प्रतिध्वनि: सुलभा डिप्रैशन में क्यों रहने लगी थी

अशोक आज किचन में ब्रैड पर ऐक्सपैरिमैंट कर रहा था. सुलभा कंप्यूटर पर अपने औफिस का काम कर रही थी. नरेंद्र आइलैंड किचन के दूसरी तरफ बैठा बतिया भी रहा था और खा भी रहा था.

नरेंद्र ने एक नजर मेरी ओर डाली, फिर आंखें अपनी प्लेट पर टिका लीं. तभी सुलभा ने दहीवड़े को डोंगा उठा कर कहा, ‘‘नरेंद्र एक और ले लीजिए. देखिए तो आप की पसंद के बने हैं. कल मैं ने खुद बनाए थे… खास रैसिपी है.

‘‘बस अब और नहीं चाहिए सुलभा,’’ उस के यह कहते हुए भी सुलभा ने एक वड़ा प्लेट में डाल ही दिया. साथ ही कहा, ‘‘तुम्हें पसंद हैं न प्लीज, एक मेरे कहने से ले लीजिए.’’

अशोक ने हाथ के इशारे से मना भी किया, पर सुलभा ने वड़ा डाल कर तभी चाउमिन का डोंगा उठा लिया.

सुलभा का पति अशोक नरेंद्र से बोला, ‘‘सुलभा को पता है कि तुम्हें क्या पसंद है. इसे दूसरों को उन की पसंद का खाना खिला कर बड़ा संतोष मिलता है. तुम से क्या बताऊं. इसे जाने कैसे पता लग जाता है. सभी को इस का बनाया खाना पसंद आता है. मेरी ब्रैड का क्या इस ने आदर नहीं किया.’’

कोविड के बाद से अशोक ने खाना बनाना शुरू कर दिया था पर वह ब्रैड, पिज्जा और बेक्ड पर ही ज्यादा जोर देता था. जब से किचन में घुसने लगा है तब से सुलभा को लगने लगा है कि उस का एकछत्र राज चला गया है. हालांकि ज्यादा खाना किचन हैल्प शंकर बनाता है पर अभी 15 दिन से वह गांव गया हुआ है इसलिए हम दोनों बना रहे हैं और किचन में भी हमारा कंपीटिशन चलता है.

इस कंपीटिशन के शिकार कभी दोस्त होते हैं, कभी शंकर तो कभी हमें आपस में भिड़ने का मौका मिल जाता है.

नरेंद्र ने वड़ा खाया और ब्रैड के बेक होने का इंतजार करने लगा. अशोक चालू हो गया, ‘‘वड़ा तो अच्छा बनेगा ही. इस में ड्राईफ्रूट्स भर रखे हैं. एक तरफ जिम जाओ और फिर इतना फैट वाला वड़ा खाओ.’’

‘‘अच्छा,’’ सुलभा ने भी नकली मुसकान होंठों पर लाते हुए कह डाला, ‘‘नरेंद्र, अगर ऐसे वड़े पसंद हैं तो मैं बनाना सिखा दूंगी… इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ पर अशोक की बात अखर रही थी.

सुलभा का जी चाहा कह दें कि अशोक, यह दही की गुझिया है, वड़े नहीं. लेकिन उस का बोलना अच्छा नहीं रहेगा. वह बोल भी नहीं पाएगी. बस इतना ही प्रकट में कहा, ‘‘जानती हूं, कई बार तो बनाए हैं. अशोक तो बस ऐसे ही कहते रहते हैं. जब मेरी मां के यहां जाते हैं तो 2 की जगह 4 खा जाते हैं. मां हमेशा एक टिफिन में बांध कर देती है. पर ये ऐप्रीशिएट करना जानें तो न.’’

फिर आगे जोड़ डाला, ‘‘एक यहीं की तो बात है नहीं, अशोक की यह आदत बन गई है. इन्हें मेरा कोई भी काम पसंद नहीं आता. छोटी से छोटी बात में भी दोष निकालेंगे. मुझे कोई ऐतराज भी नहीं, लेकिन उसे भरी महफिल में कहना और मैं कुछ कहूं तो चिढ़ जाना. आज भी सिर्फ  इतना ही तो कहा था कि कई बार ऐसे वड़े बना कर खिला चुकी हूं, बस, उसी पर इतना कमैंट आ गया. वड़े से भी ज्यादा बड़ा,’’ दोनों को यह नोकझोंक कई बार दिल पर उतर जाती है. दोनों कमाते हैं पर पुरुष होने का अहम अशोक में वैसा ही है.

कल ही की तो बात है. दूध आंच पर रख कर स्वाति को फीस के रुपए देने सुलभा कमरे में चली गई थी, सोचा था पर्स में से निकाल कर देने ही तो हैं. अगर वहां कुछ देर लग गई थी, स्वाति औटो वाले की बात बताने लगी थी कि रास्ते में देर लगा देता है. आजकल रोज देर से स्कूल पहुंच रही हूं आदिआदि.

तभी अशोक को कहने का मौका मिल गया, ‘‘रोजरोज दूध निकल जाता है, लापरवाही की हद है. कहा था कि टैट्रापैक ले आया करो, उबालने का झंझट नहीं रहेगा पर मैडम तो थैली ही लाएंगी क्योंकि यह ज्यादा ताजा होता है.’’

उस दिन इन की मां भी रहने आई हुई थी. वह भी बोल उठी, ‘‘सुलभा हम लोगों के वक्त में तो बूंद भर भी दूध गिर जाता तो लोग आफत कर डालते थे. दूध गिरना अच्छा जो नहीं होता. अब मैं क्या कहूं कि तब दूध मिलता भी तो लंबी लाइनों में लग कर.’’

अशोक भी धीरे से बोले, ‘‘पैसा लगता है भई. जरा ध्यान रखना चाहिए इस में. दूध रख कर शंकर से ही कह दिया करो, देख ले.’’

देवरदेवरानी 10 दिन बिताने आए हैं. दिनभर सुलभा उन लोगों का स्वागतसत्कार करती रहती है. फिर भी कोई न कोई बात उठ ही जाती है. अशोक लगते हैं तो सिर्फ परोसने के समय.’’

देवर शलभ एक बड़ी कंपनी में है और नंदा आजकल नई नौकरी ढूंढ़ रही

है. नंदा घर के काम में तो हाथ ही नहीं लगाती. लगता है, पूरी तरह मेहमान बन कर आई है. आज के युग में कोई कहीं मेहमान बन कर भी जाता है, तब भी शिष्टाचारवश कुछ न कुछ काम कराने लग ही जाता है. स्वयं खाली बैठी भाभी को किचन में शंकर के साथ लगे देखना अच्छा भी तो नहीं लगता. सुलभा कुछ नहीं कह सकती क्योंकि सब जानती है, यहीं कहेंगे, थोड़े दिनों को आई थी, इसलिए काम में क्या लगे, उसे घर का कुछ पता भी तो नहीं है.

अब भी अपने 7 साल के नंदन को स्पैलिंग याद करा रही है. वहीं नाश्ता रखा है, अभी मु?ो आवाज दी है, ‘‘भाभी, मेरी चाय भी यहीं भिजवा दें, नंदन को पढ़ा रही हूं. आप के स्वाति, अंशु के आते ही खेल में लग जाएगा.’’

नंदन तो अभी दूसरी में ही है. उस की पढ़ाई क्या इतनी जरूरी है कि रानीजी चाय का प्याला लेने नहीं आ सकतीं. अशोक भी जल्दी आ गए हैं, आजकल जब से भाईभावज आए हैं 5 बजे ही घर आ जाते हैं, नहीं तो 7 बजे से पहले दर्शन नहीं होते.

‘‘नंदा सचमुच बच्चे के साथ कितनी मेहनत करती है, तब जा कर बच्चे होशियार होते हैं,’’ सुन कर कहने लगे, ‘‘नंदन अपनी कक्षा में प्रथम आया है.’’

सब सुन कर मेर हाथ कांपने लगे हैं. मैं नंदा से ज्यादा कमाती हूं. मु?ा में क्या कमी है, नहीं जानती. मेरी जनरल नौलेज नंदा से ज्यादा ही है. मेरे बच्चे बिना एक शब्द बताए, बिना किसी ट्यूशन के सदा प्रथम आते हैं. समय ही कहां मिल पाता है कि अपने बच्चों को कुछ करा पाऊं. मेरे बच्चे. गर्व से मेरा सीना फूल आया. मेरे गिरते हुए आंस़ओं में खुशी की एक चमक आ गई. मेरे बच्चों को इस की भी जरूरत नहीं है, वे बहुत आगे हैं नंदन से.

अशोक का नाम है, पोजीशन है. उन की सलाह की कद्र की जाती है, उन से मिलने को लोग इच्छुक रहते हैं. नहीं, इसलिए नहीं कि उन से मिल कर कुछ आर्थिक लाभ होता है. इन का तो शुद्ध टैक्नीकल काम है. लोग मुझे सुखी समझते हैं. हां, जब उन की चर्चा होती है तो मुझे भी मान हो आता है. लेकिन कहीं कुछ ऐसा रह जाता है कि हम दोनों एकदूसरे के लिए बन नहीं पाए. सुलभा हर समय यही महसूस करती है कि वह उन का, घर का इतना खयाल रखती है, तो वे सब भी उस की रुचिअरुचि समझें. अशोक भले ही उस के काम को अपने से ज्यादा न समझें, पर उस के काम को व्यर्थ कह नकार तो न दें. खासतौर पर जब सुलभा भी काम पर जाती है.

सुलभा को घर और औफिस में चक्की में पिस कर भी जो सहानुभूति हासिल नहीं, वह नंदाको सहज ही मिल जाती है. उसे पति का प्यार भी मिलता है और सासससुर का स्नेह भी, प्रशंसा भी.

सप्ताहभर सब के साथ रहने का एहसान कर नंदा और देवर अगले दिन जाने वाले हैं. भोजन करते देवर अचानक कह उठे, ‘‘भाभी, नंदा की बड़ा इच्छा कुछ शौपिंग करने की है, इसे शौपिंग ले जाता हूं,’’ कह कर दोनों अशोक के साथ चले गए.

सुलभा का काम में मन नहीं लग रहा था, लगता भी कैसे. मन में एक के बाद एक खयाल आता जा रहा था. अंदर ही अंदर रो रही थी. किसी के सामने रो कर वह अपने को छोटा नहीं करना चाहती. हां, इतना सही है कि उस के इतना साफ कह देने का भी देवरदेवरानी का अकेले शौपिंग करने चला जाना उसे बहुत अखरा था. यह नहीं हुआ कि उसे, स्वाति व अंशु को भी ले जाते और एक खाना तो खिलाते. लगता है सब के मन में बेचारी है सुलभा वाला भाव बैठा हुआ है.

तभी बाई की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मैडम, मैं ग्रौसरी ले आई हूं, चैक कर लें.’’

बाई ने जब सामान निकाल कर दिया तो उस में चौकलेट के पैकेट थे जो मैं ने नंदा के बच्चों के लिए मंगवाए थे. उस की ललचाई नजरें उन पैकेटों को देख रही थीं, ‘‘ये चौकलेट तो मैडम बहुत महंगी हैं,’’ उस की बोली में एक करुणा का भाव था, ‘‘मेरा बेटा बारबार चौकलेट लाने को कहता है पर मेरे पास इतने पैसे कहां हैं,’’ कहतेकहते उस के आंसू बह गए.

सुलभा को आश्चर्य हुआ उस की यह दीन मुद्रा देख कर वरना तो हमेशा उसे अकड़ते ही देखती थी.

आज साथ ही उस का 8-10 साल का बेटा था. उस ने समान मुझे दे कर एक सांस ली, ‘‘इस का बाप तो न मेरी चिंता करता है, न इस की. मैं कमा कर देती हूं फिर भी आए दिन मारपीट करता है. चौकलेट मांगने पर इसे भी 2-4 थप्पड़ लगा देता है. जो आप की परेशानी है मैडम, वैसी ही मेरी भी.’’

‘‘तुम ने कैसे जाना कि मुझे कोई परेशानी है?’’ सुलभा बोली.

