लेखिका- रश्मि राठी
सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.
आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.
उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’
उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.
‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.
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सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.
तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’
‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.
जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.
घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.
एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.
‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.
मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’
शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.
‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.
सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.
अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.
‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.
‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’
‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.
वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’
‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.
‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.
‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना
चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.
मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.
शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’
‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’
घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.
‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’
‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’
अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.
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सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.
‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.
आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’
यह देख सभी लोग हंस पड़े.
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