हैप्पी न्यू ईयर: नए साल में आखिर क्या करने जा रही थी मालिनी

दिसंबर का महीना था. किट्टी पार्टी इस बार रिया के घर थी. अपना हाऊजी का नंबर कटने पर भी किट्टी पार्टी की सब से उम्रदराज 55 वर्षीय मालिनी हमेशा की तरह नहीं चहकीं, तो बाकी 9 मैंबरों ने आंखों ही आंखों में एकदूसरे से पूछा कि आंटी को क्या हुआ है? फिर सब ने पता नहीं में अपनाअपना सिर हिला दिया. सब में सब से कम उम्र की सदस्या थी रिया. अत: उसी ने पूछा, ‘‘आंटी, आज क्या बात है? इतने नंबर कट रहे हैं आप के फिर भी आप चुप क्यों हैं?’’

फीकी हंसी हंसते हुए मालिनी ने कहा, ‘‘नहींनहीं, कोई बात नहीं है.’’

अंजलि ने आग्रह किया, ‘‘नहीं आंटी, कुछ तो है. बताओ न?’’

‘‘पवन ठीक है न?’’ मालिनी की खास सहेली अनीता ने पूछा.

‘‘हां, वह ठीक है. चलो पहले यह राउंड खत्म कर लेते हैं.’’

हाऊजी का पहला राउंड खत्म हुआ तो रिया ने पूछा, ‘‘अरे, आप लोगों का न्यू ईयर का क्या प्लान है?’’

सुमन ने कहा, ‘‘अभी तो कुछ नहीं, देखते हैं सोसायटी में कुछ होता है या नहीं.’’

नीता के पति विनोद सोसायटी की कमेटी के मैंबर थे. अत: उस ने कहा, ‘‘विनोद बता रहे थे कि इस बार कोई प्रोग्राम नहीं होगा, सब मैंबर्स की कुछ इशूज पर तनातनी चल रही है.’’ सारिका झुंझलाई, ‘‘उफ, कितना अच्छा प्रोग्राम होता था सोसायटी में… बाहर जाने का मन नहीं करता… उस दिन होटलों में बहुत वेटिंग होती है और ऊपर से बहुत महंगा भी पड़ता है. फिर जाओ भी तो बस खा कर लौट आओ. हो गया न्यू ईयर सैलिब्रेशन. बिलकुल मजा नहीं आता. सोसायटी में कोई प्रोग्राम होता है तो कितना अच्छा लगता है.’’

रिया ने फिर पूछा, ‘‘आंटी, आप का क्या प्लान है? पवन के पास जाएंगी?’’

‘‘मुश्किल है, अभी कुछ सोचा नहीं है.’’

हाऊजी के बाद सब ने 1-2 गेम्स और खेले, फिर सब खापी कर अपनेअपने घर आ गईं.मालिनी भी अपने घर आईं. कपड़े बदल कर चुपचाप बैड पर लेट गईं. सामने टंगी पति शेखर की तसवीर पर नजर पड़ी तो आंसुओं की नमी से आंखें धुंधलाती चली गईं…

शेखर को गए 7 साल हो गए हैं. हार्टअटैक में देखते ही देखते चल बसे थे. इकलौता बेटा पवन मुलुंड के इस टू बैडरूम के फ्लैट में साथ ही रहता था. उस के विवाह को तब 2 महीने ही हुए थे. जीवन तब सामान्य ढंग से चलने ही लगा था पर बहू नीतू अलग रहना चाहती थी. नीतू ने उन से कभी इस बारे में बात नहीं की थी पर पवन की बातों से मालिनी समझ गई थीं कि दोनों ही अलग रहना चाहते हैं. जबकि उन्होंने हमेशा नीतू को बेटी जैसा स्नेह दिया था. उस की गलतियों पर भी कभी टोका नहीं था. बेटी के सारे शौक नीतू को स्नेह दे कर ही पूरे करने चाहे थे.

पवन का औफिस अंधेरी में था. पवन ने कहा था, ‘‘मां, आनेजाने में थकान हो जाती है, इसलिए अंधेरी में ही एक फ्लैट खरीद कर वहां रहने की सोच रहा हूं.’’ मालिनी ने बस यही कहा था, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो. पर यह फ्लैट किराए पर देंगे तो सारा सामान ले कर जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों मां, किराए पर क्यों देंगे? आप रहेंगी न यहां.’’

यह सुन मालिनी को तेज झटका लगा, ‘‘मैं यहां? अकेली?’’

‘‘मां, वहां तो वन बैडरूम घर ही खरीदूंगा. वहां घर बहुत महंगे हैं. आप यहां खुले घर में आराम से रहना… आप की कितनी जानपहचान है यहां… वहां तो आप इस उम्र में नए माहौल में बोर हो जाएंगी और फिर हम हर हफ्ते तो मिलने आते ही रहेंगे… आप भी बीचबीच में आती रहना.’’

मालिनी ने फिर कुछ नहीं कहा था. सारे आंसू मन के अंदर समेट लिए थे. प्रत्यक्षत: सामान्य बनी रही थीं. पवन फिर 2 महीने के अंदर ही चला गया था. जाने के नाम से नीतू का उत्साह देखते ही बनता था. मालिनी आर्थिक रूप से काफी संपन्न थीं. उच्चपदस्थ अधिकारी थे शेखर. उन्होंने एक दुकान खरीद कर किराए पर दी हुई थी, जिस के किराए से और बाकी मिली धनराशि से मालिनी का काम आराम से चल जाता था. मालिनी को छोड़ बेटाबहू अंधेरी शिफ्ट हो गए थे. मालिनी ने अपने दिल को अच्छी तरह समझा लिया था. यों भी वे काफी हिम्मती, शांत स्वभाव वाली महिला थीं. इस सोसायटी में 20 सालों से रह रही थीं. अच्छीखासी जानपहचान थी, सुशिक्षित थीं, हर उम्र के लोग उन्हें पसंद करते थे. अब खाली समय में वे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी थीं. उन का अच्छा टाइम पास हो जाता था.

नीतू ने बेटे को जन्म दिया. पवन मालिनी को कुछ समय पहले ही आ कर ले गया था. नीतू के मातापिता तो विदेश में अपने बेटे के पास ही ज्यादा रहते थे. नन्हे यश की उन्होंने खूब अच्छी देखरेख की. यश 1 महीने का हुआ तो पवन उन्हें वापस छोड़ गया. यश को छोड़ कर जाते हुए उन का दिल भारी हो गया था. पर अब कुछ सालों से जो हो रहा था, उस से वे थकने लगी थीं. त्योहारों पर या किसी और मौके पर पवन उन्हें आ कर ले जाता था. वे भी खुशीखुशी चली जाती थीं. पर पवन के घर जाते ही किचन का सारा काम उन के कंधों पर डाल दोनों शौपिंग करने, अपने दोस्तों से मिलने निकल जाते. जातेजाते दोनों उन से कह चीजें बनाने की फरमाइश कर जाते. सारा सामान दिखा कर यश को भी उन के ही पास छोड़ जाते. यश को संभालते हुए सारे काम करते उन की हालत खराब हो जाती थी. काम खत्म होते ही पवन उन्हें उन के घर छोड़ जाता था. यहां भी वे अकेले ही सब करतीं. उन की वर्षों पुरानी मेड रजनी उन के दुखदर्द को समझती थी. उन की दिल से सेवा करती थी. इस दीवाली भी यही हुआ था. सारे दिन पकवान बना कर किचन में खड़ेखड़े मालिनी की हिम्मत जवाब दे गई तो नीतू ने रूखे धीमे स्वर में कहा पर उन्हें सुनाई दे गया था, ‘‘पवन, मां को आज ही छोड़ आओ. काम तो हो ही गया है. अब वहां अपने घर जा कर आराम कर लेंगी.’’

जब उन की कोख से जन्मा उन का इकलौता बेटा दीवाली की शाम उन्हें अकेले घर में छोड़ गया तो उन का मन पत्थर सा हो गया. सारे रिश्ते मोहमाया से लगने लगे… वे कब तक अपने ही बेटेबहू के हाथों मूर्ख बनती रहेंगी. अगर उन्हें मां की जरूरत नहीं है तो वे क्यों नहीं स्वीकार कर लेतीं कि उन का कोई नहीं है अब. वह तो सामने वाले फ्लैट में रहने वाली सारिका ने उन का ताला खुला देखा तो हैरान रह गई, ‘‘आंटी, आज आप यहां? पवन कहां है?’’ मालिनी बस इतना ही कह पाई, ‘‘अपने घर.’’ यह कह कर उन्होंने जैसे सारिका को देखा था, उस से सारिका को कुछ पूछने की जरूरत नहीं थी. फिर वही उन की दीवाली की तैयारी कर घर को थोड़ा संवार गई थी. बाद में थाली में खाना लगा कर ले आई थी और उन्हें जबरदस्ती खिलाया था.

उस दिन का दर्द याद कर मालिनी की आंखें आज भी भर आई हैं और आज जब वे किट्टी के लिए तैयार हो रही थीं, तो पवन का फोन आया था, ‘‘मां, इस न्यू ईयर पर मेरे बौस और कुछ कुलीग्स डिनर र घर आएंगे, आप को लेने आऊंगा.’’दीवाली के बाद पवन ने आज फोन किया था. वे बीच में जब भी फोन कर बात करना चाहती थीं, पर पवन बहुत बिजी हूं मां, बाद में करूंगा, कह कर फोन काट देता था.

नीतू तो जौब भी नहीं करती थी. तब भी महीने 2 महीने में 1 बार बहुत औपचारिक सा फोन करती थी. अचानक फोन की आवाज से ही वे वर्तमान में लौट आईं. वे हैरान हुईं, नीतू का फोन था, ‘‘मां, नमस्ते. आप कैसी हैं?’’

‘‘ठीक हूं, तुम तीनों कैसे हो?’’

‘‘सब ठीक हैं, मां. आप को पवन ने बताया होगा 31 दिसंबर को कुछ मेहमान आ रहे हैं. 15-20 लोगों की पार्टी है, मां. आप 1 दिन पहले आ जाना. बहुत सारी चीजें बनानी हैं और आप को तो पता ही है मुझे कुकिंग की उतनी जानकारी नहीं है. आप का बनाया खाना सब को पसंद आता है, आप तैयार रहना, बाद में करती हूं फोन,’’ कह कर जब नीतू ने फोन काट दिया तो मालिनी जैसे होश में आईं कि बच्चे इतने चालाक, निर्मोही क्यों हो जाते हैं और वे भी अपनी ही मां के साथ? इतनी होशियारी? कोई यह नहीं पूछता कि वे कैसी हैं? अकेले कैसी रहती हैं? बस, अपने ही प्रोग्राम, अपनी ही बातें. बहू का क्या दोष जब बेटा ही इतना आत्मकेंद्रित हो गया. मालिनी ने एक ठंडी सांस भरी कि नहीं, अब वे स्वार्थी बेटे के हाथों की कठपुतली बन नहीं जीएंगी. पिछली बार बेटे के घरगृहस्थी के कामों में उन की कमर जवाब दे गई थी. 10 दिन लग गए थे कमरदर्द ठीक होने में. अब उतना काम नहीं होता उन से.

अगली किट्टी रेखा के घर थी. न्यू ईयर के सैलिब्रेशन की बात छिड़ी, तो अंजलि ने कहा, ‘‘कुछ प्रोग्राम रखने का मन तो है पर घर तो वैसे ही दोनों बच्चों के सामान से भरा है मेरा. घर में तो पार्टी की जगह है नहीं. क्या करें, कुछ तो होना चाहिए न.’’

रेखा ने पूछा, ‘‘आंटी, आप का क्या प्रोग्राम है? पवन के साथ रहेंगी उस दिन?’’

‘‘अभी सोचा नहीं,’’ कह मालिनी सोच में डूब गईं.

उन्हें सोच में डूबा देख रेखा ने पूछा, ‘‘आंटी, आप क्या सोचने लगीं?’’

‘‘यही कि तुम सब अगर चाहो तो न्यू ईयर की पार्टी मेरे घर रख सकती हो. पूरा घर खाली ही तो रहता है… इसी बहाने मेरे घर भी रौनक हो जाएगी.’’

‘‘क्या?’’ सब चौंकी, ‘‘आप के घर?’’

‘‘हां, इस में हैरानी की क्या बात है?’’ मालिनी इस बार दिल खोल कर हंसीं.

रिया ने कहा, ‘‘वाह आंटी, क्या आइडिया दिया है पर आप तो पवन के घर…’’

मालिनी ने बीच में ही कहा, ‘‘इस बार कुछ अलग सोच रही हूं. इस बार नए साल की नई शुरुआत अपने घर से करूंगी और वह भी अच्छे सैलिब्रेशन के साथ. डिनर बाहर से और्डर कर मंगा लेंगे, तुम लोगों में से जो बाहर न जा रहा हो वह सपरिवार मेरे घर आ जाए… कुछ गेम्स खेलेंगे, डिनर करेंगे… बहुत मजा आएगा. और वैसे भी हमारा यह ग्रुप जहां भी बैठता है, मजा आ ही जाता है.’’

यह सुन कर रिया ने तो मालिनी के गले में बांहें ही डाल दीं, ‘‘वाह आंटी, क्या प्रोग्राम बनाया है. जगह की तो प्रौब्लम ही सौल्व हो गई.’’ सारिका ने कहा, ‘‘आंटी, आप किसी काम का प्रैशर मत लेना. हम सब मिल कर संभाल लेंगे और खर्चा सब शेयर करेंगे.’’

मालिनी ने कहा, ‘‘न्यू ईयर ही क्यों, तुम लोग जब कोई पार्टी रखना चाहो, मेरे घर ही रख लिया करो, तुम लोगों के साथ मुझे भी तो अच्छा लगता है.’’

‘‘मगर आंटी, पवन लेने आ गया तो?’’

‘‘नहीं, इस बार मैं यहीं रहूंगी.’’

फिर तो सब जोश में आ गईं और फिर पूरे उत्साह के साथ प्लान बनने लगा. कुछ दिनों बाद फिर सब मालिनी के घर इकट्ठा हुईं. सुमन, अनीता, मंजू और नेहा तो उस दिन बाहर जा रही थीं. नीता, सारिका, रिया, रेखा और अंजलि सपरिवार इस पार्टी में आने वाली थीं. सब के पति भी आपस में अच्छे दोस्त थे. मालिनी का सब से परिचय तो था ही… जोरशोर से प्रोग्राम बन रहा था. 30 दिसंबर को सुबह पवन का फोन आया, ‘‘मां, आज आप को लेने आऊंगा, तैयार रहना.’’

‘‘नहीं बेटा, इस बार नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कुछ प्रोग्राम है मेरा.’’

पवन झुंझलाया, ‘‘आप का क्या प्रोग्राम हो सकता है? अकेली तो हो?’’

‘‘नहीं, अकेली कहां हूं. कई लोगों के साथ न्यू ईयर पार्टी रखी है घर पर.’’

‘‘मां आप का दिमाग तो ठीक है? इस उम्र में पार्टी रख रही हैं? यहां कौन करेगा सब?’’

‘‘उम्र के बारे में तो मैं ने सोचा नहीं. हां, इस बार आ नहीं पाऊंगी.’’

पवन ने इस बार दूसरे सुर में बात की, ‘‘मां, आप इस मौके पर क्यों अकेली रहें? अपने बेटे के घर ज्यादा अच्छा लगेगा न?’’

‘‘अकेली तो मैं सालों से रह रही हूं बेटा, उस की तो मुझे आदत है.’’

पवन चिढ़ कर बोला, ‘‘जैसी आप की मरजी,’’ और गुस्से से फोन पटक दिया. पवन का तमतमाया चेहरा देख कर नीतू ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मां नहीं आएंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उन्होंने अपने घर पार्टी रखी है.’’

‘‘क्या? क्यों? अब क्या होगा, मैं तो इतने लोगों का खाना नहीं बना पाऊंगी?’’

‘‘अब तो तुम्हें ही बनाना है.’’

‘‘नहीं पवन, बिलकुल नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘मैं सब को इन्वाइट कर चुका हूं.’’

‘‘तो बाहर से मंगवा लेना.’’

‘‘नहीं, बहुत महंगा पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, मुझ से तो नहीं होगा.’’

दोनों लड़ पड़े. जम कर बहस हुई. अंत में पवन ने सब से मां की बीमारी का बहाना कर पार्टी कैंसिल कर दी. दोनों बुरी तरह चिढ़े हुए थे. पवन ने कहा, ‘‘अगर तुम मां के साथ अच्छा संबंध रखतीं तो मुझे आज सब से झूठ न बोलना पड़ता. अगर मां को यहां अच्छा लगता तो वे आज अलग वहां अकेली क्यों खुश रहतीं?’’ नीतू ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘मुझे क्या समझा रहे हो… तुम्हारी मां हैं, बिना मतलब के जब तुम ही उन्हें फोन नहीं करते तो मैं तो बहू हूं.’’

दोनों एकदूसरे को तानेउलाहने देते रहे. दूसरे दिन भी दोनों एकदूसरे से मुंह फुलाए रहे.

हाऊजी, गेम्स, म्यूजिक और बढि़या डिनर के साथ न्यू ईयर का जश्न तो मना, पर कहीं और.

चित्र अधूरा है: क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

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न्याय-सदानंद और शुभलक्ष्मी कन्याकुमारी में क्या देखकर डर गए?

‍पिछले वर्ष अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी के कहने पर वे दोनों दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे. जब चेन्नई पहुंचे तो कन्याकुमारी जाने का भी मन बन गया. विवेकानंद स्मारक तक कई पर्यटक जाते थे और अब तो यह एक तरह का तीर्थस्थान हो गया था. घंटों तक ऊंची चट्टान पर बैठे लहरों का आनंद लेते रहे ेऔर आंतरिक शांति की प्रेरणा पाते रहे. इस तीर्थस्थल पर जब तक बैठे रहो एक सुखद आनंद का अनुभव होता है जो कई महीने तक साथ रहता है.

आने वाले तूफान से अनभिज्ञ दोनों पत्थर की एक शिला पर एकदूसरे से सट कर बैठे थे. ऊंची उठती लहरों से आई ठंडी हवा जब उन्हें स्पर्श करती थी तो वे सिहर कर और पास हो जाते थे. एक ऐसा वातावरण और इतना अलौकिक कि किसी भी भाषा में वर्णन करना असंभव है.

