कर्णफूल: क्यों अपनी ही बहन पर शक करने लगी अलीना

जब मैं अपने कमरे के बाहर निकली तो अन्नामां अम्मी के पास बैठी उन्हें नाश्ता करा रही थीं. वह कहने लगीं, ‘‘मलीहा बेटी, बीबी की तबीयत ठीक नहीं हैं. इन्होंने नाश्ता नहीं किया, बस चाय पी है.’’

मैं जल्दी से अम्मी के कमरे में गई. वह कल से कमजोर लग रही थीं. पेट में दर्द भी बता रही थीं. मैं ने अन्नामां से कहा, ‘‘अम्मी के बाल बना कर उन्हें जल्द से तैयार कर दो, मैं गाड़ी गेट पर लगाती हूं.’’

अम्मी को ले कर हम दोनों अस्पताल पहुंचे. जांच में पता चला कि हार्टअटैक का झटका था. उन का इलाज शुरू हो गया. इस खबर ने जैसे मेरी जान ही निकाल दी थी. लेकिन यदि मैं ही हिम्मत हार जाती तो ये काम कौन संभालता? मैं ने अपने दर्द को छिपा कर खुद को कंट्रोल किया. उस वक्त पापा बहुत याद आए.

वह बहुत मोहब्बत करने वाले, परिवार के प्रति जिम्मेदार व्यक्ति थे. एक एक्सीडेंट में उन का इंतकाल हो गया था. घर में मुझ से बड़़ी बहन अलीना थीं, जिन की शादी हैदराबाद में हुई थी. उन का 3 साल का एक बेटा था. मैं ने उन्हें फोन कर के खबर दे देना जरूरी समझा, ताकि बाद में शिकायत न करें.

मैं आईसीयू में गई, डाक्टरों ने मुझे काफी तसल्ली दी, ‘‘इंजेक्शन दे दिए गए हैं, इलाज चल रहा है, खतरे की कोई बात नहीं है. अभी दवाओं का असर है, सो गई हैं. इन के लिए आराम जरूरी है. इन्हें डिस्टर्ब न करें.’’

मैं ने बाहर आ कर अन्नामां को घर भेज दिया और खुद वेटिंगरूम में जा कर एक कोने में बैठ गई. वेटिंगरूम काफी खाली था. सोफे पर आराम से बैठ कर मैं ने अलीना बाजी को फोन मिलाया. मेरी आवाज सुन कर उन्होंने रूखे अंदाज में सलाम का जवाब दिया.मैं ने अपने गम समेटते हुए आंसू पी कर अम्मी के बारे में बताया तो सुन कर वह परेशान हो गईं. फिर कहा, ‘‘मैं जल्द पहुंचने की कोशिश करती हूं.’’

मुझे तसल्ली का एक शब्द कहे बिना उन्होंने फोन कट कर दिया. मेरे दिल को झटका सा लगा. अलीना मेरी वही बहन थीं, जो मुझे बेइंतहा प्यार करती थीं. मेरी जरा सी उदासी पर दुनिया के जतन कर डालती थीं. इतनी चाहत, इतनी मोहब्बत के बाद इतनी बेरुखी… मेरी आंखें आंसुओं से भर आईं.

पापा की मौत के थोड़े दिनों बाद ही मुझ पर कयामत सी टूट पड़ी थी. पापा ने बहुत देखभाल कर मेरी शादी एक अच्छे खानदान में करवाई थी. शादी हुई भी खूब शानदार थी. बड़े अरमानों से ससुराल गई. मैं ने एमबीए किया था और एक अच्छी कंपनी में जौब कर रही थी. जौब के बारे में शादी के पहले ही बात हो गई थी.

उन्हें मेरे जौब पर कोई ऐतराज नहीं था. ससुराल वाले मिडिल क्लास के थे, उन की 2 बेटियां थीं, जिन की शादी होनी थी. इसलिए नौकरी वाली बहू का अच्छा स्वागत हुआ. मेरी सास अच्छे मिजाज की थीं और मुझ से काफी अच्छा व्यवहार करती थीं.

कभीकभी नादिर की बातों में कौंप्लेक्स झलकता था. आखिर 2-3 महीने के बाद उन का असली रंग खुल कर सामने आ गया. उन के दिल में नएनए शक पनपने लगे. नादिर को लगता कि मैं उस से बेवफाई कर रही हूं. जराजरा सी बात पर नाराज हो जाता, झगड़ना शुरू कर देता.

इसे मैं उस का कौंप्लेक्स समझ कर टालती रहती, निबाहती रही. लेकिन एक दिन तो हद ही हो गई. उस ने मुझे मेरे बौस के साथ एक मीटिंग में जाते देख लिया. शाम को घर लौटी तो हंगामा खड़ा कर दिया. मुझ पर बेवफाई व बदकिरदारी का इलजाम लगा कर गंदेगंदे ताने मारे.

कई लोगों के साथ मेरे ताल्लुक जोड़ दिए. ऐसे वाहियात इलजाम सुन कर मैं गुस्से से पागल हो गई. आखिर मैं ने एक फैसला कर लिया कि यहां की इस बेइज्जती से जुदाई बेहतर है.

मैं ने सख्त लहजे में कहा, ‘‘नादिर, अगर आप का रवैया इतना तौहीन वाला रहा तो फिर मेरा आप के साथ रहना मुश्किल है. आप को अपने लगाए बेहूदा इलजामों की सच्चाई साबित करनी पड़ेगी. एक पाक दामन औरत पर आप ऐसे इलजाम नहीं लगा सकते.’’

मम्मीपापा ने भी समझाने की कोशिश की, लेकिन वह गुस्से से उफनते हुए बोला, ‘‘मुझे कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है, सब जानता हूं मैं. तुम जैसी आवारा औरतों को घर में नहीं रखा जा सकता. मुझे बदचलन औरतों से नफरत है. मैं खुद ऐसी औरत के साथ नहीं रह सकता. मैं तुझे तलाक देता हूं, तलाक…तलाक…तलाक.’’

और कुछ पलों में ही सब कुछ खत्म हो गया. मैं अम्मी के पास आ गई. सुन कर उन पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. मेरे चरित्र पर चोट पड़ी थी. मुझ पर लांछन लगाए गए थे. मैं ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया. क्योंकि मैं कुसूरवार नहीं थी. यह मेरी इज्जत और अस्मिता की लड़ाई थी.

20-25 दिन की छुट्टी करने के बाद मैं ने जौब पर जाना शुरू कर दिया. मैं संभल तो गई, पर खामोशी व उदासी मेरे साथी बन गए. अम्मी मेरा बेहद खयाल रखती थीं. अलीना आपी भी आ गईं. हर तरह से मुझे ढांढस बंधातीं. वह काफी दिन रुकीं. जिंदगी अपने रूटीन से गुजरने लगी.

अलीना आपी ने इस विपत्ति से निकलने में बड़ी मदद की. मैं काफी हद तक सामान्य हो गई थी. उस दिन छुट्टी थी, अम्मी ने दो पुराने गावतकिए निकाले और कहा, ‘‘ये तकिए काफी सख्त हो गए हैं. इन में नई रुई भर देते हैं.’’

मैं ने पुरानी रुई निकाल कर नीचे डाल दी. फिर मैं ने और अलीना आपी ने रुई तख्त पर रखी. हम दोनों रुई साफ कर रहे थे और तोड़ते भी जा रहे थे. अम्मी उसी वक्त कमरे से आ कर हमारे पास बैठ गईं. उन के हाथ में एक प्यारी सी चांदी की डिबिया थी. अम्मी ने खोल कर दिखाई, उस में बेपनाह खूबसूरत एक जोड़ी जड़ाऊ कर्णफूल थे. उन पर बड़ी खूबसूरती से पन्ना और रूबी जड़े हुए थे. इतनी चमक और महीन कारीगरी थी कि हम देखते रह गए.

आलीना आपी की आंखें कर्णफूलों की तरह जगमगाने लगीं. उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘‘अम्मी ये किसके हैं?’’

अम्मी बताने लगीं, ‘‘बेटा, ये तुम्हारी दादी के हैं, उन्होंने मुझ से खुश हो कर मुझे ये कर्णफूल और माथे का जड़ाऊ झूमर दिया था. माथे का झूमर तो मैं ने अलीना की शादी पर उसे दे दिया था. अब ये कर्णफूल हैं, इन्हें मैं मलीहा को देना चाहती हूं. दादी की यादगार निशानियां तुम दोनों बहनों के पास रहेंगी, ठीक है न.’’

अलीना आपी के चेहरे का रंग एकदम फीका पड़ गया. उन्हें जेवरों का शौक जुनून की हद तक था, खास कर के एंटीक ज्वैलरी की तो जैसे वह दीवानी थीं. वह थोड़े गुस्से से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, आप ने ज्यादती की, खूबसूरत और बेमिसाल चीज आपने मलीहा के लिए रख दी. मैं बड़ी हूं, आप को कर्णफूल मुझे देने चाहिए थे. ये आप ने मेरे साथ ज्यादती की है.’’

अम्मी ने समझाया, ‘‘बेटी, तुम बड़ी हो, इसलिए तुम्हें कुंदन का सेट अलग से दिया था, साथ में दादी का झूमर और सोने का एक सेट भी दिया था. जबकि मलीहा को मैं ने सोने का एक ही सेट दिया था. इस के अलावा एक हैदराबादी मोती का सेट था. उसे मैं ने कर्णफूल भी उस वक्त नहीं दिए थे, अब दे रही हूं. तुम खुद सोच कर बताओ कि क्या गलत किया मैं ने?’’

अलीना आपी अपनी ही बात कहती रहीं. अम्मी के बहुत समझाने पर कहने लगीं,  ‘‘अच्छा, मैं दादी वाला झूमर मलीहा को दे दूंगी, तब आप ये कर्णफूल मुझे दे दीजिएगा. मैं अगली बार आऊंगी तो झूमर ले कर आऊंगी और कर्णफूल ले जाऊंगी.’’

अम्मी ने बेबसी से मेरी तरफ देखा. मेरे सामने अजीब दोराहा था, बहन की मोहब्बत या कर्णफूल. मैं ने दिल की बात मान कर कहा, ‘‘ठीक है आपी, अगली बार झूमर मुझे दे देना और आप ये कर्णफूल ले जाना.’’

अम्मी को यह बात पसंद नहीं आई, पर क्या करतीं, चुप रहीं. अभी ये बातें चल ही रहीं थीं कि घंटी बजी. अम्मी ने जल्दी से कर्णफूल और डिबिया तकिए के नीचे रख दी.

पड़ोस की आंटी कश्मीरी सूट वाले को ले कर आई थीं. सब सूट व शाल वगैरह देखने लगे. हम ने 2-3 सूट लिए. उन के जाने के बाद अम्मी ने कर्णफूल वाली चांदी की डिबिया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘जाओ मलीहा, इसे संभाल कर अलमारी में रख दो.’’

मैं डिबिया रख कर आई. उस के बाद हम ने जल्दीजल्दी तकिए के गिलाफ में रुई भर दी. फिर उन्हें सिल कर तैयार किया और कवर चढ़ा दिए. 3-4 दिनों बाद अलीना आपी चली गईं. जातेजाते वह मुझे याद करा गईं, ‘‘मलीहा, अगली बार मैं कर्णफूल ले कर जाऊंगी, भूलना मत.’’

दिन अपने अंदाज में गुजर रहे थे. चाचाचाची और उन के बच्चे एक शादी में शामिल होने आए. वे लोग 5-6 दिन रहे, घर में खूब रौनक रही. खूब घूमेंफिरे. मेरी चाची अम्मी को कम ही पसंद करती थीं, क्योंकि मेरी अम्मी दादी की चहेली बहू थीं. अपनी खास चीजें भी उन्होंने अम्मी को ही दी थीं. चाची की दोनों बेटियों से मेरी खूब बनती थी, हम ने खूब एंजौय किया.

नादिर की मम्मी 2-3 बार आईं. बहुत माफी मांगी, बहुत कोशिश की कि किसी तरह इस मसले का कोई हल निकल जाए. पर जब आत्मा और चरित्र पर चोट पड़ती है तो औरत बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं ने किसी भी तरह के समझौते से साफ इनकार कर दिया.

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वह अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर मनाएंगी. मैं और अम्मी बहुत खुश हुए. बडे़ उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना आपी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर के डेकोरेशन को देख कर वह बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सब काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया. मैं और अम्मी नाश्ते के बाद इंतजाम के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से आर्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना आपी आईं और अम्मी से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, ये लीजिए झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे वे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’’

अम्मी ने मुझ से कहा, ‘‘जाओ मलीहा, वह डिबिया निकाल कर ले आओ.’’ मैं ने डिबिया ला कर अम्मी के हाथ पर रख दी. आपी ने बड़ी बेसब्री से डिबिया उठा कर खोली. लेकिन डिबिया खुलते ही वह चीख पड़ीं, ‘‘अम्मी कर्णफूल तो इस में नहीं है.’’

अम्मी ने झपट कर डिबिया उन के हाथ से ले ली. वाकई डिबिया खाली थी. अम्मी एकदम हैरान सी रह गईं. मेरे तो जैसे हाथोंपैरों की जान ही निकल गई. अलीना आपी की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्होंने मुझे शक भरी नजरों से देखा तो मुझे लगा कि काश धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं.

अलीना आपी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं. मैं ने और अम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं भी कर्णफूल नहीं मिले. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डिबिया अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली भी नहीं थी. फिर कर्णफूल कहां गए?

एक बार ख्याल आया कि कुछ दिनों पहले चाचाचाची आए थे और चाची दादी के जेवरों की वजह से अम्मी से बहुत जलती थीं. क्योंकि सब कीमती चीजें उन्होंने अम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने ही तो मौका देख कर नहीं निकाल लिए कर्णफूल. मैं ने अम्मी से कहा तो वह कहने लगीं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह ऐसा कर सकती हैं.’’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिन काम किया था. संभव है, भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. अम्मी कहने लगीं, ‘‘नहीं बेटा, बिना देखे बिना सुबूत किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी, चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम लगा कर गुनहगार क्यों बनें.’’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिल दिमाग ठिकाने पर नहीं था. अलीना आपी के पति समर भाई ने सिचुएशन संभाली, प्रोग्राम ठीकठाक हो गया. दूसरे दिन अलीना ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. अम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं, समर भाई ने भी समझाया, पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘‘मैं बेकुसूर हूं, कर्णफूल गायब होने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है.’’

लेकिन उन्हें किसी बात पर यकीन नहीं आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव साफ देखे जा सकते थे. शाम को वह चली गईं तो पूरे घर में एक बेमन सी उदासी पसर गईं. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना आपी से शर्मिंदा भी थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना आपी सिर्फ 2 बार अम्मी से मिलने आईं, वह भी 2-3 दिनों के लिए. आती तो मुझ से तो बात ही नहीं करती थीं. मैं ने बहन के साथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी थी. बारबार सफाई देना फिजूल था. खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जुबां बन जाए. यह सोच कर मैं ने चुप्पी साध ली. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद ये गम भी हलका पड़ जाए.

मामूली सी आहट पर मैं ने सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी. वह कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मैं अतीत की दुनिया से बाहर आ गई. मुंह धो कर मैं अम्मी के पास आईसीयू में पहुंच गई. अम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गईं. वह मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, परेशान न हो, इस तरह के उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते ही रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हल्का सा नाश्ता कराया. डाक्टरों ने कहा, ‘‘इन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे. 2-4 दिन में छुट्टी दे दी जाएगी. हां, दवाई और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो, जिस से इन्हें स्ट्रेस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना आपी भी आ गईं. मुझ से बस सलामदुआ हुई. वह अम्मी के पास रुकीं. मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद अम्मी भी घर आ गई. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की भरसक कोशिश करते रहे. एक हफ्ता तो अम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया.

मैं ने औफिस जौइन कर लिया. अम्मी के बहुत इसरार पर आपी कुछ दिन रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब अम्मी हलकेफुलके काम कर लेती थीं. अलीना आपी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक थी.उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गाव तकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं. एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’

अन्नामां तकिए उठा लाईं और उन्हें खोलने लगीं. फिर मैं और अन्नामां रुई, तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगीं तो मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गईं. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘‘देखिए अम्मी ये रहे कर्णफूल.’’

आपी ने कर्णफूल उठा लिए और अम्मी के हाथ पर रख दिए. अम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो आपी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

अम्मी सोच में पड़ गईं. फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आया अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रहीं थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख ही रहे थे, तभी घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डिबिया में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डिबिया के बजाय रुई में रख दिए और डिबिया तकिए के पीछे रख दी थी.

‘‘कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शाल वाले के जाने के बाद डिबिया तो मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई  में दब कर रुई के साथ तकिए में भर गए. मलीहा ने तकिए सिले और कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे कि कर्णफूल डिबिया में अलमारी में रखे हैं. जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल है ही नहीं. अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’

अम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक गहरी सांस छोड़ी. अलीना के चेहरे पर फछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उन की आंखें भर आईं. वह दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खडी हो गईं. रुंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या, मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के रेगिस्तान में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं आपी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं से दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

आपी बोलीं, ‘‘अम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटिक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमती एंटिक पीस हैं, मुझे मिलने चाहिए. पर आप ने मलीहा को दे दिए. मुझे लगा कि मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी, ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल का मोह छोड़ती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से आपी से लिपट कर बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से मुझे जो खुशी होगी, वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

अम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ, मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए. रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है, फिर खुद टूट कर बिखर जाते हैं.’’

मैं ने खुलूसे दिल से आपी के कानों में कर्णफूल पहना दिए. सारा माहौल मोहब्बत की खुशबू से महक उठा.???

सीख: क्या मजबूरी थी संदीप के सामने

डोरवैल की आवाज सुनते ही मुझे झंझलाहट हुई. लो फिर आ गया कोई. लेकिन इस समय कौन हो सकता है? शायद प्रैस वाला या फिर दूध वाला होगा.

5-10 मिनट फिर जाएंगे. आज सुबह से ही काम में अनेक व्यवधान पड़ रहे हैं. संदीप को औफिस जाना है. 9 बज कर 5 मिनट हो गए हैं. 25 मिनट में आलू के परांठे, टमाटर की खट्टी चटनी तथा अंकुरित मूंग का सलाद बनाना ज्यादा काम तो नहीं है, लेकिन अगर इसी तरह डोरबैल बजती रही तो मैं शायद ही बना पाऊं. मेरे हाथ आटे में सने थे, इसलिए दरवाजा खोलने में देरी हो गई. डोरबैल एक बार फिर बज उठी. मैं हाथ धो कर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी. मिसेज शर्मा से मैं ने चर्चा की थी. उन्होंने ही उसे भेजा था. मैं उसे थोड़ी देर बैठने को बोल कर अपने काम में लग गई. जल्दीजल्दी संदीप को नाश्ता दिया, संदीप औफिस गए, फिर मैं उस काम वाली बाई की तरफ मुखातिब हुई.

गहरा काला रंग, सामान्य कदकाठी, आंखें काली लेकिन छोटी, मुंह में सुपारीतंबाकू का बीड़ा, माथे पर गहरे लाल रंग का बड़ा सा टीका, कपड़े साधारण लेकिन सलीके से पहने हुए. कुल मिला कर सफाई पसंद लग रही थी. मैं मन ही मन खुश थी कि अगर काम में लग जाएगी तो अपने काम के अलावा सब्जी वगैरह काट दिया करेगी या फिर कभी जरूरत पड़ने पर किचन में भी मदद ले सकूंगी. फूहड़ तरीके से रहने वाली बाइयों से तो किचन का काम कराने का मन ही नहीं करता. फिर मैं किचन का काम निबटाती रही और वह हौल में ही एक कोने में बैठी रही. उस ने शायद मेरे पूरे हौल का निरीक्षण कर डाला था. तभी तो जब मैं किचन से हौल में आई तो वह बोली, ‘‘मैडम, घर तो आप ने बहुत अच्छे से सजाया है.’’

मैं हलके से मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो अब यह बोलो बाई कि मेरे घर का काम करोगी?’’

‘‘क्यों नहीं मैडम, अपुन का तो काम ही यही है. उसी के वास्ते तो आई हूं मैं. बस तुम काम बता दो.’’

‘‘बरतन, झड़ूपोंछा और कपड़ा.’’

‘‘करूंगी मैडम.’’

‘‘क्या लोगी और किस ‘टाइम’ आओगी यह सब पहले तय हो जाना चाहिए.’’

‘‘लेने का क्या मैडम, जो रेट चल रहा है वह तुम भी दे देना और रही बात टाइम की तो अगर तुम्हें बहुत जल्दी होगी तो सवेरे सब से पहले तुम्हारे घर आ जाऊंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा होगा. मुझे सुबह जल्दी ही काम चाहिए. 7 बजे आ सकोगी क्या?’’ मैं ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘आ जाऊंगी मैडम, बस 1 कप चाय तुम को पिलानी पड़ेगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, चाय का क्या है मैं 2 कप पिला दूंगी. लेकिन काम अच्छा करना पड़ेगा. अगर तुम्हारा काम साफ और सलीके का रहा तो कुछ देने में मैं भी पीछे नहीं रहूंगी.’’

‘‘तुम फिकर मत करो मैडम, मेरे काम में कोई कमी नहीं रहेगी. मैं अगर पैसा लेऊंगी तो काम में क्यों पीछे होऊंगी? पूरी कालोनी में पूछ के देखो मैडम, एक भी शिकायत नहीं मिलेगी. अरे, बंगले वाले तो इंतजार करते हैं कि कब सक्कू बाई मेरे घर लग जाए पर अपुन को जास्ती काम पसंद नहीं. अपुन को तो बस प्रेम की भूख है. तुम्हारा दिल हमारे लिए तो हमारी जान तुम्हारे लिए.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है बाई.’’

अब तक मैं उस के बातूनी स्वभाव को समझ चुकी थी. कोई और समय होता तो मैं

इतनी बड़बड़ करने की वजह से ही उसे लौटा देती, लेकिन पिछले 15 दिनों से घर में कोई काम वाली बाई नहीं थी, इसलिए मैं चुप रही.

उस के जाने के बाद मैं ने एक नजर पूरे घर पर डाली. सोफे के कुशन नीचे गिरे थे, पेपर दीवान पर बिखरा पड़ा था, सैंट्रल टेबल पर चाय के 2 कप अभी तक रखे थे. कोकिला और संदीप के स्लीपर हौल में इधरउधर उलटीसीधी अवस्था में पड़े थे. मुझे हंसी आई कि इतने बिखरे कमरे को देख कर सक्कू बाई बोल रही थी कि घर तो बड़े अच्छे से सजाया है. एक बार लगा कि शायद सक्कू बाई मेरी हंसी उड़ा रही थी कि मैडम तुम कितनी लापरवाह हो. वैसे बिखरे सामान, मुड़ीतुड़ी चादर, गिरे हुए कुशन मुझे पसंद नहीं है, लेकिन आज सुबह से कोई न कोई ऐसा काम आता गया कि मैं घर को व्यवस्थित करने का समय ही न निकाल पाई. जल्दीजल्दी हौल को ठीक कर मैं अंदर के कमरों में आई. वहां भी फैलाव का वैसा ही आलम. कोकिला की किताबें इधरउधर फैली हुईं, गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ. कितना समझती हूं कि कम से कम गीला तौलिया तो बाहर डाल दिया करो और अगर बाहर न डाल सको तो दरवाजे पर ही लटका दो, लेकिन बापबेटी दोनों में से किसी को इस की फिक्र नहीं रहती. मैं तो हूं ही बाद में सब समेटने के लिए.

तौलिया बाहर अलगनी पर डाल ड्रैसिंग टेबल की तरफ देखा तो वहां भी क्रीम, पाउडर, कंघी, सब कुछ फैला हुआ. पूरा घर समेटने के बाद अचानक मेरी नजर घड़ी पर गई. बाप रे, 11 बज गए. 1 बजे तक लंच भी तैयार कर लेना है. कोकिला डेढ़ बजे तक स्कूल से आ जाती है. संदीप भी उसी के आसपास दोपहर का भोजन करने घर आ जाते हैं. मैं फुरती से बाकी के काम निबटा लंच की तैयारी में जुट गई.

दूसरे दिन सुबह 7 बजे सक्कू बाई अपने को समय की सख्त पाबंद तथा दी गई जबान को पूरी तत्परता से निभाने वाली एक कर्मठ काम वाली साबित करते हुए आ पहुंची. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. खुशी इस बात की कि चलो आज से बरतन, कपड़े का काम कम हुआ. आश्चर्य इस बात का कि आज तक मुझे कोई ऐसी काम वाली नहीं मिली थी जो वादे के अनुरूप समय पर आती.

दिन बीतते गए. सक्कू बाई नियमित समय पर आती रही. मुझे बड़ा सुकून मिला. कोकिला तो उस से बहुत हिलमिल गई. सवेरे कोकिला से उस की मुलाकात नहीं होती थी, लेकिन दोपहर को वह कोकिला को कहानी सुनाती, कभीकभी उस के बाल ठीक कर देती. जब मैं कोकिला को पढ़ने के लिए डांटती तो वह ढाल बन कर सामने आ जाती, ‘‘क्या मैडम क्यों इत्ता डांटती हो तुम? अभी उम्र ही क्या है बेबी की. तुम देखना कोकिला बेबी खूब पढ़ेगी, बहुत बड़ी अफसर बनेगी. अभी तो उस को खेलने दो. तुम चौथी कक्षा की बेबी को हर समय पढ़ने को कहती हो.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई तुम नहीं समझती हो. अभी से पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी तो बाद में कुछ नहीं होगा. इतना कंपीटिशन है कि अगर कुछ करना है तो समय के साथ चलना पड़ेगा, नहीं तो बहुत पिछड़ जाएगी.’’

‘‘मेरे को सब समझ में आता है मैडम. तुम अपनी जगह ठीक हो पर मेरे को ये बताओ कि तुम अपने बचपन में खुद कितना पढ़ती थीं? क्या कमी है तुम को, सब सुख तो भोग रही हो न? ऐसे ही कोकिला बेबी भी बहुत सुखी होगी. और मैडम, आगे कितना सुख है कितना दुख है ये नहीं पता. कम से कम उस के बचपन का सुख तो उस से मत छीनो.’’

सक्कू बाई की यह बात मेरे दिल को छू गई. सच तो है. आगे का क्या पता.

अभी तो हंसखेल ले. वैसे भी सक्कू बाई की बातों के आगे चुप ही रह जाना पड़ता था. उसे सम?ाना कठिन था क्योंकि उस की सोच में उस से अधिक सम?ादार कोई क्या होगा. मेरे यह कहते ही कि सक्कू बाई तुम नहीं समझ रही हो. वह तपाक से जवाब देती कि मेरे को सब समझ में आता है मैडम. मैं कोई अनपढ़ नहीं. मेरी समझ पढ़ेलिखे लोगों से आगे है. मैं हार कर चुप हो जाती.

धीरेधीरे सक्कू बाई मेरे परिवार का हिस्सा बनती गई. पहले दिन से ले कर आज तक काम में कोई लापरवाही नहीं, बेवजह कोई छुट्टी नहीं. दूसरे के यहां भले ही न जाए, पर मेरा काम करने जरूर आती. न जाने कैसा लगाव हो गया था उस को मुझ से. जरूरत पड़ने पर मैं भी उस की पूरी मदद करती. धीरेधीरे सक्कू बाई काम वाली की निश्चित सीमा को तोड़ कर मेरे साथ समभाव से बात करने लगी. वह मुझे मेरे सादे ढंग से रहने की वजह से अकसर टोकती, ‘‘क्या मैडम, थोड़ा सा सजसंवर कर रहना चाहिए. मैं तुम्हारे वास्ते रोज गजरा लाती हूं, तुम उसे कोकिला बेबी को लगा देती हो.’’

मैं हंस कर पूछती, ‘‘क्या मैं ऐसे अच्छी नहीं लगती हूं?’’

‘‘वह बात नहीं मैडम, अच्छी तो लगती हो, पर थोड़ा सा मेकअप करने से ज्यादा अच्छी लगोगी. अब तुम्हीं देखो न, मेहरा मेम साब कितना सजती हैं. एकदम हीरोइन के माफिक लगती हैं.’’

‘‘उन के पास समय है सक्कू बाई, वे कर लेती हैं, मुझ से नहीं होता.’’

‘‘समय की बात छोड़ो, वे तो टीवी देखतेदेखते नेलपौलिश लगा लेती हैं बाल बना लेती हैं हाथपैर साफ कर लेती हैं. तुम तो टीवी देखती नहीं. पता नहीं क्या पढ़पढ़ कर समय बरबाद करती हो. टीवी से बहुत मनोरंजन होता है मैडम और फायदा यह कि देखतेदेखते दूसरा काम हो सकता है. किताबों में या फिर तुम्हारे अखबार में क्या है? रोज वही समाचार… उस नेता का उस नेता से मनमुटाव, महंगाई और बढ़ी, पैट्रोल और किरोसिन महंगा. फलां की बीवी फलां के साथ भाग गई. जमीन के लिए भाई ने भाई की हत्या की. रोज वही काहे को पढ़ना? अरे, थोड़ा समय अपने लिए भी निकालना चाहिए.’’

सक्कू बाई रोज मुझे कोई न कोई सीख दे जाती. अब मैं उसे कैसे समझती कि पढ़ने से मुझे सुकून मिलता है, इसलिए पढ़ती हूं.

एक दिन सक्कू बाई काम पर आई तो उस ने अपनी थैली में से मोगरे के 2 गजरे निकाले और बोली, ‘‘लो मैडम, आज मैं तुम्हारे लिए अलग और कोकिला बेबी के लिए अलग गजरा लाई हूं. आज तुम को भी लगाना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है सक्कू बाई, मैं जरूर लगाऊंगी.’’

‘‘मैडम, अगर तुम बुरा न मानो तो आज मैं तुम को अपने हाथों से तैयार कर देती हूं.’’ कुछ संकोच और लज्जा से बोली वह.

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने जैसी क्या बात है. पर क्या करोगी मेरे लिए?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘बस मैडम, तुम देखती रहो,’’ कह कर वह जुट गई. मैं ने भी आज उस का मन रखने का निश्चय कर लिया.

सब से पहले उस ने मेरे हाथ देखे और अपनी बहुमुखी प्रतिभा व्यक्त करते हुए नेलपौलिश लगाना शुरू कर दिया. नेलपौलिश लगाने के बाद खुद ही मुग्ध हो कर मेरे हाथों को देखने लगी ओर बोली, ‘‘देखा मैडम, हाथ कित्ता अच्छा लग रहा है. आज साहबजी आप का हाथ देखते रह जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई, साहब का ध्यान माथे की बिंदिया पर तो जाता नहीं, भला वे नाखून क्या देखेंगे? तुम्हारे साहब बहुत सादगी पसंद हैं.’’

मेरे इतना कहने पर वह बोली, ‘‘मैं ऐसा नहीं कहती मैडम कि साहबजी का ध्यान मेकअप पर ही रहता है. अरे, अपने साहबजी तो पूरे देवता हैं. इतने सालों से मैं काम में लगी पर साहबजी जैसा भला मानुस मैं कहीं नहीं देखी. मेरा कहना तो बस इतना था कि सजनासंवरना आदमी को बहुत भाता है. वह दिन भर थक कर घर आए और घर वाली मुचड़ी हुई साड़ी और बिखरे हुए बालों से उस का स्वागत करे तो उस की थकान और बढ़ जाती है. लेकिन यदि घर वाली तैयार हो कर उस के सामने आए तो दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है.’’

मैं अधिक बहस न करते हुए चुप हो कर उस का व्याख्यान सुन रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे कुछ कहने पर वह तुरंत बोल देगी कि मैं कोई अनपढ़ नहीं मैडम…

इस बीच उस ने मेरी चूडि़यां बदलीं, कंघी की, गजरा लगाया, अच्छी सी बिंदी लगाई. जब वह पूरी तरह संतुष्ट हो गई तब उस ने मुझे छोड़ा. फिर अपना काम निबटा कर वह घर चली गई. मैं भी अपने कामों में लग गई और यह भूल गई कि आज मैं गजरा वगैरह लगा कर कुछ स्पैशल तैयार हुई हूं.

दरवाजे की घंटी बजी. संदीप आ गए थे. मैं उन से चाय के लिए पूछने गई तो वे बड़े गौर से मु?ो देखने लगे. मैं ने उन से पूछा कि चाय बना कर लाऊं क्या? तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर यहीं बैठो. आज तो तुम्हारे चेहरे पर इतनी ताजगी झलक रही है कि थकान दूर करने के लिए यही काफी है. इस के सामने चाय की क्या जरूरत?’’ मैं अवाक हो उन्हें देखती रह गई. मुझे लगा कि सक्कू बाई चिढ़ाचिढ़ा कर कह रही है, ‘‘देखा मैडम, मैं कहती थी न कि मैं कोई अनपढ़ नहीं.’’

राजन भैया: आखिर राजन को किस बात का पछतवा हुआ

शीबा आज भैया के व्यवहार में काफी बदलाव महसूस कर रही थी. फिर भी वह यह बात अपने मन में बारबार दोहरा रही थी कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. वह पिछले 4 वर्षों से राजन भैया के साथ एक ही छत के नीचे रहती आई है. राजन एक आदर्श एवं गरिमामय व्यक्तित्व वाला शख्स है. फिर शीबा दिमाग में चल रहे द्वंद्व को  झटक उस खुशनुमा माहौल को याद करने लगी. राजन ने कहा था, ‘‘मां राह देख रही होगीं. रात के 11 बज रहे हैं. चलो घर चलते हैं.’’

शीबा भैया के पीछे हो ली थी. शीबा के साथी उसे छोड़ने गेट तक आए. राजन स्टैंड से अपनी बाइक लेने चला गया. जब तक राजन आता शीबा के साथी उस की जीत की खुशी में बधाई देते रहे. राजन के आते ही शीबा बाइक पर भैया के पीछे बैठ गई. फिर जातेजाते अपने साथियों को देख हाथ हिलाती रही.

फिर शीबा प्रतियोगिता से जुड़ी बातों में खो गई. उसे याद आया कि प्रतियोगिता में भाग लेने आईं बहुत सी लड़कियां तो उसे देख बगलें  झांकने लगी थीं. फिर प्रतियोगिता की घोषणा के बाद तो वह अपनी धड़कनों पर काबू नहीं रख पा रही थी. वह सीधे मेकअप रूम की तरफ भागी थी और आईने में खुद को निहारती रह गई थी.

एक गर्वीली मुसकान उस के चेहरे पर अनायास ही आ गई थी. वह मिस यूनिवर्सिटी चुनी गई थी. उस ने पहन रखा था एक कंपनी द्वारा उपहार में मिला लिबास एवं सलीके से बनाया गया अमेरिकन डायमंड जड़ा ताज.

वह आईना देख कर खुद पर ही मुग्ध हुई जा रही थी. अब मां उसे देख कर क्या कहेंगी, वह यह सुनना चाहती थी, इसीलिए वह उसी लिबास में घर की ओर चल पड़ी थी.

शीबा ने अपने सिर पर रखा ताज छू कर देखा तो बाइक कुछ डगमगा गई. वह

राजन से थोड़ी टकराई तो संभल कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद वह एक बार फिर आयोजन के खयालों में खो गई. आयोजन एक मशहूर गारमैंट कंपनी द्वारा करवाया गया था. शीबा वहां का ताम झाम देख कर डर गई थी. वह अनायास ही मुड़ कर भागी थी तो राजन से टकरा गई थी. राजन ने पूछा था, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘नहीं भैया, मु झ से नहीं होगा. मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं लूंगी.’’

राजन ने कहा था, ‘‘अरी पगली, इस में घबराना कैसा? कहीं वक्त पर तुम पीछे मुड़ कर न भागो यही सोच कर मैं ने तुम्हें प्रोफैशनल मौडल के पास भेज कर ट्रेनिंग दिलाई थी. तुम अच्छी तरह जानती हो कि किस चरण में कैसा हावभाव व चालढाल होगी.’’

राजन शीबा को सम झा कर अंदर ले आया. हौल का दृश्य तो और उत्साहवर्धक था. मंच और दर्शक दीर्घा के बीच कुछ फासला रखा गया था, जिस में आगे की 2 कतारें निर्णायकों, कंपनी के मुख्य अधिकारियों और शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए थीं. प्रैस वालों के लिए मंच के करीब खास इंतजाम रखा गया था ताकि अच्छाखासा कवरेज मिले. हौल में काफी भीड़ थी. दर्शकों के बीच बैठे थे शीबा के सहपाठी. वे शीबा को देख कर उत्साहित हो गए थे.

शीबा को मेकअप रूम में छोड़ राजन दर्शकों के बीच जा बैठा था. मेकअप रूम में कुछ युवतियां मेकअप करा रही थीं, तो कुछ बैठ कर आयोजकों द्वारा पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के उपयुक्त जवाबों के विषय में चर्चा कर रही थीं. शीबा ने महसूस किया उन की बातों में दम नहीं है. अपनेआप से इन युवतियों की तुलना करती शीबा अब आत्मविश्वास से भर गई थी.

आयोजन स्थल से 25 कि.मी. दूरी पर शहर के कोने में है राजन का घर, जिस में शीबा और उस की मां पिछले 4 वर्षों से रह रही हैं. शीबा के पिता की मृत्यु के बाद उन के परिवार के लोगों ने शीबा और उस की मां से पीछा छुड़ा लिया था. तब बेसहारा शीबा और उस की मां अपना घर छोड़ राजन के घर आ गई थीं.

 

राजन जब छोटा था. उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. राजन का

पालनपोषण उस की दादी ने किया था. बूढ़ी दादी से घर का काम नहीं संभलता था इसलिए शीबा की मां ने राजन और उस की दादी की सेवा एवं घर का सारा काम संभाल लिया था. बदले में उन्हें रहने के लिए कमरा मिला था और काम के लिए जो तनख्वाह मिलती थी वह मांबेटी के जीवन निर्वाह के लिए काफी थी. राजन की दादी की मृत्यु के बाद शीबा की मां ही राजन का सहारा बनीं, तो राजन, शीबा और उस की मां का एक परिवार जैसा बन गया था.

शीबा उन दिनों 13 वर्ष की थी. लेकिन वह बहुत दुबलीपतली थी. इसलिए राजन उसे बंदरिया कह कर पुकारा करता था. याद आते ही शीबा

हंस पड़ी. फिर उस को चुहल सू झा तो राजन के कानों के पास मुंह ला कर धीरे से बोली, ‘‘भैया, मैं जीत गई.’’

राजन ने अचानक ब्रेक मारा तो शीबा उस से तेजी से टकराई. राजन ने कुछ कहा तो नहीं, हां सीट का काफी हिस्सा इस बार घेर कर बैठ गया. शीबा बची थोड़ी सी जगह पर सिमट कर बैठ गई.

शीबा फिर अपने खयालों में खो गई. बाइक की रफ्तार से भी तेज शीबा का दिमाग चल रहा था. शीबा को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह भैया उस की हंसी उड़ा देंगे या जीत का श्रेय खुद लेते हुए कौलर उठा कर हंस पड़ेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शीबा ने घड़ी देखी, रात के 12 बज चुके थे. सड़क दूरदूर तक वीरान थी. बाइक बारबार डगमगा जाती, शीबा बारबार भैया से टकरा जाती. ऐसा आज पहली बार हो रहा था. साफसुथरी नई बनी सड़क, उस पर आखिर भैया गाड़ी इस तरह क्यों चला रहे हैं? राजन शीबा के लिए सीट में काफी जगह छोड़ कर बैठा करता था. पर आज…

राजन को याद आया, प्रदर्शन के समय सर्चलाइट की रोशनी जब शीबा पर ला कर फ्रीज की गई थी तब शीबा मुसकरा रही थी. उस के मोतियों जैसे सफेद दांत, पतले अधखुले गुलाबी होंठ और आंखों में चमक थी. उस ने टाइट स्लैक्स व टौप पहना हुआ था. उस पर ढीला निटेड गाउन था. सारे अंग ढके होने के बावजूद शारीरिक बनावट स्पष्ट रूप से  झलक रही थी. उस का ढीलाढाला गाउन बेफिक्री दर्शा रहा था तो टाइट स्लैक्स और टौप ग्लैमर.

राजन ने बाइक का बैक ग्लास इस तरह सैट किया था कि शीबा उसे स्पष्ट नजर आ रही थी. शीबा की नजर उस पर पड़ी तो उस ने देखा कि राजन उसे टकटकी बांधे देख रहा था. शीबा की नजर ग्लास पर देख राजन ने नजरें घुमा लीं. उस की इस हरकत से शीबा को डर लगा.

उस समय शहर में सन्नाटा सा छा गया था. राजन की बाइक के बगल से इक्कादुक्का औटो या टैक्सी यदाकदा गुजर जाते थे. कहींकहीं कुछ कुत्ते भौंक रहे थे. उन की आवाज दूरदूर तक पहुंच कर वातावरण को डरावना बना रही थी. शीबा को याद आया कि प्रतियोगिता से लौटते

हुए अभी तक भैया ने उस से एक भी शब्द नहीं कहा है.

राजन सोच रहा था कि शीबा इतनी खूबसूरत है तो मेरी आंखें पहले क्यों न देख पाईं? शीबा और उस की मां को आश्रय देने की वजह से पड़ोसी जब उसे शक भरी निगाहों से देखते, दोस्त उस पर हंसते और उस पर पगला और सिरफिरा होने का आरोप लगाते तो उस के अंदर का मानव और जिद्दी हो जाता. शीबा को बहन स्वीकारने की इच्छा और बलवती हो जाती. अकसर मां की आंखों में उपजने वाली दुविधा राजन सहन न कर पाता. तब उस की आंखें उन को आश्वासन दिया करतीं. सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया में फैली बुराइयों से लड़ने को उस के बाजू फड़क उठते.

 

पर आज यह सौंदर्य प्रतियोगिता का जादू है या रात की वीरानगी का? राजन, राजन न रहा.

वह उसे पागल कहने वाले दोस्तों में से एक बन गया. इतने दिनों से समेटा बल कहां गया? राजन के अंदर कुछ तड़क गया. कितनी मारक शक्ति है कामवासना में कि निर्जन शहर अपराध के लिए सुरक्षित महसूस होने लगा.

राजन के दिलोदिमाग में जैसे तूफान उठने लगा. शीबाशीबा हर ज्वारभाटे के साथ के साथ शीबा. राजन के लिए मानों अब शीबा, शीबा न रही. फैशन शो में वक्ष उघाड़ कर चलने वाली नागिन बन गई. क्या मालूम कौन सा पल उसे डस ले. फिर वह रात और उस का एकांत उसे डरावना सा लगने लगा. एकांत से डर कर ही तो राजन ने शीबा और उस की मां को शरण दी थी. मां और बहन? हांहां… राजन के अंदर जैसे कोई अट्टहास करने लगा. भरी जवानी और मांबहन का साथ.

राजन ने चारों ओर नजरें घुमा कर देखा. दूर रिकशा वाले स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठ कर ताश खेल रहे थे. राजन के अंदर का राक्षस तो हर उठती गिरती सांस के साथ विकराल रूप धारण करता जा रहा था. वह उस का विवेक निगलता जा रहा था.

राजन अकसर मां और बहन से छिप कर रंगीन पत्रिकाओं के पन्ने पलटा करता था. चिकनी नंगी टांगें और आकर्षक देह, सब कुछ तो है शीबा के पास. शीबा से मेरा खून का रिश्ता तो है नहीं. राजन के अंदर कुछ उफनने लगा. शरीर का सारा लहू निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होने लगा.

 

राजन ने अपनेआप को संभालने के उद्देश्य से चारों ओर देखा. दूरदूर तक फैला

सन्नाटा, सड़क के दोनों ओर नींद के आगोश में ऊंची इमारतें और ठंडी हवा के  झोंके. बाइक के शीशे में राजन ने अपना चेहरा देखा. यह राजन नहीं कोई और था. शीशे में शीबा की हवा में उड़ती जुल्फें ऐसी दिख पड़ीं जैसे किसी नदी में बाढ़ आई हो. उस वेग में एक भाई, एक मुंहबोला बेटा, एक सहृदयी इंसान बहा जा रहा था.

फिल्मों में देखे प्रणय सीन, रंगीन पत्रिकाओं में देखे और पढ़े और दोस्तों द्वारा बताए गए अनुभवों से राजन के अंदर कुछ पा जाने की इच्छा बलवती होती जा रही थी.

राजन जैसे बाइक पर नहीं पशु जैसा पैरों पर चल रहा था. दबे पांव शिकार पर उछल कर दबोच लेने की चाह वाला. उस के मुंह से लार टपकने लगी. आंखों में खूंख्वार इरादे भाई राजन और इस राजन में जमीनआसमान का फर्क दिखा रहे थे. राजन ने निर्णय ले लिया कि शीबा पर मेरा अधिकार है. मैं मांबेटी को सहारा न देता तो अब तक ये इस महानगर में मिट चुकी होतीं. राजन जितना हो सका उतना शीबा से सट कर बैठ गया. उस के अंदर एक योजना काम करने लगी तो उस ने रास्ता बदल लिया.

शीबा ने महसूस किया कि यह रास्ता हमारे घर को नहीं जाता तो वह बहुत डर गई. मन ही मन खुद को कोसने लगी कि आखिर मैं ने इस प्रतियोगिता में भाग ही क्यों लिया? बाइक हवा से बातें कर रही थी. शीबा को कुछ नहीं सू झ रहा था.

शीबा ने आंखें मूंद कर सीट के पीछे की स्टील रौड को कस कर पकड़ लिया ताकि भैया से वह न टकराए. राजन आपा खो चुका था. गाड़ी की रफ्तार और तेज हो गई थी. राजन के दिल की धड़कनें राजन पर ही नहीं सारे माहौल पर हावी हो गई थीं. तेज रफ्तार से चलती बाइक आउट औफ कंट्रोल हो गई तो राजन सड़क पर गिर पड़ा और शीबा उछल गई.

फुटपाथ पर दिन में प्लास्टिक के सामान फैला कर बेचने वाला व्यापारी रात को सारे सामान समेट गठरी बांध उस गठरी के पास ही

सो रहा था. शीबा उस गठरी पर ही जा गिरी. व्यापारी घबरा कर उठ बैठा. राजन सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था. बाइक के पीछे का चक्का अभी भी चल रहा था. शीबा को चोट नहीं लगी तो वह खड़ी हो गई.

व्यापारी सारी बातें सम झ, भाग कर गाड़ी बंद कर राजन की ओर लपका. राजन के सिर से खून रिस रहा था और वह बेहोश था. शीबा राजन को इस हाल में देख रो पड़ी और सहायता के लिए गुहार लगाने लगी. व्यापारी ने शीबा को पानी की बोतल ला कर दी. शीबा ने भैया का चेहरा धोया और अपना गाउन फाड़ उस की चोट पर पट्टी बांधी. व्यापारी टैक्सी बुला लाया. शीबा ने बाइक व्यापारी के हवाले कर, भैया को टैक्सी वाले और व्यापारी की सहायता से टैक्सी में लिटाया, ड्राइवर को घर का पता बताया और भैया के पास बैठ गई.

ठंडी हवा के  झोंकों से राजन को होश आ गया तो वह उठ कर बैठ गया. शीबा ने उसे पानी पिलाया, लेकिन वह अभी भी रो रही थी. राजन को अपने अंदर जागा जानवर याद आया तो वह पश्चात्ताप से भर गया पर शीबा को चुप कराने या आश्वस्त करने का साहस न जुटा पाया.

हालांकि रोती हुई शीबा राजन को फिर बच्ची सी नजर आ रही थी फिर भी उस के और शीबा के बीच थोड़ी देर मौन पसरा रहा. राजन ने शीबा की ओर ध्यान से देखा. शीबा के सिर पर ताज न था, उस का गाउन फटा हुआ था और केश बिखर गए थे.

दरअसल, शीबा जब गिरी थी तब उस का ताज टूट गया था. उस का गाउन फटा हुआ इसलिए था, क्योंकि उस ने गाउन फाड़ कर भैया को पट्टी जो बांधी थी. राजन के मन में शीबा के लिए फिर से वात्सल्य जाग उठा. उस ने मन ही मन कसम खाई कि आज के बाद ऐसा कभी नहीं होगा. शीबा मेरी बहन है और इस जन्म में बहन ही रहेगी.

राजन में असीम साहस का संचार हो गया. उस ने शीबा के सिर पर हाथ फेर कर पूछा, ‘‘शीबा, तुम्हारा ताज कहां है और तुम ने अपना गाउन क्यों फाड़ा?’’

शीबा ने उसे कुछ नहीं बताया. उस ने सिर्फ यही कहा, ‘‘भैया आप स्वस्थ हैं, इस से ज्यादा मु झे कुछ नहीं चाहिए.’’

औकात से ज्यादा: भाग 3- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

पापा तो निशा के जाने से पहले ही काम पर निकल जाते थे, इसलिए नए खरीदे कपड़े पहन कर औफिस जाती निशा का सामना उन से नहीं हुआ. मगर मम्मी तो उसे देख भड़क गईं, ‘‘तू ये कपड़े पहन कर औफिस जाएगी? कुछ शर्मोहया भी है कि नहीं?’’‘‘क्यों? इन कपड़ों में कौन सी बुराई है?’’ निशा ने तपाक से पूछा. ‘‘सारे जिस्म की नुमाइश हो रही है और तुम को इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही. उतारो इन्हें और ढंग के दूसरे कपड़े पहनो,’’ निशा की नौकरी को ले कर पहले से ही नाखुश मम्मी ने कहा. ‘‘मेरे पास इतना वक्त नहीं मम्मी कि दोबारा कपड़े बदलूं. इस समय मैं काम पर जा रही हूं. शाम को इस बारे में बात करेंगे,’’ मम्मी के विरोध की अनदेखी करते निशा घर से बाहर निकल आई. उस दिन घर से औफिस को जाते निशा को लगा कि उस को पहले से ज्यादा नजरें घूर रही हैं. ऐसा जरूर कपड़ों में से दिखाई पड़ने वाले उस के गोरे मांसल जिस्म की वजह से था. शर्म आने के बजाय निशा को इस में गर्व महसूस हुआ. उधर, अपने बदले रंगरूप की वजह से निशा को औफिस में भी खुद के प्रति सबकुछ बदलाबदला सा लगा. बिजलियां गिराती निशा के बदले रंगरूप को देख काम करने वाली दूसरी लड़कियों की आंखों में हैरानी के साथसाथ ईर्ष्या का भाव भी था. यह ईर्ष्या का भाव निशा को अच्छा लगा. यह ईर्ष्याभाव इस बात का प्रमाण था कि वह उन के लिए चुनौती बनने वाली थी.

निशा के अपना रंगरूप बदलते ही निशा के लिए औफिस में भी एकाएक सबकुछ बदलने लगा. अपने केबिन की तरफ जाते हुए संजय की नजर निशा पर पड़ी और इस के बाद पहली बार उस को अकेले केबिन में आने का इंटरकौम पर हुक्म भी तत्काल ही आ गया. केबिन में आने का और्डर मिलते ही निशा के बदन में सनसनाहट सी फैल गई. उस को इसी घड़ी का तो इंतजार था. केबिन में जाने से पहले निशा ने गर्वीले भाव से एक बार दूसरी लड़कियों को देखा. वह अपनी हीनभावना से उबर आई थी. अकेले केबिन में एक लड़की होने के नाते उस के साथ क्या हो सकता था, उस की कल्पना कर के निशा मानसिक रूप से इस के लिए तैयार थी. दूसरे शब्दों में, केबिन की तरफ जाते हुए निशा की सोच बौस के सामने खुद को प्रस्तुत करने की थी. निशा को इस बात से भी कोई घबराहट नहीं थी कि अपने बौस के केबिन में से बाहर आते समय उस के होंठों की लिपस्टिक का रंग फीका पड़ सकता था. वह बिखरी हुई हालत में नजर आ सकती थी. निशा मान रही थी कि बहुत जल्दी बहुतकुछ हासिल करना हो तो उस के लिए किसी न किसी शक्ल में कोई कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.

निशा जब संजय के केबिन में दाखिल हुई तो उस की आंखों में खुले रूप से संजय के सामने समर्पण का भाव था. संजय की एक शिकारी वाली नजर थी. निशा के समर्पण के भाव को देख वह अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराया और बोला, ‘‘तुम एक समझदार लड़की हो, इसलिए जानती हो कि कामयाबी की सीढ़ी पर तेजी से कैसे चढ़ा जाता है? अपने बौस और क्लाइंट को खुश रखो, यही तरक्की का पहला पाठ है. मेरा इशारा तुम समझ रही हो?’’

‘‘यस सर,’’ निशा ने बेबाक लहजे से कहा.

‘‘गुड, तुम वाकई समझदार हो. तुम्हारी इसी समझदारी को देखते हुए मैं इसी महीने से तुम्हारी सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी कर रहा हूं,’’ निशा के गदराए जिस्म पर नजरें गड़ाते संजय ने कहा.

‘‘थैंक्यू सर, इस मेहरबानी के बदले में मैं आप को कभी भी और किसी भी मामले में निराश नहीं करूंगी,’’ उसी क्षण खुद को संजय के हवाले कर देने वाले अंदाज में निशा ने कहा. इस पर उस को अपने करीब आने का इशारा करते हुए संजय ने कहा, ‘‘तुम आज के जमाने की हकीकत को समझने वाली लड़की हो, इसलिए तेजी से तरक्की करोगी.’’ इस के बाद कुछ समय संजय के साथ केबिन में बिता कर  अपने होंठों की बिखरी लिपस्टिक को रुमाल से साफ करती निशा बाहर निकली तो वह नए आत्मविश्वास से भरी हुई थी. औकात से अधिक मिलने को ले कर मम्मी जिस आशंका से इतने दिनों से आशंकित थीं उस में से तो निशा गुजर भी गई थी. औकात कम होने पर तरक्की करने का यही तो सही रास्ता था. इसलिए संजय के केबिन के अंदर जो भी हुआ था उस के लिए निशा को कोई मलाल नहीं था.

सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी हुई तो बिना देरी किए निशा ने सवारी के लिए स्कूटी भी किस्तों पर ले ली. अपनी स्कूटी पर सवार हो नौकरी पर जाते निशा का एक और बड़ा अरमान पूरा हो गया था. वह जैसे हवा में उड़ रही थी. इस के साथ ही निशा ने घर में यह ऐलान भी कर दिया कि अब से वह अपने काम से देरी से वापस आया करेगी. पापा कुछ नहीं बोले, किंतु मम्मी के माथे पर कई बल पड़ गए, पूछा, ‘‘इस देरी से आने का मतलब?’’

‘‘ओवरटाइम मम्मी, ओवरटाइम.’’

मम्मी ने दुनिया देखी थी, इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘मुझ को तुम्हारा देर से घर आना अच्छा नहीं लगेगा.’’ ‘‘तुम को तो मेरा नौकरी पर जाना भी कहां अच्छा लगा था मम्मी, मगर मैं नौकरी पर गई. अब भी वैसा ही होगा. एक बात और, तुम को मुझे मेरी औकात से ज्यादा मिलने पर ऐतराज था. मगर मुझ को 2 महीने में ही मिलने वाली तरक्की ने साबित कर दिया कि मेरी कोई औकात थी.’’ बड़े अहंकार से कहे गए निशा के शब्दों पर मम्मी बोलीं, ‘‘हां, मैं देख रही हूं और समझ भी रही हूं. सचमुच बाहर तेरी औकात बढ़ गई है. मगर मेरी नजरों में तेरी औकात पहले से कम हो गई है.’’ मम्मी के शब्दों की गहराई में जाने की निशा ने जरूरत नहीं समझी. इस के बाद घर देर से आना निशा के लिए रोज की बात हो गई. काफी रात हुए घर आना अब निशा की मजबूरी थी. अपने बौस के साथसाथ क्लाइंट को भी खुश करना पड़ता था. औफिस में निशा की अहमियत बढ़ रही थी मगर घर में स्थिति दूसरी थी. मम्मी लगातार निशा से दूर हो रही थीं, किंतु निशा की कमाई के लालच में पापा अब भी उस के करीब बने हुए थे. निशा के देरसबेर घर आने को वे अनदेखा कर जाते थे. दिन बीतते गए. एक दिन निशा को ऐसा लगा कि अपनी लालसाओं के पीछे भागते हुए वह इतनी दूर निकल आई थी जहां से वापसी मुश्किल थी. अपने फायदे के लिए संजय ने निशा का खूब इस्तेमाल किया था. इस के बदले में उस को मोटी सैलरी भी दी थी. निशा ने बहुतकुछ हासिल किया था, किंतु एक औरत के रूप में बहुतकुछ गंवा कर.

कभीकभी यह चीज निशा को सालती भी थी. ऐसे में उस को मम्मी की कही हुई बातें भी याद आतीं. लेकिन जिस तड़कभड़क वाली जिंदगी जीने की निशा आदी हो चुकी थी उस को छोड़ना भी निशा के लिए अब मुश्किल था. वापसी के रास्ते बंद थे. औफिस की दूसरी लड़कियों के सीने में जलन और ईर्ष्या जगाती निशा काफी समय तक अपने बौस संजय की खास और चहेती बनी रही और सैलरी में बढ़ोतरी करवाती रही. फिर एक दिन अचानक ही निशा के लिए सबकुछ नाटकीय अंदाज में बदला. एक खूबसूरत सी दिखने वाली लीना नाम की लड़की नौकरी हासिल करने के लिए संजय के केबिन में दाखिल हुई और इस के बाद निशा के लिए केबिन में से बुलावा आना कम होने लगा. लीना ने सबकुछ समझने में निशा की तरह 2 महीने का लंबा समय नहीं लिया था और कुछ दिनों में ही संजय की खासमखास बन गई थी. लीना की संजय के केबिन में एंट्री के बाद उपेक्षित निशा को अपनी स्थिति किसी इस्तेमाल की हुई सैकंडहैंड चीज जैसी लगने लगी थी. लेकिन उस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि वह अपनी सैकंडहैंड वाली सोच के साथ समझौता कर ले.

वसीयत: भाग 1- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

बचपन में मां कहा करती थीं कि बेटियों से डर नहीं लगता उन के साथ क्या होगा उस से डर लगता है. शायद ठीक ही कहती थीं. वृंदा को आज इस कहावत का अर्थ भलीभांति समझ आ गया है. मानो मां उस के भविष्य का लेखा पहचान गई थीं. इसीलिए यह कहावत दोहराती थीं. फिर 1 या 2 नहीं पूरी

3 बेटियां जो उतर आई थीं उन के आंगन में. इसीलिए मां को फिक्र होती कि कैसे होगी तीनों की परवरिश. पहले पढ़ाई फिर ब्याह? सब से छोटी मैं (वृंदा) थी.

मां को चिंतातुर देख पिताजी कहते, ‘‘क्यों बेकार में चिंता से गली जा रही हो. सब अपनीअपनी मेहनत ले कर आई हैं.’’

‘‘अजी, तुम्हें क्या पता जब मैं 4 औरतों के बीच बैठती हूं तो उन का पहला सवाल यही होता है कि कितने बच्चे हैं आप के? जब मैं कहती 4. 1 लड़का और 3 बेटियां तो सुनते ही सब के मुंह इस तरह खुले रह जाते मानो कोई अनचाहा जीव देख लिया हो. फिर उन की टिप्पणियां शुरू हो जातीं…

‘‘आज तो एक बच्चे को पालना ही कितना महंगा है उस पर 4-4 बच्चे. उन में भी 3 बेटियां, बहनजी कितनी टैंशन होती होगी न आप को…’’

‘‘उफ, तो यह टैंशन उन औरतों की हुई है तुम्हें… तुम बैठती ही क्यों हो ऐसी औरतों के बीच? अगर अब कुछ कहें तो कहना कि बहनजी हमारी बेटियां हैं. कैसे पालनी हैं हम देख लेंगे. आप टैंशन न लो.’’

पिताजी बड़े ही मजाकिया तरीके से मां को शांत कर देते. समय को देखते हुए शायद मां की चिंता भी जायज थी. दरअसल, कुल को रोशन करने वाला चिराग तो उन के घर में पहली बार में ही जल गया था, यह तो संयोग कहिए कि उस के बाद कृष्णा, मृदुला और फिर मैं एक के बाद एक

3 बेटियां आती चली गईं. पापा बिजली विभाग में अच्छे पद पर थे, इसलिए आर्थिक परेशानी न थी. मैं घर में सब से छोटी थी, इसलिए सब की लाडली थी. उसी लाड़प्यार ने मुझे कुछकुछ शरारती भी बना दिया था. किसी भी बात को ले कर जिद करना मैं अपना हक समझती. मेरी हर जिद पूरी भी कर दी जाती. यहां तक कि कभी दीदी और भैया की कोई चीज पसंद आती तो झट रोतेरोते मांपापा के पास पहुंच जाती कि मुझे वह दीदी वाला खिलौना चाहिए… वह भैया वाली कार दिलाओ न.

तब मां झंझट टालते हुए दीदीभैया से कहतीं, ‘‘अरे कृष्णा, मृदुला दे दो न बेटा… छोटी है यह. क्यों रुला रहा है अपनी छोटी बहन को… इतनी सी चीज नहीं दे सकता. कैसा भाई है…’’

पापा ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार हम सभी को कौन्वैंट स्कूलों में पढ़ाया. अमृत की व्यवसाय में रुचि थी, इसलिए एमबीए कर के उन्होंने अपना बिजनैस जमा लिया. दोनों बहनों ने भी अच्छी शिक्षा पाई. फिर पापा ने तीनों का विवाह भी अपनी हैसियत के अनुसार अच्छा घर देख कर कर दिया. बीच शहर में लंबाचौड़ा मकान भी बन गया. दोनों बहनें अपनीअपनी ससुराल चली गईं. रह गए घर में मैं, मांपापा और भैयाभाभी. हम बहनें पापा के बहुत करीब थीं. अपने मन की हर बात उन से शेयर करतीं, इसलिए दोनों बेटियों के जाने पर पापा उन्हें बहुत मिस करते. वे कहते कि अब वृंदा का ब्याह आराम से करूंगा… घर में जब तक अमृत के बच्चे भी हो जाएंगे.

एक दिन अचानक हमारी खुशियों पर उस समय ग्रहण लग गया जब एक सड़क हादसे में पापा हमें छोड़ कर चले गए. उन के जाने का सब से अधिक खमियाजा मां के बाद मुझे ही भुगतना पड़ा. सब का घरसंसार बस चुका था. मगर मेरे सपने तो अभी कुंआरे ही थे. अब कौन इतने अरमानों से मुझे डोली में बैठा कर बिदा करेगा? वक्त कैसे पल में करवट बदलता है, यह मैं ने पापा के जाने पर देखा. घर की सब से लाडली बेटी देखते ही देखते बोझ लगने लगी. शायद इसी को चक्रव्यूह कहते हैं. घर में सभी को मेरे ब्याह की चिंता सताने लगी.

चूंकि सारी व्यवस्था पापा ने पहले ही कर रखी थी, इसलिए आर्थिक रूप से कोई परेशानी न सही, मगर कुछ अरमान थे, जिन्हें दौलत के तराजु में नहीं तोला जा सकता. खैर, यहीं आ कर मानसिकता का रहस्य खुलता है कि हम न चाहते हुए भी घटनाओं का उलझना देखते रहते हैं, अनजान दिशा में बढ़ते चले जाते हैं.

व्यापार के सिलसिले में भैया का यहांवहां, आनाजाना लगा रहता था. वहीं उन की मुलाकात वरुण से हुई. भैया को वरुण होनहार, सज्जन और लायक लगे. उन के परिवार में मां के अलावा और कोई न था. इस से अच्छा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता… छोटा परिवार अपने में स्टैबलिश. हर मांबाप ऐसे रिश्ते को झपट कर हथिया लेते हैं. मां ने भी फौरन हां कर दी. मेरी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मां तो मानो गंगाजी नहा गईं.

वरुण का अपना व्यापार था. उन के भी पिता नहीं थे. परिवार के इकलौते बेटे. मां और वे. कुल मिला कर हम 3 प्राणी थे. किसी प्रकार की कोई परेशानी न थी. अपनी मेहनत और लगन से वरुण ने व्यापार भी अच्छाखासा जमा लिया था. कालीन पर चलतेचलते सफर का अंदाजा ही नहीं हुआ कब 2 साल बीत गए. अब तो प्रियांश भी गोद में आ गया था.

मगर वक्त हर जख्म पर मरहम लगा देता है. पापा की स्मृतियां धीरेधीरे धूमिल होती जा रही थीं. वरुण के प्यार और प्रियांश की परवरिश में मैं ने खुद को पूरी तरह रमा दिया था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि कुछ दिनों से वरुण पैरों में दर्द रहने की शिकायत करने लगे.

शुरू में सोचा काम की थकान की वजह से हो रहा होगा. वरुण ने घर बनाने के लिए बैंक से लोन ले रखा था. बस उस की पूर्ति के लिए रातदिन मेहनत करते. कुछ घरेलू उपचार किए, मालिश कराई, मगर दर्द था कि मिटने का नाम ही न लेता. वरुण दिनबदिन कमजोर होते जा रहे थे. न खाने में, न ही सोने में उन की रुचि रही. सारी रात पैरों की पीड़ा से कराहते.

सच, देखी नहीं जाती थी उन की यह तकलीफ. इन 4 महीनों में तोड़ कर रख दिया था इस दर्द ने उन्हें. वजन तेजी से घट रहा था. सिर के बाल तेजी से सफेद होने लगे. नींद पूरी न होने से चिड़चिड़े से हो गए थे. इन 4 महीनों के दर्द ने उन्हें 40 साल का सा लुक दे दिया था.

वे नौ मिनिट: लौकडाउन में निम्मी की कहानी

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

औकात से ज्यादा: भाग 2- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

संजय के औफिस में केवल लड़कियां ही काम करती दिखती थीं. पूरे मेकअप में एकदम अपटूडेट लड़कियां, खूबसूरत और जवान. किसी की भी उम्र 22-23 वर्ष से अधिक नहीं. औफिस में संजय ने अपने बैठने के लिए एक अलग केबिन बना रखा था. केबिन का दरवाजा काले शीशों वाला था. किसी भी लड़की को अपने केबिन में बुलाने के लिए वह इंटरकौम का इस्तेमाल करता था. काफी ठाट में रहने वाला संजय चैनस्मोकर भी था. सिगरेट लगभग हर समय उस की उंगलियों में ही दबी रहती थी. नौकरी के पहले दिन सिगरेट का कश खींच संजय ने गहरी नजरों से निशा को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, ‘‘दिल लगा कर काम करना, इस से तरक्की जल्दी मिलेगी.’’ ‘‘यस सर,’’ संजय की नजरों से खुद को थोड़ा असहज महसूस करती हुई निशा ने कहा. कल के मुकाबले में संजय की नजरें कुछ बदलीबदली सी लगीं निशा को. फिर उसे लगा कि यह उस का वहम भी हो सकता था. तनख्वाह के मुकाबले में औफिस में काम उतना ज्यादा नहीं था. उस पर सुविधाएं कई थीं. औफिस टाइम के बाद काम करना पड़े तो उस को ओवरटाइम मान उस के पैसे दिए जाते थे. किसी न किसी लड़की का हफ्ते में ओवरटाइम लग ही जाता था. निशा नई थी, इसलिए अभी उसे ओवरटाइम करने की नौबत नहीं आती थी.

शायद इसलिए अभी उसे ओवरटाइम के लिए नहीं कहा गया था क्योंकि अभी वह काम को पूरी तरह से समझी नहीं थी. उस के बौस संजय ने भी अभी उसे किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. केबिन के दरवाजे के शीशे काले होने की वजह से यह पता नहीं चलता था कि केबिन में बुला कर संजय किसी लड़की से क्या काम लेता था. कई बार तो कोई लड़की काफी देर तक संजय के केबिन में ही रहती. जब वह बाहर आती तो उस में बहुतकुछ बदलाबदला सा नजर आता. किंतु निशा समझ नहीं पाती कि वह बदलाव किस किस्म का था. एक महीना बड़े मजे से, जैसे पंख लगा कर बीत गया. एक महीने के बाद तनख्वाह की 20 हजार रुपए की रकम निशा के हाथ में थमाई गई तो कुछ पल के लिए तो उसे यकीन ही नहीं आया कि इतने सारे पैसे उसी के हैं. पहली तनख्वाह को ले कर घर की तरफ जाते निशा के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. निशा की तनख्वाह के पैसों से घर का माहौल काफी बदल गया था. 20 हजार रुपए की रकम कोई छोटी रकम नहीं थी. एक प्राइवेट फर्म में मुनीम के रूप में 20 वर्ष की नौकरी के बाद भी उस के पापा की तनख्वाह इस रकम से कुछ कम ही थी.

निशा की पहली तनख्वाह से उस की नौकरी का विरोध करने वाले पापा के तेवर काफी नरम पड़ गए. मम्मी पहले की तरह ही नाराज और नाखुश थीं. निशा की तनख्वाह के पैसे देख उन्होंने बड़ी ठंडी प्रतिक्रिया दी. जैसी कि पहली तनख्वाह के मिलने पर निशा का एक टच स्क्रीन मोबाइल लेने की ख्वाहिश थी, उस ने वह ख्वाहिश पूरी की. इस के बाद रोजमर्रा के खर्च के लिए कुछ पैसे अपने पास रख निशा ने बाकी बचे पैसे मम्मी को देने चाहे, मगर मम्मी ने उन्हें लेने से साफ इनकार करते हुए कहा, ‘‘घर का सारा खर्च तुम्हारे पापा चलाते हैं, इसलिए ये पैसे उन्हीं को देना.’’ ‘‘लगता है तुम अभी भी खुश नहीं हो, मम्मी?’’ निशा ने कहा.

‘‘एक मां की अपनी जवान बेटी के लिए दूसरी कई चिंताएं होती हैं, वह पैसों को देख उन चिंताओं से मुक्त नहीं हो सकती. मगर मेरी इन बातों का मतलब तुम अभी नहीं समझोगी. जब समझोगी तब तक बड़ी देर हो जाएगी. उस वक्त शायद मैं भी तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकूंगी.’’ मम्मी की बातों को निशा ने सुना अवश्य किंतु गंभीरता से नहीं लिया. पहली तनख्वाह के मिलने के बाद उत्साहित निशा के सपने जैसे आसमान को छूने लगे थे. सारी ख्वाहिशें भी मुट्ठी में बंद नजर आने लगी थीं. दूसरी तनख्वाह के पैसों से घर की हालत में साफ एक बदलाव आया. मम्मीपापा जिस पुराने पलंग पर सोते थे वह काफी जर्जर और कमजोर हो चुका था. पलंग मम्मी के दहेज में आया था और तब से लगातार इस्तेमाल हो रहा था. अब पलंग में जान नहीं रही थी. पापा लंबे समय से एक सिंगल बड़े साइज का बैड खरीदने की बात कह रहे थे मगर पैसों की वजह से वे ऐसा कर नहीं सके थे. अब जब निशा की तनख्वाह के रूप में घर में ऐक्स्ट्रा आमदनी आई थी तो पापा ने नया बैड खरीदने में जरा भी देरी नहीं की थी. नए बैड के साथ ही पापा उस पर बिछाने के लिए चादरों का एक जोड़ा भी खरीद लाए थे. नए बैड और उस पर बिछी नई चादर से पापा और मम्मी के सोने वाले कमरे का जैसे नक्शा ही बदल गया था. पापा खुश थे, किंतु मम्मी के चेहरे पर आशंकाओं के बादल थे. वे चाहती हुई भी हालात के साथ समझौता नहीं कर पा रही थीं.

इधर, निशा के सपनों का संसार और बड़ा हो रहा था. जो उस को मिल गया था वह उस से कहीं ज्यादा हासिल करने की ख्वाहिश पाल रही थी. अपनी ख्वाहिशों के बीच में निशा को कई बार ऐसा लगता था कि उस की भावी तरक्की का रास्ता उस के बौस के केबिन से हो कर ही गुजरेगा. मगर औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों की तरह अभी बौस ने उसे एक बार भी अकेले किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. हालांकि औफिस में काम करते हुए उस को 2 महीने से अधिक हो चुके थे. बौस के द्वारा एक बार भी केबिन में न बुलाए जाने के कारण निशा के अंदर एक तरह की हीनभावना जन्म लेने लगी थी. वह सोचती थी दूसरी लड़कियों में ऐसा क्या था जो उस में नहीं था? जब उक्त सवाल निशा के जेहन में उठा तो उस ने औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों पर गौर करना शुरू किया. गौर करने पर निशा ने महसूस किया कि औफिस में काम करने वाली और बौस के केबिन में आनेजाने वाली लड़कियां उस से कहीं अधिक बिंदास थीं. इतना ही नहीं, वे अपने रखरखाव और ड्रैस कोड में भी निशा से एकदम जुदा नजर आती थीं. औफिस की दूसरी लड़कियों को देख कर लगता था कि वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने मेकअप और कपड़ों पर ही खर्च कर डालती थीं और ब्यूटीपार्लरों में जाना उन के लिए रोज की बात थी.

लड़कियां जिस तरह के कपड़े पहन औफिस में आती थीं, वैसे कपड़े पहनने पर तो शायद मम्मी निशा को घर से बाहर भी नहीं निकलने देतीं. उन वस्त्रों में कटाव व उन की पारदर्शिता में से जिस्म का एक बड़ा हिस्सा साफ नजर आता था. कई बार तो निशा को ऐसा भी लगता था कि बौस के कहने पर औफिस में काम करने वाली लड़कियां औफिस से बाहर भी क्लाइंट के पास जाती थीं. क्यों और किस मकसद से, यह अभी निशा को नहीं मालूम था. मगर तरक्की करने के लिए उसे खुद ही सबकुछ समझना था और उस के लिए खुद को तैयार भी करना था. वैसे बौस के केबिन में कुछ वक्त बिता कर बाहर आने वाली लड़कियों के अधरों की बिखरी हुई लिपस्टिक को देख निशा की समझ में कुछकुछ तो आने ही लगा था. निशा को उस की औकात और काबिलीयत से अधिक मिलने पर भी मम्मी की आशंका सच भी हो सकती थी, किंतु भौतिक सुखों की बढ़ती चाहत में निशा इस का सामना करने को तैयार थी. आगे बढ़ने की चाह में निशा की सोच भी बदल रही थी. उस को लगता था कि कुछ हासिल करने के लिए थोड़ी कीमत चुकानी पड़े तो इस में क्या बुराई है. शायद यही तो कामयाबी का शौर्टकट था. बौस के केबिन से बुलावा आने के इंतजार में निशा ने खुद को औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों के रंग में अपने को ढालने के लिए पहले ब्यूटीपार्लर का रुख किया और इस के बाद वैसे ही कपड़े खरीदे जैसे दूसरी लड़कियां पहन कर औफिस में आती थीं.

असमंजस: क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

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उपलब्धि: ससुर के भावों को समझ गयी बहू

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

झिलमिल सितारों का आंगन होगा

नील मस्ती में गुनगुना रहा था,”मेरे रंग में रंगने वाली, परी हो या हो परियों की रानी…” तभी पीछे से उस की छोटी बहन अनु ने आ कर कहा, “भैया, शादी के बाद भी किसी से प्यार हो गया है क्या?”

नील बोला,”नहीं तो… पर गाना तो गा ही सकता हूं.”

अनु मुसकराते हुए अंदर चाय बनाने चली गई. तभी घर के बाहर कार की आवाज सुनाई दी और अनु ने खिड़की से देखा, राजीव भैया और मधु भाभी आ गए थे.

अनु जब चाय ले कर कमरे में पहुंची तो राजीव भैया बोले,”अनु, मेघा भाभी नहीं आईं अब तक?”

अनु इस से पहले कुछ बोल पाती, मम्मी बोलीं,”अरे मेघा व्यस्त है. बैंक में बहुत काम चल रहा है. मुश्किल से ही रात में घर घुस पाती है, चेहरा एकदम से उतर गया है बेचारी का, काम के बोझ के कारण.”

नील बरबस बोल उठा,”अरे मम्मी, बहू ही तुम्हारी काले मेघ जैसी है, तुम बेकार में ही काम को दोष दे रही हो.”

तभी मेघा ने घर में कदम रखा और नील की बातें सुन कर वह एकदम से सकपका गई. नील खुद भी हंस पङा.

नील की मम्मी का माथा ठनका और बोलीं,”नील, हंसीमजाक करने का भी एक स्तर होता है.”

नील बोला,”मम्मी, मेघा मेरी जीवनसाथी है, मेरे साथसाथ मेरे मजाक को भी समझती है.”

कुछ देर बाद मेघा तैयार हो कर बाहर आ गई थी. गुलाबी सूट में वह बेहद ही सलोनी लग रही थी. पर नील बारबार मधु की तरफ देख रहा था.

राजीव नील का करीबी दोस्त था. अभी पिछले हफ्ते ही उन का विवाह हुआ था. मधु बेहद खूबसूरत थी पर
मेघा के तीखे नैननक्श भी कुछ कम नहीं थे.

डाइनिंग टेबल पर तरहतरह के पकवान सजे हुए थे. अनु बोली,”मधु भाभी, यह फ्रूट कस्टर्ड और शाही पनीर मेघा भाभी बेहद लजीज बनाती हैं.”

मधु चुपचाप थी तो अनु ने कहा,”भाभी, आप तो कुछ ले ही नहीं रही हैं.”

राजीव बोल उठा,”अरे अनु, मधु कुछ भी फ्राइड या औयली नहीं लेती है. चेहरे पर दाने आ जाते हैं.”

एकाएक नील प्रशंसात्मक स्वर में बोल उठा,”फिर गोरे रंग पर अलग से दिखता भी है. गहरे रंग में तो सब घुलमिल मिल जाता है.”

मेघा बोली,” हां, सिवाय प्यार के.”

उस के बाद मेघा वहां रुकी नहीं और दनदनाती हुई अंदर चली गई. उस के बाद महफिल जम न सकी. जब वे लोग जा रहे थे तो मेघा उन्हें छोड़ने बाहर भी नहीं आई थी.

कमरे में घुसते ही नील बोला,”मेघा, तुम बाहर क्यों नही आईं?”

मेघा ने कहा,”क्योंकि, मैं थक गई थी और तुम तो थे न वहां मधु का ध्यान रखने के लिए…”

नील गुस्से में बोला,”इतनी असुरक्षित क्यों रहती हो? अगर कोई सुंदर है तो क्या उसे सुंदर कहने से मैं बेवफा हो
जाऊंगा?”

मेघा बोली,”नील, मैं तुम्हारी तरह अपने पापा के साथ काम नहीं करती हूं कि जब मरजी हो तब जाओ और जब मरजी हो तब मत जाओ.”

नील गुस्से में बोला,”बहुत घमंड है तुम्हें अपनी नौकरी का, जो भी करती हो अपने लिए करती हो, मेरे लिए तो
तुम ने कभी कुछ नहीं किया है.”

सुबह मेघा के औफिस जाने के बाद मम्मी नील से बोलीं,”नील, कुछ तो बिजनैस पर ध्यान दो. शादी को 7 महीने हो गए हैं, कल को तुम्हारे खर्चे भी बढ़ेंगे.”

नील हमेशा की तरह मम्मी की बात को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल कर चला गया.

रात को खाने पर पापा गुस्से में नील से बोले,”तुम्हारा ध्यान कहां है? आज पूरे दिन तुम औफिस में नहीं थे. ऐसा ही रहा तो मैं तुम्हें खर्चा देना बंद कर दूंगा.”

नील बेशर्मी से बोला,”पापा, आप कमाते हो और मम्मी घर पर रहती हैं और मेरे केस में मेरी बीवी कमाती है और मैं बाहर के काम देख लेता हूं.”

मेघा हक्कीबक्की सी रह गई.
अंदर कमरे में घुसते ही मेघा ने नील को आड़े हाथों ले लिया,”क्या तुम ने मुझ से शादी मेरी तनख्वाह के कारण करी है? मैं ने तो सोचा था कि तुम घर की जिम्मेदारियां उठाओगे और मैं पैसे बचा कर एक घर खरीद लूंगी. आखिर कब तक मम्मीपापा के सिर पर रहेंगे?”

नील भी गुस्से में बोला,”मैं ने भी सोचा था कि गोरीचिट्टी बीबी आएगी, जो मुझे समझेगी और मेरी मदद करेगी.तुम्हें तो पर अपनी नौकरी की बहुत अकड़ है.”

हालांकि नील ने यह बात दिल से नहीं कही थी पर यह मेघा के दिल में फांस की तरह चुभ गई थी. आज पूरा दिन बैंक में मेघा को नील का रहरह कर मधु को देखना याद आ रहा था. बारबार वह यही सोच रही थी
कि क्या वह बस नील की जिंदगी में नौकरी के कारण है?

एकाएक उसे अपनी दादी की बात याद आ गई. दादी कितना कहती थीं,” बिटटू यह गोरेपन की क्रीम लगा ले, आजकल काले को भी गोरी दुलहन चाहिए होती है.”

मेघा का जब नील से विवाह हो रहा था तो उस ने दादी से कहा था,”दादी, देखो, तुम्हारी बिटटू को गोरा
दूल्हा मिल गया है…”

पर आज मेघा को लग था कि नील ने तो उस की नौकरी के कारण उस के काले रंग से समझौता किया था.
मेघा की जिंदगी में वैसे तो सब कुछ सामान्य था, पर एक अनकहा तनाव था जो उस के और नील के बीच पसर गया था. नील को लगने लगा था कि मेघा को अपनी नौकरी का घमंड है तो मेघा को लगता था कि नील उस की दबी हुई रंगत के कारण अपने दोस्तों की पत्नियों से हेय समझता है. इसलिए नील उसे कभी भी अपने किसी दोस्त के घर ले कर नहीं जाता है.

मेघा को लगता था कि नील के सभी दोस्तों की पत्नियां गोरी हैं, इस कारण नील शर्माता है. उधर नील अपनी
नाकामयाबियों के जाल में इतना फंस गया था कि उस ने अपना सामाजिक दायरा बहुत छोटा कर दिया था.
नील कुछ करना चाहता था पर वह जो भी प्रयास करता सब विफल हो जाता. पिता के व्यपार में उस का दिल नहीं लगता था. वह अपने हिसाब से, अपनी तरह से काम करना चाहता था.

आज उसे एक बहुत अच्छा प्रस्ताव मिला था. काम ऐसा था जिस में नील अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को भी इस्तेमाल कर सकता था. पर अपने काम के लिए उसे पूंजी की जरूरत थी. नील को पता था कि उस के पिता अपने पुराने अनुभवों के कारण उस की मदद नहीं करेंगे.
नील को लगा कि मेघा उस की जीवनसाथी है, शायद वह उस की बात समझ जाए.

जब नील ने मेघा से कहा तो मेघा
तुनक कर बोली,”अलग बिजनैस का इतना ही शौक है तो अपनी कमाई से कर लो. मुझे तो लगता है कि तुम ने मुझ से शादी ही इस कारण से करी है कि बीवी की कमाई से अपने सपने पूरे करोगे.”

फिर चलते हुए पलट कर बोली,”फ्री में सैक्स मुझ से मिल ही रहा है, जेबखर्च 30 की उम्र में भी अपने पापा से लेते हो और बाहर घुमाने के लिए पतली, सुंदर और गोरी लड़कियां तो तुम्हारे पास होंगी ही न…”

रात में खाने की मेज पर तनाव छाया रहा. अनु ने चुपके से पापा को सारी बात बता दी थी. पापा ने मेघा को
कहा,”बेटा, एक बार नील की बात को ठंडे दिमाग से सोचो, जब बच्चे हो जाएंगे तो वैसे ही कुछ सालों तक तुम
लोगों का हाथ तंग हो जाएगा.”

मेघा फुफकार उठी,”अच्छा बहाना ढूंढ़ा है पूरे परिवार ने पैसा उगाही का. जानती हूं एक काली लड़की का
उद्धार क्यों किया है इस परिवार ने, अब कीमत तो चुकानी ही होगी. है न?

“इतना ही अच्छा बिजनैस प्रपोजल है तो आप क्यों नहीं लगाते हो पैसा?”

नील एकदम से आपा खो बैठा और चिल्ला कर बोला,”काली तुम्हारी रंगत नहीं पर दिल का रंग जरूर काला है
मेघा. तुम से शादी मैं ने अपने दिल से करी थी पर लगता है कुछ गलती कर बैठा.”

नील बेहद रोष में खाना अधूरा छोड़ कर चला गया था. यह जरूर था कि वह मेघा को चिढ़ाने के लिए कुछ भी
बोल देता था पर उस के दिल में ऐसा कुछ नहीं था. आज मेघा उसे वास्तव में कुरूप लग रही थी.

न जाने क्या सोच कर नील ने कार राजीव के घर की तरफ मोड़ दी थी. 3 बार डोरबेल बजाने के बाद नील वापस जाने के लिए मुड़ ही रहा था कि मधु ने दरवाजा खोला. एक रंग उड़े गाउन में और चारों ओर छितरे हुए बालों में मधु बेहद फूहड़
लग रही थी. लग ही नहीं रहा था कि उस के विवाह को 1 माह ही हुआ है.
अंदर का हाल देख कर तो नील चकरा गया. चारों तरफ कपड़ों अंबार और धूल जमी हुई थी. राजीव झेंपते हुए बोला,”मधु को धूल से ऐलर्जी है. 2 दिन से कामवाली भी नहीं आ रही है.”

मधु फिर ट्रे में 2 कप चाय ले आई. चाय क्या दोहन सा ही था. अचानक से नील को लगा कि वह कितना खुशहाल है. मेघा कितनी सुघड़ है. नौकरी के साथसाथ घर भी कितना अच्छे से संभालती है और एक वह है नकारा…

अगर मेघा उसे कुछ कहती भी है तो उस के भले के लिए ही तो कहती है. आखिर कब तक वह जोंक की तरह अपने परिवार पर बोझ बना रहेगा?

चाय पीने के बाद नील ने झिझकते हुए कहा,”यार राजीव, कुछ पैसे मिल सकते हैं क्या? मैं बिजनैस शुरू करना चाहता हूं.”

राजीव बोला,”नील, पूरी बचत शादी में खर्च हो गई है और मधु के नखरे देख कर लगता है कि अब बचत हो भी नहीं पाएगी.”

रात में जब नील घर पहुंचा तो देखा मेघा जगी हुई थी. नील को देख कर बोली,”फोन क्यों स्विचौफ कर रखा है? नील, क्या हम शांति से बात कर सकते हैं?”

नील ने मेघा से कहा,”मेघा, मैं कोशिश कर रहा हूं पर मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है.”

मेघा भी भर्राए स्वर में बोली,”नील, मैं जानती हूं पर जब तुम मेरे रंग पर कटाक्ष करते हो, मुझे बहुत छोटा महसूस होता है.”

नील बोला,”तुम पर नहीं मेघा, अपनी नाकामयाबी पर हताश हो कर कटाक्ष कर देता हूं. आजतक किसी से नहीं कहा पर मेघा बहुत कोशिश कर के भी अपनी नाकामयाबी की परछाई से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं. तुम अच्छी नौकरी में हो, तुम नहीं समझ सकतीं कि कितना मुश्किल है नाकामयाबी का बोझ ढोना.”

मेघा सुबकते हुए बोली,”जानती हूं नील, कैसा लगता है जब लोग आप को रिजैक्ट कर देते हैं. तुम से पहले 10 लड़के मेरे रंग के कारण मुझे नकार चुके थे. तुम से विवाह के बाद ऐसा लगा जैसे सब कुछ ठीक हो गया हो. पर रहरह कर तुम्हारे मजाक मेरे दिल में कड़वाहट भर देते हैं.”

नील बोला,”पगली, ऐसा कुछ नहीं है, मैं ज्यादा बोलता हूं न तो कुछ भी बोल जाता हूं. तुम से ज्यादा समझदार और प्यारी पत्नी मुझे नहीं मिल सकती है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं. हां, तुम्हारा मुझे हेयदृष्टि से देखना मुझे पागल कर देता था और इस कारण मैं कभीकभी जानबूझ कर तुम्हें नीचा दिखाने के लिए कभीकभी कटाक्ष कर देता था.”

मेघा बोली,”मैं तुम्हें नहीं, तुम्हारी लापरवाही को हेयदृष्टि से देखती हूं,” और यह कहते हुए उस ने नील के सामने लोन के कागज रख दिए.

“तुम्हें इतना भरोसा है तो मैं तुम्हारे बिजनैस के लिए कम ब्याज दरों पर लोन ले लूंगी, बस तुम्हें कामयाब
देखना चाहती हूं.”

ऐसा लग रहा था, दोनों के वैवाहिक जीवन पर जो गलतफहमियों के बादल छाए हुए थे वे छंट गए थे और पूरे आंगन में सितारे झिलमिला रहे थे.

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