सुबह दाढ़ी बनाते समय अचानक बिजली चली गई. नीरज ने जोर से आवाज दे कर कहा, ‘‘रितु, बिजली चली गई, जरा मोमबत्ती ले कर आना.’’
‘‘मैं मुन्ने का दूध गरम कर रही हूं,’’ रितु ने कहा, ‘‘एक मिनट में आती हूं.’’
तब तक नीरज आधी दाढ़ी बनाए ही भागे चले आए और गुस्से से बोले, ‘‘कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम मेरी बातों को सुन कर भी अनसुनी कर देती हो.’’
खैर, उस समय तो रितु ने नीरज को मोमबत्ती दे दी थी लेकिन नाश्ता परोसते समय वह उस से बोली, ‘‘आप तो ऐसे न थे. बातबात पर गुस्सा करने लग जाते हो. मेरी मजबूरी भी तो समझो. सुबह से ले कर देर रात तक घर और बाहर के कामों में चरखी की तरह लगी रहती हूं. रात होतेहोते तो मेरी कमर ही टूट जाती है.’’
‘‘मैं क्या करूं अब,’’ नीरज ठंडी सांस लेते हुए बोले, ‘‘समय पर आफिस नहीं पहुंचो तो बड़े साहब की डांट सुनो.’’
फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘लगता है, इस बार इनवर्टर लेना ही पड़ेगा.’’
‘‘इनवर्टर,’’ रितु ने मुंह बना कर कहा, ‘‘पता भी है कि उस की कीमत कितनी है. कम से कम 7-8 हजार रुपए तो चाहिए ही. कोई लोन मिल रहा है क्या?’’
‘‘लोन की बात कर क्यों मेरा मजाक उड़ा रही हो. तुम्हें तो पता ही है कि पिछला लोन पूरा करने में ही मेरे पसीने छूट गए थे. मैं तो सोच रहा था कि तुम अपने पापा से बात कर लो….उधार ही तो मांग रहा हूं.’’
‘‘क्याक्या उधार मांगूं?’’ रितु तल्ख हो गई, ‘‘गैस, टेलीफोन, सोफा, दीवान और भी न जाने क्याक्या. सब उधार के नाम पर ही तो आया है. अब और यह सबकुछ मुझ से नहीं होगा.’’
‘‘क्यों, क्या मुझ में उधार चुकाने की सामर्थ्य नहीं है?’’ नीरज बोेले, ‘‘इतने ताने मत दो. आखिर, जो हुआ उस में कहीं न कहीं तो तुम्हारी भी सहमति थी.
‘‘मेरी सहमति,’’ रितु फैल गई, ‘‘मैं जिस प्रकार तुम्हें निभा रही हूं मैं ही जानती हूं.’’
‘‘तो ठीक है, निभाओ अब, कह क्यों रही हो,’’ नीरज गुस्से से उठते हुए बोले.
‘‘मैं तो निभा ही रही हूं. इतना ही गरूर था तो बसाबसाया घर क्यों छोड़ कर आ गए. तब तो बड़ी शान से कहते थे कि मैं अपना अलग घर ले कर रहूंगा. कोई मोहताज तो नहीं किसी का. और अब…मैं पापा से कुछ नहीं मांगूंगी,’’ रितु गुस्से से कहती गई.
‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई तुम से कुछ कह कर,’’ नीरज कोट पहनते हुए बोले, ‘‘अब तक यह घर चला ही रहा हूं, आगे भी चलाऊंगा. कोई भूखे तो नहीं मर रहे.’’
आज सुबहसुबह ही मूड खराब हो गया. अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी का यही हश्र होता है. आएदिन किसी न किसी बात पर हमारी अनबन रहती है और फिर न समाप्त होने वाला समझौता. आज स्कूल जाने का रहासहा मूड भी जाता रहा सो गुमसुम सी पड़ी रही. मन में छिपी परतों से बीते पल चलचित्र की तरह एकएक कर सामने आने लगे.
अपना नया नियुक्तिपत्र ले कर आफिस में प्रवेश किया तो मैं पूरी तरह घबराई हुई थी. इतना बड़ा आफिस. सभी लोग चलतेफिरते रोबोट की तरह अपने में व्यस्त. एक कोने में मुझे खड़ा देख कर एक स्मार्ट से लड़के ने पूछा, ‘आप को किस से मिलना है?’
बिना कुछ बोले मैं ने अपना नियुक्तिपत्र उस की ओर बढ़ाया था.
‘ओह, तो आप को इस दफ्तर में आज ज्वाइन करना है,’ कहते हुए वह लड़का मुझे एक केबिन में ले गया और एक कुरसी पर बैठाते हुए बोला, ‘आप यहां बैठिए, मेहताजी आप के बौस हैं. वह आएंगे तो आप के काम और बैठने की व्यवस्था करेंगे.’
मैं इंतजार करने लगी. थोड़ी देर बाद वह लड़का फिर आया और कहने लगा, ‘सौरी, मैडम, मेहताजी आज थोड़ी देर में आएंगे. आप चाहें तो नीचे रिसेप्शन पर इंतजार कर सकती हैं. कुछ चाय वगैरह लेंगी?’
मुझे इस समय चाय की सख्त जरूरत थी किंतु औपचारिकतावश मना कर दिया.
‘आर यू श्योर,’ उस ने चेहरे पर मुसकराहट बिखेर कर पूछा तो इस बार मैं मना न कर सकी.
‘अच्छा, मैं अभी भिजवाता हूं,’ फिर अपना परिचय देते हुए बोला, ‘मेरा नाम नीरज है और मैं सामने के हाल में उस तरफ बैठता हूं. यहां सेल्स एग्जीक्यूटिव हूं.’
नीरज मुझे बेहद सहायक और मधुर से लगे. बस, फिर तो क्रम ही बन गया. हर रोज सुबह नीरज मुझ से मिलने आ जाते या कभी मैं ही चली जाती. इस तरह सुबह की गुडमार्निंग कब और कहां अनौपचारिक ‘हाय’ में बदल गई पता ही न चला.
नीरज का मधुर स्वभाव मुझे अपनी ओर अनायास ही खींचता चला गया. अंतत: इस खिंचाव ने प्रगति मैदान जा कर ही दम लिया. हम दोनों प्राय: इसी मैदान में आते और हाथों में हाथ डाले शकुंतलम थिएटर की फिल्में देखते.
एक दिन मैं ने नीरज से कहा, ‘अब बहुत हो चुकी डेटिंग, नीरज. अब शादी के लिए गंभीर हो जाओ. कहीं किसी ने यों ही देख लिया तो आफत आ जाएगी. आफिस का स्टाफ तो पहले से ही शक करता है.’
‘गंभीर क्या हो जाऊं,’ वह मेरी लटों को संभालते हुए बोले, ‘यही तो दिन हैं घूमने के. फिर ये कभी हाथ नहीं आएंगे. पर तुम शादी के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो रही हो? क्या रात में नींद नहीं आती? इतना कह कर नीरज ने मेरा हाथ जोर से दबा दिया. उन का स्पर्श मुझे अभिभूत कर गया. लजा कर रह गई थी मैं. थोड़ी देर के लिए सपनों की दुनिया में चली गई थी. समय का आभास होते ही मैं ने पूछा, ‘क्या सोचा तुम ने?’
‘मुझे क्या सोचना है,’ नीरज थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘मैं तो तुम्हारे साथ ही शादी करूंगा, पर…’
‘पर क्या?’ उन के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मैं ने पूछा.
‘मां को मनाने में थोड़ा समय लगेगा. दरअसल, उन्होंने एकदम सीधीसादी सलवारकमीज वाली धार्मिक लड़की की कल्पना की है, जो हमारे घर के पास रह रही है. किंतु वह लड़की मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती.’
‘फिर क्या होगा?’ मैं ने गंभीर होते हुए पूछा.
‘होगा वही जो मैं चाहूंगा. आखिर रखना तो मुझे है न. तुम चिंता न करो. समय देख कर किसी दिन मां से बात करूंगा, पर डरता हूं, कहीं वे मना न कर दें.’
एक दिन शाम को नीरज अपनी मां से मिलवाने के लिए मुझे ले गए. मेरी नानुकुर नीरज के सामने ज्यादा न चल सकी. कहने लगे, ‘मां को अपनी पसंद भी बता दूं क्योंकि सीधा कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है. तुम्हें मेरे साथ देख कर शायद बातचीत का कोई रास्ता निकल आए.’
नीरज ने थोड़े शब्दों में मेरा परिचय दिया. मां की अनुभवी नजरों से कुछ भी छिपा न रह सका.
नीरज की जिद और इच्छा को देखते हुए मां ने बेमन से शादी के लिए हां तो कह दी किंतु जिस तरह दुलहन को इस घर में आना चाहिए था वह सारी रस्में फीकी पड़ गईं. मेरी सारी सजने- संवरने की आशाएं धरी की धरी रह गईं. मां ने कोई खास उत्सुकता नहीं दिखाई क्योंकि शादी उन की मरजी के खिलाफ जो हुई थी.
कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर हमारा देर रात तक घूमना और बाहर खा कर आना ज्यादा दिन तक न चल सका. मां ने एक दिन नाश्ते पर कह दिया कि हम से देर रात तक इंतजार नहीं किया जाता. समय पर घर आ जाया करो. फिर घर की तरफ बहू को थोड़ा ध्यान देना चाहिए.
इस पर नीरज तुनक कर बोले, ‘मां, इस के लिए तो सारी उम्र पड़ी है. हम दूसरी चाबी ले कर चले जाया करेंगे आप सो जाया करो, क्योंकि पार्टी में दोस्तों के साथ देर तो हो ही जाती है.’
मेरे मन में न जाने क्यों शांत स्वभाव वाले मां और बाबूजी के प्रति सहानुभूति उभर आई. बोली, ‘मां ठीक कहती हैं, नीरज. हम समय पर घर आ जाएंगे. अपनी पार्टियां अब हम वीकेंड्स में रख लेंगे.’
मांजी के व्यवहार में आई सख्ती को मैं कम करना चाहती थी. इस के लिए अपनी एक हफ्ते की छुट्टी और बढ़ा ली ताकि मांजी के व्यवहार को समझ सकूं.
एक दिन नीरज शाम को मुसकराते हुए आए और कहने लगे, ‘रितु, सब लोग तुम्हें बहुत याद करते हैं. देखना चाहते हैं कि तुम शादी के बाद कैसी लगती हो.’
मैं खिलखिला कर हंस पड़ी. मुझे आफिस का एकएक चेहरा याद आने लगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, कुछ दिनों की ही तो बात है. अगले सोमवार से तो आफिस जा ही रही हूं?’
‘‘मांजी पास में बैठी चाय पी रही थीं. बड़े शांत स्वर में बोलीं, ‘बेटा, हमारे घरों में शादी के बाद नौकरी करने की रीति नहीं है. बहू को बहू की तरह ही रहना चाहिए, यही अच्छा लगता है. आगे जैसा तुम को ठीक लगे, करो.’
मां का यह स्वर मुझे भीतर तक हिला कर रख गया था. उन के यह बोल अनुभव जन्य थे. जोर से डांटडपट कर कहतीं तो शायद मैं प्रतिकार भी करती. मुझे मां का इस तरह कहना अच्छा भी लगा और उन का सामीप्य पाने का रास्ता भी.
नीरज फट से बोल पड़े थे, ‘मां, आजकल दोनों मिल कर कमाएं तभी तो घर ठीक से चलता है. फिर यह तो अकेली यहां बोर हो जाएगी.’
‘क्यों? क्या कमी है यहां जो दोनों को काम करने की आवश्यकता पड़ रही है. भरापूरा घर है. तेरे बाबूजी भी अच्छा कमाते हैं. सबकुछ ठीक चल रहा है. हम कौन सा तुम से कुछ मांग रहे हैं,’ मांजी का स्वर तेज हो गया, ‘फिर भी तू बहू से काम करवाना चाहता है तो तेरी मरजी.’
मैं खामोश ही रही. पर इस तरह नीरज का बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा था. भीतर जा कर मैं ने नीरज से कहा, ‘नौकरी मुझे करनी है. मांजी को अच्छा नहीं लगता तो मैं नहीं जाऊंगी. बस.’
‘नहीं, तुम नौकरी करने जरूर जाओगी. मैं ने जो कह दिया सो कह दिया,’ नीरज ने कठोर स्वर में कहा.
मन के झंझावात में मैं अंतत: कोई निर्णय नहीं ले पाई. मैं ने हार कर मां से पूछा, ‘मैं क्या करूं, मां?’
‘जो नीरज कहता है वही कर,’ मां ने सीधासपाट सा उत्तर दिया.
उस दिन काम पर तो चली गई किंतु मां के मूक आचरण से एहसास हो गया था कि उन को यह सब ठीक नहीं लगा.
मैं, मां और बाबूजी को खुश करने के लिए हरसंभव प्रयास करती रही. नीरज को भी समझाया कि यह सब उन को ठीक नहीं लगता पर उन के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. क्या पता था कि ऊपर से इतने मृदुभाषी और हंसमुख इनसान अंदर से इतने अस्वाभाविक और सख्त हो सकते हैं.
इस प्रपंच से जल्दी ही मुझे मुक्ति मिल गई. मेरा पांव भारी हो गया और आफिस न जाने का बहाना मिल गया. इस में मां ने मेरी तरफदारी की तो अच्छा लगा.
मुन्ना के होने के बाद तो मांबाबूजी के स्वभाव में पहले से कहीं ज्यादा बदलाव आ गया. आफिस के साथियों ने पार्टी की जिद पकड़ ली तो मैं ने नीरज को कहा कि पार्टी घर पर ही रख लेते हैं. किसी होटल या रेस्तरां में पार्टी करेंगे तो बहुत महंगा पड़ेगा. फिर मां और बाबूजी को भी अच्छा लगेगा. नीरज भी बजट को देखते हुए कुछ नहीं बोले.
सारा दिन मैं घर संवारने में लगी रही. मां को घर में आ रहे इस बदलाव से अच्छा लगने लगा था. सारे सामान का आर्डर पास ही के रेस्तरां में दे दिया था.
‘मांजी कहां हैं,’ मेरी एक आफिस की सहेली ने पूछ लिया. मैं मां को बुलाने उन के कमरे में गई तो मां हंस कर बोलीं, ‘मैं वहां जा कर क्या करूंगी. बच्चों की पार्टी है, तुम लोग मौजमस्ती करो.’
‘नहीं, मां, आप वहां जरूर चलो. बस, मिल कर आ जाना…अच्छा लगता है,’ मैं ने स्नेहवश मां को कहा तो मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने कह दिया, ‘अच्छा, तुम चलो, मैं तैयार हो कर आती हूं.’
मैं मुन्ने को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई. मांबाबूजी अभी ड्रांइगरूम में आए ही थे कि दरवाजे की घंटी बजी. बाबूजी दरवाजे की तरफ जाने लगे तो मैं ने नीरज को इशारा किया.
‘बाबूजी, आप बैठिए. मैं जा रहा हूं. बाजार से खाना मंगवाया है, वही होगा.’
‘अरे, कोई बात नहीं,’ बाबूजी बोले.
‘नहीं, बाबूजी,’ नीरज थोड़ी तेज आवाज में बोले, ‘इसे हाथ न लगाना. इस में चिकन है. बाजार से दोस्तों के लिए मंगवाया है.’
‘नानवैज?’
मां और बाबूजी बिना किसी से मिले चुपचाप अपने कमरे में चले गए. मैं नीरज के साथ उन के पीछेपीछे कमरे तक गई तो देखा, मांजी माथा पकड़ कर एक तरफ पसर कर बैठी कह रही थीं, ‘अब यही दिन देखना रह गया था. जिस घर में अंडा, प्याज और लहसुन तक नहीं आया चिकन आ रहा है.’
‘मां, हम लोग तो खाते नहीं. बस, दोस्तों के लिए मंगवाया था. मैं ने घर पर तो नहीं बनवाया,’ नीरज ने सफाई देते हुए कहा.
मेरा चेहरा पीला पड़ गया था.
‘तुम लोग भी खा लो, रोका किस ने है…मैं क्या जानती नहीं कि तुम लोग बाहर जा कर क्या खाते हो…और अब यह घर पर भी….’ मां सुबक पड़ीं, ‘मेरा सारा घर अपवित्र कर दिया तू ने. मैं अब इस घर में एक पल भी नहीं रहूंगी.’
‘नहीं, मां, तुम क्यों जाती हो, हम ही चले जाते हैं. हमारी तो सारी खुशियां ही छीनी जा रही हैं. मैं ही अलग घर ले कर रह लेता हूं, कहते हुए नीरज बाहर चले गए.
सुबह नाश्ते पर बैठते ही नीरज ने कहा, ‘मां, कल रात के लिए मैं माफी मांगता हूं किंतु मैं ने अलग रहने का फैसला ले लिया है.’
‘नीरज,’ मैं चौंक कर बोली, ‘आप क्या कह रहे हो, आप को पता भी है.’
‘तुम बीच में मत बोलो, रितु,’ वह एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठे. मैं सहम गई. वह बोलते रहे, ‘अच्छा कमाताखाता हूं, अलग रह सकता हूं… अब यही एक रास्ता रह गया है. आप को हमारे देर से आने में परेशानी होती है. यह करो वह न करो, कितने समझौते करने पड़ रहे हैं. मेरा अपना कोई जीवन ही नहीं रहा.’
‘ठीक है, बेटा, जैसा तुम को अच्छा लगे, करो. हम ने तो अपना जीवन जैसेतैसे काट दिया. किंतु इस घर के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता. मन के संस्कार हमें संयत रखते हैं. खेद है, तुम में ठीक से वह संस्कार नहीं पड़ सके. तुम चाहते हो कि तुम्हारे मिलनेजुलने वाले यहां आएं, हुड़दंग मचाएं, खुल कर शराब पीएं और जुआ खेलें…इस घर को मौजमस्ती का अड्डा बनाएं…’ बाबूजी पहली बार तेज आवाज में अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. कहतेकहते बाबूजी की आंखें भर आईं.
मेरे बहुत समझाने के बाद भी नीरज ने अलग घर ले कर ही दम लिया. 2-3 महीने तो घर को व्यवस्थित करने में लग गए पर जब घर का बजट हिलने लगा तो पास के एक स्कूल में मुझे भी नौकरी करनी पड़ी. मुन्ने की आया और के्रच के खर्चे बढ़ गए. असुविधाएं, अभाव और आधीअधूरी आशाओं के सामने प्यार ने दम तोड़ दिया. कभी सोचा भी न था कि मुझ पर दुनिया की जिम्मेदारियां पड़ेंगी. मुन्ने के किसी बात पर मचलते ही मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.
एक दिन सुबह कपड़े धोतेधोते पानी आना बंद हो गया. मैं ने उठ कर नीरज से कहा कि सामने के हैंडपंप से पानी ला दो.
‘‘सौरी, यह मुझ से नहीं होगा,’’ उन्होंने साफ मना कर दिया.
‘‘तो फिर वाशिंग मशीन ला दो, कुछ काम तो आसान हो जाएगा,’’ मैं ने उठते हुए कहा.
‘‘मैं कहां से ला दूं,’’ बड़बड़ाते हुए नीरज बोले, ‘‘तुम भी तो कमाती हो. खुद ही खरीद लो.’’
‘‘मेरी तनख्वाह क्या तुम से छिपी है. सबकुछ तो तुम्हारे सामने है. जितना कमाती हूं उस का आधा तो क्रेच और आया में चला जाता है. आनेजाने और खुद का खर्च निकाल कर बड़ी मुश्किल से हजार भी नहीं बच पाता.’’
‘‘कमाल है,’’ नीरज नरम होते हुए बोले, ‘‘तो फिर यह सब पहले मां के घर पर कैसे चलता था.’’
‘‘वहां काम करने वाली आया थी. बाबूजी का सहारा था. कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था और उन सब से ऊपर मांजी की सुलझी हुई नजर. वह घर जो सुचारु रूप से चल रहा था उस के पीछे सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. पर यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा क्योंकि सहज से प्राप्त हुई वस्तु का कोई मोल नहीं होता,’’ मैं ने झट से बालटी उठाई और पानी लेने चली गई.
पानी ले कर वापस आई तो नीरज वहीं गुमसुम बैठे थे. उन के चेहरे के बदलते रंग को देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे.’’
‘‘चलो, मां से मिल आते हैं,’’ उन की आंखें नम हो गईं.
अभावों में पलीबढ़ी जिंदगी ने वे सारे सुख भुला दिए जिन के लिए नीरज ने घर छोड़ा था. चिकनआमलेट तो छोड़ उन का दोस्तों के साथ आनाजाना भी कम होता गया. मांजी कभीकभी मिलने चली आतीं और शाम तक लौट जातीं. बस, बंटी हुई जिंदगी जी रही थी मैं.
एक दिन बाबूजी का फोन आया. बोले, ‘‘2 दिन के लिए लंदन वाले चाचा आए हैं. खाना रखा है तुम्हारी मां ने….ठीक समय से पहुंच जाना.’’
‘‘ठीक है, बाबूजी, मैं पूरी कोशिश करूंगी,’’ मैं ने औपचारिकतावश कह दिया.
‘‘कोशिश,’’ वे थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘क्यों, कहीं जाना है क्या?’’
‘‘नहीं, बाबूजी,’’ मैं सुबक पड़ी. मेरे सारे शब्द बर्फ बन कर गले में अटक गए. मैं ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘हफ्ते भर से इन की तबीयत ठीक नहीं है. दस्त और उलटियां लगी हुई हैं. डाक्टर की दवा से भी आराम नहीं आया.’’
‘‘अरे, तो हमें फोन क्यों नहीं किया?’’
‘‘मना किया था इन्होंने,’’ मैं बोली.
‘‘नालायक,’’ बाबूजी भारीभरकम आवाज में बोले, ‘‘चिंता न करो, मैं अभी आता हूं.’’
थोड़ी देर में मां और बाबूजी भी पहुंच गए. नीरज एक तरफ सिमट कर पड़े हुए थे. मां को देखते ही उन की रुलाई फूट पड़ी. बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अरे, किसी से कहलवा दिया होता. देख तो क्या हालत बना रखी है. थोड़ा सा भी उलटासीधा खा लेता है तो हजम नहीं होता.’’
बाबूजी भी पास ही बैठे रहे. मैं चाय बना कर ले आई.
मांजी बोलीं, ‘‘चल, घर चल, अब बहुत हो चुका. अब तेरी एक न सुनूंगी. परीक्षा की घडि़यां तो जीवन में आती ही रहती हैं. चंचल मन इधरउधर भटक ही जाता है. कोई इस तरह मां को छोड़ कर भी चला आता है क्या. चल, बहुत मनमानी कर ली.’’
वात्सल्यमयी मां के स्वर सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मांजी मेरी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इस तरह की जिद बहू करती तो समझ में आता. उस ने तो स्वयं को घर के वातावरण के अनुसार ढाल लिया था पर तुझ से तो ऐसी उम्मीद ही नहीं थी. तुझ से तो मेरी बहू ही अच्छी है.’’
‘‘मां, मुझे माफ कर दो,’’ नीरज रो पड़े. उन का रोना मां और बाबूजी दोनों को रुला गया.
‘‘मैं ने दवाई के लिए नीरज को सहारा दे कर उठाया तो बड़े ही आत्मविश्वास से बोले, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. मां आ गई हैं, अब मैं जल्दी ही अच्छा हो जाऊंगा.’’
मैं मुन्ने को उठा कर सामान समेटने में लग गई.