Family Story : तुरुप का पता

‘‘क्या हुआ? इस तरह उठ कर क्यों चला आया?’’ कनक को अचानक ही उठ कर बाहर की ओर जाते देख कर विमलाजी हैरानपरेशान सी उस के पीछे चली आई थीं.

‘‘मैं आप के हावभाव देख कर डर गया था. मुझे लगा कि आप कहीं रिश्ते के लिए हां न कर दें इसलिए उठ कर चला आया. मैं ने वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी,’’ कनक ने समझाया.

‘‘हां कहने में बुराई ही क्या है? विवाह योग्य आयु है तुम्हारी. कितना समृद्ध परिवार है. हमारी तो उन से कोई बराबरी ही नहीं है. उन की बेटी स्वाति, रूप की रानी न सही पर बुरी भी नहीं है. लंबी, स्वस्थ और आकर्षक है. और क्या चाहिए तुझे?’’ विमला देवी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘मां, आप की और मेरी सोच में जमीनआसमान का अंतर है. लड़की सिर्फ स्नातक है. चाह कर भी उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘लो, उसे भला नौकरी करने की क्या जरूरत है? रमोलाजी तो कह रही थीं कि स्वाति के मातापिता बेटी को इतना देंगे कि सात पीढि़यों तक किसी को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. ऐसे परिवार की लड़की नौकरी क्यों करेगी?’’

‘‘नौकरी करने के लिए योग्यता चाहिए, मां. मुझे तो इस में कोई बुराई भी नहीं लगती. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. मुझे अमीर बाप की अमीर बेटी नहीं, अपने जैसी शिक्षित, परिश्रमी और ढंग की नौकरी करने वाली पत्नी चाहिए.’’

‘‘अपना भलाबुरा समझो कनक बेटे. तुम क्या चाहते हो? तुम और तुम्हारी पत्नी नौकरी करेगी और मैं जैसे अभी सुबह 5 बजे उठ कर सारा काम करती हूं. तुम सब भाईबहनों के टिफिन पैक करती हूं, तुम्हारे विवाह के बाद भी मुझे यही सब करना पड़ा तो मेरा तो बेटा पैदा करने का सुख ही जाता रहेगा,’’ विमला ने नाराजगी जताई थी.

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं, मां. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है? मुझे तो लड़की वालों का व्यवहार बड़ा ही संदेहास्पद लग रहा है. जरा सोचो, मां, इतना संपन्न परिवार अपनी बेटी का विवाह मुझ जैसे साधारण बैंक अधिकारी से करने को क्यों तैयार है?’’

‘‘तुम स्वयं को साधारण समझते हो पर बैंक मैनेजर की हस्ती क्या होती है इसे वे भलीभांति जानते हैं.’’

‘‘हमारे परिवार के बारे में भी वे अच्छी तरह से जानते होंगे न मां, मेरे 2 छोटे भाई अभी पढ़ रहे हैं. दोनों छोटी बहनें विवाह योग्य हैं.’’

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? इन सब का भार क्या तुम्हारे कंधों पर है? तुम्हारे पापा इस शहर के जानेमाने चिकित्सक थे. तुम्हारे दादाजी भी यहां के मशहूर दंत चिकित्सक थे. इतनी बड़ी कोठी बना कर गए हैं तुम्हारे पूर्वज. बाजार के बीच में बनी दुकानों से इतना किराया आता है कि तुम कुछ न भी करो तो भी हमारा काम चल जाए.’’

‘‘मां, पापा और दादाजी थे, अब नहीं हैं. हमारी असलियत यही है कि 6 लोगों के इस परिवार का मैं अकेला कमाऊ सदस्य हूं.’’

‘‘बड़ा घमंड है अपने कमाऊ होने पर? इसलिए स्वाति के परिवार के सामने तुम ने मेरा अपमान किया. मुझ से बिना कुछ कहे ही तुम्हारे वहां से चले आने से मुझ पर क्या बीती होगी यह कभी नहीं सोचा तुम ने,’’ विमलाजी फफक उठी थीं.

‘‘मां, मैं आप को दुख नहीं पहुंचाना चाहता था पर जरा सोचो, विवाह के बाद कोई मुझे आप से छीन कर अलग कर दे तो क्या आप को अच्छा लगेगा?’’ कनक ने विमलाजी के आंसू पोंछे थे.

‘‘कनक, यह क्या कह रहा है तू?’’ वे चौंक उठी थीं.

‘‘वही, जो मैं वहां से सुन कर आ रहा हूं. आप सब हम दोनों को अकेला छोड़ कर चले गए थे. हम ने अपने भविष्य पर विस्तार से चर्चा की. मेरी और स्वाति की सोच में इतना अंतर है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. वह यदि सातवें आसमान पर है तो मैं रसातल में.’’

‘‘ऐसा क्या कहा उस ने?’’

‘‘पूछ रही थी कि सगाई की अंगूठी कहां से खरीदोगे. हाल ही में किसी फिल्मी हीरोइन का विवाह हुआ है. कह रही थी उस की अंगूठी 3 करोड़ की थी. मैं कितने की बनवाऊंगा.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने हंस कर बात टाल दी कि बैंक का अफसर हूं. बैंक का मालिक नहीं और बैंक में डकैती डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

कनक के छोटे भाई तनय व विनय और बहनें विभा और आभा खिलखिला कर हंस पड़े थे.

‘‘तुम लोगों को हंसी आ रही है और मेरा चिंता के कारण बुरा हाल है,’’ विमला ने सिर थाम लिया था.

‘‘छोटीछोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दो, मां, सदा खुश रहना सीखो, दुख भरे दिन बीते रे भैया…’’ तनय ने अपने हलकेफुलके अंदाज में कहा.

‘‘चिंता तो मेरे जीवन के साथ जुड़ी है बेटे. आज तेरे पापा होते तो ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय वे ही लेते पर अब तो मुझे ही सोचसमझ कर सब कार्य करना है.’’

‘‘और क्या कहा स्वाति ने, भैया?’’ विभा ने हंसते हुए बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘मैं बताती हूं दीदी, विवाह परिधान किस डिजाइनर से बनवाया जाएगा. गहने कहां से और कितने मूल्य के खरीदे जाएंगे. हनीमून के लिए हम कहां जाएंगे. स्विट्जरलैंड या स्वीडन,’’ आभा ने हासपरिहास को आगे बढ़ाया.

‘‘कनक भैया, सावधान हो जाओ. दीवाला निकलने वाला है तुम्हारा. यहां तो उलटी गंगा बह रही है. पहले लड़की वाले दहेज को ले कर परेशान रहते थे. यहां तो शानशौकत वाले विवाह का सारा भार तुम्हारे कंधों पर आ पड़ा है,’’ विनय भी कब पीछे रहने वाला था.

‘‘चुप रहो तुम सब. यह उपहास का विषय नहीं है. हम यहां गंभीर विषय पर विचारविमर्श कर रहे हैं. विभा और आभा तुम्हारी कल से परीक्षाएं हैं, जाओ उस की तैयारी करो. यहां समय व्यर्थ मत गंवाओ. तनय, विनय, तुम लोग भी जाओ, अपना काम करो और हमें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो,’’ विमला ने चारों को डपटा.

चारों चुपचाप उठ कर चले गए थे.

‘‘हां, अब बताओ और क्या बातें हुईं तुम दोनों के बीच. पता तो चले कि वह लड़की हमारे साथ हिलमिल पाएगी या नहीं,’’ एकांत पाते ही विमला ने पूछा था.

‘‘मां, विनय, तनय, विभा और आभा की कल्पना की हर बात पूछी थी उस ने. पर एक और बात भी पूछी थी जो उन चारों तो क्या आप की कल्पना से भी परे है और वह बात बता कर मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता.’’

‘‘ऐसा क्या कहा था उस ने? अब बता ही डाल. नहीं तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो न मां, क्या करोगी सुन कर? इस बात को यहीं समाप्त करो. इसे आगे बढ़ाने  का कोई लाभ नहीं है. कहते हैं न कि जिस गांव में जाना नहीं उस का पता क्या पूछना.’’

‘‘प्रश्न बात आगे बढ़ाने का नहीं है. पर सबकुछ पता हो तो निर्णय लेना सरल हो जाता है.’’

‘‘तो सुनो मां. स्वाति पूछ रही थी कि विवाह के बाद हम कहां रहेंगे?’’

‘‘कहां रहेंगे का क्या मतलब है? हमारी इतनी बड़ी कोठी है. कहीं और रहने का प्रश्न ही कहां उठता है,’’ विमलाजी का स्वर अचरज से भरा था.

‘‘वह कह रही थी कि सास, ननद और देवरों के चक्कर में पड़ कर मैं अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. उसे तो स्वतंत्रता चाहिए, पूर्ण स्वतंत्रता,’’ कनक ने अंतत: बता ही दिया था.

‘‘हैं, जो लड़की विवाह से पहले ही ऐसी बातें कर रही है वह विवाह के बाद तो जीना दूभर कर देगी. अच्छा किया जो तुम उठ कर चले आए. ऐसे संस्कारों वाली लड़की से तो दूर रहना ही अच्छा है.’’

‘‘मां, इस बात को यहीं समाप्त कर दो. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है आप को. विभा व आभा के भी कुछ प्रस्ताव हैं, उन के बारे में सोचिए न,’’ कनक ने उठने का उपक्रम किया था.

विमलाजी शून्य में ताकती अकेली बैठी रह गई थीं. उन्होंने सुना अवश्य था कि आधुनिक लड़कियां न झिझकती हैं न शरमाती हैं. जो उन्हें मन भाए उसे छीन लेती हैं. नहीं तो पहली ही भेंट में स्वाति की कनक से इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? शायद उस के मातापिता उस की इच्छा के खिलाफ उस का विवाह करना चाह रहे हैं और उस ने ऐसे अनचाहे संबंध से पीछा छुड़ाने का यह नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला हो.

‘‘क्या हुआ, मां? किस सोच में डूबी हो,’’ विमलाजी को सोच में डूबे देख विभा ने पूछा था.

‘‘कुछ नहीं रे. ऐसे ही थोड़ी थक गई हूं.’’

‘‘आराम कर लो कुछ देर. खाना मैं बना देती हूं,’’ विभा उन का माथा सहलाते हुए बोली थी.

‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी कल परीक्षा न होती तो मैं स्वयं तुम से कह देती. मैं कुछ हलकाफुलका बना लेती हूं, तुम जा कर पढ़ाई करो,’’ विमलाजी स्निग्ध स्वर में बोली थीं.

वे धीरे से उठ कर रसोईघर में जा घुसी थीं. उन्होंने अपने थकने की बात विभा से कही थी पर सच तो यह था कि आज की घटना ने उन का दिल दहला दिया था. अपने पति डा. उमेश को असमय ही खो देने के बाद उन्होंने स्वयं को शीघ्र ही संभाल लिया था. अपने बच्चों के भविष्य के लिए वे चट्टान की भांति खड़ी हो गई थीं. वे स्वयं पढ़ीलिखी थीं, चाहतीं तो नौकरी कर लेतीं पर अपने हितैषियों की सलाह मान कर उन्होंने घर पर ही रहने का निर्णय लिया था.

उमेश की बहन डा. नीलिमा ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था पर पिछले 5 वर्ष से वे अपने परिवार के साथ लंदन में बस गई थीं. पहले उन्होंने सोचा था कि उन से बात कर के ही मन हलका कर लें. पर शीघ्र ही उस विचार को झटक कर अपने कार्य में व्यस्त हो गईं. यह सोच कर कि इतनी दूर बैठी नीलिमा दीदी भला उन्हें क्या सलाह दे सकेंगी. वैसे भी जब कनक खुद इस विवाह के लिए तैयार नहीं है तो इस बात को आगे बढ़ाने का अर्थ ही क्या है?

दूसरे दिन रमोलाजी का फोन आ गया.

‘‘विमलाजी, कल आप अचानक ही उठ कर चली आईं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, राव दंपती तो हक्केबक्के रह गए.’’

‘‘बात यह है रमोलाजी कि यह संबंध हमें जंचा नहीं. इसीलिए हम चले आए.’’

‘‘क्यों नहीं जंचा, विमलाजी, आप आज्ञा दें तो मैं स्वयं आ जाऊं. राव दंपती तो स्वयं आना चाह रहे थे पर मैं ने ही उन्हें मना कर दिया और समझाया कि पहले मैं जा कर वस्तुस्थिति का पता लगाती हूं. आप लोग बाद में आइएगा. आप कहें तो अभी आ जाऊं.’’

‘‘अभी तो मैं जरा व्यस्त हूं. बच्चों के कालेज जाने का समय है. आप 2 घंटे के बाद आ जाइए. तब तक मैं अपना काम समाप्त कर लूंगी,’’ विमलाजी बोली थीं.

‘‘किस का फोन था, मां?’’ फोन पर मां का वार्त्तालाप सुन कर कनक के कान खड़े हो गए थे.

‘‘रमोलाजी थीं. घर आ कर मिलना चाहती हैं.’’

‘‘टाल देना था मां. आप तो रमोलाजी को अच्छी तरह से जानती हैं. जोडि़यां मिलाना उन का धंधा है. वे आप को ऐसी पट्टी पढ़ाएंगी कि आप मना नहीं कर सकेंगी.’’

‘‘वे तो इसे समाज की सेवा कहती हैं. तुम ने सुना नहीं था कि कल कैसे अपनी प्रशंसा के पुल बांध रही थीं. उन के ही शब्दों में उन्होंने जितनी जोडि़यां मिलाई हैं सब बहुत सुखी हैं.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, मां, आप बातों में उन से जीत नहीं सकतीं. आप अभी फोन कर के कोई बहाना बना दीजिए,’’ कनक ने सुझाव दिया था.

‘‘मैं रमोलाजी को व्यर्थ नाराज नहीं करना चाहती. उन की अच्छेअच्छे परिवारों में पैठ है. चुटकी बजाते ही रिश्ते पक्के करवाने में उन का कोई सानी नहीं है. फिर विभा और आभा का विवाह भी करवाना है. तुम कहां टक्कर मारते घूमोेगे?’’

‘‘ठीक है. खूब स्वागतसत्कार कीजिए रमोलाजी का पर सावधान रहिए और दृढ़ता से काम लीजिए. विभा की बात भी उन के कान में डाल दीजिए. अच्छा तो मैं चलता हूं.’’

रमोलाजी आई तो विमलाजी पूरी तरह से चाकचौबंद थीं. रमोलाजी की लच्छेदार बातों से वे भलीभांति परिचित थीं अत: मानसिक रूप से भी तैयार थीं.

‘‘क्या हुआ विमला भाभी? कल आप दोनों बिना कुछ कहेसुने राव साहब के यहां से उठ कर चले आए. जरा सोचिए, उन्हें कितना बुरा लगा होगा. मुझ से तो कुछ कहते ही नहीं बना,’’ रमोलाजी ने आते ही शिकायत की थी.

‘‘कनक से स्वाति की बातचीत हुई थी. उसे लगा कि उन दोनों के विचारों में बहुत अंतर है. इसलिए वह उठ कर चला आया तो उस के साथ मैं भी चली आई. विवाह तो उसी को करना है.’’

‘‘कैसी बात करती हो, भाभी. इतने अच्छे रिश्ते को क्या आप यों ही ठुकरा दोगी. मैं तो आप के भले के लिए ही कह रही थी. यों समझो कि लक्ष्मी स्वयं चल कर आप के घर आ रही है और आप उसे ठुकरा रही हैं?’’

‘‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता, दीदी. और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है.’’

‘‘तो बताओ न, बात क्या है? क्यों कनक वहां से उठ कर चला आया?’’

‘‘क्या कहूं, जो कुछ कनक ने बताया वह सुन कर मैं तो अब तक सकते में हूं,’’ विमलजी रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘ऐसा क्या कह दिया स्वाति ने? मैं तो उस को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मेरी बेटी की वह बहुत अच्छी सहेली है. जिजीविषा तो उस में कूटकूट कर भरी है. यह मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं उस का रिश्ता कनक के लिए लाई हूं. तुम उसे अपनी बहू न बनाओ तब भी मैं उस के बारे में यही कहूंगी.’’