तभी उन्हें लगा कि एक डौलफिन मछली हवा में लगभग 20 मीटर ऊपर उछली और उन्हें अपने आगोश में समा कर वापस समुद्र में चली गई.

यह डौलफिन नहीं सुनामी था. एक प्राणलेवा कहर. इस मुसीबत में उन्हें कोई होश नहीं रहा. कब कहां बह गए, पता नहीं. जो हाथ इतनी देर से एकदूसरे को पकड़े थे अब सहारा खो बैठे थे. न चीख सके न चिल्ला पाए. जब होश ही नहीं तो मदद किस से मांगते?

जब उन्हें होश आया तो किनारे से दूर अपने को धरती पर पड़े पाया.

‘शुभलक्ष्मी,’ सदानंद के मुंह से कांपते स्वर में निकला, ‘यह क्या हो रहा है?’

एक अर्द्धनग्न युवक पास खड़ा था. कुछ दूर पर कुछ शरीर बिखरे पड़े थे. युवक ने उधर इशारा किया और लड़खड़ाते सदानंद को सहारा दिया. उन लोगों में सदानंद ने अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी को पहचान लिया. मौत इतनी भयानक होगी, इस का उसे कोई अनुमान नहीं था. डरतेडरते पत्नी के पास गया. एक आशा की किरण जागी. सांस चल रही थी. उस युवक व अन्य स्वयंसेवकों की सहायता से वह उसे अपने होटल के कमरे में ले गए जो सौभाग्य से सुरक्षित था.

डाक्टरी सुविधा भी मिली और कुछ ही घंटों की चिंता के बाद शुभलक्ष्मी को होश आ गया. आंखें खुलने पर इतने सारे अजनबियों को देख कर शुभलक्ष्मी घबरा गई, परंतु फिर सदानंद को सामने खड़ा पा कर आश्वस्त हुई.

‘यह सब क्या हो गया?’ पत्नी के स्वर में कंपन था.

धीरेधीरे सदानंद ने शुभलक्ष्मी को सुनामी के तांडवनृत्य के बारे में बताया.

‘कितना सौभाग्य है हमारा, जो हम बच गए,’ सदानंद ने कहा.

‘हजारोंलाखों लोगों का जीवन एकदम तहसनहस हो गया है.’

‘न मैं ने कहा होता, न हम यहां आते,’ शुभलक्ष्मी के स्वर में अपराधबोध की भावना थी.

‘नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना गलत है. हादसा तो कहीं भी किसी तरह का हो सकता है,’ सदानंद ने पत्नी का हाथ अपने हाथों में ले कर समझाया, ‘घर बैठे भूकंप आ जाता, जमीन खिसक जाती, सड़क पर दुर्घटना हो जाती.’

‘बसबस, मुझे डर लग रहा है,’ शुभलक्ष्मी ने पूछा, ‘बच्चों को बताया?’

‘सब को बता दिया और कह दिया कि हम सकुशल व आनंदपूर्वक हैं,’ सदानंद ने मीठे व्यंग्य से कहा.

‘सब अब निश्ंिचत हैं. यातायात ठीक होने पर आ भी सकते हैं. वैसे मैं ने मना कर दिया है.’

‘ठीक किया,’ शुभलक्ष्मी ने उदास हो कर कहा.

‘जानती हो, लक्ष्मी, जब मुझे होश आया तो मैं ने सब से पहले क्या पूछा?’ सदानंद ने माहौल हलका करने के लिए कहा.

‘मेरे बारे में पूछा होगा और क्या?’ शुभलक्ष्मी मुसकराई.

‘नहीं,’ सदानंद ने हंस कर कहा, ‘मैं ने पूछा मेरा चश्मा कहां गया?’

‘छि: तुम और तुम्हारा चश्मा.’ शुभलक्ष्मी हंस पड़ी. अचानक याद आया, ‘पर हम बचे कैसे?’

‘वसीम ने बचाया,’ सदानंद ने कहा.

‘वसीम? यह कौन है?’ शुभलक्ष्मी ने आश्चर्य से पूछा.

‘वैसे तो कोई नहीं, लेकिन हमारे लिए तो मसीहा है,’ सदानंद ने बाहर खड़े वसीम को अंदर बुलाया और कहा, ‘यह वसीम है.’

जबसुनामी ने उन्हें समुद्र में खींच लिया था तब अनेक लोग फंसे हुए थे. लहरें कभी नीचे ले जाती थीं

तो कभी ऊपर उछाल देती थीं. वसीम अच्छा तैराक भी था

जो इस हादसे

के समय कहीं आसपास घूम रहा था. अपनी जान की परवा न कर उस ने कई लोगों को खींच कर तट पर पहुंचाया था. कोई बचा, तो कोई नहीं. बचने वालों में सदानंद और उस की पत्नी भी थे.

‘थैंक यू.’ शुभलक्ष्मी ने कहा.

वसीम की मुसकान में एक अनोखापन था.

‘हिंदी कम जानता है,’ सदानंद ने कहा.

कृतज्ञता दिखाते हुए शुभलक्ष्मी

ने पूछा, ‘बेचारे को कोई इनाम दिया?’

‘लेता ही नहीं,’ सदानंद ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘मैं ने तो सारा पर्स इसे दे दिया था लेकिन इस ने सिर हिला दिया. मेरी जिंदगी में तो ऐसा इनसान पहली बार आया है.’

‘सब तुम्हारी तरह के थोड़े होते हैं,’ शुभलक्ष्मी ने कटाक्ष किया, ‘सिर्फ सजा देना जानते हो.’

आज वही वसीम सदानंद के सामने खड़ा था. सिर झुकाए एक अपराधी के कठघरे में.

चेन्नई से मुंबई काम की खोज में आया था. 2 महीने हो चुके थे लेकिन ऐसे ही छुटपुट काम के अलावा कुछ नहीं. एक झोंपड़ी में एक आदमी ने एक कोना सोने भर को दे दिया था. पड़ोस में एक दूसरा आदमी रहता था जो काम तो करता नहीं था, बस अपनी पत्नी से काम करवाता था और उस की कमाई शराब में उड़ा देता था. ऐसी बातें आम होती हैं और कोई भी अधिक ध्यान नहीं देता.

देर रात झगड़ा और चीखनेचिल्लाने की आवाजें सुन कर वसीम बाहर आ गया. सारे पड़ोसी तो जानते थे इसलिए कोई बाहर नहीं आया. वह आदमी अपनी पत्नी व 6-7 साल के बच्चे को बुरी तरह पीट रहा था. दोनों के ही खून निकल रहा था. औरत चीख रही थी और बच्चा रो रहा था.

क्रोध में आ कर उस आदमी ने पास पड़ा एक पत्थर उठा लिया.

बच्चे के सिर पर पटकने ही वाला था कि वसीम का सब्र टूट गया. उस ने पत्थर छीन लिया. दोनों में हाथापाई

होने लगी. अपने बचाव के लिए वसीम ने उसे धक्का दिया तो वह पीछे गिर पड़ा. एक नुकीला पत्थर उस आदमी

के सिर में घुस गया और खून बहने लगा. वसीम की समझ में कुछ न आया कि वह क्या करे?

तब तक कुछ तमाशबीन इकट्ठे हो गए थे. औरत छाती पीटपीट कर रो रही थी. डाक्टरी सहायता के अभाव में जब तक उसे अस्पताल पहुंचाया गया, उस की मौत हो गई थी.

पुलिस वसीम को पकड़ कर ले गई. अदालत में पड़ोसियों ने ही नहीं बल्कि मृत आदमी की पत्नी ने भी वसीम के विरुद्ध गवाही दी. इस तरह निचली अदालत ने उसे कातिल करार दिया. आज सदानंद की अदालत में उस की अपील की सुनवाई थी.

सदानंद सोच रहे थे कि जो आदमी अपनी जान की परवा न कर के दूसरों की जान बचा सकता है, क्या वह किसी का कत्ल भी कर सकता था? पड़ोसियों की और मृतक की पत्नी की गवाही पर सारा मामला टिका था. वसीम की बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा था कि वह तो केवल बच्चे की जान बचा रहा था. हाथापाई में वह आदमी मर गया. न तो उसे मारने की कोई इच्छा थी और न ही कारण.

अब सदानंद क्या करें?

पड़ोसियों से पूछा कि क्या वे चश्मदीद गवाह थे? सब लोग तो बाद में रोनापीटना सुन कर बाहर आए थे. इसलिए उन की गवाही अविश्वसनीय थी.

मृतक की पत्नी से पूछा, ‘‘क्या मुलजिम की तुम्हारे पति से कोई दुश्मनी थी?’’

‘‘नहीं,’’ पत्नी का उत्तर था.

‘‘मुलजिम ने तुम्हारे पति को क्या मारा?’’ सदानंद ने पूछा.

पत्नी चुप रही. कोई उत्तर नहीं दिया.

‘‘तुम्हारा पति क्या शराब के नशे में बच्चे को मारने जा रहा था?’’ सदानंद ने पूछा.

पत्नी फिर भी चुप रही. दूसरी बार पूछने पर उस ने अनिच्छा से स्वीकार किया.

‘‘मुलजिम ने तुम्हारे बच्चे को बचाने के लिए हाथापाई की, यह सच है?’’ सदानंद ने पूछा.

2-3 बार पूछने पर पत्नी ने स्वीकार किया.

सदानंद ने अधिक प्रश्न नहीं किए. उन की दृष्टि में मामला स्पष्ट था. यह एक ऐसी दुर्घटना थी जिस के लिए वसीम जिम्मेदार नहीं था. पूरी तरह निर्दोष बता कर उसे बाइज्जत रिहा कर दिया गया.

घर पर जब शुभलक्ष्मी को यह बताया तो उसे बहुत अच्छा लगा.

‘‘बेचारा, उस का पता मालूम है?’’ शुभलक्ष्मी ने कहा, ‘‘उसे कोई काम दिला सकते हो?’’

‘‘कोशिश करूंगा,’’ सदानंद ने कहा.

‘‘उसे बुलाने के लिए एक आदमी को भेजा है.’’

चांद के पार : जया के जीवन में अकेलापन ही क्योंं बना रहा

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ढाई आखर प्रेम का: भाग 3- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

मांजी सोच रही थीं कि डाक्टर सच ही कह रहे हैं. अनुज्ञा, जिसे पुत्र न दे पाने के लिए वे सदा कोसती रहीं आज उसी ने बेटा बन कर उन की सेवा की तथा जिस रामू को सदा हिकारत की नजर से देखती रहीं, उसी के खून से उन की जान बच पाई.

दूसरे दिन वे अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं.

रामू अपने नियत समय पर काम करने आया, उसे देख कर पलंग पर लेटी

मांजी ने कहा, ‘आ बेटा, इधर आ, मेरे पास आ.’

‘नहीं मांजी, कहां आप कहां हम, अपने पास बुला कर हमें और शर्मिंदा न कीजिए. वह तो मेमसाहब अकेली परेशान हो रही थीं, इसलिए हमें आप को छूना पड़ा वरना…’ कह कर वह चला गया.

आशा के विपरीत मां का रामू के प्रति सद्व्यवहार देख कर सभी हतप्रभ रह गए किंतु रामू की प्रतिक्रिया सुन कर मेरे मन में मंथन चलने लगा, सदियों से चले आ रहे इस भेदभाव को मिटाने में अभी बहुत वक्त लगेगा. जब तक अशिक्षा रहेगी तब तक जातिपांति की इस खाई को पाट पाना मुश्किल ही नहीं असंभव सा है.

रामू जैसे लोग सदा हीनभावना से ग्रस्त रहेंगे तथा जब तक हीनभावना रहेगी उन का उत्थान नहीं हो पाएगा. उन की इस हीनता को आरक्षण द्वारा नहीं बल्कि शिक्षा द्वारा ही समाज में जागृति पैदा कर दूर किया जा सकता है.

आश्चर्य तो इस बात का है कि आरक्षण के बल पर इन का उत्थान चाहने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि आरक्षण के द्वारा इन दबेकुचले लोगों का नहीं बल्कि इन के उन भाइयों का ही फायदा हो रहा है जो पहले से ही इस का लाभ प्राप्त कर अच्छी स्थिति में आ गए हैं. इन में से कुछ लोगों को तो यह भी नहीं पता होगा कि सरकार के द्वारा इन के लिए क्याक्या सुविधाएं दी जा रही हैं.

दूसरे दिन से मांजी के व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आ गया था. कमली उन के कमरे में सफाई के लिए गई तो उस से उन्होंने कहा, ‘कमली, मेरे लिए एक गिलास पानी ले आ.’

कमली को अपनी ओर आश्चर्य से देखते देख बोलीं, ‘अरे, ऐसे क्या देख रही है, मैं ने कहा, एक गिलास पानी ले आ.’

‘अभी लाई, मांजी.’

‘तेरी बेटी काजल क्या कर रही है,’ पानी पी कर गिलास पकड़ाते हुए पूछा.

‘क्या करेगी मांजी. पढ़ना चाहती है पर हम गरीबों के पास पैसा कहां? लड़के को तो उस के बापू ने स्कूल में डाल दिया पर इस को स्कूल में डालने के लिए कहा, तो कहता है, लड़की है इस पर पैसा खर्च करने से क्या फायदा.’

‘लड़की है तो क्या हुआ, अगर यह पढ़ना चाहेगी तो इस की पढ़ाई का खर्चा मैं दूंगी.’

‘सच, मांजी?’

‘हां कमली, एक लड़की का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है क्योंकि वह अपने बच्चे की पहली शिक्षक होती है, अगर वह पढ़ीलिखी होगी तभी वह अपने बच्चे को उचित संस्कार दे पाएगी.’

हम सभी मांजी में आते परिवर्तन को देख कर अतिप्रसन्न थे. उन की टोकाटाकी कम होने से शीतल और शैलजा भी काफी प्रसन्न थीं. स्कूल से आने के बाद वे अपना काफी समय दादी के साथ बिताने लगी थीं. यहां तक कि एक दिन उन्होंने अनुज्ञा से भी कहा, ‘अनुज्ञा, अगर तू कोई काम करना चाहती है तो कर ले, घर मैं देख लूंगी, कमली तो है ही.’

‘ठीक है मांजी, प्रयत्न करती हूं.’

रामू से भी अब वे सहजता से बातें करने लगी थीं. एक दिन रामू खुशीखुशी घर आया, बोला, ‘मेमसाहब, आज मैं काम नहीं करूंगा. बहू को अस्पताल ले जाना है. वह पेट से है. दर्द उठ रहे हैं.’

शाम को उस ने पुत्र होने की सूचना दी तो मांजी ने उस के हाथ में 100 रुपए का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘जा, महल्ले में मिठाई बंटवा देना.’

उस के जाने के पश्चात अनुज्ञा को 500 रुपए देते हुए सासूमां ने कहा,

‘बहू, इन रुपयों से बच्चे के लिए कपड़े ले आना.’

एक दिन उन्होंने अमित से कहा, ‘बेटा, रामू के लिए तो मैं कुछ कर नहीं पाई पर सोचती हूं, उस के पोते के लिए ही कुछ करूं.’

‘आप क्या करना चाहती हैं?’

‘मैं चाहती हूं कि इस की पढ़ाई का खर्चा भी मैं उठाऊं. इस का दाखिला भी किसी ऐसेवैसे स्कूल में नहीं बल्कि अच्छे स्कूल में हो तथा तुम स्वयं समयसमय पर ध्यान दो.’

‘ठीक है मां, जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा. पर…’

‘पर क्या, बेटा, तू सोच रहा होगा कि मेरे अंदर इतना परिवर्तन कैसे आया. बेटा, मानव मन जितना चंचल है उतना ही परिवर्तनशील. उस दिन की घटना के बाद से मेरे मन में हर दिन उथलपुथल होने लगी है. जितना सोचती हूं उतने ही मुझे अपने कर्म धिक्कारते प्रतीत होते हैं. जिस बहू को सदा नकारती रही, उस ने मेरी बेटी की तरह सेवा की. रामू, जिसे सदा तिरस्कृत करती रही, उस ने मेरी जान बचाने के लिए अपना खून तक दिया और जिन नातिनों को लड़की होने के कारण कभी प्यार के लायक नहीं समझा, उन्होंने मेरा प्यार पाने के लिए क्याकुछ नहीं किया पर अपनी मानसिकता के कारण उन के निस्वार्थ प्यार को नकारती रही. मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं, बेटा.

‘तुम ने ठीक कहा था बेटा, सभी इंसान एक जैसे ही होते हैं. हम स्वयं ही अपनी सोच के अनुसार उन्हें अच्छा या बुरा, उच्च या नीच मान बैठते हैं. मेरे मन में आजकल कबीरदासजी की वाणी रहरह कर गूंजने लगी है : पोथी पढ़पढ़ जग मुआ, भया न पंडित कोय. ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय,’ वास्तव में जीव मात्र से प्रेम करना तथा अपने सांसारिक कर्तव्यों को निभाना ही इंसानियत है.

‘जब से मुझे सहज मानव धर्म समझ आया तब से मैं ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं स्वयं में बदलाव लाने का प्रयत्न करूंगी. व्यर्थ के रीतिरिवाज या ढकोसलों को, जिन की वजह से दूसरों को दुख पहुंचता है, अपने मन से निकालने का प्रयत्न करूंगी. मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं. काजल की पढ़ाई का खर्चा देने की बात तो तुम से पूछे बिना ही मैं ने कर दी. एक नेक काम और. अगर तुम ठीक समझो तो, क्योंकि मेरे बाद तुम्हें ही मेरी यह जिम्मेदारी पूरी करनी होगी.’

‘मां, प्लीज, ऐसा मत कहिए. हमें आप के साथ और आशीर्वाद की सदा आवश्यकता रहेगी पर इतना अवश्य विश्वास दिलाते हैं कि जैसा आप चाहेंगी वैसा ही होगा,’ अमित ने कहा था.

चाय के उबलते पानी की आवाज ने अनुज्ञा के विचारों के भंवर में विघ्न डाल कर उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया. विचारों को झटक कर शीघ्रता से नाश्ता निकाला, चाय बना कर कप में डाली तथा कमरे की ओर चल दी.

मांजी को चंदू को अपने हाथों से मिठाई खिलाते देख कर वह सोच रही थी, रिश्ते खून के नहीं, दिल के भी होते हैं. अगर ऐसा न होता तो इतने वर्षों बाद हम सब एकदूसरे से जुड़े नहीं होते. कासिमपुर में तो हम सिर्फ 5 वर्ष ही रहे. पहले पत्रों के जरिए तथा बाद में मोबाइल के जरिए आपस में जुड़े रहे. पिछले महीने ही काजल का विवाह हुआ. हम सभी गए थे. हमें देख कर कमली की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. काजल और उस का पति विक्रम एक ही स्कूल में अध्यापक हैं.

रामू तो नहीं रहा पर चंदू के जरिए उस परिवार से भी हम सब जुड़े रहे. पिछले वर्ष जब शीतल का विवाह हुआ तो कमली और काजल के साथ चंदू के मातापिता ने विवाह की तैयारियों में काफी मदद की थी. शीतल जहां सौफ्टवेयर इंजीनियर है वहीं शैलजा मैडिकल के अंतिम वर्ष में. आज मांजी दोनों की प्रशंसा करते हुए अघाती नहीं हैं. दोनों ही उन को बेहद प्रिय हैं.

मांजी ने जो निश्चय किया उसे क्रियान्वित भी किया. लोग कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ इंसान अडि़यल या जिद्दी होता जाता है पर मांजी ने यह सिद्ध कर दिया अगर इंसान चाहे तो हर उम्र में स्वयं को बदल सकता है पर इस के लिए उसे अपने झूठे अहंकार को त्याग कर प्यार के मीठे बोलों को अपनाना पड़ेगा.

चांद के पार – भाग 1 : जया के जीवन में अकेलापन ही क्योंं बना रहा

काले सघन बरसते बादलों के बीच मचलती हुई दामिनी के साथ शिव ने जया की कलाई को क्या थामा कि बेटेबहू के साथ अमेरिका में रह रही जया के भीतर मानो सालों सूखे पर सावन की बूंदें बरस उठीं. शिव के अपनेपन से उस की आंखें ऐसे छलकीं कि कठिनाइयों व दुखों से भरे उस के पहले के सारे बरस बह गए.

जया को सियाटल आए 2 हफ्ते हो गए थे. जब तक जेटलैग था, दिनभर सोती रहती थी. जब तक वह सो कर उठती, बहू, बेटा, पोतापोती सभी आ तो जाते पर रात के 8 बजते ही वे अपने कमरों में चले जाते. वे भी क्या करें, औफिस और स्कूल जाने के लिए उन्हें सुबह उठना भी तो पड़ता था.

जब से जेटलैग जाता रहा, उन सबों के जाते ही उतने बड़े घर में वह अकेली रह जाती. अकेलेपन से ही तो उबरने के लिए 26 घंटे की लंबी यात्रा कर वह अपने देश से इतनी दूर आई थी. अकेलापन तो बना ही रहा. बस, उस में सन्नाटा आ कर जुड़ गया जिसे उन का एकाकी मन  झेल नहीं पा रहा था. सूई भी गिरे तो उस की आवाज की अनुगूंज उतने वृहत घर में फैल जाती थी.

कितना यांत्रिक जीवन है यहां के लोगों का कि आसपास में ही संवादहीनता बिखरी रहती है. नापतोल कर सभी बोलते हैं. उस के शैया त्यागने के पहले ही बिना किसी शोर के चारों जन अपनेअपने गंतव्य की ओर निकल जाते हैं. जाने के पहले बहू अणिमा उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर जाती थी. अपनी दिनचर्या के बाद पूरे घर में घूम कर सामान को वह इधरउधर ठीक करती. फिर घर के सदस्यों की असुविधा का खयाल कर यथावत रख देती. हफ्तेभर की बारिश के बाद बादलों से आंखमिचौली करता हुआ उसे आज सूरज बहुत ही प्यारा लग रहा था.

अपने देश की चहलपहल को याद कर उस का मन आज कुछ ज्यादा ही उदास था. इसलिए अणिमा के मना करने के बावजूद वह लेक समामिस की ओर निकल गई. ऊंचीनीची पहाड़ी से थक कर कभी वह किसी चट्टान पर बैठ कर अपनी चढ़तीउतरती सांसों पर काबू पाती तो कभी आतीजाती गाडि़यों को निहारते हुए आगे बढ़ जाती. कहीं गर्व से सिर उठाए ऊंचेऊंचे पेड़ों की असीम सुंदरता उसे मुग्ध कर देती. सड़क के इस पार से उस पार छलांग लगाते हिरणों का  झुंड देख कर डर जाती.

झुरमुटों से निकल कर फुदकते हुए खरगोश को देख कर वह किसी बच्ची की तरह खुश हो रही थी.  झील के किनारे कतारों में बने घरों की सुंदरता को अपलक निहारते हुए वह अपनी धुन में आगे बढ़ती जा रही थी. उसे इस का आभास तक नहीं हुआ कि कब आसमान में बादल छा गए और तेज हवाओं के साथ बारिश होने लगी थी. अचानक इस आई मुसीबत से निबटने के लिए वह एक पेड़ के नीचे खड़ी हो गई.

अपना देश रहता तो भाग कर किसी घर के अहाते में खड़ी हो जाती. पर इस देश में यह बहुत बड़ा जुर्म है. आएदिन लालपीलीनीली बत्तियों वाली कौप की गाडि़यां शोर मचाती गुजरती थीं. पर आज इस मुसीबत की घड़ी में उन का भी कोई पता नहीं है.‘‘अरे आप तो पूरी तरह से भीग गई हैं,’’ अचानक उस के ऊपर छतरी तानते हुए किसी ने कहा तो जया चौंक कर मुड़ गई. सामने 60-65 वर्ष के व्यक्ति को देख कर वह संकुचित हो उठी.

‘‘मैं, शिव, पटना, बिहार से हूं. शायद आप भी भारत से ही हैं. आइए न, सामने ही मेरी बेटी का घर है. बारिश रुकने तक वहीं रुकिए.’’मंत्रमुग्ध सी हुई जया शिव के साथ चल पड़ी. पलभर को उसे ऐसा लगा कि इस व्यक्ति से उस की पहचान बहुत पुरानी हो. बड़े सम्मान व दुलार के साथ शिव ने उसे बैठाया. जया को टौवेल थमाते हुए वे तेजी से अंदर गए और

2 कप कौफी बना कर ले आए.‘‘अभी घर में बेटी नहीं है, वरना उस से पकौड़े तलवा कर आप को खिलाता. पकौड़े तो मैं भी बहुत करारे बना सकता हूं. साथ छोड़ने से पहले मेरी पत्नी पद्मा ने मु झे बहुत काबिल कुक बना दिया था,’’ कहते हुए शिव की पलकों पर स्मृतियों के बादल तैर गए.

शिव अपने बारे में कहते गए और मौन बैठी जया आभासी आकर्षण में बंधी उन के दुखसुख को आत्मसात करती रही. अचानक शिव का धाराप्रवाह वार्त्तालाप पर विराम लग गया. हंसते हुए वे बोले, ‘‘आप को तो कुछ बताने का अवसर ही नहीं दिया मैं ने, अपने ही विगत को उतारता रहा. क्या करूं, बेटी की जिद से आ गया. आराम तो यहां बहुत है पर किस से बात करूं.

यहां तो किसी को फुरसत ही नहीं है जो पलभर के लिए भी पास बैठ जाए. पटना में बातचीत करने के लिए जब कोई नहीं मिलता है तो नौकर के परिवार से ही इस क्षुधा को शांत कर लेता हूं. जातेजाते पद्मा ने उन सबों को कह दिया था कि बाबूजी को भले ही नमकरोटी दे देना खाने के लिए, लेकिन बातचीत हमेशा करते रहना. बालकनी में उन का किचन बनवा कर फ्लैट का एक रूम रामू को दे दिया था जिस में वह अपनी पत्नी और

2 बच्चों के साथ रहता है.’’शिव कुछ आगे कहते कि जया ने रोक लगाते हुए कहा, ‘‘मेरी सम झ से बारिश रुक गई है और मु झे चलना चाहिए.’’‘‘क्यों नहीं, चलिए मैं आप को छोड़ आता हूं. इसी बहाने आप का घर भी देख लूंगा. जब भी अकेलापन महसूस करूंगा, आप को परेशान करने चला आऊंगा,’’ कहते हुए शिव साथ हो लिए तो जया उन्हें मना न कर सकी. रास्तेभर शिव अपनी रामकहानी कहते रहे और जया मूक श्रोता बनी सुनती रही.

शिव पटना के बिजली विभाग के रिटायर्ड चीफ इंजीनियर हैं. पिछले साल ही कैंसर से इन की पत्नी की मृत्यु हुई है. बातोंबातों में ही जया कब अपने घर पहुंच गई, उसे पता ही न लगा. यह बात और थी कि ऊंचेनीचे कटाव पर जब भी वह लड़खड़ाती, शिव उस की बांहों को थाम लेते. एक दशक बाद किसी पुरुष और स्पर्श उस के तनमन को भले ही कंपित कर के रख देता रहा पर अपनेपन के खूबसूरत सुखद एहसास को उन में भरता भी रहा.

