नींद: मनोज का रति से क्या था रिश्ता- भाग 1

उस ने दो, तीन बार पुकारा रमा… रमा, पर कोई जवाब नहीं.

‘‘हुंह… अब यह भी कोई समय है सोने का,‘‘ वह मन ही मन बड़बड़ाया और किचन की तरफ चल दिया. वहां देखा कि रमा ने गरमागरम नाश्ता तैयार कर रखा था. सांभर और इडली बन कर तैयार थीं.

‘‘कमाल है, कब बनाया नाश्ता?‘‘ वह सोचने लगा. तभी उसे याद आया कि रति का फोन आया था और वह बात करताकरता छत पर चला गया था. उस ने फोन उठा कर काल टाइम चैक किया. एक घंटा दस मिनट. उस ने हंस कर गरदन हिलाई और मुसकराते हुए अपना नाश्ता ले कर टेबल पर आ गया.

रमा ने लस्सी बना कर रखी थी. उस ने बस एक घूंट पिया ही था कि भीतर से रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज, मेरे फिर से तीखा पीठदर्द शुरू हो गया है. मैं दवा ले कर सो रही हूं. फ्रिज से नीबू की चटनी जरूर ले लो.‘‘

‘‘हां… हां, बिलकुल खा रहा हूं,‘‘ कह कर मनोज ने उस को आश्वस्त किया और चटखारे लेले कर इडलीसांभर खाता रहा. वह मन ही मन बुदबुदाया, ‘‘चलो कोई बात नहीं. अगर सो भी रही है तो क्या हुआ, कम से कम सुबहरात थाली तो लगी मिल ही रही है. बाकी अपनी असली जिंदगी में रति जिंदाबाद.‘‘ अपनेआप से यह कह कर मनोज नीबू की चटनी का मजा लेने लगा.

समय देखा, दोपहर के पौने 12 बज रहे थे. अब उसे तुरंत फैक्टरी के लिए निकलना था. उस ने जैसे ही कार की चाबी उठाई, उस आवाज से चौकन्नी हो कर रमा ने कहा, ‘‘बाय मनोज हैव ए गुड डे.‘‘

‘‘बाय रमा, टेक केयर,‘‘ चलताचलता वह बोलता गया और सोचता भी रहा कि कमाल की नींद है इस की. मनोज कभी अपनी आंखें फैला कर तो कभी होंठ सिकोड़ कर सोचता रहा. पर, इस समय न वह भीतर जाना चाहता था और न ही उस की कमर में हाथ फिरा कर कोई दर्द निवारक मलहम लगाना चाहता था. उस ने खुद को निरपराध साबित करने के लिए अपने सिर को झटका दिया और सोचा कि अब यह सब ठेका उस ने ही तो नहीं ले रखा है, बाहर के काम भी करो, रोजीरोटी के लिए बदन तोड़ो और घर आ कर रमा के दुखते बदन में मलहम भी लगाओ. यह सब एक अकेला कब तक करे.

मनोज खुद अपना वकील और जज भी दोनों ही बन रहा था, पर सच बात तो यह थी कि वह यह सब नहीं करना चाहता था और जल्दी से जल्दी रति का चेहरा देखना चाहता था.

गाड़ी निकाल कर मनोज फैक्टरी के रास्ते पर था. मोबाइल पर नजर डाली तो उस में रति का संदेश आ रहा था.

वह हंसने लगा. कम से कम यह रति तो है उस की जिंदगी में. चलो रमा अब 50 की उम्र में बीमार है. अवसाद में है. जैसी भी है, पर निभ ही जाती है. जीवन चल ही रहा है.

यों भी पूरे दिन में मनोज का रमा से पाला ही कितना पड़ता है. पूरे दिन तो रति साथ रहती है. जब वह नहीं रहती, तब उस के लगातार आने वाले संदेश रहते हैं. रति है तो ऐसा लगता है जीवन में आज भी ताजगी ही ताजगी है, बहार ही बहार है. एक लौटरी जैसी रति उस को कितनी अजीज थी. पिछले 3 महीने से रति उस के साथ थी.

रति अचानक ही उस के सामने आ गई थी. वह अपनी फैक्टरी के अहाते में पौधे लगवा रहा था, तभी वह गेट खोल कर आ गई. वह रति को देख कर ठिठक गया था. ऐसे तीखे नैननक्श, इतनी चुस्त पोशाक और हंसतामुसकराता चेहरा. वह आई और आते ही पौधारोपण की फोटो खींचने लगी, तो मनोज को लगा कि शायद प्रैस से आई है. और यों भी पूरी दोपहर उस की खिलौना फैक्टरी में लोगों का तांता लगा रहता था, कभी शिशु विकास संस्थान, तो कभी बाल कल्याण विभाग. कभी ये गैरसरकारी संगठन, तो कभी वो समूह, यह सब लगा रहता था.

मनोज ने रति को भी सहज ही लिया. पौधारोपण पूरा होतेहोते शहर के लगभग 10 अखबारों से रिपोर्टिंग करने वाले प्रतिनिधि आ गए थे. मनोज ने देखा कि रति कोई सवाल नहीं पूछ रही थी. वह बस यहांवहां इधरउधर घूम रही थी, बल्कि रति ने चाय, कौफी, नाश्ता कुछ भी नहीं लिया था.

खुशियों के फूल: किस बात से डर गई अम्बा

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जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 1

अनुराधा लगातार हंसे जा रही थी. उस की सांवली रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें आज भी उतनी ही खूबसूरत और कुछ कहने को आतुर नजर आ रही थीं. अंतर सिर्फ इतना था कि आज वे आंखें शर्मोहया से दूर बिंदास हो चुकी थीं. मैं उस की जिजीविषा देख कर दंग थी.

अगर मैं उस के बारे में सब कुछ जानती न होती तो जरूर दूसरों की तरह यही समझती कि कुदरत उस पर मेहरबान है. मगर इत्तफाकन मैं उस के बारे में सब कुछ जानती थी, इसीलिए मुझे मालूम था कि अनुराधा की यह खुशी, यह जिंदादिली उसे कुदरतन नहीं मिली, बल्कि यह उस के अदम्य साहस और हौसले की देन है. हाल ही में मेरे शहर में उस की पोस्टिंग शासकीय कन्या महाविद्यालय में प्रिंसिपल के पद पर हुई थी. आज कई वर्षों बाद हम दोनों सहेलियां मेरे घर पर मिल रही थीं.

हां, इस लंबी अवधि के दौरान हम में काफी बदलाव आ चुका था. 40 से ऊपर की हमउम्र हम दोनों सखियों में अनु मानसिक तौर पर और मैं शारीरिक तौर पर काफी बदल चुकी थी. मुझे याद है, स्कूलकालेज में यही अनु एक दब्बू, डरीसहमी लड़की के तौर पर जानी जाती थी, जो सड़क पर चलते समय अकसर यही सोचती थी कि राह चलता हर शख्स उसे घूर रहा है. आज उसी अनु में मैं गजब का बदलाव देख रही थी. इस बेबाक और मुखर अनु से मैं पहली बार मिल रही थी.

मेरे बच्चे उस से बहुत जल्दी घुलमिल गए. हम सभी ने मिल कर ढेर सारी मस्ती की. फिर मिलने का वादा ले कर अनु जा चुकी थी, लेकिन मेरा मन अतीत के उन पन्नों को खंगालने लगा था, जिन में साझा रूप से हमारी तमाम यादें विद्यमान थीं…

अपने बंगाली मातापिता की इकलौती संतान अनु बचपन से ही मेरी बहुत पक्की सहेली थी. हमारे घर एक ही महल्ले में कुछ दूरी पर थे. हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का फर्क था, फिर भी न जाने किस मजबूत धागे ने हम दोनों को एकदूसरे से इस कदर बांध रखा था कि हम सांस भी एकदूसरे से पूछ कर लिया करती थीं. सीधीसाधी अनु पढ़ने में बहुत होशियार थी, जबकि मैं शुरू से ही पढ़ाई में औसत थी. इस कारण अनु पढ़ाई में मेरी बहुत मदद करती थी.

