Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 2

एक मकान मालिक अपने 2 बैडरूम के फ्लैट को दिखाते हुए कुछ इस अंदाज में कमैंट्री दे रहा था जैसे कि कोई टूरिस्ट गाइड किसी टूरिस्ट को दिल्ली का लालकिला दिखा रहा हो. वापस लौटते समय उस कमैंट्री की नकल उतारतेउतारते अलाना और एंड्रिया के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ गए थे. एक घर का किराया एजेंट ने सिर्फ 5 हजार रुपए बताया था, मगर जब वे मकान देखने पहुंचे तो मकान मालिक एकाएक 8 हजार रुपए महीने की मांग करने लगा. ‘मगर हमारे कुछ लोकल फ्रैंड्स तो केवल 5 हजार रुपए में ही ऐसा घर ले कर इस इलाके में रह रहे हैं,’ यीरंग ने डील करने की कोशिश करते हुए कहा.

‘जरूर रह रहे होंगे. लोकल्स तो लोकल्स होते हैं, विश्वास के लायक होते हैं. तुम्हारे जैसे चिंकी लोगों को घर में रखने का मतलब है ऐक्सट्रा रिस्क लेना. अभी कल के ही अखबार में खबर पढ़ी थी हम ने. तुम्हारी तरफ की एक औरत ड्रग का धंधा करती हुई पकड़ी गई. ऊपर से पड़ोसियों को तुम्हारे गंदे खाने की दुर्गंध के साथ भी निभाना पड़ेगा. देख लो अगर 8 हजार रुपए किराया मंजूर है तो अभी एडवांस निकालो, वरना अपना रास्ता नापो. खालीपीली मेरा वक्त बरबाद तो करो मत,’ मकान मालिक अपनी मोटी तोंद पर हाथ फिराता, एक जोर की डकार मारता हुआ बोला. यह सीधासीधा नस्लवाद था. लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था. इस मकान की लोकेशन भी सुविधाजनक थी, इसलिए सौदा मंजूर कर लिया गया. दिल्ली में नईनई आई एंड्रिया की अपनी अलग परेशानियां थीं. क्लास में सभी उसे पार्टीगर्ल और पियक्कड़ समझते थे और मना करने पर भी बारबार नाइटक्लब में पार्टी के लिए चलने को कहते. मिजोरम की खूबसूरत फिजाओं को छोड़ कर दिल्ली के प्रदूषित, गरम मौसम में उस का मन वैसे ही उचाट रहता था, ऊपर से ऐसी बातें मानसिक तनाव को और भी ईंधन दे रही थीं.

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उस का दिल करता कि वह रोज आराम से बैठ कर वौयलिन बजाए मगर मेनलैंड का भयंकर कंपीटिशन उसे किताबों में सिर खपाने को मजबूर करता. मिजोरम की नैसर्गिक सुंदर वादियों में बिताए, नदियों की कलकल से संगीतमय, दिन अब दूर की याद बन कर रह गए थे. जरूरतें उसे प्रकृति की गोद के सुरम्य, कोमल एहसास से निकल कर महानगर की कठोरता से जूझने को मजबूर कर रही थीं. ‘क्यों आते हम यहां दिल्ली में, अगर सरकार ने वक्त रहते हमारे इलाके में भी शिक्षा के विकास पर ध्यान दिया होता. क्या जरूरत थी हमें. और आए भी हैं तो क्या हुआ, अपने देश में ही तो हैं. फिर सब को हम से इतना परहेज क्यों है? क्यों सब के सब यहां हमारे एल्कोहलिक और लूज कैरक्टर होने का पूर्वाग्रह पाल कर बैठे हैं?’ एंड्रिया अकसर अलाना से शिकायत करती.

‘एंड्रिया माई स्वीट, यह सिर्फ तुम्हारे साथ ही नहीं हो रहा बल्कि हमजैसे हरेक के साथ यही होता है. हर जगह पक्षपात है. ऐसा लगता है कि हमारे अस्तित्व की किसी के लिए कोई अहमियत ही नहीं है. फिर वह चाहे सरकार हो या मीडिया या मुख्य भूभाग के वासी, सभी खुलेआम नकारते हैं हमारे भारतीय होने को. न्यूजचैनल वाले मुख्यभूभाग के छोटे से छोटे, पिछड़े हुए गांव में पहुंच जाते हैं खबरों के लिए मगर नौर्थईस्ट इंडिया के प्रदेशों में जाने से उन्हें भी बड़ा परहेज है,’ अलाना ने कहा. ‘हम अंगरेजी अच्छे स्तर की बोलते हैं, अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, म्यूजिक में रुचि रखते हैं और रिलैक्स्ड जिंदगी जीना चाहते हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि हमारे चरित्र कमजोर हैं. बस, हम आधुनिकता की सीढि़यों पर मेनलैंड के लोगों से एक मंजिल ज्यादा चढ़ चुके हैं, इसलिए हमारी सोच भी प्रगतिशील है, पिछड़ी हुई नहीं. हम हिंदुस्तानियों को चाहिए कि जब पश्चिम से सूरज उगे तो हम उसे हिंदुस्तानी आसमां का सूरज मान कर प्रणाम करें. इस बात की कोई अहमियत नहीं होनी चाहिए कि हम वह सूरज दिल्ली में देख रहे हैं या मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा में,’ एंड्रिया ने अपना मत व्यक्त किया.

‘ठीक कहती हो एंड्रिया, तुम. पर ये बातें औरों की भी समझ में आएं तब न. एक बार तो हद ही हो गई थी. तुम्हारे दिल्ली आने से पहले की बात है. मैं और यीरंग चांदनी चौक घूमने गए थे. वहां कुछ मवालियों का ग्रुप यीरंग के हेयरस्टाइल का मजाक उड़ाने लगा. वे सब मोमो, मोमो कह कर चिल्लाने लगे. यीरंग ने उन से पूछा, ‘तुम मुझे मोमो क्यों बुला रहे हो, मैं भी तुम्हारे जैसा ही इंडियन हूं?’ तो उन में से एक ने उस के सिर में धौल जमा दी और दूसरा उस की गरदन पकड़ कर बोला, ‘साला, हमारी दिल्ली में आ कर हम से जवाबदारी करता है चाऊमीन कहीं का.’ इस के साथ ही भीड़ में से कुछ और लोगों ने आ कर यीरंग के चारों तरफ घेरा बना लिया और ‘चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू, चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू’ सुर में सुर मिला कर सब गाने लगे.’

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‘और इतना सब होने पर आप ने और जीजू ने कुछ भी विरोध नहीं किया, दीदी, मेरे खयाल से आप को पुलिस में रिपोर्ट लिखवानी चाहिए थी.’ ‘यह क्या कम है कि हमारी जान बच गई. मैं ने सुन रखा है कि पुलिस भी हमारे जैसों की नहीं सुनती और हमारे मामलों को दर्ज किए बिना रफादफा करने की कोशिश करती है. एंड्रिया माई स्वीट, हम तो ‘स्वदेश के परदेसी’ हैं. देश तो है अपना, पर हम हैं सब के लिए पराए. अपने ही देश में अपनी पहचान के मुहताज हैं हम.’

‘क्या करें अब आगे बढ़ना है तो हालात से तो जूझना ही पड़ेगा,’ कुछ रोंआसी सी एंड्रिया अपनी किताबें उठाती हुई कालेज जाने के लिए निकल गई. वह इस टौपिक में फंस कर और दिमाग खराब नहीं करना चाहती थी. अलाना अब तक अपनी डिगरी पूरी कर चुकी थी और किसी अच्छी नौकरी की तलाश करती हुई अपना घर संभाल रही थी.

उस शाम एंड्रिया समय पर घर वापस नहीं आई. पहले तो अलाना ने सोचा कि एंड्रिया अपने किसी मित्र के घर चली गई होगी पर जैसेजैसे रात गहरी होने लगी तो उस की चिंता, घबराहट से डर में बदलने लगी. एंड्रिया के सभी मित्रों को फोन किया जा चुका था. उन से पता चला कि वह आज कालेज आई ही नहीं थी. यह खबर और भी होश उड़ाने वाली थी. सारी रात अपार्टमैंट की खिड़की से बाहर झांकते हुए और यहांवहां फोन करने में बीत गई थी. लेकिन एंड्रिया का कहीं कुछ अतापता नहीं चला. हार कर यीरंग और अलाना ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने का फैसला किया.

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कीमत: सपना पूरा करने की सुधा को क्या कीमत चुकानी पड़ी

Serial Story: कीमत – भाग 1

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा ने बाराबंकी के एक सरकारी स्कूल से इंटर की परीक्षा पास कर ली थी. उसी दिन उस का रिजल्ट आया था. उस के 78% मार्क्स आए थे और वह अपनी क्लास में सब से ज्यादा नंबर पाने वाली लड़की थी. वैसे भी यूपी बोर्ड में इतने नंबर लाना अपनेआप में किसी सम्मान से कम नहीं था. उस के नंबर सुन कर महल्ले भर में उस की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे, लेकिन सुधा के मन में अपनी इस कामयाबी को ले कर जरा भी खुशी नहीं थी. होती भी कैसे, घर वालों ने रिजल्ट आने से पहले ही अपना फैसला उसे सुना दिया था कि उसे आगे की पढ़ाई बंद करनी होगी.

उस ने बाराबंकी के ब्लौक अस्पताल में पिता को मिले 2 कमरों के उस सरकारी मकान में पहली बार घर वालों के फैसले के खिलाफ बगावती तेवर अपनाए थे. उस ने कैसे अपने पिता और बड़े भैया से पहली बार ऊंचे स्वर में बात करते हुए कह दिया था कि वह अपनी आगे की पढ़ाई हर हाल में जारी रखेगी.

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सब उस के आगे पढ़ने के फैसले के खिलाफ थे. वे किसी तरह शायद उस की आगे प्राइवेट पढ़ाई करने के लिए राजी भी हो जाते, लेकिन उस ने दिल्ली जा कर पढ़ाई करने की बात कह कर घर में धमाका कर दिया. अकेली लड़की को दूसरे शहर भेजने की हिम्मत और उस के लिए पैसों का इंतजाम करने की हैसियत दोनों ही उन में नहीं थी. उस ने घर वालों से कह दिया कि उसे उन से किसी तरह के रुपयों की जरूरत नहीं, वह दिल्ली में अपना खर्च खुद निकाल लेगी.

उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी, जेएनयू, लेडी श्रीराम, करोड़ीमल और दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स के अलावा ज्यादा कालेजों के नाम भी पता नहीं थे, लेकिन खुद पर भरोसा था कि इन में से किसी न किसी में तो उस का ऐडमिशन हो ही जाएगा. 10 दिन तक घर वालों से चले झगड़े के बाद 11 जुलाई को वह घर से दिल्ली के लिए चली थी.

उसे याद है मां ने घर से जाते हुए उसे 1,200 रुपए हाथ में देते हुए कहा था कि उन के पास जो कुछ है वह यही है. वैशाली ऐक्सप्रैस की जनरल बोगी में उसे घुसने की भी जगह नहीं मिली तो हाथ में सूटकेस और कंधे पर एक बैग टांगे वह स्लीपर क्लास में जा घुसी.

सुधा का सफर शुरू हो चुका था, ट्रेन का यह सफर उसे बेहद सुखद लग रहा था. हालांकि मन में एक डर भी था कि अगर उस का ऐडमिशन कहीं नहीं हुआ तो वह किस मुंह से घर लौटेगी.

वैशाली ऐक्सप्रैस नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 9 पर खड़ी थी. लोगों को ट्रेन से उतरने की जल्दी थी, पर उसे कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन फिर भी दरवाजे के पास होने की वजह से वह जल्दी ट्रेन से उतर गई. प्लेटफार्म पर कुलियों और यात्रियों की भीड़ थोड़ी देर बाद छंट गई, लेकिन सुधा अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी. उस के हाथ में एक पता लिखा कागज का टुकड़ा था, जिस में बी-502, सैकंड फ्लोर, मुखर्जी नगर, नियर बत्रा सिनेमा, दिल्ली लिखा था.

यह पता था मनोज भैया का. मनोज भैया उसी के महल्ले में रहते थे और उस की सहेली मोहिनी के भैया थे. बचपन से उस के घर आतेजाते रहने की वजह से वह उन्हें मनोज भैया ही कहती थी. उस के पास मां के दिए 1,200 रुपए थे. 190 रुपए टिकट में खर्च हो गए. 5 रुपए की उस ने चाय पी ली थी यानी अब उस के पास सिर्फ 1,005 रुपए थे. उस ने स्टेशन से बाहर निकलने की सोची. किसी से पूछा कि मुखर्जी नगर कहां पड़ेगा तो उस ने कहा अजमेरी गेट साइड से बाहर निकल कर विश्वविद्यालय जाने वाली मैट्रो ले लेना. उसे पहली बार दिल्ली के बड़ा शहर होने का एहसास हुआ.

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उस के बाराबंकी में तो स्टेशन के अंदर और बाहर जाने का रास्ता एक ही तरफ है, लेकिन यहां तो 2 पूरे अलगअलग इलाके दिल्ली स्टेशन से जुड़े हुए हैं. सुधा ने किसी तरह अपनेआप को मैट्रो से जाने के लिए तैयार किया. सुबह के 8 बज चुके थे, उस ने मैट्रो में जाने के लिए टोकन ले लिया.

उस ने जल्दी ही समझ लिया कि उस मशीन को इस नीले टोकनसे छू भर देना है. गेट जैसे ही खुले भाग कर उस तरफ हो जाना है, नहीं तो मुश्किल हो सकती है. उस ने टोकन छुआया, मशीन का गेट खुलते ही वह इस पार से उस पार चली गई. अब उसे पता चला कि अंडरग्राउंड जाना है. नीचे से मैट्रो पकड़नी है, नीचे पहुंची तो वहां पहले से ही कई सौ लोग दोनों तरफ खड़े थे. बाराबंकी में तो ऐसे लाइन में लग कर कोई ट्रेन में नहीं चढ़ता, उसे यह तरीका अच्छा लगा. थोड़ी ही देर में मैट्रो आ गई और वह विश्वविद्यालय की तरफ चल पड़ी.

विश्वविद्यालय स्टेशन पर उतरने के बाद पहली बार उस का सामना ऐस्केलेटर से हुआ, लेकिन उस ने इस पर चढ़ने के बजाय सीढि़यों से ही चढ़ना उचित समझा. उस ने वहां से मुखर्जी नगर के लिए रिकशा ले लिया. 18 साल की सुधा अपने सपनों को सच करने दिल्ली पहुंच चुकी थी.

सुधा बी-502, सैकंड फ्लोर का पता पूछ रही थी, लेकिन 10 मिनट भटकने के बाद भी उसे घर नहीं मिला. तभी किसी ने उस पर तरस खा कर बता दिया कि गली के पीछे की तरफ बी ब्लौक है. सुधा वहां पहुंची तो थक कर चूर हो चुकी थी. सफर की थकान चेहरे पर हावी थी. रिकशे वाले को पैसे दे कर सुधा सूटकेस और बैग ले कर दरवाजे पर पहुंची. मेन गेट की घंटी बजाई, लेकिन अंदर से कोई निकला नहीं, सुधा थोड़ी देर खड़ी रही फिर अंदर चली गई.

बाहर से ही सीढि़यां थीं, सुधा ऊपर चढ़ गई. सैकंड फ्लोर पर 3 दरवाजे थे, उसे नहीं पता था कि मनोज भैया किस में रहते हैं. उस ने एक दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोई आवाज नहीं हुई. काफी देर बाद उस ने दूसरा दरवाजा खटखटाया, 3-4 मिनट बाद अंदर से कुछ आहट हुई, उसे कुछ उम्मीद बंधी. दरवाजा खुला. सामने मनोज भैया बनियान और बरमूडा पहने खड़े थे. उसे देख कर वे भी चौंक गए, ‘अरे सुधा’, मनोज भैया के मुंह से इतना ही निकला, फिर उन्हें लगा कि सुधा ने शायद उन्हें पहले कभी इस तरह नहीं देखा होगा इसलिए वे भी थोड़ा शरमा गए.

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Serial Story: कीमत – भाग 2

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा को अंदर आने के लिए कह कर वे अंदर चले गए. उन्होंने टीशर्ट पहन ली थी. सुधा से बाराबंकी का हालचाल पूछा और फिर उस के यहां आने का कारण भी. सुधा ने उन्हें बताया कि उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में ऐडमिशन लेना है.

मनोज भैया ने हौसला बढ़ाने के बजाय उसे बता दिया कि दिल्ली में ऐडमिशन आसान नहीं होगा. यहां मैरिटलिस्ट बहुत हाई जाती है. उसे इन नंबरों पर ऐडमिशन मिला भी तो किसी सांध्य कालेज में मिलेगा. सुधा इस के लिए भी तैयार थी. उस के सिर पर तो ऐडमिशन की धुन सवार थी. मनोज भैया ने उस से फ्रैश होने के लिए कहा और खुद चाय लेने चले गए. उस ने देखा कमरे में रसोई नहीं थी.

बाथरूम भी बाहर बालकनी में था, वह नहीं चाहती थी कि मनोज भैया के सामने उसे बाथरूम जाना पड़े. बाराबंकी वाली शर्म, संकोच का दामन उस से छूटा नहीं था. मनोज भैया के लौटने से पहले ही वह तैयार हो चुकी थी. मनोज भैया के साथ उस ने चाय पी और मुद्दे पर आ गई. वह ऐडमिशन की सारी प्रक्रिया के बारे में फौरन जानना चाहती थी. मनोज भैया ने उसे बताया कि एकएक कालेज का फार्म ही 1,000-1,200 रुपए का होता है.

सुधा समझ गई कि आगे का रास्ता अब बेहद मुश्किल है. इस के बाद उस ने मनोज भैया को अपनी असली स्थिति बताई. वे सुधा को कोई आश्वासन नहीं दे सके. हां, उन्होंने सुधा को फौरन जाने को भी नहीं कहा. मनोज भैया से इस बारे में वह कोई बात भी नहीं कर सकी, उस ने कुछ कहा नहीं और उन्होंने कुछ पूछा नहीं.

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मनोज भैया ने टिफिन वाले को फोन कर दिया. दोपहर में करीब साढ़े 12 बजे टिफिन वाला 2 टिफिन दे गया. उस ने किसी तरह अपना पूरा टिफिन खाली कर दिया. मनोज भैया पढ़ रहे थे. उन्होंने वही टिफिन 3 बजे खाया. सुधा ने सोचा कि जिस टिफिन का बेकार खाना वह ताजाताजा नहीं खा पाई उस टिफिन को मनोज भैया बिना कुछ कहे कैसे इतनी देर बाद खा रहे हैं.

सुधा शाम को उन के साथ नीचे गई. बत्रा सिनेमा के सामने कटिंग चाय पीने का ये उस का पहला अनुभव था. वहां पर मौजूद सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे अनुभवी लड़कों की नजर ने पहली बार में ही ताड़ लिया कि इलाके में कोई नई लड़की आई है, लेकिन मनोज भैया की मौजूदगी में वे दूर ही रहे.

सुधा ने भी देख लिया कि उस के गोरे रंग और तीखे नैननक्श पर लड़के लट्टू थे. उसे लगा जैसे इन लड़कों की नजरें उसे कह रही हों, ‘वेलकम टू दिल्ली.’ हालांकि उन की नजरें सुधा के चेहरे पर कम उस के उभारों पर अधिक केंद्रित थीं. सुधा को इन लड़कों के अंदाज से थोड़ी सिहरन होने लगी. उसे समझ में आ गया कि लड़कों का बस चले तो वे आंखों से देख कर ही उसे प्रैग्नैंट कर दें.

फिलहाल उस ने अपना ध्यान चाय पर ही टिका दिया. मनोज भैया ने ही चाय के पैसे दिए. उन्होंने सुधा से पूछा, ‘‘क्या तुम घर चली जाओगी, मुझे थोड़ा काम है. दोस्त के यहां से कुछ नोट्स लाने हैं.’’ सुधा ने कहा, ‘‘हां, चली जाऊंगी और वह बत्रा से 2 गली छोड़ कर उस मकान में पहुंच गई.’’

उस ने सोचा जब तक मनोज भैया नहीं हैं, तब तक कमरे की कुछ साफसफाई कर दे. कमरे में था ही क्या, एक फोल्डिंग चारपाई, एक पढ़ने की टेबल, एक कुरसी, एक अलमारी, किताबों की 2 छोटी रैक, एक सूटकेस, लेकिन फिर भी कमरे में एक अस्तव्यस्तता थी. सुधा ने सब से पहले पलंग पर पड़ी धूल झाड़ी और फिर चादर और गद्दे झाड़ने लगी.

गद्दा जैसे ही नीचे गिरा, गद्दे के नीचे से कुछ किताबें गिरीं. सुधा ने सोचा कि जब कमरे में 2-2 अलमारियां हैं तो गद्दे के नीचे किताबें क्यों रखी हैं.

सुधा ने उन किताबों को देखा. एक किताब पर लिखा था प्राइवेट लाइफ. सुधा ने अंदर पढ़ना शुरू किया. पहला पेज पढ़ते ही सुधा के बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई. उसे अपने शरीर में कसावट महसूस हुई. उसे किताब पढ़ने में मजा आने लगा. सुधा जल्दीजल्दी किताब पढ़ने लगी. सिर्फ 40 मिनट में उस ने 35 पन्नों की किताब पूरी पढ़ ली. उसे अपनी टांगों के बीच कुछ गरम सा महसूस हुआ. उस ने किताब खत्म कर तुरंत दूसरी किताब पढ़ने के लिए उठा ली. साफसफाई की बात तो वह भूल ही गई. ये घटिया किस्म की किताबें उसे बेहद मनोरंजक लग रही थीं. उस ने दूसरी किताब भी फौरन ही पढ़ ली.

इस के बाद उस ने दोनों किताबें ठीक वैसे ही रख दीं, जैसे पहले रखी हुई थीं. मानो उस ने ये किताबें देखी ही नहीं थीं, इस के बाद उस ने पूरे कमरे की सफाई की. उसे पढ़ाई की टेबल पर किताब में दबे 100-100 के 5 नोट मिले. वह जानती थी कि ये पैसे मनोज भैया के ही होंगे. उस ने किताबों से निकाल कर पैसे मेज पर सामने रख दिए.

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मनोज भैया के पास पैसों की कमी नहीं होगी. यह वह जानती थी. बाराबंकी में भैया के पापा का सब से बड़ा मैडिकल स्टोर था. रोजाना करीब 15-20 हजार रुपए से कम की कमाई नहीं थी. मनोज भैया थे भी इकलौते. शाम के 7 बज चुके थे. सुधा को भूख लग रही थी, लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं था. सुधा ने अपना सूटकेस खोला और अपने कपड़े ठीक करने लगी.

दरवाजे पर दस्तक हुई. सुधा ने दरवाजा खोला. सामने मनोज भैया थे. उन के हाथ में एक थैली थी. उन्होंने सुधा से कहा कि भूख लगी थी इसलिए मोमोज खाने के लिए ले आया. सुधा ने मोमोज नाम पहली बार सुना था. उस ने पूछा ये क्या होता है.

अजीब सा आकार था उन का, लेकिन मनोज भैया को खाता देख उस ने भी एक पीस उठा लिया, मिर्च की चटनी के साथ गरम मोमोज उसे पहली बार में अच्छा नहीं लगा, लेकिन भूख बहुत तेज लगी थी, इसलिए उस ने दूसरा पीस भी उठा लिया. तब तक मनोज भैया की नजर कमरे की सुधरी हुई हालत पर पड़ी तो वे थोड़े परेशान दिखे और बोले, ‘‘तुम ने कमरा साफ क्यों किया सुधा, मैं सुबह काम वाली को बोल देता.’’ ‘‘कोई बात नहीं भैया, मैं खाली ही तो बैठी थी,’’ सुधा बोली.

मनोज भैया ने उस के पास आ कर उसे थैंक्यू कहा. उन के हाथ उस के सिर से पीठ और फिर कमर तक फिसलते चले गए. इतने लंबे थैंक्यू की शायद सुधा को उम्मीद नहीं थी, लेकिन उसे इस का बुरा भी नहीं लगा. उस ने उठते हुए कहा, ‘‘मनोज भैया, आप किताब में 500 रुपए रख कर भूल गए थे. मैं ने रुपए मेज पर रखे हुए हैं.’’

मनोज ने रुपए उठा कर जेब में रख लिए. सुधा ने उस से पूछा कि क्या ऐडमिशन के लिए वे कुछ कर सकते हैं. मनोज भैया ने कहा, ‘‘सुधा, यहां बाराबंकी जैसे नहीं होता. यहां बहुत मुश्किल है ऐडमिशन होना. हां, तुम जब तक चाहो यहां रहो.’’

सुधा का चेहरा बुझ सा गया. उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. तभी मनोज भैया उस के पास आए और उस का चेहरा उठाया. आंसू पोंछते ही वह अचानक मनोज भैया के गले लग गई. वह सुधा के  इस अंदाज से थोड़ा संकोच में पड़ गए, लेकिन उन्होंने सुधा को हटाया नहीं.

आगे पढें- सुधा को अपनी पीठ पर मनोज भैया के…

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Serial Story: कीमत – भाग 3

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा को अपनी पीठ पर मनोज भैया के हाथ की कसावट महसूस होने लगी. मनोज के हाथ उस की पूरी पीठ पर रेंग रहे थे. उसे यह समझ में आ गया कि मनोज भैया का यह स्पर्श कुछ और ही खोज रहा है, लेकिन उसे यह स्पर्श अच्छा लग रहा था. धीरेधीरे मनोज भैया के हाथ उस की पीठ से उस के गालों पर आ गए. उन्होंने सुधा के आंसू पोंछे, सुधा ने कुछ नहीं कहा. मनोज भैया को डर था कि वह न जाने कैसे बरताव करेगी.

सुधा को जैसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. वह मनोज भैया के गले ही लगी हुई थी. करीब 5 मिनट तक दोनों गले लगे रहे. इस दौरान मनोज भैया ने उस की पीठ, सिर और गालों पर जम कर हाथ आजमाए. उन्होंने सुधा से पूछा कि उसे बुरा तो नहीं लगा. उस ने बिना कुछ बोले सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

मनोज भैया ने इस बार सुधा के गालों पर अपने होंठ रख दिए. सुधा उम्र के उस दौर से गुजर रही थी जहां विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण अपने चरम पर होता है.

सुधा मनोज दोनों भी शायद ऐसे ही आकर्षण के वशीभूत थे. कब सुधा अपना सबकुछ मनोज भैया को सौंप बैठी, उसे पता ही नहीं लगा. मनोज भैया काफी देर तक उस के जिस्म से खेलते रहे, उस के हर अंग पर अपना अधिकार जमाते रहे. सुधा को मनोज भैया का ये अंदाज भी अच्छा लग रहा था और अंदर ही अंदर इस बात का डर भी था कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर रही है.

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हालांकि सहीगलत की सोच पर शायद उस वक्त का उन्माद ज्यादा भारी था. न जाने कब मनोज भैया इन 10 मिनटों में मनोज भैया से मनोज बन गए, उसे पता ही नहीं चला. सुधा कब सुधा से सुधी बन गई इस की जानकारी भी उसे नहीं हुई.

10 मिनट बाद जब तपती धरती कुछ बूंदों से सिंचित हो गई तो दोनों को होश आया. सुधा को समझ में नहीं आया कि कहां जा कर गड़ जाए. मनोज अब क्षणिक आवेग से बाहर निकल चुका था, लेकिन पिछले 10 मिनट में ये कमरा बदल चुका था. रात हो रही थी. मनोज और सुधा ने एकदूसरे से कोई बात नहीं की, शायद आत्मग्लानि कम, संकोच ज्यादा था.

मनोज ने टिफिन वाले को फोन कर दिया था. काफी समय पहले ही टिफिन आ चुका था. दोनों को भूख लगी थी. मनोज ने ही सुधा से कहा, ‘‘सुधा, खाना खा लो,’’ सुधा ने उन का टिफिन भी पकड़ा दिया. दोनों ने खाना खाया, लेकिन कोई बात नहीं हुई. सुधा को अब इस बात की चिंता सताने लगी कि रात हो चुकी है, वे सोएंगे कहां? एक बार जो गलती हो चुकी है सुधा उसे दोहराना नहीं चाहती थी. मनोज सुधा के मन की बात समझ गया. उस ने सुधा से कहा, ‘‘तुम पलंग पर सो जाना, मैं नीचे सो जाऊंगा.’’

सुधा रातभर की थकी हुई थी. उस ने मनोज से कहा, ‘‘वह नीचे सो जाएगी,’’ लेकिन मनोज ने अपना बिस्तर नीचे बिछा लिया. बिस्तर क्या था, दरी और उस के ऊपर चादर. गद्दा उस ने पलंग पर सुधा के लिए छोड़ दिया. सुधा पलंग पर लेटते ही नींद के आगोश में चली गई, लेकिन मनोज की आंखों से नींद कोसों दूर थी. शाम को जो कुछ हुआ उसे बारबार वही याद आ रहा था.

सुधा के जिस्म की खुशबू अब भी मनोज के दिलोदिमाग पर छाई हुई थी. उस ने सुधा की तरफ एक नजर देखा. सुधा गहरी नींद में सो रही थी. उस का कोरा सौंदर्य जैसे निमंत्रण दे रहा हो. मनोज काफी देर तक सुधा को देखता ही रहा, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कि सुधा के पास जाए. हालांकि शाम को सुधा ने जब कुछ नहीं कहा तो मनोज को जरूर हौसला मिला था.

मनोज से रहा नहीं गया. वह ऊपर जा कर उसी फोल्डिंग पर लेट गया, जिस पर सुधा सो रही थी. सुधा बेफिक्र नींद सो रही थी. मनोज की नजरें सुधा के जिस्म पर फिसलती जा रही थीं. मनोज ने धीरे से सुधा के ऊपर अपना हाथ रखा. मनोज का हाथ कब सुधा के शरीर के अंगों की पैमाइश करने लगा पता ही नहीं चला.

अचानक सुधा को दम घुटता सा महसूस हुआ. वह हड़बड़ा कर जागी तो देखा मनोज उस पर झुका हुआ था और उस की सांसों की गरमाहट सुधा की सांसों में मिल रही थी. सुधा ने उसे हटाने की कोशिश की, लेकिन मनोज ने उस की एक न सुनी. मनोज उस के शरीर से खेल रहा था और यह भी कहता जा रहा था कि उस के यहां रहने का पूरा खर्च वह उठाएगा. उस का ऐडमिशन भी यहां हो जाएगा.

सुधा को लगा जैसे मनोज उस की मजबूरी का फायदा उठा रहा है, लेकिन वह उसे ऐसा क्यों करने दे रही है, उसे खुद भी मालूम न था. अब तक जो सुधा उसे रोक रही थी, वह भी मनोज का साथ देने लगी. रात में 1 बार, 2 बार नहीं बल्कि 3 बार दोनों एक हो गए. उस के बाद कब उसी तरह पलंग पर एक हो कर सो गए, उन्हें पता ही नहीं चला.

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सुबह सुधा की नींद पहले खुली. सुधा को समझ नहीं आया कि अपनी इस हालत पर रोए या खुश हो. उस के दिल्ली में रहने और ऐडमिशन का सपना पूरा होता दिख रहा था, लेकिन इस की कीमत क्या थी, सुधा का शरीर. तब तक मनोज भी उठ गया. सुधा ने मनोज की तरफ देखा भी नहीं, लेकिन मनोज सुधा के पास आया और बोला, ‘‘परेशान मत हो, यह बात हम दोनों के अलावा किसी को पता नहीं चलेगी. बाराबंकी में कोई इस बारे में नहीं जानेगा.’’ इस के बाद मनोज ने एक बार फिर सुधा को अपने पास खींच लिया. सुधा की आंखों में आंसू थे.

सुधा दिल्ली यूनिवर्सिटी में अपने ऐडमिशन के लिए क्या कीमत चुका रही थी. मनोज उसे अपनी बांहों में जकड़ता जा रहा था. मनोज की बांहों की कसावट उस के जिस्म पर बढ़ती जा रही थी. सुधा के आंसू उस की छाती को भिगो रहे थे, लेकिन मनोज इन सब से बेपरवा खेल रहा था.

सुधा की मां दिल्ली आई हुई थीं, इसलिए वह बी-502 से 2 गली छोड़ कर इस गर्ल्स होस्टल में कुछ दिन रहने के लिए आई थी क्योंकि मनोज में इतनी हिम्मत नहीं थी कि जिस सुधी से पिछले 2 साल से वे जिस्मानी तौर पर जुड़ा हुआ था, उस के बारे में अपने घर वालों को बता सके. अब सुधा को भी इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था. वह अपने घर वालों से भी कईकई महीने बाद बात करती थी.

सुधा ने अपने जेबखर्च के लिए 2 ट्यूशन लेने शुरू कर दिए थे. बाकी खर्च मनोज उठाता था. मनोज उस के दिल्ली आने के पहले ही दिन मनोज भैया से मनोज बन गया था. हां, उस ने पढ़ाई से अपना ध्यान नहीं हटाया. उसे जानकी देवी कालेज में ऐडमिशन मिल गया था. ग्रैजुएशन के 2 साल पूरे हो चुके थे. अब तीसरा साल चल रहा था.

सुधा को उम्मीद थी कि उसे ग्रैजुएशन के बाद कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी, नहीं तो वह किसी कौल सैंटर में नौकरी कर अपना खर्च उठा लेगी और आगे की पढ़ाई कर लेगी. तब शायद उसे मनोज के रुपयों की जरूरत न पड़े क्योंकि मनोज को अपना पाना उस के लिए 2 साल से चले आ रहे रिश्ते के बावजूद भारी था. वह मनोज की शारीरिक भूख मिटाती थी और मनोज उस की पढ़ाई की जरूरत को. उस ने पढ़ाई के लिए जो कीमत चुकाई वह बहुत ज्यादा थी या नहीं, यह वह आज तक नहीं समझ पाई. अगर वह ढील न देती तो क्या 2 साल बिता पाती इस अनजान सवा करोड़ लोगों के शहर में?

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गुनाह: श्रुति के प्यार में जब किया अपनी गृहस्थी को तबाह

Serial Story: गुनाह- भाग 1

लेखक- शिव अवतार पाल   

‘रेवा…’ बाथरूम में घुसते ही ठंडे पानी के स्पर्श से सहसा मेरे मुंह से निकला गया. यह जानते हुए भी कि वह घर में नहीं है. आज ही क्यों, पिछले 2 महीनों से नहीं है. लेकिन लगता ऐसा है जैसे युगों का पहाड़ खड़ा हो गया.

रेवा का यों अचानक चले जाना मेरे लिए अप्रत्याशित था. जहां तक मैं समझता हूं वह उन में से थी, जो पति के घर डोली में आने के बाद लाख जुल्म सह कर भी 4 कंधों पर जाने की तमन्ना रखती हैं. लेकिन मैं शायद यह भूल गया था कि लगातार ठोंकने से लोहे की शक्ल भी बदल जाती है. खैर…उस वक्त मैं जो आजादी चाहता था वह मुझे सहज ही हासिल हो गई थी.

श्रुति मेरी सेक्रेटरी थी. उस का सौंदर्य भोर में खिले फूल पर बिखरी ओस की बूंदों सा आकर्षक था. औफिस के कामकाज संभालती वह कब मेरे करीब आ गई पता ही नहीं चला. उस की अदाओं और नाजनखरों में इतना सम्मोहन था कि उस के अलावा मुझे कुछ और सूझता ही नहीं था. मेरे लिए रेवा जेठ की धूप थी तो श्रुति वसंती बयार. रेवा के जाने के बाद मेरे साथसाथ घर में भी श्रुति का एकाधिकार हो गया था.

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सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन अचानक पश्चिम से सुरसा की तरह मुंह बाए आई आर्थिक मंदी ने मेरी शानदार नौकरी निगल ली. इस के साथ ही मेरे दुर्दिन शुरू हो गए. मैं जिन फूलों की खुशबू से तर रहता था, वे सब एकएक कर कैक्टस में बदलने लगे. मैं इस सदमे से उबर भी नहीं पाया था कि श्रुति ने तोते की तरह आंखें फेर लीं. उस के गिरगिटी चरित्र ने मुझे तोड़ कर रख दिया. अब मैं था, मेरे साथ थी आर्थिक तंगी में लिपटी मेरी तनहाई और श्रुति की चकाचौंध में रेवा के साथ की ज्यादतियों का अपराधबोध.

रेवा का निस्स्वार्थ प्रेम, भोलापन और सहज समर्पण रहरह कर मेरी आंखों में कौंधता है. सुबह जागने के साथ बैड टी, बाथरूम में गरम पानी, डाइनिंग टेबिल पर नाश्ते के साथ अखबार, औफिस के वक्त इस्तिरी किए हुए कपड़े, पौलिश किए जूते, व्यवस्थित ब्रीफकेस और इस बीच मुन्नी को भी संभालना, सब कुछ कितनी सहजता से कर लेती थी रेवा. इन में से कोई भी एक काम ठीक वक्त पर नहीं कर सकता मैं… फिर रेवा अकेली इतना सब कुछ कैसे निबटा लेती थी, सोच कर हैरान हो जाता हूं मैं. उस ने कितने करीने से संवारा था मुझे और मेरे घर को… अपना सब कुछ होम दिया था उस ने. उस के जाने के बाद यहां के चप्पेचप्पे में उस की उपस्थिति और अपने जीवन में उस की उपयोगिता का एहसास हो रहा है मुझे. उसे ढूंढ़ने में रातदिन एक कर दिए मैं ने. हर ऐसी जगह, जहां उस के मिलने की जरा भी संभावना हो सकती थी मैं दौड़ताभागता रहा. पर हर जगह निराशा ही हाथ लगी. पता नहीं कहां अदृश्य हो गई वह.

मन के किसी कोने से पुलिस में कंप्लेन करने की बात उठी. पर इस वाहियात खयाल को जरा भी तवज्जो नहीं दी मैं ने. रेवा को मैं पहले ही खून के आंसू रुला चुका हूं. हद से ज्यादा रुसवा कर चुका हूं उसे. पुलिस उस के जाने के 100 अर्थ निकालती, इसलिए अपने स्तर से ही उसे ढूंढ़ने के प्रयास करता रहा.

मेरे मस्तिष्क में अचानक बिजली सी कौंधी. रीना रेवा की अंतरंग सखी थी. अब तक रीना का खयाल क्यों नहीं आया… मुझे खुद पर झुंझलाहट होने लगी. जरूर उसी के पास गई होगी रेवा या उसे पता होगा कि कहां गई है वह. अवसाद के घने अंधेरे में आशा की एक किरण ने मेरे भीतर उत्साह भर दिया. मैं जल्दीजल्दी तैयार हो कर निकला, फिर भी 10 बज चुके थे. मैं सीधा रीना के औफिस पहुंचा.

‘‘मुझे अभी पता चला कि रेवा तुम्हें छोड़ कर चली गई,’’ मेरी बात सुन कर वह बेरुखी से बोली, ‘‘तुम्हारे लिए तो अच्छा ही हुआ, बला टल गई.’’

मेरे मुंह से बोल न फूटा.

‘‘मैं नहीं जानती वह कहां है. मालूम होता तो भी तुम्हें हरगिज नहीं बताती,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘जहां भी होगी बेचारी चैन से तो जी लेगी. यहां रहती तो घुटघुट कर मर जाती.’’

‘‘रीना प्लीज’’, मैं ने विनती की, ‘‘मुझे अपनी भूल का एहसास हो गया है. श्रुति ने मेरी आंखों में जो आड़ीतिरछी रेखाएं खींच दी थीं, उन का तिलिस्म टूट चुका है.’’

‘‘क्यों मेरा वक्त बरबाद कर रहे हो,’’ वह पूर्ववत बोली, ‘‘बहुत काम करना है अभी.’’

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रात गहराने के साथ ठिठुरन बढ़ गई थी. ठंडी हवाएं शरीर को छेद रही थीं. इन से बेखबर मैं खुद में खोया बालकनी में बैठा था. बाहर दूर तक कुहरे की चादर फैल चुकी थी और इस से कहीं अधिक घना कुहरा मेरे भीतर पसरा हुआ था, जिस में मैं समूचा डूबता जा रहा था. देर तक बैठा मैं कलपता रहा रेवा की याद में. उस के साथ की ज्यादतियां बुरी तरह मथती रहीं मेरे मस्तिष्क को. जिस ग्लेशियर में मैं दफन होता जा रहा था, उस के आगे शीत की चुभन बौनी साबित हो रही थी.

अगले कई दिनों तक मेरी स्थिति अजीब सी रही. रेवा के साथ बिताया एकएक पल मेरे सीने में नश्तर की तरह चुभ रहा था. काश एक बार, सिर्फ एक बार रेवा मुझे मिल जाए फिर कभी उसे अपने से अलग नहीं होने दूंगा. उस के हाथ जोड़ कर, झोली फैला कर क्षमायाचना कर लूंगा. वह जैसे चाहेगी मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार हूं. उसे इतना प्यार दूंगा कि वह सारे गिलेशिकवे भूल जाएगी. उस के हर एक आंसू को फूल बनाने में जान की बाजी लगा दूंगा. अपनी सारी खुशियां होम कर दूंगा उस के हर एक जख्म को भरने में. पर इस के लिए रेवा का मिलना निहायत जरूरी था, जो कि किसी भी एंगिल से संभव होता नजर नहीं आ रहा था.

वह भीड़भाड़ भरा इलाका था. आसपास ज्यादातर बड़ीबड़ी कंपनियों के औफिस थे. शाम को वहां छुट्टी के वक्त कुछ ज्यादा ही भागमभाग हो जाती थी. एक दिन मैं खुद में खोया धक्के खाता वहां से गुजर रहा था कि मेरे निर्जीव से शरीर में करंट सा दौड़ गया. जहां मैं था, उस के ऐन सामने की बिल्डिंग से रेवा आती दिखाई दी. मेरा दिल हाई स्पीड से धड़कने लगा. मैं दौड़ कर उस के पास पहुंच जाना चाहता था पर सड़क पर दौड़ते वाहनों की वजह से मैं ऐसा न कर सका. लाल बत्ती के बाद वाहनों का काफिला थमा, तब तक वह बस में बैठ कर जा चुकी थी. मैं ने तेजी से दौड़ कर सड़क पार की पर सिवा अफसोस के कुछ भी हासिल न कर सका. मेरा सिर चकराने लगा.

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Serial Story: गुनाह- भाग 2

लेखक- शिव अवतार पाल   

अगले दिन सैकंड सैटरडे था और उस के अगले दिन संडे. इन 2 दिनों की दूरी मेरे लिए आकाश और पाताल के बराबर थी. कुछ सोचता हुआ मैं उसी तेजी से उस औफिस में दाखिल हुआ, जहां से रेवा निकली थी. रिशेप्सन पर एक खूबसूरत सी लड़की बैठी थी. तेज चलती सांसों को नियंत्रित कर मैं ने उस से पूछा क्या रेवा यहीं काम करती हैं  उस ने ‘हां’ कहा तो मैं ने रेवा का पता पूछा. उस ने अजीब सी निगाहों से मुझे घूर कर देखा.

‘‘मैडम प्लीज,’’ मैं ने उस से विनती की, ‘‘वह मेरी पत्नी है. किन्हीं कारणों से हमारे बीच मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई थी, जिस से वह रूठ कर अलग रहने लगी. मैं उस से मिल कर मामले को शांत करना चाहता हूं. हमारी एक छोटी सी बेटी भी है. मैं नहीं चाहता कि हमारे आपस के झगड़े में उस मासूम का बचपन झुलस जाए. आप उस का ऐड्रैस दे दें तो बड़ी मेहरबानी होगी. बिलीव मी, आई एम औनेस्ट,’’ मेरा गला भर आया था.

वह कुछ पलों तक मेरी बातों में छिपी सचाई को तोलती रही. शायद उसे मेरी नेकनीयती पर यकीन हो गया था. उस ने कागज पर रेवा का पता लिख कर मुझे थमा दिया.

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मैं हवा में उड़ता वापस आया. सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मन में एक ही बात खटक रही थी कि रेवा का सामना कैसे करूंगा मैं  कैसे नजरें मिला सकूंगा उस से  पता नहीं वह मुझे माफ करेगी भी या नहीं  उस के स्वभाव से मैं भलीभांति परिचित था. एक बार जो मन में ठान लेती थी, उसे पूरा कर के ही दम लेती थी. अगर ऐसा हुआ तो…  मन के किसी कोने से उठी व्यग्रता मेरे समूचे अस्तित्व को रौंदने लगी. ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. मन में घुमड़ते संशय के बादलों को मैं ने पूरी शिद्दत से छितराने की कोशिश की. वह पत्नी है मेरी. उस ने दिल की गहराइयों से प्यार किया है मुझे. वक्ती तौर पर तो वह मुझ से दूर हो सकती है, हमेशा के लिए नहीं. मेरा मन कुछ हलका हो गया था. उस की सलोनी सूरत मेरी आंखों में तैरने लगी थी.

सुबह उस का पता ढूंढ़ने में कोई खास परेशानी नहीं हुई. मीडियम क्लास की कालोनी में 2 कमरों का साफसुथरा सा फ्लैट था. आसपास गहरी खामोशी का जाल फैला था. बाहर रखे गमलों में उगे गुलाब के फूलों से रेवा की गंध का एहसास हो रहा था मुझे. रोमांच से मेरे रोएं खड़े हो गए थे. आगे बढ़ कर मैं ने कालबैल का बटन दबाया. भीतर गूंजती संगीत की मधुर स्वर लहरियों ने मेरे कानों में रस घोल दिया. कुछ ही पलों में गैलरी में पदचाप उभरी. रेवा के कदमों की आहट मैं भलीभांति पहचानता था. मेरा दिल उछल कर हलक में फंसने लगा था.

‘‘तुम…’’ मुझे सामने खड़ा देख कर वह बुरी तरह चौंक गई थी.

‘‘मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा रेवा. हर ऐसी जगह जहां तुम मिल सकती थीं, मैं भटकता रहा. तुम ने मुझे सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं दिया. अचानक ही छोड़ कर चली आईं.’’

‘‘अचानक कहां, बहुत छटपटाने के बाद तोड़ पाई थी तुम्हारा तिलिस्म. कुछ दिन और रुकती तो जीना मुश्किल हो जाता. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं. अपनी ओर से तुम ने कोई कोरकसर बाकी भी तो नहीं छोड़ी थी.’’

‘‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं रेवा.’’ मेरे हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे, ‘‘तुम्हारे साथ जो बदसुलूकी की है, मैं ने उस की काफी सजा भुगत चुका हूं, जो हुआ उसे भूल कर प्लीज क्षमा कर दो मुझे.’’

‘‘लगता है मुझे परेशान कर के अभी तुम्हारा दिल नहीं भरा, इसलिए अब एक नया बहाना ले कर आए हो,’’ उस की आवाज में कड़वाहट घुल गई थी, ‘‘मैं आजिज आ चुकी हूं तुम्हारे इस बहुरुपिएपन से. बहुत रुलाया है मुझे तुम्हारी इन चिकनीचुपड़ी बातों ने. अब और नहीं, चले जाओ यहां से. मुझे कोई वास्ता नहीं रखना है तुम्हारे जैसे घटिया इंसान से.’’

मैं हतप्रभ सा उस की ओर देखता रहा.

‘‘तुम्हारी नसनस से अच्छी तरह वाकिफ हूं मैं. अपने स्वार्थ के लिए तुम किसी भी हद तक गिर सकते हो. तुम्हारा दिया एकएक जख्म मेरे सीने में आज भी हरा है.’’

‘‘मुझे प्रायश्चित्त का एक मौका तो दो रेवा. मैं…’’

‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती,’’ मेरी बात काट कर वह बिफर पड़ी, ‘‘तुम्हारी हर एक याद को अपने जीवन से खुरच कर फेंक चुकी हूं मैं.’’

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी ’’ बातचीत का रुख बदलने की गरज से मैं बोला.

‘‘यह अधिकार तुम बहुत पहले खो चुके हो.’’

मैं कांप कर रहा गया.

‘‘ऐसे हालात तुम ने खुद ही पैदा किए हैं आकाश. अपने प्यार को बचाने की हर संभव कोशिश की थी मैं ने. अपना वजूद तक दांव पर लगा दिया पर तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. जब तक सहन हुआ सहा मैं ने. और कितना सहती और झुकती मैं. झुकतेझुकते टूटने लगी थी. मैं ने अपना हाथ भी बढ़ाया था तुम्हारी ओर इस उम्मीद से कि तुम टूटने से बचा लोगे, पर तुम तो जैसे मुझे तोड़ने पर ही आमादा थे.’’

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मैं मौन खड़ा रहा.

‘‘अफसोस है कि मैं तुम्हें पहचान क्यों न सकी. पहचानती भी कैसे, तुम ने शराफत का आवरण जो ओढ़ रखा था. इसी आवरण की चकाचौंध में तुम्हारे जैसा जीवनसाथी पा कर खुद पर इतराने लगी थी. पर कितनी गलत थी मैं. इस का एहसास शादी के कुछ दिन बाद ही होने लगा था. मैं जैसेजैसे तुम्हें जानती गई, तुम्हारे चेहरे पर चढ़ा मुखौटा हटता गया. जिस दिन मुखौटा पूरी तरह हटा मैं हतप्रभ रह गई थी तुम्हारा असली रूप देख कर,’’ वह अतीत में झांकती हुई बोली.

‘‘शुरुआत में तो सब कुछ ठीक रहा. फिर तुम अकसर कईकई दिनों तक गायब रहने लगे. बिजनैस टूर की मजबूरी बता कर तुम ने कितनी सहजता से समझा दिया था मुझे. मैं भी इसी भ्रम में जीती रहती, अगर एक दिन अचानक तुम्हें, तुम्हारी सेक्रेटरी श्रुति की कमर में बांहें डाले न देख लिया होता. रीना के आग्रह पर मैं  सेमिनार में भाग लेने जिस होटल में गई थी, संयोग से वहीं तुम्हारे बिजनैस टूर का रहस्य उजागर हो गया था. तुम्हारी बांहों में किसी और को देख कर मैं जैसे आसमान से गिरी थी, पर तुम्हारे चेहरे पर क्षोभ का कोई भाव नहीं था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही तुम ने वहां मेरी उपस्थिति पर हजारों प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए थे. मैं चाहती तो तुम्हारे हर बेहूदा तर्क का करारा जवाब दे सकती थी, पर तुम्हारी रुसवाई में मुझे मेरी ही हार नजर आती थी. मेरी खामोशी को कमजोरी समझ कर तुम और भी मनमानी करने लगे थे. मैं रोतीतड़पती तुम्हारे इंतजार में बिस्तर पर करवटें बदलती और तुम जाम छलकाते हुए दूसरों की बांहों में बंधे होते.’’

‘‘वह गुजरा हुआ कल था, जिसे मैं कब का भुला चुका हूं,’’ मुश्किल से बोल पाया मैं.

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Serial Story: गुनाह- भाग 3

लेखक- शिव अवतार पाल   

‘‘तुम्हारे लिए ये सामान्य सी बात हो सकती है, पर मेरा तो सब कुछ दफन हो गया है, उस गुजरे हुए कल के नीचे. कैसे भूल जाऊं उन दंशों को, जिन की पीड़ा में आज भी सुलग रही हूं मैं. याद करो अपनी शादी की सालगिरह का वह दिन, जब तुम जल्दी चले गए थे. देर रात तक तुम्हारा इंतजार करती रही मैं. हर आहट पर दौड़ती हुई मैं दरवाजे तक जाती थी. लगता था कहीं आसपास ही हो तुम और जानबूझ कर मुझे परेशान कर रहे हो. तुम लड़खड़ाते हुए आए थे. मैं संभाल कर तुम्हें बैडरूम में ले गई थी. खाने के लिए तुम ने इनकार कर दिया था. शायद श्रुति के साथ खा कर आए थे. मैं पलट कर वापस जाना चाहती थी कि तुम ने भेडि़ए की तरह झपट्टा मार कर मुझे दबोच लिया था. तुम देर तक नोचतेखसोटते रहे थे मुझे… और तुम्हारी वहशी गिरफ्त में असहाय सी तड़पती रही थी मैं. उस वक्त तुम्हारे चेहरे पर मुझे एक और चेहरा नजर आया था और वह था राक्षस का चेहरा. तुम्हारी दरिंदगी से मेरी आत्मा तक घायल हो गई थी. बोलो, कैसे भूल जाऊं मैं यह सब ’’

‘‘बस करो रेवा,’’ कानों पर हाथ रख कर मैं चीत्कार कर उठा, ‘‘मेरे किए गुनाह विषैले सर्प बन कर हर पल मुझे डसते रहे हैं. अब और सहन नहीं होता. प्लीज, सिर्फ एक बार माफ कर दो मुझे. वादा करता हूं भविष्य में तुम्हें तकलीफ नहीं होने दूंगा.

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‘‘तुम पहले ही मुझे इतना छल चुके हो कि अब और गुंजाइश बाकी नहीं है. सच तो यह है कि तुम्हारे लिए मेरी अहमियत उस फूल से अधिक कभी नहीं रही, जिसे जब चाहा मसल दिया. तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि बिस्तर से परे भी मेरा कोई वजूद है. मैं भी तुम्हारी तरह इंसान हूं. मेरा शरीर भी हाड़मांस से बना हुआ है, जिस के भीतर दिल धड़कता है और जो तुम्हारी तरह ही सुखदुख का अनुभव करता है.’’

‘‘इस बीच रीना ने मेरी बहुत सहायता की. जीने की प्रेरणा दी. कदमकदम पर हौसला बढ़ाया. वह भावनात्मक संबल न देती तो कभी की बिखर गई होती. अपना अस्तित्व बचाने के लिए मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी, उस ने भरपूर साथ दिया. तुम ने कभी नहीं चाहा मैं नौकरी करूं. इस के लिए तुम ने हर संभव कोशिश भी की. अपने बराबर मुझे खड़ी होते देख तुम विचलित होने लगे थे. दरअसल मेरे आंसुओं से तुम्हारा अहं तुष्ट होता था, शायद इसीलिए तुम्हारी कुंठा छटपटाने लगी थी.’’

‘‘मुझे अपने सारे जुर्म स्वीकार हैं. जो चाहे सजा दो मुझे, पर प्लीज अपने घर लौट चलो,’’ मैं असहाय भाव से गिड़गिड़ाता हुआ बोला.

‘‘कौन सा घर ’’ वह आपे से बाहर हो गई, ‘‘ईंटपत्थर की बेजान दीवारों से बना वह ढांचा, जहां तुम्हारे तुगलकी फरमान चलते हैं  तुम्हें जो अच्छा लगता वही होता था वहां. बैडरूम की लोकेशन से ले कर ड्राइंगरूम की सजावट तक सब में तुम्हारी ही मरजी चलती थी. मुझे किस रंग की साड़ी पहननी है… किचन में कब क्या बनना है… इस का निर्णय भी तुम ही लेते थे. वह सब मुझे पसंद है भी या नहीं, इस से तुम्हें कुछ लेनादेना नहीं था. मैं टीवी देखने बैठती तो रिमोट तुम झपट लेते. जो कार्यक्रम मुझे पसंद थे उन से तुम्हें चिढ़ थी.

‘‘वहां दूरदूर तक मुझे अपना अस्तित्व कहीं भी नजर नहीं आता था… हर ओर तुम ही तुम पसरे हुए थे. मेरे विचार, मेरी भावनाएं, मेरा अस्तित्व सब कुछ तिरोहित हो गया तुम्हारी विक्षिप्त कुंठाओं में. तुम्हारी हिटलरशाही की वजह से मेरी जिंदगी नर्क से भी बदतर बन गई थी. उस अंधेरी कोठरी में दम घुटता था मेरा, इसीलिए उस से दूर बहुत दूर यहां आ गई हूं ताकि सुकून के 2 पल जी सकूं… अपनी मरजी से.’’

‘‘अब तुम जो चाहोगी वही होगा वहां. तुम्हारी मरजी के बिना एक कदम भी नहीं चलूंगा मैं. तुम्हारे आने के बाद से वह घर खंडहर हो गया है. दीवारें काट खाने को दौड़ती हैं. बेटी की किलकारियां सुनने को मन तरस गया है. उस खंडहर को फिर से घर बना दो रेवा,’’ मेरा गला भर आया था.

‘‘अपनी गंदी जबान से मेरी बेटी का नाम मत लो,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘भौतिक सुख और रासायनिक प्रक्रिया मात्र से कोई बाप कहलाने का हकदार नहीं हो जाता. बहुत कुछ कुरबान करना पड़ता है औलाद के लिए. याद करो उन लमहों को, जब मेरे गर्भवती होने पर तुम गला फाड़फाड़ कर चीख रहे थे कि मेरे गर्भ में तुम्हारा रक्त नहीं, मेरे बौस का पाप पल रहा है. तुम्हारे दिमाग में गंदगी का अंबार देख कर मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी आसानी से तुम ने यह सब कह दिया था, पर मैं भीतर तक घायल हो गई थी तुम्हारी बकवास सुन कर. जी तो चाहा था कि तुम्हारी जबान खींच लूं, पर संस्कारों ने हाथ जकड़ लिए थे मेरे.

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‘‘तुम ऐबौर्शन चाहते थे. अपनी बात मनवाने के लिए जुल्मोजोर का हथकंडा भी अपनाया पर मैं अपने अंश को जन्म देने के लिए दृढ़संकल्प थी. प्रसव कक्ष में मैं मौत से संघर्ष कर रही थी और तुम श्रुति के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे. एक बार भी देखने नहीं आए कि मैं किस स्थिति में हूं. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं, ताकि तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए. इस मुश्किल घड़ी में रीना साथ न देती तो मर ही जाती मैं.’’

आंखों में आंसू लिए मैं अपराधी की भांति सिर झुकाए उस की बात सुनता रहा.

‘‘मुझे परेशान करने के तुम ने नएनए तरीके खोज लिए थे. तुम मेरी तुलना अकसर श्रुति से करते थे. तुम्हारी निगाह में मेरा चेहरा, लिपस्टिक लगाने का तरीका, हेयर स्टाइल, पहनावा और फिगर सब कुछ उस के आगे बेहूदे थे. मेरी हर बात में नुक्स निकालना तुम्हारी आदत में शामिल हो गया था. मूर्ख, पागल, बेअक्ल… तुम्हारे मुंह से निकले ऐसे ही जाने कितने शब्द तीर बन कर मेरे दिल के पार हो जाते थे. मैं छटपटा कर रह जाती थी. भीतर ही भीतर सुलगती रहती थी तुम्हारे शब्दालंकारों की अग्नि में. इतनी ही बुरी लगती हूं तो शादी क्यों की थी मुझ से  मेरे इस प्रश्न पर तुम तिलमिला कर रह जाते थे.

‘‘उकता गई थी मैं उस जीवन से. ऐसा लगता था जैसे किसी ने अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया हो. मेरी रगरग में विषैले बिच्छुओं के डंक चुभने लगे थे. जहर घुल गया था मेरे लहू में. सांस घुटने लगी थी मेरी. उस दमघोंटू माहौल में मैं अपनी बेटी का जीवन अभिशप्त नहीं कर सकती. उपेक्षा के जो दंश मैं ने झेले हैं, उस की छाया मुन्नी पर हरगिज नहीं पड़ने दूंगी. बेहतर है तुम खुद ही चले जाओ, वरना तुम जैसे बेगैरत इंसान को धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखाना भी मुझे अच्छी तरह आता है. एक बात और समझ लो,’’ मेरी ओर उंगली तान कर वह शेरनी की तरह गुर्राई. ‘‘भविष्य में भूल कर भी इधर का रुख किया तो बाकी बची जिंदगी जेल में सड़ जाएगी,’’ मेरी ओर देखे बिना उस ने अंदर जा कर इस तरह दरवाजा बंद किया, जैसे मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो.

मैं कई पलों तक किंकर्तव्यविमूढ सा खड़ा रहा. इंसान के गुनाह साए की तरह उस का पीछा करते हैं. लाख कोशिशों के बाद भी वह परिणाम भुगते बगैर उन से मुक्त नहीं हो सकता. कल मैं ने जिस का मोल नहीं समझा, आज मैं उस के लिए मूल्यहीन था. ये दुनिया कुएं की तरह है. जैसी आवाज दोगे वैसी ही प्रतिध्वनि सुनाई देगी. जो जैसे बीज बोता है वैसी ही फसल काटना उस की नियति बन जाती है. तनहाई की स्याह सुरंगों की कल्पना कर मेरी आंखों में मुर्दनी छाने लगी. आवारा बादल सा मैं खुद को घसीटता अनजानी राह पर चल दिया. टूटतेभटकते जैसे भी हो, अब सारा जीवन मुझे अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना था.

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