Serial Story: अब अपने लिए – भाग 3

“कृति, प्लीज, इस बारे में मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. वैसे भी मुझे बहुत देर हो गई है. अब मुझे निकलना होगा,” अपनी घड़ी पर एक नजर डालते हुए शीतल ने अपना कदम आगे बढ़ाया ही था कि कृति ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, “क्यों मां… क्यों नहीं समझतीं आप मेरी बात? क्यों जिद पर अड़ी हैं? क्या चाहती हैं आप कि पापा को फिर से अटैक आ जाए? देखना, नहीं बचेंगे इस बार. तुली रहो आप अपनी जिद पर,” इस बार कृति की आवाज जरा तेज हो गई. वह फिर से थोड़ा रुक कर बोली, “क्या अंतिम बार माफ नहीं कर सकतीं आप उन्हें? ऐसा कौन सा इतना बड़ा गुनाह कर दिया पापा ने, जो वे माफी के भी काबिल नहीं रहे.“

“हां, गुनहगार हैं वे. मेरी खुशियों का कत्ल किया है उन्होंने. कभी चैन से जीने नहीं दिया मुझे, इसलिए माफ नहीं कर सकती उन्हें. आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं…

“और मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि हम इस विषय पर कभी बात नहीं करेंगे, फिर भी तुम वही सब बातें क्यों दोहराती रहती हो? अब जो होना है हो कर रहेगा,” कह कर शीतल झटके से वहां से निकल गई.

ऐसा सब नाटक अर्णब तब से करने लगा है, जब से दोनों ने तलाक का केस फाइल किया है. उस रोज बड़े घमंड से अर्णब ने कहा था, ‘देखते हैं कि तुम मुझ से कैसे तलाक लेती हो? देखना, तुम खुद यह तलाक का केस वापस भी लोगी और इस घर में लौट कर भी आओगी, क्योंकि तुम्हारे पास कोई चारा ही नहीं बचेगा इस के सिवा,’ इस पर शीतल ने कहा था, “ठीक है, तो फिर तुम भी देख लो कि कैसे मैं तुम से तलाक ले कर रहती हूं. और अगर तलाक न भी हो हमारा, फिर भी मैं इस घर में और न ही तुम्हारी जिंदगी में कभी लौट कर आऊंगी.”

अर्णब जितना तलाक के केस में अड़ंगा लगाने की कोशिश कर रहा था, शीतल का मनोबल उतना ही मजबूत होता जा रहा है.

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‘माफ कर दूं? उस इनसान को, जिस ने मेरी जिंदगी को नरक बना कर रख दिया. उम्र की इस दहलीज पर अगर मैं उस इनसान से छुटकारा चाहती हूं तो सोचो न, मैं ने कितना कुछ सहा होगा? लोग क्या कहेंगे? यही सब लोग तब कहां थे, जब मेरा पति शराब पी कर मुझे मारतापीटता था, गंदीगंदी गालियां देता था. आधी रात को मुझे घर से बाहर निकाल देता था और मैं दरवाजा खुलने का इंतजार करती थी. उस समय मुझे अपनेआप पर दया आती थी, जब आसपड़ोस के लोग मुझे अजीब नजरों से देखते थे. तो अब क्या हक है इन का मुझे कुछ बोलने का.

‘नहीं, मुझे किसी की परवाह नहीं’ पुराने घाव से टीस उठी, तो शीतल की आंखें गीली हो गईं. राह चलते लोग देख न लें, इसलिए उस ने अपने आंसू आंखों में ही जब्त कर लिए. ‘शादी के बाद एक दिन भी ऐसा नहीं गुजारा होगा, जब अर्णब ने मुझ पर हाथ न उठाया हो. शराब पी कर गालीगलौज, मारपीट तो रोज की बात थी. आखिर कितना सहा मैं ने यह तो मैं ही जानती हूं. मेरा दिल इतना डरपोक बन चुका था कि आज भी छोटीछोटी बातों पर डर जाता है. लेकिन, मैं उसे समझाती हूं कि ‘औल इज वेल, सब ठीक होगा.मत डरो, मैं तुम्हारे साथ हूं.‘

लड़की की किस्मत भी अजीब है. पहले तो उसे दिमागी रूप से कमजोर बनाया जाता है, फिर उस की ही रक्षा करने की बात की जाती है. और फिर रक्षा करने वाला भी कौन? वही पुरुष, जो मौका मिलते ही लड़कियों की, महिलाओं की इज्जत को तारतार कर देते हैं. बचपन से ही मैं मांदादी के मुंह से सुनती आई थी कि ‘अरे, तुम तो किसी की अमानत हो हमारे पास. एक दिन पराई हो जाओगी.’ बेटियों की शादी कर देने पर क्यों मांबाप को लगता है कि उन्होंने गंगा नहा ली? क्या इतनी बोझ बन जाती हैं बेटियां अपने मांबाप के लिए? अपने भाइयों की तरह मुझे भी आगे पढ़ने का शौक था. मैं भी डाक्टर बनना चाहती थी. मां से कहती, “मेरी सहेलियों की तरह मेरी भी शादी जल्दी तो नहीं कर दोगी न मां? मां, देखना, बड़ी हो कर मैं डाक्टर बनूंगी. सफेद कोट पहन कर मरीजों को देखा करूंगी.

“बोलो न मां, सुन रही हो आप मेरी बात?” किचन में मां के कामों में हाथ बंटाते हुए जब मैं कहती, तो मां कहतीं कि ‘हां, हां, सुन रही हूं भई, चलो अब जल्दीजल्दी हाथ चलाओ. घर में कितने काम पड़े हैं अभी.’

मैं घर के हर काम बड़े सलीके से करती. सब के बताए काम भागभाग कर देती थी. पढ़ने में भी मैं अपने सभी भाइयों से होशियार थी. फिर भी मुझे वह लाड़दुलार नहीं मिलता, जो मेरे भाइयों को मिलता था.

जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई, मेरे डाक्टर बनने का सपना भी आकार लेने लगा. हम सब सहेलियां अकसर डाक्टर और मरीज का खेल खेला करती थीं. लेकिन डाक्टर तो हमेशा मैं ही बनती थी और बाकी सब मरीज बन कर मेरे पास इलाज कराने आती थीं. बड़ा मजा आता था मुझे डाक्टर का खेल खेलने में. लेकिन मेरा डाक्टर बनने का सपना बस खेल तक ही सिमट कर रह गया.

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जाने किस समारोह में एक रोज अर्णब ने मुझे देख लिया और वह मुझ पर लट्टू हो गया. अच्छा घर, वर, ऊपर से लड़के वाले खुद मेरा हाथ मांगने आए थे. तो और क्या चाहिए था मेरे परिवार वालों को. झट से उन्होंने इस रिश्ते के लिए हां कर दिया था. लेकिन, एक बार भी मुझ से पूछने की जरूरत नहीं समझी कि मैं यह शादी करना चाहती भी हूं या नहीं.

मैं भी कैसी बातें कर रही हूं. हमारे समाज में लड़कियों से भी उस की पसंद और नापसंद पूछी जाती है कहीं? हम तो उन गायबकरियों की तरह होती हैं, जिसे जिस खूंटे से बांध दिया जाए, बंध जाती हैं. मैं भी अपने टूटे सपने के साथ अर्णब नाम के खूंटे से बंध गई और उसे ही अपनी किस्मत समझ लिया.

भरेपूरे परिवार में मैं ऐसे रम गई जैसे दूध में चीनी. भूल गई कि मेरा कुछ सपना भी था. शादी के सालभर बाद ही बेटा जिगर मेरी गोद में आ गया. उस के पालनपोषण में अपनेआप को मैं ने और व्यस्त कर लिया था. लेकिन, इधर अर्णब का चालचलन कुछ बिगड़ने लगा था. वह रोज शराब पी कर घर आते और मेरे साथ जबरदस्ती करते.

जब मैं कहती कि बच्चा छोटा है अभी और डाक्टर ने अभी इन सब के लिए मना किया है, तो वह मुझ पर गुस्सा दिखाते, थप्पड़ तक चला देते मुझ पर. बुराई तो सारी बहुओं में ही होती है, बेटे तो अच्छे ही होते हैं अपनी मां के लिए.

