चित्र अधूरा है – भाग 3 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

Continue reading चित्र अधूरा है – भाग 3 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

चौथापन- भाग 3 : मुन्ना के साथ क्या हुआ

मुन्ना के पहले उन की 2 बेटियां और थीं. वह सोचते थे कि बेटियां तो पराया धन होती हैं. दूसरे घर चली जाएंगी. उन का बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उन की सेवा करेगा. उस की बहू आ जाएगी तो वह उन की सेवा करेगी. फिर नातीनातिन हो जाएंगे तो वे बाबाबाबा कहते हुए उन के आगेपीछे घूमेंगे. मुन्ना बचपन में आए- दिन बीमार पड़ जाता था. उन्होंने उस की बड़ी सेवा की थी और धन भी खूब लुटाया था. न जाने कितने दवाखानों की धूल छानी थी. न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं. न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था. वह भी कैसे पागल थे.

उन का शरीर बुखार से तप रहा था. कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हंगामे की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं और उन का सिर दर्द से फटता रहा. फिर खामोशी छा गई. कमरे के सन्नाटे में छत के पंखे की खड़खड़ाहट गूंजती रही. उन्हें लेटेलेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उन से कोई हमदर्दी नहीं है. बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उन की तबीयत के विषय में.

एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे. अब क्या करें? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उन की नजर शाम को पानी से भर कर खिड़की पर रखे गिलास पर गई. उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया.

वह मन की घबराहट को दूर करने के लिए खिड़की के पास ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे इक्कादुक्का लोगों को देखने लगे. काश, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो थोड़ी देर के लिए. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो.’’

सहसा वह पागलों की तरह हंस पड़े अपने पर. ‘अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ायालिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है. भला ये अपरिचित लोग अपना काम- धंधा छोड़ कर मेरे पास क्यों बैठने लगे? वह फिर से पलंग पर आ कर लेट गए.’

उन्हें याद आया कि कैसे दिनरात मेहनत कर के उन्होंने कारखाना खड़ा किया था, किस तरह मशीनें खरीदी थीं, किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी, धूप में घूमघूम कर, भूखेप्यासे रहरह कर, देर रात तक जागजाग कर वह किस तरह काम में लगे रहते थे. किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो. अपने परिवार के सुख के लिए ही तो? जिस में वह खुद भी शामिल थे.

अब कहां गया वह सुख? उन के परिवार ने क्या कीमत रखी है उन की या उन के सुख की? वह सब के सामने इतने दीनहीन क्यों बन जाते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं, बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे.

वह आवेश में उठ कर बैठ गए. क्षण भर में ही उन का शरीर पसीने से लथपथ हो गया. दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आ कर सूचना दी, ‘‘भैयाजी, नाश्ते के बाद आप को दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है.’’

मुन्ना ने नाश्ते के बाद उन के कमरे में जा कर देखा कि वह पलंग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं.

‘‘आओ, मुन्ना बैठो,’’ उन्होंने सामने पड़ी कुरसी की ओर संकेत किया. जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. मैं ने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘यहां इस घर में पड़ेपड़े अब मेरा मन नहीं लगता. स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है. बेकार पड़ेपडे़ तो लोहा भी जंग खा जाता है, फिर मैं तो हाड़मांस का आदमी हूं. मैं चाहता हूं कि घर से निकलूं और…’’

‘‘इन दिनों मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी,’’ मुन्ना ने उन की बात पूरी होने से पहले ही उचक ली और बड़े निर्विकार भाव से बोला, ‘‘आप का चौथापन है. इस उम्र में लोग वानप्रस्थी हो जाते हैं, घरसंसार को तिलांजलि दे देते हैं. आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहां किसी आश्रम में रह कर भगवान की याद में बाकी जीवन बिता दीजिए.’’

सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया. वह क्रुद्ध शेर की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना, क्या तू ने मुझे उन नाकारा और निकम्मे लोगों में से समझ लिया है, जिन के आगे अपने जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है. अभी मेरे हाथपांव चलते हैं. दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं करने के लिए. मैं घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता. घर से बाहर निकल कर समाज- सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘तो फिर कीजिए समाजसेवा. किस ने रोका है?’’

‘‘हाथपैरों से तो करूंगा ही समाज- सेवा, मगर उस के लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम 1 हजार रुपए महीना मुझे जेब- खर्च के तौर पर देते रहो.’’

मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘1 हजार रुपए, किसे लुटाएंगे इतने पैसे आप?’’

हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं, बल्कि वह मुन्ना से आंखें मिला कर बोले, ‘‘इस से तुम्हें क्या? त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूं. दे सकोगे न तुम मुझे मेरा खर्च?’’

‘‘कैसे दे पाऊंगा, बाबूजी, इतना पैसा? अभी जो मुंबई से नई मशीन मंगवाई हैं, उस का पैसा भी भेजना बाकी है.’’

‘‘तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो. यह देखना तुम्हारा काम है. मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता कारोबारी बखेड़ों से. मैं इतना जानता हूं कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूं तो इसे बेच भी सकता हूं या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोगों के खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हैं तो क्या मेरे लिए 1 हजार रुपए महीना भी आसानी से नहीं निकल सकते? आखिर मैं ने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूं. तुम से नहीं संभलता तो मुझे सौंप दो फिर से.’’

मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका. वह सिर झुकाए बैठा रहा. कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था. फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा, ‘‘अच्छा होता, बाबूजी, आप हरिद्वार…’’

‘‘नहीं, बेटा, मैं जिंदा इनसान हूं. कोई मुरदा नहीं कि हरिद्वार जा कर किसी आश्रम की कब्र में दफन हो जाऊं या घर में समाधि ले कर बैठा रहूं. तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं अपने ढंग से.’’

‘‘अच्छा,’’ मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा. उन्होंने उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि वह अब भी सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था.

