महुए की खुशबू

Story in hindi

पापा कूलकूल : क्यों खर्चीली थी सुगंधा?

‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने…सुगंधा…अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.

‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है…ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.

‘‘बातें सुनो इस की…कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है…कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’

‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते…’’

‘‘अरे…मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.

‘‘अड़ाना भी मत…अभी तो दिन हैं उस के फैशन के…कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’

‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं…’’

‘‘एक कमी हो तो कहूं…’’

‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी…’’

‘‘हूं, पापा…फिर वही सुगंधा…सू कहिए न.’’

‘‘अच्छा सू बेटी…तुम्हें कितने कपड़े चाहिए…अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं… मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट…न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’

‘‘पापा…मैचिंग हैंडबैग और शूज

भी चाहिए थे…वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’

‘‘क्या…’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’

‘‘वह आप का जमाना था…यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं…’’

‘‘और पढ़ाई के लिए कब वक्त निकलता है…जरा बताओ तो.’’

‘‘पढ़ाई…हमारे इंगलिश टीचर

पैपी यानी प्रभात हैं न…उन्होंने हमें अपने नोट्स फोटोस्टेट करने के लिए दे दिए हैं.’’

‘‘तुम्हारे इस पैपी की शिकायत मैं प्रिंसिपल से करूंगा.’’

‘‘पिं्रसी क्या कर लेगा…वह तो खुद पैपी के आगे चूहा बन जाता है…आखिर, पैपी यूनियन का प्रेसी है.’’

‘‘प्रेसी…तुम्हारा मतलब प्रेसीडेंट…’’ नरेंद्र ने उस की बात समझ कर कहा, ‘‘बेटा, बात को समझो…हम मध्यवर्गीय परिवार के  सदस्य हैं…इस तरह फुजूलखर्ची हमें सूट नहीं करती.’’

‘‘बस…शुरू हो गया आप का टेपरिकार्डर,’’ रेवती चिढ़कर बोली, ‘‘हर वक्त मध्यवर्गीय…मध्यवर्गीय. अरे, कभी तो हमें उच्चवर्गीय होने दिया करो.’’

‘‘रेवती…तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी…देख लेना पछताओगी,’’ नरेंद्र आपे से बाहर हो गए.

‘‘क्यों, क्या किया मैं ने? केवल उसे फैशनेबल कपड़े दिलवाने की तरफदारी मैं ने की…आप तो बिगड़ ही उठे,’’ सुगंधा की मां ने थोड़ी शांति से कहा.

‘‘मैं भी उसे कपड़े खरीदने से कब मना करता हूं…लेकिन जो भी करो सीमा में रह कर करो…जरा इसे कुछ रहनेसहने का सही सलीका समझाओ.’’

‘‘लो, अब कपड़े की बात छोड़ी तो सलीके पर आ गए…अब उस में क्या दिक्कत है, पापा,’’ सुगंधा ठुनकी.

‘‘तुम जब कालिज चली जाती हो तो तुम्हारी मां को घंटा भर लग कर तुम्हारा कमरा ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरे पीछे मेरा कमरा ठीक करें…मेरा कमरा जितना बेतरतीब रहे वही मुझे अच्छा लगता है…यही आजकल का फैशन है.’’

‘‘और साफसफाई रखना…सलीके से रहना?’’

‘‘ओल्ड फैशन…हर वक्त नीट- क्लीन और टाइडी जमाने के लोग रहते हैं…नए जमाने के यंगस्टर तो बस, कूल दिखना चाहते हैं…अच्छा, मैं चलती हूं…नहीं तो कालिज के लिए देर हो जाएगी.’’

अपने मोबाइल को छल्ले की तरह नचाती हुई वह चलती बनी. रेवती ने भी चिढ़ कर नाश्ते के बरतन उठाए और किचन में चली गई.

‘कहां गलती कर दी मैं ने इस बच्ची को संस्कार देने में,’ नरेंद्र अपनेआप से बोले, ‘नई पीढ़ी हमेशा फैशन के हिसाब से चलना पसंद करती है…इसे तो कुछ समझ ही नहीं है…एक बार मन में ठान ली उसे कर के ही मानती है. ऊपर से रेवती के लाड़प्यार ने इसे कामचोर और आरामतलब अलग बना दिया है. मैं रेवती को समझाता हूं कि पढ़ाई के साथ घर के कामकाज व उठनेबैठने, पहनने का सलीका तो इसे सिखाओ वरना इस की शादी में बड़ी मुश्किल होगी, तब वह तमक कर कहती है कि मेरी इतनी रूपवती बेटी को तो कोई भी पसंद कर लेगा…’

‘‘क्या बड़बड़ा रहे हैं अकेले में आप?’’ रेवती नरेंद्र से बोली.

‘‘तुम्हारी लाड़ली के बारे में सोच रहा हूं,’’ नरेंद्र ने चिढ़ कर कहा.

‘‘ओहो, अब आप शांत हो जाओ… कितना खून जलाते हो अपना…’’

‘‘सब तुम्हारे ही कारण जल रहा है…तुम उसे दिशाहीन कर रही हो.’’

‘‘आप ऐसा क्यों समझते हो जी, कि मैं उसे दिशाहीन कर रही हूं,’’ रेवती रहस्यमय ढंग से कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि आप ने अपनी सुविधा के लिए उस से बहुत सी आशाएं लगा रखी हैं.’’

‘‘अब इकलौती संतान है तो उस से आशा करना क्या गलत है…बोलो, गलत है.’’

‘‘देखो,’’ रेवती समझाने के ढंग से बोली, ‘‘पुरानी पीढ़ी अकसर परंपरागत मान्यताओं, रूढि़यों और अपने तंग नजरिए को युवा पीढ़ी पर थोपना चाहती है जिसे युवा मन सहसा स्वीकार करने में संकोच करता है.’’

‘‘ठीक है, मेरा तंग नजरिया है… तुम लोगों का आधुनिक, तो आधुनिक ही सही,’’ नरेंद्र के बोलने में उन का निश्चय झलकने लगा था, ‘‘जब सारे समाज में ही परिवर्तन हो रहा है तो मेरा इस तरह से पिछड़ापन दिखाना तुम दोनों को गलत ही महसूस होगा.’’

‘‘ये हुई न समझदारी वाली बात,’’ रेवती ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आप की और सू की लड़ाइयों से आजकल घर भी महाभारत बना हुआ है…आप उसे और उस की पीढ़ी को दोष देते हो…वह आप को और आप की पुरानी पीढ़ी को दोष देती है…’’

‘‘तुम ही बताओ, रेवती,’’ नरेंद्र ने अब हथियार डाल दिए, ‘‘क्या सुगंधा और उस की पीढ़ी के बच्चे दिशाहीन नहीं हैं?’’

रेवती चिढ़ कर बोली, ‘‘आप को  तो एक ही रट लग गई है…अरे भई, दिशाहीनता के लिए युवा वर्ग दोषी नहीं है…दोषी समाज, शिक्षा, समय और राजनीति है.’’

नरेंद्र फिर चुप हो गए. लेकिन गहन चिंता में खो गए. ‘जैसे भी हो आज इस समस्या का हल ढूंढ़ना ही होगा,’ वह बड़बड़ाए, ‘सच ही है, हमारा भी समय था. मुझे भी पिताजी बहुत टोकते थे, ढंग के कपड़े पहनो…करीने से बाल बनाओ…समय पर खाना खाओ…रेडियो ज्यादा मत सुनो…बड़ों से अदब से बोलो…पैसा इतना खर्च मत करो. सही भाषा बोलो…ओह, कितनी वर्जनाएं होती थीं उन की, किंतु मैं और छुटकी उन की बातें मान जाते थे…यहां तो सुगंधा हमारी एक भी बात सुनने को तैयार नहीं.

‘उस से यही सुनने को मिलता है कि ओहो पापा, आप कुछ नहीं जानते. लेकिन मैं भी उसे क्यों दोष दे रहा हूं… जरूर मेरे समझाने का ढंग कुछ अलग है तभी उसे समझ नहीं आ रहा…उस की फुजूलखर्ची और फैशनपरस्ती से ध्यान हटाने के लिए मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा.’

नरेंद्र अब उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगे. रेवती ने उन्हें कमरे में टहलते देखा तो चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं. अचानक नरेंद्र की आवाज आई, ‘‘रेवती, दरवाजा बंद कर लो. मैं अभी आता हूं.’’

रेवती दौड़ कर बाहर आई. दरवाजे से झांक कर देखा तो नरेंद्र कालोनी के छोर पर लंबेलंबे डग भरते नजर आए… उस ने गहरी सांस भर कर दरवाजा बंद किया.

अब उन्हें दुख तो होना ही है जब सुगंधा ने उन के द्वारा रखे अच्छेखासे नाम को बदल कर सू रख दिया.

वह भी घर में शांति चाहती है इसलिए विभिन्न तर्क दे दे कर दोनों को

चुप कराती रहती है…यह सही है

कि बेटी के लिए उस के मन में बहुत ज्यादा ममता है…वह नरेंद्र की

कही बात पर कांप उठती है, ‘रेवती, तुम्हारी अंधी ममता सुगंधा को कहीं बिगाड़ न दे.’

‘कहीं सचमुच सुगंधा दिशाहीन हो गई तो वह क्या करेगी…’ रेवती स्वयं से सवाल कर उठी, ‘सुगंधा जिस उम्र में पहुंची है वहां तो हमारा प्यार और धैर्य ही उसे काबू में रख सकता है. सुगंधा को उस की गलती का एहसास बुद्धिमानी से करवाना होगा…जिस से वह सोचने पर मजबूर हो कि वह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ सुगंधा का बिखरा कमरा समेटते हुए रेवती सोचती जा रही थी.

शाम घिर आई थी…सुबह 11 बजे के निकले नरेंद्र अभी तक नहीं लौटे थे… अचानक बजी कालबेल ने उस का ध्यान खींचा. दरवाजा खोला तो नरेंद्र थे…हाथों में 4 बडे़बडे़ पैकेट लिए.

‘‘सुगंधा आ गई क्या?’’ नरेंद्र ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

उस के प्रश्न को अनसुना कर के नरेंद्र बोले, ‘‘रेवती, जरा पानी ले आओ… बड़ी प्यास लगी है.’’

गिलास में पानी भरते समय उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे.

‘‘क्या है इन पैकेटों में?’’ गिलास पकड़ाते हुए उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम खुद देख लो,’’ नरेंद्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘और सुनो, मेरा सामान दे दो…मैं जरा उन्हें ट्राई कर लूं… फिर तुम भी अपना सामान ट्राई कर लेना.’’

रेवती की हंसी कमरे में गूंज गई, ‘‘ये क्या, अपने लिए आसमानी रंग की पीले फूलों वाली शर्ट लाए हो क्या?’’ वह हंसती हुई बोली.

नरेंद्र ने उस के हाथ से शर्र्ट खींच कर कहा, ‘‘हां भई, हमारी लाड़ली फैशनपरस्त है. अब तो उस के पापा भी फैशनपरस्त बनेंगे तभी काम चलेगा.’’

‘‘और यह मजेंटा कलर का बरमूडा…यह भी आप का है?’’ रेवती के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ रहे थे.

‘‘यह हंसी तुम संभाल कर रखो… अभी कहीं और न हंसना पडे़…ये देखो… तुम अपनी डे्रस देखो.’’

‘‘ये…ये क्या?’’ रेवती चौंक कर बोली, ‘‘आप का दिमाग खराब तो नहीं हो गया…खुद तो चटकीले ऊलजलूल कपडे़ ले आए, अब मुझे ये मिडी पहनाओगे….’’