मैं भी सास की नजर में बुरी बहू बन गई और बेटा एकदम सुपुत्र. सबकुछ जानते हुए भी वह अपने बेटे को शह देती और मुझे उलटासीधा, खरीखोटी सुनाती रहतीं कि मैं उन के बेटे अर्णब के लायक ही नहीं हूं.

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Serial Story: अब अपने लिए – भाग 4

यह सोच कर मैं सब बरदाश्त कर रही थी कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा. लेकिन, नहीं, जैसेजैसे दिन बीतते जा रहे थे, हालात और बद से बदतर होते जा रहे थे. उन के ज्यादा शराब पी कर घर आने पर जब मैं टोकती, तो वह उलटासीधा बकने लगते थे, गंदीगंदी गलियां देने लगते थे मुझे. कहते, ‘क्या तुम्हारे बाप के पैसे से पीता हूं, जो बकबक करती है?” अर्णब को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि वह एक ऊंचे अधिकारी हैं.

बेटा जिगर 4 साल का हो चुका था. उसे भी अब अपने पापा की गंदी आदतें समझ में आने लगी थीं. अर्णब को औफिस से आए देखते ही वह मेरे पीछे आ कर छुप जाता, झांक कर देखता अपने पापा को, शराब की बोतलें खोलते हुए. नशे में उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि घर में एक छोटा बच्चा है. उस के सामने ही वह गालियां देने लगते तो मैं बेटे जिगर को ले कर वहां से चली जाती. पर कहां तक भागती? सुनाई तो दे ही जाती थी न. कभीकभी तो डर लगता कि कहीं इन सब का असर जिगर पर न पड़ने लगे. बच्चे का मन कोरा कागज की तरह होता है. वह अपने मातापिता और बड़ों को जैसा करते देखते हैं वही तो सीखते हैं. लेकिन, मैं अपने बेटे को वैसा हरगिज नहीं बनने देना चाहती थी, इसलिए जहां तक होता, मैं उसे अर्णब से दूर रखने की कोशिश करती. उसे खुद ही पढ़ातीलिखाती और अच्छे संस्कार डालने की कोशिश करती थी.

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एक रोज मुझे एहसास हुआ कि एक और जीव मेरे अंदर सांस ले रहा है. जब मैं ने यह बात अपनी सास को बताई, तो वे खुश तो हुईं, पर यह कह कर उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए कि बच्चे होने के समय मैं अपने मायके चली जाऊं. क्योंकि उन से न हो पाएगा. दूसरी बार पिता बनने की बात पर अर्णब ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. ऐसे जताया जैसे यह कौन सी बड़ी बात है, औरतों का यही तो काम है, बच्चे पैदा करना और घर संभालना.

जैसे ही मेरा 7वां महीना चढ़ा, मैं अपने मायके चली आई. मेरे वहां न रहने पर सास अपने बड़े बेटेबहू के पास इंदौर चली गईं, क्योंकि यहां उन्हें कर के खिलानेपिलाने वाला कौन था. कृति के 2 महीने के होते ही मैं वापस अपने घर आ गई, यह सोच कर कि वहां अर्णब को खानेपीने की दिक्कत हो रही होगी. सास भी नहीं हैं वहां तो कौन उन्हें बना कर खिलापिला रहा होगा. रोजरोज बाहर का खाना सेहत के लिए ठीक नहीं होता. सोचा था, हमें घर में देख अर्णब खुश हो जाएंगे. लेकिन, मैं गलत थी. हमें देख कर उन्हें जरा भी खुशी नहीं हुई.

अर्णब तंज कसते हुए बोले, ‘इतनी क्या जल्दी थी आने की? वहीं रहती अभी.’

आसपड़ोस की 1-2 औरतों ने दबे मुंह से ही कहा कि मेरे यहां न रहने पर अर्णब एक औरत को घर ले कर आता था. लेकिन उन की बातों पर मुझे जरा भी भरोसा इसलिए नहीं हुआ कि अर्णब भले ही पीनेखाने वाले इनसान हैं, पर वह इतनी नीच हरकत नहीं कर सकते कभी. इसलिए मैं ने उन की बातों को सिरे से खारिज कर दिया और उन से बोलनाचालना भी कम कर दिया कि बेकार में ये औरतें बात बनाती हैं. कुछ नहीं सूझता तो बैठेबैठे लोगों की बुराई करती रहती हैं.

कृति के आने से हमारे खर्चे और भी बढ़ गए. बच्चे का दूध, साबुन, तेल, क्रीम, कपड़ा, खाना, खर्चा तो होगा ही न. जब मैं अर्णब से पैसे मांगती, तो कुछ पैसे मेरे मुंह पर मार कर कहते कि पैसे का कोई पेड़ नहीं लगा रखा है. जब मांगा तोड़ कर दे दिया. जरा अपने खर्चे पर लगाम कसो. कैसे और कहां लगाम कसती मैं? अब 2-2 बच्चे हैं तो खर्चे तो होंगे ही न? लेकिन, यह बात भी मैं अर्णब से नहीं बोल पाती थी, क्योंकि उलटे वह मुझे ही गालियां देने लगते और कहते, ‘तेरे बाप का कोई खजाना नहीं गड़ा हुआ है यहां, जो निकालनिकाल कर देता रहूं तुझे.’

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ऐसी जलीकटी और कड़वी बातें बोलते थे कि क्या बताएं. मन ही नहीं करता था फिर उस से बात करने का. ऐसे ही जिंदगी के 2 साल और निकल गए. कृति अब पूरे 2 साल की हो चुकी थी और बेटा जिगर 7 साल का. अकसर रात में कृति अचानक से जग जाती और रोने लगती तो चुप ही नहीं होती जल्दी. उस के रोने से अर्णब चिढ़ उठते थे. इसलिए मैं दोनों बच्चों को ले कर दूसरे कमरे में सोने लगी थी, ताकि अर्णब की नींद न खराब हो. दिनभर की थकीहारी मैं ऐसे सो जाती कि नींद ही नहीं खुलती मेरी. जब कृति के रोने की आवाज आती, तब जा कर मेरी आंखें खुलती थी.

उस रात मुझे अर्णब के कमरे से कुछ खुसरफुसर की आवाज आई और जा कर जो मैं ने देखा, स्तब्ध रह गई. मैं जोर से चीखी, अर्णब की बांहों में किसी गैर औरत को देख कर मेरे तो तनबदन में आग लग गई. मेरे कमरे में मेरे ही बिस्तर पर वह किसी और औरत को लाने की हिम्मत भी कैसे कर सकते हैं…

जब मैं ने पूछा, तो उलटे वह मुझ पर ही चिल्लाने लगे और उस औरत के सामने मुझ पर हाथ उठा दिया. मुझे मार खाते देख वह औरत इतरा कर मेरी तरफ देख कर हंसी. जैसे कह रही हो, सही किया अर्णब ने.

“यह मेरा घर है. मैं जिसे चाहूं यहां ला सकता हूं, निकाल भी सकता हूं, समझी? तुम होती कौन हो बोलने वाली?” अर्णब ने उंगली दिखाते हुए कहा और मुझे बाहर ठेल कर कमरे का दरवाजा अंदर से लगा लिया.

मैं पूरी रात सिसकती रही और वह उस औरत के साथ ऐश करते रहे. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. पर यह समझ में आ गया कि आसपड़ोस की औरतें गलत नहीं बोल रही थीं. पता चला कि वह औरत कोई और नहीं, बल्कि अर्णब के एक दिवंगत दोस्त की पत्नी है.

अर्णब ने ही दौड़धूप कर उस के पति के स्थान पर उस की नौकरी लगवाने में मदद की थी. अर्णब घर देर से जो आने लगे हैं उस की वजह भी यह औरत ही है.

अब तो अर्णब और भी बेशर्म बन गया था. खुल्लमखुल्ला वह उस औरत से संबंध रखने लगा और जब मैं कुछ कहती तो मुझे मारतापीटता और कमरे में बंद कर देता. कहता, अगर ज्यादा दिक्कत है, तो इस घर को छोड़ कर चली जाऊं. लेकिन, कहां जाती अपने 2 छोटेछोटे बच्चों को ले कर? इस घर के सिवा और कोई सहारा था क्या?

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कृति के जन्म के समय कैसे मैं ने अपने मायके में वह 5 महीने काटे, मैं ही जानती हूं. तो फिर तो वहां जाने का सवाल ही नहीं उठता है. वैसे भी शादी के बाद बेटियों का अपने मायके में कोई हक नहीं रह जाता. बेटियां 2-4 दिन से ज्यादा मायके में रह जाएं, तो मांबाप को ही बोझ लगने लगती हैं. यह बात ससुराल वाले भी जानते हैं, तभी तो लड़कियों पर आएदिन जुल्म होते रहते हैं. यही नहीं, उन्हें जला कर मार दिया जाता है.
जैसेजैसे बच्चे बड़े होने लगे, उन के और भी खर्चे बढ़ने लगे थे. इस के अलावा दोनों के स्कूल की फीस, ड्रेस आदि में भी पैसे लगने लगे, तो अर्णब झुंझला पड़ा. अर्णब अपनी कमाई का आधे से ज्यादा पैसा तो शराब पीने में और उस औरत पर ही खर्च कर देते थे, तो घरखर्च के लिए कहां से पैसे देते मुझे.

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Serial Story: अब अपने लिए – भाग 5

मेरी बुरी हालत देख मेरे ननद व ननदोई को बहुत दुख होता था. एक वे ही तो थे, जो मेरा दुख समझते थे. लेकिन उन्हें भी अर्णब ऐसे कड़वे बोल बोलते थे कि उन्होंने फिर यहां आना ही छोड़ दिया. हर इनसान को अपनी इज्जत प्यारी होती है.

पढ़ाई की डिगरी तो थी ही मेरे पास, अपनी पैरवी से मेरे ननदोई ने एक स्कूल में मेरी नौकरी लगवा दी. दोनों बच्चों का भी उन्होंने उसी स्कूल में एडमिशन करवा दिया, ताकि मुझे ज्यादा परेशानी न हो.

मैं जल्दीजल्दी घर के काम खत्म कर दोनों बच्चों को ले कर स्कूल चली जाती और 5 बजतेबजते घर आ जाती थी, फिर घर के बाकी काम संभालती, बच्चों को होमवर्क करवाती. रोज की मेरी यही दिनचर्या बन गई थी. कोई मतलब नहीं रखती मैं अर्णब से कि वह जो करे. लेकिन उसे कहां बरदाश्त हो पा रहा था मेरा खुश रहना, इसलिए वह कोई न कोई खुन्नस निकाल कर मुझ से लड़ता और जब मैं भी सामने से लड़ने लगती, क्योंकि मैं भी कितना बरदाश्त करती अब… तो जो भी हाथ में मिलता, उसे ही उठा कर मारने लगता मुझे. और मेरी सास तो थीं ही आग में घी का काम करने के लिए.

कृति तो अभी बच्ची थी, लेकिन बेटा जिगर हम दोनों को लड़तेझगड़ते देख टेंशन में रहने लगा था. पढ़ाई से भी उस का मन उचटने लगा था. वह गुमसुम सा चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहता. ज्यादा कुछ पूछती तो रोने लगता या झुंझला पड़ता. वह अपने दोस्तों से भी दूर होने लगा था. हमारी लड़ाई का असर उस के दिमाग पर पड़ने लगा था अब. उस की मानसिक स्थिति बिगड़ते देख मैं तो कांप उठी अंदर से… और तभी मैं ने फैसला कर लिया कि अर्णब मुझे मार ही क्यों न डाले, पर मैं चुप रहूंगी सिर्फ अपने बेटे के लिए.

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लेकिन, रोज मुझे अर्णब के हाथों जलील होते देख एक रोज बेटा जिगर कहने लगा कि हम यह घर छोड़ कर कहीं और रहने चले जाएंगे.

“कहां जाएगा बेटा, कोई और ठिकाना है क्या इस घर के सिवा?” मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, “तुम जल्दी से पढ़लिख कर बड़ा डाक्टर बन जाओ, फिर अपने साथ मुझे भी वहां ले चलना.”

‘मेरा डाक्टर बनने का सपना भले ही सपना रह गया, लेकिन, मैं चाहती थी कि मेरा बेटा एक दिन जरूर डाक्टर बने. मेरी तरफ से कोई जबरदस्ती नहीं थी, बल्कि बेटा जिगर खुद इस फील्ड में जाना चाहता था. मैडिकल की पढ़ाई पूरी होते ही वहीं बैंगलुरु के एक बड़े अस्पताल में उस की जौब भी लग गई.

‘अपने वादे के मुताबिक वह मुझे लेने आया था, लेकिन मैं ने ही यह कह कर जाने से मना कर दिया कि रिटायर्ड होने के बाद तो उस के पास ही आ कर रहना है मुझे.

‘दिव्या की फोटो भेजी थी उस ने मुझे, जो उस के साथ ही उसी अस्पताल में डाक्टर थी. उस ने मुझ से वीडियो कालिंग पर बात भी करवाई थी 1-2 बार. दिव्या बड़ी ही प्यारी बच्ची लगी मुझे. दोनों की जोड़ी इतनी खूबसूरत लग रही थी कि लग रहा था कि कहीं मेरी ही नजर न लग जाए इन्हें.

‘मैं ने तुरंत ही दोनों की शादी के लिए हां बोल दिया. शादी के बाद वे दोनों हमारा आशीर्वाद लेने आए, पर अर्णब ने उन से सीधे मुंह बात तक नहीं की.उलटे, उन के जाने के बाद मुझे ही प्रताड़ित करने लगे यह बोल कर कि मैं ने बेटे जिगर के मन में उस के खिलाफ जहर भर दिया है, इसलिए वह उस से नफरत करता है. लेकिन, जिगर अब कोई दूध पीता बच्चा नहीं रह गया था, जो उसे कोई भी भड़का दे. बचपन से ही सब देखता आ रहा है वह. वह तो अब आना ही नहीं चाहता है इस नर्क में. तो मैं भी ज्यादा जोर नहीं डालती. जब मिलने का मन होता है खुद चली जाती हूं उस के पास.

‘कुछ साल बाद कृति ने भी अपने पसंद के लड़के से शादी कर ली. दोनों बच्चे अपनीअपनी लाइफ में सैटल हो गए. लेकिन, मेरे साथ होने वाला जुल्म खत्म नहीं हुआ. अभी भी अर्णब मेरे साथ वैसे ही व्यवहार कर रहा था. लेकिन अब मैं उस के हाथों जुल्म सहतेसहते थक चुकी थी. मेरा शरीर अब जवाब देने लगा था. मन करता था कि कहीं भाग जाऊं, जहां मुझे कोई ढूंढ़ न सके. बच्चों तक ठहरी थी मैं इस इनसान के साथ, पर अब नहीं. अब मैं इस के साथ नहीं रह सकती,’ तभी पीछे से हौर्न की आवाज से शीतल अतीत से बाहर आई. देखा तो आगेपीछे गाड़ियों की लाइन लगी है और सब हौर्न पर हौर्न बजाए जा रहे हैं.

पूछने पर पता चला कि ट्रक के नीचे आ कर एक गाय मर गई है, इसलिए गाड़ियों का जाम लगा हुआ है.

“ओह, वैसे, कब तक जाम हट सकेगा भाई साहब?” उस आदमी से शीतल ने पूछा, तो उस ने बोला, ‘नहीं पता.‘

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‘शहर हो या गांव, हर जगह यही दुर्दशा है. इन जानवरों की वजह से सड़क पर कितनी दुर्घटनाएं होने लगी हैं आजकल… और बेचारे जानवर भी तो बेमौत तड़पतड़प कर मर जाते हैं. आखिर सरकार कुछ करती क्यों नहीं?’ शीतल मन ही मन बुदबुदाई.

आज वैसे भी स्कूल से निकलतेनिकलते उसे देर हो गई और अब यह सब सोच कर दर्द से शीतल का सिर फटा जा रहा था. लग रहा था, जल्दी से घर जा कर दवाई खा कर सो जाए. तकरीबन घंटाभर लग गया सड़क से गाय उठाने में. घर पहुंचतेपहुंचते शीतल को 8 बज गए.

घर पहुंच कर शीतल ने अपने लिए चाय बनाई और दवाई खा कर लेटी ही थी कि मीनाक्षी का फोन आ गया. वह कहने लगी कि कल उस के पति की पुण्यतिथि है, तो वह अनाथ आश्रम जाएगी. इसलिए कल वह स्कूल नहीं जा पाएगी, तो वह संभाल ले.