चित्र अधूरा है – भाग 2 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

कार्तिकेय चाहते थे कि उन का बेटा उन की तरह इंजीनियर बन कर देश के नवनिर्माण में सहयोग करे. 12वीं में उसे गणित और जीवविज्ञान दोनों विषय दिलवा दिए गए ताकि जिस ग्रुप में उस के अंक होंगे उसी में उसे दाखिला दिलवा दिया जाए. मगर परिवार का कोई भी सदस्य उस मासूम की इच्छा नहीं पूछ रहा था कि उसे क्या बनना है. उस की रुचि किस में है? मैं तो मूकदृष्टा थी. डर था तो केवल इतना कि वह कहीं दो नावों में सवार हो कर मंझधार में ही न गिर जाए? बस, मन ही मन यही सोचती कि जो भी अच्छा हो, क्योंकि आज प्रतियोगिताओं के दायरे में कैद बच्चे अपनी सुकुमारता, चंचलता और बचपना खो बैठे हैं. प्रतियोगिताओं में उच्च वरीयताक्रम के बच्चे ही सफल माने जाते हैं बाकी दूसरे सभी असफल. हो सकता है कि उन की तथाकथित असफलता के पीछे मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक कारण रहे हों, लेकिन आज उन की समस्याओं के समाधान के लिए समय किस के पास है? असफलता तो असफलता ही है, उन के मनमस्तिौक पर लगा एक अमिट कलंक.

घंटी बजने की आवाज सुन कर मैं ने दरवाजा खोला तो अनुज को खड़ा पाया. परीक्षाफल के बारे में पूछने पर वह बोला, ‘मालूम नहीं, ममा, बहुत भीड़ थी इसलिए देख ही नहीं पाया.’

दोपहर में कार्तिकेय उस के कालिज जा कर मार्कशीट ले कर आए. मुंह उतरा हुआ था, देख कर मन में खलबली मच गई. किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा, ‘क्या हुआ? कैसा रहा रिजल्ट?’ बेचैनी से मैं पूछ ही उठी.

‘पानी तो पिलाओ, मुंह सूखा जा रहा है,’ कार्तिकेयने पानी मांगते हुए कहा था.

पानी ले कर आई तो कार्तिकेय ने सुमित की मार्कशीट मेरे सामने रख दी. सभी विषयों में कम अंक देख कर मुंह से निकल गया, ‘यह मार्कशीट अपने सुमित की हो ही नहीं सकती. रोल नंबर उसी का है न?’ अविश्वास की मुद्रा में मुंह से निकल गया.

‘क्यों बेवकूफों जैसी बातें करती हो, मार्कशीट भी उसी की है, नाम और रोल नंबर भी,’ वह फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘अच्छा हुआ, मांपिताजी कानपुर दीदी के पास गए हैं वरना ऐसे नंबर देख उन के दिल पर क्या गुजरती?’

‘रिचैकिंग करवाएंगे,’ उन की बात अनसुनी करते हुए उमा ने कहा.

‘रिचैकिंग से क्या होगा? हर सब्जेक्ट में तो ऐसे ही हैं. गनीमत है पास हो गया, लेकिन ऐसे भी पास होने से क्या फायदा?’ कार्तिकेय, फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘तुम्हारी सोशल विजिट भी बहुत हो गई थी उन दिनों, उसी का परिणाम है यह रिजल्ट.’

कार्तिकेय का इस समय उस पर आरोप लगाना पता नहीं क्यों उमा को बेहद अनुचित लगा था किंतु स्थिति की गंभीरता को समझ कर, उस के आरोपों पर ध्यान न देते हुए उमा ने पूरे भरोसे के साथ किंतु धीमे स्वर में कहा, ‘यह रिजल्ट उस का है ही नहीं. क्या आप सोच सकते हो कि वह एकाएक इतना गिर जाएगा?’

‘तुम्हारे कहने से क्या होता है, जो सामने है वही यथार्थ है,’ कार्तिकेय ने एकएक शब्द पर बल देते हुए कहा. वह अनुज को सामने पा कर फिर बोल उठे, ‘इन को तो हीरो बनने से ही फुरसत नहीं है. एक ने तो नाक कटा दी और दूसरा शायद जान ही ले ले,’ कह कर वह आफिस चले गए.

अनुज सिर नीचा कर के अपने कमरे में चला गया. मां को गुस्से में उलटासीधा बोलते तो उस ने जबतब सुना था, किंतु पिताजी को इतना अपसेट नहीं देखा था. मां पहले कभी उन के सामने कभी कुछ कहतीं तो वह उन का पक्ष लेते हुए कहते, ‘बच्चे हैं, अभी शैतानी नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे, रोनेपीटने के लिए तो सारी जिंदगी पड़ी है.’

तब मां बिगड़ कर कहतीं, ‘चढ़ाओ, और चढ़ाओ अपने सिर. कभी अनहोनी हो जाए तो मुझे दोष नहीं देना.’ तो वह कहते, ‘अनहोनी कैसे होगी? मेरे बच्चे हैं, देखना नाक ऊंची ही रखेंगे.’ फिर हमारी तरफ मुखातिब हो कर कहते, ‘बेटा, कभी मुझे शर्मिंदा मत करना, मेरे विश्वास को ठेस मत पहुंचाना.’

आज वही डैडी सुमित भैया के परीक्षाफल को देख कर इतने दुखी हैं? वैसे उन के रिजल्ट पर तो उसे भी भरोसा नहीं हो रहा था. ‘कभी किसी दिन यदि कोई पेपर खराब भी होता तो उसे अवश्य बताते, कहीं कुछ गड़बड़ तो अवश्य हुई थी, कहीं कंप्यूटर में तो माव्फ़र्स फीड करने में किसी ने गड़बड़ी तो नहीं कर दी—?’ सवाल मस्तिष्क में कुलबुला तो रहे थे किंतु कोई समाधान उस के पास न था.

तभी फोन की घंटी बज उठी. फोन अमिता आंटी का था. अनुज मम्मी के कमरे में गया तो देखा, मम्मी सुबक रही हैं, उन को फोन देना उचित न समझ कर कह दिया कि वह सो रही हैं. परीक्षाफल पूछने पर कह दिया कि ‘पता नहीं’. वह जानता था कि वह कालोनी की इनफारमेशन सेंटर हैं. हर घर के समाचार उन के पास रहते हैं और पल भर में ही सब के पास पहुंच भी जाते हैं. पता नहीं उन को सब की घरेलू जिंदगी में इतनी दिलचस्पी क्यों रहती है? वैसे जब से उन की एकलौती पुत्री ने घर से भाग कर लव मैरिज की है तब से वह थोड़ा शांत जरूर हो गई हैं, लेकिन आदत तो आदत ही है, फोन रखने के बाद मम्मी ने अनुज से पूछा, ‘किस का फोन था?’

‘अमिता आंटी का.’

‘क्या कहा तू ने?’

‘कह दिया अभी पता नहीं चला है, डैडी ने किसी को भेजा है.’

झूठी शान: परेश क्या समझ गया था

सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर

निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी.

चौथापन- भाग 2 : मुन्ना के साथ क्या हुआ

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया. फिर कार चल दी. मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बूआ यहां कब तक रहेंगी?’’

वह चौंके, ‘‘क्यों बेटा? उस से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’

‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी. मां के मरने पर बूआजी आईं तो फिर वापस गईं ही नहीं.’’

‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूं बेटा. फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी अभी नहीं है. सो वह हमारे यहां ही रह लेगी.’’

‘‘लेकिन हम उन की जिम्मेदारी कब तक उठाएंगे? उन के अपने बेटाबहू हैं. उन्हें उन के पास ही रहना चाहिए. फिर वह यहां तरीके से रहतीं तो कोई बात नहीं थी पर वह तो हमेशा आप की बहू ममता पर रोब गांठती रहती हैं.’’

मुन्ना के शब्दों ने ही नहीं उस के स्वर ने भी उन्हें आहत कर दिया था. वह जानते थे कि त्रिवेणी पर लगाया गया आरोप झूठा है. आखिर त्रिवेणी उन की एकमात्र बहन है. वह उसे बचपन से जानते हैं. ममता उस के विषय में ऐसी बात कह ही नहीं सकती थी. लेकिन वह चाह कर भी मुन्ना से अपना विरोध प्रकट नहीं कर सके थे. वह जानते थे कि मुन्ना और बहू अब त्रिवेणी को घर में शांति से नहीं रहने देंगे. उसी को ले कर हर समय कलह मची रहेगी. बातबात पर त्रिवेणी को अपमानित किया जाता रहेगा. वह यह ज्यादती सहन नहीं कर सकेंगे. इसीलिए उन्होंने त्रिवेणी को भेज दिया था.

त्रिवेणी चली गई थी. जिस दिन वह गई, उस दिन उन्हें ऐसा लगा मानो इंदू की मौत अभीअभी हुई हो. कितने ही दिनों तक वह अनमने से रहे थे. अब उन्हें पूछने वाला कोई न था. सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे. वह बारबार बच्चों द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था. थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जा कर दस्तक देते. जवाब में बहू का तीखा स्वर सुनाई देता, ‘‘आप को चाय नहीं मिली? अंजू से कहा तो था मैं ने. ये बच्चे ऐसे बेहूदे हो गए हैं कि बस… अकेला आदमी आखिर क्याक्या करे? मैं तो काम करकर के मर जाऊंगी, तब ही शांति मिलेगी सब को.’’

वह अपराधी की तरह मुंह लटकाए अपने कमरे में लौट आते थे.

भोजन के समय भी अकसर ऐसा ही तमाशा होता था. कई बार उन के मुंह का कौर विष बन जाता था. पर उस जहर को निगल लेने की मजबूरी उन की जिंदगी की विडंबना बन गई थी.

सुबह के समय वह कितनी ही देर तक गरम पानी के अभाव में बिना नहाए बैठे रहते थे. अब त्रिवेणी तो घर में थी नहीं कि सुबह जल्दी उठ कर गीजर चला देगी. बहू उठती थी पूरे 7 बजे के बाद और नौकर 8 बजे तक आता था.

जब तक पानी गरम होता था, स्नानघर में पहले ही कोई दूसरा व्यक्ति स्नान के लिए घुस जाता था. भला उन्हें कौन सा काम था? उन के जरा देर से नहाने से कौन सा अंतर पड़ जाता. बहू, बच्चे, मुन्ना सब को जल्दी थी, सब कामकाजी आदमी थे. बस, वही बेकार थे.

वह इंतजार में इधरउधर टहलते हुए बारबार नौकर से पूछते रहते थे, ‘‘गोपाल, क्या स्नानघर खाली हो गया?’’

‘‘स्नानघर खाली हो जाएगा तो मैं खुद बता दूंगा आप को, दादाजी,’’ नौकर भी मानो बारबार एक ही प्रश्न पूछे जाने पर उकता कर कह देता था.

और केवल नहानेखाने की ही तो बात नहीं थी. घर की हर गतिविधि में उन्हें पंक्ति के सब से आखिर में खड़ा कर दिया जाता था. घर में उन के दुखसुख का साथी कोई नहीं था.

एक दिन अचानक उन के सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी. बड़ा नाती मुकेश कमरे में अपना बल्ला रखने आया. उन्होंने उसे पकड़ कर चापलूसी की, ‘‘बेटे, जरा मेरा सिर तो दबाना. बड़ा दर्द हो रहा है.’’

मुकेश ने अनिच्छा से 2-4 हाथ सिर पर मारे और तत्काल उठ खड़ा हुआ. वह घबरा कर कराहे, ‘‘अरे बस, जरा और दबा दे.’’

‘‘मेरे हाथ दुखते हैं, दादाजी.’’

वह दंग रह गए. फिर दूसरे ही क्षण तमक कर बोले, ‘‘बूढ़े दादा की सेवा करने में तुम्हारे हाथ टूटते हैं? आने दे मुन्ना को.’’

मुकेश ढिठाई से मुसकराता हुआ चला गया. वह पड़ेपड़े मन ही मन कुढ़ते रहे थे. उन्हें अपना बचपन याद आने लगा था. वह कितनी सेवा करते थे अपने बाबा की. रोजाना रात को नियम से उन के हाथपैर दबाया करते थे. बाबा उन्हें अच्छीअच्छी कहानियां सुनाया करते थे.

बाबा की याद आई तो उन्हें एहसास हुआ कि आज जमाना कितना बदल गया है. मजाल थी तब परिवार के किसी सदस्य की कि बाबा की बात को यों टाल देता.

भोजन के बाद मुन्ना उन के कमरे में आया. पूछा, ‘‘बाबूजी, सुना है, आप ने खाना नहीं खाया है आज?’’

‘‘इच्छा नहीं थी, बेटा. सिर अभी तक बहुत पीड़ा कर रहा है. शायद बुखार आ कर ही रहेगा.’’

वह मुकेश की गुस्ताखी की चर्चा करना चाहते थे, लेकिन कुछ सोच कर चुप रह गए थे. वह जानते थे कि मुन्ना सब कुछ सुन कर तपाक से कहेगा, ‘‘अरे बाबूजी, क्यों बच्चों के मुंह लगते हैं? नौकर से कह दिया होता. वह दबा देता आप का सिर.’’

लेकिन प्रश्न यह था कि क्या नौकर खाली बैठा रहता था उन के लिए? दूध लाओ, सब्जी लाओ, बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए छोड़ कर आओ, बहू और बच्चों के कमरे साफ करो, रसोई धोओ. हजार काम थे उस के लिए. वह भला उन का काम कैसे करता?

‘‘दर्द निवारक टिकिया मंगवाई थी न आप ने? 2 गोलियां एकसाथ खा लीजिए. तुरंत आराम आ जाएगा. मैं सुबह डाक्टर को बुलवा कर दिखवा दूंगा. अच्छा, मैं चलता हूं. अगर रात में ज्यादा तकलीफ हो तो हमें आवाज दे दीजिएगा,’’ कह कर मुन्ना चल दिया था.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही: क्या थी संजना की गलती

Story in Hindi

 

चित्र अधूरा है – भाग 1 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

फोन की घंटी लगातार बज रही थी, किचन में काम करतेकरते उमा झुंझला उठी थी, ‘फोन उठाने भी कोई नहीं आएगा, एक पैर पर खड़ी मैं इधर भी देखूं, उधर भी देखूं-..’ गैस का रेगुलेटर कम कर के वह दौड़ी

और रिसीवर उठाया, हैलो– कहते ही सुमित की आवाज सुनाई पड़ी, जो बहुत खुश हो कर कह रहा था, ममा, आप के आशीर्वाद से मेरा भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन हो गया है- मैरिट सूची में नाम ऊपर होने के कारण आशा है कि मुख्य सेवा में मेरा नाम आ जाएगा- मैं 1-2 दिन में घर पहुंचूंगा-

उमा कुछ कहती कि फोन कट गया-

उमा ने सोचा कार्तिकेय को जा कर खुशखबरी सुना दूं, शयनकक्ष में गई तो देखा कार्तिकेय गहरी नींद में सोए हुए हैं- कल रात 1 बजे, 3 दिन के टूर के बाद लौटे थे- थके होंगे वरना 6 बजे के बाद तो बिस्तर पर रह ही नहीं सकते- साढे़ 6 से 7 बजे तक उन का ‘योगा’ करने का समय है और 7 बजे से आसपास के एरिया की फोन के द्वारा जानकारी हासिल करने का, क्योंकि सभी एरिया के स्टाफ अफसरों को नित्य अपने एरिया के कामों की जानकारी देने के निर्देश दिए हुए हैं, ताकि कहीं कोई समस्या होने पर तुरंत उस का समाधान किया जा सके- एक पब्लिक अंडरटेकिंग कंपनी में चीफ इंजीनियर जो हैं-

अनुज ट्यूशन गया है और पिताजी सुबह की सैर के लिए- सन, सन की आवाज आई तो, याद आया कि गैस पर, दही जमाने के लिए दूध गरम करने के लिए रखा था- दोपहर के खाने में सब को खाने के साथ ताजा दही चाहिए इसलिए रोजाना सुबह उठ कर पहले यही काम करना पड़ता है- जल्दी से जा कर गैस का रेगुलेटर बंद किया- अनुज ने आज नाश्ते में आलू के परांठे खाने की फरमाइश की थी इसलिए कुकर में आलू रख कर आटा गूंधने लगी.

उसे याद आया, पिताजी ने उसे एक बार समझाते हुए कहा था, ‘उमा, तुझ में धैर्य क्यों नहीं है? जीवन में प्रत्येक वस्तु, पलक झपकते ही हासिल नहीं हो जाती बल्कि उस के लिए धीरज के साथ प्रयत्न करना पड़ता है- यह बात और है कि किसीकिसी को अपने मकसद में सफलता कम प्रयास करने पर ही मिल जाती है और किसी को बहुत ज्यादा मेहनत करने के बाद, लेकिन सच्ची लगन, धैर्य और विश्वास हो तो कोई वजह नहीं कि मानव अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर पाए- पता नहीं इनसान जरा सी असफलता से बेकार ही इतना विचलित क्यों हो उठता है.?’ और आज सचमुच पिताजी की कही बात सत्य सिद्ध हुई थी, बेवजह ही इतने मानसिक तनाव झेलने के बाद यह खुशी का क्षण आ ही गया— हाथ आटा गूंध रहे थे किंतु अनायास ही दिमाग में आज से 6 साल पहले का दिन चलचित्र की भांति मंडराने लगा.

उस दिन सुबह से ही मन बेचैन था, 12वीं का परीक्षाफल निकलने वाला था- सुमित शुरू से ही पढ़ाई में अच्छा था- हमेशा ही कक्षा में प्रथम आता था, अतः सभी शिक्षक उसे प्यार करते थे और उस से बहुत खुश रहते थे- 10वीं की बोर्ड की परीक्षा में मैरिट सूची में आ कर उस ने न केवल अपना बल्कि अपने स्कूल का नाम भी रोशन किया था और इस साल भी सभी उस से यही आशा कर रहे थे.

महाराष्ट में तो प्रवेश परीक्षा होती नहीं है, केवल 12वीं कक्षा के अंकों के आधार पर ही मेडिकल और इंजीनियरिंग कालिज में एडमीशन मिल जाता है, इसलिए शहर के नामी कालिज में सुमित का दाखिला करा कर हम भविष्य के लिए आश्वस्त हो गए थे.

