दो कदम तन्हा: भाग-1

‘‘दास.’’ अपने नाम का उच्चारण सुन कर

डा. रविरंजन दास ठिठक कर खड़े हो गए. ऐसा लगा मानो पूरा शरीर झनझना उठा हो. उन के शरीर के रोएं खड़े हो गए. मस्तिष्क में किसी अदृश्य वीणा के तार बज उठे. लंबीलंबी सांसें ले कर डा. दास ने अपने को संयत किया. वर्षों बाद अचानक यह आवाज? लगा जैसे यह आवाज उन के पीछे से नहीं, उन के मस्तिष्क के अंदर से आई थी. वह वैसे ही खड़े रहे, बिना आवाज की दिशा में मुड़े. शंका और संशय में कि दोबारा पीछे से वही संगीत लहरी आई, ‘‘डा. दास.’’

वह धीरेधीरे मुड़े और चित्रलिखित से केवल देखते रहे. वही तो है, अंजलि राय. वही रूप और लावण्य, वही बड़ी- बड़ी आंखें और उन के ऊपर लगभग पारदर्शी पलकों की लंबी बरौनियां, मानो ऊषा गहरी काली परतों से झांक रही हो. वही पतली लंबी गरदन, वही लंबी पतली देहयष्टि. वही हंसी जिस से कोई भी मौसम सावन बन जाता है…कुछ बुलाती, कुछ चिढ़ाती, कुछ जगाती.

थोड़ा सा वजन बढ़ गया है किंतु वही निश्छल व्यक्तित्व, वही सम्मोहन.  डा. दास प्रयास के बाद भी कुछ बोल न सके, बस देखते रहे. लगा मानो बिजली की चमक उन्हें चकाचौंध कर गई. मन के अंदर गहरी तहों से भावनाओं और यादों का वेग सा उठा. उन का गला रुंध सा गया और बदन में हलकी सी कंपन होने लगी. वह पास आई. आंखों में थोड़ा आश्चर्य का भाव उभरा, ‘‘पहचाना नहीं क्या?’’

‘कैसे नहीं पहचानूंगा. 15 वर्षों में जिस चेहरे को एक पल भी नहीं भूल पाया,’ उन्होंने सोचा.

‘‘मैं, अंजलि.’’

डा. दास थोड़ा चेतन हुए. उन्होंने अपने सिर को झटका दिया. पूरी इच्छा- शक्ति से अपने को संयत किया फिर बोले, ‘‘तुम?’’

‘‘हां, मैं. गनीमत है पहचान तो लिया,’’ वह खिलखिला उठी और

डा. दास को लगा मानो स्वच्छ जलप्रपात बह निकला हो.

‘‘मैं और तुम्हें पहचानूंगा कैसे नहीं? मैं ने तो तुम्हें दूर से पीछे से ही पहचान लिया था.’’

मैदान में भीड़ थी. डा. दास धीरेधीरे फेंस की ओर खिसकने लगे. यहां कालिज के स्टूडेंट्स और डाक्टरों के बीच उन्हें संकोच होने लगा कि जाने कब कौन आ जाए.

‘‘बड़ी भीड़ है,’’ अंजलि ने चारों ओर देखा.

‘‘हां, इस समय तो यहां भीड़ रहती ही है.’’

शाम के 4 बजे थे. फरवरी का अंतिम सप्ताह था. पटना मेडिकल कालिज के मैदान में स्वास्थ्य मेला लगा था. हर साल यह मेला इसी तारीख को लगता है, कालिज फाउंडेशन डे के अवसर पर…एक हफ्ता चलता है. पूरे मैदान में तरहतरह के स्टाल लगे रहते हैं. स्वास्थ्य संबंधी प्रदर्शनी लगी रहती है. स्टूडेंट्स अपना- अपना स्टाल लगाते हैं, संभालते हैं. तरहतरह के पोस्टर, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां और मरीजों का फ्री चेकअप, सलाह…बड़ी गहमागहमी रहती है.

शाम को 7 बजे के बाद मनोरंजन कार्यक्रम होता है. गानाबजाना, कवि- सम्मेलन, मुशायरा आदि. कालिज के सभी डाक्टर और विद्यार्थी आते हैं. हर विभाग का स्टाल उस विभाग के एक वरीय शिक्षक की देखरेख में लगता है. डा. दास मेडिसिन विभाग में लेक्चरर हैं. इस वर्ष अपने विभाग के स्टाल के वह इंचार्ज हैं. कल प्रदर्शनी का आखिरी दिन है.

‘‘और, कैसे हो?’’

