प्रतिपल नागेश एक परछाईं की भांति उस के साथ रहता था. जब भी वह नागेश के विषय में सोचती, उस की अंतरात्मा उसे धिक्कारती, ‘वसु, तू अपने पति से विश्वासघात कर रही है. नहीं, नहीं, मैं उन्हें धोखा नहीं दे रही हूं. मेरे तन और मन पर मेरे पति मृगेंद्र का ही अधिकार है. लेकिन यदि अतीत की स्मृतियां हृदय में फांस बन कर चुभी हुई हैं तो यादों की टीस तो उठेगी ही न.’
स्मृतियों के झीने आवरण से अकसर ही उसे नागेश का चेहरा दिखता था और वह बेचैन हो जाती थी. किंतु जब से मृगेंद्र उस के जीवन से चले गए, वह हर पल, हर सांस मृगेंद्र के लिए ही जीती थी. यह सत्य था कि नागेश की स्मृतियां उसे झकझोर देती थीं लेकिन मृगेंद्र की शांत आंखें उस के आसपास होने का एहसास दिलाती थीं. हर पल उसे कानों में मृगेंद्र की आवाज सुनाई देती थी. उसे लगता, मृगेंद्र पूछ रहे हैं, ‘क्या हुआ, वसु, क्यों इतनी उद्विग्न हो रही हो? मैं तो सदा ही तुम्हारे पास हूं न, तुम्हारे व्यक्तित्व में घुलामिला.’
यह सत्य है कि मृगेंद्र का साया उस के अस्तित्व से लिपटा रहता था. फिर भी, वह क्यों नागेश से मिलना चाहती है. जिस ने, किसी मजबूरी से ही सही, उस से नाता तोड़ा और अब 35 वर्षों बाद उस को अपनी सफाई देना चाहता है. क्या वह पहले नहीं ढूंढ़ सकता था.
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मृगेंद्र के जाने के बाद वह अकसर ही एक गीत गुनगुनाती थी- ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में तनहा हो गए…’ किस के लिए था यह गीत? नागेश के लिए? मृगेंद्र के लिए? दोनों ही तो खो गए थे और हां, वह इस भीड़भरी दुनिया में तनहाई का ही जीवन व्यतीत कर रही थी.
यादों का सैलाब उमड़घुमड़ रहा था. 15 वर्षों के क्षणिक जीवन में भी मृगेंद्र ने उसे इतना प्यार दिया कि वह सराबोर हो उठी थी. लेकिन, कहीं न कहीं आसपास नागेश के होने का एहसास होता था. हालांकि हर बार वह उस एहसास को झटक देती थी यह सोच कर कि यह मृगेंद्र के प्रति विश्वासघात होगा.
मृगेंद्र ने जब अपनी आंखें बंद कीं तब वह निराश हो उठी. उस के मन में एक आक्रोश जागा, यदि नागेश ने धोखा न दिया होता तो वह असमय वैरागिनी न बनी होती और उस की चाहत नागेश के लिए, नफरत में बदल गई. उसे सामने पा कर वह नफरत ज्वालीमुखी बन गई. नहीं, मुझे उस से नहीं मिलना है, किसी भी दशा में नहीं मिलना है. वह निर्मोही पाषाण हृदय, नफरत का ही हकदार है. यदि वह आएगा भी, तो उस से नहीं मिलेगी, मन ही मन में सोच रही थी.
लेकिन फिर, विरोधी विचार मन में पनपने लगे. आखिर एक बार तो मिलना ही होगा, देखें, क्या मजबूरी बताता है और इस प्रकार आशानिराशा के बीच झूलते हुए रात्रि कब बीत गई, पता ही नहीं चला.
खिड़की का परदा थोड़ा खिसका हुआ था. धूप की तीव्र किरण उस के मुख पर आ कर ठहर गई थी. धूप की तीव्रता से वह जाग गई, देखा, दिन के 11 बजे थे. ओहो, कितनी देर हो गई. नित्यक्रिया का समय बीत जाएगा.
