विटामिन-पी: संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

संजनाटेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

परख : भाग 2- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘तुम ने पूछा नहीं कि गौरिका यहां से क्यों चली गई?’’

‘‘पूछा था, पर वह तो आप को ही बुराभला कहने लगी, कहती है कि आप के कठोर अनुशासन में उस का दम घुटने लगा था.’’

‘‘स्वयं को सही साबित करने के लिए कुछ तो कहेगी ही. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगा. आगे तुम्हें जो उचित लगे करना. हम बीच में नहीं पड़ेंगे,’’ श्याम बोले.

‘‘ऐसी क्या बात है भैया? मेरा दिल बैठा जा रहा है,’’ श्यामला घबरा उठी.

‘‘इस तरह कमजोर पड़ने की जरूरत नहीं है. तुम्हें युक्ति से काम लेना पड़ेगा.’’

‘‘पर बात क्या है भैया?’’

‘‘गौरिका यहां आई तो 2-3 सप्ताह तो सब ठीक रहा, पर फिर उस के ढेरों मित्र आने लगे. रात के 12-12, 1-1 बजे तक पार्टियां चलतीं, कानफोड़ू संगीत बजता. पहले तो हम ने कुछ नहीं कहा, पर जब पड़ोसी भी शिकायत करने लगे तो कहना पड़ा कि हमारी भी कोई मर्यादा है,’’ श्याम ने विस्तार से बताया.

‘‘आप से क्या छिपाना श्यामला दीदी. मैं ने स्वयं गौरिका के मित्रों को नशीली दवा तथा शराब लेते देखा है. इन युवाओं के व्यवहार के संबंध में क्या कहूं… उन्हें खुलेआम शालीनता की सभी सीमाएं लांघते देखा जा सकता था,’’ नीता ने भी अपनी बात कह डाली.

श्यामला को कुछ क्षण ऐसा लगा जैसे हवा भी थम गई हो. श्याम बाबू और नीता ने उन के चेहरे का रंग उड़ते और बदलते देखा.

‘‘श्यामला क्या हुआ? इस तरह चुप क्यों हो? कुछ तो कहो,’’ श्याम घबरा गए.

‘‘बोलूंगी भैया, अवश्य बोलूंगी, पर सब से पहले तो आप दोनों यह भलीभांति सम झ लीजिए कि मु झे गौरिका पर अटूट विश्वास है. आप को अपना सम झ कर उसे आप के साथ रहने को मनाया था. वह तो किसी संबंधी के साथ रहना ही नहीं चाहती थी,’’ श्यामला हर शब्द चबाचबा कर बोलीं.

‘‘क्या कह रही हो दीदी? गौरिका हमारी बेटी जैसी है. हम क्या उस पर  झूठे आरोप लगा रहे हैं?’’ नीता ने कहा.

‘‘बेटी जैसी है न पर बेटी तो नहीं है. इसीलिए तो आप लोग जलते हैं उस से. है कोई लड़की मेरी गौरिका जैसी पूरी बिरादरी में? हर कक्षा में सर्वप्रथम रही है वह. आज इतनी सी आयु में इतनी ऊंची नौकरी कर रही है, इसीलिए सब बौखला गए हैं,’’ और फिर श्यामला रो पड़ीं.

श्याम बाबू सन्न रह गए. उन की छोटी बहन उन पर ऐसा आरोप लगाएगी,

उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था.

‘‘नीता, जाओ चायनाश्ते का प्रबंध करो. अब इस संबंध में हम कोई बात नहीं करेंगे,’’ किसी प्रकार श्याम के मुंह से निकला.

‘‘नहीं खूब बात कीजिए. मेरी गौरिका को बदनाम किए बिना आप को चैन नहीं मिलेगा. आप ने हमारी बहुत सहायता की है. पूरा हिसाबकिताब कर लीजिए हम पाईपाई चुका देंगे. गौरिका का विवाह इतनी धूमधाम से करूंगी कि सब की आंखें खुली की खुली रह जाएंगी,’’ श्यामला अब भी स्वयं को शांत नहीं कर पा रही थीं.

‘‘चलो, मान लिया तुम्हारी गौरिका जैसी कोई नहीं है. हमारी शुभकामनाएं हैं कि वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करे. तुम्हारा बड़ा भाई हूं. अब क्षमा भी कर दो,’’ श्याम बाबू ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की तो श्यामला ने किसी प्रकार स्वयं को संभाला.

चायनाश्ते और इधरउधर की बातों के बीच कब शाम हो गई और गौरिका श्यामला को लेने आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘अब क्या होगा श्याम? असली बात तो श्यामला दीदी को बताई ही नहीं,’’ श्यामला के जाते ही नीता ने चिंता जताई.

‘‘क्यों, अभी कुछ और सुनना बाकी है क्या? गांधीजी की शिक्षा का पालन करो. बुरा न देखो, न सुनो, न बोलो. हम कुछ कहें भी तो वह कब सुनने वाली है. उसे पुत्री मोह के आगे कुछ नहीं सू झेगा,’’ श्याम ने पत्नी को दोटूक शब्दों में बताया.

‘‘मिल आईं अपने भाईभाभी से?’’ घर पहुंचते ही गौरिका ने प्रश्न किया.

‘‘मिल आई और खरीखरी भी सुना आई. वे होते कौन हैं मेरी बेटी पर आरोप लगाने वाले?’’ श्यामला गुस्से से भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं कहती तो थी कि वे हम से ईर्ष्या करते हैं,’’ गौरिका को मां श्यामला की बात सुन कर बड़ी खुशी हुई.

‘‘चिंता न कर बेटी. ऐसा जवाब दे कर आई हूं कि भविष्य में कभी तेरी बुराई करने का साहस नहीं जुटा सकेंगे.’’

‘‘ऐसा क्या कह आईं आप?’’

‘‘जो मन में आया सुना दिया. भैया तो लगे हाथ जोड़ कर माफी मांगने. मैं तो यह सोच कर चुप रह जाती थी कि बड़े भाई हैं और कई बार सहायता करते रहे हैं पर हर बात की एक सीमा होती है.’’

‘‘मम्मी, अब गुस्सा थूक भी दो और तैयार हो जाओ. आज डिनर बाहर ही करेंगे,’’ गौरिका की खुशी उस के चेहरे पर साफ  झलक रही थी.

‘‘अब तो बस एक ही इच्छा है कि तेरे लिए ऐसा घरवर ढूंढ़ूं कि सभी मित्रों, संबंधियों की आंखें चौंधियां जाएं.’’

‘‘आप ऐसा कुछ नहीं करेंगी मां. अपने जीवनसाथी का चुनाव मैं स्वयं करूंगी और वह भी पूरी तरह जांचनेपरखने के बाद.’’

‘‘क्या कह रही है? कहीं किसी को पसंद तो नहीं कर लिया?’’ मन की बात तुरंत ही शब्दों में ढल गई.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है. जांचनेपरखने में समय लगता है. अभी तो खोज शुरू हुई है,’’ गौरिका ने हंसी में बात टालनी चाही पर श्यामला का दिल दहल गया.

गौरिका डिनर के लिए उन्हें एक क्लब में ले गई. वहां उपस्थित युवकयुवतियों से वह ऐसे घुलमिल रही थी मानो उन्हें सदियों से जानती हो. गौरिका उन्हें जूस का गिलास थमा कर अपने मित्रों के साथ व्यस्त हो गई, जो तेज संगीत की धुन पर एकदूसरे में डूबे थिरक रहे थे.

खापी कर घर लौटते रात के 12 बज रहे

थे. तभी कार में अजीब गंध ने श्यामला को

चौंका दिया, ‘‘यह क्या है गौरिका? तुम ने पी रखी है क्या?’’

‘‘उफ मां, अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर निकलो. उच्चवर्ग में साथ देने के लिए थोड़ीबहुत पीने को बुरा नहीं मानते… यह तो आधुनिकता की निशानी है.’’

‘‘भाड़ में जाए ऐसी आधुनिकता… हमारे समाज में तो लड़कों का भी पीना अच्छा नहीं सम झा जाता लड़कियों की बात तो दूर रही.’’

‘‘आप तो श्याम मामा और मामीजी की तरह बात करने लगीं. थोड़ी सी पीने से कोई शराबी नहीं हो जाता. अगली बार मैं आप को क्लब के पब में ले जाऊंगी. वहां देखिएगा कितनी लड़कियां बैठी रहती हैं.’’

‘‘मु झे नहीं देखना कुछ भी. अच्छा हुआ कि तुम्हारा असली चेहरा सामने आ गया. मैं भी कितनी मूर्ख हूं. तुम्हारी बातों में आ कर मैं श्याम भैया से भी  झगड़ा कर बैठी,’’ और श्यामला रो पड़ीं.

अगले कुछ दिन श्यामला ने अपने अकेलेपन से जू झते हुए बिताए. वे गौरिका का एक नया ही रूप देख रही थीं. उस के काम पर जाने के बाद नभेश से बात कर के वे मन हलका कर लेती थीं.

सप्ताहांत में गौरिका अकसर आधी रात को घर लौटती. वे कुछ कहतीं

तो उस का यही घिसापिटा उत्तर होता कि वह उन की तरह चौकेचूल्हे में अपना जीवन नहीं गंवा सकती.

असमंजस: भाग 1- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

शहनाई की सुमधुर ध्वनियां, बैंडबाजों की आवाजें, चारों तरफ खुशनुमा माहौल. आज आस्था की शादी थी. आशा और निमित की इकलौती बेटी थी वह. आईएएस बन चुकी आस्था अपने नए जीवन में कदम रखने जा रही थी. सजतेसंवरते उसे कई बातें याद आ रही थीं.

वह यादों की किताब के पन्ने पलटती जा रही थी.

उस का 21वां जन्मदिन था.

‘बस भी करो पापा…और मां, तुम भी मिल गईं पापा के साथ मजाक में. अब यदि ज्यादा मजाक किया तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी,’ आस्था नाराज हो कर बोली.

‘अरे आशु, हम तो मजाक कर रहे थे बेटा. वैसे भी अब 3-4 साल बाद तेरे हाथ पीले होते ही घर तो छोड़ना ही है तुझे.’

‘मुझे अभी आईएएस की परीक्षा देनी है. अपने पांवों पर खड़ा होना है, सपने पूरे करने हैं. और आप हैं कि जबतब मुझे याद दिला देते हैं कि मुझे शादी करनी है. इस तरह कैसे तैयारी कर पाऊंगी.’

आस्था रोंआसी हो गई और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर सोफे पर बैठ गई. मां और पापा उसे रुलाना नहीं चाहते थे. इसलिए चुप हो गए और उस के जन्मदिन की तैयारियों में लग गए. एक बार तो माहौल एकदम खामोश हो गया कि तभी दादी पूजा की घंटी बजाते हुए आईं और आस्था से कहा, ‘आशु, जन्मदिन मुबारक हो. जाओ, मंदिर में दीया जला लो.’

‘मां, दादी को समझाओ न. मैं मूर्तिपूजा नहीं करती तो फिर क्यों हर जन्मदिन पर ये दीया जलाने की जिद करती हैं.’

‘आस्था, तू आंख की अंधी और नाम नयनसुख जैसी है, नाम आस्था और किसी भी चीज में आस्था नहीं. न ईश्वर में, न रिश्तों में, न परंपराओं…’

दादी की बात को बीच में ही काट कर उस ने अपनी चिरपरिचित बात कह दी, ‘मुझे पहले अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान देने दो. मेरे लिए यही सबकुछ है. आप के रीतिरिवाज सब बेमानी हैं.’

‘लेकिन आशु, सिर्फ कैरियर तो सबकुछ नहीं होता. न जाने भगवान तेरी नास्तिकता कब खत्म होगी.’

तभी दरवाजे पर घंटी बजी. आस्था खुशी में उछलते हुए गई, ‘जरूर रंजना मैडम का खत आया होगा,’ उस ने उत्साह से दरवाजा खोला. आने वाला विवान था, ‘ओफ, तुम हो,’ हताशा के स्वर में उस ने कहा. वह यह भी नहीं देख पाई कि उस के हाथों में उस के पसंदीदा जूही के फूलों का एक बुके था.

‘आस्था, हैप्पी बर्थडे टू यू,’ विवान ने कहा.

‘ओह, थैंक्स, विवान,’ बुके लेते हुए उस ने कहा, ‘तुम्हें दुख तो होगा लेकिन मैं अपनी सब से फेवरेट टीचर के खत का इंतजार कर रही थी लेकिन तुम आ गए. खैर, थैंक्स फौर कमिंग.’

आस्था को ज्यादा दोस्त पसंद नहीं थे. एक विवान ही था जिस से बचपन से उस की दोस्ती थी. उस का कारण भी शायद विवान का सौम्य, मृदु स्वभाव था. विवान के परिजनों के भी आस्था के परिवार से मधुर संबंध थे. दोनों की दोस्ती के कारण कई बार परिवार वाले उन को रिश्ते में बांधने के बारे में सोच चुके थे किंतु आस्था शादी के नाम तक से चिढ़ती थी. उस के लिए शादी औरतों की जिंदगी की सब से बड़ी बेड़ी थी जिस में वह कभी नहीं बंधना चाहती थी.

इस सोच को उस की रंजना मैडम के विचारों ने और हवा दी थी. वे उस की हाईस्कूल की प्रधानाध्यापिका होने के अलावा नामी समाजसेविका भी थीं. जब आस्था हाईस्कूल में गई तो रंजना मैडम से पहली ही नजर में प्रभावित हो गई थी. 45 की उम्र में वे 30 की प्रतीत होती थीं. चुस्त, सचेत और बेहद सक्रिय. हर कार्य को करने की उन की शैली किसी को भी प्रभावित कर देती.

आस्था हमेशा से ऐसी ही महिला के रूप में स्वयं को देखती थी. उसे तो जैसे अपने जीवन के लिए दिशानिर्देशक मिल गया था. रंजना मैडम को भी आस्था विशेष प्रिय थी क्योंकि वह अपनी कक्षा में अव्वल तो थी ही, एक अच्छी वक्ता और चित्रकार भी थी. रंजना मैडम की भी रुचि वक्तव्य देने और चित्रकला में थी.

आस्था रंजना मैडम में अपना भविष्य तो रंजना मैडम आस्था में अपना अतीत देखती थीं. जबतब आस्था रंजना मैडम से भावी कैरियर के संबंध में राय लेती, तो उन का सदैव एक ही जवाब होता, ‘यदि कैरियर बनाना है तो शादीब्याह जैसे विचार अपने मस्तिष्क के आसपास भी न आने देना. तुम जिस समाज में हो वहां एक लड़की की जिंदगी का अंतिम सत्य विवाह और बच्चों की परवरिश को माना जाता है. इसलिए घरपरिवार, रिश्तेनातेदार, अड़ोसीपड़ोसी किसी लड़की या औरत से उस के कैरियर के बारे में कम और शादी के बारे में ज्यादा बात करते हैं. कोई नहीं पूछता कि वह खुश है या नहीं, वह अपने सपने पूरे कर रही है या नहीं, वह जी रही है या नहीं. पूछते हैं तो बस इतना कि उस ने समय पर शादी की, बच्चे पैदा किए, फिर बच्चों की शादी की, फिर उन के बच्चों को पाला वगैरहवगैरह. यदि अपना कैरियर बनाना है तो शादीब्याह के जंजाल में मत फंसना. चाहे दुनिया कुछ भी कहे, अपने अस्तित्व को, अपने व्यक्तित्व को किसी भी रिश्ते की बलि न चढ़ने देना.’

आस्था को भी लगता कि रंजना मैडम जो कहती हैं, सही कहती हैं. आखिर क्या जिंदगी है उस की अपनी मां, दादी, नानी, बूआ या मौसी की. हर कोई तो अपने पति के नाम से पहचानी जाती है. उस का यकीन रंजना मैडम की बातों में गहराता गया. उसे लगता कि शादी किसी भी औरत के आत्मिक विकास का अंतिम चरण है क्योंकि शादी के बाद विकास के सारे द्वार बंद हो जाते हैं.

रंजना मैडम ने भी शादी नहीं की थी और बेहद उम्दा तरीके से उन्होंने  अपना कैरियर संभाला था. वे शहर के सब से अच्छे स्कूल की प्राचार्या होने के साथसाथ जानीमानी समाजसेविका और चित्रकार भी थीं. उन के चित्रों की प्रदर्शनी बड़ेबड़े शहरों में होती थी.

आस्था को मैडम की सक्रिय जिंदगी सदैव प्रेरित करती थी. यही कारण था कि रंजना मैडम के दिल्ली में शिफ्ट हो जाने के बाद भी आस्था ने उन से संपर्क बनाए रखा. कालेज में दाखिला लेने के बाद भी आस्था पर रंजना का प्रभाव कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही.

हमेशा की तरह आज भी उन का खत आया और आस्था खुशी से झूम उठी. आस्था ने खत खोला, वही शब्द थे जो होने थे :

‘प्रिय मित्र, (रंजना मैडम ने हमेशा अपने विद्यार्थियों को अपना समवयस्क माना था. बेटा, बेटी कह कर संबोधित करना उन की आदत में नहीं था.)

‘जन्मदिन मुबारक हो.

‘आज तुम्हारा 21वां जन्मदिन है जो तुम अपने परिवार के साथ मना रही हो और 5वां ऐसा जन्मदिन जब मैं तुम्हें बधाई दे रही हूं. इस साल तुम ने अपना ग्रेजुएशन भी कर लिया है. निश्चित ही, तुम्हारे मातापिता तुम्हारी शादी के बारे में चिंतित होंगे और शायद साल, दो साल में तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ने की प्रक्रिया भी शुरू कर देंगे. यदि एक मूक भेड़ की भांति तुम उन के नक्शेकदम पर चलो तो.

छोटी सी भूल: क्या हुआ था जिज्ञासा के साथ

पीएसआई देवांश पाटिल की पुणे में नईनई नियुक्ति हुई थी. अभी पिछले महीने ही एक रेव पार्टी में उन्होंने 269 युवकयुवतियों को पकड़ा था. गणेशोत्सव पर डीजे बजाने की पाबंदी थी. कई प्रतियोगी परीक्षा केंद्रों में वे मार्गदर्शन करते थे. युवा पीएसआई देवांश का वीडियो यूट्यूब पर देखते थे. उन के सैमिनार में युवाओं की भीड़ लग जाती थी. कैरियर के साथसाथ पाटिल के परिवार वाले उन की शादी की तैयारी भी कर रहे थे.

अगले हफ्ते देवांश परिवार के साथ एक जगह लड़की देखने जाने वाले थे. देवांश के हां कहते ही सगाई की रस्म पूरी हो जानी थी. पटवर्धन की बड़ी बेटी जिज्ञासा को पाटिल परिवार ने पसंद किया था. जिज्ञासा 4 साल से पुणे में होस्टल मे रह कर एमबीए की पढ़ाई कर रही थी. पटवर्धन गांव के ही एक कालेज में प्राध्यापक थे. इस तरह से दोनों ही प्रतिष्ठित और संपन्न परिवारों से थे. लड़कालड़की दोनों उच्चशिक्षित होने से एकदूसरे के लिए बेहतर थे, लड़की वालों की तरफ से एक तरह से हां ही थी, सिर्फ देवांश का हामी भरना बाकी था.

देवांश के मामा ही यह रिश्ता खोज कर लाए थे.

‘‘इतनी शिक्षित लड़की किसी अन्य परिचित खानदान में नहीं मिलेगी. जैसा घरपरिवार हमें चाहिए, बिलकुल वैसे ही लोग हैं,’’ मामा ने देवांश की मां को बताया था. जिज्ञासा की भी उन्होंने काफी तारीफ की थी.

बस, तभी से देवांश जिज्ञासा को देखने के लिए बेचैन हुआ जा रहा था.

देखनेदिखाने की रस्म के लिए निर्धारित समय पर पाटिल परिवार पटवर्धन परिवार के घर पहुंच गया. बड़े उत्साह से मेहमानों का स्वागत किया गया. लड़कीदिखाई की रस्म शुरू हुई. जिज्ञासा दुपट्टा संभाले हाथों में चाय की ट्रे लिए हौल में दाखिल हुई, अपने दिल की धड़कनों को थामे देवांश की नजरें ज्यों ही जिज्ञासा पर पड़ीं उस का चेहरा उतर गया. चाय का कप थमाते हुए जिज्ञासा की नजर भी जब देवांश की नजर से टकराई, तो वह भी कांप उठी और घबराहट में अपना चेहरा छिपाने लगी.

दरअसल, पिछले दिनों पुणे की रेव पार्टी में देवांश ने जिन लोगों को पकड़ा था उन में से एक जिज्ञासा भी थी, लेकिन किसी जानेमाने व्यक्ति का फोन आने पर उसे और उस की दोस्त को छोड़ दिया गया था.

‘‘बेटा, हमारी जिज्ञासा पढ़ीलिखी, सर्वगुणसंपन्न है. आप को कुछ पूछना है तो पूछ सकते हो?’’

‘‘अरे पटवर्धन, हमारे सामने ये दोनों क्या बात करेंगे? अकेले में दोनों को बात करने दो,’’ देवांश के मामा ने कहा.

‘‘हां, हां, जरूर. जिज्ञासा, देवांश बाबू को कमरे में ले कर जाओ.’’

जिज्ञासा देवांश के सामने अपनी आंखें नहीं उठा पा रही थी. वह चुपचाप अपने कमरे की तरफ चल पड़ी. वह काफी डरी हुई थी और उसे खुद पर शर्म आ रही थी. उधर देवांश के मन में सवालों की खलबली मची हुई थी, सो वह जिज्ञासा के पीछेपीछे चल पड़ा. जैसे ही देवांश कमरे के अंदर आया, जिज्ञासा ने जल्दी से अंदर से दरवाजा बंद किया और दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘मुझे ऐसा लगता है कि हमारे बीच बोलने के लिए कुछ खास नहीं है मिस जिज्ञासा. बिना वजह एकदूसरे का समय बरबाद कर के कोई फायदा नहीं है.’’

देवांश जिज्ञासा से क्यों पूछना तो बहुतकुछ चाहता था पर न जाने वह इतना ही बोला. देवांश सोच रहा था कि जिज्ञासा अपनी सफाई में उस से कुछ कहेगी, लेकिन जिज्ञासा सिर नीचे किए चुपचाप खड़ी रही. देवांश से ज्यादा देर तक कमरे में रुका नहीं गया और वह दरवाजा खोल कर बाहर आ गया.

हौल में आते ही देवांश की हां सुनने के लिए सभी लोग आतुर बैठे थे.

‘‘आगे क्या करना है देवांश?’’ देवांश की मां ने पूछा.

‘‘मां, हम घर जा कर बात करेंगे, अभी हमें यहां से चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, कोई जल्दबाजी नहीं है. शांति से सोचविचार कर निर्णय लें. हमें आप के फोन का इंतजार रहेगा,’’ पटवर्धन ने कहा.

देवांश के जवाब से सभी लोगों को निराशा हुई, उन्हें पूरी उम्मीद थी कि देवांश जिज्ञासा को देखते ही हां कर देगा.

वहां जिज्ञासा देवांश की ना के बाद, उस दिन को कोस रही थी जब उस ने उस रेव पार्टी में जाने की भूल की थी. लेकिन अब यदि देवांश के सामने सारी बात साफ नहीं करती तो जिंदगी की दूसरी भूल करेगी. आखिरकार जिज्ञासा ने स्वयं देवांश से मिलने की योजना बनाई और हिम्मत कर के एक दिन उस के औफिस पुलिस स्टेशन पहुंच गई.

पुलिस स्टेशन में उसे बहुत अटपटा लग रहा था लेकिन देवांश अपने केबिन में कुरसी पर बैठा फाइलें पलटते  नजर आ गया था. जिज्ञासा घबराते हुए उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

देवांश भी एक बारी उसे यों अपने सामने खड़ा देख अचकचा गया.

‘‘मुझे आप से कुछ बात करनी है,’’ जिज्ञासा ने हिम्मत बटोरते हुए कहा.

‘‘बोलो,’’ देवांश ने उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा.

जिज्ञासा समझ नहीं पा रही थी कि केबिन में बैठे और लोगों के सामने कैसे बात करे. 2-3 मिनट तक चुपचाप खड़ी रही. देवांश भी कुछ अटपटा सा महसूस कर रहा था.

‘‘हम बाहर बात करें क्या? प्लीज.’’

‘‘ठीक है,’’ देवांश ने भी बाहर जाना मुनासिब समझ.

दोनों बाहर लौन में आ गए.

‘‘आप न जाने मेरे बारे में क्याक्या सोच रहे होंगे, लेकिन यकीन मानिए मैं ने कोई गलत काम नहीं किया है. मैं 4 साल से पुणे में पढ़ाई कर रही हूं. मेरी रूममेट अकसर रेव पार्टी में जाती है. मैं भी जानना चाहती थी कि आखिर इन पार्टियों में होता क्या है? कैसी होती है रेव पार्टी? इसलिए उस दिन उस के साथ चली गई थी, लेकिन उस के पहले तक मैं ने कभी किसी भी तरह की ड्रिंक नहीं की. आप चाहें तो मेरा ब्लड टैस्ट करा सकते हैं.

आप तो पुलिस डिपार्टमैंट में हैं, मेरे बारे में सबकुछ जांच कर सकते हैं. मुझ से गलती हुई है, मैं मानती हूं, लेकिन मैं बुरी लड़की नहीं हूं, इतना ही मुझे कहना था. मेरे परिवार को आप ने इस बारे में कुछ नहीं बताया, इस के लिए मैं आप की बहुत आभारी हूं.’’

जिज्ञासा को उम्मीद थी की देवांश उसे रुकने के लिए कहेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जिज्ञासा भारी मन के साथ घर लौट आई. उस के परिवार वाले उस से देवांश के इनकार का कारण पूछते रहे, लेकिन वह भी अनजान बनी रही. परिवार वालों को इतना अच्छा रिश्ता खो देने का बड़ा अफसोस था.

जिज्ञासा का घर में मन नहीं लग रहा था, इसलिए वह वापस होस्टल लौट गई. एक दिन होस्टल में सारी बातें याद कर सिसकसिसक कर रो रही थी. देवांश उसे एक नजर में भा गया था. अपनी एक भूल के कारण उस ने उसे खो दिया था. उस की यह हालत देख कर उस की दूसरी रूममेट तनया से रहा नहीं गया. उस ने जिज्ञासा से कहा कि वह देवांश से मिल कर पूरी बात साफ करने की कोशिश करेगी.

अगले ही दिन तनया देवांश के औफिस पुलिस स्टेशन गई.

‘‘नमस्कार सर, मैं जिज्ञासा की फ्रैंड हूं. क्या मैं आप से दो मिनट बात कर सकती हूं.’’

‘‘हां, कहिए.’’

‘‘ सर, मैं घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगी. बस, इतना पूछना चाहती हूं  कि आप ने जिज्ञासा से शादी के लिए इनकार क्यों किया? मेरा कहना बदतमीजी हो सकता है, लेकिन यह जरूरी है, क्योंकि आप का फैसला गलत है. दोनों परिवार के बड़े लोग यह संबंध जोड़ना चाहते हैं. रही बात जिज्ञासा की रेव पार्टी में जाने की, तो वह उन लड़कियों जैसी नहीं है. हमारी एक रूममेट हर दिन किसी न किसी पार्टी में जाती है. जिज्ञासा एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की है. उस ने यों ही सोचा कि एक बार जा कर देखना चाहिए कि आखिर रेव पार्टी में होता क्या है, जिस के लिए वह आज तक पछता रही है.

‘‘हमारी गलती की वजह से आप ने उस से शादी के लिए ना कर दिया, उस से वह बहुत दुखी है. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे हैं. वह दिल ही दिल में आप को पसंद करने लगी है. मैं विश्वास के साथ कहती हूं कि एक बहू के रूप में वह आप के परिवार को कभी निराश नहीं करेगी. एक बार फिर से आप ठंडे दिमाग से सोचविचार करें.’’

तनया ने स्पष्ट रूप से अपनी बात कही थी, जो पुलिस स्टेशन में आसपास बैठे सभी लोग सुन रहे थे. तनया के जाने के कुछ समय बाद सीनियर औफिसर देव कुमार देवांश के सामने आ कर बैठ गए. देवांश उन की बहुत इज्जत करता था.

‘‘पूरा मामला क्या है?’’ देव कुमार ने गंभीरता से देवांश से पूछा.

‘‘कुछ नहीं सर,’’ देवांश से कुछ कहते नहीं बना.

‘‘मुझे थोड़ीबहुत जानकारी है. तुम्हारे मांपिता ने मुझ से इस बारे में फोन पर बात की थी. सब से कोई न कोई गलती होती है. इस के अलावा तुम्हारे परिवार ने लड़की के बारे में हर जानकारी ली है. बेवजह तुम मामले को खींच रहे हो. ऐसा मुझे लग रहा है.’’

मेरी बात मानो तो बात की तह तक जाओ. कुछ दिनों पहले वह लड़की तुम से मिलने आई थी, तब मैं ने उसे देखा था. मेरी अनुभवी आंखें कहती हैं कि वह लड़की वाकई शरीफ है. उस से जो कुछ भी हुआ, अनजाने में हुआ.

देव कुमार की बातें सुन देवांश भी अब जिज्ञासा के बारे में एक बार फिर सोचने पर विवश हो गया.

देवांश ने एक बार फिर से जिज्ञासा के बारे में कई लोगों से पूछताछ की, तब जा कर उसे यकीन हुआ कि जिज्ञासा एक संस्कारी लड़की है.

दूसरे दिन वह जिज्ञासा के होस्टल की कैंटीन में जा कर बैठ गया. इत्तफाक की बात थी, जिज्ञासा भी वहीं टेबल पर सिर रख कर बैठी थी. सिर में दर्द होने के कारण वह क्लास अटैंड कर यहां आ गई थी. तनया उसे चाय पीने के लिए फोर्स कर रही थी.

‘‘मुझे नहीं पीनी चाय. मुझे कुछ देर अकेले बैठने दो.’’

देवांश ने देखा, तनया जिज्ञासा के पास से उठ कर किसी और लड़की से बातचीत में मशगूल थी. जिज्ञासा के आसपास कोई नहीं था.

‘‘भाई, 2 चाय देना,’’ कहते हुए देवांश जिज्ञासा की टेबल पर जा कर बैठ गया.

देवांश की आवाज सुन कर जिज्ञासा ने अपना सिर उठाया. वह हैरान रह गई, सकपका कर खड़ी हो गई.

‘‘अरेअरे, खड़ी क्यों हो गई, बैठो. तुम्हीं से बात करने आया हूं.’’

‘‘मैं…मैं…वो,’’ जिज्ञासा को समझ नहीं आया कि क्या कहे.

‘‘जिज्ञासा, मैं स्पष्ट बात करता हूं. तुम से झूठ नहीं कहूंगा, तुम्हारी भोली सूरत, गहरी आंखें मुझे पहली नजर में भा गई थीं. लेकिन क्या करता, वह रेव पार्टी…

‘‘खैर, छोड़ो अब इस बात को. अब जो मैं तुम से बात कहने जा रहा हूं उसे ध्यान से सुनो.

‘‘पहली बात कि मैं एक पुलिस अफसर हूं, इसलिए रोने वाली लड़की मेरी पत्नी नहीं हो सकती है. दूसरी बात, मुझे दोनों वक्त घर का बना खाना चाहिए. ऐसे में कभी भी टिफिन बनाना पड़ सकता है. तीसरी बात, मुझे अपनी पत्नी साड़ी में पसंद है. चौथी बात, वह मेरे मांपिता का मन कभी नहीं दुखाएगी. 5वीं बात, मेरे जीवन में देशसेवा पहले है, इस के बाद परिवार. क्या तुम्हें यह सबकुछ स्वीकार्य है?’’

खुशी के कारण जिज्ञासा को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या बोले. वह शरमा गई और मन ही मन मुसकराने लगी. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि देवांश उस से यह सब कह रहा है.

‘‘मैं तुम्हारे घर रविवार को सगाई करने आ रहा हूं,’’ चाय पी कर मुसकराते हुए देवांश जिज्ञासा के करीब आया. उस की आंखों में झंकते हुए बोला, ‘‘तुम ने मुझे अभी तक नहीं बताया, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न.’’ जिज्ञासा देवांश की शरारती नजरों को समझ गई और शरमा कर देवांश की बांहों में उस ने अपना चेहरा छिपा लिया.

इसमें गलत क्या है : क्या रमा बड़ी बहन को समझा पाई

मेरी छोटी बहन रमा मुझे समझा रही है और मुझे वह अपनी सब से बड़ी दुश्मन लग रही है. यह समझती क्यों नहीं कि मैं अपने बच्चे से कितना प्यार करती हूं.

‘‘मोह उतना ही करना चाहिए जितना सब्जी में नमक. जिस तरह सादी रोटी बेस्वाद लगती है, खाई नहीं जाती उसी तरह मोह के बिना संसार अच्छा नहीं लगता. अगर मोह न होता तो शायद कोई मां अपनी संतान को पाल नहीं पाती. गंदगी, गीले में पड़ा बच्चा मां को क्या किसी तरह का घिनौना एहसास देता है? धोपोंछ कर मां उसे छाती से लगा लेती है कि नहीं. तब जब बच्चा कुछ कर नहीं सकता, न बोल पाता है और न ही कुछ समझा सकता है.

‘‘तुम्हारे मोह की तरह थोड़े न, जब बच्चा अपने परिवार को पालने लायक हो गया है और तुम उस की थाली में एकएक रोटी का हिसाब रख रही हो, तो मुझे कई बार ऐसा भी लगता है जैसे बच्चे का बड़ा होना तुम्हें सुहाया ही नहीं. तुम को अच्छा नहीं लगता जब सुहास अपनेआप पानी ले कर पी लेता है या फ्रिज खोल कर कुछ निकालने लगता है. तुम भागीभागी आती हो, ‘क्या चाहिए बच्चे, मुझे बता तो?’

‘‘क्यों बताए वह तुम्हें? क्या उसे पानी ले कर पीना नहीं आता या बिना तुम्हारी मदद के फल खाना नहीं आएगा? तुम्हें तो उसे यह कहना चाहिए कि वह एक गिलास पानी तुम्हें भी पिला दे और सेब निकाल कर काटे. मौसी आई हैं, उन्हें भी खिलाए और खुद भी खाए. क्या हो जाएगा अगर वह स्वयं कुछ कर लेगा, क्या उसे अपना काम करना आना नहीं चाहिए? तुम क्यों चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा अपाहिज बन कर जिए? जराजरा सी बात के लिए तुम्हारा मुंह देखे? क्यों तुम्हारा मन दुखी होता है जब बच्चा खुद से कुछ करता है? उस की पत्नी करती है तो भी तुम नहीं चाहतीं कि वह करे.’’

‘‘तो क्या हमारे बच्चे बिना प्यार के पल गए? रातरात भर जाग कर हम ने क्या बच्चों की सेवा नहीं की? वह सेवा उस पल की जरूरत थी इस पल की नहीं. प्यार को प्यार ही रहने दो, अपने गले की फांसी मत बना लो, जिस का दूसरा सिरा बच्चे के गले में पड़ा है. इधर तुम्हारा फंदा कसता है उधर तुम्हारे बच्चे का भी दम घुटता है.’’

‘‘सुहास ने तुम से कुछ कहा है क्या? क्या उसे मेरा प्यार सुहाता नहीं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं, दीदी, वह ऐसा क्यों कहेगा. तुम बात को समझना तो चाहती नहीं हो, इधरउधर के पचड़े में पड़ने लगती हो. उस ने कुछ नहीं कहा. मैं जो देख रही हूं उसी आधार पर कह रही हूं. कल तुम भावना से किस बात पर उलझ रही थीं, याद है तुम्हें?’’

‘‘मैं कब उलझी? उस ने तेरे आने पर इतनी मेहनत से कितना सारा खाना बनाया. कम से कम एक बार मुझ से पूछ तो लेती कि क्या बनाना है.’’

‘‘क्यों पूछ लेती? क्या जराजरा सी बात तुम से पूछना जरूरी है? अरे, वही

4-5 दालें हैं और वही 4-6 मौसम की सब्जियां. यह सब्जी न बनी, वह बन गई, दाल में टमाटर का तड़का न लगाया, प्याज और जीरे का लगा लिया. भिंडी लंबी न काटी गोल काट ली. मेज पर नई शक्ल की सब्जी आई तो तुम ने झट से नाकभौं सिकोड़ लीं कि भिंडी की जगह परवल क्यों नहीं बनाए. गुलाबी डिनर सैट क्यों निकाला, सफेद क्यों नहीं. और तो और, मेजपोश और टेबल मैट्स पर भी तुम ने उसे टोका, मेरे ही सामने. कम से कम मेरा तो लिहाज करतीं. वह बच्ची नहीं है जिसे तुम ने इतना सब बिना वजह सुनाया.

‘‘सच तो यह है, इतनी सुंदर सजी मेज देख कर तुम से बरदाश्त ही नहीं हुआ. तुम से सहा ही नहीं गया कि तुम्हारे सामने किसी ने इतना अच्छा खाना सजा दिया. तुम्हें तो प्रकृति का शुक्रगुजार होना चाहिए कि बैठेबिठाए इतना अच्छा खाना मिल जाता है. क्या सारी उम्र काम करकर के तुम थक नहीं गईं? अभी भी हड्डियों में इतना दम है क्या, जो सब कर पाओ? एक तरफ तो कहती हो तुम से काम नहीं होता, दूसरी तरफ किसी का किया तुम से सहा नहीं जाता. आखिर चाहती क्या हो तुम?

‘‘तुम तो अपनी ही दुश्मन आप बन रही हो. क्या कमी है तुम्हारे घर में? आज्ञाकारी बेटा है, समझदार बहू है. कितनी कुशलता से सारा घर संभाल रही है. तुम्हारे नातेरिश्तेदारों का भी पूरा खयाल रखती है न. कल सारा दिन वह मेरे ही आगेपीछे डोलती रही. ‘मौसी यह, मौसी वह,’ मैं ने उसे एक पल के लिए भी आराम करते नहीं देखा और तुम ने रात मेज पर उस की सारे दिन की खुशी पर पानी फेर दिया, सिर्फ यह कह कर कि…’’

चुप हो गई रमा लेकिन भन्नाती रही देर तक. कुछ बड़बड़ भी करती रही. थोड़ी देर बाद रमा फिर बोलने लगी, ‘‘तुम क्यों बच्चों की जरूरत बन कर जीना चाहती हो? ठाट से क्यों नहीं रहती हो. यह घर तुम्हारा है और तुम मालकिन हो. बच्चों से थोड़ी सी दूरी रखना सीखो. बेटा बाहर से आया है तो जाने दो न उस की पत्नी को पानी ले कर. चायनाश्ता कराने दो. यह उस की गृहस्थी है. उसी को उस में रमने दो. बहू को तरहतरह के व्यंजन बनाने का शौक है तो करने दो उसे तजरबे, तुम बैठी बस खाओ. पसंद न भी आए तो भी तारीफ करो,’’ कह कर रमा ने मेरा हाथ पकड़ा.

‘‘सब गुड़गोबर कर दे तो भी तारीफ करूं,’’ हाथ खींच लिया था मैं ने.

‘‘जब वह खुद खाएगी तब क्या उसे पता नहीं चलेगा कि गुड़ का गोबर हुआ है या नहीं. अच्छा नहीं बनेगा तो अपनेआप सुधारेगी न. यह उस के पति का घर है और इस घर में एक कोना उसे ऐसा जरूर मिलना चाहिए जहां वह खुल कर जी सके, मनचाहा कर सके.’’

‘‘क्या मनचाहा करने दूं, लगाम खींच कर नहीं रखूंगी तो मेरी क्या औकात रह जाएगी घर में. अपनी मरजी ही करती रहेगी तो मेरे हाथ में क्या रहेगा?’’

‘‘अपने हाथ में क्या चाहिए तुम्हें, जरा समझाओ? बच्चों का खानापीना या ओढ़नाबिछाना? भावना पढ़ीलिखी, समझदार लड़की है. घर संभालती है, तुम्हारी देखभाल करती है. तुम जिस तरह बातबात पर तुनकती हो उस पर भी वह कुछ कहती नहीं. क्या सब तुम्हारे अधिकार में नहीं है? कैसा अधिकार चाहिए तुम्हें, समझाओ न?

‘‘तुम्हारी उम्र 55 साल हो गई. तुम ने इतने साल यह घर अपनी मरजी से संभाला. किसी ने रोका तो नहीं न. अब बहू आई है तो उसे भी अपनी मरजी करने दो न. और ऐसी क्या मरजी करती है वह? अगर घर को नए तरीके से सजा लेगी तो तुम्हारा अधिकार छिन जाएगा? सोफा इधर नहीं, उधर कर लेगी, नीले परदे न लगाए लाल लगा लेगी, कुशन सूती नहीं रेशमी ले आएगी, तो क्या? तुम से तो कुछ मांगेगी नहीं न?

‘‘इसी से तुम्हें लगता है तुम्हारा अधिकार हाथ से निकल गया. कस कर अपने बेटे को ही पकड़ रही हो…उस का खानापीना, उस का कुछ भी करना… अपनी ममता को इतना तंग और संकुचित मत होने दो, दीदी, कि बेटे का दम ही घुट जाए. तुम तो दोनों की मां हो न. इतनी तंगदिल मत बनो कि बच्चे तुम्हारी ममता का पिंजरा तोड़ कर उड़ जाएं. बहू तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी नहीं है. तुम्हारी बच्ची है. बड़ी हो तुम. बड़ों की तरह व्यवहार करो. तुम तो बहू के साथ किसी स्पर्धा में लग रही हो. जैसे दौड़दौड़ कर मुकाबला कर रही हो कि देखो, भला कौन जीतता है, तुम या मैं.

‘‘बातबात में उसे कोसो मत वरना अपना हाथ खींच लेगी वह. अपना चाहा भी नहीं करेगी. तुम से होगा नहीं. अच्छाभला घर बिगड़ जाएगा. फिर मत कहना, बहू घर नहीं देखती. वह नौकरानी तो है नहीं जो मात्र तुम्हारा हुक्म बजाती रहेगी. यह उस का भी घर है. तुम्हीं बताओ, अगर उसे अपना घर इस घर में न मिला तो क्या कहीं और अपना घर ढूंढ़ने का प्रयास नहीं करेगी वह? संभल जाओ, दीदी…’’

रमा शुरू से दोटूक ही बात करती आई है. मैं जानती हूं वह गलत नहीं कह रही मगर मैं अपने मन का क्या करूं. घर के चप्पेचप्पे पर, हर चीज पर मेरी ही छाप रही है आज तक. मेरी ही पसंद रही है घर के हर कोने पर. कौन सी चादर, कौन सा कालीन, कौन सा मेजपोश, कौन सा डिनर सैट, कौन सी दालसब्जी, कौन सा मीठा…मेरा घर, मैं ने कभी किसी के साथ इसे बांटा नहीं. यहां तक कि कोने में पड़ी मेज पर पड़ा महंगा ‘बाऊल’ भी जरा सा अपनी जगह से हिलता है तो मुझे पता चल जाता है. ऐसी परिस्थिति में एक जीताजागता इंसान मेरी हर चीज पर अपना ही रंग चढ़ा दे, तो मैं कैसे सहूं?

‘‘भावना का घर कहां है, दीदी, जरा मुझे समझाओ? तुम्हें जब मां ने ब्याह कर विदा किया था तब यही समझाया था न कि तुम्हारी ससुराल ही तुम्हारा घर है. मायका पराया घर और ससुराल अपना. इस घर को तुम ने भी मन से अपनाया और अपने ही रंग में रंग भी लिया. तुम्हारी सास तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती थीं. तुम गुणी थीं और तुम्हारे गुणों का पूरापूरा मानसम्मान भी किया गया. सच पूछो तो गुणों का मान किया जाए तभी तो गुण गुण हुए न. तुम्हारी सास ने तुम्हारी हर कला का आदर किया तभी तो तुम कलावंती, गुणवंती हुईं.

वे ही तुम्हारी कीमत न जानतीं तो तुम्हारा हर गुण क्या कचरे के ढेर में नहीं समा जाता? तुम्हें घर दिया गया तभी तो तुम घरवाली हुई थीं. अब तुम भी अपनी बहू को उस का घर दो ताकि वह भी अपने गुणों से घर को सजा सके.’’

रमा मुझे उस रात समझाती रही और उस के बाद जाने कितने साल समझाती रही. मैं समझ नहीं पाई. मैं समझना भी नहीं चाहती. शायद, मुझे प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है कि अपने सिवा मुझे कोई भी पसंद नहीं. अपने सिवा मुझे न किसी की खुशी से कुछ लेनादेना है और न ही किसी के मानसम्मान से. पता नहीं क्यों हूं मैं ऐसी. पराया खून अपना ही नहीं पाती और यह शाश्वत सत्य है कि बहू का खून होता ही पराया है.

आज रमा फिर से आई है. लगभग 9 साल बाद. उस की खोजी नजरों से कुछ भी छिपा नहीं. भावना ने चायनाश्ता परोसा, खाना भी परोसा मगर पहले जैसा कुछ नहीं लगा रमा को. भावना अनमनी सी रही.

‘‘रात खाने में क्या बनाना है?’’ भावना बोली, ‘‘अभी बता दीजिए. शाम को मुझे किट्टी पार्टी में जाना है देर हो जाएगी. इसलिए अभी तैयारी कर लेती हूं.’’

‘‘आज किट्टी रहने दो. रमा क्या सोचेगी,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप तो हैं ही, मेरी क्या जरूरत है. समय पर खाना मिल जाएगा.’’

बदतमीज भी लगी मुझे भावना इस बार. पिछली बार रमा से जिस तरह घुलमिल गई थी, इस बार वैसा कुछ नहीं लगा. अच्छा ही है. मैं चाहती भी नहीं कि मेरे रिश्तेदारों से भावना कोई मेलजोल रखे.

मेरा सारा घर गंदगी से भरा है. ड्राइंगरूम गंदा, रसोई गंदी, आंगन गंदा. यहां तक कि मेरा कमरा भी गंदा. तकियों में से सीलन की बदबू आ रही है. मैं ने भावना से कहा था, उस ने बदले नहीं. शर्म आ रही है मुझे रमा से. कहां बिठाऊं इसे. हर तरफ तो जाले लटक रहे हैं. मेज पर मिट्टी है. कल की बरसात का पानी भी बरामदे में भरा है और भावना को घर से भागने की पड़ी है.

‘‘घर वही है मगर घर में जैसे खुशियां नहीं बसतीं. पेट भरना ही प्रश्न नहीं होता. पेट से हो कर दिल तक जाने वाला रास्ता कहीं नजर नहीं आता, दीदी. मैं ने समझाया था न, अपनेआप को बदलो,’’ आखिरकार कह ही दिया रमा ने.

‘‘तो क्या जाले, मिट्टी साफ करना मेरा काम है?’’

‘‘ये जाले तुम ने खुद लगाए हैं, दीदी. उस का मन ही मर चुका है, उस की इच्छा ही नहीं होती होगी अब. यह घर उस का थोड़े ही है जिस में वह अपनी जानमारी करे. सच पूछो तो उस का घर कहीं नहीं है. बेटा तुम से बंधा कहीं जा नहीं सकता और अपना घर तुम ने बहू को कभी दिया नहीं.

‘‘मैं ने समझाया था न, एक दिन तुम्हारा घर बिगड़ जाएगा. आज तुम से होता नहीं और वह अपना चाहा भी नहीं करती. मनमन की बात है न. तुम अपने मन का करती रहीं, वह अपने मन का करती रही. यही तो होना था, दीदी. मुझे यही डर था और यही हो रहा है. मैं ने समझाया था न.’’

रमा के चेहरे पर पीड़ा है और मैं यही सोच कर परेशान हूं कि मैं ने गलती कहां की है. अपना घर ही तो कस कर पकड़ा है. आखिर इस में गलत क्या है?

परख : भाग 1- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

नीताभाभी का फोन आया था,’’ गौरिका के घर लौटते ही श्यामला ने बेटी को सूचित किया.

पर गौरिका तो मानों वहां हो कर भी वहां नहीं थी. उस ने अपना पर्स एक ओर फेंका, सैंडल उतारे और सोफे पर पसर गई.

कुछ देर तो श्यामला बात को मुंह में दबाए बैठी रहीं. फिर आंखें मूंदे लेटी अपनी इकलौती बेटी गौरिका को देखा.

मनमस्तिष्क में  झं झवात सा उठ रहा था. वे दिन भर गौरिका की प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं, पर वह घर लौट कर मानों बड़ा उपकार करती है. उस के पास मां से बात करने का तो समय ही नहीं है.

मन हुआ, इतनी जोर से चीखें कि गौरिका तो क्या पासपड़ोस तक हिल उठें और उन के मन का सारा गुबार निकल जाए. पर वे भली प्रकार जानती थीं कि वे ऐसा कभी नहीं करेंगी. वे तो हर समय और हर कार्य में मर्यादा के ऐसे अबू झ बंधन में बंधी रहती थीं कि इस प्रकार के अभद्र व्यवहार की बात सोच भी नहीं सकतीं.

हार कर श्यामला ने टीवी खोल लिया और बेमन से रिमोट हाथ में थामे अलगअलग चैनलों का जायजा लेने लगीं.

उधर गौरिका सोफे पर ही सो गई थी. श्यामला ने एक नजर उस पर डाली, फिर मुंह फेर लिया. उन्होंने कितने लाड़प्यार से पाला है गौरिका को. उस के लिए उन्होंने न दिन को दिन सम झा न रात को रात. पर अब गौरिका अपने सामने किसी को कुछ सम झती ही नहीं.

वे तो उस घड़ी को कोस रही हैं जब उन्होंने गौरिका को राजधानी आ कर नौकरी करने की अनुमति दी थी. उन के पति नभेश ने साफ मना कर दिया था कि वे बेटी के अकेले अजनबी शहर में जा कर रहने के पक्ष में नहीं हैं. तब उन्होंने जोरशोर से बेटी के अधिकारों का  झंडा बुलंद किया था. उन का अकाट्य तर्क था कि जब बेटे को दूसरे शहर में रह कर पढ़ाई व नौकरी करने का हक है तो बेटी को क्यों नहीं?

नभेशजी ने मांबेटी की जिद के आगे हथियार डाल दिए थे. गौरिका राजधानी आ गई. पिछले 4-5 वर्षों में श्यामला ने गौरिका में थोड़ाबहुत परिवर्तन होते देखा था.

गौरिका जब ब्रैंडेड पोशाक पहन कर कंधे तक कटे केशों को बड़ी अदा से लहराती और गरदन को  झटकती अपने शहर आती तो पड़ोसियों, मित्रों और संबंधियों की आंखों में ईर्ष्या के भाव देख कर उन का दिल  झूम उठता था. इसी दिन के लिए तो वे जी रही थीं. उन्होंने अपना जीवन बड़ी तंगहाली में बिताया था. बड़े संयुक्त परिवार में उन का विवाह हुआ था, जिस में छोटीछोटी बातों के लिए भी मन मार कर रहना पड़ता था. पर गौरिका को एमबीए करते ही क्व25 लाख प्रतिवर्ष की नौकरी मिल जाएगी, ऐसा तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. उन की नाक कुछ अधिक ही ऊंची हो चली थी.

श्यामला के भाई श्याम और भाभी नीता उसी शहर में रहते थे. नभेश बाबू अड़ गए कि गौरिका उन्हीं के साथ रहेगी. वे उसे अजनबी शहर में अकेले नहीं रहने देंगे.

इस में श्यामला को कोई आपत्ति नहीं थी. भाईभाभी से उन के मधुर संबंध थे. यों भी वे आवश्यकता पड़ने पर उन की सहायता करने को सदैव तत्पर रहते थे. गौरिका को यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा था. उस ने नौकरी मिलते ही जिस उन्मुक्त उड़ान का सपना देखा था उस में यह प्रस्ताव बाधा बन रहा था. पर श्यामला ने उसे मना लिया. गौरिका भी सम झ गई थी कि अधिक जिद की तो नौकरी से हाथ धोने पड़ेंगे.

श्याम संपन्न व्यक्ति थे. पर वे और उन की पत्नी नीता घर में कड़ा अनुशासन रखते थे. वह अनुशासन गौरिका को रास नहीं आया और मामी की रोकटोक से तंग आ कर उस ने शीघ्र ही अलग फ्लैट ले लिया.

नभेश यह सुनते ही भड़क उठे थे और श्यामला को तुरंत बेटी के साथ रहने भेज दिया था. पर श्यामला 4 दिनों में ही ऊब गई थीं. गौरिका सुबह 9 बजे घर से निकलती तो फिर रात 8 बजे तक ही घर लौटती. घर में रहती भी तो या तो टीवी में व्यस्त रहती या फिर लैपटौप में. श्यामला का वश चलता तो वे कब की लौट जातीं पर नभेश की आज्ञा का उल्लंघन कर के वे नया बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती थीं.

श्यामला न जाने कितनी देर अपने ही विचारों में खोई रहतीं कि तभी

गौरिका की आवाज ने उन्हें चौंका दिया, ‘‘मां, कहां खोई हो. चलो खाना खा लें.’’

‘‘उफ, तो तुम्हारी नींद पूरी हो गई? अपनी मां से बात करने का तो तुम्हें समय ही नहीं मिलता,’’ श्यामला तीखे स्वर में बोलीं.

‘‘मम्मी, नाराज हो गईं क्या?’’ कह गौरिका ने बड़े लाड़ से मां के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘नाराज होने वाली मैं होती कौन हूं?’’

‘‘आप को नाराज होने का पूरा अधिकार है पर नाराज होने का कोई कारण भी तो हो.’’

‘‘मैं ने कहा था कि नीता भाभी का फोन आया था. पर तुम ने तो पलट कर उत्तर देना भी जरूरी नहीं सम झा.’’

‘‘मैं ने सुना था मां. पर उस में उत्तर देने जैसा क्या था? मैं भलीभांति जानती हूं कि नीता मामी ने क्या कहा होगा.’’

‘‘अच्छा बड़ी अंतर्यामी हो गई हो तुम. तो तुम्हीं बता दो क्या कहा था उन्होंने?’’ श्यामला चिहुंक उठीं.

‘‘मेरी बुराइयों का पिटारा खोल दिया होगा और क्या. मैं आप को सच बताऊं? उन के घर में 6 माह मैं ने कैसे बिताए हैं केवल मैं ही जानती हूं. मु झे तो उन के बच्चों अशीम और आभा पर दया आती है. इतना अनुशासन किस काम का कि दम घुटने लगे,’’ गौरिका एक ही सांस में बोल गई.

‘‘उन्होंने तो तुम्हारा नाम तक नहीं लिया बुराईभलाई की कौन कहे. वे तो बस यही कहती रहीं कि बिना मिले मत चली जाना.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है कहीं आनेजाने की. वे बड़े, धनीमानी होंगे तो अपने लिए, अब आप को उन का रोब सहने की कोई जरूरत नहीं है. हम उन का दिया नहीं खाते. अब मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रही है गौरिका? माना तुम अब अपने पैरों पर खड़ी हो, अच्छा वेतन ले रही हो पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि हम अपने सगेसंबंधियों से मुंह फेर लें और वह भी श्याम भैया और नीता भाभी जैसे लोगों से, जिन के हम पर अनगिनत उपकार हैं?’’

‘‘ठीक है, आप को जाना है तो जाओ, मेरे पास समय नहीं है. आप जब कहें मैं आप को उन के यहां छोड़ दूंगी.’’

‘‘अपने पांव धरती पर रखना सीख बेटी. पढ़ेलिखे लोगों को क्या ऐसा व्यवहार शोभा देता है?’’ श्यामला ने सम झाया.

‘‘आप लोगों के कहने से मैं उन के यहां रहने को तैयार हो गई थी. यों मैं ने कभी स्वयं को उन पर बो झ नहीं बनने दिया पर अब नहीं. उन की रोकटोक से तो मेरा दम घुटने लगा था,’’ गौरिका ने अपनी असमर्थता जताई.

‘‘ठीक है, जैसी तेरी मरजी. कल औफिस जाते समय मु झे छोड़ देना और लौटते समय ले लेना. वैसे भी दिन भर अकेले बैठे मन ऊब जाता है,’’ श्यामला ने बात समाप्त की.

अगले दिन श्यामला श्याम के यहां पहुंचीं तो पतिपत्नी दोनों ने बड़ी गर्मजोशी

से स्वागत किया. बहुत जोर डालने पर गौरिका अंदर तक आई और समय न होने का बहाना कर लौट गई.

‘‘जिस दिन से यहां से गई है आज सूरत दिखाई है, तुम्हारी बेटी ने,’’ नीता ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘उस की ओर से मैं क्षमा मांगती हूं. आजकल के बच्चों को तो तुम जानती ही हो, वे किसी की सुनते कहां हैं. पर मेरे मन में तुम दोनों के लिए अथाह श्रद्धा है,’’ श्यामला ने हाथ जोड़े.

‘‘क्षमायाचना मांगने का समय नहीं है श्यामला, सतर्क हो जाने का समय है. मैं किसी के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता. पर तुम्हें बरबाद होते भी तो नहीं देख सकता.’’

‘‘क्या कह रहे हो भैया? मैं कुछ सम झी नहीं?’’ श्यामला का मन किसी अनजानी आशंका से धड़क उठा था.

सबक: संध्या का कौनसा राज छिपाए बैठा था उसका देवर

संध्या की आंखों में नींद नहीं थी. बिस्तर पर लेटे हुए छत को एकटक निहारे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, जिस से वह आकाश के चंगुल से निकल सके. वह बुरी तरह से उस के चंगुल में फंसी हुई थी. लाचार, बेबस कुछ भी नहीं कर पा रही थी. गलती उस की ही थी जो आकाश को उसे ब्लैकमेल करने का मौका मिल गया.

वह जब चाहता उसे एकांत में बुलाता और जाने क्याक्या करने की मांग करता. संध्या का जीना दूभर हो गया था. आकाश कोई और नहीं उस का देवर ही था. सगा देवर. एक ही घर, एक ही छत के नीचे रहने वाला आकाश इतना शैतान निकलेगा, संध्या ने कल्पना भी नहीं की थी. वह लगातार उसे ब्लैकमेल किए जा रहा था और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी. बात ज्यादा पुरानी नहीं थी. 2 माह पहले ही संध्या अपने पति साहिल के साथ यूरोप ट्रिप पर गई थी. 50 महिलापुरुषों का गु्रप दिल्ली इंटरनैशनल एअरपोर्ट से रवाना हुआ.

15 दिनों की यात्रा से पूर्व सब का एकदूसरे से परिचय कराया गया. संध्या को उस गु्रप में नवविवाहित रितू कुछ अलग ही नजर आई. उसे लगा रितू के विचार काफी उस से मिलते हैं. बातबात पर खिलखिला कर हंसने वाली रितू से वह जल्द ही घुलमिल गई.

रितू का पति प्रणव भी काफी विनोदी स्वभाव का था. हर बात को जोक्स से जोड़ कर सब को हंसाने की आदत थी उस की. एक तरह से रितू और प्रणव में सब को हंसाने की प्रतिस्पर्धा चलती थी. संध्या इस नवविवाहित जोड़े से खासी प्रभावित थी. संध्या और उस के पति साहिल के बीच वैसे तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन जब भी वह रितू और प्रणव की जोड़ी को देखती आहें भर कर रह जाती.

प्रणव के विपरीत साहिल गंभीर स्वभाव का इंसान था, जबकि संध्या साहिल से अलग खुले विचारों वाली थी. यूरोप यात्रा के दौरान ही संध्या, रितू और प्रणव इतना घुलमिल गए कि विभिन्न पर्यटन स्थलों में घूम आने के बाद भी होटल के रूम में खूब बातें करते, हंसीमजाक होता. साहिल संध्या का हाथ पकड़ खींच कर ले जाता. वह कहता कि चलो संध्या, बहुत देर हो गई. इन्हें भी आराम करने दो. हम भी सो लेते हैं. गु्रप लीडर ने सुबह जल्दी उठने को बोला है.

मगर संध्या को कहां चैन मिलता. वह अपने रूम में आ कर भी मोबाइल पर शुरू हो जाती. वहाट्सऐप पर शुरू हो जाता रितू से जोक्स, कौमैंट्स भेजने का सिलसिला. रितू ने संध्या के फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज डाली. संध्या ने तुरंत स्वीकार कर ली. दिन में जो फोटोग्राफी वे लोग करते उसे वे व्हाट्सऐप पर एकदूसरे को भेजते. फोटो पर कौमैंट्स भी चलते. रात को रितू और संध्या के बीच व्हाट्सऐप पर घंटों बातें चलतीं. जोक्स से शुरू हो कर, समाजपरिवार की बातें होतीं. धीरेधीरे यह सिलसिला व्यक्तिगत स्तर पर आ गया. एकदूसरे की पसंद, रुचि से ले कर स्कूलकालेज की पढ़ाई, बचपन में बीते दिनों की बातें साझा करने लगीं.

एक रात रितू ने व्हाट्सऐप पर संध्या के सामने दिल खोल कर रख दिया. शादी से पहले के प्यार और शादी तक सब कुछ बता दिया. शादी से पहले रितू की लाइफ में प्रणव था. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों का परिवार अलगअलग धर्म और जाति का था. उन के प्यार में कुछ अड़चनें आईं. शादी को ले कर दोनों परिवारों में तकरार हुई पर आखिर रितू और प्रणव ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनेअपने परिवार को मना लिया.

रितू और प्रणव की शादी हो गई.व्हाट्सऐप पर रितू की लव स्टोरी पढ़ कर संध्या के मन में हलचल पैदा हो गई. उसे अपना अतीत याद हो आया. उस रात उस का मन किया वह भी रितू को वह सब कुछ बता दे जो उस का अतीत है, लेकिन वह हिम्मत नहीं कर पाई कि पता नहीं रितू क्या सोचेगी. वह उस के बारे में न जाने क्या धारणा बना ले. अजीब सी हलचल मन में लिए संध्या सो गई.

अगली रात संध्या अपनेआप को रोक नहीं पाई. रोज की तरह व्हाट्सऐप पर बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि मौका देख कर संध्या ने लिख डाला कि मेरा भी एक अतीत है रितू. मैं भी किसी से प्यार करती थी. पर वह प्यार मुझे नहीं मिल सका.

रितू ने आश्चर्य वाला स्माइली भेजा और लिखा कि बताओ कौन था वह? क्या लव स्टोरी है तुम्हारी?

फिर संध्या ने रितू को अपनी लव स्टोरी बताने का सिलसिला शुरू कर दिया. वह मेरे कालेज में ही था. उस का नाम संजय था. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. हर 1-2 घंटे में मोबाइल पर हमारी बातें नहीं होतीं, तो लगता बहुत कुछ अधूरा है लाइफ में. दोनों में खूब बातें होतीं और तकरार भी. दुनिया से बेखबर हम अपने प्यार की दुनिया में खोए रहते. हमारा प्यार सारी हदें पार कर गया.

विश्वास था कि घर वाले हमारी शादी को राजी हो जाएंगे. इसी विश्वास को ले कर मैं ने खुद को संजय को सौंप दिया. संध्या ने रितू को व्हाट्सऐप पर आगे लिखा, उस दिन पापा ने मुझ से कहा कि बेटी, तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. हम चाहते हैं कि अब अच्छा सा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर दें. मैं एकाएक पापा से कुछ नहीं बोल पाई. बस, इतना ही कहा कि पापा मुझे नहीं करनी शादी. अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है.

इस पर पापा ने कहा कि उम्र और क्या होगी? 25 साल की तो हो चुकी हो. जब मैं ने कहा कि नहीं पापा, मुझे नहीं करनी शादी तो वे हंस पड़े. बोले सच में अभी बच्ची हो. मैं ने पापा की बात को गंभीरता से नहीं लिया, पर वे मेरी शादी को ले कर गंभीर थे. एक दिन पापा ने मुझे बताया कि एक अच्छे परिवार का लड़का है तेरे लायक. किसी बड़ी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.

25 लाख का पैकेज है. वे अगले हफ्ते तुझे देखने आ रहे हैं. पापा की बात सुन कर मैं अवाक रह गई. मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने हिम्मत जुटा कर पापा से कहा कि पापा, मैं एक लड़के से प्यार करती हूं. आप उन से बात कर लीजिए. पापा मेरी तरफ देखते रह गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उन की नजर में मैं सीधीसादी नजर आने वाली लड़की किस हद तक आगे बढ़ चुकी हूं.

पापा ने पूछा कि कौन है वह लड़का? मैं ने संजय का नाम, पता बताया तो पापा का गुस्सा बढ़ गया कि कभी उस परिवार में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं करूंगा. मैं अंदर तक हिल गई. मुझे लगा मेरे सपने रेत से बने महल की तरह धराशायी हो जाएंगे. मैं ने तो संजय को सब कुछ सौंप दिया था. धरती हिलती हुई नजर आई उस दिन मुझे.

पापा और सब घर वालों ने 2-4 दिन में ऐसा माहौल बनाया कि मेरी और संजय की शादी नहीं हो पाई. अगले हफ्ते ही साहिल और उस के घर वाले मुझे देखने आ गए. मुझे पसंद कर लिया गया. रिश्ता पक्का हो गया. पापा ने सख्त हिदायत दी कि संजय का जिक्र भूल कर भी कभी न करूं. इस तरह मेरी शादी साहिल से हो गई. मैं अतीत भूल कर अपना घर बसाने में लग गई. शादी को 2 साल हो चुके हैं. संध्या ने रितू से व्हाट्सऐप पर अपने अतीत की बातें शेयर की और संजय का वह फोटो भेजा जो उस ने संजय के फेसबुक अकाउंट से डाउनलोड किया था.

‘‘अरे वाह, मैडम तुम ने तो बखूबी हैंडल कर लिया लाइफ को,’’ रितू ने संध्या की कहानी सुन कर लिखा.

इसी तरह हंसीमजाक और व्यक्तिगत बातें शेयर करते हुए यूरोप का ट्रिप पूरा हो गया. जब वे वापस घर पहुंचे तो संध्या और साहिल थक कर चूर हो चुके थे. तब रात के 2 बज रहे थे. सुबह देर तक सोते रहे. सास ने दरवाजा खटखटाया कि संध्या, साहिल उठ जाओ… सुबह के 11 बज चुके हैं. नहा कर नाश्ता कर लो. संध्या हड़बड़ा कर उठी. फटाफट फ्रैश हो कर तैयार हुई और किचन में आ गई. नाश्ता तैयार कर डाइनिंग टेबल पर लगाया तब तक साहिल भी तैयार हो चुका था. दोनों ने नाश्ता किया. तभी संध्या को खयाल आया कि मोबाइल कहां है. उस ने इधरउधर देखा पर नहीं मिला. आखिर कहां गया मोबाइल? उसे ध्यान आ रहा था कि रात को जब आई थी तो डाइनिंग टेबल पर रखा था.

‘‘संध्या मैं औफिस जा रहा हूं. आज बौस आ रहे हैं. 3 बजे उन के साथ मीटिंग है,’’ साहिल ने घर से निकलते हुए कहा.

‘‘ठीक है.’’

साहिल के जाने के बाद संध्या मोबाइल ढूंढ़ने में जुट गई. हर जगह देखा. वह अपने देवर आकाश के कमरे में जा पहुंची कि कहीं उस ने देखा हो. वह उस के कमरे में पहुंची तो मोबाइल आकाश के हाथों में देखा. वह मोबाइल स्क्रीन पर व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ रहा था. वह मैसेज जो संध्या ने रितू को लिखे थे. वह सब कुछ पढ़ चुका था और मोबाइल को साइड में रखने ही जा रहा था.

‘‘आकाश, क्या कर रहे हो? मेरा मोबाइल तुम्हारे पास कहां से आया? क्या देख रहे थे इस में?’’ संध्या ने पूछा तो हमउम्र देवर आकाश के होंठों पर कुटिल मुसकान दौड़ गई.

‘‘कुछ नहीं भाभी, बस आप की लव स्टोरी पढ़ रहा था. आप के लवर का फोटो भी देखा. बहुत स्मार्ट है वह. क्या नाम था उस का संजय?’’ आकाश ने कहा तो संध्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

‘‘कुछ नहीं है… आकाश वे सब मजाक की बातें थीं,’’ संध्या ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘अगर भैया को ये सब मजाक की बातें बता दूं तो…?’’ आकाश ने तिरछी नजरें करते हुए कहा. उस की आंखों में शरारत साफ नजर आ रही थी.

संध्या को आकाश के इरादे नेक नहीं लगे. उसे अफसोस था कि उस ने किसी अनजानी दोस्त के सामने क्यों अपने अतीत की बातें व्हाट्सऐप पर लिखी. लिख भी दी थीं तो डिलीट क्यों नहीं कीं.

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे आकाश. यह मजाक अच्छा नहीं है तुम्हारे लिए,’’ संध्या ने सख्त लहजे में कहा.

यह सुन कर आकाश अपनी औकात पर उतर आया, ‘‘भाभी जान, क्यों घबराती हो, ऐसा कुछ नहीं करूंगा. आप बस देवर को खुश कर दिया करो.’’

संध्या गुस्सा पीते हुए बोली, ‘‘मुझे क्या करना होगा? तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘भाभी, इतना बताना पड़ेगा क्या आप को? आप शादीशुदा हैं. शादी से पहले भी आप काफी ज्ञान रखती थीं,’’ आकाश ने बेशर्मी से कहा.

संध्या को लगा वह बहुत बड़े जाल में फंसने जा रही है. अब करे भी तो क्या करे?

‘‘क्या सोच रही हो संध्या? आकाश अचानक भाभी से संध्या के संबोधन पर उतर आया.

‘‘मुझे सोचने का वक्त दो आकाश,’’ संध्या ने कहा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम. जैसा तुम्हें ठीक लगे. पर याद रखना मेरे पास बहुत कुछ है. भैया को पता चल गया तो धक्के मार कर घर से निकाल देंगे तुम्हें.’’

‘‘पता है, तुम किस हद तक नीचता कर सकते हो,’’ संध्या ने रूखे स्वर में कहा.

संध्या अब क्या करे? कैसे पीछा छुड़ाए आकाश से? वह देवरभाभी के रिश्ते को कलंकित करने पर उतारू था. वह जब भी मौका मिलता संध्या का रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता कि क्या सोचा तुम ने?

आकाश मोबाइल पर संध्या को कौल करता, ‘‘इतने दिन हो गए, अभी तक सोचा नहीं क्या? क्यों तड़पा रही हो?’’

संध्या पर आकाश लगातार दबाव बढ़ा रहा था. उस का जीना दूभर हो गया. इसी उधेड़बुन में वह करवटें बदल रही थी. उस की नींद उड़ चुकी थी. वह सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती थी. उस के सामने दुविधा यह थी कि वह खुद को बचाए या आकाश की वजह से परिवार में होने वाले विस्फोट से बचे. वह चाहती थी किसी तरह आकाश को समझा सके, ताकि यह बात अन्य सदस्यों तक नहीं पहुंचे, लेकिन करे तो क्या करें. अचानक उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. हां, यही ठीक रहेगा. उस ने मन ही मन सोचा और गहरी नींद में सो गई. अगले दिन संध्या ने घर का कामकाज निबटाया और अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे मार्केट जाना है कुछ घर का सामान लाने. घंटे भर में वापस जा जाऊंगी.’’

फिर संध्या जब घर लौटी तो उस के चेहरे पर चिंता की लकीरों के बजाय चमक थी. उस ने पढ़ा था कि राक्षस को मारने के लिए मायावी होना ही पड़ता है. वह आकाश को भी उसी के हथियार से मारेगी… उस का सामना करेगी. मार्केट से वह अपने मोबाइल में वायस रिकौर्डिंग सौफ्टवेयर डलवा आई. कुछ देर बाद ही आकाश ने घर से बाहर जा कर संध्या के मोबाइल पर कौल की. संध्या पूरी तरह तैयार थी.

‘‘हैलो संध्या क्या सोचा तुम ने?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं बस वही सब… तुम्हें बताना पड़ेगा क्या?’’

‘‘हां, बताना पड़ेगा. मुझे क्या पता तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम मेरे साथ…’’ और फिर सब कुछ बताता चला गया आकाश. कब, कहां, क्या करना होगा.

‘‘और अगर मैं मना कर दूं तो क्या करोगे?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं तुम्हारी लव स्टोरी सब को बता दूंगा.’’

संध्या गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘जाओ, सब को बताओ. परंतु एक बात याद रखना तुम जो मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो न मैं इस की शिकायत पुलिस में करूंगी. ऐसी हालत कर दूंगी कि कई जन्मों तक याद रखोगे.’’

‘‘कैसे करोगी?’’ क्या प्रूफ है तुम्हारे पास?’’ आकाश ने कहा.

‘‘घर आ कर देख लेना यों कायरों की तरह घर से बाहर जा कर क्या बात कर रहे हो,’’ संध्या का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

शाम को आकाश घर आया. संध्या ने मौका मिलते ही धीमे से कहा ‘‘पू्रफ दूं या वैसे ही मान जाओगे? तुम ने जो भी बातें की हैं वह सब मोबाइल में रिकौर्ड हैं और इस की सीडी अपने लौकर में रख ली है.’’

आकाश को विश्वास नहीं हो रहा था कि संध्या इस कदर पलटवार करेगी. वह चुपचाप अपने कमरे में खिसक गया. संध्या आज अपनी जीत पर प्रसन्न थी. व्हाट्सऐप के जरीए जो मुसीबत उस पर आई थी, वह उस से छुटकारा पा चुकी थी.

पांव पड़ी जंजीर

सुबह दाढ़ी बनाते समय अचानक  बिजली चली गई. नीरज ने जोर  से आवाज दे कर कहा, ‘‘रितु, बिजली चली गई, जरा मोमबत्ती ले कर आना.’’

‘‘मैं मुन्ने का दूध गरम कर रही हूं,’’ रितु ने कहा, ‘‘एक मिनट में आती हूं.’’

तब तक नीरज आधी दाढ़ी बनाए ही भागे चले आए और गुस्से से बोले, ‘‘कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम मेरी बातों को सुन कर भी अनसुनी कर देती हो.’’

खैर, उस समय तो रितु ने नीरज को मोमबत्ती दे दी थी लेकिन नाश्ता परोसते समय वह उस से बोली, ‘‘आप तो ऐसे न थे. बातबात पर गुस्सा करने लग जाते हो. मेरी मजबूरी भी तो समझो. सुबह से ले कर देर रात तक घर और बाहर के कामों में चरखी की तरह लगी रहती हूं. रात होतेहोते तो मेरी कमर ही टूट जाती है.’’

‘‘मैं क्या करूं अब,’’ नीरज ठंडी सांस लेते हुए बोले, ‘‘समय पर आफिस नहीं पहुंचो तो बड़े साहब की डांट सुनो.’’

फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘लगता है, इस बार इनवर्टर लेना ही पड़ेगा.’’

‘‘इनवर्टर,’’ रितु ने मुंह बना कर कहा, ‘‘पता भी है कि उस की कीमत कितनी है. कम से कम 7-8 हजार रुपए तो चाहिए ही. कोई लोन मिल रहा है क्या?’’

‘‘लोन की बात कर क्यों मेरा मजाक उड़ा रही हो. तुम्हें तो पता ही है कि पिछला लोन पूरा करने में ही मेरे पसीने छूट गए थे. मैं तो सोच रहा था कि तुम अपने पापा से बात कर लो….उधार ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘क्याक्या उधार मांगूं?’’ रितु तल्ख हो गई, ‘‘गैस, टेलीफोन, सोफा, दीवान और भी न जाने क्याक्या. सब उधार के नाम पर ही तो आया है. अब और यह सबकुछ मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘क्यों, क्या मुझ में उधार चुकाने की सामर्थ्य नहीं है?’’ नीरज बोेले, ‘‘इतने ताने मत दो. आखिर, जो हुआ उस में कहीं न कहीं तो तुम्हारी भी सहमति थी.

‘‘मेरी सहमति,’’ रितु फैल गई, ‘‘मैं जिस प्रकार तुम्हें निभा रही हूं मैं ही जानती हूं.’’

‘‘तो ठीक है, निभाओ अब, कह क्यों रही हो,’’ नीरज गुस्से से उठते हुए बोले.

‘‘मैं तो निभा ही रही हूं. इतना ही गरूर था तो बसाबसाया घर क्यों छोड़ कर आ गए. तब तो बड़ी शान से कहते थे कि मैं अपना अलग घर ले कर रहूंगा. कोई मोहताज तो नहीं किसी का. और अब…मैं पापा से कुछ नहीं मांगूंगी,’’ रितु गुस्से से कहती गई.

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई तुम से कुछ कह कर,’’ नीरज कोट पहनते हुए बोले, ‘‘अब तक यह घर चला ही रहा हूं, आगे भी चलाऊंगा. कोई भूखे तो नहीं मर रहे.’’

आज सुबहसुबह ही मूड खराब हो गया. अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी का यही हश्र होता है. आएदिन किसी न किसी बात पर हमारी अनबन रहती है और फिर न समाप्त होने वाला समझौता. आज स्कूल जाने का रहासहा मूड भी जाता रहा सो गुमसुम सी पड़ी रही. मन में छिपी परतों से बीते पल चलचित्र की तरह एकएक कर सामने आने लगे.

अपना नया नियुक्तिपत्र ले कर आफिस में प्रवेश किया तो मैं पूरी तरह घबराई हुई थी. इतना बड़ा आफिस. सभी लोग चलतेफिरते रोबोट की तरह अपने में व्यस्त. एक कोने में मुझे खड़ा देख कर एक स्मार्ट से लड़के ने पूछा, ‘आप को किस से मिलना है?’

बिना कुछ बोले मैं ने अपना नियुक्तिपत्र उस की ओर बढ़ाया था.

‘ओह, तो आप को इस दफ्तर में आज ज्वाइन करना है,’ कहते हुए वह लड़का मुझे एक केबिन में ले गया और एक कुरसी पर बैठाते हुए बोला, ‘आप यहां बैठिए, मेहताजी आप के बौस हैं. वह आएंगे तो आप के काम और बैठने की व्यवस्था करेंगे.’

मैं इंतजार करने लगी. थोड़ी देर बाद वह लड़का फिर आया और कहने लगा, ‘सौरी, मैडम, मेहताजी आज थोड़ी देर में आएंगे. आप चाहें तो नीचे रिसेप्शन पर इंतजार कर सकती हैं. कुछ चाय वगैरह लेंगी?’

मुझे इस समय चाय की सख्त जरूरत थी किंतु औपचारिकतावश मना कर दिया.

‘आर यू श्योर,’ उस ने चेहरे पर मुसकराहट बिखेर कर पूछा तो इस बार मैं मना न कर सकी.

‘अच्छा, मैं अभी भिजवाता हूं,’ फिर अपना परिचय देते हुए बोला, ‘मेरा नाम नीरज है और मैं सामने के हाल में उस तरफ बैठता हूं. यहां सेल्स एग्जीक्यूटिव हूं.’

नीरज मुझे बेहद सहायक और मधुर से लगे. बस, फिर तो क्रम ही बन गया. हर रोज सुबह नीरज मुझ से मिलने आ जाते या कभी मैं ही चली जाती. इस तरह सुबह की गुडमार्निंग कब और कहां अनौपचारिक ‘हाय’ में बदल गई पता ही न चला.

नीरज का मधुर स्वभाव मुझे अपनी ओर अनायास ही खींचता चला गया. अंतत: इस खिंचाव ने प्रगति मैदान जा कर ही दम लिया. हम दोनों प्राय: इसी मैदान में आते और हाथों में हाथ डाले शकुंतलम थिएटर की फिल्में देखते.

एक दिन मैं ने नीरज से कहा, ‘अब बहुत हो चुकी डेटिंग, नीरज. अब शादी के लिए गंभीर हो जाओ. कहीं किसी ने यों ही देख लिया तो आफत आ जाएगी. आफिस का स्टाफ तो पहले से ही शक करता है.’

‘गंभीर क्या हो जाऊं,’ वह मेरी लटों को संभालते हुए बोले, ‘यही तो दिन हैं घूमने के. फिर ये कभी हाथ नहीं आएंगे. पर तुम शादी के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो रही हो? क्या रात में नींद नहीं आती? इतना कह कर नीरज ने मेरा हाथ जोर से दबा दिया. उन का स्पर्श मुझे अभिभूत कर गया. लजा कर रह गई थी मैं. थोड़ी देर के लिए सपनों की दुनिया में चली गई थी. समय का आभास होते ही मैं ने पूछा, ‘क्या सोचा तुम ने?’

‘मुझे क्या सोचना है,’ नीरज थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘मैं तो तुम्हारे साथ ही शादी करूंगा, पर…’

‘पर क्या?’ उन के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मैं ने पूछा.

‘मां को मनाने में थोड़ा समय लगेगा. दरअसल, उन्होंने एकदम सीधीसादी सलवारकमीज वाली धार्मिक लड़की की कल्पना की है, जो हमारे घर के पास रह रही है. किंतु वह लड़की मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती.’

‘फिर क्या होगा?’ मैं ने गंभीर होते हुए पूछा.

‘होगा वही जो मैं चाहूंगा. आखिर रखना तो मुझे है न. तुम चिंता न करो. समय देख कर किसी दिन मां से बात करूंगा, पर डरता हूं, कहीं वे मना न कर दें.’

एक दिन शाम को नीरज अपनी मां से मिलवाने के लिए मुझे ले गए. मेरी नानुकुर नीरज के सामने ज्यादा न चल सकी. कहने लगे, ‘मां को अपनी पसंद भी बता दूं क्योंकि सीधा कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है. तुम्हें मेरे साथ देख कर शायद बातचीत का कोई रास्ता निकल आए.’

नीरज ने थोड़े शब्दों में मेरा परिचय दिया. मां की अनुभवी नजरों से कुछ भी छिपा न रह सका.

नीरज की जिद और इच्छा को देखते हुए मां ने बेमन से शादी के लिए हां तो कह दी किंतु जिस तरह दुलहन को इस घर में आना चाहिए था वह सारी रस्में फीकी पड़ गईं. मेरी सारी सजने- संवरने की आशाएं धरी की धरी रह गईं. मां ने कोई खास उत्सुकता नहीं दिखाई क्योंकि शादी उन की मरजी के खिलाफ जो हुई थी.

कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर हमारा देर रात तक घूमना और बाहर खा कर आना ज्यादा दिन तक न चल सका. मां ने एक दिन नाश्ते पर कह दिया कि हम से देर रात तक इंतजार नहीं किया जाता. समय पर घर आ जाया करो. फिर घर की तरफ बहू को थोड़ा ध्यान देना चाहिए.

इस पर नीरज तुनक कर बोले, ‘मां, इस के लिए तो सारी उम्र पड़ी है. हम दूसरी चाबी ले कर चले जाया करेंगे आप सो जाया करो, क्योंकि पार्टी में दोस्तों के साथ देर तो हो ही जाती है.’

मेरे मन में न जाने क्यों शांत स्वभाव वाले मां और बाबूजी के प्रति सहानुभूति उभर आई. बोली, ‘मां ठीक कहती हैं, नीरज. हम समय पर घर आ जाएंगे. अपनी पार्टियां अब हम वीकेंड्स में रख लेंगे.’

मांजी के व्यवहार में आई सख्ती को मैं कम करना चाहती थी. इस के लिए अपनी एक हफ्ते की छुट्टी और बढ़ा ली ताकि मांजी के व्यवहार को समझ सकूं.

एक दिन नीरज शाम को मुसकराते हुए आए और कहने लगे, ‘रितु, सब लोग तुम्हें बहुत याद करते हैं. देखना चाहते हैं कि तुम शादी के बाद कैसी लगती हो.’

मैं खिलखिला कर हंस पड़ी. मुझे आफिस का एकएक चेहरा याद आने लगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, कुछ दिनों की ही तो बात है. अगले सोमवार से तो आफिस जा ही रही हूं?’

‘‘मांजी पास में बैठी चाय पी रही थीं. बड़े शांत स्वर में बोलीं, ‘बेटा, हमारे घरों में शादी के बाद नौकरी करने की रीति नहीं है. बहू को बहू की तरह ही रहना चाहिए, यही अच्छा लगता है. आगे जैसा तुम को ठीक लगे, करो.’

मां का यह स्वर मुझे भीतर तक हिला कर रख गया था. उन के यह बोल अनुभव जन्य थे. जोर से डांटडपट कर कहतीं तो शायद मैं प्रतिकार भी करती. मुझे मां का इस तरह कहना अच्छा भी लगा और उन का सामीप्य पाने का रास्ता भी.

नीरज फट से बोल पड़े थे, ‘मां, आजकल दोनों मिल कर कमाएं तभी तो घर ठीक से चलता है. फिर यह तो अकेली यहां बोर हो जाएगी.’

‘क्यों? क्या कमी है यहां जो दोनों को काम करने की आवश्यकता पड़ रही है. भरापूरा घर है. तेरे बाबूजी भी अच्छा कमाते हैं. सबकुछ ठीक चल रहा है. हम कौन सा तुम से कुछ मांग रहे हैं,’ मांजी का स्वर तेज हो गया, ‘फिर भी तू बहू से काम करवाना चाहता है तो तेरी मरजी.’

मैं खामोश ही रही. पर इस तरह नीरज का बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा था. भीतर जा कर मैं ने नीरज से कहा, ‘नौकरी मुझे करनी है. मांजी को अच्छा नहीं लगता तो मैं नहीं जाऊंगी. बस.’

‘नहीं, तुम नौकरी करने जरूर जाओगी. मैं ने जो कह दिया सो कह दिया,’ नीरज ने कठोर स्वर में कहा.

मन के झंझावात में मैं अंतत: कोई निर्णय नहीं ले पाई. मैं ने हार कर मां से पूछा, ‘मैं क्या करूं, मां?’

‘जो नीरज कहता है वही कर,’ मां ने सीधासपाट सा उत्तर दिया.

उस दिन काम पर तो चली गई किंतु मां के मूक आचरण से एहसास हो गया था कि उन को यह सब ठीक नहीं लगा.

मैं, मां और बाबूजी को खुश करने के लिए हरसंभव प्रयास करती रही. नीरज को भी समझाया कि यह सब उन को ठीक नहीं लगता पर उन के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. क्या पता था कि ऊपर से इतने मृदुभाषी और हंसमुख इनसान अंदर से इतने अस्वाभाविक और सख्त हो सकते हैं.

इस प्रपंच से जल्दी ही मुझे मुक्ति मिल गई. मेरा पांव भारी हो गया और आफिस न जाने का बहाना मिल गया. इस में मां ने मेरी तरफदारी की तो अच्छा लगा.

मुन्ना के होने के बाद तो मांबाबूजी के स्वभाव में पहले से कहीं ज्यादा बदलाव आ गया. आफिस के साथियों ने पार्टी की जिद पकड़ ली तो मैं ने नीरज को कहा कि पार्टी घर पर ही रख लेते हैं. किसी होटल या रेस्तरां में पार्टी करेंगे तो बहुत महंगा पड़ेगा. फिर मां और बाबूजी को भी अच्छा लगेगा. नीरज भी बजट को देखते हुए कुछ नहीं बोले.

सारा दिन मैं घर संवारने में लगी रही. मां को घर में आ रहे इस बदलाव से अच्छा लगने लगा था. सारे सामान का आर्डर पास ही के रेस्तरां में दे दिया था.

‘मांजी कहां हैं,’ मेरी एक आफिस की सहेली ने पूछ लिया. मैं मां को बुलाने उन के कमरे में गई तो मां हंस कर बोलीं, ‘मैं वहां जा कर क्या करूंगी. बच्चों की पार्टी है, तुम लोग मौजमस्ती करो.’

‘नहीं, मां, आप वहां जरूर चलो. बस, मिल कर आ जाना…अच्छा लगता है,’ मैं ने स्नेहवश मां को कहा तो मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने कह दिया, ‘अच्छा, तुम चलो, मैं तैयार हो कर आती हूं.’

मैं मुन्ने को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई. मांबाबूजी अभी ड्रांइगरूम में आए ही थे कि दरवाजे की घंटी बजी. बाबूजी दरवाजे की तरफ जाने लगे तो मैं ने नीरज को इशारा किया.

‘बाबूजी, आप बैठिए. मैं जा रहा हूं. बाजार से खाना मंगवाया है, वही होगा.’

‘अरे, कोई बात नहीं,’ बाबूजी बोले.

‘नहीं, बाबूजी,’ नीरज थोड़ी तेज आवाज में बोले, ‘इसे हाथ न लगाना. इस में चिकन है. बाजार से दोस्तों के लिए मंगवाया है.’

‘नानवैज?’

मां और बाबूजी बिना किसी से मिले चुपचाप अपने कमरे में चले गए. मैं नीरज के साथ उन के पीछेपीछे कमरे तक गई तो देखा, मांजी माथा पकड़ कर एक तरफ पसर कर बैठी कह रही थीं, ‘अब यही दिन देखना रह गया था. जिस घर में अंडा, प्याज और लहसुन तक नहीं आया चिकन आ रहा है.’

‘मां, हम लोग तो खाते नहीं. बस, दोस्तों के लिए मंगवाया था. मैं ने घर पर तो नहीं बनवाया,’ नीरज ने सफाई देते हुए कहा.

मेरा चेहरा पीला पड़ गया था.

‘तुम लोग भी खा लो, रोका किस ने है…मैं क्या जानती नहीं कि तुम लोग बाहर जा कर क्या खाते हो…और अब यह घर पर भी….’ मां सुबक पड़ीं, ‘मेरा सारा घर अपवित्र कर दिया तू ने. मैं अब इस घर में एक पल भी नहीं रहूंगी.’

‘नहीं, मां, तुम क्यों जाती हो, हम ही चले जाते हैं. हमारी तो सारी खुशियां ही छीनी जा रही हैं. मैं ही अलग घर ले कर रह लेता हूं, कहते हुए नीरज बाहर चले गए.

सुबह नाश्ते पर बैठते ही नीरज ने कहा, ‘मां, कल रात के लिए मैं माफी मांगता हूं किंतु मैं ने अलग रहने का फैसला ले लिया है.’

‘नीरज,’ मैं चौंक कर बोली, ‘आप क्या कह रहे हो, आप को पता भी है.’

‘तुम बीच में मत बोलो, रितु,’ वह एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठे. मैं सहम गई. वह बोलते रहे, ‘अच्छा कमाताखाता हूं, अलग रह सकता हूं… अब यही एक रास्ता रह गया है. आप को हमारे देर से आने में परेशानी होती है. यह करो वह न करो, कितने समझौते करने पड़ रहे हैं. मेरा अपना कोई जीवन ही नहीं रहा.’

‘ठीक है, बेटा, जैसा तुम को अच्छा लगे, करो. हम ने तो अपना जीवन जैसेतैसे काट दिया. किंतु इस घर के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता. मन के संस्कार हमें संयत रखते हैं. खेद है, तुम में ठीक से वह संस्कार नहीं पड़ सके. तुम चाहते हो कि तुम्हारे मिलनेजुलने वाले यहां आएं, हुड़दंग मचाएं, खुल कर शराब पीएं और जुआ खेलें…इस घर को मौजमस्ती का अड्डा बनाएं…’ बाबूजी पहली बार तेज आवाज में अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. कहतेकहते बाबूजी की आंखें भर आईं.

मेरे बहुत समझाने के बाद भी नीरज ने अलग घर ले कर ही दम लिया. 2-3 महीने तो घर को व्यवस्थित करने में लग गए पर जब घर का बजट हिलने लगा तो पास के एक स्कूल में मुझे भी नौकरी करनी पड़ी. मुन्ने की आया और के्रच के खर्चे बढ़ गए. असुविधाएं, अभाव और आधीअधूरी आशाओं के सामने प्यार ने दम तोड़ दिया. कभी सोचा भी न था कि मुझ पर दुनिया की जिम्मेदारियां पड़ेंगी. मुन्ने के किसी बात पर मचलते ही मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.

एक दिन सुबह कपड़े धोतेधोते पानी आना बंद हो गया. मैं ने उठ कर नीरज से कहा कि सामने के हैंडपंप से पानी ला दो.

‘‘सौरी, यह मुझ से नहीं होगा,’’ उन्होंने साफ मना कर दिया.

‘‘तो फिर वाशिंग मशीन ला दो, कुछ काम तो आसान हो जाएगा,’’ मैं ने उठते हुए कहा.

‘‘मैं कहां से ला दूं,’’ बड़बड़ाते हुए नीरज बोले, ‘‘तुम भी तो कमाती हो. खुद ही खरीद लो.’’

‘‘मेरी तनख्वाह क्या तुम से छिपी है. सबकुछ तो तुम्हारे सामने है. जितना कमाती हूं उस का आधा तो क्रेच और आया में चला जाता है. आनेजाने और खुद का खर्च निकाल कर बड़ी मुश्किल से हजार भी नहीं बच पाता.’’

‘‘कमाल है,’’ नीरज नरम होते हुए बोले, ‘‘तो फिर यह सब पहले मां के घर पर कैसे चलता था.’’

‘‘वहां काम करने वाली आया थी. बाबूजी का सहारा था. कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था और उन सब से ऊपर मांजी की सुलझी हुई नजर. वह घर जो सुचारु रूप से चल रहा था उस के पीछे सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. पर यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा क्योंकि सहज से प्राप्त हुई वस्तु का कोई मोल नहीं होता,’’ मैं ने झट से बालटी उठाई और पानी लेने चली गई.

पानी ले कर वापस आई तो नीरज वहीं गुमसुम बैठे थे. उन के चेहरे के बदलते रंग को देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे.’’

‘‘चलो, मां से मिल आते हैं,’’ उन की आंखें नम हो गईं.

अभावों में पलीबढ़ी जिंदगी ने वे सारे सुख भुला दिए जिन के लिए नीरज ने घर छोड़ा था. चिकनआमलेट तो छोड़ उन का दोस्तों के साथ आनाजाना भी कम होता गया. मांजी कभीकभी मिलने चली आतीं और शाम तक लौट जातीं. बस, बंटी हुई जिंदगी जी रही थी मैं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया. बोले, ‘‘2 दिन के लिए लंदन वाले चाचा आए हैं. खाना रखा है तुम्हारी मां ने….ठीक समय से पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है, बाबूजी, मैं पूरी कोशिश करूंगी,’’ मैं ने औपचारिकतावश कह दिया.

‘‘कोशिश,’’ वे थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘क्यों, कहीं जाना है क्या?’’

‘‘नहीं, बाबूजी,’’ मैं सुबक पड़ी. मेरे सारे शब्द बर्फ बन कर गले में अटक गए. मैं ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘हफ्ते भर से इन की तबीयत ठीक नहीं है. दस्त और उलटियां लगी हुई हैं. डाक्टर की दवा से भी आराम नहीं आया.’’

‘‘अरे, तो हमें फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘मना किया था इन्होंने,’’ मैं बोली.

‘‘नालायक,’’ बाबूजी भारीभरकम आवाज में बोले, ‘‘चिंता न करो, मैं अभी आता हूं.’’

थोड़ी देर में मां और बाबूजी भी पहुंच गए. नीरज एक तरफ सिमट कर पड़े हुए थे. मां को देखते ही उन की रुलाई फूट पड़ी. बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अरे, किसी से कहलवा दिया होता. देख तो क्या हालत बना रखी है. थोड़ा सा भी उलटासीधा खा लेता है तो हजम नहीं होता.’’

बाबूजी भी पास ही बैठे रहे. मैं चाय बना कर ले आई.

मांजी बोलीं, ‘‘चल, घर चल, अब बहुत हो चुका. अब तेरी एक न सुनूंगी. परीक्षा की घडि़यां तो जीवन में आती ही रहती हैं. चंचल मन इधरउधर भटक ही जाता है. कोई इस तरह मां को छोड़ कर भी चला आता है क्या. चल, बहुत मनमानी कर ली.’’

वात्सल्यमयी मां के स्वर सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मांजी मेरी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इस तरह की जिद बहू करती तो समझ में आता. उस ने तो स्वयं को घर के वातावरण के अनुसार ढाल लिया था पर तुझ से तो ऐसी उम्मीद ही नहीं थी. तुझ से तो मेरी बहू ही अच्छी है.’’

‘‘मां, मुझे माफ कर दो,’’ नीरज रो पड़े. उन का रोना मां और बाबूजी दोनों को रुला गया.

‘‘मैं ने दवाई के लिए नीरज को सहारा दे कर उठाया तो बड़े ही आत्मविश्वास से बोले, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. मां आ गई हैं, अब मैं जल्दी ही अच्छा हो जाऊंगा.’’

मैं मुन्ने को उठा कर सामान समेटने में लग गई.

थोड़ा दूर थोड़ा पास : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है.

जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.

बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.

मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’

कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.

शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.

कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.

कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है.

बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?

सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’

मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’

वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं.

जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’

कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…

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