’ ड्राइवर को बहुत अफसोस हो रहा था. लगभग 30 वर्ष से वह यह काम कर रहा था. अभी तक इस प्रकार की कोई दुर्घटना उस से नहीं हुई थी.

दिया का रोरो कर बुरा हाल था. दादी, कामिनी, नौकर सब इस दुर्घटना से जड़ से हो गए थे. दिया जानती थी कि पापा उसे अपने साथ लंदन ले जाने के लिए यह सब भागदौड़ कर रहे थे इसलिए उस का मन और भी व्यथित हो उठा. यह प्रसाद मिला पापा को दादी की इतनी पूजा का? उस का मन हाहाकार करने लगा. वह बहुत अभागी है. अपने पिता की दुर्घटना के लिए वही जिम्मेदार है. वैसे कहीं पर कुछ भी हो सकता है परंतु दिया को इसलिए यह बात बारबार कचोट रही थी क्योंकि यह सबकुछ वीजा औफिस के बाहर ही  हुआ था. उस के अनुसार, पापा को यह सब उस की चिंता के लिए ही भोगना पड़ रहा था.

कामिनी ने आंसूभरी आंखों से औपरेशन के फौरमैलिटी पेपर्स पर हस्ताक्षर कर दिए. उस के मस्तिष्क में मानो हथौड़ी की सी मार भी पड़ने लगी. अगर लड़के के घर में सगाई या विवाह के बाद बड़ी दुर्घटना हो जाती है तो लड़की के मुंह पर कालिख पोती जाती है. इस के पैर ऐसे हैं, यह घर के लिए शुभ नहीं है आदि. परंतु जहां लड़की के घर में इस प्रकार की कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या लड़के को भी अपशकुनी माना जाता है?

लगभग 3 घंटे के औपरेशन ने घरभर के सदस्यों को हिला कर रख दिया था. ड्राइवर और उस का मालिक दोनों ही सहृदय, संवेदनशील थे, होंठ सिए हाथ जोड़ कर, सिर झुकाए चुपचाप सबकुछ सुनते रहे. 5-7 मिनट बाद कामिनी ने सास को औपरेशन थिएटर के बाहर पड़ी कुरसी पर बैठा दिया और ड्राइवर व उस के मालिक के सामने हाथ जोड़ कर उन्हें वहां से जाने का इशारा किया.

कामिनी व दिया दोनों के मन में बहुत स्पष्ट था कि यह दुर्घटना क्यों हुई होगी? वे कई दिनों से यश को बहुत अधिक असहज देख रही थीं. दिया तो अपने में ही सिमट कर रह गई थी परंतु कामिनी ने पति को समझाने का भरपूर प्रयास किया था. यश थे कि बेटी को देखदेख कर भीतर ही भीतर कुढ़ रहे थे. ऊपर से उन की मां ने घर में पंडितजी को बैठा कर पूजापाठ का नाटक कर रखा था. उन्हें कभी भी पूजाअर्चना में कोई परेशानी नहीं रही परंतु यह कुछ भी हो रहा था, वह उन की समझ से बाहर था और उन की सोच उन्हें यह समझने के लिए बाध्य कर रही थी कि घंटी बजाने से काम नहीं चलेगा, उन्हें कर्मठ होना होगा. एक ओर उन के मन में सवाल पनप रहा था कि मां ने तो दिया की जन्मपत्री कई बार मिलवाई और 90 प्रतिशत गुण मिलने के बावजूद यह सब घटित हो रहा था. समय दीप व स्वदीप भी शहर में नहीं थे.

औपरेशन थिएटर के बाहर कुरसियों पर तीनों शांत बैठे हुए थे. तीनों के मस्तिष्क में एक बात अलगअलग प्रकार से उमड़घुमड़ रही थी. अचानक न जाने दिया को क्या हुआ, ‘‘दादी, आप हर चीज पंडितजी से ही पूछ कर करती हैं न? उन्होंने आप को यह नहीं बताया कि पापा पर ऐसा कोई ग्रह भारी है?’’

दादी के तो आंसू ही नहीं थम रहे थे. वे क्या उत्तर देतीं? इस उम्र में उन्हें बेटे का यह दुख देखना पड़ रहा था. इस पंडित के पिता ने जिंदगीभर उन के घर के लिए पूजाअर्चना की थी. दिया की दादी व दादाजी तो प्रारंभ से ही पंडितों के मस्तिष्क से ही चलते आए हैं. उन के द्वारा बताए हुए ग्रहों की शांति करवाना, जन्मपत्री मिलवाना व प्रतिदिन उन के द्वारा ही पूजाअर्चना करवाना. कामिनी के पिता ने अपने किसी भी बच्चे की जन्मपत्री नहीं मिलवाई थी फिर भी सब सुखी थे. उन्हें केवल कामिनी की ही जन्मपत्री मिलानी पड़ी थी और कामिनी ही जिंदगीभर इस घर के वातावरण में असहज बनी रही थी. दिया के साथ ये सबघटित तो हो ही रहा है साथ ही यश भी चपेट मेें आ गए. वह पंडित अभी भी घर पर बैठा घंटियां बजा कर भगवान को मनाने में लगा होगा.

दादी मन ही मन सोच रही थीं कि उन्हें अब कौन से जाप करवाने होंगे. यह एक लंबा दर्दीला घटनाक्रम बन गया था मानो. एक दुर्घटना का दर्द समाप्त भी नहीं हो पाता था कि दूसरी कोई दुर्घटना आ उपस्थित होती. कामिनी के लिए तो इस घर के प्रवेश का प्रथम दिवस ही दुर्घटना था बल्कि यह कहा जाए कि यश की सगाई का दिन ही दुर्घटना का दिन था. जिस पिता से वह यह अपेक्षा करती रही थी कि वे उसे किसी हताश स्थिति में डाल ही नहीं सकते उसी पिता ने उसे कहां से उठा कर कहां

पहुंचा दिया था.

बचपन में पिता रटाते थे-

वैल्थ इज लौस्ट, नथिंग इज लौस्ट,

हैल्थ इज लौस्ट, समथिंग इज लौस्ट,

इफ कैरेक्टर इज लौस्ट, एवरीथिंग इज लौस्ट.

ये पंक्तियां रटतेरटते कामिनी युवा हो चली थी. मध्यवर्गीय वातावरण में पलीबढ़ी कामिनी की विवाह के बाद बुद्धि में वृद्धि हुई और उस ने बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस किया था कि वैल्थ के बिना कोई पूछ नहीं है और जैसेजैसे वह इस वैल्दी घर का पुराना हिस्सा होती जा रही थी वैसेवैसे उस की यह भावना दृढ़ होती जा रही थी. कितना मानसम्मान था उस की ससुराल का इतने बड़े शहर में कि वह स्वयं को बौना महसूस करती थी. इतनी कि उस के मुख के बोल भी ‘जी हां’ और ‘जी नहीं’ तक सिमट कर रह गए थे. फिर वह इस सब की आदी हो गई थी और प्रात:कालीन मंत्रोच्चार उस के मुख से निकल कर केवल उस की आत्मा के ही साक्षी बन कर रह गए थे.

घर का संपूर्ण वातावरण सुबहसवेरे पंडितजी की घंटियों की मधुर ध्वनि से नहा उठता था. धीरेधीरे घंटियों के साथ हर घड़ी घर में पंडितों की नाटकीय आवाजें व फुसफुसाहटें सुनाई देने लगीं तब वह और अधिक सहज होती गई. उस ने पंडितों को मंत्रोच्चार करते हुए अकसर हंसीठिठोली करते देखा था. जैसे ही वहां घर का कोई सदस्य पहुंचता वे जोरजोर से मंत्रोच्चार करने लगते. अच्छे पल भी आए थे कामिनी के जीवन में जब उस ने 3 शिशुओं को जन्म दिया था. वास्तव में कामिनी को 2 बेटों के जन्म के बाद किसी तीसरे की कोई इच्छा ही नहीं थी परंतु घर में 1 बेटी की चाह ने पूरे वातावरण में मानो नाराजगी भर रखी थी. बेटी की चाह भी किस लिए क्योंकि 2-3 पीढि़यों से परिवार में कोई बेटी नहीं थी और इस परिवार के बुजुर्गों की कन्यादान करने में रुचि थी. पंडितजी ने उस के सासससुर के मस्तिष्क में कन्यादान की महत्ता इस कदर भर दी थी कि कन्यादान न किया तो उन का जीवन व्यर्थ था. और पंडितजी का गणित तो बिलकुल स्पष्ट था ही कि यशेंदुजी के हाथ की लकीरों में कन्या का पिता बनना स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो रहा था. सो, कामिनी के तीसरा शिशु कन्या हुई.

न जाने क्यों कामिनी इस बात से भयभीत सी रहती थी कि इतनी लाड़प्यार से पली उस की बिटिया एक दिन दूसरे के घर चली जाएगी उस का मनउपवन खाली कर के. वह भी तो आई थी, ठीक था, परंतु इतनी शीघ्रता से यह सब होगा और इस प्रकार होगा, इस के लिए उस का मन तैयार न था. हुआ वही जो घर के बुजुर्ग ने चाहा और परिवार के सब सदस्य यह होना देखते रहे.