जल्दी से नहाधो कर उस ने मृगेंद्र की तसवीर के आगे दीया जला कर, हाथ जोड़ कर उन को प्रणाम करते हुए बोली, मानो उन का आह्वान कर रही हो, ‘‘बताइए, मैं क्या करूं, क्या नागेश से मिलना उचित होगा? मैं हांना के दोराहे पर खड़ी हूं. एक मन आता है कि मिलना चाहिए, तुरंत ही विरोधी विचार मन में पनपने लगते हैं, नहीं, अब और क्या मिलनामिलाना, विगत पर जो चादर पड़ गई है समय की, उस को न हटाना ही ठीक होगा. मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.’’
अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी. और फिर मैं तुम्हें कोई भी कदम उठाने से रोकूंगा नहीं. तुम एक बार नागेश से मिल लो. शायद, तुम्हारी जीवननौका को एक साहिल मिल ही जाए.’ हां, यही ठीक होगा, उस ने मन में सोचा.
दूसरे दिन सायंकाल वह जल्दी से तैयार हुई अपनी मनपसंद रंग की साड़ी, मैंचिंग ब्लाउज पहना, बालों का ढीलाढाला जूड़ा बनाया, अनजाने में ही उस ने नागेश के पसंददीदा रंग के वस्त्र पहन लिए थे. आईने में वह खुद को देख कर चौंक उठी, ‘‘क्यों? यह क्या किया मैं ने, क्यों उसी रंग की साड़ी पहनी जो नागेश को पसंद थी. क्या इस प्रकार वह अपने सुप्त प्यार का इजहार कर बैठी? नहीं, नहीं, यह तो इत्तफाक है, उस ने खुद को आश्वस्त किया.
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जब वह पार्क में पहुंची तो नागेश कहीं नजर नहीं आया. वह चारों ओर देख रही थी लेकिन बेकार. क्या उस ने गलती की है यहां आ कर? क्या वह नागेश को अपनी कमजोरी का एहसास कराना चाहती थी. नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. वह तो नागेश के इसरार करने पर ही यहां आई थी. आखिर उन की बात भी तो सुननी ही चाहिए न.
नागेश को पार्क में न देख कर वह लौट पड़ी. तभी ‘‘वसु,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया. वह ठिठक गई, शरीर में एक सिहरन सी हुई. कैसे सामना करे वह उस का. कल तो झिड़क दिया था और आज मिलने आ पहुंची. भला वह क्या सोचेगा. पर वह अचल खड़ी ही रही.
नागेश सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘मिलने आई हो न? मैं जानता था कि तुम आओगी अवश्य ही,’’ नागेश ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चलो बैंच पर बैठते हैं.’’ और वह निशब्द नागेश के साथ बैंच पर जा कर बैठ गई. मन में तरहतरह के विचार आ रहे थे. कल और आज में कितना अंतर था. कल वह एक चोट खाई नागिन सी बल खा रही थी और आज नागेश के सम्मोहन में बंधी बैठी थी.
दोनों के बीच कुछ पलों का मौन पसरा रहा. फिर, नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘वसु, मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना चाहता, बस, यही चाहता हूं कि तुम्हारे मन में अपने लिए बसी नफरत को यदि किसी प्रकार दूर कर सकूं तो शायद चैन मिल जाए. 35 वर्ष बीत चुके हैं पर चैन नहीं है. तुम्हें तलाशता रहा कि शायद जीवन के किसी मोड़ पर तुम्हारा साथ मिल जाए पर असफलता ही हाथ लगी.’’
अब वसुधा चुप नहीं रह सकी, ‘‘क्यों आप ने विवाह किया होगा, आप के भी बालबच्चे होंगे, तो फिर चैन क्यों नहीं? और उस दिन आप ने यह क्यों कहा था कि मैं अकेला रह गया हूं. आप का परिवार तो होगा ही.’’
