अबोध : मां को देखते ही क्यों रोने लगी गौरा?

लेखक- धर्मेंद्र राजमंगल

माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ.

माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया.

माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती.

जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.

अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था. माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.

शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था. गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं

लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए. गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे  उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई. गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गौरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता.

जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था. जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तुझे कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’

गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबूझ कर उस से ज्यादा काम कराती थीं. बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात  ते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.

एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था. मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’ सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझती.’’

गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी. दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे. अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.

माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.

घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं.

घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मुझे अब तेरे ही पास रहना है.’’

मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.

‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’

गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.

रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी.

आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.

सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’

गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’

गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए.

हवा के हलके झोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.

यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे. गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी  थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.

गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया. अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था. थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था.

जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी. एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को समझता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.

सांप सीढ़ी: प्रशांत का कौनसा था कायरतापूर्ण फैसला

जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

बोलने में विनम्रता, चाल में आत्मविश्वास, व्यवहार में बड़ों का आदरमान, चरित्र में सोना. सचमुच हजारों में एक को ही नसीब होता है ऐसा बेटा. मौसी वाकई समय की बलवान थीं.

मां के अनुशासन की डोरी पर स्वयं को साधती मैं विवाह की उम्र तक पहुंच चुकी थी. एमए पास थी, गृहकार्य में दक्ष थी, इस के बावजूद मेरा विवाह होने में खासी परेशानी हुई. कारण था, मेरा दबा रंग. प्रत्येक इनकार मन में टीस सी जगाता रहा. पर फिर भी प्रयास चलते रहे.

और आखिरकार दिवाकर के यहां बात पक्की हो गई. इस बात पर देर तक विश्वास ही नहीं हुआ. बैंक में नौकरी, देखने में सुदर्शन, इन सब से बढ़ कर मुझे आकर्षित किया इस बात ने कि वे हमारे ही शहर में रहते थे. मां से, मौसी से और खासकर प्रशांत से मिलनाजुलना आसान रहेगा.

पर मेरी शादी के बाद मेरी मां और पिताजी बड़े भैया के पास भोपाल रहने चले गए, इसलिए उन से मिलना तो होता, पर कम.

मौसी अलबत्ता वहीं थीं. उन्होंने शादी के बाद सगी मां की तरह मेरा खयाल रखा. मुझे और दिवाकर को हर त्योहार पर घर खाने पर बुलातीं, नेग देतीं.

प्रशांत का पीईटी में चयन हो चुका था. वह धीरगंभीर युवक बन गया था. मेरे दोनों सगे भाई तो कोसों दूर थे. राखी व भाईदूज का त्योहार इसी मुंहबोले छोटे भाई के साथ मनाती.

स्कूटर की जानीपहचानी आवाज आई, तो मेरी विचारशृंखला टूटी. दिवाकर आ चुके थे. मैं हर्ष की उंगली पकड़े बाहर आई. कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं था. हर्ष को उस की बूआ के घर छोड़ कर हम मौसी के घर जा पहुंचे.

घर के सामने लगी भीड़ देख कर और मौसी का रोना सुन कर कुछ भी जानना बाकी न रहा. भीतर प्रशांत की मृतदेह पर गिरती, पछाड़ें खाती मौसी और पास ही खड़े आंसू बहाते मौसाजी को सांत्वना देना सचमुच असंभव था.

शब्द कभीकभी कितने बेमानी, कितने निरर्थक और कितने अक्षम हो जाते हैं, पहली बार इस बात का एहसास हुआ. भरी दोपहर में किस प्रकार उजाले पर कालिख पुत जाती है, हाथभर की दूरी पर खड़े लोग किस कदर नजर आते हैं, गुजरे व्यक्ति के साथ खुद भी मर जाने की इच्छा किस प्रकार बलवती हो उठती है, मुंहबोली बहन हो कर मैं इन अनुभूतियों के दौर से गुजर रही थी. सगे मांबाप के दुख का तो कोई ओरछोर ही नहीं था.

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

Raksha Bandhan 2024 : मुझे जवाब दो- क्या शोभा अपने भाई को समझा पाई

‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक शोभा.’’

Raksha Bandhan 2024 : अंतत- क्या भाई के जुल्मों का जवाब दे पाई माधवी

बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

पिताजी दूसरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘देखो, यहां यह सब नाटक करने की जरूरत नहीं है. मेरा फैसला तुम ने सुन लिया है, जा कर अपनी मां से कह देना कि मेरा उन से हर रिश्ता बहुत पहले ही खत्म हो गया था. टूटे हुए रिश्ते की डोर को जोड़ने का प्रयास व्यर्थ है. रही बात कन्यादान की, यह काम कोई पड़ोसी भी कर सकता है.’’

‘‘रघुवीर, तुझे क्या हो गया है,’’ दादी ने सहसा पिताजी को डपट दिया.

मां और भैया के साथ मैं भी वहां उपस्थित थी. लेकिन पिताजी का मिजाज देख कर उन्हें टोकने या कुछ कहने का साहस हम लोगों में नहीं था. उन के गुस्से से सभी डरते थे, यहां तक कि उन्हें जन्म देने वाली दादी भी.

मगर इस समय उन के लिए चुप रहना कठिन हो गया था. आखिर तपन भी तो उन का नाती था. उसे दुत्कारा जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और बोलीं, ‘‘तपन जब इतना कह रहा है तो तू मान क्यों नहीं जाता. आखिर तान्या तेरी भांजी है.’’

‘‘मां, तुम चुप रहो,’’ दादी के हस्तक्षेप से पिताजी बौखला उठे, ‘‘तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं ने तुम्हें तो कभी वहां जाने से मना नहीं किया. लेकिन मैं नहीं जाऊंगा. मेरी कोई बहन नहीं, कोई भांजी नहीं.’’

‘‘अब चुप भी कर,’’ दादी ने झिड़क कर कहा, ‘‘खून के रिश्ते इस तरह तोड़ने से टूट नहीं जाते और फिर मैं अभी जिंदा हूं, तुझे और माधवी को मैं ने अपनी कोख से जना है. तुम दोनों मेरे लिए एकसमान हो. तुझे भांजी का कन्यादान करने जाना होगा.’’

‘‘मैं नहीं जाऊंगा,’’ पिताजी बोले, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि सबकुछ जानने के बाद भी तुम ऐसा क्यों कह रही हो.’’

‘‘मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि माधवी मेरी बेटी है और तेरी बहन और तुझे उस ने अपनी बेटी का कन्यादान करने के लिए बुलाया है,’’ दादी के स्वर में आवेश और खिन्नता थी, ‘‘तू कैसा भाई है. क्या तेरे सीने में दिल नहीं. एक जरा सी बात को बरसों से सीने से लगाए बैठा है.’’

‘‘जरा सी बात?’’ पिताजी चिढ़ गए थे, ‘‘जाने दो, मां, क्यों मेरा मुंह खुलवाना चाहती हो. तुम्हें जो करना है करो, पर मुझे मजबूर मत करो,’’ कह कर वे झटके से बाहर चले गए.

दादी एक ठंडी सांस भर कर मौन हो गईं. तपन का चेहरा यों हो गया जैसे वह अभी रो देगा. दादी उसे दिलासा देने लगीं तो वह सचमुच ही उन के कंधे पर सिर रख कर फूट पड़ा, ‘‘नानीजी, ऐसा क्यों हो रहा है. क्या मामाजी हमें कभी माफ नहीं करेंगे. अब लौट कर मां को क्या मुंह दिखाऊंगा. उन्होंने तो पहले ही शंका व्यक्त की थी, पर मैं ने कहा कि मामाजी को ले कर ही लौटूंगा.’’

‘‘धैर्य रख, बेटा, मैं तेरे मन की व्यथा समझती हूं. क्या कहूं, इस रघुवीर को. इस की अक्ल पर तो पत्थर पड़ गए हैं. अपनी ही बहन को अपना दुश्मन समझ बैठा है,’’ दादी ने तपन के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘खैर, तू चिंता मत कर, अपनी मां से कहना वह निश्चिंत हो कर विवाह की तैयारी करे, सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं धीरे से तपन के पास जा बैठी और बोली, ‘‘बूआ से कहना, दीदी की शादी में मैं और समीर भैया भी दादी के साथ आएंगे.’’

तपन हौले से मुसकरा दिया. उसे इस बात से खुशी हुई थी. वह उसी समय वापस जाने की तैयारी करने लगा. हम सब ने उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहा, आखिर वह हमारे यहां पहली बार आया था. पर तपन ने यह कह इनकार कर दिया कि वहां बहुत से काम पड़े हैं. आखिर उसे ही तो मां के साथ विवाह की सारी तैयारियां पूरी करनी हैं.

तपन का कहना सही था. फिर उस से रुकने का आग्रह किसी ने नहीं किया और वह चला गया.

तपन के अचानक आगमन से घर में एक अव्यक्त तनाव सा छा गया था. उस के जाने के बाद सबकुछ फिर सहज हो गया. पर मैं तपन के विषय में ही सोचती रही. वह मुझ से 2 वर्ष छोटा था, मगर परिस्थितियों ने उसे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था. कितनी उम्मीदें ले कर वह यहां आया था और किस तरह नाउम्मीद हो कर गया. दादी ने उसे एक आस तो बंधा दी पर क्या वे पिताजी के इनकार को इकरार में बदल पाएंगी?

मुझे यह सवाल भीतर तक मथ रहा था. पिताजी के हठी स्वभाव से सभी भलीभांति परिचित थे. मैं खुल कर उन से कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा सकी, लेकिन उन के फैसले के सख्त खिलाफ थी.

दादी ने ठीक ही तो कहा था कि खून के रिश्ते तोड़ने से टूट नहीं जाते. क्या पिताजी इस बात को नहीं समझते. वे खूब समझते हैं. तब क्या यह उन के भीतर का अहंकार है या अब तक वर्षों पूर्व हुए हादसे से उबर नहीं सके हैं? शायद दोनों ही बातें थीं. पिताजी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे भूल पाना इतना सहज भी तो नहीं था. हां, वे हृदय की विशालता का परिचय दे कर सबकुछ बिसरा तो सकते थे, किंतु यह न हो सका.

मैं नहीं जानती कि वास्तव में हुआ क्या था और दोष किस का था. यह घटना मेरे जन्म से भी पहले की है. मैं 20 की होने को आई हूं. मैं ने तो जो कुछ जानासुना, दादी के मुंह से ही सुना. एक बार नहीं, बल्कि कईकई बार दादी ने मुझे वह कहानी सुनाई. कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ, दादी, पिताजी, बूआ और फूफा का भोगा हुआ यथार्थ.

दादी कहतीं कि फूफा बेकुसूर थे. लेकिन पिताजी कहते, सारा दोष उन्हीं का था. उन्होंने ही फर्म से गबन किया था. मैं अब तक समझ नहीं पाई, किसे सच मानूं? हां, इतना अवश्य जानती हूं, दोष चाहे किसी का भी रहा हो, सजा दोनों ने ही पाई. इधर पिताजी ने बहन और जीजा का साथ खोया तो उधर बूआ ने भाई का साथ छोड़ा और पति को हमेशा के लिए खो दिया. निर्दोष बूआ दोनों ही तरफ से छली गईं.

मेरा मन उस अतीत की ओर लौटने लगा, जो अपने भीतर दुख के अनेक प्रसंग समेटे हुए था. दादी के कुल 3 बच्चे थे, सब से बड़े ताऊजी, फिर बूआ और उस के बाद पिताजी. तीनों पढ़ेपलेबढ़े, शादियां हुईं.

उन दिनों ताऊजी और पिताजी ने मिल कर एक फर्म खोली थी. लेकिन अर्थाभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसी समय फूफाजी ने अपना कुछ पैसा फर्म में लगाने की इच्छा व्यक्त की. ताऊजी और पिताजी को और क्या चाहिए था, उन्होंने फूफाजी को हाथोंहाथ लिया. इस तरह साझे में शुरू हुआ व्यवसाय कुछ ही समय में चमक उठा और फलनेफूलने लगा. काम फैल जाने से तीनों साझेदारों की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी.

औफिस का अधिकतर काम फूफाजी संभालते थे. पिताजी और ताऊजी बाहर का काम देखते थे. कुल मिला कर सबकुछ बहुत ठीकठाक चल रहा था. मगर अचानक ऐसा हुआ कि सब गड़बड़ा गया. ऐसी किसी घटना की, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

तमाम हेराफेरी औफिस की फाइलों में हुई थी और वे सब फाइलें यानी कि सभी दस्तावेज फूफाजी के अधिकार में थे. आखिरकार शक की पहली उंगली उन पर ही उठी. हालांकि फूफाजी ने इस बात से अनभिज्ञता प्रकट की थी और अपनेआप को निर्दोष ठहराया था. पर चूंकि फाइलें उन्हीं की निगरानी में थीं, तो बिना उन की अनुमति या जानकारी के कोई उन दस्तावेजों में हेराफेरी नहीं कर सकता था.

लेकिन जाली दस्तावेजों और फर्जी बिलों ने फूफाजी को पूरी तरह संदेह के घेरे में ला खड़ा किया था. सवाल यह था कि यदि उन्होंने हेराफेरी नहीं की तो किस ने की? जहां तक पिताजी और ताऊजी का सवाल था, वे इस मामले से कहीं भी जुड़े हुए नहीं थे और न ही उन के खिलाफ कोई प्रमाण था. प्रमाण तो कोई फूफाजी के खिलाफ भी नहीं मिला था, लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि अगर फर्म का रुपया उन्होंने नहीं लिया तो फिर कहां गया? ऐसी ही दलीलों ने फूफाजी को परास्त कर दिया था. फिर भी वे सब को यही विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहे कि वे निर्दोष हैं और जो कुछ भी हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ नहीं जानते.

इन घटनाओं ने जहां एक ओर पिताजी को स्तब्ध और गुमसुम बना दिया था, वहीं ताऊजी उत्तेजित थे और फूफाजी से बेहद चिढ़े थे. जबतब वे भड़क उठते, ‘यह धीरेंद्र तो हमें ही बदनाम करने पर तुला हुआ है. अगर इस पर विश्वास न होता तो हम सबकुछ इसे कैसे सौंप देते. अब जब सचाई सामने आ गई है तो दुहाई देता फिर रहा है कि निर्दोष है. क्या हम दोषी हैं? क्या यह हेराफेरी हम ने किया है?

‘मुझे तो इस आदमी पर शुरू से ही शक था, इस ने सबकुछ पहले ही सोचा हुआ था. हम इस की मीठीमीठी बातों में आ गए. इस ने अपने पैसे लगा कर हमें एहसान के नीचे दबा देना चाहा. सोचा होगा कि पकड़ा भी गया तो बहन का लिहाज कर के हम चुप कर जाएंगे. मगर उस की सोची सारी बातें उलटी हो गईं, इसलिए अब अनापशनाप बकता फिर रहा है.’

एक बार तो ताऊजी ने यहां तक कह दिया था, ‘हमें इस आदमी को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.’

लेकिन दादी ने कड़ा विरोध किया था. पिताजी को भी यह बात पसंद नहीं आई कि यदि मामला पुलिस में चला गया तो पूरे परिवार की बदनामी होगी.

बात घर से बाहर न जाने पाई, लेकिन इस घटना ने चारदीवारी के भीतर भारी उथलपुथल मचा दी थी. घर का हरेक प्राणी त्रस्त व पीडि़त था. पिताजी के मन को ऐसा आघात लगा कि वे हर ओर से विरक्त हो गए. उन्हें फर्म के नुकसान और बदनामी की उतनी चिंता नहीं थी, जितना कि विश्वास के टूट जाने का दुख था. रुपया तो फिर से कमाया जा सकता था. मगर विश्वास? उन्होंने फूफाजी पर बड़े भाई से भी अधिक विश्वास किया था. बड़ा भाई ऐसा करता तो शायद उन्हें इतनी पीड़ा न होती, मगर फूफाजी ऐसा करेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था.

उधर फूफाजी भी कम निराश नहीं थे. वे किसी को भी अपनी नेकनीयती का विश्वास नहीं दिला पाए थे. दुखी हो कर उन्होंने यह जगह, यह शहर ही छोड़ देने का फैसला कर लिया. यहां बदनामी के सिवा अब धरा ही क्या था. अपने, पराए सभी तो उन के विरुद्ध हो गए थे. वे बूआ को लेकर अपने एक मित्र के पास अहमदाबाद चले गए.

दादी बतातीं कि जाने से पूर्व फूफाजी उन के पास आए थे और रोरो कहा था, ‘सब लोग मुझे चोर समझते हैं, लेकिन मैं ने गबन नहीं किया. परिस्थितियों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है. मैं चाह कर भी इस कलंक को धो नहीं पाया. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं. मैं ने उन्हें हमेशा अपना भाई ही समझा है. क्या मैं भाइयों के साथ ऐसा कर सकता हूं. क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?’

‘मुझे विश्वास है, बेटा, मुझे विश्वास है कि तुम वैसे नहीं हो, जैसा सब समझते हैं. पर मैं भी तुम्हारी ही तरह असहाय हूं. मगर इतना जानती हूं, झूठ के पैर नहीं होते. सचाई एक न एक दिन जरूर सामने आएगी. और तब ये ही लोग पछताएंगे,’ दादी ने विश्वासपूर्ण ढंग से घोषणा की थी.

व्यवसाय से पिताजी का मन उचट गया था, उन्होंने फर्म बेच देने का प्रस्ताव रखा. ताऊजी भी इस के लिए राजी हो गए. गबन और बदनामी के कारण फर्म की जो आधीपौनी कीमत मिली, उसे ही स्वीकार कर लेना पड़ा.

पिताजी ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली, जबकि ताऊजी का मन अभी तक व्यवसाय में ही रमा हुआ था. वे पिताजी के साथ कोई नया काम शुरू करना चाहते थे. किंतु उन के इनकार के बाद उन्होंने अकेले ही काम शुरू करने का निश्चय कर लिया.

फर्म के बिकने के बाद जो पैसा मिला, उस का एक हिस्सा पिताजी ने फूफाजी को भिजवा दिया. हालांकि यह बात ताऊजी को पसंद नहीं आई, मगर पिताजी का कहना था, ‘उस ने हमारे साथ जो कुछ किया, उस का हिस्सा ले कर वही कुछ हम उस के साथ करेंगे तो हम में और उस में अंतर कहां रहा. नहीं, ये पैसे मेरे लिए हराम हैं.’

किंतु लौटती डाक से वह ड्राफ्ट वापस आ गया था और साथ में थी, फूफाजी द्वारा लिखी एक छोटी सी चिट…

‘पैसे मैं वापस भेज रहा हूं इस आशा से कि आप इसे स्वीकार कर लेंगे. अब इस पैसे पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. फर्म में जो कुछ भी हुआ, उस की नैतिक जिम्मेदारी से मैं मुक्त नहीं हो सकता. यदि इन पैसों से उस नुकसान की थोड़ी सी भी भरपाई हो जाए तो मुझे बेहद खुशी होगी. वक्त ने साथ दिया तो मैं पाईपाई चुका दूंगा, क्योंकि जो नुकसान हुआ है, वह आप का ही नहीं, मेरा, हम सब का हुआ है.’

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

Raksha Bandhan 2024 : कन्यादान- भाई और भाभी का क्या था फैसला

अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’

‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’

मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था.

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’

‘‘आप तो बस.’’

तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

‘‘अरे बेटा, खुशखबरी है. अपनी श्रेयसी की शादी का कार्ड है.’’

छवि खुश हो कर बोली, ‘‘वाउ, मजा आ गया.’’

छवि के जाने के बाद मंजुला बोली, ‘‘क्या भाईसाहब एक बार भी फोन नहीं कर सकते थे?’’

‘‘तो क्या हुआ? लो, मैं अपनी ओर से भाई साहब को फोन कर के बधाई दे देता हूं.’’

मन ही मन अपमानित महसूस करती हुई मंजुला वहां से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘साले साहब, बहुतबहुत बधाई. आप का भेजा हुआ कार्ड मिल गया. श्रेयसी की तरह उस की शादी का कार्ड भी बहुत सुंदर है. मेरे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच कहिएगा. लड़के के बारे में आप ने अच्छी तरह से जानकारी तो कर ही ली होगी?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. महाराजजी ने सब पक्का कर दिया है.’’

‘‘एक बात बताइए, आप ने श्रेयसी से पूछा कि नहीं?’’

‘‘उस से क्या पूछना? ऐसा राजकुमार सा छोरा सब को नहीं मिलता. अपनी श्रेयसी तो सीधे अमेरिका जाएगी. इसी वजह से जल्दबाजी में 15 दिनों के अंदर शादी करनी पड़ रही है.’’

‘‘अच्छा, श्रेयसी कहां है, फोन दीजिए उसे, बधाई तो दे दें.’’

‘‘देखिए अनिरुद्धजी, बधाईवधाई रहने दीजिए. पहले मेरी बात सुनिए, हमारे हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है, लेकिन भई, आप की और मेरी सोच में बहुत अंतर है. आप तो पहले आयुषी से नौकरी करवाएंगे, फिर उस के लिए लड़का खोजेंगे या फिर उस की पसंद के लड़के से उस की शादी कर देंगे. परंतु मैं तो जल्द से जल्द बेटी का कन्यादान कर के बोझ को सिर से उतारना चाहता हूं. मेरी तो रातों की नींद उड़ी हुई थी. अब तो उस की डोली विदा करने के बाद ही चैन कीनींद सोऊंगा. अच्छा, ठीक है, अब मैं फोन रखता हूं.’’

‘‘छवि, तुम्हारी आदरणीया मम्मीजी कहां गईं? अपने भाईसाहब या भाभी से उन्होंने बात भी नहीं की, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’ मंजुला को आता देख अनिरुद्ध बोले, ‘‘आइए श्रीमतीजी, चाय आप के इंतजार में उदास हो कर ठंडी हुई जा रही है.’’

मंजल का मुंह उतरा हुआ था पर शादी की खबर से उत्साहित छवि बोली, ‘‘मुझे तो बहुत सारी खरीदारी करनी है, आखिर मेरी प्यारी ननद की शादी जो है.’’

‘‘हांहां, कर लेना, जो चाहे वह खरीद लेना,’’ अनिरुद्ध बोले.

बेटा उन्मुक्त मौका देखते ही बोला, ‘‘पापा, आप का इस बार कोई भी बहाना नहीं चलेगा, आप को नया सूट बनवाना ही पड़ेगा.’’

‘‘न, यार, मुझे कौन देखेगा?’’ मंजुला की ओर निगाहें कर के अनिरुद्ध बोले, ‘‘भीड़ में सब की निगाहें लड़की की सुंदर सी बूआ और भाभी पर होंगी. और हां, आयुषी कहां है? वह तो शादी की खबर सुनते ही कितना हंगामा करेगी.’’

मंजुला चिंतामग्न हो कर बोली, ‘‘वह कालेज गई है, उस का आज कोई लैक्चर था.’’

मंजुला सोचने लगी कि बड़े भाईसाहब क्या कभी नहीं बदलेंगे. वे हमेशा अपनी तानाशाही ही चलाते रहेंगे. वे रूढि़वादिता और जातिवाद के चंगुल से अपने को कभी भी बाहर नहीं निकाल पाएंगे.

फिर वह मन ही मन शादी होने वाले खर्च का हिसाबकिताब लगाने लगी. तभी आयुषी कालेज से लौट कर आ गई. जैसे ही उस ने श्रेयसी की शादी का कार्ड देखा, उस का चेहरा एकदम बदरंग हो उठा. उस के मुंह से एकबारगी निकल पड़ा, ‘‘श्रेयसी की शादी’’ फिर वह एकदम से चुप रह गई.

मंजुला ने पूछा कि क्या कह रही हो? तो वह बात बदलते हुए बोली, ‘‘पापा, इस बार आप की कोई कंजूसी नहीं चलेगी. मेरा और भाभी का लहंगा बनेगा और सुन लीजिए, डियर मौम के लिए भी इस बार महंगी वाली खूबसूरत कांजीवरम साड़ी खरीदेंगे. हर बार जाने क्या ऊटपटांग पुरानी सी साड़ी पहन कर खड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘आयुषी, तुम बहुत बकबक करती हो. पैसे पेड़ पर लगते हैं न, कि हिला दिया और बरस पड़े.’’ मंजुला अपनी खीझ निकालती हुई बोली, ‘‘श्रेयसी को कुछ उपहार देने के लिए भी तो सोचना है.’’

‘‘श्रीमतीजी आप इतनी चिंतित क्यों हैं?’’

‘‘मेरी सुनता कौन है? आप को तो अपनी आयुषी की कोई फिक्र ही नहीं है.’’

‘‘जब वह शादी के लिए तैयार होगी, तभी तो उस के लिए लड़का देखेंगे.’’

‘‘इस साल 24 की हो जाएगी. मेरी तो रातों की नींद उड़ जाती है.’’

‘‘तुम अपने भाईसाहब की असली शागिर्द हो. उन की भी नींद उड़ी रहती है.’’ यह कह कर अनिरुद्ध अपने लैपटौप में कुछ करने में व्यस्त हो गए.

मंजुला इस बीच श्रेयसी के बचपन में खो गई. उस ने श्रेयसी को पालपोस कर बड़ा किया है. भाभी के जुड़वां बच्चे हुए थे. वे 2 बच्चों को एकसाथ कैसे पालतीं, इसीलिए वह श्रेयसी को अपने साथ ले आई थी. उस ने रातदिन एक कर के उसे पालपोसकर बड़ा किया. जब वह 6 साल की हो गई तो भाभी बोलीं, ‘यह मेरी बेटी है, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी है.’ और वे उसे अपने साथ ले गई थीं.

श्रेयसी के जाने के बाद वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस के मन में श्रेयसी के प्रति अतिरिक्त ममत्व था. श्रेयसी बहुत दिनों तक मंजुला को ही अपनी मां समझती रही थी. मंजुला छुट्टियों में श्रेयसी को बुला लेती थी.

श्रेयसी आती तो उन्मुक्त और आयुषी उस के हाथ से खिलौना झपट कर छीन लेते. उसे कोई चीज छूने नहीं देते. इस बात पर मंजुला जब उन्मुक्त को डांट रही थी तो वह धीरे से बोली थी, ‘मम्मी, मुझे तो आदत है. वहां प्रखर मेरे हाथ से सब खिलौने छीन लेता है. चाहे खाने की हों या खेलने की, सब चीजें झपट लेता है. अम्मा भी कहती हैं कि वह भाई है, उसे दे दो.’

यह सब कहते हुए श्रेयसी की आंखें नम हो उठी थीं. तभी वह मंजुला से लिपट कर बोली थी, ‘मम्मी, मेरा घर कहां है? आप अच्छी मम्मी हैं. वे गंदी अम्मा हैं, मुझे मारती हैं.’

‘‘मैडम, क्या बात है बड़ी अपसैट दिख रही हो?’’ अनिरुद्ध की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी. ‘‘सुनिए जी, श्रेयसी अपनी ससुराल में खुश तो रहेगी न? मेरे मन में अपराधबोध है कि मैं ने उसे अपने से दूर कर के भाभी के पास क्यों भेजा?’’

‘‘तुम तो फुजूल की बात करती हो. वह उन की बेटी है, जैसा वे चाहें वैसा करें.’’

जैसेजैसे श्रेयसी बड़ी होती गई, गुमसुम और चुप होती गई. श्रेयसी की आंखों का सूनापन देख मंजुला अपराधबोध से भर जाती. वह सोचती कि यदि वह उसे अपने पास रख सकती तो शायद श्रेयसी खुश रहती. भाभी के कड़क और दकियानूसी स्वभाव के कारण श्रेयसी सब से दूर, अकेली खड़ी दिखाई पड़ती. हंसनेचहचहाने की उम्र में भी उस के चेहरे पर गंभीरता का आवरण होता था.

उन्मुक्त और आयुषी धीरेधीरे बड़े होते गए और भाईसाहब व भाभी ने अपने बच्चों को मंजुला के यहां भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

उन्मुक्त की शादी में श्रेयसी को बहुत दिनों बाद देखा था मंजुला ने. श्रेयसी के लिए फैशनेबल कपड़े पहनना मना था. उसे केवल सलवारकुरता पहनने की इजाजत थी. दुपट्टा हर समय पहनना जरूरी था. भाभी की हर समय की डांटफटकार से श्रेयसी को अकेले में आंसू बहाते हुए देख, वह भी रो पड़ी थी.

उस के आंसू देख भाभी गरम हो कर बोली थीं, ‘अपने टेसुए किसी और को दिखाना, अपनी चालचलन ठीक रखो. लड़कियों का जोरजोर से हंसना अच्छा नहीं होता. इतनी जोर के ठहाके क्यों लगाती हो? चल कर नाश्ता लगाओ.’

यदि वह उन्मुक्त से मजाक करती, तो भाभी जोर से डांट कर कहतीं, ‘लड़कों के बीच घुसी रहती हो, चलो, ढोलक बजाओ और औरतों के साथ बैठो.’

ऐसी बातें सुन कर सब का मन खराब हो गया था. भैयाभाभी के चले जाने के बाद सब ने चैन की सांस ली थी. सब अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो गए थे. प्यारी सी बहू छवि के आने के बाद घर में रौनक आ गई थी.

8 महीने बीते थे कि एक दिन मंजुला के मोबाइल पर भाभी का फोन आया, ‘जीजी, श्रेयसी रिसर्च करना चाहती है. इसलिए हम लोग आप पर विश्वास कर के उसे लखनऊ भेज रहे हैं. वह लड़कियों वाले होस्टल में रहेगी. आप लोगों के विश्वास पर ही उसे आगे पढ़ने के लिए भेज रहे हैं. मेरा तो बहुत जी घबरा रहा है. समय बहुत खराब है. आजकल लड़कियों के कदम बहकते देर नहीं लगती है.’

‘भाभी, घबराने की कोई बात नहीं है. श्रेयसी बहुत समझदार है. आप ठीक समझो तो श्रेयसी को मेरे घर पर ही रहने दो. मुझे अच्छा ही लगेगा. छवि और आयुषी के साथ उस को खूब अच्छा लगेगा.’

भाईसाहब और भाभी श्रेयसी को ले कर आए. 3 दिन रह कर होस्टल में उस की सब व्यवस्था करवाई. चुपचुप, सहमी और गंभीर श्रेयसी को देख कर मन में प्रश्नचिह्न उठा, समझ में नहीं आया कि क्या बात है. एक रात अकेले में भाभी अपने मन का गुबार निकालते हुए बोली थीं, ‘जीजी, अब तुम से क्या छिपाएं. श्रेयसी के पीछे एक बदमाश लड़का पड़ा हुआ है, इसलिए इस को वहां से दूर भेजना आवश्यक हो गया था. हम लोगों ने बहुत हाथपैर मारे, लेकिन कहीं भी रिश्ता तय नहीं हो पाया. इसलिए मजबूरी में यहां ऐडमिशन करवाना पड़ रहा है. इस की सुंदरता इस की दुश्मन बन बैठी है.’

सच ही श्रेयसी को कुदरत ने बड़े मन से गढ़ा था. दूध सा गोरा, सफेद संगमरमर सा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, लंबे व काले घुंघराले बाल. बिना मेकअप के भी वह परी सी दिखती थी.वे आगे बोली थीं, ‘जीजी, जीजाजी तो उसी कालेज में ही प्रोफैसर हैं. वे श्रेयसी पर निगाह रखेंगे. हम इस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. जैसे ही कहीं बात बनी, तुरंत शादी कर देंगे.’ भाभी अपने दिल का बोझ हलका कर के भाईसाहब के साथ अपने घर चली गई थीं.

श्रेयसी होस्टल में रह रही थी. उस की रूमपार्टनर जूली थी, जिस से उस की दोस्ती हो गई थी. उस का भाई रौबर्ट उसी कालेज में लैक्चरर था. जूली के साथ ही श्रेयसी उस के भाई से मिली. रौबर्ट पहली नजर में ही श्रेयसी की सुंदरता पर मर मिटा. शायद मन ही मन श्रेयसी को भी वह अच्छा लगा था.

रौबर्ट ईसाई था परंतु सुलझा और समझदार युवक था. वह अनिरुद्ध से कालेज में कई बार मिल चुका था. अनिरुद्ध उसे पसंद भी करते थे. भाईसाहब और भाभी के लिए उस का ईसाई होना सब से बड़ा दुर्गुण था. श्रेयसी छोटे शहर और भाभी के अनावश्यक प्रतिबंधों से आजाद होने के बाद होस्टल के रंगबिरंगे माहौल में जल्द ही रम गई. उस के तो पर ही निकल पड़े. पहले तो हर शनिवार की शाम को आती रही, फिर धीरेधीरे उस ने आना बंद कर दिया.

आयुषी और छवि जब भी उस से मिलने गए, वह उन्हें मिली नहीं. फोन पर कभीकभी बात हो जाती तो अब उस के सुर बदल चुके थे. अब वह हौलीवुड फिल्में, पिकनिक, पीजा, बर्गर और पार्टी की बातें करने लगी थी.

उस को घर आए बहुत दिन हो गए थे, इसलिए एक दिन मंजुला ने खुद फोन कर के उस से आने को कहा. वह आई, जींसटौप में बहुत स्मार्ट लग रही थी. अनिरुद्ध उसे देख कर बड़े खुश हुए, ‘श्रेयसी, तुम होस्टल में रह कर बिलकुल बदल गई हो.’

‘फूफाजी, मेरी रूममेट जूली कहती है, ‘जैसा देश वैसा भेस’ समय के साथ कदम मिला कर चलो, तभी आगे बढ़ पाओगी. मैं सलवारसूट पहनती थी तो पूरे डिपार्टमैंट में मेरा नाम बहनजी पड़ गया था. सैमिनार में जाती, तो क्लास के लड़केलड़कियां खीखी कर हंसते थे, और मुझे हूट करते थे. मैं ने अपने पुराने चोले को उतार फेंका. इस में जूली ने मेरी बहुत मदद की.’

फिर वह होस्टल चली गई. एक शाम कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘मंजुला, तुम श्रेयसी को बुला कर एक दिन बात करो. आज स्टाफरूम में रौबर्ट के साथ श्रेयसी का नाम जोड़ कर लोग खुसुरफुसुर कर रहे थे. ये दोनों यहांवहां अकसर साथ में दिखाई भी पड़ जाते हैं.’

मंजुला परेशान हो उठी थी. उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘भाईसाहब और भाभी तो ये सब बातें सुन कर आपे से बाहर हो जाएंगे. उन्होंने तो हमीं लोगों की जिम्मेदारी पर उसे यहां छोड़ा था.’

‘हां, मैं भी यह सब देखसुन कर परेशान हूं. श्रेयसी के तो रंगढंग ही बदल गए हैं.’

वह मन ही मन सोचती रह गई कि एक शाम श्रेयसी अपनी दोस्त जूली के साथ उस की स्कूटी पर आ गई. सब की प्रश्नवाचक निगाहों का जवाब दे कर बोली, ‘बूआ, यह जूली है. इसे हिंदी नहीं आती, इसलिए यह मुझ से हिंदी सीख रही है. और यह मुझे फ्रैंच सिखा रही है. हम लोग लाइब्रेरी में पढ़तेपढ़ते बोर हो गए थे, तो जूली बोली कि चलो, अपनी फैमिली से मिलवाओ. बस, मैं इसे ले कर यहां आ गई.’

‘अच्छा किया, जो तुम आ गईं. मुझे तुम से कुछ बात भी करनी है. तुम्हारी यह दोस्त हम लोगों का खाना पसंद करे तो खाना खा कर जाना.’

जूली खाने की बात सुन कर खिल उठी, ‘मुझे इंडियन खाना बहुत पसंद है. मेरी मां भी इंडियन खाना कभीकभी बनाती हैं. मेरे पापा तो इंडिया में रहते हुए पूरे शाकाहारी बन गए हैं.’

‘श्रेयसी, इधर मेरे साथ अंदर आना. तुम से कुछ बात करनी है,’ मंजुला ने कहा.

‘बूआ, क्या बात है? बड़ी गंभीर दिख रही हैं आप, कोई खास बात?’

‘साफसाफ शब्दों में कहूं तो तेरा और रौबर्ट का कोई चक्कर चल रहा है क्या?’

उस के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख समझ में आ गया था कि बात सच है. वह अपने को संभाल कर बोली, ‘बूआ, ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप सोच रही हैं. उस से एकाध बार हायहैलो जूली की वजह से हुई है, बस.’ इतना कह

कर वह तेजी से जूली के पास जा कर बैठ गई.

खाने की मेज पर श्रेयसी का तमतमाया चेहरा देख पहले तो सब शांत रहे, फिर थोड़ी ही देर में शुरू हो गया बातों का सिलसिला. फिल्म, फैशन, एसएमएस, फेसबुक, यूट्यूब की गौसिप पर कहकहे. जूली हिंदी अच्छी तरह नहीं समझ पा रही थी, इसलिए वह खाने का स्वाद लेने में लगी हुई थी. मिर्च के कारण उस की आंख, नाक और कान सब लाल हो रहे थे. चेहरा सुर्ख हो रहा था. खाना खाने के बाद आंखों के आंसू पोंछते हुए वह बोली, ‘वैरी टैस्टी, यमी फूड.’ उस की बात सुनते ही सब जोर से हंस पड़े थे. श्रेयसी किचन से रसगुल्ला लाई और उस के मुंह में डाल कर बोली, ‘पहले इस को खाओ, फिर बोलना.’

श्रेयसी जूली की स्कूटी पर बैठी और बाय कहती हुई चली गई. अनिरुद्ध बोले, ‘जूली अच्छी लड़की है.’

अगले दिन वे कालेज की सीढि़यां चढ़ रहे थे, उसी समय प्रोफैसर रंजन तेजी से उन की तरफ आए, ‘क्यों अनिरुद्धजी, श्रेयसी तो आप के किसी रिलेशन में है न. आजकल रौबर्ट के साथ उस के बड़े चरचे हैं?’ अनिरुद्ध कट कर रह गए, उन्हें तुरंत कोई जवाब न सूझा. धीरे से अच्छा कह कर वे अपने कमरे में चले गए थे.

उसी शाम रौबर्ट और श्रेयसी को फिर से साथ देख कर उन का माथा ठनका था. वे रौबर्ट के मातापिता से मिलने के लिए शाम को अचानक रौबर्ट के घर पहुंच गए. रौबर्ट उन्हें अपने घर पर आया देख, थोड़ा घबराया, परंतु उस के पिता मैथ्यू और मां जैकलीन ने खूब स्वागतसत्कार किया. मैथ्यू रिटायर्ड फौजी थे. अब वे एक सिक्योरिटी एजेंसी में मैनेजर की हैसियत से काम कर रहे थे. जैकलीन एक कालेज में इंगलिश की टीचर हैं. गरमगरम पकौडि़यों और चटनी का नाश्ता कर के अनिरुद्ध का मन खुश हो गया था.

वे प्रसन्नमन से गुनगुनाते हुए अपने घर पहुंचे. ‘क्या बात है? आज बड़े खुश दिख रहे हैं.’

‘मंजू, आज रौबर्ट की मां के हाथ की पकौडि़यां खा कर मजा आ गया.’

‘आप रौबर्ट के घर पहुंच गए क्या?’

‘हांहां, बड़े अच्छे लोग हैं.’

‘आप ने उन लोगों से श्रेयसी के बारे में बात कर ली क्या?’

‘तुम तो मुझे हमेशा बेवकूफ ही समझती हो. तुम्हारे आदरणीय भाईसाहब की अनुमति के बिना भला मैं कौन होता हूं, किसी से बात करने वाला? लेकिन अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि एक बार तुम्हारे भाईसाहब से बात करनी ही पड़ेगी.’ मंजुला नाराजगीभरे स्वर में बोली, ‘देखिए, आप को मेरा वचन है कि आप इस पचड़े में पड़ कर उन से बात न करें. आप मेरे भाईसाहब को नहीं जानते, किसी को बुखार भी आ जाए तो सीधे अपने महाराजजी के पास भागेंगे. उन के पास जन्मकुंडली दिखा कर ग्रहों की दशा पूछेंगे. उन से भभूत ला कर बीमार को खिलाएंगे और घर में ग्रहशांति की पूजापाठ करवाएंगे. डाक्टर के पास तो वे तब जाते हैं जब बीमारी कंट्रोल से बाहर हो जाती है.

‘जब से मैं ने होश संभाला है, भाईसाहब को कथा, भागवत, प्रवचन जैसे आयोजनों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हुए देखा है. वे पंडे, पुजारी और कथावाचकों को घर पर बुला कर अपने को धन्य मानते हैं. उन सब को भरपूर दानदक्षिणा दे कर वे बहुत खुश होते हैं.’

‘मंजुला, तुम समझती क्यों नहीं हो? यह श्रेयसी के जीवन का सवाल है. रौबर्ट के साथसाथ उस का परिवार भी बहुत अच्छा है.’

‘प्लीज, आप समझते क्यों नहीं हैं.

2-4 दिनों पहले ही भाभी का फोन आया था कि जीजी, आप के भाईसाहब एक बहुत ही पहुंचे हुए महात्माजी को ले कर घर में आए थे. उन्होंने उन की जन्मकुंडली देख कर बताया है कि आप की बिटिया का मंगल नीच स्थान में है, इसलिए मंगल की ग्रहशांति की पूजा जब तक नहीं होगी, तब तक शादी के लिए आप के सारे प्रयास विफल होंगे.

‘जीजी, महात्माजी बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे बहुत सुंदर कथा सुनाते हैं. उन के पंडाल में लाखों की भीड़ होती है. कह रहे थे, सेठजी दानदाताओं की सूची में शहरभर में आप का नाम सब से ऊपर रहना चाहिए. आप के भाईसाहब ने एक लाख रुपए की रसीद तुरंत कटवा ली. वे कह रहे थे कि शास्त्रों में लिखा है कि ‘दान दिए धन बढ़े’ दान से बड़ा कोई भी धर्म नहीं है.

‘महात्माजी खुश हो कर बोले थे कि सेठजी, आप की बिटिया अब मेरी बिटिया हुई, इसलिए आप बिलकुल चिंता न करें. उस के विवाह के लिए मैं खुद पूजापाठ करूंगा. आप को कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है.’ मंजुला अपने पति अनिरुद्ध को बताए जा रही थी, ‘भाभी कह रही थीं कि नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर महात्माजी भाईसाहब के हाथों से हवन करवाएंगे.’

‘वाह, आप के भाईसाहब का कोई जवाब नहीं है. अरे, जिन को महात्मा कहा जा रहा है वे महात्मा थोड़े ही हैं, वे तो ठग हैं, जो आम जनता को अपनी बातों के जाल में फंसा कर दिनदहाड़े ठगते हैं. छोड़ो, मेरा मूड खराब हो गया इस तरह की बेवकूफी की बातें सुन कर.’

‘इसीलिए तो आप से मैं कभी कुछ बताती ही नहीं हूं. जातिपांति के मामले में तो वे इतने कट्टर हैं कि घर या दुकान, कहीं भी नौकर या मजदूर रखने से पहले उस की जाति जरूर पूछेंगे.’ ‘मान गए आप के भाईसाहब को. वे आज भी 18वीं शताब्दी में जी रहे हैं. मेरा तो सिर भारी हो गया है. एक गिलास ठंडा पानी पिलाओ.’

‘अब तो आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि वे कितने रूढि़वादी और पुराने खयालों के हैं. आप भूल कर भी उन के सामने कभी भी ये सब बातें मत कीजिएगा.’

अनिरुद्ध बोले, ‘कम से कम एक बार श्रेयसी को अपने मन की बात भाईसाहब से कहनी चाहिए.’

‘अनिरुद्ध, आप समझते नहीं हैं, लड़की में परिवार वालों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं होती. उस के मन में समाज का डर, मांबाप की इज्जत चले जाने का ऐसा डर होता है कि वह अपने जीवन, प्यार और कैरियर सब की बलि दे कर खुद को सदा के लिए कुरबान कर देती है.’

‘इस का मतलब तो यह है कि बड़े भाईसाहब ने तुम्हारे साथ भी अन्याय किया था.’

‘मेरे साथ भला क्या अन्याय किया था?’ ‘तुम्हारी शादी जल्दी करने की हड़बड़ी देख मेरा माथा ठनका था. क्या सोचती हो, मैं नासमझ था. तुम्हारा उदास चेहरा, रातदिन तुम्हारी बहती आंखें, मुझे देखते ही तुम्हारी थरथराहट, संबंध बनाते समय तुम्हारी उदासीनता, तुम्हारी उपेक्षा, कमरा बंद कर के रोनाबिलखना, प्रथम रात्रि को ही तुम्हारी आंसुओं से भीगा हुआ तकिया देख कर मैं सब समझ गया था. ‘तुम्हारी भाभी का पकड़ कर फेरा डलवाना. तुम्हारे कानों में कभी दीदी फुसफुसा रही थीं तो कभी तुम्हारी बूआ. विदा के समय भाईसाहब के क्रोधित चेहरे ने तो पूरी तसवीर साफ कर दी थी. उन का बारबार कहना, ‘ससुराल में मेरी नाक मत कटवाना’ मेरे लिए काफी था.

‘मैं परेशान तो था, परंतु धैर्यपूर्वक तुम्हारे सभी कार्यकलापों को देखता रहा और चुप रहा. वह तो उन्मुक्त पैदा हुआ तो उस से ममता हो जाने के बाद तुम पूर्णरूप से मेरी हो पाई थीं.’ यह सब सुन कर मंजुला की अंतर्रात्मा कांप उठी थी. अनिरुद्ध ने तो आज उस की पूरी जन्मपत्री ही खोल कर पढ़ डाली थी. इधर उन्मुक्त और छवि शादी के लिए शौपिंग में लगे हुए थे. आयुषी भी अपने लिए लहंगा ले आई थी. परंतु अभी तक श्रेयसी से किसी की बात नहीं हो पाई थी, इसलिए मंजुला का मन उचटाउचटा सा था. एक दिन कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘‘रौबर्ट बहुत उदास था, उस ने बताया कि श्रेयसी के मम्मीपापा आए थे और उस को अपने साथ ले गए. उस के बाद से उस का फोन बंद है. सर, एक बार उस से बात करवा दीजिए.’’

उदास मन से ही सही, श्रेयसी को देने के लिए, मंजुला अच्छा सा सैट ले आई थी. शादी में 4-5 दिन ही बाकी थे कि मंजुला का फोन बज उठा. उधर भाईसाहब थे, ‘‘मंजुला, श्रेयसी घर से भाग गई. वह हम लोगों के लिए आज से मर चुकी है.’’ और उन्होंने फोन काट दिया था. घर में सन्नाटा छा गया था. सब एकदूसरे से मुंह चुरा रहे थे. मंजुला झटके से उठी, ‘‘अनिरुद्ध जल्दी चलिए.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हम दोनों श्रेयसी का कन्यादान ले कर उस को उस के प्यार से मिला दें. मुझे मालूम है, इस समय श्रेयसी कहां होगी. जल्दी चलिए, कहीं देर न हो जाए.’’ बरसों बाद आज मंजुला अपने साहस पर खुद हैरान थी.

उन्मुक्त बोला, ‘‘मां, भाई के बिना बहन की शादी अच्छी नहीं लगेगी. मैं भी चल रहा हूं. आप लोग जल्दी आइए, मैं गाड़ी निकालता हूं.’’

छवि और आयुषी जल्दीजल्दी लहंगा ले कर निकलीं. दोनों आपस में बात करने लगीं, ‘‘श्रेयसी दी, लहंगा पहन कर परी सी लगेंगी.’’ सब जल्दीजल्दी निकले और खिड़की से आए हवा के तेज झोंके ने श्रेयसी की शादी के कार्ड को कटीपतंग के समान घर से बाहर फेंक दिया था.

तलाक के बाद : आखिर अनिता से अरविंद क्या चाहता था ?

उस दिन इतवार था. अनीता अपने बालों में रम्मो से तेल लगता रही थी. बालों की जड़ों को 3-4 घंटे तेल मिल जाए, यही बहुत होता है. उस ने सोचा, दोपहर के भोजन से पहले नहाधो कर बाल सुखा लेगी. जब से ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली की इस नुक्कड़ की कोठी की रसोई वाली बरसाती किराए पर ली थी, तब से घर में कुछ शांति सी आ गई थी और घर का सा आराम मिला था. पुरानी दिल्ली के सदर बाजार में भले ही किराया यहां से आधा था पर हर समय की रोकटोक से अनीता परेशान रहती थी. इतनी पूछताछ तो घर पर मां भी नहीं करती थीं, जितनी वहां मकानमालकिन किया करती थी. हर समय की इसी पूछताछ से तंग आ कर उस ने वह मकान छोड़ा था.

अनीता का जब से अरविंद से तलाक हुआ था, तब से मां बराबर इसी सोच में रहती थीं कि जवान बेटी का अब क्या बनेगा. अगर अनीता कोई छुईमुई तो थी नहीं. स्वाभिमान खो कर पति के हाथों की कठपुतली बने रहना उसे कतई पसंद नहीं था, अपने बलबूते पर ही उस ने तलाक ले लिया था. एक बार तो अरविंद भी उस की हिम्मत का लोहा मान गया था. फिर भला ऐसी युवती को नौकरी की क्या कमी.

यह सच था कि पतिपत्नी के बीच की दरार को अरविंद की मां अपने होते हुए कभी भरने की सहिष्णुता नहीं कर सकती थीं. कचहरी में भी तारीख पर बेटे के साथ सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए स्वयं हाजिर हो जाती थीं. उन का यह दबदबा ही अनीता को खलता था और उधर उन्हें अपनी हुक्मउदूली करती बहू बेहद अनुशासनविहीन लगती थी. ऐसी बहू को अपने अनुशासित बेटे के साथ देखना वे हरगिज

बरदाश्त नहीं करती थीं. उन्हें धुन सवार थी कि वे अपने इकलौते बेटे का अपनी मनपसंद की लड़की से दोबारा विवाह करेंगी. एक बार वे बेटे की पसंद देख चुकी थीं. तब अनीता के बच्ची भी नहीं हुई थी.

उस के बाद फोन पर वह कभी बात भी करता तो हांहूं कर के बंद कर देता. सिर्फ उसे वहीं जाना है या वह किसी के साथ रेस्तरां में है. मैसेजों का जवाब देना बंद कर दिया था.

5-6 रोज के लिए मां के पास आई अनीता को जिस लापरवाही से अरविंद ने छोड़ा, वह अनीता के साथसाथ उस के पिता को भी बेहद अखरा था. कई हफ्ते बीत जाने पर मां ने अनीता को सम?ाया, ‘‘अरविंद लेने नहीं आया तो तू स्वयं भाई के साथ चली जा. तेरा पांव भी भारी है. ऐसी स्थिति में पति से इस तरह नाराज हो कर मायके में रह जाना ठीक नहीं है.’’

मगर आत्माभिमानी अनीता मां के बहुत सम?ाने पर भी नहीं गईर्, दिल्ली प्रशासन के कार्यालय में उस ने शादी से पहले नौकरी कर रखी थी. वहीं तो किसी काम से आता था अरविंद. उधर रोजरोज मां व भैया की नसीहतों से तंग आ कर वह इस रस्मों का सहारा मिलते ही दिल्ली के शाहपुर में एक कमरा व रसोई किराए पर ले कर रहने लगी थी. उन्हीं दिनों अरविंद ने मां के दबाव में आ कर अदालत में तलाक की अर्जी दे दी थी और अनीता के विरोध न करने पर उसे सहज ही तलाक मिल गया था. बेटी के लिए उसे हर माह 15000 रुपए मिलते थे जो उस समय ठीकठाक लगे थे.

सदर बाजार में वह घर बड़ा तो बहुत था पर वहां चारों तरफ परिवार मधुमक्खी के छत्ते की तरह बसे हुए थे और वे एकएक के खानपान, पहनावे, बनावशृंगार, आनेजाने वाला स्त्री है या पुरुष, रिश्तेदार हैं या मित्र, सब की खबर रखते थे.

एक बार हद से ज्यादा टोकना अनीता को अखर गया था. यह तब की बात है जब हरबंस उस के पास आ कर ठहरा था. गरमी के दिन थे. वह इंटरव्यू के सिलसिले में दिल्ली आया था. उस के पति के अच्छे मित्रों में हरबंस भी एक था. पतिपत्नी का अलगाव हो गया तो क्या, उस के प्रशंसक उस से अभी भी वैसी ही आत्मीयता बनाए हुए थे. हरबंस इन दिनों वाराणसी में था और किसी कंपनी में इंटरव्यू देने दिल्ली आया हुआ था. रात 11 बजे वह अनीता के मकान पर पहुंचा तो हवेली आधी से ज्यादा अंधकार में डूबी हुईर् थी. अनीता के कमरे के आगे खूब बड़ी छत थी और खुली हवा. अनीता ने हरबंस की खूब आवभगत की और अपने कमरे में उस के सोने की व्यवस्था कर स्वयं मौम के कमरे के फर्श पर बिस्तर लगा कर सो गई थी.

सुबह सूरज को जल देने के बहाने रोज आने वाली मकानमालकिन अनीता के कमरे के बाहर मरदाने जूते देख कर ठिठक गई. उस ने दरवाजा खोल कर देख लिया. चादर तान कर सोया वह 6 फुटा मरदाना शरीर उसे अचंभे और संशय में डाल गया. वह अरविंद तो नहीं था क्योंकि अरविंद होता तो अनीता भी साथ होती. वह सीधी अनीता की मौम के कमरे में जा पहुंची जो अभीअभी उठी थी. अनीता को देख उसे कुछ तो संतोष हुआ कि कोई ऐसीवैसी बात नहीं है क्योंकि किराएदारनी मां के कमरे में सो रही थी पर फिर भी उस ने पूछ लिया, ‘‘यह बाहर कौन सो रहा है?’’

‘‘मेरे पति के मित्र हैं, वाराणसी से रात को ही आए हैं.’’

‘‘पति के मित्र हैं तो पर यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘इंटरव्यू देने दिल्ली आए थे तो यहां मेरे पास ठर गए हैं.’’

‘‘पर जब तुम्हारा अपने पति से तलाक हो गया है तो उस के मित्र तुम्हारे पास क्यों आते हैं?’’ उस का पूछने का लहजा अखरने वाला था.

एक बार तो अनीता के मन में आया कि फटकार दे पर मेहमान के सामने चुप लगा गई. शायद हरबंस भी जाग गया था. वह उठ कर जिस अंदाज से अंगड़ाई ले रहा था उसे देख कर लगता था कि  उस ने सब सुन लिया है.

नाश्तेपानी के बाद जाते समय वह बोला, ‘‘भाभी, आप ने भी दफ्तर जाना होगा, मैं इंटरव्यू दे कर उधर से ही चला जाऊंगा, इसलिए ब्रीफकेस भी साथ ही ले जाऊंगा.’’

अनीता ने उसे रोकना चाहा. मन के किसी कोने में पति का हालचाल जानने की भावना कुलबुला रही थी पर वह वक्त की नजाकत देख कर चुप लगा गई. उस दिन उसे मकानमालकिन पर बेहद गुस्सा आया था. उस के बाद उस ने मां का घर छोड़ कर शाहपुर जाट में कमरा ले लिया. यहां बहुत चहलपहल रहती थी. इसलिए मन लगा रहता था.

ठंड बढ़ती जा रही थी. अक्तूबर खत्म हो रहा था. पेड़ों से पत्ते ?ार?ार कर सड़कों और बगीचों में फड़फड़ करते उड़ रहे थे. मेन रोड के बस स्टैंड पर खड़े 10-15 मिनट ही गुजरे होंगे कि मूंगफली का पैकेट उस की तरफ बढ़ाता हुआ ‘हैलो’ कह कर कोई उस के पास कब खड़ा हो गया, उसे पता भी नहीं चला. अचानक जब उस की हथेली से मूंगफली का लिफाफा छूआ तो वह चौंक गई. सहसा एक खनकती हुई हंसी के साथ आवाज आई, ‘‘बस का इंतजार हो रहा है?’’

‘‘और क्या.’’

‘‘हाय, इंतजार भी क्या बुरी चीज है?’’

दोहरे अर्थ वाले वाक्यों को अनीता खूब सम?ाती है. चाहे वह तलाकशुदा थी पर अपनी गरिमा को उस ने खोया नहीं था. किसी की क्या मजाल थी कि उस से गलत मजाक कर सके. इतने में महिलाओं की विशेष बस आई और वह उसे औपचारिक ‘ओके’ कहती बस पकड़ने को लपकी. वह जिस अदा से उसे विदाई दे रहा था, उसे उस ने देखा तक नहीं.

यह कोई नईर् बात नहीं थी. रोज ही दफ्तर में अनीता को ऐसी हरकतों को देख कर नजरअंदाज कर देना पड़ता था. उस दिन वह घर पहुंची तो थकान से उस की देह टूटी जा रही थी. रम्मो बच्ची को खिला रही थी और वह किलकारियां मार कर हंस रही थी. बच्ची को हंसते देख उस की थकान पलभर में रफूचक्कर हो गई.

तभी उस का मोबाइल खनखना उठा. अरविंद का फोन था जो अब बहुत कम उसे फोन करता था. उस ने ये शब्द बोल कर फोन काट दिया, ‘‘मौम का देहांत हो गया है.’’

उस के पति ने उसे सास की मृत्यु की सूचना दी. अब उसे रोतेबिसूरते पति के घर जाना है. वह सम?ा नहीं पाई कि अब उसे क्या करना चाहिए. ऐक्स पति के घर शोक में सम्मिलित हो या मैसेज कर दे. फिर दफ्तर में सहकर्मी उषा से सलाह लेने के लिए बात की.

उषा से बात हुई. फोन आया है, यह जान कर उषा को आश्चर्य भी हुआ और भविष्य की सुखद भूमिका का पूर्वाभास भी. उस ने अनीता को सु?ाया, ‘‘अभी चुप ही रहो, तलाक हो चुका है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाने का कोई हक नहीं बनता.’’

कई दिन बीत गए. अनीता फिर व्यस्त हो गई. फोन आने की बात को वह भूल भी गई. बच्ची के दांत निकल रहे थे. वह बेहद चिड़चिड़ी हो गईर् थी और दस्त व उलटियां भी खूब कर रही थी. बच्ची की देखभाल में ही उस का सारा समय निकल जाता. सुबह से रात तक की दिनचर्या में कहीं एक घड़ी की भी फुरसत नहीं थी.

उधर अरविंद को कौफीहाउस में कई महीने बाद उस का पुराना सहपाठी सुनील मिल गया. हाथ मिला कर औपचारिक कुशलक्षेम के बाद अरविंद ने सुनील से हंस कर पूछा, ‘‘कहो सुनील, नई पत्नी के साथ कैसी गुजर रही है?’’

सुनीता ने भी उसी की तरह तलाक लिया था पर अब उस ने दोबारा शादी कर ली थी. उस की मां की भी डैथ हो गईर् थी.

वह उदास हो कर बोला, ‘‘क्या बताऊं यार बस जिंदगी काट रहे हैं.’’

अरविंद हैरान हुआ, ‘‘क्यों, अब क्या बात है? अब की बार तो सब सोचविचार कर, सब की पसंद से ही विवाह हुआ था?’’

‘‘जो स्थिति पहले थी, वही अब भी है.

सच अरविंद तलाक ले कर बड़ी गलती की. जगहंसाई भी हुई और सुनीता को एक दिन भी भूल नहीं पाया हूं. पहले जिन बातों को देख

कर गुस्सा आता था, आज भी वही बातें होती हैं पर न गुस्सा आता है, न घर में कलह होती है. कुछ था, जो सुनीता के साथ ही चला गया. यह सोच कर खुद को माफ नहीं कर पाता कि सुनीता अभी भी अकेली रहती है, अब मौम भी नहीं है कि हल्ला कर सकूं. तेरी नई भाभी की त्योरियां चढ़ी रहती हैं. तलाकशुदा से शादी कर के एहसान किया है न उस ने,’’ कहतेकहते वह बेहद उदास हो गया.

यह सब सुन कर अरविंद को दुख तो हुआ पर कहीं मन में संतोष भी हुआ. वह दूसरी बार गलती करने से अभी बचा हुआ था. इस हद तक त्रस्त नहीं था. चलते हुए सुनील बोला, ‘‘तलाक के बाद संबंध तो टूट जाते हैं पर स्मृतियां नहीं टूटतीं, एहसास नहीं टूटते.’’

स्वयं अरविंद के पास उस के लिए सहानुभूति के चार शब्द भी नहीं थे. वह चुपचाप उस का हाथ सहलाता रहा. मां के बाद अरविंद नितांत अकेला रह गया था. मगर इतना क्षुब्ध नहीं था.

शनिवार की शाम को अनीता दफ्तर से घर पहुंची तो देखा कमरे में कोई पुरुष आकृति दिखी. रम्मो बच्ची को लिए बाहर छत पर घूम रही थी. अनीता ने नजदीक आतेआते पहचानने की कोशिश करते हुए रम्मो से पूछा, ‘‘घर में कौन बैठा है?’’

‘‘पता नहीं दीदीजी थोड़ी देर पहले ही आए हैं, चाय को पूछा तो कहने लगे, ‘‘मेमसाहब के साथ ही पीएंगे.’’

‘‘अच्छा, वीजू सो गई क्या?’’ उस ने बेटी को दुलारते हुए पूछा.

‘‘बस सोने को ही है.’’

अनीता ने कमरे में कदम रखा, आंखें चार होते ही उस के शरीर में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. उस के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप?’’

‘‘हां, कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं, आप कैसे हैं?’’ धड़कन संयत नहीं हो पा रही थी.

‘‘देखने चला आया.’’

वह एकटक अरविंद को देखती रही. एक बार तो दिल में आया कह दे, बड़ी ममता उमड़ आई इतने दिनों बाद. तलाक ले कर भी? पर वह चुप रही.

‘‘अम्मां नहीं रहीं.’’

‘‘हां, बात तो हुई थी.’’

‘‘एक बार भी नहीं सोचा कि मृत्यु पर तो…’’

‘‘जी नहीं, तलाक के बाद किसी स्त्री

का अपने पूर्व पति से संबंध ही क्या रह जाता है,’’ उस ने एक ?ाटके में सब शिकायतें तोड़ दीं.

अरविंद उठापटक करती अपनी तलाकशुदा पत्नी को देखता रहा. अनीता अब भी वैसी ही लग रही थी जैसे ढाई वर्ष पूर्व थी. अरविंद को कहीं भी, कुछ भी बदलाव महसूस नहीं हो रहा था. ‘फिर, यह सब क्या हुआ? क्या अदालत से तलाक मिल जाने से ही सब संबंध टूट जाते है?’ सहसा उस की विचार शृंखला अनीता के लीजिए शब्द ने तोड़ दी. वह अपने हाथ में चाय का कप लिए खड़ी थी.

वे दोनों चाय पीने लगे. रम्मो सोती हुई बच्ची को कंधे से लगाए थपथपाती हुई कमरे में चली आई. अनीता ने इशारे से पूछा, ‘‘सो गई?’’

रम्मो ने ‘जी’ कहा और फिर उस ने बच्ची को पलंग पर सुला दिया.

सोती हुईर् बच्ची को अरविंद एकटक देखता रहा. वह उसे लगातार देख रहा था और अनीता अरविंद को देख रही थी.

सूरज छिप गया था, फिर भी आकाश अभी तक लाल था. फिर वह लाली धीरेधीरे कालिमा में बदलने लगी. अनीता खाना बनाने में व्यस्त हो गई. खाना बनते ही रम्मो ने अरविंद के आगे गोल मेज रख दी. प्लेट में परोसे व्यंजन देख कर अरविंद मुसकाए बिना नहीं रह सका. सब उस के मनपसंद व्यंजन थे.

रात हुई, बिस्तर लग गए. अनीता ने अपना पलंग अरविंद के लिए लगा दिया और स्वयं जमीन पर बिस्तर लगा कर लेट गई.

अरविंद ने बहुत मनुहार की, ‘‘मैं नीचे सो जाता हूं, तुम बच्ची को ले कर ऊपर पलंग पर सो जाओ. मगर वह नहीं मानी.’’

आखिर वह करीब आ कर बोला, ‘‘मानोगी नहीं, बहुत जिद्दी हो तुम.’’

पर अनीता कुछ नहीं बोली. रात गए तक अरविंद सब नातेरिश्तेदारों का हालचाल पूछता

रहा और वह दो टूट शब्दों में जवाब देती रही. कानून की दृष्टि से वे दोनों अब पतिपत्नी नहीं थे, पर दोनों में एकदूसरे के प्रति आत्मीयता जरूर थी. बहुत रात हो गई थी. अनीता ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘अब सो जाइए, क्या सुबह उठना नहीं है.’’

अरविंद को लगा जैसे कहीं कुछ नहीं बदला, सब ढाई साल पहले जैसा ही है. वह अनीता को देख कर मुसकराया. फिर हाथ से उसे छूने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘नीते.’’

मगर अनीता करवट बदल कर लेट गई. दोनों की आंखों में नींद नहीं थी, भविष्य एक प्रश्नचिह्न सा बन उन के सामने मुंह बाए खड़ा था. रात की निस्तब्धता में उनींदी अनीता की आंख अचानक अरविंद की सिसकियों से खुली. वह उठ बैठी.

करवट ले कर लेटा हुआ अरविंद तकिए में मुंह छिपाए रो रहा था. वह पलंग पर बैठ गई, ‘‘सुनिए…’’

‘‘नीते.’’

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से पूछा.

‘‘मु?ो सुबह जाना है. तुम साथ चलोगी?’’

‘‘मैं… मैं कैसे जा सकती हूं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्यों क्या? तलाक के बाद भी क्या सार्वजनिक रूप से साथ रहा जा सकता है?’’

‘‘देखो, ये बातें रहने दो.’’

‘‘इतना ही था तो पहले सोचना था.’’

‘‘सोचा बहुत था, पर तुम्हारे और मां के बीच में घुन सा पिसा जा रहा था. सचमुच तुम्हारे बिना ये दिन मैं ने कैसे…’’ वह आगे रुंध आए कंठ के कारण बोल नहीं सका.

हलके हो कर अरविंद ने पूछा, ‘‘बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं?’’ कह कर अनीता अरविंद के सीने से लग कर रोने लगी.

Raksha Bandhan 2024 : इंसाफ- नंदिता ने कैसे निभाया बहन का फर्ज

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’

नंदिता ने बहुतेरा समझाया था कि छोटी बहन नमिता की शादी महीने दो महीने में करनी है. अगर जमापूंजी फ्लैट खरीदने में निकल गई तो उस की शादी के लिए पैसे कहां से आएंगे. उस का तो जी.पी.एफ. अकाउंट भी खाली हो चुका है.

नवीन उस दिन बहुत उखड़ा हुआ था. आव देखा न ताव, बोल पड़ा, ‘यह आप की चिंता है, दीदी. मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. नमिता की शादी करना आप की जिम्मेदारी है. उस को आप कैसे निभाएंगी, आप जानें.’

नंदिता आश्चर्य से छोटे भाई का मुंह देखने लगी. नवीन इस तरह की बातें कहेगा, उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था. वह भी बिफर उठी थी, ‘तुम नमिता के बड़े भाई हो, इस परिवार के एकमात्र पुरुष. इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पिंड कैसे छुड़ा सकते हो तुम.’

‘देखो, दीदी, अब मैं कोई दूधपीता बच्चा नहीं हूं. सच बात तो यह है कि जिम्मेदारी जिस को सौंपी जाती है वही उस को निभाने के लिए पाबंद होता है. आप परिवार में सब से बड़ी हैं,’ नवीन ने आज अपने मन की सारी भड़ास निकालने का फैसला ही कर लिया था. बोला, ‘बाबूजी ने अंतिम समय हम लोगों की सारसंभाल की जिम्मेदारी आप को सौंपी थी और आप ने तब भी उन से वादा किया था कि आप अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएंगी.’

यह कह कर तो नवीन ने नंदिता के मुंह पर ताला ही लगा दिया था. कुछ कहने, समझाने की उस ने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी. वह चुपचाप ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में जा कर बिस्तर पर पड़ गई. उस

का दिमाग पुरानी स्मृतियों के झंझा-वातों से भर उठा. बीती घटनाएं फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक उस के स्मृतिपटल पर उभरने लगीं :

जब थोड़ी सी बीमारी के बाद मां की मृत्यु हुई वह बी.ए. फाइनल में थी. मेरिट में आने का मनसूबा बांधे बैठी थी वह. परिवार की सब से बड़ी संतान और लड़की होने से घर की देखभाल का जिम्मा न जाने कब उस के कमजोर कंधों पर आ पड़ा, वह समझ ही नहीं पाई. घर की गाड़ी के पहिए उस को धुरी मान कर घूमने लगे.

‘मेरी समझदार बेटी नंदिता सब संभाल लेगी,’ बाहरभीतर सब तरफ यह घोषणा कर के पिताजी ने तो घर की सारी जिम्मेदारियों से खुद को जैसे बरी कर लिया था.

नंदिता 3 भाईबहन हैं. नंदिता से छोटा नवीन है और नवीन से छोटी नमिता. नवीन को पढ़ने, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने और बाकी समय में क्रिकेट खेलने से फुरसत ही नहीं मिलती थी. नमिता तो परिवार की लाड़ली होने का पूरापूरा फायदा उठाती रही. कभी मूड होता तो घर के काम में नंदिता का हाथ बंटाती वरना सहेलियों और कालिज की पढ़ाई में ही अपने को व्यस्त रखती.

नंदिता जानती थी कि नमिता को आखिर एक दिन पराए घर जाना है. घर के रोजमर्रा के काम में भी वह रुचि ले, ऐसी कोशिश नंदिता करती रहती थी पर नमिता यह कह कर उस पर पानी फेर देती कि अभी तो मुझे आप अपने राज में आजाद पंछी की जिंदगी जी लेने

दो, जब ससुराल पहुंचूंगी तो सब सीख लूंगी. समय अपनेआप सब सिखा देता है. आप आज घर को जिस कुशलता से संभाल रही हैं वह भी तो समय की जरूरत

ने ही आप को सिखाया है, दीदी.

नंदिता ने इस के बाद तो किसी से शिकवाशिकायत करना छोड़ ही दिया था. प्रथम श्रेणी में बी.ए. करने के बाद वह समाजशास्त्र में एम.ए. कर के पीएच.डी. करना चाहती थी. पर सोचा हुआ सब कहां हो पाता है. पिताजी ने घर की जिम्मेदारियों का वास्ता दे कर बी.ए. करने के बाद उस को घर बैठा लिया था. बेचारी मन मसोस कर रह गई थी.

एक दिन भयानक हादसा हुआ. दौरे से लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में उस के पिता इन तीनों भाईबहनों को अनाथ कर के संसार से विदा हो गए. नंदिता पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. तब कुल 25 वर्ष की उम्र थी उस की. पिता के दफ्तर वालों ने बड़ी मदद की. उस को पिता के दफ्तर में ही क्लर्क की नौकरी दे दी.

जैसेतैसे परिवार की गाड़ी चलने लगी. कई बार पैसे की तंगी उस का रास्ता रोक कर खड़ी हुई पर नंदिता ने नवीन और नमिता को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे अनाथ हैं. उन की पढ़ाई बदस्तूर चलती रही.

नवीन पढ़ने में होशियार था. उस ने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की और खंड विकास अधिकारी के पद पर नौकरी पाने में सफल रहा.

एक दिन नंदिता के मन में आया कि अब नवीन की शादी कर दे. बहू के आने पर घर के काम में दिनरात खटने से उस को भी कुछ राहत मिल जाएगी. उस ने लड़की तलाशनी शुरू की. छोटे मामाजी की मदद से नवीन की शादी बड़े अफसर की बेटी मोनिका के साथ हो गई.

नंदिता ने मोनिका को ले कर जो आशाएं मन में पाल रखी थीं वे कुछ महीने बीततेबीतते मिट्टी में मिल गईं. बड़े बाप की बेटी ने ससुराल में ऐसे रंग दिखाए कि नंदिता को घर के काम में उस की तरफ से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद छोड़नी पड़ी.

नंदिता को हालांकि सकारात्मक उत्तर की जरा भी आस नहीं थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर एक दिन उस ने मोनिका से कह डाला, ‘मोनिका, मुझे भी 10 बजे दफ्तर जाना पड़ता है. मैं चाहती हूं कि रोटियां तुम सेंक लिया करो. किचन का बाकी काम तो मैं निबटा ही लूंगी. तुम से इतनी मदद मिलने पर दफ्तर जाने के लिए मैं अपनी तैयारी भी सहूलियत से कर सकूंगी.’

‘नहीं, दीदी,’ मोनिका ने रूखा सा जवाब दिया, ‘यह मुझ से नहीं होगा. मैं तो सो कर ही सुबह 9 बजे उठती हूं. नवीन के भी बहुत सारे काम मुझे करने पड़ते हैं. रोज रोटियां सेंकने का जिम्मा मैं नहीं ले सकती. वैसे भी किचन के गोरखधंधे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. हमारे यहां तो नौकर ही यह सब करते थे. मुझे तो आप बख्श ही दीजिए.’

इस के बाद तो नंदिता ने घर के कामकाज को ले कर चुप्पी ही साध ली. खुद ही गृहस्थी की गाड़ी को एक मशीन की तरह ढोती चली गई. परिवार के बाकी सदस्य तो सब देख कर भी अनजान बन बैठे. इस बीच मौसाजी की एक बात को ले कर घर में भूचाल ही आ गया और कई दिन उस का कंपन थमा ही नहीं. उस दिन मौसाजी ने सहज भाव से इतना ही तो कहा था कि उन्होंने भी नंदिता के लिए एक अच्छा सा लड़का देखा है. लड़का क्लास टू आफिसर है. परिवार भी खानदानी है, आदर्श विचारों के लोग हैं. दहेज की मांग भी नहीं है. नंदिता वहां बहुत सुखी रहेगी.

मौसाजी की बात सुन कर एक मिनट के लिए तो जैसे सन्नाटा ही छा गया. नवीन और मोनिका एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोनों के चेहरों पर हैरानी और परेशानी की गहरी रेखाएं खिंचती चली गईं.

‘यह क्या बात ले बैठे आप भी, मौसाजी,’ नवीन ने सकुचाते हुए अपनी बात रखी, ‘दीदी तो इस घर की सबकुछ हैं. वह तो आत्मा हैं हमारे परिवार की. बाबूजी उन्हीं को तो घर की सारी जिम्मेदारियां सौंप गए थे. अभी नमिता की शादी होनी है. हम पतिपत्नी भी अभी ठीक से सैटिल नहीं हो पाए हैं. दुनियादारी की हम लोगों को समझ ही कहां है. दीदी दूसरे घर चली गईं तो इस घर का क्या होगा. हम तो कहीं के नहीं रहेंगे.’

मौसाजी हक्केबक्के थे. मोनिका के शब्दों ने तो उन्हें आहत ही कर डाला था. वह तैश में आ कर बोली थी, ‘दीदी यों ही सब संभालती रहेंगी, यह विश्वास कर के ही तो मैं नवीन के साथ शादी करने के लिए राजी हुई थी. वह हमें अधबीच में छोड़ कर इस घर से नहीं जाएंगी, यह आप साफसाफ सुन लीजिए, मौसाजी.’

नंदिता को लगा जैसे कई बिच्छुओं ने एकसाथ उस के शरीर में अपने जहरीले पैने डंक घुसेड़ दिए हैं और वह चीख भी नहीं पा रही है.

मोनिका की बात ने बुजुर्ग मौसाजी के दिल को छलनी कर डाला. एक लंबी जिंदगी देखी है उन्होंने, समझ गए कि माटी के पक्के बरतनों पर कोई रंग नहीं चढ़ता. बिना कुछ कहेसुने वह तुरंत घर से बाहर हो गए. वह जानते थे कि जिन की आंखों की शरम मर जाती है, जिन के मन में मानवीय रिश्तों की कोई कीमत नहीं रहती, ऐसे लोगों को अच्छी नसीहतें देना रेत का घरौंदा बनाने जैसा है. नंदिता भी वहां ज्यादा देर बैठी न रह सकी.

उस दिन के बाद घर में रोज की जिंदगी तो पिछली रफ्तार से ही चलती रही पर जैसे उस में जगहजगह स्पीड ब्रेकर खडे़ हो गए थे. इन स्थितियों ने नंदिता को काफी दुखी कर दिया. वह चुपचुप रहने लगी. सिर्फ नमिता के साथ ही वह खुल कर बात करती थी, नवीन और मोनिका के साथ उस के संवाद का दायरा काफी सिकुड़ता चला गया था. ज्यादातर वह अपने कमरे में कैदी सी पड़ी रहने लगी थी. कोई कुछ पूछता तो ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब दे कर चुप हो जाती थी. जब अकेली होती तो खुद से पूछने लगती कि उस के स्नेह, परिश्रम और त्याग का उस को क्या यही प्रतिफल मिलना चाहिए था.

नवीन और मोनिका की निष्ठुरता से जूझते हुए भी नंदिता छोटी बहन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बारे में बराबर सचेत रही. वह चुपचाप उस के लिए लड़के की तलाश में लगी रहती. एक अच्छा लड़का उस को पसंद आया. प्राइवेट कंपनी में एक्जीक्यूटिव था. अच्छी तनख्वाह थी. देखने में भी ठीक ही था. परिवार में पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला था. उम्र में 7 साल का अंतर नंदिता की नजर में ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं था. अमूमन लड़के और लड़की की उम्र में 5-6 साल का अंतर तो आजकल आम बात है.

लड़के का नाम था, कपिल. एक दिन रविवार को नंदिता ने कपिल को अपने घर चाय पर बुला लिया. उद्देश्य था वह नमिता को ठीक से देख ले, आपस में जो भी पूछताछ करनी हो, कर ले. बाकी बातें तो कपिल के मातापिता से मिल कर उस को स्वयं ही तय करनी हैं. मौसाजी और मामाजी को भी अपने साथ ले लेगी. नवीन और मोनिका को इस बात की भनक लग चुकी थी पर नंदिता ने इस काम में उन की कोई भूमिका तय नहीं की थी इसलिए दोनों चुप थे.

कपिल वक्त का पाबंद निकला. शाम के 5 बजतेबजते पहुंच गया. एक सलोना सा युवक भी उस के साथ था.

‘कपिलजी, एक बात पूछूं?’ नंदिता ने शुरुआत की, ‘आप पिछले कुछ दिनों से मेरे दफ्तर में खूब आजा रहे हैं. कोई काम तो वहां नहीं अटका है आप का?’

‘जी नहीं, कोई काम नहीं अटका. यों ही आया होऊंगा.’

‘आप सरीखा समझदार आदमी किसी सरकारी दफ्तर में यों ही चक्कर काटेगा, यह बात मेरे गले नहीं उतर रही.’

‘समझ आने पर बात आप के गले उतर जाएगी…आप बिलकुल चिंता न करें. अभी तो बस, इतना ही बताइए कि मेरे लिए क्या आज्ञा है?’

नंदिता ने जांच लिया कि लड़का सचमुच तेज है. उस को बातों में भरमाया नहीं जा सकता. सो बिना भूमिका के उस ने काम की बात शुरू कर दी, ‘आजकल शादीब्याह के मामले में आगे बढ़ने के लिए पहली और सब से जरूरी औपचारिकता है लड़कालड़की के बीच सीधा संवाद. मैं चाहती हूं कि आप कमरे में जा कर नमिता से बात करें. जो पूछना हो पूछ लें और जो बताना हो वह बताएं.’

‘मैं भला क्यों करूं यह सब पूछताछ नमिता से,’ कपिल ने शरारती लहजे में कहा.

‘आप को नमिता को अपने लिए चुनना है. इसलिए नमिता से पूछताछ आप नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा,’ नंदिता पसोपेश में पड़ गई. सच बात तो यह थी कि कपिल की पहेली को वह समझ ही नहीं पा रही थी.

‘आप से यह किस ने कह दिया कि नमिता को मुझे अपने लिए चुनना है?’

‘कपिलजी, आप को आज यह हो क्या गया है. कैसी उलटीपुलटी बातें कर रहे हैं आप.’

‘मेरी बात तो एकदम सीधीसीधी है, नंदिताजी.’

‘सीधी किस तरह है. मैं ने नमिता के बारे में ही तो आज आप को यहां बुलाया है. आप यह बेकार का कन्फ्यूजन क्यों पैदा कर रहे हैं?’

‘कन्फ्यूजन वाली कोई बात नहीं है, मैं तो बस, आप से बात करने आया हूं.’

‘मतलब.’

‘यही कि मुझे तो जिंदगी में एक का चुनाव करना था, सो मैं ने कर लिया है.’

‘किस का?’

‘नंदिताजी का, नमिताजी की बड़ी बहन का.’

नंदिता को लगा जैसे वह आसमान से गिर पड़ी है. एक बार तो उसे महसूस हुआ कि कपिल उस के साथ ठिठोली कर रहा है. पर उस के हावभाव से तो ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था.

वह बोली, ‘यह क्या गजब कर रहे हैं आप. मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपनी लाड़ली बहन के सौभाग्य का सिंदूर झपट कर अपनी मांग में सजा लूं. नमिता मेरी छोटी बहन ही नहीं मेरी प्यारी बेटी भी है. मां के देहांत के बाद मैं ने प्यारदुलार दे कर उसे बड़े जतन से पाला है. मैं उस के साथ ऐसा अनर्थ तो सपने में भी नहीं कर सकती.’

नंदिता की आंखों में आंसू छलछला आए. सारा वातावरण संजीदगी से भर गया.

कपिल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘नंदिताजी, आप सच मानिए, पिछले एक महीने से मैं आप के बारे में ही सारी जानकारी इकट्ठी करने में लगा था. उसी की खातिर आप के दफ्तर भी जाया करता था. आप के साथ घोर अन्याय हुआ है, फिर चाहे वह हालात ने किया हो, आप के पिता ने या फिर आप के भाई ने. आप ने अपने परिवार के लिए जो तपस्या की है उस के एवज में तो आप को वरदान मिलना चाहिए था. पर सब जानते हैं कि अब तक अभिशाप ही आप के पल्ले पड़ा है. क्या अपनी गृहस्थी बसाने का आप का कोई सपना नहीं है? सचसच बताइए?’

नंदिता ने संयत होते हुए कहा, ‘वह सब तो ठीक है पर नमिता के सौभाग्य को अपने सपने पर कुर्बान करने के लिए मैं न तो कल तैयार थी और न आज तैयार हूं. उसे मैं जिंदगी भर कुछ न कुछ देती ही रहना चाहती हूं. उस के अधिकार की कोई वस्तु छीनना मुझे कतई गवारा नहीं है. यह मुझ से कभी नहीं होगा. आप जा सकते हैं. आप का प्रस्ताव मुझे कतई मंजूर नहीं है.’

‘आप को मेरा प्रस्ताव मंजूर हो या न हो पर हम तो इस घर से जल्दी ही दुलहनियां ले कर जाएंगे,’ कपिल ने वातावरण को हलका बनाने की गरज से कहा.

‘मेरे जीते जी तो यह कभी नहीं होगा.’

‘जरूर होगा. इस घर से एक दिन 2 दूल्हे 2 दुलहनियां ले कर ही विदा होंगे.’

नंदिता जैसे सोते से जाग उठी. पूछा, ‘और वह दूसरा लड़का?’

‘यह रहा,’ साथ में बैठे सलोने युवक की ओर इशारा करते हुए कपिल ने जवाब दिया, ‘और इन दोनों को किसी कमरे में जा कर आपस में पूछपरख करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ये दोनों कालिज के सहपाठी हैं. एकदूसरे को खूब जानते हैं. साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खा चुके हैं, बहुत पहले.’

‘पर ये हैं कौन? परिचय तो दीजिए इन का.’

अचानक नमिता ड्राइंगरूम में आई. वह पास के कमरे में नंदिता और कपिल की बातें कान लगाए सुन रही थी.

‘मैं देती हूं इन का परिचय,’ नमिता बोली, ‘दीदी, इन का नाम विकास है और यह कपिलजी के चचेरे भाई हैं. डिगरी कालिज में 3 साल हम क्लासमेट रहे हैं. मेलजोल अब भी है. दोनों ने साथसाथ जीवन का सफर तय करने का फैसला बहुत पहले कर लिया था.’

‘लेकिन पगली, इस बारे में मुझे तो बताती. मैं तेरी दुश्मन थोड़े ही हूं,’ नंदिता ने नमिता को अपने पास सोफे पर बिठाते हुए कहा.

‘आप वैसे भी इन दिनों काफी परेशान रहती हैं, दीदी. मैं विकास और अपने बारे में आप को बता कर आप की परेशानियों को बढ़ाना नहीं चाहती थी. मैं ने आप से यह बात छिपाने की गलती की है. मुझे माफ कर दो, दीदी.’

‘इस में माफी जैसी कोई बात नहीं है मेरी प्यारी बहना. तू ने जो भी किया अपनी समझ से अच्छा ही किया है. विकासजी, इस बारे में आप को कुछ कहना है या फिर फैसला सुना दिया जाए?’

‘मुझे कुछ नहीं कहना. जो कहना था वह नमिता कह चुकी है. नंदिताजी, आप तो बस, फैसला सुना दीजिए,’ विकास बोला.

‘कपिलजी ने ठीक ही कहा है, इस घर से जल्दी ही 2 दूल्हे, 2 दुलहनियां ले कर विदा होंगे,’ इतना कह कर नंदिता ने नमिता को गले लगा लिया.

आज बरसों बाद नंदिता की सूखी आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. उसे लगा आज पहली बार कुदरत ने उस के साथ इंसाफ किया है. इस तरह अचानक मिले इंसाफ से कितनी खुशी होती है, इस का एहसास भी उसे पहली बार हुआ.

Raksha Bandhan 2024 : जरा सी बात- क्यों ननद से नाराज थी प्रथा

प्रथा नहीं जानती थी कि यों जरा सी बात का बतंगड़ बन जाएगा. हालांकि अपने क्षणिक आवेश का उसे भी बहुत दुख है, लेकिन अब तो बात उस के हाथ से जा चुकी है. वैसे भी विवाहित ननदों के तेवर सास से कम नहीं होते. फिर रजनी तो इस घर की लाडली छोटी बेटी थी. सब के स्नेह की इकलौती अधिकारी… उस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए ये जरा सी बात बहुत बड़ी बात थी.

‘हां, जरा सी बात ही तो थी… क्या हुआ जो आवेश में रजनी को एक थप्पड़ लग गया. उसे इतना तूल देने की क्या जरूरत थी. वैसे भी मैं ने किसी द्ववेष से तो उसे थप्पड़ नहीं मारा था. मैं तो रजनी को अपनी छोटी बहन मानती हूं. रजनी की जगह मेरी अपनी बहन होती तो क्या इसे पी नहीं जाती. लेकिन रजनी लाख बहन जैसी होगी, बहन तो नहीं है न. इसीलिए तांडव मचा रखा है,’ प्रथा जितना सोचती उतना ही उल झती जाती. मामले को सुल झाने का कोई सिरा उस के हाथ नहीं आ रहा था.

दूसरा कोई मसला होता तो प्रथा पति भावेश को अपनी बगल में खड़ा पाती, लेकिन यहां तो मामला उस की अपनी छोटी बहन का है, जिसे रजनी ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है. अब तो भावेश भी उस से नाराज है. किसकिस को मनाए… किसकिस को सफाई दे… प्रथा सम झ नहीं पा रही थी.

हालांकि ननद पर हाथ उठते ही प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. लेकिन वह जली हुई साड़ी बारबार उसे अपनी गलती नहीं मानने के लिए उकसा रही थी. दरअसल, प्रथा को अपनी सहेली की शादी की सालगिरह पार्टी में जाना था. भावेश पहले ही तैयार हो कर उसे देर करने का ताना मार रहा था ऊपर से जिस साड़ी को वह पहनने की सोच रही थी वह आयरन नहीं की हुई थी.

छुट्टियों में मायके आई हुई ननद ने लाड़ दिखाते हुए भाभी की साड़ी को आयरन करने की जिम्मेदारी ले ली. प्रथा ननद पर री झती हुई बाथरूम में घुस गई. इधर ननदोईजी का फोन आ गया और उधर रजनी बातों में डूब गई. बातों में व्यस्त रजनी आयरन को साड़ी पर से उठाना भूल गई और जब प्रथा बाथरूम से निकली तो अपनी साड़ी को जलते देख कर अपना होश खो बैठी. उस ने ननद को उस की गलती का एहसास करवाने के लिए गुस्से में उस से मोबाइल छीनने की कोशिश की, लेकिन खतरे से अनजान रजनी के अचानक मुंह घुमा लेने से प्रथा का हाथ उस के गाल पर लग गया जिसे उस ने ‘थप्पड़’ कह कर पूरे घर को सिर पर उठा लिया.

देखते ही देखते घर में भूचाल आ गया. घर भर की लाडली बहू अचानक किसी खलनायिका सी अप्रिय हो गई.

मनहूसियत के साए में भी भला कभी रूमानियत खिली है? प्रथा का पार्टी में जाना तो कैंसिल होना ही था. अब सासननद तो रसोई में घुसने से रही क्योंकि वह तो पीडि़त पक्ष था. लिहाजा प्रथा को ही रात के खाने में जुटना पड़ा.

खाने की मेज पर सब के मुंह चपातियों की तरह फूले

हुए थे. ननद ने खाने की तरफ देखना तो दूर खाने की मेज पर आने तक से इनकार कर दिया. सास ने बहुत मनाया कि किसी तरह दो कौर हलक से नीचे उतार ले, लेकिन रूठी हुई रानियां भी भला बनवास से कम मानी हैं कभी?

रजनी की जिद थी कि भाभी उस से माफी मांगे. सिर्फ दिखावे भर की नहीं, बल्कि पश्चात्ताप के आंसुओं से तर माफी. उधर प्रथा इसे अपनी गलती ही नहीं मान

रही थी तो माफी और पश्चात्ताप का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि वह तो चाह रही थी कि रजनी को उस की कीमती साड़ी जलाने का अफसोस करते हुए स्वयं उस से माफी मांगनी चाहिए.

जिस तरह से एक घर में 2 महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रह सकतीं उसी तरह से यहां भी यह जरा सी बात अब प्रतिष्ठा का सवाल बनने लगी थी. रजनी अब यहां एक पल रुकने को तैयार नहीं थी. वहीं सास को डर था कि बात समधियाने तक जाएगी तो बेकार ही धूल उड़ेगी. किसी तरह सास उसे मामला सुलटने तक रुकने के लिए मना सकी. एक उम्मीद भी थी कि हो सकता है 1-2 दिन में प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो जाए.

ससुरजी का कमरा और सास की अध्यक्षता… देर रात तक चारों की मीटिंग चलती रही. प्रथा इस मीटिंग से बहिष्कृत थी. अपने कमरे में विचारों में डूबी प्रथा के लिए पति को अपने पक्ष में करना कठिन नहीं था. पुरुष की नाराजगी भला होती ही कितनी देर तक है… कामिनी स्त्री की पहल जितनी ही न… एक रति शस्त्र में ही पुरुष घुटनों पर आ जाता है. लेकिन आज प्रथा इस अमोघ बाण को चलाने के मूड में भी तो नहीं थी. वह भी देखना चाहती थी कि इस ससुरजी के कमरे में होने वाले मंथन से उस के हिस्से में क्या आता है. जानती थी कि हलाहल ही होगा लेकिन बस आधिकारिक घोषणा का इंतजार कर रही थी.

ढलती रात भावेश ने कमरे में प्रवेश किया. प्रथा जागते हुए भी सोने का नाटक करती रही. भावेश ने उस की कमर के गिर्द घेरा डाल दिया. प्रथा ने कसमसा कर अपना मुंह उस की तरफ घुमाया.

‘‘प्रथा, तुम सुबह रजनी से माफी मांग लेना. बड़ी मुश्किल से उसे इस बात के लिए राजी कर पाए हैं कि वह इस बात को यहीं खत्म कर दे,’’ भावेश ने अपनी आवाज को यथासंभव धीरे रखा ताकि बात बैडरूम से बाहर न जाए.

उस का प्रस्ताव सुनते ही प्रथा के सीने में जलन होने लगी. बोली, ‘‘भावेश तुम भी… जिस ने गलती की उसी का पक्ष ले रहे हो?  एक तो तुम्हारी उस नकचढ़ी बहन ने मेरी इतनी कीमती साड़ी जला दी, ऊपर से तुम चाहते हो कि मैं नाराजगी जाहिर करने का अपना अधिकार भी खो दूं? गिर जाऊं उस के पैरों में? नहीं, मु झ से यह नहीं होगा… किसी सूरत में नहीं.’’

‘‘साड़ी ही तो थी न, जाने दो. मैं वैसी 5 नई ला दूंगा. तुम प्लीज उस से माफी मांग लो,’’ भावेश ने फिर खुशामद की.

मगर प्रथा ने कोई जवाब नहीं दिया और पीठ फेर कर सो गई, जो उस के स्पष्ट इनकार का द्योतक था.

भावेश ने उसे मजबूत बांह से पकड़ कर जबरदस्ती अपनी तरफ फेरा. प्रथा को उस की यह हरकत बहुत ही नागवार लगी.

‘‘एक थप्पड़ ही तो मारा था न… वह भी उस की गलती पर. यदि वह तुम्हारी

बहन न हो कर मेरी बहन होती तब भी क्या ऐसा ही बवाल मचता? नहीं न? बात आईगई हो जाती. तुम बहनभाई कभी आपस में नहीं लड़े क्या? क्या तुम ने या तुम्हारे मांपापा ने आज तक कभी उस पर हाथ नहीं उठाया? फिर आज ये महाभारत क्यों छिड़ गई?’’ प्रथा ने उस का हाथ  झटकते हुए कहा.

भावेश ने बात आगे न बढ़ाना ही उचित सम झा. उस रात शायद घर का कोई भी सदस्य नहीं सोया होगा. सब अपनेअपने मन को मथ रहे थे. विचारों की  झड़ी लगी थी. रजनी अपनी मां के आंचल को भिगो रही थी तो प्रथा तकिए को.

सुबह प्रथा ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी सम झते हुए सब को चाय थमाई, लेकिन आज इस चाय में किसी को कोई मिठास महसूस नहीं हुई. रजनी और सास ने तो कप को छुआ तक नहीं. बस, घूरती रहीं. हरकोई बातचीत शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘भाई, तुम किसे ज्यादा प्यार करते हो मु झे या अपनी बीवी को?’’ अचानक रजनी का अटपटा प्रश्न सुन कर भावेश चौंक गया. उस ने अपनी मां की तरफ देखा. मां ने कन्नी काट ली. पिता ने अपना सिर अखबार में घुसा लिया. प्रथा की निगाहें भी भावेश के चेहरे पर टिक गई.

‘‘यह कैसा बेतुका प्रश्न है?’’ भावेश ने धर्मसंकट से बचना चाहा, लेकिन यह इतना आसान कहां था.

‘‘अटपटाचटपटा मैं नहीं जानती. आप जवाब दो कि यदि आप को बहन औैर बीवी में से एक को चुनना पड़े तो आप किसे चुनेंगे?’’ रजनी ने उसे रणछोड़ नहीं बनने दिया.

भावेश ने देखा कि प्रथा बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए बाथरूम में घुस गई. उस ने राहत की सांस ली. वह रजनी की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गया. भावेश ने स्नेह से बहन की गले में अपने हाथ डाल धीरे से गुनगुनाया, ‘‘फूलों का तारों का…सब कहना है…एक हजारों में… मेरी बहना है…’’

दृश्य देख कर मां मुसकराई. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. रजनी को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था.

‘‘भाई, यदि आप मु झे सचमुच प्यार करते हो तो भाभी को तलाक दे दो,’’ रजनी ने भाई के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा. उस की आंखें  झर रही थीं.

बहन की बात सुनते ही भावेश को सांप सूंघ गया. उस ने रजनी का मुंह अपने हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? जरा सी बात पर इतना बड़ा फैसला? तलाक का मतलब जानती हो न? एक बार फिर से सोच कर देखो. मेरे खयाल से प्रथा की गलती इतनी बड़ी तो नहीं है जितनी बड़ी तुम सजा तय कर रही हो,’’ भावेश ने रजनी को सम झाने की कोशिश की. फिर अपनी बात के समर्थन में उस ने मांपापा की तरफ देखा, लेकिन मां ने अनसुना कर दिया और पापा तो पहले से ही अखबार में घुसे हुए थे. भावेश निराश हो गया.

‘‘जरा सी बात? क्या बहन के स्वाभिमान पर चोट भाई के लिए जरा सी बात हो सकती है? हम बहनें इसी दिन के लिए राखियां बांधती हैं क्या?’’ रजनी ने गुस्से से कहा.

‘‘रजनी ठीक ही कहती है. वो 2 साल की ब्याही लड़की तुम्हें अपनी सगी बहन से ज्यादा प्यारी हो गई? आज उस ने रजनी से माफी मांगने से मना किया है कल को सासससुर की इज्जत को भी फूंक मार देगी,’’ बहनभाई की बहस को नतीजे पर पहुंचाने की मंशा से मां बोली.

‘‘मनरेगा में बरसात से पहले ही नदीनालों पर बांध बनवाए जा रहे हैं ताकि तबाही होने से रोकी जा सके. सरकार का यह फैसला प्रशंसनीय है,’’ पापा ने अखबार की खबर पढ़ कर सुनाई.

भावेश सम झ गया कि इन का पलड़ा भी बेटी की तरफ ही  झुका हुआ है.

कहां तो भावेश सोच रहा था कि इस बार बहन के प्यार को रिश्तों के पलड़े पर रख कर मकान पर उस के हिस्से वाले आधे भाग को भी अपने नाम करवा लेगा, लेकिन यहां तो खुद उस का प्यार ही पलडे़ पर रखा जा रहा है. प्रथा का थप्पड़ उस के मंसूबों की लिखावट पर पानी फेर रहा है. उस ने वैभव ने प्रथा को शीशे में उतारना तय कर लिया. वह इस जरा सी बात के लिए अपना इतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता. फिर वैसे भी यदि वह नुकसान में होगा तो प्रथा भी कहां फायदे में रहेगी.

रजनी दिनभर अपने कमरे में पड़ी रही. सब ने

कोशिश कर देख ली, लेकिन वह तो प्रथा को तलाक देने की बात पर अड़ ही गई. हालांकि सब को उस की यह जिद बचकानी ही लग रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भय भी सिर उठा रहा था कि इस बार की जीत कहीं प्रथा के सिर पर सींग न उगा दे. कहीं ऐसा न हो कि वह छोटेबड़े का लिहाज ही बिसरा दे…  झाडि़यों को बेतरतीब होने से पहले ही कतर देना ठीक रहता है. इसलिए प्रथा को एक सबक सिखाने के पक्ष में तो सभी थे.

‘‘प्रथा, सुनो न,’’ रात को सोने से पहले भावेश ने स्वर पर चाशनी चढ़ाई. प्रथा ने सिर्फ आंखों से पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘रजनी को सौरी बोल भी दो न. उस का बालहठ सम झ कर. जरा सोचो. यदि यह बात उस की ससुराल चली गई तो वे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे खासकर तुम्हारे बारे में? तुम जानती हो न कि रजनी के ससुरजी तुम्हें कितना मान देते हैं,’’ भावेश ने निशाना साध कर चोट की. निशाना लगा भी सही जगह पर प्रहार अधिक दमदार न होने के कारण अपने लक्ष्य को बेध नहीं सका.

‘‘इसे बालहठ नहीं इसे तिरिया हठ कहते हैं.’’ प्रथा ने ननद पर व्यंग्य कसते हुए पति के कमजोर ज्ञान पर तीर चला दिया.

भावेश को पत्नी की यह बात खली तो बहुत, लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए उस ने इसे खुशीखुशी सह लिया.

‘‘अरे हां, तुम तो साहित्य में मास्टर्स हो. वह कहावत सुनी ही होगी कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. सम झ लो कि आज अपनी जरूरत है और हमें रजनी को मनाना है,’’ भावेश ने आवेश में प्रथा के हाथ पकड़ लिए.

कहावत के अनुसार उस में रजनी के पात्र की कल्पना कर के अनायास प्रथा के चेहरे पर मुसकान आ गई. भावेश को लगा मानो अब उस के प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं. उस ने प्रथा को सारी बात बताते हुए उसे अपनी योजना में शामिल कर लिया.

रूठे हुए पतिपत्नी के मिलन के बीच एक प्यारभरी मनुहार की ही तो दूरी होती है. अभिसार के एक इसरार के साथ ही यह दूरी खत्म हो गई. शक्कर के दूध में घुलते ही उस की मिठास कई गुणा बढ़ जाती है.

अगली सुबह प्रथा को सब को गुनगुनाते हुए चाय बनाते देखा तो इस परिवर्तन पर किसी को यकीन नहीं हुआ. भावेश अवश्य राजभरी पुलक के साथ मेज पर हाथों से तबला बजा रहा था. मांपापा उठ कर कमरे से बाहर आ चुके थे. रजनी अभी भी भीतर ही थी. प्रथा ने 3 कप चाय बाहर रखे और 2 कप ले कर रजनी को उठाने चल दी. मांपापा की आंखें लगातार उस का पीछा कर रही थीं.

‘‘आई एम सौरी रजनी. मु झे इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. प्लीज, मु झे माफ कर दो,’’ प्रथा ने बिस्तर में गुमसुम बैठी ननद के पास बैठते हुए कहा.

रजनी को सुबहसुबह इस माफीनामे की उम्मीद नहीं थी. वह अचकचा गई.

‘‘कल तक मैं इसे जरा सी बात ही सम झ रही थी औैर तुम्हारी जिद को तुम्हारा बचपना, लेकिन कल रात जब से मैं ने ‘थप्पड़’, मूवी देखी है तब से तुम्हारे दर्द को बहुत नजदीक से महसूस कर पा रही हूं. मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि एक स्त्री हो कर मैं तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाई. मैं सचमुच तुम से माफी मांगती हूं… दिल से.’’

रजनी ने देखा प्रथा की पलकें सचमुच नम थी. उस ने एक पल सोचा और फिर भाभी के गले में बाहें डाल दीं.

भावेश खुश था कि वह अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में कामयाब हुआ. मांपापा खुश थे,

क्योंकि बेटी भी खुश थी और रजनी भी, क्योंकि एक स्त्री ने दूसरी स्त्री के स्वाभिमान को पोषित किया था.

Raksha Bandhan 2024 : समय चक्र- अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रहे थे बिल्लू भैया?

शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…य-पि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी? जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते.

कभी सोचा भी न था कि ‘अपने घर’ और ‘अपनों’ से इतने वर्षों बाद मिलना होगा. ऐसा नहीं था कि घर की याद नहीं आती थी, कैसे न आती? बचपन की यादों से अपना दामन कौन छुड़ा पाया है? परंतु परिस्थितियां ही तो हैं, जो ऐसा करने पर मजबूर करती हैं कि हम उस बेहतरीन समय को भुलाने में ही सुकून महसूस करते हैं. अगर बिल्लू भैया का पत्र न आया होता तो मैं शायद ही कभी शिमला आने के लिए अपने कदम बढ़ाती.

4 दिन पहले मेरी ओर एक पत्र बढ़ाते हुए मेरे पति ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिल्लू भैया इतने भावुक व कमजोर दिल के कैसे हो गए? मैं ने तो इन के बारे में कुछ और ही सुना था…’’

पत्र में लिखी पंक्तियां पढ़ते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए, गला भर आया. लिखा था, ‘छोटी, तुम लोग कैसे हो? मौका लगे तो इधर आने का प्रोग्राम बनाना, बड़ा अकेलापन लगता है…पूरा घर सन्नाटे में डूबा रहता है, तेरी भाभी भी मायूस दिखती है, टकटकी लगा कर राह निहारती रहती है कि क्या पता कहीं से कोई आ जाए…’

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे आज बिल्लू भैया जैसा इनसान एक निरीह प्राणी की तरह आने का निमंत्रण दे रहा है और वह भी ‘अकेलेपन’ का वास्ता दे कर. यादों पर जमी परत पिघलनी शुरू हुई. वह भी बिल्लू भैया के प्रयास से क्योंकि यदि देखा जाए तो यह परत भी उन्हीं के कारण जमानी पड़ी थी.

बचपन में बिल्लू भैया जाड़ों के दिनों में अकसर पानी पर जमी पाले की परत पर हाकी मार कर पानी निकालते और हम सब ठंड की परवा किए बिना ही उस पानी को एकदूसरे पर उछालने का ‘खेल’ खेलते.

एक बार बिल्लू भैया, बड़े गर्व से हम को अपनी उपलब्धि बता ही रहे थे कि अचानक उन से बड़े कन्नू भैया ने उन का कान जोर से उमेठ कर डांट लगाई…

‘अच्छा, तो ये तू है, जो मेरी हाकी का सत्यानाश कर रहा है…मैं भी कहूं कि रोज मैच खेल कर मैं अपनी हाकी साफ कर के रखता हूं और वह फिर इतनी गंदी कैसे हो जाती है.’

और बिल्लू भैया भी अपमान व दर्द चुपचाप सह कर, बिना आंसू बहाए कन्नू भैया को घूरते रहे पर ‘सौरी’ नहीं कहा. बचपन से ही वे रोना या अपना दर्द दूसरे से कहना अच्छा नहीं समझते थे, कभीकभी तो वे नाटकीय अंदाज में कहते थे, ‘आई हेट टियर्स…’

दूसरों से निवेदन करना जो इनसान अपनी हेठी समझता हो आज वह इस तरह…इस स्थिति में.

कितना अच्छा समय था. जब हम छोटे थे और एकता के धागे से बंधा कुल मिला कर लगभग 20 सदस्यों का हमारा संयुक्त परिवार था, जिस में दादी, एक विधवा व निसंतान चचेरी बूआ, हमारे पिता, उन से बड़े 3 भाई, सब के परिवार, हम 10 भाईबहन जोकि अपनीअपनी उम्र के भाईबहनों के साथ दोस्त की तरह रहते थे. सगे या चचेरे का कोई भाव नहीं, ताऊजी की दुकान थी…जहां पर ग्राहक को सामान से ज्यादा ताऊजी की ईमानदारी पर विश्वास था.

मेरे पिता, ताऊजी के साथ दुकान पर काम करते थे और उन के अन्य 2 भाइयों में से एक स्थानीय डिगरी कालेज में तथा एक आयकर विभाग में क्लर्क के पद पर थे जोकि निसंतान थे. कन्नू व बिल्लू भैया ताऊजी के बेटे थे. उस के बाद नन्हू व सोनू भैया थे. हम 3 बहनें, 1 भाई थे. अध्यापन का कार्य करने वाले ताऊजी के 2 बच्चे अभी छोटे थे क्योंकि वे उन की शादी के लगभग 10 साल बाद हुए थे. आयकर विभाग वाले ताऊजी निसंतान थे.

समय के साथ घर में परिवर्तन आने शुरू हुए, दादी व बूआ की मौत एक के बाद एक कर हो गई. घर के लड़के शहर छोड़ कर बाहर जाने लगे. कोई डाक्टरी की पढ़ाई के लिए, तो कोई नौकरी के लिए. मेरी भी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी. बिल्लू भैया की भी नागपुर में एक दवा की कंपनी में नौकरी लग गई, जब वे भी चले गए तब अचानक एक दिन ताऊजी पापा से बोले, ‘छोटे, अच्छा हुआ कि सभी अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, मैं चाहता भी नहीं था कि आने वाले समय में नई पीढ़ी यहां बसे. हम ने तो निभा लिया पर ये बच्चे हमारी तरह साथ नहीं रह सकते. बड़ी मुश्किल से परिवार जुड़ता है और उस में किसी एक का योगदान नहीं होता बल्कि सभी का धैर्य, निस्वार्थ त्याग, स्नेह व समर्पण मिला कर ही एकतारूपी मजबूत धागे की डोर सब को जोड़ पाती है, वर्षों लग जाते हैं…यह सब होने में.’

वैसे तो दूसरे लोग भी घर से गए थे पर ताऊजी ने यह बात बिल्लू भैया के जाने के बाद ही क्यों कही? यह विचार मेरे मन में कौंधा और उस का उत्तर मुझे मात्र 6 महीने बाद ही मिल गया. वह भी एक तीव्र प्रहार के रूप में. ऐसी चोट मिली कि आज तक उस की कसक अंदर तक पीड़ा पहुंचा देती है.

बात यह हुई कि मात्र 6 महीने बाद ही बिल्लू भैया नौकरी छोड़ कर घर वापस आ गए.

‘मैं भी दुकान संभाल लूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि बुढ़ापे में आप लोग अकेले रह जाएंगे, आप लोगों की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए,’ कहते हुए जब बिल्लू भैया ने अपना सामान अंदर रखना शुरू किया तो घर के सभी सदस्य बहुत खुश हुए किंतु ताऊजी अपने चेहरे पर निर्लिप्त भाव लिए अपना कार्य करते रहे.

मुझे जीवन की कड़वी सचाइयों का इतना अनुभव न था अन्यथा मैं भी समझ जाती कि यह चेहरा केवल निर्लिप्तता लिए हुए नहीं है बल्कि इस के पीछे आने वाले तूफान के कदमों की आहट पहचानने की चिंता व्याप्त है और यही सत्य था. तूफान ही तो था, जिस का प्रभाव आज तक महसूस होता रहा. धमाका उस दिन महसूस हुआ जब मैं अलसाई सी अपने बिस्तर पर आंखें मूंदे पड़ी थी कि एक तेज आवाज मेरे कानों में पड़ी :

‘चाचाजी, कभीकभी मुझे लगता है कि आप अपने फायदे के लिए हमारे पिताजी के साथ रह रहे हैं. आप को अपनी बेटियों की शादी के लिए पैसा चाहिए न इसीलिए…’ यह क्या, मैं ने आंखें खोल कर देखा तो अपने पापा के सामने बिल्लू भैया को खड़ा देखा…

‘यह क्या कह रहे हो? हमारे बीच में ऐसी भावना होती तो हम इतने वर्षों तक कभी साथ न रह पाते. संयुक्त परिवार है हमारा, जहां हमारेतुम्हारे की कोई जगह नहीं. इतनी छोटी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’ पापा लगभग चिल्लाते हुए बोले.

पापा की एक आवाज पर थर्राने वाले बिल्लू भैया की आज इतनी हिम्मत हो गई कि उम्र का लिहाज ही भूल गए थे. मैं सिहर कर चुपचाप पड़ी सोने का नाटक करने लगी पर ताऊजी के उस वाक्य का अर्थ मेरी समझ में आ गया था. नई पीढ़ी का रंग सामने आ रहा था. पिता होने के नाते वे अपने बेटे की नीयत जानते थे और अपने संयुक्त परिवार को हृदय से प्यार करने वाले ताऊजी इस की एकता को हर खतरे से बचाना चाहते थे.

हतप्रभ से मेरे पापा ने जब यह बात मेरे ताऊजी से कही तो वे केवल एक ही वाक्य बोल पाए, ‘शतरंज की बाजी में, दूसरे के मजबूत मोहरे पर ही सब से पहले वार किया जाता है. वही हो रहा है. तुम मुझ पर विश्वास रखोगे तो कुछ नहीं बिगड़ेगा.’

कही हुई बात इतनी कड़वी थी कि उस की कड़वाहट धीरेधीरे घर के वातावरण में घुलने लगी…उस का प्रभाव धीरेधीरे अन्य लोगों पर भी दिखने लगा और एक अदृश्य सी सीमारेखा में सभी परिवार सिमटने लगे. एक ताऊजी कालेज के वार्डन बन कर वहीं होस्टल में बने सरकारी घर में चले गए. दूसरे भी मन की शांति के लिए घर के पीछे बने 2 कमरों में रहने लगे. अपमान से बचने के लिए उन्होंने रसोई भी अलग कर ली. अलगाव की सीमारेखा को मिटाने वाले सशक्त हाथ भी उम्र के साथ धीरेधीरे अशक्त होते चले गए. ताऊजी को लकवा मार गया और पापा भी अपने सबल सहारे को कमजोर पा कर परिस्थितियों के आगे झुकने को मजबूर हो गए, परंतु अंत समय तक उन्होंने ताऊजी का साथ न छोड़ा.

अब घर बिल्लू भैया व उन की पत्नी के इशारे पर चलने लगा, समय आने पर मेरी भी शादी हो गई और मैं शिमला के अपने इस प्यारे से घर को भूल ही गई. ताऊजी, ताईजी, पापा का इंतकाल हो गया. मां मेरे भाई के पास आ गईं. अब मेरे लिए उस घर में बचपन की यादों के सिवा कुछ न था.

समय का चक्र अविरल गति से घूम रहा था…और आज बिल्लू भैया भी उम्र के उसी पड़ाव पर खड़े थे, जिस पड़ाव पर कभी मेरे पापा अपमानित हुए थे, पर उन्होंने ऐसा पत्र क्यों लिखा? क्या कारण होगा?

अचानक कानों में पति के स्वर पड़े तो मेरी तंद्रा भंग हुई थी.

‘‘तुम शिमला क्यों नहीं चली जातीं, तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा और उन का अकेलापन भी दूर होगा…चाहे थोड़े दिनों के लिए ही सही,’’ अचानक अपने पति की बातें सुन कर मैं ने सोचा कि मुझे जाना चाहिए…और मैं तैयारी करने लग गई थी.शिमला पहुंचते ही, मैं अपनी थकान भूल गई. तेज चाल से अपने मायके की ओर बढ़ते हुए मुझे याद ही नहीं रहा कि दिल्ली में रोज मुझे अपने घुटनों के दर्द की दवा खानी पड़ती है. कौलबेल पर हाथ रखते ही, बिल्लू भैया की आवाज सुनाई पड़ी, मानो वे मेरे आने के इंतजार में दरवाजे के पीछे ही खड़े थे…

‘‘छोटी, तू आ गई…बहुत अच्छा किया.’’ मुझे ऐसा लगा मानो ताऊजी सामने खड़े हों. ‘‘तेरी भाभी तो तेरे लिए पकवान बनाने में व्यस्त है…’’ तब तक भाभीजी भी डगमग चाल से चल कर मुझ से लिपट गईं. सच कहूं तो उन के प्यार में आज भी वह आकर्षण नहीं था, जो किसी ‘अपने’ में होता है. आज हम सब को अपने पास बुलाना उन की मजबूरी थी. अकेलेपन के अंधेरे से बाहर निकलने का एक प्रयास मात्र था…उस में अपनापन कहां से आएगा.

‘‘चलचल, अंदर चल,’’ बिल्लू भैया मेरा सामान अंदर रखने लगे, घर में घुसते ही मेरी आंखें भर आईं. यों तो चारों ओर सुंदरसुंदर फर्नीचर व सामान सजा हुआ था. पर सबकुछ निर्जीव सा लगा. काश, बिल्लू भैया व भाभीजी समझ पाते कि रौनक इनसानों से होती है, कीमती सामान से नहीं.

घर से हमारे बचपन की यादें मिट चुकी थीं. आज मां के हाथ के बने आलू की खुशबू, मात्र कल्पना में महसूस हो रही थी. मकान की शक्ल बदल चुकी थी… दुकान से मिसरी, गुड़, किशमिश गायब थी. बिल्लू भैया भी तो वे बिल्लू भैया कहां थे?

‘‘कितना बदल गया सबकुछ…’’ मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया.

‘‘सच कहती है तू…वाकई सब बदल गया, देख न, तनय, जिसे बच्चे की तरह गोद में खिलाया था…आज मुझ से कितनी ऊंची आवाज में बात करने लगा,’’ बिल्लू भैया के मन का गुबार मौका मिलते ही बाहर आ गया.

‘‘तनय, कन्नु भैया का बेटा… क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कहता है, मैं जायदाद पर अपना अधिकार जमाने के लिए, नौकरी छोड़ कर यहां आया था,’’ बता भला, मैं ऐसा क्यों करने लगा. जानता है न कि मैं कमजोर हो गया हूं तो जो चाहे कह जाता है, अपना हिस्सा मांग रहा है… कौन सा हिस्सा दूं और लोग भी तो हैं,’’ कहतेकहते बिल्लू भैया हांफने लगे, ‘‘बंटवारे का चक्कर होगा तो मैं और तेरी भाभी कहां जाएंगे.’’

विनी (भैया की बेटी) भी अमेरिका में बस गई थी. असुरक्षा व भय का भाव भैया की आवाज में साफ झलक रहा था.

मेरे कदम जम गए… कानों में दोनों आवाजें गूजने लगीं… एक जो मेरे पापा से कही गई थी और दूसरी आज ये बिल्लू भैया की. कितनी समानता है. न्याय मिलने में सालों तो लगे पर मिला. शायद इसीलिए परिस्थितियों ने बिल्लू भैया से मुझे ही चिट्ठी लिखवाई, क्योंकि उस दिन अपने पापा को मिलने वाली प्रत्यक्ष पीड़ा की प्रत्यक्षदर्शी गवाह मैं ही थी. इसीलिए आज न्याय प्राप्त होने की शांति भी मैं ही महसूस कर सकती थी.

आंखें बंद कर मन ही मन मैं ने ऊपर वाले को धन्यवाद दिया. आज बिल्लू भैया को इस स्थिति में देख कर मुझे अपार दुख हो रहा था… बचपन के सखा थे वे हमारे.

‘‘भैया, हम आप के साथ हैं. हमारे होते हुए आप अकेले नहीं हैं. मैं वादा करती हूं कि तीजत्योहारों पर और इस के अलावा भी जब मौका लगेगा हम एकदूसरे से मिलते रहेंगे,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य करते हुए कहा क्योंकि मैं किसी भी हालत में अपने हृदय के भाव भैया पर जाहिर नहीं करना चाहती थी. मेरे इतने ही शब्दों ने भैया को राहत सी दे दी थी…उन के चेहरे से अब तनाव की रेखाएं कम होने लगी थीं.

आखिर मेरे चलने का दिन आ गया. पूरे घर का चक्कर लगा कर एक बार फिर अपने मन की उदासी को दूर करने का प्रयास किया पर प्रयास व्यर्थ ही गया. बस स्टैंड पर भैया की आंखों में आंसू देख कर मेरे सब्र का बांध टूट गया क्योंकि ये आंसू सचाई लिए हुए थे. पश्चात्ताप था उन में, पर अब खाइयां इतनी गहरी थीं कि उन को पाटने में वर्षों लग जाते… ताऊजी की सहेजी गई अमानत अब पहले जैसा रूप कैसे ले सकती थी.

बस चल पड़ी और भैया भी लौट गए. मन में एक टीस सी उठी कि काश, यदि बिल्लू भैया जैसे लोग कोई भी ‘दांव’ लगाने से पहले समय के चक्र की अविरल गति का एहसास कर लें तो वे कभी भी ऐसे दांव लगाने की हिम्मत न करें…

यह अटल सत्य है कि यही चक्र एक दिन उन्हें भी उसी स्थिति पर खड़ा करेगा जिस पर उन्होंने दूसरे व्यक्ति को कमजोर समझ कर खड़ा किया है. इस तथ्य को भुलाने वाले बिल्लू भैया आज दोहरी पीड़ा झेल रहे थे…निजी व पश्चात्ताप की.

अगर तुम साथ दो : क्या चारू अपने पति को सुधार पाई ?

Writer : रीशा गुप्ता

चारू अस्पताल के कमरे में बैड पर दुलहन बनी लेटी थी. उस के सिर पर लाल चुनरी सजी हुई थी. इस बीमारी में भी उस का चेहरा इस वक्त चांद सा दमक रहा था. शायद यह मिहिर का प्यार ही था जिस का तेज उस के चेहरे पर चमक बन बिखरा हुआ था. औक्सीजन सिलैंडर… तमाम तरह की मशीनें उस कमरे में उस के बिस्तर के चारों ओर थीं और साथ में थे मिहिर… चारू के मम्मीपापा, मिहिर के घर वाले, उस के दोस्त, डाक्टर्स, नर्स और पंडितजी. कुछ मंत्र और पूजा के बाद पंडितजी ने मिहिर से चारू की मांग में सिंदूर भरने को कहा. मिहिर जिस का हाथ चारू के हाथ में था उस ने उसी हाथ से सिंदूर की डब्बी अपने हाथ में ली और उस में से सिंदूर अपनी उंगली में ले चारू की मांग में भर दिया. चारू की आंखें खुशी से छलछला आईं… आंसुओं का तूफान पूरे वेग के साथ उस की आंखों से उतर उस के तकिए को भिगोने लगा. मिहिर ने चारू के माथे पर एक चुंबन अंकित किया और उस के आंसू पोंछने लगा.

भावनाओं का एक ज्वार इस वक्त दोनों अपने अंदर समेटे थे जिसे बांधना दोनों के लिए मुश्किल हो रहा था. खुद मिहिर की आंखें इस वक्त भर आई थीं पर उस ने खुद पर काबू कर रखा था. कमरे में मौजूद हर शख्स की आंखें भीगी हुई थीं.

मिहिर ने चारू के हाथों को एक बार फिर से अपने हाथों में लिया और बोला, ‘‘वादा करो तुम हिम्मत नहीं हारोगी… मैं यही तुम्हारा इंतजार करूंगा… एक सुनहरा भविष्य हम दोनों का इंतजार कर रहा है. तुम जानती हो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा. तुम्हें वापस आना ही होगा मेरे लिए, अपने मिहिर के लिए.’’

चारू ने मिहिर से वादा किया और कस कर उस के गले लग गई. इस वक्त शब्दों से ज्यादा दोनों को एकदूसरे के एहसासों की जरूरत थी जिन्हें वे सिर्फ और सिर्फ महसूस करना चाहते थे. मिहिर देर तक चारू की पीठ सहलाता रहा.

इधर चारू के पापा ने वहां मौजूद सभी लोगों का मुंह मीठा कराया. डाक्टर ने मिहिर से कुछ पेपर्स पर हस्ताक्षर करवाए जोकि औपरेशन से पहले की काररवाई थी. चूंकि मिहिर अब चारू का पति था इसलिए इस औपरेशन की मंजूरी, हर संभावना की जिम्मेदारी उस ने खुद के ऊपर ली. डाक्टर ने मिहिर को बताया कि अब चारू के औपरेशन का समय हो रहा है. मिहिर ने वहां मौजूद सभी से हाथ जोड़ कुछ देर के लिए दोनों को अकेला छोड़ने को कहा. सब के जाने के बाद मिहिर ने चारू के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और बोला, ‘‘चारू, तुम्हारा मिहिर यही तुम्हारा इंतजार करेगा…. तुम्हें मेरे लिए वापस आना है… अपने मन में कोई शंका मत रखना… तुम मु?ो हर रूप में स्वीकार हो… मैं ने तुम्हारे शरीर से नहीं तुम्हारी रूह से प्यार किया है.’’

मिहिर की बातों से चारू को अपने पहले पति नीलेश की याद आ गई जिस ने सिर्फ उस के जिस्म से प्यार किया. रूह तक तो कभी पहुंच ही नहीं पाया. यह सोच उस का मन आज भी कसैला हो गया. नर्स कमरे में आ चुकी थी चारू को नर्स ने स्ट्रेचर पर लिटाया और औपरेशन थिएटर की ओर बढ़ गए. चारू के हाथों में मिहिर का हाथ अब भी था. औपरेशनरूम के बाहर मिहिर ने चारू को कस कर गले लगाया तो चारू ने मिहिर से कहा, ‘‘मिहिर, बहुत डर लग रहा है मु?ो… वापस आना है तुम्हारे लिए… आऊंगी न वापस?’’

मिहिर उस के कानों में फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘बिलकुल आओगी चारू. मु?ो हमारे प्यार पर यकीन है… हमारा प्यार कमजोर नहीं हमारी ताकत है और इसी ताकत के भरोसे तुम जीत कर आओगी.’’

नर्स चारू को अंदर ले गई औपरेशनरूम का दरवाजा बंद होने लगा. चारू और मिहिर जब तक संभव था एकदूसरे को देखते रहे.

दरवाजा बंद होते ही मिहिर बेचैनी से इधरउधर टहलने लगा. चारू के लिए उस की फिक्र उस के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी.

तभी चारू के पापा उस के पास आए और मिहिर के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘‘बेटा औपरेशन लंबा चलेगा तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

मिहिर बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं पापा… मैं चारू के कमरे में जा रहा हूं… कुछ देर अकेले रहना चाहता हूं,’’ और मिहिर थके कदमों से चारू के कमरे की ओर बढ़ गया.

कमरे में चारों ओर फूल बिखरे हुए थे जो कुछ देर पहले के ही थे जब मिहिर ने चारू को हमेशाहमेशा के लिए अपनी जीवनसंगिनी बनाया था. कितने ताजा थे वे फूल बिलकुल उन दोनों के प्यार की तरह.

मिहिर चारू के बिस्तर के पास रखी कुरसी पर बैठ गया. चारू की लाल चुनर अभी भी मिहिर के हाथों में ही थी जो चारू ने उसे औपरेशन थिएटर के बाहर दी थी और कहा था कि जब वह औपरेशन थिएटर से बाहर आए तो उसे अपने हाथों से वह चुनर ओढ़ाए. 2 बूंद आंसू निकल कर मिहिर के गालों पर छलक आए. बहुत देर से खुद को संभाल रखा था उस ने पर अब मुश्किल हो रहा था.

आंख बंद करते ही मिहिर 7 साल पहले की यादों में चला गया. किसी चलचित्र की भांति चारू की जिंदगी का वह भयानक अतीत उस की आंखों के आगे मंडराने लगा…

चारू और मिहिर दोनों कालेज में साथ पढ़ते थे. मिहिर शुरू से चारू को पसंद करता था पर चारू शायद कभी उस के प्यार को सम?ा नहीं पाई. उस ने हमेशा मिहिर को सिर्फ एक दोस्त सम?ा. चारू का कालेज अभी खत्म भी नहीं हुआ कि उस का एक बहुत ही रईस खानदान से रिश्ता आया. चारू ने थोड़ी नानुकुर भी की पर उस के मम्मीपापा ने इतना अच्छा रिश्ता हाथ से न जाने का दबाव बनाया और चारू को हां कहनी पड़ी. वैसे भी मध्यवर्गीय परिवार में अपनी पसंद, मरजी की जगह कम ही होती है. इधर मिहिर के अरमां दिल के दिल में रह गए. उस ने अपने प्यार का इजहार करने की हिम्मत कभी की ही नहीं.

हालांकि एक दफा सगाई के बाद जब चारू की सहेली ने चारू को मिहिर के दिल की बात बताई तो चारू बोली, ‘‘काश एक बार तो कहते मिहिर,’’ और वह काश बस उस दिन उस के दिल में एक कसक बन दफन हो गया.

पहली रात से ही चारू के सामने उस के पति नीलेश की हरकतें आ गईं वह सुहाग सेज पर नख से शिख तक तैयार हो कर अपनी भावी दुनिया के सपनों में खोई हुई बैठी थी… सोचसोच कर उस का तनमन रोमांचित हो रहा, गाल शर्म से लाल हो रहे थे पर नीलेश बहुत देर तक नहीं आया. अब तो नींद से उस की आंखें बोली होने लगीं.

तभी उस की ननद उस के कमरे में आई, ‘‘अरे भाभी कब तक ऐसे ही बैठे रहोगी? भाई का कुछ पता नहीं. आप सो जाओ. सुबह भी जल्दी उठना है. मुंह दिखाई की रस्म है.’’

नीलेश का अभी तक न आना और अपनी ननद के ऐसे रूखे बरताव से एक पल में उस के सारे सपने चकनाचूर हो गए. जल्द ही उसे मालूम चल गया जब अमीर मांबाप का लाडला उन के हाथ से निकल गया तो उसे सुधारने के लिए चारू के रूप में बली चढ़ाई गई इसी आस में कि शायद शादी के बाद सुधर जाए.

चारू को याद ??नहीं कभी नीलेश ने उसे प्यार से देखा हो, उस से 2 घड़ी बैठ कर बात करी हो. उसे तो अपने आवारा दोस्तों और उन की गंदी सोहबत से ही फुरसत नहीं थी.

रात नीलेश बहुत पी कर आता और अपनी जरूरत के हिसाब से चारू के शरीर को भोगता. इन पलों में ही सही चारू को उस के पास आने का मौका मिलता. वह सोचती एक दिन अपने प्यार से वह नीलेश को बदल देगी.

अचानक एक दिन नीलेश के मुंह से निकल गया, ‘‘माहिका आई लव यू, मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा हूं.’’

चारू जो अब तक नीलेश का साथ दे रही, सुनते ही उस का शरीर बिलकुल ढीला पढ़ गया. वह सम?ा गई कि वह नीलेश की बांहों में जरूर है, पर उस के मन में नहीं.

सुबह जब नीलेश को होश आया तो चारू ने उस से माहिका के लिए पूछ लिया. नीलेश ने भी सब बता दिया कि उस से शादी तो उस की मजबूरी थी, उस की जिंदगी में जो भी है बस माहिका है और उस की जगह कभी कोई नहीं ले सकता. वह तो घर वाले उस की पसंद के खिलाफ थे, इसलिए जल्दबाजी में तुम मेरे गले पड़ गई और फिर नीलेश कमरे से बाहर चला गया.

चारू धम्म से पलंग पर बैठ गई. आंसू कब उस की आंखों के बाहर निकल गए उसे पता ही नहीं चला. उस को लगा था शायद उस के प्यार से नीलेश सुधर जाए पर नीलेश आज उस की उस बची आस को भी तोड़ गया.

चारू मन मान कर सबकुछ सहन कर रही थी. उस दिन के बाद तो वह एक मशीन की तरह बन गई. दिन में घर वालों की जरूरत, रात को नीलेश की. सच जीतीजागती लाश बन गई, जिस में न कोई उम्मीद, न उमंग न उत्साह.

कुछ दिन से चारू की तबीयत सही नहीं रह रही थी. 1-2 बार तो चक्कर खा कर गिर गई पर उस घर में कभी चारू को गंभीरता से नहीं लिया तो उस की तबीयत को कौन लेता. आखिर जब एक दिन चारू की तबीयत ज्यादा ही खराब हुई तो डाक्टर को दिखाया. जांच में पता चला उसे ब्रैस्ट कैंसर है. ससुराल वालों को वैसे ही उस से कोई लगाव नहीं था. उस की बीमारी की बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा और एक दिन उसे बो?ा सम?ा उस के पीहर छोड़ आए और कहा, ‘‘इस के इलाज में जितना पैसा लगेगा हम लगाएंगे पर तब तक इसे अपने पास ही रखिएगा.’’

चारू को लगा जैसे वह इंसान नहीं कोई सामान है जिस की जब तक जरूरत थी नीलेश और उस के घर वालों ने भोगा पर अब जब वह सामान किसी काम का नहीं तो उसे उठा कर बाहर फेंक दिया. उसे खुद से घिन आने लगी. आखिर उस ने एक कठोर फैसला लिया और अपने पापा को तलाक के पेपर मंगाने को कहा. चारू के मम्मीपापा ने उसे बहुत सम?ाया पर चारू ने कहा, ‘‘यह फैसला उस ने बहुत सोचसम?ा कर लिया है. अगर तलाक नहीं हुआ तो वह अपना इलाज भी नहीं करवाएगी.’’

हार कर जब चारू के पापा ने नीलेश को तलाक के पेपर्स भिजवाए तो उसे कोई आपत्ति ही नहीं थी. वह तो कब से इस बंधन से छुटकारा पाना चाहता था और आखिरकार आपसी सहमति से जल्द ही दोनों का तलाक हो गया.

इधर चारू जितनी अपनी बीमारी से नहीं टूटी उस से कहीं अधिक नीलेश और उस के घर वालों के बरताव से टूट गई. उस की जैसे जीने की इच्छा ही खत्म हो गई. डाक्टर्स ने साफ कहा कि हम इलाज तो करेंगे पर सहयोग तो चारू को ही करना होगा. उसे अपने अंदर इच्छाशक्ति जगानी होगी वरना कोई इलाज काम नहीं करेगा.

चारू के मम्मीपापा अपनी बेटी की हालत देख अंदर ही अंदर घुले जा रहे थे. पर चारू तो जैसे बस अब मौत को ही गले लगाना चाहती थी. एक दिन चारू की मां ने उस की सब से अच्छी सहेली शैलजा को फोन किया और उसे सब बताया. अगले दिन शैलजा और उस के 2 दोस्त उस से मिलने आए, चारू अपने खयालों में खोई थी कि हैलो चारू कैसी हो? इतने दिन बाद जानीपहचानी आवाज सुन चारू ने आंख उठा कर देखा. उस के सामने शैलजा, विनीता और मिहिर खड़े थे. उन चारों की कालेज में चौकड़ी थी. सब उन की दोस्ती से चिढ़ते भी थे और मिसाल भी देते थे. चारों एकदूसरे के हर सुखदुख में हाजिर.

एक बार तो अपने सामने उन तीनों को देख उस की आंखों में चमक आ गई पर फिर उस ने मुंह फेर लिया.

शैलजा चारू के पलंग के पास आ कर बैठ गई. चारू के मम्मीपापा बोले, ‘‘तुम लोग बात करो हम बाहर बैठे हैं.’’

‘‘चारू हम चारों इतने दिन बाद इकट्ठे हुए, बात नहीं करेगी… तेरे साथ इतना कुछ हो गया और हमें बताना जरूरी नहीं सम?ा… हम सब तु?ो कितने फोन और मैसेज करते पर तूने तो हमारे फोन उठाना बंद कर दिया, धीरेधीरे हम भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.’’

‘‘शैलजा बोले जा रही थी कि चारू की आंखों से आंसू बह रहे थे. आसुंओं से उस का तकिया पूरा भीग चुका था. फिर वह अचानक शैलजा के गले लग गई, ‘‘शालू मैं क्या करती, पता नहीं कुदरत मु?ो किन पापों की सजा दे रही है… क्या बताती तुम सब को… मेरे पास बताने को भी कुछ नहीं बचा.’’

उस दिन चारू खूब रोई, उस के दोस्तों ने भी उसे रोने दिया. उस दिन के बाद अब रोज उस के दोस्त उस से मिलने आने लगे, चारू भी अब कुछ बातें करने लगी, थोड़ा खुश रहने लगी, पर कई बार उस की बातों से लगता जैसे उस के अंदर जीने की इच्छा बिलकुल नहीं बची.

एक दिन मिहिर अकेला आया, शैलजा और विनीता को कुछ काम था. मिहिर को अपने सामने  देख चारू के चेहरे पर मुसकान आ गई, ‘‘कैसे हो मिहिर? आजकल बड़े चुपचुप रहते हो? कालेज में तो कितना बोलते थे और शादी कब कर रहे हो?’’

एकाएक पता नहीं क्यों मिहिर अकेले चारू का सामना नहीं कर पा रहा था. उस का गला भर आया. उस ने अपनी आंखें फेर लीं. चारू ने मिहिर के हाथ पर अपना हाथ रखा, ‘‘मैं जानती थी मिहिर तुम मु?ो पसंद करते थे पर मैं ने तुम्हारे लिए ऐसा कभी नहीं सोचा था, मैं सिर्फ तुम्हें दोस्त मानती थी.’’

मिहिर चारू की तरफ मुंह कर के बोला, ‘‘पसंद करता था नहीं चारू आज भी पसंद करता हूं, मैं तुम्हें चाहता हूं, मेरे दिल में तुम्हारे सिवा कोई नहीं है.’’

चारू के चेहरे पर एक फीकी मुसकान आ गई, ‘‘अब मु?ो पा कर क्या करोगे मिहिर, मेरे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं, मैं तो खुद खुश नहीं तो तुम्हें क्या खुश रखूंगी.’’

‘‘क्यों नहीं चारू अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, मैं आज भी तुम्हें उतना ही प्यार करता हूं, तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘पागल हो तुम, सबकुछ जानबू?ा कर कैसे ऐसा बोल सकते हो, कहीं तुम मु?ा पर दया तो नहीं कर रहे?’’ चारू चिल्ला कर बोली. उस की आंखें गुस्से से लाल थीं. कुछ देर कमरे में सन्नाटा रहा. जब चारू थोड़ा सामान्य हुई तो मिहिर से बोली, ‘‘मिहिर, मु?ो उस शीशे के सामने ले चलो.’’

मिहिर के सहारे वह धीरे से बैड से उतरी, ‘‘देखा मिहिर क्या हालत हो गई, बिना सहारे के उठ भी नहीं सकती,’’ चारू के स्वर में बहुत दर्द था.

मिहिर उसे शीशे के सामने ले आया.

‘‘देखो मिहिर मेरी हालत देखो, मेरे बाल देखो, धीरेधीरे जितने बचे हैं वे भी ?ाड़ जाएंगे, मैं खुद शीशा देखना पसंद नहीं करती, तुम्हारी जिंदगी कैसे बरबाद कर दूं और जानते हो न मेरे औपरेशन के बाद तो… मेरे शरीर का एक हिस्सा मु?ा से काट दिया जाएगा. मैं कैसे तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर सकती हूं.’’

मिहिर ने उसे पास रखे सोफे पर बैठाया और खुद उस के पास जमीन पर बैठ गया. उस का हाथ अपने हाथ में ले बोला, ‘‘चारू यह जीवन है, यहां पत?ाड़ आता है तो वसंत भी आएगा, बस तुम हां कर दो मैं तुम्हारे जीवन में वसंत ले कर आऊंगा और हां मैं तुम पर कोई दया नहीं कर रहा बल्कि अपने को खुशहाल सम?ांगा और हां मैं ने तुम्हारे जिस्म से नहीं तुम से, तुम्हारी रूह से प्यार किया. अगर शादी के बाद कुछ होता तो? और अगर मेरे साथ कुछ ऐसा हो तो क्या तुम मु?ो छोड़ दोगी?’’ चारू ने मिहिर के मुंह पर हाथ रख दिया.

‘‘नहीं मिहिर मैं ऐसा नहीं कर सकती. इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती… मैं तो जीना ही नहीं चाहती… मु?ो मर जाने दो,’’ चारू अपने मुंह पर दोनों हाथ रख फूटफूट कर रोने लगी.

मिहिर ने चारू के चेहरे पर से उस के हाथों को हटा उस के आंसू पोंछे और बोला, ‘‘तुम्हें जीना होगा… मेरी खातिर जीना होगा, आज से तुम्हारी जिंदगी पर मेरा भी हक है, अपने लिए नहीं तो मेरे लिए जीना होगा, वादा करो मुझ से.’’

एकाएक चारू मिहिर की बांहों में समा गई, ‘‘मिहिर मैं जीना चाहती हूं, तुम्हारे लिए… अपने लिए. क्या मेरे जीवन में फिर से वसंत आ पाएगा?’’ इतने दिन बाद शायद मिहिर का प्यार उसे खुशी दे गया.

मिहिर उसे सीने से लगाए बोला, ‘‘क्यों नहीं आएगा, जरूर आएगा… बस अगर तुम साथ दो.’’

चारू ने अपना हाथ मिहिर के हाथ में दिया जैसे साथ देने का वादा कर रही हो.

चारू के मम्मीपापा, शैलजा और विनीता पीछे खड़े थे. सब की आंखों में आंसू थे पर आंखें कई अरमानों से सजी हुई थीं. मिहिर ने कहा कि वह चारू के औपरेशन से पहले ही उस से शादी करना चाहता है और चारू से वादा लिया कि हमारी शादी के उपहार में उसे सहीसलामत वापस आना है.

इधर मिहिर अभी अपने खयालों में ही था कि तभी चारू के पापा कमरे में आए. उन की आंखें आंसुओं से भरी थीं. मिहिर उन्हें अपने सामने देख किसी अनहोनी की आशंका से कांपने लगा. उस का शरीर बिलकुल सफेद पड़ गया मानो किसी ने उस के शरीर से सारा खून चूस लिया हो.

मिहिर के पापा उस के पास आ उसे गले लगाते हुए बोले, ‘‘मिहिर बेटा तुम्हारा प्यार… तुम्हारा विश्वास जीत गया… औपरेशन सफल हुआ… चारू को कुछ देर में बाहर ला रहे हैं.’’

मिहिर चारू के पापा के गले लग रोने लगा फिर रुंधे गले से बोला, ‘‘पापा, मेरी चारू… चुनर… मु?ो चारू को दुलहन बनाना है उसे यह चुनर,’’ और बात पूरी करने से पहले वह बाहर की ओर भागा. उस के हाथ में लाल चुनर थी. अपनी चारू को फिर से दुलहन के रूप में देखने को बेकरार था वह.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें