Hindi Kahani 2025 : रिश्तों का मर्म

 Hindi Kahani 2025 : मैं जब भी अनुराग को सुधांशु अंकल के साथ देखती तो न चाहते हुए भी मन में एक शक की लहर दौड़ जाती. बिल्कुल वही नुकीली नाक, ऊंचा माथा, भूरी आंखें और चौड़ी ठोढ़ी जैसे दोनों पड़ोसी नहीं बल्कि बापबेटे हों.

अनुराग यानी मेरे पति की सूरत मेरे ससुर से बहुत कम और हमारे पड़ोसी सुधांशु अंकल से काफी ज्यादा मिलती थी. मैं अक्सर सोचा करती कि इस बात की कोई तो वजह होगी. सुधांशु अंकल का वैसे भी हमारे घर के में बहुत आनाजाना है. उन की पत्नी की मौत 2 साल पहले हो गई थी. एक बेटा है जो नागपुर में अपनी पत्नी के साथ रहता है. इधर बीवी के जाने बाद से सुधांशु अंकल घर में अकेले ही रहते हैं. वैसे उन का ज्यादातर समय हमारे साथ ही गुजरता है. मां अक्सर अकेली भी सुधांशु अंकल के साथ बैठी बातें करती दिख जाती हैं. इस से मेरा शक और गहरा हो जाता.

मेरे ससुर काफी सीधे और शांत प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं. मुझे वे कई बार बेचारे नजर आते हैं जो अपनी पत्नी और दोस्त की नजदीकियां इतनी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. मुझे सास के साथसाथ सुधांशु अंकल पर भी गुस्सा आता है. पत्नी नहीं है तो क्या पड़ोसी की पत्नी को अपना मान लेंगे या फिर कहीं उन की पत्नी इसी गम में तो नहीं चल बसी? तरहतरह की बातें मेरे दिमाग में चलती रहतीं. मन ही मन मैं ने सुधांशु अंकल और अपनी सास की एक अलग तस्वीर अपने दिमाग में बना ली थी.

“हैलो बेटा कैसे हो? हैप्पी दिवाली…” कहते हुए सुधांशु अंकल आए और सोफे पर पसर गए. न चाहते हुए भी मुझे उन के पैर छूने पड़े. फेक और गलत रिश्ते ढोने मुझे पसंद नहीं. मगर मैं क्या कर सकती थी. घर की बहू थी और अभी मेरी शादी को ज्यादा समय भी नहीं हुआ था.

“… और बेटा तुम्हारी सास कहां है? जरा बुलाना,” सुधांशु अंकल ने अखबार उठाते हुए कहा.

मुझे बड़ा गुस्सा आया. तल्ख़ आवाज में मैं ने कह भी दिया,” अंकल ऐसा लगता है जैसे आप बस मां से ही मिलने आते हो. कभी पिताजी और उन के सुपुत्र से भी मिल लिया कीजिए.”

“देख बेटा, मैं जानता हूं कि मेरा दोस्त अभी टहलने गया होगा और तेरा पति जिम में होगा. जाहिर है केवल तेरी सास ही घर पर होगी तो सोचा उन्हीं से मिल लूं.”

” तो अंकल आप ऐसे समय आते ही क्यों हो जब केवल मां मिले और कोई नहीं.”

“अरी यह क्या बकवास कर रही है बहू? तेरे सुधांशु अंकल इसी समय टहल कर लौटते हैं इतना तो पता होगा तुझे. जरूरी काम होगा सो वेट नहीं किया. इस में सवाल करने वाली भला कौन सी बात है? जा जरा चाय बना कर ला.”

मां सुधांशु अंकल के साथ जा कर लौन में बैठ गईं और बातचीत में तल्लीन हो गई. थोड़ी देर में पिताजी भी आ गए.

मुझे सब से पहले सुधांशु अंकल पर शक तब हुआ था जब एक दिन मैं ने उन्हें मां के साथ एक रेस्टोरेंट में देखा. उस दिन मैं ने यह बात आ कर अनुराग को भी बताई पर उस ने कोई रिएक्शन नहीं दिया. इतना कह कर चुप हो गया कि होगा कोई काम और तुम मां की जासूसी में क्यों रहती हो अपना देखो.

“जासूसी नहीं कर रही थी. जो नजर आया वह कह दिया,” मेरी आवाज़ में कड़वाहट थी.

एक दिन मैं ने वैसे ही जानने के लिए मां से पूछा,” अच्छा मां आप सुधांशु अंकल को कब से जानते हो?”

“कॉलेज टाइम से,” मां ने जवाब दिया.

“तो क्या वे आप के दोस्त थे?”

“हां बेटा, हम तीनों ही दोस्त थे.”

“ओके तो क्या वे तब से आप के पड़ोसी हैं?” मैं ने फिर से सवाल किया.

“नहीं बेटा, वे हमारे पड़ोसी तो 2 साल से हुए हैं. हमारे बगल वाला फ्लैट खाली था तो हम ने ही उन्हें खरीदने को कहा. वरना 20-22 साल तो उन्होंने शिफ्टिंग वाली जॉब की. कभी कहीं रहते थे तो कभी कहीं. रिटायरमेंट के बाद हमारे पड़ोसी बने तब तक भाभीजी का देहांत हो गया. ”

“मां मुझे तो लगता है पापा जी से कहीं ज्यादा वे आप के दोस्त हैं,” मैं ने कटाक्ष किया था.

मां ने एक तीखी नजर मुझ पर डाली और अपने काम में लग गईं. जाहिर है मेरी बात का मतलब वह अच्छी तरह से समझ रही थीं. मैं खुद चाहती थी कि वह यह बात समझें. मैं अक्सर सोचती कि अपने इस शक को कैसे परखूं? क्या सच में अनुराग और सुधांशु अंकल के बीच कोई रिश्ता है? और फिर एक दिन मुझे यह मौका मिल ही गया.

दरअसल हुआ यह कि उस दिन अचानक सुधांशु अंकल के सीने में दर्द हुआ तो उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया. पता चला कि उन्हें माइनर हार्ट अटैक आया था. मेरे घर के सभी सदस्य तुरंत अस्पताल भागे. मुझे भी जाना पड़ा. वहां अस्पताल की एक डॉक्टर कविता जो अंकल का इलाज कर रही थी मेरी कॉलेज की सहेली निकली.

हम ने कैंटीन में बैठ कर चाय पी और काफी देर तक एकदूसरे से बातें कर यादें ताज़ी करते रहे. इसी क्रम में मेरे मुंह से यह बात निकल गई कि कैसे अनुराग का चेहरा अंकल से मिलता है.

कविता ने तुरंत उपाय बताया,” ज्यादा सोचने की क्या बात है, अंकल का डीएनए टेस्ट करा ले.”

“मगर वह मानेंगे? ”

“मानेंगे या नहीं इस की चिंता मत कर. मैं उन का इलाज कर रही हूं. दूसरे टेस्ट के साथ डीएनए टेस्ट भी करा देती हूं. तब तक तू किसी बहाने अनुराग को जेनरल चेकअप के लिए अस्पताल ले आ. मैं अभी दूध का दूध और पानी का पानी कर दूंगी.”

“ओह थैंक यू सो मच डियर,” खुशी के मारे मैं उस के गले लग गई.

अगले ही दिन मैं अनुराग को ले कर कविता के पास पहुंची. कविता ने अनुराग का ब्लड सैंपल ले लिया. अगले दिन रिपोर्ट आनी थी. मैं पूरी रात सो न सकी. मेरी सास का एक बहुत बड़ा सीक्रेट जो खुलने वाला था. मैं उन की असलियत घर में सब के आगे लाना चाहती थी. मैं यह सोच कर बेचैन थी कि पता नहीं सच जान कर अनुराग को कितना बड़ा झटका लगेगा और पापा जी की कहीं तबियत ही न बिगड़ जाए. पर मैं भी क्या कर सकती हूं. सच सामने तो लाना ही होगा.

अगले दिन मैं सुबहसुबह अस्पताल पहुंच गई. कविता एक पेशेंट में व्यस्त थी. इंतजार के वे दोतीन घंटे बहुत बेचैनी भरे थे. दोपहर में कविता फ्री हुई तो उस ने मुझे बुलाया. मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था जैसे मेरा रिजल्ट आने वाला हो.

“यह लो रिपोर्ट, तुम सही थी प्रिया. सुधांशु अंकल ही असल में अनुराग के पिता हैं.”

“यानी मेरा शक सही निकला,” मैं ने ठंडी सांस ली.

अब मुझे अपनी सास के इस राज से पर्दा उठाने का जरिया मिल गया था. मैं घर गई. शाम का समय था. सब घर में थे और मिल कर एक नाटक देख रहे थे जिस में सास बहू को थोड़े मर्यादा में रहने की सीख दे रही थी. मुझे मौका मिल गया.

मैं ने तुरंत कटाक्ष किया,” आजकल की तो सासों का तो पता ही नहीं चलता. वे इतनी सहजता से नाजायज रिश्ते को जायज बना देती हैं. इन सासों को सीख कौन देगा?”

मेरे मुंह से अचानक ऐसी बात सुन कर मां के साथसाथ पिताजी और अनुराग भी मेरा मुंह ताकने लगे.

मैं ने अपनी सास की तरफ देखते हुए कहा,” क्यों मां आप ने कभी अवैध रिश्ते नहीं रखे?”

” यह क्या बकवास कर रही हो प्रिया?’ ऐसे बात की जाती है मां से?” अनुराग चिल्लाया.

“सही बात ही कह रही हूं अनुराग. तुम्हें कितना भी चुभे पर सच तो यह है कि मां कोई दूध की धुली नहीं. सुधाकर अंकल के साथ नाजायज रिश्ता है इन का. ”

“प्रिया ..” गुस्से में अनुराग ने मुझे एक थप्पड़ जड़ दिया था.

पापा जी नजरें बचाते कमरे से बाहर निकल गए. मैं ने अनुराग के आगे रिपोर्ट रखते हुए कहा,” देख लो मैं सच कह रही हूं या झूठ, अपनी आंखों से देख लो.”

अनुराग ने रिपोर्ट पढ़ी और सकते में आ गए. सास चुपचाप बैठी टीवी देखती रहीं.

“मां सब की आंखों में धूल झोंक सकती हैं पर मेरी आंखों में नहीं. बहुत पुराना नाजायज रिश्ता चला आ रहा है इन के बीच…” मैं गुस्से में कुछ और कहती तब तक पिताजी सामने आ गए.

मेरे पास वाले सोफे पर बैठते हुए बोले,” बेटा धूल झोंकना तब कहा जाता है जब कोई काम छुप कर किया जाए.”

“यानी पापा जी आप को सब पता था, फिर भी आप ने कभी अपनी ज़ुबान नहीं खोली?”

“बेटा सिर्फ पता ही नहीं था बल्कि सच तो यह है कि मैं ने ही कहा था ऐसा करने को.”

“यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी?” पिताजी की बात सुन कर मैं दंग रह गई थी.

” मैं सही कह रहा हूं बेटा अनुराग. ”

“सुनो कुछ न कहो. जाने दो,” मां ने उन्हें टोका था.

“कहना तो पड़ेगा मधु, ” पिताजी ने आज सब सच कह देने का मन बना लिया था.

मैं आश्चर्य से पिताजी की तरफ देख रही थी. उन्होंने कहा,” प्रिया असल में ऐसा करने के लिए मैं ने ही कहा था. हमें एक औलाद चाहिए थी और मैं मधु को संतान सुख नहीं दे पाया. तब हम ने तय किया कि बच्चा गोद ले लेंगे. मगर मैं मधु की संतान चाहता था. इसी दौरान मुझे एक पुरानी फिल्म से आइडिया आया. मैं ने एक दिन के लिए मधु को सुधांशु के करीब जाने की रिक्वेस्ट की और इस बारे में सुधांशु से भी बात की. मगर दोनों ही इस के लिए तैयार नहीं थे.

तब मैं ने बहुत मुश्किल से मधु को कसम दे कर इस बात के लिए तैयार कर लिया. एक रात सुधांशु हमारे घर आया तो मैं ने उस के साथ बैठ कर खूब शराब पी. मैं ने शराब इसलिए पी ताकि ऐसा करवा सकूं और इस दर्द को पी जाऊं. उधर सुधांशु को शराब इसलिए पिलाई ताकि नशे में उसे कुछ होश न रहे और मेरी योजना पूरी हो जाए. सुधांशु को तो यह बात पता भी नहीं कि उस रात ऐसा कुछ हुआ था. नशे की हालत में ही मधु और सुधांशु को कमरे में छोड़ कर मैं निकल गया. उस रात मैं ने जानबूझ कर मधु को सुधांशु की बीवी वाले कपड़े पहनाए थे और वैसा ही हेयरस्टाइल कराया था.

मधु ने बहुत मुश्किल से सुधांशु के करीब जाने की बात स्वीकारी थी. उस का दिल भी ऐसा करना स्वीकार नहीं कर रहा था. इधर नशे में सुधांशु ने मधु को अपनी पत्नी प्रीति समझ कर रिश्ता बनाया. मधु के गर्भ में अनुराग का आगमन हुआ.

आज तक हम दोनों पतिपत्नी ने यह बात सुधांशु से छिपा कर रखी है. बहू प्लीज उसे कुछ मत बताना.”

मैं कुछ बोलने की हालत में नहीं थी. पिताजी ने अपनी बात कह कर मेरी बोलती बंद कर दी थी. हमें पता भी नहीं चला कि कब सुधांशु अंकल ने दरवाजे के पीछे खड़े हो कर सारी बातें सुन ली थीं.

उन्होंने कमरे में प्रवेश किया और दोस्त को धक्का मारते हुए चीखे पड़े, “यह सब तूने क्या किया अरविंद ? ऐसा क्यों किया? मुझ से कह देता मैं अपना बेटा तुझे दे देता. पर इस तरह चोरीछिपे यह सब करवाना…. मैं तुझे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा अरविंद. अब कभी तुझ से बात भी नहीं करूंगा. कभी नहीं आऊंगा तेरे घर तुझ से मिलने….,” कह कर वे चले गए.

घर में हर कोई हतप्रभ रह गया था. पिताजी खुद से नजरें नहीं मिला पा रहे थे तो मां ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था. मैं खुद को दोषी मान कर ग्लानि महसूस कर रही थी मगर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिर इस में इतनी बड़ी बात क्या हो गई? जो सच था वही तो सामने आया था.

अनुराग ने गुस्से में मुझ से कहा था,” अब खुशी मिल गई तुम्हें? तुम्हारे कारण पूरे घर में सन्नाटा पसर गया और दिलों में तूफान उतर आया. ”

“पर अनुराग मैं ने ऐसा क्या कर दिया? जो सच था वही तो सामने आया न.”

“कुछ बातें छिपी रहें तभी सही होता है प्रिया क्यों कि उस समय की परिस्थितियां या हालात हम नहीं समझ सकते. इस तरह वह बात सामने ला कर तुम ने बिल्कुल भी सही नहीं किया.”

मैं असमंजस में थी. अनुराग ने मुझे ही दोषी करार दिया था. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब सब ठीक कैसे करूँ ? सास मुझ से बात करने को तैयार नहीं थी. सुधांशु अंकल ने भी घर आना बिल्कुल बंद कर दिया था और पिताजी मुझ से नजरें ही नहीं मिला रहे थे. दूरदूर भाग रहे थे. खाना तैयार कर सब को आवाज देती पर कोई खाने नहीं आता. फिर खुद ही जबरन अनुराग को खिला कर आती और अनुराग के हाथों मां और पिताजी के पास खाना भिजवाती.

ऐसे माहौल में मुझे भी बेचैनी लगने लगी थी. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस बीच पिताजी की तबीयत खराब हो गई. उन के पेट में दर्द था और बुखार भी आ रहा था. अनुराग ने बताया कि उन्हें पहले किडनी की प्रॉब्लम हो चुकी है. हम फटाफट उन्हें डॉक्टर के पास ले कर पहुंचे. रास्ते में अनुराग ने मुझे एक बात और बताई.

उस ने कहा,” कुछ साल पहले पापा की दोनों किडनी खराब हो गई थी. वे महीनों अस्पताल में रहे थे. मैं किडनी देना चाहता था पर उस में कुछ प्रॉब्लम आ गई और मेरी किडनी नहीं लग सकी. ऐसे में एक दिन सुधांशु अंकल आए. उस वक्त वे हैदराबाद में पोस्टेड थे पर पापा की तबियत के बारे में सुन कर दिल्ली आ गए. बिना किसी से सलाह लिए एक झटके में उन्होंने पापा को अपनी एक किडनी देने का फैसला लिया. सुधांशु अंकल की किडनी पापा के शरीर में काम कर रही है.”

सहसा ही मेरी आंखें भर आईं. मैं समझ गई थी कि इन की दोस्ती कितनी गहरी है. नाहक ही मैं ने इन के बीच दरार पैदा कर दी थी. पिताजी की यह हालत भी कहीं न कहीं उन के मन की उदासी का नतीजा ही है. मैं ने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए मैं सुधांशु अंकल को वापस पिताजी की जिंदगी में ले कर आऊंगी.

शाम के समय बिना किसी को कुछ बताए मैं सुधांशु अंकल के पास पहुंच गई. वे उदास और खामोश से अपने कमरे में बैठे हुए थे.

मुझे देख कर उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा तो मैं उन के पैर पकड़ कर रोने लगी,” पिताजी आप ने मुझे एहसास दिला दिया है कि प्यार किसे कहते हैं. आप वाकई हमारे घर की ख़ुशियों की सब से जरूरी कड़ी हो. मैं ने आप के और मां के रिश्ते पर लांछन लगाने की कोशिश की जो सरासर गलत था. वाकई गलती मेरी थी. आप के बिना हमारा घर उजड़ा हुआ सा है. आप आ कर उस घर को फिर से आबाद कर दीजिए. उम्र भर के लिए आप की अहसानमंद रहूंगी. आप को मैं ने अपना तीसरा पिता माना है. पहले मेरे अपने पिता, फिर मेरे ससुर जो मेरे पिता के जैसे हैं और तीसरे आप जो सब से प्यारे पिता हैं. यह बात मैं दिल की गहराइयों से कह रही हूं. आप के बिना हमारा घर वीराना हो गया है. एक बार चलिए मेरे साथ. पिताजी अस्पताल में हैं. आप से जब तक बात नहीं होगी वह ठीक नहीं हो पाएंगे…”

“क्यों क्या हुआ उसे? कहीं किडनी की प्रॉब्लम तो नहीं ?,” घबरा कर सुधांशु अंकल ने पूछा.

“प्रॉब्लम तो वही है अंकल पर उस का सीधा नाता दिमाग से भी है. आप से मिल कर वे ठीक हो जाएंगे ऐसा मेरा विश्वास है. प्लीज आप मेरे साथ चलिए,” कहते हुए मैं ने उन के पैर फिर से पकड़ लिए. उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और तुरंत गाड़ी निकाली. हम दोनों अस्पताल पहुंचे.

पिताजी बेड पर थे और बगल में मां बैठी हुई थीं. अनुराग भी उदास सा पास ही खड़ा था. मेरे साथ सुधांशु अंकल को देखते ही सब के चेहरे खिल उठे. मां ने पिताजी को उठाया. उन्होंने धीमेधीमे पलकें खोलीं. सामने सुधांशु अंकल को देख एकदम से उन्हें अपने पास खींच लिया और दोनों हाथों में भींचते हुए सीने से लगा लिया. सब की आंखें रो रही थीं. मगर ये खुशी के आंसू थे.

सुधांशु अंकल ने पिताजी का हाथ थाम कर कहा,” अरविंद तू क्या सोचता है, तू ही प्यार करता है मुझ से? मैं प्यार नहीं करता? तेरे बिना मैं भी कहां जी पा रहा हूं. नहीं रह सकता मैं तुम दोनों के बिना,” कहते हुए उन्होंने मेरी सास की तरफ देखा तो वह भी करीब आ गईं.