“हां… हां, तुम इतमीनान से जाओ, मैं संभाल लूंगी,” कह कर शीतल ने फोन रख दिया.

मीनाक्षी हर साल अपने पति की पुण्यतिथि पर अनाथ आश्रम में जा कर बच्चों को कपड़े और खाना वगैरह बांटती है. ‘सही तो करती है, पंडितों को दानदक्षिणा देने से अच्छा है इन अनाथ बच्चों को उन की जरूरतों का सामान, खाना आदि देना चाहिए,’ शीतल ने अपने मन में ही बोला.

आज उसे ज्यादा भूख नहीं थी, इसलिए हलका सा कुछ बना कर खा लिया और सो गई. सुबह फोन पर ‘गुड मौर्निंग’ के साथ कृति के कई मैसेज थे. लिखा था, पापा अब ठीक हैं, लेकिन कमजोरी बहुत है. उसे आने के लिए कह रही थी.

शीतल ने भी एक मैसेज भेज दिया कि उसे आज जल्दी स्कूल जाना होगा, इसलिए वह नहीं आ सकती.

कृति ने मैसेज में लिखा था कि अर्णब अब बहुत बदल चुके हैं. शराब पीना भी छोड़ दिया है. सुबहशाम राम भजन में लगे रहते हैं.

“हुम्म…,“ अपने होंठों को सिकोड़ते हुए शीतल बोली, “सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. क्या इस इनसान को मैं नहीं जानती? जो मेरी आंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहा है? सब दिखावा है और कुछ नहीं.

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“अरे, जिस आदमी ने घर की नौकरानी तक को नहीं छोड़ा, उस के मुंह से राम भजन, शब्द सुन कर अजीब लगता है. और वही राम ने अपनी पत्नी के साथ क्या किया? एक धोबी के कहने पर वनवास भेज दिया, वह भी उस समय जब वह उन के बच्चे की मां बनने वाली थी. ज्यादातर पुरुषों ने औरतों को छला ही है. हम इधर अपने पति की लंबी उम्र के लिए कामना करती हैं और उधर पति अपनी मनोकामना किसी गैर औरत की बांहों में पूरी करते रहें.

‘आज सब ठीक हो जाएगा, कल सब ठीक हो जाएगा,’ सोचसोच कर मैं ने इस घटिया इनसान के साथ अपनी जिंदगी के 30 साल बरबाद कर दिए. पर, अब नहीं. बाकी बची जिंदगी अब मैं अपने हिसाब से अपनी मरजी और सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूं. 2 दिन बाद कोर्ट में तलाक का अंतिम फैसला है. फिर मैं अपने रास्ते और वह अपने रास्ते… कोई मतलब नहीं मुझे उस से.”

अब अपने लिए: आखिर किस मुकाम पर पहुंचा शीतल के मन में चल रहा अंतर्द्वंद्व

वह चालाक लड़की: क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-1)

रोज की तुलना में अंजुल आज जल्दी उठ गई. आज उस का औफिस में पहला दिन है. मास मीडिया स्नातकोत्तर करने के बाद आज अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए उस ने थोड़ा अधिक परिश्रम किया. अनुपम देहयष्टि में वह किसी से उन्नीस नहीं.

सभी उस की खूबसूरती के दीवाने थे. अपनी प्रखर बुद्धि पर भी पूर्ण विश्वास है. अपने काम में तीव्र तथा चतुर. स्वभाव भी मनमोहक, सब से जल्दी घुलमिल जाना, अपनी बात को कुशलतापूर्वक कहना और श्रोताओं से अपनी बात मनवा लेना उस की खूबियों में शामिल है. फिर भी उस ने यह सुन रखा है कि फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन. तो फिर रिस्क क्यों लिया जाए भले?

मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी का माहौल उसे मनमुताबिक लगा. आबोहवा में तनाव था भी और नहीं भी. टीम्स आपस में काम को ले कर खींचातानी में लगी थीं किंतु साथ ही हंसीठिठोली भी चल रही थी. वातावरण में संगीत की धुन तैर रही थी और औफिस की दीवारों पर लोगों ने बेखौफ ग्राफिटी की हुई थी.

अंजुल एकबारगी प्रसन्नचित्त हो उठी. उन्मुक्त वातावरण उस के बिंदास व्यक्तित्व को भा गया. उस की भी यही इच्छा थी कि जो चाहे कर सकने की स्वतंत्रता मिले. आज तक  अपने जीवन को अपने हिसाब से जीती आई थी और आगे भी ऐसा ही करने की चाह मन में लिए जीवन के अगले सोपान की ओर बढ़ने लगी.

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बौस रणदीप के कैबिन में कदम रखते हुए अंजुल बोली, ‘‘हैलो रणदीप, आई एम अंजुल, योर न्यू इंप्लोई.’’ उस की फिगर हगिंग यलो ड्रैस ने रणदीप को क्लीन बोल्ड कर दिया. फिर ‘‘वैलकम,’’ कहते हुए रणदीप का मुंह खुला का खुला रह गया.

अंजुल को ऐसी प्रतिक्रियाओं की आदत थी. अच्छा लगता था उसे सामने वाले की ऐसी मनोस्थिति देख कर. एक जीत का एहसास होता था और फिर रणदीप तो इस कंपनी का बौस है. यदि यह प्रभावित हो जाए तो ‘पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में’ वाली कहावत को चिरतार्थ होते देर नहीं लगेगी. वैसे रणदीप करीब 40 पार का पुरुष था, जिस की हलकी सी तोंद, अधपके बाल और आंखों के नीचे काले घेरे उसे आकर्षक की परिभाषा से कुछ दूर ही रख रहे थे.

अंजुल अपना इतना होमवर्क कर के आई थी कि उस का बौस शादीशुदा है. 1 बच्चे का बाप है, पर जिंदगी में तरक्की करनी है तो कुछ बातों को नजरअंदाज करना ही होता है, ऐसी अंजुल की सोच थी.

अपने चेहरे पर एक हलकी स्मित रेखा लिए अंजुल रणदीप के समक्ष बैठ गई. उस का मुखड़ा जितना भोला था उस के नयन उतने ही चपल दिल मोहने की तरकीबें खूब आती थीं.

रणदीप लोलुप दृष्टि से उसे ताकते हुए कहने लगा, ‘‘तुम्हारे आने से इस ऐजेंसी में और भी बेहतर काम होगा, इस बात का मुझे विश्वास है. मुझे लगता है तुम्हारे लिए मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट सही रहेगा. अपने ए वन ग्रेड्स और पर्सनैलिटी से तुम जल्दी तरक्की कर जाओगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. अपनी सफलता के लिए आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी,’’ द्विअर्थी संवाद करने में अंजुल माहिर थी. उस की आंखों के इशारे को समझाते हुए रणदीप ने उसे एक सरल लड़के के साथ नियुक्त करने का मन बनाया. फिर अपने कैबिन में अर्पित को बुला कर बोला, ‘‘सीमेंट कंपनी के नए प्रोजैक्ट में अंजुल तुम्हें असिस्ट करेंगी. आज से ये तुम्हारी टीम में होंगी.’’

‘‘इस ऐजेंसी में तुम्हें कितना समय हो गया?’’ अंजुल ने पहला प्रश्न दागा.

अर्पित एक सीधा सा लड़का था. बोला, ‘‘1 साल. अच्छी जगह है काम सीखने के लिए. काफी अच्छे प्रोजैक्ट्स आते रहते हैं. तुम इस से पहले कहां काम करती थीं?’’

अर्पित की बात का उत्तर न देते हुए अंजुल ने सीधा काम की ओर रुख किया, ‘‘मुझे क्या करना होगा? वैसे मैं क्लाइंट सर्विसिंग में माहिर हूं. मैं चाहती हूं कि मुझे इस सीमेंट कंपनी और अपनी क्रिएटिव टीम के बीच कोऔर्डिनेशन का काम संभालने दिया जाए.’’

अगले दिन अंजुल ने फिर सब से पहले रणदीप के कैबिन से शुरुआत की, ‘‘हाय रणदीप, गुड मौर्निंग,’’ कर उस ने पहले दिन सीखे सारे काम का ब्योरा देते हुए रणदीप से कुछ टिप्स लेने का अभिनय किया और बदले में रणदीप को अपने जलवों का भरपूर रसास्वादन करने दिया. रणदीप की मधुसिक्त नजरें अंजुल के सुडौल बदन पर इधरउधर फिसलती रहीं और वह बेफिक्री से मुसकराती हुई रणदीप की आसक्ति को हवा देती रही.

जल्द ही अंजुल ने रणदीप के निकट अपनी जगह स्थापित कर ली. अब यह रोज का क्रम था कि वह अपने दिन की शुरुआत रणदीप के कैबिन से करती. रणदीप भी उस के यौवन की खुमारी में डुबकी लगाता रहता.

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उस सुबह कौफी देने के बहाने रणदीप ने अंजुल के हाथ को हौले से छुआ. अंजुल ने इस की प्रतिक्रिया में अपने नयनों को झाका कर ही रखा. वह नहीं चाहती थी कि रणदीप की हिम्मत कुछ ढीली पड़े. फिर काम दिखाने के बहाने वह उठी और रणदीप के निकट जा कर ऐसे खड़ी हो गई कि उस के बाल रणदीप के कंधे पर झालने लगे. इशारों की भाषा दोनों तरफ से बोली जा रही थी.

तभी अर्पित बौस के कैबिन में प्रविष्ट हुआ तो दोनों संभल गए. उफनते दूध में पानी के छींटे लग गए. किंतु अर्पित के शांत प्रतीत होने वाले नयनों ने अपनी चतुराई दर्शाते हुए वातावरण को भांप लिया.

इस प्रकरण के बाद अर्पित का अंजुल के प्रति रवैया बदल गया. अब तक अंजुल को नई

सीखने वाली मान कर अर्पित उस की हर मुमकिन मदद कर रहा था, परंतु आज के दृश्य के बाद वह समझा गया कि इस मासूम दिखने वाली सूरत के पीछे एक मौकापरस्त लड़की छिपी है. कौरपोरेट वर्ल्ड एक माट्स्करेड पार्टी की तरह हो सकता है जहां हरकोई अपने चेहरे पर एक मास्क लगाए अपनी असली सचाई को ढकते हुए दूसरों के सामने अपनी एक छवि बनाने को आतुर है.

आज लंच में अर्पित ने अंजुल को टालते हुए कहा, ‘‘आज मुझे कुछ काम है. तुम लंच कर लो,’’ वह अब अंजुल से बहुत निकटता नहीं चाह रहा था. उस की देखादेखी टीम के अन्य लोगों ने भी अंजुल को टालना आरंभ कर दिया. इस से अंजुल को काम समझाने और करने में दिक्कत आने लगी.

‘‘जो नई पिच आई है, उस में मैं तुम्हारे साथ चलूं? मुझे पिच प्रेजैंटेशन करना आ जाएगा,’’ अंजुल ने अपनी पूरी कमनीयता का पुट लगा कर अर्पित से कहा. अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी उस ने अर्पित की ईगो मसाज की.

‘‘उस का सारा काम हो चुका है. तुम्हें अगली पिच पर ले चलूंगा. आज तुम औफिस में दूसरी प्रेजैंटेशन पर काम कर लो,’’ अर्पित ने हर प्रयास करना शुरू कर दिया कि अंजुल केवल औफिस में ही व्यस्त रहे.

अपने हाथ से 2 पिच के अवसर निकलते ही अंजुल भी अर्पित की चाल समझाने लगी, ‘उफ, बेवकूफ है अर्पित जो मुझे इतना सरलमति समझा रहा है. क्या सोचता है कि यदि यह मुझे अवसर नहीं प्रदान करेगा तो मैं अनुभवहीन रह जाऊंगी,’ सोचते हुए अंजुल ने सीधा रणदीप के कैबिन में धावा बोल दिया.

‘‘रणदीप, क्या मैं आप के साथ आज लंच कर सकती हूं? आप के साथ मेरे इंडक्शन की फीडबैक बाकी है,’’ अंजुल ने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा कि वह आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ. अत: रणदीप ने सहर्ष स्वीकारोक्ति दे दी.

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लंच के दौरान अंजुल ने अपने काम का ब्योरा दिया और साथ ही दबेढके शब्दों में एक स्वतंत्र क्लाइंट लेने की पेशकश कर डाली, ‘‘टीम में सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि किसी से काम सीखना मुझे उन के काम में रुकावट बनना लगता है और फिर अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण व अनुभव के बल पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक क्लाइंट मैं हैंडल कर सकती हूं, यदि आप अनुमति दें तो?’’

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Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-2)

बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों का मटकना, उस के भावों का अर्थपूर्ण चलन उस के अधरों पर आतीजाती स्मितरेखा, कभी पलकें उठाना तो कभी झाकाना, सबकुछ इतना मनमोहक था कि रणदीप के पुरुषमन ने उसे एक अवसर देने का निश्चय कर डाला, ‘‘ठीक है, सोचता हूं कि तुम्हें किस अकाउंट में डाल सकता हूं.’’

उस शाम अंजुल ने आर्ट गैलरी में कुछ समय व्यतीत करने का सोची. जब से जौब लगी तब से उस ने कोई तफरी नहीं की. दिल्ली आर्ट गैलरी शहर की नामचीन जगहों में से एक है सो वहीं का रुख कर लिया. मंथर गति से चलते हुए अंजुल वहां सजी मनोरम चित्रकारियां देख रही थी कि अगली पेंटिंग पर प्रचलित लौंजरी ब्रैंड ‘औसम’ के मालिक महीप दत्त को खड़ा देखा. ऐजेंसी में उस ने सुना था कि पहले महीप दत्त का अकाउंट उन्हीं के पास था, किंतु पिछले साल से उन्होंने कौंट्रैक्ट रद्द कर दिया, जिस के कारण ऐजेंसी को काफी नुकसान हुआ. स्वयं को सिद्ध करने का यह स्वर्णिम अवसर वह जाने कैसे देती. उस ने तुरंत महीप दत्त की ओर रुख किया.

‘‘आप महीप दत्त हैं न ‘औसम’ ब्रैंड के मालिक?’’ अपने मुख पर उत्साह के सैकड़ों दीपक जला कर उस ने बात की शुरुआत की.

‘‘यस. आप हमारी क्लाइंट हैं क्या?’’ महीप अपने ब्रैंड को प्रमोट करने का कोई मौका नहीं चूकते थे.

‘‘मैं आप की क्लाइंट हूं और आप मेरे.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

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‘‘दरअसल, मैं आप के ब्रैंड की लौंजरी इस्तेमाल करती हूं और एक हैप्पी क्लाइंट हूं. मेरा नाम अंजुल है और मैं मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी में कार्यरत हूं, जिस के आप एक हैप्पी क्लाइंट नहीं हैं. सही कहा न मैं ने?’’ वह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘तो आप यहां मचल की तरफ से आई हैं?’’ महीप ने हैंड शेक करते हुए कहा, परंतु उन के चेहरे पर तनाव की रेखाएं सर्वविदित थीं, ‘‘मैं काम की बात केवल अपने औफिस में करता हूं,’’ कहते हुए वे आगे बढ़ गए.

‘‘काम की बात तो यह है महीप दत्तजी कि मैं आप को वह फीडबैक दे सकती हूं, जो आप के लिए सुननी जरूरी है और वह भी फ्री में. मैं यहां आप से मचल की कार्यकर्ता बन कर नहीं, बल्कि आप की क्लाइंट के रूप में मिल रही हूं. विश्वास मानिए, मुझे आइडिया भी नहीं था कि मैं यहां आप से मिल जाऊंगी,’’ अंजुल के चेहरे पर मासूमियत के साथ ईमानदारी के भाव खेलने लगे. वह अपने चेहरे की अभिव्यक्ति को स्थिति के अनुकूल मोड़ना भली प्रकार जानती थी.

बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि अब आप अपने विज्ञापन किसी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर इन्फ्लुऐंसर के जरीए करते हैं. किंतु एक इन्फ्लुऐंसर की पहुंच केवल उस के फौलोअर्स तक सीमित होती है. मेरा एक सुझाव है आप को- आप का प्रोडक्ट प्रयोग करने वाली महिलाएं आम गृहिणियां या कामकाजी महिलाएं अधिक होती हैं, उन की फिगर मौडल की दृष्टि से बिलकुल अलग होती है.

‘‘मौडल का शरीर एक आदर्श फिगर होता है, जबकि आम महिला की जरूरत भिन्न होती है. तो क्यों न आप अपने विज्ञापन में मौडल की जगह आम महिलाओं से अपनी बात कहलवाएं. यदि वे कहेंगी तो यकीनन अधिक प्रभाव पड़ेगा,’’ अपनी बात कह कर अंजुल महीप दत्त की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी.

कुछ क्षण मौन रह कर महीप ने अंजुल के सुझाव को पचाया. फिर अपनी कलाई पर

बंधी घड़ी देख कहने लगे, ‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, अंजुल. आल द बैस्ट,’’ और महीप चले गए.

उन के चेहरे पर कोई भाव न पढ़ने के कारण अंजुल असमंजस में वहीं खड़ी रह गई.

अगले दिन अंजुल औफिस में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रही थी कि रणदीप का फोन आया, ‘‘क्या मेरे कैबिन में आ सकती हो?’’

अंजुल तुरंत रणदीप के कैबिन में पहुंची. वहां उन के साथ महीप दत्त को बैठा देख कर उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सिर हिला कर हैलो किया. रणदीप ने उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘महीप हमारे साथ दोबारा जुड़ना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि उन का अकाउंट तुम हैंडल करो,’’ कहते हुए रणदीप के मुख पर कौंटै्रक्ट वापस मिलने की प्रसन्नता थी तो अंजुल के चेहरे पर अपनी जीत की दमक. अब उस के रास्ते में कोई रोड़ा न था. उस ने साधिकार अपना स्वतंत्र अकाउंट प्राप्त किया था.

‘‘इस कौंट्रैक्ट की खुशी में क्या मैं आप को एक डिनर के लिए इन्वाइट कर सकती हूं?’’ अचानक अंजुल ने पूछा.

यह सुन कर रणदीप चौंक गया. फिर बोला, ‘‘कल चलते हैं. आज मुझे अपनी पत्नी के साथ बाहर जाना है,’’ रणदीप ने जानबूझा कर अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ा ताकि अंजुल भविष्य की कोई कल्पना न करने लगे और फिर फ्लर्ट किसे बुरा लगता है खासकर तब जब सबकुछ सेफजोन में हो.

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‘औसम’ के औफिस में जब अंजुल मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट की तरफ से क्रिएटिव दिखाने पहुंची तो वहां उसे करण मिला. करण ‘औसम’ की ओर से अंजुल को काम समझाने के लिए नियुक्त किया गया था. आज एक लौंजरी ब्रैंड के साथ मीटिंग के लिए अंजुल बेहद सैक्सी ड्रैस पहन कर गई. उसे देखते ही करण, जोकि लगभग उसी की उम्र का अविवाहित लड़का था, अंजुल पर आकृष्ट हो उठा. जब उसे ज्ञात हुआ कि अंजुल के यहां आने का उपलक्ष्य क्या है, तो उस के हर्ष ने सीमा में बंधने से इन्कार कर दिया.

‘‘हाय अंजुल,’’ करण की विस्फारित आंखें उस के मन का हाल जगजाहिर कर रही थीं, ‘‘मैं तुम्हारा मार्केटिंग क्लाइंट हूं.’’

होंठों को अदा से भींचती हुई अंजुल ने जानबूझा कर अपना हाथ बढ़ा कर मिलाते हुए कहा, ‘‘और मैं तुम्हें सर्विस दूंगी, पर कोई ऐसीवैसी सर्विस न मांग लेना वरना…’’ कहते हुए अंजुल ने उस के कंधे पर आहिस्ता से अपना हाथ रखा और हंस पड़ी.

उस के शरारती नयन करण के अंदर एक सुरसुरी पैदा करने लगे. मन ही मन वह बल्लियों उछलने लगा. आज से पहले उस ने कभी इतनी हौट लड़की के साथ काम नहीं किया था. बहुत जल्दी दोनों में दोस्ती हो गई. करण ने अंजुल को अगले हफ्ते अपने औफिस की पार्टी का न्योता दे डाला.

‘‘इतनी जल्दी पार्टी इन्वाइट? हम आज ही मिले हैं,’’ अंजुल ने करण की गति को थामने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘मैं टाइम वेस्ट करने में विश्वास नहीं करता,’’ वह अपने पूरे वेग से दौड़ना चाह रहा था.

‘‘दिन में सपने देख रहे हो…’’

‘‘दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं, मैडम,’’ अंजुल की खुमारी पहले ही दिन से करण के सिर चढ़ कर बोलने लगी.

पार्टी में अंजुल काली चमकदार ड्रैस में कहर ढा रही थी. करण तो उस के पास से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. कभी दौड़ कर स्नैक्स लाता तो कभी ड्रिंक.

‘‘क्या कर रहे हो करण. मैं खुद ले लूंगी जो मुझे चाहिए होगा,’’ उस की इन हरकतों से मन की तहों में पुलकित होती अंजुल ने ऊपरी आवरण ओढ़ते हुए कहा.

‘‘ये सब मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कर रहा हूं. मुझे पता है किस को खुश करने से मैं खुश रहूंगा,’’ करण फ्लर्ट करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता था.

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पार्टी में सब ने बहुत आनंद उठाया. खायापीया, थिरकेनाचे. पार्टी खत्म होने

को थी कि अंजुल के पास अचानक महीप आ पहुंचे. इसी बात की राह वह न जाने कब से देख रही थी.

औसम की पार्टी में आने का एक कारण यह भी था.

‘‘तुम्हें यहां देख कर अच्छा लगा,’’ संक्षिप्त सा वाक्य महीप के मुख से निकला.

आगे पढें- कुछ माह बीतने के बाद इतने…

Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-4)

‘‘हमारे तो शहर की रौनक ही चली गई,’’ करण ने अपने स्वर में उदासी घोलने का अभिनय किया. अच्छा, मैं ने कुछ भेजा है तुम्हें… अपने फोन में चैक करो मेरी किस मिला क्या?’’ करण ने अंजुल को एक चुंबन की इमोजी भेजी.

‘‘तुम भी न,’’ अंजुल को लगने लगा कि दूर होने से शायद करण को उस की कमी खल रही है और वह रिश्ते को आगे बढ़ाने की फिराक में है. खैर, इस समय करण उस का काम आपने औफिस में करवाता रहे, अंजुल को यही चाहिए था.

आज ऋषि ने बताया कि शाम को औफिस में एक एचआर इवेंट है, जिस में कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे जाने वाले हैं. आमंत्रण पर अंजुल शाम तक वहीं रुक गई. कई लोगों ने रंगारंग

कार्यक्रम में अपने हुनर दर्शाए. ऋषि की दरख्वास्त पर अंजुल ने एक गाना गया, ‘ख्वाबों में बसे हो तुम, तुम्हें दिल में छुपा लूंगी,

जब चाहे तुम्हें देखूं, आईना बना लूंगी…’

‘‘मैं तुम्हारे गाने पर फिदा हो गया,’’ महफिल की समाप्ति पर ऋषि ने कहा.

‘‘बस गाने पर?’’अंजुल ने तिरछी मुसकान लिए पूछा.

‘‘अरे, मैं तो तुम्हारी हर अदा पर मिटने लगा हूं.’’

‘‘अच्छा फ्लर्ट कर लेते हो,’’ अंजुल थोड़ा लजाते हुए बोली.

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‘‘कौन कमबख्त फ्लर्ट कर रहा है, मैं तो सचाई बयान कर रहा हूं,’’ ऋषि ने भरपूर अदायगी से उत्तर दिया.

आज गाना गाते हुए अंजुल ने कई बार ऋषि को आंखों ही आंखों में इशारे किए थे, जिन से उस की हिम्मत काफी बढ़ गई. यह बात ऋषि के साथ औफिस के और कई लोगों ने भी भांप ली.

अब कई सहकर्मी अंजुल व ऋषि को एकदूसरे के साथ छेड़ने लगे. अंजुल इस छेड़खानी से पुलकित हो उठती. ऋषि भी मुसकरा कर अपनी सहमति दिखाता.

‘‘आज मुंबई के मौसम की खनक सुनने का मन कर रहा है. शाम को जुहू बीच ले चलो न…’’ अंजुल इठला कर कहने लगी.

औफिस के बाद ऋषि और अंजुल जुहू बीच के लिए निकल गए. रात को चांद की मखमली ठंडी लुनाई में दोनों ने एक एकांत कोना खोज निकाला. वहां की ठंडी सीली रेत पर बैठ कर वे आतीजाती लहरों में अपने पांव भिगोने  लगे.

कुछ ही देर में अंजुल ने गुनगुनाना आरंभ किया, ‘ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा, कहा दो दिलों ने कि मिल कर कभी हम न होंगे जुदा…’

अंजुल की आंखों में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऋषि ने आगे बढ़ कर उस के अधरों पर अपने अधर रख दिए. अंजुल ने भी उसे नहीं रोका. कुछ पानी की शीतलता, कुछ चांदनी की खुमारी, कुछ उम्र का उफान… इन स्नेहिल क्षणों में दोनों ने अपने रिश्ते को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया.

दिल्ली लौट कर अंजुल ने सब से पहले रणदीप से मुलाकात की.

‘‘आप आए बहार आई. भई, यहां हमारा औफिस अधिक वीरान हो गया था या हमारा दिल, कहना जरा मुश्किल है,’’ हर बार की तरह हलकाफुलका फ्लर्ट करते हुए रणदीप ने उसे देखते ही कहा, ‘‘तुम्हारे लौटने की खुशी में कल एक पार्टी रखी है. पार्टी में अच्छे से तैयार हो कर आना. तुम्हारा दमकता रूप देखने का मन हो रहा है.’’

अंजुल मन ही मन चिढ़ गई कि अपनी तो बीवी है, बच्चा है, गृहस्थी है. ऐसे में फ्लर्ट करने को भी मिल जाए तो क्या बुरा है. मुझे तो अपने बारे में खुद ही सोचना पड़ेगा न. फिर ऊपर से हंसते हुए अपनी लटों को अदा से कानों के पीछे धकेलते हुए कहने लगी, ‘‘आप बुरा न मानें तो अपने क्लाइंट को भी बुला लूं?’’

रणदीप ने सहर्ष स्वीकृति दे दी.

करण को जैसे ही ज्ञात हुआ कि अंजुल शहर में लौट आई है, उस ने तुरंत उसे फोन किया, ‘‘हाय जानेमन, तभी आज मौसम इतना कातिलाना हुआ जा रहा है.’’

‘‘हाहा… कोरी बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे. पर अभी नहीं, कल मेरे औफिस की पार्टी में मुलाकात होगी. अभी मैं काफी व्यस्त हूं,’’ जल्दबाजी में अंजुल ने फोन काट दिया.

उस की बेरुखी करण को अटपटी अवश्य लगी, मगर पार्टी में जो धमाका उस की प्रतीक्षारत था, वह उस की कल्पना से भी परे था.

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पार्टी में अंजुल खिलखिलाती हुई ऋषि की बांहों में बांहें डाले प्रविष्ट हुई. प्यार में मदहोश दोनों एक प्रेमसिक्त युगल जोड़ा प्रतीत हो रहा. सर्वप्रथम वह रणदीप की ओर बढ़ी, ‘‘इन से मिलिए रणदीप, ये हैं ऋषि मुंबई के हमारे क्लाइंट,’’ अंजुल और ऋषि के मुखड़ों पर फैली रोशनी उन का रिश्ता समझाने के लिए पर्याप्त थी.

‘‘आई एम हैप्पी फौर यू, अंजुल,’’ रणदीप ने कहा तो अंजुल आगे कहने लगी, ‘‘केवल हैप्पी होने से काम नहीं चलेगा, मुझे आप से कुछ चाहिए. मैं मुंबई औफिस में स्थानांतरण चाहती हूं.’’

अंजुल के मुख से अचानक यह सुन कर रणदीप को एक झाटका लगा, ‘‘नहीं अंजुल, यह संभव नहीं. तुम्हारी हमारे दिल्ली औफिस में बेहद आवश्यकता है. मैं तुम्हें मुंबई नहीं भेज सकता.’’ उस ने दो टूक जवाब दे कर अंजुल का हौसला गिराना चाहा.

तभी करण ने पार्टी में प्रवेश किया. आज अंजुल ने उस की ओर से नजर फेर ली.

करण अंजुल के बदले रुख पर हैरान हो ही रहा था कि किसी ने शायरी की फरमाइश कर दी. सभी कुछनकुछ सुनाने लगे. जब माइक अंजुल की तरफ बढ़ाया गया तो उस ने सुनाया:

‘‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां.

जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां.’’

उस के इस शेर पर खूब तालियां बजीं. चुप थे तो बस रणदीप और करण. आज के इस समा के लिए दोनों ही तैयार न थे.

अगला नंबर करण का आया. उस ने अपनी आवाज में पूरा दर्द उड़ेल कर कहा:

‘‘मैं ने सहेज रखी हैं तुम से जुड़ी सभी यादों को. अकसर हंस देता हूं मैं याद कर उन वादों को.’’

मगर अंजुल ने उस की बात के मर्म पर किंचित ध्यान नहीं दिया, उलटा उन्मुक्त हास लिए उस से ऋषि को मिलवाया.

अगले दिन औफिस में अंजुल ने रणदीप की मेज पर अपना  त्यागपत्र रखा, ‘‘रणदीप, यदि आप मेरा 15 दिन का नोटिस पीरियड छोड़ देंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी, लगेगा कि मेरे काम की, मेरी मेहनत की कदर की आप ने.’’

‘‘अंजुल, किसी के वादों के लिए अपनी जौब छोड़ना अक्लमंदी नहीं होती. मैं कहता हूं एक बार फिर सोच लो,’’ रणदीप के लिए अंजुल का यह कदम अप्रत्याशित था.

‘‘रणदीप, वादों व सपनों में तो मैं अब तक घिरी थी. लेकिन अब मैं यथार्थ की धरा पर खड़ी हूं. मैं ने ऋषि से शादी कर ली है.’’

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अंजुल की इस बात से जैसे रणदीप को करंट लगा, ‘‘और जो यहां रह गया है?’’

‘‘नौट माई सर्कस, नौट माई मनी, मुझे क्या करना है,’’ आज अंजुल केवल अपने आने वाले वक्त के बारे में सोच रही थी. आखिर उसे वह मिल गया था, जिस की तलाश में वह अब तक इधरउधर भटकती रही थी.

Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-3)

‘‘तुम महीप दत्त को कैसे जानती हो?’’ उन की मुलाकात से करण अवश्य अचरज में पड़ गया, ‘‘बहुत ऊंची चीज लगती हो.’’

‘‘हैलो, चीज किसे बोल रहे हो?’’ अंजुल ने अपनी कोमल उंगलियों से एक हलकी सी चपत करण के गाल पर लगाते हुए कहा, ‘‘आफ्टर औल, महीप दत्त हमारे क्लाइंट हैं,’’ उस ने इस से अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझा.

अंजुल हर दूसरे दिन औसम के औफिस पहुंच जाती. करण से फ्लर्ट करने से उस के कई काम बन जाते, यहां तक कि जब उस की ऐड कैंपेन डिजाइन में कुछ कमी रह जाती तब भी उसे काम करवाने के लिए फालतू समय मिल जाता. ‘औसम’ के फाइनैंस सैक्सशन से भी अंजुल एकदम समय पर पेमैंट निकलवाने में कारगर सिद्ध होती.

‘‘हमारे यहां एक फाइनैंस डिपार्टमैंट पेमैंट को ले कर बहुत बदनाम है, पर देखता हूं कि तुम्हारी हर पेमैंट टाइम से हो जाती है. वहां भी अपना जादू चलाती हो क्या?’’ एक दिन करण के पूछने पर अंजुल खीसें निपोरने लगी. अब उसे क्या बताती कि अपनी सैक्सी बौडी पर मर्दों की लोलुप्त नजरों को झेलना उस की कोई मजबूरी नहीं, अपितु कई नफे हैं. जरा अदा से हंस दिए, एकाध बार हाथ से हाथ छुआ दिया, आंखों की गुस्ताखियों वाला खेल खेल लिया और बन गया अपना मन चाहा काम.

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कुछ माह बीतने के बाद इतने दिनों की जानपहचान, हर मुलाकात में फ्लर्ट, दोनों का लगभग एक ही उम्र का होना, ऐसे कारणों की वजह से अंजुल को आशा थी कि संभवतया करण उस के साथ लिवइन में रहने की पेशकश कर सकता है. तभी तो वह हर बार अपने मकानमालिक के खड़ूस होने, अधिक किराया होने, कमरा अच्छा न होने जैसी बातें किया करती, ‘‘काश, मैं किसी के साथ अपना किराया आधा बांट सकती.’’

‘‘तुम अपना रूम शेयर करने को तैयार हो? मैं तो कभी भी शेयर न करूं. मुझे अपनी प्राइवेसी बहुत प्यारी है,’’ करण की ऐसी फुजूल की बातों से अंजुल का मनोबल गिर जाता.

‘‘जरा मेरे कैबिन में आना, अंजुल,’’ रणदीप ने इंटरकौम पर कहा.

अंजुल ने उस के कैबिन में प्रवेश किया तो हर ओर से ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ के सुर गुंजायमान होने लगे.

रणदीप आज उस का जन्मदिन खास अपने कैबिन में औफिस के सभी लोगों को बुला कर मना रहा था, ‘‘अंजुल, हमारे औफिस में जब से आईं हैं तब से इन की मेहनत और लगन ने हमारी ऐजेंसी को कहां से कहां पहुंचा दिया…’’, रणदीप सब को संबोधित करते हुए कहने लगा.

‘‘ऐसा लग रहा है जैसे हम तो यहां काम करने नहीं तफरी करने आते हैं,’’ लोगों में सुगबुगाहट होने लगी.

‘‘हमारा तो कभी जन्मदिन नहीं मनाया गया,’’ अर्पित फुंका बैठा था. आखिर उस के नीचे आई अंजुल आज औफिस में उस से अधिक धूम मचा रही थी.

‘‘आप अंजुल हैं क्या जो रणदीप आप की तरफ यों मेहरबान हों?’’ दबेढके ठहाकों के स्वर अंजुल के कानों में चुभने लगे.

औफिस में शानदार पार्टी फिर कभी रणदीप तो कभी करण तो कभी फाइनैंस डिपार्टमैंट के अनिल साहब… अंजुल ने कहां नहीं अपने तिलिस्म का जादू बिखेरने का प्रयास किया. किंतु हाथ क्या लगा. केवल दफ्तर के लोगों की खुसपुसाहट. पुरुष सहकर्मियों की लार टपकाती निगाहें या फिर महिला सहकर्मियों की घृणास्पद हेय दृष्टि.

आज अंजुल पूरे 32 वर्ष की हो गई थी, परंतु इतनी खूबसूरती और इतनी हौट फिगर होते हुए भी कोई उस का हाथ थामने को तैयार नहीं था. सब को केवल उस की कमर में अपनी बांह की चाहत थी. व्यग्र मन और निद्राहीन नयन लिए अंजुल कई घंटे बिस्तर पर लेटी अपने कमरे की छत ताकती रही.

जब पिछले महीने वह अपना रूटीन चैकअप करवाने डाक्टर के पास गई थी तब उस लेडी डाक्टर ने भलमनसाहत में सलाह दी थी कि देखिए अंजुल, स्त्रियों का शरीर एक जैविक घड़ी के हिसाब से चलता है. मां और बच्चे की अच्छी सेहत के लिए 30 वर्ष की आयु से पहले बच्चा हो जाए तो सर्वोत्तम रहता है किंतु 35 वर्ष से देर करना श्रेयस्कर नहीं रहता. आप की बायोलौजिकल क्लौक चल रही है. आप को सैटल होने के बारे में सोचना चाहिए. इन विचारों में घिरी अंजुल के कानों में घड़ी की टिकटिक का शोर बजने लगा. व्याकुलता से उस ने तकिए से अपने कान ढक लिए.

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अगले दिन अंजुल ने औफिस में एक नए प्रोजैक्ट की पिच के बारे में सुना तो रणदीप से उसे मांगने पहुंच गई.

‘‘परंतु यह प्रोजैक्ट मुंबई में है और तुम दिल्ली का ‘औसम’ अकाउंट हैंडल कर रही हो,’’ रणदीप के सुरों में हिचकिचाहट थी.

‘‘सो वाट, रणदीप, मैं दोनों को हैंडल कर सकती हूं. मुंबई में भी तो हमारा एक औफिस है. मैं वहां विजिट करती रहूंगी और ‘औसम’ तो जाती ही रहती हूं,’’ अंजुल ने रणदीप को अपनी बात मानने हेतु राजी कर लिया.

मुंबई पहुंच कर अंजुल औफिस के गैस्ट हाउस में ठहरी. कमरा एकदम साधारण

था, किंतु उस के यहां आने का लक्ष्य कुछ और था. अंजुल डरने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो जाए कि उस के हाथों से उस की उम्र तेजी से रेत की मानिंद फिसल जाए और वह खाली हथेलियों को मलती रह जाए. अपनी सैक्सी बौडी की बदौलत उस ने कई अवसर पाए थे, जिन्हें उस ने अपनी बुद्धि व चपलता के बलबूते बखूबी भुनाया था.

उस का अनुमान रहा था कि इसी आकर्षण के कारण उसे अपना जीवनसाथी मिल जाएगा, परंतु अब बढ़ती उम्र ने उसे डरा दिया था. हो सकता है करण बात आगे बढ़ाए, मगर अभी तक उस ने ऐसा कोई इशारा नहीं दिया, केवल फ्लर्ट करता रहता है.

इसलिए समय रहते उसे अपने लिए एक जीवनसाथी तो खोजना ही पड़ेगा. मुंबई में 2 दफ्तरों में जा कर हो सकता है उसे अपने औफिस या फिर क्लाइंट औफिस में कोई मिल जाए…

जब अंजुल मुंबई में क्लाइंट के औफिस पहुंची तो उसे एक लड़के से मिलवाया गया. लड़का बेहद खूबसूरत लगा. उसे देख कर अंजुल के मन में सुनहरे ख्वाब सजने लगे.

‘‘माई नेम इस ऋषि. मैं इस औफिस की तरफ से आप का कौंटैक्ट पौइंट रहूंगा,’’ ऋषि ने अपना परिचय दिया.

‘‘आप का नाम, आप का व्यक्तित्व, सबकुछ शानदार है. आप से मिल कर बेहद प्रसन्नता हुई,’’ अंजुल ने अपने दिल में उठ रही हिलोरों को बाहर बहने से बिलकुल नहीं रोका.

उस की बात सुन कर ऋषि हौले से हंस पड़ा. काम पर अपनी पकड़ से अंजुल ने उसे पहली ही मीटिंग में प्रभावित कर दिया. फिर लंच के समय ऋषि ने अंजुल से पूछा कि औफिस की तरफ से उस के लिए क्या मंगवाया जाए?

‘‘कुछ भी चलेगा बस साथ में आप की कंपनी जरूर चाहिए,’’ अंजुल अब समय बरबाद नहीं करना चाहती थी.

पहले ही दिन से दोनों में अच्छी मित्रता हो गई. अपने बचपन, शिक्षा, कैरियर, परिवार संबंधी काफी बातें साझा करने के बाद दोनों ने शाम को एकदूसरे से विदा ली. गैस्ट हाउस लौट कर अंजुल ने कपड़े बदले और निकल गई गेटवे औफ इंडिया की सैर करने. ‘कल ऋषि से कहूंगी कि मुंबई की सैर करवाए,’ वह सोचने लगी. आज इसलिए नहीं कहा कि कहीं वह डैसपरेट न लगे. सुबह जो कमरा उसे बहुत साधारण लगा था, अब वहीं उसे उजले सपनों ने घेर लिया.

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अगले दिन क्लाइंट औफिस जाते हुए रास्ते में करण का फोन आया, ‘‘हाय जानेमन, कैसा लग रहा है मुंबई?’’

‘‘फर्स्ट क्लास, शहर भी और यहां के लोग भी,’’ अंजुल ने चहक कर उत्तर दिया.

आगे पढें- आज ऋषि ने बताया कि शाम को…

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