नागेश ने कातर दृष्टि से उसे देखा, ‘‘नहीं वसु, विवाह नहीं किया. मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा किसी के लिए कोई भी स्थान नहीं था.’’
‘‘फिर क्यों आप ने धोखा दिया,’’ वसु ने भरे गले से पूछा.
‘‘धोखा, हां, तुम सही कह रही हो. तुम्हारी नजर में ही नहीं, तुम्हारे परिवार की नजरों में भी मैं धोखेबाज ही हूं पर यदि तुम विश्वास कर सको तो मैं तुम्हें बता दूं कि मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया.’’
‘‘धोखा और क्या होता है, नागेश. तुम्हारा पत्र नहीं आया. तुम्हारे पिता ने एकतरफा फैसला सुना दिया बिना किसी कारण के. यदि विवाह करना ही नहीं था तो सगाई का ढोंग क्यों किया?’’ वसुधा ने तड़प कर कहा.
‘‘हां, तुम सही कह रही हो. कुछ तो अपराध मेरा भी था. मुझे ही तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. इस के पूर्व कि मेरे पिता का इनकार में पत्र आता. न जाने क्यों मैं कमजोर पड़ गया और पिता की हां में हां मिला बैठा. दरअसल, उन के पास पैसा नहीं था और उन्हें दहेज की आशा थी जो तुम्हारे घर से पूरी नहीं हो सकती थी.
‘‘उसी समय दिल्ली के एक धनवान परिवार ने जोर लगाया और पिताजी को मनमाना दहेज देने का आश्वासन दिया. पिताजी झुक गए. मैं भी उन की हां में हां मिला बैठा. लेकिन जब विवाह की तिथि निश्चित हुई और ऐसा लगा कि मेरेतुम्हारे बीच में विछोह का गहरा सागर आ गया है, हम कभी भी मिल नहीं सकेंगे, तो मैं तड़प उठा और तत्काल ही विवाह के लिए मना कर दिया. भला जो स्थान तुम्हारा था वह मैं किसी और को कैसे दे सकता था? तभी मुझे फ्रंट पर जाने का पैगाम आया और मैं सीमा पर चला गया.
‘‘मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था कि तुम्हारी शादी हो जाएगी. जब मैं लौटा तब तुम्हारे ही किसी परिचित से पता चला कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. मैं खामोश हो गया. और उसी दिन यह प्रतिज्ञा ली कि अब यह जीवन तुम्हारे ही नाम है. मैं विवाह नहीं करूंगा. समय का इतना लंबा अंतराल बीत चला कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने कभी तुम्हारे वैवाहिक जीवन में दखल न देने की सोच ली थी, इसलिए एकाकी जीवन बिताता रहा.
‘‘समय की आंधी में हम दोनों 2 तिनकों की तरह उड़ चले. मुझे तो तुम्हारे मिलने की कोई भी आशा नहीं थी. कर्नल की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं और यहां एक फ्लैट ले कर रहने आ गया. जीवन का इतना लंबा समय बीत चला कि अब जो कुछ पल बचे हैं उन्हें शांतिपूर्वक बिताना चाहता था कि समय देखो, अचानक तुम से मुलाकात हो गई.’’ नागेश चुप हो गया था.
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वसुधा के नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे, दिल में फंसा हुआ जख्मों का गुबार आंखों की राह बाहर निकलना चाहता था और वह उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही थी.
रात्रि गहरा रही थी. ‘‘चलो वसु, अब घर चलें,’’ नागेश ने उठते हुए कहा. वसुधा चौंक कर उठी. अक्तूबर का महीना था. हलकीहलकी ठंड थी जो सिहरन पैदा कर रही थी. दोनों उठ खड़े हुए और अपनेअपने रास्ते हो लिए. घर आ कर वसुधा ने एक सैंडविच बनाया और एक कप चाय के साथ खा कर बैड पर लेटने का उपक्रम करने लगी. आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं.
– क्रमश: