गरीब की ताकत है पढ़ाई

हमारे देश में ही नहीं, लगभग सभी देशों में गरीब, मोहताज, कमजोर पीढ़ी दर पीढ़ी जुल्मों के शिकार रहे हैं. इसकी असली वजह दमदारों के हथियार नहीं, गरीबों की शिक्षा और मुंह खोलने की कमजोरी रही है. धर्म के नाम पर शिक्षा को कुछ की बपौती माना गया है और उसी धर्म देश के सहारे राजाओं ने अपनी जनता को पढ़ने-लिखने नहीं दिया. समाज का वही अंग पीढ़ी दर पीढ़ी राज करता रहा जो पढ़-लिख और बोल सका.

2019 के चुनाव में भी यही दिख रहा है. पहले बोलने या कहने के साधन बस समाचारपत्र या टीवी थे. समाचारपत्र धन्ना सेठों के हैं और टीवी कुछ साल पहले तक सरकारी था. इन दोनों को गरीबों से कोई मतलब नहीं था. अब डिजिटल मीडिया आ गया है, पर स्मार्टफोन, डेटा, वीडियो बनाना, अपलोड करना खासा तकनीकी काम है जिस में पैसा और समय दोनों लगते हैं जो गरीबों के पास नहीं हैं.

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गरीबों की आवाज 2019 के चुनावों में भी दब कर रह गई है. विपक्ष ने तो कोशिश की है पर सरकार ने लगातार राष्ट्रवाद, देश की सुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनता को बहकाने की कोशिश की है ताकि गरीबों की आवाज को जगह ही न मिले. सरकार से डरे हुए या सरकारी पक्ष के जातिवादी रुख से सहमत मीडिया के सभी अंग कमोबेश एक ही बात कह रहे हैं, गरीब को गरीब, अनजान, बीमार चुप रहने दो.

चूंकि सोशल, इलैक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया पढ़ेलिखों के हाथों में है, उन्हीं का शोर सुनाई दे रहा है. आरक्षण पाने के बाद भी सदियों तक जुल्म सहने वाले भी शिक्षित बनने के बाद भी आज भी मुंह खोलने से डरते हैं कि कहीं वह शिक्षित ऊंचा समाज जिस का वे हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे हैं उन का तिरस्कार न कर दे. कन्हैया कुमार जैसे अपवाद हैं. उन को भीड़ मिल रही है पर उन जैसे और जमा नहीं हो रहे. 15-20 साल बाद कन्हैया कुमार क्या होंगे कोई नहीं कह सकता क्योंकि रामविलास पासवान जैसों को देख कर आज कोई नहीं कह सकता कि उन के पुरखों के साथ क्या हुआ. रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती, मीरा कुमार जैसे पढ़लिख कर व पैसा पा कर अपने समाज से कट गए हैं.

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2019 के चुनावों के दौरान राहुल गांधी गरीबों की बात करते नजर आए पर वोट की खातिर या दिल से, कहा नहीं जा सकता. पिछड़ों, दलितों ने उन की बातों पर अपनी हामी की मोहर लगाई, दिख नहीं रहा. दलितों से जो व्यवहार पिछले 5 सालों में हुआ उस पर दलितों की चुप्पी साफ करती है कि यह समाज अभी गरीबी के दलदल से नहीं निकल पाएगा. हां, सरकार बदलवा दे यह ताकत आज उस में है पर सिर्फ उस से उस का कल नहीं सुधरेगा. उसे तो पढ़ना और कहना दोनों सीखना होगा. आज ही सीखना होगा. पैन ही डंडे का जवाब है.

मोदी की नैय्या

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

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आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

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नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

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नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

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