त्रिकोण- शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

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खुशियों के फूल – भाग 2 : किस बात से डर गई अम्बा

एक  दिन लेकिन हद ही हो गई. उस दिन अम्बा  मां के घर से लौटी ही थी, कि रात के आठ  बजे तक टेबल पर डिनर सर्व ना होने की फ़िजूल सी बात पर निनाद उस पर गुस्से से फट पड़ा और उस दिन निनाद का बेवजह गुस्से से चीखना चिल्लाना सुन अम्बा  का धैर्य जवाब दे गया. वह उल्टे पैरों वापस मां के घर चली आई. बहुत सोच विचार कर मां के यहां एक माह  रहने के बाद उसने निनाद को फोन करके कहा “निनाद, अब मैं यहां माँ के साथ ही रहूँगी. तुम्हारे घर नहीं लौटूंगी. मुझे तुमसे तलाक चाहिए.’’

अम्बा की यह बात सुनकर निनाद अतीव क्रोध से बिफर उठा. अम्बा की तलाक की मांग उसे अपने पौरुष पर प्रहार लगी. सो गुस्से से भड़कते हुए वह चिल्लाया, “शौक से रहो माँ के साथ.मैं भी तुम्हारे बिना मरा नहीं जा रहा. जब चाहोगी तलाक मिल जाएगा.’’

मन ही मन समझता था कि वह पत्नी के साथ ज्यादती कर रहा है लेकिन अपने पुरुषोचित, अड़ियल  और अहंवादी  स्वाभाव से मजबूर था.

अम्बा तलाक की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक अच्छे वकील की तलाश में जुट गई थी. अम्बा को माँ के यहां आए तीन माह हो चले थे.तभी अम्बा को एक अच्छी महिला वकील मिल गई थी और वह उससे मिलने ही वाली थी कि तभी  उन्हीं दिनों लंदन में एक कॉन्फ्रेंस में दोनों को जाना पड़ा. कॉन्फ्रेंस अटेंड कर एक ही फ़्लाइट से वे दोनों अपने देश लौटे ही थे कि लंदन में कोरोना  के प्रकोप के चलते  अपने शहर के एयरपोर्ट पर निनाद को हल्का बुखार निकला. फिर हौस्पिटल में दोनों का कोरोना का टेस्ट हुआ और उसमें  दोनों कोरोना पॉजिटिव निकले

कि तभी निनाद की  पुकार से उसकी तंद्रा टूटी और वह वर्तमान में वापस आई और दौड़ी-दौड़ी निनाद के पास गई.

निनाद आंखें बंद कर लेटा हुआ था.”अम्बा,  मेरे पास बैठो.  मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा.”

” कैसा लग रहा है निनाद?”

”  बहुत कमजोरी लग रही है और घबराहट हो रही है.”

“अरे घबराने की क्या बात है?  चलो मैं तुम्हारे लिए गर्मागर्म टमेटो सूप बनाकर लाती हूं.सूप पीकर तुम बेहतर फ़ील करोगे,” यह कहकर अम्बा  रसोई में जाकर दस  मिनट में सूप बनाकर ले आई.

” अम्बा,  हम दोनों ठीक तो हो जाएंगे ना?”

” हां हां बिल्कुल ठीक हो जाएंगे. डाक्टर ने कहा था न, हम दोनों के ही सिमटम्स बहुत माइल्ड हैं. डरने की कोई बात नहीं है. तुम सोने की कोशिश करो. सो लोगे तो बेहतर फील करोगे.”

” तुम भी जा कर आराम करो. तुम्हें भी तो थकान हो रही होगी.”

” नहीं नहीं, मेरा इंफेक्शन  शायद  कुछ ज्यादा ही माइल्ड है. मुझे कुछ गड़बड़ फील नहीं हो रहा. तुम सो जाओ.”

तभी निनाद ने अपना हाथ बढ़ाकर अम्बा का हाथ थाम उसे जकड़ लिया और उसे खींच कर अपने पास बिठाते हुए उससे बेहद मीठे स्वरों में बोला, “मुझसे नाराज़ हो? मैं अपनी पिछली गलतियों को लेकर बेहद शर्मिंदा हूं. मेरे पास बैठो. तुम मुझसे दूर चली जाती हो तो मुझे लगता है, मेरी जिंदगी मुझसे दूर चली गई. वापिस आजाओ अम्बा मेरी ज़िंदगी में. तुम्हारे बिना मैं बहुत अकेला हो गया हूँ.“ यह कह कर उसने उसकी  हथेली को चूम उसके हाथों को अपनी गिरफ़्त में जकड़ लिया.”

महीनों बाद पति के स्नेहिल स्पर्श और स्वरों  से अम्बा  एक अबूझ  मृदु ऐहसास  से भर उठी लेकिन दूसरे ही क्षण वह असमंजस से भर उठी. तीन वर्षों तक उसका दुर्व्यव्हार सह कर क्या अब उसे एक बार फिर उसके करीब आना चाहिए?

पति के हाथों को जकड़े जकड़े अम्बा  सोच रही थी, “काश, तुम पहले भी ऐसे ही रहते तो जिंदगी कितनी खुशनुमा होती.”

अगली सुबह निनाद  जब उठा तो उसके सर में तेज दर्द था. अम्बा  ने निनाद के फैमिली डॉक्टर को निनाद के चेकअप के लिए बुलाया. वह आए और निनाद  की हालत देख अम्बा  से बोले, “चिंता की कोई बात नहीं है. अभी भी इनके सिम्टम्स माइल्ड ही  हैं. हॉस्पिटलाइजेशन की जरूरत नहीं है. बस इन पर पूरे वक्त वॉच रखिए और तबीयत बिगड़े तो मुझे इन्फॉर्म करिए. आपको भी कोरोना का इंफेक्शन है. बेहतर होगा यदि आप एक नर्स रख लें.”

“नहीं-नहीं डॉक्टर, मैं बिल्कुल ठीक हूं.  ना मुझे कोई कमजोरी लग रही न ही कहीं दर्द है. आप निश्चिंत रहिए मैं इन पर पूरे वक्त वॉच रखूंगी.”

डाक्टर के जाने के बाद निनाद  ने अम्बा  से कहा, “तुम  इतना लोड लोगी तो तुम भी बीमार पड़ जाओगी. प्लीज कोई नर्स रख लो.”

“हां, इस बारे में सोचती हूं. तुम अभी सो जाओ.’’

निनाद को चादर उढ़ा वह दूसरे बेडरूम में अपने पलंग पर लेट गई. पिछले दिन से अम्बा गंभीर सोचविचार में मग्न थी. निनाद को लेकर वह कुछ फैसला नहीं कर पा रही थी. निनाद के रवैये से स्पष्ट था, वह अब समझौते के मूड में था, लेकिन क्या वह पिछले तीन वर्षों तक उसके दिये घावों को भुला कर उसकी इच्छानुसार उसके साथ एक बार फिर जिंदगी की नई शुरुआत कर पाएगी.वह घोर द्विविधा में थी. निनाद के बंधन को काट फेंके या फिर गुजरे दिनों को भुला कर एक नया आगाज़ करे? एक ओर उसका मन कहता, इंसान की फितरत कभी नहीं बदलती. उसने उसके साथ एक नई शुरुआत कर भी ली तो क्या गारंटी है कि वह उसे दोबारा तंग नहीं करेगा? तभी दूसरी ओर वह सोचती, जब निनाद ने अपनी गलती मान ली है तो एक मौका तो उसे देना ही चाहिए.अनायास उसके कानों में माँ के धीर गंभीर शब्द गूंज उठे, “रिश्तों की खूबसूरती उन्हें बनाए रखने में होती है, ना की उन्हें तोड़ने में.“

जिंदगी के इस मोड पर वह स्पष्टता से कुछ सोच नहीं पा रही थी, कि क्या करे.

बीमारी के इस दौर में निनाद एक दम बदला बदला नज़र आ रहा था. वह   बेहद डर गया था. वह एक बेहद डरपोक किस्म का, कमज़ोर दिल का इंसान था.उसे लगता वह कोरोना से मर जाएगा. ठीक नहीं होगा. वह बेहद कमज़ोरी फील कर रहा था. अम्बा  को यूं दिन रात अपनी देखभाल करते देख मन ही मन उसने न जाने कितनी बार अपने आप से दोहराया, “इस बार बस मैं ठीक हो जाऊं, अम्बा  को बिल्कुल तंग नहीं करूंगा. उसे पूरा प्यार और मान दूंगा. अब उसपर बिलकुल नहीं चिल्लाऊंगा.” अम्बा को इस तरह समर्पित भाव से अपनी सेवा करते देख वह गुजरे दिनों में उसके प्रति अपने दुर्व्यवहार को लेकर घोर  पछतावे से भर उठा. साथ ही कोरोना से मौत के खौफ ने उसे बहुत हद तक  बदल दिया था.

उस दिन रात का एक  बज रहा था. निनाद की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.  उसके हाथ पैरों में बहुत दर्द हो रहा था. वह बार-बार दर्द से हाथ पैर पटक रहा था. अम्बा  उसके हाथ पैर दबा रही थी. अम्बा  के हाथ पैर दबाने से उसे बेहद आराम लगा था और भोर होते होते वह गहरी नींद में सो गया था. इतनी देर तक उसके हाथ पैर दबाते दबाते अम्बा  भी थकान से बेदम हो गई थी लेकिन मन में कहीं अबूझ सुकून का भाव था. वह कोरोना की वज़ह से  निनाद में आए परिवर्तन को भांप रही थी. निनाद अब  बेहद बदल गया था. उसकी आंखों में अपने लिए प्यार का समुंदर उमड़ते  देख वह मानो  भीतर तक भीग  उठती लेकिन दूसरे की क्षण पुराने दिनों की याद कर भयभीत हो उठती.

अगली सुबह अम्बा ने डाक्टर को बुलवाया. उन्होंने निनाद के लिए कुछ दवाइयाँ लिख दीं. उन दवाइयों  से निनाद  की तबीयत धीमे धीमे सुधरने लगी थी. दस  दिनों में वह बिस्तर से उठ बैठा था.

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खुशियों के फूल – भाग 1 : किस बात से डर गई अम्बा

मिस्टर निनाद, आप और आपकी वाइफ कोरोना पोजिटिव आए हैं, लेकिन आपके सिम्टम्स बहुत माइल्ड हैं. इसलिए आप दोनों को अपने घर पर ही सेल्फ क्वॉरेंटाइन में रहना होगा. यह रही शहर की कोरोनावायरस हैल्प लाइन का नंबर. अगर आपकी तबीयत खराब लगे तो आप इस नंबर पर फोन करिएगा.आपको हॉस्पिल ले जाने का पूरा इंतजाम हो जाएगा. अभी आपको हौस्पिटलाइजेशन की कोई जरूरत नहीं. अब आप घर जा सकते हैं. गुड लक.”

निनाद और अम्बा  डॉक्टर की बातें सुनकर सदमे  में थे.कोरोना और उनको? दोनों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी. करोना के खौफ से दोनों के चेहरों से मानो रक्त निचुड़ सा गया था.उन्हें लग रहा था, मानो उनके पांव तले जमीन न रही थी.

हॉस्पिटल से बाहर निकल कर निनाद ने अपनी पत्नी अम्बा  से कहा ,”प्लीज़ अम्बा, घर  चलो, तुम्हारी भी तबीयत ठीक नहीं है. कोरोना का नाम सुन कर मैं हिल गया हूं. कोरोना से मौत की इतनी कहानियाँ सुन सुन कर मुझे दहशत सी हो रही है. बहुत  घबराहट हो रही है. तुम साथ होगी तो मेरी हिम्मत बनी रहेगी. प्लीज अम्बा, ना मत करना. फिर घर जाओगी तो मां को भी तुमसे बीमारी लगने का डर होगा.”

निनाद के मुंह से  प्लीज और  घर जाने की रिक्वेस्ट सुन अम्बा  बुरी तरह से चौंक गई थी. वह मन ही मन सोच रही थी, “इस बदज़ुबान और हेकड़ निनाद  को क्या हुआ? शायद तीन  महीने मुझसे अलग रहकर आटे दाल का भाव पता चल गया है इन्हें. इस बीमारी की स्थिति में किसी और परिचित या रिश्तेदार के घर जाना भी ठीक नहीं. कोई घर ऐसा नहीं जहां मैं इस मर्ज के साथ एकांत में रह सकूं. इस बीमारी में माँ के पास भी जा सकती. फिर निनाद की उसे अपने घर ले जाने की रट देख कर मन में कौतुहल जगा था, देखूं, आखिर माजरा क्या है जो ज़नाब इतनी मिन्नतें कर रहें हैं मुझे घर ले जाने के लिए. मन में दुविधा का भाव था, निनाद के घर जाये या नहीं. उससे तलाक की बात भी चल रही है. कि तभी हॉस्पिटल की ऐम्बुलेंस आगई और निनाद ने ऐम्बुलेंस का दरवाज़ा उसके लिए खोलते हुए उसे कंधों से उसकी ओर लगभग धकेलते से हुए उससे कहा, “बैठो अम्बा, क्या सोच रही हो,’’ और वह विवश ऐम्बुलेंस में बैठ गई.’’

घर पहुंचकर निनाद अम्बा  से बोला, “मैं पास  की दुकान को दूध सब्जी की होम डिलीवरी के लिए फोन करता हूं.”

“ओके.”

दुकान को फोन कर निनाद  नहा धोकर अपने बेडरूम में लेट गया और अम्बा  घर के दूसरे बेडरूम में. अम्बा  को तनिक थकान हो  आई थी और उसने आंखें बंद कर लीं. उसकी बंद पलकों में बरबस निनाद के साथ गुज़रा समय मानो सिनेमाई रील की मानिंद ठिठकते ठहरते चलने लगा  और वह बीते दिनों की भूल भुलैया में अटकती भटकती खो गई.

वह सोच रही थी, जीवन कितना अनिश्चित होता है. निनाद  से विवाह कर वह कितनी खुश थी, मानो सातवें आसमान में हो. लेकिन उसे क्या पता था, निनाद  से शादी उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल होगी.

एक सरकारी प्रतिष्ठान में वैज्ञानिक अम्बा  और एक बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान में वैज्ञानिक निनाद  का तीन वर्षों पहले विवाह हुआ था. निनाद ने उस दिन  अपने शहर की किसी कॉन्फ्रेंस में अपूर्व  लावण्यमयी अम्बा  को बेहद आत्मविश्वास  से एक प्रेजेंटेशन  देते सुना था, और वह उसका मुरीद हो गया. शुष्क, स्वाभाव के निनाद को अम्बा  को देखकर शायद पहली बार प्यार जैसे रेशमी, मुलायम जज़्बे का एहसास हुआ था. कॉन्फ्रेंस से घर लौट कर भी अम्बा  और उसका ओजस्वी धाराप्रवाह भाषण उसके चेतना मंडल पर अनवरत छाया रहा. उसके कशिश भरे, धीर गंभीर सौंदर्य ने सीधे उसके हृदय पर दस्तक दी थी और उसने लिंकडिन पर उसका प्रोफाइल ढूंढ उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की थी. उसके माता पिता की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थी.इसलिए उसने स्वयं  उसे फोन कर और फ़िर उससे मिलकर उसे विवाह का प्रस्ताव दिया था.

अम्बा  की विवाह योग्य उम्र हो आई थी. सो मित्रों परिचितों से निनाद  की नौकरी, घर परिवार और चाल चलन की तहकीकात कर उसने निनाद  से विवाह करने की हामी भर दी.

अम्बा  की मात्र मां जीवित थी. वह  बेहद गरीब परिवार से थी. पिता एक पोस्टमैन थे. उनकी मृत्यु उसके बचपन में ही हो गई थी. तो प्रतिष्ठित पदधारी निनाद  का विवाह प्रस्ताव अम्बा  और उसकी मां को बेहद पसंद आया.शुभ मुहूर्त में दोनों का परिणय  संस्कार संपन्न हुआ .

विवाह  के उपरांत सुर्ख लाल जोड़े में सजी, पायल छनकाती अम्बा  निनाद के घर आ गई, लेकिन यह विवाह उसके जीवन में खुशियों के फूल कतई न खिला सका. निनाद एक बेहद कठोर स्वाभाव  का कलह  प्रिय इंसान था. बात-बात पर क्लेश  करना उसका मानो  जन्म सिद्ध अधिकार था. फूल सी कोमल तन्वंगी अम्बा  महीने भर में ही समझ गई  कि यह विवाह कर उसने जीवन की सबसे गुरुतर  भूल की है. दिनों दिन पति के क्लेश से उसका  खिलती कली सा मासूम मन और सौंदर्य कुम्हलाने  लगा.

निनाद  बात बात पर उसे अपने से कम हैसियत के परिवार का तायना देता.गाहे बगाहे  वह मां से मिलने जाती तो उस से लड़ता. मामूली बातों पर उससे उलझ पड़ता. बात बात पर उसे झिड़कता.

अम्बा  एक बेहद सुलझी हुई, समझदार और मैच्योर युवती  थी. वह भरसक निनाद को अपनी ओर से कोई मौका नहीं देती कि वह क्रुद्ध  हो लेकिन दुष्ट निनाद  किसी न किसी बात पर उससे रार  कर ही बैठता.

निनाद अम्बा  के विवाह को तीन  वर्ष बीत  चले.पति के खुराफ़ाती स्वभाव से त्रस्त अम्बा  कभी-कभी सोचती, पति से अलग होकर उसे इस यातना से मुक्ति मिल जाएगी.जिस दिन गले तक निनाद के दुर्व्यवहार से भर जाती, मां से अपनी व्यथा कथा साझा  करती.उससे अलग होने की मंशा जताती. लेकिन पुरातनपंथी मां हर बार उसे धीरज रखने की सलाह देकर चुप करा कर वापस अपने घर भेज देती.

महुए की खुशबू – भाग 3

तड़के चारों तरफ की हलचल ने मेरी आंख खोल दी. साढे 5 बजे थे, पर लग रहा था जैसे पूरा गांव काम पर लग गया था. गाय भैंसों के तबेले में काफ़ी काम चल रहा था. महिलाएं भी चूल्हेचौके की तैयारी में थीं. कहीं हैंडपंप चल रहा था तो कहीं कुओं से पानी खींचा जा रहा था. कोई कपड़े धो रहा था तो कोई मिट्टी से पीतल के बरतन रगड़ रहा था. गांव जाग चुका था.

मैं भी लोटा ले कर खेत हो आया. आदत नहीं थी आड़ देख कर खुले में बैठने की. अपने घर, कसबे और गांव का अंतर मुझे दिखने लगा और पहली बार मुझे लगा कि इस वातावरण में खुद को ढालने के लिए खासी मेहनत ही नहीं, बहुत सारा त्याग भी करना पड़ेगा. उस पुस्तक वाले चित्रकार के चित्र में लोटा, आड़ थोड़ी न दिखाया गया था.

कुंए पर पहली बार पानी ख़ुद खींच कर स्नान कर के कपड़े पहन कर रेडी होते ही चाय की तलब ने अपना काम करना शुरू कर दिया था. जीभ चाय का जुगाड़ ढूंढने लगी थी. पर गांव में कोई होटल नहीं था. इधरउधर देखा, बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

तभी वही कल वाले बुजुर्ग आते दिखाई दिए और अभिवादन कर आत्मीयता से निकट आ बैठे, “’और सुनाओ  माटसाब, कैसी रही रात, कौनो दिक्कत?” के साथ ही उन्होंने किसी राधे को आवाज़ दी जो कुंए पर कपड़े पटक रहा था. राधे कपड़े वैसे ही छोड़ कर पास आ गया.

बुजुर्ग उस से बोले, “जल्दी से नहा लेयो और दिनभर माटसाब के साथ रहो काहे से कि आज इन का पहला दिन है. अब जे गांव में रहेंगे, यहीं. कौनो दिक्कत न होय के चाही समझे, जाओ चाय ले आओ पहले.” राधे तुरंत बोला, “आप बैठा, हम गुड़ की चाय बनाये लात.”

बुजुर्ग ने मेरा चार्ज जवान राधे को सौंप दिया था. बुजुर्ग कुछ देर उसे अलग ले जा कर समझाते रहे और मुझ से विदा लेते हुए बोले. “हम इसे सहेज दिए हैं आप को. जो चाहिए, इसे बता दीजिए. अपना आदमी है.”  मैं ने झुक कर बुजुर्ग का आभार माना. वे हंसते हुए खेतों की तरफ़ चले गए.

मुझे कुछ रिलैक्स फील हुआ कि चलो, मैं अकेला नही हूं और लोग जुड़ते जा रहे हैं. राधे कुछ ही देर में आ गया और हम दोनों खेतों की तरफ़ निकल पड़े. अभी 8 ही बजे थे. स्कूल तो 10 बजे खुलना था.

ज़ाहिर था कि ये खेत बुजुर्ग के ही थे. राधे सब बताता चल रहा था- कौन तिकड़मी है, कौन सज्जन, कौन नेता है और कौन सरपंच. प्रधानजी, पटवारीजी, पेशकारजी, पुलिस चौकी के मुंशी जी, दारोगा जी, वक़ील साहब, फौजदारी-दीवानी तहसील, ब्लौक दफ़्तर, नहर दफ़्तर, बिजली औफिस, मंडी, आढ़त और पता नहीं क्याक्या…राधे की बातें चलती ही जा रही थीं.

गांव का वह बाल पुस्तक चित्र अब स्वच्छता छोड़ छींटदार होता जा रहा था और अचानक चित्र के रंग मुझे उतने चटक नहीं लग रहे थे. अब मुझे यह भी लगा कि गांव शब्द चित्र को शहरी बच्चों के मन में अतिशुद्ध रूप में ही दिखाया गया था.

हम दोनों बात करते हुए एक खाद की दुकान के सामने आ खड़े हुए, जिस के  बाहर एक टप्पर में चाय बनती दिखाई दी. चाय में शक्कर डलते देख मेरी जान में जान आई क्योंकि सवेरे वाली गुड़ की चाय से मेरा मूड और मुंह कसैले हो गए थे. सुनी तो थी पर गुड़ की चाय आज पी पहली बार. पर 2 कुल्हड़ शक्कर  वाली चाय पीने से लगा जैसे जीभ पर चीनी चिपक गई हो. कुल्ला कर के जब  हैंडपंप का खारा पानी पिया तब जा कर राहत महसूस हुई.

अचानक खाद की दुकान का शटर उठने की घड़घड़ाहट ने मेरा ध्यान खींचा. एक सज्जन दुकान खोल कर अंदर जाने की तैयारी कर रहे थे. उन्हें देखते ही लगा कि इन्हें अभीअभी कहीं देखा है. राधे ने ‘प्रसाद बाबू’ आवाज़ दे कर उन्हें बुलाया. प्रसाद बाबू ने राधे के साथ मुझ अजनबी को देख हम दोनों को दुकान में आने का इशारा किया.

“आप तो कल ही बस से उतरे थे न तिगाला पर?” ओहहो, तो मेरे आने की ख़बर फैल चुकी थी. गांव का सूचनातंत्र इतना चुस्त होता है, आज आंखों से देख लिया. बातचीत में अनोखी बातें पता चलीं. ये सज्जन मेरे स्कूल में ही सहायक शिक्षक थे. बगल के गांव में रहते थे. ख़ुशी हुई अपने एक सहकर्मी से मिल कर, पर इस वक़्त तो उन्हें स्कूल के लिए तैयार होना था, हालांकि, वे खाद भंडार खोल रहे थे…

दुसरी खबर जो उन्होंने दी, उस ने मुझे चौंका दिया. मेरे कल सवेरे बस से उतरने की ख़बर उन्हें कल दोपहर को मिली थी सुधा बहनजी से. ये बहनजी के गांव के ही थे जो आधे कोस पर था. सुधा बहनजी को खबर लग चुकी होगी, कल ही मुझे बताया गया था, यह बात सही निकली. कौन हैं ये सुधा बहनजी? मैं उत्सुक हो चला.

“आप नाश्ता कर लीजिए, मिलते हैं स्कूल में,”  बोल कर वे दुकान की गद्दी सहेजने लगे और मैं व राधे सड़क पर निकल गां की तरफ चल पड़े. मुझे यह समझते देर न लगी कि स्कूल की नौकरी यहां साइड बिजनैस था. स्कूल की नौकरी पर गए, नहीं गए, सब चलता है. घर की दुकान छोड़ कर कोई नौकरी करता है क्या?

राधे मुझे स्कूल में छोड़ कर चला गया और मैं स्कूल का चक्कर मार कर एक क्लासरूम में आ गया. ज़मीन पर बिछी बेतरतीब दरियों को झटक कर उन पर जमीं धूल उड़ाई और आलों में रखी अगड़मबगड़म चीजों की साफसफाई में जुट गया. दीवारों पर मकड़ी के जाले लगे पड़े लटक रहे थे और पूरे फर्श पर किताबकौपियों के पन्ने, टूटी पैंसिल, चाक,  और बकरी व कुत्ते की लीद भी बिखरी पड़ी थी. गंदगी देख कर मुझे जनून सा चढ़ गया कि क्लासरूम को आज साफ कर के ही रहूंगा. मेरे स्कूल में आने का असर कम से कम यह ख़ाली कक्षा ही देख ले.

“नमस्ते जी, मैं सुधा.” मेरे पीछे एक महिला की आवाज़ सुनाई दी और मैं मुड़ कर देखने लगा. औसत ऊंचाई और मध्यम कदकाठी की महिला दरवाज़े पर हाथ जोड़े खड़ी थी.  मेरे हाथ में झाड़ू देख वह मुसकरा उठी और मैं थोड़ा झेंप कर उस के सामने आ कर खड़ा हो गया. अभिवादन के बाद परिचय हुआ और अचानक मुझे ध्यान आया कि महिला तो वही थी जो कल बस से उतरते ही दिखी थी और मेरे बारे में किसी को कुछ बता रही थी.

वह भी मुझ से यही बोली कि कल देखते ही वह समझ गई थी कि यह परदेसी व्यक्ति गांव के स्कूल का नया टीचर ही होना चाहिए. हम दोनों के बीच वातावरण सहज हो चला था. उस ने मेरी पूरी जानकारी ली और अपना बताना शुरू किया.

वह पड़ोस के गांव में ही रहती थी और ख़ुद से ही गांव की महिलाओं की भलाई के लिए कुछ अच्छा करने के विचार से उन्हें संगठित करने का प्रयास कर रही थी.

गरीब और अनपढ़ महिलाओं के समूह बनाने का कार्य उस ने लगभग 2 वर्ष पूर्व शुरू किया था. धीरे-धीरे  गांव की महिलाओं का आनाजाना शुरू हुआ और समूह एक मनोरंजन व मिलनेजुलने का केंद्र बन चला जहां चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई की बातों के अलावा नियमित अति लघु बचत की बात भी सुधा जी क़रतीं.

हर महीने एक बैठक होती, जिस में हर महिला 5 या 10 रुपए एक टिन के डब्बे वाली गुल्लक में डालती और सुधा जी एक कौपी में सब का हिसाबखाता लिखती जातीं. गुल्लक में अब तक दोएक हज़ार रुपए जमा हो चुके थे जिसे महिलाओं को अतिलघु ऋण राशि यानी सौपचास रुपए के रूप में दिया जा रहा था जिस से वे कभी डलिया, बरतन खरीदतीं तो कभी झोपड़ी ठीक करवातीं.

सुधा जी का यह महिला समूह, लघुतम बैंक, आसपास काफ़ी लोकप्रिय हो चला था. उन के पति आयुर्वेद के डाक्टर थे. घर में ही दवाखाना था. सस्ती व कारगर दवाइयां देने की वजह से उन का भी इलाके में नाम था. घर की खेतीबाड़ी थी, सो, कोई आर्थिक दिक्कत नहीं थी.

उन के दोनों बच्चों के नाम मेरे ही स्कूल में लिखे थे. पर पढ़ाईलिखाई ख़ास न होने से सुधा जी दुखी थीं. मुझे समझते देर न लगी कि एक मां अपने बच्चों की शिक्षा की आशा लिए भी मेरे पास आई थी. उन्होंने बताया कि उन के 2 वर्षों के ज़मीनी  कार्य के अब अच्छे सकारात्मक परिणाम मिलने लगे थे और अब उन के लिए 2 मुख्य कार्य करने ज़रूरी थे. पहला कार्य, महिला समूह शक्ति के द्वारा गांव में लगी महुआ शराब की भट्टियों को हटाना और दूसरा, गांव के बच्चों को नियमित स्कूल भेजना ही नहीं बल्कि उन्हें वहां तीनचार घंटे बैठाना ताकि वे क़ायदे से पढ़ने की आदत डाल सकें.

ध्यान से देखने पर पता चल ही गया था कि दोनों बातों का आपस में गहरा संबंध था. सुधा जी के साथ हुई लंबी वार्त्ता ने मेरे अंदर उत्साह का संचार किया. मैं समझ गया कि अब आने वाले समय में हम दोनों को मिल कर कार्य करना होगा ताकि इस विद्यालय की शक्ल-सूरत ही नहीं, बल्कि सीरत भी बदल सके.

महुए की भट्टियां सिर्फ नशा ही नहीं बेच रही थीं बल्कि घरगांव में लड़ाईझगड़े, मारपीट, रोनाधोना मचाए रहने का भी कारण थीं. मजदूरीमेहनत का एक बड़ा हिस्सा निहोरे की जेब में जा रहा था जिस की वजह से गांव के  बच्चों पर विपरीत असर पड़ रहा था.

सच तो यह भी था कि कुछ बच्चे भी महुए का  नशा करने लगे थे. यह सब तुरंत रोकने की ज़रूरत सभी को लग रही थी पर बिल्ली के गले में घंटा बांधे कौन वाली बात थी. गांव मे फैली महुए की नशीली खुशबू को खत्म करने के लिए स्थानीय महिलाओं का लामबंद होना ज़रूरी था और यह कार्य सुधा जी ने बख़ूबी अपने हाथों में ले लिया था.

कसर थी तो बस विद्यालय से मदद मिलने की जो उन्हें अब तक मिल नहीं पाई थी क्योंकि यहां के वातावरण में भी स्थानीय महुआ घुलमिल चुका था. मेरा परदेसी होना सुधा जी को और उन का स्थानीय होना मुझे, इस मिशन के लिए वरदान ही लगा. महुए की क्यारी को हटा कर ज्ञान के केसर की पौध लगाने के लिए उचित मौसम की ज़रूरत थी जो अब बदलने वाला था.

समय बीत चला और मैं गांव के रहनसहन में ढल चला था. धीरेधीरे मेरी संगत बढ़ने लगी और मेरे दोनों सहकर्मी भी हमारे साथ जुड़ गए. सरकारी बजट का धन सही दिशा में लगने लगा. स्कूल के प्रांगण अब गुलज़ार हो चले थे और बच्चों की आमद में भारी इज़ाफ़ा हुआ. स्कूल में घंटा भी लग गया और तिपायी पर बड़ा सा मटका भी आ टिका और स्कूल का नाम भी नए पेंट से रंग दिया गया.

कुछ ही महीनों बाद स्कूल के मैदान में झूले भी लग गए. बचपन के उस कलाकार ने गांव के स्कूल का जो चित्र मनमस्तिष्क में चिपका दिया था, अब आंखों के सामने साकार हो चला था. सुधा जी की जीवटता के कारण स्थानीय प्रशासन भी साथ आया और महुए की भट्टियां जमींदोज हो गईं.

सुधा जी के कानों में मैं ने एक मंत्र और फूंक दिया, मुफ़्त प्रौढ़ शिक्षा का, जिसे सुनते ही उन्होंने महिला समूहों को इस का आधार बनाने की बात कर के मेरे मन की बात कर दी.

बच्चे हों या बड़ेबुजुर्ग, सभी को  जातिधर्म, अगड़ेपिछड़े की दुर्गंध वाली महुए की भट्टी से निकाल कर शिक्षा व ज्ञान की ताज़ी हवा में लाने की इच्छा अब हक़ीक़त बनती नज़र आने लगी थी. नन्हें बच्चों की फ़ितरत तो केसर के फ़ूलों की तरह खिलने और सुगंधित होने की थी, महुए के फूल की शराब बन गंधाने की नहीं.

आशा का दीप- भाग 3 : किस उलझन में थी वैभवी

वही ओपन रैस्टोरैंट, मध्यम रोशनी से आभासित गोल मेज व कुरसियां.

‘‘क्या पियोगी?’’ वैभवी की आंखों में प्यार से  झांकते विनोद ने पूछा.

‘‘प्लीज कम टू द पौइंट,’’ वैभवी ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘अरे भई, ठंडागरम तो पी लो. जब कोई समस्या होती है तब समाधान भी होता है.’’

‘‘मेरी बीमारी लाइलाज है. साधारण समस्या नहीं है.’’

‘‘ठीक है, फर्ज करो, यही ट्रबल मु झे हो जाता तो?’’

‘‘वह सब बाद की बात है. आप क्या कहना चाहते हैं?’’

‘‘कैंसर आजकल के जमाने में लाइलाज नहीं है. धैर्य रख कर इलाज करवाने से कैंसर ठीक हो जाता है,’’ विनोद ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘विनोद, बी प्रैक्टिकल. आप सर्वगुण संपन्न हैं. आप को अनेक रिश्ते मिल जाएंगे.’’

‘‘कल का क्या भरोसा है? किसी और लड़की से शादी करने पर भविष्य में वह भी किसी गंभीर बीमारी की शिकार हो सकती है.’’

‘‘वह सब बाद की बात है.’’

‘‘कैंसर के लक्षण अभी न उभर कर शादी के बाद उभरते तो?’’

इस सवाल पर वैभवी खामोश रही. विनोद उठ कर उस के समीप आया, ‘‘वैभ, प्लीज मेरे पास आओ,’’ उस के कंधों पर हाथ रखते उस ने कहा. स्नेहस्निग्ध, प्रेमभरे स्पर्श से वैभवी की आंखें भर आईं. वह उठ कर अपने मंगेतर के सीने से लग गई. धीमेधीमे सुबकने लगी.

विनोद ने वैभवी को बाहुपाश में भर लिया. वैभवी की आंखों से गिरते आसुंओं से उस की शर्ट भीग गई. भावनाओं का ज्वार मंद पड़ा.

वैभवी ने अपनी पसंद के डिनर का और्डर दिया. एक ही प्लेट में दोनों ने एकदूसरे को खिलाया. वैभवी के साथ विनोद को आया देख वैभवी की मां चौंकी. दोनों के चेहरे से वे सम झ गईं कि रिश्ता टूटने के बजाय और ज्यादा पक्का हो गया लगता है.

अगले दिन विनोद और वैभवी ने अपने औफिस से छुट्टी ले ली. विनोद वैभवी को नगर के बड़े मल्टीस्पैशलिटी अस्पताल में ले गया.

बहुत बड़ा अस्पताल था. सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त था. पूरे देश में इस की कई शाखाएं थीं. इस का संचालन एक बड़ा व्यापारी घराना करता था. चिकित्सा व्यवस्था भी अब बड़े कौर्पाेरेट घराने अपना चुके थे.

एक अस्पताल में मैडिक्लेम के आधार पर भी चिकित्सा प्रदान की जाती थी.

फीस और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के बाद चिकित्सा दल ने सिलसिलेवार वैभवी के कई टैस्ट किए.

‘‘देखिए सर, कैंसर की कई किस्में होती हैं. पहले जमाने में अधिकांश कैंसर लाइलाज थे, मगर मैडिकल सांइस में तरक्की होने से अब अधिकांश कैंसर का इलाज संभव है,’’ वरिष्ठ कैंसर विशेषज्ञ डा अभिनव बनर्जी ने स्थिर स्वर में कहा.

वैभवी और विनोद को आशा का संचार महसूस हुआ.

‘‘बाई द वे, ये आप की क्या हैं?’’ डा. साहब ने पूछा.

‘‘जी, मेरी मंगेतर हैं. हमारी अगले सप्ताह शादी है. बाईचांस वक्षस्थल में तीव्र दर्द उठने से यह स्थिति सामने आ गई,’’ विनोद ने डा. साहब का आशय सम झते कहा.

‘‘मंगेतर…और अगले सप्ताह शादी,’’ डा. साहब ने गौर से सामने बैठे जोड़े की तरफ देखा. दोनों पतिपत्नी होते तो स्थिति सहज थी. मगर मंगेतर…

विनोद और वैभवी डाक्टर साहब के चेहरे के भाव सम झ कर हलके से मुसकराए. डा. साहब के चेहरे पर भी मृदु मुसकान उभर आई. उन्होंने प्रशनात्मक नजरों से विनोद बतरा की तरफ देखा.

विनोद सुंदर, सजीला नौजवान था. सर्वगुण संपन्न था. आम युवक भावी पत्नी के कैंसरयुक्त होने का पता चलने पर तत्काल रिश्ता तोड़ देता.

‘‘मिस्टर, आई विश यू औल द बैस्ट.’’

‘‘आप की भावी पत्नी का इलाज हो जाएगा. थोड़ा धैर्य और हौसला रखना पडे़गा,’’ डा. साहब ने तसल्लीभरे स्वर में कहा.

‘‘कितना खर्चा पड़ सकता है?’’ वैभवी ने पूछा.

‘‘खर्च तो काफी होगा मगर आप पूर्णतया रोगमुक्त हो जाएंगी.’’

‘‘अंदाजन?’’

‘‘देखिए, नई तकनीक की लेजर एवं बर्न सर्जरी द्वारा पहले कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को नष्ट करना पड़ेगा. फिर दोबारा कैंसर की कोशिकाएं न पनपें, इस के लिए रेडिएशन तकनीक द्वारा तमाम वक्षस्थल की विशेष सर्जरी करनी पड़गी. फिर आप का एक वक्ष निकालना पड़ेगा.’’

‘‘एक वक्ष?’’

‘‘जी हां, कैंसर आप के बाएं वक्ष में है. दूसरा वक्ष निरापद है. निकाले गए वक्ष के स्थान पर स्पैशल पौलिमर और प्लास्टिक सर्जरी द्वारा कृत्रिम वक्ष का निर्माण कर स्थायी तौर पर लगा दिया जाएगा. कृत्रिम वक्ष बिलकुल कुदरती महसूस होगा. बस, आप स्तनपान नहीं करवा सकेंगी. आप का दायां वक्ष पूरी तरह सक्षम है. उस से आप भावी संतान को सहजता से स्तनपान करवा सकेंगी.’’

‘‘अस्पताल में कितना समय लग सकता है?’’

‘‘औपरेशन में 4 से 6 घंटे और रिकवर होने में लगभग 3-4 सप्ताह. रेडिएशन थेरैपी से आप के शरीर के बाल अस्थायी तौर पर  झड़ सकते हैं. दोबारा उगने में कोई दिक्कत नहीं होगी.’’

‘‘और सारा खर्च?’’

‘‘लगभग 20 लाख रुपए.’’

‘‘जी,’’ वैभवी का चेहरा बु झ गया.

‘‘डियर, हैव पेशेंस,’’ विनोद ने आश्वासन देते वैभवी के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘डा. साहब, मैडिक्लेम इंश्योरैंस पौलिसी के आधार पर भी इस इलाज का खर्चा क्लेम हो सकता है?’’ विनोद ने पूछा.

‘‘जी हां, हमारे यहां यह सुविधा भी है. क्या आप के पास मैडिक्लेम बीमा पौलिसी है?’’

‘‘आजकल मल्टीपरपज बीमा पौलिसी का जमाना है. मेरे पास और इन के पास मल्टीपरपज बीमा पौलिसी है. हम दोनों का 30 साल का 50-50 लाख रुपए का बीमा है.’’

‘‘फिर कोई दिक्कत नहीं है,’’ डा. साहब ने हर्षभरे स्वर में कहा. तभी कमरे का दरवाजा खोल कर एक लेडी डाक्टर दाखिल हुईं. उन के गौरवर्ण चेहरे और ललाट पर गहन बुद्धिमता की छाप थी. उन्होंने हलके नीले रंग की साड़ी और मैच करता ब्लाउज पहन रखा था. उन के ऊपर डाक्टरों वाला लंबा सफेद कोट था और दोनों कंधों पर  झूलता स्टैथस्कोप.

‘‘मीट माई वाइफ डा. आभा बनर्जी,’’ लेडी डाक्टर के समीप आ कर साथ रखी खाली कुरसी पर बैठने के बाद डा. साहब ने परिचय कराते कहा, ‘‘ ये हैं मिस्टर विनोद ऐंड मिस वैभवी.’’ और आभा ने बारीबारी से हाथ मिलाया.

‘‘शी इज औल्सो मेलाइन सारकोमा ट्रीटमैंट सर्जरी स्पैशलिस्ट ऐंड मिडीलिशन थेरैपी विशेषज्ञ,’’ डा. साहब ने कहा, फिर अपनी पत्नी से बंगाली भाषा में कुछ कहा.

डा. आभा के चेहरे पर मृदु मुसकान उभरी. उन्होंने विनोद की तरफ प्रशंसात्मक नजरों से देखते कहा, ‘‘विनोद, आई ऐप्रिशिएट यौर जनरस ऐंड काइंड स्पिरिट. नेचर विल शौवर औल ब्लैसिंग्स औन बोथ औफ यू.’’

विनोद बतरा ने मूक अभिवादन की मुद्रा में सिर हिलाया.

डा. साहब ने अपने लैटरहैड पर कुछ दवाएं लिखीं और बताया, ‘‘हर मरीज को औपरेशन से पहले शरीर को औपरेशन के लिए तैयार करने की बाबत कुछ दिन जरूरी दवाएं लेनी पड़ती हैं.’’

डा. दंपती ने स्नेह से भावी कपल की तरफ देखा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

विवाह पूरे धूमधाम से हुआ. दोनों हनीमून के लिए चले गए.

दोनों ने एक महीने की छुट्टी ले ली. डाक्टर ने वैभवी का औपरेशन दूसरी शाखा के अस्पताल में किया.

औपरेशन सफल रहा. काटे गए वक्ष की जगह नया कृत्रिम वक्ष भी लग गया. बीमा कंपनी ने सहृदयता दिखाते सारे खर्च का भुगतान किया.

विनोद के मातापिता अपने सुपुत्रकी विशाल सहृदता पर अभिभूत थे. वहीं, वैभवी के मातापिता भी ऐसा दामाद पा कर हर्षमग्न थे.

सालभर बाद वैभवी ने चांद सी सुंदर बच्ची को जन्म दिया, जो अपनी माता के समान सुंदर थी और स्वस्थ भी.

त्रिकोण- भाग 3 : शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

सोनल का मन नितिन की हरकतें देख कर छटपटा रहा था. वह बच्चों को देखना चाहती थी. वह बहुत कोशिश
कर रही थी, क्योंकि उसे पता था कि उस के बाद यह चालाक इंसान बच्चों पर ध्यान नहीं देगा. पर कुदरत को
कुछ और ही मंजूर था, सोनल कोरोना के आगे जिंदगी की जंग हार गई थी.

नितिन जब सोनल का अंतिम संस्कार कर के घर पहुंचा तो श्रेया और आर्यन का विलाप देख कर पहली बार
उस का दिल भी भावुक हो उठा था. वह भी बच्चों को गले लगा कर फफकफफक कर रो पड़ा. पर नितिन को पता था कि सोनल इस घर की गृहिणी ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी थी.

बैंक में बस ₹10 हजार शेष थे. सोनल के जाने के बाद एक बंधी हुई इनकम का सोर्स बंद हो गया था. नितिन की आदतें इतनी खराब थीं कि उस के घर वाले और दोस्त उस की मदद करने को तैयार नहीं थे. ऐसे में ललिता के अलावा नितिन को कोई नजर नहीं आ रहा था.

सब मुसीबतों के बाद भी बस एक अच्छी बात यह थी कि यह घर नितिन और सोनल ने बहुत पहले बनवा लिया था. अब नितिन ने तिकड़म लगाया और ललिता को अपने घर पेइंगगैस्ट की तरह रहने को बोला. ललिता की हिचकिचाहट देख कर नितिन बोला,”मेरे बच्चों की खातिर आ जाओ ललिता, वे सोनल को बहुत मिस करते हैं. तुम जितना किराया देती हो, उस से आधा दे देना, मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है.”

ललिता के आंखों पर तो जैसे पट्टी बंधी हुई थी. वह अपना सामान ले कर नितिन के घर आ गई थी. दोनों बच्चे ललिता को देख कर अचकचा गए मगर कुछ बोल नहीं पाए. एक रूम में ललिता, दूसरे में बच्चे और ड्राइंगरूम में नितिन रहता था.
ललिता ने धीरेधीरे पूरे घर का काम अपने जिम्मे ले लिया था. नितिन रातदिन ललिता की तारीफों में कसीदे
पढ़ता था. ललिता को लगने लगा था कि उस से ज्यादा सुंदर शायद इस दुनिया में कोई नहीं है. ललिता
आखिर एक औरत थी और वह भी निपट अकेली, उस का दिल भी पिघल ही गया. ललिता और नितिन की शादी नहीं हुई थी पर वे दोनों अब पतिपत्नी की तरह ही रहने लगे थे.
ललिता का पूरा वेतन अब नितिन की जेब में जाता था. श्रेया और आर्यन अपने पापा और ललिता की चुहलबाजी देख कर अंदर ही अंदर चिढ़ते रहते थे. एक दिन तो हद हो गई जब नितिन और ललिता बेशर्मी की सारी सीमा लांघते हुए बच्चों के सामने ही कमरे में बंद हो गए.

ललिता के हौस्पिटल जाने के बाद आर्यन और श्रेया ने नितिन को आङे हाथों ले लिया था. आर्यन बोला,”पापा, आप को शर्म नहीं आती, मम्मी को अभी गए हुए 2 माह भी नहीं हुए हैं…”

नितिन गुस्से में बोला,”क्या तुम्हारी मम्मी के जाने के बाद मुझे अकेलापन नहीं लगता है? ललिता मेरी बहुत
अच्छी दोस्त है. उसी के कारण हमें यह रोटी नसीब हो रही है. तुम लोगों को अच्छा नहीं लगता तो जहां जाना चाहते हो चले जाओ. और फिर बेटा, मैं कोई ललिता आंटी को तुम्हारी मम्मी की जगह थोड़े ही दूंगा, वह बस हमारे यहां रह रही हैं और रहने का किराया दे रही हैं.”

दोनों बच्चे उस दिन अपनी मम्मी को याद कर के रोते रहे. नानानानी से तो कोई मतलब नहीं था और दादा के
जाने के बाद दादी ने भी चाचा के डर से रिश्ता खत्म कर दिया था.

देखते ही देखते 1 साल बीत गया. अब ललिता नितिन पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी. नितिन एक शातिर खिलाड़ी था. उस ने ललिता को यह कह कर चुप करा दिया था कि उस के बच्चे उसे छोड़ कर चले जाएंगे और वह उन के बिना नहीं रह पाएगा.”

ललिता गुस्से में बोली,”ठीक है तो मैं चली जाती हूं. नितिन ललिता को बांहों में भरते हुए बोला,”मैं आत्महत्या कर लूंगा, अगर तुम ने मुझे छोड़ने की बात भी सोची.”

3 साल हो गए थे. ललिता आत्मनिर्भर और आकर्षक थी पर नितिन उस का मानसिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से शोषण कर रहा था. पर अब ललिता चाह कर भी इस जाल से निकल नहीं पा रही थी. नितिन के झूठ को भी वह सच मान कर जी रही थी. कम से कम सोनल के पास उस के 2 बच्चे तो थे पर ललिता के तो इस रिश्ते में…

ललिता पिछले 3 सालों में 2 बार गर्भपात करा चुकी थी. ललिता अकेली थी पर अपने अकेलेपन को भरने के लिए उस ने गलत साथी चुन लिया था.

उधर नितिन बेहद खुश था कि वह किसी भी कीमत पर शादी कर के एक और बच्चे का खर्च नहीं बढ़ाना चाहता था. वह खुश था कि अब उसे पूरी आजादी थी और साथ ही ललिता के ऊपर हक भी था. स्वार्थ में
नितिन को ना ललिता का खयाल था और न ही बच्चों की फिक्र थी. ललिता सोच रही थी कि कोरोना ने सोनल की तो जिंदगी छीन ली थी पर उसे जीतीजागती लाश बना दिया था.
श्रेया, आर्यन और ललिता तीनों ही एक त्रिकोण में ना चाहते हुए भी बंधे हुए थे और इस त्रिकोण के हर
कोण को नितिन अपने हिसाब से घटता या बढ़ाता रहता था.

महुए की खुशबू – भाग 2

चाय की तलब बड़ी ज़ोर से उठ रही थी. पास खड़े एक बुजुर्ग से इच्छा बताई और वे पता नहीं कहां से एक पीतल के लोटे में चाय भर लाए और बहुत आग्रह से ग्रहण करने को कहने लगे.

उन से बोला कि मुझे स्कूल ले चलो, तो वे बड़ी खुशी से चल पड़े. छोटा सा गांव एकमुश्त ही दिख गया. दो मिनट बाद ही वे बोले, ‘जेई है तुमाओ इस्कूल.’  मुझे कुछ समझ नहीं आया कि किस घर की तरफ इशारा किया.  वे और आगे बढ़े. दो झोपड़ियों के बीच से रास्ता था जो आगे हाते में खुल गया. खपरैल वाले 2 जीर्णशीर्ण कमरे में दरवाज़े थे जिन में पल्ले नहीं थे. खिड़कियों के नाम पर दीवार में छेद भर थे. आगे बरामदा था. न तो वहां पेड़ था न ही हैंडपंप और न ही कोई घंटा लटका था.

“प्राइ…री पाठ ..ला , ..टका पु ..” पीले बैकग्राउंड पर काले रंग से पहले कभी पूरा नाम लिखा गया होगा, पर अब इतना ही बचा था. वक़्त के साथ कुछ अक्षर मिट गए, कुछ शायद बजट की भेंट चढ़ गए. क्लासरूम में कटीफटी दरियां पड़ी थीं. दीवार पर ब्लैकबोर्ड था ज़रूर, पर उस का काला रंग दीवार का सफेद चूना खा गया था. अब यह ब्लैक एंड व्हाइट बोर्ड बन गया था.

एक कमरे पर ताला था, शायद, औफिस होगा. बुजुर्ग ने गर्व से कहा, “देखो माटसाब, कितेक नीक है जे इस्कूल बीसबाइस बच्चा आत पढबे ख़ातिर. दुई माटसाब और हैं. अब आप तीसरे हो गए. आराम से कट जे इते.”

11 बज रहे थे, गरमी तेज़ थी और स्कूल में सन्नाटा पसरा था. तभी एक कुत्ता क्लास से निकल कर मुझे घूरने लगा और अनजान देख गुर्राने भी लगा. बुजुर्ग के पत्थर उठाने की ऐक्टिंग करते ही वह भाग गया, अनुभवी था.

“चाचा, बाकी स्टाफ़ कहां हैं, बुलवाइए ज़रा, मुझे रिपोर्ट करना है ड्यूटी पर.” मुझे यह वातावरण असहनीय लग रहा था, पाठशाला ऐसी भी हो सकती है. इस बीच बुजुर्ग हंस कर बोले, “आइए मेरे साथ, आप को गांव दिखाते हैं.”  मैं बेमन से चल पड़ा.

कुछ खुले में आ कर उन्होंने उंगली से इशारा किया और मैं ने उस दिशा में देखा, खेतों में कटाईमड़ाई चल रही थी. सारा गांव ही वहां जमा था. लोगलुगाई, बड़ेबूढ़े. गांव इस समय बहुत व्यस्त था. यह भी पता चला कि दोनों सहशिक्षक भी इसी भीड़ का हिस्सा थे.

मैं ढूंढ रहा था कि स्कूल के बच्चे कहां थे. बुजुर्ग से पूछा, तो उन का जवाब सुन कर चकित रह गया. वे बोले, “बच्चे महुआ बीनने गए हैं. गांव के जमींदार के हाते में महुआ के कई पेड़ इस समय फूलों से लदे पड़े थे. सवेरे से फूलों की बिछायत बिछ जाती है और बच्चे उन्हीं पेड़ों के नीचे काम पर लग जाते हैं.”

यह भी  बताया गया कि उन पेड़ों के मालिक-जमींदार  ऊंची जाति के थे. गांव का कोई आदमी हाते में घुसने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था. फूल उठाना तो दूर की बात. फिर बच्चे कैसे घुस आते थे? मेरा प्रश्न जायज था. पता चला कि जमींदार का मानस कहता है कि बच्चों की जाति नहीं होती, यानी, वे पवित्र होते हैं.

जमींदार की कोई औलाद नहीं थी शायद, इसलिए उस की भावनाओं ने धर्म को अपने हिसाब से परिभाषित कर दिया था. अंतिम सवाल था कि बच्चे महुए का करेंगे क्या? बुजुर्गवार ने मेरी यह जिज्ञासा भी शांत कर दी, “माटसाब, महुआ की शराब भट्टी लगी है गांव के बाहर. बच्चे  फूल बीन कर निहोरे को दे आते हैं और वह उस की देसी शराब खींचता है. बदले में, बच्चों को रेवड़ी मिलती है.”  मतलब वे यह भी बता गए कि गांव में नशेड़ियों की कमी नहीं थी, जो मेरे लिए एक और बुरी खबर भी थी.

गरीबी में यह नशा मिल जाए, तो घर, बकरी, खेत बिकवा दे, बच्चो की पढ़ाईलिखाई का नंबर तो बाद में आता. मुझे कुछ सोचता देख बुजुर्ग मुसकराए, “वह तो सुधा बहन जी लगी हैं गांव सुधारने में, वरना यह गांव तो कब का शराब की भट्ठी में जल, डूब जाता.”

सुधा बहनजी…मेरे चेहरे पर प्रश्न देख वे बोले, “माटसाब, यह समझिए कि ऊपर वाले ने ही बहनजी को भेजा. वखत पर हम मिलवा देंगे नहीं तो वे खुद्दई फेरा मारती रहती हैं. हो सकता है आप के आने की ख़बर उन को मिल भी चुकी हो. आसपास के गांवों के लोगलुगाई उन्हें ख़ूब जानते व मानते हैं.”  मुझे लगा जैसे गांव में कोई तो एक चेतनापुंज था.

बहनजी आसपास की  होंगी और खबर लग गई, मतलब, उन का अपना सूचनातंत्र भी विकसित लग रहा था और उन की अपनी एक साख भी गांव में थी, यह भी स्पष्ट हो गया था.

इतनी भद्दर जगह में गांव के लोगों की भलाई के लिए सोचने वाली बहनजी से मिल कर अपने स्कूल के लिए क्याक्या किया जा सकता है, मैं इन विचारों में खोया हुआ उस कमरे पर आ गया जिस में मेरा सामान रखवा दिया गया था. एकडेढ़ दिन की रोटी, अचार, सब्ज़ी का राशन साथ लाया था, वह काम आ गया.

मालिक मकान ने खुले में खटिया डाल कर गद्दा फैला दिया था और पास एक घड़ा व कुल्हड़ भी धर दिया था. गरमी की रातों में तारोंभरा खुला आकाश, चांद, टूटते तारे और स्पुतनिक को आतेजाते देखना मेरे लिए स्वप्निल अनुभव था. चारों तरफ़ से कभी सियार, तो कभी गीदड़ व उल्लू, तो कभी न जाने किस पशु की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती रहीं और मैं ठीक से सो नहीं पाया. एक कहावत सुनी थी कि गांव की सुबह और शाम जितनी चित्ताकर्षक होती है उतनी ही दोपहर और रात डरावनी. उस कहावत को सच होते देख रहा था.

यादों के साए : क्या थी मां-बाप की ज़रुरत?

डोरबैल बजी. थके कदमों से नलिनी ने उठ कर देखा, रोज की तरह दूध वाला आया था. आज देखा तो उस का 15 साल का लड़का दूध देने आया था. एक चिंता की लकीर उस मासूम चेहरे पर झलक रही थी.

नलिनी आखिर पूछ ही बैठी, “क्या बात है, आज तुम्हारे पिताजी नही आए?”

“वो…वो…मैडम, कल रात अचानक पाप की तबीयत खराब हो गई, वे अस्पताल में भरती हैं. अब जब तक पापा ठीक नहीं हो जाते, रोज मैं ही दूध देने आऊंगा,” कह कर वह दूध देने लगा.

नलिनी के शरीर में अजीब सी उदासी की लहर दौड़ गई. वह गहरी सांस भर कर अंदर आ गई. अकेलेपन का नाग रहरह कर उसे डस रहा था. वह अपने पुराने दिनों को याद कर अकसर उदास रहती. वह चाय प्याले में ले कर और दूध गैस पर रख खिड़की के पास आ खड़ी हो गई. खिड़की से आते ठंडे झरोखों को अंतर्मन में महसूस करती नलिनी अतीत के साए में खो सी गई. उसे वो दिन याद आने लगे जब अस्पताल के चक्कर लगा कर नरेंद्र कभी थकते नहीं थे.

नलिनी की हंसी से घर हमेशा खिलखिलाहट से भरा रहता. जैसे कल ही कि बात हो नरेंद्र जैसे ही अस्पताल से घर आए, तो उन का उतरा चेहरा देख कर नलिनी घबरा गई. रिपोर्ट हाथ में पकड़े नरेंद्र ख़ामोशी से सोफे पर बैठ गए. उन की सांसों का वेग इतना तेज था, मानो वे अभीअभी मीलों दौड़ कर आ रहे हों.

नलिनी ने पानी का गिलास देते हुए पूछा, ‘क्या बात है, क्या लिखा है रिपोर्ट में, सब नौर्मल ही होगा, तुम भी न…?’

‘नहीं नलिनी, कुछ भी नौर्मल नहीं है.’

‘क्या कहा डाक्टर ने, रिपोर्ट क्या कहती हैं? बताओ न प्लीज़?’

‘थोड़ा दम तो लेने दो, कहां भागा जा रहा हूं,’ निस्तेज सी सांस छोड़ते हुए नरेंद्र ने कहा, ‘नलिनी, क्या तुम्हारा दर्द बढ़ता जा रहा है?’

नलिनी चहकती हुई बोली, ‘नहीं तो, आप यों क्यों पूछ रहे हैं?’

लिफाफे से रिपोर्ट निकाल कर टेबल पर पड़े चश्मे की धूल पोंछते हुए नरेंद्र रिपोर्ट को ध्यान से नजर डाल कर उदास आंखों से नलिनी को देखते हुए कहते हैं, ‘नलिनी, तुम्हें ब्रेस्ट कैंसर है. और जल्दी ही इसे रिमूव करवाना होगा, वरना पूरे शरीर में इस के बैक्टीरिया फैलने के चांस हैं.’

‘क्या..??’

नलिनी के चेहरे पर आई चिंता की लकीरें साफ बयां कर रही थीं कि वह अपने लिए चिंतित नहीं है. उम्र का पड़ाव उस की परीक्षा ले रहा था. नरेंद्र को हार्ट प्रौब्लम थी. पिछले साल ही औपरेशन करवाया था. उन को पेसमेकर लगवाया था. डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी थी. ऊपर से खानपान का परहेज भी चल रहा था. बड़ी मुश्किलों से तो वह अपनेआप को योगा वौक के जरिए स्वस्थ रखना चाहती थी ताकि नरेंद्र की देखभाल अच्छे से हो सके.

विनय तो आज से 7 साल पहले ही लंदन में सैट हो गया था. व्हाट्सऐप और वीडियोकौल के जरिए क्या यहां की समस्याएं हल हो सकती हैं, उम्र के ढलते दोनों के शरीर बीमार हो गए. यह सोच कर नलिनी वहीं कुरसी पर जड़ हो गई. दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. कुछ देर के लिए यों ही मौन ने अपना आतंक जमा लिया था.

कुछ देर में नरेंद्र ने मौन तोड़ा, ‘इस तरह घबरा कर काम नहीं चलेगा, नलिनी. हमें अपने बचे हुए लमहों को खुद ही संभालना होगा. मैं कल ही तुम्हारे औपरेशन करने की बात कर आया हूं. आज ही सारे काम निबटा लो. मैं ने ग्रेच्युटी में से पैसे भी निकाल लिए हैं. खर्चे का कुछ कहा नहीं जा सकता,’ हांफतेहांफते एक ही सांस में नरेंद्र और न जाने क्याक्या कह गए.

नलिनी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया. वह रात होने का इंतजार करने लगी. उसे विनय से बात करनी थी.

नलिनी को उदास देख कर नरेंद्र ने वहां पड़ी एक कैसेट लगा दी. गीत बज रहा था, ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…’ अचानक उन्हें लगा कि इस गीत को सुन कर नलिनी और परेशान हो जाएगी, तभी वहां पड़ी एक नई फिल्म की कैसेट उस में डाली तो गाना बज उठा- ‘ओ मेरी छम्मक छल्लो…’ यह गाना सुनते ही नलिनी के चहरे पर स्मित मुसकान उभर आई.

विनय को जब पता चला, उस ने कहा, ‘पापा के इलाज के लिए अभी पिछले साल ही तो 20 लाख रुपए के आसपास खर्चा हो चुका है.’ और अब मां की बीमारी सुन कर वह कुछ ज्यादा न बोल सका, ‘मां, आप खर्चा बता दो, मैं भेज दूंगा.’

नरेंद्र पास बैठे उस की बातें सुन रहे थे. रिश्तों से बढ़ कर तो पैसा है. यदि पैसा नहीं होता, तो शायद आज मैं जीवित ही न होता. कुछ देर बात कर नलिनी ने राहत की सांस ली.

नलिनी का औपरेशन सक्सैस हुआ. लेकिन नरेंद्र की इस उम्र में अकेले ही भागदौड़ ज्यादा हो चुकी थी. जब रूम में शिफ्ट किया तो नलिनी से ज्यादा नरेंद्र ही थके लग रहे थे. नर्स ने आ कर कहा कि बाबूजी अब घबराने की कोई बात नहीं, आप के साथ कोई है क्या? कुछ दवाएं मंगवानी हैं, ये दवाएं इमरजैंसी हैं, प्लीज जल्दी ले आइए.

नरेंद्र की शारीरिक क्षमता भी अब दम तोड़ चुकी थी. गहरी सांस ले कर वे खांसने लगे. तभी वहां का वार्ड बौय आया. उसे नरेंद्र की हालत पर तरस आया, बोला, ‘बाबूजी, आप माताजी के पास बैठिए, मैं आप को दवाई ला कर देता हूं. मगर यहां किसी से कहिएगा मत, हमें ड्यूटी पर दूसरे काम करने की अनुमति नहीं है.’

नरेंद्र संतोष की सांस ले कर नलिनी के पास बैठे रहे.

नलिनी ठीक हो चुकी थी. उसे हर 15 दिन में कीमो के लिए जाना पड़ता था. उस के बाद उसे दोचार दिनों की कमजोरी का सामना करना पड़ता था. नरेंद्र ने उस की देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ी थी.

कुछ दिनों बाद रात को नरेंद्र की तबीयत अचानक बिगड़ गई. वे नलिनी का साथ छोड़ गए. नलिनी इस सदमे को सहन नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे अकेलेपन से उस की हालत गिर रही थी. विनय ने आ कर अपना पुत्रधर्म निभा दिया था. कुछ महीनों के लिए मां को साथ ले गया था. लेकिन नलिनी को वहां का हवापानी रास नहीं आ रहा था. एक कैदी की भ्रांति जीवन व्यतीत हो रहा था.

नलिनी वापस अपने घर आ गई. उस छोटे से घर में नरेंद्र के साथ बीते दिनों की यादें उसे बहुत सुकून दे रही थीं. उसे प्रतीत हो रहा था जैसे वह अपनी पुरानी दुनिया में वापस आ गई हो, अकेलेपन ने नलिनी को जीना सिखा दिया था. बेटा परिदों की तरह परदेश उड़ चुका था. उस के वापस आने की उम्मीद के दीये का तेल अब धीरेधीरे कम होता जा रहा था. उस ने कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी कभी इस मोड़ पर ला कर अकेला छोड़ देगी.

आज वह दूध वाले के बेटे को देख मन में उपजे विचारों के नन्हे कपोलो को खिलते देख सोच रही थी, काश, हम ने भी अपने बच्चों को बड़े सपने न दिखाए होते. लेकिन यह भी सच था कि बच्चे जब बड़े हो कर स्वनिर्णय लेने लगते हैं तो मांबाप उस घर के किसी स्टोररूम के दरवाजे की तरह हो जाते हैं जो सारा समय बंद रहते हैं, जरूरत पड़ने पर ही खुलते हैं.

चाय का कप ले कर नलिनी चाय पीने लगी. उसे याद ही नहीं रहा, गैस पर रखा दूध उफन चुका था. उस ने जल्दी से गैस बंद की. अब उस के विचारों का सैलाब भी थम चुका था. कैसेट लगाई तो वही आखरी गीत बज उठा- ‘ओ मेरी छम्मक छल्लो…’ यह गीत सुन वह मुसकराती हुई बालकनी से आती सुबह की हवा का आनंद लेने लगी. आखिर, उसे अब जीना आ गया था.

आशा का दीप- भाग 2 : किस उलझन में थी वैभवी

‘‘हैलो विनोद, हाऊ आर यू?’’ प्रत्युत्तर में वैभवी का औपचारिकताभरा संबोधन सुन कर विनोद चौंका. उस ने गौर से सैलफोन की स्क्रीन पर नजर डाली, कहीं गलती से किसी और का नंबर तो प्रैस नहीं कर दिया था. प्यार से विक्की कह कर बुलाने वाली वैभवी उसे अपरिचित या गैर के समान संबोधन कर रही थी.

‘‘विनोद, परसों संडे है, आप पार्क व्यू होटल के ओपन रैस्टोरैंट में आ जाना,’’ कहते हुए वैभवी ने फोन काट दिया.

असमंजस में पड़ा विनोद हाथ में पकड़े सैलफोन को देख रहा था.

पार्क व्यू होटल के रैस्टौंरैंट को एक बड़े तालाब को सुधार कर पिकनिक स्पौट का रूप दिया गया था. कई बार दोनों वहां जा चुके थे.

आमनेसामने बैठ कर चप्पू चलाते किश्ती  झील के बीचोंबीच ला कर किश्ती रोक कर विनोद ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘क्या बात है? इतनी सीरियस क्यों हो? तुम्हारा लहजा भी एकदम एब्नौर्मल है?’’

वैभवी ने अपने छोटे वैनिटी पर्स से एक लिफाफा निकाल कर बढ़ाया. एक बड़े अस्पताल का लिफाफा देख कर विनोद चौंका.

उस ने लिफाफा निकाला और उस में रखे कागजों को निकाल कर एक नजर डाली और प्रश्नवाचक नजरों से वैभवी की तरफ देखा.

‘‘विनोद, मु झे कैंसर है. मेरे वक्षस्थल में ट्यूमर है. मैं ब्रेस्ट कैंसर ग्रस्त हूं. आई एम सौरी,’’ कहते हुए वैभवी ने अपना चेहरा  झुका लिया. विनोद को ऐसा लगा जैसे किसी ने उस को ऊंची पहाड़ी के शिखर से नीचे की ओर की धक्का दे दिया हो.

वह भौचक्का सा कभी हाथ में पकड़े मैडिकल रिपोर्ट के कागजों को, कभी सामने बैठी अपनी मंगेतर, अपनी भावी पत्नी को देख रहा था. उस ने एक बार फिर सरसरी नजर मैडिकल रिपोर्ट पर डाली और कागज लिफाफे में डाल कर लिफाफा वैभवी की तरफ बढ़ा दिया. दोनों खामोश थे.

दोनों जानते थे कि ऐसे हालात में खामोशी ही ठीक है. थोड़ी देर बाद वैभवी ने चप्पू थामे और नाव को किनारे की तरफ धकेलना शुरू कर दिया.

किनारे पर किश्ती लगी. वैभवी उतरी. उस ने एक नजर अपने मंगेतर की तरफ डाली और फिर मुड़ कर स्थिर कदमों से बाहर चली गई.

विनोद उस को जाता देखता रहा. वह थोड़ा हकबकाया सा, थोड़ा लुटालुटा सा था. इस बदले हालात की वह क्या समीक्षा करे, क्या बोले.

यदि वैभवी ने कोई अन्य कारण बता कर शादी से मना कर दिया होता, रिश्ता तोड़ने की बात कही होती तब वह इस आघात को सहजता से  झेल लेता, मगर ऐसी स्थिति.

मात्र 10 दिन विवाह को बचे थे. भावी दुलहन में जानलेवा कैंसर की बीमारी के लक्षण उभर आए थे.

धीमे कदमों से चलता विनोद अपनी कार में बैठा. घर चला आया. अपने मम्मीपापा को क्या बताए? बताए या न बताए?

‘‘विनोद, ज्वैलर का फोन आया था. सारे जेवरात तैयार हैं. थोड़ी देर में उन का आदमी ले कर आने वाला है,’’ सोफे पर चुपचाप बैठे विनोद से उस की मम्मी ने कहा.

ऐसे हालात में विनोद क्या कहे? कैसे कहे? वैभवी उस को अपनी असाध्य सम झी जाने वाली अकस्मात उभरी बीमारी का कारण बता रिश्ता तोड़ने का इशारा कर चुकी है.

खुशी के मौके को सैलिब्रेट करने के लिए दोनों पक्षों से जुड़ी सभी सैरेमनी समयसमय पर की जा रही थीं. पहले रोका सैरेमनी, फिर रिंग सैरेमनी. अब समय था बधाई सैरेमनी और साथ ही लेडीज संगीत सैरेमनी का जो कि विवाह से मात्र 2 दिन पहले तय थी और संयुक्त समारोह था.

ऐसे आघात, जो कि कुदरती था, का आभास न वैभवी को था न विनोद को. वैभवी के परिवार वाले तो आ पड़ी इस आसन्न विपत्ति से आगाह थे मगर विनोद के परिवार वाले अनजान थे.

विनोद का परिवार पूरे उत्साह से शादी की तैयारियों में मग्न था. मगर वैभवी का परिवार असमजंस  में था. क्या करें? क्या न करें?

‘‘विनोद को बताया?’’ मम्मी ने वैभवी से पूछा.

‘‘हां, मैडिकल रिपोर्ट उस को दिखा कर सब बता दिया,’’ ठंडे, स्थिर स्वर में वैभवी ने कहा.

‘‘उस ने क्या कहा?’’

‘‘फिलहाल कुछ नहीं. मामला ही ऐसा है, कोई भी एकदम क्या जवाब दे सकता है.’’

अगले दिन औफिस में सब व्यवस्थित था, सुचारु था. कंपनी के मामलों में मार्केटिंग मैनेजर और सेल्समेन में सामान्य तौर पर डिस्कशन हुआ. भविष्य की योजनाएं बनाई गईं.

शाम को विनोद घर लौटा. उस की मम्मी ने उस को पानी का गिलास थमाते कहा, ‘‘आज हमारी सोसाइटी में रहने वाले 2 परिवारों के सदस्यों के  साथ दुर्घटनाएं हुई हैं.’’

‘‘किस के साथ?’’

‘‘साथ वाले अपार्टमैंट में रहने वाले अमन सीढि़यों से फिसल कर गिरने पर रीढ़ की हड्डी तुड़वा बैठे हैं. जबकि सामने वाले बैरागीजी की पत्नी बस की चपेट में आ कर कुचल गई हैं. दोनों सीरियस हैं.’’

विनोद सोच में पड़ गया. क्या कभी उस ने इस बात पर गौर किया था. उस का अड़ोसीपड़ोसी कौन था?

महानगरीय सभ्यता का अनुकरण करते अब बड़े शहर या मध्यम श्रेणी के महानगर भी अपरिचय की सभ्यता या संस्कृति का अनुकरण कर रहे थे. क्या उस ने कभी अपने साथ वाले फ्लोर में रहने वाले अड़ोसीपड़ोसी से परिचय किया? हालचाल पूछा? क्या उन्होंने भी ऐसा किया?

अगले 2 दिनों में दोनों दुर्घटनाग्रस्त पड़ोसी चल बसे. उन की अंतिम विदाई में विनोद भी शामिल हुआ.

जिस से जानपहचान थी उन से विनोद को पता चला कि हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले कई पड़ोसी तरहतरह की बीमारियों से ग्रस्त थे. मगर अपनी असाध्य बीमारियों को सहजता से अपनी नियति सम झ वे अपना जीवन जी रहे थे.

रिटायर्ड प्रिंसिपल मिस्टर अस्थाना 80 वर्ष के थे. पिछले 50 साल से, कैंसरग्रस्त थे. मगर परहेजभरा जीवन अपना कर सहजता से जी रहे थे.

उन की रिटायर्ड पत्नी भी असाध्य बीमारी से ग्रस्त थी, मगर बीमारी को अपने जीवन का अंग मान कर 70 बरस पार कर अपना जीवन सहजता से जी रही थी.

एक परिवार का बच्चा 5 बरस का था. एक टांग पोलियोग्रस्त थी, मगर वह कृत्रिम टांग से खेलताकूदता था. मग्न रहता था.

एक 12 साल का बच्चा खुद ही मधुमेह के इंजैक्शन लगाता था.

मनुष्य का दिमाग सुख की अवस्था में इतना चैतन्य नहीं होता जितना दुखपरेशानी या विपत्ति पड़ने पर.

अपनी भावी पत्नी पर आ पड़ी आसन्न विपत्ति ने विनोद का मस्तिष्क चैतन्य कर दिया. आसपड़ोस, अनेक मित्रों, संबंधियों पर गौर फरमाने से उस को आभास हुआ, संसार में पूर्ण सुखी कोई नहीं था.

‘‘वैभ,’’ आईपौड की नईर् शैली के सैलफोन पर विनोद का फोन नंबर उभरा.

‘‘कहिए?’’

‘‘शाम को ओपन रैस्टौरैंट में आना है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हारी मैडिकल रिपोर्ट का जवाब देना है.’’

‘‘ओके, विनोद, शाम 7 बजे.’’

‘‘विनोद नहीं, विक्की. जरा नई शैली की कोई अट्रैक्टिव ड्रैस डालना,’’ और खट से फोन कट गया.

अनबू झी पहेली के समान हाथ में पकड़े सैलफोन को देखती वैभवी कुछ न सम झ सकी.

‘‘दीदी, जीजाजी से मिलने जा रही हो?’’ बड़ी बहन को ड्रैसिंग टेबल के सामने बैठा देख छोटी बहन अनुष्का ने पूछा.

वैभवी खामोश रही. असाध्य बीमारी का छोटी बहन को पता नहीं था. मम्मी खामोश थीं. वरपक्ष क्या पता कब रिश्ता तोड़ने के लिए फोन कर दे या पर्सनल मैसेज भेज दे.

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