डा. दास चौंके, ‘‘ठीक हूं…तुम?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ और अंजलि ने अपने बगल में खड़े उत्सुकता से इधरउधर देखते 10 वर्ष के बालक की ओर इशारा किया, ‘‘मेरा बेटा है,’’ मानो अपने ठीक होने का सुबूत दे रही हो, ‘‘नमस्ते करो अंकल को.’’

बालक ने अन्यमनस्क भाव से हाथ जोड़े. डा. दास ने उसे गौर से देखा फिर आगे बढ़ कर उस के माथे के मुलायम बालों को हलके से सहलाया फिर जल्दी से हाथ वापस खींच लिया. उन्हें कुछ अतिक्रमण जैसा लगा.

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘यह 10 साल का है,’’ क्षणिक विराम, ‘‘एक बेटी भी है…12 साल की, उस की परीक्षा नजदीक है इसलिए नहीं लाई,’’ मानो अंजलि किसी गलती का स्पष्टीकरण दे रही हो. फिर अंजलि ने बालक की ओर देखा, ‘‘वैसे परीक्षा तो इस की भी होने वाली है लेकिन जबरदस्ती चला आया. बड़ा जिद्दी है, पढ़ता कम है, खेलता ज्यादा है.’’

बेटे को शायद यह टिप्पणी नागवार लगी. अंगरेजी में बोला, ‘‘मैं कभी फेल नहीं होता. हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास होता हूं.’’

डा. दास हलके से मुसकराए, ‘‘मैं तो एक बार एम.आर.सी.पी. में फेल हो गया था,’’ फिर वह चुप हो गए और इधरउधर देखने लगे.

कुछ लोग उन की ओर देख रहे थे.

‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’

डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.

अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘2 बच्चे हैं.’’

‘‘लड़के या लड़कियां?’’

‘‘लड़कियां.’’

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’

‘‘और कैसे हो, दास?’’

‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.

अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’

आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’

अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’

बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’

‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’

गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: सुनिए दिल्ली प्रेस की महिला पत्रिकाओं की खास कहानियां सिर्फ ऑडिबल पर, बिल्कुल मुफ्त

8 मार्च, 2022: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर, अमेज़न की एक कंपनी और विश्व में प्रमुख स्पोकन-वर्ड एंटरटेनमेन्ट कंपनी, ऑडिबल और भारत की सबसे बड़ी पत्रिका प्रकाशन कंपनी, दिल्ली प्रेस ने 60 से भी ज्यादा लोकप्रिय हिन्दी कहानियां जारी करने की घोषणा की है। इस प्रकाशन हाउस की सबसे प्रसिद्ध महिला पत्रिका गृहशोभा, सरिता, सरस सलिल और मनोहर कहानियां की कहानियों को ऑडियो फॉर्मेट में ऑडिबल पर बिलकुल मुफ्त में जारी किया गया है ।

ये कहानियां फैमिली ड्रामा और रोमांटिक प्रेम कहानियों वाली विधा में है, जोकि बेहद दिलचस्प और सुनने में आसान हैं। हमारे व्यस्त रहने वाले श्रोताओं के लिये ये कहानियां बिलकुल सटीक हैं, जो उनके ‘व्यस्त समय’ को फुर्सत के पलों में बदल देंगी, यानी मल्टीटास्किंग करते हुए भी इसे सुन सकते हैं। इस माध्यम की प्रकृति ऐसी है कि श्रोता इन कहानियों को घर के काम करते हुए, एक्सरसाइज करते हुए या फिर सोने के पहले के रूटीन को करते-करते भी सुन सकते हैं। इससे श्रोताओं को आनंद के वे निजी पल भी मिलते हैं- बस कानों में ईयरफोन्स लगायें और एक अलग ही दुनिया में खो जायें।

फैमिली ड्रामा जोनर की कुछ चर्चित कहानियों में शामिल हैं:

  • मैं सिर्फ बार्बी डॉल नहीं हूं (गृहशोभा पत्रिका से): यह खुद की सहायता और आत्मविश्वास की कहानी है, जो मनीष और परी के रिश्ते को लेकर बुनी गई है। जब परी को पहली बार पता चलता है कि उसे पीसीओएस है।
  • तालमेल (गृहशोभा पत्रिका से): यह आज के जमाने का फैमिली ड्रामा है। इसमें बूढ़े माता-पिता के संघर्षों और अपने बच्चों के साथ उनके रिश्ते की कहानी है।
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रोमांस और रिश्ते शैली की अन्य कहानियों में शामिल हैं:

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  • प्रेम कबूतर (सरिता पत्रिका से): प्यार, दुख और अलग-अलग ट्विस्ट वाली इस कहानी में यह जानने के लिये कि क्या अखिल वाकई पुतुल से प्यार करता है, इस कहानी को सुनें
  • अंतर्दाह (गृहशोभा पत्रिका से): यह एक घुमावदार प्रेम कहानी है, जहां अलका हर किसी के भले के लिये अपनी जिंदगी के साथ आगे बढ़ जाने का फैसला करती है।

शैलेष सवलानी, वीपी एवं कंट्री जीएम, ऑडिबल इंडिया का कहना है, “इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम भारत की कुछ बेहद चर्चित हिन्दी पत्रिकाओं की पहले से मशहूर हिन्दी कहानियों को ऑडियो के जरिये पेश कर रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि सभी श्रोताओं को इन कहानियों के सुनने का शानदार अनुभव मिलेगा। इसके साथ उन लोगों के लिये एक सहजता भी जुड़ी है जो पूरे दिन मल्टीटास्किंग करते हैं। अभी और आने वाले समय में इस तरह की पहलों के साथ, हम देशभर में अपने श्रोताओं के लिये अनूठा और अलग तरह का कंटेंट लाना जारी रखना चाहते हैं

अनंत नाथ, कार्यकारी प्रकाशक, दिल्ली प्रेस, “हमारी पत्रिकाओं को लाखों श्रोताओं का प्यार और सराहना मिलती है, खासकर महिलाओं की ओर से। इसकी वजह है ये मर्मस्पर्शी और वास्तविक-सी कहानियां हैं जोकि उनकी अलग-अलग भावनाओं से मेल खाती हैं, जिनसे रोजमर्रा के जीवन में वे रूबरू होती हैं। इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर, हम ऑडिबल पर इन चुनिंदा कहानियों को ऑडियो रूप में बड़े पैमाने पर दर्शकों तक लाने के लिये बेहद खुश है।”

ऑडिबल श्रोताओं के आनंद के लिये 2022 के दौरान विभिन्न शैलियों से दिल्ली प्रेस की सबसे प्रसिद्ध महिला पत्रिकाओं से लोकप्रिय हिन्दी कहानियों को ऑडियो रूप में जारी करता रहेगा। अधिक जानकारी के लिये इस स्पेस को देखें।

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औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 3

दरवाजे पर लहराता परदा एक ओर खिसका कर मैं ने अंदर प्रवेश किया तो सभी शब्द मेरे हलक में ही सूख गए. सामने कुरसी पर एक ऐसा इनसान बैठा हुआ था, जिस की कमर के नीचे दोनों टांग गायब थीं. उसे इनसान न कह कर सिर्फ एक धड़ कहा जाए तो बेहतर होगा.

‘‘आ जाओ, रेखा, मुझे विश्वास था  जीवन में दोबारा तुम से मुलाकात अवश्य होगी,’’ एक दर्दीला चिरपरिचित स्वर गूंज उठा.

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 1

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ीतिरछी रेखाएं बनाबना कर भांतिभांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनीअपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

संदीप उन के एहसान के बोझ से दब से गए. मुझे विनीता और भी अपनी सी लगने लगीं.

नक्शा पास हो जाने के पश्चात मकान का निर्माण कार्य शुरू हो गया.

अब तक विनीता का हमारे यहां आनाजाना बढ़ गया था. अब वह खाली हाथ न आ कर बच्चों के लिए फल, मिठाइयां और कुछ अन्य वस्तुएं ले कर आने लगी थीं.

आते ही वह सब के साथ घुलमिल कर बातें करने लग जातीं. रसोईघर में पटरे पर बैठ कर आग्रह कर के मुझ से दाल- रोटी ले कर खा लेतीं.

मैं संकोच से गड़ जाती. उन्हें फल, मिठाइयां लाने को मना करती, परंतु वह नहीं मानती थीं. संदीप मुझ से कहते, ‘‘विनीताजी जो करती हैं, उन्हें करने दिया करो. मना करने से उन का दिल दुखेगा. उन के अपने बच्चे नहीं हैं इसलिए वह हमारे बच्चों पर अपनी ममता लुटाती रहती हैं.’’

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 2

मैं परेशान सी हो उठती. भरेपूरे शरीर की स्वामिनी विनीता के अंदर ऐसी कौन सी कमी है, जिस ने उन्हें मातृत्व से वंचित कर दिया है. मैं उन के प्रति असीम सहानुभूति से भर उठती थी. एक दिन मन का क्षोभ संदीप के सामने प्रकट किया तो उन्होंने बताया, ‘‘विनीताजी के पति अपाहिज हैं. बच्चा पैदा करने में असमर्थ हैं. एक आपरेशन के दौरान डाक्टरों ने गलती से उन की शुक्राणु वाली नस काट दी थी.’’

मैं और अधिक सहानुभूति से भर उठी.

संदीप बताते रहे, ‘‘विनीताजी के पति की प्रथम पत्नी का एक पुत्र उन के साथ रहता है, जिसे उन्होंने मां की ममता दे कर बड़ा किया है. इतनी बड़ी फर्म, दौलत, प्रसिद्धि सबकुछ विनीताजी के अटूट परिश्रम का सुखद परिणाम है.’’

अचानक मेरे मन में खयाल आया, ‘विनीता की गुप्त बातों की जानकारी संदीप को कैसे हो गई? कब और कैसे दोनों के बीच इतनी अधिक घनिष्ठता हो गई कि वे दोनों यौन संबंधों पर भी चर्चा करने लगे.’

मैं ने इस विषय में संदीप से प्रश्न किया तो वह झेंप कर खामोश हो गए.

मेरे अंतर में संदेह का कीड़ा कुलबुला उठा था. मुझे लगने लगा कि विनीता अकारण ही हम लोगों से आत्मीयता नहीं दिखलाती हैं. वह हमारे बच्चों पर खर्च कर के हमारे घर में अपना स्थान बनाना चाहती हैं. कोई ऐसे ही तो किसी को हजारों का कर्जा नहीं दिलवा सकता. इन सब का कारण संदीप के प्रति उन का आकर्षण भी तो हो सकता है.

संदीप 50 वर्ष के होने पर भी स्वस्थ, सुंदर थे. शरीर सौष्ठव के कारण अपनी आयु से कई वर्ष छोटे दिखते थे. किसी समआयु की महिला का उन की ओर आकर्षित हो जाना आश्चर्य की बात नहीं थी.

मैं सोचने लगी, ‘विनीता जैसी सुंदर महिला एक अपाहिज आदमी के साथ संतुष्ट रह भी कैसे सकती है?’ मुझे अपना घर उजड़ता हुआ लगने लगा था.

अब जब भी विनीता मेरे घर आतीं, मेरा मन उन के प्रति कड़वाहट से भर उठता था. उन की मधुर मुसकराहट के पीछे छलकपट दिखाई देने लगता. ऐसा लगता जैसे विनीता अपनी दौलत के कुछ सिक्के मेरी झोली में डाल कर मुझ से मेरी खुशियां और मेरा पति खरीद रही हैं. मुझे विनीता, उन की लाई गई वस्तुओं और उन की दौलत से नफरत होती चली गई.

मैं ने उन के दफ्तर जाना बंद कर दिया. वह मेरे घर आतीं तो मैं बीमारी या व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें टालने का प्रयास करने लगती थी. मेरे बच्चे और संदीप उन के आते ही उन की आवभगत में जुटने लगते थे. यह सब देख मुझे बेहद बुरा लगने लगता था.

मैं विनीता के जाने के पश्चात बच्चों को डांटने लगती, ‘‘तुम सब लालची प्रवृत्ति के क्यों बनते जा रहे हो? क्यों स्वीकार करते हो इन के लाए उपहार? इन से इतनी अधिक घनिष्ठता किसलिए? कौन हैं यह हमारी? मकान बन जाएगा, फिर हमारा और इन का रिश्ता ही क्या रह जाएगा?’’

बच्चे सहम कर मेरा मुंह देखते रह जाते क्योंकि अभी तक मैं ने उन्हें अतिथियों का सम्मान करना ही सिखाया था. विनीता के प्रति मेरी उपेक्षा को कोई नहीं समझ पाता था. सभी  मेरी मनोदशा से अनभिज्ञ थे. मकान के किसी कार्यवश जब भी संदीप मुझ से विनीता के दफ्तर चलने को कहते, मैं मना कर देती. वह अकेले चले जाते तो मैं मन ही मन कुढ़ती रहती, लेकिन ऊपर से शांत बनी रहती थी.

मैं संदीप को विनीता के यहां जाने से नहीं रोकती थी. सोचती, ‘मर्दों पर प्रतिबंध लगाना क्या आसान काम है? पूरा दिन घर से बाहर बिताते हैं. कोई पत्नी आखिर पति का पीछा कहां तक कर सकती है?’

मेरे मनोभावों से बेखबर संदीप जबतब विनीता की प्रशंसा करने बैठ जाते. अकसर कहते, ‘‘विनीताजी से मुलाकात नहीं हुई होती तो हमारा मकान इतनी जल्दी नहीं बन पाता.’’

कभी कहते, ‘‘विनीताजी दिनरात परिश्रम कर के हमारा मकान इस प्रकार बनवा रही हैं जैसे वह उन का अपना ही मकान हो.’’

कभी ऐसा भी हो जाता कि विनीता अपने किसी निजी कार्यवश संदीप को कार में बैठा कर कहीं ले जातीं. संदीप घंटों के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में वापस लौटते और बताते कि वह किसी बड़े होटल में विनीता के साथ भोजन कर के आ रहे हैं.

मेरे अंदर की औरत यह सब सहन नहीं कर पा रही थी. मैं यह सोच कर ईर्ष्या से जलतीभुनती रहती कि विनीता की खूबसूरती ने संदीप के मन को बांध लिया है. अब उन्हें मैं फीकी लगने लगी हूं. उन के मन में मेरा स्थान विनीता लेती जा रही है.

कभी मैं क्षुब्ध हो कर सोचने लगती, इस शहर में मकान बनवाने से मेरा जीवन ही नीरस हो गया. एक शहर में रहते हुए संदीप और विनीता का साथ कभी नहीं छूट पाएगा. अब संदीप मुझे पहले की भांति कभी प्यार नहीं दे पाएंगे. विनीता अदृश्य रूप से मेरी सौत बन चुकी है, हो सकता है दोनों हमबिस्तर हो चुके हों. आखिर होटलों में जाने का और मकसद भी क्या हो सकता है?’

हमारा मकान पूरा बन गया तो मुहूर्त्त करने के पश्चात हम अपने घर में आ कर रहने लगे.

विनीता का आनाजाना और संदीप के साथ घुलमिल कर बातें करना कम नहीं हो पाया था.

एक दिन मेरे मन का आक्रोश जबान पर फूट पड़ा, ‘‘अब इस औरत के यहां आनाजाना बंद क्यों नहीं कर देते? मकान कभी का बन कर पूरा हो चुका है, अब इस फालतू मेलजोल का समापन हो जाना ही बेहतर है.’’

‘‘कैसी स्वार्थियों जैसी बातें करने लगी हो. विनीताजी ने हमारी कितनी सहायता की थी, अब हम उन का तिरस्कार कर दें, क्या यह अच्छा लगता है?’’

‘‘तब क्या जीवन भर उसे गले से लगाए रहोगे.’’

‘‘तुम्हें जलन होती है उस की खूबसूरती से,’’ संदीप मेरे क्रोध की परवा न कर के मुसकराते रहे. फिर लापरवाही से बाहर चले गए.

क्रोध और उत्तेजना से मैं कांप रही थी. जी चाह रहा था कि अभी जा कर उस आवारा, चरित्रहीन औरत का मुंह नोच डालूं.

अपने अपाहिज पति की आंखों में धूल झोंक कर पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. अब तक न मालूम कितने पुरुषों के साथ मुंह काला कर चुकी होगी.

मुझे उस अपरिचित अनदेखे व्यक्ति से गहरी सहानुभूति होने लगी, जिस की पत्नी बन कर विनीता उस के प्रति विश्वासघात कर रही थी.

मैं सोचने लगी, ‘अगर यह कांटा अभी से उखाड़ कर नहीं फेंका गया तो मेरा मन जख्मी हो कर लहूलुहान हो जाएगा. इस से पहले कि मामला और आगे बढ़े मुझे विनीता के पति के पास जा कर सबकुछ साफसाफ बता देना चाहिए कि वे अपनी बदचलन पत्नी के ऊपर अंकुश लगाना शुरू कर दें. वह दूसरों के घर उजाड़ती फिरती है.’

उन के घर का पता मुझे मालूम था. एक बार मैं संदीप के साथ घर के बाहर तक जा चुकी थी. उस वक्त विनीता घर पर नहीं थीं. नौकर के बताने पर हम बाहर से ही लौट आए थे.

घर के सभी काम बच्चों पर छोड़ कर मैं विनीता के घर जाने के लिए तैयार हो गई. एक रिकशे में बैठ कर मैं उन के घर पहुंच गई.

विनीता घर में नहीं थीं. नौकर से साहब का कमरा पूछ कर मैं दनदनाती हुई सीढि़यां चढ़ कर ऊपर पहुंची.

नौकर ने कमरे के अंदर जा कर साहब को मेरे आगमन की सूचना दे दी. फिर मुझे अंदर जाने का इशारा कर के वह किसी काम में लग गया.

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