वह बोलने लगी. सुलभा सुनने लगी. यकायक एहसास हुआ कि दोनों के दुख कहीं एकजैसे हैं. इस सुसंस्कृत समाज में (तथाकथित ऊंची जाति में) मारपीट नहीं होती इस के यहां बातबात पर उसे पीट दिया जाता है. घर में सासससुर हैं, देवरननद हैं. ससुर है कि सास की उंगली का पोर भी दुख जाए तो आफत कर देगा. दोनों देवर अपनी घरवालियों को सिर पर चढ़ा कर रखते हैं. मगर उस का पति दाल में नमक ज्यादा हो या रोटी जल गई हो हर बात पर बिगड़ेगा. सभी लानत देने लगते हैं. दिनभर काम करती है, सब से अच्छा काम, फिर भी उसी को दिनरात सुनना पड़ता है. आज घर का काम छोड़ दे, बीमार पड़ जाए पैसे नहीं मिलें तो उस की आफत आ जाएगी.

‘‘मैम आप तो जानती हैं, जब मर्द अपनी औरत की इज्जत नहीं करता तो उस का घर में कोई भी मान नहीं करता. अगर मर्द जोरू को अपना समझे, उस का अच्छाबुरा उस से अकेले में कहे, ऐसे सोचे कि इस की बड़ाई हो, इस पर दुनिया न हंसे, तो औरत निकम्मी भी हो, तब भी घर के लोग उसे कुछ न कहेंगे.’’

सुलभा जल्दी से अपने कमरे में आ गई. उस में जैसे और सुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. उस की भी तो यही स्थिति थी. सुलभा ने सारी चौकलेटें बाई के बेटे के हाथों में दे दीं. देवरानी का बेटा खाली हाथ ही जाएगा.

‘‘मैम, आप का स्वभाव बहुत अच्छा है. आप के दिल में एकदूसरे के लिए दर्द है.’’

‘दूसरे के लिए दर्द’ सुलभा कैसे कहे यह दर्द तो उस का अपना है. उस ने बात पलट कर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं. यह तुम्हारा बेटा है न.’’

‘‘हां, मैम, 2 जवान लड़के और हैं, इस से बड़े सब. लेकिन दिल की बात सम?ाने वाला मर्द हो तो सबकुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं… कुछ भी नहीं.’’

‘‘हां, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं,’’ जैसे प्रतिध्वनि गूंज रही है. सुलभा के मन में भी यही आवाज उठ रही है.

सुलभा हौले से कह उठी, ‘‘हां, अपना पति अपना हो तो सब अपने हैं नहीं तो कोई भी कुछ नहीं. पत्नी लायक हो तो भी, घर बैठने वाली तो भी.’’

तुम्हारा गुनहगार: समीर की अनचाही मंजिल

मैंने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता, बल्कि मैं ने कभी जरूरत ही नहीं समझ. मैं ने कभी किसी बात को दिल से नहीं लगाया. लिखना मुझे व्यर्थ की बात लगती. मैं सोचता क्यों लिखूं? क्यों अपनी सोच से दूसरों को अवगत कराऊं? मेरे बाद लोग मेरे लिखे का न जाने क्याक्या अर्थ लगाएं. मैं लोगों के कहने की चिंता ज्यादा करता अपनी कम.

अकसर लोग डायरी लिखते हैं. कुछ प्रतिदिन और कुछ घटनाओं के हिसाब से. मैं अपने विषय में किसी को कुछ नहीं बताना चाहता, लेकिन पिछले 1 सप्ताह से यानी जब से डा. नीरज से मिल कर लौटा हूं अजीब सी बेचैनी से घिरा हूं. पत्नी विनीता से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पाता. वह तो पहले ही बहुत दुखी है. बातबात पर आंखें भर लेती है. उसे और अधिक दुखी नहीं कर सकता. बेटे वसु व नकुल हर समय मेरी सेवा में लगे रहते हैं. उन्हें पढ़ने की भी फुरसत नहीं. मैं उन का दिमाग और खराब नहीं करना चाहता. यों भी मैं जिस चीज की मांग करता हूं वह मुझे तत्काल ला कर दे दी जाती है, भले ही उस के लिए फौरन बाजार ही क्यों न जाना पड़े. मैं कितना खुदगर्ज हो गया हूं. औरों के दुखदर्द को समझना ही नहीं चाहता. अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता हूं, लेकिन लगा नहीं पा रहा.

‘‘पापा, आप चिंता न करो. जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ कहता हुआ वसु जब अपना हाथ मेरे सिर पर रखता है, तो मैं समझ नहीं पाता कि यह कह कर वह किसे तसल्ली दे रहा है मुझे या अपनेआप को? उस से क्या कहूं? अभी मोबाइल पर किसी और डाक्टर से कंसल्ट करेगा या नैट में सर्च करेगा. बच्चे जैसे 1-1 सांस का हिसाब रख रहे हैं. कहीं 1 भी कम न हो जाए और मैं बिस्तर पर पड़ा इन सब की हड़बड़ी, हताशानिराशा उन से आंखें चुराते देखता रहता हूं. उन की आंखों में भय है. भय तो अब मुझे भी है. मैं भी कहां किसी से कुछ कह पा रहा हूं.

डा. राजेश, डा. सुनील, डा. अनंत सभी की एक ही राय है कि वायरस पूरे शरीर में फैल चुका है. लिवर डैमेज हो चुका है. जीवन के दिन गिनती के बचे हैं. डा. फाइल पलटते हैं, नुसखे पढ़ते हैं और कहते हैं कि इस दवा के अलावा और कोई दवा नहीं है.

सुन कर मेरे अंदर छन्न से कुछ टूटने लगता है यानी मेरी सांसों की डोर टूटने में कुछ ही समय बचा है. मेरे अंदर जीने की अदम्य लालसा पैदा होने लगती है. मुझे अफसोस होता है कि मेरे बाद पत्नी और बच्चों का क्या होगा? अकेली विनीता बच्चों को कैसे संभालेगी? कैसे बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी? कैसे घर खर्च चलेगा? 2-4 लाख रुपए घर में हैं तो वे कब तक चलेंगे? वे तो डाक्टरों की फीस और मेरे अंतिम संस्कार पर ही खर्च हो जाएंगे, घर में पैसे आने का कोई तो साधन हो.

विनीता ने कितना चाहा था कि वह नौकरी करे पर मैं ने अपने पुरुषोचित अभिमान के आगे उस की एक न चलने दी. मैं कहता कि तुम्हें क्या कमी है? मैं सभी की आवश्यकताएं आराम से पूरी कर रहा हूं. पर अब जब मैं नहीं रहूंगा तब अकेली विनीता सब कैसे संभालेगी? घर और बाहर संभालना उस के लिए कितना मुश्किल होगा. मैं अब क्या करूं? उसे कैसे समझाऊं? क्या कहूं? कहीं मेरे जाने के बाद हताशानिराशा में वह आत्महत्या ही न कर ले. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती. वह इतनी कमजोर नहीं है. मैं भी न जाने क्या उलटीसीधी बातें सोचने लगता हूं. पर विनीता से कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे हैं.

रिश्तेदार 1-1 कर आ जा रहे हैं. कुछ मुझे तसल्ली दे रहे हैं तो कुछ स्वयं को. पत्नी विनीता और बेटा वसु गाड़ी ले कर मुझे डाक्टरों को दिखाने के लिए शहर दर शहर भटक रहे हैं. आय के सभी स्रोत लगभग बंद हैं. वे सब मुझे किसी भी कीमत पर बचाने की कोशिश में लगे हैं.

मैं डाक्टर की बातें सुन और समझ रहा हूं, लेकिन इस प्रकार दिखावा कर रहा हूं कि डाक्टरों की बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं.

विनीता और वसु के सामने उन का मन रखने के लिए कहता हूं, ‘‘डाक्टर बेकार बक रहे हैं. मैं ठीक हूं. यदि लिवर खराब है या डैमेज हो चुका है तो खाना कैसे पचा रहा है? तुम सब चिंता मत करो. मैं कुछ दिनों में ठीक हो कर चलने लगूंगा. तुम डाक्टरों की बातों पर विश्वास मत करो. मैं भी नहीं करता.’’

पता नहीं मैं स्वयं को समझ रहा हूं या उन्हें. पिछले 5 सालों से यही सब हो रहा है. मैं एक भ्रम पाले हुए हूं या सब को भ्रमित कर रहा हूं. 5 साल पहले बताए गए सभी कारणों को डाक्टरों की लफ्फाजी बता कर नकारने की कोशिश करता रहा हूं. यह छल पत्नी और बच्चों से भी किया है पर स्वयं को नहीं छल पाया हूं.

एचआईवी पौजिटिव बहुत ही कम लोग होते हैं. पता नहीं मेरी भी एचआईवी पौजिटिव रिपोर्ट क्यों कर आई.

विनीता के पूछने पर डाक्टर संक्रमित खून चढ़ना या संक्रमित सूई का प्रयोग होना बताता है, लेकिन मैं जानता हूं विनीता मन से डाक्टर की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही. वह तरहतरह की पत्रिकाओं और किताबों में इस बीमारी के कारण और निदान ढूंढ़ती रहती है.

मैं जानता हूं कि 7 साल पहले यह बीमारी मुझे कब और कैसे हुई? जीवन में पहली बार मित्र के कहने पर लखनऊ में एक रात रुकने पर उसी के साथ एक होटल में विदेशी महिला से संबंध बनाए. गया था रात हसीन करने, जीवन का आनंद लेने पर लौटा जानलेवा बीमारी ले कर. दोस्त ने धीरे से कंधा दबा कर सलाह भी दी थी कि सावधानी जरूर बरतना. पर मैं जोश में होश खो बैठा. मैं ने सावधानी नहीं बरती और 2 साल बाद जब तबीयत बिगड़ीबिगड़ी रहने लगी तब डाक्टर को दिखाया और ब्लड टैस्ट कराया. तभी इस बीमारी का पता चला. मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई. अब क्या हो सकता था, सिवा इलाज के? इलाज भी कहां है इस बीमारी का? बस धीरेधीरे मौत के मुंह में जाना है. न तो मैं दिल खोल कर हंस सकता और न ही रो. अपनी गलती किसी को बता भी नहीं सकता. बताऊं भी कैसे? मैं ने विनीता का भरोसा तोड़ा था, यह कैसे स्वीकार करता?

विनीता से कई लोगों ने कहने की कोशिश भी की, लेकिन उस का उत्तर हमेशा यही रहा कि मैं अपने से भी ज्यादा समीर पर विश्वास करती हूं. वे ऐसा कुछ कभी कर ही नहीं सकते. समीर अपनी विनीता को धोखा नहीं दे सकते. मुझे लग रहा था कि विनीता अंदर ही अंदर टूट रही है. स्वयं से लड़ रही है, पर मुखर नहीं हो रही, क्योंकि उस के पास कोई ठोस कारण नहीं है. मैं भी उस के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता.

पिछले 5 सालों से हमारे बीच पतिपत्नी जैसे संबंध नहीं हैं. हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मुझे कई बार अफसोस होता कि मेरी गलती की सजा विनीता को मिल रही है. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि शारीरिक संबंध न बनाए जाएं. मेरी इच्छा होती तो उस का मैं कठोरता से दमन करता. विनीता भी मेरी तरह तड़पती होगी. कभी विनीता का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेता, लेकिन उस का सूनी आंखों में झंकने की हिम्मत न कर पाता. वह मुझे एकटक देखती तो लगता कि पूछ रही है कि तुम यह बीमारी कहां से लाए? मेरी नजरें झुक जातीं. मैं मन ही मन दोहराता कि विनीता मैं तुम्हारा अपराधी हूं. तुम से माफी मांग कर अपना अपराध भी कम नहीं कर सकता.

मैं रोज तुम्हारे कमरे में आ कर तुम्हें छाती पर तकिया रखे सोते देखता हूं. आंखें भर आती हैं. मैं इतना कठोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. तुम्हें आगोश में भरने का मेरा भी मन है. मेरी इच्छाएं भी अतृप्त हैं. एक घर में रह कर भी हम एक नदी के 2 किनारे हैं. तुम पलपल मेरा ध्यान रखती हो. वक्त से खाना और दवा देती हो. मुझे डाक्टर के पास ले जाती हो. फिर भी मैं असंतुष्ट रहता हूं. मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. तुम मुझ से दूर भागती हो और मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता तो वे क्रोध में मुखर होने लगती हैं. सोच और विवेक पीछे छूट जाते हैं. मैं तो मर ही रहा हूं तुम्हें भी मृत्यु देना चाहता हूं. मैं कितना खुदगर्ज इंसान हूं विनीता.

वक्त के साथ दूरी बढ़ती ही जा रही है. मेरा जीना सब के लिए व्यर्थ है. मैं जी कर घर भी क्या रहा हूं सिवा सब को कष्ट देने के? मेरे रहते हुए भी मेरे बिना सब काम हो रहे हैं, मेरे बाद भी होंगे.

आज की 10 तारीख है. मुझे देख कर डाक्टर अभीअभी गया है. मैं बुझने से पहले तेज जलने वाले दीए की तरह अपनी जीने की पूरी इच्छा से बिस्तर से उठ जाता हूं. विनीता और बच्चों की आंखें चमक उठती हैं. मैं टौयलेट तक स्वयं चल कर जाता हूं. फिर लौट कर कहता हूं कि मैं चाहता हूं विनीता कि मेरे जाने के बाद भी तुम इसी तरह रहना जैसे अब रह रही हो.

मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम नहीं जानतीं कि मैं पिछले सप्ताह से बसु से अपने एटीएम कार्ड से रुपए निकलवा कर तुम्हारे खाते में जमा करा रहा हूं. ताकि मेरे बाद तुम्हें परेशानी न हो. मैं ने सब हिसाबकिताब लिख कर दिया है, समझदार हो. स्वयं और बच्चों को संभाल लेना. मुझे तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना जरा भी अच्छा नहीं लग रहा, पर जाना तो पड़ेगा. मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है कि तुम से कहूं, फिर कहनेसुनने से दूर हो जाऊंगा. तुम भी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती होगी पर मेरी परेशानी देख कर चुप हो. न मैं तुम से कुछ कह पाऊंगा और न तुम सुन पाओगी. तुम्हें देखतेदेखते ही किसी भी पल अलविदा कह जाऊंगा. मैं जानता हूं तुम्हें हमेशा यही डर रहता है कि पता नहीं कब चल दूं. इसीलिए तुम मुझे जबतब बेबात पुकार लेती हो. हम दोनों के मन में एक ही बात चलती रहती है. मुझे अफसोस है विनीता कि मुझे अपना वादा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी किए बगैर ही जाना पड़ेगा.

तुम सो गई हो. सोती हुई तुम कितनी सुंदर लग रही हो. चेहरे पर थकान और विषाद की रेखाएं हैं. क्या करूं विनीता आंखें तुम्हें देख रही हैं. दम घुट रहा है. कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूं.

विनीता यह जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नए जीवन की शुरुआत है. अंधेरा दूर होगा, सूरज निकलेगा. इतने दिन से जो धुंधलापन छाया था सब धुलपुंछ जाएगा. तुम्हारा कुछ भी नहीं गया है. यह मैं क्या सम?ा रहा हूं? क्या तुम्हें नहीं समझता? समझता हूं तभी समझ रहा हूं. अब मेरा जाना ही ठीक है. वसु को कोर्स पूरा करना है. उसे प्लेसमेंट जौब मिल गई है. एक रास्ता बंद होता है. दूसरा खुल जाता है. नकुल भी शीघ्र ही अपनी मंजिल पा लेगा.

विनीता, तुम्हारे पास मेरे सिवा सभी कुछ होगा. मैं जानता हूं मेरे बाद तुम्हें अधूरापन, खालीपन महसूस होगा. तुम अपने अंदर के एकाकीपन को किसी से बांट नहीं पाओगी. मैं

भी तुम्हारा साथ देने नहीं आऊंगा. पर मेरे सपनों को तुम जरूर पूरा करोगी. मन से मुझे माफ कर देना. अब बस सांस उखड़ रही है… अलविदा विनीता अलविदा… तुम्हारा समीर

Memories : स्मृतियों का जाल

बीता वक्त भूलता कहां है. कितना अच्छा होता व्यक्ति आगे बढ़ता जाता और पिछला भूलता जाता लेकिन बीता वक्त जमा होता रहता है और गीली लकड़ी सा सुलगता तपिश देता रहता है.

वह अच्छी तरह जानती है कि गाड़ी चलाते समय पूरी सावधानी रखनी चाहिए. तमाम प्रयासों के बावजूद उस का मन एकाग्र नहीं रह पाता, भटकता ही रहता है. उस के मन को तो जैसे पंख ही लगे हैं. कहीं भी हो, बस दौड़ता ही रहता है.

वह अपनेआप से बतियाती है. वह चाहती है कि वह जानती है उसे सब जानें. लेकिन वह खुद ही सब से छिपाती है. बस, सबकुछ अपनेआप से दोहराती रहती है. वह सिर को झटकती है. विचारों को गाड़ी के शीशे से बाहर फेंकना चाहती है. पर वह और उस की कहानी दोनों साथसाथ चलते हैं. अब तो उसे अपने विचारों के साथसाथ चलने की आदत हो गई है. उस के अंतर्मन और बाहरी दुनिया दोनों के बीच अच्छा तारतम्य बैठ गया है.

उस की स्मृतियों में भटकते रहते हैं उस के जीवन के वे दिन जो खून के साथ उस की नसों में दौड़ते रहते हैं. वह खेल रही है रेत में मिट्टी, धूल से सनी हुई. उस की गुडि़या भी उस के साथ रहती है. वह घूम रही है खेतों में, गांव के धूलभरे रास्तों में. दादादादी और कई लोग हैं जो उस के साथ हैं. वह भीग रही है. दौड़ रही है.

घर में मिट्टी के बरतनों में खाने के सामान रखे हैं. बरामदे की अलमारियों में उस की पसंद की मिठाइयां रखी रहती हैं. बाबा रोज स्कूल से आने पर उस से पाठ सुनते हैं. दादी जहां जाती वह उन के साथ जाती, उन के संगसंग घूमती है. ईंधन, चूल्हा, खेतखलिहान, गायभैंस, कुआं, गूलर का पेड़ कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो उस की यादों से कणभर भी धूमिल हुआ हो. पर इन सब स्मृतियों में उस के जन्मदाता कहां हैं? उन की यादों को वह अपने अंतर्मन पर पलटना भी नहीं चाहती. उस की स्मृतियों में उन का स्थान इतना धूमिल सा क्यों है?

दृश्य बदल रहा है. गांव छूट गया है. ममता का घना वृक्ष, जिस की छाया में उस का बचपन सुरक्षित था, वहीं रह गया. अब वह शहर आ गई है. यहां कोई छांव नहीं है. बस, कड़ी धूप है. धूप इतनी तेज थी कि उस का बचपन भी झुलस कर रह गया और उस झुलसन के निशान उस के मन पर छोड़ता गया. अब तो, बस, लड़ाई ही लड़ाई थी – अस्तित्व की लड़ाई, अस्मिता की लड़ाई, अपनेआप को जीवित रखने, मरने न देने की लड़ाई.

उस ने भी इस लड़ाई को जारी रखा. लड़ती रही. उस ने किताबों से दोस्ती कर ली. किताबों के पाठों, कविताओं, कहानियों में खुद को ढूंढ़ती रहती. अपने अंदर बसे हुए डर का सामना करती. वह चलती रही. सब से अलग, अकेली अपनी दुनिया के साथ जीती रही.

स्मृतियां हमारा पीछा नहीं छोड़तीं. अतीत अगर साथसाथ न चलता तो व्यक्ति का जीवन कैसा होता? क्या तब वह ज्यादा सुखी होता? क्या पता? यह तो तब होता जब व्यक्ति आगे बढ़ता जाता और पिछला भूलता जाता. परंतु ऐसा होता कहां है? बीता हुआ बीतता कब है. वह तो जमा होता रहता है और गीली लकड़ी सा सुलगता रहता है.

बचपन से ले कर अब तक कितने ही साल तक वह सपनों में भी डरती रही. लोगों की उलाहनाएं, दुत्कार उस के मन को दुख और घृणा से भर देते. आत्मविश्वास से हीन, डरपोक वह. हीनभावना उस के दिल पर इस कदर हावी हो गई थी कि उस का अस्तित्व भी लोगों को नजर नहीं आता था. तपती धूप उसे जलाती. जितना वह आगे बढ़ने की कोशिश करती, दिखावटी आवरणों से ढके लोग उसे पीछे ढकेलने में लग जाते अपने पूरे सामर्थ्य के साथ. किंतु अपने सारे डरों के साथ भी वह चलती रही. जितनी ज्यादा ठोकरें लगतीं, उस का हौसला उतना ही मजबूत होता जाता. हालांकि बाहर से वह डरी हुई, घबराई हुई दिखती किंतु उस का आत्मबल, दृढ़ता इतनी पर्याप्त थी कि वह कभी अपने रास्ते से डिगी नहीं.

जीवन चल रहा है, आज वह दुनिया के सामने सफल है. उस के पास अच्छी जौब है, घर है, गाड़ी है, पैसा है. वह मां है, पत्नी है. कुछ भी ऐसा नहीं दिखता जो नहीं है. पर क्या है जो नहीं है? जो नहीं है वह कभी मिलेगा भी नहीं. क्योंकि वह तो कभी था ही नहीं. व्यक्ति जो महसूस करता है, जिस संसार में जीता है, कई बार उस का बाहरी संसार से कोई सरोकार नहीं होता. यहां तो दौड़ है. दूसरे को ढकेल कर खुद आगे निकलने की दौड़. ऐसे में कौन होगा जो उसे समझना चाहेगा, उस की भावनाओं को अहमियत देगा. नहीं, उसे किसी से कुछ नहीं कहना. सबकुछ अपने भीतर ही समेट कर रखना है.

सबकुछ अपने अंदर ही जब्त करतेकरते उस की उम्र ही गुजर गई. अब वह उम्रदराज हो गई है. पर उस के मन की उम्र नहीं बढ़ी. अभी भी वह अपने आधेअधूरे सपनों की दुनिया में ही जीती है.

पर अब उसे घुटन होने लगी है. अपनेआप को सीमाओं में बांधे रहने की अपनी प्रकृति से उसे खीझ होती. कब तक वह इसी तरह जिएगी. अब वह सब छोड़ देना चाहती है. भाग जाना चाहती है. उसे अपना अस्तित्व एक पिंजरे में कैद पंछी जैसा लगता. हर आकर्षण, हर इच्छा को वह सब अपने अंदर ही अंदर जीती है और धीरेधीरे उसे खत्म कर देती है. उसे अपना जिस्म, अपना मन सब बंधे हुए महसूस होते. दायरे, सीमाएं, विवेक सब बंधन हैं जो मनुष्य के जीवन को गुलाम बना लेते हैं. इस गुलामी की बेडि़यां इतनी मजबूत होती हैं कि मनुष्य चाह कर भी उन्हें तोड़ नहीं पाता.

उसे अब किसी से भी द्वेष नहीं होता. अपने जन्मदाताओं से भी नहीं जिन्होंने उसे जीवन की दौड़ में अकेला छोड़ दिया. उन्होंने अपनाअपना जीवन जी लिया. अगर वे भी बंधे रहते तो क्या पता उन का जीवन भी उसी के जैसा हो जाता, घुटन भरा.

वह अब स्वप्न देख रही है. वह उड़ रही है. मुक्त आकाश में विचरण कर रही है. हंस रही है. वर्षों से जमा मैल साफ हो गया है. असंभव अब संभव हो गया है. बेडि़यों को झटक कर अब वह आजाद हो गई है.

दुनिया की नजरों में तू गलत है

रात का वक्त था और 11 बज चुके थे लेकिन मानवी घर नहीं आई थी. घर वाले परेशान हो रहे थे कि आखिर अभी तक मानवी रह कहां गई अभी तक आयी क्यों नहीं क्यों कि मानवी का फोन भी नहीं लग रहा था. धीरे-धीरे रात के 1 बज गए….

घड़ी की सुईयों को देखकर मां-बाप के हांथ-पैर कांप रहे थे. कि तभी दरवाजे पर कुछ हरकत हुई और पिता ने जाकर दरवाजा खोला तो सामने मानवी खड़ी थी और उसकी जो हालत थी वो देखकर आप की भी आत्मा कांप उठती.मानवी के कपड़े फटे हुए थे और उसे खूब सारी चोटें भी लगी थीं.

अब तक आप भी समझ चुके होंगे कि उसके साथ क्या हुआ होगा जी हां वही जो आप सोच रहें हैं जिस शब्द को कोई भी मां-बाप सुनना नहीं चाहेगा अपनी बेटी के लिए…. वो शब्द है बलात्कार.

