टीनऐजर्स लव: अस्मिता ने क्या लांघ दी रिश्ते की सीमारेखा

‘‘आसमानी ड्रैस में बड़ी सुंदर लग रही हो, अस्मिता. बस, एक काम करो जुल्फों को थोड़ा ढीला कर लो.’’ अस्मिता कोचिंग क्लास की अंतिम बैंच पर खाली बैठी नोट बुक में कुछ लिख रही थी कि समर ने यह कह कर उन की तंद्रा तोड़ी. यह कह कर वह जल्दी ही अपनी बैंच पर जा कर बैठ गया और पीछे मुड़ कर मुसकराने लगा. किशोर हृदय में प्रेम का पुष्पपल्लवित होने लगा और दिल बगिया की कलियां महकने लगीं. भीतर से प्रणयसोता बहता चलता गया. उस ने आंखों में वह सबकुछ कह दिया था जो अब तक पढ़ी किताबें ही कह पाईं.

अस्मिता इंतजार करने लगी कि ब्रैक हो, समर बाहर आए और मैं उस से कुछ कहूं. आधे घंटे का समय एक सदी के बराबर लग रहा था. ‘क्या कहूंगी? शुरुआत कैसे करूंगी? जवाब क्या आएगा,’ ये सब प्रश्न अस्मिता को बेचैन किए जा रहे थे. कुछ बनाती, फिर मिटाती. मन ही मन कितने ही सवाल तैयार करती, जो उसे पूछने थे और फिर कैंसिल कर देती कि नहीं, कुछ और पूछती हूं. घंटी की आवाज अस्मिता के कानों में पड़ी. जैसे मां की तुतलाती बोली सुन कर कोई बच्चा दौड़ आता है, वह तत्क्षण क्लासरूम से बाहर आ गई. सोच रही थी कि वह अकेला आएगा. मगर हुआ इच्छा और आशा के प्रतिकूल. वह अपने दोस्तों से बतियाते हुए क्लासरूम से बाहर निकला. समर दोस्तों की टोली में बैठा गपें मार रहा था और चोर नजरों से उसे अकेला देखने की कोशिश भी कर रहा था. घर जाने का समय हो रहा था और आशाइच्छा धूमिल हो रही थी.

कहते हैं न, जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कोई न कोई रास्ता अवश्य निकलता है. अस्मिता किसी काम से अकेली क्लास में आई और समर इसी ताक में था. अस्मिता के पास मात्र 2 मिनट का समय था और कहने को ढेर सारी बातें. उस ने समर के पास आने पर कहा, ‘‘तुम भी न, बहुत स्मार्ट हो.’’ समर ने थैंक्स कहते हुए अस्मिता की हथेली के पृष्ठ भाग पर अपने हाथ से स्पर्श किया. फिर धीरेधीरे उस की पांचों उंगलियां अस्मिता की उंगलियों में समा चुकी थीं. यह थी अस्मिता के जीवन की प्रथम प्रणय गीतिका. जीवन का मृदुल वसंत प्रारंभ हो चुका था. उन दोनों ने एकदूसरे को जी भर कर देखा.

तभी अस्मिता की कुछ सहेलियां क्लासरूम में आ गईं. प्रेममयी क्षणों के चलते दोनों को न ध्यान रहा, न कोई भान. वे उन दोनों की यह हरकत देख कर मुसकराईं और बाहर चली गईं. स्कूल की छुट्टी हुई. अस्मिता घर आ गई. रातभर सो नहीं पाई, करवटें बदलती रही. कब सुबह हो गई, पता ही न चला. सुबह फिर तैयार हो, स्कूल चली गई. उस दिन समर भी जल्दी आ गया था. अस्मिता ने ध्यान से समर की तरफ देखा. समर ने स्कूलबैग क्रौस बैल्ट वाला डाला हुआ था, जोकि किसी बदमाश बच्चे की भांति इधरउधर हो रहा था. ‘‘हैलो,’’ समर ने अन्य लोगों की नजर से बचते हुए अस्मिता से कहा.

‘‘हाय समर, कैसे हो?’’ उस ने जवाब के साथ ही समर से प्रश्न किया. ‘‘मैं ठीक हूं और तुम से कुछ कहना चाहता हूं. क्या कह सकता हूं?’’

‘‘बिलकुल,’’ अस्मिता समर से मन ही मन प्यार करने लगी थी. कच्ची उम्र में ही उस ने समर को अपना सबकुछ मान लिया था. ‘‘क्या तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’ समर ने संकोच करते हुए कहा.

‘‘ओह हां, अच्छा, तो क्या करोगे नंबर का?’’ अस्मिता ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा. ‘‘मुझे तुम से कुछ कहना है,’’ समर ने कहा.

‘‘ओके, लिखो…97….’’ अस्मिता ने नंबर दे दिया. ‘‘थैंक्स.’’

एकदूसरे को देखते, हंसतेमुसकराते समय निकल रहा था जैसे मुट्ठी में से रेत देखते ही देखते उंगलियों के बीच की जगह से निकल जाती है. दोनों को ही छुट्टी होने की अधीर प्रतीक्षा थी. समर तो मन ही मन योजना बना रहा था…‘12 बजे छुट्टी होगी, 1 बजे यह घर पहुंचेगी, 2 बजे तक फ्री होगी और मुझे ठीक ढाई बजे कौल करना होगा.’ उस का दिमाग तेजगति से काम कर रहा था जैसे मार्च में अकाउंटैंट का दिमाग किया करता है. आखिर ढाई बज ही गए. समर ने बिना क्षण गंवाए, मोबाइल उठाया और अस्मिता का नंबर डायल किया.

पहली बार में तो अस्मिता ने कौल काट दी. फिर मिस्डकौल की. सामान्य औपचारिक बातचीत के बाद समर गंभीर मुद्दे पर आना चाहता था. शायद अस्मिता भी यही तो चाहती थी. ‘‘क्या तुम मुझ से इसी तरह रोज बात करोगी?’’ समर ने पूछा.

‘‘किसी लड़की के भोलेपन का फायदा उठा रहे हो?’’ अस्मिता ने जान कर प्रतिप्रश्न किया. ‘‘नहींनहीं, ऐसे ही, अगर तुम्हें उचित लगे तो,’’ समर ने शराफत दिखाते हुए कहा.

रुकरुक कर दिन में 5-6 बार बातें होने लगीं. समर कभी मिस्डकौल करता तो कभी जोखिम उठाते हुए सीधा कौल कर देता. दिन बीतते गए, बातें बढ़ती गईं और उन दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता आती गई. हंसीमजाक, स्कूल की बातें, दोस्तोंसहेलियों के किस्से उन के विषय रहते थे. वे स्कूल में बहाना खोजते ताकि एकांत में बैठ कर प्यारभरी बातें कर सकें. रास्ते सुहाने होते गए, हलके स्पर्श में मिठास का एहसास होता.

एक दिन आया जब उन के प्रेम का जिक्र क्लास के हर स्टूडैंट की जबां पर तो था ही, टीचर्स के बीच में भी बात फैल गई और प्रधानाचार्य ने दोनों को स्टाफरूम में बुला कर ऐसी हरकतों के दुष्परिणामों से अवगत करवाया. उन दोनों ने भविष्य में इस प्रकार की गलती दोहराने की प्रतिबद्घता व्यक्त कर पीछा छुड़ा लिया. अब लगभग सब लोग उन के बीच का सबकुछ जान चुके थे. यह वह वक्त था जब अर्धवार्षिक परीक्षाएं सिर पर थीं. दोनों को ही किताब खोले महीनों हो गए थे. अस्मिता अपनी बौद्धिकता के अहं में थी और समर अपने बौद्धिक होने के वहम में.

एक रोज फोन पर समर कुछ उदास आवाज में बोला, ‘‘क्या मैं पास हो सकूंगा? मैं ने पढ़ा तो कुछ नहीं. तुम तो फिर भी होशियार हो, मेरा क्या होगा?’’ ‘‘सब ठीक होगा, क्लास में तुम से कमजोर भी बहुत हैं,’’ अस्मिता ने उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं बताओ? तुम से बात किए बिना एक पल भी नहीं रहा जाता. हर बार मोबाइल उठा कर देखता हूं कि कहीं तुम्हारा मैसेज या कौल तो नहीं आई, अस्मिता.’’ ‘‘मेरा भी यही हाल है. सभी सखीसहेलियों, परिजनों के इतर जीवन अब सिर्फ तुम पर केंद्रित हो गया है. मेरी हर कल्पना, हर सपने का प्रधान किरदार तुम ही हो, समर. मैं इन सभी चीजों को ले कर मजाक में थी. मगर अब यह बेचैनी बताती है, छटपटाहट बताती है कि दिल पर अब मेरा बस नहीं रहा. अब मैं तुम्हारी हो गई हूं. पर क्या वह सब संभव है? मैं भी न, क्याक्या बकती जा रही हूं.’’

दिन बीतते गए, फोन पर उन की बातें चलती गईं. ‘‘कहीं मिलते हैं, कुछ घंटे साथ बिताते हैं, अब सिर्फ बातों से मन नहीं भरता, अस्मिता.’’ अब समर कभीकभी अस्मिता पर, घर से बाहर मिलने पर भी जोर डालने लगा.

एक दिन निश्चय किया कि कहीं एकांत में मिलते हैं. लेकिन कहां? यह प्रश्न था कि कहां मिला जाए. परेशानी को दूर किया अस्मिता की सहेली दीपिका ने. उसी ने रास्ता सुझाया. दीपिका ने कहा, ‘‘मैं अपनी मम्मी को अपनी बहन के साथ मूवी देखने के लिए भेज दूंगी. उन लोगों के जाते ही तुम दोनों मेरे फ्लैट में आ जाना. मैं बाहर से ताला लगा कर चली जाऊंगी. और ठीक 2 घंटे बाद आ कर ताला खोल दूंगी. अगर कोई आएगा भी तो समझेगा कि घर में कोई नहीं है. देख अस्मिता, तुझे समर के साथ समय बिताने का इस से अच्छा कोई मौका नहीं मिल सकता. तू और समर वहां खूब मस्ती करना.’’ समर को भी इस में कोई आपत्ति न थी. 2 दिन बाद मिलने का कार्यक्रम तय कर लिया गया. मौसम साफ था, हवा में संगीत था, पंछियों की कोमल आवाज मनमस्तिष्क में नव स्फूर्ति भर रही थी. नीयत स्थान और निश्चित समय. समर का पहला और आखिरी काम जो पूर्व तैयारी के साथ संपन्न होने जा रहा था वरना अब तक तो उस ने परीक्षा तक के लिए कोई तैयारी नहीं की थी.

तय दिन तय समय पर, अस्मिता समर के साथ दीपिका के फ्लैट पर पहुंची. प्लान के मुताबिक दीपिका ने अपनी मम्मी और बहन को नई मूवी देखने के लिए भेज दिया. वे दोनों फ्लैट के अंदर और बाहर ताला. लेकिन उन की ये सब गतिविधियां फ्लैट के सामने दूसरे फ्लैट में रहने वाले एक अंकल खिड़की से देख रहे थे. उन्हें शायद कुछ गड़बड़ लगा. वे अपने फ्लैट से नीचे उतर कर आए और कालोनी के 2-3 लोगों को एकत्र कर धीरे से बोले, ‘‘यह जो फ्लैट है, अरे वही सामने, बख्शीजी का फ्लैट, उस में एक लड़का और एक लड़की बंद हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल ने पूछा. ‘‘मतलब… बख्शीजी की लड़की तो बाहर से ताला लगा गई है पर अंदर लड़कालड़की बंद हैं.’’

‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें क्या मतलब. इस में नया क्या है? आजकल तो यह आम बात है,’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल टालते हुए बोले. ‘‘अमा यार, कैसी बात कर रहे हो? अपनी आंखों के सामने, यह गलत काम कैसे होने दूं्?’’

‘‘गलत?’’ ‘‘हां जी, मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है दोनों को फ्लैट के अंदर जाते हुए.’’

तभी पड़ोस की एक आंटी भी आ गई, ‘‘क्या हुआ भाईसाहब?’’ ‘‘अरे, सामने बख्शीजी के फ्लैट में एक लड़कालड़की बंद हैं,’’ पहले वाले अंकल बोले.

‘‘तो ताला तोड़ दो,’’ महिला ने मशवरा दिया. ‘‘नहीं, यह सही नहीं है, जिस का मकान है, उसे बुलाओ,’’ दूसरे अंकल ने सलाह दी.

