Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 3

‘‘मैं अभी तकलीफ में हूं… बातें करने में असमर्थ हूं. तुम चाहो तो बाद में फोन करूंगा.’’

‘‘सुनो, जरा अपना क्रैडिट कार्ड की लिमिट बढ़वा दो मु झे एक बड़ी स्क्रीन वाला टीवी लेना है और तुम्हारे कार्ड की लिमिट पूरी हो गई है. अब मुंबई जैसे शहर के खर्चे हजार होते हैं तुम क्या सम झोगे? मैं अपनी दोस्त के साथ दुकान गई थी और कार्ड डिक्लाइन हो गया. मु झे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई. तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है…’’

नयना बोल रही थी और जतिन का दिल छलनी हो रहा था कि उस ने एक बार भी मेरी खैरियत नहीं पूछी. सिर्फ और सिर्फ पैसों का ही नाता रह गया है क्या? चूंकि सारी बातें प्रेरणा के समक्ष ही हो रही थीं, सो उस का भी मन पसीज गया. शाम होतेहोते जतिन के मातापिता ही रायपुर से रांची होते हुए पिपरवार पहुंच गए. उन के आ जाने के बाद प्रेरणा भी थोड़ी निश्चिंत हुई और कालोनी के और लोग भी. जतिन की मां को तो पता ही नहीं था कि उन की नवब्याहता बहू उन के बेटे के साथ न रह कर मुंबई रहने लगी है. बेटे की शादी के बाद उन्हें ज्यादा पूछताछ उन की गृहस्थी में सेंध सरीखी लगती थी. जतिन ने भी घरपरिवार में किसी से इस बात की चर्चा तक नहीं की कि नयना अब उस के साथ नहीं रह रही. यह बात उसे एक तरह से खुद की हार सम झ आती थी और वह इस दर्द को दबाए घुल रहा था.

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अब जब मां के सामने सारी बातें स्पष्ट हो गईं तो उस का मन भी कुछ हलका हुआ और वह अपने टूटे पैर और चोटिल दिलदिमाग व शरीर की तरफ उत्प्रेरित हुआ. अपने शुभचिंतक और मददगार भी दिखने लगे. जतिन की मां ने नयना को फोन लगा कर कहा कि वह पिपरवार आ कर उस की देखभाल करे. उन्होंने उसे भलाबुरा भी कहा कि पति की दुर्घटना के विषय में जान कर भी वह नहीं आई.

नयना ने भोलेपन से कहा, ‘‘मम्मीजी, अब मेरे पास इतने पैसे अभी नहीं हैं कि मैं मुंबई से रांची फ्लाइट का किराया भर सकूं. जतिन के कार्ड की लिमिट भी पार हो गई है इस महीने.’’

जतिन के मातापिता सिर पकड़ कर बैठ गए कि कैसी मानसिकता है उस की? खैर, उसे टिकट भेजा गया और एहसान जताती हुए नयना आ भी गई. महीनों बाद अपनी  पत्नी को घर में देख जतिन खिल उठा. उसे शुरुआती दिनों की याद आने लगी जब उस ने और नयना ने गृहस्थी की शुरूआत की थी. परंतु नयना के नखरों का अंत नहीं था, साधारण से परिवार की साधारण सी नौकरी करने वाली लड़की पति के पैसों पर ऐश करती उच्चाकांक्षी हो उन्मुक्त हो चुकी थी. घर में घुसते हुए ही उस की उस जगह से शिकायतों का पुलिंदा अनावृत होने लगा था. जतिन का ड्राइवर, नयना को रिसीव करने गया. उस के जूनियर के समक्ष ही वह कोयला वाली सड़कों, सूने रास्ते और पसरी मनहूसियत का रोना ले कर बैठ गई.

जतिन बिस्तर पर है, लाचार है, इस बात का भी एहसास उसे कुछ समय बाद ही चला. फिर उसे बढ़े हुए कामों से भी परेशानी होने लगी. सासससुर के समक्ष ही वह अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने लगी. उस की आने की खबर सुन, अगले दिन जतिन के सहकर्मी और कालोनी की महिलाएं भी मिलने आ गईं. वैसे भी सब नियमित हालचाल तो जतिन का करते ही थे.

सब ड्राइंगरूम में बैठे ही थे कि नयना कमरे में जतिन को ऊंचे स्वर में कहने लगी, ‘‘यही बात मु झे पसंद नहीं… यहां हर वक्त लोग नाक घुसाए रहते हैं, प्राइवेसी किस चिडि़या का नाम है मानो खबर ही नहीं, बाई द वे, वह लड़की नहीं दिखाई दे रही है, जिस का हाथ पकड़ तुम ने केक काटा था?’’

‘‘नयना, ऐसे न बोलो जब मेरा ऐक्सिडैंट हुआ तो इन्हीं लोगों ने मु झे संभाला था और प्रेरणा का तो तुम्हें शुक्रगुजार होना चाहिए.’’

नयना के आने के 2-3 दिनों के बाद ही जतिन के मातापिता रायपुर लौट गए ताकि बेटेबहू एकांत में अपनी टूटती गृहस्थी की मौली को फिर से लपेट लें.

मां ने एक बार कहा भी, ‘‘जतिन तू क्यों नहीं मुंबई या किसी अन्य महानगर में नौकरी खोज लेता है ताकि बहू भी खुश रह सके?’’

‘‘मां मैं ने एक माइनिंग यानी खनन अभियंता की पढ़ाई की है और मेरी नौकरी हमेशा ऐसी जगहों पर ही होगी. अब खदान तो महानगरों में नहीं न होंगे?’’

जतिन की बात सही ही थी. अगले 3-4 दिनों में ही महानगरीय पंछी के  पंख फड़फड़ाने को व्याकुल होने लगे. उसे मुंबई की चकाचौंध की कमी महसूस होने लगी.  झारखंड के उस अंदरूनी भाग की हरियाली और सघन वन के बीच सुंदर कालोनी शांत वातावरण और खुशमिजाज लोग मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते. बंगला, गाड़ी, ड्राइवर, इज्जत उसे नहीं लुभाते थे. लोगों की परवाह और स्नेह उसे बंधन लगने लगा. वह वहां से निकलने के बहाने खोजने लगी. हां, सभी से वह उस लड़की के विषय में जरूर पूछती जो केक कटवाते वक्त साथ थी. पर किसी ने उसे कुछ भी नहीं बताया, प्रेरणा के विषय में. उलटे लोगों को लगने लगा कि यदि नयना की जगह प्रेरणा से जतिन की शादी हुई होती तो ज्यादा सफल और सुखी होती उस की जिंदगी.

‘‘जतिन मैं ने बुधिया को सबकुछ सम झा दिया है, वह तुम्हारा खयाल रख लेगी. मु झे वापस जाना ही होगा, यहां मेरा दम घुटता है. मैं 2-3 महीनों में फिर आती हूं. तुम तो जानते ही हो मु झे वर्क फ्रौम होम बिलकुल पसंद नहीं,’’ कहते हुए नयना अपना सामान समेटने लगी.

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जतिन बिस्तर पर प्लास्टर वाले पैर लिए उसे देख रहा था, जिसे कटने में अभी 5 हफ्ते शेष थे. भावुक, संवेदनशील जतिन पत्नी के इस अवतार को देख अचंभित हो रहा था. दिल की गहराई में बहुत कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. उस ने जाती हुई नयना को इस बार कुछ नहीं कहा, बल्कि करवट ले उस की तरफ पीठ कर दी ताकि उस के आंसुओं को देख नयना उसे कमजोर न सम झ ले और फिर और ज्यादा इमोशनल अत्याचार न करने लगे.

जतिन ने इस बार उसे दिल से ही नहीं जिंदगी से भी विदा कर दिया. इस एक पहिए की गृहस्थी से उस का भी मन उचाट हो गया. नयना ने सोचा भी नहीं था कि उस के जाते ही राघव उसे तलाक के पेपर भिजवा देगा. कहां वह उस के पैसों पर ऐश करने की सोच रही थी, सीधासाधा सा पढ़ाकू गंवार टाइप का लड़का कुछ ऐसा कर जाएगा जो उस के स्वप्नों पर वज्रपात सरीखा होगा. नयना ने सम झा था कि वह इस तरह जतिन को इमोशनल मूर्ख बना अपनी मनमानी करती रहेगी. ठुकराए जाने के बाद उसे उस छप्पन भोग थाली का महत्त्व याद आ रहा था. मगर जिंदगी बारबार मौके नहीं देती है.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 1

नयना अपने हाथों में लिए उस कागज के टुकडे़ को न जाने कब से निहार रही थी. उसे तो खुश होना चाहिए था पर न जाने क्यों नहीं हो पा रही थी. जब तक कुछ हासिल नहीं होता है तब तक एक जुनून सा हावी रहता है जेहन पर. इस कागज के टुकड़े ने मानो उस का सर्वस्व हर रखा था. पर क्या करे इस शाम को जब हर दिन की वह जद्दोजहद एक  झटके में समाप्त हो गई. अब जो भी हो इस शाम को इस हासिल का जश्न तो बनता ही है.

अगले ही पल गहरे मेकअप तले खुद को, खुद की भावनाओं को छिपाए एक डिस्को में जा पहुंची. यही तो चाहिए था उसे. इसी को तो पाना था उसे, पर फिर ये आंसू क्यों निकल रहे हैं? क्यों नहीं  झूम रही? क्यों नहीं थिरक रही? क्यों यह शोर, ये गाने जिन के लिए वह बेताब थी, आज कर्णफोड़ू और असहनीय महसूस हो रहे हैं?

यही चाहिए था न, फिर पैर थिरकने की जगह जम क्यों गए हैं… उफ…

फिर ये अश्रु, यह मूर्ख बनाती बूंदाबांदी, जब देखो उसे गुमराह करने को टपक पड़ती है. यह वही बूंदाबांदी है जिस ने नयना के जीवन को पेचीदा बना दिया है. कहते हैं ये आंसू मन के अबोले शब्द होते हैं, पर क्षणक्षण बदलते मन के साथ ये भी अपनी प्रकृति बदलते रहते हैं और मानस की उल झनों को जलेबीदार बना बावला साबित कर देते हैं. तेज बजता संगीत, हंसतेचिल्लाते लोग, रंगीन रोशनी और रहस्यमय सा अंधकार का बारबार आनाजाना, बिलकुल उस की मनोस्थिति की तरह.

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काश यह शोर कम होता, काश थोड़ी नीरवता होती.

अजीबोगरीब विक्षिप्त सी सोच होती जा रही है उस क. मन उन्हीं छूटी गलियों की तरफ क्यों भाग रहा है, जिन्हें छोड़ने को अब तक तत्पर थी, आतुर थी.

नयना की शादी एक अभियंता जतिन से हुई थी, जो देश के एक टौप इंजीनियरिंग कालेज से पढ़ा हुआ होनहार कैंडिडेट था उस वक्त अपनी बिरादरी में. नयना ने भी इंजीनियरिंग की ही डिगरी हासिल की थी और किसी आईटी फर्म के लिए काम करती थी. शादी के वक्त सबकुछ बहुत रंगीन था, शादी खूब धूमधड़ाके से हुई थी नयना के शहर मुंबई से. शादी के बाद वह विदा हो कर जतिन के शहर रायपुर गई और फिर दोनों हनीमून मनाने चले गए.

जतिन चूंकि खनन अभियंता था तो लाजिम था कि उस की पोस्टिंग खदान के पास ही होगी. वह  झारखंड के कोयला खदान में कार्यरत था और पिपरवार नामक कोलयरी में उस की पोस्टिंग थी. कोयला खदान के पास ही सर्वसुविधा संपन्न कालोनी थी, जहां अफसरों और श्रमिकों के परिवार कंपनी के क्वार्टरों में रहते थे. जतिन को भी एक बंगला मिला हुआ था, जिस में एक छोटा सा बगीचा भी था और सर्वैंट क्वाटर्स भी. हनीमून से लौट कर जतिन बड़ी खुशी से नयना को ले कर पिपरवार अपने बंगले पर अपनी गृहस्थी शुरू करने गया. अब तक वह गैस्ट हाउस में ही रहता था सो अब पत्नी और घर दोनों की खुशी उसे प्रफुल्लित कर रही थी. जिंदगी के इस नवीकरण से उत्साहित जतिन अपने क्वार्टर को घर में तबदील करने में लग गया. नयना भी उसी उत्साह से इस नूतनता का आनंद लेने लगी.

नवविवाहित जोड़े को हर दिन कोई न कोई कालोनी में अपने घर खाने पर निमंत्रित करता था. शहर से दूर उस छोटी सी कालोनी में सभी बड़ी आत्मीयता से रहते थे. आपस के सौहार्द और जुड़ाव की जड़ें गहरी थीं, किसी सीनियर अफसर की पत्नी ने खुद को नयना की भाभी बता एक रिश्ता बना लिया तो किसी ने बहन, तो किसी ने बेटी. नयना को 1 हफ्ते तक अपनी रसोई शुरू करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. कोई न कोई इस बात का ध्यान रख लेता था.

इस बीच एक बूढ़ी महिला बुधनी को उन्होंने काम पर रख लिया जो बंगले से लगे सर्वैंट क्वार्टरों में रहने लगी. नयना भी वर्क फ्रौम होम करने लगी.

पिपरवार से नजदीकी शहर रांची कोई 80 किलोमीटर दूर था. एक महीने में ही कई बार नयना जिद्द कर वहां के कई चक्कर काट चुकी थी. जबकि जरूरत की सभी दुकानें कालोनी के शौपिंग सैंटर में उपलब्ध थीं. मगर रांची तो रांची ही था, एक सुंदर पहाड़ी नगर मुंबई की चकाचौंध वहां नदारद थी. 2 महीने होतेहोते नयना को ऊब होने लगी, औफिसर क्लब में हफ्ते में एक बार होने वाली पार्टी में उस का मन न लगता. वहां का घरेलू सा माहौल उसे रास न आता. जतिन भी दिनोंदिन व्यस्त होता जा रहा था, खदान की ड्यूटी बहुत मेहनत वाली होती है और जोखिम किसी सैनिक से कम नहीं. थक कर चूर, कोयले की धूल से अटा जब वह लौटता तो नयना का मन वितृष्णा से भर जाता. जतिन उसे बताता खदान में चलने वाले बड़ेबड़े डोजरडंपरों के बारे में कि कैसे वे गहरी खदानों में चलते हैं, कैसे कोयला काटा जाता है. उन भारीभरकम मशीनों के साथ काम करने के जोखिम की भी चर्चा करता या बौस की शाबाशी या डांट इत्यादि का जिक्र करता तो नयना उबासी लेने लगती. उस के अनमनेपन को भांपते हुए जतिन अगली छुट्टी का प्रोग्राम बनाने लगता.

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मगर जो था सो था ही, पैसे आ तो रहे थे जो नयना को बेहद पसंद थे पर सचाई यह

थी कि वह महानगरीय जीवन की कमी महसूस करने लगी थी. उसे आश्चर्य होता कि यहां रहने वाली दूसरी स्त्रियां खुश कैसे रहती हैं. वहां के शांत वातावरण में उसे सुख नहीं रिक्तता महसूस होने लगी. न कोई मौल, न कोई मल्टीप्लैक्स, भला कोई इन सब के बिना रहे कैसे?

वह इतवार था जब उन दोनों ने शादी के 2 महीने पूरा होने की खुशी में केक काटा था और 5-6 कुलीग्स को खाने पर बुलाया था. रात में वह सोशल मीडिया पर अपनी सहेली की तसवीरें देख रही थी, जो उस ने दिल्ली के किसी मौल में घूमते हुए खींची थीं.

अचानक उसे अपना जीवन बरबाद लगने लगा और बहुत खराब मूड के साथ उस ने जतिन को जता भी दिया. जतिन ने हर तरीके से अपने प्यार को जताने की खूब कोशिश की पर नयना पर मानो भूत सवार था.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 2

नयना को उस की मां ने पहले ही चेताया था कि जतिन की पोस्टिंग अंदरूनी जगहों पर ही रहेगी. पर उस वक्त तो नयना को जतिन की मोटी सैलरी ही आकर्षित कर रही थी. अब उसे सबकुछ फीका और अनाकर्षक लगने लगा था. वहां के लोग, वह जगह और खुद जतिन भी. प्यार का खुमार उतर चुका था. उस इतवार देर रात उस ने ऐलान कर ही दिया कि वह हमेशा यहां नहीं रह सकती है.

कुछ ही दिनों के बाद जब उस ने जतिन को सूचना दी कि उस की कंपनी अब वर्क फ्रौम होम के लिए मना कर रही है और उसे अब मुंबई जा कर औफिस जाते हुए काम करना होगा, तो जतिन को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ उस की खुशी जतिन से छिप नहीं रही थी. उस का प्रफुल्लित चेहरा उसे उदास कर रहा था. नयना बारबार कह रही थी कि वह आती रहेगी बीचबीच में. जतिन उसे रांची एअरपोर्ट तक छोड़ने गया. मुंबई में रहने के लिए फ्लैट और बाकी इंतजामों के लिए भी उस ने पैसे भेजे. अब नयना की नौकरी में इतना दम नहीं था कि वह ज्यादा शान और शौकत से रह सके.

अब सोशल मीडिया नयना की मुंबई  के खासखास जगहों पर क्लिक की तसवीरों से पटने लगा. वह जितना खुश दिख रही थी, राघव उतना ही उदास और दुश्चिंता से घिरा जा रहा था. उसे अपनी शादी का अंधकार भविष्य स्पष्ट नजर आने लगा था. बूढ़ी नौकरानी जो पका देती जतिन जैसेतैसे उसे जीवन गुजार रहा था. कालोनी की सभी महिलाएं नयना को कोसतीं कि एक अच्छेभले लड़के का जीवन बिगाड़ दिया उस ने. इंसान कार्यक्षेत्र में भी बढि़या तभी परफौर्म कर सकता है जब वह मानसिक रूप से भी स्थिर हो. जतिन हमेशा दुखीदुखी और उदास सा रहता था, कोयला खदान में उसे अति सतर्कता की जरूरत थी जबकि वह उस के उलट भाव से जी रहा था.

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उस दिन खदान में माइंस इंस्पैक्शन के लिए कोई टीम आई हुई थी. नयना को लौटे 5 महीने हो चुके थे. इस बीच जतिन 2 बार मुंबई जा चुका था, पर पता नहीं क्यों वह नयना के व्यवहार में खुद के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं कर पाया था. अपनी उधेड़बुन में वह हैरानपरेशान सा टीम के सवालों के जवाब दे रहा था. सही होते हुए भी वह कुछ गलत जानकारी देने लगा था. उस के साथ ही कंपनी जौइन करने वाली पर्सनल मैनेजर प्रेरणा उस की बातों को संभालते हुए उस की बातों को बारबार सुधारने का प्रयास कर रही थी. प्रेरणा जतिन की मनोस्थिति भांप रही थी, परंतु आज जतिन कुछ ज्यादा ही परेशान दिख रहा था.