‘‘आप तो स्वाति की प्रशंसा के पुल बांध रही हैं पर कनक तो उस से मिल कर बहुत निराश हुआ है.’’

‘‘क्यों? उस की निराशा का कारण क्या है?’’

‘‘बहुत सी बातें हैं. स्वाति उस से पूछ रही थी कि वह सगाई की अंगूठी कहां से और कितने की बनवाएगा, विवाह की पोशाक किस डिजाइनर से बनवाई जाएगी. ऐसी ही और भी बातें.’’

‘‘बस, इतनी सी बात? उस ने अंगूठी और पोशाक के बारे में पूछ लिया और कनक आहत हो गया? हर युवती का अपने विवाह के संबंध में कुछ सपना होता है. उस ने प्रश्न कर लिया तो क्या हो गया? भाभी, आजकल हमारा और तुम्हारा जमाना नहीं रहा, आजकल की युवतियां बहुत मुखर हो गई हैं. वे अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं करतीं उसे पूरा भी करना चाहती हैं.’’

‘‘पर उन इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में परिवार को कष्ट होता है तो होता रहे? स्वाति ने तो कनक से साफ कह दिया कि वह विवाह के बाद संयुक्त परिवार में नहीं रहेगी.’’

‘‘तोे कनक ने क्या कहा?’’

‘‘वह तो हतप्रभ रह गया, कुछ सूझा ही नहीं उसे.’’

‘‘क्या कह रही हो, भाभी? उसे साफ शब्दोें में कहना चाहिए था कि वह परिवार का बड़ा बेटा है. परिवार से अलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वाति ने तो अपने मन की बात कह दी, कोई दूसरी लड़की विवाह के बाद यह मांग करेगी तो क्या करेगा कनक और क्या करेंगी आप?’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है,’’ विमलाजी की आंखें छलछला आईं, स्वर भर्रा गया.

‘‘इतना असहाय अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है. घरपरिवार आप का है. इसे सजाने व संवारने में अपना जीवन होम कर दिया आप ने. दृढ़ता से कहो कि इस तरह के निर्णय बच्चे नहीं लेते बल्कि आप स्वयं लेती हैं.’’

‘‘मेरे कहने से क्या होगा, दीदी. लड़की यदि झगड़ालू हुई तो हम सब का जीना दूभर कर देगी. कनक तो इसी कारण नौकरी वाली लड़की चाहता है. उसे तो झगड़ा करने का समय ही नहीं मिलेगा.’’

‘‘पर स्वाति तो नौकरी वाली युवतियों से भी अधिक व्यस्त रहती है. राव साहब के रेडीमेड कपड़ों के डिपार्टमैंट में महिला और बाल विभाग स्वाति संभालती है, उस के डिजाइनों को लाखों के आर्डर मिलते हैं.’’

‘‘पर कनक तो कह रहा था कि स्वाति केवल स्नातक है. उसे कहीं नौकरी तक नहीं मिलेगी.’’

‘‘हां, पर फैशन डिजाइनिंग में स्नातक है. इतना बड़ा व्यापार संभालती है तो नौकरी करने का प्रश्न ही कहां उठता है. मुझे लगता है कनक ने उस से कुछ पूछा ही नहीं, बस उस की सुनता रहा.’’

‘‘थोड़ा शर्मीला है कनक, पहली ही मुलाकात में किसी से घुलमिल नहीं पाता,’’ विमलाजी संकुचित स्वर में बोली थीं.

‘‘होता है, भाभी. पहली मुलाकात में ऐसा ही होता है. सहज होने में समय लगता है. मैं तो कहती हूं दोनों को मिलनेजुलने दो. एकदूसरे को समझने दो. आप भी ठोकबजा कर देख लो, सबकुछ समझ में आए तभी अपनी स्वीकृति देना.’’

‘‘आप की बात सच है. मैं कनक से कहूंगी कि स्वाति और वह फिर मिल लें. पर दीदी, सबकुछ कनक के हां कहने पर ही तो निर्भर करता है. तुम तो जानती ही हो, आज के समय में बच्चों पर अपनी राय थोपना असंभव है.’’

‘‘बिलकुल सही बात है पर तुम एक बार राव दंपती से मिल तो लो. उस दिन तुम और कनक अचानक उठ कर चले आए तब वे बहुत आहत हो गए थे.’’

‘‘उस के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं पर कनक अचानक ही उठ कर चल पड़ा तो मुझे उस का साथ देना ही पड़ा.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं है. जो हो गया सो हो गया. जब आप को सुविधा हो बता देना. मैं उसी के अनुसार राव दंपती से आप की भेंट का समय निश्चित कर लूंगी,’’ रमोलाजी ने सुझाव दिया था.

‘‘एक बार कनक से बात कर लूं फिर आप को फोन कर दूंगी.’’

‘‘एक बात कहूं, भाभी? बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, दीदी? आप की बात का बुरा मानूंगी? आप ने तो कदमकदम पर मेरा साथ दिया है. वैसे भी बच्चों के विवाह भी तो आप को ही करवाने हैं.’’

‘‘तो सुनो, समय बहुत खराब आ गया है. इसलिए सावधानी से सोचसमझ कर अपने निर्णय स्वयं लेना सीखो. आजकल के युवा अपने पैरों पर खड़े होते ही स्वयं को तीसमारखां समझने लगते हैं. मेरा तो अपने काम के सिलसिले में हर तरह के परिवारों में आनाजाना लगा रहता है. राजतिलकजी का नाम तो आप ने सुना ही होगा?’’

‘‘उन्हें कौन नहीं जानता,’’ विमला के नेत्र विस्फारित हो गए थे.

‘‘उन का इकलौता बेटा सुबोध, हर लड़की में कोई न कोई कमी निकाल देता था. फिर अपनी मरजी से स्वयं से 10 साल बड़ी अपनी अफसर से विवाह कर लिया. लड़की भी पहले की विवाहित थी. 2 बच्चे भी थे. दोनों परिवार बरबाद हो गए. राजतिलकजी का तो दिल ही टूट गया.’’

‘‘सच कह रही हो, दीदी, आजकल की औरतों ने तो हयाशरम बेच ही खाई है,’’ विमलाजी ने हां में हां मिलाई थी.

‘‘सो मत कहो भाभी. सैनी साहब का नाम तो सुना ही होगा आप ने?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘उन के बेटे निखिल ने तो अपने पुरुष मित्र से ही विवाह कर लिया. बेचारे सैनी साहब तो शरम के मारे अपना घर बेच कर चले गए,’’ रमोलाजी ने बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘लगता है अब घोर कलियुग आ गया है,’’ विमलाजी ने इतना बोल कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया.

‘‘इसीलिए तो कहती हूं, भाभी. सावधान हो जाओ और होशियारी से काम लो. बच्चे आखिर बच्चे हैं…दुनियादारी की बारीकियां वे भला क्या समझें,’’ रमोलाजी विदा लेते हुए बोली थीं.

रमोलाजी चली गई थीं पर विमला को सकते में छोड़ गईं, ‘‘ठीक कहती हैं रमोला. निर्णय तो स्वयं लेंगी. कनक क्या जाने जीवन की पेचीदगियों को.’’

रमोलाजी तुरुप का पत्ता चल गई थीं और जानती थीं कि उन का दांव कभी खाली नहीं जाता.

Online Hindi Story : दिखावे की काट

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं.

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.

‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.

‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.

बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.

पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.

अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.

पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.

‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.

रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.

बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.

अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.

खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.

अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.

पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.

9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.

व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.

कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.

धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.

असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.

तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.

यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.

जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.

रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.

अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.

जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.

जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.

असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.

दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.

‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.

‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’

भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’

बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.

Satire : पुलिस वैरीफिकेशन का चक्कर

किसी भी अच्छे काम को अंजाम देने में तमाम कठिनाइयां तो आती ही हैं. मानवाधिकारों के लिए बेचारे अमेरिका ने किसकिस से बैर नहीं ले डाला? हमारा मुल्क इसीलिए भेडि़याधसान कहलाता है क्योंकि हम दूसरों के कहे में जल्दी आ जाते हैं, अपना दिमाग खर्च ही नहीं करना चाहते. हमारे यहां गांव से ले कर कसबों तक, शहरों से ले कर संसद तक तमाम बड़ेबड़े कांड हो रहे हैं पर हर विफलता के लिए कोई न कोई बढि़या सा बहाना गढ़ कर मामला रफादफा कर दिया जाता है.

नक्सलवाद की समस्या पर एक माननीय महोदय का कहना था कि उस से प्रभावित क्षेत्रों में लोग तीरकमान चलाने में बहुत अच्छे हैं लिहाजा, वे इस समस्या से निबटने के लिए खुद ही काफी हैं. एक अन्य ने वहां विकास योजनाओं पर जोर देने की बात कही है.

देश के तमाम हिस्सों में होने वाले अन्य अपराधों में सफलता भले ही न मिले पर एक नया नुक्ता उछाल दिया जाता है कि अमुक संस्था ने अपने कर्मचारियों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं कराया था. मकानमालिकों को किराएदारों के लिए उन के स्थायी पते पर जा कर पुलिस वैरीफिकेशन कराए जाने के निर्देश हैं. अगर आप कोई घरेलू नौकर रखना चाहते हैं तो पहले उस का पुलिस वैरीफिकेशन कराइए.

अमेरिका इतना अच्छा देश है कि हर संदर्भ वहां एक आदर्श उदाहरण पेश करता हुआ मिलता है. अब इस वैरीफिकेशन को ही ले लीजिए. हमारा कोई भी नागरिक, भले ही वह कोई बड़े नाम वाला मंत्री या अभिनेता ही क्यों न हो, जैसे ही उन के देश की सीमा में प्रवेश करता है, पुलिस वैरीफिकेशन शुरू हो जाता है और वह इतनी ईमानदारी से होता है कि कभीकभी हमारा मीडिया काफी दिन तक तिलमिलाया रहता है. अगर उसे शक हो जाए तो वे हमारा ऐक्सरे करवाने में भी नहीं हिचकेंगे.

हम न तो अपनों से ईमानदारी बरतते हैं और न ही बाहर वालों से. हम किसी भी विदेशी हस्ती के आने की खबर से ही इतना अभिभूत हो जाते हैं कि उस का वैरीफिकेशन करने के बजाय यह सोचने लगते हैं कि भेंट में उस से क्या मिल सकता है. किस मद में कितना लोन या दान मिल सकता है. ऐसे में ईमानदारी से उस की जांच का प्रश्न ही कहां रह पाता है.

उन की ईमानदारी का दायरा देखिए कि उन का राष्ट्रपति हमारे यहां महात्मा गांधी की समाधि पर अगर फूल भी चढ़ाना चाहे तो उन के कुत्ते पहले कई बार चक्कर लगा कर मुतमईन हो लेते हैं कि कहीं उस समाधि में उन के साथ ही उन की लाठी न दबी रह गई हो. वे कतई नहीं चाहते कि उन के अलावा कोई भी मानव विनाशकारी हथियार रखे. आखिर यह हक तो केवल मानव अधिकार के पोषक के पास ही रहना चाहिए न.

अपने यहां किसी होटल में कोई हत्या या चोरी हो जाए तो मुख्य मुद्दा यह हो जाता है कि यहां ठहरने वालों के पते का वैरीफिकेशन करवाया गया था या नहीं. अब सोचिए कि कोई दिल्ली से लुधियाना जाए और अगली यात्रा के लिए उसे वहां 8-10 घंटे रुकना ही पड़ जाए तो पहले अपने पते का सुबूत पेश करे. अगर आप किसी स्कूटर स्टैंड पर अपना स्कूटर खड़ा करें तो अपने पते का सुबूत दिखाएं क्योंकि वह मामला भी एक तरह से किराएदारी का ही हो जाता है.

मेरे शहर में मात्र 9 दिन में बड़ीबड़ी दुकानों में चोरी की 7 वारदातें हो गईं तो एक बात खुल कर सामने आई कि उन के मालिकों ने अपने नौकरों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं करवाया था जबकि सभी चोरियों में उन के नौकरों का हाथ ही पाया गया था. अब बेचारे दुकानमालिकों का ध्यान बजाय अपने नुकसान के इस कानूनी दांवपेंच में उलझ कर रह गया.

इसी तरह होटलों में होने वाले कांडों पर अंकुश के लिए उन को ताकीद की गई कि वे बिना वैरीफिकेशन के किसी को भी अपने होटल में न ठहरने दें. इन सब के चलते जब एक बहुत बूढ़े जोड़े ने बजाय होटल के रेलवे स्टेशन पर ही रात बिताने की सोची तो वहां जी.आर.पी. वाले उन से वैरीफिकेशन के नाम पर अच्छीखासी रकम की उगाही कर ले गए. जब अपनी पत्नी को बाहर खड़ा कर उस के पति पास के सुलभ शौचालय में शौच के लिए जाने लगे तो वहां तैनात कर्मचारी ने उन को बाहर ले जा कर उन का वैरीफिकेशन करना चाहा. वे बेचारे कहते रहे कि बहुत जोर से लगी है, पर वह कर्मचारी फिर भी नहीं पिघला और सख्त लहजे में बोला, ‘‘बिना पुलिस वैरीफिकेशन आप शौच के लिए नहीं जा सकेंगे.’’

संयोग ही था कि इतने में एक सज्जन जो शौच से निवृत्त हो कर निकले थे, इस तकरार को देख कर ठिठक से गए. उन्होंने उन वृद्ध महोदय को अपने द्वारा खाली किए गए लैट्रिन बौक्स में जबरदस्ती प्रवेश करवा दिया. पर अब वह आफत उस सज्जन के सिर आ गई. वह कर्मचारी उन से भिड़ गया तो वे बोले, ‘‘मैं यहीं बैठा हूं, यह मेरा पता है. जाओ, करा लाओ पुलिस वैरीफिकेशन.’’

इस पर वह कर्मचारी बोला, ‘‘पुलिस वैरीफिकेशन कराने में तो 500 रुपए लगते हैं, वह कौन देगा?’’

‘‘जिस को गरज होगी या जिस को शक होगा,?’’ उन सज्जन ने पलट कर जवाब दिया.

इतनी देर में वृद्ध महोदय बाहर आ चुके थे, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि इस को 50 रुपए दे दो. उन की पत्नी ने 50 रुपए का नोट उस कर्मचारी के हवाले किया.

50 के नोट पर गांधीजी को हंसता देख कर कर्मचारी की वैरीफिकेशन की जरूरत पूरी हो चुकी थी. वह बस, मुसकरा दिया. इसे कहते हैं वैरीफाइड मुसकान.

Husband Wife Story- तृष्णा : दीपक और दीप्ति के रिश्ते की क्या थी सच्चाई ?

Husband Wife Story: पार्टी पूरे जोरशोर से चल रही थी. दीप्ति और दीपक की शादी की आज 16वीं सालगिरह थी. दोनों के चेहरे खुशी से दमक रहे थे. दोनों ही नोएडा में रहते हैं. वहां दीप्ति एक कंपनी में सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर नियुक्त है तो दीपक बहुराष्ट्रीय कंपनी में वाइस चेयरमैन.

दीप्ति की आसमानी रंग की झिलमिल साड़ी सब पर कहर बरपा रही थी. दोनों ने अपने करीबी दोस्तों को बुला रखा था. जहां दीपक के दोस्त दीप्ति की खूबसूरती को देख कर ठंडी आहें भर रहे थे, वहीं दीपक का दीप्ति के प्रति दीवानापन देख कर उस की सहेलिया भले हंस रही हों पर मन ही मन जलभुन रही थीं.

