वार्निंग साइन बोर्ड: भाग-2

‘‘निशा तुम उस राक्षस के खिलाफ केस दायर करो. उस के खिलाफ गवाही मैं दूंगी… मैं ने अपने मोबाइल पर निधि का बयान रिकौर्ड कर लिया है,’’ कहते हुए डा. संगीता के चेहरे पर आक्रोश साफ झलक रहा था.

डा. संगीता के साथ ने निशा को आत्मिक बल प्रदान किया. पर क्या ऐसा करना उचित होगा? कहीं यह बात समाज में फैल गई तो निधि का जीना दूभर न हो जाए… हमारे समाज में लड़कों के हजार खून माफ हैं पर लड़की के दामन पर लगा एक छोटा धब्बा भी उस के पूरे जीवन पर कालिख पोत देता है… निधि पर इस घटना का बुरा असर न पड़े, इसलिए निशा ने निधि के सोने के बाद ही दीपक को इस घटना के बारे में बताने का निश्चय किया.

दीपक यह सुनते ही भड़क गया. मेज पर हाथ मारते हुए बोला, ‘‘मैं उस कमीने को छोड़ूंगा नहीं… सजा दिलवा कर ही रहूंगा.’’

‘‘शांत दीपक शांत…’’

‘‘सुन कर मेरा भी खून खौला था… तुम्हारी जैसी ही बात मेरे भी दिमाग में आई थी, पर अगर हम इस सचाई को दुनिया के सामने लाते हैं तो क्या समाज की उंगली हमारे ऊपर नहीं उठेगी? हो सकता है लोग बच्ची का जीना भी दूभर कर दें?’’

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‘‘शायद तुम्हारा कहना ठीक हो पर ऐसा कर के क्या हम अपराधी को मनमानी करने की छूट नहीं देंगे? आज हमारी बेटी उस की हवस का शिकार हुई है, कल न जाने कितनों को वह वहशी अपनी हवस का शिकार बनाएगा?’’

इस सोच ने अंतत: हमें अपने अंत:कवच से बाहर आने के लिए प्रेरित किया तथा हम ने एफआईआर दर्ज करवाई एक नाबालिग के साथ दुष्कर्म की. डा. संगीता की गवाही मजबूत सुबूत बनी.

बच्ची के आरोपी को पहचानने के बावजूद स्कूल प्रशासन इस आरोप को मान ही नहीं रहा था. मानता भी कैसे उस की अपनी साख पर जो बन आई थी. यह खबर आग की तरह फैली. मीडिया के साथ अन्य बच्चों के मातापिता ने उन की आवाज को बल दिया, क्योंकि आज जो एक बच्ची के साथ हुआ है वह कल को किसी और की बच्ची के साथ भी तो हो सकता है. अंतत: पुलिस ने स्विमिंग इंस्ट्रक्टर को गिरफ्तार कर लिया.

दूसरे दिन यह खबर तमाम समाचारपत्रों में प्रमुखता के साथ छपी. यलो लाइन इंटरनैशनल स्कूल में 7 वर्ष की बच्ची के साथ रेप… स्विमिंग करने के बाद स्विमिंग पूल के पास बने चैंबर में बच्ची कपड़े बदलने के लिए गई थी. उस के पीछेपीछे स्विमिंग इंस्ट्रक्टर भी चैंबर में घुस गया तथा उस के मुंह पर कपड़ा बांध कर उसे डराते हुए उस के साथ जबरदस्ती की तथा किसी को न बताने की चेतावनी भी दी. बच्ची की क्लास टीचर ने जब उसे दहशत में देखा तो अनहोनी की आशंका से उस ने उस से प्रश्न किया. उस के प्रश्न के उत्तर में बच्ची को दर्द…दर्द कहते हुए रोते देख कर क्लास टीचर ने प्रिंसिपल को बताया. प्रिंसिपल ने डाक्टर को बुला कर चैकअप करवाने को कहा.

डाक्टर ने उस की ड्रैसिंग कर दवा खाने को दे दी. इस के बाद टीचर ने उसे घर में किसी को कुछ भी न बताने की चेतावनी देने के साथ ही यह भी कहा कि तुम गंदी लड़की हो, इसलिए तुम्हें सजा दी गई. अगर तुम घर में बताओगी तो तुम्हें अपने मम्मीपापा से भी डांट खानी पड़ेगी.

पढ़ कर निशा ने माथा पीट लिया. दनदनाती हुई दीपक के पास गई तथा कहा, ‘‘देखो समाचारपत्र… सब जगह हमारी थूथू हो रही होगी.’’

‘‘थू…थू… किसलिए… हमारी बच्ची की कोई गलती नहीं है.’’

‘‘आप पुरुष हैं शायद आप इसलिए ऐसा सोच रहे हैं… एक लड़की के दामन पर लगा एक छोटा सा दाग भी उसे दुनिया में बदनाम कर देता है.’’

‘‘तो क्या हम उस अपराधी को ऐसे ही छोड़ दें?’’

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा पर मैं नहीं चाहती कि हमारी निधि का नाम दुनिया के सामने आए.’’

‘‘नहीं आएगा… पर मैं अपराधी को सजा दिला कर रहूंगा… मैं ने वकील से बात कर ली है.’’

‘‘वह तो ठीक है पर इस सब में पता नहीं कितना समय लगेगा… मैं अपनी बच्ची को तिलतिल सुलगने नहीं दे सकती… निधि के मनमस्तिष्क से कड़वी यादें मिटाने के लिए हमें यहां से दूर जाना होगा.’’

‘‘दूर?’’

‘‘आप अपना स्थानांतरण करवा लीजिए.’’

‘‘स्थानांतरण इतना आसान है क्या?’’

‘‘निधि के जीवन से अधिक कुछ कठिन नहीं है. अगर आप नहीं करा सकते तो मैं अपने मैनेजमैंट से बात करती हूं. मेरा हैड औफिस दिल्ली में है. वहां की एक लड़की यहां आना चाह रही थी… म्यूचुअल स्थानांतरण होने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

म्यूचुअल ट्रांसफर में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. 1 महीने के अंदर निशा का स्थानांतरण दिल्ली हो गया. पहले दिल्ली जाने से मना करने के कारण औफिस वालों की आंखो में प्रश्न झलके थे, पर फैमिली प्रौब्लम का हवाला दे कर उन का उस ने स्थानांतरण कर दिया. दीपक ने भी स्थानांतरण के लिए आवेदन कर दिया था.

दिल्ली में निशा निधि का डीपीएस में दाखिला करवाने के लिए गई, प्रिंसिपल ने उस के ट्रांसफर सर्टिफिकेट को देख कर कहा, ‘‘यलो लाइन इंटरनैशनल स्कूल. वहां कुछ दिन पूर्व स्कूल के स्टाफ के किसी कर्मचारी द्वारा एक बच्ची का रेप हुआ था.’’

‘‘हां, मैम. मेरा यहां स्थानांतरण हो गया है. आप का स्कूल प्रसिद्ध है. इसलिए मैं इस का यहां दाखिला कराना चाहती हूं,’’ उस ने बिना घबराए उत्तर दिया, क्योंकि उसे पता था कि ऐसे प्रश्न शायद आगे भी उठें पर उसे विचलित नहीं होना है. गनीमत है कि निधि उस के साथ नहीं आई थी. उसे वह अपनी मित्र अलका के पास छोड़ आई थी. उस ने सोचा था पहले स्वयं जा कर स्कूल प्रशासन से बात कर ले. पता नहीं दाखिला होगा भी या नहीं.

‘‘संयोग से हफ्ता भर पहले ही स्थानांतरण के कारण फर्स्ट स्टैंडर्ड में एक स्थान रिक्त हुआ है, हम निधि को उस की जगह ले लेंगे… आप फार्म भर दीजिए तथा कल से उसे स्कूल भेज दीजिए.’’

‘‘थैंक्यू मैम,’’ निशा ने उठते हुए उन से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘मोस्ट वैलकम.’’

अलका उस की बचपन की मित्र थी. अकसर वह उसे बुलाती रहती थी. अत: जैसे ही उसे ट्रांसफर और्डर मिला, उस ने सब से पहले उसे ही फोन किया. उस ने सुनते ही कहा, ‘‘हमारी दिल्ली में तुम्हारा स्वागत है. तुम सीधे मेरे पास ही आओगी.’’ उस की लड़की शुचि डीपीएस में पढ़ती थी. अत: उस ने निधि का दाखिला डीपीसी में कराने का सुझाव दिया था.

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वैसे तो निशा की ननद विभा भी दिल्ली में रहती थी पर एक तो उस का घर उस के औफिस से दूर था वहीं उसे डर था अगर उसे जरा सी भी भनक लग गई तो निधि का जीना हराम हो जाएगा. वह चलताफिरता अखबार है… उस के पेट में एक भी बात नहीं पचती. उस ने कहीं पढ़ा था कि एक अच्छा मित्र अच्छा हमराज हो सकता है जबकि रिश्तेदार बाल की खाल निकालने से बाज नहीं आते. अपने मन के इसी डर के कारण उस ने उन के पास न जा कर अलका के पास ही रुकना मुनासिब समझा.

आगे पढ़ें- दूसरे दिन निशा निधि को स्कूल के लिए तैयार करने लगी तो…

वार्निंग साइन बोर्ड: भाग-1

निशा औफिस के बाद निधि को लेने स्कूल पहुंची. उसे देखते ही दौड़ कर उस के पास आने वाली निधि ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

निशा को देखते ही अटैंडैंट ने दवा देते हुए कहा, ‘‘मैम, आज निधि दर्द की शिकायत कर रही थी. डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने यह दवा दी है. आप इस दवा को दिन में 2 बार तो इस दवा को दिन में 3 बार देना.’’

‘‘मुझे फोन कर दिया होता?’’

‘‘हो सकता है न मिला हो, इसलिए डाक्टर को बुला कर दिखाया हो.’’

‘‘ओके, डाक्टर का परचा?’’

‘‘डाक्टर ने परचा नहीं दिया, सिर्फ यह दवा दी है.’’

निशा ने सोचा शायद इस से परचा कहीं खो गया होगा. अत: झूठ बोल रही है… फिर उस ने मन ही मन स्कूल प्रशासन को धन्यवाद दिया. नाम के अनुरूप काम भी है, सोच कर संतुष्टि की सांस ली. निधि को किस कर गोद में उठा कर कार तक ले गई. निधि कार में बैठते ही सो गई. कैसी भागदौड़ वाली जिंदगी है उस की… वह अपनी बेटी को भी समय नहीं दे पा रही है. स्कूल तो ढाई बजे ही बंद हो जाता है पर घर में किसी के न होने के कारण उसे निधि को स्कूल के क्रैच में ही छोड़ना पड़ता है. कभीकभी लगता है कि एक छोटी सी बच्ची पर कहीं जरूरत से ज्यादा शारीरिक और मानसिक बोझ तो नहीं पड़ रहा है. पर करे भी तो क्या करे? अपनेअपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त होने के कारण न तो उस के और न ही दीपक के मातापिता का लगातार उन के साथ रहना संभव है. बस एक ही उपाय है कि वह नौकरी छोड़ दे, पर उसे लगता है कि अगर नौकरी छोड़ देगी तो फिर पता नहीं ऐसी नौकरी मिले या न मिले.

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घर आ कर निशा ने निधि को जगाने का प्रयास किया. न जागने पर निशा ने उसे यह सोच कर गोद में उठा लिया कि शायद उसे दर्द से अभी आराम मिला हो, इसलिए गहरी नींद में सो रही है. रात को निधि ने खाना भी नहीं खाया. रात में वह बुदबुदाने लगी. उस की बुदबुदाहट सुन कर निशा की नींद खुल गई. उसे थपथपाने लगी तो पाया कि उसे तेज बुखार है. नींद में ही निशा ने उसे दवा दे दी. दवा खाते ही वह पुन: बुदबुदाई, ‘‘मैं गंदी लड़की नहीं हूं. पनिश मत करो अंकल, मुझे पनिश मत करो.’’

निशा समझ नहीं पा रही थी कि निधि ऐसा क्यों कह रही है. क्या उसे किसी ने पनिश किया? पर क्यों? क्या उस का दर्द इसी वजह से है? निधि की दशा देख कर उस ने दूसरे दिन छुट्टी लेने का निर्णय कर लिया वरना पहले कभीकभी ऐसी ही स्थितियों में उस में और दीपक में झगड़ा हो जाता था, बिना यह सोचेसमझे कि उन के इस वादविवाद का उस मासूम पर क्या असर होता होगा?

दूसरे दिन निधि सुबह 10 बजे के लगभग उठी. उठते ही वह निशा से चिपक कर रोने लगी और फिर रोतेरोते ही उस ने कहा, ‘‘ममा, मैं अब कभी स्कूल नहीं जाऊंगी.’’

‘‘क्यों बेटा, क्या आप से स्कूल में किसी ने कुछ कहा?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘बस मैं स्कूल नहीं जाऊंगी.’’

‘‘लेकिन बेटा, स्कूल तो हर बच्चे को जाना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने कहा न मैं स्कूल नहीं जाऊंगी,’’ कहते हुए वह फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘ठीक है, रो मत बेटा. जब आप स्कूल जाना चाहो तभी भेजूंगी,’’ निशा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘कल स्कूल जा कर टीचर से बात करूंगी. न जाने ऐसा क्या घटित हुआ है इस लड़की के साथ कि हमेशा स्कूल जाने के लिए लालायित रहने वाली लड़की स्कूल ही नहीं जाना चाह रही है… फिर नींद में ‘पनिश…पनिश… कह रही थी,’ सोच कर मन को सांत्वना दी.

निशा निधि को नाश्ता करा कर उस के कपड़े बदलने लगी तो उस की पैंटी में खून के निशान देख कर चौंक गई कि 7 वर्ष की उम्र में रजस्वला… दर्द की वजह से वह पैर भी जमीन पर ठीक से नहीं रख पा रही थी. निशा की कुछ समझ में नहीं आया तो उसे डा. संगीता के पास ले जाना उचित समझा.

डा. संगीता ने उसे चैक करने के बाद कहा, ‘‘ओह नो…’’

‘‘क्या हुआ डाक्टर?’’

‘‘निशा, इस बच्ची के साथ रेप हुआ है,’’ डा. संगीता ने उसे अलग ले जा कर बताया.

‘‘रेप’’? पर कहां और कैसे? कल तो स्कूल के अतिरिक्त यह कहीं गई ही नहीं है?’’ डा. संगीता की बात सुन कर निशा ने चौंक कर कहा.

‘‘निशा यह मेरा अनुमान नहीं सचाई है.’’

‘‘क्या,’’ कह कर वह अपना सिर पकड़ कर कुरसी पर बैठ गई कि क्या हो गया है इन नरपिशाचों को… एक 7 वर्ष की बच्ची के साथ ऐसी घिनौनी हरकत… एक नन्ही बच्ची में भी उसे सिर्फ स्त्रीदेह नजर आई… मन क्यों नहीं कांपा इस मासूम के साथ बलात्कार करते हुए… इनसानियत को तारतार करने वाले इनसान के रूप में वह हैवान है… तभी उसे याद आया निधि का नींद में बड़बड़ाना कि प्लीज अंकल, मुझे पनिश मत करो…

‘‘निशा संभालो स्वयं को… तुम बिखर गईं तो बच्ची को कौन संभालेगा? हमें वस्तुस्थिति का पता लगाना होगा,’’ डा. संगीता बोलीं.

निशा ने निधि की ओर तड़प कर देखा. उस के चेहरे पर दर्द की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं. वह मासूम चुपचाप डाक्टर की बातों से अनजान उन की ओर देखे जा रही थी. आखिर डा. संगीता ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, आप को चोट कैसे लगी?’’

निधि को चुप देख कर निशा ने डा. संगीता का प्रश्न दोहराते हुए पुन: पूछा, ‘‘निधि बेटा, डाक्टर आंटी की बात का उत्तर दो… तुम्हें चोट कैसे लगी?’’

‘‘ममा, मैं नहीं बता सकती वरना मुझे डांट पड़ेगी.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘मैम ने कहा है कि अगर तुम घर में किसी को बताओगी तो तुम्हें अपने मम्मीपापा की भी डांट सुननी पड़ेगी… आप ने गलती की है, आप एक गंदी लड़की हो इसलिए आप को पनिशमैंट मिला है… ममा मैं ने कुछ नहीं किया… प्रौमिस,’’ कहते हुए उस की आंखें भर आईं.

‘‘बेटा, आप हमें बताओ… हम आप को कुछ नहीं कहेंगे.’’

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डा. संगीता के बारबार पूछे जाने पर निधि ने सचाई उगल दी. सचाई सुन कर निशा और डा.  संगीता अवाक रह गईं. एक स्विमिंग इंस्ट्रक्टर का ऐसा अमानवीय व्यवहार…

आगे पढ़ें- मैं ने अपने मोबाइल पर निधि का बयान रिकौर्ड कर लिया….

3 सखियां: भाग-1

आभा,शालिनी और रितिका पक्की सहेलियां थीं. स्कूल के दिनों से ही उन का साथ था. कालेज में भी वे नियमित रूप से एकदूसरे से मिलती रहती थीं. जब अल्हड़ उम्र की थीं तब अकसर उन की बातचीत का विषय होता लड़के. कालेज के लड़के, पासपड़ोस के लड़के, गलीमहल्ले के लड़के. फिर जब शादी की उम्र हुई तो भावी पति को ले कर अटकलें लगाई जाने लगीं.

‘‘भई तुम लोगों की मैं नहीं जानती,’’ शालिनी आह भर कर कहती, ‘‘पर मेरे साथ जो होने वाला है उसे मैं जानती हूं. जहां मेरी बी.ए. की पढ़ाई समाप्त हुई, मेरी शादी कर दी जाएगी. मेरे मातापिता तो दिन गिन रहे हैं. उन्होंने तो लड़का भी तलाश कर लिया है.’’

‘‘अरे ऐसे कैसे तेरी शादी कर देंगे? अच्छी जबरदस्ती है,’’ रितिका बोली.

‘‘लड़का कौन है? तेरी पसंद का है या नहीं?’’ आभा ने पूछा.

‘‘मेरी पसंद की परवा किसे है भई. कई साल से मेरी बूआ हमारे पीछे पड़ी हुई हैं अपने बेटे के लिए, शायद उसी से…’’

‘‘अरे तेरा कजन? यह तो कुछ अच्छा नहीं लगता. इतना करीबी रिश्ता, तुझे कुछ अटपटा नहीं लगता?’’

‘‘लगता तो है पर मेरी सुनने वाला कौन है? हम दक्षिण भारतीयों में भाईबहन के बच्चों की शादियां होती रहती हैं. इस में कोई बुराई नहीं समझी जाती है. फिर एक तो भतीजी बहू बन कर आती है, तो उस से लगाव होना स्वाभाविक है. वह परिवार में रचबस जाती है. और दूसरी बात यह कि दानदहेज का बखेड़ा नहीं.’’

‘‘हां एक तरह से यह भी ठीक ही लगता है,’’ आभा बोली, ‘‘पहचान की ससुराल हो तो इतमीनान रहता है. पर मुझे देखो, पिताजी इंटरनैट पर मेरे लिए जोरशोर से वर तलाश रहे हैं. जवाब में तरहतरह के नमूनों की अर्जियां आ रही हैं. उन के फोटो देखो तो किसी हीरो से कम नहीं लगते. और उन के विवरण पढ़ो तो लगता है सब के सब जीनियस हैं. एकाध को पिताजी बहुत आशान्वित हो कर देखने भी गए पर बहुत मायूस हो कर लौटे. मैं तो मन ही मन मना रही हूं कि मुझे शादी कर के अमेरिका न जाना पड़े. वहां घर और बाहर का काम करतेकरते तो मिट्टी पलीद हो जाती है और सालों बीत जाते हैं अपनों की शक्ल देखे. ऐसा लगता है जैसे अज्ञातवास कर रहे हों. मैं तो कहती हूं कि अमेरिका के डाक्टर या इंजीनियर के बजाय इंडिया में एक साधारण हैसियत वाले से ब्याह कर के रहना ज्यादा अच्छा है.’’

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‘‘क्या कह रही है तू?’’ रितिका ने उसे झिड़का, ‘‘भला अमेरिका जाने में क्या बुराई है? तुझ में जरा भी हौसला नहीं है. अरे यही तो उम्र है अपने खोल से निकल कर दुनिया देखने की, जगहजगह की सैर करने की. मैं तो इसी ताक में हूं कि कोई मालदार आसामी फंसे और मैं उस से ब्याह कर इंडिया को बायबाय बोल विदेश का रास्ता नापूं. फिर विदेश घूमूं, दुनिया के अजूबे देखूं, तरहतरह की चीजें खरीदूं और भांतिभांति के व्यंजन चखूं. ओह सोच कर ही बदन में झुरझुरी उठती है.’’

‘‘अपनाअपना नजरिया है,’’ आभा ने सर हिलाया, ‘‘मेरे विचार में लड़का अपनी पसंद का होना चाहिए. वह अमीर हो या गरीब उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. जहां मन न मिले उस व्यक्ति के साथ पूरा जीवन बिताना एक सजा से कम नहीं है. तू ही बता बिना प्यार के एक अजनबी के साथ बंध कर उम्र भर कलपने का क्या तुक है?’’

‘‘इतनी भावुक न बन मेरी बन्नो, जरा प्रौक्टिकल बन. पैसा बड़ी चीज है. बिना पैसे के जीना मुहाल हो जाता है. जब पेट भर खाना नसीब न हो तो प्यारव्यार सब धरा रह जाता है. अभाव की जिंदगी जीना भी क्या जीना? पैसा पास हो तो जिंदगी की हर खुशी, हर नेमत खरीदी जा सकती है. मैं तो यह चाहती हूं कि जीवनसाथी ऐसा हो जो मुझ पर अपनी दौलत निछावर करे. मुझे  जिंदगी की हर खुशी दे ताकि मैं जीवन भरपूर जी सकूं, गुलछर्रे उड़ाऊं. कल किस ने देखा है,’’ रितिका जोश से उस से बोली.

‘‘वह सब तो ठीक है,’’ शालिनी उदास भाव से बोली, ‘‘अच्छा घर व वर कौन लड़की नहीं चाहेगी भला, पर ये सब अपने बस में तो नहीं है न.’’

‘‘क्यों नहीं है. मैं ने तो तय कर लिया है कि मैं एयरलाइंस जौइन करूंगी. सैर की सैर होती रहेगी और एक मालदार पुरुष से मिलने का चांस भी मिलेगा. अगर तू चाहे तो मैं तुझे उन विमान सुंदरियों के नाम गिना सकती हूं जिन्होंने अमीरजादों को अपने प्रेमजाल में फंसाया और आज ऐशोआराम की जिंदगी बसर कर रही हैं,’’ रितिका ने उस से भी बड़े जोश से कहा.

‘‘जरूरत नहीं है उन सुंदरियों का नाम गिनाने की. हम तेरी बात पर विश्वास करती हैं. हम भी मानती हैं कि दुनिया में पैसे की बड़ी अहमियत है. पर दौलत के साथसाथ मनचाहा पति भी मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाए,’’ शालिनी बुझे मन से बोली. परीक्षा समाप्त होते ही शालिनी की शादी की तैयारियां होने लगीं. लेकिन ऐन वक्त पर उस के कजन ने शादी से मना कर दिया. शायद उस का किसी और लड़की से चक्कर चल रहा था. उस ने शालिनी के लिए अपने एक दोस्त का नाम सुझाया जो अमेरिका में नौकरी रहा था. फिर आननफानन शालिनी की शादी हो गई और वह अमेरिका के लिए रवाना हो गई. कुछ दिनों बाद आभा के लिए भी एक अच्छा वर मिल गया. इत्तफाक से वह भी अमेरिका में नौकरी करता था. सुनते ही आभा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मैं ने आप लोगों से एक ही शर्त रखी थी कि मैं ब्याह कर अमेरिका नहीं जाना चाहती और आप लोगों ने मेरी इतनी सी बात नहीं रखी,’’ उस ने आंसू बहाते हुए अपने मातापिता से कहा.

‘‘बेटी,’’ उन्होंने उसे समझाया, ‘‘यह तो संयोग की बात है. और चाहे वर अमेरिका में हो या कहीं और इस से क्या फर्क पड़ता है? पहली बात तो यह देखने की है कि वह तेरे योग्य है कि नहीं. हम ने इस लड़के के बारे में बहुत कुछ सुना है. लड़का क्या है हीरा है. ऐसा लड़का सब को नसीब नहीं होता. और तेरे मांबाप तेरा भला ही तो चाहते हैं. फिर आजकल तो जिसे देखो वही अमेरिका का रास्ता नाप रहा है और तू पगली है कि वहां जाने से घबरा रही है.’’ आभा की शादी के 1 साल बाद अचानक एक दिन उस के पास रितिका का फोन आया.

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मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-3

विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से क्वार्टर पाने की मुहिम तेज करते हुए पीडब्लूआई के सीनियर सिविल इंजीनियर के आगे अर्जी ले कर हाजरी दी.

बहुत व्यस्त इंसान, एक तरफ सरकार के घर कोई काम होता दूसरी ओर उन के घर में कोई नया वैभवविलास जुड़ जाता. यों करतेकरते एक मंजिल मकान अंदरूनी ठाठ के साथ तीन मंजिला विशाल बंगला तो बन ही चुका था, शहर के अंदरबाहर कई मालिकाना हस्ताक्षर थे उन के नाम. यानी बीसियों जगह उन की संपत्ति बिखरी पड़ी थी, तो स्वाभाविक ही था ऐसा इंसान उन्हें संभालने में व्यस्त रहेगा ही हरदम. खातेपीते चर्बी का प्रोडक्शन हाउस था उन का शरीर.

विहाग को इंजीनियर साहब ने बड़़े गौर से परखा. अनुभवी आंखों से कुछ क्षण स्कैन होता रहा विहाग का सर्वांग चेहरे से ले कर चप्पल तक. लड़का उन के हिसाब से जरा कम समझदार है. बोले, ‘‘तुम मेरे घर आओ, यहां बात नहीं हो सकती.’’

दूसरे दिन शाम को विहाग ने अपनी ड्यूटी का समय किसी दूसरे से बदल कर, ज्यादा दुरुस्त हो कर इंजीनियर साहब से कहे जाने वाले वाक्यों के विन्यासों पर मन ही मन नजर फरमा कर दरख्वास्त के कागजों के साथ उन के घर पहुंचा.

इंजीनियर उसे अपने आधुनिक सुसज्जित ड्राईंगरूम के गद्देदार सोफे पर बिठा कर अंदर चले गए. विहाग साभार धन्यवाद करते हुए कागजात की फाइल ले कर बैठा सामने दीवार पर टंगी घड़ी की सुई गिनने लगा. कभी सायास, कभी अनायास.

घड़ी दो घड़ी का कांटा जब घंटा भरभर का होने लगा और इंतजार नामुमकिन सा हो कर विहाग को बेबस करने लगा तब अंदर से परदा हटा कर एक गोरी सुंदर बहुत ही ज्यादा गोलमटोल मलाई में चुपड़ी सी मालपूए की काया वाली लगभग 30 वर्षीया बाला का पदार्पण हुआ. हाथ में उस के बड़ा सा ट्रे था जिस में सजे थे मनलुभावन मिठाइयां, नमकीन और शर्बत. विहाग सारे माजरे को भांप अंदर ही अंदर पसीने से तरबतर होने लगा.

क्वार्टर रिपेयर की बात कब होगी, कब रिपेयर शुरू होगा, कब वह शिफ्ट होगा और यह सब पिता द्वारा दी गई वैवाहिक वचन के रस्म के साथ कैसे तालमेल में सही बैठेगा.

इस बीच उस लड़की को फोन आया, उस ने ‘हां, हूं’ की और विहाग से लग कर बैठ गई. मनुहार के साथ उस की ओर मिठाईनमकीन की तश्तरियां एकएक कर आगे बढ़ाती रही.

इस कठपुतली नाच की डोर इंजीनियर साहब के उंगलियों में थी इस में अब विहाग कोे कोई शक नहीं था. वह सोफे के एक किनारे धंसा सा महसूस कर रहा था. जरा सी भी नानुकर से क्वार्टर का काम धरा रह जाएगा. इंजीनियर साहब न मुयायने के लिए कर्मचारी भेजेंगे, न रुपया सैंक्शन होगा, न मिस्त्री लगेंगे. फिर या तो अकेले खुद अपने हाथ से काई छीलो या फिर किराए के मकान में बीबी को ले कर बारबार उखड़ो और बसो. पौकेट पर वजन जो अलग आएगा उस का हिसाब तो कनाडा जाने वाले मांबाप को रखना नहीं है.

धर्मसंकट की घड़ी थी. बेमतलब बेवजह विहाग उस बाला से सवाल करता रहा ताकि अजीब सा लगने वाला यह वक्त कटे.

आखिर इंजीनियर साहब आए. इस हाथ ले, उस हाथ दे वाली मुखमुद्रा

बना कर सामने वाले सोफे पर धंस गए. बाला

की ओर उन्होंने देखा नहीं कि वह उठ कर खड़ी हो गई और जिधर से आई थी उधर ही विलीन

हो गई.

‘‘विहाग बाबू, इकलौती कन्या है, पढ़नेलिखने में मन नहीं था, मां इस की चल बसी थी, क्या कहें, सौतली मां से भी उसे सुख नहीं मिला, डिप्रैशन में रहती थी, ज्यादा ही खा पी गई.

लाडप्यार अब जो मैं ने दी तो घर का काम भी क्या करती, फिर मैं तो हीरे के सिंहासन में बिठा कर भेजूंगा उसे और आप जैसे हीरे के साथ रह कर बाकी तो सीख ही जाएगी. उम्र कुछ ज्यादा है, 30 की होने वाली है, लेकिन आप लोग इस जमाने के मौर्डन लड़के आप के लिए इन सब बातों का क्या मोल, तो मालिनी से आप की बात पक्की समझें?’’

‘‘सर मेरी अर्जी, वो क्वार्टर?’’ विहाग को बुक्का फाड़ कर रोने का मन हो रहा था, विहाग सा लड़का जिसे चाहिए एक आधुनिक सोच वाली धरती से जुड़ी लड़की, पढ़ीलिखी लेकिन गृहस्थी में रचीबसी बिलकुल तैयार गृहिणी. वह कल्पना के पंख से उड़े और जिंदगी को जोड़ने वाले तिनके दबा कर वापस आए, घर जोड़े, मन जोड़े, सप्रयास. यह मालपूए सी मालिनी जो हीरे के सिंहासन पर बैठ कर उस के घर (जो अब तक उखड़े प्लास्टर और काईयों का संगम ही था) आएगी और इस चर्बी के प्रोडक्शन हाउस के जरिए कठपुतली नाच नाचेगी. उस की बीबी बनेगी?

इंजीनियर ने दंभ से मुसकराते हुए कहा, ‘‘जिस घर में मेरी मालिनी जाएगी वह तुम्हारा जर्जर क्वार्टर नहीं होगा? तब तो मैं खुद उसे आलीशान घर दूंगा, जिस में तुम भी ऐश करोगे.’’

मुंह पर साफ कहने की आदत वाले विहाग की जबान ठिठक गई, गरम दिमाग विहाग को लगा कि एक चांटा रसीद दे उसे. जिस के लिए विलासिता के आगे मनुष्यता का पैमाना इतना छोटा है. लेकिन वक्त की कठिनाई उसे संयत रहने का हुनर सिखा रही थी.

‘‘सर, मैं वापस जा कर अपने पापा से बात करता हूं, उन्होंने एक जगह मेरी बात पक्की कर दी है, उन लोगों से भी बात करनी पड़ेगी. तब तक क्या मैं अपनी फाइल आप को दे जाऊं?’’

‘‘सीधी सी बात है, आप पापा से बात कर लें, और तब तक अपना कागज मेरे दफ्तर में फाइल की लाइन में लगा दें, जब इस शादी को हां हो जाए तो मुझे बता दीजिएगा, कोई कमी नहीं रहेगी, इतना कह सकता हूं.’’

सरकारी नियम कुछ भी हो, कुछ बातें विहाग के अख्तियार में तो नहीं थीं.

विहाग ने वापसी की. अब भी वह समझदार नहीं हुआ था, लेकिन समझ ही गया था. हफ्तेभर की नाइट ड्यूटी और कई दफा दिन की खलल वाली नींद के बाद वह एक मजदूर को ले कर क्वार्टर पर पहुंचा. इरादा था मजदूर के संग मिल कर क्वार्टर को घर बनाने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाना, मसलन काइयों और झड़े प्लास्टर के साथ मकड़जाल की सफाई. यानी अपने खुद के ठिकाने की तरफ एक कदम.

बरामदे में पहुंचते ही चौंकने की बारी थी, अंदर कोलाहल सा था, दरवाजा अधखुला. बैडरूम से ठहाकों और अश्लील गालीगलौज की आवाजें आ रही थीं. जुए की बाजी बिछाए 30 के आसपास के 4 पुरुष और 2 बार गर्ल की वेशभूषा में इन चारों के साथ चिपकी बैठी शातिराना मुसकान बिखेर रही 20-22 साल की लड़कियां.

विहाग के तनबदन में आग लग गई, परेशान हो कर पूछा, ‘‘भाई लोग आप सब यहां कैसे?’’

तुरंत बात खींच ली हो जैसे, उन में से

एक आदमी ने छूटते ही कहा, ‘‘बाबू चाबी सिर्फ आप के पास ही नहीं थी, एक चाबी अभी भी सरकारी दराज में थी,’’ सभी भौंड़े तरीके से

हंसने लगे.

‘‘क्या मतलब?’’विहाग क्रोधित भी था और भौंचक भी. तुरंत एक कारिंदे ने कहा, ‘‘ए लिली, जा बाबू को मतलब समझा.’’

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मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-1

फौरीतौर पर देखा जाए तो मुझ जैसी स्टाइलिश लड़की के लिए वह बंदा इतना भी दिलचस्प नहीं था कि मैं खयालों के दीए गढूं और उन्हें अपने दिल में जलाए फिरूं. मगर जिंदगी बड़ी दिलचस्प चीज है. हम एक पल जिसे झुठलाते हैं, उसे ही दूसरे पल कबूलते हैं.

 

2 साल पहले की बात है मेरे पापा होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते थे. अब तो उन की सेहत साथ नहीं देती, मगर एक समय था जब शहर में उन का बड़ा नाम था. रोज मरीज की लाइन लगी रहती थी. उस दिन मरीजों की कतार में एक दुबलापतला, लंबे कद वाला गेहूंए रंग का 26 वर्ष का लड़का बैठा था. हमारे 2 मंजिल के मकान के ऊपरी हिस्से में हमारा निवास था और नीचे पापा का क्लीनिक.

 

मैं उन दिनों एमबीए कर रही थी. उस दिन मुझे कालेज के लिए निकलना था. मैं ऊपर से नीचे आई. उसे मरीजों की लाइन में बैठा देखा. खैर, मैं अंदर पापा से कुछ कहने चली गई.

 

अभी मैं पापा से बात कर ही रही थी कि ये जनाब अंदर आए. पापा ने उसे कुछ ज्यादा ही इज्जत से बिठाया और मुझे रोक लिया. ‘‘देविका, ये विहाग हैं. हमारे यहां के नए स्टेशन मास्टर. पहली पोस्टिंग है. घरपरिवार से दूर हैं. अकेले हैं. तुम इन का साथ देना.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

‘‘तुम तो ट्रेन से कालेज जाती हो, इन से मिल कर मंथली पास बनवा लेना. मेरी इन से बात हो गई है.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

इस बीच उस ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं. उस की आंखों में एक अजीब सी खुमारी थी और होंठों पर लरजती सी मुसकान. मेरी सारी स्मार्टनैस गायब हो गई, ‘‘जी, जी’’ करती मैं बुत सी बनी रह गई.

 

अचानक बंदे ने पापा की ओर देख कर कहा, ‘‘सर कई दिनों से मुझे सर्दी है, रात को बंद नाक के मारे सो नहीं पाता. काफी कफ जमा है सीने में. हमेशा घरघर की आवाजें आती हैं.’’

 

मेरे पापा को शायद यह उम्मीद नहीं थी कि एक 23 साल की सुंदर, आकर्षक लड़की के सामने वह सर्दी और सीने में जमे कफ की बात करेगा. उन्हें आशा थी कि अपनी बीमारी की बात करने पापा ने जैसे ही दवा लिखने के लिए पैन उठाया मैं चुपचाप वहां से निकल आई. मेरे मन की तितलियों के पंख उस की सर्दी में लिपपुत कर औंधे मुंह गिर पड़े थे.

 

हां, मगर न, न कर के भी एक बात स्वीकार करती हूं. मैं उसे जबजब सोचती, होंठों पर खुद ही मुसकान आ जाती डायरी में कुछ लिखने की कोशिश करती, लेकिन, उफ, उस का चेहरा याद आते ही सर्दी की याद आ जाती. उस की घनी मूंछों की जब भी याद आती बंद नाक भी साथ सामने आ जाता. उस के शर्ट के जरा से खुले हुए बटन के नीचे से झांकता घना रेशमी जंगल मेरे दिल को ज्यों धड़काने को होता सीने में जमा उस का कफ मेरे इरादों को तहसनहस कर देता. मैं डायरी के हर पन्ने पर तारीख लिखती, आड़ीतिरछी रेखाएं बना कर डायरी बंद कर देतीं. रेखाएं थीं बेजुबान, वरना न जाने क्याक्या कह देती मेरे बारे में.

 

 

मेरे मन में उस की चाह ऐसी थी जैसे कोई पपीहा सूने और घने वन की किसी डाली

 

की एक अकेली सी फुनगी पर बैठ राग अलाप कर उड़ जाता हो और पीछे रह जाती हो बीहड़ की निस्तब्धता.

 

दिन बीते, मैं ने उसे भुलाने की कोशिश की. वैसे उस का आना भी अब काफी कम हो गया था. शायद उस की तबीयत अब ठीक थी.

 

मेरी शादी की बात अब जोर पकड़ने वाली थी, क्योंकि मुंबई से मुझे जौब औफर था. 30 साल की मेरी दीदी जिन्हें शादी से परहेज था, मां की मृत्यु के बाद हमारी मां बनी रहती और हमारे साथ रह कर ही नौकरी करती थी, मेरे मन की टोह लेने में लगी थी.

 

आखिर न, न करते मेरे चेहरे के भाव ने बड़ी रुखाई से बिना मेरी राय की परवाह किए मेरे दिल को साझा करने की गुस्ताखी कर ही डाली. दीदी ने मेरे मन की बात पापा तक पहुंचा दी थी.

 

अब विहाग की उपस्थिति सीधे हमारे डाइनिंग में दर्ज होने लगी. पापा की यही मर्जी थी. हर बार वह आता, मुसकरा कर बात करता और खापी कर चला जाता.

 

दिन निकल रहे थे, मेरे मुंबई जाने का दिन नजदीक आ रहा था, लेकिन इस शर्मीले मगर नीरस युवक से हम दिल की बात नहीं कह पाए. अंतत: पापा को कमर कसनी पड़ी और उन्होंने सीधे ही उस से मेरी शादी की बात पूछ ली.

 

मेरे खयाल से अन्य कोई भी युवक होता तो इतनी बार हमारे साथ डाइनिंग साझा करने के बाद मना करने में ठिठक जाता, कुछ सोचता और बाद में जवाब देने की बात कह कर महीनों टालता. हम इंतजार करते और वह मुंह छिपाने की कोशिश करता. मगर यह था ही अलग. कहा न, बंदे ने दिलचस्पी जगा दी थी.

 

खाना खा कर जाते वक्त पापा ने ज्यों ही पूछा तुरंत उस ने जवाब दे दिया. वह यहां शादी नहीं कर सकता था. वह ऐसी जगह शादी नहीं करेगा जहां उस का ससुराल नजदीक हो, ससुराल वालों के अत्यधिक संपर्क में रहना पसंद नहीं था उसे.

 

मैं डायरी को अपने कमरे के सब से ऊपरी ताक पर सीलन के हवाले कर मुंबई रवाना हो गई.

 

सालभर बाद मैं घर वापस आई. कुछ वजहों ने बहाने दिए और मेरी खामोश डायरी फिर ताक से उतर कर बोल पड़ी.

 

विहाग इस मध्यम आकार के शहर में स्टेशन मास्टर था. उस के मातापिता उज्जैन में रहते थे.

 

2 बहनें थीं जिन की शादी हो गई थी. ये छोटे थे और आत्मनिर्भर भी. 26 वर्षीय विहाग जब स्टेशन मास्टर के रूप में पदस्थापित हो कर आया तो उस ने इस छोटे से स्टेशन के सामने बने छोटेछोटे लेकिन सामान्य सुविधा युक्त एक कमरे, एक हौल वाले क्वार्टरों में से एक के लिए आवेदन दिया. क्वार्टर तो नहीं मिल पाया मगर वह शादीशुदा नहीं था तो एक सहकर्मी के सा िकिराये का मकान साझा कर रहने लगा.

 

यह साल 2013 था और नए नियुक्त इन लड़कों की तनख्वाह कुल मिला कर 25 हजार के आसपास थी. स्टेशन मास्टर की ड्यूटी अगर छोटे या मध्यम आकार के स्टेशन में होती तो स्टाफ की कमी की वजह से उन्हें 12 घंटे की ड्यूटी अकसर ही करनी पड़ती है. नाइट ड्यूटी तो आए दिन की आम बात थी. स्टाफ की कमी के कारण सप्ताह की एक छुट्टी भी मुश्किल थी. बारिश का मौसम हो, हाड़ कंपाती ठंड की रात बिना नागा ड्यूटी पर हाजिर होना ही पड़ता. छुट्टी की गुंजाइश तभी थी जब इंसान बीमार पड़ कर बिस्तर पकड़ ले.

 

आगे पढ़ें- बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-4

उन की तरफ के सारे लोग बेहूदगी से हंस पड़े और 2 लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से लिपट गईं. तुरंत उन में से किसी ने छोटा सा कैमरा निकाल लड़कियों के साथ विहाग की तसवीरें लेने की कोशिश की. विहाग ने बिना वक्त गंवाए उस के हाथ से कैमरा झपट कर जमीन पर दे पटका. चारों तैश में आ गए. मिल कर उन्होंने विहाग को उठा लिया और बरामदे से नीचे घास की तीखी झाडि़यों में फेंक दिया. विहाग सा सख्त जान अब कमजोर पड़ने लगा था. बाकायदा आंसू आ गए थे उस की आंखों

में. उठ कर सामने अपने स्टेशन के प्लेटफौर्म के एक किनारे लगे पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गया. थोड़ी देर आंखें बंद किए बैठा रहा, अंदरूनी कोलाहल ने उस की विचारने की शक्ति छीन

ली थी.

अचानक आंखें खुली तो सामने मुझे बैठ उसे अपलक निहारता देख वह दंग रह गया, ‘‘सोचा भी नहीं था न. मुंबई वाली नौकरी छोड़ अब पापा के पास ही आ गई हूं. दीदी के औफिस से उसे जापान भेजा गया है, लगभग 3 साल उसे वहां रहना है. पापा अकेले न पड़ें इसलिए मैं वापस आई. 4 स्टेशन बाद एक जगह नौकरी करती हूं. अभी ही ट्रेन से उतर कर तुम्हें यों बेहाल बैठा देख…’’

विहाग मेरे सानिध्य में जाने कैसे अपनी तकलीफ और चिंताएं भूलने सा लगा. कहीं सच के संदूक में अगर वह ताकझांक कर लेता तो अपने मन को वह पहले ही जान पाता.

‘‘क्या हुआ? क्यों उदास से अमावस के चांद बने बैठे हो?’’

विहाग असमंजस में था. एक ओर सुंदर शालीन उस के सामने देविका यानी मैं और मेरा प्रफुल्लित करने वाला सरल सानिध्य, तो दूसरी ओर जिंदगी की कशमकश.

इतने दिनों बाद मुझे देख कर विहाग को अच्छा ही नहीं, बल्कि काफी सुकून सा महसूस हुआ लेकिन तब भी विहाग तो विहाग ही था.

मुझ पर सामान्य सी नजर डालते हुए वह उठ खड़ा हुआ और जाने की रुत में खड़ाखड़ा पूछा, ‘‘और कैसी हो? शादी नहीं की अब तक?’’

‘‘नहीं, अरे कहां चले?’’

‘‘चलूंगा देविका आता हूं.’’

सचमुच यह आदमी, मैं भी भुनभुनाती हुई उठ खड़ी हुई.

किराए के कमरे में वापस आ कर वह सूनी आंखों से सूने छत की ओर

ताकता बिस्तर पर पड़ा रहा बेचैन. अचानक उस ने अपनी जरूरी नंबरों की डायरी निकाली, रोज के कुछेक संपर्क नंबर ही उस के हैंडसेट में रहते थे, जिस संपर्क की उसे तलाश थी उसे उस के बाबूजी ने तब दिया था जब उन्होंने उस की क्वार्टर की समस्या से पल्ला झाड़ कर उसे‘‘ससुराल वालों से बुझ लाइयो’’ के अंदाज में टरकाया था. धकधकाती सी छाती लिए उस ने फोन मिला लिया, तैयारी यह थी कि फोन पर जो भी मिलेगा उसे उस के मंगेतर रेवती से बात करवाने की अपील करेगा.

रिंग जाती रही, किसी ने उठाया नहीं. हार कर विहाग ने अपना सोचा हुआ त्याग दिया.

दूसरे दिन जब वह स्टेशन में ड्यूटी पर था टिकट काउंटर पर मैं पहुंची. विहाग को ड्यूटी पर देख पहले तो मैं बड़ी खुश हुई, पल में ही विहाग की मेरे प्रति विरक्ति की बात सोच उदास भी हो गई.

‘‘अभी तक मंथली पास नहीं बनवाया? रोजरोज किराया भरती हो?’’ मदद की इच्छा मन में दबाए विहाग ने अपना काम निबटाते हुए कहा.

‘‘इसी महीने से आनाजाना कर रही हूं

न,’’ विहाग की मेरे प्रति रुचि देख मुझे बड़ी तसल्ली हुई.

‘‘ये फार्म ले जाओ, वापसी में मेरी ड्यूटी तो खत्म हो जाएगी, तुम मेरा घर आ कर फार्म देना चाहो तो दे सकती हो, मेरे घर वैसे तुम्हारे घर से नजदीक ही पड़ेगा. मेरा फोन नंबर ले लो.’’

ढेर सारी कोयल की कूंकें मेरे सीने की अनजानी कंदराओं में चहचहा उठीं. बड़ी सी उम्मीद भरी मुसकान लिए मैं ने कहा, ‘‘नजदीक न भी होता तब भी देने आ जाती.’’ उस ने मेरी ओर एक नजर देख, बिना किसी प्रतिक्रिया के अपना काम देखने लगा. बुझी सी मैं फिर भी उस के चेहरे पर एक रोशनी देख रही थी. शाम 6 बजे तक मैं विहाग के कमरे में थी. कुछ देर पहले ही विहाग भी औफिस से लौटा था और सांझ वाली रसोई में अपनी चाय बना रहा था. इसी बीच मैं आ पहुंची और उस के बैडरूम में रखी कुरसी पर अपना आसन जमा लिया. चाय बनाते हुए ही वह रसोई से ही बात भी करने लगा और मुझे कमरे में ही बैठने को कहा. बात मसलन ऐसी हो रही थी कि यहां 5 कमरे हैं, जिन में 2-2 लोग कमरे साझा कर के रहते हैं. विहाग के कमरे का किराया कुछ ज्यादा है मगर अकेले रहने की सहूलियत पाने के लिए इतना सा ज्यादा देना वह पसंद करता है. पर अभी भी समस्या साझा रसोई की है ही, इतने लोगों के बीच 2 ही रसोई अनगिनत समझौतों की मुश्किलें पैदा करती है.

विहाग 2 कप चाय और प्लेट में नाश्ता रख जब तक रसोई से कमरे में मेरे पास आता कमरे में रखा विहाग का फोन बजा. स्क्रीन पर नंबर था, नाम नहीं. मैं ने फोन उठा कर ‘हैलो’ कहा ही था कि फोन कट गया.

‘‘कौन था?’’

‘‘पता नहीं, फोन उठते ही तो काट दिया.’’

विहाग ने नंबर देखा, रेवती या होने वाले ससुराल से था. विहाग इस वक्त शायद वहां फोन करना नहीं चाहता था. उस ने मुझ से ही धीरेधीरे बात करना जारी रखा. ‘‘एक बड़ी समस्या है. मुझे रेलवे क्वार्टर तो मिला है लेकिन रिपेयर करवाने की बड़ी समस्या आ गई है और अब तो गुंडों का भी कब्जा हो गया है, मेरे साथ बदसुलूकी भी की उन्होंने अब.’’

‘‘ओह, क्या तुम मुझे अपना क्वार्टर नंबर बता पाओगे? मैं कुछ कोशिश कर सकती हूं.’’

‘‘अच्छा? क्वार्टर रिपेयर का बहुत सा काम पड़ा है, अब मेरी तनख्वाह इतनी भी नहीं कि

मन पसंद रिपेयर करवा सकूं. बाहर किराए पर मकान लूं तो बारबार घर बदलने की उठापटक.

इसी वजह पीडब्लूआई के इंजीनियर के पास

गया था, लेकिन उस ने पहले तो अपनी बेटी मालिनी को मेरे सिर मढ़ने की कई तिकड़मे की, और बाद में क्वार्टर में गुंडे बिठा दिए. इधर

नौकरी की परेशानियां और अब तक रहने का सही इंतजाम नहीं.’’

मैं ने जरा टोह ली तो मालिनी से ही ब्याह… ‘‘मेरे इतना भर कहने से ही वह परेशान सा इधरउधर देखता बात घुमाने की कोशिश सी

करने लगा कि अचानक जैसे उस का मेरी कही बात पर ध्यान गया हो. चौंक कर पूछा, ‘‘तुम कुछ कर पाओगी?’’

मैं समझ गई महाशय बड़े मासूम से टैक्निकल हैं, इन का रोमांस जीने की जुगत से शुरू हो कर इसी में खत्म हो जाता है. अगर मैं उस की जिंदगी में आ पाई तो तेलनून में ही फूलों की खुशबू पैदा कर दूंगी.

मन की प्रसन्नता को छिपाते हुए और विहाग की सकारात्मकता को भांपते हुए मैं ने

कहा, ‘‘यह मेरे लिए आसान है, तुम मुझ पर

छोड़ दो.’’

‘‘क्या तुम्हारी कोई जानपहचान है? गुंडों को हटाना क्या आसान होगा?’’

‘‘तुम एक बार चाबी दे दो न, कोशिश

तो करूं.’’

‘‘समझा, लेकिन यह सरकारी काम है. विभाग से ही होना चाहिए थे, लेकिन फाइल तो कतार में लगी है, सब की अपनीअपनी भूख.’’

‘‘फाइलें कतार में पड़ी रहें तो क्या हम भी ऐसे ही पड़े रहें. इतनी बंदिशों में रहोगे तो समस्या से मुक्ति कैसे मिलेगी? थोड़ा और प्रैक्टिकल सोचो विहाग, बल्कि सोचना ही काफी नहीं जब तक किसी समस्या का समाधान हमें न मिले प्रयास करते ही रहना चाहिए.’’

आगे पढ़ें- अमूमन आम भारतीय पुरुषवादी सोच इस ओर घूम जाती है कि लड़की…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-2

ऐसी जद्दोजहद वाली ड्यूटी में स्टेशन से निवास स्थान की दूरी भी अच्छीखासी

परेशानी बन गई थी विहाग के लिए. बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर ड्यूटी जाने के कारण छोटी सी सर्दी भी दमा बन जाती थी. वापस आ कर खाना बनाओ, घर के काम भी संभालो और परिवार वाले उस के पास आने के लिए उसे अपना एक अकेले का मकान लेने को उतावला करें, सो अलग निबटो. खैर, विहाग की परेशानी किसी तरह बड़े साहब तक पहुंचाई गई और काफी लिखापढ़ी के बाद उस के नाम पर क्वार्टर आवंटित हुआ. विहाग झट से क्वार्टर देखने निकल पड़ा.

मध्यम आकार का चिरपरिचित रेलवे क्वार्टर.

क्वार्टर के सामने बगीचा बनाने लायक अच्छीखासी जमीन थी, लेकिन यह बिन फेंसिंग बाउंड्री वाल के पास उगे झाड़झंखाड़ तथा चूहों के बिल से पटी पड़ी थी.

आगे बढ़ते, आसपास झांकते हुए विहाग 4 ऊंची सीढि़यों से चढ़ते हुए बरामदे में पहुंचते ही बड़ीबड़ी म??????यह क्वार्टर सही मायनों में रहने लायक बनाने के लिए उस की भी हालत इन चूसे हुए कीड़ों सी हो जाएगी. व्यवस्था का मकड़जाल तो बल्कि उस से भी ज्यादा निर्मम है. खैर विहाग टोह लेता आगे बढ़ा और लकड़ी के खड़खड़ाते घुन लगे दरवाजे खोल अंदर गया. यह क्वार्टर करीबकरीब 2 साल से इस्तेमाल में नहीं था. विहाग से पहले इस स्टेशन में एक बुजुर्ग स्टेशन मास्टर बहाल थे, जो अपने घर से आ कर ड्यूटी बजाते. उन के रिटायरमैंट के बाद विहाग की नई पोस्टिंग थी. सो अब तक इस क्वार्टर को कोई पूछने वाला नहीं था.

कमरे में चारों ओर प्लास्टर उखड़ा पड़ा था, खिड़कीदरवाजे, टूटेफूटे नल, बदहाल

साफसफाई के सैकड़ों काम अलग मुंह चिढ़ा

रहे थे. विहाग ने उज्जैन वाले घर में खुद

अपनी पसंद का बाथरूम बनवाया था, एकएक सैटिंग आधुनिक.

उस ने बाथरूम का दरवाजा धकेला. दरकी हुई जमीन पर सूखी हुई काई का डेरा. पानी रखने का सीमेंटेड टैंक भी क्रैक. आंगन में दरारें आ चकी थीं और टैंक में भी कई क्रैक थे. घर में मुंह धोने को एक बेसिन तक नहीं. उज्जैन के अपने चुस्तदुरुस्त घर में रहने के आदी विहाग के लिए यहां रहना नामुमकिन था. उस ने ठान लिया कि शिफ्ट करने से पहले वह इस क्वार्टर को अपने मनमुताबिक ढालेगा. इसे आधुनिक सुविधासंपन्न करेगा, मगर कैसे? एक सुविधा संपन्न क्वार्टर के लिए इस समय खर्च तो 40 से 50 हजार का बैठता ही है. आए कहां से?

सरकार को अर्जी लगाने से ले कर उस के बनने में कम से कम 6 महीने तो आराम से लगेंगे तब भी इस से यह क्वार्टर नियमानुसार इतना ही सुधरेगा जैसे कि कोई नाकभौं सिकोड़ कर किसी नामुराद सी जगह में प्रवेश करता है और काम निबटा कर निकलते ही एक भरपूर सांस लेता है. यह विहाग का घर होगा या यह वह घर हो पाएगा जहां विहाग के छोटेछोटे सपने अंगड़ाइयां ले कर आएंगे?

अपनी नई सी गृहस्थी के फूलों वाले झूले पर अनुराग के मोती जड़ेंगे? सोच कर ही विहाग का मन उचट गया.

वह सपनों की दुनिया में खो नहीं जाता, हां, सपनों को हकीकत में बदलने के लिए वास्तव के धरातल पर कुछ ठोस कदम रखना जरूर जानता है.

तो वे कदम क्या हों जो उस की जायज मुरादों में जान फूंक दें? इस के पिताजी कुछ अलग किस्म के हैं, शायद एहसान जताने वाले कहना भी बहुत गलत नहीं होगा, विहाग उन की मदद किसी भी हाल में नहीं लेगा. रह गई बात उस की तो 25 हजार सैलरी में अभी उस के पास इतने तो हैं नहीं कि वह इस क्वार्टर को इस लायक बना ले कि शादी के बाद बीबी और उस के घरवालों के सामने वह सर उठा कर यह साबित कर दे कि स्टेशन मास्टर की नौकरी कोई ऐरेगैरे की नौकरी नहीं.

घूमफिर कर बात वही इंजीनियरिंग विभाग में अर्जी देने की आती है.

विहाग अगले दिन सुबह 6 से दोपहर 2 बजे की ड्यूटी पूरी कर सिविल इंजीनियरिंग सैक्शन में अर्जी ले कर पहुंचा. उम्मीद थी अपना परिचय देने पर यहां के कर्मचारी द्वारा तवज्जो से बात की जाएगी. लेकिन विहाग द्वारा अपना परिचय दिए जाने के बाद भी वे जिस तल्लीनता से फाइल में मुंह घुसाए मिले उस से विहाग को अंदाजा हो गया कि इन बाबुओं की जेबों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बड़ी तेज है और इस आकर्षण से जरूरत के मारे आगंतुकों की जेबों का बच पाना टेढ़ी

खीर है.

विहाग को यहां कई टेबल पर प्रवचन मिले तो कुछ टेबल पर प्रौपर चैनल से गुजर कर काम निकालने में लगने वाले समय की भयावहता का अंदाजा. इस तरह इस विभाग में 2 घंटे भटक कर भी नतीजा नहीं निकला. अब विहाग के पास नया काम था ‘‘मिशन क्वार्टर नंबर 5/2 बी’’.

चुपचाप रहने वाले लड़के की अब दिनचर्या बदल गई. ड्यूटी के बाद लोगों से वह मेलजोल बढ़ाता, संपर्क सूत्र ढूंढ़ता, जानकारी जुटाता, अपील करता और उदास होता रहता.

सर्दीजुकाम तो जबतब होता रहता है उसे, लेकिन अब उस का हमारे यहां आना नहीं के बराबर था.

घर से उसे उस के पिताजी का फोन आया था. उन्होंने एक लड़की देखी थी जो विहाग के

लिए माकूल यानी योग्य थी. विहाग को जल्द हां कहना था. हां कहने का कोई दूसरा विकल्प नहीं था, यह हां तो विवाह में वर के उपस्थित रहने की रजामंदी भर ही थी वरना विवाह तय ही था.

सरकारी नौकरी, पद नाम स्टेशन मास्टर. उस के पापा के अनुसार ग्रैजुएट लड़की से विवाह के लिए यह रुतबा सही था. बाकी विहाग जाने.

विहाग के लिए अपने पापा से बात करना जरूरी था. उस ने किया भी, ‘‘मुझे शादी करने में कोई आपत्ति नहीं, बल्कि मैं तो करना ही चाहता हूं, रोजरोज खाना बना कर ड्यूटी जाना अब दूभर हो चुका है. लेकिन ब्याह कर लाऊंगा तो रखूंगा कहां उसे? क्वार्टर मेरे खुद के पैर रखने की हालत में नहीं है.’’

‘‘मुझे यह सब मत सुनाओ, मकान किराए पर ले लो, तुम्हारे दायित्व से निबट कर हम दोनों तुम्हारी दीदी का घर संभालने कनाडा जाएंगे. रिटायरमैंट के बाद अब तक कहीं गया नहीं, सालभर वहां रुक कर छोटी के पास कैलिफोर्निया, उज्जैन का घर किराए पर चढ़ा कर आ रहे हैं, तुम्हारे लिए कुछ हिस्सा रखा रहेगा. 2 साल बाद जब लौटना होगा तब किराया खाली कराएंगे. शादी तय करने का इतना बड़ा काम हम ने कर दिया अब खुद संभालो.’’

‘‘शादी तो मैं भी कर लेता, ठौरठिकाने की सोचते तो बात ज्यादा भली न होती.’’ मन में सोच कर ही रह गया कोफ्त से भराभरा विहाग.

पिता ने सांत्वना के दो शब्द जोड़ते हुए कहा, ‘‘ज्यादा दिक्कत है तो लड़की के घर वालों से बात करो, मैं एक फोन नंबर दे दूंगा तुम्हें. हम ने बात पक्की कर ली है, इतना खयाल रखना.’’

फोन कट गया, विहाग भी समझ गया. बहस बेकार है, उस की मां भी जिंदगीभर

ऐसे दबंग पति के आगे गरदन झुकाने के सिवा कुछ कर नहीं पाई. वह भी तो उसी खेत की मूली है.

आगे पढ़ें- विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से …

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-5

पहली बार विहाग को दो कदम आगे सोचने वाला मिला था. अमूमन आम भारतीय पुरुषवादी सोच इस ओर घूम जाती है कि लड़की शादी से पहले इतनी तेज है तो शादी के बाद जरूर पति को गुलाम बना कर छोड़ेगी, विपरीत इस के विहाग काफी प्रसन्न था कि यह लड़की जिम्मेदारी उठाने में निसंकोच है. यह मिशन सिर्फ क्वार्टर का ही तो नहीं था, मिशन जीवन को एक सशक्त आधार देने के लिए ठोस संबल के चुनाव का भी था.

यद्यपि विहाग का मुझ पर इस काम को पूरा कर लेने के संबंध में विश्वास कम ही था, लेकिन अभी उस के पास सिवा इस के कोई चारा भी नहीं था कि वह इस मामले में मुझे अपना प्रयास कर लेने दे.

घर जा कर मैं ने अपने कालेज के दोस्त का नंबर ढूंढ़ा, जो रेलवे पुलिस बल में अधिकारी था. अच्छी बात थी कि इसी शहर में उस की पोस्टिंग थी. मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वह गुंडों को क्वार्टर से हटवाने में मेरी मदद करने को राजी तो हो गया लेकिन बात यह थी कि इस समय वह स्वयं कुछ व्यस्त और परेशान चल रहा था.

दरअसल उस की दूसरे राज्य में शादी तय हो गई थी, और उसे बारातियों के लिए ट्रेन में कोच बुक करना था, जिस में कुछ कानूनी बातें आड़े आ रही थी. मैं इन दोनों कामों के बीच सेतु बन गई और विहाग की मदद से उस दोस्त का काम और दोस्त की मदद से विहाग का काम करवा दिया. दोनों बेहद खुश हुए और विहाग के दिल में मेरे लिए एक अलग जगह बन गई.

सरकारी महकमे में बात पहुंचते ही सिविल विभाग से कुछ कर्मचारी मुयाएने को पहुंचे, फाइल निकाली गई और हफ्ते 10 दिन में रिपेयरिंग के लिए सैंक्शन भी आ पहुंचा. मोटे तौर पर रेलवे

की ओर से जो मरम्मत का काम हुआ उस से

कुछ हद तक घर रहने लायक बना ही, मैं भी अपने औफिस से छुट्टी ले कर और अपने पैसे की चिंता न कर घर के सौंदर्यीकरण पर जो दिल से लगी रही, इस से सरकारी क्वार्टर अब वाकई सपनों से सींचा स्वप्न महल बन गया था. बीचबीच में जब भी विहाग क्वार्टर आता मैं उस से उस की पसंद पूछना न भूलती, इस से विहाग को बड़ी तसल्ली होती.

मरम्मत के लिए साजोसामान से ले कर घर की फिटिंग और मिस्त्रियों से काम निकालने की कला तक में मैं ने जो छाप छोड़ी विहाग कायल हुए बिना नहीं रह सका.

बीती रात विहाग के पिताजी ने फोन किया था. कहा, ‘‘क्या बात है शादी से पहले तुम्हारे साथ कौन सी लड़की थी? रेवती को तुम ने फोन किया था, बाद में उस ने जब फोन किया तो किसी लड़की ने फोन उठाया?’’‘‘यह खबर इतनी बड़ी थी कि आप तक पहुंच गई.’’

‘‘तुम असली बात बताओ न. शादी से पहले किसी होने वाली पत्नी को यह अच्छा लगेगा क्या?’’

‘‘बुरा लगने से पहले उसे पता तो होना चाहिए कि बुरा लगने वाली बात थी भी या नहीं. ठीक है, जैसे उसे बिना जाने ही बुरा लगा और आप के पास मेरी स्थिति समझे बिना ही शिकायत चली गई, वैसे ही मैं भी बिना कुछ बताए इस रिश्ते में आगे न बढ़ पाने की अपनी असमर्थता जता रहा हूं, बता दीजिएगा.’’

विहाग के पापा तो चीख ही पड़े, अंदाजा ही नहीं था कि विहाग की इतनी हिम्मत हो जाएगी.

‘‘क्या बोल रहे हो, कुछ होश है.’’

विहाग को थोड़ी देर के लिए खुद पर आश्चर्य हुआ, कहीं इस हौंसले के पीछे मेरे प्यार की महीन सी अनुभूति तो नहीं थी. उसी रौ में कहा उस ने, ‘‘शादी में कोई समझौता नहीं पापा,यह आपसी समझ और पसंद की बात है, मुझे तब तो कोई लड़की नहीं मिली थी, जब उस ने फोन किया था, लेकिन अब बहुत ही हुनरमंद, जिम्मेदार, समझदार और खयाल रखने वाली लड़की मिल गई है और नि:संदेह मैं उसी से शादी करने वाला हूं.’’

‘‘इतनी हिम्मत मत दिखाओ, मैं बात कर चुका हूं.’’

‘‘आप मना कर दीजिए पापा, शादी सिर्फ आप की बात रखने के लिए नहीं करूंगा. बिना जाने ही जो शक कर ले उस के साथ आगे नहीं बढ़ूंगा. मेरे हिसाब से बीबी देविका जैसी होनी चाहिए, पति के हर काम में मददगार, जिम्मेदारी उठाने में समर्थ. शांत और सहज.’’

‘‘लड़की कहां की है?’’

‘‘इसी शहर की.’’

‘‘कहता था आसपास ससुराल पसंद नहीं.’’

‘‘जब लड़की भा गई तो ससुराल कहीं भी हो. फिर गैरजिम्मेदार लड़कियों का मायका नजदीक हो तो रिश्ते दरकने लगते हैं, देविका ऐसी नहीं है, उसे रिश्तों की समझ और परख दोनों हैं.’’

पापा ने फोन रख दिया था, यानी विहाग स्वतंत्र था.

और अंतत: मेरी संवाद कला ने वह समां बांध दिया कि विहाग के घरवालों का आशीष भी शहनाई के सुर में सरगम सा शामिल हो गया.

विवाह बाद नातेरिश्तेदारों के चले जाने से पसरी रिक्तता में चांदनी रात की स्वप्निल दूधिया रोशनी में आंगन वाले झूले पर बैठे हम दोनों एकदूसरे को अपलक देख रहे थे.

विहाग की आवाज शहद थी, कहा, ‘‘देविका.’’

चितवन की चपलता ने मेरा भी मधुकलश खोल दिया था, ‘‘हूं, कहो.’’

‘‘सर्दी लग जाएगी, बाहर ठंड बढ़ रही है और कल बिस्तर की चादर वगैरह धो लेना, नएपन की खुशबू से मुझे एलर्जी हो जाती है.’’

मुझे हंसी आ गई, मैं ने क्या उम्मीद की थी और यह विहाग. मैं ने उस का माथा

चूमते हुए कहा, ‘‘जरूर, मगर आज की रात कितनी खास है. क्या तुम मुझे और कुछ नहीं कहोगे.’’

विहाग को अपनी रूखी सी बात पर अफसोस हुआ, तृष्णा जड़ी दो स्वप्निल आंखों ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘चलोचलो, अंदर, यहां सर्दी लग जाएगी. अंदर जा कर सिर्फ कहूंगा ही नहीं…’’

ये बंदा बड़ा प्रैक्टिकल सा रोमांटिक है. थोड़ा बच्चा भी. सम्मोहित सी मैं मुसकरा कर उस के साथ चल पड़ी.

ज्ञानवर्धक पत्रिका

आजमुझे घर जाने की जल्दी थी. मैं ने अपनी 24 साल पुरानी श्रीमतीजी से मूवी दिखाने का वादा जो किया था. इन 24 सालों में यह मेरा 7वां वादा था जिसे मैं तनमनधन से पूरा करना चाहता था. जल्दीजल्दी सारा काम निबटा कर मैं बौस के कैबिन में गया और उन से घर जाने की अनुमति मांगी.

‘‘क्यों?’’ बौस ने गोली सी दागी.

‘‘जी… पत्नी को मूवी दिखाना है,’’ मैं हकला गया.

‘‘शादी की सालगिरह है क्या?’’

‘‘जी नहीं, शादी की 25वीं सालगिरह आने वाली है. इसलिए…’’

वे ठहाका मार कर के हंसे और फिर मुझे अनुमति मिल गई. मैं ने स्कूटर निकाला और फुल स्पीड पर चलाने लगा. मैं अपनी श्रीमतीजी का प्रसन्न चेहरा (जो कभीकभी ही देखने को मिलता था) मन में बसाए चला जा रहा था कि अचानक मेरी खुशी को बे्रक लग गया. टायर पंक्चर हो चुका था. जैसेतैसे स्कूटर घसीटता वर्कशौप तक लाया.

‘‘कितना समय लगेगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, लगभग 1 घंटा.’’

मेरा सारा जोश ठंडा हो गया. अब हम मूवी नहीं जा सकते थे. मरता क्या न करता, पास की दुकान पर पत्रिकाएं देखने लगा. सोचा अच्छी सी पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी को मना लूंगा. मैं ने पत्रिका ली और दुकान पर आ गया. थोड़ी देर में पंक्चर बन गया तो मन ही मन पत्नी को खुश करने के नएनए तरीके सोचता मैं घर चल दिया. घर पहुंचा तो डरतेडरते कमरे में प्रवेश किया. सामने का नजारा देखने लायक था. पलंग की चादर आधी ऊपर आधी नीचे झूल रही थी और तकियों की आधी रुई बाहर निकली हुई थी. इधरउधर नेलपौलिश की बिखरी टूटी शीशियां व लिपस्टिक, पाउडर अपनी कहानी अलग सुना रहे थे. मेरे कपड़े और श्रीमतीजी की साडि़यां भी इधरउधर बिखरी पड़ी थीं.

मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप उठा. अलमारी खोल कर देखी तो पाया कि बैंक से निकाले गए रुपए सुरक्षित थे. फिर मैं भगताभागता किचन में गया. वहां का तो हाल और भी बुरा था. पूरे किचन में उलटेसीधे पड़े जूठे, साफ बरतन, टूटी प्यालियां, इधरउधर बिखरी सब्जियां और सिंक से टपकता पानी. ऐसा लग रहा था जैसे भूकंप और बाढ़ साजिश रच कर एकसाथ हमारे घर आए हैं. हम बुद्धिमान थे, जल्दी ही समझ गए कि मूवी न देख पाने का क्रोध श्रीमतीजी ने घर पर उतारा है और यह उन के द्वारा किया गया अद्भुत इंटीरियर डैकोरेशन है. हम अपनी पत्नी की इस प्रतिभा के कायल हो गए.

डरतेडरते हम फैले सामान को समेट ही रहे थे कि काली का रूप धारण किए एक महिला मूर्ति ने प्रवेश किया. बिखरे बाल, लाल आंखें, हाथ में बेलन आदि… अभी हम इस दानवी रूप को पूरी तरह निहार भी नहीं पाए थे कि एक भयानक गर्जना सुनाई दी, ‘‘कितने बजे हैं?’’

आप भी पहचान गए न? जी हां ये हमारी प्राणप्रिया ही थीं.

‘‘वह मेरा स्कूटर…’’

‘‘भाड़ में जाओ तुम और साथ में तुम्हारा स्कूटर भी,’’ कहते हुए उन्होंने हमारा कौलर पकड़ कर झटका तो हम जमीन पर और हाथ की पत्रिका पलंग पर. वाह, पत्रिका ने तो कमाल ही कर दिया, हमें छोड़ कर वे पत्रिका पर झपटीं और उस का नाम पढ़ कर उन की आंखें चमक उठीं. वह था- करवाचौथ विशेषांक. वे पलटीं और बोलीं, ‘‘सुनो, हम ने माफ किया.’’

हम उन की इस अदा पर निढाल हो गए, ‘‘तो फिर चाय…’’ हम बोले तो वे बोलीं, ‘‘हांहां बरतन धो कर फटाफट बना लो और पास की दुकान से समोसे भी ले आना. तब तक मैं जरा इस पत्रिका के पन्ने पलट लूं.’’

और वह पत्रिका में ऐसे डूब गईं जैसे चाशनी में रसगुल्ला. अपनी गलती का फल तो मुझे ही भुगतना था, इसलिए शाम की चाय बनाने के साथ घर की सफाई भी मैं ने की और डिनर भी मैं ने ही बनाया. अगली सुबह मैं बिना नाश्ता किए ही औफिस चला गया. वे देर रात तक पत्रिका पढ़ने के कारण सो रही थीं. शाम को श्रीमतीजी हमें दरवाजे पर ही मिल गईं और बोलीं, ‘‘चाय लौट कर पीना अभी हम बाजार चल रहे हैं.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘पत्रिका में लिखे अनुसार हमें साड़ी, चूड़ी, मेकअप का सामान, ज्वैलरी आदि लानी है.’’

एक ही दिन में हम लुट चुके थे. यही नहीं 2 दिन की छुट्टी ले कर श्रीमतीजी को पार्लर भी ले जाना पड़ा. आखिर करवाचौथ का वह सुहाना दिन आ ही गया. मैं ने सोचा आज के मुख्य अतिथि तो हम ही हैं. लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? उस दिन सुबह श्रीमतीजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘सुनो, दूध गरम कर लेना और अपनी चाय के साथ मेरी भी बना लेना.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो निर्जल व्रत है.’’

‘‘इस बार नहीं है. पत्रिका में लिखा है कि शारीरिक रूप से कमजोर होने पर आप चायदूध ले सकते हैं और हां, दोपहर को मुझे दूध गरम कर के दे देना, उस के बाद मैं नहा लूंगी.’’

हम ने अपनी श्रीमतीजी के भारीभरकम कमजोर शरीर को देखा और किचन में चल दिए. लंच के लिए हम बेफिक्र थे कि उसे तो श्रीमतीजी बना ही लेंगी, लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? लंच के वक्त श्रीमतीजी दोनों हाथों में मेहंदी लगाए नए फरमान के साथ खड़ी थीं, ‘‘हम पैरों में मेहंदी लगवा रहे हैं, इसलिए लंच में तुम कुछ भी उलटासीधा खा लेना. हम ये सारी मेहनत आप के लिए ही तो कर रहे हैं.’’

कुछ बनाने की हिम्मत अब हमारे अंदर नहीं थी, इसलिए हम ने व्रत रखना ही उचित समझा. अभी पत्रिका के कुछ पन्ने शेष थे, अत: उस के अनुसार हम शाम को श्रीमतीजी को पार्लर ले कर गए. वहां ब्यूटीशियन ने 4,000 का चूना लगा कर श्रीमतीजी को देखने लायक खूबसूरत बना ही दिया. पानी में हाथ डालने से मेहंदी खराब न हो इसलिए डिनर भी बाहर ही किया. गिफ्ट में हमें सोने की अंगूठी भी देनी पड़ी क्योंकि सोना गिफ्ट में देने से पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, यह भी पत्रिका में लिखा था. अब हमें पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी प्रसन्न करने के अपने विचार पर बहुत अफसोस हो रहा था और इस के पहले श्रीमतीजी पत्रिका के बाकी पन्ने पढ़ कर हमारी ऐसीतैसी करतीं, हम ने इस प्रण के साथ लाइट बंद कर दी कि गिफ्ट में श्रीमतीजी को जान भले ही दे दूं पर पत्रिका कभी नहीं दूंगा.

फीनिक्स: भाग-3

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कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

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‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

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पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

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