REVIEW: मृत देह का अंतिम संस्कार- रीति रिवाज बनाम विज्ञान है फिल्म गुड बाय

रेटिंगः डेढ स्टार

निर्माताः सरस्वती इंटरटेनमेंट, विकास बहल, एकता कपूर, शोभा कपूर, विराज सावंत,

लेखक व निर्देशकःविकास बहल

कलाकारःअमिताभ बच्चन, रश्मिका मंदाना, नीना गुप्ता, सुनील ग्रोवर, पावेल गुलाटी, अभिशेख खान, आशीश विद्यार्थी, इला अविराम, साहिल मेहता, शिविन नारंग, संजीव पांडे, अरूण बाली, शयांक शुक्ला व अन्य.

अवधिः दो घंटे 22 मिनट

‘क्वीन’ जैसी फिल्म के निर्देशक विकास बहल इंसान की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को केद्र बनाकर फिल्म ‘गुड बाय’ लेकर आए हैं, जिसमें टकराव इस बात पर है कि इंसान के मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार उसकी इच्छा अनुसार किया जाए अथवा हजारों वर्षों से चले आ रहे रीति रिवाज के अनुसार. कथानक के स्तर पर यह विचार बहुत संुदर है और इस पर बात भी होनी चाहिए. आखिर हम कब तक दकियानूसी या पोंगा पंथी रीति रिवाजों को झेलते रहेंगें. मगर फिल्मकार विकास बहल लेखन व निर्देशन के स्तर पर पूरी तरह से विफल रहे हैं. उन्होने अति संवेदनशील व दुःखद मृत्यु का भी मजाक बनाकर रख दिया है. विकास बहल की फिल्म कीक हानी का आधार रीति रिवउज बनाम विज्ञान है, मगर वह इसके साथ न्याय नहीं कर पाए. बल्कि वह अंततः धर्म व अंधविश्वास को बढ़ावा देने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लिया.

फिल्म ‘गुड बाय’ की पूरी कहानी गायत्री की असामयिक मृत्यु से जूझ रहे चंडीगढ़ परिवार की दुर्दशा,  अंत्येष्टि की तैयारी से लेकर तेहरवीं तक महिला के अंतिम संस्कार के इर्द-गिर्द घूमती है. काया फिल्मकार ने सी विषय पर कुछ समय पहले आयी फिल्म ‘रामप्रसाद की तेहरवीं ’ देखकर कुछ सीख लिया होता है. ‘रामप्रसाद की तेहरवीं’ मे भी फिल्मकार ने बहुत ही संुदर तरीके से वही सवाल उठाए थे, जिन्हें विकास बहल ने अपनी फिल्म में उठाया है.

कहानीः

चंडीगढ़ में हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) अपनी पत्नी गायत्री (नीना गुप्ता) के साथ रहते हैं. उनके तीन बेटे व एक बेटी यानी कि चार बच्चे हैं. मगर सभी बच्चे पढ़ लिखकर चंडीगढ़ से इतर शहरांे व विदेशों में कार्यरत हैं. बेटी तारा (रश्मिका मंदाना) मुंबई में वकील हैं,  दो बेटे अंगद व करन (पवेल गुलाटी) विदेश में मल्टीनैशनल कंपनी में जॉब करते हैं और छोटा बेटा नकुल माउंटेनियर है. हरीश भल्ला की एक युवा नौकरानी है, जिसे वह परिवार के सदस्य की तरह मानते है. संकेत मिलते हैं कि उसका अंगद के साथ प्रेम लीला चल रही है.  जिंदगी से भरपूर गायत्री की अचानक हार्ट- अटैक से मौत हो जाती है.  सभी बच्चे अपनी मां की अंतिम विदाई के लिए चंडीगढ़ पहुंचते हैं.

फिल्म शुरू होती है मंुबई के एक डिस्को बार से. जहां दुनिया दारी से बेफिक्र तारा भल्ला (रश्मिका मंदाना)‘शराब पीने के साथ ही नृत्य करती है. वह मुंबई की नवोदित वकील है, जिसने अपना पहला केस आज ही जीता है. दूसरे दिन सुबह जब डिस्को बार का वेटर तारा के घर जाता है, तो तारा अपने प्रेमी मुदस्सर के साथ सो रही होती हें. दरवाजे की घंटी बजकार वह उन्हें नींद से जगाकर मोबाइल फोन देते हुए बताता है कि रात में उनके पिता हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) के कई कॉल आए थे. मजबूरन उसने एक काल उठाया तो उन्होने बुरी खबर दी थी कि आपकी यानी कि तारा की माँ गायत्री (नीना गुप्ता) नहीं रही.

तारा तुरंत चंडीगढ़ अपने घर फ्लाइट पकड़कर पहुंचती है. दाह संस्कार की तैयारी चल रही होती है. पारिवारिक मित्र पी. पी.  सिंह (आशीष विद्यार्थी) खुद को परंपरा के स्वयंभू संरक्षक मानकर सभी को निर्देश देते हैं कि क्या करना है, कैसे करना है. वह रीति रिवाजों और अनुष्ठानों के बारे में बताते हैं. तारा एक युवा विद्रोही लड़की है. वह बार बार रीति-रिवाजों का विरोध करते हुए इस तथ्य पर जोर देती रहती है कि यह उस तरह का अंतिम विदायी नहीं है, जैसा उनकी  मुक्त-उत्साही माँ चाहती थीं. तारा के दो भाईयों अंगद के अलावा लॉस एंजेलिस निवासी करण (पावेल गुलाटी) को उनकी मां के निधन की विधिवत सूचना दी जाती है. वह दुनिया के दो अलग-अलग हिस्सों से घर वापसआने के लिए संघर्ष करते हैं. करण अपनी अमरीकी पत्नी डेजी (एली अवराम) के साथ आता है. डेजी इस बात से अनभिज्ञ है कि  हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार में किस रंग के कपड़े पहनने चाहिए. गायत्री की अंतिम यात्रा में कंधा देने मुदस्सर भी पहुॅचता है, न चाहते हुए भी हरीश भल्ला चुप रह जाते हैं. दाह संस्कार संपन्न होने के बाद पूरा परिवार गायत्री भल्ला की अस्थियों को लेकर ऋषिकेश की यात्रा पर निकलता है. जहां चतुर पंडितजी (सुनील ग्रोवर) अस्थि विर्सजन का कार्य कराते हुए जीवन और मृत्यु में धार्मिक कर्मकांडों की केंद्रीयता के बारे में बताता है. वह तारा से कहहा है, ‘जिसे आप नहीं मानती, वह गलत हो यह जरुरी नही. ’इसी के साथ वह चतुर पंडित तारा से कहता है-‘‘उन्हे उन कहानियों और यादों का जश्न मनाना चाहिए जो गायत्री ने उसके लिए छोड़ी है. ’’यहां पर पंडित के कहने पर भी बड़ा बेटा करण अपने सिर के बाल     नहीं मुड़ाता है. लेकिन     तीसरे भाई नकुल के बारे में के बारे में तब पता चलता है जब अंतिम संस्कार व तेहरवीं संपन्न हो चुकी होती है और हरीश भल्ला के जन्मदिन पर घर आता है कि वह माउंटेरियन है और अपनी मां की इच्छा पूरी करने के लिए पहाड़ चढ़ रहा था.

नकुल अपनी मां की मौत के बारे में दुखी होता है और अपने सिर के बाल मंुडवाता है, तब करण भी बाल मंुड़वा लेता है. यह देखकर हरीश भल्ला भी खुश हो जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

बौलीवुड में कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं जिन्हे ‘वन फिल्म वंडर’ कहा जाता है. यह वह निर्देशक हैं,  जिन्होने अपने पूरे कैरियर में महज एक बेहतरीन फिल्म ही दी, बाकी फिल्मों में वह मात खा गए. तो ऐसे ही ‘वन फिल्म वंडर’ निर्देशक विकास बहल एक बार फिर बुरी तरह से मात खा गए हैं. विकास बहल ने सबसे पहले 2011 में नितेश तिवारी के साथ फिल्म ‘‘चिल्लर पार्टी’’ का निर्देशन किया था. फिल्म ठीक ठाक बनी थी और इसका सारा श्रेय नितेश तिवारी को गया था.  फिर 2013 में विकास बहल लिखित व निर्देशित फिल्म ‘क्वीन’’ न सिर्फ बाक्स आफिस पर सफल रही, बल्कि हर किसी ने इस फिल्म की तारीफ की. विकास बहल को ‘क्वीन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्ीय पुरस्कार भी मिल गया. और इसी के साथ उनकी प्रतिभा पर ग्रहण लग गया. ‘क्वीन’ के बाद विकास बहल ने ‘शानदार’ और ‘सुपर 30’ का निर्देशन किया. इन दोनो ही फिल्में ने बाक्स आफिस पर पानी नही मांगा और आलोचको ने भी फिल्म को पसंद नहीं किया था. अब विकास बहल ‘गुड बाय’ लेकर आए हैं, जो कि उनकी खराब फिल्म ‘शानदार’ से भी बदतर फिल्म है. वह इस फिल्म में भारतीय संस्कार,  रीतिरिवाज या विज्ञान किसी को भी ठीक से चित्रित नहीं कर पाए. कम से कम फिल्सर्जक विकास बहल यही बता देते कि मृत शरीर को नहलाकर उसके कान और नाक में रुई डालने के पीछे  वैज्ञानिक मान्यता यह है कि मृतक के शरीर के अंदर कोई कीटाणु ना जा सके. व पैर के दोनों अंगूठों को बांधने के पीछे तर्क यह है कि शरीर की दाहिनी नाड़ी व बाईं नाड़ी के सहयोग से मृत शरीर सूक्ष्म कष्टदायक वायु से मुक्त हो जाए.

घटिया जोक्स, इंसान की मौत पर जिस तरह के दृश्य फिल्माए गए हैं, वह बर्दाश्त नही किए जा सकते. फिल्म में विदेशी संस्कृति को बढ़ावा दिया गया है. गायत्री की मौत के बाद उनकी जिस तरह से उनका एक बेटा घर आता है और उनकी मृत देह के पास जमीन पर गिरता है, वह दृश्य लेखक निर्देशक के ेदिवालिएपन का परिचायक है.

अमूमन हम देखते है कि अंत्येष्टि के वक्त आयी महिलाएं आपस में ही मगन रहती है. फिल्मकार ने इस फिल्म में दिखाया है कि गायत्री की सहेलियां आरामदायक कुर्सी हथियाने,  सेल्फी क्लिक करने या व्हाट्सएप ग्रुप के लिए नाम तय करने में किस तरह मगन रहती है. मगर यह दृश्य इस तरह चित्रित किए गए है कि यह मनोरंजन करने की बनिस्बत झल्लाहट पैदा करते हैं.

विकास बहल ने अपनी फिल्म ‘‘गुड बाय ’’ में सवाल तो जरुर उठाया है कि इंसान अपनी मौत किस तरह से चाहता है, मौत के बाद वह अपने मृत देह का संस्कार कैसे करना चाहता है? परिवार वाले किस रीति रिवाज से मृतक का दाह संस्कार करते हैं? रीति रिवाज के वैज्ञानिक कारण क्या हैं? मगर वह इन सवालोंे के जवाब नहीं दे पाए. पूरी फिल्म विखरी विखरी सी है. इतना ही फिल्म का एक भी किरदार सही ढंग से नही लिखा गया है. हरीश व गायत्री जब अंगद को गोद लेने जाते हैं, उस वक्त के कुछ संवाद महिला विराधी हैं. इसके अलावा एक संवाद है कि जब इनकी सैलरी बढ़ी तो हमने सोचा एक बालक और गोद ले ले. तो क्या बाकी के तीन बच्चे भी गोद लिए हुए हैं? सब कुछ अस्पष्ट हैं. यहां तक कि अमिताभ बच्चन का किरदार भी विकसित नही हुआ.

विकास बहल का लेखन व  निर्देशन कमियों से युक्त हैं.

अभिनयः

अमिताभ बच्चन  का अभिनय ठीक ठाक ही है. वास्तव में उनकाहरीश भल्ला के किरदार अविकसित है, जिसका असर उनके अभिनय पर पड़ना स्वाभाविक है. गायत्री के किरदार में नीना गुप्ता का किरदार कुछ क्षणों के लिए फ्लेशबैक में आता है और वह अपनी छाप छोड़ जाती हैं. तारा के किरदार में रश्मिका मंदाना की यह पहली हिंदी फिल्म है. इससे पहले वह ‘पुष्पा द राइज’ में जलवा विखेर चुकी हैं. पर ‘पुष्पा द राइज’ में उन्हे पसंद करने वालों को निराशा होगी. इस फिल्म में वह सिर्फ संुदर नजर आयी हैं. पंडित के किरदार में सुनील ग्रोवर अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं. बाकी कोई प्रभावित नही करता.

Laal Singh Chaddha के इस एक्टर का हुआ निधन, पढ़ें खबर

बीते दिनों टीवी और फिल्म इंडस्ट्री से बुरी खबरे सामने आ रही हैं. जहां कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का हाल ही में निधन हुआ था तो वहीं अब लाल सिंह चड्ढा में नजर आने वाले जाने माने एक्टर अरुण बाली  (Arun Bali)का निधन हो गया है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

इस बीमारी के कारण हुआ निधन

 

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एक्टर अरुण बाली लंबी बीमारी से पीड़ित थे, जिसके बाद 7 अक्टूबर यानी आज मुंबई में उनका 79 साल की उम्र में निधन हो गया है. दरअसल, खबरों की मानें तो एक्टर पिछले कुछ समय से न्यूरोमस्कुलर बीमारी से जूझ रहे थे, जिसमें नसें और मसल्स के बीच कम्युनिकेशन फेल हो जाता है. वहीं कुछ दिन पहले ही मुंबई के हीरानंदानी हॉस्पिटल में उन्हें एडमिट करवाया गया था, जिसके बाद उनका निधन हो गया.

लाल सिंह चड्ढा में आए थे नजर

 

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दिग्गज अभिनेताओं की गिनती में आने वाले एक्टर अरुण बाली ने करीब 48 साल की उम्र में एक्टिंग डेब्यू किया, जिसके चलते वह बौलीवुड के कई बड़े एक्टर्स के साथ स्क्रीन शेयर करते हुए नजर आ चुके हैं. वहीं हाल ही में जहां एक्टर की आखिरी फिल्म ‘गुडबाय’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है तो वहीं कुछ दिनों पहले आमिर खान की ‘लाल सिंह चड्ढा’ में भी नजर आ चुके हैं, जिसमें उनकी एक्टिंग की काफी तारीफ हुई थी.

बता दें, बीते कुछ साल टीवी और बौलीवुड इंडस्ट्री के लिए काफी मुश्किल भरे रहे हैं क्योंकि इन सालों में कई दिग्गज एक्टर्स ने दुनिया को अलविदा कहा है. वहीं इनमें एक्टर ऋषि कपूर, इरफान खान जैसे एक्टर्स का नाम भी शामिल हैं. वहीं टीवी इंडस्ट्री में एक्टर सिद्धार्थ शुक्ला जैसे सितारों के जानें से फैंस काफी दुखी हैं.

एक्टर आयुष्मान खुराना फीस में कटौती के लिए क्यों हुए मजबूर

कुछ माह पहले हमने ‘‘गृहशोभा’’ के डिजिटल एडीशन में एक लेख ‘‘पचासवीं जयंती वर्ष में कौन यशराज फिल्मस को डुबाने पर है आमादा’’ प्रकाशित किया था, जिसमें हमने स्पष्ट रूप से इशारा किया था कि इसमें काफी हद तक ‘यशराज फिल्मस’ का अपना टैलेंट मैनेजमेंट ही काफी हद तक जिम्मेदार है. ‘गृहशेाभा’ के इस लेख का असर नजर आने लगा है. सूत्रों पर और मीडिया रिपोर्ट पर यकीन किया जाए,तो अब ‘यशराज फिल्मस’ के टैलेंट मैनेजमेंट ने अपने सभी कलाकारों से उनकी फीस में चालिस प्रतिशत तक कटौती कर बौलीवुड के निर्माताओं की मदद करने की सलाह दी है. वैसे इस संबंध में ‘यशराज फिल्मस’ के टैलेंट मैनेजमेंट ने आफीशियली कुछ भी कहने से चुप्पी साध रखी है.

मगर यशराज फिल्सम’ के ‘टैलेंट मैनेजमेंट’ के सदस्य अभिनेता आयुष्मान खुराना ने ऐलान कर दिया है कि वह अपनी फीस में कटौती कर रहे हैं. पहले वह 25 करोड़ रूपए ले रहे थे और अब वह सिर्फ 15 करोड़ रूपए प्रति फिल्म लेंगें. मीडिया रपट के अनुसार आयुष्मान खुराना की ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ और ‘अनेक’ जैसी फिल्मों के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल होने के बाद आयुष्मान खुराना की तरफ से यह कदम उठाया गया है.

आयुष्मान खुराना की लगातार दो फिल्मों ने भले ही बाक्स आफिस पर दम तोड़ा हो,मगर कटु सत्य यह है कि आयुष्मान खुराना उत्कृष्ट कलाकार हैं. वह ज्यादातर  लीक से हटकर और समाज में तोबा समझे जाने वाले विषयों पर आधारित फिल्मांे में ही अभिनय करते रहते हैं. आयुश्मन खुरसाना ने अपने कैरियर की पहली ही फिल्म ‘‘विक्की डोनर’’ को अपार सफलता दिलाकर स्टार का दर्जा हासिल कर लिया था. यह फिल्म ‘स्पर्म डोनेशन’ पर थी. इसमें आयुष्मान खुराना के अभिनय की जबरदस्त प्रशंसा की गयी थी. इस फिल्म के बाद ही आयुष्मान खुराना ने खुद को ‘गृहशोभा मैन’ कहना शुरू कर दिया था. उसके बाद उनकी फिल्म ‘नौटंकी साला’ ने भी जबरदस्त सफलता हासिल की थी. लेकिन ‘बेवकूफियां’ एवरेज फिल्म थी. 2015 में प्रदर्शित फिल्म ‘हवाईजादा’ ने बाक्स आफिस पर निराश किया था. जबकि 2015 में ही ‘यशराज फिल्मस’ की फिल्म ‘‘दम लगा के हाइसा’’ ने अपनी लागत का दस गुना अधिक कमाई कर एक नया रिकार्ड बनाया था. इस फिल्म के साथ ही आयुश्मन खुराना ‘यशराज फिल्मस’ के ‘टैलेंट मैनेजमेंट’ का हिस्सा बन गए और फिर ‘यशराज फिल्मस’ की ही उनकी फिल्म ‘‘मेरी प्यारी बिंदू’’ इतनी बुरी फिल्म आयी थी,जो कि बाक्स आफिस पर अपनी लागत तक नही वसूल पायी थी. इसके चलते अचानक उनके कैरियर में ब्रेक आ गया था. फिर दो वर्ष बाद वह अश्विनी अय्यर तिवारी निर्देशित फिल्म ‘‘बरेली की बर्फी’ में पुनः सफलता दर्ज करायी थी. इसका निर्माण ‘यशराज फिल्मस’ ने नही किया था,पर बीस करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर 57 करोड़ रूपए कमा लिए थे. फिर आयुष्मान खुराना के अभिनय सजी तोबा समझे जाने वाले विषय पर आधारित और 25 करोड़ रूपए मंे ंनिर्मित फिल्म ‘‘शुभ मंगल सावधान’ ने लगभग 65 करोड़ रूपए कमा कर उन्हे स्टार बनाए रखा.

लेकिन 2018 में ‘वायकाम 18’ निर्मित और श्रीराम राघवन निर्देशित आयुष्मान खुराना की 32 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘‘अंधाधुन’’ ने बाक्स आफिस पर 457 करोड़ रूपए कमा कर हंगामा मचा दिया था. इस फिल्म में एक कलाकार की हत्या के आरोपी अंधे पियानो वादक आकाश श्राफ के किरदार में अपनी अति बेहतरीन परफार्मेंस से आयुष्मान खुराना ने हर दर्शक का दिल जीत लिया था. तो वहीं इसी फिल्म के बाद 29 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘बधाई हो’ ने बाक्स आफिस पर लगभग 220 करोड़ कमाए. तीस करोड़ की लागत वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15 ’ ने लगभग 94 करोड,28 करोड़ की लागत वाली ‘ड्रीम गर्ल’ ने 200 करोड़,‘बाला’ ने 172 करोड़ ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ ने 106 करोड़़ कमाए.

सूत्रों का दावा है कि इस फिल्म के प्रदर्शन तक आयुष्मान खुराना अपने कैरियर व पत्रकारों से मिलने आदि के सारे निर्णय खुद लिया करते थे. मगर ‘अंधाधुन’ के बाद ‘यशराज फिल्मस’ के टैलेंट मैनेजमेंट और  ‘पी आर’ डिपार्टमेंट के शिकंजे में फंस गए. इससे उन्हे एक फायदा यह हुआ कि अचानक उनकी प्रति फिल्म फीस पच्चीस करोड़ रूपए हो गयी. तो दूसरी तरफ आयुष्मान खुराना के कैरियर से जुड़े सारे निर्णय टैलेंट मैनेजमेंट ने अपने हाथ में ले लिया. उसके बाद आयुष्मान खुराना उस पत्रकार से बात करते, जिनसे बात करने की इजाजत उन्हे ‘यशराज फिल्मस’ की पीआर टीम देती. यानी कि वह पूरी तरह से रीयालिटी व यथार्थ से दूर हो गए. जिसके परिणाम स्वरुप उनका कैरियर डूबने लगा.

‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ के बाद आयुष्मान खुराना ने अमिताभ बच्चन के साथ शुजीत सरकार की फिल्म ‘‘गुलाबो सिताबो’ की,जो कि ‘ओटीटी’ प्लेटफार्म ‘अमेजॉन प्राइम वीडियो’पर स्ट्रीम हुई. यह इतनी घटिया फिल्म है कि लोगो ने सवाल उठाया कि आयुष्मान खुराना ने क्या सोचकर इतनी घटिया फिल्म कर ली. इस फिल्म में उनके अभिनय को भी नहीं सराहा गया. फिर दस दिसंबर 2021 को प्रदर्शित अभिषेक कपूर की  फिल्म ‘‘चंडीगढ़ करे आशिकी’’ की भी बाक्स आफिस पर बड़ी दुर्गति हुई. इस फिल्म में आयुष्मान खुराना का अभिनय देखकर लोगों को यकीन करना मुश्किल हो गया कि इसी कलाकार ने ‘विक्की डोनर’,‘अंधाधुंन’,‘बधाई हो’,‘ड्रीमगर्ल’ जैसी फिल्मों में अभिनय किया था. एक बेहतरीन कलाकार के अभिनय में इस कदर की गिरावट को हजम करना मुश्किल हो रहा था. मगर बची हुई कसर उनकी अगली फिल्म ‘‘ अनेक’ ने पूरा कर डाला. घटिया कहानी व आयुष्मान खुराना सहित सभी कलाकारों के घटिया परफार्मेंस की वजह से 47 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘अनेक’ बाक्स आफिस पर महज दस करोड़ ही कमा सकी. नुकसान निर्माता का हुआ. आयुष्मान खुराना की जेब भरी रही. मगर आयुष्मान खुराना के प्रशंसकों व दर्शकों को इस बात की तकलीफ हुई कि वह  एक उत्कृष्ट कलाकार को खो रहे थे. पर आयुष्मान खुराना तो अपने ‘टैलेंट मैनेजमेंट’ और पीआर के आगे इस कदर नतमस्तक हो गए थे कि उनकी समझ में ही नही आ रहा था कि वह इस तरह से अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं. वह जिन लोगों को करोड़ रूपए अपनी ‘ब्रांड वैल्यू’ को बढ़ाने के लिए दे रहे हैं,वही अपरोक्ष रूप से उनकी ‘ब्रांड वैल्यू’ को नष्ट करने का काम कर रहे हैं.

इसके बाद बौलीवुड के अंदर ही चर्चा होने लगी कि आयुष्मान खुराना की इस असफलतमा के पीछे उनका जमीन से दूर हो जाना ही है. बहरहाल,उनके क्षरा अपनी फीस में कटोती की खबर उस वक्त आयी है,जबकि उनकी फिल्म ‘डाक्टर जी’ 14 अक्टूबर को प्रदर्शित होने वाली है. यह फिल्म भी अलग तरह के विषय पर है. इसके अलावा उनकी दो फिल्में ‘एन एक्शन हीरो’ और ‘ड्रीम गर्ल 2’’ भी जल्द प्रदर्शित होंगी. लेकिन एक बेहतरीन कलाकार के कैरियर का इस तरह पतन से उनके प्रशंसक  भी निराश हैं. अपनी फीस में कटौती कर आयुष्मान खुराना ने इस बात का संकेत दे दिया है कि ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ और ‘अनेक’ की असफलता के लिए वही दोषी हैं. जबकि हकीकत यह है कि वह गलत लोगों के इशारे पर नाचते हुए अपने कैरियर को संभाल नही पाए. अन्यथा बौलीवुड में आयुष्मान खुराना जैसे उत्कृष्ट कलाकार कम हैं. आयुष्मान खुराना को समझना होगा कि चंद शहरों के शॉपिंग माल्स में या कुछ कालेज के ग्राउंड पर नाचने से न तो उनके फिल्म का सही प्रचार होता है और न ही इससे उनकी अपनी ‘ब्रांड वैल्यू’ में ही इजाफा होता है.

Richa Chadha ने लगाई पति के नाम की मेहंदी, नाचते दिखे Ali Fazal

बॉलीवुड एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा (Richa Chadha) जल्द ही अपने लौंग टाइम बौयफ्रेंड और एक्टर अली फजल (Ali Fazal) संग शादी के बंधन में बंधने वाली है. वहीं दोनों की शादी की रस्मों की शुरुआत भी हो गई है, जिसकी फोटोज और वीडियो सोशलमीडिया पर वायरल हो रही है. इसी बीच एक्ट्रेस ने अपनी मेहंदी की फोटो और वीडियो फैंस के साथ शेयर की हैं. आइए आपको दिखाते हैं रिचा चड्ढा और अली फजल की मेहंदी से जुड़ी अपडेट्स (Ali Fazal-Richa Chadha Mehandi Photos…

एक्ट्रेस ने लगाई मेहंदी

लगभग 10 साल से एक दूसरे को डेट कर रहे एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा और एक्टर अली फजल 4 अक्टूबर (Ali Fazal-Richa Chadha Wedding) को दिल्ली में सात फेरे लेने वाले हैं, जिसके चलते 29 सितंबर को शादी की रस्मों की शुरुआत के साथ मेहंदी सेलिब्रेशन देखने को मिला. दरअसल, एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा और अली फजल ने अपने-अपने हाथों में एक दूसरे के नाम का पहला अक्षर लिखवाया है, जिसकी फोटो और वीडियो एक्ट्रेस ने सोशलमीडिया पर फैंस के साथ शेयर की है.

नाचते दिखे अली फजल

 

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जहां एक तरफ एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा अपनी मेहंदी का डिजाइन फैंस के साथ शेयर करते हुए फ्लौंट करती दिखीं तो वहीं एक्टर अली फजल ढोल की धुन पर नाचते हुए नजर आए. एक्टर की ये वीडियो सोशलमीडिया पर तेजी से वायरल हो रही है, जिसे देखकर फैंस दोनों को बधाई देते दिख रहे हैं. वहीं शादी की बात करें तो दिल्ली में सात फेरे लेने के बाद ये सेलेब्रिटी कपल मुंबई में ग्रैंड रिसेप्शन देने वाला है, जिसमें कई बौलीवुड सेलेब्स के शिरकत करने की उम्मीद है.

बता दें, एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा और अली फजल की पहली मुलाकात फिल्म फुकरे के दौरान हुई थी, जिसके बाद दोनों ने करीब 10 सालों तक एक दूसरे को डेट किया. हालांकि 2 साल पहले कपल ने शादी के प्लान्स बनाए थे. लेकिन कोरोना के कारण यह टल गया. लेकिन अब वह दिल्ली में ग्रैंड वैडिंग  (Ali Fazal-Richa Chadha Wedding) कर रहे हैं, जिसकी फोटोज और वीडियो सोशलमीडिया पर तेजी से वायरल हो रही हैं.

राजा राज चोल ने अपने शासनकाल में पांच हजार बांध बनवाए थे- चियान विक्रम

इतिहास से सबक लेकर हर इंसान प्रगति की राह पर जा सकता है. इसी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए मशहूर फिल्मकार मणि रत्नम नौंवी सदी के चोल साम्राज्य की अंदरूनी राजनीतिक उठापटक पर फिल्म ‘‘पी एस -एक’’ लेकर आ रहे हैं. तीस सितंबर को हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम व कन्नड़ भाषा में अंग्रेजी सब टाइटल के साथ पूरे विश्व में प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘पीएस एक’ ऐतिहासिक सबूतों व कुछ कल्पना के साथ सत्तर वर्ष पहले कल्कि द्वारा लिखी गयी किताब ‘‘पोन्नियिन सेलवन’’ पर आधारित है. यह फिल्म अरुलमोझीवर्मन के शुरुआती दिनों की कहानी बताती है,  जो बाद में महान चोल सम्राट राज राजा चोल प्रथम (947 सीई – 1014 सीई) बने थे. फिल्म की कहानी के केंद्र में नौवीं शताब्दी के चोल राजवंश और सिंहासन के लिए संघर्ष है.

फिल्म ‘‘पी एस -एक’’ के प्रमोशन के लिए हाल ही में मणि रत्नम अपनी इस फिल्म के सभी कलाकारों के साथ मीडिया के सामने मुखातिब हुए. उसी दौरान इतिहास से सबक सीखने की चर्चा करते हुए फिल्म में अदिथा करिकालन का किरदार निभा रहे अभिनेता चियान विक्रम ने कहा-‘‘हर इंसान की अपनी रूचि होती है. किसी को विज्ञान मंे, किसी को इतिहास में तो किसी को गणित या भूगोल में. लेकिन मेरी समझ से रोचक बात यह है कि हम बचपन में ‘चंदामामा’ या ‘अमर चित्रकथा’’के माध्यम से कहानियां पढ़ते व सुनते रहे हैं. इन किताबों मंे अतीत या राजाओं की कहानी ही लिखी गयी है. हमारा अतीत काफी समृद्ध रहा है. राजा राजा चोल ने अपने शासनकाल में पांच हजार डैम@बांध बनवाए थे. राजा राजा चोल ने अपने समय में ‘पानी मंत्रालय’ बनाया था. गांव के नेताओं यानी कि सरपंच के चुनाव करवाए थे. उन्होने शहरोें के नाम औरतों के नाम पर रखे थे. उनके शासन काल में तीन बड़े अस्पताल थे, जहां हर नागरिक का मुफ्त में इलाज होता था. वह अपनी जनता की मदद के लिए खैरात नही बांटता था, मगर कर्ज दिया करता था. यानी कि वह लोगों से पूरे सम्मान@डिग्निटी के साथ जिंदगी जीने की बात करता था. क्या हमें यह सब इतिहास से नहीं सोचना चाहिए.  इतना ही नहीं हम अक्सर पिरामिड की बात करते हैं कि आखिर कइ वर्ष पहले पिरामिड किस तरह बनाए गए होंगे. मगर क्या हम जानते हंै कि भारत में कई ऐसे मंदिर हैं, जिन्हे हम सिर्फ मंदिर या पूजा गृह के रूप में देखते हैं.

हम कभी भी उनकी स्थापत्य कला की तरफ ध्यान नही देते. दक्षिण भारत के तंजावुर, जहां नौंवी सदी में  चोल साम्राज्य था. तब राजा राजा चोलन ने एक मंदिर बनवाया था. जो कि विश्व का सबसे उंचा मंदिर है. सबसे उपर जो पत्थर है, वह एक ही पत्थर है, जिसका वजन अस्सी टन है. इसके निर्माण में प्लास्टर का उपयोग नहीं किया गया. इस अस्सी टन वजन के पत्थर को उंचाई पर ले जाकर स्थापित करने के लिए उस वक्त रैम का उपयोग किया गया था. जो कि छह किलोमीटर लंबा था. इसे बैल व इंसानो की मदद से उपर चढ़ाया गया था. उस वक्त कोई मशीन नही थी. बिजली नही थी. क्रेन नहीं थी. इस मंदिर को प्लास्टर नहीं किया गया. मगर इसने छह बड़े भूकंप झेले हैं. उस वक्त इसे बनाते हुए एक बाहरी दीवार खड़ी की. उसके अंदर छह फीट का कोरीडोर बनाया. उसके बाद उसके अंदर एक दूसर स्ट्क्चर है, जो कि उपर तक जाता है. इसी वजह से यह मंदिर हजार वर्ष से भी अधिक समय से अपने स्थापत्य कला को प्रदर्शित कर रहा है. इस पर भूकंप का भी असर नहीं होता.

हमें यह जानना चाहिए. हम आज सुपर पॉवर की बात करते हैं. लेकिन नौंवी शताब्दी में राजा राजा चोल के शासन में पूरे विश्व के मुकाबले सबसे बड़ी मैरिन टाइन नेवल थी. यह बाली,  मलेशिया व चीन तक फैला हुआ था. उस वक्त तक कोलंबस ने अमरीका की खोज तक नही की थी. इसलिए हमें अपने कल्चर के बारे में सेाचना चाहिए. हमे इस बात का गर्व होना चाहिए कि हम नौंवी सादी में कितना आधुनिक थे. इसका उत्तर भारत या दक्षिण भारत से कोई लेना देना नही है. पश्चिमी भारत या पूर्वी भारत से भी लेना देना नही है. हम सब सिर्फ भारतीय हैं. इसलिए हमें अपने इतिहास का जश्न मनाना चाहिए और इतिहास से सीखना चाहिए. ’’

खस्ताहाल बौलीवुड, दोषी कौन

आज बौलीवुड का एक भी कलाकार या निर्देशक जमीन से जुड़ा हुआ नहीं है. परिणामस्वरूप बौलीवुड की फिल्में बौक्स औफिस पर बुरी तरह से औंधे मुंह गिर रही हैं. वर्तमान समय के सभी कलाकार खुद को आम इंसानों से दूर ले जाने के तरीकों पर ही अमल करते हैं. मु झे अच्छी तरह याद है कि एक वक्त वह था, जब हम किसी भी फिल्म के सैट पर कभी भी जा सकते थे और सैट पर स्पौट बौय से ले कर कलाकार तक किसी से भी मिल सकते थे. उन दिनों कलाकारों के फैंस भी सैट पर आ कर उन से मिला करते थे. उन दिनों सैट पर हर किसी का भोजन एकसाथ ही लगता था. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब कलाकार पहली फिल्म साइन करते ही पीआर, मैनेजर व सुरक्षा के लिए बाउंसरों की सेवाएं ले कर खुद को कैद कर लेता है. सैट पर पत्रकारों या फैंस का जाना मना हो चुका है.

अब कलाकार सैट पर ज्यादा देर नहीं रुकता. वह हमेशा अपनीअपनी वैनिटी में बैठा रहता है. सीन के फिल्मांकन के वक्त वैनिटी वैन से निकल कर कैमरे के सामने जा कर परफौर्म करता है और फिर वैनिटी वैन में घुस जाता है.

ऐसे में जमीनी हकीकत से कैसे वाकिफ हो सकता है? उसे कैसे पता चलेगा कि उस की अपनी फिल्म के सैट पर किस स्पौट बौय के साथ किस तरह की समस्याएं हैं अथवा किस स्पौट बौय के पड़ोसी अब किस तरह की फिल्में देखना चाहते हैं.

इस के ठीक विपरीत दक्षिण भाषी कलाकार सदैव ऐसे लोगों के साथ जुड़ा रहता है. जब रामचरन की फिल्म ‘आरआरआर’ ने खूब पैसे कमाए और इस के लिए मुंबई में पांचसितारा होटल में फंक्शन रखा गया, तो मुंबई आने से पहले रामचरन ने इस फिल्म से जुड़े लोगों को अपने घर बुलाया और सभी को 10-10 ग्राम सोने के सिक्के देते हुए उन के साथ लंबी बातचीत की. सभी का हालचाल भी पूछा.

फिल्म के प्रदर्शन से पहले कलाकार पत्रकारों के बड़े समूह से 15-20 मिनट मिलता है, कुछ रटेरटाए शब्द बोल कर गायब हो जाता है. ऐसे में वह कैसे सम झेगा कि उस की परफौर्मैंस को ले कर कौन क्या सोचता है? आजकल पत्रकार भी ‘गु्रप इंटरव्यू’ का हिस्सा बनने के लिए किस हद तक गिर रहे हैं, उस की कहानी भी कम डरावनी नहीं है.

मीडिया से दूरी क्यों

जी हां, बौलीवुड के कलाकारों को पत्रकारों से बात करने का भी समय नहीं मिलता अथवा यह कहें कि ये अपने पीआर के कहने पर दूरी बना कर रखते हैं और एकसाथ 20 से 50 पत्रकारों को ‘गु्रप इंटरव्यू’ देते हैं और फिर उन का मजाक भी उड़ाते हैं.

एक बार जब मैं अक्षय कुमार से उन के घर पर ऐक्सक्लूसिव बात कर रहा था, तो उस बातचीत के दौरान उन्होंने गर्व से बताया कि एक दिन पहले उन्होंने 15 मिनट के गु्रप इंटरव्यू खत्म किया जिस में 57 पत्रकार थे.

हिंदी फिल्म बनाने वाले निर्माता, निर्देशक व कलाकार हिंदी में बात करना पसंद ही नहीं करते. वे तो 4 बड़े अंगरेजी अखबारों के पत्रकारों से बात करने के बाद बाकी लोगों से गु्रप में बात करना चाहते हैं. गु्रप इंटरव्यू में वे बातें कम करते हैं, पत्रकारों का मजाक ही उड़ाते हैं.

मशहूर अभिनेता, निर्माता व निर्देशक राज कपूर ने बतौर बाल कलाकार 1935 में फिल्म ‘इंकलाब’ में अभिनय किया था. उस के बाद जब वे कुछ बड़े हुए तो उन्होंने बतौर सहायक निर्देशक काम करना शुरू किया. लेकिन वे अपने पिता व अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के कहने पर बस व लोकल ट्रेन में यात्रा करते थे, जबकि उस वक्त पृथ्वीराज कपूर के पास सारे सुखसाधन उपलब्ध थे. राज कपूर ने तमाम उपलब्धियां हासिल कीं.

बताते हैं कि वे हर फिल्म के सैट पर हर छोटेबड़े इंसान के साथ गपशप किया करते थे. मगर जब भी उन्हें किसी नई फिल्म की विषयवस्तु पर काम करना होता था, तो वे मुंबई से 300 किलोमीटर दूर पुणे स्थित अपने फार्महाउस चले जाते थे. एक बार इस फार्महाउस से जुड़े कुछ लोगों से हमारी बात हुई, तो उन्होंने बताया कि वहां रहते हुए राज कपूर हर इंसान से लंबी बातचीत करते थे. सभी की जिंदगी के सुखदुख जाना करते थे.

जमीन से जुड़े कलाकार

मशहूर निर्मातानिर्देशक सुनील दर्शन के पिता अपने समय के मशहूर निर्माता व फिल्म वितरक थे. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब सुनील दर्शन ने फिल्म निर्माण में उतरना चाहा, तो उन के पिता ने उन्हें 6 वर्ष के इंदौर के अपने फिल्म वितरण औफिस में काम करने के लिए भेज दिया. 6 वर्ष तक इंदौर में रहते हुए सुनील दर्शन आसपास के गांवों में जा कर लोगों से मिलते रहे.

एक बार मु झ से कहा था कि सिनेमा की सम झ विकसित करने में मेरा 6 वर्ष का इंदौर का प्रवास काफी कारगर रहा. वहां पर गांवों व छोटे कसबों में जा कर लोगों से मिलने, उन से बातचीत करते हुए सही मानों में मेरे अंदर भारतीय सिनेमा की सम झ विकसित हुई.

उस के बाद सुनील दर्शन ने ‘जानवर,’ ‘एक रिश्ता,’ ‘बरसात,’ ‘अंदाज,’ ‘दोस्ती,’ ‘अजय,’ ‘लुटेरा,’ ‘मेरे जीवनसाथी’ व ‘इंतकाम’ जैसी सफलतम फिल्में बनाईं.

आम लोगों की तरह काम

2010 में करीना कपूर, काजोल व अर्जुन रामपाल को ले कर फिल्म ‘वी आर फैमिली’ का निर्देशन करने वाले सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा की परवरिश फिल्मी माहौल में ही हुई. वे सुपरडुपर हिट फिल्म ‘दुल्हन वह जो पिया मन भाए’ के हीरो प्रेम किशन के बेटे हैं. प्रेम किशन चाहते तो सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा को निर्देशन की बागडोर थमा सकते थे, लेकिन सिद्धार्थ को अपने पिता द्वारा निर्मित किए जा रहे सीरियलों के सैट पर आम लोगों की तरह काम करना पड़ा.

लगभग 15 वर्ष तक कई जिम्मेदारियां निभाने और बहुत कुछ अनुभव हासिल करने के बाद उन्हें 2010 में करण जौहर द्वारा निर्मित फिल्म ‘वी आर फैमिली’ को निर्देशित करने का अवसर मिला.

बलदेव राज चोपड़ा उर्फ बीआर चोपड़ा किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. उन्होंने ‘नया दौर,’ ‘कानून,’ ‘साधना,’ ‘गुमराह,’ ‘इंसाफ का तराजू,’ ‘निकाह,’ ‘बाबुल,’ ‘भूतनाथ’ सहित लगभग 60 फिल्में और ‘महाभारत’ जैसा सफलतम धारावाहिक बनाया. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव तक न सिर्फ आम लोगों से जुड़े रहे बल्कि हमेशा जमीन से भी जुड़े रहे. मु झे आज भी याद है कि 2002 में मैं ने उन का इंटरव्यू किया था, जोकि एक पत्रिका में छपा था. तब बीआर चोपड़ा ने मु झे स्वहस्ताक्षर युक्त पत्र कूरियर से भेज कर धन्यवाद ज्ञापन करते हुए पत्र में लिखा था कि वे भी पत्रकार रहे हैं और जिस पत्रिका में उन का इंटरव्यू छपा है, उस पत्रिका की प्रिंटिंग प्रैस में लाहौर में उन्होंने कुछ दिन काम किया था.

समाज से जुड़ी हुई फिल्में

आज हर इंसान संगीत व फिल्म निर्माण कंपनी ‘टी सीरीज’ से भलीभांति परिचित है. इस कंपनी की शुरुआत गुलशन कुमार ने की थी, जो हमेशा जमीन से जुड़े रहे. गुलशन कुमार ने अपने औफिस की इमारत में एक फ्लोर पर कैफेटेरिया बना रखा था, जहां दोपहर के भोजन अवकाश के दौरान सभी कर्मचारी एकसाथ बैठ कर भोजन करते थे. उन्हीं के बीच बैठ कर गुलशन कुमार भी भोजन करते थे.

मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने हमेशा आम इंसानों जैसी जिंदगी जी. वे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक पत्रकारों से ही नहीं बल्कि आम इंसानों, प्रोडक्शन से जुड़े हर छोटेबड़े कर्मचारी से मिलते थे. परिणामस्वरूप उनकी फिल्मों ‘धूल का फूल,’ ‘धर्मपुत्र,’ ‘वक्त,’ ‘दाग,’ ‘दीवार,’ ‘त्रिशूल,’ ‘चांदनी,’ ‘लम्हे,’ ‘परंपरा,’ ‘डर’ व ‘वीर जारा’ की फिल्मों को लोग आज भी बारबार देखना पसंद करते हैं.

बौलीवुड: कहां से चला था, कहां पहुंचा

राजेश खन्ना की फिल्म ‘आनंद’ का एक संवाद है- ‘यह भी एक दौर है, वह भी एक दौर था.’ फिल्म में यह संवाद किसी दूसरे संदर्भ में था, मगर यह संवाद बौलीवुड पर भी एकदम सटीक बैठता है.

बौलीवुड में एक वह दौर था जब ‘आलमआरा,’ ‘दो बीघा जमीन,’ ‘मदर इंडिया,’ ‘बंदिनी,’ ‘शोले,’ ‘मुगले आजम’ के अलावा राज कपूर जैसे फिल्मकार फिल्में बनाया करते थे. वे सभी फिल्में आज भी एवरग्रीन हैं क्योंकि इन में समाज की सचाई थी.

अमिताभ बच्चन की 80 के दशक की फिल्में भी आम लोगों से जुड़ी हुई थीं. ऐंग्री यंग मैन के रूप में अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत फिल्मों में गरीब तबके के मन की बात की गई थी. यानी फिल्में आम लोगों को उन्हीं की दुनिया में ले जाती थीं. बड़ी मुसीबतों का सामना करते हुए इंसान को जीतते हुए देखना इंसानी मन की कमजोरी है. तभी तो बौलीवुड की फिल्में सब से अधिक देखी जाती थीं.

बेसिरपैर की कहानी

लेकिन पिछले 15-20 सालों से बौलीवुड में दक्षिण भाषी सिनेमा की सफलतम फिल्मों के हिंदी रीमेक, ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर, लव टैंगल, सैक्स व हिंसा से सराबोर फिल्मों के अलावा बायोपिक फिल्मों का ही चलन हो गया है. बौलीवुड का सिनेमा जमीनी सचाई से कोसों दूर जा चुका है. बौलीवुड के सर्जक यह भूल चुके हैं कि जिस सिनेमा को मुंबई में कोलाबा से अंधेरी तक देखा जाता है, वही सिनेमा मुंबई के इतर इलाकों में पसंद नहीं किया जाता.

‘यशराज फिल्म’ के आदित्य चोपड़ा आम इंसानों से मिलना तो दूर पत्रकारों से भी नहीं मिलते. वे सदैव अपनी चारदीवारी के अंदर कैद रहते हैं. यदि यह कहा जाए कि वे अपनी जमीन या जड़ों से बहुत दूर जा चुके हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

आम इंसान उस सिनेमा को देखना पसंद करता है, जिस के संग वह रिलेट कर सके. मगर इस कसौटी पर ये फिल्में खरी नहीं उतरीं.

रणवीर सिंह की फिल्म ‘जयेशभाई जोरदार’ सिर्फ भारत को 2200 स्क्रीन्स से महज 3 करोड़ 25 लाख की ही ओपनिंग मिली थी.

गुजरात की पृष्ठभूमि की कहानी वाली इस फिल्म के साथ मुंबई या गुजरात के छोटे शहरों या गांवों के लोग भी रिलेट नहीं कर पा रहे हैं.

स्टूडियो में बैठे हैं एमबीए पास

2001 में नितिन केणी ने सिनेमा के विकास व सबकुछ पारदर्शी तरीके से हो सके, इसलिए जी स्टूडियो के साथ मिल कर हौलीवुड स्टाइल में स्टूडियो संस्कृति की शुरुआत की थी और पहली फिल्म ‘लगान’ का निर्माण हुआ था, जिस के हर कलाकार व तकनीशियन को उन की पारिश्रमिक राशि चैक से दी गई थी.

इस फिल्म ने सफलता का ऐसा परचम लहराया कि देखते ही देखते कुकुरमुत्ते की तरह अनगिनत स्टूडियोज मैदान में आ गए. रिलायंस सहित कई औद्योगिक घराने भी कूद पड़े. पहली बार इन सभी स्टूडियो में किस कहानी पर फिल्म का निर्माण किया जाएगा, इस की जिम्मेदारी नईनई एमबीए की युवा पीढ़ी के हाथों में सौंपा गया था.

जी हां, एमबीए पढ़ कर आए लोग, जिन्हें सिनेमा की सम झ नहीं, जिन्होंने साहित्य नहीं पढ़ा, जिन्हें संगीत या नृत्य की कोई सम झ नहीं, वे फिल्म निर्माण को ले कर निर्णय लेने लगे, जबकि फिल्म निर्माण के लिए साहित्य गीतसंगीत व नृत्य का गहराई से ज्ञान होना आवश्यक है. ये सभी कागज पर फिल्म की सफलता का गणित लिखने लगे और इन स्टूडियोज बिना कहानी वगैरह तय किए सिर्फ स्टार कलाकारों को अपने स्टूडियो के साथ मनमानी कीमत दे कर अनुबंधित करने लगा था.

उस वक्त कलाकारों ने अचानक अपनी कीमत 400-500 गुना बढ़ा दी थी. उस वक्त खबर आई थी कि रिलायंस ने 1500 करोड़ का ऐग्रीमैंट अमिताभ बच्चन के साथ किया है. एक स्टूडियो द्वारा अक्षय कुमार के साथ प्रति फिल्म 135 करोड़ का ऐग्रीमैंट करने की भी खबरें थीं.

बौलीवुड दक्षिण फिल्मों का मुहताज

बौलीवुड हमेशा दक्षिण के सिनेमा का मुहताज रहा है. बौलीवुड के जितेंद्र व अनिल कपूर सहित तमाम स्टार कलाकारों ने दक्षिण के फिल्म सर्जकों के साथ हिंदी फिल्में कर के स्टारडम पाया. इतना ही नहीं, यदि बौलीवुड के  पिछले 20-25 सालों के इतिहास पर गौर किया जाए, तो एक ही बात उभर कर आती है कि बौलीवुड केवल दक्षिण या विदेशी फिल्मों का हिंदी रीमेक बनाते हुए अपनी सफलता का परचम लहरा कर अपनी पीठ थपथपाते आ रहा है.

बौलीवुड बायोपिक बना रहा है या एलजीबीटी समुदाय पर फिल्में बना रहा है यानी बौलीवुड मौलिक काम करने के बजाय नकल के सहारे बादशाह बनने की सोचता रहा है.

कहानियों का अकाल

प्राप्त जानकारी के अनुसार आज की तारीख में बौलीवुड करीब 40 फिल्मों का रीमेक बना रहा है. यहां तक कि अजय देवगन के पास भी कहानियों का अकाल है, इसलिए वे बायोपिक फिल्में बना रहे हैं. इस की मूल वजह यह है कि अजय देवगन का आम इंसानों के संग कोई संपर्क ही नहीं रहा.

हम बहुत दूर क्यों जाएं ‘वांटेड,’ ‘किक,’ ‘राउडी राठौर’ जैसी सफल बौलीवुड फिल्में दक्षिण की फिल्मों का रीमेक ही हैं. दक्षिण की जिन फिल्मों का हिंदी रीमेक किया गया, उन में सलमान खान की फिल्म ‘जुड़वां’ भी शामिल है. यह तेलुगु फिल्म ‘हेल्लो ब्रदर’ का हिंदी रीमेक है, जिस में नागार्जुन लीड रोल में थे. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर जम कर कमाई की थी. महज 6 करोड़ में बनी इस फिल्म का बौक्स औफिस कलैक्शन 24 करोड़ रुपए है.

इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दक्षिण की हिंदी रीमेक फिल्मों का हिंदी बौक्स औफिस पर कैसा रिस्पौंस था. इसी तरह मलयालम फिल्म ‘रामजी राव स्पीकिंग’ का हिंदी रीमेक ‘हेराफेरी’ बना. यह फिल्म भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुई थी. इस के बाद ‘हेराफेरी’ फिल्म के निर्देशक प्रियदर्शन ने कौमेडी फिल्मों की लाइन ही लगा दी.

उन्होंने ‘हलचल,’ ‘हंगामा,’ ‘ये तेरा घर ये मेरा घर,’ ‘गरम मसाला,’ ‘क्योंकि,’ ‘छुपछुप के,’ ‘भागमभाग,’ ‘दे दनादन,’ ‘ढोल,’ ‘बिल्लू’ जैसी फिल्में बनाई हैं. इन में ज्यादातर फिल्में कौमेडी, रोमांस और ड्रामा जोनर की हैं.

बौलीवुड पर हावी

इसी तरह ऐक्शन जोनर की फिल्मों का रीमेक दौर भी शुरू हुआ, जिस ने हिंदी प्रदेशों में तहलका मचा दिया. तमिल फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर निर्देशक ए.आर. मुरुगदास 2008 में हिंदी फिल्म ‘गजनी’ ले कर आए, जो इसी नाम से तमिल में सफलता दर्ज करा चुकी थी. आमिर खान, जोया खान और आसिन स्टारर इस फिल्म ने खलबली मचा दी. फिल्म के लिए बनाए गए आमिर खान के सिक्स पैक एब के साथ धांसू ऐक्शन सीन खूब चर्चा में रहे.

जी हां, वास्तव में दक्षिण सिनेमा के बौलीवुड पर हावी होने की मूल वजह यह है कि पिछले 15-20 सालों से बौलीवुड दक्षिण सिनेमा की फिल्मों को हिंदी में रीमेक कर अपने अस्तित्व को बचाए हुए था. दक्षिण सिनेमा की नई पीढ़ी ने इस सच को सम झते हुए अपने ‘बेहतरीन’ सिनेमा को विस्तार देते हुए ‘पैन सिनेमा’ का नाम देने की मंशा से खुद ही अपनी फिल्में हिंदी में डब कर के दर्शकों तक पहुंचाने लगा.

इतना ही नहीं कोविड के वक्त हिंदी भाषी दर्शक अपने घर के अंदर टीवी पर दक्षिण में बनी व हिंदी में डब हुई फिल्में देख कर दक्षिण के कलाकारों को पहचानने भी लगे हैं.

आने वाले वक्त में प्रभास की फिल्म ‘आदिपुरुष,’ विजय देवरकोंडा की फिल्म ‘लीगर,’ वरुण तेज की फिल्म ‘घनी’ पैन इंडिया में रिलीज होने वाली हैं.

सफलता का परचम लहराती दक्षिण की फिल्में

कोरोना आपदा के बाद जब फिल्म इंडस्ट्री एक बार फिर शुरू हुई, देशभर के सिनेमाघर खुले, तब से बौलीवुड की ‘अंतिम,’ ‘83,’ ‘सत्यमेव जयते 2,’ ‘बच्चन पांडे,’ ‘जर्सी,’ ‘रनवे 34्र’ ‘अटैक,’ ‘हीरोपंती 2,’ ‘औपरेशन रोमिया,’ ‘जलसा,’ ‘ झुंड,’ ‘धाकड़’ सहित एक भी फिल्म सफलता दर्ज नहीं करा पाई है. अक्षय कुमार की फिल्म ‘बच्चन पांडे’ भी घटिया फिल्म थी. यह फिल्म 18 मार्च को रिलीज हुई और फिल्म बुरी तरह से पिट गई.

वहीं दक्षिण के सिनेमा की ‘पुष्पा,’ ‘जय भीम,’ ‘आरआरआर,’ ‘वकील साहब’ व ‘केजीएफ चैप्टर 2’ सहित हर फिल्म हिंदी में डब हो कर सफलता दर्ज करा रही है. ‘केजीएफ चैप्टर 2’ ने तो महज हिंदी में हर हिंदी फिल्म को पछाड़ दिया है. अब आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ भी सर्वाधिक  कमाई वाली पहली फिल्म नहीं रही. ऐसे में अब बौलीवुड में एक नया जुमला बन गया है कि ‘दक्षिण का सिनेमा बौलीवुड को खा जाएगा.’ मगर एक भी शख्त दक्षिण में रहे सिनेमा की तर्ज पर हिंदी सिनेमा में मौलिक व दर्शकों को पसंद आने वाला सिनेमा बनाने की बात नहीं कर रहा.

बरबादी की ओर बौलीवुड

दक्षिण के फिल्मकारों ने इन हिंदी फिल्मों के कलाकारों की इस कमजोरी को सम झ कर इन्हें अपनी फिल्मों में छोटे किरदार दे कर अपनी फिल्मों को पैन इंडिया पहुंचाने का काम किया.

किसी ने महेश भट्ट की बेटी आलिया भट्ट को सम झा दिया कि उन क ी वजह से दक्षिण की फिल्म ‘आरआरआर’ ने सफलता दर्ज की है और उसी वक्त आलिया को हौलीवुड फिल्म ‘हार्ट औफ स्टोन’ मिल गई.

टौम हार्पर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘हार्ट औफ  स्टोन’ अमेरिकी जासूसी फिल्म है, जिस की पटकथा ग्रेग रुका और एलीसन श्रोएडर ने लिखी है. इस फिल्म में आलिया भट्ट के साथ गैल गैडोट, जेमी डोनर्न, सोफी ओकोनेडो, मैथियास श्वेघोफर, जिंग लुसी जैसी हौलीवुड कलाकारों का जमावड़ा है. जो बस आलिया को ऐसा जोश आया कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे अब दक्षिण की किसी फिल्म में काम नहीं करेंगी.

उत्तर में ‘बाहुबली’ और ‘आरआरआर’ के निर्देशक एस राजामौली कहां चुप बैठने वाले थे. उन्होंने भी ऐलान कर दिया कि अब अपनी फिल्मों में बौलीवुड के किसी भी कलाकार को नहीं लेंगे.

बौलीवुड के अहंकारी स्टार

बौलीवुड के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, सलमान खान आदि तो अपने जन्मदिन पर अपने प्रशंसकों को कई घंटे तक  अपने घर के सामने धूप में खड़े रखने के बाद घर की बालकनी में आ कर हाथ हिला कर उन का अभिवादन कर इतिश्री सम झ लेते हैं.

बैंगलुरु में एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. लंच के समय अभिनेता दुलकेर सलमान भोजन कर रहे थे. उन की नजर बाहर खड़े कुछ लोगों पर पड़ी. पता चला कि वह उन के प्रशंसक हैं जोकि उन के साथ फोटो खिंचवाना चाहते हैं. दुलकेर सलमान भोजना करना बीच में ही छोड़ कर हाथ धो कर पहले अपने प्रशंसकों से मिले. उन से बातें कीं, उन के साथ फोटो खिंचवाए उस के बाद भोजन किया.

बौलीवुड में कला की बनिस्बत पैसे को ही महत्त्व दिया जाता है. हर कलाकार मेहनताने के रूप में मोटी रकम वसूलता है. उस के बदले में उस से कुछ भी करवा लो. वह  झूठा दावा करता है कि वह चुनौतीपूर्ण किरदार और रिलेट करने वाली कहानियां चुनना पसंद करता है.

इस के ठीक विपरीत दक्षिण भारत के कलाकार कहानी व किरदार की बात करते हैं. वहां पर कहानी में हीरो को ग्लोरीफाई किया जाता है, जबकि बौलीवुड में किरदार या कहानी के बजाय कलाकार को ग्लोरीफाई किया जाता है.

वैसे आज जो हालात बन चुके हैं, उन की तरफ अपरोक्ष रूप से इशारा करते हुए 2013 में फिल्म ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ के प्रमोशनल इंटरव्यू के दौरान फिल्म के निर्देशक राजकुमार संतोषी ने बौलीवुड के संदर्भ में मु झ से कहा था, ‘‘जल्द वह वक्त आने वाला है, जब कलाकार खुद दर्शकों के दरवाजे पर जा कर उन से अपनी फिल्म की टिकट खरीदने के लिए कहेगा.’’

9 वर्ष पहले कही गई बात आज सच नजर आ रही है. लगभग यही हालात हो गए हैं. कलाकार अच्छी कहानियां चुनने के बजाय अपनी फिल्म के प्रचार इवेंट में अपने फैंस को बुला कर नौटंकी करता नजर आता है या अपने फैंस को प्रैस शो के वक्त मुफ्त में फिल्में दिखा रहा है.

REVIEW: अति सतही फिल्म है Babli Bouncer

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः विनीत जैन व अमृता पांडे

निर्देशकः मधुर भंडारकर

कलाकारःतमन्ना भाटिया,  अभिषेक बजाज, सौरभ शुक्ला, साहिल वैद्य,  सानंद वर्मा, सव्यसाची चक्रवर्ती,  करण सिंह छाबरा व अन्य.

अवधिः लगभग दो घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉट स्टार डिज्नी

सरकारें बदलने के साथ हर देश के सिनेमा में कुछ बदलाव जरुर होते हैं. मगर सिनेमा में कहानी व मनोरजन जरुर रहता है. लेकिन बौलीवुड के फिल्मकार तो अब सिर्फ  किसी न किसी अजेंडे के तहत ही फिल्में बना रहे हैं. ऐसा करते समय वह सिनेमा तकनीक , मनोरंजन व कहानी पर ध्यान ही नही देते. तभी तो 23 सितंबर से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘डिज्नी हॉटस्टार ’पर स्ट्ीम हो रही फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’ देखकर इस बात का अहसास ही नही होता कि इस फिल्म का निर्देशन राष्ट्ीय पुरस्कार प्राप्त व 2016 में पद्मश्री से सम्मानित निर्देशक मधुर भंडारकर ने किया है, जिन्होने इससे पहले ‘चांदनी बार’, ‘पेज 3’, ‘कारपोरेट’, ‘ट्रेफिक सिग्नल’, ‘फैशन’ , ‘जेल ’ व ‘हीरोईन जैसी फिल्में निर्देशित की हैं.

हरियाणा की पृष्ठभूमि में ओमन इंम्पॉवरमेंट’ पर बनायी गयी फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’में न तो ओमन इम्पावरमेंट है, न प्रेम कहानी है न हास्य है और न इसमें मनोरंजन का कोई तत्व है. . इतना ही नहीं इस फिल्म का नाम यदि ‘‘बबली बाउंसर’ न होता तो भी कोई फर्क नही पड़ता.

कहानीः     

फिल्म ‘‘बबली बाउंसर’’ की कहानी दिल्ली से सटे हरियाणा के गांव असोला-फतेहपुरी से शुरू होती है. जहां हर वर्ष सैकड़ों पुरूष बाउंसर तैयार होते हैं और फिर वह दिल्ली के नाइट क्लबों में नौकरी करते हैं. इसी गांव में एक लड़की बबली तंवर ( तमन्ना भाटिया) हैं, जो कि अपने पिता व गांव के बॉडी बिल्डर (सौरभ शुक्ला) से बौडी बिल्डिंग सीखती हैं. बबली की मां को बेटी की शादी की चिंता है, मगर बाप बेटी कुछ अलग ही जिंदगी जी रहे हैं. वह अपनी सहेली की ही तरह दिल्ली जाकर नौकरी करना चाहती है.  बबली का आशिक गांव का ही युवक(साहिल वैद्य) है. एक दिन गांव के सरपंच की बेटी की शादी में बबली की मुलाकात अपनी शिक्षिका के बेटे विराज से होती है, जो कि लंदन से पढ़ाई करके वापस लौटा है और वह दिल्ली में साफ्टवेअर इंजीनियर के रूप में ेनौकरी कर रहा है. बबली उस पर लट्टू हो जाती है और विराज से शादी करने का सपना देखने लगती है. एक दिन वह अपने बचपन के  प्रशंसक (साहिल वैद्य) की मदद से,  अपने माता-पिता को मनाकर दिल्ली के एक नाइट क्लब में महिला बाउंसर के रूप में नौकरी पाने में सफल हो जाती है. दिल्ली में वह बार बार विराज से मिलने का प्रयास करती है. पर एक दिन विराज उससे साफ साफ कह देता है कि वह उसेस विवाह नही करेगा. विराज के अनुसार बबली बहुत जिद्दी, डकार लेेने वाली और दसवीं फेल यानी कि अनपढ़ है. दिल टूटने के बाद बबली खुद को बदलने का निर्णय लेकर अंग्रेजी की कक्षा में पढ़ने जाने लगती है. दसवीं की परीक्षा पास करती है.  एक दिन वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सीख जाती है. शहरी रहन सहन के अनुकूल खुद को ढालती है. फिर एक दिन रात में सड़क पर चार लड़कों की पिटायी कर मुख्यमंत्री से बहादुरी का पुरस्कार भी पा जाती है. सुखद अंत होता है. बबली अब लड़कियों को बाउंसर बनने की ट्रेनिंग देने लगती है.

लेखन व निर्देशनः

कहानी के केंद्र में पुरूष प्रधान बाउंसर के पेशे मंे महिला बाउंसरों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वह है. मगर पूरी फिल्म देखकर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता. फिल्म में महिला बाउंसरो की दुर्दशा, उनकी समस्याओं आदि का चित्रण होना चाहिए था, पर यहां तो बबली को सब कुछ प्लेट में सजा कर दिया जाता है. हरियाणा को अच्छी तरह से जानने वाले इस बात से वाकिफ है कि वहां पर लड़कियों व औरतांे की क्या स्थिति है, मगर इस फिल्म में वह सब गायब है. फिल्म का हास्य बहुत ही बेतुका सा है. कहानी व पटकथा के स्तर पर काफी गड़बड़ियां है. फिल्मकार ने बिना किसी शोध को किए ही आलस्य के साथ बबली के चरित्र को अति सतही लिखा है. फिल्मकार नेता के बेटे की दादागीरी और बंदूक का डर दिखाने से लेकर सारे हथकंडे इसमें भी पिरो दिए हैं.

फिल्मकार मधुर भंडारकर ने हरियाणा के एक गांव की युवा लड़की के महिला बाउंसर बनने की कहानी जरुर उठायी, पर फिल्म में वह बाउंसर महज इसलिए बनती हैं जिससे वह दिल्ली जाकर एक साफ्टवेअर इंजीनियर को अपने प्रेम जाल में फंास सके. सच यह है कि मध्ुार को हरियाणा के गांव , वहां के निवासियों के रहन सहन व सोच की कोई समझ ही नही है. इस पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. मगर फिल्मकार ने गंभीरता से इस विषय पर काम नही किया. वह तो केवल अपने अजेंडे तक ही सीमित रहे. लेकिन वह अपने अजेंडे के साथ भी न्याय नही कर पाए. कितनी अजीब बात है कि ‘ओमन इम्पावरमेंट प्र आधारित फिल्म में बबली बाउंसर बनने के सपने को पूरा करने के लिए गांव से दिल्ली नहीं आती, वह तो विराज के प्रेम में पड़कर विराज को पाने का सपना लेकर आती है. फिल्मकर प्रेम कहानी को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. इतना ही नही वह विराज के किरदार को ठीक से चित्रित नही कर पाए. इस फिल्म में महिला बाउंसरो को काम करते हुए किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसका भी कहीं कोई चित्रण नही है. फिल्मकार ने सारा ध्यान इस बात पर लगाया कि बबली के अंदर कितनी ताकत है. फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसका रोमांटिक ट्ैक है. फिल्म देखते हुए दर्शकों को सैकड़ों पुरानी फिल्में याद आ जाती हैं.

फिल्म के नायक को अंग्रेजी बोलने में असमर्थ होने,  सार्वजनिक रूप से डकार लेने और दिल्ली के एक महंगे रेस्तरां में अपने हाथों से फ्राइड राइस खाने का मजाक उड़ाते हुए दिखाया गया है. इस तरह के दृश्यों से फिल्मर्सजक साबित क्या करना चाहते हैं?

अभिनयः

बबली के किरदार में तमन्ना भाटिया का अभिनय ठीक ठाक ही कहा जाएगा. शुरूआत में वह बुरी तरह से मात खा गयी हैं. बीच में उनके अभिनय में सुधार आता है, पर अंत तक वह अपने अभिनय के लहजे को सही टै्क पर रख नही पाती. यह  चरित्र चित्रण मे कमी व निर्देशक की अपनी कमजोरी के चलते भी हो सकता है. विराज के कमजोर किरदार में अभिषेक बजाज से बहुत ज्यादा उम्मीद बचती नही. यदि फिल्मकार ने विराज के किरदार को ठीक से रचा होता तो अभिषेक बजाज का अभिनय शानदार हो जाता. पर फिल्मकार का सारा ध्यान तो तमन्ना के किरदार पर रहा. फिर भी अभिषेक ने अपनी तरफ से कोई कमी नही छोड़ी.

REVIEW: बदले की कहानी है Chup: Revenge of the Artist 

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताःराकेश झुनझुनवाला,  आर बाल्की और गौरी शिंदे

निर्देशकः आर आल्की

कलाकारः दुलकर सलमान, श्रेया धनवंतरी, सनी देओल, पूजा भट्ट, सरन्या पोंवन्नन, राजीव रविंदनाथन, अभिजीत सिन्हा व अन्य.

अवधिः दो घंटे 15 मिनट

सिनेमा समाज का दर्पण होता है. यह बहुत पुरानी कहावत है.  इसी के साथ सिनेमा मनोरंजन का साधन भी है. लेकिन भारतीय, खासकर बौलीवुड के फिल्मकार निजी खुन्नस निकालने व किसी खास अजेंडे के तहत फिल्में बनाने के लिए सत्य को भी तोड़ मरोड़कर ही नहीं पेश कर रहे हैं, बल्कि कई फिल्म स्वतः रचित झूठ को सच का लबादा पहनाकर अपनी फिल्मों में पेश करते हुए उम्मीद करने लगे हैं कि दर्शक उनके द्वारा उनकी फिल्म में पेश किए जाने वाले हर उल जलूल व असत्य को सत्य मान कर उनकी स्तरहीन फिल्मों पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाते रहें. ऐसे ही फिल्मकारों में से एक हैं- आर.  बाल्की, जिनकी नई फिल्म ‘‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’’ 23 सितंबर को सिनेमा घरांे में पहुॅची है.

लगभग तीस वर्ष तक एडवरटाइजिंग से जुड़े रहने के बाद 2007 में जब आर बाल्की बतौर लेखक व निर्देशक पहली फीचर फिल्म ‘‘चीनी कम’’ लेकर आए थे, उस वक्त कई फिल्म क्रिटिक्स ने उनकी इस फिल्म को अति खराब फिल्म बतायी थी. यह बात आर बाल्की को पसंद नही आयी थी. उसी दिन उन्होने फिल्म क्रिटिक्स को संवेदनशीलता व संजीदगी का पाठ पढ़ाने के लिए फिल्म बनाने का निर्णय कर लिया था. यह अलग बात है कि ‘चीनी कम’ के बाद उन्होने ‘पा’ जैसी सफल फिल्म के अलावा ‘शमिताभ’ जैसी अति घटिया व ‘की एंड का’ जैसी अति साधारण फिल्में बनाते रहे. और अब ‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ लेकर आए हैं. जिसमें उन्होने संवेदनशीलता की सारी हदें पार करने के साथ ही दर्शकों को असत्य परोसने की पूरी कोशिश की गयी है. इतना ही नही आर बाल्की ने अपनी पहली फिल्म की समीक्षा की ख्ुान्नस निकालते हुए फिल्म ‘चुपः द रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ में चार फिल्म क्रिटिक्स की बहुत विभत्स तरह से हत्या करवायी है. अफसोस सेंसर बोर्ड ने ऐसे दृश्यों को पारित भी कर दिया.

आर बाल्की ने अपनी फिल्म ‘‘चुप. . ’’ में दिखाया है कि गुरूदत्त की अंतिम फिल्म ‘‘कागज के फूल ’’ थी. इस फिल्म की फिल्म क्रिटिक्स ने इतनी बुराई की थी कि इसी अवसाद में गुरूदत्त ने ‘कागज के फूल’ के बाद कोई फिल्म नहीं बनायी और इसी गम में उनका देहांत हो गया था. अब फिल्म ‘चुप’ में गुरूदत्त का शागिर्द फिल्मों को एक स्टार देने वाले फिल्म क्रिटिक्स की निर्मम हत्या करने पर निकला है. मुझे नही पता कि हमारे साथ ही फिल्म ‘‘चुपः रिवेंज आफ आर्टिस्ट’ देख रही अदाकारा वहीदा रहमान पर यह सब देखकर क्या बीत रही होगी,  क्योंकि गुरूदत के संंबंंध में वहीदा रहमान से बेहतर कौन जानता है?

हर कोई जानता है कि स्व. गुरूदत्त अपने जमाने के मशहूर कलाकार, निर्माता,  लेखक व निर्देशक थे. गुरूदत्त की फिल्म ‘कागज के फूल ’ 1959 में प्रदर्शित हुई थी.  फिर 1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘चैंदहवीं का चांद’ का निर्माण करने के साथ ही गुरूदत्त ने इसमें अभिनय भी किया था. फिल्म ‘कला बाजार’ में भी अभिनय किया था. 1962 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘साहिब बीबी और गुलाम’ का भी  निर्माण करने के साथ उसमें अभिनय किया था. इसके अलावा 1963 में प्रदर्शित ‘भरोसा’ व ‘बहूरानी’, 1964 में प्रदर्शित ‘सुहागन’, ‘सांझ और सवेरा’ में गुरूदत्त ने अभिनय किया था. जब गुरूदत्त की मृत्यू हुई तब वह अभिनेत्री साधना के साथ फिल्म ‘पिकनिक’ में अभिनय कर रहे थे, जो कि बाद में पूरी नही हो पायी. पर इस बात को आर बाल्की अपने स्वार्थ व निजी बदले की कहानी लिखते समय नजरंदाज कर गए. .

इतना ही नही आर बाल्की को अपनी बात को रखने के लिए 110 वर्ष के भारतीय सिनेमा में महज एक फिल्म ‘कागज के फूल’ ही याद रही. वह फिल्म ‘शोले’’ या ‘लम्हे’ को क्यों भूल गए?

कहानीः

फिल्म ‘चुप’ शुरू होती है फिल्म क्रिटिक्स नितिन श्रीवास्तव की विभत्स तरीके से निर्मम हत्या से. पता चलता है कि उन्होने एक फिल्म की समीक्षा लिखते हुए एक स्टार दिया था. इसके बाद इसी तरह से तीन क्रिटिक्स की हत्याएं होती हैं. पुलिस हत्यारे को पकड़ने के लिए सक्रिय हो जाती है. उधर ‘फिल्म क्रिटिक गिल्ड’ निर्णय लेता है कि वह किसी भी फिल्म की समीक्षा नही लिखेगें. और हत्याओं का सिलसिला रूक जाता है. एक तरफ पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद( सनी देओल) अपनी टीम के साथ हत्यारे की तलाश की में लगे हुए हैं. उधर एक फिल्म पत्रकार नीला(श्रेया धनवंतरी ) और फूल की दुकान चलाने वाले डैनी(दुलकर सलमान ) के बीच प्रेम कहानी चल रही है. कोई सुराग न मिलता देख  पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद फिल्म वालों की चहेती सायके्रटिक जिनोबिया (पूजा भट्ट ) की मदद लेते हैं. और फिर एक नाटक रचकर उसमंे नीला का साथ लेती है. अंततः हत्यारा पकड़ा जाता है. पता चलता है कि हत्यारा गुरूदत्त को पूजता है. वह फिल्म ‘कागज के फूल’ का दीवाना है. उसके घर में एक फिल्म की रील पड़ी है. उसे गुस्सा इस बात का है कि उसके पिता की फिल्म की क्रिटिक्स ने आलोचना की थी और फिर उसके पिता ने फिल्म नहीं बनायी.

लेखन व निर्देशनः

इस फिल्म की पटकथा आर बाल्की ने फिल्म क्रिटिक राजा सेन और रिषि विरमानी के साथ मिलकर लिखा है. लेकिन आर बाल्की मात खा गए हैं. जो फिल्मसर्जक या फिल्म क्रिटिक्स नही है, वह इस फिल्म को समझ पाएंगे, इसमें शक है? फिल्म का क्लायमेक्स बहुत गड़बड़ है. क्लायमेक्स में हत्यारा जेल में बंद है. उसके कार्यों से अहसास होता है कि कुछ विक्षिप्त है. एक दिन अखबार में छपी खबर ‘‘फिल्म क्रिटिक्स रोहित वर्मा की कोविड से मौत’ पढ़कर वह हंसता है और कहता है कि यह सब इसी तरह मरेंगें? भले ही आर बाल्की ने उसे विक्षिप्त जतला दिया, पर इस दृश्य से फिल्मकार स्वयं कितना संवेदनशील व संजीदा है, इसका अहसास भी हो जाता है.

फिल्म की गति काफी धीमी है. इंटरवल से पहले फिल्म सशक्त है, मगर इंटरवल के बाद फिल्म पर फिल्मकार की पकड़ ढीली हो जाती है. वैसे गुरूदत्त को फिल्म के माध्यम से अच्छा ट्ब्यिूट दिया गया है. गुरूदत्त की फिल्म के गाने व कुछ दृश्य दिखाए गए हैं. तो वहीं लीना व डैनी के प्यार में भी फिल्म ‘कागज के फूल’ के दृश्य नजर आते हैं. मगर श्रेया धनवंतरी व दुलकर सलमान को अर्धनग्न अवस्था में दिखाए बिना भी काम चल सकता था. इतना ही नही फिल्मकार ने फिल्म के अंत में क्रेडिट देते समय मशहूर गीतकार ‘साहिर लुधियानवी’ को का नाम ‘साहिर लुधियाना’ लिखकर अपने सिनेमा के ज्ञान का बखान भी कर दिया.

गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ के जाने के तूने कही,  ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जैसे गानों को निर्देशक ने कहानी में काफी रूमानी और मार्मिक अंदाज में फिल्माया है.  अमित त्रिवेदी का संगीत कानों को सुकून देता है.

अभिनयः

फूल की दुकान चलाने वाले डैनी के किरदार में दुलकर सलमान का अभिनय शानदार हैं. उन्होने इस किरदार की जटिलता को भी बाखूबी अपेन अभिनय से उकेरा है. नीला के किरदार में श्रेया धनवंतरी खूबसूरत लगने के साथ ही चपल व चंचल नजर आयी हैं. पूजा भट्ट का अभिनय कमाल का है. इंटरवल से पहले पुलिस इंस्पेक्टर अरविंद के किरदार में सनी देओल का अभिनय साधारण है, पर इंटरवल के बाद उनकी परफॅार्मेंस जोरदार है.

जो हंसे, वो फंसे, जो फंसे,पूछो,वो फिर क्या हँसे………?

गजोधर भईया और पुत्तन को लाइम लाइट में लाने वाले प्रसिद्ध कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव ने 58 वर्ष की उम्र में अलविदा कह गए. वे 10 अगस्त को कार्डियक अरेस्ट के बाद से एम्स में भर्ती थे. राजू श्रीवास्तव 58 साल के थे, उन्हें उस समय कार्डियक अरेस्ट आया था, जब वे  दिल्ली के एक जिम में व्यायाम कर रहे थे. 41 दिन तक अस्पताल में भर्ती रहने के बाद उन्होंने आखिर दम तोड़ दिया. इससे पूरी फिल्म इंडस्ट्री शोक में डूब गई है.

मिली प्रेरणा

राजू श्रीवास्तव का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में 25 दिसंबर 1963 को हुआ था. बचपन में उनका नाम सत्य प्रकाश श्रीवास्तव था. राजू को बचपन से ही मिमिक्री और कॉमेडी का शौक था. उन्हें ये प्रेरणा उनके पिता रमेश चन्द्र श्रीवास्तव से मिली थी, जो एक हास्य कवि थे.हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव का जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा है. उन्होंने तंगहाली में ऑटो भी चलाया, लेकिन कभी उनका कविता प्रेम कम नहीं हुआ. कानपुर में वह बर्थडे पार्टी में भी कॉमेडी करते थे, जिसके एवज में 50 या 100 रुपये तक का इनाम भी मिलता था.शुरू में कॉमेडी के बलबूते परही वे कानपुर में प्रसिद्ध हुए औरइसके बाद वह मुंबई चले आये और मेहनत के बल पर अपनी एक अलग पहचान बनाई. जब भी उनसे मिलना हुआ, उन्होंने अपने बारें में खुलकर बातें की. उन्होंने वर्ष 1993 में अपनी प्रेमिका शिखा से शादी की और दो बच्चों के पिता बने.

किया हंसने पर मजबूर

उनकी कॉमेडी हमेशा सभी को हंसने पर मजबूर करती है, भले ही आज वे हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी कॉमेडी को लोग हमेशा सुनना पसंद करेंगे. कोविड 19 के समय उन्होंने अपने फ्लैट पर या दालान में अकेले बैठकर हमेशा कॉमेडी करते रहे, जिसे देखने पर हमेशा लगता रहा कि उनके आसपास कई लोग बैठे है और वे उनसे बातचीत कर रहे है, जबकि अकेले वे वहां कॉमेडी करते थे. उनकी हर बात में एक ह्युमर रहता था.

नहीं था गजोधर काल्पनिक

विनम्र और हंसमुख राजू श्रीवास्तव से एक इंटरव्यू से गजोधर भईया की उत्पत्ति के बारें में पूछने पर उन्होंने बताया था कि गजोधर भैया कोई काल्पनिक किरदार नहीं हैं, बल्कि गजोधर भैया वास्तविकता में थे. राजू का ननिहाल बेहटा सशान में था. वहां पर एक बुजुर्ग गजोधर रहते थे और रुक-रुक कर बोलते थे, उन्हीं का किरदार राजू ने अपनाया और उस किरदार को लोगों ने भी बहुत पसंद किया.मुंबई जाकर शुरुआती दौर में उन्हें काफी स्ट्रगल करना पड़ा.पहले उन्हें फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं मिला करती थी. इसके बाद उन्हें एक कामेडी शो में ब्रेक मिला, जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. उन्होंने डीडी नेशनल के शो टी टाइम मनोरंजन से लेकर द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज के माध्यम से लोगों के दिलों में अपनी खास पहचान बनाई और शो के सेकेण्ड रनरअप भी रहे. उनकी कॉमेडी को लोग इसलिए भी पसंद करते हैं, क्योंकि उसमे रोजमर्रा की जिंदगी का जिक्र होता है और कोई भी उससे रिलेट कर सकता है. इसकी वजह के बारें में उनका कहना था कि जिंदगी से और आसपास कई ऐसी बातें ऐसी होती है, जिससे आपको कॉमेडी मिलती है. कही उसे खोजना नहीं पड़ता.

खुले विचार

उनके संघर्ष के दिन तब ख़त्म हुए, जब उन्होंने स्टेज शो, टीवी के कॉमेडी शो और फिल्मों के अलावा अवॉर्ड शो होस्ट किया. राजू एक अकेले ही पूरे दर्शक को एंटरटेन करने में समर्थ रखते थे. उन्होंने लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, आडवाणी, अमिताभ बच्चन आदि कईयों की मिमिक्री की थी. एक बार लालू यादव के सामने ही लालू यादव की मिमिक्री की, लेकिन लालू ने उनकी मिमिक्री को हंसते हुए ये कहकर टाल दिया था कि अगर उनकी मिमिक्री से किसी का पेट भरता है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं. राजू बिलो द बेल्ट मिमिक्री करना पसंद नहीं करते थे. एक जगह उन्होंने कहा था कि कॉमेडी करते समय किसी की भावना को आहत न करना और लोगों की आम जीवन से जुडी हुई बातों को व्यंगात्मक तरीके सेपेश करने पर खास ध्यान देते थे, ताकि पूरा परिवार उनकी कॉमेडी को साथ मिलकर देख सकें.

आज राजू श्रीवास्तव हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके व्यंग्यात्मक शो और कॉमेडी को सभी मिस करेंगे. लोगों को ख़ुशी देना ही उनका मुख्य उद्देश्य रहा. उनका बहुचर्चित जुमला, जिसे वे कई शोज पर कहते थे,जो हँसे, वो फंसे, जो फंसे, पूछों,वो फिर क्या हँसे………?

फिल्म का रिव्यू पढ़कर क्या गुस्सा होते हैं साउथ के ये एक्टर, पढ़ें इंटरव्यू

मलयालम सिनेमा के सुपर स्टार और पूरे विश्व में अपनी फिल्मों व अपनी अभिनय प्रतिभा के बल पर अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अभिनेता ममूटी के बेटे व मलयालम अभिनेता दुलकर सलमान को हमेशा लगता था कि वह अपने पिता व  मलयालम सुपरस्टार ममूटी के जूते में पैर रखने के योग्य नही है. इसी के चलते दुलकर सलमान ने खुद को अभिनय व फिल्मों से दूर रखते हुए एमबीए की पढ़ाई कर दुबई में नौकरी करनी शुरू की.  और लंबे समय तक फिल्मो से दूर रहे.  पर यह नौकरी उन्हे रास नही आ रही थी.  क्योकि उनाक मन कुछ रचनात्मक काम करने के लिए उकसा रहा था. अंततः  26 साल की उम्र यानी कि 2012 में मलयालम फिल्म ‘‘सेकेंड शो’’ में हरीलाल नामक गैंगस्टर का किरदार निभाते हुए अभिनय जगत में कदम रखा। और देखते ही देखते वह मलयालम सिनेमा में सुपरस्टार बन गए. पर उन्होने खुद को भाषा की सीमा में कैद नही किया. अब तक वह मलयालम के अलावा हिंदी,  तमिल और तेलुगु फिल्मों में भी अभिनय कर चुके हैं. इतना ही नहीं दुलकर सलमान अब तक लगभग 35 फिल्मो में अभिनय, तेरह फिल्मों में गीत गाने के अतिरिक्त चार फिल्मों का निर्माण भी कर चुके हैं. बौलीवुड में इरफान खान के साथ फिल्म ‘कारवां’ से कदम रखा था. फिर वह सोनम कपूर के साथ फिल्म ‘‘द जोया फैक्टर’’में नजर आए थे. हाल ही में प्रदर्शित उनकी तेलुगू भाषा की हिंदी में डब फिल्म ‘‘सीता रामम’’ ने जबरदस्त सफलता हासिल की है. अब वह 23 सितंबर को प्रदर्शित होने वाली आर बालकी निर्देशित फिल्म ‘‘चुपः द रिवेंज आफ आर्टिस्ट’’ को लेकर उत्साहित हैं. , जिसमें उनके साथ श्रेया धंनवंतरी, सनी देओल, पूजा भट्ट भी हंै.

प्रस्तुत है दुलकर सलमान से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .

आपकी परवरिश फिल्मी माहौल में हुई. आपको अभिनेता ही बनना था. फिर भी एमबीए की पढ़ाई कर दुबई में नौकरी करने के पीछे कोई सोच थी?

-यह सच है कि मैने पहले अभिनय को कैरियर बनाने के बारे में नही सोचा था. इसके पीछे मूल वजह यह थी कि मेरे पिता मलयालम सिनेमा के महान अभिनेता हैं. मैं जानता था कि मेरे अभिनेता बनने पर लोग मेरी तुलना उनसे करेंगें, जो कि मैं नहीं चाहता था. मैं अपने पिता के जूतांे मंे पैर डालने की हिमाकत कर ही नही सकता. उनकी बराबरी करना नामुमकीन है. दूसरी बात उन दिनों मलयालम सिनेमा में दूसरी पीढ़ी का कोई भी कलाकार कार्यरत नहीं था. इसलिए मेरे मन मंे विचार आया था कि लोग मुझे अभिनेता के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे. इसके अलावा उन दिनों मेरे सभी सहपाठी व मित्र बिजनेस फैमिली से थे. वह सभी एमबीए की पढ़ाई करने गए, तो मैं भी चला गया. मतलब यह कि मेरे सहपाठी व मित्र जो कर रहे थे, वही मैने भी किया. फिर नौकरी की. मगर नौकरी करते समय अहसास हुआ कि इसमें कुछ भी रचनात्मकता नही है. और मेरा मन बार बार क्रिएटिब काम करने के लिए उकसा रहा था. वैसे भी क्रिएटिब काम करने में जो आनंद मिलता है, जो मजा आता है, वह आफिस जॉब में नहीं मिलता. तो मैं अपने दोस्तों के साथ समय मिलने पर लघु फिल्में बनाने लगा. तब मुझे अहसास हुआ कि इसी में आनंद है. जब हम लघु फिल्म बना रहे थे, तो यह पूरा प्रोसेस क्रिएटिब और डायनामिक लग रहा था. फिल्म मेकिंग एक टीम वर्क है. हम एक सोच के साथ फिल्म बना सकते हैं. अपनी बात लोगांे तक पहुॅचा सकते हैं. इस बात ने मुझे काफी प्रेरित किया कि नौकरी छोड़कर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा जाए. फिर एक दिन निर्णय लिया कि अब मुझे अभिनय करना है और नौकरी छोड़कर भारत वापस आ गया. मैने सबसे पहले मंुबई आकर बैरी जॉन सर के एक्टिंग स्कूल से अभिनय की ट्ेनिंग हासिल की. अभिनय की ट्ेनिंग लेने के पीछे मेरा मकसद कुछ अनुभव लेना और खुद को अभिनय में निपुण करना था. इस एक्टिंग स्कूल मंे हमारे साथ करीबन 24 विद्यार्थी थे. हम सभी ने कई प्रोजेक्ट किए. काफी प्रैक्टिकल अनुभव मिला. मेरी ही तरह कई लड़के अभिनेता बनना चाहते थे. तो उनके साथ वार्तालाप करते हुए मैने काफी इंज्वॉय किया. जब मैं बिजनेस स्कूल में था, उस वक्त मुझे सिनेमा का शौक था और मेरे कुछ सहपाठियों को सिनेमा देखने का शौक था. पर उनसे फिल्म कैसे बनाते हैं या किसी किरदार को निभाते समय किस बात का ख्याल रखा जाए, इन बातों पर कोई विचार विमर्श बिजनेस स्कूल मेंनहीं होता था, पर हमने बैरी जॉन के एक्टिंग स्कूल में यह सारा विचार विमर्श आपस मंे भी काफी किया.

आप गायक भी हैं. संगीत कहां से सीखा?

-मैं खुद को बहुत बुरा गायक मानता हूं. शुरू में तो मुझे फिल्म प्रमोशन करने में भी बहुत डर लगता था. कैरियर की शुरूआत में हर पत्रकार मुझसे मेेरे पिता जी के संदर्भ में ही सवाल करता था. इसलिए भी मैं अपनी फिल्म के प्रमोशन से दूर भागता था. तभी एक मार्केटिंग हेड ने मुझसे सवाल किया कि, ‘ क्या आप गा सकते हो?हमारी फिल्म में गाना गाओगे?’ तब मैने ‘ऑटो ट्यून’ और कम्प्यूटर की मदद से एक गाना गाया था. यदि आपने मुझसे स्टेज पर गाने के लिए कहेंगें, तो मेरे लिए बहुत मुश्किल है. लेकिन मुझे संगीत सुनने का शौक जरुर है.  इसलिए मुझे इस बात की थोड़ी समझ है कि कौन सा या किस तरह का गाना दर्शकों को पसंद आ सकता है.

आप किस तरह के गाने सुनना पसंद करते हैं?

-मैं ज्यादातर फिल्म के गाने ही सुनता हूं. कभी कभी मूड़ होने पर कुछ दूसरे तरह का संगीत भी सुन लेता हूं. मैं तमिल व मलयालम के अलावा कभी कभी हिंदी व पंजाबी गाने भी सुनता हूं. एक ही तरह का संगीत नही सुनता. मुझे एक ही जॉनर का संगीत सुनने का शौक नही है. मैं अलग अलग तरह का संगीत सुनता रहता हूं.

बैरी जॉन से अभिनय की ट्रेनिंग लेने के बाद आपने अपने अंदर क्या बदलाव महसूस किया?

-बैरी जॉन सर के पास जाने से पहले मेरे अंदर डर व असुरक्षा की भावना बहुत ज्यादा थी. जैसा कि मैने पहले ही कहा कि मेरे पिता जी महान कलाकार व स्टार हैं, तो उनके साथ मेरी तुलना का डर भी था. पहली फिल्म से ही लोग मुझसे मेरे पिताजी की ही तरह बेहतरीन परफार्मेंंस की आपेक्षा करेंगें. तो यह एक्स्ट्रा दबाव मैं स्वयं अपने आप पर डालता था. बैरी जॉन के एक्टिंग स्कूल में भी मैने महसूस किया कि मैं खुद से अपने उपर दबाव डाल रहा हूं. जब वहां लोगो के सामने परफार्म करना होता था, तो मेरे अंदर डर रहता था. वहां पर हमारे एक्टिंग स्कूल के शिक्षकों ने इस बात को पहचान लिया. मेरे इस डर को खत्म करने के लिए उन्होने कई सलाह दी और मेरी काफी मदद की, जिससे मैं इस डर से उबर सका.  इसके बावजूद पहली फिल्म में अभिनय करना मेरे लिए काफी मुश्किल और काफी चुनौतीपूर्ण रहा. उस वक्त भी मैं बहुत ‘ओवर थिकिंग’ करता था. अब काफी सहज हो गया हूं. लेकिन आज भी यदि कोई बड़ा दृश्य है, जिसे तमाम लोगो के सामने करना हो, तो मेरे अंदर का डर उभर  जाता है. लेकिन यदि मैने अपना होमवर्क सही ढंग से किया है, संवाद ठीक से याद किए हैं, तो अब सहजता से अभिनय कर लेता हूं.

अक्सर देखा गया है कि हर नया कलाकार अपने कैरियर की शुरूआत रोमांटिक फिल्म में रोमांटिक किरदार निभाते हुए करता है, मगर आपने तो अपनी पहली ही फिल्म ‘सेकंड शो  ’ में हरीलाल नामक गैंगस्टर का किरदार निभाकर किया. बाद में इस फिल्म को सफलता भी नहीं मिली?क्या अलग राह पर चलने के मकसद से आपने ऐसा किया था?

-ऐसी कोई सोच नहीं थी. मुझे पहले फिल्म की कहानी पसंद आयी थी. दूसरी बात जब यह फिल्म मेरे पास आयी, उस वक्त फिल्म में सभी नए  कलाकार थे. यह बात मुझे ज्यादा अच्छी लगी थी. क्योंकि यह मेरे कैरियर की पहली फिल्म थी. मेरे दिमाग में आया कि जो भी गलती होगी, हम सभी एक साथ करेंगें. और एक साथ ही सीखेंगें भी. मुझे लगा था कि मैं एक बहुत बड़ी फिल्म से कैरियर की शुरूआत को डिजर्ब नहीं करता हूं. सिर्फ इसलिए मैं बड़ी फिल्म नहीं करना चाहता था कि मैं महान कलाकार ममूटी का बेटा हूं. इसलिए मैने तय किया था कि मैं एक नए कलाकार की ही तरह छोटे बजट की फिल्म के साथ ही शुरूआत करुंगा. फिल्म की कहानी व मेरे किरदार की लोगो ने प्रश्ंासा की थी. आज भी लोगों को यह फिल्म पसंद है. गैंगस्टर का किरदार करने की वजह यही थी कि मेरे मन में खुद को लेकर कोई पोजीशनिंग नहीं थी. सच तो यह है कि उस वक्त ही नही आज भी मेरे दिमाग में यह बात नही है कि मुझे इस तरह का किरदार नहीं करना है. मुझे हर वह किरदार करना है, जो मेरे अभिनेता को चुनौती दे.

अपने अब तक के कैरियर में टर्निंग प्वाइंट्स किसे मानते हंै?

-मेरी राय में मेरे कैरियर की दूसरी मलयालम फिल्म ‘‘उस्ताद होटल’’ थी. आज भी जब यह फिल्म केरला में टीवी पर आती है, तो लोग देखना पसंद करते हैं. इस फिल्म की वजह से केरला में लोग मुझे अपने घर का सदस्य मानते हैं. इसके बाद फिल्म ‘चार्ली’ भी टर्निंग प्वाइंट्स थी. इस फिल्म से मुझे परफार्मर के तौर पर काफी अच्छी पहचान मिली.  इस फिल्म के ही चलते मुझे तेलगू फिल्म महानटी’ और हिंदी फिल्म ‘कारवां’ में अभिनय करने का अवसर मिला. तो ‘चार्ली’ देखने के बाद निर्देशकों ने मुझे दूसरी भाषाओं की फिल्मों के लिए बुलाना शुरू किया. इसके बाद मेेरे कैरियर में टर्निंग प्वाइंट्स मणि रत्नम की फिल्में रहीं. मुझे नए दर्शकों का साथ मिला.

आपकी हिंदी भाषा की फिल्म ‘‘चुप’’ 23 सितंबर को प्रदर्शित होने जा रही है. इसमें आपको क्या खास बात नजर आयी?

-इसका कॉसेप्ट बहुत युनिक है. इसका ट्ेलर देखकर आपको भी इस बात का अहसास हुआ होगा. अब तक किसी ने भी इस विषय पर फिल्म नहीं बनायी है. पहली बार आर बाल्की सर ने यह हिम्मत दिखायी है. जब मेरे पास आर बाल्की सर की तरफ से फोन आया तो मुझे लगा कि उन्होने अब तक जिस तरह की फिल्में बनायी हैं, उसी तरह की यह भी एक फिल्म होगी. यह भी एक कलरफुल और हैप्पी फिल्म होगी. पर जब उन्होने मुझे ‘चुप’ का विषय बताया, तो मैने उनसे कहा, -‘सर, आप इस तरह की फिल्म बनाने वाले हो. ’जब कोई फिल्मकार अपना ट्ैक बदलकर कोई प्रयोगात्मक फिल्म बनाना चाहता है, तो मेरा उत्साह बढ़ जाता है.  मुझे ेयह बात उत्साहित करती है कि हम अपने दर्शकों को आश्चर्य चकित करने वाले हैं. मुझे इसका टॉपिक और पटकथा दोनों बहुत ही ज्यादा रोचक लगी. मैने पटकथा पढ़ते हुए पाया कि शुरू से अंत तक एक अच्छी सोच है. कहीं कोई भटकाव नही है. आर बाल्की सर के लिए यह एक पैशन प्रोजेक्ट है.

फिल्म ‘‘चुप’’ का रिफ्रेंस प्वाइंट गुरूदत्त और उनकी फिल्म ‘‘कागज के फूल’’ है. आपने ‘कागज के फूल’ देखी है या नहीं और गुरूदत्त को लेकर आपके दिमाग में पहले से क्या छवि रही है?

-मैने ‘कागज के फूल’ देखी है.  फिल्म ‘चुप’ की शूटिंग के दौरान दोबारा देखी. इसके अलावा ‘चुप’ में गुरूदत्त की फिल्म व उनके गानों के कई रिफ्रेंसेस हैं.  सच तो यही है कि मुझे गुरूदत्त की फिल्मों के बारे में ज्यादा जानकारी नही थी. पर मुझे पता है कि नई पीढ़ी के कलाकार गुरूदत्त के बहुत बड़े फैन हैं. जब हम लोगो ने ‘चुप’ का फस्ट लुक शेअर किया, जिसमें गुरूदत्त की फिल्म की झलकी है, तो लोग व युवा कलाकार काफी उत्साहित हुए. यह बात मुझे भी अच्छी लगी. यह जानकर मुझे अपार खुशी मिली कि वर्तमान पीढ़ी में भी गुरूदत्त साहब के प्रशंसकों की कमी नही है.  लोग उनकी फिल्में देखना चाहते हैं. पर मुझे गुरुदत्त की फिल्मों के गानों के बारे में पता था. क्योंकि मेरे पिता जी व माता जी दोनो ही पुराने गीत , खासकर गुरूदत्त की फिल्मों के गीत काफी सुनते थे. हम बचपन में जब ड्ाइव पर जाते थे, तो गाड़ी में यही पुराने गाने बजते थे. मैं गुरूदत्त की दूसरी फिल्में भी देखना चाहता हूं. मगर सच यह है कि अभिनेता बनने के बाद हमें फिल्में देखने का समय कम मिलता है. इसके अलावा जब से मैं बेटी का पिता बना हूं, तब से तो और कम समय मिलता है. घर पहुॅचते ही मेरी पांच वर्ष की बेटी ही तय करती है कि अब मुझे क्या करना है या टीवी पर मुझे क्या देखना है. पर ‘कागज के फूल ’ देखकर मैने काफी इंज्वॉय किया. वैसे फिल्म ‘चुप’ में भी एक दृश्य है, जिसमें मेरा किरदार फिल्म ‘कागज के फूल’ देख रहा है.

फिल्म में आपका अपना किरदार क्या है?

-विस्तार से बता पाना मुश्किल है. पर मैने इसमें ऐसे युवक का किरदार निभाया है, जिसकी अपनी फूल की दुकान है.

फिल्म ‘चुप’ की कहानी के केंद्र में कलाकार के कैरियर का उतार चढ़ाव और फिल्म समीक्षक की समीक्षा को रखा गया है. आपकी फिल्में भी सफल व असफल हुई हैं. तब क्या आपको भी समीक्षक की लिखी समीक्षा पढ़कर गुस्सा आया था?

-जी हां! ऐसा स्वाभाविक तौर पर हुआ. हम भी इंसान हैं. हमारी अपनी भावनाएं हंै. हम कई माह तक काफी मेहनत कर फिल्म बनाते हैं और फिल्म समीक्षक महज डेढ़ दो घंटे की फिल्म देखकर एक सेकंड में पूरी फिल्म को खारिज कर देता है. कुछ तो फिल्म देखते हुए लाइव रिव्यू डालते हैं. ऐसे में कई बार हमें भी गुस्सा आता है. दुःख भी होता है. कई बार मैने अपनी प्रतिक्रिया लिखी , पर उसे सामने वाले पत्रकार तक भेजा नही. मैं हमेशा समीक्षक की समीक्षा पढ़ने के बाद लिखता हूं कि मैने ऐसा अभिनय किस सोच के साथ किया है?पर भेजता नही हूं. लेकिन मेरी समझ से समीक्षा पढ़कर जहां वास्तव में हमारी गलती हो, उसमें सुधार करते रहें,  अपने काम से ही हम समीक्षक को जवाब देते रहें. अपनी प्रतिभा को लगातार साबित करते रहे. हम हमेशा अच्छी तथा चुनौतीपूर्ण किरदार निभाता रहूंगा. मैं अपने काम से आलोचक को गलत साबित करना चाहता हूं.

पर लोग यह मानते हैं कि आलोचना से इंसान को आगे बढ़ने में मदद मिलती है?

-यह एकदम सच है. मेरी फिल्मों के चयन में मेरे आलोचकों का बहुत बड़ा योगदान है. जब आलोचकों ने मेरे बारे में लिखा कि में सिर्फ रोमांटिककिरदार ही निभा सकता हूं, तो मैने कुछ अलग तरह के किरदार निभाए. सच कह रहा हूं मुझे जो आलोचनाएं मिलती हैं, उन्हीं से मैं अपनी फिल्मों के चयन को तय करता हूं. मैं तो आलोचनाओ को हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण से लेता हूं.

आलोचना पढ़ने के बाद कभी आपके अंदर कुछ बदलाव आया?

-जब परफार्मेंस को लेकर कोई कमेंट आता है, तब उस पर ध्यान देता हूं. इसी वजह से मैं परफार्मेंस वाले किरदार ही चुनता हूं. जब किसी को लगता है कि मैं अच्छा कलाकार नही हूं, तो मुझे खुद को अच्छा कलाकार साबित करना होता है. तो आलोचना पढ़ने के बाद अपनी परफार्मेंस को सुधारने के लिए काफी कोशिश करता हूं.

सभी जानते है कि मणि रत्नम की फिल्में पूरे देश व विदेशों में भी देखी जाती हैं. आपने हिंदी, मलयालम, तमिल व तेलुगू भाषा की फिल्मों में अभिनय कर लिया. पर आज की तारीख में कुछ दक्षिण भाषी कलाकार खुद को ‘पैन इंडिया’ कलाकार होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं. यह क्या है?

-सच तो यही है कि ‘पैन इंडिया सिनेमा’ या ‘पैन इंडिया कलाकार’ की बात मेरी समझ से भी परे हैं. क्यांेकि पिछले कई दशकों से हम सभी बड़े कलाकारों या स्टार कलाकारों की फिल्में पूरे देश में देखते आए हैं. अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, रजनीकांत, कमल हासन व मेरे पिता जी सहित कई कलाकारों की फिल्में पूरे विश्व में देखी जाती हैं. तो यह कोई नया कॉसेप्ट नही है. मगर आजकल कुछ लोग इसे ‘ओवर यूज’ कर रहे हैं. मेरे पास कई फोन आते है कि , ‘सर, आपके लिए मेरे पास ‘पैन इंडिया’ वाली स्क्रिप्ट है.  ’’ तो मैं उनसे कहता हूं कि यह बात मुझे समझ में नही आती. मैं तो अच्छी स्क्रिप्ट व अच्छे किरदार वाली फिल्म करना चाहता हूं. ऐसा हो सकता है कि किसी फिल्म की कहानी बहुत ही ज्यादा भारतीय हो, किसी खास जगह पर केंद्रित हो. मसलन-हाल ही में मेरी एक फिल्म ‘‘सीता रामम’’ आयी थी, जिसे काफी सराहा गया. यह फिल्म एक आर्मी आफिसर की कहानी है. आर्मी आफिसर देश के किसी भी हिस्से का हो सकता है . इस तरह की फिल्म को हिंदी या किसी भी भाषा में डब करने की बात समझ में आती है. क्योंकि यह कहानी हर भाषा के दर्शकों को पसंद आ सकती है. यह भी जरुरी है कि आप जिस कहानी पर फिल्म बना रहे हैं, वह किसी एक जगह की जड़ांे से जुड़ी हुई हो, इस तरह की फिल्म को डब करके हम लोगों को दिखा सकते हैं. पर ‘पैन इंडिया’ क्या होता है, मुझे पता नहीं.

आपकी कई गतिविधियां हैं. आप अभिनेता, गायक, निर्माता, एक अस्पताल के निदेशक भी हैं. आपका अपना एनजीओ भी है. इतने अलग अलग कामों को किस तरह से हैंडल करते हैं?

-इस तरह के कामों को करने के लिए मैनें कुछ टीम बना रखी हैं. मेरे पास कई अच्छे लोग हैं. मैं प्रतिभाशाली, अच्छे, इमानदार, लॉयल लोगों की पहचान कर उन्हें अपने साथ जोड़ता हूं. मेरी फिल्म प्रोडक्शन की जो टीम है, वह सभी मेरे दोस्त हैं और इनमें से एक भी फिल्म इंडस्ट्री से नही है. एमबीए कर बिजनेस करने वाले लोग सब कुछ छोड़कर मेरे साथ फिल्मों से जुड़े हैं. दूसरे व्यवसायों में मैं शेअर होल्डर हूं. मैं अति महत्वाकांक्षी इंसान हूं. मुझे बहुत कुछ करने की इच्छा है.

बिजनेस या फिल्म निर्माण से आप धन कमाते हैं. पर सोशल वर्क करके आप क्या कमाते या सीखते हैं?

-देखिए, जब जिंदगी में हमें कोई सफलता मिलती है, तो हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम समाज को अपनी तरफ से कुछ वापस दें. हम अपने प्रोडक्शन हाउस में नए लोगों को काम करने का अवसर देकर भी अपरोक्ष रूप से समाज को कुछ देता ही हूं. मैं अपनी चैरिटी को लेकर चर्चा करना पसंद नहीं करता. वैसे मेरे परिवार में मेरे पिता जी, मेरी बहन व भाई सभी लोग चैरिटी करते हैं, पर कोई इसकी चर्चा नहीं करता. मैं खुद जरुरतमंद को ढूढ़ने नही जाता. मगर जब लोग अपनी जरुरत के लिए संपर्क करते हैं, तो मैं उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करता हूं.

10 वर्ष के कैरियर में आपके द्वारा निभाए गए किरदारों में से किसी किरदार ने आपकी जिंदगी पर कोई असर किया?

-जी हॉ! अक्सर ऐसा हुआ है. जब भी हम कोई इंटेंस संजीदा किरदार निभाते हैं, तो मेरा व किरदार की सोच या जजमेंट अलग होता है. कई बार किरदार निभाते हुए हमें लगता है कि मैं ऐसा कभी नहीं करुंगा, पर यह किरदार तो करेगा. तो मुझे इसके मन व दिमाग से सोचना पड़ेगा. ऐसे किरदार को निभाते समय एक्शन व कट के बाद भी कुछ समय तक उसका असर हमारी जिंदगी पर रहता है. जब हम अपनी निजी जिंदगी केा भूलकर किरदार में बहुत ज्यादा इंवालब हो जाते हैं, तब भी किरदार का मूड़ हमारे साथ ही रह जाता है.

 

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