मां ने बेटी को संभाला उसे लेकर अंदर गयी और बाप की तो कुछ भी बोलने और सोचने की हिम्मत ही नहीं थी और ना ही कुछ पूछने की हिम्मत थी. बेटी फूट-फूट कर रो रही थी मां-बाप भी फूट-फूटकर रो रहे थे. लेकिन अब सवाल ये था कि करे क्या?

अगले दिन परिवार के किसी भी सदस्य को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें आखिरकार लकड़ी ने पुलिस में शिकायत करने की ठानी और कहा कि उन दोषियों को सजा तो होनी ही चाहिए कि पीछे से मां की तेज आवाज आती है ..नहीं…तू कहीं नहीं जाएगी और ना ही कोई शिकायत दर्ज होगी.

आप क्या कर रहें हैं जी आखिर कैसे जिएंगें हम समाज में अगर बात फैल गई तो हमारा इस समाज में रहना मुश्किल हो जाएगा.भला कौन शादी करेगा इससे….हम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे..ऐसा लड़की की मां ने लड़की के पिता से कहते हुए मानवी का हांथ पकड़ा और उसे अंदर ले गयी.

फिर मानवी की मां उसे ये समझाने लगी कि तू चाहे कितनी भी सफाई दे ले लेकिन दुनिया की नजरों में तू ही गलत होगी लोग कहेंगे लड़की को इतनी रात में बाहर जाने की क्या जरुरत थी? और ये समाज तूझे जीने नहीं देगा मेरी बच्ची इसलिए भूल जा सब कुछ जो भी तेरे साथ हुआ और किसी से कुछ भी मत कहना….

भले ही मां ने जो कहा वो गलत है लेकिन जरा सोचिए एक मां ये बात अपनी बेटी से कह रही है यहां पर शायद वो मां गलत नहीं है क्योंकि उसने समाज देखा है और वो जानती है कि अगर उसकी बेटी ने किसी से कुछ भी कहा तो ये समाज उसकी बेटी को जीने नहीं देगा और उसकी बेटी अंदर ही अंदर घुटघुट कर मर जाएगी.

अगर उसकी मां ने ये बात कही तो उसकी वजह तुम समाज वाले हो कम-स-कम इतना तो रहम करो और इज्जत करो कि एक लड़की खुलकर जी सके और अपने साथ हुए उस बलात्कार जैसी घटना का बदला ले सके ये सोचकर की समाज ये दुनिया उसके साथ है.

जो लोग साथ है उनकी बात अलग है लेकिन जो लोग साथ नहीं हैं वो सभी अपनी सोच को बदले और समाज में कुछ ऐसे मिसाल पेश करें जो जन्मों तक सबको याद रहें.मानवी जैसी लड़कियां अपनी बात दुनिया के सामने रख सकें और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा सकें.

मधु बना विष: प्रभा बूआ ने खुद को क्यों दोषी माना

बचपन में होश संभालने के बाद पंकज ने बूआ के मुंह से यही सुना था कि ‘यह तुम्हारी मम्मी की तसवीर है. इसे प्रणाम करो’ और अब 3 साल का पंकज पूजा के कमरे में आ कर आले में रखी अपनी मां की तसवीर को एकटक देखता रहता. कभीकभी वह बूआ की गोद में चढ़ कर तसवीर पर हाथ भी फेर लेता.

पहले वह तसवीर पंकज के पिता शिवानंद के कमरे में टंगी थी क्योंकि इस के साथ उन की कुछ यादें जुड़ी थीं. कभी चित्र की नायिका ने शिवानंद से कहा भी था, ‘अब तो मैं सशरीर यहां रहती हूं. तब मेरा इतना बड़ा चित्र क्यों लगा रखा है? अब तो मैं वधू भी नहीं रही, एक बच्चे की मां बन चुकी हूं.’

शिवानंद ने तब हंसते हुए कहा था, ‘क्या करूं मेरी आंखों में तुम्हारा वही रूप समाया हुआ है.’

‘हमेशा पहले जैसा तो नहीं रहेगा,’ रश्मि बोली, ‘अब तो रूप बदल गया है.’ ‘नहीं, रश्मि. हम बूढे़ हो जाएंगे तब भी तुम ऐसी ही याद आती रहोगी,’ शिवानंद भावुक हो कर बोले, ‘पहली झलक यही तो देखी थी.’

यह सच था कि विवाह से पहले शिवानंद और रश्मि ने एक दूसरे को देखा नहीं था. रश्मि को परिवार के दूसरे लोगों ने देखा और पसंद किया. तब जयमाला की रस्म होती नहीं थी. विवाह के समय सबकुछ इतना दबादबा हुआ था कि चाह कर भी शिवानंद पत्नी को देख नहीं सके. विवाह कर घर लौटे तो अपने कमरे में टंगे चित्र में पत्नी को पहली बार देखा तो देखते ही रह गए. इस चित्र को उन के छोटे भाई सदानंद  ने खींचा था और बड़ा करा कर भाई के कमरे में लगा दिया था.

रश्मि के कई बार टोकने पर भी वह चित्र उन के शयनकक्ष में लगा ही रहा. 2 साल में रश्मि ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया, जिस का नाम पंकज रखा गया. पंकज भरेपूरे परिवार का दुलारा था. उस के दिन सुख से बीत रहे थे कि रश्मि में पुन: मातृत्व के लक्षण उभरे. घर में बेटा या बेटी को ले कर एक नई बहस छिड़ गई. दादी कहती कि एक बेटा और हो जाए तो पंकज को भाई मिल जाएगा. दोनों भाई उसी तरह साथ रहेंगे जैसे मेरे शिवानंदसदानंद रहे. बूआ पूछती, ‘मां, क्या बहन भाई के सुखदुख की साथी नहीं होती?’

इस तरह के हासपरिहास में 4 महीने बीत गए कि अचानक एक दिन रश्मि अपनी ही साड़ी में उलझ कर सीढि़यों से लुढ़कती हुई नीचे आ गिरी. बच्चा पेट में ही मर गया. रश्मि की चोट गहरी थी. उसे भी बचाया नहीं जा सका.

रश्मि का वधूवेश में लिया चित्र पहले जहां टंगा रहता था उस की मृत्यु के बाद भी वही टंगा रहा. नन्हा पंकज पूछता तो बूआ बहलाते हुए कहतीं, ‘मम्मी, अभी फोटो में से निकल कर आसमान में घूमने गई हैं.’

‘कैसे, प्लेन में बैठ कर?’

‘हां, बेटा.’

‘बूआ, मम्मी, घूम कर कब आएगी?’

‘बस, एकदो दिन में आ जाएगी.’

शिवानंद के विरोध पर उन का विवाह टल गया था. उस दौरान बेटी प्रभा भी शादी कर के अपनी ससुराल चली गई. मां को गृहस्थी संभालना पहाड़ लग रहा था क्योंकि बहू और बेटी के रहते हुए उन में निश्ंिचतता की आदत पड़ गई थी. मां मजबूरी में घर तो संभाल रही थी पर बेटे व पोते की तकलीफ जब देखी नहीं गई तो उन्होंने शिवानंद पर फिर से शादी कर लेने का दबाव यह सोच कर बनाया कि पत्नी आने के बाद पंकज की देखभाल हो जाएगी और शिवानंद का मन भी लग जाएगा.

शिवानंद भी थोड़ा टालमटोल के बाद फिर से विवाह के लिए तैयार हो गए.

शिवानंद की वकालत अच्छी चल रही थी. अपना बड़ा सा मकान था. पिता भी शहर के जानेमाने वकीलों में से थे. उन के विवाह के 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो सब तरह से वे सुयोग्य वर थे. एक बेटा था तो उसे भी देखने वाले बहुत लोग थे.

शिवानंद की फिर से विवाह की तैयारी होने लगी. चढ़ावे के लिए नई साडि़यां और गहने आए, रश्मि के गहने भी थे जिन्हें नई बहू को देने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी.

प्रभा ने यह कहते हुए कि रश्मि भाभी के कुछ गहने चढ़ावे पर नहीं जाएंगे, अलग रख दिए.

‘तुम्हारा मन है तो बाकी मुंहदिखाई में दे देंगे,’ मां ने दुलार में कहा, ‘मांग टीका और नथ तो अभी चढ़ावे के समय जाने दो.’

‘नहीं मां, इन्हें भी अलग ही रहने दो.’ बेटी प्रभा बोली, ‘सब कुछ मुझे पंकज के विवाह में देना है.’

दुलार भरी हंसी से मां ने कहा, ‘पंकज की बहू के लिए पुराने गहने. अरे पगली, तब तक कितना नया चलन हो जाएगा.’

प्रभा मचलते हुए तब बोली थी, ‘अम्मां, यह सब अलग ही रख लें… वह लहंगाचुनरी भी, सभी कुछ मेरे कहने से.’

लाडली बेटी की बात अम्मां ने मान ली और बहू शिखा के लिए सबकुछ नया सामान चढ़ावे में भेजा गया.

अम्मां ने टोका अवश्य था कि बेटी, नई बहू क्या पंकज को उस का हिस्सा नहीं देगी. आखिर उस का हिस्सा तो रहेगा ही.

‘उस के अपने भी तो होंगे, अम्मां. यह सब अलग जमा कर दें.’

मां के मन में विवाद उठा, ‘लड़की अपने लिए तो कुछ नहीं कह रही है पर भतीजे के लिए ममता का यह रूप भी किसी को अच्छा नहीं लग रहा था.’

विवाह हुआ. शयनकक्ष सजा. कुछ याद करते हुए मां ने आदेश दिया और उस दिन रश्मि का वधूवेश में सालों से टंगा चित्र वहां से हट कर पीछे के एक कमरे में लगा दिया गया. प्रभा ने देखा तो वह विचलित हो उठी और वहां से हटा कर तसवीर को पूजा के कमरे में लगाने लगी.

पंकज ने तोतली आवाज में पूछा था, ‘बूआ का कर रही हो. मम्मी ऊपर से आएंगी तो रास्ता भूल जाएंगी न.’

‘मम्मी आ गई हैं,’ यह कहते हुए प्रभा ने पंकज को नववधू शिखा की गोद में बैठाया तो वह यह कहते हुए गोद से उतर गया, ‘नहीं, यह मेरी मम्मी नहीं हैं.’

शूल सा लगा शिखा को सौतेले बेटे का कथन. पंकज अपना हाथ छुड़ा कर  उस कमरे में चला गया जहां पहले उस की मां की तसवीर टंगी थी. पर वहां चित्र नहीं था. ‘अरे, मेरी मम्मी कहां गई,’ करुण स्वर चीत्कार कर उठा.

‘देखो पंकज, यह हैं मम्मी. तुम भूल गए. वह अब यहां आ गई हैं. सब उन की पूजा करेंगे न.’

प्रभा को लगा कि नई मां ला कर पंकज के साथ अन्याय किया गया है. पंकज के प्रति उस की अगाध ममता

ही थी जो उस ने रश्मि भाभी के  गहने शिखा भाभी को न देने की जिद की थी.

शिखा ने 2 पुत्रों और 1 पुत्री को जन्म दिया था. पंकज भी जैसेजैसे समझदार हुआ उस ने मां को मां का सम्मान ही दिया और भाईबहन को अपना माना. मन में कोई विद्वेष नहीं था, पर पूजाघर में जब भी पंकज जाता मां की तसवीर को बेहद श्रद्धा से देखता.

बीतते समय के साथ पंकज इंजीनियर बना तो विवाह के लिए रिश्ते भी आने लगे. उस की राय मांगी गई तो प्रोफेसर  की बेटी निधि उसे पसंद आई. प्रोफेसर ने शिवानंद को सपरिवार घर आने का निमंत्रण दिया. प्रभा उसी दिन ससुराल से आई थी. बोली, मैं भी भाभी के साथ लड़की देखने चलूंगी.

‘‘बूआ,’’ पंकज बोला, ‘‘मुझे कुछ जरूरी काम को पूरा करने के लिए अभी बाहर जाना है. आप और मां लड़की देखने चली जाएं. आप की पसंद मेरी पसंद होगी.’’

लड़की देखने की औपचारिकता पूरी करने के बाद एक माह के अंदर शादी हो गई और निधि दुलहन बन कर पंकज के घर आ गई. अब प्रभा ने रश्मि का चित्र पूजा घर से हटा कर पंकज के कमरे में लगा दिया.

