प्यार की धूपछांव: भाग 2- जब मंदा पर दौलत का खुमार चढ़ गया

बतियाते हुए वे दोनों होस्टल के गलियारे तक पहुंच चुके थे, पूर्वी भी अब तक सलिल से काफी फ्रैंडली हो गई थी. इतना ही नहीं मन ही मन उसे चाहने भी लगी थी. रूम नंबर 4 आते ही पूर्वी ने रूम की घंटी बजाई, दरबाजा एक लड़की ने खोला. यह पूर्वी की रूममेट मंदाकिनी थी.

‘‘हाय मैं मंदाकिनी.’’

‘‘और मैं पूर्वी.’’

‘‘तुम मुझे मंदा कह सकती हो,’’ कह मंदा ने भेदती नजरों से सलिल की तरफ देखा जो पूर्वी का बैग अपने कंधे पर टांगे खड़ा था.

सलिल ने पूर्वी को उस का बैग थमाया और उसे बाय कहा, ‘‘सी यू टेक केयर,’’ और चला गया.

सलिल के जाते ही मंदा ने पूर्वी को घूरते हुए पूछा, ‘‘क्या यह तेरा बौयफ्रैंड था?’’

‘‘नहीं,’’ पूर्वी ने जवाब दिया.

‘‘तो फिर तेरा भाई होगा जो तेरी फिक्र कर रहा था.’’

‘‘नहीं.’’

इस बार भी पूर्वी के मुंह से नहीं शब्द सुन कर मंदा बुरी तरह ?ाल्ला गई. कहने लगी, ‘‘भाई भी नहीं है, बौयफ्रैंड भी नहीं है तो यह लड़का आखिर है कौन, जो तेरा इतना खयाल रख रहा था कि तेरा बैग लटका कर तुझे यहां तक छोड़ने आया?’’

‘‘बस फ्रैंड है मेरा?’’

‘‘सिर्फ फ्रैंड या उस से कुछ अधिक?’’

पूर्वी ने कहा, ‘‘कहा न बस फ्रैंड है मेरा,’’ मंदाकिनी के बारे में अधिक कुछ जाने बिना पूर्वी का मन उसे अधिक कुछ बताने से डर रहा था पर मंदा से अनबन भी नहीं कर सकती, रूममेट जो है उस की.

‘‘अच्छा, चल तू फ्रैश हो ले, मैं तुझे अच्छी सी चाय पिलाती हूं. मगर हां मैं तुझे रोज चाय बना कर पिलाने वाली नहीं. वो क्या है कि तू आज नईनई आई है तो तेरा वैलकम तो बनता ही है.’’

यह सुन कर पूर्वी ने कुछ राहत की सांस ली. तभी मंदा चाय बना कर ले आई. साथ ही बिस्कुट भी थे. चाय पीतेपीते दोनों ने अपनेअपने घरपरिवार के बारे में ढेर सारी बातें कीं, साथ ही पूर्वी को होस्टल के रूल्स के बारे में भी जानकारी दी. शनिवार व इतवार के अलावा होस्टल से बाहर जाना मना था या फिर कोई छुट्टी होने पर होस्टल से बाहर जा सकते. हां, होस्टल के अंदर किसी लड़के के आने की तो सख्त मनाही है, सिवा लोकल गार्जियन के.

यह सुन कर पूर्वी एकदम चौंक गई, मन ही मन सोचने लगी हाय, अब वह अपने सलिल से न जाने कब व कैसे मिल पाएगी. उस की नशीली मुसकराहट उस का दिल जो चुरा कर ले गई थी.

तभी मंदा ने चुटकी बजाते हुए उसे टोका, ‘‘कहां खो गई? ये रूल्स सुन कर डर तो नहीं गई तू? धीरेधीरे तुझे आदत हो जाएगी इन सब की.’’

दूसरे दिन क्लास में कुछेक नया लोगों से उस की पहचान हुई. रूटीन शुरू हो

गया. क्लासेज शुरू हो गईं, इन सब के बीच पूर्वी सलिल को नहीं भूल पा रही थी. जबतब उस की आंखों के सामने सलिल के गालों में डिंपल पड़ने वाला मुसकराता चेहरा सामने आ जाता.

कहते हैं न दिल को दिल से राह होती है सो फ्राइडे रात को सलिल का फोन भी आ गया, ‘‘पूर्वी कल हम मिल रहे हैं. इस जगह व इतने बजे, देखो न मत कहना तुम से मिल कर अपने दिल की बहुत सारी बातें करनी हैं, फिर घूमेंफिरेंगे मस्ती करेंगे और क्या,’’ सलिल ने एकदम फिल्मी अंदाज में आमिर खान का डायलौग दोहरा दिया, ‘‘मैं तुम्हें नियत समय पर ही होस्टल छोड़ दूंगा.’’

थोड़ी देर नानुकर करने के बाद पूर्वी ने हां कर दी क्योंकि मन ही मन वह भी तो सलिल से मिलना चाह रही थी.

होस्टल के रूल्स के अनुसार सलिल उसे उस के होस्टल नियत समय पर छोड़ गया, साथ ही अगले शनिवार दोबारा मिलने का वायदा ले गया.

शनिवार आने पर जव पूर्वी तैयार होने लगी तो मंदा ने टोका, ‘‘आज फिर कहां चली इतना सजधज कर?’’

पूर्वी कुछ कहती उस से पहले ही सलिल की गाड़ी का हौर्न उस के कानों में पड़ा. बिना कुछ बोले पूर्वी बाहर आ गई, जहां सलिल उस का इंतजार कर रहा था. उस की कार में बैठते ही सलिल ने उस की तरफ देखा और कहा, ‘‘इस पिंक सूट में तुम सचमुच बहुत ही प्यारी लग रही हो. जानती हो पिंक मेरा पसंदीदा कलर है.

‘‘पूर्वी आज डिनर हम साथ में करने वाले हैं. मैं ने यहां के सब से महंगे व फेमस रैस्टोरैंट में टेबल बुक करा दी है ताकि तुम्हें लौटने में देर नहीं हो जाए क्योंकि आज का दिन मेरे लिए बहुत खास है, पूछो क्यों?’’

पूर्वी ने प्रश्नवाचक नजरों से उस की तरफ देखा.

‘‘अरे, अब बता भी दो कि आज के दिन क्या खास है?’’ पूर्वी ने पूछा.

‘‘आज मेरा हैप्पी बर्थडे है, सोचा तुम्हारे साथ मिल कर सैलिब्रेट करते हैं.’’

उसी समय रैस्तरां का वेटर एक बड़ा सा केक ला कर उन की टेबल पर रख गया. पूर्वी ने नाराजगी दिखाते हुए कहा, ‘‘जाओ मैं बात नहीं करती तुम से. मुझे पहले बता देते तो मैं कम से कम कोई गिफ्ट ले कर तो आती तुम्हारे लिए.’’

‘‘तुम गुस्सा होती हो तो और भी खूबसूरत लगती हो. रही गिफ्ट की बात सो मेरे लिए तो तुम ही एक खूबसूरत गिफ्ट हो. मैं ने तो मां से तुम्हारे बारे में बात भी कर ली है.’’

तभी एक रैड रोज पूर्वी की तरफ बढ़ाते हुए सलिल ने कहा, ‘‘बोलो क्या तुम मेरी

लाइफपार्टनर बनना पसंद करोगी?’’

‘‘पूर्वी ने शरमा कर अपनी नजरें नीची कर लीं. इस अप्रत्याशित खुशी से उस के दिल की धड़कन तेज हो गई थी, साथ ही गाल भी सुर्ख हो गए थे.

जब पूर्वी सलिल के साथ घूम कर होस्टल लौटी तो बहुत खुश थी. वह धीमे स्वर में गुनगुना रही थी, ‘‘छोटी सी मुलाकात प्यार बन गई, प्यार बन के गले का हार बन गई…’’

मंदा के कानों में जब पूर्वी के गाने के स्वर पड़े तो चौंक गई. फिर तुरंत पूर्वी की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अरे, तू तो बड़ी घुन्नी निकली एकदम छिपी रुस्तम. मुझे खबर तक नहीं होने दी, तू तो इश्क फरमा रही है.’’

मंदा की बात सुन कर पूर्वी हलके से मुसकरा दी. ‘‘वाह, मुंबई आते ही तुझे तेरा प्यार मिला गया,’’ मंदा के दिल में जलन की आग धधक उठी. सोचने लगी भला ऐसा क्या है इस पूर्वी में जो सलिल जैसा बांका नौजवान इस छोटे शहर की लड़की पर फिदा हो कर अपना दिल हार बैठा. एक वह है पिछले 2 साल से मुंबई में है, इश्क के नाम पर 2-3 बार दिल टूट चुका है, छुट्टियों में घर जाने का भी दिल नहीं करता. वही मां, पापा की रोज की चिकचिक सुन कर कान पक गए हैं मेरे.

मेरी भावनाओं का तो उन्हें जरा भी खयाल नहीं है कि बेटी बड़ी हो रही है. बस यह कह कर अपना पल्ला झड़ लिया है कि तुम्हें जो भी पसंद आए हमें बता देना. उस से ही तुम्हारी शादी कर देंगे. रोने को मन हुआ मंदा का. लाइट औफ कर के पूर्वी के बैड की तरफ पीठ कर के लेट गई और थोड़ी देर आंसू बहाती रही.

नींद तो आ नहीं रही थी, सो मन ही मन प्लान बनाने लगी, जो भी हो इस पूर्वी को तो कभी भी सलिल का नहीं होने देगी. इस के लिए फिर मुझे चाहे कुछ भी क्यों न करना पड़े.

पूर्वी पर सलिल का प्यार परवान चढ़ रहा था, करीब हर शनिवार को वह सलिल के साथ घूमने निकल जाती. जब लौटती तो मंदा से अपने व सलिल के बीच हुई बातें शेयर करती.

एक दिन घूम कर जब लौटी तो पूर्वी ने बताया कि सलिल ने मेरे फोटो अपने घरवालों के पास भेजे थे. उन का अप्रूवल भी आ गया है. सलिल का एमबीए पूरा होते ही उस के घर वाले हम दोनों की शादी करवा देंगे.

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत ही खुशी की बात है, तेरी तो सच में लौटरी ही लग गई पूर्वी, सलिल जैसा वांका नौजवान तुझे जीवनसाथी के रूप में मिल गया.’’

ऊपर से तो मंदा पूर्वी से बडी खुशी जाहिर करती, परंतु अंदर से मन ही मन उस की बातें सुन कर उस की छाती पर सांप लोटने लगते. वह ईर्ष्या की आग में बुरी तरह जल रही थी.

उधर पूर्वी उस की जलन की भावनाओं से अनजान, अपनी हरेक बात उस से शेयर करती क्योंकि पूर्वी तो मंदा को अपनी सखी मानती थी.

एक दिन जब पूर्वी क्लास अटैंड कर के अपने रूम की तरफ लौट रही थी कि तभी उस के बाबूजी का फोन आया. उन का स्वर एकदम घबराया हुआ था.

पूर्वी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बाबूजी, मां तो ठीक हैं न?’’

बाबूजी ने बताया, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रही थी. पहले तो हम लोगों ने सोचा कि शायद तुम्हारे जाने की वजह से मन उदास है उन का, परंतु जब एक दिन चक्कर खा कर गिर पड़ी तो डाक्टर की राय लेना जरूरी हो गया. डाक्टर ने बताया कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है, तुरंत औपरैशन करना पड़ेगा क्योंकि ट्यूमर आखिरी स्टेज पर है, अत: अधिक देर करना खतरे से खाली नहीं है.’’

सारी बातें सुन पूर्वी भी एक बार तो बहुत घबरा गई फिर बाबूजी को धैर्य बंधाते हुए बोली, ‘‘मैं कल ही बरेली के लिए निकल रही हूं, आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा. आजकल विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, बड़ी से बड़ी बीमारी का इलाज संभव हो गया है.

पूर्वी के घर पहुंचने तक बाबूजी मां को हौस्पिटल में एडमिट कर चुके थे और औपरैशन की डेट भी ले ली थी. कहां तो पूर्वी घर पहुंचने पर मां को अपने व सलिल के प्यार की बावत बता कर सरप्राइज देने की सोच रही थी और यहां मां को इस हाल में देख कर उस का दिल कांप उठा.

मैं भी कमाऊंगी: क्या मेरा शौक पूरा हुआ

शादी से पहले हमारी मैडम एक दफ्तर में औफिस अस्सिटैंट थीं पर शहर बदले जाने के कारण उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी. फिर पहली बेबी 1 साल में ही हो गया. अब वह 4 साल की है, थोड़ा काम खुद कर लेती हैं, इसलिए मैडम के पास काम कम और समय ज्यादा है. अत: एक दिन बोलीं, ‘‘सुनो शैलेष.’’

‘‘क्या है माधवी?’’

‘‘मैं आजकल घर में बहुत उकता जाती हूं. यहां मेरे पास काम ही कितना है. बिना काम के खाली बैठे रहना तो बेवकूफी है. मैं चाहती हूं कि मैं कुछ पैसे कमाऊं. हमारे घर की आर्थिक स्थिति भी तो अच्छी नहीं है,’’ माधवी बोली.

‘‘क्यों, क्या हुआ हमारी आर्थिक स्थिति को? सब ठीक तो है. मैं जितने पैसे कमा रहा

हूं उन्हीं में हम लोग सुखचैन से रह रहे हैं और क्या चाहिए.’’

‘‘नहीं, मैं चाहती हूं कि मेरा भी योगदान हो. जब मैं भी कमा सकती हूं तो क्यों न कमाया जाए. डबल इनकम का मतलब है डबल बचत.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन घर को चलाने में तुम्हारा बड़ा योगदान है. मेरे अकेले के

बस की बात नहीं कि नौकरी भी करूं, बच्चों को भी देखूं और घर भी संभालूं. सुचारु रूप से घर चलाती रहो, यही बहुत है.’’

‘‘नहीं, मैं नौकरी करना चाहती हूं.’’

‘‘घर कौन देखेगा और फिर इस शहर में तुम्हें नौकरी कौन देगा?’’

‘‘इसी के पीछे तो इतने दिनों से मैं तुम से बोलने में  झिझक रही थी. तुम्हीं कोई उपाय बताओ न?’’

‘‘मैं क्या बताऊं, यह फैसला तो तुम्हें लेना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों न एक आया रख लें, फिर मैं किसी मौल में सेल्सगर्ल का काम तो कर सकूंगी.’’

‘‘कोई आया मां की तरह तो बच्चों को नहीं  देख सकती और फिर जितना तुम कमाओगी वह आया ले जाएगी और जो परेशानी होगी वह अलग से. सेल्सगर्ल्स को तो 12-12 घंटे खड़े रहना पड़ता है. अब तुम 35 साल की होने वाली हो, 20-21 साल की लड़कियों के सामने क्या टिक पाओगी?’’ शैलेष ने कहा.

‘‘तो मैं घर में रह कर भी कमा सकती हूं.’’

‘‘तुम घर भी चलाओ और कमाई भी करो, इस में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है. मुझे तो खुशी होगी, लेकिन करोगी क्या?’’

‘‘सोच कर बताऊंगी,’’ कह माधवी चुप हो गई.

‘‘मैं ने सोच लिया है कि मैं कंटैंट राइटर बनूंगी,’’ 8-10 दिन बाद माधवी शैलेष से बोली.

‘‘वाह, क्या बात है. राइटर बन कर पैसे तो कमाओगी ही ख्याति अलग से होगी. क्या लिखोगी?’’

‘‘औनलाइन बहुत सी कंपनियां कटैंट राइटर मांगती हैं. मैं उन्हें अपना बायोडाटा भेज देती हूं.’’

2 दिन बाद माधवी फिर बोली, ‘‘शैलेष, मुझे क्रैडिट कार्ड देना, 2,000 रुपये का डिपौजिट एक कंटैंट कंपनी को भेजना है. वे कहते हैं कि उन के मूल कंटैंट का मिसयूज न हो इसलिए वे क्रैडिट कार्ड से पेमैंट मांगते हैं.’’

‘‘बहुत बड़े पैमाने पर आरंभ कर रही हो?’’ शैलेष बोला.

घर में 2-3 दिन शांति रही. माधवी दिन में 4-5 बार कंप्यूटर खोल कर देखती कि कोई मेल तो नहीं आया. फिर एक दिन बोली, ‘‘वे मुझे औनलाइन इंटरव्यू के लिए बुला रहे हैं पर मुझे उन का ऐप डाउनलोड करना होगा, जिस की फीस 2,000 रुपये है.’’

शैलेष के 2,000 रुपये और गए.

5 दिन बाद उसे पीडीएफ फाइल मिली जिस में शायद 500 पेज थे. उसे उस का संक्षेप में इंग्लिश से हिंदी अनुवाद करना था.

‘‘सुनो, यह बहुत कठिन काम है. कंप्यूटर पर पढ़ने में बहुत कठिनाई हो रही है. फौंट

बहुत छोटा है. इस के प्रिंट करा लाओ,’’

माधवी बोली.

शैलेष प्रिंट करा लाया पर कंप्यूटर पर माधवी हिंदी टाइपिंग न सीख पाई. उस ने हाथ

से लिखा तो शैलेष भी उसे नहीं पढ़ पाया. उसे स्कैन कर के भेजने का फायदा क्या था. इसलिए एक साइबर कैफे को हिंदी में लिखे को प्रति पृष्ठ पैसे दे कर टाइप कराने के लिए दिया. उसे प्रति पृष्ठ क्व400 मिलते थे इसलिए उसे यह खर्च ज्यादा नहीं लगा.

मगर 5 दिन बाद मेल आया कि काम पूरा हो जाने की मियाद 7 दिन थी इसलिए क्व2,000 जब्त किए जाते हैं और आगे से काम नहीं मिलेगा. 4,000 रुपये इस कंपनी को गए, 1,500 रुपये प्रिंट कराने में लगे और 10 दिन बाद हिंदी टाइप करने वाला अपने पैसे जबरन ले गया और मेल से हिंदी फाइल भेज दी.

शैलेष ने उत्सुकतावश उसे खोल कर देखा तो पता चला कि एक तो अनुवाद गलत था और दूसरे टाइप करने वाले ने हजार गलतियां छोड़ रखी थीं. काम के चक्कर में 1 महीने का चैन भी गया और पैसे भी बरबाद हुए.

माधवी बोली, ‘‘एक दिन अवश्य कुछ न कुछ कर दिखाऊंगी.’’

‘‘अवश्य, अवश्य.’’

‘‘अभी फिलहाल मैं ने पैसे कमाने का दूसरा जरीया ढूंढ़ निकाला है.’’

‘‘1,000 रुपये तो गंवा चुकी हो. अब क्या

इरादा है?’’

‘‘तुम्हारी इसी कंजूसी को देखते हुए तो

मैं ने पैसा कमाने की ठानी है. मैं ने तय कर

लिया है कि मैं बच्चों के कपड़ों का व्यापार करूंगी.’’

‘‘तुम कहां से कपड़े लाओगी,’’ शैलेष

ने पूछा.

माधवी बोली, ‘‘मै ने होलसेल मार्केट पता कर ली है. वहां 80% डिस्काउंट मिलता है उन्हें बेचूंगी तो पैसा ही पैसा होगा.’’

घर के बाहर एक बोर्ड लगा दिया, ‘नए फैशन के बच्चों के कपड़े.’

शैलेष बोला, ‘‘तुम्हारी युक्ति ठीक है. चलो, ले आते हैं क्व50 हजार के कपड़े.’’

‘‘हां, कुछ नए डिजाइनों के फ्रौक वगैरह… मैं ने एक स्टोर में शादी से पहले सेल्सगर्ल का काम किया था. मुझे इस लाइन का ऐक्सपीरियंस है,’’ यह बात बारबार दोहराती.

अगले दिन जब शाम को शैलेष घर लौटा तो ड्राइंगरूम में कपड़े बिखरे पड़े थे और घर के सारे गिलासप्याले इधरउधर लुढ़क रहे थे.

माधवी बोली, ‘‘पुरानी डिजाइनों के कपड़े ले आए. 10-20 औरतें आईं, चाय भी पी और सारे कपड़े खोलखाल कर चली गईं. एक पैसे की कमाई नहीं हुई. 4-5 अपने बच्चों को पहना कर देखने के लिए ले गई हैं.’’

शैलेष बोला, ‘‘पहले ही दिन 10 हजार रुपये का चूना लगा. अच्छा, अपनी लड़की को यह फ्रौक फिट लगेगा तो मानूंगा कि तुम्हारा टेस्ट अच्छा है.’’

माधवी ने पहना कर देखा टाइट था और खींचने पर फ्रौक फट गया.

तभी कोई खरीदार आया जो 5-6 कपड़े ले गया था उन्हें वापस कर गया कि साइज भी ठीक नहीं, कपड़ा भी खराब है और डिजाइन भी बेहूदा है.

बंटी ने भी एक भी कपड़ा पहनने से इनकार कर दिया.

मेड को देने की कोशिश की तो बोली, ‘‘मैडम, यह जो चीज 500 रुपये में आप बेच रही हैं, हमारे यहां मंगलवार बाजार में 50 रुपये में बिकती है,’’ और उस ने मुफ्त में भी ले जाने से इनकार कर दिया कि वह इन का क्या करेगी.

कुछ दिन बाद माधवी ने फिर शैलेष से कहां, ‘‘सुनो.’’

‘‘तुम ऐसे सुनो मत बोलो, मेरा दिल बैठ जाता है. मुझे लगता है तुम पैसा कमाने का कोई नया साहसिक धंधा शुरू करने वाली हो,’’ शैलेष घबरा कर बोला.

‘‘तुम सुनो तो सही.’’

‘‘सुनाओ.’’

‘‘यह कपड़े बेचने वाला व्यापार मुझ से नहीं होने का.’’

‘‘देर आयद दुरुस्त आयद.’’

‘‘तुम बताओ मेरी पेंटिंग्स कैसी हैं?’’

‘‘अपनी बेटी की ड्राइंग की कौपी में तुम्हें ड्राइंग करते देख कर कह सकता हूं कि तुम पेंटिंग में निपुण हो.’’

‘‘पेंटिंग का काम करूं तो कैसा रहेगा. आजकल तो पेंटिंग्स करोड़ों में बिकती हैं.’’

‘‘ठीक ही रहेगा. लोग अपने घर में आर्टिस्टों की पेंटिंग्स लगाना चाहते हैं. आरंभ कर दो बनाना,’’ शैलेष ने जान बचाने की खातिर कहा.

‘‘पहले सामान ला दो. फिर शुरू करूंगी.’’

‘‘सामान?’’

‘‘हां, पेंटिंग्स का सामान. लिख लो.’’

‘‘यह तो बहुत महंगा होगा.’’

लिस्ट क्या थी पूरा किचन रोल था. कोई 200 आइटम्स थीं.

‘‘तो क्या हुआ एक पेंटिंग बिकते ही लाभ ही लाभ है.’’

‘‘कितने लगेंगे?’’

‘‘सिर्फ क्व40 हजार के आसपास. मैं पूछ कर आई हूं.’’

‘‘बाप रे, न बाबा यह तो मेरी सारी बची जमापूंजी है. तुम कम से ही शुरू करो.’’

‘‘छोटे से शुरू कर कोई कुछ नहीं बन सकता है?’’

‘‘नहीं, मैं अपनी जमापूंजी खर्च नहीं कर सकता. 10-20 हजार रुपयों की बात अलग है.’’

‘‘अगले साल तक तुम्हारी पूंजी दोगुनी हो जाएगी.’’

‘‘नहीं.’’

‘‘देखो, सुनो तो सही.’’

‘‘एकदम नहीं.’’

‘‘यह तुम्हें क्या हो गया है. इस तरह घर में अशांति करने से क्या लाभ.’’

‘‘1 महीने से तुम तमाशा कर रही हो. मैं कोई करोड़पति नहीं जो तुम्हारे शौक के लिए लाखों रुपए खर्च कर दूं.’’

‘‘मैं सामान अपने शौक के लिए नहीं मांग रही हूं… मैं थोड़े पैसे कमा लूंगी, इसीलिए

तुम्हें जलन हो रही है.’’

‘‘मुझे जलन क्यों होने लगी. तुम्हीं सोचो, अगर तुम्हारी पेंटिंग्स नहीं बिकीं तो सारे पैसे पानी में चले जाएंगे. कभी पैसों की आवश्यकता पड़ी तो क्या करेंगे?’’

‘‘ठीक है अपने पैसों पर सांप बन कर कुंडली मारे बैठे रहो. मैं अपने गले की चेन बेच कर सामान ले आती हूं.’’

‘‘यानी तुम्हें इतना विश्वास है कि पेंटिंग्स बिक ही जाएंगी? इसीलिए गले की चेन तक बेचने तक को तैयार हो?’’

‘‘तुम्हारे जैसे आदमी से पाला पड़ा हो तो और किया ही क्या जा सकता है.’’

‘‘गले की चेन मत बेचो. कल बैंक से लोन ले लूंगा.’’

अब हमारे घर की सारी दीवारों पर पेंटिंगें हुई हैं, परदों पर रंग लगे हैं, ट्यूवें, शीशियां इधरउधर बिखरी रहती हैं. ड्राइंगरूम एक कोना माधवी ने हथिया लिया जहां उस का सामान पड़ा रहता और 30-40 कैनवास आधीअधूरी पड़ी हैं क्योंकि माधवी गेंदें के फूल और पहाड़ पर ?ोंपड़ी के आगे नहीं बढ़ पाई. हां, आजकल उस ने अपनी ड्रैस आर्टिस्टों वाली कर ली है.

अब वह मेकअप नहीं करती. बाल बिखरे रहते हैं. कौटन की साड़ी पहने रहती है.

नाखूनों पर पेंट लगा रहता है.

कोईर् भी आता है तो शैलेष झूठ कहता है कि माधवी को एक होटल से 50 कमरों के लिए पेंटिंगों का और्डर मिला है. जैसे ही होटल मालिक पेंटिंग्स खरीद लेगा वह चैक भेज देगा. माधवी ड्राइंगरूम में सोती है और शैलेष डबल बैड पर आराम से खर्राटे भरता है.

‘‘बिका कुछ?’’

‘‘मेरी पूरी फैक्टरी में केवल एक ही ऐसा आदमी था जिसे तुम्हारी बनी एक पेंटिंग पसंद आई. बाकी नहीं बिकीं. सारे पैसे पानी में चले गए.’’

‘‘थोड़ा मन लगा कर बेचते तो अवश्य बिक जातीं. इतनी खराब तो नहीं थीं?’’

‘‘हां, सारा दोष मेरा ही है. तुम इसी में संतुष्ट हो तो यही सही.’’

‘‘बहुत रुपयों की हानि हो गई है न. मुझे बहुत बुरा लग रहा है.’’

‘‘चलो, जो हुआ सो हुआ. अब पहले वाली अर्थव्यवस्था पर चलते हैं यानी मैं कमाता हूं और तुम खर्च करती रहो. अगर इसी तरह तुम भी कमाती रही तो भीख मांगने की नौबत आ जाएगी.’’

‘‘चलो, मजाक मत करो. एक बात सुनो.’’

‘‘कदापि नहीं. अब मैं कुछ नहीं सुनूंगा और इस अवस्था में हूं भी नहीं कि कुछ सुन सकूं.’’

‘‘क्या लिख रहे हो?’’

‘‘तुम्हारी लेखन सामग्री का सदुपयोग कर रहा हूं. कहानी लिख रहा हूं.’’

‘‘अच्छा. कैसी कहानी है?’’

‘‘घरेलू कहानी है.’’

‘‘मुझे भी सुनाओ.’’

‘‘पूरी हो जाने दो, पढ़ लेना.’’

‘‘छप जाएगी?’’

‘‘इस कहानी को पढ़ कर तो कठोर से कठोर संपादक भी पिघल उठेगा. छपने की पूरी उम्मीद है.’’

प्यार की धूपछांव: भाग 1- जब मंदा पर दौलत का खुमार चढ़ गया

तेज स्पीड में भागी जा रही गाड़ी एक झटके के साथ रुक गई, पूर्वी ने कंबल से गरदन बाहर निकाल कर खिड़की से झंका. बाहर गुप्प अंधेरा था. उस ने मन ही मन सोचा इस का मतलब है अभी सवेरा नहीं हुआ है. उस ने अपने इर्दगिर्द कस कर कंबल लपेटा और सोने की कोशिश करने लगी. नींद तो जैसे किसी जिद्दी बच्चे की तरह रूठी बैठी थी. पहली बार घर से अकेली इतने लंबे सफर पर निकली थी. हालांकि उस के पापा ने कई बार कहा था इतनी दूर अकेली कैसे जाओगी मैं छोड़ आता हूं परंतु उस ने भी जिद पकड़ ली थी.

‘‘अरे पापा अब मैं इतनी छोटी भी नहीं हूं. वैसे भी होस्टल में रह कर पढ़ाई करनी है तो आनाजाना तो लगा ही रहेगा.’’

पूर्वी वरेली से मुंबई वहां के फेमस इंस्टिट्यूट से इंटीरियर डिजाइनर का कोर्स करने जा रही थी. अब मन ही मन पछता रही थी, नाहक ही पापा को साथ आने से रोका, कम से कम यह सफर तो आराम से कटता.

उस ने एक बार फिर से सोने की कोशिश की. कुछ देर की झपकी लेने के बाद इस बार नींद फिर कानों में टकराती गरमगरम चाय की आवाज से खुली. दिन निकल आया था. पता नहीं कौन सा स्टेशन था परंतु एसी कंपार्टमैंट के कारण ठंड भी लग रही थी, साथ ही चाय पीने की तलव भी जोर मार रही थी. उस के मन में झंझलाहट सी भर गई कि इन ऐसी कंपार्टमैंट में बस खिड़की से झंकते रहो, शीशा खोल कर कुछ ले नहीं सकते. यदि जनरल बोगी होती तो झट से खिड़की खोल कर अपनी सीट पर बैठेबैठे ही चाय ले लेती. अब करे भी तो क्या करे. तभी उस की नजर सामने वाली बर्थ पर पड़ी. जब वह ट्रेन में चढ़ी थी तो सामने वाली बर्थ खाली थी परंतु शायद रात में कोई आया होगा.

सामने की बर्थ पर एक लड़का सो रहा था. वह सोच में पड़ गई कि पता नहीं कैसा हो. वैसे भी गर्ल्स कालेज से पढ़ाई करने के कारण अभी तक लड़कों से बातचीत का कोई मौका नहीं पड़ा था. गरमगरम चाय की आवाज के साथ उस लड़के ने भी अपनी आंखें खोलीं और मुसकराते हुए पूर्वी की तरफ देख कर हाय, गुड मौर्निंग कहा और तुरंत डब्बे से नीचे उतर गया. जब लौट कर आया तो उस के हाथ में चाय के 2 सकोरे थे.

सलिल ने एक कप पूर्वी की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए, गरमगरम चाय का आनंद लीजिए, वैसे भी यहां की चाय बहुत मशहूर है और सकोरे में चाय पीने का जो मजा है वह कप से चाय पीने में कहां.’’

पूर्वी ने भी संकोच त्याग कर चाय का कप ले लिया.

‘‘मैं सलिल मुंबई जा रहा हूं. वहां एक इंस्टिट्यूट से एमबीए कर रहा हूं, यह मेरा आखिरी साल है. अपना परिचय नहीं देंगी?’’ सलिल ने कहा.

पूर्वी कुछ झेंप सी गई, ‘‘नहीं वह बात नहीं है. मैं भी मुंबई के फेमस इंस्टिट्यूट एसएनडीटी से इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स करने जा रही हूं. मैं बरेली से हूं और पहली बार मुंबई जा रही हूं. बहुत सुना है मुंबई के बारे में कि सपनों की नगरी है. सभी के सपने पूरे होते हैं यहां. देखती हूं मेरा क्या बनता है,’’ पूर्वी एक ठंडी सांस छोड़ते हुए बोली.

‘‘अरे, यार इतना डरने की क्या जरूरत है, कम से कम मुसकरा तो दो क्योंकि मुसकराने के लिए कोई पैसा यानी रोकड़ा नहीं बस अच्छा थोबड़ा चाहिए, फिर वह तो विद गाड ग्रेस तुम्हारे पास है ही, फिर मुसकराने में इतनी कंजूसी क्यों भला. आधे काम तो आप की प्यारी सी मुसकराहट से ही बन जाते हैं.’’

पूर्वी ने सलिल की ओर आंख उठा कर देखा. वह आकर्षक व्यक्तित्व का ही नहीं था, स्वभाव से मिलनसार व व्यवहारकुशल भी था. इसलिए जल्द ही दोनों घुलमिल गए और छिटपुट बातों ने गति पकड़ ली.

एकदूसरे के परिवार की संक्षिप्त जानकारी लेने के बाद बातचीत का रुख एकदूसरे की पसंदनापसंद की ओर मुड़ गया.

‘‘अच्छा यह कोर्स करने के बाद कहीं सर्विस करने का इरादा है या अपना ही औफिस खोलने का? वैसे भी इस क्षेत्र में काफी स्कोप है. अधिकतर अमीर लोग अपने घरों को आजकल इंटीरियर डैकोरेशन वालों से ही सजवाते हैं.

‘‘मेरी कजिन ने भी यही कोर्स किया है और आजकल अपना औफिस खोल कर काफी अच्छा अर्न भी कर रही है. यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें उस का फोन नंबर दे सकता हूं, शायद तुम्हारी कुछ मदद हो जाए.’’

सलिल की इतनी साफगोई व मदद भरी बातें सुन कर पूर्वी को काफी राहत मिली. उस ने मन ही मन सोचा, जैसा वह सलिल को देख कर डर रही थी, यह वैसा बिलकुल नहीं है बल्कि यह तो मेरी मदद करने की कोशिश कर रहा है. उस ने मन ही मन राहत की सांस ली.

बातचीत का सिलसिला दोबारा भी सलिल ने ही शुरू किया, ‘‘भई मैं ने तो सोचविचार कर लिया है, एमबीए करने के बाद पहले 2-3 साल किसी अच्छी सी एमएनसी में जौब कर के कुछ ऐक्सपीरियंस जमा करूंगा, फिर अपनी कंसल्टैंसी खोलूंगा. वह क्या है कि किसी की नौकरी करना मेरी फितरत में नहीं है. मैं तो अपना खुद का ही बौस बनना चाहता हूं.’’

‘‘अरे वाह, आप का तो एकदम क्लीयर कौंसैप्ट है अपनी लाइफ के बारे में,’’ पूर्वी ने कहा.

‘‘हां सो तो है, पर देखो न मौम की तबीयत ठीक नहीं रहती है और अगले साल ही पापा का रिटायरमैंट भी है. वैसे भी पुलिस में डीएसपी हैं तो उन से बातचीत करने में थोड़ी घबराहट हो ही जाती है, हां, माई मौम इज वैरी कूल. सो दोनों ने अभी से ऐलान कर दिया है कि एमबीए की डिगरी ले कर लाइफ में सैटल होने के बारे में सोचो ताकि हम लोग घर की जिम्मेदारियों से मुक्त हो सकें यानी सीधे शब्दों में कहें तो तुम शादी कर के घर बसा लो. रिश्ते तो अभी से आने लगे हैं परंतु अभी तो मैं यह कह कर उन लोगों की बात को टालता आ रहा हूं कि पहले मुझे अपने पैरों पर तो खड़ा होने दो, कोई अच्छी नौकरी होगी तभी तो छोकरी को खुश रख पाऊंगा,’’ कह कर जोर से हंस पड़ा.

मैं ने पूर्वी ने ध्यान से पहली बार उस के चेहरे की तरफ देखा. बिलकुल शाहरुख खान की तरह उस के भी दोनों गालों पर डिंपल पड़ रहे थे. कुछ देर तक पूर्वी उस की तरफ देखती रही और फिर सोचने लगी कि जैसा उस ने मन में सोच रखा था कि उस का होने वाला पति गालों में डिंपल पड़ने वाला हो तो कितना अच्छा हो क्योंकि शाहरुख खान पूर्वी का पसंदीदा हीरो जो था. यह सोच कर उस के गाल शर्म से लाल हो गए.

‘‘यू नो हम मध्यवर्गीय पेरैंट्स का बस एक ही फंडा होता है कि बच्चों की पढ़ाई पूरी होते ही उन की शादी कर के अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो लो. मगर शादीविवाह कोई मजाक थोड़े ही है, कोई मन भाता मिलना भी तो चाहिए, आखिर पूरी जिंदगी का सवाल है.’’

अब तक की हुई बातचीत से पूर्वी भी सलिल से कुछ खुल गई थी और वे दोनों मित्रवत ऐसे बातचीत कर रहे थे मानो काफी दिनों से एकदूसरे को जानते हों.

‘‘हां, यह बात तो एकदम ठीक कही आप ने मेरे मांबाबूजी भी बस यही रट लगाए हुए हैं कि बस बहुत हो गई पढ़ाईलिखाई, शादी कर के अपने घरपरिवार को संभालो.’’

‘‘यह आपआप क्या लगा रखा है पूर्वी, वी आर फ्रैंड नाऊं. वैसे भी ट्रेन में जब सहयात्री दोनों ही यंग हों तो अपनेआप उन के बीच की दूरियां सिमट कर छोटी हो जाती हैं. वैसे पूर्वी शादी के बारे में क्या विचार हैं तुम्हारे? तुम्हें अरेंज्ड मैरिज पसंद है या लव मैरिज?’’ सलिल ने सीधा उस की आंखों में देखते हुए पूछा.

‘‘हां मन तो मेरा भी लव मैरिज करने का है क्योंकि मन पसंद जीवनसाथी के साथ जिंदगी जीने का आनंद कुछ अलग ही होता है,’’ पूर्वी ने कहा.

‘‘तो वंदा हाजिर है आप की नजरों के सामने,’’ सलिल ने भी शरारतभरी मुसकान चेहरे पर लाते हुए कहा.

‘‘वाकई, तुम बातें बहुत अच्छी व दिलचस्प करते हो.’’

‘‘लेकिन यह मेरे प्रश्न का जवाब नहीं,’’ सलिल ने कहा, ‘‘तो क्या तुम मुझे पसंद नहीं करतीं?’’

सलिल ने पूर्वी की आंखों में झंका तो उस ने शरमा कर अपनी नजरें झुका लीं, लेकिन उस के सुर्ख होते गालों ने उस के मन की चुगली कर ही दी.

‘‘अच्छा पूर्वी तुम ने वह डायलौग तो सुना ही होगा कि जब कोई किसी को शिद्दत से चाहे तो पूरी कायनात उन्हें मिलाने में जुट जाती है?’’

‘‘लगता है तुम फिल्में बहुत देखते हो, फिल्मी लव स्टोरी व असल जिंदगी की लव स्टोरी में बहुत फर्क होता है सलिल,’’ पूर्वी ने कहा.

‘‘क्या फर्क होता है? ये फिल्म वाले भी अपनी फिल्म की स्टोरी असल जिंदगी से ही तो उठाते हैं. बस उसे मनोरंजक बनाने के लिए कुछ ट्विस्ट डाल देते हैं.’’

‘‘हां, सो तो है… कह तो तुम एकदम सही रहे हो.’’

ट्रेन की स्पीड कुछ धीमी हो चली थी. सलिल ने खिड़की से झंका और बोला, ‘‘लगता है ट्रेन मुंबई पहुंचने वाली है. अच्छा पूर्वी यहां मुंबई में तुम्हारा कोई लोकल गार्जियन है क्या?’’

‘‘नहीं… इसीलिए तो मन में थोड़ा डर व घबराहट है कि इतनी बड़ी मुंबई नगरी में कहीं कुछ हो गया मेरे साथ तो मदद के लिए किसे कहूंगी.’’

‘‘अरे, इतना क्यों घबरा रही हो, वंदा हाजिर है न,’’ सलिल ने फिर हंसते हुए कहा तो पूर्वी उस के गाल के डिंपल देख कर शरमा कर लाल हो गई.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा करता हूं पहले तुम्हें तुम्हारे होस्टल छोड़ देता हूं. इस बहाने होस्टल भी देख लूंगा और तुम्हारा रूम नंबर भी पता चल जाएगा.’’

ट्रेन के रुकते ही दोनों ने मिल कर सामान उतारा और टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ चले.

रास्ते में सलिल ने पूर्वी से उस का फोन नंबर ले लिया और अपना फोन नंबर भी उसे दे दिया. तभी टैक्सी एक बड़ी सी बिल्डिंग के सामने रुकी, जिस के ऊपर बड़ेबड़े शब्दों में एसएनडीटी का बोर्ड लगा था.

पूर्वी अभी तक खिड़की से मुंबई की ऊंचीऊंची इमारतों को ही ताक रही थी.

‘‘यह देखो तुम्हारी मंजिल तो आ गई. चलो मैं तुम्हें तुम्हारे रूम तक छोड़ देता हूं. हां, उस से पहले एक सैल्फी तो बनती है ताकि जब तुम्हें मिस करूं, तुम्हारा चेहरा देख सकूं,’’ कह कर सलिल एक बार फिर खिलखिला कर हंस दिया.

तुम्हारा गुनहगार: समीर की अनचाही मंजिल

मैंने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता, बल्कि मैं ने कभी जरूरत ही नहीं समझ. मैं ने कभी किसी बात को दिल से नहीं लगाया. लिखना मुझे व्यर्थ की बात लगती. मैं सोचता क्यों लिखूं? क्यों अपनी सोच से दूसरों को अवगत कराऊं? मेरे बाद लोग मेरे लिखे का न जाने क्याक्या अर्थ लगाएं. मैं लोगों के कहने की चिंता ज्यादा करता अपनी कम.

अकसर लोग डायरी लिखते हैं. कुछ प्रतिदिन और कुछ घटनाओं के हिसाब से. मैं अपने विषय में किसी को कुछ नहीं बताना चाहता, लेकिन पिछले 1 सप्ताह से यानी जब से डा. नीरज से मिल कर लौटा हूं अजीब सी बेचैनी से घिरा हूं. पत्नी विनीता से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पाता. वह तो पहले ही बहुत दुखी है. बातबात पर आंखें भर लेती है. उसे और अधिक दुखी नहीं कर सकता. बेटे वसु व नकुल हर समय मेरी सेवा में लगे रहते हैं. उन्हें पढ़ने की भी फुरसत नहीं. मैं उन का दिमाग और खराब नहीं करना चाहता. यों भी मैं जिस चीज की मांग करता हूं वह मुझे तत्काल ला कर दे दी जाती है, भले ही उस के लिए फौरन बाजार ही क्यों न जाना पड़े. मैं कितना खुदगर्ज हो गया हूं. औरों के दुखदर्द को समझना ही नहीं चाहता. अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता हूं, लेकिन लगा नहीं पा रहा.

‘‘पापा, आप चिंता न करो. जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ कहता हुआ वसु जब अपना हाथ मेरे सिर पर रखता है, तो मैं समझ नहीं पाता कि यह कह कर वह किसे तसल्ली दे रहा है मुझे या अपनेआप को? उस से क्या कहूं? अभी मोबाइल पर किसी और डाक्टर से कंसल्ट करेगा या नैट में सर्च करेगा. बच्चे जैसे 1-1 सांस का हिसाब रख रहे हैं. कहीं 1 भी कम न हो जाए और मैं बिस्तर पर पड़ा इन सब की हड़बड़ी, हताशानिराशा उन से आंखें चुराते देखता रहता हूं. उन की आंखों में भय है. भय तो अब मुझे भी है. मैं भी कहां किसी से कुछ कह पा रहा हूं.

डा. राजेश, डा. सुनील, डा. अनंत सभी की एक ही राय है कि वायरस पूरे शरीर में फैल चुका है. लिवर डैमेज हो चुका है. जीवन के दिन गिनती के बचे हैं. डा. फाइल पलटते हैं, नुसखे पढ़ते हैं और कहते हैं कि इस दवा के अलावा और कोई दवा नहीं है.

सुन कर मेरे अंदर छन्न से कुछ टूटने लगता है यानी मेरी सांसों की डोर टूटने में कुछ ही समय बचा है. मेरे अंदर जीने की अदम्य लालसा पैदा होने लगती है. मुझे अफसोस होता है कि मेरे बाद पत्नी और बच्चों का क्या होगा? अकेली विनीता बच्चों को कैसे संभालेगी? कैसे बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी? कैसे घर खर्च चलेगा? 2-4 लाख रुपए घर में हैं तो वे कब तक चलेंगे? वे तो डाक्टरों की फीस और मेरे अंतिम संस्कार पर ही खर्च हो जाएंगे, घर में पैसे आने का कोई तो साधन हो.

विनीता ने कितना चाहा था कि वह नौकरी करे पर मैं ने अपने पुरुषोचित अभिमान के आगे उस की एक न चलने दी. मैं कहता कि तुम्हें क्या कमी है? मैं सभी की आवश्यकताएं आराम से पूरी कर रहा हूं. पर अब जब मैं नहीं रहूंगा तब अकेली विनीता सब कैसे संभालेगी? घर और बाहर संभालना उस के लिए कितना मुश्किल होगा. मैं अब क्या करूं? उसे कैसे समझाऊं? क्या कहूं? कहीं मेरे जाने के बाद हताशानिराशा में वह आत्महत्या ही न कर ले. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती. वह इतनी कमजोर नहीं है. मैं भी न जाने क्या उलटीसीधी बातें सोचने लगता हूं. पर विनीता से कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे हैं.

रिश्तेदार 1-1 कर आ जा रहे हैं. कुछ मुझे तसल्ली दे रहे हैं तो कुछ स्वयं को. पत्नी विनीता और बेटा वसु गाड़ी ले कर मुझे डाक्टरों को दिखाने के लिए शहर दर शहर भटक रहे हैं. आय के सभी स्रोत लगभग बंद हैं. वे सब मुझे किसी भी कीमत पर बचाने की कोशिश में लगे हैं.

मैं डाक्टर की बातें सुन और समझ रहा हूं, लेकिन इस प्रकार दिखावा कर रहा हूं कि डाक्टरों की बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं.

विनीता और वसु के सामने उन का मन रखने के लिए कहता हूं, ‘‘डाक्टर बेकार बक रहे हैं. मैं ठीक हूं. यदि लिवर खराब है या डैमेज हो चुका है तो खाना कैसे पचा रहा है? तुम सब चिंता मत करो. मैं कुछ दिनों में ठीक हो कर चलने लगूंगा. तुम डाक्टरों की बातों पर विश्वास मत करो. मैं भी नहीं करता.’’

पता नहीं मैं स्वयं को समझ रहा हूं या उन्हें. पिछले 5 सालों से यही सब हो रहा है. मैं एक भ्रम पाले हुए हूं या सब को भ्रमित कर रहा हूं. 5 साल पहले बताए गए सभी कारणों को डाक्टरों की लफ्फाजी बता कर नकारने की कोशिश करता रहा हूं. यह छल पत्नी और बच्चों से भी किया है पर स्वयं को नहीं छल पाया हूं.

एचआईवी पौजिटिव बहुत ही कम लोग होते हैं. पता नहीं मेरी भी एचआईवी पौजिटिव रिपोर्ट क्यों कर आई.

विनीता के पूछने पर डाक्टर संक्रमित खून चढ़ना या संक्रमित सूई का प्रयोग होना बताता है, लेकिन मैं जानता हूं विनीता मन से डाक्टर की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही. वह तरहतरह की पत्रिकाओं और किताबों में इस बीमारी के कारण और निदान ढूंढ़ती रहती है.

मैं जानता हूं कि 7 साल पहले यह बीमारी मुझे कब और कैसे हुई? जीवन में पहली बार मित्र के कहने पर लखनऊ में एक रात रुकने पर उसी के साथ एक होटल में विदेशी महिला से संबंध बनाए. गया था रात हसीन करने, जीवन का आनंद लेने पर लौटा जानलेवा बीमारी ले कर. दोस्त ने धीरे से कंधा दबा कर सलाह भी दी थी कि सावधानी जरूर बरतना. पर मैं जोश में होश खो बैठा. मैं ने सावधानी नहीं बरती और 2 साल बाद जब तबीयत बिगड़ीबिगड़ी रहने लगी तब डाक्टर को दिखाया और ब्लड टैस्ट कराया. तभी इस बीमारी का पता चला. मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई. अब क्या हो सकता था, सिवा इलाज के? इलाज भी कहां है इस बीमारी का? बस धीरेधीरे मौत के मुंह में जाना है. न तो मैं दिल खोल कर हंस सकता और न ही रो. अपनी गलती किसी को बता भी नहीं सकता. बताऊं भी कैसे? मैं ने विनीता का भरोसा तोड़ा था, यह कैसे स्वीकार करता?

विनीता से कई लोगों ने कहने की कोशिश भी की, लेकिन उस का उत्तर हमेशा यही रहा कि मैं अपने से भी ज्यादा समीर पर विश्वास करती हूं. वे ऐसा कुछ कभी कर ही नहीं सकते. समीर अपनी विनीता को धोखा नहीं दे सकते. मुझे लग रहा था कि विनीता अंदर ही अंदर टूट रही है. स्वयं से लड़ रही है, पर मुखर नहीं हो रही, क्योंकि उस के पास कोई ठोस कारण नहीं है. मैं भी उस के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता.

पिछले 5 सालों से हमारे बीच पतिपत्नी जैसे संबंध नहीं हैं. हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मुझे कई बार अफसोस होता कि मेरी गलती की सजा विनीता को मिल रही है. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि शारीरिक संबंध न बनाए जाएं. मेरी इच्छा होती तो उस का मैं कठोरता से दमन करता. विनीता भी मेरी तरह तड़पती होगी. कभी विनीता का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेता, लेकिन उस का सूनी आंखों में झंकने की हिम्मत न कर पाता. वह मुझे एकटक देखती तो लगता कि पूछ रही है कि तुम यह बीमारी कहां से लाए? मेरी नजरें झुक जातीं. मैं मन ही मन दोहराता कि विनीता मैं तुम्हारा अपराधी हूं. तुम से माफी मांग कर अपना अपराध भी कम नहीं कर सकता.

मैं रोज तुम्हारे कमरे में आ कर तुम्हें छाती पर तकिया रखे सोते देखता हूं. आंखें भर आती हैं. मैं इतना कठोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. तुम्हें आगोश में भरने का मेरा भी मन है. मेरी इच्छाएं भी अतृप्त हैं. एक घर में रह कर भी हम एक नदी के 2 किनारे हैं. तुम पलपल मेरा ध्यान रखती हो. वक्त से खाना और दवा देती हो. मुझे डाक्टर के पास ले जाती हो. फिर भी मैं असंतुष्ट रहता हूं. मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. तुम मुझ से दूर भागती हो और मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता तो वे क्रोध में मुखर होने लगती हैं. सोच और विवेक पीछे छूट जाते हैं. मैं तो मर ही रहा हूं तुम्हें भी मृत्यु देना चाहता हूं. मैं कितना खुदगर्ज इंसान हूं विनीता.

वक्त के साथ दूरी बढ़ती ही जा रही है. मेरा जीना सब के लिए व्यर्थ है. मैं जी कर घर भी क्या रहा हूं सिवा सब को कष्ट देने के? मेरे रहते हुए भी मेरे बिना सब काम हो रहे हैं, मेरे बाद भी होंगे.

आज की 10 तारीख है. मुझे देख कर डाक्टर अभीअभी गया है. मैं बुझने से पहले तेज जलने वाले दीए की तरह अपनी जीने की पूरी इच्छा से बिस्तर से उठ जाता हूं. विनीता और बच्चों की आंखें चमक उठती हैं. मैं टौयलेट तक स्वयं चल कर जाता हूं. फिर लौट कर कहता हूं कि मैं चाहता हूं विनीता कि मेरे जाने के बाद भी तुम इसी तरह रहना जैसे अब रह रही हो.

मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम नहीं जानतीं कि मैं पिछले सप्ताह से बसु से अपने एटीएम कार्ड से रुपए निकलवा कर तुम्हारे खाते में जमा करा रहा हूं. ताकि मेरे बाद तुम्हें परेशानी न हो. मैं ने सब हिसाबकिताब लिख कर दिया है, समझदार हो. स्वयं और बच्चों को संभाल लेना. मुझे तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना जरा भी अच्छा नहीं लग रहा, पर जाना तो पड़ेगा. मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है कि तुम से कहूं, फिर कहनेसुनने से दूर हो जाऊंगा. तुम भी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती होगी पर मेरी परेशानी देख कर चुप हो. न मैं तुम से कुछ कह पाऊंगा और न तुम सुन पाओगी. तुम्हें देखतेदेखते ही किसी भी पल अलविदा कह जाऊंगा. मैं जानता हूं तुम्हें हमेशा यही डर रहता है कि पता नहीं कब चल दूं. इसीलिए तुम मुझे जबतब बेबात पुकार लेती हो. हम दोनों के मन में एक ही बात चलती रहती है. मुझे अफसोस है विनीता कि मुझे अपना वादा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी किए बगैर ही जाना पड़ेगा.

तुम सो गई हो. सोती हुई तुम कितनी सुंदर लग रही हो. चेहरे पर थकान और विषाद की रेखाएं हैं. क्या करूं विनीता आंखें तुम्हें देख रही हैं. दम घुट रहा है. कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूं.

विनीता यह जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नए जीवन की शुरुआत है. अंधेरा दूर होगा, सूरज निकलेगा. इतने दिन से जो धुंधलापन छाया था सब धुलपुंछ जाएगा. तुम्हारा कुछ भी नहीं गया है. यह मैं क्या सम?ा रहा हूं? क्या तुम्हें नहीं समझता? समझता हूं तभी समझ रहा हूं. अब मेरा जाना ही ठीक है. वसु को कोर्स पूरा करना है. उसे प्लेसमेंट जौब मिल गई है. एक रास्ता बंद होता है. दूसरा खुल जाता है. नकुल भी शीघ्र ही अपनी मंजिल पा लेगा.

विनीता, तुम्हारे पास मेरे सिवा सभी कुछ होगा. मैं जानता हूं मेरे बाद तुम्हें अधूरापन, खालीपन महसूस होगा. तुम अपने अंदर के एकाकीपन को किसी से बांट नहीं पाओगी. मैं

भी तुम्हारा साथ देने नहीं आऊंगा. पर मेरे सपनों को तुम जरूर पूरा करोगी. मन से मुझे माफ कर देना. अब बस सांस उखड़ रही है… अलविदा विनीता अलविदा… तुम्हारा समीर

प्रतिध्वनि: सुलभा डिप्रैशन में क्यों रहने लगी थी

अशोक आज किचन में ब्रैड पर ऐक्सपैरिमैंट कर रहा था. सुलभा कंप्यूटर पर अपने औफिस का काम कर रही थी. नरेंद्र आइलैंड किचन के दूसरी तरफ बैठा बतिया भी रहा था और खा भी रहा था.

नरेंद्र ने एक नजर मेरी ओर डाली, फिर आंखें अपनी प्लेट पर टिका लीं. तभी सुलभा ने दहीवड़े को डोंगा उठा कर कहा, ‘‘नरेंद्र एक और ले लीजिए. देखिए तो आप की पसंद के बने हैं. कल मैं ने खुद बनाए थे… खास रैसिपी है.

‘‘बस अब और नहीं चाहिए सुलभा,’’ उस के यह कहते हुए भी सुलभा ने एक वड़ा प्लेट में डाल ही दिया. साथ ही कहा, ‘‘तुम्हें पसंद हैं न प्लीज, एक मेरे कहने से ले लीजिए.’’

अशोक ने हाथ के इशारे से मना भी किया, पर सुलभा ने वड़ा डाल कर तभी चाउमिन का डोंगा उठा लिया.

सुलभा का पति अशोक नरेंद्र से बोला, ‘‘सुलभा को पता है कि तुम्हें क्या पसंद है. इसे दूसरों को उन की पसंद का खाना खिला कर बड़ा संतोष मिलता है. तुम से क्या बताऊं. इसे जाने कैसे पता लग जाता है. सभी को इस का बनाया खाना पसंद आता है. मेरी ब्रैड का क्या इस ने आदर नहीं किया.’’

कोविड के बाद से अशोक ने खाना बनाना शुरू कर दिया था पर वह ब्रैड, पिज्जा और बेक्ड पर ही ज्यादा जोर देता था. जब से किचन में घुसने लगा है तब से सुलभा को लगने लगा है कि उस का एकछत्र राज चला गया है. हालांकि ज्यादा खाना किचन हैल्प शंकर बनाता है पर अभी 15 दिन से वह गांव गया हुआ है इसलिए हम दोनों बना रहे हैं और किचन में भी हमारा कंपीटिशन चलता है.

इस कंपीटिशन के शिकार कभी दोस्त होते हैं, कभी शंकर तो कभी हमें आपस में भिड़ने का मौका मिल जाता है.

नरेंद्र ने वड़ा खाया और ब्रैड के बेक होने का इंतजार करने लगा. अशोक चालू हो गया, ‘‘वड़ा तो अच्छा बनेगा ही. इस में ड्राईफ्रूट्स भर रखे हैं. एक तरफ जिम जाओ और फिर इतना फैट वाला वड़ा खाओ.’’

‘‘अच्छा,’’ सुलभा ने भी नकली मुसकान होंठों पर लाते हुए कह डाला, ‘‘नरेंद्र, अगर ऐसे वड़े पसंद हैं तो मैं बनाना सिखा दूंगी… इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ पर अशोक की बात अखर रही थी.

सुलभा का जी चाहा कह दें कि अशोक, यह दही की गुझिया है, वड़े नहीं. लेकिन उस का बोलना अच्छा नहीं रहेगा. वह बोल भी नहीं पाएगी. बस इतना ही प्रकट में कहा, ‘‘जानती हूं, कई बार तो बनाए हैं. अशोक तो बस ऐसे ही कहते रहते हैं. जब मेरी मां के यहां जाते हैं तो 2 की जगह 4 खा जाते हैं. मां हमेशा एक टिफिन में बांध कर देती है. पर ये ऐप्रीशिएट करना जानें तो न.’’

फिर आगे जोड़ डाला, ‘‘एक यहीं की तो बात है नहीं, अशोक की यह आदत बन गई है. इन्हें मेरा कोई भी काम पसंद नहीं आता. छोटी से छोटी बात में भी दोष निकालेंगे. मुझे कोई ऐतराज भी नहीं, लेकिन उसे भरी महफिल में कहना और मैं कुछ कहूं तो चिढ़ जाना. आज भी सिर्फ  इतना ही तो कहा था कि कई बार ऐसे वड़े बना कर खिला चुकी हूं, बस, उसी पर इतना कमैंट आ गया. वड़े से भी ज्यादा बड़ा,’’ दोनों को यह नोकझोंक कई बार दिल पर उतर जाती है. दोनों कमाते हैं पर पुरुष होने का अहम अशोक में वैसा ही है.

कल ही की तो बात है. दूध आंच पर रख कर स्वाति को फीस के रुपए देने सुलभा कमरे में चली गई थी, सोचा था पर्स में से निकाल कर देने ही तो हैं. अगर वहां कुछ देर लग गई थी, स्वाति औटो वाले की बात बताने लगी थी कि रास्ते में देर लगा देता है. आजकल रोज देर से स्कूल पहुंच रही हूं आदिआदि.

तभी अशोक को कहने का मौका मिल गया, ‘‘रोजरोज दूध निकल जाता है, लापरवाही की हद है. कहा था कि टैट्रापैक ले आया करो, उबालने का झंझट नहीं रहेगा पर मैडम तो थैली ही लाएंगी क्योंकि यह ज्यादा ताजा होता है.’’

उस दिन इन की मां भी रहने आई हुई थी. वह भी बोल उठी, ‘‘सुलभा हम लोगों के वक्त में तो बूंद भर भी दूध गिर जाता तो लोग आफत कर डालते थे. दूध गिरना अच्छा जो नहीं होता. अब मैं क्या कहूं कि तब दूध मिलता भी तो लंबी लाइनों में लग कर.’’

अशोक भी धीरे से बोले, ‘‘पैसा लगता है भई. जरा ध्यान रखना चाहिए इस में. दूध रख कर शंकर से ही कह दिया करो, देख ले.’’

देवरदेवरानी 10 दिन बिताने आए हैं. दिनभर सुलभा उन लोगों का स्वागतसत्कार करती रहती है. फिर भी कोई न कोई बात उठ ही जाती है. अशोक लगते हैं तो सिर्फ परोसने के समय.’’

देवर शलभ एक बड़ी कंपनी में है और नंदा आजकल नई नौकरी ढूंढ़ रही

है. नंदा घर के काम में तो हाथ ही नहीं लगाती. लगता है, पूरी तरह मेहमान बन कर आई है. आज के युग में कोई कहीं मेहमान बन कर भी जाता है, तब भी शिष्टाचारवश कुछ न कुछ काम कराने लग ही जाता है. स्वयं खाली बैठी भाभी को किचन में शंकर के साथ लगे देखना अच्छा भी तो नहीं लगता. सुलभा कुछ नहीं कह सकती क्योंकि सब जानती है, यहीं कहेंगे, थोड़े दिनों को आई थी, इसलिए काम में क्या लगे, उसे घर का कुछ पता भी तो नहीं है.

अब भी अपने 7 साल के नंदन को स्पैलिंग याद करा रही है. वहीं नाश्ता रखा है, अभी मु?ो आवाज दी है, ‘‘भाभी, मेरी चाय भी यहीं भिजवा दें, नंदन को पढ़ा रही हूं. आप के स्वाति, अंशु के आते ही खेल में लग जाएगा.’’

नंदन तो अभी दूसरी में ही है. उस की पढ़ाई क्या इतनी जरूरी है कि रानीजी चाय का प्याला लेने नहीं आ सकतीं. अशोक भी जल्दी आ गए हैं, आजकल जब से भाईभावज आए हैं 5 बजे ही घर आ जाते हैं, नहीं तो 7 बजे से पहले दर्शन नहीं होते.

‘‘नंदा सचमुच बच्चे के साथ कितनी मेहनत करती है, तब जा कर बच्चे होशियार होते हैं,’’ सुन कर कहने लगे, ‘‘नंदन अपनी कक्षा में प्रथम आया है.’’

सब सुन कर मेर हाथ कांपने लगे हैं. मैं नंदा से ज्यादा कमाती हूं. मु?ा में क्या कमी है, नहीं जानती. मेरी जनरल नौलेज नंदा से ज्यादा ही है. मेरे बच्चे बिना एक शब्द बताए, बिना किसी ट्यूशन के सदा प्रथम आते हैं. समय ही कहां मिल पाता है कि अपने बच्चों को कुछ करा पाऊं. मेरे बच्चे. गर्व से मेरा सीना फूल आया. मेरे गिरते हुए आंस़ओं में खुशी की एक चमक आ गई. मेरे बच्चों को इस की भी जरूरत नहीं है, वे बहुत आगे हैं नंदन से.

अशोक का नाम है, पोजीशन है. उन की सलाह की कद्र की जाती है, उन से मिलने को लोग इच्छुक रहते हैं. नहीं, इसलिए नहीं कि उन से मिल कर कुछ आर्थिक लाभ होता है. इन का तो शुद्ध टैक्नीकल काम है. लोग मुझे सुखी समझते हैं. हां, जब उन की चर्चा होती है तो मुझे भी मान हो आता है. लेकिन कहीं कुछ ऐसा रह जाता है कि हम दोनों एकदूसरे के लिए बन नहीं पाए. सुलभा हर समय यही महसूस करती है कि वह उन का, घर का इतना खयाल रखती है, तो वे सब भी उस की रुचिअरुचि समझें. अशोक भले ही उस के काम को अपने से ज्यादा न समझें, पर उस के काम को व्यर्थ कह नकार तो न दें. खासतौर पर जब सुलभा भी काम पर जाती है.

सुलभा को घर और औफिस में चक्की में पिस कर भी जो सहानुभूति हासिल नहीं, वह नंदाको सहज ही मिल जाती है. उसे पति का प्यार भी मिलता है और सासससुर का स्नेह भी, प्रशंसा भी.

सप्ताहभर सब के साथ रहने का एहसान कर नंदा और देवर अगले दिन जाने वाले हैं. भोजन करते देवर अचानक कह उठे, ‘‘भाभी, नंदा की बड़ा इच्छा कुछ शौपिंग करने की है, इसे शौपिंग ले जाता हूं,’’ कह कर दोनों अशोक के साथ चले गए.

सुलभा का काम में मन नहीं लग रहा था, लगता भी कैसे. मन में एक के बाद एक खयाल आता जा रहा था. अंदर ही अंदर रो रही थी. किसी के सामने रो कर वह अपने को छोटा नहीं करना चाहती. हां, इतना सही है कि उस के इतना साफ कह देने का भी देवरदेवरानी का अकेले शौपिंग करने चला जाना उसे बहुत अखरा था. यह नहीं हुआ कि उसे, स्वाति व अंशु को भी ले जाते और एक खाना तो खिलाते. लगता है सब के मन में बेचारी है सुलभा वाला भाव बैठा हुआ है.

तभी बाई की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मैडम, मैं ग्रौसरी ले आई हूं, चैक कर लें.’’

बाई ने जब सामान निकाल कर दिया तो उस में चौकलेट के पैकेट थे जो मैं ने नंदा के बच्चों के लिए मंगवाए थे. उस की ललचाई नजरें उन पैकेटों को देख रही थीं, ‘‘ये चौकलेट तो मैडम बहुत महंगी हैं,’’ उस की बोली में एक करुणा का भाव था, ‘‘मेरा बेटा बारबार चौकलेट लाने को कहता है पर मेरे पास इतने पैसे कहां हैं,’’ कहतेकहते उस के आंसू बह गए.

सुलभा को आश्चर्य हुआ उस की यह दीन मुद्रा देख कर वरना तो हमेशा उसे अकड़ते ही देखती थी.

आज साथ ही उस का 8-10 साल का बेटा था. उस ने समान मुझे दे कर एक सांस ली, ‘‘इस का बाप तो न मेरी चिंता करता है, न इस की. मैं कमा कर देती हूं फिर भी आए दिन मारपीट करता है. चौकलेट मांगने पर इसे भी 2-4 थप्पड़ लगा देता है. जो आप की परेशानी है मैडम, वैसी ही मेरी भी.’’

‘‘तुम ने कैसे जाना कि मुझे कोई परेशानी है?’’ सुलभा बोली.

वह बोलने लगी. सुलभा सुनने लगी. यकायक एहसास हुआ कि दोनों के दुख कहीं एकजैसे हैं. इस सुसंस्कृत समाज में (तथाकथित ऊंची जाति में) मारपीट नहीं होती इस के यहां बातबात पर उसे पीट दिया जाता है. घर में सासससुर हैं, देवरननद हैं. ससुर है कि सास की उंगली का पोर भी दुख जाए तो आफत कर देगा. दोनों देवर अपनी घरवालियों को सिर पर चढ़ा कर रखते हैं. मगर उस का पति दाल में नमक ज्यादा हो या रोटी जल गई हो हर बात पर बिगड़ेगा. सभी लानत देने लगते हैं. दिनभर काम करती है, सब से अच्छा काम, फिर भी उसी को दिनरात सुनना पड़ता है. आज घर का काम छोड़ दे, बीमार पड़ जाए पैसे नहीं मिलें तो उस की आफत आ जाएगी.

‘‘मैम आप तो जानती हैं, जब मर्द अपनी औरत की इज्जत नहीं करता तो उस का घर में कोई भी मान नहीं करता. अगर मर्द जोरू को अपना समझे, उस का अच्छाबुरा उस से अकेले में कहे, ऐसे सोचे कि इस की बड़ाई हो, इस पर दुनिया न हंसे, तो औरत निकम्मी भी हो, तब भी घर के लोग उसे कुछ न कहेंगे.’’

सुलभा जल्दी से अपने कमरे में आ गई. उस में जैसे और सुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. उस की भी तो यही स्थिति थी. सुलभा ने सारी चौकलेटें बाई के बेटे के हाथों में दे दीं. देवरानी का बेटा खाली हाथ ही जाएगा.

‘‘मैम, आप का स्वभाव बहुत अच्छा है. आप के दिल में एकदूसरे के लिए दर्द है.’’

‘दूसरे के लिए दर्द’ सुलभा कैसे कहे यह दर्द तो उस का अपना है. उस ने बात पलट कर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं. यह तुम्हारा बेटा है न.’’

‘‘हां, मैम, 2 जवान लड़के और हैं, इस से बड़े सब. लेकिन दिल की बात सम?ाने वाला मर्द हो तो सबकुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं… कुछ भी नहीं.’’

‘‘हां, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं,’’ जैसे प्रतिध्वनि गूंज रही है. सुलभा के मन में भी यही आवाज उठ रही है.

सुलभा हौले से कह उठी, ‘‘हां, अपना पति अपना हो तो सब अपने हैं नहीं तो कोई भी कुछ नहीं. पत्नी लायक हो तो भी, घर बैठने वाली तो भी.’’

अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 3: क्या गलत थी रेखा की सोच

‘सुधीर, धैर्यपूर्वक मेरी बात सुनो. और लता, तुम भी गौर करो,’ मैं बोलने लगी, ‘देखो, तुम ने हमेशा अपनी मां को सिर्फ ‘मां’ के रूप में ही देखा है, पर कभी तुम ने यह भी सोचा है कि वे मां होने के साथसाथ एक औरत भी हैं. कभी तो उन्हें इस नजर से भी देखना चाहिए. एक औरत की कुछ भावनाएं होती हैं. उन्होंने मां की जिम्मेदारी तो पूरी तरह निभा दी है. अब अगर वे एक औरत के रूप में जीना चाहती हैं तो इस में बुराई क्या है?’

‘अगर उन्हें किसी मर्द की जरूरत थी तो पहले ही विवाह कर लेतीं. अब इस उम्र में यह सब करना क्या ठीक है?’ लता कुछ रुष्ट होते हुए बोली.

‘अगर पहले विवाह कर लेतीं तो आज सुधीर की दशा कुछ और ही होती. लता, समझने की कोशिश करो. तुम भी एक औरत हो. मर्द हो या औरत, जवानी के दिन तो फिर भी निकल जाते हैं, पर प्रौढ़ावस्था में ही एकदूसरे की जरूरत महसूस होती है. हो सकता है, यही जरूरत उन दोनों को करीब लाई हो. जवानी तो संघर्षों के कारण बीत गई, पर अब जब सुधीर भी अपने पद पर स्थायी हो गया है, सुमन भी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ व्यस्त हो गई है तो अकेलापन तो तुम्हारी मां को ही महसूस होता होगा.’

‘तुम बेकार की बातें कर रही हो,’ सुधीर बोला, ‘दुनिया क्या कहेगी कि जवान बेटी घर पर बैठी है और मां की शादी हो रही है.’

‘कभी तो समाज का भय छोड़ कर अपने प्रियजनों के हित के बारे में सोचने की आदत डालो. समाज का क्या है, वह तो राई का पहाड़ बना देता है, शादी हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कहेगा. अगर कोई कहेगा तो थोड़े दिन बोलेगा, फिर अपनेआप ही सब चुप हो जाएंगे.’

‘लोग चुप नहीं होंगे, उलटे, सुमन की शादी करनी मुश्किल हो जाएगी.’

‘ठीक है, तुम्हें अगर सिर्फ यही फिक्र है तो सुमन की शादी के बाद सोच लेना. उस व्यक्ति से बात तो कर के देखो.’

‘उस का नाम मत लो. उस को देखते ही मुझे नफरत होने लगती है. और उसे मैं बाप बोलूंगा, हरगिज नहीं.’

‘मैं मानती हूं कि एकाएक उसे पिता का स्थान देना बहुत कठिन है, पर धीरेधीरे कोशिश करने पर सब सामान्य हो जाएगा. शादी के बाद सप्ताह में एक बार मुलाकात करना, फिर देखना तुम्हारी नफरत कैसे मिट जाती है. अपरिचित व्यक्ति भी कुछ दिन साथ रहने पर अपना लगने लगता है, फिर वह तो कुछ हक भी रखेगा.’

‘हक? मैं उसे कोई हक नहीं देने वाला,’ सुधीर अभी भी अपनी बात पर अड़ा हुआ था.

‘मैं जानती हूं कि हम जिसे प्यार करते हैं, उस पर किसी और की हिस्सेदारी बरदाश्त नहीं कर पाते. पर तुम एक बार अपनी मां के बारे में सोचो, सिर्फ एक बार,’ मैं उसे समझाते हुए बोली.

‘ठीक है, कभी सोचेंगे,’ सुधीर हथियार डालते हुए बोला.

‘अच्छा, मेरी बातों पर गौर करना.’

‘हां, भई हां, तुम्हारी मूल्यवान बातों को मैं कैसे भूल सकता हूं. खैर, कब वापस जा रही हो?’

‘अगले मंगलवार को.’

‘बस, इतने ही दिन?’

‘हां, मेरे पति के चाचा जा रहे हैं, उन का साथ मिल जाएगा.’

‘हम तुम्हें छोड़ने के लिए एयरपोर्ट आएंगे,’ सुधीर ने कहा.

इतने में सुमन के टीचर भी चले गए. फिर हम काफी देर तक बातें करते रहे. करीब 6 बजे मैं घर लौटी.

समय अपनी गति से चल रहा था. मेरे जाने का समय भी आ गया था. भावभीनी विदाई के बाद मैं विमान में चढ़ गई. अपनी गलियों, महल्लों को छोड़ते बहुत दुख हो रहा था. पति के यहां स्थायी रूप से रहने के कारण मुझे भी यहां रहना पड़ रहा था, वरना मन तो हमेशा भारत में ही भटकता रहता था.

सुधीर का यह तीसरा पत्र था. 2 पत्र वह पहले भी भेज चुका था. पहले पत्र में अपनी उन्नति के बारे में लिखा था और दूसरे पत्र में सुमन के विवाह के बारे में.

मैं ने फिर से उस पत्र को गौर से देख कर पढ़ना शुरू किया, जिस में लिखा था:

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘असीम याद

‘‘आशा है, तुम पूरी तरह स्वस्थ व सुखी होगी. तुम्हें याद है, एक साल पहले की वह घटना, जब तुम ने मां की शादी करने के लिए लंबाचौड़ा भाषण दिया था.

‘‘आज तुम्हारा दिया हुआ वह भाषण काम आ गया है. तुम्हें जान कर हार्दिक खुशी होगी कि मैं ने मां का विवाह उसी व्यक्ति के साथ संपन्न करा दिया है. तुम सोच रही होगी कि यह सब कैसे हुआ.

‘‘दरअसल, बात यह थी कि सुमन की शादी के बाद मां रूखीरूखी सी रहने लगी थीं. धीरेधीरे उन का स्वास्थ्य गिरने लगा. इधर मैं भी अधिक व्यस्त हो चुका था, इसलिए मां को पूरा वक्त नहीं दे पाया.

‘‘मां की बीमारी के चलते लता भी काफी दुखी रहने लगी. वह मुझ पर जोर देती रही कि रेखा की बात मान लो. फिर मां ने जो बिस्तर पकड़ा तो 3 दिनों तक उठ ही न पाईं.

‘‘वह व्यक्ति भी मां से मिलने आया. पहले तो मुझे थोड़ा गुस्सा आया, पर लता के जोर देने पर मैं ने उस से बात की. वह शादी करने को तैयार हो गया. फिर मैं ने मां का विवाह कोर्ट में जा कर करा दिया. सुमन, उस का पति और जापान से उस व्यक्ति का बेटा भी आया था. मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि मां उस दिन कितनी सुंदर लग रही थीं. अंतिम पड़ाव में मिले सुख के कारण वे भावविभोर हो गईं. शर्म के चलते वे मुझ से कुछ कह न पाईं और न ही मैं कुछ बोल पाया.

‘‘जापान से आया उस व्यक्ति का बेटा भी मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करने लगा. उस ने कहा कि वह अब बेफिक्र हो कर जापान में काम कर सकता है. अब हम हर रविवार को मिलते हैं.

‘‘तुम ने सच ही कहा था कि साथ रहने से अपरिचित व्यक्ति भी अपना लगने लगता है. वास्तव में मुझे अब वे अच्छे लगने लगे हैं. उन की गंभीर बातें मेरे दिलोदिमाग में उतर जाती हैं. वे हमारा पूरा खयाल रखते हैं. अगर हम किसी दूसरे को पलभर के लिए भी खुशी दे सकें तो उस से बढ़ कर दूसरा कोई सुख नहीं, फिर मां तो मेरी अपनी ही हैं.

‘‘मेरा लंबाचौड़ा खत पढ़ कर शायद तुम बोर हो गई होगी. पर मैं और लता तुम्हारे प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेंगे. जो कुछ तुम ने किया, उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.

‘‘तुम्हारा दोस्त,

‘‘सुधीर.’’

पत्र मेज पर रख मैं आंखें मूंद कर लेट गई. मुझे खुशी थी कि मैं अपनी जिंदगी में कम से कम एक व्यक्ति को तो सच्ची खुशी प्रदान कर सकी.

जाने क्यों लोग: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

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अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 2: क्या गलत थी रेखा की सोच

घर पहुंच कर उस ने अपनी भाभी से मेरा परिचय कराया. उस का नाम लता था. वह भी सुंदर थी, साथ ही सलीकेदार व्यवहार के कारण कुछ ही क्षणों में मुझ से घुलमिल गई.

मैं पूछना तो नहीं चाहती थी, पर रहा न गया. इसीलिए उस की भाभी से पूछ बैठी, ‘मौसीजी कहां हैं?’

‘वे बाजार गई हुई हैं,’ लता मुसकराती हुई बोली.

इतने में दरवाजे की घंटी बजी. लता एक झटके के साथ खुशीखुशी उठ खड़ी हुई. ‘शायद वे आ गए’ इतना कह कर वह दरवाजा खोलने चली गई.

‘रेखा, तुम?’ अपना नाम सुन कर सामने देखा.

‘सुधीर, तुम?’ सामने सुधीर को देख हैरान हो गई.

‘ये मेरे भैया हैं,’ सुमन परिचय कराते हुए बोली, ‘और सुधीर भैया, ये शीबा की बड़ी बहन हैं.’

‘तो तुम मेरी पड़ोसिन हो?’ सुधीर लता को ब्रीफकेस थमाते हुए बोला.

‘मैं नहीं, तुम मेरे पड़ोसी हो, क्योंकि बाद में तुम आए

हो. हम तो पहले से ही यहां रहते हैं.’

‘पर मैं ने सुना था, तुम्हारी शादी हो गईर् है और विदेश चली गई हो,’ सुधीर सोफे पर बैठता हुआ बोला.

‘जी हां, आप ने ठीक सुना. अभी महीनेभर से पीहर आईर् हुई हूं. पर, तुम्हें मेरे बारे में कैसे मालूम?’

‘भई, हम तो सभी दोस्तों के बारे में खबर रखते हैं. स्वार्थी तो लड़कियां होती हैं. जहां अपना सुख देखती हैं, वहीं चली जाती हैं. यहां तक कि मांबाप को भी छोड़ देती हैं.’

‘अच्छाअच्छा, अब चुप हो. लड़कियों की अपनी मजबूरियां होती हैं.’

‘हां भई, सारी मजबूरियां तो औरतों की ही होती हैं.’

‘बाप रे, आप लोगों ने तो लड़ना शुरू कर दिया,’ लता बोली, ‘आप लोग एकदूसरे को कैसे जानते हैं?’

‘हम दोनों एक ही कालेज में पढ़े हुए हैं,’ सुधीर उत्तर देते हुए बोला.

इतने में एक शख्स के आने से सुमन बोली, ‘दीदी, आप बातें करिए, मेरे तो टीचर आ गए. मैं पढ़ने जा रही हूं.’

मैं ने सिर हिला कर उसे स्वीकृति दे दी. फिर लता की ओर मुखातिब होते हुए बोली, ‘जानती हो, हम बिना झगड़े एक दिन भी नहीं बिता पाते थे.’

‘तुम्हारा अन्न जो हजम नहीं होता था,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘पर तुम यहां कैसे?’

‘तुम तो जानती ही हो, मैं होस्टल में रह कर यहां पढ़ाई कर रहा था. बीकौम के बाद मैं ने सीए करना शुरू कर दिया. साथ ही एक बैंक में नौकरी भी

मिल गई. बस, मैं ने सब को यहीं बुलवा लिया. हमारी शादी को भी अभी 6 महीने ही हुए हैं. अब मुझे क्या मालूम था कि मैं तुम्हारे ही पड़ोस में रह रहा हूं.’

‘लता, मालूम है, सब सुधीर को ‘मां का भक्त’ कह कर पुकारते थे,’ मैं

उस की ओर देखते हुए बोली, ‘यह हमेशा कहता था कि मां जैसी ही पत्नी मुझे मिले.’

‘पर मैं तो उन जैसी नहीं हूं,’ लता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

मुझे अपने ऊपर ही गुस्सा आया कि उस की मां के बारे में क्यों वार्त्तालाप छेड़ दिया.

लेकिन सुधीर ने बात संभालते हुए कहा, ‘तुम ने मेरी मां को देखा है?’

‘हां, एक दिन छत पर देखा था,’ मैं सामान्य स्वर में बोली.

‘तो यह उन की तरह ही सुंदर है कि नहीं.’

‘हां, है तो,’ मैं ने कहा.

लता अपनी तारीफ सुन शरमा गई.

‘इसे भी मां ने ही पसंद किया था, वरना तुम तो जानती ही हो, मेरी पसंद कैसी है,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘हांहां, जानती हूं. तुम्हारी पसंद एकदम घटिया है.’

‘घटिया है, तभी तो तुम मेरी दोस्त बनीं,’ सुधीर ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘क्या मतलब?’ मैं चीखते हुए बोली.

‘भई, आप लोग तो बहुत झगड़ते हैं. अब आराम से बैठ कर बातें करिए, मैं नाश्ता ले कर आती हूं,’ कहते हुए लता रसोई की तरफ चल दी.

लता के जाने के बाद सुधीर नम्रतापूर्वक बोला, ‘तुम लता की बातों का बुरा मत मानना. वह बहुत अच्छी है, पर कभीकभी अपना विवेक खो बैठती है. लेकिन इस में इस का कोई कुसूर नहीं है. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई हैं कि…’

‘क्या बात है, सुधीर, तुम रुक क्यों गए?’

‘तुम ने मां के बारे में कभी कुछ सुना है?’ सुधीर हौले से बोला.

‘हां, सुना तो है,’ मैं नजरें नीची करती हुई बोली, ‘पर विश्वास नहीं हो रहा. तुम तो उन की बहुत तारीफ करते रहते थे कि कितने कष्टों से तुम्हें पालापोसा है.’

‘हां, यह सच है. हम दोनों भाईबहन छोटे थे, तभी पिताजी का देहांत हो गया. सभी रिश्तेदार पुनर्विवाह के लिए मां पर जोर देते, पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया था. सिलाई कर कर उन्होंने हमें पालापोसा. हमें अच्छी शिक्षा भी दिलाई. हम उन का सम्मान भी बहुत करते हैं, पर इन दिनों…’ कहते हुए सुधीर का गला रुंध गया.

‘वह व्यक्ति क्या करता है?’ मैं सीधे सुधीर से पूछ बैठी. कालेज के जमाने में हम काफी गहरे दोस्त थे, कोई बात एकदूसरे से छिपाते न थे.

‘व्यापारी है. यहीं अगले मोड़ पर उस की दुकान है. उस को देखता हूं तो खून खौल उठता है. जी तो चाहता है, उस का खून कर दूं, पर परिवार की तरफ देख मन मसोस कर रह जाता हूं,’ वह गुस्से से बोला.

‘उस के बच्चे भी होंगे?’

‘हां, एक है. पर वह भी जापान में बस गया है. वहीं उस ने शादी कर ली है.’

‘क्या मां के व्यवहार में भी कुछ बदलाव हुआ है?’

‘नहींनहीं, उन का व्यवहार हमारे प्रति पहले जैसा ही है. बदलाव तो हमारे दिलों में हुआ है. यों तो लता भी उन का काफी सम्मान करती है. उन दोनों में कभी अनबन भी नहीं हुई. हम ने शर्म व संकोच के कारण मां से कभी कुछ नहीं कहा, पर यह दिल ही जानता है कि हमारे अंदर क्या बीत रही है.’

कुछ पलों के लिए खामोशी छा गई. फिर मैं बोली, ‘तुम मां की शादी उस व्यक्ति से क्यों नहीं कर देते?’

‘क्या?’ सुधीर सोफे से उछल कर खड़ा हो गया.

‘तुम इतने हैरानपरेशान क्यों हो रहे हो? शांति से बात तो सुनो.’

‘शांति से बात सुनूं?’ सुधीर सिर हिलाते हुए बोला, ‘रेखा, तुम्हारा सिर फिर गया है. अमेरिका जा कर तुम पागल हो गई हो.’

‘इस में पागल होने की क्या बात है?’

‘और नहीं तो क्या? यह भारत है, तुम जानती हो न. यहां पश्चिमी सभ्यता की कोई जरूरत नहीं है.’

‘क्या हुआ, आप इतनी जोर से क्यों बोले?’ लता रसोई से आते हुए सुधीर से बोली.

‘रेखा की बात सुनो,’ सुधीर हाथ उचकाते हुए बोला, ‘कहती है, मां की शादी कर दो.’

‘क्या?’ अब उछलने की बारी लता की थी?

मैं सिर पकड़े थोड़ी देर बैठी रही. जब दोनों चुप हो गए तो मैं बोली, ‘अब थोड़े शांत हुए हो तो मैं कुछ बोलूं?’

‘कुछ क्या, तुम बहुत कुछ बोल सकती हो.’

अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 1: क्या गलत थी रेखा की सोच

सुधीर का पत्र न जाने मैं ने कितनी बार पढ़ा होगा. हर बार एक सुखद सुकून का एहसास हो रहा था. फिर अपने वतन से आए पत्र की महक कुछ अलग ही होती है.

भारत से दूर अमेरिका में बसे मुझे करीब 3 साल हो गए. पत्र पढ़ने के बाद मुझे एक साल पहले की घटना याद आ गई जब मैं विवाह के बाद पहली बार भारत अपने पीहर गई थी. सप्ताहभर तो लोगों से मिलनाजुलना ही चलता रहा. रिश्तेदार मुझ से मिलने आते, पर मुझे सादे लिबास में देख कर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते, ‘अरे, तुम तो पहले जैसी ही हो.’

तमाम रिश्तेदारों को आश्चर्य होता कि विदेश जाने के बाद भी मुझ में फर्क क्यों नहीं आया. मैं उन की बातों पर हंस पड़ती, क्या विदेश जाने से अपनी सभ्यता को कोई भूल जाता है. जहां जन्म हुआ हो, वहां के संस्कार तो कभी मिट ही नहीं सकते. अपनी मिट्टी

की महक मेरे मन में इतनी अधिक समाई हुई थी कि अमेरिका में रहते

हुए भी कभी भारत को पलभर भी न भुला पाई.

जब मेलमुलाकातों का सिलसिला कुछ कम हुआ तो एक शाम मैं छत पर टहलने चली गई. हर घर को मैं बड़े गौर से देख रही थी, कहीं कुछ बदलाव नहीं हुआ था. तभी मैं सामने के घर से एक अपरिचित महिला को कपड़े उतारते हुए देखने लगी. इतने में मां भी छत पर आ गईं. मैं उस महिला को देखती हुई उन से पूछ बैठी, ‘सुरेशजी के घर में मेहमान आए हैं क्या?’

‘अब तुम तो 2 साल बाद लौटी हो. तुम्हें इधर की क्या खबर?’ मां कपड़े उतारती हुई बोलीं, ‘सुरेशजी तो सालभर पहले ही यह मकान खाली कर चुके हैं. नए लोग आ बसे हैं. इन की लड़की सुमन हर रोज शीबा के पास आती है. शीबा की अच्छी दोस्ती है. रोज शाम को दोनों मिलती हैं. कभी वह आ जाती है तो कभी शीबा उस के घर चली जाती है,’ फिर वे मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘अब नीचे चलो, मैं चाय बना देती हूं.’

‘थोड़ी देर में आती हूं,’ कहते हुए मैं छत पर टहलने लगी.

शीबा मेरी छोटी बहन का नाम है, उसी ने मेरा सुमन से परिचय कराया था. मेरी दृष्टि उस औरत पर ही टिकी रही. उस की उम्र 37-38 वर्ष के करीब होगी, पर सुंदरता अभी भी लाजवाब थी. देखने में अपनी उम्र से वह काफी छोटी लग रही थी. मैं तो उस की लड़की को नजर में रख कर अनुमान लगा रही थी कि जब उस की बेटी बीए में पढ़ रही है तो उस की उम्र यही होनी चाहिए. शायद यह औरत विधवा थी, तभी तो न माथे पर बिंदिया थी, न मांग में सिंदूर और न ही गले में मंगलसूत्र.

तभी पक्षियों का एक झुंड मेरे ऊपर से गुजरा. सुबह के थकेहारे पक्षी अपनेअपने घोंसलों की ओर जा रहे थे. आसमान साफ नजर आ रहा था. तभी मैं ने देखा, एक विमान धुएं की लकीर छोड़ता उड़ा जा रहा है. बच्चे अपनीअपनी पतंगों को वापस खींच रहे थे. सूर्य भी धीरेधीरे डूबता जा रहा था.

मां की आवाज सुन कर मैं सीढि़यां उतरने लगी. नीचे हाल में शीबा और सुमन टीवी देखते हुए पकौड़े खा रही थीं. मैं सुमन की ओर देखते हुए बोली, ‘तुम्हारी मां बहुत खूबसूरत हैं.’

‘हां, हैं, तो,’ सुमन ने बोझिल स्वर में कहा.

थोड़ी देर सुमन बैठी रही. शीबा की बातों का भी वह अनमने ढंग से उत्तर देती रही. कुछ क्षणों के बाद वह शीबा से बोली, ‘मैं घर जा रही हूं.’

शीबा ने उसे रोकने की कोशिश न की. उस के जाने के बाद मैं शीबा से पूछ बैठी, ‘क्या बात है, सुमन बुझीबुझी सी क्यों हो गई?’

‘तुम ने उस का मूड जो खराब कर दिया,’ शीबा ने उत्तर दिया.

‘मैं ने क्या कहा? मैं ने तो उस की मां की तारीफ ही की थी.’

‘तभी तो…’

‘क्या मतलब? अपनी मां की तारीफ से भी कोईर् नाराज होता है क्या?’

‘तुम अगर मां को कुछ नहीं बताओ तो मैं उस की मां के बारे में कुछ बताऊं,’ शीबा मेरे पास आ कर फुसफुसाते हुए बोली.

‘हांहां, बोलो,’ मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पा रही थी.

‘दरअसल, उस की मां का किसी से चक्कर है,’ शीबा हौले से बोली, ‘तुम मां को मत बताना, वरना वे मुझे सुमन से मिलने नहीं देंगी.’

‘मैं कुछ नहीं बताऊंगी. बेफिक्र रहो. पर यह बेसिरपैर की बातें मेरे सामने मत किया करो,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘मैं सच कह रही हूं. सुमन ने खुद मुझे बताया था.’

‘अच्छा, क्या बताया था?’

‘यही कि उस की मां जब मंदिर जाती हैं तो 2 घंटे तक वापस नहीं आतीं और एक अधेड़ व्यक्ति से बातें करती रहती हैं.’

‘तुम ने कभी देखा है?’

‘मैं ने तो नहीं देखा, पर वही बता रही थी.’

‘और कौनकौन हैं उस के घर में?’

‘एक भाई है, जिस की शादी हो चुकी है. सब इसी घर में साथ रहते हैं.’

फिर मैं ने और अधिक बात बढ़ाना उचित न समझा. सोचा, हर घर में कुछ न कुछ घटित होता ही रहता है.

समय यों ही गुजरता गया. सुमन रोज आती थी. वह घर के सदस्य जैसी थी. मैं ने फिर कभी उस की मां का जिक्र उस के सामने नहीं छेड़ा. थोड़े ही दिनों में वह मुझ से भी काफी घुलमिल गई. मेरे वापस जाने में एक सप्ताह बाकी था. एक दिन मैं ने सोचा कि कुछ खरीदारी कर लूं. मैं शीबा से बोली, ‘चलो, आज बाजार चलते हैं. मुझे कुछ सामान खरीदना है.’

शीबा टैलीविजन देखने में मग्न थी. वह बोली, ‘दीदी, अभी बहुत बढि़या आर्ट फिल्म आ रही है. तुम सुमन को साथ ले जाओ.’

‘जब तुम ही चलने को तैयार नहीं हो तो सुमन कैसे जाएगी. वह भी तो फिल्म देखेगी,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘नहीं दीदी, मैं चलती हूं,’ सुमन बोली, ‘मुझे आर्ट फिल्में पसंद नहीं. इन में सिर्फ समस्याएं दिखाई जाती हैं, जिन्हें सभी जानते हैं. कोई समाधान बताए तो बात बने.’

शीबा उस की पीठ पर एक मुक्का जमाते हुए बोली, ‘तुझे अच्छी नहीं लगतीं तो ज्यादा बुराई मत कर.’

हम दोनों 4 बजे तक खरीदारी करती रहीं. जब हम लौट रही थीं तो सुमन बोली, ‘दीदी, मेरे घर चलो न.’

‘अभी?’ मैं घड़ी देखते हुए बोली, ‘कल चलूंगी.’

‘नहीं, अभी चलिए न,’ वह जिद सी करती हुई बोली.

‘अच्छा, चलो,’ मैं उस के साथ चल पड़ी.

वसीयत: भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

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