‘‘क्यों भई, फैशनपरस्त बेटी की फैशनपरस्ती को तो खूब सराहती हो. अब मैं भी तो तुम्हें सराह लूं. चलो, जरा ये मिडी पहन कर दिखाओ.’’

‘‘आप का दिमाग तो सही है…इस उम्र में मैं मिडी पहनूंगी…मुझे नहीं पहननी,’’ रेवती भुनभुनाई.

‘‘चलो, जैसी तुम्हारी मर्जी. तुम्हें नहीं पहननी, न पहनो. मैं तो पहन रहा हूं,’’ कहते हुए नरेंद्र कपड़ों को हाथ में लिए बाथरूम में घुस गए.

‘‘अब समझ आया,’’ रेवती बोली, ‘‘देखें, आज पितापुत्री का युद्ध कहां तक खिंचता है…’’ वह मुसकराई किंतु साथ ही उस के दिमाग में विचार आया…उस ने फटाफट सामान समेटा और किचन में घुस गई.

‘‘ममा…ममा…’’ सुगंधा के चीखने की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘आ गई मेरी लाडली…’’ वह मुसकराती हुई कमरे में आई. सुगंधा की पीठ उस की ओर थी, ‘‘ममा, मेरा पिंक टाप नहीं दिखाई दे रहा. आप ने देखा… और आज आप ने मेरा रूम भी ठीक नहीं किया,’’ कहतेकहते सुगंधा मुड़ी तो हैरानी से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘ममा, आप मिडी में…वह भी स्लीवलेस मिडी में.’’

क्यों, ‘‘क्या हुआ…क्या तुम ही फैशन कर सकती हो…हम नहीं,’’ नरेंद्र ने पीछे से आ कर कहा.

‘‘ऐं…पापा, आप बरमूडा में…क्या चक्कर है. पापा, आप तो ये ड्रेस चेंज कीजिए. कैसे अजीब लग रहे हैं…और मम्मी आप भी…कोई देखेगा तो क्या कहेगा.’’

‘‘क्यों, क्या कहेगा…यही कि हम 21वीं सदी के पेरेंट्स हैं…तुम्हें इन ड्रेसेस में क्या खराबी नजर आ रही है?’’

‘‘इन ड्रेसेस में कोई खराबी नहीं है,’’ सुगंधा ने सिर झटका, ‘‘कैसे दिख रहे हैं इन ड्रेसेस को पहन कर आप लोग.’’

‘‘मुझे पापा मत कहो, डैड कहो,’’ नरेंद्र बोले.

‘‘ऐं, डैड…’’ सुगंधा चौंकी, ‘‘क्या हो गया है आप को…ममा, पानी ले कर आओ…पापा की तबीयत वाकई खराब है.’’

तब तक रेवती कोल्डड्रिंक की बोतल ले कर पहुंच गई…सुगंधा ने कोल्डडिं्रक देख कर कहा, ‘‘हां, ममा, ये मुझे दो…आप पापा के लिए पानी ले कर आओ.’’

‘‘अरी हट….ये कोल्डडिं्रक तेरे पापा के लिए ही है…कह रहे हैं पानीवानी सब बंद, ओल्ड फैशन है…पीऊंगा तो केवल कोल्डडिं्रक या हार्डडिं्रक…’’

‘‘ऐं… ममा,’’ सुगंधा रोंआसी हो गई, ‘‘यह पापा को क्या हो गया है…’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र ने फिर बीच में टोका.

‘‘अरे, छोड़ अपने पापा को,’’  रेवती बोली, ‘‘बोल, आज डिनर में क्या बनाऊं? पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, मैगी…या…’’

‘‘ममा, सचमुच आज आप यह सब बनाओगी…’’ सुगंधा खुश हो कर बोली.

‘‘आज ही नहीं, हमेशा ही बनाऊंगी,’’ रेवती ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब ?’’ सुगंधा फिर चौंकी.

‘‘मतलब यह कि आज से मैं ने  और तेरे पापा ने निर्णय लिया है कि जो तुझे पसंद है वही इस घर में होगा…तुझे अपने पापा से शिकायत रहती है न कि वे तुझे टोकते रहते हैं.’’

‘‘ममा, आज क्या हो गया है आप लोगों को.’’

‘‘हमें कुछ नहीं हुआ है, बेटा,’’ नरेंद्र ने प्यार से कहा, ‘‘हम तो अपनी बेटी के रंग में रंगना चाहते हैं ताकि घर में शांति बनी रहे.’’

‘‘हां, हां…ये बरमूडा और मिडी पहन कर आप लोग घर में शांति जरूर करवा दोगे लेकिन बाहर अशांति छा जाएगी…लोग क्या कहेंगे कि…’’

‘‘यही तो मैं कहता हूं…आज तुम्हें भी समझ आ गई, सू…’’

‘‘हां, आप लोगों को देख कर मुझे यह बात समझ आ रही है कि फैशन उतना ही अच्छा लगता है जो दूसरों की निगाह में न खटके.’’

‘‘मेरी समझदार बच्ची,’’ रेवती भावविह्वल हो कर बोली.

‘‘बेटा…क्या हमारे पास एकमात्र यही रास्ता रह गया है कि बदलते हुए परिवेश से समझौता कर लें या पुराणपंथी दकियानूसी लकीर के फकीर कहलाएं…’’

सुगंधा अवाक् अपने पिता को देख रही थी.

नरेंद्र कह रहे थे, ‘‘तुम लोगों के पास जोश तो है बेटा लेकिन होश नहीं…तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारी पीढ़ी भी कल पुरानी हो जाएगी…तुम्हें भी नई पीढ़ी से ऐसा ही व्यवहार मिलेगा तब तुम्हारी बात कोई सुनने को तैयार नहीं होगा…’’

‘‘ठीक कहते हैं आप…युवा वर्ग और बुजुर्ग आपस में एकदूसरे के पूरक हैं…केवल दृष्टिकोण और कार्यों में दोनों  एकदूसरे से बिलकुल विपरीत हैं,’’  सुगंधा ने कहते हुए सिर हिलाया.

‘‘और इन दोनों में जब आपसी समझदारी हो तो दोनों वर्गों के कार्यों और परिणामों में सफलता मिलनी ही निश्चित  है.’’

‘‘आज से मेरा उलटीसीधी बातों पर जिद करना बंद. मुझे पता होता

कि आप मुझे इतना प्यार करते हैं तो मैं आप को कभी दुखी नहीं करती, पापा.’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र की इस बात पर तीनों खुल कर हंस पडे़ और हंसतेहंसते रेवती की आंखें बरस पड़ी यह सोच कर कि उस के समझदार पति ने उसे और उस की बेटी को दिशाहीन होने से बचा लिया.

संस्कार: क्या जवान बेटी के साथ सफर करना सही था

जवान बेटी के साथ अकेले सफर करते रेलगाड़ी के कंपार्टमैंट में जवान लड़कों के ग्रुप के कारण वह अपने को असुरक्षित महसूस कर रही थी. लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक मंजिल है क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिनों बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. मेरे पति राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे, इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कुछ दिन वहां चैन से रहूंगी, सब से मिलूंगी, बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का मेरा भी चाव कुछ कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई तथा आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूडि़यां, गहने, सैंडल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वे कुछ खुल कर तो कह न पाए लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे.

गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का गु्रप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़ जो उन्हें शांत, सौम्य तथा गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था.

चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश गु्रप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, लंबी और घनी मूंछें और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीढाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में इंग्लिश भाषा के शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शरमीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष कान में ईयर फोन और एक हाथ में मोबाइल व दूसरे हाथ में एक इंग्लिश नौवेल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नौवेल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों, मुझे लगा उस की हंसी, उस की शरारतें सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे, न मैं ही ऐसी मां और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी लड़की है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेने मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था.

उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों की बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वे सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और अगर सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अजनबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन की कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई मुझे खबर ही न हुई क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं और वे अपनेअपने मोबाइल में व्यस्त हो गए. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें औफर किया, हालांकि, हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं, तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं, मैं क्यों सहज नहीं हो जाती. लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी. तभी एक अजीब सा शोर कानों में टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफौर्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे. जैसे, शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों का समुद्र पर बंधा हुआ बांध था जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफौर्म पर सिर ही नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा तो मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किसी से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, ‘‘आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.’’

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली के आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था जो पटरियों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच. उन छहों की तत्परता, लगन, और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता?

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच वे अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारणा बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास या बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता तथा संस्कारों का? और बदले में इन्होंने इतना दिया, इतना शिष्ट सम्मान तथा सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही, एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते हुए या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ व टैलीविजन चैनलों की सुर्खियां बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफौर्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था. सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर ऐसी भीड़ जिस की कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची ले ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने ले ली. हालांकि उस में पहिए लगे हुए थे तो परेशानी की बात नहीं थी. मेघना के पास की बोतल तथा मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल से मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य तथा मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन तथा दिशाविहीन कहते हैं लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है.

कतरा-कतरा जीने दो

Story in hindi

कर्तव्य बोध : सरिता का बेटा उनसे नाराज क्यों था

उस ने घड़ी देखी और उठने को हुई, तभी नर्स लीला आ कर बोली, “आप जा रही हैं मैडम. अभीअभी एक डिलिवरी केस आ गया है. अभी तक डाक्टर श्वेता नहीं आई हैं. ऐसे में उसे क्या कहूं?”

वह जाते जाते रुक गई. अभी आधे घंटे पहले वह आपरेशन थिएटर से निकली थी कि एक नया केस सामने आ गया है. वह करे तो क्या करे. आज मुन्ने का जन्मदिन है. कोरोना और लौकडाउन की वजह से घर में और कोई शायद ही आए या न आए, इसलिए उस ने उस से प्रोमिस कर रखा था कि वह शाम तक अवश्य आ जाएगी.

कुछ सोच कर वह बोली, “ठीक है, मरीज को चेक करने में हर्ज ही क्या है. तब तक डाक्टर श्वेता आ जाएंगी.”

उस ने पुनः गाउन और ग्लव्स पहने. पीपीई किट्स का पूरा सेट्स पहन कर वह लीला के साथ ओपीडी की ओर बढ़ गई.

“मैडम, वह कोरोना पेशेंट भी है,” लीला ने उसे चेतावनी सी दी, “आप को इस में देर लग सकती है. आप धीरे से निकल लें. आप की ड्यूटी तो पूरी हो ही चुकी है. डाक्टर श्वेता जब आएंगी, वे देख लेंगी.”

“अपनी आंखों के सामने पेशेंट को देख हम भाग नहीं सकते लीला,” डाक्टर सरिता मुसकरा कर बोली, “कितनी उम्मीद के साथ एक पेशेंट अस्पताल में हमारे पास आता है. हम उसे अनदेखा नहीं कर सकते. तब और, जब हम इसी के लिए सरकार से सुविधाएं और वेतन पाते हों. और डिलिवरी के मामले में तो यह एक नहीं, दोदो जिंदगियों का सवाल हो जाता है.”

उस के सामने एक महिला प्रसव पीड़ा से कराह रही थी. पेशेंट का चेकअप करने के बाद वह थोड़ी विचलित हुई. मगर शीघ्र ही वह खुद पर नियंत्रण सी करती बोली, “कौम्पिलिकेटेड केस है लीला. इस का सिजेरियन आपरेशन करना होगा. तुरंत टीम को तैयार हो कर आने को कहो.”

“आप भी मैडम क्या कहती हैं. श्वेता मैडम को आने देतीं.”

“मैं जो कहती हूं, वो करो ना. मैं इसे छोड़ कर कैसे जा सकती हूं? वार्ड बौय को तैयार हो कर शीघ्र आने को बोलो. हम देर नहीं कर सकते.”

