गहराइयां : विवान को शैली की कौनसी बात चुभ गई? -भाग 1

विवान की बांहों से छूट कर शैली अभी किचन में घुसी ही थी कि हमेशा की तरह फिर से आ कर विवान ने उसे पीछे से पकड़ गालों को चूम लिया. शैली ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, तो विवान ने उसे और जोर से बांहों में भर लिया. शैली चिढ़ कर बोली, ‘‘छोड़ो न विवान, वैसे भी आज उठने में काफी देर हो गई है. क्या आज औफिस नहीं जाना है?’’

‘‘जाना तो है… रहने दो मैं दोपहर में आ जाऊंगा खाना खाने और इसी बहाने…’’ बात अधूरी छोड़ विवान ने एक और किस शैली के गाल पर जड़ दिया.

किसी तरह अपने को छुड़ाते हुए शैली यह कह कर सब्जी काटने लगी कि कोई जरूरत नहीं है घर आने की… मैं अभी नाश्ता और खाना बना देती हूं.

‘‘तो फिर लाओ मैं सब्जी काट देता हूं, तब तक तुम चाय बनाओ,’’ कह कर विवान ने उस के हाथ से चाकू ले लिया. विवान शैली को दुनिया की हर खुशी देना चाहता था पर वह थी कि बातबात पर उसे झिड़कती रहती थी. हर बात में उस की बुराई निकालना जैसे उस की आदत सी बन गई थी. सोचती कि सब के पतियों जैसा उस का पति क्यों नहीं है? क्यों हमेशा रोमांटिक बना फिरता है. अरे, जिंदगी क्या सिर्फ प्यार से चलती है? और भी तो कई जिम्मेदारियां होती हैं घरगृहस्थी की, पर सावन के अंधे को यह कौन समझाए?

गुस्से से हांफती और जबान से जहर उगलती शैली ने विवान के हाथ से चाकू छीन लिया और फिर सारा गुस्सा सब्जी पर उतारने लगी. उस का मन तो किया कि सब्जी उठा कर कूड़े के डब्बे में फेंक दे और कहे कि कोई जरूरत नहीं है बारबार घर आ कर उसे परेशान करने की. उस का तो मन करता कि कैसे जल्दी विवान औफिस जाए और उस की जान छूटे.

विवान को औफिस भेजने के बाद घर के बाकी काम निबटा कर अभी शैली बैठी ही थी कि फोन बज उठा. विवान का फोन था और यह सिलसिला भी सालों से चल रहा था. मतलब औफिस पहुंचते ही सब से पहले वह शैली को फोन लगा कर जब तक उस से बातें न कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता था. इस बात पर भी शैली को काफी चिढ़ होती थी. कभीकभी तो मन करता कि फोन को बंद कर के रख दे, पर यह सोच कर वह ऐसा नहीं करती कि पिछली बार की तरह फिर वह भागतादौड़ता घर पहुंच जाएगा और फिर वेवजह उस का महल्ले में तमाशा बन जाएगा.

एक बार ऐसा ही हुआ था. किसी कारणवश गलती से शैली का फोन बंद हो गया था और उसे इस बात का पता नहीं चला. लेकिन विवान के कई बार फोन लगाने पर भी जब उस का फोन बंद ही आता रहा तो उसे लगा कि शैली को कुछ हो गया है. दौड़ताहांफता वह घर पहुंच गया और जोरजोर से दरवाजा पीटने लगा. आवाज सुन कर आसपड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए और क्या हो गया… क्या हो गया… कहने लगे.

बाहर लोगों का शोर सुन जब शैली की आंख खुली और उस ने दरवाजा खोला तो विवान उसे पकड़ कर कहने लगा, ‘‘शैली तुम ठीक तो हो… वो तुम्हारा फोन नहीं लग रहा था इसलिए मैं घबरा गया,’’ कह कर वह सब के सामने ही शैली को चूमने लगा.

देखा तो सच में फोन बंद था. उस वक्त शैली शर्मिंदा हो गई कि उस के कारण… परफिर यह सोच कर मन ही मन फूली नहीं समा रही थी कि उस का पति उसे कितना प्यार करता है…

मगर अब विवान का उसे हर पल निहारते रहना, जब मन आए उसे अपनी गोद में उठा कर चूमने लगना, उस की हर छोटी से छोटी चीज का खयाल रखना, कभी अपने से दूर न होने देना, अब उसे गले का फंदा सा लगने लगा था. प्यार वह भी करती थी पर एक हद में. उस का सोचना था कि पतिपत्नी हैं तो क्या हुआ… आखिर उन्हें भी तो अपने जीवन में थोड़ी स्पेस चाहिए, जो उसे मिल नहीं रही थी. मगर उस की सोच से अनजान विवान बस हर पल उस के ही खयालों में खोया रहता था.

शैली की दोनों भाभियां उस का मजाक उड़ातीं कि उस का पति तो उस के बिना एक पल भी नहीं रह पाता. एक बच्चे की तरह उस के पीछेपीछे घूमता रहता है. उन की कही बातें शैली को अंदर तक भेद जातीं. उसे लगता उस की भाभियां उस पर तंज कस रही हैं. मगर उसे यह नहीं पता था कि वे उस से जलती हैं.

विवान को कोई लड़की पसंद न आने की वजह से उस के मातापिता काफी परेशान रहने लगे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर विवान को कैसी लड़की चाहिए?

आखिर एक रोज उसे अपनी पसंद की लड़की मिल ही गई. दरअसल, विवान अपने एक खास दोस्त की शादी में गया था. वहीं उस ने शैली

को देखा तो देखता ही रह गया. उस की खूबसूरती पर वह ऐसे मर मिटा जैसे चांद को देख कर चकोर. कब आंखों के रास्ते शैली उस के मन में समा गई उसे पता ही नहीं चला. उस से अपनी शादी के बारे में सोच कर ही उस का मन मयूर नाच उठा.

जब उस के मातापिता को यह बात मालूम पड़ी तो उन्होंने जरा भी देर न कर अपने बेटे की शादी शैली के साथ तय कर दी. एकदूसरे की बांहों में शादी का 1 साल कैसे पंख लगा कर उड़ गया उन्हें पता ही नहीं चला.

लोग कहते हैं कि जैसेजैसे शादी पुरानी होती जाती है, पतिपत्नी के प्यार में भी गिरावट आने लगती है. मतलब पहले जैसा प्यार नहीं रह जाता. मगर विवान और शैली की शादी जैसेजैसे पुरानी होती जा रही थी उन का प्यार और भी गहराता जा रहा था. मगर पहले जिस विवान का प्यार शैली को हरी दूब का कोमल स्पर्श सा प्रतीत होता था अब वही प्यार उसे कांटों की चुभन सी लगने लगा था. विवान का दीवानापन अब उसे पागलपन सा लगने लगा था. उसे लगता या तो कुछकुछ दिनों के अंतराल पर विवान औफिस के काम से कहीं बाहर चला जाया करे या फिर उसे अकेले मायके जाने दिया करे ताकि वह खुल कर अपने मनमुताबिक जी सके.

आखिर कुछ दिनों के लिए उसे विवान से अलग रहने का मौका मिल ही गया. ऐसे जाना कोई जरूरी नहीं था, पर वह जाएगी ही, ऐसा उस ने अपने मन में तय कर लिया.

‘‘शादी में? पर जानू,’’ विवान अपनी पत्नी को प्यार से कभीकभी जानू भी बुलाता था, ‘‘वो तो तुम्हारे दूर के रिश्तेदार हैं न और फिर तुम ने ही तो कहा था कि तुम्हारा जाना कोई जरूरी नहीं है?’’

हांहां कहा था मैं ने, पर है तो वह मेरी बहन ही न… सोचो तो जरा कि अगर मैं नहीं जाऊंगी तो चाचाजी को कितना बुरा लगेगा, क्योंकि कितनी बार फोन कर के वे मुझे आने के लिए बोल चुके हैं… प्लीज विवान, जाने दो

न. वैसे भी यह मेरे परिवार की अंतिम शादी है और फिर मैं वादा करती हूं कि शादी खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

अब शैली कुछ बोले और उस का विवान उसे मना कर दे, यह हो ही नहीं सकता था.

अत: बोला, ‘‘ठीक है तो फिर मैं कल ही छुट्टी की अर्जी…’’

शैली अचकचा कर बोली, ‘‘अर्जी… पर क्यों? मेरा मतलब है तुम्हें वैसे भी छुट्टी की समस्या है और कहा न मैं ने मैं जल्दी आ जाऊंगी.’’

न चाहते हुए भी विवान ने शैली को जाने की अनुमति दे तो दी, पर सोचने लगा अब उस के इतने दिन शैली के बिना कैसे बीतेंगे?

जाते वक्त बाय कहते हुए शैली ने ऐसा दुखी सा मुंह बनाया जैसे उसे भी विवान से अलग होने का दुख हो रहा है पर जैसे ही ट्रेन सरकी वह खुशी से झूम उठी.

शैली के अकेले मायके पहुंचने पर नातेरिश्तेदार सब ने पूछा कि विवान क्यों नहीं आया? तो वह कहने लगी कि विवान को छुट्टी नहीं मिल पाई, इसलिए उसे अकेले ही आना पड़ा.

वैसे शैली की भाभियां सब समझ रही थीं. चुटकी लेते हुए कहने लगीं, ‘‘ऐसे कैसे दामादजी ने आप को अकेले छोड़ दिया ननद रानी, क्योंकि वे तो आप के बिना…’’ बात अधूरी छोड़ कर दोनों ठहाका लगा कर हंस पड़ीं.

नींद: मनोज का रति से क्या था रिश्ता- भाग 1

उस ने दो, तीन बार पुकारा रमा… रमा, पर कोई जवाब नहीं.

‘‘हुंह… अब यह भी कोई समय है सोने का,‘‘ वह मन ही मन बड़बड़ाया और किचन की तरफ चल दिया. वहां देखा कि रमा ने गरमागरम नाश्ता तैयार कर रखा था. सांभर और इडली बन कर तैयार थीं.

‘‘कमाल है, कब बनाया नाश्ता?‘‘ वह सोचने लगा. तभी उसे याद आया कि रति का फोन आया था और वह बात करताकरता छत पर चला गया था. उस ने फोन उठा कर काल टाइम चैक किया. एक घंटा दस मिनट. उस ने हंस कर गरदन हिलाई और मुसकराते हुए अपना नाश्ता ले कर टेबल पर आ गया.

रमा ने लस्सी बना कर रखी थी. उस ने बस एक घूंट पिया ही था कि भीतर से रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज, मेरे फिर से तीखा पीठदर्द शुरू हो गया है. मैं दवा ले कर सो रही हूं. फ्रिज से नीबू की चटनी जरूर ले लो.‘‘

‘‘हां… हां, बिलकुल खा रहा हूं,‘‘ कह कर मनोज ने उस को आश्वस्त किया और चटखारे लेले कर इडलीसांभर खाता रहा. वह मन ही मन बुदबुदाया, ‘‘चलो कोई बात नहीं. अगर सो भी रही है तो क्या हुआ, कम से कम सुबहरात थाली तो लगी मिल ही रही है. बाकी अपनी असली जिंदगी में रति जिंदाबाद.‘‘ अपनेआप से यह कह कर मनोज नीबू की चटनी का मजा लेने लगा.

समय देखा, दोपहर के पौने 12 बज रहे थे. अब उसे तुरंत फैक्टरी के लिए निकलना था. उस ने जैसे ही कार की चाबी उठाई, उस आवाज से चौकन्नी हो कर रमा ने कहा, ‘‘बाय मनोज हैव ए गुड डे.‘‘

‘‘बाय रमा, टेक केयर,‘‘ चलताचलता वह बोलता गया और सोचता भी रहा कि कमाल की नींद है इस की. मनोज कभी अपनी आंखें फैला कर तो कभी होंठ सिकोड़ कर सोचता रहा. पर, इस समय न वह भीतर जाना चाहता था और न ही उस की कमर में हाथ फिरा कर कोई दर्द निवारक मलहम लगाना चाहता था. उस ने खुद को निरपराध साबित करने के लिए अपने सिर को झटका दिया और सोचा कि अब यह सब ठेका उस ने ही तो नहीं ले रखा है, बाहर के काम भी करो, रोजीरोटी के लिए बदन तोड़ो और घर आ कर रमा के दुखते बदन में मलहम भी लगाओ. यह सब एक अकेला कब तक करे.

मनोज खुद अपना वकील और जज भी दोनों ही बन रहा था, पर सच बात तो यह थी कि वह यह सब नहीं करना चाहता था और जल्दी से जल्दी रति का चेहरा देखना चाहता था.

गाड़ी निकाल कर मनोज फैक्टरी के रास्ते पर था. मोबाइल पर नजर डाली तो उस में रति का संदेश आ रहा था.

वह हंसने लगा. कम से कम यह रति तो है उस की जिंदगी में. चलो रमा अब 50 की उम्र में बीमार है. अवसाद में है. जैसी भी है, पर निभ ही जाती है. जीवन चल ही रहा है.

यों भी पूरे दिन में मनोज का रमा से पाला ही कितना पड़ता है. पूरे दिन तो रति साथ रहती है. जब वह नहीं रहती, तब उस के लगातार आने वाले संदेश रहते हैं. रति है तो ऐसा लगता है जीवन में आज भी ताजगी ही ताजगी है, बहार ही बहार है. एक लौटरी जैसी रति उस को कितनी अजीज थी. पिछले 3 महीने से रति उस के साथ थी.

रति अचानक ही उस के सामने आ गई थी. वह अपनी फैक्टरी के अहाते में पौधे लगवा रहा था, तभी वह गेट खोल कर आ गई. वह रति को देख कर ठिठक गया था. ऐसे तीखे नैननक्श, इतनी चुस्त पोशाक और हंसतामुसकराता चेहरा. वह आई और आते ही पौधारोपण की फोटो खींचने लगी, तो मनोज को लगा कि शायद प्रैस से आई है. और यों भी पूरी दोपहर उस की खिलौना फैक्टरी में लोगों का तांता लगा रहता था, कभी शिशु विकास संस्थान, तो कभी बाल कल्याण विभाग. कभी ये गैरसरकारी संगठन, तो कभी वो समूह, यह सब लगा रहता था.

मनोज ने रति को भी सहज ही लिया. पौधारोपण पूरा होतेहोते शहर के लगभग 10 अखबारों से रिपोर्टिंग करने वाले प्रतिनिधि आ गए थे. मनोज ने देखा कि रति कोई सवाल नहीं पूछ रही थी. वह बस यहांवहां इधरउधर घूम रही थी, बल्कि रति ने चाय, कौफी, नाश्ता कुछ भी नहीं लिया था.

जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 1

अनुराधा लगातार हंसे जा रही थी. उस की सांवली रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें आज भी उतनी ही खूबसूरत और कुछ कहने को आतुर नजर आ रही थीं. अंतर सिर्फ इतना था कि आज वे आंखें शर्मोहया से दूर बिंदास हो चुकी थीं. मैं उस की जिजीविषा देख कर दंग थी.

अगर मैं उस के बारे में सब कुछ जानती न होती तो जरूर दूसरों की तरह यही समझती कि कुदरत उस पर मेहरबान है. मगर इत्तफाकन मैं उस के बारे में सब कुछ जानती थी, इसीलिए मुझे मालूम था कि अनुराधा की यह खुशी, यह जिंदादिली उसे कुदरतन नहीं मिली, बल्कि यह उस के अदम्य साहस और हौसले की देन है. हाल ही में मेरे शहर में उस की पोस्टिंग शासकीय कन्या महाविद्यालय में प्रिंसिपल के पद पर हुई थी. आज कई वर्षों बाद हम दोनों सहेलियां मेरे घर पर मिल रही थीं.

हां, इस लंबी अवधि के दौरान हम में काफी बदलाव आ चुका था. 40 से ऊपर की हमउम्र हम दोनों सखियों में अनु मानसिक तौर पर और मैं शारीरिक तौर पर काफी बदल चुकी थी. मुझे याद है, स्कूलकालेज में यही अनु एक दब्बू, डरीसहमी लड़की के तौर पर जानी जाती थी, जो सड़क पर चलते समय अकसर यही सोचती थी कि राह चलता हर शख्स उसे घूर रहा है. आज उसी अनु में मैं गजब का बदलाव देख रही थी. इस बेबाक और मुखर अनु से मैं पहली बार मिल रही थी.

मेरे बच्चे उस से बहुत जल्दी घुलमिल गए. हम सभी ने मिल कर ढेर सारी मस्ती की. फिर मिलने का वादा ले कर अनु जा चुकी थी, लेकिन मेरा मन अतीत के उन पन्नों को खंगालने लगा था, जिन में साझा रूप से हमारी तमाम यादें विद्यमान थीं…

अपने बंगाली मातापिता की इकलौती संतान अनु बचपन से ही मेरी बहुत पक्की सहेली थी. हमारे घर एक ही महल्ले में कुछ दूरी पर थे. हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का फर्क था, फिर भी न जाने किस मजबूत धागे ने हम दोनों को एकदूसरे से इस कदर बांध रखा था कि हम सांस भी एकदूसरे से पूछ कर लिया करती थीं. सीधीसाधी अनु पढ़ने में बहुत होशियार थी, जबकि मैं शुरू से ही पढ़ाई में औसत थी. इस कारण अनु पढ़ाई में मेरी बहुत मदद करती थी.

