दूसरा प्यार : क्या शादी के बाद अभिषेक को भूल पाई अहाना

सुबह के 11 बजे थे. दरवाजे की घंटी बजी तो अहाना ने बाहर आ कर देखा. यह क्या. शादी का कार्ड? किस ने भेजा होगा? लिफाफा खोला तो लाल और सुनहरे अक्षरों में ‘अभिषेक वैड्स रौशनी’ देख कर आंखों से खुशी के आंसू छलक आए. नैनों से अकस्मात हुई वर्षा में मनमयूर नाच उठा. जब मन की चंचलता काबू में न रही तो वह अतीत की यादों में खो गई….

अभिषेक उस का सहपाठी था जिस के 2 ही अरमान थे. पहला आईएएस में चयन और दूसरा अहाना का जीवनपर्यंत का साथ. अभिषेक सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा था और अहाना पोस्ट ग्रैजुएशन फाइनल ईयर में थी. दोनों के मन में एक ही सवाल आता कि उन की मुहब्बत अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं? उन का साथ हमेशा के लिए होगा कि नहीं?

वह कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. जब उन के प्यार की बात अहाना के पिता तक पहुंची तो वे बुरी तरह बिफर गए. कड़क कर बोले, ‘‘पढ़ने गए थे तो पढ़ाई करते. प्यार में पड़ने की क्या जरूरत थी?’’

वैसे भी ‘जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई’ जो इस राह पर चले ही न हों उन्हें पैरों में चुभने वाले कांटों का अंदाजा भला कैसे होता. अभिषेक के घर में भी लगभग वही प्रतिक्रियाएं थीं. सचाई तो यह थी कि उन के प्रेम को किसी ने नहीं सम?ा. दोनों का मासूम प्यार परिवार के हित में बलि चढ़ गया.

‘‘तुम्हारे पिता का आत्मसम्मान बहुत ज्यादा है. वे टूट जाएंगे पर ?ाकेंगे नहीं. अगर उन्हें कुछ हो गया तो मैं अकेली कैसे तुम सब की देखभाल करूंगी? मेरी पूरी गृहस्थी चरमरा जाएगी. तुम्हारे बहनभाइयों का क्या होगा?’’

मां ने हर संभव मानसिक दबाव बना डाला था, जबकि अहाना अभिषेक के प्यार में आकंठ डूबी थी. उस का स्थान किसी और को देने की सोच भी नहीं सकती थी. जननी व जनक के आशीर्वाद देने वाले हाथ याचना में जुड़े थे. जो हाथ आज तक देते आए थे वे कुछ मांगने के लिए जोड़े गए थे. पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी और दिमाग सुन्न हुआ जा रहा था. उसे अपनी खुशियां देनी थीं. अपने जीवन का हक अदा करना था. मातापिता से तो जिद भी कर लेती पर बहनभाइयों के प्रति अपराधबोध ले कर कहां जाती. बड़े ही बेमन से उस ने उन की इच्छा के आगे समर्पण कर दिया. उसे पता था कि उस की सांसें चलेंगी पर जीवन न होगा और ऐसा अनर्थ आजीवन होगा.

दूल्हा, बराती, गाजेबाजे जैसे सब तैयार ही बैठे थे. मन धिक्कारता रहा, मन रोता रहा. मगर उस ने खुद को मिटा कर दुलहन का लिबास पहन लिया. चट मंगनी पट ब्याह संपन्न हो गया. दर्द जब हद से बढ़ जाये तो साथ सैलाब लाता है. एक ऐसा सैलाब जो अपने साथ सब बहा ले जाता है और ऐसा ही हुआ जब पति ने पूछा, ‘‘तुम इतनी इंटैलीजैंट और स्मार्ट हो, तुम्हारी शादी तो ‘क्लास वन अफसर’ से हो सकती थी तुम खुद भी कुछ बन सकती थी. ऐसे में मु?ो क्यों चुना? क्या तुम्हारे पेरैंट्स तुम से प्यार नहीं करते?’’

यह सुनते ही अहाना फूटफूट कर रो पड़ी. फिर तो आंसुओं के साथ सारा गुबार बाहर आ गया.

‘‘पसंद तो मैं ने भी आईएएस ही किया था भावी आईएएस पर अपने सम्मान के लिए मेरे अपनों ने मेरे सपनों पर पानी फेर दिया.’’

आकाश उस के पति के लिए यह सुनना और सम?ाना आसान न था. कुछ पलों की खामोशी के बाद अहाना को शांत करते हुए बोला, ‘‘आज से हमारे सुखदुख एक हैं. मैं तुम्हारे जीवन में खुशियां लाऊंगा.’’

अहाना आश्चर्य से उस की ओर देखते हुए पूछ बैठी, ‘‘आप को मेरे प्यार की बात बुरी नहीं लगी? मैं ने तो इस विषय पर आज तक आलोचना ही सही है?’’

‘‘नहीं. प्यार तो दिलों का मेल है जो जानेअनजाने में हो जाता है. लड़कों को भी होता है. लड़कियां दिल से लगा बैठती हैं और लड़के व्यावहारिकता अपनाते हैं. तुम तो मु?ो बस यह बताओ कि मैं तुम्हारी मदद कैसे करूं?’’

‘‘यह तो मु?ो भी नहीं पता पर अपना पक्ष रखने का भी अधिकार नहीं मिला मु?ो. काश कि मैं एक बार उस से मिल पाती. उस से किया वादा न निभाने के लिए क्षमा मांग पाती…’’

पत्नी की सचाई ने मन मोह लिया. जाने कैसे पर एक दर्द का रिश्ता जुड़ गया. उसे समझ में आ गया कि जबरन हुए विवाह से अहाना घुट रही है. वर्तमान को स्वीकार करने में अभिषेक ही मददगार साबित होगा. यह सोच कर आकाश ने अहाना को उस की खोई हुई खुशियों से रूबरू कराने का फैसला किया. उस ने कालेज रिकौर्ड्स से अभिषेक का पता किया.

अभिषेक ने एअरफोर्स जौइन कर लिया था और ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद गया था. यह जानकारी मिलते ही आकाश ने दफ्तर से 1 हफ्ते की छुट्टी ली और अहाना से हनीमून के लिए सामान पैक करने के लिए कहा. आकाश की मंशा से अनजान अहाना ने सामान पैक कर लिया. वहां जा कर जो खुशियां मिलीं उस से तो वह हमेशा के लिए आकाश की हो कर रह गई.

आकाश ने अभिषेक को होटल में मिलने के लिए बुलाया. यह अहाना के लिए बहुत बड़ा सरप्राइज था. अभिषेक को देख कर बहुत खुश हुई. उसे खुश देख कर आकाश को मानसिक शांति मिल रही थी. अभिषेक थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ था पर जल्द ही आकाश के स्वभाव ने उसे भी कंफर्टेबल कर दिया. वह दिन में अपनी ट्रेनिंग खत्म कर रोज शाम को मिलने आता. रात का खाना सब साथ खाते, हंसतेगुनगुनाते और फिर लंबी वाक पर निकल जाते. अभिषेक और आकाश की खूब बातें होतीं और यह देख कर अहाना को लगता जैसे उस की दुनिया फिर से खूबसूरत हो गई है.

इस तरह 5 दिन निकल गए तो छठे दिन आकाश ने अपनी खराब तबीयत का बहाना बना कर दोनों को एकसाथ टहलने भेज दिया. जानता था कि एक बार अकेले में मिल कर ही वे अपना मन हलका कर सकेंगे. अहाना का अपराधबोध से बाहर आना उन के सुखी दांपत्य के लिए जरूरी था.

‘‘तुम्हें तो आईएएस बनना था फिर एअरफोर्स क्यों जौइन कर लिया अभिषेक?’’ अहाना ने पूछा.

‘‘तुम से बिछड़ने के बाद आसमान से इश्क हो गया… देखो. कैसे सुखदुख में एक सी छत्रछाया देता है हमें…’’ अभिषेक ने कहा.

‘‘उफ, फिलौस्फर, मु?ा से नाराज हो? हम दोनों के जीवन का फैसला मैं ने न जाने अकेले क्यों ले लिया…’’ अहाना ने कहा.

‘‘न अहाना. बिलकुल नहीं. मैं जानता हूं, तुम ने हर संभव कोशिश की होगी. गलती हमारी नहीं बल्कि हमारे परिवार वालों की है जिन्होंने हमारी खुशियों पर अपनी खुशियों को तरजीह दी. उन के निर्णय का हमारी जिंदगी पर क्या असर होगा इस की भी परवाह नहीं की.’’

‘‘आखिर हम ने ऐसा क्या मांग लिया था अभि?’’

‘‘उन का अभिमान हमारे स्वाभिमान से बहुत बड़ा है सो उन्होंने अपनी ही बात ऊपर रखी. खैर, जो हो न सका उस का कितना रोना रोया जाए. बेहतरी इसी में है कि जो मिला है उस की कद्र करो. आकाश बहुत अच्छा इंसान है जिस ने तुम्हारा इतना खयाल रखा और हमारे रिश्ते को सम्मान की नजर से देखा. यह जो आज हम मिल रहे हैं यह उसी महान इंसान की बदौलत है… जो मिला है वह भी कम तो नहीं.’’

अहाना और अभिषेक इन खूबसूरत पलों को हमेशा के लिए संजो लेना चाहते थे. तभी एक जरूरतमंद इंसान ‘जोड़ी सलामत रहे’ की दुआ देते हुए पैसे मांगने लगा.

‘‘इस बार पैसे तू देगी अहाना,’’ अभि ने छूटते ही कहा तो अहाना खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘यों ही हंसती रहा कर.’’

‘‘मेरी छोड़ो अपनी बताओ अभिषेक. तुम क्या करोगे अकेले?’’ उस के स्वर में दर्द था, उस की चिंता थी.

‘‘शादी करूंगा और क्या… स्मार्ट आदमी हूं. इतनी बुरी शक्ल तो नहीं है मेरी…’’

‘‘हा… हा… हा…’’ अहाना तो उस के सैंस औफ ह्यूमर की फैन थी.

दोनों के कहकहे देर तक उन वादियों में गूंजते रहे. ऐसा लग रहा था मानो सब पर तरुणाई छा गई हो. ठंडी हवाएं उन्हें छू कर वापस लौट आती मानो पकजमपकड़ाई खेल रही हों. चांद जो उन के अद्भुत प्रेम का सब से बड़ा गवाह था, वह भी उन के मधुर वार्त्तालाप को सुन कर मंदमंद मुसकरा रहा था.

कितनी पवित्रता थी उन की सोच में… वे साथ थे और नहीं भी. ऐसे निश्छल प्रेम पर आकाश भला क्या संदेह करता. वह तो बस इतना चाहता था कि विरही व अतृप्त हृदय तृप्त हो जाएं ताकि अहाना खुशीखुशी अपनी नई जिंदगी जी सके.

अभिषेक ने घड़ी देखी 10 बज गए थे. उस ने अहाना को होटल तक

छोड़ा और उस से विदा लेते हुए एक वादा लिया, ‘‘वादा कर हमेशा खुश रहेगी?’’

‘‘वादा.’’

‘‘मेरी दुनिया भी रौशन हो जाए ऐसी दुआ करना. सुना है अपनों की दुआओं में बड़ी ताकत होती है,’’ जातेजाते अभिषेक ने अहाना से कहा.

‘‘जरूर,’’ अहाना ने हामी भरी.

इस बात के 6 महीने ही बीते और आज शादी का निमंत्रणपत्र पा कर वह अपराधबोध से बाहर आ गई. वह अभिषेक की खुशी में बहुत खुश थी. उस की दुआ जो कुबूल हो गई थी.

‘‘उफ सोचतेसोचते शाम हो गई. आकाश आते ही होंगे.’’

वह आकाश की पसंद की पोशाक पहन कर तैयार हो गई. महीनों बाद उस का मन आजाद पंछी सा उड़ना चाह रहा था.

कौन कहता है कि प्यार दोबारा नहीं होता. वह आकाश से यों ही तो नहीं जुड़ गई है. हां. इस में थोड़ा वक्त लगा. किसी भी रिश्ते की मजबूती के लिए प्यार, विश्वास व वक्त तीनों लगते हैं. रिश्ते की नींव रखते वक्त ही निवेश करना पड़ता है. आकाश ने जिस सम?ादारी से अहाना को संभाला ऐसा कम ही देखने को मिलता है.्र

सच जब 2 दिल एकदूसरे के दर्द को जीने लगते हैं तो प्यार गहरा होता जाता है. ऐसे में पहला प्यार बचपना और दूसरा ज्यादा अपना लगता है.

अबोला नहीं : बेवजह के शक ने जया और अमित के बीच कैसे पैदा किया तनाव

क्यारियों में खिले फूलों के नाम जया याद ही नहीं रख पाती, जबकि अमित कितनी ही बार उन के नाम दोहरा चुका है. नाम न बता पाने पर अमित मुसकरा भर देता.

‘‘क्या करें, याद ही नहीं रहता,’’ कह कर जया लापरवाह हो जाती. उसे नहीं पता था कि ये फूलों के नाम याद न रखना भी कभी जिंदगी को इस अकेलेपन की राह पर ला खड़ा करेगा.

‘‘तुम से कुछ कहने से फायदा भी क्या है? तुम फूलों के नाम तक तो याद नहीं रख पातीं, फिर मेरी कोई और बात तुम्हें क्या याद रहेगी?’’ अमित कहता.

छोटीछोटी बातों पर दोनों में झगड़ा होने लगा था. एकदूसरे को ताने सुनाने का कोई भी मौका वे नहीं छोड़ते थे और फिर नाराज हो कर एकदूसरे से बोलना ही बंद कर देते. बारबार यही लगता कि लोग सही ही कहते हैं कि लव मैरिज सफल नहीं होती. फिर दोनों एकदूसरे पर आरोप लगाने लगते.

‘‘तुम्हीं तो मेरे पीछे पागल थे. अगर तुम मेरे साथ नहीं रहोगी, तो मैं अधूरा रह जाऊंगा, बेसहारा हो जाऊंगा. इतना सब नाटक करने की जरूरत क्या थी?’’ जया चिल्लाती.

अमित भी चीखता, ‘‘बिना सहारे की  जिंदगी तो मेरी ही थी और जो तुम कहती थीं कि मुझे हमेशा सहारा दिए रहना वह क्या था? नाटक मैं कर रहा था या तुम? एक ओर मुझे मिलने से मना करतीं और दूसरी तरफ अगर मुझे 15 मिनट की भी देरी हो जाता तो परेशान हो जाती थीं. मैं पागल था तो तुम समझदार बन कर अलग हो जाती.’’

जया खामोश हो जाती. जो कुछ अमित ने कहा था वह सही ही था. फिर भी उस पर गुस्सा भी आता. क्या अमित उस के पीछे दीवाना नहीं था? रोज सही वक्त पर आना, साथ में फूल लाना और कभीकभी उस का पसंदीदा उपहार लाना और भी न जाने क्याक्या. लेकिन आज दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगा रहे हैं, दोषारोपण कर रहे हैं. कभीकभी तो दोनों बिना खाएपिए ही सो जाते हैं. मगर इतनी किचकिच के बाद नींद किसे आ सकती है. रात का सन्नाटा और अंधेरा पिछली बातों की पूरी फिल्म दिखाने लगता.

जया सोचती, ‘अमित कितना बदल गया है. आज सारा दोष मेरा हो गया जैसे मैं ही उसे फंसाने के चक्कर में थी. अब मेरी हर बात बुरी लगती है. उस का स्वाभिमान है तो मेरा भी है. वह मर्द है तो चाहे जो करता रहे और मैं औरत हूं, तो हमेशा मैं ही दबती रहूं? अमितजी, आज की औरतें वैसी नहीं होतीं कि जो नाच नचाओगे नाचती रहेंगी. अब तो जैसा दोगे वैसा पाओगे.’

उधर अमित सोचता, ‘क्या होता जा रहा है जया को? चलो मान लिया मैं ही उस के पीछे पड़ा था, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि वह हर बात में अपनी धौंस दिखाती रहे. मेरा भी कुछ स्वाभिमान है.’

फिर भी दोनों कोई रास्ता नहीं निकाल पाते. आधी रात से भी ज्यादा बीतने तक जागते रहते हैं, पिछली और वर्तमान जिंदगी की तुलना करते हुए मन बुझता ही जाता और चारों ओर अंधेरा हो जाता. फिर रंगबिरंगी रेखाएं आनेजाने लगती हैं, फिर कुछ अस्पष्ट सी ध्वनियां, अस्पष्ट से चेहरे. शायद सपने आने लगे थे. उस में भी पुराना जीवन ही घूमफिर कर दिखता है. वही जीवन, जिस में चारों ओर प्यार ही प्यार था, मीठी बातें थीं, रूठनामनाना था, तानेउलाहने थे, लेकिन आज की तरह नहीं. आज तो लगता है जैसे दोनों एकदूसरे के दुश्मन हैं फिर नींद टूट जाती और भोर गए तक नहीं आती.

सुबह जया की आंखें खुलतीं तो सिरहाने तकिए पर एक अधखिला गुलाब रखा होता. शादी के बाद से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. आज भी अमित अपना यह उपहार देना नहीं भूला. जया फूल को चूम कर ‘कितना प्यारा है’ सोचती.

अमित ने तकिए पर देखा, फूल नहीं था, समझ गया, जया ने अपने जूड़े में खोंस लिया होगा. उस के दिए फूल की बहुत हिफाजत करती है न.

तभी जया चाय की ट्रे लिए आ गई. उस के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था. सब कुछ सामान्य लग रहा था. अमित भी सहज हो कर मुसकराया है. जया के केशों में फूल बहुत प्यारा लग रहा था. अमित चाहता था कि उसे धीरे से सहला दे, फिर रुक गया, कहीं जया नाराज न हो जाए.

अमित को मुसकराते देख जया मन ही मन बोली कि शुक्र है मूड तो सही लग रहा है.

तैयार हो कर अमित औफिस चला गया. जया सारा काम निबटा कर जैसे ही लेटने चली, फोन की घंटी बजी. जया ने फोन उठाया. अमित का सेक्रेटरी बोल रहा था, ‘‘मैडम, साहब आज आएंगे नहीं क्या?’’

जया चौंक गई, अजीब सी शंका हुई. कहीं कोई ऐक्सीडैंट… अरे नहीं, क्या सोचने लगी. संभल कर जवाब दिया, ‘‘यहां से तो समय से ही निकले थे. ऐसा करो मिस कालिया से पूछो कहीं कोई और एप्वाइंटमैंट…’’

सेक्रेटरी की आवाज आई, ‘‘मगर मिस कालिया भी तो नहीं आईं आज.’’

जया उधेड़बुन में लग गई कि अमित कहां गया होगा. सेक्रेटरी बीचबीच में सूचित करता रहा कि साहब अभी तक नहीं आए, मिस कालिया भी नहीं.

बहुत सुंदर है निधि कालिया. अपने पति से अनबन हो गई है. उस की बात तलाक तक आ पहुंची है. उसे जल्द ही तलाक मिल जाएगा. इसीलिए सब उसे मिस कालिया कहने लगे हैं. उस का बिंदास स्वभाव ही सब को उस की ओर खींचता है. कहीं अमित भी…

सेके्रटरी का फिर फोन आया कि साहब और कालिया नहीं आए.

यह सेके्रटरी बारबार कालिया का नाम क्यों ले रहा है? कहीं सचमुच अमित मिस कालिया के साथ ही तो नहीं है? सुबह की शांति व सहजता हवा हो चुकी थी.

शाम को अमित आया तो काफी खुश दिख रहा था. वह कुछ बोलना चाह रहा था, मगर जया का तमतमाया चेहरा देख कर चुप हो गया. फिर कपड़े बदल कर बाथरूम में घुस गया. अंदर से अमित के गुनगुनाने की आवाज आ रही थी. जया किचन में थी. जया लपक कर फिर कमरे में आ गई. फर्श पर सिनेमा का एक टिकट गिरा हुआ था. उस के हाथ तेजी से कोट की जेबें टटोलने लगे. एक और टिकट हाथ में आ गया. जया गुस्से से कांपने लगी कि साहबजी पिक्चर देख रहे थे कालिया के साथ और अभी कुछ कहो तो मेरे ऊपर नाराज हो जाएंगे. अरे मैं ही मूर्ख थी, जो इन की चिकनीचुपड़ी बातों में आ गई. यह तो रोज ही किसी न किसी से कहता होगा कि तुम्हारे बिना मैं बेसहारा हो जाऊंगा.

तभी अमित बाथरूम से बाहर आया. जया का चेहरा देख कर ही समझ गया कि अगर कुछ बोला तो ज्वालामुखी फूट कर ही रहेगा. अमित बिना वजह इधरउधर कुछ ढूंढ़ने लगा. जया चुपचाप ड्राइंगरूम में चली गई. धीरेधीरे गुस्सा रुलाई में बदल गया और उस ने वहीं सोफे पर लुढ़क कर रोना शुरू कर दिया.

अमित की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, फिर अब दोनों के बीच उतनी सहजता तो रह नहीं गई थी कि जा कर पूछता क्या हुआ है. वह भी बिस्तर पर आ कर लेट गया. कैसी मुश्किल थी. दोनों ही एकदूसरे के बारे में जानना चाहते थे, मगर खामोश थे. जया वहीं रोतेरोते सो गई. अमित ने जा कर देखा, मन में आया इस भोले से चेहरे को दुलार ले, उस को अपने सीने में छिपा कर उस से कहे कि जया मैं सिर्फ तेरा हूं, सिर्फ तेरा.

मगर एक अजीब से डर ने उसे रोक दिया. वहीं बैठाबैठा वह सोचता रहा, ‘कितनी मासूम लग रही है. जब गुस्से से देखती है तो उस की ओर देखने में भी डर लगने लगता है.’

तभी जया चौंक कर जग गई. अमित ने सहज भाव से पूछा, ‘‘जया, तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?’’

‘‘जी नहीं, मैं बिलकुल अच्छी हूं.’’

तीर की तरह जया ड्राइंगरूम से निकल कर बैडरूम में आ कर बिस्तर पर निढाल हो गई. अमित भी आ कर बिस्तर के एक कोने में बैठ गया. सारा दिन कितनी हंसीखुशी से बीता था, लेकिन घर आते ही… फिर भी अमित ने सोच लिया कि थोड़ी सी सावधानी उन के जीवन को फिर हंसीखुशी से भर सकती है और फिर कुछ निश्चय कर वह भी करवट बदल कर सो गया.

दोनों के बीच दूरियां दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थीं, लेकिन वे इन दूरियों को कम करने की कोई कोशिश ही नहीं करते. कोशिश होती भी है तो कम होने के बजाय बढ़ती ही जाती है. यह नाराज हो कर अबोला कर लेना संबंधों के लिए कितना घातक होता है. अबोला की जगह एकदूसरे से खुल कर बात कर लेना ही सही होता है. लेकिन ऐसा हो कहां पाता है. जरा सी नोकझोंक हुई नहीं कि बातचीत बंद हो जाती है. इस मौन झगड़े में गलतफहमियां बढ़ती हैं व दूरी बढ़ती जाती है.

लगभग 20-25 दिन हो गए अमित और जया में अबोला हुए. दोनों को ही अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन पहल कौन करे. दोनों का ही स्वाभिमान आड़े आ जाता.

उस दिन रविवार था. सुबह के 9 बज रहे होंगे कि दरवाजे की घंटी बजी.

‘कौन होगा इस वक्त’, यह सोचते हुए जया ने दरवाजा खोला तो सामने मिस कालिया और सुहास खड़े थे.

‘‘मैडम नमस्ते, सर हैं क्या?’’ कालिया ने ही पूछा.

बेमन से सिर हिला कर जया ने हामी भरी ही थी कि कालिया धड़धड़ाती अंदर घुस गई, ‘‘सर, कहां हैं आप?’’ कमरे में झांकती वह पुकार रही थी.

सुहास भी उस के पीछे था. तभी अमित

ने बालकनी से आवाज दी, ‘‘हां, मैं यहां हूं. यहीं आ जाओ. जया, जरा सब के लिए चाय बना देना.’’

नाकभौं चढ़ाती जया चाय बनाने किचन में चली गई. बालकनी से अमित, सुहास और कालिया की बातें करने, हंसने की आवाजें आ रही थीं, लेकिन साफसाफ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. जया चायबिस्कुट ले कर पहुंची तो सब चुप हो गए. किसी ने भी उसे साथ बैठने के लिए नहीं कहा. उसे ही कौन सी गरज पड़ी है. चाय की टे्र टेबल पर रख कर वह तुरंत ही लौट आई और किचन के डब्बेबरतन इधरउधर करने लगी.

मन और कान तो उन की बातों की ओर लगे थे.

थोड़ी देर बाद ही अमित किचन में आ कर बोला, ‘‘मैं थोड़ी देर के लिए इन लोगों के साथ बाहर जा रहा हूं,’’ और फिर शर्ट के बटन बंद करते अमित बाहर निकल गया.

कहां जा रहा, कब लौटेगा अमित ने कुछ भी नहीं बताया. जया जलभुन गई. दोनों के बीच अबोला और बढ़ गया. इस झगड़े का अंत क्या था आखिर?

हफ्ते भर बाद फिर कालिया और सुहास आए. कालिया ने जया को दोनों कंधों से थाम लिया, ‘‘आप यहां आइए, सर के पास बैठिए. मुझे आप से कुछ कहना है.’’

बुत बनी जया को लगभग खींचती हुई वह अमित के पास ले आई और उस की बगल में बैठा दिया. फिर अपने पर्स में से एक कार्ड निकाल कर उस ने अमित और जया के चरणों में रख दिया और दोनों के चरणस्पर्श कर अपने हाथों को माथे से लगा लिया.

‘‘अरे, अरे, यह क्या कर रही हो, कालिया? सदा खुश रहो, सुखी रहो,’’ अमित बोला तो जया की जैसे तंद्रा भंग हो गई.

कैसा कार्ड है यह? क्या लिखा है इस में? असमंजस में पड़ी जया ने कार्ड उठा लिया. सुहास और निधि कालिया की शादी की 5वीं वर्षगांठ पर होने वाले आयोजन का वह निमंत्रणपत्र था.

