“कृति, प्लीज, इस बारे में मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. वैसे भी मुझे बहुत देर हो गई है. अब मुझे निकलना होगा,” अपनी घड़ी पर एक नजर डालते हुए शीतल ने अपना कदम आगे बढ़ाया ही था कि कृति ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, “क्यों मां… क्यों नहीं समझतीं आप मेरी बात? क्यों जिद पर अड़ी हैं? क्या चाहती हैं आप कि पापा को फिर से अटैक आ जाए? देखना, नहीं बचेंगे इस बार. तुली रहो आप अपनी जिद पर,” इस बार कृति की आवाज जरा तेज हो गई. वह फिर से थोड़ा रुक कर बोली, “क्या अंतिम बार माफ नहीं कर सकतीं आप उन्हें? ऐसा कौन सा इतना बड़ा गुनाह कर दिया पापा ने, जो वे माफी के भी काबिल नहीं रहे.“
“हां, गुनहगार हैं वे. मेरी खुशियों का कत्ल किया है उन्होंने. कभी चैन से जीने नहीं दिया मुझे, इसलिए माफ नहीं कर सकती उन्हें. आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं…
“और मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि हम इस विषय पर कभी बात नहीं करेंगे, फिर भी तुम वही सब बातें क्यों दोहराती रहती हो? अब जो होना है हो कर रहेगा,” कह कर शीतल झटके से वहां से निकल गई.
ऐसा सब नाटक अर्णब तब से करने लगा है, जब से दोनों ने तलाक का केस फाइल किया है. उस रोज बड़े घमंड से अर्णब ने कहा था, ‘देखते हैं कि तुम मुझ से कैसे तलाक लेती हो? देखना, तुम खुद यह तलाक का केस वापस भी लोगी और इस घर में लौट कर भी आओगी, क्योंकि तुम्हारे पास कोई चारा ही नहीं बचेगा इस के सिवा,’ इस पर शीतल ने कहा था, “ठीक है, तो फिर तुम भी देख लो कि कैसे मैं तुम से तलाक ले कर रहती हूं. और अगर तलाक न भी हो हमारा, फिर भी मैं इस घर में और न ही तुम्हारी जिंदगी में कभी लौट कर आऊंगी.”
अर्णब जितना तलाक के केस में अड़ंगा लगाने की कोशिश कर रहा था, शीतल का मनोबल उतना ही मजबूत होता जा रहा है.
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‘माफ कर दूं? उस इनसान को, जिस ने मेरी जिंदगी को नरक बना कर रख दिया. उम्र की इस दहलीज पर अगर मैं उस इनसान से छुटकारा चाहती हूं तो सोचो न, मैं ने कितना कुछ सहा होगा? लोग क्या कहेंगे? यही सब लोग तब कहां थे, जब मेरा पति शराब पी कर मुझे मारतापीटता था, गंदीगंदी गालियां देता था. आधी रात को मुझे घर से बाहर निकाल देता था और मैं दरवाजा खुलने का इंतजार करती थी. उस समय मुझे अपनेआप पर दया आती थी, जब आसपड़ोस के लोग मुझे अजीब नजरों से देखते थे. तो अब क्या हक है इन का मुझे कुछ बोलने का.
‘नहीं, मुझे किसी की परवाह नहीं’ पुराने घाव से टीस उठी, तो शीतल की आंखें गीली हो गईं. राह चलते लोग देख न लें, इसलिए उस ने अपने आंसू आंखों में ही जब्त कर लिए. ‘शादी के बाद एक दिन भी ऐसा नहीं गुजारा होगा, जब अर्णब ने मुझ पर हाथ न उठाया हो. शराब पी कर गालीगलौज, मारपीट तो रोज की बात थी. आखिर कितना सहा मैं ने यह तो मैं ही जानती हूं. मेरा दिल इतना डरपोक बन चुका था कि आज भी छोटीछोटी बातों पर डर जाता है. लेकिन, मैं उसे समझाती हूं कि ‘औल इज वेल, सब ठीक होगा.मत डरो, मैं तुम्हारे साथ हूं.‘
लड़की की किस्मत भी अजीब है. पहले तो उसे दिमागी रूप से कमजोर बनाया जाता है, फिर उस की ही रक्षा करने की बात की जाती है. और फिर रक्षा करने वाला भी कौन? वही पुरुष, जो मौका मिलते ही लड़कियों की, महिलाओं की इज्जत को तारतार कर देते हैं. बचपन से ही मैं मांदादी के मुंह से सुनती आई थी कि ‘अरे, तुम तो किसी की अमानत हो हमारे पास. एक दिन पराई हो जाओगी.’ बेटियों की शादी कर देने पर क्यों मांबाप को लगता है कि उन्होंने गंगा नहा ली? क्या इतनी बोझ बन जाती हैं बेटियां अपने मांबाप के लिए? अपने भाइयों की तरह मुझे भी आगे पढ़ने का शौक था. मैं भी डाक्टर बनना चाहती थी. मां से कहती, “मेरी सहेलियों की तरह मेरी भी शादी जल्दी तो नहीं कर दोगी न मां? मां, देखना, बड़ी हो कर मैं डाक्टर बनूंगी. सफेद कोट पहन कर मरीजों को देखा करूंगी.
“बोलो न मां, सुन रही हो आप मेरी बात?” किचन में मां के कामों में हाथ बंटाते हुए जब मैं कहती, तो मां कहतीं कि ‘हां, हां, सुन रही हूं भई, चलो अब जल्दीजल्दी हाथ चलाओ. घर में कितने काम पड़े हैं अभी.’
मैं घर के हर काम बड़े सलीके से करती. सब के बताए काम भागभाग कर देती थी. पढ़ने में भी मैं अपने सभी भाइयों से होशियार थी. फिर भी मुझे वह लाड़दुलार नहीं मिलता, जो मेरे भाइयों को मिलता था.
जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई, मेरे डाक्टर बनने का सपना भी आकार लेने लगा. हम सब सहेलियां अकसर डाक्टर और मरीज का खेल खेला करती थीं. लेकिन डाक्टर तो हमेशा मैं ही बनती थी और बाकी सब मरीज बन कर मेरे पास इलाज कराने आती थीं. बड़ा मजा आता था मुझे डाक्टर का खेल खेलने में. लेकिन मेरा डाक्टर बनने का सपना बस खेल तक ही सिमट कर रह गया.
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जाने किस समारोह में एक रोज अर्णब ने मुझे देख लिया और वह मुझ पर लट्टू हो गया. अच्छा घर, वर, ऊपर से लड़के वाले खुद मेरा हाथ मांगने आए थे. तो और क्या चाहिए था मेरे परिवार वालों को. झट से उन्होंने इस रिश्ते के लिए हां कर दिया था. लेकिन, एक बार भी मुझ से पूछने की जरूरत नहीं समझी कि मैं यह शादी करना चाहती भी हूं या नहीं.
मैं भी कैसी बातें कर रही हूं. हमारे समाज में लड़कियों से भी उस की पसंद और नापसंद पूछी जाती है कहीं? हम तो उन गायबकरियों की तरह होती हैं, जिसे जिस खूंटे से बांध दिया जाए, बंध जाती हैं. मैं भी अपने टूटे सपने के साथ अर्णब नाम के खूंटे से बंध गई और उसे ही अपनी किस्मत समझ लिया.
भरेपूरे परिवार में मैं ऐसे रम गई जैसे दूध में चीनी. भूल गई कि मेरा कुछ सपना भी था. शादी के सालभर बाद ही बेटा जिगर मेरी गोद में आ गया. उस के पालनपोषण में अपनेआप को मैं ने और व्यस्त कर लिया था. लेकिन, इधर अर्णब का चालचलन कुछ बिगड़ने लगा था. वह रोज शराब पी कर घर आते और मेरे साथ जबरदस्ती करते.
जब मैं कहती कि बच्चा छोटा है अभी और डाक्टर ने अभी इन सब के लिए मना किया है, तो वह मुझ पर गुस्सा दिखाते, थप्पड़ तक चला देते मुझ पर. बुराई तो सारी बहुओं में ही होती है, बेटे तो अच्छे ही होते हैं अपनी मां के लिए.
मैं भी सास की नजर में बुरी बहू बन गई और बेटा एकदम सुपुत्र. सबकुछ जानते हुए भी वह अपने बेटे को शह देती और मुझे उलटासीधा, खरीखोटी सुनाती रहतीं कि मैं उन के बेटे अर्णब के लायक ही नहीं हूं.
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