तेरे जाने के बाद: क्या माया की आंखों से उठा प्यार का परदा

गलीचा: रमेश की तीखी आलोचना करने वाली नगीना को क्या मिला जवाब

संगीता और नगीना का परिचय एक यात्रा के दौरान हुआ था. उस से पहले वे कभी नहीं मिली थीं. एक ही दफ्तर में काम करने के कारण उन दोनों के पति ही एकदूसरे के घर आतेजाते थे. इसीलिए वे दोनों एकदूसरे की पत्नियों से भी परिचित हो गए थे, लेकिन दोनों की पत्नियों का मिलन पहली बार इस यात्रा में ही हुआ था.

हुआ यों कि संगीता के पति दीपक ने दफ्तर से 15 दिन की छुट्टी ली. दीपक के साथ काम करने वालों ने सहज ही पूछलिया, ‘‘क्या बात है, दीपक, इतनी लंबी छुट्टी ले कर कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’’

दीपक ने सचाई बता दी, ‘‘हां, हमारा विचार राजस्थान के कुछ ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा करने का है. पत्नी कई दिनों से घूमनेके लिए चलने का आग्रह कर रही थी, इसीलिए मैं ने इस बार 15 दिन की यात्रा का कार्यक्रम बना डाला.’’

सभी ने दीपक के इस निश्चय की सराहना करते हुए कहा, ‘‘हो आओ. घूमनेफिरने से ताजगी आती है. आदमी को साल दो साल में घर से निकलना ही चाहिए. इस से मन की उदासी दूर हो जाती है.’’

तभी नगीना के पति रमेश ने दीपक से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे साथ और कोई भी जा रहा है?’’

‘‘नहीं, बस, श्रीमतीजी और मैं ही जा रहे हैं. बच्चे भी साथ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि इस से उन की पढ़ाई में हर्ज होगा. वे अपने दादादादी के पास रहेंगे.’’

‘‘यह तो तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया.’’

‘‘हां, मगर उन के बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के साथ रहने से मन लगा रहता है.’’

‘‘भई, मेरी पत्नी भी कहीं चलने के लिए जोर डाल रही है, पर सोचता हूं…’’

‘‘इस में सोचने की क्या बात है? अगर राजस्थान में घूमने की इच्छा हो तो हमारे साथ चलो.’’

‘‘तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’

‘‘हमें क्या असुविधा होगी, भई, हनीमून मनाने थोड़े ही जा रहे हैं.’’किया, ‘‘जाओ,भई, ऐसा मौका मत छोड़ो. सफर में एक से दो भले. पर्यटन में अपनों का साथ होना बहुत अच्छा रहता है.’’

रमेश को यह सलाह जंच गई. उस ने उसी समय छुट्टी की अरजी दे डाली. बड़े बाबू ने अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए उस की छुट्टी की भी स्वीकृति दे दी. इसीलिए दोनों दंपतियों का साथ हो गया.

रेलवे स्टेशन पर दोनों जोड़ों का जब मिलन हुआ तो संगीता ने नगीना से कहा, ‘‘देखिए, एक ही शहर में रहते हुए भी हम अभी तक नहीं मिल पाईं?’’

नगीना ने मोहक मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘अब हम लोग खूब मिला करेंगी, पिछली सारी कसर पूरी कर लेंगी.’’

इस यात्रा में संगीता औैर नगीना का बराबर साथ रहा. रेल और मोटर में तो उन का साथ रहता ही था. वे लोग जहां ठहरते थे, वहां भी कमरे पासपास ही होते थे. एक बार तो एक ही कमरे में दोनों जोड़ों को रात बितानी पड़ी. लिहाजा, इस सफर में नगीना और संगीता को एकदूसरे को देखनेसमझने के खूब मौके मिले.

इस अवधि में संगीता ने यह जाना कि रमेश पत्नी का खूब खयाल रखता है. वह दिनरात उस की सुखसुविधा के लिए चिंतित रहता है. वह नगीना की पसंद की चीजें नजर आते ही ले आता है. आग्रह करकर के खिलातापिलाता. पत्नी को जरा सा उदास देखते ही वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता, ‘‘क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द तो नहीं हो रहा है? क्या हाथपैर ही दर्द कर रहे हैं?’’

नगीना के मुंह से अगर कभी यह निकल जाता कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है तो रमेश भागदौड़ मचा देता. पत्नी के सिर पर कभी बाम मलता तो कभी हाथपैर ही दबाने लगता. जरूरत होती तो डाक्टर को भी बुला लाता.

नगीना मना करती रह जाती, ‘‘घबराने की कोईर् बात नहीं. साधारण बुखार है.’’

मगर रमेश घबरा जाता. नगीना जब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती थी, तब तक वह बेहद परेशान रहता. जब नगीना हंसहंस कर बातें करने लगती तब कहीं उस की जान में जान आती.

पत्नी को यों खिलीखिली सी रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता.सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस अवधि में वह अपनी पत्नी पर न तो कभी झल्लाता, न ही नाराज होता. कई बार नगीना ने उस की इच्छा के खिलाफ भी काम किया. फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा.

रमेश के इस व्यवहार से संगीता बड़ी प्रभावित हुई. उसे नगीना से ईर्ष्या होने लगी. वह मन ही मन अपने पति दीपक और रमेश में तुलना करने लगती.

जिन बातों की ओर संगीता का पहले कभी ध्यान नहीं जाता था उस ओर भी उस का ध्यान जाने लगा था. एक टीस सी उस के मन में उठने लगी थी, ‘एक मेरा पति है और एक नगीना का. दोनों में कितना अंतरहै. दीपक तो मेरा कभी खयाल ही नहीं रखता. 15 वर्ष से अधिक अवधि बीत गई हमारे विवाह को, फिर भी कोई जानकारी ही नहीं है.

‘दीपक तो बस अपनेआप में ही डूबा रहता है. हां, कुछ कह दूं तो भले ही ध्यान दे दे. मगर मेरे मन की बात जानने की उसे स्वयं कभी इच्छा ही नहीं होती. मन की बात छिपाना ही उसे नहीं आता. जो मन में आता है, वह फौरन जीभ पर ले आता है. उस का चेहरा ही बहुत कुछ कह देता है. कठोर से कठोर बात भी उस के मुंह से निकल जाती है. ऐसे क्षणों में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहताकि किसी को बुरा लगेगा या भला? वह तो बस अपने मन की बात कह के हलके हो जाते हैं. कोई मरे या जिए उस की बला से.

‘दीपक की सेवा करकर के भले ही कोई मर जाए, फिर भी प्रशंसा के दो बोल उस के मुंह से शायद ही निकलते हैं. बीमारी तक में उसे खयाल नहीं रहता कि मेरी कुछ मदद कर दे. जाने किस दुनिया में रहता है वह. उस के जीवन से कोई और भी जुड़ा हुआ है, इस का उसे ध्यान ही नहीं रहता. पत्नी का उसके लिए जैसे कोई महत्त्व ही नहीं है. न जाने किस मिट्टी का बना है वह. अच्छा बनेगा तो इतना अच्छा कि उस से अच्छा कोई और हो ही न शायद. बुरा बनेगा तो इतना बुरा कि वैरी से भी बढ़ कर. सचमुच बहुत ही विचित्र प्राणी है दीपक.’

संगीता के मन के ये उद्गार एक दिन नगीना के सामने प्रकट हो गए. उस दिन दोनों के पति यात्रा से वापस लौटने के लिए आरक्षण कराने गए थे. वे दोनों बैठी इधर- उधर की बातें कर रही थीं. तभी नगीना ने अपने पति की आलोचना शुरू कर दी. बच्चों के लिए खरीदे गए कपड़ों को ले कर पतिपत्नी में शायद खटक चुकी थी.

संगीता कुछ देर तक तो सुनती रही, किंतु जब नगीना रमेश के व्यवहार की तीखी आलोचना करने लगी तो वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं, तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं लगते. इन 12-13 दिनों में मैं ने जो कुछ देखा है, उस के आधार पर तो मैं यही कह सकती हूं कि तुम्हें अच्छा पति मिला है. वह तुम्हारा बड़ा खयाल रखते हैं. तुम्हारी सुखसुविधा के लिए वह हमेशा चिंतित रहते हैं. आश्चर्य है कि तुम ऐसे आदर्श पति की बुराई कर रही हो.’’

नगीना ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, ‘‘काश, वह आदर्श पति होते?’’

संगीता ने साश्चर्य पूछा, ‘‘फिर आदर्श पति कैसा होता है?’’

नगीना ने बड़े दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘संगीता, तुम मेरे पति को सतही तौर पर ही जान पाई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो. हकीकत में वह ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर कैसे हैं?’’ ‘‘जैसे दिखते हैं वैसे नहीं हैं.’’ ‘‘क्या मतलब?’’ नगीना ने फर्श पर बिछे गलीचे की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘वह इस गलीचे की तरह हैं.’’ संगीता का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाई?’’

फर्श पर बिछे हुए गलीचे के एक कोने को थोड़ा सा उठाती हुई नगीना बोली, ‘‘संगीता, गलीचे के नीचे छिपी हुई यह धूल, यह गंदगी, किसी को नजर नहीं आती. लोगों को तो बस यह खूबसूरत गलीचा ही नजर आता है. इसे ही अगर सचाई मानना हो तो मान लो. मगर मैं तो उस नंगे फर्श को अच्छा समझती हूं जहां ऐसा कोई धोखा नहीं है. संगीता, मुझे तुम से ईर्ष्या होती है. तुम्हें कितने अच्छे पति मिले हैं. अंदरबाहर से एक से.’’

संगीता मुंहबाए नगीना को देखती रह गई. उस से कुछ कहते ही नहीं बना. ंिकंतु दीपक के प्रति उसे जैसे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी. अपने सारे दोषों के बावजूद वह उसे बहुत अच्छा लगने लगा. संगीता के मन में उस के प्रति जैसे प्यार का ज्वार उमड़ पड़ा.

मुझे कबूल नहीं: रेशमा का मंगेतर शादी से पहले क्या चाहता था

अब्बाजान की प्राइवेट नौकरी के कारण 3 बड़े भाईबहनों की पढ़ाई प्राइमरी तक ही पूरी हो सकी थी. लेकिन मैं ने बचपन से ही ठान लिया था कि उच्चशिक्षा हासिल कर के रहूंगी. ‘‘रेशमा, हमारी कौम और बिरादरी में पढ़ेलिखे लड़के कहां मिलते हैं? तुम पढ़ाई की जिद छोड़ कर कढ़ाईबुनाई सीख लो,’’ अब्बू ने समझाया था.

मेरी देखादेखी छोटी बहन भी ट्यूशन पढ़ा कर पढ़ाई का खर्च खुद पूरा करने लगी. 12वीं कक्षा की मेरी मेहनत रंग लाई और मुझे वजीफा मिलने लगा. इस दरमियान दोनों बड़ी बहनों की शादी मामूली आय वाले लड़कों से कर दी गई और भाई एक दुकान में काम करने लगा. मैं ने प्राइवेट कालेजों में लैक्चरर की नौकरी करते हुए पीएचडी शुरू कर दी. अंत में नामचीन यूनिवर्सिटी में हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत हो गई. छोटी बहन भी लैक्चरर के साथसाथ डाक्टरेट के लिए प्रयासरत हो गई. मेरी पोस्टिंग दूसरे शहर में होने के कारण अब मैं ईदबकरीद में ही घर जाती थी. इस बीच मैं ने जरूरत की चीजें खुद खरीद कर जिंदगी को कमोबेश आसान बनाने की कोशिश की. लेकिन जब भी अपने घर जाती अम्मीअब्बू के ज्वलंत प्रश्न मेरी मुश्किलें बढ़ा देते.

‘‘इतनी डिगरियां ले ली हैं रेशमा तुम ने कि तुम्हारे बराबर का लड़का ढूंढ़ने की हमारी सारी कवायद नाकाम हो गई है.’’ ‘‘अब्बू अब लोग पढ़ाई की कीमत समझने लगे हैं. देखना आप की बेटियों के लिए घर बैठे रिश्ता आएगा. तब आप फख्र करेंगे अपनी पढ़ीलिखी बेटियों पर,’’ मैं कहती.

‘‘पता नहीं वह दिन कब आएगा,’’ अम्मी गहरी सांस लेतीं, ‘‘खानदान की तुम से छोटी लड़कियों की शादियां हो गईं. वे बालबच्चेदार भी हो गईं. सब टोकते हैं, कब कर रहे हो रेशमा और नसीमा की शादी? तुम्हारी शादी न होने की वजह से हम हज करने भी नहीं जा सकते हैं,’’ अम्मी ने अवसाद उड़ेला तो मैं वहां से चुपचाप उठ कर चली गई. यों तो मेरे लिए रिश्ते आ रहे थे, लेकिन बिरादरी से बाहर शादी न करने की जिद अम्मीअब्बू को कोई फैसला नहीं लेने दे रही थी.

शिक्षा हर भारतीय का मूल अधिकार है, लेकिन हमारा आर्थिक रूप से

कमजोर समाज युवाओं को शीघ्र ही कमाऊपूत बनाने की दौड़ में शिक्षित नहीं होने देता. नतीजतन पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी कौम आर्थिक तंगी, सीमित आय में ही गुजारा करने के लिए विवश होती है. यह युवा पीढ़ी की विडंबना ही है कि आगे बढ़ने के अवसर होने पर भी उस की मालीहालत उसे उच्च शिक्षा, ऊंची नौकरियों से महरूम कर देती है. उस दिन अब्बू ने फोन किया. आवाज में उत्साह था, ‘‘तुम्हारे छोटे चाचा एक रिश्ता लाए हैं. लड़का पोस्ट ग्रैजुएट है. प्राइवेट स्कूल में नौकरी करता है तनख्वाह 8 हजार है… खातेपीते घर के लोग हैं… फोटो भेज रहा हूं.’’

‘‘दहेज की कोई मांग नहीं है. सादगी से निकाह कर के ले जाएंगे,’’ भाईजान ने भी फोन कर बताया. अब्बू और भाईजान को तो मुंहमांगी मुराद मिल गई.

मैंने फोटो देखा. सामान्य चेहरा. बायोडाटा में मेरी डिगरियों के साथ कोई मैच नहीं था, लेकिन मैं क्या करती. अम्मीअब्बू की फिक्र… बहन की शादी की उम्र… मैं भी 34 पार कर रही थी… भारी सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव के तहत अब्बू ने मेरी सहमति जाने बगैर रिश्ते के लिए हां कर दी. सगाई के बाद मैं वापस यूनिवर्सिटी आ गई. लेकिन जेहन में अनगिनत सवाल कुलबुलाते रहे कि पता नहीं उस का मिजाज कैसा होगा… उस का रवैया ठीक तो होगा न… मुझे घरेलू हिंसा से बहुत डर लगता है… यही तो देख रही हूं सालों से अपने आसपास. क्या वह मेरे एहसास, मेरे जज्बात की गहराई को समझ पाएगा?

तीसरे ही दिन मंगेतर का फोन आ गया. पहली बार बातचीत, लेकिन शिष्टाचार, सलीका नजर नहीं आया. अब तो रोज का ही दस्तूर बन गया. मैं थकीहारी औफिस से लौटती और उस का फोन आ जाता. घंटों बातें करता… अपनी आत्मस्तुति, शाबाशी के किस्से सुनाता. मैं मितभाषी बातों के जवाब में बस जी… जी… करती रहती. वह अगर कुछ पूछता भी तो बगैर मेरा जवाब सुने पुन: बोलने लगता.

चौथे महीने के बाद वह कुछ ज्यादा बेबाक हो गया. मेरे पुरुष मित्रों के बारे में, रिश्ते की सीमाओं के बारे में पूछने लगा. कुछ दिन बाद एक धार्मिक पर्व के अवसर पर बात करते हुए मैं ने महसूस किया कि वह और उस का परिवार पुरानी निरर्थक परंपराओं एवं रीतिरिवाजों के प्रति बहुत ही कट्टर और अडिग हैं. मैं आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा वाली ये सब सुन कर बहुत चिंतित हो गई.

यह सच है कि बढ़ती उम्र की शादी महज मर्द और औरत को एक छत के नीचे रख कर सामाजिक कायदों को मानने एवं वंश बढ़ाने की प्रक्रिया के तहत एक समझौता होती है, फिर भी नारी का कोमल मन हमेशा पुरुष को हमसफर, प्रियतम, दोस्त, गमगुजार के रूप में पाने की ख्वाहिश रखता है… मैं ऐसे कैसे किसी संवेदनहीन व्यक्ति को जीवनसाथी बना कर खुश रह सकती हूं? एक दिन उस ने फोन पर बताया कि वह पोस्ट ग्रैजुएशन का अंतिम सेमैस्टर देने के लिए छुट्टी ले रहा है… मुझे तो बतलाया गया था कि वह पोस्ट ग्रैजुएशन कर चुका है… मैं ने उस के सर्टिफिकेट को पुन: देखा तो आखिरी सेमैस्टर की मार्कशीट नहीं थी… मेरा माथा ठनका कि इस का मतलब मुझे झूठ बताया गया. मैं पहले भी महसूस कर चुकी थी कि उस की बातों में सचाई और साफगोई नहीं है.

उस ने फोन पर बताया कि वह प्राइवेट नौकरी की शोषण नीति से त्रस्त हो चुका है. अब घर में रह कर अर्थशास्त्र पर किताब लिखना चाहता है. ‘‘किताब लिखने के लिए नौकरी छोड़ कर घर में रहना जरूरी नहीं है. मैं ने 2 किताबें नौकरी करते हुए लिखी हैं.’’

मेरे जवाब पर प्रतिक्रिया दिए बगैर उस ने बात बदल दी. अनुभवों और परिस्थितियों ने मुझे ठोस, गंभीर और मेरी सोच को परिपक्व बना दिया था. उस का यह बचकाना निर्णय मुझे उस की चंचल, अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे गया.

एक दिन मुझे औफिस का काम निबटाना था, तभी उस का फोन आ गया. हमेशा की तरह बिना कौमा, पूर्णविराम के बोलने लगा, ‘‘यह बहुत अच्छा हो गया… आप मुझे मिल गईं. अब मेरी मम्मी को मेरी चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह कैसे?’’ ‘‘क्योंकि मेरी तमाम बेसिक नीड्स पूरी हो जाएंगी.’’ सुन कर मैं स्तब्ध रह गई. मैं ने संयम जुटा कर पूछा.

‘‘बेसिक नीड्स से क्या मतलब है आप को?’’ उस ने ठहाका लगा कर जवाब दिया, ‘‘रोटी, कपड़ा और मकान.’’

मैं सुन कर अवाक रह गई. भारतीय समाज में पुरुष परिवार की हर जरूरत पूरा करने का दायित्व उठाते हैं. यह मर्द तो औरत पर आश्रित हो कर मुझे बैसाखियों की तरह इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है. इस से पहले भी उस ने मेरी तनख्वाह और बैंकबैलेंस के बारे में पूछा था जिसे मैं ने सहज वार्त्ता समझ कर टाल दिया था.

अपने निकम्मेपन, अपने हितों को साधने के लिए ही शायद उस ने पढ़ीलिखी नौकरीपेशा लड़की से शादी करने की योजना बनाई थी. आज मेरे जीवन का यह अध्याय चरमसीमा पर आ गया. मैं ने चाचा, अब्बू व भाईजान को अपनी सगाई तोड़ देने की सूचना दे कर दूसरे ही दिन मंगनी में दिया सारा सामान उस के पते पर भिजवा दिया. मेरा परिवार काठ बन गया. मुझे खुदगर्जी के चेहरे पर मुहब्बत का फरेबी नकाब पहनने वाले के साथ रिश्ता कबूल नहीं था. छलकपट, स्वार्थ, दंभ से भरे पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करने से बेहतर है मैं अकेली अनब्याही ही रहूं.

Mothers’s Day 2024: पुनरागमन- क्या मां को समझ पाई वह

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Mothers’s Day 2024: दर्द- क्या नदीम ने कनीजा बी को छोड़ दिया

कनीजा बी करीब 1 घंटे से परेशान थीं. उन का पोता नदीम बाहर कहीं खेलने चला गया था. उसे 15 मिनट की खेलने की मुहलत दी गई थी, लेकिन अब 1 घंटे से भी ऊपर वक्त गुजर गया?था. वह घर आने का नाम ही नहीं ले रहा था.

कनीजा बी को आशंका थी कि वह महल्ले के आवारा बच्चों के साथ खेलने के लिए जरूर कहीं दूर चला गया होगा.

वह नदीम को जीजान से चाहतीं. उन्हें उस का आवारा बच्चों के साथ घर से जाना कतई नहीं सुहाता था.

अत: वह चिंताग्रस्त हो कर भुनभुनाने लगी थीं, ‘‘कितना ही समझाओ, लेकिन ढीठ मानता ही नहीं. लाख बार कहा कि गली के आवारा बच्चों के साथ मत खेला कर, बिगड़ जाएगा, पर उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. आने दो ढीठ को. इस बार वह मरम्मत करूंगी कि तौबा पुकार उठेगा. 7 साल का होने को आया है, पर जरा अक्ल नहीं आई. कोई दुर्घटना हो सकती है, कोई धोखा हो सकता है…’’

कनीजा बी का भुनभुनाना खत्म हुआ ही था कि नदीम दौड़ता हुआ घर में आ गया और कनीजा की खुशामद करता हुआ बोला, ‘‘दादीजान, कुलफी वाला आया है. कुलफी ले दीजिए न. हम ने बहुत दिनों से कुलफी नहीं खाई. आज हम कुलफी खाएंगे.’’

‘‘इधर आ, तुझे अच्छी तरह कुलफी खिलाती हूं,’’ कहते हुए कनीजा बी नदीम पर अपना गुस्सा उतारने लगीं. उन्होंने उस के गाल पर जोर से 3-4 तमाचे जड़ दिए.

नदीम सुबकसुबक कर रोने लगा. वह रोतेरोते कहता जाता, ‘‘पड़ोस वाली चचीजान सच कहती हैं. आप मेरी सगी दादीजान नहीं हैं, तभी तो मुझे इस बेदर्दी से मारती हैं.

‘‘आप मेरी सगी दादीजान होतीं तो मुझ पर ऐसे हाथ न उठातीं. तब्बो की दादीजान उसे कितना प्यार करती हैं. वह उस की सगी दादीजान हैं न. वह उसे उंगली भी नहीं छुआतीं.

‘‘अब मैं इस घर में नहीं रहूंगा. मैं भी अपने अम्मीअब्बू के पास चला जाऊंगा. दूर…बहुत दूर…फिर मारना किसे मारेंगी. ऊं…ऊं…ऊं…’’ वह और जोरजोर से सुबकसुबक कर रोने लगा.

नदीम की हृदयस्पर्शी बातों से कनीजा बी को लगा, जैसे किसी ने उन के दिल पर नश्तर चला दिया हो. अनायास ही उन की आंखें छलक आईं. वह कुछ क्षणों के लिए कहीं खो गईं. उन की आंखों के सामने उन का अतीत एक चलचित्र की तरह आने लगा.

जब वह 3 साल की मासूम बच्ची थीं, तभी उन के सिर से बाप का साया उठ गया था. सभी रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया था. किसी ने भी उन्हें अंग नहीं लगाया था.

मां अनपढ़ थीं और कमाई का कोई साधन नहीं था, लेकिन मां ने कमर कस ली थी. वह मेहनतमजदूरी कर के अपना और अपनी बेटी का पेट पालने लगी थीं. अत: कनीजा बी के बचपन से ले कर जवानी तक के दिन तंगदस्ती में ही गुजरे थे.

तंगदस्ती के बावजूद मां ने कनीजा बी की पढ़ाईलिखाई की ओर खासा ध्यान दिया था. कनीजा बी ने भी अपनी बेवा, बेसहारा मां के सपनों को साकार करने के लिए पूरी लगन व मेहनत से प्रथम श्रेणी में 10वीं पास की थी और यों अपनी तेज बुद्धि का परिचय दिया था.

मैट्रिक पास करते ही कनीजा बी को एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. अत: जल्दी ही उन के घर की तंगदस्ती खुशहाली में बदलने लगी थी.

कनीजा बी एक सांवलीसलोनी एवं सुशील लड़की थीं. उन की नौकरी लगने के बाद जब उन के घर में खुशहाली आने लगी थी तो लोगों का ध्यान उन की ओर जाने लगा था. देखते ही देखते शादी के पैगाम आने लगे थे.

मुसीबत यह थी कि इतने पैगाम आने के बावजूद, रिश्ता कहीं तय नहीं हो रहा था. ज्यादातर लड़कों के अभिभावकों को कनीजा बी की नौकरी पर आपत्ति थी.

वे यह भूल जाते थे कि कनीजा बी के घर की खुशहाली का राज उन की नौकरी में ही तो छिपा है. उन की एक खास शर्त यह होती कि शादी के बाद नौकरी छोड़नी पड़ेगी, लेकिन कनीजा बी किसी भी कीमत पर लगीलगाई अपनी सरकारी नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थीं.

कनीजा बी पिता की असमय मृत्यु से बहुत बड़ा सबक सीख चुकी थीं. अर्थोपार्जन की समस्या ने उन की मां को कम परेशान नहीं किया था. रूखेसूखे में ही बचपन से जवानी तक के दिन बीते थे. अत: वह नौकरी छोड़ कर किसी किस्म का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थीं.

कनीजा बी का खयाल था कि अगर शादी के बाद उन के पति को कुछ हो गया तो उन की नौकरी एक बहुत बड़े सहारे के रूप में काम आ सकती थी.

वैसे भी पतिपत्नी दोनों के द्वारा अर्थोपार्जन से घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती थी, जिंदगी मजे में गुजर सकती थी.

देखते ही देखते 4-5 साल का अरसा गुजर गया था और कनीजा बी की शादी की बात कहीं पक्की नहीं हो सकी थी. उन की उम्र भी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. अत: शादी की बात को ले कर मांबेटी परेशान रहने लगी थीं.

एक दिन पड़ोस के ही प्यारे मियां आए थे. वह उसी शहर के दूसरे महल्ले के रशीद का रिश्ता कनीजा बी के लिए लाए थे. उन के साथ एक महिला?भी थीं, जो स्वयं को रशीद की?भाभी बताती थीं.

रशीद एक छोटे से निजी प्रतिष्ठान में लेखाकार था और खातेपीते घर का था. कनीजा बी की नौकरी पर उसे कोई आपत्ति नहीं थी.

महल्लेपड़ोस वालों ने कनीजा बी की मां पर दबाव डाला था कि उस रिश्ते को हाथ से न जाने दें क्योंकि रिश्ता अच्छा है. वैसे भी लड़कियों के लिए अच्छे रिश्ते मुश्किल से आते हैं. फिर यह रिश्ता तो प्यारे मियां ले कर आए थे.

कनीजा बी की मां ने महल्लेपड़ोस के बुजुर्गों की सलाह मान कर कनीजा बी के लिए रशीद से रिश्ते की हामी?भर दी थी.?

कनीजा बी अपनी शादी की खबर सुन कर मारे खुशी के झूम उठी थीं. वह दिनरात अपने सुखी गृहस्थ जीवन की कल्पना करती रहती थीं.

और एक दिन वह घड़ी भी आ गई, जब कनीजा बी की शादी रशीद के साथ हो गई और वह मायके से विदा हो गईं. लेकिन ससुराल पहुंचते ही इस बात ने उन के होश उड़ा दिए कि जो महिला स्वयं को रशीद की भाभी बता रही थी, वह वास्तव में रशीद की पहली बीवी थी.

असलियत सामने आते ही कनीजा बी का सिर चकराने लगा. उन्हें लगा कि उन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है और उन्हें फंसाया गया है. प्यारे मियां ने उन के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया था. वह मन ही मन तड़प कर रह गईं.

लेकिन जल्दी ही रशीद ने कनीजा बी के समक्ष वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी, ‘‘बेगम, दरअसल बात यह थी कि शादी के 7 साल बाद?भी जब हलीमा बी मुझे कोई औलाद नहीं दे सकी तो मैं औलाद के लिए तरसने लगा.

‘हम दोनों पतिपत्नी ने किसकिस डाक्टर से इलाज नहीं कराया, क्याक्या कोशिशें नहीं कीं, लेकिन नतीजा शून्य रहा. आखिर, हलीमा बी मुझ पर जोर देने लगी कि मैं दूसरी शादी कर लूं. औलाद और मेरी खुशी की खातिर उस ने घर में सौत लाना मंजूर कर लिया. बड़ी ही अनिच्छा से मुझे संतान सुख की खातिर दूसरी शादी का निर्णय लेना पड़ा.

‘मैं अपनी तनख्वाह में 2 बीवियों का बोझ उठाने के काबिल नहीं था. अत: दूसरी बीवी का चुनाव करते वक्त मैं इस बात पर जोर दे रहा था कि अगर वह नौकरी वाली हो तो बात बन सकती है. जब हमें, प्यारे मियां के जरिए तुम्हारा पता चला तो बात बनाने के लिए इस सचाई को छिपाना पड़ा कि मैं शादीशुदा हूं.

‘मैं झूठ नहीं बोलता. मैं संतान सुख की प्राप्ति की उत्कट इच्छा में इतना अंधा हो चुका था कि मुझे तुम लोगों से अपने विवाहित होने की सचाई छिपाने में कोई संकोच नहीं हुआ.

‘मैं अब महसूस कर रहा हूं कि यह अच्छा नहीं हुआ. सचाई तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी. लेकिन अब जो हो गया, सो हो गया.

‘वैसे देखा जाए तो एक तरह से मैं तुम्हारा गुनाहगार हुआ. बेगम, मेरे इस गुनाह को बख्श दो. मेरी तुम से गुजारिश है.’

कनीजा बी ने बहुत सोचविचार के बाद परिस्थिति से समझौता करना ही उचित समझा था, और वह अपनी गृहस्थी के प्रति समर्पित होती चली गई थीं.

कनीजा बी की शादी के बाद डेढ़ साल का अरसा गुजर गया था, लेकिन उन के भी मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस के विपरीत हलीमा बी में ही मां बनने के लक्षण दिखाई दे रहे थे. डाक्टरी परीक्षण से भी यह बात निश्चित हो गई थी कि हलीमा बी सचमुच मां बनने वाली हैं.

हलीमा बी के दिन पूरे होते ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई, लेकिन बच्चा था कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था. आखिर, आपरेशन द्वारा हलीमा बी के बेटे का जन्म हुआ. लेकिन हलीमा बी की हालत नाजुक हो गई. डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं सकी.

हलीमा बी की अकाल मौत से उस के बेटे गनी के लालनपालन की संपूर्ण जिम्मेदारी कनीजा बी पर आन पड़ी. अपनी कोख से बच्चा जने बगैर ही मातृत्व का बोझ ढोने के लिए कनीजा बी को विवश हो जाना पड़ा. उन्होंने उस जिम्मेदारी से दूर भागना उचित नहीं समझा. आखिर, गनी उन के पति की ही औलाद था.

रशीद इस बात का हमेशा खयाल रखा करता था कि उस के व्यवहार से कनीजा बी को किसी किस्म का दुख या तकलीफ न पहुंचे, वह हमेशा खुश रहें, गनी को मां का प्यार देती रहें और उसे किसी किस्म की कमी महसूस न होने दें.

कनीजा बी भी गनी को एक सगे बेटे की तरह चाहने लगीं. वह गनी पर अपना पूरा प्यार उड़ेल देतीं और गनी भी ‘अम्मीअम्मी’ कहता हुआ उन के आंचल से लिपट जाता.

अब गनी 5 साल का हो गया था और स्कूल जाने लगा था. मांबाप बेटे के उज्ज्वल भविष्य को ले कर सपना बुनने लगे थे.

इसी बीच एक हादसे ने कनीजा बी को अंदर तक तोड़ कर रख दिया.

वह मकर संक्रांति का दिन था. रशीद अपने चंद हिंदू दोस्तों के विशेष आग्रह पर उन के साथ नदी पर स्नान करने चला गया. लेकिन रशीद तैरतेतैरते एक भंवर की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा बैठा.

रशीद की असमय मौत से कनीजा बी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस का दामन नहीं छोड़ा.

उन्होंने अपने मन में एक गांठ बांध ली, ‘अब मुझे अकेले ही जिंदगी का यह रेगिस्तानी सफर तय करना है. अब और किसी पुरुष के संग की कामना न करते हुए मुझे अकेले ही वक्त के थपेड़ों से जूझना है.

‘पहला ही शौहर जिंदगी की नाव पार नहीं लगा सका तो दूसरा क्या पार लगा देगा. नहीं, मैं दूसरे खाविंद के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘फिर रशीद की एक निशानी गनी के रूप में है. इस का क्या होगा? इसे कौन गले लगाएगा? यह यतीम बच्चे की तरह दरदर भटकता फिरेगा. इस का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. मेरे अलावा इस का?भार उठाने वाला भी तो कोई नहीं.

‘इस के नानानानी, मामामामी कोई भी तो दिल खोल कर नहीं कहता कि गनी का बोझ हम उठाएंगे. सब सुख के साथी?हैं.

‘मैं गनी को लावारिस नहीं बनने दूंगी. मैं भी तो इस की कुछ लगती हूं. मैं सौतेली ही सही, मगर इस की मां हूं. जब यह मुझे प्यार से अम्मी कह कर पुकारता है तब मेरे दिल में ममता कैसे उमड़ आती है.

‘नहींनहीं, गनी को मेरी सख्त जरूरत है. मैं गनी को अपने से जुदा नहीं कर सकती. मेरी तो कोई संतान है ही नहीं. मैं इसे ही देख कर जी लूंगी.

‘मैं गनी को पढ़ालिखा कर एक नेक इनसान बनाऊंगी. इस की जिंदगी को संवारूंगी. यही अब जिंदगी का मकसद है.’

और कनीजा बी ने गनी की खातिर अपना सुखचैन लुटा दिया, अपना सर्वस्व त्याग दिया. फिर उसे एक काबिल और नेक इनसान बना कर ही दम लिया.

गनी पढ़लिख कर इंजीनियर बन गया.

उस दिन कनीजा बी कितनी खुश थीं जब गनी ने अपनी पहली तनख्वाह ला कर उन के हाथ पर रख दी. उन्हें लगा कि उन का सपना साकार हो गया, उन की कुरबानी रंग लाई. अब उन्हें मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.

फिर गनी की शादी हो गई. वह नदीम जैसे एक प्यारे से बेटे का पिता भी बन गया और कनीजा बी दादी बन गईं.

कनीजा बी नदीम के साथ स्वयं भी खेलने लगतीं. वह बच्चे के साथ बच्चा बन जातीं. उन्हें नदीम के साथ खेलने में बड़ा आनंद आता. नदीम भी मां से ज्यादा दादी को चाहने लगा था.

उस दिन ईद थी. कनीजा बी का घर खुशियों से गूंज रहा था. ईद मिलने आने वालों का तांता लगा हुआ था.

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था.

उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था.

गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था.

वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं.

रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया.

कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा.

‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं.

‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’

‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’

कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

Mother’s Day 2024: थोड़ा सा समय-सास और मां के अंतर को कैसे भूल गई जूही

हनीमून से लौटते समय टैक्सी में बैठी जूही के मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे. अजय ने उसे खयालों में डूबा देख उस की आंखों के आगे हाथ लहरा कर पूछा, ‘‘कहां खोई हो? घर जाने का मन नहीं कर रहा है?’’

जूही मुसकरा दी, लेकिन ससुराल में आने वाले समय को ले कर उस के मन में कुछ घबराहट सी थी. दोनों शादी के 1 हफ्ते बाद ही सिक्किम घूमने चले गए थे. उन का प्रेमविवाह था. दोनों सीए थे और नरीमन में एक ही कंपनी में जौब करते थे.

अजय ब्राह्मण परिवार का बड़ा बेटा था. पिता शिवमोहन एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर थे. मम्मी शैलजा हाउसवाइफ थीं और छोटी बहन नेहा अभी कालेज में थी. अजय का घर मुलुंड में था.

पंजाबी परिवार की इकलौती बेटी जूही कांजुरमार्ग में रहती थी. जूही के पिता विकास डाक्टर थे और मां अंजना हाउसवाइफ थीं. दोनों परिवारों को इस विवाह पर कोई एतराज नहीं था. विवाह हंसीखुशी हो गया. जूही को जो बात परेशान कर रही थी वह यह थी कि उस के औफिस जानेआने का कोई टाइम नहीं था. अब तक तो घर की कोई जिम्मेदारी उस पर नहीं थी, नरीमन से आतेआते कभी 10 बजते, तो कभी 11. जिस क्लाइंट बेसिस पर काम करती, पूरी टीम के हिसाब से उठना पड़ता. मायके में तो घर पहुंचते ही कपड़े बदल हाथमुंह धो कर डिनर करती और फिर सीधे बैड पर.

शनिवार और रविवार पूरा आराम करती थी. मन होता तो दोस्तों के साथ मूवी देखती, डिनर करती. वैसे भी मुंबई में औफिस जाने वाली ज्यादातर कुंआरी अविवाहित लड़कियों का यही रूटीन रहता है, हफ्ते के 5 दिन काम में खूब बिजी और छुट्टी के दिन आराम. जूही के 2-3 घंटे तो रोज सफर में कट जाते थे. वह हमेशा वीकैंड के लिए उत्साहित रहती.

जैसे ही अंजना दरवाजा खोलतीं, जूही एक लंबी सांस लेते हुए कहती थी, ‘‘ओह मम्मी, आखिर वीकैंड आ ही गया.’’ अंजना को उस पर बहुत स्नेह आता कि बेचारी बच्ची, कितनी थकान होती है पूरा हफ्ता.

जूही को याद आ रहा था कि जब बिदाई के समय उस की मम्मी रोए जा रही थीं तब उस की सासूमां ने उस की मम्मी के कंधे पर हाथ रख कर कहा था, ‘‘आप परेशान न हों. बेटी की तरह रहेगी हमारे घर. मैं बेटीबहू में कोई फर्क नहीं रखूंगी.’’

तब वहीं खड़ी जूही की चाची ने व्यंग्यपूर्वक धीरे से उस के कान में कहा, ‘‘सब कहने की बातें हैं. आसान नहीं होता बहू को बेटी समझना. शुरूशुरू में हर लड़के वाले ऐसी ही बड़ीबड़ी बातें करते हैं.’’

बहते आंसुओं के बीच में जूही को चाची की यह बात साफसाफ सुनाई दी थी. पहला हफ्ता तो बहुत मसरूफियत भर निकला. अब वे घूम कर लौट रहे थे, देखते हैं क्या होता है. परसों से औफिस भी जाना है. टैक्सी घर के पास रुकी तो जूही अजय के साथ घर की तरफ चल दी.

शिवमोहन, शैलजा और नेहा उन का इंतजार ही कर रहे थे. जूही ने सासससुर के पैर छू कर उन का आशीर्वाद लिया. नेहा को उस ने गले लगा लिया, सब एकदूसरे के हालचाल पूछते रहे.

शैलजा ने कहा, ‘‘तुम लोग फै्रश हो जाओ, मैं चाय लाती हूं.’’

जूही को थकान तो बहुत महसूस हो रही थी, फिर भी उस ने कहा, ‘‘नहीं मम्मीजी मैं बना लूंगी.’’

‘‘अरे थकी होगी बेटा, आराम करो और हां, यह मम्मीजी नहीं, अजय और नेहा मुझे मां ही कहते हैं, तुम भी बस मां ही कहो.’’ जूही ने झिझकते हुए सिर हिला दिया. अजय और जूही ने फ्रैश हो कर सब के साथ चाय पी. थोड़ी देर बाद शैलजा ने पूछा, ‘‘जूही, डिनर में क्या खाओगी?’’ ‘‘मां, जो बनाना है, बता दें, मैं हैल्प करती हूं.’’ ‘‘मैं बना लूंगी.’’ ‘‘लेकिन मां, मेरे होते हुए…’’

हंस पड़ीं शैलजा, ‘‘तुम्हारे होते हुए क्या? अभी तक मैं ही बना रही हूं और मुझे कोई परेशानी भी नहीं है,’’ कह कर शैलजा किचन में आ गईं तो जूही भी मना करने के बावजूद उन का हाथ बंटाती रही.

अगले दिन की छुट्टी बाकी थी. शिवमोहन औफिस और नेहा कालेज चली गई. जूही अलमारी में अपना सामान लगाती रही. सब अपनेअपने काम में व्यस्त रहे. अगले दिन साथ औफिस जाने के लिए अजय और जूही उत्साहित थे. दोनों लोकल ट्रेन से ही जाते थे. हलकेफुलके माहौल में सब ने डिनर साथ किया.