अब हम कालेज के आखिरी साल में थीं. इस बार कालेज के वार्षिकोत्सव में शकुंतला की लघु नाटिका में अनु को शकुंतला का मुख्य किरदार निभाना था. शकुंतला का परिधान व गहने पहने अनु किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी. उस ने बड़ी ही संजीदगी से अपने किरदार को निभा कर जैसे जीवंत कर दिया. देर रात को प्रोग्राम खत्म होने के बाद मैं ने जिद कर के अनु को अपने पास ही रोक लिया और आंटी को फोन कर उन्हें अनु के अपने ही घर पर रुकने की जानकारी दे दी.

उस के बाद हम दोनों ही अपनी वार्षिक परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हो गईं. जिस दिन हमारा आखिरी पेपर था उस दिन अनु बहुत ही खुश थी. अब आगे क्या करने का इरादा है मैडम? मेरे इस सवाल पर उस ने मुझे उम्मीद के मुताबिक जवाब न दे कर हैरत में डाल दिया. मैं वाकई आश्चर्य से भर  उठी जब उस ने मुझ से मुसकरा कर अपनी शादी के फैसले के बारे में बताया.

मैं ने उस से पूछने की बहुत कोशिश की कि आखिर यह माजरा क्या है, क्या उस ने किसी को अपना जीवनसाथी चुन लिया है पर उस वक्त मुझे कुछ भी न बताते हुए उस ने मेरे प्रश्न को हंस कर टाल दिया यह कहते हुए कि वक्त आने पर सब से पहले तुझे ही बताऊंगी.

मैं मां के साथ नाना के घर छुट्टियां बिताने में व्यस्त थी, वहां मेरे रिश्ते की बात भी चल रही थी. मां को लड़का बहुत पसंद आया था. वे चाहती थीं कि बड़े भैया की शादी से पहले मेरी शादी हो जाए. इसी बीच एक दिन पापा के आए फोन ने हमें चौंका दिया.

अनु के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. वे हौस्पिटल में एडमिट थे. उन के बचने की संभावना न के बराबर थी. हम ने तुरंत लौटने का फैसला किया. लेकिन हमारे आने तक अंकल अपनी अंतिम सांस ले चुके थे. आंटी का रोरो कर बुरा हाल था. अनु के मुंह पर तो जैसे ताला लग चुका था. इस के बाद खामोश उदास सी अनु हमेशा अपने कमरे में ही बंद रहने लगी.

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अस्पताल में 3 दिन : अपनी-अपनी तकलीफें

मैंने चाय का आखिरी घूंट पिया और आदत के अनुसार उस को मुंह में घुमाया तो मेरे सामने के बैड पर लेटा बालक हंस दिया. मैं ने जल्दी से चाय को गले उतारा और इशारे से पूछा, ‘क्या?’ वह फिर हंस दिया, बोला, ‘चाय को मुंह में रखने और घुमाने से आप मुझे मानव विकास क्रम के पहले चरण से लगे.’ उस की बात सुन कर मैं भी हंस दिया.

