मां- भाग 1 : क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

नशा: भाग 2- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

क्लब का अंदर का दृश्य देख कर वह दंग रह गई थी. रंगीन जोड़े फर्श पर थिरक रहे थे. लोग जाम पर जाम लगा रहे थे यानी शराब पी रहे थे. सब नशे में चूर थे. ऐसा तो उस ने फिल्मों में ही देखा था. वह एकटक सब देख रही थी. दीपा के कहने पर उस ने शराब पी थी और वह भी पहली दफा. फिर तो हर दिन उस का औफिस में बीतता, तो शाम क्लब में बीतती.

दीपा शुरू में तो उस को अपने पैसे से पिलाती थी, बाद में उसी के पैसे से पीती थी. शनिवार और इतवार को वे दोनों रेखा के घर में ही पीतीं. रेखा जानती है कि वह गलत कर रही है, वहीं वह यह भी जानती है कि उस को अपने को रोक पाना अब उस के वश में नहीं है. शाम होते ही हलक सूखने लगता है उस का.

कई बार फूफी कह चुकी है- ‘इस दीपा का अपना घरबार नहीं है, यह दूसरों का घर बरबाद कर के ही दम लेगी. अरे, रेखा बीबी, इस औरत का साथ छोड़ो. बड़ी बुरी लत है शराब की. मेरा पति तो शराब पीपी के दूसरी दुनिया में चला गया. तभी तो मुझ फूफी ने इस घर में उम्र गुजार दी. बड़ी बुरी चीज है शराब और शराबी से दोस्ती.’

फूफी के ताने रेखा को न भाते. जी करता धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दे. लेकिन नहीं कर सकती ऐसा. यह चली गई तो घर कौन संभालेगा.

आज उसे घबराहट हो रही है, जब से अम्माजी ने सब बताया कि वे रिटायर होने वाली हैं. व्याकुल मन के साथ बड़ी देर तक बिस्तर पर करवटें बदलती रही. न जाने कब सोई, पता ही नहीं लगा. उधर, देवेश को जब से रेखा के बारे में पता लगा है, उस की व्याकुलता का अंत नहीं है. वहां जरमनी में स्त्रीपुरुष सब शराब पीते हैं, ठंडा मुल्क है. पर हिंदुस्तान में लोग इसे शौकिया पीते हैं. स्त्रियों का यों क्लबरैस्त्रां में पीना दुश्चरित्र माना जाता है.

देवेश को अम्मा ने जब से रेखा के बारे में बताया है, जरमनी में हर स्त्री उसे रेखा सी दिखती है. वह रैस्त्रां के आगे से गुजरता है तो लगता है, रेखा इस रैस्त्रां में शराब पी रही होगी. दूसरे ही क्षण सोचता- यहां रेखा कैसे आ सकती है?

औफिस में भी देवेश बेचैन रहता है. दिनरात सोतेजागते ‘रेखा शराबी’ का खयाल उस से जुड़ा रहता है. देवेश का जी करता है, अभी इंडिया के लिए फ्लाइट पकड़े और पत्नी के पास पहुंच जाए, बांहों में भर कर पूछे, ‘रेखा, तुम्हें जीवन में कौन सा दुख है जो शराब का सहारा ले लिया.’ देवेश कितनी खुशियां ले कर आया था जरमनी में. इंडिया में घर खरीदेंगे, मियांबीवी ठाट से रहेंगे. फिर बच्चे के बारे में सोचेंगे. मां भी साथ रहेंगी. किंतु क्यों? ये सब क्या हुआ, कैसे हुआ? किस से पूछे वह? जरमनी में तो उस का अपना कोई सगा नहीं है जिस से मन की बात कह भी सके.

वह इतना मजबूर है कि न तो रेखा से कुछ पूछ सकता है और न ही अम्मा से. बस, मन की घायल दशा से फड़फड़ा कर रह जाता है. उसे लग रहा है कि वह डिप्रैशन में जा रहा है. दोस्तों ने उस की शारीरिक अस्वस्थता देख उसे अस्पताल में भरती करा दिया था.

कुछ स्वस्थ हुआ तो हर समय उसे पत्नी का लड़खड़ाता अक्स ही दिखाई देता. घबरा कर आंखें बंद कर लेता. और, अम्माजी, उस दिन बेटे से बात करने के बाद ऊपर से तो सामान्य सी दिख रही थीं किंतु अंदर से उन को पता था वे कितनी दुखी हैं. पूरी रात सो न सकी थीं. बेचारी क्या करतीं. आज सुबह वे हमेशा की तरह जल्दी न उठीं.

रेखा जब औफिस चली गई तो बेमन से उठीं और स्टोर में घुस गईं. स्टोर कबाड़ से अटा पड़ा था. किताबें, कौपियां, न्यूजपेपर्स और न जाने क्याक्या पुराना सामान था. कबाड़ी को बुला कर सारा सामान बेच दिया सिर्फ एक बंडल को छोड़ कर. इसे फुरसत में देखूंगी क्या है.

सब काम खत्म कर के बंडल को झाड़झूड़ कर खोला. उन्हें लगता था किसी ने हाथ से कविताएं लिखी हैं. शायद यह रेखा की राइटिंग है. कविताएं ही थीं. देखा एक नहीं, 30-35 कविताएं थीं. उन्हें पढ़ कर वे स्तब्ध थीं.

सुंदर शब्दों के साथ ज्वलंत विषयों पर लिखी कविताएं अद्वितीय थीं. यानी, बहू कविताएं भी लिखती है. इस बंडल मे 2-3 पुस्तकें भी थीं. सभी रेखा की कृतियों का संग्रह थीं. अम्माजी कभी कविता संग्रह पढ़तीं, तो कभी हस्तलिखित रचनाओं को. इतनी गुणी है उन की बहू और वे इस से अब तक अनजान रहीं.

झाड़पोंछ कर उन्हें कोने में टेबल पर रख दिया. सोचा, शाम को बात करूंगी. क्यों बहू ने इस गुण की बात हम से छिपाई? कभीकभी हम अपने टेलैंट को छोड़ कर इधरउधर भटकते हैं. दुर्गुणों में फंस कर जीवन को दुश्वार बना लेते हैं.

रेखा के घर आने से पहले उन्होंने कई जगह फोन किए. दोपहर को बेटे देवेश का फोन आ गया, ‘‘कैसी हो अम्मा?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘और रेखा?’’

‘‘वह अभी औफिस से लौटने वाली है. आएगी तो बता दूंगी. तू परेशान है उस को ले कर, यह मैं जानती हूं.’’

‘‘नहीं अम्मा, मैं ठीक हूं. बस, आने के दिन गिन रहा हूं.’’

‘‘नहीं, मैं जानती हूं, तू झूठ बोल रहा है. पर वादा करती हूं तेरे आने तक घर को संभालने की पूरी कोशिश करूंगी.’’ अम्मा की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अम्मा, ऐसा तो मैं ने कभी नहीं सोचा था कि धन कमाने की होड़ में परिवार को ही खो बैठूंगा.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो, सब ठीक हो जाएगा, धीरज रखो.’’ इस से आगे बात करना संभव न था. अम्माजी का गला आवेग से भर्रा गया था.

काम से रेखा लौट आई थी. चेहरे पर चिंता व परेशानी झलक रही थी. अम्माजी को रेखा की चिंता का विषयकारण पता था. अम्माजी ने बड़ी हिम्मत कर के कहा, ‘‘आज बहुत थक गई हो, काम ज्यादा था क्या?’’

‘‘नहीं अम्माजी, बस, वैसे ही थोड़ा सिरदर्द था. आराम करूंगी, ठीक हो जाएगा.’’

ऐसे में वे भला कैसे कहतीं कि आज इरा खन्ना से उन्होंने समय लिया है. वे हमारी राह देख रही होंगी.

‘‘अम्माजी, आप कहीं जाने के लिए तैयार हो रही हैं?’’

‘‘रेखा, आज मैं एक सहेली के पास जा रही थी, चाहती थी कि तुम भी साथ चलो.’’

‘‘नहीं, फिर कभी.’’

‘‘ठीक है जब तुम्हारा मन करे. पर वे तुम से ही मिलना चाहती थीं.’’

‘‘अच्छा? आप ने बताया होगा मेरे बारे में, तभी?’’

‘‘हां, मैं ने यही कहा था कि मेरी बहू लाखों में एक है. नेक, समझदार व दूसरों को सम्मान देने वाली स्त्री है. मेरी बहू से मिलोगी तो सब भूल जाओगी. है न बहू?’’ वह सास की बात पर मुसकरा रही थी, मन ही मन कहने लगी, यानी, अम्माजी को पता नहीं कि मैं दुश्चरित्रा हूं, मैं शराब पीती हूं, बुरी स्त्री हूं. यदि वे जान गईं तो घर से निकाल सकती हैं.

वैसे जो बात अभी अम्माजी ने अपनी सहेली से की थी, सुन कर उसे बहुत अच्छा लगा. मैं जरूर उन से मिलूंगी. पता नहीं, कब वह सो गई और अम्माजी, सोफे पर उसे सोया देख सोच रही थीं कि ये उठे तो मैं इस को साथ ले चलूं. फिर वे भी अंदर जा कर लेट गईं.

‘‘एक कप चाय बना दो, फूफी. सिरदर्द से फटा जा रहा है,’’ रेखा सोफे पर बैठी सोच रह थी कि उस की नजर कोने की मेज पर रखे एक बंडल पर पड़ी. बिजली सी चमक की तरह वह उछली, ‘‘फूफी, यह बंडल यहां क्यों रखा है? इसे मैं ने स्टोर में डाला था, क्यों निकाला?’’ वह लगभग चीख पड़ी.

‘‘क्या हुआ, बेटा? यह बंडल स्टोर में था. मैं ने आज स्टोर की सफाई की तो निकाल कर देखा, इस में कविताएं व कुछ और भी था…सारा झाड़कबाड़ बेच दिया, इस को फेंकने का मन न किया. सोचा, तुम आओगी तो तुम से पूछ कर ही कुछ सोचूंगी.’’

‘‘पूछना क्या है, इसे भी कबाड़ में फेंक देतीं. क्या करूंगी इन सब का? अब सब खत्म हो गया.’’

उस के स्वर में वितृष्ण से अम्माजी को समझते देर न लगी कि इस बंडल से जुड़ा कोई हादसा अवश्य है जिसे मैं नहीं जानती, पर जानना जरूरी है.

‘‘बेटा, बोलो, क्या बात है जो इतनी सुंदर रचनाओं को तुम ने रद्दी में फेंक दिया?’’ अम्मा ने फिर पुलिंदा मेज पर ला रखा.

‘‘छोड़ो अम्माजी, इस पुलिंदे को ले कर आप क्यों परेशान हैं? छोड़ो ये सब रचनावचना,’’ कहतेकहते उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘बेटा, मैं तेरी सासूमां हूं. क्या बात है जो तू इतनी दुखी है और मुझे कुछ भी नहीं पता? क्या सबकुछ खुल कर नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या कहूं अम्माजी. आप को यह तो पता ही है कि मेरे पापा बहुत बड़े साहित्यकार थे. परिवार में साहित्यिक माहौल था. मुझे पढ़ने व लिखने का जनून था. कितने ही साहित्यकारों से मेरे पिता व रचनाओं के जरिए परिचय था. मेरी शादी से पहले मेरे 3 कविता संग्रह व एक कहानी संग्रह छप चुके थे. मेरे काम को काफी सराहा गया था. एक पुस्तक पर मुझे अकादमी पुरस्कार भी मिला था. बहुत खुश थी मैं.’’

नशा: भाग 3- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

रेखा ने बात जारी रखी, ‘‘सोचती थी देवेश को दिखाऊंगी तो गर्व करेंगे पत्नी पर. शादी के बाद जब मैं ने अपनी रचनाओं तथा पुस्तकों का उन से जिक्र किया तो वे बोले, ‘छोड़ो ये सब, मुझे तो तुम में रुचि है. ये आंखें, ये गुलाबी कपोल, खूबसूरत देह मेरे लिए यही कुदरत की रचना है.’

‘‘‘छोड़ो सब बेकार के काम, तुम्हारे लिए एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ता हूं. समय भी कट जाएगा और बैंक बैलेंस भी बढ़ेगा.’

‘‘मैं समझ गई कि देवेश की सोच का दायरा बहुत सीमित है. उस वक्त मैं चुप रह गई. हालांकि उन की बात मेरे लिए बहुत बड़ा आघात थी. लेकिन अपने को रोक पाना मेरे लिए मुश्किल था. मेरा अंदर का लेखक तड़पता था.

‘‘छिपछिप कर कुछ रचनाएं लिखीं, भेजीं और छपी भी थीं. छपी हुई रचनाएं जब देवेश को दिखाईं तो वे मुझी पर बरस पड़े, ‘यह क्या पूरी लाइब्रेरी बनाई हुई है. लो, अब पढ़ोलिखो…’ इन्होंने मेरी किताबों को आग के हवाले कर दिया.

‘‘मेरी आंखों में खून उतर आया लेकिन चुप रही. आप बताइए जो व्यक्ति जनून की हद तक किसी टेलैंट को प्यार करता हो, उस का जीवनसाथी ऐसा व्यवहार करे तो परिणाम क्या होगा?

‘‘सपना था मेरा प्रथम श्रेणी की लेखिका बनने का, पर वह बिखर गया. हताश हो मैं ने इस बंडल को इस स्टोर में डाल फेंका.

‘‘पति के जरमनी जाने के बाद कई बार सोचा कि फिर से शुरू करूं, अकेलापन दूर करने का यही एक साधन था मेरे पास. लेकिन इसी बीच दीपा से मेरा संपर्क हुआ. और मैं नशे में डूबती चली गई. अब तो पढ़नेलिखने का जी ही नहीं करता. अम्माजी, यह है इस बंडल की कहानी.’’ रेखा की आंखें डबडबा गई थीं.

अम्माजी को लगा कि आज पहली बार उस ने नशे की बात को स्वीकारा है. निश्चय ही जो यह कह रही है, वह सच है. जरा भी मिलावट नहीं है. और बेटे देवेश के लिए जो इस ने कहा, वह भी सच ही होगा. सुन कर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शुरू से देवेश को सिर्फ पैसे से प्यार है. पैसे के अभाव में उस ने मुश्किल के दिन देखे हैं, सो, उस के जीवन का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है.

इस के अलावा यह हो सकता है कि आघात पाने के बाद, रेखा ने सोचा हो, शराब में अपने को डुबो कर वह पति से बदला लेगी. या शायद अकेलेपन से घबरा कर उस ने यह रास्ता अपनाया हो.

यह तो अम्माजी को पता था कि एक बार बच्चे को ले कर दोनों में काफी खींचातानी हुई थी. देवेश बच्चा नहीं चाहता था, ‘जब तक घर अपना नहीं होगा मैं बच्चा नहीं चाहता.’ जबकि रेखा का कहना था, ‘बच्चा घर में होगा तो मैं व्यस्त रहूंगी, खालीपन मुझे काटने को दौड़ता है.’ जो भी हो, इस वक्त तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा कि जिस से रेखा के पीने की आदत पर रोक लग सके.

यहां मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पति की उस के टेलैंट के प्रति उपेक्षा सब से बड़ा कारण है. उत्साह व बढ़ावा देने की जगह देवेश ने उस की मानसिक जरूरत पर ध्यान नहीं दिया है, बस उसी का परिणाम ‘पीना’ लगता है. यह सोचतेसोचते अम्माजी ने एक बार फिर बड़े प्यार से उस से कहा, ‘‘बेटा, तुम मेरे साथ इरा के घर चलोगी? बड़ी समझदार महिला हैं, साथ ही मेरी बचपन की सहेली भी. वे तुम से मिलने को उत्सुक हैं.’’

‘‘ठीक है, चलती हूं.’’

कुछ देर बाद दोनों इरा के सामने थीं. वह इरा को देख कर अवाक थी. ये तो इतनी जबरदस्त लेखिका हैं, इन से तो लोग मिलने के लिए लाइन लगा कर खड़े होते हैं. ये मुझ से मिलना चाहती थीं. लोग अपनी पुस्तक के लिए इन से दो लाइनें लिखाने को घंटों इंतजार करते हैं. अम्माजी ने रेखा का परिचय कराया तो रेखा कहे बिना न रह सकी, ‘‘इराजी को कौन नहीं जानता, सारे साहित्य जगत में इन के लेखन की धूम है.’’ तभी अम्माजी ने वह बंडल इरा की मेज पर रखा, ‘‘इरा, मैं ने तुझे बताया था कि मेरी बहू भी लिखती है.’’

‘‘हां, बताया था.’’

‘‘ये हैं इस की कुछ रचनाएं और कुछ पुस्तकें.’’

रेखा लगातार इरा को देख रही थी. इरा रेखा की रचनाओं को पढ़ रही थीं. पढ़ने के बाद मुसकरा कर बोलीं, ‘‘अद्भुत. मैं हैरान हूं इतनी सी उम्र में, इतना सुंदर शब्द चयन, विषय चयन, और प्रस्तुति. मैं ने तो कितनी ही किताबें छपवाई हैं पर ऐसी रचनाएं… वाह.

‘‘बेटा, इस को आप मेरे पास छोड़ जाओ. कल तुम्हें फोन पर डिटेल बताऊंगी. फिर भी अल्पना, मैं यह भविष्यवाणी करती हूं कि ऐसे ही ये लिखती रही तो एक दिन ये उभरती हुई रचनाकारों की श्रेणी में उच्चतम स्तर पर होगी.’’

इरा से मुलाकात के बाद सासूमां के साथ रेखा लौट आई. रेखा को रास्ते भर यही लगा कि इराजी अभी भी वही वाक्य दोहरा रही हैं, ‘ऐसे ही ये लिखती रही…’

घर पहुंच कर वह अपने मन को टटोलती रही थी. यह कैसी भविष्यवाणी थी जिस ने उस के मन में खुशियां और उत्साह के फूल बरसाए थे. इतनी बड़ी लेखिका के मुंह से ऐसी तारीफ. सपने में भी वह आज की मुलाकात के मीठे सपने देखती रही थी.

सुबहसवेरे, आज उस ने अटैची में रखी कुछ और रचनाओं को निकाला था. उन्हें भी ठीकठाक कर के मेज पर छोड़ा था. तभी फोन की घंटी बज उठी-

‘‘मैं इरा बोल रही हूं. कल आप जिन रचनाओं को छोड़ गई थीं उन्हें मैं ने एक पुस्तक के रूप में सुनियोजित करने को दे दी हैं. पुस्तक का नाम मैं अपने अनुसार रखूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं मैम, नहीं, कभी नहीं.’’

‘‘हां, एक बात और, साहित्यकार मीनल राज और प्रिया से इन कविताओं के लिए दो शब्द लिखवाने का निश्चय हम ने किया है. बाकी मिलोगी, तो बताऊंगी.’’

उसे लगा वह सपना देख रही है- मीनल राज और प्रिया, इतने दिग्गज लेखक हैं दोनों. खुशी उस के अंगअंग से फूट रही थी. वह बैठेबैठे मुसकरा रही थी.

‘‘अरे, क्या हुआ? किस का फोन था?’’ अम्माजी ने पूछ ही लिया, ‘‘इतनी क्यों खुश है?’’

‘‘वो, इरा मैम का फोन था. वे कह रही थीं…’’ उस ने सारी बात सासूमां को बताई.

उस के चेहरे पर थिरकती प्रसन्नता इस बात का सुबूत थी कि वह इसी की तलाश में थी. और उस ने रास्ता पा लिया है अपने खोए जनून और टेलैंट के लिए.

इस के बाद वह कई बार इरा मैम के पास गई. कभीकभी सारा दिन उन की लाइब्रेरी में पढ़ती रहती. पुस्तकों व रचनाओं को ले कर इरा मैम से विचारविमर्श करती.

इस बीच, दीपा कई बार उस के घर आई पर रेखा की सासू मां ने कहा, ‘‘बेटा, वह अब तुम्हारे चंगुल में कभी नहीं फंसेगी, जाओ…’’

2 महीने बाद, रेखा को एक लिफाफा मिला. उस में 20 हजार रुपए का एक ड्राफ्ट था और एक पत्र भी. पत्र में लिखा था-

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘तुम्हारी 2 पुस्तकों के प्रकाशन कौपीराइट की कीमत है, स्वीकार लो. अगले महीने हम और तुम जयपुर पुस्तक मेले में जा रहे हैं.

‘‘एक और खुशखबरी है, समीक्षा हेतु तुम्हारी दोनों

पुस्तकों को कुछ पत्रपत्रिकाओं में भेजी है. ये पत्रिकाएं भी तुम्हारे पास जल्द ही पहुंचेंगी.

‘‘शुभकामनाओं सहित

इरा.’’

ड्राफ्ट देख उस की बाछें खिल गईं. ‘अम्माजी के हाथ में दूंगी, यह उन की मेहनत का फल है.’ यह सोच कर रेखा पीछे मुड़ी तो पाया, उस के हाथ में ड्राफ्ट देख अम्माजी मुसकरा रही थीं, ‘‘मिल गया ड्राफ्ट?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’

‘‘कल शाम को इरा का फोन आया था. उस ने मुझे इस ड्राफ्ट के बारे में बताया था.’’

वे अभी भी मुसकरा रही थीं, शायद अपनी जीत पर.

‘‘लेट्स सैलीब्रेट, अम्माजी,’’ रेखा की खुशी देखते ही बनती थी.

‘‘अरे, आज तो खुल जाए बोतल,’’ अम्माजी ने चुटकी ली.

‘‘छोड़ो अम्माजी, जितना नशा मुझे आज चढ़ा है इस ड्राफ्ट से, उतना बोतल में कहां? आज हम दोनों डिनर बाहर करेंगे, आप की प्रिय मक्की की रोटी और सरसों का साग. साथ में…’’ वह अम्माजी की ओर देख रही थी. ‘‘मक्खन मार के लस्सी…’’ अम्माजी ने उस की बात पूरी की और खुशी से बहू को सीने से लगा लिया.

औकात से ज्यादा: सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

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अनुत्तरित प्रश्न: भाग 3- ज्योति कौन-सा अपमान न भूल सकी

क्या तुम मेरी दोस्ती का इतना भी मान नहीं रखोगी? मेरे इतने अनुनयविनय पर उस ने कहा कि वह सोच कर जवाब देगी. ये पत्र लौटाना शायद यही इंगित करता है कि वह अतीत भुला कर एक नई जिंदगी शुरू करने के लिए अपनेआप को तैयार कर रही है. पर उस ने ये पत्र आप को क्यों लौटाए, ये मेरी समझ नहीं आ रहा है.’’

‘‘अब छोड़ो न,’’ मैं ने पत्र समेटते हुए बात समाप्त करनी चाही. मैं नहीं चाहती थी

कि गड़े मुरदे उखड़ें और मेरा वह कठोर एकतरफा रूप जतिन के सामने आए, ‘‘मैं ये खत जला दूंगी. ज्योति का अतीत यहीं खत्म. अब वह आराम से एक नई जिंदगी की शुरुआत करेगी.’’

‘‘हां मां, काश ऐसा ही हो,’’ जतिन के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखा खिंच गई. उस ने सामने रखे खतों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं समझ गई कि ज्योति का अध्याय इस की जिंदगी की किताब से निकल चुका है. संजना लौट आई थी.

जतिन और संजना लौट गए. मैं ज्योति के खत अलमारी से जलाने के लिए निकाल लाई. मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं ये खत वह मुझे क्यों दे गई है. मैं ने उस के चरित्र पर आक्षेप लगाते हुए उसे कालेज से निकालने की जो धमकी दी थी, उस से वह उस समय भले ही डर गई हो पर वह अपमान उसे हमेशा कचोटता रहा होगा. शायद अपनी बेगुनाही का सुबूत देने ही वह यहां आई थी. मुझे अपने सभी अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब मिल गया था, इसलिए इन पत्रों को जला देना ही उचित था.

मोमबत्ती की लौ में एक के बाद एक पत्र की होली जल रही थी. मेरे मस्तिष्क में विचारों का अंधड़ चल रहा था. मुझे शर्मिंदा करने आई थी यह लड़की. पर गुनहगार तो तुम हो ज्योति वर्मा. अपूर्ण होते हुए भी तुम ने प्यार करने का साहस कैसे किया और वह भी मेरे बेटे से? इन पत्रों को तुम ने अब तक संभाल कर रखा था, इसलिए न कि तुम जतिन से प्यार करती थीं.

अंतिम पत्र हाथ में लेते वक्त मुझे कुछ अजीब सा लगा. यह अन्य पत्रों के लिफाफों से अलग किस्म का लिफाफा था. मैं ने उसे मोमबत्ती की लौ से छुआ तो दिया, लेकिन पते पर नाम पढ़ते ही मुझे करंट सा लगा. यह तो मेरे नाम था. तुरंत मैं ने आग बुझाई. शुक्र है, लिफाफा ही जला था. कांपते हाथों से मैं ने अंदर से खत निकाला. पत्र मुझे संबोधित था:

डियर मैडम, सुना था वक्त के साथ इंसान के जख्म भर जाते हैं, किंतु यदि ये जख्म कटु वचनों ने दिए हैं तो युगों का अंतराल भी इन जख्मों को नहीं भर पाता. आप द्वारा दिए जख्म मेरे सीने

में अब तक हरे हैं. मैं अपनी गलती मानती हूं कि मुझे पढ़ाई पर ही ध्यान देना चाहिए था, लेकिन मुझ पर आरोप लगा कर और अपने

बेटे से एक बार भी पूछताछ किए बिना आप ने जो एकतरफा निर्णय सुना दिया, उस से मेरे दिल में बसी आप की सम्मानित छवि तारतार हो गई.

प्रिंसिपल की कुरसी पर एक पूर्वाग्रहग्रसित मां को बोलते देख मैं अवाक रह गई थी. चाहती तो ये पत्र मैं आप को अगले दिन ही ला कर दिखा सकती थी, लेकिन क्या फायदा? आप को मुझ पर विश्वास ही कहां था? आप ने मुझे अपनी सफाई पेश करने का एक मौका भी नहीं दिया. सीधा मुझे चरित्रहीन ठहराते हुए कालेज से निकालने की धमकी दे डाली. मामामामी के पास पल रही मुझ अनाथ के लिए अपमान का घूंट पी जाने के अलावा अन्य कोई चारा न था. जतिन को कहती, तो वह आप के खिलाफ विद्रोह पर उतर आता. मांबाप के प्यार को तरसती यह अनाथ मांबेटे के बीच दीवार नहीं बनना चाहती थी. प्यार तो और भी मिल सकता है, मां नहीं. इसलिए मैं ने एक मनगढ़ंत झूठ बोल कर जतिन से किनारा कर लिया…

पत्र थामे मेरे हाथ कांपने लगे थे पर नजरें उसी पर टिकी रहीं…

और देखिए संजना के रूप में जतिन को दूसरा प्यार भी मिल गया और मां भी साथ है. मेरा क्या, जिस के खाते में कोई प्यार नहीं लिखा, उसे कैसे मिल सकता है? मैं विदेश चली गई. नाम, दौलत सब कमा लेने के बावजूद जीवन में एक खालीपन सा महसूस होता रहा. शायद उसे ही भरने इंडिया लौट आई. दोस्त के रूप में जतिन से मिल कर अच्छा लगा, लेकिन दोस्त के रूप में उस की मुझ से जो अपेक्षाएं हैं वे शायद मैं पूरी नहीं कर पाऊंगी. मैं न तो उसे सच बता सकती हूं, न उस का प्रस्ताव मान सकती हूं. शायद मेरा इंडिया लौटने का निर्णय ही गलत था. मैं किसी को खुशी नहीं दे सकती, इसलिए मैं हमेशाहमेशा के लिए विदेश लौट रही हूं. जानेअनजाने आप लोगों की जिंदगी में आने और आप लोगों को दुख पहुंचाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं.

ज्योति पत्र समाप्त कर मैं देर तक शून्य में आंखें गड़ाए बैठी रही. अहंकार का किला लड़खड़ा कर धराशायी हो चुका था. मैं जतिन और ज्योति के सच्चे प्यार को नहीं पहचान पाई. बेटे को उस के प्यार से दूर कर दिया. न तो मैं एक अच्छी मां बन पाई और न एक अच्छी प्रिंसिपल. अंधी ममता के वशीभूत एक छात्रा का जीवन बरबाद करने पर उतर आई और एक तरह से कर ही डाला. कुछ प्रश्न दिमाग में फिर से उभरने लगे थे. ज्योति इंडिया क्यों आई थी? क्या इस उम्मीद में कि शायद जतिन अब भी उस का इंतजार कर रहा हो? मेरे बेटे का घर तो बस गया, लेकिन क्या ज्योति बेगुनाह होते हुए भी जिंदगी में कभी किसी का हाथ थाम पाएगी? अनुत्तरित प्रश्नों की बौछार ने मुझे निरुत्तर कर दिया.

नशा: भाग 1- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

‘‘अम्माजी, ऐसा कभी नहीं हो सकता. आप मेरी मां हैं, मैं आप की बात पर विश्वास करूंगा. किंतु लगता है आप को गलतफहमी हुई है. रेखा शराब पीने लगी है, यह कैसे मान लूं, मैं.’’

‘‘बेटा, तेरे घर में तूफान आया है. और मैं तेरी मां हूं. यदि तेरे घर को तबाह करने वाले तूफान की आहट न पा सकूं तो मुझ से बढ़ कर मूंढ़ कौन होगा. बस, मैं तो यही कहती हूं, जल्दी से जल्दी इंडिया आ जा और तूफान से होने वाली तबाही को रोक ले.’’

बेटे देवेश से बात कर के अम्माजी ने फोन रख दिया था. ‘देवेश आज यहां नहीं है, तो मेरा तो कर्तव्य है कि उस के घर के तिनके बिखरने से पहले उन्हें बचा लूं,’ सोचतेसोचते अम्माजी वहीं सोफे पर लेट गई थीं. बड़े आश्चर्य की बात है कि रेखा पीती है, वे जानती न थीं. वह तो सोसायटी के गेट पर बैठे चौकीदार ने सुबह बताया था, ‘माताजी, देवेश बाबू एक शरीफ और समझदार व्यक्ति हैं.

2 साल पहले जब वे विदेश जा रहे थे तो कहा था कि घर तुम पर छोड़ कर जा रहा हूं, मुझे यह भी याद है कि उन्होंने आप का फोन नंबर भी दिया था, कहा था कि जरूरत पड़े तो अम्माजी को सूचित कर देना. इसीलिए बता रहा हूं, मैम का देर से घर आना ठीक नहीं लगता. आप तो बुजुर्ग हैं. मैम आप की बहू हैं, कहते शर्म आती है. अच्छा हुआ जो आप आ गई हैं संभाल लेंगी.’ सुन कर अम्माजी सन्न रह गई थीं. चुपचाप फ्लैट पर आ गई थीं.

सुबह का समय था, रेखा घर में नहीं थी. ‘‘मैम तो सुबह निकल जाती हैं. देररात तक वापस आती हैं. मैं तो नौकरानी हूं, क्या कहूं? अच्छा हुआ आप आ गई हैं. अम्माजी, मैं अब यहां नहीं रहूंगी. आप ही ने मुझे यहां भेजा था, आप से ही छुट्टी चाहती हूं. बस, यह नशे की लत है ही बुरी. छोटा मुंह बड़ी बात. यदि झूठ बोलूं तो फूफी को सौ जूती मार लो…’’ नौकरानी फूफी ने भी जब चौकीदार की बात को दोहराया तो उन्हें लगा कि यहां हालात सचमुच ठीक नहीं हैं.

नौकरानी फूफी आगे बोली, ‘‘अम्माजी, बैठो, खाना तैयार है. मूली के परांठे बनाए हैं.’’ अम्माजी बड़ी अनमनी सी बोलीं, ‘‘छोड़ो फूफी, मन नहीं कर रहा. अभी तो बहू का इंतजार कर रही हूं. आज तो शनिवार है, जल्दी आ जाएगी.’’ वे सोफे पर बैठ गईं और अतीत में खो गईं.

देवेश और राकेश अम्माजी के 2 बेटे हैं. जब उन के पति की मृत्यु हुई थी तो दोनों की उम्र 12 वर्ष और 10 वर्ष थी. अम्माजी का वैसे तो नाम अल्पना है पर उन की समझदारी और सोच को देख पूरा महल्ला उन्हें अम्माजी कहता था. पति के न रहने पर उन्होंने बड़ी मुसीबतों में दिन काटे हैं. सब याद है उन्हें.

हरियाणा के छोटे से गांव में स्कूल की छोटी सी नौकरी थी. उसी में सारा गुजारा करना होता था. सो, बच्चों को भी कंजूसी से चलने की आदत थी.

अम्माजी ने दोनों बच्चों को इंजीनियर बनाया था. कितनी परेशानी से वे पढ़े थे, अम्माजी से ज्यादा कौन जानता था. फिर दोनों का विवाह भी किया था उन्होंने ही. ‘‘अम्माजी, खाना टेबल पर लगा दिया है,’’ नौकरानी की आवाज सुन कर वे वर्तमान में लौटीं.

अम्माजी 60 की होने वाली थीं. रिटायर होने के बाद देवेश के साथ रहने की सोच रही थीं. देवेश की शादी को 2 वर्ष बीते तो उसे कंपनी की तरफ से एक प्रोजैक्ट के लिए जरमनी जाना पड़ गया. 3 वर्षों का कौन्ट्रैक्ट था. पैसे भी अच्छे मिल रहे थे. ऐसे सुअवसर को देवेश छोड़ना नहीं चाहता था. देवेश के जाने के कुछ दिनों पहले रेखा ने भी एक नौकरी जौइन कर ली थी. औफिस, उस के घर से काफी दूर था.

एक दिन उस के एक सहयोगी ने कहा, ‘‘रेखा, यहीं औफिस के करीब सोसायटी फ्लैट है, चाहो तो किराए पर ले सकती हो. इतनी दूर आनंद विहार से द्वारका आनाजाना आसान नहीं है. आनंद विहार के फ्लैट सुंदर व सस्ते भी थे. कम किराए में सुंदर फ्लैट. अम्माजी, देवेश और रेखा तीनों को अच्छा लगा.

देवेश के जरमनी जाने से पहले घर बदल भी लिया था. एक रोज देवेश ने रेखा से कहा, ‘यह फ्लैट छोटा है पर गुजारे लायक है. जरमनी से लौटूंगा तो मैं काफी पैसा बचा लूंगा. 50 लाख रुपए के लगभग मेरे पास होंगे, तब मैं अपना फ्लैट खरीद लूंगा.’ ‘ठीक कहते हैं आप, दिल्ली में हमारा अपना मकान होगा. लोगों का यह सपना होता है. हमारा भी यह सपना है,’ रेखा बोली थी.

दरअसल, देवेश ने इस प्रोजैक्ट के लिए हामी भरी ही इसलिए थी. वह बरसों पहले देखा ‘अपना घर’ का सपना पूरा करना चाहता था. इसलिए एकएक पैसा इकट्ठा कर रहा था. बेशक, 3 वर्षों के लिए पत्नी से दूर होना पड़े, पर यही एक रास्ता था. यह बात रेखा भी जानती थी.

देवेश जरमनी चला गया. शुरू में रेखा को खालीपन लगता था. अकसर अम्माजी आ जाती थीं. पर उन की उम्र ढल रही थी. सो, आनाजाना आसान न था. महीनों गुजर जाते. बस, फोन पर सासबहू एकदूसरे का हाल ले लेतीं. रेखा एक समझदार लड़की है. आज तक सासबहू में तूतूमैंमैं कभी नहीं हुई. अम्माजी यहां आ कर पैर फैला कर सोती हैं. इस पर फूफी नौकरानी हमेशा कहती, ‘अच्छी बहू मिली है, अम्माजी.’ उसी फूफी के मुंह से यह सब सुन कर उन का मन खिन्न हो गया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. अम्माजी ने समय देखा कि रात में पूरे 12 बजे थे. दिमाग घूम गया.

‘‘अरे फूफी, देखो, लगता है रेखा आ गई है.’’

‘‘हां, वही है.’’

अम्माजी को ड्राइंगरूम में बैठा देख वह सहम गई. ‘‘अम्माजी, आप?’’ उस ने खुद ही महसूस किया कि उस की आवाज लड़खड़ा रही है.

‘‘बहू, इतनी देर?’’

‘‘वह, मेरी सहेली की बेटी का जन्मदिन था. सो, लेट हो गई.’’ उस ने झूठ बोला था. अम्माजी जानती थीं. पर कुछ भी न कहा सिवा इस के, ‘‘अच्छा, हाथमुंह धो ले, मैं तेरे इंतजार में भूखी बैठी हूं.’’

वह हड़बड़ा कर बाथरूम में घुस गई थी. शावर लेते हुए वह सोचने लगी, कुछ देर पहले नशे में धुत्त थी. टैक्सी में बैठी बार वाली उस घटना पर हंस रही थी- नंदिनी और एक शराबी कैसे दोनों लिपटे हुए एकदूसरे को चूमचाट रहे थे. बाकी लोग तालियां बजा कर तमाशा देख रहे थे.

एक शराबी उस को खींच कर नाचने के डांस?फ्लोर पर ले आया. वह शर्म से पानीपानी हो गई थी. मौका ताड़ कर वह भाग कर बार से बाहर आ गई. नशा उतर रहा था, जो टैक्सी मिली, बैठ कर घर आ गई. अच्छा हुआ जो निकल आई, पता नहीं, शायद अम्माजी को शक हो गया है या उसे यों ही लग रहा है. और वह सोसायटी के गेट पर बैठा मुच्छड़ चौकीदार, गेट खोलते समय ऐसे घूर रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘मैडमजी, आज तो बड़ी जल्दी घर लौट आईं.’

नहाधो कर वह काफी हलका महसूस कर रही थी. टेबल पर अम्माजी उस का इंतजार कर रही थीं.

‘‘बेटा, देवेश का फोन आया था. बता रहा था प्रोजैक्ट 6 महीने पहले खत्म हो रहा है. वह शायद इसी साल के दिसंबर में आएगा. और मैं भी दिसंबर में रिटायर हो कर तुम लोगों के पास रहूंगी.’’

‘देवेश जल्दी आ रहे हैं’ सुन कर रेखा के मन में खुशी की तरंग दौड़ गई. पर, अम्माजी हमारे साथ हेंगी, यह तो कभी सोचा भी न था.

‘‘अभी मैं 15 दिनों की छुट्टी ले कर आई हूं,’’ अम्माजी ने बरतन समेटते हुए सूचना दी थी. यानी 15 दिन अभी रहेंगी. उस के बाद रिटायर हो कर भी यहीं हमारे पास रहेंगी. इस का मतलब वह इन 15 दिनों तक डिं्रक से दूर रहेगी. और जब अम्मा यहां रहने आ जाएंगी तो फिर उस के पीने का क्या होगा? यही सब सोच रही थी रेखा.

वह डाइनिंग टेबल से उठ कर बिस्तर पर लेट गई और सोचने लगी, यह उसे क्या हो गया है ? उस की हर बात ड्रिंक से जुड़ी होती है. पीने के अलावा वह कुछ सोचती ही नहीं. अगर अम्माजी को पता लग गया, मैं क्लब जाती हूं, पीती हूं, तो क्या होगा? यह कैसा शौक पाल बैठी मैं?

बड़ा अजीब सा संयोग था जब दीपा ने उसे औफर दिया था, ‘तुम अकेली हो, तुम्हारे पति बाहर हैं, कैसे वक्त काटती हो?’

‘फिर क्या करूं खाली समय में?’ उस ने अचकचा कर दीपा से पूछा था.

‘अरे, मेरे साथ चलो, भूल जाओगी अकेलापन.’

‘कहां जाना होगा मुझे?’ मासूम सा प्रश्न किया रेखा ने.

‘चलोगी तो जान जाओगी,’ दीपा ने उस के साथ शाम का समय फिक्स किया था.

अनुत्तरित प्रश्न: भाग 2- ज्योति कौन-सा अपमान न भूल सकी

इस कल्पना से कि उस ने मेरे खिलाफ सब उगल दिया होगा, मेरा सर्वांग कांप उठा. ‘‘जल्दी कर, संजना आती होगी,’’ मैं ने अपनी बेकाबू धड़कनों को संभालने का प्रयास किया.

‘‘संजना जानती है ज्योति के बारे में. मैं ने उसे सब बता दिया है… सिवा इन पत्रों के,’’ जतिन नजरें झुकाए धीरे से बोला.

‘‘क्या? उसे यह सब बताने की क्या जरूरत थी, वह भी ऐसी अवस्था में?’’ मुझे जतिन पर गुस्सा आने लगा था. यह एक के बाद एक नादानियां किए जा रहा था. इसे क्या व्यावहारिकता की जरा भी समझ नहीं?

‘‘जरूरत थी मां और वह बहुत खुश है ज्योति के बारे में जान कर.’’

मुझे लगा, इस लड़के का दिमाग घूम गया है.

‘‘आप पहले पूरी बात सुन लीजिए, फिर सब समझ आ जाएगा. ज्योति ने बताया कि वह मुझ से शादी नहीं कर सकती, क्योंकि वह अपूर्ण है. एक दुर्घटना में वह अपने मातापिता के साथ अपनी प्रजनन क्षमता खो चुकी है, इसलिए वह किसी से विवाह नहीं कर सकती. आप की तरह मैं भी उस वक्त यह सुन कर जड़ रह गया था. इतनी बड़ी बात और ज्योति मुझे अब बता रही थी? अंदर से दूसरी आवाज आई, शुक्र है बता दिया. शादी के बाद पता चलता तो? तभी तीसरी आवाज आई, कहीं यह मुझे परख तो नहीं रही? मुझे असमंजस में खड़ा देख ज्योति आगे बोली कि इस स्थिति में तुम क्या, कोई भी लड़का मुझ से विवाह नहीं करेगा. मुझे तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. पता नहीं अब तक किस गफलत में डूबी रही. खैर… अब हमारे रास्ते अलग हैं. वह जाने लगी तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने आगे बढ़ कर उस का हाथ थाम लिया. नहीं ज्योति, मुझे छोड़ कर मत जाओ. मैं नहीं रह पाऊंगा. हम बच्चा गोद ले लेंगे.’’

मैं ने तमक कर जतिन को देखा, लेकिन इस वक्त उस पर मेरा रोब, खौफ, प्यार सब बेअसर था. वह ज्योति के खयालों में ही खोया हुआ था.

‘‘इस पर ज्योति का कहना था कि भावुकता में बह कर मैं न तुम्हारा जीवन बरबाद करना चाहती हूं, न अपना. आज भले ही तुम भावुकता में मेरा हाथ थाम लो, लेकिन कल लोगों के ताने, मां का विलाप तुम्हें यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा करेगा. तब तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा होगा. फिर या तो तुम मेरी अवहेलना करोगे या सहानुभूति दर्शाओगे और मुझे दोनों ही मंजूर नहीं. मैं कालेज से निकल कर आगे और पढ़ना चाहती हूं. कुछ बन कर दिखाना चाहती हूं. अपनी अपूर्णता को अपनी प्रतिभा से मैं पूर्णता में बदल दूंगी. मैं ने उस से कहा था कि वह सब तुम मेरे साथ रह कर भी कर सकती हो ज्योति. लेकिन उस का कहना था कि नहीं जतिन, मुझे बैसाखियों पर चलने का शौक नहीं है.

‘‘उस समय जरूर मुझे ऐसा लगा था मां कि अति आत्मविश्वास ने इसे अंधा बना दिया है. यह अपना भलाबुरा नहीं सोच पा रही है. मैं स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा

था. लेकिन आज सोचता हूं तो लगता है उस ने जो भी किया, एकदम सही किया था. प्यार विशुद्ध प्यार होता है. जहां उस में दया, सहानुभूति, सहारे या विवशता का भाव आ जाता है, वहां प्यार खत्म हो जाता है. हम ने अपने प्यार को वहीं लगाम दी, तो कम से कम हमारा दोस्ताना तो जीवित रहा. कालेज खत्म कर के मैं नौकरी करने लगा और वह अपने सपने पूरे करने के लिए विदेश चली गई. व्यस्तता के कारण हमारा संपर्क घटतेघटते एकदम समाप्त हो गया.

‘‘कुछ महीने पहले मेरी उस से अचानक मुलाकात हो गई. पुणे की एक कंपनी में वह मैनेजर बन कर आई है. मैं तो अकसर पुणे जाता रहता हूं. एक व्यावसायिक मीटिंग में उसे देखा तो हैरान रह गया. मीटिंग के बाद हम मिले. दोस्तों की तरह साथ में डिनर भी किया. बहुत अच्छा लगा. पता चला, उस ने अभी तक शादी नहीं की है. बस मेरे दिमाग

में संजना के विधुर भैया का खयाल आ गया. आप तो जानती ही हैं मां, कितने संपन्न और अच्छे युवक हैं राजीव भैया. 2 साल होने को आए हैं सुरेखा भाभी के देहांत को. रिश्ते बहुत आ रहे हैं उन के लिए पर नन्ही सी नैना के मोह ने उन्हें जकड़ रखा है.

‘‘कहते हैं कि विवाह कर आने वाली लड़की खुद भी तो मां बनना चाहेगी और अपना बच्चा होते ही वह नैना की अवहेलना करने लग जाएगी. मां, यदि ज्योति की शादी उन से हो जाए तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी, क्योंकि ज्योति तो मां बन ही नहीं सकती. दोनों एकदूसरे के लिए उपयुक्त पात्र हैं. मैं ने संजना को ज्योति के बारे में बताया तो वह भी बहुत खुश हुई. मां, ज्योति की कमी उस की गृहस्थी बसाने में उस की खूबी बन जाएगी,’’ जतिन बेहद उत्साहित हो चला था.

‘‘तुम ने ज्योति से बात की?’’ मैं अब भी सशंकित थी.

‘‘हां मां. उस ने इतनी अच्छी दोस्ती निभाई तो अब उस का घर बसाना मेरा फर्ज बनता है. मैं ज्योति से मिला और उस के सामने सारी बात स्पष्ट खोल कर रख दी.’’

‘‘वह मान गई?’’ मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘नहीं मां, ज्योति इतनी आसानी से मानने वालों में नहीं है मैं जानता था. वह नाराज हो गई थी कि मैं क्यों उसे अपनी जिंदगी जीने नहीं देता? लेकिन मैं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. मैं ने उसे अपनी दोस्ती का वास्ता दिया. जिंदगी की व्यावहारिकता समझाई कि इतनी पहाड़ सी जिंदगी बिना किसी सहारे के नहीं बिताई जा सकती. विशेषकर जीवन के संध्याकाल में जीवनसाथी की कमी तुम्हें अवश्य खलेगी. तुम आर्थिक रूप से सक्षम हो, अपने पैरों पर खड़ी हो, जब चाहो उचित न लगने पर संबंध तोड़ सकती हो. इस रिश्ते में तो कोई दया, सहानुभूति वाली बात भी नहीं है. राजीव भैया तुम्हारा सहारा बनेंगे तो तुम उन का सहारा बनोगी. 2 अपूर्ण मिल कर पूर्ण हो जाएंगे.

‘‘तुम ने मुझे यथार्थ के धरातल पर खड़ा कर के सोचने के लिए मजबूर किया था, आज मैं तुम से उसी यथार्थ के धरातल पर खड़ा हो कर सोचने की प्रार्थना कर रहा हूं.

अनुत्तरित प्रश्न: भाग 1- ज्योति कौन-सा अपमान न भूल सकी

ज्योति को इतने बरसों बाद एकाएक सामने देख कर मैं हैरान हो उठी. उस ने मुझे जतिन की शादी की बधाई दी.

‘‘मैं काफी समय से विदेश में थी. अभी कुछ समय पूर्व ही इंडिया लौटी हूं. जतिन की शादी की बात सुनी तो बेहद खुशी हुई. आप को बधाई देने के लिए मैं खुद को न रोक सकी, इसीलिए आप के पास चली आई. ये कुछ खत हैं, अब ये आप की अमानत हैं. आप इन का जो करना चाहें करें, मैं चलती हूं.’’

‘‘अरे, कुछ देर तो बैठो… चाय वगैरह…’’ मैं कहती ही रह गई पर वह उठ कर खड़ी हो गई.

‘‘बस, आप को भी तो कालेज जाना होगा,’’ कह कर तेज कदमों से चल दी.

उस के जाने के बाद मैं ने खतों पर सरसरी निगाह डाली तो चौंक उठी. वे जतिन द्वारा ज्योति के नाम लिखे प्रेमपत्र थे. शुरू के 1-2 पत्र पढ़ कर मैं ने सब उठा कर रख दिए. कालेज में आएदिन ऐसे प्रेमपत्र पकड़े जाते थे, इसीलिए ऐसे पत्रों में मेरी कोई रुचि नहीं रह गई थी. पर चूंकि जतिन की लिखावट थी, इसलिए मैं ने 1-2 पत्र पढ़ लिए थे. उन से

ही मुझे प्रेम की गहराई का काफी कुछ अनुमान हो गया था. आश्चर्य था तो इस बात पर कि जतिन ने कभी मुझ से इस बारे में कुछ कहा क्यों नहीं?

कालेज में भी मेरा मन नहीं लगा. बारबार ज्योति का चेहरा आंखों के आगे घूमने लगा. वह पहले से भी ज्यादा आकर्षक लगी थी. सुंदरता में आत्मविश्वास के पुट ने उस के व्यक्तित्व को एक ओज और गरिमा प्रदान कर दी थी. यह मेधावी छात्रा कभी मेरी प्रिय छात्राओं में से एक थी, लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैं इसे नापसंद करने लगी. इसी कालेज में पढ़ने वाले अपने बेटे के संग मैं ने इसे 2-3 बार देख लिया था.

जतिन, मेरा बेटा हमेशा मेरी कमजोरी रहा है. सुधीर के निधन के बाद से तो मैं उसी के लिए जी रही हूं. अपनी प्रिय वस्तु के छिन जाने का भय मुझ पर हावी होने लगा. अपने चैंबर में ज्योति को बुला कर अकेले में मैं ने उसे डांट दिया था.

‘‘तुम कालेज में पढ़ने आती हो या अपनी खूबसूरती और प्रतिभा का प्रदर्शन कर उसे भुनाने? अपनी पढ़ाई से मतलब रखो, वरना कालेज से निकाल दी जाओगी. मैं तुम्हारा बैकग्राउंड अच्छी तरह जानती हूं. एक बार शिकायत घर चली गई तो कहीं की नहीं रहोगी. नाऊ गेट लौस्ट,’’ उस समय प्रिंसिपल के कड़क मुखौटे के पीछे मैं एक आशंकित मां का चेहरा छिपाने में सफल हो गई थी.

ज्योति ने फिर कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं दिया. मैं आश्वस्त हो गई थी. जतिन को अवश्य मैं ने कुछ दिनों परेशान देखा था पर फिर परीक्षाएं नजदीक देख कर वह भी पढ़ाई में रम गया था. मैं ने राहत की सांस ली थी. डिग्री मिलते ही अपने रसूखों से मैं ने उस की नौकरी लगवा दी. फिर संजना जैसी सुंदर और सुशील कन्या से उस का विवाह भी करा दिया.

फिर भी जतिन ने एक बार भी ज्योति का जिक्र नहीं किया. जतिन और संजना का वैवाहिक जीवन हंसीखुशी चल रहा था. उन के विवाह को 2 वर्ष होने वाले थे. पिछली बार जतिन ने जब मुझे मेरे दादी बनने की खबर सुनाई थी तो मैं खुशी से उछल पड़ी थी. संजना पर आशीर्वाद और हिदायतों की झड़ी लगा दी थी मैं ने.

वे दोनों मेरे पास आने वाले थे. सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था और यह बीच में ज्योति जाने कहां से टपक पड़ी. वह भी जतिन के लिखे प्रेमपत्र ले कर. क्या चाहती है यह लड़की? ब्लैकमेल करना? तो फिर पत्र मुझे क्यों दिए? हो सकता है जेरौक्स कौपी हो उस के पास. यह भी हो सकता है कि जतिन की शादी का पता चला हो तब यह किस्सा ही खत्म कर देना चाहती हो. अगर ऐसा होता तो फिर खुद ही जला देती. जतिन को भी लौटा सकती थी. नहींनहीं, वहां तो संजना है.

आखिर, उस का क्या मंतव्य हो सकता है? शायद मेरी निगाहों में खुद को बेकुसूर साबित करना चाहती हो कि आप का बेटा मुझे प्यार करता था और खत लिखता था, मेरा कोई कुसूर नहीं था.

अनुत्तरित प्रश्नों की गूंज ने मुझे बेचैन कर दिया था. कभी मन करता खतों को जला डालूं. कभी मन करता इन्हें जतिन को दिखा कर पूछूं कि इन में कितनी सचाई थी? यदि उस का प्यार सच्चा था तो उस ने उस का इस तरह गला क्यों घोंटा? मेरे सभी प्रश्नों का जवाब जतिन ही दे सकता था. फोन पर पूछना संभव नहीं था. मैं उस के आने की राह देखने लगी.

जतिन आया मगर मुझे उसे खत दिखाने और बात करने का मौका नहीं मिल रहा था, जबकि उन के लौटने के दिन नजदीक आते जा रहे थे. मुझे बहू के लिए साड़ी और कुछ सामान खरीदने थे. जतिन से कहा तो उस ने हाथ खींच लिए.

‘‘मां, यह काम मेरे बस का नहीं है. आप दोनों हो आइए. मैं तब तक अपना कुछ काम कर लेता हूं.’’

मुझे उस की बात ठीक लगी. लौटते वक्त मैं ने अचानक गाड़ी रुकवाई, ‘‘संजना बेटी, मुझे यहीं उतार दो. मैं रिकशा कर के घर चली जाती हूं और खाने वगैरह की तैयारी कर लेती हूं. तुम तब तक नत्थू की दुकान से अपनी पसंद की मिठाई, नमकीन बंधवा लाओ और हां, थोड़े फल भी ले आना.’’

संजना ने मुझे उतार कर गाड़ी घुमा ली. मैं घर पहुंची तो जतिन चौंक पड़ा, ‘‘क्या हुआ मां, तुम अकेली कैसे आईं? तबीयत तो ठीक है न? संजना कहां है?’’

‘‘आ रही है नुक्कड़ से मिठाई ले कर. मुझे तुम से अकेले में कुछ जरूरी बात करनी थी,’’ कह कर मैं जल्दीजल्दी जा कर अपनी अलमारी से कपड़ों की तरह के नीचे दबे खत ले आई और जतिन के सामने रख दिए. पत्र देख कर वह सकपका गया.

‘‘ये आप के पास कैसे आए?’’ उस ने साहस कर के पूछा.

‘‘जाहिर सी बात है, ज्योति दे कर गई है. बहुत प्यार करते थे न तुम उस से? प्रेमपत्र लिखने का साहस था, शादी करने का नहीं? मुझ से कहने का भी नहीं?’’

‘‘ऐसी बात नहीं थी मां. मैं तो उसी से शादी करना चाहता था…’’

‘‘फिर?’’ पूछते हुए मैं मन ही मन कांप उठी. कहीं ज्योति ने डांट और धमकी की बात जतिन को तो नहीं बता दी थी? उस वक्त मुझे कहां पता था कि मेरा अपना ही सिक्का खोटा है.

‘‘वैसे मां ज्योेति कैसी लगती है तुम्हें?’’ जतिन अब तक सामान्य हो चला था पर अब चौंकने की बारी मेरी थी.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? कैसी ऊलजलूल बातें कर रहे हो तुम?’’ मैं गुस्से से बोली.

‘‘ओह मां, आप गलत समझ रही हैं. खैर, आप का भी दोष नहीं है. मैं आप को शुरू से सारी बातें बताता हूं. मैं कालेज के दिनों से ही ज्योति को पसंद करने लगा था. लेकिन वह मेरे बारे में क्या सोचती है, यह नहीं जान पाया.

मैं ने उसे खत लिखे पर उस ने कोई जवाब नहीं दिया. मुझे उस की आंखों में अपने लिए प्यार नजर आता था, लेकिन न जाने क्यों वह मुझ से कतराती थी. फिर मुझे समझ आया वह आप से यानी अपनी प्रिंसिपल से खौफ खाती थी, इसलिए उन के बेटे से प्यार करने की जुर्रत नहीं कर पा रही थी. मैं अकेले में उस से मिला. समझाया कि मां से डरने की जरूरत नहीं है. हम वक्त आने पर अपने प्यार का इजहार करेंगे और वे शादी के लिए मान जाएंगी. वह कुछ आश्वस्त हुई थी, पर फिर न जाने क्या हुआ, उस ने अचानक मुझ से मिलना बंद कर दिया. सामने भी पड़ जाती तो कतरा कर निकल जाती. मैं परेशान हो उठा. आखिर एक दिन मैं ने उसे पकड़ लिया…’’

अंतिम पड़ाव का सुख: क्या गलत थी रेखा की सोच

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प्यार की धूपछांव: भाग 3- जब मंदा पर दौलत का खुमार चढ़ गया

मुंबई से निकलते वक्त उस ने मंदा के लिए एक खत लिख कर छोड़ दिया था कि घर जा रही हूं किसी जरूरी काम से… सारी बातें लौट कर बताती हूं.

क्लास से लौटने पर मंदा ने जब पूर्वी का लिखा खत देखा तो पहले तो वह सोच में पड़ गई कि ऐसा कौन सा काम अचानक आ गया जो पूर्वी इस तरह अचानक चली गई. फिर अगले ही पल उस के खुरापाती दिमाग में विचार आया कि यही सही मौका है, उस के फ्रैंड सलिल को अपने प्यार के झूठे जाल में फंसा कर अपना बनाने का.

बस फिर उस का माइंड बड़ी तेजी से सलिल को अपना बनाने के लिए षड्यंत्र रचने लगा. उस ने मन ही मन सोचा यदि सलिल उस का न हुआ तो पूर्वी का भी नहीं होने देगी.

इधर पूर्वी बरेली पहुंच कर मां की देखभाल में इस तरह व्यस्त हो गई कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहा. वह तो हरदम मां के जल्दी से जल्दी ठीक होने के लिए प्रार्थना करने लगी और अपना फोन भी साइलैंट मोड पर कर दिया.

इस बीच सलिल ने पूर्वी को कई बार फोन करने की कोशिश की, लेकिन उस का फोन हमेशा स्विच्ड औफ ही मिला. सलिल को पूर्बी के लिए चिंता होने लगी. फिर एक दिन सलिल ने मंदा को फोन मिला कर पूर्बी के बारे में जानने की कोशिश की तो मंदा के मन की तो कली खिल गई.

ऊपर से तो मंदा ने पूर्वी के बारे में चिंता जाहिर की फिर बोली, ‘‘देखो

तो मुझे भी कुछ बता कर नहीं गई,’’ और फिर पूर्वी के द्वारा लिखी चिट सलिल को दिखाई.

फिर तुरंत कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि उस के मां, बाबूजी ने उसे शादी करने के लिए ही बुलाया होगा. मुझ से तो कम से कम कुछ बताती.’’

पूर्वी की शादी की बात सुन कर सलिल के चेहरे का रंग उड़ने लगा तो तुरंत मंदा कहने लगी, ‘‘अरे, इतना उदास क्यों होते हो ये छोटे शहर की लड़कियां होती ही ऐसी हैं. प्यार का नाटक किसी से व शादी किसी से. चिल करो यार, इस दुनिया में एक पूर्वी ही तो नहीं है, हम भी तो प्यार करते हैं तुम से, कभी मौका तो दो मुझे अपना प्यार साबित करने का.

‘‘मेरी आज कोई क्लास नहीं है. कहीं घूमने चलते हैं, तुम्हारा मूड भी ठीक हो जाएगा या ऐसा करते हैं आज होस्टल की वार्डन छुट्टी पर हैं. तुम कुछ ड्रिंक ले कर अपना मूड ठीक कर लेना, बाद में जैसा तुम चाहोगे वैसा ही करेंगे.

सलिल ने कहा, ‘‘नहीं, फिर कभी आता हूं,’’ पूर्वी की कोई खबर न मिलने पर सलिल का मन बहुत घबरा रहा था.

तभी मंदा ने उसे अपने बैड की तरफ खींच कर बैठाया और ?ाटपट ड्रिंक बना कर ले आई जिस में उस ने कुछ नशीली चीज मिला दी थी. जब सलिल ने ड्रिंक लेने से मना किया तो बोली, ‘‘अरे, इतना क्यों सोच रहे हो, कम से कम अपनी माशूका की खुशी के लिए ही पी लो. पूर्वी जहां भी होगी खुश होगी मेरा मन कहता है.’’

ड्रिंक पीते ही कुछ देर में सलिल अपने होश खोने लगा, तो मंदा ने उसे बैड पर लिटाया फिर अपने कपड़ों को फाड़ कर रूम से बाहर निकल कर शोर मचा कर लोगों को जमा कर लिया, ‘ख्देखो इस लड़के ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की है. इस की गलत हरकत के लिए इसे कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, मैं तो कहती हूं इसे जेल होनी चाहिए.

आननफानन में पुलिस आई और सलिल को पकड़ कर ले गई और जेल में डाल दिया.

दूसरे दिन न्यूजपेपर में बडेबड़े अक्षरों में यह खबर छपी कि लखनऊ के रिटायर्ड डीएसपी के बेटे को किसी लड़की के साथ जबरदस्ती करने  के जुर्म में जेल में डाला.

पूर्वी की मां अब अस्पताल से घर आ चुकी थी. उन की तबीयत में काफी सुधार था. पूर्वी आज काफी हलका महसूस कर रही थी. अत: पेपर ले कर पढ़ने लगी, जैसे ही उस की नजर सलिल के जेल में होने पर पड़ी वह एकदम घबरा गई, उस ने तुरंत अपना फोन चैक किया, सलिल की ढेरों मिस्ड कौल्स थीं.

‘‘पूर्वी का मन कतई यह मानने को तैयार नहीं था कि उस का सलिल ऐसी गलत हरकत कर सकता है. इतने दिनों की मेलमुलाकात के दौरान सलिल ने कभी मर्यादा का उलंघन नहीं किया था उसे टच तक नहीं किया था.

पूर्वी ने तुरंत वापस जाने का मन बनाया. उधर सलिल के पापा भी इस खबर को पढ़ कर बहुत परेशान थे. वे भी तुरंत मुंबई पहुंचे और अपने बेटे से मिल कर सारी स्थित की जानकारी ली.

इधर पूर्वी ने भी सलिल के पापा को सारी बातें स्पष्ट रूप से बता दीं. मंदा को थाने में बुलाया गया, कुछ देर में ही उसने अपना जुर्म कुबूल कर लिया कि पूर्वी से जलन होने के कारण ही उस ने ऐसी गलत हरकत की. असली सजा की हकदार तो वह है, सलिल नहीं. सलिल को पुलिस ने बाइज्जत वरी कर दिया. सलिल के पापा सलिल व पूर्वी को लखनऊ ले गए. पूर्वी के मांबाबूजी को भी बहां बुला लिया और दोनों की शादी करवा दी. दोनों ही परिवार बहुत खुश थे. सलिल पूर्वी को कुछेक परेशानी का सामना करने के बाद सही मंजिल मिल गई. शायद इसी को जिंदगी कहते हैं कभी धूप तो कभी प्यार की ठंडीठंडी छांव.

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