अस्पताल में आईसीयू के बाहर सोफे पर बैठेबैठे न जाने मांजी की वृद्ध काया कब सोफे के हत्थे पर लटक सी गई थी. झुर्री भरे मुख पर आंसुओं की गहरी लकीरें किसी झील में कंकर फेंकने पर लहरों की भांति टेढ़ीमेढ़ी हो कर चिपक सी गई थीं. कामिनी ने सास को बड़ी करुणापूर्ण दृष्टि से देखा और उस के नेत्र फिर से भर आए. मां बुरी बिलकुल न थीं, उन्होंने अपने हिसाब से उसे प्यार भी बहुत दिया था परंतु उन की सोच थी जिस ने सारे वातावरण पर अपनी मुहर चिपका रखी थी. उन का अंधविश्वास और सर्वोपरि समझने की भावना ने पूरे वातावरण पर अजीब से पहरे बिठा दिए थे.

कितनी बार सोचा था कामिनी ने, समय के अनुसार प्रत्येक में बदलाव आते हैं परंतु उन की सोच व तथाकथित परंपराओं में बदलाव क्यों नहीं आ पा रहे थे? यदि पत्थर पर भी बारबार कोई चीज घिसी जाए तो वहां भी गड्ढा हो जाता है परंतु मां… थोड़ी देर में डाक्टर आए और उन के पास ही सोफे पर बैठ गए, ‘‘मांजी, रोने से तो कुछ हो नहीं सकता? आप तो कितनी समझदार हैं.

‘‘नर्स,’’ डाक्टर ने समीप से गुजरती हुई नर्स को आवाज दी. नर्स रुक गई.

‘‘मांजी को आईसीयू के बाहर से जरा यशेंदुजी को दिखा दो, जिन का आज औपरेशन हुआ है.’’

‘‘यस, डाक्टर,’’ नर्स उन्हें सहारा दे कर आईसीयू की ओर हाथ पकड़ कर धीरेधीरे चल पड़ी.

डाक्टर खड़े हो गए और कामिनी से बोले, ‘‘एक्चुअली मिसेज कामिनी, आय वांटेड टू डिसकस सम इंपौर्टेंट इश्यू विद यू.’’

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-7

कामिनी यश की मनोदशा समझ रही थी परंतु उस समय कुछ भी बोलने का औचित्य नहीं था, सो चुप ही रही. यश का स्वभाव था यह. वे अपने और मांपिता के सामने किसी की नहीं सुनते थे. लेकिन जब अपनी गलती का एहसास करते तो स्वयं बेचैन हो जाते और अपनेआप को सजा देने लगते. कामिनी अजीब सी स्थिति में हो जाती है. ऐसे समय में न वह यश से यह कह पाती है कि उन्होंने उन की बात नहीं मानी, यह उसी का परिणाम है. और न ही वह यश की दुखती रग पर मलहम लगा पाती है. ऐसी स्थिति में शिष्ट व सभ्य, सुसंस्कृत कामिनी अपनी ही मनोदशा में झूलती रहती है. यश रातभर करवटें बदलते रहे. कामिनी भी स्वाभाविक रूप से बेचैन थी. आखिर कामिनी से नहीं रहा गया.

‘‘इतना बेचैन क्यों हो रहे हो यश? सब ठीक हो जाएगा,’’ कामिनी ने यश के बालों को सहलाते हुए धीरे से कहा.

‘‘यह छोटी बात नहीं है, कामिनी. कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. यह मेरी बिटिया के भविष्य का प्रश्न है,’’ और अचानक यश ने पास में रखे फोन को उठा कर नंबर मिलाना शुरू कर दिया.

कामिनी ने घड़ी देखी. सुबह के 5 बजे थे यानी लंदन में रात के 12 बजे होंगे.

उधर से उनींदी आवाज  आई, ‘‘हैलो, कौन?’’

‘‘मैं, यश, इंडिया से,’’ यश ने स्पीकर औन कर दिया था. शायद कामिनी को भी संवाद सुनाना चाहते थे.

‘‘अरे, नमस्कार यशजी, इस समय कैसे? सब ठीक तो है?’’ नील की मां की उनींदी आवाज फोन पर थी.

कामिनी ने बड़ी आजिजी से यश को इशारा किया कि वे बिना बात, बात को न बिगाड़ें. आखिर उन की बेटी का सवाल है. यश को शायद कामिनी की बात कुछ जंच गई. थोड़े धीमे लहजे

में बोले, ‘‘आप ने नील की चोट के बारे में नहीं बताया?’’ यश के लहजे में शिकायत थी.

‘‘मैं ने और नील ने सोचा था यशजी कि आप चोट की बात सुन कर बेकार परेशान हो जाएंगे इसलिए…’’

यश चिढ़ गया. ‘मानो बड़ी हमदर्दी है इन्हें हमारी परेशानी से’, बहुत धीमी आवाज में उस के मुंह से निकल गया.

‘‘आप जानती हैं कि कितनी परेशान रहती है हमारी बेटी. उधर, नील भी कईकई दिनों तक फोन नहीं करते और न ही कुछ प्रोग्राम के बारे में बताते हैं?’’

‘‘क्या करें यशजी, परिस्थिति ही ऐसी थी कि जल्दी आना पड़ा.’’

‘‘क्या परिस्थिति? उस पंडित के कहने से आप ने नील और दिया को 2 दिन भी साथ रहने नहीं दिया और जानती हैं इस से हमारी बेटी पर कितना खराब असर पड़ रहा है?’’

‘‘ऐसी तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई. हम ने तो यह ही सोचा कि आप लोग परेशान हो जाएंगे. वैसे भी न तो दिया तैयार थी इस शादी के लिए और न ही कामिनी बहनजी,’’ नील की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या कहें. फिर कुछ रुक कर बोलीं, ‘‘हमारे नील की भी तो शादी हुई है. वह भी तो अपनी पत्नी को मिस कर रहा होगा.’’

‘‘ममा, किस से बात कर रही हैं, इस समय?’’ नील शायद नींद से जागा था.

‘‘तुम्हारे ससुर हैं, इंडिया से.’’

‘‘अरे, इस समय,’’ नील ने शायद घड़ी देखी होगी.

‘‘नमस्ते, डैडी. क्या बात है, इस समय फोन किया? सब ठीक है न?’’

यश नमस्ते का उत्तर दिए बिना ही असली बात पर जा पहुंचे, ‘‘आप को चोट लग गई, नील? किसी ने बताया भी नहीं. मैं टिकट का इंतजाम कर के जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, डैडी. वह लगी थी चोट, अब तो ठीक भी हो गई. अब कल या परसों से तो मैं औफिस जाना शुरू कर दूंगा,’’ नील हड़बड़ाहट में बोला.

‘‘एक बार मिल लूंगा तो तसल्ली हो जाएगी. इधर, दिया भी बहुत उदास रहती है. उस के पेपर्स कब तक तैयार हो रहे हैं?’’

‘‘बस, अब औफिस जाने लगूंगा तो जल्दी ही तैयार करवा कर भेज देता हूं. और हां, आप बेकार में यहां आने की तकलीफ न करें.’’

नील की भाषा इतनी साफ व मधुर थी कि यश उस से पहली बार में ही प्रभावित हो गए थे. अच्छा लगा था उन्हें परदेस में रह कर अपनी भाषा व संस्कारों की तहजीब बनाए रखना.

‘‘तकलीफ की क्या बात है? मैं तो वैसे भी काम के सिलसिले में बाहर जाता ही रहता हूं. वीजा की कोई तकलीफ नहीं है मुझे. मेरे पास लंदन का 10 साल का वीजा है.’’

‘‘नहीं, आप तब आइएगा न, जब दिया यहां पर होगी. अभी बिलकुल तकलीफ न करें. मैं बिलकुल ठीक हूं. मम्मी को बोलूंगा जल्दी ही पंडितजी से दिया को लाने की तारीख निकलवा लेंगी.’’

यश ने फोन रख दिया. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. आखिर, वे बेटी के पिता हैं. न तो अब उगलते बनता है और न निगलते. फिर भी उन्हें भरोसा था कि कहीं न कहीं समझनेसमझाने में ही भूल हुई होगी. हां, यह बात जरूर कचोट रही थी कि मां ने इतनी बड़ी बात उन से छिपाई. आज उन्हें महसूस हुआ कि उन के घर पर पंडित का कितना प्रभाव है. यश भी कोई कम विश्वास नहीं रखते थे इन मान्यताओं में परंतु जब मां ने छिपाया तब वे सहन नहीं कर सके. कामिनी के सामने मां के विरुद्ध कुछ बोल नहीं सकते थे. सो, मन ही मन कुढ़ते रहे.

मन में संदेहों के बीज बोए जा चुके थे. उन के अंकुर फूट कर यश के मन में चुभ रहे थे. यश स्थिर नहीं रह पा रहे थे. एक बेचैनी सी हर समय उन्हें कुरेदती रहती. कहीं भीतर से लग रहा था कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ है.

कामिनी तो विवाह से पूर्व ही असहज ही थी. उस का कुछ वश नहीं था इसलिए वह सदा से ही सब कुछ वक्त पर छोड़ कर चुप रहती थी. परंतु वह मां थी. लाड़ से पली हुई बेटी की मां, जिस ने अपनी बिटिया के सुनहरे भविष्य के लिए न जाने कितने जिंदा स्वप्न अपनी आंखों में समेटे थे.

यश की बेचैनी भी कहां छिपी थी उस से? परंतु दोनों में से कोई भी अपने मन की बात एकदूसरे से खुल कर नहीं कह पा रहा था. मां से तो अब कुछ बोलने का फायदा ही नहीं था. हां, वे भी अब बेचैन तो थीं परंतु ताउम्र इस घर पर राज किया था उन्होंने. एक तरह की ऐंठ से सदा भरी रहीं. आसानी से अपनी बात को छोटा कैसे कर सकती थीं?

कामिनी ने मन में कई बार सोचा, ‘इस उम्र में भी मां इतनी अधिक क्यों चिपकी हुई हैं इस भौतिक, दिखावटी दुनिया से. अब यदि इस उम्र में भी वे इन सब से छूट नहीं पाएंगी तो कब स्वयं को मुक्त कर पाएंगी इन सांसारिक झंझटों से? सुबहशाम आरती गा लेना, पंडितजी को बुला कर पूजाअर्चना की क्रियाएं करना, कुछ भजन और पूजा करवा कर आमंत्रित लोगों की वाहवाही लूट लेना…’ ये सब बातें उसे विचलित करती रहती थीं. अंतर्मुखी होने के कारण जीवनभर वह अपने विचारों से ही जूझती रही. जानती थी कि इस सब में यश भी उस से भागीदारी नहीं कर पाएंगे. उस ने तो स्वयं को समय पर छोड़ दिया था. उस के हाथ में कुछ है ही नहीं. तब व्यर्थ का युद्ध कर के स्वयं को थकाने से लाभ क्या?

समय के व्यतीत होने के साथ ही दिया कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी सी होती जा रही थी. परिवार के वातावरण में बदलाव आने लगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्या कारण होंगे जो नील या उस की मां का कुछ स्पष्ट उत्तर प्राप्त नहीं हो रहा था.

दिया कालेज जाने में भी आनाकानी करने लगी थी. यश जब अपनी फूल सी बिटिया को मुरझाते हुए देखते तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता. उधर, मां ने फिर पंडितजी को बुला भेजा था और 3 दिन से न जाने उन्हें किस अनुष्ठान पर बैठा दिया था. 2 नौकर उन की सेवा में हर पल 1 टांग से मंदिर के बाहर खड़े रहते. पंडितजी ने महीनेभर का अनुष्ठान बता दिया था और मां थीं कि उन के समक्ष कोई आज तक मुंह खोलने का साहस नहीं कर पाया था तो आज तो घर की बेटी के सुख का बहाना था उन के पास.

बहाने, बहाने और बस बहाने. कामिनी का मन चीत्कार करने लगा. क्या होगा इस पूजापाठ से? अगर घंटियां बजाने से समय बदल जाता तो बात ही क्या थी? मां तो जिंदगीभर पंडितों के साथ मिल कर घंटियां ही बजाती रही थीं फिर क्यों यह अरुचिकर घटना घटी? उस का मन वितृष्णा से भर उठा. मां चाहतीं कि दिया भी इस पूजा

में सम्मिलित हो. उसे बुलाया जाता परंतु वह स्पष्ट रूप से न कह देती. कामिनी को भी बुलाया जाता फिर वह और पंडितजी मिल कर उसे सुंदर शब्दों में संस्कारहीनता की दुहाई देने लगते. वह सदा चुप रही थी, अब भी चुप रहती. हां, उस में एक बदलाव यह आया था कि अब वह कोई न कोई बहाना बना कर पूजा में सम्मिलित होने से इनकार करने लगी थी. वह अधिक से अधिक दिया के पास रहने लगी थी. नील के फोन आते परंतु कुछ स्पष्टता न होने के कारण दिया ‘हां’, ‘हूं’ कर के फोन पटक देती.

यश ने कई बार नील की मां से बात कर ली थी परंतु वही उत्तर ‘हां, बस जल्दी ही हो जाएगा.’ यश ने सोच लिया कि वे स्वयं दिया को ले कर लंदन जाएंगे. इसी सोच के तहत यश ने दिया के वीजा के लिए पूछताछ प्रारंभ कर दी थी. दिया के ससुराल जाने में समय लग सकता है, इस बात से किसी को कोई परेशानी नहीं थी. सब इस के लिए मानसिक रूप से तैयार ही थे परंतु चिंता इस बात की थी कि विवाह के बाद से तो नील और उस की मां का व्यवहार ही बदला हुआ सा प्रतीत हो रहा था.

इसी ऊहापोह में गाड़ी पार्क कर के यश वीजा औफिस जाने के लिए सड़क पार कर रहे थे कि अचानक ट्रक की चपेट में आ गए. ट्रक वाला भलामानुष था उस ने ट्रक रोक कर इकट्ठी हुई भीड़ में से कुछ लोगों की सहायता से यश को उन की कार में डाला और गाड़ी अस्पताल की ओर भगा दी.

डाक्टर यश के परिवार से परिचित थे. उन की सहायता से यश के मोबाइल से नंबर तलाश कर कैसे न कैसे दुर्घटना की खबर यश के घर वालों तक पहुंचा दी गई. यश बेहोश हो गए थे. डाक्टर ने पुलिस को खबर करने की फौर्मेलिटी भी पूरी कर दी. ट्रक ड्राइवर वहीं खड़ा रहा. उस ने अपने सेठ को भी दुर्घटना की जानकारी दे दी थी. कुछ ही देर में वहां सब लोग जमा हो गए. डाक्टर अपने काम में लग गए थे. थोड़ी देर में ड्राइवर का सेठ भी वहां पहुंच गया.

रहे चमकता अक्स: भाग-2

नमन हमेशा उस की तारीफ भी करता था. मगर आज उस के शरारती अंदाज में अनन्या को इस तरह खूबसूरत कहना उस पर असर छोड़ गया. उस ने अभिनव के मुंह से कभी खुल कर अपनी प्रशंसा नहीं सुनी थी.

रिप्लाई में उस ने जब नमन को थैंक्स लिखा तो उस का जवाब आया, ‘‘दोस्ती का उसूल है मैडम कि नो सौरी नो थैंक यू…‘मैं ने प्यार किया’ फिल्म में अपने सलमान भाई का कहना तो कुछ ऐसा ही है,’’ ये पंक्तियां लिखने के बाद नमन ने चुंबन की इमोजी भी सैंड कर दी.

‘‘हा… हा… दोस्ती तो ठीक है पर यह किस किसे भेजा है?’’

‘‘तुम्हें ही यार… जब दोस्त तुम सी प्यारी हो तो प्यार आ ही जाता है उस पर.’’

बात को वहीं समाप्त करने के उद्देश्य से अनन्या ने लिखा, ‘‘चलो, और पिक्स भेजो… तुम तो गु्रप के सब से अच्छे फोटोग्राफर हो… आज तुम ने भी खूब फोटो खींचे थे.’’

नमन ने ढेर सारे फोटो भेज दिए, पर वे सभी अनन्या के थे. अनन्या के दिल को ये सब अच्छा लग रहा था, पर दिमाग बारबार याद दिला रहा था कि एक शादीशुदा स्त्री को खुल कर पुरुष मित्र से पेश नहीं आना चाहिए.

मुसकराती स्माइली के साथ अनन्या ने लिखा, ‘‘अरे वाह, मेरी इतनी सारी पिक्स? जनाब, क्यों टाइम वेस्ट कर रहे हो अपना? अब ऐसा करो कि शादी कर लो तुम… फिर तुम्हारी वह दिनरात गाना गाएगी, ‘तू खींच मेरा फोटो पिया…’ और फिर लेना उस की खूब सारी पिक्स.’’

नमन का जवाब आया, ‘‘है

कोई तुम्हारे जैसी तो बता दो… कर लेता हूं शादी… ‘जग घूमेया थारे जैसा न कोई…’’’

अनन्या को नमन के शब्द ऐसे लगे जैसे मन के तपते रेगिस्तान में न जाने कहां से पानी की धारा फूट पड़ी हो. अभिनव के रूखे व्यवहार और चुप्पी साधे रखने से क्षुब्ध अनन्या को नमन की बातें अपनी ओर खींच रही थीं. वह अपने मन को वश में किए थी पर वह तो जैसे उस के हाथों से छूटा जा रहा था.

रात देर तक अनन्या नमन के साथ चैटिंग करती रही. वह कोई भी बात शुरू करती तो नमन घुमाफिरा कर उस की सुंदरता पर ले आता. एकदूसरे को ‘गुड नाइट’ भेजने के बाद जब अनन्या सोने के लिए बैड पर लेटी तो नमन के रंग में रंग कर ‘भागे रे मन कहीं…’ गाना गुनगुनाते हुए मुसकरा दी.

अगले 2-3 दिन भी नमन और अनन्या ने खूब चैटिंग की. कालेज के दिनों को याद करते हुए नमन ने उसे बताया कि एक बार उस के बचपन का एक दोस्त कालेज में उसे मिलने आया था. तब नमन ने अनन्या को अपनी गर्लफ्रैंड बता दिया था.

अनन्या ने यह पढ़ कर आंखों से आंसू बहाते हुए हंसने वाली 3 इमोजी भेजीं.

‘‘क्या यार… हंस क्यों रही हो…? मैं तो चाहता हूं कि सच में ही तुम बन जाओ मेरी गर्लफ्रैंड… लाइफ बन जाएगी अपुन की.’’

‘‘अरे…अरे… क्या कह रहे हो? एक मैरिड को प्रोपोज कर रहे हो?’’

‘‘मैं कब कह रहा हूं कि तुम अपने पति से रिश्ता तोड़ कर मुझे गाना सुनाओ कि ‘मेरे सैयांजी से आज मैं ने बे्रकअप कर लिया…’ गर्लफ्रैंड बनने को ही तो कह रहा हूं.’’

‘‘कालेज समय में यह रिक्वैस्ट क्यों नहीं की तुम ने?’’

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‘‘बस… बस… कल 1 महीने की ट्रेनिंग पर अहमदाबाद जा रहा हूं… लौट कर आते ही तुम्हें लंच पर ले कर जाऊंगा. और हां मैं रिक्वैस्ट नहीं करता. एक ही बार बोलता हूं और वह फुल ऐंड फाइनल हो जाता है.’’

