जानें क्या है वजाइनल यीस्ट इंफेक्शन और रिप्रोडक्शन

महिलाओं में हार्मोनल स्तर के लगातार इंबैलेंस, बैक्टीरिया या सेक्स एक्टिविटीज के कारण योनि से जुड़ी समस्याएं होती हैं. हर साल इससे लाखों महिलाएं ग्रसित होती हैं. अपनी इस बीमारी के बारे में वो किसी से खुल कर बता भी नहीं पाती हैं और सही उपचार भी नहीं कर पाती हैं. महिलाओं में योनिशोथ (Vaginitis) एक बहुत बड़ी समस्या है. वास्तव में यह संक्रमण प्रजनन के समय अधिक तेज़ी से होता है.

इस बारे में बता रही है-डॉ. रत्‍ना सक्सेना, फर्टिलिटी कंसल्टेंट, बिजवासन, दिल्ली एनसीआर, नोवा साउथएंड आईवीएफ एंड फर्टिलिटी.

वजाइनल यीस्ट इंफेक्शन

योनि यीस्ट संक्रमण फंगल एजेंट्स की वजह से होता है जोकि अन्य लक्षणों के साथ खुजली, जलन, सूजन और योनि से बदबूदार डिस्चार्ज के रूप मे सामने आता है. लगभग 75% महिलाओं को अपने जीवन में कभी ना कभी यह रोग होता है, कई महिलाओं को तो दो या उससे ज्यादा बार यह समस्या होती है. योनि यीस्ट संक्रमण का सबसे आम कारण कैंडिडा एलिसिन, नामक एक फंगस है, जो सभी मामलों में 92 प्रतिशत तक जिम्मेदार होता है. हालांकि, यह फंगस शरीर में पहले से मौजूद होता है, लेकिन इसकी वृद्धि लक्षणों को और बिगाड़ सकती है. आमतौर पर, योनि एसिड संतुलन इस फंगस को बढ़ने से रोकता है. वैसे, योनि के एसिड में बदलाव, बीमारी, मासिक धर्म, गर्भावस्था, कुछ दवाओं या गर्भनिरोधक गोलियों के कारण भी हो सकता है, यीस्ट के बढ़ने की दर को तेज कर सकता है. वास्तव में, 50% तक महिलाओं में यह वायरस होता है फिर भी कोई लक्षण या संकेत दिखाई नहीं देते.

केवल यीस्ट संक्रमण ही सीधेतौर पर महिलाओं में प्रजनन को प्रभावित नहीं कर सकता. हालांकि, यीस्ट संक्रमण की वजह से होने वाली असहजता और खुजली उसे संभोग करने से रोक सकती है, इसलिये उसके गर्भवती होने की संभावना प्रभावित हो सकती है. यदि उपचार कराया जाए तो यीस्ट संक्रमण आसानी से ठीक किया जा सकता है और दो हफ्ते या उससे ज्यादा वक्त में खत्म किया जा सकता है.

योनि के यीस्ट:

ऐसे कई कारण हैं जो योनि क्षेत्र में बैक्टीरिया के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ सकते हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

हॉर्मोन में बदलाव:

ओव्यूलेशन, रजोनिवृत्ति, गर्भावस्था, हॉर्मोन थैरेपी और गर्भनिरोधक गोलियां सभी हॉर्मोनल बदलाव के उदाहरण हैं.

एंटीबायोटिक्स:

एंटीबायोटिक्स और स्टेरॉयड्स, सेहतमंद बैक्टीरिया को खत्म कर सकते हैं, जोकि योनि क्षेत्र की सुरक्षा करने या फिर प्राकृतिक बैक्टीरियल संरचना में बदलाव ला सकते हैं.

डायबिटीज:

डायबिटीज योनि की कोशिकाओं में ग्लाइसोजेन के स्तर को कम कर सकता है और योनि में पीएच संतुलन को बढ़ा सकता है, जिससे फंगल इंफेक्शन का खतरा और बढ़ जाता है.

प्रतिरक्षा को कम करने वाले तत्‍व :

इम्‍युनिटी एचआइवी/एड्स, कीमोथेरैपी जैसे रोगों और शक्तिशाली दवाओं से कमजोर हो सकती है.

योनि के जख्म: योनि इंसर्शन्‍स की वजह से होने वाले जख्मों से रक्तधारा में बैक्टीरियल और फंगल रोगाणु पहुंच सकते हैं.

टाइट अंडरपैंट:

टाइट, सिंथेटिक अंडरपैंट की वजह से अत्यधिक गर्मी, नमी और असहजता हो सकती है.

यीस्ट संक्रमण के लक्षण

चूंकि, यीस्ट इंफेक्शन के लक्षण अन्य योनि संक्रमणों से मिलते-जुलते हो सकते हैं, इसलिये इलाज शुरू करने से पहले जांच करवाना बहुत जरूरी है. इसके लक्षण इस प्रकार हैं:

खुजली:

यह संक्रमण की गंभीरता पर निर्भर करता है, योनि की खुजली हल्के से गंभीर हो सकती है.

योनि डिस्चार्ज:

खमीर या ब्रेडी दुर्गंध के साथ एक गाढ़ा, चिपचिपा सफेद डिस्चार्ज.

सूजन: 

इसमें योनि लाल हो जाती है या जलन पैदा करती है.

जलन:

यूरीन या संभोग के दौरान दर्द महसूस होना.

यीस्ट संक्रमण और प्रजनन

कभी-कभार होने वाला यीस्ट संक्रमण जो आसानी से ठीक हो जाता है, आपकी प्रजनन क्षमता पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. यौन क्रिया के लिये आपकी इच्छा को कम करके ही यह आपको प्रभावित कर सकता है. दूसरी ओर, बार-बार होने वाले यीस्ट संक्रमण, सर्वाइकल म्यूकस की स्थिरता और प्राकृतिक योनि की स्थिति को बाधित कर सकते हैं, जिससे शुक्राणु का गर्भाशय में प्रवेश करना अधिक कठिन हो जाता है. चरम परिस्थितियों में, यह बांझपन का कारण बन सकता है और प्रजनन उपचार को जरूरी बना सकता है. याद रखें, जब आप गर्भ धारण की कोशिश कर रहे हों तो बीमारी से मुक्त रहना महत्वपूर्ण है, क्योंकि बीमारी न केवल आपके साथी, बल्कि आपके बच्चे को भी हो सकती है.

यीस्ट संक्रमण को कम करने के उपाय

जैसा कि नीचे बताया गया है, यीस्ट संक्रमण को आहार में बदलाव और ऊपरी तौर पर दवाई लगाकर ठीक किया जा सकता है.

आहार में बदलाव

परिष्कृत अनाज, मिठाई और शराब सभी फंगल संक्रमण को बढ़ा सकते हैं, इसलिये उपचार के दौरान इनसे दूर रहना बेहतर है. ताजे फल और सब्जियों, पौष्टिक अनाज और ऑर्गेनिक दही का सेवन बढ़ाएं. इम्युनिटी बढ़ाने और बैक्टीरिया से लड़ने के लिये, एंटीबायोटिक और मल्टीविटामिन सप्लीमेंट लेने के बारे में अपने डॉक्टर से बात करें. आहार में बदलाव के परिणाम दिखने में 5-6 सप्ताह तक का समय लग सकता है.

