Serial Story: पौजिटिव नैगेटिव – भाग 1

तृषामलय के बेरुखी भरे व्यवहार से बहुत अचंभित थी. जब देखो तब बस एक ही रट लगाए रहता कि तृषा मैं तलाक चाहता हूं, आपसी सहमति से. ‘तलाक,’ वह सोचने को मजबूर हो जाती थी कि आखिर मलय को हो क्या गया है, जो हर समय तलाकतलाक की ही रट लगाए रहता है. मगर मलय से कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की. सोचती खुद ही बताएंगे कारण और फिर चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो जाती थी. ‘‘मलय, आ जाओ खाना लग गया है,’’ डाइनिंग टेबल सैट करते हुए तृषा ने मलय को पुकारा तो वह जल्दी से तैयार हो कर आ गया.

तृषा ने उस की प्लेट लगा दी और फिर बड़े ही चाव से उस की ओर देखने लगी. शायद वह उस के मुंह से खाने की तारीफ सुनना चाहती थी, क्योंकि उस ने बड़े ही प्यार से मलय की पसंद का खाना बनाया था. लेकिन ऐसा लग रहा था मानो वह किसी प्रकार खाने को निगल रहा हो. चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी थी जैसे वह अंदर ही अंदर घुट सा रहा हो. किसी प्रकार खाना खत्म कर के उस ने जल्दी से अपने हाथ धोए. तभी तृषा ने उस का पर्स व रूमाल ला कर उसे दे दिए.

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‘‘तुम सोच लेना, जो मैं ने कहा है उस के विषय में… और हां समय पर मोहक को लेने स्कूल चली जाना. मैं गाड़ी भेज दूंगा. आज उस की बस नहीं आएगी,’’ कहता हुआ वह गाड़ी में बैठ गया. ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी. ‘आजकल यह कैसा विरोधाभास है मलय के व्यवहार में… एक तरफ तलाक की बातें करता है तो दूसरी ओर घरपरिवार की भी चिंता लगी रहती है… न जाने क्या हो गया है उसे,’ सोचते हुए तृषा अपने बचे कामों को निबटाने लगी. लेकिन उस का मन किसी और काम में नहीं लग रहा था. क्या जरा भी प्यार नहीं रहा है उस के मन में मेरे लिए जो तलाक लेने पर आमादा है? क्या करूं… पिछले 12 वर्षों से हम एकदूसरे के साथ हंसीखुशी रह रहे थे… कभी ऐसा नहीं लगा कि उसे मुझ से कोई शिकायत है या वह मुझ से ऊब गया है.

हर समय तो उसे मेरी ही चिंता लगी रहती थी. कभी कहता कि लगता है आजकल तुम अपनी हैल्थ का ध्यान नहीं रख रही हो… कितनी दुबली हो गई हो, यह सुन कर खुशी से उस का मन झूमने लगता और इस खुशी में और वृद्धि तब हो गई जब विवाह के 3 वर्ष बाद उसे अपने शरीर में एक और जीव के आने की आहट महसूस होने लगी. उस ने बड़े ही शरमाते हुए मलय को यह बात बताई, तो उस ने खुशी से उसे गोद में उठा लिया और फिर गोलगोल घुमाने लगा.

मोहक के जन्म पर मलय की खुशी का ठिकाना न था. जब तब उसे आगाह करता था कि देखो तृषा मेरा बेटा रोए नहीं, मैं बरदाश्त नहीं कर सकूंगा. तब उसे हंसी आने लगती कि अब भला बच्चा रोए नहीं ऐसा कैसे हो सकता है. वह मोहक के लिए मलय का एकाधिकार देख कर खुश भी होती थी तथा चिंतित भी रहती थी और फिर तन्मयता से अपने काम में लग जाती थी. ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मलय अब मुझ से मुक्ति पाना चाहता है. तो क्या अब मेरे साथ उस का दम घुट रहा है? अरे, अभी तो विवाह के केवल 12 वर्ष ही बीते हैं. अभी तो जीवन की लंबी डगर हमें साथसाथ चलते हुए तय करनी है. फिर क्यों वह म्यूच्युअल तलाक की बात करता रहता है? क्यों उसे मेरे साथ रहना असहनीय हो रहा है? मेरे प्यार में तो कोई भी कमी नहीं है… मैं तो आज भी उस की वही पहले वाली तृषा हूं, जिस की 1-1 मुसकान पर मलय फिदा रहता था. ‘कभी मेरी लहराती काली जुल्फों में अपना मुंह छिपा लेता था… अकसर कहता था कि तुम्हारी झील सी गहरी नीली आंखों में डूबने को जी चाहता है, सागर की लहरों सा लहराता तुम्हारा यह नाजुक बदन मुझे अपने आगोश में लपेटे लिए जा रहा है… तुम्हारे जिस्म की मादक खुशबू में मैं अपने होशोहवास खोने लगता हूं.

इतना टूट कर प्यार करने वाला पति आखिर तलाक क्यों चाहता है? नहींनहीं मैं तलाक के लिए कभी राजी नहीं होऊंगी, आखिर मैं ने भी तो उसे शिद्दत से प्यार किया है. घर वालों के तमाम विरोधों के बावजूद जातिपाति की ऊंचीऊंची दीवारों को फांद कर ही तो हम दोनों ने एकदूसरे को अपनाया है,’ तृषा सोच रही थी. अतीत तृषा की आंखों के सामने किसी चलचित्र की भांति चलायमान हो उठा…

‘‘पापा, मैं मलय से विवाह करना चाहती हूं.’’ ‘‘मलय, कौन मलय?’’ पापा थोड़ा चौंक उठे.

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‘‘अपना मलय और कौन? आप उसे बचपन से जानते हैं… यहीं तो भैया के साथ खेलकूद कर बड़ा हुआ है. अब इंजीनियर बन चुका है… हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं और एकसाथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं,’’ तृषा ने दृढ़ता से कहा.

पिता मनोज क्रोध से तिलमिला उठे. वे अपने क्रोध के लिए सर्वविदित थे. कनपटी की नसें फटने को आ गईं, चेहरा लाल हो गया. चीख कर बोले, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इतनी बड़ी बात कहने की.. कभी सोचा है कि उस की औकात ही क्या है हमारी बराबरी करने की? अरे, कहां हम ब्राह्मण और वह कुर्मी क्षत्रिय. हमारे उन के कुल की कोई बराबरी ही नहीं है. वैसे भी बेटी अपने से ऊंचे कुल में दी जाती है, जबकि उन का कुल हम से निम्न श्रेणी का है.’’ तृषा भी बड़ी नकचढ़ी बेटी थी. पिता के असीमित प्यारदुलार ने उसे जिद्दी भी बना दिया था. अत: तपाक से बोली, ‘‘मैं ने जाति विशेष से प्यार नहीं किया है पापा, इंसान से किया है और मलय किसी भी ऊंची जाति से कहीं ज्यादा ही ऊंचा है, क्योंकि वह एक अच्छा इंसान है, जिस से प्यार कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है.’’

मनोजजी को इस का गुमान तक न था कि उन की दुलारी बेटी उन के विरोध में इस तरह खड़ी हो जाएगी. उन्हें अपने ऊंचे कुल का बड़ा घमंड था. उन के पुरखे अपने समय के बहुत बड़े ताल्लुकेदार थे. यद्यपि अब ताल्लुकेदारी नहीं रह गई थी, फिर भी वह कहते हैं न कि मरा हाथी तो 9 लाख का… मनोजजी के संदर्भ में यह कहावत पूरी तरह लागू होती थी. अपने शहर के नामीगिरामी वकील थे. लक्ष्मी ने जैसे उन का वरण ही कर रखा था. तृषा अपने पिता की इकलौती लाडली बेटी थी. अपने बड़े भाई तनय की भी बड़ी ही दुलारी थी. तनय भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो कर, अवर सचिव के पद पर आसाम में तैनात था.

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खोखली होती जड़ें: भाग 3

रात को सत्यम का फोन आया कि वह परसों की फ्लाइट से आ रहा है. फोन मैं ने ही उठाया. मैं ने निर्विकार भाव से उस की बात सुन कर फोन रख दिया. दूसरे दिन मैं ने सौरभ से बैंक से कुछ रुपए लाने के लिए कहा.

‘‘नहीं हैं मेरे पास रुपए…’’ सौरभ बिफर गए.

‘‘सौरभ प्लीज, अभी तो थोड़ाबहुत दे दो…सत्यम भी यहां आ कर चुप तो नहीं बैठेगा. कुछ तो करेगा,’’ मैं अनुनय करने लगी.

सौरभ चुप हो गए. मेरी कातरता, व्याकुलता सौरभ कभी नहीं देख पाते. हमेशा भरापूरा ही देखना चाहते हैं. उन्होंने बैंक से रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए.

‘‘सौरभ, तुम फिक्र मत करो, मैं थोड़े ही दिन में सत्यम को बता दूंगी कि हम उस के परिवार का खर्च नहीं उठा सकते. घर है…जब तक चाहे बसेरा कर ले लेकिन अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाए. हम से कोई उम्मीद न रखे,’’ मेरे स्वर की दृढ़ता से सौरभ थोड़ाबहुत आश्वस्त हो गए.

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अगले दिन सत्यम को आना था. फ्लाइट के आने का समय हो गया था. हम एअरपोर्ट नहीं गए. अटैचियों से लदाफंदा सत्यम परिवार सहित टैक्सी से खुद ही घर आ गया. सत्यम व बच्चे जब आंखों के सामने आए तो पलभर के लिए मेरे ही नहीं, सौरभ की आंखों में भी ममता की चमक आ गई. 5 साल बाद देख रहे थे सब को. सत्यम व नीमा के मुरझाए चेहरे देख कर दिल को धक्का सा लगा. सत्यम ने पापा के पैर छुए और फिर मेरे पैर छू कर मेरे गले लग गया. साफ लगा, मेरे गले लगते हुए जैसे उस की आंखों से आंसू बहना ही चाहते हैं, आखिर राजपाट गंवा कर आ रहा था.

मां सिर्फ हाड़मांस का बना हुआ शरीर ही तो नहीं है…मां भावनाओं का असीम समंदर भी है…एक महीन सा अदृश्य धागा मां से संतान का कहां और कैसे बंधा रहता है, कोई नहीं समझ सकता…एक शीतल छाया जो तुम से कोई भी सवालजवाब नहीं करती…तुम्हारी कमियों के बारे में बात नहीं करती… हमेशा तुम्हारी खूबियां ही गिनाती है और कमियों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है…अपने किए का बदला नहीं चाहती…हर कष्ट के क्षण में मुंह से मां का नाम निकलता है और दिमाग में मां के होने का एहसास होता है…कष्ट के समय कहीं और आसरा मिले न मिले पर वह शीतल छाया तुम्हें आसरा जरूर देती है… सुख में कैसे भूल जाते हो उस को. लेकिन जड़ें ही खोखली हों तो हलके आंधीतूफान में भी बड़ेबड़े दरख्त उखड़ जाते हैं.

मेरे गले से लगा हुआ सत्यम शायद यही सबकुछ सोचता, अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मैं ने अपना संतुलन डगमगाने नहीं दिया. सत्यम को भी एहसास होना चाहिए कि जब गहन दुख व परेशानी के क्षणों में ‘अपने’ हाथ खींचते हैं तो जिंदगी कितनी बेगानी लगती है. विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है.

‘‘बैठो सत्यम…’’ उसे धीरे से अपने से अलग करती हुई मैं बोली, ‘‘अपना सामान कमरे में रख दो…मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अपने मनोभावों को छिपाते हुए मैं किचन में चली गई. बच्चों ने प्रणाम किया तो मैं ने उन के गाल थपथपा दिए. दिल छाती से लगाने को कर रहा था पर चाहते हुए भी कौन सी अदृश्य शक्ति मुझे रोक रही थी. चाय बना कर लाई तो सत्यम व नीमा सामान कमरे में रख चुके थे. नीमा ने मेरे हाथ से टे्र ले ली…शायद पहली बार.

वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब ने चाय खत्म की. इतनी देर बैठ कर सौरभ ने जैसे मेजबान होने की औपचारिकता निभा ली थी, इसलिए उठ कर अपने कमरे में चले गए. दोनों बच्चे भी थके थे, सो वे भी कमरे में जा कर सो गए.

‘‘तुम दोनों भी आराम कर लो, खाना बन जाएगा तो उठा दूंगी…क्या खाओगे…’’

‘‘कुछ भी खा लेंगे…और ऐसे भी थके नहीं हैं…नीमा खुद बना लेगी…आप बैठो.’’

मैं ने चौंक कर नीमा को देखा, उस के चेहरे पर सत्यम की कही बात से सहमति का भाव दिखा. यह वही नीमा है जो मेरे इतने असुविधापूर्ण किचन में चाय तक भी नहीं बना पाती थी, खाना बनाना तो दूर की बात थी.

कहते हैं प्यार में बड़ी शक्ति होती है पर शायद मेरे प्यार में इतनी शक्ति नहीं थी, तभी तो नीमा को नहीं बदल पाई, लेकिन आर्थिक मंदी ने उसे बदलने पर मजबूर कर दिया था. मेरे मना करने पर भी नीमा किचन में चली गई. वह भी उस किचन में जिस में पहले कभी नीमा ने पैर भी न धरा था, उस का भूगोल भला उसे क्या पता था. इसलिए मुझे किचन में जाना ही पड़ा.

सत्यम को आए हुए 2 दिन हो गए थे. हमारे बीच छिटपुट बातें ही हो पाती थीं. हम दोनों का उन दोनों से बातें करने का उत्साह मर गया था और वे दोनों भी शायद पहले के अपने बनाए गए घेरे में कैद कसमसा रहे थे. सौरभ तो सामने ही बहुत कम पड़ते थे. पढ़ने के शौकीन सौरभ अकसर अपनी किताबों में डूबे रहते. अलबत्ता बच्चे जरूर हमारे साथ जल्दी ही घुलमिल गए और हमें भी उन का साथ अच्छा लगने लगा.

सत्यम बच्चों के दाखिले व अपनी नौकरी के लिए लगातार कोशिश कर रहा था. अच्छे स्कूल में इस समय बच्चों का दाखिला मुश्किल हो रहा था. अच्छे स्कूल में 2 बच्चों के खर्चे सत्यम कैसे उठा पाएगा, मैं समझ नहीं पा रही थी. उस का परिवार अगर यहां रहता है तो ज्यादा से ज्यादा उसे किराया ही तो नहीं देना पड़ेगा. नीमा उसी किचन में खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, उसी बदरंग से बाथरूम में कपड़े धो रही थी. हालांकि सुविधाओं की आदत होने के कारण सब के चेहरे मुरझाए हुए थे.

सत्यम रोज ही अपना रिज्यूम ले कर किसी न किसी कंपनी में जाता रहता. आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनियों को भी इस समय कुशल कर्मचारी कम तनख्वाह में हासिल हो रहे थे तो वे क्यों न इस का फायदा उठाते. तनख्वाह बहुत ही कम थी.

‘‘सोचा भी न था मम्मी, ऐसी बाबू जैसी तनख्वाह में कभी गुजारा करना पड़ेगा,’’ सत्यम बोला.

दिल हुआ कहूं कि तेरे पिता ने तो ऐसी ही तनख्वाह में गुजारा कर के तुझे इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया…तब तू ने कभी नहीं सोचा…लेकिन उस के स्वर में उस के दिल की निराशा साफ झलक रही थी. मां होने के नाते दिल में कसक हो आई.

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खोखली होती जड़ें: भाग 4

‘‘ठीक हो जाएगा सबकुछ, परेशान मत हो, सत्यम…मंदी कोई हमेशा थोड़े ही रहने वाली है…एक न एक दिन तुम दोबारा अमेरिका चले जाओगे…उसी तरह बड़ी कंपनी में नौकरी करोगे.’’

मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर उन की स्वार्थपरता पर करारी चोट भी थी. मैं ने जता दिया था, जिस दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम पहले की ही तरह हमें हमारे हाल पर छोड़ कर चले जाओगे. सत्यम कुछ नहीं बोला, निरीह नजरों से मुझे देखने लगा. मानो कह रहा हो, कब तक नाराज रहोगी. बच्चों का दाखिला भी उस ने दौड़भाग कर अच्छे स्कूल में करा दिया.

‘‘इस स्कूल की फीस तो काफी ज्यादा है सत्यम…इस नौकरी में तू कैसे कर पाएगा?’’

‘‘बच्चों की पढ़ाई तो सब से ज्यादा जरूरी है मम्मी…उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं आना चाहिए. बच्चे पढ़ जाएंगे… अच्छे निकल जाएंगे तो बाकी सबकुछ तो हो ही जाएगा.’’

वह आश्वस्त था…लगा सौरभ ही जैसे बोल रहे हैं. हर पिता बच्चों का पालनपोषण करते हुए शायद यही भाषा बोलता है…पर हर संतान यह भाषा नहीं बोलती, जो इतने कठिन समय में सत्यम ने हम से बोली थी. मेरा मन एकाएक कसैला हो गया. मैं उठ कर बालकनी में जा कर कुरसी पर बैठ गई. भीषण गरमी के बाद बरसात होने को थी. कई दिनों से बादल आसमान में चहलकदमी कर रहे थे, लेकिन बरस नहीं रहे थे. लेकिन आज तो जैसे कमर कस कर बरसने को तैयार थे. मेरा मन भी पिछले कुछ दिनों से उमड़घुमड़ रहा था, पर बदरी थी कि बरसती नहीं थी.

मन की कड़वाहट एकाएक बढ़ गई थी. 5 साल पुराना बहुत कुछ याद आ रहा था. सत्यम के आने से पहले सोचा था कि उस को यह ताना दूंगी…वह ताना दूंगी… सौरभ ने भी बहुत कुछ कहने को सोच रखा था पर क्या कर सकते हैं मातापिता ऐसा…वह भी जब बेटा अपनी जिंदगी के सब से कठिन दौर से गुजर रहा हो.

एकाएक बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई. मैं ने अपनी आंखों को छुआ तो वहां भी गीलापन था. बारिश हलकीहलकी हो कर तेज होने लगी और मेरे आंसू भी बेबाक हो कर बहने लगे. मैं चुपचाप बरसते पानी पर निगाहें टिकाए अपने आंसुओं को बहते हुए महसूस करती रही.

तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्यम खड़ा था… चेहरे पर कई भाव लिए हुए… जिन को शब्द दें तो शायद कई पन्ने भर जाएं. मैं ने चुपचाप वहां से नजरें हटा दीं. वह पास पड़े छोटे से मूढ़े को खिसका कर मेरे पैरों के पास बैठ गया. कुछ देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे. मैं ने अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया.

‘‘मम्मी, क्या मुझे इस समय बच्चों को इतने बड़े स्कूल में नहीं डालना चाहिए था…मैं ने सोचा जो भी थोड़ीबहुत बचत है, उन की पढ़ाई का तब तक का खर्चा निकल जाएगा…हम तो जैसेतैसे गुजरबसर कर ही लेंगे, जब तक मंदी का समय निकलता है…क्या मैं ने ठीक नहीं किया, मम्मी?’’

सत्यम ने शायद बातचीत का सूत्र यहीं से थामना चाहा, ‘‘आखिर, पापा ने भी तो हमेशा मेरी पढ़ाईलिखाई पर अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च किया.’’

सत्यम के इन शब्दों में बहुत कुछ था. लज्जा, अफसोस…पिता के साथ किए व्यवहार से…व पिता के अथक प्रयासों व त्याग को महसूस करना आदि.

‘‘तुम ने ठीक किया सत्यम, आखिर सभी पिता यही तो करते हैं, लेकिन अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए. वह तो सभी पर आएगा. संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाएगी… मंझधार में छोड़ कर नया आसमान तलाशने के लिए उड़ जाएगी…तब कैसे लड़ोगे बुढ़ापे के अकेलेपन से. बीमारियों से, कदम दर कदम, नजदीक आती मृत्यु की आहट से…कैसे? सत्यम…आखिर कैसे…’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर व मेरी आंखें दोनों ही आद्र हो गए थे.

मेरे इतना बोलने में कई सालों का मानसिक संघर्ष था. पति की बीमारी के समय जीवन से लड़ने की उन की बेचारगी की कशमकश थी. अपनी दोनों की बिलकुल अकेली सी बीती जा रही जिंदगी का अवसाद था और शायद वह सबकुछ भी जो मैं सत्यम को जताना चाहती थी…कि जो कुछ उस ने हमारे साथ किया अगर इन क्षणों में हम उस के साथ करें…हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है…लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है, बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है.

सत्यम थोड़ी देर तक विचारशून्य सा बैठा रहा, फिर एकाएक प्रायश्चित करते हुए स्वर में बोला, ‘‘मम्मी, मुझे माफ नहीं करोगी क्या?’’

मैं ने सत्यम की तरफ देखा, वह हक से माफी भी नहीं मांग पा रहा था क्योंकि वह समझ रहा था कि वह माफी का भी हकदार नहीं है.

सत्यम ने मेरे घुटनों पर सिर रख दिया, ‘‘मम्मी, मेरे किए की सजा मुझे मिल रही है. मैं जानता हूं कि मुझे माफ करना आप के व पापा के लिए इतना सरल नहीं है फिर भी धीरेधीरे कोशिश करो मम्मी…अपने बेटे को माफ कर दो. अब कभी आप दोनों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा…मुझे यहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी…आप दोनों का बुढ़ापा अब अकेले नहीं बीतेगा…मैं हूं आप का सहारा…अपनी जड़ों को अब और खोखला नहीं होने दूंगा. जो बीत गया मैं उसे वापस तो नहीं लौटा सकता पर अब अपनी गलतियों को सुधारूंगा,’’ कह कर सत्यम ने अपनी बांहें मेरे इर्दगिर्द लपेट लीं जैसे वह बचपन में करता था.

‘‘मुझे भी माफ कर दो, मम्मी,’’ नीमा भी सत्यम की बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘हमें अपने किए पर बहुत पछतावा है…पापा से भी कहिए कि वह हम दोनों को माफ कर दें. हमारा कृत्य माफी के लायक तो नहीं पर फिर भी हमें अपनी गलतियां सुधारने का मौका दीजिए,’’ कह कर नीमा ने मेरे पैर पकड़ लिए.

दोनों बच्चे इस तरह से मेरे पैरों के पास बैठे थे. सोचा था अब तो जीवन यों ही अकेला व बेगाना सा निकल जाएगा… बच्चे हमें कभी नहीं समझ पाएंगे पर हमारा प्यार जो उन्हें नहीं समझा पाया वह कठिन परिस्थितियां समझा गईं.

‘‘बस करो सत्यम, जो हो गया उसे हम तो भूल भी चुके थे. जब तुम सामने आए तो सबकुछ याद आ गया. पर माफी मुझ से नहीं अपने पापा से मांगो, बेटा… मां का हृदय तो बच्चों के गलती करने से पहले ही उन्हें क्षमा कर देता है,’’ कह कर मैं स्नेह से दोनों का सिर सहलाने लगी.

सत्यम अपनी भूल सुधारने के लिए मेरे पैरों से लिपटा हुआ था.

‘‘जाओ सत्यम, पापा अपने कमरे में हैं. दोनों उन के दोबारा खुरचे घावों पर मरहम लगा आओ…मुझे विश्वास है कि उन की नाराजगी भी अधिक नहीं टिक पाएगी.’’

सत्यम व नीमा हमारे कमरे की तरफ चले गए. अकस्मात मेरा मन जैसे परम संतोष से भर गया था. बाहर बारिश पूरी तरह रुक गई थी, हलकी शीतल लालिमा चारों तरफ फैल गई थी जिस में सबकुछ प्रकाशमय हो रहा था.

खोखली होती जड़ें: भाग 1

अमेरिका से हमारे बेटे सत्यम का फोन था. फोन सुन कर सौरभ बालकनी की तरफ चले गए. क्या कहा होगा सत्यम ने फोन पर…मैं दुविधा में थी…फिर थोड़ी देर तक सौरभ के वापस आने का इंतजार कर मैं भी बालकनी में चली गई. सौरभ खोएखोए से बालकनी में खड़े बाहर बारिश को देख रहे थे. मैं भी चुपचाप जा कर सौरभ की बगल में खड़ी हो गई. जरूर कोई खास बात होगी क्योंकि सत्यम के फोन अब कम ही आते थे. वह पिछले 5 साल से अमेरिका में था. इस से पहले वह मुंबई में नियुक्त था. अमेरिका से वह इन 5 सालों में एक बार भी भारत नहीं आया था.

सत्यम उन संतानों में था जो मातापिता के कंधों पर पैर रख कर सफलता की छलांग तो लगा लेते हैं लेकिन छलांग लगाते समय मातापिता के कंधों को कितना झटका लगा, यह देखने की जहमत नहीं उठाते. थोड़ी देर मैं सौरभ के कुछ बोलने की प्रतीक्षा करती रही फिर धीरे से बोली, ‘‘क्या कहा सत्यम ने?’’

‘‘सत्यम की नौकरी छूट गई है,’’ सौरभ निर्विकार भाव से बोले.

नौकरी छूट जाने की खबर सुन कर मैं सिहर गई. यह खयाल हमें काफी समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के हालात के चलते आ रहा था. आज हमारा वही डर सच हो गया था. हमारे लिए हमारा बेटा जैसा भी था लेकिन अपने परिवार के साथ खुश है, सोच कर हम शांत थे.

‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या…वह वापस आ रहा है,’’ सौरभ की नजरें अभी भी बारिश पर टिकी हुई थीं. शायद वह बाहर की बरसात के पीछे अपने अंदर की बरसात को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहे थे.

‘‘और कहां जाएगा…’’ सौरभ के दिल के भावों को समझते हुए भी मैं ने अनजान ही बने रहना चाहा.

‘‘क्यों…अगर हम मर गए होते तो किस के पास आता वह…उस की बीवी के भाईबहन हैं, मायके वाले हैं, रिश्तेदार हैं, उन से सहायता मांगे…यहां हमारे पास क्या करने आ रहा है…’’ बोलतेबोलते सौरभ का स्वर कटु हो गया था. हालांकि सत्यम के प्रति मेरा दिल भी फिलहाल भावनाओं से उतना ही रिक्त था लेकिन मां होने के नाते मेरे दिल की मुसीबत के समय में सौरभ का उस के प्रति इतना कटु होना थोड़ा खल गया.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो. आखिर मुसीबत के वक्त वह अपने घर नहीं आएगा तो कहां जाएगा.’’

‘‘घर…कौन सा घर…उस ने इस घर को कभी घर समझा भी है…तुम फिर उस के लिए सोचने लगीं…तुम्हारी ममता ने बारबार मजबूर किया है मुझे…इस बार मैं मजबूर नहीं होऊंगा…जिस दिन वह आएगा…घर से भगा दूंगा…कह दूंगा कि इस घर में उस के लिए अब कोई जगह नहीं है.’’

सौरभ मेरी तरफ मुंह कर के बोले. उन की आंखों के बादल भी बरसने को थे. चेहरे पर बेचैनी, उद्विग्नता, बेटे के द्वारा अनदेखा किया जाना, लेकिन उस के दुख से दुखी भी…गुस्सा आदि सबकुछ… एकसाथ परिलक्षित हो रहा था.

‘‘सौरभ…’’ रेलिंग पर रखे उन के हाथ को धीरे से मैं ने अपने हाथ में लिया तो सुहाने मौसम में भी उन की हथेली पसीने से तर थी. सौरभ की हिम्मत के कारण मैं इस उम्र में भी निश्ंिचत रहती थी लेकिन उन को कातर, बेचैन या कमजोर देख कर मुझे असुरक्षा का एहसास होता था.

‘‘सौरभ, शांत हो जाओ…सब ठीक हो जाएगा. चलो, चल कर सो जाओ, कल सोचेंगे कि क्या करना है.’’

मैं उन को सांत्वना देती हुई अंदर ले आई. मुझे सौरभ के स्वास्थ्य की चिंता हो जाती थी, क्योंकि उन को एक बार दिल का दौरा पड़ चुका था. सौरभ चुपचाप बिस्तर पर लेट गए. मैं भी जीरो पावर का बल्ब जला कर उन की बगल में लेट गई. दोनों चुपचाप अपनेअपने विचारों में खोए हुए न जाने कब तक छत को घूरते रहे. थोड़ी देर बाद सौरभ के खर्राटों की आवाज आने लगी. सौरभ के सो जाने से मुझे चैन मिला, लेकिन मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

आज सत्यम को हमारी जरूरत पड़ी तो उस ने बेधड़क फोन कर दिया कि वह हमारे पास आ रहा है और क्यों न आए…बेटा होने के नाते उस का पूरा अधिकार है, लेकिन जरूरत पड़ने पर इसी तरह बेधड़क बेटे के पास जाने का हमारा अधिकार क्यों नहीं है. क्यों संकोच व झिझक हमारे कदम रोक लेती है कि कहीं बेटे की गृहस्थी में हम अनचाहे से न हो जाएं. कहीं बहू हमारा यों लंबे समय के लिए आना पसंद न करे.

सत्यम व नीमा ने अपने व्यवहार से जानेअनजाने हमेशा ही हमें चोट पहुंचाई है. मातापिता की बढ़ती उम्र से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहा. हमें कभी लगा ही नहीं कि हमारा बेटा अब बड़ा हो गया है और अब हम अपनी शारीरिक व मानसिक जरूरतों के लिए उस पर निर्भर हो सकते हैं.

जबजब सहारे के लिए बेटेबहू की तरफ हाथ बढ़ाया तबतब उन्हें अपने से दूर ही पाया. कई बार मैं ने सौरभ व अपना दोनों का विश्लेषण किया कि क्या हम में ही कुछ कमी है, क्यों नहीं सामंजस्य बन पाता है हमारे बीच में…लगा कि एक पीढ़ी का अंतर तो पहले होता था, इस नई पीढ़ी के साथ तो जैसे पीढि़यों का अंतराल हो गया. इसी तरह के खयालों में डूबी मैं अतीत में विचरण करने लगी.

सत्यम अपने पापा की तरह पढ़ने में होशियार था. पापा के समय में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए जो कुछ भी हासिल हुआ, धीरेधीरे व लंबे समय के बाद हुआ लेकिन सत्यम को उन्होंने अपनी क्षमता से बढ़ कर सुविधाएं दीं, उस की पढ़ाई पर क्षमता से बढ़ कर खर्च किया. सत्यम मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े ओहदे पर था, शादी भी उसी हिसाब से बड़े घर में हुई. नीमा भी नौकरी करती थी. अपने छोटे से साधारण फ्लैट, जिस में सत्यम को पहले सभी कुछ दिखता था, नौकरी व शादी के बाद कमियां ही कमियां दिखाई देने लगीं. जबजब छुट्टी पर आता कुछ न कुछ कह देता :

‘कैसे रहते हो आप लोग इस छोटे से फ्लैट में. ढंग का ड्राइंगरूम भी नहीं है. मम्मी, मुझे तो शर्म आती है यहां किसी अपने जानने वाले को बुलाते हुए. यह किचन भी कोई किचन है…नीमा तो इस में चाय भी नहीं बना सकती.’

पहले साफसुथरा लगने वाला फ्लैट अब गंदगी का ढेर लगता.

आगे पढ़ें- सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह…

खोखली होती जड़ें: भाग 2

फिर सप्लाई का पानी पीने से उन का पेट खराब होने लगा तो जब भी सत्यम या उस का परिवार आता तो मैं बाजार से पानी की बोतल मंगा कर रखने लगी, लेकिन लाइट चली जाती तो उन्हें इनवर्टर की कमी खलती…गरमी में ए.सी. व कूलर की कमी अखरती, तो सर्दी में एक अच्छे ब्लोवर की कमी…मतलब कि कमी ही कमी…नाश्ते में सबकुछ चाहिए. पर सत्यम व नीमा कभी यह नहीं सोचते कि जिन सुविधाओं के बिना उन्हें दोचार दिन भी बिताने भारी पड़ जाते हैं उन्हीं सुविधाओं के बिना मातापिता ने पूरी जिंदगी कैसे गुजारी होगी और अब बुढ़ापा कैसे गुजार रहे होंगे. सत्यम पर क्षमता से अधिक खर्च न कर क्या वे अपने लिए छोटीछोटी मूलभूत सुविधाएं नहीं जुटा सकते थे? पर उस समय तो लगता था कि हमारा बेटा लायक बन जाएगा तो हमें क्या कमी है. सौ सुविधाएं जुटा देगा वह हमारे लिए.

सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह जूस पी रहा है तो मातापिता को बुढ़ापे में एक कप दूध भी है या नहीं…जरूरी दवाओं के लिए पैसे हैं या नहीं. उन का तो यही एहसान बड़ा था कि वे दोनों इतने व्यस्त रहते हैं…इस के बावजूद जब छुट्टी मिलती है, तो वे उन के पास चले आते हैं, नहीं तो किसी अच्छी जगह घूमने भी जा सकते थे.

सत्यम का परिवार जब भी आता, उन को सुविधाएं देने के चक्कर में मैं अपना महीनों का बजट बिगाड़ देती. उन के जाते ही फिर उन के अगले दौरे के लिए संचय करना शुरू कर देती.

सौरभ की जानकारी में जब यदाकदा ये बातें आतीं तो उन का पारा चढ़ जाता पर मां होने के नाते मैं उन को शांत कर देती. लगभग 5 साल पहले सत्यम मुंबई में नियुक्त था. उसी दौरान सौरभ को हार्ट अटैक पड़ा. डाक्टर ने एंजियोग्राफी कराने के लिए कहा. पूरी प्रक्रिया व इलाज पर आने वाले खर्चे को सुन कर मैं सन्न रह गई. ऐसे समय तो सत्यम जरूर आगे बढ़ कर अपने पिता का इलाज कराएगा. यह सोच कर मैं ने सत्यम को फोन किया. मेरे साथ तो कोई था भी नहीं, जो भागदौड़ कर पाता. खर्चे की तो बात ही अलग थी, लेकिन सत्यम की बात सुन कर मैं हक्कीबक्की रह गई थी :

‘मम्मी, एक दूसरी कंपनी में मुझे बाहर जाने का मौका मिल रहा है, इस समय तो मैं बिलकुल भी नहीं आ सकता. मुझे जल्दी ही अमेरिका जाना पड़ेगा. रही खर्चे की बात, तो थोड़ाबहुत तो भेज सकता हूं पर इतना रुपया मेरे पास कहां.’

बेटे की आधी बात सुन कर ही मैं ने फोन रख दिया. अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रहे उस इनसान के जीवन के प्रति सत्यम के हृदय में जरा भी मोह नहीं जो उस का जन्मदाता है, जो जीवन भर नौकरी कर के अपने लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं जुटा पाया, इसलिए कि बेटे के सफलता की तरफ बढ़ते कदमों पर रंचमात्र भी रुकावट न आए. आज उसी पिता के जीवन के लिए कोई चिंता नहीं. जिए तो जिए और मरे तो मरे…न आवाज में कंपन और न यह चिंता कि कहीं पिता दुनिया से न चले जाएं.

जिस बेटे को उन के जीवन का मोह नहीं, उस से रुपएपैसे की सहायता भी क्यों लेनी है…लेकिन इलाज के लिए रुपए तो चाहिए ही थे. सौरभ ने एक छोटा सा प्लाट सस्ते दामों में शहर के बाहर खरीदा हुआ था. अब वह अच्छी कीमत में बिक सकता था, लेकिन सौरभ यह सोच कर कि सत्यम उस पर अच्छा सा सुख- सुविधापूर्ण घर बनाएगा, नहीं बेचना चाह रहे थे. फिर उस समय उन्होंने अपने एक परिचित से कहा कि वह उस जमीन को खरीद ले और उसे इस समय रुपए दे दे. उस परिचित ने भी जमीन सस्ती मिलती देख उन्हें रुपए दे दिए. उस समय उन्हें लगा, बेटे के बजाय जमीन खरीदना शायद ज्यादा हितकर रहा, जो इस मुसीबत में उन के काम आई.

इधर सौरभ के आपरेशन का दिन फिक्स हुआ, उधर सत्यम अमेरिका के लिए उड़ गया. वहां से पिता का हालचाल जानने के लिए फोन आया तो उस की आवाज में इस बात का कोई मलाल नहीं था कि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया. तब से 5 साल हो गए. सत्यम और उन का संपर्क लगभग खत्म सा हो गया था. उस के फोन यदाकदा ही आते जो नितांत औपचारिक होते.

और अब जब मंदी की चपेट में आ कर सत्यम की नौकरी छूट गई तो वह उन के पास आ रहा है. मुसीबत में इस असुविधापूर्ण, गंदे, छोटे से फ्लैट की याद उसे अमेरिका जैसे शानोशौकत वाले देश में भी आखिर आ ही गई, जहां वह लौट कर जा सकता है. अब कैसे रहेंगे सत्यम, नीमा व उन के बच्चे यहां…कैसे बनाएगी नीमा इस किचन में चाय…जहां पानी जब आए तब काम करना पड़ता है.

मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.

सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा दी. जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया रहता है कि कहीं सौरभ मुझे छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.

मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई. सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सांझ में कैसे पतिपत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार, कम होते बच्चे…पीढ़ी दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है. हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई- लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता.

मन में बेटे के परिवार के आने का कोई उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी, उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6 लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.

आगे पढ़ें- रात को सत्यम का फोन आया कि वह…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 1

‘‘सुनो वह पौलिसी वाली अटैची तो लाना, जरा… रीमा सुन रही हो?’’ विवेक ने बैठक से पत्नी को आवाज लगाई.

‘‘क्या कह रहे हो… मुझे किचन में कुकर की सीटी के बीच कुछ सुनाई नहीं दिया. फिर से कहो,’’ रीमा अपने गीले हाथों को तौलिए से पोंछतेपोंछते ही बैठक में आ गई.

‘‘वह अटैची देना, जिस में बीमे की फाइलें रखी हैं… वैसे तुम कहीं भी रहो, कोई न कोई तुम्हें देख कर सीटी जरूर बजा देता है,’’ विवेक पत्नी को देख मुसकराते हुए बोला.

‘‘फालतू की बातें न करो. वैसे ही कितना काम पड़ा है… तुम्हें यह काम भी अभी करना था,’’ रीमा झुंझला पड़ी.

‘‘यह काम भी तो जरूरी है, जो पौलिसी मैच्योर हो रही है उस का क्लेम ले लूंगा.’’

‘‘तो सुनो कोई हौलिडे पैक लें? कहीं घूमने चलते हैं.’’

‘‘और रिनी की शादी का क्या प्लान है तुम्हारा?’’ रीमा की बात सुन विवेक ने पूछा.

‘‘अभी 22 साल की ही तो हुई है. अभी 2-3 साल और हैं हमारे पास.’’

‘‘उस के बाद कौन सी खजाने की चाबी हाथ लगने वाली है? जो भी पैसा है वह सब पौलिसी, शेयर, एफडी के रूप में बस यही है,’’ विवेक के अटैची खोलते हुए कहा, ‘‘अब चाहे खुद सैकंड हनीमून मना लो या बच्चों का घर बसा दो… 1-2 साल बाद तो रोहन बेटा भी शादी लायक हो जाएगा,’’ विवेक कागजों को उलटतेपलटते बोला, ‘‘अरे हां, कल छोटू भी मिला था जब मैं औफिस से निकल रहा था. बड़ा चुपचुप सा था पहले कितना हंसीमजाक करता था. चलो अच्छा है, उम्र के बढ़ने के साथ थोड़ी समझदारी भी बढ़ गई उस की.’’

रीमा कुछ न बोल कर चुपचाप रसोई में आ गई. फिर काम करते हुए सोच में पड़ गई कि समय कितनी तेजी से बीतता है, इस का आभास सिर्फ बीते पलों को याद करने पर ही होता है. उस की शादी को भी तो 27 साल हो गए. जब शादी तय हुई थी, तो मात्र 19 वर्ष की थी. सगाई से विवाह के बीच के 6 माह उसे कितने लंबे लगे थे. विवाह करूं या न करूं, सोचसोच कर पगलाने लगी थी. जहां एक ओर विवेक का व्यक्तित्व अपनी ओर आकर्षित करता, वहीं अपने लखनऊ शहर से मीलों दूर कानपुर के एक छोटे कसबे की कसबाई जिंदगी और उस का संयुक्त परिवार उस के सुनहरे सपनों में दाग की तरह छा जाता.

अपने सपनों के साथ अपनी अधूरी पढ़ाई के बीच विदा हो वह ससुराल आ गई. यहां के घुटन भरे माहौल से निकलने का एक यही रास्ता बचा था उस के पास कि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ले. बस इसी बहाने मायके का रूख करने लगी. स्नातक की पढ़ाई खत्म कर कंप्यूटर डिप्लोमा में दाखिला ले लिया. विवेक ने उसे भरपूर आजादी दे रखी थी. जहां विवाह के 4 वर्ष पूरे हुए उस की झोली में स्नातक डिग्री के साथ डिप्लोमा इन कंप्यूटर और 2 नन्हेमुन्ने रोहन और रिनी भी आ गए. ससुराल में 2 जेठजेठानियां उन के 4 बच्चे, सासससुर, 1 घरेलू नौकर समेत कुल 14 सदस्य एक बड़े से घर में एक छत के नीचे जरूर थे, मगर एकसाथ नहीं. सांझा चूल्हा भी इसीलिए जल रहा था, क्योंकि अनाज, दूध, घी, दही, सब्जियां सभी तो अपने घर की ही थीं, कमीपेशी के लिए ससुरजी की पेंशन व घर खर्च के नाम पर चंद रुपए सास को पकड़ा कर उन के बेटे निश्चिंत हो जाते. बहुओं में सारा झगड़ा काम को ले कर रहता. वह फटाफट रसोई का काम निबटा कर घर आए मेहमानों का भी स्वागतसत्कार बहुत सम्मान के साथ करती. महल्ले में उस की बड़ी तारीफ होने लगी तो दोनों जेठानियां एक तरफ हो उस के काम में तरहतरह के नुक्स निकलने लगीं. इसी बीच विवेक का ट्रांसफर हैड औफिस दिल्ली हो गया. तब वह बहुत खुश हुई थी कि चलो अब तो कहीं अपने हिसाब से जिंदगी बिताएगी. किंतु विवेक ने यह कह कर साफ मना कर दिया कि दिल्ली में मकान, बच्चों के स्कूल सभी कुछ इतना आसान नहीं है. तुम्हें बाद में ले जाऊंगा.

विवेक दवा कंपनी में एरिया मैनेजर था. रीमा फिर से एक बार मन मार कर रुक गई. फिर जब ससुराल के पास ही एक नया स्कूल खुला तब स्कूल में बच्चों के एडमिशन के साथ ही उसे भी कंप्यूटर टीचर की जौब मिल गई. विवेक ने हमेशा की तरह उसे प्रोत्साहित ही किया. अब तो दोनों जेठानियों ने सास के कान भरने शुरू कर दिए कि घर के काम से बचने के लिए स्कूल चल दी महारानी. सास को सुबहशाम की रोटी से मतलब रहता जिसे रीना समय पर दे देती. दोनों बच्चे अभी छोटे ही तो थे. रोहन 4 साल का और रिनी 3 साल की. दोनों को स्कूल में दाखिल करा दिया. अब वह निश्चिंत थी. मगर घर का माहौल जमे पानी सा सड़न पैदा करता. ऐसे में छोटू की हंसीमजाक, भरपूर बातें उसे ठंडीताजी हवा के झोंके सी लगतीं.

छोटू मतलब बलवीर सिंह. इस नाम से उसे कोई नहीं पुकारता था. पूरे महल्ले का प्रिय समाजसेवक, बस पढ़ाईलिखाई में मन न लगता, न ही शांति से घर में बैठ पाता. किसी को बाइक से सब्जी मंडी पहुंचा देता तो किसी की बहू को कार से हौस्पिटल. उस की डिलिवरी के समय भी दोनों वक्त छोटू की कार काम आई थी. छोटू तो अपने पिताजी के रिटायरमैंट के बाद का अघोषित ड्राइवर हो गया था. घर में उस से बड़े

2 भाई और भी थे. मगर वे भी कार नहीं चला पाते थे. फिर जब दिन भर छोटू घर भर के कामों के लिए गाड़ी दौड़ा ही रहा था तो उन्होंने भी ड्राइविंग सीखने की जहमत न उठाई.

6 फुट लंबातगड़ा जींस और टीशर्ट पहने, आंखों में धूप के चश्मे के साथ हाथ जोड़ विनम्रता से जिस के भी आगे खड़ा हो जाता वही गद्गद हो जाता. उस की ससुराल तो दिन भर में एक चक्कर जरूर लगा जाता.

अकसर रीमा को छेड़ता, ‘‘भाभी, आप की उम्र और मेरी उम्र बराबर ही होगी. लेकिन आप को देखो कभी खाली बैठे नहीं देखा और मैं हर वक्त खाली रहता हूं.’’

‘‘तो कोई काम क्यों नहीं करते? स्कूल ही जौइन कर लो.’’

‘‘वाह भाभी, खुद तो 2 बार में इंटर पास कर पाया हूं दूसरों को क्या पढ़ाऊंगा?’’

‘‘प्राइवेट स्नातक कर लो. आजकल तरहतरह के कंप्यूटर कोर्स भी हैं. तुम्हारे लिए एक अच्छा ओप्शन मिल ही जाएगा.’’

‘‘ठीक हैं, आप भी कंप्यूटर पढ़ने में मदद करेंगी तो मैं जौइन करने की सोचूंगा.’’

‘‘अरे वहां बहुत अच्छी तरह बताते हैं. प्रैक्टिकल भी कराते हैं. फिर भी कुछ समझ न आया करे तो आ कर पूछ लिया करना.’’

‘‘मैं जानता हूं कि आप कभी मना नहीं करेंगी… आप हैं ही बहुत स्वीट.’’

वह हंस पड़ी.

‘‘आप को पता भी है कि आप की हंसी कितनी कातिलाना है? मैं ने तो आप को शादी के बाद जब हंसते हुए देखा था तो देखता ही रह गया था. विवेक भैयाजी से बड़ी जलन हो गई थी मुझे.’’

‘‘तुम कुछ भी कैसे बोल देते हो?’’ रीमा नाराजगी से बोली.

‘‘सच कह रहा हूं भाभी. आप की हंसी और आप की इन आंखों को जो कोई एक बार देख लेता होगा वह जिंदगी भर नहीं भूल सकता होगा.’’

‘‘बसबस, ज्यादा मक्खन न लगाओ… अब अपना कंप्यूटर कोर्र्स जौइन करने के बाद ही मेरा सिर खाने आना,’’ रीमा ने उसे टालना चाहा.

आगे पढ़ें- अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती. रीमा…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 2

‘‘अरे आप मजाक समझ रही हैं क्या? मैं एकदम सच कह रहा हूं. आप ने क्या फिगर मैंटेन किया है… आप को तो कोई भी 2 बच्चों की मां तो दूर मैरिड भी नहीं समझ सकता. बिलकुल कालेजगोइंग स्टूडैंट लगती हैं.’’

‘‘हो गया पूरा पुराण? चलो, अब घर जाओ अपने,’’ वह रुखाई से बोली. फिर भी छोटू मुसकराते हुए एक गहरी नजर से उसे निहार गया.’’

अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती. रीमा अपने बैडरूम में लगे आदमकद आईने के आगे खड़ी हो गई. बदन में जो चरबी बच्चों के पैदा होने पर चढ़ गई थी वह दिन भर की भागदौड़ में कब पिघल गई पता ही न चला उस की शादी न हुई होती तो वह भी अपनी सहेली सुमन की तरह पीएचडी करने कालेज जा रही होती. क्या गलत कहा छोटू ने, पर वह तो घरगृहस्थी की बेडि़यों में जकड़ी है. कालेज लाइफ की उन्मुक्त जिंदगी उस के हिस्से में नहीं थी. मन मसोस कर रह गई. सुमन ने ही उसे बताया था कि तुझे होली में बड़ा बढि़या टाइटिल मिला था, ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं… तेरी अचानक शादी का तो बेचारे क्लासमेट्स को पता ही न था. कितने दिल तोड़े तू ने कुछ पता भी है? जब दोबारा कालेज जौइन किया था तब उसे ऐसी कितनी बातों से दोचार होना पड़ा था. शशि उसे देख उछल पड़ी थी कि अरे मेरी लाड्डो जीजाजी के साथ कैसी छन रही है? कुछ पढ़ाई भी की तुम ने?

उसे अपने विवेक के साथ बिताए अंतरंग पल याद आ गए और उस का मुखड़ा शर्म से गुलाबी हो गया. मानो उस के बैडरूम में वे सभी अचानक प्रविष्ट हो गई हों.

‘‘अरे इसे देखो… क्या रूप निखर आया है,’’ सुमन ने छेड़ा.

यह सुन अनीता चहक कर बोली, ‘‘मेरी शादी होगी न तब देखना मेरा रूप.’’

सभी उस के बड़बोलेपन पर हंस पड़े.

कभी कोई परीक्षा कक्ष में कोई छेड़ देता, ‘‘क्यों तेरी ससुराल में साससुर सब साथ रहते हैं क्या?’’

वह झुंझला कर बोल पड़ती, ‘‘कुछ नहीं पढ़ा है यार. जो थोड़ाबहुत याद है उसे भी तुम लोगों की बकवास सुन कर भूल जाऊंगी.’’

फिर एक गहरी सांस ली उस ने कि बीती बातें क्या याद करनी, पर मन था कि भटक कर उन्हीं लमहों में जा पहुंचा…

उन्हीं दिनों मायके में उस की चचेरी बहन का विवाह तय हो गया. तब अपनी शादी के 5 वर्षों के बाद पहली बार उस ने ब्यूटीपार्लर का रुख किया था. विवेक के लाख मना करने पर भी बालों को एक नया आकार दिया. इतनी तैयारी तो अपने विवाह के पूर्व भी न की थी. शायद वह अपनी दबी हसरतों को इस मौके पर पूरा कर लेना चाहती थी. हुआ भी वैसा ही. विवाह के दिन जब वह अपने शादी के लहंगे में सजधज कर विवेक के सम्मुख खड़ी हुई तो वह बौखला सा गया, ‘‘इतना सजनेधजने की क्या जरूरत थी… कोई तुम्हारी शादी है क्या?’’

‘‘न हो, मेरी बहन की तो है और वह भी मुझ से बस 1 साल छोटी है… कितने सारे कौमन फ्रैंड हैं हमारे… आज सब मिलेंगे वहां पर… और ये मम्मीपापा, बच्चे सब कहां हैं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हें अपने बनाव शृंगार से फुरसत नहीं थी. वे सभी टैक्सी कर चले गए. कह गए तुम दोनों बाइक से घर को लौक कर आ जाना.’’

‘‘तो चलो फटाफट,’’ उस ने उतावलेपन से कहा.

‘‘पहले बाइक की चाबी तो ले कर आओ… वहीं ऊपर तुम्हारे बैडरूम में है,’’ उस का बैडरूम अब भी उसी के नाम से था मायके के… कितनी यादें जुड़ी हैं इस कमरे से रीमा की. अभी भाई की शादी नहीं हुई है तो पूरे घर में उसे अपना ही राजपाठ दिखाई देता है.

‘‘तुम ले आओ न प्लीज, यह लहंगे में सीढि़या चढ़नेउतरने में दिक्कत होती है,’’ उस ने लहंगे को सोफे पर फैला कर बैठते हुए कहा.

‘‘तो यहीं बैठी रहो… मुझे नहीं पता कि तुम ने बाइक की चाभी कहां रखी है,’’ विवेक भी वहीं सोफे पर बैठते हुए बोला.

रीमा एक झटके से उठी और लहंगे को संभालती बड़बड़ाते हुए सीढि़यां चढ़ने लगी कि अपनी बहन की शादी होती तो साहब सब से पहले पहुंच जाते तोरण बांधने… मेरे मायके की शादी है, तो जितना नाटक करें उतना ही कम है.

चाबी बैड पर ही रखी थी. जैसे ही उठा कर पलटी एक झटके में विवेक ने उसे बांहों में भर बैड पर गिरा दिया. इस से पहले कि वह कुछ बोल पाती उस के होंठ पर विवेक ने अपने प्यार का ताला जड़ दिया.

किसी तरह खुद को अलग कर बोली, ‘‘मेरा सारा मेकअप खराब कर दिया तुम ने… यह सब बंद करो. वहां सब हमारा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘करने दो इंतजार सब को… पर मुझ से इंतजार नहीं होगा,’’ विवेक उस के कान में फुसफुसाया.

रीमा अपनी बेकाबू धड़कनों को संभालते हुए बोली, ‘‘अभी चलो प्लीज… हम जयमाला होते ही लौट आएंगे.’’

‘‘नहीं पहले प्रौमिस करो… तुम मायके में इतनी रम जाती हो कि फिर कुछ याद नहीं रहता,’’ विवेक अपनी बांहों के घेरे को और तंग करते हुए बोला.

‘‘पक्का प्रौमिस, कह कर रीमा खिलखिलाई, तो विवेक ने एक बार फिर से उस की लिपस्टिक बिगाड़ दी.’’

‘‘चलो हटो… वहां शादी हो रही है और यहां…’’ उस ने विवेक को अपने से दूर करते हुए कहा.

शादी में भी जयमाला के बाद विवेक की घर चलो की जिद ने रीमा का कितना मजाक बनाया था. वह सब को सफाई देतेदेते थक गई थी कि ये आज सुबह ही दिल्ली से आए हैं… सफर में नींद पूरी नहीं हुई है, मगर सभी मुंह दबा कर हंसते रहे. उसे अच्छी तरह समझ आ गया कि विवेक को उस के शृंगार को ले कर इतनी आफत क्यों आई थी. दरअसल, वह चाहता ही नहीं था कि उस के अलावा किसी की नजर उस पर पड़े, लेकिन उस के मुंह से कभी तारीफ के शब्द नहीं निकलते.

कितना सूनापन लगने लगा था. विवेक के दिल्ली जाने के बाद… दिन तो स्कूल, बच्चों रसोई में बीत जाता. मगर रात बहुत लंबी लगतीं. फोन तो रोज ही आता, मगर तब लैंड लाइन फोन होने के कारण कभी मां, कभी पिताजी ही बात कर फोन रख देते. अगर रीमा ने उठाया तब तो ठीक वरना वे उसे बता कर मुक्ति पा जाते कि विवेक का फोन आया था.

उस दिन फोन पर विवेक ने बताया कि वह मंगलवार को 12 से 1 के बीच घर पहुंच जाएगा. अत: तुम स्कूल से आधे दिन की छुट्टी ले कर आ जाना. बच्चे स्कूल बस से बाद में अपनेआप आ जाएंगे.

उस का उतावलापन सुन कर वह बोल पड़ी, ‘‘दिन के बाद रात तो आ ही जाएगी.’’

तब विवेक गुस्से से बोला था, ‘‘रहने दो तुम, अब मैं बाद में छुट्टी लूंगा.’’

‘‘अच्छा, नाराज न हो. मैं हाफ डे ले लूंगी,’’ उस ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ा कर कहा, ‘‘कमरे में कोई मौजूद नहीं था. उसे झुंझलाहट हो आई कि फोन तो घर के चौराहे पर रखा है और लाट साहब को रोमांस सूझता है.’’

उस दिन उस ने सुबह ही घर में बता दिया था कि लंच टाइम तक ये आ जाएंगे. स्कूल में मासिक परीक्षा चल रही है. अत: स्कूल जाना जरूरी है. स्कूल में प्रिंसिपल से कहा कि घर में फंक्शन है. आज फिर जल्दी जाना है. कंप्यूटर प्रैक्टिकल परीक्षा पहले 4 पीरियडों में ही निबटा दी.

आगे पढ़ें- छुट्टी की मंजूरी मिलते ही तुरंत स्कूल के गेट तक…

मजाक मजाक में: रीमा के साथ आखिर उसके देवर ने क्या किया- भाग 3

छुट्टी की मंजूरी मिलते ही तुरंत स्कूल के गेट तक पहुंच गई. तभी न जाने कहां से भटकता आ गया. बोला, ‘‘घर जाना है क्या? आइए, मैं छोड़ देता हूं,’’ और फिर अपनी बाइक उस के आगे ला कर खड़ी कर दी.

उसे खुद घर जाने की जल्दी थी. कहीं देर हो गई सवारी ढूंढ़ने के चक्कर में तो विवेक फिर से गुस्से से लालपीला हो जाएगा.

‘‘क्या सोच रही हैं?

आज जल्दी कैसे आ गईं, स्कूल से बाहर?’’

तबीयत ठीक नहीं है.

‘‘अरे भाभी, अपना खयाल रखा करो,’’ बाइक स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘आप एकदम भोली हो… वहां तो भाई गुलछर्रे उड़ा रहा होगा और आप यहां अपने को कितना व्यस्त रखती हो.’’

‘‘क्या गुलछर्रे उड़ाते होंगे बेचारे… न ढंग का खाना, न देखभाल. घर से दूर हमारे लिए ही तो जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं… चार पैसे बचेंगे तो हमारे बच्चों के भविष्य के ही काम आएंगे.’’

‘‘कर दी न वही घिसीपिटी बात… वहां नाइट क्लब होते हैं… खूब शराब और शबाब का दौर चलता है… वहां किसे अपनी बीवी याद आएगी.’’

फिर उस का मन हुआ कि वह छोटू को बता दे कि उस का पति घर में कितनी बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा है… इन सब चक्करों से वह कोसों दूर है वरना आज उसे यों झूठ का सहारा ले कर आधे दिन की छुट्टी ले कर घर नहीं भागना पड़ता… पत्नी पति के हर परिवर्तन को झट भांप लेती है. मगर उस ने छोटू की बातों को कोई तवज्जो नहीं दी.

‘‘आओ चाय पी कर जाना,’’ उस ने अपने घर के गेट के आगे उतर कर छोटू से औपचारिकता निभाने को पूछा.

‘‘नहीं, फिर कभी… आज आप की तबीयत ठीक नहीं है, फिर आऊंगा. मुझे आप से कंप्यूटर की कुछ कमांड समझनी हैं.’’

‘‘ठीक है अगले हफ्ते आना… अभी बच्चों के टैस्ट चल रहे हैं.’’

‘‘जो हुकम स्वीट भाभी,’’ अपनी खीसें निपोरता हुआ बाइक को एक झटके से मोड़ कर वापस चला गया.

टीना ने चैन की सांस ली कि अगर अंदर आ जाता तो विवेक के प्रोग्राम का क्या होता?

सासससुर बरामदे में ही बैठे मिल गए, ‘‘आज जल्दी आ गई… विवेक आया है इसीलिए… अरे, हमारे साथ भोजनपानी कर लिया उस ने. तुझे इतनी चिंता क्यों हो गई,’’ ससुर ने कटाक्ष किया.

वह कुछ न बोल कर सिर झुकाए अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरे बहू, वह तो सो भी गया होगा अब तक… तू हमारे लिए चाय बना.’’

कमरे में विवेक करवटें बदल रहा था. उसे देखते ही  खींच कर अपने सीने से लगा लिया मानो वह उसे सदियों के बाद मिल रहा हो.

‘‘कितने दिन बीत गए हैं पता है?’’ अपनी गरम सांसें उस के चेहरे पर टिकाते हुए विवेक ने कहा.

‘‘हां पूरा 1 महीना,’’ वह मुसकराई. विवेक ने उस पर अपने प्यार की बारिस कर दी.

‘‘अब तुम सोओगी क्या?’’ विवेक ने अपनी तृप्त आंखों से एक नजर उस पर डालते हुए कहा.

‘‘नहीं, नहाने जा रही हूं. बच्चे भी आते होंगे… देखना अभी तुम्हारी दोनों भाभियां मेरा कितना मजाक बनाने वाली हैं,’’ टीमा हंस कर बोली.

‘‘उन्हें क्या पता कि तुम ने क्या गुल खिलाएं हैं?’’ विवेक उस के हाथों को सहलाते हुए बोला.

‘‘हां, एक तुम्हीं तो हो कामदेव बाकी तो सब अज्ञानी हैं… छोड़ो मुझे तुम, अब चुपचाप सो जाओ. मैं नहा कर चाय बनाती हूं… 1 घंटा पहले ही ससुर फरमाइश कर रहे थे.’’

उस दिन सुबह से ले कर शाम तक कितने झूठ बोलने पड़े थे उसे… बच्चों को भी उसे जल्दी आने की अलग से सफाई देनी पड़ी.

ठीक 1 हफ्ते के बाद छोटू आ धमका. अपनी किताबे उठाए उस के बैडरूम में ही प्रवेश कर गया.

विवेक वापस जा चुका था. दोनों बच्चे बाहर खेल रहे थे… वह अपनी कपड़ों की अलमारी ठीक कर रही थी. उसे देख कर चौंक पड़ी. बोली, ‘‘चलो, बाहर बरामदे में बैठ कर पढ़ाई करते हैं.’’

‘‘हांहां, बाहर ही बैठ जाएंगे… वैसे आप का बैड भी बड़ा शानदार है,’’ उस ने बैड पर बैठते हुए कहा, ‘‘अकेले तो ऐसे गद्दों पर भी नींद नहीं आती होगी न?’’

रीमा कोई जवाब न दे कर कमरे से बाहर आ गई तो छोटू को भी पीछेपीछे आना पड़ा.

‘‘अरे भाभी, मैं तो मजाक कर रहा था… आप नाराज ही हो गईं.’’

जब से विवेक गए हैं तब से छोटू का मजाक कुछ ज्यादा ही सीमा लांघने लगा है… जितना उस से बचने की जुगत बैठाती, उतना ही कोई न कोई काम पड़ ही जाता. एक दिन रिनी सीढि़यों से लुढ़क गई. उस दिन भी उसी की कार से हौस्पिटल भागी. सिर्फ 3 टांके उस के माथे पर आए थे. मगर वह खून देख कर कितना घबरा गई थी, ऐसे में छोटू ने ही अपनी पहचान के डाक्टर से तुरतफुरत सब काम करवा दिए थे.

एक दिन आ कर बोला, ‘‘मैं बीमा पौलिसी का एजेंट बन गया हूं. एक पौलिसी तो आप को लेनी ही पड़ेगी.’’

रीमा ने रिनी के नाम से ले ली. जानती थी जब तक ले नहीं लूंगी तब तक पीछा नहीं छोड़ेगा. तब वह बहुत खुश हो गया.

‘‘यह हुई न बात स्वीट भाभी. भैया कब आ रहे हैं?’’ उस ने पूछा. इस पर रीमा तुनक पड़ी, ‘‘तुझे क्या काम याद आ गया उन से?’’

‘‘मुझे आप की तनहाईयां देख कर बहुत दुख होता है… यह भी कोई उम्र है तनहा रहने की?’’

‘‘तो क्या करूं… सब की अपनीअपनी मजबूरियां होती हैं.’’

‘‘अरे आप चाहो तो ऐश कर सकती हैं.’’

‘‘वह कैसे?’’ उस ने जानबूझ कर छोटू के मन की थाह लेने को पूछा.

‘‘अरे भाभी, आप के पास तो डबल लाइसैंस हैं?’’

‘‘मजे लेने के लिए कौन से लाइसैंस?’’ आज वह सब कुछ साफ कर लेने के मूड में थी.

‘‘एक तो आप मैरिड हो दूसरा फैमिली प्लानिंग भी कर चुकी हो… अब तो आप आजाद हो आकाश में उड़ते पंछी की तरह.’’

‘‘इस का क्या मतलब है? मैं कुछ

समझी नहीं?’’

‘‘तुम्हारी यही मासूमियत तो पागल कर जाती है भाभी… अरे जैसे भाई दिल्ली में दूसरी लड़कियों के साथ मौज करते हैं. वैसे ही आप भी मेरे साथ मजे ले सकती हो.’’

