खोखली होती जड़ें: भाग 2

फिर सप्लाई का पानी पीने से उन का पेट खराब होने लगा तो जब भी सत्यम या उस का परिवार आता तो मैं बाजार से पानी की बोतल मंगा कर रखने लगी, लेकिन लाइट चली जाती तो उन्हें इनवर्टर की कमी खलती…गरमी में ए.सी. व कूलर की कमी अखरती, तो सर्दी में एक अच्छे ब्लोवर की कमी…मतलब कि कमी ही कमी…नाश्ते में सबकुछ चाहिए. पर सत्यम व नीमा कभी यह नहीं सोचते कि जिन सुविधाओं के बिना उन्हें दोचार दिन भी बिताने भारी पड़ जाते हैं उन्हीं सुविधाओं के बिना मातापिता ने पूरी जिंदगी कैसे गुजारी होगी और अब बुढ़ापा कैसे गुजार रहे होंगे. सत्यम पर क्षमता से अधिक खर्च न कर क्या वे अपने लिए छोटीछोटी मूलभूत सुविधाएं नहीं जुटा सकते थे? पर उस समय तो लगता था कि हमारा बेटा लायक बन जाएगा तो हमें क्या कमी है. सौ सुविधाएं जुटा देगा वह हमारे लिए.

सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह जूस पी रहा है तो मातापिता को बुढ़ापे में एक कप दूध भी है या नहीं…जरूरी दवाओं के लिए पैसे हैं या नहीं. उन का तो यही एहसान बड़ा था कि वे दोनों इतने व्यस्त रहते हैं…इस के बावजूद जब छुट्टी मिलती है, तो वे उन के पास चले आते हैं, नहीं तो किसी अच्छी जगह घूमने भी जा सकते थे.

सत्यम का परिवार जब भी आता, उन को सुविधाएं देने के चक्कर में मैं अपना महीनों का बजट बिगाड़ देती. उन के जाते ही फिर उन के अगले दौरे के लिए संचय करना शुरू कर देती.

सौरभ की जानकारी में जब यदाकदा ये बातें आतीं तो उन का पारा चढ़ जाता पर मां होने के नाते मैं उन को शांत कर देती. लगभग 5 साल पहले सत्यम मुंबई में नियुक्त था. उसी दौरान सौरभ को हार्ट अटैक पड़ा. डाक्टर ने एंजियोग्राफी कराने के लिए कहा. पूरी प्रक्रिया व इलाज पर आने वाले खर्चे को सुन कर मैं सन्न रह गई. ऐसे समय तो सत्यम जरूर आगे बढ़ कर अपने पिता का इलाज कराएगा. यह सोच कर मैं ने सत्यम को फोन किया. मेरे साथ तो कोई था भी नहीं, जो भागदौड़ कर पाता. खर्चे की तो बात ही अलग थी, लेकिन सत्यम की बात सुन कर मैं हक्कीबक्की रह गई थी :

‘मम्मी, एक दूसरी कंपनी में मुझे बाहर जाने का मौका मिल रहा है, इस समय तो मैं बिलकुल भी नहीं आ सकता. मुझे जल्दी ही अमेरिका जाना पड़ेगा. रही खर्चे की बात, तो थोड़ाबहुत तो भेज सकता हूं पर इतना रुपया मेरे पास कहां.’

बेटे की आधी बात सुन कर ही मैं ने फोन रख दिया. अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रहे उस इनसान के जीवन के प्रति सत्यम के हृदय में जरा भी मोह नहीं जो उस का जन्मदाता है, जो जीवन भर नौकरी कर के अपने लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं जुटा पाया, इसलिए कि बेटे के सफलता की तरफ बढ़ते कदमों पर रंचमात्र भी रुकावट न आए. आज उसी पिता के जीवन के लिए कोई चिंता नहीं. जिए तो जिए और मरे तो मरे…न आवाज में कंपन और न यह चिंता कि कहीं पिता दुनिया से न चले जाएं.

जिस बेटे को उन के जीवन का मोह नहीं, उस से रुपएपैसे की सहायता भी क्यों लेनी है…लेकिन इलाज के लिए रुपए तो चाहिए ही थे. सौरभ ने एक छोटा सा प्लाट सस्ते दामों में शहर के बाहर खरीदा हुआ था. अब वह अच्छी कीमत में बिक सकता था, लेकिन सौरभ यह सोच कर कि सत्यम उस पर अच्छा सा सुख- सुविधापूर्ण घर बनाएगा, नहीं बेचना चाह रहे थे. फिर उस समय उन्होंने अपने एक परिचित से कहा कि वह उस जमीन को खरीद ले और उसे इस समय रुपए दे दे. उस परिचित ने भी जमीन सस्ती मिलती देख उन्हें रुपए दे दिए. उस समय उन्हें लगा, बेटे के बजाय जमीन खरीदना शायद ज्यादा हितकर रहा, जो इस मुसीबत में उन के काम आई.

इधर सौरभ के आपरेशन का दिन फिक्स हुआ, उधर सत्यम अमेरिका के लिए उड़ गया. वहां से पिता का हालचाल जानने के लिए फोन आया तो उस की आवाज में इस बात का कोई मलाल नहीं था कि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया. तब से 5 साल हो गए. सत्यम और उन का संपर्क लगभग खत्म सा हो गया था. उस के फोन यदाकदा ही आते जो नितांत औपचारिक होते.

और अब जब मंदी की चपेट में आ कर सत्यम की नौकरी छूट गई तो वह उन के पास आ रहा है. मुसीबत में इस असुविधापूर्ण, गंदे, छोटे से फ्लैट की याद उसे अमेरिका जैसे शानोशौकत वाले देश में भी आखिर आ ही गई, जहां वह लौट कर जा सकता है. अब कैसे रहेंगे सत्यम, नीमा व उन के बच्चे यहां…कैसे बनाएगी नीमा इस किचन में चाय…जहां पानी जब आए तब काम करना पड़ता है.

मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.

सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा दी. जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया रहता है कि कहीं सौरभ मुझे छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.

मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई. सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सांझ में कैसे पतिपत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार, कम होते बच्चे…पीढ़ी दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है. हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई- लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता.

मन में बेटे के परिवार के आने का कोई उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी, उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6 लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.

आगे पढ़ें- रात को सत्यम का फोन आया कि वह…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 1

‘‘सुनो वह पौलिसी वाली अटैची तो लाना, जरा… रीमा सुन रही हो?’’ विवेक ने बैठक से पत्नी को आवाज लगाई.

‘‘क्या कह रहे हो… मुझे किचन में कुकर की सीटी के बीच कुछ सुनाई नहीं दिया. फिर से कहो,’’ रीमा अपने गीले हाथों को तौलिए से पोंछतेपोंछते ही बैठक में आ गई.

‘‘वह अटैची देना, जिस में बीमे की फाइलें रखी हैं… वैसे तुम कहीं भी रहो, कोई न कोई तुम्हें देख कर सीटी जरूर बजा देता है,’’ विवेक पत्नी को देख मुसकराते हुए बोला.

‘‘फालतू की बातें न करो. वैसे ही कितना काम पड़ा है… तुम्हें यह काम भी अभी करना था,’’ रीमा झुंझला पड़ी.

‘‘यह काम भी तो जरूरी है, जो पौलिसी मैच्योर हो रही है उस का क्लेम ले लूंगा.’’

‘‘तो सुनो कोई हौलिडे पैक लें? कहीं घूमने चलते हैं.’’

‘‘और रिनी की शादी का क्या प्लान है तुम्हारा?’’ रीमा की बात सुन विवेक ने पूछा.

‘‘अभी 22 साल की ही तो हुई है. अभी 2-3 साल और हैं हमारे पास.’’

‘‘उस के बाद कौन सी खजाने की चाबी हाथ लगने वाली है? जो भी पैसा है वह सब पौलिसी, शेयर, एफडी के रूप में बस यही है,’’ विवेक के अटैची खोलते हुए कहा, ‘‘अब चाहे खुद सैकंड हनीमून मना लो या बच्चों का घर बसा दो… 1-2 साल बाद तो रोहन बेटा भी शादी लायक हो जाएगा,’’ विवेक कागजों को उलटतेपलटते बोला, ‘‘अरे हां, कल छोटू भी मिला था जब मैं औफिस से निकल रहा था. बड़ा चुपचुप सा था पहले कितना हंसीमजाक करता था. चलो अच्छा है, उम्र के बढ़ने के साथ थोड़ी समझदारी भी बढ़ गई उस की.’’

रीमा कुछ न बोल कर चुपचाप रसोई में आ गई. फिर काम करते हुए सोच में पड़ गई कि समय कितनी तेजी से बीतता है, इस का आभास सिर्फ बीते पलों को याद करने पर ही होता है. उस की शादी को भी तो 27 साल हो गए. जब शादी तय हुई थी, तो मात्र 19 वर्ष की थी. सगाई से विवाह के बीच के 6 माह उसे कितने लंबे लगे थे. विवाह करूं या न करूं, सोचसोच कर पगलाने लगी थी. जहां एक ओर विवेक का व्यक्तित्व अपनी ओर आकर्षित करता, वहीं अपने लखनऊ शहर से मीलों दूर कानपुर के एक छोटे कसबे की कसबाई जिंदगी और उस का संयुक्त परिवार उस के सुनहरे सपनों में दाग की तरह छा जाता.

अपने सपनों के साथ अपनी अधूरी पढ़ाई के बीच विदा हो वह ससुराल आ गई. यहां के घुटन भरे माहौल से निकलने का एक यही रास्ता बचा था उस के पास कि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ले. बस इसी बहाने मायके का रूख करने लगी. स्नातक की पढ़ाई खत्म कर कंप्यूटर डिप्लोमा में दाखिला ले लिया. विवेक ने उसे भरपूर आजादी दे रखी थी. जहां विवाह के 4 वर्ष पूरे हुए उस की झोली में स्नातक डिग्री के साथ डिप्लोमा इन कंप्यूटर और 2 नन्हेमुन्ने रोहन और रिनी भी आ गए. ससुराल में 2 जेठजेठानियां उन के 4 बच्चे, सासससुर, 1 घरेलू नौकर समेत कुल 14 सदस्य एक बड़े से घर में एक छत के नीचे जरूर थे, मगर एकसाथ नहीं. सांझा चूल्हा भी इसीलिए जल रहा था, क्योंकि अनाज, दूध, घी, दही, सब्जियां सभी तो अपने घर की ही थीं, कमीपेशी के लिए ससुरजी की पेंशन व घर खर्च के नाम पर चंद रुपए सास को पकड़ा कर उन के बेटे निश्चिंत हो जाते. बहुओं में सारा झगड़ा काम को ले कर रहता. वह फटाफट रसोई का काम निबटा कर घर आए मेहमानों का भी स्वागतसत्कार बहुत सम्मान के साथ करती. महल्ले में उस की बड़ी तारीफ होने लगी तो दोनों जेठानियां एक तरफ हो उस के काम में तरहतरह के नुक्स निकलने लगीं. इसी बीच विवेक का ट्रांसफर हैड औफिस दिल्ली हो गया. तब वह बहुत खुश हुई थी कि चलो अब तो कहीं अपने हिसाब से जिंदगी बिताएगी. किंतु विवेक ने यह कह कर साफ मना कर दिया कि दिल्ली में मकान, बच्चों के स्कूल सभी कुछ इतना आसान नहीं है. तुम्हें बाद में ले जाऊंगा.

विवेक दवा कंपनी में एरिया मैनेजर था. रीमा फिर से एक बार मन मार कर रुक गई. फिर जब ससुराल के पास ही एक नया स्कूल खुला तब स्कूल में बच्चों के एडमिशन के साथ ही उसे भी कंप्यूटर टीचर की जौब मिल गई. विवेक ने हमेशा की तरह उसे प्रोत्साहित ही किया. अब तो दोनों जेठानियों ने सास के कान भरने शुरू कर दिए कि घर के काम से बचने के लिए स्कूल चल दी महारानी. सास को सुबहशाम की रोटी से मतलब रहता जिसे रीना समय पर दे देती. दोनों बच्चे अभी छोटे ही तो थे. रोहन 4 साल का और रिनी 3 साल की. दोनों को स्कूल में दाखिल करा दिया. अब वह निश्चिंत थी. मगर घर का माहौल जमे पानी सा सड़न पैदा करता. ऐसे में छोटू की हंसीमजाक, भरपूर बातें उसे ठंडीताजी हवा के झोंके सी लगतीं.

छोटू मतलब बलवीर सिंह. इस नाम से उसे कोई नहीं पुकारता था. पूरे महल्ले का प्रिय समाजसेवक, बस पढ़ाईलिखाई में मन न लगता, न ही शांति से घर में बैठ पाता. किसी को बाइक से सब्जी मंडी पहुंचा देता तो किसी की बहू को कार से हौस्पिटल. उस की डिलिवरी के समय भी दोनों वक्त छोटू की कार काम आई थी. छोटू तो अपने पिताजी के रिटायरमैंट के बाद का अघोषित ड्राइवर हो गया था. घर में उस से बड़े

2 भाई और भी थे. मगर वे भी कार नहीं चला पाते थे. फिर जब दिन भर छोटू घर भर के कामों के लिए गाड़ी दौड़ा ही रहा था तो उन्होंने भी ड्राइविंग सीखने की जहमत न उठाई.

6 फुट लंबातगड़ा जींस और टीशर्ट पहने, आंखों में धूप के चश्मे के साथ हाथ जोड़ विनम्रता से जिस के भी आगे खड़ा हो जाता वही गद्गद हो जाता. उस की ससुराल तो दिन भर में एक चक्कर जरूर लगा जाता.

अकसर रीमा को छेड़ता, ‘‘भाभी, आप की उम्र और मेरी उम्र बराबर ही होगी. लेकिन आप को देखो कभी खाली बैठे नहीं देखा और मैं हर वक्त खाली रहता हूं.’’

‘‘तो कोई काम क्यों नहीं करते? स्कूल ही जौइन कर लो.’’

‘‘वाह भाभी, खुद तो 2 बार में इंटर पास कर पाया हूं दूसरों को क्या पढ़ाऊंगा?’’

‘‘प्राइवेट स्नातक कर लो. आजकल तरहतरह के कंप्यूटर कोर्स भी हैं. तुम्हारे लिए एक अच्छा ओप्शन मिल ही जाएगा.’’

‘‘ठीक हैं, आप भी कंप्यूटर पढ़ने में मदद करेंगी तो मैं जौइन करने की सोचूंगा.’’

‘‘अरे वहां बहुत अच्छी तरह बताते हैं. प्रैक्टिकल भी कराते हैं. फिर भी कुछ समझ न आया करे तो आ कर पूछ लिया करना.’’

‘‘मैं जानता हूं कि आप कभी मना नहीं करेंगी… आप हैं ही बहुत स्वीट.’’

वह हंस पड़ी.

‘‘आप को पता भी है कि आप की हंसी कितनी कातिलाना है? मैं ने तो आप को शादी के बाद जब हंसते हुए देखा था तो देखता ही रह गया था. विवेक भैयाजी से बड़ी जलन हो गई थी मुझे.’’

‘‘तुम कुछ भी कैसे बोल देते हो?’’ रीमा नाराजगी से बोली.

‘‘सच कह रहा हूं भाभी. आप की हंसी और आप की इन आंखों को जो कोई एक बार देख लेता होगा वह जिंदगी भर नहीं भूल सकता होगा.’’

‘‘बसबस, ज्यादा मक्खन न लगाओ… अब अपना कंप्यूटर कोर्र्स जौइन करने के बाद ही मेरा सिर खाने आना,’’ रीमा ने उसे टालना चाहा.

आगे पढ़ें- अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती. रीमा…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 2

‘‘अरे आप मजाक समझ रही हैं क्या? मैं एकदम सच कह रहा हूं. आप ने क्या फिगर मैंटेन किया है… आप को तो कोई भी 2 बच्चों की मां तो दूर मैरिड भी नहीं समझ सकता. बिलकुल कालेजगोइंग स्टूडैंट लगती हैं.’’

‘‘हो गया पूरा पुराण? चलो, अब घर जाओ अपने,’’ वह रुखाई से बोली. फिर भी छोटू मुसकराते हुए एक गहरी नजर से उसे निहार गया.’’

अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती. रीमा अपने बैडरूम में लगे आदमकद आईने के आगे खड़ी हो गई. बदन में जो चरबी बच्चों के पैदा होने पर चढ़ गई थी वह दिन भर की भागदौड़ में कब पिघल गई पता ही न चला उस की शादी न हुई होती तो वह भी अपनी सहेली सुमन की तरह पीएचडी करने कालेज जा रही होती. क्या गलत कहा छोटू ने, पर वह तो घरगृहस्थी की बेडि़यों में जकड़ी है. कालेज लाइफ की उन्मुक्त जिंदगी उस के हिस्से में नहीं थी. मन मसोस कर रह गई. सुमन ने ही उसे बताया था कि तुझे होली में बड़ा बढि़या टाइटिल मिला था, ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं… तेरी अचानक शादी का तो बेचारे क्लासमेट्स को पता ही न था. कितने दिल तोड़े तू ने कुछ पता भी है? जब दोबारा कालेज जौइन किया था तब उसे ऐसी कितनी बातों से दोचार होना पड़ा था. शशि उसे देख उछल पड़ी थी कि अरे मेरी लाड्डो जीजाजी के साथ कैसी छन रही है? कुछ पढ़ाई भी की तुम ने?

उसे अपने विवेक के साथ बिताए अंतरंग पल याद आ गए और उस का मुखड़ा शर्म से गुलाबी हो गया. मानो उस के बैडरूम में वे सभी अचानक प्रविष्ट हो गई हों.

‘‘अरे इसे देखो… क्या रूप निखर आया है,’’ सुमन ने छेड़ा.

यह सुन अनीता चहक कर बोली, ‘‘मेरी शादी होगी न तब देखना मेरा रूप.’’

सभी उस के बड़बोलेपन पर हंस पड़े.

कभी कोई परीक्षा कक्ष में कोई छेड़ देता, ‘‘क्यों तेरी ससुराल में साससुर सब साथ रहते हैं क्या?’’

वह झुंझला कर बोल पड़ती, ‘‘कुछ नहीं पढ़ा है यार. जो थोड़ाबहुत याद है उसे भी तुम लोगों की बकवास सुन कर भूल जाऊंगी.’’

फिर एक गहरी सांस ली उस ने कि बीती बातें क्या याद करनी, पर मन था कि भटक कर उन्हीं लमहों में जा पहुंचा…

उन्हीं दिनों मायके में उस की चचेरी बहन का विवाह तय हो गया. तब अपनी शादी के 5 वर्षों के बाद पहली बार उस ने ब्यूटीपार्लर का रुख किया था. विवेक के लाख मना करने पर भी बालों को एक नया आकार दिया. इतनी तैयारी तो अपने विवाह के पूर्व भी न की थी. शायद वह अपनी दबी हसरतों को इस मौके पर पूरा कर लेना चाहती थी. हुआ भी वैसा ही. विवाह के दिन जब वह अपने शादी के लहंगे में सजधज कर विवेक के सम्मुख खड़ी हुई तो वह बौखला सा गया, ‘‘इतना सजनेधजने की क्या जरूरत थी… कोई तुम्हारी शादी है क्या?’’

‘‘न हो, मेरी बहन की तो है और वह भी मुझ से बस 1 साल छोटी है… कितने सारे कौमन फ्रैंड हैं हमारे… आज सब मिलेंगे वहां पर… और ये मम्मीपापा, बच्चे सब कहां हैं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हें अपने बनाव शृंगार से फुरसत नहीं थी. वे सभी टैक्सी कर चले गए. कह गए तुम दोनों बाइक से घर को लौक कर आ जाना.’’

‘‘तो चलो फटाफट,’’ उस ने उतावलेपन से कहा.

‘‘पहले बाइक की चाबी तो ले कर आओ… वहीं ऊपर तुम्हारे बैडरूम में है,’’ उस का बैडरूम अब भी उसी के नाम से था मायके के… कितनी यादें जुड़ी हैं इस कमरे से रीमा की. अभी भाई की शादी नहीं हुई है तो पूरे घर में उसे अपना ही राजपाठ दिखाई देता है.

‘‘तुम ले आओ न प्लीज, यह लहंगे में सीढि़या चढ़नेउतरने में दिक्कत होती है,’’ उस ने लहंगे को सोफे पर फैला कर बैठते हुए कहा.

‘‘तो यहीं बैठी रहो… मुझे नहीं पता कि तुम ने बाइक की चाभी कहां रखी है,’’ विवेक भी वहीं सोफे पर बैठते हुए बोला.

रीमा एक झटके से उठी और लहंगे को संभालती बड़बड़ाते हुए सीढि़यां चढ़ने लगी कि अपनी बहन की शादी होती तो साहब सब से पहले पहुंच जाते तोरण बांधने… मेरे मायके की शादी है, तो जितना नाटक करें उतना ही कम है.

चाबी बैड पर ही रखी थी. जैसे ही उठा कर पलटी एक झटके में विवेक ने उसे बांहों में भर बैड पर गिरा दिया. इस से पहले कि वह कुछ बोल पाती उस के होंठ पर विवेक ने अपने प्यार का ताला जड़ दिया.

किसी तरह खुद को अलग कर बोली, ‘‘मेरा सारा मेकअप खराब कर दिया तुम ने… यह सब बंद करो. वहां सब हमारा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘करने दो इंतजार सब को… पर मुझ से इंतजार नहीं होगा,’’ विवेक उस के कान में फुसफुसाया.

रीमा अपनी बेकाबू धड़कनों को संभालते हुए बोली, ‘‘अभी चलो प्लीज… हम जयमाला होते ही लौट आएंगे.’’

‘‘नहीं पहले प्रौमिस करो… तुम मायके में इतनी रम जाती हो कि फिर कुछ याद नहीं रहता,’’ विवेक अपनी बांहों के घेरे को और तंग करते हुए बोला.

‘‘पक्का प्रौमिस, कह कर रीमा खिलखिलाई, तो विवेक ने एक बार फिर से उस की लिपस्टिक बिगाड़ दी.’’

‘‘चलो हटो… वहां शादी हो रही है और यहां…’’ उस ने विवेक को अपने से दूर करते हुए कहा.

शादी में भी जयमाला के बाद विवेक की घर चलो की जिद ने रीमा का कितना मजाक बनाया था. वह सब को सफाई देतेदेते थक गई थी कि ये आज सुबह ही दिल्ली से आए हैं… सफर में नींद पूरी नहीं हुई है, मगर सभी मुंह दबा कर हंसते रहे. उसे अच्छी तरह समझ आ गया कि विवेक को उस के शृंगार को ले कर इतनी आफत क्यों आई थी. दरअसल, वह चाहता ही नहीं था कि उस के अलावा किसी की नजर उस पर पड़े, लेकिन उस के मुंह से कभी तारीफ के शब्द नहीं निकलते.

कितना सूनापन लगने लगा था. विवेक के दिल्ली जाने के बाद… दिन तो स्कूल, बच्चों रसोई में बीत जाता. मगर रात बहुत लंबी लगतीं. फोन तो रोज ही आता, मगर तब लैंड लाइन फोन होने के कारण कभी मां, कभी पिताजी ही बात कर फोन रख देते. अगर रीमा ने उठाया तब तो ठीक वरना वे उसे बता कर मुक्ति पा जाते कि विवेक का फोन आया था.

उस दिन फोन पर विवेक ने बताया कि वह मंगलवार को 12 से 1 के बीच घर पहुंच जाएगा. अत: तुम स्कूल से आधे दिन की छुट्टी ले कर आ जाना. बच्चे स्कूल बस से बाद में अपनेआप आ जाएंगे.

उस का उतावलापन सुन कर वह बोल पड़ी, ‘‘दिन के बाद रात तो आ ही जाएगी.’’

तब विवेक गुस्से से बोला था, ‘‘रहने दो तुम, अब मैं बाद में छुट्टी लूंगा.’’

‘‘अच्छा, नाराज न हो. मैं हाफ डे ले लूंगी,’’ उस ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ा कर कहा, ‘‘कमरे में कोई मौजूद नहीं था. उसे झुंझलाहट हो आई कि फोन तो घर के चौराहे पर रखा है और लाट साहब को रोमांस सूझता है.’’

उस दिन उस ने सुबह ही घर में बता दिया था कि लंच टाइम तक ये आ जाएंगे. स्कूल में मासिक परीक्षा चल रही है. अत: स्कूल जाना जरूरी है. स्कूल में प्रिंसिपल से कहा कि घर में फंक्शन है. आज फिर जल्दी जाना है. कंप्यूटर प्रैक्टिकल परीक्षा पहले 4 पीरियडों में ही निबटा दी.

आगे पढ़ें- छुट्टी की मंजूरी मिलते ही तुरंत स्कूल के गेट तक…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 3

छुट्टी की मंजूरी मिलते ही तुरंत स्कूल के गेट तक पहुंच गई. तभी न जाने कहां से भटकता आ गया. बोला, ‘‘घर जाना है क्या? आइए, मैं छोड़ देता हूं,’’ और फिर अपनी बाइक उस के आगे ला कर खड़ी कर दी.

उसे खुद घर जाने की जल्दी थी. कहीं देर हो गई सवारी ढूंढ़ने के चक्कर में तो विवेक फिर से गुस्से से लालपीला हो जाएगा.

‘‘क्या सोच रही हैं?

आज जल्दी कैसे आ गईं, स्कूल से बाहर?’’

तबीयत ठीक नहीं है.

‘‘अरे भाभी, अपना खयाल रखा करो,’’ बाइक स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘आप एकदम भोली हो… वहां तो भाई गुलछर्रे उड़ा रहा होगा और आप यहां अपने को कितना व्यस्त रखती हो.’’

‘‘क्या गुलछर्रे उड़ाते होंगे बेचारे… न ढंग का खाना, न देखभाल. घर से दूर हमारे लिए ही तो जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं… चार पैसे बचेंगे तो हमारे बच्चों के भविष्य के ही काम आएंगे.’’

‘‘कर दी न वही घिसीपिटी बात… वहां नाइट क्लब होते हैं… खूब शराब और शबाब का दौर चलता है… वहां किसे अपनी बीवी याद आएगी.’’

फिर उस का मन हुआ कि वह छोटू को बता दे कि उस का पति घर में कितनी बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा है… इन सब चक्करों से वह कोसों दूर है वरना आज उसे यों झूठ का सहारा ले कर आधे दिन की छुट्टी ले कर घर नहीं भागना पड़ता… पत्नी पति के हर परिवर्तन को झट भांप लेती है. मगर उस ने छोटू की बातों को कोई तवज्जो नहीं दी.

‘‘आओ चाय पी कर जाना,’’ उस ने अपने घर के गेट के आगे उतर कर छोटू से औपचारिकता निभाने को पूछा.

‘‘नहीं, फिर कभी… आज आप की तबीयत ठीक नहीं है, फिर आऊंगा. मुझे आप से कंप्यूटर की कुछ कमांड समझनी हैं.’’

‘‘ठीक है अगले हफ्ते आना… अभी बच्चों के टैस्ट चल रहे हैं.’’

‘‘जो हुकम स्वीट भाभी,’’ अपनी खीसें निपोरता हुआ बाइक को एक झटके से मोड़ कर वापस चला गया.

टीना ने चैन की सांस ली कि अगर अंदर आ जाता तो विवेक के प्रोग्राम का क्या होता?

सासससुर बरामदे में ही बैठे मिल गए, ‘‘आज जल्दी आ गई… विवेक आया है इसीलिए… अरे, हमारे साथ भोजनपानी कर लिया उस ने. तुझे इतनी चिंता क्यों हो गई,’’ ससुर ने कटाक्ष किया.

वह कुछ न बोल कर सिर झुकाए अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरे बहू, वह तो सो भी गया होगा अब तक… तू हमारे लिए चाय बना.’’

कमरे में विवेक करवटें बदल रहा था. उसे देखते ही  खींच कर अपने सीने से लगा लिया मानो वह उसे सदियों के बाद मिल रहा हो.

‘‘कितने दिन बीत गए हैं पता है?’’ अपनी गरम सांसें उस के चेहरे पर टिकाते हुए विवेक ने कहा.

‘‘हां पूरा 1 महीना,’’ वह मुसकराई. विवेक ने उस पर अपने प्यार की बारिस कर दी.

‘‘अब तुम सोओगी क्या?’’ विवेक ने अपनी तृप्त आंखों से एक नजर उस पर डालते हुए कहा.

‘‘नहीं, नहाने जा रही हूं. बच्चे भी आते होंगे… देखना अभी तुम्हारी दोनों भाभियां मेरा कितना मजाक बनाने वाली हैं,’’ टीमा हंस कर बोली.

‘‘उन्हें क्या पता कि तुम ने क्या गुल खिलाएं हैं?’’ विवेक उस के हाथों को सहलाते हुए बोला.

‘‘हां, एक तुम्हीं तो हो कामदेव बाकी तो सब अज्ञानी हैं… छोड़ो मुझे तुम, अब चुपचाप सो जाओ. मैं नहा कर चाय बनाती हूं… 1 घंटा पहले ही ससुर फरमाइश कर रहे थे.’’

उस दिन सुबह से ले कर शाम तक कितने झूठ बोलने पड़े थे उसे… बच्चों को भी उसे जल्दी आने की अलग से सफाई देनी पड़ी.

ठीक 1 हफ्ते के बाद छोटू आ धमका. अपनी किताबे उठाए उस के बैडरूम में ही प्रवेश कर गया.

विवेक वापस जा चुका था. दोनों बच्चे बाहर खेल रहे थे… वह अपनी कपड़ों की अलमारी ठीक कर रही थी. उसे देख कर चौंक पड़ी. बोली, ‘‘चलो, बाहर बरामदे में बैठ कर पढ़ाई करते हैं.’’

‘‘हांहां, बाहर ही बैठ जाएंगे… वैसे आप का बैड भी बड़ा शानदार है,’’ उस ने बैड पर बैठते हुए कहा, ‘‘अकेले तो ऐसे गद्दों पर भी नींद नहीं आती होगी न?’’

रीमा कोई जवाब न दे कर कमरे से बाहर आ गई तो छोटू को भी पीछेपीछे आना पड़ा.

‘‘अरे भाभी, मैं तो मजाक कर रहा था… आप नाराज ही हो गईं.’’

जब से विवेक गए हैं तब से छोटू का मजाक कुछ ज्यादा ही सीमा लांघने लगा है… जितना उस से बचने की जुगत बैठाती, उतना ही कोई न कोई काम पड़ ही जाता. एक दिन रिनी सीढि़यों से लुढ़क गई. उस दिन भी उसी की कार से हौस्पिटल भागी. सिर्फ 3 टांके उस के माथे पर आए थे. मगर वह खून देख कर कितना घबरा गई थी, ऐसे में छोटू ने ही अपनी पहचान के डाक्टर से तुरतफुरत सब काम करवा दिए थे.

एक दिन आ कर बोला, ‘‘मैं बीमा पौलिसी का एजेंट बन गया हूं. एक पौलिसी तो आप को लेनी ही पड़ेगी.’’

रीमा ने रिनी के नाम से ले ली. जानती थी जब तक ले नहीं लूंगी तब तक पीछा नहीं छोड़ेगा. तब वह बहुत खुश हो गया.

‘‘यह हुई न बात स्वीट भाभी. भैया कब आ रहे हैं?’’ उस ने पूछा. इस पर रीमा तुनक पड़ी, ‘‘तुझे क्या काम याद आ गया उन से?’’

‘‘मुझे आप की तनहाईयां देख कर बहुत दुख होता है… यह भी कोई उम्र है तनहा रहने की?’’

‘‘तो क्या करूं… सब की अपनीअपनी मजबूरियां होती हैं.’’

‘‘अरे आप चाहो तो ऐश कर सकती हैं.’’

‘‘वह कैसे?’’ उस ने जानबूझ कर छोटू के मन की थाह लेने को पूछा.

‘‘अरे भाभी, आप के पास तो डबल लाइसैंस हैं?’’

‘‘मजे लेने के लिए कौन से लाइसैंस?’’ आज वह सब कुछ साफ कर लेने के मूड में थी.

‘‘एक तो आप मैरिड हो दूसरा फैमिली प्लानिंग भी कर चुकी हो… अब तो आप आजाद हो आकाश में उड़ते पंछी की तरह.’’

‘‘इस का क्या मतलब है? मैं कुछ

समझी नहीं?’’

‘‘तुम्हारी यही मासूमियत तो पागल कर जाती है भाभी… अरे जैसे भाई दिल्ली में दूसरी लड़कियों के साथ मौज करते हैं. वैसे ही आप भी मेरे साथ मजे ले सकती हो.’’

‘‘यह मेरा अपने पति को धोखा देना नहीं कहलाएगा क्या?’’ उस ने अपने क्रोध को दबाते हुए पूछा.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. यह तो बस थोड़ा सा टाइमपास होता है जैसे तुम ने एक फिल्म देखी हो बस… फिल्म खत्म तुम अपने घर, मैं अपने घर.’’

‘‘अभी तुम्हारी शादी तो नहीं हुई है न, इसलिए तुम इस रिश्ते का महत्त्व नहीं जानते… जब तुम्हारी शादी होगी तब मैं तुम से कहूं कि एक फिल्म अपनी बीवी की विवेक को दिखा दो तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘अरे, मैं इतना दकियानूसी नहीं हूं… मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि मेरी बीवी क्या करती है,’’ छोटू खिसिया कर बोला.

‘‘तो ठीक है जब तुम अपनी बीवी को इतनी आजादी दोगे. तब मैं तुम्हें मान जाऊंगी,’’ रीमा ने उसे चुनौती देते हुए कहा.

साल भर बाद ही वह विवेक के साथ कानपुर चली गई. विवेक को भी

दिल्ली के मुकाबले कानपुर रास आ गया. एक दिन अचानक छोटू का फोन आ गया.

‘‘क्या बात है बड़े दिनों के बाद याद आई हम लोगों की?’’ रीमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या भाभी, आप लोग मेरी बरात में भी शामिल नहीं हुए,’’ उस ने नाराजगी दिखाई.

‘‘तुम ने हमें कार्ड ही नहीं भेजा… खैर कोई बात नहीं, तुम्हें और तुम्हारी दुलहन को बहुत सारी शुभकामनाएं.’’

‘‘भाभी, आप से एक काम था. इसीलिए फोन किया था… वह मेरी वाइफ का बीएड का रिजल्ट आ गया है, उसे कानपुर कालेज में दाखिला लेना है. आप की नजर में कोई अच्छा सा घर हो तो देखना…’’

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत खुशी की बात है… घर की तुम बिलकुल चिंता न करो. यहां हमारे पास थ्री बैडरूम सैट है. तुम लोगों को कोई असुविधा नहीं होगी. अब फटाफट आ जाओ. तुम निश्चिंत रहो. यहां तुम्हारे भाई तो हैं ही उस की देखभाल को.’’

‘‘खटाक,’’ की आवाज के साथ फोन कट गया. छोटी की बीवी शायद उन के घर नहीं रहने आएगी.

रीमा हंस पड़ी कि वह तो सिर्फ मजाक कर रही थी और छोटू डर गया.

‘‘क्या बात है? अकेलेअकेले क्यों हंस रही हो,’’ विवेक रसोई में रखे फ्रिज से पानी की बोतल निकालते हुए बोला.

‘‘सुनो, छोटू से जो जीवन बीमा की पौलिसी ली थी. वह कब पूरी होगी?’’

‘‘अगले साल… 2 लाख मिलेंगे… वे सब बिटिया की शादी के बजट में काम आएंगे, पर तुम क्यों पूछ रही हो?’’

‘‘चलो कोई तो काम अच्छा किया छोटू ने.’’

‘‘कौन सा काम गलत किया उस ने? मुझे भी बताओ,’’ विवेक ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा कि उस ने कोई गलत काम किया.’’

‘‘तुम औरतों से बात करना मतलब मुसीबत मोल लेना होता है.’’

‘‘हां, अब तुम ने एकदम सही बात की,’’ कह रीमा खिलखिला उठी.

सूना आसमान: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

खुशियों का समंदर: भाग 3- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

घर पहुंच कर अहल्या ने गिरीश की मदद की बातें सरला और लालचंद को भी बताईं. उन दोनों ने निर्णय लेने में समय नहीं गंवाया. तत्काल ही गिरीश को ऊंची तनख्वाह और सारी सुविधाएं दे कर अपनी फैक्टरी में नियुक्त कर लिया. शहर से बाहर जाने का सारा काम गिरीश ने बड़ी खूबी से संभाल लिया था. लालचंद हर तरह से संतुष्ट थे. समय पंख लगा कर उड़ान भरता रहा. गिरीश भी सेठ लालचंद परिवार के निकट आता गया. उस का भी तो कोई नहीं था. प्यार मिला तो उधर ही बह गया. अहल्या ने गिरीश के बारे में सभीकुछ बता दिया था सिवा उस की जाति के. गिरीश को भी मना कर दिया था कि भूल कर भी वह अपनी जाति को किसी के समक्ष प्रकट न करे. पहले तो उस ने आनाकानी की पर अहल्या के समझाने पर उस ने इसे भविष्य पर छोड़ दिया था.

अहल्या जानती थी कि जिस दिन उस के साससुर गिरीश की जाति से अवगत होंगे, उस के प्रवेश पर रोक लग जाएगी. बड़ी मुश्किल से तो घर का वातावरण थोड़ा संभाला था. आरंभ में गिरीश संकुचित रहा पर अपनी कुशलता, ईमानदारी और निष्ठा से उस ने दोनों फैक्टरियां ही नहीं संभालीं, बल्कि अपने मृदुल व्यवहार से लालचंद और सरला का हृदय भी जीत लिया था. गिरीश अब उन के कंपाउंड में बने गैस्टहाउस में ही रहने लगा था. सारी समस्याओं का हल गिरीश ही बन गया था.

लालचंद और सरला की आंखों में अहल्या और गिरीश को ले कर कुछ दूसरे ही सपने सजने लगे थे, लेकिन अहल्या की उदासीनता को देख कर वे आगे नहीं बढ़ पाते थे. उस ने एक सहकर्मी से ज्यादा गिरीश को कभी कुछ समझा ही नहीं था. उस के साथ एक दूरी तक ही नजदीकियां रखे थी वह. कई बार वह उन दोनों को समझा चुकी थी पर लालचंद और सरला दिनोंदिन गिरीश के साथ सारी दूरियां को मिटाते जा रहे थे. कभी लाड़दुलार से खाने के लिए रोक भी लिया तो अहल्या उस का खाना बाहर ही भिजवा देती थी.

गिरीश का मेलजोल भी यह क्रूर समाज स्वीकार नहीं कर सका. कोई न कोई आक्षेप उन की ओर उड़ाता ही रहा. आजिज आ कर एक दिन सरला बड़े मानमनुहार के साथ अहल्या से पूछ ही बैठी, ‘‘गिरीश तुम्हें कैसा लगता है? हम दोनों को तो उस ने मोह ही लिया है. हम चाहते हैं कि तुम उसे अपने जीवन में स्थान दे कर हर तरह से व्यवस्थित हो जाओ. है तो तुम्हारा बचपन का साथी ही. क्या पता इसी संयोग से हम सब उस से इतने जुड़ गए हों. हम भी कितने दिनों तक तुम्हारा साथ देंगे. यह समाज बड़ा ही जालिम है, तुम्हें यों अकेले जीने नहीं देगा. नील की यादों के सहारे जीवन बिताना बड़ा कठिन है. फिर वह तुम्हें कोई बंधन में भी तो नहीं बांध गया है जिस के सहारे तुम जी लोगी. सब समय की बात है वरना एक साल कम नहीं था.’’ प्रत्युत्तर में अहल्या कुछ देर उन्हें देखती रही, फिर बड़े ही सधे स्वर में बोली, ‘‘आप गिरीश को जानती हैं पर उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि को नहीं. मुझे भी कुछ याद नहीं है. क्या पता अगर हमारी आशाओं की कसौटी पर उस का परिवेश ठीक नहीं उतरा तो कुछ और पाने की चाह में उस के इस सहारे को भी खो बैठेंगे. मुझ पर अब किसी अफवाह का असर नहीं होता, अहल्या नाम की शिला जो हूं जिसे दूसरों ने छला और लूटा. वे जिन्होंने लूटा, देवता बने रहे, पर मैं अहल्या जैसी पत्थर पड़ी किसी की ठोकर का इंतजार क्यों करूं. किसी राम के मैले पैरों की अपेक्षा भी नहीं है मुझे. जैसे जीवन गुजर रहा है, गुजरने दीजिए.’’

पर आज तो सरला अपने मन की बात किसी न किसी तरह से अहल्या से मनवा ही लेना चाहती थी. उन की जिद को टालने के ध्येय से अहल्या ने गिरीश से ही पूछ लेने को कहा. और एक दिन लालचंद व सरला ने गिरीश से उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे जानना चाहा तो उस ने भी छिपाना ठीक नहीं समझा और बेझिझक हो, सभीकुछ उन के समक्ष उड़ेल कर उन की जिज्ञासा को हर तरह शांत कर दिया. लालचंद तो तत्काल वहां से उठ कर अंदर चले गए. अपनी सारी आशाओं पर तुषारापात हुए देख, सरला ने घबरा कर आंखें मूंद लीं. गिरीश अपनी इस अवमानना को समझते हुए झटके से उठ कर चला गया. पहाड़ के सब से ऊंचे ब्राह्मण की मानसिकता निम्नजाति से आने वाले गिरीश को किसी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही थी. दोनों फिर अवसाद में डूब गए, कहीं दूर तक कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

हफ्ता गुजर गया पर न गिरीश उन दोनों से मिलने आया और ही इन्होंने पहले की तरह मनुहार कर के उसे बुलाया. इस संदर्भ में अहल्या ने जब सरला से पूछा तो उन की पलकें भीग गईं. आहत ुहो कर उन्होंने अहल्या से कहा, ‘‘गिरीश की जाति के बारे में क्या तुम्हें सच मालूम नहीं था? अगर था तो बताया क्यों नहीं? इतने दिनों तक क्यों अंधेरे में रखा. हमारे सारे मनसूबे पर पानी फिर गया. पलभर में एक बार फिर प्रकृति ने हमारी आंखों से सारे सपने नोच लिए.’’ कुछ देर अहल्या सोचती रही, फिर उन की आंखों में निर्भयता से देखते हुए बोली, ‘‘मैं उस की जाति से अनजान नहीं थी, लेकिन वह तो हमारी फैक्टरी के अफसर होने के सिवा कुछ नहीं था, और इस से जाति का क्या लेनादेना. भरोसे का आदमी था, इसलिए सारे कामों को उसे सौंप दिया.’’ लालचंद भी वहां पर आ गए थे.

अहल्या ने निसंकोच लालचंद से कहा, ‘‘पापा, अगर अफवाहों के चक्रव्यूह में फंस कर आप ने उसे फैक्टरी के कामों से निकाल दिया तो उस जैसे भरोसे का आदमी फिर शायद ही मिले. आप दोनों के दुखों का कारण मैं ही हूं. मैं ने सोच लिया है यहां से हमेशा के लिए चले जाने का. गिरीश आप दोनों की देखरेख कर लेगा. अगर उसे निकाला तो मैं भी उस के साथ निकल जाऊंगी. आप के साथ अपने नाम को फिर से जुड़ते देख मैं मर जाना चाहूंगी. यह जालिम दुनिया हमें जीवित ही निगल जाएगी,’’ यह कह कर अहल्या रो पड़ी.

अपने सिर पर किसी स्पर्श का अनुभव कर के अहल्या ने सिर उठाया तो लालचंद को अपने इतने निकट पा कर चौंक गई. लालचंद बोल पड़े, ‘‘गिरीश के परिवेश को भूल कर अगर हम हमेशा के लिए उसे अपना बेटा बना लें तो इस की अनुमति तुम दोगी?’’ अहल्या ने सिर झुका लिया. आज वर्षों बाद लालचंद की विशाल हवेली फिर एक बार दुलहन की तरह सजी हुई थी. मंच पर वरवधू बने गिरीश और अहल्या के साथ सेठ दंपती अपार खुशियों से छलकते सागर को समेट रहे थे. सारी कटुताओं को विस्मृत करते हुए इस खुशी के अवसर पर लालचंद ने दोस्तदुश्मन सभी को आमंत्रित किया था. कहीं भीड़ के समूह में उन की उदारता की प्रशंसा हो रही थी तो कहीं आलोचना. पर जो भी हो, अपने हृदय की विशालता से उन के जैसे कट्टर ब्राह्मण ने गिरीश की जाति को भूल उसे अपने बेटे नील का स्थान दे कर बड़ा ही क्रांतिकारी व अनोखा काम किया था.

खुशियों का समंदर: भाग 2- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

अपने भाई की बात सुन कर सरला बहुत नाराज हुई तो भाई ने भी अपना गरल उगल कर उन के जले हुए तनमन पर खूब नमक रगड़ा. ‘‘हां, तो सरला, तुम्हारी बहू कितनी भी सुंदर और काबिल क्यों न हो, उस पर विधवा होने का ठप्पा तो लग ही चुका है. वह तो मैं ही था कि इस का उद्धार करने चला था वरना इस की औकात क्या है. सालभर के अंदर ही अपने खसम को खा गई. वह तो यहां है, इसलिए बच गई वरना हमारे यहां तो ऐसी डायन को पहाड़ से ढकेल देते हैं. मैं ने तो इस का भला चाहा, पर तुम्हें समझ में आए तब न. जवानी की गरमी जब जागेगी तो बाहर मुंह मारेगी, इस से तो अच्छा है कि घर की ही भोग्या रहे.’’

सरला के भाई की असभ्यता पर लालचंद चीख उठे, ‘‘अरे, कोई है जो इस जानवर को मेरे घर से निकाले. इस की इतनी हिम्मत कि मेरी बहू के बारे में ऐसी ऊलजलूल बातें करे. सरला, आप ने मुझ से पूछे बिना इसे कैसे बुला लिया. आप के चचेरे भाइयों के परिवार की काली करतूतों से पहाड़ का चप्पाचप्पा वाकिफ है.’’ लालचंद क्रोध के मारे कांप रहे थे. ‘‘न, न, बहनोई साहब, मुझे निकलवाने की जरूरत नहीं है. मैं खुद चला जाऊंगा, पर एक बात याद रखिएगा कि आज आप ने मेरी जो बेइज्जती की है उसे सूद समेत वसूल करूंगा. तुम जिस बहू के रूपगुण पर रिझे हुए हो, सरेआम उसे पहाड़ की भोग्या न बना दिया तो मैं भी ब्राह्मण नहीं.’’ यह कहता हुआ सरला का बदमिजाज भाई निकल गया पर अपनी गर्जना से उन दोनों को दहलाते हुए भयभीत कर गया. उस के जाने के बाद कई दिनों तक घर का वातावरण अशांत रहा.

सरला के भाई की धमकियां पहाड़ के समाज के साथसाथ व्यापार में लालचंद से स्पर्धा रखने वाले व्यवसायियों के समाज में भी प्रतिध्वनित होने लगी थीं. बहू के साथ उन के नाजायज रिश्ते की बात कितनों की जबान पर चढ़ गई थी. यह समाज की नीचता की पराकाष्ठा थी. पर समाज तो समाज ही है जो कुछ भी उलटासीधा कहने और करने का अधिकार रखता है. उस ने बड़ी निर्दयता से ससुरबहू के बीच नाजायज रिश्ता कायम कर दिया. सरेआम उन

पर फब्तियां कसी जाने लगी थीं. आहिस्ताआहिस्ता ये अफवाहें पंख फैलाए लालचंद के घर में भी आ गईं. अपने अति चरित्रवान, सच्चे पति और कुलललना बहू के संबंध में ऐसी लांछनाएं सुन कर सरला मृतवत हो गई. नील की मृत्यु के आघात से उबर भी नहीं पाई थी कि पितापुत्री जैसे पावन रिश्ते पर ऐसा कलुष लांछन बिजली बन कर उन के आशियाने को ध्वंस कर गया. वह उस मनहूस दिन को कोस रही थी जब अपने उस भाई से अहल्या की दूसरी शादी की मंशा जता बैठी थी. लालचंद के कुम्हलाए चेहरे को देखते ही वह बिलख उठती थी.

अहल्या लालचंद के साथ बाहर जाने से कतराने लगी थी. उस ने इस बुरे वक्त से भी समझौता कर लिया था पर लालचंद और सरला को क्या कह कर समझाती. जीवन के एकएक पल उस के लिए पहाड़ बन कर रह गए थे, लेकिन वह करती भी क्या. समाज का मुखौटा इतना घिनौना भी हो सकता है, इस की कल्पना उस ने स्वप्न में भी नहीं की थी. इस के पीछे भी तो सत्यता ही थी. ऐसे नाजायज रिश्तों ने कहीं न कहीं पैर फैला ही रखे थे. एक तो ऐसे ही नील की मृत्यु ने उसे शिला बना दिया था. उस में न तो कोई धड़कन थी और न ही सांसें. बस, पाषाण बनी जी रही थी. उस के जेहन में आत्महत्या कर लेने के खयाल उमड़ रहे थे. कल्पना में उस ने कितनी बार खुद को मृतवत देखा पर सासससुर की दीनहीन अवस्था को स्मरण करते ही ये सारी कल्पनाएं उड़नछू हो जाती थीं.

वह नील की प्रेयसी ही बनी रही, उस के इतने छोटे सान्निध्य में उस के हृदय की साम्राज्ञी बनी रही. प्रकृति ने कितनी निर्दयता से उस के प्रिय को छीन लिया. अभी तो नील की जुदाई ही सर्पदंश बनी हुई थी, ऊपर से बिना सिरपैर की ये अफवाहें. कैसे निबटे, अहल्या को कुछ नहीं सूझ रहा था. अपने ससुर लालचंद का सामना करने से भी वह कतरा रही थी. पर लालचंद ने हिम्मत नहीं खोई. उन्होंने अहल्या को धैर्य बनाए रखने को कहा. अब बाहर भी अहल्या अकेले ही जाने लगी थी तो लालचंद ने भी जाने की जिद नहीं की. फैक्टरी के माल के निर्यात के लिए बड़े ही उखड़े मन से इस बार वह अकेली ही मुंबई गई. जिस शोरूम के लिए माल निर्यात करना था वहां एक बहुत ही परिचित चेहरे को देख कर वह चौंक उठी. वह व्यक्ति भी विगत के परिचय का सूत्र थामे उसे उत्सुकता से निहार रहा था?.

अहल्या अपने को रोक नहीं सकी और झटके से उस की ओर बढ़ गई. ‘‘तुम गिरीश ही हो न, यहां पर कैसे? ऐसे क्या देख रहे हो, मैं अहल्या हूं. क्या तुम्हें मैं याद नहीं हूं. रसोईघर से चुरा कर न जाने कितने व्यंजन तुम्हें खिलाए होंगे. पकड़े जाने पर बड़ी ताई मेरी कितनी धुनाई कर दिया करती थीं. मुझे मार खाए दो दिन भी नहीं होते थे कि मुंहउठाए तुम पहुंच जाया करते थे. दीनू काका कैसे हैं? पहाड़ी के ऊंचेनीचे रास्ते पर जब भी मेरे या मेरी सहेलियों की चप्पल टूट जाती थी, तो उन की सधी उंगलियां उस टूटी चप्पल को नया बना देती थीं. तुम्हें भी तो याद होगा?’’

अहल्या के इतने सारे प्रश्नों के उत्तर में गिरीश मुसकराता रहा, जिस से अहल्या झुंझला उठी, ‘‘अब कुछ बताओगे भी कि नहीं. काकी की असामयिक मृत्यु से संतप्त हो कर, सभी के मना करने के बावजूद वे तुम्हें ले कर कहीं चले गए थे. सभी कितने दुखी हुए थे? मुझे आज भी सबकुछ याद है.’’

‘‘बाबा मुझे ले कर मेरे मामा के पास कानपुर आ गए थे. वहीं पर जूते की दुकान में नौकरी कर ली और अंत तक करते रहे. पिछले साल ही वे गुजर गए हैं, पर उन की इच्छानुसार मैं ने मन लगा कर पढ़ाई की. एमए करने के बाद मैं ने एमबीए कर लिया और इस शोरूम का फायनांस देखने लगा. पर आप यहां पर क्या कर रही हैं?’’ एक निम्न जाति का बेटा हमउम्र और पहाड़ की एक ही बस्ती में रहने वाली अहल्या को तुम कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका. यही क्या कम है कि कम से कम अहल्या ने उसे पहचान तो लिया. उस से बात भी कर ली, यह क्या कम खुशी की बात है उस के लिए वरना उस की औकात क्या है? ‘‘अरे, यह क्या आपआप की रट लगा रखी है. चलो, कहीं चल कर मैं भी अपनी आपबीती से तुम्हें अवगत करा दूं,’’ कहती हुई अहल्या उसे साथ लिए कुछ देर तक सड़क पर ही चहलकदमी करती रही. फिर वे दोनों एक कैफे में जा कर बैठ गए.

अश्रुपूरित आंखों और रुंधे स्वर में अहल्या ने अपनी आपबीती गिरीश से कह सुनाई, सुन कर उस की पलकें गीली हो गईर् थीं, लेकिन घरबाहर फैली हुई अफवाहों को कह कर अहल्या बिलख उठी. जब तक वह मुंबई में रही, दोनों मिलते रहे. गिरीश के कारण इस बार अहल्या के सारे काम बड़ी आसानी से हो गए. सूरत लौटने के रास्ते तक अहल्या पहाड़ पर बिताए अपने बचपन और गिरीश से जुड़े किस्से याद करती रही. बाद में पढ़ाई के लिए उसे भी तो दिल्ली आना पड़ा था.

आगे पढ़ें- घर पहुंच कर अहल्या ने गिरीश…

खुशियों का समंदर: भाग 1- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

सूरत की सब से बड़ी कपड़ा मिल के मालिक सेठ लालचंद का इकलौता बेटा अचानक भड़के दंगे में मारा गया. दंगे में यों तो न जाने कितने लोगों की मौत हुई थी पर इस हाई प्रोफाइल ट्रैजडी की खबर से शहर में सनसनी सी फैल गई थी. गलियों में, चौक पर, घरघर में इसी दुर्घटना की चर्र्चा थी. फैक्टरी से घर लौटते समय दंगाइयों ने उस की गाड़ी पर बम फेंक दिया था. गाड़ी के साथ ही नील के शरीर के भी चिथड़े उड़ गए थे. कोई इसे सुनियोजित षड्यंत्र बता रहा था तो कोई कुछ और ही. जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. जो भी हो, सेठजी के ऊपर नियति का बहुत बड़ा वज्रपात था. नील के साथ उस के मातापिता और नवविवाहिता पत्नी अहल्या सभी मृतवत हो गए थे. एक चिता के साथ कइयों की चिताएं जल गई थीं. घर में चारों ओर मौत का सन्नाटा फैला हुआ था. 3 प्राणियों के घर में होश किसे था कि एकदूसरे को संभालते. दुख की अग्नि में जल रहे लालचंद अपने बाल नोच रहे थे तो उन की पत्नी सरला पर रहरह कर बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे. अहल्या की आंखों में आंसुओं का समंदर सूख गया था. जिस मनहूस दिन से घर से अच्छेखासे गए नील को मौत ने निगल लिया था, उस पल से उस ने शायद ही अपनी पलकों को झपकाया था. उसे तो यह भी नहीं मालूम कि नील के खंडित, झुलसे शरीर का कब अंतिम संस्कार कर दिया गया. सेठजी के बड़े भाई और छोटी बहन का परिवार पहाड़ से आ गए थे, जिन्होंने घर को संभाल रखा था. फैक्टरी में ताला लग गया था.

4 दशक पहले लालचंद अपनी सारी जमापूंजी के साथ बिजनैस करने के सपने लिए इस शहर में आए थे. बिजनैस को जमाना हथेलियों पर पर्वत उतारना था, पर लालचंद की कर्मठता ने यह कर दिखाया. बिजनैस जमाने में समय तो लगा पर अच्छी तरह से जम भी गया. जब मिल सोना उगलने लगी तो उन्होंने एक और मिल खोल ली. शादी के 10 वर्षों बाद उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं. बेटा नील के बाद दूसरी संतान की आशा में उन्होंने अपनी पत्नी का कितना डाक्टरी इलाज, झाड़फूंक, पूजापाठ करवाया, पर सरला की गोद दूसरी बार नहीं भरी. नील की परवरिश किसी राजकुमार की तरह ही हुई. और होती भी क्यों न, नील मुंह में सोने का चम्मच लिए पैदा जो हुआ था. नील भी बड़ा प्रतिभाशाली निकला. अति सुंदर व्यक्तित्व और अपनी विलक्षण प्रतिभा से सेठजी को गौरवान्वित करता. वह अहमदाबाद के बिजनैस स्कूल का टौपर बना. विदेशी कंपनियों से बड़ेबड़े औफर आए पर सेठजी का अपना बिजनैस ही इतना बड़ा था कि उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी.

पिछले साल ही लालचंद ने अपने मित्र की बेटी अहल्या से नील की शादी बड़ी धूमधाम से की थी. अपार सौंदर्य और अति प्रतिभाशालिनी अहल्या के आने से उन के महल जैसे विशाल घर का कोनाकोना सज गया था. बड़े ही उत्साह व उमंगों के साथ सेठजी ने बेटेबहू को हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड भेजा था. जहां दोनों ने महीनाभर सोने के दिन और चांदी की रातें बिताई थीं. अहल्या और नील पतिपत्नी कम, प्रेमी और प्रेमिका ज्यादा थे. उन दोनों के प्यार, मनुहार, उत्साह, उमंगों से घर सुशोभित था. हर समय लालचंद और सरलाजी की आंखों के समक्ष एक नन्हेमुन्ने की आकृति तैरती रहती थी.

दादादादी बनने की उत्कंठा चरमसीमा पर थी. वे दोनों सारी लज्जा को ताक पर रख कर अहल्या और नील से अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए गुजारिश किया करते थे. प्रत्युत्तर में दोनों अपनी सजीली मुसकान से उन्हें नहला दिया करते थे. ये कोई अपने हाथ की बात थोड़े थी. उन की भी यही इच्छा थी कि एकसाथ ही ढेर सारे बच्चों की किलकारियों से यह आंगन गूंज उठे. पर प्रकृति तो कुछ और जाल बिछाए बैठी थी. पलभर में सबकुछ समाप्त हो गया था.

कड़कती बिजली गिर कर हंसतेखेलते आशियाने को क्यों न ध्वंस कर दे, लेकिन सदियों से चली आ रही पत्थर सरीखी सामाजिक परंपराओं को निभाना तो पड़ता ही है. मृत्यु के अंतिम क्रियाकर्म की समाप्ति के दिन सरला अपने सामने अहल्या को देख कर चौंक गई. शृंगाररहित, उदासियों की परतों में लिपटे, डूबते सूर्य की लाली सरीखे सौंदर्य को उन्होंने अब तक तो नहीं देखा था. सभी की आंखें चकाचौंध थीं. कैसे और कहां रख पाएगी ऐसे मारक सौंदर्य को. इसे समाज के गिद्धों की नजर से कैसे बचा पाएगी. अपने दुखों की ज्वाला में इस सदविधवा के अंतरमन में गहराते हाहाकार को वह कैसे भूल गई थी. उस की तो गोद ही उजड़ी है पर इस का तो सबकुछ ही नील के साथ चला गया. ‘‘उठिए मां, हमारे दुखों के रथ पर चढ़ कर नील तो आ नहीं सकते. इतने बड़े विध्वंस से ही हमें अपने मृतवत जीवन के सृजन की शुरुआत करनी है,’’ कहती हुई सरला को लालचंद के पास ले जा कर बैठा दिया. दोनों की आंखों से बह रही अविरल अश्रुधारा को वह अपनी कांपती हथेलियों से मिटाने की असफल चेष्टा करती रही.

नील की जगह अब लालचंद के साथ अहल्या फैक्टरी जाने लगी थी. उस ने बड़ी सरलता से सबकुछ संभाल लिया. उस ने भले ही पहले नौकरी न की हो पर एमबीए की डिगरी तो थी ही उस के पास. सरला और लालचंद ने भी किसी तरह की रोकटोक नहीं की. अहल्या के युवा तनमन की अग्नि शांत करने का यही उपाय बच गया था. लालचंद की शारीरिक व मानसिक अवस्था इस काबिल नहीं थी कि वे कुछ कर सकें. नील ही तो सारी जिम्मेदारियों को अब तक संभाले हुए था. फैक्टरी की देखभाल में अहल्या ने दिनरात एक कर दिया. दुखद विगत को भूलने के लिए उसे कहीं तो खोना था. लालचंद और सरला भले ही अहल्या का मुंह देख कर जी रहे थे, पर उन के इस दुख का कोई किनारा दृष्टिगत नहीं हो रहा था. एक ओर उन दोनों का मृतवत जीवन और अनिद्य सुंदरी युवा विधवा अहल्या तो दूसरी तरफ उन की अकूत संपत्ति, फैला हुआ व्यापार और अहल्या पर फिसलती हुई लोगों की गिद्ध दृष्टियां. तनमन से टूटे वे दोनों कितने दिन तक जी पाएंगे. उन के बाद अकेली अहल्या किस के सहारे रहेगी.

समाज की कुत्सित नजरों के छिपे वार से उस की कौन रक्षा करेगा. इस का एक ही निदान था कि वे अहल्या की दूसरी शादी कर दें. लेकिन सच्चे मन से एक विधवा को अपनाएगा कौन? उस की सुंदरता और उन की दौलत के लोभ में बहुत सारे युवक तैयार तो हो जाएंगे पर वे कितनी खुशी उसे दे पाएंगे, यह सोचते हुए उन्होंने भविष्य पर सबकुछ छोड़ दिया. अभी जख्म हरा है, सोचते हुए अहल्या के दुखी मन को कुरेदना उन्होंने ठीक नहीं समझा. ऐसे ही समय बीत रहा था. न मिटने वाली उदासियों में जीवन का हलका रंग प्रवेश करने लगा था. फैक्टरी के काम से जब भी लालचंद बाहर जाते, अहल्या साथ हो लेती. काम की जानकारी के अलावा, वह उन्हें अकेले नहीं जाने देना चाहती थी. सरला ने भी उसे कभी रोका नहीं क्योंकि अब तो सभीकुछ अहल्या को ही देखना था. शिला बनी अहल्या के जीवन में खुशियों के रंग बिखर जाएं, इस के लिए दोनों प्रयत्नशील थे.

एक विधवा के लिए किसी सुयोग्य पात्र को ढूंढ़ लेना आसान भी नहीं था. सरला के चचेरे भाई आए तो थे मातमपुरसी के लिए पर अहल्या के लिए अपने बेटे के लिए सहमति जताई तो दोनों ही बिदक पड़े. इन के कुविख्यात नाटे, मोटे, काले, मूर्ख बेटे की कारगुजारियों से कौन अनजान था. पिछले साल ही पहाड़ की किसी नौकरानी की नाबालिग बेटी के बलात्कार के सिलसिले में पुलिस उसे गिरफ्तार कर के ले गई थी पर साक्ष्य के अभाव में छूट गया था. इन लोगों की नजर उन की अकूत संपत्ति पर थी, इतना तो लालचंद और सरला समझ ही गए थे.

आगे पढ़ें- अपने भाई की बात सुन कर सरला…

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 1

“मां… मां, प… पापा को हार्ट अटैक आया है. हम उन्हें अस्पताल ले कर जा रहे हैं. आ… आप भी वहीं पहुंचो जल्दी से,” घबराई सी बोल कर कृति ने फोन रख दिया.

शीतल स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी, मगर अर्णब के अटैक की बात सुन कर वह भी घबरा गई. उस ने अपना पर्स उठाया, पड़ोस में चाबी थमाई और गाड़ी सीधे अस्पताल की तरफ मोड़ दी. अभी जाने में और टाइम लगेगा, क्योंकि शीतल के घर से अस्पताल का रास्ता तकरीबन दोढाई घंटे का था.

शीतल को देखते ही कृति सिसक पड़ी और कहने लगी कि वह तो अच्छा था कि सब घर पर ही थे, वरना अनर्थ हो जाता.

“चुप हो जाओ कृति, सब ठीक हो जाएगा. कुछ नहीं होगा तुम्हारे पापा को,” बेटी कृति को सीने से लगा कर पुचकारते हुए शीतल बोली, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि यों अचानक कैसे अर्णब को अटैक आ गया? अभी परसों ही तो कृति बता रही थी कि अर्णब का शुगर, बीपी सब नौर्मल है. देखने में भी वह नौर्मल ही लग रहा था, फिर… ऐसे कैसे?“

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इसी हफ्ते उन दोनों के तलाक को ले कर कोर्ट का अंतिम फैसला होने वाला है. अगर अर्णब की तबीयत ठीक नहीं हुई, तो फिर… फिर तो कोर्ट की डेट आगे बढ़ जाएगी.’

ऐसी बात मन में सोच कर शीतल परेशान हो उठी. रातभर वह बेटी के साथ अस्पताल में अर्णब के होश में आने का इंतजार करती रही. एक डर भी लग रहा था कि सब ठीक तो हो जाएगा न…? अगर कहीं अर्णब को कुछ हो गया तो… बच्चे भी उसे ही दोष देंगे कि उस की वजह से अर्णब…

‘ओह, मैं भी क्या सोचने लगी,’ शीतल मन ही मन बुदबुदाई. फिर वे बेटी की ओर मुखातिब होते हुए बोलीं, “कृति, एक बात बताओ, तुम्हारे पापा समय पर दवाई तो लेते थे न…? खानपान में कोई गड़बड़ी? कहीं शराब बहुत ज्यादा तो नहीं पीने लगे हैं?”

“नहीं मां, ऐसी कोई बात नहीं है. वैसे, अब तो पापा ने शराब पीना बहुत ही कम कर दिया है. लेकिन वही टेंशन जिस के कारण पापा को लगातार 2 बार अटैक आ चुका है.

“आप समझ रही हैं न मां कि मैं क्या कहना चाह रही हूं? मैं भी क्या करूं मां, औफिस और घर में ऐसे पिसती रहती हूं कि पापा के पास आने का समय ही नहीं मिलता. एक ही शहर में रहने के बाद भी हफ्तों हो जाते हैं उन से मिले.

‘‘हां, लेकिन हम रोज वीडियो काल पर जरूर कुछ देर बात कर लेते हैं. परसों पापा जिद करने लगे कि मैं 2-3 दिन रहूं उन के पास आ कर. लेकिन, अच्छा ही किया, नहीं तो पापा आज…’’ कहतेकहते कृति की आवाज भर्रा गई.

“जानती हो मां, पापा बहुत टेंशन में रहने लगे हैं. कहते हैं कि अब जीने का मन नहीं करता. हमेशा उदासी घेरे रहती है उन्हें. मां, एक आप ही हो, जो पापा को इस टेंशन से बचा सकती हो, नहीं तो पापा नहीं बच पाएंगे,” शीतल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कृति बोल ही रही थी कि डाक्टर आ कर कहने लगे कि अर्णब को होश आ गया है और अब वह खतरे से बाहर है.

“ओह, थैंक यू डाक्टर साहब,” कृति ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर एक गहरी सांस ली.

“लेकिन, डाक्टर साहब, क्या हम पापा से मिल सकते हैं?” कृति ने पूछा, तो डाक्टर ने ‘हां’ कहा, लेकिन एकएक कर के.

कृति अपनी मां का हाथ पकड़ कर अर्णब के कमरे की तरफ बढ़ ही रही थी, तभी अचानक शीतल ने अपना हाथ छुड़ा लिया. वे बोलीं, “कृति, तुम जाओ, मुझे घर जाना होगा. स्कूल भी जाना जरूरी है आज.

“देखो, प्रिंसपल सर के कितने मिस्ड काल हैं, क्योंकि कल इन सब कारणों से स्कूल नहीं जा पाई थी, इसलिए आज जाना ही होगा. बच्चों के एग्जाम्स आने वाले हैं?” कह कर शीतल झटके से अस्पताल से बाहर निकल गई.

गाड़ी चलाते हुए भी वह बहुत बेचैन दिख रही थी. मन में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. कभी लग रहा था, वह जो करने जा रही है गलत है, तो कभी लग रहा था, सही है.

क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. बेटे जिगर का फोन आया, तो वह विचारों से बाहर निकली. आवाज में उस की भी उदासी झलक रही थी. आखिर बाप है चिंता तो होगी ही न.

“अब ठीक हैं तुम्हारे पापा, चिंता मत करो. डाक्टर ने कहा है कि अब वे खतरे से बाहर हैं. मैं गाड़ी चला रही हूं. स्कूल से लौट कर शाम को बात करती हूं, ठीक है… और बच्चे, दिव्या वगैरह सब ठीक हैं न? ओके, बाय बेटा, यू टेक केयर योर सेल्फ.

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‘‘हां… हां, मैं ठीक हूं, तुम चिंता मत करो,” कह कर शीतल ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि एक जिगर ही है, जो उसे समझता है. उस की बातों से ही झलक रहा था कि अपने पापा से ज्यादा उसे अपनी मां की फिक्र हो रही है. हो भी क्यों न, आखिर उस के अनगिनत दर्दों को उस ने भी तो देखा और महसूस किया है.

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है कि कृति उसे नहीं समझती या उस से प्यार नहीं करती. मगर वह चाहती है कि उस के मांपापा फिर से साथ रहने लगें पहले की तरह. लेकिन, अब यह नामुमकिन है.’

यही सब सोचतेसोचते शीतल कब स्कूल पहुंच गई, उसे पता ही नहीं चला. मीनाक्षी ने ‘हाय, गुड मौर्निंग’ बोला, तो उसे एहसास हुआ कि वह स्कूल में आ चुकी है.

“हाय, गुड मौर्निंग,“ शीतल ने कहा, तो वह पूछने लगी कि अब अर्णब की तबीयत कैसी है?

“ठीक हैं. डाक्टर ने कहा कि अब वे खतरे से बाहर हैं. थैंक यू मीनू, तुम ने मेरा इतना साथ दिया,” मीनाक्षी का आभार जताते हुए शीतल बोली.

“अरे, इस में थैंक यू की क्या बात है. तुम भी तो कभीकभार मेरे लिए ऐसा करती हो न? कई बार मैं स्कूल नहीं आ पाती किसी वजह से, तब तुम मेरी जगह मेरी क्लास ले लेती हो. तो आज अगर मैं ने ऐसा कर दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई. आखिर ऐसे ही तो दुनिया चलती है न. और हम एकदूसरे की परेशानी नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा,” मुसकराते हुए मीनाक्षी बोली. लेकिन आगे अभी वह कुछ और बोलती ही, तब तक शीतल आगे बढ़ गई, क्योंकि वह जानती थी कि इस के बाद मीनाक्षी का क्या सवाल होगा? वह भी वही सब बातें करने लगेगी, जो मिलने पर रिश्तेदार और जानपहचान वाले करने लगते हैं. लेकिन अभी वह इन सवालजवाब में उलझना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह तनमन दोनों से काफी थक चुकी थी. स्कूल आना जरूरी नहीं होता, तो न आती आज भी.

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शीतल स्कूल में मैथ की टीचर है और मीनाक्षी, साइंस की. दोनों स्कूल में टीचर होने के साथसाथ आपस में बहुत अच्छी सहेलियां भी हैं. दोनों के घर आसपास ही हैं, तो अकसर दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना होता रहता है. छुट्टी के दिन दोनों साथ ही खरीदारी करने या कहीं घूमने निकल पड़ती हैं.

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Serial Story: अब अपने लिए – भाग 2

शीतल की तरह मीनाक्षी भी अकेली रहती है. एक बेटा है, जो अमेरिका में जा बसा. पति रहे नहीं अब. पढ़ाई पूरी होने के बाद वहीं अमेरिका में बेटे की एक कंपनी में जौब लग गई. फिर शादी भी उस ने एक अमेरिकन लड़की से कर ली और हमेशा के लिए वहीं का हो कर रह गया.

5 साल पहले अपने पिता के मरने पर वह आया था, फिर आया ही नहीं. लेकिन फोन पर बेटे से बात होती रहती है मीनाक्षी की. मीनाक्षी अपने पति से कितना प्यार करती है, यह उस की बातों से ही झलक जाता है. बताती है कि उस के पति बहुत ही अच्छे इनसान थे. शादी के इतने सालों में कभी उन्होंने मीनाक्षी को एक कड़वी बात तक नहीं बोली. बहुत प्यार करते थे मीनाक्षी से वह.

मीनाक्षी अपने पति की तुलना अर्णब से करती है. इसलिए शीतल को समझाती रहती है कि वह जो करने जा रही है, सही नहीं है. पतिपत्नी में तो लड़ाईझगड़े होते ही हैं. इस का यह मतलब तो नहीं कि दोनों अलग हो जाएं. लेकिन कहते हैं कि ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई,’ मीनाक्षी को क्या पता कि शीतल ने अपनी जिंदगी में क्याक्या नहीं झेला. कितना सहा उस इनसान को. लेकिन सहने की भी एक हद होती है? तभी तो शादी के इतने सालों बाद शीतल अपने पति अर्णब से तलाक लेने की ठान चुकी है.जानती है, ऐसा कर के वह सब की नजरों में बुरी बन रही है. यहां तक कि उस की अपनी बेटी भी उसे सही नहीं ठहरा रही है. लेकिन, कोई बात नहीं, उस ने जो ठान लिया है अब उस से पीछे नहीं हटेगी.

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खैर, अर्णब जब तक अस्पताल में रहा, शीतल एक बार रोज उसे देख आती थी, ताकि बेटी को बुरा न लगे, वरना वह तो उस इनसान का चेहरा भी देखना पसंद नहीं करती थी.

कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद अर्णब को वहां से छुट्टी दे दी गई. शीतल का जरा भी मन नहीं था, पर कृति की जिद के कारण उसे भी अर्णब को घर तक छोड़ने जाना पड़ा. लेकिन उस घर में पांव रखते ही शीतल को वह सारी पुरानी बातें याद आने लगीं. वह मारपीट, गालीगलौज सबकुछ उस की आंखों के सामने नाचने लगा, इसलिए वह जल्दी से जल्दी इस घर से निकल जाना चाहती थी, मगर कृति ने यह कह कर उसे रोक लिया कि पापा को खिलापिला कर दवाएं दे कर चली जाए.

दवा खाते ही अर्णब को नींद ने आ घेरा. उस के खर्राटे देख कर तो लग ही नहीं रहा था कि वह एक बीमार इनसान है, काफी स्वस्थ दिख रहा था.

अर्णब को ठीक से सोया देख कर शीतल जब वहां से जाने को हुई, तो कृति जिद करने लगी कि आज रात वह यहीं रुक जाए. कृति चाह रही थी कि अर्णब और शीतल के बीच किसी तरह बातचीत हो जाए, तो सब ठीक हो जाएगा.

लेकिन शीतल हरगिज अर्णब से किसी भी विषय पर बात करने को तैयार नहीं थी. वह तो बेटी की जिद पर यहां आई थी, वरना तो वह इस घर में पांव भी नहीं रखती कभी.

“प्लीज मां, रुक जाओ न, आज रात यहीं पर. वैसे भी पापा की तबीयत अभी उतनी अच्छी नहीं है,” कृति ने फिर वही बात दोहराई.

“नहीं बेटी, ऐसा तो नहीं हो पाएगा. म… मेरा मतलब है, वहां घर ऐसे ही नहीं छोड़ सकती. चोरियां बहुत होने लगी है अब. और तुम तो हो न यहां पर…?” शीतल ने कहा. लेकिन कृति सब समझ रही थी कि ये सब बहाने हैं शीतल के, ताकि यहां न रुकना पड़े.

“ठीक है मां, नहीं रुकना तो मत रुकिए, पर कुछ देर और बैठ तो सकती हैं न मेरे साथ?“ शीतल का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कृति कहने लगी, “मां, आप मेरी बात समझने की कोशिश करो. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अगर आप चाहो तो सब पहले की तरह हो सकता है. एक अंतिम बार, पापा को माफ कर दो मां, प्लीज.

“मैं… मैं समझाऊंगी पापा को, वह वही करेंगे, जो आप चाहती हो. पापा समझौता करने को तैयार हैं, बस, अपनी जिद छोड़ दो मां.“

“देखो कृति, इन सब बातों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, इसलिए रहने दो तुम,” बोलते हुए शीतल उठ खड़ी हुई.

“नहीं मां, ऐसे मत बोलो. पापा को आप की जरूरत है. मैं मानती हूं कि पापा ने आप के साथ बहुत ज्यादती की है. लेकिन, अब वे काफी बदल चुके हैं. सच कहती हूं मैं. देख नहीं रही हो कैसे गुमसुम, चुपचाप बैठे रहते हैं?”

कृति की बात पर शीतल हंसी और बोली, “नहीं बेटी, ये सब सिर्फ दिखावा है तुम्हारे पापा का मुझे हराने के लिए. और एक बात, इनसान का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता. और मैं कब से उस की जरूरत बन गई? जब पैसा और पावर खत्म हो गया, वह औरत उन्हें छोड़ कर चली गई. अपने मतलब से कोई किसी को अपनी जरूरत बनाए तो उसे प्यार नहीं कहते, उसे मतलबी इनसान कहते हैं. और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे पापा बदल गए हैं, बल्कि अच्छाई का दिखावा कर रहे हैं. खैर, छोड़ो.”

मन तो किया शीतल का कि कह दे, ये हार्ट अटैक भी एक नाटक ही है. क्योंकि वह डाक्टर, जो अर्णब का इलाज कर रहा था, वह उस का जिगरी दोस्त है, तो फिर क्या दिक्कत है नाटक करने में? लगातार 2 बार अटैक आना और फिर जल्द ही नौर्मल होना, यह नाटक नहीं तो और क्या है? किसी तरह चाह रहे हैं कि केस की डेट आगे बढ़ती रहे और वह अपने मकसद में कामयाब हो जाए.

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“अब अर्णब ठीक हैं. तुम चिंता मत करो. अगर कोई जरूरत हुई, तो मैं ज्यादा दूर थोड़ी हूं? आ जाऊंगी.“

“ठीक है मां, दिखावा ही सही, पर जब आप ने अपनी जिंदगी के 30 साल पापा के साथ गुजार दिए तो अब क्यों उन से तलाक लेना चाहती हो? सोचा है, लोग क्या कहेंगे? हंसेंगे सब. लोगों की छोड़ो, कम से कम मेरे और भैया के बारे में तो सोचो. हमारी फैमिली के बारे में तो सोचो. क्या बताएंगे हम सब को कि 52 साल की मेरी मां और 61 साल के मेरे पापा अब साथ नहीं रहना चाहते हैं, इसलिए दोनों तलाक ले रहे हैं?

“बोलो न मां? और कल को जब पापा ही नहीं रहेंगे, फिर किस से ये लड़ाई और किस से झगड़ा करोगी आप? मां इतनी निर्दयी मत बनो प्लीज… छोड़ दो अपनी जिद और लौट आओ अपने घर.”

मन तो किया शीतल का कि एकएक जुल्म जो अर्णब ने बंद कमरे में उस के साथ किए थे, वह भी आज कृति के सामने खोल कर रख दे, क्योंकि वह अब बच्ची नहीं एक औरत बन चुकी है, समझेगी उस का दर्द. लेकिन, उस ने चुप्पी साध ली. क्योंकि पुराने घाव कुरेद कर उसे हरा नहीं करना चाहती थी वह. हां, ठीक है बुरी और स्वार्थी ही सही, लेकिन अब वह अर्णब के साथ नहीं रह सकती. जिंदगीभर वह उस के इशारों पर नाचती रही. अपने लिए तो जीया ही नहीं कभी.

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