निधि कालिया चहकते हुए बोली, ‘‘मैडम, यह सब सर की मेहनत और आशीर्वाद का परिणाम है. सर ने कोशिश न की होती तो आज 5वीं वर्षगांठ मनाने की जगह हम तलाक की शुरुआत कर रहे होते. हम ने लव मैरिज की थी, लेकिन सुहास के मम्मीपापा को मैं पसंद नहीं आई. मेरे मम्मीपापा भी मेरे द्वारा लड़का खुद ही पसंद कर लेने के कारण अपनेआप को छला हुआ महसूस कर रहे थे. बिना किसी कारण दोनों परिवार अपनी बहू और अपने दामाद को अपना नहीं पा रहे थे. उन्होंने हमारे छोटेमोटे झगड़ों को खूब हवा दी, उन्हें और बड़ा बनाते रहे, बजाय इस के कि वे लोग हमें समझाते, हमारी लड़ाइयों की आग में घी डालते रहे. छोटेछोटे झगड़े बढ़तेबढ़ते तलाक तक आ पहुंचे थे.

‘‘सर को जब मालूम हुआ तो उन्होंने एड़ीचोटी का जोर लगा दिया ताकि हमारी शादी न टूटे. 1-2 महीने पहले उन्होंने हमें अलगअलग एक सिनेमा हाल में बुलाया और एक फिल्म के 2 टिकट हमें दे कर यह कहा कि चूंकि आप नहीं आ रहीं इसलिए वे भी फिल्म नहीं देखना चाहते. टिकटें बेकार न हों, इसलिए उन्होंने हम से फिल्म देखने का आग्रह किया. भले ही मैं और सुहास अलग होने वाले थे, लेकिन हम दोनों ही सर का बहुत आदर करते हैं, इसलिए दोनों ही मना नहीं कर पाए.

‘‘फिल्म शुरू हो चुकी थी इसलिए कुछ देर तो हमें पता नहीं चला. थोड़ी देर बाद समझ में आया कि सिनेमाहाल करीबकरीब खाली ही था. लेकिन सिनेमाहाल के उस अंधेरे में हमारा सोया प्यार जाग उठा. फिल्म तो हम ने देखी, सारे गिलेशिकवे भी दूर कर लिए. हम ने कभी एकदूसरे से अपनी शिकायतें बताई ही नहीं थीं, बस नाराज हो कर बोलना बंद कर देते थे. जितनी देर हम सिनेमाहाल में थे सर ने हमारे मम्मीपापा से बात की, उन्हें समझाया तो वे हमें लेने सिनेमाहाल तक आ गए. फिर हम सब एक जगह इकट्ठे हुए एकदूसरे की गलतफहमियां, नाराजगियां दूर कर लीं. मैं ने और सुहास ने भी अपनेअपने मम्मीपापा और सासससुर से माफी मांग ली और भरोसा दिलाया कि हम उन के द्वारा पसंद की गई बहूदामाद से भी अच्छे साबित हो कर दिखा देंगे.

‘‘उस के बाद से कोर्ट में चल रहे तलाक के मुकदमे को सुलहनामा में बदलने में सर ने बहुत मदद की. आज इन की वजह से ही हम दोनों फिर एक हो गए हैं, हमारा परिवार भी हमारे साथ है, सब से बड़ी खुशी की बात तो यही है. परसों हम अपनी शादी की 5वीं वर्षगांठ बहुत धूमधाम से मनाने जा रहे हैं, केवल सर के आशीर्वाद और प्रयास से ही. आप दोनों जरूर आइएगा और हमें आशीर्वाद दीजिएगा.’’

निधि की पूरी बात सुन कर जया का तो माथा ही घूमने लगा था कि कितना उलटासीधा सोचती रही वह, निधि कालिया और अमित को ले कर. लेकिन आज सारा मामला ही दूसरा निकला. कितना गलत सोच रही थी वह.

‘‘हम जरूर आएंगे. कोई काम हो तो हमें बताना,’’ अमित ने कहा तो निधि और सुहास ने झुक कर उन के पांव छू लिए और चले गए.

जया की नजरें पश्चात्ताप से झुकी थीं, लेकिन अमित मुसकरा रहा था.

‘आज भी अगर मैं नहीं बोली तो बात बिगड़ती ही जाएगी,’ सोच कर जया ने धीरे से कहा, ‘‘सौरी अमित, मुझे माफ कर दो. पिछले कितने दिनों से मैं तुम्हारे बारे में न जाने क्याक्या सोचती रही. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

अमित ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘नहीं जया, गलती सिर्फ तुम्हारी नहीं मेरी भी है. मैं समझ रहा था कि तुम सब कुछ गलत समझ रही हो, फिर भी मैं ने तुम्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं समझी. न बताने के पीछे एक कारण यह भी था कि पता नहीं तुम पूरी स्थिति को ठीक ढंग से समझोगी भी या नहीं. अगर मैं ने तुम्हें सारी बातें सिलसिलेवार बताई होतीं, तो यह समस्या न खड़ी होती.

‘‘दूसरे का घर बसातेबसाते मेरा अपना घर टूटने के कगार पर खड़ा हो गया था. लेकिन उन दोनों को समझातेसमझाते मुझे भी समझ में आ गया कि पतिपत्नी के बीच सारी बातें स्पष्ट होनी चाहिए. कुछ भी हो जाए, लेकिन अबोला नहीं होना चाहिए. जो भी समस्या हो, एकदूसरे से शिकायतें हों, सभी आपसी बातचीत से सुलझा लेनी चाहिए वरना बिना बोले भी बातें बिगड़ती चली जाती हैं. पहले भी हमारे छोटेमोटे झगड़े इसी अबोले के कारण विशाल होते रहे हैं. वादा करो आगे से हम ऐसा नहीं होने देंगे,’’ अमित ने कहा तो जया ने भी स्वीकृति में गरदन हिला दी.

रत्ना नहीं रुकेगी : क्या रत्ना अपमान बर्दाश्त कर पाई?

रोली और रमण इतने बच्चे भी नहीं हैं कि उन्हें अपनी मां की तकलीफ दिखाई नहीं दे. जब एक नवजात भी संवेदनाओं और स्पर्श की भाषा को समझ सकता है तो ये दोनों तो किशोर बच्चे हैं. ये भला अपनी मां के रोज होने वाले अपमान और तिरस्कार को नहीं पहचानेंगे क्या? कड़वी गोली पर लगी मिठास भला कितनी देर तक उस की असलियत को छिपा सकती है? दादी और पापा भी तो मां को सब के सामने घर की लक्ष्मी कहते नहीं थकते लेकिन रोली और रमण जानते हैं कि उन के घर में इस लक्ष्मी का असली आसन क्या है.

दादी को पता नहीं मां से क्या परेशानी है. मां सुबह जल्दी नहीं उठे तो उन्हें आलसी और कामचोर का तमगा दे दिया जाता है और जल्दी उठ जाए तो नींद खराब करने का ताना दे कर कोसा जाता है. केवल दादी ही नहीं बल्कि पापा भी उनकी हां में हां मिलाते हुए मम्मी को नीचा दिखाने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते. और जब पापा ऐसा करते हैं तो दादी के चेहरे पर एक संतुष्टि भरी दर्प वाली मुसकान आ जाती है. बहुत बार रोली का मन करता कि वह मां की ढाल बन कर खड़ी हो जाए और दादी को पलट कर जवाब दे लेकिन मां उसे आंखों के इशारे से ऐसा करने से रोक देती है. पता नहीं मां की ऐसी कौनसी मजबूरी है जो वह यह सब बिना प्रतिकार किए सहन करती रहती है.

‘‘मैं तो एक पल के लिए भी नहीं सहन करूं. आप क्यों कभी कुछ नहीं बोलती?’’

कहती हुई रोली अकसर अपनी मां रत्ना को विरोध करने के लिए उकसाती लेकिन रत्ना उस की बात केवल सुन कर रह जाती. कहती कुछ भी नहीं.

ऐसा नहीं है कि रत्ना अनपढ़ या बदसूरत है जिस ने अपनी किसी कमी को ले कर कोई हीनग्रंथि पाल रखी है बल्कि खूबसूरत रत्ना तो इंग्लिश में मास्टर्स के साथसाथ बैचलर इन ऐजुकेशन भी है और उस की इसी योग्यता के कारण ही दादी ने उसे अपने क्लर्क बेटे के लिए चुना था. यह अलग बात है कि रत्ना ने अपनी पढ़ाई का उपयोग अपने बच्चों को स्कूल का होमवर्क करवाने के अलावा कभी अन्यत्र नहीं किया. हां, कभीकभार बच्चों की पीटीएम में जरूर उसे उस के पढ़ेलिखे होने का विशेष सम्मान मिलता था लेकिन वह एक क्षणिक अनुभूति होती थी जो घर जाते ही घर की मुरगी दाल बराबर हो जाती थी.

रोली और रमण अब बड़े हो चुके हैं. दोनों ही हाई स्कूल के विद्यार्थी हैं. जब तक बच्चे थे तब तक उन्हें मां का डांट खाना अजीब नहीं लगता था क्योंकि वे सम?ाते थे कि जिस तरह गलतियां करने पर उन दोनों को डांट या सजा मिलती है, उसी तरह मां को भी उन की किसी गलती के कारण ही प्रताडि़त किया जा रहा होगा लेकिन जैसेजैसे उन की समझ बढ़ती गई वे दोनों सम?ाने लगे कि मां को पड़ने वाली डांट और तिरस्कार का कारण उन की कोई गलती नहीं है बल्कि दादी को ऐसा करने पर एक आत्मिक संतोष मिलता है.

‘‘पता नहीं मां दादी और पापा का विरोध क्यों नहीं कर पाती जबकि वह तो स्वयं बहुत सक्षम है,’’ एक दिन रोली ने रमण से कहा.

‘‘तुझे याद है, बचपन में दादी वह हनुमानजी के समुद्र लांघने वाली कहानी सुनाया करती थी? हनुमानजी को अपनी ताकत का अनुमान नहीं था तब जामवंतजी ने उन्हें याद दिलाया था कि वे चाहें तो क्याक्या कर सकते हैं. मां भी नहीं जानती कि वी क्या कर सकती है,’’ कहते हुए रमण थोड़ा उदास था.

‘‘हां, याद है मुझे भी. लगता है मां को भी उन की शक्ति याद दिलानी पड़ेगी,’’ रोली ने उसे सामान्य करने के लिहाज से हंसते हुए कहा. बढ़ते बच्चे सब समझते हैं. अपनी सामर्थ्य के अनुसार विरोध भी दर्ज करवाते हैं लेकिन छोटा होने के कारण उन के विरोध को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता और फिर रत्ना स्वयं भी तो अपने पक्ष में नहीं खड़ी होती.

पिछले दिनों पड़ोस में एक नया परिवार रहने आया है. परिवार में पति राघव, पत्नी रिया के अलावा 7 वर्ष की एक बच्ची मीनू है. आमनेसामने फ्लैट होने के कारण रत्ना का अकसर रिया से टकराव हो जाता है. साथसाथ सब्जीराशन लातेलाते दोनों में ठीकठाक जानपहचान हो गई. मीनू तो रत्ना के फ्लैट का दरवाजा खुला देखते ही दौड़ कर उन के घर में घुसा जाती थी और फिर जब तक रिया उसे खींच कर वापस नहीं ले जाए तब तक वहीं टिकी रहती थी. अकेले बच्चे भी तो साथ ढूंढ़ते ही हैं और जब नहीं मिलता तो धीरेधीरे अपने अकेलेपन को ही अपना साथी बना लेते हैं. फिर बड़ों को यह शिकायत रहती है कि आजकल के बच्चे सोशल नहीं हैं.

रिया इस जानपहचान को मित्रता में बदलना चाहती थी लेकिन रत्ना अपनी सास और पति की अनुमति के बिना दोस्त बनाने का साहस भी कहां जुटा पाती थी. शादी से पहले कितना बड़ा दोस्तों का सर्किल था उस का. कुछ दोस्त तो शहर छूटने के साथ ही छूट गए लेकिन कुछ ने संपर्क बनाए रखा था. पति का शक्की स्वभाव और सास का बातबात पर ताने देना रत्ना खुद के लिए तो सहन कर भी ले लेकिन दोस्तों की अकारण बेइज्जती वह नहीं देख सकती थी इसलिए न चाहते हुए भी उस ने खुद पर अंकुश लगा रखा था.

मीनू इन सब दुनियावी ?ामेलों से दूर रत्ना के आसपास ही बने रहने की कोशिश करती. धीरेधीरे रत्ना का मन उस के साथ रमने लगा. अब तो मीनू बहुत अधिकार के साथ रत्ना से खाना भी मांग कर खाने लगी थी. रत्ना के लिए भी यह मीनू के बचपन के साथ अपने बच्चों के बचपन को दोबारा जीने का अवसर था जिसे वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. हां, सास को मीनू का व्यवस्थित घर को बिखेरना पसंद नहीं आता था लेकिन रत्ना मीनू के लौटते ही बहुत तत्परता के साथ सब बिखरा हुआ सामान यथास्थान रख कर मीनू को उन की नाराजगी से बचा लेती थी.

‘‘मीनू , चलो होमवर्क कर लो,’’ यह लगभग हर रोज सुनाई देने वाला वाक्य था जिस के बाद का दृश्य रत्ना के परिवार में सब को याद हो गया.

‘‘अब आंटी इस का हाथ पकड़ कर खींचेंगी और इस का गाना शुरू हो जाएगा,’’ कहती हुई रोली अपने मुंह से ऊं…ऊं… की आवाज निकाल कर मीनू की नकल करने लगती और सभी खिलखिला उठते.

एक दिन जब यही दृश्य दोहराया गया तो रत्ना से रहा नहीं गया और उसने मीनू का दूसरा हाथ अपनी तरफ खींच लिया, ‘‘रहने दो रिया, मैं करवा दूंगी इसे होमवर्क’’ रत्ना ने कहा तो रिया आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘अरे दीदी, यह पूरी शैतान की नानी है. आप को प्रश्न पूछपूछ कर परेशान कर देगी,’’ रिया उस के प्रस्ताव को सुन कर थोड़ी खिसिया गई थी क्योंकि रत्ना के घर बारबार आनेजाने के कारण इतना अंदाजा तो उसे भी हो ही गया था कि दादी को मीनू का आना एक सीमा तक ही पसंद आता है.

‘‘कोई बात नहीं मैं देख लूंगी. तुम चिंता मत करो,’’ रत्ना ने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा तो रिया कुछ देर खड़ी रह कर अपने घर चली गई.

रत्ना मीनू को ले कर बैठ गई और उसे होमवर्क कराने लगी. बीचबीच में रत्ना कोई मजेदार बात सुनाती तो पूरा घर मीनू की खिलखिलाहट से गूंज जाता.

रोली अपनी मां के इस नए रूप से आज पहली बार ही परिचित हो रही थी.

ऐसा नहीं है कि रत्ना ने उन्हें कभी होमवर्क नहीं कराया था लेकिन तब वह उसे केवल मां लगती थी वहीं आज रत्ना उसे एक प्रशिक्षित अध्यापिका लग रही थी.

कुछ ही देर में मीनू ने होमवर्क निबटा कर अपना बैग पैक कर लिया तो रत्ना उसे कल

आने का न्योता दे कर उस के घर के दरवाजे तक छोड़ आई.

‘‘अरे वाह मां. आप तो छिपी रुस्तम निकलीं. हमें तो पता ही नहीं था कि आप इतनी अच्छी तरह पढ़ा सकती है,’’ रमण ने रत्ना की तरफ गर्व से देखते हुए कहा.

‘‘पता क्यों नहीं है? क्या तुम लोगों को बचपन में होमवर्क कोई दूसरा कराता था?’’ रत्ना ने तारीफ को दरकिनार करते हुए कहा.

‘‘तब हम कहां ये सब जानते थे. तब तो किसी तरह काम निबटाओ और खेलने भागो… इतना ही सम?ा में आता था,’’ कहती हुई रोली भी बातों में शामिल हो गई.

‘‘मां, आप बच्चों को ट्यूशन क्यों नहीं पढ़ातीं? जिस समय मीनू को पढ़ाया उस समय तो रोज आप खाली ही रहती हो,’’ रमण भी उत्साह से भरा हुआ था. शायद भीतर कहीं न कहीं अपनी मां को आत्मनिर्भर देखने की चाह सिर उठाने लगी थी.

‘‘नहीं रे. एक दिन की बात अलग है और रोज की बात अलग. मुझे कहां इतनी फुरसत रोज मिलने वाली है,’’ कहते हुए रत्ना ने रमण के आग्रह को अनसुना कर दिया.

मीनू रोज तय समय पर आती और रत्ना के साथ मस्ती करते हुए अपना होमवर्क करती.

एक दिन मीनू ने बताया कि 2 दिन बाद उस के मिड टर्म ऐग्जाम हैं और उसे 5 फलों और सब्जियों के नाम याद कर के ले जाने हैं. बहुत कोशिश करने के बाद भी याद नहीं हो रहे. कभी कोई भूल जाती है तो कभी कोई.

‘‘बस, इतनी सी बात. लो, आप को याद करने का बहुत ही आसान सा तरीका बताते हैं. हम ऐल्फाबेट से शुरू करते हैं. जैसे ऐ फार ऐप्पल, ऐप्रीकाट, बी फार बनाना, सी फार चीकू, चेरी और कोकोनट. ये लो, 3 ऐल्फाबेट में ही सिक्स फू्रट याद हो गए,’’ रत्ना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे वाह आंटी. यह तो बहुत मजेदार है. ऐसे तो मैं सब्जियों के नाम भी याद कर सकती हूं और कलर्स के भी,’’ मीनू खुशी से उछलने लगी.

रोली को भी मां की यह ट्रिक बहुत अच्छी लगी. उसे याद आया कि बचपन में मां द्वारा सिखाई गई इसी तरह की ट्रिक्स के कारण दोनों भाईबहन को कभी पहाड़े और फौर्मूले याद करने में दिक्कत नहीं आई थी.

मीनू बहुत खुश थी और रिया भी. इस बार मीनू  को हर बार से अधिक मार्क्स मिले थे और वे भी बिना किसी मानसिक दबाव के. 2 दिन बाद जब मीनू रत्ना के घर आई तब उस के साथ उस की एक सहेली वन्या भी थी.

‘‘आंटी, आज ये भी मेरे साथ टेबल्स लर्न करेगी,’’ मीनू के स्वर में थोड़ा आग्रह भी था.

रत्ना ने मुसकरा कर इजाजत दे दी. रत्ना ने पहले दोनों बच्चियों से थ्री की टेबल सुनाने के लिए कहा जिसे दोनों ने ही अटकअटक कर सुनाया. अब रत्ना ने उसी पहाड़े को कविता की तरह लय में गा कर सुनाया. 1-2 बार के अभ्यास के बाद मीनू और वन्या ने बहुत आसानी के साथ पहाड़ा याद कर लिया. दोनों के चेहरों पर जीत की खुशी जैसा उजास था.

रात को रत्ना ने सुना, दादी भी धीरेधीरे उसी लय के साथ तीन का पहाड़ा गुनगुना रही थी. रत्ना के होठों पर मुस्कराहट तैर गई.

धीरेधीरे मीनू के दोस्तों की संख्या बढ़ने लगी. अब तो दोपहर बाद 4 बजे मीनू सहित 5 बच्चे रत्ना के पास आ जाते हैं. सब की मम्मियों की जिद के बाद नानुकुर करते हुए रत्ना ने सब से नाममात्र की फीस लेनी शुरू  कर दी. पहली बार जब रिया ने सब बच्चों की फीस के रूप में दस हजार रुपए रत्ना के हाथ में थमाए तो उस के हाथ कांपने लगे. यों तो हर महीने पति उसे घर खर्च के लिए रुपए देते ही हैं लेकिन अपनी कमाई की खुशी क्या होती है यह उसे आज पहली बार महसूस हुआ. रत्ना ने खीर बना कर खुशी सब के साथ साझा की.

‘‘पूरे महीने दिमाग खपा कर यह कमाई की है क्या?’’ सास ने ताना कसा. पति ने भी कोई खास खुशी जाहिर नहीं की. रत्ना उदास होती इस से पहले ही रोली और रमण ने उसे फूलों का एक गुलदस्ता भेंट कर के उस की मुसकराहट को जाया होने से बचा लिया.

रत्ना ने अब विधिवत अपने घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. देखते ही देखते उस के पास आसपास के बहुत से बच्चे आने लगे. शाम के समय बच्चे अधिक होने के कारण उस ने घर के काम में मदद के लिए एक सहायिका को रख लिया. सास ने कुछ दिन तो मुंह चढ़ाए रखा लेकिन जब देखा कि रत्ना अब रुकने वाली नहीं है तो उन्होंने भी समय के साथ समझौता कर लिया.

सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन रत्ना की सहेली माया उस से मिलने आई. माया की उदास रंगत देख कर रत्ना ने पहचान लिया कि अवश्य कोई गंभीर मसला है. चायपानी के साथ थोड़ा कुरेदने के बाद माया ने जो बताया वह वाकई चिंताजनक था.

‘‘2 साल पहले बेटी की शादी की थी. बेचारी तुम्हारी तरह पूरा दिन घर में खटती है लेकिन उस के किए को जस नहीं. सास तो सास, पति भी खुश नहीं रहता. बिलकुल तेरी सी ही कहानी है,’’ कहते हुए माया ने ठंडी सांस भरी.

‘‘जब कहानी की शुरुआत मेरी जैसी ही है तो घबरा क्यों रही है? इस कहानी का अंत भी मेरे जैसा ही करते हैं न,’’ रत्ना ने मुसकुरा कर कहा.

माया कुछ समझ नहीं. वह उस का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी.

‘‘जैसे मैं अपने पैरों पर खड़ी हुई, वैसे ही उसे भी करते हैं न. तू उसे मेरे पास भेज देना. बहुत से बच्चे आते हैं मेरे पास. बहुतों को मना करना पड़ता था. अब नहीं करना पड़ेगा. बिटिया के हाथ को काम मिल जाएगा और मुझे थोड़ी राहत. आत्मनिर्भर बनेगी तो आत्मविश्वास भी आएगा और तब वह अपने हक में कोई भी कठोर निर्णय ले सकती है. अपने पैरों पर खड़ी स्त्री खुद के लिए भी आदर्श होती है. समझ?’’ रत्ना ने माया को सम?ाया तो माया के चेहरे पर भी भविष्य को ले कर उम्मीद की रोशनी चमकने लगी. रत्ना ने देखा उस की सास उन की बातें सुन रही थीं.

‘‘सही कह रही है रत्ना. भले ही मैं बोल कर नहीं कहती लेकिन जबसे यह अपने पैरों पर खड़ी हुई है, मुझे भी अच्छा लगता है. मेरे मन में इस के लिए इज्जत बढ़ गई है. पहले तो लगता था कि यह मेरे बेटे की कमाई पर पल रही है इसलिए मैं भी इसे 2 बातें सुना दिया करती थी. जानती थी कि बुरा मान भी लेगी तो जाएगी कहां? रहना तो इसे इसी घर में पड़ेगा लेकिन अब तो मैं भी इसे कुछ कहने से पहले 4 बार सोचती हूं. अपने पैरों पर खड़ी है, कहीं गुस्से में आ कर घर छोड़ दिया तो? न बाबा न. बुढ़ापे में मैं अब कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती,’’ सास ने झिझकते हुए अपनी सचाई को स्वीकार किया.

रत्ना उन के इस रूप को आश्चर्य से देख रही थी. तभी मीनू अपने दोस्तों के साथ 7 की टेबल को कविता की तरह गाते हुए अंदर घुसी. बच्चों को इस तरह खेलखेल में पढ़ाई करते हुए देखकर तीनों महिलाएं मुसकरा दीं.

रोली और रमण को आज रत्ना वैसी ही लग रही थी जैसी वे उसे बरसों से देखना चाहते थे.

तेरे शहर में : बिंदास और हंसमुख कोमल क्यों उदास रहने लगी ?

बाबतपुर एअरपोर्ट से निकल कर मैं ने कैब बुक की. ‘विजय होटल’ में मैं ने अपना रूम बुक किया हुआ था. जब होटल बुक करने का समय आया था, मुझे नहीं पता क्यों मेरे हाथों ने ‘विजय होटल’ ही टाइप किया. मुझे नहीं पता क्यों ऐसा हुआ. ऐसा भी नहीं है कि मैं जानती नहीं कि मैं विजय होटल ही क्यों रुकी हूं. मैं ने यहां पिछली बार क्याक्या खाया था, मुझे तो यह भी याद है. किस के साथ खाया था, यह भी याद है. उस ने ब्लैक टीशर्ट पहनी हुई थी, यह भी याद है. मैं ने पिंक सूट पहना था, यह भी याद है. अरे, नहीं अभी आंखें नम नहीं होनी चाहिए, सालों हो गए. रोने की कोई बात नहीं है. मैं सब भूल चुकी हूं. मैं ने हमेशा की तरह दिल को समझया तो दिल हंस पड़ा कि चल, झूठी. रातदिन परेशान करती है, झूठ बोलती है कि सब भूल गई.

बनारस की 1-1 गली, महल्ला, दुकान, होटल सब तो देख रखा है. यहीं पैदा हुई हूं, पलीबढ़ी हूं, जीवन के 25 साल यहां बिता कर मुंबई पहुंची हूं. कैब से बाहर देखते हुए किसी मूवी की तरह यहां बीते पिछले साल नजरों के आगे किसी रील से भागे चले जा रहे हैं. 10 साल बाद बनारस आई हूं. मम्मीपापा रहे नहीं, अकेली संतान थी. उन के जाने के बाद क्या करने आती. उन का घर किराए पर एक अच्छे परिवार को दिया हुआ है. मेरे अकाउंट में टाइम से किराया आ जाता है. मैं ने अपनी जौब मुंबई जौइन की तो वहीं घर ले लिया. यह मुझे अब अपना शहर नहीं लग रहा है, यह उस का शहर है. मन हो रहा है कि यतिन को फोन करूं और उसे तंग करूं कि बताओ, तुम्हारे शहर में कौन आया है?