अब हम कालेज के आखिरी साल में थीं. इस बार कालेज के वार्षिकोत्सव में शकुंतला की लघु नाटिका में अनु को शकुंतला का मुख्य किरदार निभाना था. शकुंतला का परिधान व गहने पहने अनु किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी. उस ने बड़ी ही संजीदगी से अपने किरदार को निभा कर जैसे जीवंत कर दिया. देर रात को प्रोग्राम खत्म होने के बाद मैं ने जिद कर के अनु को अपने पास ही रोक लिया और आंटी को फोन कर उन्हें अनु के अपने ही घर पर रुकने की जानकारी दे दी.

उस के बाद हम दोनों ही अपनी वार्षिक परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हो गईं. जिस दिन हमारा आखिरी पेपर था उस दिन अनु बहुत ही खुश थी. अब आगे क्या करने का इरादा है मैडम? मेरे इस सवाल पर उस ने मुझे उम्मीद के मुताबिक जवाब न दे कर हैरत में डाल दिया. मैं वाकई आश्चर्य से भर  उठी जब उस ने मुझ से मुसकरा कर अपनी शादी के फैसले के बारे में बताया.

मैं ने उस से पूछने की बहुत कोशिश की कि आखिर यह माजरा क्या है, क्या उस ने किसी को अपना जीवनसाथी चुन लिया है पर उस वक्त मुझे कुछ भी न बताते हुए उस ने मेरे प्रश्न को हंस कर टाल दिया यह कहते हुए कि वक्त आने पर सब से पहले तुझे ही बताऊंगी.

मैं मां के साथ नाना के घर छुट्टियां बिताने में व्यस्त थी, वहां मेरे रिश्ते की बात भी चल रही थी. मां को लड़का बहुत पसंद आया था. वे चाहती थीं कि बड़े भैया की शादी से पहले मेरी शादी हो जाए. इसी बीच एक दिन पापा के आए फोन ने हमें चौंका दिया.

अनु के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. वे हौस्पिटल में एडमिट थे. उन के बचने की संभावना न के बराबर थी. हम ने तुरंत लौटने का फैसला किया. लेकिन हमारे आने तक अंकल अपनी अंतिम सांस ले चुके थे. आंटी का रोरो कर बुरा हाल था. अनु के मुंह पर तो जैसे ताला लग चुका था. इस के बाद खामोश उदास सी अनु हमेशा अपने कमरे में ही बंद रहने लगी.

गहराइयां : विवान को शैली की कौनसी बात चुभ गई? -भाग 2

उधर शैली के बिना न तो विवान का घर में मन लग रहा था और न ही औफिस में. हर वक्त उस के ही खयालों में खोया रहता था. विवान के मन की बात उस के दोस्त अमन से छिपी न रह पाई. पूछा, ‘‘क्या बात है बड़े देवदास बने बैठे हो? लगता है भाभी के बिना मन नहीं लग रहा है? अरे, तो चले जाओ न…’’

अमन की बातें सुन विवान अपनेआप को वहां जाने से रोक न पाया. ‘‘लो आ गए मजनूं… क्यों, रहा नहीं गया अपनी लैला के बिना? विवान को आए या देख शैली की छोटी भाभी ने चुटकी लेते हुए कहा.

अचानक विवान को अपने सामने देख, पहले तो शैली का दिल धक्क से रह गया. ऊपर से उस की भाभी का यह कहना उस के तनबदन को आग लगा गया. विवान को घूर कर देखा. गुस्से से उस की आंखें धधक रही थीं. यह भी न सोचा कि मेहमानों का घर है तो कोई सुन लेगा. कर्कशा आवाज में कहने लगी, ‘‘जब मैं ने तुम से बोल दिया था कि जल्दी आ जाऊंगी तो क्या जरूरत थी यहां आने की? क्या कुछ दिन चैन से अकेले जीने नहीं दे सकते?’’

झेंपते हुए विवान कहने लगा, ‘‘न… नहीं शैली ऐसी बात नहीं है. वह क्या है कि छुट्टी मिल गई तो सोचा… और वैसे भी तुम्हारे बिना घर में मन ही नहीं लग रहा था तो आ गया.’’

‘‘मन नहीं लग रहा था तो क्या मैं तुम्हारा मन लगाने का साधन हूं? अरे कैसे इंसान हो तुम जो अपना कामकाज छोड़ कर मेरे पीछे पड़े रहते हो? मैं पूछती हूं तुम में स्वाभिमान नाम की कोई चीज है या नहीं… जताते हो कि तुम मुझ से बहुत प्यार करते हो… अरे, नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा प्यार… सच में उकता गई हूं मैं तुम से और तुम्हारे प्यार से. जानते हो मैं यहां क्यों आई? ताकि कुछ दिनों के लिए तुम से छुटकारा मिले, पर नहीं, तुम्हारे इस छिछले व्यवहार के कारण मेरी सारी सहेलियां और भाभियां मुझ पर हंसती हैं. कहती हैं… जाने दो तुम से तो कुछ बोलना ही बेकार है. अब जाओ यहां से, मुझे जब आना होगा खुद ही आ जाऊंगी समझे?’’ अपने दोनों हाथ जोड़ कर शैली चीखते हुए बोली.

शैली का यह रूप विवान को हैरान कर गया. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उस की शैली उस के बारे में ऐसा सोचती है. जिस शैली को वह अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है और जिस की खातिर वह भागता हुआ यहां तक आ गया, वह इतने लोगों के सामने उस की बेइज्जती कर देगी, उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अत: बोला, ‘‘ठीक है तो फिर, अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगा, बुलाओगी तो भी नहीं,’’ और फिर वह 1 पल भी वहां न ठहरा. शैली की कड़वी बातों ने उस के दिल के टुकड़टुकड़े कर दिए थे.

इधर शैली की मांबहन व भाई सब ने उसे इस बात के लिए बहुत सुनाया, पर उसे अपनी कही बातों का जरा भी पछतावा नहीं हुआ, बल्कि उस के दिल को ठंडक ही पहुंची. घमंड में चूर शैली को यह भी समझ नहीं आ रहा था कि उस ने एक ऐसे इंसान का दिल तोड़ा जो उस का पति है और उसे बेइंतहा प्यार करता है.

घर पहुंचने के बाद रात के 2 पहर बीत जाने के बाद भी विवान की आंखों में नींद नहीं थी. अब भी शैली की कही 1-1 बात उस के कानों में गूंज रही थी.

अपनी आदतानुसार विवान औफिस पहुंच जैसे ही शैली को फोन मिलाने लगा कि फिर उस की कही 1-1 बात उस के कानों में गूंजने लगी कि अरे, तुम में तो स्वाभिमान नाम की कोई चीज ही नहीं है वरना यों यहां न चले आते… हथेलियों से अपने दोनों कान दबा कर विवान ने अपनी आंखें मूंद लीं और फिर मन ही मन कोई निश्चय कर बैठा.

‘‘सर, आप और यहां?’’ विवान को मार्केट में देख कर आयुषी, जो कभी उस की पीए होती थी और अपनी पत्नी के कहने पर ही उस ने उसे काम से निकाल दिया था, उसे देख कर बोली, ‘‘सौरी सर, पर आप को इतने साल बाद देखा तो रहा नहीं गया और आवाज दे दी.’’

‘‘नो… नो… इट्स ओके… और बताओ?’’ विवान ने आयुषी को ताड़ते हुए पूछा.

‘‘बस सर सब ठीक ही है. आप सुनाओ?’’

‘‘सब ठीक है,’’ कह कर विवान मुसकरा दिया.

‘‘सर मेरा घर यहीं पास में ही है… प्लीज घर चलें.’’व्

‘‘फिर कभी,’’ कह विवान जाने को हुआ.

‘‘सर प्लीज, सिर्फ 5 मिनट के लिए चलिए.’’ आयुषी के इतना आग्रह करने पर विवान घर चलने को तैयार हो गया.

चाय पीतेपीते विवान ने उस के पूरे घर का मुआयना किया. उसे यह देख कर बुरा लग रहा था कि आयुषी इतने छोटे से घर और अभावों में जी रही है.

‘‘अरे, सर आप ने तो कुछ लिया ही नहीं… यह टेस्ट कीजिए न.’’

