अटूट बंधन: भाग-4

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

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‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

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‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

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अटूट बंधन: भाग-2

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

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रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

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दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

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तालमेल: भाग-2

आप मेरे रहने न रहने की परवाह मत करिए जीजाजी, बस जब फुरसत मिले ऋतु को कंपनीदे दिया करिए.’’

घर में वैसी ही महक थी जैसी कभी रचना की रसोई से आया करती थी. ऋतु डब्बा ले कर आई ही थी कि तभी घंटी बजी.

‘‘लगता है ड्राइवर आ गया.’’

गोपाल ने बढ़ कर दरवाजा खोला और ऋतु से डब्बा ले कर ड्राइवर को पकड़ा दिया.

‘‘खाने की खुशबू से मुझे भी भूख लग आई है ऋतु.’’

‘‘आप डाइनिंगटेबल के पास बैठिए, मैं अभी खाना ला रही हूं,’’ कह ऋतु ने फुरती से मेज पर खाना रख दिया. राई और जीरे से

बघारी अरहर की दाल और भुनवा आलू, लौकी का रायता.

‘‘आप परोसना शुरू करिए जीजाजी,’’ उस ने रसोई में से कहा, ‘‘मैं गरमगरम चपातियां ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम भी आओ न,’’ गोपाल ने चपातियां रख कर वापस जाती ऋतु से कहा.

‘‘बस 1 और आप के लिए और 1 अपने लिए और चपाती बना कर अभी आई. मगर आप खाना ठंडा मत कीजिए.’’

‘‘तुम्हें यह कैसे मालूम कि मैं बस 2 ही चपातियां खाऊंगा?’’ गोपाल ने ऋतु के आने के बाद पूछा, ‘‘और भी तो मांग सकता हूं?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. चावल के साथ आप 2 से ज्यादा चपातियां नहीं खाते और अरहर की दाल के साथ चावल खाने का मोह भी नहीं छोड़ सकते. मुझे सब पता है जीजाजी,’’ ऋतु ने कुछ इस अंदाज से कहा कि गोपालसिहर उठा. वाकई उस की पसंद के बारे में ऋतु को पता था. खाने में बिलकुल वही स्वाद था जैसा रचना के बनाए खाने में होता था. खाने के बाद रचना की ही तरह ऋतु ने अधभुनी सौंफ भी दी.

गोपाल ने कहना चाहा कि रचना के जाने के बाद पहली बार लगा है कि खाना खाया है, रोज तो जैसे जीने के लिए पेट भरता है. और जीना तो खैर है ही मनु के लिए, पर कह न पाया.

‘‘टीवी देखेंगे जीजाजी?’’

तो ऋतु को मेरी खाना खाने के बाद थोड़ी देर टीवी देखने की आदत का भी पता है, सोच गोपाल बोला, ‘‘अभी तो घर जाऊंगा साली साहिबा. स्वाद में ज्यादा खा लिया है. अत: नींद आ रही है.’’ हालांकि खाते ही चल पड़ना शिष्टाचार के विरुद्ध था, लेकिन न जाने क्यों उस ने ज्यादा ठहरना मुनासिब नहीं समझा.

‘‘आप अपनी नियमित खुराक से कभी ज्यादा कहां खाते हैं जीजाजी, मगर नींद आने वाली बात मानती हूं. कल भी आधी रात तक रोके रखा था हम ने आप को.’’

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‘‘तो फिर आज जाने की इजाजत है?’’

‘‘इस शर्त पर कि कल फिर आएंगे.’’

‘‘कल तो हैड औफिस यानी दिल्ली जा रहा हूं.’’

‘‘कितने दिनों के लिए?’’

‘‘1 सप्ताह तो लग ही जाएगा… आ कर फोन करूंगा.’’

‘‘फोन क्या करना स्टेशन से सीधे यहीं आ जाइएगा. सफर से आने के बाद पेट भर घर का खाना खा कर आप कुछ देर सोते हैं और फिर औफिस जाते हैं. आप बिना संकोच आ जाना. मैं तो हमेशा घर पर ही रहती हूं गोलू जीजाजी.’’

गोपाल चौंक पड़ा. रचना उसे गोलू कहती थी यह ऋतु को कैसे मालूम, लेकिन प्रत्यक्ष में उस की बात को अनसुना कर के वह विदा ले कर आ गया. घर आ कर भी वह इस बारे में सोचता रहा. रचना कभी भी कुंआरी ऋतु से अपने

पति के बारे में बात करने वाली नहीं थी. उस का और ऋतु का परिवार एक सरकारी आवासीय कालोनी के मकान में ऊपरनीचे रहता था. मनु तो ज्यादातर ऋतु की मम्मी के पास ही रहता था. रचना भी उस के औफिस जाने के बाद नीचे चली जाती थी और जिस रोज ऋतु के पापा उस के औफिस से लौटने के पहले आ जाते थे तो उसे अपने पास ही बरामदे में बैठा लेते थे, ‘‘यहीं बैठ जाओ न गोपाल बेटे, तुम्हारे बहाने हमें भी एक बार फिर चाय मिल जाएगी.’’

छुट्टी के रोज अकसर सब लोग पिकनिक पर या कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने जाते थे. कई बार रचना के यह कहने पर कि आंटीजी और ऋतु फलां फिल्म देखना चाह रही हैं, वह किराए पर वीसीआर ले आता था और ऋतु के घर वाले फिल्म देखने ऊपर आ जाते थे. ऋतु का आनाजाना तो खैर लगा ही रहता था. दोनों में थोड़ीबहुत नोकझोंक भी हो जाती थी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसे देख कर लगे कि

ऋतु उस में हद से ज्यादा दिलचस्पी ले रही है. तो फिर अब और वह भी शादी के बाद ऋतु ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है? माना कि राहुल व्यस्त है और नवविवाहिता ऋतु के साथ उतना समय नहीं बिता पा रहा जितना उसे बिताना चाहिए, लेकिन वह ऋतु की अवहेलना भी तो नहीं कर रहा? ऋतु को समझना होगा और वह भी बगैर उस से मिले.

गोपाल दिल्ली से 2 दिन बाद ही लौट आया, मगर उस ने ऋतु से संपर्क नहीं किया. 1 सप्ताह के बाद ऋतु को फोन किया.

‘‘आप कब आए जीजाजी?’’

‘‘कल रात को.’’

‘‘तो फिर आप घर क्यों नहीं आए? मैं ने कहा था न,’’ ऋतु ठुनकी.

‘‘रात के 11 बजे मैं सिवा अपने घर के कहीं और नहीं जाता,’’ उस ने रुखाई से कहा.

‘‘यह भी तो आप ही का घर है. अभी आप कहां हैं?’’

‘‘औफिस में.’’

‘‘वह क्यों? टूर से आने के बाद आराम नहीं किया?’’

‘‘रात भर कर तो लिया. अभी मैं एक मीटिंग में जा रहा हूं ऋतु. तुम से फिर बात करूंगा,’’ कह कर फोन बंद कर दिया.

शाम को ऋतु का फोन आया, मगर उस ने मोबाइल बजने दिया. कुछ देर के बाद फिर ऋतु ने फोन किया, तब भी उस ने बात नहीं की.मगर घर आने पर उस ने बात कर ली.

‘‘आप कौल क्यों रिसीव नहीं कर रहे थे जीजाजी?’’ ऋतु ने झुंझलाए स्वर में पूछा.

‘‘औफिस में काम छोड़ कर पर्सनल कौल रिसीव करना मुझे पसंद नहीं है.’’

‘‘आप अभी तक औफिस में हैं?’’

‘‘हां, दिल्ली जाने की वजह से काफी काम जमा हो गया है. उसे खत्म करने के लिए कई दिनों तक देर तक रुकना पड़ेगा.’’

‘‘खाने का क्या करेंगे?’’

‘‘भूख लगेगी तो यहीं मंगवा लेंगे नहीं तो घर जाते हुए कहीं खा लेंगे.’’

‘‘कहीं क्यों यहां आ जाओ न जीजाजी.’’

‘‘मेरे साथ और भी लोग रुके हुए हैं ऋतु और हम जब इकट्ठे काम करते हैं तो खाना भी इकट्ठे ही खाते हैं. अच्छा, अब मुझे काम करने दो, शुभ रात्रि.’’

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उस के बाद कई दिनों तक यही क्रम चला और फिर ऋतु का फोन आया कि चंडीगढ़ से पापा आए हुए हैं और आप से मिलना चाहते हैं. अंकल से मिलने का लोभ गोपाल संवरण न कर सका और शाम को उन से मिलने ऋतु के घर गया. कुछ देर के बाद ऋतु खाना बनाने रसोई में चली गई.

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मां जल्दी आना: भाग-2

इसे पता भी है कि कितने बलिदानों के बाद हम ने इसे पाया है. क्याक्या सपने संजोए थे बहू को ले कर, इस ने एक बार भी नहीं सोचा हमारे बारे में. बाबूजी शायद मामले की गंभीरता को भांप नहीं पाए थे या अपने बेटे पर अतिविश्वास को सो वे मां को दिलासा देते हुए बोले, ‘‘मैं समझाऊंगा उसे, बच्चा है, समझ जाएगा. सब ठीक हो जाएगा. यह सब क्षणिक आवेश है. मेरा बेटा है अपने पिता की बात अवश्य मानेगा.’’

मां को भी बाबूजी की बातों पर और उस से भी ज्यादा अपने बेटे पर भरोसा था. सो बोलीं, ‘‘हां तुम सही कह रहे हो मुझे लगता है मजाक कर रहा होगा. ऐसा नहीं कर सकता वह. हमारे अरमानों पर पानी नहीं फेरेगा हमारा बेटा.’’

चूंकि अगले दिन अनंत वापस दिल्ली चला गया था सो बात आईगई हो गई पर अगली बार जब अनंत आया तो बाबूजी ने एक लड़की वाले को भी आने का समय दे दिया. अनंत ने उन के सामने बड़ा ही रूखा और तटस्थ व्यवहार किया और लड़की वालों के जाते ही मांबाबूजी पर बिफर पड़ा.

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‘‘ये क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने, जब मैं ने आप को बता दिया कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और शादी भी उसी से करूंगा फिर इन लोगों को क्यों बुलाया. वह मेरे साथ मेरे ही औफिस में काम करती है. और यह रही उस की फोटो,’’ कहते हुए अनंत ने एक पोस्टकार्ड साइज की फोटो टेबल पर पटक दी.

अपने बेटे की बातों को किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी सुन रहीं मां ने लपक कर टेबल से फोटो उठा ली. सामान्य से नैननक्श और सांवले रंग की लड़की को देख कर उन की त्यौरियां चढ़ गईं और बोलीं, ‘‘बेटा ये तो हमारे घर में पैबंद जैसी लगेगी. तुझे इस में क्या दिखा जो लट्टू हो गया.’’

‘‘मां मेरे लिए नैननक्श और रंग नहीं बल्कि गुण और योग्यता मायने रखते हैं और यामिनी बहुत योग्य है. हां एक बात और बता दूं कि यामिनी हमारी जाति की नहीं है,’’ अनंत ने कुछ सहमते हुए कहा.

‘‘अपनी जाति की नहीं है मतलब???’’ बाबूजी गरजते स्वर में बोले.

‘‘मतलब वह जाति से वर्मा हैं’’ अनंत ने दबे से स्वर में कहा.

‘‘वर्मा!!! मतलब!! सुनार!!! यही दिन और देखने को रह गया था. ब्राह्मण परिवार में एक सुनार की बेटी बहू बन कर आएगी… वाहवाह इसी दिन के लिए तो पैदा किया था तुझे. यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया. मुझे यह शादी कतई मंजूर नहीं,’’ बाबूजी आवेश और क्रोध से कांपने लगे थे. किसी तरह मां ने उन्हें संभाला.

‘‘तो ठीक है यह नहीं तो कोई नहीं. मैं आप लोगों की खुशी के लिए आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’ अनंत अपना फैसला सुना कर घर से बाहर चला गया था. उस दिन न घर में खाना बना और न ही किसी ने कुछ खाया. प्रतिपल हंसीखुशी से गुंजायमान रहने वाले हमारे घर में ऐसी मनहूसियत छाई कि सब के जीवन से उल्लास और खुशी ने मानो अपना मुंह ही फेर लिया हो. विवाहित होने के बावजूद हम बहनों को भी इस घटना ने कुछ कम प्रभावित नहीं किया. मांबाबूजी का दुख हम से देखा नहीं जाता था और भाई अपने पर अटल था पर शायद समय सब से बड़ा मरहम होता है. कुछ ही माह में पुत्रमोह में डूबे मांबाबूजी को समझ आ गया था कि अब उन के पास बेटे की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. जिस घर की बेटियों को उन की मर्जी पूछे बगैर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया था उस घर में बेटे की इच्छा का मान रखते हुए अंतर्जातीय विवाह के लिए भी जोरशोर से तैयारियां की गईं.

अनंत मांबाबूजी की कमजोर नस थी सो उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. खैर गाजेबाजे के साथ हम सब यामिनी को हमारे घर की बहू बना कर ले आए थे. सांवली रंगत और बेहद साधारण नैननक्श वाली यामिनी गोरेचिट्टे, लंबे कदकाठी और बेहद सुंदर व्यक्तित्व के स्वामी अनंत के आसपास जरा भी नहीं ठहरती थी पर कहते हैं न कि ‘‘दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज है?’’

एक तो बड़ा जैनरेशन गैप दूसरे प्रेम विवाह तीसरे मांबाबूजी की बहू से आवश्यकता

से अधिक अपेक्षा, इन सब के कारण परिवार के समीकरण धीरेधीरे गड़बड़ाने लगे थे. बहू के आते ही जब मांबाबूजी ने ही अपनी जिंदगी से अपनी ही पेटजायी बेटियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था तो बेटेबहू के लिए तो वे स्वत: ही महत्वहीन हो गई थी. कुछ ही समय में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे.

अनंत और उस की पत्नी यामिनी को परिवार के किसी भी सदस्य से कोई मतलब नहीं था. कुछ समय पूर्व ही यामिनी की डिलीवरी होने वाली थी तब मांबाबूजी गए थे अनंत के पास. नवजात पोते के मोह में बड़ी मुश्किल से एक माह तक रहे थे दोनों तभी अनंत ने मुझ से उन्हें वापस भोपाल आने का उपाय पूछा था. मैं ने भी येनकेन प्रकारेण उन्हें दिल्ली से भोपाल वापस आने के लिए राजी कर लिया था.

अभी उन्हें आए कुछ माह ही हुए थे कि अचानक एक दिन बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा और वे इस दुनिया से ही कूच कर गए पीछे रह गई मां अकेली. लोकलाज निभाते हुए अनंत मां को अपने साथ ले तो गया परंतु वहां के दमघोंटू वातावरण और यामिनी के कटु व्यवहार के कारण वे वापस भोपाल आ गईं और अब तो पुन: दिल्ली जाने से साफ इंकार कर दिया. सोने पे सुहागा यह कि अनंत और यामिनी ने भी मां को अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. मनुष्य का जीवन ही ऐसा होता है कि एक समस्या का अंत होता है तो दूसरी उठ खड़ी होती है.

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अचानक एक दिन मां बाथरूम में गिर गईं और अपना हाथ तोड़ बैठीं. अनंत ने इतनी छोटी सी बात के लिए भोपाल आना उचित नहीं समझा बस फोन पर ही हालचाल पूछ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. दोनों बड़ी बहनें तो विदेश में होने के कारण यूं भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थीं. बची मैं सो अनंत का रुख देख कर मेरे अंदर बेटी का कर्त्तव्य भाव जाग उठा. फ्रैक्चर के बाद जब मां को देखने गई तो उन्हें अकेला एक नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आने की मेरी अंतआर्त्मा ने गवाही नहीं दी और मैं मां को अपने साथ मुंबई ले कर आ गई. मैं कुछ और आगे की यादों में विचरण कर पाती तभी मेरे कानों में अमन का स्वर गूंजा.

आगे पढ़ें- मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और…

अधूरी कहानी: भाग-3

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कहानी- नज्म सुभाष

अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा… वाह माधवी वाह… मधुमालती से माधवी बन गई तुम, केवल नाम बदल दिया… मगर स्त्रीत्व… उसे कैसे बदलोगी? अगर तुम उसे नहीं जानती तो फिर तुम्हारे गले में मंगलसूत्र, मांग में लगा सिंदूर किसलिए और किस के लिए? उतार फेंको यह मंगलसूत्र, पोंछ डालो सिंदूर… अरुण कुमार के नाम के ये बंधन भी किसलिए? लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती… भले ही ऊपर से चाहे जो कुछ कहो माधवी, लेकिन तुम्हारा मन क्या कभी उसे भूला… नहीं कभी नहीं… तुम्हारी गजलों में मुखर पीड़ आखिर किस की है? फिर तुम ने उसे पहचानने से कैसे इनकार कर दिया?

‘‘चुप हो जाओ… मैं अब कुछ भी नहीं सुन सकती,’’ वह चीखते हुए रो पड़ी.

उस की चीख सुन कर अदिति जग गई. किसी तरह सम झाबु झा कर उस ने फिर से सुला दिया. लेकिन खुद न सो सकी… पुराने दिनों की यादें उस के जेहन को मथती रहीं…

रात का करीब 1 बज रहा था जब फोन की घंटी घनघना उठी. वैसे तो वह सोई नहीं थी, किंतु उस का मन फोन उठाने का नहीं था, लेकिन घंटी जब काफी देर तक बजती रही तो उसे फोन उठाना पड़ा.

‘‘हैलो, कौन?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं निर्मल बोल रहा हूं, उधर से खोईखोई सी आवाज आई.’’

‘‘इतनी रात गए सर… सर सब ठीक तो है न?’’ उस ने बड़ी हैरत से पूछा.

‘‘मैं जो कुछ पूछ रहा हूं सचसच बताना. क्या आप अरुण कुमार को जानती हैं?’’

उस के कानों में जैसे विस्फोट हुआ… लेकिन जल्द ही संभल कर बोली, ‘‘आज इतनी रात गए आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘पहले यह बताओ उसे जानती हो या नहीं?’’

‘‘हां… कभी मेरे पति हुआ करते थे,’’ ‘थे’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया.

‘‘करते नहीं थे, आज भी हैं, क्योंकि तुम दोनों का तलाक नहीं हुआ है.’’

‘‘मगर सर बात क्या है?’’

‘‘शायद अब वे जिंदा न बचें. कल जब वे तुम्हारे घर आए थे तो तुम ने दरवाजा नहीं खोला. काफी देर तक वहीं बैठे रहे, मगर दरवाजा नहीं खुला. फिर वे इसी उम्मीद में बारबार घर की तरफ देखते हुए बढ़ रहे थे. अचानक सड़क पर जा रहे एक ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस वक्त शकीरा नर्सिंगहोम में जिंदगी और मौत के बीच सांसें गिन रहे हैं. डाक्टरों ने उन के बचने की आशा छोड़ दी है. वे एक बार आप से मिलना चाहते हैं.’’

‘‘मगर आप को ये सब कैसे पता चला?’’ उस की आवाज रुंध गई थी.

‘‘दरअसल, आप प्रोग्राम से बिना बताए ही रोते हुए चली गईं. फिर वे भी आप के पीछेपीछे भागे. मु झे कुछ शक हुआ, क्योंकि जब भी तुम्हारा इस नाम से सामना होता तुम बेचैन हो जाती थीं. बस इन्हीं सब बातों की याद आते ही मैं भी गाड़ी से उन के पीछे लग लिया. तुम्हारे घर के पास आ कर वे उतर गए. तब तक तुम घर के अंदर जा चुकी थीं और मैं थोड़ी दूर खड़ा प्रतीक्षा करने लगा. बाद में जब वे सड़क पर आए तो ऐक्सीडैंट हो चुका था. मैं उन्हें अपनी गाड़ी से नर्सिंगहोम ले आया. डाक्टरों का कहना है कि उन का बचना मुश्किल है.’’

‘‘मैं…मैं… अभी पहुंचती हूं,’’ रिसीवर रख दिया था उस ने.

माधवी ने एक नजर मंगलसूत्र पर डाली, जिस की एक लड़ी टूट चुकी थी. उस में जरा भी आभा न थी… अभी कुछ देर पहले तक चमकने वाला मंगलसूत्र अब कांतिहीन हो गया था. उस ने जल्दी से बेटी को जगाया… थोड़ी ही देर में गाड़ी नर्सिंगहोम की तरफ चल पड़ी.

‘‘मम्मी, इतनी रात को हम कहां जा रहे हैं?’’ बेटी ने पूछा.

‘‘तुम्हारे पापा से मिलने.’’

‘‘ झूठ…  झूठ… आप तो हमेशा कहती थीं कि पापा कहीं खो गए हैं,’’ वह जोर से चिल्लाई.

‘‘हां कहती थी, मगर आज मिल गए हैं.’’

‘‘तो क्या अब वे हमारे साथ रहेंगे?’’

‘‘हां… शायद.’’

‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा,’’ बेटी खुश थी.

‘‘हां, लेकिन अभी चुप रहो. मेरे सिर में दर्द हो रहा है.’’

ज्यों ही वह शकीरा नर्सिंगहोम पहुंची, सामने निर्मलजी दिख गए, जो बाहर बैंच पर बैठे ऊंघ रहे थे. पदचाप की आवाज सुन कर उन्होंने आंखें खोलीं. पूछा, ‘‘आ गईं तुम… मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था.’’

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‘‘कहां हैं वे?’’ उस ने पूछा.

‘‘इमरजैंसी वार्ड में हैं… जा कर मिल लो. सामने वाला कमरा है,’’ उन्होंने इशारा किया.

वह जल्दी उस कमरे में पहुंची. बेटी भी साथ थी.

सामने बैड पर पड़े जिस्म को देख कर सिहर उठी. पूरा शरीर खून से लथपथ था. माधवी को देख कर उस ने उठना चाहा, लेकिन माधवी ने हाथ के सहारे से लिटा दिया.

‘‘यह क्या… हा… ल बना लिया तुम ने?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘सब मेरे कर्मों का परिणाम है… जो जुल्म मैं ने तुम पर ढाए यह उन्हीं का प्रतिफल है. मु झे इस सजा पर कोई आपत्ति नहीं है. अब तो बस चंद सांसें बची हैं. मैं चाहता वे भी तुम्हारे सामने टूट जाएं,’’ बोलते हुए उस ने आह भरी.

‘‘नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा… मैं…मैं बचाऊंगी तुम्हें.’’

‘‘अब मु झे कोई भी नहीं बचा सकता,’’ फिर अचानक अदिति पर नजर पड़ते ही इशारे से पूछा, ‘‘यह बेटी?’’

‘‘मेरी है… गोद ली है मैं ने.’’

‘‘अच्छा किया मालती जो इसे गोद ले लिया नहीं तो… नहीं तो मेरी चिता को आग कौन देता… मैं पूरी जिंदगी इसी सोच में डूबा रहा कि मेरे मरने के बाद मेरा क्या होगा… लेकिन अब नहीं सोचना है… अब मैं आराम से मर सकता हूं,’’ कह कर उस ने अदिति की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा.

कितना सुखद एहसास था. वैसे भी मृत्यु के समय क्या अपना क्या पराया,

2

मिनट के बाद तो सबकुछ यों भी…

‘‘काश, तुम ने पहले ही मेरी बात मान ली होती तो आज हम सब साथ होते… लेकिन आज…’’ आगे के शब्द होंठों पर आतेआते दम तोड़ चुके थे.

‘‘मैं तुम्हारी नजरों में गिरना नहीं चाहता था मालती… मगर वक्त ने मु झे ऐसा गिराया कि उठने लायक भी नहीं बचा… फिर भी खुश हूं मैं… मरते वक्त ही सही तुम मेरे करीब तो आईं… मैं ने आदर्शों को अपनी रचनाओं में खूब जीया… लेकिन हकीकत में एक भी आदर्श अपनी जिंदगी में नहीं अपना सका… काश, मैं तुम्हें खुश रख सकता मालती… मैं बहुत शर्मिंदा हूं माफ करना मु झे मालती… मेरी सांसें उखड़ रही हैं…’’

माधवी जब तक कुछ सम झ पाती उस का हाथ उस के मंगलसूत्र में फंस कर नीचे आ गया, जिस के फलस्वरूप मंगलसूत्र टूट कर गिर गया.

दूसरे दिन हजारों साहित्यकारों के बीच अदिति ने उसे मुखाग्नि दी. माधवी कुछ पल चिता को निहारती रही. अचानक उसे लगा लपटें रुक गईं और उस में से एक चेहरा उभरा जो हंसते हुए उस से कह रहा था कि तुम ने मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जो वर्षों से मेरे मन में फांस की तरह चुभ रही थी… मेरी अधूरी कहानी पूरी हो गई मालती… अब मैं जा रहा हूं सदासदा के लिए.’’

माधवी ने अपने आंसू दुपट्टे से पोंछ डाले हमेशाहमेशा के लिए, क्योंकि उसे अदिति के लिए मुसकराना था.

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अधूरी कहानी: भाग-2

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कहानी- नज्म सुभाष

आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने तैर गया. इन सालों में उस ने कितने संघर्ष किए, क्याक्या परेशानियां नहीं उठाईं… सब याद है उसे. किस तरह उस ने लोगों के घर काम कर के अपना जीवन काटा. यह तो अच्छा हुआ कि उसे निर्मलजी जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार का आशीर्वाद प्राप्त हुआ. उन्हीं की प्रेरणा से उस ने एक किताब ‘स्त्रीवजूद’ लिखी जो पूरे भारत साहित अन्य देशों में भी अनुवादित हो कर हाथोंहाथ ली गई. उस ने अपना नाम बदल कर माधवी कर लिया. पुस्तकों से प्राप्त होने वाली धनराशि से उस ने एक घर खरीदा. अनाथाश्रम से उस ने एक बेटी को गोद लिया. उस की जिंदगी में हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं. लेकिन आज अतीत ने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया.

‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता… हो सकता है यह कोई दूसरा इनसान हो. आजकल तो एक नाम के कई लोग मिल जाते हैं,’ उस ने सोचा.

करीब 10 दिन बाद उस के पास निर्मलजी का फोन आया. उन्होंने उसे बताया कि साहित्यकार मंडल ने अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम्हें चुना है. यह सुन कर वह अवाक रह गई. वह जिस तरह जाने से बचती है, लोग उसे उसी तरफ क्यों धकेल देते हैं… उस ने साफ मना कर दिया कि वह नहीं आ पाएगी. मगर निर्मलजी ने बताया कि यह बात लेखक को डाक द्वारा बताई जा चुकी है कि उसे पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम आ रही हो.

‘‘लेकिन इतना सब करने से पहले आप ने मु झ से पूछा क्यों नहीं?

‘‘अरे, यह भी कोई बात हुई… आजकल तो लोग प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों की फिराक में रहते हैं और एक आप हैं कि…’’

‘‘सौरी सर मैं नहीं आ सकती.’’

‘‘यानी मेरी इज्जत मिट्टी में मिलाने का पूरा इरादा है… अब तो कार्ड भी बांटे जा चुके हैं, खैर, ठीक है आप की मरजी,’’ एक लंबी सांस खींचते हुए वे बोले. उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे लंबी रेस जीतने से पहले ही वे थक गए हों.

‘‘ठीक है सर मैं आ जाऊंगी… मगर केवल पुरस्कार प्रदान करने के तुरंत बाद चली जाऊंगी.’’

निर्मलजी उस की जिंदगी में एक आदर्श की तरह थे… उसे बेटी की तरह प्यार करते थे. लिहाजा उन की बात काटने की उस में हिम्मत न थी.

शाम के 7 बज रहे थे जब निर्मलजी ने तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों से भरे हौल

में अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए माधवी के नाम की घोषणा की. माधवी ने ज्यों ही सम्मानित होने वाले शख्स को देखा, उस के पैर थम गए. उस शख्स ने भी एक नजर उसे देख कर अपनी नजरें  झुका लीं. उफ, वही शख्स… कितना दुखद दृश्य था वह… इसी दृश्य से तो वह बचना चाहती थी… मगर अब…

जो इनसान अब तक यह सम झता आया था कि उस से दूर होने के बाद मधुमालती ने अपना वजूद गिरवी रख दिया होगा या फिर मरखप गई होगी आज वही मधुमालती उसे पुरस्कार प्रदान करेगी और वह पुरस्कार ग्रहण करेगा… इस से बड़ा नियति का क्रूर मजाक और क्या होगा…

उस से नजरें मिलते ही अरुण कुमार का सारा अहंकार शीशे के माफिक टूट कर उस के मन में चुभने लगा. माधवी ने पुरस्कार निर्मलजी के हाथ से ले कर उसे पकड़ा दिया. औपचारिक रूप से उस ने धन्यवाद किया. किसी से कुछ कहने के बजाय वह धम्म से कुरसी पर बैठ गया. जैसे उस का सम्मान न किया गया हो, बल्कि सैकड़ों जूते मारे गए हों.

माधवी वहीं खड़ी रही. अचानक वहां बैठे साहित्यकार माधवी से अपनी पसंद की गजल सुनाने की फरमाइश करने लगे. तब तक निर्मलजी ने भी सभी साहित्यकारों का दिल रखने के लिए उसे एक छोटी सी रचना सुनाने को कह दिया.

अंदर से हूक उठ रही थी. बस मन यही कर रहा था कि वह तुरंत यहां से चली जाए. मगर निर्मलजी की बात कैसे ठुकराती. अत: उस ने माइक संभाल लिया

यों तो मेरे लब पर आई, अब तक कोई आह नहीं,

तेरी जफाओं पर चुप हूं तो इस का मतलब चाह नहीं.

तू कहता था तेरी मंजिल, नजरों में वाबस्ता है,

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सचसच कहना मेरी तरह ही, तू भी तो गुमराह नहीं.

पत झड़ का मौसम काबिज है, दिल में पूरे साल इधर,

कितनी बार कैलेंडर पलटा, उस में फागुन माह नहीं.

अश्कों का था एक समंदर, जिस के पार उतरना था,

डूब गई मैं जिस के गम में, उस को है परवाह नहीं.

तु झ से मिल कर मेरी धड़कन, बेकाबू हो जाती थी,

अब ये बर्फ सरीखे रिश्ते, मिलने का उत्साह नहीं.

जीना मुश्किल कर देती है, बेचैनी को बढ़ा कर जो,

अपनी यादें ले जा मु झ से, होगा अब निर्वाह नहीं.

आज माधवी की आवाज में दर्द का एहसास अधिक गहरा था. लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे. गजल खत्म होते ही हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मगर माधवी बदहवासी में  झट से मंच से उतर कर बाहर खड़ी कार में जा बैठी. सब हैरान थे.

घर पहुंचने के बाद माधवी का मन चाह रहा था कि फूटफूट कर रोए. मगर गले में जैसे

कुछ धंस गया था. वह इन्हीं खयालों में गुम थी कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘कौन है?’’ आंसू पोंछ कर  झुं झलाते हुए उस ने दरवाजे की जगह खिड़की खोल दी. सामने वही चेहरा था जिस से उसे नफरत हो चुकी थी.

‘‘तुम… अब यहां क्या करने आए हो?’’

‘‘मैं… मैं तुम से माफी मांगने आया हूं मालती.’’

‘‘कौन मालती…? मालती को तो मरे 14 साल हो चुके हैं. मैं माधवी हूं, मैं तुम्हें नहीं जानती, चले जाओ यहां से,’’ अंतिम शब्द तक आतेआते वह चीख पड़ी थी.

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‘‘चला जाऊंगा, लेकिन बस… एक बार… बस एक बार कह दो कि तुम ने मु झे माफ कर दिया,’’ घुटनों के बल बैठ कर गिड़गिड़ा उठा था वह.

‘‘मैं ने कहा न मैं तुम्हें नहीं जानती… अब तुम शराफत से जाते हो या मैं शोर मचाऊं,’’ कह कर उस ने खिड़की बंद कर दी.

करीब 15 मिनट तक कोई आहट नहीं हुई. उसे लगा वह जा चुका है… अच्छा है… जब उस से कोई वास्ता नहीं तो फिर किसलिए माफी… मेरी जिंदगी नर्क बना कर आज मु झ से माफी मांगने आया है.

आगे पढ़ें  अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा…

अधूरी कहानी: भाग-1

कहानी- नज्म सुभाष

राष्ट्रीयस्तर पर आयोजित कहानी प्रतियोगिता में इस बार निर्णायक मंडल ने अरुण कुमार की कहानी को चुना था. प्रथम पुरस्कार के लिए जो कहानी चुनी गई वह एक ऐसे बच्चे पर आधारित थी, जिस के मांबाप बचपन में ही काल के गाल में समा जाते हैं और वह बच्चा तमाम उतारचढ़ाव के बाद आगे चल कर देश का प्रधानमंत्री बनता है. जजों में शामिल माधवी जोकि 3 साल पहले इसी संस्थान से सम्मानित की गई थी, जब उस ने इस कहानी को पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुई. मगर जब उस ने लेखक का नाम पढ़ा तो उस के चेहरे के भाव बदलने लगे. अरुण कुमार… कहीं यह वही तो नहीं… मन में अजीब सी उथलपुथल शुरू हो गई.

‘‘सर,’’ उस ने अपने साथ बैठे वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल से कहा.

‘‘हां बोलो माधवी.’’

‘‘मैं इस लेखक का फोटो देखना चाहती हूं.’’

‘‘लेकिन तुम्हें तो पता होगा प्रतियोगिता में फोटो भेजने का प्रावधान नहीं है नहीं तो प्रतियोगिता की पारदर्शिता पर लोग प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं.’’

‘‘सौरी सर. मैं भूल गई थी,’’ उस ने जल्दी में अपनी बात संभाली.

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘कोई बात नहीं सर… बस ऐसे ही पूछा था.’’

माधवी घर आ चुकी थी, लेकिन उस के मन पर न जाने कैसा बो झ महसूस हो रहा था, जिसे वह उतार फेंकना चाहती थी, मगर उतारे कैसे? उस के घर पहुंचते ही अदिति उस से लिपट कर प्यार जताने लगी. मगर आज उस का मन उचाट था. इतने दिनों से दबी चिनगारी को इस नाम ने आ कर फिर से हवा दे दी… आखिर क्यों?

माधवी तो भूल चुकी थी हर बात… हां हर बात… लेकिन आज फिर इस नाम ने जख्मों को कुरेद डाला. उस का सिर भारी होने लगा… अनचाहा दर्द सीने में टीस मारने लगा. उसे ऐसा लग रहा था जैसे भूतकाल उस के सामने प्रकट हो गया. वह भूतकाल जिसे वह वर्तमान में कभी याद नहीं करना चाहती… लेकिन वह तो सामने आ चुका था दृश्य रूप में उस के मानसपटल पर…

दीवार घड़ी ने रात के 12 बजने का संकेत दे दिया था. मधुमालती अब भी उस शख्स का इंतजार कर रही थी जो सिर्फ उस का था, मगर वह न जाने कहां होगा. इधर कुछ दिनों से उस का रूटीन बन गया था यों ही घड़ी देखते हुए उस का इंतजार करने का और वह निर्माेही उसे कोई फिक्र ही नहीं थी उस की.

माधवी इन्हीं खयालों में गुम बारबार घड़ी देखती, फिर खिड़की खोल कर सड़क… शायद वह दिख जाए. मगर उस की अभिलाषाओं की तरह सड़क भी एकदम सूनी थी. दूरदूर तक कोई नहीं…

करीब 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. उस ने  झट से दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने का दृश्य देख कर उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. जिस के इंतजार में उस ने इतनी रात जाग कर काट दी थी वह शख्स लड़खड़ाता हुआ अंदर आया.

‘‘आज आप फिर पी कर आए हैं?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘हां पी कर आया हूं… तेरे बाप का क्या जाता है?’’ कहते हुए उस ने एक गाली उछाली.

‘‘क्यों अपनी जिंदगी बरबाद करने पर तुले हो?’’

‘‘जिंदगी बर…बाद…’’ कहते हुए पागलों की तरह हंसा वह.

‘‘मैं… मैं… आबाद ही कब रहा हूं? जब से… जब से तुम ने इस घर में कदम रखा है मेरी जिंदगी नर्क बन गई है.’’

‘‘ऐसा क्या किया है मैं ने?’’ वह हैरान थी.

‘‘तुम बहुत अच्छी तरह जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं.’’

‘‘मगर उस के लिए मैं क्या कर सकती हूं. मैं ने क्लीनिक में अपना चैकअप कराया था. मैं मां बनने के लिए पूरी तरह सक्षम हूं. उन्होंने कहा था दोनों का चैकअप…’’

तड़ाक… वह अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही एक जोरदार थप्पड़ उस के गालों पर आ पड़ा, ‘‘तू यह कहना चाहती है कि मैं नामर्द हूं? मु झ में बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं?’’

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा… मैं… तो…’’

‘‘सफाई देती है. सा… ली…’’ वह जोर से दहाड़ा.

‘‘तू अगर चाहती है कि मैं ठीक से रहूं तो मेरी मुराद पूरी कर दे… 5 साल हो चुके हैं शादी को… अभी तक बच्चे की किलकारी तक नहीं गूंजी घर में… यारदोस्त मजाक उड़ाते हैं. बहुत हो चुका… मैं अब बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम चैकअप भी न कराओगे और मु झ से बच्चा भी चाहिए… क्या यह अकेले मेरे बस का है?’’

‘‘मु झे कुछ नहीं सुनना… जो कहा है उसे गांठ बांध लो,’’ वह दहाड़ा.

‘‘सुनो, क्यों न हम एक बच्चा अनाथाश्रम से गोद ले लें?’’ वह सिसकते हुए बोली.

‘‘क्या कहा… जरा फिर से बोल… अनाथाश्रम का बच्चा?’’

‘‘तो इस में गलत क्या है?’’

फिर क्या था. वह उस पर लातघूंसे बरसाने लगा. वह चीखतीचिल्लाती रही. इस पर भी उस का गुस्सा शांत न हुआ तो हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ घर के बाहर ले गया और फिर पीठ पर एक लात जड़ते हुए बोला, ‘‘आज के बाद इस घर के दरवाजे बंद हो चुके हैं तुम्हारे लिए… जा तु झे जहां जाना है. मेरा तु झ से कोई वास्ता नहीं. बां झ कहीं की…’’

उस के इन शब्दों ने जैसे माधवी के कानों में गरम सीसा उड़ेल दिया था. अभी तक वह जमीन पर पड़ी रो रही थी. फिर अचानक न जाने उस में कहां से शक्ति आ गई. शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोली, ‘‘वाहवाह बहुत खूब… अच्छा लगा सुन कर स्त्रीवादी लेखक… मगर घर की स्त्री की कोई वैल्यू नहीं… अरे, तुम तो वे इंसान हो जो अपने 1 1 आंसू की कीमत वसूलते हो कागज के पन्नों पर लिख कर… तुम्हें तो हर दिन एक नई कहानी की तलाश रहती है… इस कहानी को भी लिख लेना, बहुत प्रसिद्धि मिलेगी. वैसे भी औरत एक कहानी से ज्यादा कब रही इस पुरुषप्रधान देश में… एक कहानी और सही. लेकिन एक बात याद रखना अरुण कुमार, तुम्हें बच्चों का सुख कभी नहीं मिलेगा… चाहे तो एक बार जा कर चैकअप करवा लेना. तुम नामर्द हो… और हां, तुम क्या निकालोगे मु झे घर से, मैं खुद ही जा रही हूं इस दलदल से दूर. इतनी दूर कि जहां तुम्हारे कदमों के निशान तक न पहुंचें.’’

वह मूर्तिवत खड़ा रहा. उस ने उसे रोका नहीं और वह सुनसान सड़क की खामोशी को तोड़ने के लिए एक अनजान मंजिल की तरफ बढ़ती चली गई.

आगे पढ़ें  आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने…

तालमेल: भाग-3

‘‘तुम ने क्या नौकरी बदल ली है गोपाल?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘नहीं अंकल.’’

‘‘ऋतु बता रही थी कि अब तुम बहुत व्यस्त रहते हो. पहले तो तुम समय पर घर आ जाते थे.’’

‘‘तरक्की होने के बाद काम और जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं अंकल.’’

‘‘तुम्हारी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों में मैं एक और जिम्मेदारी बढ़ा रहा हूं गोपाल,’’ अंकल ने आग्रह किया, ‘‘ऋतु का खयाल भी रख लिया करो. राहुल बता रहा था कि तुम्हारे मिलने पर उसे थोड़ी राहत महसूस हुई थी, लेकिन तुम भी एक बार आने के बाद व्यस्त हो गए और ऋतु ने अपने को एकदम नकारा समझना शुरू कर दिया है. असल में मैं राहुल के फोन करने पर ही यहां आया हूं. अगले कुछ महीनों तक उस पर काम का बहुत ही ज्यादा दबाव है और ऐसे में ऋतु का उदास होना उस के तनाव को और भी ज्यादा बढ़ा देता है. अत: वह चाहता था कि मैं कुछ अरसे के लिए ऋतु को अपने साथ ले जाऊं, लेकिन मैं और तुम्हारी आंटी यह मुनासिब नहीं समझते. राहुल के मातापिता ने साफ कहा था कि राहुल की शादी इसलिए जल्दी कर रहे हैं कि पत्नी उस के खानेपहनने का खयाल रख सके. ऐसे में तुम्हीं बताओ हमारा उसे ले जाना क्या उचित होगा? मगर बेचारी ऋतु भी कब तक टीवी देख कर या पत्रिकाएं पढ़ कर समय काटे? पासपड़ोस में कोई हमउम्र भी नहीं है.’’

‘‘वह तो है अंकल, लेकिन मेरा आना भी अकसर तो नहीं हो सकता,’’ उस ने असहाय भाव से कहा.

‘‘फिर भी उस से फोन पर तो बात कर ही सकते हो.’’

‘‘वह तो रोज कर सकता हूं.’’

‘‘तो जरूर किया करो बेटा, उस का अकेलापन कुछ तो कम होगा,’’ अंकल ने मनुहार के स्वर में कहा.

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घर लौटने के बाद गोपाल को भी अकेलापन खलता था. अत: वह ऋतु को रोज रात को फोन करने लगा. वह जानबूझ कर व्यक्तिगत बातें न कर के इधरउधर की बातें करता था, चुटकुले सुनाता था, किव्ज पूछता था. एक दिन जब किसी बात पर ऋतु ने उसे फिर गोलू जीजाजी कहा तो वह पूछे बगैर न रह सका, ‘‘तुम्हें यह नाम कैसे मालूम है ऋतु, रचना के बताने का तो सवाल ही नहीं उठता?’’

ऋतु सकपका गई, ‘‘एक बार आप दोनों को बातें करते सुन लिया था.’’

‘‘छिप कर?’’

‘‘जी,’’ फिर कुछ रुक कर बोली, ‘‘उस रोज छिप कर आप की और पापा की बातें भी सुनी थीं जीजाजी. आप कह रहे थे कि आप शादी करेंगे, मगर तब जब मनु भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगा. उस में तो अभी कई साल हैं जीजाजी, तब तक आप अकेलापन क्यों झेलते हैं? मैं ने तो जब से आप को देखा है तब से चाहा है, तभी तो आप की हर पसंदनापसंद मालूम है. अब जब आप भी अकेले हैं और मैं भी तो क्यों नहीं चले आते आप मेरे पास?’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ऋतु,’’ गोपाल चिल्लाया, ‘‘6 फुट के पति के रहते खुद को अकेली कह रही हो?’’

‘‘6 फुट के पति के पास मेरे लिए 6 पल भी नहीं हैं जीजाजी. घर बस नहाने, सोने को आते हैं, आपसी संबंध कब बने थे, याद नहीं. अब तो बात भी हांहूं में ही होती है. शिकायत करती हूं, तो कहते हैं कि अभी 1-2 महीने तक या तो मुझे यों ही बरदाश्त करो या मम्मीपापा के पास चली जाओ. आप ही बताओ यह कोई बात हुई?’’

‘‘बात तो खैर नहीं हुई, लेकिन इस के सिवा समस्या का कोई और हल भी तो नहीं है.’’

‘‘है तो जो मैं ने अभी आप को सुझाया.’’

‘‘एकदम अनैतिक…’’

‘‘जिस से किसी पर मानसिक अथवा आर्थिक दुष्प्रभाव न पड़े और जिस से किसी को सुख मिले वह काम अनैतिक कैसे हो गया?’’ ऋतु ने बात काटी, ‘‘आप सोचिए मेरे सुझाव पर जीजाजी.’’

गोपाल ने सोचा तो जरूर, लेकिन यह कि ऋतु को भटकने से कैसे रोका जाए? राहुल जानबूझ कर तो उस की अवहेलना नहीं कर

रहा था और फिर यह सब उस ने शादी से पहले भी बता दिया था, लेकिन ऋतु से यह अपेक्षा करना कि वह संन्यासिनी का जीवन व्यतीत

करे उस के प्रति ज्यादती होगी. ऋतु को नौकरी करने या कोई कोर्स करने को कहना भी

मुनासिब नहीं था, क्योंकि मनचले तो हर जगह होते हैं और अल्हड़ ऋतु भटक सकती थी. इस से पहले कि वह कोई हल निकाल पाता, उस की मुलाकात अचानक राहुल से हो गई. राहुल उस के औफिस में फैक्टरी के लिए सरकार से कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मांगने आया था.

गोपाल उसे संबंधित अधिकारी के पास ले गया और परस्पर परिचय करवाने के बाद बोला, ‘‘जब तक उमेश साहब तुम्हारी याचिका पर निर्णय लेते हैं, तुम मेरे कमरे में चलो राहुल, कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

राहुल को असमंजस की स्थिति में देख कर उमेश हंसा, ‘‘बेफिक्र हो कर जाइए. गोपाल बाबू के साथ आए हैं, तो आप का काम तो सब से पहले करना होगा. कुछ

देर के बाद मंजूरी के कागज गोपाल बाबू के कमरे में पहुंचवा दूंगा.’’

राहुल के चेहरे पर राहत के भाव उभरे.

‘‘अगर वैस्ट वाटर पाइप को लंबा करने की अनुमति मिल जाती है तो मेरी कई परेशानियां खत्म हो जाएंगी जीजाजी और मैं काम समय से कुछ पहले ही पूरा कर दूंगा. अगर मैं ने यह प्रोजैक्ट समय पर चालू करवा दिया न तो मेरी तो समझिए लाइफ बन गई. कंपनी के मालिक दिनेश साहब हरेक को उस के योगदान का श्रेय देते हैं. वे मेरी तारीफ भी जरूर करेंगे जिसे सुन कर कई और बड़ी कंपनियां भी मुझे अच्छा औफर दे सकती हैं,’’ राहुल ने गोपाल के साथ चलते हुए बड़े उत्साह से बताया.

‘‘यानी तुम फिर इतने ही व्यस्त हो जाओगे?’’

‘‘एकदम तो नहीं. इस प्रोजैक्ट को सही समय पर चालू करने के इनाम में दिनेश साहब 1 महीने की छुट्टी और सिंगापुर, मलयेशिया वगैरह के टिकट देने का वादा कर चुके हैं. जब तक किसी भी नए प्रोजैक्ट की कागजी काररवाई चलती है तब तक मुझे थोड़ी राहत रहती है. फिर प्रोजैक्ट समय पर पूरा करने का काम चालू.’’

‘‘लेकिन इस व्यस्तता में ऋतु को कैसे खुश रखोगे?’’

‘‘वही तो समस्या है जीजाजी. नौकरी वह करना नहीं चाहती और मुझे भी पसंद नहीं है. खैर, किसी ऐसी जगह घर लेने जहां पासपड़ौस अच्छा हो और फिर साल 2 साल में बच्चा हो जाने के बाद तो इतनी परेशानी नहीं रहेगी. मगर समझ में नहीं

आ रहा कि फिलहाल क्या करूं? इस पाइप लाइन की समस्या को ले कर पिछले कुछ दिनों से इतने तनाव में था कि उस से ठीक से बात भी नहीं कर पा रहा. ऋतु स्वयं को उपेक्षित फील करने लगी है.’’

‘‘पाइप लाइन की समस्या तो समझो हल हो ही गई. तुम अब ऋतु को क्वालिटी टाइम दो यानी जितनी देर उस के पास रहो उसे महसूस करवाओ कि तुम सिर्फ उसी के हो, उस की बेमतलब की समस्याओं या बातों को भी अहमियत दो.’’

‘‘यह क्वालिटी टाइम वाली बात आप ने खूब सुझाई जीजाजी, यानी सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दोचार दिन.’’

‘‘लेकिन एक एहसास तुम्हें उसे और करवाना होगा राहुल कि उस की शख्सीयत फालतू नहीं है, उस की तुम्हारी जिंदगी में बहुत अहमियत है.’’

‘‘वह तो है ही जीजाजी और यह मैं उसे बताता भी रहता हूं, लेकिन वह समझती ही नहीं.’’

‘‘ऐसे नहीं समझेगी. तुम कह रहे थे न कि दिनेश साहब सार्वजनिक रूप से तुम्हारे योगदान की सराहना करेंगे. तब तुम इस सब का श्रेय अपनी पत्नी को दे देना. बात उस तक भी पहुंच ही जाएगी…’’

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‘‘उद्घाटन समारोह में तो वह होगी ही. अत: स्वयं सुन लेगी और बात झूठ भी नहीं

होगी, क्योंकि जब से ऋतु मेरी जिंदगी में आई है मैं चाहता हूं कि मैं खूब तरक्की करूं और उसे सर्वसुख संपन्न गृहस्थी दे सकूं.’’

गोपाल ने राहत की सांस ली. उस ने राहुल को व्यस्तता और पत्नी के प्रति दायित्व निभाने का तालमेल जो समझा दिया था.

मां जल्दी आना: भाग-3

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

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घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि

मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

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‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

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Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 4

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लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

असीम ने तो स्माइल की, पर मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े. आंसू गिरते देख उस ने कहा, ‘‘प्लीज अनु, रोना मत.’’

  ‘‘नहीं, मैं बिलकुल नहीं रोऊंगी.’’ मैं ने कहा.

  ‘‘तुम्हें तो पता है अनु, तुम मेरे सामने बिलकुल झूठ नहीं बोल सकती, तो फिर क्यों बेकार की कोशिश कर रही हो. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं अनु. मुझे पता है कि तुम रोओगी, खूब रोओगी और मुझे यह हर्ट करेगा. जबकि मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी वजह से रोओ, जी जलाओ.’’

तभी निकी का फोन आ गया कि ट्रेन के आने का एनाउंसमेंट हो गया है. हम दोनों एकदूसरे को देखते रहे. थोड़ी देर तक हमारे बीच मौन छाया रहा. अचानक असीम ने पूछा, ‘‘अनु, तुम कम से कम यह तो बता दो कि तुम जा कहां रही हो?’’

  ‘‘नहीं, अब मैं कुछ नहीं बताऊंगी. मेरा यह मोबाइल नंबर भी कल सुबह से बंद हो जाएगा. जहां भी जाऊंगी, नया नंबर ले लूंगी. अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूंगी कि तुम खुश रहना, सुखी रहना और प्रियम को भी खुश और सुखी रखना, उसे खूब प्रेम करना और हमारी मुलाकात को एक सुंदर सपना समझ कर भूल जाना. इस के बाद हम स्टेशन पर आ गए. हमारे स्टेशन आतेआते टे्रन आ गई थी. उस के बाद जो हुआ, उसे आप ने देखा ही है.’’ कह कर अनु चुप हो गई.

मैं मन ही मन अनु के प्रेम, उस की संवेदनशीलता, उस की समर्पण भावना को सलाम करते हुए सोच रहा था कि काश! इसी तरह प्रेम करने वाली सुंदर लड़की मुझे भी मिल जाती तो मेरे लिए स्वर्ग इसी धरती पर उतर आता. सच बात तो यह थी कि अनु से मुझे प्यार हो गया था. मन कर रहा था, क्यों न मैं उस से अपने दिल की बात कह कर देखूं.

मैं मन की बात कहने का विचार कर ही रहा था कि उस ने एक ऐसी बात कह दी, जिस से मेरे मन में जो प्रेम पैदा हुआ था, उस की अकाल मौत हो गई थी. एक तरह से मेरा प्रेम पैदा होते ही मर गया था. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं यह नौकरी छोड़ने की जो बात कर रही हूं, यह सब नाटक है. मैं ने न नौकरी छोड़ी है और न यह शहर छोड़ कर जा रही हूं.’’

  ‘‘क्या?’’ मैं एकदम से चौंका, ‘‘आप ने यह नाटक क्यों किया, आप ने इतना बड़ा झूठ क्यों बोला?’’

  ‘‘क्योंकि असीम और निकी ने सलाह कर के प्रियम नाम के झूठे करेक्टर को खड़ा कर के मेरे साथ नाटक किया, शायद उन्हें पता नहीं कि मैं उन दोनों से बड़ी नाटकबाज हूं.

  ‘‘अगर असीम मेरे बारे में सब जानता है, तो मैं भी बेवकूफ नहीं हूं कि उस के बारे में सब कुछ न जानती. मैं उस से प्रेम करने लगी थी तो उस के बारे में एकएक चीज का पता लगा कर ही प्रेम किया था. जिस दिन निकी ने मेरे सामने प्रियम का नाम ले कर मुझे चिढ़ाने और परेशान करने के लिए नाटक शुरू किया, उसी के अगले दिन ही मैं ने सच्चाई का पता लगा लिया था, क्योंकि मुझे तुरंत शक हो गया था.’’

  ‘‘कैसे?’’ मैं ने पूछा.

क्योंकि अगर प्रियम से असीम का प्यार चल रहा होता तो निकी इतने दिनों तक इंतजर न करती. क्योंकि उसे मेरे और असीम के प्रेम संबंध की एकएक बात पता थी. अगर असीम के जीवन में कोई प्रियम होती तो वह मुझे पहले ही बता कर असीम के साथ इतना आगे न बढ़ने देती.

अगले दिन मुझे इस का सबूत भी मिल गया था. निकी सुबह नहा रही थी तो उस का मोबाइल मेरे हाथ लग गया, उस में कुछ मैसेज थे, जिस से मेरा शक यकीन में बदल गया. बस, फिर मैं ने भी नाटक शुरू कर दिया.

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मैं ने ऐसा नाटक किया कि उन्हें लगा मैं सचमुच बहुत दुखी हूं. मुझे तो सच्चाई पता थी. पर उन्हें पता नहीं था कि मैं भी नाटक कर रही हूं. इस खेल में मैं उन से ज्यादा होशियार निकली. क्योंकि वे दोनों मेरे आते वक्त तक सच्चाई उजागर नहीं कर पाए. अब उन्हें डर सता रहा है कि सच्चाई उजागर करने पर मैं उन पर खफा हो जाऊंगी?’

मैं ने अनु को बीच में रोक कर पूछा, ‘‘इस का मतलब आप ने नौकरी छोड़ी नहीं है, सिर्फ उन लोगों से कहा कि नौकरी छोड़ कर जा रही हो.’’

  ‘‘पागल हूं, जो नौकरी छोड़ देती. केवल एक सप्ताह की छुट्टी ले कर घर जा रही हूं. घर पहुंच कर फोन का सिम निकाल दूंगी. औफिस वालों को दूसरा नंबर दे आई हूं्. असीम मुझे परेशान करना चाहता था. बदले में मैं ने उसे सबक सिखाया. मैं उसे इतना प्यार करती हूं कि उस के बिना जी नहीं सकती. अगर सचमुच में प्रियम होती तो मैं आप को अपनी यह कहानी बताने के लिए न होती. किसी मानसिक रोगी अस्पताल में अपना इलाज करा रही होती.’’

  ‘‘सलाम है आप के प्रेम को, जब लौट कर  आओगी तो…’’

मेरी बात बीच में ही काट कर अनु ने कहा, ‘‘यही तो सरप्राइज होगा असीम के लिए.’’

अनु के बारे में सोचते हुए कब आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे असीम से ईर्ष्या हो रही थी. ट्रेन स्टेशन पर रुकी तो मेरी आंख खुली. पता चला ट्रेन कानपुर में खड़ी थी. अनु खड़ी हुई, अपना बैग और पर्स लिया और उतर कर निकास गेट की ओर बढ़ गई. वह जैसेजैसे दूर जा रही थी, मैं यही सोच रहा था, काश! सचमुच प्रियम होती, तो आज मेरे प्यार की अकाल बाल मौत न होती.

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