Serial Story: फेसबुक फ्रैंडशिप – भाग 3

लड़का कौफीहाउस में काफी देर इंतजार करता रहा. तभी उसे सामने आती एक मोटी सी औरत दिखी जिस का पेट काफी बाहर लटक रहा था. हद से ज्यादा मोटी, काली, दांत बाहर निकले हुए थे. मेकअप की गंध उसे दूर से आने लगी थी. ऐसा लगता था कि जैसे कोई मटका लुढ़कता हुआ आ रहा हो. वह औरत उसी की तरफ बढ़ रही थी. अचानक लड़के का दिल धड़कने लगा इस बार घबराहट से, भय से उसे कुछ शंका सी होने लगी. वह भागने की फिराक में था लेकिन तब तक वह भारीभरकम काया उस के पास पहुंच गई.

‘‘हैलो.’’ ‘‘आप कौन?’’ लड़के ने अपनी सांस रोकते हुए कहा.

‘‘तुम्हारी फेसबुक…’’ ‘‘लेकिन तुम तो वह नहीं हो. उस पर तो किसी और की फोटो थी और मैं उसी की प्रतीक्षा में था,’’ लड़के ने हिम्मत कर के कह दिया. हालांकि वह समझ गया था कि वह बुरी तरह फंस चुका है.

‘‘मैं वही हूं. बस, वह चेहरा भर नहीं है. मैं वही हूं जिससे इतने दिनों से मोबाइल पर तुम्हारी बात होती रही. प्यार का इजहार और मिलने की बातें होती रहीं. तुम नंबर लगाओ जो तुम्हें दिया था. मेरा ही नंबर है. अभी साफ हो जाएगा. कहो तो फेसबुक खोल कर दिखाऊं?’’ ‘‘कितनी उम्र है तुम्हारी?’’ लड़के ने गुस्से से कहा. लड़के ने उस के बालों की तरफ देखा. जिन में भरपूर मेहंदी लगी होने के बाद भी कई सफेद बाल स्पष्ट नजर आ रहे थे.

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‘‘प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती, मैं ने यह पूछा था तो तुम ने हां कहा था.’’ ‘‘फिर भी कितनी उम्र है तुम्हारी?’’

‘‘40 साल,’’ सामने बैठी औरत ने कुछ कम कर के ही बताया. ‘‘और मेरी 20 साल,’’ लड़के ने कहा.

‘‘मुझे मालूम है,’’ महिला ने कहा. ‘‘आप ने सबकुछ झूठ लिखा अपनी फेसबुक पर. उम्र भी गलत. चेहरा भी गलत?’’

‘‘प्यार में चेहरे, उम्र का क्या लेनादेना?’’ ‘‘क्यों नहीं लेनादेना?’’ लड़के ने अब सच कहा. अधेड़ उम्र की सामने बैठी बेडौल स्त्री कुछ उदास सी हो गई.

‘‘अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘की तो थी, लेकिन तलाक हो गया. एक बेटा है, वह होस्टल में पढ़ता है.’’

‘‘क्या?’’ लड़के ने कहा, ‘‘आप मेरी उम्र देखिए? इस उम्र में लड़के सुरक्षित भविष्य नहीं, सुंदर, जवान लड़की देखते हैं. उम्र थोड़ीबहुत भले ज्यादा हो लेकिन बाकी चीजें तो अनुकूल होनी चाहिए. मैं ने जब अपनी फैंटेसी में श्रद्धा कपूर बताया, तभी तुम्हें समझ जाना चाहिए था.’’ ‘‘तुम सपनों की दुनिया से बाहर निकलो और हकीकत का सामना करो? मेरे साथ तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी. पैसों से ही जीवन चलता है और तुम मुझे यहां तक ला कर छोड़ नहीं सकते.’’

लड़के को उस अधेड़ स्त्री की बातों में लोभ के साथ कुछ धमकी भी नजर आई. ‘‘मैं अभी आई, जाना नहीं.’’ अपने भारीभरकम शरीर के साथ स्त्री उठी और लेडीज टौयलेट की तरफ बढ़ गई. लड़के की दृष्टि उस के पृष्ठभाग पर पड़ी. काफी उठा और बेढंगे तरीके से फैला हुआ था. लड़का इमेजिन करने लगा जैसा कि फैंटेसी करता था वह रात में.

लटकती, बड़ीबड़ी छातियों और लंबे उदर के बीच में वह फंस सा गया था और निकलने की कोशिश में छटपटाने लगा. कहां उस की वह सुंदर सपनीली दुनिया और कहां यह अधेड़ स्त्री. उस के होंठों की तरफ बढ़ा जहां बाहर निकले बड़बड़े दांतों को देख कर उसे उबकाई सी आने लगी. अपने सुंदर 20 वर्ष के बेटे को देख कर मां अकसर कहती थी, मेरा चांद सा बेटा. अपने कृष्णकन्हैया के लिए कोई सुंदर सी कन्या लाऊंगी, आसमान की परी. इस अधेड़ स्त्री को मां बहू के रूप में देखे तो बेहोश ही हो जाए?

लड़के को लगा फिर एक आंधी चल रही है और अधेड़ स्त्री के शरीर में वह धंसता जा रहा है. अधेड़ के शरीर पर लटकता हुआ मांस का पहाड़ थरथर्राते हुए उसे निगलने का प्रयास कर रहा है. उसे कुछ कसैलाविषैला सा लगने लगा. इस से पहले कि वह अधेड़ अपने भारीभरकम शरीर के साथ टौयलेट से बाहर आती, लड़का उठा और तेजी से बाहर निकल गया. उस की विशालता की विकरालता से वह भाग जाना चाहता था. उसे डर नहीं था किसी बात का, बस, वह अब और बरदाश्त नहीं कर सकता था.

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बाहर निकल कर वह स्टेशन की तरफ तेज कदमों से गया. उस के शहर जाने वाली ट्रेन निकलने को थी. वह बिना टिकट लिए तेजी से उस में सवार हो गया. सब से पहले उस ने इंटरनैट की दुनिया से अपनेआप को अलग किया. अपनी फेसबुक को दफन किया. अपना मेल अकाउंट डिलीट किया. अपने मोबाइल की सिम निकाल कर तोड़ दी. जिस से वह उस खूबसूरत लड़की से बातें किया करता था जो असल में थी ही नहीं. झूठफरेब की आभासी दुनिया से उस ने खुद को मुक्त किया. अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी, बहुत जल्दी. वह उन सब के पास पहुंचना चाहता था, उन सब से मिलना चाहता था, जिन से वह दूर होता गया था अपनी सोशल साइट, अपनी फेसबुक और ऐसी ही कई साइट्स के चलते.

वह उस स्त्री के बारे में बिलकुल नहीं सोचना चाहता था. उसे नहीं पता था कि लेडीज टौयलेट से निकल कर उस ने क्या सोचा होगा. क्या किया होगा? बिलकुल नहीं. लेकिन सुंदर लड़की बनी अधेड़ स्त्री तो जानती होगी कि जिस के साथ वह प्रेम की पींगे बढ़ा रही है, वह 20 वर्ष का नौजवान है और आमनासामना होते ही सारी बात खत्म हो जाएगी.

सोचा तो होगा उस ने. सोचा होता तो शायद वह बाद में स्थिति स्पष्ट कर देती या महज उस के लिए यह एक एडवैंचर था या मजाक था. कही ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी किसी सहेली से शर्त लगाई हो कि देखो, इस स्थिति में भी जवान लड़के मुझ पर मरते हैं. यह भी हो सकता है कि उसे लड़के की बेरोजगारी और अपनी सरकारी नौकरी के चलते कोई गलतफहमी हो गई हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह केवल शारीरिक सुख के लिए जुड़ रही हो, कुछ रातों के लिए. हां, इधर लडके को याद आया कि उस ने तो शादी की बात की ही नहीं थी. वह तो केवल होटल में मिलने की बात कर रही थी. शादी की बात तो मैं ने शुरू की थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अधेड़ स्त्री अपने अकेलेपन से निबटने के लिए भावुक हो कर बह निकली हो. अगर ऐसा है, तब भी मेरे लिए संभव नहीं था. बात एक रात की भी होती तब भी मेरे शरीर में कोई हलचल न होती उस के साथ.

उसे सोचना चाहिए था. मिलने से पहले सबकुछ स्पष्ट करना चाहिए था. वह तो अपने ही शहर में थी, मैं ने ही बेवकूफों की तरह फेसबुक पर दिल दे बैठा और घर से झूठ बोल कर निकल पड़ा. गलती मेरी भी है. कहीं ऐसा तो नहीं…सोचतेसोचते लड़का जब किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा तो फिर उस के दिमाग में अचानक यह खयाल आया कि पिताजी के पूछने पर वह क्या बहाना बनाएगा और वह बहाने के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगा.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 1

आस्ट्रेलियाई शहर पर्थ के सीक्रेट गार्डन कैफे में बैठी अलाना अपने और्डर का इंतजार करती हुई न्यूजपेपर के पन्ने पलट रही थी, तभी उस के मोबाइल पर यीरंग का फोन आ गया. ‘‘हैलो डार्लिंग, क्या कल किंग्स पार्क में होने वाली कैंडिल विजिल में तुम भी चलोगी? मेरे पास एक मित्र से फेसबुक के जरिए निमंत्रण आया है.’’

‘‘कौन सी और किस की कैंडिल विजिल?’’ ‘‘वही जो मेलबौर्न के टैक्सी ड्राइवर मनमीत सिंह की याद में निकाली जा रही है.’’

‘‘वह तो इंडियन की कैंडिल विजिल है, हमें क्या लेनादेना है उस से. कोई मतलब नहीं है उस का हम से.’’ ‘‘इंडियन की कैंडिल विजिल है… क्या मतलब है तुम्हारा, क्या कहना चाहती हो तुम? क्या हम और तुम इंडियन नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’ अलाना लगभग चीखती हुई बोली. आसपास बैठे लोगों के हैरानी से उसे ताकने के कारण उसे याद आया कि वह एक सार्वजनिक स्थान पर बैठी हुई है. पानी के 2 घूंट गटक कर अपनेआप पर काबू करती हुई बोली, ‘‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी. तुम तो ऐसे ही हो, सबकुछ जल्दी ही भूल जाते हो. याद नहीं तुम्हें कि दिल्ली में हमारे साथ क्या हुआ था? हर तरह का नर्क देख लिया था हम ने वहां. यहां आस्ट्रेलिया में आए हुए हमें तकरीबन 5 साल हो गए हैं. अभी तक सब ठीक ही चल रहा है. किसी मनमीत सिंह के साथ मेलबौर्न में क्या हुआ, हमें कोई लेनादेना नहीं. मगर दिल्ली, वहां की तो जमीन पर पहला कदम रखते ही हमारे दुर्दिन शुरू हो गए थे. दोजख बन गई थी हमारी जिंदगी. दूसरे देशों में आ कर ये लोग रेसिज्मरेसिज्म चिल्लाते हैं. खुद के गरीबान में झांक कर नहीं देखते कि खुद का असली रूप क्या है?’’

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‘‘बिलकुल दुरुस्त फरमाया तुम ने, अलाना. सब से बड़े नस्लवादी तो हमारे अपने देशवासी ही हैं,’’ अब यीरंग की आवाज भी सुस्त हो चुकी थी, ‘‘खैर, कोई जबरदस्ती नहीं है, अभी तो तुम्हारे पास सोचने के लिए समय है. कल तक तय कर लेना कि तुम्हें जाना है

या नहीं.’’ अलाना ने कौफी के घूंट भरने शुरू किए. पर्थ में सीक्रेट गार्डन कैफे की कौफी उस की मनपसंद कौफी थी. वह जबतब यहां कौफी पीने चली आया करती थी. मगर आज यीरंग से फोन पर बात होने के बाद, 5 साल पहले दिल्ली में किए गए अपमान के घूंटों की स्मृतियां कौफी के स्वाद को कड़वा व बेस्वाद कर गईं. चिंकी, मोमो, चाऊमीन, बहादुर, हाका नूडल्स जैसे तमाम शब्द फिर से कानों में गूंजते हुए उस की वैयक्तिकता को ललकारने लगे. याद आ गया वह समय जब वह मिजोरम से दिल्ली विश्वविद्यालय, इतिहास में मास्टर्स करने, आई थी.

‘पासपोर्ट निकालो,’ एयरपोर्ट अथौरिटी के एक आदमी ने कड़क आवाज में पूछा था उस से. ‘वह क्यों सर, मैं इंडियन हूं और अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती, इतना तो हम भी जानते हैं.’

‘अच्छा, शक्ल से तो इंडियन नहीं लगती हो. चलो एक छोटा सा टैस्ट कर लेते हैं. जरा यह तो बताओ कि इंडिया में कुल मिला कर कितने प्रांत हैं?’ ‘सर, आप नस्लवाद फैला रहे हैं, मेरे नैननक्श मेनलैंड में रहने वालों से अलग हैं, इस का यह मतलब नहीं कि उन का अधिकार इस देश पर मुझ से अधिक हो जाता है. हमें तो गर्व होना चाहिए कि हमारे देश में हर तरह की शक्लसूरत, खानपान वाले लोग रहते हैं. इंडिया मेरी मातृभूमि है और इस पर जितना हक आप का बनता है उतना ही मेरा भी है. रही बात आप के सवाल के जवाब की, तो उस के बदले में मैं भी आप से एक सवाल करती हूं, ‘कौन सी महिला स्वतंत्रता सेनानी जेल में सब से लंबे समय तक रही थी? अगर आप सच्चे हिंदुस्तानी हैं तो आप को इस का जवाब जरूर पता होना चाहिए.’

‘एयरपोर्ट अथौरिटी में मैं हूं या तुम? यहां सवाल पूछने का हक सिर्फ मुझे है.’ ‘हम लोकतंत्र में रहते हैं. हमारा संविधान हर नागरिक को सवाल पूछने व अपने विचार व्यक्त करने का हक देता है. खैर, आप की इन्फौर्मेशन के लिए उस स्वतंत्रता सेनानी महिला का नाम था- रानी गाइडिनलियु और वे मणिपुर की थीं. अब देखिए न, सर, आप अपनेआप को इंडियन कहते हैं और आप को अपने देश के इतिहास की जानकारी नहीं है. जब मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर में रहने वाले लोगों को झांसी की रानी और भगतसिंह का इतिहास पता है तो आप को भी तो रानी गाइडिनलियु के बारे में पता होना चाहिए.’

अलाना उस औफिसर का साक्षात्कार सच से करवा चुकी थी और अब वह ‘मान गए मैडम, अब बस भी कीजिए,’ कह कर खिसियाई मुसकराहट देता हुआ अपना बचाव कर रहा था.

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दिल्ली के मर्द अलाना को चरित्रहीन समझते थे और बस या टैक्सीस्टैंड पर खड़ी देख कर सीधा मतलब निकालते थे कि वह धंधे के लिए खड़ी है. ऐसे ही एक मौके पर उस की मुलाकात यीरंग से हुई थी. यीरंग 5 साल पहले इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी की पढ़ाई करने के लिए अरुणाचल प्रदेश से दिल्ली आया था और एक कंपनी में डेटा साइंटिस्ट के पद पर कार्य कर रहा था. एक दिन उस ने सड़क पर गुजरते हुए देखा कि कुछ लोग बसस्टौप पर खड़ी एक मिजो गर्ल को तंग कर रहे हैं. उस ने अपनी कार वहीं रोक दी और अलाना की मदद करने आ पहुंचा. यीरंग को देख कर वे असामाजिक तत्त्व तुरंत ही भाग गए. उस दिन यीरंग ने अलाना को उस के फ्लैट तक सुरक्षित पहुंचा दिया और यहीं से उन की दोस्ती की शुरुआत भी हो गई. एक से दर्द, एक सी समस्याओं के दौर से गुजर रहे थे दोनों. यही दुविधाएं दोनों को जल्दी ही एकदूसरे के करीब ले आईं और पहली मुलाकात के एक साल बाद उन्होंने शादी कर ली. उन दोनों की शादी के बाद अलाना की छोटी बहन एंड्रिया भी दिल्ली में पढ़ने आ गई और उन के साथ रहने लगी.

शादी के बाद उन की जरूरतें बढ़ने और एंड्रिया के साथ आ कर रहने के कारण उन्हें बड़े घर की जरूरत महसूस हुई. बहुत से मकान देखे गए. कुछ मकान पसंद नहीं आते थे और जो उन्हें पसंद आते, उन के मकान मालिकों को ‘चिंकीस’ को अपना मकान देना गवारा नहीं था. मकान की तलाश के दौरान उन्हें रंगबिरंगे, सुखददुखद अनुभव हो रहे थे. कई अनुभव चुटकुले बनाने के काबिल थे तो कई दिल को लहूलुहान करते कांच की किरचों जैसे थे.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 4

उन्हीं दिनों एंड्रिया का एक मित्र, जो एंड्रिया के गायब होने वाले दिन ही गुवाहाटी चला गया था, अचानक दिल्ली वापस आ गया. वापस आने पर उसे जैसे ही एंड्रिया के दूसरे मित्रों से उस की संदिग्ध मौत का समाचार मिला तो वह तत्काल ही अलाना से मिलने पहुंचा. उस ने अलाना को बताया कि उस दिन एंड्रिया कालेज आने से पहले रास्ते में कोचिंग वाले ट्यूटर के घर से कुछ नोट्स लेने जाने वाली थी, उन्होंने ही उसे अपने फ्लैट पर आ कर नोट्स ले जाने को कहा था.

एंड्रिया के मित्र के बयान के आधार पर पुलिस ने जब उस ट्यूटर के घर की तलाशी ली तो सारा सच सामने आ गया. बिल्ंिडग में लगे सीसीटीवी कैमरे के पुराने रिकौर्ड्स की जांच करने पर पाया गया कि उस दिन एंड्रिया सुबह करीब 9 बजे ट्यूटर के अपार्टमैंट में आई थी. मगर उस के वापस जाने का कहीं कोई रिकौर्ड नहीं था. हां, उसी दिन दोपहर करीब 1 बजे ट्यूटर और उस का एक साथी एक बड़ा सा ब्रीफकेस घसीटते हुए बाहर ले जा रहे थे. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया और पूछताछ के दबाव में उन्होंने जल्दी ही अपना जुर्म कुबूल कर लिया.

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घटना वाले दिन जब एंड्रिया वहां नोट्स लेने पहुंची तो ट्यूटर के यहां उस का एक साथी भी मौजूद था. दोनों ने बारीबारी से एंड्रिया के साथ जोरजबरदस्ती की और अपने मोबाइल में उस का वीडियो भी बना लिया. उन्होंने एंड्रिया को धमकाया कि वह इस बारे में किसी से कुछ न कहे. बस, आगे भी ऐसे ही उन से मिलने आती रहे. अगर वह उन की बात नहीं मानेगी तो वे उस का वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देंगे. उन के लाख समझाने पर भी एंड्रिया चिल्लाचिल्ला कर कहती रही कि वह चुप नहीं बैठेगी और उन दोनों को उन के किए की सजा दिलवा कर चैन लेगी. जब वह नहीं मानी तो उन्होंने गला दबा कर उस की हत्या कर दी और लाश के टुकड़े कर के एक ब्रीफकेस में भर कर यमुना नदी में फेंक आए. मुजरिमों की गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही यीरंग को आस्ट्रेलिया से एक अच्छा जौब औफर मिल गया. वह और अलाना एक नई शुरुआत करने के लिए वहां प्रवास कर गए. उन्हें आस्ट्रेलिया आए हुए अब तक करीब 5 साल हो चुके थे और मासूम एंड्रिया को दुनिया छोड़े हुए करीब 6 साल. मगर उस की मौत से मिले जख्म थे कि सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे. जबजब इन जख्मों में टीस उठती, दिल का दर्द शिद्दत पर पहुंच कर दिन का चैन और रातों की नींद हराम कर के रख देता.

एंड्रिया की सारी भौतिक यादें दिल्ली में ही छोड़ दी गई थीं पर क्या भावनात्मक यादों की परछाइयां पीछे छूट पाई थीं? कोई न कोई बात उत्प्रेरक बन कर यादों के बवंडर ले आती. आज मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल की खबर उत्प्रेरक बनी थी तो कल कुछ और होगा…कुल मिला कर जीवन में अमन नहीं था. दुनिया के लिए एंड्रिया 6 साल पहले मर चुकी थी पर अलाना के लिए आज तक वह उस के दिलदिमाग में रह कर उस की सभी दुनियावी खुशियों को मार रही थी. ‘‘मैडम, एनीथिंग एल्स?’’ बैरे की आवाज पर अलाना चौंकी और यादों के भंवर से बाहर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली. उसे कैफे में बैठेबैठे 2 घंटे से ज्यादा हो चुके थे. शुष्क मौसम की वजह से कौफी का खाली प्याला सूख चुका था. मेनलैंड के लोगों के व्यवहार की शुष्कता ने अलाना के अंदर की इंसानियत को भी सुखा दिया था. इस शुष्कता का प्रभाव इतना ज्यादा था कि आज मनमीत सिंह की हत्या की खबर भी आंखों में नमी नहीं ला पाई. खुद के साथ हुए हादसों ने मानवता के प्रति उस के दृष्टिकोण को संकुचित कर दिया था.

अब आंखें नम होती तो थीं पर केवल व्यक्तिगत दुख से. वह नफरत बांट रही थी नफरत के बदले. क्या वह समस्या का निदान कर रही थी या फिर जानेअनजाने में खुद समस्या का हिस्सा बनती जा रही थी?

अलाना ने एक और कैपीचीनो और्डर की. शायद दिमाग को थोड़ी सी ताजगी की जरूरत थी. वह सड़ीगली यादों से छुटकारा चाहती थी. वो यादें जो कि उस के वर्तमान को कैद किए बैठी थीं भूतकाल की सलाखों के पीछे. कैपीचीनो खत्म करते ही वह तेज कदमों से कैफे से बाहर निकल आई. एक निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी वह. एक ताजा हवा का झोंका उस के चेहरे को छूता हुआ गुजरा तो उस ने आकाश की ओर निहारा, जाने क्यों आकाश आज और दिनों की भांति ज्यादा स्वच्छ लग रहा था. उसे घर पहुंचने की जल्दी न थी, इसलिए उस ने स्वान नदी की तरफ से एक लंबा सा ड्राइव लिया. नदी, वायु, आकाश, पेड़पौधे, पक्षी सभी तो हमेशा से थे यहां. जाने क्यों कभी उस का ही ध्यान नहीं गया था अब तक इन खूबसूरत नजारों की ओर. उस ने सोचा, चलो कोई बात नहीं, जब आंख खुले उसी लमहे से एक नई सुबह मान कर एक नई शुरुआत कर देनी चाहिए.

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शाम को यीरंग के घर वापस आते ही अलाना ने उस को अपना फैसला सुनाया, ‘‘यीरंग, मैं भी कल मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में चलूंगी तुम्हारे साथ. तुम ठीक ही कहते हो ‘टू रौंग्स कांट सेट वन राइट’.’’ ‘‘मुझे तुम से ऐसी ही उम्मीद थी, अलाना. गलती तो हम भी करते हैं. जो थोड़े से फ्रैंड्स मैं ने और तुम ने दिल्ली में बनाए थे, क्या दिल्ली से चले आने के बाद हम ने उन से कोई संबंध रखा? दोस्ती के पौधे के दिल के आंगन में उग आने के बाद, उस की परवरिश के लिए मेलमिलाप के जिस खादपानी की जरूरत होती है क्या वह सब हम ने दिया? नहीं न, तो फिर हम पूरा दोष दूसरे पर मढ़ कर खुद का दामन क्यों बचा लेते हैं.

‘‘जब कोई परिवर्तन लाने का प्रयास करो तो यह अभिलाषा मत रखो कि परिवर्तन तुम्हें अपने जीवनकाल में देखने को मिल जाएगा. हां, अगर सच्चे मन से परिवर्तन लाने की चेष्टा करो तो बदलाव जरूर आएगा और उस का लाभ आने वाली पीढि़यों को अवश्य होगा.’’ ‘‘सही बात है, यीरंग. बहुत से वृक्ष ऐसे होते हैं जिन्हें लगाने वाले उन के फलों का आनंद कभी नहीं ले पाते. मगर फिर भी वे उन्हें लगाते हैं अपनी अगली पीढ़ी के लिए. शायद इसी तरह से कुछ इंसानी रिश्तों के फल भी देर में मिलते हैं. वक्त लगता है इन रिश्तों के अंकुरों को वृक्ष बनने में. एक न एक दिन इन वृक्षों के फल प्रेम की मिठास से जरूर पकते हैं. मगर, पहली बार किसी को तो बीज बोना ही होता है. तुम ने एक बार मुझ से कहा था कि ‘आज भी दुनिया में अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है, इसीलिए यह दुनिया चल भी रही है. जिस दिन यहां बुरे लोगों का प्रतिशत बढ़ेगा, यह दुनिया खत्म हो जाएगी.’ तुम सही थे, यीरंग, तुम बिलकुल सही थे.’’

और दूसरे दिन ‘स्वदेश के परदेसी’ अलाना और यीरंग आस्ट्रेलिया की भूमि पर पूर्णरूप से देसी बन कर अपने देसी भाई मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में शामिल होने के लिए सब से पहले पहुंच गए थे.

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 3

‘यह दिन तो आना ही था. तुम लोगों को समझना चाहिए कि तुम दिल्ली में रह रहे हो और तुम्हें यहां रहने वालों के तौरतरीके अपनाने चाहिए. तुम लोग यहां आते हो और न्यूसेंस क्रियेट करते हो. तुम इंडियन नहीं, बल्कि चायना से आए हुए घुसपैठिए लगते हो,’ पुलिस इंस्पैक्टर ने पान चबाते हुए सामने बैठे यीरंग से कहा. ‘क्या हैं यहां के तौरतरीके?’

‘जब आए थे तो दिल्ली पुलिस की व्यवहार नियमावली पत्रिका ले कर पढ़नीसमझनी चाहिए थी. इस में स्पष्ट किया गया है कि जब तुम्हारे जैसे चिंकी लोग दिल्ली में आएं तो उन्हें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए और तुम्हारी औरतों को भारतीय परिधान पहन कर भारतीय नारियों की तरह रहना चाहिए.’ ‘क्या आप सिखाएंगे हमें व्यवहार करना? हम क्या सर्कस के जानवर हैं और आप वहां के रिंग लीडर जो आप हमें अपने हिसाब से प्रशिक्षित करेंगे. हम भी दिमाग रखते हैं. थोड़ीबहुत समझ तो हमें भी है. वैसे भी, हम यहां अपनी गुमशुदा बहन की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए आए हैं, आप से आचार संहिता सीखने के लिए नहीं.’

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एक घंटे की मगजमारी के बाद आखिरकार रिपोर्ट दर्ज हो ही गई. पुलिस ने अपने स्तर पर पूछताछ और जांच शुरू कर दी थी. मगर प्रक्रिया अत्यंत ही ढीलीढाली थी. जैसेजैसे वक्त बीत रहा था, वैसेवैसे एंड्रिया के जीवित मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ती जा रही थी. उस को गायब हुए अब तक 5 दिन हो चुके थे. और फिर एक दिन सुबहसुबह दिल्ली में अभी सूर्योदय हुआ ही था कि अलाना के मोबाइल पर थाने से फोन आ गया, ‘मैडम, यमुना नदी के एक धोबीघाट पर कल एक सूटकेस में किसी युवती की बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, उस की उम्र 16 से 20 साल के बीच की होनी चाहिए. डीएनए रिपोर्ट आना अभी बाकी है. आप से निवेदन है कि आप शिनाख्त के लिए आ जाएं. हो सकता है कि ये एंड्रिया…’

इस से आगे सबकुछ शून्य हो चुका था. अलाना को इंस्पैक्टर की आवाज किसी गहरे कुएं से आती सी प्रतीत हो रही थी. वह और यीरंग जिस हालत में बैठे थे, उसी में पुलिस थाने पहुंच गए. बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली, लाश का चेहरा तेजाब छिड़क कर बिगाड़ दिया गया था. फिर भी बाएं हाथ पर बना बिच्छू का टैटू उस मृत मानव शरीर को एंड्रिया की लाश होने की पुष्टि साफसाफ कर रहा था.

सबकुछ प्रत्यक्ष था. फिर भी अलाना का दिल इस हृदयविदारक सच को झुठलाने की असफल कोशिश कर रहा था. वह जानती थी कि यह विक्षिप्त देह खूबसूरत एंड्रिया की ही है पर मन को सच स्वीकार नहीं था. डीएनए रिपोर्ट के आने में अभी 24 घंटे बाकी थे. लमहालमहा एकएक सदी सा प्रतीत हो रहा था. आखिर वक्त गुजरा और डीएनए रिपोर्ट भी आई, वह भी एंड्रिया की हत्या की पुष्टि के साथ. जब तक एंड्रिया जीवित थी, अलाना को उस से कुछ खास मोह न था. दोनों बहनों का परस्पर लगाव औसत दर्जे का ही था. अलाना ने यीरंग के साथ नईनई दुनिया बसाई थी. वे दोनों एकांत चाहते थे. परंतु एंड्रिया के साथ आ कर रहने से एकांत मिलना काफी हद तक नामुमकिन हो गया था. उन जैसों से मकान मालिक वैसे ही डेढ़दो गुना किराया वसूल करते थे, ऊपर से एंड्रिया की वजह से उन्हें एक बैडरूम ज्यादा लेना पड़ा था. इसलिए उन के खर्चे बढ़े थे. इस कारण भी अलाना को छोटी बहन महज एक जिम्मेदारी लगती थी.

वह मन ही मन मिन्नतें करती थी कि जल्दी से जल्दी एंड्रिया की पढ़ाई पूरी हो और वह उस की जिम्मेदारी से मुक्त हो कर चैन की सांस ले. अलाना को भान नहीं था कि उसे एंड्रिया की जिम्मेदारी से इतनी जल्दी, इस रूप में मुक्ति मिलेगी. ग्लानिबोध से अलाना को अपनेआप से घृणा होती. वह घंटों एंड्रिया की तसवीर के आगे बैठी रहती, तो कभी वह एंड्रिया के वौयलिन के तारों को छूती उस की कोमल उंगलियों के स्पर्श को महसूस करने की कोशिश करती. वह बाथरूम में जा कर एंड्रिया के तौलिए से अपना चेहरा ढक कर तौलिए की खुशबू में छोटी बहन के एहसास के कतरों को ढूंढ़ने का प्रयास करती.

एंड्रिया जब तक थी तब तक अलाना के लिए कुछ खास नहीं थी, पर मरने के बाद वह उस के अंदर समा कर उस का हिस्सा बन गई. दिनरात छोटी बहन को याद कर के अलाना की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रहती.

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एंड्रिया के मर्डर की गुत्थी का कोई सुराग नहीं मिल रहा था. मिजोरम सरकार केंद्र सरकार पर निरंतर दबाव डाल रही थी. जगहजगह सामूहिक प्रदर्शन और धरने हो रहे थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. अलाना को अब दिल्ली से घृणा हो चुकी थी. वह सबकुछ छोड़ कहीं दूर चली जाना चाहती थी जहां इन रंजीदा यादों का कोई भी अवशेष न हो. उसे कहीं से पता चला कि आस्ट्रेलिया में डेटा साइंटिस्ट्स के पेशे में आगे बढ़ने के अच्छे अवसर हैं. इस तथ्य को केंद्र बना कर वह यीरंग पर आस्ट्रेलिया चलने के लिए दबाव डालने लगी. ‘आस्ट्रेलिया जा कर क्या करेंगे, अलाना, अपना देश, अपना देश होता है,’ यीरंग तर्क करता.

‘किस बात का अपना देश. पहले ही बहुतकुछ खो चुके हैं हम यहां. अब और क्या खोना चाहते हो तुम…सैप्टिक होता तो बौडी पार्ट भी काट देना पड़ता है. जब मेनलैंड के वासी हमें इंडियन नहीं मानते तो हम क्यों दिल जोड़ कर बैठे हैं सब से. कुछ नहीं हैं हम यहां, सिवा स्वदेश के परदेसी होने के.’ ‘लोगों की सोच बदल रही है, अलाना. धीरेधीरे और बदलेगी. अब उत्तर भारत में से प्रोफैशनल लोग मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु में जाने लगे हैं और दक्षिण भारत से दिल्ली, गुड़गांव में आने लगे हैं. 30 साल पहले यह चलन इतना नहीं था. यह मेलजोल समय के साथ और मिलनेजुलने पर ही संभव हो पाया है.

नौर्थईस्ट के लोगों का दिल्ली आना अभी नई शुरुआत है. वक्त के साथ इस संबंध में भी अनुकूलन बढ़ेगा और आपसी ताल्लुकात में सुधार आएंगे. टू रौंग्स कांट सेट वन राइट. अलाना समझने की कोशिश करो,’ यीरंग अलाना को समझाने का भरसक प्रयास करता. ‘भारतीय नागरिकता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. फिर हमें अपने ही देश में बारबार अपना पासपोर्ट क्यों दिखाना पड़ता है. क्यों हम से उम्मीद की जाती है कि हम अपने माथे पर ‘हम भारतीय ही हैं’ की पट्टी लगा कर घूमें. हम से निष्ठापूर्ण आचरण की आशा क्यों की जाती है जब हमारे इतिहास का कहीं किसी पाठ्यक्रम में जिक्र नहीं, हमारे क्षेत्र के विकास से सरकार का कोई लेनादेना नहीं. मेनलैंड में हमें छूत की बीमारी की तरह माना जाता है. कुछ नहीं मिला हमें यहां, मात्र उपेक्षा के. क्या हमारी गोरखा रेजीमैंट के जवानों का कारगिल युद्ध में योगदान किसी दूसरी रेजीमैंट्स से कम था?’ अलाना सचाई के अंगारे उगलती.

आगे पढें- एंड्रिया के मित्र के बयान के आधार पर…

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Serial Story: स्वदेश के परदेसी – भाग 2

एक मकान मालिक अपने 2 बैडरूम के फ्लैट को दिखाते हुए कुछ इस अंदाज में कमैंट्री दे रहा था जैसे कि कोई टूरिस्ट गाइड किसी टूरिस्ट को दिल्ली का लालकिला दिखा रहा हो. वापस लौटते समय उस कमैंट्री की नकल उतारतेउतारते अलाना और एंड्रिया के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ गए थे. एक घर का किराया एजेंट ने सिर्फ 5 हजार रुपए बताया था, मगर जब वे मकान देखने पहुंचे तो मकान मालिक एकाएक 8 हजार रुपए महीने की मांग करने लगा. ‘मगर हमारे कुछ लोकल फ्रैंड्स तो केवल 5 हजार रुपए में ही ऐसा घर ले कर इस इलाके में रह रहे हैं,’ यीरंग ने डील करने की कोशिश करते हुए कहा.

‘जरूर रह रहे होंगे. लोकल्स तो लोकल्स होते हैं, विश्वास के लायक होते हैं. तुम्हारे जैसे चिंकी लोगों को घर में रखने का मतलब है ऐक्सट्रा रिस्क लेना. अभी कल के ही अखबार में खबर पढ़ी थी हम ने. तुम्हारी तरफ की एक औरत ड्रग का धंधा करती हुई पकड़ी गई. ऊपर से पड़ोसियों को तुम्हारे गंदे खाने की दुर्गंध के साथ भी निभाना पड़ेगा. देख लो अगर 8 हजार रुपए किराया मंजूर है तो अभी एडवांस निकालो, वरना अपना रास्ता नापो. खालीपीली मेरा वक्त बरबाद तो करो मत,’ मकान मालिक अपनी मोटी तोंद पर हाथ फिराता, एक जोर की डकार मारता हुआ बोला. यह सीधासीधा नस्लवाद था. लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था. इस मकान की लोकेशन भी सुविधाजनक थी, इसलिए सौदा मंजूर कर लिया गया. दिल्ली में नईनई आई एंड्रिया की अपनी अलग परेशानियां थीं. क्लास में सभी उसे पार्टीगर्ल और पियक्कड़ समझते थे और मना करने पर भी बारबार नाइटक्लब में पार्टी के लिए चलने को कहते. मिजोरम की खूबसूरत फिजाओं को छोड़ कर दिल्ली के प्रदूषित, गरम मौसम में उस का मन वैसे ही उचाट रहता था, ऊपर से ऐसी बातें मानसिक तनाव को और भी ईंधन दे रही थीं.

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उस का दिल करता कि वह रोज आराम से बैठ कर वौयलिन बजाए मगर मेनलैंड का भयंकर कंपीटिशन उसे किताबों में सिर खपाने को मजबूर करता. मिजोरम की नैसर्गिक सुंदर वादियों में बिताए, नदियों की कलकल से संगीतमय, दिन अब दूर की याद बन कर रह गए थे. जरूरतें उसे प्रकृति की गोद के सुरम्य, कोमल एहसास से निकल कर महानगर की कठोरता से जूझने को मजबूर कर रही थीं. ‘क्यों आते हम यहां दिल्ली में, अगर सरकार ने वक्त रहते हमारे इलाके में भी शिक्षा के विकास पर ध्यान दिया होता. क्या जरूरत थी हमें. और आए भी हैं तो क्या हुआ, अपने देश में ही तो हैं. फिर सब को हम से इतना परहेज क्यों है? क्यों सब के सब यहां हमारे एल्कोहलिक और लूज कैरक्टर होने का पूर्वाग्रह पाल कर बैठे हैं?’ एंड्रिया अकसर अलाना से शिकायत करती.

‘एंड्रिया माई स्वीट, यह सिर्फ तुम्हारे साथ ही नहीं हो रहा बल्कि हमजैसे हरेक के साथ यही होता है. हर जगह पक्षपात है. ऐसा लगता है कि हमारे अस्तित्व की किसी के लिए कोई अहमियत ही नहीं है. फिर वह चाहे सरकार हो या मीडिया या मुख्य भूभाग के वासी, सभी खुलेआम नकारते हैं हमारे भारतीय होने को. न्यूजचैनल वाले मुख्यभूभाग के छोटे से छोटे, पिछड़े हुए गांव में पहुंच जाते हैं खबरों के लिए मगर नौर्थईस्ट इंडिया के प्रदेशों में जाने से उन्हें भी बड़ा परहेज है,’ अलाना ने कहा. ‘हम अंगरेजी अच्छे स्तर की बोलते हैं, अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, म्यूजिक में रुचि रखते हैं और रिलैक्स्ड जिंदगी जीना चाहते हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि हमारे चरित्र कमजोर हैं. बस, हम आधुनिकता की सीढि़यों पर मेनलैंड के लोगों से एक मंजिल ज्यादा चढ़ चुके हैं, इसलिए हमारी सोच भी प्रगतिशील है, पिछड़ी हुई नहीं. हम हिंदुस्तानियों को चाहिए कि जब पश्चिम से सूरज उगे तो हम उसे हिंदुस्तानी आसमां का सूरज मान कर प्रणाम करें. इस बात की कोई अहमियत नहीं होनी चाहिए कि हम वह सूरज दिल्ली में देख रहे हैं या मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा में,’ एंड्रिया ने अपना मत व्यक्त किया.

‘ठीक कहती हो एंड्रिया, तुम. पर ये बातें औरों की भी समझ में आएं तब न. एक बार तो हद ही हो गई थी. तुम्हारे दिल्ली आने से पहले की बात है. मैं और यीरंग चांदनी चौक घूमने गए थे. वहां कुछ मवालियों का ग्रुप यीरंग के हेयरस्टाइल का मजाक उड़ाने लगा. वे सब मोमो, मोमो कह कर चिल्लाने लगे. यीरंग ने उन से पूछा, ‘तुम मुझे मोमो क्यों बुला रहे हो, मैं भी तुम्हारे जैसा ही इंडियन हूं?’ तो उन में से एक ने उस के सिर में धौल जमा दी और दूसरा उस की गरदन पकड़ कर बोला, ‘साला, हमारी दिल्ली में आ कर हम से जवाबदारी करता है चाऊमीन कहीं का.’ इस के साथ ही भीड़ में से कुछ और लोगों ने आ कर यीरंग के चारों तरफ घेरा बना लिया और ‘चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू, चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू’ सुर में सुर मिला कर सब गाने लगे.’

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‘और इतना सब होने पर आप ने और जीजू ने कुछ भी विरोध नहीं किया, दीदी, मेरे खयाल से आप को पुलिस में रिपोर्ट लिखवानी चाहिए थी.’ ‘यह क्या कम है कि हमारी जान बच गई. मैं ने सुन रखा है कि पुलिस भी हमारे जैसों की नहीं सुनती और हमारे मामलों को दर्ज किए बिना रफादफा करने की कोशिश करती है. एंड्रिया माई स्वीट, हम तो ‘स्वदेश के परदेसी’ हैं. देश तो है अपना, पर हम हैं सब के लिए पराए. अपने ही देश में अपनी पहचान के मुहताज हैं हम.’

‘क्या करें अब आगे बढ़ना है तो हालात से तो जूझना ही पड़ेगा,’ कुछ रोंआसी सी एंड्रिया अपनी किताबें उठाती हुई कालेज जाने के लिए निकल गई. वह इस टौपिक में फंस कर और दिमाग खराब नहीं करना चाहती थी. अलाना अब तक अपनी डिगरी पूरी कर चुकी थी और किसी अच्छी नौकरी की तलाश करती हुई अपना घर संभाल रही थी.

उस शाम एंड्रिया समय पर घर वापस नहीं आई. पहले तो अलाना ने सोचा कि एंड्रिया अपने किसी मित्र के घर चली गई होगी पर जैसेजैसे रात गहरी होने लगी तो उस की चिंता, घबराहट से डर में बदलने लगी. एंड्रिया के सभी मित्रों को फोन किया जा चुका था. उन से पता चला कि वह आज कालेज आई ही नहीं थी. यह खबर और भी होश उड़ाने वाली थी. सारी रात अपार्टमैंट की खिड़की से बाहर झांकते हुए और यहांवहां फोन करने में बीत गई थी. लेकिन एंड्रिया का कहीं कुछ अतापता नहीं चला. हार कर यीरंग और अलाना ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने का फैसला किया.

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कीमत: सपना पूरा करने की सुधा को क्या कीमत चुकानी पड़ी

Serial Story: कीमत – भाग 1

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा ने बाराबंकी के एक सरकारी स्कूल से इंटर की परीक्षा पास कर ली थी. उसी दिन उस का रिजल्ट आया था. उस के 78% मार्क्स आए थे और वह अपनी क्लास में सब से ज्यादा नंबर पाने वाली लड़की थी. वैसे भी यूपी बोर्ड में इतने नंबर लाना अपनेआप में किसी सम्मान से कम नहीं था. उस के नंबर सुन कर महल्ले भर में उस की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे, लेकिन सुधा के मन में अपनी इस कामयाबी को ले कर जरा भी खुशी नहीं थी. होती भी कैसे, घर वालों ने रिजल्ट आने से पहले ही अपना फैसला उसे सुना दिया था कि उसे आगे की पढ़ाई बंद करनी होगी.

उस ने बाराबंकी के ब्लौक अस्पताल में पिता को मिले 2 कमरों के उस सरकारी मकान में पहली बार घर वालों के फैसले के खिलाफ बगावती तेवर अपनाए थे. उस ने कैसे अपने पिता और बड़े भैया से पहली बार ऊंचे स्वर में बात करते हुए कह दिया था कि वह अपनी आगे की पढ़ाई हर हाल में जारी रखेगी.

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सब उस के आगे पढ़ने के फैसले के खिलाफ थे. वे किसी तरह शायद उस की आगे प्राइवेट पढ़ाई करने के लिए राजी भी हो जाते, लेकिन उस ने दिल्ली जा कर पढ़ाई करने की बात कह कर घर में धमाका कर दिया. अकेली लड़की को दूसरे शहर भेजने की हिम्मत और उस के लिए पैसों का इंतजाम करने की हैसियत दोनों ही उन में नहीं थी. उस ने घर वालों से कह दिया कि उसे उन से किसी तरह के रुपयों की जरूरत नहीं, वह दिल्ली में अपना खर्च खुद निकाल लेगी.

उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी, जेएनयू, लेडी श्रीराम, करोड़ीमल और दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स के अलावा ज्यादा कालेजों के नाम भी पता नहीं थे, लेकिन खुद पर भरोसा था कि इन में से किसी न किसी में तो उस का ऐडमिशन हो ही जाएगा. 10 दिन तक घर वालों से चले झगड़े के बाद 11 जुलाई को वह घर से दिल्ली के लिए चली थी.

उसे याद है मां ने घर से जाते हुए उसे 1,200 रुपए हाथ में देते हुए कहा था कि उन के पास जो कुछ है वह यही है. वैशाली ऐक्सप्रैस की जनरल बोगी में उसे घुसने की भी जगह नहीं मिली तो हाथ में सूटकेस और कंधे पर एक बैग टांगे वह स्लीपर क्लास में जा घुसी.

सुधा का सफर शुरू हो चुका था, ट्रेन का यह सफर उसे बेहद सुखद लग रहा था. हालांकि मन में एक डर भी था कि अगर उस का ऐडमिशन कहीं नहीं हुआ तो वह किस मुंह से घर लौटेगी.

वैशाली ऐक्सप्रैस नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 9 पर खड़ी थी. लोगों को ट्रेन से उतरने की जल्दी थी, पर उसे कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन फिर भी दरवाजे के पास होने की वजह से वह जल्दी ट्रेन से उतर गई. प्लेटफार्म पर कुलियों और यात्रियों की भीड़ थोड़ी देर बाद छंट गई, लेकिन सुधा अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी. उस के हाथ में एक पता लिखा कागज का टुकड़ा था, जिस में बी-502, सैकंड फ्लोर, मुखर्जी नगर, नियर बत्रा सिनेमा, दिल्ली लिखा था.

यह पता था मनोज भैया का. मनोज भैया उसी के महल्ले में रहते थे और उस की सहेली मोहिनी के भैया थे. बचपन से उस के घर आतेजाते रहने की वजह से वह उन्हें मनोज भैया ही कहती थी. उस के पास मां के दिए 1,200 रुपए थे. 190 रुपए टिकट में खर्च हो गए. 5 रुपए की उस ने चाय पी ली थी यानी अब उस के पास सिर्फ 1,005 रुपए थे. उस ने स्टेशन से बाहर निकलने की सोची. किसी से पूछा कि मुखर्जी नगर कहां पड़ेगा तो उस ने कहा अजमेरी गेट साइड से बाहर निकल कर विश्वविद्यालय जाने वाली मैट्रो ले लेना. उसे पहली बार दिल्ली के बड़ा शहर होने का एहसास हुआ.

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उस के बाराबंकी में तो स्टेशन के अंदर और बाहर जाने का रास्ता एक ही तरफ है, लेकिन यहां तो 2 पूरे अलगअलग इलाके दिल्ली स्टेशन से जुड़े हुए हैं. सुधा ने किसी तरह अपनेआप को मैट्रो से जाने के लिए तैयार किया. सुबह के 8 बज चुके थे, उस ने मैट्रो में जाने के लिए टोकन ले लिया.

उस ने जल्दी ही समझ लिया कि उस मशीन को इस नीले टोकनसे छू भर देना है. गेट जैसे ही खुले भाग कर उस तरफ हो जाना है, नहीं तो मुश्किल हो सकती है. उस ने टोकन छुआया, मशीन का गेट खुलते ही वह इस पार से उस पार चली गई. अब उसे पता चला कि अंडरग्राउंड जाना है. नीचे से मैट्रो पकड़नी है, नीचे पहुंची तो वहां पहले से ही कई सौ लोग दोनों तरफ खड़े थे. बाराबंकी में तो ऐसे लाइन में लग कर कोई ट्रेन में नहीं चढ़ता, उसे यह तरीका अच्छा लगा. थोड़ी ही देर में मैट्रो आ गई और वह विश्वविद्यालय की तरफ चल पड़ी.

विश्वविद्यालय स्टेशन पर उतरने के बाद पहली बार उस का सामना ऐस्केलेटर से हुआ, लेकिन उस ने इस पर चढ़ने के बजाय सीढि़यों से ही चढ़ना उचित समझा. उस ने वहां से मुखर्जी नगर के लिए रिकशा ले लिया. 18 साल की सुधा अपने सपनों को सच करने दिल्ली पहुंच चुकी थी.

सुधा बी-502, सैकंड फ्लोर का पता पूछ रही थी, लेकिन 10 मिनट भटकने के बाद भी उसे घर नहीं मिला. तभी किसी ने उस पर तरस खा कर बता दिया कि गली के पीछे की तरफ बी ब्लौक है. सुधा वहां पहुंची तो थक कर चूर हो चुकी थी. सफर की थकान चेहरे पर हावी थी. रिकशे वाले को पैसे दे कर सुधा सूटकेस और बैग ले कर दरवाजे पर पहुंची. मेन गेट की घंटी बजाई, लेकिन अंदर से कोई निकला नहीं, सुधा थोड़ी देर खड़ी रही फिर अंदर चली गई.

बाहर से ही सीढि़यां थीं, सुधा ऊपर चढ़ गई. सैकंड फ्लोर पर 3 दरवाजे थे, उसे नहीं पता था कि मनोज भैया किस में रहते हैं. उस ने एक दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोई आवाज नहीं हुई. काफी देर बाद उस ने दूसरा दरवाजा खटखटाया, 3-4 मिनट बाद अंदर से कुछ आहट हुई, उसे कुछ उम्मीद बंधी. दरवाजा खुला. सामने मनोज भैया बनियान और बरमूडा पहने खड़े थे. उसे देख कर वे भी चौंक गए, ‘अरे सुधा’, मनोज भैया के मुंह से इतना ही निकला, फिर उन्हें लगा कि सुधा ने शायद उन्हें पहले कभी इस तरह नहीं देखा होगा इसलिए वे भी थोड़ा शरमा गए.

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Serial Story: कीमत – भाग 2

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा को अंदर आने के लिए कह कर वे अंदर चले गए. उन्होंने टीशर्ट पहन ली थी. सुधा से बाराबंकी का हालचाल पूछा और फिर उस के यहां आने का कारण भी. सुधा ने उन्हें बताया कि उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में ऐडमिशन लेना है.

मनोज भैया ने हौसला बढ़ाने के बजाय उसे बता दिया कि दिल्ली में ऐडमिशन आसान नहीं होगा. यहां मैरिटलिस्ट बहुत हाई जाती है. उसे इन नंबरों पर ऐडमिशन मिला भी तो किसी सांध्य कालेज में मिलेगा. सुधा इस के लिए भी तैयार थी. उस के सिर पर तो ऐडमिशन की धुन सवार थी. मनोज भैया ने उस से फ्रैश होने के लिए कहा और खुद चाय लेने चले गए. उस ने देखा कमरे में रसोई नहीं थी.

बाथरूम भी बाहर बालकनी में था, वह नहीं चाहती थी कि मनोज भैया के सामने उसे बाथरूम जाना पड़े. बाराबंकी वाली शर्म, संकोच का दामन उस से छूटा नहीं था. मनोज भैया के लौटने से पहले ही वह तैयार हो चुकी थी. मनोज भैया के साथ उस ने चाय पी और मुद्दे पर आ गई. वह ऐडमिशन की सारी प्रक्रिया के बारे में फौरन जानना चाहती थी. मनोज भैया ने उसे बताया कि एकएक कालेज का फार्म ही 1,000-1,200 रुपए का होता है.

सुधा समझ गई कि आगे का रास्ता अब बेहद मुश्किल है. इस के बाद उस ने मनोज भैया को अपनी असली स्थिति बताई. वे सुधा को कोई आश्वासन नहीं दे सके. हां, उन्होंने सुधा को फौरन जाने को भी नहीं कहा. मनोज भैया से इस बारे में वह कोई बात भी नहीं कर सकी, उस ने कुछ कहा नहीं और उन्होंने कुछ पूछा नहीं.

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मनोज भैया ने टिफिन वाले को फोन कर दिया. दोपहर में करीब साढ़े 12 बजे टिफिन वाला 2 टिफिन दे गया. उस ने किसी तरह अपना पूरा टिफिन खाली कर दिया. मनोज भैया पढ़ रहे थे. उन्होंने वही टिफिन 3 बजे खाया. सुधा ने सोचा कि जिस टिफिन का बेकार खाना वह ताजाताजा नहीं खा पाई उस टिफिन को मनोज भैया बिना कुछ कहे कैसे इतनी देर बाद खा रहे हैं.

सुधा शाम को उन के साथ नीचे गई. बत्रा सिनेमा के सामने कटिंग चाय पीने का ये उस का पहला अनुभव था. वहां पर मौजूद सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे अनुभवी लड़कों की नजर ने पहली बार में ही ताड़ लिया कि इलाके में कोई नई लड़की आई है, लेकिन मनोज भैया की मौजूदगी में वे दूर ही रहे.

सुधा ने भी देख लिया कि उस के गोरे रंग और तीखे नैननक्श पर लड़के लट्टू थे. उसे लगा जैसे इन लड़कों की नजरें उसे कह रही हों, ‘वेलकम टू दिल्ली.’ हालांकि उन की नजरें सुधा के चेहरे पर कम उस के उभारों पर अधिक केंद्रित थीं. सुधा को इन लड़कों के अंदाज से थोड़ी सिहरन होने लगी. उसे समझ में आ गया कि लड़कों का बस चले तो वे आंखों से देख कर ही उसे प्रैग्नैंट कर दें.

फिलहाल उस ने अपना ध्यान चाय पर ही टिका दिया. मनोज भैया ने ही चाय के पैसे दिए. उन्होंने सुधा से पूछा, ‘‘क्या तुम घर चली जाओगी, मुझे थोड़ा काम है. दोस्त के यहां से कुछ नोट्स लाने हैं.’’ सुधा ने कहा, ‘‘हां, चली जाऊंगी और वह बत्रा से 2 गली छोड़ कर उस मकान में पहुंच गई.’’

उस ने सोचा जब तक मनोज भैया नहीं हैं, तब तक कमरे की कुछ साफसफाई कर दे. कमरे में था ही क्या, एक फोल्डिंग चारपाई, एक पढ़ने की टेबल, एक कुरसी, एक अलमारी, किताबों की 2 छोटी रैक, एक सूटकेस, लेकिन फिर भी कमरे में एक अस्तव्यस्तता थी. सुधा ने सब से पहले पलंग पर पड़ी धूल झाड़ी और फिर चादर और गद्दे झाड़ने लगी.

गद्दा जैसे ही नीचे गिरा, गद्दे के नीचे से कुछ किताबें गिरीं. सुधा ने सोचा कि जब कमरे में 2-2 अलमारियां हैं तो गद्दे के नीचे किताबें क्यों रखी हैं.

सुधा ने उन किताबों को देखा. एक किताब पर लिखा था प्राइवेट लाइफ. सुधा ने अंदर पढ़ना शुरू किया. पहला पेज पढ़ते ही सुधा के बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई. उसे अपने शरीर में कसावट महसूस हुई. उसे किताब पढ़ने में मजा आने लगा. सुधा जल्दीजल्दी किताब पढ़ने लगी. सिर्फ 40 मिनट में उस ने 35 पन्नों की किताब पूरी पढ़ ली. उसे अपनी टांगों के बीच कुछ गरम सा महसूस हुआ. उस ने किताब खत्म कर तुरंत दूसरी किताब पढ़ने के लिए उठा ली. साफसफाई की बात तो वह भूल ही गई. ये घटिया किस्म की किताबें उसे बेहद मनोरंजक लग रही थीं. उस ने दूसरी किताब भी फौरन ही पढ़ ली.

इस के बाद उस ने दोनों किताबें ठीक वैसे ही रख दीं, जैसे पहले रखी हुई थीं. मानो उस ने ये किताबें देखी ही नहीं थीं, इस के बाद उस ने पूरे कमरे की सफाई की. उसे पढ़ाई की टेबल पर किताब में दबे 100-100 के 5 नोट मिले. वह जानती थी कि ये पैसे मनोज भैया के ही होंगे. उस ने किताबों से निकाल कर पैसे मेज पर सामने रख दिए.

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मनोज भैया के पास पैसों की कमी नहीं होगी. यह वह जानती थी. बाराबंकी में भैया के पापा का सब से बड़ा मैडिकल स्टोर था. रोजाना करीब 15-20 हजार रुपए से कम की कमाई नहीं थी. मनोज भैया थे भी इकलौते. शाम के 7 बज चुके थे. सुधा को भूख लग रही थी, लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं था. सुधा ने अपना सूटकेस खोला और अपने कपड़े ठीक करने लगी.

दरवाजे पर दस्तक हुई. सुधा ने दरवाजा खोला. सामने मनोज भैया थे. उन के हाथ में एक थैली थी. उन्होंने सुधा से कहा कि भूख लगी थी इसलिए मोमोज खाने के लिए ले आया. सुधा ने मोमोज नाम पहली बार सुना था. उस ने पूछा ये क्या होता है.

अजीब सा आकार था उन का, लेकिन मनोज भैया को खाता देख उस ने भी एक पीस उठा लिया, मिर्च की चटनी के साथ गरम मोमोज उसे पहली बार में अच्छा नहीं लगा, लेकिन भूख बहुत तेज लगी थी, इसलिए उस ने दूसरा पीस भी उठा लिया. तब तक मनोज भैया की नजर कमरे की सुधरी हुई हालत पर पड़ी तो वे थोड़े परेशान दिखे और बोले, ‘‘तुम ने कमरा साफ क्यों किया सुधा, मैं सुबह काम वाली को बोल देता.’’ ‘‘कोई बात नहीं भैया, मैं खाली ही तो बैठी थी,’’ सुधा बोली.

मनोज भैया ने उस के पास आ कर उसे थैंक्यू कहा. उन के हाथ उस के सिर से पीठ और फिर कमर तक फिसलते चले गए. इतने लंबे थैंक्यू की शायद सुधा को उम्मीद नहीं थी, लेकिन उसे इस का बुरा भी नहीं लगा. उस ने उठते हुए कहा, ‘‘मनोज भैया, आप किताब में 500 रुपए रख कर भूल गए थे. मैं ने रुपए मेज पर रखे हुए हैं.’’

मनोज ने रुपए उठा कर जेब में रख लिए. सुधा ने उस से पूछा कि क्या ऐडमिशन के लिए वे कुछ कर सकते हैं. मनोज भैया ने कहा, ‘‘सुधा, यहां बाराबंकी जैसे नहीं होता. यहां बहुत मुश्किल है ऐडमिशन होना. हां, तुम जब तक चाहो यहां रहो.’’

सुधा का चेहरा बुझ सा गया. उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. तभी मनोज भैया उस के पास आए और उस का चेहरा उठाया. आंसू पोंछते ही वह अचानक मनोज भैया के गले लग गई. वह सुधा के  इस अंदाज से थोड़ा संकोच में पड़ गए, लेकिन उन्होंने सुधा को हटाया नहीं.

आगे पढें- सुधा को अपनी पीठ पर मनोज भैया के…

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Serial Story: कीमत – भाग 3

लेखक- प्रशांत जोशी

सुधा को अपनी पीठ पर मनोज भैया के हाथ की कसावट महसूस होने लगी. मनोज के हाथ उस की पूरी पीठ पर रेंग रहे थे. उसे यह समझ में आ गया कि मनोज भैया का यह स्पर्श कुछ और ही खोज रहा है, लेकिन उसे यह स्पर्श अच्छा लग रहा था. धीरेधीरे मनोज भैया के हाथ उस की पीठ से उस के गालों पर आ गए. उन्होंने सुधा के आंसू पोंछे, सुधा ने कुछ नहीं कहा. मनोज भैया को डर था कि वह न जाने कैसे बरताव करेगी.

सुधा को जैसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. वह मनोज भैया के गले ही लगी हुई थी. करीब 5 मिनट तक दोनों गले लगे रहे. इस दौरान मनोज भैया ने उस की पीठ, सिर और गालों पर जम कर हाथ आजमाए. उन्होंने सुधा से पूछा कि उसे बुरा तो नहीं लगा. उस ने बिना कुछ बोले सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

मनोज भैया ने इस बार सुधा के गालों पर अपने होंठ रख दिए. सुधा उम्र के उस दौर से गुजर रही थी जहां विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण अपने चरम पर होता है.

सुधा मनोज दोनों भी शायद ऐसे ही आकर्षण के वशीभूत थे. कब सुधा अपना सबकुछ मनोज भैया को सौंप बैठी, उसे पता ही नहीं लगा. मनोज भैया काफी देर तक उस के जिस्म से खेलते रहे, उस के हर अंग पर अपना अधिकार जमाते रहे. सुधा को मनोज भैया का ये अंदाज भी अच्छा लग रहा था और अंदर ही अंदर इस बात का डर भी था कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर रही है.

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हालांकि सहीगलत की सोच पर शायद उस वक्त का उन्माद ज्यादा भारी था. न जाने कब मनोज भैया इन 10 मिनटों में मनोज भैया से मनोज बन गए, उसे पता ही नहीं चला. सुधा कब सुधा से सुधी बन गई इस की जानकारी भी उसे नहीं हुई.

10 मिनट बाद जब तपती धरती कुछ बूंदों से सिंचित हो गई तो दोनों को होश आया. सुधा को समझ में नहीं आया कि कहां जा कर गड़ जाए. मनोज अब क्षणिक आवेग से बाहर निकल चुका था, लेकिन पिछले 10 मिनट में ये कमरा बदल चुका था. रात हो रही थी. मनोज और सुधा ने एकदूसरे से कोई बात नहीं की, शायद आत्मग्लानि कम, संकोच ज्यादा था.

मनोज ने टिफिन वाले को फोन कर दिया था. काफी समय पहले ही टिफिन आ चुका था. दोनों को भूख लगी थी. मनोज ने ही सुधा से कहा, ‘‘सुधा, खाना खा लो,’’ सुधा ने उन का टिफिन भी पकड़ा दिया. दोनों ने खाना खाया, लेकिन कोई बात नहीं हुई. सुधा को अब इस बात की चिंता सताने लगी कि रात हो चुकी है, वे सोएंगे कहां? एक बार जो गलती हो चुकी है सुधा उसे दोहराना नहीं चाहती थी. मनोज सुधा के मन की बात समझ गया. उस ने सुधा से कहा, ‘‘तुम पलंग पर सो जाना, मैं नीचे सो जाऊंगा.’’

सुधा रातभर की थकी हुई थी. उस ने मनोज से कहा, ‘‘वह नीचे सो जाएगी,’’ लेकिन मनोज ने अपना बिस्तर नीचे बिछा लिया. बिस्तर क्या था, दरी और उस के ऊपर चादर. गद्दा उस ने पलंग पर सुधा के लिए छोड़ दिया. सुधा पलंग पर लेटते ही नींद के आगोश में चली गई, लेकिन मनोज की आंखों से नींद कोसों दूर थी. शाम को जो कुछ हुआ उसे बारबार वही याद आ रहा था.

सुधा के जिस्म की खुशबू अब भी मनोज के दिलोदिमाग पर छाई हुई थी. उस ने सुधा की तरफ एक नजर देखा. सुधा गहरी नींद में सो रही थी. उस का कोरा सौंदर्य जैसे निमंत्रण दे रहा हो. मनोज काफी देर तक सुधा को देखता ही रहा, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कि सुधा के पास जाए. हालांकि शाम को सुधा ने जब कुछ नहीं कहा तो मनोज को जरूर हौसला मिला था.

मनोज से रहा नहीं गया. वह ऊपर जा कर उसी फोल्डिंग पर लेट गया, जिस पर सुधा सो रही थी. सुधा बेफिक्र नींद सो रही थी. मनोज की नजरें सुधा के जिस्म पर फिसलती जा रही थीं. मनोज ने धीरे से सुधा के ऊपर अपना हाथ रखा. मनोज का हाथ कब सुधा के शरीर के अंगों की पैमाइश करने लगा पता ही नहीं चला.

अचानक सुधा को दम घुटता सा महसूस हुआ. वह हड़बड़ा कर जागी तो देखा मनोज उस पर झुका हुआ था और उस की सांसों की गरमाहट सुधा की सांसों में मिल रही थी. सुधा ने उसे हटाने की कोशिश की, लेकिन मनोज ने उस की एक न सुनी. मनोज उस के शरीर से खेल रहा था और यह भी कहता जा रहा था कि उस के यहां रहने का पूरा खर्च वह उठाएगा. उस का ऐडमिशन भी यहां हो जाएगा.

सुधा को लगा जैसे मनोज उस की मजबूरी का फायदा उठा रहा है, लेकिन वह उसे ऐसा क्यों करने दे रही है, उसे खुद भी मालूम न था. अब तक जो सुधा उसे रोक रही थी, वह भी मनोज का साथ देने लगी. रात में 1 बार, 2 बार नहीं बल्कि 3 बार दोनों एक हो गए. उस के बाद कब उसी तरह पलंग पर एक हो कर सो गए, उन्हें पता ही नहीं चला.

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सुबह सुधा की नींद पहले खुली. सुधा को समझ नहीं आया कि अपनी इस हालत पर रोए या खुश हो. उस के दिल्ली में रहने और ऐडमिशन का सपना पूरा होता दिख रहा था, लेकिन इस की कीमत क्या थी, सुधा का शरीर. तब तक मनोज भी उठ गया. सुधा ने मनोज की तरफ देखा भी नहीं, लेकिन मनोज सुधा के पास आया और बोला, ‘‘परेशान मत हो, यह बात हम दोनों के अलावा किसी को पता नहीं चलेगी. बाराबंकी में कोई इस बारे में नहीं जानेगा.’’ इस के बाद मनोज ने एक बार फिर सुधा को अपने पास खींच लिया. सुधा की आंखों में आंसू थे.

सुधा दिल्ली यूनिवर्सिटी में अपने ऐडमिशन के लिए क्या कीमत चुका रही थी. मनोज उसे अपनी बांहों में जकड़ता जा रहा था. मनोज की बांहों की कसावट उस के जिस्म पर बढ़ती जा रही थी. सुधा के आंसू उस की छाती को भिगो रहे थे, लेकिन मनोज इन सब से बेपरवा खेल रहा था.

सुधा की मां दिल्ली आई हुई थीं, इसलिए वह बी-502 से 2 गली छोड़ कर इस गर्ल्स होस्टल में कुछ दिन रहने के लिए आई थी क्योंकि मनोज में इतनी हिम्मत नहीं थी कि जिस सुधी से पिछले 2 साल से वे जिस्मानी तौर पर जुड़ा हुआ था, उस के बारे में अपने घर वालों को बता सके. अब सुधा को भी इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था. वह अपने घर वालों से भी कईकई महीने बाद बात करती थी.

सुधा ने अपने जेबखर्च के लिए 2 ट्यूशन लेने शुरू कर दिए थे. बाकी खर्च मनोज उठाता था. मनोज उस के दिल्ली आने के पहले ही दिन मनोज भैया से मनोज बन गया था. हां, उस ने पढ़ाई से अपना ध्यान नहीं हटाया. उसे जानकी देवी कालेज में ऐडमिशन मिल गया था. ग्रैजुएशन के 2 साल पूरे हो चुके थे. अब तीसरा साल चल रहा था.

सुधा को उम्मीद थी कि उसे ग्रैजुएशन के बाद कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी, नहीं तो वह किसी कौल सैंटर में नौकरी कर अपना खर्च उठा लेगी और आगे की पढ़ाई कर लेगी. तब शायद उसे मनोज के रुपयों की जरूरत न पड़े क्योंकि मनोज को अपना पाना उस के लिए 2 साल से चले आ रहे रिश्ते के बावजूद भारी था. वह मनोज की शारीरिक भूख मिटाती थी और मनोज उस की पढ़ाई की जरूरत को. उस ने पढ़ाई के लिए जो कीमत चुकाई वह बहुत ज्यादा थी या नहीं, यह वह आज तक नहीं समझ पाई. अगर वह ढील न देती तो क्या 2 साल बिता पाती इस अनजान सवा करोड़ लोगों के शहर में?

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