आज सुहागरात है, यह सोच कर प्रभा ने अपनी पसंद के कपड़े निधि को पहनाए. फिर वे सभी गहने जो कभी रश्मि ने शादी के मौके पर पहने थे और जिसे आज के दिन के लिए प्रभा ने मां के पास रखवा दिए थे. निधि को गहने पहना कर देखा तो देखती रह गई. उसे लगा जैसे चित्र में से निकल कर रश्मि आ गई है. अनुकृति ही नहीं असल में है वही.

शयनकक्ष में सुहाग सेज पर प्रतीक्षा में बैठी निधि को देख कर पंकज विक्षिप्त हो उठा, ‘‘मम्मीमम्मी, तुम आ गईं.’’

पंकज के कहे शब्दों को सुन कर दरवाजे पर खड़ी भाभी और बहनें विस्मय से चीख पड़ीं. प्रभा बूआ, देखिए न पंकज को क्या हो गया है? उधर उस के सामने खड़ी निधि विस्मय, अकुलाहट, अचकचाहट से उसे देखती रह गई.

‘‘पंकज क्या है, क्या कह रहे हो? वह निधि है, तुम्हारी पत्नी,’’ बूआ बोली, ‘‘मम्मी कहां से आ गईं? पागल हो गए हो?’’

‘‘आ गई है न बूआ, देखिए न…’’

विस्मय, आश्चर्य, अनहोनी के डर से कांपती प्रभा बूआ अपने को अपराधिनी मानती हुई पंकज को घसीट कर निधि के पास कर आई और निधि का हाथ उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पंकज यह तुम्हारी पत्नी है.’’

‘‘नहीं,’’ बूआ का हाथ झटक कर निधि बोली, ‘‘इन्होंने मुझे मम्मी कहा है. मैं दूसरे संबंध की कल्पना नहीं कर सकती. मैं इन की पत्नी नहीं हो सकती,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चली गई.

परिवार के बडे़बूढ़ों के साथ दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी निधि को समझाया कि वैदिक मंत्रों के बीच तुम ने सात फेरे लिए हैं, तो कहे के रिश्ते का क्या मूल्य है. बेटी, उसे नाटक समझ कर भूल जाओ.

इस बीच निधि मायके गई तो फिर ससुराल आने का नाम ही नहीं लेती थी. तब घरवालों ने ऊंचनीच समझा कर उसे किसी तरह ससुराल भेज दिया.

पंकज का भ्रम टूट जाए, इस के लिए सब तरह के उपाय किए गए. मनोचिकित्सक से परामर्श भी लिया गया. रश्मि का चित्र पंकज के कमरे से हटा कर अलमारी में बंद कर दिया गया था. रश्मि के पहने गहने और कपडे़ अलग रख दिए गए, इस के बाद सालों बीत जाने पर भी निधि के मन में पंकज के प्रति प्रणय के अंकुर न फूटे. उस के नाम से ही उसे अरुचि हो गई थी. मन बहल जाए इसलिए पिता ने बेटी को पीएच.डी. करने की प्रेरणा दी ताकि अध्ययन में व्यस्त हो कर वह अपने अतीत को भूल जाए.

उधर पंकज को भी एकदो बार अवसर दिया गया कि स्थिति में सुधार हो किंतु वह न सुधर सका. उस की ऐसी मनोदशा देख पिता शिवानंद ने उस का निधि से संबंधविच्छेद करवा दिया. कुछ सालों बाद निधि का अपने सहयोगी से प्रेमविवाह हो गया.

पंकज के मन पर जो गहरा आघात लगा था वह वर्षों के इलाज से थोड़ा बहुत सुधरा, किंतु कभीकभी वह दिमाग का संतुलन खो बैठता था. सरकारी नौकरी थी, चल रही थी, पर कभी भी उस के छूटने की आशंका बनी रहती थी. उस के पुनर्विवाह के लिए संबंध आते रहे किंतु पिता शिवानंद ने कहा कि जब तक वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता वह किसी की लड़की का जीवन बरबाद नहीं करेंगे.

प्रभा बूआ अपने सौम्य, सुंदर, सुयोग्य भतीजे को पागलपन के कगार पर लाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं. आंसू बहाती हैैं और कहती हैं, ‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे लाड़ की ऐसी परिणति होगी.’’

Romantic Story : प्रेम की इबारत

रात के अंधियारे में पूरा मांडवगढ़ अब कितना खामोश रहता है, यहां की हर चीज में एक भयानकता झलकती है. धीरेधीरे खंडहरों में तबदील होते महल को देख कर इतना तो लगता है कि ये कभी अपार वैभव और सुविधाओं की अद्भुत चमक से रोशन रहते होंगे. कभी गूंजती होंगी यहां रहने वाले सैनिकों की तलवारों की खनक, घोड़ों के टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, जिस की गवाह हैं ये पहाडि़यां, ये दीवारें उस शौर्यगाथा की, जो यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरी पड़ी हैं.

यहां बने महल का हर कोना, जिस ने देखे होंगे वह नजारे, युद्ध, संगीत और गायन जिस की स्वर लहरियां बिखरी होेंगी यहां की फिजा में. काश, ये खामोश गवाह बोल सकते तो न जाने कितने भेद खोल देते और खोल देते हर वह राज, जो दफन हैं इन की दीवारों में, इन के दिलों में, इन के फर्श में, मेहराबों में, झरोखों में, सीढि़यों में और यहां के ऊंचेऊंचे गुंबदों में.’’

‘‘चुप क्यों हो गए दोस्त, मैं तो सुन रहा था. तुम ही खामोश हो गए दास्तां कहतेकहते,’’ रानी रूपमती के महल के एक झरोखे ने दूसरे झरोखे से कहा.

‘‘नहीं कह पाऊंगा दोस्त,’’ पहला वाला झरोखा बोलतेबोलते खामोश हो चुका था. किंतु महल की दीवारों ने भी तन्मयता से उन की बातें सुनी थीं. आखिरकार जब नहीं रहा गया तो एक दीवार बोल ही पड़ी :

‘‘दिन भर यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. देशीविदेशी इनसानों ने हमारी छाती पर अपने कदमों के जाने कितने निशान बनाए होंगे. अनगिनत लोगों ने यहां की गाथाएं सुनी हैं, विश्व में प्रसिद्ध है यह स्थान.

‘‘मांडवगढ़ के सुल्तानों का इतिहास, उन की वीरता, शौर्य और ऐश्वर्य के तमाम किस्सों ने, जो लेखक लिख गए हैं, यहां के इतिहास को अमर कर दिया है. समूचे मांडव में बिखरा पड़ा है प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य. नीलकंठ का रमणीक स्थान हो या हिंडोला महल की शान, चाहे जामा मसजिद की आन हो, हर दीवार, गुंबद अपने में समेटे हुए है एक ऐसा रहस्य, जहां तक बडे़बडे़ इतिहासकार भी कहां पहुंच पाए हैं.’’

‘‘हां, तुम सच कहती हो, ये कहां पहुंचे?’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘यह तो हम जानते हैं, मांडव का हर वह किला, उस की हर मेहराब, हर सीढ़ी, हर दीवार जो आज चुप है…जानती हो बहन, वह बेबस है. काश, कुदरत ने हमें भी जबां दी होती तो हम बोल पड़ते और वह सब बदल जाता, जो यहां के बारे में दोहराया जाता रहा है, बताया जाता रहा है, कहा जाता रहा है.

‘‘हम ने बादशाह अकबर की यात्रा देखी है. कुल 4 बार अकबर ने मांडवगढ़ के सौंदर्य का आनंद उठाया था. हम ने अपनी आंखों से देखा है उस अकबर महान की छवि को, जो आज भी हमारी आंखों में बसी हुई है. हम ने सुल्तान जहांगीर की वह शानोशौकत भी देखी है जिस का आनंद उठाया था, यहां की हवाओं ने, पत्तों ने, इस चांदनी ने.’’

पहली दीवार की तरफ से कोई संकेत न आते देख दूसरी दीवार ने पूछा, ‘‘सुनो, बहन, क्या तुम सो गईं?’’

‘‘नहीं बहन, कहां नींद आती है,’’ पहली दीवार ने एक ठंडी आह भर कर कहा.

‘‘देखो तो, रात की खामोशी में हवाएं उन मेहराबों को, झरोखों को चूमने के लिए कितनी बेताब हो जाती हैं, जहां कभी रानी रूपमती ने अपने सुंदर और कोमल हाथों से स्पर्श किया था,’’ पहली दीवार बोली, ‘‘ताड़ के दरख्तों को सहलाती हुई आती ये हवाएं धीरेधीरे सीढि़यों पर कदम रख कर महल के ऊपरी हिस्से में चली जाती हैं, जहां से संगीत की पुजारिन और सौंदर्य की मलिका रानी रूपमती कभी सवेरेसवेरे नर्मदा के दर्शन के बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं.’’

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

‘‘बडे़ कठोर प्रेमी हैं ये लोग, जिस बेदर्दी से दीवारों पर लिखते हैं, इस से क्या इन का प्रेम अमर हो गया?’’ दीवार के स्वर में अब गुस्सा था.

‘‘ये क्या जानें प्रेम के बारे में?’’ झरोखे ने कहा, ‘‘प्रेम था रानी रूपमती का. गायन व संगीत मिलन, सबकुछ अलौकिक…’’

नर्मदा की पवित्रता की मुसकान उभरी, ‘‘मेरे दर्शनों के बाद रूपमती अपना काम शुरू करती थीं, संगीत की पूजा करती थीं.’’

बिलकुल, या फिर प्रेम का बावलापन देखा है तो मैं ने उस लड़की की काली आंखों में, उस के मुसकराते हुए होंठों में’’, हवा बोली, ‘‘मैं ने कई बार उस के चंदन से शीतल, सांवले शरीर का स्पर्श किया है. मेरे स्पर्श से वह उसी तरह सिहर उठती है जिस तरह पराग के छूने से.’’

चांदनी की किरणों में हलचल होती देख कर हवा ने पूछा, ‘‘कुछ कहोगी?’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ महसूस कर रही हूं उस लड़की व पराग के प्रेम को,’’ किरणों ने कहा.

‘‘मैं ने छेड़ा है पराग के कत्थई रेशमी बालों को,’’ हवा ने कहा, ‘‘उस के कत्थई बालों में मैने मदहोश करने वाली खुशबू भी महसूस की है. कितनी खुशनसीब है वह लड़की, जिसे पराग स्पर्श करता है, उस से बातें करता है धीमेधीमे कही गई उस की बातों को मैं ने सुना है…देखती रहती हूं घंटों तक उन का मिलन. कभी छेड़ने का मन हुआ तो अपनी गति को बढ़ा कर उन दोनों को परेशान कर देती हूं.’’

‘‘सितार के उस के रियाज को मैं भी सुनता रहता हूं. कभी घंटों तक वह खोया रहेगा रियाज में, तो कभी डूबने लगेगा उस लड़की की काली आंखों के जाल में,’’ झरोखा चुप कब रहने वाला था, बोल पड़ा.

ताड़ के पेड़ों की हिलती परछाइयों से इन की बातचीत को विराम मिला. एक पल के लिए वे खामोश हुए फिर शुरू हो गए, लेकिन अब सोया हुआ जीवन धीरे से जागने लगा था. पक्षियों ने अंगड़ाई लेने की तैयारी शुरू कर दी थी.

दीवार, झरोखा, पर्यटकों के कदमों की आहटों को सुन कर खामोश हो चले थे.

दिन का उजाला अब रात के सूनेपन की ओर बढ़ रहा था. दीवार, झरोखा, हवा, किरण आदि वह सब सुनने को उत्सुक थे, जो नर्मदा की पवित्रता उन से कहने वाली थी पर उस रात कह नहीं पाई थी. वे इंतजार कर रहे थे कि कहीं से एक अलग तरह की खुशबू उन्हें आती लगी. सभी समझ गए कि नर्मदा की पवित्रता आ गई है. कुछ पल में ही नर्मदा की पवित्रता अपने धवल वेश में मौजूद थी. उस के आने भर से ही एक आभा सी चारों तरफ बिखर गई.

‘‘मेरा आप सब इंतजार कर रहे थे न,’’ पवित्रता की उज्ज्वल मुसकान उभरी.

‘‘हां, बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

उन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए पवित्रता ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या तुम सब को नहीं लगता कि महल के इस हिस्से में अभी कहीं से पायल की आवाज गूंज उठेगी, कहीं से कोई धीमे स्वर में राग बसंत गा उठेगा. कहीं से तबले की थाप की आवाज सुनाई दे जाएगी.’’

‘‘हां, लगता है,’’ हवा ने अपनी गति को धीमा कर कहा.

‘‘यहां, इसी महल में गूंजती थी रानी रूपमती की पायलों की आवाज, उस के घुंघरुओं की मधुर ध्वनि, उस की चूडि़यों की खनक, उस के कपड़ों की सरसराहट,’’ नर्मदा की पवित्रता के शब्दों ने जैसे सब को बांध लिया.

‘‘महल के हर कोने में बसती थी वीणा की झंकार, उस के साथ कोकिलकंठी  रानी के गायन की सम्मोहित कर देने वाली स्वर लहरियां… जब कभी बाजबहादुर और रानी रूपमती के गायन और संगीत का समय होता था तो वह पल वाकई अद्भुत होते थे. ऐसा लगता था कि प्रकृति स्वयं इस मिलन को देखने के लिए थम सी गई हो.

‘‘रूपमती की आंखों की निर्मलता और उस के चेहरे का वह भोलापन कम ही देखने को मिलता है. बाजबहादुर के प्रेम का वह सुरूर, जिस में रानी अंतर तक भीगी हुई थी, बिरलों को ही नसीब होता है ऐसा प्रेम…’’

‘‘उन की छेड़छाड़, उन का मिलन, संगीत के स्वरों में उन का खो जाना, वाकई एक अनुभूति थी और मैं ने उसे महसूस किया था.

‘‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि झील में कोई छाया दिख जाएगी और एहसास दिला जाएगी अपने होने का कि प्रेम कभी मरता नहीं. रूप बदल लेता है समय के साथ…’’

‘‘हां, बिलकुल यही सब देखा है मैं ने पराग के मतवाले प्रेम में, उस की रियाज करती उंगलियों में, उस के तराशे हुए अधरों में,’’ झरोखे ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘गूंजती है जब सितार की आवाज तो मांडव की हवाओं में तैरने लगते हैं उस सांवली लड़की के प्रेम स्वर, वह देखती रहती है अपलक उस मासूम और भोले चेहरे को, जो डूबा रहता है अपने सितार के रियाज में,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

‘‘कितना सुंदर लगता था बाजबहादुर, जब वह वीणा ले कर हाथों में बैठता था और रानी रूपमती उसे निहारती थी. कितना अलौकिक दृश्य होता था,’’ नर्मदा की पवित्रता ने बात आगे बढ़ाई.

इस महान प्रेमी को युद्ध और उस के नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो प्रेम से, संगीत से. बाज बहादुर ने युद्ध कौशल में जरा भी रुचि नहीं ली, खोया रहा वह रानी रूपमती के प्रेम की निर्मल छांह में, वीणा की झंकार में, संगीत के सातों सुरों में.

‘‘ऐसे कलाकार और महान प्रेमी से आदम खान ने मांडव बड़ी आसानी से जीत लिया, फिर शुरू हुई आदम खान की बर्बरता इन 2 महान प्रेमियों के प्रति…’’

‘‘कितने कठोर होंगे वे दिल जिन्होंने इन 2 संगीत प्रेमियों को भी नहीं छोड़ा,’’ हवा ने अपनी गति को बिलकुल रोक लिया.

‘‘हां, वह समय कितना भारी गुजरा होगा रानी पर, बाज बहादुर पर. कितनी पीड़ा हुई होगी रानी को,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, ‘‘रानी इसी महल के कक्ष में फूटफूट कर रोई थीं.’’

‘‘आदम खान रानी के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुआ. रानी का कहना था कि वह एक राजपूत हिंदू कन्या है. उस की इज्जत बख्शी जाए…आदम खान ने मांडव जीता पर नहीं जीत पाया रानी के हृदय को, जिस में बसा था संगीत के सुरों का मेल और बाज बहादुर का पे्रम.

‘‘जब आदम खान नियत समय पर रानी से मिलने गया तो उस ने रूपमती को मृत पाया. रानी ने जहर खा कर अमर कर दिया अपने को, अपने प्रेम को, अपने संगीत को.’’

‘‘हां, केवल शरीर ही तो नष्ट होता है, पर प्रेम कभी मरा है क्या?’’ झरोखा अपनी धीमी आवाज में बोला.

तभी दीवार की धीमी आवाज ने वहां छाने लगी खामोशी को भंग किया, ‘‘हर जगह मुझे महसूस होती है रानी की मौजूदगी, कितना कठोर होता है यह समय, जो गुजरता रहता है अपनी रफ्तार से.’’

‘‘पराग, वह लंबा लड़का, जो रियाज करने आता है और उस के साथ आती है वह सुंदर आंखों वाली लड़की. मैं ने उस की बोलती आंखों के भीतर एक मूक दर्द को देखा है. वह कहती कुछ नहीं, न ही उस लड़के से कुछ मांगती है. बस, अपने प्रेम को फलते हुए देखना चाहती है,’’ झरोखा बोला.

‘‘हां, बिलकुल सही कह रहे हो. प्रेम की तड़प और इंतजार की कसक जो उस के अंदर समाई है वह मैं ने महसूस की है,’’ हवा ने अपने पंख फैलाए और अपनी गति को बढ़ाते हुए कहा, ‘‘उस के घंटों रियाज में डूबे रहने पर भी लड़की के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. वह अपलक उसे निहारती है. मैं जब भी पराग के कोमल बालों को बिखेर देती हूं, वह अपनी पतलीपतली उंगलियों से उन को संवार कर उस के रियाज को निरंतर चलने देती है.’’

‘‘सच, कितनी सुंदर जोड़ी है. मेरे दामन में कभी इस जोड़ी ने बेदर्दी से अपना नाम नहीं खुरचा. अपनी उदासियों को ले कर जब कभी वह पराग के विशाल सीने में खो जाती है तो दिलासा देता है पराग उस बच्ची सी मासूम सांवली लड़की को कि ऐसे उदास नहीं होते प्रीत…’’ दीवार ने कहा.

‘‘यों ही प्रेम अमर होता है, एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम खामोशी से सफर तय करता है,’’ झरोखा बोला.

हवा ने अपनी गति अधिक तेज की. बोली, ‘‘मैं उसे देखने फिर आऊंगी, समझाऊंगी कि ऐ सुंदर लड़की, उदास मत हो, प्रेम इसी को कहते हैं.’’

खामोशी का साम्राज्य अब थोड़ा मंद पड़ने लगा था, सुबह की किरणों ने दस्तक देनी शुरू जो कर दी थी

दाग का सच : क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

विश्वासघात: जूही ने कैसे छीना नीता का पति

नीला आसमान अचानक ही स्याह हो चला था. बारिश की छोटीछोटी बूंदें अंबर से टपकने लगी थीं. तूफान जोरों पर था. दरवाजों के टकराने की आवाज सुन कर जूही बाहर आई. अंधेरा देख कर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गईं…

कुछ ऐसा ही तूफानी मंजर था आज से 1 साल पहले का. उस दिन उस ने जीन्स पर टौप पहना था. अपने रेशमी केशों की पोनीटेल बनाई थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस ने आंखों पर सनग्लासेज चढ़ाए और ड्राइविंग सीट पर बैठ गई.

कुछ ही देर में वह बैंक में थी. मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसे कुछ संशय सा था कि उस का लोन स्वीकृत होगा भी या नहीं, पर मैनेजर की मधुर मुसकान ने उस के संदेह को विराम दे दिया. उस का लोन स्वीकृत हो गया था और अब वह अपना बुटीक खोल सकती थी. आननफानन उस ने मिठाई मंगवा कर बैंक स्टाफ को खिलाई और प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आई.

शुरू से ही वह काफी महत्त्वाकांक्षी रही थी. फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करते ही उस ने लोन के लिए आवेदन कर दिया था. पड़ोस के कसबे में रहने वाली जूही इस शहर में किराए पर अकेली रहती थी और अपना कैरियर गारमैंट्स के व्यापार से शुरू करना चाहती थी.

अगले दिन उस ने सोचा कि मैनेजर को धन्यवाद दे आए. आखिर उसी की सक्रियता से लोन इतनी जल्दी मिलना संभव हुआ था. मैनेजर बेहद स्मार्ट, हंसमुख और प्रतिभावान था. जूही उस से बेहद प्रभावित हुई और उस की मंगाई कौफी के लिए मना नहीं कर पाई. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह शहर में नया आया है. उस का नाम नीरज है और शहर से दूर बने अपार्टमैंट्स में उस का निवास है.

धीरेधीरे मुलाकातें बढ़ीं तो जूही ने पाया कि दोनों की रुचियां काफी मिलती है. दोनों को एकदूसरे का साथ काफी अच्छा लगने लगा. लगातार मुलाकातों में जूही कब नीरज से प्यार कर बैठी, पता ही न चला. नीरज भी जूही की सुंदरता का कायल था.

बिजली तो उस दिन गिरी जब बुटीक की ओपनिंग सेरेमनी पर नीरज ने अपनी पत्नी नीता से जूही को मिलवाया. नीरज के विवाहित होने का जूही को इतना दुख नहीं हुआ, जितना नीता को उस की पत्नी के रूप में पा कर. नीता जूही की सहपाठी रही थी और हर बात में जूही से उन्नीस थी. उस के अनुसार नीता जैसी साधारण स्त्री नीरज जैसे पति को डिजर्व ही नहीं करती थी.

सहेली पर विजय की भावना जूही को नीरज की तरफ खींचती गई और नीता से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के चक्कर में जूही का नीरज से मिलनाजुलना बढ़ता गया. नीता खुश थी. अकेले शहर में जूही का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था. वह हमेशा उस से कुछ सीखने की कोशिश करती, पर इन लगातार मुलाकातों से जूही और नीरज को कई बार एकांत मिलने लगा.

दोनों बहक गए और अब एकदूसरे के साथ रहने के बहाने खोजने लगे. नीता को अपनी सहेली पर रंच मात्र भी शक न था और नीरज पर तो वह आंख मूंद कर विश्वास करती थी. विश्वास का प्याला तो उस दिन छलका, जब पिताजी की बीमारी के चलते नीता को महीने भर के लिए पीहर जाना पड़ा.

सरप्राइज देने की सोच में जब वह अचानक घर आई, तो उस ने नीरज और जूही को आपत्तिजनक हालत में पाया. इस सदमे से आहत नीता बिना कुछ बोले नीरज को छोड़ कर चली गई.

जूही अब नीरज के साथ आ कर रहने लगी. कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है, पर जब ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार’ का इरादा हो तो शायद वह विवेकरहित भी हो जाता है.

समय अपनी गति से चलता रहा. जूही और नीरज मानो एकदूसरे के लिए ही बने थे. जीवन मस्ती में कट रहा था. कुछ समय बाद जूही को सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी खलने लगी.

आंगन में नन्ही किलकारी खेले, वह चाहती थी, पर नीरज इस के लिए तैयार नहीं था. उस का कहना था कि ‘लिव इन रिलेशन’ की कानूनी मान्यता विवादास्पद है, इसलिए वह बच्चे का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहता. जूही इस तर्क के आगे निरुत्तर थी.

जूही का बुटीक अच्छा चल रहा था. नाम व  कमाई दोनों ही थे. एक दिन अचानक ही एक आमंत्रणपत्र देख कर वह सकते में आ गई. पत्र नीरज की पर्सनल फाइल में था. आमंत्रणपत्र महक रहा था. वह था तो किसी पार्लर के उद्घाटन का, पर शब्दावली शायराना व व्यक्तिगत सी थी. मुख्य अतिथि नीरज ही थे.

जूही ने नीरज को मोबाइल लगाना चाहा पर वह लगातार ‘आउट औफ रीच’ आता रहा. दिन भर जूही का मन काम में नहीं लगा. बुटीक छोड़ कर वह जा नहीं सकती थी. रात को नीरज के आते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

कुछ देर तो नीरज बात संभालने की कोशिश करता रहा पर तर्कविहीन उत्तरों से जब जूही संतुष्ट नहीं हुई, तो दोनों का झगड़ा हो गया. नीरज पुन: किसी अन्य स्त्री की ओर आकृष्ट था. संभवत: पत्नी के रहते जूही के साथ संबंध बनाने ने उसे इतनी हिम्मत दे दी थी.

मौजूदा दौर में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उस के वजूद को बल दिया है. इतना कि कई बार वह समाज के विरुद्ध जा कर अपनी पसंद के कार्य करने लगती है. नीरज जैसे पुरुष इसी बात का फायदा उठाते हैं.

उन्होंने पढ़ीलिखी, बराबर कमाने वाली स्त्री को अपने समान नहीं माना, बल्कि उपभोग की वस्तु समझ कर उस का उपयोग किया. अपने स्वार्थ के लिए जब चाहा उन्हें समान दरजा दे दिया और जब चाहा तब सामाजिक रूढि़यों के बंधन तोड़ दिए. विवाह उन के लिए सुविधा का खेल हो गया.

इस आकस्मिक घटनाक्रम के लिए जूही तैयार नहीं थी. उस ने तो नीरज को संपूर्ण रूप से चाहा व अपनाया था. नीरज को अपनी नई महिला मित्र ताजा हवा के झोंके जैसी दिख रही थी. उस के तन व मन दोनों ही बदलाव के लिए आतुर थे.

जूही को अपनी भलाई व स्वाभिमान नीरज का घर छोड़ने में ही लगे. कुछ महीनों का मधुमास इतनी जल्दी व इतनी बेकद्री से खत्म हो जाएगा, उस ने सोचा न था. नीरज ने उस को रोकने का थोड़ा सा भी प्रयास नहीं किया.

शायद जूही ने इस कटु सत्य को जान लिया था कि पुरुष के लिए स्त्री कभी हमकदम नहीं बनती. वह या तो उसे देवी बना कर उसे नैसर्गिक अधिकारों से दूर कर देता है या दासी बना कर उस के अधिकारों को छीन लेता है. उसे पुरुषों से चिढ़ सी हो गई थी.

नीरज के बारे में फिर कभी जानने की उस ने कोशिश नहीं की, न ही नीरज ने उस से संपर्क साधा.

आज बादलों के इस झुरमुट में पिछली यादों के जख्मों को सहलाते हुए वह यही सोच रही थी कि विश्वासघात किस ने किस के साथ किया था?

 

Family Story : कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज रिश्ता

लेखिका- मीनाक्षी सिंह

Family Story: 2 साल तक रोहिणी की शादी के लिए लड़का तलाश करने के बाद जब नमित के पापा ने मनचाहा दहेज देने के लिए रोहिणी के पापा द्वारा हामी भरे जाने पर शादी के लिए हां की, तो एक बेटी के मजबूर पिता के रूप में रोहिणी के पिता रमेश बेहद खुश हुए.

अपनी समझदार व खुद्दार बेटी रोहिणी की शादी नमित के साथ कर के रमेश अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ कर पत्नी के साथ गंगा स्नान को निकल गए इन सब बातों से बेखबर कि उधर ससुराल में उन की लाड़ली को लोगों की कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है.

शादी में चेहरेमोहरे पर लोगों द्वारा छींटाकशी तो आम बात है, लेकिन जब पति भी अपनी पत्नी के रंगरूप से संतुष्ट न हो, तो पत्नी के लिए लोगों के शब्दबाणों का सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

रोहिणी सोच से बेहद मजबूत किस्म की लड़की थी. तानोंउलाहनों को धीरेधीरे नजरअंदाज करते हुए उस ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी.

कुछ महीने बाद, शादी के पहले, शिक्षक के लिए दी गई प्रतियोगिता परीक्षा का रिजल्ट आया, जिस में रोहिणी का चयन हुआ और रोहिणी एक शिक्षक बनने की दिशा में आगे बढ़ गई.

इस खुशखबरी और रोहिणी के अच्छे व्यवहार से उस के प्रति घर वालों का नजरिया बदलने लगा था. नमित भी अब रोहिणी से खुश रहने लगा था. पैसा अपने अंदर किसी के प्रति किसी का नजरिया बदलवाने का खूबसूरत माद्दा रखता है. यही अब उस घर में दृष्टिगोचर हो रहा था.

शादी के 5 साल पूरे होने को थे और रोहिणी की गोद अभी तक सूनी थी. यह बात अब आसपास और परिवार के लोगों को खटकने लगी थी, तो नमित तक भी यह खटकन पहुंचनी ही थी.

शुरू में नमित ने मां को समझाने की कोशिश की, पर दादी शब्द सुनने की उम्मीद ने एक बेटे के समझाते हुए शब्दों के सामने अपना पलड़ा भारी रखा और नमित की मां इस जिद पर अड़ी रहीं कि अब तो उन्हें एक पोता चाहिए ही चाहिए.

कहते हैं कि अगर किसी बात को बारबार सुनाया जाए, तो वही बात हमारे लिए सचाई सी बन जाती है, ठीक उसी तरह लोगों द्वारा रोहिणी के मां न बनने की बात सुनतेसुनते नमित को लगने लगा कि अब रोहिणी को मां बनना ही चाहिए और उस के दिमाग पर भी पिता बनने की ख्वाहिश गहराई से हावी होने लगी. उस ने रोहिणी से बात की और उसे चैकअप के लिए ले गया.

रोहिणी की रिपोर्ट नौर्मल आई, इस के बावजूद काफी कोशिश के बाद भी वह पिता नहीं बन सका. अब रोहिणी भी नमित पर दबाव डालने लगी कि उस की सभी रिपोर्ट नौर्मल हैं, तो एक बार उसे भी चैकअप करवा लेना चाहिए, लेकिन नमित ने उस की बात नहीं मानी. वह अपना चैकअप नहीं करवाना चाहता था, क्योंकि उस के अनुसार उस में कोई कमी हो ही नहीं सकती थी.

मां चाहती थीं कि नमित रोहिणी को तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. वह खुल कर तो मां की बात का समर्थन नहीं कर रहा था, पर उस के अंतर्मन को कहीं न कहीं अपनी मां का कहना सही लग रहा था. एक पति पर पिता बनने की ख्वाहिश पूरी तरह हावी हो चुकी थी.

धीरेधीरे उम्मीद की किरण लुप्त सी होने लगी थी. अब उस घर में सब चुपचुप से रहने लगे थे. खासकर रोहिणी के प्रति सभी का व्यवहार कटाकटा सा था. घर वालों के रूखे व्यवहार ने रोहिणी को भी काफी चिड़चिड़ा बना दिया था.

एक दिन नमित ने रोहिणी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देखो रोहिणी, वंश चलाने के लिए एक वारिस की जरूरत होती है और मुझे नहीं लगता कि अब तुम इस घर को कोई वारिस दे पाओगी. इसलिए तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो.

‘‘और यकीन रखो, तलाक के बाद भी हमारा रिश्ता पहले जैसा ही रहेगा. हमारा रिश्ता कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज कभी नहीं होगा. भले ही हम कानूनी रूप से पतिपत्नी नहीं रहेंगे, पर मेरे दिल में हमेशा तुम ही रहोगी.’

‘‘नाम के लिए कागज पर मेरी पत्नी, मेरे साथ काम कर रही रोजी होगी, परंतु उस से शादी का मेरा मकसद बस औलाद प्राप्ति होगा. तुम्हें बिना तलाक दिए भी मैं उस से शादी कर सकता हूं, पर तुम तो जानती हो कि हम दोनों की सरकारी नौकरी है और बिना तलाक शादी करना मुझे परेशानी में डाल कर मेरी नौकरी को खतरे में डाल सकता है.’’

‘‘तुम अपना चैकअप क्यों नहीं करवाते हो, नमित. मुझे लगता है कि कमी तुम में ही है. एक बात कहूं, तुम निहायत ही दोगले इंसान हो, शरीफ बने इस चेहरे के पीछे एक बेहद घटिया और कायर इंसान छिपा है.

‘‘कान खोल कर सुन लो, मैं तुम्हें किसी शर्त पर तलाक नहीं दूंगी. तुम्हें जो करना हो, कर लो. सारी परेशानियों को सहते हुए मैं इसी परिवार में रह

कर तुम सब के दिए कष्टों को सह

कर तुम्हारे ही साथ अपने बैडरूम

में रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मुझ में कोई कमी नहीं हो सकती, और तलाक तो तुम्हें देना ही होगा. मुझे इस खानदान के लिए वारिस चाहिए, चाहे वह तुम से मिले या किसी और से.

‘‘अगर तुम सीधेसीधे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करती हो, तो मैं तुम पर मेरे परिवार वालों को परेशान करने और बदचलनी का आरोप लगाऊंगा,’’ नमित के शब्दों का अंदाज बदल चुका था.

कुछ दिनों बाद नमित ने कोर्ट में रोहिणी पर इलजाम लगाते हुए तलाक की अर्जी दाखिल कर दी.

अब रोहिणी बिलकुल चुप सी रहने लगी थी, लेकिन तलाक मिलने तक अपने बैडरूम पर कब्जा नहीं छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग थी.

2 महीने बाद ही उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह खबर मिलते ही नमित ने तलाक की दी हुई अर्जी वापस ले ली.

उस के अगले ही दिन रोहिणी अपना बैग पैक कर के मायके चली गई. सारी बातें सुन कर मातापिता ने समझाने की कोशिश की कि जब सबकुछ ठीक

हो रहा है, तो इस तरह की जिद सही नहीं है.

‘‘अगर आप लोगों को मेरा आप के साथ रहना पसंद नहीं है, तो मैं जल्दी ही कहीं और रूम ले कर रहने चली जाऊंगी. आप लोगों पर ज्यादा दिन बोझ बन कर नहीं रहूंगी.’’

बेटी से इस तरह की बातें सुन कर दोनों चुप हो गए.

अगले दिन शाम को घंटी बजने पर रोहिणी ने दरवाजा खोला सामने नमित था. बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया, तब तक रोहिणी के मातापिता भी आ चुके थे.

बात की शुरुआत नमित ने की, ‘‘रोहिणी हमारी गोद में जल्दी ही एक खूबसूरत संतान आने वाली है, तो तुम अब यह सब क्यों कर रही हो.

‘‘जब मैं ने तुम्हें तलाक देना चाहा था, तब तो तुम किसी भी शर्त पर तलाक देने को तैयार नहीं थीं, फिर अब क्या हुआ. अब जब सबकुछ सही हो रहा है, सब ठीक होने जा रहा है, तो इस तरह की जिद का क्या औचित्य?’’

‘‘नमित, तुम्हें क्या लगता है, यह बच्चा तुम्हारा है? तो मैं तुम्हें यह साफसाफ बता दूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं, मेरे कलीग सुभाष का है, जो इस तलाक के बाद जल्दी ही मुझ से शादी करने वाला है.

‘‘तुम ने मुझ पर चरित्रहीनता के झूठे आरोप लगाए थे न, मैं ने तुम्हारे लगाए हर उस आरोप को सच कर के दिखा दिया. और साथ ही, यह भी दिखा दिया कि मुझ में कोई कमी नहीं, कमी तुम में है. तुम एक अधूरे मर्द हो जो अपनी कमी से पनपी कुंठा अब तक अपनी पत्नी पर उड़ेलते रहे. विश्वास न हो तो जा कर अपना चैकअप करवाओ और फिर जितनी चाहे उतनी शादियां करो.

‘‘तुम्हारे घर में तुम्हारी मां और बहन द्वारा दिए गए उन सारे जख्मों को मैं भुला देती, अगर बस तुम ने मेरा साथ दिया होता. औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले तुम जैसे मर्द, मेरे तलाक नहीं देने के उस फैसले को मेरी एक अदद छत पाने की लालसा समझते रहे और मैं उसी छत के नीचे रह कर अपने ऊपर होते अत्याचारों की आंच पर तपती चली गई, अंदर से मजबूत होती चली गई. ऐसे में मुझे सहारा मिला सुभाष के कंधों का और उस ने एक सच्चा मर्द बन कर, सही मानो में मुझे औरत बनने का मौका दिया.

‘‘अब तुम्हारे द्वारा लगाए गए उन झूठे आरोपों को मैं सच्चा साबित कर के तुम से तलाक लूंगी और तुम्हें मुक्त करूंगी इस अनचाहे रिश्ते से, तुम्हें अपनी मरजी से शादी करने के लिए, जो तुम्हारे खानदान को तुम से वारिस दे सके जो मैं तुम्हें नहीं दे पाई.

‘‘अब तुम जा सकते हो. कोर्ट में मिलेंगे,’’ बिना नमित के उत्तर की प्रतीक्षा किए रोहिणी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

मृगतृष्णा: क्या यकीन में बदल पाया मोहिनी का शक

बिंदासजीवन जीने का पर्याय थी मोहिनी. जैसेकि नाम से ही जाहिर हो रहा है मन को मोह लेने वाली सुंदर, छरहरी, लंबा कद और आकर्षक मुसकराहट बरबस ही किसी को भी अपना कायल बना लेती. मगर जीवन को जीने का अलग ही फलसफा था मोहिनी का. निडर, बेवाक, बिंदास.

कभीकभी मेरा भी मिलना होता था उस से पर मैं ने कभी ज्यादा दोस्ती नहीं बढ़ाई. रोहन के दोस्त आकाश की बीवी थी मोहिनी. मु झे कभी भी सहज नहीं लगा उस से मिलना. मेरे चेहरे पर एक खिंचाव सा आ जाता उस से मिलते समय.

मगर मोहिनी को कहां परवाह थी घरपरिवार की. उस की तरफ से तो दुनिया जाए भाड़ में. आकाश को भी सब पता था. आकाश क्या सब को सब पता था.

‘‘रागिनी, आज मोहिनी और आकाश में फिर से बहुत  झगड़ा हुआ. आकाश बहुत दुखी है मोहिनी की वजह से,’’ खाना खाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘पता नहीं इस सब का अंत कहां होगा, मैं खुद सोचसोच कर परेशान होती हूं. कल मोहिनी के बच्चे बड़े हो जाएंगे तो उन को भी तो सब पता चलेगा. कैसे उन के सवालों के जवाब दे पाएगी.’’

एक लंबी सांस छोड़ कर रह गए दोनों पतिपत्नी. दरअसल, मोहिनी के अपने ननदोई राहुल के साथ शारीरिक संबंध थे. उस की ननद को भी शक था पर बिना किसी ठोस सुबूत से कुछ कहना नहीं चाहती थी. अपने पति और भाभी को बातोंबातों में वह कटाक्ष कर देती पर दोनों ही बात को हंसी में टाल देते. सब के सामने भी दोनों आंखोंआंखों में बहुत कुछ कह जाते. यदाकदा दोनों को मिलने का मौका मिल ही जाता, उस समय मोहिनी के चेहरे पर कुछ अलग सा ही सुरूर होता. उस की बलिष्ठ बांहों का आलिंगन उसे मदहोश कर देता. उस के होंठों की गरमी से वह पिघल जाती. राहुल की आंखों में उस के लिए प्यार और उस की बातों में मोहिनी की सुंदरता का बखान उसे तन और मन दोनों से तृप्त कर देता. इस इजहार ए मुहब्बत से आकाश कोसों दूर था. यही कारण था, जिस से मोहिनी और आकाश में दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

मोहिनी राहुल के प्यार में मदहोश रहती और राहुल उस की कामुकता में बंधा रहता. दोनों बच्चों का कोई भी काम अटक जाता तो मोहिनी राहुल को फोन करती और राहुल भी कच्चे धागे में बंधा चला आता. दोनों पर किसी की बात का न तो कोई असर था न ही मलाल. सब दबी जबान बातें करते पर कोई मुंह पर कुछ न कहता. लिहाजा मोहिनी और आकाश में दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

दोनों बेटे गौरव और आरव बड़े हो रहे थे. मांबाप का रोजरोज का  झगड़ा दोनों  बेटों की पढ़ाई पर भी बुरा असर डाल रहा था. आकाश भी हर वक्त दोनों की परवरिश को ले कर चिंतित रहता. बच्चों का भविष्य खराब न हो, इसी सोच ने सब जानते हुए भी आकाश को चुप करवा रखा था. गौरव और आरव के बहुत से कार्य राहुल करता था, इसलिए वे दोनों भी कुछ कह नहीं पाते और मन मसोस कर रह जाते.

हद तो तब हुई जब एक पारिवारिक समारोह में मोहिनी की मुलाकात एक नेता से हुई. अच्छीखासी साख थी नेताजी की इलाके में. राहुल की अच्छी पटती थी उन से. अकसर नेताजी के साथ किसी न किसी समारोह में जाता रहता. अचानक हुई 1-2 मुलाकातों के बाद मोहिनी की नेताजी से घनिष्ठता बढ़ने लगी. अकसर मोहिनी राहुत से नेताजी के बारे में बात करती रहती. राहुल को मोहिनी का नेताजी के बारे में बात करना खटकता था. एक तो घर में मोहिनी को ले कर कलहकलेश रहता दूसरा मोहिनी का नेताजी की तरफ बढ़ता आकर्षण. राहुल मनाता रहता, पर मोहिनी को इन सब बातों से कोई लेनादेना नहीं था.

कुछ दिन पहले गौरव ने बताया कि कालेज में उस के दाखिले में कोई अड़चन आ रही है, किसी बड़ी सिफारिश से ही यह काम हो सकता है, मोहिनी भी बहुत टैंशन में थी. अब उसे एक ही रास्ता सम झ में आ रहा था नेताजी.

बात कर के नेताजी से मिलने का समय तय किया. मोहिनी को पूरा यकीन था कि उस का काम हो जाएगा. पावर और पैसा तो मोहिनी की कमजोरी थी. अपनी खूबसूरती को भुनाना भी उसे अच्छे से आता था. रात 8 बजे नेताजी ने मोहिनी को अपने फार्महाउस में मिलने के लिए बुला लिया.

बिना किसी भूमिका के नेताजी ने कहा, ‘‘मोहिनीजी, आप बहुत खूबसूरत हैं. आप का चांद सा चेहरा, आप की कातिलाना मुस्कराहट… उफ क्या कहना. मैं तो पहली ही मुलाकात में आप का कायल हो गया था. कहिए क्या खिदमत कर सकता हूं मैं आप की?’’ नेता के मुंह से तारीफ और आंखों से वासना टपक रही थी. भंवरे की तरह वह हर फूल का रस चखने वालों में से था.

‘‘क्या आप भी…’’ कहते हुए मोहिनी ने भी एक मौन निमंत्रण दे डाला, ‘‘आप के नाम और साख की तो मैं कायल हूं सर…’’

‘‘और हम आप की खूबसूरती के दीवाने हैं.’’

‘‘दरअसल, मेरे बेटे को कालेज में दाखिला नहीं मिल रहा. अगर आप चाहें तो यह काम आसानी से कर सकते हैं.’’

‘‘बस इतनी सी बात… यह तो मेरे बाए हाथ का खेल है आप बेफिक्र हो जाएं आप का काम हो जाएगा,’’ मोहिनी के बालों में उंगलियां घुमाते हुए नेताजी ने भी अपनी इच्छा जाहिर कर दी और फिर गौरव का दाखिला बिना किसी रुकावट के हो गया.

देखतेदेखते कुछ वर्ष और बीत गए. छोटे बेटे आरव को भी अब मां की हरकतें सम झ आने लगी थीं. बड़ा बेटा गौरव अब शहर के बाहर जौब करता था, इसलिए वह भी इन बातों से अनजान तो नहीं था पर दूर था. लोगों की दबी जबान में बातें छोटे को सम झ में आती थीं, पर मां को कुछ भी नहीं कह पाता बस बातबात पर मां से  झगड़ा करता. पर मोहिनी ने जानने की कभी कोशिश नहीं की कि बेटे के स्वभाव में क्यों बदलाव आ रहा है.

एक बार आकाश कुछ दिनों के लिए औफिस के काम से कोलकाता गया. 1 सप्ताह के लिए उसे वहीं रुकना था. मोहिनी की तो जैसे लौटरी लग गई. कभी राहुल के साथ तो कभी नेताजी के साथ वक्त बिताने का पूरापूरा मौका मिल गया. देर तक पार्टी में रहना, घर में आधी रात तक वापस आना, इन सब बातों का कहां अंत था, किसे पता था.

एक दिन मोहिनी ने नेता को दोपहर को घर बुला लिया. आकाश को 1 सप्ताह बाद आना था और बच्चों को भी शाम को आना था. एकदूसरे के आलिंगन में दोनों को एहसास ही नहीं हुआ कि कब शाम हो गई. मोहिनी नेताजी की बांहों में मदमस्त थी. तभी मोहिनी का बड़ा बेटा गौरव घर आ गया. मां को आपत्तिजनक स्थिति में देख कर उस के होश उड़ गए. आज तक जो कानाफूसी होती थी, यह सच होगी उस ने कभी सोचा भी न था. उस के होश फाख्ता हो गए. पापा भी यहां नहीं थे. उस का दिमाग सुन्न हो रहा था कि पापा को पता चलेगा तो क्या होगा. घर में होने वाले हंगामे की कल्पना से ही सिहर रहा था गौरव. घर पर रुक नहीं सका और अपने एक दोस्त के घर चला गया.

अगले दिन मोहिनी ने गौरव को फोन किया तो उस ने फोन नहीं उठाया. वह अभी मां से बात नहीं करना चाहता था. बाहर जाता तो उसे यों लगता की हरकोई उस की मां के बारे में फुसफुसा रहा है. दिमाग भन्ना रहा था उस का. पर वह क्या करे सम झ नहीं आ रहा था. मम्मीपापा की हर वक्त की तकरार और दोनों के बीच न टूटने वाला सन्नाटा आज सम झ पा रहा था. कल दोस्तों में, फिर रिश्तेदारों में बदनामी होगी वह कैसे सहेगा. छोटे भाई आरव ने भी कई फोन किए, लेकिन गौरव घर नहीं आना चाहता था. एक दिन आरव गौरव को खुद लेने चला गया? ‘‘भाई तुम घर क्यों नहीं आ रहे? मां बहुत परेशान हैं.’’

‘‘नहीं आरव में घर नहीं जाऊगा, मु झे पता है मां के पास कितनी फुरसत है हमारे लिए.’’

‘‘भाई आखिर बात क्या है बताओ तो…’’

आरव के बहुत कहने पर गौरव ने सबकुछ बता दिया. मां और नेता के नाजायज  रिश्ता… सुनते ही आरव एक फीकी हंसी हसते हुए बोला, ‘‘भाई तुम्हें तो अब पता चला है मु झे तो बहुत वक्त से पता है. और तो और मेरे दोस्त के पापा से भी मां का रिश्ता है. दबी जुबान में सब की बातें, लोगों की प्रश्न पूछती आंखें और पापा की बेबसी अब बरदाश्त नहीं होती गौरव भैया… मैं खुद इस माहौल में नहीं रह सकता. मैं ने तो सोच लिया है अपनी बीए कंप्लीट होते ही चला जाऊंगा. आप भी बाहर जौब कर ही रहे हो. पापा को भी कोई इतराज नहीं है हमें बाहर भेजने में. वे भी यही चाहते हैं कि हम इस माहौल से दूर हो जाएं.’’

दोनों बच्चे शहर से बाहर रहने लगे और आकाश भी ज्यादा वक्त अपने बेटों के पास बिताने लगे. आकाश और मोहिनी एक छत के नीचे तो रहते थे, लेकिन नदी के 2 किनारों की तरह जो साथसाथ तो चले पर एक नहीं हो सके. इसलिए दोनों को कोई दुख नहीं था एकदूसरे से दूर होने का.’’

राहुल ने तो नाता तोड़ ही लिया था मोहिनी से. बच्चे और पति भी दूर हो गए. सिवा पछतावे के उस को कुछ न मिला. आकाश, गौरव और आरव को फोन करती, उन से क्षमा याचना करती पर उन को कोई लगाव नहीं था मोहिनी से. एक दिन मोहिनी ने फिर हिम्मत कर के आकाश को फोन किया, ‘‘आकाश, मु झे माफ कर दो… तुम और बच्चे लौट आओ मेरी जिंदगी में.’’

‘‘नहीं, मोहिनी अब यह नहीं हो सकता. मैं ने और मेरे बच्चों ने बहुत सहा है तुम्हारे कारण, बस अब और नहीं तुम को तुम्हें जिंदगी मुबारक. हमारी जिंदगी से तुम दूर ही रहो तो बेहतर होगा.’’

मोहिनी को अब एहसास हो रहा था कि जिन बातों में वह सुख ढूंढ़ती रही वह मृगतृष्णा और छलावे से ज्यादा कुछ न था.

मगर यह रास्ता उस ने खुद चुना था जहां से लौट कर जाना नामुमकिन था. पीछे मुड़ना तो उस ने सीखा ही नहीं था. कुछ वक्त के ठहराव के बाद वह फिर चल पड़ी अपनी ही चुनी राह पर… अपनी निडर, बिंदास और बेबाक जिंदगी जीने.

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