दुनिया में एक अकेली लड़की के लिए मातापिता के बिना जीना, खुद को संभालना, उस पर यह कम्बख्त इश्क. उफ… बहुत ही डैडली कौंबिनेशन है. वजूद की धज्जियां बिखर जाती हैं. पीछे बैठेबैठे भी पता रहता है कि कैब ड्राइवर बीचबीच में आप पर नजर डाल रहा है. मैं ने बड़ी होशियारी से अपनी आंखें साफ कीं. हम लड़कियां इस हुनर में कमाल हैं, हम न चाहें तो कोई भी हमारे दुख का अंदाजा नहीं लगा सकता. हर नारी में एक अभिनेत्री छिपी होती है. मैं अपने मन में आए इस विचार पर खुश हुई.

यतिन क्या कर रहा होगा? क्या शाम को शुभी की शादी में आएगा? आज शुभी की शादी है. सुनील की बहन शुभी जो हम सब से छोटी थी. सुनील के पेरैंट्स नहीं हैं. शुभी हम सब को अपने बच्चों जैसी प्रिय थी. सुनील के बुलावे पर सब दोस्त आज शुभी की शादी में आ रहे हैं. सब अपने परिवार के साथ होंगे, मैं ही अकेली आई हूं. मैं ने शादी नहीं की, अब तो 35 की हो रही हूं, कर नहीं पाई.

यतिन के बाद मन को कोई भाया ही नहीं. धोखेबाज यतिन, मतलबी यतिन, कायर यतिन. मैं ब्राह्मण, वह कायस्थ. पेरैंट्स ने घुड़की दी तो मेरे साथ किए इश्कमुहब्बत के सब वादे भूल गया. शादी कर के बच्चे पैदा कर के ऐश कर रहा है. कायर कहीं का. अड़ नहीं सकता था? डरपोक. मैं ने उसे हमेशा की तरह जीभर कर कोसा. फिर दिल से कहा अच्छा ही है, मुंबई में अकेली मस्त जी रही हूं पर दिल ने फिर तुरंत कहा कि चल ?ाठी.

पौन घंटे में मैं होटल पहुंच गई. काफी अच्छी सड़कें बन गई हैं. होटल पहुंच कर मैं ने सुनील को फोन किया. उस ने अपनेपन वाले गुस्से से कहा, ‘‘घर होते हुए होटल में रुकने की तेरी हिम्मत कैसे हुई कोमल? तू होटल से अभी निकल और सीधे घर आ.’’

‘‘सुनील, अब तो मैं थक गई हूं फ्रेश हो कर आराम करने भी लेट गई, शाम को मिलते हैं. थोड़ा सो लूं. असल में मैं कल भी औफिस से घर बहुत लेट आई थी. सौरी, शाम को आती हूं.’’

सुनील अब इतना ही बोला, ‘‘अच्छा, ठीक है, आराम कर ले. शाम को आ जाना विपिन और सुधा भी परिवार के साथ आए हैं. मैं ने तुम लोगों के रुकने का इंतजाम एकसाथ कर दिया था. सामने वाला फ्लैट खाली था, वहीं रुक रहे हैं खास दोस्त.’’

सुनील मेरा बहुत ही खास दोस्त रहा है. इतने सालों में मैं सब से ज्यादा उसी के संपर्क में हूं. वह अपनी पत्नी नीला और बेटे पार्थ के साथ मेरे पास मुंबई भी घूम गया है. न पूछूं तो भी यतिन के हालचाल दे ही देता है. उसे पता है मैं जीवन में कहां अटकी रह गई हूं.

फिर बोला, ‘‘ठीक है, अब आराम कर ले.’’

फोन रख कर मैं ने रूम का जायजा लिया, ठीक है, रूम का करना क्या है, कल वापस चली जाऊंगी. मैं ने कपड़े बदले, कोरोना टाइम ने आदत डाल दी है कि अब भी कहीं से आओ तो कपड़े बदल कर ही बैड पर लेटना है. मैं ने सुनील से झूठ बोला था कि मुझे सोना है. इस शहर में भला इश्क के मारों को नींद आ सकती है?

2 बज रहे थे. मैं ने अपना शोल्डर बैग उठाया, होटल से बाहर निकली और सीधे संजय नगर की तरफ चल पड़ी पैदल. मुंबई में इतने साल बिताने के बाद अब इतनी दूरी दूरी नहीं लगती. पैदल चलने की जगह मिले तो चलना अच्छा लगता है. पर दुनिया में इतनी भीड़ क्यों बढ़ती जा रही है. कौटन मिल एरिया में पहुंच कर मेरे कदम सुस्त हो गए, उदासी वाली सुस्ती थी. वह रहा पहली फ्लोर पर मेरा घर. सामने ही. अंदर नहीं जाऊंगी. मम्मीपापा याद आते हैं. दिल और उदास होगा. मैं थोड़ी देर आसपास देखती रही. सब नए चेहरे ही आतेजाते दिख रहे थे. चौराहे का गुलमोहर का पेड़ नहीं बदला था. मैं ने उस के पास जा कर उसे छुआ. एक दिन यतिन और मैं तेज बारिश में यहीं खड़े हुए थे. मैं ने फिर दूर की बिल्डिंग पर नजर डाली. हां, यहीं रहता है वह. इसी पेड़ के नीचे खड़े हो कर वह मेरे कालेज जाने का इंतजार करता था.

दिल अजीब सा घबराया, तो मैं तेज कदमों से वहां से निकल गई. पैदल चलतेचलते मैदागिन आई. काफी भीड़ थी. अक्तूबर का महीना था. मैं ने इधरउधर चलते हुए चारों तरफ नजर दौड़ाई. हां, यही है. राधा मिष्टान्न भंडार. हमारा हर तीसरे दिन खानेपीने का यही अड्डा था. अब तो बैठने की जगह साफसुथरी लग रही है. मैं चुपचाप एक चेयर पर बैठ गई. एक लड़का और्डर लेने आया कि क्या चाहिए, मैडम? मैं ने कहा कि 1 लस्सी.

1 कचौरी जलेबा. वह चला गया. मेरे अंदर जैसे आंसुओं का एक सैलाब सा उमड़ने को आया जिसे मैं ने रोक लिया. मैं कितनी अकेली हूं. यह मेरा शहर था. यतिन के कारण मेरा सबकुछ छूट गया. प्रेम कितना कष्ट, कितना अकेलापन दे देता है.

जल्द ही लड़का मेरा और्डर ले आया. कचौरी जलेबा यतिन की पसंद है. मैं लस्सी पीती थी. मु?ो भूख लगी थी. मैं धीरेधीरे खातीपीती रही. आसपास के लोगों की नजरों में वही शाश्वत भाव थे, अकेली लड़की. कैसे आराम से खा रही है. मुंबई की एक बात अच्छी है कि वहां लोग किसी भी अकेली लड़की को ऐसे बैठे देख कर हैरान नहीं होते. अब 3 बज रहे थे. मैं फिर चल पड़ी. गोदौलिया तक चलती रही, फिर काशी विश्वनाथ की गलियों में घूमती रही.

बनारस काफी बदल गया है, कुछ विकास तो दिख रहा है. सड़कें अच्छी बन गई हैं, शहर कुछ सुंदर तो लग रहा है. अपना भी लगता अगर मम्मीपापा होते या यतिन ही. यतिन, मैं तुम्हें माफ नहीं करूंगी. तुम ने मु?ो इस दुनिया में तनहा कर दिया है. मैं कैरियर में इतनी सफल. देशविदेश घूमती हूं पर तुम्हें भुला नहीं पाई और तुम यहां अपना संसार सजा कर बैठे हो. बेवफा इंसान.

मैं हर उस गली में घूमी जहां मैं यतिन के साथ घूमा करती थी. 6 बजे मैं दशाश्वमेध घाट जा कर नीचे जाने वाली सीढि़यों के एक कोने में बैठ गई. यतिन और मेरा कोना. मैं और यतिन कई बार यहां सुबह ही कालेज जाने से पहले आते थे, यहां बैठते थे. यतिन के मुंह से अख्तर शीरानी का यह शेर जरूर निकलता था:

‘‘हर एक को भाती है दिल से फिजा बनारस की,

वो घाट और वो ठंडी हवा बनारस की,

तमाम हिंद में मशहूर है यहां की सहर

कुछ इस कदर है सहर खुशनुमा बनारस की.’’

अपना बैग अपनी गोद में रख कर मैं ने दीवार से सिर लगाया और बस अब मेरा धैर्य चुक गया, हिम्मत टूट गई. मेरी आंखों से आंसू बह निकले, मेरी हिचकियां बंध गईं. इस समय मेरे औफिस का कोई भी कलीग मु?ो देखता तो यकीन न कर पाता कि यह मैं हूं.

औफिस में हरदम खिलखिलाती, कर्मठ, जोशीली, ऐक्टिव, एडवैंचरस लड़की घाट पर यों बैठ कर लुटीपिटी रो रही है. हां, अंदर से मैं ऐसी ही हूं, अकेली, दुखी, निराश. मन करता है पति हो, बच्चे हों, एक दुनिया हो पर यतिन का क्या करूं जो दूर रह कर भी मेरे साथ हरदम

रहता है. उस का प्रेम दिल में ऐसी धूनी रमा कर बैठा है कि हिलने को तैयार नहीं. कितना जिद्दी होता है प्रेम.

शादी में जाना है, टाइम हो रहा है, तैयार होना है, सोच कर मैं वहां से होटल आ गई.

दोस्तों के फोन पर फोन आने शुरू हो गए थे. मैं ने आ कर शौवर लिया. अब थकान थी, मन हुआ सब छोड़ कर थोड़ी देर सो जाऊं. शुभी की शादी न होती तो आती भी न. दिल भारी था पर तैयार होना ही था. यतिन की पसंद की गुलाबी रंग की प्लेन शिफौन साड़ी खरीद कर लाई थी. साथ में नाखुक सा डायमंड सैट पहना, खुद को शीशे में देखा तो अच्छा लगा, कुछ देर देखती रही, आंखें बंद कीं, कल्पना की जैसे यतिन ने पीछे से आ कर गरदन चूम ली हो. होंठों पर एक मुसकान आ गई तो आंखें खोलीं. कहीं कोई न था. हम सब दोस्त सोशल मीडिया पर भी एकदूसरे से जुड़े हैं,. बस मैं और यतिन नहीं जुड़े. सुना है वह सोशल मीडिया पर है ही नहीं. इसलिए मुझे नहीं पता कि अब वह कैसा दिखता होगा. मैं तैयार हो गई तो सुनील ने मेरे लिए अपनी कार भेज दी. थोड़ी दूर के एक होटल में ही शादी थी. दोस्तों को देख कर दिल भर आया. सब बहुत प्यार से मिले. सब बहुत अच्छे लग रहे थे. उम्र थोड़ा असर दिखा रही थी पर सभी अच्छे लग रहे थे. शुभी को तो मैं ने देर तक गले से लगाए रखा. हंसीमजाक का दौर शुरू हुआ तो माहौल खिल उठा. हम सब पासपास के सोफों पर बैठ गए. सुनील और नीला काफी व्यस्त थे.

मैं ने कहा, ‘‘तुम हम लोगों की चिंता मत करो. हम घर के ही लोग हैं, दूसरे मेहमानों को देखो.’’

दिल जिसे ढूंढ़ रहा था. उस का कहीं अतापता ही नहीं था. किसी से पूछा भी नहीं गया. दोस्त तो दोस्त हैं, समझ गए.

मीना ने पूछा, ‘‘किसी का इंतजार कर रही हो क्या?’’

मैं हंस पड़ी पर चुप रही. उस ने मुझे एक तरफ देखने का इशारा किया. देखा, यतिन मेरी पसंद की ब्लैक शर्ट, क्रीम ट्राउजर में चला आ रहा था. उस के साथ उस की पत्नी थी जिस ने साथ चल रहे बेटे का हाथ पकड़ रखा था. यतिन की गोद में एक छोटी गोलमटोल प्यारी सी बच्ची थी. परफैक्ट फैमिली पिक्चर चली आ रही थी. यतिन मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया. उस की गहरी आंखों में बेचैनी का एक समुंदर जैसे उमड़ा चला आ रहा था.

कहने लगा, ‘‘कैसी हो, कोमल? इन से मिलो, यह मीता, बेटा यश और बेटी समृद्धि.’’

मैं बुरी तरह चौंकी. मैं उस से हंसहंस कर कहा करती थी कि जब हमारी शादी हो जाएगी. हम अपने बच्चों का नाम यश और समृद्धि रखेंगें. भरापूरा घर लगा करेगा.

मीता ने मुसकराते हुए हायहेलो किया. मीता भी मुझे अच्छी लगी. फिर वह सब से मिला. वह सब से हंसबोल रहा था पर उस की नजरें मुझ पर टिकी थीं. मीता को भी यहां कई लोग जानते थे. मैं उस के बच्चों के नाम पर अटक गई थी. मैं ने उस की पसंद का, उस ने मेरी पसंद का रंग पहना था. वह कोशिश कर रहा था कि उस की बेटी उस की गोद से थोड़ी देर उतर जाए. मीता भी कोशिश कर रही थी कि उसे गोद में ले ले. फिर सब इस बात पर हंसने लगे.

यतिन बताने लगा, ‘‘यह मुझे छोड़ती ही नहीं है. जितनी देर घर पर रहता हूं मुझसे पूरी ड्यूटी करवाती है.’’

यतिन जितनी भी बातें कर रहा था, मुझे लग रहा था कि वह मुझे बताना चाहता है, मुझसे अपनी बातें करना चाहता है पर सीधे कर नहीं पा रहा है. फिर वह बच्ची को वहां घूम रहे वेटर्स से एक गिलास जूस ले कर पिलाने लगा. यश और बच्चों के साथ मस्त हो गया. मीता मुझसे 3 सोफे दूर ही बैठी हुई थी. स्नैक्स चलते रहे. अचानक यतिन उठ कर खानेपीने के स्टाल्स का एक चक्कर लगा कर आया और मु?ा से आ कर कहने लगा, ‘‘टमाटर चाट भी है, जाओ, खा लो.’’

मेरा दिल जैसे थमने को हुआ. उफ, यह आज भी नहीं भूला कि टमाटर चाट मुझे इतनी पसंद थी कि मैं रोज खा सकती थी. मैं ने उस की आंखों में देखा, जबां चुप भी रहे तो भी आंखें कितनी बातें कर सकती हैं, यह मैं ने इस पल जाना. और जो उस की नजरों ने कहा, मेरा बेचैन  दिल शांत होता चला गया. हां, वह भी मुझे भूल नहीं पाया था. उसे भी मैं याद आती हूं, मेरी 1-1 बात उसे आज भी याद है.

फिर बोला, ‘‘कल शाम को कितने बजे की फ्लाइट है?’’ मैंने कुछ नहीं कहा. थोड़ी हैरान थी कि उसे पता है कि मैं कल ही जा रही हूं. मेरी खबर रखता है.

‘‘आज दिनभर क्या किया?’’

‘‘सब पुरानी जगहों पर अकेले घूमी?’’

‘‘मुझे भी बुला लिया होता.’’

‘‘आदत है मुझे.’’

‘‘इसी बात का तो दुख है.’’

आज मैं उसे नए रूप में देख रही थी, अपनी पत्नी और बच्चों का ध्यान रखते हुए एक पुरुष के रूप में. अपनी प्रेमिका से बरसों बाद मिलने पर एक बेचैन से प्रेमी के रूप में. शादी के प्रोग्राम चलते रहे थे. पर हम दोनों लगातार एकदूसरे को जीभर कर देख रहे थे. चलते हुए मीता ने कहा, ‘‘आप अभी हैं तो घर हो कर जाना.’’

‘‘नहीं, मैं तो कल ही जा रही हूं,’’ कह मैं यतिन को परिवार के साथ जाते देख रही थी.

अचानक वह पत्नी को वहीं छोड़ कर जल्दीजल्दी चल कर वापस आया, पूछा, ‘‘अब कब आओगी?’’

मेरा मन हुआ मैं उस से लिपट कर रो पड़ूं सब भूल जाऊं. मगर मैं ने बस ‘न’ में गरदन हिला दी. वह सुस्त कदमों से लौट गया. कैसे कहूं यतिन तुम्हारे शहर में आना इतना आसान नहीं है. कदमकदम पर यादें बिखरी हैं जिन्हें समेटने में मेरा दिल लहूलुहान हुआ चला जा रहा है. इस बार मेरे दिल ने मुझे ‘चल झूठी’ नहीं कहा.

स्वयंसिद्धा : घर की लड़ाईझगड़े को खत्म करने के लिए प्रेरणा ने क्या किया

‘‘मैम,मुझे बहुत अच्छी इंग्लिश बोलनी है, बिलकुल आप की तरह,’’ उस पतलीदुबली प्यारी सी लड़की ने जब यह बात मुझ से कही तो मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्यों नहीं तुम मुझ से भी अच्छा बोलोगी, बस थोड़ा प्रैक्टिस की जरूरत है.’’

मैं एक शिक्षिका हूं और मेरी छोटी सी क्लास है जिस में मैं इंग्लिस सिखाती हूं. 28 साल का यह सफर बहुत ही रंगबिरंगा रहा है. इस में मु?ो कितना कुछ सीखने को मिला है, खासतौर पर आजकल के युवाओं से. इन का जीवट, आगे बढ़ने के लिए लगन, हमेशा नया सीखने और

कुछ कर गुजरने की जो चाह है वह बहुत ही प्रशंसनीय है.

यह कहानी है मेरी ही कक्षा की एक लड़की की. एक ऐसी लड़की जो विपरीत परिस्थितियों में भी कीचड़ में कमल की तरह खिली और जिस ने विषम परिस्थितियों पर जीत हासिल करी. लड़की का असली नाम तो कुछ और है पर पाठकों के लिए हम उस का नाम प्रेरणा रखते हैं. आखिर उस का जीवन भी इतना प्रेरणादायी जो है.

प्रेरणा का बचपन बहुत ही कठिनाइयों से भरा था. वे 6 भाईबहन थे. मां दूसरों के घर में काम करती थीं तथा उस के पिता फलों व सब्जियों की दुकान लगाते थे. घर में दादादादी भी थे. प्रेरणा की 2 बहनें थीं और 3 भाई. उस के पिता और मां में बहुत ?ागड़ा होता था क्योंकि पिता किसी भी लड़की को पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे और मां अपने सभी बच्चों को पढ़ाना चाहती थीं. पिता के अनुसार उन की मेहनत की कमाई लड़कियों की पढ़ाई पर जाया हो रही है. लड़के पढ़ना नहीं चाहते थे तो भी उन्हें मजबूरन पढ़ाई करनी पड़ रही थी. तीनों बहनें पढ़ाई में बहुत होशियार थीं. जो एक बात उन के पक्ष में थी, वह थी उन के दादाजी का समर्थन. दादाजी को बहुत चाव था कि उन के सभी पोतेपोतियां खूब पढ़ेंलिखें. लड़कों से तो उन्हें कुछ खास उम्मीद नहीं थी पर लड़कियों की शिक्षा बंद करने के पक्ष में वे बिलकुल नहीं थे. इसी वजह से प्रेरणा के पिता ज्यादा कुछ नहीं कर पाते थे. सिर्फ लड़ाई?ागड़ा कर के ही अपना असंतोष जाहिर करते थे. दादाजी का बनवाया हुआ छोटा सा घर था जिस में ये सब रहते थे इसलिए उन का कहना प्रेरणा के पिता मजबूरी में मान लेते थे.

जब प्रेरणा का 10वीं का परिणाम आया तो वह भागती हुई रिजल्ट दिखाने को पिता के पास गई, ‘‘पापा, देखिए मैं फर्स्ट क्लास पास हो गई हूं, मेरे 70त्न नंबर आए हैं.’’

बेटी को शाबाशी देना तो दूर, पिता ने रिजल्ट को आंख उठा कर भी नहीं देखा और वहां से उठ गए. पर प्रेरणा के दादाजी और मां बहुत खुश हुए. दादाजी ने उसी समय सौ रुपए का एक नोट उस के हाथ में रखा.

‘‘प्रेरणा की पढ़ाई हो गई, वह अब आगे नहीं पढ़ेगी. मैं लड़के देख रहा हूं, यह अब शादी कर के जाए तो एक बला टले,’’ इतने अच्छे रिजल्ट के बाद पिता की यह प्रतिक्रिया सुन कर प्रेरणा तो हक्कीबक्की रह गई.

उस की दादी ने भी उस की मां से कहा, ‘‘इसे घर के कामकाज सिखाओ. हम लोग इतने अमीर नहीं हैं कि लड़की को आगे पढ़ा सकें. बहनों की भी पढ़ाई छुड़वाओ और घर के कामों में लगाओ.’’

मगर प्रेरणा के दादाजी अड़ गए कि सभी बच्चे पढ़ेंगे. दादी और पिता उस दिन दादाजी से खूब ?ागड़े. बाकी भाई तो मौका मिलते ही घर से निकल कर यह जा और वह जा हो गए. लड़कियां बेचारी सुबकती, सहमती मां के साथ दूसरे कमरे और रसोईघर में खड़ी रहीं.

प्रेरणा अब तक मु?ा से काफी खुल चुकी थी. पता नहीं उसे मु?ा में क्या दिखता था पर यह सब उस ने ही एक दिन बताया. शायद उसे मु?ा में एक हमदर्द दिखाई देने लगा था.

मैं ने एक दिन कहा, ‘‘मेरी तुम्हारी मां से मिलने की बड़ी इच्छा है. बहुत ही जीवट वाली होंगी जो सबकुछ सह कर भी तुम्हारे साथ खड़ी हैं.’’

अगले ही दिन वह अपनी मां को ले कर क्लास आ गई. एकदम सीधीसरल घरेलू महिला थीं वे. मु?ो हाथ जोड़ कर बस इतना ही बोलीं, ‘‘मैडम, इसे आप का बहुत सहारा है. आप बस इस की इंग्लिश इतनी अच्छी कर दो कि यह बैंक की परीक्षा दे सके.’’

मैं ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, यह तो खुद ही

बहुत होशियार बच्ची है. बैंक परीक्षा जरूर क्लीयर करेगी.’’

इस पर मांबेटी दोनों मुसकराने लगे. इस के बाद तो प्रेरणा मुझ से पूरी तरह खुल गई. अब हर छोटी बात पर वह मुझ से सलाह अवश्य लेती.

उन दोनों के कहने पर मैं 2-3 बार प्रेरणा के घर भी हो आई थी. हां, पर मैं शाम को ही उस के घर गई थी क्योंकि प्रेरणा ने कहा था उस टाइम पर उस के पापा घर पर नहीं होते. उन्हें नहीं पता था कि उस ने इंग्लिश की क्लास जौइन की हुई है. कुछ दिन बाद उस ने 10वीं के बाद के संघर्ष और अपने वर्तमान की जो कहानी सुनाई, वह कुछ इस तरह थी…

2 कमरों के छोटे से घर में सभी लड़ते?ागड़ते अपने को कोसते, तो कुछ ऊपर उठने का प्रयास करते, एकसाथ रह रहे थे. पर चूंकि यह किसी फिल्म की कहानी नहीं थी तो प्रेरणा के घर या घर वालों के स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया. पिता गरजतेबरसते रहते, दादी लड़कियों व उन की मां को कोसती रहतीं. भाई सब आवारा हो गए थे और कोई टोकने वाला नहीं था. दादाजी का कहा वे एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देते थे पर प्रेरणा के पिता उन्हें ले कर निश्चिंत थे. पिता के अनुसार वे मर्द बनना सीख रहे थे. सिगरेट फूंकना, घर के बाहर घूमना, दोस्तों की टोली के साथ जुआ खेलना और पिता व दादाजी से छिपा कर स्कूल न जाना उन के काम थे. बहनों और मां को सब पता होते हुए भी कोई कुछ नहीं कर पा रहा था. तीनों भाई घर में शेर थे और पिता के साथ उन के सुर में बोलने लगे थे, हालांकि तीनों बहनों से छोटे थे.

बस, यही प्रेरणा का जीवन था. उस के पास न टेलीविजन था और न कोई और मनोरंजन का साधन. दुकान से बस किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. प्रेरणा दादाजी की पैंशन की मदद के सहारे ग्रैजुएशन कर चुकी थी. उस की व अन्य बहनों की शादी भी वे अब तक टलवाने में सक्षम रहे थे. फिर एक दिन वे चल बसे. अब तो पिता और दादी को खुली छूट मिल गई, लड़कियों को बेमतलब तंग करने व ताने मारने की. पत्नी के साथ मारपीट का सिलसिला भी दादाजी के जाने के बाद शुरू हो गया था. लड़कियां अभी तक मारपीट से बची हुई थीं.

एक दिन अचानक प्रेरणा पिता ने कहा कि उन्होंने एक बहुत अच्छा लड़का उस के लिए देखा है. इस समय तक प्रेरणा बराबर क्लास आ रही थी व काफी अच्छी इंग्लिश बोलने लगी थी. उसी ने अगले दिन मु?ो कहा कि उस के पिता ने फिर उस की शादी की बात छेड़ी है. उस के घर में जब उस की मां ने पूछा कि वह लड़का क्या करता है, तो उस के पिता ने कहा कि वह प्रेरणा के कालेज के बिलकुल सामने काम करता है. सब बड़े हैरान हुए क्योंकि लड़कियों और उन की मां को प्रेरणा के पिता पर बिलकुल भरोसा नहीं था.

जब प्रेरणा ने ही जोर दे कर पूछा कि पापा, मगर लड़का करता क्या है? तो प्रेरणा के पिता बोले, ‘‘उस का खुद का सैंडविच स्टौल है, तू चाहे तो उसे मिल सकती है.’’

जब प्रेरणा ने लड़के की शिक्षा के बारे में पूछा तो पता चला कि वह तो 10वीं फेल है. इधर प्रेरणा एमकौम में एडमिशन ले कर बैंक परीक्षा की तैयारी कर रही थी. मां उस की फीस के पैसे भर देती थीं. इंग्लिश क्लास के लिए तो उस की मां ने छिपा कर रखे हुए पैसे दे दिए थे.

मेरी क्लास के एक लड़के अनुभव ने ही उस से क्लास में बोला, ‘‘अरे, अगर पापा शादी सैंडविच वाले से करना चाहते हैं तो मिल क्यों नहीं लेती? क्या बुराई है? तेरे पिताजी भी तो अपने स्टैंडर्ड का ही लड़का ढूंढ़ेंगे न? हर बार उन को गलत ठहराना उचित है क्या?’’

इस पर प्रेरणा की बड़ीबड़ी आंखों में आंसू भर आए. बोली, ‘‘सैंडविच स्टौल में कोई बुराई नहीं है, मगर मैं एमकौम के साथसाथ बैंक परीक्षा दूंगी और लड़का 2 बार 10वीं फेल. ऐसे में मन का मेल कैसे होगा?’’

अनुभव फिर बोला, ‘‘शादी करनी है तो अभी क्यों नहीं?’’

इस पर प्रेरणा बोली, ‘‘अभी मेरे कैरियर का सवाल है. मेरे दादाजी पिछले साल गुजर गए इसलिए पिताजी अपनी मनमानी कर रहे हैं. लेकिन उन की सब्जी की दुकान भी उस स्टौल से बड़ी है. उन्हें न लड़के में कोई गुण दिखाई देता है न ही मु?ा में. बस किसी तरह से मेरी शादी कर के मु?ो घर से बाहर निकालना है.’’

हम लोग उस की बातें सुन कर चौंक गए थे. अनुभव से मैं ने चुप रहने को कहा और पूछा, ‘‘अब तुम क्या करोगी प्रेरणा?’’

‘‘कुछ नहीं मैम. जैसे अब तक लड़ती आई हूं वैसे ही आगे भी अपना रास्ता खुद ही बनाऊंगी.’’

मैं ने पूछा, ‘‘मगर कैसे? अब तो दादाजी भी नहीं हैं.’’

‘‘दादाजी नहीं हैं तो क्या हुआ? मेरी मां तो अभी भी मेरे साथ हैं. मु?ो आप की क्लास में जितने कोर्स हैं, सब करने हैं ताकि मैं अपनी मंजिल को पा सकूं.’’

मैं ने फिर भी कहा कि मैं उस के पिता को सम?ा सकती हूं, तो वह बोली, ‘‘मैम, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. अगर मेरे पापा ने या भाइयों ने आप के साथ कुछ बदतमीजी की या कोई भी उलटीसीधी हरकत की तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगी. आप बस मु?ो हमेशा इसी तरह संबल और हिम्मत देती रहें.’’

उस की बातें सुन कर मैं मुसकरा उठी. इस घटना के 2-3 दिन बाद मैं ने ध्यान दिया कि अनुभव चुपचाप प्रेरणा को देखता रहता था. जब मैं कुछ सम?ाती तो उस की नजरें सिर्फ प्रेरणा पर टिकी होती थीं. मेरे द्वारा उसे 1-2 बार ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर वह सकपका गया. अब वह प्रेरणा की क्लास में मदद कर देता था व उस को नोट्स भी सम?ा देता था. वे लोग आपस में हंसनेबोलने भी लगे थे और उन की काफी दोस्ती भी हो गई थी क्योंकि इस तरह की बातें इस उम्र में आम होती हैं.

मैंने अनुभव को तो कुछ नहीं कहा मगर प्रेरणा से बात करने की जरूर ठान ली. हालांकि अगले दिन प्रेरणा ने खुद ही अनुभव का जिक्र कर के मु?ो हैरान कर दिया. वह बोली, ‘‘मैम, कल अनुभव ने मुझसे कहा है कि वह अपनी जिंदगी मेरे साथ बिताना चाहता है.’’

मैं यह सुन कर अचरज में पड़ गई. आजकल की जैनरेशन समय बरबाद करने में बिलकुल विश्वास नहीं करती है. इसलिए इसे फास्ट ट्रैक जैनरेशन कहते हैं. मैं ने पूछा, ‘‘और तुम ने उसे क्या कहा?’’

वह बोली, ‘‘मैम, मेरा तो एक ही लक्ष्य है कि मु?ो बैंक परीक्षा पास कर के एक अच्छी सी नौकरी करनी है बस.’’

मैं ने प्यार से उस का गाल सहला दिया. मगर दोनों की इस इस कहानी को न यहां थमना था और न ही खत्म होना. अनुभव ने प्रेरणा से कहा कि वह भी उस के साथ बैंक की परीक्षा देगा और भविष्य में कुछ बन जाने पर ही वे अपने कल के बारे में कुछ सोचेंगे. हां, उस ने प्रेरणा के साथ पढ़ाई करने की इच्छा जताई तो प्रेरणा ने सहर्ष हामी भर दी.

प्रेरणा ने 1 महीने बाद मां के दिए हुए पैसों से बैंक परीक्षा की कोचिंग शुरू की और मेरी क्लास में भी एडवांस्ड इंग्लिश कोर्स करने लगी. अनुभव ने भी एडवांस्ड कोर्स में एडमिशन ले कर उसी की कोचिंग क्लास जौइन कर ली. उन दोनों का उत्साह देखते ही बनता था पर दोनों की एक खूबी यह भी थी कि पढ़ाई के अलावा मेरी क्लास में वे लोग कोई बेसिरपैर की बात नहीं करते थे. अब तक अनुभव को पता चल चुका था कि प्रेरणा अपनी सभी बातें सिर्फ मुझ से और अपनी मां से शेयर करती है. यह सब सुन कर वह भी मुझ से खुलने लगा था. उस ने अपने बारे में बताया कि वह बहुत ही लाड़प्यार से पला हुआ, अपने मातापिता का इकलौता लड़का था, इसलिए प्रेरणा का नजरिया नहीं सम?ा पाया था. पर अब उस के संघर्ष में वह हर कदम पर उस का साथ देना चाहता है.

दोनों का क्या गजब का जज्बा था. उधर कुछ दिन बाद घर में प्रेरणा ने उस सैंडविच स्टौल वाले से शादी के लिए मना कर दिया. नौबत हाथापाई तक आ पहुंची तो प्रेरणा ने फोन कर के मु?ो भी बुला लिया. उस से पूछ कर मैं ने पुलिस को भी सूचित कर दिया. पुलिस तुरंत उस के घर पर आ पहुंची. मैं ने व उस के पड़ोसियों ने मिल कर उस के पिता को सम?ाने की कोशिश की पर उन्होंने मु?ा से कहा, ‘‘मैडम, मेरी और भी लड़कियां हैं और मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं इन सब को पढ़ा सकूं. इन की शादी हो जाए तो मेरा सिरदर्द खत्म हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘तो उस के लिए क्या आप इन सब को मारेंगे पीटेंगे?’’

डोमैस्टिक वायलैंस के केस में वहां खड़े पुलिस औफिसर ने जब प्रेरणा के पिता को जेल में डालने की बात की तो मां ने भी अपनी बेटी का ही साथ दिया. यह देख कर प्रेरणा के पिता पुलिस के आगे घिघियाने लगे. तब प्रेरणा ने अपनी शिकायत वापस ले ली और पिता को जेल जाने से बचा लिया. उस के बाद उन की मारपीट का सिलसिला थोड़े दिनों के लिए रुक गया.

फिर एक दिन वह भी आया जब प्रेरणा मुसकराती हुई मेरे सामने मिठाई का डब्बा लिए खड़ी थी, ‘‘मैं ने परीक्षा क्लीयर कर के एक बैंक में अप्लाई किया था मैम. मुझे जौब औफर मिल गया है.’’

मैं हैरान हो कर उसे देखती रह गई. एक मामूली सी दिखने वाली दुबलीपतली लड़की और इतनी मुश्किल लड़ाई. लेकिन आज वह जीत कर स्वाभिमान और गर्व से दपदपाता मुखमंडल लिए, आत्मविश्वास से परिपूर्ण मेरे सामने खड़ी थी. प्रेरणा आज सचमुच कइयों के लिए एक उदाहरण बन, अपनी पहली उड़ान भरने को तैयार थी.

‘‘और अनुभव का क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘उस ने भी परीक्षा क्लीयर कर के एक इंटरनैशनल बैंक में अप्लाई किया था जहां उसे भी जौब मिल गई है,’’ कहतेकहते वह शरमा गई. उस की आंखों में अपने नए जीवन के सपनों ने जन्म लेना शुरू कर दिया था.

‘‘अब कोई फिक्र नहीं है. अगर पापा ने ?ागड़ा किया या कुछ भलाबुरा कहा तो मैं कुछ दिनों में अलग घर किराए पर ले कर अपनी मां व बहनों के साथ चली जाऊंगी. तब देखते हैं इन का क्या होगा,’’  प्रेरणा बोली.

मेरा उस के घर अब जाना नहीं हो पाता था क्योंकि वह अपनी जौब में बिजी हो गई थी. अनुभव भी दूसरे शहर में जौब कर रहा था पर इस दौरान पूरे समय प्रेरणा की हिम्मत बंधाने के लिए बीचबीच में छुट्टी ले कर उस से मिलने आता रहता था. मैं फोन पर ही दोनों के साथ बात कर के उन के हालचाल ले लेती थी. प्रेरणा ने ही फोन पर एक दिन मु?ो बताया कि अनुभव बाकायदा उस के लिए रिश्ता लेकर उस के घर पहुंचा था और उस के मांपापा से उस का हाथ मांगा था. हालांकि दोनों ने ही अपने घर वालों से यह बात छिपा रखी थी. अनुभव ने परिवार वालों को जौब लगने के बाद ही उस के बारे में बताया था. प्रेरणा के घर वालों को लगा कि उस का रिश्ता उस की अच्छी जौब की वजह से आया है. घर में सब की हां हो जाने पर प्रेरणा ने अपनी मां को सचाई बता दी. उस की मां ने भी प्यार से उस की पीठ थपथपा कर अपनी सहमति दे दी.

फिर एक दिन ठीक 6 महीने बाद प्रेरणा और अनुभव दोनों मेरे सामने अपनी शादी के

कार्ड ले कर खड़े थे. प्रेरणा तो एक किलोग्राम का कलाकंद का डब्बा भी लाई थी, ‘‘मैम, आप न होतीं तो इस जु?ारू लड़की से मैं कभी न मिल पाता,’’ अनुभव बोला.

फिर दोनों इकट्ठे बोले, ‘‘आप को आशीर्वाद देने के लिए हर फंक्शन में आना होगा मैम.’’

मेरी आंखें इतना प्यार देख कर डबडबा उठीं. दोनों को कलाकंद का 1-1 पीस खिलाते हुए मैं ने दोनों की खुशी की ढेरों मंगल कामनाएं कीं.

अब आप यह भी जरूर जानना चाहेंगे कि प्रेरणा के घर में आगे क्या हुआ? प्रेरणा शादी से पहले ही तीनों भाइयों को छोटीमोटी नौकरी पर लगवा चुकी थी. उन का जीवन भी एक ढर्रे पर आ गया था. आखिरकार उस के पिता ने हार स्वीकार कर उस की बहनों को आगे पढ़ाई की अनुमति दे दी. बेटी को कमाता देख शायद उन्हें भी अक्ल आ गई थी.

जो भी हो, प्रेरणा के अनुसार, अब उन के घर से लड़ाईझगड़े की आवाजें आनी बिलकुल बंद हो गई थीं. दुख भी अपने घुटने टेक कर हार मान चुका था. वह और अनुभव अपने नए जीवन में बहुत सुखी थे. यही सब बताने के लिए उस ने हनीमून से लौटते ही मुझे फोन किया था.

मैं ने यह सुन कर मुसकराते हुए एक राहत की सास ली और एक नई ऊर्जा से भर क्लास को सिखाने में लग गई.

यह सफर बहुत है कठिन मगर…

पति के आने की प्रतीक्षा करती हुई युवती जितनी व्यग्र होती है उतनी ही सुंदर भी दिखती है. माहिरा का हाल भी कुछ ऐसा ही था.

आज माहिरा के चेहरे पर चमक दोगुनी हो चली थी. वह बारबार दर्पण निहारती अपनी पलकों को बारबार ?ापकाते हुए थोड़ा शरमाती और अपनी साड़ी के पल्लू को संवारने का उपक्रम करती. माहिरा की सुडौल और गोरी बांहें सुनहरे रंग के स्लीवलैस ब्लाउज में उसे और भी निखार प्रदान कर रही थीं. आज तो मानो उस का रूप ही सुनहरा हो चला था.

माहिरा ने अपने माथे पर एक लंबी सी तिलक के आकार वाली बिंदी लगा रखी थी जो कबीर की पसंदीदा बिंदी थी.

माहिरा बारबार अपनेआप को दर्पण में निहारते हुए गुनगुना रही थी, ‘सजना है मुझे सजना के लिए… मैं तो सज गई रे सजना के लिए.’

हां, माहिरा की खुशी का कारण था कि आज उस के पति मेजर कबीर पूरे 1 महीने के बाद घर वापस आ रहे थे और अब कबीर कुछ दिन माहिरा के साथ ही बिताएंगे.

कबीर और माहिरा की शादी 2 साल पहले हुई थी. कबीर भारतीय सेना में मेजर थे और माहिरा शादी से पहले एक आईटी कंपनी में काम करती थी पर शादी के बाद माहिरा जौब छोड़ कर हाउसवाइफ बन गई. उस का कहना था कि पति के एक अच्छी नौकरी में होते हुए उसे किसी प्राइवेट जौब को करने की आवश्यकता नहीं है. उस के इस निर्णय में कबीर ने कोई दखलंदाजी नहीं करी. माहिरा के घर में उस के साथ ससुर थे पर कबीर और माहिरा उन के साथ कम ही रह पा रहे थे क्योंकि कबीर की पोस्टिंग अलगअलग जगहों पर होती थी.

कबीर की पोस्टिंग जब शहरी इलाकों में होती थी तब माहिरा कबीर के साथ ही रहती थी पर कभीकभी कबीर को फ्रंट पर अर्थात आतंकियों से निबटने के लिए या पड़ोसी देश की सेना से टक्कर लेने के लिए जाना होता था, तब माहिरा को निकटवर्ती शहर के किराए के मकान में रहना पड़ता था.

जब से माहिरा को कबीर का साथ मिला है तब से उस ने काफी भारत घूम लिया है और हर जगह उस ने ढेर सारे पुरुष और महिला मित्र बनाए है, आजकल सोशल मीडिया का एक फायदा यह भी है कि कोई अजनबी एक बार दोस्त बन जाए तो वह जीवनभर सोशल मीडिया पर आप से किसी न किसी रूप में जुड़ा रह सकता है.

माहिरा के तमाम दोस्त भी उस से चैटिंग और वीडियो कौल करते रहते थे. कबीर को माहिरा के दूसरों के प्रति इस बहुत ही दोस्ताना व्यवहार से शिकायत नहीं हुई बल्कि वे माहिरा के इतने सारे दोस्त होने पर खुशी भी दिखाते थे.

‘‘मेरे पीछे तुम्हें टाइम पास करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती होगी. तुम्हारे इतने सारे दोस्त जो हैं,’’ कबीर चुटकी लेते हुए कहते तो माहिरा बस मुसकरा देती. माहिरा कबीर की घनी और चौड़ी मूंछों को थोड़ा छोटा करने को कहती तो कबीर बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहते कि भला वे अपनी मूंछ छोटी कैसे कर सकते हैं क्योंकि ये मूंछें ही तो एक फौजी की आनबान और शान होती हैं.

माहिरा भी रोमांटिक होते हुए कबीर को बताती कि ये मूंछें उसे इसलिए नहीं पसंद हैं क्योंकि ये माहिरा के चेहरे पर गुदगुदी करती हैं. माहिरा की यह बात सुनते ही कबीर माहिरा को गोद में उठा लेते और उस के चेहरे पर अपनी घनी मूंछों को स्पर्श कराने लगते जिस से माहिरा रोमांचित हो कर अपनी आंखें बंद कर लेती.

माहिरा के आंखें बंद करने के अंदाज पर कबीर तंज कसते हुए कहते, ‘‘तुम औरतों में यही बुराई है कि कभी भी बिस्तर पर ऐक्टिव रोल नहीं प्ले करतीं. अरे भई हम पतिपत्नी हैं

और हमारे बीच सहजता से संबंध बनने चाहिए. कभी तो तुम भी अपना पहलू बदलो या हमेशा बेचारा मर्द ही ऊपर आ कर सारी जिम्मेदारी निबटाता रहे.’’

कबीर की यह बात सुन कर माहिरा शरमा जाती और कहती कि अपने पति की छाती पर सवार हो कर काम सुख लेना उसे अच्छा नहीं लगता और वैसे भी इस तरह प्रेम संबंध बनाने की उस की आदत भी नहीं है.

‘‘प्रैक्टिस मेक्स ए वूमन परफैक्ट मेरी जान… थोड़ा जिमविम जाओ अपने को लचीला बनाओ फिर देखो तुम भी बिस्तर पर कमाल करने लगोगी,’’ कह कर बड़ी चतुराई से कबीर ने अपने शरीर को माहिरा के शरीर के नीचे कर लिया और माहिरा को अपने सीने पर लिटा लिया. माहिरा इस तरह प्रेम संबंध बनाने के प्रयास में धीरेधीरे गति पकड़ने लगी.

इस बार तो कबीर के पीछे माहिरा ने एक जिम जौइन कर लिया था जहां उस ने अपने शरीर को लचीला बनाने के लिए ढेर सारी ऐक्सरसाइज करी और अब उस का बदन पहले से अधिक लचीला और सुडौल हो गया है. इस बार वह कबीर को बिस्तर पर उन के ही स्टाइल में खूब प्यार करेगी. माहिरा यह सब सोच कर रोमांचित हो जाती थी. कमरे में इस समय उस का साथी आईना ही था जिस में वह बारबार अपने को निहार रही थी. अब उसे बेसब्री से कबीर के फोन आने की प्रतीक्षा थी.

कबीर ने कहा था कि वे चलने से पहले फोन करेंगे पर अभी तक तो कोई फोन नहीं आया था. ऊहापोह में थी माहिरा पर तभी उस का मोबाइल बजा. शायद कबीर का फोन ही होगा, मुसकराते हुए माहिरा ने मोबाइल देखा. एक अनजाना नंबर था.

‘‘हैलो,’’ माहिरा ने धीरे से कहा.

उधर से जो स्वर गूंजा, उसे माहिरा कभी याद नहीं रखना चाहेगी क्योंकि उस अजनबी स्वर ने दुख जताते हुए उसे मोबाइल पर कबीर के एक आतंकी हमले में मारे जाने की खबर दी थी.

कबीर शहीद हो चुके थे. अब वे कभी वापस नहीं आएंगे और माहिरा का यह इंतजार कभी खत्म नहीं होगा. एक पल में माहिरा की दुनिया लुट चुकी थी.

माहिरा की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. उस के सीने में अपार दुख भरा था और आंखों में उन दिनों की स्मृतियां घूम गई थीं जो दिन उस ने कबीर के साथ बिताए थे पर अब कुछ नहीं हो सकता था. वह एक विधवा थी. समाज और सरकार ने भले ही एक शहीद की विधवा को  वीर नारी कह कर सम्मानित किया पर इन शब्दों से भला क्या होने वाला था? माहिरा अकेली थी क्योंकि उस का जीवनसाथी कबीर वहां जा चुका था जहां से कोई वापस नहीं आता.

माहिरा के जीवन में एक ऐसा जख्म जन्म

ले चुका था जिसे सरकार के द्वारा दिया गया

कोई भी सम्मान और कोई भी पुरस्कार राशि

भर नहीं सकती थी और इसीलिए माहिरा को

तब भी अधिक खुशी नहीं हुई जब सरकार ने शहीद कबीर को कीर्ति चक्र प्रदान करने की घोषणा करी और एक नियत तारीख पर माहिरा को कीर्ति चक्र लेने दिल्ली राष्ट्रपति भवन जाना था.

कबीर के मातापिता लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में अपने निजी मकान में रहते थे और माहिरा को उन के साथ रह पाने का अधिक समय नहीं मिल पाया था पर जितना भी समय उस ने अपने सासससुर के साथ बिताया उन दिनों की स्मृतियां मधुर नहीं थीं. उस के सासससुर बेहद दकियानूसी और टोकाटोकी करने वाले थे और माहिरा अपने बहुत प्रयासों के बाद भी उन की पसंदीदा बहू नहीं बन पाई थी.

अभी तक उन्होंने माहिरा की खोजखबर नहीं ली थी पर अपने बेटे के शहीद हो जाने के बाद से वे माहिरा के पास ही आ गए थे और कीर्ति चक्र का सम्मान लेने माहिरा के साथ ही गए थे. बातबात में अपने बेटे के लिए उन के द्वारा किए गए त्याग की बातें करने लगते, मीडिया को कई इंटरव्यू में नौस्टैल्जिक होते हुए उन लोगों ने कबीर के बचपन की बहुत सी बातें बताईं और यह भी बताया कि कबीर को आर्मी की नौकरी दिलाने के लिए उन लोगों ने कितना पैसा लगाया और खुद भी कितना त्याग किया है.

सरकार ने माहिरा को वीर नारी का दर्जा देने के साथसाथ लखनऊ कैंट के आर्मी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी औफर करी जिसे माहिरा ने कुछ सोचनेसम?ाने के बाद स्वीकार कर लिया.

घाव भरने के लिए समय से बड़ी कोई औषधि नहीं होती है. जब तक कबीर थे तब तक तो माहिरा ने नौकरी नहीं करी थी पर अब वह एक वर्किंग कामकाजी महिला थी और बिना जीवनसाथी के जीवन जीने का प्रयास कर रही थी.

माहिरा अपनी आंखों में कबीर का एक सपना ले कर जी रही थी. कबीर चाहते थे कि वे एक ऐसा स्कूल खोलें जहां पर गरीब और पिछड़ी जाति के लोग पढ़ाई के साथसाथ आर्मी की भरती के लिए अपनेआप को मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार कर सकें. माहिरा जानती थी कि यह कठिन होगा पर फिर भी कठिनाई को जीतना ही तो जीवन है.

कबीर को गुजरे लगभग 8 महीने हो चुके थे और आज कबीर का जन्मदिन था. माहिरा ने आज स्कूल से छुट्टी ले ली थी और कबीर की पसंद के पकवान बनाने के बाद माहिरा ने हलके गुलाबी रंग की साड़ी के ऊपर सफेद रंग का स्लीवलैस ब्लाउज पहना तो उस के सासससुर की आंखें तन गईं. भले ही माहिरा सादे लिबास में थी पर उन्हें एक विधवा का इस तरह से स्लीवलैस ब्लाउज पहनना नहीं भा रहा था.

माहिरा ने कबीर की तसवीर के सामने खड़े हो कर आंखें बंद कीं और कबीर को याद किया. अभी वह मन ही मन कबीर को याद कर ही रही थी कि कौलबैल की आवाज ने माहिरा का ध्यान भटका दिया. आंखों की नम कोरों को पोंछते हुए माहिरा ने दरवाजा खोला. सामने लोकेश खड़ा था. लोकेश भी माहिरा के साथ कैंट स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर था.

माहिरा ने बैठने का इशारा किया और किचन में चाय बनाने चली गई. माहिरा और कबीर के बीच थोड़ीबहुत बातें हुईं. चाय पी कर लोकेश वापस चला गया. उस के यहां आने का मकसद आज के दिन माहिरा को मानसिक संबल प्रदान करना था.

‘‘बहू, बुरा मत मानना पर एक विधवा को शालीनता से अपना चरित्र संभाल कर रखना चाहिए,’’ सास का स्वर कठोर था.

माहिरा ने जवाब देना ठीक नहीं सम?ा तो सास ने दोबारा तंज कसते हुए माहिरा को अपनी वेशभूषा एक विधवा की तरह रखने का उपदेश दे डाला.

माहिरा ने उत्तर में बहुत कुछ कह देना चाहा पर चुप ही रही. उसे अपने निजी जीवन में सासससुर का दखल देना ठीक नहीं लग रहा था.

2-3 दिन बीतने के बाद जो कुछ माहिरा की सास ने उस से कहा उस बात ने तो माहिरा को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था. हुआ यों था कि बारिश तेज हो रही थी और माहिरा को लोकेश की बाइक से उतरते हुए सास ने देखा और इसी बात पर अपनी दकियानूसी सोच का परिचय देते हुए माहिरा को पतिव्रता स्त्री के रहनसहन के ढंग बताने लगी.

‘‘अरे हमारे लड़के के शहीद हो जाने का दुख तो पहले से हमारे बुढ़ापे पर भारी था उस पर यह सब देखना पड़ेगा यह तो हम ने सोचा भी न था.’’

उन की बातें सुन कर माहिरा का मन छलनी हो गया. आएदिन और बातबात पर अपने लड़के और स्वयं के त्याग का रोना रोने वाले सासससुर अब माहिरा को अखरने लगे थे. वह विधवा हो गई है तो क्या? विधवा हो जाने में माहिरा का भला क्या दोष है? पति को खोने के बाद क्या वह भी जीना छोड़ दे? वह ये सारी बातें सोच कर परेशान हो चली थी.

सासससुर निरंतर यह जताने में लगे हुए थे कि बहू विधवा हो गई है पर उन लोगों ने तो अपना बेटा खोया है इसलिए उन का दुख बहू के दुख से बड़ा है और बेटे को मिले सम्मान और कीर्ति चक्र पर तो माहिरा से अधिक अधिकार उन लोगों का है. कीर्ति चक्र को माहिरा की सास हमेशा अपने हाथ में ही लिए रहती थी.

माहिरा पूरे निस्स्वार्थ भाव से सासससुर का ध्यान रख रही थी. वह सुबह 5 बजे उठ कर नाश्ता बना कर रखती. ससुर को डायबिटीज थी अत: उन के लिए दलिया बनाती और स्कूल से लौटने के बाद लंच में क्या बनाना है उस की तैयारी भी कर के जाती ताकि बाद में उसे कम मेहनत करनी पड़े. सास भी लंच बन जाने का इंतजार ही करते मिलती थी. खाना बनाने और घर के किसी काम में सास का कोई सहयोग नहीं मिलता था.

मगर आज तो माहिरा पूरे 6 बजे जागी और नहाधो कर सिर्फ ब्रैड खा कर स्कूल चली गई. जाते समय सासूमां से लंच बना कर रखने के लिए कह गई और हो सकता है कि उसे आने में देर हो जाए इसलिए सासूमां से डिनर की तैयारी भी कर के रख लेने को कह गई.

अभी तक तो सासससुर माहिरा के फ्लैट में मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे थे पर आज थोड़ा सा ही काम कह दिए जाने पर तिलमिला गए.

जब माहिरा वापस आई तो उस ने देखा कि उस की सास ने घर का कोई काम नहीं निबटाया है. उस के माथे पर सिकुड़न तो आई पर उस ने शांत स्वर में सास से सवाल किया तो सास ने सिर दर्द का बहाना बना दिया. बेचारी माहिरा को ही खानेपीने का प्रबंध करना पड़ा. सासससुर आराम से खाना खा अपने कमरे में सोने चले गए .

अगले दिन भी माहिरा ने जाते समय सामान की एक लंबी लिस्ट अपने ससुर को पकड़ाते हुए कहा कि सोसायटी की शौप में सामान नही मिल रहा है इसलिए वे चौक बाजार जा कर सारा सामान ले आए. माहिरा ने सामान लाने के लिए पैसे भी ससुर को दे दिए और स्कूल चली गई.

माहिरा जब स्कूल से थकी हुई आई तब देखा कि ससुर टीवी के सामने बैठे हुए किसी बाबा को कपाल भाति करते हुए देख रहे हैं और बगल वाले शर्माजी से अपने बेटे की शहादत और बेटे के लिए खुद किए गए त्याग के बारे में बातें कर रहे हैं. ससुर की बातों में बेटे की शहादत का गर्व तो था ही पर उस में वे अपने योगदान का उल्लेख करना भी नहीं भूल रहे थे.

माहिरा ने देखा कि सामान का थैला खाली ही रखा हुआ है. वह सम?ा गई कि ससुर मार्केट नहीं गए. उस ने निराशाभरे स्वर में पूछा तो जवाब मिला कि गए थे पर दुकान ही बंद थी. ससुर के इस जवाब पर माहिरा खीज गई थी पर प्रत्यक्ष में कुछ कह न सकी.

घर का माहौल विषादपूर्ण था. माहिरा अब विडो थी. अभी उस का पूरा जीवन शेष था जिसे वह अच्छे और शांतिपूर्ण ढंग से जीने का पूरा प्रयास कर रही थी पर सासससुर का अपने बेटे के लिए दिनरात रोनाकल्पना और उस की शहादत पर अपना अधिकार दिखाना, माहिरा की सैलरी में भी उन का अपना हिस्सा मिलने की उम्मीद रखना तो ठीक न था.

पिछले कुछ दिनों से सासससुर की टोकाटाकी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी पर उस दिन तो मामला बिगड़ ही गया जब माहिरा लोकेश के साथ उस की बाइक पर फिर बैठ कर आई. हालांकि लोकेश अंदर नहीं आया पर सास ने माहिरा को डांटते हुए कहा, ‘‘मना करने के बाद भी इस आदमी की बाइक पर लिफ्ट ले कर आती हो… एक विधवा को ये चरित्र शोभा नहीं देता और फिर लोग क्या कहेंगे?’’

इस से आगे भी सास बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर आज माहिरा ने सासससुर को आइना दिखाना ही ठीक सम?ा. बोली, ‘‘मु?ो लोग क्या कहेंगे और क्या नहीं, इस की चिंता आप लोग मत करो. मैं कबीर की विधवा हूं और मरते दम तक कोई गलत कदम नहीं उठाने वाली मुझे आप लोगों से मानसिक शांति मिलने की आशा थी पर आप लोग तो शांति छीनने में ही लगे हो,’’ माहिरा की आंखें नम हो चली थीं.

उस ने बोलना जारी रखा और आगे कहा, ‘‘आप लोग कबीर के मांबाप हैं यानी मेरे भी मांबाप के समान ही हैं और मैं आप लोगों के मानसम्मान में कोई कमी नहीं रख रही थी पर आप लोग निरंतर मेरी कमियां ही निकालने में लगे हुए हैं. आप ने अपना बेटा खोया है तो मैं ने भी अपना पति खोया है. हमारे दोनों के दुख में कोई तुलना नहीं करी जा सकती पर आप लोग कहीं न कहीं अपने दुख को बड़ा बता कर महान बन जाना चाहते हैं… चलिए ठीक है आप ही महान बन जाइए पर महानता और बड़ापन सिर्फ बातों से नहीं आता. जब भी मैं ने आप लोगों से घर के काम में सहयोग की अपेक्षा करी आप लोगों ने कोई न कोई बहाना बनाया. और तो और मेरे चरित्र को भी खराब बताने की चेष्टा करी. लोकेश मेरा सहकर्मी है इस से ज्यादा कुछ नहीं पर आप लोगों की सोच को मैं क्या कहूं? पर इतना तो निश्चित है कि हम लोग एकसाथ नहीं रह सकते. आप दोनों बेशक इस फ्लैट में रहिए मैं कहीं और कमरा देख लेती हूं. हां महीने की एक तारीख को आप लोगों के पास पूरा खर्चा भेज दिया करूंगी,’’ कह कर माहिरा अपने कमरे में चली गई और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

सासससुर सन्नाटे में ही बैठे रह गए. शाम को करीब 7 बजे माहिरा अपने कमरे से बाहर निकली तो उसे सासससुर कहीं दिखाई नहीं दिए. उन का सामान भी गायब था. माहिरा ने देखा कि टेबल पर एक परचा रखा हुआ था. उस ने ?ापट कर उसे उठाया और सरसरी निगाह से पढ़ने लगी. लिखा हुआ था- बहू तुम्हें सम?ाने में शायद हम से कुछ गलती हुई जो तुम्हारे चरित्र पर सवाल उठाया और तुम्हारे रहनसहन में टोकाटाकी करी. ऐसा शायद हमारेतुम्हारे बीच का जैनरेशन गैप होने के कारण हुआ.

तुम्हारी दोस्तों से होने वाली वीडियो कौल्स में कुछ गलत नहीं, बेटे को खोने के दुख में हम ज्यादा ही स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो गए थे. तुम एक वीर की विधवा हो और तुम्हारे दुख की तुलना संसार के किसी भी दुख से नहीं करी जा सकती. हमें खेद है कि हम ने तुम्हें मानसिक रूप से परेशान किया. हम चाहते हैं कि स्कूल खोलने का कबीर का सपना तुम पूरा कर सको और अब हम अपने मकान में वापस जा रहे हैं. हां हम यदाकदा और खासतौर से कबीर के जन्मदिन पर वापस तुम से मिलने जरूर आएंगे. आशा है तुम भी एक शहीद के मातापिता का दुख सम?ागी.

माहिरा यह पढ़ कर सोफे पर बैठ गई. उस ने पलकें उठाई और दीवार पर लगी कबीर की तसवीर की ओर देखा, तस्वीर पर कबीर को मिला हुआ कीर्ति चक्र अपनी पूरी शानोशौकत के साथ चमक और दमक रहा था. माहिरा ने महसूस किया कि कबीर की तसवीर मुसकरा उठी है और माहिरा से कह रही है कि यह सफर बहुत है कठिन मगर न उदास हो मेरे हमसफर.’’

पीछे मुड़ कर : आखिर विद्या ने अपने इतने अच्छे पति को क्यों ठुकराया

शाम को 7 बजते ही दफ्तर के सारे मुलाजिम बाहर की ओर चल पड़े. अभिनव भी अपनी सीट से उठा और ओवरसीयर के कमरे के पास जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या हुआ अभिनव तुम गए नहीं? क्या आज भी ओवरटाइम का इरादा है?’’

‘‘हां बड़े साहब, आप तो जानते ही हैं विद्या की ट्यूशन की फीस देनी है फिर उन की किताबे, कापियों का खर्च, पूरे 15-20 हजार का खर्च हर महीने होता है. इतनी सी तनख्वाह में कैसे गुजारा हो सकता है, ओवरटाइम नहीं करूंगा तो भूखे मरना पड़ेगा.’’

जवाब में ओवरसीयर बाबू मुसकरा दिए, ‘‘यह तो हरजाना है अभिनव बाबू एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी रचाने का और उस पर उसे और आगे पढ़ाने का.’’

‘‘हरजाना नहीं है बाबू, यह मेरा फर्ज है. विद्याजी में हुनर है, बुद्धि है, प्रतिभा है. मैं तो सिर्फ एक जरीयामात्र हूं उन के ज्ञान को उभार

कर लोगों तक लाने का और फिर जब वे जीवन में कुछ बन जाएंगी तो नाम तो मेरा भी ऊंचा

होगा न.’’

‘‘हां वह तो है आने वाले कल को सजाने के लिए जो तुम अपना आज दांव पर लगा रहे

हो उस की मिसाल बड़ी मुश्किल से ही मिलेगी मगर ऐसे सपने भी नहीं देखने चाहिए जो तुम

से तुम्हारी नींद ही चुरा लें. कभीकभी इंसान को अपने बारे में भी सोचना चाहिए जो तुम नहीं कर रहे.’’

‘‘मेरी सोच विद्याजी से शुरू हो कर वहीं पर खत्म हो जाती है सर, मुझे हर हाल मे विद्याजी को वहां तक पहुंचाना है जहां की वे हकदार हैं. शादी के बंधन ने उन्हें एक क्षण के लिए बांध जरूर दिया था मगर मेरे होते उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता.’’

9 बजे पारी खत्म कर के अभिनव बाजार में कुछ छोटीबड़ी खरीदारी करते हुए घर पहुंच गया. दरवाजे को हलके से खोल कर उस ने सुनिश्चित किया कि विद्या अपनी पढ़ाई में मशगूल थीं. फौरन हाथमुंह धो कर वह रसोई में घुस गया. खाना बना कर उस ने परोसा और विद्या को खाने के स्थान पर आने के लिए आवाज दी.

‘‘बहुत थक गई होगी न आज, सारा दिन किताबों में सिर खपाना, कभी पढ़पढ़ कर लिखना कभी लिखलिख कर पढ़ना. मेरी तो समझ से ही दूर की बात है.’’

‘‘हां थक तो गई, अभी नोट्स बनाने हैं फिर सुबह सर को दिखाने हैं. तुम भी तो थक गए होंगे न, सारा दिन मेहनत करते हो मेरे लिए.’’

‘‘तुम ने इतना सोच लिया मेरे बारे में मेरे लिए इतना ही बहुत है. अब तुम आराम से अंदर जा कर पढ़ो. मैं कूलर में पानी भर देता हूं और दूध का गिलास भी सिरहाने रख देता हूं. रात को कुछ चाहिए तो आवाज दे देना.’’

‘‘तुम भी अंदर सो सकते हो, बाहर गरमी…’’

‘‘बाहर मौसम बहुत खुशनुमा है और मेम साहब जब तक आप कुछ बन नहीं जातीं मेरे लिए बाहर और अंदर के मौसम में कोई अंतर नहीं है.’’

घर के आंगन में चारपाई लगा कर हाथ में अखबार से हवा करते हुए अभिनव लेट गया. पास की चारपाई पर पड़ोस में रहने वाले शुभेंदु दादा भी आ कर पसर गए. फिर अभिनव से पूछा, ‘‘अगर आप बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? मुझे तो मेरी बीवी घर से निकाल देती है मगर आप क्यों बाहर आ कर सोते हैं?’’

अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘आप रोज मुझसे यह सवाल करते हैं और रोज मैं आप को यही जवाब देता हूं,’’ बाहर नीले आकाश के नीचे, तारों की छांव में सपने साफ दिखते हैं, दूर तक फैला  खुशी का साम्राज्य, हंसी की ?ाल उस पर खुशी की नैया और उस नाव में मैं और विद्याजी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. पीछे मुड़ कर देखने का भी समय नहीं होता. बहुत मजा आता है दादा ऐसे सपनों में जीने का इसलिए मै बाहर सोता हूं.’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं भी तो बाहर सोता हूं मुझे ऐसे सपने क्यों नहीं आते? अच्छा एक और जिज्ञासा थी, कई बार आप से पूछा भी मगर आप टाल गए, वादा कीजिए कि आज नहीं टालेंगे,’’ दादा ने कहा.

‘‘पूछिए दादा, अपना सवाल फिर से दोहरा दीजिए.’’

‘‘आप अपनी पत्नी के लिए इतना कुछ क्यों करते हैं? सुबह से रात तक उन की छोटीबड़ी हर जरूरत का ध्यान रखना, खुद तकलीफ में रह कर उन्हें आराम से रखना, कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना, ऐसा करने की कोई खास वजह लगती है?

‘‘वजह कोई नहीं बस यह एक तरह का पश्चात्ताप है दादा.’’

‘‘पश्चात्ताप,’’ दादा की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी.

‘‘हां दादा. मेरा एक ?ाट, मेरा एक फरेब जिस ने मुझे विद्या की नजरों में गिरा दिया था. उसी का प्रायश्चित्त है यह. बात उन दिनों की है जब हमारी शादी की बात चल रही थी. मैं ने विद्या को पहली बार देखा तो बस देखता ही रह गया. लगा मानो वक्त थम कर विद्या पर ही अटक गया हो. मुझे अपनी जिंदगी की मंजिल सामने नजर आ गई थी. बात आगे बढ़ी तो पता चला कि विद्या पढ़नेलिखने में बहुत होशियार है और उसे एक पढ़ालिखा वर चाहिए. कहां उस की चाहत और कहां मैं जिस ने स्कूल की शिक्षा भी पूरी नहीं की थी. मैं परेशान हो कर इधरउधर घूमताफिरता  रहता था कि किसी ने झूठ की राह पर चलने की सलाह दी और फिर मानो होनी ने भी झूठ में मेरा साथ दिया. मैं एक दिन पास के ही एक बैंक में किसी काम से गया था कि बाहर मुझे विद्या नजर आई तो मैं ने कहा कि आप यहां विद्याजी, बहुत ही सुखद संयोग है. मैं ने विद्या से वहां इस तरह से मिलने की कभी अपेक्षा नहीं की थी.

‘‘विद्या संकुचाते हुए बोली कि तो आप इस बैंक में काम करते हैं… मां बता रही थीं कि शायद आप किसी बैंक में अफसर हैं लेकिन आप यहां हैं इस की मुझे जानकारी नहीं थी.

‘‘मैं ऐसे किसी प्रश्न के लिए तैयार न था लेकिन साथ ही मैं विद्या का साथ एक पल के लिए भी नहीं खोना चाह रहा था. मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या उत्तर दूं. बस पता नहीं क्या दिमाग में आया कि मैं बोल पड़ा कि हां मैं इसी बैंक में काम करता हूं. आजकल मेरी पोस्टिंग पास के एक गांव में है. आप तो जानती ही होंगी कि हम बैंक वालों के 2-3 साल किसी गांव की शाखा में गुजारने जरूरी होते हैं.’’

‘‘मैं जानती हूं. आप कितने पढे़लिखे हैं, स्मार्ट हैं फिर भी आप ने मुझे पसंद किया.’’

‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ क्षण रुक कर विद्या बोली, ‘‘हमारी लगभग चट मंगनी पट ब्याह वाली तरह

शादी हो रही है. एकदूसरे को सम?ाने का, परखने का समय भी नहीं है इसलिए इतनी जल्दी आप से इस विषय पर बात कर रही हूं, मैं चाहूंती तो किसी के जरीए आप को यह संदेश पहुंचवा सकती थी मगर मैं सीधे बात करने में यकीन करती हूं. आप से एक वादा चाहिए था. अगर इजाजत हो तो कहूं?’’

‘‘हां कहिए न. निस्संकोच हो कर कहिए.’’

‘‘मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, बहुत बड़ी डाक्टर बनना चाहती हूं, दूर तक उड़ना चाहती हूं. क्या आप मु?ो इस का मौका देंगे? आप मेरे पर तो नहीं कतरेंगे?’’

‘‘नहींनहीं विद्याजी. इस में सोचविचार, नानुकुर का कोई प्रश्न ही नहीं है और फिर डाक्टर बन कर आप न सिर्फ अपने परिवार का नाम रोशन करेंगी बल्कि समाज सेवा भी कर सकती हैं,’’ मैं ने सहज भाव से जवाब दिया.

विद्या खुशी से फूली न समाई, ‘‘मेरी इंग्लिश थोड़ी कमजोर है. छोटे शहर

से हूं न, आप तो इतने बड़े कालेज से एमबीए हैं, तो क्या मैं आशा करूं कि इंग्लिश तो आप मुझे पढ़ा ही देंगे? बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

‘‘क्यों नहीं विद्याजी,’’ मैं ने यंत्रवत ढंग से थूक निगलते हुए जवाब दिया.

‘‘फिर क्या हुआ,’’ दादा की आंखों से जैसे नींद उड़ चुकी थी.

‘‘शादी की रात को ही मेरा भांड़ा फूट गया जब मेरे कुछ दोस्तों ने बातोंबातों में मेरी सचाई बयां कर दी. उन्होंने बता दिया कि मैं ने तो स्कूल के सारे कमरे भी नहीं देखे थे. सुन कर विद्या बिफर गई कि इतना बड़ा फरेब, धोखा और झूठ के बारे में उस ने सोचा ही नहीं था. उस ने मुझे बहुत जलील किया. मेरे पास उस को देने के लिए कोई जवाब न था सिवा इस के कि मैं उस से बेइंतहा प्यार करता हूं और यह झूठ मुझे एकमात्र हथियार जरीया नजर आया जो मुझे उस तक पहुंचा सकता था.

‘‘इस के आगे की कहानी मैं समझ गया अभिनवजी. आप ने उसे आगे पढ़ाने का अपना वादा पूरा करने की ठानी और अपना दिनरात एक कर दिया. विद्या को भी मन मार कर इसी में संतोष करना पड़ा, उस के पास इस से बेहतर कोई विकल्प भी नहीं था.’’

सुबह उठते ही अभिनव ने चाय बनाई और अखबार ले कर विद्या के कमरे में दाखिल हो गया, ‘‘तुम्हारे लिए चाय और अखबार दोनों जरूरी हैं. चाय फुरती के लिए और अखबार चुस्ती के लिए, अखबार में देशविदेश की खबरें तुम्हें चुस्त रखेंगी. आगे बढ़ने के नएनए रास्ते सुझाएंगी.’’

विद्या ने अखबार पर नजर डाली और

एक पन्ने पर छपी खबर देख कर ठिठक गई, ‘‘अभिनव दिल्ली में नीट, मेरा मतलब है

मैडिकल की पढ़ाई वालों का एक नया केंद्र खुला है. वहां पर समयसमय पर नोट्स बना कर दिए जाएंगे जो मु?ा जैसे प्रतियोगी परीक्षा वालों के लिए बहुत काम के होंगे, मगर…’’ विद्या बोलतेबोलते रुक गई.

‘‘हां तो दिक्कत क्या है. मैं ला कर दूंगा तुम्हें नोट्स…’’

‘‘रहने दो अभिनव, बहुत खर्च है इस में. लाख सवा लाख देना हमारे बस का नहीं.’’

अभिनव सोच में पड़ गया, अभी लैपटौप खरीदने के लिए दफ्तर से कर्ज लिया वह भी उतारना है, उस के अलावा पहले ही 2-3 लाख का लोन है. ओवरसीयर साहब चाह कर भी मदद नहीं कर पाएंगे. इसी उधेड़बुन में अभिनव कब दफ्तर पहुंच कर वापस बाहर आ गया उसे स्वयं भी पता नहीं चला. घर के लिए वापसी में स्टेशन का फाटक था.

अभिनव के कदम स्टेशन के प्लेटफौर्म की तरफ चल पड़े और एक बैंच पर जा कर रुक गए. मेरी तपस्या व्यर्थ जाएगी. क्या विद्या की पढ़ाई का रिजल्ट उस की मेहनत के अनुसार नहीं आएगा? क्या विद्या एक सफल और कामयाब डाक्टर नहीं बन पाएगी? अभिनव स्वयं से ही बातें कर रहा था कि एक स्पर्श ने उस की तंद्रा भंग कर दी. अभिनव उस अपरिचित को पहचानने का प्रयत्न कर रहा था.

‘‘पहचान लिया या बताना पड़ेगा?

निहाल याद है या भूल गया? तारानगर सरकारी विद्यालय.’’

अभिनव को दिमाग पर ज्यादा जोर देने

की जरूरत नहीं पड़ी. उठ कर गले लगते हुए बोला, ‘‘तुझे कैसे भूल सकता हूं भाई तेरी वजह से बहुत पिटा हूं मैं, पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ कर भाग जाता था और पिटता था मैं, मगर फिर मिल कर आम खाने का मजा भी कुछ और ही होता था. हम कौन सी कक्षा तक साथ थे. 7वीं तक तूने स्कूल छोड़ा और मु?ो निकाल दिया

गया. तब से इस स्टेशन ने मुझे आश्रय दिया. मुझे देख कर तुझे पता चल ही गया होगा कि मैं यहां कुली हूं.’’

अभिनव मुसकरा दिया. उस की शून्य आंखें उस की व्यथा बयां कर रही थीं.

‘‘तू यहां स्टेशन पर क्या कर रहा है? कोई आ रहा है या जा रहा है?’’

‘‘न कोई आ रहा है न ही कोई जा रहा है… जिंदगी ही थम सी गई है.’’

‘‘थोड़ी देर रुक, मैं इस ट्रेन से उतरे यात्रियों को टटोलता हूं, कोई ग्राहक आया तो ठीक वरना फौरन आता हूं.’’

थोड़ी ही देर में निहाल अभिनव के पास था, ‘‘आजकल हर सूटकेस में पहिए लगे होते हैं भाई. हजारों का टिकट खरीद कर आने वाले स्टेशन पर कुली को पैसे देने में हजार बार सोचते हैं. पता नहीं इन चलतेफिरते सूटकेसों का आविष्कार हम जैसों की मजदूरी पर लात मारने के लिए किस ने किया था? खैर, तू बता क्या हुआ तेरी जिंदगी में तारानगर कब और कैसे छोड़ कर यहां… बसा शादीवादी हुई या मेरी तरह कुंआरा है?’’

‘‘एक ही तो काम किया है मैं ने मेरे भाई, शादी की है या यों कहो कि मौसी ने मेरा घर बसाने के लिए मुझे मंडप में बैठा दिया और उधर तेरी भाभी का भी पुस्तकों से रिश्ता तोड़ कर मु?ा से करवा दिया,’’ अभिनव ने अपने जीवन के हर सफे को पढ़ कर सुन दिया.

‘‘कितना बड़ा काम किया है तूने अभिनव. भाभी की पढ़ाई की लौ को जलाए रखने के

लिए उन्हें डाक्टर बनाने के लिए स्वयं को भट्टी में झांक दिया.’’

‘‘इस में मेरा ही स्वार्थ है, एक दिन जब पढ़लिख कर वह लोगों का इलाज करेगी, औपरेशन कर के लोगों को ठीक करेगी, ऊंची कुरसी पर बैठेगी तो लोग कहेंगे कि देखो जो यह सफेद कोट पहन कर, बड़ी सी गाड़ी में बैठ कर जा रही है यह अभिनव की पत्नी है. मैं तो सारा कामकाज छोड़ कर या तो दिनरात आराम करूंगा या उस के आगेपीछे मंडराता रहूंगा, लोग कहेंगे कितना खुशहाल है अभिनव. जब ऐसी बातें मेरे कानों तक आएंगी तो उस समय मेरा चेहरा देखने लायक होगा, गर्व से फूल कर सीना दोगुना हो जाएगा,’’ कहतेकहते अभिनव की आंखों में चमक आ गई.

निहाल मुसकरा दिया, ‘‘मेरी कामना है कि ऐसा ही हो. फिलहाल तुम्हें और पैसे कमाने हैं तो मेरे पास तो उस के लिए एक ही उपाय है. रात को 11 बजे के बाद तू अगर स्टेशन आ सके तो मैं अपना कुली का बैज तु?ो दे सकता हूं. तू सामान बाहर तक छोड़ना और कई बार उन्हें होटल या गेस्टहाउस के बारे में भी बताना, वहां से अच्छा कमीशन मिल सकता है.’’

निहाल की सोच सही साबित हुई. अभिनव रोज रात को स्वयं को स्टेशन पर खपाता और अतिरिक्त कमाए पैसे से विद्या के लिए नोट्स वगैरह का इंतजाम करता. विद्या को मन मांगी मुराद मिल गई थी. उस की मेहनत ने और गति प्राप्त कर ली थी. धीरेधीरे उस के और उस की मंजिल के बीच का फासला कम होता जा रहा था.

उस रात जब अभिनव घर पहुंचा तो बाहर मौसी उस का इंतजार कर रही थी, ‘‘बहू से पता चला कि तू रोज रात को काम खत्म कर के कहीं बाहर चला जाता है. कहीं कोई नशावशा तो नहीं करता? कभी अपने स्वास्थ्य को भी देखा है, दिनबदिन बुझता जा रहा है. दादा ने बताया तू सुबह तड़के से देर रात तक…’’

‘‘नहीं मौसी बस दोस्तों के साथ बैठ कर थोड़ी गपशप कर लेता हूं, थकावट दूर हो जाती है,’’ अभिनव ने मौसी की बात काट कर अपनी कमीज बदलते हुए कहा.

‘‘1 मिनट अभि तेरे बदन पर यह लाल निशान? क्या करता है तू?’’

‘‘कुछ नहीं मौसी किसी कीड़ेमकोड़े ने काट लिया होगा. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘यह तू क्या कर रहा है अभि बेटा, क्यों अपनेआप को दांव पर लगा रहा है? क्यों बहू की अभिलाषाओं को पाने के लिए स्वयं को चलतीफिरती लाश बना रहा है. ऐसा मत कर बेटा, वक्त के पलटने से इंसान भी पलट सकता है, मंजिल पर पहुंच कर पीछे मुड़ कर देखने वाले विरले ही होते हैं.’’

अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘विद्या ऐसी नहीं

है मौसी, विद्या कुछ बन गई तो मेरे साथ तेरे

दिन भी फिर जाएंगे. तुझे भी अस्पताल में नर्स बनवा दूंगा.

‘‘तेरी ऐसी की तैसी, मुझे नर्स बनाएगा.

मैं तो घर पर बैठ कर राज करूंगी राज,’’ मौसी भी कम न थी. उस के पोपले मुंह से हंसी छलक रही थी.

आखिरकार वह दिन आ ही गया जब विद्या के अपनी मुराद मिल गई और अभिनव का स्वप्न पूर्ण हो गया. दोनों की ही मेहनत रंग लाई और विद्या अपने इम्तिहान में अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गई. रिजल्ट आने के बाद उसे दूसरे शहर के मैडिकल कालेज मे दाखिले के लिए जाना पड़ा और दाखिले के पश्चात होस्टल में कमरा ले कर रहना पड़ा.

4 साल के लिए विद्या अभिनव की नजरों से दूर हो गई. दिनरात मेहनत कर के अभिनव विद्या की फीस, किताबकापियों और रहने के खर्च का बो?ा उठाता और हर माह नियत समय पर आवश्यकता से अधिक राशि बिना तकाजे के भेजता. लगातार पड़ते इस बो?ा से धीरेधीरे कब वह स्वयं पर बो?ा बन गया उसे पता ही नहीं चला.

विद्या का फोन कभी भूलेभटके ही आता, मगर महीने के अंतिम सप्ताह में अवश्य आता. शायद यह अभिनव के एक प्रकार का अनुस्मारक होता, अभिनव को विद्या के इस कौल का भी इंतजार रहता. चंद मिनटों की यह बातचीत अभिनव को प्रफुल्लित कर देती और उस में एक नई ऊर्जा का संचार कर देती.

एक दिन जब विद्या का फोन आया तो उस में अभिनव को विद्या के चिंतित होने का बोध हुआ, ‘‘क्या बात है आज डाक्टर साहिबा कुछ परेशान लग रही हैं? सब खैरीयत तो है?’’

‘‘कुछ नहीं बस यों ही, जरा काम का बोझ था,’’ विद्या ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘काम का बो?ा या कुछ और?’’ अभिनव ने आशंकित हो कर पूछा. उसे लग रहा था कि हो न हो बात कुछ और ही है.

‘‘यों ही. कुछ छात्रों को जापान सरकार ने जापान आने का निमंत्रण दिया है. उन छात्रों मे एक नाम मेरा भी है. वहां की रैडिएशन तकनीक के बारे में जानने का अच्छा अवसर है, लेकिन मैं ने मना कर दिया.’’

‘‘क्यों?’’ अभिनव ने हैरान हो कर फौरन पूछा.

विद्या एक पल के लिए खामोश हो गई फिर धीरे से बोली, ‘‘बिना मतलब के कम से कम डेढ़दो लाख का खर्च है हालांकि ज्यादातर खर्च जापान सरकार ही कर रही है, फिर भी इतना पैसा तो चाहिए ही होगा.’’

अभिनव खामोश हो गया, ‘‘मैं कोशिश करता हूं विद्या, कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा.’’

अभिनव ने इधरउधर हाथपैर मारने शुरू कर दिए. अपने हर जानपहचान वाले से उस ने कुछ न कुछ उधार लिया हुआ था. लिहाजा, हर जगह से उसे टका सा जवाब मिला. थकहार के उस ने निहाल के पास पहुंच कर अपना रोना रोया.

‘‘इतने पैसे कहां से लाएगा अभि? चोरी करेगा, डाका डालेगा या अपनेआप को बेच देगा?’’ निहाल ने ?ाल्ला कर कहा.

‘‘अपनेआप को बेच दूंगा निहाल. खून का 1-1 कतरा दिलजिगर सब बेच दूंगा.’’

निहाल खामोश हो गया फिर हौले से फुसफुसाया, ‘‘ज्यादा तो पता नहीं लेकिन सुना है कई लोग अपनी एक किडनी बेच देते हैं. यहां के अस्पताल का एक कंपाउंडर मेरी जानपहचान का है, वही बता रहा था.’’

‘‘तू मु?ो उस के पास ले चल, मैं अपनी किडनी बेच दूंगा, विद्या की सफलता की राह में पैसा बीच में नहीं आना चाहिए.’’

निहाल अवाक हो कर अभिनव को ताक रहा था, ‘‘यह तू क्या कह रहा है. बात में से बात निकली तो मैं ने जिक्र कर दिया.’’

‘‘नहीं निहाल तूने तो मुझे पर बहुत बड़ा एहसान किया है. एक बार तू मुझे उस के पास

ले चल.’’

अभिनव के बारबार कहने से अनमने ढंग से निहाल अभिनव को अस्पताल ले गया.

‘‘यह बहुत ही रिस्की मामला है. पकड़े गए तो सब के सब जेल की हवा खाएंगे,’’ कंपाउंडर फुसफुसाते हुए बोला.

‘‘आप का एहसान होगा भाई. मुझे पैसों की सख्त जरूरत है,’’ अभिनव ने रोंआसे स्वर में कहा.

कंपाउंडर थोड़ी देर के लिए ओ?ाल हो गया. लौट कर आया तो हाथ में एक परची थी जिस पर कोई पता लिखा था, ‘‘मैं ने बात कर ली है, अगले शनिवार को तुम यहां चले जाओ. पूरी प्रक्रिया में हफ्ता 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’’

‘‘हफ्ता 10 दिन,’’ अभिनव सोच में पड़ गया और बोला, ‘‘क्या कुछ पैसा मु?ो पहले मिल सकता है?’’

‘‘कोशिश कर के तुम्हें कुछ पैसा एडवांस दिला दूंगा, आखिर तुम निहाल के खास जानने वाले हो.’’

अभिनय के लिए आने वाले दिन उस के सब्र का इम्तिहान लेने वाले थे.

चंद ही दिनों के इंतजार के बाद निहाल ने उसे सूचना दी कि उन्हें पैसे मिल गए हैं और उसे ले कर वह अभिनव के दफ्तर ही आ रहा है. निहाल ने आते ही रुपयों का एक लिफाफा अभिनव के सामने रख दिया. अभिनव की आंखों में खुशी के आंसू थे. उस ने विद्या को फोन मिलाने के लिए उठाया ही था कि घंटी घनघना उठी. दूसरी ओर विद्या थी. उस की आवाज में एक अजीब सा उत्साह था, ‘‘अभिनव तुम तो इंतजाम कर नहीं पाए लिहाजा मैं ने अपने जापान जाने के खर्चे का इंतजाम खुद ही कर लिया, तुम बस मेरा पासपोर्ट जल्द से जल्द मुझे भेज दो.’’

‘‘मगर कैसे?’’ अभिनव जानना चाह रहा था.

‘‘मेरे टीम लीडर डाक्टर विश्वास ने मेरा सारा खर्च उठाने का फैसला किया है, वे मुझे बहुत पसंद करते हैं. न जाने उन का यह एहसान मैं कैसे चुकाऊंगी,’’ इस के पहले कि अभिनव कुछ और कहता या पूछता विद्या ने फोन काट दिया.

अभिनव ने लिफाफा निहाल के हाथों में थमा दिया, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं, मेरी तपस्या पीछे रह गई. विद्या ने आगे बढ़ने का जरीया ढूंढ़ लिया.’’

विद्या के विदेश जाते ही अभिनव का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा. दिनरात खांसखांस कर उस का बुरा हाल था और उस पर सीने में दर्द ने उस की रातों की नींद उड़ा दी थी. एक दिन जब बलगम में खून अत्यधिक मात्र में आ गया तो निहाल जबरदस्ती उसे सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाने ले गया. डाक्टरों ने सारी जांच कर के उस के हाथ में एक रुक्का पकड़ा दिया जिस पर बहुत कुछ लिखा था- मगर जो थोड़ा कुछ सम?ा आया उस के मुताबिक अभिनव को एक गंभीर संक्रामक बीमारी थी और उस के फेफड़े पूरी तरह से काम करना छोड़ चुके थे. डाक्टरों ने कई अन्य टैस्ट लिख कर दिए और घर पर अच्छे खानपान पर जोर डालने को कहा.

निहाल ने विद्या को सूचित करने की सलाह दी मगर अभिनव न माना. उस की पढ़ाई चल रही है. अभी विदेश में ट्रैनिंग कर के लौटी है. उस का ध्यान बांटना ठीक नहीं है. उसे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने दो. अभिनव के मना करने के बावजूद भी निहाल ने विद्या से संपर्क साध लिया और अपना परिचय दे कर अभिनव के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में बताया.

विद्या ने कोई संवेदना या गंभीरता प्रकट नहीं की और इस स्थिति के लिए अभिनव पर ही दोष जड़ दिया, ‘‘जो इंसान अपना खयाल नहीं रखता, जीवनचर्या ठीक नहीं रखता उस का हश्र तो ऐसा ही होता है निहालजी, मैं फिलहाल तो अपनेआप में ही इतना व्यस्त हूं कि इन सब चीजों के लिए मेरे पास वक्त नहीं और न ही मैं अब तक डाक्टर बनी हूं जो आप को कोई इलाज बता सकूं. आप वहीं के सरकारी हस्पताल के डाक्टर की सलाह पर अमल कीजिए.’’

‘‘फिर भी मैं आप को डाक से रुक्का भेज रहा हूं, आप उसे अस्पताल में दिखवा दीजिएगा और दवाई वगैरह के बारे में राय भेज दीजिएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ विद्या ने बात काटते हुए कहा.

‘‘विद्या ने क्या कहा निहाल? मुझे यकीन है कि तूने जरूर फोन किया होगा.’’

‘‘नहीं,’’ निहाल की मानो चोरी पकड़ी गई थी. निहाल थोड़ी देर के लिए खामोश हो गया, फिर बोला, ‘‘हां मैं ने किया था, मेरी बात हुई थी.’’

‘‘क्या कहा विद्या ने?’’

‘‘कहना क्या था बस बेचारी फूटफूट कर रो पड़ी. कहने लगी अब आप ही ध्यान रखिए अभिनव का और आप कहें तो मैं वापस आ जाऊं. मैं ने बिलकुल मना कर दिया. ठीक किया न?’’

आंसू की एक बूंद अभिनव की पलकों की छोर से बह निकली जिसे उस ने फौरन पोंछ दिया, ‘‘देखा निहाल इसे कहते हैं प्यार, दिल से दिल का रिश्ता, थोड़े ही दिनों की बात है विद्या मेरे पास होगी, हम अपनी जिंदगी की शुरुआत करेंगे, जो गुनाह मैं ने उस से ?ाठ बोल कर किया था उस का पश्चात्ताप पूरा होगा.’’

आखिरकार विद्या एक दिन अभिनव के सामने थी. अभिनव का स्वास्थ्य अत्यधिक खराब था मगर विद्या को देख उस की चेतना मानो सामान्य हो गई. होंठों पर एक मुसकान फैल गई और उस ने अपनी बांहें आगे कर दीं.

विद्या ठिठक गई, ‘‘अभिनव तुम्हें ऐक्टिव टीबी है जो संक्रामक है. मु?ो तुम्हारे पास नहीं आना चाहिए, अगर मुझे भी यह बीमारी हो गई तो बहुत बड़ा व्यवधान हो जाएगा. तुम ठीक हो जाओ फिर…’’

‘‘बिलकुल ठीक कह रही हो विद्या, मैं ठहरा अनपढ़ गंवार इतना इल्म होता तो मैं डाक्टर न बन जाता. जब तक मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता तुम्हारे करीब नहीं आऊंगा.’’

विद्या ने संयत रहने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘ठीक है मैं चलती हूं.’’

उस दिन के बाद शायद ही विद्या कभी वापस आई, अभिनव की पथराई आंखें उस की राह तकती रहतीं. उस की सेहत धीरेधीरे उस की जिंदगी का साथ छोड़ रही थीं. निहाल और दादा उस की देखभाल करते. उड़तीउड़ती खबर भी आती कि विद्या और डाक्टर विश्वास एकदूसरे के करीब आ रहे हैं.

अभिनव मुसकरा कर इन खबरों को टाल देता, ‘‘निहाल, विद्या सिर्फ मेरी है, कामकाज के दौरान घनिष्ठता हो ही जाती है. इस का यह मतलब तो नहीं.’’ निहाल उसे तकता रहता.

एक सुबह अभिनव, निहाल और दादा घर के आंगन में बैठे हुए थे कि सामने विद्या आती नजर आई. विद्या को सामने देख कर अभिनव  की खुशी का ठिकाना न रहा. अभिनव को देख कर एक पल के लिए वह स्तब्ध रह गई. शरीर क्या था एक ढांचा था. एक क्षण के लिए सहानुभूति की लहर उस के तनबदन में दौड़ गई मगर अगले ही पल उस ने मानो स्वयं को संभाला.

अभिनव विद्या को देख कर यों प्रसन्न हुआ मानो किसी प्यासे को जल का स्रोत और भूखे को भोजन मिल गया हो, ‘‘आओ विद्या, मैं तुम्हें ही याद कर रहा था. कैसा चल रहा है?’’

‘‘ठीक ही चल रहा है अभिनव मगर तुम चाहो तो और भी अच्छा चल सकता है… मुझे जिंदगी का सही मकसद हासिल हो सकता है अगर तुम मेरा साथ दो तो.’’

‘‘मैं?’’ अभिनव हैरान था, ‘‘मैं भला तुम्हारे क्या काम आ सकता हूं? मेरे पास क्या है जो मैं तुम्हें दे पाऊं सिवा प्यार के.’’

‘‘अभिनव मैं झूठ और फरेब में विश्वास नहीं करती और न ही मैं पीछे मुड़ कर देखने में यकीन करती हूं. मेरा आज और मेरा आने वाला कल मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है न कि बीता हुआ कल,’’ विद्या ने ?ाठ और फरेब पर जोर देते हुए कहा.

अभिनव ने एक मुसकराहट फेंकी, ‘‘विद्या मैं अनपढ़ और गंवार इंसान हूं तुम इस बात को अच्छी तरह से जानती हो. मुझसे पहेलियां न बुझाओ. साफसाफ कहो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम शायद मुझे खुदगर्ज और मतलबी सम?ागे, हो सकता है मुझसे नफरत

भी करने लग जाओ या मेरा जिक्र भी तुम्हें कुंठित कर दे, हो सकता है तुम मेरे किए को मेरा इंतकाम सम?ा, तुम्हारे दिए धोखे का बदला.’’

‘‘कैसी बात कर रही हो विद्या? मेरे धोखे में छिपा मेरा प्यार क्या तुम्हें अब तक नजर नहीं आया और फिर पतिपत्नी के रिश्ते में इंतकाम या प्रतिशोध के लिए कोई स्थान नहीं होता. याद रखना जिस रोज मु?ो तुम्हारे नाम से नफरत हो जाएगी, वह दिन मेरी जिंदगी का अंतिम दिन होगा. तुम नहीं जानती मैं तुम से कितना प्यार करता हूं.’’

विद्या ने एक फाइल आगे कर दी, ‘‘इसे पढ़ लेना.’’

‘‘अगर मैं पढ़ पाता तो आज तुम्हारे सामने गुनहगार की तरह खुद को खड़ा न पाता, तुम से नजर मिला कर बात करता, तुम्हीं बता दो क्या है यह और मुझे क्या करना है?’’

‘‘ये तलाक के कागजात हैं. मैं अपनी नई जिंदगी शुरू करना चाहती हूं डाक्टर विश्वास के साथ. मुझे तुम्हारी सहमति और हस्ताक्षर चाहिए.’’

अभिनव को काटो तो खून नहीं. बहुत कुछ कहना चाह रहा था मगर खामोश रहा. तन की  शक्ति तो क्षीण हो ही चुकी थी आज मन ने भी साथ छोड़ दिया.

‘‘क्या सोच रहे हो अभिनव? मत भूलो

कि हमारी शादी की इमारत झूठ की बुनियाद पर टिकी थी.’’

‘‘नहीं मैं तो सोच रहा था कि इतनी सी बात कहने में तुम्हें इतना संकोच क्यों हो रहा है?’’

विद्या यंत्रवत ढंग से बोली, ‘‘संकोच इसलिए क्योंकि मैं ने तुम्हारा इस्तेमाल किया है.’’

‘‘मैं ने तो प्यार किया है,’’ अभिनव ने स्फुटित स्वर के कहा.

‘‘तुम जरा भी अपराधबोध से मत जीना, मैं हस्ताक्षर कर दूंगा. तुम आजाद थी और आजाद रहोगी… तुम एक अच्छी कामयाब डाक्टर बन कर अपने डाक्टर पति के साथ अपनी जीवनयात्रा की नई शुरुआत करो. मेरा वजूद भी अपने दिलोदिमाग से निकाल देना. अपने अतीत को, मु?ो पूरी तरह से भूल जाना.’’

‘‘मेरा आदमी कल सुबह आ कर कागजात ले जाएगा.’’

‘‘एक गुजारिश है विद्या अगर मान सको तो.’’

विद्या ठिठक गई, ‘‘कहो.’’

‘‘कागजात लेने के लिए कल सुबह तुम स्वयं ही आना. किसी और को न भेजना. मेरी आखिरी इल्तजा जान कर फैसला करना,’’ अभिनव के हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे.

‘‘ठीक है? मैं कल सुबह तुम से मिलती जाऊंगी,’’ विद्या के सिर पर से मानो मनो वजन उतर गया था. चैन की सांस लेते हुए वह लंबेलंबे डग भरते हुए घर और गली से बाहर निकल गई.

अगली सुबह जब विद्या अभिनव से मिलने पहुंची तो गली के मोड़ पर ही सामने से आते काफिले की वजह से उसे रुकना पड़ा. उस ने

गौर से देखा तो काफिले में निहाल को सब से आगे पाया. विद्या की गाड़ी को देख कर निहाल ठिठक गया और आगे बढ़ कर उस ने गाड़ी का शीशा खटखटाया.

विद्या ने शीशा नीचे किया और इस के पहले वह कुछ कहती या पूछती, निहाल ने कागज का एक पुलिंदा आगे कर दिया, ‘‘अभिनव ने आप के लिए यह भेंट दी है. आप न आतीं तो मैं देने आने ही वाला था.’’

विद्या ने हैरान हो कर कागज अपने हाथ में लिए और पन्ने पलटने लगी. पहले ही पृष्ठ पर उस की नजर ठिठक गई, उसे लिखे गए शब्दों पर विश्वास ही न हुआ. उस के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई, कोने में बड़ेबड़े लफ्जों मे लिखा था, ‘‘जीतेजी तुम्हें स्वयं से अलग नहीं कर पाऊंगा. तुम्हारा अभिनव.’’

विद्या निहाल को कुछ पूछने के लिए गाड़ी से उतरी मगर निहाल कहीं भीड़ में ओझल हो गया था. हार कर वह गाड़ी में वापस बैठ गई. उस ने अपने ड्राइवर को किसी से बात करते हुए सुना, ‘‘कोई सिरफिरा था, किसी से बेइंतहा प्यार करता था, उसी की बेवफाई ने बेचारे की जान ले ली.’’

अटूट बंधन: प्रकाश ने आखिर कैसी लड़की का हाथ थामा

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. आधे घंटे से लगातार हो रही थी. 1 घंटा पहले जब वे दोनों रैस्टोरैंट में आए थे, तब तो मौसम बिलकुल साफ था. फिर यह अचानक बिन मौसम की बरसात कैसी? खैर, यह इस शहर के लिए कोई नई बात तो नहीं थी परंतु फिर भी आज की बारिश में कुछ ऐसी बात थी, जो उन दोनों के बोझिल मन को भिगो रही थी. दोनों के हलक तक कुछ शब्द आते, लेकिन होंठों तक आने का साहस न जुटा पा रहे थे. घंटे भर से एकाध आवश्यक संवाद के अलावा और कोई बात संभव नहीं हो पाई थी.

कौफी पहले ही खत्म हो चुकी थी. वेटर प्याले और दूसरे बरतन ले जा चुका था. परंतु उन्होंने अभी तक बिल नहीं मंगवाया था. मौन इतना गहरा था कि दोनों सहमे हुए स्कूली बच्चों की तरह उसे तोड़ने से डर रहे थे. प्रकाश त्रिशा के बुझे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता पर अगले ही पल सहम कर अपनी पलकें झुका लेता. कितनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें थीं त्रिशा की. त्रिशा कुछ कहे न कहे, उस की आंखें सब कह देती थीं.

इतनी उदासी आज से पहले प्रकाश ने इन आंखों में कभी नहीं देखी थी. ‘क्या सचमुच मैं ने इतनी बड़ी गलती कर दी, पर इस में आखिर गलत क्या है?’ प्रकाश का मन इस उधेड़बुन में लगा हुआ था.

‘होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है…’ दोनों की पसंदीदा यह गजल धीमी आवाज में चल रही थी. कोई दिन होता तो दोनों इस के साथसाथ गुनगुनाना शुरू कर देते पर आज…

आखिरकार त्रिशा ने ही बात शुरू करनी चाही. उस के होंठ कुछ फड़फड़ाए, ‘‘तुम…’’

‘‘तुम कुछ पूछना चाहती हो?’’ प्रकाश ने पूछ ही लिया.

‘‘हां, कल तुम्हारा टैक्स्ट मैसेज पढ़ कर मैं बहुत हैरान हुई.’’

‘‘जानता हूं पर इस में हैरानी की क्या बात है?’’

‘‘पर सबकुछ जानते हुए भी तुम यह सब कैसे सोच सकते हो, प्रकाश?’’ इस बार त्रिशा की आवाज पहले से ज्यादा ऊंची थी.

प्रकाश बिना कुछ जवाब दिए फर्श की तरफ देखने लगा.

‘‘देखो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. क्या है यह सब?’’ त्रिशा ने उखड़ी हुई आवाज से पूछा.

‘‘जो मैं महसूस करने लगा हूं और जो मेरे दिल में है, उसे मैं ने जाहिर कर दिया और कुछ नहीं. अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मुझे माफ कर दो, लेकिन मैं ने जो कहा है उस पर गौर करो.’’ प्रकाश रुकरुक कर बोल रहा था, लेकिन वह यह भी जानता था कि त्रिशा अपने फैसले पर अटल रहने वाली लड़की है.

पिछले 3 वर्षों से जानता है उसे वह, फिर भी न जाने कैसे साहस कर बैठा. पर शायद प्रकाश उस का मन बदल पाए.

त्रिशा अचानक खड़ी हो गई. ‘‘हमें चलना चाहिए. तुम बिल मंगवा लो.’’

बिल अदा कर के प्रकाश ने त्रिशा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर चले आए. बारिश धीमी हो चुकी थी. बूंदाबांदी भर हो रही थी. प्रकाश बड़ी सावधानी से त्रिशा को कीचड़ से बचाते हुए गाड़ी तक ले आया.

त्रिशा और प्रकाश पिछले 3 वर्ष से बेंगलरु की एक प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में कार्य करते थे. त्रिशा की आंखों की रोशनी बचपन से ही जाती रही थी. अब वह बिलकुल नहीं देख सकती थी. यही वजह थी कि उसे पढ़नेलिखने व नौकरी हासिल करने में हमेशा बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. पर यहां प्रकाश और दूसरे कई सहकर्मियों व दोस्तों को पा कर वह खुद को पूरा महसूस करने लगी थी. वह तो भूल ही गई थी कि उस में कोई कमी है.

वैसे भी उस को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता था कि वह देख नहीं सकती. उस का व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. वह बेहद हंसमुख और मिलनसार लड़की थी. वह मूलतया दिल्ली की रहने वाली थी. बेंगलुरु में वह एक वर्किंग वुमेन होस्टल में रह रही थी. प्रकाश अपने 2 दोस्तों के साथ शेयरिंग वाले किराए के फ्लैट में रहता था. प्रकाश का फ्लैट त्रिशा के होस्टल से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही था.

रोजाना त्रिशा जब होस्टल लौटती तो प्रकाश कुछ न कुछ ऐसी हंसीमजाक की बात कर देता, जिस कारण त्रिशा होस्टल आ कर भी उस बात को याद करकर के देर तक हंसती रहती. परंतु आज जब प्रकाश उसे होस्टल छोड़ने आया तो दोनों में से किसी ने भी कोई बात नहीं की. होस्टल आते ही त्रिशा चुपचाप उतर गई. उस का सिर दर्द से फटा जा रहा था. तबीयत कुछ ठीक नहीं मालूम होती थी.

डिनर के वक्त उस की सहेलियों ने महसूस किया कि आज वह कुछ अनमनी सी है. सो, डिनर के बाद उस की रूममेट और सब से अच्छी सहेली शालिनी ने पूछा, ‘‘क्या बात है त्रिशा, आज तुम्हें आने में देरी क्यों हो गई? सब ठीक तो है न.’’

‘‘हां, बिलकुल ठीक है. बस, आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था,’’ त्रिशा ने जवाब तो दिया पर आज उस के बात करने में रोज जैसी आत्मीयता नहीं थी.

शालिनी को ऐसा लगा जैसे त्रिशा उस से कुछ छिपा रही थी. फिर भी त्रिशा को छेड़ने के लिए गुदगुदाते हुए उस ने कहा, ‘‘अब इतनी भी उदास मत हो जाओ, उन को याद कर के. जानती हूं भई, याद तो आती है, पर अब कुछ ही दिन तो बाकी हैं न.’’

त्रिशा अपनी आदत के अनुसार मुसकरा उठी. शालिनी को जरा परे धकेलते हुए बोली, ‘‘जाओ, मैं नहीं करती तुम से बात. जब देखो एक ही रट.’’

तभी अचानक त्रिशा का मोबाइल बज उठा.

‘‘उफ, कितनी लंबी उम्र है उन की. नाम लिया और फोन हाजिर,’’ शालिनी उछल पड़ी. ‘‘खूब इत्मीनान से जी हलका कर लो. मैं तो चली,’’ कहती हुई शालिनी कमरे से बाहर निकल गई.

दरअसल, बात यह थी कि कुछ ही दिनों में त्रिशा का प्रेमविवाह होने वाला था. डा. आजाद, जिन से जल्द ही त्रिशा का विवाह होने वाला था, लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक थे. त्रिशा और आजाद ने दिल्ली के एक स्पैशल स्कूल से साथसाथ ही पढ़ाई पूरी की थी. उस के बाद आजाद अपने घर लखनऊ वापस आ गए थे. वहीं से उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और फिर अपनी रिसर्च भी पूरी की. रिसर्च पूरी करने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें यूनिवर्सिटी में ही जौब मिल गई. ऐसा लगता था कि त्रिशा और आजाद एकदूसरे के लिए ही बने थे.

स्कूल में लगातार पनपने वाला लगाव  और आकर्षण एकदूसरे से दूर हो कर प्यार में कब बदल गया, पता ही नहीं चला. शीघ्र ही दोनों ने विवाह के अटूट बंधन में बंधने का फैसला कर लिया. दोनों के न देख पाने के कारण जाहिर है परिवार वालों को स्वीकृति देने में कुछ समय तो लगा, पर उन दोनों के आत्मविश्वास और निश्छल प्रेम के आगे एकएक कर सब को झुकना ही पड़ा.

त्रिशा के बेंगलुरु आने के बाद आजाद बहुत खुश थे. ‘‘चलो अच्छा है, वहां तुम्हें इतने अच्छे दोस्त मिल गए हैं. अब मुझे तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करनी पड़ेगी.’’

‘‘अच्छी बात तो है, पर इस बेफिक्री का यह मतलब नहीं कि आप हमें भूल जाएं,’’ त्रिशा आजाद को परेशान करने के लिए यह कहती तो आजाद का जवाब हमेशा यही होता, ‘‘खुद को भी कोई भूल सकता है क्या.’’

आज जब त्रिशा आजाद से बात कर रही थी तो आजाद को समझते देर न लगी कि त्रिशा आज उन से कुछ छिपा रही है, ‘‘क्या बात है, आज तुम कुछ परेशान हो?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘त्रिशा, इंसान अगर खुद से ही कुछ छिपाना चाहे तो नहीं छिपा सकता,’’ आजाद की आवाज में कुछ ऐसा था, जिसे सुन कर त्रिशा की आंखें डबडबा आईं. ‘‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मैं आप से कल बात करती हूं,’’ यह कह कर त्रिशा ने फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

अगले दिन त्रिशा और प्रकाश के बीच औफिस में भी कोई बात नहीं हुई. ऐसा पहली बार ही हुआ था. प्रकाश का मिजाज आज एकदम उखड़ाउखड़ा था.

‘‘चलो,’’ शाम को उस ने त्रिशा के पास आ कर कहा. रास्तेभर दोनों ने कोई बात नहीं की. होस्टल आने ही वाला था कि त्रिशा ने खीझ कर कहा, ‘‘तुम कुछ बोलोगे भी कि नहीं?’’

‘‘मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.’’

कितनी डूबती हुई आवाज थी प्रकाश की. 3 साल में त्रिशा ने प्रकाश को इतना खोया हुआ कभी नहीं देखा था. पिछले 2 दिन में प्रकाश में जो बदलाव आए थे, उन पर गौर कर के त्रिशा सहम गई. ‘क्या वाकई प्रकाश… क्या प्रकाश… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,’ त्रिशा का मन विचलित हो उठा. ‘मुझे तुम से कल बात करनी है. कल छुट्टी भी है. कल सुबह 11 बजे मिलते हैं. गुडनाइट,’’ कहते हुए त्रिशा गाड़ी से उतर गई.

जैसा तय था, अगले दिन दोनों 11 बजे मिले. बिना कुछ कहेसुने दोनों के कदम अनायास ही पार्क की ओर बढ़ते चले गए. त्रिशा के होस्टल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही शहर का सब से बड़ा व खूबसूरत पार्क था. ऐसे ही छुट्टी के दिनों में न जाने कितनी ही बार वे दोनों यहां आ चुके थे. पार्क के भीतरी गेट पर पहुंच कर दोनों को ऐसा लगा जैसे आज असाधारण भीड़ उमड़ पड़ी हो.

भीड़भाड़ और चहलपहल तो हमेशा ही रहती है यहां, पर आज की भीड़ में कुछ खास था. सैकड़ों जोड़े एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले अंदर चले जा रहे थे. बहुतों के हाथ में गुलाब का फूल, किसी के पास चौकलेट तो किसी के हाथ में गिफ्ट पैक. पर प्रकाश का मन इतना अशांत था कि वह कुछ समझ ही नहीं सका.

हवा जोरों से चलने लगी थी. बादलों की गड़गड़ाहट सुन कर ऐसा मालूम होता था कि किसी भी पल बरस पड़ेंगे. मौसम की तरह प्रकाश का मन भी आशंकाओं से घिर आया था. त्रिशा को लगा, शायद आज यहां नहीं आना चाहिए था. तभी अचानक उस का मोबाइल बज उठा. ‘‘हैप्पी वैलेंटाइंस डे, मैडम,’’ आजाद की आवाज थी.

‘‘ओह, मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी,’’ त्रिशा बोली.

‘‘आजकल आप भूलती बहुत हैं. कोई बात नहीं. अब आप का गिफ्ट नहीं मिलेगा, बस, इतनी सी सजा है,’’ आजाद ने आगे कहा, ‘‘अच्छा, अभी हम थोड़ा जल्दी में हैं. शाम को बात करते हैं.’’

आज बैंच खाली मिलने का तो सवाल नहीं था. सो, साफसुथरी जगह देख दोनों घास पर ही बैठ गए. त्रिशा अकस्मात पूछ बैठी, ‘‘क्या तुम वाकई सीरियस हो?’’

‘‘तुम समझती हो कि मैं मजाक कर रहा हूं?’’ प्रकाश का स्वर रोंआसा हो उठा.

त्रिशा ने रुकरुक कर बोलना शुरू किया, ‘‘देखो, 3 वर्ष में हम एकदूसरे को पूरी तरह जानने लगे हैं. मेरा तो कोई काम तुम्हारे बगैर नहीं होता. सच तो यह है, इस शहर में आ कर मैं तो अपनी जिम्मेदारियां ही भुला बैठी हूं. मैं ने तो अभी सोचा भी नहीं कि यहां से जाने के बाद मैं कैसे मैनेज करूंगी. पर प्रकाश, आजाद को मैं ने अपने जीवनसाथी के रूप में देखा है. उन के सिवा मैं किसी और के बारे में सोच भी कैसे…’’

प्रकाश बीच में ही बोल उठा, ‘‘मैं सब जानता हूं, लेकिन जिंदगी इतनी आसान भी नहीं होती, जितना तुम लोग सोच रहे हो. मुझे तुम्हारी फिक्र सताती है. पैसे खर्च कर के ही क्या सबकुछ मिल सकता है? इन सब बातों से अलग, सच तो यह भी है कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए चाहत कब पैदा हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता. प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश करो, त्रिशा.’’

अगले कुछ पल रुक कर त्रिशा ने कहा, ‘‘मैं अच्छी तरह जानती हूं, तुम मेरी कितनी फिक्र करते हो लेकिन जो प्रस्ताव तुम्हारा है, उस के बारे में सोचने का मेरे लिए सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं ने हमेशा यही चाहा था कि मैं जिस कमी के साथ जी रही हूं, जीवनसाथी भी वैसा ही चुनूंगी ताकि हम एकदूसरे की ताकत बन कर कदमकदम पर हौसलाअफजाई कर सकें और आत्मनिर्भर हो कर जी सकें. फिर, आजाद तो मेरे जीवन में एक अलग ही खुशी ले कर आए हैं.

मैं यकीन के साथ कह सकती हूं, उन की खूबियां और जीवन के प्रति उन का पौजिटिव रुख ही हमारे घर को खुशियों से भर देगा. जानती हूं, जीवन के हर मोड़ पर चुनौतियां होंगी, लेकिन हम दोनों का एकदूसरे के प्रति विश्वास, सम्मान और प्यार ही हमें उन चुनौतियों से उबरने की ताकत देगा. रही बात तुम्हारी, तो मैं अपने इतने अच्छे दोस्त को कभी खोना नहीं चाहती. मेरे लिए, प्लीज, मेरे लिए मुझे मेरा सब से अच्छा दोस्त वापस दे दो. अगले महीने मेरी इंगेजमैंट है. अगर तुम इसी तरह परेशान रहोगे तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?’’ इतने दिनों का सैलाब अब प्रकाश की आंखों से बह चला.

त्रिशा की जिद और कोशिशों के चलते प्रकाश धीरेधीरे नौर्मल होने लगा. त्रिशा की इंगेजमैंट हुई और फिर शादी के दिन भी करीब आ गए. त्रिशा ने आधी से ज्यादा शौपिंग प्रकाश और शालिनी के साथ ही कर ली थी.

एक शाम त्रिशा के पास प्रकाश के मम्मीपापा का फोन आया. लंबी बातचीत के बाद प्रकाश के पापा ने त्रिशा से कहा, ‘‘बेटा, प्रकाश को शादी के लिए तुम ही तैयार कर सकती हो. हो सके तो उसे समझाओ, इतनी देर करना भी अच्छी बात नहीं. हमारी तो बात ही टाल देता है.’’

त्रिशा हंस पड़ी, ‘‘बस, इतनी सी बात है, अंकल. आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. मैं उसे राजी कर लूंगी.’’

यों तो त्रिशा ने पहले भी उस से शादी का जिक्र छेड़ा था, पर हर बार वह उस की बात अनसुनी कर देता था. एक दिन प्रकाश ने त्रिशा से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ, तुम्हें शादी पर क्या गिफ्ट दूं?’’

त्रिशा का उत्तर था, ‘‘तुम मुझे जो चाहे गिफ्ट दे देना, पर तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारी हां मेरे लिए सब से कीमती गिफ्ट होगा.’’

प्रकाश उस दिन खामोश रहा. त्रिशा की शादी की तैयारियों में प्रकाश ने खुद को इतना उलझा लिया कि उसे अपनी सुध ही नहीं रही. हफ्तेभर पहले छुट्टी ले कर प्रकाश भी त्रिशा के साथ दिल्ली चला आया. यहां आ कर शादी की लगभग सभी जिम्मेदारियां प्रकाश ने संभाल लीं. मेहंदी, हलदी, कोर्ट मैरिज और फिर ग्रैंड रिसैप्शन पार्टी.

यह तय था कि शादी के बाद आजाद भी कुछ दिनों के लिए बेंगलुरु घूम आएंगे. त्रिशा की कंपनी का औफिस लखनऊ में नहीं था, इसलिए बेंगलुरु आ कर त्रिशा ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उस ने सोच रखा था कि लखनऊ जा कर कुछ दिन घरगृहस्थी ठीकठाक कर के थोड़ा उस शहर के बारे में समझने के बाद वहीं किसी दूसरी नौकरी की तलाश करेगी.

‘‘भई, हम जानते हैं, आप बहुत थक गए हैं, पर हमें बेंगलुरु तो आप ही घुमाएंगे,’’ आजाद ने प्रकाश से कहा तो प्रकाश बोला, ‘‘सोच लीजिए, बदले में आप को हमें लखनऊ की सैर करवानी पड़ेगी.’’

‘‘कब आ रहे हैं आप?’’

‘‘बहुत जल्द, अपनी शादी के बाद.’’

‘‘अच्छा, तो जनाब ने शादी का फैसला कर लियाऔर हमें खबर तक नहीं हुई. सुन रही हो त्रिशा.’’

त्रिशा को भी यह सुन कर तसल्ली हुई, ‘‘फैसला तो नहीं किया पर…’’ प्रकाश बोलतेबोलते रुक गया और फिर उस ने बात बदल दी. बेंगलुरु में वह हफ्ता तो जैसे चुटकियों में कट गया.

प्रकाश ने त्रिशा और आजाद को गाड़ी में बैठा कर उन का सारा सामान व्यवस्थित करवा दिया. गाड़ी यहीं से बन कर चलती थी, इसलिए लेट होने का तो सवाल ही नहीं था. जैसे ही गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ने लगी, सभी का मन भारी हो गया. प्रकाश शायद बिना कुछ बोले ही चला गया था. त्रिशा की आंखें भी नम हो आईं.

तभी अचानक सामने बैठे पैसेंजर ने आजाद का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आप का छोटा बैग मैं इस साइड टेबल पर रख देता हूं. मैं भी लखनऊ जा रहा हूं. आप के सामने की लोअर बर्थ मेरी ही है. कोई भी जरूरत हो तो आप लोग बेझिझक मुझे आवाज दे दीजिएगा. मेरा नाम प्रकाश है.’’ अनजाने ही त्रिशा के होंठों पर मुसकान छा गई.

अगली सुबह घर पहुंचने के कुछ ही देर बाद उन्हें एक कूरियर मिला. यह त्रिशा के नाम का कूरियर था. ‘‘हैप्पी बर्थडे त्रिशा. तुम्हारा सब से कीमती तोहफा भेज रहा हूं,’’ प्रकाश ने लिखा था. उस में त्रिशा के लिए खूबसूरत सी ब्रेल घड़ी थी और एक शादी का कार्ड.

त्रिशा उछल पड़ी, ‘‘वाह, इतना बड़ा सरप्राइज. इतनी जल्दी कैसे होगा सब? महीनेभर बाद की ही तो तारीख है.’’

शादी से 2 दिन पहले आजाद और त्रिशा भोपाल पहुंचे तो प्रकाश ने रचना से उन का परिचय करवाया. ‘‘इतने कम समय में प्रकाश को तो कुछ बताने की फुरसत ही नहीं मिली. अब तुम ही कुछ बताओ न रचना अपने बारे में?’’ त्रिशा ने उत्सुकतावश पूछा.

‘‘बस, अभी आई. पहले जरा मुंह तो मीठा कीजिए, फिर बैठ कर ढेर सारी बातें करते हैं,’’ कहते हुए रचना उठी तो दाहिनी तरफ के सोफे पर बैठे आजाद से टकरातेटकराते बची. अचानक लगने वाले धक्के से आजाद के हाथ से मोबाइल छूट कर फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘अरे, आराम से,’’ कहते हुए प्रकाश आजाद का मोबाइल उठाने के लिए झुका.

अपनी गलती पर अफसोस जताते हुए अनायास ही रचना के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, माफी चाहती हूं, डाक्टर साहब. दरअसल, मैं देख नहीं सकती.’’

हवा के पंख: मुग्धा समिधा से नराज क्यों हो गई

जब से मुग्धा का परीक्षा परिणाम आया था तब से न केवल नीलकांत परिवार में, बल्कि पूरे गांव में आनंद की लहर थी. नीलकांतजी की तो ऐसी दशा थी मानों कोई मुंह में लड्डू भर दे और फिर उन का स्वाद पूछे.

नीलकांतजी के तीनों बेटों और दोनों बेटियों में मुग्धा सब से अधिक प्रतिभाशाली थी. तीनों बेटे गिरतेपड़ते स्नातक बन पाए थे. उन की बड़ी हवेली में सब ने अपनी अलगअलग गृहस्थी जमा ली थी. खेतीबाड़ी और छोटेमोटे व्यवसाय के साथ ही गांव की राजनीति में भी उन की खासी रुचि थी.

मुग्धा की बड़ी बहन समिधा की भी पढ़ाईलिखाई में खास रुचि नहीं थी. गांव में केवल इंटर तक ही विद्यालय था. पर इंटर की परीक्षा में असफल होते ही उस ने घोषणा कर दी थी कि पढ़ाईलिखाई उस के बस की बात नहीं है.

वह तो पहले मौडल बने, फिर फिल्मी तारिका.नीलकांतजी यह सुनते ही चकरा गए थे. नयानगर जैसे छोटे से कसबे में रहने वाली समिधा के मुख से यह बात सुन कर वे हक्केबक्के रह गए थे. आननफानन घर के बड़े सदस्यों ने निर्णय लिया था कि शीघ्र ही समिधा के हाथ पीले कर के अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली जाए. विवाह के बाद वह मौडल बने या तारिका उन की बला से.

नीलकांतजी का दृढ़विश्वास था कि विवाह समिधा की आशाओंआकांक्षाओं को नियंत्रित करने में सशक्त अस्त्र साबित होगा.ऐसे में परिवार की सब से छोटी कन्या मुग्धा के राज्य भर में प्रथम आने का समाचार आया तो पहले तो किसी को विश्वास हीनहीं हुआ.

धमाकेदार समाचारों की खोज में भटकते एक खोजी पत्रकार को इस घटना में उभरते भारत की नई छवि दिखाई दी और उन्होंने मुग्धा का पताठिकाना और फोन नंबर खोज निकाला.फोन नीलकांतजी ने ही उठाया था. ‘‘मैं संतोष कुमार बोल रहा हूं.

आरोहण नामक समाचार चैनल से. क्या मुग्धा चौधरी का घर यही है?’’‘‘हां यही है मुग्धा का घर, पर तुम्हारा साहस कैसे हुआ मेरी बेटी को फोन करने का?

तुम जानते नहीं तुम किस से बात कर रहे हो?’’ नीलकांतजी क्रोधित स्वर में बोले.‘‘मैं सचमुच नहीं जानता. आप जब तक परिचय नहीं देंगे जानूंगा कैसे?’’‘‘मैं नीलकांत मुग्धा का बाप. मेरी बेटी का नाम फिर से तेरी जबान पर आया तो जबानखींच लूंगा.’’‘

‘आप पहले मेरी बात तो सुनिए… व्यर्थ ही आगबबूला हुए जा रहे हैं… आप की बेटी पूरे प्रांत में 10वीं कक्षा में प्रथम आई है. मैं उस का साक्षात्कार लेना चाहता हूं. बस, इतनी सी बात है.’’

‘‘यह इतनी सी बात नहीं है महोदय. हमारे परिवार की कन्या टीवी चैनल पर साक्षात्कार देती नहीं घूमती और जहां तक प्रांत में प्रथम आने का प्रश्न है तो आप को अवश्य कोई गलतफहमी हुई है. हमारे परिवार के बच्चों के तो पास होने के लाले पड़े रहते हैं…

हमारे परिवार के किसी बच्चे की आज तक प्रथम श्रेणी नहीं आई, तो प्रांत में प्रथम आने की तो बहुत दूर की बात है. ठीक से पता लगाइए प्रांत में प्रथम आने वाली मुग्धा कोई और होगी,’’ नीलकांतजी ने फोन का रिसीवर रखते हुए कहा.‘‘न जाने कहां से चले आते हैं ऐसे मूर्ख,’’ वे बुदबुदाए थे.

फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने मुग्धा को पुकारा, ‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’‘‘क्या है पापा?’’‘‘तुम्हारे पेपर कैसे हुए थे बेटी?’’‘‘अच्छे हुए थे. पर आप 2 माह बाद यह प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं?’’‘‘पास तो हो जाओगी न तुम?’’‘‘आप को मेरे पास होने में भी संशय है? पापा मेरी प्रथम श्रेणी आएगी,’’ मुग्धा आत्मविश्वास भरे स्वर में बोली थी.

‘कहीं सच में प्रांत में प्रथम तो नहीं आ गई यह लड़की? उन्होंने मन ही मन सोचा पर मुग्धा को बताने से पहले वे स्वयं इस समाचार की परख कर लेना चाहते थे.’ तैयार हो कर वे बाहर निकलते उस से पहले ही मुख्यद्वार पर शोर उभरा.

खिड़की से झांक कर देखा तो मुग्धा के विद्यालय के प्रधानाचार्य व अन्य अध्यापक मुग्धा के सहपाठियों के हुजूम के साथ खड़े थे.‘‘नीलकांत बाबू, कमाल हो गया… मुग्धा मेधावी छात्रा है. अच्छे नंबरों से पास होगी, इस की आशा तो हम सब को थी, पर प्रांत में प्रथम आएगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था,’’

प्रधानाचार्य कमलकांतजी नीलकांतजी को देखते ही उन के गले लगते हुए बोले.‘‘मुग्धा जैसी छात्रा का 11वीं कक्षा में हमारे ही विद्यालय में आना गौरव की बात होगी. पर हम इतने स्वार्थी नहीं हैं. इस छोटे से कसबे में उस की प्रतिभा दब कर रह जाएगी.

उस का दाखिला किसी बड़े शहर में किसी जानेमाने कालेज में करवाने से उस की प्रतिभा में और निखार आएगा. मेरी बात मानिए, मुग्धा असाधारण प्रतिभा की धनी है. सही वातावरण में ही उस की प्रतिभा फूलफल सकेगी.’’जातेजाते कमलकांतजी कुछ ऐसा कहगए, जिस ने नीलकांतजी को सोचने पर विवश कर दिया.

बधाई देने वालों का सिलसिला कुछ थमा तो मुग्धा के भविष्य पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाने लगा. किसी भी निर्णय से पहले भलीभांति विचार कर बहुमत से किसी उल  झन को सुल  झाना नीलकांत परिवार की परंपरा थी. पर घर की कन्या का घर छोड़ कर छात्रावास में रहना अनहोनी सी बात थी.

परिवार के कुछ सदस्य इस के समर्थन में थे तो कुछ विरोध में.‘‘प्रदेश में प्रथम आ कर कौन सा तीर मार लिया? आखिर तो चूल्हाचौका ही संभालना है… यह आवश्यक तो नहीं कि प्रधानाचार्य जैसाकहें हम वैसा ही करें,’’ मुग्धा के बडे़ भाई रमाकांत विशेष अंदाज में बोले तो उन से छोटे दोनों भाइयों ने भी उन के समर्थन में अपने हाथ उठा दिए.‘‘लो सुन लो इन की बात… इन मूर्खों को तो यह भी नहीं पता कि आजकल महिलाएं चूल्हेचौके के संग और भी बहुत कुछ संभाल रही हैं… वैसे यह चूल्हाचौका न संभाले तो भूखे मर जाएं तुम सब,’’ सोमा दादी ने अपने तीनों पोतों को फटकार लगाई.‘‘दादीजी, आप ने मुग्धा को सिर चढ़ा रखा है. तभी तो किसी की नहीं सुनती,’’ रमाकांत ने दादी को उकसाया.‘‘आज तो मुग्धा के 7 खून भी माफ हैं.

उस ने जो कर दिखाया है, वह आज तक गांव में भी कोई नहीं कर सका… मेरा सपना तो मेरी मुग्धा ही पूरा करेगी,’’ सोमा दादी एकाएक भावुक हो उठीं.‘‘आप का सपना?’’ समवेत स्वर में पूछा गया प्रश्न देर तक हवा के पंखों पर तैरता रहा.‘‘हां मेरा सपना. 8वीं कक्षा में अपने स्कूल में प्रथम आई थी मैं. पर सब ने घेरघार कर शादी कर दी मेरी…

पूरा जीवन गृहस्थी के कोल्हू को खींचने में बीत गया. मैं मुग्धा के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी,’’ सोमा दादी ने अपना दुखड़ा सुनाया तो सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. सोमा दादी कभी 8वीं में पूरे स्कूल में प्रथम आई थीं, यह तो उन सब को पता ही न था.

‘‘मां, हम न तो मुग्धा की पढ़ाई छुड़वा रहे हैं, न ही उस की शादी कर रहे हैं. प्रश्न यह है कि आगे की पढ़ाई वह कहां करेगी. स्थानीय कालेज में या किसी बड़े शहर में? नीलकांतजी सोमा दादी को भूतकाल से वर्तमान में खींच ले आए.’’‘‘इस बात पर बहस करने से पहले मुग्धासे तो पूछ लो कि वह क्या चाहती है… हैकहां मुग्धा?’’‘‘अपने सहपाठियों के साथ चली गई है.

थोड़ी देर में आएगी,’’ मुग्धा की मां निर्मला बोलीं.दादी की बात सुन कर निर्मला देवी के घाव भी ताजा हो गए थे. अंतर केवल इतना था कि उन का इंटर करते ही विवाह कर दिया गया था. उन की भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा मन की मन में ही रह गई थी.

‘‘मुग्धा कुछ भी चाहे पर मैं तो अपने मन की बात कह देता हूं. मुग्धा का यहीं दाखिला करवा दो. लड़कियों को अधिक आजादी देना ठीक नहीं है,’’ रमाकांत ने साफ कहा.‘‘अभी तो मैं बैठा हूं… मुग्धा के लिए क्या भला है और क्या बुरा, इस का निर्णय मैं करूंगा,’’ नीलकांतजी ने घोषणा की.

‘‘हम तो पहले ही जानते थे… इस घर में हमारी सुनता ही कौन है,’’ रमाकांत ने बुरा सा मुंह बनाया.मगर मुग्धा की गैरमौजूदगी में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका.मुग्धा के राज्य में प्रथम आने का समाचार सुनते ही समिधा अपने परिवार सहित आ धमकी थी.

अब वह भी परिवार में चल रही बहस का हिस्सा बन गई थी.‘‘मेरा सपना तो अधूरा रह गया पर, मैं मुग्धा का सपना टूटने नहीं दूंगी,’’ समिधा ने घोषणा की.‘‘तेरा कौन सा सपना टूट गया?’’ सोमा दादी ने व्यंग्य किया.‘‘हांहां, आप को तो केवल मुग्धा की चिंता है. मेरे बारे में तो किसी ने कभी सोचा ही नहीं. मैं फिल्म तारिका बनना चाहती थी. मेरे जैसा सुंदर तो कोई पूरे कसबे में नहीं था.

‘‘मु  झे आप से यही आशा थी पापा. इस पुरुषप्रधान समाज में मेरे जैसी अबला अपनी आकांक्षाओं का गला घोटने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती है,’’ समिधा बोली.‘‘हम यहां मुग्धा के भविष्य का निर्णय करने के लिए बैठे हैं इसलिए नहीं कि सब अपना रोना ले कर बैठ जाएं,’’

सेमा दादी ने समिधा को डपटा.‘‘तो करिए न मुग्धा के भविष्य का निर्णय. मैं ने कब मना किया है. अपने कसबे से बाहर भेजना है तो छात्रावास में ही रखना पड़ेगा. पर पापा कहते हैं कि हमारा परिवार अपनी बेटियों को छात्रावास में नहीं भेजता. तो अब एक ही मार्ग शेष रह जाता है कि मुग्धा को मेरे पास भेज दीजिए. वहीं रह कर आगे की पढ़ाई कर लेगी मुग्धा…

आजकल जमाना बड़ा खराब है. छात्रावास में रह कर तो युवतियां हाथ से निकल जाती हैं. हमारे साथ रहेगी मुग्धा तो हम उस पर नजर रख सकेंगे. मुग्धा के जीजाजी की भी यही राय है.’’‘‘समिधा ठीक कहती है. मुग्धा बड़ी बहन के पास रह कर उस के नियंत्रण में रहेगी,’’ सोमा दादी ने भी समिधा के प्रस्ताव पर स्वीकृति की मुहर लगा दी.‘‘मुग्धा की पढ़ाई और खानेपीने, रहनेआदि का जो भी खर्च आएगा हम देंगे,’’ नीलकांतजी ने कहा.‘‘पापा, यह कह कर तो आप ने मु  झे बिलकुल ही पराया कर दिया.

मुग्धा क्या मेरी कुछ नहीं लगती? बस एक विनती है… मुग्धा को ठीक से सम  झाबु  झा दीजिएगा. उस का स्वभाव इतना कड़वा हो गया है कि मु  झ से तो वह सीधे मुंह बात ही नहीं करती. मेरे पास रहेगी तो मेरे नियंत्रण में रहना पड़ेगा.

मैं नहीं चाहती कि बाद में सब मु  झे दोषी ठहराएं,’’ समिधा ने बड़ी बहन होने का रोब गांठा.शायद यह वादविवाद और कुछ देर चलता, पर तभी मुग्धा को घर में घुसते देख सब का ध्यान उस पर ही केंद्रित हो गया.‘‘आओ मुग्धा, कहां चली गई थीं तुम? यहां हम तुम्हारे भविष्य के संबंध में विचारविमर्श कर रहे थे,’’ सोमा दादी बोलीं.‘‘मेरे भविष्य की चिंता आप लोग न ही करें तो अच्छा है.’’‘‘लो और सुनो, हम नहीं तो कौन तुम्हारी चिंता करेगा?’’ रमाकांत ने प्रश्न किया.‘‘आप सब को मेरे भविष्य की इतनी चिंता है, तो बताओ क्या निर्णय लिया आप सब ने?’’ मुग्धा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली.‘‘हम सब ने एकमत से निर्णय लिया है कि आगे की पढ़ाई तुम अपनी बड़ी बहन समिधा के साथ रह कर करोगी.’’‘‘अच्छा, क्या मैं जान सकती हूं कि यह प्रस्ताव किस का था?’’ मुग्धा ने पूछा.‘‘तेरी बहन समिधा का.

पर हम सब ने विचारविमर्श कर के तुम्हें वहां भेजने का निर्णय किया है.’’‘‘क्यों दीदी, जब आप ने मु  झे अपने पास आ कर रहने का आमंत्रण दे ही दिया है तो वह बात भी कह ही डालो, जिसे किसी से न कहने का आप ने वादा लिया था,’’ मुग्धा के स्वर की कड़वाहट ने सभी को चौंका दिया.‘‘कौन सी बात? मैं भला तुम्हें किसी भी बात को गुप्त रखने के लिए तुम से वादा क्योंलेने लगी?’’‘‘तुम न सही, पूज्य जीजाजी तो बता ही सकते हैं… मां और पापा को भी तो पता लगे कि उन की बेटी ने क्या कुछ सहा है… वह तड़प, वह संताप, बिना किसी कारण अपनों द्वारा ही छले जाने का कलंक ढोते कितनी रातें मैं ने सिसकियां लेले कर गुजारी हैं,’’ हर शब्द के साथ मुग्धा के स्वर का तीखापन बढ़ता ही जा रहा था.

किसी के मुंह से कोई बोल नहीं फूटा. अंतत: समिधा के पति राजीव ने ही मौन तोड़ा, ‘‘सुन लिया? हो गई तसल्ली? तुम्हारी बहन तुम्हारे पति पर   झूठे आरोप लगाए जा रही है और सब तमाशा देख रहे हैं. अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकता. तुम्हें रुकना है तो रुको…’’‘‘रुको, मैं भी चलती हूं… जिस घर में मेरे पति का अपमान हुआ हो, उस घर का तो मैं एक घूंट पानी भी नहीं पी सकती,’’ समिधा भी पीछेपीछे चली गई.मुग्धा अब भी सिसक रही थी.

उस की मां निर्मला देवी उसे अंदर कमरे में ले गईं.3 वर्ष पहले छुट्टियों में मुग्धा समिधा के पास रहने गई थी. पर वहां से लौटी तो उस का हाल देख कर निर्मला चकित रह गई थीं. संशय के सर्प ने उन के मन में सिर उठाया था. पर लाख पूछने पर भी मुग्धा ने उन्हें कुछ नहीं बताया था. उन के हर प्रश्न के उत्तर में वह आंखों में हिंसक चमक लिए मूर्ति बनी बैठी रहती थी. पर आज मुग्धा का व्यवहार देख कर वे सिहर उठीं.‘‘मेरे लाख पूछने पर भी तुम ने कुछ नहीं बताया था. फिर आज सब के सामने ऐसा व्यवहार करते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ एकांत पाते ही फुफकार उठीं थीं निर्मला.

‘‘आई थी मां, बहुत शर्म आई थी, स्वयं से घृणा हो गई थी मु  झे. आत्महत्या करने का मन होता था. रात भर रोती रही थी मैं.’’‘‘तुम मु  झे तो बता सकती थीं न?’’‘‘समिधा दीदी ने मु  झ से वचन ले रखा था. फिर भी मैं आप को सब बता देती यदि मु  झे आप से जरा सी भी सहानुभूति की आशा होती… आप को सब पता भी लगता तो क्या करतीं आप? अब भी आप को दुख इस बात का है कि मैं ने सब के सामने राजीव जीजाजी पर आक्षेप लगाया. मेरे घाव पर मरहम लगाने की नहीं सोची आप ने.’’‘‘अरी मूर्ख, तू तो इतना भी नहीं सम  झती कि अंतत: बदनामी तेरी ही होगी. राजीव तो साफ बच निकलेगा.

बेचारी समिधा तो अपना घर और तेरा मानसम्मान दोनों ही बचाना चाहती थी.’’‘‘मैं ने भी यही सोचा था. पर आज जब आप सब ने मेरे वहां जा कर रहने का निर्णय सुनाया तो मैं स्वयं को रोक नहीं सकी. स्वयं को किताबकापियों के हवाले करना ही एकमात्र रास्ता बचा था मेरे सामने.

उस का फल भी मिला मु  झे. मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया है कि मेरी व्यथा गौण हो गई. तभी तो सब के सामने राजीव जीजाजी की करतूत का परदाफाश कर सकी मैं… दोष उन का है तो मैं सजा क्यों भुगतूं?’’ मुग्धा बिफर उठी थी.

‘‘मु झे तु झ पर गर्व है बेटी. केवल इसलिए नहीं कि तुम राज्य में प्रथम आई हो, बल्कि इसलिए कि तुम ने अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस दिखाया है.’’तभी मांबेटी का वार्त्तालाप सुन रहे, पीछे खड़े नीलकांतजी ने मुग्धा के सिर पर आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ रखते हुए उसे गले से लगा लिया.

‘‘हमारे परिवार में जो अब तक नहीं हुआ वह अब होगा… मुग्धा छात्रावास में रह कर अपनी आगे की पढ़ाई करेगी,’’ नीलकांतजी ने घोषणा की तो सोमा दादी और निर्मला देवी भाववभोर हो उठीं. उन्हें लगा कि वर्षों पहले का उन का सपना मुग्धा के रूप में साकार होने लगा है.

बचपन की वापसी: क्या हुआ था रोहित के साथ ?

आज मुझे कहीं भीतर तक गुदगुदी हुई थी. वैसे तो बात झुंझलाने लायक थी परंतु मैं खुशी से विभोर हो उठी थी. मेरा सातवर्षीय बेटा रोहित धूलपसीने से सराबोर तूफानी गति से कमरे के भीतर आया. गंदे पैरों से साफसुथरी चादर बिछे पलंग पर 2-4 बार कूदा, फिर पलंग से ही उस कुरसी के हत्थे पर कूदा जिस पर मैं बैठी थी. हत्थे से वह मेरी गोद में लुढ़क गया और मचलमचल कर अपने धूलपसीने से मेरी साफसुथरी रेशमी साड़ी को सराबोर कर दिया. 2-4 मिनट मुझ से लिपटचिपट कर ममता की सुरक्षा से आश्वस्त हो, फ्रिज की ओर लंबी कूद लगाई. एक बोतल निकाल कर गटागट पानी पिया. फिर जिस गति से आया था उसी गति से वापस बाहर खेलने के लिए निकल गया.

रोहित की उस हुड़दंगी हरकत के बावजूद मैं खुश इसलिए हुई क्योंकि ऐसी हरकत ने उस का बचपना लौट आने का दृढ़ संकेत दिया था. मेरी यह बात शायद अटपटी या मूर्खतापूर्ण लगे क्योंकि किसी बच्चे का बचपना लौटने का भला क्या मतलब है? बच्चा है तो बचपना तो होगा ही.

बिलकुल ठीक बात है. रोहित में भी बचपना था. शुरू के 4 साल तक तो उस का बचपना ऐसा मोहक था कि सूरदास के श्याम का चित्रण भी मुझे फीका लगता था. एक बरफी के टुकड़े या टौफी के लिए ठुमकठुमक कर जब भी वह अपने मासूम करतब दिखाता तो बरबस ही रसखान की ‘छछिया भरि छाछ पे नाच नचावें’ वाली पंक्तियां याद आ जाती थीं. उस की संगीतमय, लयदार, तुतलाती बोली पर मैं यशोदा मैया की तरह बलिबलि जाती थी.

लेकिन ऐसा बस 4 सालों तक ही हुआ. उस के बाद अचानक उस का बचपना कम होता गया और वह मुरझा सा गया. उस के मुरझाने का जिम्मेदार अन्य कोई नहीं बल्कि मैं ही थी, उस की मां.

किसी भी मां की तरह मैं ने सपने में भी नहीं चाहा था कि मेरी कोख का फूल असमय मुरझाए. बल्कि मेरी कल्पना का फूल तो कुछ ज्यादा ही खिलाखिला, रंगीन, स्वस्थ, प्यारा व मनमोहक था. शायद कल्पना की यह ज्यादती ही मेरी शत्रु बन गई, मेरे रोहित के बचपने के लिए घातक बन गई.

रोहित के 4 साल का होने तक तो मैं सचमुच एक खुशहाल मां रही. मैं ने जो भी कल्पनाएं की थीं वे मानो किसी जादू की बदौलत पूरी होती गईं. बल्कि कल्पना की जो ज्यादती की थी वह भी पूरी होती गई.

मैं ने चाहा था कि पहलापहला मेरा लड़का हो. वही हुआ. वह किसी मौडल बेबी की तरह घुंघराले बालों वाला, तंदुरुस्त, गोरा व चमकदार हो, रोहित वैसा ही पनपा. मेरी कल्पना के मुताबिक ही उस ने 2-3 शिशु सौंदर्य प्रतियोगिताएं जीतीं. अपने सुदर्शन पति के साथ स्वयं सुदर्शना बनी अपने किलकारते बेटे को प्रैम में लिटा कर जब मैं पार्क में टहलती थी तो कोई गहरी साध पूरी हुई लगती थी.

संतान के मामले में हर ओर से प्रथम गिने जाने की मेरी आदत सी पड़ गई. मुझे इस बात का अभिमान भी हो चला था.

फिर मानो मेरे अभिमान पर किसी ने चोट करनी शुरू कर दी. उस दिन रोहित को सजाधजा कर तथा खुद भी सजधज कर मैं व मेरे पति दाखिले के वास्ते रोहित को स्कूल ले गए. वह स्कूल शहर का सब से अग्रणी अंगरेजीदां स्कूल था. हालांकि वह हमारे घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर था परंतु सिर्फ दूरी के कारण उस सब से प्रसिद्ध स्कूल को नकारना मुझे मान्य नहीं था. फिर उस स्कूल की एक शानदार स्कूल बस चलती थी जोकि हमारे घर के नजदीक ही रुकती थी. स्कूल की यूनिफौर्म में रोहित को बस स्टाप तक लाना व बस में चढ़ा कर उसे ‘बायबाय’ करने वाली कल्पना को साकार करने के लिए यह बेहद उपयुक्त मौका था.

लेकिन ये सब कल्पनाएं धराशायी होती लगीं, जब रोहित को स्कूल में प्रवेश न मिला. इस का कारण यह था कि प्रवेश परीक्षा में रोहित कुछ भी नहीं कर पाया था. दरअसल, मैं ने उसे कुछ सिखाया ही नहीं था. मुझे यह एहसास ही नहीं था कि इतने छोटे बच्चे की लिखित परीक्षा भी होगी. फिर मैं ने दांतों तले उंगली दबा कर रोहित से भी छोटे बच्चों को वहां पैंसिल थामे ‘ए’ से ‘जेड’ तक लिखते देखा. एक 4 साल का बच्चा तो वहां ऐसा था जो  बड़ेबड़े सवाल हल कर के सब को चौंका  रहा था. कहते हैं उस का टीवी में भी प्रदर्शन हो चुका था.

स्कूल से विफल लौट कर मैं अपने कमरे में खूब रोई. इतना रोई कि घर वाले परेशान हो उठे. सुंदर सी ‘रिपोर्ट कार्ड’ में शतप्रतिशत नंबर व शानदार रिपोर्ट लाता रोहित, नर्सरी राइम को पश्चिमी धुन में सुनाता रोहित, मीठीमीठी अंगरेजी में सब से बतियाता रोहित…सारे सपने चूरचूर हो गए थे.

बहरहाल, यह बेहिसाब रोनाधोना काम आया. मेरे लगभग विरक्त ससुर विचलित हो उठे. पहले तो वे मुझे सुनासुना कर मेरी सास को समझाते रहे कि बच्चे को पास के रवींद्र ज्ञानार्जन निकेतन में डाल दो, वहां अंगरेजी भी पढ़ाते हैं परंतु माहौल हिंदुस्तानी रहता है. अपने त्योहार, संस्कृति आदि के बीच रह कर बच्चा बड़ा होता है. पुस्तकें भी बाल मनोवैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत, सरल व क्रमबद्ध होती हैं. परंतु उन की ये सब बातें मुझे उन्हीं के हिसाब की पुरातन व बूढ़ी लगीं. मेरा रुदन जारी रहा.

फिर मेरी सास के उकसाने पर वे कहीं बाहर गए. थोड़ी ही देर में लौट आए और मुझे सुनाते हुए मेरी सास से बोले, ‘‘इस से कह दो कि कल रोहित का दाखिला उसी स्कूल में हो जाएगा. शिक्षा निदेशक ने प्राचार्य से कह दिया है.’’

यह कह कर वे अपने कमरे में चले गए और मैं बौखलाई सी चुप हो गई. बस, ऐसे ही किन्हीं इक्कादुक्का मौकों पर याद आता था कि बिलकुल साधारण और सरल व्यवहार वाले मेरे वृद्ध ससुर न सिर्फ अवकाशप्राप्त उपकुलपति हैं बल्कि अपने तमाम छात्र पदाधिकारियों के बीच आदरणीय हैं.

मैं मन ही मन ससुरजी की जयजयकार कर प्रफुल्लित हो उठी. रात को जब पतिदेव दफ्तर से लौटे तो उन्हें दरवाजे पर ही यह बात बताई. वे खुश होने के साथ थोड़ा चिंतित भी हो उठे कि क्या रोहित अन्य बच्चों के बराबर आ पाएगा? मैं ने कहा, ‘‘चिंता की बात न करें. महीने भर के भीतर ही रोहित कक्षा में प्रथम होगा.’’

उस के बाद दाखिला, वरदी, किताबें, जूते, टाई आदि खरीदने, पहनाने के

2-4 खुशनुमा दिन निकले. स्कूल द्वारा अनापशनाप फंडों के नाम पर ढेर सारा पैसा बटोरने से कोफ्त तो हुई पर खुशी की इतनी भरमार थी कि उस का ज्यादा असर नहीं पड़ा.

पहले दिन रोहित जब स्कूल बस में चढ़ा तो उस का चेहरा घबराहट के मारे सफेद पड़ा हुआ था. फिर भी वह मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था क्योंकि मैं ने उसे बहादुर बच्चा बने रहना तथा कतई न रोने का पाठ अच्छी तरह पढ़ा रखा था. मैं जब उसे बैठा कर बस से उतरने लगी तो वह दहाड़ मार कर रो पड़ा. मेरा दिल भी कांप गया तथा मैं इस इरादे से उस के पास बैठ गई कि स्कूल तक छोड़ आऊंगी. लेकिन तभी मशीनी मिठास भरी अंगरेजी बोलती हुई सिस्टर ने रोहित को लौलीपौप दे कर चुप कराया तथा मुझे ‘कोई चिंता न करें, हम सब संभाल लेंगे’ कहते हुए नीचे उतार दिया. जब बस चली तो मुझे फिर रोहित का कातर रुदन सुनाई पड़ा. बहरहाल, मैं मन कड़ा कर वापस घर आ गई. आखिर स्कूल जाना तो उसे सीखना ही था.

सुबह 7 बजे का निकला रोहित 4 बजे वापस घर पहुंचा. एक तो ऐसे ही स्कूल का समय लंबा था, ऊपर से दूर होने के कारण 2 घंटे आनेजाने में खपते थे. वापसी में रोहित रोंआसा होने के साथसाथ उनींदा भी था. वह आते ही मुझ से लिपट कर जोर से रोने लगा और ‘स्कूल नहीं जाऊंगा’ की रट लगाने लगा. मेरे अंदर की मां काफी कसमसाई थी, परंतु जो धुन सवार थी उस की तीव्रता में वह कसमसाहट खो गई. मैं उसे अंगरेजी बोलती हुई प्यार करने लगी और उसे उकसाने लगी कि अपना रोना वह अंगरेजी में रोए. चौकलेट दे कर उसे चुप कराया और दुलारतेपुचकारते हुए खाना खिलाया.

ऐसा शुरू में कुछ दिन हुआ और फिर शीघ्र ही यह सब आदत में आ गया. सप्ताहभर बाद जब स्कूल से लौट कर अलसाया सा रोहित खाना खा रहा था, मैं ने उस के बस्ते को जांचा. मैं उदास हो गई. जब देखा कि गणित व अंगरेजी की कापियों में लाल स्याही से अध्यापिकाओं ने लिख रखा था, ‘बच्चा कमजोर व पिछड़ा है. अभिभावक विशेष तैयारी कराएं. गृहकार्य में ‘ए’ से ‘जेड’ तक 10 बार लिखना था.

खैर, उस समय जल्दीजल्दी रोहित को खाना खिला कर मैं वहीं मेज पर उसे ‘ए बी सी डी’ सिखाने बैठ गई.

दो एक वर्ण तो उस ने लिख लिए परंतु फिर वह टालमटोल करने लगा. उसे नींद भी आ रही थी और वह बाहर बच्चों के साथ खेलना भी चाह रहा था. मैं थोड़ा खीज गई. मैं चाह रही थी कि एक ही दिन में वह पूरी वर्णमाला सीख ले. मैं ने उसे पीट कर सिखाना शुरू कर दिया. उस ने 2-1 वर्ण और सीख लिए. उस के बाद तो जैसे वह न सीखने पर अड़ गया. मैं सिखाने पर अड़ गई. मारने पर वह बेशर्म की तरह रोया. मुझे और गुस्सा आ गया.

इधर मेरी सास उलाहना देने लगीं, ‘‘अरे, अभी बच्चा है, सीख जाएगा धीरेधीरे. उसे खेलने दे कुछ देर. सुबह का गया स्कूल से थक कर आया है.’’

सास से मेरा मेल कम ही खाता था. उन की ये बातें तो मुझे बिलकुल नहीं सुहाईं. मैं रोहित को उठा कर अपने कमरे में ले गई. उस के छोटे से हाथ में जबरदस्ती पैंसिल थमा कर उस के सामने स्केल ले कर खड़ी हो गई कि देखूं, कैसे नहीं सीखता. स्केल से रोहित डरता था, ऊपर से मेरी मुखमुद्रा देख कर उस के बालक मन को कुछ अंदाजा हो गया. वह सहम कर चुप हो गया. पूरी चेष्टा कर के उस ने घंटेभर में 8-10 टेढ़ेमेढ़े वर्ण लिखने सीख लिए. मैं ने खुश हो कर उसे प्यार किया. वह भी एक थकी हुई बचकानी हंसी हंसा. फिर जल्दी ही वह सो गया.

इस तरह से रोहित से बचपना छीनने की शुरुआत हुई. मैं ने रोहित के पीछे पड़ कर रोज उसे पढ़ानालिखाना शुरू कर दिया. सुबह उठते ही उसे स्कूल जाने के लिए तैयार करती थी. तैयार करतेकरते भी उस से कुछ पूछतीबताती रहती थी. वह भी मशीनी तौर पर बताए और याद किए जाता था. शाम को स्कूल से लौटते ही मैं उस का बस्ता टटोलती थी तथा खाना दे कर कपड़े बदलवाती. फिर उस की अनेक आवश्यकताओं को जल्दी से निबटा कर उस को पढ़ाने बैठ जाती. इधर, सास ने ज्यादा भुनभुनाना शुरू कर दिया था. उन का गुस्सा भी मैं रोहित को पढ़ाते हुए निकालती.

छमाही परीक्षाओं में रोहित अपनी कक्षा में प्रथम आया. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. घर में जो भी पड़ोसी या मेहमान आता, उसे मैं वह रिपोर्ट कार्ड जरूर दिखाती.

समय गुजरता गया. मैं अन्य सब बातों की उपेक्षा कर इस चेष्टा में लगा रही कि रोहित कक्षा में प्रथम बना रहे. धीरेधीरे वह शारीरिक तौर पर कमजोर पड़ने लगा. उस की आंखें सूनीसूनी रहने लगीं. खेलने में उस का मन न लगता. चिड़चिड़ाने भी लगा था. कई बार वह अजीब सी जिद कर के ऐसे रोने लगता कि मुझे गुस्सा आ जाए. उसे प्यार करने पर अब संतुष्टि सी नहीं होती थी. वह कुछ अजीब सी बातें व हरकतें करने लगा था. मुझे जबतब उस पर गुस्सा आने लगा.

कमजोर पड़ता देख उसे मोटा करने के लिए मैं टौनिक देने लगी. मक्खन व शहद जैसी चीजें ज्यादा खिलाने लगी, पर वह और कमजोर होता गया. अच्छीअच्छी चीजें जब मैं जबरदस्ती उसे खिला देती तो उसे उलटी हो जाती. उस से मैं परेशान व दुखी हो जाती.

फिर वह पढ़ाई में भी पिछड़ने लगा. कहां तो शुरू में उस ने सबकुछ तेजी से सीखा, परंतु तीसरी कक्षा में वह ठीक न चल पाया. घर में सबकुछ सही सुना कर वह परीक्षा में गलत कर आता. इस का उसे अफसोस भी होता और मेरी डांट अलग पड़ती. मैं दिनरात किताब लिए उस के पीछे  पड़ी रहती. वह भी रटता रहता परंतु फिर भी वह पिछड़ने लगा था.

मेरी कल्पना के सारे विस्तार एकसाथ सिकुड़ने लगे. मैं बौखलाने लगी. कई बार मुझे रोना आ जाता. मुझे लगता कि कहीं कुछ गलती तो जरूर हुई है. पर मैं यकीन नहीं कर पाती कि जो मैं ने इतना जोरशोर व मेहनत से किया था उस में कुछ गलत था.

गरमियों के अवकाश के दौरान रोहित अधिकतर बीमार रहा. खेलना तो वह जैसे भूल ही गया था. एक दिन उस का बुखार कुछ ज्यादा ही बढ़ गया. वह बेहोश सा हो गया जिस से मैं घबरा गई. मेरी घबराहट और बढ़ गई जब वह बेहोशी में कभी पहाड़े सुनाने लगा तो कभी अंगरेजी के प्रश्नोत्तर. ऐसा वह लगातार देर तक करता रहा. मैं डर गई.

मेरे पति देर रात तक दफ्तर से लौटते थे, इसलिए मुझे हिम्मत बंधाने के खयाल से मेरे सासससुर पास बैठे थे. वे पहाड़े व प्रश्नोत्तर उन्होंने भी सुने. मुझे लगा कि सास तीखा उलाहना देंगी, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा बल्कि मुझे हिम्मत बंधाने लगीं, ‘‘दवा दे दी है, बुखार उतरता ही होगा.’’

आज कभी न बोलने वाले मेरे ससुर बोले, ‘‘बेटी, जमाने के मायाजाल में इतना न फंसो कि प्रकृति की लय से कदम ही टूट जाएं. तुम्हारी धुन के कारण रोहित अपनी सब से मूल्यवान वस्तु गंवा चुका है यानी अपना बचपना. जरा 3 साल पहले के रोहित को याद करो. क्या यह वही रोहित है? खूब पढ़ालिखा कर इसे क्या बना दोगी? समाज व जिंदगी में ठीक तरह से बरत सके, इस के लिए पढ़ाई जरूरी तो है परंतु उस का मकसद व तरीका मानसिक विकास वाला होना चाहिए.

‘‘तुम ने तो मानसिक विकास के बजाय इसे मानसिक कुंठा का शिकार बना दिया और खुद भी मनोरोगी बन रही हो. जो भी है, अभी बात हाथ से निकली नहीं है. इन 3 सालों में अंगरेजियत भरी इस टीमटाम के खोखलेपन को तुम भी काफीकुछ समझ चुकी होगी.

‘‘बच्चे को जूते, टाई और बैल्ट में कस कर हर समय बाबू साहब बनाने के बजाय उसे अन्य बच्चों के साथ उछलकूद करने दो. बच्चे की यही प्राकृतिक आवश्यकता भी है. उसे फिर टौनिक देने की जरूरत नहीं रहेगी. उसे किसी नजदीक के छोटे व कम समय वाले स्कूल में डालो ताकि वह जल्दी घर आ सके और मां के प्यार की खुशबू पा सके. अंगरेजी के वाक्य रटाने के बजाय उसे समझ आने वाली भाषा में उन वाक्यों की गहराई को समझाओ ताकि उस का मानसिक विकास हो.

‘‘उसे खेलखेल में पढ़ाने के तरीके ईजाद करो. पढ़ाई उतनी ही कराओ जितनी कि उस का नन्हा दिमाग जज्ब कर सके. बच्चे को प्रथम लाने के चक्कर में न रहो. उस के दिमाग को विकसित करो. वैसे भी तुम पाओगी कि अधिकतर सही विकास वाले बच्चे ही अच्छे नंबर लाते हैं, विशेषकर बड़ी कक्षाओं में.’’

ससुरजी की बात मैं ने बहुत ध्यान से सुनी. यह लगभग वही आवाज थी जोकि आजकल मेरे मन में उठने लगी थी.

कुछ देर बाद रोहित का बुखार जब कुछ कम हुआ तो सासससुर अपने कमरे में चले गए. मेरी सोई हुई ममता कुछ ऐसी जागी कि थरथराते हुए मैं ने रोहित को अपने से चिपका लिया. रोहित क्षणभर को नींद से जागा और कुछ अविश्वास से मुझे देखा. फिर ‘मां’ कहता हुआ मुझ से कस कर लिपट कर सो गया.

दूसरे दिन मैं ने अपने सासससुर  को सुनाते हुए पति से कहा, ‘‘सुनिए, रवींद्र ज्ञानार्जन निकेतन का प्रवेशफार्म ले आना. इस बार रोहित को यहीं डालेंगे.’’

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