Serial Story: फैसला दर फैसला- भाग 2

पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 1

रात का भोजन समाप्त कर हम ऊपर शयनकक्ष में आ गए. बरबस ही मेरा ध्यान स्टूल पर रखे उस के बेटे के फोटो की तरफ चला गया. कुछ पूछने से पहले मैं ने उसे किसी गुरु की तरह समझाना शुरू किया, ‘‘इशि, जिंदगी उतनी सपाट नहीं है. एक बार दुखों की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. उस के बाद सुखों की ढलान आती है… जब तक इन तकलीफों से

गुजरो नहीं, ऐसा लगता ही नहीं कि हम ने

कुछ किया…’’

‘‘शादीब्याह जब मसला बन जाए तो औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या रह जाती है? रिश्तों की आंच ही न रहे तो सांसों की गरमी एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती,’’ उस की वाणी अवरुद्ध हो गई थी.

मैं ने उस की दुखती रग को छू दिया, ‘‘कुछ कहेगी नहीं?’’

‘‘हारे हुए जुआरी की तरह सबकुछ लुटा कर खाली हाथ चली आई हूं… पूरे घर को बांधने के प्रयास में जान ही नहीं पाई कि जिस डोर से बांधने का प्रयास किया वह डोर ही कच्ची थी… जितना बांधने का प्रयास करती, उतनी ही डोर टूटती चली जाती… समझ ही नहीं पाई कि मैं गलत कहां थी?

‘‘एक बार फिर सोच लो इशिता,’’

मैं ने कहा.

‘‘आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की… मेरी छत मेरा वजूद था… बेशक इस के विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था. फिर भी सिर पर कुछ तो था… पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई… मेरा सिर नंगा हो गया. सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया,’’ इशिता

की मुसकराहट में छिपी उस के मन की वेदना स्पष्ट थी.

‘‘प्रसन्न से तुम ने प्रेम विवाह किया था…’’ उसे कुरेदने के विचार से मैं ने अगला प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे अमेरिका जाने के बाद मैं बिलकुल अकेली रह गई थी. बूआ भी ज्यादा समय तक नहीं जी पाई थीं. सुबह दफ्तर चली जाती तो पूरा दिन तो बीत जाता था, लेकिन रात की काली छाया अजगर के समान जब विकराल रूप ले कर मेरे सामने खड़ी होती तो मन किसी ऐसे सहारे को ढूंढ़ने के लिए तत्पर हो उठता, जो मेरा अपना हो, नितांत अपना, मेरी प्रेरणा बन कर मुझे संबल प्रदान करे, मेरी भावनाओं, संवेदनाओं को समझे.

‘‘उसी समय एक प्रोजैक्ट के दौरान मेरी भेंट प्रसन्न से हुई. मैं आर्किटैक्ट थी

और वह इंटीरियर डिजाइनर. काम के सिलसिले में अकसर हमारी भेंट होती रहती थी. हम बारबार मिलते. हम ने कब जीवनसाथी बनने की शपथ ले ली, मैं जान ही नहीं पाई.

हम दोनों का प्रेम युवा मन का कोरा भावुक प्रेम नहीं था. उस ने मेरी प्रतिभा, मेरे व्यक्तित्व को स्वीकार किया था… मात्र शारीरिक आकर्षण नहीं था वह. उस के विचारों की परिपक्वता और सहृदयता से मैं आकर्षित हुई थी. लगता था विषय से विषम परिस्थिति से भी वह मुझे उबार लेगा.’’

कुछ देर तक सन्नाटा पसरा रहा. फिर उस के होंठ अनायास बुदबुदा उठे, ‘‘ब्याह हुआ तो कुछ भी स्वप्नवत सा नहीं था… न सखियों की छेड़छाड़ न हासपरिहास ही सुना, न जयमाला डाली गई, न वंदनवार सजे. अग्नि को साक्षी मान कर दृढ़ संकल्प ले कर आई थी कि इस घर के हर सदस्य को अपने व्यवहार से अपना बना लूंगी.

‘‘प्रसन्न के परिवार ने कभी मुझे स्वीकार नहीं किया. वैसे इस में उन का दोष भी नहीं था. हमारे समाज में ब्याह के समय वर पक्ष, जिस मानसम्मान और दानदहेज की उम्मीद करता है वह सब उन्हें नहीं मिला था. तलाकशुदा मातापिता की मैं ऐसी संतान थी, जो बूआ की दया पर पलीबढ़ी थी. कन्या पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाला भी तो कोई नहीं था.

‘‘सुबह से शाम तक काम करती, लेकिन मेरे किसी गुण की तारीफ करना तो दूर उलटा मुझे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास किया जाता. विस्मृत, अचंभित सी मेरी आंखें प्रसन्न का संबल पाने का प्रयास करतीं, लेकिन उस के पास भी मुझे देने के लिए जैसे सबकुछ चुक गया था. मां को प्रसन्न करने के लिए कभी वह मेरी तुलना अपनी बहनों से करता, कभी मां से.

उस तिरस्कारभरे माहौल में अस्तित्व, व्यक्तित्वविहीन जीवन मैं ने कैसे जीया, यह मैं ही जानती हूं. मां के हाथों थमी डोर के इशारों पर नाचने वाला प्रसन्न ऐसा पति था जो संबंधों की गरिमा को ही नहीं पहचान पाया

मां मां होती है, बहन बहन और पत्नी पत्नी. सब के अधिकार क्षेत्र अलगअलग हैं, सीमाएं बंटी हुई हैं, फिर टकराहट कैसी? उस ने अपने घर का वातावरण नारकीय बना दिया इन तुलनाओं से. मां के सामने मेरी आलोचना करता, अवहेलना करता और जब दिन का उजास रात्रि का झीना आवरण ओढ़ लेता तो बंद कमरे में मुझे आलिंगनबद्ध कर के प्रशंसा के पुल बांधता, नए वादे करता.

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‘‘शुरूशुरू में सबकुछ अच्छा लगता रहा, फिर समझ गई कि वह इंसान दोहरी मानसिकता से जूझ रहा है. पत्नी से झूठे वादे करने वाला

वह व्यक्ति बेहद रूढि़वादी था. ब्याह से पूर्व उस के सान्निध्य में लगता था, पुरुष के बिना औरत का व्यक्तित्व अधूरा है, पंगु है और अब वह इंसान छद्म आदर्शों की सलीब पर टंगा एक असहाय व्यक्ति था जो दोहरी मानसिकता से जी रहा था.

‘‘ब्याह की मेहंदी का रंग अभी गहरा लाल ही था कि लोगों के फोन शुरू हो गए. हमें उन अनुबंधों को पूरा करना था, जिन पर ब्याह से पहले हम ने हस्ताक्षर किए थे. ग्रहक्लेश और तनाव से बचने का एकमात्र विकल्प यही था कि हम पूर्णरूप से काम के प्रति समर्पित हो जाएं. मुझे विश्वास था कि हवा के झोंके के समान यह समय भी जल्दी बीत जाएगा. प्रसन्न को भी मैं ने उस दलदल में धंसने के बजाय उस से बाहर निकलने का परामर्श दिया.

‘‘पत्नी थी उस की. शास्त्रों में स्त्री को सहचरी, सहभागी जैसी उपमाएं दी गई हैं. लेकिन प्रसन्न कुछ करना ही नहीं चाहता था. घर में ही रहना चाहता था. कभी चलता भी तो अपना चिड़चिड़ाहट और उग्र स्वभाव से ऐसा विकराल रूप धारण कर लेता कि लोग उस से दूर छिटक जाते.

‘‘हर व्यवसाय इंसान की कर्तव्यपरायणता और मृदु स्वभाव पर निर्भर करता है,

लेकिन प्रसन्न ने तो अपने ग्राहकों से लड़ने की शपथ ले ली थी. उस के व्यक्तित्व को देख

कर पहली बार महसूस हुआ था कि बाहर से सुदृढ़ दिखने वाले इस व्यक्ति की जड़ें कितनी कमजोर हैं.

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Serial Story: फैसला दर फैसला- भाग 3

पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 2

‘‘मैं समझाती, तो कु्रद्ध हो उठता, प्यार का प्रदर्शन करती तो उस का पुरुषार्थ जाग्रत हो उठता और दया दिखाती तो नन्हे बालक के समान आत्महीनता का केंचुल ओढ़ कर नन्हे बालक के समान सुबकने लगता. यही समझौता कर लिया था मैं ने कि प्रसन्न अब कुछ नहीं करेगा.

‘‘धीरेधीरे मेरा कार्यक्षेत्र बढ़ने लगा. समय, सितारों और संघर्ष ने हाथ मिलाया और काफी धन अर्जित किया मैं ने. पक्षी भी घर लौटते होंगे तो वे 2 पल सुस्ता लेते होंगे, लेकिन प्रसन्न के परिवारजन मुझ पर यों टूटते थे जैसे कबूतरों के झुंड दाना डालने पर टूटते हैं. पैसा देते समय बुरा नहीं लगता था.

‘‘हां, प्रसन्न को देख कर मन जरूर क्षुब्ध हो उठता था. एक प्रतिभाशाली, कर्मठ व्यक्ति की तरह धन अपनी प्रतिभा को अपनी जड़मति से समाप्त कर रहा था. जब तक हम दोनों पतिपत्नी एकजुट हो कर धन अर्जित नहीं करते, उन उत्तरदायित्वों का निर्वहन कैसे करते, जिन्हें हम ने विरासत में पाया था? प्रसन्न की 2 बहनों का ब्याह रचाना था, देवर की शिक्षा का दायित्व था मुझ पर, लेकिन उसे किसी बात से सरोकार नहीं था.

‘‘अब एक नई धुन सवार थी उस पर… अपनी भवन निर्माण कंपनी खुलवाना चाहता था वह. दिनरात मुझ से पैसे मांगता. उधर मां को बेटियों की चिंता थी. अपने सीमित साधनों से एक ही समय में सारे दायित्व निभाना कठिन था मेरे लिए. हर समय घर में क्लेश रहता. जवान ननदों का विवाह करना मेरी पहली प्राथमिकता थी.

अपनी सारी जमापूंजी एकत्रित कर के ननदों का ब्याह किया तो मां बहुत खुश हो गई थीं. झोली भर कर आशीर्वाद मिले मुझे. प्रशंसा मिली, मान मिला, लेकिन यह प्रशंसा ही मेरे दांपत्य पर ग्रहण के रूप में छा गई. प्रसन्न मेरी प्रशंसा से ईर्ष्यालु हो उठा. अब तक जिन्हें प्रसन्न करने के लिए अपनी पत्नी को अपमानित करता आया, वह ही क्योंकर प्रशंसा की पात्र बन गई? उस का अहं दर्प के समान उजागर हो उठा. हर समय मुझ पर फिकरे कसता, शक करता.

‘‘प्रतिस्पर्धा की थका देने वाली दौड़ की थकान से चूर शरीर और मस्तिष्क, महत्त्वाकांक्षा के ऊंचेऊंचे क्षितिज ढूंढ़ती आंखें, घर लौट कर पति का प्यार पाने को लालायित रहतीं, लेकिन वहां मेरे लिए प्रसन्न के मन में थी वितृष्णा और कई ऐसे अनबूझे प्रश्न, जो मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालते थे. शक में बंधी जिंदगी से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक निर्णायक कदम उठाना चाहा कि काम पर जाना बंद कर दूं.

‘‘रोज के झगड़ों का बेटे के व्यक्तित्व पर बुरा असर पड़ रहा था. मेरे इस निर्णय से प्रसन्न घबरा गया. नन्हे बालक के समान गिड़गिड़ाने लगा. आखिर जीने के लिए 2 वक्त का खाना और कपड़ा तो चाहिए ही था न.

‘अब हमारा तलाक हो ही जाए तो ही ठीक,’ मन के एक कोने से पुरजोर स्वर उभरा. एक हलकी सी उम्मीद थी मन में, शायद तलाक मंजूर होने से पहले अदालत द्वारा मिलने वाली समयावधि मौका देगी और प्रसन्न को अपनी गलती का एहसास होगा और हम फिर पहले जैसे जी सकेंगे.

‘‘तलाक लेने से पहले अवधि देने का नियम बनाने वाले कितने

समझदार रहे होंगे दीदी… या तो दंपती भावनाओं में और बंध जाते हैं या फिर प्रसन्न जैसे संकल्प कर चुके होते हैं कि तुम चाहे जो भी करो हम तो ऐसे ही जिंदगी काटेंगे.

‘‘मेरी हर उम्मीद निर्मूल साबित हुई. न बेटे के आगमन ने उसे घर से बांधा और न ही उस की जिम्मेदारियों ने. इस कमरतोड़ महंगाई में सब की इच्छाएं, जरूरतें पूरी करतेकरते न जाने कितने पल मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल गए. आकर्मण्य सा वह व्यक्ति घर के छोटेछोटे दायित्व भी नहीं निभाता था.

‘‘दिन यों ही बीतते चले गए. रोहन अब वयस्क था. पिता के संबंध में कई प्रश्न पूछता. कभी मुझे दोषी ठहराता कभी पिता के अनर्गल वाक्यों का मर्म समझने की चेष्टा करता. मैं बड़ी सतर्कता से उस के प्रश्नों के उत्तर देती. उस के मन में  मैं ने पिता की ऐसी छवि उतारी कि वह आदरणीय हो उठा था उस के मन में. शायद कोई भी औरत अपने पति का अनादर अपने बेटे से नहीं करवाना चाहती.

‘‘ग्रहक्लेश और वातारण के कलुषित होने के डर से मैं ने होंठ सी लिए थे. कई संभ्रांत परिवारों से मुझे आमंत्रण मिलते, आखिर मेरा अपना भी कोई अस्तित्व है और फिर प्रतिष्ठा, मान, यश, धन सबकुछ था मेरे पास, लेकिन जी नहीं करता था कहीं भी जाने का. लोग पति से संबंधित प्रश्न पूछते तो क्या उत्तर देती? मेरा पति मुफ्त में रोटियां तोड़ने वाला एक आलसी पुरुष है? एक क्रोधी व्यक्ति के रूप में परिचय देती उस का?

‘‘जानती हो दीदी, अपने बेटे को अपने पिता की देखरेख में छोड़ कर जब काम पर जाती तो लगता, पिता के संरक्षण में सुरक्षित है मेरा बेटा, कम से कम उसे तो वह पढ़ा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं था. प्रसन्न मेरे बेटे के मन में विष घोलता रहा. उस ने रोहन के मन में मेरे प्रति घृणा के ऐसे बीज बोए कि अब वह मेरी तरफ एक नजर भी नहीं देखना चाहता.’’

उस ने विस्फारित नजरों से मुझे देखा जैसे मुझ से ही प्रश्न कर रही हो.

फिर कुछ देर बाद आगे बोली, ‘‘दीदी, विश्वास कर सकती हो तुम इस नीच हरकत पर?’’

‘‘तुम ने प्रतिवाद नहीं किया?’’

‘‘कई बार किया था पर मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता. करता भी है तो

सामने वाले को ही दोषी मानता है. यही प्रसन्न

ने भी किया. कई बार मनुष्य के अच्छे संस्कार उसे बुरा करने से रोकते हैं, लेकिन प्रसन्न के मन में शायद अच्छे संस्कार थे ही नहीं और फिर किसी के प्रति मन में पे्रम या सद्भावना हो तो मनुष्य अपने दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न भी करता है.

‘‘प्रसन्न के मन में मेरे लिए घृणा थी, प्यार नहीं. नीचा दिखाने की चाहत थी, सम्मान की भावना नहीं. एकतरफा संबंध था हमारा. संबंध भी नहीं समझौता कहो इसे… क्या नहीं किया मैं ने उस के परिवार के लिए? एक कुशल योद्धा की तरह हर कर्तव्य का पालन किया मैं ने और फिर मैं ने तो एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित व्यक्ति से विवाह किया था और उस ने असभ्यता की हर सीमा का उल्लंघन किया. पत्नी के शरीर को जागीर समझ कर पीड़ा दी. मैं चुप रही, मेरी अनमोल धरोहर को छल से मुझ से दूर किया, फिर भी होंठ सी लिए… शत्रु की तरह व्यवहार किया मुझ से उस ने.’’

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‘‘है कहां प्रसन्न आजकल?’’

‘‘खाड़ी देश में. एक बड़ी भवन निर्माण कंपनी खोल ली है उस ने.

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फैसला दर फैसला: तलाकशुदा इशिका ने कैसे बनाई नई पहचान

फेसबुक फ्रैंडशिप: जब सामने आई वर्चुअल वर्ल्ड की सच्चाई

Serial Story: फेसबुक फ्रैंडशिप – भाग 1

शुरुआत तो बस यहीं से हुई कि पहले उस ने फेस देखा और फिदा हो कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. रिक्वैस्ट 2-3 दिनों में ऐक्सैप्ट हो गई. 2-3 दिन भी इसलिए लगे होंगे कि उस सुंदर फेस वाली लड़की ने पहले पूरी डिटेल पढ़ी होगी. लड़के के फोटो के साथ उस का विवरण देख कर उसे लगा होगा कि ठीकठाक बंदा है या हो सकता है कि तुरंत स्वीकृति में लड़के को ऐसा लग सकता है कि लड़की उस से या तो प्रभावित है या बिलकुल खाली बैठी है जो तुरंत स्वीकृति दे कर उस ने मित्रता स्वीकार कर ली. यह तो बाद में पता चलता है कि यह भी एक आभासी दुनिया है. यहां भी बहुत झूठफरेब फैला है. कुछ भी वास्तविक नहीं. ऐसा भी नहीं कि सभी गलत हो. ऐसा भी हो सकता है कि जो प्यार या गुस्सा आप सब के सामने नहीं दिखा सकते, वह अपनी पोस्ट, कमैंट्स, शेयर से जाहिर करते हो. अपनी भावनाएं व्यक्त करने का साधन मिला है आप को, तो आप कर रहे हैं अपने को छिपा कर किसी और नाम, किसी और के फोटो या किसी काल्पनिक तसवीर से.

यदि अपनी बात रखने का प्लेटफौर्म ही चाहिए था तो उस में किसी अप्सरा की तरह सुंदर चेहरा लगाने की क्या जरूरत थी? आप कह सकती हैं कि हमारी मरजी. ठीक है, लेकिन है तो यह फर्जी ही. आप साधारण सा कोई चित्र, प्रतीक या फिर कोई प्राकृतिक तसवीर लगा सकते थे. खैर, यह कहने का हक नहीं है. अपनी मरजी है. लेकिन जिस ने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी उस ने उस मनोरम छवि को वास्तविक जान कर भेजी न आप को? आप शायद जानती हो कि मित्र संख्या बढ़ाने का यही साधन है, तो भी ठीक है, लेकिन बात जब आगे बढ़ रही हो तब आप को समझना चाहिए कि आगे बढ़ती बात उस सुंदर चित्र की वजह से है जो आप ने लगाई हुई है अपने फेसबुक अकांउट पर. आप ने अपने विषय में ज्यादा कोई जानकारी नहीं लिखी. आप से पूछा भी मैसेंजर बौक्स पर जा कर. और पूछा तभी, जब बात कुछ आगे बढ़ गई थी. कोई किसी से यों ही तो नहीं पूछ लेगा कि आप सिंगल हो. और आप का उत्तर भी गोलमोल था. यह मेरा निजी मामला है. इस से हमारी फेसबुक फ्रैंडशिप का क्या लेनादेना?

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बात लाइक और कमैंट्स तक सीमित नहीं थी. बात मैसेंजर बौक्स से होते हुए आगे बढ़ती जा रही थी. इतनी आगे कि जब लड़के ने मोबाइल नंबर मांगा तो लड़की ने कहा, ‘‘फोन नहीं, मेल से बात करो. फोन गड़बड़ी पैदा कर सकता है. किस का फोन था, कौन है वगैराहवगैरहा.’’ अब मेल पर बात होने लगी. शुरुआत में लड़के ने फेस देखा. मित्र बन जाने पर लड़के ने विवरण देखा उसे पसंद आया. उसे किसी बात की उम्मीद जगी. भले ही वह उम्मीद एकतरफा थी. उसे नहीं पता था शुरू में कि वह जिस दुनिया से जुड़ रहा है वहां भ्रम ज्यादा है, झूठ ज्यादा है. पहले लड़की के हर फोटो, हर बात पर लाइक, फिर अच्छेअच्छे कमैंट्स और शेयर के बाद निजी बातें जानने की जिज्ञासा हुई दोनों तरफ से. हां, यह सच है कि पहल लड़के की तरफ से हुई. लड़के ही पहल करते हैं. लड़कियां तो बहुत सोचनेविचारने के बाद हां या नहीं में जवाब देती हैं.

बात आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी लड़के पर ही आती है समाज, संस्कारों के तौर पर. तो शुरुआत लड़के ने ही की. इंटरनैट की दुनिया में आ जाने के बाद भी समाज, संस्कार नहीं छूट रहे हैं यानी 21वीं सदी में प्रवेश किंतु 19वीं सदी के विचारों के साथ.

फे सबुक पर सुंदर चेहरे से मित्रता होने पर लड़के के अंदर उम्मीद जगी. विस्तृत विवरण देख कर उस ने हर पोस्ट पर लाइक और सुंदर कमैंट्स के ढेर लगा दिए. बात इसी तरह धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. लड़की के थैंक्स के बाद जब गुडमौर्निंग, गुडइवनिंग और अर्धरात्रि में गुडनाइट होने लगी तो किसी भाव का उठना, किसी उम्मीद का बंधना स्वाभाविक था. लगता है कि दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई है. लड़के को तो यही लगा.

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लड़के ने विस्तृत विवरण में जाति, धर्म, शिक्षा, योग्यता, आयु सब देख लिया था. पूरा स्टेटस पढ़ लिया था और उस को ही अंतिम सत्य मान लिया था. जो बातें स्टेटस मेें नहीं थीं, उन्हें लड़का पूछ रहा था और लड़की जवाब दे रही थी. जवाब से लड़के को स्पष्ट जानकारी तो नहीं मिल रही थी लेकिन कोई दिक्कत वाली बात भी नजर नहीं आ रही थी. फेसबुक पर ऐसे सैकड़ों, हजारों की संख्या में मित्र होते हैं सब के. आमनेसामने की स्थिति न आए, इसलिए एक शहर के मित्र कम ही होते हैं. होते भी हैं तो लिमिट में बात होती है. सीमित लाइक या कमैंट्स ही होते हैं खास कर लड़केलड़की के मध्य. लड़का छोटे शहर का था. विचार और खयालात भी वैसे ही थे. लड़कियों से मित्रता होती ही नहीं है. होती है तो भाई बनने से बच गए तो किसी और रिश्ते में बंध गए. नहीं भी बंधे तो सम्मानआदर के भारीभरकम शब्दों या किसी गंभीर विषय पर विचारविमर्श, लाइक, कमैंट्स तक. ऐसे में और उम्र के 20वें वर्ष में यदि किसी दूसरे शहर की सुंदर लड़की से जब बात इतनी आगे बढ़ जाए तो स्वाभाविक है उम्मीद का बंधना.

फोटो के सुंदर होने के साथसाथ यह भी लगे कि लड़की अच्छे संस्कारों के साथसाथ हिम्मत वाली है. किसी विशेष राजनीतिक दल, जाति, धर्म के पक्ष या विपक्ष में पूरी कट्टरता और क्रोध के साथ अपने विचार रखने में सक्षम है और आप की विचारधारा भी वैसी ही हो. आप जब उस की हर पोस्ट को लाइक कर रहे हैं तो जाहिर है कि आप उस के विचारों से सहमत हैं. लड़की की पोस्ट देख कर आप उस के स्वतंत्र, उन्मुक्त विचारों का समर्थन करते हैं, उस के साहस की प्रशंसा करते हैं और आप को लगने लगता है कि यही वह लड़की है जो आप के जीवन में आनी चाहिए. आप को इसी का इंतजार था.

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बात तब और प्रबल हो जाती है जब लड़का जीवन की किसी असफलता से निराश हो कर परिवार के सभी प्रिय, सम्माननीय सदस्यों द्वारा लताड़ा गया हो, अपमानित किया गया हो, अवसाद के क्षणों में लड़के ने स्वयं को अकेला महसूस किया हो और आत्महत्या करने तक का विचार मन में आ गया हो. तब जीवन के एकाकी पलों में लड़के ने कोई उदास, दुखभरी पोस्ट डाली हो. लड़की ने पूछा हो कि क्या बात है और लड़के ने कह दिया हाले दिल का. लड़की ने बंधाया हो ढांढ़स और लड़के को लगा हो कि पूरी दुनिया में बस यही है एक जीने का सहारा. लड़के ने पहले अपने ही शहर में महिला मित्र बनाने का प्रयास किया था, जिस में उसे सफलता भी मिली थी. लड़की खूबसूरत थी. पढ़ीलिखी थी. स्टेटस में खुले विचार, स्वतंत्र जीवन और अदम्य साहस का परिचय होने के साथ कुछ जबानी बातें भी थीं. लड़के ने इतनी बार उस लड़की का फोटो व स्टेटस देखा कि दोनों उस के दिलोदिमाग में बस गए. फोटो कुछ ज्यादा ही. अपने शहर की वही लड़की जब उसे रास्ते में मिली तो लड़के ने कहा, ‘‘नमस्ते कल्पनाजी.’’

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Serial Story: फेसबुक फ्रैंडशिप – भाग 2

लड़की हड़बड़ा गई, ‘‘आप कौन? मेरा नाम कैसे जानते हैं?’’ लड़के ने खुशी से अपना नाम बताते हुए कहा, ‘‘मैं आप का फेसबुक फ्रैंड.’’

और लड़की ने गुस्से में कहा, ‘‘फेसबुक फ्रैंड हो तो फेसबुक पर ही बात करो. घर वालों ने देख लिया तो मुश्किल हो जाएगी. उन्हें फेसबुक का पता चलेगा तो वह अकाउंट भी बंद हो जाएगा. चार बातें अलग सुनने को मिलेंगी. वे कहेंगे स्वतंत्रता दी है तो इस का यह मतलब नहीं कि तुम लड़कों से फेसबुक के जरिए मित्रता करो. उन से मिलो…और प्लीज, तुम जाओ यहां से, मैं नहीं जानती तुम्हें. क्या घर से मेरा निकलना बंद कराओगे? घर पर पता चल गया तो घर वाले नजर रखना शुरू कर देंगे.’’ फिर, घर वालों का प्रेम, विश्वास और भी बहुतकुछ कह कर लड़की चली गई. तब लड़के के मन में खयाल आया कि एक ही शहर के होने में बहुत समस्या है. जो लड़की की समस्या है वही लड़के की भी है. लड़के ने हिम्मत कर के पूछ तो लिया, लेकिन लड़की ने कहा कि फेसबुक फ्रैंड हो तो फेसबुक पर मिलो. अपनी बात कहने के बाद लड़के ने भी सोचा कि यदि उसे भी कोई घर का या परिचित देख लेता तो प्रश्न तो करता ही. भले ही वह कोई भी जवाब दे देता लेकिन वह जवाब ठीक तो नहीं होता. यह तो नहीं कह देता कि फेसबुक फ्रैंड है. बिलकुल नहीं कह सकता था. फिर बातें उठतीं कि जब इस तरह की साइड पर लड़कियों से दोस्ती हो सकती है तो और भी अनैतिक, अराजक, पापभरी साइट्स देखते होंगे.

ऐसे में दूसरे शहर की वीर, साहसी, दलबल, विचारधारा, जाति, धर्म सब देखते हुए जिस में चेहरे का मनोहारी चित्र तो प्रमुख है ही, फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी जाती है और लड़की की तरफ से भी तभी स्वीकृति मिलती है जब उस ने सारा स्टेटस, फोटो, योग्यता, धर्म, जाति आदि सब देख लिया हो. और वह भी किसी कमजोर व एकांत क्षणों से गुजरती हुई आगे बढ़ती गई हो. लड़की क्यों इतना डूबती जाती है, आगे बढ़ती जाती है. शायद तलाश हो प्रेम की, सच्चे साथी की. उसे जरूरत हो जीवन की तीखी धूप में ठंडे साए की. और जब बराबर लड़की की तरफ से उत्तर और प्रश्न दोनों हो रहे हो. मजाक के साथ, ‘‘मेरे मोबाइल में बेलैंस डलवा सकते हो?’’ और लड़के ने तुरंत ‘‘हां’’ कहा. लड़की ने हंस कर कहा कि मजाक कर रही हूं. तुम तो इसलिए भी तैयार हो गए कि इस बहाने मोबाइल नंबर मिल जाएगा. चाहिए नंबर?

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‘‘हां.’’ ‘‘क्यों?’’

‘‘बात करने के लिए.’’ ‘‘लेकिन समय, जो मैं बताऊं.’’

‘‘मंजूर है.’’ और लड़की ने नंबर भी भेज दिया. अब मोबाबल पर भी अकसर बातें होने लगीं. बातों से ज्यादा एसएमएस. बात भी हो जाए और किसी को पता भी न चले. बातें होती रहीं और एक दिन लड़की की तरफ से एसएमएस आया.

‘‘कुछ पूछूं?’’ ‘‘पूछो.’’

‘‘एक लड़की में क्या जरूरी है?’’ ‘‘मैं समझा नहीं.’’

‘‘सूरत या सीरत?’’ लड़के को किताबी उत्तर ही देना था हालांकि देखी सूरत ही जाती है. सिद्धांत के अनुसार वही उत्तर सही भी था. लड़के ने कहा, ‘‘सीरत.’’

‘‘क्या तुम मानते हो कि प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती?’’ ‘‘हां,’’ लड़के ने वही किताबी उत्तर दिया.

‘‘क्या तुम मानते हो कि सूरत के कोई माने नहीं होते प्यार में?’’ ‘‘हां,’’ वही थ्योरी वाला उत्तर.

और इन एसएमएस के बाद पता नहीं लड़की ने क्या परखा, क्या जांचा और अगला एसएमएस कर दिया. ‘‘आई लव यू.’’

लड़के की खुशी का ठिकाना न रहा. यही तो चाहता था वह. कमैंट्स, शेयर, लाइक और इतनी सारी बातें, इतना घुमावफिराव इसलिए ही तो था. लड़के ने फौरन जवाब दिया, ‘‘लव यू टू.’’

रात में दोनों की एसएमएस से थोड़ीबहुत बातचीत होती थी, लेकिन इस बार बात थोड़ी ज्यादा हुई. लड़की ने एसएमएस किया, ‘‘तुम्हारी फैंटेसी क्या है?’’ ‘‘फैंटेसी मतलब?’’

‘‘किस का चेहरा याद कर के अपनी कल्पना में उस के साथ सैक्स…’’ लड़के को उम्मीद नहीं थी कि लड़की अपनी तरफ से सैक्स की बातें शुरू करेगी, लेकिन उसे मजा आ रहा था. कुछ देर वह चुप रहा. फिर उस ने उत्तर दिया, ‘‘श्रद्धा कपूर और तुम.’’

लड़की की तरफ से उत्तर आया, ‘‘शाहरुख.’’ फिर एक एसएमएस आया, ‘‘आज तुम मेरे साथ करो.’’ लड़की शायद भूल गई थी उस ने जो चेहरा फेसबुक पर लगाया है वह उस का नहीं है. एसएमएस में लड़की ने आगे लिखा था, ‘‘और मैं तुम्हारे साथ.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ लड़के का एसएमएस पर जवाब था. ‘‘ठीक है क्या? शुरू करो, इतनी रात को तो तुम बिस्तर पर अपने कमरे में ही होंगे न.’’

‘‘हां, और तुम?’’ ‘‘ऐसे मैसेज बंद कमरे से ही किए जाते हैं. ये सब करते हुए हम अपने मोबाइल चालू रख कर अपने एहसास आवाज के जरिए एकदूसरे तक पहुंचाएंगे.’’

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‘‘ठीक है,’’ लड़के ने कहा. फिर उस ने अपने अंडरवियर के अंदर हाथ डाला. उधर से लड़की की आवाजें आनी शुरू हुईं. बेहद मादक सिसकारियां. फिर धीरेधीरे लड़के के कानों में ऐसी आवाजें आने लगीं मानो बहुत तेज आंधी चल रही हो. आंधियों का शोर बढ़ता गया. लड़के की आवाजें भी लड़की के कानों में पहुंच रही थीं, ‘‘तुम कितनी सुंदर हो. जब से तुम्हें देखा है तभी से प्यार हो गया. मैं ने तुम्हें बताया नहीं. अब श्रद्धा के साथ नहीं, तुम्हारे साथ सैक्स करता हूं इमेजिन कर के. काश, किसी दिन सचमुच तुम्हारे साथ सैक्स करने का मौका मिले.’’

लड़की की आंधीतूफान की रफ्तार बढ़ती गई, ‘‘जल्दी ही मिलेंगे फिर जो करना हो, कर लेना.’’ थोड़ी देर में दोनों शांत हो गए. लेकिन अब लड़का सैक्स की मांग और मिलने की बात करने लगा. जिस के लिए लड़की ने कहा, ‘‘मैं तैयार हूं. तुम दिल्ली आ सकते हो. हम पहले मिल लेते हैं वहीं से किसी होटल चलेंगे.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मुझे घर वालों से झूठ बोलना पड़ेगा और पैसों का इंतजाम भी करना पड़ेगा. हां, संबंध बनने के बाद शादी के लिए तुरंत मत कहना. मैं अभी कालेज कर रहा हूं. प्राइवेट जौब में पैसा कम मिलेगा. और आसानी से मिलता भी नहीं है काम, लेकिन मेरी कोशिश रहेगी कि…’’

लड़की ने बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम आ जाओ. पैसों की चिंता मत करो. मेरे पास अच्छी सरकारी नौकरी है. शादी कर भी ली तो तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी.’’ ‘‘मैं कोशिश करता हूं.’’ और लड़के ने कोशिश की. घर में झूठ बोला और अपनी मां से इंटरव्यू देने जाने के नाम पर रुपए ले कर दिल्ली चला गया. पिताजी घर पर होते तो कहते दिखाओ इंटरव्यू लैटर. लौटने पर पूछेंगे तो कह दूंगा कि गिर गया कहीं या हो सकता है कि लौटने पर सीधे शादी की ही खबर दें. लड़का दिल्ली पहुंचा 6 घंटे का सफर कर के.

घर पर तो जा नहीं सकते. घर का पता भी नहीं लिखा रहता है फेसबुक पर. सिर्फ शहर का नाम रहता है. यह पहले ही तय हो गया था कि दिल्ली पहुंच कर लड़का फोन करेगा. और लड़के ने फोन कर के पूछा, ‘‘कहां मिलेगी?’’ ‘‘कहां हो तुम अभी?’’

‘‘स्टेशन के पास एक बहुत बड़ा कौफी हाउस है.’’ ‘‘मैं वहीं पहुंच रही हूं.’’

लड़के के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. उस के सामने लड़की का सुंदर चेहरा घूमने लगा. लड़के ने मन ही मन कहा, ‘‘कदकाठी अच्छी हो तो सोने पर सुहागा.’’

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Serial Story: फेसबुक फ्रैंडशिप – भाग 3

लड़का कौफीहाउस में काफी देर इंतजार करता रहा. तभी उसे सामने आती एक मोटी सी औरत दिखी जिस का पेट काफी बाहर लटक रहा था. हद से ज्यादा मोटी, काली, दांत बाहर निकले हुए थे. मेकअप की गंध उसे दूर से आने लगी थी. ऐसा लगता था कि जैसे कोई मटका लुढ़कता हुआ आ रहा हो. वह औरत उसी की तरफ बढ़ रही थी. अचानक लड़के का दिल धड़कने लगा इस बार घबराहट से, भय से उसे कुछ शंका सी होने लगी. वह भागने की फिराक में था लेकिन तब तक वह भारीभरकम काया उस के पास पहुंच गई.

‘‘हैलो.’’ ‘‘आप कौन?’’ लड़के ने अपनी सांस रोकते हुए कहा.

‘‘तुम्हारी फेसबुक…’’ ‘‘लेकिन तुम तो वह नहीं हो. उस पर तो किसी और की फोटो थी और मैं उसी की प्रतीक्षा में था,’’ लड़के ने हिम्मत कर के कह दिया. हालांकि वह समझ गया था कि वह बुरी तरह फंस चुका है.

‘‘मैं वही हूं. बस, वह चेहरा भर नहीं है. मैं वही हूं जिससे इतने दिनों से मोबाइल पर तुम्हारी बात होती रही. प्यार का इजहार और मिलने की बातें होती रहीं. तुम नंबर लगाओ जो तुम्हें दिया था. मेरा ही नंबर है. अभी साफ हो जाएगा. कहो तो फेसबुक खोल कर दिखाऊं?’’ ‘‘कितनी उम्र है तुम्हारी?’’ लड़के ने गुस्से से कहा. लड़के ने उस के बालों की तरफ देखा. जिन में भरपूर मेहंदी लगी होने के बाद भी कई सफेद बाल स्पष्ट नजर आ रहे थे.

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‘‘प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती, मैं ने यह पूछा था तो तुम ने हां कहा था.’’ ‘‘फिर भी कितनी उम्र है तुम्हारी?’’

‘‘40 साल,’’ सामने बैठी औरत ने कुछ कम कर के ही बताया. ‘‘और मेरी 20 साल,’’ लड़के ने कहा.

‘‘मुझे मालूम है,’’ महिला ने कहा. ‘‘आप ने सबकुछ झूठ लिखा अपनी फेसबुक पर. उम्र भी गलत. चेहरा भी गलत?’’

‘‘प्यार में चेहरे, उम्र का क्या लेनादेना?’’ ‘‘क्यों नहीं लेनादेना?’’ लड़के ने अब सच कहा. अधेड़ उम्र की सामने बैठी बेडौल स्त्री कुछ उदास सी हो गई.

‘‘अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘की तो थी, लेकिन तलाक हो गया. एक बेटा है, वह होस्टल में पढ़ता है.’’

‘‘क्या?’’ लड़के ने कहा, ‘‘आप मेरी उम्र देखिए? इस उम्र में लड़के सुरक्षित भविष्य नहीं, सुंदर, जवान लड़की देखते हैं. उम्र थोड़ीबहुत भले ज्यादा हो लेकिन बाकी चीजें तो अनुकूल होनी चाहिए. मैं ने जब अपनी फैंटेसी में श्रद्धा कपूर बताया, तभी तुम्हें समझ जाना चाहिए था.’’ ‘‘तुम सपनों की दुनिया से बाहर निकलो और हकीकत का सामना करो? मेरे साथ तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी. पैसों से ही जीवन चलता है और तुम मुझे यहां तक ला कर छोड़ नहीं सकते.’’

लड़के को उस अधेड़ स्त्री की बातों में लोभ के साथ कुछ धमकी भी नजर आई. ‘‘मैं अभी आई, जाना नहीं.’’ अपने भारीभरकम शरीर के साथ स्त्री उठी और लेडीज टौयलेट की तरफ बढ़ गई. लड़के की दृष्टि उस के पृष्ठभाग पर पड़ी. काफी उठा और बेढंगे तरीके से फैला हुआ था. लड़का इमेजिन करने लगा जैसा कि फैंटेसी करता था वह रात में.

लटकती, बड़ीबड़ी छातियों और लंबे उदर के बीच में वह फंस सा गया था और निकलने की कोशिश में छटपटाने लगा. कहां उस की वह सुंदर सपनीली दुनिया और कहां यह अधेड़ स्त्री. उस के होंठों की तरफ बढ़ा जहां बाहर निकले बड़बड़े दांतों को देख कर उसे उबकाई सी आने लगी. अपने सुंदर 20 वर्ष के बेटे को देख कर मां अकसर कहती थी, मेरा चांद सा बेटा. अपने कृष्णकन्हैया के लिए कोई सुंदर सी कन्या लाऊंगी, आसमान की परी. इस अधेड़ स्त्री को मां बहू के रूप में देखे तो बेहोश ही हो जाए?

लड़के को लगा फिर एक आंधी चल रही है और अधेड़ स्त्री के शरीर में वह धंसता जा रहा है. अधेड़ के शरीर पर लटकता हुआ मांस का पहाड़ थरथर्राते हुए उसे निगलने का प्रयास कर रहा है. उसे कुछ कसैलाविषैला सा लगने लगा. इस से पहले कि वह अधेड़ अपने भारीभरकम शरीर के साथ टौयलेट से बाहर आती, लड़का उठा और तेजी से बाहर निकल गया. उस की विशालता की विकरालता से वह भाग जाना चाहता था. उसे डर नहीं था किसी बात का, बस, वह अब और बरदाश्त नहीं कर सकता था.

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बाहर निकल कर वह स्टेशन की तरफ तेज कदमों से गया. उस के शहर जाने वाली ट्रेन निकलने को थी. वह बिना टिकट लिए तेजी से उस में सवार हो गया. सब से पहले उस ने इंटरनैट की दुनिया से अपनेआप को अलग किया. अपनी फेसबुक को दफन किया. अपना मेल अकाउंट डिलीट किया. अपने मोबाइल की सिम निकाल कर तोड़ दी. जिस से वह उस खूबसूरत लड़की से बातें किया करता था जो असल में थी ही नहीं. झूठफरेब की आभासी दुनिया से उस ने खुद को मुक्त किया. अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी, बहुत जल्दी. वह उन सब के पास पहुंचना चाहता था, उन सब से मिलना चाहता था, जिन से वह दूर होता गया था अपनी सोशल साइट, अपनी फेसबुक और ऐसी ही कई साइट्स के चलते.

वह उस स्त्री के बारे में बिलकुल नहीं सोचना चाहता था. उसे नहीं पता था कि लेडीज टौयलेट से निकल कर उस ने क्या सोचा होगा. क्या किया होगा? बिलकुल नहीं. लेकिन सुंदर लड़की बनी अधेड़ स्त्री तो जानती होगी कि जिस के साथ वह प्रेम की पींगे बढ़ा रही है, वह 20 वर्ष का नौजवान है और आमनासामना होते ही सारी बात खत्म हो जाएगी.

सोचा तो होगा उस ने. सोचा होता तो शायद वह बाद में स्थिति स्पष्ट कर देती या महज उस के लिए यह एक एडवैंचर था या मजाक था. कही ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी किसी सहेली से शर्त लगाई हो कि देखो, इस स्थिति में भी जवान लड़के मुझ पर मरते हैं. यह भी हो सकता है कि उसे लड़के की बेरोजगारी और अपनी सरकारी नौकरी के चलते कोई गलतफहमी हो गई हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह केवल शारीरिक सुख के लिए जुड़ रही हो, कुछ रातों के लिए. हां, इधर लडके को याद आया कि उस ने तो शादी की बात की ही नहीं थी. वह तो केवल होटल में मिलने की बात कर रही थी. शादी की बात तो मैं ने शुरू की थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अधेड़ स्त्री अपने अकेलेपन से निबटने के लिए भावुक हो कर बह निकली हो. अगर ऐसा है, तब भी मेरे लिए संभव नहीं था. बात एक रात की भी होती तब भी मेरे शरीर में कोई हलचल न होती उस के साथ.

उसे सोचना चाहिए था. मिलने से पहले सबकुछ स्पष्ट करना चाहिए था. वह तो अपने ही शहर में थी, मैं ने ही बेवकूफों की तरह फेसबुक पर दिल दे बैठा और घर से झूठ बोल कर निकल पड़ा. गलती मेरी भी है. कहीं ऐसा तो नहीं…सोचतेसोचते लड़का जब किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा तो फिर उस के दिमाग में अचानक यह खयाल आया कि पिताजी के पूछने पर वह क्या बहाना बनाएगा और वह बहाने के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगा.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 1

आस्ट्रेलियाई शहर पर्थ के सीक्रेट गार्डन कैफे में बैठी अलाना अपने और्डर का इंतजार करती हुई न्यूजपेपर के पन्ने पलट रही थी, तभी उस के मोबाइल पर यीरंग का फोन आ गया. ‘‘हैलो डार्लिंग, क्या कल किंग्स पार्क में होने वाली कैंडिल विजिल में तुम भी चलोगी? मेरे पास एक मित्र से फेसबुक के जरिए निमंत्रण आया है.’’

‘‘कौन सी और किस की कैंडिल विजिल?’’ ‘‘वही जो मेलबौर्न के टैक्सी ड्राइवर मनमीत सिंह की याद में निकाली जा रही है.’’

‘‘वह तो इंडियन की कैंडिल विजिल है, हमें क्या लेनादेना है उस से. कोई मतलब नहीं है उस का हम से.’’ ‘‘इंडियन की कैंडिल विजिल है… क्या मतलब है तुम्हारा, क्या कहना चाहती हो तुम? क्या हम और तुम इंडियन नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’ अलाना लगभग चीखती हुई बोली. आसपास बैठे लोगों के हैरानी से उसे ताकने के कारण उसे याद आया कि वह एक सार्वजनिक स्थान पर बैठी हुई है. पानी के 2 घूंट गटक कर अपनेआप पर काबू करती हुई बोली, ‘‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी. तुम तो ऐसे ही हो, सबकुछ जल्दी ही भूल जाते हो. याद नहीं तुम्हें कि दिल्ली में हमारे साथ क्या हुआ था? हर तरह का नर्क देख लिया था हम ने वहां. यहां आस्ट्रेलिया में आए हुए हमें तकरीबन 5 साल हो गए हैं. अभी तक सब ठीक ही चल रहा है. किसी मनमीत सिंह के साथ मेलबौर्न में क्या हुआ, हमें कोई लेनादेना नहीं. मगर दिल्ली, वहां की तो जमीन पर पहला कदम रखते ही हमारे दुर्दिन शुरू हो गए थे. दोजख बन गई थी हमारी जिंदगी. दूसरे देशों में आ कर ये लोग रेसिज्मरेसिज्म चिल्लाते हैं. खुद के गरीबान में झांक कर नहीं देखते कि खुद का असली रूप क्या है?’’

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‘‘बिलकुल दुरुस्त फरमाया तुम ने, अलाना. सब से बड़े नस्लवादी तो हमारे अपने देशवासी ही हैं,’’ अब यीरंग की आवाज भी सुस्त हो चुकी थी, ‘‘खैर, कोई जबरदस्ती नहीं है, अभी तो तुम्हारे पास सोचने के लिए समय है. कल तक तय कर लेना कि तुम्हें जाना है

या नहीं.’’ अलाना ने कौफी के घूंट भरने शुरू किए. पर्थ में सीक्रेट गार्डन कैफे की कौफी उस की मनपसंद कौफी थी. वह जबतब यहां कौफी पीने चली आया करती थी. मगर आज यीरंग से फोन पर बात होने के बाद, 5 साल पहले दिल्ली में किए गए अपमान के घूंटों की स्मृतियां कौफी के स्वाद को कड़वा व बेस्वाद कर गईं. चिंकी, मोमो, चाऊमीन, बहादुर, हाका नूडल्स जैसे तमाम शब्द फिर से कानों में गूंजते हुए उस की वैयक्तिकता को ललकारने लगे. याद आ गया वह समय जब वह मिजोरम से दिल्ली विश्वविद्यालय, इतिहास में मास्टर्स करने, आई थी.

‘पासपोर्ट निकालो,’ एयरपोर्ट अथौरिटी के एक आदमी ने कड़क आवाज में पूछा था उस से. ‘वह क्यों सर, मैं इंडियन हूं और अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती, इतना तो हम भी जानते हैं.’

‘अच्छा, शक्ल से तो इंडियन नहीं लगती हो. चलो एक छोटा सा टैस्ट कर लेते हैं. जरा यह तो बताओ कि इंडिया में कुल मिला कर कितने प्रांत हैं?’ ‘सर, आप नस्लवाद फैला रहे हैं, मेरे नैननक्श मेनलैंड में रहने वालों से अलग हैं, इस का यह मतलब नहीं कि उन का अधिकार इस देश पर मुझ से अधिक हो जाता है. हमें तो गर्व होना चाहिए कि हमारे देश में हर तरह की शक्लसूरत, खानपान वाले लोग रहते हैं. इंडिया मेरी मातृभूमि है और इस पर जितना हक आप का बनता है उतना ही मेरा भी है. रही बात आप के सवाल के जवाब की, तो उस के बदले में मैं भी आप से एक सवाल करती हूं, ‘कौन सी महिला स्वतंत्रता सेनानी जेल में सब से लंबे समय तक रही थी? अगर आप सच्चे हिंदुस्तानी हैं तो आप को इस का जवाब जरूर पता होना चाहिए.’

‘एयरपोर्ट अथौरिटी में मैं हूं या तुम? यहां सवाल पूछने का हक सिर्फ मुझे है.’ ‘हम लोकतंत्र में रहते हैं. हमारा संविधान हर नागरिक को सवाल पूछने व अपने विचार व्यक्त करने का हक देता है. खैर, आप की इन्फौर्मेशन के लिए उस स्वतंत्रता सेनानी महिला का नाम था- रानी गाइडिनलियु और वे मणिपुर की थीं. अब देखिए न, सर, आप अपनेआप को इंडियन कहते हैं और आप को अपने देश के इतिहास की जानकारी नहीं है. जब मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर में रहने वाले लोगों को झांसी की रानी और भगतसिंह का इतिहास पता है तो आप को भी तो रानी गाइडिनलियु के बारे में पता होना चाहिए.’

अलाना उस औफिसर का साक्षात्कार सच से करवा चुकी थी और अब वह ‘मान गए मैडम, अब बस भी कीजिए,’ कह कर खिसियाई मुसकराहट देता हुआ अपना बचाव कर रहा था.

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दिल्ली के मर्द अलाना को चरित्रहीन समझते थे और बस या टैक्सीस्टैंड पर खड़ी देख कर सीधा मतलब निकालते थे कि वह धंधे के लिए खड़ी है. ऐसे ही एक मौके पर उस की मुलाकात यीरंग से हुई थी. यीरंग 5 साल पहले इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी की पढ़ाई करने के लिए अरुणाचल प्रदेश से दिल्ली आया था और एक कंपनी में डेटा साइंटिस्ट के पद पर कार्य कर रहा था. एक दिन उस ने सड़क पर गुजरते हुए देखा कि कुछ लोग बसस्टौप पर खड़ी एक मिजो गर्ल को तंग कर रहे हैं. उस ने अपनी कार वहीं रोक दी और अलाना की मदद करने आ पहुंचा. यीरंग को देख कर वे असामाजिक तत्त्व तुरंत ही भाग गए. उस दिन यीरंग ने अलाना को उस के फ्लैट तक सुरक्षित पहुंचा दिया और यहीं से उन की दोस्ती की शुरुआत भी हो गई. एक से दर्द, एक सी समस्याओं के दौर से गुजर रहे थे दोनों. यही दुविधाएं दोनों को जल्दी ही एकदूसरे के करीब ले आईं और पहली मुलाकात के एक साल बाद उन्होंने शादी कर ली. उन दोनों की शादी के बाद अलाना की छोटी बहन एंड्रिया भी दिल्ली में पढ़ने आ गई और उन के साथ रहने लगी.

शादी के बाद उन की जरूरतें बढ़ने और एंड्रिया के साथ आ कर रहने के कारण उन्हें बड़े घर की जरूरत महसूस हुई. बहुत से मकान देखे गए. कुछ मकान पसंद नहीं आते थे और जो उन्हें पसंद आते, उन के मकान मालिकों को ‘चिंकीस’ को अपना मकान देना गवारा नहीं था. मकान की तलाश के दौरान उन्हें रंगबिरंगे, सुखददुखद अनुभव हो रहे थे. कई अनुभव चुटकुले बनाने के काबिल थे तो कई दिल को लहूलुहान करते कांच की किरचों जैसे थे.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 4

उन्हीं दिनों एंड्रिया का एक मित्र, जो एंड्रिया के गायब होने वाले दिन ही गुवाहाटी चला गया था, अचानक दिल्ली वापस आ गया. वापस आने पर उसे जैसे ही एंड्रिया के दूसरे मित्रों से उस की संदिग्ध मौत का समाचार मिला तो वह तत्काल ही अलाना से मिलने पहुंचा. उस ने अलाना को बताया कि उस दिन एंड्रिया कालेज आने से पहले रास्ते में कोचिंग वाले ट्यूटर के घर से कुछ नोट्स लेने जाने वाली थी, उन्होंने ही उसे अपने फ्लैट पर आ कर नोट्स ले जाने को कहा था.

एंड्रिया के मित्र के बयान के आधार पर पुलिस ने जब उस ट्यूटर के घर की तलाशी ली तो सारा सच सामने आ गया. बिल्ंिडग में लगे सीसीटीवी कैमरे के पुराने रिकौर्ड्स की जांच करने पर पाया गया कि उस दिन एंड्रिया सुबह करीब 9 बजे ट्यूटर के अपार्टमैंट में आई थी. मगर उस के वापस जाने का कहीं कोई रिकौर्ड नहीं था. हां, उसी दिन दोपहर करीब 1 बजे ट्यूटर और उस का एक साथी एक बड़ा सा ब्रीफकेस घसीटते हुए बाहर ले जा रहे थे. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया और पूछताछ के दबाव में उन्होंने जल्दी ही अपना जुर्म कुबूल कर लिया.

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घटना वाले दिन जब एंड्रिया वहां नोट्स लेने पहुंची तो ट्यूटर के यहां उस का एक साथी भी मौजूद था. दोनों ने बारीबारी से एंड्रिया के साथ जोरजबरदस्ती की और अपने मोबाइल में उस का वीडियो भी बना लिया. उन्होंने एंड्रिया को धमकाया कि वह इस बारे में किसी से कुछ न कहे. बस, आगे भी ऐसे ही उन से मिलने आती रहे. अगर वह उन की बात नहीं मानेगी तो वे उस का वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देंगे. उन के लाख समझाने पर भी एंड्रिया चिल्लाचिल्ला कर कहती रही कि वह चुप नहीं बैठेगी और उन दोनों को उन के किए की सजा दिलवा कर चैन लेगी. जब वह नहीं मानी तो उन्होंने गला दबा कर उस की हत्या कर दी और लाश के टुकड़े कर के एक ब्रीफकेस में भर कर यमुना नदी में फेंक आए. मुजरिमों की गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही यीरंग को आस्ट्रेलिया से एक अच्छा जौब औफर मिल गया. वह और अलाना एक नई शुरुआत करने के लिए वहां प्रवास कर गए. उन्हें आस्ट्रेलिया आए हुए अब तक करीब 5 साल हो चुके थे और मासूम एंड्रिया को दुनिया छोड़े हुए करीब 6 साल. मगर उस की मौत से मिले जख्म थे कि सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे. जबजब इन जख्मों में टीस उठती, दिल का दर्द शिद्दत पर पहुंच कर दिन का चैन और रातों की नींद हराम कर के रख देता.

एंड्रिया की सारी भौतिक यादें दिल्ली में ही छोड़ दी गई थीं पर क्या भावनात्मक यादों की परछाइयां पीछे छूट पाई थीं? कोई न कोई बात उत्प्रेरक बन कर यादों के बवंडर ले आती. आज मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल की खबर उत्प्रेरक बनी थी तो कल कुछ और होगा…कुल मिला कर जीवन में अमन नहीं था. दुनिया के लिए एंड्रिया 6 साल पहले मर चुकी थी पर अलाना के लिए आज तक वह उस के दिलदिमाग में रह कर उस की सभी दुनियावी खुशियों को मार रही थी. ‘‘मैडम, एनीथिंग एल्स?’’ बैरे की आवाज पर अलाना चौंकी और यादों के भंवर से बाहर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली. उसे कैफे में बैठेबैठे 2 घंटे से ज्यादा हो चुके थे. शुष्क मौसम की वजह से कौफी का खाली प्याला सूख चुका था. मेनलैंड के लोगों के व्यवहार की शुष्कता ने अलाना के अंदर की इंसानियत को भी सुखा दिया था. इस शुष्कता का प्रभाव इतना ज्यादा था कि आज मनमीत सिंह की हत्या की खबर भी आंखों में नमी नहीं ला पाई. खुद के साथ हुए हादसों ने मानवता के प्रति उस के दृष्टिकोण को संकुचित कर दिया था.

अब आंखें नम होती तो थीं पर केवल व्यक्तिगत दुख से. वह नफरत बांट रही थी नफरत के बदले. क्या वह समस्या का निदान कर रही थी या फिर जानेअनजाने में खुद समस्या का हिस्सा बनती जा रही थी?

अलाना ने एक और कैपीचीनो और्डर की. शायद दिमाग को थोड़ी सी ताजगी की जरूरत थी. वह सड़ीगली यादों से छुटकारा चाहती थी. वो यादें जो कि उस के वर्तमान को कैद किए बैठी थीं भूतकाल की सलाखों के पीछे. कैपीचीनो खत्म करते ही वह तेज कदमों से कैफे से बाहर निकल आई. एक निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी वह. एक ताजा हवा का झोंका उस के चेहरे को छूता हुआ गुजरा तो उस ने आकाश की ओर निहारा, जाने क्यों आकाश आज और दिनों की भांति ज्यादा स्वच्छ लग रहा था. उसे घर पहुंचने की जल्दी न थी, इसलिए उस ने स्वान नदी की तरफ से एक लंबा सा ड्राइव लिया. नदी, वायु, आकाश, पेड़पौधे, पक्षी सभी तो हमेशा से थे यहां. जाने क्यों कभी उस का ही ध्यान नहीं गया था अब तक इन खूबसूरत नजारों की ओर. उस ने सोचा, चलो कोई बात नहीं, जब आंख खुले उसी लमहे से एक नई सुबह मान कर एक नई शुरुआत कर देनी चाहिए.

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शाम को यीरंग के घर वापस आते ही अलाना ने उस को अपना फैसला सुनाया, ‘‘यीरंग, मैं भी कल मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में चलूंगी तुम्हारे साथ. तुम ठीक ही कहते हो ‘टू रौंग्स कांट सेट वन राइट’.’’ ‘‘मुझे तुम से ऐसी ही उम्मीद थी, अलाना. गलती तो हम भी करते हैं. जो थोड़े से फ्रैंड्स मैं ने और तुम ने दिल्ली में बनाए थे, क्या दिल्ली से चले आने के बाद हम ने उन से कोई संबंध रखा? दोस्ती के पौधे के दिल के आंगन में उग आने के बाद, उस की परवरिश के लिए मेलमिलाप के जिस खादपानी की जरूरत होती है क्या वह सब हम ने दिया? नहीं न, तो फिर हम पूरा दोष दूसरे पर मढ़ कर खुद का दामन क्यों बचा लेते हैं.

‘‘जब कोई परिवर्तन लाने का प्रयास करो तो यह अभिलाषा मत रखो कि परिवर्तन तुम्हें अपने जीवनकाल में देखने को मिल जाएगा. हां, अगर सच्चे मन से परिवर्तन लाने की चेष्टा करो तो बदलाव जरूर आएगा और उस का लाभ आने वाली पीढि़यों को अवश्य होगा.’’ ‘‘सही बात है, यीरंग. बहुत से वृक्ष ऐसे होते हैं जिन्हें लगाने वाले उन के फलों का आनंद कभी नहीं ले पाते. मगर फिर भी वे उन्हें लगाते हैं अपनी अगली पीढ़ी के लिए. शायद इसी तरह से कुछ इंसानी रिश्तों के फल भी देर में मिलते हैं. वक्त लगता है इन रिश्तों के अंकुरों को वृक्ष बनने में. एक न एक दिन इन वृक्षों के फल प्रेम की मिठास से जरूर पकते हैं. मगर, पहली बार किसी को तो बीज बोना ही होता है. तुम ने एक बार मुझ से कहा था कि ‘आज भी दुनिया में अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है, इसीलिए यह दुनिया चल भी रही है. जिस दिन यहां बुरे लोगों का प्रतिशत बढ़ेगा, यह दुनिया खत्म हो जाएगी.’ तुम सही थे, यीरंग, तुम बिलकुल सही थे.’’

और दूसरे दिन ‘स्वदेश के परदेसी’ अलाना और यीरंग आस्ट्रेलिया की भूमि पर पूर्णरूप से देसी बन कर अपने देसी भाई मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में शामिल होने के लिए सब से पहले पहुंच गए थे.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 3

‘यह दिन तो आना ही था. तुम लोगों को समझना चाहिए कि तुम दिल्ली में रह रहे हो और तुम्हें यहां रहने वालों के तौरतरीके अपनाने चाहिए. तुम लोग यहां आते हो और न्यूसेंस क्रियेट करते हो. तुम इंडियन नहीं, बल्कि चायना से आए हुए घुसपैठिए लगते हो,’ पुलिस इंस्पैक्टर ने पान चबाते हुए सामने बैठे यीरंग से कहा. ‘क्या हैं यहां के तौरतरीके?’

‘जब आए थे तो दिल्ली पुलिस की व्यवहार नियमावली पत्रिका ले कर पढ़नीसमझनी चाहिए थी. इस में स्पष्ट किया गया है कि जब तुम्हारे जैसे चिंकी लोग दिल्ली में आएं तो उन्हें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए और तुम्हारी औरतों को भारतीय परिधान पहन कर भारतीय नारियों की तरह रहना चाहिए.’ ‘क्या आप सिखाएंगे हमें व्यवहार करना? हम क्या सर्कस के जानवर हैं और आप वहां के रिंग लीडर जो आप हमें अपने हिसाब से प्रशिक्षित करेंगे. हम भी दिमाग रखते हैं. थोड़ीबहुत समझ तो हमें भी है. वैसे भी, हम यहां अपनी गुमशुदा बहन की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए आए हैं, आप से आचार संहिता सीखने के लिए नहीं.’

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एक घंटे की मगजमारी के बाद आखिरकार रिपोर्ट दर्ज हो ही गई. पुलिस ने अपने स्तर पर पूछताछ और जांच शुरू कर दी थी. मगर प्रक्रिया अत्यंत ही ढीलीढाली थी. जैसेजैसे वक्त बीत रहा था, वैसेवैसे एंड्रिया के जीवित मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ती जा रही थी. उस को गायब हुए अब तक 5 दिन हो चुके थे. और फिर एक दिन सुबहसुबह दिल्ली में अभी सूर्योदय हुआ ही था कि अलाना के मोबाइल पर थाने से फोन आ गया, ‘मैडम, यमुना नदी के एक धोबीघाट पर कल एक सूटकेस में किसी युवती की बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, उस की उम्र 16 से 20 साल के बीच की होनी चाहिए. डीएनए रिपोर्ट आना अभी बाकी है. आप से निवेदन है कि आप शिनाख्त के लिए आ जाएं. हो सकता है कि ये एंड्रिया…’

इस से आगे सबकुछ शून्य हो चुका था. अलाना को इंस्पैक्टर की आवाज किसी गहरे कुएं से आती सी प्रतीत हो रही थी. वह और यीरंग जिस हालत में बैठे थे, उसी में पुलिस थाने पहुंच गए. बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली, लाश का चेहरा तेजाब छिड़क कर बिगाड़ दिया गया था. फिर भी बाएं हाथ पर बना बिच्छू का टैटू उस मृत मानव शरीर को एंड्रिया की लाश होने की पुष्टि साफसाफ कर रहा था.

सबकुछ प्रत्यक्ष था. फिर भी अलाना का दिल इस हृदयविदारक सच को झुठलाने की असफल कोशिश कर रहा था. वह जानती थी कि यह विक्षिप्त देह खूबसूरत एंड्रिया की ही है पर मन को सच स्वीकार नहीं था. डीएनए रिपोर्ट के आने में अभी 24 घंटे बाकी थे. लमहालमहा एकएक सदी सा प्रतीत हो रहा था. आखिर वक्त गुजरा और डीएनए रिपोर्ट भी आई, वह भी एंड्रिया की हत्या की पुष्टि के साथ. जब तक एंड्रिया जीवित थी, अलाना को उस से कुछ खास मोह न था. दोनों बहनों का परस्पर लगाव औसत दर्जे का ही था. अलाना ने यीरंग के साथ नईनई दुनिया बसाई थी. वे दोनों एकांत चाहते थे. परंतु एंड्रिया के साथ आ कर रहने से एकांत मिलना काफी हद तक नामुमकिन हो गया था. उन जैसों से मकान मालिक वैसे ही डेढ़दो गुना किराया वसूल करते थे, ऊपर से एंड्रिया की वजह से उन्हें एक बैडरूम ज्यादा लेना पड़ा था. इसलिए उन के खर्चे बढ़े थे. इस कारण भी अलाना को छोटी बहन महज एक जिम्मेदारी लगती थी.

वह मन ही मन मिन्नतें करती थी कि जल्दी से जल्दी एंड्रिया की पढ़ाई पूरी हो और वह उस की जिम्मेदारी से मुक्त हो कर चैन की सांस ले. अलाना को भान नहीं था कि उसे एंड्रिया की जिम्मेदारी से इतनी जल्दी, इस रूप में मुक्ति मिलेगी. ग्लानिबोध से अलाना को अपनेआप से घृणा होती. वह घंटों एंड्रिया की तसवीर के आगे बैठी रहती, तो कभी वह एंड्रिया के वौयलिन के तारों को छूती उस की कोमल उंगलियों के स्पर्श को महसूस करने की कोशिश करती. वह बाथरूम में जा कर एंड्रिया के तौलिए से अपना चेहरा ढक कर तौलिए की खुशबू में छोटी बहन के एहसास के कतरों को ढूंढ़ने का प्रयास करती.

एंड्रिया जब तक थी तब तक अलाना के लिए कुछ खास नहीं थी, पर मरने के बाद वह उस के अंदर समा कर उस का हिस्सा बन गई. दिनरात छोटी बहन को याद कर के अलाना की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रहती.

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एंड्रिया के मर्डर की गुत्थी का कोई सुराग नहीं मिल रहा था. मिजोरम सरकार केंद्र सरकार पर निरंतर दबाव डाल रही थी. जगहजगह सामूहिक प्रदर्शन और धरने हो रहे थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. अलाना को अब दिल्ली से घृणा हो चुकी थी. वह सबकुछ छोड़ कहीं दूर चली जाना चाहती थी जहां इन रंजीदा यादों का कोई भी अवशेष न हो. उसे कहीं से पता चला कि आस्ट्रेलिया में डेटा साइंटिस्ट्स के पेशे में आगे बढ़ने के अच्छे अवसर हैं. इस तथ्य को केंद्र बना कर वह यीरंग पर आस्ट्रेलिया चलने के लिए दबाव डालने लगी. ‘आस्ट्रेलिया जा कर क्या करेंगे, अलाना, अपना देश, अपना देश होता है,’ यीरंग तर्क करता.

‘किस बात का अपना देश. पहले ही बहुतकुछ खो चुके हैं हम यहां. अब और क्या खोना चाहते हो तुम…सैप्टिक होता तो बौडी पार्ट भी काट देना पड़ता है. जब मेनलैंड के वासी हमें इंडियन नहीं मानते तो हम क्यों दिल जोड़ कर बैठे हैं सब से. कुछ नहीं हैं हम यहां, सिवा स्वदेश के परदेसी होने के.’ ‘लोगों की सोच बदल रही है, अलाना. धीरेधीरे और बदलेगी. अब उत्तर भारत में से प्रोफैशनल लोग मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु में जाने लगे हैं और दक्षिण भारत से दिल्ली, गुड़गांव में आने लगे हैं. 30 साल पहले यह चलन इतना नहीं था. यह मेलजोल समय के साथ और मिलनेजुलने पर ही संभव हो पाया है.

नौर्थईस्ट के लोगों का दिल्ली आना अभी नई शुरुआत है. वक्त के साथ इस संबंध में भी अनुकूलन बढ़ेगा और आपसी ताल्लुकात में सुधार आएंगे. टू रौंग्स कांट सेट वन राइट. अलाना समझने की कोशिश करो,’ यीरंग अलाना को समझाने का भरसक प्रयास करता. ‘भारतीय नागरिकता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. फिर हमें अपने ही देश में बारबार अपना पासपोर्ट क्यों दिखाना पड़ता है. क्यों हम से उम्मीद की जाती है कि हम अपने माथे पर ‘हम भारतीय ही हैं’ की पट्टी लगा कर घूमें. हम से निष्ठापूर्ण आचरण की आशा क्यों की जाती है जब हमारे इतिहास का कहीं किसी पाठ्यक्रम में जिक्र नहीं, हमारे क्षेत्र के विकास से सरकार का कोई लेनादेना नहीं. मेनलैंड में हमें छूत की बीमारी की तरह माना जाता है. कुछ नहीं मिला हमें यहां, मात्र उपेक्षा के. क्या हमारी गोरखा रेजीमैंट के जवानों का कारगिल युद्ध में योगदान किसी दूसरी रेजीमैंट्स से कम था?’ अलाना सचाई के अंगारे उगलती.

आगे पढें- एंड्रिया के मित्र के बयान के आधार पर…

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