लौट जाओ अमला: क्यों संध्या से अलग थी वह

सुपर फास्ट नीलांचल ऐक्सप्रैस से मैं दिल्ली आ रहा था. लखनऊ एक सरकारी काम से आया था. वैसे तो मैं उत्तर प्रदेश सरकार का नौकर हूं लेकिन रहता दिल्ली में हूं. दिल्ली स्थित उत्तर प्रदेश राज्य अतिथिगृह में विशेष कार्याधिकारी के पद पर कार्यरत हूं.

इस यात्रा के दौरान मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है. मसलन, लखनऊ में मुझेजिन अधिकारी से मिलना था उन की पत्नी को जानलेवा दिल का दौरा पड़ गया. बेचारी पूरे 3 दिन तक जीवन और मृत्यु के बीच हिचकोले खाती हुई किसी तरह जीवित परिवार वालों के बीच लौट सकी थीं. वे अधिकारी भद्र पुरुष थे. पत्नी की बीमारी से फारिग होते ही उन्होंने पूरे 10 घंटे लगातार परिश्रम कर के मेरी उस योजना को अंतिम रूप प्रदान कर दिया जिस के लिए मैं लखनऊ आया था.

वापसी हेतु ऐन दशहरे के दिन ही मैं ट्रेन पकड़ सका. गाड़ी अपने निर्धारित समय पर लखनऊ से छूटी, लेकिन उन्नाव से पहले सोनिक स्टेशन पर वह अंगद के पांव की तरह अड़ गई. पता चला कि कंप्यूटर द्वारा संचालित सिग्नल व्यवस्था फेल हो गई है.

प्रथम श्रेणी के कूपे में मैं नितांत अकेला था. कानपुर पहुंचने से पहले ही मैं ने अपने थर्मस को नीबूपानी से भर दिया था. लगता था कि आज के दिन मुझेकोई सहयात्री नहीं मिलेगा. एक बार अच्छी तरह पढ़ी हुई पत्रिका को फिर पढ़ते हुए दिल्ली तक की यात्रा पूरी करनी पड़ेगी. वैसे मुझेपूरी उम्मीद थी कि मेरा बेटा कार ले कर मुझेलेने स्टेशन आएगा. मैं ने लखनऊ से ही उसे फोन कर दिया था कि मैं नीलांचल ऐक्सप्रैस से दिल्ली पहुंच रहा हूं.

खैर, सिग्नल पर हरी बत्ती जल चुकी थी और टे्रन ने बहुत हौले से रेंगना प्रारंभ किया ही था कि एक यात्री मेरे कूपे का दरवाजा खटखटाने लगा. मैं ने उठ कर शटर खोला. सामने एक छोटी सी अटैची थामे एक लड़की खड़ी हुई थी. गेहुआं रंग, लंबे, छरहरे बदन तथा सामान्य से कुछ अच्छे नैननक्श वाली इस लड़की को देख कर मुझेबड़ी निराशा हुई. सोचा, कोई आदमी होता तो उस के साथ बतियाते हुए दिल्ली तक का सफर आराम से कट सकता था.

लड़की ने सामने 2 नंबर की बर्थ पर अटैची रखते हुए मुझ से पूछा, ‘‘चाचाजी, अगर इजाजत हो तो मैं कूपे का दरवाजा बंद कर दूं?’’

अब चौंकने की बारी मेरी थी. टे्रन अब तक प्लेटफौर्म छोड़ कर काफी आगे निकल चुकी थी. मुझ में और इस लड़की की आयु में अच्छाखासा अंतर था. लगभग इसी आयु की मेरी बेटी संध्या का विवाह हो चुका था. फिर भी आदमी आदमी ही होता है और औरत औरत. उन के आदिम और मूल रिश्तों पर बिरलों का ही बस चलता है. इस रिश्ते के बाद के अन्य सभी रिश्ते आदमी ने बनाए हैं, लेकिन वह भी…

‘‘यदि आप असुरक्षा न महसूस करें तो कूपे का दरवाजा बंद कर सकती हैं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

लड़की धीरे से बुदबुदाई, ‘सुरक्षा, असुरक्षा वगैरह मैं बहुत पीछे अपने घर छोड़ आई हूं,’ फिर उस ने कूपे का दरवाजा बंद कर दिया तथा अपनी सीट से लगी खिड़की के बाहर झंकने लगी. लड़की मुझेकुछ परेशान, घबराई हुई सी लग रही थी. इस मौसम में कोई पसीना आने जैसी बात न थी, फिर भी वह रूमाल से माथे पर बारबार उभर रही पसीने की बूंदों को पोंछ रही थी.

गोविंदपुरी और पनकी स्टेशन निकल गए. लड़की ने अपना मुख मेरी ओर घुमाया. अब तक उस का पसीना काफी कुछ सूख चुका था.

‘‘चाचाजी, क्या मैं आप के थर्मस से थोड़ा सा पानी ले सकती हूं?’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘उस में पानी नहीं है.’’

‘‘प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा है.’’

‘‘बेटी, इस में सिर्फ नीबूपानी है.’’

‘‘अच्छा, थोड़ा सा दे दीजिए.’’

वह नीबूपानी का एक गिलास गटागट पी गई. 10 मिनट के बाद उस ने फिर थर्मस की ओर देखा. मैं ने उसे 1 गिलास भर कर और दिया, जिसे वह धीरेधीरे पीती रही. अब वह अपेक्षाकृत सामान्य दिखाई देने लगी थी.

‘‘दिल्ली में किस जगह पर जाना है तुम्हें?’’ मैं ने बात करने की गरज से पूछा.

‘‘आप ने कैसे जाना कि मैं दिल्ली जा रही हूं?’’

‘‘बड़ी आसानी से,’’ मैं ने सहजता के साथ उत्तर दिया, ‘‘यह टे्रन कानपुर से चल कर दिल्ली ही रुकती है.’’

‘‘ओह…’’

‘‘लेकिन तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, बेटी?’’

अब उस की ?िझक मिटने लगी थी. उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं मालूम कि मुझेकहां, किस जगह जाना है.’’

‘‘और तुम अकेली सफर कर रही हो.’’

‘‘हां, दिल्ली मैं अपने जीवन में पहली बार जा रही हूं.’’

मुझेलगा कि कहीं कोई न कोई गड़बड़ जरूर है. यह लड़की शायद अपनेआप को किसी बड़े संकट में डालने जा रही है.

‘‘बेटी,’’ मैं ने स्पष्टवादिता से काम लेते हुए पूछा, ‘‘पहले बात को ठीक तरह से सम?ो, फिर जवाब दो. मैं कह रहा था कि यह टे्रन रात को करीब डेढ़ बजे दिल्ली पहुंचेगी और तुम्हें यह तक पता नहीं कि कहां जाओगी, किस के साथ रहोगी.’’

‘‘नई दिल्ली स्टेशन पर राकेश मुझेलेने आएगा.’’

‘‘कौन राकेश?’’

‘‘राकेश मेरा प्रेम, मेरी जिंदगी, मेरा सबकुछ है.’’

‘‘तो तुम अपने घर से भाग कर आ रही हो?’’

फिल्मी संवाद की शैली में उस ने उत्तर दिया, ‘‘आप जो भी, जैसा भी चाहें निष्कर्ष निकाल सकते हैं. लेकिन मैं भाग कर नहीं जा रही हूं. मैं एक नया घर बनाने, एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही हूं.’’

‘‘दिल्ली में नया घर, नई जिंदगी?’’ कुछ रुक कर मैं ने अगला सवाल किया, ‘‘तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘18 वर्ष और कुछ दिन. हाईस्कूल का प्रमाणपत्र है मेरे पास.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम कानूनी कीलकांटे से पूरी तरह से लैस हो कर अपने घर से निकली हो. फिलहाल इस बात को जाने दो. यह बताओ, तुम पढ़ी कहां तक हो?’’

‘‘इंटरमीडिएट, प्रथम श्रेणी, मु?ो

3 विषयों में विशेष योग्यता मिली है.’’

‘‘अरे, तुम्हारे सामने चिकनी सड़क जैसा उज्ज्वल भविष्य फैला हुआ है. फिर तुम यह सब क्या करने जा रही हो?’’

‘‘चाचाजी, मुझेकोई प्यार नहीं करता, न पिताजी और न ही मां. दोनों की अपनी अलग दुनिया है…किटी, पपलू, ब्रिज, क्लब, देर रात तक चलने वाली कौकटेल पार्टियां. मेरे अलावा दोनों को सबकुछ अच्छा लगता है. उन दोनों की एकएक बात मैं अच्छी तरह से जानतीसमझती हूं. लेकिन घटिया बातें अपने मुंह से आप के सामने कहना क्या आसान होगा.

‘‘चाचाजी, घर के नौकरों के साथ मैं ने अपना बचपन बिताया है. मेरे मातापिता या तो घर में होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अपनेअपने शयनकक्ष में सोए पड़े होते हैं. अब मैं कैसे कहूं कि मुझेबचपन में ही खराब, बहुत खराब हो जाना चाहिए था. यह करिश्मा ही है कि मैं आज तक ठीकठाक हूं.’’

अकस्मात मुझेलगा कि चारों तरफ फैलती जा रही शून्यता के बीच मेरी प्यारी बेटी संध्या मुझ से बातें कर रही है.

‘‘बेटी, तुम्हारा नाम जान सकता हूं?’’

‘‘अमला नाम है मेरा.’’

‘‘राकेश को कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे महल्ले का लड़का है. कालेज में मुझ से आगे था. एम ए कर चुका है.’’

‘‘वह करता क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘तो फिर दिल्ली में तुम दोनों खाओगे क्या, रहोगे कहां? मैं तो समझ था कि राकेश दिल्ली में कोई नौकरी करता होगा. उस के पास रहने का अपना कोई ठिकाना होगा.’’

‘‘दिल्ली में हम सिलेसिलाए कपड़ों का व्यवसाय करेंगे. सुना है कि दिल्ली में यदि अच्छे संपर्कसूत्र बन जाएं तो विदेशों में तैयार वस्त्र निर्यात कर के लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं.’’

‘‘ठीक सुना है तुम ने बेटी,’’ मेरा मन भीग चला था, ‘‘जरूर लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं यदि संपर्कसूत्र अच्छा हो जाए तो. लेकिन संपर्कसूत्र का अर्थ जानती हो तुम?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. संपर्कसूत्र बढ़ने का अर्थ है, लोगों से जानपहचान हो जाना.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने कठोरता से कहा, ‘‘कभीकभी इस शब्द के अर्थ बदल भी जाते हैं यानी शून्य अर्जित करने के लिए अपनेआप को अकारण मिटा डालना. एक ऐसी नदी बन जाना जिस का उद्गम तो होता है किंतु कोई सम्मानजनक अंत नहीं होता.’’

गाजियाबाद स्टेशन निकल चुका था. हम दिल्ली के निकट पहुंच रहे थे. मैं बहुत असमंजस की स्थिति में था. मैं अमला से कुछ कहना चाहता था, लेकिन क्या कहना चाहता था, क्यों कहना चाहता था, इस की कोई साफ तसवीर उभर कर मेरे मस्तिष्क में नहीं आ रही थी.

‘‘लेकिन बेटी, व्यापार के लिए धन चाहिए. कितना रुपया होगा तुम लोगों के पास?’’

‘‘राकेश के पास क्या है, एक तरह से कुछ भी नहीं,’’ अमला ने उत्तर दिया, ‘‘वह कह रहा था कि मैं अपनी मां के कुछ जेवर तथा पिताजी की सेफ से व्यापार लायक कुछ रुपए ले चलूं. आखिर बाद में वह सबकुछ मेरा और बड़े भैया का ही तो होगा. कल मिलने वाली चीज को आज ले लेने में क्या हर्ज है.’’

मुझेकुछ और पूछने का अवसर दिए बगैर वह कहती गई, ‘‘लेकिन मैं उन सब से घृणा करती हूं. उन का रुपया, पैसा, जेवर आदि मैं अपने भावी जीवन में कोई भी ऐसी चीज रखना नहीं चाहती जिस में मातापिता की स्मृति जुड़ती हो. मैं अपने साथ जेबखर्च से बचाए हुए 100 रुपयों के अलावा और कुछ ले कर नहीं आई. मैं ने राकेश से साफसाफ कह दिया था कि हम अपना आने वाला जीवन अपने हाथों अपने साधनों से बनाएंगे.’’

‘‘तुम्हारी यह बात क्या राकेश को अच्छी लगी थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘शायद नहीं,’’ उस ने कुछ सोचा, थोड़ा ?िझकी, फिर बोली, ‘‘बल्कि वह जेवर तथा रुपया न लाने की बात पर काफी नाराज भी हुआ था.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, वह दोनों आंखें मूंदे सोचता रहा. फिर मुझ से बोला, ‘अमला, जब तुम साथ हो तो सब कुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा.’’’

‘‘कैसे ठीक हो जाएगा, तुम ने उस से साफसाफ पूछा नहीं. कहानी, उपन्यास तथा फिल्मों में सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाता है, लेकिन वास्तविक जीवन में आदमी को अपने विवेक व अपने श्रम से सबकुछ ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘आप समझते क्यों नहीं,’’ फिर कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मुझेउस पर पूरा विश्वास है.’’

‘‘फिर भी बेटी, मैं ने आज तक अविश्वासघात होते नहीं देखा. जब भी घात हुआ विश्वास के साथ ही हुआ है. और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ कुछ ऐसा हो.’’

टे्रन यमुना के पुल से गुजर रही थी. हमारे पास समय बहुत कम बचा था. रात के 1 बज कर 35 मिनट हो चुके थे.

मैं ने हिम्मत बटोर कर अमला से पूछा, ‘‘बेटी, मुझ पर भरोसा रख कर क्या मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘हांहां, कहिए?’’

‘‘आज रात तुम मेरे घर चलो. तुम्हारे राकेश को भी हम अपने साथ ले चलेंगे.’’

‘‘मगर?’’

‘‘अगरमगर मत करो, हां कह दो. आगे बढ़ कर हम लौट नहीं सकते परंतु तुम जहां हो, वहीं रुक जाओ. वहां तुम अपनी चाची के साथ सोना…’’

न जाने किस प्रेरणा से अमला मेरी बेटी संध्या की तरह मेरे प्रति आज्ञाकारिणी हो गई. बोली, ‘‘ठीक है, जब आप इतनी जिद कर रहे हैं तो आप की बात मान ही लेती हूं.’’

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकासद्वार पर राकेश अपने दोस्तों के साथ खड़ा था. लंबेतगड़े, छोटीछोटी खसखसी दाढ़ी तथा बारीक तराशे बालों वाले राकेश के दोस्त मुझेअजीब लगे. राकेश ने मुझेअनदेखा करते हुए कहा, ‘‘अमला, चलो टैक्सी में बैठो. हम होटल चलते हैं. पहले ही काफी देर हो चुकी है.’’

राकेश को अपना परिचयपत्र थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘अमला मेरे साथ जा रही है. कल तुम मेरे घर आना. बाकी की बातें वहीं करेंगे.’’

तीनों दाढ़ी वाले सफेदपोश मेरा रास्ता रोक कर लाललाल आंखों से मुझेघूर रहे थे. इसी बीच मेरा बेटा आ पहुंचा था. उन तीनों में से एक मुझ से बोला, ‘‘यह लड़की लखनऊ से दिल्ली आप के मकान में सोने के लिए नहीं आई है.’’

उन तीनों को देख कर अमला के होश उड़ते दिखाई दे रहे थे. वह दृढ़तापूर्वक बोली, ‘‘राकेश, मैं चाचाजी के घर ही रहूंगी. तुम कल मुझ से इन के यहां ही मिलना.’’

मुझेलगा कि कुछ दंगाफसाद होने वाला है और मेरा बेटा इस सब के लिए अपनेआप को तैयार कर रहा है. इसी बीच भागते हुए 2 सिपाही हमारे पास आए. मुझेकुछ कहने का अवसर दिए बिना अमला ने उन सिपाहियों से कहा, ‘‘कृपया हमें हमारे घर पहुंचने में मदद कीजिए. मैं नहीं जानती कि ये लोग कौन हैं और क्यों मेरा रास्ता रोक रहे हैं.’’

मैं ने भी उन्हें अपना परिचय दिया. वे हमें हमारी कार तक पहुंचा गए. न जाने क्यों राकेश इस दौरान मौन रहा.

अगले दिन राकेश के दोस्तों के धमकीभरे फोन आने के बाद अमला को पूरी तरह एहसास हुआ कि वह अजगरों के मुंह में जाने से बालबाल बची है.

बाकी का काम मेरी पत्नी ने किया. उस ने अमला से कहा, ‘‘मेरी मुन्नी, आदमी का दुख दीपक की तरह होता है. वह खुद अपनेआप को पलपल जला कर दूसरों को प्रकाश देता रहता है. लौट जाओ अपने घर. स्वयं जल कर अपने घर को अपनी ज्योति से आलोकित कर दो.’’

‘‘लेकिन चाचीजी, मैं कैसे, किस मुंह से वापस जाऊं.’’

‘‘तुम्हारी वापसी, यानी कि पूरे मानसम्मान के साथ वापसी, हमारा काम है. जैसे भी हो, इसे हम करेंगे,’’ मेरी पत्नी उस की पीठ सहलाते हुए बोली, ‘‘जीना, जीते रहना जिंदगी की शर्त है. जब साथ चलने वाला कोई न मिले तो वीरानगी को अपना हमसफर बना लो. मेरी बेटी, तुम मंजिल तक जरूर पहुंच जाओगी.’’

अमला को मैं 4 दिनों बाद उस के घर वापस पहुंचा आया. उस के मातापिता को मैं ने टैलीफोन से पहले ही सबकुछ समझ दिया था.

पिछले 5 साल से उस के पत्र मेरे तथा मेरी पत्नी के नाम आते रहते हैं. अभी कल ही उस का पत्र मेरी पत्नी के पास आया है, ‘चाचीजी, मैं केंद्रीय सचिवालय की सेवाओं हेतु चुन ली गई हूं. जब तक कोई दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, मैं आप लोगों के साथ ही रहूंगी.’

मेरी पत्नी मुसकरा कर मुझ से कहती है, ‘‘अब तक एक थी, अब हुक्म बजाने वाली एक और ?हो गई. चलूं, कमरा ठीक करूं. आखिर हुक्म तो हुक्म ही है.’’

तलाक: ज़ाहिरा को शादाब ने क्यों छोड़ दिया?

आजवे फिर सामने थीं, चेहरे पर वही लावण्य, वही स्निगधता लिए मुसकरा कर बातें कर रही थीं. माथे पर बिलकुल छोटी सी बिंदी, करीने से पहनी हलके रंग की कौटन की साड़ी में वे सादगी की प्रतिमूर्ति नजर आ रही थीं. वे शहर की जानीमानी शख्सियत हैं, बड़ेबड़े अखबारों और पत्रपत्रिकाओं में स्त्रीपुरुष के संबंधों की जटिलता पर लेख लिखती हैं, काउंसलिंग भी करती हैं.

न जाने कितने ही संबंधों को टूटने से बचाया है उन्होंने- वर्तमान में मनोविज्ञान विशेषज्ञा के तौर पर विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दे रही हैं.

डा. रोली. यही छोटा सा नाम है उन का, लेकिन उन की शख्सियत किसी परिचय की मुहताज नहीं.

कुछ कार्यवश मुझे उन से मिलना था. फोन पर मैं ने अपना परिचय दिया तो कुछ क्षणों बाद ही वे मुझे पहचान गईं और अगले दिन दोपहर 1 बजे मिलने का समय दिया. मैं ठीक समय पर पहुंच गई. उन्हें काउंसलिंग में व्यस्त देख मैं चैंबर के बाहर ही रखी कुरसी पर बैठ गई.

उन से मेरा पहला परिचय तब हुआ था जब मैं महज 17-18 वर्ष की रही होऊंगी. एक करीबी रिश्तेदारी में विवाह था. दिसंबर की सर्दियों की अर्धरात्रि पश्चात फेरे चल रहे थे. मंडप के चारों ओर गद्देरजाइयों की व्यवस्था थी. हम सभी रजाई ओढ़े फेरे देख रहे थे. तभी एक महिला रिश्तेदार भीतर से आईं और मेरे साथ बैठी युवती से मुखातिब हुईं, तो उन की धीमी खुसफुसाहट ने मेरा ध्यान सहज आकर्षित कर लिया.

‘‘कैसी हो रोली, पूरा जनमासा छान आई, तुम यहां बैठी हो?’’

‘‘ठीक ही हूं भाभीजी, कट रही है, आइए बैठिए न,’’ उस ने धीरे से खिसक कर जगह बनाते हुए कहा.

‘‘तुम से कब से अकेले में बात करने की सोच रही थी, पर इस शादी की भीड़भाड़ में मौका ही नहीं मिला.’’

‘‘जी, कहिए, यहां तो लोग भी गिनेचुने

ही हैं. उन में से भी कुछ फेरे देखने में मगन हैं

तो कुछ ऊंघ रहे हैं,’’ कहते हुए उस ने चारों

ओर नजर दौड़ाई, तो मैं ने झट से मुंह रजाई से ढक लिया.

‘‘तुम्हारी शादी का क्या हुआ फिर, उन लोगों से कोई बात हुई? बहुत बुरा लगा सुन कर?’’ रिश्तेदार महिला ने कुरेदना शुरू किया.

‘‘क्या होना है भाभीजी, सब खत्म हो गया. तलाक मिल गया कुछ महीने पहले ही.’’

‘‘और इतना दहेज जो दिया था तुम्हारे पापा ने वह वापस लिया?

‘‘यहां जिंदगी खराब हो गई, आप दहेज की बात कर रही हैं, क्या करूंगी दहेज के सामान का? थाने में ही पड़ा है.’’

‘‘तुम खुल कर तो बताओ, ऐसे ऐबी तो न दिखता था लड़का.’’

युवती के मुंह से आह निकल गई, ‘‘ऐब भी होता तो मैं बरदाश्त कर लेती भाभीजी… क्या बताऊं समझ नहीं आता.’’

‘‘जब तक बताओगी नहीं, लोग कुछ न कुछ बोलते ही रहेंगे, सचाई तो पता चलनी ही चाहिए.’’

यह खुसफुसर मेरे कानों तक भी

स्पष्ट पहुंच रही थी. न चाहते हुए भी मेरा ध्यान अनायास ही उन पर केंद्रित हो गया… वह युवती 23-24 साल की गेंहुए रंगत वाली, लंबी, आकर्षक देहयष्टि की स्वामिनी थी. घनी केशराशि को जूड़े में कैद कर रखा था. सलीके से पहनी गई सादी साड़ी में भी बेहद सुंदर लग रही थी. विवाह वाले घर में वह जब से आई थी, सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी.

उस के सलोने से चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखों में काजल के बजाय गहन उदासी की स्याही थी.

‘‘भाभीजी, आप तो जानती हैं कितनी धूमधाम से शादी हुई थी मेरी, लाखों खर्च कर दिए मेरे पापा ने. सरकारी नौकरी वाला दामाद पा कर घर में सब इतने खुश थे कि किसी ने भी गहराई से तहकीकात करने की जरूरत नहीं समझ, वहां से भी चट मंगनी, पट ब्याह का दबाव था.’’

‘‘लड़के का कोई चक्कर?’’

‘‘नहींनहीं, चक्करवक्कर कुछ नहीं.’’

‘‘तो फिर? ऐसा क्या हुआ कि इधर शादी उधर तलाक की नौबत आ गई?’’

‘‘छोडि़ए न भाभीजी, क्या करेंगी जान कर, जो होना था हो गया.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी मुझ से कह रही थीं तुम्हारे लिए कोई अच्छा लड़का बताने को… अब देखो लोग तो तरहतरह की बातें करते हैं, इसलिए

सोचा तुम से ही पूछ लूं सचाई… क्या हुआ था… बता न?’’

‘‘कोई जरूरत नहीं कोई लड़कावड़का ढूंढ़ने की… मैं जिस हाल में हूं ठीक हूं.’’

‘‘चलो ठीक है, पर कारण तो बताओ… तुम्हारी मम्मी तो कह रही थीं बहुत घटिया निकले तुम्हारी ससुराल वाले, दहेज के लिए प्रताडि़त करते थे लाखों का दहेज देने के बाद भी… रोज मारपीट तक…’’

‘‘ऐसा कुछ भी नहीं था, मेरी ससुराल वाले मेरा बहुत खयाल रखते थे.’’

‘‘तो तुम्हीं बता दो, क्या वजह रही… पहले भी तो हर बात मुझे बताती थी न? अब क्या मैं इतनी पराई हो गई?’’

वह समझ गई कि इस प्रश्नोत्तरी से उस का पीछा तब तक नहीं छूटेगा जब तक वह

सबकुछ बता नहीं देगी. लिहाजा नजरें झकाए उस ने बोलना शुरू किया और फिर बोलती चली गई…

‘‘भाभीजी, मेरी ससुराल वाले बुरे नहीं थे, बस एक गलती हो गई उन से… बहुत धूमधाम से शादी हुई थी मेरी. शादी के बाद पहली रात हर लड़की की तरह मैं भी अनगिनत सपने सजाए अमित (पति) का इंतजार कर रही थी, पर ये नहीं आए. सुबह लज्जावश और किसी से तो पूछ नहीं सकी पर छोटी ननद से पूछा तो वह बोली कि भैया तो ऊपर कमरे में सो रहे हैं.

‘‘मुझे कुछ समझ नहीं आया, लगा मेहमानों की भीड़ की वजह से शरमोहया होगी, सब ठीक हो जाएगा पर भाभीजी, पूरे 7 दिन तक अमित मुझे नजर ही नहीं आए.’’

‘‘उफ, ऐसा क्यों? ऐसी भी क्या शर्म, ब्याह हुआ है आखिर घर वालों को तो देखना चाहिए था… तुम्हारी सास मूर्ख हैं क्या?’’

‘‘भाभीजी, अब क्या बताऊं, कैसे बताऊं? मैं यही समझ कहीं बहुत बिजी हैं, मेहमानों के जाने के बाद मैं खुद उन्हें ढूंढ़ते हुए उन के सामने जा खड़ी हो गई,

तो ये मुझ से नजरें चुराने लगे… फिर एहसास हुआ कि ये तो मुझ से भाग रहे हैं. लगा कुछ ज्यादा ही शरमीले हैं पर… पर भाभीजी, महीनों तक ये लुकाछिपी चलती रही. वे भूल से भी

कमरे में न आते. बहाने बना कर मुझे मायके

भी जाने नहीं दिया, न खुद मायके के किसी सदस्य से मिलने को तैयार थे, न ही मेरे सामने आते थे. मैं इन से बात करने का, इन की इस बेरुखी की वजह जानने का मौका ढूंढ़ती पर ये

तो गजब ही कर रहे थे. आखिर एक दिन मेरा सब्र चुक गया. एक शाम किचन में खाना बनाते वक्त जब मैं ने अमित को ननद से पानी लाने को कहते सुना तो मैं खुद पानी ले कर उन के सामने पहुंच गई.

‘‘मुझे देखा तो बोले, ‘तुम क्यों आई? पानी रख दो और जाओ.’ भाभीजी, उस समय मुझे जाने क्या हुआ, सारी लाजशर्मलिहाज उतार फेंक दी और ढीठ हो कर बोली कि क्यों जाऊं? बीवी हूं आप की और यह आप क्या मुझ से छिपते फिरते हो… शादी क्या सिर्फ घर के काम और घर वालों की सेवा कराने के लिए की थी? इस तरह मुंह क्यों चुराते हैं?

‘‘जवाब में एक सनसनाता थप्पड़ रसीद हुआ था गाल पर. उदास आंखों से गंगाजमना छलकीं, जिन्हें पल्लू से सफाई से पोंछ लिया.

‘‘उस दिन थप्पड़ खा कर भी मैं चुप नहीं रह पाई थी… मैं उन के पैरों में पड़ी अपनी गलती पूछ रही थी कि आखिर किस गलती की सजा दे रहे हैं वे, जो मैं शादी के बाद भी सिर्फ नाम की ब्याहता हूं.

‘‘अमित मुझे रोता छोड़ बाहर चले गए, अब तक घर वालों को भी पता चल चुका था कि हमारे बीच क्या हुआ. रात में मम्मीजी खाने के लिए मनुहार करने आईं तो मैं ने साफ कह दिया कि जब तक अमित मुझे इस व्यवहार की वजह नहीं बताते, मैं अन्नजल कुछ भी ग्रहण नहीं करूंगी, ऐसे ही प्राण त्याग दूंगी. अगले दिन मैं कमरे से बाहर ही नहीं निकली, न ही कुछ खायापीया. मेरे सासससुर ने मनाने की बहुत कोशिश की, पर मैं अड़ गई.

‘‘अगले दिन भी मैं कमरे में बैठी आंसू बहा रही थी. जब अमित आए तब पहली बार उन्होंने मुझ से खुल कर बात की और बात क्या की भाभीजी,वज्र प्रहार कर दिया उन्होंने मुझ पर.’’

‘‘क्या… क्या बोला वह?’’

‘‘उन्होंने अपनी मैडिकल रिपोर्ट मेरे सामने रख दी. मैं ने प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो उन्होंने नजरें झका लीं. वे… वे तो शादी निभाने के काबिल ही नहीं थे. उन्होंने बताया कि अपनी इस कमी का एहसास उन्हें उम्र की समझ आते ही हो गया था. उन के मांपापा को जब पता चला तो तमाम डाक्टरी जांचें हुईं पर डाक्टर के नकारात्मक जवाब के बाद वे इस सचाई को स्वीकार करने के बजाय झड़फूंक कराने जाने लगे…

‘‘कुछ ढोंगी बाबाओं, हकीमों ने सलाह दी कि शादी करा दो, सब ठीक हो जाएगा. यह बात सिर्फ अमित के मातापिता को ही पता थी, छोटी बहन और अन्य रिश्तेदार इस बात से सर्वथा अनजान थे. सरकारी नौकरी लगते ही अमित के लिए रिश्ते आने शुरू हो गए. अमित शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे पर उन पर रिश्तेदारों का, समाज का दबाव बढ़ता जा रहा था. लोग सवाल पूछते, जिन के जवाब में वे तरहतरह के बहाने बनाते थक चुके थे. इस दबाव के चलते आखिर उन्होंने शादी के लिए हां कर दी, लेकिन शादी के बाद उन की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे मेरा सामना कर सकते या मुझे सचाई बता सकते, इसलिए मुझ से दूर भागते थे.

‘‘मगर जब उन्हें लगा कि अब मुझ से सच छिपाना नामुमकिन है तो बहुत हिम्मत जुटा कर वे मेरे सामने आए. उन्होंने माफी मांगी मुझ से अपने किए की… पर मैं भला क्या माफ करती?

‘‘वे मुझ से बोले, ‘जो कहो करने को तैयार हूं, जो चाहो सजा दे दो,’ इस पर मैं ने इतना ही कहा, ‘मायके भेज दीजिए मुझे.’

‘‘और इस घटना के एक दिन बाद ही मैं मायके आ गई. मायके में भी कुछ

दिन तक तो समझ ही नहीं आया कि क्या बताऊं सब को, पर भला मां और बड़ी बहन से कैसे छिपा पाती? मेरे चेहरे पर फैली उदासी उन से छिपी न रह सकी. बड़ी दीदी ने मेरा मन टटोला तो कई दिन की भरी मैं उन के सामने फूटफूट कर रो पड़ी. सबकुछ जान कर मेरे घर वालों पर तो जैसे गाज ही गिर पड़ी. मां अपना सिर पीट रही थीं. पापा और भैया को पता चला तो उन्होंने बहुत सुनाया मेरी ससुराल वालों को. मेरे ससुर अपराधी की भांति सिर झकाए सब सुनते रहे. हाथ जोड़ते रहे पर पापा का क्रोध चरम पर था. मेरे बहुत मना करने पर भी दहेज का झठा केस करवा दिया. सास, ससुर, अमित तीनों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. भाभीजी, मेरे साथ गलत तो हुआ था, पर अब जो हो रहा था वह और भी गलत था.

‘‘अमित को ऊपर से नोटिस आ गया था, नौकरी पर बन आई थी, छोटी ननद की मंगनी टूट गई थी… आखिरकार कुछ समय बाद आपसी सहमति से तलाक हो गया.’’

‘‘पर ऐसी शादी तो वैसे ही खारिज हो जाती.’’

‘‘हां, पर मैं कोर्ट में यह कैसे कह पाती कि अमित शादी के लायक नहीं थे… नहीं हो पाता मुझ से. मैं तो अपनी शादी के मामले को कोर्ट में घसीटना कभी चाहती ही नहीं थी, लेकिन पापा पर तो जैसे बदला लेने का जुनून सवार हो गया था. वे मेरी ससुराल वालों को कड़े से कड़ा सबक सिखाना चाहते थे, इसलिए मेरे मायके वालों ने मेरी चलने नहीं दी.

‘‘पहले अमित मुझ से नजरें चुराते थे, उस दिन तलाक के फैसले के बाद मैं उन से नजरें चुरा रही थी. मेरी वजह से वे और उन का परिवार समाज में उपहास का पात्र बन गया था.

‘‘अमित ने मेरे सामने हाथ जोड़ दिए तो

मैं संयत नहीं रह पाई, घोर आत्मग्लानि से मैं

मर रही थी… उन का वह दयनीय चेहरा मैं भूल नहीं पाती.

‘‘कुल जमा 2 साल के इस समय में पहले शादीशुदा के ठप्पे के बाद अब तलाकशुदा का ठप्पा भी लग चुका है,’’ वह शून्य में निहार रही थी.

‘‘गम न करो, उदास न हो… सब ठीक होेगा, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है… दोबारा खुशियां जरूर आएंगी.’’

यह दिलासा सुन कर उस के चेहरे पर विद्रूप हंसी उभरी और लुप्त हो गई. बोली, ‘‘क्या खुशियां आएंगी भाभीजी? मन ही मर गया है… अब कोई खुशी नहीं चाहिए.’’

‘‘ऐसा न कहो, वहां शादी का कोई मतलब भी तो नहीं था रोली… वहां रह कर तुम करती भी क्या, आगे जीवन बहुत लंबा है.’’

‘‘शादी का मतलब अगर शारीरिक संबंध और वंश बढ़ाना ही है तो हां, फिर इस शादी का कोई मतलब नहीं था… पर भाभीजी, मैं ने तो मन, वचन, कर्म से उन्हें अपना पति माना था. पूरी निष्ठा से 7 फेरे लिए थे.

‘‘आप लोग ही तो पहले बचपन से सिखाते हो कि भारतीय नारी सिर्फ एक बार, एक ही पुरुष को अपना पति स्वीकार करती है… और अब समझ रहे हो कि जीवन बहुत लंबा है, इसलिए किसी और का हाथ थाम लो… सालों से घुट्टी

की तरह पिलाया भारतीय नारी वाला सबक चुटकियों में भूल जाओ… और दूसरे रिश्ते में भी कोई और दिक्कत हुई तो? खुशियों की वहां गारंटी है भाभीजी?’’

‘‘तो क्या सारी उम्र जोगन बनी रहोगी?’’

‘‘जिस पल मैं ने अमित को कोर्ट के बाहर एक हारे शखस की तरह सिर

झकाए, हाथ जोड़ते देखा था न, तभी सोच लिया था… किसी के होंठों की मुसकराहट और जीवन का सुकून छीनने का जो अपराध मुझ से हुआ है, मुझे भी कोई हक नहीं मुसकराने का.’’

‘‘गलती तो उन लोगों की थी जो इतना बड़ा धोखा तुम्हें दिया, फिर भी वहीं की वकालत कर रही हो, आश्चर्य है.’’

‘‘वे तो गैर थे न, पर मेरे अपनों ने क्या किया? समाज, परिवार का दबाव क्या होता है यह मैं ने जान लिया. जब परिवार प्रश्नचिह्न लगाता है कि शादी क्यों नहीं कर रहे तो इस प्रश्न का जवाब अमित जैसे लोग कैसे दें? परिवार को जवाब दे भी दें तो समाज खड़ा हो जाता है… कितना मानसिक संताप यह समाज देता है, मैं आज समझ सकती हूं.

‘‘वे समाज से यह कह नहीं सकते थे कि वे शादी के काबिल ही नहीं है. यह समाज उन्हें चैन से जीने नहीं देता. उन्होंने समाज, परिवार के दबाव में आ कर शादी की और मैं ने अपने परिवार के दबाव में आ कर कोर्ट में अपने मायके वालों के झठे आरोपों पर हामी भरी.’’

‘‘हद है, उन्हीं का पक्ष लिए जा रही हो. खैर, अभी तुम्हारा घाव ताजा है… कुछ समय लगेगा भरने में.’’

‘‘कुछ घाव कभी नहीं भरते भाभीजी… मैं भरने देना चाहती भी नहीं.’’

‘‘और अपने मांपापा को तड़पता देखती रहोगी? तुम्हारी चिंता में वे घुले जा रहे हैं.’’

‘‘मैं आत्मनिर्भर बन रही हूं, नैट क्वालिफाई कर लिया है… नियुक्ति भी मिल जाएगी… और रही बात मेरी खुशियों की तो मेरे इस दुख और स्थिति के जिम्मेदार भी वही हैं. पहले पड़ताल न की… तुरतफुरत में ब्याह दिया, फिर उन लोगों पर झठा केस किया… भाभीजी, मैं नादान थी… मायके

आ कर दीदी को सब बता दिया… पर ये लोग

तो समझदार थे न, शादी की नींव सिर्फ

शारीरिक संबंध ही होते हैं क्या? यदि उस समय थोड़ा धैर्य रखा होता तो मैं और अमित आज भी साथ होते. मैं अमित के खंडित, दमित आत्मविश्वास को सहारा देती, पतिपत्नी की

तरह दैहिक संबंध भले न होता पर एकदूसरे

के सच्चे साथी तो हम बन ही सकते थे.

भविष्य में किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लेते तो उस का भी भविष्य संवरता, हमें भी एक उद्देश्य मिल जाता.’’

‘‘तुम पागल हो क्या रोली? ये काल्पनिक बातें हैं. तुम्हारी शादी कोई फिल्म नहीं थी. दांपत्य जीवन में दैहिक संबंध भी जरूरी होते हैं, यह भी एक महती आवश्यकता है. देखो, शादी एक स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों से ही फलीभूत होती है जबकि तुम्हारे केस में तो यह शादी शादी थी ही नहीं. ऐसे विवाह नहीं चलते.’’

तभी पंडितजी की आवाज से उन की तंद्रा भंग हुई… वे वरवधू से कह रहे थे, ‘‘फेरे संपन्न हुए, आप दोनों अपने कुलदेवता, कुटुंब, अपने समाज के सम्मुख मनवचनकर्म से एकदूसरे को पतिपत्नी स्वीकार कर चुके हैं. यह अटूट बंधन में अब जन्मोंजन्मों के लिए बंध चुके हैं. यह मात्र देह नहीं मन का संबंध है.  जाइए अपने स्वजनों का आशीर्वाद लीजिए.’’

वह गीली आंखें लिए मुसकराई फिर मुड़ कर बोली, ‘‘भाभीजी, मैं हो जाऊंगी तैयार दोबारा सो कौल्ड खुशियों के स्वागत के लिए… बस आप लोग एक काम और कर दीजिए.’’

‘‘हां,’’ बोलो.

‘‘मेरे मन का भी उन से तलाक करवा दीजिए,’’ कह वह उठ खड़ी हुई और वहां से चलती बनी.

और आज पूरे 20 वर्ष बाद वे फिर सामने थीं. एक तलाक के केस की काउंसलिंग में बिजी वे एक कन्या और उस के परिजनों को समझ

रही थीं.

‘‘जरा सी बात को तूल देना ठीक नहीं, अपनी लड़की से पूछा आपने, वह

तलाक चाहती भी है या नहीं?’’

फिर लड़की से मुखातिब हो कर बोलीं, ‘‘तुम बिना किसी के दबाव में आए स्पष्ट बताओ, तुम तलाक चाहती हो?’’

कुछ पलों की चुप्पी के बाद लड़की ने ‘न’ में सिर हिलाया.

‘‘संबंधों का तलाक करवा दोगे, मन का मन से तलाक कैसे करवा पाओगे? अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए बेटी को ढाल मत बनाओ, वह तलाक नहीं चाहती. उस के फैसले का स्वागत करो.’’

परिजन भी शायद संतुष्ट हो गए थे, लड़की अपने पति और परिजनों के साथ चली गई.

वे चेयर पर सिर पीछे टिका कर निढाल सी बैठ गई थीं.

‘‘तो फिर रुकवा दिया एक तलाक?’’ मैं मुसकरा कर बोली, ‘‘बधाई हो. अब क्या सोच रही हैं आप?’’

‘‘यही कि काश, 22 साल पहले कोई रोली मुझे भी मिल गई होती.’’

हिजड़ा: क्यों वह बनीं श्री से सिया

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘छनाक’ की आवाज के साथ आईना चकनाचूर हो गया था. कई टुकड़ों में बंटा हुआ आईने का हर टुकड़ा सिया का अक्स दिखा रहा था.

मांग में भरा सिंदूर, गले का मंगलसूत्र, कानों के कुंडल ये सब मानो सिया को चिढ़ा रहे थे.

शायद समाज के दोहरेपन के आगे वह हार मान चुकी थी.

एकसाथ कई सवाल सिया के मन में उमड़घुमड़ रहे थे.

आईने के नुकीले टुकड़ों में  सिया को उस के सवालों का उत्तर नहीं मिल सका. आंखों में आंसुओं के साथ पिछली यादें किसी फिल्म की तरह सिया की आंखों के सामने से गुजरने लगी थी.

“श्री” नाम था उस का. 20 साल का होतेहोते वह और उस के मांबाप ये समझ चुके थे कि श्री का शरीर भले ही एक पुरुष का हो, पर उस के अंदर आत्मा एक महिला की ही है.

मांबाप ने श्री को कई डाक्टरों और मनोचिकित्सकों को दिखलाया, इलाज भी चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ. डाक्टरों ने श्री को ‘जेंडर आइडेंटिटी डिसऔर्डर’ का मरीज बताया, जिस में शरीर तो स्त्री या पुरुष का हो सकता है, पर हावभाव और लक्षण विपरीत लिंग के होते हैं.

श्री के नैननक्श तीखे थे. उस के चेहरे की खूबसूरती और चमक से लड़कियों को जलन होना स्वाभाविक ही था. वह लड़कियों के कपड़े पहनता, उन की तरह हावभाव रखता, गाने गाता और लड़कियों की तरह डांस करना उसे बहुत अच्छा लगता था. किसी से बात करते समय लचकनामचकना श्री की आदत थी. अनजाने में ही श्री के अंदर की स्त्री सहज रूप में उभर कर आती थी.

श्री जीवन के 22वें वर्ष में प्रवेश कर चुका था. बाहर जाने पर भी लड़कियों जैसे कपड़े ही पहनने लगा था वह… मानो अब उसे जमाने के कहनेसुनने की कोई परवाह ही नहीं थी. उस ने अमर नाम का एक दोस्त बनाया था, जिसे वह अपना बौयफ्रैंड कहता था.

अमर को इस बात का अहसास था कि श्री की हरकतें लड़कियों जैसी हैं, पर उसे तो सिर्फ श्री के पैसे से मजे करने थे, इसलिए वह उस के नाज उठाता था. आज वे दोनों श्री का जन्मदिन मनाने के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाने वाले थे.

इस खास दिन के लिए श्री ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और वह सलवारसूट पहने था.

उन दोनों को वापसी में रात के साढ़े 11 बजे गए थे. अमर और श्री एकदूसरे का हाथ पकड़े गाड़ी की पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे.

“अरे लगता है, मैं अपना मोबाइल रेस्टोरेंट में ही भूल आया हूं,” कह कर अमर अंदर की ओर लपक गया, जबकि श्री बाहर ही उस के आने का इंतजार करने लगा था.

एक बड़ी सी गाड़ी श्री के ठीक सामने आ कर खड़ी हुई और उन में से बाहर निकले एक बलशाली लड़के ने श्री को अंदर घसीट लिया और श्री के मुंह पर टेप लगा दिया, ताकि वह शोर न मचा सके. गाड़ी को वे लोग एक निर्माणाधीन बिल्डिंग के पास ले गए और श्री को बाहर घसीटा.

“आज बहुत दिनों बाद कोई चिकना माल मिला है,” श्री के कपड़े फाड़ते हुए एक वहशी बोला, पर अगले ही पल वह बुरी तरह चौंक गया, “स्साला… ये तो लड़की के वेश में लड़का है… क्यों बे साले… लड़की बन कर घूमने में ज्यादा मजा आता है क्या?” दोचार लातघूंसे रसीद कर दिए थे उस वहशी ने श्री के गाल पर.

“अब क्या करें… सारे मूड का तो सत्यानाश हो गया…अब मूड कैसे फ्रेश करें?” दूसरा युवक बोला.

“भाई तुम लोग अपना सोच लो… मुझे तो आज इस लड़के के साथ ही मजे लेना है… कभीकभी स्वाद भी तो बदलना चाहिए न,” इतना कह कर वह युवक श्री के साथ जबरन दुराचार करने लगा और फिर कुछ देर बाद बारीबारी से तीनों दोस्तों ने  भी श्री के साथ मुंह काला किया और उसे तड़पती अवस्था में छोड़ कर वहां से चले गए.

अर्धबेहोशी की अवस्था में श्री कब तक रहा, उसे कुछ पता नहीं था. आंखें खुलीं, तो उस ने अपनेआप को एक अस्पताल में पाया. पुलिस वाले उस के सामने खड़े थे.

“तो आप का कहना है कि आप के बेटे का बलात्कार हुआ है,” पुलिस वाले ने श्री के पिता से पूछा.

“जी.”