ऊपरी उपचार

यीस्ट संक्रमण के लक्षणों को कम करने के लिये आप कई तरह के घरेलू उपाय कर सकती हैं. टी ट्री ऑयल एक एंटीसेप्टिक, एंटीफंगल और एंटीबैक्टीरियल एजेंट होता है, जिसका इस्तेमाल नहाने के पानी में किया जाता है और इसके बेहतरीन परिणाम मिलते हैं. हर बार अपनी बाल्टी में, 10 बूंदें डालें, लेकिन इसे सीधे अपने योनि क्षेत्र में ना लगाएं. साथ ही अपनी स्त्रीरोग विशेषज्ञ से भी ऊपरी थैरेपीज के बारे में बात करें, जोकि आपको राहत महसूस कराने में मदद कर सकें.

यीस्ट संक्रमण की वजह से अपने योनि की असहजता और दर्द को दूर करके खुद को बचाएं. इस बीमारी का प्रबंधन करने के लिये उपचार की सही रणनीति अपनाएं और इसके खतरनाक प्रभावों से बचें.

क्या डायबिटीज से प्रैग्नेंसी पर कोई इफेक्ट पड़ता है?

सवाल-

मैं 33 साल की विवाहित स्त्री हूं. मुझे पिछले कुछ सालों से टाइप 2 डायबिटीज है. लेकिन मैं नियम से दवा लेती हूं इसलिए मेरी ब्लड शुगर कंट्रोल में बनी हुई है. मेरा और मेरे पति का मन है कि हम अपने परिवार को आगे बढ़ाएं, लेकिन डायबिटीज होने के कारण डर लगता है कि कहीं इस का मुझ पर या हमारे बच्चे पर कोई बुरा असर न हो जाए. हमें क्या करना चाहिए?

जवाब-

प्रैगनैंट होने का मन बनाने से पहले आप अपने डाक्टर से खुल कर बातचीत कर लें. आप ने हमें यह नहीं लिखा है कि आप ब्लड शुगर कंट्रोल में रखने के लिए कौनकौन सी दवा ले रही हैं. अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है कि प्रैगनैंसी में इंसुलिन सब से सुरक्षित और उपयुक्त साबित होता है. यह कितनी मात्रा में और किस रूप में लिया जाए, यह निर्णय आप की व्यक्तिगत जरूरत को समझ कर ही किया जा सकता है.

यदि प्रैगनैंट होने से पहले ब्लड शुगर संतुलित कर ली जाए और प्रैगनैंसी के दौरान में उस पर नियंत्रण बना रहे, तो डायबिटिक मदर के बच्चे में जन्मजात विकार होने की संभावना काफी घट जाती है. मां का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है.

डायबिटीज एक क्रोनिक रोग है जो हर उम्र के लोगों को प्रभावित करता है. टाइप 1 डायबिटीज बच्चों और किशोरों में ज्यादा पाई जाती है, जबकि टाइप 2 डायबिटीज ज्यादातर युवा और वयस्कों को होती है. डायबिटीज से पीडि़त बच्चों की देखभाल करना मुश्किल हो सकता है खासतौर पर तब जब आप को पता हो कि आप के बच्चे को जीवनभर इसी के साथ जीना पड़ सकता है.

मातापिता की तरह डायबिटीज का असर बच्चों के मन पर भी पड़ता है. वे हमेशा अपनेआप को दूसरे बच्चों से अलग महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें कई चीजों के लिए रोका जाता है. ऐसे में इन बच्चों का आत्मविश्वास भी कम हो सकता है.

पेश हैं, इस संदर्भ में डा. मुदित सबरवाल (कंसलटैंट डायबेटोलौजिस्ट एवं हैड औफ मैडिकल अफेयर्स, बीटो) के कुछ सु झाव:

डायबिटीज से ग्रस्त बच्चे का जीवन

टाइप 1 डायबिटीज एक क्रोनिक रोग है. इस स्थिति में पैंक्रियाज में इंसुलिन नहीं बनता है या कम मात्रा में बनता है. इसलिए शरीर को बाहर से इंसुलिन देना पड़ता है.

टाइप 1 डायबिटीज से पीडि़त बच्चा तनाव और थकान महसूस करता है. वह अपने भविष्य को ले कर चिंतित हो सकता है. ‘डायबिटीज बर्नआउट’ एक ऐसी स्थिति है जिस में व्यक्ति अपनी डायबिटीज को नियंत्रित करतेकरते थक जाता है. ऐसी स्थिति में बच्चे अपने ब्लड ग्लूकोस लैवल को मौनिटर करना, इसे रिकौर्ड करना या इंसुलिन लेना नहीं चाहते.

ऐसे में मातापिता होने के नाते आप को अपने बच्चे के डायबिटीज मैनेजमैंट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है. बच्चे को खुद अपनी स्थिति पर नियंत्रण रखने दें. इस बीच उसे पूरा सहयोग दें और मार्गदर्शन करें.

ऐंडोमैट्रिओसिस से बढ़ता बांझपन का खतरा

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय से जुड़ी एक समस्या है. यह समस्या महिलाओं की प्रजनन क्षमता को सर्वाधिक प्रभावित करती है, क्योंकि गर्भधारण करने और बच्चे को जन्म देने में गर्भाशय की सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. कई महिलाओं में यह समस्या अत्यधिक गंभीर हो शरीर के दूसरे अंगों को भी प्रभावित करती है. वैसे आधुनिक दवा और उपचार के विभिन्न विकल्पों ने दर्द और बांझपन दोनों से राहत दिलाई है. ऐंडोमैट्रिओसिस का यह अर्थ नहीं है कि इस से पीडि़त महिलाएं कभी मां नहीं बन सकतीं, बल्कि यह है कि इस के कारण गर्भधारण करने में समस्या आती है.

क्या है ऐंडोमैट्रिओसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय की अंदरूनी परत की कोशिकाओं का असामान्य विकास होता है. यह समस्या तब होती है जब कोशिकाएं गर्भाशय के बाहर विकसित हो जाती हैं. इसे ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट कहते हैं. ये इंप्लांट्स आमतौर पर अंडाशय, फैलोपियन ट्यूब्स, गर्भाशय की बाहरी सतह पर या आंत और पैल्विक गुहा की सतह पर पाए जाते हैं. ये वैजाइना, सरविक्स और ब्लैडर पर भी पाए जा सकते हैं. बहुत ही कम मामलों में ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट्स पैल्विस के बाहर लिवर पर या कभीकभी फेफड़ों अथवा मस्तिष्क के आसपास भी हो जाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण

ऐंडोमैट्रिओसिस महिलाओं को उन के प्रजनन कालके दौरान प्रभावित करता है. इस के ज्यादातर मामले 25 से 35 वर्ष की महिलाओं में देखे जाते हैं. लेकिन कई बार 10-11 साल की लड़कियों में भी यह समस्या होती है. मेनोपौज की आयु पार कर चुकी महिलाओं में यह समस्या बहुत कम होती है. विश्व भर में करोड़ों महिलाएं इस से पीडि़त हैं. जिन महिलाओं को गंभीर पैल्विक पेन होता है उन में से 80% ऐंडोमैट्रिओसिस से पीडि़त होती हैं. इस के वास्तविक कारण पता नहीं हैं. हां, कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस की समस्या उन महिलाओं में अधिक है, जिन का बौडी मास इंडैक्स (बीएमआई) कम होता है. बड़ी उम्र में मां बनने वाली या कभी मां न बनने वाली महिलाओं में भी यह समस्या हो सकती है. इस के अलावा जिन महिलाओं में पीरियड्स जल्दी शुरू हो जाते हैं या मेनोपौज देर से होता है, उन में भी इस का खतरा बढ़ जाता है. इस के अलावा आनुवंशिक कारण भी इस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के लक्षण

ज्यादातर महिलाओं में ऐंडोमैट्रिओसिस का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता, लेकिन जो लक्षण दिखाई देते हैं उन में पीरियड्स के समय अत्यधिक दर्द होना, पीरियड्स या अंडोत्सर्ग के समय पैल्विक पेन ऐंडोमैट्रिओसिस का एक लक्षण है. लेकिन यह सामान्य महिलाओं में भी हो सकता है. इस दर्द की तीव्रता हर महीने बदल सकती है और अलगअलग महिलाओं में अलगअलग हो सकती है.

पैल्विक क्षेत्र में दर्द होना यानी पेट के निचले भाग में दर्द होना और यह दर्द कई दिनों तक रह सकता है. इस से कमर और पेट में दर्द भी हो सकता है. यह पीरियड शुरू होने से पहले हो सकता है और कई दिनों तक चल सकता है. मल त्यागने और यूरिन पास करने के समय दर्द हो सकता है. यह समस्या अधिकतर पीरियड्स के समय अधिक होती है. पीरियड्स के समय अत्यधिक रक्तस्राव होना, कभीकभी पीरियड्स के बीच में भी रक्तस्राव होना, यौन संबंध के दौरान या बाद में दर्द होना, डायरिया, कब्ज और अत्यधिक थकान होना. छाती में दर्द या खांसी में खून आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस फेफड़ों में है, सिरदर्द और चक्कर आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस मस्तिष्क में है.

रिस्क फैक्टर

कई कारक ऐंडोमैट्रिओसिस की आशंका बढ़ा देते हैं जैसे:

  1. कभी बच्चे को जन्म न दे पाना.
  2. 1 या अधिक निकट संबंधियों (मां, मौसी, बहन) को ऐंडोमैट्रिओसिस होना.
  3. कोई और मैडिकल कंडीशन जिस के कारण शरीर से मैंस्ट्रुअल फ्लो का सामान्य मार्ग बाधित होता है.
  4. यूरिन की असामान्यता.

ऐंडोमैट्रिओसिस और इनफर्टिलिटी

जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस है, उन में से 35 से 50% महिलाओं को गर्भधारण करने में समस्या होती है. इस के कारण फैलोपियन ट्यूब्स बंद हो जाती हैं, जिस से अंडाणु और शुक्राणु का निषेचन नहीं हो पाता है. कभीकभी अंडे या शुक्राणु को भी नुकसान पहुंचता है. इस से भी गर्भधारण नहीं हो पाता. जिन महिलाओं में यह समस्या गंभीर नहीं होती है. उन्हें गर्भधारण करने में अधिक समस्या नहीं होती है. डाक्टर सलाह देते हैं कि जिन महिलाओं को यह समस्या है उन्हें बच्चे को जन्म देने में देर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति समय के साथ अधिक खराब हो जाती है.

पहली बार ऐंडोमैट्रिओसिस का पता ही तब चला जब कुछ महिलाएं बांझपन का उपचार करा रही थीं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 25 से 50% बांझ महिलाएं ऐंडोमैट्रिओसिस की शिकार होती हैं, जबकि 30 से 50% महिलाएं, जिन्हें ऐंडोमैट्रिओसिस होता है वे बांझ होती हैं. सामान्य तौर पर संतानहीन दंपतियों में से 10% का कारण ऐंडोमैट्रिओसिस होता है. बांझपन की जांच करने के लिए किए जाने वाले लैप्रोस्कोपिक परीक्षण के समय ऐंडोमैट्रिअल इंप्लांट का पता चलता है. कई ऐसी महिलाओं में भी इस का पता चलता है, जिन्हें कोई दर्द अनुभव नहीं होता. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण महिलाओं की प्रजनन क्षमता क्यों प्रभावित होती है, यह पूरी तरह समझ में नहीं आया है, लेकिन संभवतया ऐनाटोमिकल और हारमोनल कारणों के कारण यह समस्या होती है. संभवतया हारमोन और दूसरे पदार्थों के कारण अंडोत्सर्ग, निषेचन और गर्भाशय में भू्रण के इंप्लांट पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

ऐंडोमैट्रिओसिस और कैंसर

कुछ अध्ययनों के अनुसार जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस होता है उन में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है. यह खतरा उन महिलाओं में अधिक होता है जो बांझ होती हैं या कभी मां नहीं बन पाती हैं.

अभी तक ऐंडोमैट्रिओसिस और ओवेरियन ऐपिथेलियल कैंसर के मध्य संबंधों के स्पष्ट कारण का पता नहीं है. कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट ही कैंसर में बदल जाता है. यह भी मानना है कि ऐंडोमैट्रिओसिस आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारणों से भी संबंधित हो सकता है. ये महिलाओं में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका भी बढ़ा देते हैं.

डायग्नोसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस का पता लगाने के लिए ये टैस्ट किए जाते हैं:

  1. पैल्विक ऐग्जाम: इस में डाक्टर हाथ से पैल्विक का परीक्षण करता है कि कोई असामान्यता तो नहीं है.
  2. अल्ट्रासाउंड: इस से ऐंडोमैट्रिओसिस होने का पता तो नहीं चलता है, लेकिन उस से जुड़े सिस्ट की पहचान हो जाती है.
  3. लैप्रोस्कोपी: यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐंडोमैट्रिओसिस है एक छोटी सी सर्जरी की जाती है, जिसे लैप्रोस्कोपी कहते हैं. इस में ऊतकों के सैंपल भी लिए जाते हैं, जिन की बायोप्सी से पता चल जाता है कि ऐंडोमैट्रिओसिस कहां स्थित है.

उपचार

पीरियड्स के दौरान होने वाले रक्तस्राव और दर्द भरे संभोग को गंभीरता से लें. स्थिति और अधिक गंभीर होने से पहले फर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलें. इस के उपचार के लिए दवा और सर्जरी का उपयोग किया जाता है. हारमोन थेरैपी भी इस के उपचार के लिए उपयोग की जाती है, क्योंकि मासिकधर्म के दौरान होेने वाले हारमोन परिवर्तन के कारण भी यह समस्या हो जाती है. हारमोन थेरैपी ऐंडोमैट्रिओसिस के विकास को धीमा करती है और ऊतकों के नए इंप्लांट्स को रोकती है. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण होने वाले दर्द की समस्या के लिए डाक्टर सर्जिकल उपचार बेहतर मानते हैं तथा बांझपन की समस्या के लिए आईवीएफ तकनीक की सलाह दी जाती है ताकि सामान्य से अधिक नुकसान होने से पहले संतान प्राप्ति की जा सके.

डिलीवरी के बाद पोस्टपार्टम डिप्रेशन

विश्व में प्रसव के बाद लगभग 13  प्रतिशत महिलाओं को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है. जो उन्हें परेशान करके रख देता है. आपको बता दें कि प्रसव के तुरंत बाद होने वाले डिप्रेशन को पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहा जाता है. भारत और अन्य विकासशील देशों में यह संख्या 20 प्रतिशत तक है.  2020 में सीडीसी द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार यह सामने आया है कि 8 में से 1 महिला  पोस्टपार्टम डिप्रेशन की शिकार होती हैं. विशेष रूप से टियर 2 और टियर 3 शहरों में  पोस्टपार्टम डिप्रेशन होने के आसार ज्यादा होते हैं. इस संबंध में बेंगलुरु के मणिपाल होस्पिटल की कंसलटेंट, ओब्स्टेट्रिक्स व गायनेकोलॉजिस्ट डाक्टर हेमनंदीनी जयरामन बताती हैं कि महिलाओं में मानसिक समस्याएं होने पर वे अंदर से टूट जाती हैं , जिन्हें परिवार के लोग भी समझ नहीं पाते हैं , जिससे वे खुद को बहुत ही कमजोर महसूस करने लगती हैं.

पोस्टपार्टम का मतलब बच्चे के जन्म के तुरंत बाद का समय होता है. बता दें कि प्रसव के तुरंत बाद महिलाओं में शारीरिक, मानसिक व व्यवहार में जो बदलाव आते हैं , उन्हें पोस्टपार्टम कहा जाता है. पोस्टपार्टम की अवस्था में पहुंचने से पहले तीन चरण होते हैं , जैसे इंट्रापार्टम (प्रसव से पहले का समय ), और एंट्रेपार्टम (प्रसव के दौरान) का समय होता है. पोस्टपार्टम बच्चे के जन्म के बाद का समय होता है. भले ही बच्चे के जन्म के बाद एक अनोखी खुशी होती है, लेकिन इस सबके बावजूद कई महिलाओं को पोस्टपार्टम का सामना करना पड़ता है. इस समस्या का इससे कोई संबंध नहीं होता है कि प्रसव नार्मल डिलीवरी से हुआ है या फिर आपरेशन से. पोस्टपार्टम की समस्या महिलाओं में प्रसव के दौरान शरीर में होने वाले सामाजिक, मानसिक व हार्मोनल बदलावों की वजह से होती है.

पोस्टपार्टम मां व बच्चे दोनों को भी हो सकता है. न्यू मोम्स में कई हार्मोनल व शारीरिक बदलाव देखे जाते हैं. जिसके कई लक्षण हैं – बारबार रोने को दिल करना, ज्यादा सोने का मन करना, कम खाने की इच्छा होना, बच्चे के साथ ठीक से संबंध बनाने में खुद को असमर्थ महसूस करना इत्यादि .  यहां तक कि इस डिप्रेशन की वजह से कई बार मां खुद को व बच्चे को भी नुकसान पहुंचा देती है. ऐसी स्तिथि में मरीज के मस्तिष्क में कई बदलाव होते हैं , जिससे एन्सिएंटी के दौरे भी पड़ने लगते हैं.

प्रसव के बाद महिलाओं को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इसके लिए जरूरी है कि उन्हें बच्चे के साथसाथ खुद की भी खास तौर पर केयर करने की जरूरत होती है. क्योंकि इस दौरान शरीर के कमजोर होने के साथ शरीर पर स्ट्रेच मार्क्स दिखना, बढ़ते तनाव की वजह से पीठ में दर्द होना, लगातार बालों का झड़ना, स्तनों के आकार में बदलाव होना जैसे बदलावों से एक मां को गुजरना पड़ता है. इसके साथ ही अगर वे वर्किंग हैं , तो उन पर अपने कैरियर को भी जारी रखने की चिंता सताती रहती है. जिस वजह से कई परेशानियां व सवाल मन में चलने की वजह से एक मां बच्चे के आने की खुशी के साथसाथ कई परेशानियों से घिरी रहती है, जो तनाव का कारण बनता है.

ऐसे में न्यू मोम्स की लाइफ में एक ही व्यक्ति पाजिटिविटी ला सकता है , वो है बच्चे का पिता. क्योंकि जब न्यू मोम का शरीर कमजोर होता है और वह अपने नए जीवन के साथ जूझ रही होती है, तब आपका हेल्पफुल पार्टनर आपको हर तरह से सपोर्ट देने का काम करता है. जैसे सब हो जाएगा, मैं और मेरा पूरा परिवार तुम्हारे साथ है. ऐसी स्थिति में पोस्टपार्टम से जूझ रही महिला पार्टनर की बातों से पॉजिटिव होने लगती है और उसे लगने भी लगता है कि अब वे बच्चे का ठीक से खयाल भी रख पाएगी. ये समय पोस्टपार्टम से जूझ रही महिला के लिए जितना मुश्किल होता है, उतना ही वे पार्टनर व परिवार के सहयोग से इस प्रोब्लम से उभर पाती हैं.

एक्सपर्ट डाक्टर्स की टीम महिलाओं को इस स्थिति से पूरी समझदारी व परिपक्वता से निपटने की सलाह देते हैं. विशेष रूप से जिन महिलाओं को जुड़वा बच्चे होते हैं या फिर दिव्यांग बच्चे होते हैं. उन पर एक्सपर्ट डॉक्टर्स के साथ परिवारजनों को विशेष रूप से ध्यान देने के साथ केयर की जरूरत होती है, ताकि उन्हें इस स्थिति से उभरने में आसानी हो.

कई महिलाओं को यह पता भी नहीं होता कि वे डिप्रेशन से गुजर रही हैं. ऐसे में हमें उन्हें इस स्थिति से अवगत करवाना पड़ता है. बता दें कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन का समय पर उपचार करना जरूरी होता है. क्योंकि अगर इस स्थिति का समय रहते उपचार नहीं किया जाए तो इससे महिला खुद से साथसाथ बच्चे पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती है. इसके अलावा वे बच्चे की जरूरतों को भी समझने में असमर्थ होती है. जबकि जन्म के बाद बच्चे को मां की ही सबसे ज्यादा जरूरत होती है. इसलिए समय पर ट्रीटमेंट है जरूरी.

कुछ महिलाओं में ये भी देखने को मिला है कि उनमें  पोस्टपार्टम डिप्रेशन के लक्षण पहले से होते हैं. उनमें पहले से कुछ मानसिक समस्याएं देखने को मिलती हैं , जिन्हें उनके परिजन अनदेखा कर देते हैं. कुछ केसेस ऐसे भी होते हैं , जिन्हें अनुवांशिक तौर पर डिप्रेशन होता है. डिप्रेशन अनुवांशिक होता है, जो पोस्टपार्टम स्थिति में उभर कर सामने आता है. और कई बार ये मूड स्विंग के माध्यम से होता है. वैसे ये स्थिति हमेशा के लिए नहीं होती है, इसलिए समय रहते हलकी मेडिसिन व काउंसलिंग से इस स्थिति को नियंत्रण में रखा जा सकता है.

इसलिए जरूरी है कि प्रसव से पहले व बाद में डॉक्टरी सलाह से शारीरिक व्यायाम करें, जिससे आपका शरीर व मन स्वस्थ रहे. क्योंकि अगर शरीर तंदुरुस्त रहता है, तो मन भी तंदुरुस्त रहता है. प्रसव के बाद सलाह से नियमित व्यायाम करने से तनाव कम होगा और इससे अच्छी नींद आकर पोस्टपार्टम डिप्रेशन के लक्षण भी कम होंगे. इसलिए लक्षणों को इग्नोर न करें और साथ ही परिवार भी न्यू मोम्स को हर सपोर्ट दे, ताकि वे इस स्थिति से जल्दी से जल्दी बाहर निकल सके.

मूत्र संबंधी समस्याओं में वरदान साबित हो रही रोबोटिक सर्जरी

रोबोटिक असिस्टेड सर्जरी की मदद से यूरोलॉजी से जुड़े मामलों के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं. इस नई तकनीक ने इलाज के मायने ही बदल दिए हैं. परंपरागत ओपन सर्जरी में अन्य परेशानियों का खतरा रहता था, रिकवरी टाइम लंबा रहता था, वहीं अब रोबोट की मदद से मिनिमली इनवेसिव प्रक्रियाएं की जा रही हैं, जिनसे सटीकता बढ़ती है, दर्द कम रहता है और तेजी से मरीज की रिकवरी होती है.

रोबोट असिस्टेड यूरोलॉजिकल प्रक्रियाओं में न सिर्फ सर्जरी के लिहाज मरीज को फायदे पहुंचते हैं, बल्कि इससे मरीजों की क्वालिटी ऑफ लाइफ में भी सुधार हुआ है.

डॉक्टर विकास जैन, यूरोलॉजिस्ट, रोबोटिक और किडनी ट्रांसप्लांट सर्जन के मुताबिक रोबोटिक यूरोलॉजिकल सर्जरी के लाभ काफी है.

रोबोटिक सर्जरी अपनी सटीकता के लिए जानी जाती है, जिसकी मदद से मुश्किल से मुश्किल मामलों में भी एकदम सही तरीके से सर्जरी को पूरा कर लिया जाता है. इस प्रक्रिया में सर्जरी की जगह की 3डी हाई डेफिनेशन तस्वीर मिलती है, जिससे डॉक्टर को पूरी स्पष्टता और कंट्रोल के साथ सर्जरी करने में मदद मिलती है. खासकर, जिन मामलों में नर्व और मसल्स टिशू को बचाना होता है जैसे कि प्रोस्टेटैक्टोमीज, जिसमें कैंसर वाले टिशू वाले टिशू को हटाया जाता है और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उसका असर यूरिनरी व इरेक्टाइल फंक्शन पर न पड़े.

रोबोटिक सर्जरी का एक और बड़ा फायदा ये होता है कि इसमें मरीज को ट्रॉमा फील नहीं होता. मिनिमली इनवेसिव प्रक्रिया से की जाने वाली इस सर्जरी में छोटे कट लगाए जाते हैं, जिसकी वजह से दर्द कम होता है, इंफेक्शन का रिस्क कम रहता है और जख्म जल्दी से भरता है. परंपरागत सर्जरी की तुलना में रोबोटिक सर्जरी का फायदा ये होता है कि मरीज अस्पताल से कम वक्त में ही डिस्चार्ज हो जाते हैं और वो अपनी सामान्य गतिविधियों में लग जाते हैं.

यूरोलॉजिकल सर्जरी

रोबोटिक तकनीक ने यूरोलॉजिकल सर्जरी यानी मूत्र संबंधी सर्जरी के हॉरिजन को काफी व्यापक बना दिया है. प्रोस्टेट कैंसर, किडनी कैंसर, मूत्राशय के कैंसर में ये तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. किडनी ट्रांसप्लांटेशन जैसे जटिल मामलों में भी रोबोटिक प्रक्रिया काफी सुरक्षित रहती है. रोबोटिक सिस्टम के साथ इस तरह की जटिल सर्जरी करने की क्षमता हमारी क्षमताओं में एक छलांग का प्रतीक है, जो जानलेवा समझी जाने वाली मूत्र संबंधी परेशानियों का सामना करने वाले मरीजों को एक उम्मीद देती है और उन्हें अच्छे रिजल्ट मिलते हैं.

मरीज के लिए आते हैं अच्छे रिजल्ट

रोबोटिक यूरोलॉजिकल सर्जरी मरीज के रिजल्ट में काफी अहम होती है. इसमें सर्जिकल ट्रॉमा कम होता है, ऑपरेशन के बाद की समस्याएं कम होती हैं, जिससे मरीज की रिकवरी आसानी से होती है. मरीज को मनोवैज्ञानिक लाभ भी मिलते हैं. कम निशान और रुटीन लाइफ में जल्दी वापस लौटने से उन्हें अपने अंदर संतुष्टि का अनुभव भी होता है.

कैंसर के मामलों में रोबोटिक सर्जरी के रिजल्ट ट्रेडिशनल ओपन सर्जरी से अगर उससे अच्छे न भी रहें तो उसके बराबर तो रहते ही हैं. हालांकि, इस एडवांस तकनीक से कुछ ज्यादा लाभ मिलते हैं जैसे कि दर्द कम होता है और अस्पताल में कम वक्त रहना पड़ता है.

डॉक्टरों को क्या लाभ?

डॉक्टरों के लिहाज से तो रोबोटिक असिस्टेड सर्जरी एक गेम चेंजर तकनीक है. कंसोल के डिजाइन की मदद से सर्जन पर फिजिकल दबाव कम हुआ है, वो लंबे समय तक सर्जरी में फोकस कर पाते हैं और थकान भी कम होती है. रोबोटिक आर्म से सर्जरी में जो सटीकता आती है वो डॉक्टरों की क्षमताओं को भी बढ़ाती है और उन्हें ऐसी परिस्थितियों को भी देखने में मदद देती है जिन्हें पहले छोड़ दिया जाता था.

तमाम फायदों के बावजूद रोबोटिक सर्जरी के खर्च पर भी गौर करने की जरूरत है. ओपन ट्रेडिशनल सर्जरी की तुलना में इसका खर्च ज्यादा होता है, जिसके चलते सभी मरीज इसका लाभ नहीं ले पाते. लेकिन अगर पूरे इलाज को देखा जाए तो रोबोटिक सर्जरी के बाद अस्पताल में कम रहना पड़ता है, मरीज जल्दी अपने काम पर लौट जाता है, सर्जरी के बाद की परेशानियां कम होती हैं, लिहाजा इन तमाम लॉन्ग टर्म फायदों को देखा जाए तो इसका ज्यादा खर्च भी फायदेमंद नजर आता है.

मूत्र संबंधी दिक्कतों में रोबोटिक सर्जरी के आने से मरीजों को काफी फायदा मिला है. जैसे जैसे इस तरह की तकनीक और बेहतर व सुलभ किया जा रहा है, वैसे वैसे मरीजों को इसका ज्यादा लाभ मिल रहा है. रोबोटिक यूरोलॉजिकल सर्जरी सिर्फ एक नई तकनीकभर नहीं है, बल्कि ये मेडिकल में जो संभव है उसकी फिर से कल्पना करने और मरीजों को बेहतर इलाज देने में बोल्ड स्टेप्स उठाने का भी प्रतीक है.

पीरियड्स होने में हो रही है देरी तो इन टिप्स से हो सकते हैं रेगुलर

आजकल की भाग-दौड़ भरी लाइफ में अनयिमित माहवारी होना बिल्‍कुल ही आम बात हो चुकी है. अचानक वजन बढ़ना या फिर कम होना, स्‍मोकिंग करना, कॉफी,दवाइयां और खराब खान-पान की वजह से यह समस्‍या पैदा होती है. भावनात्मक तनाव भी आपके शरीर में हार्मोन में परिवर्तन, आपकी माहवारी को अनियमित बनाने के लिए कारण हो सकता है.

किसी महीने में माहवारी हुई तो किसी महीने में टल गई, ऐसे में शरीर को भी नुकसान होता है. आइये जानते हैं कि अनियमित महावारी से बचने के लिये प्राकृतिक रूप से कौन-कौन से तरीके हैं.