‘‘वाह क्या बात है… ‘तेरे नाम’ फिल्म के सलमान खान… फुल ऐंड फाइनल है लंच तो और बाकी बातें वहीं करेंगे,’’ अनन्या ने लिखा और फिर दोनों ने कुछ दिनों के लिए एकदूसरे को बाय कर दिया.

नमन के जाने के बाद अनन्या अकेलापन सा महसूस कर रही थी. फेसबुक पर दोस्तों के स्टेटस और तसवीरों को देखते और उन पर कमैंट्स करते 2 दिन किसी तरह बीत ही गए और अभिनव के लौटने का दिन आ गया.

अभिनव ने आते ही जो खबर सुनाई उसे सुन कर अनन्या खुश होने के साथ ही मायूस भी हो गई. मीटिंग के दौरान ही अभिनव के काम से प्रभावित हो कर उसे प्रमोशन दे दी गई थी. अभिनव ने बताया कि उन्हें 15 दिनों के अंदर ही दिल्ली से हैदराबाद शिफ्ट होना पड़ेगा.

नमन की दोस्ती के रोमांच में रोमांचित अनन्या निराश थी, पर कोई चारा नहीं था उस के पास. अगले ही दिन से वह जाने की तैयारी में जुट गई.

हैदराबाद पहुंच कर अभिनव नई जिम्मेदारियां संभालते हुए बेहद व्यस्त हो गया. अनन्या सुबह से शाम तक नए मकान की सैटिंग करते हुए थक जाती. कामवाली रोजमर्रा का काम तो निबटा देती थी, पर अन्य कामों में अनन्या उस की मदद नहीं ले पा रही थी. अनन्या तेलुगु नहीं जानती थी और वह हिंदी ठीक से नहीं समझ पाती थी. अत: अनन्या के लिए बताना संभव नहीं हो पा रहा था कि वह किस काम में बाई की मदद चाहती है.

कुछ दिनों बाद अनन्या को कमजोरी महसूस होने के साथसाथ नींद भी बहुत आने लगी. दोपहर में जब वह कोई पत्रिका ले कर पढ़ने बैठती तो नींद के झोंके कुछ पढ़ने ही नहीं देते. सुबह भी उसे उठने में देरी हो रही थी. उस का मौर्निंग वाक भी छूट गया था. खुद को काम में लगाए हुए वह नींद और सुस्ती से दूर रहने का भरसक प्रयास करती, पर ऐसा हो नहीं पा रहा था. अपने में हो रहे इस परिवर्तन को ले कर वह बेहद परेशान थी. बस कभीकभी जब नमन से चैटिंग होती तभी वह कुछ पलों के लिए प्रसन्न होती थी.

उन लोगों को हैदराबाद आए

3 महीने हो चुके थे. उस दिन दोनों को पड़ोस में एक बच्चे के जन्मदिन की पार्टी में शामिल होना था. अनन्या ने पहनने के लिए ड्रैस निकाली, पर यह क्या. वह ड्रैस तो अनन्या को बहुत टाइट आ रही थी. उस ने सोचा ड्रैस धोने से सिकुड़ गई होगी, इसलिए 3-4 और ड्रैस निकाल कर पहनने की कोशिश की, पर कोई भी ड्रैस ठीक से नहीं पहनी जा रही थी. इन दिनों घर के काम में व्यस्त होने के कारण वह ढीली कुरती और गाउन ही पहन रही थी. अत: उसे पता ही नहीं लग पाया कि उस का वजन बढ़ रहा है.

अब अनन्या ने सुबहसुबह फिर से टहलना शुरू कर दिया और साथ ही व्यायाम करना भी. मगर वजन नियंत्रण में नहीं आ रहा था. थकान हो रही थी सो अलग. चेहरा भी निस्तेज पड़ गया था. जब उसे पैरों में सूजन दिखाई देने लगी तो अभिनव के साथ डाक्टर के पास गई.

डाक्टर ने उसे ब्लड टैस्ट करवाने को कहा. रिपोर्ट आने पर पता लगा

कि अनन्या को हाइपोथायराइडिज्म हो गया है. गले में पाई जाने वाली थायराइड नामक ग्लैंड जब अधिक सक्रिय नहीं रह पाती तो यह बीमारी हो जाती है, जिस कारण शरीर को आवश्यक हारमोंस नहीं मिल पाते.

डाक्टर ने रोज खाने के लिए दवा लिख दी और कुछ समय बाद फिर टैस्ट करवाने को कहा ताकि दवा की सही मात्रा निर्धारित की जा सके. साथ ही उसे यह भी बता दिया कि एक बार यह ग्रंथि निष्क्रिय हो जाती है, तो दोबारा सक्रिय होना लगभग असंभव है. लेकिन अभी घबराने वाली बात नहीं है.

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कुछ दिनों बाद अभिनव को एक कौन्फ्रैंस के सिलसिले में दिल्ली जाना था. अनन्या ने भी साथ चलने की इच्छा जताई. अपने दोस्तों खासकर नमन से मिलने का यह अच्छा मौका था. नमन उस से अकसर शिकायत करता था कि वह उस के ट्रेनिंग से लौटने से पहले ही हैदराबाद आ गई. उन का मिलना नहीं हो पाया.

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रहे चमकता अक्स: भाग-3

दिल्ली पहुंच कर वे एक होटल में ठहरे. वहां पहुंचने के अगले दिन ही अनन्या ने अपने दोस्तों को लंच पर बुलाने का कार्यक्रम रखा. जिस होटल में वह ठहरी हुई थी, उस का पता सब को बता कर उस ने वहां के डाइनिंग हौल में ही टेबल्स बुक करवा दीं. अपनी मनपसंद ड्रैस पहन अनन्या बेसब्री से दोस्तों का इंतजार करने लगी.

मनीष ने सब से पहले आ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. अनन्या उसे देखते ही खिल उठी. पर मनीष ने उसे देख मुंह बना कर आंखें सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘अरे, यह क्या? तू… तू इतनी मोटी? क्या कर लिया?’’

इस से पहले कि अनन्या कोई जवाब देती, नमन भी आ पहुंचा. फिर 1-1 कर के सब आ गए.

‘‘मैं अनन्या से मिल रहा हूं या किसी बहनजी से… कैसी थुलथुल हो गई इतने दिनों में… आलसियों की तरह पड़ी रह कर खूब खाती है क्या सारा दिन?’’ नमन हंसते हुए बोला.

अनन्या रोंआसी हो गई, ‘‘अरे, नहीं. न मैं आलसी हूं और न ही कोई डाइटवाइट बढ़ी है मेरी… हाइपोथायरायडिज्म की प्रौब्लम हो गई है… बताया तो था नमन तुम्हें कुछ दिन पहले.’’

‘‘यह मेरी भाभी को भी है, पर तू तो कुछ ज्यादा ही…’’ अपने गालों को फुला कर दोनों हाथों से मोटापे का इशारा करती हुई स्वाति ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

सब की बातों से उदास अनन्या ने वेटर को खाना लगाने को कहा. खाना खाते हुए भी दोस्त ‘मोटी और कितना खाएगी’ जैसी बातें करते हुए उस का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आ रहे थे. नमन भी उन का साथ देते हुए ‘बसबस… बहुत खा लिया’ कह कर बारबार उस की प्लेट उस के सामने से हटा रहा था. खाना खाने के बाद अनन्या बाहर तक छोड़ने आई.

‘‘ओके… बाय चुनचुन… नहीं टुनटुन…’’  नमन के कहते ही सब जाते हुए खूब हंसे, पर अनन्या का मन छलनी हुआ जा रहा था. उदास मन से वह अपने कमरे में आ कर बैठ गई.

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घर पहुंच कर नमन ने उसे कोई मैसेज

नहीं किया और न ही उस के किसी मैसेज का जवाब दिया.

अगले दिन दोपहर में जब अनन्या ने उसे फोन किया तो ‘बहुत बिजी हूं आजकल… टाइम मिलेगा तो खुद कर लूंगा कौल,’ कह कर उस ने फोन काट दिया.

अनन्या रोज प्रतीक्षा करती, लेकिन न फोन और न ही मैसेज आया नमन का और फिर वापस जाने का दिन भी करीब आ गया.

अनन्या ने लौटने से 1 दिन पहले नमन को शिकायत भरा मैसेज भेजा.

कुछ देर बाद नमन का जवाब भी आ गया, ‘इतना गुस्सा क्यों दिखा रही हो? तुम्हारा मैसेज देख कर तो ‘जवानीदीवानी’ फिल्म का गाना याद आ रहा है- ‘खल गई, तुझे खल गई, मेरी बेपरवाही खल गई… मुहतरमा तू किस खेत की मूली है जरा बता?’ और इसे मजाक का रूप देने के लिए जीभ निकाल कर एक आंख बंद किए चेहरे वाली इमोजी जोड़ दी साथ में.

जवाब देख कर अनन्या को बहुत गुस्सा आया कि कहां तो नमन मेरे दिल्ली पहुंचने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और अब बात करना तो दूर… किस तरह मुझे बेइज्जत कर

रहा है. मैं तो वही हूं न जो पहले थी… क्या

बाहर की खूबसूरती नमन के लिए इतनी अहमियत रखती है कि उस के लिए अनन्या मतलब गोरे रंग की 5 फुट 1 इंच की स्लिम सी लड़की थी बस… वह लुक नहीं रहा तो अनन्या, अनन्या नहीं…

रात को सोने के लिए जब वह बैड पर लेटी तो अभिनव के करीब जा कर उस के सीने में अपना मुंह छिपाए चुपचाप लेट गई.

‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? कल वापस जा रहे हैं, इसलिए उदास हो शायद?’’ अभिनव उस की पीठ पर हाथ रख कर बोला.

अनन्या कुछ देर यों ही रहने के बाद अभिनव की ओर देखते हुए बोली, ‘‘एक बात पूछूं अभिनव? क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि मैं इतनी मोटी हो गई हूं? फेस भी सूजा सा, कुछ बदलाबदला सा लग रहा है… तुम ने तो एक स्लिमट्रिम, गोरी लड़की से शादी की थी, पर वह क्या से क्या हो गई.’’

‘‘हा… हा…’’ पहले तो अभिनव ने एक जोरदार ठहाका लगाया. फिर मुसकरा कर अनन्या की ओर देखते हुए बोला, ‘‘उफ, अनन्या कैसा सवाल है यह? यह सच है कि तुम्हें एक बीमारी हो गई है और उस में वेट कंट्रोल करना मुश्किल होता है… पर यह बताओ कि क्या हम हमेशा वैसे ही दिखते रहेंगे जैसे शादी के वक्त थे? मेरे बाल अकसर झड़ते रहते हैं. अगर मैं गंजा हो जाऊंगा या फिर बुढ़ापे में जब मेरे दांत टूट जाएंगे तो मैं तुम्हें खराब लगने लगूंगा?’’

‘‘तुम मुझे प्यार तो करते हो न?’’ अनन्या के चेहरे पर निराशा अभी भी झलक रही थी.

अभिनव एक बार फिर खिलखिला कर हंस पड़ा, ‘‘अनन्या सुनो, तुम इतनी समझदार हो कि मैं कब तुम से पूरी तरह जुड़ गया मैं समझ ही नहीं पाया. तुम मेरी केयर तो करती ही हो, मुझ से हर बात शेयर करती हो, बिना वजह कभी झगड़ा नहीं करती… मैं औफिस के काम में इतना बिजी रहता हूं फिर भी झेलती हो मुझे. तुम सच में अपने नाम की तरह ही सब से बिलकुल अलग, बहुत खास हो.

‘‘पर इस से पहले तो आप ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा?’’ अभिनव की प्रेममयी बातें सुन भावविभोर हो अनन्या बोली.

‘‘मैं हूं ही ऐसा… बोलना कम और सुनना बहुत कुछ चाहता हूं… अनन्या यकीन करो, मुझे बिलकुल तुम जैसी लाइफपार्टनर की जरूरत थी.’’

अनन्या मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी.

‘‘एक बात और कहूंगा… अपने शरीर का ध्यान रखना हम सब के लिए जरूरी

है पर तन की सुंदरता कभी मन की सुंदरता पर हावी नहीं होनी चाहिए… तुम जब भी मेरे इस मन में झांक कर अपनी सूरत देखोगी, तुम्हें अपनी वही सूरत दिखाई देगी जो कल थी, आज भी वही और आने वाले कल भी…’’

‘ओह, अभिनव… और कुछ नहीं चाहिए अब… कोई मुझे कुछ भी कहता रहे परवाह नहीं… बस तुम्हारे दिल के आईने में मेरा अक्स यों ही चमकता रहे,’ सोचती हुई अनन्या नम आंखों को मूंद कर अभिनव से लिपट गई. अभिनव के प्रेम की लौ में पिघल कर वह बहुत हलका महसूस कर रही थी.

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रहे चमकता अक्स

जिंदगी-एक पहेली: भाग-11

देहारादून पहुँचते ही अविरल ने सारी बात दीप्ति को बताई लेकिन दीप्ति की बातों से उसे लगा कि शायद दीप्ति को यह अच्छा नहीं लगा था. शायद इसका एक कारण यह भी था की अविरल ने उससे बातों बातों में अपने अतीत की सारी बातें हरिद्वार जाने से पहले ही बता दी थी. दीप्ति को धीरे- धीरे अविरल के अतीत की सारी बातों का पता चलता गया जैसे उसका 111th में दो बार फ़ेल होना और उसका आसू जैसे लड़को से दोस्ती होना. वो उसे एक बिगड़ैल लड़का समझने लगी थी.

अविरल का निधि के बारे बात करने पर जब दीप्ति कुछ नहीं बोली तब अविरल ने दीप्ति से पूंछा “भाभी कोई दिक्कत है क्या”?

तो दीप्ति ने कहा,” तुम्हारी हाइट निधि से कम है तो शायद तुम्हारी शादी न हो पाये. लेकिन कोई बात नहीं, तुम पहले कुछ बन जाओ फिर मैं सबको समझाने कि कोशिश करूंगी”.

अब अविरल का रिज़ल्ट आ चुका था. जैसे ही उसने रिज़ल्ट देखा वह बहुत दुखी हुआ. उसके 88% मार्क्स ही आ पाये थे. हालांकि घर में सभी लोग बहुत खुश थे.लेकिन  अविरल के दिमाग में सिर्फ अनु की  बात ही घूम रही थी कि “भैया तुम्हें मुझसे ज्यादा नंबर लाने हैं”. सभी ने अविरल को समझाया कि तुम प्राइवेट exam देकर  इतने नंबर लाये हो…….. ये 96% से कम नहीं हैं. तब जाकर अविरल को थोड़ा संतोष हुआ और उसने तुरंत जाकर सारी बात डायरी में लिखी और अनु से माफी मांगी.

अविरल ने फिर रेनु को फोन किया तो निधि ने ही फोन उठाया. क्योंकि निधि की फॅमिली अभी रेनु के घर पर ही थी. अविरल और निधि ने एक-दूसरे को अपना रिज़ल्ट बताया तो दोनों बहुत खुश हुए.

अचानक अविरल ने निधि से बोला “तुम्हें रेनु ने कुछ बताया है?”

थोड़ी देर निधि शांत रही और फिर रेनु को फोन देकर चली गयी. रेनु ने अविरल से बोला कि “मैंने निधि को बता दिया है लेकिन तुम पढ़ाई पे ध्यान दो, निधि की भी यही शर्त है.

अविरल खुश भी हुआ और दुखी भी. खुश इसलिए की उसे मेरे दिल की बात  पता होने के बाद भी निधि ने उससे बात की और दुखी इसलिए कि निधि ने भी उसके आगे शर्त रख दी थी.  जबकि अविरल का मानना था कि प्यार निस्वार्थ होता है, इसमें कोई शर्त नहीं होती….

कुछ दिनो बाद अविरल ने इंजीन्यरिंग के entrance  कि तैयारी के लिए अपने पापा से दिल्ली जाने को बोला, तो उसके पापा उसे  दिल्ली भेजने के लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि  वह अनु को भेजने के बाद काफी डर गए थे. लेकिन अविरल ने तो दिल्ली से ही कोचिंग करने की  जिद पकड़ रखी थी. अविरल को लगता था कि दीप्ति भाभी कि वजह से कभी-कभार निधि भी दिल्ली आएगी तो वह उससे मिल लेगा.

अविरल के लिए अब उसकी मौसी लोगों की  निगाहें बदल चुकी थी क्योंकि  बीते सालों में अविरल ने उनकी एक भी नहीं सुनी थी और अविरल ने अपने अतीत की जो- जो बातें दीप्ति को बताई थी वह दीप्ति ने कार्तिक और अविरल की मौसी को बता दी थी.

अब सभी की निगाहों में एक धारणा बन गई कि अविरल एक बिगड़ा हुआ लड़का है और किसी तरह नकल करके 111th में मार्क्स ले आया है.

बहुत जिद करने से अविरल के पापा दिल्ली भेजने को तैयार हो गए. उन्होने अविरल को नया मोबाइल दिलाया. अविरल हॉस्टल में रहने लगा. कुछ दिनों बाद अविरल ने रेनु  से निधि का फोन नंबर मांगा तो रेनु  ने उसे बताया कि निधि लोग बहुत गरीब हैं. उनके पास फोन नहीं है, निधि कि फीस भी रेनु  के पापा देते हैं. अविरल को बहुत दुख हुआ.

अब अविरल की मोहब्बत निधि के लिए  दिन पर दिन  बढ़ती ही जा रही थी. वह अपनी हाइट बढ़ाने के लिए घंटों एक्सरसाइस करता और वादा पूरा करने के लिए रात दिन पढ़ाई.

तभी अविरल कि मौसी के यहाँ एक फंकशन हुआ जिसमे निधि को आना था. अविरल ने रेनु को फोन पर बताया कि वह निधि को एक गिफ्ट देना चाहता है तो रेनु ने बोला,” तुम वह मुझे दे देना मैं उसे दे दूँगी”.

फंकशन  का दिन भी आ गया. अविरल का दिल ज़ोर-ज़ोर से धडक रहा था. वह शाम को अपनी मौसी के घर पहुंचा . निधि भी वहाँ थी लेकिन उसने एक बार भी अविरल को नहीं देखा. अविरल समझ रहा था कि वह शरमा रही है. तो वह निधि से बात करने के लिए स्वीट्स के स्टॉल के पास खड़ा हो गया उसे लगा कि हर कोई स्वीट्स लेने तो आता ही है तो निधि भी जरूर आएगी.

अविरल को वहाँ खड़े खड़े 11 घंटे बीत  गए. सभी लोग खाकर चले भी गए लेकिन निधि नहीं आई. अविरल ने दुखी होते हुए रेनु से कहा,” मै निधि के लिए  गिफ्ट लाया हूँ ,please उसे बुला दो. मै उससे मिल भी लूँगा और गिफ्ट भी दे  दूँगा “.लेकिन रेनु ने मना कर दिया  और बोली ,” निधि ने मना कर दिया है”. अविरल को बहुत दुख हुआ. उसने बिना कुछ खाये ही अपना बैग उठाया और हॉस्टल चला गया. फिर काफी समय तक उसकी रेनु से भी कोई बात नहीं हुई.

अविरल काफी समय तक अपनी मौसी के घर भी नहीं गया क्योंकि  जब पार्टी में अविरल आया था तो उसे सभी का व्यवहार अजीब सा लगा था.

कुछ महीनों बाद अविरल मौसी के घर गया तो दीप्ति ने पूंछा,” अविरल अब तुम आते क्यूँ नहीं हो”. तो अविरल ने कहा ,” जब किसी को मेरा यहाँ आना अच्छा नहीं लगता तो किसके लिए आऊँ”.

तब दीप्ति ने बताया कि ‘ अविरल… मैंने तुम्हारी बात निधि से की थी तो निधि ने कहा कि दीदी ऐसा कुछ नहीं है, अविरल मुझे बदनाम कर रहा है”.

अविरल को भी कुछ समझ नहीं आया कि निधि ने ऐसा क्यूँ कहा.

अविरल ने रेनु को फोन किया और उससे इस बारे में बात कि तो रेनु ने बताया कि वह तुमसे प्यार नहीं करती. इसलिए उसने ऐसा कहा है.

अविरल अब निधि से बात करना चाहता था लेकिन रेनु ने साफ मना कर दिया और बोला कि निधि ने कहा है कि अगर अविरल नहीं माना तो उसके पापा से शिकायत करूंगी.

अविरल बहुत दुखी रहने लगा. लेकिन रेनु उसे दिन में 11-3 बार कॉल करती और उसे समझाती लेकिन अविरल कि मोहब्बत तो हर समय निधि का ही नाम लेती. कुछ समय बाद रेनु दिल्ली आई तो अविरल भी उससे बात करने मौसी के घर आ गया. दोनों देर रात तक बात करते रहे. बातों ही बातों में अविरल को पता चला कि निधि रेनु के घर आई हुई है. तुरंत अविरल के दिमाग में निधि से बात करने का तरीका सूझा. उसने बात ही बात में यह भी जान  लिया कि किस समय घर में सबसे कम लोग होंगे जिससे कि निधि की फोन उठाने की उम्मीद बढ़ जाए.

अगले दिन उसी समय अविरल ने फोन किया तो किसी लड़की ने फोन उठाया. अविरल तुरंत पहचान गया कि फोन पर निधि है. वह तुरंत बोला “निधि फोन मत काटना बस 10 मिनट मुझसे बात कर लो”. तो निधि बोली ,”अरे अविरल मैं तो तुम्हारे ही फोन का इंतज़ार कर रही थी. मुझे पता था कि तुम जरूर फोन करोगे”.

अविरल ने निधि से दीप्ति वाली बात पूंछी तो निधि बोली कि “दीप्ति दीदी ने मुझसे बोला कि अविरल बोल रहा है कि निधि मुझसे प्यार करती है और शादी करना चाहती है तो मैंने गुस्से में बोल दिया और तुम्हें जो बोलना था मुझसे बोलते, दीदी से क्यूँ बोला”

अविरल ने  निधि को बताया कि “मैंने सिर्फ बोला था कि भाभी मैं निधि से शादी करना चाहता हूँ.”

निधि और अविरल दोनों को समझ नहीं आया कि दीप्ति ने ऐसा क्यूँ किया. तभी घर में किसी के आने कि आहट हुई और निधि ने फोन काट दिया.

अविरल को दीप्ति और रेनु पे शक हुआ कि वह जान बूझकर हमें अलग करना चाहतीं हैं.

अगले भाग में हम जानेंगे कि रेनु और दीप्ति ने ऐसा क्यों किया ?क्यों वो अविरल और निधि के मिलने से पहले ही उन्हे अलग करने कि कोशिश करने लगी .

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-9

‘‘जी, कहिए न डाक्टर साहब,’’ कामिनी ने कहा तो पर उस के भीतर कुछ उथलपुथल होने लगी.

‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि आप से कैसे कहूं, बात यह है कि औपरेशन के दौरान यशेंदुजी की दाहिनी टांग काट देनी पड़ी थी. मिसेज कामिनी, आप को ही संभालना है सबकुछ.’’

कामिनी को एकाएक चक्कर आने लगे और वह धम्म से सोफे पर बैठ गई. कामिनी के कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने कहा, ‘‘प्लीज, आप जरा संभलें, देखिए, मांजी आ रही हैं.’’

कामिनी तो मानो कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. उस का मस्तिष्क घूम रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था, आखिर हो क्या रहा है. उस की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी और वह महसूस करने लगी मानो स्वयं अपंग हो गई है. उसे अपने सामने यश का एक टांगविहीन शरीर दृष्टिगोचर होने लगा. डाक्टर तब तक कामिनी को सांत्वना दे ही रहे थे कि धीरेधीरे डग भरती हुई मांजी वापस आ गईं.

‘‘फिक्र मत कर बहू. मैं देख कर आई हूं यश को. जल्दी ही वह ठीक हो कर घर आ जाएगा,’’ मांजी ने कामिनी को सांत्वना देने का प्रयास किया. वे यश को लेटे हुए देख कर आई थीं और पुत्रमुख देख कर उन्हें थोड़ी तसल्ली सी हुई थी.

क्या बताती कामिनी उन्हें? वह कुछ भी बताने या कहनेसुनने की स्थिति में नहीं थी. सो, टुकुरटुकुर सास का मुंह देखती रही. मांजी स्वयं ही बोलीं, ‘‘कामिनी बेटा, ड्राइवर को फोन कर दो. आ कर मुझे ले जाए. घर जा कर देखती हूं, दिया का क्या हाल है? फिर आती हूं,’’ उन के कंपकंपाते शरीर को देख कर कामिनी ने अपने आंसू पोंछ डाले.

मां के जाने के बाद कामिनी अकेली रह गई. कैसे पूरी परिस्थिति का सामना कर पाएगी वह? मांजी के साथ ही दिया, दीप, स्वदीप सब को संभालना…कैसे…?

‘‘मैडम, कौफी,’’ कामिनी ने देखा कि एक वार्ड बौय कौफी ले कर खड़ा था.

‘‘नहीं, मैं ने कौफी नहीं मंगवाई.’’

‘‘मैं ने मंगवाई है, मिसेज कामिनी, थोड़ा सा खाली हुआ तो सोचा कौफी पी ली जाए,’’ डा. जोशी उस के पास तब तक आ चुके थे.

‘‘डाक्टर साहब, मुझे जरूरत नहीं है, थैंक्स,’’ कामिनी ने संकोच से कहा और अपनी आंखों के आंसू पोंछ डाले.

‘‘कोई बात नहीं. बहुत से काम कभी बिना जरूरत के भी करने पड़ते हैं,’’ डाक्टर ने वातावरण सहज बनाने का प्रयास किया.

कामिनी ने बिना किसी नानुकुर के कौफी का मग हाथ में तो पकड़ लिया.

‘‘देखिए मिसेज कामिनी, स्वस्थ तो आप को रहना ही पड़ेगा. इस समय स्थिति ऐसी है कि अगर आप स्वस्थ नहीं रह पाईं तो आप का पूरा परिवार अस्तव्यस्त हो जाएगा. मैं अभी देख कर आ रहा हूं और यशेंदुजी की स्थिति से लगता है उन्हें एकाध घंटे में होश आ जाना चाहिए. आप उन से मिल कर घर चली जाइए. हम आप को इन्फौर्म करते रहेंगे. उन्हें आईसीयू से प्राइवेट रूम में शिफ्ट करना है. उन की टांग का फिर औपरेशन करना होगा और लगभग 2-3 महीने बाद उन की आर्टिफिशियल टांग लगेगी. लेकिन इस बीच उन की पूरी सारसंभाल की जरूरत है. इस सब के लिए आप को मजबूत होना ही होगा. यू हैव टू बी ब्रेव, मिसेज कामिनी,’’ डा. जोशी सोफे से उठ खड़े हुए.

‘‘कामिनी मुंहबाए उन्हें जाते हुए देखती रही.

लगभग 2 घंटे बाद यश को होश आया. नर्स ने आ कर बताया. डाक्टर की स्वीकृति से कामिनी पति को देखने अंदर गई. यश उसे देख कर हलका सा मुसकराए, टूटेफूटे शब्दों में बोले, ‘‘मैं ठीक हो जाऊंगा कामिनी, चिंता मत करो.’’

कामिनी आंसुओं को संभालती हुई यश के बैड के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई और उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगी. यश अभी गफलत में थे. कभी आंखें खुलतीं, कभी बंद होतीं. आंखें खुलने पर कामिनी को देख कर मुसकराहट उन क मुख पर फैल जाती, फिर तुरंत ही आंखें मुंद जातीं. दवाओं का बहुत गहरा प्रभाव था यश पर. कामिनी ने सोचा, अभी यहां उस का कोई काम नहीं है. घर भी देख आए जरा. तभी एक काली बिल्ली कामिनी का रास्ता काट गई. कामिनी का दिल धकधक करने लगा. क्षणभर को तो वह ठिठक गई क्योंकि मांजी साथ होतीं तो कलेश खड़ा कर देतीं.