तभी खदान के ऊंचेऊंचे रास्ते पर जतिन का पैर फिसल गया और वह खुदी हुई ढीली कोयले की ढेरी से कई फुट नीचे लुढ़क गया. बौस ने प्रेरणा को इशारा किया कि वह जतिन को संभाले, डाक्टर और ऐंबुलैंस की व्यवस्था करे और वे खुद आधिकारिक टीम को यह बोलते आगे बढ़ गए कि जतिन हमारे सब से काबिल अफसरों में से एक है.

कोयला खदानों में छोटी से छोटी घटनादुर्घटना को भी बेहद संजीदगी से लिया जाता है ताकि बड़ी दुर्घटना न घटे. जतिन की दाहिने पैर की हड्डी टूट गई थी और दोनों हाथों में भी अच्छीखासी चोट लगी थी. चेहरे पर भी काफी खरोंचें लगी थीं. कुल मिला कर वह अब बिस्तर पर आ चुका था.

डिसपैंसरी से छुट्टी होने तक प्रेरणा उस के साथ ही रही. कुछ और मित्रगण भी जुट गए थे. घर पहुंचा तब तक कालोनी की महिलाओं तक उस की दुर्घटना की खबर पहुंच गई थी. यही तो खूबसूरती थी उस छोटी सी जगह की कि सब एकदूसरे दुखसुख में सहयोग करते. नयना को यही बात नागवार गुजरती. वह इसे निजता का हनन सम झती. खैर, प्रेरणा को बातोंबातों में पता लग गया था कि जतिन का उस दिन जन्मदिन था और उस की नवविवाहिता ने उसे 2 दिनों से फोन भी नहीं किया था. हालांकि उस के क्रेडिट कार्ड से अच्छीखासी रकम खर्च होने का मैसेज आ चुका था. बूढ़ी महरी तो घबरा ही गई कि वह किस तरह साहब को संभाले. खैर, अगलबगल वाली पड़ोसिनों ने उस दिन के भोजन का इंतजाम कर दिया. रात में प्रेरणा ने एक केक और कुछ मित्रों को साथ ला कर जतिन की उदासी दूर करने की असफल कोशिश की.

इस बीच जतिन ने तो नहीं पर किसी पड़ोसिन ने केक और

उस गैटटुगैदर की तसवीरें नयना को भेज दीं. आश्चर्यजनक रूप से नयना ने तुरंत उन्हें मैसेज कर पूछा कि वह लड़की कौन है जो जतिन की बगल में बैठी केक कटवाने में मदद कर रही है. पड़ोसिन को यह बात बेहद नागवार गुजरी कि उस का ध्यान जतिन के प्लास्टर लगे पैर या चोटिल पट्टियों से बंधे हिस्सों की तरफ न जा कर इस बात पर गया.

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अनुभवी नजरों ने भांप लिया था कि जतिन की पत्नी नौकरी का बहाना कर मुंबई रहने लगी है और उस के वियोग में जतिन बावला हुए जा रहा है. प्रेरणा जतिन के प्रति एक अतिरिक्त हमदर्दी का भाव रखने लगी थी. जहां कालोनी में सब शादीशुदा थे वहीं प्रेरणा कुंआरी और जतिन जबरदस्ती कुंआरों वाली जिंदगी गुजार रहा था. उस दिन देर रात तक उसे दवा इत्यादि दे कर ही वह अपने घर गई थी, अगले दिन सुबहसुबह नाश्ता और चाय की थर्मस ले हाजिर हो चुकी थी, चूंकि जतिन खुद से दवा लेने में भी असमर्थ था.

प्रेरणा महरी का सहारा ले कर उसे बैठा ही रही थी कि नयना का फोन आ गया, ‘‘कल तो खूब पार्टी मनी है, कौन है वह जो तुम्हारा हाथ पकड़ केक कटवा रही थी? मेरी पीठ पीछे तुम इस तरह गुलछर्रे उड़ाओगे मैं सोच भी नहीं सकती. दिखने में तो बहुत भोले मालूम होते हो…’’

नयना के व्यंग्यात्मक तीर चल रहे थे और जतिन का दिल छलनी हुए जा रहा था. सारी बातें फोन की परिधि को लांघती हुई पूरे कमरे में तरंगित हो रही थीं. प्रेरणा के सामने उस की गृहस्थी की पोल खुल चुकी थी जिसे उस ने बमुश्किल एक  झूठा मुलम्मा चढ़ा कर छिपाया हुआ था.

जतिन हूंहां के सिवा कुछ नहीं बोल पा रहा था और नयना सीनाजोरी की सारी हदें पार करती जा रही थी. कौन कहता है कि नारी बेचारी होती है? कम से कम नयना के उस रूखे व्यवहार से तो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था. न संवेदनशीलता और न ही स्नेहदुलार.

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कड़ी: क्या थी इस कहानी में रिश्तों की कड़ी

Serial Story: कड़ी – भाग 2

निकिता ने विवेक को समझाया कि वह मां से कह दे कि न तो वह उन की मरजी के बगैर शादी करेगा और न अपनी मरजी के बगैर. सो, लड़की देखने जाने का सवाल ही नहीं उठता.

घर जाने के बाद विवेक का फोन आया कि मां बहुत बिगड़ीं कि अगर वह कह कर भी लड़की देखने नहीं गईं तो उन की क्या इज्जत रह जाएगी. तो मैं ने कह दिया कि मेरी इज्जत का क्या होगा जब मैं वादा तोड़ कर शादी करूंगा? पापा ने मेरा साथ दिया कि मां ने तो सिर्फ प्रस्ताव रखा है और मैं वादा कर चुका हूं. सो, मां गुड़गांव वालों को फिलहाल तो लड़के की व्यस्तता का बहाना बना कर टाल दें.

जैसा निकिता का खयाल था, अगली सुबह मां का फोन आया कि वह किसी तरह भी समय निकाल कर उन से मिलने आए. निकिता तो इस इंतजार में थी ही, वह तुरंत मां के घर पहुंच गई. मां ने उसे उत्तेजित स्वर में सब बताया, गुड़गांव वाली डाक्टर लड़की की तारीफ की और कहा, ‘‘महज इसलिए कि अमेरिका के रहनसहन पर विवेक और अपूर्वा के विचार मिलते हैं और वह उसी से शादी करना चाहता है, मैं उस लड़की को अपने घर की बहू नहीं बना सकती.’’

‘‘पापा क्या कहते हैं?’’

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‘‘उन के लिए तो जस्टिस धरणीधर के घर बेटे की बरात ले कर जाना बहुत गर्व और खुशी की बात है,’’ मां ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘तो आप किस खुशी में बापबेटे की खुशी में रुकावट डाल रही हैं, मां?’’

‘‘क्योंकि सब सहेलियों में मजाक तो मेरा ही बनेगा कि सुकन्या को बेटे से बड़ी लड़की ही मिली अपनी बहू बनाने को.’’

‘‘आप ने अपनी सहेलियों को विवेक की उम्र बताई है?’’

‘‘नहीं. उस का तो कभी जिक्र ही नहीं आया.’’

‘‘तो फिर उन्हें कैसे पता चलेगा कि अपूर्वा विवेक से बड़ी है क्योंकि लगती तो छोटी है?’’

‘‘शीलाजी कहती थीं कि लड़का उन के बेटे का पड़ोसी है. सो, शादी तय होने के बाद अकसर ही वह उन के घर आता होगा और लड़की उस के घर जाती होगी. क्या गारंटी है कि लड़की कुंआरी है?’’

‘‘अमेरिका से विक्की जो पिकनिक वगैरा की फोटो भेजा करता था उस में उस के साथ कितनी लड़कियां होती थीं? आप क्या अपने बेटे के कुंआरे होने की गारंटी ले सकती हैं?’’

सुकन्या के चुप रहने से निकिता की हिम्मत बढ़ी.

‘‘गुड़गांव वाली लड़की के बायोडाटा के अनुसार, वह भी किसी विशेष ट्रेनिंग के लिए 2 वषों के लिए अमेरिका गई थी. सो, गारंटी तो उस के बारे में भी नहीं ली जा सकती. अपूर्वा को नापसंद करने के लिए आप को कोई और वजह तलाश करनी होगी, मां.’’

‘‘यही वजह क्या काफी नहीं है कि वह विवेक से बड़ी है और मांबाप का तय किया रिश्ता नकार रही है?’’

तभी निकिता का मोबाइल बजा. निखिल का फोन था पूछने को कि मां निकिता को समझा सकी या नहीं और सब सुनने पर बोला कि यह क्लब की सहेलियों वाली समस्या तो शायद अपूर्वा की मां के साथ भी होगी. सो, बेहतर रहेगा कि दोनों सहेलियों को एकसाथ ही समझाया जाए.

‘‘मगर यह होगा कैसे?’’ निकिता ने पूछा.

‘‘साथ बैठ कर सोचेंगे. फिलहाल तुम मां से ज्यादा मत उलझो और किसी बहाने से घर वापस चली जाओ. मैं विवेक को शाम को वहीं बुला लेता हूं,’’ कह कर निखिल ने फोन रख दिया.

जैसा कि अपेक्षित था, सुकन्या ने पूछा. ‘‘किस का फोन था?’’

‘‘निखिल का पूछने को कि शाम को कुछ लोगों को डिनर पर बुला लें?’’

‘‘तो तू ने क्या कहा?’’

‘‘यही कि जरूर बुलाएं. मैं जाते हुए बाजार से सामान ले जाऊंगी और निखिल के लौटने से पहले सब तैयारी कर दूंगी.’’

‘‘और मैं ने जो तुझे अपनी समस्या सुलझाने व बापबेटे को समझाने को बुलाया है, उस का क्या होगा?’’  सुकन्या ने चिढ़े स्वर में पूछा.

‘‘आप की तो कोई समस्या ही नहीं है, मां. आप सीधी सी बात को उलझा रही हैं और आप के एतराज से जब मैं खुद ही सहमत नहीं हूं तो पापा या विक्की को क्या समझाऊंगी?’’ कह कर निकिता उठ खड़ी हुई. सुकन्या ने भी उसे नहीं रोका.

शाम को निखिल व विवेक इकट्ठे ही घर पहुंचे. ‘‘अपूर्वा को सब बात बता कर पूछता हूं कि क्या उस की मां के साथ भी यह समस्या आएगी,’’ विवेक ने निखिल की बात सुनने के बाद कहा और बरामदे में जा कर अपूर्वा से मोबाइल पर बात करने लगा.

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‘‘आप का कहना सही है, जीजाजी, अपूर्वा कहती है कि घर में सिर्फ मां ही को उस का रिश्ता तोड़ने पर एतराज है वह भी इसलिए कि लोग, खासकर उन की महिला क्लब की सहेलियां, क्या कहेंगी. रिश्ता तो खैर टूट ही रहा है क्योंकि जस्टिस धर ने अपने बेटे को आलोक से बात करने को कह दिया है. लेकिन मेरे साथ रिश्ता जोड़ने में भी उस की मां जरूर अडं़गा लगाएंगी, यह तो पक्का है,’’ विवेक ने कहा.

‘‘आलोक से रिश्ता खत्म हो जाने दो, फिर तुम्हारे से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू करेंगे. मां के कुछ कहने पर यही कहो कि कुछ दिनों तक सिवा अपने काम के, तुम किसी और विषय पर सोचना नहीं चाहते. अपूर्वा को आश्वासन दे दो कि उस की शादी तुम्हीं से होगी,’’ निखिल ने कहा.

‘‘मगर कैसे? 2 जिद्दी औरतों को मनाना आसान नहीं है, निखिल,’’ निकिता ने कहा.

‘‘पापा को तो बीच में डालना नहीं चाहता क्योंकि तब मां उन से और अपूर्वा दोनों से चिढ़ जाएंगी,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला. ‘‘पापा से इजाजत ले कर मैं ही जस्टिस धरणीधर से बात करूंगा.’’

‘‘मगर पापा या जस्टिस धर की ओर से तो कोई समस्या है ही नहीं,’’ विवेक ने कहा.

‘‘मगर जिन्हें समस्या है, उन दोनों को एकसाथ कैसे धाराशायी किया जा सके, यह तो उन से बात कर के ही तय किया जा सकता है. फिक्र मत करो साले साहब, मैं उसी काम की जिम्मेदारी लेता हूं जिसे पूरा कर सकूं,’’ निखिल ने बड़े इत्मीनान से कहा, ‘‘जस्टिस धर के साथ खेलने का मौका तो नहीं मिला लेकिन बिलियर्ड्स रूम में अकसर मुलाकात हो जाती है. सो, दुआसलाम है. उसी का फायदा उठा कर उन से इस विषय में बात करूंगा.’’

कुछ दिनों के बाद क्लब में आयोजित एक बिलियर्ड प्रतियोगिता जीतने पर जस्टिस धर ने उस के खेल की तारीफ की, तो निखिल ने उन्हें अपने साथ कौफी पीने के लिए कहा और उस दौरान उन्हें विवेक व अपूर्वा के बारे में बताया.

जस्टिस धर के यह कहने पर कि उन्हें तो अपूर्वा के लिए ऐसे ही घरवर की तलाश है. सो, वे विवेक और उस के पिता केशव नारायण से मिलना चाहेंगे. निखिल ने कहा कि वे तो स्वयं ही उन से मिलना चाहते हैं, लेकिन समस्या सुकन्या के एतराज की है, महिला क्लब के सदस्यों को ले कर और यह समस्या अपूर्वा की माताजी की भी हो सकती है.

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‘‘अपूर्वा की माताजी के महिला क्लब की सदस्यों ने तो मेरी नाक में दम कर रखा है,’’ जस्टिस धर ने झल्ला कर कहा, ‘‘शीला स्वयं भी नहीं चाहती कि अपूर्वा शादी कर के अमेरिका जाए लेकिन सब सहेलियों को बता चुकी है कि उस का होने वाला दामाद अमेरिका में इंजीनियर है. सो, उन के सामने अपनी बात बदलना नहीं चाहती, इसलिए अपूर्वा को समझा रही है कि फिर अमेरिका जाए और आलोक को बहलाफुसला कर भारत में रहने को मना ले.

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Serial Story: कड़ी – भाग 1

बृहस्पति की शाम को विवेक को औफिस से सीधे अपने घर आया देख कर निकिता चौंक गई.

‘‘खैरियत तो है?’’

‘‘नहीं दीदी,’’ विवेक ने बैठते हुए कहा, ‘‘इसीलिए आप से और निखिल जीजाजी से मदद मांगने आया हूं, मां मुझे लड़की दिखाने ले जा रही है.’’

निखिल ठहाका लगा कर हंस पड़ा और निकिता भी मुसकराई.

‘‘यह तो होना ही है साले साहब. गनीमत करिए, अमेरिका से लौटने के बाद मां ने आप को 3 महीने से अधिक समय दे दिया वरना रिश्तों की लाइन तो आप के आने से पहले ही लगनी शुरू हो गई थी.’’

‘‘लेकिन मैं लड़की पसंद कर चुका हूं जीजाजी और यह फैसला भी कि शादी करूंगा तो उसी से.’’

‘‘तो यह बात मां को बताने में क्या परेशानी है, लड़की अमेरिकन है क्या?’’

‘‘नहीं जीजाजी. आप को शायद याद होगा, दीदी, जब मैं अमेरिका से आया था तो एयरपोर्ट पर मेरे साथ एक लड़की भी बाहर आई थी?’’

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निकिता को याद आया, विवेक के साथ एक लंबी, पतली युवती को आते देख कर उस ने मां से कहा था, ‘विक्की के साथ यह कौन है, मां? पर जो भी हो दोनों की जोड़ी खूब जम रही है.’ मां ने गौर से देख कर कहा था, ‘जोड़ी भले ही जमे मगर बन नहीं सकती. यह जस्टिस धरणीधर की बेटी अपूर्वा है और इस की शादी अमेरिका में तय हो चुकी है, शादी से पहले कुछ समय मांबाप के साथ रहने आई होगी’.

निकिता ने मां की कही बात विवेक को बताई.

‘‘तय जरूर हुई है लेकिन शादी होगी नहीं. मेरी तरह अपूर्वा को भी अमेरिका में रहना पसंद नहीं है और वह हमेशा के लिए भारत लौट आई है,’’ निकिता की बात सुन कर विवेक ने कहा.

‘‘उस ने यह फैसला तुम से मुलाकात के बाद लिया?’’

‘‘मुझ से तो उस की मुलाकात प्लेन में हुई थी, दीदी. बराबर की सीट थी, सो, इतने लंबे सफर में बातचीत तो होनी ही थी. मेरे से यह सुन कर कि मैं हमेशा के लिए वापस जा रहा हूं, उस ने बताया कि उस का इरादा भी वही है. उस के बड़े भाई और भाभी अमेरिका में ही हैं.

‘‘पिछले वर्ष घरपरिवार अपने बेटे के पास बोस्टन गया था. वहां जस्टिस धर को पड़ोस में रहने वाला आलोक अपूर्वा के लिए पसंद आ गया. अपूर्वा के यह कहने पर कि उसे अमेरिका पसंद नहीं है, उस की भाभी ने सलाह दी कि बेहतर रहे कि वीसा की अवधि तक अपूर्वा वहीं रुक कर कोई अल्पकालीन कोर्स कर ले ताकि उसे अमेरिका पसंद आ जाए. सब को यह सलाह पसंद आई. संयोग से आलोक के मातापिता भी उन्हीं दिनों अपने बेटे से मिलने आ गए और सब ने मिल कर आलोक और अपूर्वा की शादी की बात पक्की कर दी और यह तय किया कि शादी आलोक का प्रोजैक्ट पूरा होने के बाद करेंगे.

‘‘अपूर्वा को आलोक या उस के घर वालों से कोई शिकायत नहीं है. बस, अमेरिका की भागदौड़ वाली जिंदगी खासकर ‘यूज ऐंड थ्रो’ वाला रवैया कोशिश के बावजूद भी पसंद नहीं आ रहा. भाईभावज ने कहा कि वह बगैर आलोक से कुछ कहे, पहले घर जाए और फिर कुछ फैसला करे. मांबाप भी उस से कोई जोरजबरदस्ती नहीं कर रहे मगर उन का भी यही कहना है कि वह रिश्ता तोड़ने में अभी जल्दबाजी न करे क्योंकि आलोक के प्रोजैक्ट के पूरे होने में अभी समय है. तब तक हो सकता है अपूर्वा अपना फैसला बदल ले. यह जानते हुए कि उस का फैसला कभी नहीं बदलेगा, अपूर्वा आलोक को सच बता देना चाहती है ताकि वह समय रहते किसी और को पसंद कर सके.’’

‘‘उस के इस फैसले में आप का कितना हाथ है साले साहब?’’

‘‘यह उस का अपना फैसला है, जीजाजी. हालांकि मैं ने उस से शादी करने का फैसला प्लेन में ही कर लिया था मगर उस से कुछ नहीं कहा. टैनिस खेलने के बहाने उस से रोज सुबह मिलता हूं. आज उस के कहने पर कि समझ नहीं आ रहा मम्मीपापा को कैसे समझाऊं कि आलोक को ज्यादा समय तक अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, मैं ने कहा कि अगर मैं उन से उस का हाथ मांग लूं तो क्या बात बन सकती है तो वह तुरंत बोली कि सोच क्या रहे हो, मांगो न. मैं ने कहा कि सोचना मुझे नहीं, उसे है क्योंकि मैं तो हमेशा नौकरी करूंगा और वह भी अपने देश में ही. सो, आलोक जितना पैसा कभी नहीं कमा पाऊंगा. उस का जवाब था कि फिर भी मेरे साथ वह आलोक से ज्यादा खुश और आराम से रहेगी.’’

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‘‘इस से ज्यादा और कहती भी क्या, मगर परेशानी क्या है?’’ निखिल ने पूछा.

‘‘मां की तरफ से तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपूर्वा की मां शीला से उन की जानपहचान है…’’

‘‘वही जानपहचान तो परेशानी की वजह है, दीदी,’’ विवेक ने बात काटी, ‘‘मां कहती हैं कि अपूर्वा की मां ने उन्हें जो बताया है वह सुनने के बाद वे उसे अपनी बहू कभी नहीं बना सकतीं.’’

‘‘शीला धर से मां की मुलाकात सिर्फ महिला क्लब की मीटिंग में होती है और बातचीत तभी जब संयोग से दोनों बराबर में बैठें. मैं नहीं समझती कि इतनी छोटी सी मुलाकात में कोई भी मां अपनी बेटी के बारे में कुछ आपत्तिजनक बात करेगी.’’

‘‘मां उन से मिली जानकारी को आपत्तिजनक बना रही हैं जैसे लड़की की उम्र मुझ से ज्यादा है…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निकिता ने बात काटी, ‘‘लगती तो तुम से छोटी ही है और आजकल इन बातों को कोई नहीं मानता. मैं समझाऊंगी मां को.’’

‘‘यही नहीं और भी बहुतकुछ समझाना होगा, दीदी,’’ विवेक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘फिलहाल तो शनिवार की शाम को गुड़गांव में जो लड़की देखने जाने का कार्यक्रम बना है, उसे रद करवाओ.’’

‘‘मुझे तो मां ने इस बारे में कुछ नहीं बताया.’’

‘‘कुछ देर पहले मुझे फोन किया था कि शनिवारइतवार को कोई प्रोग्राम मत रखना क्योंकि शनिवार को गुड़गांव जाना है लड़की देखने और अगर पसंद आ गई तो इतवार को रोकने की रस्म कर देंगे. मैं ने टालने के लिए कह दिया कि अभी मैं एक जरूरी मीटिंग में हूं, बाद में फोन करूंगा. मां ने कहा कि जल्दी करना क्योंकि मुझे निक्की और निखिल को भी चलने के लिए कहना है.’’

निखिल फिर हंस पड़ा,

‘‘यानी मां ने जबरदस्त नाकेबंदी की योजना बना ली है. पापा भी शामिल हैं इस में?’’

‘‘शायद नहीं, जीजाजी. सुबह मैं और पापा औफिस जाने के लिए इकट्ठे ही निकले थे. तब मां ने कुछ नहीं कहा था.’’

‘‘मां योजना बनाने में स्वयं ही सिद्धहस्त हैं. उन्हें किसी को शामिल करने या बताने की जरूरत नहीं है. उन के फैसले के खिलाफ पापा भी नहीं बोल सकते,’’ निकिता ने कहा.

‘‘तुम्हारा मतलब है साले साहब को गुड़गांव लड़की देखने जाना ही पड़ेगा,’’ निखिल बोला.

‘‘जब उसे वहां शादी करनी ही नहीं है तो जाना गलत है. तुम कई बार शनिवार को भी काम करते हो विवेक, सो, मां से कह दो कि तुम्हें औफिस में काम है और फिर चाहे अपूर्वा के साथ या मेरे घर पर दिन गुजार लो.’’

‘‘औफिस में वाकई काम है, दीदी. लेकिन उस से समस्या हल नहीं होगी. मां लड़की वालों को यहां बुला लेंगी.’’

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‘‘तुम चाहो तो मां को समझाने के लिए विवेक के साथ जा सकती हो, निक्की. मैं बच्चों को खाना खिलाने के बाद सुला भी दूंगा.’’

‘‘तब तो मां और भी चिढ़ जाएंगी कि मैं ने दीदी से उन की शिकायत की है. फिलहाल तो दीदी को मुझे यह समझाना है कि गुड़गांव वाला परिच्छेद खुलने से पहले बंद कैसे करूं. और जब मां मेरी शिकायत दीदी से करें तो वह कैसे बात संभालेंगी,’’ विवेक ने कहा.

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Serial Story: कड़ी – भाग 3

अपूर्वा को यह संभव नहीं लगता क्योंकि उसे और आलोक को अभी तक तो एकदूसरे से कोई ऐसा लगाव है नहीं कि वह ग्रीनकार्ड वापस कर के भारत आ जाए. और अब जब उसे विवेक पसंद आ गया है तो वह कोशिश भी नहीं करेगी. हमें जबरदस्ती ही करनी पड़ेगी दोनों औरतों के साथ.’’

‘‘देखिए धर साहब, अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है खासकर अभिजात्य वर्ग की महिलाओं को अपने सोशल सर्किल में,’’ निखिल ने नम्रता से कहा, ‘‘जबरदस्ती करने से तो वे बुरी तरह बिलबिला जाएंगी और उन के ताल्लुकात अपूर्वा और विवेक के साथ हमेशा के लिए बिगड़ सकते हैं.’’

‘‘अपूर्वा और विवेक से ही नहीं, मेरे और केशव नारायण से भी बिगड़ेंगे लेकिन इन सब फालतू बातों से डर कर हम बच्चों की जिंदगी तो खराब नहीं कर सकते न?’’

‘‘कुछ खराब करने की जरूरत नहीं है, धर साहब. धैर्य और चतुराई से बात बन सकती है,’’ निखिल ने कहा, ‘‘मैं यह प्रतियोगिता जीतने की खुशी के बहाने आप को सपरिवार क्लब में डिनर पर आमंत्रित करूंगा और अपनी ससुराल वालों को भी. फिर देखिए मैं क्या करता हूं.’’

जस्टिस धर ने अविश्वास से उस की ओर देखा. निखिल ने धीरेधीरे उन्हें अपनी योजना बताई. जस्टिस धर ने मुसकरा कर उस का हाथ दबा दिया.

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निखिल का निमंत्रण सुकन्या ने खुशी से स्वीकार कर लिया. क्लब में बैठने की व्यवस्था देख कर उस ने निखिल से पूछा कि कितने लोगों को बुलाया है?

‘‘केवल जस्टिस धरणीधर के परिवार को?’’

‘‘उन्हें ही क्यों?’’ सुकन्या ने चौंक कर पूछा.

‘‘क्योंकि जस्टिस धर ने मैच जीतने की खुशी में मुझ से दावत मांगी थी. सो, बस, उन्हें बुला लिया और लोगों को बगैर मांगे छोटी सी बात के लिए दावत देना अच्छा नहीं लगता न,’’ निखिल ने समझाने के स्वर में कहा.

तभी धर परिवार आ गया. विवेक और अपूर्वा बड़ी बेतकल्लुफी से एकदूसरे से मिले और फिर बराबर की कुरसियों पर बैठ गए, जस्टिस धर ने आश्चर्य व्यक्त किया, ‘‘तुम एकदूसरे को जानते हो?’’

‘‘जी पापा, बहुत अच्छी तरह से,’’ अपूर्वा ने कहा, ‘‘हम दोनों रोज सुबह टैनिस खेलते हैं.’’

‘‘और तकरीबन 24 घंटे बराबर की कुरसियों पर बैठे रहे हैं अमेरिका से लौटते हुए,’’ विवेक ने कहा.

‘‘शीलाजी, आप ने शादी से पहले कुछ समय अपने साथ गुजारने को बेटी को दिल्ली बुला ही लिया?’’ सुकन्या ने पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं खुद ही आई हूं,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘मम्मी तो अभी भी वापस जाने को कह रही हैं लेकिन मैं नहीं जाने वाली. मुझे अमेरिका पसंद ही नहीं है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारी सगाई तो अमेरिका में हो चुकी है,’’ सुकन्या बोली.

‘‘सगाईवगाई कुछ नहीं हुई है,’’ जस्टिस धर बोले, ‘‘बस, हम ने लड़का पसंद किया और उस के मांबाप ने हमारी लड़की. लड़का फिलहाल किसी प्रोजैक्ट पर काम कर रहा है और जब तक प्रोजैक्ट पूरा न हो जाए वह सगाईशादी के चक्कर में पड़ कर ध्यान बंटाना नहीं चाहता. एक तरह से अच्छा ही है क्योंकि उस के प्रोजैक्ट के पूरे होने से पहले ही मेरी बेटी को एहसास हो गया है कि वह कितनी भी कोशिश कर ले उसे अमेरिका पसंद नहीं आ सकता.’’

‘‘विवेक की तरह,’’ केशव नारायण ने कहा, ‘‘इस के मामा ने इसे वहां व्यवस्थित करने में बहुत मदद की थी, नौकरी भी अच्छी मिल गई थी लेकिन जैसे ही यहां अच्छा औफर मिला, यह वापस चला आया.’’

‘‘सुव्यवस्थित होना या अच्छी नौकरी मिलना ही सबकुछ नहीं होता, अंकल,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘जिंदगी में सकून या आत्मतुष्टि भी बहुत जरूरी है जो वहां नहीं मिल सकती.’’

‘‘यह तो बिलकुल विवेक की भाषा बोल रही है,’’ निकिता ने कहा.

‘‘भाषा चाहे मेरे वाली हो, विचार इस के अपने हैं,’’ विवेक बोला.

‘‘यानी तुम दोनों हमखयाल हो?’’ निखिल ने पूछा.

‘‘जी, जीजाजी, हमारे कई शौक और अन्य कई विषयों पर एक से विचार हैं.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ निखिल शीला और सुकन्या की ओर मुड़ा, ‘‘आप इन दोनों की शादी क्यों नहीं कर देतीं.’’

‘‘क्या बच्चों वाली बातें कर रहे हो निखिल?’’ सुकन्या ने चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘ब्याहशादी में बहुतकुछ देखा जाता है. क्यों शीलाजी?’’

‘‘आप ठीक कहती हैं, सिर्फ मिजाज का मिलना ही काफी नहीं होता,’’ शीला ने हां में हां मिलाई.

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‘‘और क्या देखा जाता है?’’ निखिल ने चिढ़े स्वर में पूछा. ‘‘कुल गोत्र, पारिवारिक स्तर, और योग्यता वगैरा, वे तो दोनों के ही खुली किताब की तरह सामने हैं बगैर किसी खामी के…’’

‘‘फिर भी यह रिश्ता नहीं हो सकता,’’ सुकन्या और शीला एकसाथ बोलीं.

‘‘क्योंकि इस पर वरवधू की माताओं के महिला क्लब के सदस्यों की स्वीकृति की मुहर नहीं लगी है,’’ जस्टिस धर ने कहा.

‘‘यह तो आप ने बिलकुल सही फरमाया, जज साहब,’’ केशव नारायण ठहाका लगा कर हंसे, ‘‘वही मुहर तो सुकन्या और शीलाजी की मानप्रतिष्ठा का प्रतीक है.’’ दोनों महिलाओं ने आग्नेय नेत्रों से अपनेअपने पतियों को देखा, इस से पहले कि वे कुछ बोलतीं, निखिल बोल पड़ा, ‘‘उन की मुहर मैं लगवा दूंगा, उन्हें एक बढि़या सी दावत दे कर जिस में विवेक और अपूर्वा सब के पांव छू कर आशीर्वाद के रूप में स्वीकृति प्राप्त कर लेंगे.’’

‘‘आइडिया तो बहुत अच्छा है, निखिल, लेकिन कन्या और वर की माताओं की समस्या का हल नहीं है,’’ जस्टिस धर ने उसांस ले कर कहा, ‘‘असल में शीला ने सब को बताया हुआ है कि उस का होने वाला दामाद अमेरिका में रहता है.’’

‘‘यह बात तो है,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘आप ने सब को लड़के का नाम वगैरा बताया है आंटी?’’

‘‘नहीं, बस इतना ही बताया था कि अमेरिका में अनिल के पड़ोस में रहता है. हमें अच्छा लगा और हम ने अपूर्वा के लिए पसंद कर लिया.’’

‘‘उस के मांबाप के बारे में बताया था?’’

‘‘कुछ नहीं. किसी ने पूछा भी नहीं.’’

‘‘तो फिर तो समस्या हल हो गई, साले साहब भी तो अमेरिका से ही लौटे हैं, इन्हें अनिल का पड़ोसी बना दीजिए न. आप ने तो विवेक का अमेरिका का एड्रैस अपनी सहेलियों को नहीं दिया हुआ न, मां?’’ निखिल ने सुकन्या से पूछा.

‘‘हमारी सहेलियों को यह सब पूछने की फुरसत नहीं है, निखिल. लेकिन वे इतनी बेवकूफ भी नहीं हैं कि तुम्हारी बचकानी बातें सुन कर यह मान लें कि विवेक वही लड़का है जो शीलाजी अमेरिका में पसंद कर के आई थीं,’’ सुकन्या ने झल्ला कर कहा, ‘‘वे मुझ से पूछेंगी नहीं कि मैं ने यह, बात उन सब को क्यों नहीं बताई?’’

‘‘क्योंकि आप नहीं चाहती थीं कि जब तक सगाईशादी की तारीख पक्की न हो, वे सब आप दोनों को समधिन बना कर क्लब के अनौपचारिक माहौल और आप के रिश्तों को खराब करें,’’ निखिल बोला.

‘‘यह बात तो निखिलजी ठीक कह रहे हैं, सुकन्या और पिछली मीटिंग में ही किसी के पूछने पर कि आप ने विवेक के लिए कोई लड़की पसंद की या नहीं. आप ने कहा था कि लड़की तो पसंद है लेकिन जिस से शादी करनी है उसे तो फुरसत मिले. विवेक आजकल बहुत व्यस्त है,’’ शीला ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘तो अगली मीटिंग में कह दीजिएगा कि विवेक को फुरसत मिल गई है और फलां तारीख को उस की सगाई है. अगली मीटिंग से पहले तारीख तय कर लीजिए,’’ निखिल ने कहा.

‘‘वह तो हमें अभी तय कर लेनी चाहिए, क्यों धर साहब?’’ केशव नारायण ने पूछा.

‘‘जी हां, इस से पहले कि कोई और शंका उठे.’’

‘‘तो ठीक है आप लोग तारीख तय करिए, हम लोग पीने के लिए कोई बढि़या चीज ले कर आते हैं,’’ निखिल उठ खड़ा हुआ. ‘‘चलो विवेक, अपूर्वा और निक्की तुम भी आ जाओ.’’

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‘‘कमाल कर दिया जीजाजी आप ने भी,’’ विवेक ने कुछ दूर जाने के बाद कहा. ‘‘समझ नहीं पा रहा आप को जादूगर कहूं या जीनियस?’’

‘‘जीनियसवीनियस कुछ नहीं, साले साहब,’’ निखिल मुसकराया, ‘‘मैं तो महज एक अदना सी कड़ी हूं आप दोनों का रिश्ता जोड़ने वाली.’’

‘‘अदना नहीं, अनमोल कड़ी, जीजाजी,’’ अपूर्वा विह्वल स्वर में बोली.

नया क्षितिज: वसुधा और नागेश के साथ क्या हुआ

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 3

प्रतिपल नागेश एक परछाईं की भांति उस के साथ रहता था. जब भी वह नागेश के विषय में सोचती, उस की अंतरात्मा उसे धिक्कारती, ‘वसु, तू अपने पति से विश्वासघात कर रही है. नहीं, नहीं, मैं उन्हें धोखा नहीं दे रही हूं. मेरे तन और मन पर मेरे पति मृगेंद्र का ही अधिकार है. लेकिन यदि अतीत की स्मृतियां हृदय में फांस बन कर चुभी हुई हैं तो यादों की टीस तो उठेगी ही न.’

स्मृतियों के झीने आवरण से अकसर ही उसे नागेश का चेहरा दिखता था और वह बेचैन हो जाती थी. किंतु जब से मृगेंद्र उस के जीवन से चले गए, वह हर पल, हर सांस मृगेंद्र के लिए ही जीती थी. यह सत्य था कि नागेश की स्मृतियां उसे झकझोर देती थीं लेकिन मृगेंद्र की शांत आंखें उस के आसपास होने का एहसास दिलाती थीं. हर पल उसे कानों में मृगेंद्र की आवाज सुनाई देती थी. उसे लगता, मृगेंद्र पूछ रहे हैं, ‘क्या हुआ, वसु, क्यों इतनी उद्विग्न हो रही हो? मैं तो सदा ही तुम्हारे पास हूं न, तुम्हारे व्यक्तित्व में घुलामिला.’

यह सत्य है कि मृगेंद्र का साया उस के अस्तित्व से लिपटा रहता था. फिर भी, वह क्यों नागेश से मिलना चाहती है. जिस ने, किसी मजबूरी से ही सही, उस से नाता तोड़ा और अब 35 वर्षों बाद उस को अपनी सफाई देना चाहता है. क्या वह पहले नहीं ढूंढ़ सकता था.

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मृगेंद्र के जाने के बाद वह अकसर ही एक गीत गुनगुनाती थी- ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में तनहा हो गए…’ किस के लिए था यह गीत? नागेश के लिए? मृगेंद्र के लिए? दोनों ही तो खो गए थे और हां, वह इस भीड़भरी दुनिया में तनहाई का ही जीवन व्यतीत कर रही थी.

यादों का सैलाब उमड़घुमड़ रहा था. 15 वर्षों के क्षणिक जीवन में भी मृगेंद्र ने उसे इतना प्यार दिया कि वह सराबोर हो उठी थी. लेकिन, कहीं न कहीं आसपास नागेश के होने का एहसास होता था. हालांकि हर बार वह उस एहसास को झटक देती थी यह सोच कर कि यह मृगेंद्र के प्रति विश्वासघात होगा.

मृगेंद्र ने जब अपनी आंखें बंद कीं तब वह निराश हो उठी. उस के मन में एक आक्रोश जागा, यदि नागेश ने धोखा न दिया होता तो वह असमय वैरागिनी न बनी होती और उस की चाहत नागेश के लिए, नफरत में बदल गई. उसे सामने पा कर वह नफरत ज्वालीमुखी बन गई. नहीं, मुझे उस से नहीं मिलना है, किसी भी दशा में नहीं मिलना है. वह निर्मोही पाषाण हृदय, नफरत का ही हकदार है. यदि वह आएगा भी, तो उस से नहीं मिलेगी, मन ही मन में सोच रही थी.

लेकिन फिर, विरोधी विचार मन में पनपने लगे. आखिर एक बार तो मिलना ही होगा, देखें, क्या मजबूरी बताता है और इस प्रकार आशानिराशा के बीच झूलते हुए रात्रि कब बीत गई, पता ही नहीं चला.

खिड़की का परदा थोड़ा खिसका हुआ था. धूप की तीव्र किरण उस के मुख पर आ कर ठहर गई थी. धूप की तीव्रता से वह जाग गई, देखा, दिन के 11 बजे थे. ओहो, कितनी देर हो गई. नित्यक्रिया का समय बीत जाएगा.

जल्दी से नहाधो कर उस ने मृगेंद्र की तसवीर के आगे दीया जला कर, हाथ जोड़ कर उन को प्रणाम करते हुए बोली, मानो उन का आह्वान कर रही हो, ‘‘बताइए, मैं क्या करूं, क्या नागेश से मिलना उचित होगा? मैं हांना के दोराहे पर खड़ी हूं. एक मन आता है कि मिलना चाहिए, तुरंत ही विरोधी विचार मन में पनपने लगते हैं, नहीं, अब और क्या मिलनामिलाना, विगत पर जो चादर पड़ गई है समय की, उस को न हटाना ही ठीक होगा. मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.’’

अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी. और फिर मैं तुम्हें कोई भी कदम उठाने से रोकूंगा नहीं. तुम एक बार नागेश से मिल लो. शायद, तुम्हारी जीवननौका को एक साहिल मिल ही जाए.’ हां, यही ठीक होगा, उस ने मन में सोचा.

दूसरे दिन सायंकाल वह जल्दी से तैयार हुई अपनी मनपसंद रंग की साड़ी, मैंचिंग ब्लाउज पहना, बालों का ढीलाढाला जूड़ा बनाया, अनजाने में ही उस ने नागेश के पसंददीदा रंग के वस्त्र पहन लिए थे. आईने में वह खुद को देख कर चौंक उठी, ‘‘क्यों? यह क्या किया मैं ने, क्यों उसी रंग की साड़ी पहनी जो नागेश को पसंद थी. क्या इस प्रकार वह अपने सुप्त प्यार का इजहार कर बैठी? नहीं, नहीं, यह तो इत्तफाक है, उस ने खुद को आश्वस्त किया.

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जब वह पार्क में पहुंची तो नागेश कहीं नजर नहीं आया. वह चारों ओर देख रही थी लेकिन बेकार. क्या उस ने गलती की है यहां आ कर? क्या वह नागेश को अपनी कमजोरी का एहसास कराना चाहती थी. नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. वह तो नागेश के इसरार करने पर ही यहां आई थी. आखिर उन की बात भी तो सुननी ही चाहिए न.

नागेश को पार्क में न देख कर वह लौट पड़ी. तभी ‘‘वसु,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया. वह ठिठक गई, शरीर में एक सिहरन सी हुई. कैसे सामना करे वह उस का. कल तो झिड़क दिया था और आज मिलने आ पहुंची. भला वह क्या सोचेगा. पर वह अचल खड़ी ही रही.

नागेश सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘मिलने आई हो न? मैं जानता था कि तुम आओगी अवश्य ही,’’ नागेश ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चलो बैंच पर बैठते हैं.’’ और वह निशब्द नागेश के साथ बैंच पर जा कर बैठ गई. मन में तरहतरह के विचार आ रहे थे. कल और आज में कितना अंतर था. कल वह एक चोट खाई नागिन सी बल खा रही थी और आज नागेश के सम्मोहन में बंधी बैठी थी.

दोनों के बीच कुछ पलों का मौन पसरा रहा. फिर, नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘वसु, मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना चाहता, बस, यही चाहता हूं कि तुम्हारे मन में अपने लिए बसी नफरत को यदि किसी प्रकार दूर कर सकूं तो शायद चैन मिल जाए. 35 वर्ष बीत चुके हैं पर चैन नहीं है. तुम्हें तलाशता रहा कि शायद जीवन के किसी मोड़ पर तुम्हारा साथ मिल जाए पर असफलता ही हाथ लगी.’’

अब वसुधा चुप नहीं रह सकी, ‘‘क्यों आप ने विवाह किया होगा, आप के भी बालबच्चे होंगे, तो फिर चैन क्यों नहीं? और उस दिन आप ने यह क्यों कहा था कि मैं अकेला रह गया हूं. आप का परिवार तो होगा ही.’’

नागेश ने कातर दृष्टि से उसे देखा, ‘‘नहीं वसु, विवाह नहीं किया. मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा किसी के लिए कोई भी स्थान नहीं था.’’

‘‘फिर क्यों आप ने धोखा दिया,’’ वसु ने भरे गले से पूछा.

‘‘धोखा, हां, तुम सही कह रही हो. तुम्हारी नजर में ही नहीं, तुम्हारे परिवार की नजरों में भी मैं धोखेबाज ही हूं पर यदि तुम विश्वास कर सको तो मैं तुम्हें बता दूं कि मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया.’’

‘‘धोखा और क्या होता है, नागेश. तुम्हारा पत्र नहीं आया. तुम्हारे पिता ने एकतरफा फैसला सुना दिया बिना किसी कारण के. यदि विवाह करना ही नहीं था तो सगाई का ढोंग क्यों किया?’’ वसुधा ने तड़प कर कहा.

‘‘हां, तुम सही कह रही हो. कुछ तो अपराध मेरा भी था. मुझे ही तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. इस के पूर्व कि मेरे पिता का इनकार में पत्र आता. न जाने क्यों मैं कमजोर पड़ गया और पिता की हां में हां मिला बैठा. दरअसल, उन के पास पैसा नहीं था और उन्हें दहेज की आशा थी जो तुम्हारे घर से पूरी नहीं हो सकती थी.

‘‘उसी समय दिल्ली के एक धनवान परिवार ने जोर लगाया और पिताजी को मनमाना दहेज देने का आश्वासन दिया. पिताजी झुक गए. मैं भी उन की हां में हां मिला बैठा. लेकिन जब विवाह की तिथि निश्चित हुई और ऐसा लगा कि मेरेतुम्हारे बीच में विछोह का गहरा सागर आ गया है, हम कभी भी मिल नहीं सकेंगे, तो मैं तड़प उठा और तत्काल ही विवाह के लिए मना कर दिया. भला जो स्थान तुम्हारा था वह मैं किसी और को कैसे दे सकता था? तभी मुझे फ्रंट पर जाने का पैगाम आया और मैं सीमा पर चला गया.

‘‘मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था कि तुम्हारी शादी हो जाएगी. जब मैं लौटा तब तुम्हारे ही किसी परिचित से पता चला कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. मैं खामोश हो गया. और उसी दिन यह प्रतिज्ञा ली कि अब यह जीवन तुम्हारे ही नाम है. मैं विवाह नहीं करूंगा. समय का इतना लंबा अंतराल बीत चला कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने कभी तुम्हारे वैवाहिक जीवन में दखल न देने की सोच ली थी, इसलिए एकाकी जीवन बिताता रहा.

‘‘समय की आंधी में हम दोनों 2 तिनकों की तरह उड़ चले. मुझे तो तुम्हारे मिलने की कोई भी आशा नहीं थी. कर्नल की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं और यहां एक फ्लैट ले कर रहने आ गया. जीवन का इतना लंबा समय बीत चला कि अब जो कुछ पल बचे हैं उन्हें शांतिपूर्वक बिताना चाहता था कि समय देखो, अचानक तुम से मुलाकात हो गई.’’ नागेश चुप हो गया था.

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वसुधा के नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे, दिल में फंसा हुआ जख्मों का गुबार आंखों की राह बाहर निकलना चाहता था और वह उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही थी.

रात्रि गहरा रही थी. ‘‘चलो वसु, अब घर चलें,’’ नागेश ने उठते हुए कहा. वसुधा चौंक कर उठी. अक्तूबर का महीना था. हलकीहलकी ठंड थी जो सिहरन पैदा कर रही थी. दोनों उठ खड़े हुए और अपनेअपने रास्ते हो लिए. घर आ कर वसुधा ने एक सैंडविच बनाया और एक कप चाय के साथ खा कर बैड पर लेटने का उपक्रम करने लगी. आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं.

क्रमश:

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 4

पिछले अंक में आप ने पढ़ा :

बरसों बाद वसुधा का सामना अपने पूर्व प्रेमी नागेश से होता है. वसुधा नागेश की यादों को दफना चुकी थी और बरसों पहले मृगेंद्र से विवाह कर 2 बच्चों की मां बन चुकी थी.

फिलहाल अब मृगेंद्र की मृत्यु हो चुकी थी और बच्चे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त थे. वसुधा अकेली ही शांत जीवन जी रही थी. नागेश के आने से एक बार फिर उस के अंतर्मन में उथलपुथल मच गई.

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 चारों ओर अथाह जलराशि फैली थी, कहीं किनारा नजर नहीं आ रहा था. वसुधा पानी में घिरी हुई थी. क्या डूब जाएगी? आखिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था. वह पानी में हाथपांव मार रही थी, ‘बचाओ…’ वह चिल्लाना चाह रही थी किंतु उस की आवाज गले में फंसीफंसी सी लग रही थी. शायद, गले में ही घुट कर रह जा रही थी. पर कोई नहीं आया बचाने और अब उस ने अपनेआप को लहरों के भरोसे छोड़ दिया. जिधर लहरें ले जाएंगी उधर ही चली जाएगी. और वह तिनके की तरह बह चली. उस ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं, देखें समय का क्या फैसला होता है.

तभी अचानक उसे ऐसा लगा जैसे एक अदृश्य साया सा सामने खड़ा है और अपना हाथ बढ़ा रहा था. वह उस हाथ को पकड़ने की कोशिश करती है, पर सब बेकार.

ट्रिनट्रिन फोन की घंटी बजी और वह चौंक कर उठ गई. कहां गई वह अथाह जलराशि, वह तो डूब रही थी. फिर क्या हुआ. वह तो बैड पर लेटी है. तो क्या यह स्वप्न था? यह कैसा स्वप्न था? लैंडलाइन का फोन लगातार बज रहा था. उस ने फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’ ‘‘हैलो, मां, मैं बोल रहा हूं कुणाल. आप कैसी हैं?’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम बताओ कैसे हो? तृषा का क्या हाल है? डिलीवरी कब तक होनी है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘वह ठीक है, इस माह की 25 तारीख तक उम्मीद है. पर आप परेशान मत होना. सासूमां प्रसव के समय आ जाएंगी. और हां, मेरा प्रोजैक्ट 2 वर्षों के लिए और बढ़ गया है. ओके, मां, बाय, सी यू.’’

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कुछ क्षणों तक रिसीवर हाथ में लिए वह खड़ी रही. मन में विचार उठ रहा था, ‘बहू का प्रथम प्रसव है, मैं भी तो आ सकती थी, बेटा.’ उस ने कहना चाहा पर वाणी अवरुद्ध हो गई और वह कुछ भी न बोल सकी.

शायद बहुओं को अपनी सास पर उतना भरोसा नहीं रह गया है, तभी तो अभी भी मां का आंचल ही पकड़े रहना चाहती हैं.

मृगेंद्र की मृत्यु के बाद किस प्रकार उस ने अपने तीनों बच्चों की परवरिश की, यह तो वह ही जानती है. विवाह के तत्काल बाद ही कुणाल तृषा को ले कर जरमनी चला गया था. वसुधा की हसरत ही रही कि घर में बहू के पायल की छनछन गूंजे. सुबह की दिनचर्या निबटा कर उस ने कौफी बनाई कि अकस्मात उस को उलझन सी होने लगी.

यह क्या, इस मौसम में पसीना तो आता नहीं. फिर क्या हुआ, उस ने कौफी का एक घूंट भरा, 2 बिस्कुट के साथ कौफी खत्म की. थोड़ा सा आराम मिला, किंतु फिर वही स्थिति हो गई. ऐसा लगा कि उस के सीने में हलकाहलका दर्द हो रहा है. पता नहीं क्या हो गया है, ऐसा तो कभी नहीं हुआ, तब भी नहीं जब मृगेंद्र की मृत्यु हुई थी. तो फिर यह क्या है? क्या हार्ट प्रौब्लम हो रही है, वह थोड़ा सशंकित हो रही थी. क्या डाक्टर को दिखाना होगा? हां, उसे डाक्टर की सलाह तो लेनी ही पड़ेगी. पर अकेले कैसे जाए, हो सकता है कि रास्ते में तबीयत और खराब हो जाए. ऐसे में क्या करे, किसी को बुलाए? क्या नागेश को फोन करे? हां, यही ठीक होगा.

उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.

‘‘मैं बोल रही हूं,’’ उस ने इतना ही कहा कि नागेश बोल उठा, ‘‘वसु, क्या बात है? ठीक तो हो न?’’

‘‘नहीं, कुछ तबीयत खराब लग रही है. डाक्टर को दिखाना पड़ेगा,’’ उस ने थोड़ा झिझक से कहा. ‘‘कोई बात नहीं, मैं अभी आता हूं.’’ और फोन कट गया.

वसुधा ने अपने कपड़े बदले और नागेश की प्रतीक्षा करने लगी. अभी भी उस के सीने में बायीं ओर हलकाहलका दर्द हो रहा था. गाड़ी का हौर्न बजा, नागेश आ गया था.

डाक्टर कोठारी अपने नर्सिंग होम में ही थे. बड़े ही मशहूर हार्ट सर्जन थे. जब नागेश वसुधा को ले कर वहां पहुंचा तो डाक्टर कोठारी ने कहा, ‘‘आइए, कर्नल सिंह, मैं आप की ही प्रतीक्षा कर रहा था.’’ वसुधा ने कृतज्ञता से नागेश की ओर देखा, कितनी चिंता है इन्हें, मन ही मन सोच रही थी.

डाक्टर कोठारी ने वसुधा का चैकअप किया और चैंबर से बाहर आए, ‘‘कर्नल सिंह, 30 प्रतिशत ब्लौकेज है, एंजियोग्राफी करनी होगी. कल आप इन्हें हौस्पिटलाइज कर दीजिए.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर,’’ कह कर नागेश वसुधा को ले कर बाहर आ गया.

‘‘क्या तुम डाक्टर कोठारी को पहले से जानते हो?’’ वसुधा ने जिज्ञासा से पूछा. ‘‘हां, आर्मी में हम लोग साथ में ही थे और रिटायरमैंट के बाद इन्होंने जौब जौइन कर लिया. हम लोगों की अच्छी मित्रता थी,’’ नागेश ने कहा.

घर आ कर वसुधा चिंतित हो रही थी कि वह तो अकेली है, कैसे संभालेगी खुद को, कौन देखभाल करेगा उस की?

‘‘क्या सोच रही हो, वसु, कोई समस्या है? नागेश ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘हां, नागेश, समस्या तो है ही. मैं अकेली हूं, कौन उठाएगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी. कुणाल आ नहीं सकेगा, सोचती हूं बेटियों को ही खबर कर दूं.’’ वसुधा का चिंतित होना स्वाभाविक था.

‘‘तुम चाहो तो मैं फोन कर देता हूं. वैसे तो मैं हूं न. अभी तो तुम मेरी ही जिम्मेदारी हो,’’ नागेश ने आश्वस्त करते हुए कहा.

वसुधा संकोच के बोझ से दबी जा रही थी, तत्काल ही बोल उठी, ‘‘नहीं, नहीं, मैं ही फोन कर लेती हूं. आप का फोन करना उचित नहीं होगा. न जाने वे क्या सोचें.’’

नागेश ने आहत नजरों से उसे देखा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो वही करो. वैसे, मैं सदैव ही तुम्हारे लिए तत्पर रहूंगा. बस, एक फोन कर देना, हिचकना नहीं. मैं वही नागेश हूं.’’ और नागेश चला गया. वसुधा थोड़ी शर्मिंदा हो गई. वह तो मेरा इतना खयाल रख रहा है. और मैं, अभी भी उसे पराएपन का बोध करा रही हूं.

वसुधा ने वान्याको फोन मिलाया. बड़ी देर तक टूंटूं की आवाज आती रही. फिर उस ने बड़े दामाद रोहित को फोन किया. फोन लग गया. ‘‘हैलो’’ आवाज आई.

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‘‘हां बेटा, रोहित, मैं बोल रही हूं, वसुधा. वान्या का फोन नहीं लग रहा है, क्या बात हो सकती है?’’

‘‘मम्मीजी, मैं तो इस समय मीटिंग में हूं. आप वान्या को दोबारा फोन मिला लीजिए.’’ और फोन कट गया.

अब वसुधा ने मान्या को फोन मिलाया ‘‘हां, मां, कैसी हो? पता है मां, मैं और दीदी अपने परिवार के साथ यूरोप जा रहे हैं पूरे एक माह के लिए. छुट्टियां वहीं बिताएंगे. बात दरअसल यह है मां कि रोहित जीजा और मेरे पति मृणाल अपनेअपने व्यवसाय में काम करते हुए थक गए हैं, कुछ दिन आराम करना चाहते हैं. सोचा था एक सप्ताह के लिए आप के पास आएंगे लेकिन थोड़ा चेंज भी तो जरूरी है. हां, आप बताएं कोई खास बात है जो इस समय फोन किया.’’

‘क्यों बेटा, क्या तुम से बात करने के लिए अपौइंटमैंट लेना पड़ेगा.’ उस ने कहना चाहा पर प्रकट में बोली, ‘‘बेटा, मैं बहुत बीमार हूं, हार्ट की प्रौब्लम हो गई है. डाक्टर ने एंजियोग्राफी करने के लिए कल ऐडमिट होने को कहा है. मैं तो अकेली हूं, कैसे मैनेज करूंगी.’’

आगे पढ़ें- एक पल को मान्या चुप रही, फिर बोली,

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