शोर बढ़ता गया. लोग इकट्ठे होते चले गए. तभी कहीं से पुलिस का एक हवलदार भी पहुंच गया. लोगबाग दरवाजा पीटने लगे. ‘‘बाहर निकलो, दरवाजा खोलो…’’ बिना यह सोचेसमझे कि ताला तो बाहर से बंद है, तो दरवाजा खुलेगा कैसे? प्लान के मुताबिक, दीपिका समय पूरा होने से 10 मिनट पहले वहां पहुंच गई, लेकिन भीड़ को देख कर एक बार वह भी घबरा गई. उस ने लोगों से वहां इकट्ठे होने का प्रयोजन पूछा और गुस्से में बोली, ‘‘मेरा फ्लैट है, मैं जानूं. आप लोगों को क्या मतलब?’’

हवलदार ने दीपिका की हां में हां मिलाई और भीड़ से जाने के लिए कहा. और फिर दीपिका के पीछेपीछे वह भी सीढि़यां चढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद हवलदार फ्लैट से वापस आया और बोला, ‘‘फ्लैट में तो कोई नहीं था. किस ने कहा कि वहां लड़कालड़की बंद हैं. फालतू में इतना शोर मचा दिया.’’ सामने के फ्लैट वाले अंकल चुपचाप वहां से गायब हो गए, लेकिन उन का दिमाग अभी भी चल रहा था…जैसे ही भीड़ छटी, दीपिका ने अस्मिता और समर को चुपचाप बाहर निकाल दिया. दरअसल, सीढि़यां चढ़ते समय ही दीपिका ने हवलदार को कुछ रुपए दे कर उस का मुंह बंद कर दिया था. जैसेतैसे आई हुई बला टल गई, लेकिन अस्मिता और समर को मुंह देख कर साफ पता लग रहा था कि उन्होंने इन 2 घंटों के दौरान कितना अच्छा समय बिताया होगा.

जब दोनों फ्लैट के अंदर थे तब समर ने कहा, ‘‘सौरी, जल्दीजल्दी में तुम्हारे लिए कोई उपहार लाना तो भूल ही गया.’’ ‘‘तुम आ गए हो तो नूर आ गया है,’’ कहते हुए अस्मिता हंस पड़ी. तब दोनों ने हृदय के तार झंकृत हो उठे थे. दिल में एक रागिनी बज उठी थी. रहीसही कसर आंखों से छलकते प्रेम निमंत्रण ने पूरी कर दी थी. सहसा ही समर के हाथ उस के तन से लिपट गए और यह आलिंगन हजारोंलाखों उपहारों से कहीं ज्यादा था.

असल तूफान तो उस के बाद आया जब समर अचानक अस्मिता से दूर होने लगा. फिर 6 महीने में सबकुछ बदल गया था. अब सिर्फ अस्मिता उसे फोन करती थी. और…समर, अस्मिता का फोन भी नहीं उठाता था. वह अब उस से बात नहीं करना चाहता था. जब उस की मरजी होती, मिलने को बुलाता, पर उस दौरान भी बात नहीं करता. ऐसा लगता था जैसे वह जिस्म की भूख मिटा रहा है. अस्मिता उस से प्यार करती थी, लेकिन वह अस्मिता को सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था.

अस्मिता की तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी. वह खुद से नफरत करने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल गया था. वह अकसर अपनेआप से कहती, ‘मैं इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हूं? मैं अंधों की तरह एक मृगतृष्णा की ओर भागती जा रही हूं.’ वह घंटों रोती. निराशा उस की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. इस हार को बरदाश्त न कर पाते हुए इसी बीच अस्मिता बारबार समर को वापस लाने की नाकाम कोशिश करने लगी. उसे मेल भेजना, प्रेम गीत भेजना, कभीकभी गाली लिख कर भेजना, अब यही उस का काम था.

इसी बीच, एक दिन- समर : तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता? मुझे दोबारा फोन मत करना.

अस्मिता : देखो, तुम क्यों ऐसा कर रहे हो? मुझे पता है कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो, लेकिन क्या है जिस से तुम परेशान हो? समर : ऐसा कुछ नहीं है. हमारा रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता. मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है. मेरे पास इन चीजों के लिए वक्त नहीं है.

अस्मिता : नहीं, देखो समर, प्लीज मेरी बात सुनो. हम दोस्त बन कर भी तो रह सकते हैं? हम इस रिश्ते को वक्त देते हैं. अगर कई साल बाद भी तुम को ऐसा ही लगा. तब सोचेंगे. समर : तुम पागल हो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है. और मैं तुम से आगे कभी बात नहीं करना चाहता.

टैलीफोन की यह बातचीत अस्मिता को आज भी याद है. यह उन दोनों के बीच आखिरी बातचीत थी. इसे सुन कर कोईर् भी कह सकता है कि अस्मिता बेवकूफ थी, भ्रम में जी रही थी. लेकिन वह भी क्या करती? कुल 16 की थी, और उसे लगता था, सब फिल्मों की तरह ही होता है. ‘जब वी मेट’ फिल्म से वह काफी प्रभावित थी. वैसे भी 16 का प्यार हो या 60 का, जब कोई प्यार में होता है, तो कुछ भी सहीगलत नहीं होता.

पर स्कूल में समर उस से बचता, नजरें छिपाता, अस्मिता उस से बात करने जाती तो वह झिड़क देता या दोस्तों के साथ मिल कर उस की खिल्ली उड़ाता, कहता, ‘‘कितनी बेवकूफ है जो उस की बातों में आ कर सबकुछ लुटा बैठी. उस ने तो यह सब एक शर्त के लिए किया था.’’ ‘ओह, तो यह सिर्फ उस की एक चाल थी. काश, मैं पहले ही समझ जाती,’ वह घंटों रोती रही.

आज प्यार के मामले में भी उस का भरोसा टूट गया था. प्यार पर से विश्वास तो पहले ही उठने लगा था. वार्षिक परीक्षाएं सिर पर मंडरा रही थीं. वह खुद से जूझ रही थी. पर अस्मिता ने पढ़ाई या स्कूल बंद नहीं किया. यह शायद उस की अंदरूनी शक्ति ही थी जिस से वह उबर रही थी या उबरने की कोशिश कर रही थी. हालांकि चिड़चिड़ाहट बढ़ रही थी और उस के बढ़ते चिड़चिड़ेपन से घर पर सब परेशान थे. अगर घर पर कोई कुछ जानना चाहता भी तो उस ने कभी नहीं बताया कि उस के साथ क्या हुआ है.

अस्मिता नई क्लास में आ गई थी. हर बार से नंबर काफी कम थे. समर ने नई कक्षा में पहुंच कर स्कूल ही बदल लिया था. यही नहीं, मोबाइल नंबर भी. अस्मिता के लिए यह सब किसी बहुत बड़े जलजले से कम न था. बात न करे पर रोज वह समर को देख कर ही अपना मन शांत कर लेती थी. पर अब तो… अस्मिता ने खाना बंद कर दिया था. इस कारण उस की तबीयत बिगड़ रही थी.

बहुत मेहनत से उस ने समर का नया नंबर पता किया. समर ने फोन उठाया मगर सिर्फ इतना कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? किस से नंबर मिला तुम्हें? आइंदा फोन किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. मेरे पास तुम्हारे कुछ फोटोज हैं. मैं उन्हें सार्वजनिक कर दूंगा. फिर मत कहना, हा…हा…हा… और समर ने फोन काट दिया.’’ समर के लिए यह सब खेल था, लेकिन अस्मिता के लिए वह पहला प्यार था. ‘कितनी बेवकूफ थी न मैं, जो अपने आत्मसम्मान को पीछे रख कर भी उसे मनाना और पाना चाहती थी,’ अस्मिता ने सोचा. अब उसे अपनेआप से घिन और नफरत सी होने लगी थी. अस्मिता खुद को खत्म करना चाहती थी.

लेकिन, दीपिका जो उस के अच्छे और बुरे दोनों ही पलों की सहेली थी, ने अस्मिता के मनोबल और उसे, एक हद तक टूटने नहीं दिया. उसे समझाया, ‘‘ऐसे एकतरफा रिश्तों से जिंदगी नहीं चलती. अगर आप किसी से प्यार करते हो और वह नहीं करता. तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे में आत्मसम्मान सब से अहम होता है.’’ कहीं न कहीं अस्मिता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद को भी ठहराती थी. उस ने कभी भी अस्मिता को अकेला नहीं छोड़ा. हर समय उसे टूटने से बचाया वरना इतना अपमान और असम्मान सहना किसी लड़की के लिए आसान नहीं था. दीपिका की कोशिश का ही नतीजा था कि इतने अपमान, असम्मान के बाद भी अस्मिता ने ठान लिया, ‘‘अब मैं नहीं रोऊंगी. मैं जिंदगी में आगे बढ़ूंगी, कुछ करूंगी. एक हादसे की वजह से मेरी पूरी जिंदगी खराब नहीं हो सकती.’’

अब वह समर को याद भी नहीं करना चाहती थी. समर उस की जिंदगी में अब कोई माने नहीं रखता. लेकिन उस के धोखे को वह माफ नहीं कर पाई. प्यार करना उस ने यदि समर से मिल कर सीखा तो प्यार का सही मतलब और वादे का सही मतलब, शायद समर को अस्मिता से समझना चाहिए था. समर ने सिर्फ प्यार ही नहीं, धोखा क्या होता है, यह भी समझा दिया था. समर से मिल कर उस के साथ रिश्ते में रह कर, अस्मिता का प्यार पर से यकीन उठ चुका अब. वाकई कितनी छोटी उम्र होती है ऐसे प्यार की. शायद सिर्फ शारीरिक आकर्षण आधार होता है. तभी तो इसे कच्ची उम्र का प्यार कहते हैं ‘टीनऐजर्स लव.’

सहारा: सुलेखा के आजाद ख्याल ने कैसे बदली उसकी जिंदगी

‘‘शादी…यानी बरबादी…’’ जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी तो सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, ‘‘मां मुझेशादी नहीं करनी है, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारा देखभाल करना चाहती हूं.’’

‘‘नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते,’’ मां ने स्नेहभरी नजरों से अपनी बेटी की ओर देखा.

‘‘मां मुझेशादी जैसी रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं… विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… आप जरा अपनी जिंदगी देखो, शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है? पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…’’ कहती हुई वह अचानक रुक गई और फिर आंसू भरे नेत्रों से मां की ओर देखने लगी.

मां ने दूसरी तरफ मुंह घुमा अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अरे छोड़ो इन बातों को… इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन. देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,’’ और फिर बेटी को गले लगा कर उस के माथे को चूम लिया.

मालती अपनी बेटी को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए, जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था तब सुलेखा सिर्फ 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का प्यार दिया. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं उन की सुखदुख की साथी भी थी. अपने टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया वह अपनी बेटी पर ही खर्च किया. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरत का खयाल रखा. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी भले खुद कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब मालती अपनी बेटी से उस की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया ताकि उसे कोई कष्ट न हो.

सुलेखा आजाद खयालोंकी लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिशें नहीं लगाईं.

सुलेखा ने अपनी मां को हमेशा स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें ?ोलना पड़े, ?ोल लेंगी परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा की शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती भावुक हो कर कहतीं, ‘‘बेटा तू क्यों नहीं समझती… तुझेले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी… एक न एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,’’ और फिर हंसते हुए आगे बोलती हैं, ‘‘और तुम्हें एक अच्छा जीवन साथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छिपा हुआ है… कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक न एक दिन मैं इस दुनिया को अलविदा तो कहूंगी ही… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी?’’ कहते हुए उन का गला भर्रा गया.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है और एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी है जो 80 या 85 साल की है. मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आया है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में खुशहाल जिंदगी जीएगी… यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं… वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं और फिर उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

मालती अपनी जिंदगीभर की सारी जमापूंजी यहां तक की अपने सारे जेवर भी शादी का खर्चा जुटाने हेतु बेच दिए ताकि बड़ी धूमधाम से अपनी बेटी को ससुराल विदा कर सकें. बेटी के ससुराल वालों को किसी भी बात की कोई परेशानी न हो. इस बात का पूरापूरा खयाल रखा गया. आखिर एक ही तो बेटी थी उन की और उसी की खातिर तो उन्होंने वर्षों से पाईपाई जमा कर रखी थी.

विदाई के वक्त सुरेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. उस ने धुंधली आंखों से मां और उस घर की ओर देखा जिस में उस का बचपन बीता था.

‘‘अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो,’’ ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से ?िड़कते हुए कहा और फिर उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया.’’

‘‘आंखें पल्लू में ढक गईं… मैं देख कैसे पाऊंगी…’’ उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए अपनी जेठानी को देखा जिस ने बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने हेतु घूंघट अपनी नाक तक खींच रखा था.

‘‘तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट किया जाता है?’’ यह उस की सास की आवाज थी.

‘‘आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल न उठाएं,’’ सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई.

‘‘तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,’’ योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्लाया.

सुलेखा ने तिलमिला कर गुस्से से योगेंद्र की ओर देखा.

‘‘अरे, नई बहू दरवाजे पर कब तक खड़ी रहेगी… इसे कोई अंदर क्यों नहीं ले आता,’’ दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं वैसे भी उन के कानों ने भी उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. मौत तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गई थी क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखती थी. अपनी लंबी उम्र तथा घर की उन्नति के लिए कई बार बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड करवा चुकी हैं ताकि मौत को टाला जा सके.

उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी की कि उन के छोटे पोते  की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो उसी लड़की से इन के छोटे पोते की शादी कराई जाए. अत: सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा प्रदान कर दिया गया था. अब उन्हें बेचैनी इस बात की हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए वरना कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए.

मगर घूंघट पर छिड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

‘‘आप मुझ से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं?’’ सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोली.

‘‘तुम्हें अपने पति से कैसे बात करनी चाहिए क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया?’’ घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

‘‘अरे इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,’’ सुलेखा की सास ने गुस्से में कहा.

‘‘आप मुझेतमीज मत सिखाइए,’’ सुलेख का स्वर भी ऊंचा हो गया.

‘‘पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए…’’

‘‘सुलेखा…’’ योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ा.

‘‘चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझेभी आता है,’’ सुलेखा ने भी उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा.

‘‘इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है… पति से जबान लड़ाती है,’’ सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

‘‘आप लोगों के संस्कार क्या हैं… नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है?’’ सुलेखा ने भी चिल्लाते हुए कहा.

‘‘तुम सीमा लांघ रही हो…’’ योगेंद्र चिल्लाया.

‘‘और आप लोग भी मुझेमेरी हद न सिखाएं…

‘‘सुलेखा…’’ और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ गया.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठी. साथ में उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और फिर आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उठ खड़ा हुआ.

अचानक उस के पैर डोल गए और फिर नीचे रखे तांबे के कलश से  उस के पैर जा उछल कर और वह कलश उछल कर सीधा दादी सास के सिर से जा टकराया और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर लुढ़क गईं. चारी तरफ कुहराम मच गया.

‘‘देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के. गुस्से में दादी सास को ही कलश दे मारा,’’ लोग कानाफूसी करने लगे.

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झका हुआ था. यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें जैसे क्षणभर के लिए रुक गईं.

‘‘अरे हाय यह क्या कर दिया तुम ने,’’ सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई दादी सास की ओर दौड़ पड़ीं.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा. उस के होंठों पर लाल गहरे रंग की लिपस्टिक लगी हुई थी तथा साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आंखों पर नीले रंग का आईशैडो भी लगा रखा था तथा गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहना था. उन का यह बनावशृंगार उन के अति शृंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा गई और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस से पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,’’ योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी हो गया. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. वह मन ही मन सोचने लगी कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है. जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है, जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया जितना कुंठित विचारधारा इन सबों की है वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी.

उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इस सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी. अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि को उस ने संजोया था वह अब एक झटके में ही टूटतीबिखरती नजर आ रही थी.

सभी तरफ कुहराम मचा हुआ था. तभी कोई डाक्टर को बुला लाता है. आधे घंटे के  निरीक्षण के बाद डाक्टर बताते हैं, ‘‘चिंता की कोईर् बात नहीं सभी कुछ ठीकठाक है. मैं ने दवा दे दी है जल्द ही इन्हें होश आ जाएगा.’’

दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

‘‘अरे अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,’’ सास ने बड़े ही क्रोध में आवाज लगाई.

‘‘नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,’’ सुलेखा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘क्या कहा… कैसी कुलक्षणी है यह… अब और कोईर् कसर रह गईर् है क्या…’’ सास ने क्रोध से गरजते हुए कहा.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो अंदर चलो…’’ योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

‘‘नहीं मैं अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रूकूंगी,’’ कह सुलेखा ने एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लिया, ‘‘जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया, जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,’’ कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल अपनी मां के घर चल दी.

सुलेखा मन ही मन सोचती जा रही थी कि जिस रिश्ते में सम्मान नहीं उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी… जो परंपरा एक औरत के खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे, जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करे और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो वैसे रिश्ते से तो अकेले ही जिंदगी जीना बेहतर है. मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के… उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है अब मैं उन का सहारा बनूंगी.’’

हाय बेचारी: रंजना का क्या था फैसला

रंजना सोसाइटी के गेट पर अन्य महिलाओं के साथ खड़ी थी. मांओं और स्कूल जाने वाले बच्चों का मेला सा लगा था. रंजना भी अपनी 11 वर्षीय बेटी मिनी का हाथ पकड़े खड़ी थी. स्कूल बस आने वाली थी. सभी महिलाएं रंजना को जिन नजरों से देख रही थीं, उन नजरों की भाषा से रंजना भलीभांति परिचित थी. सब की निगाहें हमेशा की तरह यही कह रही थीं कि हाय बेचारी. निगाहों का यह संदेश पा कर रंजना को हमेशा मन ही मन हंसी आती. सब उसे रोज ऊपर से नीचे तक कई बार देखतीं. उस के लेटैस्ट हेयरस्टाइल, बढि़या फिगर और आधुनिक कपड़ों की खूब प्रशंसा करतीं. लेकिन आंखों में वही हाय बेचारी के भाव.

स्कूल बस आ गई तो मांओं का अपनेअपने बच्चे को फ्लाइंग किस करने, आई लव यू बेटा, बाय बेटा, टेक केयर कहने का सिलसिला शुरू हो गया. रंजना ने भी मिनी को किस किया और मिनी बस में चढ़ गई. जब तक बस दिखती रही, रंजना वहीं खड़ी रही. फिर अपने फ्लैट की ओर चल दी. 11 बज रहे थे. मिनी का स्कूल 12 से 6 बजे तक था.

सारे काम करने के लिए मेड आ गई. 12 बजे तक रंजना फ्री हो चुकी थी. उस ने घड़ी देखी. 1 बजे अमित, उस का लेटैस्ट बौयफ्रैंड आने वाला था. उस ने सोचा 1 घंटा आराम कर ले. फिर अमित के साथ लंच कर के… इस के आगे की सोच कर ही रंजना के शरीर में मादक सी लहर दौड़ गई. आज

4 बजे उस की किट्टी पार्टी भी है. अमित को भेज कर वह किट्टी पार्टी में चली जाएगी. बैड पर लेट कर रंजना की आंखों के सामने बीते दिन किसी चलचित्र की तरह घूम गए… रंजना 21 साल की थी जब वह विनोद से एक पार्टी में मिली थी. पहली ही मुलाकात में दोनों एकदूसरे को दिल दे बैठे.

दोनों ही सुंदर, स्मार्ट और आकर्षक थे. विनोद बैंगलुरु से मुंबई अपने बिजनैस के किसी काम से आया था. मिलने के 6 महीने बाद ही रंजना ने विजातीय विनोद से प्रेमविवाह कर लिया. दोनों के मातापिता इस विवाह के खिलाफ थे. रंजना के मातापिता जो अंधेरी, मुंबई में रहते थे, उन्होंने उस से संबंध तोड़ लिए. उस की छोटी बहन संजना कभीकभी उस से फोन पर बात कर लेती थी. रंजना विनोद के साथ बैंगलुरु चली गई. विनोद के मातापिता भी रंजना को बहू मानने के लिए तैयार नहीं हुए थे.

रंजना को याद आ रहा था कि उस ने अच्छी पत्नी और अच्छी बहू बनने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन बेहद कट्टरपंथी ससुराल में रहना मुश्किल होता जा रहा था.

एक दिन विनोद ने ही कह दिया, ‘‘रंजना, ऐसा करता हूं कि अलग घर ले लेता हूं, घर में रोजरोज का कलह अच्छा नहीं लगता.’’

रंजना को इस में भला क्या आपत्ति हो सकती थी. वह तैयार हो गई. विनोद ने एक फ्लैट ले लिया. अब रंजना खुश थी.

लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी. उस ने नोट किया, विनोद उस के साथ बस रात को सोने ही आता है. सुबह अपने घर चला जाता है. एक दिन वह झंझला गई. बोली, ‘‘यह क्या चल रहा है… यहां बस सोने आते हो… अब यही तो हमारा घर है?’’

‘‘वहां मेरे मातापिता, भाईबहन हैं, उन्हें छोड़ दूं?’’ विनोद ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘मैं उन्हें छोड़ने के लिए कहां कह रही हूं, रोज मिलने जाओ. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन यहां अपनी पत्नी के पास तुम चोरों की तरह आ रहे हो. मुझे बड़ा अजीब लग रहा है.’’

विनोद गरदन झटक कर चला गया. रंजना को कुछ समझ नहीं आया. यह तो वह देख ही चुकी थी कि विनोद एक बहुत धनी बिजनैसमैन का बेटा है, उन का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस था. पूरा दिन अकेली रहने पर रंजना बोर होने लगी थी. सुबह नाश्ते से डिनर तक वह अकेली होती थी. विनोद ने मेड का भी इंतजाम कर दिया था. 1 साल बीत रहा था. रंजना अब गर्भवती थी. उसे लगा शायद अब सब ठीक हो जाएगा. उस ने यह खुशखबरी विनोद को सुनाई तो उस ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया. 2 दिन बाद रात को आ कर कहने लगा, ‘‘मैं ने मां को यह खबर सुनाई.’’

रंजना ने चहक कर पूछा, ‘‘वे खुश हुईं?’’

विनोद ने तटस्थ भाव से कहा, ‘‘मां ने कहा कि इस हालत में तुम्हारा

अपने मातापिता के पास जाना ज्यादा ठीक रहेगा.’’

रंजना को जैसे धक्का लगा. वह भड़क उठी, ‘‘मैं क्यों जाऊं कहीं? मैं ने सब को छोड़ कर तुम्हें अपनाया है, सब मुझ से नाराज हैं.’’

‘‘लेकिन मम्मीपापा अब भी तुम्हें अपनाने को तैयार नहीं हैं.’’

‘‘तुम तो हो न मेरे साथ, मुझे प्यार करते हो न? फिर मुझे किसी की जरूरत नहीं है.’’

विनोद ने थोड़ा अटकते हुए कहा, ‘‘वह तो ठीक है, पर मैं उन के खिलाफ नहीं जा सकता.’’

‘‘यह बात अब याद आ रही है मेरे जीवन से खेल कर?’’ रंजना चिल्ला पड़ी.

विनोद ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने इस बारे में बहुत सोचा… यही ठीक लगा कि तुम मुंबई चली जाओ, मैं आता रहूंगा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं कहीं? मैं यहीं रहूंगी और अपने होने वाले बच्चे को पूरा हक दिलवाऊंगी.’’

रात भर रंजना और विनोद में कहासुनी होती रही. सुबह विनोद चला गया. अगले कुछ दिनों में विनोद के कुछ रिश्तेदारों से उसे उड़तीउड़ती खबर मिली कि विनोद के घर वाले उस पर दूसरा विवाह करने का दबाव डाल रहे हैं और रंजना को तलाक दिलवाना चाहते हैं.

रंजना को अपनी दुनिया उजड़ती लगी. वह पूरा दिन फूटफूट कर रोती रही. पड़ोसिन मालती आंटी उस की पूरी स्थिति से परिचित थीं. अत: उन्होंने उसे बहुत कुछ समझया. तब रंजना ने खुद को संभाला. अपने आंसू पोंछे. गर्भस्थ संतान को मन ही मन प्यार किया. अब वह और तरह सोच रही थी कि अगर विनोद और उस का परिवार इस विवाह के बंधन को खेल समझ रहा है तो वह क्यों रोते हुए जीए? क्यों वह एक कमजोर पुरुष के साथ अपनी जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हो? वह आधुनिक लड़की है अत: कमजोर और बेबस हो कर नहीं जीएगी. कल उस की संतान इस दुनिया में जन्म ले लेगी. तब वह उस के साथ जी लेगी.

अब आगे क्या करना है, रंजना ने यह भी उसी समय सोच लिया. वह बस ग्रैजुएट थी. उसे कोई बहुत बड़ी नौकरी मिलने से रही, यह भी वह जानती थी.

अगली रात जब विनोद आया तो रंजना ने कहा था, ‘‘मैं मुंबई जाने के लिए

तैयार हूं.’’

विनोद उस का मुंह देखता रह गया.

रंजना ने कहा, ‘‘तुम मुझे मेरे नाम से वहां एक फ्लैट ले दो.’’

‘‘हां, यह तो हो जाएगा, मैं भी आता रहूंगा.’’

रंजना व्यंग्यपूर्वक हंसी, ‘‘और घर का खर्च?’’

‘‘मैं हर महीने क्व25-30 हजार तुम्हारे खाते में डाल दिया करूंगा और जरूरत हुआ करेगी तो और दे दिया करूंगा. तुम्हें कतई परेशानी नहीं होगी. बस मैं अपने परिवार से अलग कुछ कर नहीं सकता, यह मेरी मजबूरी है.’’

‘‘तुम रहो अपने परिवार के साथ, जितनी जल्दी हो सके मेरा मुंबई में रहने का अच्छा सा प्रबंध कर दो.’’

विनोद ने उसे बांहों में भरने की कोशिश की तो रंजना ने उस की बांहें झटक दीं. कहा, ‘‘तुम्हारे अब तक के प्यार को समझने में मुझ से जो भूल हुई है, पहले उस से तो उबर लूं… एक बात याद रखना, अगर मुझे या मेरे बच्चे को पैसे की तंगी हुई तो मैं तुम्हें कोर्ट में घसीट लूंगी.’’

रंजना जानती थी कि विनोद के परिवार को अपनी इज्जत जान से ज्यादा प्यारी है. समाज में एक नाम, इज्जत थी उन की.

‘‘नहींनहीं, तुम्हें कोई कमी नहीं रहेगी,’’ विनोद तुरंत बोला.

विनोद का बिजनैस के सिलसिले में मुंबई चक्कर लगता रहता था. उस ने 1 महीने के अंदर मुलुंड की एक अच्छी सोसाइटी में एक बैडरूम सैट खरीद कर रंजना के नाम कर दिया. मन ही मन वह दुखी और शर्मिंदा तो था. परिवार के दबाव के चलते उस ने रंजना के साथ अच्छा नहीं किया था. लेकिन परिवार की बात न मानने पर उसे सारी संपत्ति से हाथ धोना पड़ेगा, यह वह अच्छी तरह जानता था.

खुद को पूरी हिम्मत से संभाल कर रंजना मुंबई के इस फ्लैट में आ गई. संजना

उस के संपर्क में रहती थी. उसे पूरी बात पता थी. जब संजना ने अपने मम्मीपापा को यह बात बताई तो नाराजगी भूल उन्होंने आ कर रंजना को गले लगा लिया. तय समय पर रंजना ने स्वस्थ सुंदर मिनी को जन्म दिया. रंजना मिनी का चेहरा देख खिल उठी थी. विनोद और रंजना की फोन पर बातचीत होती रहती थी. वह खबर पाते ही मिनी को देखने चला आया.

सारा काम रंजना की मम्मी ने संभाला था. उस के मम्मीपापा विनोद से खिंचेखिंचे ही रहे. विनोद 2 दिन में रंजना के हाथ में भारी रकम रख कर चला गया. रंजना ने कोई नाराजगी नहीं दिखाई.

मिनी 2 महीने की हो गई तो रंजना ने अपनी मम्मी से कहा, ‘‘मम्मी, अब आप घर लौट जाओ. अब मैं मिनी को देख लूंगी.’’

‘‘लेकिन तू अकेली कैसे…?’’

‘‘नहीं मम्मी, मैं सब कर लूंगी, मुझे अपनी लाइफ खुद संभालने दो,’’ रंजना बीच ही में बोली.

रंजना के चेहरे पर छाए आत्मविश्वास को देख कर अंजना भी कुछ कह नहीं सकीं और बेटी को बहुत सी हिदायतें दे कर अपने घर लौट गईं.

रंजना ने बखूबी मिनी को संभाल लिया था, उसी को देख कर उस के रातदिन कटते, सुंदर और आकर्षक तो वह थी ही, उस पर बेहतरीन रखरखाव, बेहद मौडर्न कपड़े, यत्न से संवारा रूपरंग. तभी तो भीड़ में भी वह अलग दिखती.

ऐसे ही दिन बीत रहे थे. 2-3 महीनों में विनोद आता तो शारीरिक जरूरत की पूर्ति के चलते. विनोद का सामीप्य, एक पुरुष और स्त्री का नैसर्गिक संबंध दोनों को एकदूसरे के करीब ले आता और फिर दोनों अभी पतिपत्नी तो थे ही.

पासपड़ोस में भी सब को यही लगता कि बेचारी बच्ची के साथ

अकेली रहती है. रंजना ने सब को यही बताया था कि उस के पति की टूरिंग जौब है. उन्हें अकसर विदेश जाना पड़ता है. मिनी 1 साल की हो रही थी. बैंगलुरु की एक परिचिता ने रंजना को बताया था कि विनोद दूसरी शादी करने के लिए तैयार हो गया है. सुन कर रंजना के तनबदन में आग लग गई. फिर उस ने ठंडे दिमाग से सोचा. वह विनोद पर आर्थिक रूप से निर्भर थी. वह ताव में आ कर अपना नुकसान नहीं कर सकती थी. अत: उस ने विनोद से कहा, ‘‘तुम्हें जो करना है कर लो, लेकिन कानूनन आज भी मैं ही तुम्हारी पत्नी हूं. मेरा और मिनी का खर्च हमेशा तुम ही उठाओगे, मैं भी अब कुछ भी करूं, तुम्हें बोलने का हक नहीं होगा.’’

विनोद ने तो जान छूटी, सोच कर झट से कहा, ‘‘हांहां, बिलकुल, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी, मैं भी मिलने आता रहूंगा.’’

‘‘मिलने में मुझे अब कोई रुचि नहीं रहेगी. मिनी के प्रति कोई फर्ज महसूस हो तो उस से मिलने आ जाना,’’ और उसी क्षण रंजना ने अकेली और उदास रह कर नहीं, बल्कि आनंदपूर्वक जीने का निश्चय कर लिया.

मिनी को वह मां और पिता दोनों का प्यार देती. उस की हर जिम्मेदारी मन से पूरा कर रही थी. सुजय उस की सहेली निशा का छोटा भाई था. वह रंजना के मादक सौंदर्य के आकर्षण से बच नहीं पाया. कभी मिनी से मिलने तो कभी किसी और बहाने आने लगा तो रंजना मन ही मन मुसकरा उठी. उस ने सुजय को बड़ी अदाओं से बढ़ावा दिया और फिर दोनों एकदूसरे में खो गए. एमबीए करने के बाद वह जौब की तलाश में था. मिनी के स्कूल जाने के बाद वह रंजना के पास पहुंच जाता और रंजना का पुरुषस्पर्श को तरसता मन उस की चाहत में डूबडूब जाता. सुजय उस से विवाह करने के लिए भी तैयार था, लेकिन अब रंजना विवाह के नाम से ही दूर भागती. हाथ में भरपूर पैसा, मनचाहा जीवन, न पति का कोई काम, न कोई रोकनेटोकने वाला, उसे अब अपने आजाद जीवन में कोई अड़चन नहीं चाहिए थी.

सुजय को दिल्ली से जौब का बुलावा आया तो वह उदास मन से चला गया और रंजना सिर झटक कर जीवन में आगे बढ़ गई. वह अपने मम्मीपापा और बहन से फोन पर संपर्क में रहती ही थी, मिनी की छुट्टियों में आनाजाना भी लगा रहता था. विनोद आज भी फोन पर हालचाल लेता रहता था. अब भी मुंबई आने पर मिलने जरूर आता था. बस, अब मेहमान की तरह आता था, मेहमान की तरह चला जाता था. मिनी को अभी रंजना ने बहला दिया था. समझदार होने पर वह अपनी बेटी को सब साफसाफ समझ देगी, यह वह सोच चुकी थी.

विनोद के मन में आज भी अपराधबोध था. बेचारी कैसे जीती है अकेली. लेकिन रंजना कैसे जी रही है, यह उसे बताने वाला कोई नहीं था. वह दूसरा विवाह कर चुका था और अब 1 बेटे का पिता भी बन चुका था. रंजना सब जानती थी, लेकिन विनोद के पैसे पर ही उसे मौज करनी थी, इसलिए वह गंभीर बनी रहती थी.

फिर उस के जीवन में आए डा. नीरज. वे चाइल्ड स्पैशलिस्ट थे. उन्होंने एक बार मिनी को तेज बुखार होने पर उस का इलाज किया था. वे भी रंजना के आकर्षण में बंधे एक दिन मिनी को देखने के बहाने उस के घर जा पहुंचे और फिर

2 साल रंजना और उन का प्रेमप्रसंग चला. वे तलाकशुदा थे. वे भी रंजना के साथ विवाह करना चाहते थे, पर रंजना उन के साथ शारीरिक रूप से तो जुड़ी लेकिन विवाह तो अब उसे करना नहीं था. अंत में रंजना के साफसाफ मना करने पर उन्होंने अन्यत्र विवाह कर लिया. अब रंजना की दोपहरें अमित के साथ बीत रही थीं.

अमित कालसैंटर में काम करता था. उस की अकसर नाइट शिफ्ट होती थी.

अमित से रंजना मिनी के स्कूल में मिली थी. वह मिनी की क्लास में पढ़ रहे सुधांशु का चाचा था. सुधांशु के मातापिता दोनों कामकाजी थे, इसलिए पीटीएम में अकसर अमित ही आता था. अमित से 2-4 मुलाकातें होने पर ही रंजना को वह अच्छा लगने लगा था. फिर उन की धीरेधीरे अंतरंगता बढ़ती गई.

अब अमित के इंतजार में अतीत की स्मृतियों में डूबतेउतरते डोरबैल बजने पर ही उस की तंद्रा भंग हुई. अमित ने आते ही उसे बांहों में भर लिया.

रंजना ने अपनी मादक हंसी बिखेरते हुए कहा, ‘‘अरे, पहले फ्रैश तो हो जाओ, लंच तो कर लो.’’

‘‘सब बाद में,’’ कहते हुए अमित रंजना को गोद में उठा कर बैड पर ले गया. रंजना भी उस की बांहों में समाती चली गई. भावनाओं का ज्वार जब थमा तो दोनों काफी देर लेट कर हंसीमजाक करते रहे. फिर लंच करते हुए रंजना ने कहा, ‘‘आज मेरी किट्टी पार्टी है.’’

‘‘अच्छा, कब निकलोगी?’’

‘‘4 बजे.’’

‘‘ठीक है, मैं चलता हूं, तुम भी तैयारी करो,’’ अमित बोला.

‘‘कल से मिनी की गरमी की छुट्टियां हैं. हम फिलहाल नहीं मिलेंगे… स्कूल शुरू होने के बाद ही मिलेंगे.’’

‘‘एज यू विश, चलता हूं,’’ कहते हुए अमित ने रंजना के गाल पर किस किया.

रंजना ने तुरंत किचन समेटी, टाइम देखा.

3 बज चुके थे. ‘15 मिनट लेट कर तैयार होगी,’ सोच कर वह बैड पर लेट गई. लेटते ही कुछ पल पहले अमित के साथ बिताए पलों ने उसे फिर आंतरिक खुशी दी कि कितनी खुश है वह, क्या बढि़या जीवन जी रही है. अभी अपनी लेटैस्ट ड्रैस पहनेगी, लंबी रैड स्कर्ट के साथ ब्लैक टौप, साथ में मैचिंग ज्वैलरी. किट्टी पार्टी में सभी उस की डै्रसिंगसैंस की तारीफ करती नहीं थकतीं. उसे उन कुछ मूर्ख महिलाओं पर हंसी आती जिन की यह कानाफूसी उस के कानों में पड़ती कि हाय बेचारी, कितनी अकेली है, कैसे जीती होगी, अपना समय कैसे काटती होगी? इन फुसफुसाहटों पर उस का मन होता कि वह जोर से ठहाका लगाए, वह और बेचारी? बिलकुल नहीं, वह तो लाइफ ऐंजौय कर रही है. कहां जरूरत है उसे पति नामक प्राणी की? फिर वह मन ही मन हंस कर उठ कर तैयार होने लगी.

तैयार हो कर शीशे में देखा तो खुद पर इतरा उठी. फिर पर्स ले कर निशा के घर चल दी.

पार्टी आज उस के घर पर ही थी. उसे देखते ही सब वाहवाह कर उठीं. किट्टी पार्टी में लगभग 50 साल की 2-3 आंटियां भी थीं. सविता आंटी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटा?’’

‘‘एकदम ठीक,’’ कह कर रंजना औरों से मिलने लगी.

सविता अब मंजू आंटी से कह रही थी,

‘‘बेचारी किट्टी पार्टी में आ जाती है तो थोड़ा मन लग जाता होगा, हाय बेचारी.’’

अपने बारे में हमेशा होने वाली इस टिप्पणी

पर रंजना मन ही मन इन कुंठित सोच वाली महिलाओं पर तरस खाती थी. फिर रंजना ने पार्टी का पूरे मन से आनंद लिया. 5 बजते ही कई महिलाओं ने अपनाअपना पर्स संभाल कर कहा, ‘‘अब चलना पड़ेगा… अपना तो खानापीना हो गया, पति और बच्चों के लिए तो जा कर बनाना ही पड़ेगा.’’

एक ने कहा, ‘‘अरे, मुझे तो सासससुर के लिए चायनाश्ता बनाना है जा कर.’’

रंजना आराम से बैठी थी. मन ही मन सोच रही थी कि बेचारी तो ये हैं. वह कितने आराम से जी रही है, जीवन के 1-1 पल का भरपूर आनंद उठा रही है, और आगे भी उठाती रहेगी.

सब चली गईं. रंजना भी उठ खड़ी हुई तो निशा ने कहा, ‘‘तू बैठ न, तुझे क्या जल्दी है?’’

‘‘मिनी के आने का समय हो रहा है. आज उसे पिज्जा और आइसक्रीम खिलाने ले जाना है. सुबह ही कह कर गई थी,’’ कह कर निशा से विदा ले कर रंजना बस स्टैंड की ओर चल दी.

बस आई तो मिनी फुदकती हुई उस की तरफ बढ़ गई, बोली, ‘‘मौम, आज बाहर चलेंगे न?’’

‘‘बिलकुल, पहले चल कर कपड़े तो

बदल लो.’’

‘‘ठीक है मौम.’’

घर आ कर मिनी को याद आया, ‘‘अरे, आज आप की किट्टी पार्टी थी न? आप बहुत स्मार्ट लग रही हैं, आप की फ्रैंड्स आप की नई डै्रस देख कर क्या बोलीं मौम?’’

‘‘वे बोलीं, हाय बेचारी,’’ कह कर रंजना ने जोर से ठहाका लगाते हुए बेटी को सीने से लगा लिया.

मुखरता: रिचा घुटनभरी जिंदगी क्यों जी रही थी

रिचा बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. वह क्लास में आखिरी बैंच पर बैठती थी और एकदम बुझीबुझी सी रहती थी. कुछ पूछने पर वह या तो चुप हो जाती या फिर बहुत कम सवालों का जवाब देती. वैसे रिचा पढ़ने में होशियार और मेहनती थी, लेकिन हरदम अकेली, खुद में खोई रहती.

कोई न कोई बात तो थी जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि वह लड़कों की मौजूदगी में सामान्य नहीं रहती थी. अगर गलती से कोई लड़का उसे छू लेता या कंधे पर हाथ रख देता, तो वह क्रोधित हो जाती.

उस के मातापिता भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. वे अगर उस से कुछ पूछते, तो वह एक गहरी चुप्पी साध लेती. उस की बचपन की सहेली मीरा जब भी मिलती, रिचा से चुप रहने की वजह पूछती पर उसे कोई जवाब नहीं मिलता.

लेकिन मनोविज्ञान की स्टूडैंट होने के कारण वह रिचा की मानसिक अवस्था समझ रही थी. उसे किसी अनहोनी का डर खाए जा रहा था.  एक दिन मीरा ने उस से बात करने का निश्चय किया. शुरू में तो रिचा ने सवालों से बचना चाहा, शायद वह थोड़ी भयभीत भी थी, पर मीरा के साथ रोज वार्त्तालाप करने से उस का हौसला बढ़ने लगा.

एक दिन उस के दुखों का बांध ढह गया और उस की भावनाओं ने उथलपुथल की और वह रोने लगी. फिर धीरेधीरे उस ने अपनी बीती सारी बातें बताईं.

उस ने बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मैं इतिहास पढ़ रही थी. वैसे भी इतिहास का विषय सब के लिए नींद की गोली जैसा होता है, पर मेरे लिए यह एक रोमांचक था. अनजाने में ही मेरे अंकल जल्दी घर वापस आ गए. वे हमेशा से ही मेरे कपड़ों, पढ़ाई व मेरे दोस्तों में रुचि रखते थे.

‘‘मैं उन से प्रेरित थी. वे मुझे मेरे पिता से ज्यादा निर्देशित करते थे. कई चीजों के बारे में चर्चा करतेकरते अंकल ने मुझे अपने पास आ कर बैठने को कहा. मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा और मैं उन के पास जा कर बैठ गई.

बात करतेकरते वे अचानक मेरे गुप्तांगों को बेहूदे तरीके से छूने लगे. यह देख कर मैं पीछे हट गई. मुझे उन की इस हरकत से असुविधा महसूस होने लगी. मैं सही समय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाई. संयोग से मेरी मां हौल में आ गईं. मैं मौके का फायदा उठा कर अपने कमरे में भाग गई.

मेरे साथ हौल में जो कुछ हुआ वह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा. वह एक ऐसी अनहोनी थी जिस ने मेरी जिंदगी अस्तव्यस्त कर दी थी.‘‘मैं ने खुद से घृणा के भाव से पूछा, ‘मेरे साथ क्यों?’ मैं अपनी मां को यह बात नहीं बता पा रही थी, क्योंकि मुझे शर्मिंदगी और घबराहट महसूस हो रही थी.

‘‘अगले दिन अंकल ने मुझे फिर पीछे से पकड़ा और शैतानों वाली हंसी हंसते हुए पूछा कि मुझे कैसा लग रहा है.‘‘मेरे कुछ जवाब न देने और घूर कर देखने पर उन्होंने मुझे धमकाया. मैं डर के साथसाथ क्रोधित भी हो गई थी. मैं उन्हें थप्पड़ मारना चाहती थी पर उन की पकड़ से छूट ही नहीं पा रही थी.

‘‘मेरी चुप्पी उन की इस हरकत को बढ़ावा दे रही थी. धीरेधीरे मैं अंकल से दूरी बना कर रहने लगी. मैं ऐसी किसी जगह नहीं जाती थी जहां वे मौजूद हों. अब उन्हें देखते ही मुझे घृणा महसूस होने लगती थी. मेरा सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा न लेना मेरे मातापिता को अनुचित लगता था.

वे मेरे इस व्यवहार का कारण पूछते थे. मैं इस उलझन में थी कि यह सब सुनने के बाद इस बारे में उन की क्या राय होगी? डर से मैं ने यह बात उन्हें न बताना ही सही समझ.‘‘मैं अब खुद को असहाय सा महसूस करने लगी हूं और सालों से सबकुछ चुपचाप सह रही हूं.

लंबे समय से वे बातें मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह ताजी हैं. मैं अपनी मां से इस बारे में बात करना चाहती हूं पर नहीं कर पाती.‘‘जीवन में आगे चल कर मैं मर्दों के साथ रिश्ता नहीं निभा पाऊंगी. मुझे अपने दोस्तों (किसी लड़के) का साधारण तरीके से छूना भी पसंद नहीं आता.

मैं अपने बिगड़ते रिश्तों का कारण नहीं जान पा रही हूं. मैं खुद का आदर नहीं कर पाती और खुद से ही नाराज रहती हूं.’’ यह सब कहते हुए वह रोने लगी. यह सब सुन कर मीरा को बहुत दुख हुआ.

मीरा ने उस से कहा,’’ अच्छा, बुरा मत मानना, अन्याय सहना भी बहुत बड़ा अपराध है. आज अपनी इस दशा की जिम्मेदार तुम खुद हो. अगर तुम खुल कर अपनी मम्मी से इस यौनशोषण के बारे में बतातीं, तो शायद आज यह स्थिति न आती.

‘‘तुम क्यों हिचकिचाती रही? क्यों तुम ने शर्मिंदगी महसूस की. जीवन में बलि का बकरा बनने से अच्छा है कि हम खुद के लिए आवाज उठाएं. तुम आज ही अपनी मां से इस बारे में बात करो. तुम ने कोई अपराध नहीं किया है, जो तुम डरो. अगर तुम डर कर अपराधी को सजा नहीं दोगी, तो तुम उसे अपराध करने के लिए प्रेरित करोगी.

कल को कुछ भी हो सकता है.‘‘मुखरता, सहनशीलता और आक्रामकता का सही बैलेंस है. मुखर होना मतलब खुद के या दूसरों के अधिकार के लिए आराम से और सकारात्मक भाव से अपनी बात रखना होता है, न कि आक्रामक या सहनशील हो कर खड़ा होना.

मुखरता खुद में ही एक पुरस्कार की तरह है, क्योंकि यह देख कर अच्छा लगता है कि लोग आप की बातें ध्यान से सुनते हैं और परिस्थितियां भी अकसर अपने अनुसार ही चलती हैं. ‘‘मुखरता हमें अपने सोचविचार को खुल कर सामने लाने का आत्मविश्वास और ताकत देती है.

यह हम से किसी को भी गलत फायदा उठाने नहीं देती है. मुखरता एक तरह का व्यावहारिक उपचार है जो लोगों को खुद की मदद करने में सक्षम बनाता है.’’ मीरा की बातें सुन कर रिचा शायद अपनी भूल समझ गई थी.

उस ने उसी दिन अपनी मां को सारी बातें बता दीं. रिचा की मां कु्रद्ध हो गईं और उस की इस दुर्दशा को न जान पाने के लिए शर्मिंदगी महसूस करने लगी.

अब रिचा को एहसास हुआ कि जिस बात को सब के सामने आने के डर से वह हिचकिचाती थी और शर्मिंदगी महसूस करती थी, अगर चुप नहीं रहती, तो उसे इतने समय तक सबकुछ नहीं सहना पड़ता.रिचा अपने अंकल से ही नहीं, बल्कि अपनी बात समाज के सामने रखने से भी नहीं डरती.

मीरा ने उसे एक नया जीवन दिया. परिचय कराया उस का मुखरता से. उसे एक सकारात्मक आत्मछवि और जीने का विश्वास दिया. रिचा अब चुपचाप कुछ भी नहीं सहती है.

कशमकश: क्या बेवफा था मानव

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खेल: दिव्या ने रचा ऐसा प्रपंच

आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था.

फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में.उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा.

आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे. पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली.

तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था.

‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं.

वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे.

तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती.

उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था.

दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा सम?ा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट.

मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से    कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए.

मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया.

सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है.

यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली.दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ. बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई.

अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई.मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की सम?ा भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे.

उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा.क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती.

25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी.

अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं.

डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई, इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,भागभाग आती हैं, झमझम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं.

तुम भी एक गीत यदि गा दो,आधी व्यथा मेरी घट जाए.पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है.

मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझ लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 3 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

शुरूशुरू में तन्वी कुछ नाराजगी, कुछ डर के कारण नहीं गई. फिर धीरेधीरे उस ने भी जाना शुरू कर दिया. विजित के साथ छुट्टी के दिन या रविवार को वह भी मांपापा के पास चली जाती. ससुरजी का मूड तो कुछकुछ दिखाने के लिए सही हो गया पर सास का मूड उसे देख कर उखड़ा ही रहता. अभी उन्हें घर से अलग हुए 2 महीने भी नहीं हुए थे कि दिन वे सुबह औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि विजित का मोबाइल बज उठा. पापा का फोन था. वे घबराए स्वर में बोल रहे थे. पापा बोल रहे थे कि मां का ऐक्सीडैंट हो गया है. जल्दी से घर आ जाओ.

‘‘हम अभी आते हैं पापा…’’ कह कर दोनों घबराए हुए दोनों जैसेतैसे घर की तरफ दौड़े… मां को उठा कर अस्पताल ले गए.

उन का ऐक्सरे हुआ तो पता चला पैर मुड़ने से पैर के बल गिरने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है. प्लस्तर चढ़ गया. 45 दिन का प्लस्तर था. डाक्टर ने शुरू में तो पूर्ण आराम की सलाह दी थी. यहां तक कि बाथरूम तक भी व्हीलचेयर से ही ले जाना.

सबकुछ करा कर जब मां को ले कर विजित और तन्वी घर पहुंचे तो काफी देर हो गई थी.

तन्वी ने ही सब के लिए थकने के बावजूद जैसेतैसे खाना बनाया. उस रात दोनों वहीं रुक गए. रात को दोनों सोच में पड़ गए अब…?’’ पिता के बस का नहीं था मां की देखभाल करना,

‘‘मैं तो एकदम से छुट्टी भी नहीं ले सकता… कल से रिव्यू है… दिल्ली से बौस लोग आ रहे हैं… अलगे कुछ दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगा… इतने दिन से तैयारी कर रहा था…’’ विजित लाचारी और उल झन में बोला.

‘‘ऐसा करते हैं विजित…’’ विजित को सोच व उल झन में पड़े देख कर तन्वी बोली, ‘‘मेरी काफी छुट्टियां बाकी हैं… कल से मैं फिलहाल 15 दिन की छुट्टी ले लेती हूं… तब तक तुम्हारे रिव्यू खत्म हो जाएंगे. तब तुम छुट्टी लेने की कोशिश करना… उस के बाद दीदी को पूछ लो… यदि हफ्ते भर के लिए वे आ सकती हैं तो… फिर मैं दोबारा कोशिश करूंगी छुट्टी लेने की…’’

विजित ने चौंक कर तन्वी की तरफ देखा. उस के चेहरे पर मां की परेशानी  से उपजे चिंता के भाव थे. वह मुग्ध भाव से तन्वी को देखता रह गया कि पता नहीं मां तन्वी को क्यों नहीं सम झ पातीं. मां तन्वी की पीढ़ी की बहुओं को भी अपने जमाने की सासों के चश्मे से देखती हैं और उन की तुलना अपने जमाने की बहुओं से करती हैं. लेकिन तब से अब तक जमाने में, समाज में, शिक्षा में, लड़कियों के पालनपोषण में बहुत परिवर्तन आ चुका है, इस बात पर बिलकुल विचार करना नहीं चाहतीं.

इस घोर परेशानी व उल झन के समय में तन्वी के सहयोग से उस का दिल भर आया था, मां ने क्या कुछ नहीं कहा तन्वी को… पर प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘ठीक है, पर तुम्हें छुट्टी लेने में दिक्कत तो नहीं होगी…’’

‘‘नहीं, मिल जाएगी… जरूरत पर नहीं मिलेंगी तो किस काम की ये छुट्टियां…’’

रात में वह निश्चिंत हो कर सो पाया. तन्वी ने छुट्टियां ले कर पूर्ण तनमन से मां की देखभाल की. चूंकि यह शुरू का समय था, इसलिए ज्यादा कष्टपूर्ण व नाजुक था. देखभाल की ज्यादा जरूरत थी. तन्वी की निश्छल देखभाल से मां का मन बारबार पिघलने को होता. हालांकि वे उन विचारों की अधिक थीं जिन में वे बहू का प्यार कम उस का फर्ज ज्यादा सम झती थीं.

15 दिन बाद तन्वी औफिस चली गई और विजित ने छुट्टियां ले ली. विजित की छुट्टियां खत्म हुईं तो 1 हफ्ते के लिए दीदी मां की देखभाल के लिए आ गई. दीदी गई तो तन्वी ने कुछ दिन की छुट्टियां दोबारा ले लीं.

मां अब काफी ठीक हो गई थीं. सहारे से बाथरूम जाने लगी थीं. तन्वी पूरी देखभाल  कर रही थी. धीरेधीरे मां पूरी तरह ठीक हो गईं.

विजित कृतज्ञ हो रहा था तन्वी के प्रति. उस ने इस परेशानी के समय मां के प्रति सभी पूर्वाग्रह भुला कर मन से उन की देखभाल व सेवा की थी और वह देख रहा था, कहीं न कहीं मां के मन को भी तन्वी की सेवा बांध गई थी.

तन्वी की जरूरतों पर कभी ध्यान न देने वाली मां उस से अब जबतब पूछ लेतीं कि उस ने खाना खा लिया या नहीं. चाय पी ली या फिर थोड़ी देर आराम कर ले तन्वी, थक गई होगी. विजित को खुशी होती यह देख कर.

कल से तन्वी की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. कल से उसे औफिस जाना था. मां अब पूरी तरह से ठीक थीं. रात का खाना खिला कर खाना खाने के बाद वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए. तन्वी कमरे में जा कर मां से मिल कर बाहर आ गई.

विजित भी मां से मिलने कमरे में चला गया. बोला, ‘‘अच्छा मां चलते हैं… अब आप बिलकुल ठीक हैं… अपना ध्यान रखना… हम आतेजाते रहेंगे… तन्वी की भी काफी छुट्टियां हो गई हैं, कल से वह भी औफिस जाएगी…’’

‘‘हां बेटा, बहुत सेवा की तन्वी ने मेरी…’’ मां का स्वर कुछकुछ पश्चात्ताप से भरा था, ‘‘तन्वी को सम झाने में शायद भूल कर दी मैं ने…’’

‘‘कोई बात नहीं मां…’’ वह संतुष्ट होता हुआ बोला, ‘‘आप सम झ गईं, हमारे लिए यही काफी है और मातापिता की सेवा व देखभाल करना तो हमारा फर्ज है… आप को जब भी जरूरत होगी, हम आप के पास होंगे मां…’’ वह भीगे स्वर में बोला. मां की आंखों में भी नमी तैर गई.

‘‘विजित, तन्वी अब वापस आ जाए बेटा… क्यों अलग जा रहे हो रहने… जहां दो बरतन होंगे तो थोड़ेबहुत तो बजेंगे ही… पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं तुम लोगों को प्यार नहीं करती… बड़ों की बातों का इतना भी क्या बुरा मानना…’’ मां का स्वर कातर हो गया था.

‘‘ओह, मां…’’ वह मां को गले लगाता हुआ बोला, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हैं… आप के ही तो बच्चे हैं हम… दूर थोड़े ही न हो गए हैं आप से… जरा सी दूरी पर ही तो हैं…’’ वह धीरेधीरे मां की पीठ सहलाने लगा.

‘‘मां, एक घर में एक छत के नीचे रह रहे थे… पास थे आप के, पर आप के दिल से दूर थे… जब थोड़ा दूर हैं तो दिल के पास हैं… पास रह कर दूर रहने से, दूर रह कर पास रहना ज्यादा अच्छा है मां… मु झे उम्मीद है आप मेरी बात सम झ रही होंगी…’’ वह मां से अलग होता हुआ बोला.

‘‘साथ रह कर थोड़े दिन बाद फिर वही सब शुरू हो, वही दमघोंटू वातावरण, वही रिश्तों की खींचतान, बहुत मुश्किल होती है मां मु झे… तन्वी के लिए भी ये सब मुश्किल है नौकरी के साथ  झेलना… मैं अब तन्वी के ऊपर अपनी कोई सोच लादना नहीं चाहता… अपने और तन्वी के रिश्ते को थोड़ा और समय दो… हो जाने दो इस रिश्ते को परिपक्व… बदल जाने दो अपने खुद के विचारों को आप… जैसे आप को तन्वी पर विश्वास हो गया, वैसे ही तन्वी का विश्वास भी हो जाने दो आप पर…

‘‘जब तक तन्वी मु झे स्वयं घर लौटने के लिए नहीं कहेगी, तब तक मैं यह कदम नहीं उठाऊंगा… और तब तक आप भी इंतजार करो. मैं जानता हूं तन्वी को, जिस दिन उसे अपने और आप के रिश्ते पर विश्वास हो जाएगा वह खुद ही वापस आ जाएगी…

‘‘मेरे लिए तो दोनों रिश्ते प्रिय हैं मां… मैं तो चाहूंगा ही कि आप और तन्वी के बीच प्यार और प्यारभरा रिश्ता विकसित हो…जैसे तन्वी ने आप का दिल जीता. आप का उस पर विश्वास लौटा… वैसे ही तन्वी का विश्वास भी लौट आएगा आप पर… मु झे पूरा भरोसा है… तभी साथ रहने का मजा है मां…’’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

विजित पीछे मुड़ा तो पापा खड़े थे. आज पहली बार उसे पापा के चेहरे पर  अपनी कही बात पर सहमति के भाव नजर आए. उन्होंने बेहद अपनेपन व बेहद भरोसे से उस का कंधा थपथपा दिया. बाहर आया तो तन्वी उस का इंतजार कर रही थी. वह जानता था, मां अभीअभी मुश्किल दौर से निकली हैं, इसलिए इतनी बदली हुई हैं. वर्षों की आदतें और विचार 4 दिन में नहीं बदलते.

जब फिर से साथ रहना शुरू करेंगे तो फिर से उन्हें अपनी वाणी और विचारों पर अकुंश रखना मुश्किल होगा. अभी और समय देना होगा उन्हें तन्वी को सम झाने का… और उन फालतू बातों से अधिक अपने बच्चों की जरूरत अपनी जिंदगी में महसूस करने का. तब तक तन्वी भी कुछ मां के नजदीक आ जाएगी तो फिर शायद उसे उन की बात इतनी बुरी न लगे, जितनी अभी लगती है.

जैसे मातापिता की देखभाल और सेवा करना उस का फर्ज है वैसे ही तन्वी भी उस से ही बंधी हुई इस घर में आई है, उस की जिंदगी में आई है. उसे एक सुंदर, स्वच्छ, अच्छी, संतुलित जिंदगी देना भी उस का कर्तव्य है. सोचता हुआ वह तन्वी के साथ घर से बाहर निकल गया.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 2 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

अकसर चुप रहने वाली तन्वी अब उस से कभीकभी प्रतिवाद करने लगी  थी. तर्क करने लगी थी और एक दिन उस की सहनशक्ति जवाब दे गई.

‘‘यह रोजरोज की चखचख मु झ से बरदाश्त नहीं होती विजित… औफिस से थक कर आओ और घर में आ कर ये सब सुनो… किचन में मां की मदद के लिए जाना चाहती हूं तो उन के रुख से भी डर लगता है… मैं भी कब तक चुप रहूं… एक ही काम तो नहीं है मेरा… एक छुट्टी के दिन भी न शरीर को आराम, न दिलदिमाग को… या तो तुम मां को सम झाओ या फिर अलग रहने की व्यवस्था करो…’’

‘‘सम झाता तो हूं मां को तन्वी… पर क्या करूं. वे मां हैं, बुरी तो नहीं हो सकतीं हमारे लिए… बस थोड़ा पुराने विचारों की हैं… तुम उन की बातों पर ध्यान मत दिया करो…’’

‘‘कितने दिन ध्यान न दो विजित… आखिर बातें जब कानों में पड़ती हैं तो दिल में भी उतरती ही हैं… दिमाग में बसती भी हैं… कितनी बार नजरअंदाज करूं… थकामांदा दिमाग भन्ना जाता है मेरा… ऐसे घुटनभरे वातावरण में कितने दिन रह पाऊंगी…

‘‘माना कि मां हैं… दिल की बुरी नहीं होंगी… हमें प्यार भी करती होंगी… पर वाणी भी कोई चीज होती है विजित… रोजरोज ताने नहीं सुने जाते… वाणी पर अकुंश रखना भी तो जरूरी है… यह उन का स्वभाव है… इंसान अपनी आदतें बदल सकता है पर अपना स्वभाव नहीं बदल सकता… उन के साथ मेरा निर्वाह नहीं हो पाएगा… मैं नहीं रह पाऊंगी उन के साथ…’’ तन्वी फैसला सा करते हुए बोली.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो तन्वी… मैं ने तुम्हें पहले ही इस बारे में स्पष्ट बता दिया था कि मैं इकलौता बेटा हूं… मैं मांबाप से अलग नहींजा पाऊंगा.’’