अपनी टीम के साथ इस सिजेरियन आपरेशन को करने में उसे 3 घंटे लग गए थे. जनमे हुए स्वस्थ शिशु को देख उस ने संतोष की सांस ली. आवश्यक चेकअप करने के उपरांत यह पता चलने पर कि वह कोरोना निगेटिव है, उस ने उसे मां से अलग रखने का निर्देश दिया. वह शिशु चाइल्ड केयर में शिफ्ट कर दिया गया था. वापस अपने चैंबर में आ कर उस ने गहरी सांस ली.

उस ने दीवार घड़ी पर नजर डाली. 9 बजने वाले थे. पीपीई किट्स खोलने के दौरान वहां मौजूद नर्स राधा ने उसे जानकारी दी, “आप के फोन पर अनेक मिस काल आए हैं. चेक कर लीजिए.”

वह पसीने से तरबतर थी. पहले उस ने स्वयं को सैनिटाइज किया. उसे पता था कि वे सभी फोन घर से ही होंगे. मुन्ने का या मुकेश का ही फोन होगा. मगर उस में एक फोन डाक्टर श्वेता का भी था. बिना मास्क उतारे उस ने काल बैक किया. श्वेता उधर से बोल रही थी, “क्या कहूं डाक्टर सरिता, पता नहीं कैसे मेरी सास कोरोना पोजिटिव निकल आई हैं. उसी की तीमारदारी और भागदौड़ में पूरा दिन निकल गया. अभी भी घर में ही उन की देखरेख चल रही है.

“क्या कहें कि घर में कितना समझाया कि कहीं बाहर नहीं निकलना है. फिर भी वह एक कीर्तन मंडली में चली गई थीं. और वहीं संक्रमित हो गईं. अब बहू कुछ भी हो, ससुराल में उस की बात कितनी रखी जाती है, तुम तो जानती ही हो. पतिदेव बोले कि पहले घर के मरीज को देखो. तब बाहर की देखने की सोचना.”

“ठीक ही कह रहे हैं,” सरिता ने स्थिर हो कर जवाब दिया, “अपना भी खयाल रखना.”

अब वह मुकेश को फोन लगा कर उस से बात कर रही थी, “क्या कहूं, ऐन वक्त पर एक डिलिवरी केस आ गया. आपरेशन करना पड़ गया.”

“कोई बात नहीं,” जैसी कि उसे उम्मीद थी, वे बोले, “मैं ने तो आज छुट्टी ले ही ली थी. इसलिए सब प्रबंध हो गया था. हां, मुन्ना थोड़ा अपसेट जरूर है कि केक काटते वक्त तुम नहीं थीं.”

“क्या कहूं, काम ही मुझे ऐसा मिला है कि घर पर चाह कर भी ध्यान नहीं दे पाती. फिर भी आज तो आना ही था. मैं ने यहां सब को कह भी रखा था. मगर डाक्टर श्वेता अपनी सास के कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण आ नहीं पाईं. फिर मुझे ही सब इंतजाम करना पड़ गया. अब काम से मुक्ति मिली है, तो थोड़ी देर में वापस आ रही हूं.”

उस ने अब ड्राइवर को फोन कर उस की जानकारी ली. वह अभी तक अस्पताल में ही था. वह उस से बोली, “सौरी मुरली, मुझे आज देर हो गई. निकलने ही वाली थी कि एक पेशेंट आ गया, जिसे देखना बहुत जरूरी था. तुम गाड़ी निकालो. मैं आ रही हूं.”

बाहर अस्पताल परिसर में ही नहीं, सड़क पर भी लौकडाउन की वजह से
गजब का सन्नाटा था. अस्पताल के मुख्य फाटक से बाहर निकलते ही जैसे उस ने चैन की सांस ली. लगभग हर मुख्य चौराहे पर पुलिस का पहरा था. एकदो जगह पुलिस ने गाड़ी रुकवाई भी, तो वह ‘एम्स में डाक्टर है, वहीं से आ रही है,’ सुन कर अलग हट जाते थे.

घर आने पर उस ने देखा, मुन्ने का मुंह फूला हुआ है. “आई एम सौरी, बेटे… मैं तुम्हें समय नहीं दे पाई.”

इस के अलावा भी वह कुछ कहना चाहती थी कि उस के पति मुकेश बोले, “मानमनुहार बाद में कर लेना. अभी तुम अस्पताल से आई हो. पहले नहाधो कर फ्रेश हो लो. गरमी तो बहुत है. फिर भी गरम पानी से ही नहानाधोना करना. मैं ने गीजर चालू कर दिया है. ये कोरोना काल है. समय ठीक नहीं है.”

अपने सारे कपड़े टब में गरम पानी में भिगो कर उस ने उन्हें यों ही छोड़ दिया. अभी रात में वह स्नान भर कर ले, यही बहुत है. स्नान कर के जब वह बाहर आई, तो मुन्ने की ओर देखा. गालों पर आंसुओं की सूखी धार थी शायद, जिसे महसूस कर वह तड़प कर रह गई. वह निर्विकार भाव से उसे ही देख रहा था. मुकेश वहीं खड़े थे. उन्होंने ही चुप्पी तोड़ी, “तुम्हारी मम्मी, दोदो जान की रक्षा कर के आ रही है. थैंक्यू बोलो मम्मी को.”

वह कुछ बोलता कि उस ने आगे बढ़ कर मुन्ने को छाती से लगा लिया, “मुन्ना मुझे समझता है. चलो, पहले मैं तुम्हारा केक खा लूं. वह बचा है या खत्म हो गया.”

“नहीं, मैं ने पहले ही एक टुकड़ा काट कर अलग रख दिया था,” मुन्ने के बोल अब जा कर फूटे, “और पापा ने होम डिलिवरी से मेरा मनपसंद खाना मंगवा दिया था.”

“तो तुम लोगों ने खा लिया न?”

“नहीं, तुम्हारे बिना हम कैसे खा लेते?” मुकेश तपाक से बोले, “मुन्ने का भी यही खयाल था कि जब तुम आओगी, तभी हम साथ खाना खाएंगे.”

“अरे, 11 बज रहे हैं. और तुम लोगों ने अभी तक खाना नहीं खाया.”

वह डाइनिंग टेबल की ओर मुन्ने का हाथ पकड़ बढ़ती हुई बोली, “चलोचलो, मुझे भी भूख लग रही है.”

बच्चा जात, आखिर अपना दुख भूल ही जाता है. खाना खाते हुए पूरे उत्साह के साथ मुन्ना बताने लगा कि पड़ोस के उस के साथियों में कौनकौन आया था, किस ने गाना गाया, किस ने डांस किया वगैरह. और किस ने क्या गिफ्ट किया.

खाना खाने के बाद वह मुन्ने को ले उस के कमरे में आई और उसे थपकियां देदे कर उसे सुलाया. फिर वह अपने कमरे में आई. वहां पलंग पर मुकेश पहले ही नींद के आगोश में जा चुके थे. उसे मालूम था कि उस की अनुपस्थिति में उन को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी. घर में उस के अलावा बूढ़े सासससुर भी तो हैं, जिन्हें उन लोगों को ही देखना होता है. नींद तो उसे भी कस कर आ रही थी. मगर जब वह बिस्तर पर गिरी, तो सामने जैसे वह नवजात शिशु आ कर खड़ा हो गया था. जैसे कि वह उसे धन्यवाद दे रहा हो. जब वह छोटी थी, तभी उस की बड़ी बहन इसी तरह घर में प्रसव वेदना से छटपटा रही थी. उस के मम्मीपापा उसे कितने शौक से अपने घर में लाए थे कि पहला बच्चा उस के मायके में ही होना चाहिए. मगर डाक्टर की जरा सी लापरवाही कहें या देरी, उस का आपरेशन नहीं हो पाया था और वह और उस का नवजात बच्चा दोनों ही काल के मुंह में समा गए थे. तभी उस ने संकल्प किया था कि वह डाक्टर बनेगी.

कितनी मेहनत करनी पड़ी थी उन दिनों. पापा एक साधारण क्लर्क ही तो थे. फिर भी उन की इच्छा थी कि वह डाक्टर ही बने. अपनी तरफ से उन्होंने कोई कोरकसर नहीं रख छोड़ी थी और उस का हमेशा हौसला बढ़ाते रहे. यही कारण था कि पहले ही प्रयास में उस ने मेडिकल की परीक्षा क्वालीफाई कर ली थी. यह संयोग ही था कि अच्छे नंबरों की वजह से उस का चयन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान अस्पताल के लिए हो गया था. यहां उस ने अपना सारा ध्यान गाइनोकोलौजी पर लगाया, जिस में उसे सफलता मिली थी. आज उसी के बल पर वह यहां पटना के ‘एम्स’ में जानीमानी गाइनोकोलौजिस्ट है.

शुरूशुरू में कितनी तकलीफ हुई थी. सभी पापा से कहते “बेटी को सिर्फ ऊंची पढ़ाई पढ़ा कर क्या होगा. उस की शादी के लिए भी तो दहेज के लिए ढेर सारा रुपया चाहिए. वह कहां से लाओगे?” और पापा बात को हंस कर टाल जाते थे. वह तो मुकेश के पापा थे, जिन्होंने उन्हें इस समस्या से उबार लिया.

“मेरा बेटा पत्रकार है. स्थानीय अखबार में उपसंपादक है,” वे बोले थे, “अगर तुम को आपत्ति न हो, तो मैं उस के लिए तुम्हारी बेटी को बहू के रूप में स्वीकार कर लूंगा. और इस के लिए किसी दहेज या लेनदेन की बात भी नहीं होगी.”

और इस प्रकार वह मुकेश की पत्नी बन इस घर में आ गई थी.

“मैं जिस काम से जुड़ा हूं, उसे सेवाभाव कहते हैं,” मुकेश एक दिन उस से हंस कर बोले थे.

“और तुम भी जिस पेशे से जुड़ी हो, वह भी सेवाभाव ही है. तो क्या तुम्हें दिक्कत नहीं आएगी?”

“यह सेवाभाव ही तो है, जो हम में हिम्मत और समन्वय का भाव उत्पन्न करता है,” उस ने भी हंस कर ही जवाब दिया था, “और जब हम दूसरों के लिए कुछ कर सकते हैं, जी सकते हैं, तो अपनों के लिए तो बेहतर ढंग से जी सकते हैं, रह सकते हैं.”

अचानक मुकेश उसे देख चौंके और बोले, “अरे, अभी तक सोई नहीं. सो जाओ भई, जितना समय मिले, आराम कर लो. क्या पता कि कब अस्पताल से तुम्हारा बुलावा आ जाए. इस कोरोना काल में वैसे भी सबकुछ अनिश्चित है. ऐसे में तुम्हारे कर्तव्य बोध को देख हमें भी रश्क होने लगता है.”

उस ने हंस कर अपनी आंखें बंद कर ली थीं.

नाक का प्रश्न : संगीता ने संदीप को कौन सा बहाना दिया?

डाकिए से पत्र प्राप्त होते ही संगीता उसे पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे का रंग उड़ गया. उस की भृकुटियां तन गईं.

पास ही बैठे संगीता के पति संदीप ने पूछा, ‘‘किस का पत्र है?’’

संगीता ने बुरा मुंह बनाते हुए उत्तर दिया, ‘‘तुम्हारे भाई, कपिल का.’’

‘‘क्या खबर है?’’

‘‘उस ने तुम्हारी नाक काट दी.’’

‘‘मेरी नाक काट दी?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम्हारे भाई ने नए मौडल की नई कार खरीद ली है और उस ने तुम्हें पचमढ़ी चलने का निमंत्रण दिया है.’’

‘‘तो इस में मेरी नाक कैसे कट गई?’’

‘‘तो क्या बढ़ गई?’’ संगीता ने झुंझलाहट भरे स्वर में कहा.

संदीप ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘इस में क्या शक है? घर में अब 2 कारें हो गईं.’’

‘‘तुम्हारी खटारा, पुरानी और कपिल की चमचमाती नई कार,’’ संगीता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

संदीप ने पहले की तरह ही शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘बिलकुल. दोनों जब साथसाथ दौड़ेंगी, तब लोग देखते रह जाएंगे.’’

‘‘तब भी तुम्हारी नाक नहीं कटेगी?’’ संगीता ने खीजभरे स्वर में पूछा.

‘‘क्यों कटेगी?’’ संदीप ने मासूमियत से कहा, ‘‘दोनों हैं तो एक ही घर की?’’

संगीता ने पत्र मेज पर फेंकते हुए रोष भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारी बुद्धि को हो क्या गया है?’’

संगीता के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय संदीप अपने भाई का पत्र पढ़ने लगा. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. उधर संगीता की पेशानी पर बल पड़ गए.

पत्र पूरा पढ़ने के बाद संदीप चहका, ‘‘कपिल ने बहुत अच्छा प्रोग्राम बनाया है. बूआजी के यहां का विवाह निबटते ही दूल्हादुलहन के साथ सभी पचमढ़ी चलेंगे. मजा आ जाएगा. इन दिनों पचमढ़ी का शबाब निराला ही रहता है. 2 कारों में नहीं बने तो एक जीप और…’’

संगीता ने बात काटते हुए खिन्न स्वर में कहा, ‘‘मैं पचमढ़ी नहीं जाऊंगी. तुम भले ही जाना.’’

‘‘तुम क्यों नहीं जाओगी?’’ संदीप ने कुतूहल से पूछा.

‘‘सबकुछ जानते हुए भी…फुजूल में पूछ कर मेरा खून मत जलाओ,’’ संगीता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम अपना खून मत जलाओ, उसे बढ़ाओ. चमचमाती कार में बैठ कर पचमढ़ी में घूमोगी तो खून बढ़ जाएगा.’’

‘‘मेरा खून ऐसे नहीं बढ़ेगा.’’

‘‘तो फिर कैसे बढ़ेगा?’’

‘‘अपनी खुद की नए मौडल की कार में बैठने पर ही मेरा खून…’’

‘‘वह कार क्या हमारी नहीं है?’’ संदीप ने बात काटते हुए पूछा.

संगीता ने खिन्न स्वर में उत्तर दिया, ‘‘तो तुम बढ़ाओ अपना खून.’’

‘‘हां, मैं तो बढ़ाऊंगा.’’

इसी तरह की नोकझोंक संगीता एवं संदीप में आएदिन होने लगी. संगीता नाक के प्रश्न का हवाला देती हुई आग्रह करने लगी, ‘‘अपनी खटारा कार बेच दो और कपिल की तरह चमचमाती नई कार ले लो.’’

संदीप अपनी आर्थिक स्थिति का रोना रोते हुए कहने लगा, ‘‘कहां से ले लूं? तुम्हें पता ही है…यह पुरानी कार ही हम ने कितनी कठिनाई से ली थी?’’

‘‘सब पता है, मगर अब कुछ भी कर के नहले पर दहला मार ही दो. कपिल की नाक काटे बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा.’’

‘‘उस की ऊपर की आमदनी है. वह रोजरोज नईनई चीजें ले सकता है. फिलहाल हम उस की बराबरी नहीं कर सकते, बाद में देखेंगे.’’

‘‘बाद की बाद में देखेंगे. अभी तो उन की नाक काटो.’’

‘‘यह मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘तो मैं बूआजी के यहां शादी में भी नहीं जाऊंगी.’’

‘‘पचमढ़ी भले ही मत जाना, बूआजी के यहां शादी में जाने में क्या हर्ज है?’’

‘‘किस नाक से जाऊं?’’

‘‘इसी नाक से जाओ.’’

‘‘कहा तो, कि यह तो कट गई. कपिल ने काट दी.’’

‘‘यह तुम्हारी फुजूल की बात है. मन को इस तरह छोटा मत करो. कपिल कोई गैर नहीं है, तुम्हारा सगा देवर है.’’

‘‘देवर है इसीलिए तो नाक कटी. दूसरा कोई नई कार खरीदता तो न कटती.’

‘‘तुम्हारी नाक भी सच में अजीब ही है. जब देखो, तब कट जाती है,’’ संदीप ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

बूआजी की बिटिया के विवाह की तिथि ज्योंज्यों नजदीक आने लगी त्योंत्यों नई कार के लिए संगीता का ग्रह बढ़ने लगा. वह संदीप को सचेत करने लगी, ‘‘देखो, मैं नई कार के बिना सच में नहीं जाऊंगी बूआजी के यहां. मेरी बात को हंसी मत समझना.’’

ऐसी चेतावनी पर संदीप का पारा चढ़ जाता. वह झल्ला कर कहता, ‘‘नई कार को तुम ने बच्चों का खेल समझ रखा है क्या? पूरी रकम गांठ में होने पर भी कार हाथोंहाथ थोड़े ही मिलती है.’’

‘‘पता है मुझे.’

‘‘बस, फिर फुजूल की जिद मत करो.’’

‘‘अपनी नाक रखने के लिए जिद तो करूंगी.’’

‘‘मगर जरा सोचो तो, यह जिद कैसे पूरी होगी? सोचसमझ कर बोला करो, बच्चों की तरह नहीं.’’

‘‘यह बच्चों जैसी बात है?’’

‘‘और नहीं तो क्या है? कपिल ने नई कार ले ली. तो तुम भी नई कार के सपने देखने लगीं. कल वह हैलिकौप्टर ले लेगा तो तुम…’’

‘‘तब मैं भी हैलिकौप्टर की जिद करूंगी.’’

‘‘ऐसी जिद मुझ से पूरी नहीं होगी.’’

‘‘जो पूरी हो सकती है, उसे तो पूरी करो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यही कि नई कार नहीं तो उस की बुकिंग तो करा दो ताकि मैं नातेरिश्ते में मुंह दिखाने लायक हो जाऊं.’’

कपिल की तनी हुई भृकुटियां ढीली पड़ गईं. उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. वह बोला, ‘‘तुम सच में अजीब औरत हो.’’

संगीता ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘हर पत्नी अजीब होती है. उस के पति की नाक ही उस की नाक होती है. इसीलिए पति की नाक पर आई आंच वह सहन नहीं कर पाती. उस की यही आकांक्षा रहती है कि उस के पति की नाक ऊंची रहे, ताकि वह भी सिर ऊंचा कर के चल सके. इस में उस का स्वार्थ नहीं होता. वह अपने पति की प्रतिष्ठा के लिए ही मरी जाती है. तुम पत्नी की इस मानसिकता को समझो.’’

संगीता के इस कथन से संदीप प्रभावित हुआ. इस कथन के व्यापक संदर्भों ने उसे सोचने पर विवश किया. उस के भीतर गुदगुदी सी उठने लगी. नाक के प्रश्न से जुड़ी पत्नी की यह मानसिकता उसे बड़ी मधुर लगी.

इसी के परिणामस्वरूप संदीप ने नई कार की बुकिंग कराने का निर्णय मन ही मन ले लिया. उस ने सोचा कि वह भले ही उक्त कार भविष्य में न खरीद पाए, किंतु अभी तो वह अपनी पत्नी का मन रखेगा

संगीता को संदीप के मन की थाह मिल न पाई थी. इसीलिए वह बूआजी की बिटिया के विवाह के संदर्भ में चिंतित हो उठी. कुल गिनेगिनाए दिन ही अब शेष रह गए थे. उस का मन वहां जाने को हो भी रहा था और नाक का खयाल कर जाने में शर्म सी महसूस हो रही थी.

बूआजी के यहां जाने के एक रोज पूर्व तक संदीप इस मामले में तटस्थ सा बने रहने का अभिनय करता रहा एवं संगीता की चुनौती की अनसुनी सी करता रहा. तब संगीता अपने हृदय के द्वंद्व को व्यक्त किए बिना न रह सकी. उस ने रोंआसे स्वर में संदीप से पूछा, ‘‘तुम्हें मेरी नाक की कोई चिंता नहीं है?’’

‘‘चिंता है, तभी तो तुम्हारी बात मान रहा हूं. तुम अपनी नाक ले कर यहां रहो. मैं बच्चों को अपनी पुरानी खटारा कार में ले कर चला जाऊंगा. वहां सभी से बहाना कर दूंगा कि संगीता अस्वस्थ है,’’ संदीप ने नकली सौजन्य से कहा.

‘‘तुम शादी के बाद पचमढ़ी भी जाओगे?’’ संगीता ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘अवश्य जाऊंगा. बच्चों को अपने चाचा की नई कार में बैठाऊंगा. तुम नहीं जाना चाहतीं तो यहीं रुको और यहीं अपनी नाक संभालो.’’

संगीता भीतर ही भीतर घुटती रही. कुछ देर की चुप्पी के बाद उस ने विचलित स्वर में पूछा, ‘‘बूआजी बुरा तो नहीं मानेंगी?’

‘‘बुरा तो शायद मानेंगी? तुम उन की लाड़ली जो हो.’’

‘‘इसीलिए तो..?’’

संदीप ने संगीता के इस अंतर्द्वंद्व का मन ही मन आनंद लेते हुए जाहिर में संजीदगी से कहा, ‘‘तो तुम भी चली चलो?’’

‘‘कैसे चलूं? कपिल ने राह रोक दी है.’’

‘‘हमारी तरह नाक की चिंता छोड़ दो.’’

‘‘नाक की चिंता छोड़ने की सलाह देने लगे, मेरी बात रखने की सुध नहीं आई?’’

‘‘सुध तो आई, मगर सामर्थ्य नहीं है.’’

‘‘चलो, रहने दो. बुकिंग की सामर्थ्य तो थी? मगर तुम्हें मेरी नाक की चिंता हो तब न?’’

‘‘तुम्हारी नाक का तो मैं दीवाना हूं. इस सुघड़, सुडौल नाक के आकर्षण ने ही…’’

संगीता ने बात काटते हुए किंचित झल्लाहटभरे स्वर में कहा, ‘‘बस, बातें बनाना आता है तुम को. मेरी नाक की ऐसी ही परवा होती तो मेरी बात मान लेते.’’

‘‘मानने को तो अभी मान लूं. मगर गड्ढे में पैसे डालने का क्या अर्थ है? नई का खरीदना हमारे वश की बात नहीं है.’’

‘‘वे पैसे गड्ढे में न जाते. वे तो बढ़ते और मेरी नाक भी रह जाती.’

‘‘तुम्हारी इस खयाली नाक ने मेरी नाक में दम कर रखा है. यह जरा में कट जाती है, जरा में बढ़ जाती है.’

इस मजाक से कुपित हो कर संगीता ने रोषभरे स्वर में कहा, ‘‘भाड़ में जाने दो मेरी नाक को. तुम मजे से नातेरिश्ते में जाओ, पचमढ़ी में सैरसपाटे करो, मेरी जान जलाओ.’’

इतना कहतेकहते वह फूटफूट कर रो पड़ी. संदीप ने अपनी जेब में से नई कार की बुकिंग की परची निकाल कर संगीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रोओ मत, यह लो.’’

संगीता ने रोतेरोते पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘तुम्हारी नाक,’’ संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम्हारी नाक, देखो.’’

परची पर नजर पड़ते ही संगीता प्रसन्न हो गई. उस ने बड़ी मोहक दृष्टि से संदीप को निहारते हुए कहा, ‘‘तुम सच में बड़े वो हो.’’

‘‘कैसा हूं?’’ संदीप ने शरारती लहजे में पूछा.

‘‘हमें नहीं मालूम,’’ संगीता ने उस परची को अपने पर्स में रखते हुए उत्तर दिया

चांद के पार – भाग 3 : जया के जीवन में अकेलापन ही क्योंं बना रहा

वही जया आज शिव की प्रिया बनने को आतुर थी. उम्र के इस पड़ाव पर शिव के प्रति इतनी आसक्ति समय और समाज के आईने में निंदा का ही विषय होगा, इस सचाई से जया अनजान न थी. वह किसे बताए कि अब तक के जीवन में प्यार उस के लिए मृगतृष्णा ही बना रहा.

चाह की धुरी पर प्यार को तलाशती, रचती, खोती वह धरती बनी घूमती ही रही. सपनों से भरे दिन और चाहत से भरी रातों की बात उस की जबान पर आना भी कितनी लज्जाजनक बात होगी. पटना में शिव से इसी तरह क्या वह मिल सकेगी, पता नहीं किनकिन रुसवाइयों का सामना करना पड़ेगा, यह सोच कर जया विह्वल हो उठी.

उधर शिव की बेटी पिया भी अपने पापा में आए बदलाव को महसूस कर रही थी.

मम्मी की यादों में खो कर रह जाने वाले पापा को कौन सी जादुई छड़ी मिल गई है जिस के स्पर्श से वे इतने तरोताजा हो गए हैं कि अपनी उम्र को पीछे ही दहलीजों पर भगाए जा रहे हैं. कहीं यह जया आंटी की संगति का असर तो नहीं है. सुंदरता और सौम्यता के साथ कितनी प्रतिभाशाली है वह. किसी भी टौपिक पर ऐसे व्याख्यान देगी कि मन बंध कर रह जाता है.

पापा के साथ हम सभी को देख कर कमल की तरह ही वह खिल जाती है. यश के यहां जाने पर डिनर कर के ही आने देती है. हालांकि, उन की ममता में मम्मी का दुलार उभर आता है. पापा तो उन्हें देखते ही खुशी के मारे चहकने लगते हैं. अब तो वे आंटी के साथ जा कर ग्रौसरी वगैरह ही नहीं बल्कि फारमर्स मार्केट से सब्जीफल भी खरीद लाते हैं. लाइब्रेरी जा कर अपनी पसंद की किताबें ले आते हैं. जया आंटी को मां बना लेने की बात मजाक में ही उस के पति समीर का कहना उसे सुख की अनुभूतियों से भर गया था. काश, ऐसा हो सकता. पर यश क्यों मानने लगा. जाति से कहां वे ब्राह्मण और कहां वे बनिया, सोच कर पिया का मन छोटा हो गया. फिर भी वह यश से बात करेगी, देखें वह कहता क्या है.

युवावस्था में शिव की प्रतिभा और स्वभाव पर न जाने कितनी लड़कियां आकर्षित थीं लेकिन उन्होंने कभी नजर उठा कर भी किसी को नहीं देखा था. अपनी पत्नी पद्मा को ही चाहते रहे. लेकिन इस उम्र में जया के प्रति अपने मन के सम्मोहन पर आश्चर्यचकित थे. उन का वश चलता तो वे जया को अपने हृदयस्थल में छिपा लेते. जितने बेबाकी से वे यहां पर जया से मिलते हैं, क्या पटना में वे मिल सकेंगे? वहां का समाज इसे सहन कर सकेगा? उन पर तो हंसेगा ही, और जया को कुलटा कहने से पीछे नहीं हटेगा.

उन की जया को कोई चरित्रहीन कहे, उन की आत्मा सहन कर पाएगी? कदापि नहीं. जया भी तो उस पर अनुरक्त है. एकदूसरे की हथेलियों को थाम जब वे मौल, रैस्तरां, स्टोर्स में या सड़कों पर चहलकदमी करते हैं तो सभी उन्हें परफैक्ट कपल ही सोचते हैं. उस ने बांहें फैलाईं नहीं कि जया किसी ब्याहता की तरह उस में सिमट आती है.

आजकल जब भी वह उन की बांहों में सिमटती है, उस के तन की छुअन किसी कस्तूरी की मृग की तरह उन्हें तड़पा देती है और वे विवश हो उस की हथेलियों को मसलते रह जाते हैं. कौन देखता है इस देश में अगर उन दोनों के बीच की दूरियां मिट भी जाती हैं तो. पर वे मर्यादा से बंध कर ऐसा करने से मन मसोस कर रह जाते हैं. उन की गरम सांसें ही उस का अभिनंदन कर के रह जाती थीं. शिव तो ग्रीनकार्ड होल्डर थे. अगर जया की रजामंदी हो तो उसे ब्याह कर वे इसी देश में बस जाएं.

इसी बीच, जया और शिव का परिवार घूमने के लिए 2 घंटे की दूरी पर जरमनी के बवेरिया शहर के आधार पर बने लीवेनवर्थ गए. फूलों और और्कैस्ट्रा की इस खूबसूरत नगरी में जया और शिव को पीछे छोड़ कर वे सभी आगे बढ़ गए. जब वे लौटे तो अचानक उन की नजर हाथों में हाथ दिए म्यूजियम की सीढ़ी पर बैठे शिव और जया पर पड़ी जो एकदूसरे को बड़े प्रेम से आइसक्रीम खिला रहे थे. अचानक ही पिया और यश को अपने पापा और मम्मी की खुशियों के राज का पता चल गया. उसी क्षण उन दोनों ने उन्हें एक कर के उन की खुशियों को बनाए रखने का निर्णय ले लिया.

घर के सभी सदस्यों की खुशियां और उत्साह का कारण चाह कर भी जया नहीं जान पाई. बड़े प्रेम और आग्रह से अणिमा ने अपनी सुंदर सी साड़ी जया को पहनाई. चांदी के चंद तारों को लिए लंबे बालों को जूड़ा बना कर जया के माथे पर छोटी लाल बिंदिया क्या लगाई कि उस की रूपराशि पर मोहित हो कर वह स्वयं ही लिपट गई. मां के नए रूप को यश भी देखता ही रह गया. कुछ दिनों के लिए बाहर जाने की बात कह कर अणिमा ने जया का सामान भी पैक कर दिया था. हमेशा की तरह यश और पिया का परिवार अपनी गाडि़यों से निकल पड़े.

आज उन की गाडि़यां सिटी हौल के सामने रुकीं जहां आने की अनुमति उन्होंने ले रखी थी. पिया और यश ने जया और शिव को ले जा कर जज के सामने खड़ा कर दिया. जज ने पेपर पर उन दोनों के हस्ताक्षर के साथ गवाह बने पिया और यश के भी हस्ताक्षर लिए. जज के बधाई देने के बाद जया अवाक हो गई. उस के मन की बात यश ने कैसे जानी.

इतनी सहजता से इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया. इसी सोच में जया डूबी हुई थी कि सामने से पिया और यश मम्मीपापा कहते हुए उन दोनों से लिपट गए. नव परिणीता जया के चेहरे पर से शिव की नजरें हट नहीं रही थीं. शिव के साथ मिल कर पिया महीनेभर से तैयारियां कर रही थी. लज्जा से कहीं जया शादी के लिए मना न कर दे, इसलिए यश और अणिमा ने उस की शादी की बात उस से छिपा रखी थी.

मां के छलकते रूप और खुशी पर यश बलिहार था तो उधर पिया भी अपने पापा की खुशियों को समेट नहीं पा रही थी. यश की जबान शिव को पापा कहते थक नहीं रही थी तो पिया किसी बच्ची की तरह जया के तन से लिपटी जा रही थी. जया और शिव के पोतेपोती भी ग्रैंडमौम और गैं्रडपा को देख कर किलक रहे थे. एयरोड्राम पहुंच कर यश और पिया ने शिव और जया का सामान ट्रौली पर रखते हुए स्विट्जरलैंड की टिकटें पकड़ाईं तो दोनों लज्जा से आरक्त हो उठे पर चल पड़े चांद के पार जहां एक नई सुबह अरमानों की नई कोपलों के साथ उन का इंतजार कर रही थी.

चांद के पार – भाग 2 : जया के जीवन में अकेलापन ही क्योंं बना रहा

अब जब भी शिव शाम को सैर के लिए निकलते, जया को साथ लेना न भूलते. जया भी तैयार हो कर उन की बाट जोहती. बोलतेबतियाते, एकदूजे के सुखदुख बांटते वे बहुत दूर निकल जाते. रास्तेभर शिव जया का खयाल रखते और जया भी उन के अपनेपन की ठंडी फुहार में भीगती रहती. कभी गगनचुंबी पेड़ों के नीचे बैठ कर वे अपनी थकान मिटाते तो कभी  झील के किनारे बैठ पानी में तैरने वाले पक्षियों से बच्चों की तरह खेलते.

न जाने कितनी बार शिव ने जया के दिवंगत को जानने के लिए उसे कुरेदा होगा पर उस की पलकों पर उतर आए खामोशियों के साथ को ही समेट कर इतना ही जान सके कि 30 साल पहले उस के पति की मृत्यु कार दुर्घटना में हुई थी. अपने बेटे यश को उन्होंने अपने बलबूते पर इतना काबिल बनाया है. जहां पर शिव अपनी पत्नी पद्मा को याद कर विह्वल हो जाते थे वहीं पर जया

अपने पति की स्मृति से उदासीन थी. उस की असहजता को देखते हुए उन्होंने उस के अतीत की चर्चा फिर कभी नहीं की. कुछ ही दिनों में जया और शिव के बीच की औपचारिकताएं न के बराबर रह गईं. घर के सदस्यों को अपने गंतव्य की ओर जाते ही या तो शिव जया के पास आ जाते या जया उन के घर चली जाती. दिनभर का लंबा साथ उन दोनों को ताजगी से भर देता. फिर देश भी ऐसा कि जहां किसी को किसी और को देखने की फुरसत नहीं होती है. बहुत हुआ, तो हायहैलो कहकह कर आगे बढ़ गए.

ऊंचेनीचे कटे चट्टानों पर उगे जंगलों के बीच बने आलीशान महलों को निहारते समय शिव हमेशा जया की कलाई को थामे रहते. जया को थोड़ा सा भी लड़खड़ाना शिव को बेचैन कर देता. जिस तत्परता से शिव उसे अपनी बांहों में समेटते, उतनी सहजता से जया उन की बांहों में सिमट आती, फिर सकपका कर अलग हो जाती. वहां पर किसी को किसी से मतलब ही कहां कि ऐसी छोटीछोटी बातों को तूल दे. ऐसे ही मधुयामिनी बने उन दोनों के दिन गुजरते रहे.

बारिश और धूप की आंखमिचौली शिव और जया के बीच की दूरियां समाप्त करती रही. एकदूसरे में वे ऐसे खोए कि विगत की सारी खट्टीमीठी यादें विस्मृत हो गई थीं. जया के सघन घने बाल शिव के कंधे पर कब लहराने लगे, कब शिव जया को अपनी भुजाओं में समेटने लगे, यह सोचने के लिए उन दोनों को होश ही कहां था.

एकदूसरे में समाहित होने की व्यग्रता को उन का मर्यादित विकल मन अथक प्रयास को  झेलता रहा. स्वयं के परिवर्तित रूप पर दोनों आश्चर्यचकित थे. 5 दिनों के साथ के बाद सप्ताहांत के अंतिम 5 दिनों में जब दोनों के परिवार घर में रहते थे, तो इस उम्र में भी वे एकदूजे के सान्निध्य को तड़प उठते थे.

हमेशा अकेलेपन का रोना रोने वाली उदासी की प्रतिमूर्त बनी जया के चेहरे पर छाई खुशियों की लालिमा उन के बेटे यश और बहू अणिमा से छूटी नहीं रही. जया को खुश देख कर यश की प्रसन्नता का कोई ओरछोर नहीं था. यश ने जब से होश संभाला, उस ने जया को हमेशा ही उदास और सहमा हुआ पाया. अपने पापा की गरजती आवाज से डर कर हमेशा वह जया की गोद में छिप जाया करता था. दूसरों के समक्ष अकारण ही मम्मी को तिरस्कृत करना, उन के कामों में नुक्स निकालना, उन के मायके वालों को अनुचित बातें कहना, सभी अपनों के साथ अप्रिय आचरण करना आदि पापा की बेशुमार असहनीय आदतें थीं.

औफिस हो या घर, शायद ही कोई उन्हें पसंद करता था. उसे याद नहीं कि उन्होंने अपने इकलौते बेटे को गोद में उठा कर कभी प्यार किया हो. बाद में उस ने जाना कि मम्मी का अपार सौंदर्य की स्वामिनी के साथ अति प्रतिभाशालिनी होना अतिसाधारण रंगरूप और अतिसाधारण शैक्षणिक योग्यता रखने वाले पापा को कभी न सुहाया. उन में  झूठी गलतियां निकाल, उन्हें अकारण तिरस्कृत कर के जब तक जीवित रहे अपने अहं को संतुष्ट करते रहे. आएदिन शराब के नशे में मम्मी को शारीरिक रूप से प्रताडि़त कर के अपनी खी झ उतारते रहे.

समझ आने पर जब भी उस ने मम्मी को बचाने की कोशिश की, पापा ने उसे रुई की तरह धुन कर रख दिया. पापा की इन्हीं गतिविधियों के कारण उन से प्यार करना तो दूर, वह कभी उन का यशोचित सम्मान भी न कर सका. उस के लिए सारे रिश्तों की पर्याय उस की मां ही बनी रही. कार दुर्घटना में हुई पापा की मृत्यु ने दुख के बदले आए दिनों की जिल्लतों से उन्हें मुक्ति ही मिली थी. मैथ्स विजार्ड कही जाने वाली उस की मम्मी ने कोचिंग सैंटर क्या जौइन किया कि घर में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की कतार लग कर उन की सारी आर्थिक समस्याओं का समाधान कर गया. आज वह जो कुछ भी है, अपनी मम्मी की अटूट साधनाओं व तपस्याओं के कारण ही.

जीवन में हर स्त्री को सुयोग्य जीवनसाथी की कल्पना होती है. मम्मी को वह कभी नहीं मिला. पूरा जीवन अपनी आशाओं, आकांक्षाओं और कामनाओं के दहकते रेगिस्तान में नंगेपैरों वह दौड़ती रही. उस के राह की सारी बाधाओं को अपने पलकों से चुनती रही. क्या पता शिव अंकल के साथ ने इस उम्र में वर्षों की उन की मुराद पूरी कर दी हो. जयाजी के उच्चारण से शिव अंकल की जबान भी तो नहीं थकती. कितने खिल उठते हैं वे मम्मी को देख कर ही. उसे, अणिमा और अंश पर भी बड़े अधिकार से स्नेह बरसाते रहते हैं.

अपनी मां के जीवन में खुशियां लाने के लिए निम्न जाति से आने वाले शिव अंकल की याचना भी करनी पड़ी तो उसे रंचमात्र भी मलाल न होगा. उसे पूरा विश्वास है कि वे मम्मी को बहुत पसंद करते हैं. पिया भी उस की मम्मी को मानसम्मान देने के साथ उन्हें कितना चाहती है. उस की मम्मी है ही ऐसी कि उन के मोहपाश में सभी बंध जाएं. वह पिया से बात करेगा, ऐसा सोच कर यश खुशियों से भर उठा.

शिव के साथ जया के घिसटने वाले दिन पंख लगा कर उड़ते रहे. 5 महीने पहले उस रोज वक्त की शाख से जिंदगी के कुछ बरस उस ने तोड़े तो याद आया कि न जाने कितने बरस हुए उसे जिए हुए. अब तक के सफर में दौड़तेभागते जाने कितने बरस फिसलते रहे. लेकिन उसे इतना भी वक्त न मिला कि अपनी खुशियों के बारे में वह कभी सोच सके.

काले सघन बरसते बादलों के बीच मचलती हुई दामिनी के साथ शिव ने उस की कलाई को क्या थामा कि उस के भीतर मानो सालों सूखे पर सावन की कुछ बूंदें बरस उठीं. उस के मन की दुनिया का खाली और उदास कोना अचानक जैसे भर गया हो. शिव के अपनेपन से उस की आंखें ऐसे छलकीं कि कठिनाइयों और दुखों से भरे उस के अतीत के सारे बरस बह गए. माना कि प्यार के फूल उम्र की शाखाओं पर नहीं खिलते पर ऐसा भी तो होता है कि दुनिया की हर रीत, हर रस्म से बहुत दूर खिलता है प्यार का कोईर् फूल और महक उठती है पूरी धरती.

दुनिया के किसी भी कोने में, उम्र के किसी भी मोड़ पर प्यार आ कर थाम लेता है कलाई और टूट जाती है सारी रवायतें. शिव के बिना जया जीने की कल्पना से कांप उठी. अपार सौंदर्य और प्रतिभाशालिनी जया को यश के साथ ही अपनाने के लिए कितनों ने हाथ बढ़ाया था, कितनों ने प्रणय याचना की थी, पर पाषाण बनी जया सारे प्रस्तावों को बड़ी निर्ममता से ठुकराती रही.

गांठें: एक बेटी ने कैसे खोली मां के दिल की गांठ

सरला ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया. सब से पहले वह अपनी नई आई भाभी दिव्या से मिली.

‘‘हैलो भाभी, कैसी हो.’’

‘‘अच्छी हूं, दीदी,’’ एक फीकी सी मुसकान फेंक कर दिव्या ने कहा और सरला के हाथ की अटैची अपने हाथ में लेते हुए धीरे से बोली, ‘‘आप सफर में थक गई होंगी. पहले चल कर थोड़ा आराम कर लें. तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता ले कर आती हूं.’’

सरला को बड़ा अटपटा सा लगा. 2 ही महीने तो शादी को हुए हैं. दिव्या का चमकता चेहरा बुझ सा गया है.

सरला अपनी मां से मिली तो मां उसे गले से लिपटाते हुए बोलीं, ‘‘अरी, इतनी बड़ी अटैची लाने की क्या जरूरत थी. मैं ने तुझ से कहा था कि अब यहां साडि़यों की कोई कमी नहीं है.’’

‘‘लेकिन मां, साडि़यां तो मिल जाएंगी, ब्लाउज कहां से लाऊंगी? कहां पतलीदुबली भाभी और कहां बुलडोजर जैसी मैं,’’ सरला ने कहा.

‘‘केवल काला और सफेद ब्लाउज ले आती तो काम चल जाता.’’

‘‘अरे, ऐसे भी कहीं काम चल पाता है,’’ बाथरूम में साबुन- तौलिया रखते हुए दिव्या ने  कटाक्ष किया था.

सरला के मन में कुछ गढ़ा जरूर, लेकिन उस समय वह हंस कर टाल गई.

हाथमुंह धो कर थोड़ा आराम मिला. दिव्या ने नाश्ता लगा दिया. सरला बारबार अनुभव कर रही थी कि दिव्या जो कुछ भी कर रही है महज औपचारिकता ही है. उस में कहीं भी अपनापन नहीं है. तभी सरला को कुछ याद आया. बोली, ‘‘देखो तो भाभी, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

सरला ने एक खूबसूरत सा बैग दिव्या को थमा दिया. दिव्या ने उचटती नजर से उसे देखा और मां की ओर बढ़ा दिया.

‘‘क्यों भाभी, तुम्हें पसंद नहीं आया?’’

‘‘पसंद तो बहुत है, दीदी, पर…’’

‘‘पर क्या, भाभी? तुम्हारे लिए लाई हूं. अपने पास रखो.’’

दिव्या असमंजस की स्थिति में उसे लिए खड़ी रही. मांजी चुपचाप दोनों को देख रही थीं.

‘‘क्या बात है, मां? भाभी इतना संकोच क्यों कर रही हैं?’’

‘‘अरी, अब नखरे ही करती रहेगी या उठा कर रखेगी भी. पता नहीं कैसी पढ़ीलिखी है. दूसरे का मन रखना जरा भी नहीं जानती. नखरे तो हर वक्त नाक पर रखे रहते हैं,’’ मां ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘मां, भाभी से ऐसे क्यों कह रही हो? नईनई हैं, आप की आज्ञा के बिना कुछ लेते संकोच होता होगा.’’

सरला का अपनापन पा कर दिव्या के अंदर कुछ पिघलने लगा. उस की नम हो आई आंखें सरला से छिपी न रह सकीं.

सरला सभी के लिए कोई न कोई उपहार लाई थी. छोटी बहन उर्मिला के लिए सलवार सूट, उमेश के लिए नेकटाई और दिवाकर के लिए शर्ट पीस. उस ने सारे उपहार निकाल कर सामने रख दिए. सब अपनेअपने उपहार ले कर बड़े प्रसन्न थे.

दिव्या चुप बैठी सब देख रही थी.

‘‘भाभी, आप कश्मीर घूमने गई थीं. हमारे लिए क्या लाईं?’’ सरला ने टोका.

दिव्या एक फीकी सी मुसकान के साथ जमीन देखने लगी. भला क्या उत्तर दे? तभी दिवाकर ने कहा, ‘‘दीदी, भाभी जो उपहार लाई थीं वे तो मां के पास हैैं. अब मां ही आप को दिखाएंगी.’’

‘‘दिवाकर, तू बहुत बोलने लगा है,’’ मां ने झिड़का.

‘‘इस में डांटने की क्या बात है, मां? दिवाकर ठीक ही तो कह रहा है,’’ उमेश ने समर्थन किया.

‘‘अब तू भी बहू का पक्ष लेने लगा,’’ मां की जुबान में कड़वाहट घुल गई.

‘‘सरला, तुम्हीं बताओ कि इस में पक्ष लेने की बात कहां से आ गई. एक छोटी सी बात सीधे शब्दों में कही है. पता नहीं मां को क्या हो गया है. जब से शादी हुई है, जरा भी बोलता हूं तो कहती हैं कि मैं दिव्या का पक्ष लेता हूं.’’

स्थिति विस्फोटक हो इस से पहले ही दिव्या उठ कर अपने कमरे में चली गई. आंसू बहें इस से पहले ही उस ने आंचल से आंखें पोंछ डालीं. मन ही मन दिव्या सोचने लगी कि अभी तो गृहस्थ जीवन शुरू हुआ है. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?

जिस तरह सरला अपने भाईबहनों के लिए उपहार लाई है उसी तरह दिव्या भी सब के लिए उपहार लाई थी. अपने इकलौते भाई मनीष के लिए टीशर्र्ट और अपनी मम्मी के लिए शाल कितने मन से खरीदी थी. पापा का सिगरेट केस कितना खूबसूरत था. चलते समय पापा ने 2 हजार रुपए चुपचाप पर्स में डाल दिए थे, उन की लाड़ली घूमने जो जा रही थी. मम्मीपापा और मनीष उपहार देख कर कितने खुश होंगे, इस की कल्पना से वह बेहद खुश थी.