आयुषी की आवाज से विवान चौंका. बोला, ‘‘बसबस बहुत हो गया… चाय बहुत अच्छी बनाई है… वैसे अभी क्या कर रही हो मेरा मतलब कहां जौब कर रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं सर, घर मैं ही बैठी हूं क्योंकि… अच्छा वह सब छोडि़ए, बताइए और क्या खाएंगे आप?’’

‘‘नहींनहीं कुछ नहीं. अब घर जाऊंगा,’’ विवान बोला. फिर रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि आखिर क्या गलती थी आयुषी की?

बस यही न कि वह मुझ से खुल कर हंसबोल लेती थी और काम के ही सिलसिले में कभी भी मुझे फोन कर दिया करती थी… हां, याद है मुझे उस रोज भी एक जरूरी फाइल पर आयुषी मेरे साइन लेने मेरे घर आ गई थी और इसी बात को ले कर शैली ने कितना हंगामा मचा दिया था यह कह कर कि वह मुझ पर डोरे डालती और जानबूझ कर मेरे करीब आने की कोशिश करती है. उस वक्त मैं उस के प्यार में पागल था, इसलिए सहीगलत का अनुमान नहीं लगा पाया और उस के जोर डालने पर आयुषी को नौकरी से निकाल दिया.

व्एक लंबी सांस खींचते हुए विवान सोचने लगा कि वैसे गलती तो उस की भी थी. क्यों उस वक्त उस ने शैली की बात मानी थी? क्या वह कोई दूध पीता बच्चा था?

फिर गलती तो सुधारी भी जा सकती है, सोच उसी वक्त विवान ने आयुषी को फोन कर कल सुबह 10 बजे औफिस बुला लिया.

अपने हाथ में नियुक्ति पत्र देख आयुषी की आंखें छलक आईं. आभार प्रकट करते हुए कहने लगी, ‘‘अब मैं पहले से भी ज्यादा सक्रिय हो कर काम करूंगी और कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘न पहले मुझे तुम से कोई शिकायत थी और न अब है. बस समझ लो एक गलतफहमी के कारण… खैर अब छोड़ो वे सब पुरानी बातें हैं. लग जाओ अपने काम पर… और हां, मुझे तुम्हारे हाथ के वे मूली के परांठे खाने हैं… क्या मिलेंगे? विवान ने जब हंसते हुए यह कहा तो सुन कर आयुषी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.’’

आयुषी रोज कोई न कोई व्यंजन बना कर विवान के लिए ले आती और फिर खूब आग्रहपूर्वक खिलाती. अब तो यह रोज का सिलसिला बन गया था.

एक रोज यह बोल कर आयुषी ने विवान को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया कि आज उस का जन्मदिन है.

‘‘तो फिर पार्टी मेरी तरफ से,’’ विवान बोला तो आयुषी मना नहीं कर पाई.

तोहफे के तौर पर जब विवान ने आयुषी को स्मार्टफोन और एक सुंदर सी ड्रैस गिफ्ट की तो वह उस का आभार प्रकट किए बिना नहीं रह पाई.

‘‘इस में आभार कैसा? अरे, वह तो तुम्हारा हक है. हमेशा की तरह उस रोज भी विवान उसे उस के घर तक छोड़ने गया था और आयुषी के आग्रह करने पर कौफी पीने बैठ गया. लेकिन उस रात कौफी पीते उसे खुमारी सी आने लगी और वह वहीं सो गया. सुबह जब उस की आंखें खुलीं और अपनी बगल में आयुषी को देखा तो वह हैरान रह गया, ‘‘तुम यहां और मैं यहां कैसे?’’

अपने कपड़े ठीक करते हुए रोनी सी सूरत बना कर आयुषी कहने लगी, ‘‘रात में आप ने मुझे शैली समझ कर मेरे साथ…’’

‘‘उफ, ये मुझ से क्या हो गया?’’ उस के मुंह से निकला और फिर मन ही मन बोला कि गलत क्या किया उस ने… शैली ने कहा था कि मुझ में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं है और वह मेरे प्यार से ऊकता गई है. तो अब मैं बताऊंगा उसे… तरसेगी मेरे प्यार के लिए और फिर उस ने आयुषी को अपने सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘जो हुआ अच्छा हुआ.’’

नींद: मनोज का रति से क्या था रिश्ता- भाग 2

मनोज को कुछ उत्सुकता सी होने लगी कि आखिर यह कौन है और उस से चाहती क्या है?

कुछ देर बाद चाय, नाश्ता हो गया. फोटो, खबर और सूचना ले कर एकएक कर के सभी प्रैस रिपोर्टर विदा ले कर चले भी गए. पर रति तो अब भी वहीं पर थी. अब मनोज को अकेला पा कर वह उस के पास आई और बेबाक हो कर बोली, ‘‘आप से बस 2 मिनट बात करनी है.”

‘‘हां… हां, जरूर कहिए,‘‘ कह कर मनोज ने पूरी सहमति दी.

‘‘जी, मेरा नाम रति है और मुझे आप की फैक्टरी में काम चाहिए.‘‘

‘‘काम चाहिए, पर अभी तो यहां स्टाफ एकदम पूरा है,‘‘ मनोज ने जवाब दिया.

‘‘जी, किसी तरह 4-5 घंटे का काम दे दीजिए. आप अगर चाहें तो मैं एक आइडिया दूं.‘‘

‘‘हां… हां, जरूर,‘‘ मनोज ने उत्सुकता से कहा, तो वह झट से बोली थी, ‘‘आप अपनी फैक्टरी और इस गोदाम की छत पर सब्जियांफूल उगाने का काम दे दीजिए.‘‘

‘‘अरे… अरे, ओह्ह,‘‘ कह कर मनोज हंसने लगा. वह रति की देह को बड़े ही गौर से देख कर यह प्रतिक्रिया दे बैठा, क्योंकि उस का मन यह मानने को तैयार नहीं था कि रति यह सब कर सकती है.

‘‘हां… हां, क्यों नहीं,” मनोज ने कहा.

“आप इतने मनमोहक पौधों का पौधारोपण करा रहे हो. प्रकृति से तो आप को खूब प्यार होगा. मेरा मन तो यही कहता है,‘‘ ऐसा बोलते समय रति ने भांप लिया था कि मनोज खुश हो गया है.

अब उस के इसी खुश मूड को ताड़ कर वह बोली, ‘‘जी, आप मेरा भरोसा कीजिए. मैं बाजार में बिकवा कर इन की लागत भी दिलवा सकती हूं. और तो और यह तो पक्का है कि आप को मुनाफा ही होगा.‘‘

रति ने कुछ ऐसी कशिश के साथ यह बात कही कि मनोज मान गया.

मनोज को इतना भी पैसे का लालच नहीं था, पर रति का आत्मविश्वास और उस की मनमोहक अदा ने मनोज को उसी समय उस का मुरीद बना दिया था.

उस ने अगले दिन रति को फिर बुलाया और कुछ नियमशर्तों के साथ काम दे दिया. 3 सहायक उस के साथ लगा दिए गए.

बस वह दिन और आज का दिन, रति कभी बैगन, कभी लाल टमाटर, हरी मिर्च, पालक, धनिया वगैरह ला कर दिखाती रहती.

मनोज भी खुश था कि जरा सी लागत में खूब अच्छी सब्जी और फूल खिल रहे थे.

पिछले दिनों रति के इसी कारनामे के कारण मनोज को पर्यावरण मित्र पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था. पूरे शहर में आज बस उस की ही फैक्टरी थी, जो हरियाली से लबालब थी. आएदिन कोई न कोई फोटोग्राफी की वर्कशौप भी वहीं छत पर होने लगी थी.

रति तो उस के लिए बहुत काम की साबित हो रही थी. यही बात उस ने रति की पीठ पर इत्र की बोतल उडे़लते हुए एक दिन उस से कह दी थी. उस पल अपने अनावृत बदन को उस के सीने में छिपाते हुए रति ने आंखें बंद कर के कहा था, ‘‘बस ये मान लो मनोज कि जिंदगी को जुआ समझ कर खेल रही हूं.

‘‘यह जो मन है ना मनोज, इस के सपने खंडित होना नहीं चाहते. खंडित सपने की नींव पर नया सपना अंकुरित हो जाता है. मैं करूं भी तो क्या. तुम हो तो तुम्हारे दामन में निश्चिंत हूं, आने वाले पल में कब क्या होगा, मैं खुद भी नहीं जानती.’’

उस दिन रति ने उस के सामने अपनी देह के साथ जीवन के भी राज खोल दिए थे. सूखे कुएं की मुंडेर पर अपने मटके लिए वो 7 साल से किसी अभिशाप को ढो रही थी.

पहलेपहले तो पति बाहर कहीं भी जाते थे, तो रति को ताला लगा कर बंद कर के जाते थे. फिर उस ने उन को उन के तरीके से जीतना शुरू किया. वह उन के इस दो कौड़ी के दर्शन को बारबार सराहने लगी. उन को उकसाने लगी कि आप को सारी दुनिया में अपनी बातें फैलानी चाहिए.

दार्शनिक और सनकी पति को सुधारने में समय तो जरूर लगा, पर रति का काम बन गया. इसलिए अब वही हो रहा है जो रति चाहती है. पति बाहर ही रहते हैं और रति को आजादी वापस मिल गई है. कितनी प्यारी है ये आजादी. जितनी सांसें हैं अपने तरीके से जीने की आजादी.

रति को एक हमदर्द चाहिए था. एक अपना जो रोते समय उस की गरदन को कंधा दे सके.

दिन बीतते रहे. हौलेहौले वह जान गया था कि रति को नौकरी नहीं बस मनोज चाहिए था. एक पागल और जिद्दी पति और उस के चिंतन से आजिज आ चुकी रति ने एक बार एक चैनल के साक्षात्कार में मनोज को देखा तो बस उस को हासिल करने की ठान ही ली थी.

पति के दर्शन और ज्ञानभरी बातों से वह दिनभर ऊब जाती थी. नौकरी तो बहाना था. उस को अब इस जीवन में कुछ घंटे हर दिन मनोज का साथ चाहिए था.

मनोज को वह दिन रहरह याद आ रहा था, जब पहली बार रति उस को अपने घर ले गई थी. उस दिन रति के पति नहीं थे, पर वहां नौकरचाकर थे. सबकुछ था. कितनी सुखसुविधाओं से लवरेज था उस का आलीशान बंगला. मगर, उस के घर पर अजीब सी खामोशी थी. पर, मनोज को इस से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता था. रति उसे बिंदास अपने घर पर भी उतना ही हक दे रही थी, जितना वह मनोज को अपनी नशीली, मादक देह पर कुछ दिन पहले दे चुकी थी.

उस दिन जब वह रति से उस के घर पर मिल कर लौट रहा था, तब यही सोच रहा था कि उस की भी तो कोई चाहत है, कोई रंग उस को भी तो चाहिए ही. अब वह और रमा हमउम्र हैं, ठीक है. रमा को जीवन में आराम चाहिए, करे. पूरी तरह आराम कर. पर उस को तो रंगीन और जवान जिंदगी चाहिए. इधर रति खुद एक लता सी किसी शाख का सहारा चाहती थी ना. बस हो गया. एक तरह से वह रति पर अहसान कर रहा था और उस का काम भी चल रहा था.

यही सोचतसोचता वह घर पहुंच गया था. वह जैसे ही भीतर आया, किसी पेनकिलर मलहम की तेज महक उस की नाक में घुसी और उस के कदम की आहट सुन कर रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज आ गए तुम. खाना रखा है. प्लीज, खा लो. मैं तो बस जरा लेटी हूं. अब इस दर्द में बिलकुल उठा नहीं जा रहा.‘‘

‘‘हां… हां रमा, ठीक है. तुम आराम करो, सो जाओ,‘‘ कह कर वह बाथरूम में घुस गया.

मनोज बखूबी जानता है कि रमा की नींद रूई से भी हलकी है. कभी लगता है कि उस की नींद में भाप भरी होती है. रमा कभी बेसुध नहीं रहती, कभी चैन की नींद नहीं सोती. ज्यों ही खटका होता है, उस के होने के पहले ही जाग उठती है.
रमा भी अजीब है. इस की यह चेतना सदैव चौकन्नी रहती है. उस को याद है, जब बेटा स्कूल में पढ़ रहा था. परीक्षा के लिए रमा ही उस के साथ रातबिरात जागती थी. तब भी वह बेखबर सोया रहता. पर, रमा उस की एक आहट से जाग जाती और उस को चायकौफी बना कर दे देती थी. तब भी वो कमसिन रमा को झट से जागते, काम करते केवल चुपके से देखता था, दूर से उस को एकटक निहारता था. पर बिस्तर से जाग कर खुद काम नहीं करता था. कभी नहीं.

अब बेटा विदेश में पढ़ रहा है, नौकरी कर के वहीं बस जाएगा, ऐसा उस का फैसला है.

जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 2

अंकल की तेरहवीं के दिन सभी मेहमानों के जाने के बाद आंटी अचानक गुस्से में उबल पड़ीं. मुझे पहले तो कुछ समझ ही न आया और जो समझ में आया वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. अनु प्रैग्नैंट है, यह जानकारी मेरे लिए किसी सदमे से कम न थी. अगर इस बात पर मैं इतनी चौंक पड़ी थी, तो अपनी बेटी को अपना सब से बड़ा गर्व मानने वाले अंकल पर यह जान कर क्या बीती होगी, मैं महसूस कर सकती थी. आंटी भी अंकल की बेवक्त हुई इस मौत के लिए उसे ही दोषी मान रही थीं.

मैं ने अनु से उस शख्स के बारे में जानने की बहुत कोशिश की, पर उस का मुंह न खुलवा सकी. मुझे उस पर बहुत क्रोध आ रहा था. गुस्से में मैं ने उसे बहुत बुराभला भी कहा. लेकिन सिर झुकाए वह मेरे सभी आरोपों को स्वीकारती रही. तब हार कर मैं ने उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

इधर मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि हमारी शादी नाना के घर लखनऊ से ही संपन्न हो. शादी के बाद मैं विदा हो कर सीधी अपनी ससुराल चली गई. वहां से जब पहली बार घर आई तो अनु को देखने, उस से मिलने की बहुत उत्सुकता हुई. पर मां ने मुझे डपट दिया कि खबरदार जो उस चरित्रहीन से मिलने की कोशिश भी की. अच्छा हुआ जो सही वक्त पर तेरी शादी कर दी वरना उस की संगत में तू भी न जाने क्या गुल खिलाती. मुझे मां पर बहुत गुस्सा आया, पर साथ ही उन की बातों में सचाई भी नजर आई. मैं भी अनु से नाराज तो थी. अत: मैं ने भी उस से मिलने की कोशिश नहीं की.

2 साल बीत चुके थे. मेरी गोद में अब स्नेहा आ चुकी थी. मेरे भैया की शादी भी बनारस से तय हो चुकी थी. शादी के काफी पहले ही मैं मायके आ गई. यहां आ कर मां से पता चला कि अनु ने भैया की शादी तय होने पर बहुत बवाल मचाया था. मगर क्यों? भैया से उस का क्या वास्ता?

मेरे सवाल करने पर मां भड़क उठीं कि अरे वह बंगालन है न, मेरे भैया पर काला जादू कर के उस से शादी करना चाहती थी. किसी और के पाप को तुम्हारे भैया के मत्थे मढ़ने की कोशिश कर रही थी. पर मैं ने भी वह खरीखोटी सुनाई है कि दोबारा पलट कर इधर देखने की हिम्मत भी नहीं करेंगी मांबेटी. पर अगर वह सही हुई तो क्या… मैं कहना चाहती थी, पर मेरी आवाज गले में ही घुट कर रह गई. लेकिन अब मैं अनु से किसी भी हालत में एक बार मिलना चाहती थी.

दोपहर का खाना खा कर स्नेहा को मैं ने मां के पास सुलाया और उस के डायपर लेने के लिए मैडिकल स्टोर जाने के बहाने मैं अनु के घर की तरफ चल दी. मुझे सामने देख अनु को अपनी आंखों पर जैसे भरोसा ही नहीं हुआ. कुछ देर अपलक मुझे निहारने के बाद वह कस कर मेरे गले लग गई. उस की चुप्पी अचानक ही सिसकियों में तबदील हो गई. मेरे समझने को अब कुछ भी बाकी न था. उस ने रोतेरोते अपने नैतिक पतन की पूरी कहानी शुरू से अंत तक मुझे सुनाई, जिस में साफतौर पर सिर्फ और सिर्फ मेरे भैया का ही दोष नजर आ रहा था.

कैसे भैया ने उस भोलीभाली लड़की को मीठीमीठी बातें कर के पहले अपने मोहपाश में बांधा और फिर कालेज के वार्षिकोत्सव वाले दिन रात को हम सभी के सोने के बाद शकुंतला के रूप में ही उस से प्रेम संबंध स्थापित किया. यही नहीं उस प्रेम का अंकुर जब अनु की कोख में आया तो भैया ने मेरी शादी अच्छी तरह हो जाने का वास्ता दे कर उसे मौन धारण करने को कहा.

वह पगली इस डर से कि उन के प्रेम संबंध के कारण कहीं मेरी शादी में कोई विघ्न न आ जाए. चुप्पी साध बैठी. इसीलिए मेरे इतना पूछने पर भी उस ने मुंह न खोला और इस का खमियाजा अकेले ही भुगतती रही. लोगों के व्यंग्य और अपमान सहती रही. और तो और इस कारण उसे अपने जीवन की बहुमूल्य धरोहर अपने पिता को भी खोना पड़ा.

आज अनु के भीतर का दर्द जान कर चिल्लाचिल्ला कर रोने को जी चाह रहा था. शायद वह इस से भी अधिक तकलीफ में होगी. यह सोच कर कि सहेली होने के नाते न सही पर इंसानियत की खातिर मुझे उस का साथ देना ही चाहिए, उसे इंसाफ दिलाने की खातिर मैं उस का हाथ थाम कर उठ खड़ी हुई. पर वह उसी तरह ठंडी बर्फ की मानिंद बैठी रही.

आखिर क्यों? मेरी आंखों में मौन प्रश्न पढ़ कर उस ने मुझे खींच कर अपने पास बैठा लिया. फिर बोली, ‘‘सीमा, इंसान शादी क्यों करना चाहता है, प्यार पाने के लिए ही न? लेकिन अगर तुम्हारे भैया को मुझ से वास्तविक प्यार होता, तो यह नौबत ही न आती. अब अगर तुम मेरी शादी उन से करवा कर मुझे इंसाफ दिला भी दोगी, तो भी मैं उन का सच्चा प्यार तो नहीं पा सकती हूं और फिर जिस रिश्ते में प्यार नहीं उस के भविष्य में टिकने की कोई संभावना नहीं होती.’’

‘‘लेकिन यह हो तो गलत ही रहा है न? तुझे मेरे भैया ने धोखा दिया है और इस की सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘लेकिन उन्हें सजा दिलाने के चक्कर में मुझे जिंदगी भर इस रिश्ते की कड़वाहट झेलनी पड़ेगी, जो अब मुझे मंजूर नहीं है. प्लीज तू मेरे बारे में उन से कोई बात न करना. मैं बेचारगी का यह दंश अब और नहीं सहना चाहती.’’

उस की आवाज हलकी तलख थी. मुझ से अब कुछ भी कहते न बना. मन पर भाई की गलती का भारी बोझ लिए मैं वहां से चली आई.

घर पहुंची तो भैया आ चुके थे. मेरी आंखों में अपने लिए नाराजगी के भाव शायद उन्हें समझ आ गए थे, क्योंकि उन के मन में छिपा चोर अपनी सफाई मुझे देने को आतुर दिखा. रात के खाने के बाद टहलने के बहाने उन्होंने मुझे छत पर बुलाया.

‘‘क्यों भैया क्यों, तुम ने मेरी सहेली की जिंदगी बरबाद कर दी… वह बेचारी मेरी शादी के बाद अभी तक इस आशा में जीती रही कि तुम उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करोगे… तुम्हारे कहने पर उस ने अबौर्शन भी करवा लिया. फिर भी तुम ने यह क्या कर दिया… एक मासूम को ऐसे क्यों छला?’’ मेरे शब्दों में आक्रोश था.

गहराइयां : विवान को शैली की कौनसी बात चुभ गई? -भाग 3

उस के बाद तो वह सिलसिला सा बन गया और इस बात का विवान को कोई मलाल भी नहीं था. उधर शादी के बाद सभी लोग अपनेअपने घर चले गए. शैली भी अपने घर आने का सोचने लगी पर हैरानी उसे इस बात की हो रही थी कि उसे यहां आए महीना हो चला है,

इस के बावजूद न तो विवान ने उसे एक बार भी फोन किया और न ही फिर पलट कर आया… लेकिन जाएगा कहां… क्या मेरे बिना रह पाएगा? अपने गुमान में फूलती शैली ने अपनेआप से कहा.

लेकिन उसे यह नहीं पता था कि उस का विवान अब पहले वाला विवान नहीं रहा जो उस के आगेपीछे पागल प्रेमी की तरह मंडराता फिरता था. उन्हीं खयालों में खोई शैली को भान नहीं

रहा कि उस ने चूल्हे पर दूध चढ़ाया है. लेकिन चौंकी तो तब जब उस की बहन स्वीटी ने तेज स्वर में कहा, ‘‘अरे, कहां है तुम्हारा ध्यान? देख तो दूध उफन रहा है,’’ कह उस ने झट से आंच बंद कर दी.

‘‘उफ, आप ने बचा लिया दीदी वरना आज सारा दूध बरबाद हो जाता.’’

‘‘सही कहा तुम ने, पर दूध तो दोबारा आ सकता है, पर जिंदगी बरबाद हो जाए तो क्या दोबारा संवारा जा सकता है?’’

स्वीटी की बात पर शैली ने उसे अचकचा कर देखा.

‘‘शायद तुम्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि तुम ने विवान को कितनी चोट पहुंचाई है. ऐसा क्या कर दिया उस ने जो तुम ने उस के साथ इतना खराब व्यवहार किया? यह भी नहीं सोचा कि घर में इतने सारे मेहमान हैं तो वह क्या सोचेंगे विवान के बारे में?

‘‘अरे, इतना प्यार करने वाला पति बहुत कम को मिलता है शैली. एक मेरा पति है जिसे दुनिया की हर औरत अच्छी लगती है सिवा मेरे. एक तेरा पति है जो तेरे सिवा किसी को नजर उठा कर भी नहीं देखता.

‘‘जानती है शैली, जब मुझे पता चला कि मेरे पति का अपने ही औफिस की एक लड़की के साथ प्रेमसंबंध चल रहा है तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. सिसकते हुए जब मैं ने यह बात अपनी सास को बताई, यह सोच कर कि एक औरत का दर्द एक औरत ही समझ सकती है तो पता है उन्होंने क्या कहा? कहने लगीं कि वह मर्द है जो चाहे कर सकता है और यह भी कहा कि अगर यह बात बाहर गई तो लोग मुझ पर ही उंगलियां उठाएंगे. कहेंगे कि मुझ में ही कोई कमी रही होगी. इसीलिए मेरा पति किसी दूसरी औरत के पास चला गया. इसलिए जैसे चल रहा है चलने दे.

‘‘जब मां को अपना दुखड़ा सुनाने गई तो वे कहने लगीं कि एक औरत का अकेले इस दुनिया में कोईर् वजूद नहीं होता. हर मर्द ऐसी औरत को लोलुपता भरी नजरों से देखता रहता है. वह ऐसी औरत को पा लेने वाली वस्तु के रूप में देखने लगता है. क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारी भी वही स्थिति हो… फिर मायके वाले कब तक तुझे अपने पास रख पाएंगे. अगर तुम वहां न भी जाओ तो तुम्हारे पति को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन तुम और तुम्हारे बच्चे के लिए उस घर के सिवा क्या और कोई ठौरठिकाना है?

‘‘बस मौका मिलना चाहिए मर्दों को… उन्हें फिसलते जरा भी देर नहीं लगती शैली. इसलिए छोड़ यह जिद और जा अपने घर वरना…’’ कहीं ऐसा न हो कि तू भी मेरी तरह…’’

स्वीटी की बातें सुन शैली हक्कीबक्की रह गई. सोचने लगी कि उस की बहन के साथ इतना कुछ हो गया और उसे खबर तक नहीं… जो शैली अभी कुछ देर पहले गुमान में फूल रही थी उसी की हवा निकलती, साफ उस के चेहरे पर दिख रही थी.

अचानक आधी रात को शैली की नींद उचट गई. स्वीटी बराबर में गहरी नींद में सो रही थी. वह भी फिर से सोने की कोशिश करने लगी पर नींद न जाने कहां रफूचक्कर हो गई थी. उसे एहसास हुआ कि उस का गला सूख रहा है. उठ कर उस ने एक गिलास ठंडा पानी पीया और सोचा सो जाए, पर नींद तो जैसे आंखों से कोसों दूर चली गई थी.

आज अपनी ही कही बातें याद कर वह क्षुब्ध हो उठी. बेचैनी से कमरे के बाहर निकल आई. देखा तो दूर तक सन्नाटा पसरा था. घबरा कर वह फिर अंदर आ गई. आज न तो उसे घर के अंदर और न घर के बाहर चैन पड़ रहा था. बारबार विवान का खयाल जेहन में आजा रहा था. सोचने लगी जो विवान उस पर अपनी जान छिड़कता था उसी को वह झिड़कती रही. और तो और अपने मायके वालों के सामने भी उस की बेइज्जती कर डाली… यह भी न सोचा कि उस के दिल पर क्या बीती होगी उस वक्त?

आज वह मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर खुद को अधूरा महसूस कर रही थी. जिस विवान के स्पर्श से उसे चिढ़ होने लगी थी आज उसी स्पर्श को पाने के लिए वह बेचैन हो उठी. हां, ‘मुझ से बहुत बड़ी गलती हुई और शायद उस बात के लिए विवान मुझे माफ न करे या हो सकता है घर के अंदर भी न आने दे, पर मैं तब तक अपने पति का हाथ नहीं छोड़ूंगी जब तक वह मुझे माफ नहीं कर देता,’ मन ही मन यह तय कर शैली सोने की कोशिश करने लगी. फिर जाने कब उस की आंखें लग गई. सुबह सब से बिदा ले कर वह अपने घर चल दी.

अपने घर पहुंचने पर शैली को कुछ भी पहले जैसा नहीं लगा. लग रहा था जैसे उस के पीछे बहुत कुछ बदल गया है. जो विवान पहले टाइम से औफिस जाता था और घर भी वक्त पर आ जाता था अब ऐसा नहीं था. पूछने पर जवाब देना भी जरूरी नहीं समझता था. लेकिन शैली को लगता अभी गुस्से में है. इसलिए ऐसे बात कर रहा. जब गुस्सा उतर जाएगा. सब ठीक हो जाएगा.

एक रोज यह कह कर विवान जल्दी घर से निकल गया कि आज उस की जरूरी मीटिंग है. लेकिन संयोग से उसी रोज शैली भी अपनी एक सहेली के साथ उसी कौफी हाउस पहुंच गई जहां विवान आयुषी की आंखों में आंखें डाले उसे प्यार से निहार रहा था. दोनों को उस अवस्था में देख शैली की आंखें डबडबा गईं. छलकते नयनों का उलझना विवान से भी छिपा न रह पाया. पर उस ने उसे देख कर भी अनदेखा कर दिया… यह बात भी शैली के दिल में तीर सी चुभी.

‘आखिर क्यों, क्यों विवान ने फिर से उसे काम पर रख लिया और क्या दोनों…’ कई सवाल पूछने थे उसे विवान से पर पूछती किस मुंह से? क्या वह यह नहीं कहेगा कि उस ने ही तो कहा था कि हर इंसान को अपने जीवन में थोड़ी स्पेस चाहिए होती है? करवटें बदलते उस ने पूरी रात निकाल दी. सुबह भी फिर वही सबकुछ. कुछ समझ में नहीं आ रहा था उसे कि करे तो क्या करे. अगर अपनी मां को अपना दर्द बताती तो वे उसे भी वही सलाह देतीं जो स्वीटी को देतीं और भाभियां से तो कुछ बोलना ही बेकार था.

शैली को बिना बताए ही विवान घर से निकल जाता और जब मन होता आता. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उस के इस आचरण से शैली के दिल पर क्या बीतती होगी? विवान भले उस से बात न करता, पर शैली का फोन उठा लेता. वही उस के लिए काफी था. लेकिन विवान की बेवफाई और अवहेलना अब शैली के दिलोदिमाग पर असर करने लगा. ठीक से न खानेपीने के कारण दिनप्रतिदिन उस का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था. अब तो वह किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती थी. कई दिनों से उस ने विवान को भी फोन करना छोड़ दिया था.

इधर कई दिनों से शैली का फोन न आया देख विवान को थोड़ी फिक्र तो होने लगी पर सोचता जाने दो मगर जब एक दिन शैली की मां का फोन आया और उस ने पूछा कि शैली कहां है और वह अपना फोन क्यों नहीं उठा रही है तो विवान को सच में फिक्र होने लगी. फिर उस ने भी फोन लगाया, पर हर बार फोन बंद पा कर वह घबरा गया.

‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’ विवान को अपने कपड़े समेटते देख आयुषी हैरानी से बोली.

‘‘घर.’’

‘‘पर विवान, हम तो यहां मीटिंग अटैंड करने आए हैं.’’

जल्दीजल्दी अपना जरूरी सामान बैग में रखते हुए विवान बोला, ‘‘वह तुम अटैंड कर लेना… यह मीटिंग से भी ज्यादा इंपौर्टेंट है मेरे लिए.’’

आयुषी समझ गई कि वह किस की बात कर रहा है. अत: तैश में आते हुए बोली, ‘‘तुम ऐसा कैसे कर सकते हो विवान? क्या भूल गए कि मैं और तुम…’’

विवान ने आयुषी को घूर कर देखा और फिर कड़कती आवाज में बोला, ‘‘पहले तो तुम तमीज से बात करो. मैं तुम्हारा बौस हूं और रही बात हमारे संबंध की तो क्या मुझे नहीं पता कि उस रोज कौफी में तुम ने क्या मिलाया था और तुम्हारा इरादा क्या था?’’ सुन कर आयुषी की जबान उस के हलक में ही अटक गई.

‘‘तुम्हारी भलाई इसी में है कि चुप रहो,’’ होंठों पर अपनी उंगली रख विवान बोला और फिर वहां से चलता बना. घर आ कर जब विवान ने देखा तो शैली अचेत पड़ी थी. जल्दी से उस ने डाक्टर को बुलाया.

जांच कर डाक्टर ने बताया, ‘‘कोई ऐसी बात है जो इन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही है और अगर यही हाल रहा तो अस्पताल में भरती करना पड़ जाएगा. इन का ध्यान रखिएगा… हो सके तो कहीं बाहर ले कर जाएं,’’ कह दवा के साथ हिदायत दे कर डाक्टर चला गया.

विवान खुद को कोसते हुए बड़बड़ाने लगा कि ये सब उस की वजह से हुआ है. शैली ने सही कहा था कि मैं प्यार का दिखावा करता हूं. फिर रोते हुए शैली को अपने सीने से लगा कर चूमने लगा.

जिस शैली ने पलभर के लिए भी किसी के सामने आंसू न बहाए थे, आज विवान को अपने इतने पास देख कर उसी शैली की बड़ीबड़ी आंखों में आंसुओं की झड़ी लग गई. रोतेरोते ऐसी हिचकी बंधी कि वह बोल नहीं पा रही थी. लेकिन दोनों अपने किए पर पश्चात्ताप जरूर

कर रहे थे और मन ही मन एकदूसरे से माफी भी मांग रहे थे. दोनों को देख कर लग रहा था कि भले कितने उतारचढ़ाव आए इन के जीवन में पर दोनों एकदूसरे को दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं.

नींद: मनोज का रति से क्या था रिश्ता- भाग 3

रमा और मनोज दोनों ही अपने बेटे का यह संकल्प जानते हैं. यही सोचता हुआ मनोज बाथरूम से तरोताजा हो कर बाहर आया, तो उस ने परदे की आड़ से कमरे में झांका, रमा सो गई थी.
मनोज ने देखा कि नींद में उस की यह सुंदरता कितनी रहस्यमयी है. उस की नींद और सपनों के कितने कथानक होंगे, क्या वह भी शामिल होगा उन में, शायद नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई भय हो, जो कहीं से इस के मन में भरा हो? इसीलिए जब भी मनोज आता है, रमा सोई मिलती है.

वह चुपचाप सांस रोक कर और बारबार परदे के उस तरफ मुंह तिरछा कर के सांस ले कर उस की नींद का अवलोकन करता रहा.
कुछ पल बाद मनोज ने खाना लगाया और मोबाइल पर रति से चैट करते हुए खाना खाने लगा.

“मनोज डार्लिंग 10 लाख रुपए चाहिए.” अचानक ही रति का संदेश आया. मनोज के लिए यह रकम बड़ी तो थी, पर बहुत मुश्किल भी नहीं थी. मगर वह सकपका गया. वह रति से इतना आसक्त हो गया था कि सवाल तक नहीं कर पा रहा था कि क्यों चाहिए, किसलिए… वो कुछ मिनट खामोश ही रहा. दोबारा संदेश आया. अब न जाने क्या हुआ कि मनोज ने रति का नंबर ब्लौक कर दिया. आज वह बौखला रहा था.
हद है, वह समझ गया कि आखिर कौन सा खेल खेला जा रहा था उस के साथ. अब उस ने तुरंत अपने एक सोशल मीडिया विशेषज्ञ मित्र को रति की तसवीर भेज कर कुछ सवाल पूछे. प्रमाण सहित उत्तर भी आ गए. वह अपनी नादानी पर शर्म से पानीपानी हो रहा था. एक बाजारू महिला के झांसे में.

उफ, उस ने अपना सिर पीट लिया यानी वो उस दिन जिस घर पर ले गई थी, वह न रति का था, न उस के पति का. सच तो यह है कि इस का कोई पति है ही नहीं. यही उस ने आननफानन में खाना खत्म किया और फोन एक तरफ रख कर रमा के पास आ कर लेट गया. अब वह रति से कोई संबंध नहीं रखना चाहता था.

‘‘मनोज खाना खा लिया,‘‘ रमा हौले से फुसफुसा कर पूछ रही थी.

‘‘हां,‘‘ कह कर मनोज अभीअभी लेटा ही था. अचानक करवट ले कर वह बिस्तर पर बैठ गया. अब उस ने आसपास हाथ फिराया, तो मलहम मिल गई. मलहम ले कर वह रमा की पीठ पर मलने लगा और बहुत देर तक मलता रहा. रमा को मीठी नींद आ रही थी. वह हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि उस के कानों तक अपना अधर पहुंचा सकता तो दिलासा देता कि तुम निश्चिंत हो, सोती रहो, मैं कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा. मैं कैसे तुम्हारे भरोसे के योग्य बनूं कि तुम अपनी नींद मुझे सौंप दो? मुझे इतना हक कैसे मिले?

मैं कैसे तुम्हारे बसाए घर पर ऐसे चलूं कि कोई दाग ना लगे, तुम को मेरी सांसों के कोलाहल से कोई संशय न हो. तुम निडर हो कर जीती रहो- जैसे सब जीते हैं. इस विश्वास के साथ रहो कि यह घर संपूर्ण रूप से तुम्हारा है. तुम यहां सुरक्षित हो. वह आज यह सोच रहा था कि एक रमा है जो उस से कुछ नहीं मांगती. बस, बिना शर्त प्यार करती है. अगर वह उस का विश्वास जीतने में भी जो विफल रहा, उस ने फिर दुनिया भी जीत ली तो क्या जीता. यह सोचतासोचता वह भी गहरी नींद में सो गया.

अगले दिन रति फैक्टरी नहीं आई. वह उस के बाद फिर कभी नहीं आई.

जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 3

‘‘उस वक्त जोश में मुझे इस बात का होश ही न रहा कि समाज में हमारे इस संबंध को कभी मान्य न किया जाएगा. मुझ से वाकई बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ भैया हाथ जोड़ कर बोले.

‘‘गलती… सिर्फ गलती कह कर तुम जिस बात को खत्म कर रहे हो, उस के लिए मेरी सहेली को कितनी बड़ी सजा भुगतनी पड़ी है, क्या इस का अंदाजा भी है तुम्हें? नहीं भैया नहीं तुम सिर्फ माफी मांग कर इस पाप से मुक्ति नहीं पा सकते. यह तो प्रकृति ही तय करेगी कि तुम्हारे इस नीच कर्म की भविष्य में तुम्हें क्या सजा मिलेगी,’’ कहती हुई मैं पैर पटकती तेजी से नीचे चल दी. सच कहूं तो उस वक्त उन के द्वारा की गई गलती से अधिक मुझे बेतुकी दलील पर क्रोध आया था.

फिर उन की शादी भी एक मेहमान की तरह ही निभाई थी मैं ने. अपनी शादी के कुछ ही महीनों बाद भैयाभाभी मांपापा से अलग हो कर रहने लगे थे. ज्यादा तो मुझे पता नहीं चला पर मम्मी के कहे अनुसार भाभी बहुत तेज निकलीं. भैया को उन्होंने अलग घर ले कर रहने के लिए मजबूर कर दिया था. मुझे तो वैसे भी भैया की जिंदगी में कोई रुचि नहीं थी.

हां, जब कभी मायके जाना होता था तो मां के मना करने के बावजूद मैं अनु से मिलने अवश्य जाती थी. मुझे याद है हमारी पिछली मुलाकात करीब 10-12 साल पहले हुई थी जब मैं मायके गई हुई थी. अनु के घर जाने के नाम पर मां ने मुझे सख्त ताकीद की थी कि वह लड़की अब पुरानी वाली अनु नहीं रह गई है.

जब से उसे सरकारी नौकरी मिली है तब से बड़ा घमंड हो गया है. किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती. सुना है फिर किसी यारदोस्त के चक्कर में फंस चुकी है. मैं जानती थी कि मां की सभी बातें निरर्थक हैं, अत: मैं  उन की बातों पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा.

पर अनु से मिल कर इस बार मुझे उस में काफी बदलाव नजर आया. पहले की अपेक्षा उस में अब काफी आत्मविश्वास आ गया था. जिंदगी के प्रति उस का रवैया बहुत सकारात्मक हो चला था. उस के चेहरे की चमक देख कर आसानी से उस की खुशी का अंदाजा लग गया था मुझे. बीती सभी बातों को उस ने जैसे दफन कर दिया था. मुझ से बातों ही बातों में उस ने अपने प्यार का जिक्र किया.

‘‘अच्छा तो कब कर रही है शादी?’’ मेरी खुशी का ठिकाना न था.

‘‘शादी नहीं मेरी जान, बस उस का साथ मुझे खुशी देता है.’’

‘‘तू कभी शादी नहीं करेगी… मतलब पूरी जिंदगी कुंआरी रहेगी,’’ मेरी बात में गहरा अविश्वास था.

‘‘क्यों, बिना शादी के जीना क्या कोई जिंदगी नहीं होती?’’ उस ने कहना जारी रखा, ‘‘सीमा तू बता, क्या तू अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट है?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने मेरी ओर कई प्रश्न उछाल दिए.

‘‘नहीं, लेकिन इस के माने ये तो नहीं…’’

‘‘बस इसी माने पर तो सारी दुनिया टिकी है. इंसान का अपने जीवन से संतुष्ट होना माने रखता है, न कि विवाहित या अविवाहित होना. मैं अपनी जिंदगी के हर पल को जी रही हूं और बहुत खुश हूं. मेरी संतुष्टि और खुशी ही मेरे सफल जीवन की परिचायक है.

‘‘खुशियों के लिए शादी के नाम का ठप्पा लगाना अब मैं जरूरी नहीं समझती. कमाती हूं, मां का पूरा ध्यान रखती हूं. अपनों के सुखदुख से वास्ता रखती हूं और इस सब के बीच अगर अपनी व्यक्तिगत खुशी के लिए किसी का साथ चाहती हूं तो इस में गलत क्या है?’’ गहरी सांस छोड़ कर अनु चुप हो गई.

मेरे मन में कोई उत्कंठा अब बाकी न थी. उस के खुशियों भरे जीवन के लिए अनेक शुभकामनाएं दे कर मैं वहां से वापस आ गई. उस के बाद आज ही उस से मिलना हो पाया था. हां, मां ने फोन पर एक बार उस की तारीफ जरूर की थी जब पापा की तबीयत बहुत खराब होने पर उस ने न सिर्फ उन्हें हौस्पिटल में एडमिट करवाया था, बल्कि उन के ठीक होने तक मां का भी बहुत ध्यान रखा था. उस दिन मैं ने अनु के लिए मां की आवाज में आई नमी को स्पष्ट महसूस किया था. बाद में मेरे मायके जाने तक उस का दूसरी जगह ट्रांसफर हो चुका था. अत: उस से मिलना संभव न हो पाया था.

एक बात जो मुझे बहुत खुशी दे रही थी वह यह कि आज अकेले में जब मैं ने उस से उस के प्यार के बारे में पूछा तो उस ने बड़े ही भोलेपन से यह बताया कि उस का वह साथी तो वहीं छूट गया, पर प्यार अभी भी कायम है. एक दूसरे साथी से उस की मुलाकात हो चुकी है औ वह अब उस के साथ अपनी जिंदगी मस्त अंदाज में जी रही है. मैं सच में उस के लिए बहुत खुश थी. उस का पसंदीदा गीत आज मेरी जुबां पर भी आ चुका था, जिसे धीरेधीरे मैं गुनगुनाने लगी थी…

‘हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी… छांव है कभी, कभी है धूप जिंदगी… हर पल यहां जी भर जियो… जो है समा, कल हो न हो.’

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 3

दरवाजे पर लहराता परदा एक ओर खिसका कर मैं ने अंदर प्रवेश किया तो सभी शब्द मेरे हलक में ही सूख गए. सामने कुरसी पर एक ऐसा इनसान बैठा हुआ था, जिस की कमर के नीचे दोनों टांग गायब थीं. उसे इनसान न कह कर सिर्फ एक धड़ कहा जाए तो बेहतर होगा.

‘‘आ जाओ, रेखा, मुझे विश्वास था  जीवन में दोबारा तुम से मुलाकात अवश्य होगी,’’ एक दर्दीला चिरपरिचित स्वर गूंज उठा.

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.

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