Hindi Stories Online : विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सबसे भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं. “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाज़ी हो रही थी.
मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह. सजी-धजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा! नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं.” वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापा भैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था. मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उसका स्वागत करो.”
तभी उसने देखा कि मां किसी अपराधिनी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी. मां आगे बढ़कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज़ ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था. इधर निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरे-धीरे आगे आकर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी. तभी अचानक मां के दिल में ठहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे ज़ोर की रुलाई आ गई.
देखकर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मां बेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एक दूसरे से कोई शिकवा शिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एक दूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट होकर खड़ी थी.
नए घर में पहुंचकर निशा को बहुत प्यार सम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उसकी छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरे धीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथ-साथ नेहा भी घर परिवार की ज़िम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई.
कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताएं.. क्योंकि अपनी मां को तो उसने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था.
मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.
विवाह को लगभग बीस दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डिब्बा देते हुए बोली,”बेटा, यह बाॅक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना इसमें क्या है. अपने सारे जेवर डिब्बे में रख देना. लॉकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”शाम को जब निशा अपने जेवर डिब्बे में करीने से संभाल रही थी तो उसने वह बाॅक्स भी खोला. वह देखकर अवाक रह गयी. डिब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक संक्षिप्त पत्र भी.
यह पत्र उसकी मां रीता ने लिखा था. “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझसे शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उनकी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरे धीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझसे लिपटना मुझे उम्र भर की खुशी दे गया. मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना. अपनी मां से मिलने कब आ रही हो.”
वह सोच में पड़ गई. उसकी आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इनमें से कुछ गहने उसकी अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उसने मां तो कभी माना ही नहीं.
दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया जब बारह वर्ष की उम्र में उसकी मां की मृत्यु हो गई थी. लाड प्यार से पली इकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का ग़म, दूसरा बारह साल की बिटिया को पालने की ज़िम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है ऐसे में खासकर बिटिया का लालन पालन करना.
कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले.
क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उसके पिता से उम्र में बहुत छोटी थी इसलिए राजेश जी को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.
मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से माता पिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.
राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी ख़ुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी. मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेली अकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंसकर,खिलाकर बात करती तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आकर उसकी मां की जगह ले ली है.
निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं तो निशा आग बबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपने आप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथ साथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उसके साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.
बाईस वर्ष की उम्र पूरी होने पर घरवालों से विचार विमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.
आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उसमें कोई फर्क नहीं किया. विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.
तभी सासु मां ने उसे आवाज देकर दरवाज़े पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देखकर वह बोली,”अरे बेटा, क्या बात है…? मैंने लॉकर वाली बात कहकर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया.. दरअसल घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैंने ऐसा कह दिया.”
“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है.” कहकर वह अटक गई.
आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उसके लालन-पालन में लुटा दिया उससे वह इतनी नफ़रत करती थी कि पश्चात करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है .
खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही. शाम को अजय आकर बोला,”अगले दो-तीन दिन में हम तुम्हारे घर मम्मी पापा से मिलने चल रहे हैं.” दरअसल अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.
अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उसने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उसका विवाह उसकी मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उसकी मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलकर खुद ही अपनी बेटी को पालने की ज़िम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीक-ठाक हो गई परंतु उसके विवाह में देरी होती रही. क्योंकि दादा दादी की मृत्यु हो चुकी थी . ताऊ ताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे .अब रह गए थे रीता और उसके पिता. वह पिता को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.
अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभी-कभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उनके साथ इस शर्त पर हुआ कि उनकी बेटी निशा को अपनी बेटी की मान कर पालेगी. और रीता ने यह ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ वर्ष बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उसने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी जिसने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को लेकर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बर्दाश्त करती…?
यह जानकार निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उसने साहस करके मां को फोन मिलाया. उधर से मां की प्यारी सी आवाज़ आई,” बेटा, रिश्तो को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”
शायद मां इससे आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई. क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उसके इंतज़ार में था.