‘‘यह मेरा अपने पति को धोखा देना नहीं कहलाएगा क्या?’’ उस ने अपने क्रोध को दबाते हुए पूछा.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. यह तो बस थोड़ा सा टाइमपास होता है जैसे तुम ने एक फिल्म देखी हो बस… फिल्म खत्म तुम अपने घर, मैं अपने घर.’’

‘‘अभी तुम्हारी शादी तो नहीं हुई है न, इसलिए तुम इस रिश्ते का महत्त्व नहीं जानते… जब तुम्हारी शादी होगी तब मैं तुम से कहूं कि एक फिल्म अपनी बीवी की विवेक को दिखा दो तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘अरे, मैं इतना दकियानूसी नहीं हूं… मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि मेरी बीवी क्या करती है,’’ छोटू खिसिया कर बोला.

‘‘तो ठीक है जब तुम अपनी बीवी को इतनी आजादी दोगे. तब मैं तुम्हें मान जाऊंगी,’’ रीमा ने उसे चुनौती देते हुए कहा.

साल भर बाद ही वह विवेक के साथ कानपुर चली गई. विवेक को भी

दिल्ली के मुकाबले कानपुर रास आ गया. एक दिन अचानक छोटू का फोन आ गया.

‘‘क्या बात है बड़े दिनों के बाद याद आई हम लोगों की?’’ रीमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या भाभी, आप लोग मेरी बरात में भी शामिल नहीं हुए,’’ उस ने नाराजगी दिखाई.

‘‘तुम ने हमें कार्ड ही नहीं भेजा… खैर कोई बात नहीं, तुम्हें और तुम्हारी दुलहन को बहुत सारी शुभकामनाएं.’’

‘‘भाभी, आप से एक काम था. इसीलिए फोन किया था… वह मेरी वाइफ का बीएड का रिजल्ट आ गया है, उसे कानपुर कालेज में दाखिला लेना है. आप की नजर में कोई अच्छा सा घर हो तो देखना…’’

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत खुशी की बात है… घर की तुम बिलकुल चिंता न करो. यहां हमारे पास थ्री बैडरूम सैट है. तुम लोगों को कोई असुविधा नहीं होगी. अब फटाफट आ जाओ. तुम निश्चिंत रहो. यहां तुम्हारे भाई तो हैं ही उस की देखभाल को.’’

‘‘खटाक,’’ की आवाज के साथ फोन कट गया. छोटी की बीवी शायद उन के घर नहीं रहने आएगी.

रीमा हंस पड़ी कि वह तो सिर्फ मजाक कर रही थी और छोटू डर गया.

‘‘क्या बात है? अकेलेअकेले क्यों हंस रही हो,’’ विवेक रसोई में रखे फ्रिज से पानी की बोतल निकालते हुए बोला.

‘‘सुनो, छोटू से जो जीवन बीमा की पौलिसी ली थी. वह कब पूरी होगी?’’

‘‘अगले साल… 2 लाख मिलेंगे… वे सब बिटिया की शादी के बजट में काम आएंगे, पर तुम क्यों पूछ रही हो?’’

‘‘चलो कोई तो काम अच्छा किया छोटू ने.’’

‘‘कौन सा काम गलत किया उस ने? मुझे भी बताओ,’’ विवेक ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा कि उस ने कोई गलत काम किया.’’

‘‘तुम औरतों से बात करना मतलब मुसीबत मोल लेना होता है.’’

‘‘हां, अब तुम ने एकदम सही बात की,’’ कह रीमा खिलखिला उठी.

खुशियों का समंदर: भाग 3- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

घर पहुंच कर अहल्या ने गिरीश की मदद की बातें सरला और लालचंद को भी बताईं. उन दोनों ने निर्णय लेने में समय नहीं गंवाया. तत्काल ही गिरीश को ऊंची तनख्वाह और सारी सुविधाएं दे कर अपनी फैक्टरी में नियुक्त कर लिया. शहर से बाहर जाने का सारा काम गिरीश ने बड़ी खूबी से संभाल लिया था. लालचंद हर तरह से संतुष्ट थे. समय पंख लगा कर उड़ान भरता रहा. गिरीश भी सेठ लालचंद परिवार के निकट आता गया. उस का भी तो कोई नहीं था. प्यार मिला तो उधर ही बह गया. अहल्या ने गिरीश के बारे में सभीकुछ बता दिया था सिवा उस की जाति के. गिरीश को भी मना कर दिया था कि भूल कर भी वह अपनी जाति को किसी के समक्ष प्रकट न करे. पहले तो उस ने आनाकानी की पर अहल्या के समझाने पर उस ने इसे भविष्य पर छोड़ दिया था.

अहल्या जानती थी कि जिस दिन उस के साससुर गिरीश की जाति से अवगत होंगे, उस के प्रवेश पर रोक लग जाएगी. बड़ी मुश्किल से तो घर का वातावरण थोड़ा संभाला था. आरंभ में गिरीश संकुचित रहा पर अपनी कुशलता, ईमानदारी और निष्ठा से उस ने दोनों फैक्टरियां ही नहीं संभालीं, बल्कि अपने मृदुल व्यवहार से लालचंद और सरला का हृदय भी जीत लिया था. गिरीश अब उन के कंपाउंड में बने गैस्टहाउस में ही रहने लगा था. सारी समस्याओं का हल गिरीश ही बन गया था.

लालचंद और सरला की आंखों में अहल्या और गिरीश को ले कर कुछ दूसरे ही सपने सजने लगे थे, लेकिन अहल्या की उदासीनता को देख कर वे आगे नहीं बढ़ पाते थे. उस ने एक सहकर्मी से ज्यादा गिरीश को कभी कुछ समझा ही नहीं था. उस के साथ एक दूरी तक ही नजदीकियां रखे थी वह. कई बार वह उन दोनों को समझा चुकी थी पर लालचंद और सरला दिनोंदिन गिरीश के साथ सारी दूरियां को मिटाते जा रहे थे. कभी लाड़दुलार से खाने के लिए रोक भी लिया तो अहल्या उस का खाना बाहर ही भिजवा देती थी.

गिरीश का मेलजोल भी यह क्रूर समाज स्वीकार नहीं कर सका. कोई न कोई आक्षेप उन की ओर उड़ाता ही रहा. आजिज आ कर एक दिन सरला बड़े मानमनुहार के साथ अहल्या से पूछ ही बैठी, ‘‘गिरीश तुम्हें कैसा लगता है? हम दोनों को तो उस ने मोह ही लिया है. हम चाहते हैं कि तुम उसे अपने जीवन में स्थान दे कर हर तरह से व्यवस्थित हो जाओ. है तो तुम्हारा बचपन का साथी ही. क्या पता इसी संयोग से हम सब उस से इतने जुड़ गए हों. हम भी कितने दिनों तक तुम्हारा साथ देंगे. यह समाज बड़ा ही जालिम है, तुम्हें यों अकेले जीने नहीं देगा. नील की यादों के सहारे जीवन बिताना बड़ा कठिन है. फिर वह तुम्हें कोई बंधन में भी तो नहीं बांध गया है जिस के सहारे तुम जी लोगी. सब समय की बात है वरना एक साल कम नहीं था.’’ प्रत्युत्तर में अहल्या कुछ देर उन्हें देखती रही, फिर बड़े ही सधे स्वर में बोली, ‘‘आप गिरीश को जानती हैं पर उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि को नहीं. मुझे भी कुछ याद नहीं है. क्या पता अगर हमारी आशाओं की कसौटी पर उस का परिवेश ठीक नहीं उतरा तो कुछ और पाने की चाह में उस के इस सहारे को भी खो बैठेंगे. मुझ पर अब किसी अफवाह का असर नहीं होता, अहल्या नाम की शिला जो हूं जिसे दूसरों ने छला और लूटा. वे जिन्होंने लूटा, देवता बने रहे, पर मैं अहल्या जैसी पत्थर पड़ी किसी की ठोकर का इंतजार क्यों करूं. किसी राम के मैले पैरों की अपेक्षा भी नहीं है मुझे. जैसे जीवन गुजर रहा है, गुजरने दीजिए.’’

पर आज तो सरला अपने मन की बात किसी न किसी तरह से अहल्या से मनवा ही लेना चाहती थी. उन की जिद को टालने के ध्येय से अहल्या ने गिरीश से ही पूछ लेने को कहा. और एक दिन लालचंद व सरला ने गिरीश से उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे जानना चाहा तो उस ने भी छिपाना ठीक नहीं समझा और बेझिझक हो, सभीकुछ उन के समक्ष उड़ेल कर उन की जिज्ञासा को हर तरह शांत कर दिया. लालचंद तो तत्काल वहां से उठ कर अंदर चले गए. अपनी सारी आशाओं पर तुषारापात हुए देख, सरला ने घबरा कर आंखें मूंद लीं. गिरीश अपनी इस अवमानना को समझते हुए झटके से उठ कर चला गया. पहाड़ के सब से ऊंचे ब्राह्मण की मानसिकता निम्नजाति से आने वाले गिरीश को किसी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही थी. दोनों फिर अवसाद में डूब गए, कहीं दूर तक कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

हफ्ता गुजर गया पर न गिरीश उन दोनों से मिलने आया और ही इन्होंने पहले की तरह मनुहार कर के उसे बुलाया. इस संदर्भ में अहल्या ने जब सरला से पूछा तो उन की पलकें भीग गईं. आहत ुहो कर उन्होंने अहल्या से कहा, ‘‘गिरीश की जाति के बारे में क्या तुम्हें सच मालूम नहीं था? अगर था तो बताया क्यों नहीं? इतने दिनों तक क्यों अंधेरे में रखा. हमारे सारे मनसूबे पर पानी फिर गया. पलभर में एक बार फिर प्रकृति ने हमारी आंखों से सारे सपने नोच लिए.’’ कुछ देर अहल्या सोचती रही, फिर उन की आंखों में निर्भयता से देखते हुए बोली, ‘‘मैं उस की जाति से अनजान नहीं थी, लेकिन वह तो हमारी फैक्टरी के अफसर होने के सिवा कुछ नहीं था, और इस से जाति का क्या लेनादेना. भरोसे का आदमी था, इसलिए सारे कामों को उसे सौंप दिया.’’ लालचंद भी वहां पर आ गए थे.

अहल्या ने निसंकोच लालचंद से कहा, ‘‘पापा, अगर अफवाहों के चक्रव्यूह में फंस कर आप ने उसे फैक्टरी के कामों से निकाल दिया तो उस जैसे भरोसे का आदमी फिर शायद ही मिले. आप दोनों के दुखों का कारण मैं ही हूं. मैं ने सोच लिया है यहां से हमेशा के लिए चले जाने का. गिरीश आप दोनों की देखरेख कर लेगा. अगर उसे निकाला तो मैं भी उस के साथ निकल जाऊंगी. आप के साथ अपने नाम को फिर से जुड़ते देख मैं मर जाना चाहूंगी. यह जालिम दुनिया हमें जीवित ही निगल जाएगी,’’ यह कह कर अहल्या रो पड़ी.

अपने सिर पर किसी स्पर्श का अनुभव कर के अहल्या ने सिर उठाया तो लालचंद को अपने इतने निकट पा कर चौंक गई. लालचंद बोल पड़े, ‘‘गिरीश के परिवेश को भूल कर अगर हम हमेशा के लिए उसे अपना बेटा बना लें तो इस की अनुमति तुम दोगी?’’ अहल्या ने सिर झुका लिया. आज वर्षों बाद लालचंद की विशाल हवेली फिर एक बार दुलहन की तरह सजी हुई थी. मंच पर वरवधू बने गिरीश और अहल्या के साथ सेठ दंपती अपार खुशियों से छलकते सागर को समेट रहे थे. सारी कटुताओं को विस्मृत करते हुए इस खुशी के अवसर पर लालचंद ने दोस्तदुश्मन सभी को आमंत्रित किया था. कहीं भीड़ के समूह में उन की उदारता की प्रशंसा हो रही थी तो कहीं आलोचना. पर जो भी हो, अपने हृदय की विशालता से उन के जैसे कट्टर ब्राह्मण ने गिरीश की जाति को भूल उसे अपने बेटे नील का स्थान दे कर बड़ा ही क्रांतिकारी व अनोखा काम किया था.

खुशियों का समंदर: भाग 2- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

अपने भाई की बात सुन कर सरला बहुत नाराज हुई तो भाई ने भी अपना गरल उगल कर उन के जले हुए तनमन पर खूब नमक रगड़ा. ‘‘हां, तो सरला, तुम्हारी बहू कितनी भी सुंदर और काबिल क्यों न हो, उस पर विधवा होने का ठप्पा तो लग ही चुका है. वह तो मैं ही था कि इस का उद्धार करने चला था वरना इस की औकात क्या है. सालभर के अंदर ही अपने खसम को खा गई. वह तो यहां है, इसलिए बच गई वरना हमारे यहां तो ऐसी डायन को पहाड़ से ढकेल देते हैं. मैं ने तो इस का भला चाहा, पर तुम्हें समझ में आए तब न. जवानी की गरमी जब जागेगी तो बाहर मुंह मारेगी, इस से तो अच्छा है कि घर की ही भोग्या रहे.’’

सरला के भाई की असभ्यता पर लालचंद चीख उठे, ‘‘अरे, कोई है जो इस जानवर को मेरे घर से निकाले. इस की इतनी हिम्मत कि मेरी बहू के बारे में ऐसी ऊलजलूल बातें करे. सरला, आप ने मुझ से पूछे बिना इसे कैसे बुला लिया. आप के चचेरे भाइयों के परिवार की काली करतूतों से पहाड़ का चप्पाचप्पा वाकिफ है.’’ लालचंद क्रोध के मारे कांप रहे थे. ‘‘न, न, बहनोई साहब, मुझे निकलवाने की जरूरत नहीं है. मैं खुद चला जाऊंगा, पर एक बात याद रखिएगा कि आज आप ने मेरी जो बेइज्जती की है उसे सूद समेत वसूल करूंगा. तुम जिस बहू के रूपगुण पर रिझे हुए हो, सरेआम उसे पहाड़ की भोग्या न बना दिया तो मैं भी ब्राह्मण नहीं.’’ यह कहता हुआ सरला का बदमिजाज भाई निकल गया पर अपनी गर्जना से उन दोनों को दहलाते हुए भयभीत कर गया. उस के जाने के बाद कई दिनों तक घर का वातावरण अशांत रहा.

सरला के भाई की धमकियां पहाड़ के समाज के साथसाथ व्यापार में लालचंद से स्पर्धा रखने वाले व्यवसायियों के समाज में भी प्रतिध्वनित होने लगी थीं. बहू के साथ उन के नाजायज रिश्ते की बात कितनों की जबान पर चढ़ गई थी. यह समाज की नीचता की पराकाष्ठा थी. पर समाज तो समाज ही है जो कुछ भी उलटासीधा कहने और करने का अधिकार रखता है. उस ने बड़ी निर्दयता से ससुरबहू के बीच नाजायज रिश्ता कायम कर दिया. सरेआम उन

पर फब्तियां कसी जाने लगी थीं. आहिस्ताआहिस्ता ये अफवाहें पंख फैलाए लालचंद के घर में भी आ गईं. अपने अति चरित्रवान, सच्चे पति और कुलललना बहू के संबंध में ऐसी लांछनाएं सुन कर सरला मृतवत हो गई. नील की मृत्यु के आघात से उबर भी नहीं पाई थी कि पितापुत्री जैसे पावन रिश्ते पर ऐसा कलुष लांछन बिजली बन कर उन के आशियाने को ध्वंस कर गया. वह उस मनहूस दिन को कोस रही थी जब अपने उस भाई से अहल्या की दूसरी शादी की मंशा जता बैठी थी. लालचंद के कुम्हलाए चेहरे को देखते ही वह बिलख उठती थी.

अहल्या लालचंद के साथ बाहर जाने से कतराने लगी थी. उस ने इस बुरे वक्त से भी समझौता कर लिया था पर लालचंद और सरला को क्या कह कर समझाती. जीवन के एकएक पल उस के लिए पहाड़ बन कर रह गए थे, लेकिन वह करती भी क्या. समाज का मुखौटा इतना घिनौना भी हो सकता है, इस की कल्पना उस ने स्वप्न में भी नहीं की थी. इस के पीछे भी तो सत्यता ही थी. ऐसे नाजायज रिश्तों ने कहीं न कहीं पैर फैला ही रखे थे. एक तो ऐसे ही नील की मृत्यु ने उसे शिला बना दिया था. उस में न तो कोई धड़कन थी और न ही सांसें. बस, पाषाण बनी जी रही थी. उस के जेहन में आत्महत्या कर लेने के खयाल उमड़ रहे थे. कल्पना में उस ने कितनी बार खुद को मृतवत देखा पर सासससुर की दीनहीन अवस्था को स्मरण करते ही ये सारी कल्पनाएं उड़नछू हो जाती थीं.

वह नील की प्रेयसी ही बनी रही, उस के इतने छोटे सान्निध्य में उस के हृदय की साम्राज्ञी बनी रही. प्रकृति ने कितनी निर्दयता से उस के प्रिय को छीन लिया. अभी तो नील की जुदाई ही सर्पदंश बनी हुई थी, ऊपर से बिना सिरपैर की ये अफवाहें. कैसे निबटे, अहल्या को कुछ नहीं सूझ रहा था. अपने ससुर लालचंद का सामना करने से भी वह कतरा रही थी. पर लालचंद ने हिम्मत नहीं खोई. उन्होंने अहल्या को धैर्य बनाए रखने को कहा. अब बाहर भी अहल्या अकेले ही जाने लगी थी तो लालचंद ने भी जाने की जिद नहीं की. फैक्टरी के माल के निर्यात के लिए बड़े ही उखड़े मन से इस बार वह अकेली ही मुंबई गई. जिस शोरूम के लिए माल निर्यात करना था वहां एक बहुत ही परिचित चेहरे को देख कर वह चौंक उठी. वह व्यक्ति भी विगत के परिचय का सूत्र थामे उसे उत्सुकता से निहार रहा था?.

अहल्या अपने को रोक नहीं सकी और झटके से उस की ओर बढ़ गई. ‘‘तुम गिरीश ही हो न, यहां पर कैसे? ऐसे क्या देख रहे हो, मैं अहल्या हूं. क्या तुम्हें मैं याद नहीं हूं. रसोईघर से चुरा कर न जाने कितने व्यंजन तुम्हें खिलाए होंगे. पकड़े जाने पर बड़ी ताई मेरी कितनी धुनाई कर दिया करती थीं. मुझे मार खाए दो दिन भी नहीं होते थे कि मुंहउठाए तुम पहुंच जाया करते थे. दीनू काका कैसे हैं? पहाड़ी के ऊंचेनीचे रास्ते पर जब भी मेरे या मेरी सहेलियों की चप्पल टूट जाती थी, तो उन की सधी उंगलियां उस टूटी चप्पल को नया बना देती थीं. तुम्हें भी तो याद होगा?’’

अहल्या के इतने सारे प्रश्नों के उत्तर में गिरीश मुसकराता रहा, जिस से अहल्या झुंझला उठी, ‘‘अब कुछ बताओगे भी कि नहीं. काकी की असामयिक मृत्यु से संतप्त हो कर, सभी के मना करने के बावजूद वे तुम्हें ले कर कहीं चले गए थे. सभी कितने दुखी हुए थे? मुझे आज भी सबकुछ याद है.’’

‘‘बाबा मुझे ले कर मेरे मामा के पास कानपुर आ गए थे. वहीं पर जूते की दुकान में नौकरी कर ली और अंत तक करते रहे. पिछले साल ही वे गुजर गए हैं, पर उन की इच्छानुसार मैं ने मन लगा कर पढ़ाई की. एमए करने के बाद मैं ने एमबीए कर लिया और इस शोरूम का फायनांस देखने लगा. पर आप यहां पर क्या कर रही हैं?’’ एक निम्न जाति का बेटा हमउम्र और पहाड़ की एक ही बस्ती में रहने वाली अहल्या को तुम कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका. यही क्या कम है कि कम से कम अहल्या ने उसे पहचान तो लिया. उस से बात भी कर ली, यह क्या कम खुशी की बात है उस के लिए वरना उस की औकात क्या है? ‘‘अरे, यह क्या आपआप की रट लगा रखी है. चलो, कहीं चल कर मैं भी अपनी आपबीती से तुम्हें अवगत करा दूं,’’ कहती हुई अहल्या उसे साथ लिए कुछ देर तक सड़क पर ही चहलकदमी करती रही. फिर वे दोनों एक कैफे में जा कर बैठ गए.

अश्रुपूरित आंखों और रुंधे स्वर में अहल्या ने अपनी आपबीती गिरीश से कह सुनाई, सुन कर उस की पलकें गीली हो गईर् थीं, लेकिन घरबाहर फैली हुई अफवाहों को कह कर अहल्या बिलख उठी. जब तक वह मुंबई में रही, दोनों मिलते रहे. गिरीश के कारण इस बार अहल्या के सारे काम बड़ी आसानी से हो गए. सूरत लौटने के रास्ते तक अहल्या पहाड़ पर बिताए अपने बचपन और गिरीश से जुड़े किस्से याद करती रही. बाद में पढ़ाई के लिए उसे भी तो दिल्ली आना पड़ा था.

आगे पढ़ें- घर पहुंच कर अहल्या ने गिरीश…

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