रात को सोने के समय शिवमोहन ने कहा ‘‘कल से जूही भी लंच ले जाएगी न?’’ ‘‘हां, क्यों नहीं?’’ ‘‘इस का मतलब कल से उस की किचन की ड्यूटी शुरू?’’ ‘‘ड्यूटी कैसी? जहां मैं अब तक 3 टिफिन पैक करती थी, अब 4 कर दूंगी, क्या फर्क पड़ता है?’’ शिवमोहन ने प्यार भरी नजरों से शैलजा को देखते हुए कहा, ‘‘ममतामयी सास बनोगी इस का कुछ अंदाजा तो था मुझे.’’ ‘‘आप से कहा था न कि जूही बहू नहीं बेटी बन कर रहेगी इस घर में.’’ शिवमोहन ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘लेकिन तुम्हें तो बहुत कड़क सास मिली थीं.’’

शैलजा ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘इसीलिए तो जूही को उन तकलीफों से बचाना है जो मैं ने खुद झेली हैं. छोड़ो, वह अम्मां का पुराना जमाना था, उन की सोच अलग थी, अब तो वे नहीं रहीं. अब उन बातों का क्या फायदा? अजय ने बताया था जूही को पनीर बहुत पसंद है. कल उस का पहला टिफिन तैयार करूंगी, पनीर ही बनाऊंगी, खुश हो जाएगी बच्ची.’’

शिवमोहन की आंखों में शैलजा के लिए तारीफ के भाव उभर आए. सुबह अलार्म बजा. जूही जब तक तैयार हो कर किचन में आई तो वहां 4 टिफिन पैक किए रखे थे. शैलजा डाइनिंग टेबल पर नाश्ता रख रही थीं.

जूही शर्मिंदा सी बोली. ‘‘मां, आप ने तो सब कर लिया.’’ ‘‘हां बेटा, नेहा जल्दी निकलती है. सब काम साथ ही हो जाता है. आओ, नाश्ता कर लो.’’ ‘‘कल से मैं और जल्दी उठ जाऊंगी.’’ ‘‘सब हो जाएगा बेटा, इतना मत सोचो. अभी तो मैं कर ही लेती हूं. तबीयत कभी बिगड़ेगी तो करना ही होगा और आगेआगे तो जिम्मेदारी संभालनी ही है, अभी ये दिन आराम से बिताओ, खुश रहो.’’

अजय भी तैयार हो कर आ गया था. बोला, ‘‘मां, लंच में क्या है?’’ ‘‘पनीर.’’जूही तुरंत बोली, ‘‘मां यह मेरी पसंदीदा डिश है.’’ अजय ने कहा, ‘‘मैं ने ही बताया है मां को. मां, अब क्या अपनी बहू की पसंद का ही खाना बनाओगी?’’ जूही तुनकी, ‘‘मां ने कहा है न उन के लिए बहू नहीं, बेटी हूं.’’ नेहा ने घर से निकलतेनिकलते हंसते हुए कहा, ‘‘मां, भाभी के सामने मुझे भूल त जाना.’’ शिवमोहन ने भी बातों में हिस्सा लिया, ‘‘अरे भई, थोड़ा तो सास वाला रूप दिखाओ, थोड़ा टोको, थोड़ा गुस्सा हो, पता तो चले घर में सासबहू हैं.’’ सब जोर से हंस पड़े. शैलजा ने कहा, ‘‘सौरी, यह तो किसी को पता नहीं चलेगा कि घर में सासबहू हैं.’’ सब हंसतेबोलते घर से निकल गए.

थोड़ी देर बाद ही मेड श्यामाबाई आ गई. शैलजा घर की सफाई करवाने लगी. अजय के कमरे में जा कर श्यामा ने आवाज दी, ‘‘मैडम, देखो आप की बहू कैसे सामान फैला कर गई हैं.’’ शैलजा ने जा कर देखा, हर तरफ सामान बिखरा था, उन्हें हंसी आ गई. श्यामा ने पूछा, ‘‘मैडम, आप हंस रही हैं?’’ शैलजा ने कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ,’’ शैलजा उसे नेहा के कमरे में ले गई. वहां और भी बुरा हाल था.

शैलजा ने कहा, ‘‘यहां भी वही हाल है न? तो चलो अब हर जगह सफाई कर लो जल्दी.’’ श्यामा 8 सालों से यहां काम कर रही थी. अच्छी तरह समझती थी अपनी शांतिपसंद मैडम को, अत: मुसकराते हुए अपने काम में लग गई. जूही फोन पर अपने मम्मीपापा से संपर्क में रहती ही थी. शादी के बाद आज औफिस का पहला दिन था. रास्ते में ही अंजना का फोन आ गया. हालचाल के बाद पूछा, ‘‘आज तो सुबह कुछ काम भी किए होंगे?’’

शैलजा की तारीफ के पुल बांध दिए जूही ने. तभी अचानक जूही को कुछ याद आया. बोली, ‘‘मम्मी, मैं बाद में फोन करती हूं,’’ फिर तुरंत सासूमां को फोन मिलाया. शैलजा के हैलो कहते ही तुरंत बोली, ‘‘सौरी मां, मैं अपना रूम बहुत बुरी हालत में छोड़ आई हूं… याद ही नहीं रहा.’’‘‘श्यामा ने ठीक कर दिया है.’’‘सौरी मां, कल से…’’ ‘‘सब आ जाता है धीरेधीरे. परेशान मत हो.’’

शैलजा के स्नेह भरे स्वर पर जूही का दिल भर आया. अजय और जूही दिन भर व्यस्त रहे. सहकर्मी बीचबीच में दोनों को छेड़ कर मजा लेते रहे. दोनों रात 8 बजे औफिस से निकले तो थकान हो चुकी थी. जूही का तो मन कर रहा था, सीधा जा कर बैड पर लेटे. लेकिन वह मायका था अब ससुराल है.

10 बजे तक दोनों घर पहुंचे. शिवमोहन, शैलजा और नेहा डिनर कर चुके थे. उन दोनों का टेबल पर रखा था. हाथ धो कर जूही खाने पर टूट पड़ी. खाने के बाद उस ने सारे बरतन समेट दिए. शैलजा ने कहा, ‘‘तुम लोग अब आराम करो. हम भी सोने जा रहे हैं.’’ शैलजा लेटीं तो शिवमोहन ने कहा, ‘‘तुम भी थक गई होगी न?’’‘‘हां, बस अब सोना ही है.’’‘‘काम भी तो बढ़ गया होगा?’’ ‘‘कौन सा काम?’’ ‘‘अरे, एक और टिफिन…’’

‘‘6 की जगह 8 रोटियां बन गईं तो क्या फर्क पड़ा? सब की तो बनती ही हैं और आज तो मैं ने इन दोनों का टिफिन अलगअलग बना दिया. कल से एकसाथ ही पैक कर दूंगी. खाना बच्चे साथ ही तो खाएंगे, जूही का खाना बनाने से मुझ पर कोई अतिरिक्त काम आने वाली बात है ही नहीं.’’

‘‘तुम हर बात को इतनी आसानी से कैसे ले लेती हो, शैल?’’

‘‘शांति से जीना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, बस हम औरतें ही अपने अहं, अपनी जिद में आ कर अकसर घर में अशांति का कारण बन जाती हैं. जैसे नेहा को भी अभी कोई काम करने की ज्यादा आदत नहीं है वैसे ही वह बच्ची भी तो अभी आई है. आजकल की लड़कियां पहले पढ़ाई, फिर कैरियर में व्यस्त रहती हैं. इतना तो मैं समझती हूं आसान नहीं है कामकाजी लड़कियों का जीवन. अरे मैं तो घर में रहती हूं, थक भी गई तो दिन में थोड़ा आराम कर लूंगी. कभी नहीं कर पाऊंगी तो श्यामा है ही, किचन में हैल्प कर दिया करेगी, जूही पर घर के भी कामों का क्या दबाव डालना. नेहा को ही देख लो, कालेज और कोचिंग के बाद कहां हिम्मत होती है कुछ करने की, ये लड़कियां घर के काम तो समय के साथसाथ खुद ही सीखती चली जाती हैं. बस, थोड़ा सा समय लगता है.’’

शैलजा अपने दिल की बातें शेयर कर रही थीं, ‘‘अभी नईनई आई है, आते ही किसी बात पर मन दुखी हो गया तो वह बात दिल में एक कांटा बन कर रह जाएगी जो हमेशा चुभती रहेगी. मैं नहीं चाहती उसे किसी बात की चुभन हो,’’ कह कर वे सोने की तैयारी करने लगीं, बोलीं, ‘‘चलो, अब सो जाते हैं.’’

उधर अजय की बांहों का तकिया बना कर लेटी जूही मन ही मन सोच रही थी, आज शादी के बाद औफिस का पहला दिन था. मां के व्यवहार और स्वभाव में कितना स्नेह है. अगर उन्होंने मुझे बेटी माना है तो मैं भी उन्हें मां की तरह ही प्यार और सम्मान दूंगी. पिछले 15 दिनों से चाची की बात दिल पर बोझ की तरह रखी थी, लेकिन इस समय उसे अपना दिल फूल सा हलका लगा, बेफिक्री से आंखें मूंद कर उस ने अपना सिर अजय के सीने पर रख दिया.

 

परछाई: मायका या ससुराल, क्या था माही का फैसला?

माही को 2 शादियों के कार्ड एकसाथ मिले. एक भाई की बेटी की शादी का और एक जेठजी की बेटी की शादी का. दोनों शादियां भी एक ही दिन थीं और दोनों ही रिश्ते ऐसे कि शादी में जाना टाला नहीं जा सकता था.

माही कार्ड को उलटपुलट कर ऐसे देखने लगी, जैसे ध्यान से देखने पर कोई न कोई सुराग मिल जाएगा या कोई दूसरी तारीख मिल जाएगी. या फिर कोई दूसरी सूरत मिल जाएगी दोनों शादियां अटैंड करने की. वह क्या करेगी अब? भाई की बेटी की शादी में शामिल नहीं हो पाएगी तो भैयाभाभी की नाराजगी झेलनी पड़ेगी और अगर जेठजी की बेटी की शादी में शामिल नहीं हुई तो जेठजेठानी उस की मजबूरी समझ कर कुछ कहेंगे नहीं पर उन के प्यार भरे उलाहने का सामना कैसे करेगी?

किंकर्तव्यविमूढ़ सी वह पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई. विभव से पूछेगी तो वे तपाक से कह देंगे कि जो तुम्हें ठीक लगता है वह करो. वह फिर दोराहे पर खड़ी हो जाएगी. या फिर बहुत अच्छे मूड में होंगे तो कह देंगे कि तुम अपने

भाई की बेटी की शादी में शामिल हो जाओ और मैं अपने भाई की बेटी की शादी में शामिल हो जाता हूं. लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती. शाम होने को थी, अंधेरा धीरेधीरे चारों तरफ फैल रहा था.

उस का दिल वहां पहुंच गया जब उमंगें थीं, रंगीन इंद्रधनुषी सपने थे, मातापिता थे. उस की कुलांचे भरने वाली उम्र थी. वे 2 भाईबहन थे. मातापिता की इकलौती लाडली बेटी. भाई के बाद लगभग 10 सालों के बाद हुई, इसलिए भाई का भी लाड़प्यार भरपूर मिला. वह 20 साल की थी जब भाई की शादी हुई. आम लड़कियों की तरह उस के भी कई अरमान थे भाई की शादी के… काफी लड़कियां देखने के बाद सिमरन पसंद आ गई. भाई के सेहरा बांधे देख हर बहन की तरह वह भी खुश थी.

भाभी ने जब घर में कदम रखा तो खुशियां जैसे उन के घर के दरवाजे पर हाथ बांधे खड़ी हो गईं. भाभी 23 साल की थीं, उम्र का फासला कम था. उसे लगा उसे हमउम्र एक सहेली मिल गई. अभी तक तो घर में सभी बडे़ थे. 3 साल उसे भाभी के सान्निध्य में रहने का मौका मिला. 23 साल की उम्र में उस की भी शादी हो गई. पहले मां काम करती थीं तो वह निश्चिंत हो कर अपनी पढ़ाई करती थी. मां भाभी की भी किचन में पूरी मदद करती थीं. पर भाभी न जाने क्यों उस से हमेशा चिढ़ी सी ही रहती थीं. शायद उन्हें लगता था कि यह आराम से अपनी पढ़ाई कर रही है. बाकी सारा काम मुझे ही करना पड़ता है. नई होने के कारण वे अधिक नहीं बोल पाती थीं पर भावभंगिमाओं से सब जता देती थीं.

भाभी के हावभाव समझ कर वह भी किचन में हाथ बंटाने की कोशिश करने लगी तो मां ने टोक दिया, ‘तू जा…अपनी पढ़ाई कर… ये काम तो जिंदगी भर करने हैं…’ वह जाने को हुई तो भाभी बोल पड़ीं, ‘पर काम आएगा नहीं तो आगे करेगी कैसे?’ उसे समझ नहीं आया कि भाभी की बात माने कि मां की. वह एम.एससी. कर रही थी. पढ़ने में वह हमेशा कक्षा में अच्छे विद्यार्थियों में गिनी जाती रही. भाभी अपनी चुप्पी के पीछे से भी पूरी दबंगता दिखा देती थीं. भाई भी उस से अब पहले की तरह बेतकल्लुफ नहीं रहते थे. पहले की तरह भाई से फरमाइश करने की उस की अब हिम्मत नहीं पड़ती थी.

भाई कहीं बाहर तो जाते तो भाभी के लिए कई चीजें खरीद कर लाते. वह बहुत उम्मीद से देखती कि शायद उस के लिए भी कुछ खरीद कर लाए हों, पर ऐसा होता नहीं था. उसे किसी बात की कमी नहीं थी पर भाई का कुछ न लाना जता देता कि अब उन की जिंदगी में उस की कोई अहमियत नहीं रह गई है. उस ने यह मासूम सी शिकायत मां से की तो उन्होंने उसे ही समझा दिया, ‘ऐसा तो होता ही है पगली. तेरी शादी होगी तो तेरा पति भी तेरे लिए ऐसे ही लाएगा, पति के लिए पत्नी सब कुछ होती है.’

‘और लोग कुछ नहीं होते?’

‘होते हैं… पर पत्नी से कम ही होते हैं.’ 2 साल तक भाभी का व्यवहार समझते हुए भी उस ने अधिक ध्यान नहीं दिया. उस के लिए भाभी फिर भी अपनी थीं पर भाभी उसे कभी अपना नहीं समझ पाईं. उस के 23 की होतेहोते मातापिता ने उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया. विभव बैंक में अफसर थे. उन के घर में 2 भाई व 1 बहन और मां थीं. वहां सब कुछ अच्छा देख कर उस का रिश्ता तय हो गया और फिर उस की शादी हो गई. उस ने सोचा कि अब भाभी के साथ उस के रिश्ते सहज हो जाएंगे, जब वह कभीकभी आएगी तो भाभी भी उसे पूरा सम्मान देंगी.

 

ससुराल में सभी ने उसे हाथोंहाथ लिया पर घर में जेठानी का ही राज था. वे पूरे परिवार पर छाई हुई थीं. सास, ननद व यहां तक की उस के पति के दिलोदिमाग पर भी वही राज कर रही थीं. वह अनायास ही ईर्ष्या से भर उठी. मायके जाती तो वहां सब कुछ भाभी का तो यहां सब कुछ जेठानी का.

धीरेधीरे न चाहते हुए भी उस के मन में जेठानी के प्रति ईर्ष्या की भावना घर कर गई. पति से कुछ भी पूछती तो एक ही जवाब मिलता कि भाभी से पूछ लो.

‘साड़ी खरीदनी है साथ चलो,’ तो उसे जवाब मिलता, ‘भाभी के साथ चली जाओ’ या फिर, ‘चलो भाभी को भी साथ ले चलते हैं, उन की पसंद बहुत अच्छी है.’’

‘खाने में क्या बनाऊं…’

‘भाभी से पूछ लो.’

सास भी बड़ी बहू से पूछे बिना कुछ न करतीं. उसे सब प्यार करते पर महत्त्व बड़ी को ही देते. जेठानी के साथ समझौता करना उसे अच्छा नहीं लगता था. जेठानी उस का रुख समझ कर बहुत संभल कर चलतीं पर कुछ न कुछ हो ही जाता. जेठजेठानी कहीं जाते तो बच्चे घर छोड़ जाते. बच्चों की चाचा के साथ घूमने की आदत तो पहले से ही थी. अब चाची भी आ गईं. तो क्या… वे दोनों कहीं भी जाना चाहते तो दोनों बच्चे भी उन के साथ लग लेते. वह विभव पर भुनभुनाती, ‘नई शादी हमारी हुई है या जेठजेठानी की? वे दोनों तो अकेले जाते हैं और हमारे साथ ये दोनों लग लेते हैं.’

‘तो क्या हुआ माही… उन्हें इस बात की समझ थोड़े ही है… बच्चे ही तो हैं.’

‘ये ऐसे ही हमारे साथ जाते रहे तो जब तक ये बड़े होंगे तब तक हम बूढ़े हो जाएंगे…’

‘अरे, जब हमारे चुनमुन होंगे तो उन्हें भाभी संभालेगी तब हम खूब अकेले घूमेंगे.’

‘जरूर संभालेंगी… अपने तो संभलते नहीं…’

जेठानी उस का मूड समझ कर बच्चों को जबरन रोकतीं. न मानने पर 1-2 थप्पड़ तक जड़ देतीं. बच्चे रोते तो उन्हें रोता देख कर विभव का मूड खराब हो जाता. और विभव का खराब मूड देख कर उस का मूड खराब हो जाता और जाने का सारा मजा किरकिरा हो जाता. उसे जेठानी पर तब और भी गुस्सा आता. लेकिन जिन बातों में वह जेठानी के साथ समझौता नहीं करना चाहती थी, उन्हीं बातों में भाभी के साथ समझौता करने की कोशिश करती. उन्हें खुश रखने का प्रयास करती ताकि उन के साथ संबंध अच्छे बने रहें.

भैयाभाभी कहीं जाते तो थोड़े दिन के लिए मायके आने के बावजूद वह भाई के बच्चों की देखभाल करती, उन्हें अपने साथ घुमाने ले जाती, चौकलेट, आइसक्रीम वगैरह खिलाती पर भाभी उसे फिर भी खास तवज्जो न देतीं. माही उस घर को अभी भी अपना घर समझती. फिर वही पहले वाला हक ढूंढ़ती. पर उस की सारी कोशिशें बेकार हो जातीं. भाभी उस से मतलब का रिश्ता निभातीं, इसलिए उन में आत्मीयता कभी नहीं आ पाई.

वह जबजब भाभी के साथ किचन में कुछ करने की कोशिश करती, तो भाभी उसे साफ जता देतीं कि अब उन को उस का अपने किचन में छेड़खानी करना पसंद नहीं. वह 2-4 दिन के लिए आई है. मां के साथ बैठे और जाए. फिर उस के बच्चे हुए तो सास बुजुर्ग होने की वजह से उस की अधिक देखभाल नहीं कर पाईं पर जेठानी ने अपना तनमन लगा दिया, मां जैसी देखभाल की उन की.

‘देखा माही… भाभी कितना खयाल रखती है तुम्हारा… मैं कहता था न कि उन्हें समझने में तुम गलती कर रही हो.’

जेठानी की देखभाल से वह पिघलने को होती तो विभव की बात से जलभुन जाती. पहले बच्चे के समय जब मां ने बारबार कहा कि अब थोड़े दिन के लिए मायके आ जा तो सवा महीने के बच्चे को ले कर वह मायके चली आई. विभव से कह आई कि बहुत दिनों बाद जा रही हूं, इसलिए आराम से रहूंगी. तुम्हें तो वैसे भी मेरी जरूरत नहीं है.

जेठानी ने जाने की बात सुनी तो मना किया, ‘तुम अभी कमजोर हो माही… खुद की व बच्चे की देखभाल नहीं कर पाओगी… यहीं रहो, थोड़े महीने बाद चली जाना.’

‘मेरी मां व भाभी मेरी देखभाल करेंगी…’ भाभी का स्वभाव जानते हुए भी वह बोली. मायके पहुंची तो खुश थी वह. इस बार लंबे समय के लिए आई थी. जब घर पहुंची तो, भावुक हो कर मां व भाभी से मिलना चाहा पर भाभी का उखड़ा मूड देख कर उत्साह पर पानी फिर गया. मां भी बहुत उत्साहित नहीं दिखीं, लगा मां ने रीतरिवाज निभाने व उस का मन रखने के लिए उसे मायके आने को कहा था. शायद उन्हें सचमुच विश्वास नहीं था कि वह आ जाएगी.

ससुराल में जेठानी उस के आगेपीछे घूम कर उस का ध्यान रखतीं, बच्चे की पूरी देखभाल करतीं, सास हर समय सब से उस का ध्यान रखने को कहतीं, उस का बेटा सब की आंखों का तारा था वहीं मायके में मां की भी काम के करने की एक सीमा थी, फिर भी उन का पहला ध्यान अपने पोतेपोतियों पर रहता था, नहीं तो बहू की नाराजगी मोल लेनी पड़ती. भाभी को तो उस की देखभाल से मतलब ही नहीं था. जो खाना सब के लिए बनता वही उस के लिए भी बनता.

एक दिन रात में तबीयत खराब होने की वजह से वह बच्चे की देखभाल भी नहीं कर पा रही थी. मां ने रोते हुए बच्चे को उठा लिया पर उस का पेट दर्द रुक नहीं पा रहा था. मां ने हार कर उस के भाई के कमरे का दरवाजा खटखटा दिया. बहुत मुश्किल से भाई की नींद खुली, उस ने दरवाजा खोला.

‘बेटा माही की तबीयत ठीक नहीं है. पेट में दर्द हो रहा है…’

‘क्या मां… तुम भी न. छोटीछोटी बातों के लिए जगा देती हो. अरे परहेज वगैरह वह कुछ करती नहीं… हाजमा बिगड़ गया होगा. कोई दवादे देती. बेकार में नींद खराब कर दी.’

‘सब कुछ कर के देख लिया बेटा, पर दर्द रुक नहीं रहा.’

‘तो दर्द की कोई गोली दे दो. इतनी रात में मैं क्या कर सकता हूं. और तुम भी मां… कहां की जिम्मेदारी ले ली. उसे अपने घर भेजने की तैयारी करो. उन की जिम्मेदारी है वही संभालें. सो जाओ अभी सुबह देखेंगे.’ कह कर भाई ने दरवाजा बंद कर दिया.

 

मां लौट आईं. न माही ने कुछ पूछा. न मां ने कुछ कहा.

उस ने सब कुछ सुन लिया था. सारी रात वह दर्द से तड़पती रहीं, मां सिराहने बैठी रही, पर भाईभाभी ने सहानुभूति जताने की कोशिश भी न की. सुबह पेट दर्द कम हो गया पर तबीयत फिर भी ठीक नहीं थी लेकिन भैयाभाभी ने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि रात में तबीयत ठीक नहीं थी अब कैसी है, वह सोच रही थी कि उस की इतनी तकलीफ में तो ससुराल में रात में पूरा घर हिल जाता. यहां तक की बच्चे भी उठ कर बैठ जाते, यहां मां के अलावा सब सो रहे थे.

सोचतेसोचते उस का मन भारी सा हो गया. किस मृगतृष्णा में बंधी हुई वह बारबार यहां आती है और भैयाभाभी के द्वारा अपमानित होती है. क्या खून के रिश्ते ही सब कुछ होते हैं? जेठजेठानी उस पर जान छिड़कते हैं, लेकिन उन्हें वह अपना नहीं समझ पाती, उलटा चाहती है कि उस का पति भी उन्हें अधिक तवज्जो न दे.

वह बिस्तर पर गमगीन सी बैठी हुई थी तभी मां चाय ले कर आ गईं. माही रात की बात से दुखी होगी, यह तो वे जानती थीं पर उन के हाथ में था भी क्या.

‘क्या हुआ माही. अब कैसी तबीयत है तेरी?’ मां स्नेह से उस का सिर सहलाते हुए बोलीं.

‘अब ठीक है मां. आप को भी रात भर सोने नहीं दिया मैं ने.’

‘अरे… कैसी बात कर रही है तू. अच्छा चल मुंहहाथ धो ले और चाय पी ले.’

माही चुपचाप चाय पीने लगी. मां ने अपना कप उठा लिया. दोनों चुप थे पर दोनों के दिल की बातों से परेशान थे.

‘मां, मेरी तबीयत अगर ऐसी ससुराल में खराब होती तो मेरे जेठजेठानी सारा घर सिर पर उठा लेते,’ अचानक माही बोली तो मां समझ गईं कि माही क्या कहना चाहती है. वे धीरे से उस के पास खिसक आईं, ‘माही, तू जिन रिश्तों की जड़ों को सींचना चाह रही है वे खोखली हैं. सूखी हुई हैं बेटा. खून के रिश्ते ही सब कुछ नहीं होते. जितनी कोशिश उन्हें अपनी भाभी के साथ बनाने की करती है, उस का अंशमात्र भी अपने जेठजेठानी के साथ करेगी तो वे रिश्ते लहलहा उठेंगे. जो रिश्ते तेरी तरफ कदम बढ़ा रहे हैं उन्हें थाम. उन का स्वागत कर. जो तुझ से दूर भाग रहे हैं उन के पीछे क्यों भागती है?’ मां उस के और अपने मन के झंझावतों को शब्द देती हुई बोलीं.

‘‘ये तेरी मृगतृष्णा है कि कभी न कभी भाभी तेरे प्यार को समझेगी और तेरी तरफ कदम बढ़ाएगी. कुछ लोग प्यार की भाषा को कभी नहीं समझ पाते. पर तू प्यार की कीमत समझ माही. अपने जेठजेठानी के प्यार को समेट ले… वही हैं तेरे भैयाभाभी, जो तेरे दुखसुख में काम आते हैं. तेरा खयाल रखते हैं. तेरे अच्छेबुरे व्यवहार को तेरी नादानी समझ कर भुला देते हैं.’

मां उसे पहले भी यह बात कई बार समझाना चाहती थीं, उस के प्यार का बहाव ससुराल की तरफ मोड़ना चाहती थीं पर माही समझना ही नहीं चाहती थी. पर आज पता नहीं क्यों मां की बात समझने का दिल कर रहा था. उन की बातें उस के अंतर्मन को छू रही थीं. मां चली गईं तो वह अपनेआप में गुमसुम सी हो गई. जब उस का गाल ब्लैडर की पथरी का औपरेशन हुआ था तब भी कैसे सास व जेठजेठानी ने दिनरात एक कर दिया था और भैयाभाभी ने बस एक फोन कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी. जेठजेठानी ने तनमनधन लगा दिया था. ननद भी औपरेशन के समय 2 दिन के लिए उस के पास आ गई थी.

आज पिछली सारी बातें जैसे साफ हो रही थीं, उस की आंखों पर पड़ा भ्रम व मोह का परदा हट रहा था. आज पहली बार वह समझ रही थी कि जो उसे अपनाना चाह रहे थे उन्हें वह ठुकरा रही थी और जो उसे ठुकरा रहे थे उन रिश्तों के पीछे वह भाग रही थी. सच वे भी तो भैयाभाभी हैं जिन से उसे प्यार मिलता है, उस के न सही उस के पति के हैं तो उस के भी हैं. वे रिश्ते भी तो उस के अपने हैं.

वह उठ कर चुपचाप सामान पैक करने लगी तभी मां कमरे में आ गई, ‘क्या कर रही है माही?’ उसे सामान पैक करते देख कर मां बोलीं.

‘अपने घर जा रही हूं मां. अपने भैयाभाभी के पास.’

मां चुप हो गईं. दोनों मांबेटी बिना शब्दों के कहे भी एकदूसरे के दिल की बात समझ गईं थीं. दूसरे दिन माही ससुराल लौट आई. उसे वापस आया देख कर घर में सास, पति, जेठजेठानी सभी खुश हो गए. किसी ने उस से नहीं पूछा कि वह इतनी जल्दी क्यों लौट आई.

 

धीरेधीरे समय कुछ साल आगे सरक गया. उस के बच्चे थोड़े बड़े हो गए. फिर उन का तबादला दिल्ली से कानपुर हो गया. समय धीरेधीरे सरकता रहा. मातापिता व सास का साथ समय के साथ छूट गया. मां के जाने के बाद मेरठ जाना बंद हो गया. लेकिन दिल्ली जेठजेठानी के पास त्योहार व छुट्टियों में आनाजाना बना रहा. तभी घंटी की आवाज सुन कर वह चौंक गई, शायद विभव औफिस से लौट आए थे. वह वर्तमान में लौट आई उस ने उठ कर दरवाजा खोल दिया.

‘‘क्या बात है माही… बहुत गमगीन सी लग रही हो… तबीयत ठीक नहीं है क्या? विभव उसे इस कदर उदास देख कर बोले.’’

‘‘नहीं कुछ नहीं सब ठीक है… दिल्ली से सोनिया की शादी का कार्ड आया है. जाने की तैयारी करनी है. रिजर्वेशन कराना है, यही सब सोच रही थी,’’ वह उत्साहित होते हएु बोली.

‘‘और यह दूसरा किस का है?’’ विभव दूसरा कार्ड उठाते हुए बोले.

‘‘यह मेरठ से आया है.’’ माही लापरवाही दिखाते हुए बोली, ‘‘आप बैठ कर देख लो मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर माही उठ कर किचन में चली गई. थोड़ी देर बाद 2 कप चाय बना कर ले आई.

‘‘अरे यह तो साले साहब की बेटी की शादी का कार्ड है. वहां भी तो जाना होगा. तुम वहां चली जाओ मैं…’’

‘‘नहीं…’’ माही बीच में बात काटती हुई बोली, ‘‘वहां आप उपहार भेज दो, हम दोनों ही दिल्ली जाएंगे… और थोड़े दिन पहले जाएंगे. क्योंकि शादी में मदद भी तो करनी है,’’ माही पूरे आत्मविश्वास से बोली और शांत भाव से चाय पीने लगी.

विभव ने चौंक कर उस की तरफ देखा, सब कुछ समझा और चुपचाप चाय पीने लगे. समझ गए कि प्यार व स्नेह के रिश्ते खून के रिश्तों पर भारी पड़ गए हैं. आपस में प्यार और विश्वास नहीं है तो खून के रिश्तों के धागे भी कच्चे पड़ जाते हैं. इसलिए परछाइयों के पीछे भागने के बजाय हकीकत को अपनाना चाहिए.

परिंदे को उड़ जाने दो : भाग-1

“एंड द विनर इज…….”

‘शीना, प्लीज प्लीज….शीना,’ एक अन्य प्रतिभागी का हाथ पकड़े खड़ी शीना मन ही मन कह रही थी. उस के चहरे पर घबराई हुई मुस्कान थी लेकिन दिल की धड़कनें इतनी तेज थीं कि लग रहा था मानो सीना चीरते हुए बाहर आ जाएंगी.

“एंड द विनर इज… मिस नेहा कौशिक,” नाम सुनते ही पूरा औडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया.

शीना ने चेहरे पर मुस्कान सजाए रखी और अपनी साथी प्रतिभागी को जीत की बधाई देने लगी. साथी प्रतिभागी को अब अन्य प्रतिभागियों ने भी घेरना शुरू कर दिया था. शीना फर्स्ट रनरअप आई थी, जीती होती तो इस समय शायद लोगों ने उसे घेरा हुआ होता.

अपनी मम्मी शोभा के साथ ओडिटोरियम से बाहर निकलते हुए शीना कुछ उदास दिख रही थी, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हार गई बल्कि इसलिए भी कि अब वह अपने दोस्तों के साथ घूमने नहीं जा पाएगी क्योंकि घूमने जाने की शर्त ही मम्मी ने यह रखी थी कि शीना मिस डीवा दिल्ली का यह कौंपीटीशन जीते.

“हे, हाय शीना, कौंगरेट्स यार,” शीना की कार के पास आ नेहा ने कहा.

“जीती तो तुम हो, फिर मु…” शीना आगे कुछ कहती उस से पहले ही उस की मम्मी ने उस की बांह पकड़ उसे चुप कराने का इशारा किया और कहने लगीं, “ओह, कोंगरेट्स नेहा, तुम ने भी काफी अच्छा परफोर्म किया.”

“अरे आंटी, थैंकयू, अब सब खूबसूरती का तो खेल नहीं होता, परफौर्मेंस भी माने रखती है, क्यों शीना?” नेहा ने शीना की तरफ देखते हुए कहा. “वैसे तुम्हें न थोड़ा पढ़नालिखना भी चाहिए, तुम्हारा जवाब तो बहुत ही बुरा था आज, हाहाहाह,” शीना के मुंह पर हंसती हुए नेहा निकल गई.

“कैसी छिपकली जैसी शक्ल है और कैंची जैसी जबान, जाने क्या देख कर क्राउन दे दिया इस को,” झल्लाकर शोभा ने कहा.

“जवाब सुन कर मम्मी. उस की बौडी भी कितनी पर्फेक्ट है और बाल देखे आप ने नैचुरली सुंदर दिखते हैं,” शीना ने उदास होते हुए कहा.

“इस बार डांस के साथसाथ तेरा सोशल साइंस का ट्यूशन भी लगवा देती हूं, अच्छेअच्छे जवाब दे पाएगी तभी,” शोभा ने कुछ सोचते हुए कहा.

“इतना बुरा जवाब था क्या मेरा?”

“बेटा, आप की प्रेरणा कौन है सवाल का जवाब ऐश्वर्या राय नहीं होता बल्कि कहा जाता है कि प्रेरणा मां है. जजेस को भावुक करने की जरूरत होती है. जहां कोई जवाब न आए वहां मां को घुसा दो, बस हो गया काम. बचपन से समझाया है फिर भी आखिर में ऐश्वर्या राय बोल कर आ गई. इतनी सुंदर शक्ल के साथ थोड़ी बुद्धि भी होती तो बात बन जाती.”

“मम्मी आप न मेरा हौसला तोड़ रही हो.”

“लोगों की माएं उन के सपने तोड़ती हैं, मैं तो फिर भी बस हौसला तोड़ रही हूं,” शोभा ने कहा और कार में जा बैठ गई. शीना भी कार में बैठी और दोनों घर के लिए निकल गईं.

शीना को 7 साल की उम्र से ही उस की मम्मी छोटेमोटे ब्यूटी पेजैंट्स में ले जाती रही हैं. अधिकतर ब्यूटी पेजैंट्स उस ने जीते ही हैं. उस के पापा डाक्टर हैं तो अपनी बेटी को भी पढ़ाई में आगे जाता देखना चाहते थे, लेकिन शोभा अपनी बेटी की खूबसूरती को यों व्यर्थ करने के पक्ष में नहीं थी. उस का कहना था कि उस की बेटी ऐश्वर्या न सही जुही चावला ही बन जाए, मिस वर्ल्ड का न सही तो एक दिन मिस इंडिया का टाइटल तो लाए.

पेजैंट्स और कुछ शूट्स से जो पैसे मिलते वे सब शोभा के पास ही रहते थे. शीना के पापा और मम्मी की अरेंज मैरिज हुई थी तो ‘शादी के बात भी प्यार हो जाता है’ का नुक्ता यहां नहीं चल पाया था और शोभा के लिए अपने पति के साथ रहना उन्हें झेलना भर था. शोभा बचपन से ही मौडल बनना चाहती थी लेकिन मम्मीपापा के ‘लोग क्या कहंगे’ के तर्क का जवाब नहीं दे पाई. कालेज के सेकंड ईयर में ही जिस लड़के से प्यार था उस से शादी करने के लिए मम्मीपापा से खूब लड़ाई की थी. नतीजा यह हुआ कि मम्मीपापा तो नहीं माने लेकिन शोभा के लिए उन के मन में जो प्यार था वो उस के प्रेमकांड के चलते कम हो गया.

कालेज का प्यार तो कालेज तक ही रहा लेकिन थर्ड ईयर में अच्छे नंबरों ने भी शोभा से मुंह मोड़ लिया. किसी अच्छे कालेज में मेरिट के आधार पर एडमिशन की नौबत तो आने से रही और इस गम में एंट्रैन्स में भी वह कुछ खास कर नहीं पाई. मम्मी के अनुसार, कालेज में जो गुल खिलाएं हैं उस के लिए अब आगे की पढ़ाई के लिए घर से तो पैसा मिलेगा नहीं, शादी करो और ससुराल जाओ. हुआ भी यही, जल्द से जल्द शादी की गई और दूसरे ही साल शीना ने जन्म ले लिया. पति से शोभा की कभी बनी नहीं, सो, शीना का एकएक खर्च उस के पापा के ऊपर था और शीना की खूबसूरती से आए पैसे शोभा के खर्च के लिए थे. क्योंकि कुछ हो न हो शोभा में स्वाभिमान तो खूब था.

घर पहुंच कर थकी हारी शीना सीधा अपने कमरे में जा लेट गई. उस ने आंखें बंद ही की थीं कि बाहर से मम्मी पापा के झगड़ने की आवाजें आने लगीं. पापा शीना के कालेज जाने की बात कर रहे थे और मम्मी का कहना था कि वह कालेज जाएगी तो डांस क्लास, सिंगिंग क्लास, जिम और शूट्स पर कौन जाएगा.

आवाजों के बीच शीना को धीरेधीरे नींद ने अपनी आगोश में घेर लिया.

अगली सुबह वह अपने कमरे से नीचे ब्रेकफास्ट के लिए आई तो मम्मी मुंह फुलाए बैठी थीं और पापा के चेहरे पर संतुष्टि की लकीरें छाई हुई थीं.

“शीना,” पापा ने कहा.

“हां, पापा,” शीना ने जवाब दिया.

“तुम्हारा फर्स्ट ईयर दो महीने पहले ही स्टार्ट हो चुका है और तुम ने उस के लिए कोई पढ़ाई स्टार्ट नहीं की है न ज्यादा क्लासेज ली हैं, तो कल से तुम रोज कालेज जाओगी और सुबह जिम, कालेज से आ कर डांस और सिंगिंग क्लास. जो एक दो शूट्स हों उन्हें वीकेंड में कर लेना. इस से आगे मुझे कुछ नहीं सुनना है.”

“ओके पापा, पर मम्मी….”

“मम्मी के कहने से कुछ नहीं होता, एक दो साल पढ़ लोगी तो कुछ नहीं बिगड़ेगा,” पापा ने कहा.

“कैसे नहीं बिगड़ेगा, कालेज में मटरगश्ती करेगी, धूप में रंग पक्का कर आएगी और पता नहीं कैसेकैसे लोगों से मिलेगी. वैसे भी मेरी बेटी सेलेब्रिटी है, ऐसे आम लोगों के साथ उठनाबैठना करेगी तो….” शोभा मुंह मटकाते हुए गुस्से में बड़बड़ाए जा रही थीं.

“तो क्या? कोई सेलेब्रिटी नहीं है तुम्हारी बेटी, दो तीन पत्रिकाओं में फोटो आ जाने से कोई सेलेब्रिटी नहीं हो जाता, इसे इतना सिर पर मत चढ़ाओ.”

“पापा, अगले महीने कालेज से ट्रिप जा रही है मैं भी जाऊं?” शीना ने मौके का फायदा उठाते हुए कहा.”

“नह…” मम्मी बोलने वाली ही थीं कि पापा ने कह दिया, “हां चले जाना.”

शीना का तो आज दिन ही बन गया था. दिन भर वह फेसपैक, हेयर मास्क, नेलपेंट आदि लगाने में व्यस्त थी. अब वह आखिर कालेज जाने वाली थी वो भी रोज. मम्मी पापा की बात इतनी जल्दी मान कैसे गईं यह उसे अब तक समझ नहीं आया था लेकिन जो भी था उसे खुशी खूब हो रही थी.

 

ऊंची उड़ान: क्या है राधा की कहानी

जाड़े की कुनकुनी धूप में बैठी मैं कई दिनों से अपने अधूरे पड़े स्वैटर को पूरा करने में जुटी थी. तभी अचानक मेरी बचपन की सहेली राधा ने आ कर मुझे चौंका दिया.

‘‘क्यों राधा तुम्हें अब फुरसत मिली है अपनी सहेली से मिलने की? तुम ने बेटे की शादी क्या की मुझे तो पूरी तरह भुला दिया… कितनी सेवा करवाओगी और कितनी बातें करोगी अपनी बहू से… कभीकभी हम जैसों को भी याद कर लिया करो.’’

‘‘कहां की सेवा और कैसी बातें? मेरी बहू को तो अपने पति से ही बातें करने की फुरसत नहीं है… मुझ से क्या बातें करेगी और क्या मेरी सेवा करेगी? मैं तो 6 महीनों से घर छोड़ कर एक वृद्धाश्रम में रह रही हूं.’’

यह सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे पैरों तले से जमीन खींच ली हो. मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. क्या बोलती उस राधा से जिस ने अपना सारा जीवन, अपनी सारी खुशियां अपने बेटे के लिए होम कर दी थीं. आज उसी बेटे ने उस के सारे सपनों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं…

अपने बेटे मधुकर के लिए राधा ने क्या नहीं किया. अपनी सारी इच्छाओं को तिलांजलि दे, अपने भविष्य की चिंता किए बिना अपनी सारी जमापूंजी निछावर कर उसे मसूरी के प्रसिद्ध स्कूल में पढ़ाया. उस के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेजा. इस सब के लिए उसे घोर आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ा. फिर भी वह हमेशा बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कर खुशीखुशी सब सहती रही. जब भी मिलती अपने बेटे की प्रगति का समाचार देना नहीं भूलती. वह अपने बेटे को खरा सोना कहती.

मैं बहुत कुछ समझ रही थी पर उस की दुखती रग पर हाथ रखने की हिम्मत नहीं हो रही थी. मैं बात बदल कर नेहा की पढ़ाई और शादी पर ले आई. शाम ढलने से पहले ही राधा आश्रम लौट गई, पर छेड़ गई अतीत की यादों को…

उस की स्थिति मेरे मन को बेचैन किए थी. बारबार मन चंचल बन उस अतीत में विचरण कर रहा था जहां कभी मेरे और राधा के बचपन से युवावस्था तक के पल गुजरे थे.

राधा मेरे बचपन की सहेली और सहपाठी थी. उस का एक ही सपना था कि वह बड़ी हो कर डाक्टर बनेगी. अपने सपने को पूरा करने के लिए मेहनत भी बहुत करती थी. टैंथ की परीक्षा में पूरे बिहार में 10वें स्थान पर रही थी.

अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़ी होने के कारण उस के पिता ने 12वीं कक्षा की परीक्षा समाप्त होते ही विलक्षण प्रतिभा की धनी अपनी इस बेटी की शादी कर दी. शादी के बाद उसे आशा थी कि शायद पति की सहायता से अपना सपना पूरा कर पाएगी पर उस का पति तो एक तानाशाह किस्म का था जिसे लड़कियों की पढ़ाई से चिढ़ थी. इसलिए उस ने डाक्टर बनने के रहेसहे विचार को भी तिलांजलि दे दी और अपने इस रिश्ते को दिल से निभाने की कोशिश करने लगी.

जब वह पूरी तरह अपनी शादी में रम गई, तो कुदरत ने एक बार फिर उस की परीक्षा ली. एक सड़क हादसे में उस ने अपने पति को भरी जवानी में खो दिया. वह अपने 3 वर्ष के अबोध बेटे मधुकर और अपनी बूढ़ी सास के साथ अकेली रह गई. वैधव्य ने भले ही उसे तोड़ दिया था पर उस ने अपनेआप को दीनहीन नहीं बनने दिया. हिम्मत नहीं हारी. भागदौड़ कर अपने पति के बिजनैस को संभाला पर अनुभव के अभाव में उसे सही ढंग से चला नहीं पाई. फिर भी खर्च के लायक पैसे आ ही जाते थे.

उस के पति अपने मातापिता की इकलौती संतान थे, इसलिए कोई करीबी भी नहीं था, जो उसे किसी प्रकार का संरक्षण दे. फिर भी उस कर्मठ औरत ने हार नहीं मानी. अपने बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की.

राधा के घोर परिश्रम का ही परिणाम था कि मधुकर आज आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद अहमदाबाद के प्रसिद्ध कालेज से मैनेजमैंट की पढ़ाई पूरी कर एक मल्टीनैशनल कंपनी में काफी ऊंचे पद पर काम कर रहा था. अपने बेटे की सफलता पर गर्व से दमकती राधा की तृप्त मुसकान देख मुझे लगता अंतत: कुदरत ने उस के साथ न्याय किया. अब उस के सुख के दिन आ गए हैं पर आज स्थिति यह है कि वह वृद्धाश्रम में आ गई है. वह भी अपने बेटे की शादी के मात्र 1 साल बाद ही. यह बात मेरे गले नहीं उतर रही थी.

मेरे मन की परेशानी को नेहा ने न जाने कैसे बिना बोले ही भांप लिया था. बोली, ‘‘क्या बात है ममा, जब से राधा मौसी गई हैं आप कुछ ज्यादा ही परेशान और खोईखोई लग रही हैं?’’

‘‘मैं आज यही सोच रही हूं कि इस आधुनिक युग में शिक्षा का स्तर कितना गिर गया है कि आज के उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के भी अपने रिश्तों को अहमियत देने के बदले पैसों के पीछे भागते हैं… इन के आचरण इतने घटिया हो जाते हैं कि न मातापिता को सम्मान दे पाते हैं न ही उन की जिम्मेदारी उठाने को तैयार होते हैं. क्या फायदा है इतने बड़ेबड़े स्कूलकालेजों में पढ़ा कर जहां के शिक्षक सिर्फ सबजैक्ट का ज्ञान देते हैं आचरण और संस्कार का नहीं.’’

‘‘ममा… आप को बुरा लगेगा पर आप हमेशा अपने संस्कारों और संस्कृति की दुहाई देती हैं और यह भूल जाती हैं कि समय में परिवर्तन के अनुसार इन में भी बदलाव स्वाभाविक है. आधुनिक युग में शिक्षा नौकरशाही प्राप्त करने को साधन मात्र रह गई है, जिसे प्राप्त करने के लिए आचरण चंद लाइनों में लिखी इबारत होती है. फिर आचरण का मूल्य ही कहां रह गया है?

शिक्षक भी क्या करें उन्हें सिर्फ लक्ष्यप्राप्ति का माध्यम मान लोग पैसों से तोलते हैं. जब मातापिता को बच्चे के आचरण से ज्यादा किताबी ज्ञान प्राप्त करने की चिंता रहती है, तो शिक्षक भी यही सोचते हैं कि भाड़ में जाएं संस्कार और संस्कृति. जिस के लिए वेतन मिलता है उसी पर ध्यान दो, क्योंकि अर्थ ही आज के समाज में लोगों का कद तय करता है. इसी सोच के कारण अर्थ के पीछे भागते लोगों के अंदर भोगविलासिता इतनी बढ़ गई है कि उन्हें उसूलों और मानवता के लिए आत्मबलिदान जैसी बातें मूर्खतापूर्ण और हास्यप्रद लगती हैं और करीबी रिश्ते व्यर्थ के मायाजाल लगते हैं, जो उन्हें मिली शिक्षा और संस्कार के हिसाब से सही हैं.

‘‘अगर आप अपने अंदर झांकिएगा तो आप को खुद अपनी बातों का खोखलापन नजर आएगा, क्योंकि पैसे और पावर के पीछे भागने की प्रेरणा सब से पहले उन्हें अपने मातापिता से ही मिलती है, जो अपने बच्चों को अच्छा व्यक्ति और नागरिक बनाने से ज्यादा इस बात को प्राथमिकता देते हैं कि उन के बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में उच्च प्रदर्शन करें. उन के नंबर हमेशा अपने सहपाठियों की तुलना में ज्यादा हों, यहां तक कि अपने बच्चों के अभ्युत्थान के लिए अपनी सामर्थ्य से ज्यादा संसाधन प्रयोग करते हैं, जिस का बोझ कहीं न कहीं बच्चों के दिलोदिमाग पर रहता है.

‘‘मातापिता की यही लालसा शिक्षा के रचनात्मक विकास के बदले तनाव, चिंता और आक्रोश का कारण बनती है और कभीकभी आत्महत्या का भी. ममा, क्या अब भी आप को लगता है कि सारा दोष इस नई पीढ़ी का ही है? अगर लड़कियां रिश्तों से ज्यादा अपने कैरियर को अहमियत दे रही हैं तो इस में उन की क्या गलती है? उन की यह सोच उन के अपने ही मातापिता और बदलते समय की देन है.’’

‘‘पुरुष तो वैसे भी भावनात्मक तौर पर इतने अहंवादी होते हैं कि अपने कैरियर को परिवार के लिए विराम देने की बात सोच भी नहीं सकते, तो लड़कियां ही सारे त्याग क्यों करें? यह आपसी टकराव सारे रिश्तों की धज्जियां उड़ा रहा है… इस स्थिति को आपसी समझदारी से ही सुलझाया जा सकता है, नई पीढ़ी को कोसने से नहीं.’’

‘‘चुप क्यों हो गई और बोलो. नैतिक मूल्यों को त्याग सिर्फ भौतिक साधनों से लोगों को सुखी बनाने की बातें करो. यही संस्कार मैं ने तुम्हें दिए हैं कि समाज और परिवार को त्याग, प्यार, ममता और मानवता के लिए कुछ कर गुजरने की भावना को भूल सिर्फ अपने लिए जीने की बातें करो जैसे मधुकर ने अपने सुखों के लिए अपनी वृद्ध मां को वृद्धाश्रम भेज दिया. मुझे पता है भविष्य में तुम भी मधुकर के नक्शेकदम पर चलोगी, क्योंकि मधुकर कभी तुम्हारा बैस्ट फ्रैंड हुआ करता था.’’

‘‘जहां तक मेरी बात है ममा वह तो बाद की बात है, अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. पर एक बात जरूर है कि राधा मौसी के वृद्धाश्रम जाने की बातें सुन मधुकर से आप को ढेर सारी शिकायतें हो गई हैं. पर जैसे आप राधा मौसी को समझती हैं मैं मधुकर को समझती हूं. सच कहूं तो राधा मौसी अपनी स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं. कभी आप ने सोचा है संतान का कोई भी कर्म सफलता या विफलता सब कहीं न कहीं उस के मातापिता की सोच और परवरिश का परिणाम होता है? वह राधा मौसी ही थीं, जिन्हें कभी जनून था कि उन का बेटा हमेशा अव्वल आए. वह इतनी ऊंची उड़ान भरे कि कोई उस के बराबर न आने पाए. नातेरिश्तेदार सब कहें कि देखो यह राधा का बेटा है जिसे राधा ने अकेले पति के बिना भी कितने ऊंचे पद पर पहुंचा दिया, जहां विरले ही पहुंच पाते हैं.

‘‘आप को याद है ममा… याद कैसे नहीं होगा, राधा मौसी अपना हर फैसला तो आप की सलाह से ही लेती थीं. मधुकर की दादी यमुना देवी जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही थीं. उन के प्राण अपने बेटे की अंतिम निशानी मधुकर में अटके हुए थे. बारबार उसे बुलवाने का अनुरोध कर रही थीं. उस समय मधुकर दिल्ली में आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. पर राधा मौसी ने उसे पटना बुलाना जरूरी नहीं समझा. उन का कहना था कि अगर वह फ्लाइट से भी आएगा तो भी 2 दिन बरबाद हो जाएंगे और फिर दादी को देख डिस्टर्ब हो जाएगा वह अलग. उन्होंने यमुना देवी के बीमार होने तक की सूचना मधुकर को नहीं दी, क्योंकि मधुकर भी अपनी दादी से बेहद प्यार करता था. यहां तक कि यमुना देवी का देहांत हो गया, तब भी मधुकर को सूचित नहीं किया.

‘‘मधुकर का जब आईआईटी में चयन हो गया और वह पटना आया तब उसे पता चला कि उस की दादी नहीं रहीं. वह देर तक फूटफूट कर रोता रहा, पर राधा मौसी अपनी गलती मानने के बदले अपने फैसले को सही बताती रहीं. ऐसा कर मधुकर के अंदर स्वार्थ का बीज तो खुद उन्होंने ही डाला. अब वह हर रिश्तेनाते और अपनी खुशी तक को भुला सिर्फ अपने कैरियर पर ध्यान दे रहा है, तो क्या गलत कर रहा है? मां का ही तो अरमान पूरा कर रहा है?

‘‘मधुकर राधा मौसी की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा. उस ने अपनी मां की सभी इच्छाएं पूरी कीं. उस के बदले वह अपनी मां से सिर्फ इतना ही चाहता था कि जिस लड़की से वह प्यार करता है, उस के साथ राधा मौसी उस की शादी करवा दें.

‘‘उस की बात मानने के बदले राधा मौसी ने हंगामा बरपा दिया, क्योंकि उन्हें जनून था कि उन की बहू भी ऐसी हो, जो नौकरी के मामले में उन के बेटे से कतई उन्नीस न हो. मधुकर जिस से प्यार करता था वह लड़की अभी पढ़ ही रही थी. अपनी महत्त्वाकांक्षा के आगे उन्होंने मधुकर की एक नहीं सुनी. न ही उस की खुशियों का खयाल किया. उन्होंने साफसाफ कह दिया कि वह मखमल में टाट का पैबंद नहीं लगने देंगी. उन्होंने अपनी जान देने की धमकी दे मधुकर को फैसला मानने पर मजबूर कर दिया और उस की शादी अपनी पसंद की लड़की रश्मि से करवा दी.

‘‘अपनी सोच के अनुसार उन्होंने अपने बेटे के जीवन को एक नई दिशा दी, अपनी सारी इच्छाएं पूरी कीं पर अब हाल यह है कि बेटाबहू दोनों काम के बोझ तले दबे हैं. कभी मधुकर घर से महीने भर के लिए बाहर रहता है, तो कभी रश्मि, तो कभी दोनों ही. एकदूसरे के लिए भी दोनों न समय निकाल पा रहे हैं न ही परिवार बढ़ाने के बारे में सोच पा रहे हैं. फिर राधा मौसी के लिए वे कहां से समय निकालें? दोनों में से कोई भी अपनी तरक्की का मौका नहीं छोड़ना चाहता है. रश्मि वैसे अच्छी लड़की है पर अपने कैरियर से समझौता करने के लिए किसी भी शर्त पर तैयार नहीं है. यह सोच उस को अपनी मां से मिली है. वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. बचपन से ही उस में यह जनून इसलिए भरा गया था कि लोगों को दिखा सकें कि उन की बेटी किसी के लड़के से कम नहीं है.

‘‘दुनिया चाहे कितनी भी बदल जाए पर ममा किसी रिलेशनशिप में सब से बड़ी होती है आपसी अंडरस्टैंडिंग. अगर हम अपने नजरिए से सोचते हैं, तो वह अपने लिए सही हो सकता है पर दूसरों के लिए जरूरी नहीं कि सही हो. आप को अच्छा नहीं लगेगा पर राधा मौसी ने अपना हर फैसला खुशियों को केंद्र में रख कर लिया, जो उन के लिए जरूर सही था पर मधुकर के लिए नहीं. अपने फैसले का परिणाम वे खुद तो भोग ही रही हैं, कहीं न कहीं मधुकर भी अपने प्यार को खो देने का गम भुला नहीं पा रहा है.’’

नेहा की बातें सुन मैं हतप्रभ रह गई. वास्तव में हम अपने बच्चों में कैरियर को ले कर ऐसा जनून भर देते हैं कि पूरी उम्र उन की जिंदगी मशीन बन कर रह जाती है.

नेहा के अत्यधिक बोलने और आंखों में अस्पष्ट असंतोष और झिझक देख मेरे दिमाग में बिजली सी कौंध गई. मैं अपने को रोक नहीं सकी. बोली, ‘‘कहीं मधुकर तुम से तो प्यार नहीं करता था?’’

मेरी बात सुन वह पल भर को चौंकी, फिर अचानक उठ खड़ी हुई जैसे अपने मन की वेदना को संभाल नहीं पा रही हो और मेरे गले से आ लगी. उस की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा. आज पहली बार मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.

पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में हमारी आंखें इस कदर चौंधियां गई हैं कि हम समृद्धि और ऐशोआराम की चीजों को ही अपनी सच्ची खुशी समझने लगे हैं, हालांकि जल्द ही हमें इन से ऊब होने लगती है. अगर हम गहराई से देखें तो यही विलासिता आगे चल कर अकेलेपन और सामाजिक असुरक्षा का कारण बनती है. नई पीढ़ी के इस भटकाव का कारण कहीं न कहीं उस के मातापिता ही होते हैं. फिर मैं उस के बाल सहलाते हुए बेहद आत्मीयता से बोली, ‘‘मैं मानती हूं कि बड़ों की गलतियों की बहुत बड़ी सजा तुम दोनों को मिली, फिर भी अब तो यही कहूंगी कि अतीत को भुला आगे बढ़ने में ही सब की भलाई है. तुम्हारी मंजिल कभी मधुकर था, अब नहीं है तो न सही, मंजिलें और भी हैं. अब से तुम्हारी मां तुम्हारे हर कदम में तुम्हारे साथ है.’’

Mother’s Day Special- अधूरी मां- भाग 3: क्या खुश थी संविधा

तुम्हारे भैया तो दिन में न जाने कितनी बार औफिस से फोन कर के उस की आवाज सुनाने को कहते हैं. शाम 4 बजे तक सारा कामकाज मैनेजर को सौंप कर घर आ जाते हैं. रात को खाना खा कर सभी दिव्य को ले कर टहलने निकल जाते हैं. दिव्य के आने से मेरे घर में रौनक आ गई है. इस के लिए संविधा तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. संविधा, अरेअरे दिव्य… संविधा मैं तुम्हें फिर फोन करती हूं. यह तेरा बेटा जो भी हाथ लगता है, सीधे मुंह में डाल लेता है. छोड़…छोड़…’’

इस के बाद दिव्य के रोने की आवाज आई और फोन कट गया.

‘‘यह भाभी भी न, दिव्य अब मेरा बेटा कहां रहा. जब उन्हें दे दिया तो वह उन का बेटा हुआ न. लेकिन जब भी कोई बात होती है, भाभी उसे मेरा ही बेटा कहती हैं. पागल…’’ बड़बड़ाते हुए संविधा ने फोन मेज पर रख दिया.

इस के बाद मोबाइल में संदेश आने की घंटी बजी. ऋता ने व्हाट्सऐप पर दिव्य का फोटो भेजा था. दिव्य को ऋता की मम्मी खेला रही थीं. संविधा आनंद के साथ फोटो देखती रही. ऋता का फोन नहीं आया तो संविधा ने सोचा, वह रात को फोन कर के बात करेगी.

इसी बीच संविधा को कारोबार के संबंध में विदेश जाना पड़ा. विदेश से वह दिव्य के लिए ढेर सारे खिलौने और कपड़े ले आई. सारा सामान ले कर वह ऋता के घर पहुंची.

ऋता ने उसे गले लगाते हुए पूछा, ‘‘तुम कब आई संविधा?’’

‘‘आज सुबह ही आई हूं. घर में सामान रखा, फ्रैश हुई और सीधे यहां आ गई.’’

पानी का गिलास थमाते हुए ऋता ने पूछा, ‘‘कैसी रही तुम्हारी कारोबारी यात्रा?’’

‘‘बहुत अच्छी, इतना और्डर मिल गया है कि 2 साल तक फुरसत नहीं मिलेगी,’’ बैड पर सामान रख कर इधरउधर देखते हुए संविधा ने पूछा, ‘‘दिव्य कहां है, उस के लिए खिलौने और कपड़े लाई हूं?’’

‘‘दिव्य मम्मी के साथ खेल रहा है. तभी दिव्य को ले कर सुधा आ गईं शायद उन्हें संविधा के आने का पता चल गया था. संविधा ने चुटकी बजा कर दिव्य को बुलाया, ‘‘देख दिव्य, तेरे लिए मैं क्या लाई हूं.’’

इस के बाद संविधा ने एक खिलौना निकाल कर दिव्य की ओर बढ़ाया. खिलौना ले

कर दिव्य ने मुंह फेर लिया. इस के बाद संविधा ने दिव्य को गोद में लेना चाहा तो वह रोने लगा.

इस पर ऋता ने कहा, अरे, यह तो रोने लगा.

वह क्या है न संविधा, यह किसी भी अजनबी के पास बिलकुल नहीं जाता.

संविधा ने हाथ खींच लिए तो दिव्य चुप हो गया. संविधा उदास हो गई. उस का मुंह लटक गया. वह कैसे अजनबी हो गई, जबकि असली मां तो वही है. संविधा जो कपड़े लाई थी, अपने हाथों से दिव्य को पहनाना चाहती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. कुछ देर बातें कर के वह सारा सामान भाभी को दे कर वहां से निकली तो सीधे मां के घर चली गई. वहां मां के गले लग कर रो पड़ी कि वह अपने ही बेटे के लिए अजनबी हो गई.

रमा देवी ने संविधा के सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि वह जी न छोटा करे, दिव्य थोड़ा बड़ा होगा तो खुद ही उस के पास आने लगेगा. उस से अपनी खुशी भाईभाभी को दी है, इसलिए अब उसे अपना बेटा मान कर मन को दुखी न करे. इस के बाद संविधा को पानी पिला कर उस के कारोबार और विदेश की यात्रा के बारे में बातें करने लगीं तो संविधा उत्साह में आ गई.

कारोबार में व्यस्त हो जाने की वजह से संविधा को किसी से मिलने का समय नहीं मिल रहा था. सात्विक अब अकसर बाहर ही रहता था. फोन पर ही ऋता संविधा को दिव्य के बारे में बताती रहती थी कि आज उस ने यह खाया, ऐसा किया, यह सामान तोड़ा. मम्मी तो उस से बातें भी करने लगी हैं. अगर वह राजन के पास होता है तो वह उसे किसी दूसरे के पास नहीं जाने देते. जिस दिन दिव्य बैड पकड़ कर खड़ा हुआ और 4-5 कदम चला, ऋता ने उस का वीडियो बना कर संविधा को भेजा.

अब तक दिव्य 10 महीने का हो गया था. 2 महीने बाद उस का जन्मदिन आने वाला था. सभी उत्साह में थे कि खूब धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाएगा. जन्मदिन मनाने में मदद के लिए संविधा को भी एक दिन पहले आने को कह दिया गया था. जब भी ऋता और संविधा की बात होती थी, ऋता यह बात याद दिलाना नहीं भूलती थी. संविधा भी खूब खुश थी.

उस दिन मीटिंग खत्म होने के बाद संविधा ने मोबाइल देखा तो ऋता की 10 मिस्डकाल्स थीं. इतनी ज्यादा मिस्डकाल्स कहीं मम्मी…? उस के मन में किसी अनहोनी की आशंका हुई. संविधा ने तुरंत ऋता को फोन किया.

दूसरी ओर से ऋता के रोने की आवाज आई. रोते हुए उस ने कहा, ‘‘कहां थीं तुम…कितने फोन किए… तुम ने फोन क्यों नही उठाया?’’

‘‘मीटिंग में थी, ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो इतने फोन कर दिए?’’

‘‘दिव्य को अस्पताल में भरती कराया है,’’ ऋता ने कहा.ॉ

संविधा ने तुरंत फोन काटा और सीधे अस्पताल जा पहुंची. दिव्य तमाम नलियों से घिरा स्पैशल रूम में बैड पर लेटा था. नर्स उस की देखभाल में लगी थी. डाक्टर भी खड़े थे.

वह अंदर जाने लगी तो ऋता ने रोका, ‘‘डाक्टर ने अंदर जाने से मना किया है.’’

‘‘क्या हुआ है दिव्य को?’’ संविधा ने पूछा.

‘‘कई दिनों से बुखार था. फैमिली डाक्टर से दवा ले रही थी. लेकिन बुखार उतर ही नहीं रहा था. आज यहां ले आई तो भरती कर लिया. अब ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है.’’

संविधा सोचने लगी, इतने दिनों से बुखार था, राजन ने ध्यान नहीं दिया. यह इन का अपना बेटा तो है नहीं. इसीलिए ध्यान नहीं दिया. खुद पैदा किया होता तो ममता होती. मेरा बच्चा है न, इसलिए इतनी लापरवाह रही. आज कुछ हो जाता, तो… संविधा ने सारे काम मैनेजर को समझा दिए और खुद अस्पताल में रुक गई बेटे की देखभाल के लिए. ऋता ने उस से बहुत कहा कि वह घर जाए, दिव्य की देखभाल वह कर लेगी, पर संविधा नहीं गई. उस की जिद के आगे ऋता को झुकना पड़ा.

अगले दिन किसी जरूरी काम से संविधा को औफिस जाना पड़ा. वह औफिस से लौटी तो देखा ऋता दिव्य के कमरे से निकल रही थी.

संविधा ने इस बारे में डाक्टर से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘मां को तो अंदर जाना ही पड़ेगा. बिना मां के बच्चा कहां रह सकता है.’’

संविधा का मुंह उतर गया. मां वह थी.  अब उस का स्थान किसी दूसरे ने ले लिया था. वह दिव्य को देख तो पाती थी, लेकिन बीमार बेटे को गोद नहीं ले पाती थी. इसी तरह 2 दिन बीत गए. रोजाना शाम को सात्विक भी अस्पताल आता था. ऋता बारबार संविधा से निश्ंिचत रहने को कहती थी, लेकिन वह निश्ंिचत नहीं थी. अब वह दिव्य को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं. 5वें दिन डाक्टर ने दिव्य को घर ले जाने के लिए कह दिया.

सभी रमा देवी के घर इकट्ठा थे. संविधा ने दिव्य को गोद में ले कर कहा, ‘‘मैं ने इसे जन्म दिया है, इसलिए यह मेरा बेटा है. यह मेरे साथ रहेगा.’’

‘‘तुम्हारा बेटा कैसे है? मैं ने इसे गोद लिया है,’’ ऋता ने तलखी से कहा, ‘‘तुम इसे कैसे ले जा सकती हो?’’

‘‘कुछ भी हो, अब मैं दिव्य को तुम्हें नहीं दे सकती. तुम उस की ठीक से देखभाल नहीं कर सकी.’’

‘‘बिना देखभाल के ही यह इतना बड़ा हो गया? एक बार जरा…’’

‘‘एक बार जो हो गया, अब वह दोबारा नहीं हो सकता, ऐसा तो नहीं है.’’

‘‘अब तुम्हारा कारोबार कौन देखेगा… इसे दिन में संभालोगी औफिस कौन देखेगा?’’

‘‘तुम्हें इस सब की चिंता करने की जरूरत नहीं है. कारोबार मैनेजर संभाल लेगा तो औफिस सात्विक. मेरे कारोबार और औफिस के लिए तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. कुछ भी हो, अब मेरा बेटा मेरे पास ही रहेगा.’’

ऋता और संविधा को लड़ते देख सब हैरान थे. ननदभौजाई का प्यार पलभर में

खत्म हो गया था. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कोई किसी को क्या कह कर समझाए. ऋता ने धमकी दी कि उस के पास दिव्य को गोद लेने के कागज हैं तो संविधा ने कहा कि उन्हीं को ले कर देखती रहना.

ऋता ने दिव्य को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो राजन ने उस के हाथ थाम लिए. उसे पकड़ कर बाहर लाया और कार में बैठा दिया. ऋता रो पड़ी. राजन ने कार बढ़ा दी. राजन ने ऋता को चुप कराने की कोशिश नहीं की.

रास्ते में ऋता के मोबाइल फोन की घंटी बजी. ऋता ने आंसू पोंछ फोन रिसीव किया, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद भाई साहब, मेरी योजना किसी को नहीं बताई इस के लिए आभार, क्योंकि उस समय संविधा को गर्भपात न कराने का दबाव डालने के बजाय यह उपाय ज्यादा अच्छा था, जो सफल भी रहा.’’

राजन ने ऋता की ओर देखा, उस आंखों में आंसू तो थे, लेकिन चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था.

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