‘‘तब तुम ने यह नहीं बताया था कि उन का बोलना इतना बुरा है… दूसरी बातों के साथ, आदतों के साथ, दिनचर्या के साथ सामंजस्य बैठाया जा सकता है… पर बुरा बोलने वाले के साथ सामंजस्य बैठाना बहुत मुश्किल है विजित… प्यार के दो मीठे बोल, प्रसंशा के दो शब्द नहीं हैं उन के पास… हर समय कोई बुरा ही कैसे सुनता रहे, तुम्हीं बताओ… ऐसा क्या बुरा करती हूं मैं उन के साथ…’’ कहतेकहते तन्वी का स्वर भर्रा गया.

विजित मानसिक उल झन का शिकार होता जा रहा था. मां किसी भी तरह से अपने स्वभाव से बाज नहीं आती थीं और तन्वी जबतब उस पर अपनी भड़ास निकाल देती.

उसे सम झ नहीं आता क्या करे, क्या न करे. समस्या का कोई समाधान उसे न दिखता. अलग घर भी लेता है तो क्या कहेंगे नातेरिश्तेदार, समाज कि विजित उन्हीं बेटों में से एक निकला, जो विवाह के बाद बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ कर अलग हो गया, पर वे यहां आ कर उस की रात दिन की उल झन को नहीं सम झ सकते कि उस की मां… उस के जीवन का सब से प्यारा व अहम रिश्ता… उस के जीवन, उस के दिल का एक अभिन्न अंग कैसे अपने स्वभाव, अपनी कर्कश वाणी से उस के जीवन को छिन्नभिन्न करने पर तुली है. बीवी बुरी हो तो इंसान तलाक दे दे, पर मां का क्या करे, सोचसोच कर वह भन्ना जाता.

अपने जीवन की उल झनों ने उसे सम झा दिया था  कि रिश्तों को बनाने के लिए सिर्फ एक की कोशिश काफी नहीं होती जब तक सभी कोशिश न करें. धीरेधीरे उस के और तन्वी के बीच में भी  झगड़े होने लगे.

वह अपनी खीज और उल झन कभीकभी तन्वी पर भी उतार देता और ऐसे ही एक दिन के  झगड़े और मनमुटाव के बाद तन्वी घर छोड़ कर मायके चली गई. वह जब औफिस से घर आया और उसे तन्वी के जाने का पता चला तो उस ने तन्वी को फोन किया.

तब तन्वी ने साफ ऐलान कर दिया कि अगर उसे उस के साथ जिंदगी बितानी है तो अलग रहने की व्यवस्था करे… वह उस के मातापिता के साथ नहीं रह पाएगी. उस ने कई बार कई तरह से मनाने की कोशिश की तन्वी को. कई तरह से सम झाया पर तन्वी टश से मश नहीं हुई. वह बस अलग रहने की शर्त पर आने को तैयार थी.

तब से एक साल होने को आया था और अब तो तन्वी कहने लगी थी कि उस के लिए अगर ये सब इतना मुश्किल है तो वह चाहे तो वे दोनों अब अपना रास्ता बदल सकते हैं. सुन कर वह सन्न रह गया था. इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकती है तन्वी इतनी छोटीछोटी बातों पर…

गुस्से के मारे कुछ समय तक उस ने तन्वी को फोन ही नहीं किया. आज उस ने बहुत दिनों बाद जब उस का दिमाग कुछ शांत हुआ तो नए सिरे से सम झाने के लिए फोन किया था पर तन्वी का जवाब जैसे का तैसा था.

छोटीछोटी बातों ने उस के जीवन में इतनी बड़ी उल झन पैदा कर  दी थी कि उसे समस्या का कोई समाधान नहीं सू झ रहा था. कैसे अपना वैवाहिक जीवन बचाए वह. खिन्न मन से वह उठा. औफिस से बाहर निकला पर घर जाने का मन नहीं किया. कुछ सोच कर अपने दोस्त शिवम के घर चला गया. शिवम उस की उल झनों को अच्छी तरह से सम झता था.

‘‘हूं… मतलब कि तन्वी अलग रहने के सिवा किसी भी सूरत में वापस आने को तैयार नहीं है…’’ चाय का कप मेज पर रखता हुआ शिवम बोला.

‘‘आएगी भी कैसे शिवम… मां का रवैया वही है… वे कुछ भी सम झाने को तैयार नहीं हैं… समस्याएं वही हैं… कुछ भी तो नहीं बदला… फिर से सबकुछ वही होगा… मां के ताने… मां का बोलना, मां का स्वभाव, अपनी वाणी पर जरा भी अकुंश नहीं रख पाती हैं वे… मां के विचारों से पार पाना तन्वी के लिए आसान नहीं…’’

‘‘एक बात कहूं विजित…’’

‘‘हूं…’’ विजित ने अपनी प्रश्नवाचक दृष्टी उस के चेहरे पर तान दी.

‘‘तू फिलहाल तन्वी की बात मान क्यों नहीं लेता… ज्यादा दूर मत जा… बस जहां तक तन्वी को मां के ताने सुनाई न दें…’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘इतनी दूरी पर किराए का घर देख ले… फिलहाल अपना घर तो बचा… तू और तन्वी साथ रहोगे, पास रहोगे, तो एकदूसरे के प्यार व आकर्षण में बंध कर समस्या का हल भी निकाल लोगे…

‘‘यों दूर रह कर तो समस्या और भी विकराल हो जाएगी. दूर रह कर तो तुम दोनों के रिश्ते भी नकारात्मक हो रहे हैं… और वैसे भी तुम जबरदस्ती तो तन्वी को साथ में रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते… ये सब अपनी मरजी से हो और उन दोनों के रिश्ते खुद सुधरें… तभी साथ रहने में शांति है विजित… नहीं तो क्या फायदा है ऐसे साथ रहने से…’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे शिवम… रिश्तेदार, समाज… मातापिता दुखी होंगे, सो अलग…’’ विजित उल झन में बोला.

‘‘तू भी वही बात करने लगा… तु झे सब की चिंता है या अपना घर बचाने की… पहले एक सीढ़ी तो चढ़… अगली सीढ़ी की बाद में सोचना… तू मातापिता को कोई छोड़ थोड़े ही न रहा है, बस उन से थोड़ी दूरी पर रहेगा… उन की एक पुकार पर उन के पास पहुंच जाएगा…’’

बात कुछकुछ विजित की सम झ में आ गई. दूसरे दिन वह तन्वी से मिलने उस के औफिस में चला गया. तन्वी को इस बात पर क्या एतराज हो सकता था. विजित ने थोड़ी दूरी पर किराए का घर देखा और ऐडवांस दे दिया. अब बात मांबाप को बताने की थी.

जैसेकि उम्मीद थी. सुनते ही मां ने तूफान मचा दिया, ‘‘मैं क्या सम झ नहीं रही थी, उस के शुरू से ही लक्षण ऐसे दिख रहे थे… बड़ों की बातें सम झने और मनाने के बजाय बुरा मान कर मायके जा बैठी… वह तो मैं सम झ ही रही थी कि बेटे को मांबाप से अलग कर के ही मानेगी पागल कही की… और तू भी कुपूत निकला, जो बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ने पर राजी हो गया… तु झे शर्म नहीं आई ये सब कहने में… इसीलिए औलाद को बड़ा करते हैं मांबाप…’’

मां के मुंह में जो आ रहा था वह बोल रही थीं. विजित के दिल में भी बहुत कुछ आ रहा था पर इस समय मां के साथ तर्क करना व्यर्थ था और वह चाहता भी नहीं था. वह जानता था उस के मातापिता का दिल उस के इस निर्णय से बहुत दुखी हुआ होगा, पर इस के पीछे उन्हें अपनी खामियां नजर नहीं आई होंगी.

पिता ने इस बार भी कुछ न बोल कर भी अपने हावभाव से अपनी पूरी नाराजगी जाहिर कर दी. किसी तरह मन मजबूत कर वह अपने इरादे पर कायम रहा और तन्वी को ले कर अलग गृहस्थी बसा ली. घर से वह कोई सामान ले कर नहीं गया. थोड़ाबहुत सामान बाजार से खरीदा. कुछ फर्नीचर मकानमालिक का था.

कुल मिला कर उन की गृहस्थी सुचारु रूप से चलने लगी. उस की रोज की दिनचर्या थी वह औफिस से आ कर पहले रोज मांपापा केपास जाता. वहां चाय पीता. फिर अपने घर चला जाता.

गर्ल टौक: आंचल कैसे बनी रोहिणी की दोस्त

एक दिन साहिल के सैलफोन की घंटी बजने पर जब आंचल ने उस के स्क्रीन पर रोहिणी का नाम देखा तो उस के माथे पर त्योरियां चढ़ गईं.

रोहिणीके महफिल में कदम रखते ही संगीसाथी जो अपने दोस्त साहिल की शादी में नाच रहे थे, के कदम वहीं के वहीं रुक गए. सभी रोहिणी के बदले रूप को देखने लगे.

‘‘रोहिणी… तू ही है न?’’ मोहन की आंखों के साथसाथ उस का मुंह भी खुला का खुला रह गया.

वरमाला होने को थी, दूल्हादुलहन स्टेज पर आ चुके थे. दोस्त स्टेज के सामने मस्ती से नाच रहे थे. तभी रोहिणी के आते ही सारी महफिल का ध्यान उस की तरफ खिंच गया. यह तो होना ही था. वह लड़की जो कभी लड़कों का पर्यायवाची समझी जाती थी, आज बला की खूबसूरत लग रही थी. गोल्डन बौर्डर की हलकीपीली साड़ी पहने, खुले घुंघराले केशों और सुंदर गहनों से लदीफंदी रोहिणी आज परियों को भी मात दे रही थी. रोहिणी को इस रूप में कालेज के किसी भी दोस्त ने आज तक नहीं देखा था.

‘‘अरे यार, पहले पूछ ले कहीं कोई और न हो,’’ मनीष ने मोहन के साथ मिल कर ठिठोली की.

‘‘पूछने की कोई जरूरत नहीं. हूं मैं ही. मैं ने सोचा कि आज साहिल को दिखा दूं कि उस ने क्या खोया है,’’ रोहिणी स्टेज पर चढ़ते हुए बोली.

‘‘पर अब तो लेट हो गई. अब क्या फायदा जब साहिल दूल्हा बन चुका,’’ मोहन के कहते ही सब हंसने लगे.

हंसीखिंचाई के इस माहौल में आंचल गंभीर थी. दुलहन बनी बैठे होने के कारण वह कुछ कह नहीं सकती थी और फिर साहिल को जानती भी कहां थी वह. यह रिश्ता मातापिता ने ढूंढ़ा था. मेरठ के पास एक छोटे से कसबे की लड़की को दिल्ली में रहने वाला अच्छा वर मिला तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था. आननफानन उस की शादी तय कर दी गई थी. लेकिन आज ये सब बातें सुन कर उस का दिल बैठा जा रहा था कि कहीं गलती तो नहीं कर बैठी वह… यह लड़की खुलेआम सब के सामने क्या कुछ कह रही है और सब हंस रहे हैं. साहिल भी कुछ नहीं कह रहे. ऐसी बातें क्या लड़कियों को शोभा देती हैं? साड़ी पहन लेने से संस्कार नहीं आ जाते. इन्हीं सब विचारों में उलझती आंचल ने धीरे से आंखें उठा कर साहिल की ओर देखा.

‘‘अरे यार रोहिणी, अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई है, अभी से लड़ाई करवाएगी क्या?’’ आंचल की आंखों के भाव शायद साहिल को समझ आ गए थे.

शादी कर के आंचल दिल्ली आ गई. कुछ दिन उसे नई गृहस्थी में बसाने हेतु उस की सास साथ रहीं. ससुरजी की नौकरी जामनगर में थी, इसलिए घरगृहस्थी बस जाने पर सास को वहीं लौटना था. कुछ ही दिनों में आंचल तथा उस की सास में मधुर रिश्ता बन गया. वह बहुत खुश थी. दिल्ली में अच्छा मकान, सारी सुखसुविधाएं, साजसज्जा, सास से मधुर संबंध, पति के प्यार में पूरी तरह सराबोर. उस ने कभी सोचा भी न था कि उस की शादीशुदा जिंदगी की इतनी खुशहाल शुरुआत होगी. अपने मायके फोन कर के वह यहां की तारीफों के पुल बांधती रहती. खाना बनाना, घर को सलीके से रखना, पहननेओढ़ने की तहजीब व बातचीत में माधुर्य, इन सभी गुणों से उस ने भी अपनी सास तथा साहिल का मन जल्द ही मोह लिया.

‘‘मम्मी फिर, जल्दी आना, ’’ सास के पांव छूते हुए उस ने कहा.

‘‘आंचल, मैं मम्मी को स्टेशन छोड़ कर आता हूं,’’ कहते हुए साहिल व उस की मां कार में सवार हो निकल गए.

आज पहली बार आंचल घर पर अकेली थी. वह गुनगुनाती हुई अपने घर को संवारने लगी. तभी फोन की घंटी बजी तो उस ने ध्यान दिया कि साहिल अपना सैलफोन घर पर ही भूल गए हैं. साहिल के फोन की स्क्रीन पर रोहिणी का नाम पढ़ वह सोचने लगी कि यह तो उसी लड़की का नाम है फोन उठाऊं या नहीं? माथे पर त्योरियां चढ़ गईं. फिर आंचल ने फोन उठा लिया, किंतु हैलो नहीं कहा. वह सुनना चाहती थी कि रोहिणी कैसे पुकारती है साहिल को.

‘‘हैलो डियर, व्हाट्स अप?’’ रोहिणी की आवाज में गर्मजोशी थी, ‘‘खो ही गए तुम तो शादी के बाद.’’

‘‘साहिल तो घर पर नहीं हैं,’’ आंचल ने रूखा सा जवाब दिया.

‘‘ओह, तुम आंचल हो न? तुम मुझे नहीं पहचान पाओगी, सिर्फ शादी में मुलाकात हुई थी और शादी में इतने नए चेहरे मिलते हैं कि याद रखना मुमकिन नहीं,’’ रोहिणी की आवाज में अभी भी गर्मजोशी थी.

आंचल ने रोहिणी की बातों का कोई उत्तर न दिया, ‘‘कोई काम था आप को मेरे पति से?’’

मेरे पति से के संबोधन पर रोहिणी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, साहिल से नहीं, आंटी से बात करनी थी.’’

‘‘वे जामनगर जा चुकी हैं. क्या बात करनी थी, मुझे बता दीजिए,’’ आंचल का स्वर अब भी रूखा था.

‘‘कुछ खास काम नहीं, बस ऐसे ही…’’ कह रोहिणी चुप हो गई. आंचल का बात करने का ढंग उसे अटपटा लगा. लग रहा था मानो वह रोहिणी से बात करना नहीं चाह रही.

‘‘ठीक है,’’ कह आंचल ने फोन काट दिया. उस का मन उदास हो गया. साहिल तो दोस्त हैं पर यह लड़की तो उस की सास से भी बातचीत करती है. क्या पता कब से करती हो. उस के शहर में लड़के और लड़की के बीच इस तरह की दोस्ती के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. और अब जबकि उन की शादी हो चुकी है तब क्या मतलब है इस दोस्ती का?

साहिल के लौट आने पर आंचल ने उसे रोहिणी के फोन के बारे में कुछ नहीं बताया. सोचा जब कोई जरूरी काम या बात नहीं है तो क्या बताना.

आंचल को उदास देख साहिल ने मजाक किया, ‘‘क्या बात है, अभी से सास की याद सताने लगी?’’

फीकी सी हंसी से आंचल ने बात टाल दी कि कैसे पूछे साहिल से कुछ? रात भर अजीबअजीब विचार आते रहे, कुछ खुली आंखों से तो कुछ सपने बन कर. कैसे हल करे आंचल अपने मन की उलझन. न तो मायके में और न ही ससुराल में वह यह बात किसी से कर सकती थी.

जीवन यथावत चलने लगा. साहिल सुबह से देर शाम तक औफिस में रहता और आंचल घर में मगन रहती. उसे इसी जिंदगी का इंतजार था. अब अपनी मनपसंद जिंदगी पा कर वह बहुत खुश थी. एक शाम घर लौट कर साहिल ने कहा, ‘‘आंचल, मैं रोहिणी को खाने पर बुलाना चाहता हूं, मैं चाहता हूं उसे तुम्हारे हाथों का लजीज खाना खिलाऊं. इस रविवार को बुलाया है मैं ने उसे. क्याक्या बनाओगी?’’

‘‘आप ने मुझे बता दिया है तो कुछ अच्छा ही बनाऊंगी. आप फिक्र मत कीजिए,’’ आंचल ने साहिल को तो आश्वस्त कर दिया, किंतु स्वयं चिंताग्रस्त हो गई.

रविवार को रोहिणी का रूप उस की शादी के दिन से बिलकुल विपरीत था. जींसटौप, कसे केश… आज रोहिणी के नैननक्श पर गौर किया था आंचल ने. वह वाकई खूबसूरत थी. साहिल के दरवाजा खोलते ही रोहिणी उस के गले लगी. यह कैसी दोस्ती है भला. आंचल को यह बात एकदम नागवार गुजरी. अचानक वह जा कर साहिल की बांह में बांह डाल खड़ी हो गई. लेकिन उस की इस हरकत से साहिल अचकचा गया. धीरे से बोला, ‘‘अ… चायनाश्ता ले आओ.’’

‘हुंह, दोस्त गले लग सकती है, लेकिन बीवी बांह में बांह नहीं डाल सकती,’ मन ही मन बड़बड़ाती आंचल किचन में चली गई.

बेहद फुरती के साथ उस ने सारा खाना डाइनिंग टेबल पर सजा दिया. वह साहिल और रोहिणी को कम से कम समय एकसाथ अकेले में गुजारने देना चाहती थी. वे दोनों सोफे पर आमनेसामने बैठे थे.

साहिल के पीछे से आ कर आंचल ने इस बार साहिल के गले में अपनी बांहें डालते हुए कहा, ‘‘चलिए, खाना तैयार है.’’साहिल फिर अचकचा गया. आंचल का अचानक ऐसा व्यवहार… वह तो हमेशा छुईमुई सी, शरमाई सी रहती थी और आज रोहिणी के सामने उसे क्या हो गया है.

खाना खाते हुए रोहिणी ने आंचल के खाने की तारीफ की.

‘‘थैंक्यू. मैं तो रोज ही इन के लिए अच्छे से अच्छा खाना पकाती हूं. बहुत प्यार करती हूं इन से और अगर किसी ने इन के और मेरे बीच आने की सोची भी तो मैं… मैं उसे…’’

‘‘अरे, यह क्या बोल रही हो?’’ साहिल ने आंचल की बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘रोहिणी क्या कह रही है और तुम क्या समझ रही हो?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या कह दिया कि आप मुझे इस तरह…’’

आंचल अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही रोहिणी ने बीचबचाव करते हुए कहा, ‘‘क्या साहिल, तुम भी न… ये कोई तरीका है नईनवेली दुलहन से बात करने का. एक तो उस ने इतना लजीज खाना बनाया है और तुम…’’

आंचल ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘इन्होंने जो कुछ कहा वह अपनी पत्नी से कहा और इन्हें पूरा हक है. आप बीच में न ही पड़ें,’’ फिर धीरे से बड़बड़ाई, ‘‘अच्छी तरह समझती हूं मैं, पहले आग लगाओ फिर बुझाने का नाटक.’’

रोहिणी चुप हो गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि आंचल उस से इस तरह बेरुखी से व्यवहार क्यों कर रही है. वह तो उन के घर साहिल के साथसाथ आंचल से भी दोस्ती करने आई थी.

‘‘अरे, मूड क्यों खराब करती हो, आंचल, जाओ, खाना तो हो गया अब कुछ मीठा नहीं खिलाओगी रोहिणी को?’’ साहिल ने एक बार फिर माहौल को खुशगवार बनाने का प्रयास किया. किंतु आंचल और रोहिणी दोनों ही उदास थीं. आंचल मुंह बिचकाए अंदर चली गई. रोहिणी हाथ धोने के बहाने वहां से उठ कर बाथरूम में चली गई. वहां एकांत में वह सोचने लगी कि आखिर ऐसी क्या बात हो सकती है जो आंचल को इतनी बुरी लगी. हर नईनवेली को कुछ समय लगता है नए वातावरण, नए लोगों से तालमेल बैठाने में. हर लड़की अलग ढंग से पलीबढ़ी होती है. नए परिवार के नए रंगढंग में रचनेबसने में थोड़ा समय तो लगेगा ही न. आखिर आंचल को नए घर में आए दिन ही कितने हुए हैं. अभीअभी उस ने गृहस्थी संभाली है और खुद न्योतों पर जाने की जगह वही दूसरों को भोज करा रही है.

अचानक उस के मन में खयाल आया कि आंचल कहीं मेरे और साहिल के संबंध पर शक तो नहीं कर रही? आखिर वह एक ऐसे वातावरण से आई है जहां लड़कों और लड़कियों के बीच बराबरी की दोस्ती देखने को नहीं मिलती. ऐसे में रोहिणी का खुला व्यवहार कहीं आंचल को अटपटा तो नहीं लग रहा?

मीठे में आंचल ने खीर परोसी. आंचल का उतरा मुंह ठीक करने के लिए रोहिणी ने एक और कोशिश की, ‘‘वाह, कितनी स्वादिष्ठ खीर बनाई है. आंचल, प्लीज मुझे भी सिखाओ न ऐसा खाना बनाना.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों सिखाऊं ताकि आप रोजरोज मेरी गृहस्थी में दाखिल होती रहें?’’

आंचल का यह जवाब साहिल को बिलकुल पसंद नहीं आया और उस ने आंचल को डपट दिया, ‘‘आंचल, यह क्या तरीका है घर आए मेहमान से बात करने का?’’

साहिल की आवाज में कड़ाई सुन आंचल की आंखें डबडबा गईं. कुछ शक की चुभन, कुछ क्रोध की छटपटाहट… वह स्वयं को रोक न पाई और आंसू पोंछती हुई अंदर चली गई.

‘‘पता नहीं आज क्या हो गया है इसे, कैसा अजीब बरताव कर रही है,’’ साहिल आंचल की प्रतिक्रिया पर अभी भी हैरान था. लेकिन आंचल की आंखों के भावों व बेरुखी से रोहिणी की कुछकुछ समझ आ रहा था.

‘‘यदि तुम बुरा न मानो तो मैं आंचल से बात कर सकती हूं क्या?’’ रोहिणी ने साहिल से अनुमति मांगी.

‘‘अ… मैं तो बुरा नहीं मानूंगा पर अगर आंचल ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी कर दी तो? इसे इस मूड में मैं ने पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘तो मैं भी बुरा नहीं मानूंगी.’’

कमरे में आंचल बिस्तर पर औंधी पड़ी सुबक रही थी. रोहिणी के उस का नाम पुकारने पर वह व्यवस्थित होने लगी.

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी तो कह देतीं न,

मैं फिर कभी आ जाती,’’ रोहिणी ने बिलकुल साधारण ढंग से बात शुरू की, ‘‘मैं यहां साहिल से मिलने या खाना खाने नहीं आई थी, बल्कि मैं तो आप से मिलने, आप से गपशप करने आई थी.’’

किंतु आंचल अब भी मुंह फुलाए बैठी थी. रोहिणी की ओर देखना भी उसे गवारा न था.

‘‘देखो न, आप मेरी भाभी जैसी हो. आप को मस्का नहीं मारूंगी तो आप मेरे लिए एक अच्छा सा लड़का कैसे ढूंढ़ोगी भला?’’ कह रोहिणी हंसने लगी, ‘‘साहिल से कोई उम्मीद रखना बेकार है. उसे तो मैं कहकह कर थक गई. वैसे उस की भी गलती नहीं है. उस की दोस्ती तो जैसा वह है वैसे लड़कों से है पर मुझे साहिल जैसा शांत, शरमीला लड़का नहीं चाहिए. मुझे तो अपने जैसा बिंदास और मस्त लड़का चाहिए. अगर है कोई आप की नजर में तो बताओ न.’’

रोहिणी का यह पैतरा काम कर गया. आंचल थोड़ी संभली हुई दिखने लगी. रोहिणी की बातों से उसे कुछ आश्वासन मिल रहा था.

तभी साहिल भी झांकता हुआ कमरे में दाखिल हुआ, ‘‘क्या चल रहा है भई?’’

‘‘कुछ नहीं, तुम्हारे मतलब का कुछ नहीं है यहां पर. यहां गर्ल टौक चल रही है और वह भी बेहद इंट्रैस्टिंग. इसलिए प्लीज, बाहर जाते हुए दरवाजा बंद करते जाना,’’ कह रोहिणी तो हंसी ही, साथ ही आंचल की भी हंसी छूट गई.

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