केक काटने के बाद कुछ कपल गेम्स का आयोजन किया गया. उन में भी दीप्ति और दीपक ही छाए रहे. पार्टी खत्म हो गई. सब दोस्तों को बिदा करने के बाद दीप्ति और दीपक भी अपनेअपने कमरे रूपी उन ग्रहों में छिप गए

जहां पर बस वे ही थे. वे आज के उन युगलों के लिए उदाहरण हैं जो साथ हो कर भी साथ नहीं हैं. दोनों ही, जिंदगी की दौड़ में इतना तेज भाग रहे हैं कि उन के हाथ कब छूट गए, पता ही

नहीं चला.

आज रात को बैंगलुरु से दीपक की दीदी आ रही थीं. दीप्ति ने पूरे दिन की छुट्टी

ले ली. नौकरों की मदद से घर की सज्जा में थोड़ा परिवर्तन कर दिया. दीपक भी सीधे दफ्तर से

दीदी को लेने एअरपोर्ट चला गया. शाम 7 बजे दरवाजे की घंटी बजी, तो दीप्ति ने दौड़ कर दरवाजा खोला. अपनी ससुराल में वह सब से करीब शिखा दीदी के ही थी. शिखा एक बिंदास 46 वर्षीय स्मार्ट महिला थी, जो दूध को दूध और पानी को पानी ही बोलती है. शिखा के साथ ही वह दीपक, अपने सासससुर की भी बिना हिचक के बुराई कर सकती है. शिखा के साथ उस का ननद का नहीं, बल्कि बड़ी दीदी का रिश्ता था.

शिखा मैरून सूट में बेहद दिलकश लग

रही थी. दीप्ति भी सफेद गाउन में बहुत सुंदर लग रही थी.

दीप्ति को बांहों में भरते हुए शिखा बोली, ‘‘दीप्ति तुम कब अधेड़ लगोगी, अभी भी बस

16 साल की लग रही हो.’’

‘‘जिस दिन तेरा मोटापा थोड़ा कम होगा मोटी,’’ पीछे से दीपक की हंसी सुनाई दी.

रात के खाने में सबकुछ शिखा की पसंद का था. चिल्ली पनीर, फ्राइड राइस, मंचूरियन, रूमाली रोटी और गाजर का हलवा.

‘‘ऐसा लगता ही नहीं कि भाभी के घर आई हूं. ऐसा लगता है कि मम्मीपापा के घर में हूं,’’ शिखा भर्राई आवाज में बोली.

सुबह शिखा जब 9 बजे सो कर उठी तो दीप्ति नाश्ते की तैयारी में लगी हुई थी.

‘‘घर मेरी भतीजियों के बिना कितना सुनसान लग रहा है,’’ शिखा ने कहा तो दीप्ति और दीपक एकदूसरे की तरफ सूनी आंखों से देख रहे हैं,यह दीदी की अनुभवी आंखों से छिपा नहीं रहा.

जैसे एक आम शादी में होता है, ऐसी ही कुछ कहानी उन की शादी की भी थी. कुछ सालों तक वे भी एकदूसरे में प्यार के गोते लगाते रहे और समय बीततेबीतते उन का प्यार भी खत्म हो गया. फिर शुरू हुई एकदूसरे को अपने जैसा बनाने की खींचातानी. उस खींचातानी में रिश्ता कहां चला गया, किसी को नहीं पता चला. दोनों में फिर भी इतनी समझदारी थी कि अपने रिश्ते की कड़वाहट उन्होंने कभी अपने परिवार और बच्चों के आगे जाहिर नहीं करी. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को बोर्डिंग में डाल दिया था ताकि वे उन के रिश्ते के बीच बढ़ती खाई को महसूस न कर पाएं.

‘‘दीदी, दीपक का कुछ ठीक नहीं है. वे अकसर रात का डिनर बाहर कर के आते हैं,’’ दीप्ति सपाट स्वर में बोली और फिर मोबाइल में व्यस्त हो गई.

शिखा पूरे 4 वर्ष बाद भाईभाभी के पास आई थी पर उसे ऐसा लग रहा था जैसे 4 दशक बाद आई हो.

शिखा मन ही मन मनन कर रही थी कि कहीं न कहीं ऐसा भी होता है जब

जीवन में बहुत कुछ और बहुत जल्दी मिल जाता है तो पता ही नहीं चलता कब एक बोरियत भी रिश्ते में आ गई है. यह संघर्ष ही तो है जो हमें जिंदगी को जिंदादिली से जीने की राह दिखाता है.

दीपक अपने ही औफिस में एक तलाकशुदा महिला निधि के साथ अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताना पसंद करने लगा था, क्योंकि उस के साथ उसे ताजगी महसूस होती थी.

‘‘सुनो, आज रात बाहर डिनर करेंगे,’’ दीपक के बालों में हाथ फेरते हुए निधि ने कहा.

‘‘यार दीदी आई हुई हैं… बताया तो था मैं ने,’’ दीपक ने कहा.

निधि ने थोड़े तेज स्वर में कहा, ‘‘भूल गए, मंगलवार और शुक्रवार की शाम मेरी है,’’ और फिर झुक कर दीपक को चूम लिया.

दीपक का रोमरोम रोमांचित हो उठा. यही तो वह रोमांच है जिसे वह अपने विवाह में मिस करता है. उस रात आतेआते 12 बज गए. शिखा सोई नहीं थी, वह बाहर ड्राइंगरूम में ही बैठ कर काम कर रही थी. दीपक शिखा को देख कर ठिठक गया.

‘‘भाई, यह क्या समय है घर आने का? अभी तो मैं हूं पर वैसे दीप्ति क्या करती होगी,’’ शिखा ने चिंतित स्वर में कहा. दीपक सीधे अंदर बैडरूम में चला गया और दीप्ति को बांहों में उठा कर ले आया.

‘‘मोटी प्यार तो मैं अब भी उतना ही करता हूं दीप्ति से, बस जिम्मेदारियां सिर उठाने ही नहीं देती,’’ दीपक बोला.

दीप्ति हंसते हुए दीपक के लिए कौफी बनाने चली गई, पर शिखा को इस प्यार में स्वांग अधिक और गरमाहट कम लग रही थी. पर उस ने अधिक तहकीकात करने की जरूरत इसलिए नहीं समझी, क्योंकि उसे खुद पता था कि वैवाहिक जीवन में ऐसे उतारचढ़ाव आते रहते हैं… उसे दोनों की समझदारी पर पूरा भरोसा था.

जब शिखा अपना सामान पैक कर रही थी तो अचानक दीप्ति उस के गले लग कर रोने लगी. उस रोने में एक खालीपन है, यह बात शिखा से छिपी न रह सकी.

‘‘क्या बात है दीप्ति, कुछ समस्या है तो बताओ… मैं उसे सुलझाने की कोशिश करूंगी.’’

‘‘नहीं, आप जा रही हैं तो मन भर आया,’’ दीप्ति ने खुद को काबू करते हुए कहा.

ऐसी ही एक ठंडी रात दीप्ति फेसबुक पर कुछ देख रही थी कि अचानक उस ने एक मैसेज देखा जो किसी संदीप ने भेजा था, ‘‘क्या आप शादीशुदा हैं?’’

भला ऐसी कौन सी महिला होगी जो इस बात से खुश न होगी? लिखा, ‘‘मैं पिछले 15 सालों से शादीशुदा हूं और 2 बेटियों की मां हूं.’’

संदीप ‘‘झूठ मत बोलो,’’ और कुछ दिल

के इमोजी…

दीप्ति, ‘‘दिल हथेली पर रख कर चलते

हो क्या?’’

संदीप, ‘‘सौरी पर आप खूबसूरत ही

इतनी हैं.’’

ऐसे ही इधरउधर की बात करतेकरते 1 घंटा बीत गया और दीप्ति को पता भी नहीं चला. बहुत दिनों बाद उसे हलका महसूस हो रहा था.

अब दीप्ति भी संदीप के साथ चैटिंग में एक अनोखा आनंद का अनुभव करने लगी. अब उतना खालीपन नहीं लगता था.

संदीप दीप्ति से 8 वर्ष छोटा था और देखने में बेहद आकर्षक था. संदीप जैसा

आकर्षक युवक दीप्ति के प्यार में पड़ गया है, यह बात दीप्ति को एक अनोखे नशे से भर देती थी.

दीप्ति अपने रखरखाव को ले कर काफी सहज हो गई थी… कभीकभी तो युवा और आकर्षक दिखने के चक्कर में वह हास्यास्पद भी लगने लगती.

आज दीप्ति को संदीप से मिलने जाना था. वह जैसे ही औफिस में पहुंची, लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे. काली स्कर्ट और सफेद शर्ट में वह थोड़ी अजीब लग रही थी. उस के शरीर का थुलथुलापन साफ नजर आ रहा था. जब वह संदीप के पास पहुंची तो संदीप भी कुछ देर तक तो चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप बहुत सैक्सी लग रही हो, एकदम कालेजगर्ल.’’

दोनों काफी देर तक बातें करते रहे. कार में बैठ कर संदीप अपना संयम खोने लगा तो दीप्ति ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं करी. कब दीप्ति संदीप के साथ उस के फ्लैट पहुंच गई, उसे भी पता न चला. भावनाओं के ज्वारभाटा में सब बह गया. पर दीप्ति को कोई पछतावा न था, क्योंकि इस खुशी और शांति के लिए वह तरस गई थी.

कपड़े पहनती हुई दीप्ति से संदीप बोला, ‘‘अब सेवा का मौका कब मिलेगा.’’

दीप्ति मुसकराते हुए बोली, ‘‘तुम बहुत खराब हो.’’

शुरूशुरू में दीपक और दीप्ति दोनों ही आसमान में उड़ रहे थे पर उन

के नए रिश्ते की नीव ही भ्रम पर थी. कुछ पल की खुशी फिर लंबी तनहाई और खामोशी.

आज संदीप का जन्मदिन था. दिप्ति उसे सरप्राइज देना चाहती थी. सुबह ही वह संदीप के फ्लैट की तरफ चल पड़ी. उपहार उस ने रात में ही ले लिया था.

5 मिनट तक घंटी बजती रही, फिर किसी अनजान युवक ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए, किस से मिलना है आंटी?’’

दीप्ति बहुत बार आई थी पर संदीप ने

कभी नहीं बताया था कि वह फ्लैट और लोगों के साथ शेयर कर रहा है. बोली, ‘‘जी, संदीप से मिलना है,’’

तभी संदीप भी आंखें मलते हुए आ गया और कुछ रूखे स्वर में बोला, ‘‘जी मैडम बोलिए. क्या काम है… पहले भी बोला था बिना फोन किए मत आया कीजिए.’’

दीप्ति कुछ न बोल पाई. जन्मदिन की शुभकामना तक न दे पाई, गिफ्ट भी वहीं छोड़ कर बाहर निकल गई.

जातेजाते उस के कानों में यह स्वर टकरा गया, ‘‘यार ये आंटी क्या पागल हैं, जो तुझ से मिलने सुबहसुबह आ गईं.’’

संदीप ने पता नहीं क्या कहा पर एक सम्मिलित ठहाका उसे अवश्य सुनाई दे रहा था जो दूर तक उस का पीछा करता रहा. वह दफ्तर जाने के बजाय घर आ गई और बहुत देर तक अपने को आईने में देखती रही. हां, वह आंटी ही तो है पर सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि संदीप ने उसे अपने दोस्तों के आगे पूरी तरह नकार दिया था.

1 हफ्ते तक दीप्ति और संदीप के बीच मौन पसरा रहा पर फिर अचानक एक दिन एक मैसेज आया, ‘‘जान, आज मौसम बहुत बेईमान है. आ जाओ फ्लैट पर.’’

दीप्ति ने मैसेज अनदेखा कर दिया. चंद मुलाकातों के बाद ही अब संदीप उसे बस ऐसे

ही याद करता था. औफिस पहुंची ही थी कि

फिर से मैसेज आया, ‘‘जानू आई एम सौरी,

प्लीज एक बार आ जाओ. मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

दीप्ति जानती थी वह झूठ बोल रहा है पर फिर भी दफ्तर के बाद संदीप के फ्लैट पर चली गई. शायद सबकुछ हमेशा के लिए खत्म करने के लिए पर फिर से वही कहानी दोहराई गई.

दीप्ति, ‘‘संदीप, तुम्हें मेरी याद बस

इसीलिए आती है. उस रोज तो तुम मुझे मैडम बुला रहे थे.’’

‘‘तुम क्या बुलाओगी दीपक के सामने मुझे और ये जो हम करते हैं उस में तुम्हें भी उतना ही मजा आता है दीप्ति. हम दोनों जरूरतों के लिए बंधे हुए हैं,’’ संदीप ने उसे आईना दिखाया.

दीप्ति को बुरा लगा पर यह वो कड़वी सचाई थी, जिसे वह सुनना नहीं चाहती थी.

संदीप ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘ज्यादा सोचो मत. जो है उसे ऐसे ही रहने दो. भावनाओं को बीच में मत लाओ.’’

दीप्ति थके  कदमों से अपने घररूपी सराय में चली गई. क्यों वह सबकुछ जान कर भी बारबार संदीप की तरफ खिंची जाती है, यह रहस्य उसे समझ नहीं आता.

काश, वह लौट पाए पुराने समय में, पर यह एक खालीपन था जिसे वह चाह कर भी नहीं भर पा रही थी. अपने को औरत महसूस करने के लिए उसे चाहेअनचाहे संदीप की जरूरत महसूस होती थी.

घर जा कर बैठी ही थी कि दीपक गुनगुनाता हुआ घर में घुसा. दीप्ति से बोला, ‘‘3 दिन की मीटिंग के लिए कोलकाता जा रहा हूं… पैकिंग कर देना.’’

‘‘तुम्हारी खुशी देख कर तो नहीं लग रहा तुम मीटिंग के लिए जा रहे हो.’’

‘‘यार तो रोते हुए जाऊं क्या?’’

दीप्ति को खुद समझ नहीं आ रहा था कि उसे ईर्ष्या क्यों हो रही है. वह खुद भी तो यही सब कर रही है.

दीपक के जाने के बाद एक बार मन करा कि संदीप को बुला ले पर फिर उस ने अपने को रोक लिया. संदीप को भावनाओं से ज्यादा शरीर की दरकार थी. आज उसे अपना मन बांटना था पर समझ नहीं आ रहा था क्या करे. मन किया दीपक को फोन कर ले और बोले लौट आओ उन्हीं राहों पर जहां सफर की शुरुआत करी थी पर अहम होता है न वह बड़ेबड़े रिश्तों को घुन की तरह खा जाता है.

न जाने क्या सोचते हुए उस ने शिखा को फोन लगा लिया और बिना रुके अपने मन की बात कह दी, पर संदीप की बात वह जानबूझ कर छिपा गई. शिखा ने शांति से सब सुना और बस कहा कि जो तुम्हें खुशी दे वह करो. मैं तुम्हारे साथ हूं.

उधर होटल में चैक इन करते हुए दीपक बहुत तरोताजा महसूस कर रहा था. निधि भी आई थी. दोनों ने अगलबगल के कमरे लिए थे. दीपक को काम और सुविधा का यह समागम बहुत अच्छा लगता था.

‘‘निधि, जल्दी से तैयार हो जाओ, थोड़ा कोलकाता को महसूस कर लें आज,’’ दीपक ने फोन पर कहा.

‘‘जी जनाब,’’ उधर से खनकती हंसी सुनाई दी निधि की.

केले के पत्ते के रंग की साड़ी, नारंगी प्रिंटेड ब्लाउज साथ में लाल बिंदी और चांदी के झुमके, दीपक उसे एकटक देखता रह गया. फिर बोला, ‘‘निधि यों ही नहीं तुम पर मरता हूं मैं… कुछ तो बात है जो तुम्हें औरों से जुदा कर देती है.’’

शौपिंग करते हुए दीपक ने दीप्ति के लिए 3 महंगी साडि़यां खरीदीं, यह

बात निधि की आंखों से छिपी न रही. वह उदास हो गई.

‘‘निधि क्या बात है, तुम्हें भी तो मैं ने दिलाई हैं तुम्हारी पसंद की साडि़यां.’’

‘‘हां, दोयम दर्जे का स्थान है मेरा तुम्हारे जीवन में.’’

‘‘दिमाग खराब मत करो तुम पत्नियों की तरह,’’ दीपक चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘हां, वह हक भी तो दीप्ति के पास ही है,’’ निधि ने संयत स्वर में हा.

वह रात ऐसे ही बीत गई. जाने यह कैसा नशा है जो न चढ़ता है न ही उतरता है बस चंद लमहों की खुशी के बदले तिलतिल तड़पना है.

सुबह की मीटिंग निबटाने के बाद जब दीपक निधि के रूम में गया तो उसे तैयार

होते पाया.

‘‘क्या बात है, आज मेरे कहे बिना ही तैयार हो गई हो?’’ पीले कुरते और केसरी पाजामी में वह एकदम सुरमई शाम लग रही थी.

‘‘मैं आज की शाम संजय के साथ जा रही हूं. तुम्हें भी चलना है तो चलो. वह मेरा सहपाठी था, फिर पता नहीं कब मिले,’’ निधि बोली.

दीपक बोला, ‘‘जब बिना पूछे तय ही कर लिया तो अब यह नाटक क्यों कर रही हो?’’

निधि ने अपनी काजल भरी आंखों को और बड़ा करते हुए कहा, ‘‘क्यों पति की तरह बोर कर रहे हो,’’ और फिर मुसकराते हुए वह तीर की तरह निकल गई.

दीपक सारी शाम उदास बैठा रहा. मन करा दीप्ति को फोन लगाए और बोले कि दीप्ति मुझे वैसा ही ध्यान और प्यार चाहिए जैसा तुम पहले देती थी.

‘‘दीप्ति बहुत याद आ रही है तुम्हारी,’’ उस ने मैसेज किया.

‘‘क्यों क्या काम है, बिना किसी चापलूसी के भी कर दूंगी,’’ उधर से रूखा जवाब आया.

दीपक ने फोन ही बंद कर दिया.

जहां दीप्ति को संदीप के साथ जिस रिश्ते में पहले ताजगी महसूस होती थी वह भी अब बासी होने लगा था. उधर जब से निधि अपने सहपाठी संजय से मिली थी उस का मन उड़ा रहता था. संजय ने अब तक विवाह नहीं किया था और निधि को उस के साथ अपना भविष्य दिख रहा था जबकि दीपक के लिए वह बस एक समय काटने का जरीया थी. वह उस की प्राथमिकता कभी नहीं बन सकती थी.

आज दीप्ति घर जल्दी आ गई थी. घर हमेशा की तरह सांयसांय कर रहा था. उस ने अपने लिए 1 कप चाय बनाई और बालकनी में बैठ गई. 2 घंटे बीत गए, विचारों के जंगल में घूमते हुए. तभी उस ने देखा कि दीपक की कार आ रही है. उसे आश्चर्य हुआ कि दीपक आज इतनी जल्दी कैसे आ गया.

उस ने दीपक से पूछा, ‘‘आज इतनी

जल्दी कैसे?’’

दीपक बोला, ‘‘कहो तो वापस चला जाऊं?’’

दीप्ति हंस कर बोली, ‘‘नहीं, ऐसे ही पूछ रही थी.’’

उस की बात का कोई जवाब दिए बिना दीपक सीधा अपने कमरे में चला गया और अपनी शादी की सीडी लगा कर बैठ गया. दीप्ति भी आ कर बैठ गई.

दोनों अकेले भावनाओं के बियाबान के जंगल में घूमने लगे. मन भीग रहे थे पर लौट कर आने का साहस कौन पहले करेगा.

बिस्तर पर करवट बदलते हुए दीप्ति पुराने दिनों की यादों में चली गई. जब

वह और दीपक हंसों के जोड़े के रूप में मशहूर थे. दोनों हर टाइम एकदूसरे के साथ रहने का बहाना ढूंढ़ते थे. फिर एक के बाद एक जिम्मेदारियां बढ़ीं और न जाने कब और कैसे एक अजीब सी चिड़चिड़ाहट दोनों के स्वभाव में आ गई. फलस्वरूप दोनों की नजदीकियां शादी से बाहर बढ़ने लगीं. यही सोचते हुए कब सुबह हो गई दीप्ति को पता ही नहीं चला.

औफिस में जा कर दीप्ति अपने काम में डूब गई. उस ने अपनेआप को काम में पूरी तरह डुबो दिया. अब वह इस मृगतृष्णा से बाहर जाना चाहती थी और उस के लिए हौबी क्लासेज जौइन कर लीं ताकि उस का अकेलापन उसे संदीप की तरफ न ले जाए.

दीपक दफ्तर में मन ही मन कुढ़ रहा था. उस ने निधि को मैसेज भी किया था, पर निधि का मैसेज आया था कि वह बिजी है. दीपक भी अब निधि के नखरों और बेरुखी से परेशान आ चुका था.

उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब वह शिखा के कहे अनुसार अपनी बेटियों को वापस ले आएगा. पिछले 1 महीने से वह दफ्तर से घर समय पर आ रहा था. उधर दीप्ति भी धीरेधीरे आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी.

वह सुबह भी आम सी ही थी जब दीपक ने जिम के जानेपहचाने चेहरों के बीच एक ताजा चेहरा देखा. प्रिया नाम था उस का. बेहद चंचल और खूबसूरत.

न जाने क्यों दीपक बारबार उस की ओर ही देखे जा रहा था. प्रिया भी कनखियों से उसे देख लेती थी. उधर दीप्ति के मोबाइल पर फिर से संदीप का मैसेज था जिसे दीप्ति पढ़ते हुए मुसकरा रही थी. फिर से दोनों के दिमाग और दिल पर एक बेलगाम नशा हावी हो रहा था. एक जाल, एक रहस्य ही तो हैं ये रिश्ते. ये तृष्णा अब उन्हें किस मोड़ पर ले कर जाएगी, यह शायद वे नहीं जानते थे.

महानायक : आखिर क्या था वह राज?

 कहानी- वीना शर्मा

शालिनीने घड़ी देखी. 12 बज रहे थे. अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था.

‘‘हम लोग 1 बजे तक बच्चों के स्कूल पहुंच जाएंगे न?’’ शालिनी ने कुछ अधीर स्वर में अपने ड्राइवर भुवन से पूछा.

‘‘पहुंच जाएंगे मैडम. इसीलिए तो मैं इस रोड से लाया हूं. यहां ट्रैफिक कम होता है.’’

‘‘ट्रैफिक तो अब किसी भी रोड पर कम नहीं होता,’’ पास बैठी शालिनी की सहेली रीना बोली.

रीना का बेटा चिंटू भी उसी स्कूल में पढ़ता था, जिस में शालिनी के दोनों बच्चे अनूषा और माधव थे.

शालिनी और रीना बचपन की सहेलियां थीं. साथ पढ़ी थीं और समय के साथ दोस्ती बढ़ती ही गई थी. शालिनी के पति अमर कुमार मशहूर फिल्म अभिनेता थे और रीना के पति बिशन एक बड़े व्यापारी. दोनों का जीवन अति व्यस्त था.

अमर कुमार की व्यवस्तता तो बहुत ही अधिक थी. पिछले 7 सालों में उन की इतनी फिल्में जुबली हिट हुई थीं कि शालिनी को अब गिनती भी याद नहीं थी. इतनी अधिक सफलता की कल्पना तो न शालिनी ने की थी न अमर कुमार ने. शालिनी को गर्व था अपने पति पर. हर जगह अमर के नाम की धूम मची रहती थी. बच्चों को भी अपने पापा पर कम गर्व नहीं था. पापा की वजह से वे स्कूल में वीआईपी थे.

आज अनूषा और माधव ने चिंटू और अपनी क्लास के अन्य साथियों के साथ पापा की नई गाड़ी में घूमने का प्रोग्राम बनाया था. स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

बच्चों में पापा की नई गाड़ी के लिए बहुत उत्साह था. सब से बढि़या गाड़ी जो अभी तक सिर्फ उन के पापा के पास थी. कितने उत्साह से दोनों आज के दिन का इंतजार कर रहे थे, जब उन के स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

गाड़ी सिगनल पर रुकी. शालिनी परेशान होने लगी कि अब और देर होगी. उस ने फिर घड़ी देखी. तभी अचानक शालिनी का मोबाइल बजा.

‘‘हैलो,’’ शालिनी धीरे से बोली.

‘‘मैडम बहुत गड़बड़ हो गई है… आप कहां हैं?’’ उधर से आने वाला स्वर अमर के सैके्रेटरी वसु का था.

‘‘क्या हुआ वसु? हम स्कूल के रास्ते में हैं.’’

‘‘मैडम, विष्णुजी अभी तक नहीं आए हैं. यहां इतना बड़ा सैट लगा हुआ है. प्लीज आप…’’

‘‘हां बोलो वसु, क्या करना है?’’

‘‘आप वह नई गाड़ी जल्दी से विष्णुजी के यहां पहुंचा दीजिए. जब तक वह गाड़ी नहीं पहुंचेगी विष्णुजी नहीं आएंगे और आप तो जानती हैं, जब तक विष्णुजी नहीं आएंगे…’’

‘‘शूटिंग नहीं होगी,’’ शालिनी ने गुस्से में कहा.

‘‘जी मैडम, आप जल्दी से भुवन को उनझ्र के यहां भेज दीजिए. आप के लिए दूसरी गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

शालिनी ने फोन बंद किया ही था कि वह फिर बजा. इस बार अमर ने फोन किया था.

‘‘हां बोलिए,’’ शालिनी ने अपने गुस्से को भरसक रोकते हुए कहा.

‘‘शालू प्लीज, वह नई गाड़ी फौरन…’’

‘‘विष्णुजी के यहां भेज दूं?’’

‘‘हां, प्लीज, जल्दी…’’

शालिनी ने तेजी से फोन बंद किया और फिर बोली, ‘‘भुवन गाड़ी रोको.’’

भुवन हैरान था. अभीअभी तो ग्रीन सिगनल हुआ था. फिर भी उस ने गाड़ी किनारे लगा दी. शालिनी तेजी से नीचे उतर गई. पीछेपीछे रीना भी उतर गई.

‘‘भुवन, जल्दी से विष्णुजी के घर उन्हें लेने जाओ.’’

‘‘लेकिन मैडम आप?’’

‘‘हम टैक्सी से चले जाएंगे.’’

शालिनी और रीना टैक्सी में जा रही थीं. शालिनी का परेशान चेहरा देख कर रीना भी परेशान हो रही थी.

‘‘इतना परेशान मत हो शालू… ये सब तो…’’

‘‘मैं विष्णुजी से तंग आ गई हूं,’’ शालिनी रोंआसे स्वर में बोली.

रीना क्या कहती? वह शालिनी से कितना कुछ तो सुनती रहती थी, इन विष्णुजी के बारे में.

अमर के गुरु हैं वे. उन के सैट पर आए बिना अमर शूटिंग नहीं करता. उन के नखरे उठातेउठाते निर्माता परेशान हो जाते हैं. महंगी से महंगी दारू, बढि़या से बढि़या होटल से खाना और क्या कुछ नहीं…

आउटडोर पर तो उन की फरमाइश और भी बढ़ जाती है. उन्हें वही फल और सब्जियां चाहिए होती हैं, जिन का मौसम नहीं होता.

कालेज के जमाने में अमर नाटकों में काम करता था, जिन के निर्देशक यही विष्णुजी हुआ करते थे. इन की योग्यता पर कोई संदेह नहीं था, बहुत सफल निर्देशक थे ये. अपने काम में बहुत मेहनत करते थे. हर कलाकार पर विशेष ध्यान देते थे. उन से प्रशंसा के 2 बोल सुनने के लिए अमर जमीनआसमान एक कर देता था.

अमर को फिल्मों का बेहद शौक था. इसीलिए तो जब उस ने एक फिल्मी पत्रिका में टेलैंट कौंटैस्ट के बारे में पढ़ा तो जल्दी से फार्म भर कर भेज दिया. फिर जब वहां से बुलावा आया तो अमर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन वहां ‘स्क्रीन टैस्ट’ होगा, बड़ेबड़े लोगों के सामने डायलौग बोलने पड़ेंगे, वह कालेज का नाटक नहीं है कि हंसतेखेलते ट्राफी जीती जा सके, विष्णुजी ने अमर को कई दिनों तक अभ्यास कराया, हिम्मत बंधाई…

‘‘अपने पर भरोसा रखो. तुम बहुत अच्छे कलाकार हो…’’

अमर चुन लिया गया. उसे फिल्म मिल गई. शूटिंग पर विष्णुजी साथ रहे.

अमर की फिल्म हिट हो गई. धड़ाधड़ नई फिल्में मिलने लगीं. विष्णुजी हर जगह साथ होते. उन के बिना अमर काम नहीं कर पाता था.

अमर स्टार बन गया. नाम और पैसा सभी कुछ बरसने लगा. विष्णुजी के घर की

हालत बदलने लगी. उन की तीनों बेटियां अच्छे स्कूल में जाने लगीं. बढि़या फ्लैट, नौकरचाकर सभी कुछ…

उन की पत्नी मालती खुश रहने लगी, क्योंकि उस ने अभी तक अच्छे दिन देखे ही नहीं थे. विष्णुजी कभी कोई नौकरी नहीं कर पाए थे और दारू पीना भी कम नहीं करते थे.

अमर की शादी हुई. शादी की पार्टी में पहली बार शालिनी ने विष्णुजी को देखा. नाटे, मोटे शराब का गिलास पर गिलास खाली करते हुए… उस व्यक्ति को शालिनी आश्चर्य से देख रही थी.

अमर ने शालिनी का परिचय करवाया, ‘‘ये मेरे गुरुजी हैं.’’

अमरके इशारे पर शालिनी ने  झुक कर उन के पांव छूए. पार्टी भर शालिनी देखती रही. बहुत से लोग विष्णुजी के आगेपीछे घूम रहे थे और वे सब से अकड़अकड़ कर बातें कर रहे थे.

जैसेजैसे अमर की सफलता बढ़ती गई, विष्णुजी की यह अकड़ भी बढ़ती रही.

शालिनी के मन में उन के लिए कभी कोई श्रद्धा पैदा नहीं हुई, लेकिन अमर की वजह से वह उन्हें हमेशा चुपचाप सहती रही.

सारे निर्मातानिर्देशक भी अमर की वजह से ही चुप

रहते. अमर उन के बिना शौट नहीं दे सकता. उन का सैट पर होना जरूरी है. वे हर निर्देशक को काम सिखाने लगते. निर्माता को छोटीछोटी बातों पर डांटनेफटकारने लगते. फिर भी अमर की वजह से कोई कुछ नहीं कहता.

मम्मी और आंटी को टैक्सी से उतरता देख, बच्चों के मुंह उतर गए.

रीना ने बात संभाली, ‘‘वह बात यह है कि रास्ते में गाड़ी खराब हो गई… अभी आती ही होगी… तब तक सब लोग आइसक्रीम खाते हैं.’’

दूसरी गाड़ी जल्दी आ गई. लेकिन यह तो पापा की नई गाड़ी नहीं है. अनूषा और माधव का मुंह उतर गया. उन के चेहरे देख कर शालिनी को धक्का जैसा लग रहा था.

बच्चों के घूमने का कार्यक्रम एक औपचारिकता की तरह निभाया गया. रीना ही उन्हें बहलाती रही.

शालिनी का उखड़ा मूड देख कर अमर परेशान हो गया. बोला, ‘‘वह क्या है न शालू… विष्णुजी की जिद थी उन्हें लेने वही गाड़ी आए. बेचारे कुमार का लाखों का नुकसान हो रहा था… मैं क्या करूं?’’

‘‘लेकिन विष्णुजी को हमेशा आप की नई गाड़ी ही क्यों चाहिए होती है?’’ शालिनी अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी.

‘‘उन का ईगो संतुष्ट होता है… तुम तो जानती हो उन्हें.’’

‘‘हां, मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं. ईगो के सिवा और है क्या उन के पास?’’

अमर कुछ नहीं कह सका. घर का वातावरण कई दिनों तक तनावपूर्ण रहा.

शालिनी को अब अमर की चिंता होने लगी थी, क्योंकि अमर विष्णुजी पर इतना निर्भर करता है? क्यों काम नहीं कर सकता उन के बिना? सफलता के इस शिखर पर पहुंच कर भी आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाया अमर में? इस तरह कितने दिन चलेगा? कहीं ऐसा न हो कि अमर को काम मिलना बंद हो जाए. फिर क्या होगा? अमर सम झता क्यों नहीं?

नीरज साहब एक बहुत बड़ी फिल्म बना रहे थे. अमर उन की अनेक हिट फिल्मों का हीरो ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छा दोस्त भी था. जाहिर है मुख्य भूमिका इस बार भी उसे ही निभानी थी. नीरज साहब की यह फिल्म एकसाथ कई भाषाओं में बन रही थी और इस में कई विदेशी कलाकार भी काम कर रहे थे.

आज बहुत ही भव्य सैट लगा था. प्रैस वाले, मीडिया वाले सब आने वाले थे. अमर चाहता था कि शानिली भी सैट पर आए.

वैसे शालिनी अमर के सैट पर बहुत कम जाती थी और कुछ सालों से तो उस ने जाना बिलकुल छोड़ दिया था. वह लोगों के साथ विष्णुजी का व्यवहार सहन नहीं कर पाती थी. लेकिन इस बार अमर और नीरज साहब के बारबार आग्रह करने पर शालिनी को जाना पड़ा.

सारी तैयारी हो चुकी थी. विदेशी कलाकारों सहित सारे कलाकार तैयार थे. सैट तैयार था. लेकिन शूटिंग शुरू नहीं हो पा रही थी. विष्णुजी अभी तक नहीं पहुंचे थे. कई बार फोन किया गया, गाड़ी भेज दी गई थी. लेकिन वे नहीं आए. इस फिल्म के मुहूर्त वाले दिन से ही वे काफी नाराज थे, क्योंकि इस बार नीरज साहब ने मुहूर्त उन से नहीं बल्कि एक नामी विदेशी कलाकार से करवाया था.

जब बहुत देर हो गई तो अमर ने खुद फोन लगाया. मालती ने ही फोन उठाया, बोली, ‘‘क्या बताऊं अमर भैया, मैं तो सम झासम झा कर थक गई. ये सुबह से ही पी रहे हैं और नीरज साहब को गालियां दे रहे हैं.’’

शालिनी की मनो:स्थिति बहुत खराब हो रही थी. क्या सोच रहे होंगे सब लोग अमर के लिए… यह इतना बड़ा नायक… इतना असमर्थ… इतना असहाय है.

आखिर शूटिंग शुरू हुई. अमर ने विष्णुजी के बिना ही काम किया.

‘‘कमाल कर दिया तुम ने,’’ नीरज साहब ने अमर को गले लगा लिया. विदेशी कलाकार अमर के अभिनय से बेहद प्रभावित हुए.

मेकअप रूम में शालिनी

अमर की ओर प्रशंसा से देख रही थी. बोली, ‘‘आप उन के बिना काम कर सकते हैं… क्यों सहते हैं उन के इतने नखरे? आप उन के मुंहताज नहीं हैं… आप उन के बिना भी…’’

‘‘जानता हूं शालू मैं उन के बिना काम कर सकता हूं,’’

‘‘तो फिर हमेशा क्यों नहीं करते?’’

‘‘शालू… वह आदमी… जिंदगी में कुछ नहीं कर पाया… मेरी स्टारडम को जी रहा है वह… यह उस से छिन गई तो वह टूट जाएगा, फिर क्या होगा उस का? क्या होगा उस के परिवार का? बोलो?’’ शालिनी अवाक सी अमर को देख रही थी.

न जाने कब वहां आ कर खड़े हो गए थे नीरज साहब. फिर धीरे से बोले, ‘‘यह बात हम लोग सम झते हैं भाभीजी.’’

शालिनी को लग रहा था वह सचमुच एक महानायक की पत्नी है.

Short Story: मोटी मन को भा गई…

‘‘जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की…’’

लड़की को देख कर आते ही हम ने मामाजी के कानों में डाल दिया, ‘‘मामाजी, हमें लड़की जंची नहीं. लड़की बहुत मोटी है. वह ढोल तो हम तीले. कहां तो आज लोग स्लिमट्रिम लड़की पसंद करते हैं और कहां आप हमारे पल्ले इस मोटी को बांध रहे हैं.’’

मामाजी के जरीए हमारी बात मम्मीपापा तक पहुंची तो उन्होंने कह दिया, ‘‘यह तो हर लड़की में मीनमेख निकालता है. थोड़ी मोटी है तो क्या हुआ?’’

सुन कर हम ने तो माथा ही पीट लिया. कहां तो हम ऐश्वर्या जैसी स्लिमट्रिम सुुंदरी के सपने मन में संजोए थे और कहां यह टुनटुन गले पड़ रही थी.

तभी हमारा लंगोटिया यार रमेश आ धमका. उसे पता था कि आज हम लड़की देखने जाने वाले थे. अत: आते ही मामाजी से पूछने लगा, ‘‘देख आए लड़की हमारे दोस्त के लिए? कैसी हैं हमारी होने वाली भाभी?’’

‘‘अरे भई खुशी मनाओ, क्योंकि तुम्हारे दोस्त को बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है,’’ कह मामाजी ने चुपके से आंख दबा दी.

हम कान लगाए सब सुन रहे थे. मामाजी द्वारा आंख दबाने से अनभिज्ञ हम मन ही मन गुदगुदाए कि अच्छा, हमें बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है. अभी तक हम लड़की के मोटी होने के कारण नाकभौं सिकोड़ रहे थे, लेकिन फिर यह सोच कर कि अभी तक मारुति पर चलने वाले हम अब बीएमडब्ल्यू वाले हो जाएंगे, थोड़ा गर्वान्वित हुए और फिर हम ने दिखावे की नानुकर के बाद हां कह दी. वैसे भी यहां हमारी सुनने वाला कौन था?

जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की. रमेश हंसा, फिर मामाजी से नजरें मिला हमारी श्रीमतीजी की ओर इशारा कर बोला, ‘‘यही तो हैं तुम्हारी बीएमडब्ल्यू. नहीं समझे क्या? अरे पगले बीएमडब्ल्यू का मतलब बहुत मोटी वाइफ. अब समझे क्या?’’

अब्रीविऐशन कितना कन्फ्यूज करती है, हमें अब समझ आया. मजाक का पात्र बने सो अलग. हम इस मुगालते में थे कि बीएमडब्ल्यू कार मिलेगी. खैर हम ने बीएमडब्ल्यू, ओह सौरी, श्रीमतीजी के साथ गृहप्रवेश किया. हमें फोटो खिंचवाने का शौक था और फोटोजेनिक फेस भी था, मगर शादी में हमारे सारे फोटो दबे रहे. बस, दिखतीं तो सिर्फ हमारी श्रीमतीजी. गु्रप का कोई फोटो उठा कर देख लें, आसपास खड़े सूकड़ों के बीच घूंघट में लिपटी हमारी मोटी श्रीमतीजी अलग ही दिखतीं. उस पर वीडियो वाले ने भी कमाल दिखाया. उस ने डोली में हमारे पल्लू से बंधी पीछे चलती श्रीमतीजी के सीन के वक्त फिल्म ‘सौ दिन सास के’ का गाना, ‘दिल की दिल में रह गई क्याक्या जवानी सह गई… देखो मेरा हाल यारो मोटी पल्ले पै गई…’ चला दिया.

हनीमून पर मनाली पहुंचे तो होटल के स्वागतकर्ता ने हमारी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें हमारे डबलबैड वाले रूम में व्यवस्था है कि एक सिंगल बैड अलग से जोड़ा जा सके.’’

हम तो खिसिया कर रह गए, लेकिन श्रीमतीजी ने रौद्र रूप दिखा दिया, बोलीं, ‘‘मजाक करते हो? खातेपीते घर की हूं…फिर डबलबैड पर इतनी जगह तो बच ही जाएगी कि बगल में ये सो सकें. इन्हें जगह ही कितनी चाहिए?’’

पता नहीं श्रीमतीजी ने हमारे पतलेपन का मजाक उड़ाया था या फिर अपनी इज्जत बढ़ाई थी, पर इस पर भी हम शरमा कर ही रह गए.

हमारी हनीमून से वापसी का दोस्तों को पता चला तो पहुंच गए हाल पूछने. न…न..हाल पूछने नहीं बल्कि छेड़ने और फिर छेड़ते हुए बोले, ‘‘भई, कैसी है तुम्हारी बीएमडब्ल्यू?’’

अब्रीविऐशन के धोखे और लालच में लिए गए फैसले ने हमें एक बार फिर कोसा. हम अपनी बेचारगी जताते खीजते हुए बोले, ‘‘दोस्तों, हनीमून पर घूमनेफिरने, किराएभाड़े से ज्यादा तो श्रीमतीजी के खाने का बिल है. अब तुम्हीं बताओ…’’ कहते हुए जेहन में फिर वही गाना गूंज उठा कि मोटी पल्ले पै गई…

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि हमारे दोस्त रमेश ने हमें धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘बी पौजिटिव यार. क्यों आफत समझते हो? वह सुना नहीं अभिताभ का गाना, ‘जिस की बीवी मोटी उस का भी बड़ा नाम है बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है…’ और फिर मोटे होने के भी अपने फायदे हैं.’’

हम इस गद्दे के आनंद का एहसास हनीमून पर कर चुके थे. सो पौजिटिव सोच बनी. पर तुरंत रमेश से पूछ बैठे, ‘‘क्या फायदे हैं मोटी बीवी होने के जरा बताना? हम तो अभी तक यही समझ पाए हैं कि मोटी बीवी होने पर खाने का खर्च बढ़ जाता है, कपड़े बनवाने के लिए 5-6 मीटर की जगह पूरा थान खरीदना पड़ता है.’’उस दिन हम टीवी देख रहे थे कि तभी घंटी बजी. हम ने दरवाजा खोला, सामने रमेश खड़ा था, अपनी  शादी का कार्ड थामे, अंदर घुसते ही हैरानी से पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ भई छत पर तंबू क्यों लगा रखा है? खैरियत तो है न?’’

हम यह देखने बाहर जाते, उस से पहले ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, वह तो मैं अभीअभी अपना पेटीकोट सूखने डाल कर आई हूं.’’

सुनते ही रमेश की हंसी छूट गई. फिर हंसते हुए बोला, ‘‘हां भई, हम तो भूल ही गए थे कि अब तुम बीएमडब्ल्यू वाले हो गए हो…उस का कवर भी तो धोनासुखाना पड़ेगा, न?’’

बीएमडब्ल्यू के लालच में पड़ना हमें फिर सालने लगा. हमारी त्योरियां चढ़ गईं कि एक तो इतना बड़ा पेटीकोट, उस पर उसे तारों पर फैलाया भी ऐसे था कि सचमुच तंबू लग रहा था. फिर वही गाना मन में गूंज उठा, ‘मोटी पल्ले पै गई…’

खैर, रमेश शादी का न्योता देते हुए बोला, ‘‘समय पर पहुंच जाना दोनों शादी में.’’

जनाब, हम अपनी बीएमडब्ल्यू को मारुति में लादे पार्टी में पहुंच गए और एक ओर बैठ गए. तभी फोटोग्राफर कपल्स के फोटो लेते हुए वहां पहुंचा और हमें भी पोज देने को कहा.

आगेपीछे देख कोई पोज पसंद न आने पर वह बोला, ‘‘भाई साहब, आप भाभीजी के साथ सोफे पर दिखते नहीं…भाभीजी के वजन से सोफा दबता है और आप पीछे छिप जाते हैं. ऐसा करो आप सोफे के बाजू पर बैठ जाएं.’’

हम ने वैसा ही किया. पोज ओके हो गया, लेकिन तब तक पास पहुंच चुके दोस्त हंसते हुए बोले, ‘‘क्या यार सोफे के बाजू पर बैठे तुम ऐसे लग रहे थे जैसे भाभीजी की गोद में बैठे हो.’’

मोटे होने का एक और फायदा मिल गया था. इतने स्नैक्स निगलने के बाद भी हमारी श्रीमतीजी ने डट कर खाना खाया. सचमुच 500 के शगुन का 1000 तो वसूल ही लिया था. साथ ही एक और बात देखी. जहां अमूमन पत्नियां प्लेट भर लेती हैं और थोड़ाबहुत खा कर पति के हवाले कर देती हैं, फिनिश करने को, वहीं यहां उलटा था. श्रीमतीजी के कारण हम ने हर व्यंजन चखा.

उस दिन हम ससुराल से लौटे तो अपनी गाड़ी की जगह किसी और की गाड़ी खड़ी देख झल्लाए. तभी श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, यह तो विभा की गाड़ी है,’’ और फिर तुरंत अपने मोबाइल से विभा का नंबर मिला दिया.

पड़ोस में तीसरी मंजिल पर रहने वाली विभा महल्ले की दबंग औरत थी. सभी उस से डरते थे. विभा तीसरी मंजिल से तमतमाती नीचे आई और दबंग अंदाज में बोली, ‘‘ऐ मोटी, इतनी रात को क्यों तंग किया? कहीं और लगा लेती अपनी गाड़ी? मैं नहीं हटाने वाली अपनी गाड़ी. कौन तीसरे माले पर जाए और चाबी ले कर आए?’’

‘‘क्या कहा, मोटी…’’ कहते हुए हमारी श्रीमतीजी ने विभा को हलका सा धक्का दिया तो वह 5 कदम पीछे जा गिरी  विभा की सारी दबंगई धरी की धरी रह गई. आज तक जहां महल्ले वाले उस से नजरें भी न मिला पाते थे वहीं हमारी श्रीमतीजी ने उसे रात में सूर्य दिखा दिया था.

‘‘अच्छा लाती हूं चाबी,’’ कहती हुई वह फौरन गई और चाबी ला कर अपनी गाड़ी हटा कर हमारी गाड़ी के लिए जगह खाली कर दी. इसी के साथ ही हमें श्रीमतीजी के मोटे होने का एक और फायदा दिख गया था. हम भी कितने मूर्ख थे कि अब तक यह भी न समझ पाए कि अगर श्रीमतीजी का वजन ज्यादा है तो इन की बात का वजन भी तो ज्यादा होगा. अब महल्ले में हमारी श्रीमतीजी की दबंगई के चर्चे होने लगे. साथ ही हम भी मशहूर हो गए. हमारे मन में श्रीमतीजी के मोटापे को ले कर जो नफरत थी अब धीरेधीरे प्यार में बदलने लगी थी. अब कोई मिलता और हमारी श्रीमतीजी के लिए मोटी संबोधन का प्रयोग करता तो हम भी उसे मोटापे के फायदे गिनाने से नहीं चूकते.

उस दिन हमारी  कुलीग ज्योति किसी काम से हमारे घर आई तो हम ने श्रीमतीजी से मिलवाया, ‘‘ये हमारी श्रीमतीजी…’’

अभी इंट्रोडक्शन पूरा भी न हुआ था कि ज्योति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘बहुत मोटी वाइफ हैं आप की,’’ और हंस दी. हमें लगा यह भी हमें बीएमडब्ल्यू के मुगालते वाला ताना मार रही है सो थोड़ा किलसे लेकिन श्रीमतीजी ने बड़े धांसू तरीके से ज्योति की हंसी पर लगाम कसी, ‘‘मेरे मोटापे को छोड़ अपनी काया की चिंता कर. मैं तो खातेपीते घर की हूं. तुझे देख तो लगता है घर में सूखा पड़ा है. कुछ खायापीया कर वरना ज्योति कभी भी बुझ जाएगी.’’

लीजिए, हमें मोटे होने का एक और फायदा मिल गया. अब कोई हमें यह ताना भी नहीं मार सकता था कि हम अपनी श्रीमतीजी को खिलातेपिलाते नहीं, बल्कि इन का मोटा होना ससुराल को खातापीता घर घोषित करता था.

आज लड़कियां स्लिमट्रिम रहने के लिए कितना खर्च करती हैं. हमारा वह खर्च भी बचता था. साथ ही उन के खातेपीते रहने से हमारी सेहत में भी सुधार होने लगा था. उस दिन टीवी देखते हुए एक चैनल पर हमारी नजर टिक गई जहां विदेश में हो रही सौंदर्य प्रतियोगिता दिखाई जा रही थी. खास बात यह थी कि यह सौंदर्य प्रतियोगिता मोटी औरतों की थी. कितनी सुंदर दिख रही थीं वे मांसल शरीर के बावजूद. हमारी श्रीमतीजी देखते ही इतराते हुए बोलीं, ‘‘देखो, बड़े ताने कसते हैं तुम्हारे यारदोस्त मुझ पर, मेरे मोटापे को ले कर छींटाकशी करते हैं, बताओ उन्हें कि मोटे भी किसी से कम नहीं.’’

हमें श्रीमतीजी की बात में फिर वजन दिखा. साथ ही उन के मोटापे में सौंदर्य भी. अब हमें मोटी श्रीमतीजी भाने लगी थीं, बीएमडब्ल्यू हमारी मारुति में समाने लगी थी.

अब हमारे विचारों में परिवर्तन हुआ. श्रीमतीजी पर प्यार आने लगा. हमारे मन में बसी ऐश्वर्या की जगह मोटी सुंदरी लेने लगी.

‘ऐश अगर सुंदरता के कारण फेमस है, तो हमारी श्रीमतीजी मोटापे के कारण. ऐश सब को लटकेझटके दिखा दीवाना बनाती है तो हमारी श्रीमतीजी अपनी दबंगई से सब को उंगलियों पर नचाती हैं. ऐश गुलाब का फूल हैं तो हमारी श्रीमतीजी गोभी का. फिर फूल तो फूल है. गुलाब का हो या फिर गोभी का. अब जेहन का गीत, ‘मोटी पल्ले पै गई…’ से बदल कर ‘मोटी मन को भा गई…’ बनने लगा.

इसी सोच के चलते उस दिन भागमभाग वाली दिनचर्या से निबट आराम से पलंग पर लेटे ही थे कि कब आंख लग गई, पता ही न चला. फिर आंख तब अचानक खुली जब श्रीमतीजी ने बत्ती बुझाने के बाद औंधे लेटते हुए अपनी टांग हमारी पतली टांगों पर रख दी. बड़ा सुकून मिला. आज के समय में कहां श्रीमतीजी थकेहारे पति के पांव दबाती हैं, लेकिन हमारी श्रीमतीजी ने अपनी टांग हमारी टांगों पर रखते ही यह काम भी कर दिया था. तभी हम ने सोचा कि आखिर यह भी तो एक फायदा ही है श्रीमतीजी के मोटे होने का बशर्ते पत्नी गद्दे की जगह रजाई न बने वरना तो कचूमर ही निकलेगा.

Short Story In Hindi : स्टेशन की वह रात

लेखक- सुनील कुमार

अंबाला रेलवे जंक्शन पर देर रात की ट्रेन लेट हो कर रात को और ज्यादा लंबी कर रही थी. तेजा को स्टेशन की भीड़ कभी पसंद नहीं रही, इसलिए उस ने पुल से चलते हुए आखिरी प्लेटफार्म की तरफ कदम बढ़ाए. सीढि़यों से उतर कर आखिरी प्लेटफार्म की भी वह बैंच पकड़ी, जिस के बाद नशेडि़यों, चोरउच्चकों का इलाका शुरू हो रहा था. थोड़ाबहुत जोखिम लेना तेजा के लिए आम बात थी.

कुछ दूरी पर ही मैलीकुचैली चादरों में भिखारी सो रहे थे. चाय की दुकान पर एकाध खरीदार पहुंच रहे थे. रेलवे जंक्शन के कोने में मौजूद दुकान पर चाय खरीद रहे लोगों की हालत भी टी स्टौल की तरह उजड़ी हुई थी.

तेजा जिस मंजिल के लिए निकला था, उसे पाना नामुमकिन था, लेकिन सपनों का पीछा करना उस की लत बन चुकी थी. इस वजह से दिमाग में कभी चैन नहीं रहा था.

अचानक ही पीछे से आई हलकी आवाज ने तेजा को चौंका दिया, ‘‘भैयाजी, 2 दिन से कुछ खाया नहीं है.’’

कहने को तो तेजा तेज आवाज से भी डरने वालों में से नहीं था, लेकिन इतनी रात में आखिरी प्लेटफार्म का कोना पकड़ते वक्त उसे नशेडि़यों की नौटंकी का अंदाजा था. सो, अचानक पीछे से आ कर बैंच पर बैठ जाने वाली 30-35 साल की एक औरत की धीमी आवाज ने भी उसे सकते में डाल दिया था.

पहनी हुई साड़ी और शक्लसूरत से वह औरत कहीं से भी रईस नहीं लग रही थी, लेकिन भिखारी भी दिखाई नहीं देती थी. हालांकि यह जरूर लगता था कि वह घर से निकल कर सीधी यहां नहीं आई है. उस का कई दिन भटकने जैसा हुलिया बना हुआ था.

हालात भांप कर तेजा ने चौकस आवाज में कहा कि वह पैसे नहीं देगा. हां, अपने पैसे से दुकान वाले को बोल कर चायबिसकुट जरूर दिला सकता है. लेकिन औरत का अंदाज चायबिसकुट पाने तक सिमट जाने वाला नहीं था.

औरत ने दुखियारी बन कर कहा, ‘‘मैं बहुत ही मुश्किल में हूं, कुछ पैसे

दे दो.’’

तेजा का दिमाग चकरा गया, क्योंकि यह औरत उस टाइप की भी नहीं लग रही थी, जो अंधेरी रातों में नौजवानों को इशारे कर बुलाती हैं. न ही कपड़े और सूरत उस के भिखारी होने पर मोहर लगा रहे थे.

तेजा ने चेहरा थोड़ा नरम करने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘यहां स्टेशन के अंधेरे कोने में क्या कर रही हो?’’

उस औरत ने धीमी आवाज में और दर्द लाते हुए कहा, ‘‘बस, थोड़े पैसे दे दीजिए.’’

तेजा ने नजरें घुमा कर चारों तरफ देखा. उस की नजरें यह तसल्ली कर लेना चाहती थीं कि कम रोशनी वाले स्टेशन के कोने में एक औरत के साथ बैठने पर दूसरों की नजरें उसे किसी अलग नजरिए से तो नहीं देख रही हैं? लेकिन तेजा को यह जान कर तसल्ली हुई कि स्टेशन जैसे कुछ देर पहले था, ठीक अब भी वैसा ही है.

नए हालात देख कर कालेज के फाइनल ईयर का स्टूडैंट तेजा रोमांच से भर उठा. यह रोमांच इस उम्र के लड़कों में खास हालात बनने पर खुद ही पैदा हो जाता है. तेजा भी दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं था. सो, उसे भी यह एहसास हुआ.

अब जब आसपास के हालात बैंच के माहौल में खलल डालने वाले नहीं थे, तो तेजा का खोजी दिमाग सवाल उछालने लगा. उस ने कहा, ‘‘मैं पैसे तो दे दूंगा, लेकिन पहले यह बताओ कि तुम इस हालत में यहां क्या कर रही हो?’’

पैसे मिलने की बात सुन कर उस औरत ने बताया कि वह बिहार के पटना की रहने वाली है. मेरा मर्द बहुत बुरा आदमी था. घर खर्च के लिए वह पैसे नहीं देता था. वह दारू पीता था. बच्चे खानेखिलौनों के लिए हमेशा मां को ही कहते थे, लेकिन पति के गलत बरताव और नशेड़ी होने की वजह से वह घुट रही थी. एक दिन जेठानी से उस का झगड़ा हो गया. जब पति घर आया तो उस ने बाल धोने के लिए शैंपू खरीदने के पैसे मांग लिए. पहले से ही जेठानी के सिखाए नशेड़ी पति ने उस की बेरहमी से पिटाई कर दी.

यह पिटाई नई नहीं थी, लेकिन लंबे अरसे से उस के मन में जो बगावती ज्वालामुखी दबा बैठा था, उस रात फट पड़ा. पति को जवाब देना तो उस के बूते से बाहर था, लेकिन घर में सबकुछ छोड़ फिल्मी हीरोइन की तरह सीधे स्टेशन पहुंच गई. आंसू पोंछने का दौर चलने के बाद दिल को पत्थर बना लिया और आखिर में अनजान ट्रेन में कदम रख ही दिया और आज यहां है.

मच्छरों का काटना, मुसाफिरों की शक्की नजर का डर, सबकुछ तेजा के दिमाग से भाग चुका था और उस औरत की बातें सुन कर उस का घनचक्कर दिमाग और ज्यादा घूम गया.

तेजा ने पूछा, ‘‘शैंपू की खातिर पति ने पीट क्या दिया, तुम अपने छोटेछोटे बच्चोें को छोड़ कर घर से भाग आई? कितने दिन पहले घर छोड़ा था? क्या तुम ट्रेन से सीधे अंबाला स्टेशन पर उतरी हो? तुम्हारा नाम क्या है?’’

तेजा के 4 सवालों की बौछार का सामना करने के बाद अपने लंबे बालों को हलके से खुजलाते हुए उस औरत ने खुद का नाम रश्मि बता कर कहा, ‘‘सही से याद नहीं. शायद 12-15 दिन हो गए हैं. पहली ट्रेन छोड़ने के बाद मैं भटकती रही और फिर देर शाम सड़क से गुजरते ट्रक वालों ने मुझे आगे छोड़ने की पेशकश की.

‘‘कोई रास्ता न देख वह ट्रक में चढ़ गई. फिर चलते ट्रक में मेरे साथ वह सब हुआ, बारबार हुआ, जिस का टीवी न्यूज वाले ढिंढोरा पीटते रहते हैं. जब एक बार ट्रक वालों का मन भर जाता तो मुझे सड़क किनारे फेंक देते. कुछ देर बाद दूसरे उठा लेते.

‘‘मुझे खुद भी याद नहीं कि अब तक कितनों ने मेरे साथ हैवानियत की है. अब मुझे सड़क से डर लगता है. रेलवे स्टेशन पर भीड़ रहती है, कोई मुझे उठा कर नहीं ले जा सकता है, इसलिए अब मैं स्टेशन पर हूं.

‘‘रास्ते में किसी औरत ने बताया था कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊं, वहां धार्मिक मेले में बड़े दानी लोग आए हुए हैं. मेरा भला होगा. किसी से पूछ कर बिना टिकट मैं कुरुक्षेत्र से गुजरने वाली ट्रेन में चढ़ गई, स्टेशन चूक गया सो कुरुक्षेत्र के बजाय अंबाला पहुंच गई. हालत खराब होने की वजह से तब से मैं इसी बड़े स्टेशन पर पड़ी हूं.’’

रश्मि के चुप होने पर हैरानी से सबकुछ सुन रहे तेजा ने दिमाग को झकझोरा. सख्त दिखने वाले तेजा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें पटना जाने वाली ट्रेन का टिकट खरीद कर दूंगा, साथ में खाना खाने लायक पैसे भी दूंगा. तुम अपने घर लौट जाओ.’’

लेकिन रश्मि तैयार नहीं हुई. उस ने कहा, ‘‘अब घर और समाज में कोई मुझे नहीं अपनाएगा.’’

तेजा अब रश्मि पर हक से बोलने लगा, ‘‘बेशक, लोग तुम पर ताने मारें, पर तुम अपने बच्चों के लिए घर लौट जाओ. उन मासूमों का इस दुनिया में कोई पराया ध्यान नहीं रखेगा और तुम्हारा पति तो पहले ही नशेड़ी है.’’

रश्मि ने कहा, ‘‘मैं ऐसी गलती कर चुकी हूं, जहां से कभी वापसी नहीं हो सकती है.’’

तेजा ने रश्मि से कहा, ‘‘तुम पहले कुछ खा लो, फिर डाक्टर से दवा ले लो, ताकि तुम्हारे शरीर में कुछ जान आ सके.’’

तेजा की बात सुन कर अब तक मन की बात बताने वाली रश्मि का चेहरा और अंदाज बदल गया. उस ने धीमी आवाज में अपना फैसला साफ कर देने वाली बात कही, ‘‘मैं रेलवे स्टेशन के बाहर नहीं जाऊंगी, चाहे तुम पैसे दो या मत दो.’’

यह बात कहने का अंदाज देख कर तेजा समझ गया कि इस औरत का भरोसा सब से उठ चुका है, जो दरिंदगी इस के साथ की गई है, उस ने दिल में डर बैठा दिया है, इसलिए वह अब उस पर भी भरोसा नहीं करेगी.

तेजा ने कहा, ‘‘अगर तुम कुछ दिन और स्टेशन पर पड़ी रही तो शायद मर जाओगी.’’

लेकिन रश्मि पर इस का भी खास असर नहीं हुआ. उस ने मुरदा से हो चुके चेहरे को और ढीला छोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं बेशक मर जाऊं, लेकिन स्टेशन से बाहर नहीं जाऊंगी. न ही वापस अपने घर जाऊंगी.’’

तेजा ने मन में सोचा कि वह बुरी तरह फंस गया है, इस हालत में इसे छोड़ कर गया तो यह फिर गलत लोगों के हाथ पड़ जाएगी या फिर कुछ दिनों बाद मरने की हालत में पहुंच जाएगी. लेकिन साथ ही उसे यह एहसास भी हुआ कि वह खुद कौन सा चीफ मिनिस्टर है, जो अचानक से इस औरत की जिंदगी को वाकई जिंदा कर देगा? अंदर एक कोने में यह डर भी था कि कहीं उसे आधी रात को बेवकूफ तो नहीं बनाया जा रहा है?

बैठेबैठे एक दौर बीत चुका था. तेजा की ट्रेन का वक्त नजदीक आ रहा था. खड़ूस तेजा का दिमाग कन्फ्यूज हो कर तेजी से घूम रहा था. मन में यह भी आ रहा था कि अगर औरत सच बोल रही है तो बरबादी की जिम्मेदार वह खुद ही है. इस तरह घर छोड़ कर भागेगी तो ऐसा ही अंजाम होगा. लेकिन उसे वह वक्त भी याद आया जब झगड़ कर तेजा खुद घर छोड़ कर दिल्ली के एक आश्रम में चला गया था. घर से संन्यासी बनने की ठान कर निकला था, लेकिन 4-5 दिन बाद सुबह 3 बजे चुपचाप आश्रम छोड़ कर वापस घर का रास्ता पकड़ लिया.

घर लौटने पर मातापिता और पड़ोसियों ने उस की गरदन नहीं पकड़ी, बल्कि राहत की सांस ली थी.

तेजा के मन में आया कि क्या दुनिया है कि घर से भागा एक लड़का वापस आ जाए तो सब को चैन, लेकिन एक औरत के लिए वही सब करना पाप…

तेजा की नजर बारबार घड़ी पर जा रही थी. लग रहा था, वक्त ने रफ्तार बढ़ा ली है. उस की टे्रन के आने की घोषणा हो चुकी थी. लेकिन रश्मि का सच और उस की जिद जान कर तेजा उस के लिए कुछ भी कर पाने की हालत में नहीं था.

बिना सोचे तेजा के मुंह से अचानक शब्द निकले, ‘‘मुझे अब जाना होगा रश्मि. ट्रेन आ रही है.’’

तेजा ने जेब से पर्स निकाला. उसे ध्यान नहीं कितने नोट निकले, लेकिन रश्मि को थमा दिए और बैंच से खड़ा

हो गया.

‘‘अपना ध्यान रखना,’’ बोल कर तेजा आगे बढ़ने लगा.

तेजा को जाते देख रश्मि के चेहरे पर फिर से कुछ बड़ा खो देने के भाव थे. कई दिन से पत्थर बनी उस की आंखें नम हो गईं.

पुल पर पलट कर तेजा ने अंधेरे कोने में नजरें दौड़ाईं. ऐसा लग रहा था मानो बैंच के साथ रश्मि की मूर्ति हमेशा से वहीं चिपकी हुई है.

तेजा के पैर आगे बढ़ते जा रहे थे. रेलवे स्टेशन की तमाम चिल्लपौं से दूर उस का दिमाग खोया हुआ था, उसे भी नहीं मालूम कहां. एक सन्नाटा पसरा हुआ था.

पीछे से धक्का मारते हुए एक आदमी ने कहा, ‘‘नहीं चढ़ना है तो रास्ते से हट जाओ.’’

तेजा जागा और देखा कि उस की ट्रेन सामने है, वह अनजाने में चलते हुए ठीक अपनी बोगी के सामने पहुंच गया है, लेकिन ऊपर चढ़ने के बजाय गेट के बाहर पैर जम गए हैं, इसलिए पीछे से बाकी मुसाफिर उस पर गुस्से में चिल्ला रहे हैं.

तेजा हड़बड़ाहट में तेजी से अंदर चढ़ गया. चंद पलों में सीटी बजी और बिजली से चलने वाली ट्रेन के पहियों ने फर्राटा भर दिया.

इस से पहले कि ट्रेन पूरी रफ्तार पकड़ पाती, तेजा ने बैग के साथ गेट से छलांग लगा दी. कालेज जाते वक्त रोजाना सरकारी बस के सफर का तजरबा था, इसलिए इंजन की दिशा में दौड़ता रहा वरना स्टेशन पर खड़े लोग तेजा के गिरने के डर में आंखें तकरीबन बंद कर चुके थे.

कम से कम 30-40 मीटर दौड़ते रहने पर तेजा के लड़खड़ाते पैर संतुलन में आ पाए. तेज सांसें छोड़ता हुआ तेजा रुका और चमकती आंखों के साथ वापस मुड़ा.

तेजा को अंदाजा था कि पठानकोट में जाट रैजीमैंट के कैंप पहुंच कर मामा से मदद मिलने की गुंजाइश कम है. मामी और उन के घर वालों का असर फौजी मामा को लाचार बना चुका था, इसलिए वहां जाने में वक्त बरबाद कर नाउम्मीद होने से बेहतर है कि रश्मि और उस के बच्चों को मिलाया जाए. मांबच्चों का मिलन हो जाएगा तो बाकी सब भाड़ में जाएं.

तेजा ने फोन निकाल कर दिल्ली के न्यूज चैनल में काम करने वाले दोस्त गौरव को मिला दिया. मालूम था, रात के 2 बजे हैं, गौरव के फोन रिसीव करने के चांस कम हैं, लेकिन फोन

को स्पीकर पर लगा कर वह टिकट काउंटर की तरफ बढ़ चला.

कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन तेजा को कोई परवाह नहीं. रीडायल बटन दबा दिया. घंटी बज रही थी. देर रात होने की वजह से काउंटर खाली था. अंदर टिकट बाबू और एक मैडमजी बातों में मस्त थे.

तेजा ने कहा, ‘‘पटना के लिए टे्रन कब मिलेगी?’’

बातचीत के मधुर सफर में खोए टिकट बाबू को यह सवाल घोर बेइज्जती लगा. पहले नजरों से नफरत के बाण चलाए, फिर जबान खोली, ‘‘एक घंटे बाद सुपरफास्ट ट्रेन है. जम्मू से आ रही है, सीधी हावड़ा जाएगी. बीच में दिल्लीपटना जैसे बड़े स्टेशनों पर रुकती है. सीट भी दिलवा दूंगा. अंदर मस्तमस्त बिस्तर मिलेगा, साथ में गरमागरम खाना. लेकिन टिकट खरीदने के लिए औकात चाहिए, अब बोल खरीदेगा टिकट?

‘‘वैसे, सुबह 8 बजे दिल्ली तक पैसेंजर ट्रेन है. वहां से पटना के लिए मिल जाएगी, चल भाग अभी. ये बिहार वाले शांति से चार बात भी नहीं करने देते हैं. हां, तो सपना… मैं क्या कह रहा था?’’

‘अरे भैया, रात को 2 बजे भी सोने नहीं देते हो, 5-7 दिन की छुट्टी मिलती हैं. समझा करो यार,’ नींद में ऊंघ रहे गौरव ने फोन पर जवाब दिया.

‘‘गौरव, तुम फोन पर बने रहो,’’ तेजा ने स्पीकर बंद कर मुसकराते हुए टिकट बाबू से कहा, ‘‘2 टिकट दे दीजिए,’’ और उस ने डैबिट कार्ड आगे बढ़ा दिया.

टिकट बाबू ने तेजा की सूरत को घूरते हुए कार्ड ले लिया. बुनियादी जानकारी पूछी और बटन दबा दिया.

2 टिकट निकाल कर तेजा को थमा दी. टिकट और डैबिट कार्ड ले कर तेजा तेज कदमों से रश्मि की तरफ चल पड़ा.

तेजा ने चलते हुए एक सांस में

रश्मि की पूरी कहानी फोन पर गौरव को बता दी.

गौरव पटना का ही रहने वाला था. दोनों जोधपुर के मिलिटरी स्कूल में एकसाथ पढ़ते थे, क्योंकि दोनों के पिता फौज में वहीं तैनात थे.

हालांकि गौरव तेजा से कई क्लास सीनियर था, लेकिन दोनों की खूब जमती थी. फोन पर गौरव ने कहा, ‘तेजा इतने दिनों बाद फोन किया वह भी रात के 2 बजे. और यह किस के लिए पागल हुआ जा रहा है. अरे भाई, ऐसे कितने ही लोग रोज बरबाद होते हैं. कितनों को घर पहुंचाएगा तू.’

तेजा ने मजबूत आवाज में कहा, ‘‘गौरव भाई, मैं उसे ले कर पटना आ रहा हूं. समझो, अब मसला पर्सनल है. कुछ देर में तुम्हें उस के घर का अतापता सब मैसेज कर रहा हूं. मुझे इस औरत को उस के बच्चों से मिलाना है. इतना ही नहीं, उस का घर भी बसना चाहिए. तुम अपने विधायक भाई को बोलो या थानेदार को. बस, यह होना चाहिए.’’

गौरव समझ गया कि तेजा के दिमाग में धुन चढ़ गई है. अब यह कुछ नहीं मानेगा या समझेगा. उस ने तेजा को कहा, ‘मैं कल ही दिल्ली से छुट्टी ले कर पटना आया था. तू मुझे उस औरत की जानकारी मैसेज कर. मैं लल्लन भैया से बात करता हूं. अब तू ने कहा है तो निबटाते हैं मसला यार.’

लल्लन भैया 2 दफा विधायक रह चुके थे. गौरव उन की रिश्तेदारी में था.

रश्मि अंधेरे की तरफ मुंह किए उसी बैंच पर पत्थर बनी बैठी थी.

तेजा ने पहुंच कर कहा, ‘‘तुम्हें स्टेशन से बाहर नहीं जाना है. ट्रेन में मेरे साथ सफर करना है. मैं तुम्हें ले कर पटना जाऊंगा. अगर तुम्हारे बच्चों से मिला कर तुम्हारा संसार नहीं बसा सका, तो जो तुम्हें करना है उस के बाद भी

कर सकती हो. चलो उठो, प्लेटफार्म बदलना है.’’

तेजा की इस अंदाज में वापसी देख कर रश्मि सकपका गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है.

तेजा की बातें सुन कर वह कल्पना करने की कोशिश कर रही थी कि क्या उस की जिंदगी फिर से खिल सकती है?

‘‘मेरा पति और लोग मुझे जीने नहीं देंगे बाबू,’’ रश्मि ने तेजा से कहा.

‘‘वह सब मुझ पर छोड़ दो,’’ तेजा ने जवाब दिया.

जब ट्रेन आई और दोनों उस में चढ़े तो अजीब नजारा था. अंदर के मुसाफिर रश्मि को घूर कर देख रहे थे और रश्मि आलीशान ट्रेन के अंदर हर चीज को घूर रही थी.

तेजा उस का हाथ पकड़ कर सीट तक ले गया. प्लेटफार्म पर खरीदा गया खानेपीने का सामान उसे थमा दिया और कहा, ‘‘अब कुछ खा लो.’’

थोड़ी देर में ट्रेन ने सीटी बजा दी और दौड़ चली.

पूरे सफर में तेजा और गौरव की फोन पर बातचीत चलती रही. रश्मि इस दौरान लेटेलेटे कभी अचेत सी हो कर सो जाती, तो कभी शीशे की खिड़की के पार नजरें गड़ाए देखती रहती.

पटना स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो रश्मि का भाई, मां उस के 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ खड़े थे. उन के साथ गौरव और लल्लन भैया के 2 आदमी

भी थे.

ट्रेन से उतर कर रश्मि को समझ नहीं आ रहा था, वह बच्ची बन कर अपनी मां से लिपट कर रोए या रोते हुए ‘मम्मीमम्मी’ बोल कर उस की तरफ आ रहे बच्चों को छाती से चिपका ले.

तेजा के सामने वक्त ठहर गया था. उस के मन में सुकून और प्यार की बयार बह रही थी. गौरव तेजा को देखे जा रहा था. लल्लन भैया के दोनों लोग पूरे नजारे पर नजरें गड़ाए हुए थे.

बूढ़ी मां, रश्मि, दोनों बच्चे एकदूसरे में खो गए. दूर देहात से आए रश्मि के बड़े भाई को भी खुद पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. जब रश्मि ने पति के बरताव और घर के हालात के बारे में भाई को बताया था तब उस ने जरूरी कदम नहीं उठाया. उसी का नतीजा छोटी बहन और 2 छोटेछोटे मासूम बच्चों को भुगतना पड़ा. लेकिन अब बड़े भाई ने

मन मजबूत कर लिया था.

गौरव ने तेजा को बताया कि लल्लन भैया ने रश्मि के आदमी को उठवा लिया है. अब वह नशा मुक्ति केंद्र में बंद है. नशे की हालत में उस का बरताव देख लल्लन भैया भी गरम हो गए थे.

2 थप्पड़ जड़ दिए उसे और बोले

कि ऐसे आदमी के पास कोई कैसे रह सकता है?

लल्लन भैया ने अपने चमचों से कह दिया था कि रश्मि के ससुराल और मायके वालों से पूरा सच पता करें. सच यही निकला कि रश्मि गलत औरत नहीं थी, लेकिन पति बिगड़ैल निकला. कामचोर, नशेड़ी और दूसरों की सीख मानने वाला. उस हालत में रश्मि को

2 ही रास्ते सूझे, एक तो गले में फंदा लगा ले या फिर घर से भाग जाए. लेकिन अब बच्चों के चेहरे देख कर उस के अंदर की ताकत जाग गई थी. उस ने मन ही मन फैसला किया, अब बच्चों के लिए जिएगी. आदमी सही रास्ते पर आया तो ठीक है, वरना बच्चों को खुद पालेगी.

बड़े भैया ने बीच में आ कर रश्मि से कहा कि फिलहाल वह मायके में चले. वह और मां उन का ध्यान रखेंगे.

गौरव ने कहा, ‘‘रश्मि की सेहत ठीक होने पर उसे लल्लन भैया के दोस्त के स्कूल में नौकरी लगवा देंगे. वह वहां अपने बच्चों को भी पढ़ा सकती है. उस के बिगड़ैल पति को सुधारने की जिम्मेदारी अब लल्लन भैया ने ले ली है. जब वह इनसान बन जाएगा, तब उसे  सब बता दिया जाएगा.’’

स्टेशन के बाहर रश्मि का सामान एक जीप में लदा था. यह जीप लल्लन भैया की थी. रश्मि के भाई ने हाथ जोड़ कर तेजा को शुक्रिया कहा. बच्चों के साथ रश्मि और उस के भाई और मां जीप में बैठ गए. दोनों लोग भी गाड़ी में लद लिए. चमचों को और्डर था कि रश्मि को उस के गांव तक सहीसलामत छोड़ कर आएं.

जीप तेज धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़ चली. गौरव ने तेजा को झकझोरते हुए कहा, ‘‘चलो भैया, अब तो हम मिल कर पटना दर्शन करते हैं.’’

Hill station: हिल स्टेशन पर तबादला

लेखक- शक्ति पैन्यूली

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे.

पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था.

साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए.

बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा.

‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए.

‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई.

मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई.

‘‘सब ठीक  हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’

‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा.

दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और

15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे.

शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया.

मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’

सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया.

‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ  की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं.

‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’

भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया.

ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली.

शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी.

खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर.

निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे.

दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया.

दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं.

‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है.

‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा.

छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए.

साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा.

औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए.

‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे.

बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे.

वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे.

‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’

?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

Hindi Story : नौटंकीबाज पत्नी – क्या सागर को अपने पसंद की पत्नी मिली?

लेखक- माधव गवाणकर

मुंबई में रहने वाले कोंकण इलाके के ज्यादातर लोग अपने गांव में आम और कटहल खाने आते हैं. इतना ही नहीं, कोंकण ताजा मछलियों के लिए भी बहुत मशहूर है, इसलिए सागर को अपने लिए बागबगीचे पसंद करने और मांसमछली पका लेने वाली पत्नी चाहिए थी. वह चाहता था कि उस की पत्नी घर और खेतीबारी संभालते हुए गांव में रह कर उस के मातापिता की सेवा करे, क्योंकि सागर नौकरी में बिजी रहने के चलते ज्यादा दिनों तक गांव में नहीं ठहर सकता था. ऐसे में उसे ऐसी पत्नी चाहिए थी जो उस का घरबार बखूबी संभाल सके.

आखिरकार, सागर को वैसी ही लड़की पत्नी के रूप में मिल गई, जैसी उसे चाहिए थी. नयना थोड़ी मुंहफट थी, लेकिन खूबसूरत थी. उस ने शादी की पहली रात से ही नखरे और नाटक करना शुरू कर दिया. सुहागरात पर सागर से बहस करते हुए वह बोली, ‘‘तुम अपना स्टैमिना बढ़ाओ. जो सुख मुझे चाहिए, वह नहीं मिल पाया.’’

दरअसल, सागर एक आम आदमी की तरह सैक्स में लीन था, लेकिन वह बहुत जल्दी ही थक गया. इस बात पर नयना उस का जम कर मजाक उड़ाने लगी, लेकिन सागर ने उस की किसी बात को दिल पर नहीं लिया. उसे लगा, समय के साथसाथ पत्नी की यह नासमझी दूर हो जाएगी. छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं और उसे मुंबई लौटना था.

नयना ने कहा, ‘‘मुझे इस रेगिस्तान में अकेली छोड़ कर क्यों जा रहे हो?’’

सच कहें तो नयना भी यही चाहती थी कि सागर गांव में न रहे, क्योंकि पति की नजर व दबाव में रहना उसे पसंद नहीं था और न ही उस के रहते वह पति के दोस्तों को अपने जाल में फंसा सकती थी. मायके में उसे बेरोकटोक घूमने की आदत थी, जिस वजह से गांव के लड़के उसे ‘मैना’ कह कर बुलाते थे.

मुंबई पहुंचने के बाद सागर जब भी नयना को फोन करता, उस का फोन बिजी रहता. उसे अकसर कालेज के दोस्तों के फोन आते थे.

लेकिन धीरेधीरे सागर को शक होने लगा कि कहीं नयना अपने बौयफ्रैंड से बात तो नहीं करती है? सागर की मां ने बताया कि नयना घर का कामधंधा छोड़ कर पूरे गांव में आवारा घूमती रहती है.

एक दिन अचानक सागर गांव पहुंच गया. बसस्टैंड पर उतरते ही सागर ने देखा कि नयना मैदान में खड़ी किसी लड़के से बात कर रही थी और कुछ देर बाद उसी की मोटरसाइकिल पर बैठ कर वह चली गई. देखने में वह लड़का कालेज में पढ़ने वाला किसी रईस घर की औलाद लग रहा था. नैना उस से ऐसे चिपक कर बैठी थी, जैसे उस की प्रेमिका हो.

घर पहुंचने के बाद सागर और नैना में जम कर कहासुनी हुई. नैना ने सीधे शब्दों में कह दिया, ‘‘बौयफ्रैंड बनाया है तो क्या हुआ? मुझे यहां अकेला छोड़ कर तुम वहां मुंबई में रहते हो. मैं कब तक यहां ऐसे ही तड़पती रहूंगी? क्या मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है? अगर मैं ने अपनी इच्छा पूरी की तो इस में गलत क्या है? तुम खुद नौर्मल हो क्या?’’

‘‘मैं नौर्मल ही हूं. लेकिन तू हवस की भूखी है. फिर से उस मोटरसाइकिल वाले के साथ अगर गई तो घर से निकाल दूंगा,’’ सागर चिल्लाया.

‘‘तुम क्या मुंबई में बिना औरत के रहते हो? तुम्हारे पास भी तो कोई होगी न? ज्यादा बोलोगे तो सब को बता दूंगी कि तुम मुझे जिस्मानी सुख नहीं दे पाते हो, इसलिए मैं दूसरे के पास जाती हूं.’’

यह सुन कर सागर को जैसे बिजली का करंट लग गया. ‘इस नौटंकीबाज, बदतमीज, पराए मर्दों के साथ घूमने वाली औरत को अगर मैं ने यहां से भगा दिया तो यह मेरी झूठी बदनामी कर देगी… और अगर इसे मां के पास छोड़ता हूं तो यह किस के साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी, यही सब सोच कर मेरा काम में मन नहीं लगेगा,’ यही सोच कर सागर को नींद नहीं आई. वह रातभर सोचता रहा, ‘क्या एक पल में झूठ बोलने, दूसरे पल में हंसने, जोरजोर से चिल्ला कर लोगों को जमा करने, तमाशा करने और धमकी देने वाली यह औरत मेरे ही पल्ले पड़नी थी?’

बहुत देर तक सोचने के बाद सागर के मन में एक विचार आया और बिना किसी वजह से धमकी देने वाली इस नौटंकीबाज पत्नी नयना को उस ने भी धमकी दी, ‘‘नयना, मैं तुझ से परेशान हो कर एक दिन खुदकुशी कर लूंगा और एक सुसाइड नोट लिख कर जाऊंगा कि तुम ने मुझे धोखा दे कर, डराधमका कर और झूठी बदनामी कर के आत्महत्या करने पर मजबूर किया है. किसी को धोखा देना गुनाह है. पुलिस तुझ से पूछताछ करेगी और तेरा असली चेहरा सब के सामने आएगा. तेरे जैसी बदतमीज के लिए जेल का पिंजरा ही ठीक रहेगा.’’

सागर के लिए यह औरत सिर पर टंगी हुई तलवार की तरह थी और उसे रास्ते पर लाने का यही एकमात्र उपाय था. खुदकुशी करने का सागर का यह विचार काम आ गया. यह सुन कर नयना घबरा गई.

‘‘ऐसा कुछ मत करो, मैं बरबाद हो जाऊंगी,’’ कह कर नयना रोने लगी.

इस के बाद सागर ने नयना को मुंबई ले जाने का फैसला किया. उस ने भी घबरा कर जाने के लिए हां कर दी. उस के दोस्त फोन न करें, इसलिए फोन नंबर भी बदल दिया.

अब वे दोनों मुंबई में साथ रहते हैं. नयना भी अपने बरताव में काफी सुधार ले आई है.

मृदुभाषिणी: क्यों बौना लगने लगा शुभा को मामी का चरित्र

कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी को आदर्श मान कर, जानेअनजाने उसी को मानो घोल कर पी जाते हैं.

सुहागरात को दुलहन बनी शुभा से पति ने प्रथम शब्द यही कहे थे, ‘मेरी एक मामी हैं. वे बहुत अच्छी हैं. हमारे घर में सभी उन की प्रशंसा करते हैं. मैं चाहता हूं, भविष्य में तुम उन का स्थान लो. सब कहें कि बहू हो तो शुभा जैसी. मैं चाहता हूं जैसे वे सब को पसंद हैं, वैसे ही तुम भी सब की पसंद बन जाओ.’

पति ने अपनी धुन में बोलतेबोलते एक आदर्श उस के सामने प्रस्तुत कर दिया था. वास्तव में शुभा को भी पति की मामी बहुत पसंद आई थीं, मृदुभाषिणी व धीरगंभीर. वे बहुत स्नेह से शुभा को खाना खिलाती रही थीं. उस का खयाल रखती रही थीं. नई वधू को क्याक्या चाहिए, सब उन के ध्यान में था. सत्य है, अच्छे लोग सदा अच्छे ही लगते हैं, उन्होंने सब का मन मोह रखा था.

वक्त बीतता गया और शुभा 2 बच्चों की मां बन गई. मामी से मुलाकात होती रहती थी, कभी शादीब्याह पर तो कभी मातम पर. शुभा की सास अकसर कहतीं, ‘‘देखा मेरी भाभी को, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करतीं.’’

शुभा अकसर सोचती, ‘2-3 वर्ष के अंतराल के उपरांत जब कोई मनुष्य किसी सगेसंबंधी से मिलता है, तब भला उसे ऊंचे स्वर में बात करने की जरूरत भी क्या होगी?’ कभीकभी वह इस प्रशंसा पर जरा सा चिढ़ भी जाती थी.

एक शाम बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते उस ने जरा डांट दिया तो सास ने कहा, ‘‘कभी अपनी मामी को ऊंचे स्वर में बात करते सुना है?’’

‘‘अरे, बच्चों को पढ़ाऊंगी तो क्या चुप रह कर पढ़ाऊंगी? क्या सदा आप मामीमामी की रट लगाए रखती हैं. अपने घर में भी क्या वे ऊंची आवाज में बात नहीं करती होंगी?’’ बरसों की कड़वाहट सहसा निकली तो बस निकल ही गई, ‘‘अपने घर में भी मुझे कोई आजादी नहीं है. आप लोग क्या जानें कि अपने घर में वे क्याक्या करती होंगी. दूसरी जगह जा कर तो हर इंसान अनुशासित ही रहता है.’’

‘‘शुभा,’’ पति ने बुरी तरह डांट दिया.

वह प्रथम अवसर था जब उस की मामी के विषय में शुभा ने कुछ अनचाहा कह दिया था. कुछ दिन सास का मुंह भी चढ़ा रहा था. उन के मायके की सदस्य का अपमान उन से सहा न गया. लेदे कर वही तो थीं, जिन से सासुमां की पटती थी.

धीरेधीरे समय बीता और मामाजी के दोनों बच्चों की शादियां हो गईं. शुभा उन के शहर न जा पाई क्योंकि उसे घर पर ही रहना था. सासुमां ने महंगे उपहार दे कर अपना दायित्व निभाया था.

ससुरजी की मृत्यु के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी शुभा के कंधों पर आ गई थी. सीमित आय में हर किसी से निभाना अति विकट था, फिर भी जोड़जोड़ कर शुभा सब निभाने में जुटी रहती.

पति श्रीनगर गए तो उस के लिए महंगी शौल ले आए. इस पर शुभा बोली, ‘‘इतनी महंगी शौल की क्या जरूरत थी. अम्मा के लिए क्यों नहीं लाए?’’

‘‘अरे भई, इस पर किसी का नाम लिखा है क्या. दोनों मिलजुल कर इस्तेमाल कर लिया करना.’’ शुभा ने शौल सास को थमा दी. कुछ दिनों बाद कहीं जाना पड़ा तो शुभा ने शौल मांगी तो पता चला कि अम्मा ने मामी को पार्सल करवा दी.

यह सुन शुभा अवाक रह गई, ‘‘इतनी महंगी शौल आप ने…’’

‘‘अरे, मेरे बेटे की कमाई की थी, तुझे क्यों पेट में दर्द हो रहा है?’’

‘‘अम्मा, ऐसी बात नहीं है. इतनी महंगी शौल आप ने बेवजह ही भेज दी. हजार रुपए कम तो नहीं होते. ये इतने चाव से लाए थे.’’

‘‘बसबस, मुझे हिसाबकिताब मत सुना. अरे, मैं ने अपने बेटे पर हजारों खर्च किए हैं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं, जो अपने किसी रिश्तेदार को कोई भेंट दे सकूं?’’

अम्मा ने बहू की नाराजगी जब बेटे के सामने प्रकट की, तब वह भी हैरान रह गया और बोला, ‘‘अम्मा, मैं पेट काटकाट कर इतनी महंगी शौल लाया था. पर तुम ने बिना वजह उठा कर मामी को भेज दी. कम से कम हम से पूछ तो लेतीं.’’

इस पर अम्मा ने इतना होहल्ला मचाया कि घर की दीवारें तक दहल गईं. शुभा और उस के पति मन मसोस कर रह गए.

‘‘पता नहीं अम्मा को क्या हो गया है, सदा ऐसी जलीकटी सुनाती रहती हैं. इतनी महंगाई में अपना खर्च चलाना मुश्किल है, उस पर घर लुटाने की तुक मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती,’’ शौल का कांटा शुभा के पति के मन में गहरा उतर गया था.

कुछ समय बीता और एक शाम मामा की मृत्यु का समाचार मिला. रोतीपीटती अम्मा को साथ ले कर शुभा और उस के पति ने गाड़ी पकड़ी. बच्चों को ननिहाल छोड़ना पड़ा था.

क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार विदा होने लगे. मामी चुप थीं, शांत और गंभीर. सदा की भांति रो भी रही थीं तो चुपचाप. शुभा को पति के शब्द याद आने लगे, ‘हमारी मामी जैसी बन कर दिखाना, वे बहुत अच्छी हैं.’

शुभा के पति और मामा का बेटा अजय अस्थियां विसर्जित कर के लौटे तो अम्मा फिर बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘कहां छोड़ आए रे, मेरे भाई को…’’

शुभा खामोशी से सबकुछ देखसुन रही थी. मामी का आदर्श परिवार पिछले 20 वर्षों से कांटे की शक्ल में उस के हलक में अटका था. उन के विषय में जानने की मन में गहरी जिज्ञासा थी. मामी की बहू मेहमाननवाजी में व्यस्त थी और बेटी उस का हाथ बंटाती नजर आ रही थी. एक नौकर भी उन की मदद कर रहा था.

बहू का सालभर का बच्चा बारबार रसोई में चला जाता, जिस के कारण उसे असुविधा हो रही थी. शुभा बच्चा लेना चाहती, मगर अपरिचित चेहरों में घिरा बच्चा चीखचीख कर रोने लगता.

‘‘बहू, तुम कुछ देर के लिए बच्चे को ले लो, नाश्ता मैं बना लेती हूं,’’ शुभा के अनुरोध पर बीना बच्चे को गोद में ले कर बैठ गई.

जब शुभा रसोई में जाने लगी तो बीना ने रोक लिया, ‘‘आप बैठिए, छोटू है न रसोई में.’’

मामी की बहू अत्यंत प्यारी सी, गुडि़या जैसी थी. वह धीरेधीरे बच्चे को सहला रही थी कि तभी कहीं से मामी का बेटा अजय चला आया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारे मांबाप कहां हैं? वे मुझ से मिले बिना वापस चल गए? उन्हें इतनी भी तहजीब नहीं है क्या?’’

‘‘आप हरिद्वार से 2 दिनों बाद लौटे हैं. वे भला आप से मिलने का इंतजार कैसेकर सकते थे.’’

‘‘उन्हें मुझ से मिल कर जाना चाहिए था.’’

‘‘वे 2 दिन और यहां कैसे रुक जाते? आप तो जानते हैं न, वे बेटी के घर का नहीं खाते. बात को खींचने की क्या जरूरत है. कोई शादी वाला घर तो था नहीं जो वे आप का इंतजार करते रहते.’’

‘‘बकवास बंद करो, अपने बाप की ज्यादा वकालत मत करो,’’ अजय तिलमिला गया.

‘‘तो आप क्यों उन्हें ले कर इतना हंगामा मचा रहे हैं? क्या आप को बात करने की तमीज नहीं है? क्या मेरा बाप आप का कुछ नहीं लगता?’’

‘‘चुप…’’

‘‘आप भी चुप रहिए और जाइए यहां से.’’

शुभा अवाक रह गई. उस के सामने  ही पतिपत्नी भिड़ गए थे. ज्यादा  दोषी उसे अजय ही नजर आ रहा था. खैर, अपमानित हो कर वह बाहर चला गया और बहू रोने लगी.

‘‘जब देखो, मेरे मांबाप को अपमानित करते रहते हैं. मेरे भाई की शादी में भी यही सब करते रहे, वहां से रूठ कर ही चले आए. एक ही भाई है मेरा, मुझे वहां भी खुशी की सांस नहीं लेने दी. सब के सामने ही बोलना शुरू कर देंगे. कोई इन्हें मना भी नहीं करता. कोई समझाता ही नहीं.’’

शुभा क्या कहती. फिर जरा सा मौका मिलते ही शुभा ने मामी की समझदार बेटी से कहा, ‘‘जया, जरा अपने भाई को समझाओ, क्यों बिना वजह सब के सामने पत्नी का और उस के मांबाप का अपमान कर रहा है. तुम उस की बड़ी बहन हो न, डांट कर भी समझा सकती हो. कोई भी लड़की अपने मांबाप का अपमान नहीं सह सकती.’’

‘‘उस के मांबाप को भी तो अपने दामाद से मिल कर जाना चाहिए था. बीना को भी समझ से काम लेना चाहिए. क्या उसे पति का खयाल नहीं रखना चाहिए. वह भी तो हमेशा अजय को जलीकटी सुनाती रहती है?’’

शुभा चुप रह गईर् और देखती रही कि बीना रोतेरोते हर काम कर रही है. किसी ने उस के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहे.

खाने के समय सारा परिवार इकट्ठा हुआ तो फिर अजय भड़क उठा, ‘‘अपने बाप को फोन कर के बता देना कि मैं उन लोगों से नाराज हूं. आइंदा कभी उन की सूरत नहीं देखूंगा.’’

तभी शुभा के पति ने उसे बुरी तरह डपट दिया, ‘‘तेरा दिमाग ठीक है कि नहीं? पत्नी से कैसा सुलूक करना चाहिए, यह क्या तुझे किसी ने नहीं सिखाया? मामी, क्या आप ने भी नहीं?’’ लेकिन मामी सदा की तरह चुप थीं.

शुभा के पति बोलते रहे, ‘‘हर इंसान की इज्जत उस के अपने हाथ में होती है. पत्नी का हर पल अपमान कर के, वह भी 10 लोगों के बीच में, भला तुम अपनी मर्दानगी का कौन सा प्रमाण देना चाहते हो? आज तुम उस का अपमान कर रहे हो, कल को वह भी करेगी, फिर कहां चेहरा छिपाओगे? अरे, इतनी संस्कारी मां का बेटा ऐसा बदतमीज.’’

वहां से लौटने के बाद भी शुभा मामी के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ही सोचती रही कि अजय की गलती पर वे क्यों खामोश बैठी रहीं? गलत को गलत न कहना कहां तक उचित है?

एक दिन शुभा ने गंभीर स्वर में पति से कहा, ‘‘मैं आप की मामी जैसी नहीं बनना चाहती. जो औरत पुत्रमोह में फंसी, उसे सही रास्ता न दिखा सके, वह भला कैसी मृदुभाषिणी? क्या बहू के पक्ष में वे कुछ नहीं कह सकती थीं, ऐसी भी क्या खामोशी, जो गूंगेपन की सीमा तक पहुंच जाए.’’

यह सुन कर भी शुभा के पति और सास दोनों ही खामोश रहे. उन्हें इस समय शायद कोई जवाब सूझ ही नहीं रहा था.

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