शाम को 7 बजते ही दफ्तर के सारे मुलाजिम बाहर की ओर चल पड़े. अभिनव भी अपनी सीट से उठा और ओवरसीयर के कमरे के पास जा कर खड़ा हो गया.
‘‘क्या हुआ अभिनव तुम गए नहीं? क्या आज भी ओवरटाइम का इरादा है?’’
‘‘हां बड़े साहब, आप तो जानते ही हैं विद्या की ट्यूशन की फीस देनी है फिर उन की किताबे, कापियों का खर्च, पूरे 15-20 हजार का खर्च हर महीने होता है. इतनी सी तनख्वाह में कैसे गुजारा हो सकता है, ओवरटाइम नहीं करूंगा तो भूखे मरना पड़ेगा.’’
जवाब में ओवरसीयर बाबू मुसकरा दिए, ‘‘यह तो हरजाना है अभिनव बाबू एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी रचाने का और उस पर उसे और आगे पढ़ाने का.’’
‘‘हरजाना नहीं है बाबू, यह मेरा फर्ज है. विद्याजी में हुनर है, बुद्धि है, प्रतिभा है. मैं तो सिर्फ एक जरीयामात्र हूं उन के ज्ञान को उभार
कर लोगों तक लाने का और फिर जब वे जीवन में कुछ बन जाएंगी तो नाम तो मेरा भी ऊंचा
होगा न.’’
‘‘हां वह तो है आने वाले कल को सजाने के लिए जो तुम अपना आज दांव पर लगा रहे
हो उस की मिसाल बड़ी मुश्किल से ही मिलेगी मगर ऐसे सपने भी नहीं देखने चाहिए जो तुम
से तुम्हारी नींद ही चुरा लें. कभीकभी इंसान को अपने बारे में भी सोचना चाहिए जो तुम नहीं कर रहे.’’
‘‘मेरी सोच विद्याजी से शुरू हो कर वहीं पर खत्म हो जाती है सर, मुझे हर हाल मे विद्याजी को वहां तक पहुंचाना है जहां की वे हकदार हैं. शादी के बंधन ने उन्हें एक क्षण के लिए बांध जरूर दिया था मगर मेरे होते उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता.’’
9 बजे पारी खत्म कर के अभिनव बाजार में कुछ छोटीबड़ी खरीदारी करते हुए घर पहुंच गया. दरवाजे को हलके से खोल कर उस ने सुनिश्चित किया कि विद्या अपनी पढ़ाई में मशगूल थीं. फौरन हाथमुंह धो कर वह रसोई में घुस गया. खाना बना कर उस ने परोसा और विद्या को खाने के स्थान पर आने के लिए आवाज दी.
‘‘बहुत थक गई होगी न आज, सारा दिन किताबों में सिर खपाना, कभी पढ़पढ़ कर लिखना कभी लिखलिख कर पढ़ना. मेरी तो समझ से ही दूर की बात है.’’
‘‘हां थक तो गई, अभी नोट्स बनाने हैं फिर सुबह सर को दिखाने हैं. तुम भी तो थक गए होंगे न, सारा दिन मेहनत करते हो मेरे लिए.’’
‘‘तुम ने इतना सोच लिया मेरे बारे में मेरे लिए इतना ही बहुत है. अब तुम आराम से अंदर जा कर पढ़ो. मैं कूलर में पानी भर देता हूं और दूध का गिलास भी सिरहाने रख देता हूं. रात को कुछ चाहिए तो आवाज दे देना.’’
‘‘तुम भी अंदर सो सकते हो, बाहर गरमी…’’
‘‘बाहर मौसम बहुत खुशनुमा है और मेम साहब जब तक आप कुछ बन नहीं जातीं मेरे लिए बाहर और अंदर के मौसम में कोई अंतर नहीं है.’’
घर के आंगन में चारपाई लगा कर हाथ में अखबार से हवा करते हुए अभिनव लेट गया. पास की चारपाई पर पड़ोस में रहने वाले शुभेंदु दादा भी आ कर पसर गए. फिर अभिनव से पूछा, ‘‘अगर आप बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? मुझे तो मेरी बीवी घर से निकाल देती है मगर आप क्यों बाहर आ कर सोते हैं?’’
अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘आप रोज मुझसे यह सवाल करते हैं और रोज मैं आप को यही जवाब देता हूं,’’ बाहर नीले आकाश के नीचे, तारों की छांव में सपने साफ दिखते हैं, दूर तक फैला खुशी का साम्राज्य, हंसी की ?ाल उस पर खुशी की नैया और उस नाव में मैं और विद्याजी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. पीछे मुड़ कर देखने का भी समय नहीं होता. बहुत मजा आता है दादा ऐसे सपनों में जीने का इसलिए मै बाहर सोता हूं.’’
‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं भी तो बाहर सोता हूं मुझे ऐसे सपने क्यों नहीं आते? अच्छा एक और जिज्ञासा थी, कई बार आप से पूछा भी मगर आप टाल गए, वादा कीजिए कि आज नहीं टालेंगे,’’ दादा ने कहा.
‘‘पूछिए दादा, अपना सवाल फिर से दोहरा दीजिए.’’
‘‘आप अपनी पत्नी के लिए इतना कुछ क्यों करते हैं? सुबह से रात तक उन की छोटीबड़ी हर जरूरत का ध्यान रखना, खुद तकलीफ में रह कर उन्हें आराम से रखना, कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना, ऐसा करने की कोई खास वजह लगती है?
‘‘वजह कोई नहीं बस यह एक तरह का पश्चात्ताप है दादा.’’
‘‘पश्चात्ताप,’’ दादा की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी.
‘‘हां दादा. मेरा एक ?ाट, मेरा एक फरेब जिस ने मुझे विद्या की नजरों में गिरा दिया था. उसी का प्रायश्चित्त है यह. बात उन दिनों की है जब हमारी शादी की बात चल रही थी. मैं ने विद्या को पहली बार देखा तो बस देखता ही रह गया. लगा मानो वक्त थम कर विद्या पर ही अटक गया हो. मुझे अपनी जिंदगी की मंजिल सामने नजर आ गई थी. बात आगे बढ़ी तो पता चला कि विद्या पढ़नेलिखने में बहुत होशियार है और उसे एक पढ़ालिखा वर चाहिए. कहां उस की चाहत और कहां मैं जिस ने स्कूल की शिक्षा भी पूरी नहीं की थी. मैं परेशान हो कर इधरउधर घूमताफिरता रहता था कि किसी ने झूठ की राह पर चलने की सलाह दी और फिर मानो होनी ने भी झूठ में मेरा साथ दिया. मैं एक दिन पास के ही एक बैंक में किसी काम से गया था कि बाहर मुझे विद्या नजर आई तो मैं ने कहा कि आप यहां विद्याजी, बहुत ही सुखद संयोग है. मैं ने विद्या से वहां इस तरह से मिलने की कभी अपेक्षा नहीं की थी.
‘‘विद्या संकुचाते हुए बोली कि तो आप इस बैंक में काम करते हैं… मां बता रही थीं कि शायद आप किसी बैंक में अफसर हैं लेकिन आप यहां हैं इस की मुझे जानकारी नहीं थी.
‘‘मैं ऐसे किसी प्रश्न के लिए तैयार न था लेकिन साथ ही मैं विद्या का साथ एक पल के लिए भी नहीं खोना चाह रहा था. मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या उत्तर दूं. बस पता नहीं क्या दिमाग में आया कि मैं बोल पड़ा कि हां मैं इसी बैंक में काम करता हूं. आजकल मेरी पोस्टिंग पास के एक गांव में है. आप तो जानती ही होंगी कि हम बैंक वालों के 2-3 साल किसी गांव की शाखा में गुजारने जरूरी होते हैं.’’
‘‘मैं जानती हूं. आप कितने पढे़लिखे हैं, स्मार्ट हैं फिर भी आप ने मुझे पसंद किया.’’
‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.
कुछ क्षण रुक कर विद्या बोली, ‘‘हमारी लगभग चट मंगनी पट ब्याह वाली तरह
शादी हो रही है. एकदूसरे को सम?ाने का, परखने का समय भी नहीं है इसलिए इतनी जल्दी आप से इस विषय पर बात कर रही हूं, मैं चाहूंती तो किसी के जरीए आप को यह संदेश पहुंचवा सकती थी मगर मैं सीधे बात करने में यकीन करती हूं. आप से एक वादा चाहिए था. अगर इजाजत हो तो कहूं?’’
‘‘हां कहिए न. निस्संकोच हो कर कहिए.’’
‘‘मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, बहुत बड़ी डाक्टर बनना चाहती हूं, दूर तक उड़ना चाहती हूं. क्या आप मु?ो इस का मौका देंगे? आप मेरे पर तो नहीं कतरेंगे?’’
‘‘नहींनहीं विद्याजी. इस में सोचविचार, नानुकुर का कोई प्रश्न ही नहीं है और फिर डाक्टर बन कर आप न सिर्फ अपने परिवार का नाम रोशन करेंगी बल्कि समाज सेवा भी कर सकती हैं,’’ मैं ने सहज भाव से जवाब दिया.
विद्या खुशी से फूली न समाई, ‘‘मेरी इंग्लिश थोड़ी कमजोर है. छोटे शहर
से हूं न, आप तो इतने बड़े कालेज से एमबीए हैं, तो क्या मैं आशा करूं कि इंग्लिश तो आप मुझे पढ़ा ही देंगे? बाकी मैं संभाल लूंगी.’’
‘‘क्यों नहीं विद्याजी,’’ मैं ने यंत्रवत ढंग से थूक निगलते हुए जवाब दिया.
‘‘फिर क्या हुआ,’’ दादा की आंखों से जैसे नींद उड़ चुकी थी.
‘‘शादी की रात को ही मेरा भांड़ा फूट गया जब मेरे कुछ दोस्तों ने बातोंबातों में मेरी सचाई बयां कर दी. उन्होंने बता दिया कि मैं ने तो स्कूल के सारे कमरे भी नहीं देखे थे. सुन कर विद्या बिफर गई कि इतना बड़ा फरेब, धोखा और झूठ के बारे में उस ने सोचा ही नहीं था. उस ने मुझे बहुत जलील किया. मेरे पास उस को देने के लिए कोई जवाब न था सिवा इस के कि मैं उस से बेइंतहा प्यार करता हूं और यह झूठ मुझे एकमात्र हथियार जरीया नजर आया जो मुझे उस तक पहुंचा सकता था.
‘‘इस के आगे की कहानी मैं समझ गया अभिनवजी. आप ने उसे आगे पढ़ाने का अपना वादा पूरा करने की ठानी और अपना दिनरात एक कर दिया. विद्या को भी मन मार कर इसी में संतोष करना पड़ा, उस के पास इस से बेहतर कोई विकल्प भी नहीं था.’’
सुबह उठते ही अभिनव ने चाय बनाई और अखबार ले कर विद्या के कमरे में दाखिल हो गया, ‘‘तुम्हारे लिए चाय और अखबार दोनों जरूरी हैं. चाय फुरती के लिए और अखबार चुस्ती के लिए, अखबार में देशविदेश की खबरें तुम्हें चुस्त रखेंगी. आगे बढ़ने के नएनए रास्ते सुझाएंगी.’’
विद्या ने अखबार पर नजर डाली और
एक पन्ने पर छपी खबर देख कर ठिठक गई, ‘‘अभिनव दिल्ली में नीट, मेरा मतलब है
मैडिकल की पढ़ाई वालों का एक नया केंद्र खुला है. वहां पर समयसमय पर नोट्स बना कर दिए जाएंगे जो मु?ा जैसे प्रतियोगी परीक्षा वालों के लिए बहुत काम के होंगे, मगर…’’ विद्या बोलतेबोलते रुक गई.
‘‘हां तो दिक्कत क्या है. मैं ला कर दूंगा तुम्हें नोट्स…’’
‘‘रहने दो अभिनव, बहुत खर्च है इस में. लाख सवा लाख देना हमारे बस का नहीं.’’
अभिनव सोच में पड़ गया, अभी लैपटौप खरीदने के लिए दफ्तर से कर्ज लिया वह भी उतारना है, उस के अलावा पहले ही 2-3 लाख का लोन है. ओवरसीयर साहब चाह कर भी मदद नहीं कर पाएंगे. इसी उधेड़बुन में अभिनव कब दफ्तर पहुंच कर वापस बाहर आ गया उसे स्वयं भी पता नहीं चला. घर के लिए वापसी में स्टेशन का फाटक था.
अभिनव के कदम स्टेशन के प्लेटफौर्म की तरफ चल पड़े और एक बैंच पर जा कर रुक गए. मेरी तपस्या व्यर्थ जाएगी. क्या विद्या की पढ़ाई का रिजल्ट उस की मेहनत के अनुसार नहीं आएगा? क्या विद्या एक सफल और कामयाब डाक्टर नहीं बन पाएगी? अभिनव स्वयं से ही बातें कर रहा था कि एक स्पर्श ने उस की तंद्रा भंग कर दी. अभिनव उस अपरिचित को पहचानने का प्रयत्न कर रहा था.
‘‘पहचान लिया या बताना पड़ेगा?
निहाल याद है या भूल गया? तारानगर सरकारी विद्यालय.’’
अभिनव को दिमाग पर ज्यादा जोर देने
की जरूरत नहीं पड़ी. उठ कर गले लगते हुए बोला, ‘‘तुझे कैसे भूल सकता हूं भाई तेरी वजह से बहुत पिटा हूं मैं, पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ कर भाग जाता था और पिटता था मैं, मगर फिर मिल कर आम खाने का मजा भी कुछ और ही होता था. हम कौन सी कक्षा तक साथ थे. 7वीं तक तूने स्कूल छोड़ा और मु?ो निकाल दिया
गया. तब से इस स्टेशन ने मुझे आश्रय दिया. मुझे देख कर तुझे पता चल ही गया होगा कि मैं यहां कुली हूं.’’
अभिनव मुसकरा दिया. उस की शून्य आंखें उस की व्यथा बयां कर रही थीं.
‘‘तू यहां स्टेशन पर क्या कर रहा है? कोई आ रहा है या जा रहा है?’’
‘‘न कोई आ रहा है न ही कोई जा रहा है… जिंदगी ही थम सी गई है.’’
‘‘थोड़ी देर रुक, मैं इस ट्रेन से उतरे यात्रियों को टटोलता हूं, कोई ग्राहक आया तो ठीक वरना फौरन आता हूं.’’
थोड़ी ही देर में निहाल अभिनव के पास था, ‘‘आजकल हर सूटकेस में पहिए लगे होते हैं भाई. हजारों का टिकट खरीद कर आने वाले स्टेशन पर कुली को पैसे देने में हजार बार सोचते हैं. पता नहीं इन चलतेफिरते सूटकेसों का आविष्कार हम जैसों की मजदूरी पर लात मारने के लिए किस ने किया था? खैर, तू बता क्या हुआ तेरी जिंदगी में तारानगर कब और कैसे छोड़ कर यहां… बसा शादीवादी हुई या मेरी तरह कुंआरा है?’’
‘‘एक ही तो काम किया है मैं ने मेरे भाई, शादी की है या यों कहो कि मौसी ने मेरा घर बसाने के लिए मुझे मंडप में बैठा दिया और उधर तेरी भाभी का भी पुस्तकों से रिश्ता तोड़ कर मु?ा से करवा दिया,’’ अभिनव ने अपने जीवन के हर सफे को पढ़ कर सुन दिया.
‘‘कितना बड़ा काम किया है तूने अभिनव. भाभी की पढ़ाई की लौ को जलाए रखने के
लिए उन्हें डाक्टर बनाने के लिए स्वयं को भट्टी में झांक दिया.’’
‘‘इस में मेरा ही स्वार्थ है, एक दिन जब पढ़लिख कर वह लोगों का इलाज करेगी, औपरेशन कर के लोगों को ठीक करेगी, ऊंची कुरसी पर बैठेगी तो लोग कहेंगे कि देखो जो यह सफेद कोट पहन कर, बड़ी सी गाड़ी में बैठ कर जा रही है यह अभिनव की पत्नी है. मैं तो सारा कामकाज छोड़ कर या तो दिनरात आराम करूंगा या उस के आगेपीछे मंडराता रहूंगा, लोग कहेंगे कितना खुशहाल है अभिनव. जब ऐसी बातें मेरे कानों तक आएंगी तो उस समय मेरा चेहरा देखने लायक होगा, गर्व से फूल कर सीना दोगुना हो जाएगा,’’ कहतेकहते अभिनव की आंखों में चमक आ गई.
निहाल मुसकरा दिया, ‘‘मेरी कामना है कि ऐसा ही हो. फिलहाल तुम्हें और पैसे कमाने हैं तो मेरे पास तो उस के लिए एक ही उपाय है. रात को 11 बजे के बाद तू अगर स्टेशन आ सके तो मैं अपना कुली का बैज तु?ो दे सकता हूं. तू सामान बाहर तक छोड़ना और कई बार उन्हें होटल या गेस्टहाउस के बारे में भी बताना, वहां से अच्छा कमीशन मिल सकता है.’’
निहाल की सोच सही साबित हुई. अभिनव रोज रात को स्वयं को स्टेशन पर खपाता और अतिरिक्त कमाए पैसे से विद्या के लिए नोट्स वगैरह का इंतजाम करता. विद्या को मन मांगी मुराद मिल गई थी. उस की मेहनत ने और गति प्राप्त कर ली थी. धीरेधीरे उस के और उस की मंजिल के बीच का फासला कम होता जा रहा था.
उस रात जब अभिनव घर पहुंचा तो बाहर मौसी उस का इंतजार कर रही थी, ‘‘बहू से पता चला कि तू रोज रात को काम खत्म कर के कहीं बाहर चला जाता है. कहीं कोई नशावशा तो नहीं करता? कभी अपने स्वास्थ्य को भी देखा है, दिनबदिन बुझता जा रहा है. दादा ने बताया तू सुबह तड़के से देर रात तक…’’
‘‘नहीं मौसी बस दोस्तों के साथ बैठ कर थोड़ी गपशप कर लेता हूं, थकावट दूर हो जाती है,’’ अभिनव ने मौसी की बात काट कर अपनी कमीज बदलते हुए कहा.
‘‘1 मिनट अभि तेरे बदन पर यह लाल निशान? क्या करता है तू?’’
‘‘कुछ नहीं मौसी किसी कीड़ेमकोड़े ने काट लिया होगा. ठीक हो जाएगा.’’
‘‘यह तू क्या कर रहा है अभि बेटा, क्यों अपनेआप को दांव पर लगा रहा है? क्यों बहू की अभिलाषाओं को पाने के लिए स्वयं को चलतीफिरती लाश बना रहा है. ऐसा मत कर बेटा, वक्त के पलटने से इंसान भी पलट सकता है, मंजिल पर पहुंच कर पीछे मुड़ कर देखने वाले विरले ही होते हैं.’’
अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘विद्या ऐसी नहीं
है मौसी, विद्या कुछ बन गई तो मेरे साथ तेरे
दिन भी फिर जाएंगे. तुझे भी अस्पताल में नर्स बनवा दूंगा.
‘‘तेरी ऐसी की तैसी, मुझे नर्स बनाएगा.
मैं तो घर पर बैठ कर राज करूंगी राज,’’ मौसी भी कम न थी. उस के पोपले मुंह से हंसी छलक रही थी.
आखिरकार वह दिन आ ही गया जब विद्या के अपनी मुराद मिल गई और अभिनव का स्वप्न पूर्ण हो गया. दोनों की ही मेहनत रंग लाई और विद्या अपने इम्तिहान में अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गई. रिजल्ट आने के बाद उसे दूसरे शहर के मैडिकल कालेज मे दाखिले के लिए जाना पड़ा और दाखिले के पश्चात होस्टल में कमरा ले कर रहना पड़ा.
4 साल के लिए विद्या अभिनव की नजरों से दूर हो गई. दिनरात मेहनत कर के अभिनव विद्या की फीस, किताबकापियों और रहने के खर्च का बो?ा उठाता और हर माह नियत समय पर आवश्यकता से अधिक राशि बिना तकाजे के भेजता. लगातार पड़ते इस बो?ा से धीरेधीरे कब वह स्वयं पर बो?ा बन गया उसे पता ही नहीं चला.
विद्या का फोन कभी भूलेभटके ही आता, मगर महीने के अंतिम सप्ताह में अवश्य आता. शायद यह अभिनव के एक प्रकार का अनुस्मारक होता, अभिनव को विद्या के इस कौल का भी इंतजार रहता. चंद मिनटों की यह बातचीत अभिनव को प्रफुल्लित कर देती और उस में एक नई ऊर्जा का संचार कर देती.
एक दिन जब विद्या का फोन आया तो उस में अभिनव को विद्या के चिंतित होने का बोध हुआ, ‘‘क्या बात है आज डाक्टर साहिबा कुछ परेशान लग रही हैं? सब खैरीयत तो है?’’
‘‘कुछ नहीं बस यों ही, जरा काम का बोझ था,’’ विद्या ने छोटा सा जवाब दिया.
‘‘काम का बो?ा या कुछ और?’’ अभिनव ने आशंकित हो कर पूछा. उसे लग रहा था कि हो न हो बात कुछ और ही है.
‘‘यों ही. कुछ छात्रों को जापान सरकार ने जापान आने का निमंत्रण दिया है. उन छात्रों मे एक नाम मेरा भी है. वहां की रैडिएशन तकनीक के बारे में जानने का अच्छा अवसर है, लेकिन मैं ने मना कर दिया.’’
‘‘क्यों?’’ अभिनव ने हैरान हो कर फौरन पूछा.
विद्या एक पल के लिए खामोश हो गई फिर धीरे से बोली, ‘‘बिना मतलब के कम से कम डेढ़दो लाख का खर्च है हालांकि ज्यादातर खर्च जापान सरकार ही कर रही है, फिर भी इतना पैसा तो चाहिए ही होगा.’’
अभिनव खामोश हो गया, ‘‘मैं कोशिश करता हूं विद्या, कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा.’’
अभिनव ने इधरउधर हाथपैर मारने शुरू कर दिए. अपने हर जानपहचान वाले से उस ने कुछ न कुछ उधार लिया हुआ था. लिहाजा, हर जगह से उसे टका सा जवाब मिला. थकहार के उस ने निहाल के पास पहुंच कर अपना रोना रोया.
‘‘इतने पैसे कहां से लाएगा अभि? चोरी करेगा, डाका डालेगा या अपनेआप को बेच देगा?’’ निहाल ने ?ाल्ला कर कहा.
‘‘अपनेआप को बेच दूंगा निहाल. खून का 1-1 कतरा दिलजिगर सब बेच दूंगा.’’
निहाल खामोश हो गया फिर हौले से फुसफुसाया, ‘‘ज्यादा तो पता नहीं लेकिन सुना है कई लोग अपनी एक किडनी बेच देते हैं. यहां के अस्पताल का एक कंपाउंडर मेरी जानपहचान का है, वही बता रहा था.’’
‘‘तू मु?ो उस के पास ले चल, मैं अपनी किडनी बेच दूंगा, विद्या की सफलता की राह में पैसा बीच में नहीं आना चाहिए.’’
निहाल अवाक हो कर अभिनव को ताक रहा था, ‘‘यह तू क्या कह रहा है. बात में से बात निकली तो मैं ने जिक्र कर दिया.’’
‘‘नहीं निहाल तूने तो मुझे पर बहुत बड़ा एहसान किया है. एक बार तू मुझे उस के पास
ले चल.’’
अभिनव के बारबार कहने से अनमने ढंग से निहाल अभिनव को अस्पताल ले गया.
‘‘यह बहुत ही रिस्की मामला है. पकड़े गए तो सब के सब जेल की हवा खाएंगे,’’ कंपाउंडर फुसफुसाते हुए बोला.
‘‘आप का एहसान होगा भाई. मुझे पैसों की सख्त जरूरत है,’’ अभिनव ने रोंआसे स्वर में कहा.
कंपाउंडर थोड़ी देर के लिए ओ?ाल हो गया. लौट कर आया तो हाथ में एक परची थी जिस पर कोई पता लिखा था, ‘‘मैं ने बात कर ली है, अगले शनिवार को तुम यहां चले जाओ. पूरी प्रक्रिया में हफ्ता 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’’
‘‘हफ्ता 10 दिन,’’ अभिनव सोच में पड़ गया और बोला, ‘‘क्या कुछ पैसा मु?ो पहले मिल सकता है?’’
‘‘कोशिश कर के तुम्हें कुछ पैसा एडवांस दिला दूंगा, आखिर तुम निहाल के खास जानने वाले हो.’’
अभिनय के लिए आने वाले दिन उस के सब्र का इम्तिहान लेने वाले थे.
चंद ही दिनों के इंतजार के बाद निहाल ने उसे सूचना दी कि उन्हें पैसे मिल गए हैं और उसे ले कर वह अभिनव के दफ्तर ही आ रहा है. निहाल ने आते ही रुपयों का एक लिफाफा अभिनव के सामने रख दिया. अभिनव की आंखों में खुशी के आंसू थे. उस ने विद्या को फोन मिलाने के लिए उठाया ही था कि घंटी घनघना उठी. दूसरी ओर विद्या थी. उस की आवाज में एक अजीब सा उत्साह था, ‘‘अभिनव तुम तो इंतजाम कर नहीं पाए लिहाजा मैं ने अपने जापान जाने के खर्चे का इंतजाम खुद ही कर लिया, तुम बस मेरा पासपोर्ट जल्द से जल्द मुझे भेज दो.’’
‘‘मगर कैसे?’’ अभिनव जानना चाह रहा था.
‘‘मेरे टीम लीडर डाक्टर विश्वास ने मेरा सारा खर्च उठाने का फैसला किया है, वे मुझे बहुत पसंद करते हैं. न जाने उन का यह एहसान मैं कैसे चुकाऊंगी,’’ इस के पहले कि अभिनव कुछ और कहता या पूछता विद्या ने फोन काट दिया.
अभिनव ने लिफाफा निहाल के हाथों में थमा दिया, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं, मेरी तपस्या पीछे रह गई. विद्या ने आगे बढ़ने का जरीया ढूंढ़ लिया.’’
विद्या के विदेश जाते ही अभिनव का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा. दिनरात खांसखांस कर उस का बुरा हाल था और उस पर सीने में दर्द ने उस की रातों की नींद उड़ा दी थी. एक दिन जब बलगम में खून अत्यधिक मात्र में आ गया तो निहाल जबरदस्ती उसे सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाने ले गया. डाक्टरों ने सारी जांच कर के उस के हाथ में एक रुक्का पकड़ा दिया जिस पर बहुत कुछ लिखा था- मगर जो थोड़ा कुछ सम?ा आया उस के मुताबिक अभिनव को एक गंभीर संक्रामक बीमारी थी और उस के फेफड़े पूरी तरह से काम करना छोड़ चुके थे. डाक्टरों ने कई अन्य टैस्ट लिख कर दिए और घर पर अच्छे खानपान पर जोर डालने को कहा.
निहाल ने विद्या को सूचित करने की सलाह दी मगर अभिनव न माना. उस की पढ़ाई चल रही है. अभी विदेश में ट्रैनिंग कर के लौटी है. उस का ध्यान बांटना ठीक नहीं है. उसे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने दो. अभिनव के मना करने के बावजूद भी निहाल ने विद्या से संपर्क साध लिया और अपना परिचय दे कर अभिनव के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में बताया.
विद्या ने कोई संवेदना या गंभीरता प्रकट नहीं की और इस स्थिति के लिए अभिनव पर ही दोष जड़ दिया, ‘‘जो इंसान अपना खयाल नहीं रखता, जीवनचर्या ठीक नहीं रखता उस का हश्र तो ऐसा ही होता है निहालजी, मैं फिलहाल तो अपनेआप में ही इतना व्यस्त हूं कि इन सब चीजों के लिए मेरे पास वक्त नहीं और न ही मैं अब तक डाक्टर बनी हूं जो आप को कोई इलाज बता सकूं. आप वहीं के सरकारी हस्पताल के डाक्टर की सलाह पर अमल कीजिए.’’
‘‘फिर भी मैं आप को डाक से रुक्का भेज रहा हूं, आप उसे अस्पताल में दिखवा दीजिएगा और दवाई वगैरह के बारे में राय भेज दीजिएगा.’’
‘‘ठीक है,’’ विद्या ने बात काटते हुए कहा.
‘‘विद्या ने क्या कहा निहाल? मुझे यकीन है कि तूने जरूर फोन किया होगा.’’
‘‘नहीं,’’ निहाल की मानो चोरी पकड़ी गई थी. निहाल थोड़ी देर के लिए खामोश हो गया, फिर बोला, ‘‘हां मैं ने किया था, मेरी बात हुई थी.’’
‘‘क्या कहा विद्या ने?’’
‘‘कहना क्या था बस बेचारी फूटफूट कर रो पड़ी. कहने लगी अब आप ही ध्यान रखिए अभिनव का और आप कहें तो मैं वापस आ जाऊं. मैं ने बिलकुल मना कर दिया. ठीक किया न?’’
आंसू की एक बूंद अभिनव की पलकों की छोर से बह निकली जिसे उस ने फौरन पोंछ दिया, ‘‘देखा निहाल इसे कहते हैं प्यार, दिल से दिल का रिश्ता, थोड़े ही दिनों की बात है विद्या मेरे पास होगी, हम अपनी जिंदगी की शुरुआत करेंगे, जो गुनाह मैं ने उस से ?ाठ बोल कर किया था उस का पश्चात्ताप पूरा होगा.’’
आखिरकार विद्या एक दिन अभिनव के सामने थी. अभिनव का स्वास्थ्य अत्यधिक खराब था मगर विद्या को देख उस की चेतना मानो सामान्य हो गई. होंठों पर एक मुसकान फैल गई और उस ने अपनी बांहें आगे कर दीं.
विद्या ठिठक गई, ‘‘अभिनव तुम्हें ऐक्टिव टीबी है जो संक्रामक है. मु?ो तुम्हारे पास नहीं आना चाहिए, अगर मुझे भी यह बीमारी हो गई तो बहुत बड़ा व्यवधान हो जाएगा. तुम ठीक हो जाओ फिर…’’
‘‘बिलकुल ठीक कह रही हो विद्या, मैं ठहरा अनपढ़ गंवार इतना इल्म होता तो मैं डाक्टर न बन जाता. जब तक मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता तुम्हारे करीब नहीं आऊंगा.’’
विद्या ने संयत रहने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘ठीक है मैं चलती हूं.’’
उस दिन के बाद शायद ही विद्या कभी वापस आई, अभिनव की पथराई आंखें उस की राह तकती रहतीं. उस की सेहत धीरेधीरे उस की जिंदगी का साथ छोड़ रही थीं. निहाल और दादा उस की देखभाल करते. उड़तीउड़ती खबर भी आती कि विद्या और डाक्टर विश्वास एकदूसरे के करीब आ रहे हैं.
अभिनव मुसकरा कर इन खबरों को टाल देता, ‘‘निहाल, विद्या सिर्फ मेरी है, कामकाज के दौरान घनिष्ठता हो ही जाती है. इस का यह मतलब तो नहीं.’’ निहाल उसे तकता रहता.
एक सुबह अभिनव, निहाल और दादा घर के आंगन में बैठे हुए थे कि सामने विद्या आती नजर आई. विद्या को सामने देख कर अभिनव की खुशी का ठिकाना न रहा. अभिनव को देख कर एक पल के लिए वह स्तब्ध रह गई. शरीर क्या था एक ढांचा था. एक क्षण के लिए सहानुभूति की लहर उस के तनबदन में दौड़ गई मगर अगले ही पल उस ने मानो स्वयं को संभाला.
अभिनव विद्या को देख कर यों प्रसन्न हुआ मानो किसी प्यासे को जल का स्रोत और भूखे को भोजन मिल गया हो, ‘‘आओ विद्या, मैं तुम्हें ही याद कर रहा था. कैसा चल रहा है?’’
‘‘ठीक ही चल रहा है अभिनव मगर तुम चाहो तो और भी अच्छा चल सकता है… मुझे जिंदगी का सही मकसद हासिल हो सकता है अगर तुम मेरा साथ दो तो.’’
‘‘मैं?’’ अभिनव हैरान था, ‘‘मैं भला तुम्हारे क्या काम आ सकता हूं? मेरे पास क्या है जो मैं तुम्हें दे पाऊं सिवा प्यार के.’’
‘‘अभिनव मैं झूठ और फरेब में विश्वास नहीं करती और न ही मैं पीछे मुड़ कर देखने में यकीन करती हूं. मेरा आज और मेरा आने वाला कल मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है न कि बीता हुआ कल,’’ विद्या ने ?ाठ और फरेब पर जोर देते हुए कहा.
अभिनव ने एक मुसकराहट फेंकी, ‘‘विद्या मैं अनपढ़ और गंवार इंसान हूं तुम इस बात को अच्छी तरह से जानती हो. मुझसे पहेलियां न बुझाओ. साफसाफ कहो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा.’’
‘‘तुम शायद मुझे खुदगर्ज और मतलबी सम?ागे, हो सकता है मुझसे नफरत
भी करने लग जाओ या मेरा जिक्र भी तुम्हें कुंठित कर दे, हो सकता है तुम मेरे किए को मेरा इंतकाम सम?ा, तुम्हारे दिए धोखे का बदला.’’
‘‘कैसी बात कर रही हो विद्या? मेरे धोखे में छिपा मेरा प्यार क्या तुम्हें अब तक नजर नहीं आया और फिर पतिपत्नी के रिश्ते में इंतकाम या प्रतिशोध के लिए कोई स्थान नहीं होता. याद रखना जिस रोज मु?ो तुम्हारे नाम से नफरत हो जाएगी, वह दिन मेरी जिंदगी का अंतिम दिन होगा. तुम नहीं जानती मैं तुम से कितना प्यार करता हूं.’’
विद्या ने एक फाइल आगे कर दी, ‘‘इसे पढ़ लेना.’’
‘‘अगर मैं पढ़ पाता तो आज तुम्हारे सामने गुनहगार की तरह खुद को खड़ा न पाता, तुम से नजर मिला कर बात करता, तुम्हीं बता दो क्या है यह और मुझे क्या करना है?’’
‘‘ये तलाक के कागजात हैं. मैं अपनी नई जिंदगी शुरू करना चाहती हूं डाक्टर विश्वास के साथ. मुझे तुम्हारी सहमति और हस्ताक्षर चाहिए.’’
अभिनव को काटो तो खून नहीं. बहुत कुछ कहना चाह रहा था मगर खामोश रहा. तन की शक्ति तो क्षीण हो ही चुकी थी आज मन ने भी साथ छोड़ दिया.
‘‘क्या सोच रहे हो अभिनव? मत भूलो
कि हमारी शादी की इमारत झूठ की बुनियाद पर टिकी थी.’’
‘‘नहीं मैं तो सोच रहा था कि इतनी सी बात कहने में तुम्हें इतना संकोच क्यों हो रहा है?’’
विद्या यंत्रवत ढंग से बोली, ‘‘संकोच इसलिए क्योंकि मैं ने तुम्हारा इस्तेमाल किया है.’’
‘‘मैं ने तो प्यार किया है,’’ अभिनव ने स्फुटित स्वर के कहा.
‘‘तुम जरा भी अपराधबोध से मत जीना, मैं हस्ताक्षर कर दूंगा. तुम आजाद थी और आजाद रहोगी… तुम एक अच्छी कामयाब डाक्टर बन कर अपने डाक्टर पति के साथ अपनी जीवनयात्रा की नई शुरुआत करो. मेरा वजूद भी अपने दिलोदिमाग से निकाल देना. अपने अतीत को, मु?ो पूरी तरह से भूल जाना.’’
‘‘मेरा आदमी कल सुबह आ कर कागजात ले जाएगा.’’
‘‘एक गुजारिश है विद्या अगर मान सको तो.’’
विद्या ठिठक गई, ‘‘कहो.’’
‘‘कागजात लेने के लिए कल सुबह तुम स्वयं ही आना. किसी और को न भेजना. मेरी आखिरी इल्तजा जान कर फैसला करना,’’ अभिनव के हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे.
‘‘ठीक है? मैं कल सुबह तुम से मिलती जाऊंगी,’’ विद्या के सिर पर से मानो मनो वजन उतर गया था. चैन की सांस लेते हुए वह लंबेलंबे डग भरते हुए घर और गली से बाहर निकल गई.
अगली सुबह जब विद्या अभिनव से मिलने पहुंची तो गली के मोड़ पर ही सामने से आते काफिले की वजह से उसे रुकना पड़ा. उस ने
गौर से देखा तो काफिले में निहाल को सब से आगे पाया. विद्या की गाड़ी को देख कर निहाल ठिठक गया और आगे बढ़ कर उस ने गाड़ी का शीशा खटखटाया.
विद्या ने शीशा नीचे किया और इस के पहले वह कुछ कहती या पूछती, निहाल ने कागज का एक पुलिंदा आगे कर दिया, ‘‘अभिनव ने आप के लिए यह भेंट दी है. आप न आतीं तो मैं देने आने ही वाला था.’’
विद्या ने हैरान हो कर कागज अपने हाथ में लिए और पन्ने पलटने लगी. पहले ही पृष्ठ पर उस की नजर ठिठक गई, उसे लिखे गए शब्दों पर विश्वास ही न हुआ. उस के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई, कोने में बड़ेबड़े लफ्जों मे लिखा था, ‘‘जीतेजी तुम्हें स्वयं से अलग नहीं कर पाऊंगा. तुम्हारा अभिनव.’’
विद्या निहाल को कुछ पूछने के लिए गाड़ी से उतरी मगर निहाल कहीं भीड़ में ओझल हो गया था. हार कर वह गाड़ी में वापस बैठ गई. उस ने अपने ड्राइवर को किसी से बात करते हुए सुना, ‘‘कोई सिरफिरा था, किसी से बेइंतहा प्यार करता था, उसी की बेवफाई ने बेचारे की जान ले ली.’’