महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-14

शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए नरमाहट पैदा हो रही थी परंतु मां का बिलकुल स्पष्ट आदेश…वह करे भी तो क्या? उसे वास्तव में दिया के लिए बुरा लगता था, लेकिन वह अपना बुरा भी तो नहीं होने दे सकता था. उस का अपना भविष्य भी तो त्रिशंकु की भांति अधर में लटका हुआ था. उस के विचारों में उथलपुथल होती रही और इसी मनोदशा में वह 2 प्यालों में चाय ले कर मां के पास डाइनिंग टेबल पर आ बैठा था. मां तब तक बिस्कुट का डब्बा खोल कर बिस्कुट कुतरने लगी थीं.

‘‘मौम, यह ठीक नहीं है.’’

‘‘अब क्या कर सकते हैं? मैं भी कहां चाहती थी कि यह सब हो पर…उस दिन  धर्मानंदजी आए थे, तब भी उन्होंने यही बताया कि अभी डेढ़दो साल तक तुम दिया से संबंध नहीं बना सकते. इस के बाद भी तुम दोनों का समय देखना पड़ेगा.’’

‘‘पर मौम, अभी तो हम ने शादी के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. फिर…’’

‘‘शादी के लिए एप्लाई करने का अभी कोई मतलब ही नहीं है जब तक इस के सितारे तुम्हारे फेवर में नहीं आ जाते. वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?’’ मां ने सपाट स्वर में अपने बेटे

से कहा. ‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था. अभी तो नैंसी  जरमनी गई हुई है. आएगी तो मैं उस के साथ बिजी हो जाऊंगा पर इस का…’’

‘‘अब बेटा, वह तुम्हारा पर्सनल मामला है. मैं तो कभी नहीं चाहती थी कि तुम नैंसी  से रिलेशन बनाओ. वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए भी तैयार नहीं है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है, मौम, मैं तो उस के साथ बहुत खुश हूं. आप को बहू चाहिए थी. इतनी खूबसूरत लड़की को देख कर मैं भी बहक गया पर आप मुझे उस से दूर रहने के लिए जोर दे रही हैं,’’ नील मां से नाराज था.

दिया कब रसोई के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी, किसी को पता नहीं चला. मांबेटे की बात सुन कर दिया के पैर लड़खड़ाने लगे थे. कहां फंस गई थी वह? दबे कदमों से चुपचाप आ कर वह कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अरे दिया, उठ गई बेटा, आज तो बहुत सोई और ये सब क्या है?’’ रसोईघर से निकलते हुए सास ने एक के बाद एक सवाल उस पर दाग दिए.

‘‘गुडमौर्निंग दिया, आर यू ओके?’’ नील ने भी अपनी सहानुभूति दिखाने की कोशिश की.

दिया ने एक दृष्टि दोनों की ओर डाली. उस की क्रोध और पीड़ाभरी दृष्टि से  मांबेटे क्षणभर के लिए भीतर से कांप उठे, फिर तुरंत सहज भी हो गए.

‘‘माय पासपोर्ट इज मिसिंग?’’ दिया ने कुछ जोर से कहा.

‘‘अरे, कहां जाएगा? यहीं होगा कहीं तुम्हारे कपड़ों के बीच में. कोई तो आताजाता नहीं है घर में जो चुरा कर ले जाएगा. और किसी को करना भी क्या है तुम्हारे पासपोर्ट का?’’ कितनी बेशर्म औरत है. दिया ने मन ही मन सोचा.

अब तक दिया समझ चुकी थी कि इस प्रकार यहां उस की दाल नहीं गलेगी. अभी तक उस की सास उसे केवल 2-3 बार मंदिर और दोएक बार मौल ले कर गई थीं. मंदिर में भी उसे भारत से आई हुई रिश्तेदार के रूप में ही परिचित करवाया गया था. उसी मंदिर में उस ने उस लंबेचौड़े गौरवपूर्ण पुरुष को देखा था जिसे उस की सास धर्मानंदजी कहती थीं. अभी चाय पीते समय जरूर वे उसी आदमी के बारे में बातें कर रही थीं. उस ने सोचा, ‘पर वह क्यों नील को उस से दूर रखना चाहता है?’

‘‘चलो, चलो, ये सब ठीकठाक कर के अपनी जगह पर जमा दो. मिल जाएगा पासपोर्ट, जाएगा कहां. और अभी करना भी क्या है पासपोर्ट का?’’ दिया की सास ने अपना मंतव्य प्रस्तुत कर दिया.

‘‘आओ, मैं तुम्हारी हैल्प करता हूं. मौम, आप दिया के लिए प्लीज चाय बना दीजिए. यह बहुत थकी हुई लग रही है,’’ नील ने मां से खुशामद की.

‘‘नो, थैंक्स, मैं बना लूंगी जब पीनी होगी,’’ दिया ने कहा और सामान समेट कर अटैची में भरने लगी. कुछ दिनों से जो साहस वह जुटाने की चेष्टा कर रही थी वह फिर से टूट रहा था.

नील दिया के साथ उस का सामान फिर से जमाने का बेमानी सा प्रयास कर रहा था जिस से कभीकभी उस का शरीर दिया के शरीर से टकरा जाता परंतु दिया को इस बात से कोई रोमांच नहीं होता था. दिया एक कुंआरी कन्या थी जिस के तनमन में यौवन की तरंगों का समावेश रहा ही होगा परंतु जब शरीर ही बर्फ हो गया तो…? फिलहाल तो उस का मस्तिष्क अपने पासपोर्ट में ही अटका हुआ था. उस के मन ने कहा, जरूर यह मांबेटे की चाल है परंतु प्रत्यक्ष में तो वह कुछ कहने या किसी प्रकार के दोषारोपण करने का साहस कर ही न सकती थी.

ऊपर से एक और रहस्य, ‘यह नैंसी  कौन है? और नील से उस का क्या रिश्ता हो सकता है?’ उस का मस्तिष्क जैसे उलझता ही जा रहा था. कोई भी तो ऐसा नहीं था जिस से बात कर के वह अपनी उलझनों का हल ढूंढ़ती. कभी नील उस से बात करने का प्रयास करता भी तो पहले तो उस का ही मन न होता पर बाद में उस ने सोचा कि वह बात कर के ही नील से वास्तविकता का पता लगा सकती है. उसे नील के करीब तो जाना ही होगा, तभी उसे पता चल सकेगा कि आखिर वह किस प्रकार इस जाल से छूट सकेगी? वह अंदर ही अंदर सोचती हुई अपनेआप को संभालने का प्रयास कर रही थी. परंतु उस के इस प्रकार के थोड़ेबहुत प्रयास पर नील की मां पानी फेर देतीं. वे किसी न किसी बहाने से नील को उस के पास से हटा देती थीं. उन दोनों की बातें सुनने के बाद उसे यह तो समझ में आने लगा था कि हो न हो, ये सब करतूतें भी कोई ग्रहोंव्रहों के कारण ही हो रही हैं पर पूरी बात न जान पाने के कारण वह कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाती.

आज फिर नील की मां उसे मंदिर ले गईं. वहां पर काफी लोग जमा थे. पता चला, कोई महात्मा प्रवचन देने आए थे, इंडिया से. दिया कहां इन सब में रुचि रखती थी परंतु विवशता थी, बैठना पड़ा सास के साथ. दिया का मन उन्हें सास स्वीकारने से भी अस्वीकार कर रहा था. कैसी सास? किस की सास? जैसेजैसे दिन व्यतीत होते जा रहे थे उस का मन अधिक और अधिक आंदोलन करने लगा था. यहां सीधी उंगली से घी नहीं निकलने वाला था, दिया की समझ में यह बात बहुत पहले ही आ चुकी थी. प्रश्न यह था कि उंगली टेढ़ी की कैसे जाए? इस के लिए कोई रास्ता ढूंढ़ना बहुत जरूरी था.

आगे पढ़ें- अचानक धर्मानंदजी दिखाई पड़े. गौरवपूर्ण, लंबे, सुंदर शरीर वाला…

#lockdown: मेरे सामने वाली खिड़की पे

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-19

अब तक की कथा :

एक ओर ग्रहों की शांति करवाई जा रही थी, विवाहिता पत्नी से मां अपने बेटे की रक्षा करना चाहती थीं, दूसरी ओर नैन्सी गर्भवती थी. दोहरे मापदंडों को तोलतेतोलते दिया थक चुकी थी. धर्म ने दिया के समक्ष बहुत सी बातों का खुलासा किया था और वह स्वयं भी इस चक्रव्यूह से निकलने का मार्ग तलाश रहा था. तभी अचानक धर्म का मोबाइल घनघना उठा.

अब आगे…

मोबाइल स्क्रीन पर नंबर देख कर धर्म बोला, ‘ओहो, ईश्वरानंद है,’ कहने के साथ ही उस का मुंह फक पड़ गया, ‘‘जी, कहिए.’’ ‘‘कहिए क्या, अगर खाना, पीना, घूमना हो गया हो तो आ जाओ, धर्म. ऐसे नहीं चलेगा. मेरी बात हो गई है रुचि से. उन्होंने दिया को रात में रुकने की इजाजत दे दी है,’’ आदेशात्मक स्वर में उन्होंने कहा. धर्म दिया को सबकुछ सुनाना चाहता था, इसलिए स्पीकर पहले ही औन कर दिया था.

‘‘जी, अभी वह मन से तैयार नहीं है कीर्तनभजन के लिए. और…’’

‘‘तो करो उसे तैयार. तुम्हारा काम है यह. तुम्हें उस के पीछे लगा रखा है. ले के तो आओ, फिर देखेंगे,’’ उन्होंने फोन बंद कर दिया. दिया रोने लगी.

‘‘देखो दिया, रोने से तो कुछ नहीं होगा. बहुत सोचसमझ कर, पेशेंस रख कर चलना होगा, तभी कोई रास्ता निकल पाएगा. मैं कितनी बार तुम्हें समझा चुका हूं.’’

‘‘तो मैं अपनेआप को उन की गोद में डाल दूं? मेरा अपना कुछ है ही नहीं? कोई अस्तित्व नहीं है मेरा?’’

‘‘नहीं, दिया, तुम्हारा अपना अस्तित्व क्यों नहीं है. पर तुम भी समझती हो इस जाल के बंधन को. निकलेंगे, बिलकुल सहीसलामत निकाल लूंगा मैं तुम्हें यहां से. पर अभी शांति से जैसा मैं कहता हूं वैसा करती चलो. मैं तुम पर आंच नहीं आने दूंगा. मुझ पर भरोसा करो, दिया.’’

‘‘भरोसे की बात नहीं है, धर्म. भरोसा सिर्फ तुम पर ही तो है. पर उन परिस्थितियों का क्या करेंगे जिन में हम घिरे हुए हैं. मुझे तो चारोें ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है.’’ ‘‘अंधेरे को चीर कर ही प्रकाश की किरण आती है. कोई न कोई किरण तो अपने नाम की भी होगी ही.’’ दिया के पास और कोई रास्ता नहीं था इसलिए उस ने अपनेआप को धर्म के सहारे छोड़ दिया. वह चुपचाप धर्म के साथ गाड़ी में बैठ कर ईश्वरानंद के एक अन्य ठिकाने की ओर चल दी. गाड़ी में बैठने के बाद धर्म ने कईकई बार दिया के हाथ पर हाथ रख कर उसे यह सांत्वना दी कि चिंता न करे, वह उस के साथ है.

वे दोनों किसी बड़े मकान में पहुंच गए थे. यह सुबह वाला स्थान नहीं था. यह स्थान इस दुनिया का था ही नहीं. यहां तो काले, सफेद, गेहुंए सब रंगों के लोग एक अजीब सी आनंद की मुद्रा में रंगे हुए दिखाई दे रहे थे. वे दोनों जा कर बैठे ही थे कि अचानक उन के सामने वाइन सर्व कर दी गई, साथ में भुने हुए काजू और दूसरे ड्राइफ्रूट्स भी.

दोचार मिनट बाद ही एक गोरी सुंदरी आ कर वहां खड़ी हो गई, ‘‘स्वामीजी इज कौलिंग यू बोथ.’’

‘‘ओके, वी विल कम,’’ धर्म ने कहा.

दिया फिर से घबरा उठी.

‘‘दिया, जाना तो पड़ेगा ही. अच्छा है, पहले ही चले जाएं.’’

एक और रहस्यमयी रास्ते से दोनों ईश्वरानंद के पर्सनल रूम में पहुंच गए. धर्म न चाहते हुए भी इन सब में भागीदारी करता रहा है. दिया के समक्ष वह बेशक नौर्मल रहने की कोशिश कर रहा था पर वास्तव में अंदर से तो बाहर भागने के रास्ते की खोज में ही घूम रहा था उस का दिमाग.

‘‘क्या बात है धर्म, दिया को भेजो बराबर वाले कमरे में. वहां सब वस्त्रादि तैयार हैं. और लोग भी तैयार हो रहे हैं. दिया को वे लोग सब समझा देंगे.’’

दिया ने वहां से चलने के लिए धर्म का हाथ दबाया जिसे ईश्वरानंद ने देख लिया.

‘‘क्या बात है? क्या हो रहा है, दिया?’’ उस ने थोड़ी ऊंची आवाज में दिया से पूछा मानो दिया उस की कोई खरीदी हुई बांदी हो.

‘‘गुरुजी, अभी दिया तैयार नहीं है,’’ उस ने धीरे से ईश्वरानंद के कान में कानाफूसी की. परंतु ईश्वरानंद तो बिगड़ ही गया. आंखें तरेरते हुए धर्म से कहने लगा, ‘‘पागल हो गए हो क्या, धर्म? मैं ने इसीलिए इतनी मेहनत की है?’’

धर्म बड़े विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कैसी बात करते हैं आप? आप तो सब जानते हैं. फिर अभी वह बहुत घबराई हुई है. रुचिजी के यहां नील भी तो अभी तक इस से दूर ही रहा है… ग्रहव्रह के चक्करों में. थोड़ा टाइम दीजिए, अगली बार…’’ वह मानो ईश्वरानंद को भविष्य के लिए वचन दे रहा था और दिया का दिल था कि धकधक…

‘‘क्या साला…सब मूड खराब कर दिया…एक अफगानी पीछे पड़ा है, उसे अंगरेज लड़की नहीं चाहिए. पर जब तक इसे ढालोगे नहीं, यह तो तमाशा बना देगी. नहींनहीं, जाओ इसे तैयार करो,’’ वे तैश में आ रहे थे.

धर्म किसी भी प्रकार से दिया को यहां से बचा कर ले जाना चाहता था.

‘‘मैं इसे यहां से अभी ले जाता हूं. इसे रातभर घुमाफिरा कर कोशिश करता हूं कि अगले फंक्शन के लिए यह तैयार हो जाए.’’

‘‘तो क्या तुम इसे यहां से भी ले जाना चाहते हो?’’ ईश्वरानंद फिर भड़के.

‘‘मैं आप को बता रहा हूं. इस को अच्छी तरह स्टडी किया है मैं ने. आप आज इसे यहां से जाने दीजिए. अगले प्रोग्राम में मैं इसे यहां ले कर आप के बुलाने से पहले ही पहुंच जाऊंगा.’’ न जाने ईश्वरानंद के मन में क्या आया, ‘‘ठीक है, तुम इसे यहां से आज तो ले जाओ पर मेरी जबान तुम्हें रखनी होगी. मैं उस अफगानी को 1 महीने का टाइम देता हूं. तुम्हारी जिम्मेदारी है, अब तुम इसे 1 दिन में समझाओ या 1 हफ्ते में.’’

बाहर निकल कर गाड़ी में बैठने के बाद प्रश्न था कि कहां जाया जाए?

जब और कुछ समझ में नहीं आया तो धर्म चुपचाप दिया को अपने घर ले आया. दिया ने धर्म से पूछा भी नहीं कि वह उसे कहां ले कर जा रहा है. धर्म ने गाड़ी रोकी तो वह चुपचाप उतर गई और धर्म के पीछेपीछे चल दी. छोटा सा, 2 कमरों का घर था पर ठीकठाक, साफसुथरा. वह सिटिंगरूम में जा कर सोफे में धंस सी गई.

‘‘मुझे नील की मां को फोन कर के बताना तो होगा ही कि हम ‘परमानंद आश्रम’ में नहीं हैं वरना उन्हें जब पता चलेगा तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा,’’ कह कर धर्म ने नील की मां को फोन लगा दिया और हर बार की तरह स्पीकर औन कर दिया.

‘‘हां, कौन?’’ उनींदी आवाज आई.

‘‘मैं बोल रहा हूं, रुचिजी.’’

‘‘क्या बात है, इस समय?’’

‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. मैं ने यह बताने के लिए फोन किया कि हम लोग आश्रम में नहीं हैं.’’

‘‘क्यों? मैं ने तो वहीं भेजा था दिया को, फिर?’’

‘‘जी, लेकिन दिया की तबीयत वहां कुछ खराब हो गई इसलिए मैं ने सोचा कि वहां से बाहर ले जाऊं कहीं.’’

‘‘फिर…ईश्वरानंदजी…?’’

‘‘उन्होंने ही परमिशन दी है. मैंटली तो तैयार हो दिया पहले. वह इस प्रकार कभी गई नहीं है कहीं.’’

‘‘हां, वह सब तो ठीक है पर…’’

‘‘आप चिंता क्यों करती हैं? मैं हूं न उस के साथ. उस के सब ग्रहव्रह ठीक कर के ही उस को आप के पास भेजेंगे.’’

‘‘तो क्या सुबह भी नहीं आओगे? अरे, उस के मांबाप के फोन लगातार आ रहे हैं. उधर, नील ने परेशान कर रखा है. नैन्सी का भूत ऐसा सवार है उस पर कि कहता है उसे नैन्सी के बच्चे को संभालना पड़ेगा. अब मैं इस उम्र में…कुछ करिए धर्मानंदजी, कोई गंडा, तावीज, अंगूठी जो भी हो. यह लड़का तो मुझे मारने पर तुला हुआ है. मैं ने सोचा था कि दिया के ग्रह ठीक हो जाएंगे तो बेशक यहां पड़ी रहेगी. पर…मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता. उधर, नैन्सी भी शायद कुछ दिन यहां आ कर रहना चाहती है. कैसे करूंगी?’’

‘‘अब कुछ तो सोचना ही पड़ेगा, रुचिजी. आप चिंता मत करिए. मैं देखता हूं क्या हो सकता है.’’ ‘‘सोचो, कुछ करो, धर्म. मेरे अंदर तो न सोचने की शक्ति है न ही करने की. पता नहीं ईश्वरानंदजी ने इतने अमीर घराने की यह लड़की क्यों भिड़वा दी. यह तो हमारे बिलकुल भी काम की नहीं है. यह कहां से पाल लेगी नैन्सी के बच्चे को?’’

‘‘अभी फोन बंद करता हूं, रुचिजी. आप बिलकुल चिंता मत करिए. देखिए क्या होता है?’’

‘‘एक बात जरूर करना. दिया से उस की मां की बात करवा देना. उन के फोन यहां लगातार आ रहे हैं.’’ दिया को अपने सिर के ऊपर आसमान टूटता नजर आने लगा. यह क्या ऊटपटांग मामला है. कितना पेचीदा व उलझा हुआ एक ओर ईश्वरानंद ने अपनी खिचड़ी पकाने के लिए नील को उस के मत्थे मढ़ दिया तो दूसरी ओर नील की मां उसे अपने बेटे के बच्चे की आया बनाना चाहती है.

‘‘यह सब क्या है, धर्म?’’

‘‘बहुत पेचीदा मामला है, दिया. नील की मां समझती हैं कि ईश्वरानंद ने उन के लिए तुम को फंसाया है पर सच बता दूं, रहने दो वरना तुम घबरा जाओगी.’’

‘‘बोलिए न, धर्म…और क्या कर लूंगी मैं घबरा कर? बताइए…’’

‘‘ईश्वरानंद तुम्हें किसी अफगानी के हाथ बहुत अच्छे दामों में बेचना चाहते हैं. नील की मां अपने चने भुनाने की फिराक में थीं और वास्तव में ईश्वरानंद अपने चने भुनाने में लगे हैं.’’

‘‘क्या कमाल है, लड़की कोई ऐसी निष्प्राण चीज है जो उसे गुडि़या की तरह उठा कर खेल लो और फिर कहीं भी फेंक दो. पर जब मजबूरी और दुख किसी लड़की के गले पड़ जाएं तब वह एक चीज ही बन जाती है.

‘‘धर्मजी, बहुत हो गया है. मुझे अपने घर फोन कर देना चाहिए. आखिर मैं कब तक इस सब से जूझती रहूंगी?’’

‘‘दिया, मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था परंतु अब रुक नहीं पा रहा हूं. दरअसल, तुम्हारे पापा के पैर में ऊपर तक जहर फैल जाने से उन की पूरी टांग काट देनी पड़ी थी. उन्हें पिछले 6 महीने फिर से अस्पताल में रहना पड़ा है. इसीलिए तुम्हारे भाई अभी तक यहां नहीं आ पाए वरना…’’

‘‘क्या कह रहे हो, धर्म? किस ने बताया आप को? मैं यहां क्या कर रही हूं, मेरे पापा…’’ दिया का सब्र का बांध टूट गया. वह फिर से फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘कितने नीच हैं ये लोग. इंसान तो हैं ही नहीं. न जाने कितनी लड़कियों का जीवन बरबाद कर दिया होगा. पंडित भगवान का एजेंट नहीं होता और न ही संन्यासी योगी. योगी के रूप में ऐसे भोगियों की कमी कहीं नहीं है. पूरे संसार भर में व्यापार फैला कर बैठे हैं ये लोग.’’

दिया बहुत ज्यादा असहज थी. धर्म को लग रहा था कि अब किसी की भी परवा किए बिना वह कुछ न कुछ कर ही बैठेगी. ‘‘सच, तुम ठीक कह रही हो, दिया. इन का व्यापार पूरे संसार में ही तो फैला हुआ है. वहां ईश्वरानंद नहीं होंगे तो कोई और बहुरुपिया होगा. मनुष्य मानवधर्म का पालन तो कर नहीं सकता जबकि बेहूदी चीजों में घुस कर अपना और दूसरों का जीवन बरबाद कर देता है. ‘‘दिया, अब पानी सिर के ऊपर से जा रहा है. अब अगर कुछ न सोचा तो कुछ नहीं कर सकेंगे. मैं अभी तुम्हें पासपोर्ट दिखाता हूं,’’ धर्म ने उठ कर अपनी अलमारी खोली. दिया को अलमारी में बड़ी सी ईश्वरानंद की तसवीर पीछे की ओर रखी हुई दिखाई दी.

अचानक वह चौंक उठा, ‘‘अरे, मैं ने तो ईश्वरानंद की तसवीर के पीछे रखा था तुम्हारा पासपोर्ट. यहां पर तो है ही नहीं, दिया,’’ धर्म पसीना पोंछने लगा था.

‘‘धर्म, आर यू श्योर, यहीं था मेरा पासपोर्ट?’’

धर्म की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा हो कैसे सकता है? घर उस का, रखा उस ने फिर कैसे गायब हो गया पासपोर्ट? उधर, दिया को फिर उस पर अविश्वास सा होने लगा. ऐसा तो नहीं कि धर्म उसे बेवकूफ बना रहा हो.

धर्म उस की मनोस्थिति को समझ रहा था परंतु उसे भी यह समझ नहीं आ रहा था कि दिया को क्या सफाई दे?

बेचारा धर्म रोने को हो आया. उसे खुद भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसे हुआ होगा? उस ने तो खुद यहां पर संभाल कर रखा था दिया का पासपोर्ट. ‘‘देखो दिया, अब हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हमें अब पुलिस की मदद लेनी ही पड़ेगी. मुझे पूरा विश्वास है कि यह काम ईश्वरानंद का ही है. पर दिया, एक बात है, अब हमें खुल कर लड़ाई लड़नी पड़ेगी. हमें खुल कर सामने आना पड़ेगा. हो सकता है मुझे भी कुछ सजा भुगतनी पड़े. पर ठीक है, अब और नहीं.’’ आधी रात हो चुकी थी. सारे वातावरण में सन्नाटा पसरा हुआ था. कहीं से भी कोई आवाज नहीं. इतने गहरे सन्नाटे में दिया और धर्म की धड़कनेें तेजी से चढ़उतर रही थीं. दोनों का मन करे या न करे, डू और नाट डू के हिंडोले में ऊपरनीचे हो रहा था और पौ फटते ही दोनों के दिल ने स्वीकार कर लिया था कि और कोई चारा ही नहीं है. उन्हें ऐंबैसी में जा कर बात करनी ही चाहिए.

धर्म को भीतर से महसूस हुआ कि उसे दिया का साथ देना ही होगा और स्वयं को भी इस गंदगी से बाहर निकालना होगा.

-क्रमश:

#lockdown: मेरे सामने वाली खिड़की पे (भाग-1)

अमन अभी घर में पैर रखने ही जा रहा था कि रचना चीख पड़ी. “बाहर…….. बाहर जूता खोलो. अभी मैंने पूरे घर में झाड़ू-पोंछा लगाया है और तुम हो की जूता पहनकर अंदर घुसे जा रहे हो.“

“अरे, तो क्या हो गया ? रोज तो आता हूँ” झल्लाते हुए अमन जूता बाहर ही खोलकरजैसे ही अंदर आने लगा, रचना ने फिर उसे टोका.

“नहीं, बैठना नहीं, जाओ पहले बाथरूम और अच्छे से हाथ-मुंह-पैर सब धोकर आओ और हाँ, अपना मोबाइल भी सेनीटाइज़ करना मत भूलना. वरना, यहाँ-वहाँ कहीं भी रख दोगे और फिरपूरे घर में इन्फेक्शन फैलाओगे” रचना की बात पर अमन ने उसे घूर कर देखा.‘हुम्म, घूर तो ऐसे रहे हैं जैसे खा ही जाएंगे. एक तो इस कोरोना की वजह से बाई नहीं आ रही है. सोसायटी वालों की तरफ से सख़्त मनाही है और ऊपर से इनकी नावाबी देखो.जैसे मैं इनके बाप की नौकर………..ये नहीं होता जरा की काम में मेरी थोड़ी हेल्प कर दें. नहीं, उल्टेकाम को और बढ़ा कर रख देते हैं. कहीं जूता खोल कर रख देंगे, कहीं भिंगा तौलिया फेंक आएंगे. कितनी बार कहा, हाथ धो कर फ्रिज या किचन का कोई समान छुआ करो.लेकिन नहीं, समझ ही नहीं आता इन्हें. बेवकूफ कहीं के.‘ अपने मन में ही भुनभुनाई रचना.

“हुं…..बड़ी आई साफसफाई पर लेक्चर देने वाली.समझती क्या है अपने आप को? जैसे इस घर की मालकिन यही हो. हाँ, करूंगा, जैसा मेरा मन होगा करूंगा.’ अमन भन्नाता हुआ अपने कमरे में घुस गया और दरवाजा भीडका दिया.

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‘वैसे, गलती इन मर्दों की भी नहीं है. गलती है उन माँओं की, जो बेटियों को तो सारी शिक्षा, संस्कार दे डालती है, पर अपने बेटों को कुछ नहीं सिखातीं, क्योंकि उन्हें तो कोई जरूरत ही नहीं है न सीखने की. बीबी तो मिल ही जाएगी बना कर खिलाने वाली’ अमन को भुनभुनाते देख, वह भी चुप नहीं रह पाई और बोल दिया जो मन में आया. बहुत गुस्सा आ रहा था उसे आज.कहा था अमन से, लॉकडाउन की वजह से बाई कुछ दिन काम पर नहीं आएगी, तो वह उसकी मदद कर दिया करे काम में, क्योंकि उसे और भी काम होते हैं. ऊपर से अभी ऑफिस का काम भी उसे घर से करना पड़ रहा है, तो समय नहीं मिल पाता है. लेकिन अमन ने ‘तुम्हारा काम है तुम जानो. मुझसे नहीं होगा’ कह कर बात वहीं खत्म कर दी,तो गुस्सा तो आयेगा ही न? क्या वह अकेली रहती है इस घर में ? जो सारे कामों की ज़िम्मेदारी उसकी ही है ?आखिर वह भी तो नौकरी करती है बाहर जाकर. यह बात अमन क्यों नहीं समझता.खाना खाते समय भी दोनों में घर के काम को लेकर बहस शुरू हो गई. रचना ने सिर्फ इतना कहा कि घर के कुछ समान लाने थे. अगर वह ले आता तो अच्छा होता. वह गई थी दुकान राशन का सामान लाने, पर वहाँ बड़ी लंबी लाइनें लगी थी इसलिए वापस चली आई.

“तो वापस क्यों आ गई ? क्या जरा देर खड़ी रह कर सामान खरीद नहीं सकती थी जो बार-बार मुझे फोन कर के परेशान कर रही थी ? एक तो मुझे इस लॉकडाउन में भी बैंक जाना पड़ रहा है, ऊपर से तुम चाहती हो कि मैं घर के कामों में भी तुम्हारी मदद कर दूँ? नहीं हो सकता है” चिढ़ते हुए अमन बोला.

“हाँ, पता है मुझे, तुम से तो कोई उम्मीद लगाना ही बेकार है.और क्या करती मैं, धूम में खड़ी-खड़ी पकती रहती ?फोन इसलिए कर रही थी कि तुम ऑफिस से आते हुए घर के सामान लेते आना? लेकिन नहीं,तुम तो फोन भी नहीं उठा रहे थे मेरा. वैसे, एक बात बताओ? अभी तो बैंक में पब्लिक डीलिंग हो नहीं रही है, फिर करते क्या हो, जो मेरा एक फोन नहीं उठा सकते या घर का कोई सामान खरीद कर नहीं ला सकते ? बोलो न ?घर-बाहर के सारे कामों की ज़िम्मेदारी मेरी ही हैक्या ? तुम्हें  कोई मतलब नहीं ?”

“पब्लिक डीलिंग नहीं  होती है तो क्या बैंक में काम नहीं होते हैं ? और ज्यादा सवाल मत करो मुझसे, जो करना है जैसे करना है समझो अपना, समझी. खुद तो आराम से ‘वर्क फ्रोम होम’ कर रही हो. जब मर्ज़ी आता है आराम कर लेती हो, दोस्तों से बातें कर लेती हो और दिखा रही हो कि कितना काम करती हो?” अमन की बातें सुनकर रचना दंग रह गई कि कैसा इंसान है ये ? जरा भी दर्द नहीं है ?क्या सोचता है वह घर में आराम करती रहती है?

“हाँ, बोलो न, क्या मुश्किल है, बताओ मुझे ? जब मन आए काम करो, जब मन आए आराम कर लो. इतना अच्छा तो है, फिर भी नाक-मुंहघुनती रहती हो. सच में, तुम औरतों को तो समझना ही मुश्किल है” अमन ने कहा तो रचना का पारा और चढ़ गया.अभी वह कुछ बोलती ही किउसकी दोस्त मानसी का फोन आ गया.

“हैलो, मानसी, बता,कैसा चल रहा है तेरा ? बच्चे-वच्चे सब ठीक तो हैं न ?” लेकिन मानसी बताने लगी कि बहुत मुश्किल हो रहा रहा है, घर-बच्चे और ऑफिस का काम संभालना. क्या करें कुछ समझ नहीं आ रहा है. “कोई चिंता मत कर. चलने दे जैसा चल रहा है. क्या कर सकती है तू ? लेकिन बच्चे और अपने स्वस्थ्य का ध्यान रख, वह जरूरी है अभी” थोड़ी देर और मानसी से बात कर रचना ने फोन रख दिया. फिर किचन का सारा काम समेट कर अपने टेबल पर जाकर बैठ गई.

उस दिन जब उसने मानसी से अपनी समस्या बताई थी कि घर में वह ऑफिस की तरह काम नहीं कर पा रही है और ऊपर से बॉस का प्रेशर बना रहता है हरदम, तब मानसी ने ही उसे सुझाया था कि बेडरूम या डायनिंग टेबल पर बैठकर काम करने के बजाय वह अपने घर के किसी कोने में ऑफिसजैसा बना ले और वहीं बैठकर काम करे, तो सही रहेगा.  जब ब्रेक लेने का मन हो तो अपनी सोसायटी के एक चक्कर लगा आए.  या पार्क में कुछ देर बैठ जाए. तो अच्छा लगेगा, क्योंकि वह भी  ऐसा ही करती है. “अरे, वाह ! क्या आइडिया दिया तूने मानसी. मैं ऐसा ही करती हूँ” कहते हुए चहक पड़ी थी रचना.लेकिन मानसी की स्थिति जानकर दुख भी हुआ.

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मानसी बताने लगी कि उसकेदो-दो बच्चे हैं ऊपर से बूढ़े सास-ससुर, घर के काम के साथ-साथ उनका भी बराबर ध्यान रखना होता है और अपने ऑफिस का काम भी करना पड़ता है. पति हैं की जहां हैं वहीं फँस चुके हैं आ नहीं सकते, तो उसपरही घर-बाहर सारे कामों की ज़िम्मेदारी पड़ गयी है. उस पर भी कोई तय शिफ्ट नहीं है कि उसे कितने घंटे काम करना पड़ता है. बताने लगी कि कल रात वह 3 बजे सोयी, क्योंकि दो बजे रात तक तो व्हाट्सऐप पर ग्रुप डिस्कशन ही चलता रहा  कि कैसे अगर वर्क फ्रोम होम लंबा चला तो, सबको इसकी ऐसी प्रैक्टिस करवाई जाए कि सब इसमें ढल जाएँ.  उसकी बातेंसुनकर रचना का तो दिमाग ही घूम गया. जानती है वह कि उसके बच्चे कितने शैतान हैं और सास-ससुर ओल्ड.‘कैसे बेचारी सब का ध्यान रख पाती होगी ?’ सोचकर ही उसे मानसी पर दया आ गई.लेकिन इस लॉकडाउन में वह उसकी कोई मदद भी तो नहीं कर सकती थी. सो फोन पर ही उसे ढाढ़स बँधाती रहती थी.

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तसवीर: भाग-3

औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी? न्यूजर्सी अपनी भतीजी के पास रहेंगी या…’

‘और कहां जाऊंगी? मेरा तो और कोई ठौर नहीं है,’ मालविका ने कहा.

‘मेरा एक सुझाव है. यदि अन्यथा न समझें तो आप कुछ दिन मेरे यहां रह सकती हैं.’

‘आप के यहां?’ मालविका चौंक पड़ी, ‘लेकिन आप की पत्नी, आप का परिवार?’

केशवन हंस दिया, ‘मैं अकेला हूं. विश्वास कीजिए मुझे आप के रहने से कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि इस में मेरा भी एक स्वार्थ है. मैं कभीकभी अपने देश का खाना खाने को तरस जाता हूं. हो सके तो मेरे लिए एकाध डिश बना दिया करिए और कौफी का तो मैं बहुत ही शौकीन हूं. दिन में 5-6 प्याले पीता हूं. आप बना दिया करेंगी न?’

वह हंस पड़ी. वह उस से ढेरों सवाल करना चाहती थी. वह अकेला क्यों था? उस की बीवी कहां थी? लेकिन वह अभी उस के लिए नितांत अजनबी थी इसलिए उस ने चुप्पी साध ली.

केशवन के घर पर आ कर उसे ऐसा लगा था कि वह अपने मुकाम पर पहुंच गई है.

उसे एक फिल्मी गाना याद आया. ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते…’

2 माह में ही वह ठीक हो कर चलने लगी. इतने दिन में केशवन के घर का चप्पाचप्पा उस का हो गया. उस ने बड़ी जतन से उसे ठीक कर दिया. वह डाक्टर का एहसान सेवा से चुकाना चाहती थी, उधर केशवन की बात ने उसे अंदर तक हिला दिया.

लेकिन मालविका ने सोचा, आज उस के जीवन में ये अनहोनी घटी थी. उस का गुजरा हुआ मुकाम फिर लौट आया था. जिस आदमी की तसवीर को देखदेख कर उस ने इतने साल गुजारे थे वह आज उस के सामने खड़ा था और उसे अपनाना चाह रहा था. ये एक चमत्कार नहीं तो क्या था. उस ने अपने लिए थोड़ी सी खुशी की कामना की थी. केशवन ने उस की झोली में दुनिया भर की खुशी उड़ेल दी थी.

भला ऐसा क्यों होता है कि इस भरी दुनिया में केवल एक व्यक्ति हमारे लिए अहम बन जाता है? उस ने सोचा. ऐसा क्यों लगता है कि हमारा जन्मजन्मांतर का साथ है, हम एकदूसरे के लिए ही बने हैं. एक चुंबकीय शक्ति हमें उस की ओर खींच ले जाती है. हर पल उस मनुष्य की शक्ल देखने को जी करता है, उस से बातें करने के लिए मन लालायित रहता है. उस की हर एक बात, हर एक आदत मन को भाती है. उस के बिना जीवन अधूरा लगता है, व्यर्थ लगता है. उस की छुअन शरीर में एक सिहरन पैदा करती है, तनमन में एक मादक एहसास होता है और हमारा रोमरोम पुकार उठता है- यही है मेरे मन का मीत, मेरा जीवनसाथी.

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इस मनुष्य की तसवीर के सहारे उस ने इतने साल गुजार दिए थे. आज वह उस के सामने प्रार्थी बन कर खड़ा था. उस से प्यार की याचना करते हुए. क्या वह इस मौके को गवां देगी?

नहीं, उस ने सहसा तय कर लिया कि वह केशवन का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी. अगर उस ने ये मौका हाथ से निकल जाने दिया तो वह जीवन भर पछताएगी. आज तक वह औरों के लिए जीती आई थी. अब वह अपने लिए जिएगी और रही उस के परिवार की बात तो चाहे उन्हें अच्छा लगे चाहे बुरा, उन्हें उस के निर्णय को स्वीकार करना ही होगा.

घड़ी का घंटा बज उठा तो उस की तंद्रा भंग हुई. ओह वह बीते दिनों की यादों में इतना खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही न रहा. वह उठी और उस ने एकएक कर के घर का काम निबटाना शुरू किया. उस ने कमरों की सफाई की. आज उसे इस घर में एक अपनापन महसूस हो रहा था. हर एक वस्तु पर प्यार आ रहा था. उस ने केशवन के कपड़े करीने से लगाए. बगीचे से फूल ला कर कमरों में सजाए.

उस की निगाहें घड़ी की ओर लगी रहीं. जैसे ही घड़ी में 10 बजे घर का मुख्य द्वार खुला और केशवन ने प्रवेश किया.

‘‘ओह,’’ वह एक कुरसी में पसर कर बोला, ‘‘आज मैं बहुत थक गया हूं. आज सुबह 3 औपरेशन करने पड़े.’’

मालविका के मन में केशवन पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. उस ने कौफी का प्याला आगे बढ़ाया.

‘‘ओह, थैंक्स.’’

वह कौफी के घूंट भरता रहा और उसे एकटक देखता रहा.

वह तनिक असहज हो गई, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें देख रहा हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर एक नई आभा है, एक लुनाई है, एक अजब सलोनापन है. ये कायापलट क्यों हुई?’’

वह लजा गई, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘शायद जानता हूं पर तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

उस के मुंह से बोल न निकला.

‘‘मालविका, कल मैं ने तुम से कुछ पूछा था. उस का जवाब क्या है बोलो, हां कि ना?’’

मालविका ने धीरे से कहा , ‘‘हां.’’

केशवन ने उठ कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

‘‘मालविका, आज मैं बहुत खुश हूं मुझे मालूम था कि तुम मेरा प्रस्ताव नहीं ठुकराओगी. तभी मैं ने तुम्हारे लिए ये अंगूठी पहले से ही खरीद कर रखी थी.’’

उस ने जेब से एक मखमली डब्बी निकाली और उस में से एक हीरे की अंगूठी निकाल कर उस की उंगली में पहना दी.

‘‘मैं तुम्हें एक और चीज दिखाना चाहता था.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘केशवन ने अपना हाथ आगे किया. मालविका चिंहुक उठी. उसे लगा वह रंगे हाथों पकड़ी गई है.’’

‘‘अरे,’’ वह हकलाने लगी, ‘‘ये तसवीर तो मेरे बक्से में थी. ये आप को कहां से मिली?’’

‘‘ये तसवीर मैं ने आप के बक्से से नहीं ली मैडम. ये तो मेरे मेज की दराज में पड़ी रहती है.’’

‘‘मालविका अवाक उस की ओर देखने लगी. शर्म से उस की कनपटियां लाल हो गईं.’’

मालविका की प्रतिक्रिया देख कर केशवन हंस पड़ा, ‘‘अरे पगली, जिस तरह तुम ने हमारी मंगनी के अवसर पर ली गई ये तसवीर संभाल कर रखी थी, उसी तरह मैं ने भी एक तसवीर मौका पा कर उड़ा ली थी. इसे जबतब देख कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करता था.’’

वह झेंप गई. ‘‘ओह, तो आप जान गए थे कि मैं कौन हूं.’’

‘‘और नहीं तो क्या. तुम ने क्या सोचा कि मुझे अनजान लोगों का मुफ्त इलाज करने का शौक है? उस दिन अस्पताल में तुम्हें मैं पहली नजर में ही पहचान गया था. तुम्हें भला कैसे भूल सकता था? आखिर तुम मेरा पहला प्यार थीं.’’

‘‘और आप ने यह बात मुझ से इतने दिनों तक बड़ी होशियारी से छिपाए रखी,’’ उस ने मीठा उलाहना दिया.

‘‘और करता भी क्या. तुम्हारा आगापीछा जाने बगैर मैं अपना मुंह न खोलना चाहता था. मैं तो यह भी न जानता था कि तुम शादीशुदा हो या नहीं, तुम्हारे बालबच्चे हैं या नहीं. तुम्हें अचानक अपने सामने देख कर मैं चकरा गया था. जब तुम्हें रोते हुए देखा तो कारण जान कर तुम्हारी मदद करने का फैसला कर लिया.

‘‘जब हमारी बातों के दौरान यह पता चला कि तुम्हारी शादी नहीं हुई है और न ही तुम्हारे जीवन में और कोई पुरुष आया है तो मैं ने तुम्हें अपना बनाने का निश्चय कर लिया. मेरा तुम्हें अपने घर बुलाने का भी यही मकसद था. मैं तुम्हारा मन टटोलना चाहता था. मैं चाहता था कि हम दोनों में नजदीकियां बढ़ें. हम एकदूसरे को जानें और परखें और जब मैं ने जान लिया कि तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई कड़वाहट नहीं है, कोई मनमुटाव नहीं है तो मेरी हिम्मत बढ़ी. मैं ने तुम से शादी करने की ठान ली.’’

मालविका की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. इतने बड़े संयोग की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

केशवन ने उसे बांहों में भींच लिया, ‘‘एक बार भारी गलती की कि अपने पिता का विरोध न कर तुम्हें खो दिया. शादी के बाद घर पहुंच कर मैं ने अपने पिता से बहुत बहस की पर वे यही कहते रहे कि उन्होंने मेरी पढ़ाई पर अपनी सारी पूंजी लगा दी है और ये रकम वे कन्या पक्ष से वसूल कर के ही रहेंगे. मैं ने भी गुस्से से भर कर अमेरिका जाने की ठान ली जहां से ढेर सारे डौलर कमा कर अपने पिता को भेज सकूं और उन की धनलोलुपता को शांत कर सकूं. उस के बाद नैन्सी मेरे जीवन में आई और मैं ने तुम्हें भुला देना चाहा.

‘‘मैं मानता हूं कि मैं ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया. अब मैं तुम से शादी कर के इस का प्रतिकार करना चाहता हूं.

मालविका क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दोनों का मिलन अवश्यंभावी था? किसी अज्ञात शक्ति ने हमें एकदूसरे से मिलाया है. नहीं तो न तुम अमेरिका आतीं और न हम यों अचानक मिलते.’’

उस ने मालविका के आंसू पोंछे, ‘‘यह समय इन आंसुओं का नहीं है. ये हमारी नई जिंदगी की शुरुआत है. मालविका, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. जो कुछ बीत गया उसे भुला दो और भावी जीवन की सोचो. हमें एकदूसरे का साथ मिला तो हम बाकी जिंदगी हंसतेखेलते गुजार देंगे, कल हम अपनी शादी के लिए रजिस्ट्रार औफिस जाएंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘फिर भी शादी के लिए हमें 2-4 चीजों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मसलन, नई साड़ी, मंगलसूत्र वगैरह…’’

‘‘मंगलसूत्र मेरे पास है.’’

‘‘अरे वह कैसे?’’

‘‘मैं आप का दिया हुआ ये मंगलसूत्र हमेशा अपने गले में पहने रहती हूं. यह 20 साल से एक कवच की तरह मेरे गले में पड़ा हुआ है.’’

‘‘सच?’’ केशवन हंस पड़ा. उस ने झुक कर मालविका का मुंह चूम लिया.

मालविका का सर्वांग सिहर उठा. उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर एक फूल की तरह खिलता जा रहा है. वह केशवन के आगोश में सिमट गई. उसे अपनी मंजिल जो मिल गई थी.

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ज़िंदगी-एक पहेली: भाग-8

पिछला भाग- ज़िन्दगी –एक पहेली: भाग-7

अविरल अब अंदर तक टूट चुका था, पहले तो उसकी जान से भी ज्यादा प्यारी बहन उसे छोड़ गयी थी और दूसरी अनु की डायरी में लिखी बातें उसे अंदर से खोखला कर रहीं थी. उसका मन उदास सा रहने लगा. अविरल की जिंदगी में तो दोहरा आघात हुआ था. वह हर समय सोचता रहता कि काश मसूरी  जाने की जगह मैं अपनी बहन के पास आ जाता तो शायद आज वह मेरे साथ होती. अविरल का दिल भर आता और वह बाहर निकल जाता. कहीं न कहीं वह अपने आप को भी इसका दोषी मानने लगा.

अविरल की मम्मी और मौसी में बहुत प्यार था. सभी जानते थे कि अविरल की मौसी मुँह  की तो बहुत तेज हैं लेकिन दिल की बहुत अच्छी हैं. अविरल की मौसी हर समय सभी का ख्याल रखती. वह अनु के कॉलेज की बात सभी को बताना चाहती थी लेकिन उचित समय का सोचकर रुक गयी.

दिल्ली में ही अविरल की मौसी के घर के पास एक और परिवार रहता था जिनका उसकी  मौसी के घर बहुत आना जाना था. दोनों एक ही परिवार की तरह रहते थे. उस घर में एक लड़की थी जिसका नाम निशि था. अमन और निशि एक-दूसरे को पसंद भी करते थे और यह बात दोनों के घर वालों को पता भी थी. अविरल और अनु बचपन से ही उनके घर जाते और घंटों निशि के साथ खेलते रहते. निशि भी बच्चों की तरह उनके साथ खेलती. उसका सभी लोगों से बहुत लगाव था.

अनु के चले जाने के बाद निशि भी बहुत ज्यादा दुखी रहती थी . उसे तो इस बात का विश्वास ही नहीं हो रहा था. 3-4 दिन बाद अविरल अकेले ही निशि के घर पहुंचा, यह पहली बार था जब अवि अकेले वहाँ गया हो क्योंकि  हर बार अनु उसके साथ होती थी. निशि ने जैसे ही अवि को देखा, उसे रोना आ गया. दोनों ही एक दूसरे को ढाढ़स देने लगे.

अविरल को मौसी के घर से अच्छा निशि के साथ लगता था. वह उसे हमेशा निशि दीदी कहकर बात करता. अविरल रोज निशि के घर जाने लगा. निशि भी अविरल को सगे भाई जैसा प्यार करती. अविरल ने निशि से पूंछा कि “दीदी आप अमन भैया को पसंद करती हैं”. निशि थोड़ी देर शांत रही फिर बोली “हाँ”. अविरल ने निशी से बोला कि “दीदी जब आप भाभी बनकर घर आओगी तो मैं तो सारा दिन आपके साथ ही बैठा रहूँगा”. इसपर निशी बोली कि “मुझे तो सबसे ज्यादा खुशी इसी बात कि है कि मैं उस परिवार का हिस्सा बनूँगी”.

कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा लेकिन फिर अमन को अविरल का निशि के घर जाना अच्छा नहीं लगता.वह अब अविरल को निशि के घर जाने से मना कर देता. अविरल दुखी होकर रुक जाता.

एक माह बाद अविरल और उसका परिवार देहारादून वापस लौट गए. दिल्ली में तो निशि उसका बहुत बड़ा सहारा बन गयी थी लेकिन देहारादून में वह बहुत अकेला फील करने लगा. लेकिन कहते हैं न कुछ भी हो जाए, समय किसी के लिए नहीं रुकता लेकिन अविरल और उसके परिवार के लिए के लिए उनकी जिंदगी रुक गयी थी. बहुत कोशिश के बाद भी जिंदगी आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी.

अविरल कुछ दिनों बाद सुमि और आसू से मिला. कुछ समय और बीता. दिसम्बर का महिना आ चुका था और अविरल के 12th के एक्जाम भी करीब आ रहे थे. अविरल को अपने एक्जाम कि चिंता सताने लगी.

अविरल के दिमाग में हमेशा दो बातें घूमती रहती थी. पहली कि अनु ने कहा था “भैया तुम्हें मुझसे ज्यादा नंबर लाने हैं” और दूसरी अपने पापा कि बात जो उन्होने अविरल कि मम्मी से बोली थी कि “अब हमें सिर्फ इनके लिए जीना है”.

अविरल सुमि को अपनी बहन की तरह मानता था. अविरल जब भी सुमि से मिलता तो उन दोनों के बीच अब सिर्फ आसू की ही बात होती थी जिससे कुछ समय बाद अविरल ने अपने लिए बहुत ही कठिन फैसला लिया. उसने फैसला लिया कि सुमि और आसू से अलग हो जाएगा.

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एक दिन अविरल ने सुमि से बोला कि “सुमि अब मैं ही हूँ अपने घर में, मुझे ही अपने घर को संभालना है और पापा के सपने पूरे करने हैं तो आज के बाद से  मैं तुम लोगों से नहीं मिलूंगा ” तो सुमि ने बोला कि “मेरे भाई मैं तुमसे जान बूझकर दूसरी बातें करती हूँ जिससे तुम्हारा मन बहल जाए. तुम्हारी उदासी मुझसे सहन नहीं होती. मैं यह नहीं कर सकती”. अविरल शांत हो गया और वहाँ से चला गया.

अविरल अब फिर से डिप्रेशन में जाने लगा था. उसका हकलापन भी कई गुना बढ़ चुका था जिसे अनु ने इतनी मुश्किल से कम किया था. अब अविरल कि तबीयत खराब रहने लगी. उसके पेट में दर्द बना रहता. अविरल के मम्मी पापा अब पेट में किसी भी दिक्कत से इतना डर गए थे कि कुछ भी होने पर अब वह सीधा दिल्ली में ही इलाज़ कराते थे तो वह अविरल को लेकर दिल्ली आ गए और उसका इलाज़ दिल्ली के सबसे अच्छे डॉक्टर से कराने लगे. अविरल के सारे टेस्ट हो गए लेकिन कुछ नहीं निकला.

अविरल सारा दिन तो ठीक रहता और शाम होते ही उसे इतना दर्द होता कि वह तड़प जाता. अविरल के मम्मी पापा से यह देखा न जाता. एक तरफ वह अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज़ करा रहे थे और दूसरी तरफ अविरल की मम्मी रात दिन भगवान से प्रार्थना करती. अविरल  का जब भी पेट दर्द होता, वह बेहोश सा होने लगता तब कार्तिक उसे गोद में लिए-लिए घूमता. करीब 1 महीने बाद अविरल की तबीयत में सुधार हुआ और वो लोग देहारादून वापस आ गए.

अब अविरल के एक्जाम शुरू होने वाले थे.

अविरल ने अपने पापा से कहा कि “पापा मैं इस साल एक्जाम ड्रॉप करना चाहता हूँ क्योंकि  अगर मै पास हो भी गया तो 2nd या 3rd डिविजन  पास हो पाऊँगा. जिससे कहीं भी एड्मिशन नहीं मिलेगा”.

अविरल के पापा का मन तो नहीं था कि अविरल एक्जाम ड्रॉप करे लेकिन उन्होने अभी कुछ नहीं कहा. अविरल के दिमाग में कहीं न कहीं अनु की बात चल रही थी “अनु से ज्यादा मार्क्स लाने वाली” तो वह 12th ड्रॉप करने में अड़ा हुआ था. अविरल कि मौसी लोगों ने भी बहुत कहा कि एक्जाम ड्रॉप मत करो लेकिन अविरल किसी की नहीं माना और एक्जाम ड्रॉप कर दिया.

अविरल ने अपनी तनहाई से बचने के लिए अनु कि डायरी को ही अपनी दोस्त बना लिया. वह डायरी को ही अनु समझने लगा था. वह अपनी हर बात डायरी  में लिख देता और उसे लगता कि उसने अनु को बता दिया है. उसे अब विश्वास होने लगा था कि अनु उसके साथ है. अविरल रात दिन पढ़ाई करता रहता लेकिन उसके दिमाग में कुछ नहीं घुसता. वह और परेशान रहने लगा.

एक दिन आसू ने अविरल से बोला कि सुमि को मसूरी जाना है तो हम लोग भी चलते हैं. तेरा मन थोड़ा बहल जाएगा. पहले तो अविरल नहीं माना लेकिन फिर बहुत ज़ोर देने पर वह मान गया.

कुछ दिनों बाद अविरल अपने घर में घूमने का बोलकर आसू के साथ चला गया. आसू और सुमि फिर से मंदिर में मिले. वहीं पर आसू ने पहली बार सुमि को गले लगाया. अविरल को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा. वह वहाँ से चला गया. आसू और सुमि समझ गए थे कि अविरल को बुरा लगा है लेकिन अविरल के दिमाग में कुछ और ही था. अविरल को लगता था कि वही प्यार पवित्र है जो बिना छूये हो तो अविरल को आसू कि मंशा पे शक हुआ. उसे लगा कि आसू सुमि को धोखा देगा.

उसने इस बारे में सुमि से बात भी की लेकिन सुमि ने कहा कि आसू उसे बहुत प्यार करता है, वह उसे नहीं छोड़ेगा. अविरल भी मान गया , लेकिन आसू को अब अविरल का सुमि से बात करना अच्छा नहीं लगता.उसे लगने लगा था की अविरल उसके और सुमि के बीच आना चाहता है.

अविरल को इस बात का एहसास हो गया था की आसू को अविरल का सुमि से बात करना अच्छा नहीं लगता है. अविरल ने सुमि से कहा ,”सुमि तुम  मुझसे बात करना बंद कर दो आसू को बुरा लगता है तो सुमि बोली कि “अवि तुम्हारे भरोसे ही तो मैंने आसू से प्यार किया है. अगर मैं तुमसे बात करना छोड़ूँगी तो आसू से भी छोड़ दूँगी”.

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अविरल अपना ध्यान सिर्फ पढ़ाई में लगाना चाहता था तो उसने एक कठिन फैसला लिया अपने आपको सुमि और आसू के सामने बुरा बनाने का जिससे कि वह उनसे अलग हो सके.

अगले पार्ट में हम जानेंगे कि अविरल  कैसे अपने आप को ही बुरा बनाएगा और क्या उसके बाद सुमि उसे छोड़ पाएगी? क्या अनु के बाद अवि सुमि से भी दूर हो पाएगा……

लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-11)

पिछला भाग- लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-10)

शुक्रवार आफिस से जल्दी उठ गई. सीधे पी सी ज्वैलर्स के शोरूम में आई. एक सुंदर सी चेन के साथ कुछ साफ्ट टायस खरीद घर आई. नहाधो तैयार हो जब चंदन के घर पहुंची तब लगा कि उस का बचपन लौट आया है. दोचार जनों को छोड़ सारे पुराने साथी वहां मौजूद थे. उसे देखते ही सब ने हाथोंहाथ लिया. सब की एक ही राय थी कि सारी सहेलियों में बस वो ही सब से सफल है इतने बड़े बिजनैस को चलाने वाली इतनी सी लड़की. पोलैंड से विकास, आस्ट्रेलिया से मृदुला भी आई हैं. मृदुला शिखा की सब से अच्छी सहेली है. अब एक तीन वर्ष के बेटे की मां है. सुकुमार को ले कर वो कई दिनों तक उस से नाराज रही. असल में अपने मृदुल स्वभाव के कारण सुकुमार सब को प्यारा था और अपने स्वभाव के कारण ही बंटी को कोई पसंद नहीं करता था. दोचार उस के चमचों को छोड़.

सब ने हाथोंहाथ लिया उसे. मन भर आया शिखा का. एकसाथ सब ने ग्रैजुएशन किया था फिर तो सब अपनेअपने जीवन के चुने हुए पथ पर चल पड़े, बिखर गए देशविदेशों में, पर आज समझ आया कि मन के सारे तार अभी भी एकदूसरे से जुड़े हुए हैं कहीं भी कोई तार नहीं टूटा.

हर्ष उल्लास, हंसीमजाक, छेड़छाड़ में खानापीना निबटा सब ने मिल कर निर्णय लिया कि रविवार के दिन चंदन के गुड़गांव वाले फार्म हाऊस में सब 10 बजे तक पहुंच जाएंगे. पूरा दिन एकसाथ बिता रात डिनर ले घर लौटेंगे. अभिनव के केटरिंग का व्यवसाय है और एक थ्री स्टार होटल भी है उस ने नाश्ते से ले कर डिनर तक की पूरी जिम्मेदारी ली. शिखा बहुत दिनों बाद बहुत खुश हुई. मन भी हलका हो गया. पर जानकीदास यह सुनते ही गंभीर हो गए.

‘‘रविवार शंकर के पिता की बरसी है उस ने पहले से ही छुट्टी ले रखी है और कारण भी ऐसा कि मना नहीं किया जा सकता. इतनी दूर तू अकेली?’’

‘‘अरे दादू दिल्ली अनजाना शहर है क्या मेरे लिए या मैं ड्राइव नहीं जानती.’’

‘‘फिर भी डर लगता है. मेहता परिवार बेघर हो बस्ती के एक कोठरी में सिर छिपाए हैं. बौखलाए घूम रहे हैं पर ऐंठ नहीं गई. तू ने हाथ ना उठाया होता तो उन का घर बच जाता अब तो सड़क पर हैं. गुस्सा तो आएगा ही.’’

‘‘दुर्गा मौसी तो उन की हितैषी थी. बारबार उन की वकालत करती थी तो अब अपने घर में जगह क्यों नहीं दी?’’

‘‘बुरे समय में साथ कोई नहीं देता?’’

‘‘बुरे समय को तो उन्होंने ही बुलाया है.’’

‘‘जाने दे मुझे तो बस तेरी चिंता है.’’

अचानक ही याद आया शिखा को.

‘‘दादू. पिछले कुछ दिनों से कुछ अजीब सी बात हो रही थी. कई बार सोचा बताऊंगी पर भूल भी जाती हूं.’’

चौंके वो.

‘‘क्या बात?’’

‘‘कुछ दिनों से मेरी गाड़ी के आसपास एक बाइक सवार को देख रही थी. उस का नंबर भी नोट कर लिया था. सोच रही थी बंटी ने ही उसे लगाया होगा मेरे पीछे कोई किराए का गुंडा होगा. उस का चेहरा नहीं देखा क्योंकि हमेशा हेलमेट में रहता है. सुगम लंबा शरीर है देख कर लगता है कि शरीर को तैयार किया है जिम जा कर. हमेशा ब्लू जींस और दो फोल्ड आस्तीन चढ़ी सफेद फुलशर्ट ही पहनता है. मैं  उस के बाइक का नंबर ले पुलिस में रिपोर्ट करने ही वाली थी कि पिछले हफ्ते की एक घटना ने मेरी धारणा ही बदल दी. मैं जिस को दुश्मन समझ रही थी वो तो मेरा दोस्त निकला. मेरी जान बचाई.’’

‘‘ऐसा क्या हुआ?’’

‘‘उस दिन बारह बजे के आसपास मैं अकेली ही गाड़ी ले कर स्टेट बैंक गई थी. काम था अंदर जगह नहीं थी तो कई गाडि़यां गेट के बाहर खड़ी थीं मैं ने भी किनारे पर खड़ी कर दी. काम निबटा बाहर आई तो देखा कि मेरी गाड़ी के पास हंगामा हो रहा है. दौड़ कर आई तो देखा वही बाईक वाला लड़का अकेले दो सड़कछाप वालों की धुनाई कर रहा है हेलमेट तक नहीं उतारा पता चला दोनों गाड़ी के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे तो उस बाईक सवार ने दोनों को दबोच पिटाई शुरू की तो उन्होंने कबूला कि किसी ने पैसे दे कर गाड़ी में बम फिट करवाने को कहा था. समय पर उस ने ना पकड़ा होता तो…’’

बात मामूली नहीं भयानक थी पर शिखा ने अवाक हो कर देखा कि दादू विचलित नहीं हुए सामान्य भाव से बोले,

‘‘मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है.’’

‘‘तभी तो कह रही हूं कि मैं आराम से गुड़गांव चली जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है. इधर से मोहिता और संदीप जाएंगे.’’

‘‘हां दादू. उन के साथ ही लौटूंगी. उन के घर से तो अपना इलाका शुरू होता है. बस

10 मिनट में अपना घर.’’

पर उसी 10 मिनट में जो होना था हो गया. शिखा का अपहरण हो गया. उस समय 10 बज रहे थे जब शिखा ने संदीप का साथ छोड़ अपने घर के रास्ते मुड़ी पर घर नहीं पहुंची. ‘कुंजवन’ में हाहाकार मच गया. लच्छो सिर पीटपीट रो रही थी बाकी नौकरचाकर भी परेशान, जाग कर बैठे थे. जानकीदास संभवअसंभव जगह फोन कर परेशान हो रहे थे. पुलिस में अपहरण की रिपोर्ट लिखवाई गई पर अभी तक कुछ पता नहीं. जानकीदास टूटने लगे. तभी फिरौती का फोन आया 1 करोड़ दो तो पोती मिलेगी, उन्होंने कांपते स्वर में कहा, ‘‘बच्ची को लौटा दो. पैसे मिल जाएंगे.’’

‘‘लौटने के बाद पैसा कोईर् नहीं देता. पहले पैसा.’’

‘‘पर बिना उस के पैसा कहां से आएगा? मैं तो कर्मचारी हूं. सारा एकाउंट उसी के नाम है उस के बिना पैसा आएगा कहां से?’’

‘‘सोनी कंपनी’’ का नाम कौन नहीं जानता. एक करोड़ आटे में नमक बराबर है. जिस से मांगोगे वही दे देगा.

‘‘तुम कौन हो?’’

‘‘बेवकूफ समझ रखा है जो पताठिकाना दे दूं.’’

‘‘देखो तुम समझदार हो. बिना शिखा के कहीं से पैसा नहीं मिलेगा. मैं कंपनी का नौकर भर हूं. मेरे कहने पर कोई सौ रुपए भी उधार नहीं देगा.’’

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‘‘समस्या तुम्हारी है. जुगाड़ करो पोती को सही सलामत ले जाओ नहीं तो…’’

‘‘ना…ना… उसे कुछ मत करना.’’

फोन काट दिया… जानकीदास सिर पकड़ बैठ गए. पूरा विश्वास है कि काम बंटी का है पर फोन पर आवाज उस की नहीं थी कोई सड़कछाप की आवाज थी.

धीरेधीरे चेतना लौटी शिखा की. एक गंदी कोठरी में नंगी चारपाई पर अपने को पड़े पाया. वो उठ बैठी. सिर को झटका धीरेधीरे दिमाग पर छाई धुंध साफ होने लगी. क्या हुआ था उस के साथ. उस के सिर में एक झनझनाहट थी. धीरेधीरे याद आया अपने दोस्त के घर के सामने विदा लेने वो कुछ मिनटों के लिए गाड़ी से उतरी थी मोहिता से बात कर रही थी जब गाड़ी में आ कर बैठी तब एक हलकी मीठी सी सुगंध उस के नाकों में आई थी. वो सुगंध उस की चेतना पर छा रही थी. गाड़ी स्टार्ट करने से पहले ही उसे नींद आने लगी थी फिर कुछ याद नहीं. उस ने सिर झटका तो धुंधलापन साफ हुआ. चारों ओर देखा उस ने. नंगी चारपाई पर लेटने से उस के शरीर में जलन हो रही थी और शरीर के खुले भागों में दाग पड़ गए थे. सिरहाने ऊंचाई पर खुली खिड़की से नरम धूप का कतरा नीचे उतर कर आ रहा था पता नहीं यह धूप डूबते सूरज की है या चढ़ते सूरज की. पर उस से अंदर सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था. छोटा सा कमरा कबाड़ से भरा बस एक यही चारपाई जरा साफ है. सामने दरवाजा बंद है पर बाहर लोगों के बातचीत से लग रहा था कि किसी बस्ती के बीच में है यह कमरा. पल में शिखा समझ गई कि उस का अपहरण हुआ है. वो सुगंध जो गाड़ी में मिली थी वो कोई बेहोशी की दवा थी. जब मोहिता से बात कर रही थी तभी ड्राइविंग सीट की खुली खिड़की से किसी ने स्प्रे किया होगा. वो समझ गई यह बंटी का काम है. उसे डर नहीं लगा गुस्सा आया. कितना गिरा हुआ इंसान है. पर अब प्रश्न है कि वो कुछ पैसे ले कर उसे छोड़ेगा या पूरा का पूरा ग्रौस वीडियो कैमरा चला इसी कोठरी में जबरदस्ती उस से ब्याह करने का नाटक करेगा. अगर ऐसा किया तो बड़ी भयानक बात होगी. पता नहीं कितना समय बीत गया, दादू को हार्ट अटैक न हो जाए. यहां से मुक्ति पाने का कोई उपाय तो इस समय दिखाई नहीं दे रहा.

थोड़ी देर वो बैठ कर सोचती रही. बाहर की चहलपहल कम हो गई. अवश्य ही मेहनती मजदूरों की बस्ती है. लोग काम पर जाने लगे होंगे. अचानक दरवाजा खुला और खुलते ही शिखा समझ गई यह डूबते सूरज की किरण नहीं सुबह की कच्ची धूप है. वो रात भर यहां कैद थी पर एक रात या दो रात? कौन जाने? बंटी के हाथ में एक गंदा शीशे का गिलास, उस में दो घूंट काली काढ़ा जैसी चाय. उस ने गिलास बढ़ाया, ‘‘चाय पी लो.’’

सिर तक जल उठा शिखा का.

‘‘हां मैं ने सही सोचा ऐसा घिनौना काम और कौन करेगा.’’

‘‘चुप हरामजादी. तू इसी लायक है. यही भाषा समझती है. शराफत से ही पैसे मांगे थे वो बात समझ में नहीं आई अब सड़ इस कोठरी में.’’

अब शिखा का मनोबल लौट आया था.

‘‘यहां सड़ाने तो लाया नहीं है तू मुझे, लाया तो है पैसों के लिए.’’

‘‘जल्दी समझ गई. ज्यादा नहीं 2 करोड़ चाहिए.’’

‘‘उस में कितने दिन की अय्याशी चलेगी?’’

‘‘ए चुप. बोल कैसे देगी?’’

‘‘मैं यहां रही तो एक पैसा भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘मैं बेवकूफ नहीं. तेरे दोस्त बड़ेबड़े लोग हैं तू उन से मांग कर 2 करोड़ देगी.’’

‘‘मानो दे दिया. उस के बाद भी मुझे नहीं छोड़ा तो.’’

‘‘कुछ भी हो सकता है. मेरी मुट्ठी में बंद है तू. तेरा मरनाजीना मेरे हाथ में है. मेरा जो अपमान हुआ है उस का हिसाब भी बाकी है.’’

‘‘देख बेवकूफ मैं भी नहीं. तू मुझे मार नहीं सकता. पैसों की खान को कोई मारता है क्या?’’

‘‘पहले तू दो करोड़ का इंतजाम कर.’’

‘‘एक पैसा भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘तो फिर देख, पिटाई से क्या नहीं होता.’’

हाथ उठा वो शिखा की ओर बढ़ता कि जबड़े पर एक भरापूरा झापड़ खा दीवार से जा टकराया. वहां से कालर पकड़ खींच कर उस की पिटाई शुरू हो गई. शिखा ने अवाक हो देखा  वही नीली जींस आस्तीन चढ़ी सफेद शर्ट और हेलमैट से ढका चेहरा पुलिस की पूरी टीम अंदर आ गई. आफिसर ने बंटी को बालों से पकड़ा.

‘‘आप छोड़ दीजिए सर. इस की खबर अब हम लेंगे. इसे हवालात ले चलो.’’

‘‘आफिसर आप इसे ले जाओ. मैं इन को घर पहुंचा देता हूं.’’

‘‘जी सर. एक बार थाने जरूर आइए. क्रिमिनल को रंगे हाथ पकड़ने का श्रेय आप को जाता है. शिखा लड़खड़ा कर गिरने को थी उस ने दोनों हाथों से संभाला. गाड़ी में बैठा ड्राइविंग सीट पर हेलमेट उतारा. शिखा लिपट कर रो पड़ी.’’

‘‘कहां चले गए थे तुम मुझे छोड़.’’

‘‘कहीं नहीं पासपास ही था. दादू ही तो हैं मेरे फरिश्ता.’’

‘‘दादू.’’

शिखा ने अवाक हो देखा.

‘‘हां उन के लिए ही मैं प्रतिष्ठित हूं आज.’’

‘‘सुकुमार तुम को पता नहीं उस दिन मैं ने तुम को…’’

उस ने रोका.

‘‘मुझे पता है. उस दिन पता नहीं था पीछे दादू ने ही बताया था.’’

‘‘दादू ने कब?’’

‘‘तभी दोतीन दिन बाद.’’

‘‘हे भगवान. दादू को सब पता था फिर भी अनजान बन कर उस से पूछते रहे.’’

घर आते ही दादू से लिपट गई वो. चैन की सांस ली जानकीदास ने.

‘‘अब देखता हूं वो दुष्ट बाहर कैसे आता है. कई केस एक साथ लगाता हूं. सुकुमार बोला,’’

‘‘दादू. आप की पोती की रक्षा का भार आप ने मुझे सौंपा था आज सही सलामत आप की अमानत आप को सौंप कर जा रहा हूं. अब मैं चलूं?’’

शिखा व्याकुलता से बोली.

‘‘दादू. रोको इसे.’’

वो बढ़ आए.

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‘‘कहां चले.’’

‘‘उस को बाहों में ले लिया.’’

‘‘यह ‘कुंजवन’ है राधाकृष्ण की लीला भूमि यहां कब से अकेली राधा बैठी तड़प रही है. उस के साथ ‘कुंजवन’ भी उदास था. सूना था कृष्ण के पैर पड़ते ही दोनों खिल उठे. चहक उठे. अब यहां से कहीं नहीं जा सकते. अंदर चलो.’’

लच्छो मौसी आरती की थाल ले आई.

लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-10)

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पर उस दिन रात भर वो सो नहीं पाए. आधी रात के बाद वो मोबाइल पर दबे गले से किसी से बात करते रहे. सुबह नाश्ता करते समय जानकीदास सामान्य लग रहे थे. बंटी के धमकी के विषय में उन्होंने कोई बात नहीं उठाई. यों ही साधारण बातें कर रहे थे. तनाव भी नहीं था उन के मुख पर. शिखा थोड़ी अवाक हुई. कल रात भी जब सोने गए थे तब भयानक तनाव में थे शिखा को चिंता थी कि कहीं उन की तबियत ना खराब हो जाए पर इस समय उन को देख लग ही नहीं रहा कि उन को कुछ भी चिंता है. चैन की सांस ली उस ने. हलकीफुलकी बातों के बीच में ही अचानक उन्होंने प्रश्न किया,

‘‘बेबी, क्या तू जानती है कि सुकुमार कहां है.’’ अवाक हुई शिखा. उस दिन की घटना को 5 वर्ष बीत गए. दादू ने कभी सुकुमार का नाम तक नहीं लिया और आज अचानक. उस ने अवाक हो दादू को देखा.

‘‘मैं…मुझे क्या पता दादू? मैं ने वचन दिया था कि उस से संपर्क नहीं रखूंगी.’’

बात संभालते जानकीदास ने कहा.

‘‘नहीं… कहीं रास्ते में या बाजार में दिखाई पड़ा हो.’’

‘‘ना दादू. कहीं नजर नहीं आया. आता तो बताती.’’

‘‘लड़का कहां खो गया.’’

‘‘खो ही गया होगा. इस शहर में उस के लिए है ही क्या. पर दादू आज इतने दिनों बाद उस की याद?’’

‘‘संकट की घड़ी में ही कोई भरोसे की जगह खोजता है.’’

‘‘वो होता भी तो इन बदमाशों से नहीं भिड़ पाता पर हां मेरा मनोबल बढ़ जाता.’’

‘‘बेटा अब तुझे फैसला लेना ही होगा. मेरी ढलती उम्र है किसी भी दिन चला जाऊंगा और तू इतने बड़े संसार में इतने बड़े कारोबार के साथ एकदम अकेली तेरे पापा को भी क्या जवाब दूंगा.’’

‘‘तुम शादी की बात कर रहे हो?’’

‘‘हां बेटा…’’

‘‘दौलत बुरी बला है. हम कैसे जानेंगे कौन किस चक्कर में है. अंदर ही अंदर वो बंटी से भी बुरा हुआ तो?’’

‘‘मध्यम दर्जे के शिक्षित परिवारों के बच्चे आमतौर पर चरित्रवान होते हैं. एक तो अय्याशी के लिए पैसा नहीं होता, दूसरा आगे बढ़ने की चाहत में वे इतने व्यस्त रहते हैं कि भटकने का समय ही नहीं होता उन के पास. उन्हीं में से…’’

‘‘कोशिश कर के देखा दादू. वो स्वयं ही पीछे हट जाएंगे. स्तर में थोड़ा अंतर चल जाता है पर इतना अंतर…’’

‘‘समझ में नहीं आता क्या करूं?’’

‘‘अंकल जी नमस्ते.’’

चौंके दोनों. नंदा बंटी की मां. जानकीदास ने अपने को संभाला.

‘‘खुश रहो. बैठो…इतने सवेरे.’’

‘‘आना पड़ा. मां जो हूं.’’

शिखा सामान्य रही,

‘‘नाश्ता करिए आंटी मौसी.’’

‘‘रहने दे, नाश्ता कर के ही आई हूं बस चाय.’’

‘‘बेटी, इतनी सवेरे सब ठीक तो है न?’’

‘‘कहां ठीक है. बंटी की तरफ देखा नहीं जाता. खाना, पीना, कामकाज सब छोड़ दिया है. बहुत चोट लगी है उसे. बचपन से प्यार करता था शिखा को. मैं और उस का दुख नहीं देख सकती. मंजरी होती तो यह शादी कब की हो जाती. अब आप है आप ही कुछ करिए. समझाइए बच्ची को. यह झगड़ा तो इन में बचपन से होता आया है फिर प्यार भी तो था.’’

शिखा ने बातों में भांप लिया.

‘‘ना आंटी. प्यार कभी भी नहीं था. बंटी तो इस शब्द का मतलब ही नहीं जानता और मेरी तरफ तो प्रश्न ही नहीं उठता. हां एक स्कूल में पढ़ते थे और घर का रास्ता उस के लिए खुला था क्योंकि मम्मा आप की सहेली थीं. बात बस इतनी सी ही थी इस से आगे और कुछ भी नहीं वो आप प्रचार कुछ भी करती रहें.’’

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‘‘ना बच्चे वो बहुत प्यार करता है तुम से.’’

‘‘ठीक उसी तरह जूली, रीता, नीना को भी करता है. आप कितनी बहुएं लाएंगी.’’

‘‘तेरी मां ने ही यह रिश्ता जोड़ा था कम से कम उस का मान रख.’’

‘‘रिश्ता नहीं जोड़ा था गले तक शराब पी उलटापलटा बोल रही थी उसी को आप ने तुरुप का इक्का बना लिया बाजी जीतने के लिए.’’

‘‘अंकल, आप कुछ नहीं कहेंगे?’’

‘‘बेटा, रिश्ता तो मेरा गहरा है शिखा के साथ. मेरा खून है. पर मैं इस घर में आया था एक वेतन पाने वाला मामूली कर्मचारी बन कर और आज भी वही हूं. मालिकों के किसी भी फैसले का पालन करना मेरी ड्यूटी है उन को अपनी राय देना नहीं. मैं शिखा के व्यक्तिगत मामले में एक शब्द नहीं बोल सकता.’’

उस के जाने के बाद जानकीदास थोड़े चिंतित दिखाई दिए.

‘‘यह मेहता परिवार के हाथ में अंतिम तीर था. वो भी निशाना चूक गया. अब यह डेसपरेट हो कर कुछ भी कर सकते हैं. बेबी, सावधान.’’

‘‘वो तो हूं मैं दादू. दादू, एक बात है. तुम को कई बार आधी रात को मोबाइल पर बात करते देखा है. किस से बात करते हो?’’

मानो चोरी करते पकड़े गए हों ऐसे सहमते हुए बोले,

‘‘अरे वो… वो शंकर… वो करता है कनाडा से. समय का बहुत अंतर है न जब उसे फुरसत होती है तब यहां आधी रात हो जाती है. साफ पता चल रहा था कि वो सच नहीं बोल रहे. आश्चर्य हुआ दादू और उस से झूठ बोलें पर बोल तो रहे हैं. पर क्यों?’’

‘‘इस बार मेरी भी बात कराना अंकल से.’’

‘‘हांहां जरूर.’’

‘‘दादू, मैं ने सुकुमार से रिश्ता तोड़ा उसे मुंह दिखाने से मना किया. तुम को बहुत बुरा लगा था ना?’’

‘‘बुरा लगने से ज्यादा दुख हुआ था उस से भी ज्यादा आश्चर्य हुआ था. तू तो मां के हर फैसले के विरोध में उलटी दिशा में चलती थी. मां के कहने पर चलने वाली तो कभी नहीं थी. फिर मां के इतने बड़े फैसले के सामने कैसे घुटने टेक दिए? सुकुमार को जीवन से उखाड़ फेंक दिया? ’’

‘‘कारण था जो मैं ने आज तक किसी को नहीं बताया. आज तुम को बता रही हूं. मैं ने उस दिन मम्मा के फैसले के सामने घुटने टेके थे सुकुमार के कारण.’’

‘‘सुकुमार के लिए?’’

‘‘हां दादू, नहीं तो मैं उसे बचा नहीं पाती.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा.’’

‘‘मम्मा ने उस की हत्या के लिए सुपारी दी थी.’’

सिहर उठे जानकीदास.

‘‘बेबी.’’

‘‘हां दादू. मम्मा ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा था या तो मैं उसे अपने जीवन से हटा दूं नहीं तो वे उसे दुनिया से हटा देंगी. मेरे लिए अपने जीवन की खुशी से सुकुमार के जीवन का मूल्य बहुत ज्यादा था तो उसे अपने से दूर कर दिया.’’

‘‘शिव…शिव… कोई मां इतनी भयंकर हो सकती है?’’

‘‘मेरी मां तो थी.’’

‘‘सुकुमार जानता है इस बात को?’’

‘‘नहीं. उस दिन के बाद मिला ही नहीं. दादू कहां होगा वो?’’

अनमने हो गए वो.

‘‘पता नहीं पर तुम दोनों का प्यार समर्पण सच्चा है, ईश्वर तुम दोनों को जरूर मिलाएंगे.’’

पहली बार शिखा के आंसू ढुलक कर गालों पर बह आए.

आज चंदन घर पर नहीं आफिस में आया. पहले पूछ लिया था कि वो समय दे पाएगी या नहीं. शिखा के पास आज विशेष काम नहीं था, कोई मीटिंग भी नहीं थी तो उसे बुला लिया. चंदन आया और आते ही एक कार्ड बढ़ा दिया.

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‘‘शिखा, अगले शुक्रवार शाम सात बजे मेरे घर आना है जरूर. डिनर है?’’

‘‘किस बात का डिनर है.’’

‘‘मेरे बेटे का मुंडन है.’’

‘‘अरे तू पापा बन गया. कितनी खुशी की बात है.’’

‘‘तू जरूर आना. सभी पुराने साथी आएंगे.’’

‘‘सभी…’’

‘‘जो घनिष्ठ थे वो सभी. दिल्ली के सभी तो हैं ही. जो देश के बाहर हैं वो भी आने की कोशिश करेंगे.’’

शिखा के मुंह से निकला.

‘‘सुकुमार?’’

‘‘बस वही रह गया. उस का अतापता, नंबर लेना. हां घर का पता पूछा था. पर कहा अनाथों के ठिकाने नहीं होते,’’ शिखा हंसी.

‘‘पागल है अभी भी. वही भावुक बातें.’’

‘‘हां शिखा. चालाक, स्वार्थी लोगों को झेलतेझेलते जब हमारा मन घबरा उठता है तो जीने के लिए ऐसे दोचार पागलों की जरूरत होती है जो ताजी हवा का झोंका लाए और हमारा मन भी ताजगी से भर उठे. वैसे मैं दिल से उसे बुलाना चाहता हूं तो एक उपाय सोचा भी था.’’

‘‘वो क्या?’’

‘‘उस दिन कहा था ना वो इस समय लोकप्रिय लेखक है. उस की कई उपन्यास और कहानी संग्रह प्रकाशित हुई हैं. ‘नीलकमल प्रकाशन’ से. उस के मालिक हैं विनोद गोयल हमारे बाबूजी के दोस्त हैं. सोचा था लेखक का पता ठिकाना उन के पास तो होता ही है. पर पता चला कि सुकुमार स्वयं जा कर स्क्रिप्ट दे कर आता है. स्वयं ही अपनी कापी और पैसे ले आता है. बीच में कुछ जरूरत हो तो आ जाता है. नंबर या पताठिकाना उन को भी नहीं मालूम. हर किताब में लेखक का फोटो और संपर्क छपता है. यह वो भी नहीं देता.’’

‘‘ऐसा क्यों करता है?’’

‘‘सीधा सा जवाब है तेरे सामने नहीं आना चाहता. तू ने ही तो उसे मुंह दिखाने से मना किया था न.’’

‘‘चंदन. प्लीज…मैं मजबूर थी.’’

‘‘इतनी बड़ी मजबूरी की हीरा छोड़ कांच… जाने दे. आना जरूर’’

‘‘बच्चा कितना बड़ा है चंदन.’’

‘‘डेढ़ वर्ष का. पर तेरा आशीर्वाद ही चाहिए बस. उस के जाने के बाद देर तक चुप बैठी रही. दादू का दुख समझती है. वास्तव में उस के सभी साथियों का विवाह हो गया है. एकएक दोदो बच्चे भी हो गए. बस वो ही अकेली रह गई है. पर वो करे क्या? वो किसी दूसरे को सुकुमार की जगह देने की सोच भी नहीं सकती. भले ही उसी की भलाई के लिए उस के साथ अमानवीय व्यवहार किया हो पर वो आज भी उसी को समर्पित है.’’

हल है न: भाग-3

नवल भैया के दोस्त हो कर तुम सब छोटी बहन से ऐसी हरकतें कर रहे हो? आंटी बिस्तर से उठ नहीं सकतीं, उज्ज्वल छोटा है और भैया होश में नहीं… इस सब का फायदा उठा रहे हो… गैट आउट वरना अभी पुलिस को कौल करती हूं. यह रहा 100 नंबर,’’ मोबाइल स्क्रीन पर रिंग भी होने लगी. उस ने स्पीकर औन कर दिया.

रिंग सुनाई पड़ते ही सब नौ दो ग्याह हो लिए. तब उज्ज्वल ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया. शुचि ने फोन काट दिया. अचानक फिर फोन बज उठा, ‘‘हैलो पुलिस स्टेशन.’’

‘‘सौरी… सौरी सर गलती से दब गया था. थैंक्यू.’’

‘‘ओके,’’ फोन फिर कट गया. उस के बाद तीनों नवल को उस के बिस्तर तक पहुंचाने की कोशिश में लग गए.

सुबह करीब सात बजे नवल जागा. सिर अभी भी भारी था. उस ने अपना माथा सहलाया, ‘‘कल रात कुछ ज्यादा ही हो गई थी. थैंक्स राजन, विक्की, सौरभ और राघव का जो उन्होंने मुझे फिर घर पहुंचा दिया सहीसलामत.’’

उन्हें थैंक्स कहने के लिए नवल मोबाइल उठाया ही था कि शुचि सामने आ गई.

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‘‘अरे शुचि, तू कब आई? अचानक कहां चली गई थी तू? मोहसिन क्या मिल गया हम सब को ही भूल गई,’’ वह दिमाग पर जोर दे कर मुसकराया.

‘‘नमस्ते भैया. मैं मोहसिन नहीं मलय के साथ विदेश चली गई थी. डेढ़ साल के लिए… पर आप तो यहां रह कर भी यहां नहीं रहते… अपने घरपरिवार को ही जैसे भूल गए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बहुत बुरा लगा सब बदलाबदला देख कर… अंकल नहीं रहे, आंटी बैड पर हो गईं, भाभी परी को ले कर मायके चली गईं और आप…’’

‘‘हां शुचि वक्त ऐसे ही बदलता है… एक मिनट मैं ब्रश कर के आता हूं तू बैठ.’’

दीप्ति वहीं चाय ले कर चली आई थी. बाथरूम से जब नवल आया तब तक शुचि कैमरा उस के टीवी से अटैच कर चुकी थी. उस ने रिमोट नवल के हाथों में थमाते हुए कहा, ‘‘आप औन कर के देखो भैया, इस कैमरे से बहुत अच्छी वीडियो बनाया है. यह कैमरा दीप्ति के लिए विदेश से लाई हूं… मैं अभी आई भैया आप तब तक देखो.’’ और दोनों अंदर चली गईं.

‘‘वैरी गुड,’’ कह कर नवल तकिए के सहारे बैठ गया. और टीवी औन कर के चाय का कप उठाने लगा.

वीडियो चल पड़ा था. उस की नजर स्क्रीन पर गई, ‘अरे यह तो मैं, मेरे दोस्त मेरा ही वीडियो… ड्राइंगरूम… वही कपड़े यानी कल… वह वीडियो देखता गया और गुस्से और शर्म से भरता चला गया. छि… मैं उन्हें अपना अच्छा दोस्त समझता था… वे मेरी बहन दीप्ति के साथ शिट… शिट…’ उसे दोस्तों से ज्यादा अपनेआप पर क्रोध आने लगा. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक अपनी शर्म और गुस्सा छिपाने का प्रयास करने लगा.

तभी शुचि आ गई. वीडियो खत्म हो चुका था.

‘‘भैया… भैया,’’ कह कर उस ने नवल के चेहरे से उस के हाथ हटा दिए, ‘‘दीप्ति और आंटी के लाख कहने पर भी आप अपने दोस्तों की असलियत जाने बिना उन के खिलाफ कुछ नहीं सुनते थे, इसलिए मुझे यह करना पड़ा… सौरी भैया.’

‘‘अरे तू सौरी क्यों बोल रही है… गलती तो मेरी है ही और वह भी इतनी बड़ी… सही किया जो मेरी आंखें खोल दीं. कितना जलील किया है मैं ने दीप्ति को. उज्ज्वल पर भी क्या असर पड़ता होगा और मां को तो मैं इस हालत में भी मौत की ओर ही धकेले जा रहा होऊंगा. शराब ने मुझे इतना गिरा दिया कि अपनों को छोड़ मैं गैरों पर विश्वास करने लगा. उन्हीं के बहकावे में मैं ने लतिका को भी घर से जाने के लिए मजबूर कर दिया. वह मेरी नन्ही परी को ले कर चली गई. वह सिसक उठा. रोज सुबह सोचता हूं नहीं पीऊंगा अब से पर कमबख्त लत है कि छूटती नहीं… शाम होतेहोते मैं… उफ,’’ उस का चेहरा फिर उस की हथेलियों में था.

‘‘छूटेगी जरूर भैया, अगर आप मन में ठान लें… चलेंगे भैया?’’

पूछने के अंदाज में उस ने सिर उठाया, ‘‘कहां?’’

‘‘चलिए आज ही चलिए भैया जहां मैं अपने मियांजी को ले गई थी उन के गुटके की आदत को छुड़वाने के लिए. मेरे घर के पास ही तो है नशामुक्ति केंद्र. मेरे कुलीग के भाई अमन हवां के हैड बन गए हैं,’’ कह कर वह मुसकराई थी, ‘‘चलेंगे न भैया.’’

नवल ने हां में सिर हिलाया, तो पास खड़ी दीप्ति नवल से लिपट खुशी से रो पड़ी. नवल ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सीने से लगा लिया. शुचि भी नम आंखों से मुसकरा उठी.

शुचि की शादी की वर्षगांठ पर दीप्ति उस के घर आई थी.

‘‘अब तो नवल भैया ठीक हो गए हैं… अब उदास क्यों है? तेरी भाभी को भी अब जल्दी लाना होगा. तभी तो मैं अपनी भाभी को ला पाऊंगी… पर तू हां तो कर पहले.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह तू अमन को पसंद है. मैं ने बहुत पहले अमन से तेरा गुटका बदलने वाला उपाय शेयर किया था तो वे खूब हंसे थे. और तभी से वे तुम से यानी बीरबल से मिलना चाहते थे. वे भी आए हैं मिलेगी उन से?’’

 

‘‘तू पागल है क्या?’’ दीप्ति के लाज और संकोच से कान लाल हो उठे.

तभी अमन को वहां से गुजरते देख शुचि बोली, ‘‘अमन, अभीअभी मैं आप को ही याद कर रही थी… आप मिलना चाहते थे न मेरी बीरबल दोस्त से… यही है वह मेरी प्यारी दोस्त दीप्ति…’’

दीप्ति नमस्ते कर नजरें झुकाए खड़ी थी. अमन से नजरें मिलाने का साहस उस में न था. उस ने महसूस किया, अमन मंदमंद मुसकरा रहा है. सच जानने के लिए उस की पलकें अपनेआप उठीं फिर झुक गईं. अमन कभी दीप्ति को देखता तो कभी शुचि को और फिर मंदमंद मुसकराए जा रहा था. दीप्ति की धड़कनें तेज होने लगी थीं.

‘‘अरे अमन अब कुछ बोलो भी.’’

शुचि दीप्ति से अमन की ओर इशारा करते हुए बोली, ‘‘अब बता बनेगी मेरी भाभी?’’

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अमन ने खुशी को छिपाते हुए बनावटी गुस्से से शुचि को आंख तरेरीं तो उधर दीप्ति ने भी शरमा कर आंखें झुका लीं. शुचि के मुंह से अमन की तारीफें सुन कर और अपने भैया को ठीक करने वाले अमन को साक्षात देख कर वह पहले ही प्रभावित थी.

‘‘वाह, अब जल्दी से आंटी को खुशी की यह खबर देनी होगी,’’ कह कर शुचि ने दीप्ति को बांहों में भर लिया.

ज़िन्दगी –एक पहेली: भाग-7

पिछला भाग- ज़िन्दगी-एक पहेली: भाग-6

अविरल ने अनु की डायरी के बारे में किसी को कुछ न बताने का निश्चय किया.अविरल ने अकेले में अनु की डायरी पढ़नी शुरू की. डायरी पढ़ते ही अविरल को पता चला कि अनु रातों दिन पढ़ाई में लगी रहती थी।वो अपनी पढ़ाई को लेकर बहुत ज्यादा परेशान रहा करती थी. अगर अनु किसी दिन अच्छी तरह पढ़ नहीं पाती तो वह अपनी डायरी में लिखकर अपने आपको  कोसती .अनु का अकेलापन डायरी में बिलकुल साफ झलक रहा  था.

अविरल के मम्मी पापा ने न चाहते हुए भी अनु का एड्मिशन हॉस्टल में कराया था क्योंकि अनु की  मौसी के घर में पढ़ाई का माहौल नहीं था और उन्होंने सोचा की जब भी अनु का मन करेगा तो वह अपनी मौसी के घर चली जाएगी.

अनु की  मौसी और मामा दिल्ली में ही रहते थे लेकिन फिर भी अनु को इतना अकेलापन.यह बात अविरल को अटक सी गयी.वह डायरी को आगे पढ़ने लगा तो उसे पता चला कि हॉस्टल में पहुँचने के बाद अनु की दोस्ती एक लड़की(स्वाती) से हुई जो कि उसकी रूममेट भी थी.वह बहुत अच्छी थी.उसका एक  दोस्त(अरविंद) था जो दिल्ली में ही रहता था और उसी कॉलेज में पढ़ता था.अरविंद और स्वाति एक ही कॉलेज में थे इसलिए अक्सर उनका मिलना- जुलना हो जाता था. चूंकि अनु स्वाति की दोस्त थी इसलिए कभी- कभार वो अरविंद से बात कर लेती थी. धीरे-धीरे अरविंद अनु को पसंद करने लगा था. उसने इस बारे में स्वाती को बताया.तो स्वाती भी उसका साथ देने को तैयार हो गयी.स्वाती ने अनु को यह बात बताई लेकिन अनु का तो केवल एक ही सपना था….  अपने पापा का सपना पूरा करना कि “अनु देश कि सबसे अच्छी डॉक्टर बने”.अनु के पास तो इन सबके लिए टाइम ही नहीं था तो उसने स्वाती को सारी बात बताकर मना कर दिया।

लेकिन अरविंद की दीवानगी धीरे-धीरे कब एक ज़िद में बदल गयी इसका एहसास अनु को तब हुआ जब अरविन्द ने  अपने और अनु को लेकर झूठी अफवाह पूरे  कॉलेज में फैला दी.जिससे अनु को बहुत दुख हुआ.अनु ने अपने पापा को सब बताने कि कोशिश भी की लेकिन पापा और परेशान न हों इसलिए उसने सोचा की मै खुद ही हैंडल कर लूँगी.पर जब बात हद से ज्यादा बढ़ने लगी तो उसने मौसी लोगों से मदद लेने को सोचा।

अगले ही संडे वह मौसी के घर गयी.वो जैसे ही घर पहुंची वैसे ही सब लोगों ने उस पर comment करना शुरू कर दिया. अनु को कुछ समझ नहीं आया और वह अंदर चली गयी.थोड़ी देर बाद जब सभी लोग हाल में बैठे, अनु ने बताने का सोचा तब उसे पता चला कि उन्हे पहले से ही सबकुछ पता है।दरसल अमन का दोस्त अनु के कॉलेज में उसका सीनियर था और उसी ने नमक- मिर्च लगाकर वो सारी बातें अनु की मौसी के घर बता दी. सभी ने अनु को बुरा भला कहना शुरू कर दिया.किसी ने अनु कि कोई बात नहीं सुनी और उसे ही कसूरवार ठहरा दिया गया.अनु बहुत दुखी हुई.वह उठी और बिना कुछ बोले अपना समान उठाकर हॉस्टल चली गयी.वह पहला दिन था जब अनु अपने आपको पूरा परिवार होते हुए भी एकदम अकेला फील कर रही थी.वह अपने पापा और अविरल को भी परेशान नहीं करना चाहती थी।वह दिन रात रोती  रही पर उसके आंसू पोछने वाला कोई नहीं था.उसकी डायरी ही उसका एकमात्र सहारा थी.

अब अनु बहुत ज्यादा डिप्रेस रहने लगी ,अब अनु के सर में हमेशा ही दर्द बना रहता.वह अपने पास हमेशा pain –killer  रखती और जब भी सर दर्द होता खा लेती.

उसने अपनी डायरी में लिखा…..आज रात मुझे  सर में बहुत दर्द हुआ तो स्वाति मुझे  डॉक्टर के पास ले गयी.भैया अगर आज तुम मेरे पास होते तो मै तुमसे फूट-फूटकर रोती ….

डॉक्टर ने अनु को  कुछ दवा दी और साथ ही साथ नींद की भी दवा दी.पर अब अनु डेली डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के बिना 3-4 pain –killer  लेने लगी.अनु अन्दर से बिलकुल खोखली होती जा रही थी.

अनु ने जहां -जहां भी रोकर डायरी में कुछ भी लिखा था, वहाँ उसके आंसूओं  के निशान पड़ गए थे.अविरल का दिल निकलकर बाहर आने लगा जब उसने अनु के आँसू के निशान देखे.वह आगे कुछ नहीं पढ़ पाया और बहुत रोया.अविरल के पापा ने जैसे ही अविरल को आवाज दी वह डायरी को छुपाकर वाशरूम चला गया और खूब रोया.वह अकेले में रोता जिससे उसे देखकर और लोगों को दुख न हो.वह वाशरूम से आया और नॉर्मल ही सभी से बात .वह नींद आने का बहाना बनाकर  अपने कमरे में चला गया , लेकिन नींद तो उसकी आँखों से कोसों दूर थी.रात भर वह अनु के बारे में ही सोचता रहा.अनु के बारे में ही सोचते- सोचते न जाने कब सुबह हो गयी.अगले दिन फिर अविरल अनु की डायरी लेकर बाहर निकल गया.

अविरल ने डायरी आगे पढना शुरू की………………..

अनु ने अरविंद को समझाने की बहुत  कोशिश की  लेकिन वह नहीं माना.अब स्वाती भी रूम में अरविंद की बातें लेकर बैठ जाती जिससे वह और डिस्टर्ब होती.आखिर में अनु डायरी से ही अपना अकेलापन बांटने लगी.

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अनु अपने आप को बहुत अकेला फील कर रही थी.वह किसी भी तरह अरविंद और स्वाति से छुटकारा पाना चाहती थी.उसने स्वाति से इस बारे में बात की तो स्वाति ने कहा कि “ठीक है तुम एक बार अरविंद से मिल लो और खुद बोल दो फिर वह नहीं आएगा लेकिन यह बात किसी को मत बताना,मै भी वहां रहूंगी” .

अनु मान गयी.लेकिन किसी को न बताने वाली बात को लेकर उसे कुछ शक हुआ तो वह चुपके से अपनी एक दूसरी दोस्त(पूजा) को लेकर अरविंद कि बताई हुई जगह पर गई. हालांकि उसका मन उस जगह पर जाने का बिलकुल भी नहीं था क्योंकि वह उस जगह से  बिलकुल अंजान थी. लेकिन वो करती भी क्या.उसको उम्मीद थी की शायद अरविन्द अब उसका पीछा छोड़ देगा. उसने पूजा से छुपने को बोल दिया और खुद अरविंद के पास पहुंची.वहाँ पर उसने देखा कि स्वाति भी पास ही खड़ी है और आसपास कोई भी नहीं था.अरविन्द ने स्वाति को जाने का इशारा करके वहां से भेज दिया.स्वाति के जाने के बाद अरविन्द ने अनु का हाथ पकड़कर बोला,”मै तुम्हे बहुत चाहता हूँ और तुम्हारे बिना रह नहीं सकता.अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो मै तुम्हे बदनाम कर दूंगा”.

अनु बहुत डर गयी और वो वहां से रोकर भाग गयी. अगले दिन अरविंद कॉलेज के बाद अनु के पास आया और उसे वीडियो डिवाइस में 1 क्लिप दिखाई जिसमे अनु और अरविंद बात करते हुए दिख रहे हैं और बीच में अरविंद अनु का हाथ पकड़ता है जो कि उसने जानबूझकर पकड़ा था वीडियो के लिए।

अरविंद ने फिर अनु से कहा ,”मेरी बात मान लो ….नहीं तो यह वीडियो वायरल कर दूंगा और बोलूँगा कि अनु ने मुझे अकेले मिलने को बुलाया था”.

अनु ने अरविन्द को बहुत समझाया ,उससे request भी की लेकिन वो कहाँ मानने वाला था.उसके सर पर तो जैसे अनु का भूत सवार था.

अनु वहाँ से बिना कुछ कहे सीधे अपनी मौसी के घर चली गयी और वहाँ जाकर  सारी बाते बता दी.

पर कहते है न हमारे पुरुषप्रधान देश में लड़कियों की तब तक नहीं सुनी जाती जब तक उनके निर्दोष होने का सबूत न मिल जाये.

वहां भी ऐसा ही हुआ .किसी ने अनु की बात नहीं सुनी .वो लोग तो उल्टा अनु को ही बातें सुनाने लगे और कहने लगे की तुम गयी ही क्यूँ, तुम्हारे मन में ही पाप होगा और पता नहीं क्या क्या?

अनु ये सब सुनकर बहुत ज्यादा आहत हो गयी .उसने सिर्फ एक ही चीज़ बोली,”मौसी शायद आप ये इसलिए कह रही है क्योंकि आपके कोई लड़की नहीं है ,अगर आपकी लड़की होती तब आप समझती की एक लड़की की इज्ज़त क्या होती है”. अनु बस इतना कहकर  मौसी के घर कभी न जाने की  कसम खाकर वहाँ से हॉस्टल चली गयी.

हॉस्टल जाते ही अनु ने सारी बात पूजा को बताई तो पूजा ने बोला ,” मैं अच्छी तरह शक्ल तो नहीं देख पायी लेकिन कोई लड़की वीडियो  बना रही थी “.तब अनु को स्वाति की  याद आई कि वह भी वहीं थी.

अब यह साफ था कि वह विडियो स्वाति ने बनाया है लेकिन अनु को यह कन्फ़र्म करना था.अनु वापस अपने रूम में आ गयी जहां स्वाति पहले से थी.जैसे ही स्वाति वॉशरूम गयी, अनु ने तुरंत स्वाति का कैमरा उठाया और देखने लगी तो उसे वह वीडियो मिल गयी.अनु तुरंत उठी और पूजा को साथ लेकर डीन के घर पहुंची जो कैम्पस में ही रहते थे.पूरी बात बताते बताते अनु कई बार रोयी और बाद में वह वीडियो दिखाई.पूजा ने भी अनु का पूरा साथ दिया.

अगले दिन ही डीन ने अरविंद और स्वाति के पैरेंट्स को बुलाया और दोनों को कॉलेज से निकाल दिया.आज अनु बहुत खुश थी क्योंकि एक तो उसकी परेशानी खत्म हो गयी थी और दूसरी कि उसे 4 दिन बाद अपने घर जाना था दशहरे कि छुट्टी में.

अब डायरी कि लाइंस खत्म हो चुकी थी  लेकिन अविरल मन ही मन अपनी मौसी लोगों से नफरत करने लगा .हालांकि उसने यह बातें अपने दिल में दफन कर ली. लेकिन वह जब भी डायरी देखता तो उसे अनु के आँसू याद आते और उसका दिल फट सा जाता.

अगले भाग में हम जानेंगे कि कैसे अविरल अपने आप से लड़ता है जिससे कि वह अपने घर में सभी को खुश रख पाये लेकिन भगवान को तो शायद अभी अविरल की  और परीक्षा लेनी थी..

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