टिप्‍स जो करे पीरियड को रेगुलर –

  1. इस समस्‍या को ठीक करने के लिये सहिजन,तरोई, सफेद कद्दू, तिल का बीज और करेला का नियमित सेवन करें. रोजाना दिन में दो बार करेले की जड़ का काढा पीजिये और देखिये कि यह प्राकृतिक तरीके से कैसे ठीक हो जाता है.
  2. कब्‍ज पैदा करने वाले खाद्य पदार्थ से दूर रहें खास कर के महावारी के आखिरी चक्र में. खट्टे खाघ पदार्थ,फ्राइड फूड और प्रोटीन से भरी दालों का सेवन ना करें.
  3. अपनी डाइट में मछली का प्रयोग करें क्‍योंकि इसमें ओमेगा3 फैटी एसिड होता है जो कि मासिक चक्र के दौरान बहुत ही लाभकारी होता है.
  4. बैंगन,मीट, पीला कद्दू और आलू को पीरियड्स शुरु होने के एक हफ्ते पहले ना खाएं.
  5. सौंफ खान से पीरियड्स टाइम पर आते हैं. यहां तक की तिल का तेल भी बहुत ही लाभकारी होता है. मासिक चक्र शुरु होने के एक हफ्ते पहले सौंफ का बना काढा लें.
  6. तिल के बीज को जीरा पाउडर और गुड के साथ मिला कर खाएं. इससे पीरियड टाइम पर होगा.
  7. रोजाना अंगूर का जूस पीने से भी आपको अनियमित महावारी से मुक्‍ती मिलेगी.
  8. रोजाना व्‍यायाम करें जिससे शरीर का टंपरेचर सामान्‍य बना रहे और अनियमित महावारी कंट्रोल में रहे.
  9. कच्‍चा पपीता खाइये. यह एक प्राकृतिक तरीका है जो कि ज्‍यादातर महिलाएं पीरियड को टाइम पर लाने के लिये और प्रेगनेंसी से मुक्‍ती पाने के लिये करती हैं.

Mother’s Day 2024: किचन से जुड़ी है हमारी सेहत

क्या आप जानती हैं कि किचन के वर्किंग स्लैब, बरतन मांजने, सब्जी आदि धोने के लिए सिंक व बरतन और खाद्य सामग्री रखने के लिए मौजूद शैल्फ आदि के साथ हमारी सेहत का गहरा रिश्ता है? वर्किंग स्लैब, सिंक आदि सही ऊंचाई पर न बने हों और किचन का अन्य सामान सही तरीके से व्यवस्थित न रखा गया हो तो उस का असर शरीर पर पड़ता है, पोश्चर बिगड़ता है और इस के कारण सरवाइकल पेन, बैक पेन, पैरों में सूजन आदि समस्याओं से शरीर ग्रस्त हो जाता है. ऐसे में सवाल उठता है कि किचन में हमारा पोश्चर कैसे ठीक रहे ताकि सेहत ठीक रहे? यह सब बता रही हैं अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की फिजियोथैरेपिस्ट पूजा ठाकुर:

किचन में सब से जरूरी बात है कि हमारी वर्किंग स्लैब, जिस पर हम कुकिंग करते हैं, सब्जियां काटते हैं, आटा गूंधते हैं यानी अधिकांश काम इसी पर होता है, उस की ऊंचाई हमारी कमर तक होनी चाहिए. यदि वर्किंग स्लैब ऊंचा होगा तो हमें उचकना पड़ेगा और नीचा होगा तो झुकना पड़ेगा. दोनों ही स्थितियां पोश्चर बिगाड़ सकती हैं.

अकसर महिलाएं एक हाथ से आटा गूंधती हैं और प्रैशर हाथ से लगाती हैं, जो सही नहीं है, क्योंकि इस से एक हाथ की मसल्स पर, शोल्डर पर और कमर पर प्रैशर पड़ने पर उस का असर

शरीर पर पड़ता है. सही तरीका है कि 1 फुट ऊंचा पटरा लें, उस पर खड़े हो कर दोनों हाथों से आटा गूंधें और प्रैशर बौडी से लगाएं ताकि पोश्चर सही रहे.

जरूरी सामान नजदीक रखें

अकसर किचन में महिलाएं नीचे के कपबोर्ड में ज्यादा सामान रखती हैं, जिस के कारण जरूरत पड़ने पर बारबार झुक कर सामान निकालती हैं, जिस का असर उन की रीढ़ की हड्डी पर पड़ता है. जरूरत है अपने किचन को व्यवस्थित करने की. ज्यादा काम में आने वाले रोजमर्रा के सामान को अपनी आंख के लैवल या स्टैंडिंग लैवल पर रखें, जिस से बारबार झुकना न पड़े. बहुत ऊंचाई वाली शैल्फ पर भी रोजमर्रा का जरूरी सामान नहीं रखना चाहिए. अन्यथा उचकना पड़ेगा, वह भी सही नहीं है.

नीचे के कपबोर्ड से सामान निकालने का सही तरीका है कि दोनों पैरों को खोल कर, घुटनों को मोड़ कर बैठ कर सामान निकालें, झुक कर नहीं निकालें. इस के साथ यह भी ध्यान में रखें कि नीचे के कपबोर्ड से जो भी

सामान निकालना है, उसे बारबार बैठने के बजाय एक बार में ही निकालें.

बरतन धोने अथवा सब्जी, दालचावल आदि धोने के लिए सिंक की ऊंचाई भी कमर के लेवल पर होनी चाहिए अन्यथा झुकने पर कमर में दर्द हो सकता है.

जब आंच पर ज्यादा देर कुकिंग करनी होती है तो महिलाएं स्लैब से चिपक कर खड़ी होती हैं, जिस से पीछे की तरफ झुकना हो जाता है. ऐसे में पोश्चर खराब हो जाता है, साथ ही कमर में दर्द भी. इस का सही तरीका है कि एक छोटा पटरा या स्टूल चन में रखें. एक पैर फर्श पर रखें और दूसरा स्टूल पर. 5-7 मिनट बाद दूसरा पैर स्टूल पर रखें और पहला फर्श पर. ऐसा करने से कमर सीधी रहेगी और दर्द भी नहीं होगा. इस का कारण यह है कि पटरे पर पांव रखने से कमर के निचले हिस्से का जो कर्व है वह सीधा रहता है और शरीर का वजन भी दोनों भागों पर समानांतर विभाजित होता रहता है और थकान भी कम होती है. बहुत सी महिलाओं के पैरों में सूजन आ जाती है, वह भी इस उपाय से कम हो जाती है.

ज्यादा झुकने से बचें

यदि किचन में काफी देर काम करना है तो अच्छा है कि हर आधे घंटे बाद किचन में ही या आसपास चहलकदमी कर लें अथवा किचन में एक कुरसी रखें, उस पर बैठ जाएं. काफी देर खड़े होने से पांव की मांसपेशियां हर समय तनी रहती हैं तो दर्द होता है. पांव में सूजन आ जाती हो तो किचन में कुरसी के अलावा एक दूसरी कुरसी अथवा मूढ़ा या स्टूल रखें. उस पर आधे घंटे बाद पांव रखें और पंजों को क्लाक वाइज और एंटी क्लाकवाइज घुमाएं. 10-15 बार ऐसा करें.

किचन में काफी देर तक सब्जी आदि चलाते रहने पर सरवाइकल पेन हो जाता है और जिन्हें है उन का बढ़ जाता है. कारण है, हर समय गरदन की मांसपेशियों का तना रहना. इस के लिए थोड़ीथोड़ी देर में गरदन दाएंबाएं ऊपरनीचे घुमाते रहें.

रोटी बेलते समय, चौपिंग व कटिंग करते समय सब कुछ कमर को बिना झुकाए सही ऊंचाई पर स्थित स्लैब पर करें. पोश्चर सही रहेगा. रोटी बेलते समय गरदन को झुकाना न पड़े, यह सही स्थिति रहती है.

यदि वर्किंग स्लैब नीचा है तो उसे ऊंचा करने के लिए एक वुडन स्लैब लगाया जा सकता है पर यदि ऊंचा है तो अच्छा रहेगा कि अपनी ऊंचाई के हिसाब से पुन: बनवा लें ताकि पोश्चर ठीक रहे.

 

क्या हिप रिप्लेसमैंट सर्जरी सेफ होगी?

सवाल-

मैं 56 वर्षीय घरेलू महिला हूं. पिछले साल से मेरे दोनों कूल्हों में लगातार दर्द होता है. चलनेफिरने और रोजमर्रा के काम करने में भी परेशानी आ रही है. क्या मु झे हिप रिप्लेसमैंट सर्जरी करानी होगी?

जवाब-

ऐसा लगता है कि आप को कूल्हे के जोड़ का आर्थ्राइटिस हो गया है. आप किसी हड्डी रोग विशेषज्ञ को दिखाएं. ऐक्सरे के द्वारा आप के कूल्हे के जोड़ की स्थिति का पता चलेगा. बेहतर डायग्नोसिस के लिए डाक्टर एमआरआई और सीटी स्कैन कराने के लिए भी कह सकता है. अगर आर्थ्राइटिस अर्ली स्टेज में होगा तो उसे दवाईयों और फिजियोथेरैपी से ठीक किया जा सकता है. केवल गंभीर स्थितियों में ही हिप रिप्लेसमैंट की सलाह दी जाती है.

हिप रिप्लेसमैंट सर्जरी में क्षतिग्रस्त जोड़ को निकाल दिया जाता है और इसे कृत्रिम जोड़ से बदल दिया जाता है. मिनिमली इनवेसिव हिप रिप्लेसमैंट सर्जरी बहुत कारगर मानी जाती है. इस के परिणाम भी बहुत अच्छे मिलते हैं और मरीज को ठीक होने में भी अधिक समय नहीं लगता है.

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सिरदर्द के बाद कमर दर्द आज सब से आम स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍या बनती जा रही है. बढ़ती उम्र के लोगों को ही नहीं युवाओं को भी यह दर्द बहुत सता रहा है. महिलाएं कमर दर्द की आसान शिकार होती हैं 90 प्रतिशत महिलाएं अपने जीवन के किसी न किसी स्‍तर पर कमर दर्द से पीड़ित रहती हैं. खासकर कामकाजी महिलाएं जो ऑफिसों में बैठ कर लगातार काम करती हैं. उन में रीढ़ की हड्डी पर दबाव बढ़ने से कमर दर्द की समस्या हो जाती है.

कमर दर्द

हमारी रीढ़ की हड्डी में 32 कशेरूकाएं होती हैं जिस में से 22 गति करती हैं जब इन की गति अपर्याप्‍त होती है या ठीक नहीं होती तो कई सारी समस्‍याएं पैदा हो जाती हैं रीढ़ की हड्डी के अलावा हमारी कमर की बनावट में कार्टिलेज (डिस्‍क), जोड़, मांसपेशियां, लिगामेंट आदि शामिल होते हैं इस में से किसीकिसी में भी समस्या आने पर कमर दर्द हो सकता है इस से खड़े होने, झुकने, मुड़ने में बहुत तकलीफ होती है अगर शुरूआती दर्द में ही उचित कदम उठा लिए जाएं तो यह समस्‍या गंभीर रूप नहीं लेगी

क्या हैं कारण

कमर दर्द की समस्या में महिलाओं की जीवनशैली महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कामकाजी महिलाओं में यह समस्या अधिक देखी जाती है क्योंकि उन्हें अपने जॉब के कारण घंटों एक ही स्थिति में बैठकर काम करना होता है कई महिलाएं आरामतलबी की जिंदगी जीने के कारण भी कमर दर्द की शिकार हो जाती हैं इस के अलावा कई और कारण भी हैं:

 

क्या होती है वर्कआउट इंजरी और कैसे करें इससे बचाव

हाल के वर्षों में बदन तराशने का एक फैशन सा चल पड़ा है. इसे देखते हुए भारत के बड़े शहरों से ले कर छोटे कसबों तक में जिम एवं फिटनैस सैंटरों की बाढ़ सी आ गई है. आप को जिम और फिटनैस सैंटर तो हर जगह मिल जाएंगे, लेकिन कुशल ट्रेनर शायद ही कहीं मिलें. इसी वजह से फिटनैस के दीवानों को लेने के देने पड़ जाते हैं. कई बार ट्रेनर की हिदायत के बावजूद जनूनी युवा जल्दी आकर्षक शरीर पाने के लिए जरूरत से ज्यादा व्यायाम कर शरीर को बिगाड़ लेते हैं.

बी.टैक के छात्र नरेश पंड्या को हाल ही में कंधे में दर्द की शिकायत हुई. जांच से पता चला कि कंधे की रोटेटर कफ मसल में खिंचाव आ गया है. नरेश ने बताया कि हाल ही में उस ने अपनी मांसपेशियां बढ़ाने की चाह में जिम में कुछ ज्यादा ही जोरआजमाइश कर ली थी, जबकि पिछले कई वर्षों से व्यायाम नहीं करता था. इसीलिए उस की मांसपेशियां अचानक ज्यादा वजन सहने को तैयार नहीं हो पाई थीं. उस के ट्रेनर ने उसे कई बार आराम से अभ्यास करने की हिदायत दी, लेकिन इस के बावजूद वह अधिक से अधिक वजन उठाता रहा. अपनी इसी आक्रामक प्रवृत्ति के कारण नरेश को मांसपेशियों में खिंचाव का शिकार होना पड़ा.

जिम में अभ्यास करते वक्त आप को जिनजिन इंजरीज का खतरा अधिक रहता है, उन में शामिल हैं- मांसपेशियों में खिंचाव, टैंडिनिटिस, शिन स्पलिंट, नी इंजरी, कंधे की इंजरी, कलाई में मोच आना आदि. अकसर गलत प्रशिक्षण और अस्वास्थ्यकर दैनिक लाइफस्टाइल के कारण ही ऐसी इंजरीज होती हैं.

वर्कआउट संबंधी आम इंजरीज

कंधा: निष्क्रिय और कम श्रम वाले लाइफस्टाइल के कारण मांसपेशियां प्रभावित होती हैं. कंधे की मांसपेशियां भी कमजोर पड़ जाती हैं. इस के अलावा कंप्यूटर के सामने बैठ कर प्रतिदिन एक ही मुद्रा में काम करने वालों के कंधों में खिंचाव आ जाता है. यदि बिना प्रशिक्षण के अपनी मांसपेशियों पर ज्यादा जोर डालते हैं, तो कमजोर मांसपेशियां जकड़ सकती हैं. मांसपेशियों के समूह रोटेटर कफ कहलाते हैं, जिन से मूवमैंट नियंत्रित होता है और जोड़ों को स्थिरता मिलती है. कंधे के दर्द का एक बड़ा कारण रोटेटर कफ मसल्स हड्डियों की संरचना के बीच अन्य सौफ्ट टिशूज में घर्षण होना है. इसे शोल्डर इंपिंजमैंट कहा जाता है. इसे सुप्रास्पिनेट टैंडिनिटिस के नाम से अधिक जाना जाता है.

टखने में मोच: यह समस्या ऐथलीटों में अधिक होती है. लिगामैंट्स टिशू की ही पट्टियां होती हैं, जो हड्डियों को जोड़ कर रखती हैं. टखने पर अधिक दबाव आप के लिगामैंट को इंजर्ड कर सकता है. जो लोग ऊबड़खाबड़ सतहों पर टहलते या दौड़ते हैं, उन में इस समस्या का खतरा अधिक रहता है. यदि आप वर्कआउट के तहत दौड़ते या हलकी दौड़ लगाते हैं, तो पैरों में अच्छी तरह फिट आने वाले जूते ही पहनें और समतल सतह पर दौड़ लगाएं.

घुटना: घुटने में मोच भी वर्कआउट इंजरी की एक समस्या है. यह अकसर जोड़ों के अति इस्तेमाल के कारण होती है. ट्रेडमिल का अधिक इस्तेमाल करने वालों में नी इंजरी होने का खतरा अधिक रहता है. ट्रेडमिल के कारण घुटनों पर ज्यादा जोर पड़ता है. वहीं दूसरी तरफ जमीन पर दौड़ लगाने पर घुटनों को ज्यादा आसानी होती है, क्योंकि यहां आप को मशीन की क्षमता के मुताबिक नहीं चलना पड़ता है. घुटनों के जोड़ों के ऊपर आवरण के तौर पर लगे कार्टिलेज और लिगामैंट्स अत्यधिक दबाव के कारण बारबार स्ट्रैस इंजरी का शिकार हो जाते हैं. कार्टिलेज का नुकसान ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इस की मरम्मत नहीं हो पाती. लोअर बैक: वेट लिफ्टिंग का लोअर बैक यानी कमर पर सब से ज्यादा असर पड़ता है. हमारी कमर ही पूरा दिन हमारे सारे शरीर का ज्यादातर दबाव झेलती है, जिस का मतलब है कि इस में हमेशा खिंचाव बना रहता है. यदि आप बहुत ज्यादा वजन उठाते रहते हैं, तो लोअर बैक की मांसपेशियों में इंजरी हो सकती है. कई मामलों में भारी वजन उठाने पर स्लिप डिस्क का भी खतरा हो सकता है.

बचाव

इंजर्ड मसल्स, लिगामैंट या कार्टिलेज को स्वस्थ करने में लंबा समय लग सकता है. लिहाजा, बचाव ही सर्वोत्तम उपाय है. व्यायाम और वर्कआउट को स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा माना जाता है. लेकिन इस में हमेशा सुधार और कुशल निरीक्षण की जरूरत रहती है. जैसे:

1. भारी व्यायाम करने से पहले वार्मअप जरूरी है. नाकआउट करने से पहले पार्क में जौगिंग, नियमित स्टै्रचिंग और साइक्लिंग आप की मांसपेशियों को ताकतवर बनाएगी. व्यायाम से पहले स्ट्रैचिंग करना शरीर को लचीलापन प्रदान करने के लिए महत्त्वपूर्ण है. इस से शरीर कठिन व्यायाम करने में भी सक्षम हो जाता है.

2. व्यायाम करते वक्त निर्धारित पद्धति का पालन करना भी महत्त्वपूर्ण है. एक ही प्रकार की मसल्स पर अधिक जोर आजमाइश नहीं करनी चाहिए. हाथों, कूल्हों, पैरों, नितंबों और बाइसैप्स पर समान रूप से उचित ध्यान देना जरूरी है. अत्यधिक थकान वाले व्यायाम और एक ही तरह की मांसपेशियों के लिए बारबार व्यायाम करने से मांसपेशियों में खिंचाव और अकड़न आ सकती है.

3. यदि आप वजन उठाने वाला व्यायाम शुरू कर रहे हैं, तो वजन में धीरेधीरे वृद्धि करें ताकि आप की मांसपेशियां उस तनाव में ढल सकें और अधिक इस्तेमाल से खिंचाव की स्थिति में न आएं. कम वजन उठाने से शुरुआत करें. यह ट्रेनिंग 1 सप्ताह तक जारी रखें और फिर धीरेधीरे वजन बढ़ाएं.

4. फिटनैस अभ्यास के दौरान शरीर को पर्याप्त आराम दें. यदि आप को कोई शारीरिक परेशानी महसूस हो रही हो तो थोड़ी देर आराम करें.

5. वेट लिफ्ंिटग रूटीन शुरू करने से पहले ट्रेनर की सलाह लें. ट्रेनर आप की ताकत और कमजोरी को समझ आप को व्यायाम के तौरतरीके बताएगा. इस के अलावा वर्कआउट शुरू करने से पहले उपयुक्त पोशाक पहनें.

6. किसी ऐसे ट्रेनर की निगरानी में ट्रेनिंग लें जो आप के शरीर की संरचना जानता हो.

7. अपने शरीर के हाइड्रेशन लैवल का खयाल रखें. वर्कआउट शुरू करने से पहले वर्कआउट के दौरान और बाद में थोड़ा पानी पी लें.

 

वर्कआउट इंजरी से कैसे करें बचाव

खर्राटों का कारण और उससे छुटकारा पाने का तरीका बताएं?

सवाल

मेरे परिवार के सभी सदस्य मु झे तेजतेज खर्राटे लेने के लिए टोक रहे हैं. मैं इन से छुटकारा कैसे पाऊं? क्या यह किसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या का संकेत है?

जवाब

अगर आप बहुत तेजतेज और बहुत ज्यादा खर्राटे ले रही हैं तो यह आप के स्वास्थ्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. खर्राटे स्लीप एपनिया का संकेत भी हो सकते हैं जिस में नींद में कुछ सैकंड के लिए सांसें रुक जाती हैं. खर्राटे लेने के कारण कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं जैसे उच्च रक्तदाब, हृदय की धड़कनें असामान्य हो जाना, रक्त में शुगर का स्तर नियंत्रित रखने में समस्या आना और फेफड़ों के क्षतिग्रस्त हो जाने का खतरा भी बढ़ जाता है. आप किसी रैस्पिरेटरी मैडिसिन को दिखाएं. जरूरी जांचें और स्लीप स्टडी कराने के बाद ही इस के होने के कारण और इसे ठीक करने के विकल्प निर्धारित किए जाएंगे.

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लोगों में एक भ्रामक धारणा है कि खर्राटे आने का मतलब गहरी नींद. परंतु सच तो यह है कि खर्राटों के कारण व्यक्ति ठीक से अपनी नींद पूरी नहीं कर पाता.

क्‍या आपको या फिर आपके घर में किसी को खर्राटे की समस्‍या है? तो क्‍या आपने डॉक्‍टर से परामर्श लिया? कई लोग खर्राटे को एक आम सी समस्‍या समझ कर टाल देते हैं, लेकिन यह स्‍लिपिंग डिसऑर्डर का एक हिस्‍सा है.

कारण

  1. जिस तरह आप बने हैं-पुरुषों की सांस लेने की नली महिलाओं की नली से पतली होती है इसलिये उन्‍हें खर्राटे ज्‍यादा आते हैं. इसके अलावा अक्‍सर आनुवंशिक भी होते हैं.
  2. नाक की खराबी-साइनस की समस्याएं, एलर्जी, नाक की सूजन आदि होना. अवरुद्ध वायुमार्ग सांस लेने में मुश्किल पैदा करती है जिससे गले में वैक्‍यूम बनता है और खर्राटा आता है.
  3. मोटापा-अधिक वजन या आकार से बाहर होना. फैटी टिशू और खराब मांसपेशियां भी खर्राटे पैदा करने की समस्‍या हैं.
  4. खूब शराब पीना-शराब, धूम्रपान, और दवाओं के अधिक सेवन से भी खर्राटे आते हैं.

 

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