औपचारिकता निभाते हुए जया ने शिव को अंदर आ कर एक कप चाय पी कर जाने को कहा तो प्रत्युत्तर में उन्होंने अपनी बच्चों सी मुसकान से उसे मोहते हुए कहा, ‘‘नहीं जयाजी. अब आप को और बोर नहीं करूंगा. किसी और दिन आ कर चाय के साथ पकौड़े भी खाऊंगा.’’ यह कहते हुए शिव जाने के लिए मुड़ गए. जब तक वे दिखते रहे, सम्मोहित हुई जया उसी दिशा में ताकती रही.

 

चौथापन: मुन्ना के साथ क्या हुआ

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 जब मैं छोटा था: क्या कहना चाहता था केशव

केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

रानी ने मुसकरा कर केशव को हलकी झिड़की दी, ‘‘अब घूरना बंद करो और मुंह से कुछ बोलो.’’

केशव ने रानी को मुंह सिकोड़ कर देखा और फिर सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्या समय आ गया है.’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा?’’ रानी ने हंस कर कहा, ‘‘बेकार में समय को दोष क्यों देते हो?’’

‘‘मांगा?’’ केशव ने तैश खा कर कहा, ‘‘मांगना तो दूर हमारा तो उन के सामने मुंह भी नहीं खुलता था. इतनी इज्जत करते थे उन की.’’

‘‘इज्जत करते थे या डरते थे?’’ रानी ने व्यंग्य से कहा.

केशव ने लापरवाही का नाटक किया, ‘‘एक ही बात है. अब हमारी औलाद हम से डरती कहां है?’’

अवसर का लाभ उठाते हुए अंगद ने शरारत से पूछा, ‘‘पिताजी, क्या आप के समय में आजकल की तरह जन्मदिन मनाया जाता था?’’

केशव ने व्यंग्य से हंस कर कहा, ‘‘जनाब, ऐसी फुजूलखर्ची के बारे में सोचना ही गुनाह था. ये तो आजकल के चोंचले हैं.’’

‘‘फिर भी पिताजी,’’ अंगद ने कहा, ‘‘कभी न कभी तो आप को जन्मदिन पर कुछ तो विशेष मिला होगा.’’

रानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मिला था, एक पाजामा. क्यों, ठीक है न?’’

केशव भी हंसा, ‘‘ठीक है, तुम्हें तो मेरा राज मालूम है.’’

‘‘पाजामा?’’ अंगद ने चकित हो कर पूछा, ‘‘क्या यह भी कोई उपहार है?’’

‘‘बहुत बड़ा उपहार था, बेटे,’’ केशव ने यादों में खोते हुए कहा, ‘‘पिताजी से तो बात करने का सवाल ही नहीं था. जब मैं ने मां से हठ की तो उन्होंने अपने हाथों से नया पाजामा सिल कर दिया था. मैं बहुत खुश था. रानी, तुम भी अंगद को एक पाजामा सिल

कर दो, पर…पर तुम्हें तो सिलना आता ही नहीं.’’

‘‘सारे दरजी मर गए क्या?’’ रानी ने चिढ़ कर कहा.

‘‘पाजामावाजामा नहीं,’’ अंगद ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर कुछ देना है तो मोपेड दीजिए. मेरे सारे दोस्तों के पास है. सब मोपेड पर ही स्कूल आते हैं. बस, एक मैं ही हूं, खटारा साइकिल वाला.’’

के शव ने तनिक नाराजगी से कहा, ‘‘साइकिल की इज्जत करना सीखो. उस ने 20 साल मेरी सेवा की है.’’

‘‘दहेज में जो मिली थी,’’ रानी ने टांग खींची.

‘‘क्या करता,’’ केशव चिढ़ कर बोला, ‘‘अगर स्कूटर मांगता तो तुम्हारे पिताजी को घर बेचना पड़ जाता.’’

‘‘अरे, जाओ भी,’’ रानी ने चोट खाए स्वर में कहा, ‘‘लेने वाले की हैसियत भी देखी जाती है.’’

अंगद ने महसूस किया कि बातों का रुख बदल रहा है इसीलिए बीच में पड़ कर बोला, ‘‘आप लोग तो

फिर लड़ने लगे. मेरे लिए मोपेड लेंगे या नहीं?’’

‘‘बरखुरदार,’’ केशव ने फिर से घूरते हुए कहा, ‘‘जब हम तुम्हारे बराबर थे तो पैदल स्कूल जाते थे. स्कूल भी कोई पास नहीं था. पूरे 3 मील दूर था. उन दिनों घर में बिजली भी नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढ़ते थे. जेबखर्च के पैसे भी नहीं मिलते थे. दिन भर कुछ नहीं खाते थे. घर आ कर 5 बजे तक रात का खाना निबट जाता था. समझे जनाब? आप मोपेड की बात करते हैं.’’

रानी इस भाषण को कई बार सुनसुन कर उकता चुकी थी इसलिए ताना मार कर बोली, ‘‘तो यह है आप की सफलता का रहस्य. देखो बेटे, ऐसा करोगे तो पिताजी की तरह एक दिन किसी कारखाने के महाप्रबंधक बन जाओगे.’’

अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी.

नाश्ता समाप्त होने पर केशव कार्यालय जाने की तैयारी में लग गया और नौकरानी के आ जाने से रानी घर की सफाई कराने में व्यस्त हो गई. अंगद कब स्कूल चला गया किसी को पता ही नहीं चला.

कार निकालते समय केशव ने रोज के मुकाबले कुछ फर्क महसूस किया, पर समझ नहीं पाया. बहुत दूर निकल जाने पर उसे ध्यान आया कि आज अंगद की साइकिल अपनी जगह पर ही खड़ी थी. वैसे अकसर साइकिल खराब होने पर अंगद साइकिल घर छोड़ कर बस से चला जाता था.

घर का काम निबट जाने के बाद रानी ने देखा कि अंगद का लंच बाक्स मेज पर ही पड़ा था. वैसे आमतौर पर वह लंच बाक्स ले जाना भूलता नहीं है क्योंकि रानी हमेशा बेटे का मनपसंद खाना ही रखती थी. खैर, कोई बात नहीं, अंगद की जेब में इतने रुपए तो होते ही हैं कि वह कुछ ले कर खा ले.

शाम को रानी को च्ंिता हुई क्योंकि अंगद हमेशा 3 बजे तक घर आ जाता था, पर आज 5 बज रहे थे. केशव के फोन से वह जान चुकी थी कि आज अंगद साइकिल भी नहीं ले गया था, पर बस से भी इतनी देर नहीं लगती. उस वक्त 6 बज रहे थे जब अंगद ने घर में प्रवेश किया. उस का चेहरा लाल हो रहा था और जूते धूलधूसरित हो गए थे. थकान के लक्षण भी स्पष्ट थे.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’ रानी ने बस्ता संभालते हुए पूछा.

‘‘बस, हो गई देर, मां,’’ अंगद ने टालते हुए कहा, ‘‘जल्दी से खाना दो. बहुत भूख लगी है.’’

‘‘खाना क्यों नहीं ले गया?’’ रानी ने शिकायत की.

‘‘भूल गया था,’’ अंगद का झूठ पता चल रहा था.

‘‘भूल गया या ले नहीं गया?’’ रानी ने तनिक क्रोध से पूछा.

‘‘कहा न, भूल गया,’’ अंगद चिढ़ कर बोला.

रानी ने अधिक जोर नहीं दिया. बोली, ‘‘जा, जल्दी से कपड़े बदल और हाथमुंह धो कर आ. आलू के परांठे और गाजर का हलवा बना है.’’

अंगद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता से रानी को संतोष हुआ. उसे लगा कि वह वाकई बहुत भूखा है. अंगद के आने से पहले ही उस ने खाना मेज पर लगा दिया था.

अंगद ने भरपेट खाया. कुछ देर तक टीवी देखा और फिर पढ़ाई करने अपने कमरे में चला गया.

8 बजे केशव कार्यालय से आया.

आराम से बैठने के बाद केशव ने रानी से पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं? बहुत शांति है घर में.’’

‘‘मन्नू तो शालू के यहां गई है,’’ रानी ने सामने बैठते हुए कहा, ‘‘कोई पार्टी है. देर से आएगी.’’

‘‘अकेली आएगी क्या?’’ केशव ने च्ंिता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ रानी ने उत्तर दिया, ‘‘शालू का भाई छोड़ने आएगा.’’

‘‘उफ, ये बच्चे,’’ केशव ने अप्रसन्नता से कहा, ‘‘इतनी आजादी भी ठीक नहीं. जब मैं छोटा था तो बहन को तो छोड़ो, मुझे भी देर से आने नहीं दिया जाता था. आगे से ध्यान रखना. वैसे मन्नू कब तक आएगी?’’

‘‘अब क्यों च्ंिता करते हो,’’ रानी ने कहा, पर केशव की मुद्रा देख कर बोली, ‘‘ठीक है, फोन कर के पूछ लूंगी.’’

‘‘और साहबजादे कहां हैं?’’ केशव ने पूछा.

‘‘पढ़ रहा है,’’ रानी ने उत्तर दिया.

‘‘पर मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही,’’ केशव ने पुकारा, ‘‘अंगद…अंगद?’’

‘‘ओ हो, पढ़ने दो न,’’ रानी ने झिड़का, ‘‘कल परीक्षा है उस की.’’

‘‘तो जवाब नहीं देगा क्या?’’ केशव ने क्रोध से पुकारा, ‘‘अंगद?’’

अंगद का उत्तर नहीं आया. केशव अब अधिक सब्र नहीं कर सका. उठ कर अंगद के कमरे की ओर गया और झटके से अंदर घुसा.

‘‘यहां तो है नहीं,’’ केशव ने क्रोध से कहा.

‘‘नहीं है,’’ रानी को विश्वास नहीं हुआ, ‘‘थोड़ी देर पहले ही तो मैं उस के मांगने पर चाय देने गई थी.’’

केशव ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हां, चाय का प्याला तो है, पर जनाब नहीं हैं. गया कहां?’’

‘‘मुझ से तो कुछ कह कर नहीं गया,’’ रानी ने च्ंिता से कहा, ‘‘मन्नू के कमरे में देखो.’’

‘‘मन्नू के कमरे में भी होता तो जवाब देता न,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘बहरा तो नहीं है.’’

रानी ने तसल्ली के लिए मन्नू के कमरे में  देखा और बोली, ‘‘पता नहीं कहां गया. शायद अखिल के यहां चला गया होगा. उस के साथ ही पढ़ता है न.’’

‘‘कह कर तो जाना था,’’ केशव भी अब च्ंितित था, ‘‘अखिल का घर कहां है?’’

‘‘वह राममनोहरजी का लड़का है,’’ रानी ने कहा, ‘‘309 नंबर में रहता है.’’

‘‘ओह,’’ केशव ने कहा, ‘‘उन के यहां तो फोन भी नहीं है.’’

‘‘थोड़ी देर देख लो,’’ रानी ने अपनी च्ंिता छिपाते हुए कहा, ‘‘आ जाएगा.’’

‘‘और मन्नू…’’

केशव का वाक्य समाप्त होेने से पहले ही रानी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मन्नू के पीछे पड़ गए. कभी तो चैन से बैठा करो.’’

झिड़की खा कर केशव कुरसी पर बैठ कर पत्रिका पढ़ने का नाटक करने लगा.

‘‘खाना लगाऊं क्या?’’ रानी ने कुछ देर बाद पूछा.

‘‘नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘बच्चों को आने दो.’’

‘‘मन्नू तो खा कर आएगी,’’ रानी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अंगद बाद में खा लेगा. स्कूल से आ कर कुछ ज्यादा ही खा लिया था.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘2 की जगह पूरे 4 परांठे खा लिए,’’ रानी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘उसे आलू के परांठे अच्छे लगते हैं न.’’

कुछ और समय बीतने पर केशव उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं राममनोहरजी के घर हो कर आता हूं.’’

उसी समय घंटी बजी और मानिनी ने प्रवेश किया. वह बहुत प्रसन्न थी.

‘‘शालू की पार्टी में बहुत मजा आया,’’ मानिनी ने हंसते हुए पूछा, ‘‘यह अंगद सड़क के किनारे क्यों बैठा है? क्या आप ने सजा दी है?’’

‘‘सड़क के किनारे?’’ केशव और रानी ने एकसाथ पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘साधना स्टोर के सामने,’’ मानिनी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या मैं उसे बुला कर ले आऊं?’’

इस से पहले कि रानी कुछ कहती केशव ने गंभीरता से कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. शायद पढ़ रहा होगा.’’

‘‘क्या घर में बिजली नहीं है?’’ मानिनी ने पूछा, पर फिर ध्यान आया कि बिजली तो है.

रानी ने खाना लगा दिया. केशव हाथ धो कर बैठने ही वाला था कि अंगद ने आहिस्ताआहिस्ता घर में प्रवेश किया.

केशव ने घूरते हुए पूछा, ‘‘इतनी दूर पढ़ने क्यों गए थे?’’

‘‘क्योंकि पास में कोई लैंपपोस्ट नहीं था,’’ अंगद ने मासूमियत से कहा.

केशव को हंसी भी आई और क्रोध भी. रानी भी हंस कर रह गई.

‘‘चलो, खाने के लिए बैठो,’’ रानी ने कहा.

‘‘स्कूल से आते ही खा तो लिया था,’’ अंगद ने कहा और अपने कमरे में चला गया.

केशव और रानी को अंगद का व्यवहार अब समझ में आ रहा था. लगता था कि नाटक की शुरुआत है.

मानिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने पूछा, ‘‘बात क्या है? आज अंगद के तेवर क्यों बिगड़े हुए हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ रानी हंसी, ‘‘शीत- युद्ध है.’’

‘‘क्यों?’’ मानिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मोपेड चाहिए जनाब को,’’ केशव ने कहा, ‘‘हमारे जमाने में…’’

‘‘ओ हो, पिताजी,’’ मानिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मैं समझ गई. न आप कभी बदलेंगे, न आप का जमाना. ठीक है, मैं चंदा इकट्ठा करती हूं.’’

एक मानिनी ही थी जो केशव से बेझिझक हो कर बात कर सकती थी.

केशव ने उसे घूर कर देखा और फिर उठ कर चला गया.

सुबह की चाय हो चुकी थी. जब नाश्ता लगा तो अंगद जा चुका था.

उस की साइकिल पर धूल जम गई थी और हवा भी निकल गई थी.

शाम को थकामांदा अंगद 6 बजे आया.

‘‘क्यों, बस नहीं मिली क्या?’’ रानी ने क्रोध से पूछा.

‘‘बसें तो आतीजाती रहती हैं.’’

‘‘तो फिर?’’ रानी ने पूछा.

‘‘तो फिर क्या? मुझे भूख लगी है. खाना तो मिलेगा न?’’

रानी को अब क्रोध नहीं आया. जानती थी कि वह भूखा होगा. उस के लिए खीर, पूडि़यां और गोभी की

सब्जी बनाई थी. अंगद ने प्रसन्न हो

कर भरपेट खाया और कमरे में चला गया.

केशव जब आया तब अंगद घर में नहीं था. आते वक्त केशव ने लैंपपोस्ट के नीचे निगाह डाली थी. अंगद धुंधली रोशनी में आंखें गड़ाए पढ़ रहा था.

3 दिन तक यह नाटक चलता रहा.

आज अंगद का जन्मदिन था. हर साल इस दिन रौनक छा जाती थी. पार्टी में आने वाले मित्रों की सूची बनती थी. लजीज व्यंजन बनाए जाते थे. मानिनी कुछ दिन पहले ही से उसे छेड़ने लगती थी और इस छेड़छाड़ में लड़ाई भी

हो जाती थी. वैसे अंगद को इस

बात का बहुत मलाल रहता था कि मानिनी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है.

नींद खुलते ही अंगद की नजर पास पड़े लिफाफे पर पड़ी. लिफाफे को उठाते ही उस में से एक चाबी गिरी. चाबी से लटका एक छोटा सा कार्ड था. उस पर लिखा था, ‘जन्मदिन पर छोटा सा उपहार.’

अंगद की आंखों में चमक आ गई. यह तो मोपेड की चाबी थी. आधी रात को वह एक चिट्ठी खाने की मेज पर छोड़ कर आया जिस में लिखा था :

पूज्य पिताजी और मां,

क्या आप मुझे क्षमा करेंगे? मोपेड के लिए हठ करना मेरी भूल थी. मुझे सिवा आप के आशीर्वाद और प्यार के कुछ नहीं चाहिए.

आप का पुत्र

अंगद.

जब अंगद नीचे पहुंचा तो पत्र मां के हाथ में था और वह पढ़ कर सुना रही थीं. केशव और मानिनी हंस रहे थे.

‘‘पिताजी, आप ने भी जल्दी कर दी. बेकार में मोपेड की चपत पड़ी,’’ मानिनी हंस कर कह रही थी.

अंगद सिर झुकाए शर्मिंदा सा खड़ा था.

‘‘तो आप को मोपेड नहीं चाहिए,’’ केशव ने नकली गंभीरता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ अंगद ने दृढ़ता से उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशव ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्योंकि,’’ अंगद ने गंभीरता से शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब मुझे स्कूटर चाहिए.’’

‘‘क्या?’’ केशव ने मारने के अंदाज में हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

मानिनी ने बीच में आते हुए कहा, ‘‘पिताजी, छोडि़ए भी. हमारा अंगद अब छोटा नहीं है.’’

‘‘पर जब मैं छोटा था…’’

होहल्ले में केशव अपना वाक्य पूरा न कर सका.

सिद्धार्थ की वापसी: सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थें

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गहराइयां : विवान को शैली की कौनसी बात चुभ गई? -भाग 1

विवान की बांहों से छूट कर शैली अभी किचन में घुसी ही थी कि हमेशा की तरह फिर से आ कर विवान ने उसे पीछे से पकड़ गालों को चूम लिया. शैली ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, तो विवान ने उसे और जोर से बांहों में भर लिया. शैली चिढ़ कर बोली, ‘‘छोड़ो न विवान, वैसे भी आज उठने में काफी देर हो गई है. क्या आज औफिस नहीं जाना है?’’

‘‘जाना तो है… रहने दो मैं दोपहर में आ जाऊंगा खाना खाने और इसी बहाने…’’ बात अधूरी छोड़ विवान ने एक और किस शैली के गाल पर जड़ दिया.

किसी तरह अपने को छुड़ाते हुए शैली यह कह कर सब्जी काटने लगी कि कोई जरूरत नहीं है घर आने की… मैं अभी नाश्ता और खाना बना देती हूं.

‘‘तो फिर लाओ मैं सब्जी काट देता हूं, तब तक तुम चाय बनाओ,’’ कह कर विवान ने उस के हाथ से चाकू ले लिया. विवान शैली को दुनिया की हर खुशी देना चाहता था पर वह थी कि बातबात पर उसे झिड़कती रहती थी. हर बात में उस की बुराई निकालना जैसे उस की आदत सी बन गई थी. सोचती कि सब के पतियों जैसा उस का पति क्यों नहीं है? क्यों हमेशा रोमांटिक बना फिरता है. अरे, जिंदगी क्या सिर्फ प्यार से चलती है? और भी तो कई जिम्मेदारियां होती हैं घरगृहस्थी की, पर सावन के अंधे को यह कौन समझाए?

गुस्से से हांफती और जबान से जहर उगलती शैली ने विवान के हाथ से चाकू छीन लिया और फिर सारा गुस्सा सब्जी पर उतारने लगी. उस का मन तो किया कि सब्जी उठा कर कूड़े के डब्बे में फेंक दे और कहे कि कोई जरूरत नहीं है बारबार घर आ कर उसे परेशान करने की. उस का तो मन करता कि कैसे जल्दी विवान औफिस जाए और उस की जान छूटे.

विवान को औफिस भेजने के बाद घर के बाकी काम निबटा कर अभी शैली बैठी ही थी कि फोन बज उठा. विवान का फोन था और यह सिलसिला भी सालों से चल रहा था. मतलब औफिस पहुंचते ही सब से पहले वह शैली को फोन लगा कर जब तक उस से बातें न कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता था. इस बात पर भी शैली को काफी चिढ़ होती थी. कभीकभी तो मन करता कि फोन को बंद कर के रख दे, पर यह सोच कर वह ऐसा नहीं करती कि पिछली बार की तरह फिर वह भागतादौड़ता घर पहुंच जाएगा और फिर वेवजह उस का महल्ले में तमाशा बन जाएगा.

एक बार ऐसा ही हुआ था. किसी कारणवश गलती से शैली का फोन बंद हो गया था और उसे इस बात का पता नहीं चला. लेकिन विवान के कई बार फोन लगाने पर भी जब उस का फोन बंद ही आता रहा तो उसे लगा कि शैली को कुछ हो गया है. दौड़ताहांफता वह घर पहुंच गया और जोरजोर से दरवाजा पीटने लगा. आवाज सुन कर आसपड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए और क्या हो गया… क्या हो गया… कहने लगे.

बाहर लोगों का शोर सुन जब शैली की आंख खुली और उस ने दरवाजा खोला तो विवान उसे पकड़ कर कहने लगा, ‘‘शैली तुम ठीक तो हो… वो तुम्हारा फोन नहीं लग रहा था इसलिए मैं घबरा गया,’’ कह कर वह सब के सामने ही शैली को चूमने लगा.

देखा तो सच में फोन बंद था. उस वक्त शैली शर्मिंदा हो गई कि उस के कारण… परफिर यह सोच कर मन ही मन फूली नहीं समा रही थी कि उस का पति उसे कितना प्यार करता है…

मगर अब विवान का उसे हर पल निहारते रहना, जब मन आए उसे अपनी गोद में उठा कर चूमने लगना, उस की हर छोटी से छोटी चीज का खयाल रखना, कभी अपने से दूर न होने देना, अब उसे गले का फंदा सा लगने लगा था. प्यार वह भी करती थी पर एक हद में. उस का सोचना था कि पतिपत्नी हैं तो क्या हुआ… आखिर उन्हें भी तो अपने जीवन में थोड़ी स्पेस चाहिए, जो उसे मिल नहीं रही थी. मगर उस की सोच से अनजान विवान बस हर पल उस के ही खयालों में खोया रहता था.

शैली की दोनों भाभियां उस का मजाक उड़ातीं कि उस का पति तो उस के बिना एक पल भी नहीं रह पाता. एक बच्चे की तरह उस के पीछेपीछे घूमता रहता है. उन की कही बातें शैली को अंदर तक भेद जातीं. उसे लगता उस की भाभियां उस पर तंज कस रही हैं. मगर उसे यह नहीं पता था कि वे उस से जलती हैं.

विवान को कोई लड़की पसंद न आने की वजह से उस के मातापिता काफी परेशान रहने लगे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर विवान को कैसी लड़की चाहिए?

आखिर एक रोज उसे अपनी पसंद की लड़की मिल ही गई. दरअसल, विवान अपने एक खास दोस्त की शादी में गया था. वहीं उस ने शैली

को देखा तो देखता ही रह गया. उस की खूबसूरती पर वह ऐसे मर मिटा जैसे चांद को देख कर चकोर. कब आंखों के रास्ते शैली उस के मन में समा गई उसे पता ही नहीं चला. उस से अपनी शादी के बारे में सोच कर ही उस का मन मयूर नाच उठा.

जब उस के मातापिता को यह बात मालूम पड़ी तो उन्होंने जरा भी देर न कर अपने बेटे की शादी शैली के साथ तय कर दी. एकदूसरे की बांहों में शादी का 1 साल कैसे पंख लगा कर उड़ गया उन्हें पता ही नहीं चला.

लोग कहते हैं कि जैसेजैसे शादी पुरानी होती जाती है, पतिपत्नी के प्यार में भी गिरावट आने लगती है. मतलब पहले जैसा प्यार नहीं रह जाता. मगर विवान और शैली की शादी जैसेजैसे पुरानी होती जा रही थी उन का प्यार और भी गहराता जा रहा था. मगर पहले जिस विवान का प्यार शैली को हरी दूब का कोमल स्पर्श सा प्रतीत होता था अब वही प्यार उसे कांटों की चुभन सी लगने लगा था. विवान का दीवानापन अब उसे पागलपन सा लगने लगा था. उसे लगता या तो कुछकुछ दिनों के अंतराल पर विवान औफिस के काम से कहीं बाहर चला जाया करे या फिर उसे अकेले मायके जाने दिया करे ताकि वह खुल कर अपने मनमुताबिक जी सके.

आखिर कुछ दिनों के लिए उसे विवान से अलग रहने का मौका मिल ही गया. ऐसे जाना कोई जरूरी नहीं था, पर वह जाएगी ही, ऐसा उस ने अपने मन में तय कर लिया.

‘‘शादी में? पर जानू,’’ विवान अपनी पत्नी को प्यार से कभीकभी जानू भी बुलाता था, ‘‘वो तो तुम्हारे दूर के रिश्तेदार हैं न और फिर तुम ने ही तो कहा था कि तुम्हारा जाना कोई जरूरी नहीं है?’’

हांहां कहा था मैं ने, पर है तो वह मेरी बहन ही न… सोचो तो जरा कि अगर मैं नहीं जाऊंगी तो चाचाजी को कितना बुरा लगेगा, क्योंकि कितनी बार फोन कर के वे मुझे आने के लिए बोल चुके हैं… प्लीज विवान, जाने दो

न. वैसे भी यह मेरे परिवार की अंतिम शादी है और फिर मैं वादा करती हूं कि शादी खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

अब शैली कुछ बोले और उस का विवान उसे मना कर दे, यह हो ही नहीं सकता था.

अत: बोला, ‘‘ठीक है तो फिर मैं कल ही छुट्टी की अर्जी…’’

शैली अचकचा कर बोली, ‘‘अर्जी… पर क्यों? मेरा मतलब है तुम्हें वैसे भी छुट्टी की समस्या है और कहा न मैं ने मैं जल्दी आ जाऊंगी.’’

न चाहते हुए भी विवान ने शैली को जाने की अनुमति दे तो दी, पर सोचने लगा अब उस के इतने दिन शैली के बिना कैसे बीतेंगे?

जाते वक्त बाय कहते हुए शैली ने ऐसा दुखी सा मुंह बनाया जैसे उसे भी विवान से अलग होने का दुख हो रहा है पर जैसे ही ट्रेन सरकी वह खुशी से झूम उठी.

शैली के अकेले मायके पहुंचने पर नातेरिश्तेदार सब ने पूछा कि विवान क्यों नहीं आया? तो वह कहने लगी कि विवान को छुट्टी नहीं मिल पाई, इसलिए उसे अकेले ही आना पड़ा.

वैसे शैली की भाभियां सब समझ रही थीं. चुटकी लेते हुए कहने लगीं, ‘‘ऐसे कैसे दामादजी ने आप को अकेले छोड़ दिया ननद रानी, क्योंकि वे तो आप के बिना…’’ बात अधूरी छोड़ कर दोनों ठहाका लगा कर हंस पड़ीं.

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