“जानती है प्रिया हम तीनों तीन शरीर एक प्राण हैं. हम में से कोई भी अलग हुआ तो हमारा सब कुछ बिखर जाएगा,” सुधांशु अंकल ने अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए मुझ से कहा.

” मैं एक बार फिर दिल से शर्मिंदा हूं सुधांशु अंकल. आप तीनों के गहरे प्यार को मैं समझ नहीं पाई. गलत बातें कह दीं. आज समझ आया कि एकदूसरे के बिना आप तीनों अधूरे हैं. आप ने एकदूसरे को संपूर्णता दी है. मुझे नाज है कि मैं इस घर में आई. आप सबों के प्यार की छाया में रह कर ही मैं खुश रह सकती हूं.”

मेरी बात सुन कर सास ने रोते हुए मुझे गले लगा लिया. पिताजी और अनुराग मेरी तरफ प्यार से देख रहे थे. आज मैं ने रिश्तों का मर्म समझ लिया था.

Hindi Kahaniyan : हिसाब – बचपन की सहेली को देख कैसे गड़बड़ा गया हिसाब

Hindi Kahaniyan : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी. ‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. ‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’ मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी. ‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी.

मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’ ‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा. ‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’ ‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’ ‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा. ‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’ ‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा. ‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी. ‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला. ‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’ ‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा. ‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’ हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Hindi Fiction Stories : पहेली – अमित की जिंदगी में जब आई कनिका

Hindi Fiction Stories : ‘‘हैलो, आई एम कनिका सिंह, फ्राम राजस्थान.’’ इस खनकती आवाज ने अमित का ध्यान आकर्षित किया तो देखा, सामने एक असाधारण सुंदर युवती खड़ी है. क्लासरूम से वह अभी अपने साथियों के साथ ‘टी ब्रेक’ में बाहर आया था कि उस का परिचय कनिका से हो गया. ‘‘हैलो, मैं अमित शर्मा, राजस्थान से ही हूं,’’ अमित ने मुसकरा कर अपना परिचय दिया.

कनिका वास्तव में बहुत सुंदर थी. आकर्षक व्यक्तित्व, उम्र लगभग 26-27 की रही होगी. लंबा कद किंतु भरापूरा शरीर, तीखे नयननक्श उस की सुंदरता में और वृद्धि कर रहे थे. ‘टी ब्रेक’ खत्म होते ही सभी वापस क्लासरूम में पहुंच गए. भारत के एक ऐतिहासिक शहर हैदराबाद में 1 माह के प्रशिक्षण का आज पहला दिन था. देश के अलगअलग प्रांतों से संभागियों के पहुंचने का क्रम अभी भी जारी था. कनिका भी दोपहर बाद ही पहुंची थी. पहले दिन की औपचारिक कक्षाएं खत्म होते ही सभी प्रशिक्षुओं को लोकसंगीत और नृत्य कार्यक्रम में शामिल होना था.

खुले रंगमंच में सभी लोग जमा हो चुके थे. कार्यक्रम शुरू हो गया था. लोककलाकार अपनीअपनी कला का बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे. संयोग से अमित के पास की सीट खाली थी. कनिका वहां आ गई तो अमित ने मुसकराते हुए उसे पास बैठने का इशारा किया. कनिका बैठते ही अमित से बातचीत करने लगी. उस ने बताया कि वह मनोविज्ञान की प्राध्यापक है. अमित ने कहा कि वह इतिहास विषय का है. कनिका ने बताया कि इतिहास उस का पसंदीदा विषय रहा है और वह चाहती है कि इस विषय का गहन अध्ययन करे. फिर हंसते हुए उस ने पूछा, ‘‘आप मुझे पढ़ाएंगे क्या?’’ अमित ने भी मजाक में उत्तर दिया, ‘‘अरे, मेरा विषय तो नीरस है. लड़कियां तो वैसे ही इस से दूर भागती हैं.’’

कनिका अपने कैमरे से कलाकारों की फोटो खींचने लगी. अमित के मन में उस के लिए न जाने क्यों एक खास आकर्षण पैदा हो चुका था. छोटी सी मुलाकात ने ही उसे बहुत प्रभावित कर दिया था. कनिका के उन्मुक्त व्यवहार से वह मानो उस के प्रति खिंचा जा रहा था. होस्टल में अमित के दाईं ओर तमिलनाडु और बाईं ओर उड़ीसा के संभागी प्राध्यापक थे. इस अनोखे सांस्कृतिक समागम ने एकदूसरे को जानने और समझने का भरपूर अवसर प्रदान किया था. इसी होस्टल के ग्राउंड फ्लोर पर महिला संभागियों के रुकने की व्यवस्था थी. कुल 80 लोगों में 40 महिलाएं थीं जो भारत के विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं.

रात्रि भोज के बाद सभी संभागियों का अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता था. हाल में सभी लोग जमा थे. इस कार्यक्रम में सभी को भाग लेना अनिवार्य था. कनिका ने राजस्थानी लोकगीत सुनाए जिस से उस की एक और प्रतिभा का पता चला कि वह संगीत में भी खासा दखल रखती थी.

दूसरे दिन सुबह चाय के समय कनिका ने अमित को अपने लैपटाप पर वे सारी फोटो दिखाईं जो उस ने रात्रि सांस्कृतिक कार्यक्रम में खींची थीं. क्लासरूम में अमित बाईं ओर पहली कतार में बैठता था. आज उस ने नोट किया कि दाईं ओर की पहली कतार में असम और तमिलनाडु की महिला संभागियों के साथ कनिका भी बैठी है. पूरे दिन अमित ने जब भी कनिका को देखा, उसे अपनी ओर देखते, मुसकराते ही पाया. उस के दिल में एक सुखद एहसास जागृत हो रहा था.

लंच में अमित ने कनिका को अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित किया. उस मेज पर उस के कुछ तमिल दोस्त भी थे. कनिका बिना किसी झिझक के पास की कुरसी पर बैठ कर खाना खाने लगी. बातचीत में कनिका ने अमित से पूछा, ‘‘सर, आप की फैमिली में कौनकौन हैं?’’

अमित अब खुल चुका था सो उस ने विस्तार से अपने परिवार के बारे में बताया कि उस की पत्नी सरकारी नौकरी में किसी दूसरे शहर में नियुक्त है. एक छोटी 4 साल की बेटी है जो अपनी मम्मी के साथ ही रहती है. अमित ने कनिका से भी पूछा किंतु वह बात टाल गई और हंसीमजाक में मशगूल हो गई. रात के 11 बजे थे. होस्टल के हाल में सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था. अचानक अमित के मोबाइल पर एक अनजान नंबर से काल आई. उत्सुकता के चलते अमित ने उस काल को रिसीव किया.

‘‘हैलो सर, पहचाना?’’ अमित अभी असमंजस में था कि आवाज फिर आई, ‘‘मैं कनिका बोल रही हूं. आप 2 मिनट के लिए लान में आ सकते हैं?’’ अमित फौरन बाहर आया. कनिका बाहर कैंपस में खड़ी थी. यद्यपि बाहर इस समय और भी महिलापुरुष संभागी बातचीत में व्यस्त थे. किंतु अमित को अजीब महसूस हो रहा था, फिर कनिका ने पूछा, ‘‘सर, क्या आप के पास सिरदर्द की दवा है? आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

अमित ने घबरा कर कहा, ‘‘ज्यादा खराब हो तो डाक्टर के पास चलें?’’

कनिका के मना करने पर अमित तुरंत अंदर से अपनी मेडिकल किट ले आया और कुछ जरूरी दवाएं निकाल कर कनिका को दे दीं. कनिका ने धन्यवाद दिया और अपने कमरे में चली गई. प्रशिक्षण के दिन खुशीखुशी बीत रहे थे. शुरू में 1 माह की अवधि बहुत लंबी लग रही थी किंतु अमित को अब लग रहा था कि जीवन का एकएक पल अमूल्य है जो बीता जा रहा है. कनिका के प्रति उस का लगाव बढ़ता जा रहा था. दूसरे दिन अमित इस उम्मीद में अपना मोबाइल देख रहा था कि शायद फिर से फोन आए. रात के 10 बज चुके थे. उस का मन सांस्कृतिक संध्या में नहीं लग रहा था. कुछ समय बाद काल आई. अमित तो जैसे इसी के इंतजार में था, तपाक से उस ने काल रिसीव की. फिर वही मधुर आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘परेशान कर दिया न सर, आप को.’’

अमित ने भी मजाक में पूछ लिया, ‘‘क्यों, नींद नहीं आ रही है क्या? शायद किसी की याद आ रही होगी?’’ कनिका ने खिलखिला कर हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों मजाक बनाते हो…मुझे आप से ही बात करनी थी,’’ फिर आगे बात बढ़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे कोई याद नहीं करता, मैं इतनी खास तो नहीं कि कोई…’’ उस ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया. फिर पूछा, ‘‘आप ने कल वाले प्रोजेक्ट वर्क की क्या तैयारी की है?’’

अमित उसे प्रोजेक्ट वर्क के बारे में समझाने लगा. फिर उस ने कनिका से पूछा कि उसे उस के फोन नंबर कैसे मिले. कनिका ने उस की जिज्ञासा शांत की और बताया कि रजिस्टे्रशन रजिस्टर में से मोबाइल नंबर लिए थे.

अमित को बहुत अच्छा लग रहा था कि कनिका उसे इतना महत्त्व दे रही है जबकि प्राय: सभी पुरुष संभागी उस से बातचीत करने और मेलजोल बढ़ाने के लिए लालायित थे. कुछ दिन बाद आउटिंग का कार्यक्रम था. 2 रातें घने जंगल में औषधीय पौधों के अध्ययन में बितानी थीं. वहां बने रेस्टहाउस में सब के रहने की व्यवस्था थी. यात्रा में कनिका के हंसीमजाक ने पिकनिक जैसा माहौल बना दिया था. वहां पहुंचते ही फील्ड आफिसर ने सभी लोगों को 2 घंटे का समय लंच और थोड़ा आराम करने के लिए दिया. जिस का उपयोग सभी ने उस सुरम्य प्राकृतिक स्थल को और नजदीक से देखने में किया.

अमित अपना लंच ले कर साथियों के साथ झरने के टौप पर था कि नीचे उस की नजर कनिका पर पड़ी जो अपनी सहेलियों के साथ खड़ी उसे इशारे से नीचे बुला रही थी. उस का मन तो बहुत था लेकिन वह अपने दोस्तों में टारगेट बनना नहीं चाहता था. कनिका के आमंत्रण को उस ने नजरअंदाज कर दिया. कुछ समय बाद जब वह मिली तो उस ने स्वाभाविक ढंग से शिकायत जरूर की, ‘‘आप आए क्यों नहीं, सर? बहुत अच्छा लगता.’’

बेचारा अमित मन मसोस कर रह गया. विषय बदलने के लिए उस ने कहा, ‘‘आज आप की राजस्थानी बंधेज की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’ कनिका खनकती आवाज में बोली, ‘‘सिर्फ साड़ी?’’

अमित ने कहा, ‘‘नहीं, और भी बहुत कुछ, ये वादियां, अमूल्य वनस्पति और आप.’’ कनिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘सर, आप बातों को इतना घुमाफिरा कर क्यों कहते हैं?’’

अमित क्या कहता. वह मन की बातों को अंदर दबा जाता था. पौधों के बारे में जानकारी दी जा रही थी. सभी लोग नोटबुक थामे व्यस्त थे. यह पहला मौका था जब अमित को कनिका के स्पर्श का अनुभव हुआ. ग्रुप में वह सट कर खड़ी मुसकरा रही थी. उस की कुछ खास तमिल सहेलियां अमित से अंगरेजी में पौधों के बारे में पूछ रही थीं और वह उन्हें अंगरेजी में ही समझा रहा था. कनिका पहली बार अमित को धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते हुए सुन रही थी. अब कनिका अपने गु्रप से अलग हो कर पास के कैक्टस के पौधों की ओर चली गई. अमित को भी आवाज दे कर उस ने अपने पास बुला लिया और बोली, ‘‘देखिए सर, यह इस जगह की सब से जीवट वनस्पति है. हम चाहे इसे सौंदर्य की प्रतिमूर्ति न मानें किंतु यह हमें जीना सिखाती है.’’

अमित उस की बात को समझने का प्रयास कर रहा था. बाकी ग्रुप आगे बढ़ चुका था. तभी एक फोटोग्राफर ने उन दोनों का फोटो ले लिया. अमित को लगा शायद फोटोग्राफर उस के दिल की भावनाओं को जानता है. कनिका फिर बोली, ‘‘आप को ऐसा नहीं लगता कि ये हमें संदेश दे रहे हैं…सब के बीच हमारा अपना अस्तित्व है और हमें उसे खोने का डर नहीं.’’

रेस्टहाउस में कनिका ने अमित के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम आज रात्रि में झरने के किनारे चलें. मैं अपनी कुछ सहेलियों के साथ रात का नजारा देखना चाहती हूं. अमित तो जैसे पहले से ही अभिभूत था.

रात्रि विहार ने अमित को कनिका के और नजदीक आने का अवसर दिया. कारण, कनिका ने उसे आज वह सब बताया था जो किसी अनजान पुरुष को बताना संभव नहीं. पहली बार अमित को लगा, कनिका वैसी बिंदास नहीं है जैसी वह दिखती है. कनिका ने बताया कि 4 साल पहले उस का विवाह हो चुका है. एक 3 साल का बेटा भी है. किंतु जीवन में उसे वह दुखद अनुभव भी झेलना पड़ा है जो एक स्त्री के लिए बहुत दुखद होता है. उस का पति एक बिगड़ा रईस निकला, जिस ने उस की कोई इज्जत नहीं की. कानूनन अब तलाक ले कर वह उस से मुक्ति पा चुका था. कनिका ने इस कठोर यथार्थ को स्वीकार किया और जीवन को रोरो कर नहीं बल्कि मुसकरा कर जीने का फैसला किया.

ऐतिहासिक जगहों को घूमने वाले दिन कनिका बस में अमित के पास वाली सीट पर बैठी थी. अमित यह सोच कर बहुत खुश था कि आज कनिका पूरे दिन उस के साथ रहने वाली है. वे दोनों अंगरेजी भाषी ग्रुप में थे, जहां भीड़ कम थी, अत: पूरा दिन मौजमस्ती में बीत गया. अमित ने पहली बार आज कनिका को एक गिफ्ट दिया, जिसे बहुत मुश्किल से उस ने स्वीकार किया. आज कनिका ने बहुत फोटो लिए थे. आखिर टे्रनिंग खत्म होने का अंतिम दिन आ ही गया. सभी के मन उदास थे. अमित आज कनिका से बहुत बातें करना चाहता था. तभी रात को कनिका का फोन आ गया. उस ने पूछा कि क्या वह एक दिन और नहीं रुक सकता. इधर बहुत सारे पर्यटक स्थल देखने को बचे हैं. अमित का तो जाने का मन ही नहीं था. इसलिए वह एक दिन और रुकने को तैयार हो गया. दोनों ने खूब बातें कीं.

औपचारिक विदाई समारोह के समय सभी बहुत भावुक हो गए. अनजान लोग इतने करीबी हो चुके थे कि बिछुड़ने का दुख सहन नहीं हो रहा था. ग्रुप फोटो मधुर यादों का हिस्सा बनने जा रहा था. फोटो तो इतने हो चुके थे कि अलबम ही तैयार हो गया था. भारी मन से गले लग कर सब विदा हुए. अमित ने कनिका की डायरी में अपने हस्ताक्षर कर अपना संदेश लिखा. न जाने क्यों वह अभी भी अपने मन की बात कनिका को कह नहीं पाया था. कनिका ने भी अमित की डायरी में लिखा, ‘‘मैं इतिहास से बहुत प्यार करती हूं…बहुत… बहुत ज्यादा, लेकिन इतिहास नहीं दोहराती.’’ – कनिका सिंह.

इस विचित्र इबारत का अर्थ अमित की समझ में नहीं आया था.

कनिका के आग्रह पर अमित होटल में एक कमरा बुक करवा कर कल का इंतजार करने लगा. शाम को उस की कनिका से लंबी बातें हुईं, दूसरे दिन उस ने घूमने का कार्यक्रम बनाया था. अमित सोच रहा था, कल वह अवश्य ही कनिका को अपने दिल की बात बता देगा. सारी रात वह सो नहीं पाया. दूसरे दिन 10 बजे वह तैयार हो कर कनिका से मिलने के लिए रवाना हुआ. 11 बजे कनिका ने चारमीनार के पास मिलने को कहा था. 11 बज गए. अमित की बेचैनी बढ़ने लगी. थोड़ा और समय बीता. वह अधीर हो गया. करीब साढ़े 11 बजे कनिका का फोन आया :

‘‘हैलो सर, आई एम वैरी सौरी. मैं आप को कैसे कहूं. मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा…सर, सुबह पापा का फोन आया था, इमरजेंसी है मुझे वापस घर जाना पड़ रहा है. सौरी, प्लीज आप कांटेक्ट बनाए रखना. मैं कभी आप को नहीं भूलूंगी… मैं कल आप को फोन करूंगी.’’ अमित का मूड उखड़ चुका था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे. कल रात का टे्रन का आरक्षण वह कैंसिल करा चुका था और अब सारा दिन वह अकेला क्या करेगा. उस ने फ्लाइट पकड़ी और अपने शहर रवाना हो गया.

दूसरे दिन भी कनिका का कोई फोन नहीं आया. वह बहुत परेशान हो गया. उस की उदासी बढ़ती जा रही थी. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था. अमित ने खुद कनिका को फोन लगाया तो वज्रपात हुआ क्योंकि जो नंबर उस के पास था वह सिम अब डेड हो चुकी थी. असम से एक मैडम का फोन आया तो अमित को पता चला कि कल उस के पास कनिका का फोन आया था. ऐसी ही बात उस की एक तमिल सहेली ने भी बताई.

अमित का दिल टूट गया. दोनों के साथ के फोटो अमित के सामने पड़े थे. वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि अब वह टे्रनिंग के दिनों को याद करे या भूलने का प्रयास करे. कनिका तो वैसे ही उस के लिए एक गूढ़ पहेली बन गई थी. अचानक उस की नजर अपनी डायरी पर पड़ी, धड़कते दिल से उस ने प्रथम पृष्ठ पढ़ा. उस पर कनिका का वह संदेश लिखा था जो उस ने विदाई के समय लिखा था : ‘‘मैं इतिहास से बहुत प्यार करती हूं… बहुत…बहुत ज्यादा लेकिन इतिहास नहीं दोहराती,’’ – कनिक ा सिंह. आज अमित को उपरोक्त पंक्तियों का सही अर्थ समझ में आ रहा था लेकिन दिल अभी भी संतुष्ट नहीं था. अगर ऐसा ही था तो उस ने नजदीकी ही क्यों बढ़ाई. उस के दिमाग में कई संभावनाएं आजा रही थीं. अचानक अमित को कनिका के कहे वे शब्द याद आ रहे थे जो उस ने कईकई बार उस से कहे थे, ‘‘सर, मैं आप को कभी भुला नहीं पाऊंगी. आप भी मुझे याद रखेंगे न, कहीं भूल तो नहीं जाएंगे?’’

अमित उन शब्दों का अर्थ खोजता रहा लेकिन कनिका उस के लिए अब एक अनसुलझी पहेली बन चुकी थी.

Interesting Hindi Stories : इंतजार – क्या अकेलेपन को दूर कर पाई सोमा

Interesting Hindi Stories : सुबह के 6 बजे थे. रोज की तरह सोमा की आंखें खुल गई थीं.  अपनी बगल में अस्तव्यस्त हौल में लेटे महेंद्र को देख वह शरमा उठी थी. वह उठने के लिए कसमसाई, तो महेंद्र ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया था.

‘‘उठने भी दो, काम पर जाने में देर  हो जाएगी.’’

‘‘आज काम से छुट्टी, हम लोग आज अपना हनीमून मनाएंगे.’’

‘‘वाहवाह, क्या कहने?’’

पुरानी कड़वी बातें याद कर के वह गंभीर हो उठी, बोली, ‘‘यह बहुत अच्छा हुआ कि अपुन लोगों को शहर की इस कालोनी में मकान मिल गया है. यहां किसी को किसी की जाति से मतलब नहीं है.’’

‘‘सही कह रही हो. जाने कब समाज से ऊंचनीच का भेदभाव समाप्त होगा? लोगों को क्यों नहीं सम?ा में आता कि सभी इंसान एकसमान हैं.’’ महेंद्र बोला था.

‘‘वह सब तो ठीक है, लेकिन अब उठने भी दो.’’

‘‘आज हमारे नए जीवन का पहलापहला दिन है. यह क्षण फिर से तो लौट कर नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारी बांहों में बांहें डाल कर मस्ती करूंगा. इस पल के लिए तुम ने मु?ो बहुत लंबा इंतजार करवाया है. आज ‘जग्गा जासूस’ पिक्चर देखेंगे. बलदेव की चाट खाएंगे. राजाराम की शिकंजी पिएंगे. तुम जहां कहोगी वहां जाऊंगा, जो कहोगी वह करूंगा. आज मैं बहुतबहुत खुश हूं.’’

‘‘ओह हो, केवल बातों से पेट नहीं भरने वाला है. पहले जाओ, दूध और डबल रोटी ले कर आओ.’’

‘‘मेरी रानी, दूध के साथसाथ, आज तो जलेबी और कचौड़ी भी ले कर आऊंगा.’’ यह कह कर वह सामान लेने चला गया.

वह उठ कर रोज की तरह ?ाड़ूबुहारू और बरतन आदि काम निबटाने लगी थी. लेकिन आज उस की आंखों के सामने बीते हुए दिन नाच उठे थे. अभी वह 25 वर्ष की होगी, परंतु अपनी इन आंखों से कितना कुछ देख लिया था.

अम्मा स्कूल में आया थीं. इसलिए उसे मन ही मन टीचर बनाने का सपना देखती रहती थीं. बाबू राजगीरी का काम करते थे. उन्हें पैसा अच्छा मिलता था. लेकिन पीने के शौक के कारण सब बरबाद कर लेते थे. वे 2 दिन काम पर जाते, तीसरे दिन घर पर छुट्टी मनाते. अपनी मित्रमंडली के साथ बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाते और लंबीलंबी बातें करते.

अम्मा जब भी कुछ बोलती तो गालीगलौज और मारपीट की नौबत  आ जाती.

पश्चिम उत्तर प्रदेश में संभलपुर से थोड़ी दूर एक बस्ती थी जिसे आज की भाषा में चाल कह सकते हैं. लगभग

10-12 घर थे. सब की आपस में रिश्तेदारी थी. बच्चे आपस में किसी के भी घर में खापी लेते और सड़क पर खेल लेते. कोई काका था, कोई दादी तो कोई दीदी. आपस में लड़ाई भी जम कर होती, लेकिन फिर दोस्ती भी हो जाती थी.

वह छुटपन से ही स्कूल जाने से कतराती थी. वह लड़कों के संग गिल्लीडंडा और क्रिकेट खेलती. कभीकभी लंगड़ीटांग भी खेला करती थी.

अम्मा स्कूल से लौट कर आती तो सड़क पर उसे देखते ही चिल्लाती, ‘काहे लली, स्कूल जाने के समय तो तुम्हें बुखार चढ़ा था, अब सब बुखार हवा हो गया. बरतन मांजने को पड़े हैं. चल मेरे लिए चाय बना.

वह जोर से बोलती, ‘आई अम्मा.’ लेकिन अपने खेल में मगन रहती जब तक अम्मा पकड़ कर उसे घर के अंदर न ले जाती. वे उस का कान खींच कर कहतीं, ‘अरी कमबख्त, कभी तो किताब खोल लिया कर.’

अम्मा की डांट का उस पर कुछ असर न होता. इसी तरह खेलतेकूदते वह बड़ी हो रही थी. लेकिन हर साल पास होती हुई वह बीए में पहुंच गई थी. कालेज घर से दूर था, इसलिए बाबू ने उसे साइकिल दिलवा दी थी.

बचपन से ही उसे सजनेसंवरने का बहुत शौक था. अब तो वह जवान हो चुकी थी, इसलिए बनसंवर कर अपनी साइकिल पर हवा से बातें करती हुई कालेज जाती.

वहां उस की मुलाकात नरेन सिंह से हुई. वह उस की सुंदरता पर मरमिटा था. कैफेटेरिया की दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल गई. उस की बाइक पर बैठ कर वह अपने को महारानी से कम न सम?ाती. 19-20 साल की कच्ची उम्र और इश्क का भूत. पूरे कालेज में उन के इश्क के चर्चे सब की जबान पर चढ़ गए थे. वह उस के संग कभी कंपनीबाग तो कभी मौल तो कभी कालेज के कोने में बैठ कर भविष्य के सपने बुनती.

एक दिन वे दोनों एकदूसरे को गलबहियां डाले हुए पिक्चरहौल से निकल रहे थे, तभी नरेन के चाचा बलवीर सिंह ने उन दोनों को देख लिया था. फिर तो उस दिन घर पर नरेन की शामत आ गई थी.

सोमा की जातिबिरादरी पता करते ही नरेन को उस से हमेशा के लिए दूर रहने की सख्त हिदायत मिल गई थी.

पश्चिम उत्तर प्रदेश जाटबहुल क्षेत्र है. वहां की खाप पंचायतें अपने फैसलों के लिए कुख्यात हैं. जाट लड़का किसी वाल्मीकि समाज की लड़की से प्यार की पेंग बढ़ाए, यह बात उन्हें कतई बरदाश्त नहीं थी.

वे लोग 15-20 गुडों को ले कर लाठीडंडे लहराते हुए आए. और शुरू कर दी गालीगलौज व तोड़फोड़.

वे लोग बाबू को मारने लगे, तो वह अंदर से दौड़ती हुई आई और चीखनेचिल्लाने लगी थी. एक गुंडा उस को देखते ही बोला, ऐसी खूबसूरत मेनका को देख नरेन का कौन कहे, किसी का भी मन मचल उठे.’

बाबू ने उसे धकेल कर अंदर जाने को कह दिया था. पासपड़ोस के लोगों ने किसी तरह उन लोगों को शांत करवाया, नहीं तो निश्चित ही उस दिन खूनखराबा होता.

पंचायत बैठी और फैसला दिया कि महीनेभर के अंदर सोमा की शादी कर दी जाए और 10 हजार रुपए जुर्माना.

उस का कालेज जाना बंद हो गया और आननफानन उस की शादी फजलपुर गांव के सूरज के साथ, जो कि स्कूल में मास्टर था, तय कर दी गई.

उस के पास अपना पक्का मकान था. थोड़ी सी जमीन थी, जिस में सब्जी पैदा होती थी. अम्माबाबू ने खुशीखुशी यहांवहां से कर्ज ले कर उस की शादी कर दी.

बाइक, फ्रिज, टीवी, कपड़ेलत्ते, बरतनभांडे, दहेज में जाने क्याक्या दिया. आंखों में आंसू ले कर वह सूरज के साथ शादी के बंधन में बंध गई थी.

ससुराल का कच्चा खपरैल वाला घर देख उस के सपनों पर पानी फिर गया था. 10-15 दिन तक सूरज उस के इर्दगिर्द घूमता रहा था. वह दिनभर मोबाइल में वीडियो देखता रहता था. आसपास की औरतों से भौजीभौजी कह कर हंसीठिठोली करता या फिर आलसियों की तरह पड़ा सोता रहता.

रोज रात में दारू चढ़ा कर उस के पास आता. नशा करते देख उसे अपने बाबू याद आते. एक दिन उस ने उस से काम पर जाने को कहा. तो, नशे में उस के मुंह से सच फूट पड़ा. न तो वह बीए पास है और न ही सरकारी स्कूल में मास्टर है. यह सब तो शादी के लिए ?ाठ बोला गया था. वह रो पड़ी थी. फिर उस ने सूरज को सुधारने का प्रयास किया था. वह उसे सम?ाती, तो वह एक कान से सुनता, दूसरे से निकाल देता.

आलसी तो वह हद दर्जे का था. पानमसाला हर समय उस के मुंह में भरा ही रहता.

जुआ खेलना, शराब पीना उस के शौक थे. यहांवहां हाथ मार कर चोरी करता और जुआ खेलता.

उस का भाई भी रात में दारू पी कर आता और गालीगलौज करता.

कुछ पैसे अम्मा ने दिए थे. कुछ उस के अपने थे. वह अपने बक्से में रखे हुए थी. सूरज उन पैसों को चुरा कर ले गया था. एक दिन उस ने अपनी पायल उतार कर साफ करने के लिए रखी थी. वह उस को यहांवहां घंटों ढूंढ़ती रही थी. लेकिन जब पायल हो, तब तो मिले. वह तो उस के जुए की भेंट चढ़ गई थी. यहां तक कि वह उस की शादी की सलमासितारे जड़ी हुई साड़ी ले गया और जुए में हार गया.

अस्तव्यस्त बक्से की हालत देख वह साड़ी के गायब होने के बारे में जान चुकी थी. वह खूब रोई. जा कर अम्माजी से कहा, तो वे बोली थीं, ‘साड़ी ही तो ले गया, तु?ो तो नहीं ले गया. मैं उसे डांट लगाऊंगी.’

उस की शादी को अभी साल भी नहीं पूरा हुआ था, लेकिन उस ने मन ही मन सूरज को छोड़ कर जाने का निश्चय कर लिया था. वह नशे में कई बार उस की पिटाई भी कर के उस के अहं को भी चोट पहुंचा चुका था.

वह बहुत दुखी थी, साथ ही, क्रोधित भी थी. सूरज नशा कर के देररात आया. आज कुछ ज्यादा ही नशे में था. बदबू के भभके से उस का जी मिचला उठा था. फिर उस के शरीर को अपनी संपत्ति सम?ाते हुए अपने पास उसे खींचने लगा. पहले तो उस ने धीरेधीरे मना किया, पर वह जब नहीं माना, तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया. वह संभल नहीं पाया और जमीन पर गिर गया. कोने में रखे संदूक का कोना उस के माथे पर चुभ गया और खून का फौआरा निकल पड़ा.

फिर तो उस दिन आधीरात को जो हंगामा हुआ कि पौ फटते ही उसे उस के घर के लिए बस में बैठा कर भेज दिया गया.

बाबूअम्मा ने उसे देख अपना सिर पीट लिया था. अम्मा बारबार उसे ससुराल भेजने का जतन करती, लेकिन वह अपने निर्णय पर अडिग रही.

उसे अब किसी काम की तलाश थी क्योंकि अब वह अम्मा पर बो?ा बन कर घर में नहीं बैठना चाहती थी.

सब उसे सम?ाते, आदमी ने पिटाई की तो क्या हुआ? तुम ने क्यों उस पर हाथ उठाया आदि.

अम्मा ने अमिता बहनजी से उस की नौकरी के लिए कहा तो उन्होंने उसे अपने कारखाने में नौकरी पर रख लिया. अंधे को क्या चाहिए दो आंखें. वहां शर्ट सिली जाती थी. उसे बटन लगा कर तह करना होता था. इस काम में कई औरतेंआदमी लगे हुए थे.

सुपरवाइजर बहुत कड़क था. वह एक मिनट भी चैन की सांस नहीं लेने देता. किसी को भी आपस में बात करते या हंसीमजाक करते देखता, तो उसे नौकरी से निकालने की धमकी दिया करता.

कारखाने का बड़ा उबाऊ वातावरण था. औसत दरजे का कमरा, उस में  10-12 औरतआदमी, चारों और कमीजों का ढेर और धीमाधीमा चलता पंखा. नए कपड़ों की गरमी में लगातार काम में जुटे रह कर वह थक जाती और ऊब भी जाती.

थकीमांदी जब वह घर लौटती तो एक कोठरी में बाबू की गालीगलौज और नशे में अम्मा के साथ लड़ाई व मारपीट से दोचार होना पड़ता. लड़ाई?ागड़े के बाद उसे सोता सम?ा दोनों अपने शरीर की भूख मिटाते. उसे घिन आती और वह आंखों में ही रात काट देती.

सवेरे पड़ोस का रमेश उसे लाइन मारते हुए कहता, ‘अरे सोमा, एक मौका तो दे मु?ो, तु?ो रानी बना कर रखूंगा.’

वह आंखें तरेर कर उस की ओर देखती और नाली पर थूक देती.

विमला काकी व्यंग्य से मुसकरा कर कहती, ‘कल तुम्हारे बाबू बहुत चिल्ला रहे थे, क्या अम्मा ने रोटी नहीं बनाईर् थी?’

वह इस नाटकीय जीवन से छुटकारा चाहती थी. उस ने नौकरी के साथसाथ बीए की प्राइवेट परीक्षा पास कर ली थी.

जब वह बीए पास हो गई तो उस की तरक्की हो गई. आंखों ही आंखों में वहां काम करने वाले महेंद्र से उस की दोस्ती हो गई. वह अम्मा से छिपा कर उस के लिए टिफिन में रोटी ले आती. दोनों साथसाथ चाय पीते, लंच भी साथ खाते. कारखाने के सुपरवाइजर दिलीप ने बहुत हाथपैर पटके कि तुम्हें निकलवा दूंगा, यहां काम करने आती हो या इश्क फरमाने. लेकिन, जब आपस में मन मिल जाए तो फिर क्या?

‘महेंद्र एक बात समझ लो, तुम से दोस्ती जरूर की है लेकिन मु?ा से दूरी बना कर रहना. मु?ा पर अपना हक मत समझाना, नहीं तो एक पल में मेरीतेरी दोस्ती टूट जाएगी.’

‘देख सोमा, तेरी साफगोई ही तो मु?ो बहुत पसंद है. जरा देर नहीं लगी और सूरज को हमेशा के लिए छोड़ कर आ गई.’

इस तरह आपस में बातें करतेकरते दोनों अपने दुख बांटने लगे.

‘महेंद्र, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?’

‘जब से लक्ष्मी मु?ो छोड़ कर चली गई, मेरी बदनामी हो गई. मेरे जैसे आदमी को भला कौन अपनी लड़की देगा.’

‘वह छोड़ कर क्यों चली गई?’

‘उस का शादी से पहले किसी के साथ चक्कर था. अपनी अम्मा की जबरदस्ती के चलते उस ने मु?ा से शादी तो कर ली लेकिन महीनेभर में ही सबकुछ लेदे कर भाग गई. उस का अपना अतीत उस की आंखों के सामने घूम गया था.

अब महेंद्र के प्रति उस का लगाव अधिक हो गया था.

एक दिन उस को बुखार था, इसलिए वह काम पर नहीं गई थी. वह घर में अकेली थी. तभी गंगाराम (बाबू के दोस्त) ने कुंडी खटखटाई, ‘एक कटोरी चीनी दे दो बिटिया.’

वह चीनी लेने के लिए पीछे मुड़ी ही थी कि उस ने उस को अपनी बांहों में जकड़ लिया था. लेकिन वह घबराई नहीं, बल्कि उस की बांहों में अपने दांत गड़ा दिए. वह बिलबिला पड़ा था. उस ने जोर की लात मारी और पकड़ ढीली पड़ते ही वह बाहर निकल कर चिल्लाने लगी. शोर सुनते ही लोग इकट्ठे होने लगे.

लेकिन उस बेशर्म गंगाराम ने जब कहा कि तेरे बाबू ने मु?ा से पैसे ले कर तु?ो मेरे हाथ बेच दिया है. अब तु?ो मेरे साथ चलना होगा.

‘थू है ऐसे बाप पर, हट जा यहां से, नहीं तो इतना मारूंगी कि तेरा नशा काफूर हो जाएगा,’ वह क्रोध में तमतमा कर बोली, ‘मैं आज से यहां नहीं रहूंगी.’

आसपास जमा भीड़ बाबू के नाम पर थूक रही थी. लड़ाई की खबर मिलते ही अम्मा भी भागती हुई आ गई थी. वह उसे सम?ाने की कोशिश करती रही लेकिन उस ने तो कसम खा ली थी कि वह इस कोठरी के अंदर पैर कभी नहीं रखेगी.

उसी समय महेंद्र उस का हालचाल पूछने आ गया था. सारी बातें सुन कर बोला, ‘तुम मेरी कोठरी में रहने लगो, मैं अपने दोस्त के साथ रहने लगूंगा.’

अम्मा की गालियों की बौछार के साथसाथ रोनाचिल्लाना, इन सब के बीच वह उस नर्क को छोड़ कर महेंद्र की कोठरी में आ कर रहने लगी थी. अम्मा ने चीखचीख कर उस दिन उस से रिश्ता तोड़ लिया था.

महेंद्र के साथ जाता देख अम्मा उग्र हो कर बोल रही थी, ‘जा रह, उस के साथ, देखना महीनापंद्रह दिन में तु?ा से मन भर जाएगा. बस, तु?ो घर से बाहर कर देगा.’

महेंद्र को सोमा काफी दिनों से जानती थी. उस ने उस की आंखों में अपने लिए सच्चा प्यार देखा था. उस की निगाहों में, बातों में वासना की ?ालक नहीं थी.

कारखाने में वह अब सुपरवाइजर बन गई थी. उस के मालिक उस के काम से बहुत खुश थे.

महेंद्र पढ़ालिखा तो था ही, वह अब पूरे एरिया का इंस्पैक्टर बन गया था.

प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत एक घर के लिए सोमा का नाम निकल आया था. उस के लिए

एक लाख रुपए जमा करने थे. नाम उस का निकला था पैसे भी उसी के नाम पर जमा होने थे. लेकिन महेंद्र ने निसंकोच पलभर में पैसे उस के नाम पर दे दिए. अब उस का अपना मकान हो गया था.

मकान मिलते ही वे दोनों बस्ती से दूर इस कालोनी में आ कर रहने लगे थे.

सोमा को अपने जीवन में सूनापन लगता. जब उस से सब अपने पति या बच्चों की बात करतीं, तो उस के दिल में कसक सी उठती थी कि काश, उस का भी पति होता, परिवार और बच्चे हों. लेकिन महेंद्र ने उस से दूरी बना कर रखी थी. उस ने लालची निगाहों से कभी उस की ओर देखा भी नहीं था.

जबकि सोमा के सजनेसंवरने के शौक को देखते हुए महेंद्र बालों की क्लिप, नेलपौलिश, लिपस्टिक आदि लाता रहता था. कभी सूट तो कभी साड़ी भी ले आता था. एक दिन लाल साड़ी ले कर आया था, बोला, ‘सोमा, यह साड़ी पहन, तेरे पर लाल साड़ी खूब फबेगी.’

‘साड़ी तो तू सच में बड़ी सुंदर लाया है. लेकिन इसे भला पहनूंगी कहां, बता?’

‘हम दोनों इतवार को पिक्चर देखने चलेंगे, तब पहनना.’ वह शरमा गई थी.

दोनों के बीच पतिपत्नी का रिश्ता नहीं था, लेकिन दोनों साथसाथ एक ही घर में रहते थे.

वह कमरे में सोती तो महेंद्र बाहर बरामदे में. उस के अपने घर की खबर मिलते ही सूरज जाने कहां से प्रकट हो गया और पूरी कालोनी में महेंद्र की रखैल कह कर गालीगलौज करते हुए पति का हक जमाने लगा.

महेंद्र को बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी. सोमा अकेले ही सूरज का सामना करने के लिए काफी थी. उस की गालियों के सामने उस की एक नहीं चली थी और हार कर वह लौट गया था.

कई बार रात के अंधेरे में वह करवटें बदलती रह जाती थी. समाज की ऊलजलूल बातें और लालची मर्दों की कामुक निगाहें, मानो वह कोई ऐसी मिठाई है, जिस का जो चाहे रसास्वादन कर सकता है.

महेंद्र के साथ रहने से वह अपने को सुरक्षित महसूस करती थी. बैंक में अकाउंट हो या कोई भी फौर्म, पति के नाम के कौलम को देखते ही उस के गले में कुछ अटकने लगता था.

वह महेंद्र की पहल का मन ही मन इंतजार करती रहती थी.

महेंद्र अपनी बात का पक्का निकला था, उस ने भी सोमा का मान रखा था.

दोनों साथ रहते, खाना खाते, घूमने जाते लेकिन आपस में एक दूरी बनी  हुई थी.

‘सोमा, कल काम की छुट्टी कर लेना.’

‘क्यों?’

‘कल आर्य कन्या स्कूल में आधार कार्ड के लिए फोटो खिंचवाने चलना है. फोटो खींची जाएगी, अच्छे से तैयार हो कर चलना.’

वह मुसकरा उठी थी.

अगले दिन उस ने महेंद्र की लाई हुई साड़ी पहनी, कानों में ?ामके पहने थे. उस ने माथे पर बिंदिया लगाई. फिर आज उस के हाथ मांग में सिंदूर सजाने को मचल रहे थे.

हां, नहीं, हां, नहीं, सोचते हुए उस ने अपनी मांग में सिंदूर सजा लिया था. हाथों में खनकती हुई लाल चूडि़यां, आज वह नवविवाहिता की तरह सज कर तैयार हुई थी. आईने में अपना अक्स देख वह खुद शरमा गई थी.

महेंद्र उस को देख कर अपनी पलकें ?ापकाना ही भूल गया था. वह बोला, ‘क्या सूरज की याद आ गई तुम्हें?

वह इतरा कर बोली, ‘चलो, फोटो निकलवाने चलना है कि नहीं?’

सोमा को इतना सजाधजा देख महेंद्र उस का मंतव्य नहीं सम?ा पा रहा था.

वह चुपचाप उस के साथ चल दिया था. वहां फौर्म भरते समय जब क्लर्क ने पति का नाम पूछा तो एक क्षण को  वह शरमाई, फिर मुसकराती हुई  तिरछी निगाहों से महेंद्र को देखते  हुए उस का हाथ पकड़ कर बोली  थी, ‘महेंद्र’.

महेंद्र के कानों में मानो घंटियां बज उठी थीं. इन्हीं शब्दों का तो वह कब से इंतजार कर रहा था. वह अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहा था कि सोमा ने उसे आज अपना पति कहा है.

रात में वह रोज की तरह अपने कमरे में जा कर लेट गया था. आज खुशी से उस का दिल बल्लियों उछल रहा था. लेकिन वह आज भी अपनी खुशी का इंतजार कर रहा था.

आज नवविवाहिता के वेश में सजधज कर अपनी मधुयामिनी के लिए सोमा आ कर अपने प्रेमी की बांहों में सिमट गई थी.

अब उस के मन में समाज का कोई भय नहीं था कि महेंद्र जाट है और वह वाल्मीकि. अब वे केवल पतिपत्नी हैं. वह मुसकरा उठी थी.

महेंद्र की आवाज से वह वर्तमान में लौटी थी, ‘‘सोमा, दरवाजा तो खोलो, मैं कब से इंतजार कर रहा हूं.’’

Famous Hindi Stories : गर्भदान – बच्ची के लिए कैसे निष्ठुर हो सकती है मां

Famous Hindi Stories :  ‘‘नहीं, आरव, यह काम मुझ से नहीं होगा. प्लीज, मुझ पर दबाव मत डालो.’’ ‘‘वीनी, प्लीज समझने की कोशिश करो. इस में कोई बुराई नहीं है. आजकल यह तो आम बात है और इस छोटे से काम के बदले में हमारा पूरा जीवन आराम से गुजरेगा. अपना खुद का घर लेना सिर्फ मेरा ही नहीं, तुम्हारा भी तो सपना है न?’’

‘‘हां, सपना जरूर है पर उस के लिए…? छि…यह मुझ से नहीं होगा. मुझ से ऐसी उम्मीद न रखना.’’ ‘‘वीनी, दूसरे पहलू से देखा जाए तो यह एक नेक काम है. एक निसंतान स्त्री को औलाद का सुख देना, खुशी देना क्या अच्छा काम नहीं है?’’

‘‘आरव, मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत नहीं हूं. मुझे ज्यादा समझाने की कोई आवश्यकता नहीं.’’ ‘‘हां वीनी, तुम कोई गंवार स्त्री नहीं हो. 21वीं सदी की पढ़ी हुई, मौडर्न स्त्री हो. अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हो. इसीलिए तो मैं तुम से यह उम्मीद रखता हूं. आखिर उस में बुरा ही

क्या है?’’ ‘‘यह सब फालतू बहस है, आरव, मैं कभी इस बात से सहमत नहीं होने वाली हूं.’’

‘‘वीनी, तुम अच्छी तरह जानती हो. इस नौकरी में हम कभी अपना घर खरीदने की सोच भी नहीं सकते. पूरा जीवन हमें किराए के मकान में ही रहना होगा और कल जब अपने बच्चे होंगे तो उन को भी बिना पैसे हम कैसा भविष्य दे पाएंगे? यह भी सोचा है कभी?’’ ‘‘समयसमय की बात है, आरव, वक्त सबकुछ सिखा देता है.’’

‘‘लेकिन वीनी, जब रास्ता सामने है तो उस पर चलने के लिए तुम क्यों तैयार नहीं? आखिर ऐसा करने में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? तुम्हें मेरे बौस के साथ सोना थोड़े ही है?’’ ‘‘लेकिन, फिर भी 9 महीने तक एक पराए मर्द का बीज अपनी कोख में रखना तो पड़ेगा न? नहींनहीं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?’’

‘‘कभी न कभी तुम को बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखना तो है ही न?’’ ‘‘यह एक अलग बात है. वह बच्चा मेरे पति का होगा. जिस के साथ मैं ने जीनेमरने की ठान रखी है. जिस के बच्चे को पालना मेरा सपना होगा, मेरा गौरव होगा.’’

‘‘यह भी तुम्हारा गौरव ही कहलाएगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा.’’ ‘‘लेकिन मुझे तो पता है न? नहीं, आरव, मुझ से यह नहीं होगा.’’

पिछले एक हफ्ते से घर में यही एक बात हो रही थी. आरव वीनी को समझाने की कोशिश करता था. लेकिन वीनी तैयार नहीं हो रही थी. बात कुछ ऐसी थी. मैडिकल रिपोर्ट के मुताबिक आरव के बौस की पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता था. और साहब को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने का विचार पसंद नहीं था. न जाने किस का बच्चा हो, कैसा हो. उसे सिर्फ अपना ही बच्चा चाहिए था. साहब ने एक बार आरव की पत्नी वीनी को देखा था. साहब को सरोगेट मदर के लिए वह एकदम योग्य लगी थी. इसीलिए उन्होंने आरव के सामने एक प्रस्ताव रखा. यों तो अस्पताल किसी साधारण औरत को तैयार करने के लिए तैयार थे पर साहब को लगा था कि उन औरतों में बीमारियां भी हो सकती हैं और वे बच्चे की गर्भ में सही देखभाल न करेंगी. प्रस्ताव के मुताबिक अगर वीनी सरोगेट मदर बन कर उन्हें बच्चा देती है तो वे आरव को एक बढि़या फ्लैट देंगे और साथ ही, उस को प्रमोशन भी मिलेगा.

बस, इसी लालच में आरव वीनी के पीछे पड़ा था और वीनी को कैसे भी कर के मनाना था. यह काम आरव पिछले एक हफ्ते से कर रहा था. लेकिन इस बात के लिए वीनी को मनाना आसान नहीं था. आरव कुछ भी कर के अपना सपना पूरा करना चाहता था. लेकिन वीनी मानने को तैयार ही नहीं थी. ‘‘वीनी, इतनी छोटी सी बात ही तो है. फिर भी तुम क्यों समझ नहीं रही हो?’’

‘‘आरव, छोटी बात तुम्हारे लिए होगी. मेरे लिए, किसी भी औरत के लिए यह छोटी बात नहीं है. पराए मर्द का बच्चा अपनी कोख में रखना, 9 महीने तक उसे झेलना, कोई आसान बात नहीं है. मातृत्व का जो आनंद उस अवस्था में स्त्री को होता है, वह इस में कहां? अपने बच्चे का सपना देखना, उस की कल्पना करना, अपने भीतर एक रोमांच का एहसास करना, जिस के बलबूते पर स्त्री प्रसूति की पीड़ा हंसतेहंसते झेल सकती है, यह सब इस में कहां संभव है? आरव, एक स्त्री की भावनाओं को आप लोग कभी नहीं समझ सकते.’’ ‘‘और मुझे कुछ समझना भी नहीं है,’’ आरव थोड़ा झुंझला गया.

‘‘फालतू में छोटी बात को इतना बड़ा स्वरूप तुम ने दे रखा है. ये सब मानसिक, दकियानूसी बातें हैं. और फिर जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ाबहुत खोना भी पड़ता है न? यहां तो सिर्फ तुम्हारी मानसिक भावना है, जिसे अगर तुम चाहो तो बदल भी सकती हो. बाकी सब बातें, सब विचार छोड़ दो. सिर्फ और सिर्फ अपने आने वाले सुनहरे भविष्य के बारे में सोचो. अपने घर के बारे में सोचो. यही सोचो कि कल जब हमारे खुद के बच्चे होंगे तब हम उन का पालन अच्छे से कर पाएंगे. और कुछ नहीं तो अपने बच्चे के बारे में सोचो. अपने बच्चे के लिए मां क्याक्या नहीं करती है?’’ आरव साम, दाम, दंड, भेद कोई भी तरीका छोड़ना नहीं चाहता था.

आखिर न चाहते हुए भी वीनी को पति की बात पर सहमत होना पड़ा. आरव की खुशी का ठिकाना न रहा. अब बहुत जल्द सब सपने पूरे होने वाले थे. अब शुरू हुए डाक्टर के चक्कर. रोजरोज अलग टैस्ट. आखिर 2 महीनों की मेहनत के बाद तीसरी बार में साहब के बीज को वीनी के गर्भाशय में स्थापित किए जाने में कामयाबी मिल गई. आईवीएफ के तीसरे प्रयास में आखिर सफलता मिली.

वीनी अब प्रैग्नैंट हुई. साहब और उन की पत्नी ने वीनी को धन्यवाद दिया. वीनी को डाक्टर की हर सूचना का पालन करना था. 9 महीने तक अपना ठीक से खयाल रखना था. वीनी के उदर में शिशु का विकास ठीक से हो रहा था, यह देख कर सब खुश थे. लेकिन वीनी खुश नहीं थी. रहरह कर उसे लगता था कि उस के भीतर किसी और का बीज पनप रहा है, यही विचार उस को रातदिन खाए जा रहा था. जिंदगी के पहले मातृत्व का कोई रोमांच, कोई उत्साह उस के मन में नहीं था. बस, अपना कर्तव्य समझ कर वह सब कर रही थी. डाक्टर की सभी हिदायतों का ठीक से पालन कर रही थी. बस, उस के भीतर जो अपराधभाव था उस से वह मुक्ति नहीं पा रही थी. लाख कोशिशें करने पर भी मन को वह समझा नहीं पा रही थी.

आरव पत्नी को समझाने का, खुश रखने का भरसक प्रयास करता रहता पर एक स्त्री की भावना को, उस एहसास को पूरी तरह समझ पाना पुरुष के लिए शायद संभव नहीं था.

वीनी के गर्भ में पलबढ़ रहा पहला बच्चा था, पहला अनुभव था. लेकिन अपने खुद के बच्चे की कोई कल्पना, कोई सपना कहां संभव था? बच्चा तो किसी और की अमानत था. बस, पैदा होते ही उसे किसी और को दे देना था. वीनी सपना कैसे देखती, जो अपना था ही नहीं. बस, वह तो 9 महीने पूरे होने की प्रतीक्षा करती रहती. कब उसे इस बोझ से मुक्ति मिलेगी, वीनी यही सोचती रहती. मन का असर तन पर भी होना ही था. डाक्टर नियमितरूप से सारे चैकअप कर रहे थे. कुछ ज्यादा कौंप्लीकेशंस नहीं थे, यह अच्छी बात थी. साहब और उन की पत्नी भी वीनी का अच्छे से खयाल रखते. जिस से आने वाला बच्चा स्वस्थ रहे. लेकिन भावी के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सकता है. होनी के गर्भ से कब, कैसी पल का प्रसव होगा, कोई नहीं कह सकता है.

वीनी और आरव का पूरा परिवार खुश था. किसी को सचाई कहां मालूम थी? सातवें महीने में बाकायदा वीनी की गोदभराई भी हुई. जिस दिन की कोई भी स्त्री उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती है, उस दिन भी वीनी खुश नहीं हो पा रही थी. अपने स्वजनों को वह कितना बड़ा धोखा दे रही थी. यही सोचसोच कर उस की आंखें छलक जाती थीं.

गोदभराई की रस्म बहुत अच्छे से हुई. साहब और उन की पत्नी ने उसी दिन नए फ्लैट की चाबी आरव के हाथ में थमाई. आरव की खुशी का तो पूछना ही क्या? आरव पत्नी की मनोस्थिति नहीं समझता था, ऐसा नहीं था. उस ने सोचा था, बस 2 ही महीने निकालने हैं न. फिर वह वीनी को ले कर कहीं घूमने जाएगा और वीनी धीरेधीरे सब भूल जाएगी. और फिर से वह नौर्मल हो जाएगी.

आरव फ्लैट देख कर खुशी से उछल पड़ा था. उस की कल्पना से भी ज्यादा सुंदर था यह फ्लैट. बारबार कहने पर भी वीनी फ्लैट देखने नहीं गई थी. बस, मन ही नहीं हो रहा था. उस मकान की उस ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी, ऐसा उस को प्रतीत हो रहा था. बस, जैसेतैसे 2 महीने निकल जाएं और वह इन सब से मुक्त हो जाए. नियति एक स्त्री की भावनाओं के साथ यह कैसा खेल खेल रही थी, यही खयाल उस के दिमाग में आता रहता था. इसी बीच, आरव का प्रमोशन भी हो चुका था. साहब ने अपना वादा पूरी ईमानदारी से निभाया था.

लेकिन 8वां महीना शुरू होते ही वीनी का स्वास्थ्य बिगड़ा. उस को अस्पताल में भरती होना पड़ा. और वहां वीनी ने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची 9 महीना पूरा होने से पहले ही आ गई थी, इसीलिए बहुत कमजोर थी. बड़ेबड़े डाक्टरों की फौज साहब ने खड़ी कर दी थी. बच्ची की स्थिति धीरेधीरे ठीक हो रही थी. अब खतरा टल गया था. अब साहब ने बच्ची मानसिकरूप से नौर्मल है या नहीं, उस का चेकअप करवाया. तभी पता चला कि बच्ची शारीरिकरूप से तो नौर्मल है लेकिन मानसिकरूप से ठीक नहीं है. उस के दिमाग के पूरी तरह से ठीक होने की कोई संभावना नहीं है.

यह सुनते ही साहब और उन की पत्नी के होश उड़ गए. वे लोग ऐसी बच्ची के लिए तैयार नहीं थे. साहब ने आरव को एक ओर बुलाया और कहा कि बच्ची का उसे जो भी करना है, कर सकता है. ऐसी बच्ची को वे स्वीकार नहीं कर सकते. अगर उस को भी ऐसी बच्ची नहीं चाहिए तो वह उसे किसी अनाथाश्रम में छोड़ आए. हां, जो फ्लैट उन्होंने उसे दिया है, वह उसी का रहेगा. वे उस फ्लैट को वापस मांगने वाले नहीं हैं.

आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? साहब और उन की पत्नी तो अपनी बात बता कर चले गए. आरव सुन्न हो कर खड़ा ही रह गया. वीनी को जब पूरी बात का पता चला तब एक पल के लिए वह भी मौन हो गई. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

तभी नर्स आ कर बच्ची को वीनी के हाथ में थमा गई. बच्ची को भूख लगी थी. उसे फीड कराना था. बच्ची का मासूम स्पर्श वीनी के भीतर को छू गया. आखिर अपने ही शरीर का एक अभिन्न हिस्सा थी बच्ची. उसी के उदर से उस ने जन्म लिया था. यह वीनी कैसे भूल सकती थी. बाकी सबकुछ भूल कर वीनी ने बच्ची को अपनी छाती से लगा लिया. सोई हुई ममता जाग उठी. दूसरे दिन आरव ने वीनी के पास से बच्ची को लेना चाहा और कहा, ‘‘साहब, उसे अनाथाश्रम में छोड़ आएंगे और वहां उस की अच्छी देखभाल का बंदोबस्त भी करेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है.’’

‘‘सौरी आरव, यह मेरी बच्ची है, मैं ने इसे जन्म दिया है. यह कोई अनाथ नहीं है,’’ वीनी ने दृढ़ता से जवाब दिया. ‘‘पर वीनी…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आरव.’’ ‘‘पर वीनी, यह बच्ची मैंटली रिटायर्ड है. इस को हम कैसे पालेंगे?’’

‘‘जैसी भी है, मेरी है. मैं ही इस की मां हूं. अगर हमारी बच्ची ऐसी होती तो क्या हम उसे अनाथाश्रम भेज देते?’’ ‘‘लेकिन वीनी…’’

‘‘सौरी आरव, आज कोई लेकिनवेकिन नहीं. एक दिन तुम्हारी बात मैं ने स्वीकारी थी. आज तुम्हारी बारी है. यह हमारे घर का चिराग बन कर आई है. हम इस का अनादर नहीं कर सकते. जन्म से पहले ही इस ने हमें क्याक्या नहीं दिया है?’’ आरव कुछ पल पत्नी की ओर, कुछ पल बच्ची की ओर देखता रहा. फिर उस ने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार करने लगा.

‘‘वीनी, हम इस का नाम क्या रखेंगे?’’ वीनी बहुत लंबे समय के बाद मुसकरा रही थी.

Hindi Moral Tales : उम्र के इस मोड़ पर

Hindi Moral Tales : आज रविवार है. पूरा दिन बारिश होती रही है. अभी थोड़ी देर पहले ही बरसना बंद हुआ था. लेकिन तेज हवा की सरसराहट अब भी सुनाई पड़ रही थी. गीली सड़क पर लाइट फीकीफीकी सी लग रही थी. सुषमा बंद खिड़की के सामने खोईखोई खड़ी थी और शीशे से बाहर देखते हुए राहुल के बारे में सोच रही थी, पता नहीं वह इस मौसम में कहां है. बड़ा खामोश, बड़ा दिलकश माहौल था. एक ताजगी थी मौसम में, लेकिन मौसम की सारी सुंदरता, आसपास की सारी रंगीनियां दिल के मौसम से बंधी होती हैं और उस समय सुषमा के दिल का मौसम ठीक नहीं था.

विशाल टीवी पर कभी गाने सुन रहा था, तो कभी न्यूज. वह आराम के मूड में था. छुट्टी थी, निश्चिंत था. उस ने आवाज दी, ‘‘सुषमा, क्या सोच रही हो खड़ेखड़े?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बाहर देख रही हूं, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘यश और समृद्धि कब तक आएंगे?’’

‘‘बस, आने ही वाले हैं. मैं उन के लिए कुछ बना लेती हूं,’’ कह कर सुषमा किचन में चली गई.

सुषमा जानबूझ कर किचन में आ गई थी. विशाल की नजरों का सामना करने

की उस में इस समय हिम्मत नहीं थी. उस की नजरों में इस समय बस राहुल के इंतजार की बेचैनी थी.

सुषमा और विशाल के विवाह को 20 वर्ष हो गए थे. युवा बच्चे यश और समृद्धि अपनीअपनी पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त हुए तो सुषमा को जीवन में एक रिक्तता खलने लगी. वह विशाल से अपने अकेलेपन की चर्चा करती, ‘‘विशाल, आप भी काफी व्यस्त रहने लगे हैं, बच्चे भी बिजी हैं, आजकल कहीं मन नहीं लगता, शरीर घरबाहर के सारे कर्त्तव्य तो निभाता चलता है, लेकिन मन में एक अजीब वीराना सा भरता जा रहा है. क्या करूं?’’