आटो रिकशा में बैठ कर वह फिर अपने अतीत में खोने लगी. उस के पिता ने श्राद्ध के दिनों में गौना करवाया था. नए विचारों के पिता इन सब अंधविश्वासों में कहीं से भी फंसना नहीं चाहते थे. उन के नातेरिश्तेदारों, मित्रों ने उन्हें बहुत रोकाटोका. पर वे मानो हिमालय की भांति अडिग रहे. सोने पर सुहागा यह रहा कि कामिनी के नाना स्वयं इन्हीं विचारों के थे. कामिनी ने अपने पिता के घर में जो सहजता व सरलता का जीवन जीया था, जो रिश्तों के जुड़ाव देखे थे, जिस शालीनता के साथ स्वतंत्रता की अनुभूति की थी और जिन संबंधों की समीपता के आंतरिक एहसास के उजाले में वह बचपन से युवा हुई थी, उन से ही उस के व्यक्तित्व का विकास हुआ था.

दिया ने शायद कामिनी को अंदर से ही देख लिया था. वह दौड़ कर बरामदे में आ गई, ‘‘मां, पापा कैसे हैं अब?’’ वह बहुत घबराई हुई थी.

कामिनी ने दिया को अपने से चिपटा लिया, ‘‘अच्छे हैं बेटा, ही इज बैटर. अच्छा, भाइयों को फोन किया या नहीं?’’

‘‘जी मां, दोनों भाई रात को पहुंच जाएंगे. मां, मैं पापा से मिलना चाहती हूं,’’ बिना रुके दिया बोले जा रही थी.

‘‘हां, पापा होश में आ गए हैं. तुम मिल आना पापा से,’’ कामिनी बोली.

घर में बने मंदिर से पंडितों की जोरदार आवाजें आ रही थीं. कोई पाठ कर रहे थे शायद. मां भी जरूर वहीं बैठी होंगी. कितनेकितने भय बैठा कर रखता है आदमी अपने भीतर. बीमारी का भय, लुटने का भय, चोरी का भय, दुर्घटना का भय, चरित्र खो जाने का भय…बस हम केवल भय ही ओढ़तेबिछाते रहते हैं जीवनभर. क्यों? इस समय पाठ करते हुए स्वर उसे बेचैन कर रहे थे. मांजी की हिदायत उस ने बरामदे में माली से ही सुन ली थी. ‘‘मेमसाब, माताजी ने बोला है आप के आते ही सब से पहले आप को मंदिर में भेज दूं. कुछ…क्या बोलते हैं उसे…कुछ संकल्प करवाना है आप से.’’

परंतु कामिनी ने मानो कुछ सुना ही नहीं था. वह अपने मन के हाहाकार को छिपा कर अपने कमरे में जा कर सीधे बाथरूम में घुस कर शावर के नीचे पहुंच गई थी. सिर को शावर के नीचे कर के कामिनी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं. उसे तो यह संकल्प लेना था कि अपने टूटते हुए घर की चूलें कैसे कसेगी? उस की दृष्टि में दिया, स्वदीप, दीप व मांजी के चेहरे पानी में उथलपुथल से होने लगे. मानो उस की आंखें कोई गहरा समंदर हों और ये सब खिलौने से बन कर उस समंदर की लहरों के बीच फंस गए हों. कैसे बचाएगी उन्हें गलने से? न जाने कितनी देर वह उसी स्थिति में शौवर के नीचे खड़ी रही थी.

जीवन में बाधाएं तो आती ही हैं. जीवन कभी सपाट, सरपट, चिकनी सड़क सा नहीं होता. उस में बड़ी ऊबड़खाबड़ जमीन, नीचीऊंची सतह, कंकड़पत्थर और यहां तक कि छोटीबड़ी पहाडि़यां और बड़े पर्वत भी होते हैं जिन्हें मनुष्य को बड़े संयम और तदबीर से पार करना होता है. ये सब प्रत्येक के जीवन में आते हैं, इन से ही मनुष्य अनुभव बटोरता है, सीखता है. आगे बढ़ने के लिए नए मार्गों की खोज करता है. यदि नए मार्ग ढूंढ़ने के स्थान पर वह एक स्थान पर बैठा सबकुछ पाने की प्रतीक्षा करता रहे तो एक क्या, कई जन्मों तक उसी स्थिति में बैठा रहने पर भी उसे कुछ नहीं मिलता. लेकिन यहां तो कहानी ही अलग थी. यश के परिवार में बात कुछ इस प्रकार बन गई है कि ‘आ बैल मुझे मार.’ अरे, जब आप किसी के बारे में कुछ अधिक जानते नहीं, उसे पहचानते नहीं तो केवल जन्मपत्री के मेल से कैसे अपने जिगर के टुकड़े को किसी को सौंप सकते हैं? यह बात नहीं है कि पहचान होने से रिश्तों में कड़वाहट पैदा नहीं होती परंतु बुद्धिमत्ता तो इसी में है न, कि सही ढंग से जांचपड़ताल कर के बच्ची को सुरक्षित हाथों में सौंपा जाए, न कि अनाड़ी लोगों के द्वारा बनाए गए ग्रहों के मिलाप को ही सर्वोपरि मान लिया जाए.

कामिनी के जीवन का मार्ग और भी कठिन होता जा रहा था. अब उसे किसी न किसी प्रकार अपने हिसाब से जीना होगा. दिया का विवाह तो बहुत बड़ी त्रुटि हो ही चुकी थी. भारतीय समाज, मान्यताओं व परंपराओं के अनुसार, मांजी की यह बात उस के मस्तिष्क में नहीं उतरती थी कि वह दिया को अपने हाल पर छोड़ दे. मां थी आखिर… कुछ तो निर्णय लेना ही होगा. यश पिता हैं, उन्होंने कदम उठाना चाहा तो परिस्थिति गड़बड़ा गई. इसी उलझन में उलझ कर यश इस स्थिति में पहुंच गए और सारा बोझ कामिनी के कंधों पर आ गया. कामिनी पसोपेश में आ गई थी पति की अवस्था और बिटिया के बारे में सोच कर.दीप और स्वदीप उसी दिन पहुंच गए थे और जिद कर के वे दोनों रात में ही अस्पताल पहुंच गए थे. रात भर करवटें बदलते हुए कामिनी कभी पति और कभी बेटी के बारे में सोचती रही. उस के समक्ष कितने ही घुमावदार, टेढ़ेमेढ़े रास्ते थे और किस समय, कैसे, कब, उन पर चलना था, वह नहीं जानती थी.

जैसेतैसे रात बीती. पौ फटी. उस ने दिया की ओर देखा. मासूम दिया उस के पास सोई थी. रात में बहुत देर तक वह पापा के पास रही थी, दीप उसे घर छोड़ गया तब उस ने बड़ी कठिनाई से कामिनी के जिद करने पर दोचार कौर मुंह में डाल लिए और सोने का बहाना कर के बिना कपड़े बदले ही मां के पलंग पर लेट गई थी. आंसुओं की लकीरें उस के गालों पर निशान बना गई थीं. मांजी को भी बड़ी मुश्किल से मना कर लाई थी कामिनी. दो कौर पानी के सहारे गले में उतार कर वे अपने कमरे में कैद हो गई थीं. दिया ने उन की नौकरानी को विशेष हिदायत दी थी उन की दवाओं आदि के बारे में. वैसे भी वह नौकरानी उन के कमरे में ही सोती थी, इसलिए सब जानती थी. घर में जैसे एक सूनापन पसर गया था. बदन टूट रहा था फिर भी कामिनी बिस्तर पर लेट नहीं पाई.

घर के महाराज और नौकर को बता कर बिना मां व दिया से कुछ कहेसुने, कामिनी घर से निकल आई थी.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-22

 अब तक की कथा :

पुलिस ईश्वरानंद के आश्रम में दबिश दे चुकी थी और आश्रम के अंदर जाने का प्रयास कर रही थी. इधर नील और उस की मां को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. अब तक तो अंधेरा ही था, अब तो सामने गहरी खाई दिखाई दे रही थी. मां के कारण उस ने दिया को हाथ तक न लगाया और अब नैन्सी भी उस के हाथों से फिसल रही थी.

अब आगे…

अचानक दिया आगे बढ़ आई और उस ने सुनहरी पेंटिंग पर लगे हुए बड़े से सुनहरी बटन को दबा दिया. बटन दबाते ही दीवार में बना गुप्त दरवाजा खुल गया. सब की दृष्टि उस गलियारे में पड़ी जो फानूसों से जगमग कर रहा था. ब्रिटिश महिला पुलिस औफिसर एनी गलियारे की ओर बढ़ीं और उन्होंने सब को अपने पीछे आने का इशारा किया. गैलरी पार कर के सब लोग अब एक आलीशान दरवाजे के पास पहुंच गए थे जहां अंदर अब भी रासलीला चल रही थी. यहां भी दिया ने आगे बढ़ कर दरवाजे के खुलने का राज जाहिर कर दिया. दरवाजा क्या खुला, कई जोड़ी आंखें फटी की फटी रह गईं. सबकुछ इतना अविश्वसनीय था कि लोग अपनी पलकें झपकाना तक भूल गए थे.

अपनी अर्धनग्न चहेती शिष्याओं के साथ सामने के बड़े से मंच पर लगभग नग्नावस्था में विराजमान ईश्वरानंद का फूलों, केसर व चंदन से शृंगार किया जा रहा था. सुंदरियां उस के अंग को कोमलता से स्पर्श करतीं, चूमतीं और फिर उसे फूलों से सजाने लगतीं. सब इस कार्यक्रम में इतने लीन थे कि किसी को हौल में पुलिस के पहुंचने का आभास तक न हुआ. सैक्स का ऐसा रंगीला नाटक देख पुलिस भी हतप्रभ थी. इंस्पैक्टर ने साथ आए हुए फोटोग्राफर को इशारा किया और उस का मूवी कैमरा मिनटभर की देरी किए बिना वहां पर घटित क्रियाकलापों पर घूमने लगा.

ब्रिटिश पुलिस के लिए यह सब बहुत आश्चर्यजनक था. इत्र का छिड़काव जैसे ही दिया के नथुनों में पहुंचा उस को छींक आनी शुरू हो गईं. दिया को बचपन से ही स्ट्रौंग सुगंध से एलर्जी थी. छींकतेछींकते दिया बेहाल होने लगी. ईश्वरानंद की लीला में जबरदस्त विघ्न पड़ गया. यह कैसा अन्याय, सब का ध्यान भंग हुआ और उन्होंने पीछे मुड़मुड़ कर देखना शुरू किया. जैसे ही उन की दृष्टि पुलिस वालों पर पड़ी, अब तो मानो वे ततैयों की लपेट में आ गए. ईश्वरानंद अधोवस्त्र संभालता हुआ स्टेज से भागने का प्रयास कर रहा था. जैसे ही ईश्वरानंद ने सीढि़यों से उतरने को कदम बढ़ाया वैसे ही इंस्पैक्टर ने उसे धरदबोचा.

‘‘क्यों, हमें क्यों डिस्टर्ब किया जा रहा है?’’ ईश्वरानंद ने इंस्पैक्टर की बलिष्ठ भुजाओं में से सरकने का प्रयास करते हुए हेकड़ी दिखाने की चेष्टा की.

किसी ने उस की बेवकूफी का उत्तर नहीं दिया. पुलिस अपनी ड्यूटी करती रही. चेलेचांटों सहित उसे एक कतार में खड़ा कर दिया गया. पुलिस के जवान आश्रम के प्रत्येक कमरे में घुस कर तलाशी लेने लगे. सभी संदिग्ध वस्तुओं को जब्त कर लिया गया. बहुत से भारतीय सुरक्षा से जुड़े कागजात, जाली प्रमाणपत्र, जाली पासपोर्ट…और भी दूसरी अवैध चीजें, बिना लाइसैंस की गन्स, और न जाने क्याक्या बरामद कर लिया गया. एक कमरे में से धीमीधीमी सिसकने की आवाजें सुन कर दरवाजा तोड़ डाला गया और उस में से नशे से की गई बद्तर हालत में 3 लड़कियों को निकाला गया जो जिंदा लाश की तरह थीं. उन का कटाफटा शरीर, उन के मुंह पर लगे टेप, आंखों में भय व घबराहट सबकुछ दरिंदगी की कहानी बयान कर रहे थे. दिया ने उन्हें देखा तो घबराहट के कारण उस के मुख से चीख निकल गई. अगर वह फंस गई होती तो आज उस की भी यही दशा होती.

पुलिस गुरुचेलों को गाड़ी में ठूंस कर पुलिस स्टेशन ले गई. दिया दूसरी गाड़ी में उन 3 लड़कियों के साथ बैठ कर पुलिस स्टेशन पहुंची थी. लड़कियों के मुंह पर से टेप हटा दी गई थी परंतु वे कुछ कहनेसुनने की हालत में थीं ही नहीं. ईश्वरानंद, उस के चेलेचेलियां, नील व उस की मां से कोई बात नहीं की गई. उन को यह बता कर मुख्य जेल में भेज दिया गया कि उन का फैसला कोर्ट करेगी. नैन्सी से थोड़ीबहुत पूछताछ की गई और यह कह कर उसे फिलहाल रिहा कर दिया गया था कि जरूरत पड़ने पर उसे कोर्ट या पुलिस के समक्ष हाजिर होना पड़ेगा. धर्म के बारे में दिया से मौखिक व लिखित बयान ले लिए गए थे. एनी ने पहले ही दिया से खुल कर सबकुछ पूछ ही लिया था.

अब दिया को इंडियन एंबैसी ले जाने का समय था.

‘‘कैन आय टौक टू धर्म, प्लीज,’’ दिया ने पुलिस से आग्रह किया.

धर्म को उस के सामने ले आया गया.

‘‘तुम इंडिया चली जाओगी शायद 2-4 दिन में ही?’’

‘‘हूं.’’

‘‘मुझे अपनी सजा भुगतनी है.’’

‘‘हूं.’’

‘‘कुछ तो बोलो, दिया.’’

वातावरण में पसरे मौन में दिया व धर्म की सांसें छटपटाने लगीं. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. यह कैसा मिलन था? मौन ही उन की जबान बन कर भावनाओं, संवेदनाओं को एकदूसरे के दिलों तक पहुंचा रहा था.

धर्म ने दिया के गालों पर फिसलते आंसुओं को अपनी हथेली में समेट लिया. उसे गले लगाते हुए बोला, ‘‘अपनी गलतियों की सजा पा कर ही मैं भारमुक्त हो सकूंगा, दिया.’’

दिया की आंखें एक बार फिर गंगाजमुना हो आईं.

‘‘नहीं, रोते नहीं, दिया. तुम इंडिया लौट कर जाओगी, मेरी प्रतीक्षा करोगी?’’

दिया चुपचाप उसे देखे जा रही थी.

‘‘मैं जल्दी ही आऊंगा, दिया.’’

‘‘मैं प्रतीक्षा करूंगी.’’

दिया भी इंडियन एंबैसी के लिए निकल पड़ी. 3 दिन तक उसे वहां रखा गया और चौथे दिन उस की फ्लाइट थी. हीथ्रो हवाई अड्डे से सीधे अहमदाबाद की. इधर ईश्वरानंद के परमानंद आश्रम की धज्जियां उड़ गई थीं. देखते ही देखते परमानंद आश्रम के परम आनंद की खबर ब्रेकिंग न्यूज बन कर विश्वभर में फैल गई. लैंड करने के बाद दिया को हवाई अड्डे से निकलने में अधिक समय नहीं लगा. उस ने एंबैसी के अफसर को मना कर दिया था कि कृपया उस के घर पहुंचने की सूचना घर वालों को न भेजें. बाहर निकल कर वह टैक्सी में जा बैठी. भरपूर गरमी, सड़क पर दौड़ती गाडि़यां. दिया ने अपने बंगले की ओर जाने वाली सड़क ड्राइवर को बताई और कुछ ही मिनट में गाड़ी घर के बडे़ से गेट पर थी.

सुबह लगभग 9 बजे का समय. बंगले का गार्ड बगीचे में पानी देते हुए माली से बातें कर रहा था. अचानक उस की दृष्टि दिया पर पड़ी.

‘‘दिया बेबी?’’ वह चौंका. माली की दृष्टि भी ऊपर उठी.

‘‘हां, दिया बेबी ही तो हैं,’’ उस ने गार्ड की बात दोहराई.

गार्ड ने दीनू को आवाज दी, वह बरामदे में भागता आया और तुरंत मुसकराते हुए अंदर की ओर भागा. आश्चर्य और घबराहट से भर कर सभी लोग बरामदे तक भागे आए. यशेंदु भी अपनी व्हीलचेयर पर सब के पीछे तेजी से कुरसी के पहियों को चलाते हुए पहुंचे, दादी भी अपनेआप को धकेलती हुई मंदिर से बरामदे तक न जाने कैसे अपने भगवानज को छोड़ कर आ पहुंची थीं. सब से पीछे कामिनी थी जो शायद कालेज जाने की तैयारी छोड़ कर पति के पीछेपीछे तेजी से आ रही थी. दादी ने सब से आगे बढ़ कर दिया को अपने निर्बल बाहुपाश में जकड़ लिया. उस ने कोई प्रतिकार नहीं किया. स्वयं को दादी की निर्बल बांहों में ढीला छोड़ दिया. कुरसी पर बैठे एक टांगविहीन पापा को और उन के पीछे खड़ी मां की गंगाजमुनी आंखों को देख कर उस की आंखों का स्रोत फिर बहने लगा. दिया के मन में एक टीस सी उठी. वह दादी के गले से हट कर पापा के गले से चिपट गई और हिचकियां भर कर रोने लगी. काफी देर दिया पिता के गले से चिपकी रही. कामिनी ने धीरे से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह पिता से हट कर मां से जा चिपटी. कामिनी ने कुछ नहीं कहा और सहारा दे कर उसे अंदर की ओर ले आई.

दिया सब की आंखों में प्रश्नचिह्नों का सैलाब साफसाफ देख पा रही थी परंतु उत्तर देने वाले की मनोस्थिति देखते हुए सब को अपने भीतर ही प्रश्नों को रोक लेना पड़ा. दादी के मन में तो उत्सुकता, उत्कंठा और उत्साह कलाबाजियां खा रहे थे. दादी जल्दी से कुरसी खिसका कर उस के पास बैठ गईं.

‘‘दिया, नील और तेरी सास तो मजे में हैं न?’’

दादी चाहती थीं कि दिया ससुराल की सारी बातें बताए. आखिर उन की लाड़ली पोती कितने दिनों बाद विदेश से वापस आई थी. छुटकारा न होते देख दिया ने दादी की बात के लिए हां कहा और फिर बोली, ‘‘मां, मैं अपने कमरे में जाना चाहती हूं,’’ कह कर वह ऊपर अपने कमरे में आ गई.

दीनू कई बार ऊपर बुलाने आया परंतु दिया का मन बिस्तर से उठने का नहीं हुआ. नीचे सब की आंखों में प्रश्न भरे पड़े थे. दादीमां बड़ी बेचैन थीं, दिया से ढेर सी बातें करना चाहती थीं. कामिनी ने नीचे आ कर सब को समझाने की चेष्टा की.

‘‘अभी बहुत थकी हुई है. आराम कर के फ्रैश हो जाएगी तो अपनेआप नीचे आ जाएगी.’’

-क्रमश:

 

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