सुमित के मौसा, दिवाकर काफी दिनों से बीमार चल रहे थे. बेचारी अनिला 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ परेशान थी. दिवाकर अपने मातापिता की एकलौती संतान थे, इसलिए अनिला को ससुराल पक्ष से भी कोई मदद नहीं मिल पाती थी- सुमित को अपने मौसामौसी से बेहद लगाव था इसलिए उस ने स्वयं ही दिल्ली मौसी के पास जाने की इच्छा जताई तो उमा ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ जाने की आज्ञादे दी. वैसे उमा ने कभी बच्चों को अकेले नहीं भेजा था, इसलिए वह थोड़ी झिझक रही थी, किंतु कार्तिकेय का विचार था कि एक उम्र के पश्चात बच्चों को स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता आनी चाहिए और यह तभी संभव है जब बच्चों को अकेले रहने और आनेजाने की आदत डाली जाए.

1-2 दिन में सुमित आने वाला था. 10वीं का परीक्षाफल निकलने से पहले जब वह सुमित से बारबार पूछती कि क्या तुम पास हो जाओगे, तो एक दिन वह झुंझला कर बोला था, ‘ममा, आप मुझे किसी से कम क्यों आंक रही हैं. मैं मैरिट में अवश्य आ जाऊंगा.’

सचमुच मैरिट लिस्ट में उस का नाम देख कर घर भर की छाती गर्व से फूल उठी थी. वह सब की आशाओं का केंद्र बिंदु बन बैठा था. दादी कहतीं, ‘डाक्टर बनाऊंगी अपने पोते को, कम से कम बुढ़ापे में मेरी सेवा तो करेगा. दूसरों के पास तो दिखाने नहीं जाना पड़ेगा— उन का वश चले तो एक ही बार में मरीज का खून चूस लें.’

दादा कहते, ‘डाक्टर नहीं, मैं अपने पोते को अपनी तरह कलक्टर बनाऊंगा ताकि वह समाज में फैले भ्रष्टाचार को दूर करने में सहायक बन कर समाज के उत्थान हेतु काम कर सके.’

वसीयत: प्यार और परिवार की कहानी

सामने दीवार पर टंगी घड़ी शाम के 7 बजा रही थी. पूरे घर में अंधेरा पसरा हुआ था. मेरे शरीर में इतनी ताकत भी नहीं थी कि उठ कर लाइट जला सकूं. सुजाता, उस की बेटी, मैं और मेरी बेटी, इन्हीं चारों के बीच अनवरत चलता हुआ मेरा अंतर्द्वंद्व.

आज दोपहर, मैं अपनी सहेली के घर जा कर उस को बहुत अच्छी तरह समझा आई थी कि कोई बात नहीं सुजाता, अगर आज बेटी किसी के साथ रिलेशनशिप में रह रही है तो उसे स्वीकार करना ही हमारे हित में है. अब तो जो परिस्थिति सामने है, हमें उस के बीच का रास्ता खोजना ही पड़ेगा और अब अपनी बेटी का आगे का रास्ता साफ करो.

तो, तो क्या मेरी बेटी अपरा भी. नहीं, नहीं. लगा, मैं और सुजाता एक ही नाव में सवार हैं…नहीं, नहीं. मुझे कुछ तो करना पड़ेगा. फिर किसी तरह अपने को संभाल कर अजीत के आने का समय देख चाय बनाने किचन में चल दी.

उलझते, सोचते, समझते दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रही अपनी बेटी अपरा के आने का इंतजार करने लगी. उस ने आज घर आने की बात कही थी.

वह सही वक्त पर घर पहुंच गई. उस के आने पर वही उछलकूद, खाने से ले कर कपड़ों तक की फरमाइशें मानो घरआंगन में छोटी चिडि़या चहचहा रही हो. डिनरटाइम पर सही समय देख सुजाता की बेटी का जिक्र छेड़ा तो वह बोली, ‘अरे छोड़ो भी मां, हमें किसी से क्या लेनादेना.’’

‘‘अच्छा चल, छोड़ भी दूं, पर कैसे बेटा? कैसे इस जहर से अपने गंदे होते समाज को बचाऊं?’’

‘‘मां, सब की अपनीअपनी जिंदगी है, जो जिस का मन चाहे, सो करे,’’ वह बोली.

मैं ने लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अच्छा बेटा, मैं सोच रही हूं कि इस कमरे का परदा हटा दूं.’’

‘‘अरे, क्यों मां, कुछ भी बोलती हो. यह क्या हो गया है तुम्हें, बिना परदे के घर में कैसे रहेंगे,’’ वह झुंझलाई.

‘‘क्यों मेरी भी तो अपनी जिंदगी है, जो चाहे मैं करूं,’’ मेरा लहजा थोड़ा तल्ख था. मैं आगे बोली, ‘‘आज आधुनिकता के नाम पर हम ने अपनी संस्कृति, सभ्यता, लोकलिहाज, मानमर्यादा के सारे परदे भी तो उतार फेंके हैं. अपने वेग और उफान में सीमा से आगे बढ़ती नदी भी सदा हाहाकार मचाती है और आज की पीढ़ी भी क्या अपने घरपरिवार, समाज, रिश्तों को दरकिनार कर अपनी सीमा से आगे नहीं बढ़ रही है.

‘‘मैं मानती हूं कि हमारे बच्चे उच्च शिक्षित, समझदार और परिपक्व हैं किंतु फिर भी जीवन की समझ अनुभव से आती है और अनुभव उम्र के साथ. हम सब उम्र की इस प्रौढ़ता पर पहुंच कर भी जीवन के कुछ निर्णयों के लिए तुम्हारे बाबा, दादी, नानू, नानी पर निर्भर हैं.’’ अपरा चुपचाप सुनती जा रही थी.

थोड़ी देर रुक कर मैं फिर बोली, ‘‘प्रेम तो दिल से जुड़ी एक भावना है और विवाह एक अटूट बंधन, जो हमारे सामाजिक ढांचे का आधार स्तंभ है. और यह लिवइन रिलेशनशिप क्या है? बेटा, चढ़ती हुई बेल भी तभी आगे बढ़ती है जब उसे बांध कर रखा जाए, सो बिना बंधे रिश्तों को क्या भविष्य? क्यों आंख बंद कर अपने भविष्य को गर्त में ढकेल रहे हो? हमारी संस्कृति में आश्रम व्यवस्था के नियम भी इसीलिए बने थे, किंतु अब तो ये सब दकियानूसी बातें हो कर रह गई हैं.

‘‘माना कि आज समय बहुत बदल गया है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम बड़े लोगों ने अपने को नहीं बदला.

बड़ों की स्वीकृति है तभी ज्यादातर शादियां लवमैरिज होती हैं. किंतु आज आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति को त्याग, पश्चिम की आयातित

संस्कृति की नकल करना बंद करो. सोचो और समझो कि तुहारे लव, ब्रेकअप, टाइमपास लव और टाइमपास रिलेशनशिप के क्या भयावह परिणाम होंगे. असमय बनाए संबंधों के अनचाहे परिणाम तुम्हारे कमजोर कंधे क्या…? बेटा, हर चीज का कुछ नियम होता है, बिना समय के तो पुष्प भी नहीं पल्लवित होते. इस तरह तो सारी सामाजिक व्यवस्था ही चरमरा जाएगी.

‘‘हमेशा याद रखना कि मांबाप कभी बच्चों का अहित नहीं सोचते. इसलिए अपने जीवन के अहम फैसले तुम खुद लो. किंतु उन से छिप कर नहीं, बल्कि उन्हें अपने फैसलों में शामिल कर के. बचपन तो जीवन के भोर के मानिंद रमणीय होता है किंतु जीवन का अपराह्न आतेआते तपती धूप में मांबाप ही तुम्हारे वटवृक्ष हैं, उन से जुड़े रहो, अलग मत हो.’’

तभी अजीत, थोड़ा माहौल को संभालते हुए, ताली बजाते हुए अपरा

से बोले, ‘‘अरे भई, इतनी नसीहत, तुम्हारी मां तो बहुत अच्छा भाषण देने लगी हैं, लगता है अगले चुनाव की तैयारी है.’’

मैं मन ही मन बोली, ‘नसीहत नहीं, वसीयत.’

पूरी तरह सहज अपरा 2 दिन रह कर फिर दिल्ली जाने के लिए तैयार होने लगी. बुझे मन और आंखों में आंसू लिए, जब उसे छोड़ मैं अपने कमरे में वापस आई तो मेरा मन सामने टेबल

पर रखे कार्ड को देख खुशी से नाच उठा जिस पर उस ने लिखा था, ‘यू आर ग्रेट, मौम.’

अब कोई नाता नहीं: क्या सब ठीक हुआ निशा और दिशा के बीच

“मुझे माफ करना, अतुल. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है, तिरस्कार किया है और कई बार तुम्हारा मजाक भी उड़ाया है. मगर आज जब मुझे अपने बेटे की सब से ज्यादा जरूरत थी तब तुम ही मेरे करीब थे. अगर आज तुम न होते तो न जाने मेरा क्या हाल होता. मैं शायद इस दुनिया में न होता. अतुल बेटा, हम दोनों तो बिलकुल अकेले पड़ गए थे. अब तो मुझे सुमित को अपना बेटा कहने में भी शर्म आ रही है. उसे विदेश क्या भेजा, वह विदेशी हो कर रह गया, मांबाप को भी भूल गया. अब मेरा उस से कोई नाता नहीं,” यह कहते हुए कांता प्रसाद फफकफफक कर रो पड़े, उन्होंने अतुल को खींच कर गले लगा लिया.

अतुल की आंखें भी नम हो गईं., वह अतीत की यादों में खो गया. अतुल के पिता रमाकांत की एक छोटी सी मैडिकल शौप थी जो सरकारी अस्पताल के सामने थी. परिवार की आर्थिक स्थिति विकट होने से अतुल ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. कक्षा 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद उस ने फार्मेसी में डिप्लोमा किया और अपने पिता के साथ दुकान में उन का हाथ बंटाने लगा.

एक ही शहर में दोनों भाइयों का परिवार रहता था मगर रिश्तों में मधुरता नहीं थी. कांता प्रसाद और छोटे भाई राम प्रसाद के बीच अमीरीगरीबी की दीवार दिनबदिन ऊंची होती जा रही थी. दोनों भाइयों के बीच एक बार पैसों के लेनदेन को ले कर अनबन हो गई थी जिस के कारण उन के बीच कई सालों से बोलचाल बंद थी. होलीदीवाली जैसे त्योहारों पर महज औपचारिकता निभाते हुए उन के बीच मुलाकात होती थी.

अतुल के ताऊजी कांता प्रसाद एक प्राइवेट बैंक में मैंनेजर थे जो अपने इकलौते बेटे सुमित की पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. सुमित शहर की सब से महंगे और मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. जब कभी अतुल उन से बैंक में या घर पर मिलने जाता था तब वे उस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे–

‘अरे अतुल, एक बार कालेज का तो मुंह देख लेता. अभी 20-22 का हुआ नहीं कि दुकानदारी करने बैठ गया. कालेजलाइफ कब एंजौय करेगा? तेरा बाप क्या पैसा साथ ले कर जाएगा?’

‘नहीं ताऊजी, ऐसी बात नहीं है. मेरी भी आगे पढ़ने की इच्छा है और पापा भी मुझे पढ़ाना चाहते हैं पर मैं अपने घर की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह से अवगत हूं. मैं ने ही उन्हें मना कर दिया कि मुझे आगे नहीं पढ़ना है. निशा और दिशा को पहले पढ़ानालिखाना है ताकि वे पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं जिस से उन के विवाह में अड़चन न आए. एक बार उन के हाथ पीले हो जाएं तो मम्मीपापा की चिंता मिट जाएगी. वे दोनों आएदिन निशा और दिशा की चिंता करते हैं. आजकल के लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करने वाली लड़कियां ही ज्यादा पसंद करते हैं. ताऊजी, आप को तो पता ही है कि हमारी मैडिकल शौप से ज्यादा आमदनी नहीं होती. सरकारी अस्पताल के सामने मैडिकल की पचासों दुकानें हैं. कंपीटिशन बहुत बढ़ गया है. फिर आजकल औनलाइन का भी जमाना है. मेरा क्या है, मैं निशा और दिशा की विदाई के बाद भी प्राइवेटली कालेज कर लूंगा पर अभी परिवार की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है.’

अतुल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा तो कांता प्रसाद को बड़ा ताज्जुब हुआ कि अतुल खेलनेकूदने की उम्र में इतनी समझदारी व जिम्मेदारी की बातें करने लग गया है. और एक उन का बेटा सुमित जो अतुल की ही उम्र का है मगर उस पर अभी भी बचपना और अल्हड़पन सवार था, वह घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही मशगूल है. कांता प्रसाद के पास रुपएपैसों की कमी न थी. उन के बैंक के कई अधिकारियों के बेटे विदेशों में पढ़ रहे थे, सो  कांता प्रसाद ने भी सुमित को विदेश भेजने के सपने संजो कर रखे थे.

वक्त बीत रहा था. सुमीत इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद एमएस के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. इसी बीच कांता प्रसाद बैंक से सेवानिवृत हो गए. पत्नी रमा के साथ आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. सुमित के लिए विवाह के ढेरों प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे. अपना इकलौता बेटा विदेश में है, यह सोच कर ही कांता प्रसाद मन ही मन फूले न समाते थे. अब तो वे ज़मीन से दो कदम ऊपर ही चलने लगे थे. जब भी कोई रिश्तेदार या दोस्त मिलता तो वे सुमित की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग जाते. कुछ दिन तक तो परिवार के सदस्य और यारदोस्त उन का यह रिकौर्ड सुनते रहे मगर धीरेधीरे उन्हें जब बोरियत होने लगी तो वे उन से कन्नी काटने लगे.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. सुमित को आस्ट्रेलिया जा कर 3 साल का वक्त हो गया था. एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने एमएस की डिग्री हासिल कर ली है और वह अब यूएस जा रहा है जहां उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में मोटे पैकेज की नौकरी भी मिल गई है. कांता प्रसाद के लिए यह बेशक बहुत ही बड़ी खुशी की बात थी.

कांता प्रसाद और रमा अभी खुशी के इस नशे में चूर थे कि एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने अपनी ही कंपनी में नौकरी करने वाली एक फ्रांसीसी लड़की एडेला से शादी कर ली है. सुमित के विवाह को ले कर सपनों के खूबसूरत संसार में खोए हुए कांता प्रसाद और रमा बहुत ही जल्दी यथार्थ के धरातल पर धराशायी हो गए. अब तो दोनों अपने घर में ही बंद हो कर रह गए. लड़की वालों के फोन आने पर ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर टालते रहे. कांता प्रसाद और रमा ने सुमित के विवाह की बात छिपाने की बहुत कोशिश की मगर जिस तरह प्यार और खांसी छिपाए नहीं छिपती, उसी तरह सुमित के विदेशी लड़की से विवाह करने की बात उन के करीबी रिश्तेदारों के बीच बहुत ही जल्दी फैल गई. परिणास्वरूप रिश्तेदारों एवं करीबी लोगों ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया.

उधर, सुमित दिनबदिन अपने काम में इतना मसरूफ हो गया था कि वह महीनों तक अपने मातापिता को फोन नहीं कर पाता था. यहां से कांता प्रसाद और रमा फोन करते तो वह कभी काम में व्यस्त बता कर या मीटिंग में है, कह कर फोन काट देता था. अब तो कांता प्रसाद और रमा बिलकुल अकेले पड़ गए थे. छोटीमोटी बीमारी होने पर उन्हें पड़ोसियों का सहारा लेना पड़ता था. मगर हर बार यह मुमकिन नहीं था कि जब उन्हें जरूरत पड़े तब पड़ोसी उन की सेवा में हाजिर हो जाएं. इसी बीच देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने कहर ढाना शुरू कर दिया. लौकडाऊन के कारण कामवाली बाई यशोदा ने आना बंद कर दिया और घरेलू नौकर किशन अपने गांव चला गया. लोग अपनेअपने घरों में बंद हो गए. रमा को दमे की शिकायत थी, तो कांता प्रसाद डायबेटिक थे. चिंता और तनाव ने दोनों को और अधिक बीमार बना दिया था. सुमित इस संकट की घड़ी में व्हाट्सऐप पर ‘टेक केयर, बाहर बिलकुल मत जाना, और जाना पड़ जाए तो मास्क पहन कर जाना, सैनिटाइजर का उपयोग करते रहना, बारबार साबुन से हाथ धोते रहना, सोशल दूरी बनाए रखना’ जैसे महज औपचारिक संदेश नियमित रूप से भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था.

एक दिन रात में कांता प्रसाद को तेज बुखार आया. उन्हें लगा, मौसम बदलने से आया होगा. घर में ही दवा खा ली. मगर बुखार न उतरा. 2 दिनों बाद उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी और मुंह का स्वाद चला गया. तब रमा को पता चला कि ये तो कोरोना के लक्षण हैं. रात में करीब 1 बजे उन्होंने अतुल को फोन किया और सारी बात बताई. अतुल और उस के पिता ने तुरंत भागदौड़ शुरू कर दी. अतुल ने एक सामाजिक संस्था के यहां से एम्ब्युलैंस मंगवाई और अपने पिता के साथ कांता प्रसाद के घर के लिए रवाना हो गया. बीच रास्ते में अतुल अस्पतालों में बैड की उपलब्धता के लिए लगातार फोन कर रहा था. दोतीन अस्पतालों से नकारात्मक उत्तर मिला, मगर एक अस्पताल में एक बैड मिल गया. अतुल ने कांता प्रसाद को फोन कर के अस्पताल जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा. रात करीब 2 बजे कांता प्रसाद को एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में एडमिट कर दिया और ट्रीटमैंट चालू हो गया.

रमा की आंखों में छिपा हुआ नीर आंसुओं का रूप धारण कर उस के गालों को भिगोने लगा जिसे देख अतुल ने कहा–

‘ताईजी, प्लीज आंसू न बहाओ. अब चिंता की बात नहीं है. यह शहर का बहुत अच्छा अस्पताल है. ताऊजी जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. ताईजी, अब आप हमारे घर चलो. ताऊजी के ठीक होने तक आप हमारे ही घर पर रहना. अस्पताल में कोरोना मरीज के रिश्तेदारों को ठहरने की अनुमति नहीं है.’

रमा का कंठ रुंध गया था. वह बोल नहीं पा रही थी. खामोशी से अतुल के साथ रवाना हो गई.

कांता प्रसाद का औक्सीजन लैवल कम हो जाने से कुछ दिनों तक उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया. फिर उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टरों ने बताया कि समय पर बैड मिल जाने से उन की जान बच गई है. कुछ ही दिनों के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कांता प्रसाद मन ही मन सोच रहे थे कि आज अतुल उन की सहायता के लिए दौड़ कर न आता तो न जाने उन का क्या हाल होता. इस कोरोना महामारी ने आज इंसान को इंसान से दूर कर दिया है. कोरोना का नाम सुनते ही अपने लोग ही दूरियां बना लेते हैं. ऐसे में अतुल और राम प्रसाद ने अपनी जान की परवा किए बगैर उन की हर संभव सहायता की थी. बुरे वक्त में अतुल ही उन के काम आया था, उन के अपने बेटे सुमित ने तो उन से अब महज औपचारिक रिश्ता बना कर रखा था. वे मन ही मन सोचने लगे कि अब उस से तो नाता रखना बेकार है.

अतुल के साथसाथ कांता प्रसाद भी अतीत की यादों से वर्तमान में लौटे. वे अभी भी अतुल को अपने गले से लगाए हुए थे. अतुल ने अपने आप को उन से अलग करते हुए कहा–

“ताऊजी, पुरानी बातों को छोड़ दीजिए, मैं तो आप के बेटे के समान हूं. क्या पिता अपने बेटे को डांटताफटकारता नहीं है. फिर आप तो मेरे बड़े पापा हैं. मुझे आप की बातों का कभी बुरा नहीं लगा. अब आप अतीत की कटु यादों को बिसरा दो और अपनी तबीयत का ध्यान रखो. अपनी मैडिकल की दुकान होने से कई बार अस्पतालों में जाना पड़ता है, इसी कारण कुछेक डाक्टरों से मेरी पहचान हो गई है. इसलिए आप को बैड मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई और आप का समय पर इलाज हो गया. अब आप को डाक्टरों ने सख्त आराम की हिदायत दी है.“

बाद में वह ताईजी की ओर मुखातिब होते हुए बोला–

“ताईजी, अब आप ताऊजी के पास ही बैठी रहोगी और इन का पूरा ध्यान रखोगी, साथ ही, अपना भी ध्यान रखोगी. अब आप की उम्र हो गई है, सो आप दोनों को आराम करना चाहिए. अब आप दोनों को किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. अभी कुछ ही देर में दिशा और निशा यहां पर आ रही हैं. वे किचन संभाल लेंगी और घर का सारा काम भी वे दोनों कर लेंगी.“

अभी अतुल ने अपनी बात समाप्त भी नहीं की कि राम प्रसाद ने अपनी पत्नी सरला और दोनों बेटियों के साथ घर में प्रवेश किया.

राम प्रसाद भीतर आते ही कांता प्रसाद के पैर छूने के लिए आगे बढ़े तो कांता प्रसाद ने उन्हें अपने गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. एक लंबे अरसे से दोनों के मन में जमा सारा मैल पलभर में आंसुओं में बह गया.

दोनों भाइयों को वर्षों बाद गले मिलते देख परिवार के अन्य सदस्यों की आंखें भी पनीली हो गईं. निशा और दिशा सभी के लिए चायनाश्ता बनाने के लिए रसोई घर की ओर मुड़ गई. बैठक में कुछ देर तक निस्तब्धता छायी रही जिसे अतुल ने भंग करते हुए कहा–

“ताऊजी, एक बात कहूं, कोरोना महामारी ने लोगों के बीच दूरियां जरूर बढ़ाई हैं पर हमारे लिए कोरोना लकी साबित हुआ है क्योंकि इस ने 2 परिवारों की दूरियां मिटाई हैं.” यह कहते हुए वह जोर से हंसने लगा, अतुल की हंसी ने गमगीन माहौल को खुशनुमा बना दिया.

कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा–

“अतुल बेटा, एक बात ध्यान से सुनना, सरकारी अस्पताल के सामने मैं ने अपनी एक दुकान बनवारीलाल को किराए पर दे रखी है न, वह इस महीने की 30 तारीख को खाली कर रहा है. अब तुम इस दुकान में शिफ्ट हो जाना, आज से यह दुकान तुम्हारी है, समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.”

अतुल बीच में बोल पड़ा–

“नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.”

“अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,” कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.

“भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित…”

राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, “अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.”

कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.

कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा–

“ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था. देखो, अब ये कितनी बड़ी हो गई हैं.” यह कहते हुए रमा निशा और दिशा का माथा चूमने लगी, फिर कांता प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली–

“आप ने बहुत बातें कर लीं जी, अब मेरी बात भी सुन लो. मैं ने निशा और दिशा का कन्यादान करने का निर्णय लिया है. इन दोनों के विवाह का संपूर्ण खर्च मैं करूंगी. अतुल इन्हें जितना पढ़ना है, पढ़ने देना और अगर तुम प्राइवेटली आगे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो. अब तुम्हें और तुम्हारे मम्मीपापा को निशा-दिशा की चिंता करने की जरूरत नहीं है.“

“रमा, तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मैं भी यही कहने वाला था. हम तो बेटी के लिए तरस रहे थे. ये अपनी ही तो बेटियां हैं.”

कांता प्रसाद ने उत्साहित होते हुए कहा तो उन का चेहरा खुशी से चमक उठा मगर उन की बातें सुन कर राम प्रसाद और मूकदर्शक बन कर बैठी सरला की आंखों से आंसुओं की धारा धीरेधीरे बहने लग गई. माहौल फिर गंभीर बन रहा था,  इस बार निशा ने माहौल को हलकाफुलका करते हुए कहा–

“आप सब तो बस बातें करने में ही मशगूल हो गए हैं. चाय की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है. देखो, यह ठंडी हो गई है. मैं फिर से गरम कर के लाती हूं.“ यह कहते हुए निशा उठी तो उस के साथसाथ दिशा भी खड़ी हो गई. दिशा ने सभी के सामने रखी नाश्ते की खाली प्लेटें उठाईं तो निशा ने ठंडी चाय से भरे कप उठाए. फिर दोनों किचन की ओर मुड़ गईं जिन्हें कांता प्रसाद और रमा अपनी नज़रों से ओझल हो जाने तक डबडबाई आंखों से देखते रहे.

चौथापन- भाग 1 : मुन्ना के साथ क्या हुआ

वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें