कामिनी आंटी: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

विभा को खिड़की पर उदास खड़ा देख मां से रहा नहीं गया. बोलीं, ‘‘क्या बात है बेटा, जब से घूम कर लौटी है परेशान सी दिखाई दे रही है? मयंक से झगड़ा हुआ है या कोई और बात है? कुछ तो बता?’’ ‘‘कुछ नहीं मां… बस ऐसे ही,’’ संक्षिप्त उत्तर दे विभा वाशरूम की ओर बढ़ गई.

‘‘7 दिन हो गए हैं तुझे यहां आए. क्या ससुराल वापस नहीं जाना? मालाजी फोन पर फोन किए जा रही हैं… क्या जवाब दूं उन्हें.’’ ‘‘तो क्या अब मैं चैन से इस घर में कुछ दिन भी नहीं रह सकती? अगर इतना ही बोझ लगती हूं तो बता दो, चली जाऊंगी यहां से,’’ कहते हुए विभा ने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘अरे मेरी बात तो सुन,’’ बाहर खड़ी मां की आंखें आंसुओं से भीग गईं. अभी कुछ दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से अपनी इकलौती लाडली बेटी विभा की शादी की थी. सब कुछ बहुत अच्छा था. सौफ्टवेयर इंजीनियर लड़का पहली बार में ही विभा और उस की पूरी फैमिली को पसंद आ गया था. मयंक की अच्छी जौब और छोटी फैमिली और वह भी उसी शहर में. यही देख कर उन्होंने आसानी से इस रिश्ते के लिए हां कर दी थी कि शादी के बाद बेटी को देखने उन की निगाहें नहीं तरसेंगी. लेकिन हाल ही में हनीमून मना कर लौटी बेटी के अजीबोगरीब व्यवहार ने उन की जान सांसत में डाल दी थी.

पत्नी के चेहरे पर पड़ी चिंता की लकीरों ने महेश चंद को भी उलझन में डाल दिया. कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि ‘‘हैलो आंटी, हैलो अंकल,’’ कहते हुए विभा की खास दोस्त दिव्या ने बैठक में प्रवेश किया. ‘‘अरे तुम कब आई बेटा?’’ पैर छूने के लिए झुकी दिव्या के सिर पर आशीर्वादस्वरूप हाथ फेरते हुए दिव्या की मां ने पूछा.

‘‘रात 8 बजे ही घर पहुंची थी आंटी. 4 दिन की छुट्टी मिली है. इसीलिए आज ही मिलने आ गई.’’

‘‘तुम्हारी जौब कैसी चल रही है?’’ महेश चंद के पूछने पर दिव्या ने हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखाया और आंटी की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘विभा कैसी है? बहुत दिनों से उस से बात नहीं हुई. मैं ने फोन फौर्मैट करवाया है, इसलिए कौल न कर सकी और उस का भी कोई फोन नहीं आया.’’ ‘‘तू पहले इधर आ, कुछ बात करनी है,’’ विभा की मां उसे सीधे किचन में ले गईं.

पूरी बात समझने के बाद दिव्या ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह तुरंत विभा की परेशानी को समझ उन से साझा करेगी.

बैडरूम के दरवाजे पर दिव्या को देख विभा की खुशी का ठिकाना न रहा. दोनों 4 महीने बाद मिल रही थीं. अपनी किसी पारिवारिक उलझन के कारण दिव्या उस की शादी में भी सम्मिलित न हो सकी थी.

‘‘कैसी है मेरी जान, हमारे जीजू बहुत परेशान तो नहीं करते हैं?’’ बड़ी अदा से आंख मारते हुए दिव्या ने विभा को छेड़ा. ‘‘तू कैसी है? कब आई?’’ एक फीकी हंसी हंसते हुए विभा ने दिव्या से पूछा.

‘‘क्या हुआ है विभा, इज समथिंग रौंग देयर? देख मुझ से तू कुछ न छिपा. तेरी हंसी के पीछे एक गहरी अव्यक्त उदासी दिखाई दे रही है. मुझे बता, आखिर बात क्या है?’’ दिव्या उस की आंखों में देखते हुए बोली. अचानक विभा की पलकों के कोर गीले हो चले. फिर उस ने जो बताया वह वाकई चौंकाने वाला था.

विभा के अनुसार सुहागरात से ही फिजिकल रिलेशन के दौरान मयंक में वह एक झिझक सी महसूस कर रही थी, जो कतई स्वाभाविक नहीं लग रही थी. उन्होंने बहुत कोशिश की, रिलेशन से पहले फोरप्ले आदि भी किया, बावजूद इस के उन के बीच अभी तक सामान्य फिजिकल रिलेशन नहीं बन पाया और न ही वे चरमोत्कर्ष का आनंद ही उठा पाए. इस के चलते उन के रिश्ते में एक चिड़चिड़ापन व तनाव आ गया है. यों मयंक उस का बहुत ध्यान रखता और प्यार भी करता है. उस की समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे. मांपापा से यह सब कहने में शर्म आती है, वैसे भी वे यह सब जान कर परेशान ही होंगे.

विभा की पूरी बात सुन दिव्या ने सब से पहले उसे ससुराल लौट जाने के लिए कहा और धैर्य रखने की सलाह दी. अपना व्यवहार भी संतुलित रखने को कहा ताकि उस के मम्मीपापा को तसल्ली हो सके कि सब कुछ ठीक है. दिव्या की सलाह के अनुसार विभा ससुराल आ गई. इस बीच उस ने मयंक के साथ अपने रिश्ते को पूरी तरह से सामान्य बनाने की कोशिश भी की और भरोसा भी जताया कि मयंक की किसी भी परेशानी में वह उस के साथ खड़ी है. उस के इस सकारात्मक रवैए का तुरंत ही असर दिखने लगा. मयंक की झिझक धीरेधीरे खुलने लगी. लेकिन फिजिकल रिलेशन की समस्या अभी तक ज्यों की त्यों थी.

कुछ दिनों की समझाइश के बाद आखिरकार विभा ने मयंक को काउंसलर के पास चलने को राजी कर लिया. दिव्या के बताए पते पर दोनों क्लिनिक पहुंचे, जहां यौनरोग विशेषज्ञ डा. नमन खुराना ने उन से सैक्स के मद्देनजर कुछ सवाल किए. उन की परेशानी समझ डाक्टर ने विभा को कुछ देर बाहर बैठने के लिए कह कर मयंक से अकेले में कुछ बातें कीं. उन्हें 3 सिटिंग्स के लिए आने का सुझाव दे कर डा. नमन ने मयंक के लिए कुछ दवाएं भी लिखीं.

कुछ दिनों के अंतराल पर मयंक के साथ 3 सिटिंग्स पूरी होने के बाद डा. नमन ने विभा को फोन कर अपने क्लिनिक बुलाया और कहा, ‘‘विभाजी, आप के पति शारीरिक तौर पर बेहद फिट हैं. दरअसल वे इरैक्शन की समस्या से जूझ रहे हैं, जो एक मानसिक तनाव या कमजोरी के अलावा कुछ नहीं है. इसे पुरुषों के परफौर्मैंस प्रैशर से भी जोड़ कर देखा जाता है.

‘‘इस समय उन्हें आप के मानसिक संबल की बहुत आवश्यकता है. आप को थोड़ा मजबूत हो कर यह जानने की जरूरत है कि किशोरावस्था में आप के पति यौन शोषण का शिकार हुए हैं और कई बार हुए हैं. अपने से काफी बड़ी महिला के साथ रिलेशन बना कर उसे संतुष्ट करने में उन्हें शारीरिक तौर पर तो परेशानी झेलनी ही पड़ी, साथ ही उन्हें मानसिक स्तर पर भी बहुत जलील होना पड़ा है, जिस का कारण कहीं न कहीं वे स्वयं को भी मानते हैं. इसीलिए स्वेच्छा से आप के साथ संबंध बनाते वक्त भी वे उसी अपराधबोध का शिकार हो रहे हैं. चूंकि फिजिकल रिलेशन की सफलता आप की मानसिक स्थिति तय करती है, लिहाजा इस अपराधग्रंथि के चलते संबंध बनाते वक्त वे आप के प्रति पूरी ईमानदारी नहीं दिखा पाते, नतीजतन आप दोनों उस सुख से वंचित रह जाते हैं. अत: आप को अभी बेहद सजग हो कर उन्हें प्रेम से संभालने की जरूरत है.’’ विभा को काटो तो खून नहीं. अपने पति के बारे में हुए इस खुलासे से वह सन्न रह गई.

क्या ऐसा भी होता है. ऐसा कैसे हो सकता है? एक लड़के का यौन शोषण आदि तमाम बातें उस की समझ के परे थीं. उस का मन मानने को तैयार नहीं था कि एक हट्टाकट्टा नौजवान भी कभी यौन शोषण का शिकार हो सकता है. पर यह एक हकीकत थी जिसे झुठलाया नहीं जा सकता था. अत: अपने मन को कड़ा कर वह पिछली सभी बातों पर गौर करने लगी. पूरा समय मजाकमस्ती के मूड में रहने वाले मयंक का रात के समय बैड पर कुछ अनमना और असहज हो जाना, इधर स्त्रीसुलभ लाज के चलते विभा का उस की प्यार की पहल का इंतजार करना, मयंक की ओर से शुरुआत न होते देख कई बार खुद ही अपने प्यार का इजहार कर मयंक को रिझाने की कोशिश करना, लेकिन फिर भी मयंक में शारीरिक सुख के लिए कोई उत्कंठा या भूख नजर न आना इत्यादि कई ऐसी बातें थीं, जो उस वक्त विभा को विस्मय में डाल देती थीं. खैर, बात कुछ भी हो, आज एक वीभत्स सचाई विभा के सामने परोसी जा चुकी थी और उसे अपनी हलक से नीचे उतारना ही था.

हलकेफुलके माहौल में रात का डिनर निबटाने के बाद विभा ने बिस्तर पर जाते ही मयंक को मस्ती के मूड में छेड़ा, ‘‘तुम्हें मुझ पर जरा भी विश्वास नहीं है न?’’ ‘‘नहीं तो, ऐसा बिलकुल नहीं है. अब तुम्हीं तो मेरे जीने की वजह हो. तुम्हारे बगैर जीने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता,’’ मयंक ने घबराते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अगर ऐसा है तो तुम ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी सचाई मुझ से क्यों छिपाई?’’ विभा ने प्यार से उस की आंखों में देखते हुए कहा. ‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बताना चाहता था, लेकिन मुझे डर था कहीं तुम मुझे ही गलत न समझ बैठो. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं विभा और किसी भी कीमत पर तुम्हें खोना नहीं चाहता था, इसीलिए…’’ कह कर मयंक चुप हो गया.

फिर कुछ देर की गहरी खामोशी के बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए मयंक बताने लगा. ‘‘मैं टैंथ में पढ़ने वाला 18 वर्षीय किशोर था, जब कामिनी आंटी से मेरी पहली मुलाकात हुई. उस दिन हम सभी दोस्त क्रिकेट खेल रहे थे. अचानक हमारी बौल पार्क की बैंच पर अकेली बैठी कामिनी आंटी को जा लगी. अगले ही पल बौल कामिनी आंटी के हाथों में थर. चूंकि मैं ही बैटिंग कर रहा था. अत: दोस्तों ने मुझे ही जा कर बौल लाने को कहा. मैं ने माफी मांगते हुए उन से बौल मांगी तो उन्होंने इट्स ओके कहते हुए वापस कर दी.’’

‘‘लगभग 30-35 की उम्र, दिखने में बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी, सलीकेदार कामिनी आंटी से बातें कर मुझे बहुत अच्छा लगता था. फाइनल परीक्षा होने को थी. अत: मैं बहुत कम ही खेलने जा पाता था. कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात होने पर बातचीत के दौरान कामिनी आंटी ने मुझे पढ़ाने की पेशकश की, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार लिया. चूंकि मेरे घर से कुछ ही दूरी पर उन का अपार्टमैंट था, इसलिए मम्मीपापा से भी मुझे उन के घर जा कर पढ़ाई करने की इजाजत मिल गई.’’ ‘‘फिजिक्स पर कामिनी आंटी की पकड़ बहुत मजबूत थी. कुछ लैसन जो मुझे बिलकुल नहीं आते थे, उन्होंने मुझे अच्छी तरह समझा दिए. उन के घर में शांति का माहौल था. बच्चे थे नहीं और अंकल अधिकतर टूअर पर ही रहते थे. कुल मिला कर इतने बड़े घर में रहने वाली वे अकेली प्राणी थीं.

‘‘बस उन की कुछ बातें हमेशा मुझे खटकतीं जैसे पढ़ाते वक्त उन का मेरे कंधों को हौले से दबा देना, कभी उन के रेंगते हाथों की छुअन अपनी जांघों पर महसूस करना. ये सब करते वक्त वे बड़ी अजीब नजरों से मेरी आंखों में देखा करतीं. पर उस वक्त ये सब समझने के लिए मेरी उम्र बहुत छोटी थी. उन की ये बातें मुझे कुछ परेशान अवश्य करतीं लेकिन फिर पढ़ाई के बारे में सोच कर मैं वहां जाने का लोभ संवरण न कर पाता.’’ ‘‘मेरी परीक्षा से ठीक 1 दिन पहले पढ़ते वक्त उन्होंने मुझे एक गिलास जूस पीने को दिया और कहा कि इस से परीक्षा के वक्त मुझे ऐनर्जी मिलेगी. जूस पीने के कुछ देर बाद ही मुझे कुछ नशा सा होने लगा. मैं उठने को हुआ और लड़खड़ा गया. तुरंत उन्होंने मुझे संभाल लिया. उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद न रहा.

2-3 घंटे बाद जब मेरी आंख खुली तो सिर में भारीपन था और मेरे कपड़े कुछ अव्यवस्थित. मैं बहुत घबरा गया. मुझे कुछ सही नहीं लग रहा था. कामिनी आंटी की संदिग्ध मुसकान मुझे विचलित कर रही थी. दूसरे दिन पेपर था. अत: दिमाग पर ज्यादा जोर न देते हुए मैं तुरंत घर लौट आया. ‘‘दूसरा पेपर मैथ का था. चूंकि फिजिक्स का पेपर हो चुका था, इसलिए कामिनी आंटी के घर जाने का कोई सवाल नहीं था. 2-3 दिन बाद कामिनी आंटी का फोन आया. आखिरी बार उन के घर में मुझे बहुत अजीब हालात का सामना करना पड़ा था. अत: मैं अब वहां जाने से कतरा रहा था. लेकिन मां के जोर देने पर कि चला जा बटा शायद वे कुछ इंपौर्टैंट बताना चाहती हों, न चाहते हुए भी मुझे वहां जाना पड़ा.

‘‘उन के घर पहुंचा तो दरवाजा अधखुला था. दरवाजे को ठेलते हुए मैं उन्हें पुकारता हुआ भीतर चला गया. हाल में मद्धिम रोशनी थी. सोफे पर लेटे हुए उन्होंने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया. कुछ हिचकिचाहट में उन के समीप गया तो मुंह से आ रही शराब की तेज दुर्गंध ने मुझे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. मैं पीछे हट पाता उस से पहले ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे पर अपने ऊपर खींच लिया. बिना कोई मौका दिए उन्होंने मुझ पर चुंबनों की बौछार शुरू कर दी. यह क्या कर रही हैं आप? छोडि़ए मुझे, कह कर मैं ने अपनी पूरी ताकत से उन्हें अपने से अलग किया और बाहर की ओर लपका.

‘‘रुको, उन की गरजती आवाज ने मानो मेरे पैर बांध दिए, ‘मेरे पास तुम्हें कुछ दिखाने को है,’ कुटिलता से उन्होंने मुसकराते हुए कहा. फिर उन के मोबाइल में मैं ने जो देखा वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. वह एक वीडियो था, जिस में मैं उन के ऊपर साफतौर पर चढ़ा दिखाई दे रहा था और उन की भंगिमाएं कुछ नानुकुर सी प्रतीत हो रही थीं. ‘‘उन्होंने मुझे साफसाफ धमकाते हुए कहा कि यदि मैं ने उन की बातें न मानीं तो वे इस वीडियो के आधार पर मेरे खिलाफ रेप का केस कर देंगी, मुझे व मेरे परिवार को कालोनी से बाहर निकलवा देंगी. मेरे पावों तले जमीन खिसक गई. फिर भी मैं ने अपना बचाव करते हुए कहा कि ये सब गलत है. मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया है.

‘‘तब हंसते हुए वे बोलीं, तुम्हारी बात पर यकीन कौन करेगा? क्या तुमने देखा नहीं कि मैं ने किस तरह से इस वीडियो को शूट किया है. इस में साफसाफ मैं बचाव की मुद्रा में हूं और तुम मुझ से जबरदस्ती करते नजर आ रहे हो. मेरे हाथपांव फूल चुके थे. मैं उन की सभी बातें सिर झुका कर मानता चला गया. ‘‘जाते समय उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दी कि जबजब मैं तुम्हें बुलाऊं चले आना. कोई नानुकुर नहीं चलेगी और भूल कर भी ये बातें कहीं शेयर न करूं वरना वे मेरी पूरी जिंदगी तबाह कर देंगी.

‘‘मैं उन के हाथों की कठपुतली बन चुका था. उन के हर बुलावे पर मुझे जाना होता था. अंतरंग संबंधों के दौरान भी वे मुझ से बहुत कू्ररतापूर्वक पेश आती थीं. उस समय किसी से यह बात कहने की मैं हिम्मत नहीं जुटा सका. एक तो अपनेआप पर शर्मिंदगी दूसरे मातापिता की बदनामी का डर, मैं बहुत ही मायूस हो चला था. मेरी पूरी पढ़ाई चौपट हो चली थी.

करीब साल भर तक मेरे साथ यही सब चलता रहा. एक बार कामिनी आंटी ने मुझे बुलाया और कहा कि आज आखिरी बार मैं उन्हें खुश कर दूं तो वे मुझे अपने शिकंजे से आजाद कर देंगी. बाद में पता चला कि अंकलजी का कहीं दूसरी जगह ट्रांसफर हो गया है.

‘‘महीनों एक लाचार जीवन जीतेजीते मैं थक चुका था. उस बेबसी और पीड़ा को मैं भूल जाना चाहता था. उसी साल मुझे भी पापा ने पढ़ने के लिए कोटा भेज दिया, जहां मैं ने मन लगा कर पढ़ाई की, पर अतीत की इन परछाइयों ने मेरा पीछा शादी के बाद भी नहीं छोड़ा जिस कारण आज तक मैं तुम्हारे साथ न्याय नहीं कर पाया. मैं शर्मिंदा हूं, मुझे माफ कर दो विभा,’’ मयंक की आंखों में दर्द उतर आया. ‘‘नहीं मयंक तुम क्यों माफी मांग रहे हो. माफी तो उसे मांगनी चाहिए जिस ने अपराध किया है. मैं उस औरत को उस के किए की सजा दिलवा कर रहूंगी और तुम्हें न्याय,’’ कह विभा ने मयंक के आंसू पोंछे.

‘‘नहीं विभा, वह औरत बहुत शातिर है. मुझे उस से बहुत डर लगता है.’’ ‘‘तुम्हारा यही डर तो मुझे खत्म करना है.’’ कहते हुए विभा ने मन में कुछ ठान लिया. अगले दिन से विभा ने कामिनी आंटी के बारे में पता करने की मुहिम छेड़ दी. जिस अपार्टर्मैंट में वे रहती थीं, वहां जा कर खोजबीन करने पर उसे सिर्फ इतना पता चल सका कि कामिनी आंटी के पति का ट्रांसफर भोपाल में हुआ है. लेकिन उस ने हिम्मत नहीं हारी.

अपने सासससुर को भी उस ने मयंक की इस आपबीती के बारे में बताया, जिसे सुन कर वे भी सिहर उठे. अपने बेटे के साथ महीनों हुए इस शोषण के खिलाफ उन्होंने भी आवाज उठाने में एक पल की देर न लगाई. एक दिन फेसबुक पर कुछ देखते समय विभा के मन में अचानक एक विचार कौंधा. उस ने कामिनी गुप्ता के नाम से एफबी पर सर्च किया. भोपाल की जितनी भी कामिनी मिलीं उन में उस कामिनी को ढूंढ़ना असंभव नहीं पर मुश्किल जरूर था, पर अपने पति को न्याय दिलाने के लिए विभा कुछ भी करने को तैयार थी.

आखिरकार उस की सास ने जिस एक कामिनी की फोटो पर उंगली रखी, विभा उसे देखती ही रह गई. साफ दमकता रंग, आकर्षक व्यक्तित्व की धनी कामिनी आंटी आज 10 साल बाद भी अपनी वास्तविक उम्र से कम ही नजर आ रही थीं. यकीनन उन्हें देख कर इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल था कि वे एक संगीन जुर्म में लिप्त रह चुकी हैं.

तुरंत विभा ने उन्हें फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. 2-3 दिन बाद कामिनी आंटी ने विभा की फ्रैंड रिक्वैस्ट स्वीकार ली. धीरेधीरे उस ने कामिनी आंटी की तारीफों के पुल बांधते हुए उन से मेलजोल बढ़ाया और उन का फोन नंबर ले लिया. अब उस का अगला कदम पुलिस को इस मामले की जानकारी देना था. लेकिन चूंकि सालों पुराने हुए इस अपराध को साबित करने के लिए उन के पास कोई ठोस सुबूत नहीं था. अत: पुलिस ने उन की सहायता करने में अक्षमता जताई.

विभा जानती थी कि अगर सुबूत चाहिए तो उसे कामिनी आंटी के पास जाना ही होगा. उस ने मयंक को समझाया और हौसला दिया कि वह एक बार फिर से कामिनी आंटी का सामना करे. योजना के तहत विभा ने कामिनी आंटी से फोन पर बात करते हुए उन्हें बताया कि वह पर्सनल काम से अपने पति के साथ भोपाल आ रही है. कामिनी आंटी ने उसे अपने घर आने का निमंत्रण दिया.

नियत समय पर विभा ने कामिनी आंटी के घर की बैल बजाई. कुछ पलों के पश्चात उन्हें दरवाजे पर देख वितृष्णा से उस का मुंह कसैला हो गया, पर अपनी भावनाओं पर काबू रख उस ने मुसकुराते हुए हाल के अंदर प्रवेश किया. सहज भाव से कामिनी आंटी ने उस का स्वागत किया. कुछ औपचारिक बातों के मध्य ही मयंक ने दरवाजे पर दस्तक दी. दरवाजे पर एक आकर्षक पुरुष को देख कामिनी आंटी कुछ अचरज से भर उठीं. उन्होंने मयंक पर प्रश्नवाचक निगाह डालते हुए उस का परिचय जानना चाहा. इधर विभा मयंक से अनजान बन वहीं खड़ी रही. मयंक अपना परिचय देता, उस से पहले ही कामिनी आंटी ने उसे लगभग पहचानते हुए पूछा, ‘‘तुम?’’ ‘‘दाद देनी पड़ेगी आप की नजर की, कुछ ही पलों में मुझे पहचान लिया.’’

कामिनी आंटी कुछ और कहतीं उस से पहले ही विभा ने उन से चलने की इजाजत मांग ली. ‘‘तुम यहां किस मकसद से आए हो?

क्या चाहते हो?’’ विभा के जाते ही वे मयंक पर बरस पड़ीं. ‘‘अरे वाह, पहले तो आप मुझे बुलाते न थकती थीं और आज इतना बेगाना व्यवहार.’’ मयंक ने अपने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे धमकाने आए हो. भूल गए सालों पहले मैं ने तुम्हारी क्या हालत की थी?’’ कामिनी आंटी अपनी असलियत पर आ चुकी थीं. ‘‘अच्छी तरह याद है. इसीलिए तो आप के उन गुनाहों की सजा दिलाने चला आया,’’ मयंक ने हंस कर कहा.

‘‘तुम्हें मेरा पता किस ने दिया और क्या सुबूत है तुम्हारे पास कि मैं ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया है?’’ कामिनी आंटी बौखलाहट में बोले जा रही थीं, ‘‘तुम मुझे अच्छी तरह से जानते नहीं हो, इसलिए यहां आने की भूल कर दी. तुम्हारे जैसे जाने कितने मयंकों को मैं ने अपनी वासना के जाल में फंसाया और बरबाद कर दिया.

तुम आज भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. अभी मेरे पास वह वीडियो मौजूद है जिसे मैं ने तुम्हें फंसाने के लिए बनाया था. तुम कल भी मेरा दिल बहलाने का खिलौना थे और आज भी वही हो. अपनी सलामती चाहते हो तो निकल जाओ यहां से,’’ कामिनी आंटी ने चिल्लाते हुए कहा.

‘‘जरूर निकल जाएंगे, लेकिन आप को सलाखों के पीछे पहुंचा कर, कामिनी आंटी,’’ कहती हुई विभा अंदर आ कर मयंक के पास उस का हाथ पकड़ कर खड़ी हो गई. उस के पीछे महिला पुलिस भी थी. किसी फिल्मी ड्रामे की तरह अचानक हुए इस घटनाक्रम से कामिनी आंटी बौखला गईं बोलीं, ‘‘ये क्या हो रहा है? कौन हो तुम सब? मैं किसी को नहीं जानती… निकल जाओ तुम सब यहां से.’’

‘‘इतनी आसानी से मैं आप को कुछ भी भूलने नहीं दूंगी. मैं हूं विभा मयंक की पत्नी. आप की एक नापाक हरकत ने मेरे बेकुसूर पति की जिंदगी तबाह कर दी. अब बारी आप की है. इंस्पैक्टर यही है वह कामिनी जिस ने मेरे पति का शारीरिक शोषण किया था, जिस के सारे सुबूत इस कैमरे में मौजूद हैं,’’ सैंटर टेबल के फूलदान से विभा ने एक हिडेन कैमरा निकालते हुए पुलिस को सौंप दिया, जिसे उस ने कुछ देर पहले ही कामिनी आंटी की नजर बचा कर रख दिया था. अपनी घिनौनी करतूत के सुबूत को सामने देख अचानक ही कामिनी आंटी ने अपना रुख बदला और मयंक के सामने गिड़गिड़ाने लगीं, ‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दो, मैं आइंदा किसी के साथ ऐसा नहीं करूंगी. तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, प्लीज मुझे बचा लो.’’

‘‘कुछ सालों पहले मैं ने भी यही शब्द आप के सामने कहे थे और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया था, लेकिन आप ने जरा भी दया नहीं दिखाई थी,’’ कामिनी आंटी की ओर घृणा से देखते हुए मयंक ने मुंह फेर लिया. पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में पता चला कि कामिनी आंटी के पति उन्हें शारीरिक सुख देने के काबिल नहीं थे, जिस से न ही वे कभी मां बन सकीं और न ही उन्हें शारीरिक सुख मिला. लेकिन इस सुख को पाने के लिए उन्होंने जो रास्ता अपनाया वह नितांत गलत था.

इधर मयंक का खोया सम्मान उसे वापस मिल चुका था. ‘‘थैंक्यू सो मच विभा,

तुम ने मुझे एक शापित जिंदगी से मुक्ति दिला कर मेरा खोया आत्मविश्वास वापस दिलाया है,’’ कहतेकहते मयंक का गला भर्रा गया. ‘‘अच्छा तो इस के बदले मुझे क्या मिलेगा?’’ शरारत से हंसते हुए विभा ने उसे छेड़ा.

‘‘ठीक है तो आज रात को अपना गिफ्ट पाने के लिए तैयार हो जाओ,’’ मयंक भी मस्ती के मूड में आ चुका था. शादी के बाद पहली बार मयंक के चेहरे पर वास्तविक खुशी देख कर विभा ने चैन की सांस ली और शरमा कर अपने प्रिय के गले लग गई.

परिंदे को उड़ जाने दो : भाग-4

अक्षत ने शीना का हाथ पकड़ा और उसे किस करने के लिए आगे बढ़ा. शीना ने उसे मना नहीं किया और पहली बार किसी लड़के के स्पर्श को महसूस कर खुशी से भर गई.

ट्रिप के अगले 2 दिन शीना के लिए किसी सपने से कम नहीं थे. वह अक्षत को कभी बेबी कह कर बुलाती, कभी उसे गले लगाती, कभी बिना बात उस के साथ कपल डांस करने लगती. अक्षत के साथ उस के लिए यह ट्रिप कई कारणों से यादगार हो चुकी थी. लेकिन, शीना की मम्मी दिन में 5 बार उसे फोन करतीं थीं जिस से वह खीझ उठती थी. फोन उठाती तो मम्मी उसे कोई न कोई हिदायत देती रहती थीं.

शीना वापस घर आई तो मम्मी ने उस के सामने पहले से तैयार बातों की लिस्ट रख थी, “तुम ने इतना समय बर्बाद किया है कि दो प्रौडक्ट के शूट हाथ से निकल गए, यह क्या बिना मेकअप लगाए घूम रही हो, कोई देखेगा तो क्या कहेगा, इसीलिए बस इसीलिए मैं नहीं चाहती थी कि ट्रिप पर जाओ, 5 दिनों में जैसे सब कुछ ही भूल गई.”

“मम्मी सांस तो लेने दो, अभी ठीक से बैठी भी नहीं हूं मैं कि आप शुरू हो गई हो,” कह कर शीना अपने कमरे की तरफ चली गई.

“मुझ से जबान लड़ाने की कोशिश मत करो और ट्रैक पर वापस आ जाओ. एक बाप है जिसे घर की सुध नहीं है और एक बेटी है जिसे अपना कैरियर बर्बाद करने की पड़ी है,” शोभा बड़बड़ाने लगी.

अगले दिन से शीना के लिए कालेज पहले जैसा नहीं रहा था, अब अक्षत उस का बौयफ्रेंड था और वह उस की गर्लफ्रेंड. जिंदगी में रोमांस की कमी थी और वह आखिर मिल ही गया था. शीना को अब न मेकअप करने का शौक रहा था न उस का डांस क्लास या शूट्स पर जाने का मन होता था. वह कालेज पर और अक्षत पर फोकस करना चाहती थी. अक्षत के कहने पर उस ने अब नोवल्स पढ़ना भी शुरू कर दिया था. लिखने का भी शौक होने लगा था अब उसे. सब उस के आर्टिकल्स पढ़ कर तारीफ किया करते थे. उसे लगा जैसे सुकून तो अब मिला है उसे इतने सालों में.

शाम को क्लास जाने की बजाए शीना अक्षत के साथ लाइब्रेरी चली गई, अगले दिन भी उस ने डांस क्लास न जा कर कैंटीन में बैठे रहना ज्यादा सही समझा. शूट्स के लिए मम्मी कहतीं तो वह टेस्ट का बहाना बना कर टाल देती.

शोभा को डांस टीचर का कौल आया तो पता चला कि पिछले एक महीने में शीना सिर्फ 4 दिन ही क्लास गई है.

शाम को शीना घर लौटी तो सोफे पर बैठी शोभा ने उसे अपने पास बुलाया.

“क्या चल रहा है यह सब?” शोभा ने पूछा.

“क्या चल रहा है मतलब?”

“क्लास नहीं जा रही तो कहीं तो गुलछर्रे उड़ा ही रही हो,” शोभा ने आग बबूला होते हुए कहा.

“वो… मैं….पढ़ रही थी,” शीना इस तरह पकड़ी जाएगी उस ने सोचा नहीं था.

“अगले महीने मिस इंडिया के ट्रायल्स शुरू हो रहे हैं और अब तुम्हें उसी पर फोकस करना है, कल से कालेज जाने की जरूरत नहीं है रोज.”

“पर मेरे एग्जाम हैं मम्मी.”

“तो?”

“मुझे नहीं बनना मिस इंडिया, मैं कालेज ही जाउंगी,” शीना ने अपना फैसला सुनाया.

“तुम्हें किस ने कहा कि तुम्हारी मरजी चलेगी यहां? मुझे पता ही था कि यही होगा, मुझे पता ही था. क्या रखा है कालेज में? जरूर किसी लड़के का चक्कर है,” लगभग चीखते हुए शोभा ने कहा.

“लड़का हो या न हो, पर मैं वही करूंगी जो मेरे लिए सही है. वैसे भी आप को मेरी खुशी या सही गलत से क्या लेना देना है,” शीना की आंखों में आंसू थे.

“मुझे क्या लेना देना है? मां हूं मैं तेरी, तेरे कैरियर के लिए ही कर रही हूं यह सब.”

“पैसो के लिए कर रही हो आप यह सब, मां बनी ही कब हो आप मेरी. मुझे खोखला बनने के अलावा क्या सिखाया है आप ने. बचपन से मेरे दोस्तों को भगाती आई हो, कैमरे के आगे मुस्कराने और स्टेज पर जजेस को खुश करना सिखाया है लेकिन खुश रहना नहीं सिखाया,” रोते हुए शीना अपने रूम में चली गई.

“कल से तू कालेज नहीं जाएगी बस, देखती हूं कैसे नहीं मानती मेरी बात,” शोभा ने चिल्लाते हुए कहा और सोफे पर धम से बैठ गई.

शीना ने रोते हुए अक्षत को फोन किया.

“मुझे नहीं रहना है इस घर में,” शीना ने कहा.

“क्या हुआ है, रो क्यों रही हो?” अक्षत का स्वर गंभीर था.

“मैं पैसा कमाने की मशीन नहीं हूं किसी की, न कठपुतली हूं किसी की जो जैसे चाहा नचा दिया.”

“हां, वो मैं जानता हूं पर हुआ क्या है,” अक्षत ने पूछा तो शीना ने उसे पूरा हाल कह सुनाया.

“तुम अपने पापा से क्यों नहीं कहती, वो समझाएंगे आंटी को.”

“पापा दिल्ली से बाहर गए हैं और मैं उन्हें अभी परेशान नहीं करना चाहती, लेकिन मैं यहां मम्मी के साथ भी नहीं रहना चाहती. मां हैं तो क्या, इतना मतलबी कौन होता है जो बेटी की खुशी न दिखाई दे.”

“मेरे पीजी में लड़कियां अलाउड नहीं हैं यार वरना यहां ही बुला लेता.”

“तुम्हारे सामने वाला पीजी गर्ल्स पीजी है न? वहां कोई रूम खाली है क्या?”

“पूछ कर बताता हूं,” अक्षत ने कहा और दोबारा फोन करने के लिए कह कर दोस्तों से पीजी के बारे में पूछने लगा.

कुछ देर बाद अक्षत का फोन आया और उस ने बताया कि उस के सामने वाला पीजी खाली है, पैसे भी कम हैं और पानी बिजली की सुविधाएं हैं.

शीना ने अपने कपड़े और जरूरी सामान एक बड़े ट्रौली बैग और हैंडबैग में डाल लिया. मम्मी ने उसे देखा तो गुस्से से लालपीली हो पूछने लगीं कि यह सब क्या है. शीना ने बताया कि वह अब पीजी में ही रहेगी और पढ़ेगी. उस का मन पैजेंट्स में जाने या ब्यूटी इंडस्ट्री में नहीं है बल्कि लिटेरेचर पढ़ने में है तो वह वही करेगी.

“किस ने भरी हैं ये उलूलजुलूल बातें तेरे दिमाग में?” शोभा चिल्लाते हुए कहने लगी.

“मम्मी मैं 19 साल की हूं और अपने फैसले ले सकती हूं. मुझे पढ़ना है तो इस में बुराई क्या है? एक साधारण लड़की की जिंदगी नहीं जी सकती क्या मैं? मैं जा रही हूं पीजी में रहने पापा को चाहे तो बता देना या मैं खुद ही बता दूंगी, वो खुश ही होंगे जान कर कि आप के चंगुल से बच गई मैं.”

“कैसी बातें कर रही है तू, मैं तेरी टांगे तोड़ दूंगी अगर घर से बाहर कदम रखा तो.”

“कैसी बातें करने लगी हो आप, हो क्या गया है आप को? पढ़ने जा रही हूं मैं घर से भाग नहीं रही जो टांगे तोड़ोगी. नहीं रहना मुझे आप के आसपास, पीजी में रह कर पढुंगी और मन हुआ तो आ जाउंगी, इस से ज्यादा उम्मीद मत रखो मुझ से. आप के पति का बहुत पैसा है उस से कर लो ऐश मैं ये शोज कर के या शूट कर के नहीं रह सकती खुश. जाने दो मुझे.”

“तू अपनी मां को छोड़ कर जा रही है? ऐसे कैसे जा रही है तू?” शोभा की आंखों में आंसू आने लगे थे.

“मम्मी जाने दो मुझे, मैं इस घर में रही तो घुटघुट कर मर जाऊंगी,” कह कर शीना घर से निकल गई. अक्षत उसे लेने के लिए आया हुआ था. वह अक्षत के साथ मेट्रो से नौर्थ कैंपस गई. पीजी दो कमरों का था जहां शीना की एक रूममेट भी थी. शीना को एडजस्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगा. मम्मी की कौल तो उस ने उठाना बंद कर ही दी थी लेकिन पापा से बात कर लिया करती. पापा ने उसे पढ़ने पर ध्यान देने के लिए कहा.

शीना के लिए सबकुछ बहुत अलग और अकल्पनीय सा था. उसे लग रहा था जैसे वह आजाद परिंदा हो गई है. अक्षत के साथ वह खुश भी रहती थी और पढ़ती भी थी जिस का नतीजा यह हुआ कि थर्ड ईयर के बाद उस का मेरिट बेसिस पर ही पोस्ट ग्रेजुशन के लिए सेलेक्शन हो गया. इन दो सालों में उस की घर और फैशन इंडस्ट्री से दूरी शीना के लिए सुकूनभारी साबित  हुई थी. शोभा ने बहुत कोशिश की कि शीना वापस आ जाए पर फिर उसे भी समझ आ गया कि बेटी को उंगलियों पर नचाने की जद्दोजेहद में वह अपनी बेटी की खुशियों को देखना भूल गई जिस का परिणाम अब उसे भुगतना पड़ रहा है.

शीना और अक्षत की पढ़ाई पूरी होने के बाद वे लिवइन में आ गए थे. अपनीअपनी नौकरियों में दोनों ही बेहद खुश हैं और संतुष्ट भी हैं. शीना मेकअप लगाए बिना यों ही औफिस जाती तो अक्षत कहता, “पहले दिन ऐसे आई होती न कालेज, तो पहले ही दिन प्यार हो जाता तुम से.”

अक्षत की बात सुन शीना जोर से हंस देती.

अब आओ न मीता- भाग 4: क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

फैक्टरी की गोल्डन जुबली थी उस दिन. सुबह से ही कड़ाके की सर्दी थी. 6 बजने को थे. मीता जल्दीजल्दी तैयार हो कर फैक्टरी की ओर चल दी. घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर सागर उसी ओर आता दिखाई दिया.

‘अरे आप तो तैयार भी हो गईं…मैं आप ही को देखने आ रहा था. ‘तुम तैयार नहीं हुए?’ ‘धोबी को प्रेस के लिए कपड़े दिए हैं. बस, ला कर तैयार होना बाकी है. चलिए, आप को स्पेशल कौफी पिलाता हूं, फिर हम चलते हैं.’

दोनों सागर के घर आ गए. मीता ने कहा, ‘मैं जब तक कौफी बनाती हूं, तुम कपड़े ले आओ.’’ बसंती रंग की साड़ी में मीता की सादगी भरी सुंदरता को एकटक देखता रह गया सागर. ‘एक बात कहूं आप से?’मीता ने हामी भरते हुए गरदन हिलाई… ‘बड़ा बदकिस्मत रहा आप का पति जो आप के साथ न रह पाया. पर बड़ा खुशनसीब भी रहा जिस ने आप का प्यार भी पाया और फिर आप को भी.’

‘और तुम, सागर?’ ‘मुझ से तो आप को मिलना ही था.’ एक ठंडी सांस ली मीता ने. उस दिन सागर के घर पर ही इतनी देर हो गई कि उन्हें फैक्टरी के फंक्शन में जाने का प्रोग्राम टालना पड़ा था. उफ, यह मुलाकात कितने सारे सवाल छोड़ गई थी.

दूसरे दिन सागर जब मीता से मिला तो एक नई मीता उस के सामने थी…सागर को देखते ही अपने बदन के हर कोने पर सागर का स्पर्श महसूस होने लगा उसे. भीतर ही भीतर सिहर उठी वह. आंखें खोलने का मन नहीं हो रहा था उस का, क्योंकि बीती रात का अध्याय जो समाया था उस में. इतने करीब आ कर, इतने करीब से छू कर जो शांति और सुकून सागर से मिला था वह शब्दों से परे था…ज्ंिदगी ने सूद सहित जो कुछ लौटाया वह अनमोल था मीता के लिए. सागर ने बांहें फैलाईं और मीता उन में जा समाई… दोनों ही मौन थे…लेकिन उन के भीतर कुछ भी मौन न था…जैसे रात की खामोशी में झील का सफर…कश्ती अपनी धीमीधीमी रफ्तार में है और चांदनी रात का नशा खुमारी में बदलता जाता है.

शाम का अंधेरा घिरने लगा था. जंगल, गांव, पेड़ और सड़क सब पीछे छूटते जा रहे थे. टे्रन अपनी गति में थी. अधिकांश यात्री बर्थ खोल कर सोने की तैयारी में थे. मीता ने भी बैग से कंबल निकाल कर उस की तहें खोलीं. एअर पिलो निकाल कर हवा भरी और आराम से लेट गई. अभी तो सारी रात का सफर है. सुबह 10 बजे के आसपास घर पहुंचेगी.

कंबल को कस कर लपेटे वह फिर पिछली बातों में खोई हुई थी. मन की अंधेरी सुरंग पर तो बरसों से ताला पड़ा था. पहले वह मानती थी कि यह जंग लगा ताला न कभी खुलेगा, न उसे कभी चाबी की जरूरत पड़ेगी. लेकिन ऐसा हुआ कि न सिर्फ ताला टूटा बल्कि बरसों बाद मन की अंधेरी सुरंग में ठंडी हवा का झोंका बन कर कोई आया और सबकुछ बदल गया.

सफर में एकएक पल मीता की आंखों से गुजर रहा था.

जिंदगी के पाताल में कहां क्या दबा है, क्या छुपा है, कब कौन उभर कर ऊपर आ जाएगा, कौन नीचे तल में जा कर खो जाएगा, पता नहीं. विश्वास नहीं होता इस अनहोनी पर, जो सपनों में भी हजारों किलोमीटर दूर था वह कभी इतना पास भी हो सकता है कि हम उसे छू सकें…और यदि न छू पाएं तो बेचैन हो जाएं. जिंदगी की अपनी गति है गाड़ी की तरह. कहीं रोशनी, कहीं अंधेरा, कहीं जंगल, कहीं खालीपन.

यहां आशा दी के पास आना था. होली भी आने वाली है. बच्चों के एग्जाम भी थे और इस बीच किराए का मकान भी शिफ्ट किया था. उसे सेट करना था. सागर 3-4 दिन से अस्पताल में दाखिल था.

पीलिया का अंदेशा था. वह सागर को भी संभाले हुए थी. एक ट्रिप सामान मेटाडोर में भेज कर दूसरी ट्रिप की तैयारी कर सामान पैक कर के रख दिया. सोचा, सामान लोड करवा कर अस्पताल जाएगी, सागर को देख कर खाना पहुंचा देगी फिर लौट कर सामान सेट होता रहेगा. लेकिन तभी सागर खुद वहां आ पहुंचा.

‘अरे, तुम यहां. मैं तो यहां से फ्री हो कर तुम्हारे ही पास आ रही थी. लेकिन तुम आए कैसे? क्या डिस्चार्ज हो गए?’ ‘डिस्चार्ज नहीं हुआ पर जबरदस्ती आ गया हूं डिस्चार्ज हो कर.’ ‘क्यों, जबरदस्ती क्यों?’ ‘आप अकेली जो थीं. इतना सारा काम था और आप के साथ तो कोई नहीं है मदद के लिए…’ ‘खानाबदोश ज्ंिदगी ने आदी बना दिया है, सागर. ये काम तो ज्ंिदगी भर के हैं, क्योंकि कोई भी मकान मालिक एक या डेढ़ साल से ज्यादा रहने ही नहीं देता है.’

‘नहीं, ज्ंिदगी भर नहीं. अब आप को एक ही मकान में रहना होगा. बहुत हो गया यह बंजारा जीवन.’ ‘हां, सोच तो रही हूं… फ्लैट बुक कर लूंगी, साल के भीतर कहीं न कहीं.’ सागर खाली मकान में चुपचाप दीवार से टिका हुआ था. मीता को उस ने अपने पास बुलाया. मीता उस के करीब जा खड़ी हुई.

सागर पर एक अजीब सा जुनून सवार था. उस ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि इस घर से आप यों न जाएं, क्योंकि इस से हमारी बहुत सी यादें जुड़ी हैं.’ ‘तो कैसे जाऊं, तुम्हीं बता दो.’ ‘ऐेसे,’ सागर ने अपना पीछे वाला हाथ आगे किया और हाथ में रखे स्ंिदूर से मीता की मांग भर दी.

अचानक इस स्थिति के लिए तैयार न थी मीता. सागर की भावनाएं वह जानती थी…स्ंिदूर की लालिमा उस के लिए कालिख साबित हुई थी और अब सागर…उफ. निढाल हो गई वह. सागर ने संभाल लिया उसे. मीता की थरथराती और भरी आंखें छलकना चाह रही थीं.

ट्रेन की रफ्तार कम होने लगी थी. अतीत और भविष्य का अनोखा संगम है यह सफर. सागर और राजन. एक भविष्य एक अतीत. कल सागर से मिलूंगी तो पूछूंगी, क्यों न मिल गए थे 14 साल पहले. मिल जाते तो 14 सालों का बनवास तो न मिलता. ज्ंिदगी की बदरंग दीवारें अनारकली की तरह तो न चिनतीं मुझे.

मुसकरा उठी मीता. सागर से माफी मांग लूंगी दिल तोड़ कर जो आई थी उस का. सागर की याद आई तो उस की बोलती सी गहरी आंखें सामने आ गईं. 5 दिनों में 5 युगों का दर्द बसा होगा उन आंखों में.

टे्रन रुकी तो चायकौफी वालों की रेलपेल शुरू हो गई. मीता ने चाय पी और फिर कंबल ओढ़ कर लेट गई इस सपने के साथ कि सुबह 10 बजे जब टे्रन प्लेटफार्म पर रुकेगी…तो सागर उस के सामने होगा. नीलेश और यश उसे सरप्राइज देने आसपास कहीं छिपे होंगे.

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सुबह भी हुई, मीता की आंखें भी खुलीं, उस ने प्लेटफार्म पर कदम भी रखा, पर वहां न सागर, न नीलेश और न यश. थोड़ी देर उस ने इंतजार भी किया, लेकिन दूरदूर तक किसी का कोई पता न था. रोंआसी और निराश मीता ने अपना सामान उठाया और बाहर निकल कर आटो पकड़ा. क्या ज्ंिदगी ने फिर मजाक के लिए चुन लिया है उसे?

पूरे शहर में होली का हुड़दंग था. इन रंगों का वह क्या करे जब इंद्रधनुष के सारे रंग न जाने कहां गुम हो गए थे.

बहुत भीड़ थी रास्ते में. घर के सामने आटो रुका तो घर पर ताला लगा था. वह परेशान हो गई. अचानक घर के ऊपर नजर गई तो वहां ‘टुलेट’ का बोर्ड लगा था. उसी आटो वाले को सागर के घर का पता बता कर वापस बैठी मीता. अनेक आशंकाओं से घिरा मन रोनेरोने को हो गया.

सागर के घर के आगे बड़ी चहलपहल थी. टैंट लगा था. सजावट, वह भी फूलों की झालर और लाइटिंग से…गार्डन के सारे पेड़ों पर बल्बों की झालरें लगी थीं… खाने और मिठाइयों की सुगंध चारों ओर बिखरी थी. आटो के रुकते ही लगभग दौड़ती बदहवास मीता भीतर की ओर दौड़ी. भीतर पहुंचने से पहले ही जड़ हो कर वह जहां थी वहीं खड़ी रह गई.

दरवाजे पर आरती का थाल लिए सागर की मां और सुहाग जोड़ा, मंगलसूत्र और लाल चूडि़यों से भरा थाल पकड़े सागर की छोटी बहन खड़ी थी. नीचे की सीढ़ी पर हाथ जोड़ कर स्वागत करता सागर का छोटा भाई मुसकरा रहा था. मीता ने देखा झकाझक सफेद कुरतापाजामा पहने, लाल टीका लगाए सागर उसी सोफे पर बैठा यश को तैयार कर रहा था जहां उस शाम दोनों की जिंदगी ने रुख बदला था.

रोहित मस्ती में झूमता मीता की ओर आने लगा… सागर ने मीता को देखते ही आवाज लगाई, ‘‘नीलेश बेटे.’’ ‘‘जी, पापा.’’ ‘‘जाओ, आटो से मम्मी का सामान उतारो और आटो वाले को पैसे भी दे दो.’’

‘जी, पापा.’’ नीलेश बाहर आने लगा तो सागर ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुनो, आटो वाले को मिठाई जरूर देना…’’ ‘‘जी, पापा.’’

मीता बुत बनी सागर को एकटक देख रही थी. सागर की गहरी आंखें कह रही थीं…इंजीनियर जरूर आधा हूं लेकिन घर पूरा बनाना जानता हूं. है न? अब आओ न मीता…

चिराग कहां रोशनी कहां : भाग 3

सुधा को धरम की यह दलील अच्छी नहीं लगी थी, फिर भी वह चुप रह गई. सुधा के टैस्ट्स की रिपोर्ट आ गई थी. डाक्टर ने बताया कि सुधा के गर्भाशय में कुछ ऐसी बीमारी थी कि वह मां बनने में अक्षम है.’’

सुधा के चेहरे पर घोर निराशा छा गई. डाक्टर ने कहा, ‘‘आप को इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. आप दोनों संतान के लिए आधुनिक तरीके अपना सकते हैं.’’

‘‘कौन सा तरीका डाक्टर?’’ सुधा ने जिज्ञासा जाहिर करते हुए कहा.

‘‘अगर आप के पति चाहें तो सैरोगेट मदर की मदद से आप बच्चा पा सकती हैं. आप के पति ने उस समय अपना टैस्ट नहीं कराया था. बस, आप के पति का एक टैस्ट करना होगा. उम्मीद है, नतीजा ठीक ही होगा. तब बच्चा किसी सैरोगेट मदर के गर्भ में पलेगा.’’

‘‘नहीं, मु झे यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘क्यों?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘डाक्टर, अभी हम चलते हैं. बाद में ठीक से सोच कर फैसला लेंगे,’’ धरम ने कहा और दोनों डाक्टर के क्लिनिक से निकल पड़े.

रास्ते में धरम ने सुधा से पूछा, ‘‘आखिर सैरोगेट मदर से तुम्हें क्या परेशानी है?’’

‘‘आप का अंश किसी गैर औरत की कोख में पले, मु झ से बरदाश्त नहीं होगा?’’

‘‘यह क्या दकियानूसी की बात हुई. वह औरत हमारी मदद करेगी, हमें तो उस का कृतज्ञ होना चाहिए.’’

‘‘जो भी हो, मु झे तो वह सौतन लगेगी.’’

‘‘क्या पागलपन की बात कर रही हो? मेरा उस से कोई शारीरिक संबंध नहीं होगा.’’

‘‘फिर भी, मु झे मंजूर नहीं है.’’

‘‘तब दूसरा एकमात्र रास्ता है कि हम किसी बच्चे को गोद ले लें,’’ धरम ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा.

‘‘हां, इस पर मैं सोच कर बता दूंगी.’’

इधर, जेम्स और इहा दोनों ने मिल कर चेन्नई में अपना एक लैब खोला था. यह लैब शहर में मशहूर हो गया था. कुछ महीने बाद सुधा और धरम दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का फैसला लिया. धरम तो मन ही मन खुश था कि अब उसे अपने टैस्ट कराने की जरूरत नहीं रही. वे अनाथालय गए. धरम ने एक बच्चे को देखा और सुधा से पूछा, ‘‘यह ठीक रहेगा न?’’

‘‘मैं तो एक लड़की चाह रही थी.’’

‘‘ठीक है, तुम जैसा कहो वही होगा.’’

अंत में अनाथालय से एक बच्ची को अडौप्ट करने पर दोनों तैयार हुए. उस के लिए उन्होंने कानूनी प्रक्रिया शुरू कर अनुमति ले ली. उस बच्ची को घर लाने से पहले धरम ने उस का पूरा ब्लड टैस्ट कराने की इच्छा व्यक्त की तो सुधा ने पूछा, ‘‘इस बच्ची का इतने सारे टैस्ट क्यों कराना चाहते हो?’’

‘‘अकसर अनाथालय में लावारिस या नाजायज बच्चे आते हैं, किसी वेश्या का बच्चा भी हो सकता है जिस में बुरे रोग की आशंका होती है.’’

बच्ची का सैंपल जिस लैब में भेजा गया वह इहा की लैब थी. सुधा और धरम दोनों बच्ची की रिपोर्ट लेने लैब गए थे. उन्होंने रिसैप्शन पर बैठी महिला से कहा, ‘‘मु झे अपनी बच्ची के ब्लड टैस्ट की रिपोर्ट चाहिए.’’

‘‘प्लीज, बच्चे का नाम बताएं,’’ रिसैप्शनिस्ट ने पूछा.

‘‘आशा पाठक,’’ सुधा बोली.

‘‘मैम, आप को तो 2 बजे के बाद बुलाया गया था, अभी तो 12 बजे हैं. टैस्ट्स हो चुके हैं. रिपोर्ट भी तैयार है. इंचार्ज के पास सिग्नेचर के लिए भेजा हुआ है. कुछ समय लगेगा आने में. अभी वे अपने बेटे के साथ व्यस्त हैं.’’

‘‘क्या उन का बेटा भी यहीं काम करता है?’’

‘‘नो, वह तो 15-16 साल का होगा. उस ने स्कूल बोर्ड की परीक्षा में पूरे स्टेट में टौप किया है. उन का चैंबर सैकंड फ्लोर पर है.’’

‘‘आप इंचार्ज से मेरी बात कराएं. मैं उन्हें बधाई भी दे दूंगा और शायद वे साइन कर चुकी होंगी या जल्दी साइन कर दें. हम लोग काफी दूर से आए हैं.’’

रिसैप्शनिस्ट ने लैब इंचार्ज से फोन पर पूछा, ‘‘मैम, आशा पाठक की रिपोर्ट के लिए उस के पेरैंट्स आए हैं. अगर साइन हो गए हों, तो मैं आ कर ले लेती हूं?’’

‘‘नहीं, तुम्हें आने की जरूरत नहीं है. मैं ने अभीअभी साइन कर दिया है. खुद ले कर आती हूं. डैनी को घर भी ड्रौप कर दूंगी.’’

कुछ मिनटों बाद सीढि़यों से उतरती हुई इहा रिसैप्शन के पास आई. उस का बेटा डैनी भी साथ में था. उन्हें आते देख कर रिसैप्शनिस्ट बोली, ‘‘लीजिए, आप की रिपोर्ट ले कर खुद मैम आ गईं.’’

धरम ने इहा की ओर देखा तो वह आश्चर्य से देखता रहा. उस के पीछे उस का बेटा डैनी था, उसे देख कर सुधा को काफी ताज्जुब हुआ. डैनी की शक्ल धरम से मिलती थी. इहा को देख कर धरम बोला, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज, तुम यहां?’’

‘‘हां, मेरा ही लैब है तो मैं यहां रहूंगी ही. इस में सरप्राइज की क्या बात है़’’

‘‘आप इन्हें जानते हैं?’’ सुधा ने धरम से पूछा.

‘‘हां, कभी हम साथ पढ़ते थे और अच्छे दोस्त भी थे.’’

डैनी का चेहरा अलबम में धरम की बचपन की तसवीर से हूबहू मिलता था, जिसे सुधा बारबार देख चुकी थी. उसे देख कर सुधा बोली, ‘‘इन के बच्चे का चेहरा तुम से काफी मिलता है.’’

‘‘यह मात्र संयोग है. कहा जाता है कि एक चेहरे जैसे दुनिया में कम से कम 2 इंसान होते हैं,’’ इहा ने कहा.

रिपोर्ट दे कर इहा ने बेटे से कहा, ‘‘चल, तेरे पापा इंतजार कर रहे होंगे.’’ और वह अपने बेटे के साथ चली गई.

उस के जाने के बाद सुधा ने रिसैप्शनिस्ट से पूछा, ‘‘क्या डैनी आप की मैम का सगा बेटा है?’’

‘‘हां, उन का अपना बेटा है. मेरी मां और इन की मौसी एक ही हौस्पिटल में नर्स थीं और अच्छी सहेली भी. डैनी बाबा की डिलीवरी मेरी मां ने ही कराई थी और यह भी कहा था कि इन के बौयफ्रैंड ने धोखा दिया था.’’

‘‘चलो, हमें अब देर हो रही है,’’ धरम ने कहा.

धरम और सुधा दोनों कार से जा रहे थे. सुधा के मन में रहरह कर रिसैप्शनिस्ट की बात याद आ रही थी, किसी ने इहा को चीट किया है, डैनी का चेहरा धरम से मिलना और धरम का अपने टैस्ट से इनकार करना. क्या सभी महज इत्तफाक ही है. उधर धरम भी मन में सोच रहा था, ‘डैनी मेरा बेटा होते हुए भी जेम्स का बेटा कहलाता है और उस का नाम रौशन कर रहा है. काश, मैं ने उसे अपनाया होता तो मु झे किसी अन्य बच्चे को गोद लेने की नौबत नहीं आती और डैनी आज मेरा नाम रौशन कर रहा होता.’

नो एंट्री- भाग 1 : ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

‘तुम्हीं मेरे हल पल में, तुम आज में तुम कल में …’

“हे शोना, हे शोना”, एफएम पर चल रहे गाने के साथ गुनगुनाती ईशा अपने विवाहित जीवन में काफी प्रसन्न थी. कॉलेज पूरा होते होते उसकी शादी हो गई. जैसे जीवनसाथी की उसने कल्पना की, मयूर ठीक वैसा ही निकला. देखने में आकर्षक कहना ठीक होगा. वैसे ईशा के मुकाबले मयूर उन्नीस ही था किंतु वह जानती थी कि लड़कों की सूरत से ज्यादा सीरत पररखना आवश्यक होता है. आखिर ताउम्र का साथ है. ईशा ने अपनी पूरी होशियारी दर्शाते हुए मयूर का चयन किया. ईशा जैसी खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तो की कमी न थी. कई परिवार के जरिए आए तो कई मजनू जिंदगी में वैसे भी टकराए. किंतु वह अपना जीवनसाथी उसी को चुनेगी जो उसके मापदंडों पर खरा उतरेगा. मयूर अपनी शराफत, प्यार करने की काबिलियत, और सच्चाई के कारण अव्वल आया. दो वर्ष पूर्व जब मयूर एक कजिन की शादी में उस से टकराया तब उसे पहली नजर में वह एक शांत, सुशील और विनम्र लड़का लगा. फोन नंबर एक्सचेंज होते ही कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेज कर मयूर ने ईशा का मन पिघला दिया. और उसने इस रिश्ते के लिए जल्दी ही हामी भर दी. चट मंगनी पट ब्याह कर ईशा, मयूर के घर आ गई.

तब से लेकर आज तक दोनों एक दूसरे के प्यार में डुबकियां लगाते आए हैं. प्रेम का सागर होता ही इतना मीठा है कि चाहे जितनी बार गोते लगा लो यह प्यास नहीं बुझती. शादी के पश्चात कई महीनों तक दोनों इसी प्यार की लहरों में डूबा उभरा करते, एक दूसरे की आगोश में खोए जिंदगी के हसीन पलों का आनंद लेते. एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाते हुए दोनों ने धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को रोज़मर्रा की पटरी पर दौड़ने के लायक बना लिया. मयूर, एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पदासीन, ईशा की हर चाह को जुबान पर आने से पहले ही पूरा कर दिया करता. ईशा पूरे आनंद के साथ घर संभालने लगी. विवाहित जीवन सुखमय था. इससे ज्यादा की कामना भी नहीं थी ईशा को.

 

“इस शनिवार को हमारी कंपनी ने फैमिली डे का आयोजन रखा है. मेरी कंपनी हर साल यह आयोजन करती है जिसमें सभी अपने परिवारों के साथ आते हैं. खूब धूम मचती है – तरह तरह के खेल खिलाए जाते हैं, खाना-पीना, नाचना-गाना. सब एक दूसरे के परिवार के सदस्यों से भी मिल लेते हैं. पिछली बार तुम अपने मायके गयी हुई थीं इसलिए अबकी बार तुम पहले-पहल सबसे मिलोगी.”

“अच्छा, फिर तो बहुत मजा आएगा. इसी बहाने मैं तुम्हारी कंपनी के सहकर्मियों व उनके परिवारों से मिलूंगी”, मयूर की बात सुन ईशा भी खुश हो गई.

शनिवार को मयूर की मनपसंद मोरिया नीले रंग की पटोला साड़ी में ईशा का गोरा रंग और भी निखर आया. उस पर सोने का हल्का सेट पहनने से मानो उसकी खूबसूरती में चार चांद लग गए. सलीके से किया हुआ  मेकअप और स्ट्रेटन किए हुए कमर तक लहराते केश. ईशा को लेकर जैसे ही मयूर पार्टी में दाखिल हुआ सब निगाहें उसकी ओर उठ गईं. जोड़ी वाकई काबिले तारीफ लग रही थी.

फैमिली डे पर कहीं कोई भेदभाव नहीं था. जैसे कंपनी के मैनेजमेंट वैसे ही कंपनी के कर्मचारी और उसी तरह कंपनी के वर्कर्स के साथ भी बर्ताव किया जा रहा था. सभी अपने-अपने परिवारों के साथ घुल मिल रहे थे. कुछ ही देर में नाच गाना शुरू हुआ. कंपनी में काम करने वाले कुछ वर्कर्स आए और मयूर को कंधों पर उठाकर डांस फ्लोर की ओर ले गए. यह दृश्य देखकर ईशा का मन बाग-बाग हो गया. अपने पति के प्रति उसके मातहतों का इतना प्यार देख कर उसे आज मयूर पर नाज हो उठा. आज फैमिली डे में आकर ईशा को ज्ञात हुआ कि मयूर अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण अपनी कंपनी में कितना चहेता है.

तभी एक हैंडसम नवयुवक ईशा के पास की कुर्सी खींच कर बैठते हुए बोला, “हाय, मेरा नाम निशांत है. मैं मयूर का दोस्त हूं. आपकी शादी में भी आया था पर इतने लोगों के बीच शायद मुलाकात याद ना रही हो.”

ईशा उस मुलाक़ात को कैसे भूल सकती थी भला! उसे अपनी शादी का वो मंज़र याद हो आया जब मयूर के सभी दोस्त स्टेज पर आकर फोटो खिंचवा रहे थे. तब सभी मित्र दुल्हा-दुल्हन बने मयूर और ईशा को घेरकर आगे-पीछे खड़े होने लगे. इतने में निशांत हँसकर ईशा के पास आ गया, “हम तो अपनी दुल्हनिया के पास बैठेंगे”, और उसी के सोफ़े पर उससे चिपक कर बैठ गया. अपनी बाँह ईशा के गले में डालते हुए उसने फोटोग्राफर से कहा था, “अब खींच ले, भाई, हमारी फोटो.”

ईशा को निशांत का नाम तब ज्ञात नहीं था किन्तु उसे उसकी दिलेरी बहुत भा गई. वो स्वयं भी एक बिंदास लड़की होने के कारण निशांत द्वारा भरी सभा में खुलेआम की गई ये हरकत उसे आकर्षित कर गई. मयूर बेहद नियमानुसार चलने वाला लड़का था. हर बात घरवालों के कहे अनुसार करना, हर निर्णय लेने से पहले बड़ों से पूछना, छोटे से छोटे कानून का पालन करना. उसके साथ रहने पर ईशा भी एक सीधी-सादी लड़की की भाँति रहने लगी क्योंकि आखिर ये एक अरेंज मैरिज थी, और वो चाहती थी कि मयूर आरंभ से उससे प्रभावित हो जाए.

आज ईशा ने निशांत को यहाँ देखने की उम्मीद नहीं की थी किन्तु जब वो सामने आया तो वह अंजान बनी रही, “ठीक कह रहे हैं आप. शादी के समय जितने लोगों से मिलना जुलना होता है वह कहां याद रह पाता है.

“जी नहीं, मैं तो ऑपरेशंस में हूं. देखा आपने, मयूर को वर्कर्स कितना पसंद करते हैं. बहुत सीधा है. सब में घुल मिल जाता है.”

“जी”, ईशा के चेहरे की मुस्कुराहट थमने का नाम नहीं ले रही थी.

“डांस करना पसंद करेंगी?”, कहते हुए निशांत ने अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाया. ईशा आगे कुछ सोच पाती उससे पहले निशांत बोला, “मयूर बुरा नहीं मानेगा, उसे वर्कर्स के साथ डांस करने में ज्यादा मजा आ रहा है.”

आज निशांत ने पुनः ईशा के समक्ष अपनी अपरंपरागत सोच दर्शाई. कुछ ना कहते हुए ईशा, निशांत के साथ डांस फ्लोर पर उतर गई. नाचते-नाचते निशांत कहने लगा, “कहां आप – इतनी स्मार्ट और आकर्षक, और कहां मयूर! मेरा मतलब है आपकी स्मार्टनेस के आगे मयूर थोड़ा भोंदू ही लगता है.”

ईशा के अचकचा कर देखने पर निशांत ने आगे कहा, “बुरा मत मानिएगा, मेरा दोस्त है इसलिए कह सकता हूं.”
मयूर के आने पर निशांत बोला, “हूर के साथ लंगूर कैसे?!”

पर उत्तर में मयूर केवल हँसता रहा. फिर सारी पार्टी में निशांत, ईशा के आसपास ही घूमता रहा, कभी उसके लिए रसमलाई लाता तो कभी कोक का गिलास. उसकी उपस्थिति में निशांत, मयूर की हँसी भी उड़ाता रहा, और मयूर सब कुछ सुनकर हँसता रहा.

“यह निशांत कैसा लड़का है?”

“बहुत अच्छा लड़का है. मेरा बहुत अच्छा दोस्त है. बहुत इंटेलिजेंट है. अपने डिपार्टमेंट का हीरा है.”

मयूर ने निशांत की प्रशंसा के पुल बांध दिए. “ठीक ही कह रहा था वह – मयूर वाकई भोंदू है जो यह नहीं समझता कि कौन उसका सच्चा दोस्त है और कौन नहीं”, ईशा सोच में पड़ गई. ईशा, निशांत की उससे फ़्लर्ट करने की कोशिश भली प्रकार समझ रही थी. निशांत की ये हरकतें ईशा को बुरी नहीं लगीं अपितु मन के किसी कोने में पुलकित कर गईं.

उसी हफ्ते एक दुपहरी ईशा को एक फोन आया. “सरप्राइस कर दिया न तुम्हें? देखा, कितना स्मार्ट हूं मैं, तुम्हारा नंबर निकाल लिया,” दूसरी ओर से निशांत की विजय से ओतप्रोत हँसी की आवाज़ आई.

परंतु ईशा इतनी जल्दी प्रभावित होने वाली कहाँ थी. अपने पीछे मजनुओं की पंक्तियों की उसे आदत थी. “कभी-कभी ज़्यादा स्मार्टनेस भारी पड़ जाती है. जनाब, अपना नाम तो बताइये”, ईशा ने पलटवार किया.

“सेव कर लो ये नंबर”, निशांत बोला, “निशांत बोल रहा हूँ, मैडम. मैंने तुम दोनों को अपने घर लंच पर बुलाने के लिए फोन किया है. मयूर को मैं ऑफिस में ही न्योता दे चुका हूं पर तुम्हें भी निजी तौर पर आमंत्रित करना चाहता था इसलिए फोन किया”, उसने अपनी बात पूरी की.

शाम को जब मयूर घर लौटा तो ईशा ने निशांत के फोन की बात बताई.

“हां, पता है. मुझसे ही तुम्हारा नंबर लिया था उसने”, मयूर ने लापरवाही से कहा.

“मेरा नंबर देने की क्या जरूरत थी? तुम्हें बुलाया, मुझे बुलाया, एक ही बात है”, ईशा इस सिलसिले में मयूर की  मानसिकता टटोलना चाहती थी.

“क्या फर्क पड़ता है… उसका मन था तुमसे बात करने का”, मयूर सरलता से कह गया. “इस रविवार दोपहर का लंच हम निशांत के साथ करेंगे. बहुत दूर नहीं है उसका घर.”

 

फ्लौपी: आखिर वह क्यों मां के लिए था आफत

इज्जत का फालूदा: बीवी की बेइज्जती सहते पति की कहानी

यह सच है कि हमारी श्रीमतीजी अमीर परिवार से हैं, इसलिए हमें अकसर उन की वे बातें भी सुननी पड़ती हैं, जो हमें अच्छी नहीं लगती हैं.

बड़े जोड़तोड़ के बाद बैंक से लोन ले कर हम ने 2 कमरों का मकान शहर के बाहर लिया, वह भी इसलिए कि वह सस्ता था वरना पूरी जिंदगी किराए के मकान में ही कट जाती. यहां रहने आए तो गृहप्रवेश के समय हमारी एकमात्र सासूजी भी आ टपकीं. उन की सलाह मान कर आसपास के परिवारों को भी परिचय के लिए बुला लिया. अब परिचय यों तो होता नहीं. अत: उन के भोजन की व्यवस्था भी की गई. सासूजी की 1 पाई भी नहीं लगी और हमारे हजारों स्वाहा हो गए.

जितने भी परिवार आए थे उन से श्रीमतीजी अपने पति या अपने परिवार की बातें कम कर रही थीं, अपने मायके के मीठे गीत सुनासुना कर स्वयं को हलका फील कर रही थीं. और कोई उपाय भी तो न था. अत: हम चुपचाप सुनते रहे.

श्रीमतीजी किसी को बता रही थीं, ‘‘शादी में मम्मीजी ने पूरे 5 तोले का हार दिया था. 2 तोले की सोने की चूडि़यां, 3 तोले का मंगलसूत्र और भी न जाने क्याक्या…’’

वे गहनों से लदीफंदी पूरी सोने की दुकान लग रही थीं. हम क्या कहते… हमें तो 1 अंगूठी भी नहीं दी गई थी. लेकिन हम किस से शिकायत करते? फिर दामाद की क्या हिम्मत जो सास के सामने अपनी श्रीमतीजी की शिकायत कर सके. हम तो इस 2 कमरों के मकान में खुश थे. सोच रहे थे जीवन कट जाएगा. लेकिन उस रात जब पार्टी समाप्त हुई और हम थकहार कर बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘मुझे आज बड़ी शर्म आ रही थी…’’

‘‘क्यों? किस बात पर…?’’

‘‘सब पूछ रहे थे कि इन डिजाइन के गहने यहां तो मिलते नहीं, आप कहां से लाईं?’’ तो मुझे मजबूरी में बताना पड़ा कि ये मम्मीजी ने दिए हैं,’’ कह कर वे चुप हो गईं.

‘‘आखिर क्या कहना चाहती हो?’’ हम ने थोड़े दुखी मन से पूछा.

‘‘आप को आपत्ति न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘अगर आप चाहो तो…’’

‘‘क्या चाहो…’’ हम ने हैरानी से पूछा.

‘‘आप कुछ गहने खरीद कर मुझे दो ताकि मैं लोगों को बता सकूं कि ये आप ने ला कर दिए हैं,’’ कह कर वे चुप हो गईं और हमारी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगीं.

हम ने व्यंग्य से कहा, ‘‘क्यों नहीं… क्यों नहीं… मकान की किस्तें कौन चुकाएगा?’’

‘‘अरे, मैं गहनों की बातें कर रही हूं और आप हैं कि मकान की किस्तों का रोना रो रहे हैं,’’ कह श्रीमतीजी ने नाराजगी में करवट बदल ली.

‘ऊपर वाले ने क्या पीस हमारी किस्मत में लिखा है… हम अपनी पीड़ा किस से कहें?’ सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

रात को छाती पर वजन पड़ा तो नींद खुल गई. हमारी छाती पर चढ़ीं श्रीमतीजी कोई टीवी सीरियल देख रही थीं. पूछने लगीं, ‘‘डार्लिंग क्या सोचा आप ने?’’

‘‘किस विषय में?’’

‘‘गहनों के बारे में.’’

‘‘बता तो दिया था… क्यों दिमाग खराब कर रहीं?’’

‘‘मैं अंतिम बार पूछ रही हूं… आखिर कब तक मायके के गहनों को पहनूंगी… आखिर आप की भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं?’’

‘‘अब सो जाओ. सुबह बात करेंगे.’’

‘‘अभी इसी समय फैसला हो जाए वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘वरना मैं जा रही हूं,’’ कह कर वे उठ कर मम्मी के पास सोने चली गईं.

सुबह नाश्ते में जली ब्रैड के साथ जले दूध की चाय मिली. हम बुझे मन से औफिस निकल गए. क्या कहते…

यह क्रम पूरे 7 दिनों तक चला. श्रीमतीजी अपनी मम्मी से पटरपटर बातें करती रहतीं. एक हम थे, जो दीवारों से सिर फोड़ते रहते थे. आखिर परेशान हो कर हम ने सोचा कि अब आरपार की लड़ाई हो ही जाए. पर अगले ही पल दिमाग में आया कि क्या आज तक कोई पति पत्नी से जीता है? अत: हम ने भी हार मान ली और श्रीमतीजी के कान में कह दिया, ‘‘आज शाम को तुम्हारी फरमाइश पूरी हो जाएगी.’’

‘‘सच?’’ कह कर वे फर्श पर भरत नाट्यम करने लगीं. मगर हमें डर लगने लगा कि कहीं फर्श में दरार न आ जाए.

शाम को हम ने जो वादा किया था उसे पूरा कर दिया. श्रीमतीजी को अपने कमरे में बुला कर लगभग आधा किलोग्राम के जेवर सामने रख दिए, जिन में नैकलैस, चूडि़यां, टीका, मंगलसूत्र, बाजूबंद आदि थे. उन्हें देख कर श्रीमतीजी हम से लिपट गईं.

हमें लगा कि उन की पकड़ में कहीं हमारी सांस न रुक जाए. फिर श्रीमतीजी सभी गहनों को पहन कर अपनी मां को दिखाने दौड़ गईं. हम चुपचाप पुस्तक पढ़ने में व्यस्त हो गए.

3-4 दिनों तक ऐसा लगा कि अगर सब की श्रीमतीजी ऐसी होतीं तो सब पतियों की मौत हार्टअटैक से होती.

खैर, जो दुर्घटना घटी हम उस पर आते हैं. श्रीमतीजी हमारे दिए गहनों से इतनी खुश थीं कि अपने पुराने गहने उतार कर रख दिए थे और हमारे गहनों से स्वयं को लाद लिया था.

एक रात किसी ने दरवाजा खटखटाया तो हमारी सासूजी ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही धड़धड़ाते 3-4 लुटेरे घर में आ गए. श्रीमतीजी साड़ी से गहनों को छिपाने की कोशिश कर रही थीं. सासूजी हाथ जोड़ कर दुहाइयां दे रही थीं.

एक लुटेरे ने कहा, ‘‘पूरे गहने उतार दो वरना सभी मारे जाओगे.’’

हम ने हाथ जोड़ कर श्रीमतीजी से कहा, ‘‘दे दो वरना जान से हाथ धोना पड़ेगा.’’

‘‘मैं नहीं देती,’’ कह कर वे जिद पर अड़ गईं.

एक लुटेरा थोड़ा शरीफ था. उस ने कहा, ‘‘मैं बालब्रह्मचारी हूं, महिलाओं को हाथ नहीं लगाता, इसलिए भाभीजी जल्दी से सभी गहने दे दो वरना आज अभी मेरा ब्रह्मचर्य व्रत टूट जाएगा.’’

उस की धमकी से हमारे माथे पर पसीना आ गया. एक ने मेरी सासूजी की गरदन पर चाकू लगा दिया. अब तो श्रीमतीजी बुक्का फाड़ कर रोने लगीं. हम मन ही मन खुश हुए. सासूजी थरथर कांपने लगीं.

एक सज्जन लुटेरे ने चीख कर श्रीमतीजी से कहा, ‘‘चुप…चुप…चुप… वरना एक सैकंड में गरदन अलग कर दूंगा.’’

श्रीमतीजी ने घबरा कर रोना बंद कर दिया. हम ने लुटेरों के हाथ जोड़े और फिर श्रीमतीजी के अंगों से गहने उतारउतार कर उन्हें दे दिए.

लुटेरे गहने ले कर तुरंत भाग निकले. उन के जाते ही दोनों मांबेटी विलाप करने लगीं.

अगली सुबह हम ने रिपोर्ट लिखाने की सोची, लेकिन शर्म के मारे चुप रह गए.

सासूजी ने कहा, ‘‘दामादजी, थाने में रिपोर्ट लिखवाओ.’’

श्रीमतीजी ने भी उन की हां मिलाई. तब हम ने उन्हें समझाया, ‘‘भाग्यवान, अगर हम पुलिस में रिपोर्ट करेंगे तो वह पहला सवाल यही करेगी कि आधा किलोग्राम सोना खरीदने के लिए तुम्हारे पास इतने रुपए कहां से आए?’’

इस प्रश्न से दोनों संतुष्ट तो हुईं, लेकिन लाखों का माल जाने का भारी दुख भी था. पूरे घर में मातम था. हम किसी से कह भी नहीं सकते थे. हमारी श्रीमतीजी खुद को कोस रही थीं कि क्यों वे हमारे पीछे पड़ीं और उधारी में इतने गहने खरीदवाए… अब मकान की किस्तें देंगे या गोल्ड की?

हमारा भी मुंह उतरा हुआ था. लेकिन हम किस से कहते? पूरा घर गम में डूबा था. आखिर इस महंगाई के जमाने में इतने गहनों की चोरी माने रखती थी. पूरे 1 सप्ताह का समय हो चुका था. घर का मातम कम ही नहीं हो रहा था.

एक दिन हम ने सासूजी और श्रीमतीजी से कहा, ‘‘हमें आप से कुछ कहना है.’’

‘‘अब रहने दीजिए अपना भाषण… हमें कुछ नहीं सुनना है,’’ मांबेटी दोनों एक स्वर में बोलीं.

हम चुपचाप घूमते पंखे को देखते रहे और फिर पता ही नहीं चला कि कब नींद आ गई.

श्रीमतीजी की जोर की चीख को सुन कर हमारी नींद खुली. सुबह हो चुकी थी. हम घबरा कर उठे तो पांव में लुंगी फंस गई. हम गिरतेगिरते बचे. बाहर जा कर देखा तो बरामदे की दीवार के पास मेरी सासूजी और श्रीमतीजी ऐसे खड़ी थीं मानों कोई छिपा हुआ बम देख लिया हो. हम भी वहां पहुंच गए. देखा एक थैली में गुम हो चुके जेवर पड़े थे. सासूजी बारबार ईश्वर को धन्यवाद दे रही थीं.

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘मैं ने भगवान से मन्नत मांगी थी. उसी के चलते गहने मिले हैं.’’

हम चुप रहे. दोनों ने गहनों को गिना. 1 भी गहना कम नहीं था. श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘चोरों को प्रायश्चित्त हुआ होगा. तभी तो उन्होंने सभी गहने वापस कर दिए.’’

हम खुश थे. पूरे घर में खुशी लौट आई थी. तभी श्रीमतीजी पुन: चौंकीं. एक पत्र भी उस थैली में था अत: पत्र खोल कर पढ़ने लगीं. लिखा था, ‘‘शर्म नहीं आती लुटेरों के साथ ठगी करते हुए. डूब मरो… सब के सब गहने नकली हैं. केवल सोने की पौलिश किए गहने पहनते हो?’’

पत्र पढ़ कर श्रीमतीजी ने हमारी ओर देखा, फिर सासूजी ने भी अपनी गरदन हमारी ओर मोड़ी. हम ने स्वयं को संयत कर के कहा, ‘‘यही तो हम आप को रात में बताने वाले थे कि वे नकली जेवर थे. आप लोग दुख मत मनाओ, लेकिन आप ने कहां सुनी…’’

श्रीमतीजी ने हमारे बेबस चेहरे को देखा और फिर अपनी मम्मी से कहा, ‘‘अगर ये नकली गहने मुझ पर नहीं होते तो मम्मीजी वे असली ले जाते… इन के चलते असली गहने बच गए.’’

‘‘हां, ठीक कह रही हो,’’ सासूजी ने कहा.

‘‘हम तुम्हें खुश देखना चाहते थे और अपनी ईमानदारी भी छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए पूरे 5 हजार खर्च कर के गोल्ड पौलिश वाले गहने लाया था.’’

‘‘5 हजार गए तो गए, कम से कम 50 हजार के गहने तो बच गए…’’ वाकई आप बहुत समझदार हो,’’ श्रीमतीजी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘बेटी, दामादजी बुद्धिमान हैं तभी तो हम ने तुम्हारा विवाह इन से किया,’’ सासूजी ने अपनी बात रखी.

हम ने कहा, ‘‘प्लीज, अब ध्यान रखना. अपने गहनों का विज्ञापन मत करना. एक बार बच गए पता नहीं अगली बार…’’ अपनी बात अधूरी छोड़ कर हम चुप हो गए.

‘‘दामादजी, आज ही बैंक के लौकर रख आएंगे, पहन कर नकली ही निकलेंगे,’’ सासूजी ने हंसते हुए कहा.

उस दिन से ले कर आज तक हमारे घर चोर नहीं आए और न ही हम ने यह बात पड़ोस में किसी से शेयर की. किसी को बता कर अपनी इज्जत का फालूदा थोड़े ही बनवाना था.

प्रतिशोध: क्या नफरत भूलकर डा. मीता ने किया राणा का इलाज

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

अंतिम निर्णय: रिश्तों के अकेलेपन में समाज के दायरे से जुड़ी सुहासिनी की कहानी

सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

उन की अपनत्वभरी बातों ने क्षणभर में ही उस की विदेशयात्रा की कड़वाहट को धोपोंछ दिया और उस का मन सुकून से भर गया. जातेजाते सब ने उस को जेट लैग के कारण आराम करने की सलाह दी और उस के हफ्तेभर के खाने का मैन्यू उस को बतला दिया. साथ ही, आपस में सब ने फैसला कर लिया कि किस दिन, कौन, क्या बना कर लाएगा.

सुहासिनी के विवाह को 5 साल ही तो हुए थे जब उस के पति उस की गोद में 5 साल के सुशांत को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. परिजनों ने उस पर दूसरा विवाह करने के लिए जोर डाला था, लेकिन वह अपने पति के रूप में किसी और को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पढ़ीलिखी होने के कारण किसी पर बोझ न बन कर उस ने अपने बेटे को उच्चशिक्षा दिलाई थी. हर मां की तरह वह भी एक अच्छी बहू लाने के सपने देखने लगी थी.

सुशांत की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. उस को कंपनी की ओर से किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में 3 महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा. सुहासिनी अपने बेटे के भविष्य की योजनाओं में बाधक नहीं बनना चाहती थी, लेकिन अकेले रहने की कल्पना से ही उस का मन घबराने लगा था.

अमेरिका में 3 महीने बीतने के बाद, कंपनी ने 3 महीने का समय और बढ़ा दिया था. उस के बाद, सुशांत की योग्यता देखते हुए कंपनी ने उसे वहीं की अपनी शाखा में कार्य करने का प्रस्ताव रखा तो उस ने अपनी मां से भी विचारविमर्श करना जरूरी नहीं समझा और स्वीकृति दे दी, क्योंकि वह वहां की जीवनशैली से बहुत प्रभावित हो गया था.

सुहासिनी इस स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. उस ने बेटे को समझाते हुए कहा था, ‘बेटा, अपने देश में नौकरियों की क्या कमी है जो तू अमेरिका में बसना चाहता है? फिर तेरा ब्याह कर के मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हूं. साथ ही, तेरे बच्चे को देखना चाहती हूं, जिस से मेरा अकेलापन समाप्त हो जाए और यह सब तभी होगा, जब तू भारत में होगा. मैं कब से यह सपना देख रही हूं और अब यह पूरा होने का समय आ गया है, तू इनकार मत करना.’ यह बोलतेबोलते उस की आवाज भर्रा गई थी. वह जानती थी कि उस का बेटा बहुत जिद्दी है. वह जो ठीक समझता है, वही करता है.

जवाब में वह बोला, ‘ममा, आप परेशान मत होे, मैं आप को भी जल्दी ही अमेरिका बुला लूंगा और आप का सपना तो यहां रह कर भी पूरा हो जाएगा. लड़की भी मैं यहां रहते हुए खुद ही ढूंढ़ लूंगा.’ बेटे का दोटूक उत्तर सुन कर सुहासिनी सकते में आ गई. उस को लगा कि वह पूरी दुनिया में अकेली रह गई थी.

सालभर के अंदर ही सुशांत ने सुहासिनी को बुलाने के लिए दस्तावेज भेज दिए. उस ने एजेंट के जरिए वीजा के लिए आवेदन कर दिया. बड़े बेमन से वह अमेरिका के लिए रवाना हुई. अनजान देश में जाते हुए वह अपने को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रही थी. मन में दुविधा थी कि पता नहीं, उस का वहां मन लगेगा भी कि नहीं. हवाई अड्डे पर सुशांत उसे लेने आया था. इतने समय बाद उस को देख कर उस की आंखें छलछला आईं.

घर पहुंच कर सुशांत ने घर का दरवाजा खटखटाया. इस से पहले कि वह अपने बेटे से कुछ पूछे, एक अंगरेज महिला ने दरवाजा खोला. वह सवालिया नजरों से सुशांत की ओर देखने लगी. उस ने उसे इशारे से अंदर चलने को कहा. अंदर पहुंच कर बेटे ने कहा, ‘ममा, आप फ्रैश हो कर आराम करिए, बहुत थक गई होंगी. मैं आप के खाने का इंतजाम करवाता हूं.’

सुहासिनी को चैन कहां, मन ही मन मना रही थी कि उस का संदेह गलत निकले, लेकिन इस के विपरीत सही निकला. बेटे के बताते ही वह अवाक उस की ओर देखती ही रह गई. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. उस के बहू के लिए देखे गए सपने चूरचूर हो कर बिखर गए थे.

सुहासिनी ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा, ‘मुझे पहले ही बता देता, तो मैं बहू के लिए कुछ ले कर आती.’

मां की भीगी आखें सुशांत से छिपी नहीं रह पाईं. उस ने कहा, ‘ममा, मैं जानता था कि आप कभी मन से मुझे स्वीकृति नहीं देंगी. यदि मैं आप को पहले बता देता तो शायद आप आती ही नहीं. सोचिए, रोजी से विवाह करने से मुझे आसानी से यहां की नागरिकता मिल गई है. आप भी अब हमेशा मेरे साथ रह सकती हैं.’ उस को अपने बेटे की सोच पर तरस आने लगा. वह कुछ नहीं बोली. मन ही मन बुदबुदाई, ‘कम से कम, यह तो पूछ लेता कि विदेश में, तेरे साथ, मैं रहने के लिए तैयार भी हूं या नहीं?’

बहुत जल्दी सुहासिनी का मन वहां की जीवनशैली से ऊबने लगा था. बहूबेटा सुबह अपनीअपनी जौब के लिए निकल जाते थे. उस के बाद जैसे घर उस को काटने को दौड़ता था. उन के पीछे से वह घर के सारे काम कर लेती थी. उन के लिए खाना भी बना लेती थी, लेकिन उस को महसूस हुआ कि उस के बेटे को पहले की तरह उस के हाथ के खाने के स्थान पर अमेरिकी खाना अधिक पसंद आने लगा था. धीरेधीरे उस को लगने लगा था कि उस का अस्तित्व एक नौकरानी से अधिक नहीं रह गया है. वहां के वातावरण में अपनत्व की कमी होने के चलते बनावटीपन से उस का मन बुरी तरह घबरा गया था.

सुहासिनी को भारत की अपनी कालोनी की याद सताने लगी कि किस तरह अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वहां पर हर आयुवर्ग की वह चहेती बन गई थी. हर दिन शाम को, सभी उम्र के लोग कालोनी में ही बने पार्क में इकट्ठे हो जाया करते थे. बाकी समय भी व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क में बने रहते थे और जरा सी भी तबीयत खराब होने पर एकदूसरे की मदद के लिए तैयार रहते थे.

उस ने एक दिन हिम्मत कर के अपने बेटे से कह ही दिया, ‘बेटा, मैं वापस इंडिया जाना चाहती हूं.’

यह प्रस्ताव सुन कर सुशांत थोड़ा आश्चर्य और नाराजगी मिश्रित आवाज में बोला, ‘लेकिन वहां आप की देखभाल कौन करेगा? मेरे यहां रहते हुए आप किस के लिए वहां जाना चाहती हैं?’ वह जानता था कि उस की मां वहां बिलकुल अकेली हैं.

सुहासिनी ने उस की बात अनसुनी  करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे जाना है, तुम्हारे कोई बच्चा होगा तो आ जाऊंगी.’ आखिर वह भारत के लिए रवाना हो गई.

सुहासिनी को अब अपने देश में नए सिरे से अपने जीवन को जीना था. वह यह सोच ही रही थी कि अचानक उस की ढलती उम्र के इस पड़ाव में भी सुनीलजी, जो उसी अपार्टमैंट में रहते थे, के विवाह के प्रस्ताव ने मौनसून की पहली झमाझम बरसात की तरह उस के तन के साथ मन को भी भिगोभिगो कर रोमांचित कर दिया था. उस के जीवन में क्या चल रहा है, यह बात सुनीलजी से छिपी नहीं थी.

सुहासिनी के हावभाव ने बिना कुछ कहे ही स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया था. लेकिन उस के मन में आया कि यह एहसास क्षणिक ही तो था. सचाई के धरातल पर आते ही सुहासिनी एक बार यह सोच कर कांप गई कि जब उस के बेटे को पता चलेगा तो क्या होगा? वह उस की आंखों में गिर जाएगी? वैधव्य की आग में जलते हुए, दूसरा विवाह न कर के उस ने अपने बेटे को मांबाप दोनों का प्यार दे कर उस की परवरिश कर के, समाज में जो इज्जत पाई थी, वह तारतार हो जाएगी?

‘नहीं, नहीं, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती. ठीक है, अपनी सकारात्मक सोच के कारण वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और उन के प्रस्ताव ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि यही हाल उन का भी है. वे भी अकेले हैं. उन की एक ही बेटी है, वह भी अमेरिका में रहती है. लेकिन समाज भी कोई चीज है,’ वह मन ही मन बुदबुदाई और निर्णय ले डाला.

जब सुनीलजी मिले तो उस ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘मैं आप की भावनाओं का आदर करती हूं, लेकिन समाज के सामने स्वीकार करने में परिस्थितियां बाधक हो जाती हैं और समाज का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं है, मुझे माफ कर दीजिएगा.’’ उस के इस कथन पर उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसे कि वे पहले से ही इस उत्तर के लिए तैयार थे. वे जानते थे कि उम्र के इस पड़ाव में इस तरह का निर्णय लेना सरल नहीं है. वे मौन ही रहे.

अचानक एक दिन सुहासिनी को पता चला कि सुनीलजी की बेटी सलोनी, अमेरिका से आने वाली है. आने के बाद, एक दिन वह अपने पापा के साथ उस से मिलने आई, फिर सुहासिनी ने उस को अपने घर पर आमंत्रित किया. हर दिन कुछ न कुछ बना कर सुहासिनी, सलोनी के लिए उस के घर भेजती ही रहती थी. उस के प्रेमभरे इस व्यवहार से सलोनी भावविभोर हो गई और एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ, जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

अचानक एक दिन सलोनी उस के घर आई और बोली, ‘‘एक बात बोलूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगी? आप मेरी मां बनेंगी? मुझे अपनी मां की याद नहीं है कि वे कैसी थीं, लेकिन आप को देख कर लगता है ऐसी ही होंगी. मेरे कारण मेरे पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया कि पता नहीं नई मां मुझे मां का प्यार दे भी पाएगी या नहीं. लेकिन अब मुझ से उन का अकेलापन देखा नहीं जाता. मैं अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. लेकिन विवाह के बाद लड़कियां मजबूर हो जाती हैं. उन को अपने पति के साथ जाना ही पड़ता है. मेरे पापा बहुत अच्छे हैं. प्लीज आंटी, आप मना मत करिएगा.’’ इतना कह कर वह रोने लगी. सुहासिनी शब्दहीन हो गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. उस ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘ठीक है बेटा, मैं विचार करूंगी.’’ थोड़ी देर बाद वह चली गई.

कई दिनों तक सुहासिनी के मनमस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता रहा. एक दिन सुनीलजी अपनी बेटी के साथ सुहासिनी के घर आ गए. वह असमंजस की स्थिति से उबर ही नहीं पा रही थी. सबकुछ समझते हुए सुनीलजी ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप यह मत सोचना कि सलोनी ने मेरी इच्छा को आप तक पहुंचाया है. जब से वह आई है, हम दोनों की भावनाएं इस से छिपी नहीं रहीं. उस ने मुझ से पूछा, तो मैं झूठ नहीं बोल पाया. अभी तो उस ने महसूस किया है, धीरेधीरे सारी कालोनी जान जाएगी. इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए मैं अपने रिश्ते पर विवाह की मुहर लगा कर लोगों के संदेह पर पूर्णविराम लगाना चाहता हूं.

‘‘शुरू में थोड़ी कठिनाई आएगी, लेकिन धीरेधीरे सब भूल जाएंगे. आप मेरे बाकी जीवन की साथी बन जाएंगी तो मेरे जीवन के इस पड़ाव में खालीपन के कारण तथा शरीर के शिथिल होने के कारण जो शून्यता आ गई है, वह खत्म हो जाएगी. इस उम्र की इस से अधिक जरूरत ही क्या है?’’ सुनील ने बड़े सुलझे ढंग से उसे समझाया.

सुहासिनी के पास अब तर्क करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था. उस ने आंसूभरी आंखों से हामी भर दी. सलोनी के सिर से मानो मनों बोझ हट गया और वह भावातिरेक में सुनील के गले से लिपट गई.

अब सुहासिनी को अपने बेटे की प्रतिक्रिया की भी चिंता नहीं थी.

बुड्ढा आशिक: किस तरह प्रोफेसर प्रसाद कर रहे थे मानसी का शोषण

मानसी अभी कालेज से लौट कर होस्टल पहुंची ही थी कि उस के डीन मिस्टर प्रसाद का फोन आ गया. वह बैग पटक कर मोबाइल अटैंड करने लगी. प्रसाद मानसी के पीएचडी गाइड थे और वे चाहते थे कि मानसी उन के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाए, उन्हें तुरंत बाहर जाना है.

मानसी को समझ नहीं आया कि क्या कहे? हां कहे तो मुश्किल और ना कर दे तो और भी मुसीबत. तभी उसे अपने बचपन के साथी शिशिर का बहाने बनाने का फार्मूला याद आया.

उस ने कराहते हुए कहा, ‘‘सर, मैं तो एक कदम भी चल नहीं पा रही हूं.’’

प्रसाद भी बड़े घाघ थे, बोले, ‘‘अभी तो यहां से अच्छीभली निकली हो, अब क्या हो गया?’’

‘‘ओह,’’ मानसी आवाज में दर्द भर कर बोली, ‘‘सर, अभी यहां बस से उतरते समय मेरा पांव मुड़ गया जिस से मोच आ गई,’’ कहते हुए मानसी ने एक और कराह भरी.

अब प्रसादजी परेशान हो उठे. प्रसाद थे तो 52-55 की उम्र के बीच, पर अपनी ही स्टूडैंट स्कौलर छात्रा मानसी पर ऐसे लट्टू हुए रहते कि सारे कालेज में उन्हें ‘बुड्ढा आशिक’ के नाम से जाना जाता.

वे मानसी को डांटते हुए बोले, ‘‘क्या मानसी, तुम ढंग से नहीं चल सकती, अभी आता हूं तुम्हें देखने.’’

प्रसाद की बात सुन मानसी और परेशान हो उठी. फिर वह कराहते हुए बोली, ‘‘वह मेरा दोस्त शिशिर आ रहा है, वह दवा दे देगा. आप चिंता न करें मैं ठीक हो जाऊंगी.’’ बेचारे प्रसाद सर ने बाहर जाने का अपना प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया. वे मानसी के बिना नहीं जाना चाहते थे. उन का हाल तो कुछ ऐसा था कि एक मिनट भी मानसी के बिना न रहें.

मानसी थी तो उन की एक रिसर्च स्कौलर छात्रा, किंतु उस के विरह में जैसे वे हलकान होते थे, यह देख कर उन के साथी तो क्या उन के स्टूडैंट भी परेशान हो जाते थे और कई बार उन्हें चिढ़ा कर कहते, ‘‘सर, मानसीजी तो कैंटीन में खा रही हैं.’’

इस पर वे बड़े परेशान हो जाते और फोन कर मानसी से कहते, ‘‘अरे मानसी, कैंटीन का खाना खा कर तुम बीमार हो जाओगी. आओ तो, यहां मेरे कैबिन में देखो, मनोरमा ने क्या लजीज खाना बना कर भेजा है.’’

इस पर मानसी की सारी सहेलियां उस की हंसी उड़ाती और कहतीं, ‘‘जा, तेरा बुड्ढा आशिक तुझे बुला रहा है.’’ मानसी भी कम नहीं थी, वह कहती, ’’कम से कम आशिक तो है, तुम्हारे तो वे भी नहीं हैं.’’

मानसी ने अपने कक्ष में बैड पर लेट कर कुछ देर रैस्ट किया, फिर फोन पर शिशिर का नंबर मिला कर बतियाने लगी, ’’अरे, कंपाउंडर साहब, कैसे हो,’’ शिशिर कोई कंपाउंडर नहीं था, वह तो अपने पिता का तेल का बिजनैस संभालता था. उस के पिता तेल के व्यापारी थे और उन का यह व्यवसाय पीढि़यों से चल रहा था. मानसी व शिशिर के घरमहल्ले थोड़ी दूरी पर ही थे. शिशिर उस के साथ ही कालेज तक पढ़ता रहा था. एमए के दौरान शिशिर के पिता के बीमार होने पर उसे पूरा बिजनैस संभालना पड़ा था. तब मानसी ही उस की मदद कर के एमए की परीक्षा जैसेतैसे दिलवा सकी. फिर वह आगे न पढ़ सका. मानसी ने पीएचडी की पढ़ाई जारी रखी. इस तरह वे थोड़े दूर तो हो गए, पर मोबाइल पर दोनों के बीच बातचीत होती रहती थी. यहां तक कि मानसी के घर पर कोई काम हो तो शिशिर ही कर जाता.

मानसी के पिता नहीं रहे थे. उस की बहन वैशाली ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, वह अपना बुटीक चलाती थी. वह मानसी से बड़ी थी.

मानसी को प्रसाद प्यार से मनु कहते. उन्हें लगता मनु ही उन की सच्ची संगिनी हो सकती है. उस समय वह भूल जाते कि उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, घरबार है. वे मानसी के पीएचडी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेते थे. इस से मानसी को भीतर ही भीतर गुस्सा आता.

प्रसाद की पत्नी मनोरमा अपनी नई बहू व नाती में इतनी व्यस्त रहती कि उस बेचारी को पता ही नहीं था कि इधर उस के पति क्या रंगरलियां मना रहे हैं.

अगले दिन मानसी कालेज पहुंची, तो ठीकठाक थी, किंतु जैसे ही वह प्रसाद के कैबिन के सामने पहुंची, लंगड़ाने लगी. प्रसाद लपकते हुए बाहर आए और बोले, ’’अरे मानसी, संभल कर.’’

मानसी तो शर्म से पानीपानी हो गई. उस की सारी सहेलियां भी यह देख कर हंस कर लोटपोट हो रही थीं. वे बोलीं, ’’यह क्या मनु? लग रहा था, प्रसाद अभी तुम्हें गोद में उठा कर सीधे अपने कैबिन में ही ले जाएंगे.’’

मानसी ने किताबें समेटीं व लाइब्रेरी में जा बैठी. तभी प्रसाद भी वहां आ गए और पूछने लगे, ’’कल क्यों नहीं आई? कितना मजा आता, केरल का ट्रिप था?’’

मानसी को लगा, साफसाफ कह दे कि आप अपनी श्रीमतीजी को क्यों नहीं ले जाते? पर चुप रही, उसे पीएचडी भी तो पूरी करनी है. प्रसाद को टरका कर उस ने शिशिर को फोन मिलाया, ’’अरे, कंपाउंडर…’’ फिर शुरू हो गई दोनों की बातचीत. शिशिर को वह कंपाउंडर इसलिए कहती थी कि खुद पीएचडी कर के डाक्टर हो जाएगी.

अभी उस ने कुछ लिखा ही था कि फिर प्रसाद आ गए और शुरू हो गई वही उन की बकवास, ’’आप कितनी खूबसूरत हैं, आप पर तो सब फिदा होते होंगे?’’

इधर मानसी की सहेलियां चुपके से सुनतीं और कहतीं, ’’तेरा बुड्ढा आशिक बेचारा…’’

इन बातों से मानसी का दिमाग गरम हो जाता, लेकिन वह क्या करे? पीएचडी तो उसे करनी ही है. फिर लैक्चररशिप… फिर मजे ही मजे. पर इस बुड्ढे आशिक से कैसे पीछा छुड़ाए? वह बेचारी मन मसोस कर रह जाती.

एक दिन तो गजब हो गया. सारी सहेलियों के साथ वह फिल्म देखने गई थी. वहां सभी ऐंजौय कर रही थीं कि जाने कहां से प्रसाद टपक पड़े,’’अरे, अब क्या करें.’’ सारी सहेलियां एकदम चीखीं. ’मुझे इस बला से पिंड छुड़ाना ही होगा,’ एक दिन मानसी सोचने लगी, लेकिन ऐसे कि लाठी भी न टूटे और सांप भी मर जाए.

अब तो हद ही हो गई थी, रोज कालेज से होस्टल पहुंचते ही उस के मोबाइल पर प्रसाद का मैसेज आ जाता, ’शाम को कहीं चलते हैं, वहीं डिनर करेंगे.’ अति होने पर मानसी ने सोच लिया कि कुछ तो करना ही पड़ेगा. रोज कहां तक बहाने बनाए. अत: उस ने शिशिर को फोन किया, ’’कंपाउंडर साहब, कल तैयार रहना…’’ और उसे अपनी सारी योजना भी बताई. वह पीली साड़ी और गले में मंगलसूत्र डाले शिशिर की स्कूटी से कालेज पहुंची और सीधे प्रसाद के कैबिन में विनम्रता से दाखिल हुई, ’’मे आई कम इन सर,’’ कुछ ऐसा ही मुंह से निकला मानसी के.

’’ओह… ’’प्रसाद ने सिर उठाया, वे पेपर पढ़ रहे थे. देख कर गिरतेगिरते बचे. ’’कम इन… कम इन…’’ वे बोले.

’’सर, ये मेरे मंगेतर शिशिर, अब मेरे जीवनसाथी बन गए हैं. हम दोनों ने शादी कर ली है. सर, आशीर्वाद दीजिए न.’’ मानसी ने हाथ जोड़ कर कहा.

प्रसाद की तो भृकुटी तन गई. उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वे मानसी से क्या कहें.

’’तुम… हांहां ठीक है, ठीक है, जाओ.’’ मानसी पर उन्हें गुस्सा आ रहा था.

मानसी बोली, ’’सर, डिनर…’’

प्रसाद बोले, ’’नहीं. आज मनोरमा को क्लीनिक ले कर जाना है. मानसी बोली,’’बधाई हो सर.’’

प्रसाद को जैसे काटो तो खून नहीं. मानसी बाहर आ गई. शिशिर को मंगलसूत्र उतार कर देते हुए बोली, ’’इसे संभाल कर रखना. फिर काम आएगा.’’

उस की सारी सहेलियां भी उस के इस नाटक से हैरान थीं. वे बोलीं, ’’तेरा जवाब नहीं मानसी, तूने सही तरीका ढूंढ़ा उस बुड्ढे आशिक से पीछा छुड़ाने का. अब शायद ही कभी वह ऐसी हरकतें करे.’’ मानसी बोली, ’’हम ऐसे ही डाक्टर थोड़े हैं,’’ और कैंपस में ठहाके गूंजने लगे.

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