दलितों की बदहाली

सुप्रीम कोर्ट भी किस तरह दलितों को जलील करता है इस के उदाहरण उस के फैसलों में मिल जाएंगे. देशभर में दलितों को बारबार एहसास दिलाया जाता है कि संविधान में उन्हें बहुत सी छूट दी हैं पर यह कृपा है और उस के लिए उन्हें हर समय नाक रगड़ते रहनी पड़ेगी. महाराष्ट्र म्यूनिसिपल टाउनशिप ऐक्ट में यह हुक्म दिया गया है कि अगर दलित या पिछड़ा चुनाव लड़ेगा तो उस को अपनी जाति का सर्टिफिकेट नौमिनेशन के समय या चुने जाने के 6 महीने में देना होगा.

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यह अपनेआप में उसी तरह का कानून है जैसा एक जमाने में दलितों को घंटी बांध कर घूमने के लिए बना था ताकि वे ऊंची जातियों को दूर से बता सकें कि वे आ रहे हैं. यह वैसा ही है जैसा केरल की नीची जाति की नाडार औरतों के लिए था कि वे अपने स्तन ढक नहीं सकतीं ताकि पता चल सके कि वे दलित अछूत हैं. दोनों मामलों में इन लोगों से जीभर के काम लिया जा सकता था पर दूरदूर रख कर.

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कानून यह भी कहता है कि हर समय अपना जाति प्रमाणपत्र रखो. क्यों? ब्राह्मणों को तो हर समय या कभी भी अपना जाति सर्टिफिकेट नहीं चाहिए होता तो पिछड़े दलित ही क्यों लगाएं? क्यों वे कलक्टर, तहसीलदार से अपना सर्टिफिकेट बनवाएं? उन्होंने किसी आरक्षित सीट के लिए कह दिया कि वे पिछड़े या दलित हैं तो मान लिया जाए. आज 150 साल की अंगरेजी पढ़ाई, बराबरी के नारों के बावजूद भी क्यों जाति का सवाल उठ रहा है? क्या पढ़ेलिखे विद्वानों के लिए 150 साल का समय कम था कि वे जाति का सवाल ही नहीं मिटा सकते थे? जब हम मुगलों और ब्रिटिशों के राज से छुटकारा पा सकते थे तो क्या दलित पिछड़े के तमगों से नहीं निकल सकते थे?

यहां तो उलट हो रहा है. शंकर देवरे पाटिल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को सही ठहराया है जिस ने यह जबरन कानून थोप रखा है कि आरक्षित सीट पर खड़े होना है तो सर्टिफिकेट लाओ. यह अपमानजनक है. यह दलितों, पिछड़ों को एहसास दिलाने के लिए है कि वे निचले, गंदे, पैरों की धूल हैं. यह बराबरी के सिद्धांत के खिलाफ है.

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दलितों और पिछड़ों को जो भी छूट मिले उन्हें बिना किसी प्रमाणपत्र लटकाए मिलनी चाहिए. अगर ऊंची जाति का कोई उस का गलत फायदा उठाए तो उस के लिए सजा हो, दलित पिछड़े के लिए नहीं. वैसे भी ऊंची जाति का कोई दलित पिछड़े को दोस्त तक नहीं बनाता, वह उन की जगह कैसे लेगा? ऊंची जातियों का आतंक इतना है कि नीची जाति वाले तो हर समय चेहरे पर ही वैसे ही अपने सर्टिफिकेट गले में लटकाए फिरते हैं. नरेंद्र मोदी कहते रहें कि हिंदू आतंकवादी नहीं हैं पर लठैतों के सहारे दलितों और पिछड़ों पर जो हिंदू आतंक 150 साल में नई हवा के बावजूद भी बंद नहीं हुआ, वह सुप्रीम कोर्ट की भी मोहर इसी आतंकवाद की वजह से पा जाता है.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

हमारे देश में ही नहीं, लगभग सभी देशों में गरीब, मोहताज, कमजोर पीढ़ी दर पीढ़ी जुल्मों के शिकार रहे हैं. इसकी असली वजह दमदारों के हथियार नहीं, गरीबों की शिक्षा और मुंह खोलने की कमजोरी रही है. धर्म के नाम पर शिक्षा को कुछ की बपौती माना गया है और उसी धर्म देश के सहारे राजाओं ने अपनी जनता को पढ़ने-लिखने नहीं दिया. समाज का वही अंग पीढ़ी दर पीढ़ी राज करता रहा जो पढ़-लिख और बोल सका.