विशाल समझाता, ‘‘समझ रहा हूं तुम्हारी बात, लेकिन पद के साथसाथ जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तुम भी किसी शौक में अपना मन लगाओ न’’

‘‘मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. मन करता है कोई मेरी बात सुने, मेरे साथ कुछ समय बिताए. तुम तीनों तो अपनी दुनिया में ही खोए रहते हो.’’

‘‘सुषमा, इस में अकेलेपन की क्या बात है. यह तो तुम्हारे हाथ में है. तुम अपनी सोच को जैसे मरजी जिधर ले जाओ. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है. आजकल फर्क बस इतना ही है कि कोई बूढ़ा हो कर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सचाई को मन से स्वीकारो तो कोई तकलीफ नहीं होती और हां, तुम्हें तो पढ़नेलिखने का इतना शौक था न. तुम तो कालेज में लिखती भी थी. अब समय मिलता है तो कुछ लिखना शुरू करो.’’ मगर सुषमा को अपने अकेलेपन से इतनी आसानी से मुक्त होना मुश्किल लगता.

इस बीच विशाल ने रुड़की से दिल्ली एमबीए करने आए अपने प्रिय दोस्त के छोटे भाई राहुल को घर आने के लिए कहा तो सुषमा राहुल से मिलने के बाद खिल ही उठी.

होस्टल में रहने का प्रबंध नहीं हो पाया तो विजय ने विशाल से फोन पर कहा, ‘‘यार, उसे कहीं अपने आसपास ही कोई कमरा दिलवा दे, घर में भी सब लोगों की चिंता कम हो जाएगी.’’

विशाल के खूबसूरत से घर में पहली मंजिल पर 2 कमरे थे. एक कमरा यश और समृद्धि का स्टडीरूम था, दूसरा एक तरह से गैस्टरूम था, रहते सब नीचे ही थे. जब कुछ समझ नहीं आया तो विशाल ने सुषमा से विचारविमर्श किया, ‘‘क्यों न राहुल को ऊपर का कमरा दे दें. अकेला ही तो है. दिन भर तो कालेज में ही रहेगा.’’

सुषमा को कोई आपत्ति नहीं थी. अत: विशाल ने विजय को अपना विचार बताया और कहा, ‘‘घर की ही बात है, खाना भी यहीं खा लिया करेगा, यहीं आराम से रह लेगा.’’

विजय ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, उसे पेइंगगैस्ट की तरह रख ले.’’

विशाल हंसा, ‘‘क्या बात कर रहा है. जैसे तेरा भाई वैसे मेरा भाई.’’

राहुल अपना बैग ले आया. अपने हंसमुख स्वभाव से जल्दी सब से हिलमिल गया. सुषमा को अपनी बातों से इतना हंसाता कि सुषमा तो जैसे फिर से जी उठी. नियमित व्यायाम और संतुलित खानपान के कारण सुषमा संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी. राहुल उस से कहता, ‘‘कौन कहेगा आप यश और समृद्धि की मां हैं. बड़ी बहन लगती हैं उन की.’’

राहुल सुषमा के बनाए खाने की, उस के स्वभाव की, उस की सुंदरता की दिल खोल कर तारीफ करता और सुषमा अपनी उम्र के 40वें साल में एक नवयुवक से अपनी प्रशंसा सुन कर जैसे नए उत्साह से भर गई.

कई दिनों से विशाल अपने पद की बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त होता चला गया था. अब तो बस नाश्ते के समय विशाल हांहूं करता हुआ जल्दीजल्दी पेपर पर नजर डालता और जाने के लिए बैग उठाता और चला जाता. रात को आता तो कभी न्यूज, कभी लैपटौप, तो कभी फोन पर व्यस्त रहता. सुषमा उस के आगेपीछे घूमती रहती, इंतजार करती रहती कि कब विशाल कुछ रिलैक्स हो कर उस की बात सुनेगा. वह अपने मन की कई बातें उस के साथ बांटना चाहती, लेकिन सुषमा को लगता विशाल की जिम्मेदारियों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. उसे लगता एक चतुर अधिकारी के मुखौटे के पीछे उस का प्रियतम कहीं छिप सा गया है.

बच्चों का अपना रूटीन था. वे घर में होते तो भी अपने मोबाइल पर या टीवी में लगे रहते या फिर पढ़ाई में. वह बच्चों से बात करना भी चाहती तो अकसर दोनों बच्चों का ध्यान अपने फोन पर रहता. सुषमा उपेक्षित सी उठ कर अपने काम में लग जाती.

और अब अकेले में वह राहुल के संदर्भ में सोचने लगी. लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए इंसान के भीतर जगह पा जाता है, इस का आभास उस घटना के बाद ही होता है. सुषमा के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल आया तो दिनबदिन विशाल और बच्चों की बढ़ती व्यस्तता से मन के एक खाली कोने के भरे जाने की सी अनुभूति होने लगी.

विशाल टूर पर रहता तो राहुल कालेज से आते ही कहता, ‘‘भैया गए हुए हैं. आप बोर हो रही होंगी. आप चाहें तो बाहर घूमने चल सकते हैं. यश और समृद्धि को भी ले चलिए.’’

सुषमा कहती, ‘‘वे तो कोचिंग क्लास में हैं. देर

से आएंगे. चलो, हम दोनों ही चलते हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं.’’

दोनों जाते, घूमफिर कर खाना खा कर ही आते, सुषमा राहुल को अपना पर्स कहीं निकालने नहीं देती. राहुल उस के जीवन में एक ताजा हवा का झोंका बन कर आया था. दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. वह अकेलेपन की खाई से निकल कर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी. अपनी उम्र को भूल कर किशोरियों की तरह दोगुने उत्साह से हर काम करने लगी. राहुल की हर बात, हर अदा उसे अच्छी लगती.

कई दिनों से अकेलेपन के एहसास से चाहेअनचाहे अपने भीतर का खाली कोना गहराई से महसूस करती आ रही थी. अब उस जगह को राहुल के साथ ने भर दिया था. कोई भी काम करती, राहुल का ध्यान आता रहता. उस का इंतजार रहता. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है, लेकिन दिल क्या बातें समझ लेता है? नहीं, यह तो सिर्फ अपनी ही जबान समझता है, अपनी ही बोली जानता है. उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल ही से निकलता है.

अब तो न चाहते हुए भी विशाल के साथ अंतरंग पलों में भी वह राहुल की चहकती आवाज से घिरने लगती. मन का 2 दिशाओं में

पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ जाता. मन में उथलपुथल होने लगती, वह सोचती यह बैठेबैठाए कौन सा रोग लगा बैठी. यह किशोरियों जैसी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, कभी वह शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी मनोदशा पर खुद ही हंस पड़ती.

अचानक एक दिन राहुल कालेज से मुंह लटकाए आया. सुषमा ने खाने

के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया. वह चुपचाप ड्राइंगरूम में ही गुमसुम बैठा रहा. सुषमा ने बारबार पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आज कालेज में मेरा मोबाइल खो गया है. यहां आते समय विजय भैया ने इतना महंगा मोबाइल ले कर दिया था. भैया अब बहुत गुस्सा होंगे.’’

सुषमा चुपचाप सुनती रही. कुछ बोली नहीं. लेकिन अगले ही दिन उस ने अपनी जमापूंजी से क्व15 हजार निकाल कर राहुल के हाथ पर जबरदस्ती रख दिए. राहुल मना करने लगा, लेकिन सुषमा के जोर देने पर रुपए रख लिए.

कुछ महीने और बीत गए. विशाल भी फुरसत मिलते ही राहुल के हालचाल पूछता, वैसे उस के पास समय ही नहीं रहता था. सुषमा पर घरगृहस्थी पूरी तरह से सौंप कर अपने काम में लगा रहता था. सुषमा मन ही मन पूरी तरह राहुल की दोस्ती के रंग में डूबी हुई थी. पहले उसे विशाल में एक दोस्त नजर आता था, अब उसे विशाल में एक दोस्त की झलक भी नहीं दिखती.

यह क्या उसी की गलती थी. विशाल को अब उस की कोमल भावनाएं छू कर भी नहीं जाती थीं. राहुल में उसे एक दोस्त नजर आता है. वह उस की बातों में रुचि लेता है, उस के शौक ध्यान में रखता है, उस की पसंदनापसंद पर चर्चा करता है. उसे बस एक दोस्त की ही तो तलाश थी. वह उसे राहुल के रूप में मिल गया है. उसे और कुछ नहीं चाहिए.

एक दिन विशाल टूर पर था. यश और समृद्धि

किसी बर्थडे पार्टी में गए थे. अंधेरा हो चला था. राहुल

भी अभी तक नहीं आया था. सुषमा लौन में टहल रही

थी. राहुल आया, नीचे सिर किए हुए मुंह लटकाए ऊपर अपने कमरे में चला गया. सुषमा को देख कर भी रुका नहीं तो सुषमा को उस की फिक्र हुई. वह उस के पीछेपीछे ऊपर गई. जब से राहुल आया था वह कभी उस के रूम में नहीं जाती थी. मेड ही सुबह सफाई कर आती थी. उस ने जा कर देखा राहुल आंखों पर हाथ रख कर लेटा है.

सुषमा ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, तबीयत तो ठीक है?’’

राहुल उठ कर बैठ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘तो रोनी सूरत क्यों बनाई हुई है?’’

‘‘भैया ने बाइक के पैसे भेजे थे, मेरे दोस्त उमेश की बहन की शादी है, उसे जरूरत पड़ी तो मैं ने उसे सारे रुपए दे दिए. अब भैया बाइक के बारे में पूछेंगे तो क्या कहूंगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है. वही उमेश याद है न आप को. यहां एक बार आया था और मैं ने उसे आप से भी मिलवाया था.’’

‘‘हांहां याद आया,’’ सुषमा को वह लड़का याद आ गया जो उसे पहली नजर में ही कुछ जंचा नहीं था. बोली, ‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘क्या कर सकता हूं? भैया को तो यही लगेगा कि मैं यहां आवारागर्दी कर रहा हूं, वे तो यही कहेंगे कि सब छोड़ कर वापस आ जाओ, यहीं पढ़ो.’’

राहुल के जाने का खयाल ही सुषमा को सिहरा गया. फिर वही अकेलापन होगा, वही बोरियत अत: बोली, ‘‘मैं तुम्हें रुपए दे दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं, यह कोई छोटी रकम नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास बच्चों की कोचिंग की फीस रखी है. मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘लेकिन मैं ये रुपए आप को जल्दी लौटा दूंगा.’’

‘‘हांहां, ठीक है. मुझ से कल रुपए ले लेना. अब नीचे आ कर खाना खा लो.’’

सुषमा नीचे आ गई. अपनी अलमारी खोली. सामने ही रुपए रखे थे. सोचा अभी राहुल को दे देती हूं. उसे ज्यादा जरूरत है इस समय. बेचारा कितना दुखी हो रहा है. अभी जा कर पकड़ा देती हूं. खुश हो जाएगा. वह रुपए ले कर वापस ऊपर गई. राहुल के कमरे के दरवाजे के बाहर ही उस के कदम ठिठक गए.

वह फोन पर किसी से धीरेधीरे बात कर रहा था. न चाहते हुए भी सुषमा ने कान उस की आवाज की तरफ  लगा दिए. वह कह रहा था, ‘‘यार उमेश, मोबाइल और बाइक का इंतजाम तो हो गया. सोच रहा हूं अब क्या मांगूगा. अमीर औरतों से दोस्ती करने का यही तो फायदा है, उन्हें अपनी बोरियत दूर करने के लिए कोई तो चाहिए और मेरे जैसे लड़कों को अपना शौक पूरा करने के लिए कोई चाहिए.’’

‘‘मुझे तो यह भी लगता है कि थोड़ी सब्र से काम लूंगा तो वह मेरे साथ सो भी जाएगी. बेवकूफ तो है ही… सबकुछ होते हुए भटकती घूमती है. मुझे क्या, मेरा तो फायदा ही है उस की बेवकूफी में.’’

सुषमा भारी कदमों से नीचे आ कर कटे पेड़ सी बैड पर पड़ गई. लगा कभीकभी इंसान को परखने में मात खा जाती है नजरें. ऐसे जैसे कोई पारखी जौहरी कांच को हीरा समझ बैठे.

तीखी कचोट के साथ उसे स्वयं पर शर्म आई. इतने दिनों से वह राहुल जैसे चालाक इंसान के लिए बेचैन रहती थी, सही कह रहा था राहुल. वही बेवकूफी कर रही थी. अकेलेपन के एहसास से उस के कदम जिस राह पर बढ़ चले थे, अगर कभी विशाल और बच्चों को उस के मन की थाह मिल जाती तो क्या इज्जत रह जाती उस की उन की नजरों में.

तभी विशाल की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘अकेलेपन से हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा है कि हम चीजों को उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुल कर सांस ले पाओगी.’’

इस बात का ध्यान आते ही सुषमा को कुछ शांति सी मिली. उस ने कुदरत को धन्यवाद दिया, उम्र के इस मोड़ पर अभी इतनी देर नहीं हुई थी कि वह स्थिति को संभाल न सके. वह कल ही राहुल को यहां से जाने के लिए कह देगी और यह भी बता देगी वह इतनी बेवकूफ नहीं कि अपने पति की कमाई दूसरों की भावनाओं से खेलने वाले लड़के पर लुटा दे.

वह अपने जीवन की पुस्तक के इस दुखांत अध्याय को सदा के लिए बंद कर रही है ताकि वह अपने जीवन की नई शुरुआत कर सके. कुछ सार्थक करते हुए जीवन का शुभारंभ करने का प्रयत्न तो वह कर ही सकती है. अब वह नहीं भटकेगी. क्रोध, घृणा, अपमान और पछतावे के मिलेजुले आंसू उस की आंखों से बह निकले लेकिन अब सुषमा के मन में कोई दुविधा नहीं थी. अब वह जीएगी अपने स्वयं के सजाएसंवरे लमहे, अपनी खुद की नई पहचान के साथ अचानक मन की सारी गांठें खुल गई थीं. यही विकल्प था दीवाने मन का.

उस ने फोन उठा लिया, राहुल के भाई को फोन कर दिए गए पैसों की सूचना देने के लिए और उन्हें वापस मांगने के लिए.

Latest Hindi Stories : विदेशी दामाद – क्या हुआ था सुमन के साथ

Latest Hindi Stories : चिंता की बात तो है. पर ऐसी नहीं कि शांति, सुमन के मामा के साथ मिल कर मुझ पर बमबारी शुरू  कर दे. मेरी निगाहें तो कुमार पर जमी हैं. फंस गया तो ठीक है. वैसे, मैं ने तो एक अलग ही सपना देखा था. शायद वह पूरा होने वाला नहीं.

कल शाम पुणे से सुमन के मामा आए थे. अकसर व्यापार के संबंध में मुंबई आते रहते हैं. व्यापार का काम खत्म कर वह घर अवश्य पहुंचते हैं. आजकल उन को बस, एक ही चिंता सताती रहती है.

‘‘शांति, सुमन 26 पार कर गईर्र्र् है. कब तक इसे घर में बिठाए रहोगे?’’ सुमन  के मामा चाय खत्म कर के चालू हो गए. वही पुराना राग.

‘‘सुमन घर में नहीं बैठी है. वह आकाशवाणी में काम करती है, मामाजी,’’ मैं भी मजाक में सुमन  के मामा को मामाजी कह कर संबोधित किया करता था.

‘‘जीजाजी, आप तो समझदार हैं. 25-26 पार करते ही लड़की के रूपयौैवन  में ढलान शुरू हो जाता है. उस के अंदर हीनभावना घर करने लगती है. मेरे खयाल से तो….’’

‘‘मामाजी, अपनी इकलौती लड़की को यों रास्ता चलते को देने की मूर्खता मैं नहीं करूंगा,’’ मैं ने थोड़े गंभीर स्वर में कहा, ‘‘आप स्वयं देख रहे हैं, हम हाथ पर हाथ रखे तो बैठे नहीं हैं.’’

‘‘जीजाजी, जरा अपने स्तर को  थोड़ा नीचे करो. आप तो सुमन के  लिए ऐसा लड़का चाहते हैं जो शारीरिक स्तर पर फिल्मी हीरो, मानसिक स्तर पर प्रकांड पंडित तथा आर्थिक स्तर पर टाटाबाटा हो. भूल जाइए, ऐसा लड़का नहीं मिलना.  किसी को आप मोटा कह कर, किसी को गरीब खानदान का बता कर, किसी को मंदबुद्धि करार दे कर अस्वीकार कर देते हैं. आखिर आप चाहते क्या हैं?’’ मामाजी उत्तेजित हो गए.

मैं क्या चाहता हूं? पलभर को मैं चुप हो, अपने बिखरे सपने समेट, कुछ कहना ही चाहता था कि मामाजी ने अपना धाराप्रवाह भाषण शुरू कर दिया,

‘‘3-4 रिश्ते मैं ने बताए, तुम्हें एक भी पसंद नहीं आया. मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा. अभी तुम लड़कों को अस्वीकार कर रहे हो, बाद में लड़के सुमन को अस्वीकार करना शुरू कर देंगे. तब देखना, तुम आज की लापरवाही के लिए पछताओगे.’’

‘‘भैया, मैं बताऊं, यह क्या चाहते हैं?’’ शांति ने पहली बार मंच पर प्रवेश किया.

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से शांति को ताका और विद्रूप स्वर में बोला, ‘‘फरमाइए, हमारे मन की बात आप नहीं तो और क्या पड़ोसिन जानेगी.’’

शांति मुसकराईर्. उस पर मेरे व्यंग्य का कोईर्र्र्र् प्रभाव नहीं पड़ा. वह तटस्थ स्वर में बोली, ‘‘भैया, इन्हें विदेशी वस्तुओं  की सनक सवार है. घर में भरे सामान को देख रहे हो. टीवी, वीसीआर, टू इन वन, कैमरा, प्रेस…सभी कुछ विदेशी है. यहां तक कि नया देसी फ्रिज खरीदने के बजाय इन्होंने एक विदेशी के घर से, इतवार को अखबार में प्रकाशित विज्ञापन के माध्यम से पुराना विदेशी फ्रिज खरीद लिया.’’

‘‘भई, बात सुमन की शादी की हो रही थी. यह घर का सामान बीच में कहां से आ गया?’’ मामाजी ने उलझ कर पूछा.

‘‘भैया, आम भारतवासियों की तरह इन्हें विदेशी वस्तुओं की ललक है. इन की सनक घरेलू वस्तुओं तक ही सीमित नहीं.  यह तो विदेशी दामाद का सपना देखते रहते हैं,’’ शांति ने मेरे अंतर्मन के चोर को निर्वस्त्र कर दिया.

इस महत्त्वाकांक्षा को नकारने की मैं ने कोई आवश्यकता महसूस नहीं की. मैं ने पूरे आत्मविश्वास के साथ शांति के द्वारा किए रहस्योद्घाटन का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘इस सपने में क्या खराबी है?  आज अपने हर दूसरे मित्र या रिश्तेदार की बेटी लंदन, कनाडा, अमेरिका या आस्टे्रलिया में  है. जिसे देखो वही अपनी बेटीदामाद से मिलने विदेश जा रहा है औैर जहाज भर कर विदेशी माल भारत ला रहा है,’’ मैं ने गंभीर हो कर कहा.

‘‘विदेश में काम कर रहे लड़कों के बारे में कई बार बहुत बड़ा धोखा हो जाता है, जीजाजी,’’ मामाजी ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘मामाजी, ‘दूध के जले छाछ फूंकफूंक  कर पीते हैं’ वाली कहावत में मैं विश्वास नहीं करता. इधर भारत में क्या रखा है सिवा गंदगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के. विदेश में काम करो तो 50-60 हजार रुपए महीना फटकार लो. जिंदगी की तमाम भौतिक सुखसुविधाएं वहां उपलब्ध हैं. भारत तो एक विशाल- काय सूअरबाड़ा बन गया है.’’

मेरी इस अतिरंजित प्रतिक्रिया को सुन कर  मामाजी ने हथियार डाल दिए. एक दीर्घनिश्वास छोड़ वह बोले, ‘‘ठीक है, विवाह तो वहां तय होते हैं.’’

मामाजी की उंगली छत की ओर उठी हुई  थी. मैं मुसकराया. मैं ने भी अपने पक्ष को थोड़ा बदल हलके स्वर में कहा, ‘‘मामाजी, मैं तो यों ही मजाक कर रहा था. सच कहूं, मैं ने सुमन को इस दीवाली तक निकालने का पक्का फैसला कर लिया है.’’

‘‘कब इंपोर्ट कर रहे हो एक अदद दामाद?’’ मामाजी ने व्यंग्य कसा.

‘‘इंपोर्टेड नहीं, देसी है. दफ्तर में मेरे नीचे काम करता है. बड़ा स्मार्ट और कुशाग्र  बुद्धि वाला है. लगता तो किसी अच्छे परिवार का है. है कंप्यूटर इंजीनियर, पर आ गया है प्रशासकीय सेवा में. कहता रहता है, मैं तो इस सेवा से त्यागपत्र दे कर अमेरिका चला जाऊंगा,’’ मैं ने रहस्योद््घाटन कर दिया.

शांति और मामाजी की आंखों में चमक आ गई.

दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूट गई. मैं घर नहीं दफ्तर के कमरे में अकेला बैठा था.

दरवाजा खुला. सुखद आश्चर्र्र्र्य, मैं जिस की कल्पना में खोया हुआ था, वह अंदर दाखिल हो रहा था. मैं उमंग और उल्लास में भर कर बोला, ‘‘आओ कुमार, तुम्हारी बड़ी उम्र है. अभी मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था और तुम आ गए.’’

कुमार मुसकराया. कुरसी पर बैठते हुए बोला, ‘‘हुक्म कीजिए, सर. कैसे याद कर रहे थे?’’

मैं ने सोचा घुमाफिरा कर कहने की अपेक्षा सीधा वार करना ठीक रहेगा. मैं ने संक्षेप में अपनी इच्छा कुमार के समक्ष व्यक्त कर दी.

कुमार फिर मुसकराया और अंगरेजी में बोला, ‘‘साहब, मैं केवल बल्लेबाज ही नहीं हूं, मैं ने रन भी बटोरे हैं. एक शतक अपने खाते में है, साहब.’’

मैं चकरा गया. आकाश से पाताल में लुढ़क गया. तो कुमार अविवाहित नहीं,  विवाहित है. उस की शादी ही नहीं हुई है, एक बच्चा भी हो गया है. क्रिकेट की भाषा की शालीनता की ओट में उस ने मेरी महत्त्वाकांक्षा की धज्जियां  उड़ा दीं. मैं अपने टूटे सपने की त्रासदी को शायद झेल नहीं पाया. वह उजागर हो गईर्.

‘‘साहब, लगता है आप अपनी बेटी की शादी के बारे में चिंतित हैं. अगर कहें तो…’’ कहतेकहते कुमार रुक गया.

अब कहने के लिए बचा ही क्या है?

मैं मोहभंग, विषादग्रस्त सा बैठा रहा.

‘‘साहब, क्या आप अपनी बेटी का रिश्ता विदेश में कार्य कर रहे एक इंजीनियर से करना पसंद करेंगे?’’ कुमार के स्वर में संकोच था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. कुमार की बात सुन मैं हतप्रभ रह गया. तत्काल कोई             प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सका.

‘‘साहब, कुछ लोग अपनी बेटियों को विदेश भेजने से कतराते हैं. पर आज के जेट युग में दूरी का क्या महत्त्व? आप कनाडा से दिल्ली, मैसूर से दिल्ली की अपेक्षा जल्दी पहुंच सकते हैं.’’

मेरे अंतर के सागर में उल्लास का ज्वार उठ रहा था, परंतु आवेग पर अंकुश रख, मैं ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘कोई लड़का तुम्हारी नजर में  है? क्या करता है? किस परिवार का है? किस देश में है?’’

‘‘साहब, मेरे कालिज के जमाने का एक दोस्त है. हम मैसूर में साथसाथ पढ़ते थे. करीब 5 साल पहले वह कनाडा चला गया था. वहीं पढ़ा और आज अंतरिक्ष इंजीनियर है. 70 हजार रुपए मासिक वेतन पाता है. परसों वह भारत आया है. 3 सप्ताह रहेगा. इस बार वह शादी कर के ही लौटना चाहता है.’’

मेरी बाछें खिल गईं. मुझे लगा, कुमार ने खुल जा सिमसिम कहा. खजाने का द्वार  खुला और मैं अंदर प्रवेश कर गया.

‘‘साहब, उस के परिवार के बारे में सुन कर आप अवश्य निराश होंगे. उस के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. चाचाजी ने पालपोस कर बड़ा किया. बड़े कष्ट, अभावों तथा ममताविहीन माहौैल में पला है वह.’’

‘‘ऐसे ही बच्चे प्रगति करते हैं. सुविधाभोगी तो बस, बिगड़ जाते हैं. कष्ट की अग्नि से तप कर ही बालक उन्नति करता है. 70 हजार, अरे, मारो गोली परिवार को. इतने वेतन में परिवार का क्या महत्त्व?’’

इधर कुमार का वार्त्ताक्रम चालू था, उधर मेरे अंतर में विचारधारा प्रवाहित हो रही थी, पर्वतीय निर्झर सी.

‘‘साहब, लगता है आप तो सोच में डूब गए हैं. घर पर पत्नी से सलाह कर लीजिए न. आप नरेश को देखना चाहें तो मैं…’’

बिजली की सी गति से मैं ने निर्णय कर लिया. बोला, ‘‘कुमार, तुम आज शाम को नरेश के साथ चाय पीने घर क्यों नहीं आ जाते?’’

‘‘ठीक है साहब,’’ कुमार ने अपनी स्वीकृति दी.

‘‘क्या तुम्हारे पास ही टिका है वह?’’

‘‘अरे, नहीं साहब, मेरे घर को तो खोली कहता है. वह मुंबई में होता है तो ताज में ठहरता है.’’

मैं हीनभावना से ग्रस्त हो गया. कहीं मेरे घर को चाल या झुग्गी की संज्ञा तो नहीं देगा.

‘‘ठीक  है, कुमार. हम ठीक 6 बजे तुम लोगों का इंतजार करेंगे,’’ मैं ने कहा.

मेरा अभिवादन कर कुमार चला गया. तत्पश्चात मैं ने तुरंत शांति से फोन पर संपर्क किया. उसे यह खुशखबरी सुनाई. शाम को शानदार पार्टी के आयोजन के संबंध में आदेश दिए. हांगकांग से मंगवाए टी सेट को निकालने की सलाह दी.

शाम को वे दोनों ठीक समय पर घर पहुंच गए.

हम तीनों अर्थात मैं, शांति औैर सुमन,  नरेश को देख मंत्रमुग्ध रह गए. मूंगिया रंग का शानदार सफारी सूट पहने वह कैसा सुदर्शन लग रहा था. लंबा कद, छरहरा शरीर, रूखे किंतु कलात्मक रूप से सेट बाल. नारियल की आकृति वाला, तीखे नाकनक्श युक्त चेहरा. लंबी, सुती नाक और सब से बड़ा आकर्षक थीं उस की कोवलम बीच के हलके नीले रंग के सागर जल सी आंखें.

बातों का सैलाब उमड़ पड़ा. चायनाश्ते का दौर चल रहा था. नरेश बेहद बातूनी था. वह कनाडा के किस्से सुना रहा था. साथ ही साथ वह सुमन से कई अंतरंग प्रश्न भी पूछता जा रहा था.

मैं महसूस कर रहा था कि नरेश ने सुमन को पसंद कर लिया है. नापसंदगी का कोईर् आधार भी तो नहीं है. सुमन सुंदर है. कानवेंट में पढ़ी  है. आजकल के सलीके उसे आते हैं. कार्यशील है. उस का पिता एक सरकारी वैज्ञानिक संगठन में उच्च प्रशासकीय अधिकारी है. फिर और क्या चाहिए उसे?

लगभग 8 बजे शांति ने विवेक- शीलता का परिचय देते हुए कहा, ‘‘नरेश बेटे, अब तो खाने का समय हो चला है. रात के खाने के लिए रुक सको तो हमें खुशी होगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आज तो नहीं, फिर कभी सही. आज करीब 9 बजे एक औैर सज्जन होटल में मिलने आ रहे हैं,’’ नरेश ने शांत स्वर में कहा.

‘‘क्या इसी सिलसिले में?’’ शांति ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, मांजी. मेरी समझ में नहीं आता, इस देश में विदेश में बसे लड़कों की इतनी ललक क्यों है? जिसे देखो, वही भाग रहा है हमारे पीछे. जोंक की तरह चिपक जाते हैं लोग.’’

हम लोगों के चेहरे उतर गए. तत्काल नरेश संभल गया. क्षमायाचना करते हुए बोला, ‘‘माफ कीजिएगा, आप लोगों का अपमान करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, फिर आप लोग तो उन में से हैं भी नहीं…वह तो कुमार ने आप को मजबूर  कर दिया वरना आप कब सुमनजी को सात समुंदर पार भेजने वाले थे.’’

हम सहज हो गए, परंतु शांति के अंतर्मन में कोई चोर भावना सिर उठा रही थी. शायद वह नरेश को अधिकांश मुंबइया फिल्मों का वह बेशकीमती हीरा समझ रही थी जिसे हर तस्कर चुरा कर भाग जाना चाहता था. व्यावहारिकता का तकाजा था वह, इसलिए जैसे ही नरेश जाने के लिए उठा, शांति ने फटाक से सीधासीधा प्रश्न उछाल दिया, ‘‘बेटा, सुमन पसंद आई?’’

‘‘इन्हें तो कोई मूर्ख ही नापसंद करेगा,’’ नरेश ने तत्काल उत्तर दिया.

सुमन लाज से लाल हो गई. वह सीधी अपने कमरे में गई और औंधी लेट गई.

‘‘फिर तो बेटे, मुंह मीठा करो,’’ कह कर शांति ने खाने की मेज से रसगुल्ला उठाया और नरेश के मुंह में ठूंस दिया.

घर में बासंती उत्सव सा माहौल छा गया. कुमार के चेहरे पर चमक थी. नरेश के मुख पर संतोष और हम दोनों के मुख दोपहर की तेज धूप से दमक रहे थे.

‘‘अब आगे कैसे चलना है? तुम तो शायद सिर्फ 3 सप्ताह के लिए ही आए हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब जब लड़की मिल गई तो मैं 2-3 हफ्ते के लिए अपनी छुट्टी बढ़वा लूंगा. हनीमून मैं कनाडा की जगह कश्मीर में मनाना पसंद करूंगा. एक बात और पिताजी, शादी एकदम सादी. व्यर्थ का एक पैसा भी खर्च नहीं होगा. न ही आप कोई दहेज खरीदेंगे. कनाडा में अपना खुद का सुसज्जित मकान है. घरेलू उपकरण खरीदना बेकार है. एक छोटी सी पार्टी दे दें, बस.’’

‘‘पंडितजी से मुहूर्त निकलवा लें?’’

‘‘अभी नहीं, मांजी.’’

हम दोनों अभिभूत थे. नरेश ने हमें मां औैर  पिताजी कह कर पुकारना शुरू कर दिया था. किंतु उस की अंतिम बात ने हमें चौंका दिया.

‘‘क्यों बेटे?’’

‘‘मैं कल बंगलौर जा रहा हूं. जरा अपने चाचाचाची से भी पूछ लूं. बस, औपचारिकता है. बड़े हैं, उन्हीं ने पाला- पोसा है. वे तो यह सब जान कर खुश होंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

और वे दोनों चले गए. पीछे छोड़ गए महान उपलब्धि की भीनीभीनी सुगंध.

सुमन अपने कमरे से निकली. पहली बार उस के मुंह से एक रहस्योद्घाटन हुआ. जब शांति ने सुमन से नरेश के बारे में उस की राय जाननी चाही तो उस ने अपने मन की गांठ खोल दी.

सुमन और एक नवयुवक कुसुमाकर का प्रेम चल रहा था. कुसुमाकर लेखक था. वह रेडियो के लिए नाटक तथा गीत लिखता था. इसी संबंध में वह सुमन के समीप आ गया. सुमन ने तो मन ही मन उस से विवाह करने का फैसला भी कर लिया था, पर अब नरेश को देख उस ने अपना विचार बदल दिया. उस ने शांति के सामने स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया. नरेश जैसे सागर के सामने कुसुमाकर तो गांव के गंदले पानी की तलैया जैसा है.

नरेश मैसूर से लौट आया. उस ने घर आ कर यह खुशखबरी सुनाई कि उस के चाचाचाची इस संबंध  से सहमत हैं. शांति ने शानदार खाना बनाया. नरेश ने डट कर खाया, शादी की तारीख के बारे में बात चली तो नरेश बोला, ‘‘कुमार से सलाह कर के…’’

शांति ने उस की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘उसे छोड़ो. बिचौलियों का रोल लड़के को लड़की पसंद आने तक होता है. उस के बाद तो दोनों पक्षों को सीधी बात करनी चाहिए. मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं.’’

नरेश हंस पड़ा. मैं शांति के विवेक का लोहा मान गया. थोड़े से विचारविमर्श के बाद 20 अक्तूबर की तिथि तय हो गई. सुबह कोर्ट  में शादी, दोपहर को एक होटल में दोनों पक्षों के चुनिंदा व्यक्तियों का भोजन, बस.

हमें क्या आपत्ति होनी थी.

तीसरे  दिन नरेश का फोन आया. उस ने अपने हनीमून मनाने और कनाडा वापस जाने का कार्यक्रम निश्चित कर लिया था. उस ने बड़ी दबी जबान से 50 हजार रुपए की मांग की. कश्मीर का खर्चा. कनाडा जाने के 2 टिकट और उस के चाचाचाची तथा उन के बच्चों के लिए कपड़े  और उपहार. इन 3 मदों पर इतने रुपए तो खर्च हो ही जाने थे.

मैं थोड़ा सा झिझका तो उस ने तत्काल मेरी शंका का निवारण करते हुए कहा, ‘‘पिताजी, निश्चित नहीं था कि इस ट्रिप में मामला पट जाएगा, इसलिए ज्यादा पैसा ले कर नहीं  चला. कनाडा पहुंचते ही आप को 50 हजार की विदेशी मुद्रा भेज दूंगा. उस से आप कार, स्कूटर या घर कुछ भी बुक करा देना.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मैं ने कह दिया.

फोन बंद कर के मैं ने यह समस्या शांति के सामने रखी तो वह तत्काल बोली, ‘‘तुरंत दो उसे 50 हजार रुपए. वह विदेशी मुद्रा न भी भेजे तो क्या है. किसी हिंदुस्तानी लड़के से शादी करते तो इतना तो नकद दहेज में देना पड़ता. दावत, कपड़े, जेवर और अन्य उपहारों पर अलग खर्चा होता. इस से सस्ता सौदा औैर कहां मिलेगा.’’

मैं ने दफ्तर में भविष्यनिधि से रुपए निकाले और तीसरे दिन ताजमहल होटल के उस कमरे में नरेश से मिला और उसे 50 हजार रुपए दे दिए.

उस के बाद मैं ने एक पांचसितारा होटल में 100 व्यक्तियों का दोपहर का भोजन बुक करा दिया. निमंत्रणपत्र भी छपने दे दिए.

सुमन और शांति शादी के लिए थोड़ी साडि़यां और जेवर खरीदने में जुट गईं. बेटी को कुछ तो देना ही था.

लगभग 10 अक्तूबर की बात है. नरेश का फोन आया कि वह 3 दिन के लिए किसी आवश्यक काम से दिल्ली जा रहा है. लौट कर वह भी सुमन के साथ खरीदारी करेगा.

सुमन ने नरेश को मुंबई हवाई अड्डे पर दिल्ली जाने के लिए विदा किया.

2 महीने बीत गए हैं, नरेश नहीं लौटा है. 20 अक्तूबर कभी की बीत गई है. निमंत्रणपत्र छप गए थे किंतु सौभाग्यवश मैं ने उन्हें वितरित नहीं किया था.

मैं ने ताज होटल से पता किया. नरेश नाम का कोई व्यक्ति वहां ठहरा ही नहीं था. फिर उस ने किस के कमरे में बुला कर मुझ से 50 हजार रुपए लिए? एक रहस्य ही बना रहा.

मैं ने कुमार को बुलाया. उसे सारा किस्सा सुनाया तो उस ने ठंडे स्वर में कहा,  ‘‘मैं कह नहीं सकता, मेरे मित्र ने आप के साथ यह धोखा क्यों किया? लेकिन आप लोगों ने एक ही मीटिंग के बाद मेरा पत्ता साफ कर दिया. उसे रुपए देने से पहले मुझ से पूछा तो होता. अब मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘वैसे मुझे एक बात पता चली है. उस के चाचाचाची कब के मर चुके हैं. समझ में नहीं आया, यह सब कैसे हो गया?’’

मेरे सिर से विदेशी दामाद का भूत उतर चुका है. मैं यह समझ गया हूं कि आज के पढ़ेलिखे किंतु बेरोजगार नवयुवक हम लोगों की इस कमजोरी का खूब फायदा उठा रहे हैं.

आज तक तो यही सुनते थे कि विदेशी दामाद लड़की को ले जा कर कोई न कोई विश्वासघात करते हैं पर नरेश ने तो मेरी आंखें ही खोल दीं.

रही सुमन, सो प्रथम आघात को आत्मसात करने में उसे कुछ दिन लगे. बाद में शांति के माध्यम से मुझे पता चला कि वह और कुसुमाकर फिर से मिलने लगे हैं.

यदि वे दोनों विवाह करने के लिए सहमत हों तो मैं कोई हस्तक्षेप नहीं करूंगा.

कुसुम गुप्ता

Hindi Kahaniyan : हमसफर भी तुम ही हो

Hindi Kahaniyan :  अविनाश सुबह समय पर उठा नहीं तो संस्कृति को चिंता हुई. उस ने अविनाश को उठाते हुए उस के माथे पर हाथ रखा. माथा तप रहा था. संस्कृति घबरा उठी. अविनाश को तेज बुखार था. 2 दिन से वह खांस भी रहा था.

संस्कृति ने कल इसी वजह से उसे औफिस जाने से मना कर दिया था. मगर आज तेज बुखार भी था. उस ने जल्दी से अविनाश को दवा खिला कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखी.

संस्कृति और अविनाश की शादी को अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था. 2 साल ही हुए थे. पिछले साल तक सासससुर साथ में रहते थे. मगर कोरोना में संस्कृति की जेठानी की मौत हो गई तो सासससुर बड़े बेटे के पास रहने चले गए. उस के बाद करोना का प्रकोप बढ़ता ही गया.

पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्स पर दिल्ली के अस्पतालों में कोरोना से जूझने वालों की हालत देख कर वह वैसे भी परेशान थी. कहीं वैंटीलेटर नहीं, तो कहीं औक्सीजन नहीं। मरीजों को अस्पतालों में बैड तक नहीं मिल रहा था. ऐसे में अब उन का क्या होगा, यह सोच कर ही वह कांप उठी.

जल्दी से उस ने मां को फोन लगाया,”मां, अविनाश को सुबह से बहुत तेज बुखार है, क्या करूं?”

“बेटा, यह समय ही बुरा चल रहा है. राजू भी कोरोना पौजिटिव है वरना उसे भेज देती. हम खुद उस की देखभाल में लगे हुए हैं. तू ऐसा कर, जल्दी से डाक्टर को बुला और दवाएं शुरू कर.”

“हां मां, वह तो करना ही होगा. मेरी सास की भी तबीयत भी सही नहीं चल रही है. वरना जेठजी को ही बुला लेती.”

“घबरा नहीं, बेटी. धैर्य से काम ले. सब ठीक हो जाएगा,” मां ने समझाने का प्रयास किया.

संस्कृति ने पति का कोरोना टेस्ट कराया. तब तक फैमिली डाक्टर से पूछ कर दवाएं भी देती रही. इस बीच अविनाश की हालत ज्यादा खराब होने लगी तो वह उसे ले कर अस्पताल भागी.

2 अस्पतालों से निराश लौटने के बाद तीसरे में मुश्किल से बैड का इंतजाम हो सका. सासससुर और जेठ भी दूसरे शहर में थे सो मदद के लिए आ नहीं सके. वैसे भी दिल्ली में लौकडाउन लगा हुआ था. रिश्तेदार चाह कर भी उस की मदद करने नहीं आ सकते थे.

आसपड़ोस वालों ने कोरोना के डर से दरवाजे बंद कर लिए. तब संस्कृति ने अपने दोस्तों को फोन लगाया पर सब ने बहाने बना दिए. अकेली संस्कृति पति की सेवा में लगी हुई थी.

अस्पताल में मरीजों की लंबी कतारों और मौत के तांडव के बीच किसी तरह संस्कृति खुद को बचाते हुए पति के लिए दौड़भाग करने में लग गई. कभी दवा की परची ले कर भागती तो कभी खाना ले कर। कभी डाक्टर से गिड़गिड़ाती तो कभी थकहार कर बैठ जाती.

उसे कोरोना वार्ड में जाने की इजाजत नहीं थी. बाहर रिसैप्शन में बैठ कर ही पति के ठीक होने की कामना करती रहती. उस पर पति की तबीयत अच्छी होने के बजाय बिगड़ती जा रही थी.

उस दिन भी डाक्टर ने परची में कई दवाएं जोड़ कर लिखीं. वह दवाएं लेने गई मगर जो सब से जरूरी दवा थी वही नहीं मिली. अस्पताल में उस का स्टौक खत्म हो चुका था. अब वह क्या करेगी? बदहवास सी वह अस्पताल के बैंच पर बैठ गई. बगल में ही परेशान सा एक युवक भी बैठा हुआ था.

संस्कृति ने उस की तरफ मुखातिब हो कर पूछा,”आप बता सकते हैं यह दवा मुझे कहां मिलेगी?”

“मैं खुद यह दवा ढूंढ़ रहा हूं. आसपास तो मिली नहीं. मेरे दोस्त ने बताया है कि नोएडा में उस की शौप है. उस ने कुछ दवाएं स्टौक कर के रखी हैं, सो वह मुझे दे देगा. अभी जाने की ही सोच रहा था. परची लाइए, मैं अपने साथ आप के लिए भी दवा ले आता हूं.”

“बहुत मेहरबानी होगी. सुबह से इस के लिए परेशान हो रही थी,”पसीना पोंछते हुए संस्कृति ने कृतज्ञ स्वर में कहा.

“मेहरबानी की कोई बात नहीं. इंसान ही इंसान के काम आता है. बस इतना शुक्र मनाइए कि दवा वहां मिल जाए,” कह कर वह चला गया.

करीब 2-3 घंटे बाद लौटा तो उस के चेहरे पर परेशानी की लकीरों के बावजूद खुशी थी.

“यह लीजिए, बड़ी मुश्किल से मिली, मगर मिल गई यही बहुत है.”

“बहुतबहुत शुक्रिया. कितने की है?” संस्कृति का चेहरा भी खिल उठा था.

“अरे नहीं, पैसे की जरूरत नहीं. आप पहले यह दवा खिलाइए मरीज को.

उस दिन के बाद से दोनों में बातचीत होने लगी. वह अपने भाई की देखभाल में लगा था और संस्कृति पति के लिए दौड़भाग कर रही थी. दोनों का दर्द एकसा ही था.

संस्कृति जब भी व्यथित होती तो उस के कंधों पर सिर रख कर रो लेती. कोई चीज लानी होती तो प्रतीक ले कर आता. संस्कृति को घर छोड़ कर आता.

धीरेधीरे तकलीफ के इन दिनों में 2 अजनबी एक बंधन में बंधते जा रहे थे. उन के बीच एक अजीब सा आकर्षण भी था, जो दोनों के इस बंधन को और मजबूत बना रहा था.

एक दिन अविनाश का औक्सीजन लेवल काफी घट गया. अस्पताल में औक्सीजन सिलैंडर नहीं था. तब प्रतीक ने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. पूरे दिन कड़ी धूप और गरमी में लाइन में लग कर आखिर वह औक्सीजन सिलैंडर ले कर ही लौटा था.

उस दिन संस्कृति ने पूछा था,”आप मेरे लिए इतना कुछ कर रहे हैं, इतना खयाल रखते हैं मगर क्यों? मैं तो आप की कुछ भी नहीं लगती. फिर बताओ न ऐसा क्यों कर रहे हो?”

“पहली बात, हर क्यों का जवाब नहीं होता और दूसरी बात, हम दोनों हमसफर नहीं हैं तो क्या हुआ हमदर्द तो हैं ना. आप के दर्द को मैं बहुत अच्छे से महसूस कर सकता हूं. आप की तकलीफ देख कर मुझे दुख होता है. बस, किसी भी तरह आप की मदद करना चाहता हूं.”

एक अनकहा सा मगर मजबूत साथ महसूस कर वह गमों के बीच भी मुसकरा उठी थी.

धीरेधीरे अविनाश की तबीयत और भी बिगड़ गई और उस को वैंटिलेटर पर रखना पड़ा. अस्पताल में वैंटीलेटर्स की भी कमी थी. कई वैंटिलेटर्स खराब हो गए.

बदहवास सी संस्कृति ने प्रतीक को फोन लगाया तो पता चला कि उस के भाई को भी कहीं और शिफ्ट करने की नौबत आ गई है.

“आप चिंता न करो संस्कृतिजी, मैं अपने भाई को जिस अस्पताल में ले कर जा रहा हूं, आप के पति को भी वहीं ले कर चलता हूं. वहां वैंटिलेटर की सुविधा है और डाक्टर्स भी अच्छे हैं,” प्रतीक ने उसे ढांढ़स बंधाया और फिर जल्दी ही शिफ्टिंग की सारी व्यवस्था करा दी.

शाम में सब निबट गया तो प्रतीक का हाथ पकड़ कर रुंधे गले से संस्कृति इतना ही कह सकी,”आप नहीं होते तो पता नहीं क्या होता.”

“मैं नहीं होता तो कोई और होता. अच्छे लोगों की मदद के लिए कोई ना कोई आ ही जाता है.”

“ऐसा नहीं है प्रतीकजी. मैं ने अपने दोस्तों, पड़ोसियों और परिचितों सब को देख लिया. इस कठिन समय में कोई भी मेरे साथ खड़ा नहीं. केवल आप हैं जिसे 4-6 दिन पहले तक मैं जानती भी नहीं थी. आज लगता है ऐसे आप के बिना रह ही नहीं सकती.”

उस की बात सुन कर प्रतीक ने एक अलग ही नजर नजर से संस्कृति की तरफ देखा और फिर मुसकरा कर चला गया.

संस्कृति के दिल में अजीब सी बेचैनी होने लगी. वह सोचने लगी कि प्रतीक का साथ इस परेशानी के समय में भी कितना सुकून दे जाता है. अस्पताल में मरीजों के रिश्तेदारों की भागदौड़ और परेशानियों के बीच भी चंद लम्हे वह केवल प्रतीक के बारे में सोचती रह गई.

इसी तरह 2-3 दिन और गुजरे. अविनाश की हालत काफी गंभीर थी. फिर एक दिन सुबहसुबह संस्कृति को सूचना मिली कि उस के पति की मृत्यु हो गई है. एक पल में संस्कृति को लगा जैसे वह अधूरी रह गई. उस का सबकुछ छिन गया है. प्रतीक ने जितना हो सका उसे धैर्य बंधाया. कोरोना की वजह से वह पति के शव को घर भी नहीं ला सकती थी. लौकडाउन लगा हुआ था. घर वालों का आना भी कठिन था. ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि पति को अंतिम विदाई कैसे दे?

इस वक्त भी प्रतीक ही उस के काम आया. मुश्किल की इस घड़ी में सब से पहले उस ने संस्कृति को शांत कराया फिर उस के पति को शमशान तक ले जाने का सही से इंतजाम कराया. संस्कृति के साथ वह शमशान तक गया. फिर संस्कृति को उस के घर छोड़ने आया. संस्कृति लगातार रो रही थी. उस के हाथपैर कांप रहे थे.

प्रतीक समझ रहा था कि उस की तबीयत खराब है. वह अकेली है सो अपने खानेपीने को ले कर लापरवाह रहेगी तो और तबीयत खराब होगी.

तब प्रतीक ने हाथपैर धो कर और कपड़े बदल कर उस की रसोई में प्रवेश किया और सब से पहले चाय बनाई. संस्कृति के साथ खुद भी बैठ कर उस ने चाय पी. फिर संस्कृति को नहाने भेज कर खुद दालचावल बनाने लगा. संस्कृति को खाना खिला कर उस के लिए सब्जी, फल, दूध आदि का इंतजाम कर और सांत्वना दे कर वह वापस लौट गया.

2-3 दिनों बाद जब संस्कृति थोड़ी सामान्य हुई और पति की मौत के सदमे से उबरी तो उसे प्रतीक की याद आई. प्रतीक उस के लिए अपनों से बढ़ कर बन चुका था. मगर उसे पता नहीं था कि वह कहां रहता है, क्या जौब करता है? बस एक फोन नंबर था. उस ने फोन मिलाया तो नंबर बंद आ रहा था. संस्कृति घबरा उठी. वह प्रतीक से से संपर्क करना चाहती थी मगर ऐसा हो ना सका. 2-3 घंटे वह लगातार फोन ट्राई करती रही मगर फोन बंद ही आ रहा था.

अब उस से रहा नहीं गया. कुछ सोच कर वह उसी अस्पताल में पहुंची जहां उस के पति और प्रतीक का भाई ऐडमिट थे. वह रिसैप्शन एरिया में घूमघूम कर प्रतीक को खोजने लगी क्योंकि अकसर दोनों वहीं बैठे होते थे. फिर वह उसे खोजती हुई कैंटीन में भी गई. हर तरफ चक्कर लगा लिया मगर प्रतीक कहीं नजर नहीं आ रहा था. थक कर वह वापस रिसैप्शन में आ कर बैठ गई और सोचने लगी अब क्या करे.

तभी उसे वह नर्स नजर आई जिस से संस्कृति की जानपहचान हो गई थी. संस्कृति के पति की देखभाल वही नर्स करती थी. संस्कृति उसे अकसर अम्मां कह कर पुकारा करती. नर्स ने प्रतीक को भी उस के साथ कई बार देखा हुआ था. संस्कृति दौड़ कर नर्स के पास गई.

दुखी स्वर में नर्स ने कहा,”सौरी बेबी, तुम्हारे पति को हम बचा नहीं पाए.”

“जो लिखा था वह हो गया पर यह बताओ, अम्मां आप को प्रतीक याद है, जो अकसर मेरे साथ होता था? उस के भाई का इलाज चल रहा था.”

“हां बेबी, उस के भाई की भी तो मृत्यु हो गई. वह खुद भी ऐडमिट है. उसे भी कोरोना है और जानती हो, बेबी वह तेरे पति वाले बैड पर ही है. बैड नंबर 125.”

“सच अम्मां, आप उसे पहचानती हो ना?”

“हां बेबी, पहचानती हूं. तेरी बहुत हैल्प करता था. पर अब उस की हैल्प करने वाला कोई नहीं. अकेला है वह.”

“मैं हूं न अम्मां. अब उस के लिए किसी भी चीज की जरूरत पड़े तो मुझे बताना. मैं उस के अटेंडैंट के रूप में अपना नाम लिखवा देती हूं.”

“ठीक है, बेबी मैं बताती हूं तुझे.”

इस के बाद संस्कृति पूरे मन से प्रतीक की सेवा में लग गई. उस के लिए घर का खाना, फल, दवाएं वगैरह ले कर आना, उस की हर जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना, डाक्टरों से उस की तबियत की हर वक्त जानकारी लेते रहना जैसे काम वह पूरे उत्साह से कर रही थी. इस बीच प्रतीक की हालत बिगड़ी और उसे आईसीयू ले जाने की जरूरत पड़ गई.

इस के लिए अस्पताल के क्लर्क ने उस के आगे एक फौर्म बढ़ाया. उस में मरीज के साथ क्या संबंध है, यह लिख कर हस्ताक्षर करना था.

संस्कृति कुछ पलों के लिए सोचती रही कि वह क्या लिखे. फिर उस ने उस खाली जगह पर ‘पत्नी’ लिख कर साइन कर दिया. क्लर्क को कागज थमा कर वह खुद में ही मुसकरा उठी.

2-3 दिन आईसीयू में रह कर प्रतीक की हालत में सुधार शुरू हुआ और उसे कोविड वार्ड में वापस शिफ्ट कर दिया गया.

7-8 दिनों तक लगातार सुधार होने और रिपोर्ट नैगेटिव आने के बाद उसे डिस्चार्ज भी कर दिया गया. इतने दिनों तक संस्कृति ने भी अपना खानापीना और नींद भूल कर दिनरात प्रतीक की सेवा की थी.

डिस्चार्ज वाले दिन वह बहुत खुश थी. उस ने सीधा अपने घर के लिए कैब बुक किया और प्रतीक को अपने घर ले आई.

प्रतीक ने टोका तो संस्कृति ने थोड़े शरारती अंदाज में जवाब दिया,” मैं ने फौर्म में एक जगह यह लिख कर साइन किया है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं और इसलिए अब मेरा और तुम्हारा घर अलगअलग नहीं, बल्कि एक ही होगा.”

“मगर संस्कृति लोग क्या कहेंगे?”

“लोगों का क्या है प्रतीक, जब मुझे जरूरत थी तो क्या लोग मेरी मदद के लिए आगे आए थे? नहीं न… उस वक्त तुम ने मेरा साथ दिया. अब मेरी बारी है. इस में गलत क्या है? तुम थोड़े ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि क्या करना है,” संस्कृति ने अपना फैसला सुना दिया.

करीब 10 दिन संस्कृति ने जीभर कर प्रतीक का खयाल रखा. हर तरह से उस की सेहत पहले की तरह बनाने और खुश रखने का प्रयास करती रही.

संस्कृति एक संयुक्त परिवार से संबंध रखती थी. ससुराल में धनसंपत्ति की कमी नहीं थी. यह घर भी पति के बाद उस के नाम हो चुका था. पति ने उस के लिए काफी संपत्ति और गहने भी छोड़े थे. बस एक हमसफर की कमी थी, जिसे प्रतीक पूरा कर सकता था.

उस दिन शाम में संस्कृति ने प्रतीक के हाथों को थाम कर कहा,”जो बात मैं ने अनजाने ही उस फौर्म में लिखा, क्या हम उसे हकीकत का रूप नहीं दे सकते? क्या मैं तुम्हें अपने हमदर्द के साथसाथ एक हमसफर के रूप में भी स्वीकार हूं?”

“मुझे लगता है संस्कृति कि अब यह बात कहना फुजूल है.”

“मतलब?”

“मतलब यह कि तुम औलरेडी मेरी हमदर्द और हमसफर बन चुकी हो. हम हमेशा साथ रहेंगे. तुम से बढ़ कर कोई और मेरा खयाल नहीं रख सकता,” कह कर प्रतीक ने संस्कृति को गले से लगा लिया.

Hindi Stories Online : हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?

Hindi Stories Online : दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.

दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.

‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.

‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.

‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप  मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.

‘‘अपनी पसंद की या दूसरी जाति में शादी करने का मतलब है, अपनी जाति से बहिष्कार और आजकल जो यह औनर किलिंग का चलन शुरू हो गया है, वह सोच कर तो बिरादरी से बगावत करते हुए भी डर लगता है. कहिए, क्या यह सब पिछड़ापन नहीं है?’’ विद्याधर ने पूछा, ‘‘अगर अपनी बिरादरी की लड़की से भी कम दहेज ले कर शादी कर लूं तो इसे बगावत समझा जाएगा और इस के अलावा मेरी मां, बहनें और मामीचाची वगैरह ताने देदे कर उस लड़की का जीना दुश्वार कर देंगी कि सस्ते में हमारा लाखों का बेटा फंसा लिया. सो, मेरे लिए तो बेहतर यही है कि शादी ही न करूं.’’

माया को लगा जैसे विद्याधर उसी की भावनाएं या व्यथा व्यक्त कर रहा था.

‘‘मूल्य निर्धारण या औनर किलिंग छोटे कसबों की बातें हैं विद्याधर, देश की राजधानी में रहने वाले तुम पर लागू नहीं होतीं,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘बात कसबे या राजधानी की नहीं, पिछड़ेपन की हो रही है भाभीजी. और वह तो राजधानी में भी घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, खासकर दहेज और जाति के मामले में.’’

किसी अन्य की टिप्पणी पर माया की हिम्मत बढ़ी और वह बोली, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, औनर किलिंग का तो मालूम नहीं लेकिन राजधानी में भी श्रीपंथ संप्रदाय में तो लड़कों का मूल्य या दहेज की रकम तय है. लड़की चाहे कितनी भी अच्छी हो उस राशि से कम में उस की शादी का सवाल ही नहीं उठता और लड़का चाहे लूलालंगड़ा भी हो, बिकेगा फिक्स्ड रेट पर ही.’’

‘‘तुम्हें यह सब कैसे मालूम है?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘क्योंकि मैं भी श्रीपंथ समाज से ही हूं. मेरी योग्यता और तगड़ी तनख्वाह से दहेज की रकम में कोई रियायत करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तो तनख्वाह से दहेज की रकम जोड़ लो…’’

‘‘और उस के लिए बरसों मन मार कर जीओ,’’ माया ने उस की बात काटी, ‘‘यह सुझाव अकसर मिलता रहता है मगर मुझे यह सौदा मंजूर नहीं है.’’

‘‘होना भी नहीं चाहिए,’’ विद्याधर ने सराहना के स्वर में कहा, ‘‘अगर युवा वर्ग इस प्रथा के सामने घुटने न टेके तो समाज के ठेकेदार स्वयं ही इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर हो जाएंगे.’’

‘‘हमारे समाज में एक नहीं, कई कुरीतियां ऐसी हैं जिन के सामने घुटने टेकने बंद कर दिए जाएं तो यह जहान जन्नत बन जाए. तुम्हारे से पहले न जाने कितने लोग यह सपना देख चुके हैं विद्याधर…’’

‘‘और न जाने कितने देखेंगे, मिश्राजी,’’ मनोज ने मिश्राजी की बात काटी, ‘‘पत्तागोभी के छिलके छीलने के बजाय आप फूलगोभी के पकौड़े खाइए.’’

मनोज ने तो बात बदल दी लेकिन मनोरमाजी के दिमाग में यह बात जैसे घर कर गई. सब के जाने के बाद उन्होंने मनोज से कहा, ‘‘माया और विद्याधर दोनों जब एक ही जाति के हैं तो क्यों न हम कोशिश कर के दोनों की शादी करवा दें?’’

‘‘विद्याधर से यह सुनने के बाद भी कि दहेज लाने वाली सजातीय लड़की का भी उस की मांबहनें जीना दुश्वार कर देंगी?’’ मनोज ने कहा, ‘‘उन दोनों ने अपने हालात से समझौता कर के जीना सीख लिया है, सो तुम भी उन्हें चैन से जीने दो.’’

लेकिन मनोरमाजी जानती थीं कि दोनों चैन से नहीं बड़ी बेचैनी से जी रहे थे. माया की तनख्वाह से जुटाई गई सुखसुविधाओं का मजा लूटने वाले भाईभाभी उसे परिवार का अनचाहा सदस्य समझते थे और मां भी उन का साथ देती थीं.

यही हाल तकरीबन विद्याधर का भी था, मां उसे चायखाना देते हुए यह याद दिलाना नहीं भूलती थीं कि उन की उमर अब काम करने की नहीं, बहू से सेवा करवाने की है और अकसर आने वाली बहनें भी यह कह कर बिसूरती रहती थीं कि वे अपने पतियों को इसलिए साथ नहीं ला सकतीं कि मां पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. जैसे माया जानबूझ कर ससुराल नहीं जा रही थी और विद्याधर शादी से मना कर रहा था. मनोरमाजी ने सोच लिया कि वह माया और विद्याधर को अकसर मिलवाया करेंगी. जल्दी ही संयोग भी बन गया. मनोज को औफिस के काम से कुछ सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा. औफिस में बकाया काम तो रहता ही है सो, उसे निबटाने के बहाने मनोरमाजी ने एक रोज माया को देर तक रुकने को कहा.

‘‘तुम्हें घर पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

‘‘फिर तो आप जब तक कहेंगी मैं रुक जाऊंगी.’’

शाम को मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रात को हम दोनों का अकेले आटो पर जाना ठीक नहीं रहेगा. मैं विद्याधर को फोन कर देती हूं, वह अपने स्कूटर पर हमारे साथ हो लेगा.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

कुछ देर फोन पर बात करने के बाद मनोरमाजी ने पूछा, ‘‘माया, घर देर से जाने पर तुम्हें खाने के लिए कुछ परेशानी तो नहीं होगी?’’

माया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘ढका रखा होगा, खा लूंगी.’’

‘‘तो क्यों न तुम भी हमारे साथ बाहर ही खा लो? विद्याधर को देर से जाने पर मां की बातें सुननी पड़ेंगी और मुझे अपने लिए कुछ पकाना पड़ेगा, सो हम लोग बाहर खा रहे हैं, फिक्र मत करो, औफिस के काम में देर हुई न, सो बिल औफिस को दे दूंगी. तुम अपने घर पर फोन कर दो कि तुम खाना खा कर आओगी या मुझे नंबर मिला कर दो, मैं तुम्हारी मां को समझा देती हूं.’’

‘‘आज के लिए इतना ही काफी है, माया. जाओ, फ्रैश हो जाओ,’’ मनोरमाजी ने 7 बजे के बाद कहा.

जब वह वापस आई तो विद्याधर आ चुका था.

‘‘तुम दोनों बातें करो, मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं,’’ कह कर मनोरमाजी चली गईं.

दोनों में परिचय तो था ही सो कुछ देर तक आसानी से बात करते रहे, फिर माया ने कहा, ‘‘बड़ी देर लगा दी मनोरमाजी ने.’’

‘‘बौस हैं और बौस की बीवी भी, कुछ तो ठसका रहेगा ही,’’ विद्याधर ने ठहाका लगा कर कहा. माया भी हंस पड़ी और रहीसही असहजता भी खत्म हो गई.

‘‘कल ‘निमंत्रण’ में चलेंगे, वहां का खाना इस से भी अच्छा है,’’ मनोरमाजी से खाने की तारीफ सुन कर विद्याधर ने कहा.

‘‘तुम्हारा खयाल है कि हम कल भी देर तक काम करेंगे?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘बौस आप हैं. सो यह तो आप को ही मालूम होगा कि काम खत्म हुआ है या नहीं,’’ विद्याधर ने कहा.

‘‘काम तो कई दिन तक खत्म नहीं होगा लेकिन तुम लोग रोज देर तक रुकोगे?’’

‘‘हां, मुझे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता,’’ विद्याधर बोला.

‘‘मुझे भी, अब जब काम शुरू किया है तो पूरा कर ही लेते हैं,’’ माया ने कहा.

‘‘ठीक है, मुझे भी आजकल घर पहुंचने की जल्दी नहीं है.’’

माया के घर के बाहर आटो रुकने पर विद्याधर ने भी स्कूटर रोक कर कहा, ‘‘कल मिलते हैं, शुभरात्रि.’’

‘जल्दी ही तुम इस में ‘स्वीट ड्रीम’ भी जोड़ोगे,’ मनोरमाजी ने पुलक कर सोचा, उन की योजना फलीभूत होती लग रही थी. औफिस में यह पता चलते ही कि मनोरमाजी और माया बकाया काम निबटा रही थीं, अन्य लोगों ने भी रुकना चाहा. मनोरमाजी सहर्ष मान गईं क्योंकि अब वे सब के खाना लाने के बहाने माया को विद्याधर के साथ भेज दिया करेंगी, घर छोड़ने का सिलसिला तो वही रहेगा. और काम का क्या उसे तो रबर की तरह खींच कर जितना चाहे लंबा कर लो.

मनोज के लौटने से पहले ही माया और विद्याधर में प्यार हो चुका था. उन्हें अब फोन करने या मिलने के लिए बहाने की जरूरत नहीं थी लेकिन मुलाकात लंचब्रेक में ही होती थी. छुट्टी के रोज या शाम को मिलने का रिस्क दोनों ही लेना नहीं चाहते थे.

मनोज ने उन के जीवन में और भी उथलपुथल मचाने के लिए मनोरमा को बुरी तरह लताड़ा.

‘‘जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. माया के घर वाले तो बिना दहेज या कम दहेज के सजातीय वर से तुरंत शादी कर देंगे और विद्याधर के घर वाले भी हमारी थोड़ी सी कोशिश से मान जाएंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘कुछ ठीक नहीं होगा मनोरमा, माना कि विद्याधर की मां को बहू की सख्त जरूरत है लेकिन बिरादरी में नाक कटवा कर नहीं, यानी उसे तो शादी में निर्धारित रकम मिलनी ही चाहिए जो माया का परिवार नहीं दे सकता और मां या बिरादरी के खिलाफ जाने की हिम्मत प्यार होने के बावजूद विद्याधर में नहीं है.’’

‘‘कई बार हिम्मत नहीं हिकमत काम आती है. मानती हूं विद्याधर तिकड़मी भी नहीं है लेकिन मैं तो हूं. आप साथ दें तो मैं दोनों की शादी करवा सकती हूं,’’ मनोरमाजी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘आप को कुछ ज्यादा नहीं करना है, बस मेरे साथ विद्याधर के घर चलना है और बातोंबातों में उस के घर वालों को बताना है कि आप की नजर में विद्याधर के लिए एक उपयुक्त कन्या है, उस के बाद मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तो चलो, अभी चलते हैं.’’

शनिवार की सुबह थी सो विद्याधर घर पर ही मिल गया. उस ने और घर वालों ने उन का स्वागत तो किया लेकिन चेहरे पर एक प्रश्नचिह्न लिए हुए, ‘कैसे आए?’

‘‘हम ने तो सोचा तुम तो कभी बुलाओगे नहीं, हम स्वयं ही चलते हैं,’’ मनोज ने कहा.

‘‘कैसे बुलाए बेचारा? घर में मेहमानों को चायपानी पूछने वाला कोई है नहीं,’’ विद्याधर की मां ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरे से तो अब कुछ होता नहीं…’’

‘‘आप की उम्र अब काम नहीं, आराम करने यानी बहू से सेवा करवाने की है, मांजी,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘बहू का सुख तो लगता है मेरे नसीब में है ही नहीं,’’ मांजी उसांस ले कर बोलीं.

‘‘ऐसी मायूसी की बातें मत करिए, मांजी. मैं विद्याधर के लिए ऐसी सर्वगुण संपन्न, सजातीय लड़की बताता हूं कि यह मना नहीं करेगा,’’ मनोज ने कहा, ‘‘माया मनोरमा की कनिष्ठ अधिकारी है, बहुत ही नेक स्वभाव की संस्कारशील लड़की है, नेहरू नगर में घर है उस का…’’

‘‘शंकरलाल की बेटी की बात तो नहीं कर रहे?’’ विद्याधर की मां ने बात काटी, ‘‘मिल चुके हैं हम उन से, लड़की के सर्वगुण संपन्न होने में तो कोई शक नहीं है लेकिन बाप के पास दहेज में देने को कुछ नहीं है. कहता है कि लड़की की तनख्वाह को ही दहेज समझ लो. भला, ऐसे कैसे समझ लें? हम ही क्या, और भी कोई समझने को तैयार नहीं है, तभी तो अभी तक माया कुंआरी बैठी है.’’

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने

का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. हिकमत कामयाब हो गई थी.

Hindi Moral Tales : खुशी के अनमोल पल

Hindi Moral Tales  : महक की विदाई हो रही थी. मां का साया न होने की वजह से पिता उसे भरे गले से समझा रहे थे, ‘‘अपनी गृहस्थी संजो कर रखना और सभी को प्यार देना.’’

तभी रजनी भाभी ने अपनी ननद महक को गले लगाते हुए ताना सा मारते हुए कहा, ‘‘अब वही तेरा घर है. सभी को इज्जत देना और वहीं मन लगाना.’’

फिर अपने दोनों भाइयों रोहित व मोहित और दूसरे सगेसंबंधियों से मिल कर महक विदा हो गई.

मोहित को अपनी बहन से बहुत प्यार था, इसलिए वह उस के विदा होने पर उदास हो गया था. महक की यह तीसरी शादी थी. वह जानता था कि अगर महक अपने मायके रहती तो भाभियां उसे जीने न देतीं, इसलिए वह चाहता था कि उसे हर खुशी मिले.

रात को सोते समय मोहित महक की पुरानी यादों में खो गया था.

महक की पहली शादी एक अमीर परिवार में रितेश के साथ हुई थी.

2 ननदों व एक देवर से भरापूरा परिवार था. रितेश कारोबारी था. अमीर घराना था. 2 साल बाद ही महक की जिंदगी में एक नन्ही परी आई थी. समय जैसे पंख लगा कर उड़ रहा था.

8 सालों में दोनों ननदों की शादी हो गई और देवर अपने भाई के साथ कारोबार में हाथ बंटाने लगा. तभी अचानक रितेश की हार्टअटैक से मौत हो गई. महक के लिए यह दर्द सहन करना मुश्किल हो गया था. वह रितेश को बहुत प्यार करती थी, इसलिए वह डिप्रैशन में चली गई.

कुछ समय बाद सास ने महक के भाइयों को बुला कर कह दिया, ‘महक गुमसुम सी हो गई है. वह अपनी बेटी का भी ध्यान नहीं रख पाती है. तुम कुछ दिनों के लिए उसे अपने साथ ले जाओ.’

भाई महक को मायके ले आए. महक अपनी बेटी परी को भी अपने साथ लाना चाहती थी लेकिन सास ने स्कूल का वास्ता दे कर उसे अपने पास रख लिया.

तकरीबन एक महीने बाद जब मोहित अपनी बहन को छोड़ने ससुराल पहुंचा तो दरवाजे पर ताला लगा पाया. पड़ोसियों से पूछने पर मालूम हुआ कि वे लोग तो मकान बेच कर वहां से जा चुके हैं.

यह सुन कर महक रोने लगी. मोहित उसे समझाबुझा कर वापस घर लाया. इस सदमे ने उसे और भी तोड़ दिया था. बहुत ढूंढ़ने पर भी वे लोग नहीं मिले.

महक की दोनों भाभियां ऊपर से तो हमदर्दी जताती थीं, पर वे चाहती थीं कि वह जल्द ही यहां से विदा हो जाए.

एक दिन महक की भाभी रजनी के दूर के रिश्ते का भाई नीरज घर आया. वह विधुर था. वह 9 साल के एक बेटे बंटी का पिता था.

एक दिन नीरज अपनी मुंहबोली बहन रजनी से कहने लगा, ‘हमारे यहां शादी तो दोबारा नहीं होती, पर चुन्नी चढ़ा कर लड़की को विदा कर देते हैं.’

हालांकि मोहित इस शादी के लिए तैयार न था, पर रजनी भाभी के आगे किसी की एक न चली.

वहां ससुराल में बंटी ने महक को मां के रूप में स्वीकार नहीं किया. दिनरात झगड़े होने लगे. एक महीना भी न गुजरा था, महक अपने मायके लौट आई.

इस तरह एक साल बीत गया. एक दिन एक रिश्ता करवाने वाली औरत ने हर्ष नाम के लड़के की बात छेड़ी. उस ने बताया कि हर्ष प्राइवेट नौकरी करता है. घर में सिर्फ उस की मां है. वह ज्यादा अमीर नहीं है.

हर्ष ने महक को देखते ही पसंद कर लिया. उस ने बताया कि एक हादसे में उस की पत्नी व बेटे की मौत हो चुकी है. अगर महक से शादी होगी तो वह उसे खुश रखेगा.

मोहित ने भी हर्ष को महक की पिछली जिंदगी के बारे में बताया, पर हर्ष ने सभी को अपना पिछला भूल कर आगे बढ़ने की सलाह दी…

मोहित यह सब सोचतेसोचते यादों से बाहर आया और सो गया.

महक ससुराल पहुंची. 2 कमरों का छोटा सा मकान था. सास सरला पुराने विचारों की थीं, इसलिए सुबह जल्दी उठना, घर की साफसफाई करना, फिर नहाधो कर पूजापाठ के बाद ही खाना बनाना उन की दिनचर्या में शामिल था.

‘‘देख महक, तुझे भी इसी तरह जल्दीजल्दी सारे काम करने होंगे,’’ सास उसे समझाने लगीं.

हर्ष के काम पर चले जाने के बाद सास टैलीविजन पर सत्संग लगा कर महक से कहतीं, ‘‘भगवान में जितनी लगन लगाओगे उतनी ही जल्दी वह सुनता है. देखना, तुम्हारी भी कोख भगवान जल्दी भरेंगे. मुझे तो बस एक पोता चाहिए.’’

महक बेमन से सत्संग सुनने बैठ जाती.

समय बीतने लगा. हर्ष के जन्मदिन पर महक ने प्यार से कहा, ‘‘आज रविवार है और तुम्हारा जन्मदिन भी है. तुम मुझे कहीं घुमा लाओ.’’

‘‘अच्छा चलो, चलते हैं. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

महक व हर्ष दोनों जब तैयार हो कर घर से बाहर निकलने लगे, तब सास सरला कहने लगीं, ‘‘मैं अकेली घर पर रह कर क्या करूंगी, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं.’’

इस पर महक खीज गई. हर्ष प्यार से उसे समझाने लगा, ‘‘देखो, वे बड़ी हैं. हमें उन्हें पूरा मानसम्मान देना होगा.

तुम्हें मुझ से बात करनी है तो कमरे में कर लेना.’’

फिर बुझे मन से महक घूमने गई.

इसी तरह कभीकभी सासबहू में बहस हो जाती तो हर्ष ही समझौता कराता.

शादी का एक साल बीतने के बाद भी जब महक मां न बनी तो सास ने कहा, ‘‘तुम कहीं बांझ तो नहीं हो? सच बताओ, अगर तुम्हें बच्चा नहीं हो सकता तो हमें बता दो, हमें कुछ और सोचना पड़ेगा.’’

‘‘पर मांजी, मेरे पहले भी बच्चा हो चुका है.’’

‘‘पर, अब तो नहीं हुआ न. देखो अगर कुछ समय और तुम्हें बच्चा नहीं हुआ तो तुम अपने मायके जा कर ही बैठना.’’

रात में महक ने रोते हुए हर्ष को सारी बात बताई.

‘‘देखो, तुम शांत रहा करो. मां से बहस मत किया करो. हो सके तो तुम कल ही अपने मायके चली जाओ.’’

‘‘मैं वहां नहीं जाऊंगी. भाभियां ताने मारती हैं.’’

‘‘अरे, समझा करो, वहां तुम किसी डाक्टर से अपना इलाज करा लेना,’’ हर्ष उसे प्यार से समझाता रहा.

सुबह घर के काम खत्म करने के बाद हर्ष महक को बसस्टौप पर छोड़ कर चला गया.

महक मायके न जा कर अपनी सहेली रितु के घर पहुंच गई.

रितु ने बड़ी गर्मजोशी के साथ महक का स्वागत किया. चाय पीते हुए रितु ने बताया कि अगर बच्चा न हुआ तो सास उसे घर से बाहर निकाल देगी.

‘‘अबे यार, विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है और तू अपना ही रोना रो रही है. मेरी पहचान की एक डाक्टर है. तू कल चल मेरे साथ. मैं तेरी समस्या का हल चुटकी में निकाल दूंगी.’’

अगले दिन महक को ले कर रितु डाक्टर के पास गई. उस ने कुछ टैस्ट किए. 3-4 दिन बाद ही डाक्टर ने बताया कि महक को बच्चा होना नामुमकिन है.

यह सुनते ही महक क्लिनिक के बाहर बैठ कर रोने लगी.

कुछ देर बाद रितु बाहर आई और बोली, ‘‘देखो, तुम्हारे रोने से बात नहीं बनेगी. तुम मुझे हर्ष का फोन नंबर दो. मुझे उस से कुछ बात करनी है.’’

शाम को हर्ष रितु के घर आया. रितु ने हर्ष को चायपानी के दौरान कुछ बातें समझाईं और इस परेशानी से निकलने का रास्ता भी समझा दिया.

हर्ष रितु की बातें समझ गया, इसलिए वह महक को कभीकभार रितु के घर छोड़ देता और मां से कहता कि वह उस का डाक्टरी इलाज करा रहा है.

एक दिन हर्ष ने महक से कहा, ‘‘तुम मां से कह दो कि खुशखबरी है. आगे मैं संभाल लूंगा.’’

महक ने सास से दादी बनने की बात कही तो वे खुशी से झूम उठीं, ‘‘देखा, मैं न कहती थी कि सत्संग से भगवान जल्दी सुनता है. अब तुम ज्यादा घूमाफिरा मत करो.’’

अब सरला अपनी बहू का ध्यान रखने लगीं. 5 महीने बीतने के बाद ही महक को अपना सामान बांधते देख सास ने पूछा, ‘‘तुम कहीं बाहर जा रही हो?

‘‘हां मां, महक अपने मायके जा रही है,’’ हर्ष ने कहा.

‘‘लेकिन बेटा, उसे अभी इस हालत में इतनी जल्दी वहां क्यों भेज रहा है? वहां इस की भाभियां ध्यान नहीं रख पाएंगी.’’

‘‘मां, मैं जानता हूं, पर तुम्हें कैसे समझाऊं. बड़ी उम्र में प्रैंग्नसी के दौरान कुछ खास इलाज की जरूरत होती है, इसलिए उसे बारबार डाक्टर के यहां जाना पड़ेगा,’’ ऐसा कह कर हर्ष महक को ले कर चला गया.

रितु ने महक को बताया, ‘‘मेरे कहने पर हर्ष ने सैरोगेट मदर की है. वह

9 महीने बाद तुम्हें बच्चा सौंप देगी. तुम पर किसी को शक न हो, इसलिए तुम्हें यहां बुलाया है.

‘‘लेकिन, इतना समय यहां रह कर मैं क्या करूंगी?’’ महक ने पूछा.

‘‘अरे, घूमोफिरो, अपनी पसंद की फिल्में देखो. यहां सास का डंडा नहीं है,’’ फिर वे दोनों हंस पड़ीं.

उधर सरला बारबार हर्ष से महक को वापस लाने को कहतीं, ‘‘देख बेटा, मैं उस से कोई काम नहीं कराऊंगी. उसे पूरा आराम दूंगी. बस, तू उसे यहां ले आ.’

‘‘मां, तुम कुछ नहीं समझती हो. डाक्टर ने उसे मुझ से दूर रहने को कहा है ताकि केस खराब न हो.’’

‘‘अच्छा, यह बात है. तू ने पहले क्यों नहीं यह बात बताई. चल, जैसी तेरी मरजी.’’

और फिर वह दिन भी आया, जब उस सैरोगेट मदर ने एक बेटे को जन्म दिया. उस ने हर्ष को फोन पर बताया. फिर हर्ष ने उसे समझौते के मुताबिक पैसे दिए.

कुछ दिन बाद हर्ष व महक अपने बेटे के साथ घर में आ गया.

सरला ने आशीर्वाद देते हुए अपनी बहू व पोते का स्वागत किया.

कमरे में जाते ही महक हर्ष लिपट गई, ‘‘तुम ने जो ये खुशी के पल मुझे दिए हैं, वे मेरे लिए अनमोल हैं.’’

लेखक- दीपा गुलाटी

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