महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-15

अचानक धर्मानंदजी दिखाई पड़े. गौरवपूर्ण, लंबे, सुंदर शरीर वाला यह पुरुष उसे वैसा ही रहस्यमय लगता था जैसे नील व उस की मां थे. उस की दृष्टि धर्मानंद के पीछेपीछे घूमती रही. न जाने उसे क्यों लग रहा था कि हो न हो, यह आदमी ही उस के पिंजरे का ताला खोल सकेगा. नील की मां के पास बहुत कम लोग आतेजाते थे. उन में धर्मानंद उन के बहुत करीब था, दिया को ऐसा लगता था. अब प्रवचन चल रहा था. तभी दिया ने देखा कि नील की मां मंदिर में बने हुए रसोईघर की ओर जा रही हैं. उसे एहसास हुआ कि उसे उन के पीछेपीछे जा कर देखना चाहिए. वह चुपचाप उठ कर पीछेपीछे चल दी. उस का संशय सही था. नील की मां धर्मानंदजी से मिलने ही गई थीं. वह चुपचाप रसोई के बाहर खड़ी रही. दिया के कान उन दोनों की बातें सुनने के लिए खड़े हो गए थे. वहबड़ी संभल कर रसोईघर के दरवाजे के पीछे छिप कर खड़े होने का प्रयत्न कर रही थी. दोनों की फुसफुसाहट भरी बातें उस के कानों तक पहुंच रही थीं.

‘‘धर्मानंद आप ने पासपोर्ट संभाल कर रखा है?’’

‘‘हां, ठीक जगह रखा है. पर… क्या फर्क पड़ता है अगर खो भी जाए तो…?’’ धर्मानंद ने बड़े सपाट स्वर में प्रश्न का उत्तर दिया. फिर आगे बोले, ‘‘देखिए मिसेज शर्मा, इस लड़की के तो कहीं गुणवुण मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. आप ने किस से मिलवाई थीं इन की कुंडलियां?’’

‘‘अरे भई, जब हम इंडिया गए तो आप यहां थे और जब हम यहां आए तो आप इंडिया पहुंच गए. मुझे जन्मपत्री रवि से ही मिलवानी पड़ीं. आप की जगह उस समय तो वही था यहां,’’ नील की मां का राज दिया पर खुलता जा रहा था.

‘‘और इस लड़की की दादी थीं कि पत्री मिलाए बिना एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं थीं. सो, जल्दीबाजी में…’’

‘‘आप भी, आप तो जानती हैं रवि को मैं ही सिखा रहा हूं. अभी तो जुम्माजुम्मा आठ भी दिन नहीं हुए यह विद्या सीखते हुए उसे. अभी क्या औकात उस की? वैसे भी अपना नील तो नैंसी के साथ इतना कस कर बंधा हुआ है. यह तो बेचारी वैसे ही फंस गई,’’ धर्मानंद के स्वरों में मानो दिया के लिए कुछ करुणा सी उभर रही थी.

‘‘अरे धर्मानंदजी, मैं ने बताया तो था कि यह है बहुत बड़े घर की. अगर इस के घरवालों को यह सब पता चल गया तो फजीहत हो जाएगी हमारी. आप ही बताइए कोई उपाय?’’

‘‘लड़की है भी प्यारी, सुंदर सी. अगर कहीं नील ने इस के साथ रिलेशन बना लिया तो उस का भविष्य तो गया पानी में. वैसे तो वह नैंसी के साथ खुश है. आप ने क्यों शादी करा दी उस की?’’ धर्मानंद को दिया से सहानुभूति होती जा रही थी, ‘‘इस से तो किसी गरीब घर की साधारण लड़की लातीं तो उस का भी उद्धार हो जाता और आप का काम भी.’’

‘‘नैंसी तो शादी करने के लिए तैयार ही नहीं है न. और अगर शादी कर भी लेगी तो क्या मेरे साथ निभा सकती है? पर आप ने तो नील को संबंध बनाने तक से रोक दिया है.’’

‘‘भई, मेरा जो फर्ज था, मैं ने किया. अब आप को या नील को जैसा ठीक लगे करिए,’’ धर्मानंद विचलित से हो गए थे.

‘‘अरे नहीं धर्मानंद, आप के बगैर बताए क्या हम एक कदम भी चलते हैं? आप की जब तक ‘हां’ न हो, नील को उस की तरफ ताकने भी नहीं दूंगी. मैं कहां चाहती थी कि दिया को इस तरह की परेशानी हो पर जब आप…और मुझे लगा था कि नील पर से खतरा टल जाएगा तो यहीं दिया से इस की शादी करवा देंगे. इतनी सुंदर और अमीर बहू पा कर वह नैंसी को भूल जाएगा. पर…’’ दिया ने लंबी सांस छोड़ी. उस को अपना पूरा जीवन ही गर्द और गुबार से अटा हुआ दिखाई देने लगा. वह चुपचाप दरवाजे के पीछे से हट कर भक्तों की भीड़ में समा गई जहां तबले, हारमोनियम व तालियों के साथ  भक्तजन झूम रहे थे. कुछ देर बाद नील की मां ने आ कर देखा, दिया वैसे ही आंख मूंद कर बैठी थी. उन्होंने चैन की सांस ली और मानो फिर कुछ हुआ ही न हो, सबकुछ वैसा चलने लगा जैसा चल रहा था.

अगले दिन सुबह घर में हंगामा सा उठ खड़ा हुआ. नील काम पर जाने की तैयारी कर रहा था कि अचानक माताजी धड़धड़ करती हुई ऊपर से नीचे उतरीं. ‘‘दिया, तुम से कितनी बार कहा है कि अपने कपड़े वाशिंग मशीन में नील के कपड़ों के साथ मत डाला करो, पर तुम बारबार यही करती हो.’’

‘‘तो मैं अपने कपड़े कैसे धोऊं?’’ उस दिन दिया के मुंह से आवाज निकल ही गई.

‘‘कैसे धोऊं, क्या मतलब? अरे, यहां क्या चूना, मिट्टी, धूल होता है जो तुम्हारे कपड़ों में लगेगा? पानी से निकाल कर सुखा दो. कितनी देर लगती है?’’

‘‘पर, मुझ से नहीं धुलते कपड़े. मुझ को कहां आते हैं कपड़े धोने?’’ दिया रोंआसी हो कर बोल उठी.

नील चुपचाप अपना बैग संभाल कर बाहर की ओर चल दिया था. शायद वह जानता था कि आज दिया की अच्छी प्रकार से खबर ली जाएगी. दिया ने 2-3 मिनट बाद कार स्टार्ट होने की आवाज भी सुनी. उसे लगा आज तो वह भी कमर कस ही लेगी. अगर ये उसे परेशान करेंगी तो उसे भी जवाब तो देना ही होगा न? आखिर कब तक वह बिना रिश्ते के इस कबाड़खाने में सड़ती रहेगी.

‘‘देखो दिया, मैं तुम्हें फिर से एक बार समझा रही हूं, तुम नील के कपड़ों के साथ अपने कपड़े मत धोया करो. क्या तुम नहीं चाहतीं कि नील सहीसलामत रहे? हर शादीशुदा औरत अपने पति की सलामती चाहती है और तुम…कितनी बार समझाया तुम्हें…’’

‘‘मुझे समझ में नहीं आता कपड़े एकसाथ मशीन में धोने में कहां से नील की सलामती खतरे में पड़ जाएगी?’’

‘कायर कहीं का,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘और कहां से है वह शादीशुदा?’ न जाने कितनी बार उस का मन होता है कि वह मांबेटे का मुंह नोच डाले. अगर अपने घर पर होती तो…बारबार ऐसे ही सवाल उस के जेहन में तैरते रहते हैं. वह अपने मनोमंथन में ही उलझी हुई थी.

‘‘तुम्हें क्या मालूम कितने खतरनाक हैं तुम्हारे स्टार्स, शादी हो गई, चलो ठीक पर अब नील को बचाना तो मेरा फर्ज है न. पंडितजी ने बताया है कि अभी कुछ समय उसे तुम से दूर रखा जाए वरना…यहां तक कि तुम्हारे साए से भी,’’ नील की मां ने हाथ नचा कर आंखें मटकाईं. इतनी बेहूदी औरत. बिलकुल छोटे स्तर के लोग जैसे बातें करते हैं, वह वैसे ही हाथ नचानचा कर बातें कर रही थी. उन के यहां नौकरों को भी जोर से बोलने की इजाजत नहीं थी. दिया का यौवन मानो उस की हंसी उड़ाने लगा था. ऐसा भी क्या कि कोई तुम पर छा जाए, तुम्हें दबा कर पीस ही डाले और तुम चुपचाप पिसते ही रहो.

‘‘तुम सुन रही हो दिया, मैं ने क्या कहा?’’ उस के कानों में मानो किसी ने पिघला सीसा उड़ेल दिया था.

‘‘जी, सुन रही हूं. आप केवल अपने बेटे को प्रोटैक्ट करना चाहती हैं. मुझे बताइए, मेरा क्या कुसूर है इस में? आप ने क्यों मुझे इस बेकार के बंधन में बांधा है? मैं तो शादी करना भी नहीं चाहती थी. जबरदस्ती…’’

‘‘अरे वाह, बाद में तुम्हारी रजामंदी से शादी नहीं हुई क्या? तुम ने नील को पसंद नहीं किया था क्या? और तुम्हारी वो दादी, जो मेरे नील को देखते ही खिल गई थीं, उन की मरजी नहीं थी तुम्हारी शादी नील से करवाने की?’’

‘‘शादी करवाने की उन की इच्छा जरूर थी लेकिन आप ने मेरे साथ इतना अन्याय क्यों किया? मैं क्या कहूं आप से, आप सबकुछ जानती थीं.’’

दिया की आवाज फिर से भरभरा गई, ‘‘मेरा और नील का रिश्ता भी क्या है जो…’’ आंसू उस की आंखों से झरने लगे.

‘‘वहां पर आप ने वादा किया था कि मैं अपना जर्नलिज्म का कोर्स करूंगी लेकिन यहां पर मुझे कैद कर के रख लिया है. कहां गए आप के वादे?’’

‘‘दिया अब तो जब तक तुम्हारे स्टार्स ही तुम्हें फेवर नहीं करते तब तक तो हम सब को ही संभल कर रहना पड़ेगा,’’ नील की मां ने चर्चा की समाप्ति की घोषणा सी करते हुए कहा.

दिया का मन फिर सुलगने लगा. उसे लगा कि अभी वह सबकुछ उगल देगी परंतु तुरंत यह खयाल भी आया कि यदि वह सबकुछ साफसाफ बता देगी तब तो उस पर और भी शिकंजे कस जाएंगे. एक बार अगर इन लोगों को शक हो गया कि दिया को सबकुछ मालूम चल गया है तब तो ये धूर्त लोग कोई और रास्ता अपना लेंगे, फिर उस के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा. परिस्थितियां कैसे मनुष्य को बदल देती हैं. ऐसी लाड़ली, खिलंदड़ी सी दिया को अपना पिंजरा खोलने के लिए चाबी ढूंढ़नी थी. अब उसे यहां सालभर होने को आया था. मां, पापा, भाइयों के फोन आते तो वह ऐसी हंसहंस कर बात करती मानो कितनी प्रसन्न हो. यश सहारा ले कर चलने लगे थे. उन्होंने काम पर भी जाना शुरू कर दिया था.

दिया की समझ में नहीं आ रहा था यह गड़बड़ घोटाला. एक ओर तो उस ने नील की मां को धर्मानंदजी से यह कहते सुना था कि उन्होंने सोचा था कि नील दिया को पा कर नैंसी को भूल जाएगा दूसरी ओर वे हर पल दिया पर जासूसी करती रहती थीं. यों तो दिया का मन अब बिलकुल भी नील को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था परंतु उसे नील के माध्यम से ही अपने पिंजरे की चाबी प्राप्त करनी थी. इसलिए उस ने भावनाओं से काम न ले कर दिमाग से काम लेना शुरू कर दिया था. इस औरत को कैसे वश में करे, यह सब से कठिन समस्या थी उस के सामने. आज तो उस की जबान खुल ही गई थी. काफी सोचविचार करने के बाद उस ने अपने को संतुलित किया और फिर से चुप्पी साध ली.

‘‘नील को यूनिवर्सिटी के काम से जरमनी जाना है,’’ नील की मां ने एक दिन दिया के हाथ की गरमागरम रोटी खाते हुए कहा.

‘‘जरमनी?’’ दिया का माथा ठनका. ऐसा लगा, जरमनी का जिक्र अभी कुछ दिन पूर्व ही सुना था उस ने.

खाना खा कर नील की मां ने प्लेट सिंक में रखी और एक बार फिर बोलीं, ‘‘नील ये कपड़े रख कर गया है. तुम खाना निबटा कर मशीन लगा देना. हीट पर डाल दोगी तो जल्दी ही सूख जाएंगे. रात को ही प्रैस कर देना. सुबह 10 बजे की फ्लाइट है. घर से तो साढ़े 6 बजे ही निकल जाना पड़ेगा,’’ कहतीकहती वे रसोईघर से बाहर चली गईं. दिमाग की उड़ान के साथसाथ उस का शरीर भी मानो फटाफट चलने लगा. आज जब वह सब काम निबटा कर कमरे में आई तब दोपहर के 3 बजे थे. खिड़की पर बैठ बाहर टकटकी लगाए उसे पता ही नहीं चला कब नील की मां कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘दिया, कपड़े हो गए?’’ उन्होंने इधरउधर देखते हुए पूछा.

‘‘हां, हो गए होंगे,’’ उस ने दीवार पर लटकी घड़ी पर दृष्टि घुमा कर देखी. 4 बज गए थे.

वह उठी और जा कर मशीन में से कपड़े ला कर हीट पर डाल दिए. अभी बाहर बारिश हो चुकी थी, इसलिए कपड़े अंदर ही डालने थे. चाय का टाइम हो चुका था. किचन में जा कर उस ने चुपचाप चाय बनाई और 2 प्यालों में छान ली. आदत के अनुसार माताजी बिस्कुट के डब्बे निकाल कर टेबल पर बैठी थीं. दिया भी आ कर टेबल पर बैठ गई. सासूमां ने बिस्कुट कुतरते हुए डब्बा उस की ओर बढ़ाया. दिया ने बिना प्रतिरोध के बिस्कुट निकाल लिया और कुतरने लगी. वह वातावरण को जाननेसमझने, उस से निकल भागने के लिए नौर्मल बने रहने का स्वांग करने लगी थी तो माताजी को यह उन की विजय का एहसास लगने लगा था. भीतर ही भीतर सोचतीं, ‘आखिर जाएगी कहां? भूख तो अच्छेअच्छों को सीधा कर देती है. फिर इस की तो बिसात क्या, सीधी हो जाएगी.’

‘‘मैं सोचती हूं दिया, तुम लंदन घूम आओ,’’ अचानक ही चाय की सिप ले कर उन्होंने दिया से कहा.

दिया का मुंह खुला का खुला रह गया. सालभर से घर के बंद पिंजरे में उस चिडि़या के पिंजरे का दरवाजा खुलने की आहट से वह चौंक पड़ी. ‘क्या हो गया इन्हें?’ उस ने सोचा. इस में भी जरूर कोई भेद ही होगा.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-10

अब तक की कथा : 

मां को देखते ही दोनों बेटे विचलित हो उठे. अब दिया के अतिरिक्त यशेंदु की चिंता भी थी. पापा की टांग कट जाने पर दिया व दादी कैसे सहज रह सकेंगी? दिया ने मां व भाइयों की बात सुन ली थी और वह दादी को तथा अपनेआप को इन परेशानियों का कारण मान रही थी. लंदन से उस के ‘स्पौंसरशिप’ के कागजात आ चुके थे परंतु वह पिता को इस हालत में छोड़ने के लिए तैयार न थी. फोन पर नील मीठीमीठी बातें बनाता और अपनी व्यस्तता का ढोल पीटता. दिया हादसों से घबरा गई थी. यश उसे बारबार नील के पास जाने के लिए कहते.

अब आगे…

दिया को समझ नहीं आ रहा था कि करें तो करें क्या? बहुत सोचविचार कर लगभग एक हफ्ते बाद दिया ने अपने पिता से ससुराल जाने की हामी भर ही दी. कितनी रौनक सी आ गई थी यश के चेहरे पर. उन का बनावटी पैर अब तक लग चुका था और नर्स उन्हें गार्डन में रोज घुमाने ले जाती थी. मां समझतीं कि उन का बेटा अपने पैर की कसरत करने गार्डन जाता है. पता नहीं उन्होंने कहांकहां से गंडेतावीज ले कर यश और दिया के बिस्तरों के नीचे रखने शुरू कर दिए थे. कामिनी ने घर के नौकरों को समझा रखा था कि दिया के कमरे में ऐसा कुछ मिले तो दिया को बिलकुल न बताएं और चुपचाप उसे ला कर दे दें. नौकर यही करते. परंतु एक दिन न जाने कैसे जब नौकरानी दिया का बिस्तर साफ कर रही थी, उस के हाथ में दिया ने डोरी जैसी कोई चीज देख ली. वह अचानक वाशरूम से निकल कर उस के सामने आ कर खड़ी हुई.

‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है, छबीली?’’ नौकरानी सकपका गई.

‘‘क्या बीबी?’’ उस ने उस डोरी को छिपाने का भरसक प्रयास किया परंतु दिया की दृष्टि से छिपा न सकी.

‘‘दिखाओ, दो मुझे,’’ दिया ने कुछ इस प्रकार नौकरानी को डांटा कि उस से तावीज छिपाते न बना. उसे दिया को देना ही पड़ा. दिया डोरा ले दनदनाती हुई यश के कमरे में गई. रविवार का दिन था. सब घर में ही थे. कामिनी को बड़ी मुश्किल से कभीकभी आराम के लिए समय मिलता था. यश जागे हुए थे. नर्स उन्हें सहारा दे कर सुबह की हवा खिलाने के लिए गार्डन ले जाने के लिए व्हीलचेयर पर बिठा ही रही थी कि दिया की आवाज सुन कर पूरा वातावरण अशांत हो गया.

‘‘यह है क्या आखिर, पापा?’’ उस ने लाल डोरा फेंकते हुए यश से पूछा.

यश को मालूम था कि मां आजकल ये सब टोनेटोटके करवा रही हैं. उन का मुंह उतर गया. यश ने नर्स को वहां से जाने का इशारा किया, फिर जो दिया ने बवाल खड़ा किया कि पूरा परिवार ही हड़बड़ाते हुए यश के कमरे में आ पहुंचा. पंडितों के पाठ की आवाज धीमी पड़ गई. थरथराती हुई दादी भी यश के कमरे में आ गईं. उन्होंने दिया को पुचकारने का प्रयास किया परंतु दिया दनदनाती हुई कमरे से बाहर निकल गई और ऊपर अपने कमरे में जा कर दरवाजा जोर से बंद कर लिया.

‘‘मां, मैं ने आप से कितनी बार कहा कि आप अब ये सब करना बंद कर दें,’’ यश ने मां के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘यश, तुम भी ये सब अपनी मां से कह रहे हो. तुम दिया को क्यों नहीं समझा सकते कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है वह सब पूजापाठ और इन सब की वजह से ही हो रहा है. नहीं तो…’’ मां के पास बस एक ही अस्त्र था-आंसुओं का. उन के नेत्रों से गंगाजमुना बहने लगी.

‘‘क्या अच्छा हो रहा है, मां, बताइए? दिया के विवाह में आप को अभी तक क्या अच्छाई दिखाई दी है? जब वह ससुराल जा कर सुखी रहेगी तब असलियत पता चलेगी. मैं ने एक्सिडैंट में अपनी एक टांग खो दी, वह अच्छाई है या…आप ही बताइए, आखिर दिया के ब्याह के बाद कौन सी चीज हमारे साथ अच्छी हुई है? आप तो रो कर अपने मन को हलका कर लेती हैं, भजन करती और करवाती रहती हैं पर मैं तो इस सब पर नहीं बैठ सकता. मुझे तो लग रहा है जो इतने वर्षों की कमाई थी बच्चों के रूप में, धन के रूप में, इज्जत के रूप में, सब खत्म होती जा रही है और आज मैं अपंग बन कर बिस्तर पर पड़ा हूं.’’

पहले तो दादी को यश की बात समझ में ही नहीं आई, जब दोबारा यश ने अपंग कहा तो उन के आंसू निकलने बंद हो गए. उन की फटी आंखें यश की ढकी हुई टांग को घूरने लगीं. यश के पैरों से कपड़ा हटा कर देखने पर ‘हाय राम’ कह कर वे जमीन पर धम से बैठ गईं. कामिनी दौड़ कर आई. उस ने नर्स को आवाज लगाई. नर्स के आने पर दोनों ने मिल कर मांजी को उठा कर पलंग पर बैठाया. मां रोतेरोते बेहोशी की हालत में आ गई थीं. दीप, स्वदीप ने दौड़ कर दादी को हाथों में उठाया और गाड़ी में डाल कर अस्पताल की ओर भागे. दादी की सांस की गति बहुत तेज हो गई थी. दादीमां को अस्पताल में ऐडमिट करवा दिया गया. दिया शाम तक अपने कमरे में बंद रही. बाहर से कई बार कामिनी ने उसे दादी के अस्पताल पहुंच जाने की सूचना दी थी परंतु दिया बिलकुल गुमसुम बनी रही. नौकरानी कई बार नाश्ता, खाना ले कर गई परंतु दिया ने दरवाजा नहीं खोला. वह सोच रही थी कि दादी मां के जीवन की संध्या बेला है परंतु उस के तो प्रभातकाल में ही सबकुछ घटित होता जा रहा है. दिया लगभग 4-5 बजे यश के कमरे में आई.

‘‘पापा, नील के पास जाने की तैयारी करवा दीजिए,’’ दिया बोली तो यश ने चौंक कर उस की ओर देखा, फिर कुछ खंखार कर बोले, ‘‘दिया, बेटा, दादी अस्पताल में हैं.’’

‘‘मालूम है मुझे, पापा, ठीक हो जाएंगी. आप चिंता न करें. स्वदीप भैया से कह कर जितनी जल्दी हो सके मेरी जाने की तैयारी करवा दीजिए.’’

न जाने किस मिट्टी की बन गई थी दिया. दोनों भाई अस्पताल में चक्कर लगाते, कामिनी सुबहशाम सास को देखने अस्पताल पहुंचती परंतु दिया? उस का तो मन ही नहीं होता था दादी से मिलने का.

पूरा घर मानो बिखराव से तहसनहस हो गया. अभी तो कामिनी और बेटों ने काफी लंबे अरसे के बाद अपनाअपना काम शुरू किया था कि फिर से उस में जबरदस्त व्यवधान आ खड़ा हुआ. कामिनी अस्पताल और घर के बीच चक्कर लगातेलगाते थक गई थी. उधर, नील ने जल्दी मचानी शुरू कर दी थी. और…अब तो हद हो गई जब नील ने दिया का टिकट भेज दिया. अचानक ही एअरलाइंस से फोन आया कि दिया का टिकट भेजा जा रहा है. यह ठीक हुआ कि दिया मुंबई जा कर वीजा की फौरमैलिटीज पूरी कर आई थी. 2 दिन बाद का टिकट था. नील के फोन लगातार आते रहे और वह अनमनी सी उस से बात कर के पापा या मां को फोन पकड़ाती रही. नील शायद उस से कुछ रोमांटिक बातें करना चाहता पर वह बेमन से ही उस की बातों का उत्तर दे पाती. पता नहीं क्यों? उसे बारबार यही लग रहा था मानो वह एक लड़की से एक मदारी की बंदरिया में तबदील हो गई है.

दादी अस्पताल में थीं परंतु दिया अपनी लंदन जाने की तैयारी में खुद को व्यस्त दिखाती रही. दादी ने कई बार दिया के बारे में पूछा. इस में तो शक था ही नहीं कि दादी दिया से बहुत प्यार करती थीं. वे चाहती थीं कि अपनी पोती की विदाई खूब धूमधाम से करें. अपने पंडितजी से मुहूर्त निकलवा कर पूजाअर्चना के बाद ही दादी उसे विदेश विदा करें. जब भी घर का कोई सदस्य उन के पास आता तो बारबार यह पूछना न भूलती, अरे, पंडितजी को बुला भेजा है न? पूजा तो हो रही है न घर में? और हां, दिया को बिठाना है पूजा में. यश भी बैठ जाएगा. हे भगवान, कैसे समय में मुझे यहां फंसा दिया  मैं कुछ कर नहीं पा रही हूं अपने बच्चों के लिए.

जब वे बड़बड़ करने लगतीं तभी डाक्टर के आदेश से उन्हें इंजैक्शन दे दिया जाता और थोड़ी देर बाद ही वे खामोश हो जातीं. डाक्टर के अनुसार, उन के मस्तिष्क को शांत रखना आवश्यक था. दादी को इस बात की भी बहुत तकलीफ थी कि दिया उन से मिलने नहीं आई. उन्हें लगता कि दिया अपने पति के पास जाने के लिए बहुत उत्सुक है और तैयारियों में व्यस्त है. जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं. अपने कुछेक कपड़े एक अटैची में डाल कर दिया तैयार ही थी. जब ओखली में सिर दे ही दिया है तो मूसलों से क्या डरना. देखा जाएगा जो होगा. वह अधिकांश समय पापा के पास ही गुजारती परंतु बातबात में चहकने वाली दिया के मुख पर पसरी उदासी, आंखों में नीरवता और चाल में ढीलापन देख कर यश और कामिनी उस की मानसिक स्थिति से भली प्रकार अवगत थे. परंतु अब उन के पास भी प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था, केवल भविष्य की प्रतीक्षा, जिस के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता. न मनुष्य को और न ही हाथ की रेखाएं पढ़ने वाले पंडितों को. इन लोगों के मस्तिष्क में एक ही बात थी कि किसी भी प्रकार उन की बिटिया सुखी रहे. उस की आंखों की चमक लौट आए, उस के पैरों में फिर से बिजलियां भर जाएं और चेहरे पर मुसकराहट.

दिया ने पिता से बहुत सख्ती से कह दिया था कि उसे मुंबई तक कोई भी छोड़ने नहीं जाएगा. आगे उसे अकेले ही जाना है, सो वह मैनेज कर लेगी. लाख समझाने पर भी वह टस से मस न हुई. ‘‘आप लोग चाहते हैं न कि मैं अपनी ससुराल जाऊं. तो जा रही हूं. वहां भी तो मुझे आप सब से दूर ही रहना है, अकेले ही, तो यहां क्यों नहीं? दूसरी बात, मुझे किसी की इतनी जरूरत नहीं है जितनी यहां पर भाई लोगों की. इसलिए पापा, मां, अब इस बात पर कोई बहस मत कीजिए प्लीज, आई विल मैनेज, कोई पहली बार तो हवाई जहाज में जा नहीं रही हूं. फिर वहां तो कोई मेरे साथ अंदर रह नहीं पाएगा. सो, कोई फायदा तो है नहीं मुंबई तक जाने का. भाई लोग यहां का संभालें, बस.’’

लेकिन भाइयों ने दिया की एक न सुनी और हवाई अड्डे तक साथ जाने के लिए दिया को राजी कर ही लिया. लेकिन कितनी बार कोशिश की गई कि दिया जाने से पहले एक बार दादी से मिल ले परंतु कोई समझाइश काम न आई. वह भी तो आखिर अपनी दादी की ही पोती थी. जो ठान लिया, बस. ऐसी परिस्थिति में भी वह कभीकभी स्वयं को ही कोसने लती, यदि नील से मिलने के समय वह इतनी दृढ़ रह पाती तो. आखिर क्यों ढीली पड़ी वह?

खैर, जो होना था, हो चुका था. मांपापा को रोते छोड़ वह भाइयों के साथ हवाईअड्डे पहुंच गई थी. वह अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के भीतर प्रवेश कर गई कुछ इस अदा से मानो वह कोई सिपाही हो जो लाम पर जा रहा हो. प्रवेशद्वार पर एक बार ठिठक कर उस ने पीछे घूम कर दोनों भाइयों की आंखों में तैरती उदासी को भांपा, धीरे से उन की ओर हाथ उठा कर एक बार बाय का संकेत किया और आगे बढ़ गई. वह जानती थी कि जब तक हवाई जहाज उड़ान नहीं भरेगा, उस के दोनों भाई बाहर ही खड़े रहेंगे. लेकिन उस से फायदा क्या?

अपने ही विचारों में गुम वह फौरमैलिटीज पूरी करती रही और जा कर दूसरे यात्रियों के साथ बैठ गई.

अधिकतर यात्री चाय या कौफी ला कर अपनी कुरसियों या सोफों में धंस गए थे. पारदर्शी शीशे से रनवे पर खड़े हुए 2-3 हवाई जहाज नजर आ रहे थे.

नील ने दिया को बिजनैस क्लास का टिकट भेजा था. एअरहोस्टेस ने उस की सीट दिखा कर उस पर एक बड़ी सी मुसकराहट फेंक दी थी. वह भी उसे देख कर मुसकरा दी. थैंक्स कह कर वह सीट पर जा बैठी और खिड़की की ओर ताकने लगी. अपने दिलोदिमाग को शांत करने के प्रयास में वह भीतर से और भी अशांत होती जा रही थी. नया देश, नया परिवेश, नए लोग…हां, नए ही तो हैं. कहां समझ पाई है दिया नील को भी. एक नईनवेली की सी कोई भी उमंग उस के भीतर हलचल नहीं मचा रही थी. अब प्लेन में बैठ कर उसे अपनी सहेलियां याद आ रही थीं जिन से वह मिल कर भी नहीं आई थी. यही सोचेंगी न उस की सहेलियां कि दिया कैसी बेवफा निकली. यद्यपि यश के साथ हुई दुर्घटना का सब को पता चल गया था. एक तो शादी का कमाल हुआ था, दूसरा, अब होने जा रहा था और दिया इस कमाल को स्वयं ही झेलना चाहती थी. अचानक ही उस ने अपने कंधे पर किसी का मजबूत दबाव महसूस किया और झट से गरदन घुमा कर देखा.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-12

अब तक की कथा :

नील को अपने पास देख कर दिया हतप्रभ रह गई. ऐसे भी होते हैं लोग. इतने बेशर्म. नील दिया से ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. बातों ही बातों में नील ने बताया कि वह पहले भी प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था. नील पूरे रास्ते दिया की चापलूसी करता रहा और वह उस की बेशरमाई के बारे में सोचती रही. आखिर वह बुत बनी हुई लंदन पहुंच गई. नील की मां ने आरती कर के उस का व बेटे का स्वागत किया और उसे नीचे का एक कमरा दे दिया गया. क्या दिया के संबंध नील से बन सके? घर से फोन आने पर वह बात क्यों नहीं कर सकी?

अब आगे…

ससुराल पहुंच कर दिया को लग रहा था जैसे वह किसी सुनसान जंगल में पहुंच गई है जहां दूरदूर तक पसरा सन्नाटा उसे ठेंगा दिखा रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह यहां किस से करेगी अपने मन की बात? नील इतनी सहजता से बात कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं. दिया का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. रिसीवर क्रैडिल पर रख कर दिया सोफे पर बैठ गई. तभी नील का स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम फ्रेश हो जाओ, फिर कुछ खापी लेते हैं. तुम तैयार हो जाओ, इतनी देर में मैं सूप और सैंडविच तैयार कर लेता हूं.’’

दिया चुपचाप देखती रही. कहां क्या करना है उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उस से ऐसा बरताव हो रहा था मानो वह न जाने कब से वहीं रहती आई हो. चुपचाप उठ कर वह उस कोठरीनुमा कमरे में गई. वह कमरा जिस में नील ने उस का सामान सरका दिया था. ‘उस के यहां नौकरों के कमरे भी कितने खुले हुए हैं,’ उस ने सोचा और खिड़की से बाहर देखने लगी. आकाश में चिडि़या तक नहीं दिखाई दे रही थी. मरघट का सा सन्नाटा. वह भीतर ही भीतर कांप गई.

‘‘चलो, तुम्हें बाथरूम दिखा देता हूं,’’ कह कर नील सीढि़यों पर चढ़ गया.दिया भी पीछेपीछे ऊपर जा पहुंची और उस ने एक गैलरी के दोनों ओर बने 2 कमरोें पर दृष्टि डाली.

‘‘ये मौम का कमरा है,’’ फिर दूसरी ओर इशारा कर के नील बोला, ‘‘दिस इज माय रूम.’’

फिर बाईं ओर के दरवाजे की ओर इशारा कर के नील बोला,  ‘‘यह एक और बैडरूम है और यह बाथरूम…’’

दिया तो मानो मूकबधिर की भांति सबकुछ सुन रही थी और समझने की चेष्टा कर रही थी कि उसे नीचे के बैडरूम में क्यों उतारा गया. इसी ऊहापोह में दरवाजा खोल कर वह बाथरूम में जा पहुंची. बाथरूम खासा बड़ा था. गरम पानी से नहाने के बाद उस ने स्वयं को थोड़ा सा चुस्त महसूस किया. घर की खिड़कियां लगभग एक सी लंबीचौड़ी थीं. बाहर पेड़ों पर एक भी पत्ता नहीं दिखाई दे रहा था. मानो किसी ने पत्ते रहित पेड़ों की पेंटिंग कर के वातावरण में दृश्य उपस्थित कर दिया हो. पेड़ों की उस तसवीर से उस के मन में और भी सूनापन भर उठा.

‘‘दिया,’’ नीचे से नील की आवाज थी. अपने वातावरण से उबर कर वह जल्दी ही सीढि़यों से नीचे उतर गई.

‘‘बड़ी देर लग गई?’’ नील ने पूछा जिस का दिया ने कुछ उत्तर नहीं दिया.

‘‘आओ दिया, मम्मा तुम्हारा वेट कर रही हैं,’’ नील किचन की ओर बढ़ा. वहीं एक डाइनिंग टेबल थी और मां टेबल पर बैठी नाश्ता सामने रखे प्रतीक्षा कर रही थीं.

किचन काफी बड़ा था और जरूरत की सभी चीजें उस में सलीके से फिट थीं. नील ने सैंडविच बना लिए थे, जूस के पैकेट्स निकाल कर मेज पर रख लिए थे. इन के साथ ही और भी बहुतकुछ जैसे भारतीय मिठाइयां और समोसे, जिन्हें नील माइक्रोवेव में गरम कर लाया था.

‘‘यहां एक सरदारनी बहुत बढि़या समोसे बनाती है. मौम मंगवा कर रख लेती हैं. जब जी चाहा, गरम कर के खा लिए,’’ नील बोलता जा रहा था.

नील की मां ने प्लेटें लगा ली थीं.

‘‘लो दिया, ऐसे तो भूखी रह जाओगी. यहां तो सैल्फ सर्विस करनी होती है.’’

दिया ने चुपचाप प्लेट ले ली. नील ने उस के गिलास में जूस भर दिया था.सब लोग चुपचाप नाश्ता करने लगे थे.

‘‘मम्मीपापा, दादी, भाई लोग, सब अच्छे हैं न?’’ एक ही सांस में नील की मां ने दिया से पूछ डाला. दिया ने हां में सिर हिला दिया. वह इन लोगों को समझने की चेष्टा कर रही थी. खूंटे से बंधी हुई गाय सिर हिलाने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी?

‘‘तुम्हें तो यह घर बहुत छोटा लग रहा होगा? यहां तो सब काम भी अपनेआप करना पड़ता है. मैं तो टांगों के दर्द से कुछ खास नहीं कर पाती. नील को ही मेरी मदद करनी पड़ती है. अब तुम आ गई हो तो…तुम तो जानती हो, नील को बाहर काफी आनाजाना पड़ता है.’’ सास अपनी जबान कैंची की तरह चलाए जा रही थीं. सैंडविच उठा कर मुंह तक ले जाता हुआ दिया का हाथ बीच में ही रुक गया. उसे याद आया कि जब उस की सास उन के घर आई थीं तब उन्होंने बताया था कि नील काफी बाहर जाता है परंतु उस के साथ ही यह भी याद आया कि उन्होंने कहा था कि दिया नील के साथ खूब घूमेगी. उस का दिमाग तो पहले से ही भटक रहा था, अब वह पूरी तरह समझ गई थी कि वह यहां क्यों लाई गई है. इतनी सर्दी में भी उसे पसीना आने लगा. उस ने सैंडविच वापस प्लेट में रख कर अपने माथे पर हाथ फेरा.

‘‘अरे, खाओ न, दिया. तुम ने फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया है. ऐसे तो तुम्हें चक्कर आने लगेंगे.’’

आने क्या लेगेंगे, चक्कर तो आ रहे थे दिया को. उसे फिर उल्टी सी आने लगी और खूब तेजी से सिर घूमने लगा, आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा और वह दोनों हाथों में अपना माथा थाम कर डाइनिंग टेबल पर बैठ गई.

‘‘दिया क्या बात है? आर यू औलराइट?’’ नील अपनी कुरसी से उठ कर उस के पास आ गया था और कंधों से पकड़ कर उस का मुंह ऊपर उठाने की चेष्टा करने लगा.

‘‘बैठ जाओ नील, ठीक हो जाएगी. अभी तक कभी इतनी लंबी फ्लाइट में सफर नहीं किया होगा न, शायद सिर घूम रहा है. है न दिया बेटा?’’

दिया तो उत्तर देने की स्थिति में ही नहीं थी.

‘‘लो, दिया, थोड़ा जूस पी लो, यू विल फील बैटर.’’

नील ने दिया का मुंह ऊपर कर के उस के होंठों से गिलास लगा दिया था. दिया ने कुछ घूंट भरे और अपना मुंह गिलास से हटा लिया. उस के शरीर में मानो जान ही नहीं थी और न ही दिमाग में सोचने की शक्ति. नील इतनी सहजता से बातें कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. दोनों मांबेटे एक से बढ़ कर एक बेशर्म. उस के मन ने सोचा कि वह ऐसे तो इस घर में घुट कर रह जाएगी. उस के घर के हालात भी इस समय ऐसे थे कि वह मांपापा को कुछ भी बताना नहीं चाहती थी. अगर वह कुछ खाएगीपीएगी नहीं तो अपना युद्ध कैसे लड़ सकेगी? उस ने स्वयं को संभाला और सैंडविच उठा कर धीरेधीरे कुतरने लगी. नाश्ता हो चुका था. नील ने प्लेटें समेट कर, उन की जूठन एक प्लेट में रखी और उसे किचन से बाहर लौबी में रखे हुए डस्टबिन में फेंक आया और दिया से आराम करने के लिए कहा. दिया टूटे हुए कदमों से कमरे की ओर बढ़ने लगी तो नील व उस की मां पीछेपीछे कमरे में घुस आए. फिर वही घिचपिच सी. दिया को याद आया कि उसे उपहार निकाल कर अपनी सास और पति को देने हैं. उस ने अटैची से उपहारों का डब्बा निकाल कर सासू मां के हाथों में पकड़ा दिया.

डब्बा हाथों में लेते हुए सासूजी बोलीं,  ‘‘अरे इतनी जल्दी क्या थी, दिया. अब तो घर में ही हो, फिर दे देतीं,’’ कहतेकहते डब्बा खोल डाला और खोलते ही मानो बाछें खिल गईं. उन के हाथों में कीमती हीरों का सैट जगमगा रहा था. दिया ने उड़ती दृष्टि से मांबेटों के चेहरों के उतारचढ़ाव पर दृष्टिपात किया और उस का थमा हुआ खून फिर से खौलने लगा. वह स्वयं को संभालती हुई अटैची बंद करने लगी.

‘‘अरे, यह अलमारी बिलकुल खाली है. इस में लगाओ न कपड़े. बाद में नील अटैची को अलमारी के ऊपर चढ़ा देगा.’’

अब उस का विश्वास दृढ़ होने लगा कि उस को यही कमरा मिलेगा. लेकिन क्यों? इस क्यों का उत्तर उस के पास था नहीं और अभी उस में इतना साहस नहीं था कि वह अपनी जबान खोल कर इन लोगों से कुछ पूछ सके.

क्या वह अपनी मां की प्रतिलिपि बन कर जीवनभर जीएगी? परंतु मां का घर के बाहर तो अपना अस्तित्व था, एक ही कमरे में दोनों पतिपत्नी की साझेदारी थी. मां अपने बच्चों से भी अपने दुख बांट सकती थी. दिया किस से करेगी अपने बारे में बात? तभी उसे याद आया कि नील के उपहार तो अटैची में ही रह गए. उस ने झट से उपहार निकाल कर नील को दे दिए. नील के लिए हीरे के कफलिंग्स और प्लेटिनम की चेन में हीरे का जगमगाता पैंडल था. जिसे देख कर मांबेटों के मुख पर मानो विजयी भाव फैल गए. डब्बों को मां के हाथ में पकड़ाते हुए नील ने सपाट स्वर में दिया से कहा, ‘‘अगर अभी थकी हुई हो तो कपड़े बाद में अलमारी में लगा लेना. अभी अटैची नीचे रख देता हूं,’’ और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा के उस ने दिया की अटैची उठा कर पलंग के नीचे की ओर सरका दी थी.

‘‘चलो दिया, तुम आराम कर लो बेटा. कितना उतरा हुआ मुंह लग रहा है. नील, तुम भी आराम कर लो.’’

बिना इधरउधर देखे और दिया के चेहरे को बिना पढ़े ही नवविवाहिता पत्नी को छोड़ कर नील दुधमुंहे बछड़े की भांति मां के पीछे चल दिया. दिया किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई और वे दोनों फटाफट सीढि़यां चढ़ गए थे. दिया भय के मारे कंपकंपाने लगी थी. उस ने अपने सिर को दोनों हाथों में थाम लिया. उस की आंखों में से अश्रुधारा एक बार फिर ऐसी प्रवाहित होने लगी मानो कमरे में बाढ़ ही ले आएगी. इसी स्थिति में न जाने कब उस की आंखें बंद हो गईं.

‘‘उठो, दिया, देखो कितने बज गए,’’ यदि उस ने यह न सुना होता तो शायद वह उसी प्रकार बिस्तर में लिपटी हुई गुड़मुड़ी सी बन कर पड़ी रहती.

आवाज सुनते ही वह चौंकी, आंखें खोल कर इधरउधर देखा. सासूमां उसे जगाने के लिए आवाज लगा रही थीं. दिया का बदन टूट रहा था. बिस्तर से उठने का उस का जरा सा भी मन नहीं था परंतु उसे यह कटु सत्य याद आया कि वह अपने पिता के घर में नहीं बल्कि अपनी ससुराल में है और यहां उसे अपने मन से चलने का कोई अधिकार नहीं है. ‘क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं?’ उस का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. मूकदर्शक सी उस ने बदन से रजाई उतार कर पैरों को पलंग से नीचे लटकाया और स्लीपर पहन लिए. अचानक उस की दृष्टि दीवारघड़ी पर पड़ी. शाम के 5 बज गए थे. दाहिनी ओर मुंह घुमाया तो खिड़की के बाहर रात घिर आई थी. शाम के 5 बजे इतना अंधेरा? उस ने पूछना चाहा पर मुख से बाहर आते हुए प्रश्न को भीतर ढकेल दिया था.

‘‘भूख नहीं लगी? कुछ खाओगी नहीं?’’ सास मानो चाशनी में शब्दों को घोल कर बोल रही थीं.

‘‘नहीं,’’ उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया और पलंग पर ही बैठी रही. उसे ठंड लग रही थी और वह फिर से रजाई में दुबक जाना चाहती थी. दीवार से सटी हुई एक कुरसी पड़ी थी. सास उसी पर बैठ गईं. उन्होंने दिया का माथा और गला छुआ तो झट से हाथ हटा लिया.

‘‘तुम्हें बुखार हो गया है. नील, जरा फर्स्ट-ऐड बौक्स और एक गिलास पानी तो लाओ.’’ कुछ देर में नील दवाई, थर्मामीटर एक गिलास में पानी ले कर उपस्थित हो गया. सास ने उसे गोली दी तो बिना किसी नानुकर के दिया ने गोली ले कर गले के नीचे उतार ली थी. वह किसी से भी कुछ बात नहीं करना चाहती थी.

‘‘दिया को बुखार हो गया है. इसे रैस्ट की जरूरत है. चलो बेटा, बिस्तर में लेट जाओ और रात में एक और गोली ले लेना. सुबह तक फिट हो जाओगी.’’ वे कुरसी से उठ गईं और दवाई का पत्ता उस के पलंग पर रख दिया.

‘‘दिया, टेक केयर प्लीज. दिस इज न्यू एटमौसफियर फौर यू,’’ कहते हुए नील मां के पीछेपीछे खिंचता हुआ सा दिया की ओर देखे बिना कमरे से बाहर निकल गया.

ज़िंदगी -एक पहेली भाग:10

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अविरल के exam  की डेट आ चुकी थी .इस साल अविरल जी जान लगाकर मेहनत कर रहा था. तभी मौसी के बड़े लड़के कार्तिक की शादी रुड़की में तय हो गई. बहुत समय बाद घर में कोई फंक्शन हो रहा था तो सभी बहुत खुश थे. लेकिन अविरल को खुशी के साथ- साथ पढ़ाई की चिंता भी थी.

उसका शादी मे जाने का मन तो नहीं था पर कार्तिक के ज़ोर देने पर अविरल अपने मम्मी पापा के साथ दिल्ली पहुंचा. अविरल के सामने यह परिवार में पहली शादी थी तो अविरल ने भी शादी में खूब मस्ती की. शादी के 10-3 दिन बाद अविरल की भाभी(दीप्ति) ने अविरल से मज़ाक में पूंछा कि,” क्या तुम  किसी को चाहते हो ? तो अविरल ने कहा,” भाभी अभी मैं सिर्फ पढना चाहता हूँ.

अविरल की यह बात  दीप्ति को बहुत अच्छी लगी.कुछ ही दिनो बाद  अविरल अपने घर आ गया और फिर से पढ़ाई में लग गया.

अब अक्सर ही अविरल फोन पर  दीप्ति भाभी से बात करने लगा. अब अविरल दीप्ति से काफी खुल गया था. एक  दिन अचानक दीप्ति ने अविरल से कहा,”मेरी चाची की एक लड़की है.उसका नाम निधि है .वो बहुत प्यारी और सीधी है तुम कहो तो मैं उससे तुम्हारी बात कराऊँ .

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लेकिन अविरल ने मना कर दिया और बोला कि “भाभी मैंने उसे शादी में देखा है, वह मुझे पसंद नहीं है”. तभी दीप्ति ने कहा कि एक बार मेरे साथ हरिद्वार चलना और मिल लेना.

कुछ दिनों में अविरल के एक्जाम भी आ गए. इस बार अविरल बहुत कॉन्फिडेंट था. क्योंकि उसके सारे सब्जेक्ट तैयार थे.

इस बार अविरल के एग्जाम बहुत अच्छे गए. अविरल ने 110th के साथ इंजीनियरिंग entrance  का भी फॉर्म भरा था जिसका एग्जाम 104 अप्रैल को था. एंट्रेंस का सेंटर हरिद्वार पड़ा था.

अविरल को दीप्ति के घर रुकना था.उसके मन में एक अजीब सी बेचैनी थी.वो निधि से मिलना भी चाहता था और नहीं भी.

अविरल की हरिद्वार जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन 103 तारीख को अविरल को पता चला की एग्जाम की डेट टल  गयी है . अब एग्जाम 14th मई को है.

अविरल ने दीप्ति भाभी को यह बात बताई तो उन्होंने बताया कि उनके घर के सभी लोग तो गांव जाएंगे क्योंकि गांव में पूजा है लेकिन वह लोग 13th मई को आ जाएंगे. तो तुम 13 मई को ही पहुंचना.

अप्रैल 13 मई को दीप्ति के घर हरिद्वार पहुंचा. उसी दिन दीप्ति के घर के भी सभी लोग गांव से हरिद्वार आए थे. निधि का परिवार भी दीप्ति के घर आया हुआ था.पर निधि को अविरल के आने का कुछ भी पता नहीं था.

अविरल की नजर निधि  पर पड़ी जिसकी बात दीप्ति ने पहले उससे की थी .

दीप्ति की छोटी बहन रेनु अविरल से खूब बात कर रही थी लेकिन निधि कुछ नहीं बोल रही थी. थोड़ी देर में अंदर जाकर रेनु  ने निधि से कहा ,”तुम अविरल से बात क्यों नहीं करती हो ,यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता है.

तब निधि  आकर अविरल से कुछ बात करने लगी . तो अविरल ने पूछ लिया कि तुम मुझसे किस रिश्ते से बात कर रही हो. तो निधि ने कहा कि “भाई के रिश्ते से”. अविरल ने तुरंत बोला मैं किसी को बहन नहीं बनाता.

निधि को बहुत बुरा लगा. वह कुछ नहीं बोली तब अविरल ने कहा कि “रिश्ते के हिसाब से तो मैं तुम्हारा जीजा लगता हूं लेकिन क्योंकि हम एक ही उम्र के हैं तो हम दोस्त बन सकते हैं”.

इस पर निधि ने कहा ,”मैं किसी को इतनी जल्दी दोस्त नहीं बनाती और अंदर चली गई”. उसने अंदर जाकर सारी बात रेनु को बताई तो रेनु ने उसे समझाया की अविरल ने ऐसे ही बोल दिया होगा.

इस साल निधि का भी 110th का एग्जाम था. तो अविरल और निधि में रिजल्ट की बातें होने लगी. अविरल ने कहा मोर देन 90 परसेंट तो आएंगे ही. इस पर निधि को लगा अविरल ओवर कॉन्फिडेंट है. अब दोनों में थोड़ी बहुत बातें होने लगी थी. अविरल को निधि की कुछ हरकतें बहुत अच्छी लगी. अविरल को निधि की सादगी, सीधेपन से मोहब्बत हो गई थी.

अविरल ने यह बात जाकर रेनु  को बताई.  रेनु  ने बोला ,” उससे अभी कुछ मत कहना. वह हर बात अपनी मम्मी को बताती है और उसकी मम्मी तभी तैयार होंगे जब तुम कुछ बन जाओगे.

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अविरल ने रेनु से  वादा किया कि जब तक मैं इंजीनियरिंग एंटरेंस क्वालीफाई नहीं कर लेता तब तक मई अपने दिल की बात निधि से नहीं करूंगा. लेकिन उसने रेनु से बोला कि “निधि  को हिंट जरूर कर देना क्योंकि ऐसा ना हो कि जब मैं उससे अपने दिल की बात  करूं तो उसका जवाब हो की ‘अविरल तुमने देर कर दी, मैं किसी और से प्यार करती हूं’ “. इसके बाद अविरल एक्जाम देकर वापस देहारादून चला गया.अविरल को मोहब्बत हो चुकी थी.उसके कोरे दिल पर निधि का नाम लिख चुका था.

आगे जानेंगे की क्या निधि भी अविरल को पसंद करेगी या फिर से एक बार अविरल बिलकुल अकेला हो जाएगा?

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-5

अब तक की कथा :

नील ने दिया को पसंद कर लिया था. दिया को भी नील अच्छा ही लगा था. दादी कन्यादान करने के बाद मोक्षप्राप्ति के परमसुख की कल्पना से बहुत प्रसन्न थीं. दिया की मां कामिनी शिक्षित तथा सुलझे हुए विचारों की होने के बावजूद दिया के पत्रकार बनने के सपने को बिखरते हुए देखती रह गईं. विवाह के पश्चात नील जल्दी ही लंदन लौट गया और दिया अनछुई कली, मंगलसूत्र गले में लटकाए ‘कन्यादान’ के अर्थ को समझने की नाकाम कोशिश में उलझी रह गई.

अब आगे…

उन दिनों दिया का दिमाग न जाने किन बातों में घूमता रहता. इस बीच एक और घटना घटित हो गई जिस ने दिया को भीतर तक हिला कर रख दिया. दिया की एक सहेली थी-प्राची. दिया की सभी सहेलियां लगभग हमउम्र थीं परंतु प्राची 3 वर्ष बड़ी थी दिया से. पढ़ने में बहुत तेज थी वह, लेकिन बचपन में कोई बड़ी बीमारी हो जाने के कारण उस के 3 वर्ष खराब हो गए थे. पिता की मृत्यु हो गई, मां काम करती थीं परंतु 3 बच्चों का पालनपोषण करने में ही उन की आर्थिक स्थिति डांवांडोल हो गई थी.

मध्यवर्गीय यह परिवार अपनों द्वारा ही सताया गया था. प्राची व उस की बहनें जब छोटी थीं तब ही उस के पिता किसी दुर्घटना में चल बसे. बड़े ताऊजी ने उन के हिस्से का व्यवसाय ऐसे हड़प लिया मानो वे अपने भाई के जाने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी प्राची बीमार पड़ी और सही इलाज न होने के कारण एक लंबे समय तक बीमारी का शिकार बनी रही. मां ने जवानी में पति खो दिया था, सो उन्हें 3 बच्चों का पालन करने के लिए नौकरी करनी पड़ी. प्राची घर में सब से बड़ी थी, उस के पीछे उस की 2 छोटी बहनें थीं. घरगृहस्थी की परेशानियों से जूझतेजूझते मां को बस अपनी बेटियों की चिंता बनी रहती. उन का सोचना था कि उन्होंने जिंदगी में सभी सगेसंबंधियों को अच्छी तरह परख लिया है. अब उन का स्वास्थ्य भी डांवांडोल ही रहता, सो उन को अपनी बेटियों के विवाह की चिंता सताती. प्राची की मां दिया के घर भी आयाजाया करती थीं. वे दिया की मां व दादी के पास बैठ कर अपने मन का बोझ हलका करतीं और बच्चियां दिया के साथ खेलतीं, गपशप मारतीं.

प्राची की मां की परेशानी से दिया के घर के सभी लोग वाकिफ थे. इसलिए  दादीजी ने अपने चहेते पंडितजी के कान में प्राची के लिए रिश्ता ढूंढ़ने की बात डाल रखी थी. पंडितजी प्राची के घर की स्थिति से वाकिफ थे. एक दिन पंडितजी एक रिश्ता ले कर आए थे. लड़के वाले भी साथ थे. लड़का व घर ठीकठाक ही था. प्राची की मां ने थोड़ीबहुत तैयारी तो कर ही रखी थी. प्राची ने कितने हाथपैर जोड़ कर मां को मनाना चाहा कि वे शादीवादी का चक्कर छोड़ेंऔर उसे नौकरी कर के हाथ बंटाने दें. परंतु मां अपना ढीला स्वास्थ्य देख कर बेटी की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं हुईं.

खूबसूरत प्राची को देख कर लड़के वालों ने तुरंत हां कर दी. सब बातें साफ होने पर सगाई हो गई और तय हुआ कि सीधेसादे ढंग से विवाह संपन्न हो जाएगा. परंतु सगाई और विवाह के बीच स्थितियों में इतना बदलाव आया कि प्राची की मां ठगी रह गईं. सगाई और विवाह के बीच 4-5 माह का समय था. इस बीच न जाने पंडितजी ने लड़के वालों से मिल कर कितनी पूजा और अनुष्ठान करवा डाले कि प्राची की मां तो इसी सब में खाली होने लगीं. जब उन्होंने यह बात पंडितजी और लड़के वालों के समक्ष रखी तो पंडितजी ने कहा, ‘‘बहनजी, प्राची के ग्रह इस कदर भारी हैं कि ये सब अनुष्ठान और ग्रहपूजा आदि जरूरी हैं…’’

‘‘तो आप ने पहले क्यों नहीं ये सब देखा? अब जब हम लोग बीच भंवर में खड़े हैं तब…’’ हिचकिचाते हुए उन्होंने पंडितजी से पूछा.

‘‘आप ने तो जन्मपत्री दी नहीं थी. लड़के वालों ने भी उस समय मुझ से कुछ कहा नहीं पर सगाई के बाद जब लड़के के पिता को महीने में 4 बार बुखार आया तो उन का शक तो स्वाभाविक था न? उन्होंने मुझे ग्रह देखने को कहा. मैं ने… फिर आप को याद होगा, आप से जन्मपत्री मांगी. आप के पास मिली नहीं तो मैं ने आप से जन्म की तिथि और समय पूछ कर प्राची की जन्मपत्री बनवा कर मिलाई. तब पता चला उस के ग्रहों के बारे में. आप ही बताइए, कैसे कोई दूध में पड़ी मक्खी निगल ले?’’ पंडितजी ने अपने व्याख्यान से प्राची की मां को ही कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया.

प्राची की मां को बहुत सदमा पहुंचा. इधर तो पूजा के नाम पर पंडित उन से पैसे ऐंठने आ पहुंचता, उधर वह लड़का प्राची से मिलने हर दूसरेतीसरे दिन घर में आ धमकता. इस मामले में लड़कियां बड़ी संवेदनशील होती हैं. एक बार प्राची का मन उस लड़के की ओर आकर्षित हुआ तो वह उस की ओर झुकती चली गई. मां ने इस डर से पूरी बात प्राची को खोल कर नहीं बताई कि प्राची कहीं रिश्ते से ही मना न कर दे. वैसे भी यदि किसी की सगाई टूटती है तो समाज के ठेकेदार ढेरों सवाल ले कर सामने आ खड़े हो जाते हैं.

फिर भी, एक दिन उस ने पंडितजी से पूछ ही लिया, ‘‘पंडितजी, अगर परेशानी लड़के वालों को है तो वे कराएं न उस का इलाज, वे खर्च करें पैसा. मुझ पर क्यों बोझ डाल रहे हैं आप?’’

‘‘बहनजी, कमी तो अपनी बेटी में है. है कि नहीं? फिर हमें अपनी बेटी की खुशी के लिए कुछ करना होगा कि नहीं? सारी जिंदगी वहीं काटनी है उसे. बेकार के तानेमलाने न सुनने पड़ें उसे.’’

जब प्राची की मां ने ये सब बातें जा कर दिया की दादी को बताईं तो वे पंडित की बलैयां ही लेने लगीं, ‘‘कितना अच्छा पंडित है, प्राची को दूसरे घर जा कर कोई परेशानी न उठानी पड़े, इसलिए सारे उपाय कर रहा है. और कोई होता तो छोड़ देता. भई, आप जानो आप का काम जाने.’’

प्राची की मां ने अपना सिर पीट लिया. क्या करें अब वे? कामिनी ने भी यह सब सुना था और वे असहज हो गई थीं.

कामिनी उस की चिंता से स्वयं परेशान हो रही थीं.

दिया भी अपनी मां की भांति ही बेचैनी के झूले में झूल रही थी. बड़ी शिद्दत से दिया सोच रही थी कि पंडितजी की ऐसी की तैसी कर डाले. उस का युवा मन यह बात मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था कि इस कठिन परिस्थिति में प्राची की मां को इस प्रकार के अंधविश्वासों पर बेकार का खर्चा करना पड़े.

परंतु फिर वही हुआ जो होना था. कौन कुछ कर पाया? सामाजिक रीतिरिवाजों व परंपराओं में घिर कर प्राची की मां बिलकुल खाली हो गई थीं. उन्हें अपने इकलौते मकान को गिरवी रख कर प्राची के विवाह की व्यवस्था करनी पड़ी थी. दिया को जब इस का पता चला तब उस ने दादी से पूछा था, ‘‘दादीजी, पहली बात तो यह जो मेरे गले नहीं उतरती कि पंडितजी ने जो खर्च करवाया वह ठीक है. दूसरी, जब लड़के वालों को यह मालूम था कि प्राची की मम्मी बिलकुल अकेली व असहाय हैं और जब प्राची उन के घर की बहू बनने जा रही थी तो क्या उन का रिश्ता नहीं था प्राची के घर से? उन्हें पंडितजी से पता भी चल गया था कि प्राची की मां अपना घर गिरवी रख रही हैं तब भी वे लोग इन की कोई सहायता करने नहीं आए?’’

दादी मानो बड़ी बेबसी में बोली थीं, ‘‘क्या करें बेटा? बेटी को क्या घर में बिठा लेगी उस की मां? आगे और 2 बेटियां नहीं हैं क्या?’’

‘‘तो आप को तो सबकुछ मालूम था, आप ने उन को ऐसा रिश्ता क्यों बताया? ऊपर से पंडितजी के कर्मकांड. आप जानती हैं कितनी टूट गई हैं उस की मम्मी?’’

दिया को दादी पर क्रोध आ रहा था. ऐसे भी क्या कर्मकांड हैं कि एक विधवा स्त्री का जीवन ही कठिनाइयों के भंवर में फंसा दें. कर्मकांड जीवन को सही दिशा देने के लिए, जीवन को सुधारने के लिए होते हैं या बरबाद करने के लिए?

अगर प्राची की दोनों और बहनों को भी ऐसे ही घर मिल गए तो एक तो बेटियों की मां उस पर ये बेकार के दिखावे, क्या होगा उस की मां का? बेचारी बेमौत मर जाएगी. आखिर हम इस प्रकार के प्रपंच कर के दिखाते किस को हैं? समाज को? कौन से समाज को? जो कभी किसी की परेशानी या कमजोरी के समय में काम नहीं आता बल्कि खिल्ली उड़ाने में ही लगा रहता है? समाज तो हम से ही बनता है न? फिर हम क्यों समाज में परिवर्तन नहीं ला सकते? क्यों पुरानी लकीरों को ही पीटते रहते हैं?

दिया के मन में इस प्रकार के सैकड़ों सवाल उभरते रहते जिन का हल फिलहाल तो उसे सूझ नहीं रहा था. हां, उस के मन में कहीं कोई कठोर सी भावना पक्की होती जा रही थी कि उसे कैसे न कैसे इस सामाजिक व्यवस्था या फिर ओढ़ी हुई परंपराओं के आड़े आना है. अनमनी सी दिया घरभर में बेकार ही चक्कर लगाती हुई घूमती रहती. विवाह के बाद लड़कियों के पहननेओढ़ने, सजनेसंवर के चाव स्वत: ही बढ़ जाते हैं परंतु यहां उलटा ही हो रहा था. जिस पति के साथ वह एक रात भी नहीं रह पाई उसी के नाम का सिंदूर मांग में भर कर वह सब को दिखाती फिरे. यह क्या बात हुई. हां, यह सच है कि वह नील के प्रति आकर्षित हो गई थी परंतु आकर्षण मात्र से तो मन नहीं भर जाता.

एक और नई बात पता चली थी कि वास्तव में कम समय का तो बहाना बनाया गया था वरना यदि नील चाहता तो और भी एक सप्ताह उस के साथ बिता सकता था. यह बात स्वयं नील के मुंह से ही फोन पर सुन ली थी दिया ने. नील प्रतिदिन दिया को फोन करता था. लंदन पहुंचने के कुछ दिन बाद जब उस की नील से फोन पर बात हुई तब नील के मुंह से निकल गया कि वह 4 दिन बाद औफिस जौइन करेगा. तब दिया चौंकी थी, ‘नील, आप अभी तक घर पर ही हैं, फिर यहां से जल्दी क्यों चले गए थे?’ तब तक नील को लंदन वापस लौटे 25 दिन हो गए थे.

‘अरे, वो…मुझे वैसे तो जौइन तभी करना था, दिया, पर मेरे पैर में चोट लग गई थी तो हफ्तेभर की छुट्टी लेनी पड़ी मुझे,’ नील इतना हड़बड़ा कर बोले थे कि दिया का दिमाग ठनक गया था. कहीं न कहीं गड़बड़ तो जरूर है. बहाना भी नील ने पैर की चोट का बनाया. अगर नील को चोट लगी भी थी तो क्या इस घर में किसी को पता नहीं चलता? आखिर माजरा क्या है? फोन पर तो वह नील से ठीकठाक बात करती रही परंतु बात खत्म होते ही वह मां के पास जा पहुंची और बोली, ‘‘मम्मी, मुझे एक बात सचसच बताइए,’’ दिया ने कुछ ऐसे अंदाज में पूछा कि कामिनी भी असहज सी हो उठीं.

‘‘क्या बात है, बेटा? इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मम्मी, ये सब क्या है? क्या आप जानती हैं कि नील के पैर में चोट लगी है और उन्होंने अभी औफिस जौइन नहीं किया?’’

‘‘अरे, कैसे, कब?’’ कामिनी चौंकीं.

‘‘मैं कैसे बता सकती हूं, कैसे, कब?’’ दिया क्रोध व बेबसी से भर उठी.

अब तो कामिनी को भी यही महसूस होने लगा कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है वरना यहां से इतनी जल्दबाजी कर के जाने वाले नील ने लंदन जा कर अभी तक औफिस जाना क्यों शुरू नहीं किया और पैर में कब चोट लग गई? नील की मां से तो दिया की दादी की लगभग हर रोज बात होती ही रहती है.

कामिनी सास के पास पहुंचीं तो, परंतु बात कैसे शुरू करें? कुछ समझ नहीं पा रही थीं.

‘‘क्या बात है, कामिनी बहू? कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘जी, मैं नील के बारे में पूछना चाहती हूं,’’ उस ने हिम्मत कर के सास के सामने मुंह खोल ही दिया.

‘‘नील के बारे में? क्या पूछना चाहती हो? दिया के पास फोन तो आते ही होंगे नील के?’’

‘‘जी, कभीकभी आते तो हैं. नील के पैर में चोट लग गई है और हमें किसी ने कुछ बताया भी नहीं. दिया काफी परेशान हो रही है.’’

‘‘पैर में चोट लग गई है? हमें नहीं मालूम. अरे, कल ही तो बात हुई है हमारी नील की मम्मी से…’’

‘‘आप को नहीं लगता यह बात कुछ अजीब सी है,’’ कामिनी से रहा नहीं गया.

‘‘हां, पर हो सकता है उन्होंने इसलिए कुछ न बताया हो कि हम लोग बेकार में ही चिंता करेंगे,’’ उन्होंने कह तो दिया पर भीतर से वे भी असहज सी हो उठी थीं.

‘‘नहीं, मां, उन का तरीका ठीक नहीं है. आप ही सोचिए, पहले जल्दबाजी कर के ब्याह करवाया फिर जल्दबाजी कर के वापस भी चले गए. अभी तक दिया को ले जाने की कोई कार्यवाही कर रहे हैं वे लोग, मुझे तो नहीं लगता, तब तो जल्दी पड़ी थी. अब बच्ची बिलकुल गुमसुम होती जा रही है,’’ कामिनी की आंखें भर आई थीं.

दादी के मुख पर भी चिंता की लकीरें पसर गईं. यह बात ठीक है कि उन के खुद के पंडितजी ने भी उन्हें यही सलाह दी थी कि दिया को अभी न भेजें. मुहूर्त में कुछ गड़बड़ है.

पंडितजी ने चुपके से उन से कह दिया था कि अभी दिया को ससुराल भेजने का उचित समय नहीं है और वे मान गईं. बहाना तो था ही कि नील को जल्दी पहुंचना है अपने औफिस और वहां जा कर वह जल्दी ही दिया को अपने पास बुलाने की कार्यवाही शुरू कर देगा.

 

#lockdown: मेरे सामने वाली खिड़की पे (भाग-3)

“लगता है बारिश होगी. हवाएँ भी कितनी ठंडी-ठंडी चल रही है” कह कर रचना उस रोज, जब दोनों एक ही छत पर साथ बैठे हुए थे,अपने आप में ही सिकुड़ने लगी, तभी अमन ने उसे अपनी बाहों मे भर लिया और दोनों वहीं जमीन पर बैठ गए. कुछ देर तक दोनों एक-दूसरे कीआँखों में ऐसे डुबे रहे, जैसे उनके आसपास कोई हो ही न.शिखर हौले-हौले रचना के बालों में  उँगलियाँ फिराने लगा और वह मदहोश उसके बाहों सिकुड़ती चली गई. “अभी तो लोगों को डिस्टेन्स बनाकर कर चलने के लिए कहा जा रहा है और हम यहाँ एक साथ बैठे प्यार-मुहब्बत कर रहे हैं। अगर किसी ने देख लिया हमारा कोरोना प्यार तो?” हँसते हुए रचना बोली.

“हाँ, सही है यार……. किसी ने देख लिया तो ?पता है, पुलिस लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर डंडे बरसा रही है” कह कर शिखर हंसा तो रचना भी हंस पड़ी. “वैसे,क्यों न हम अपने प्यार का नाम ‘ कोरोना लव” रख दें. कैसा रहेगा ?”

तभी अचानक से शरीर पर पानी की बुँदे पड़ते देख दोनों चौंक पड़े. “ब बारिश, बारिश हो रही है शिखर ! ओ….. माँ, इस मार्च के महीने में बारिश ?’ बोलकर रचना एक बच्ची की तरह चिहुक उठी और अपनी हथेलियाँ फैलाकर गोल-गोल घूमने लगी. मज़ा आ रहा था उसे बारिश में भीगने में. लेकिन तबीयत बिगड़ने के डर से दोनों वापस में घर आ गए, क्योंकि यह बेमौसम की बारिश थी और वैसे, भी, अभी कोरोना वायरस फैला हुआ है, तो बारिश मे भिंगना ठीक नहीं.लेकिन दोनों की बातें अभी खत्म नहीं हुई थी. सो वे अपनी-अपनी खिड़की से ही इशारों मे बातें करने लगे.

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‘आँखों की गुस्ताखियाँ माफ हो………एकटक तुम्हें देखती है………….जो बात कहना चाहे जुंवा………..तुमसे वो कहती है’एक कागज पर ढेरों तारीफ लिखकर शिखर ने रचना की तरफ अभी फेंका ही था कि अमन आ गया और उनकाकलेजा धक्क कर गया.  खैर,  वह उस कागज के गोले को देख नहीं पाया, क्योंकि रचना ने झट से उसे अपने पैर के नीचे दबा दिया और जब अमन वहाँ से चला गया, तब वह उसे खोलकर पढ़ने लगी. अपनी तारीफ़ें पढ़कर रचना का गाल शर्म से लाल हो गया. जब उसने अपनी नजरें उठकर शिखर की तरफ देखा,तो उसने एक प्यारा सा  ‘फ्लाइंग किस’रचना को भेजा.बदले में रचना ने भी भी उसे फ्लाइंग किस भेजा और दोनों मोबाइल पर चैटिंग करने लगे. जहां कोरोना के डर से लोग हदसे हुए हैं. सड़के-गलियाँ सुनसान-वीरान पड़ी है. वहीं रचना और शिखर को अपनी ज़िंदगी पहले से भी हसीन लगने लगी है. उसे वीरान पड़ी दुनिया रंगीन नजर आ रही है.  साँय-साँय करती हवा, प्यार की धुन लग रही है. अपनी ज़िंदगी में यह नया बदलाव दोनों को भाने लगा है. लेकिन यही बातें अमन और शिखर की पत्नी को जरा भी नहीं भा रहा है. उन्हें खुश देख वह जल-भून रहे हैं.  लेकिन रचना और शिखर को इस बात की कोई परवाह नहीं है.

अमन और रचना ने लव-मैरेज किया था .  परिवार के खिलाफ जाकर दोनों ने शादी की थी. वैसे, फिर बाद में सबने उनके रिश्ते को स्वीकार कर लिया. लेकिन अब वही अमन में वह बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी.रचना तो आज भी अमन को प्यार करती है, पर ताली तो दोनों हाथों से बजती है न ? अमन हमेशा उसे झिड़कते रहता है. उसकी कमियाँ निकालते रहता है, जैसे उसमें कोई अक्ल ही न हो. तो वह भी कब तक उसे बर्दाश्त करे भला ? सो निकल जाता है उसके भी मुझ से उल्टा-पुल्टा बात और इसी बात पर दोनों में लड़ाइयाँ शुरू हो जाती.शादी से पहले रचना को नहीं पता था कि अमन इतना शुष्क इंसान होगा.एक पत्नी अपने पति से क्या चाहती है ? प्यार के दो बोल ही न? झूठी ही सही, पर क्या वह रचना की तारीफ नहीं कर सकता जैसे पहले किया करता था ? ये बात तो विश्व प्रचलित है की तारीफ सुनना ब्रह्मांड की सभी स्त्रियॉं को पसंद है, तो अगर रचना ने ऐसा चाह लिया, तो क्या गलत हो गया?

रिश्ते के शुरुआती दिनों में हर वक़्त अमन  रचना की तारीफ किया करता था. जताता था कि वह बेहद खूबसूरत है, प्यारी है और वही उसके सपनों की रानी है. कहता अमन,‘ रचना, तुम्हारी आँखें बहुत खूबसूरत है.  तुम्हारे घने बालों में घिरे रहना चाहता हूँ हरदम.  उसकी बातों पर रचना इठला पड़ती. अच्छा लगता था उसे अपनी तारीफ़ें सुनना. लेकिन यही सब बातें अब अमन को बकवास लगने लगी है.  लेकिन वहीं जब कोई और रचना की खूबसूरती की तारीफ़ें करता है तो कैसे वह जल-भून जाता है और रचना से लड़ाई करने लगता है. जैसे रचना ने ही उसे उकसाया हो अपनी तारीफ़ें करने को.‘और क्यों न करें कोई उसकी तारीफ, जब सामने वाला इस काबिल हो तो’ रचना की इस बात पर वह और तिलमिला जाता है और पूरी रात उससे झगड़ता रहता है.शिखर, कहता है,‘ रचना अपनी उज्जवल मुस्कान से कैसे उसके दिन बना देती हैं.  और अमन कहता है, वह अपनी बातों से उसका दिन खराब कर देती है, इसलिए वह जानबूझकर ऑफिस से घर देर से आता है. लेकिन क्या वह जानती नहीं कि वह ऑफिस से घर देर से क्यों आता है ? क्योंकि वहाँ वह किंजल मैडम जो हैं उनकी, जिसके साथ वह उठता-बैठता, बोलता-हंसता, खाता-पीता हैं. घर आकर भी वह उससे ही बातें करता रहता है फोन पर. जैसे घर में कोई हो ही न. फिर शादी ही क्यों की उसने ? कर लेता उसी किंजल से.  क्या जरूरत थी रचना की ज़िंदगी बर्बाद करने की ? वह भी बेचारी किससे बात करे ? कोई है क्या यहाँ अपना ?  इस कोरोना की वजह से तो किसी दोस्त के घर भी नहीं जा सकती वह, फिर क्या करे, पागल हो जाए ? लेकिन अमन को यह बात समझ ही नहीं आती.  लगें रहते हैं अपने दोस्तों से बातें करने में. नहीं सोचते है कि रचना अकेला महसूस करती होगी.  तो ठीक है न,अब मिल गया है उसे भी एक नया दोस्त.  खुश है वह अब अपने नए दोस्त के साथ.   कोई परवाह नहीं उसे भी,की वह उसे वक़्त दे, की न दे.

शिखर भी अपनी बड़बोली पत्नी से परेशान रहता है. दिन भर बकर-बकर करती रहती है, कुछ बोलो तो लड़ने लग जाती है. शिखर के माँ-बाप ने पैसो की लालच में उसकी शादी एक ऐसी लड़की से कर दी, जो कहीं से भी उसके लायक नहीं है. लेकिन क्या करें, निभाना तो है. यह सोचकर शिखर चुप रह जाता है. लेकिन जब से रचना उसकी ज़िंदगी में आई है, उसे अपनी ज़िंदगी से प्यार होने लगा है.इधर से रचना को हमेशा खुश और हँसते-मुसकुराते देख अमन चिढ़ने लगा है और उधर शिखर को गुनगुनाते देख उसकी पत्नी ‘चुचु-चीची करती रहती है,लेकिन कोई परवाह नहीं उन्हें किसी के चिढ़ने-रूठने से.

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अमन को ऑफिस भेजकर जैसे ही रचना ऑफिस जाने के लिए घर से निकली, शिखर ने अपनी गाड़ी उसके सामने रोक दिया और खींच कर उसे अंदर बैठा लिया. हक्की-बक्की सी रचना उसे देखती रहा गई. वह अभी कुछ बोलती ही कि शिखर ने उसके होठों पर अपनी उंगली रख दी और गाना लगा दिया.‘बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूँ………बैठ मेरे पास………..न तू कुछ कहे न मैं कुछ कहूँ…….. बैठ मेरे पास’  अचानक से माहौल एकदम रोमांटिक हो गया.  दोनों को लगने लगा,वक़्त यही ठहर जाए, आगे बढ़े ही न.  दोनों एकदूसरे की आँखों में झाँक रहे थे.  वह मंजर किसी फिल्म का भले लग रहा हो पर दोनों इस तजुर्बे से गुजर रहे थे.  उनकी नजरें चार हो रही थी और आसपास के माहौल धुंधले.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-23

अब तक की कथा 

भविष्य के तानोंबानों में लिपटी दिया अपने घर पहुंच गई थी, जहां अनेक अनसुलझे प्रश्न उस के समक्ष मुंहबाए खड़े थे. दादी अतिउत्साहित थीं परंतु दिया किसी से भी बात नहीं करना चाहती थी. वह सीधे अपने कमरे में आराम करने चली गई थी.

अब आगे…

‘अरे, ऐसी भी क्या नींद हो गई, लड़की सीधे मुंह बात भी नहीं कर रही है,’ स्वभावानुसार दादी ने बड़बड़ करनी शुरू कर दी थी.कामिनी 3 बार दिया के कमरे में  झांक आई थी. हर बार दिया उसे गहरी नींद में सोती हुई दिखाई दी. चाय के समय उस से रहा नहीं गया. सुबह से बच्ची ने कुछ भी नहीं खाया था. आखिर दिया को नीचे उतरते देख दीप चहका, ‘‘क्या महारानी, जल्दी आओ न, कितना इंतजार करवाओगी?’’ दीप वातावरण को सहज करना चाहता था. आखिर कहीं न कहीं से, किसी को तो बात शुरू करनी ही होगी. दिया चुपचाप टेबल पर बैठ गई.

‘‘महाराज, फटाफट चाय लगाइए. देख दिया, कैसे करारे गरमागरम समोसे उतारे हैं महाराज ने,’’ दीप ने गरम समोसा हाथ में उठाया फिर एकदम प्लेट में छोड़ कर अपनी उंगलियों पर जोकर की तरह फूफू करने लगा. दिया के चेहरे पर भाई की हरकत देख कर पहली बार मुसकराहट उभरी. आदत के अनुसार, दीप की बकबक शुरू हो गई और दिया की मुसकराहट गहरी होती गई. भरे दिल और नम आंखों से उस ने सोचा, ‘यह है मेरा घर.’

‘‘सुबह मंगवाई थी रसमलाई तेरे लिए. अभी तक किसी ने छुई भी नहीं…दीनू, निकाल के तो ला फ्रिज से,’’ दादी के प्यार का तरीका यही था.

‘‘अब बता कैसी है तेरी ससुराल? और हां, फोन खराब है क्या? कई दिनों से कोई फोन ही नहीं उठा रहा था. कहीं घूमनेवूमने निकल गए थे क्या सब के सब? तेरी सास और नील तो ठीक हैं न? अभी तो रहेगी न? और हां, तेरा सामान कहां है?’’

दादी ने एक बड़े से बाउल में दिया के सामने 5-7 रसमलाई रख दीं और दिया को उस ओर देखने का समय दिए बिना ही अपनी प्रश्नोंभरी बंदूक उस की ओर तान दी.

‘‘मां, पहले उस के पेट में कुछ जाने दें. सुबह से कुछ भी नहीं खाया उस ने,’’ यश ने बिटिया पर दृष्टि गड़ा रखी थी.

‘‘ले, इतना कुछ सामने है, खाती जा बात करती जा. लड़की बात ही नहीं बता रही अपनी ससुराल की.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्या बताऊं?’’ दिया बोली, ‘‘जब आप ने मेरे ग्रहों को मिलवाने और उन को ठीक करवाने में इतनी मशक्कत की है तो सब बढि़या ही होगा न? फिर जानना क्या चाहती हैं आप?’’ दिया गुस्से में बोल उठी थी.

‘‘अरे, देखो तो, लड़की है या…’’

दादी अपना वाक्य पूरा कर पातीं इस से पहले ही दीनू तेजी से अंदर आया, ‘‘साब, गहलौत साब आए हैं. मेमसाब भी हैं. पुलिस की गाड़ी वाले…’’

‘‘क्या? डीआईजी गहलौत?’’ स्वदीप ने दोहराया और उठ कर बाहर की ओर चल दिया.

डीआईजी गहलौत शर्मा परिवार से अच्छी प्रकार परिचित थे. कुछ ही क्षणों में गहलौत साहब और उन की पत्नी बरामदे में पहुंच गए थे. अभिवादन के बाद दीनू को ड्राइंगरूम खोलने का आदेश मिला. ‘‘अरे नहीं, गहलौत साहब यहीं बैठेंगे,’’ उन्होंने एक कुरसी सरका ली और पत्नी को भी बैठने का इशारा किया.

‘‘हैलो दिया, कैसी हो बेटी?’’

‘‘जी, ठीक हूं अंकल, थैंक्स,’’ दिया ने गहलौत अंकल का अभिवादन किया.

गहलौत साहब इधरउधर की बातें करने लगे. कामिनी को उन का इस समय आना बहुत अजीब लग रहा था. शायद किसी काम से आए हों परंतु…

‘‘आज इधर की तरफ कैसे गहलौत साहब?’’ यशेंदु भी उन के आने के बारे में हिसाबकिताब लगा रहे थे.

गहलौत साहब ने बड़ी स्पष्टता से अपनी बात कह दी फिर दिया की ओर उन्मुख हो गए, ‘‘तुम बताओ, तुम कैसी हो, बेटा? कब पहुंचीं? टाइम पर पहुंच गई थी फ्लाइट? इस समय हम तुम से ही मिलने आए हैं,’’ उन्होंने भी कई सारे प्रश्न एकसाथ ही दिया के समक्ष परोस दिए.

दिया कुछ भी उत्तर नहीं दे पाई. हां, घर के सभी सदस्यों के मन में गहलौत साहब ने और कुतूहल पैदा कर दिया.‘‘आप की बेटी बड़ी हिम्मती है, यशजी. इंगलैंड के भारतीय दूतावास में इतनी प्रशंसा की जा रही है कि बस…मैं जानता हूं आप सब लोग कुतूहल से भर गए हैं कि मैं यह सब…दरअसल, वहीं से हमारे डिपार्टमैंट में खबर आई है. बात मेरे पास आई तो मैं ने कहा कि भई, वह तो हमारी ही बेटी है. हम उस से मिलने जाएंगे. मिसेज गहलौत भी बिटिया से मिलना चाहती थीं. बस…’’ गहलौत साहब की गोलगोल बात अब भी सब के सिर पर से हो कर गुजर रही थी. खूब बोलने वाले व्यक्ति थे गहलौत साहब, साथ ही स्पष्ट भी परंतु इस समय तो वे बिलकुल उल झे हुए लग रहे थे, उन की बातें एकदम अस्पष्ट.

‘‘अरे, पर ऐसे क्या  झंडे गाड़ कर आई है यह. कुछ बोल भी नहीं रही लड़की. इस की ससुराल कितनी बार फोन किया, कोई फोन भी नहीं उठाता. अब आप?’’ दादी कहां चुप रहने वाली थीं.

‘‘कौन उठाएगा ससुराल में फोन, 2 लोग ही तो हैं. और दोनों ही सरकारी ससुराल में,’’ गहलौत साहब दादी की ओर देख कर मुसकराए.

‘‘सरकारी ससुराल में?’’ दादी कुछ सम झ नहीं पाईं.

‘‘माताजी, सरकारी ससुराल यानी जेल.’’

‘‘क्या, जेल में? क्यों? आप क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं? हमारी भी समाज में कोई इज्जत है. जब यह बात समाज में फैलेगी तो…’’ दादी रोनेबिलखने लगी थीं.

दादी के अतिरिक्त घर के सभी सदस्यों के मुख पर मुर्दनी फैल गई थी. जिस प्रकार दिया आई थी उस से कुछ गड़बड़ी का आभास तो सब को ही हो गया था परंतु…यह पहेली अभी भी सम झ से बाहर थी. अचानक दिया ने मानो बिजली का नंगा तार पकड़ लिया था.

‘‘क्या समाज…समाज…किस समाज की बात कर रही हैं, दादी? उस समाज की जिसे आप के दिग्गज पंडितों ने तैयार किया है या उस समाज की जिसे कुछ पता ही नहीं है कि मैं ने क्या  झेला है? क्या…है क्या समाज? मैं समाज नहीं हूं क्या? मैं अपनेआप में एक पूरा समाज हूं.’’

दिया बुरी तरह फट पड़ी थी और फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘‘हाय रे! इस की तो अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं. क्या कर के आई है वहां जो सास और आदमी को जेल हो गई? हमेशा कहती थी, यश, बेटा, लड़की की जात है, जरा संभाल कर रखो. पर इन्हें तो आजादी देने का नशा चढ़ा हुआ था. अब भुगतो…अरे, मैं तभी सोचूं, यह सुबह से ऐसा बरताव क्यों कर रही है.’’

‘‘माताजी, शांत हो जाइए और मेरी बात शांति से सुनिए. आप की पोती कुछ गलत कर के नहीं आई है बल्कि ऐसा काम कर के आई है जो आज तक कोई नहीं कर सका. यश जी, आप को कुछ नहीं बताया क्या बिटिया ने?’’ गहलौत साहब ने आश्चर्य से पूछा.

यह सच था कि उसे सब का सामना भी करना ही था. यह तो अच्छा अवसर था, उसे अपनेआप कुछ कहने की जरूरत ही नहीं. वह शांति से गहलौत अंकल की बातें सुनती रही.

‘‘आप लोगों ने ब्रिटेन का वह कांड नहीं देखा टीवी पर जिस में ईश्वरानंद नाम के एक संन्यासी का परदाफाश किया गया था? 3-4 दिन पहले ही तो यह ‘ब्रेकिंग न्यूज’ हर चैनल पर दिखाई गई थी.’’

‘‘जी, देखा था न अंकल. किसी इंडियन लड़की ने ही उस संन्यासी का भंडाफोड़ किया है,’’ दीप बहुत उत्साह से बोला था.

‘‘हां, हां, वही केस. उस का भंडाफोड़ और किसी ने नहीं, तुम्हारी बहन ने किया है. न जाने यह कैसेकैसे वहां से बच कर निकल पाई है,’’ इतनी देर के बाद अब निशा गहलौत पहली बार बोली थीं.

‘‘वी औल आर प्राउड औफ यू, दिया,’’ निशा गहलौत ने पास में बैठी हुई दिया का हाथ अपने हाथ में ले लिया था. दिया टुकुरटुकुर उन्हें नापने का प्रयास करने लगी.

‘‘मु झे भी तो बताओ कोई, क्या भंडाफोड़ किया? कैसे भंडाफोड़ किया? और नील को किस बात की सजा दिलवा कर आई है यह? हाय, पति के बिना आखिर एक औरत की जगह ही क्या रह जाती है समाज में?’’ दादी फिर से टसुए बहाने लगीं.

‘‘किस पति की बात कर रही हैं आप, दादी? क्या पति को भी मालूम है कि वह पति है? या पति, बस सात फेरों की जंजीर गले में फंसा कर लड़की को अपने हिसाब से नचाने में बन जाता है? शायद दादी तभी खुश होतीं जब इन की पोती महायोग के कुंड में अपनी आहुति दे देती, उसी में स्वाहा हो जाती, लौट कर इन्हें अपना मुंह न दिखाती.’’ दिया के शब्दों में उस के भीतर का दर्द स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.‘‘पर बेटा, कम से कम हमें बताती तो सही. हम तुम्हारे लिए कुछ नहीं रह गए थे क्या?’’ दिया की बात जान कर यशेंदु बस इतना ही कह पाए. उन की आंखों से आंसू टपकते रहे. कई बार सशक्त आदमी भी कितना लाचार हो जाता है.‘‘लगता है, दिया उन दर्दभरी बातों को दोहराना नहीं चाहती, ठीक भी है. इस की शादी का सारा खेल उस ढोंगी ईश्वरानंद का ही रचाया हुआ था. नील और उस की मां भी उस में शामिल थे…’’ डीआईजी गहलौत ने थोड़ी देर में सब के सामने पूरी कहानी बयान कर दी. दिया फिर भी चुप ही बनी रही.

‘‘ब्रिटेन के सब अखबारों में ईश्वरानंद और उस के चेलेचेलियों की तसवीरें छपी हैं. दिया की बहुत प्रशंसा हो रही है. अगर दिया हिम्मत न करती तो बरसों से यह सब चल ही रहा था. दिया बेटा, तुम्हें सैल्यूट करने का दिल होता है,’’ गहलौत साहब दिया से बात करना चाहते थे.

‘‘मैं ने किसी के लिए कुछ नहीं किया, अंकल. मैं तो बस अपनी फंसी हुई गरदन को निकालने की कोशिश कर रही थी.’’

‘‘तुम ने कभी नहीं सोचा कि अपने मम्मीडैडी को सबकुछ बता दो?’’ गहलौत आंटी ने दिया से पूछा.

‘‘आप लोग पापा की हालत तो देख ही रहे हैं. यह भी तो मेरी वजह से ही हुई है. सवाल यह है कि यह सब हुआ क्यों?’’ दिया ने सजल  नेत्रों से गहलौत आंटी की ओर देखते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘हां, हुआ क्यों?’’ बात निशा गहलौत के मुंह में ही रह गई.

‘‘ईश्वरानंद के पैर धर्म तक ही नहीं फैले हैं, उस की जड़ें बहुत गहरी हैं. वह डाकुओं के दल का सरगना भी है और नाम व काम बदलता हुआ दुनियाभर में घूमता रहता है. उस के साथ और भी 4 मुख्य लोग पकड़ लिए गए हैं, जो टैरेरिस्ट ग्रुप से जुड़े हुए हैं. ये लोग किस चीज में माहिर नहीं हैं? कभी धर्म के बहाने जुड़ते हैं तो कभी किसी और बहाने. ईश्वरानंद सब का गुरु है, सब को अलगअलग कामों में फंसा कर स्वयं मस्ती करता रहता है. उस का काम ही है अलगअलग बहानों से लोगों को फंसाना,’’ डीआईजी गहलौत एक सांस में अपनेआप को खाली कर देना चाहते थे.

‘‘और…माफ करिएगा माताजी, जिस नील से आप ने अपनी पोती के गुण मिलवाए थे वह तो पहले से ही किसी जरमन लड़की के चक्कर में फंसा हुआ था. आप ने उस के सारे गुण ही दिया से मिलवा दिए?’’ गहलौत साहब ने दिया की दादी से कहा जो गालों पर बहते आंसुओं को बिना पोंछे ही मुंह खोले उन की सब बातें सुन रही थीं.

‘‘माताजी. जो धर्म हमें अंधविश्वास में घसीट ले, जो हमें शक्ति न दे, बल न दे, वह धर्म हो ही नहीं सकता.’’

सब लोग दिया की ओर एकटक निहार रहे थे. कुछ बोले तो सही, सब कुछ न कुछ पूछना चाहते थे. निशा आंटी ने दिया को सहारा दिया, ‘‘यह इतने लंबे समय तक किस तकलीफदेह वातावरण से जूझ कर आई है. शरीर की तकलीफ तो किसी तरह बरदाश्त हो जाती है पर मन की तकलीफ को दूर करने में बहुत लंबा समय लगता है,’’ सब के चेहरे दुख और विस्मय से भर उठे थे. दादी मुंहबाए कुछ समझने की चेष्टा में लगी थीं.

‘‘पर…अब क्या होगा इस लड़की का? ब्याही लड़की घर में बैठी रहेगी. कौन पकड़ेगा इस का हाथ? मुझे क्या पता था कि इतने अच्छे ग्रह मिलने के बाद भी…’’ अब भी वे ग्रहों को रो रही थीं.दिया ने आंखें खोल कर दुख से दादी की ओर देखा, बोली कुछ नहीं. ‘‘मां…आप क्या कह रही हैं? बच्ची है मेरी. सात फेरे क्या करवा दिए, बस, मांबाप का कर्तव्य पूरा हो गया. और फेरे भी किस से? कितना कहा था मैं ने पर आप…’’ यशेंदु को मां पर बहुत गुस्सा आ रहा था. दादी अब भी बच्ची के बारे में न सोच कर समाज के बारे में ही चिंतित हो रही थीं. आखिर क्यों?

कामिनी के आंसुओं ने तो एक स्रोत ही बहा दिया था. वह बारबार स्वयं को ही कोस रही थी, ‘‘यह सब मेरी वजह से ही हुआ है. मैं एक शिक्षित और जागृत मां हूं. मैं ही अगर अपनी बेटी को नहीं बचा सकी तो उन अशिक्षित लोगों के बारे में क्या सोचा जा सकता है जो अपने दिमाग से चल ही नहीं सकते. चलते हैं तो केवल पंडितों और तथाकथित गुरुओं के दिखाए व सु झाए गए ग्रहों के हिसाब से. आखिर क्यों मैं उस समय अड़ नहीं सकी? अड़ जाती तो क्या होता? ज्यादा से ज्यादा मां और यशेंदु मुझ से नाराज हो जाते. समर्थ थी मैं, छोड़ देती बेटी को ले कर घर. उस के जीवन से इस प्रकार खिलवाड़ तो न होता.’’ न जाने कैसे आज कामिनी के मुख से ये शब्द निकल गए थे. उस की आंखों से आंसू नहीं लावा प्रवाहित हो रहा था. सास के समक्ष सदा आंखें  झुका कर हर बात को स्वीकार करने वाली कामिनी की सास ने जब ये सब बातें सुनीं तो चुप न रह सकीं.

‘‘हां, तो छोड़ देतीं. जैसे ये बिना कन्यादान किए ऊपर चले गए थे, ऐसे ही हम भी चले जाते. तुम्हारे मुंह से सब के सामने ये अपमान तो न  झेलना पड़ता,’’ थोड़ी देर में ही उन के रुके हुए आंसुओं का स्रोत फिर से उमड़ने लगा.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-6

अब तक की कथा :

‘महायोग’ से श्रापित दिया कहने भर को सुहागिन का ठप्पा चिपका कर घूम रही थी. योग और पत्री के पागलपन ने प्राची के परिवार को भी अपनी लपेट में ले लिया था. जब दादी को पता चला कि नील ने अभी तक काम पर जाना शुरू नहीं किया है तो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में दादी और पंडितजी की मिलीभगत ने दिया व नील को दूर रखा है, जान कर यशेंदु बौखला उठे.

अब आगे…

यश के सामने उस की लाड़ली बिटिया का सुकोमल मगर उतरा हुआ मुख बारबार आ कर उपस्थित हो जाता. मानो वह बिना मुख खोले ही उस से पूछ रही हो, ‘पापा, आखिर क्या सोच कर आप ने इतनी जल्दी मुझे इस जंजाल में फंसा दिया?’ अपनी फूल सी बच्ची के भविष्य के बारे में सोच कर यश से रहा नहीं गया, नील की मां को फोन कर के शिकायत भरे लहजे में कहा, ‘‘आप ने नील की चोट के बारे में नहीं बताया?’’

कामिनी को मां का सुबहशाम आरती गा लेना, पंडितजी को बुला कर पूजाअर्चना की क्रियाएं करना, कुछ भजन और पूजा करवा कर आमंत्रित लोगों की वाहवाही लूट लेना विचलित करता था दादी कभी भी नील की मां को फोन लगा देती थीं. कामिनी के वहां से जाते ही उन्होंने दिया की सास को लंदन फोन लगा दिया.

‘‘पता चला है कि नील के पैर में चोट लग गई है? कैसे? कब? कल ही तो मेरी आप से बात हुई थी. आप ने तो कुछ नहीं बताया था इस बारे में?’’ वे लगातार बिना ब्रेक के बोले जा रही थी.

‘‘अरे रे, आप इतनी परेशान क्यों हो रही हैं, माताजी? नील के पैर में थोड़ी सी मोच आ गई है, सो उस ने अभी औफिस जौइन नहीं किया. हम ने सोचा अगर आप को पता चलेगा तो आप परेशान हो जाएंगी. सो, बेकार ही…’’ दिया की सास भी कम खिलाड़ी नहीं थीं. न जाने घाटघाट का पानी पी कर कितनी उस्ताद बन गई थीं, पटाने में तो वह माहिर थीं ही.

‘‘अरे, मैं परेशान कैसे न होऊं? नील ने खुद दिया को बताया, दिया ने कामिनी को. कामिनी मेरे पास आई थी. अब मुझे ही कुछ पता नहीं है तो मैं क्या उसे बताऊं? मेरी और आप की बात हो जाती है पर लगता है मुझे पूरी बात पता नहीं चल पाती. उधर, यह चोट की खबर. आखिर पता तो चले, बात क्या है? मैं ही किसी को कुछ जवाब देने की हालत में नहीं हूं. आप ठीकठीक बताइए, क्या बात है? हम ने तो सोचा था कि नील के पास छुट्टी नहीं है. सो, उस समय हम ने ज्यादा कुछ सोचा भी नहीं और अब…नहीं, आप ठीक से बताइए सबकुछ खोल कर और हां, दिया के जो भी पेपरवेपर हों वे सब कब तक पहुंच रहे हैं? मैं ने ब्याह जरूर जल्दी कर दिया है पर मैं अपनी पोती को ऐसी हालत में नहीं देख सकती,’’ एक ही सांस में दिया की दादी उस की सास से बोलती जा रही थीं.

‘‘आप परेशान मत होइए, माताजी. नील का पैर थोड़ा सा मुड़ गया था. उस पर प्लास्टर लगा है. डाक्टर का कहना है कि एकाध हफ्ते में उतर जाएगा. फिर जो भी फौरमैलिटीज होंगी, वह कर लेगा. मैं अपने पंडितजी से पूछ कर दिया को बुलाने के टाइम के बारे में बता दूंगी.’’

उन्होंने दिया की दादी की दुखती रग पर मानो मलहम चुपड़ दिया परंतु दादी को कहां इस से तृप्ति होने वाली थी. शाम को ही पंडितजी को बुला भेजा.

‘‘पंडितजी, जन्मपत्री ठीकठाक देखी न दिया की?’’ पंडित के आते ही दादी बरस पड़ीं.

‘‘क्या हुआ, माताजी?’’ पंडितजी ने बड़े भोलेपन से दादी से पूछा, ‘‘सबकुछ ठीकठाक है न?’’

‘‘सबकुछ ठीकठाक होता तो आप को क्यों बुलाती? अब ठीक से बताइए, जन्मपत्री ठीक है न दिया की?’’

‘‘हां जी, बिलकुल. क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ? हुआ यह कि आप तो कह रहे थे कि शादी के बाद 10-15 दिन दिया अपने पति से दूर रहे तो अच्छा रहेगा. उस की ससुराल जाने की तिथि भी अभी तक आप ने नहीं निकाली. सब ठीक तो है या फिर आप के पतरेवतरे बस खेल ही हैं?’’ दादी पर तो क्रोध बुरी तरह से सवार था.

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, माताजी? कितने बरसों से हमारे पिताजी आप के परिवार की सेवा कर रहे हैं. फिर भी आप को विश्वास नहीं है हम पर?’’ पंडितजी बड़े नाटकीय अंदाज में दादीजी को भावनाओं की लपेट में लेने का प्रयास करने लगे.

‘‘पिताजी सेवा कर रहे थे, तभी तो आप पर विश्वास कर के मैं इस घर के सब कामकाज आप से करवाती हूं. आप से पत्री बंचवाए बिना मैं एक भी कदम उठाती हूं क्या? समझ में नहीं आ रहा है क्या चक्कर है. वहां, लंदन में उन के पंडितजी क्या कहते हैं, देखो,’’ दादी बिलकुल बुझ सी रही थीं. असमंजस में कुछ भी समझ नहीं पा रही थीं कि इस स्थिति से कैसे निबटें.

‘‘वैसे चिंता की कोई बात नहीं दिखाई देती,’’ पंडितजी ने दिया की पत्री इधर से उधर घुमाते हुए कहा.

‘‘वे ग्रह ठीक हो गए जब दिया को नील से अलग रहना था?’’

‘‘हां जी, बिलकुल. वे तो कुछ दिनों के ही ग्रह थे. अब तो सब ठीक है,’’ पंडितजी ने बड़े विश्वासपूर्वक दिया का भविष्य बांच दिया.

‘‘यह क्या मां…दिया के ब्याह के बाद ग्रह खराब थे?’’ पता नहीं कहां से यश और कामिनी सिटिंगरूम के दरवाजे पर आ कर खड़े हो गए थे.

‘‘अरे, वे तो कुछ ही दिन थे, बस. इसीलिए पंडितजी से सलाह कर के दिया को केरल जाने से रोक लिया था,’’ दादी ने हिचकिचा कर बेटे को उत्तर दिया.

‘‘इतनी बड़ी बात आप ने कैसे छिपा ली, मां?’’ यश का मूड खराब होने लगा. कामिनी आंखों में आंसू लिए चुपचाप पति के पास ही खड़ी थी.

‘‘मां, आप ने पंडित से सलाह करना ठीक समझा पर घर वालों से सलाह करने की कोई जरूरत नहीं समझी?’’ यश को अब मां पर चिढ़ सी लगने लगी.

कामिनी ने उसे कितना समझाने की कोशिश की थी परंतु उस पर मां का प्रभाव इतना अधिक था कि उस ने कभी अपनी पत्नी की बातों पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी. वैसे भी घटना घट जाने के बाद उस की लकीर पीटने से कोई लाभ नहीं होता है. पहले मां, पिता की आखिरी इच्छा का गाना गाती रहती थीं, अब उन्होंने अपनी इच्छा का गाना शुरू कर दिया था. यश ने मां की बात स्वीकार की भी परंतु अब वह स्वयं असहज होने लगा था. कामिनी से भी आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था वह. आखिर मां ने उस से यह बात क्यों छिपाई होगी? देखा जाए तो मां की दृष्टि में इतनी बड़ी बात थी नहीं यह. परंतु उस की फूल सी बच्ची का भविष्य उसी बात पर टिका था. बिना कुछ और कहेसुने वह वहां से चला आया. पीछेपीछे कामिनी भी आ गई.

कमरे में आ कर वह धम्म से पलंग पर बैठ गया. उस के मस्तिष्क ने मानो काम करना बंद कर दिया था. उस की लाड़ली बिटिया का सुकोमल मगर उतरा हुआ मुख उस के सामने बारबार आ कर उपस्थित हो जाता. मानो वह बिना मुख खोले ही उस से पूछ रही हो, ‘पापा, आखिर क्या सोच कर आप ने इतनी जल्दी मुझे इस जंजाल में फंसा दिया?’

आगे पढ़ें- कामिनी यश की मनोदशा समझ रही थी परंतु उस समय…

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-13

अब तक की कथा :

मानसिक तनाव, शारीरिक थकान तथा अंधकारमय भविष्य की कल्पना ने दिया की सोचनेसमझने की शक्ति कमजोर कर दी थी. घुटन के अतिरिक्त उस के पास अपना कहने के लिए कोई नहीं था. सास के साथ मंदिर जाने पर वहां उस को एक साजिश का सुराग मिला. वह अपने साथ घटित होने वाले हादसों के रहस्य को समझने की अनथक चेष्टा करने लगी.

अब आगे…

यह वही नील था जो दिया डार्लिंग और दिया हनी जैसे शब्दों से दिया को पुकारता था. उस के मस्तिष्क ने मानो कुछ भी सोचने से इनकार कर दिया और अपने सारे शरीर को रजाई में बंद कर लिया. यौवन की गरमाहट, उत्साह, उमंग, चाव, आशा सबकुछ ही तो ठंडेपन में तबदील होता जा रहा था. पूरे परिवार की प्यारी, लाड़ली दिया आज हजारों मील दूर सूनेपन और एकाकीपन से जूझते हुए अपने बहुमूल्य यौवन के चमकीले दिनों पर अंधेरे की स्याही बिखरते हुए पलपल देख रही है. घर से फोन आते थे, दिया बात करती पर अपनी आवाज में जरा सा भी कंपन न आने देती. वह जानती थी कि उस की परेशानी से उस के घर वालों पर क्या बीतेगी. इसीलिए वह बिना कुछ कहेसुने चुपचाप उस वातावरण में स्वयं को ढालने का प्रयास करती. मांबेटे दोनों का स्वभाव उस की समझ से परे था.

नील लगभग सवेरे 8 बजे निकल जाता और रात को 8 बजे आता. एक अजीब प्रकार का रहस्य सा पूरे वातावरण में छाया रहता. कभीकभी रेशमी श्वेत वस्त्रों से सज्जित एक लंबे से महंतनुमा व्यक्ति की काया उस घर में प्रवेश करती. दिया को उन के चरणस्पर्श करने का आदेश मिलता. फिर वे नील की मां के साथ ऊपर उन के कमरे में समा जाते. घंटेडेढ़ घंटे के बाद नीचे उतर कर अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से उसे घूरते हुए वे घर से निकल कर सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी में समा जाते. दिया का कभी उन से परिचय नहीं कराया गया था परंतु वह जानती थी कि वे सज्जन जानते हैं कि वह दिया है, नील की तथाकथित पत्नी. उन की दृष्टि ही उसे सबकुछ कह जाती थी. वह चुपचाप दृष्टि झुकाए रहती. न जाने क्यों उसे उन महानुभाव की दृष्टि में कुछ अजीब सा भाव दृष्टिगोचर होता था जिसे वह बिना किसी प्रयास के भी समझ जाती थी. सब अपनेअपने कमरों में व्यस्त रहते. दिया को शुरूशुरू में तो बहुत अटपटा लगा, रोई भी परंतु बाद में अभ्यस्त हो गई. लगा, यही कालकोठरी सा जीवन ही उस का प्रारब्ध है.

‘‘दिया, यहां बिजली बहुत महंगी है,’’ एक दिन अचानक ही सास ने दिया से कहा.

वह क्या उत्तर देती. चुपचाप आंखें उठा कर उस ने सास के चेहरे पर चिपका दीं.

‘‘तुम तो नीचे सोती हो न. दरअसल, सुबह 5 बजे तक बिजली का भाव बिलकुल आधा रहता है…’’

दिया की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. अनमनी सी वह इधरउधर देखती रही. ‘क्या कहना चाह रही हैं वे?’ यह वह मन में सोच रही थी. ‘‘मैं समझती हूं, रात में अगर तुम वाशिंगमशीन चालू कर दो तो बिजली के बिल में बहुत बचत हो जाएगी.’’ वह फिर भी चुप रही. कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या उत्तर दे.

2 मिनट रुक कर वे फिर बोलीं, ‘‘और हां, खास ध्यान रखना, अपने कपड़े मत डाल देना मशीन में. और जब भी टाइम मिले, लौन की घास मशीन से जरूर काट देना.’’

दिया बदहवास सी खड़ी रह गई, यह औरत आखिर उसे बना कर क्या लाई है? उस से बरतन साफ नहीं हो रहे थे, खाना बनाने में वह पस्त हो जाती थी और अब यह सब. दिया की सुंदर काया सूख कर कृशकाय हो गई थी. पेट भरने के लिए उस में कुछ तो डालना ही पड़ता है. दिया भी थोड़ाबहुत कुछ पेट में डाल लेती थी. हर समय उस की आंखों में आंसू भरे रहते. ‘‘अब इस तरह रोने से कुछ नहीं होगा दिया. सब को पता है यहां पर इंडिया की तरह नौकर तो मिलते नहीं हैं. हम ने तो सोचा था कि तुम इतनी स्मार्ट हो तो…पर तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता. आजकल की लड़कियां कितनी ‘कुकरी क्लासेज’ करती हैं, तुम ने तो लगता है कि कुछ सीखने की कोशिश ही नहीं की,’’ उन के मुख पर व्यंग्य पसरा हुआ था.

दिया को लगा वह बुक्का फाड़ कर रो देगी, कैसी औरत है यह? औरत है भी या नहीं? मांपापा को यहां की स्थिति से अवगत करा कर वह उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी, फिर भी अपने लिए उसे कुछ सोचना तो होगा ही. वह सारी उम्र इस कठघरे में कैद नहीं हो सकती थी. मन और तन स्वस्थ हों तो वह कुछ सोच सकती थी परंतु उस के तो ये दोनों ही स्वस्थ नहीं थे. हर क्षण उस के मन में यही सवाल कौंधता रहता कि आखिर उसे लाया क्यों गया है यहां? क्या केवल घर की केयरटेकर बना कर? और यदि वह नील की पत्नी बन कर आई थी तो नील से अब तक उस का संबंध क्यों नहीं बन पाया था? यह सब उस की समझ से बाहर की बात थी जिस पर अब वह अधिक जोर नहीं दे रही थी क्योंकि वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उसे यहां से निकलने के लिए सब से पहले स्वयं को स्वस्थ रखना होगा. इसलिए वह स्वयं को सहज रखने का प्रयास करने लगी.

जैसेजैसे वह सहज होती गई उस के मस्तिष्क ने सोचना शुरू कर दिया. अचानक उसे ध्यान आया कि वह तो यहां पर ‘विजिटिंग वीजा’ पर आई हुई थी और अभी तक उस का यहां के कानून के हिसाब से कोई ‘पंजीकृत विवाह’ आदि भी नहीं कराया गया था, इसलिए कुछ तो किया जा सकेगा. इसी विचार से उस ने अपनी अटैची उतारी और उसे पलंग पर रख कर अटैची की साइड की जेबें टटोलने लगी. जैसेजैसे उस के हाथ खाली जगह पर अंदर की ओर गए, उस का मुंह फक्क पड़ने लगा. अटैची में उस का पासपोर्ट नहीं था. कहां गया होगा पासपोर्ट? उस ने सोचा और पूरी अटैची उठा कर पलंग पर उलट दी. पर पासपोर्ट फिर भी न मिला.

काफी रात हो चुकी थी. इस समय रात के 3 बजे थे और उनींदी सी दिया अपना पासपोर्ट ढूंढ़ रही थी. थकान उस के चेहरे पर पसर गई थी और पसीने व आंसुओं से चेहरा पूरी तरह तरबतर हो गया था. उस का मन हुआ, अभी दरवाजा खोल कर बाहर भाग जाए. मुख्यद्वार पर कोई ताला आदि तो लगा नहीं रहता था. परंतु जाऊंगी भी तो कहां? वह सुबकसुबक कर रोने लगी और रोतेरोते अपनी अलमारी के कपड़े निकाल कर पलंग पर फेंकने लगी. उसे अच्छी तरह से याद था कि उस ने अटैची में ही पासपोर्ट रखा था. नील और उस की मां लगभग साढ़े छह, सात बजे सो कर उठते थे. आज जब वे उठ कर नीचे आए तो दिया के कमरे की और दिया की हालत देख कर हकबका गए. दिया सिमटीसिकुड़ी सी पलंग पर फैले हुए सामान के बीच एक गठरी सी लग रही थी. मांबेटे ने एकदूसरे की ओर देखा और दोनों ने कमरे में प्रवेश किया. कमरे में फैले हुए सामान के कारण मुश्किल से उन्हें खड़े होने भर की जगह मिली.

 

‘‘दिया,’’ नील ने आवाज दी पर दिया की ओर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘दिया बेटा, उठो,’’ सास ने मानो स्वरों में चाशनी घोलने का प्रयास किया परंतु उस का भी कोई उत्तर नहीं मिला.

‘‘मौम, कहीं…’’ नील ने घबरा कर मां से कुछ कहना चाहा.

‘‘नहीं, नहीं, कुछ नहीं,’’ मां ने बड़ी बेफिक्री से उत्तर दिया. फिर दिया की ओर बढ़ीं.

‘‘दिया, उठो, यह सब क्या है?’’

इस बार दिया चरमराई, नील ने आगे बढ़ कर उसे हिला दिया, ‘‘दिया, आर यू औलराइट?’’ उस के स्वर में कुछ घबराहट सी थी.

‘‘हांहां, ठीक है. लगता है रातभर इस के दिमाग में उधेड़बुन चलती रही है. अब आंख लग गई होगी. चलो, किचन में चाय पी लेते हैं, तब तक उठ जाएगी.’’ नील पीछे घूमघूम कर देख रहा था पर मां किचन की ओर बढ़ गई थीं.

आगे पढ़ें- शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए…

#lockdown: मेरे सामने वाली खिड़की पे (भाग-2)

‘सच में, कैसी स्थिति हो गई है देश की ? न तो हम किसी से मिल सकते हैं.  न किसी को अपने घर बुला सकते हैं और न ही किसी के घर जा सकते हैं. आज इंसान, इंसान से भगाने लगा है. लोग एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं.  क्या हो रहा है ये और कब तक चलेगा ऐसा? सरकार कहती रही कि अच्छे दिन आएंगे. क्या ये हैं अच्छे दिन ? किसी ने सोचा था कभी कि ऐसे दिन भी आएंगे ?’ अपने मन में ही सोच रचना दुखी हो गई.

रचना अपने घर के ही एक कोने में जहां से हवा अच्छी आती हो, वहाँ टेबल लगाकरऑफिस जैसा बना लिया और काम करने लगी, चारा भी क्या था ?वैसे,अच्छा आइडिया दिया था मानसी ने उसे. ‘थैंक यू’ बोला उसने उसे फोन कर के.  काम करते-करते जबरचना मन उकता जाता, तो ब्रेक लेने के लिए थोड़ा बहुत इधर-उधर चक्कर लगा आती. नहीं,तो अपने छत पर ही कुछ देर टहल लेती. और फिर अपने लिए चाय  बनाकर काम करने बैठ जाती. अब रचना का माइंड सेट होने लगा था. लेकिन बॉस का दबाव तो था ही जिससे मन चिड़चिड़ा जाताकभी-कभी कि एक तो इस लॉकडाउन में भी काम करो और ऊपर से इन्हें कुछ समझ नहीं आता. सब कुछ परफेक्ट और सही समय पर ही चाहिए. ये क्या बात हुई ? बार-बार फोन कर के चेक करते हैं कि कर्मचारी अपने काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं. कहीं वे अपने घर पर आराम तो नहीं फरमा रहे हैं.

उस दिनबॉस से बातें करते हुए रचना को एहसास हुआ कि कोई उसे देख रहा है. ऐसा होता है न ? कई बार तो भीड़ भरी बस या ट्रेन के कुपे में भी ऐसी फिलिंग होती है कि कोई हम पर नजरें गड़ाए हुए है.  अक्सर हमारा यह एहसास सच साबित होता है.  अब ऐसा क्यों होता है यह तो नहीं पता. लेकिन सामने वाली खिड़की पे बैठा वह शख्स लगातार रचना को देखे ही जा रहा था. लेकिन जैसे रचना की नजर उस पर पड़ी, वह इधर-उधर देखने लगा, लेकिन फिर वही. रचना उसे नहीं जानती है. आज पहली बार देख रही है.  शायद,अभी वह नया यहाँ रहने आया होगा, नहीं तो वह उसे जरूर जानती होती.  लेकिन वह क्यों उसे देखे जा रहा है ? क्या वह इतनी सुंदर है और यंग है ? लेकिन वह बंदा भी कम स्मार्ट नहीं था.तभी तो रचना की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी.  लेकिन फिर यह सोचकर नजरें फेर ली उसने कि वह क्या सोचेगा?

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एक दिनफिर दोनों की नजरें आपस में टकरा गई, तो आगे बढ़कर रचना ने ही उसे ‘हाय’ कहा. इससे उस बंदे को बात आगे बढ़ाने का ग्रीन सिग्नल मिल गया. अब रोजा दोनों की खिड़की से ही ‘हाय-हैलो’ के साथ-साथ थोड़ी बहत बातें होने लगी. दोनों कभी देश में बढ़ रहे कोरोना वायरस के बारे में बातें करते, कभी लॉकडाउन को लेकर उनकी बातें होतीं, तो कभी अपने ‘’वर्क फ्रोम होम को लेकर बातें करते. और इस तरह से उनके बीच बातों का सिलसिला चल पड़ता, तो रुकता ही नहीं.

“वैसे, सच कहूँ तो ऑफिस जैसी फिलिंग नहीं आती घर से काम करने में, है न ?” रचना के पूछने पर वह बंदा कहने लगा कि ‘हाँ, सही बात है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है?’ “सही बोल रहे हैं आप, किया भी क्या जा सकता है. लेकिन पता नहीं यह लॉकडाउन कब खत्म होगा? कहीं  लंबा चला तो क्या होगा ?” रचना की बातों पर हँसते हुए वह कहने लगा कि भविष्य में क्या होगा कौन जानता है ?‘वैसे जो हो रहा है सही ही है, जैसे हमारा मिलना’ जब उसने मुसकुराते हुए कहा, तो रचना शरमा कर अपने बाल कान के पीछे करने लगी.रचना के पूछने पर उसने अपना नाम शिखर बताया और यह भी कि वह यहाँ एक कंपनी में काम करता है. अपना नामबताते हुए रचना कहने लगी कि उसका भी ऑफिस उसी तरफ है.

काम के साथ-साथ अब दोनों में पर्सनलबातें भी होने लगी. शिखर ने बताया कि पहले वह मुंबई में रहता था. मगर अभी कुछ महीने पहले ही तबादला होकर दिल्ली शिफ्ट हुआ है.

“ओह….और आपकी पत्नी भी जॉब में हैं ?” रचना ने पूछा तो शिखर कहने लगा कि ‘नहीं, वह एक हाउसवाइफ है. “हाउस वाइफ नहीं, होममेकर कहिए शिखर जी, अच्छा लगता है”  बोलकर रचना खिलखिला पड़ी, तो शिखर उसे देखता ही रह गया. रचना से बातें करते हुए शिखर के चेहरे पर अजीब सी संतुष्टि नजर आती थी. लेकिन वहीं,अपनी पत्नी से बातें करते हुए वह झल्ला पड़ता था.

अमन को ऑफिस भेजकर, घर के काम जल्दी से निपटाकर,रचना अपनी जगह पर जाकर बैठ जाती, उधर शिखर पहले से ही उसका इंतजार करता रहता और उसे देखते ही खिड़की के पास आकर खड़ा हो जाता और दोनों बातें करने लगते.लेकिन जैसे ही शिखर को अपनी पत्नी की आवाज सुनाई पड़ती, वह भाग कर अपनी जगह पर बैठ जाता और फिर दोनों इशारों-इशारों मे बातें करने लगते.कहीं न कहीं दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे थे. लेकिन कोरोना के चलते घर में क्वारंटाइन होने की वजह से उनके प्यार की गाड़ी अटक गई थी. लेकिन उन्होंने इसका भी हल निकाल लिया.

दोनों कागज पर लिखकर अपने दिल का हाल ब्याँ करते और उस खत को रोल कर एक-दूसरे की तरह फेंकते. कभी मोबाइल से दोनों बातें करते,कभी चैटिंग करते. जोक्स बोलकर हँसते-हंसाते. लेकिन इस पर भी जब उनका मन नहीं भरता,तो दोनों अपने-अपने छत पर खड़े होकर लोगों की घरों में ताक-झांक करते कि इस लॉकडाउन में वे अपने घरों में क्या रहे हैं? कहीं पति-पत्नी साथ मिलकर खाना पका रहे होते. कहीं काम को लेकर सास बहू में झगड़े हो रहे होते. और एक घर मेंतो हसबैंड पोंछा लगा रहा था और उसकी पत्नी उसे बता रही थी कि और कहाँ-कहाँ पोंछा लगाना है. देखकर दोनों की हंसी रुक ही नहीं रही थी. रचना का तो पेट ही दुखने लगा हंस-हंस कर. बड़ा मज़ा आ रहा था उन्हें लोगों की घरों मेंताक-झाँक करने में. अक्सर दोनों छत पर जाकर लोगों की घरों में ताकते-झाँकते और खूब मज़े लेते.

जहां इस कोरोना ने पूरी दुनिया में कहर मचा रखा है. दुनियाभर में कोरोना की चपेट में लाखों लोग आ गए हैं. हजारों लोगों की मौत हो चुकी है. कोरोना के डर से करोड़ों लोग अपने घरों में कैद हैं. सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते लोग एक-दूसरे से मिल नहीं रहे हैं. वहीं, इस दहशत के बीच रचना और शिखर के बीच प्यार का अंकुर फुट पड़ा है. यह अनोखी प्रेम कहानी भले  ही लोगों की आँखों से ओझल है, पर दोनों एक-दूसरे की आँखों में डूब चुके हैं.

लेकिन उनका प्यार अमन और शिखर की पत्नी के आँखों से छुपा नहीं है। जान रहे हैं दोनों की इन दोनों के बीच कुछ तो चल रहा है. तभी तो अमन जब भी घर में होता है रचना के आसपास ही मँडराते रहता है, और उधर शिखर की पत्नी भी खिड़की खुला देखा, आँख-भौं चढ़ा लेती है.

इसी बात पर कई बार अमन से रचना की लड़ाई भी हो चुकी है. अमन का कहना है कि क्यों वह वहीं बैठकर काम करती है? घर में और भी तो जगह हैं? लेकिन रचना कहती है कि ‘उसकी मर्ज़ी, जहां बैठकर वह काम करे. वह क्यों उसका मालिक बना फिरता है ?‘घर का एक काम तो होता नहीं उससे, और बड़ा आया है नसीहतें देने’ अपने मन में ही बोल रचना मुंह बिचका देती.

उधर शिखर भी अपनी पत्नी के व्यवहार से परेशान है.  जब देखो,वह आगे-पीछे उसके मंडराती रहती. कभी चाय, कभी पानी देने के बहाने वहाँ पहुँच जाती और फालतू की बातें कर उसे बोर करती. कहता शिखर,‘जाओ मुझे काम करने दो, पर नहीं,बकवास करनी ही है उसे. रचना को वह घूर कर देखती है और खिड़की बंद कर देती है.  लेकिन जब वह चली जाती है,खिड़की खुल भी जाता और फिर दोनों की गुपचुप बातें शुरू हो जाती है.

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अमन के सो जाने पर,देर रात तक रचना शिखर के साथ फोन पर चैटिंग करती रहती है. सुबह रचना को डेरी तक दूध लाने जाना पड़ता था, तो अब शिखर भी उसके साथ दूध और सब्जी-फल लाने , स्टोर तक जाने लगा है, ताकि दोनों को आपस में बातें कर मौका मिल सके.लोगों की नजरें बचाकर शिखर कूद कर रचना के छत पर आ जाता है और दोनों एक-दूसरे की आँखों में  झाँकते हुए घंटों बिता देते हैं.

आगे पढ़ें- हवाएँ भी कितनी ठंडी-ठंडी चल रही है” कह कर रचना उस रोज..

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