“हमें पीड़ित का बयान लेना होगा,” इंस्पेक्टर ने कहा और श्री से कुछ अटपटे सवाल पूछने के बाद जल्द ही कार्यवाही करने की बात कह कर बाहर निकलते हुए पुलिस कांस्टेबल इंस्पेक्टर से कह रहा था, “साहब, ये सब अमीर घर के लड़कों  के चोंचले हैं… पहले लड़की बन कर घूमते हैं और फिर बलात्कार करवा कर हमारे लिए काम बढ़ा देते हैं… साले हिजड़े कहीं के…”

‘हिजड़े…’ यह शब्द गाली की तरह चुभा था श्री को. श्री का कलेजा अंदर तक छलनी हो गया था.

ये पहला मौका था, जब उसे अपने इस दोहरे जीवन जीने के ढंग पर शर्म आई थी.

करीब 5 दिन तक अस्पताल में रहने के बाद श्री अपने मांबाप के साथ घर आया और अपने बौयफ्रैंड अमर को फोन लगाया.

काफी देर बाद अमर ने उस का फोन उठाया और सीधे शब्दों में कह दिया कि श्री के साथ जो हादसा हुआ है, उस से उस की काफी बदनामी हो गई है, इसलिए  वह उस के साथ अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता.

जिस दोस्त की अब उसे सब से ज्यादा जरूरत थी, उसी ने उस का साथ छोड़ दिया. ये सोच कर श्री काफी परेशान हो उठा.

श्री ने अपने मर्दाना पर निष्क्रिय पड़े हुए अंग को देखा और नफरत से भर गया. यह पहला मौका था, जब श्री ने अपना लिंग परिवर्तन कराने की बात गहराई से सोची, इस के लिए सब से पहले उस ने इंटरनेट खंगालना शुरू किया. उस के जैसे लक्षणों वाले और बहुत से लोग हैं इस दुनिया में. यह बात उसे पता चली, तो उस के मन को थोड़ा सुकून मिला और गहरे जाने पर श्री को बहुत सी नई बातें पता चलीं. उस में से एक यह बात भी थी कि चिकित्सा के नए स्वरूप में  लिंग परिवर्तन कराना कोई बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है और 10 लाख से भी कम खर्चे में भारत में ही रह कर अपना लिंग परिवर्तन कराया जा सकता है.

ये सारी बातें जान कर श्री एक नई ऊर्जा से भर गया था. अपने लिंग परिवर्तन अर्थात अपनेआप को एक पुरुष से स्त्री के शरीर में ढालने की बात जब श्री ने अपने मांबाप से की, तो पहले तो वे सकते में आ गए, पर बाद में उन्होंने  हामी भर दी.

श्री ने लिंग परिवर्तन के लिए विशेषज्ञों से औनलाइन परामर्श लेना शुरू किया, जिन से उसे पता चला कि ये प्रोसेस धीमा जरूर है, पर इस में धैर्य रख कर इसे सफल बनाया जा सकता है, कुछ और जरूरी खोजबीन के बाद डाक्टर मुकेश माथुर से अपना लिंग परिवर्तन कराने के लिए वह गुजरात में उन से मिला और उन के अस्पताल में भरती हो गया.

डाक्टर माथुर ने सब से पहले उसे हार्मोंस के इंजेक्शन देने शुरू किए और थेरेपी व अन्य दवाएं भी देनी शुरू कीं, जिन के असर से कभीकभी श्री परेशान हो उठता. कभी वह मूड स्विंग्स का शिकार भी हो जाता था. स्त्री के स्वभाव के साथसाथ उस का शरीर भी एक का हो जाएगा, ये सोच कर श्री ये सारे दर्द झेलता रहा.

जब कभी श्री परेशान होता, तो वह रोने लगता. ऐसे में उस के मनोचिकित्सक की कमी डाक्टर मुकेश माथुर पूरी करते.

40 साल के डाक्टर मुकेश माथुर शहर के जानेमाने सर्जन थे और चिकित्सा में उन्होंने कई इनाम भी जीते थे. उन्हें मरीज की मनोदशा का अच्छी तरह से पता था. वह  घंटों श्री का हाथ पकड़ कर उस के सिरहाने बैठे रहते और उसे हिम्मत बंधाते. श्री को उन का आत्मिक होना बहुत अच्छा लगता था.

धीरेधीरे दवाएं और हार्मोंस का असर श्री के शरीर पर आने लगा. उस की काया कमनीय हो चली थी. सीने पर उभार आने लगे और शरीर के बाल पतले हो कर गायब होने लगे थे.

और आखिर वह दिन भी आया, जब डाक्टर मुकेश माथुर के द्वारा श्री को स्त्री घोषित कर दिया गया.

डाक्टर माथुर ने श्री को नया नाम भी दिया, “नए शरीर के साथ तुम्हारा नया होगा… सिया.”

अपने नए नाम को बारबार दोहरा रहा था श्री और ऐसा करते समय उस की आंखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे.

“वैसे तो हमारे देश में अब लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया आसान हो गई है, पर डाक्टर मुकेश माथुर ने जितने कम समय और बिना किसी साइड इफेक्ट के इस सर्जरी को अंजाम दिया है, काबिलेतारीफ है,” डाक्टरों  के एक पैनल ने सर्वसम्मति से डाक्टर माथुर को “धन्वंतरि अवार्ड” से नवाजा.

श्री से सिया बन कर उस के जीने का अंदाज ही बदल गया था. अपनेआप को घंटों आईने के सामने निहारती रहती थी सिया.

सिया के नाम से नया फेसबुक एकाउंट भी बना लिया था उस ने. सब से पहली फ्रेंड रिक्वेस्ट उस ने अमर को भेजी, एक सुंदर लड़की की फोटो देख कर अमर ने तुरंत ही फ्रेंडशिप स्वीकार कर ली. धीरेधीरे फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और अमर और सिया में बातचीत होने लगी. सिया ने वीडियो काल कर अमर को अपनी खूबसूरती की एक झलक भी दिखला दी थी.

अमर सिया से मिलने के लिए बेचैन हो उठा और उस ने सिया को मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया, फिर उसे बहाने से एक होटल के कमरे में ले गया. उस की मंशा सिया जैसी खूबसूरत लड़की को भोगने की थी इसलिए, पर वह सिया को बातों मे लगा कर उस के कपड़े उतारने लगा. सिया ने भी कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद सिया पूरी तरह नग्न हो कर अमर के सामने खड़ी थी.

अमर अपलक सिया को निहारे जा रहा था. सिया को बांहों में भर लिया था अमर ने… जैसे ही सिया के शरीर में अमर ने समाने की कोशिश की, सिया ने उसे जोर का धक्का दिया.

यह देख अमर थोड़ा सा चौंक उठा, “अरे सिया, अब इतना नाटक क्यों कर रही हो?”

“मैं नाटक नहीं कर रही, बल्कि मैं तुम्हें ये अहसास कराना चाहती हूं कि तुम ने क्या खोया  है… ये सिया वही श्री है, जिस को तुम ने एक दिन अपनी बदनामी के डर से ठुकरा दिया था.”

ऐसा कह कर सिया ने झट से कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल गई.

अमर को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत थी या कोई छलावा था.

सिया अपने मांबाप के साथ रहने लगी. महल्ले के लोगों को पता चल चुका था कि श्री ही लिंग परिवर्तन के बाद की सिया है, इसलिए  सब उसे अजीब नजरों से देखते थे, कभीकभी सिया के पीछे फुसफुसाती आवाजें सिया को अजीब लगतीं, तो कभी 15-16 साल के लड़के उस के पीठ पीछे “हिजड़ा” बोल कर हंसते हुए चले जाते थे.

पहलेपहल तो सिया ने ध्यान नहीं दिया, पर जब इन चीजों की पुनरावृत्ति होने लगी तो सिया के मन में खटास आने लगी.

“मैं कोई हिजड़ा नहीं, बल्कि मैं तो पूरी औरत हूं,” फुसफुसा उठती थी सिया.

इस दौरान उसे हार्मोन थेरेपी के लिए डाक्टर मुकेश माथुर के पास जाना पड़ता था. उस दिन 14 फरवरी अर्थात “वैलेंटाइन डे” था. डाक्टर माथुर ने हाथों में एक सुर्ख गुलाब ले कर सिया को दिया.

“क्या आप किसी लड़की को लाल गुलाब देने का मतलब जानते हैं डाक्टर?” सिया ने पूछा.

“अच्छी तरह जानता हूं…तभी तो दे रहा हूं,” डाक्टर माथुर ने कहा.

“तुम्हारी सर्जरी करने के बाद मुझे तुम से मिलतेमिलते इतना प्यार हो गया है कि अब तुम्हारे बिना मुझ से रहा नहीं जाता है, इसलिए मैं तुम से  शादी करना चाहता हूं.”

एक ट्रांसजेंडर बनने के बाद से ही सिया एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ रही थी, जो उस के साथ शादी करने का साहस जुटा सके और उसे औरत के जिस्म का अहसास करा सके.

सिया डाक्टर माथुर की ये बात सुन कर फूली नहीं समा रही थी. उसे लग रहा था कि उस का सपना साकार हो गया है.

सिया के मांबाप को भला इस फैसले से क्या आपत्ति होती… उन्होंने उस की हां में हां मिला दी.

एक सादा समारोह में डाक्टर मुकेश माथुर ने सिया से शादी कर ली. एक ट्रांसजेंडर की एक डाक्टर से शादी को लोकल समाचारपत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया. सोशल मीडिया पर भी डाक्टर मुकेश माथुर और सिया की शादी खूब सुर्खियों में रही.

शादी के बाद डाक्टर मुकेश और सिया जी भर कर सैक्स का सुख लेने लगे. अपने शरीर को ले कर सिया का हर प्रकार का डर खत्म हो गया था.

आज कुछ मीडिया वाले डाक्टर मुकेश का इंटरव्यू लेने आए थे, जो उन से बारबार वही जानना चाह रहे थे कि एक ट्रांसजेंडर के साथ शादी कर के उन्हें कैसा लग रहा है… पत्रकार  घुमाफिरा कर उन के सैक्स संबंधों के बारे में ही सवाल पूछ रहे थे, उन के हर सवाल का जवाब डाक्टर मुकेश माथुर बड़ी गर्मजोशी से जवाब दे रहे थे.

पत्रकारवार्ता खत्म होने के बाद डाक्टर मुकेश के मोबाइल पर एक फोन आया, जिसे सुन कर वे बहुत खुश हुए और सिया से बोले, “सुनो सिया… मैं ने एक लिंग परिवर्तन करवाए हुए एक लड़के से शादी की है. मेरे इस साहसिक निर्णय के लिए मुझे मानव कल्याण संस्था वाले एक अवार्ड दे रहे हैं,” चहक रहे थे डाक्टर मुकेश. उन को खुश देख कर सिया भी खुश हो गई.

2 दिन बाद ही डाक्टर मुकेश माथुर को जब अवार्ड मिल गया, तो उस ने अपने कुछ डाक्टर साथियों को इस खुशी में घर पर पार्टी के लिए बुलाया. सारा खाना बाहर से मंगवाया गया था और महंगी वाली शराब का दौर चल रहा था. मुकेश के सभी साथी नशे में झूमने लगे थे.

“यार मुकेश… शराब तो तू ने पिला दी, पर शबाब के लिए अपनी उस ट्रांसजेंडर बीवी को ही बुला ले,” एक साथी ने कहा.

“हां यार, बड़ा मूड हो रहा है,” दूसरे साथी ने कहा.

“नहीं यार, भले ही वह ट्रांसजेंडर हो… पर है तो उस की बीवी ही,” दूसरे दोस्त ने बचाव किया.

“इन ट्रांसजेंडर की भी क्या इज्जत और क्या बेइज्जती? ये तो ग्रुप सैक्स के लिए भी राजी हो जाते हैं.”

कमाल की बात यह थी कि डाक्टर मुकेश उन सब की बातों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था, बल्कि उन की हां में हां मिला रहा था.

दीवार के पीछे खड़ी सिया ये सब सुन रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इतने में सिया ने अपनी पीठ पर किसी का मजबूत हाथ महसूस किया. ये डाक्टर मुकेश माथुर था.

मुकेश सिया को घसीटते हुए अपने साथियों के सामने ले गया और बोला,

“लो दोस्तो, शराब के बाद… शबाब… मजे ले लो इस के.”

“ये आप क्या कर रहे हैं… मैं पत्नी हूं आप की.”

बड़ी ज़ोर से हंस पड़ा था डाक्टर मुकेश माथुर.

“अरे ओ… मैं ने तुझ जैसे हिजड़े… सौरी… ट्रांसजेंडर से शादी इसलिए की है कि मुझे समाज में सम्मान मिल सके… अवार्ड मिल सके… और मैं एक हिजड़े का उद्धार करने वाले डाक्टर के रूप मे जाना जाऊं,” नशे में डाक्टर मुकेश माथुर बुरी तरह हावी हो रहा था, जबकि डाक्टर मुकेश के साथी सिया के कपड़े खींचने में लगे हुए थे और कुछ ही देर में सिया उन सब के सामने नंगी खड़ी हुई फफक रही थी. वह हाथों से कैंची बना कर अपने सीने को ढकने की असफल कोशिश कर रही थी. एक व्यक्ति ने उसे बिस्तर पर गिरा लिया. उस के बाद सभी लोगों ने बारीबारी से सिया के साथ मुंह काला किया और इस घटना का वीडियो भी बनाया, ताकि इस बलात्कार की यादें ताजा रहें.

अगली सुबह जब सिया को होश आया था, तब कमरे में  कोई नहीं था, सिर्फ शराब और सिगरेट की गंध शेष थी.

सिया ने किसी तरह से कपड़े पहने और उस की नजर आईने के टूटे हुए टुकड़ों पर पड़ी, जो उसे चिढ़ा रहे थे मानो कह रहे हो कि तू एक हिजड़ा है… तू एक ट्रांसजेंडर है और तुझे समाज वाले इज्जत की नजर से कभी नहीं देखेंगे…बड़ी चली थी शादी करने… सिया ने भरे मन से टूटे आईने का एक टुकड़ा उठाया और अपनी कलाई की नस को काट लिया. उस की कलाई से खून तेजी से टपकने लगा था. सिया के कानों में अब भी आवाजें गूंज रही थीं… ट्रांसजेंडर… हिजड़ा… हिजड़ा…

अमानत: कौन थी वह लड़की

कानपुर सैंट्रल रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे प्लेटफार्म से उतर कर जैसे ही मैं सड़क पर आया, तभी मुझे पता चला कि किसी जेबकतरे ने मेरी पैंट की पिछली जेब काट कर उस में से पूरे एक हजार रुपए गायब कर दिए थे. कमीज की जेब में बची 2-4 रुपए की रेजगारी ही अब मेरी कुल जमापूंजी थी.

मुझे शहर में अपना जरूरी काम पूरा करने और वापस लौटने के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी. पूरे पैसे न होने के चलते मैं अपना काम निबटाना तो दूर ट्रेन का वापसी टिकट भी कैसे ले सकूंगा, यह सोच कर बुरी तरह परेशान हो गया.

इस अनजान शहर में मेरा कोई जानने वाला भी नहीं था, जिस से मैं कुछ रुपए उधार ले कर अपना काम चला सकूं.

हाथ में अपना सूटकेस थामे मैं टहलते हुए सड़क पर यों ही चला जा रहा था. शाम के साढ़े 5 बजने को थे. सर्दी का मौसम था. ऐसे सर्द भरे मौसम में भी मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया था.

मुझे बड़ी जोरों की भूख लग आई थी. मैं ने सड़क के किनारे एक चाय की दुकान से एक कप चाय पी कर भूख से कुछ राहत महसूस की, फिर अपना सूटकेस उठा कर सड़क पर आगे चलने के लिए जैसे ही तैयार हुआ कि तकरीबन 9 साल का एक लड़का मेरे पास आया और बोला, ‘‘अंकलजी, आप को मेरी मां बुला रही हैं. चलिए…’’

इतना कहते हुए वह लड़का मेरे बाएं हाथ की उंगली अपने कोमल हाथों से पकड़ कर खींचने लगा. मैं उस लड़के को अपलक देखते हुए पहचानने की कोशिश करने लगा, पर मेरी कोशिश बेकार साबित हुई. मैं उस लड़के को बिलकुल भी नहीं पहचान सका था.

अगले ही पल मेरे कदम बरबस ही उस लड़के के साथ उस के घर की ओर बढ़ चले. उस लड़के का घर चाय की उस दुकान से कुछ ही दूर एक गली में था . मैं जैसे ही उस के दरवाजे पर पहुंचा, तो उस लड़के की मां मेरा इंतजार करती नजर आई.

मैं ने तो उसे पहचाना तक नहीं, पर उस ने बिना झिझकते हुए पूछा, ‘‘आइए महेशजी, हम लोग आप के पड़ोसी गांव सुंदरपुर के रहने वाले हैं. यहां मेरे पति एक फैक्टरी में काम करते हैं.

‘‘मैं अभी डबलरोटी लेने दुकान पर गई थी, तो आप को पहचान गई. आप रामपुर के हैं न?

‘‘जब आप गांव से कसबे के स्कूल में पढ़ाने के लिए साइकिल से आतेजाते थे, तब मैं सड़क से लगी पगडंडी पर घास काटती हुई आप को हर दिन देखती थी. कभीकभी तो आप मेरे कहने पर मेरा घास का गट्ठर भी उठवा दिया करते थे.’’

पलभर में ही मैं उस लड़के की मां को पहचान गया था. 10 साल पहले की बात है, तब मैं गांव से साइकिल चला कर कसबे के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाया करता था.

उस समय शायद यह औरत तकरीबन 16-17 साल की थी. तब इस की शादी नहीं हुई थी. यह अकसर पगडंडियों पर अपने गांव की दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ घास काटती रहती थी.

उस समय की एक घटना मुझे अब भी याद है. एक दिन मैं ने उन सभी घास वालियों को बहुत भलाबुरा कहते हुए उन पर चोरी का इलजाम लगाया था.

हुआ यह था कि मुझे उस दिन स्कूल से तनख्वाह मिली थी. पूरे ढाई हजार रुपए थे तनख्वाह के. मैं ने एक लिफाफे में उन रुपयों को रखा और अपनी कमीज की ऊपरी जेब में डालते हुए साइकिल से घर चल पड़ा था. उस दिन कई जगहों पर बीचबीच में साइकिल की चेन उतर जाने से उसे चढ़ाते हुए मैं घर आया था.

घर आने पर पता चला कि मेरा रुपयों वाला लिफाफा साइकिल की चेन चढ़ाते समय रास्ते में कहीं गिर गया था.

मैं उसी समय साइकिल से रास्ते में अपना रुपयों वाला लिफाफा ढूंढ़ते हुए उन घास वालियों से जा कर पूछताछ करने लगा.

घास वालियों ने लिफाफा देखने से साफ इनकार कर दिया. मैं ने बारबार उन घास वालियों पर शक जताते हुए उन्हें बहुत ही बुराभला सुनाया था और तभी से नाराज हो कर फिर कभी उन के घास के गट्ठर को उठाने के लिए सड़क पर साइकिल नहीं रोकी.

मैं ने उस औरत के यहां रह कर कुछ रुपए उधार मांग कर अगले 3 दिनों में अच्छी तरह अपना काम पूरा किया था. उस औरत का पति बहुत अच्छे स्वभाव का था. वह मुझ से बहुत घुलमिल कर बातें करता था, जैसे मैं उस का कोई खास रिश्तेदार हूं.

3 दिनों के बाद जब मैं वापस जाने लगा, तो उस औरत का पति फैक्टरी के लिए ड्यूटी पर जा चुका था और छोटा बच्चा स्कूल गया था. घर में केवल वह औरत थी.

मैं ने सोचा कि चलते समय किराए के लिए कुछ रुपए उधार मांग लूं और घर जा कर रुपया मनीऔर्डर कर दूंगा.

मैं उस औरत के पास गया और उस से उधार के लिए बतौर रुपया मांगने ही वाला था कि तभी वह बोली, ‘‘भाई साहब, अगर आप बुरा न मानें, तो मैं आप की एक अमानत लौटाना चाहूंगी.’’

मैं उस औरत की बात समझा नहीं और हकलाते हुए पूछ बैठा, ‘‘कैसी अमानत?’’

उस ने मुझे पूरे ढाई हजार रुपए लौटाते हुए कहा, ‘‘सालों पहले आप ने एक दिन सभी घास वालियों पर रुपए लेने का जो इलजाम लगाया था, वह सच था.

‘‘जब आप साइकिल की चेन चढ़ा रहे थे, तो आप के रुपए का लिफाफा जमीन पर गिर पड़ा था और आप को रुपए गिरने का पता नहीं चला था. मैं ने दूसरी घास वालियों की नजर बचा कर वह लिफाफा उठा लिया था.

‘‘उस समय मेरे बापू की तबीयत बहुत ज्यादा खराब चल रही थी. दवा के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी और कहीं से कोई उधार भी देने को तैयार था.

‘‘मैं ने बापू की दवा पर वे रुपए खर्च करने के लिए झूठ बोल दिया कि मैं ने रुपयों का कोई लिफाफा नहीं उठाया है. फिर तो उन रुपयों से मैं ने अपने बापू का अच्छी तरह इलाज कराया और वे बिलकुल ठीक हो गए, उन की जान बच गई.

‘‘इस के बाद मुझे आज तक यह हिम्मत नहीं हुई कि सच बोल कर अपने झूठ का पछतावा कर सकूं.’’

मैं उन रुपयों को अपने हाथ में थामे हुए उस औरत की आंखों में झांकते हुए यह सोच रहा था कि वह झूठ जो कभी किसी की जान बचाने के लिए बोला गया था, झूठ नहीं कहा जा सकता. क्योंकि वह तो इस औरत ने सच की पोटली में अमानत के रुपए बतौर बांध कर अपने पाकसाफ दिल में महफूज रखा हुआ था.

मैं उस औरत के मुसकराते हुए चेहरे को एक बार फिर सच के आईने में झांकते हुए, उस के नमस्ते का जवाब देता हुआ तेज कदमों से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया.

 

बंद आकाश, खुला आकाश : आजाद पंछियों को कैद करना सही है क्या

एक दिन मैं तोते का बच्चा खरीद कर घर ले आया. उस के खानेपीने के लिए 2 कटोरियां पिंजरे में रख दीं. नयानया कैदी था इसलिए अकसर चुप ही रहता था. हां, कभीकभी टें…टें की आवाज में चीखने लगता.

घर के लोग कभीकभी उस निर्दोष कैदी को छेड़ कर आनंद ले लेते. लेकिन खाने के वक्त उसे भी खाना और पानी बड़े प्यार से देते थे. वह 1-2 कौर कुटकुटा कर बाकी छोड़ देता और टें…टें शुरू कर देता. फिर चुपचाप सीखचों से बाहर देखता रहता.

उसे रोज इनसानी भाषा बोलने का अभ्यास कराया जाता. पहले तो वह ‘हं…हं’ कहता था जिस से उस की समझ में न आने और आश्चर्य का भाव जाहिर होता पर धीरेधीरे वह आमाम…आमाम कहने लगा.

अब वह रोज के समय पर खाना या पानी न मिलने पर कटोरी मुंह से गिरा कर संकेत भी करने लगा, फिर भी कभीकभी वह बड़ा उदास बैठा रहता और छेड़ने पर भी ऐसा प्रतिरोध करता जैसे चिंतन में बाधा पड़ने पर कोई मनीषी क्रोध जाहिर कर फिर चिंतन में लीन हो जाता है.

एक दिन तोतों का एक बड़ा झुंड हमारे आंगन के पेड़ों पर आ बैठा, उन की टें…टें से सारा आंगन गूंज उठा. मैं ने देखा कि उन की आवाज सुनते ही पिंजरे में मानो भूचाल आ गया. पंखों की निरंतर फड़फड़ाहट, टें…टें की चीखों और चोंच के क्रुद्ध आघातों से वह पिंजरे के सीखचों को जैसे उखाड़ फेंकना चाहता था. उस के पंखों के टुकड़े हवा में बिखर रहे थे. चोंच लहूलुहान हो गई थी. फिर भी वह उस कैद से किसी तरह मुक्त होना चाहता था. झुंड के तोते भी उसे आवाज दे कर प्रोत्साहित करते से लग रहे थे.

झुंड के जाने के बाद उस का उफान कुछ शांत जरूर हो गया था लेकिन क्षतविक्षत उस कैदी की आंखों में गुस्से की लाल धारियां बहुत देर तक दिखाई देती रहीं. उस की इस बेचारगी ने घर के लोगों को भी विचलित कर दिया और वे उसे मुक्त करने की बात करने लगे, लेकिन बाद में बात आईगई हो गई.

कुछ दिनों बाद की बात है. एक दिन मैं ने इस अनुमान से उस का पिंजरा खोल दिया कि शायद वह उड़ना भूल गया होगा, द्वार खुला. वह धीरेधीरे पिंजरे से बाहर आया. एक क्षण रुक कर उस ने फुरकी ली और आंगन की मुंडेर पर जा बैठा. उस के पंखों और पैरों में लड़खड़ाहट थी. फिर भी वह अपनी स्वाभाविक टें…टें के साथ एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता जा रहा था. उस के बाद वह पहाड़ी, सीढ़ीदार खेतों पर बैठताउड़ता हुआ घर से दूर होने लगा.

अपनी भूल पर पछताता मैं, और गांव भर के बच्चे, तोते के पीछेपीछे उसे पुचकार कर बुलाते जा रहे थे और वह हम से दूर होता जा रहा था. मैं ने गौर किया कि उस की उड़ान में और तोतों जैसी फुरती नहीं थी. उस की इस कमी को लक्ष्य कर के मुझे शंका होने लगी कि अगर वह लौटा नहीं तो न तो अपने साथियों के साथ खुले आकाश में उड़ पाएगा और न ही अपना दाना जुटा पाएगा.

तोते को भी जैसे अपनी लड़खड़ाहट का एहसास हो चुका था. इसीलिए कुछ दूर जाने पर वह एक पेड़ की डाल पर बैठा ही रह गया और उसे पुचकारते हए मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने भी डरतेझिझकते अपनेआप को मेरे हवाले कर दिया.

काश, उस ने अपनी लड़खड़ाहट को अपनी कमजोरी न मान लिया होता तो वह उसी दिन नीलगगन का उन्मुक्त पंछी होता. मगर वह अपनी लड़खड़ाहट से घबरा कर हिम्मत हार बैठा और फिर से पिंजरे का पंछी हो कर रह गया.

करीब साल भर के बाद, एक दिन फिर उस के उड़ने की जांच हुई. अब की बार खुले में पिंजरा खोलने का जोखिम नहीं लिया गया. घर की बैठक में 2 बड़ी जालीदार खिड़कियों को छोड़ कर बाकी रास्ते बंद कर दिए गए. पिंजरा खोला गया. कुछ दूर खड़े हो कर हम सबउसे ही देखने लगे. पहले वह खुले द्वार की ओर बढ़ा. फिर रुक कर गौर से उसे देखने लगा.

उस ने एक फुरकी ली लेकिन द्वार की ओर नहीं बढ़ा. हमें लगा कि हमारे डर से वह बाहर नहीं आ रहा है. हम सब ओट में हो कर उसे देखने लगे. लेकिन वह दरवाजे की तरफ फिर भी नहीं बढ़ा. कुछ देर बाद वह दरवाजे की ओर बढ़ा जरूर लेकिन एक निगाह बाहर डाल कर फिर पिंजरे में मुड़ गया. फिर पिंजरे से निकल कर बाहर आया. हम सब उत्सुकता से उसे ही देख रहे थे. उस ने एक लंबी फुरकी ली, जैसे उड़ने से पहले पंखों को तोल रहा हो. वह पहली मुक्ति के समय की अपनी बेबसी को शायद भूल गया था.

उस ने 2-3 जगह अपने पंखों को चोंच से खुजलाया और झटके से पंखों को फैलाया कि एक ही उड़ान में वहां से फुर्र हो जाए लेकिन पंख केवल फड़फड़ा कर रह गए. वह चकित था. उस ने एक उड़ान भर कर पास के पीढ़े तक पहुंचना चाहा, लेकिन किनारे तक पहुंचने से पहले ही जमीन पर गिर पड़ा और फड़फड़ाने लगा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे हो क्या गया है. वह बारबार उड़ने की कोशिश करता और हर बार मुंह की खाता.

अंत में, थकाहारा, पिंजरे की परिक्रमा करने के बाद वह द्वार पर आ रुका. उस ने एक निराश नजर अपने चारों ओर डाली और सिर झुका कर धीरेधीरे पिंजरे के अंदर चला गया. मुड़ कर एक बार फिर ललचाई नजरों से उस ने पिंजरे के खुले द्वार को निहारा और हताशा से मुंह फेर लिया. पिंजरे में अपनी चोंच को पंखों के बीच छिपा कर आंख मूंद खामोश बैठ गया. अब चाह कर भी वह उस दिन पिंजरे को छोड़ कर नहीं जा सकता था.

वह शायद पछता रहा था कि मैं ने उस दिन उड़ जाने का मौका क्यों खो दिया. काश, उस दिन थोड़ी हिम्मत कर के मैं उड़ गया होता तो फिर चाहे मेरा जो होता, इस गुलामी से लाख गुना बेहतर होता, पर अब क्या करूं? उस ने मान लिया कि मुक्त उड़ान का, खुले आकाश का, बागों और खेतों की सैर का, प्रकृति की ममतामयी गोद का और नन्हे से अपने घोंसले का उस का सपना भी उसी की तरह इस पिंजरे में कैद हो कर रह जाएगा और एक दिन शायद उसी के साथ दफन भी हो जाएगा.

मुझे लगा जैसे आज उस का रोमरोम रो रहा है और वह पूरी मानव जाति को कोसते हुए कह रहा है:

‘यह आदमी नामक प्राणी कितना स्वार्थी है. खुद तो आजाद रहना चाहता है पर आजाद पंछियों को कैद कर के रखता है. ऊपर से हुक्म चलाता है, यह जताने के लिए कि कोई ऐसा भी है जो उस के इशारों पर नाचता है. मुझे कैद कर दिया पिंजरे में. ऊपर से हुक्म देता है, यह बोलो, वह बोलो. बोल दिया तो ‘शाबाश’ कहेगा, लाल फल खाने को देगा. न बोलो तो डांट पिलाएगा.

‘मुझे नहीं सीखनी इनसान की भाषा. खुद तो बोलबोल कर इनसानों ने इनसानियत का सत्यानाश कर रखा है. और हमें उन के बोल बोलने की सीख देते हैं. कहां बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है यह इनसान अभी तक समझ नहीं पाया. इसे इनसान समझ लेता तो बहुत से दंगेफसाद, झगड़े और उपद्रव खत्म हो जाते.

‘चला है मुझे सिखाने, मेरी चुप्पी से ही कुछ सीख लेता कि दर्द अकेले ही सहना पड़ता है. फिर चीखपुकार क्यों? इतना भी इनसान की समझ में नहीं आता. बहुत श्रेष्ठ समझता है अपनेआप को. शौक के नाम पर पशुपक्षियों को कैद कर के उन पर हुक्म चलाता है और कहता है ‘पाल’ रखा है.

‘कुत्तेबिल्ली इसलिए पालता है कि उन पर धौंस जमा सके. दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो, ये कैसे मेरा हुक्म बजा लाते हैं. कैसे मेरे इशारों पर जीतेमरते हैं. हुक्म चलाने की, शासन करने की, अपनी आदम इच्छा को आदमी न जाने कब काबू कर पाएगा? इसीलिए तो निरंकुश घूम रहा है सारी सृष्टि में.

‘इनसान मिलजुल कर क्या खाक रहेगा, जबकि इसे दूसरा कोई ऐसा चाहिए जिस पर यह हुक्म चलाए. जब तक लोग हैं तो लोगों पर राज करता है. लोग न मिलें तो हम पशुपक्षियों पर रौब गांठता है. जब लोगों ने हुक्म मानने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जैसे तुम, वैसे हम. तो फिर तुम कौन होते हो हम पर राज करने वाले? तब शामत हम सीधेसादे पशुपक्षियों पर आई. किसी ने मेरी बिरादरी को पिंजरे में डाला तो किसी ने प्यारी मैना को. किसी ने बंदर को धर पकड़ा तो किसी ने रीछ की नाक में नकेल डाल दी.

‘इनसान है कि हमें अपने इशारों पर नचाए जा रहा है. हमें नाचना है. हमारी मजबूरी है कि हम इनसान से कमजोर हैं. हमारे पास इनसान जैसा शरीर नहीं. हमारे पास आदमी जैसा फितरती दिमाग नहीं. आदमी जैसा सख्त दिल नहीं. हम आदमी जैसे मुंहजोर नहीं. इसीलिए हम बेबस हैं, लाचार हैं और इनसान हम पर अत्याचार करता चला आ रहा है.

काश, इनसान में यह चेतना आ जाए कि वह किसी को गुलाम बनाए ही क्यों? खुद भी आजाद रहे और दूसरे प्राणियों को भी आजाद रहने दे. जैसेजैसे ऐसा होता जाएगा वैसेवैसे यह दुनिया सुघड़ होती जाएगी, सुंदर होती जाएगी, सरस होती जाएगी. जब आदमी के ऊपर न तो किसी का शासन होगा और न ही आदमी किसी पर शासन करेगा तब उस की समझ में आएगा कि आजाद रहने और आजाद रहने देने का आनंद क्या है. बंद आकाश और खुले आकाश का अंतर क्या है? तब आदमी महसूस करेगा कि जब वह हम पशुपक्षियों को अपना गुलाम बनाता है तो हम पर और हमारे दिल पर क्या गुजरती है.’

तोते की टें…टें की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. मैं झटके से उठा. खूंटी पर से तोते का पिंजरा उतारा और चल पड़ा झुरमुट वाले खेतों की ओर.

खेत शुरू हो गए थे. पकी फसल की बालियां खाने के लिए हरे चिकने तोते झुरमुट से खेतों तक उड़ान भरते और चोंच में अनाज की बाली लिए लौटते. झुरमुट और खेत दोनों में उन के टें…टें के स्वर छाए थे. पिंजरे का तोता भी अब चहकने लगा था.

मैं रुक गया और पिंजरे को अपने चेहरे के सामने ले आया और ‘पट्टूपट्टू’ पुकारने लगा. वह पिंजरे में इधर से उधर, उधर से इधर व्याकुलता से घूमता जा रहा था. बीचबीच में पंख भी फड़फड़ाता जाता. उस में अप्रत्याशित चपलता आ गई थी. शायद यह दूसरे तोतों की आवाज का करिश्मा था जो वह मुक्ति के लिए आतुर हो रहा था.

मैं ने ज्यादा देर करना ठीक नहीं समझा. पिंजरे का द्वार झुरमुटों की तरफ कर के खोला और प्यार से बोला, ‘‘जा, उड़ जा. जा, शाबाश, जा.’’

वह सतर्क सा द्वार तक आया. गरदन बाहर निकाल कर जाने क्या सूंघा, पंख फड़फड़ाए और उड़ गया.  एक छोटी सी उड़ान. वह सामने के पत्थर पर जा टिका. एक क्षण वहां रुक कर पंख फड़फड़ाए और फिर उडान ली. यह उड़ान, पहली उड़ान से कुछ लंबी थी.

अब वह एक झाड़ी पर जा बैठा. उस के बाद उड़ा तो एक जवान पेड़ की लचकदार डाल पर जा बैठा. उस के बैठते ही डाल झूलने लगी. उस ने 1-2 झूले खाए और फिर यह जा, वह जा, तोतों के झुंड में शामिल हो गया.

मैं ने संतोष की सांस ली.

लौटने लगा तो हाथ में खाली पिंजरे की तरफ ध्यान गया. एक पल पिंजरे को देखा और विचार कौंधा कि सारे खुराफात की जड़ तो यह पिंजरा ही है. यह रहेगा, तो न जाने कब किस पक्षी को कैद करने का लालच मन में आ जाए.

मैं ने घाटी की ओर एक सरसरी नजर डाली और पिंजरे को टांगने वाले हुक से पकड़ कर हाथ में तोलते हुए एक ही झटके से उसे घाटी की तरफ उछाल दिया. पहाड़ी ढलान पर शोर से लुढ़कता पिंजरा जल्दी ही मेरी आंखों से ओझल हो गया.

घर लौटते समय मैं खुद को ऐसा हलका महसूस कर रहा था जैसे मेरे भी पंख उग आए हों.

वचन हुआ पूरा: रामकली ने कौनसा वादा किया था

‘‘देखोजी, मैं साहब के यहां बरतन मांजने नहीं जाऊंगी,’’ रामकली अपनी भड़ास निकालते हुए जरा गुस्से से बोली. ‘‘क्यों नहीं जाएगी तू वहां?’’ जगदीश ने सवाल किया. ‘‘बस, कह दिया मैं ने कि नहीं जाऊंगी तो नहीं जाऊंगी.’’ ‘‘मगर, क्यों नहीं जाएगी?’’ जगदीश जरा नाराज हो कर बोला. ‘‘उन साहब की नीयत जरा भी अच्छी नहीं है.’’

‘‘तू नहीं जाएगी तो साहब मुझे परमानैंट नहीं करेंगे…’’ इस समय जगदीश की आंखों में गुजारिश थी. पलभर बाद वह दोबारा बोला, ‘‘देख रामकली, जब तक ये साहब हैं, तू काम छोड़ने की मत सोच. साहब मेरी नौकरी परमानैंट कर देंगे, फिर मत मांजना बरतन.’’ ‘‘देखोजी, मुझे वहां जाने को मजबूर मत करो. औरत एक बार सब की हो जाती है न…’’ पलभर बाद वह बोली, ‘‘खैर, जाने दो. आप कहते हैं तो मैं नहीं छोड़ूंगी. यह जहर भी पी जाऊंगी.’’ ‘‘सच रामकली, मुझे तुझ से यही उम्मीद थी,’’ कह कर जगदीश का चेहरा खिल उठा. रामकली कोई जवाब नहीं दे पाई. वह चुपचाप मुंह लटकाए रसोईघर के भीतर चली गई.

जब से ये नए साहब आए हैं तब से इन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई की जरूरत थी. जगदीश उन के दफ्तर में काम करता है. 15 साल बीत गए, पर परमानैंट नहीं हुआ है. कितने ही साहब आए, सब ने परमानैंट करने का भरोसा दिया और परमानैंट किए बिना ही ट्रांसफर हो कर चले गए.

ये साहब भी अपना परिवार इसलिए ले कर नहीं आए थे कि उन के बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, इसलिए यहां एडमिशन दिला कर वे रिस्क नहीं उठाना चाहते थे. बंगले में चौकीदार था. रसोइया भी था. मगर बरतन मांजने के लिए उन्हें एक बाई चाहिए थी. साहब एक दिन जगदीश से बोले थे, ‘बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए.’ ‘साहब, वह तो मिल जाएगी, मगर उस के लिए पैसा क्यों खर्च करें…’ जगदीश ने सलाह दी थी, ‘मैं गुलाम हूं न, मैं ही मांज दिया करूंगा बरतन.’

‘नहीं जगदीश, मुझे कोई बाई चाहिए,’ साहब इनकार करते हुए बोले थे. तब जगदीश ने सोचा था कि मौका अच्छा है. बाई की जगह वह अपनी लुगाई को क्यों न रखवा दे. साहब खुश होंगे और उसे परमानैंट कर देंगे. जगदीश को चुप देख कर साहब बोले थे, ‘कोई बाई है तुम्हारी नजर में?’

‘साहब, मेरी घरवाली सुबहशाम आ कर बरतन मांज दिया करेगी,’ जगदीश ने जब यह कहा, तब साहब बोले थे, ‘नेकी और पूछपूछ… तू अपनी जोरू को भेज दे.’

‘ठीक है साहब, उसे मैं तैयार करता हूं,’ जगदीश ने उस दिन साहब को कह तो दिया था, मगर लुगाई को मनाना इतना आसान नहीं था. उसे कैसे मनाएगा. क्या वह आसानी से मान जाएगी? रामकली के पास आ कर जगदीश बोला था, ‘रामकली, मैं ने एक वादा किया है?’ ‘वादा… कैसा वादा और किस से?’ रामकली ने हैरान हो कर पूछा था. ‘साहब से?’ ‘कैसा वादा?’

‘अरे रामकली, उन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए थी. मैं ने कहा कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. इस के लिए रामकली है न.’ ‘हाय, तू ने मुझ से बिना पूछे ही साहब से वादा कर दिया.’ ‘हां रामकली, इस में भी मेरा लालच था?’ ‘लालच, कैसा लालच?’ रामकली आंखें फाड़ कर बोली थी.

‘देख रामकली, तू तो जानती है कि मैं अभी परमानैंट नहीं हूं. परमानैंट होने के बाद मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी. इन साहब ने मुझ से वादा किया है कि वे मुझे परमानैंट कर देंगे. तुम साहब के यहां जा कर बरतन मांजोगी तो साहब खुश हो जाएंगे, इसलिए मैं ने तेरा नाम बोल दिया.’

‘अरे, तू ने हर साहब के घर का इतना काम किया. बरतन भी मांजे, पर किसी भी साहब ने खुश हो कर तुझे परमानैंट नहीं किया. इस साहब की भी तू कितनी भी चमचागीरी कर ले, यह साहब भी परमानैंट करने वाला नहीं है,’ कह कर रामकली ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी थी.

जगदीश बोला था, ‘देख रामकली, इनकार मत कर, नहीं तो यह मौका भी हाथ से निकल जाएगा. तब फिर कभी परमानैंट नहीं हो सकूंगा. छोटी सी तनख्वाह में ही मरतेखपते रहेंगे.

‘‘मैं अपनी भलाई के लिए तुझ पर यह दबाव डाल रहा हूं. इनकार मत कर रामकली. साहब को खुश करने के लिए सब करना पड़ेगा.’

‘ठीक है, तुम कहते हो तो मैं चली जाया करूंगी. हम तो छोटे लोग हैं. साहब बहुत बड़े आदमी हैं,’ कह कर रामकली ने हामी भर दी थी.

इस के बाद रामकली सुबहशाम साहब के बंगले पर जा कर बरतन मांजने लगी थी.

रामकली 3 बच्चों की मां होते हुए भी जवान लगती थी. गठा हुआ बदन और उभार उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

रामकली के ऐसे रूप पर साहब भी फिदा हो गए थे. जब भी वह बरतन मांजती, किसी न किसी बहाने भीतर आ कर उस के उभारों को एकटक देखते रहते थे. रामकली सब समझ जाती और अपने उभारों को आंचल में छिपा लेती थी. वे उस की लाचारी का फायदा उठाएं, उस के पहले ही वह सचेत रहने लगी थी.

यह खेल कई दिनों तक चलता रहा था. आखिरकार मौका पा कर साहब उस का हाथ पकड़ते हुए बोले थे, ‘रामकली, तुम अभी भी ताजा फूल हो.’ ‘साहब, आप बड़े आदमी हैं. हम जैसे छोटों के साथ ऐसी नीच हरकत करना आप को शोभा नहीं देता है,’ अपना विरोध दर्ज कराते हुए रामकली बोली थी.

‘क्या छोटा और क्या बड़ा, यह ऐसी आग है कि न छोटा देखती है और न बड़ा. आज मेरे भीतर की लगी आग बुझा दो रामकली,’ कह कर साहब की आंखों में हवस साफ दिख रही थी.

साहब अपना कदम और आगे बढ़ाते, इस से पहले रामकली जरा गुस्से से बोली, ‘देखो साहब, आप मेरे मरद के साहब हैं, इसलिए लिहाज कर रही हूं. मैं गिरी हुई औरत नहीं हूं. मेरी भी अपनी इज्जत है. कल से मैं बरतन मांजने नहीं आऊंगी,’ इतना कह कर वह बाहर निकल गई थी.

आज रामकली ने जगदीश से साहब के घर न जाने की बात कही, तो वह नाराज हो गया. कहता है कि मुझे परमानैंट होना है. साहब को खुश करने के लिए उस का बरतन मांजना जरूरी है, क्योंकि ऐसा करना उन्हीं साहब के हाथ में है.

जगदीश अगर परमानैंट हो जाएगा, तब उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. फिर किसी साहब के यहां जीहुजूरी नहीं करनी पड़ेगी. क्या हुआ, साहब

ही तो हैं. उन को खुश करने से अगर जगदीश को फायदा होता है तो क्यों न एक बार खुद को उन्हें सौंप दे. वैसे भी औरत का शरीर तो धर्मशाला होता है. उस के साथ सात फेरे लेने वाले पति के अलावा दूसरे मर्द भी तो लार टपकाते हैं. उस ने कई ऐसी औरतें देखी हैं, जो अपने मर्द के होते दूसरे मर्द से लगी रहती हैं. फिर आजकल सुप्रीम कोर्ट ने भी तो फैसला दिया है कि अगर कोई औरत अपने मर्द के अलावा दूसरे मर्द से जिस्मानी संबंध बना भी लेती है, तब वह अपराध नहीं माना जाएगा. फिर वह तो अपने जगदीश के फायदे के लिए जिस्म सौंप रही है.

जिस्म सौंपने से पहले साहब को साफसाफ कह देगी. इस शर्त पर यह सब कर रही हूं कि जगदीश को परमानैंट कर देना. इस मामले में मर्द औरत का गुलाम रहता है. इस तरह रामकली ने अपनेआप को तैयार कर लिया.

‘‘देखो रामकली, एक बार मैं फिर कहता हूं कि तुम साहब के यहां बरतन मांजने जरूर जाओगी,’’ जगदीश ने फिर यह कहा तो रामकली बोली, ‘‘हां बाबा, जा रही हूं. तुम्हारे साहब को खुश रखने की कोशिश करूंगी. और मैं भी उन से सिफारिश करूंगी कि वे तुझे परमानैंट कर दें,’’ कह कर रामकली साहब के बंगले पर चली गई. अभी हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि जगदीश ने घर आ कर रामकली को बताया, ‘‘साहब ने काम से खुश हो कर मेरा परमानैंट नौकरी का और्डर निकाल दिया है. तनख्वाह भी बढ़ जाएगी.’’

‘‘क्या सचमुच तुझे परमानैंट कर दिया?’’ खुशी से उछलती रामकली ने पूछा.

‘‘हां रामकली, साहब कह रहे थे कि तू ने भी सिफारिश की थी,’’ जगदीश ने जब यह कहा, तब रामकली ने कोई जवाब नहीं दिया. वह जानती है कि साहब से उस के जिस्म के बदले यह वचन लिया था. उसी वचन को साहब ने पूरा किया, तभी तो इतनी जल्दी आदेश निकाल दिया. उसे चुप देख जगदीश फिर बोला, ‘‘अरे रामकली, तुझे खुशी नहीं हुई?’’

‘‘मुझे तो तुझ से ज्यादा खुशी हुई. मैं ने जोर दे कर साहब से कहा था,’’ रामकली बोली, ‘‘उन्होंने मेरे वचन को पूरा कर दिया.’’ ‘‘अब तुझे बरतन मांजने की जरूरत नहीं है. मैं साहब के लिए दूसरी औरत का इंतजाम करता हूं.’’ ‘‘नहीं जगदीश, जब तक ये साहब हैं, मैं बरतन मांजने जाऊंगी. मैं ने यही तो साहब से वादा किया है. चलती हूं साहब के यहां,’’ कह कर रामकली घर से बाहर चली गई.

वे बच्चे: कौन था वह भिखारी

लाल बत्ती पर जैसे ही कार रुकी वैसे ही भिखारी और सामान बेचने वाले उन की तरफ लपके. बड़ा मुश्किल हो जाता है इन भिखारियों से पीछा छुड़ाना. जब तक हरी बत्ती न हो जाए, भिखारी आप का पीछा नहीं छोड़ते हैं. अब तो इन के साथसाथ हिजड़ों ने भी टै्रफिक सिग्नलों पर कार वालों को परेशान करना शुरू कर दिया है. सब से अधिक परेशान अब संपेरे करते हैं, यदि गलती से खिड़की का शीशा खुला रह जाए तो संपेरे सांप आप की कार के अंदर डाल देते हैं और आप चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं.

‘‘कार का शीशा बंद कर लो,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘गरमी में शीशा बंद करने से घुटन होती है,’’ पत्नी ने कहा. ‘‘डेश बोर्ड पर रखे सामान पर नजर रखना. भीख मांगने वाले ये छोटे बच्चे आंख बचा कर मोबाइल फोन, पर्स चुरा लेते हैं,’’ मैं ने कहा.

इतने में एक छोटी सी बच्ची कार के दरवाजे से सट कर खड़ी हो गई और पत्नी से भीख मांगने लगी. कुछ सोचने के बाद पत्नी ने एक सिक्का निकाल कर उस छोटी सी लड़की को दे दिया. वह लड़की तो चली गई, लेकिन उस के जाने के फौरन बाद एक और छोटा सा लड़का आ टपका और कार से सट कर खड़ा हो गया.

‘‘एक को दो तो दूसरे से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. देखो, इस को कुछ मत देना, नहीं तो तीसरा बच्चा आ जाएगा,’’ मैं बोला. इसी बीच बत्ती हरी हो गई और कार स्टार्ट कर के मैं आगे बढ़ गया.

‘‘इन छोटेछोटे बच्चों को भीख मांगते देख कर बड़ा दुख होता है. स्कूल जाने की उम्र में पता नहीं इन को क्याक्या करना पड़ता है. इन का तो बचपन ही खराब हो जाता है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘यह हम सोचते हैं, लेकिन भीख मांगना इन के लिए तो एक बिजनेस की तरह है. रोज इसी सड़क से आफिस जाने के लिए गुजरता हूं, इस लाल बत्ती पर रोज इन्हीं भिखारियों को सुबहशाम देखता हूं. कोई नया भिखारी नजर नहीं आता है. मजे की बात यह कि भिखारी सिर्फ कार वालों से ही भीख मांगते हैं. लाल बत्ती पर कभी इन को स्कूटर, बाइक वालों से भीख मांगते नहीं देखा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘भिखारियों के साथसाथ अब सामान बेचने वालों से भी सावधान रहना पड़ता है.’’

‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ पत्नी ने कहा, ‘‘कभीकभी तरस आता है.’’

‘‘फायदा क्या इन पर तरस दिखाने का,’’ मैं ने कहा, ‘‘जरा ध्यान रखना, फिर से लाल बत्ती आ गई.’’

‘‘अपनी भाषा कभी नहीं सुधार सकते. लाल, हरी बत्ती क्या होती है. ट्रैफिक सिग्नल नहीं कह सकते क्या,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘फर्क क्या पड़ता है, बत्ती तो लाल और हरी ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैनर्स का फर्क पड़ता है. हमेशा सही बोलना चाहिए. अगर तुम्हें किसी को टै्रफिक सिग्नल पर मिलना हो और तुम उसे लाल बत्ती पर मिलने को कहो और मान लो, टै्रफिक सिग्नल पर हरी बत्ती हो या फिर बत्ती खराब हो तो वह व्यक्ति क्या करेगा? अगली लाल बत्ती पर आप का इंतजार करेगा, जोकि गलत होगा. इसीलिए हमेशा सही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए,’’ पत्नी ने कहा. ‘‘अब इस बहस को बंद करते हैं. फिर से बत्ती लाल हो गई है.’’ इस बार एक छोटा सा 7-8 साल का बच्चा मेरी तरफ आया. ‘‘अंकल, टायर, एकदम नया है, सिएट, एमआरएफ, लोगे?’’ बच्चा बोला. मैं चुप रहा. ‘‘एक बार देख लो,’’ बच्चा बोला, ‘‘सस्ता लगा दूंगा.’’

‘‘नहीं लेना,’’ मैं ने कहा. ‘‘एक बार देख तो लो. देखने के पैसे नहीं लगते,’’ बच्चा बोला.‘‘कितने का देगा?’’ मैं ने पूछा. ‘‘मारुति 800 का नया टायर शोरूम में लगभग 1,100 रुपए में मिलेगा. आप के लिए सिर्फ 800 रुपए में,’’ बच्चा बोला.‘‘मेरे लिए सस्ता क्यों? टायर चोरी का तो नहीं?’’ मैं ने कहा.‘‘हम लोगों की कंपनी में सेटिंग है, इसलिए सस्ते मिल जाते हैं.’’‘‘एक टायर कितने में लाते हो?’’ ‘‘सिर्फ 50 रुपए एक टायर पर कमाते हैं.’’‘‘50 रुपए में टायर देगा?’’ ‘‘नहीं लेना तो मना कर दो, क्यों बेकार में मेरा टाइम खराब कर रहे हो,’’ बच्चा बोला. ‘‘टायर बेचने बेटे तुम आए थे, मैं चल कर तुम्हारे पास नहीं गया था,’’ मैं ने कहा.‘‘सीधे मना कर दो,’’ बच्चा बोला. ‘‘मना किया तो था, लेकिन फिर भी तुम चिपक गए तो मैं ने सोचा, चलो जब तक लाल बत्ती है तुम्हारे साथ टाइम पास कर लूं,’’ मैं ने कहा. ‘‘टाइम पास करना है तो आंटी के साथ करो न. मेरा बिजनेस टाइम क्यों खराब कर रहे हो,’’ कह कर बच्चा चला गया.

‘‘बात तो बच्चा सही कह गया,’’ पत्नी बोली, ‘‘मेरे साथ बात नहीं कर सकते थे, टाइम पास करने के लिए वह बच्चा ही मिला था. ऊपर से जलीकटी बातें भी सुना गया.’’ ‘‘आ बैल मुझे मार. चुप रहो तो मुसीबत, पीछा ही नहीं छोड़ते और बोलो तो जलीकटी सुना जाते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब टायर लेना नहीं था तो उस के साथ उलझे क्यों?’’ पत्नी ने कहा. ऐसे ही बातोंबातों में घर आ गया.

दिल्ली शहर की भागदौड़ की जिंदगी में घर और दफ्तर का रुटीन है, इसी में इतनी जल्दी दिन बीत जाता है कि अपनों से भी बात करने का समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

एक दिन आगरा घूमने का कार्यक्रम बना कर सुबह अपनी कार से रवाना हुए. खुशनुमा मौसम और सुबह के समय खाली सड़कें हों तो कार चलाने का आनंद ही निराला हो जाता है.

फरीदाबाद की सीमा समाप्त होते ही खुलाचौड़ा हाइवे और साफसुथरे वातावरण से मन और तन दोनों ही प्रसन्न हो जाते हैं. बीचबीच में छोटेछोटे गांव और कसबों में से गुजरते हुए कोसी पार कर मैं पत्नी से बोला, ‘‘चलो, वृंदावन की लस्सी पी कर आगे चलेंगे. वैसे हम दोनों पहले भी वृंदावन घूमने आ चुके हैं. मंदिरों व भगवान में अपनी कोई रुचि नहीं लेकिन यहां के बाजार में लस्सी पीने अैर भल्लाटिक्की खाने का अलग ही मजा है.’’

कार एक तरफ खड़ी कर इस्कान मंदिर के सामने की दुकान में हम लस्सी पीने के लिए बैठ गए.

लस्सी पी कर बाहर निकले तो पत्नी बोली, ‘‘चलो, अब थकान कम हो गई.’’

कार के पास जा कर जेब से चाबी निकाली और कार का दरवाजा खोलने के लिए चाबी को दरवाजे पर लगाया ही था कि तभी एक छोटा सा बच्चा आ कर दरवाजे से सट कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘अंकल, पैसे.’’

भिखारियों को मैं कभी पैसे नहीं दिया करता पर पता नहीं क्यों उस बच्चे पर मुझे तरस आ गया और जेब से 1 रुपए का सिक्का निकाल कर उस छोटे से बच्चे को दे दिया.

वह तो चला गया लेकिन उस के जाने के बाद पता नहीं कहां से छोटे बच्चों का एक  झुंड आ गया और चारों तरफ से हमें घेर लिया.

‘‘अंकल, पैसे,’’ एक के बाद एक ने कहना शुरू किया. मैं ने एक बार पत्नी की तरफ देखा, फिर उन बच्चों को.

जी में तो आया कि डांट कर सब को भगा दूं पर जिस तरह बच्चों की भीड़ ने हमें घेर रखा था और लोग तमाशबीन की तरह हमें देख रहे थे, शायद उस से विवश हो कर मेरा हाथ जेब में चला गया और फिर हर बच्चे को 1-1 सिक्का देता गया. किसी बच्चे को 1 रुपए का और किसी को 2 रुपए का सिक्का मिला. किसी के साथ भेदभाव नहीं था. यह इत्तफाक ही था कि जेब में 2 सिक्के रह गए और बच्चे भी 2 ही बचे थे. एक बच्चे को 5 रुपए का सिक्का चला गया और आखिरी वाले को 50 पैसे का सिक्का मिला.

‘‘क्यों, अंकल, उसे 5 रुपए और मुझे 50 पैसे?’’

‘‘जितने सिक्के जेब में थे, खत्म हो गए हैं. और सिक्के नहीं हैं, अब आप जाओ.’’

‘‘ऐसे कैसे चला जाऊं,’’ बच्चे ने अकड़ कर कहा.

‘‘और पैसे मैं नहीं दूंगा. सारे सिक्के खत्म हो गए. तुम कार के दरवाजे से हटो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मतलब ही नहीं बनता यहां से जाने का. फटाफट पैसे निकालो. दूसरे बच्चे दूर चले गए हैं. उन्हें भाग कर पकड़ना है. अपने पास ज्यादा टाइम नहीं है. अंकल, आप के पास पैसे खत्म हो गए हैं तो आंटी के पास होंगे,’’ बच्चे ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आंटी, पर्स से फटाफट पैसे निकालो.’’

मैं और मेरी पत्नी दोनों एकदम अवाक् हो एकदूसरे की शक्ल देखने लगे.

पत्नी ने चुपचाप पर्स से 5 रुपए का सिक्का निकाला और उस बच्चे को दे दिया.

सिक्का पा कर छोटा सा बच्चा जातेजाते कहता गया,  ‘‘इतनी बड़ी कार ले कर घूमते हैं. पैसे देने को 1 घंटा लगा दिया.’’

फटाफट कार में बैठ कर  मैं ने कार स्टार्ट की और अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा.

हम आगरा पहुंचे तो काफी थक चुके थे. पत्नी ने मेरे चेहरे की थकान को देख कर कहा, ‘‘चलो, किसी गेस्ट हाउस में चलते हैं.’’

गेस्ट हाउस के कमरे में बिस्तर पर लेटेलेटे सामने दीवार पर टकटकी लगा कर मुझे सोचते देख पत्नी ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’

‘‘उस छोटे बच्चे की बात मन में बारबार आ रही है. एक तो भीख दो, ऊपर से उन की जलीकटी बातें भी सुनो. सोच रहा हूं कि दया का पात्र मैं हूं या वे बच्चे. दया की भीख मैं उन से मांगूं या उन को भीख दूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि भिखारी कौन है. आखिर सुकून की जिंदगी कब और कहां मिलेगी. कहीं भी चले जाओ, ये भिखारी हर जगह सारा मजा किरकिरा कर देते हैं.’’

‘‘चलो, इस किस्से को अब भूल जाओ और हम दोनों ही प्रतिज्ञा करते हैं कि आज के बाद कभी भी किसी को भीख या दान नहीं देंगे, चाहे वह व्यक्ति कितना ही जरूरतमंद क्यों न हो.’’

‘‘करे कोई, भरे कोई,’’ मेरे मुंह से हठात निकल पड़ा.

‘‘किसी के चेहरे पर लिखा नहीं होता कि वह जरूरतमंद है.’’

‘‘सही बात है. हमें खुद अपनेआप को देखना है. दूसरों की चिंता में अपना आज क्यों खराब करें. अब आराम करते हैं.

 

एक रिश्ता ऐसा भी: क्या हुआ था मिस मृणालिनी ठाकुर के साथ

यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

यह नाइटी जो न हुई: सुहानी की कहानी

अजीअब अकेले में भी गुफ्तगू न कर सके तो लानत है ऐसी मर्दानगी पर और वैसी नाइटी वाली मुहतरमा के जुल्म ढाने वाले लापरवाह हुस्न पर. हम तो समझा करते थे नाइटी का मतलब-बेमतलब पोशाकों की उधेड़बुन से बच कर सस्ता टिकाऊ आवरण, जो स्त्री के लिए पहनना आसान भर हो. भई, हमें क्या मालूम था कि नाइटी की नटी हमारे जीवन में यों नाट्य भर जाएगी.

हमारी कयामत, जबान फिसल गई जी जरा. हमारी हुस्ने मलिका यानी हमारी श्रीमतीजी तो चौबीसों घंटे साड़ी में यों लिपटी रहती हैं जैसे खोल में गद्देदार तकिया. हिलाओडुलाओ तब भी न सरके.

अब बेचारी हमारी आंखें बटन तो नहीं. तरसती रहती हैं हुस्ने शबाब में गोते लगाने को. अब आप ही बताएं कि अगर ये दीदार वाली आंखें न हों तो हुस्न का काम ही क्या?

अजी साहब गुस्ताखी माफ. आज दरअसल बोलने का या कहूं श्रीमतीजी के पड़ोस में जाने से लिखने का मौका मिल गया तो हम भी बुक्का फाड़ के अपने दिल की निकालने लग पड़े.

सब्र का भी बांध होता है कोई जी. हर वक्त अब तो श्रीमतीजी का पहरा ही लग गया है हम पर. ‘यहां बालकनी में क्या कर रहे हो?’, ‘यहां छत पर क्या कर रहे हो?’, ‘खिड़की में क्या कर रहे हो?’, ‘दरवाजे पर क्या कर रहे हो?’ अजी इतना पूछेंगी तो हम भी न सोचेंगे कि आखिर है क्या इधर जो इतनी रोकटोक?

अब दिल तो बच्चा है न जी. सो हम ने भी बालकनी से, छत से, खिड़की से, दरवाजे से, आखिर वह राज जान ही लिया, जो हमारी कयामत श्रीमतीजी (लाहौल वला कूबत) ने छिपा कर रखना चाहा था.

चलो, अब और पहेलियां न बुझाएं वरना आप हम से खार खा जाओगे.

तो हुआ यों कि इस नई बसीबसाई सुसंस्कृत कालोनी के सिस्टम से बने सारे

बंगलों में से चुनचुन कर हमारे ही नए बंगले के सामने वाले बंगले में एक नवविवाहित जोड़ा रहने आया.

इन की शादी को मुश्किल से 4 महीने हुए होंगे. पहलेपहल तो इन दोनों की चुटिया तक न दिखती थी, मगर अब कुछ दिनों से तो हमारे पौबारह हैं. जब चाहो नजरें सेंक लो. सुना है लड़के के धनकुबेर ससुरजी से दामादबेटी को यह बंगला हासिल हुआ है. इस पतिपत्नी की उम्र करीब 25-30 के बीच होगी. उन के पतिदेव तो जाते अलसुबह चाकरी पर और हम जाते औफिस 10 बजे.

हमारी तकिए की खोल वाली मलिका खैर करें हमारी श्रीमतीजी जब तक रसोई में बरतन खटकातीं, हम अखबार पर आंखें रखते ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ के जुमले को चरितार्थ करते नजरों की भागदौड़ को मनमरजी भागने देते हैं. बेचारे एक ही कालकोठरी के गुलाम, कभीकभी दिल बिदक जाए तो कुसूर ही क्या.

तो बिदकते हुए वह हमारे सामने वाले बंगले की नवयौवना, नवप्रफुल्लिता, नवसमर्पिता के हृदय कोष्ठ तक पहुंच गया, जो सागर की दुर्दांत लहरों की तरह उछलउछल कर बरसों तक एक ही गागर का पानी पीतेपीते थक चुके नवरस के प्यासे को आलिंगन में भरने को उतावला हुआ जाता था.

40 पार के अधखाए इस गुठली सर्वस्व आम जैसे आम व्यक्ति के लिए यह तो वाकईर् बड़ी बात थी. सुदर्शना घर पर रहते वक्त बालकनी में, छत पर, खिड़की पर, दरवाजे पर यानी हर उस जगह पर जहांजहां मुझ पर पहरे थे, नाइटी में ही दिखती थीं.

 

एक से बढ़ कर एक नाइटी. कभी झीनी मिनी नाइटी, कभी स्लीवलैस नाइटी, कभी बैकलैस नाइटी, फुग्गेदार बांहों वाली फ्रंट कट नाइटी, कभी सुराहीदार कमर में लिपटी बलखाती नाइटी, कभी चिकने पैरों से नजरें फिसलाती नाइटी. इन रसास्वादन में डूब कर हम मन ही मन बटन बन चुकी आंखों से कुछकुछ दिवास्वप्न देखने लग गए थे. अब गुस्ताखी तो थी, मगर अपनी श्रीमतीजी से कह दें कि अजी तुम भी कुछ बदनउघाड़ू झीनी मिनी नाइटी पहन कर हमारे तनमन पर तितली जैसी उड़ चलो तो वे झाड़ू से हमारा जहर न झाड़ दें और तितली की तो क्या, कहीं गैंडे जैसी हमारे सिर पर सवार हो गईं तो लेने के देने न पड़ जाएं? ख्वामख्वाह ही कयामत नहीं बोलतेजी.

खैर, अब जब 50 मीटर की दूरी से दीदारे हुस्न ज्यादा ही मन को तरसाने लगा तो सोचा क्यों न पड़ोसी होने के नाते कुछ वादसंवाद ही स्थापित कर लिया जाए. सो हम ने श्रीमतीजी को ‘दिखाने के दांत’ बना कर साथ ले चलना ठीक समझा. ऐसे भी ठीक न समझ कर करते भी क्या?

उन के हुक्म के बिना हमारा तो पत्ते सा शरीर भी नहीं हिलता. तो ‘दिखाने के दांत’ के साथ जैसे ही हम उन के घर के दरवाजे पर पहुंचे हमारी सांसें तो थमने को हो गईं.

गोरी नारी छरहरे बदन पे मृदुल मांसल काया,

चपलाचंचला तू कामिनी, तेरी नाइटी की अजब माया.

मुखर यामिनी, मृदुहासिनी, मधुभाषिणी… हम तो सरपट कवि हुए जा रहे थे.

हमारी जबान ने जिस बात पर अब तक ताला जड़ रखा था वह बात भी अब खुशी के मारे हमारे फूले गुब्बारे से मुंह से बाहर निकलने लग पड़ थी. क्या है कि हमारी श्रीमतीजी की काया, काया क्या कहें साड़ी में लिपटी भैंसन सी पहलवानी तगड़ी काया के आगे बढ़ हम कभी एक छटांक भर का स्वप्न भी देखने की हिम्मत न कर पाए थे. मगर अब तो इस नाइटी की रासलीला ने हमारे अंदर साहस का दरिया ही नहीं पूरा समंदर भर दिया था कि अब हम इस आग के समंदर में बेझिझक तैरने वाले थे.

शाम हो चली थी. इच्छा तो नहीं थी कि उस स्वप्नसुंदरी के पतिदेव भी पधार जाएं, लेकिन जिस तरह ‘दिखाने के दांत’ हम साथ ले कर गए थे, वैसे ही उस के भी पहरेदार साथ हों तो जरा ‘रोके न रुकेगी’ वाली फील आ ही जाएगी, सोच हम इस अभियान में निकल लिए.

अंदर से स्विच औन करने की कड़क आवाज के साथ चेहरे के सामने 20 वाट के बल्ब वाली एक पुरानी लाल लाइट जल उठी. अंदर से एक कर्कश आवाज भी कानों में पड़ी, ‘‘देखो तो बाहर कौन बुला रहा है… जब देखो तब कोई न कोई मुंह उठाए चला आता है.’’

साहब ने दरवाजा खोला. सभ्यशिष्ट लगे. अंदर बैठक में ले जा कर सौफे पर बैठाया. बैठे रहे, बैठे रहे बंगले की खरीदारी से ले कर उन के ससुरालियों की खोजखबर, उन की नौकरीचाकरी, कैरियर, राजनीति, पार्टी, देशभक्ति… क्याक्या नहीं हम ने बोलते रहने की कोशिश की. कोशिश ही कर सकते हैं साहब, भैंसन सी श्रीमतीजी के आगे जबान जो सिल कर इतने वर्षों से बैठे थे और अब अचानक वक्त खपाने और जिया भरमाने के लिए सारे टौपिकों का जिम्मा हम पर ही आन पड़ा था. मगर जिस काव्यधारा की प्रेरणा से कामना की बाढ़ में बह कर हम इस ‘राम’ की देहरी तक आ जाने की हिम्मत कर पाए थे उस नाइटी सुंदरी सीता के रसपान को जिया हलक में ही अटका रहा. कोई अतापता नहीं. बगल में बैठी श्रीमती को हम ने कुहनी मारी. अकल की होशियार या अकल की दुश्मन वही जानें, पर श्रीमतीजी ने काम और दुश्वार कर दिया हमारा. सोचा था पूछ लेंगी कि आप की बीवी कहां है? बुलाइए उसे, पर यह न पूछ कर कहती हैं कि आज बड़ी देर हो गई. अब चलते हैं. आप की बीवी से फिर कभी मिल लेंगे.

अजी, यह तो हम पर जुल्म करने की इंतहा ही हो गई. अब तो फिर से हम बालकनी में बैठेबैठे पागल होते रहेंगे.

नहींनहीं, अब हमें ही कुछ करना होगा. अंतरात्मा की आवाज भी कभी हमारी इतनी जोर न पकड़ी होगी जितनी जोर दे कर हम ने यथेष्ट शालीन होते हुए कहा, ‘‘अरे, आप दोनों को जोड़ी में एक बार देख लें. फिर तो जाना ही है, क्योंजी?’’

श्रीमतीजी को देखा तो खा जाने वाली नजरों और होंठों की मुसकराहट के तालमेल का अजब प्रयोग करती नजर आईं. पर हमारी इस से निकल पड़ी.

नवयुवक को अतिथि की अंतिम इच्छा जैसी शायद फील आ गई थी, इसलिए अंदर की ओर आवाज दे कर कहा, ‘‘रंजना, इधर आओ. तुम से मिलना चाहते हैं.’’

हमारा तो जी, क्या कहूं, पहले प्रेम के चंचल हृदय की छटपटाहट सी सांसें मुंह को आने लगीं. क्या सचमुच उस सौंदर्य की बलिहारी को हम इतने निकट से देख पाएंगे? उन से कुछ देर बातें कर पाएंगे.

खुदा कसम इसी याद के साथ इस भरकम तकिए को जिंदगी भर झेल जाएंगे. परदे ठेल कर आ रही थीं हमारी हृदय की देवी.

हम ने नजरें उठाईं. यह क्या? यह मोटीताजी 6 गज की चटगुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी चपटी नाक वाली घर में घुसते समय की कर्कश आवाज की मालकिन हमारी मनोहारिणी बलखातीइठलाती नाइटी सुंदरी?

नहींनहीं, हम चीखतेचीखते रह गए.

‘‘मिलिए, रंजना मेरी बीवी से,’’ युवक ने कहा.

हमारी अर्धांगिनी के सुखद आश्चर्य को हम बहुत शिद्दत से महसूस कर पा रहे थे. 14 साल तक धीरेधीरे यों ही न वे हमारी अर्ध अंग बनी थीं. भले ही यह आधा अंग अब हमारे पूरे अंग से भी ज्यादा भरापूरा क्यों न हो गया हो. मोटी भैंसन अभी खुशी से मन ही मन बल्लियों उछल रही थीं. हमारी खुशी पर तो उन के दिल पर सांप लौटने लगता है. अब हो गए श्रीमतीजी के सारे  अरमान पूरे.

यह तो वही कुछ सालों में होने वाली हमारी श्रीमतीजी की जिरौक्स. खुद पर क्या तरस खाएं अब तो इस युवक की ही हम सोचते रहे.

‘‘मगर आप की बीवी हम तो किसी और को समझ रहे थे?’’ हम ने घिघियाते हुए उस से स्पष्ट करवाना चाहा. आखिर गड़बड़ हुई तो कैसे?

‘‘अरे एक को आप ने देखा होगा… वह मेरी चचेरी बहन है…अमेरिका में एनआरआई लड़के से उस की शादी तय हो चुकी है. कुछ दिनों के लिए वह यहां घूमने आई थी. आज ही दोपहर को हम उसे दिल्ली फ्लाइट के लिए छोड़ आए. दिल्ली में उस का घर है. 10 दिन बाद उस की शादी है. फिर वह अमेरिका चली जाएगी.’’

आंखों के आगे मनोहारी पकवान अब भी घूम रहे थे. हम घर लौट रहे थे अपनी भूखे दांतों के बीच सूखी जीभ फिराते हुए.

 

सैरोगेट मदर: क्या था आबिदा का फैसला

आबिदा अपनी गरीबी से काफी परेशान थी. सिर्फ उस के पति जैनुल की कमाई से घर चलता था. जैनुल कपड़े सिलता था. एक तो बड़ी मुश्किल से घर चलता था, दूसरे कुछ दिनों से उस की आंखों की रोशनी बहुत ज्यादा कमजोर हो गई थी. उस की आंखें बहुत साल से खराब चल रही थीं.

आबिदा जैनुल की आंखों की कम होती रोशनी और घटती ताकत से बहुत परेशान थी.

आबिदा के 2 बच्चे थे. दोनों स्कूल में पढ़ रहे थे. आबिदा घर की तंगहाली के चलते दोनों बच्चों को ठीक से पढ़ालिखा भी नहीं पा रही थी.

आबिदा सोच रही थी कि अगर जैनुल की आंखों का आपरेशन हो जाए तो आंख की रोशनी भी ठीक हो जाएगी और वह काम भी ज्यादा करने लगेगा, मगर इस के लिए पैसे नहीं थे. आंख का आपरेशन कराने में कम से 50,000 रुपए लगेंगे.

आबिदा अपनी पड़ोसन जैनब से किसी काम के बारे में पूछताछ करती रहती थी, मगर कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था.

एक दिन पड़ोसन जैनब ने आबिदा को सैरोगेट मदर के बारे में बताया. दरअसल, जैनब की एक सहेली ने सैरोगेट मदर बन कर 2 लाख रुपए कमाए थे. इस में अपनी कोख किराए पर देनी होती है. अपनी कोख में किसी पराए मर्द के बच्चे को पालना पड़ता है.

पड़ोसन जैनब की इस बात का असर आबिदा पर हुआ था. उस ने भी सैरोगेट मदर बनने की ठान ली थी.

इधर जैनुल की तबीयत और खराब रहने लगी थी. आबिदा को भी पड़ोसन जैनब ने सैरोगेट मदर बनने के लिए और ज्यादा उकसाया.

आबिदा ने कहा, ‘‘इस के लिए मुझे इजाजत नहीं मिल पाएगी.’’

जैनब ने पति से पूछने को कहा.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बनने की बात अपने पति को बताई. यह सुनते ही वह भड़क गया, ‘‘कोई जरूरत नहीं है यह सब करने की. जैसे भी होगा, मैं घर चला लूंगा.’’

‘‘लेकिन इस में बुराई भी क्या है? जैनब की एक सहेली भी सैरोगेट मदर बन कर खुशहाल है. इस पैसे से तुम्हारी आंखों का आपरेशन भी हो जाएगा और बच्चों की पढ़ाईलिखाई भी ठीक से होने लगेगी. अब सैरोगेट मदर बनने में किसी के साथ सोना नहीं होता है. यह सब डाक्टर करते हैं,’’ आबिदा ने पति जैनुल को मनाते हुए कहा.

‘‘रिश्तेदार, पासपड़ोस के लोग क्या कहेंगे? सब तु झ पर हंसेंगे, मु झ पर थूकेंगे,’’ जैनुल बोला.

‘‘नहीं, कहीं कुछ गलत नहीं है. यह बुरा भी नहीं है. कितनी औरतें आज सैरोगेट मदर बन कर अपना काम बना रही हैं.’’

‘‘यह काम होता ही गुपचुप है. किसी को क्या पता चलेगा. इस में डाक्टरों को लाखों रुपए मिलते हैं. दलाल भी हजारों रुपए लेते हैं.

‘‘सब से बड़ी बात यह कि कोई जोड़ा औलाद की खुशी पाएगा, मेरी वजह से.’’

आबिदा के बहुत सम झाने और घरेलू हालात देख कर जैनुल ने आखिरकार इजाजत दे दी.

एक साल में आबिदा ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसे अस्पताल में मरा हुआ कह दिया गया. वह मन में खुशी दबाए लौट आई. उसे नहीं पता चला कि बच्चा किस का था और अब कहां है.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बन कर अपने पति की आंखें ठीक कराईं, बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल कराया. उन का घरखर्च भी आराम से चलने लगा था.

कुछ दिन बाद लड्डू खिलाते हुए आबिदा ने जैनुल से कहा, ‘‘लो, मुंह मीठा करो.’’

‘‘किसलिए?’’ जैनुल ने पूछा.

‘‘मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं, किसी दूसरे के बच्चे की नहीं.’’

जैनुल की खुशी इस बार दोगुनी हो गई.

 

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