2019 के चुनाव में भी यही दिख रहा है. पहले बोलने या कहने के साधन बस समाचारपत्र या टीवी थे. समाचारपत्र धन्ना सेठों के हैं और टीवी कुछ साल पहले तक सरकारी था. इन दोनों को गरीबों से कोई मतलब नहीं था. अब डिजिटल मीडिया आ गया है, पर स्मार्टफोन, डेटा, वीडियो बनाना, अपलोड करना खासा तकनीकी काम है जिस में पैसा और समय दोनों लगते हैं जो गरीबों के पास नहीं हैं.

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गरीबों की आवाज 2019 के चुनावों में भी दब कर रह गई है. विपक्ष ने तो कोशिश की है पर सरकार ने लगातार राष्ट्रवाद, देश की सुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनता को बहकाने की कोशिश की है ताकि गरीबों की आवाज को जगह ही न मिले. सरकार से डरे हुए या सरकारी पक्ष के जातिवादी रुख से सहमत मीडिया के सभी अंग कमोबेश एक ही बात कह रहे हैं, गरीब को गरीब, अनजान, बीमार चुप रहने दो.

चूंकि सोशल, इलैक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया पढ़ेलिखों के हाथों में है, उन्हीं का शोर सुनाई दे रहा है. आरक्षण पाने के बाद भी सदियों तक जुल्म सहने वाले भी शिक्षित बनने के बाद भी आज भी मुंह खोलने से डरते हैं कि कहीं वह शिक्षित ऊंचा समाज जिस का वे हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे हैं उन का तिरस्कार न कर दे. कन्हैया कुमार जैसे अपवाद हैं. उन को भीड़ मिल रही है पर उन जैसे और जमा नहीं हो रहे. 15-20 साल बाद कन्हैया कुमार क्या होंगे कोई नहीं कह सकता क्योंकि रामविलास पासवान जैसों को देख कर आज कोई नहीं कह सकता कि उन के पुरखों के साथ क्या हुआ. रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती, मीरा कुमार जैसे पढ़लिख कर व पैसा पा कर अपने समाज से कट गए हैं.

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2019 के चुनावों के दौरान राहुल गांधी गरीबों की बात करते नजर आए पर वोट की खातिर या दिल से, कहा नहीं जा सकता. पिछड़ों, दलितों ने उन की बातों पर अपनी हामी की मोहर लगाई, दिख नहीं रहा. दलितों से जो व्यवहार पिछले 5 सालों में हुआ उस पर दलितों की चुप्पी साफ करती है कि यह समाज अभी गरीबी के दलदल से नहीं निकल पाएगा. हां, सरकार बदलवा दे यह ताकत आज उस में है पर सिर्फ उस से उस का कल नहीं सुधरेगा. उसे तो पढ़ना और कहना दोनों सीखना होगा. आज ही सीखना होगा. पैन ही डंडे का जवाब है.

मोदी की नैय्या

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

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आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

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नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

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नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिए पर

औरतों को राजनीति में हिस्सेदारी देने की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं. ममता बनर्जी ने 2019 के चुनावों में 40% सीटें औरतों को दी हैं. राहुल गांधी ने वादा किया है कि अगर जीते तो लोकसभा में विधानसभाओं में एक तिहाई सीटों पर औरतों का आरक्षण होगा. 2014 के चुनावों में बड़ी पार्टियों के 1,591 उम्मीदवारों में सिर्फ 146 औरतें थीं. लोकसभा हो या विधानसभाएं औरतें इक्कादुक्का ही दिखती हैं. वैसे यह कोई चिंता की बात नहीं है.

राजनीति कोई ऐसा सोने का पिटारा नहीं कि औरतें उसे घर ले जा कर कुछ नया कर सकती हैं. राजनीति, राजनीति है और आदमी हो या औरत, फैसले तो उसी तरह के होते हैं. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री सरीखी रहीं पर देश में कोई क्रांति उन की वजह से आई हो यह दावा करना गलत होगा.

मायावती से दलितों व औरतों का उद्धार नहीं हुआ और ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल को औरत की स्वर्णपुरी नहीं बना डाला. जैसे बच्चों या बूढ़ों की गिनती राजनीति में नहीं होती वैसे ही अगर औरतों की भी न हो तो कोई आसमान नहीं टूटेगा. जरूरत इस बात की है कि सरकारी फैसले औरतों के हित में हों जो पुरुष भी उसी तरह कर सकते हैं जैसे औरतें कर सकती हैं.

औरतों के राजनीति में प्रवेश पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए और वह है भी नहीं. औरतों को वोट देने का हक भी है. वे अगर हल्ला मचाती हैं तो सरकारी निर्णयों में उस की छाप देखी जा सकती है. कमी तो इस बात की है कि औरतों को समाज में वह बराबर का स्थान नहीं मिल रहा है जिस की वे हकदार हैं और जिसे वे पा सकती हैं. इस में रोड़ा धर्म है. धर्म ने औरतों को चतुराई से पटा रखा है. उन्हें तरह-तरह के धार्मिक कार्यों में उलझाया रखा जाता है.

राजनीति तो क्या घरेलू नीति में भी उन का स्थान धर्म ने दीगर कर दिया है. धर्म उपदेशों में औरतों को नीचा दिखाया गया है. चाहे कोई भी धर्म हो धार्मिक व्याख्यान आदमी ही करते फिरते हैं. हर धर्म की किताबें औरतों की निंदाओं से भरी हैं और उस की पोल खोलने की हिम्मत राजनीति में कूदी औरतों तक में नहीं है.

अगर औरतों को काम की जगह, घरों में, बाजारों में, अदालतों में सही स्थान मिलना शुरू हो जाए तो राजनीति में वे हों या न हों कोई फर्क नहीं पड़ता. उन की सांसदों में चाहे जितनी गिनती हो पर अगर उन्हें फैसले आदमियों के बीच रह कर उन के हितों को देखते हुए लेने हैं तो उन की 40 या 50% मौजूदगी भी कोई असर नहीं डालेगी. औरतों की राजनीति में भागीदारी असल में एक शिगूफा या जुमला है जिसे बोल कर वोटरों को भरमाने की कोशिश की जाती है.

अगर राजनीति में औरतों की भरमार हो भी गई तो भी भारत जैसे देश में तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जहां धर्म व सामाजिक रीतिरिवाजों के सहारे उन्हें आज भी पुराने तरीकों से घेर रखा है. बाल कटी, पैंट पहने, स्कूटी पर फर्राटे से जाती लड़की को भी आज चुन्नी से अपना चेहरा बांध कर चलना पड़ रहा है ताकि कोई छेड़े नहीं. आज भी लड़की अपनी पसंद के लड़के के साथ घूमफिर नहीं सकती, शादी तो बहुत दूर की बात है.

औरतों की राजनीति में मौजूदगी के बावजूद अरसे से इस सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था को तोड़ने का कोई नियम नहीं बना है. औरतें तो केवल खिलवाड़ की चीज बन कर रह गई हैं. संसद व विधानसभाओं में पहुंच कर वे औरतों की तरह का नहीं सासों और पंडितानियों का सा व्यवहार नहीं करेंगी, इस की कोई गारंटी दे सकता है क्या? कानून से नहीं समझदारी से काम लें.

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में तय किया है कि रिवाजों के अनुसार हुए तलाक के बाद भी कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता. एक तरह से अदालत ने यह तो मान लिया कि जिन समुदायों के अपने रिवाजों में तलाक को मान्यता है, वह ठीक है पर फिर भी दूसरी शादी करने का हक किसी को नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह तय नहीं किया है कि जब मियां-बीवी में नाराजी तो क्या करेगा काजी?

विवाह एक आदमी और एक औरत का निजी मामला है और समाज या सरकार का इस से कोई लेनादेना नहीं होना चाहिए. दुनियाभर में विवाह तो आप अपनी मरजी से जब चाहो कर लो पर तलाक लेते समय आफत खड़ी हो जाती है. तलाक की वजह चाहे जो भी हो, अदालत का दखल असल में बेबुनियाद है. यह ठीक है कि हर शादी का असर कइयों पर पड़ता है पर ये कई पति और पत्नी के अपने निजी लोग होते हैं. बच्चों के अलावा विवाह से किसी का मतलब नहीं होता. जहां बच्चों के बावजूद पति और पत्नी में मनमुटाव हो जाए वहां अदालतों का दखल एकदम जबरन थोपा कानून है. यह दुनियाभर में चल रहा है और हर जगह गलत है.

कानून असल में बच्चों को भी न सुरक्षा देता है, न प्यार. यह संभव है कि पतिपत्नी में से कोई एक या दोनों बच्चों को बेसहारा छोड़ दें. अदालतों का काम उस समय केवल इतना होना चाहिए कि छोड़े गए बच्चों के बड़े होने तक उन्हें पति व पत्नी की कमाई में से पर्याप्त हिस्सा मिले. पति या पत्नी अलग हो कर दूसरा विवाह करे या न करे यह उस पर निर्भर है. वे अपनीअपनी संपत्ति का क्या करते हैं, यह भी उन की इच्छा है. पति अगर पत्नी को फटेहाल छोड़ जाए तो यह भी काम अदालतों का नहीं कि वे पति की संपत्ति में से हिस्सा दिलवाएं. यह हिस्सा पत्नी को पहले ही अपने नाम करा लेना चाहिए. पतिपत्नी का संबंध पूरी तरह स्वैच्छिक ही होना चाहिए.

हां, समाज का काम है कि वह पत्नी को समझाए कि विवाह का अर्थ है पति के साथ बराबर की साझेदारी. कानून से नहीं समझदारी से पत्नी को पति से पहले दिन से साझेदारी शुरू कर देनी चाहिए. अपना बचत खाता हो, मकान हो तो अपने, उस के नाम हो. 2 मकान हों तो दोनों अपना-अपना रखें. पति के वेतन में से पत्नी अपना हिस्सा पहले ही दिन से लेना शुरू कर दे. जैसे विवाह के समय दहेज की परंपरा है, उपहार देने की परंपरा है, मुंह-दिखाई जैसी परंपराएं हैं वैसी ही संपत्ति के बंटवारे की परंपराएं हों ताकि वकीलों और अदालतों के चक्कर ही न लगें.

जब तक दोनों में प्यार है, तेरा-मेरा नहीं हमारा है, जब तकरार हो गई तो तेरा तेरा है और मेरा मेरा. बस बच्चों के बारे में फैसला न हो तो उन के नाना, दादा, मामा को हक हो कि वे अदालत का दरवाजा खटखटा कर पतिपत्नी में से जिस के पास ज्यादा पैसा हो उसे पैसे देने और बच्चों को पालने को बाध्य किया जा सके.

आज विवाह करना भी धंधा बन गया है और विवाह तोड़ना भी. इसे समाप्त करें. उस का लालच उसे ले डूबा देशभर में मकानों की कीमतें बढ़ने और उन के मालिकों की उम्र बढ़ने के कारण मालिकों के बच्चों में एक फ्रस्ट्रेशन पैदा होने लगी है. पहले जब मातापिता की मृत्यु 45 से 60 के बीच हो जाती थी, 30-35 तक बच्चों को मिल्कियत मिल जाती थी पर अब यह ट्रांसफर अब मातापिता जब 70-80 के हो जाते हैं तब हो रहा है और तब तक बच्चे 50-55 के हो चुके होते हैं. इसीलिए शायद दिल्ली में एक 25 वर्षीय तलाकशुदा महिला ने अपने प्रेमियों की सहायता से माता-पिता दोनों को मार डाला ताकि 50 लाख का मकान हाथ में आ जाए.

अब चूंकि वह पकड़ ली गई है उसे पूरी जिंदगी जेल में बितानी होगी और 50 लाख का मकान खंडहर हो जाएगा जिस पर लाखों का म्यूनिसिपल टैक्स चढ़ जाएगा. जब तक वह महिला बाहर निकलेगी तब तक वह टूट चुकी होगी और मकान भी टूट चुका होगा. असल में जरा से निकम्मे बच्चे अब अपना धैर्य खो रहे हैं. अगर मातापिता अपने कमाए पैसे पर बैठते हैं तो सही करते हैं. उन्होंने जो भी कमाया होता है अपनी मेहनत से, अपना पेट काट कर या विरासत में माता-पिता के मरने के बाद पाया होता है.

अगर वे बच्चों को अपने मरने से पहले पैसा खत्म करने देंगे तो खुद तिल-तिल कर मरेंगे. बुढ़ापे में कई बीमारियां होती हैं, वकीलों के खर्च होते हैं, लोग छोटी-मोटी लूट मचाते रहते हैं. बच्चों की नाराजगी सहना ज्यादा अच्छा बजाय उन के आज के सुखों के लिए अपना भविष्य गिरवी रखने के. जो बच्चे कमाने लगते हैं वे तो माता-पिता की संपत्ति पर नजर नहीं रखते पर जिन्हें एक के बाद एक असफलता हाथ लगती है वे अगर नाराज भी हो जाएं तो भी चिंता नहीं करनी चाहिए.

पिछले दशकों में संपत्ति के जो अंधाधुंध दाम बढ़े हैं उन से बच्चों को लगने लगा है कि बूढ़ों के पास बहुत पैसा आ गया है पर वे यह भूल जाते हैं कि यही पैसा जीवन में सुरक्षा देता है, ठहराव पहुंचाता है. दिल्ली के पश्चिम विहार की देवेंद्र कौर की जल्दबाजी उसे ले डूबेगी.

 

हम तो सच ही बोलेंगे…

किरण मजूमदार शा बायोकौन कंपनी की मैनेजिंग डायरेक्टर और जानी मानी हस्ती हैं जिन की कही बात दूर तक जाती है और शायद इसीलिए उन्होंने ट्विटर पर अपना अकाउंट बना लिया, जिसे 14 लाख लोग फौलो करते हैं. अपनी सही बात बहुतों तक पहुंचे, इसीलिए उन्होंने नरेंद्र मोदी की ट्रेन-18 जो दिल्ली से उन की संसदीय सीट वाराणसी के बीच चलनी शुरू हुई है और यह दावा किया जा रहा है कि 180 किलोमीटर की स्पीड पर चल रही है, पर एक सादा सा कमैंट कर दिया.

असल में पुलवामा की घटना के दिन ही नरेंद्र मोदी ने इस ट्रेन का उद्घाटन किया था पर यह अगले ही दिन लौटते हुए रास्ते में खराब हो गई. इस पर किरण मजूमदार शा ने पूरी साफगोई के साथ कह डाला कि यह सरकारी इंटैग्रल कोच फैक्टरी की कार्यकुशलता का नमूना है.

बस इतना कहना था कि उन पर सैकड़ों मोदी भक्त बरस पड़े. किसी ने कहा कि किरण शा कांग्रेस से राज्यसभा सीट चाहती हैं, किसी ने उन्हें विजय माल्या सा घोषित कर दिया, तो किसी ने उन्हें शेमलैस कहा, कुछ ने उन की कंपनी बायोकौन को घसीटना शुरू कर दिया, किसी ने उन्हें मानसिक बीमार घोषित कर दिया.

बेचारी किरण शा अपनी सफाई देतेदेते थकने लगीं और अंत में उन्होंने एक नए ट्वीट में माफी भी मांगी पर भगवाई ट्रोलों ने उन्हें फिर भी नहीं छोड़ा और उन के खेद पर और ज्यादा जोर से हमला जारी रखा. उन्हें अरबन नक्सल कहा गया और सलाह दी गई कि अपने काम से काम रखें.

असल में यह आलोचना हुई इसलिए कि यह ट्रेन नरेंद्र मोदी के नाम के साथ जुड़ी है और दूसरों को मांबहन की भद्दी गालियां देने वाले अपने आराध्य से जुड़ी किसी भी बात पर भड़क उठते हैं. वे जानते हैं कि सच को छिपाने का सब से अच्छा तरीका है कि सच बोलने वाले को डांटो, गालियां दो, उस का इतिहास खोलो.

दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं यह अकसर झेलती हैं जब वे लोगों के भ्रम तोड़ कर उन्हें सच की तसवीर दिखाने की कोशिश करती हैं पर चूंकि पत्रिकाओं का प्लेटफौर्म ट्विटर की तरह का नहीं है, गालियां पत्रों, फोन वालों तक सीमित रहती हैं और एक गाली देने वाले के साथ दूसरे गाली देने वाले जुड़ नहीं पाते.

किरण मजूमदार शा को समझना चाहिए कि ट्विटर जैसा प्लेटफौर्म लोकतांत्रिक नहीं है. यहां बहस नहीं होती. यहां गालियां दी जाती हैं और एक पूरा वर्ग गालियां देने में ऐक्सपर्ट हो गया है. यहां झूठ का जम कर प्रचार होता है और अगर अपना उल्लू सीधा करने वालों को जरूरत हो तो सैकड़ोंहजारों रीट्वीट एक झूठ के होते हैं और सच बालने वालों की बात दब कर रह जाती है.

लोकतंत्र में हरेक को कहने की छूट है पर यह छूट लोकतंत्र को बल तब ही देती है जब सत्य कहने पर भीड़ न टूटे. हमारा लोकतंत्र और हमारी विचारों की स्वतंत्रता आज उन के हाथों में गिरवी रखी जा चुकी है, जो किसी भी तरह सच को छिपा कर पाखंड और झूठ के सहारे उस समाज को थोपना चाहते हैं, जिस में अंधविश्वास, पूजापाठ, तंत्रमंत्र, अज्ञान, कुतर्क, गंद, गरीबी, वर्णव्यवस्था का भेद, औरतों को पैर की जूती, विधवाओं का सिर मुंडाना, गोत्रों के हिसाब से विवाह आदि कानूनन थोपे जा सकें. किरण मजूमदार शा जैसे साफ शब्दों में सही बात कहने वालों को अंधभक्तों का आक्रमण तो सहना ही होगा.

किरण मजूमदार शा को सलाह तो यही है कि ऐसा प्लेटफौर्म जो बकवास को फिल्टर न कर सके, उन की उपस्थिति के लायक ही नहीं है. उन्हें ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप आदि छोड़ देने चाहिए और कुछ कहना हो तो समाचारपत्रों और पत्रिकाओं का सहारा लेना चाहिए जहां जिम्मेदार संपादक बैठे होते हैं.

आज की नैतिकता पुरानी नैतिकता से अच्छी

जब से हिंदू कानून में 1956 और 2005 में बदलाव आया है और बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलने लगा है, तब से भाईबहनों के विवाद बढ़ रहे हैं. 1956 में तो खास परिवर्तन नहीं हुआ था पर तब भी संयुक्त परिवार की संपत्ति में एक जने के अपने हिस्से में से बेटोंबेटियों को बराबर का हिस्सा देने का कानून बना था. 2005 में संयुक्त परिवार में बेटेबेटियों को बराबर का साझीदार कानून घोषित कर दिया गया था.

जो लोग समझते हैं कि इस से भाईबहनों के प्रेम की हिंदू समाज की परंपरा को नुकसान पहुंचा है वे यह नहीं जानते कि असल में पौराणिक कहानियों में ही भाईबहनों के विवादों का बढ़ाचढ़ा कर उल्लेख है और ये कहानियां सिरमाथे पर रखी जाती हैं.

महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक भीम का विवाह हिडिंबा से तब हुआ जब भीम ने हिडिंबा के भाई को मार डाला था. असुर राजा ने अपनी बहन हिडिंबा को अपने इलाके में घुस आए पांडवों को मारने के लिए भेजा था पर हिडिंबा भीम पर आसक्त हो गई और उस के उकसाने पर भीम ने उस के भाई को ही मार डाला.

बाद में हिडिंबा ने भीम से विवाह कर लिया और उन से घटोत्कच नाम का पुत्र हुआ जिस ने कौरवपांडव युद्ध में काफी पराक्रम दिखाया. कहानी में महाभारत का लेखक कहीं भी बहन के भाई के विरुद्ध जाने की आलोचना नहीं करता. वह बहन जिसे भाई ने घुसपैठियों को मारने के लिए भेजा था भाई की प्रिय ही होगी वरना वह क्यों अनजान लोगों को मारने के लिए भेजता? मगर आसक्ति ऐसी चीज है जिस में भाई तक को मरवा डाला जाता है और जिन धर्मग्रंथों का हवाला हमारे पंडे और उन के भक्त नेता देते रहते हैं वे ऐसी अनैतिक गाथाओं से भरे पड़े हैं.

वास्तव में आज की नैतिकता हमारी पुरानी नैतिकता से बहुत अच्छी है. भाईबहनों में अगर विवाद हो रहे हैं तो अब भाईबहन एकदूसरे के सगे साथी भी बन रहे हैं. जहां घरों में केवल 1 भाई और 1 बहन होना सामान्य हो रहा है, वहां भाईबहन एकदूसरे के लिए जान छिड़क रहे हैं.

राहुल गांधी यदि विवाह किए बिना भी आराम से संतुलित जीवन जी पा रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें प्रियंका और उन के बच्चों का साथ मिलता है. 2005 का कानून सोनिया गांधी के कहने पर लाया गया था, हालांकि कांग्रेस आमतौर पर इस का श्रेय हिंदू कट्टरवादियों से डर कर नहीं लेती पर सच यह है कि भारत में समाज सुधार विदेशियों ने किया, हिंदू धर्म का ढिंढोरा पीटने वालों ने नहीं.

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