सरला, उर्मिला, मांजी तथा दिवाकर के लिए भी दिव्या कितने अच्छे उपहार लाई थी. उमेश ने स्वयं उस के लिए सच्चे मोतियों की माला खरीदी थी और वह कश्मीरी कुरता जिसे पहन कर उस ने फोटो खिंचवाई थी.

कश्मीर से कितने खुशखुश लौटे थे वे और एकएक सामान निकाल कर दिखा रहे थे. मांजी के लिए कश्मीरी सिल्क की साड़ी, पापाजी के लिए गरम गाउन, उर्मिला के लिए कश्मीरी कुरता, दिवाकर के लिए घड़ी और सरला के लिए गरम शाल. मांजी एकएक सामान देखती गईं और फिर सारा सामान उठा कर अलमारी में रखवा दिया. तभी मांजी  की नजर दिव्या के गले में पड़ी मोतियों की माला पर पड़ी.

उर्मिला ने कहा, ‘भाभी, क्या यह माला भी वहीं से ली थी? बड़ी प्यारी है.’

और दिव्या ने वह माला गले में से उतार कर उर्मिला को दे दी थी. उर्मिला ने पहन कर देखी. मांजी एकदम बोल उठीं, ‘तुझ पर बड़ी जम रही है. चल, उतार कर रख दे. कहीं आनेजाने में पहनना. रोज पहनने से चमक खराब हो जाएगी.’

उमेश और दिव्या हतप्रभ से रह गए. उमेश द्वारा दिव्या को दिया गया प्रथम प्रेमोपहार उर्मिला और मांजी ने इस तरह झटक लिया, इस का दुख दिव्या से अधिक उमेश को था. उमेश कुछ कहना चाहता था कि दिव्या ने आंख के इशारे से मना कर दिया.

2 दिन बाद दिव्या का इकलौता भाई मनीष उसे लेने आ पहुंचा. आते ही उस ने भी सवाल दागा, ‘दीदी, यात्रा कैसी रही? मेरे लिए क्या लाईं?’

‘अभी दिखाती हूं,’ कह कर दिव्या मांजी के पास जा कर बोली, ‘मांजी, मनीष और मम्मीपापा के लिए जो उपहार लाई थी जरा वे दे दीजिए.’

‘तुम भी कैसी बातें करती हो, बहू? क्या तुम्हारे लाए उपहार तुम्हारे मम्मीपापा स्वीकार करेंगे? उन से कहने की जरूरत क्या है. फिर कल उर्मिला का विवाह करना है. उस के लिए भी तो जरूरत पड़ेगी. घर देख कर चलना अभी से सीखो.’

सुन कर दिव्या का मन धुआंधुआं हो उठा. अब भला मनीष को वह क्या उत्तर दे. जब मन टूटता है तो बुद्धि भी साथ नहीं देती. किसी प्रकार स्वयं को संभाल कर मुसकराती हुई लौट कर वह  मनीष से बोली, ‘तुम्हारे जीजाजी आ जाएं तभी दिखाऊंगी. अलमारी की चाबी उन्हीं के साथ चली गई है.’

उस समय तो बात बन गई लेकिन उमेश के लौटने पर दिव्या ने उसे एकांत में सारी बात बता दी. मां से मिन्नत कर के किसी प्रकार उमेश केवल मनीष की टीशर्ट ही निकलवा पाया, लेकिन इस के लिए उसे क्या कुछ सुनना नहीं पड़ा.

मायके से मिले सारे उपहार मांजी ने पहले ही उठा कर अपनी अलमारी में रख दिए थे. दिव्या को अब पूरा यकीन हो गया था कि वह दोबारा उन उपहारों की झलक भी नहीं देख पाएगी.

शादी के बाद दिव्या के रिश्तेदारों से जो साडि़यां मिलीं वे सब मांजी ने उठा कर रख लीं  और अब स्वयं कहीं पड़ोस में भी जातीं तो दिव्या की ही साड़ी पहन कर जातीं. उर्मिला ने अपनी पुरानी घड़ी छोड़ कर दिव्या की नई घड़ी बांधनी शुरू कर दी थी. दिव्या का मन बड़ा दुखता, लेकिन वह मौन रह जाती. कितने मन से उस ने सारा सामान खरीदा था. समझता उमेश भी था, पर मां और बहन से कैसे कुछ कह सकता था.

‘‘क्या हो रहा है, भाभी?’’ सरला की आवाज सुन दिव्या वर्तमान में लौट आई.

‘‘कुछ नहीं. आओ बैठो, दीदी.’’

‘‘भाभी, तुम्हारा कमरा तुम्हारी ही तरह उखड़ाउखड़ा लग रहा है. रौनक नहीं लगती. देखो यहां साइड लैंप रखो, इस जगह टू इन वन और यहां पर मोर वाली पेंटिंग टांगना. अच्छा बताओ, तुम्हारा सामान कहां है? कमरा मैं ठीक कर दूं. उमेश को तो कुछ होश रहता नहीं और उर्मिला को तमीज नहीं,’’ सरला ने कमरे का जायजा लेते हुए कहा.

‘‘आप ने बता दिया. मैं सब बाद में ठीक कर लूंगी, दीदी. अभी तो शाम के खाने की व्यवस्था कर लूं,’’ दिव्या ने उठते हुए कहा.

‘‘शाम का खाना हम सब बाहर खाएंगे. मैं ने मां से कह दिया है. मां अपना और बाबूजी का खाना बना लेंगी.’’

‘‘नहीं, नहीं, यह तो गलत होगा कि मांजी अपने लिए खाना बनाएंगी. मैं बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, भाभी, कुछ भी गलत नहीं होगा. तुम नहीं जानतीं कि कितनी मुश्किल से एक दिन के लिए आई हूं, मैं तुम से बातें करना चाहती हूं. और तुम भाग जाना चाहती हो. सही बताओ, क्या बात है? मुंह क्यों उतरा रहता है? मैं जब से आई हूं कुछ गड़बड़ अनुभव कर रही हूं. उमेश भी उखड़ाउखड़ा लग रहा है. आखिर बात क्या है, समझ नहीं पा रही.’’

‘‘कुछ भी तो नहीं, दीदी. आप को वहम हुआ है. सभी कुछ तो ठीक है.’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोलो, भाभी. तुम्हारा चेहरा बहुत कुछ कह रहा है. अच्छा दिखाओ भैया ने तुम्हें कश्मीर से क्या दिलाया?’’

दिव्या एक बार फिर संकोच से गढ़ गई. सरला को क्या जवाब दे? यदि कुछ कहा तो समझेगी कि मैं उन की मां की बुराई कर रही हूं. दिव्या ने फिर एक बार झूठ बोलने की कोशिश की, ‘‘दिलाते क्या? बस घूम आए.’’

‘‘मैं नहीं मानती. ऐसा कैसे हो सकता है? अच्छा चलो, अपनी एलबम दिखाओ.’’

और दिव्या ने एलबम सरला को थमा दी. चित्र देखतेदेखते सरला एकदम चिहुंक उठी, ‘‘देखो भाभी, तुम्हारी चोरी पकड़ी गई. यही माला दिलाई थी न भैया ने?’’

अब तो दिव्या के लिए झूठ बोलना मुश्किल हो गया. उस ने धीरेधीरे मन की गांठें सरला के सामने खोल दीं. सरला गंभीरता से सब सुनती रही. फिर दिव्या की पीठ थपथपाती हुई बोली, ‘‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तुम बाहर चलने के लिए तैयार हो जाओ. उमेश भी आता ही होगा.’’

दिव्या मन ही मन डर रही थी कि हाय, क्या होगा. वह सोचने लगी कि सरला से सब कह कर उस ने ठीक किया या गलत.

बाहर वह सब के साथ गई जरूर, लेकिन उस का मन जरा भी नहीं लगा. सभी चहक रहे थे पर दिव्या सब के बीच हो कर भी अकेली बनी रही. लौटने के बाद सारी रात अजीब कशमकश में बीती. उमेश भी दिव्या को परेशान देख रहा था. बारबार पूछने पर दिव्या ने सिरदर्द का बहाना बना दिया.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद सरला ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘भैया, आज आप के दफ्तर की छुट्टी. मैटिनी शो देखने चलेंगे. उर्वशी में अच्छी फिल्म लगी है.’’

सब जल्दीजल्दी काम से निबटे. दिव्या भी पिक्चर जाने के  लिए तैयार होने लगी. तभी उर्मिला ने आ कर कहा, ‘‘भाभी, मां ने कहा है, आप यह माला पहन कर जाएंगी.’’

और माला के साथ ही उर्मिला ने घड़ी भी ड्रेसिंग टेबिल पर रख दी. दिव्या को बड़ा आश्चर्य हुआ. उमेश भी कुछ नहीं समझ पा रहा था. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ?

सब पिक्चर देखने गए, लेकिन उर्मिला और मांजी घर पर रह गए. दिव्या और उमेश पिक्चर देख कर लौटे तो जैसे उन्हें अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. यह कमरा तो उन का अपना नहीं था. सभी कुछ एकदम बदलाबदला सा था. दिव्या ने देखा, सरला पीछे खड़ी मुसकरा रही है. दिव्या को समझते देर न लगी कि यह सारा चमत्कार सरला दीदी की वजह से हुआ है.

उमेश कुछ समझा, कुछ नहीं. शाम की ट्रेन से सरला को जाना था. सब तैयारियां हो चुकी थीं. दिव्या सरला के लिए चाय ले कर मांजी के कमरे में जा रही थी, तभी उस ने  सुना, सरला दीदी कह रही थीं, ‘‘मां, दिव्या के साथ जो सलूक तुम करोगी वही सुलूक वह तुम्हारे साथ करेगी तो तुम्हें बुरा लगेगा. वह अभी नई है. उसे अपना बनाने के लिए उस का कुछ छीनो मत, बल्कि उसे दो. और उर्मिला तू भी भाभी की कोई चीज अपनी अलमारी में नहीं रखेगी. बातबात पर ताना दे कर तुम भैया को भी खोना चाहती हो. जितनी गांठें तुम ने लगाई हैं एकएक कर खोल दो. याद रहे फिर कोई गांठ न लगे.’’

और दिव्या चाय की ट्रे हाथ में लिए दरवाजे पर खड़ी आंसू बहा रही थी.

‘‘दीदी, आप जैसी ननद सब को मिले,’’ चाय की ट्रे मेज पर रख कर दिव्या ने सरला के पांव छूने को हाथ बढ़ाए तो सरला ने उसे गले से लगा लिया.

मिनी का वैक्सीनेशन : जब घर से बाहर निकली मिनी तो क्या हुआ?

बड़ी मुश्किल से मुंबई से दूर एक अस्पताल में मिनी ने कोरोना के वैक्सीन का रजिस्ट्रैशन क्या कराया, सालभर बाद ऐसे लगा जैसे घर में कोई उत्सव का माहौल हो. महीनों बाद मिनी घर में गाना गाते हुए झूम रही थी.

लौकडाउन के दौरान अपने घर में बंद, औफिस के औनलाइन काम की वजह से अकसर तनाव में रहने वाली मिनी के लिए यह कोई आम खुशी भी नहीं थी. यह बहुत दिनों बाद घर से निकलने की खुशी थी, भले ही मकसद अस्पताल जाना ही क्यों न हो. एक युवा लड़की ठाणे से 1 घंटे की दूरी पर अस्पताल के लिए निकलने पर इतना खुश है, तो एक मां को तो आश्चर्य होगा ही. उस पर यह कि दोस्तों के साथ जाने का प्रोग्राम अचानक बन भी गया.

मिनी ने फरमाया, ”मां, वापस आते हुए मुझे थोड़ी वीकनैस या घबराहट हो सकती है न, तो रोहित को बोल दिया है कि वह मेरे साथ चलेगा. कार वही चला लेगा.”

मेरे कान खड़े हो गए. मां हूं उस की, समझ गई कि आउटिंग का प्रोग्राम बन रहा है दोस्तों के साथ.

मैं ने कहा, ”पर अभी किसी से मिलना ठीक है क्या?”

”मां, वह भी कोरोना को ले कर उतनी ही सावधानियां बरत रहा है जितनी हम. और उसे तो पहला डोज लग भी चुका है. वह सब के लिए फेसशील्ड ले कर आएगा और हम चारों कार में भी डबल मास्क लगा कर रखेंगे.‘’

देखा, मैं सही थी. मिनी यों ही गाना और डांस नहीं कर रही थी.

मैं ने उसे अपनी स्पैशल मांबेटी की अच्छी बौंडिंग वाली स्माइल देते हुए कहा, ”बदल दिया न अपने वैक्सीनेशन को एक पिकनिक में… सब जाओगे न? इतने लोगों को देख कर पुलिस वाले रोकेंगे तो?”

”अरे मां… बहुत बढ़िया प्रोग्राम बन गया है. कोई भी नहीं निकला न इतने दिनों घर से. रोहित मेरी कार चलाएगा, कोई रोकेगा तो हम कहेंगे कि वैक्सीन लगवाने जा रहे हैं. पूजा को भी जा कर पता करना है वैक्सीन का. जय को तो 2 महीने पहले कोरोना हो चुका है, बोल देंगे, फौलोअप के लिए जा रहा है.

“मां, सब इतने ऐक्साइटैड हैं न… हमलोग लगभग 4 महीने बाद मिलने वाले हैं. ओह, मां, वी आर सो ऐक्ससाइटैड…’’और फिर मिनी जोर से हंस पड़ी, ”मां, पता है, रोहित और पूजा ने तो अभी से सोचना शुरू कर दिया है कि वे क्या पहनेंगे.

“मैं तो अपनी स्लीवलैस ड्रैस पहन जाउंगी, एक बार भी नहीं पहनी थी कि लौकडाउन लग गया. चलो, जल्दी से अपना कल का काम निबटा लेती हूं, नहीं तो मेरा बौस कल मुझे ऐंजौय नहीं करने देगा. और मैं ने रिमी को भी कहा है साथ चलने के लिए…’’

”अरे, रिमी…उस के पेरैंट्स को तो कोरोना हुआ है न? वे तो अस्पताल  में भरती हैं ?”

मिनी थोड़ी उदास हुई,”हां, मां, वह आजकल अपने मामामामी के साथ रह रही है. अब जब बाहर जा ही रहे हैं तो उसे भी ले जाती हूं.‘’

अभी तक वहीं चुपचाप बैठे सारी बात सुन रहे अनिल ने मिनी के जाने के बाद कहा, ”यार, रश्मि, क्या बच्चे हैं आजकल के… ऐसा लग रहा है कि वैक्सीन के लिए नहीं, बल्कि पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम बन रहा है.”

”हां, यार… बच्चे कैसे तरस रहे हैं एकदूसरे से मिलने के लिए. यह छोटी सी खुशी आज इन के लिए कितनी बड़ी बात हो गई है. बेचारी रातदिन लैपटौप पर बैठी काम ही कर रही है. आज कितने दिनों बाद खुश दिख रही है.

“ओह, कोरोना ने तो इन बच्चों को बांध कर रख दिया, बेचारे सच में कब से नहीं निकले हैं.”

गजब की तैयारियां हो रही थीं. सुबहसुबह ही हेयर मास्क लगाया गया, स्किन केयर हुई, शैंपू से बाल धोए गए, ड्रैस के साथ स्टाइलिश शूज निकाले गए, जो सालभर से डब्बे में ही बंद थे. तय हुआ कि मिनी ही सब को ले कर निकलेगी फिर ठाणे से बाहर जा कर रोहित कार चलाएगा.

यहां पर बाकी मम्मियों के उत्साह की भी दाद देनी पड़ेगी. मिनी ने बताया, ”एक बात बहुत अच्छी हो गई मां, सब आंटी ने कह दिया है कि बहुत दिनों बाद निकल रहे हो, तो अच्छी तरह घूमफिर कर आना, जब निकल ही रहे हो तो और ऐंजौय कर लेना.”

लगे हाथ मैं ने भी मिनी को छेड़ा, ”क्या पता, बाकी मांओं को भी एक ब्रेक इस बहाने आज अपने बच्चों से मिल ही जाए.‘’

जैसी उम्मीद थी, ठीक वैसे ही घूरा मिनी ने मुझे इस बात पर. बोली, ”हम  1 बजे निकलेंगे, 3 से 5 का टाइम है, मेरा डिनर मत बनाना, कुछ खुला होगा तो मैं अपनी पसंद का कुछ पैक करवा कर लाऊंगी,’’ फिर उस ने अभी किए गए मेरे मजाक का बदला भी हाथ के हाथ उतार दिया, ”एक ब्रेक चाहिए मुझे भी घर के खाने से, हद हो गई है रातदिन घर का खाना खाते हुए.”

मुझे हंसी आ गई. मिनी चली गई, वहां जा कर फोन किया, ‘’1,100 लोगों का अपौइटमैंट था, लंबी लाइन है. धूप भी बहुत तेज है, रोहित को कार काफी दूर पार्क करनी पड़ी है और यहां मैं अब अकेली ही लाइन में हूं, पर अच्छा लग रहा है.”

हर समय एसी के लिए शोर मचाने वाली मिनी दोपहर के 3 बजे लाइन में खड़ी है और उसे अच्छा लग रहा है, आवाज में कोई झुंझलाहट नहीं, खिलखिलाती सी आवाज. दरअसल, यह दोस्तों के साथ का असर है जो लगातार चैट कर रहे होंगे अब. जानती हूं मैं इन बच्चों को, डायरी ऐंट्री की तरह चारों हर समय एकदूसरे को अपनी बातें बताते रहते हैं.

वैक्सीन मिनी को लग गई. फोन आ गया, ”सब हो गया मम्मी, अब थोड़ा खानेपीने की अपनी पसंद की जगहें देख लें. काश, कुछ तो खुला हो.”

हालांकि मैं ने उसे बिस्कुट और पानी दिया था, कहा था,”कुछ खा लेना.‘’

”अरे, मम्मी, यह पूजा की मम्मी ने तो उसे छोटेछोटे जूस के पैकेट्स, स्नैक्स दिए हैं, उन्हें भी यही लग रहा था कि हम आज पिकनिक पर जा रहे हैं और रोहित और जय की मम्मी ने भी ऐसे ही कुछकुछ बैग में रख दिया था. हम तो बारबार कुछ न कुछ खाते ही रहे, मां, बहुत मजा आ रहा है…चलो, अब आ कर बात करते हैं.‘’

मेरी मिनी एक अरसे बाद आज खुश थी, चहक रही थी. मेरे लिए इतना बहुत था. दिल भर सा आया. कैसा टाइम आ गया है कि दोस्तों से मिलने के लिए तरस गए सब. कहां हर तरफ, हर जगह युवा मस्ती करते दिखते थे, जहां नजर जाती थी एक मस्ती सी दिखती थी, अब कहां बंद हो गए बेचारे.

इन की क्या बात करूं, मैं ही मिनी के दोस्तों का घर आना कितना मिस करती हूं. कैसे हंसीमजाक का दौर हुआ करता था, कैसी रौनक रहा करती थी, लेकिन अब? अब कैसा अकेलापन सब के मन पर छाया रहता है, कितना डिप्रैसिंग माहौल है.

शाम को घर की घंटी बजी. मिनी आई थी. आते ही आजकल सब सामान सैनिटाइज कर के सीधे वाशरूम ही जाना होता है.

”नहा कर आती हूं मां, ”कह कर मिनी वाशरूम की तरफ चली गई. मैं ने महसूस कर लिया कि वह फिर उदास और चुप है. नहा कर निकली तो बोली,”कुछ दुकानें खुली थीं, कुछ पैक करवा कर लाई हूं, चलो, आप लोग खा लो.‘’

”तुम? भूख लगी होगी?”

फिर वही बुझी सी आवाज,” मैं ने दोस्तों के साथ खा लिया था, अब भूख नहीं है.‘’

मैं ने उसे अपने साथ लिपटा लिया, ”अरे, मिनी, फिर उदास हो गईं?अच्छा, यह बताओ, रिमी कैसी है? उस के पेरैंट्स कैसे हैं?”

मिनी इस बात पर सुबक उठी, ”वह तो डरी हुई है. बता रही थी कि हर पल उसे यही डर लगा रहता है कि उस के मम्मीपापा को कुछ हो न जाए. फोन की हर घंटी पर डरती है. उस का मन तरस रहा है कि कब उस के मम्मीपापा ठीक हो कर घर आएं तो वह उन के साथ अपने घर जाए.

“बता रही थी कि न उसे नींद आती है, न भूख लगती है, उस का वेट भी कम है गया है. हमारी जिद पर चली तो गई हमारे साथ पर पूरा दिन एक बार भी उस का चेहरा खिला नहीं. इतनी उदास, परेशान और डरी हुई है कि क्या बताऊं…

“हम ने सोचा था कि हमारे साथ थोड़ा उस का मन बहलेगा, फोन पर भी रोती ही रहती है, पर कोई बात उसे तसल्ली नहीं दे पा रही. एक डर में जी रही है वह. और मम्मी, मुझे भी आज एक लेसन मिला.‘’

“क्या?”

”यही कि मैं तो अपने औफिस के एक छोटे से स्ट्रैस पर सारा दिन परेशान होती हूं, सारा दिन चिढ़चिढ़ करती हूं, जबकि आज के टाइम में तो परेशानियां इतनी बड़ीबड़ी हैं. लोग क्याक्या झेल रहे हैं, न जाने कितने दुख देख रहे हैं और मैं घर में आराम से बैठी अपने काम को रातदिन कोस रही हूं. मुझे काम ही तो ज्यादा है मगर कोई दुख तो नहीं न…फिर भी मैं सारा दिन ऐसे उदास होती हूं कि जैसे पता नहीं क्या हो गया है.

“हमारी रिमी कितने बड़े दुख से सामना कर रही है, उसे तो पता भी नहीं कि उस के मम्मीपापा अस्पताल  से ठीक हो कर आ भी पाएंगे भी या नहीं… बेचारी कितने डर में जी रही है रात दिन और मैं कितनी छोटी बात पर दुखी रहती हूं.’’

”हां, बेटा, सही कह रही हो. यह तो सचमुच समझने वाली बात है.’’

‘’मैं आज समझ गई कि अपनी छोटीछोटी परेशानियों को नजरअंदाज करूंगी, इतनी शिकायतें ठीक नहीं,’’ उस की आंखें सचमुच भर गईं, ”कितना अच्छा लगा आज सब को देख कर, अब पता नहीं कब मिलेंगे, इतनी बातें करते रहते हैं फोन पर, मगर मिल कर तो मन ही नहीं भर रहा था.”

मैं ने उसे पुचकारा,”अरे, पूजा का वैक्सीनेशन बाकी है न? और जय का भी तो? 2 पिकनिक तो तय हैं. फिर जाना सब एकसाथ.”

मैं ने इस तरह कहा कि उसे हंसी आ गई. बोल पड़ी, ”अच्छा, चलो, फिर खाते हैं, देखो, क्याक्या ले कर आई हूं. अब तो इंतजार ही कर सकते हैं कि अगला वैक्सीनेशन किस का होगा.‘’

हम मुसकरा दिए थे और मैं लगातार सोच रही थी कि यह सचमुच कोई आम दिन नहीं था. मिनी को एक सबक मिला था जो उस की लाइफ में उस के बहुत काम आएगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें