Serial Story: नया क्षितिज – भाग 5

एक पल को मान्या चुप रही, फिर बोली, ‘‘मां, डाक्टर से कहो कि किसी प्रकार दवाओं से एक माह कट जाए तो ठीक होगा तब तक हम लोग लौट आएंगे. बड़ी मुश्किल से यह प्रोग्राम बना है, कैंसिल करना मुश्किल है. मृणाल तथा रोहित जीजा बड़े ही ऐक्साइटेड हैं. आप समझ रही हैं न.’’

‘‘हां बेटा, मैं सब समझ रही हूं. तुम लोग अपना प्रोग्राम खराब न करो’’ वसुधा ने आहत स्वर में कहा.  अब? अब क्या करें, क्या नागेश से ही मदद लेनी होगी. शायद यही ठीक होगा और उस ने नागेश को फोन मिला दिया.

हौस्पिटल में ऐडमिट होने के तत्काल बाद ही उस का इलाज शुरू हो गया. 4 घंटे की लंबी प्रक्रिया के बाद उसे औब्जर्वेशन में रखा गया. दूसरे दिन उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया. उसे कुछ पता भी नहीं चला कि सबकुछ कैसे हुआ. जब होश आया तब उस ने नागेश को अपने बैड के पास आरामकुरसी पर आंखें बंद किए हुए अधलेटे देखा. बड़ा ही मासूम लग रहा था, थकान तथा चिंता की लकीरें चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. उस का एक हाथ उस के हाथ पर था. उस ने धीरे से नागेश के हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख दिया. नागेश चौंक कर उठ गया. ‘‘क्या हुआ वसु, तबीयत अब कैसी लग रही है?’’ बेचैनी थी उस के स्वर में. यह वसुधा ने भी महसूस किया.

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वसुधा यह सोचसोच कर अभीभूत हो रही थी कि नागेश न होते तो क्या होता. संतानों ने तो अपनाअपना ही देखा. मां का क्या होगा, इस से किसी को मतलब नहीं. वह कृतज्ञता से दबी जा रही थी. 3 दिन वह हौस्पिटल में रही और इन 3 दिनों में नागेश ने उस की सेवा में दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा. चौथे दिन वह नागेश के सहारे ही वापस आई. बेहद कमजोरी आ गई थी. नागेश ने हर तरह से उस की सेवा की. इलाज के दौरान जो भी व्यय होता रहा, नागेश ने खुशीखुशी उसे वहन किया. ऐसा प्रतीत होता था मानो वह प्रायश्चित्त कर रहा हो. जब वसुधा पूरी तरह स्वस्थ हो गई तब नागेश ने उस की देखभाल के लिए एक नर्स का इंतजाम कर दिया और उस से विदा मांगी.

वसुधा का मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. उस के जी में आता था कि दौड़ कर नागेश को रोक ले. उस ने बैड से उठने का उपक्रम किया किंतु तब तक नागेश जा चुका था. वह चुपचाप बैठी, सोचने लगी, कहीं वह नागेश को दोबारा खो तो नहीं रही है? नहीं, इतने वर्षों के विछोह के बाद, इतनी मुश्किलों के बाद नागेश उसे मिला है, अब वह उसे दूर नहीं जाने देगी. लेकिन वह उसे किस अधिकार से रोक सकती है.

नागेश की आंखों में उस के लिए चाहत साफसाफ दिखती थी. पर प्रकट में उस ने कुछ भी नहीं कहा. तो क्या हुआ, तेरी इतनी सेवा उस ने की, क्या यह उस का प्यार नहीं था? हां, प्यार तो था, पर मुझे अपनाएंगे ही, इस का क्या भरोसा, और फिर हमारी शादी वाली उम्र भी तो नहीं है, वह खुद ही बोल उठी.

सायंकाल नागेश फलों का जूस ले कर आया, उस का हालचाल पूछा और अपने हाथों से उसे जूस पिलाया. तभी वसुधा ने उस का हाथ थाम लिया, ‘‘क्यों इतनी सेवा कर रहे हो? छोड़ दो न मुझे अकेले. यह तो मेरा प्रारब्ध है, कोई क्या कर सकता है?’’

नागेश के होंठों पर हलकी सी स्मित आई, तत्काल ही बोल उठा, ‘‘कौन कहता है कि तुम अकेली हो? जब तक मैं हूं, तुम अकेली नहीं होगी, वसु. अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम अपने रिश्ते को एक नाम दे दें.’’ थोड़े विराम के बाद वह धीमे से बोला, ‘‘वसु, क्या मुझ से विवाह करोगी?’’

वसुधा चौंक उठी, ‘‘विवाह, इस उम्र में? नहीं, नहीं, नागेश, समाज हमें जीने नहीं देगा. लोगों को बातें बनाने का अवसर मिल जाएगा. मैं भी लोगों की नजरों में गिर जाऊंगी और फिर स्वयं मेरे बच्चे भी मेरा ही नाम धरेंगे.’’

‘‘क्या तुम समाज की इतनी परवा करती हो? क्या दिया है समाज ने तुम को? अकेलापन, अवसाद, त्रासदी. क्या एक स्त्री को जीने के लिए ये तीनों सहारे हैं? क्या तुम्हें हंसने का, खुश रहने का अधिकार नहीं है? और शादी केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं की जाती है, एक उम्र आती है जब हर व्यक्ति को एक साथी की जरूरत होती है. और इस समय मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी जरूरत है. यदि हां कर दो तो शायद हम बीते हुए पलों को नए रूप में जी सकेंगे. यह सच है कि 35 वर्षों पूर्व का बीता हुआ समय लौट कर नहीं आ सकेगा, पर आगे जो भी समय है, हम उसे भरपूर जिएंगे.

‘‘तुम कहती हो, बच्चे तुम्हारा ही नाम धरेंगे, तो जरा सोचो, तुम ने अपने बच्चों के लिए क्या नहीं किया, क्याक्या तकलीफें नहीं उठाईं और जब तुम्हारा समय आया तब सब ने मुंह फेर लिया. अब उन्हें अपनाअपना परिवार ही दिख रहा है. उन की दृष्टि में तुम्हारा कोई भी अस्तित्व नहीं है. तुम उन को व्यवस्थित करने का एक साधन मात्र थीं.

मैं तुम्हें बच्चों के खिलाफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि जीवन की वास्तविकता दिखा रहा हूं. यह समाज ऐसा ही है और तुम्हारे बच्चे भी इस से परे नहीं हैं. उन की निगाहों में तुम एक आदर्श मां हो जिस ने जीवन की सारी समस्याओं का अब तक अकेले सामना कर के अपने बच्चों का पालनपोषण किया जोकि तुम्हारा कर्तव्य भी था. किंतु उन्हें यह याद नहीं कि उन का भी कुछ कर्तव्य है. उन्होंने तुम को ग्रांटेड समझ लिया. तुम्हारी अपनी क्या इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं तथा उन से तुम्हारी क्या अपेक्षाएं हैं, उन्हें किसी भी चीज से सरोकार नहीं. हो सकता है कि वे लोग तुम्हें मां का दरजा दे रहे हों परंतु इस से क्या तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी कामनाएं दमित हो जानी चाहिए?

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बच्चे भी इसी समाज का अंग हैं. समाज से परे वे कुछ भी नहीं सोच सकते हैं. वैसे, तुम चाहो तो अपने बच्चों से सलाह कर लो. देखो, वे लोग क्या राय देते हैं?’’ कह कर नागेश थोड़ा दुखी हो कर चला गया.

वसुधा ने कुणाल को फोन मिलाया. उस का फोन टूंटूं कर रहा था. उस ने कई बार फोन मिलाया. बड़ी देर बाद फोन लग ही गया. ‘‘हैलो,’’ कुणाल का स्वर थोड़ा खीझा हुआ था, ‘‘क्या हुआ, मां, इस समय क्यों फोन किया?’’ स्वर से स्पष्ट था कि उसे इस समय वसुधा का फोन करना पसंद नहीं आया था.

‘‘बेटा, बात यह है कि मुझे हार्ट प्रौब्लम हो गई है, एंजियोग्राफी हुई है. एक सप्ताह बीत गया है. अब ऐसा लग रहा है कि अकेले रहना मुश्किल है. किसी न किसी को तो मेरे पास होना ही चाहिए. वह तो एक परिचित थे, जिन्होंने बहुत मदद की और अभी भी एक नर्स इंगेज कर रखी है.’’

‘‘ठीक किया. देखो मां, किसी के पास इतनी फुरसत नहीं है और अब अपना ध्यान स्वयं रखना होता है. वान्या दीदी तथा मान्या भी अपने परिवार के साथ यूरोप टूर पर जा रही हैं. वे दोनों भी नहीं आ पाएंगी. अपना खयाल रखना और हां, उन सज्जन को मेरा हार्दिक धन्यवाद कहना जिन्होंने तुम्हारी इतनी सहायता की,’’ फोन कट गया.

वसुधा स्तब्ध थी. ये मेरी संतानें हैं जिन के लिए मैं ने अपने किसी सुख की परवा नहीं की. मृगेंद्र की मृत्यु के समय वह एकदम ही युवा थी. बहुतों ने उस से विवाह करने के लिए कोशिश की पर वह अपने बच्चों को छोड़ कर नहीं रह सकती थी और 3-3 बच्चों के साथ उसे कोई स्वीकार भी नहीं करता. सो, वह अपने बच्चों के लिए ही जीती रही. किंतु क्या मिला उसे? आज बच्चों को इतनी फुरसत नहीं है कि वे मां का खयाल रख सकें.

वसुधा को ऐसा लगता है कि उस का वह स्वप्न, जिस में वह अथाह जलराशि में तिनके की तरह बह रही थी, और अदृश्य साया उस को थामने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, क्या उसे आज की परिस्थितियों की ओर ही इंगित कर रहा था? और वह हाथ, जो किसी अदृश्य साए का था, शायद वह नागेश का ही था. हां, अवश्य ही, वह नागेश ही रहा होगा.

अब वह निर्णय लेने की स्थिति में आ गई थी. सब ने उसे मूर्ख समझा, ठीक है. लेकिन अब वह और मूर्ख नहीं बनना चाहती. उस का भी अपना जीवन है, उस की भी अपनी हसरतें हैं जिन्हें अब वह पूरा करेगी. यदि बच्चों को उस की आवश्यकता होगी तो वे स्वयं उस के पास आएंगे और उस ने उसी क्षण एक निर्णय ले लिया. उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.

दरवाजे की घंटी बजी, नर्स ने द्वार खोला, नागेश ही था. ‘‘क्या हुआ वसु, क्या तबीयत खराब लग रही है? डाक्टर को बुलाएं?’’ चिंता उस के हर शब्द में भरी हुई थी.

‘‘नागेश, कोर्ट कब चलना होगा? अब रुकने से कोई लाभ नहीं. मुझे भी तुम्हारा साथ चाहिए, बस. और कुछ नहीं,’’ वसुधा का स्वर भराभरा था. ‘‘और बच्चे?’’ नागेश ने कहा. ‘‘उन्हें बाद में सूचित कर देंगे,’’ वसुधा ने दृढ़ता से कहा.

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‘‘ओह वसु, भावातिरेक में नागेश ने उस का हाथ पकड़ लिया. मेरी तपस्या सफल हुई. अब हम अपना शेष जीवन भरपूर जिएंगे,’’ कह कर नागेश ने वसुधा का झुका हुआ चेहरा ठुड्डी पकड़ कर उठाया. दोनों की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं और नागेश की आंखों से टपक कर आंसू की 2 बूंदें वसुधा की आंखों में बसे आंसुओं से मिल कर एकाकार हो रही थीं. और वसुधा, नागेश की अमरलता बन कर उस से लिपटी हुई थी. अब, उन के सामने एक नया क्षितिज बांहें पसारे खड़ा था.

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 2

एक ओर संशयरूपी नाग फन काढ़े हुए था और दूसरी ओर आशा वसुधा को आश्वस्त कर रही थी. इन दोनों के बीच में डूबतेउतराते हुए एक सप्ताह बीत गया कि अकस्मात वज्रपात हुआ. उस के पापा के पास नागेश के पिता का पत्र आया जिस में उन्होंने विवाह करने में असमर्थता बताई थी बिना किसी कारण के.

वह हतप्रभ थी, यह क्या हुआ. वह तो नागेश के पत्र की प्रतीक्षा कर रही थी. पत्र तो नहीं आया लेकिन उस की मौत का फरमान जरूर आया था. उस का दम घुट रहा था. ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया हो. चारों ओर से निगाहें उस की ओर उठती थीं, कभी व्यंग्यात्मक और कभी करुणाभरी. वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

एक दिन उसे अपने पीछे से किसी की आवाज सुनाई दी. ‘ताजिए ठंडे हो गए? अब तो जमीन पर आ जाओ.’ उस ने पलट कर देखा, उस की सब से गहरी मित्र रिया हंस रही थी. वह तिलमिला उठी थी लेकिन कुछ न कह कर वह क्लास में चली गई. वहां भी कई सवालिया नजरें उसे देख रही थीं.

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धीरेधीरे ये बातें पुरानी हो रही थीं. अब उस से कोई भी कुछ नहीं पूछता था. एक रोज रिया ने हमदर्दी से कहा, ‘वसुधा, सौरी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मुझे तो अंदाजा भी नहीं था कि तेरे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ है.’ और वह वसुधा से लिपट गई.

6 महीनों बाद ही पापा ने उस का विवाह मृगेंद्र से सुनिश्चित कर दिया और वह विदा हो कर अपने पति के घर की शोभा बन गई. विवाह की पहली रात वह सुहागसेज पर सकुचाई सी बैठी थी. कमरे की दीवारें हलके नीले रंग की थीं. नीले परदे पड़े हुए थे. नीले बल्ब की धीमी रोशनी बड़ा ही रूमानी समा बांध रही थी. वह चुपचाप बैठी कमरे का मुआयना कर रही थी कि तभी एक आवाज आई, ‘वसु, जरा घड़ी उधर रख देना.’

मृगेंद्र का स्वर सुन कर वह धक से रह गई. खड़ी हो कर उस ने मृगेंद्र की घड़ी ले ली और साइड टेबल पर रख दी. अब क्या होगा. मृगेंद्र मेरे अतीत को जानने का प्रयास करेंगे. मैं क्या कहूंगी. मौसी ने कहा था, ‘बेटी, पिछले जीवन की कोई भी बात पति को न बताना. पुरुष शक्की होते हैं. भले ही उन का अतीत कुछ भी रहा हो लेकिन पत्नी के अतीत में किसी और से नजदीकियां रखना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता है.’

लेकिन मृगेंद्र ने कुछ भी तो नहीं पूछा. बस, उस के दोनों कंधों से उसे पकड़ कर बैड पर बैठा दिया और स्वयं ही कहने लगे, ‘वसु, मैं यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान का प्रोफैसर हूं. इतना वेतन मिल जाता है कि अपने लोगों का गुजारा हो जाए. मेरे पास एक पुराने मौडल की मारुति कार है जो मुझे बहुत ही प्रिय है. मुझे नहीं पता कि तुम्हारी मुझ से क्या अपेक्षाएं हैं परंतु कोशिश करूंगा कि तुम्हें सुखी रख सकूं. मैं थोड़े में ही संतुष्ट रहता हूं और तुम से भी यही आशा करता हूं.’

वसु हतप्रभ रह गई. यह कैसी सुहागरात है. कोई प्यार की बात नहीं, कोई मानमनौवल नहीं. बस, एक छोटी सी आरजू जो मृगेंद्र ने उसे कितने शांत भाव से साफसाफ कह दी, मानो जीवन का सारा सार ही निचोड़ कर रख दिया हो. उसे गर्व हो रहा था. वह डर रही थी कि कहीं अतीत का साया उस के वर्तमान पर काली परछाईं न बन जाए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और वह सबकुछ बिसार कर मृगेंद्र की बांहों में समा गई.

उस ने अपनेआप से एक वादा किया कि अब वह मृगेंद्र की है और संपूर्ण निष्ठा से मृगेंद्र को सुखी रखने का प्रयास करेगी. अब उन दोनों के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का अस्तित्व वह सहन नहीं करेगी. पेशे से मृगेंद्र एक मनोवैज्ञानिक थे, शायद, इसीलिए उन्होंने उस के मनोभावों को समझ कर उस के अतीत को जानने का कोई प्रयास नहीं किया.

2 वर्षों बाद उस ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया जो हूबहू मृगेंद्र की ही परछाईं थी. जब उन्होंने उसे अपनी गोद में लिया तो उन की आंखें छलक आईं, गदगद हो कर बोले, ‘वसु, तुम ने बड़ा ही प्यारा तोहफा दिया है. मैं प्यारी सी बेटी ही चाहता था और तुम ने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’ और उन्होंने वसुधा के माथे पर आभार का एक चुंबन अंकित कर दिया. उस का नाम रखा वान्या.

वान्या के 3 वर्ष की होने के बाद उस ने एक बेटे को जन्म दिया. बड़े प्यार से मृगेंद्र ने उस का नाम रखा कुणाल. अब वह बहुत ही खुश था कि उस का जीवन धन्य हो गया. वह एक सुखी और संपन्न जीवन व्यतीत कर रही थी कि उस के जीवन में फिर एक बेटी का आगमन हुआ, मान्या. कुणाल बहुत खुश रहता था क्योंकि उसे एक छोटी बहन चाहिए थी जो उसे मिल गई थी.

हंसतेखेलते विवाह के 15 वर्ष बीत गए थे कि एक दिन मृगेंद्र के सीने में अचानक दर्द उठा. वह उन्हें ले कर अस्पताल भागी जहां पहुंचने के कुछ ही क्षणों बाद डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित करते हुए कहा, ‘मैसिव हार्ट अटैक था.’

अब वह तीनों बच्चों के साथ अकेली रह गई थी. यूनिवर्सिटी के औफिस में ही उसे जौब मिल गई और जीवन फिर धीमी गति से एक लीक पर आ गया.

वान्या और मान्या ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली थी. कुणाल इंजीनियर बन गया था. उस ने तीनों बच्चों का विवाह उन की ही पसंद से कर दिया. तीनों ही खुश थे. वान्या और मान्या दोनों ही मुंबई में थीं और कुणाल अपनी कंपनी के किसी प्रोजैक्ट के लिए जरमनी चला गया था. बच्चों के जाने से घर में चारों ओर एक नीरवता छा गई थी. तीनों बच्चे चाहते थे कि वह उन के साथ रहे लेकिन पता नहीं क्यों उसे अब अकेले रहना अच्छा लग रहा था, जैसे जीवन की भागदौड़ से थक गई हो.

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उस की सेवानिवृत्ति के 3 वर्ष बचे थे. उस ने वीआरएस ले लिया था क्योंकि अब वह नौकरी भी नहीं करना चाहती थी. जो कुछ पूंजी उस के पास थी, उस ने साउथ सिटी में 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट ले लिया और अकेले रह कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी.

अचानक आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज हुई. वह यादों के भंवर से बाहर आ गई.

वह बहुत परेशान थी. शायद हृदय में अभी भी नागेश के लिए कुछ भावनाएं व्याप्त थीं. तभी तो न चाहते हुए भी उस के विषय में सोच रही थी. ‘क्या यह सच है कि पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता,’ उस ने अपनी अंतरात्मा से प्रश्न किया? ‘हां’ उत्तर मिला. तो वह क्या करे, क्या नागेश से दोबारा मिलना उचित होगा? कहीं वह कमजोर न पड़ जाए. नहीं, नहीं, वह बड़बड़ा उठी. वह क्यों कमजोर पड़ेगी? जिस ने उस के जीवन के माने ही बदल दिए थे, उस धोखेबाज से वह क्यों मिलना चाहेगी? उस का और मेरा अब नाता ही क्या है? वसु मन ही मन सोच रही थी.

उस के मन में फिर विचार आया. एक बार बस, एक बार वह उस से मिल कर अपना अपराध तो पूछ लेती. ‘क्या उस ने सच में धोखा दिया था या कोई और मजबूरी थी. हुंह, उस की कुछ भी मजबूरी रही हो, मेरा जीवन तो उस ने बरबाद कर दिया था. फिर कैसा मिलना.’

वसु के मन में विरोधी विचारधाराएं चल रही थीं. लेकिन फिर उस का हृदय नागेश से मिलने के लिए प्रेरित करने लगा, हां, उस से एक बार अवश्य ही मिलना होगा. वह अपनी मजबूरी बताना भी चाह रहा था लेकिन उस ने सुनने की कोशिश ही नहीं की. अब उस ने सोच लिया कि कल सायंकाल पार्क में जाएगी जहां शायद उस का सामना नागेश से हो जाए.

बैड पर लेट कर उस ने आंखें बंद कर लीं क्योंकि रात्रि के 2 प्रहर बीत चुके थे. लेकिन नींद अब भी कोसों दूर थी. मन बेलगाम घोड़े की भांति अतीत की ओर भाग रहा था-नागेश जिस ने उस की कुंआरी रातों में चाहत के अनगिनत सपने जगाए थे, नागेश जिस के कदमों की आहट उस के दिल की धड़कनें बढ़ा देती थीं, नागेश जिस की आंखें सदैव उसे ढूंढ़ती थीं.

उसे याद आता है कि एक बार दोपहर में वह सो गई थी कि अचानक ही नागेश आ गया था. मां ने उसे झकझोर कर उठाया तो वह अचकचा कर दिग्भ्रमित सी इधरउधर देखने लगी. डूबते सूर्य की रश्मियां उस के मुख पर अठखेलियां कर रही थीं. नागेश उसे अपलक देखते हुए बोल उठा, ‘इतना सुंदर सूर्यास्त तो मैं ने अब तक के जीवन में कभी नहीं देखा. और उस का चेहरा अबीरी हो उठा था. नागेश, जिस ने पहली बार जब उसे अपनी बांहों में ले कर उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर लगाई थी, उस चुंबन को वह अभी तक न भूल सकी थी.

जब भी वह मृगेंद्र के साथ अंतरंग पलों में होती थी, तो उसे मृगेंद्र की हर सांस, हर स्पर्श में नागेश का आभास होता था. वह मन ही मन में बोल उठती थी, ‘काश, इस समय मैं नागेश की बांहों में होती.’ एक प्रकार से वह दोहरे व्यक्तित्व को जी रही थी.

आगे पढ़ें- प्रतिपल नागेश एक परछाईं की भांति उस के साथ…

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Serial Story: नया क्षितिज – भाग 1

‘वसु,’ पीछे से आवाज आई, वसुधा के पांव ठिठक गए, कौन हो सकता है मुझे इस नाम से पुकारने वाला, वह सोचने लगी. ‘वसु,’ फिर आवाज आई, ‘‘क्या तुम मेरी आवाज नहीं पहचान रही हो? मैं ही तो तुम्हें वसु कहता था.’’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. अब वसु ने पलट कर देखा, शाम के धुंधलके में वह पहचान नहीं पा रही थी. कौन हो सकता है? वह सोचने लगी. वैसे भी, उस की नजर में अब वह तेजी नहीं रह गई थी. 55 वर्ष की उम्र हो चली थी. बालों में चांदी के तार झिलमिलाने लगे थे. शरीर की गठन यौवनावस्था जैसी तो नहीं रह गई थी. लेकिन ज्यादा कुछ अंतर भी नहीं आया था, बस, हलकी सी ढलान आई थी जो बताती थी कि उम्र बढ़ चली है.

लंबा छरहरा बदन तकरीबन अभी भी उसी प्रकार का था. बस, चेहरे पर हलकीहलकी धारियां आ गई थीं जो निकट आते वार्धक्य की परिचायक थीं. कमर तक लटकती चोटी का स्थान ग्रीवा पर लटकने वाले ढीले जूड़े ने ले लिया था.

अभी भी वह बिना बांहों का ब्लाउज व तांत की साड़ी पहनती थी जोकि उस के व्यक्तित्व का परिचायक था. कुल मिला कर देखा जाए तो समय का उस पर वह प्रभाव नहीं पड़ा था जो अकसर इस उम्र की महिलाओं में पाया जाता है.

‘वसु’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. कौन हो सकता है? इस नाम से तो उसे केवल 2 ही व्यक्तियों ने पुकारा था, पहला नागेश, जिस ने जीवन की राह में हाथ पकड़ कर चलने का वादा किया था लेकिन आधी राह में ही छोड़ कर चला गया और दूसरे उस के पति मृगेंद्र जिन्हें विवाह के 15 वर्षों बाद ही नियति छीन कर ले गई थी. दोनों ही अतीत बन चुके थे तो यह फिर कौन हो सकता था. क्या ये नागेश है जो आवाज दे रहा है, क्या आज 35 वर्षों बाद भी उस ने उसे पीछे से पहचान लिया था?

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आवाज देने वाला एकदम ही निकट आ गया था और अब वह पहचान में भी आ रहा था. नागेश ही था. कुछ भी ज्यादा अंतर नहीं था, पहले में और बाद में भी. शरीर उसी प्रकार सुगठित था. मुख पर पहले जैसी मुसकान थी. बाल अवश्य ही थोड़े सफेद हो चले थे. मूंछें पहले पतली हुआ करती थीं, अब घनी हो गई थीं और उन में सफेदी भी आ गई थी.

‘तुम यहां?  इतने वर्षों बाद और वह भी इस शाम को अचानक ही कैसे आ गए,’ वसुधा ने कहना चाहा किंतु वाणी अवरुद्ध हो चली थी.

वह क्यों रुक गई? कौन था वो, उसे वसु कह कर पुकारने वाला. यह अधिकार तो उस ने वर्षों पहले ही खो दिया था. बिना कुछ भी कहे, बिना कुछ भी बताए जो उस के जीवन से विलुप्त हो गया था. आज अचानक इतने वर्षों बाद इस शाम के धुंधलके में उस ने पीछे से देख कर पहचान लिया और अपना वही अधिकार लादने की कोशिश कर रहा था. फिर इस नाम से पुकारने वाला जब तक रहा, पूरी निष्ठा से रिश्ते निभाता रहा.

आवाज देने वाला अब और निकट आ गया था. वसुधा ने अपने कदम तेजी से आगे बढ़ाए. अब वह रुकना नहीं चाहती थी. तीव्र गति से चलती हुई वह अपने घर के गेट पर आ गई थी. कदमों की आहट भी और करीब आ गई थी. उस ने जल्दी से गेट खोला. उस की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं. वह सीधे ड्राइंगरूम में जा कर धड़ाम से सोफे पर गिर पड़ी.

दिल की धड़कनें तेजतेज चल रही थीं. किसी प्रकार उस ने उन पर नियंत्रण किया. प्यास से गला सूख रहा था. फ्रिज खोल कर ठंडी बोतल निकाली. गटगट कर उस ने पानी पी लिया. तभी डोरबैल बज उठी.

उस के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहीं वही तो नहीं है, उस ने सोचते हुए धड़कते हृदय से द्वार खोला. उस का अनुमान सही था. सामने नागेश ही खड़ा था. क्या करूं, क्या न करूं, इतनी तेजी से इसलिए भागी थी कि कहीं फिर उस का सामना न हो जाए लेकिन वह तो पीछा करते हुए यहां तक आ गया. अब कोई उपाय नहीं था सिवा इस के कि उसे अंदर आने को कहा जाए. ‘‘आइए’’ कह कर पीछे खिसक कर उस ने अंदर आने का रास्ता दे दिया. अंदर आ कर नागेश सोफे पर बैठ गया.

वसुधा चुपचाप खड़ी रही. नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘बैठोगी नहीं वसु?’’ वसु शब्द सुन कर उस के कान दग्ध हो उठे. ‘‘यह तुम मुझे वसुवसु क्यों कह रहे हो? मैं हूं मिसेज वसुधा रैना. कहो, यहां क्यों आए हो?’’ वसुधा बिफर उठी.

‘‘सुनो, वसु, सुनो, नाराज न हो. मुझे भी तो बोलने दो,’’ नागेश ने शांत स्वर में कहा.

‘‘पहले तुम यह बताओ, यहां क्यों आए हो? मेरा पता तुम को कैसे मिला?’’ वसुधा क्रोध से फुंफकार उठी.

‘‘किसी से नहीं मिला, यह तो इत्तफाक है कि मैं ने तुम्हें पार्क में देखा. अभी 4 दिनों पहले ही तो मैं यहां आया हूं और पास में ही फ्लैट ले कर रह रहा हूं. अकेला हूं. शाम को टहलने निकला तो तुम्हें देख लिया. पहले तो पहचान नहीं पाया, फिर यकीन हो गया कि ये मेरी वसु ही है,’’ नागेश ने विनम्रता से कहा.

‘‘मेरी वसु, हूं, यह तुम ने मेरी वसु की क्या रट लगा रखी है? मैं केवल अपने पति मृगेंद्र की ही वसु हूं, समझे तुम. और अब तुम यहां से जाओ, मेरी संध्याकालीन क्रिया का समय हो गया है और उस में मैं किसी प्रकार का विघ्न बरदाश्त नहीं कर सकती हूं,’’ वसुधा ने विरक्त होते हुए कहा.

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‘‘ठीक है मैं आज जाता हूं पर एक दिन अवश्य आऊंगा तुम से अपने मन की बात कहने और तुम्हारे मन में बसी नफरत को खत्म करने,’’ कहता हुआ नागेश चला गया.

वसुधा अपनी तैयारी में लग गई किंतु ध्यान भटक रहा था. ‘‘ऐसा क्यों हो रहा है? अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. फिर आज यह भटकन क्यों? क्यों मन अतीत की ओर भाग रहा है? अतीत जहां केवल वह थी और था नागेश. अतीत वर्तमान बन कर उस के सामने रहरह कर अठखेलियां कर रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म को रिवाइंड कर के देखा जा रहा है, उस के हृदय में मंथन हो रहा था. उस के वर्तमान को मुंह चिढ़ाते अतीत से पीछा छुड़ाना उस के लिए मुश्किल हो रहा था. अतीत ने उसे सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे. उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार नागेश से मिली थी.

दिसंबर का महीना था. वह अपनी मित्र रिया के घर गई थी. वहां उस की 2 और भी सहेलियां आई थीं, शीबा और रेशू. रिया उन सब को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई जहां पहले से ही उस के भाई के 2 और मित्र बैठे थे. दोनों ही आर्मी औफिसर थे. रिया के भाई डाक्टर थे, डा. रोहित. उन्होंने सब से मिलवाया. फिर सब ने एकसाथ चाय पी. वहीं उस ने नागेश को देखा. रिया ने ही बताया, ‘‘ये नागेश भाईसाहब हैं, कैप्टन हैं और यह उन के मित्र कैप्टन विनोद हैं. उन सब ने हायहैलो की, औपचारिकताएं निभाईं और वहां से विदा हो गए.

वसुधा पहली बार में ही नागेश की ओर आकर्षित हो गई थी. नागेश का गोरा चेहरा, पतलीपतली मूंछें, होंठों पर मंद मुसकान, आंखों में किसी को भी जीत लेने की चमक, टीशर्ट की आस्तीनों से झांकती, बगुले के पंख सी, सफेद पुष्ट बांहों को देख कर वसुधा गिरगिर पड़ रही थी. घर आ कर वह कुछ अनमनी सी हो गई थी. सब ने इस बात को गौर किया पर कुछ समझ न सके.

दिन गुजरते रहे और कुछ ऐसा संयोग बना कि कहीं न कहीं नागेश उसे मिल ही जाता था. फिर यह मिलना दोस्ती में बदल गया. यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला. घंटों दोनों दरिया किनारे घूमने चले जाते थे, बातें करते थे जोकि खत्म होने को ही नहीं आती थीं. दोनों भविष्य के सुंदर सपने संजोते थे.

दोनों के ही परिवार इस प्यार के विषय में जान गए थे और उन्हें कोई एतराज नहीं था. दोनों ने विवाह करने का फैसला कर लिया. जब उन्होंने अपना मंतव्य बताया तो दोनों परिवारों ने इस संबंध को खुशीखुशी स्वीकार कर लिया और एक छोटे से समारोह में उन की सगाई हो गई.

अब तो वसुधा के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. इधर नागेश भी बराबर ही उस के घर आने लगा था. सब ने उसे घर का ही सदस्य मान लिया था. विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी. केवल 10 दिन ही शेष थे कि अकस्मात नागेश को किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में झांसी जाना पड़ गया.

एकदो माह की ट्रेनिंग के बाद विवाह की तिथि आगे टल गई. दोबारा तिथि निश्चित हुई तो नागेश के ताऊ का निधन हो गया. एक वर्ष तक शोक मनाने के कारण विवाह की तिथि फिर आगे बढ़ा दी गई. इस प्रकार किसी न किसी अड़चन से विवाह टलता गया और 2 वर्ष का अंतराल बीत गया.

वसुधा की बेसब्री बढ़ती जा रही थी. यूनिवर्सिटी में उस की सहेलियां पूछतीं, ‘क्या हुआ, वसुधा, कब शादी करेगी? यार, इतनी भी देरी ठीक नहीं है. कहीं कोई और ले उड़ा तेरे प्यार को तो हाथ मलती रह जाएगी.’

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‘नहीं वह मेरा है, मुझे धोखा नहीं दे सकता. और जब मेरा प्यार सच्चा है तो मुझे मिलेगा ही,’ वसुधा स्वयं को आश्वस्त करती.

नागेश 15 दिनों की छुट्टी ले कर घर जा रहा था. उस ने आश्वासन दिया था कि इस बार विवाह की तिथि निश्चित कर के ही रहेगा. वसुधा उस से आखिरी बार मिली. उसे नहीं पता था, यह मिलना वास्तव में आखिरी है. अचानक उसे आभास हुआ कि शायद अब वह नागेश को कभी नहीं देख पाएगी, दिल धक से हो गया. लेकिन फिर आशा दिलासा देने लगी, ‘नहीं, वह तेरा है, तुझे अवश्य मिलेगा.’

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पौजिटिव नैगेटिव: मलय का कौन सा राज तृषा जान गई

Serial Story: पौजिटिव नैगेटिव – भाग 3

रात का खाना खा कर मलय अपने कमरे में सोने चला गया. मोहक को सुला कर तृषा भी उस के पास आ कर लेट गई और अनुराग भरी दृष्टि से मलय को देखने लगी. मलय उसे अपनी बांहों में जकड़ कर उस के होंठों पर चुंबनों की बारिश करने लगा. तृषा का शरीर भी पिघलता जा रहा था. उस ने भी उस के सीने में अपना मुंह छिपा लिया. तभी मलय एक झटके से अलग हो गया, ‘‘सो जाओ तृषा, रात बहुत हो गई है,’’ कह करवट बदल कर सोने का प्रयास करने लगा.

तृषा हैरान सी मलय को निहारने लगी कि क्या हो गया है इसे. क्यों मुझ से दूर जाना चाहता है? अवश्य इस के जीवन में कोई और आ गई है तभी यह मुझ से इतना बेजार हो गया है और वह मन ही मन सिसक उठी. प्रात:कालीन दिनचर्या आरंभ हो गई. मलय को चाय बना कर दी. मोहक को स्कूल भेजा. फिर नहाधो कर नाश्ते की तैयारी करने लगी. रात के विषय में न उस ने ही कुछ पूछा न ही मलय ने कुछ कहा. एक अपराधभाव अवश्य ही उस के चेहरे पर झलक रहा था. ऐसा लग रहा था वह कुछ कहना चाहता है, लेकिन कोई अदृश्य शक्ति जैसे उसे रोक रही थी.

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तृषा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि क्या करूं कैसे पता करूं कि कौन सी ऐसी परेशानी है जो बारबार तलाक की ही बात करता है… पता तो करना ही होगा. उस ने मलय के औफिस जाने के बाद उस के सामान को चैक करना शुरू किया कि शायद कोई सुबूत मिल ही जाए. उस की डायरी मिल गई, उसे ही पढ़ने लगी, तृषा के विषय में ही हर पन्ने पर लिखा था, ‘‘मैं तृषा से दूर नहीं रह सकता. वह मेरी जिंदगी है, लेकिन क्या करूं मजबूरी है. मुझे उस से दूर जाना ही होगा. मैं उसे अब और धोखे में नहीं रख सकता.’’ तृषा ये पंक्तियां पढ़ कर चौंक गई कि क्या मजबूरी हो सकती है. इन पंक्तियों को पढ़ कर पता चल जाता है कि किसी और का उस की जिंदगी में होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है, फिर क्यों वह तलाक की बात करता है?

उस के मन में विचारों का झंझावात चल ही रहा था कि तभी उस की नजर मलय के मोबाइल पर पड़ी, ‘‘अरे, यह तो अपना मोबाइल भूल कर औफिस चला गया है. चलो, इसी को देखती हूं. शायद कोई सुराग मिल जाए, फिर उस ने मलय के कौंटैक्ट्स को खंगालना शुरू कर दिया. तभी डाक्टर धीरज का नाम पढ़ कर चौंक उठी. 1 हफ्ते से लगातार उस से मलय की बात हो रही थी. डाक्टर धीरज से मलय को क्या काम हो सकता है, वह सोचने लगी, ‘‘कौल करूं… शायद कुछ पता चल जाए, और फिर कौल का बटन दबा दिया. ‘‘हैलो, मलयजी आप को अपना बहुत ध्यान रखना होगा, जैसाकि आप को पता है, आप को एचआईवी पौजिटिव है. इलाज संभव है पर बहुत खर्चीला है. कब तक चलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता है, लेकिन आप परेशान न हों. कुदरत ने चाहा तो सब ठीक होगा,’’ डाक्टर धीरज ने समझा कि मलय ही कौल कर रहा है. उन्होंने सब कुछ बता दिया.

तृषा को अब अपने सवाल का जवाब मिल गया था. उस की आंखें छलछला उठीं कि तो यह बात है जो मलय मुझ से छिपा रहा था. लेकिन यह संक्रमण हुआ कैसे. वह तो सदा मेरे पास ही रहता था. फिर चूक कहां हो गई? क्या किसी और से भी मलय ने संबंध बना लिए हैं… आज सारी बातों का खुलासा हो कर ही रहेगा, उस ने मन ही मन प्रण किया. मोहक स्कूल से आ गया था. उसे खाना खिला कर सुला दिया और स्वयं परिस्थितियों की मीमांसा करने लगी कि नहींनहीं इस बीमारी के कारण मैं मलय को तलाक नहीं दे सकती. जब इलाज संभव है तब दोनों के पृथक होने का कोई औचित्य ही नहीं है.

शाम को उस ने मलय का पहले की ही तरह हंस कर स्वागत किया. उस की पसंद का नाश्ता कराया. जब वह थोड़ा फ्री हो गया तब उस ने बात छेड़ी, ‘‘मलय, डाक्टर धीरज से तुम किस बीमारी का इलाज करवा रहे हो?’’ मलय चौंक उठा, ‘‘कौन धीरज चोपड़ा? मैं इस नाम के किसी डाक्टर को नहीं जानता… न जाने तुम यह कौन सा राग ले बैठी, खीज उस के स्वर में स्पष्ट थी.

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‘‘नहीं मलय यह कोई राग नहीं… मुझ से कुछ छिपाओ नहीं, मुझे सब पता चल चुका है. तुम अपना फोन घर भूल गए थे. मैं ने उस में डाक्टर चोपड़ा की कई कौल्स देखीं तो मन में शंका हुई और मैं ने उन्हें फोन मिला दिया. उन्होंने समझा कि तुम बोल रहे हो और सारा सच उगल दिया, साथ ही यह भी कहा कि इस का उपचार महंगा है, पर संभव है. हां, समय की कोई सीमा निर्धारित नहीं. इसीलिए तुम तलाक पर जोर दे रहे थे न… पहले ही बता दिया होता… छिपाने की जरूरत ही क्या थी.’’ अब मलय टूट सा गया. उस ने तृषा को अपने गले से लगा लिया और फिर धीरेधीरे सब कुछ बताने लगा, ‘‘तुम्हें तो पता ही है तृषा पिछले महीने मैं औफिस के एक सेमिनार में भाग लेने के लिए सिंगापुर गया था. मेरे 2-3 सहयोगी और भी थे. हम लोगों को एक बड़े होटल में ठहराया गया था. हमें 1 सप्ताह वहां रहना था और मेरा तुम से इतने दिन दूर रहना मुश्किल लग रहा था, फिर भी मैं अपने मन को समझाता रहा. दिन तो कट जाता था, किंतु रात में तुम्हारी बांहों का बंधन मुझे सोने नहीं देता था और मैं तुम्हारी याद में तड़प कर रह जाता था.

‘‘एक दिन बहुत बारिश हो रही थी. मेरे सभी साथी होटल में नीचे बार में बैठे ड्रिंक ले रहे थे. मैं भी वहीं था, वहां मन बहलाने के और भी साधन थे, मसलन, रात बिताने के लिए वहां लड़कियां भी सप्लाई की जाती थीं. अलगअलग कमरों में सारी व्यवस्था रहती थी. तुम्हारी कमी मुझे बहुत खल रही थी. मैं ने भी एक कमरा बुक कर लिया और फिर मैं पतन के गर्त में गिरता चला गया. ‘‘यह संक्रमण उसी की देन है. बाद में मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ कि यह क्या कर दिया मैं ने. नहींनहीं मेरे इस जघन्य अपराध की जितनी भी सजा दी जाए कम है. मैं ने दोबारा उस से कोई संपर्क नहीं किया. साथियों ने मेरी उदासीनता का मजाक भी बनाया, उन का कहना था पत्नी तो अपने घर की चीज है वह कहां जाएगी. हम तो थोड़े मजे ले रहे हैं. लेकिन मैं उस गलती को दोहराना नहीं चाहता था. बस तुम्हारे पास चला आया.

‘‘एक दिन मैं औफिस में बेहोश हो गया. बड़ी मुश्किल से मुझे होश आया. मेरे सहयोगी मुझे डाक्टर चोपड़ा के पास ले गए. उन्होंने मेरा ब्लड टैस्ट कराया. तब मुझे इस बीमारी का पता लगा. मैं समझ गया कि यह सौगात सिंगापुर की ही देन है. मैं अपराधबोध से ग्रस्त हो गया. हर पल मुझे यही खयाल आता रहा कि मुझे तुम्हारे जीवन से दूर चले जाना चाहिए. इसीलिए मैं तलाक की बात करता रहा. यह जानते हुए भी कि मेरेतुम्हारे प्यार की डोर इतनी मजबूत है कि आसानी से टूट नहीं सकती,’’ कहते हुए मलय फफक कर रो पड़ा. तृषा हतप्रभ रह गई कि इतना बड़ा धोखा? वह मेरी जगह किसी और की बांहों में चला गया. क्या उस की आंखों पर वासना की पट्टी बंधी हुई थी. फिर तत्काल उस ने अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया कि नहीं वह मलय का साथ नहीं छोड़ेगी, उसे टूटने नहीं देगी, पतिपत्नी का रिश्ता इतना कच्चा थोड़े ही होता है कि जरा सा झटका लगा और टूट गया.

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उस ने मलय को पूरी शिद्दत से प्यार किया है. वह इस प्यार को खोने नहीं देगी. इंसान है गलती हो गई तो क्या उस की सजा उसे उम्र भर देनी चाहिए… नहीं कदापि नहीं. वह मलय की एचआईवी पौजिटिव को नैगेटिव कर देगी. क्या हुआ यदि इस बीमारी का इलाज बहुत महंगा है… इस कारण वह अपने प्यार को मरने नहीं देगी. उस ने मलय का सिर अपने सीने पर टिका लिया. उस का ब्लाउज मलय के आंसुओं से तर हो रहा था.

Serial Story: पौजिटिव नैगेटिव – भाग 2

मनोजजी को अपने कुल तथा अपने बच्चों पर बड़ा अभिमान था. वह सोच भी नहीं सकते थे कि उन की बेटी इस प्रकार उन्हें झटका दे सकती है. उन के अनुसार, मलय के परिवार की उन के परिवार से कोई बराबरी नहीं है. उस के पिता अनिल कृषि विभाग में द्वितीय श्रेणी के अधिकारी थे, उन का रहनसहन भी अच्छा था. पढ़ालिखा परिवार था. दोनों परिवारों में मेलमिलाप भी था. मलय भी अच्छे संस्कारों वाला युवक था, किंतु उन के मध्य जातिपांति की जो दीवारें थीं, उन्हें तोड़ना इतना आसान नहीं था. तब अपनी बेटी का विवाह किस प्रकार अपने से निम्न कुल में कर देते.

जबतब मनोजजी अपने ऊंचे कुल का बखान करते हुए अनिलजी को परोक्ष रूप से उन की जाति का एहसास भी करा ही देते थे. अनिलजी इन सब बातों को समझते थे, किंतु शालीनतावश मौन ही रहते थे. जब मनोजजी ने बेटी तृषा को अपनी जिद पर अड़े देखा तो उन्होंने अनिलजी से बात की और फिर आपसी सहमति से एक सादे समारोह में कुछ गिनेचुने लोगों की उपस्थिति में बेटी का विवाह मलय से कर दिया. जब तृषा विदा होने लगी तब उन्होंने ‘अब इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद हो गए हैं’ कह तृषा के लिए वर्जना की एक रेखा खींच दी.ॉ

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बेटी तथा दामाद से हमेशा के लिए अपना रिश्ता समाप्त कर लिया. इस के विपरीत मलय के परिवार ने बांहें फैला कर उस का स्वागत किया. तब से 12 वर्ष का समय बीत चुका था. किंतु मायके की देहरी को वह न लांघ सकी. जब भी सावन का महीना आता उसे मायके की याद सताने लगती. शायद इस बार पापा उसे बुला लें की आशा बलवती होने लगती, कानों में यह गीत गूंजने लगता: ‘‘अबकी बरस भेजो भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे,

लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां दीजो संदेसा भिजाय रे.’’ इस प्रकार 12 वर्ष बीत गए, किंतु मायके से बुलावा नहीं आया. शायद उस के पिता को उसे अपनी बेटी मानने से इनकार था, क्योंकि अब वह दूसरी जाति की जो हो चुकी थी.

बेटा मोहक जो अब 9 वर्ष का हो चुका था. अकसर पूछता, ‘‘मम्मी, मेरे दोस्तों के तो नानानानी, मामामामी सभी हैं. छुट्टियों में वे सभी उन के घर जाते हैं. फिर मैं क्यों नहीं जाता? क्या मेरे नानानानी, मामामामी नहीं हैं?’’ तृषा की आंखें डबडबा जाती थीं लेकिन वह भाई से उस लक्षमणरेखा का जिक्र भी नहीं कर सकती थी जो उस के दंभी पिता ने खीचीं थी और जिसे वह चाह कर भी पार नहीं कर सकती थी.

ड्राइवर गाड़ी ले कर आ गया था. जब वह मोहक को स्कूल से ले कर लौटी, तो उस ने मलय को अपने कमरे में किसी पेपर को ढूंढ़ते देखा. तृषा को देख कर उस का चेहरा थोड़ा स्याह सा पड़ गया. अपने हाथ के पेपर्स को थोड़ा छिपाते हुए वह कमरे से बाहर जाने लगा. ‘‘क्या हुआ मलय इतने अपसैट क्यों हो, और ये पेपर्स कैसे हैं?’’

‘‘कुछ नहीं तृषा… कुछ जरूरी पेपर्स हैं… तुम परेशान न हो,’’ कह मलय चला गया. तृषा के मन में अनेक संशय उठते, कहीं ये तलाक के पेपर्स तो नहीं…

पिछले 12 वर्षों में उस ने मलय को इतना उद्विग्न कभी नहीं देखा था. ‘क्या मलय को अब उस से उतना प्यार नहीं रहा जितनी कि उसे अपेक्षा थी? क्या वह किसी और से अपना दिल लगा बैठा है और मुझ से दूर जाना चाहता है? क्यों मलय इतना बेजार हो गया है? कहां चूक हो गई उस से? क्या कमी रह गई थी उस के प्यार में’ जबतब अनेक प्रश्नों की शलाका उसे कोंचने लगती. मलय के प्यार में उस ने अपनेआप को इतना आत्मसात कर लिया था कि उसे अपने आसपास की भी खबर नहीं रहती थी. मायके की स्मृतियों पर समय की जैसे एक झीनी सी चादर पड़ गई थी.

‘नहींनहीं मुझे पता करना ही पड़ेगा कि क्यों मलय मुझ से तलाक लेना चाहता है?’ वह सोचने लगी, ‘ठीक है आज डिनर पर मैं उस से पूछूंगी कि कौन सा अदृश्य साया उन दोनों के मध्य आ गया है. यदि वह किसी और को चाहने लगा है तो ठीक है, साफसाफ बता दे. कम से कम उन दोनों के बीच जो दूरी पनप रही है उसे कम करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है.’ शाम के 5 बज गए थे. मलय के आने का समय हो रहा था. उस ने हाथमुंह धो कर हलका सा मेकअप किया, साड़ी बदली, मोहक को उठा कर उसे दूध पीने को दिया और फिर होमवर्क करने के लिए बैठा दिया. स्वयं रसोई में चली गई, मलय के लिए नाश्ता बनाने. आते ही उसे बहुत भूख लगती थी.

ये सब कार्य तृषा की दिनचर्या बन गई थी, लेकिन इधर कई दिनों से वह शाम का नाश्ता भी ठीक से नहीं कर रहा था. जो भी बना हो बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप खा लेता था. ऐसा लगता था मानो किसी गंभीर समस्या से जूझ रहा है. कोई बात है जो अंदर ही अंदर उसे खाए जा रही थी, कैसे तोड़ूं मलय की इस चुप्पी को… नाश्ते की टेबल पर फिर मलय ने अपना वही प्रश्न दोहराया, ‘‘क्या सोचा तुम ने?’’

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‘‘किस विषय में?’’ उस ने भी अनजान बनते हुए प्रश्न उछाल दिया. ‘‘तलाक के विषय में और क्या,’’ मलय का स्वर गंभीर था. हालांकि उस के बोलने का लहजा बता रहा था कि यह ओढ़ी हुई गंभीरता है.

‘‘खुल कर बताओ मलय, यह तलाकतलाक की क्या रट लगा रखी है… क्या अब तुम मुझ से ऊब गए हो? क्या मेरे लिए तुम्हारा प्यार खत्म हो गया है या कोई और मिल गई है?’’ तनिक छेड़ने वाले अंदाज में उस ने पूछा. ‘‘नहीं तृषा, ऐसी कोई बात नहीं, बस यों ही अपनेआप को तुम्हारा अपराधी महसूस कर रहा हूं. मेरे लिए तुम्हें अपनों को भी हमेशा के लिए छोड़ना पड़ा, जबकि मेरा परिवार तो मेरे ही साथ है. मैं जब चाहे उन से मिल सकता हूं, मोहक का भी ननिहाल शब्द से कोई परिचय नहीं है. वह तो उन रिश्तों को जानता भी नहीं. मुझे तुम्हें उन अपनों से दूर करने का क्या अधिकार था,’’ कह मलय चुप हो गया.

‘‘अकस्मात 12 वर्षों बाद तुम्हें इन बातों की याद क्यों आई? मुझे भी उन रिश्तों को खोने का दर्द है, किंतु मेरे दिल में तुम्हारे प्यार के सिवा और कुछ भी नहीं है… ठीक है, जीवन में मातापिता का बड़ा ही अहम स्थान होता है, किंतु जब वही लोग अपनी बेटी को किसी और के हाथों सौंप कर अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं तब प्यार हो या न हो बेटी को उन रिश्तों को ढोना ही पड़ता है, क्योंकि उन के सम्मान का सवाल जो होता है, भले ही बेटी को उस सम्मान की कीमत अपनी जान दे कर ही क्यों न चुकानी पड़े. कभीकभी दहेज के कारण कितनी लड़कियां जिंदा जला दी जाती हैं और तब उन के पास पछताने के अलावा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है. हम दोनों एकदूसरे के प्रति समर्पित हैं, प्यार करते हैं तो गलत कहां हुआ और मेरे मातापिता की बेटी भी जिंदा है भले ही उन से दूर हो,’’ तृषा के तर्कों ने मलय को निरुत्तर कर दिया.

आगे पढ़ें- रात का खाना खा कर मलय…

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Serial Story: पौजिटिव नैगेटिव – भाग 1

तृषामलय के बेरुखी भरे व्यवहार से बहुत अचंभित थी. जब देखो तब बस एक ही रट लगाए रहता कि तृषा मैं तलाक चाहता हूं, आपसी सहमति से. ‘तलाक,’ वह सोचने को मजबूर हो जाती थी कि आखिर मलय को हो क्या गया है, जो हर समय तलाकतलाक की ही रट लगाए रहता है. मगर मलय से कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की. सोचती खुद ही बताएंगे कारण और फिर चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो जाती थी. ‘‘मलय, आ जाओ खाना लग गया है,’’ डाइनिंग टेबल सैट करते हुए तृषा ने मलय को पुकारा तो वह जल्दी से तैयार हो कर आ गया.

तृषा ने उस की प्लेट लगा दी और फिर बड़े ही चाव से उस की ओर देखने लगी. शायद वह उस के मुंह से खाने की तारीफ सुनना चाहती थी, क्योंकि उस ने बड़े ही प्यार से मलय की पसंद का खाना बनाया था. लेकिन ऐसा लग रहा था मानो वह किसी प्रकार खाने को निगल रहा हो. चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी थी जैसे वह अंदर ही अंदर घुट सा रहा हो. किसी प्रकार खाना खत्म कर के उस ने जल्दी से अपने हाथ धोए. तभी तृषा ने उस का पर्स व रूमाल ला कर उसे दे दिए.

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‘‘तुम सोच लेना, जो मैं ने कहा है उस के विषय में… और हां समय पर मोहक को लेने स्कूल चली जाना. मैं गाड़ी भेज दूंगा. आज उस की बस नहीं आएगी,’’ कहता हुआ वह गाड़ी में बैठ गया. ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी. ‘आजकल यह कैसा विरोधाभास है मलय के व्यवहार में… एक तरफ तलाक की बातें करता है तो दूसरी ओर घरपरिवार की भी चिंता लगी रहती है… न जाने क्या हो गया है उसे,’ सोचते हुए तृषा अपने बचे कामों को निबटाने लगी. लेकिन उस का मन किसी और काम में नहीं लग रहा था. क्या जरा भी प्यार नहीं रहा है उस के मन में मेरे लिए जो तलाक लेने पर आमादा है? क्या करूं… पिछले 12 वर्षों से हम एकदूसरे के साथ हंसीखुशी रह रहे थे… कभी ऐसा नहीं लगा कि उसे मुझ से कोई शिकायत है या वह मुझ से ऊब गया है.

हर समय तो उसे मेरी ही चिंता लगी रहती थी. कभी कहता कि लगता है आजकल तुम अपनी हैल्थ का ध्यान नहीं रख रही हो… कितनी दुबली हो गई हो, यह सुन कर खुशी से उस का मन झूमने लगता और इस खुशी में और वृद्धि तब हो गई जब विवाह के 3 वर्ष बाद उसे अपने शरीर में एक और जीव के आने की आहट महसूस होने लगी. उस ने बड़े ही शरमाते हुए मलय को यह बात बताई, तो उस ने खुशी से उसे गोद में उठा लिया और फिर गोलगोल घुमाने लगा.

मोहक के जन्म पर मलय की खुशी का ठिकाना न था. जब तब उसे आगाह करता था कि देखो तृषा मेरा बेटा रोए नहीं, मैं बरदाश्त नहीं कर सकूंगा. तब उसे हंसी आने लगती कि अब भला बच्चा रोए नहीं ऐसा कैसे हो सकता है. वह मोहक के लिए मलय का एकाधिकार देख कर खुश भी होती थी तथा चिंतित भी रहती थी और फिर तन्मयता से अपने काम में लग जाती थी. ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मलय अब मुझ से मुक्ति पाना चाहता है. तो क्या अब मेरे साथ उस का दम घुट रहा है? अरे, अभी तो विवाह के केवल 12 वर्ष ही बीते हैं. अभी तो जीवन की लंबी डगर हमें साथसाथ चलते हुए तय करनी है. फिर क्यों वह म्यूच्युअल तलाक की बात करता रहता है? क्यों उसे मेरे साथ रहना असहनीय हो रहा है? मेरे प्यार में तो कोई भी कमी नहीं है… मैं तो आज भी उस की वही पहले वाली तृषा हूं, जिस की 1-1 मुसकान पर मलय फिदा रहता था. ‘कभी मेरी लहराती काली जुल्फों में अपना मुंह छिपा लेता था… अकसर कहता था कि तुम्हारी झील सी गहरी नीली आंखों में डूबने को जी चाहता है, सागर की लहरों सा लहराता तुम्हारा यह नाजुक बदन मुझे अपने आगोश में लपेटे लिए जा रहा है… तुम्हारे जिस्म की मादक खुशबू में मैं अपने होशोहवास खोने लगता हूं.

इतना टूट कर प्यार करने वाला पति आखिर तलाक क्यों चाहता है? नहींनहीं मैं तलाक के लिए कभी राजी नहीं होऊंगी, आखिर मैं ने भी तो उसे शिद्दत से प्यार किया है. घर वालों के तमाम विरोधों के बावजूद जातिपाति की ऊंचीऊंची दीवारों को फांद कर ही तो हम दोनों ने एकदूसरे को अपनाया है,’ तृषा सोच रही थी. अतीत तृषा की आंखों के सामने किसी चलचित्र की भांति चलायमान हो उठा…

‘‘पापा, मैं मलय से विवाह करना चाहती हूं.’’ ‘‘मलय, कौन मलय?’’ पापा थोड़ा चौंक उठे.

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‘‘अपना मलय और कौन? आप उसे बचपन से जानते हैं… यहीं तो भैया के साथ खेलकूद कर बड़ा हुआ है. अब इंजीनियर बन चुका है… हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं और एकसाथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं,’’ तृषा ने दृढ़ता से कहा.

पिता मनोज क्रोध से तिलमिला उठे. वे अपने क्रोध के लिए सर्वविदित थे. कनपटी की नसें फटने को आ गईं, चेहरा लाल हो गया. चीख कर बोले, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इतनी बड़ी बात कहने की.. कभी सोचा है कि उस की औकात ही क्या है हमारी बराबरी करने की? अरे, कहां हम ब्राह्मण और वह कुर्मी क्षत्रिय. हमारे उन के कुल की कोई बराबरी ही नहीं है. वैसे भी बेटी अपने से ऊंचे कुल में दी जाती है, जबकि उन का कुल हम से निम्न श्रेणी का है.’’ तृषा भी बड़ी नकचढ़ी बेटी थी. पिता के असीमित प्यारदुलार ने उसे जिद्दी भी बना दिया था. अत: तपाक से बोली, ‘‘मैं ने जाति विशेष से प्यार नहीं किया है पापा, इंसान से किया है और मलय किसी भी ऊंची जाति से कहीं ज्यादा ही ऊंचा है, क्योंकि वह एक अच्छा इंसान है, जिस से प्यार कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है.’’

मनोजजी को इस का गुमान तक न था कि उन की दुलारी बेटी उन के विरोध में इस तरह खड़ी हो जाएगी. उन्हें अपने ऊंचे कुल का बड़ा घमंड था. उन के पुरखे अपने समय के बहुत बड़े ताल्लुकेदार थे. यद्यपि अब ताल्लुकेदारी नहीं रह गई थी, फिर भी वह कहते हैं न कि मरा हाथी तो 9 लाख का… मनोजजी के संदर्भ में यह कहावत पूरी तरह लागू होती थी. अपने शहर के नामीगिरामी वकील थे. लक्ष्मी ने जैसे उन का वरण ही कर रखा था. तृषा अपने पिता की इकलौती लाडली बेटी थी. अपने बड़े भाई तनय की भी बड़ी ही दुलारी थी. तनय भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो कर, अवर सचिव के पद पर आसाम में तैनात था.

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खोखली होती जड़ें: भाग 3

रात को सत्यम का फोन आया कि वह परसों की फ्लाइट से आ रहा है. फोन मैं ने ही उठाया. मैं ने निर्विकार भाव से उस की बात सुन कर फोन रख दिया. दूसरे दिन मैं ने सौरभ से बैंक से कुछ रुपए लाने के लिए कहा.

‘‘नहीं हैं मेरे पास रुपए…’’ सौरभ बिफर गए.

‘‘सौरभ प्लीज, अभी तो थोड़ाबहुत दे दो…सत्यम भी यहां आ कर चुप तो नहीं बैठेगा. कुछ तो करेगा,’’ मैं अनुनय करने लगी.

सौरभ चुप हो गए. मेरी कातरता, व्याकुलता सौरभ कभी नहीं देख पाते. हमेशा भरापूरा ही देखना चाहते हैं. उन्होंने बैंक से रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए.

‘‘सौरभ, तुम फिक्र मत करो, मैं थोड़े ही दिन में सत्यम को बता दूंगी कि हम उस के परिवार का खर्च नहीं उठा सकते. घर है…जब तक चाहे बसेरा कर ले लेकिन अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाए. हम से कोई उम्मीद न रखे,’’ मेरे स्वर की दृढ़ता से सौरभ थोड़ाबहुत आश्वस्त हो गए.

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अगले दिन सत्यम को आना था. फ्लाइट के आने का समय हो गया था. हम एअरपोर्ट नहीं गए. अटैचियों से लदाफंदा सत्यम परिवार सहित टैक्सी से खुद ही घर आ गया. सत्यम व बच्चे जब आंखों के सामने आए तो पलभर के लिए मेरे ही नहीं, सौरभ की आंखों में भी ममता की चमक आ गई. 5 साल बाद देख रहे थे सब को. सत्यम व नीमा के मुरझाए चेहरे देख कर दिल को धक्का सा लगा. सत्यम ने पापा के पैर छुए और फिर मेरे पैर छू कर मेरे गले लग गया. साफ लगा, मेरे गले लगते हुए जैसे उस की आंखों से आंसू बहना ही चाहते हैं, आखिर राजपाट गंवा कर आ रहा था.

मां सिर्फ हाड़मांस का बना हुआ शरीर ही तो नहीं है…मां भावनाओं का असीम समंदर भी है…एक महीन सा अदृश्य धागा मां से संतान का कहां और कैसे बंधा रहता है, कोई नहीं समझ सकता…एक शीतल छाया जो तुम से कोई भी सवालजवाब नहीं करती…तुम्हारी कमियों के बारे में बात नहीं करती… हमेशा तुम्हारी खूबियां ही गिनाती है और कमियों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है…अपने किए का बदला नहीं चाहती…हर कष्ट के क्षण में मुंह से मां का नाम निकलता है और दिमाग में मां के होने का एहसास होता है…कष्ट के समय कहीं और आसरा मिले न मिले पर वह शीतल छाया तुम्हें आसरा जरूर देती है… सुख में कैसे भूल जाते हो उस को. लेकिन जड़ें ही खोखली हों तो हलके आंधीतूफान में भी बड़ेबड़े दरख्त उखड़ जाते हैं.

मेरे गले से लगा हुआ सत्यम शायद यही सबकुछ सोचता, अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मैं ने अपना संतुलन डगमगाने नहीं दिया. सत्यम को भी एहसास होना चाहिए कि जब गहन दुख व परेशानी के क्षणों में ‘अपने’ हाथ खींचते हैं तो जिंदगी कितनी बेगानी लगती है. विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है.

‘‘बैठो सत्यम…’’ उसे धीरे से अपने से अलग करती हुई मैं बोली, ‘‘अपना सामान कमरे में रख दो…मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अपने मनोभावों को छिपाते हुए मैं किचन में चली गई. बच्चों ने प्रणाम किया तो मैं ने उन के गाल थपथपा दिए. दिल छाती से लगाने को कर रहा था पर चाहते हुए भी कौन सी अदृश्य शक्ति मुझे रोक रही थी. चाय बना कर लाई तो सत्यम व नीमा सामान कमरे में रख चुके थे. नीमा ने मेरे हाथ से टे्र ले ली…शायद पहली बार.

वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब ने चाय खत्म की. इतनी देर बैठ कर सौरभ ने जैसे मेजबान होने की औपचारिकता निभा ली थी, इसलिए उठ कर अपने कमरे में चले गए. दोनों बच्चे भी थके थे, सो वे भी कमरे में जा कर सो गए.

‘‘तुम दोनों भी आराम कर लो, खाना बन जाएगा तो उठा दूंगी…क्या खाओगे…’’

‘‘कुछ भी खा लेंगे…और ऐसे भी थके नहीं हैं…नीमा खुद बना लेगी…आप बैठो.’’

मैं ने चौंक कर नीमा को देखा, उस के चेहरे पर सत्यम की कही बात से सहमति का भाव दिखा. यह वही नीमा है जो मेरे इतने असुविधापूर्ण किचन में चाय तक भी नहीं बना पाती थी, खाना बनाना तो दूर की बात थी.

कहते हैं प्यार में बड़ी शक्ति होती है पर शायद मेरे प्यार में इतनी शक्ति नहीं थी, तभी तो नीमा को नहीं बदल पाई, लेकिन आर्थिक मंदी ने उसे बदलने पर मजबूर कर दिया था. मेरे मना करने पर भी नीमा किचन में चली गई. वह भी उस किचन में जिस में पहले कभी नीमा ने पैर भी न धरा था, उस का भूगोल भला उसे क्या पता था. इसलिए मुझे किचन में जाना ही पड़ा.

सत्यम को आए हुए 2 दिन हो गए थे. हमारे बीच छिटपुट बातें ही हो पाती थीं. हम दोनों का उन दोनों से बातें करने का उत्साह मर गया था और वे दोनों भी शायद पहले के अपने बनाए गए घेरे में कैद कसमसा रहे थे. सौरभ तो सामने ही बहुत कम पड़ते थे. पढ़ने के शौकीन सौरभ अकसर अपनी किताबों में डूबे रहते. अलबत्ता बच्चे जरूर हमारे साथ जल्दी ही घुलमिल गए और हमें भी उन का साथ अच्छा लगने लगा.

सत्यम बच्चों के दाखिले व अपनी नौकरी के लिए लगातार कोशिश कर रहा था. अच्छे स्कूल में इस समय बच्चों का दाखिला मुश्किल हो रहा था. अच्छे स्कूल में 2 बच्चों के खर्चे सत्यम कैसे उठा पाएगा, मैं समझ नहीं पा रही थी. उस का परिवार अगर यहां रहता है तो ज्यादा से ज्यादा उसे किराया ही तो नहीं देना पड़ेगा. नीमा उसी किचन में खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, उसी बदरंग से बाथरूम में कपड़े धो रही थी. हालांकि सुविधाओं की आदत होने के कारण सब के चेहरे मुरझाए हुए थे.

सत्यम रोज ही अपना रिज्यूम ले कर किसी न किसी कंपनी में जाता रहता. आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनियों को भी इस समय कुशल कर्मचारी कम तनख्वाह में हासिल हो रहे थे तो वे क्यों न इस का फायदा उठाते. तनख्वाह बहुत ही कम थी.

‘‘सोचा भी न था मम्मी, ऐसी बाबू जैसी तनख्वाह में कभी गुजारा करना पड़ेगा,’’ सत्यम बोला.

दिल हुआ कहूं कि तेरे पिता ने तो ऐसी ही तनख्वाह में गुजारा कर के तुझे इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया…तब तू ने कभी नहीं सोचा…लेकिन उस के स्वर में उस के दिल की निराशा साफ झलक रही थी. मां होने के नाते दिल में कसक हो आई.

आगे पढ़ें- मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर…

खोखली होती जड़ें: भाग 4

‘‘ठीक हो जाएगा सबकुछ, परेशान मत हो, सत्यम…मंदी कोई हमेशा थोड़े ही रहने वाली है…एक न एक दिन तुम दोबारा अमेरिका चले जाओगे…उसी तरह बड़ी कंपनी में नौकरी करोगे.’’

मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर उन की स्वार्थपरता पर करारी चोट भी थी. मैं ने जता दिया था, जिस दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम पहले की ही तरह हमें हमारे हाल पर छोड़ कर चले जाओगे. सत्यम कुछ नहीं बोला, निरीह नजरों से मुझे देखने लगा. मानो कह रहा हो, कब तक नाराज रहोगी. बच्चों का दाखिला भी उस ने दौड़भाग कर अच्छे स्कूल में करा दिया.

‘‘इस स्कूल की फीस तो काफी ज्यादा है सत्यम…इस नौकरी में तू कैसे कर पाएगा?’’

‘‘बच्चों की पढ़ाई तो सब से ज्यादा जरूरी है मम्मी…उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं आना चाहिए. बच्चे पढ़ जाएंगे… अच्छे निकल जाएंगे तो बाकी सबकुछ तो हो ही जाएगा.’’

वह आश्वस्त था…लगा सौरभ ही जैसे बोल रहे हैं. हर पिता बच्चों का पालनपोषण करते हुए शायद यही भाषा बोलता है…पर हर संतान यह भाषा नहीं बोलती, जो इतने कठिन समय में सत्यम ने हम से बोली थी. मेरा मन एकाएक कसैला हो गया. मैं उठ कर बालकनी में जा कर कुरसी पर बैठ गई. भीषण गरमी के बाद बरसात होने को थी. कई दिनों से बादल आसमान में चहलकदमी कर रहे थे, लेकिन बरस नहीं रहे थे. लेकिन आज तो जैसे कमर कस कर बरसने को तैयार थे. मेरा मन भी पिछले कुछ दिनों से उमड़घुमड़ रहा था, पर बदरी थी कि बरसती नहीं थी.

मन की कड़वाहट एकाएक बढ़ गई थी. 5 साल पुराना बहुत कुछ याद आ रहा था. सत्यम के आने से पहले सोचा था कि उस को यह ताना दूंगी…वह ताना दूंगी… सौरभ ने भी बहुत कुछ कहने को सोच रखा था पर क्या कर सकते हैं मातापिता ऐसा…वह भी जब बेटा अपनी जिंदगी के सब से कठिन दौर से गुजर रहा हो.

एकाएक बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई. मैं ने अपनी आंखों को छुआ तो वहां भी गीलापन था. बारिश हलकीहलकी हो कर तेज होने लगी और मेरे आंसू भी बेबाक हो कर बहने लगे. मैं चुपचाप बरसते पानी पर निगाहें टिकाए अपने आंसुओं को बहते हुए महसूस करती रही.

तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्यम खड़ा था… चेहरे पर कई भाव लिए हुए… जिन को शब्द दें तो शायद कई पन्ने भर जाएं. मैं ने चुपचाप वहां से नजरें हटा दीं. वह पास पड़े छोटे से मूढ़े को खिसका कर मेरे पैरों के पास बैठ गया. कुछ देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे. मैं ने अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया.

‘‘मम्मी, क्या मुझे इस समय बच्चों को इतने बड़े स्कूल में नहीं डालना चाहिए था…मैं ने सोचा जो भी थोड़ीबहुत बचत है, उन की पढ़ाई का तब तक का खर्चा निकल जाएगा…हम तो जैसेतैसे गुजरबसर कर ही लेंगे, जब तक मंदी का समय निकलता है…क्या मैं ने ठीक नहीं किया, मम्मी?’’

सत्यम ने शायद बातचीत का सूत्र यहीं से थामना चाहा, ‘‘आखिर, पापा ने भी तो हमेशा मेरी पढ़ाईलिखाई पर अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च किया.’’

सत्यम के इन शब्दों में बहुत कुछ था. लज्जा, अफसोस…पिता के साथ किए व्यवहार से…व पिता के अथक प्रयासों व त्याग को महसूस करना आदि.

‘‘तुम ने ठीक किया सत्यम, आखिर सभी पिता यही तो करते हैं, लेकिन अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए. वह तो सभी पर आएगा. संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाएगी… मंझधार में छोड़ कर नया आसमान तलाशने के लिए उड़ जाएगी…तब कैसे लड़ोगे बुढ़ापे के अकेलेपन से. बीमारियों से, कदम दर कदम, नजदीक आती मृत्यु की आहट से…कैसे? सत्यम…आखिर कैसे…’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर व मेरी आंखें दोनों ही आद्र हो गए थे.

मेरे इतना बोलने में कई सालों का मानसिक संघर्ष था. पति की बीमारी के समय जीवन से लड़ने की उन की बेचारगी की कशमकश थी. अपनी दोनों की बिलकुल अकेली सी बीती जा रही जिंदगी का अवसाद था और शायद वह सबकुछ भी जो मैं सत्यम को जताना चाहती थी…कि जो कुछ उस ने हमारे साथ किया अगर इन क्षणों में हम उस के साथ करें…हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है…लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है, बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है.

सत्यम थोड़ी देर तक विचारशून्य सा बैठा रहा, फिर एकाएक प्रायश्चित करते हुए स्वर में बोला, ‘‘मम्मी, मुझे माफ नहीं करोगी क्या?’’

मैं ने सत्यम की तरफ देखा, वह हक से माफी भी नहीं मांग पा रहा था क्योंकि वह समझ रहा था कि वह माफी का भी हकदार नहीं है.

सत्यम ने मेरे घुटनों पर सिर रख दिया, ‘‘मम्मी, मेरे किए की सजा मुझे मिल रही है. मैं जानता हूं कि मुझे माफ करना आप के व पापा के लिए इतना सरल नहीं है फिर भी धीरेधीरे कोशिश करो मम्मी…अपने बेटे को माफ कर दो. अब कभी आप दोनों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा…मुझे यहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी…आप दोनों का बुढ़ापा अब अकेले नहीं बीतेगा…मैं हूं आप का सहारा…अपनी जड़ों को अब और खोखला नहीं होने दूंगा. जो बीत गया मैं उसे वापस तो नहीं लौटा सकता पर अब अपनी गलतियों को सुधारूंगा,’’ कह कर सत्यम ने अपनी बांहें मेरे इर्दगिर्द लपेट लीं जैसे वह बचपन में करता था.

‘‘मुझे भी माफ कर दो, मम्मी,’’ नीमा भी सत्यम की बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘हमें अपने किए पर बहुत पछतावा है…पापा से भी कहिए कि वह हम दोनों को माफ कर दें. हमारा कृत्य माफी के लायक तो नहीं पर फिर भी हमें अपनी गलतियां सुधारने का मौका दीजिए,’’ कह कर नीमा ने मेरे पैर पकड़ लिए.

दोनों बच्चे इस तरह से मेरे पैरों के पास बैठे थे. सोचा था अब तो जीवन यों ही अकेला व बेगाना सा निकल जाएगा… बच्चे हमें कभी नहीं समझ पाएंगे पर हमारा प्यार जो उन्हें नहीं समझा पाया वह कठिन परिस्थितियां समझा गईं.

‘‘बस करो सत्यम, जो हो गया उसे हम तो भूल भी चुके थे. जब तुम सामने आए तो सबकुछ याद आ गया. पर माफी मुझ से नहीं अपने पापा से मांगो, बेटा… मां का हृदय तो बच्चों के गलती करने से पहले ही उन्हें क्षमा कर देता है,’’ कह कर मैं स्नेह से दोनों का सिर सहलाने लगी.

सत्यम अपनी भूल सुधारने के लिए मेरे पैरों से लिपटा हुआ था.

‘‘जाओ सत्यम, पापा अपने कमरे में हैं. दोनों उन के दोबारा खुरचे घावों पर मरहम लगा आओ…मुझे विश्वास है कि उन की नाराजगी भी अधिक नहीं टिक पाएगी.’’

सत्यम व नीमा हमारे कमरे की तरफ चले गए. अकस्मात मेरा मन जैसे परम संतोष से भर गया था. बाहर बारिश पूरी तरह रुक गई थी, हलकी शीतल लालिमा चारों तरफ फैल गई थी जिस में सबकुछ प्रकाशमय हो रहा था.

खोखली होती जड़ें: भाग 1

अमेरिका से हमारे बेटे सत्यम का फोन था. फोन सुन कर सौरभ बालकनी की तरफ चले गए. क्या कहा होगा सत्यम ने फोन पर…मैं दुविधा में थी…फिर थोड़ी देर तक सौरभ के वापस आने का इंतजार कर मैं भी बालकनी में चली गई. सौरभ खोएखोए से बालकनी में खड़े बाहर बारिश को देख रहे थे. मैं भी चुपचाप जा कर सौरभ की बगल में खड़ी हो गई. जरूर कोई खास बात होगी क्योंकि सत्यम के फोन अब कम ही आते थे. वह पिछले 5 साल से अमेरिका में था. इस से पहले वह मुंबई में नियुक्त था. अमेरिका से वह इन 5 सालों में एक बार भी भारत नहीं आया था.

सत्यम उन संतानों में था जो मातापिता के कंधों पर पैर रख कर सफलता की छलांग तो लगा लेते हैं लेकिन छलांग लगाते समय मातापिता के कंधों को कितना झटका लगा, यह देखने की जहमत नहीं उठाते. थोड़ी देर मैं सौरभ के कुछ बोलने की प्रतीक्षा करती रही फिर धीरे से बोली, ‘‘क्या कहा सत्यम ने?’’

‘‘सत्यम की नौकरी छूट गई है,’’ सौरभ निर्विकार भाव से बोले.

नौकरी छूट जाने की खबर सुन कर मैं सिहर गई. यह खयाल हमें काफी समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के हालात के चलते आ रहा था. आज हमारा वही डर सच हो गया था. हमारे लिए हमारा बेटा जैसा भी था लेकिन अपने परिवार के साथ खुश है, सोच कर हम शांत थे.

‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या…वह वापस आ रहा है,’’ सौरभ की नजरें अभी भी बारिश पर टिकी हुई थीं. शायद वह बाहर की बरसात के पीछे अपने अंदर की बरसात को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहे थे.

‘‘और कहां जाएगा…’’ सौरभ के दिल के भावों को समझते हुए भी मैं ने अनजान ही बने रहना चाहा.

‘‘क्यों…अगर हम मर गए होते तो किस के पास आता वह…उस की बीवी के भाईबहन हैं, मायके वाले हैं, रिश्तेदार हैं, उन से सहायता मांगे…यहां हमारे पास क्या करने आ रहा है…’’ बोलतेबोलते सौरभ का स्वर कटु हो गया था. हालांकि सत्यम के प्रति मेरा दिल भी फिलहाल भावनाओं से उतना ही रिक्त था लेकिन मां होने के नाते मेरे दिल की मुसीबत के समय में सौरभ का उस के प्रति इतना कटु होना थोड़ा खल गया.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो. आखिर मुसीबत के वक्त वह अपने घर नहीं आएगा तो कहां जाएगा.’’

‘‘घर…कौन सा घर…उस ने इस घर को कभी घर समझा भी है…तुम फिर उस के लिए सोचने लगीं…तुम्हारी ममता ने बारबार मजबूर किया है मुझे…इस बार मैं मजबूर नहीं होऊंगा…जिस दिन वह आएगा…घर से भगा दूंगा…कह दूंगा कि इस घर में उस के लिए अब कोई जगह नहीं है.’’

सौरभ मेरी तरफ मुंह कर के बोले. उन की आंखों के बादल भी बरसने को थे. चेहरे पर बेचैनी, उद्विग्नता, बेटे के द्वारा अनदेखा किया जाना, लेकिन उस के दुख से दुखी भी…गुस्सा आदि सबकुछ… एकसाथ परिलक्षित हो रहा था.

‘‘सौरभ…’’ रेलिंग पर रखे उन के हाथ को धीरे से मैं ने अपने हाथ में लिया तो सुहाने मौसम में भी उन की हथेली पसीने से तर थी. सौरभ की हिम्मत के कारण मैं इस उम्र में भी निश्ंिचत रहती थी लेकिन उन को कातर, बेचैन या कमजोर देख कर मुझे असुरक्षा का एहसास होता था.

‘‘सौरभ, शांत हो जाओ…सब ठीक हो जाएगा. चलो, चल कर सो जाओ, कल सोचेंगे कि क्या करना है.’’

मैं उन को सांत्वना देती हुई अंदर ले आई. मुझे सौरभ के स्वास्थ्य की चिंता हो जाती थी, क्योंकि उन को एक बार दिल का दौरा पड़ चुका था. सौरभ चुपचाप बिस्तर पर लेट गए. मैं भी जीरो पावर का बल्ब जला कर उन की बगल में लेट गई. दोनों चुपचाप अपनेअपने विचारों में खोए हुए न जाने कब तक छत को घूरते रहे. थोड़ी देर बाद सौरभ के खर्राटों की आवाज आने लगी. सौरभ के सो जाने से मुझे चैन मिला, लेकिन मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

आज सत्यम को हमारी जरूरत पड़ी तो उस ने बेधड़क फोन कर दिया कि वह हमारे पास आ रहा है और क्यों न आए…बेटा होने के नाते उस का पूरा अधिकार है, लेकिन जरूरत पड़ने पर इसी तरह बेधड़क बेटे के पास जाने का हमारा अधिकार क्यों नहीं है. क्यों संकोच व झिझक हमारे कदम रोक लेती है कि कहीं बेटे की गृहस्थी में हम अनचाहे से न हो जाएं. कहीं बहू हमारा यों लंबे समय के लिए आना पसंद न करे.

सत्यम व नीमा ने अपने व्यवहार से जानेअनजाने हमेशा ही हमें चोट पहुंचाई है. मातापिता की बढ़ती उम्र से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहा. हमें कभी लगा ही नहीं कि हमारा बेटा अब बड़ा हो गया है और अब हम अपनी शारीरिक व मानसिक जरूरतों के लिए उस पर निर्भर हो सकते हैं.

जबजब सहारे के लिए बेटेबहू की तरफ हाथ बढ़ाया तबतब उन्हें अपने से दूर ही पाया. कई बार मैं ने सौरभ व अपना दोनों का विश्लेषण किया कि क्या हम में ही कुछ कमी है, क्यों नहीं सामंजस्य बन पाता है हमारे बीच में…लगा कि एक पीढ़ी का अंतर तो पहले होता था, इस नई पीढ़ी के साथ तो जैसे पीढि़यों का अंतराल हो गया. इसी तरह के खयालों में डूबी मैं अतीत में विचरण करने लगी.

सत्यम अपने पापा की तरह पढ़ने में होशियार था. पापा के समय में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए जो कुछ भी हासिल हुआ, धीरेधीरे व लंबे समय के बाद हुआ लेकिन सत्यम को उन्होंने अपनी क्षमता से बढ़ कर सुविधाएं दीं, उस की पढ़ाई पर क्षमता से बढ़ कर खर्च किया. सत्यम मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े ओहदे पर था, शादी भी उसी हिसाब से बड़े घर में हुई. नीमा भी नौकरी करती थी. अपने छोटे से साधारण फ्लैट, जिस में सत्यम को पहले सभी कुछ दिखता था, नौकरी व शादी के बाद कमियां ही कमियां दिखाई देने लगीं. जबजब छुट्टी पर आता कुछ न कुछ कह देता :

‘कैसे रहते हो आप लोग इस छोटे से फ्लैट में. ढंग का ड्राइंगरूम भी नहीं है. मम्मी, मुझे तो शर्म आती है यहां किसी अपने जानने वाले को बुलाते हुए. यह किचन भी कोई किचन है…नीमा तो इस में चाय भी नहीं बना सकती.’

पहले साफसुथरा लगने वाला फ्लैट अब गंदगी का ढेर लगता.

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