अस्पताल का जनरल वार्ड है यह. कई रोगी हैं यहां. मैं तो 2 दिनों पहले ही आया हूं. कई रोगी तो महीनों से भरती हैं. यह लड़का भी 7 दिनों से भरती है. इस को कुत्ते ने काटा था तो इस के पिताजी इसे बावसी के पास ले गए थे. यहां ज्यादातर लोग पशु के काटने, बुखार आने, पेटदर्द जैसी बीमारियों पर पहले आस्था के केंद्र पर जाते हैं. जब मामला बिगड़ जाता है तो डाक्टर के पास आते हैं. ठीक होने पर डाक्टर को नहीं, बावसी को ही प्रसाद चढ़ाते हैं. तो इस लड़के को कुत्ते ने काटा. बावसी ने कुत्ते के काटे पर फूंक मारी और कहा, ‘जाओ, ठीक हो जाएगा.’ सब ने बावसी की जय की और टापरे चले गए थे. पर कुछ दिनों बाद मामला बिगड़ गया. कुत्ता पागल था, सो, लड़के को रेबीज हो गया, तो इसे यहां अस्पताल लाया गया.

अस्पताल में एक संस्था द्वारा मुफ्त में दिए जाने वाले भोजन का वितरण शुरू हुआ और लड़के के पिताजी भोजन लेने चले गए.

मेरे पास के बिस्तर पर एक 14 साल की लड़की है, जिस को उस के ही रिश्तेदारों ने जम कर पीटा है. स्वयंसेवी संस्था, पुलिस, नेता, प्रशासन के लोग उस से मिलने लगातार आते रहते हैं. किसी ने बताया कि प्रेम का मामला है, लेकिन परंपरा, सम्मान से जुड़ा है. यहां यह परंपरा है कि गांव के लड़केलड़की भाईबहन माने जाते हैं. यह लड़की गांव के ही एक लड़के से प्रेम करती है. लड़का भी जीजान से इस को चाहता था. जब गांव के बड़ेबुजुर्गों को पता लगा तो दोनों को समझाया कि यह प्रेम गलत है. वे शादी नहीं कर सकते. पर ये दोनों नहीं माने. एक दिन दोनों ने जहर खा लिया. प्रेमी तो मर गया लेकिन प्रेमिका बच गई, जो अब यहां है. लड़की बहुत दबाव में है.

परंपराएं कितनों का ही खून करती हैं, कितने ही अरमानों का गला दबा देती हैं, कितनी ही उम्मीदों को कोख में ही मार देती हैं. हर व्यक्ति जन्म लेते ही ऐसे कितने ही बोझों को ले कर बड़ा होता है. आजकल के युवा कहां मानते हैं ऐसी पुरानी बातों को. यह बात मांबाप, रिश्तेदार और समाज के ठेकेदार नहीं मानते हैं, इसलिए ऐसी घटनाएं होती हैं.

फिर ग्रामीण लड़केलड़कियां शारीरिक संबंधों को कम उम्र में ही समझ जाते हैं. क्योंकि वे एक कमरे के टापरे में मांबाप, भाईभाभी को सैक्स करते देखते हैं. प्राइवेसी तो होती नहीं है, तो वे भी इसे करने लगते हैं. फिर परिवार, गांव के सम्मान की रक्षा के लिए लड़केलड़कियां पेड़ों पर लटके दिखते हैं, जहर खा लेते हैं या दुष्कर्म के मुकदमे दायर हो जाते हैं.

वार्ड में और भी मरीज हैं जिन से मिलनेजुलने का, आनेजाने वालों का तांता लगा रहता है. ऊंची आवाज में बातचीत होती रहती है. दूसरे मरीजों की तकलीफ का खयाल नहीं रखा जाता है. कभीकभी नर्स चुप रहने को कहती है, तो कुछ देर शांति रहती है, फिर वही सब शुरू हो जाता है. कुछ बुजुर्ग बीड़ी पीते हैं. गार्ड उन से बीड़ी छीन लेते हैं. लेकिन चोरीछिपे फिर वार्ड में ये वस्तुएं आ ही जाती हैं. सभी जानते हैं इन से होने वाले नुकसान, लेकिन नशा होता ही ऐसा है जिस से दिमाग बंद हो जाता है. इंसान अच्छाबुरा, सहीगलत कुछ नहीं देखता.

दूसरे दिन सुबह अचानक वार्ड में शोरगुल बढ़ गया. ढोलधमाके ले कर बड़ा हुजूम वार्ड में घुस आया. जिस बैड पर लड़का लेटा था, वहां पूजापाठ होने लगी, कर्मकांड किया जाने लगा. भोपा आटे के पिंड बना कर लाया था जिसे बैड के चारों तरफ घुमाया जाने लगा. वैसे, लड़के को बैड से हटा दिया गया था.

जब वे लोग चले गए तो लड़के को वापस बैड पर लिटा दिया गया. जानकारी मिली कि 10 साल पहले एक लड़के की इसी बैड पर मृत्यु हो गईर् थी और भोपा ने उस के परिजनों को बताया कि लड़के की आत्मा भटक रही है, उस की मुक्ति करनी है, इसलिए यह कर्मकांड किया गया.

अस्पताल का प्रशासन, गार्ड सभी मूकदर्शक बने देख रहे थे, मरीजों की तकलीफ से उन को कोई मतलब नहीं था. आत्मा ले जाई जा चुकी थी और वार्ड के ज्यादातर लोग इस कर्मकांड की प्रशंसा कर रहे थे. कैसा समाज हम ने बनाया है जहां पाखंड के नाम पर होने वाले अंधविश्वास के आगे दूसरों की तकलीफ की कोई सुनवाई नहीं है.

मैं पूरे दिन विचलित रहा, उत्तेजित रहा. मेरे पक्ष में लोग ज्यादा नहीं थे, इसलिए प्रशासन से शिकायत करने पर मेरी सुनवाई नहीं हुई थी. लोकतंत्र में बहुमत की ही सुनवाई होती है. उस के लिए गलतसही कुछ नहीं होता. मैं बेचैनी से करवटें बदलता रहा.

शाम के डाक्टर राउंड पर आए. जब उन को मैं ने यह परेशानी बताई तो वे हंस कर बोले, ‘‘आप को कल छुट्टी मिल जाएगी, घर जा कर चिंतनमनन करते रहना.’’ वे बेफिक्री से दूसरे रोगियों को देखने लगे.

विकल्प: क्या दूसरी शादी वैष्णवी के लिए विकल्प थी?

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आशा का दीप: किस उलझन में थी वैभवी

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अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुक ाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

खुशियों के फूल – भाग 3 : किस बात से डर गई अम्बा

वह  दिन उन दोनों की जिंदगी का एक अहम दिन था जब दोनों अस्पताल में टेस्ट के बाद कोरोना नेगेटिव निकले थे. अभी उन्हें चौदह दिनों तक क्वारंटाइन में और रहना था. सो दोनों फिर से निनाद के घर चले गए.

घर पहुंचकर निनाद ने अम्बा से  कहा, “अम्बा,  में ताउम्र तुम्हारा शुक्रगुजार रहूंगा कि तुम मेरी सारी ज़्यादतियाँ  भुलाकर मुझे मौत के मुंह से वापस खींच लाई. मैं वादा करता हूं तुमसे, अब कभी पुरानी  गलतियां  नहीं दोहराऊंगा. कभी बेबात तुम पर नहीं चिल्लाऊंगा. आई एम रीयली वेरी सॉरी. मुझे माफ कर दो.’’

“निनाद, तुम्हारे माफ़ी मांगने से क्या रो रो कर, कुढ़ते झींकते तुम्हारे साथ बिताए तीन साल अनहुए हो जाएँगे? उन तीन सालों में तुमने मुझे जो दर्द दिया, तुम्हारे सॉरी कह देने से क्या उनकी भरपाई हो जाएगी? मैं कैसे मान लूँ कि तुम अब पुरानी बातें नहीं दोहराओगे? नहीं नहीं, हम अलग अलग ही ठीक हैं. अब मुझमें तुम्हारी फ़िज़ूल की कलह को झेलने की सहनशक्ति भी नहीं बची है.मैं अकेले बहुत सुकून से हूँ.“

उसकी बातें सुन निनाद ने उससे फिर से मिन्नतें की “अम्बा, मेरा यकीन करो, तुमसे अलग रह कर अब मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया. बेवज़ह तुमसे झगड़ा करता रहा. प्लीज़ अम्बा, एक बार मुझे माफ़ करदो. वादा करता हूँ, तुम्हें कभी मुझसे शिकायत नहीं होगी. प्लीज़ अम्बा.’’

निनाद की ये बातें सुन अम्बा को अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही निनाद है जो कुछ महीनों पहले तक उससे बात बात पर लड़ाई मोल लेता था. बहाने बहाने से उसे सताता था. कुछ सोच कर उसने निनाद से कहा, “इस बार तो मैं तुम्हारी बात मान  लेती हूँ, लेकिन एक बात कान खोलकर सुन लो, अगर  अब तुमने फिर से बेबात मुझसे कभी भी कलह की, बेवज़ह मुझसे झगड़े तो मैं उसी वक़्त  तुम्हें छोड़ कर चली जाऊँगी और तुमसे तलाक लेकर रहूंगी. पढ़ी लिखी अपने पैरों पर खड़ी हूं, अकेले जिंदगी काटने का दम खम  रखती हूं. इतने दिनों से अकेली बड़े चैन से रह ही रही हूँ. अब मैं तुम्हें अपनी मानसिक शांति भंग करने की इज़ाजत  हर्गिज़ हर्गिज़  नहीं दूँगी. ना ही अपनी बेइज्ज़ती करवाऊंगी. तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया, इसलिए इस बार तो मैंने तुम्हें माफ़ किया लेकिन याद रखना, अगली बार तुम्हें कतई माफ़ी नहीं मिलेगी.“

“नहीं, नहीं अम्बा, भरोसा रखो, अब मैं तुम्हें शिकायत का मौका हर्गिज़ हर्गिज़ नहीं दूंगा. मैं वास्तव में अपनी पुरानी ज़्यादतियों के लिए बहुत शर्मिंदा हूँ. अब हम एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे. जिंदगी की यह दूसरी पारी तुम्हारे नाम, माय लव,” यह  कहते हुए निनाद ने अम्बा  को अपने सीने से लगा लिया था .

पति की बाहों में बंधी अम्बा  को लगा, मानो पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में थी. निनाद  के साथ साझा, सुखद  भविष्य के सतरंगे  सपने उसकी आंखों में झिलमिला उठे.उसे लगा, एक अर्से बाद उसके चारों ओर खुशियों के फ़ूल गमक महक उठे थे.

वास्तुदोष कहां है

सुबहसुबह तैयार हो कर जब भानुप्रकाश ने गैराज का ताला खोल कार को स्टार्ट करने लगे, तो वह घर्रघर्र कर के रह गई. वह एकदम से झल्ला कर के चिल्लाए, “सुधा… ओ सुधा, जरा बाहर तो आना.”

वह हड़बड़ाती हुई आई, तो भानुप्रकाश बोले- “देखो, आज फिर कार स्टार्ट नहीं हो रही है.”

“ओह… पिछले दिनों ही इसे रिपेयरिंग कराए थे ना. रोजरोज यह क्या हो जाता है?”

“मैं कहता था ना कि हमारा गैराज सही दिशा में नहीं है,” वह बोले, “पिछले सप्ताह इस में सांप निकला था, जिस से मैं बालबाल बचा था. यहां आए हमें 6 महीने भी नहीं हुए कि कार दो बार दुर्घटनाग्रस्त हुई है.”

“आप कहना क्या चाह रहे हैं?”

“यही कि गैराज में वास्तुदोष है. यही कारण है कि कार के साथ कुछ न कुछ परेशानी आ रही है और यह बीचबीच में खराब भी हो जा रही है. यह गैराज दक्षिणपश्चिम में है, जबकि इसे उत्तरपश्चिम यानी वायव्य कोण में होना चाहिए.”

“अरे, ऐसा कुछ नहीं है,” वह जानते हुए भी बोली कि भानु प्रकाश प्रारब्ध, ज्योतिष आदि पर आंख मूंद कर विश्वास करते हैं, उन की शंका का निवारण करना चाहा, “यह संयोग भी तो हो सकता है.”

“क्या बात करती हो, 18 लाख की नई गाड़ी है. और यह बारबार खराब हो जाती है. फिर यहां के गैराज में भी कोई न कोई हादसा हो जा रहा है. मुझे लगता है कि यह गैराज के सही दिशा में न होने के कारण है. मुझे अब किसी दूसरी जगह पर गैराज बनाना होगा.”

“कितनी मुश्किल से तो यह घर मिला है… इतने बड़े शहर में जगह कहां है, जो कोई अलग से गैराज बनवाए. फिर सरकार तो बनवाने से रही. और हम बनाएंगे तो हजारों रुपए का खर्च आएगा.”

“तो क्या करें…? रोजरोज की परेशानी तो नहीं देखी जा सकती?”

“लेकिन, गैराज बनाने के लिए जगह तो चाहिए?”

“जगह का क्या है… हम बंगले के सामने ही क्यों न गैराज बना लें?”

“अरे, इतनी अच्छी फुलवारी है. उसे तहसनहस कर दें.”

“और कोई उपाय भी तो नहीं है. मैं कल ही यहां काम लगा दूंगा.”

भानु प्रकाश सरकारी महकमे में कनिष्ठ सचिव ठहरे. बस ठेकेदार को बताना भर था. आननफानन काम लग गया. जहां कभी खूबसूरत फूलपत्तों के पौधे शोभायमान थे, उसे उजाड़ कर वहां सीमेंट की फर्श बन चुकी थी. लोहे की चादरों की दीवार और ऊपर एसबेस्टस की छत डाली जा चुकी थी. और पुराने गैराज का फाटक उखाड़ कर वहीं लगा दिया गया था. उन के कहेअनुसार अब गैराज वायव्य कोण अर्थात उत्तरपश्चिम में बन चुका था. और इसी चक्कर में बीसेक हजार रुपए खर्च हो गए थे.

“अब यहां कोई परेशानी नहीं होगी,” खुश होते हुए वह बोले.

“मगर, यह अब बंगले की चारदीवारी के बाहर है,” वह चिंतित स्वरों में बोली, “और, मैं ने सुना है, इधर चोरियां बहुत होती हैं.”

“अरे, ऐसा कुछ नहीं,” भानु प्रकाश निश्चिंत भाव से बोले, “बंगले के सामने ही तो है. फिर फाटक में मजबूत ताला लगाऊंगा.”

सुधा को इस बात का मलाल था कि एक खूबसूरत फुलवारी उजड़ गई थी और उस की जगह बंगले के ठीक सामने गैराज था. पहले बंगले के परिसर में ही चारदीवारी के भीतर गैराज था. अब गैराज के बाहर होने से उस के लिए अलग से ताले की व्यवस्था करनी पड़ी थी.

कुछ दिन तो ठीकठाक बीते. मगर, फिर भी एक हादसा हो ही गया.
वह 3 दिनों के लिए राजधानी में दौरे पर गए थे. वहीं उन्हें फोन आया कि गांव में मां की तबीयत ठीक नहीं है. उन्होंने तुरंत सुधा को फोन किया कि वह अविलंब गांव चली जाए. शाम की ट्रेन पकड़ कर वह गांव चली आई थी.

अगले दिन ही वह भी राजधानी से सीधे गांव चले आए.

उस के अगले दिन वह दोनों वापस लौटे. कार गैराज में नहीं थी. किसी ने ताला तोड़ कर दिनदहाड़े कार चोरी कर ली थी.

और वह थाने में कार चोरी की रपट लिखा रहे थे.

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