खुशियों का समंदर: भाग 1- क्रूर समाज ने विधवा बहू अहल्या को क्यों दी सजा

सूरत की सब से बड़ी कपड़ा मिल के मालिक सेठ लालचंद का इकलौता बेटा अचानक भड़के दंगे में मारा गया. दंगे में यों तो न जाने कितने लोगों की मौत हुई थी पर इस हाई प्रोफाइल ट्रैजडी की खबर से शहर में सनसनी सी फैल गई थी. गलियों में, चौक पर, घरघर में इसी दुर्घटना की चर्र्चा थी. फैक्टरी से घर लौटते समय दंगाइयों ने उस की गाड़ी पर बम फेंक दिया था. गाड़ी के साथ ही नील के शरीर के भी चिथड़े उड़ गए थे. कोई इसे सुनियोजित षड्यंत्र बता रहा था तो कोई कुछ और ही. जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. जो भी हो, सेठजी के ऊपर नियति का बहुत बड़ा वज्रपात था. नील के साथ उस के मातापिता और नवविवाहिता पत्नी अहल्या सभी मृतवत हो गए थे. एक चिता के साथ कइयों की चिताएं जल गई थीं. घर में चारों ओर मौत का सन्नाटा फैला हुआ था. 3 प्राणियों के घर में होश किसे था कि एकदूसरे को संभालते. दुख की अग्नि में जल रहे लालचंद अपने बाल नोच रहे थे तो उन की पत्नी सरला पर रहरह कर बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे. अहल्या की आंखों में आंसुओं का समंदर सूख गया था. जिस मनहूस दिन से घर से अच्छेखासे गए नील को मौत ने निगल लिया था, उस पल से उस ने शायद ही अपनी पलकों को झपकाया था. उसे तो यह भी नहीं मालूम कि नील के खंडित, झुलसे शरीर का कब अंतिम संस्कार कर दिया गया. सेठजी के बड़े भाई और छोटी बहन का परिवार पहाड़ से आ गए थे, जिन्होंने घर को संभाल रखा था. फैक्टरी में ताला लग गया था.

4 दशक पहले लालचंद अपनी सारी जमापूंजी के साथ बिजनैस करने के सपने लिए इस शहर में आए थे. बिजनैस को जमाना हथेलियों पर पर्वत उतारना था, पर लालचंद की कर्मठता ने यह कर दिखाया. बिजनैस जमाने में समय तो लगा पर अच्छी तरह से जम भी गया. जब मिल सोना उगलने लगी तो उन्होंने एक और मिल खोल ली. शादी के 10 वर्षों बाद उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं. बेटा नील के बाद दूसरी संतान की आशा में उन्होंने अपनी पत्नी का कितना डाक्टरी इलाज, झाड़फूंक, पूजापाठ करवाया, पर सरला की गोद दूसरी बार नहीं भरी. नील की परवरिश किसी राजकुमार की तरह ही हुई. और होती भी क्यों न, नील मुंह में सोने का चम्मच लिए पैदा जो हुआ था. नील भी बड़ा प्रतिभाशाली निकला. अति सुंदर व्यक्तित्व और अपनी विलक्षण प्रतिभा से सेठजी को गौरवान्वित करता. वह अहमदाबाद के बिजनैस स्कूल का टौपर बना. विदेशी कंपनियों से बड़ेबड़े औफर आए पर सेठजी का अपना बिजनैस ही इतना बड़ा था कि उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी.

पिछले साल ही लालचंद ने अपने मित्र की बेटी अहल्या से नील की शादी बड़ी धूमधाम से की थी. अपार सौंदर्य और अति प्रतिभाशालिनी अहल्या के आने से उन के महल जैसे विशाल घर का कोनाकोना सज गया था. बड़े ही उत्साह व उमंगों के साथ सेठजी ने बेटेबहू को हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड भेजा था. जहां दोनों ने महीनाभर सोने के दिन और चांदी की रातें बिताई थीं. अहल्या और नील पतिपत्नी कम, प्रेमी और प्रेमिका ज्यादा थे. उन दोनों के प्यार, मनुहार, उत्साह, उमंगों से घर सुशोभित था. हर समय लालचंद और सरलाजी की आंखों के समक्ष एक नन्हेमुन्ने की आकृति तैरती रहती थी.

दादादादी बनने की उत्कंठा चरमसीमा पर थी. वे दोनों सारी लज्जा को ताक पर रख कर अहल्या और नील से अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए गुजारिश किया करते थे. प्रत्युत्तर में दोनों अपनी सजीली मुसकान से उन्हें नहला दिया करते थे. ये कोई अपने हाथ की बात थोड़े थी. उन की भी यही इच्छा थी कि एकसाथ ही ढेर सारे बच्चों की किलकारियों से यह आंगन गूंज उठे. पर प्रकृति तो कुछ और जाल बिछाए बैठी थी. पलभर में सबकुछ समाप्त हो गया था.

कड़कती बिजली गिर कर हंसतेखेलते आशियाने को क्यों न ध्वंस कर दे, लेकिन सदियों से चली आ रही पत्थर सरीखी सामाजिक परंपराओं को निभाना तो पड़ता ही है. मृत्यु के अंतिम क्रियाकर्म की समाप्ति के दिन सरला अपने सामने अहल्या को देख कर चौंक गई. शृंगाररहित, उदासियों की परतों में लिपटे, डूबते सूर्य की लाली सरीखे सौंदर्य को उन्होंने अब तक तो नहीं देखा था. सभी की आंखें चकाचौंध थीं. कैसे और कहां रख पाएगी ऐसे मारक सौंदर्य को. इसे समाज के गिद्धों की नजर से कैसे बचा पाएगी. अपने दुखों की ज्वाला में इस सदविधवा के अंतरमन में गहराते हाहाकार को वह कैसे भूल गई थी. उस की तो गोद ही उजड़ी है पर इस का तो सबकुछ ही नील के साथ चला गया. ‘‘उठिए मां, हमारे दुखों के रथ पर चढ़ कर नील तो आ नहीं सकते. इतने बड़े विध्वंस से ही हमें अपने मृतवत जीवन के सृजन की शुरुआत करनी है,’’ कहती हुई सरला को लालचंद के पास ले जा कर बैठा दिया. दोनों की आंखों से बह रही अविरल अश्रुधारा को वह अपनी कांपती हथेलियों से मिटाने की असफल चेष्टा करती रही.

नील की जगह अब लालचंद के साथ अहल्या फैक्टरी जाने लगी थी. उस ने बड़ी सरलता से सबकुछ संभाल लिया. उस ने भले ही पहले नौकरी न की हो पर एमबीए की डिगरी तो थी ही उस के पास. सरला और लालचंद ने भी किसी तरह की रोकटोक नहीं की. अहल्या के युवा तनमन की अग्नि शांत करने का यही उपाय बच गया था. लालचंद की शारीरिक व मानसिक अवस्था इस काबिल नहीं थी कि वे कुछ कर सकें. नील ही तो सारी जिम्मेदारियों को अब तक संभाले हुए था. फैक्टरी की देखभाल में अहल्या ने दिनरात एक कर दिया. दुखद विगत को भूलने के लिए उसे कहीं तो खोना था. लालचंद और सरला भले ही अहल्या का मुंह देख कर जी रहे थे, पर उन के इस दुख का कोई किनारा दृष्टिगत नहीं हो रहा था. एक ओर उन दोनों का मृतवत जीवन और अनिद्य सुंदरी युवा विधवा अहल्या तो दूसरी तरफ उन की अकूत संपत्ति, फैला हुआ व्यापार और अहल्या पर फिसलती हुई लोगों की गिद्ध दृष्टियां. तनमन से टूटे वे दोनों कितने दिन तक जी पाएंगे. उन के बाद अकेली अहल्या किस के सहारे रहेगी.

समाज की कुत्सित नजरों के छिपे वार से उस की कौन रक्षा करेगा. इस का एक ही निदान था कि वे अहल्या की दूसरी शादी कर दें. लेकिन सच्चे मन से एक विधवा को अपनाएगा कौन? उस की सुंदरता और उन की दौलत के लोभ में बहुत सारे युवक तैयार तो हो जाएंगे पर वे कितनी खुशी उसे दे पाएंगे, यह सोचते हुए उन्होंने भविष्य पर सबकुछ छोड़ दिया. अभी जख्म हरा है, सोचते हुए अहल्या के दुखी मन को कुरेदना उन्होंने ठीक नहीं समझा. ऐसे ही समय बीत रहा था. न मिटने वाली उदासियों में जीवन का हलका रंग प्रवेश करने लगा था. फैक्टरी के काम से जब भी लालचंद बाहर जाते, अहल्या साथ हो लेती. काम की जानकारी के अलावा, वह उन्हें अकेले नहीं जाने देना चाहती थी. सरला ने भी उसे कभी रोका नहीं क्योंकि अब तो सभीकुछ अहल्या को ही देखना था. शिला बनी अहल्या के जीवन में खुशियों के रंग बिखर जाएं, इस के लिए दोनों प्रयत्नशील थे.

एक विधवा के लिए किसी सुयोग्य पात्र को ढूंढ़ लेना आसान भी नहीं था. सरला के चचेरे भाई आए तो थे मातमपुरसी के लिए पर अहल्या के लिए अपने बेटे के लिए सहमति जताई तो दोनों ही बिदक पड़े. इन के कुविख्यात नाटे, मोटे, काले, मूर्ख बेटे की कारगुजारियों से कौन अनजान था. पिछले साल ही पहाड़ की किसी नौकरानी की नाबालिग बेटी के बलात्कार के सिलसिले में पुलिस उसे गिरफ्तार कर के ले गई थी पर साक्ष्य के अभाव में छूट गया था. इन लोगों की नजर उन की अकूत संपत्ति पर थी, इतना तो लालचंद और सरला समझ ही गए थे.

आगे पढ़ें- अपने भाई की बात सुन कर सरला…

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 1

“मां… मां, प… पापा को हार्ट अटैक आया है. हम उन्हें अस्पताल ले कर जा रहे हैं. आ… आप भी वहीं पहुंचो जल्दी से,” घबराई सी बोल कर कृति ने फोन रख दिया.

शीतल स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी, मगर अर्णब के अटैक की बात सुन कर वह भी घबरा गई. उस ने अपना पर्स उठाया, पड़ोस में चाबी थमाई और गाड़ी सीधे अस्पताल की तरफ मोड़ दी. अभी जाने में और टाइम लगेगा, क्योंकि शीतल के घर से अस्पताल का रास्ता तकरीबन दोढाई घंटे का था.

शीतल को देखते ही कृति सिसक पड़ी और कहने लगी कि वह तो अच्छा था कि सब घर पर ही थे, वरना अनर्थ हो जाता.

“चुप हो जाओ कृति, सब ठीक हो जाएगा. कुछ नहीं होगा तुम्हारे पापा को,” बेटी कृति को सीने से लगा कर पुचकारते हुए शीतल बोली, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि यों अचानक कैसे अर्णब को अटैक आ गया? अभी परसों ही तो कृति बता रही थी कि अर्णब का शुगर, बीपी सब नौर्मल है. देखने में भी वह नौर्मल ही लग रहा था, फिर… ऐसे कैसे?“

ये भी पढ़ें- आंगन का बिरवा: सहेली मीरा ने नेहा को क्या दी सलाह

इसी हफ्ते उन दोनों के तलाक को ले कर कोर्ट का अंतिम फैसला होने वाला है. अगर अर्णब की तबीयत ठीक नहीं हुई, तो फिर… फिर तो कोर्ट की डेट आगे बढ़ जाएगी.’

ऐसी बात मन में सोच कर शीतल परेशान हो उठी. रातभर वह बेटी के साथ अस्पताल में अर्णब के होश में आने का इंतजार करती रही. एक डर भी लग रहा था कि सब ठीक तो हो जाएगा न…? अगर कहीं अर्णब को कुछ हो गया तो… बच्चे भी उसे ही दोष देंगे कि उस की वजह से अर्णब…

‘ओह, मैं भी क्या सोचने लगी,’ शीतल मन ही मन बुदबुदाई. फिर वे बेटी की ओर मुखातिब होते हुए बोलीं, “कृति, एक बात बताओ, तुम्हारे पापा समय पर दवाई तो लेते थे न…? खानपान में कोई गड़बड़ी? कहीं शराब बहुत ज्यादा तो नहीं पीने लगे हैं?”

“नहीं मां, ऐसी कोई बात नहीं है. वैसे, अब तो पापा ने शराब पीना बहुत ही कम कर दिया है. लेकिन वही टेंशन जिस के कारण पापा को लगातार 2 बार अटैक आ चुका है.

“आप समझ रही हैं न मां कि मैं क्या कहना चाह रही हूं? मैं भी क्या करूं मां, औफिस और घर में ऐसे पिसती रहती हूं कि पापा के पास आने का समय ही नहीं मिलता. एक ही शहर में रहने के बाद भी हफ्तों हो जाते हैं उन से मिले.

‘‘हां, लेकिन हम रोज वीडियो काल पर जरूर कुछ देर बात कर लेते हैं. परसों पापा जिद करने लगे कि मैं 2-3 दिन रहूं उन के पास आ कर. लेकिन, अच्छा ही किया, नहीं तो पापा आज…’’ कहतेकहते कृति की आवाज भर्रा गई.

“जानती हो मां, पापा बहुत टेंशन में रहने लगे हैं. कहते हैं कि अब जीने का मन नहीं करता. हमेशा उदासी घेरे रहती है उन्हें. मां, एक आप ही हो, जो पापा को इस टेंशन से बचा सकती हो, नहीं तो पापा नहीं बच पाएंगे,” शीतल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कृति बोल ही रही थी कि डाक्टर आ कर कहने लगे कि अर्णब को होश आ गया है और अब वह खतरे से बाहर है.

“ओह, थैंक यू डाक्टर साहब,” कृति ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर एक गहरी सांस ली.

“लेकिन, डाक्टर साहब, क्या हम पापा से मिल सकते हैं?” कृति ने पूछा, तो डाक्टर ने ‘हां’ कहा, लेकिन एकएक कर के.

कृति अपनी मां का हाथ पकड़ कर अर्णब के कमरे की तरफ बढ़ ही रही थी, तभी अचानक शीतल ने अपना हाथ छुड़ा लिया. वे बोलीं, “कृति, तुम जाओ, मुझे घर जाना होगा. स्कूल भी जाना जरूरी है आज.

“देखो, प्रिंसपल सर के कितने मिस्ड काल हैं, क्योंकि कल इन सब कारणों से स्कूल नहीं जा पाई थी, इसलिए आज जाना ही होगा. बच्चों के एग्जाम्स आने वाले हैं?” कह कर शीतल झटके से अस्पताल से बाहर निकल गई.

गाड़ी चलाते हुए भी वह बहुत बेचैन दिख रही थी. मन में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. कभी लग रहा था, वह जो करने जा रही है गलत है, तो कभी लग रहा था, सही है.

क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. बेटे जिगर का फोन आया, तो वह विचारों से बाहर निकली. आवाज में उस की भी उदासी झलक रही थी. आखिर बाप है चिंता तो होगी ही न.

“अब ठीक हैं तुम्हारे पापा, चिंता मत करो. डाक्टर ने कहा है कि अब वे खतरे से बाहर हैं. मैं गाड़ी चला रही हूं. स्कूल से लौट कर शाम को बात करती हूं, ठीक है… और बच्चे, दिव्या वगैरह सब ठीक हैं न? ओके, बाय बेटा, यू टेक केयर योर सेल्फ.

ये भी पढ़ें- छंट गया कुहरा: विक्रांत के मोहपाश में बंधी जा रही थी माधुरी

‘‘हां… हां, मैं ठीक हूं, तुम चिंता मत करो,” कह कर शीतल ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि एक जिगर ही है, जो उसे समझता है. उस की बातों से ही झलक रहा था कि अपने पापा से ज्यादा उसे अपनी मां की फिक्र हो रही है. हो भी क्यों न, आखिर उस के अनगिनत दर्दों को उस ने भी तो देखा और महसूस किया है.

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है कि कृति उसे नहीं समझती या उस से प्यार नहीं करती. मगर वह चाहती है कि उस के मांपापा फिर से साथ रहने लगें पहले की तरह. लेकिन, अब यह नामुमकिन है.’

यही सब सोचतेसोचते शीतल कब स्कूल पहुंच गई, उसे पता ही नहीं चला. मीनाक्षी ने ‘हाय, गुड मौर्निंग’ बोला, तो उसे एहसास हुआ कि वह स्कूल में आ चुकी है.

“हाय, गुड मौर्निंग,“ शीतल ने कहा, तो वह पूछने लगी कि अब अर्णब की तबीयत कैसी है?

“ठीक हैं. डाक्टर ने कहा कि अब वे खतरे से बाहर हैं. थैंक यू मीनू, तुम ने मेरा इतना साथ दिया,” मीनाक्षी का आभार जताते हुए शीतल बोली.

“अरे, इस में थैंक यू की क्या बात है. तुम भी तो कभीकभार मेरे लिए ऐसा करती हो न? कई बार मैं स्कूल नहीं आ पाती किसी वजह से, तब तुम मेरी जगह मेरी क्लास ले लेती हो. तो आज अगर मैं ने ऐसा कर दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई. आखिर ऐसे ही तो दुनिया चलती है न. और हम एकदूसरे की परेशानी नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा,” मुसकराते हुए मीनाक्षी बोली. लेकिन आगे अभी वह कुछ और बोलती ही, तब तक शीतल आगे बढ़ गई, क्योंकि वह जानती थी कि इस के बाद मीनाक्षी का क्या सवाल होगा? वह भी वही सब बातें करने लगेगी, जो मिलने पर रिश्तेदार और जानपहचान वाले करने लगते हैं. लेकिन अभी वह इन सवालजवाब में उलझना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह तनमन दोनों से काफी थक चुकी थी. स्कूल आना जरूरी नहीं होता, तो न आती आज भी.

ये भी पढ़ें- Short Story: जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी

शीतल स्कूल में मैथ की टीचर है और मीनाक्षी, साइंस की. दोनों स्कूल में टीचर होने के साथसाथ आपस में बहुत अच्छी सहेलियां भी हैं. दोनों के घर आसपास ही हैं, तो अकसर दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना होता रहता है. छुट्टी के दिन दोनों साथ ही खरीदारी करने या कहीं घूमने निकल पड़ती हैं.

आगे पढ़ें- 5 साल पहले अपने पिता के मरने पर…

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 2

शीतल की तरह मीनाक्षी भी अकेली रहती है. एक बेटा है, जो अमेरिका में जा बसा. पति रहे नहीं अब. पढ़ाई पूरी होने के बाद वहीं अमेरिका में बेटे की एक कंपनी में जौब लग गई. फिर शादी भी उस ने एक अमेरिकन लड़की से कर ली और हमेशा के लिए वहीं का हो कर रह गया.

5 साल पहले अपने पिता के मरने पर वह आया था, फिर आया ही नहीं. लेकिन फोन पर बेटे से बात होती रहती है मीनाक्षी की. मीनाक्षी अपने पति से कितना प्यार करती है, यह उस की बातों से ही झलक जाता है. बताती है कि उस के पति बहुत ही अच्छे इनसान थे. शादी के इतने सालों में कभी उन्होंने मीनाक्षी को एक कड़वी बात तक नहीं बोली. बहुत प्यार करते थे मीनाक्षी से वह.

मीनाक्षी अपने पति की तुलना अर्णब से करती है. इसलिए शीतल को समझाती रहती है कि वह जो करने जा रही है, सही नहीं है. पतिपत्नी में तो लड़ाईझगड़े होते ही हैं. इस का यह मतलब तो नहीं कि दोनों अलग हो जाएं. लेकिन कहते हैं कि ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई,’ मीनाक्षी को क्या पता कि शीतल ने अपनी जिंदगी में क्याक्या नहीं झेला. कितना सहा उस इनसान को. लेकिन सहने की भी एक हद होती है? तभी तो शादी के इतने सालों बाद शीतल अपने पति अर्णब से तलाक लेने की ठान चुकी है.जानती है, ऐसा कर के वह सब की नजरों में बुरी बन रही है. यहां तक कि उस की अपनी बेटी भी उसे सही नहीं ठहरा रही है. लेकिन, कोई बात नहीं, उस ने जो ठान लिया है अब उस से पीछे नहीं हटेगी.

ये भी पढ़ें- वह चालाक लड़की: क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

खैर, अर्णब जब तक अस्पताल में रहा, शीतल एक बार रोज उसे देख आती थी, ताकि बेटी को बुरा न लगे, वरना वह तो उस इनसान का चेहरा भी देखना पसंद नहीं करती थी.

कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद अर्णब को वहां से छुट्टी दे दी गई. शीतल का जरा भी मन नहीं था, पर कृति की जिद के कारण उसे भी अर्णब को घर तक छोड़ने जाना पड़ा. लेकिन उस घर में पांव रखते ही शीतल को वह सारी पुरानी बातें याद आने लगीं. वह मारपीट, गालीगलौज सबकुछ उस की आंखों के सामने नाचने लगा, इसलिए वह जल्दी से जल्दी इस घर से निकल जाना चाहती थी, मगर कृति ने यह कह कर उसे रोक लिया कि पापा को खिलापिला कर दवाएं दे कर चली जाए.

दवा खाते ही अर्णब को नींद ने आ घेरा. उस के खर्राटे देख कर तो लग ही नहीं रहा था कि वह एक बीमार इनसान है, काफी स्वस्थ दिख रहा था.

अर्णब को ठीक से सोया देख कर शीतल जब वहां से जाने को हुई, तो कृति जिद करने लगी कि आज रात वह यहीं रुक जाए. कृति चाह रही थी कि अर्णब और शीतल के बीच किसी तरह बातचीत हो जाए, तो सब ठीक हो जाएगा.

लेकिन शीतल हरगिज अर्णब से किसी भी विषय पर बात करने को तैयार नहीं थी. वह तो बेटी की जिद पर यहां आई थी, वरना तो वह इस घर में पांव भी नहीं रखती कभी.

“प्लीज मां, रुक जाओ न, आज रात यहीं पर. वैसे भी पापा की तबीयत अभी उतनी अच्छी नहीं है,” कृति ने फिर वही बात दोहराई.

“नहीं बेटी, ऐसा तो नहीं हो पाएगा. म… मेरा मतलब है, वहां घर ऐसे ही नहीं छोड़ सकती. चोरियां बहुत होने लगी है अब. और तुम तो हो न यहां पर…?” शीतल ने कहा. लेकिन कृति सब समझ रही थी कि ये सब बहाने हैं शीतल के, ताकि यहां न रुकना पड़े.

“ठीक है मां, नहीं रुकना तो मत रुकिए, पर कुछ देर और बैठ तो सकती हैं न मेरे साथ?“ शीतल का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कृति कहने लगी, “मां, आप मेरी बात समझने की कोशिश करो. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अगर आप चाहो तो सब पहले की तरह हो सकता है. एक अंतिम बार, पापा को माफ कर दो मां, प्लीज.

“मैं… मैं समझाऊंगी पापा को, वह वही करेंगे, जो आप चाहती हो. पापा समझौता करने को तैयार हैं, बस, अपनी जिद छोड़ दो मां.“

“देखो कृति, इन सब बातों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, इसलिए रहने दो तुम,” बोलते हुए शीतल उठ खड़ी हुई.

“नहीं मां, ऐसे मत बोलो. पापा को आप की जरूरत है. मैं मानती हूं कि पापा ने आप के साथ बहुत ज्यादती की है. लेकिन, अब वे काफी बदल चुके हैं. सच कहती हूं मैं. देख नहीं रही हो कैसे गुमसुम, चुपचाप बैठे रहते हैं?”

कृति की बात पर शीतल हंसी और बोली, “नहीं बेटी, ये सब सिर्फ दिखावा है तुम्हारे पापा का मुझे हराने के लिए. और एक बात, इनसान का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता. और मैं कब से उस की जरूरत बन गई? जब पैसा और पावर खत्म हो गया, वह औरत उन्हें छोड़ कर चली गई. अपने मतलब से कोई किसी को अपनी जरूरत बनाए तो उसे प्यार नहीं कहते, उसे मतलबी इनसान कहते हैं. और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे पापा बदल गए हैं, बल्कि अच्छाई का दिखावा कर रहे हैं. खैर, छोड़ो.”

मन तो किया शीतल का कि कह दे, ये हार्ट अटैक भी एक नाटक ही है. क्योंकि वह डाक्टर, जो अर्णब का इलाज कर रहा था, वह उस का जिगरी दोस्त है, तो फिर क्या दिक्कत है नाटक करने में? लगातार 2 बार अटैक आना और फिर जल्द ही नौर्मल होना, यह नाटक नहीं तो और क्या है? किसी तरह चाह रहे हैं कि केस की डेट आगे बढ़ती रहे और वह अपने मकसद में कामयाब हो जाए.

ये भी पढ़ें- मौन: एक नए रिश्ते की अनकही जबान

“अब अर्णब ठीक हैं. तुम चिंता मत करो. अगर कोई जरूरत हुई, तो मैं ज्यादा दूर थोड़ी हूं? आ जाऊंगी.“

“ठीक है मां, दिखावा ही सही, पर जब आप ने अपनी जिंदगी के 30 साल पापा के साथ गुजार दिए तो अब क्यों उन से तलाक लेना चाहती हो? सोचा है, लोग क्या कहेंगे? हंसेंगे सब. लोगों की छोड़ो, कम से कम मेरे और भैया के बारे में तो सोचो. हमारी फैमिली के बारे में तो सोचो. क्या बताएंगे हम सब को कि 52 साल की मेरी मां और 61 साल के मेरे पापा अब साथ नहीं रहना चाहते हैं, इसलिए दोनों तलाक ले रहे हैं?

“बोलो न मां? और कल को जब पापा ही नहीं रहेंगे, फिर किस से ये लड़ाई और किस से झगड़ा करोगी आप? मां इतनी निर्दयी मत बनो प्लीज… छोड़ दो अपनी जिद और लौट आओ अपने घर.”

मन तो किया शीतल का कि एकएक जुल्म जो अर्णब ने बंद कमरे में उस के साथ किए थे, वह भी आज कृति के सामने खोल कर रख दे, क्योंकि वह अब बच्ची नहीं एक औरत बन चुकी है, समझेगी उस का दर्द. लेकिन, उस ने चुप्पी साध ली. क्योंकि पुराने घाव कुरेद कर उसे हरा नहीं करना चाहती थी वह. हां, ठीक है बुरी और स्वार्थी ही सही, लेकिन अब वह अर्णब के साथ नहीं रह सकती. जिंदगीभर वह उस के इशारों पर नाचती रही. अपने लिए तो जीया ही नहीं कभी.

आगे पढ़ें- ऐसा सब नाटक अर्णब तब से करने लगा है, जब…

ये भी पढ़ें- मुंहबोली बहनें: रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 3

“कृति, प्लीज, इस बारे में मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. वैसे भी मुझे बहुत देर हो गई है. अब मुझे निकलना होगा,” अपनी घड़ी पर एक नजर डालते हुए शीतल ने अपना कदम आगे बढ़ाया ही था कि कृति ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, “क्यों मां… क्यों नहीं समझतीं आप मेरी बात? क्यों जिद पर अड़ी हैं? क्या चाहती हैं आप कि पापा को फिर से अटैक आ जाए? देखना, नहीं बचेंगे इस बार. तुली रहो आप अपनी जिद पर,” इस बार कृति की आवाज जरा तेज हो गई. वह फिर से थोड़ा रुक कर बोली, “क्या अंतिम बार माफ नहीं कर सकतीं आप उन्हें? ऐसा कौन सा इतना बड़ा गुनाह कर दिया पापा ने, जो वे माफी के भी काबिल नहीं रहे.“

“हां, गुनहगार हैं वे. मेरी खुशियों का कत्ल किया है उन्होंने. कभी चैन से जीने नहीं दिया मुझे, इसलिए माफ नहीं कर सकती उन्हें. आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं…

“और मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि हम इस विषय पर कभी बात नहीं करेंगे, फिर भी तुम वही सब बातें क्यों दोहराती रहती हो? अब जो होना है हो कर रहेगा,” कह कर शीतल झटके से वहां से निकल गई.

ऐसा सब नाटक अर्णब तब से करने लगा है, जब से दोनों ने तलाक का केस फाइल किया है. उस रोज बड़े घमंड से अर्णब ने कहा था, ‘देखते हैं कि तुम मुझ से कैसे तलाक लेती हो? देखना, तुम खुद यह तलाक का केस वापस भी लोगी और इस घर में लौट कर भी आओगी, क्योंकि तुम्हारे पास कोई चारा ही नहीं बचेगा इस के सिवा,’ इस पर शीतल ने कहा था, “ठीक है, तो फिर तुम भी देख लो कि कैसे मैं तुम से तलाक ले कर रहती हूं. और अगर तलाक न भी हो हमारा, फिर भी मैं इस घर में और न ही तुम्हारी जिंदगी में कभी लौट कर आऊंगी.”

अर्णब जितना तलाक के केस में अड़ंगा लगाने की कोशिश कर रहा था, शीतल का मनोबल उतना ही मजबूत होता जा रहा है.

ये भी पड़ें- कामिनी आंटी: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

‘माफ कर दूं? उस इनसान को, जिस ने मेरी जिंदगी को नरक बना कर रख दिया. उम्र की इस दहलीज पर अगर मैं उस इनसान से छुटकारा चाहती हूं तो सोचो न, मैं ने कितना कुछ सहा होगा? लोग क्या कहेंगे? यही सब लोग तब कहां थे, जब मेरा पति शराब पी कर मुझे मारतापीटता था, गंदीगंदी गालियां देता था. आधी रात को मुझे घर से बाहर निकाल देता था और मैं दरवाजा खुलने का इंतजार करती थी. उस समय मुझे अपनेआप पर दया आती थी, जब आसपड़ोस के लोग मुझे अजीब नजरों से देखते थे. तो अब क्या हक है इन का मुझे कुछ बोलने का.

‘नहीं, मुझे किसी की परवाह नहीं’ पुराने घाव से टीस उठी, तो शीतल की आंखें गीली हो गईं. राह चलते लोग देख न लें, इसलिए उस ने अपने आंसू आंखों में ही जब्त कर लिए. ‘शादी के बाद एक दिन भी ऐसा नहीं गुजारा होगा, जब अर्णब ने मुझ पर हाथ न उठाया हो. शराब पी कर गालीगलौज, मारपीट तो रोज की बात थी. आखिर कितना सहा मैं ने यह तो मैं ही जानती हूं. मेरा दिल इतना डरपोक बन चुका था कि आज भी छोटीछोटी बातों पर डर जाता है. लेकिन, मैं उसे समझाती हूं कि ‘औल इज वेल, सब ठीक होगा.मत डरो, मैं तुम्हारे साथ हूं.‘

लड़की की किस्मत भी अजीब है. पहले तो उसे दिमागी रूप से कमजोर बनाया जाता है, फिर उस की ही रक्षा करने की बात की जाती है. और फिर रक्षा करने वाला भी कौन? वही पुरुष, जो मौका मिलते ही लड़कियों की, महिलाओं की इज्जत को तारतार कर देते हैं. बचपन से ही मैं मांदादी के मुंह से सुनती आई थी कि ‘अरे, तुम तो किसी की अमानत हो हमारे पास. एक दिन पराई हो जाओगी.’ बेटियों की शादी कर देने पर क्यों मांबाप को लगता है कि उन्होंने गंगा नहा ली? क्या इतनी बोझ बन जाती हैं बेटियां अपने मांबाप के लिए? अपने भाइयों की तरह मुझे भी आगे पढ़ने का शौक था. मैं भी डाक्टर बनना चाहती थी. मां से कहती, “मेरी सहेलियों की तरह मेरी भी शादी जल्दी तो नहीं कर दोगी न मां? मां, देखना, बड़ी हो कर मैं डाक्टर बनूंगी. सफेद कोट पहन कर मरीजों को देखा करूंगी.

“बोलो न मां, सुन रही हो आप मेरी बात?” किचन में मां के कामों में हाथ बंटाते हुए जब मैं कहती, तो मां कहतीं कि ‘हां, हां, सुन रही हूं भई, चलो अब जल्दीजल्दी हाथ चलाओ. घर में कितने काम पड़े हैं अभी.’

मैं घर के हर काम बड़े सलीके से करती. सब के बताए काम भागभाग कर देती थी. पढ़ने में भी मैं अपने सभी भाइयों से होशियार थी. फिर भी मुझे वह लाड़दुलार नहीं मिलता, जो मेरे भाइयों को मिलता था.

जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई, मेरे डाक्टर बनने का सपना भी आकार लेने लगा. हम सब सहेलियां अकसर डाक्टर और मरीज का खेल खेला करती थीं. लेकिन डाक्टर तो हमेशा मैं ही बनती थी और बाकी सब मरीज बन कर मेरे पास इलाज कराने आती थीं. बड़ा मजा आता था मुझे डाक्टर का खेल खेलने में. लेकिन मेरा डाक्टर बनने का सपना बस खेल तक ही सिमट कर रह गया.

ये भी पढ़ें- Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस

जाने किस समारोह में एक रोज अर्णब ने मुझे देख लिया और वह मुझ पर लट्टू हो गया. अच्छा घर, वर, ऊपर से लड़के वाले खुद मेरा हाथ मांगने आए थे. तो और क्या चाहिए था मेरे परिवार वालों को. झट से उन्होंने इस रिश्ते के लिए हां कर दिया था. लेकिन, एक बार भी मुझ से पूछने की जरूरत नहीं समझी कि मैं यह शादी करना चाहती भी हूं या नहीं.

मैं भी कैसी बातें कर रही हूं. हमारे समाज में लड़कियों से भी उस की पसंद और नापसंद पूछी जाती है कहीं? हम तो उन गायबकरियों की तरह होती हैं, जिसे जिस खूंटे से बांध दिया जाए, बंध जाती हैं. मैं भी अपने टूटे सपने के साथ अर्णब नाम के खूंटे से बंध गई और उसे ही अपनी किस्मत समझ लिया.

भरेपूरे परिवार में मैं ऐसे रम गई जैसे दूध में चीनी. भूल गई कि मेरा कुछ सपना भी था. शादी के सालभर बाद ही बेटा जिगर मेरी गोद में आ गया. उस के पालनपोषण में अपनेआप को मैं ने और व्यस्त कर लिया था. लेकिन, इधर अर्णब का चालचलन कुछ बिगड़ने लगा था. वह रोज शराब पी कर घर आते और मेरे साथ जबरदस्ती करते.

जब मैं कहती कि बच्चा छोटा है अभी और डाक्टर ने अभी इन सब के लिए मना किया है, तो वह मुझ पर गुस्सा दिखाते, थप्पड़ तक चला देते मुझ पर. बुराई तो सारी बहुओं में ही होती है, बेटे तो अच्छे ही होते हैं अपनी मां के लिए.

मैं भी सास की नजर में बुरी बहू बन गई और बेटा एकदम सुपुत्र. सबकुछ जानते हुए भी वह अपने बेटे को शह देती और मुझे उलटासीधा, खरीखोटी सुनाती रहतीं कि मैं उन के बेटे अर्णब के लायक ही नहीं हूं.

आगे पढ़ें- सोच कर मैं सब बरदाश्त कर रही थी कि…

ये भी पढ़ें- Short Story: इक विश्वास था

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 4

यह सोच कर मैं सब बरदाश्त कर रही थी कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा. लेकिन, नहीं, जैसेजैसे दिन बीतते जा रहे थे, हालात और बद से बदतर होते जा रहे थे. उन के ज्यादा शराब पी कर घर आने पर जब मैं टोकती, तो वह उलटासीधा बकने लगते थे, गंदीगंदी गलियां देने लगते थे मुझे. कहते, ‘क्या तुम्हारे बाप के पैसे से पीता हूं, जो बकबक करती है?” अर्णब को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि वह एक ऊंचे अधिकारी हैं.

बेटा जिगर 4 साल का हो चुका था. उसे भी अब अपने पापा की गंदी आदतें समझ में आने लगी थीं. अर्णब को औफिस से आए देखते ही वह मेरे पीछे आ कर छुप जाता, झांक कर देखता अपने पापा को, शराब की बोतलें खोलते हुए. नशे में उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि घर में एक छोटा बच्चा है. उस के सामने ही वह गालियां देने लगते तो मैं बेटे जिगर को ले कर वहां से चली जाती. पर कहां तक भागती? सुनाई तो दे ही जाती थी न. कभीकभी तो डर लगता कि कहीं इन सब का असर जिगर पर न पड़ने लगे. बच्चे का मन कोरा कागज की तरह होता है. वह अपने मातापिता और बड़ों को जैसा करते देखते हैं वही तो सीखते हैं. लेकिन, मैं अपने बेटे को वैसा हरगिज नहीं बनने देना चाहती थी, इसलिए जहां तक होता, मैं उसे अर्णब से दूर रखने की कोशिश करती. उसे खुद ही पढ़ातीलिखाती और अच्छे संस्कार डालने की कोशिश करती थी.

ये भी पढ़ें- अलविदा काकुल: उस की चाहत का परिणाम आखिर क्या निकला

एक रोज मुझे एहसास हुआ कि एक और जीव मेरे अंदर सांस ले रहा है. जब मैं ने यह बात अपनी सास को बताई, तो वे खुश तो हुईं, पर यह कह कर उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए कि बच्चे होने के समय मैं अपने मायके चली जाऊं. क्योंकि उन से न हो पाएगा. दूसरी बार पिता बनने की बात पर अर्णब ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. ऐसे जताया जैसे यह कौन सी बड़ी बात है, औरतों का यही तो काम है, बच्चे पैदा करना और घर संभालना.

जैसे ही मेरा 7वां महीना चढ़ा, मैं अपने मायके चली आई. मेरे वहां न रहने पर सास अपने बड़े बेटेबहू के पास इंदौर चली गईं, क्योंकि यहां उन्हें कर के खिलानेपिलाने वाला कौन था. कृति के 2 महीने के होते ही मैं वापस अपने घर आ गई, यह सोच कर कि वहां अर्णब को खानेपीने की दिक्कत हो रही होगी. सास भी नहीं हैं वहां तो कौन उन्हें बना कर खिलापिला रहा होगा. रोजरोज बाहर का खाना सेहत के लिए ठीक नहीं होता. सोचा था, हमें घर में देख अर्णब खुश हो जाएंगे. लेकिन, मैं गलत थी. हमें देख कर उन्हें जरा भी खुशी नहीं हुई.

अर्णब तंज कसते हुए बोले, ‘इतनी क्या जल्दी थी आने की? वहीं रहती अभी.’

आसपड़ोस की 1-2 औरतों ने दबे मुंह से ही कहा कि मेरे यहां न रहने पर अर्णब एक औरत को घर ले कर आता था. लेकिन उन की बातों पर मुझे जरा भी भरोसा इसलिए नहीं हुआ कि अर्णब भले ही पीनेखाने वाले इनसान हैं, पर वह इतनी नीच हरकत नहीं कर सकते कभी. इसलिए मैं ने उन की बातों को सिरे से खारिज कर दिया और उन से बोलनाचालना भी कम कर दिया कि बेकार में ये औरतें बात बनाती हैं. कुछ नहीं सूझता तो बैठेबैठे लोगों की बुराई करती रहती हैं.

कृति के आने से हमारे खर्चे और भी बढ़ गए. बच्चे का दूध, साबुन, तेल, क्रीम, कपड़ा, खाना, खर्चा तो होगा ही न. जब मैं अर्णब से पैसे मांगती, तो कुछ पैसे मेरे मुंह पर मार कर कहते कि पैसे का कोई पेड़ नहीं लगा रखा है. जब मांगा तोड़ कर दे दिया. जरा अपने खर्चे पर लगाम कसो. कैसे और कहां लगाम कसती मैं? अब 2-2 बच्चे हैं तो खर्चे तो होंगे ही न? लेकिन, यह बात भी मैं अर्णब से नहीं बोल पाती थी, क्योंकि उलटे वह मुझे ही गालियां देने लगते और कहते, ‘तेरे बाप का कोई खजाना नहीं गड़ा हुआ है यहां, जो निकालनिकाल कर देता रहूं तुझे.’

ये भी पढ़ें- गुलमोहर: सफलता छोड़ गुमनामी के अंधेरे में क्यों चली गई सुचित्रा?

ऐसी जलीकटी और कड़वी बातें बोलते थे कि क्या बताएं. मन ही नहीं करता था फिर उस से बात करने का. ऐसे ही जिंदगी के 2 साल और निकल गए. कृति अब पूरे 2 साल की हो चुकी थी और बेटा जिगर 7 साल का. अकसर रात में कृति अचानक से जग जाती और रोने लगती तो चुप ही नहीं होती जल्दी. उस के रोने से अर्णब चिढ़ उठते थे. इसलिए मैं दोनों बच्चों को ले कर दूसरे कमरे में सोने लगी थी, ताकि अर्णब की नींद न खराब हो. दिनभर की थकीहारी मैं ऐसे सो जाती कि नींद ही नहीं खुलती मेरी. जब कृति के रोने की आवाज आती, तब जा कर मेरी आंखें खुलती थी.

उस रात मुझे अर्णब के कमरे से कुछ खुसरफुसर की आवाज आई और जा कर जो मैं ने देखा, स्तब्ध रह गई. मैं जोर से चीखी, अर्णब की बांहों में किसी गैर औरत को देख कर मेरे तो तनबदन में आग लग गई. मेरे कमरे में मेरे ही बिस्तर पर वह किसी और औरत को लाने की हिम्मत भी कैसे कर सकते हैं…

जब मैं ने पूछा, तो उलटे वह मुझ पर ही चिल्लाने लगे और उस औरत के सामने मुझ पर हाथ उठा दिया. मुझे मार खाते देख वह औरत इतरा कर मेरी तरफ देख कर हंसी. जैसे कह रही हो, सही किया अर्णब ने.

“यह मेरा घर है. मैं जिसे चाहूं यहां ला सकता हूं, निकाल भी सकता हूं, समझी? तुम होती कौन हो बोलने वाली?” अर्णब ने उंगली दिखाते हुए कहा और मुझे बाहर ठेल कर कमरे का दरवाजा अंदर से लगा लिया.

मैं पूरी रात सिसकती रही और वह उस औरत के साथ ऐश करते रहे. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. पर यह समझ में आ गया कि आसपड़ोस की औरतें गलत नहीं बोल रही थीं. पता चला कि वह औरत कोई और नहीं, बल्कि अर्णब के एक दिवंगत दोस्त की पत्नी है.

अर्णब ने ही दौड़धूप कर उस के पति के स्थान पर उस की नौकरी लगवाने में मदद की थी. अर्णब घर देर से जो आने लगे हैं उस की वजह भी यह औरत ही है.

अब तो अर्णब और भी बेशर्म बन गया था. खुल्लमखुल्ला वह उस औरत से संबंध रखने लगा और जब मैं कुछ कहती तो मुझे मारतापीटता और कमरे में बंद कर देता. कहता, अगर ज्यादा दिक्कत है, तो इस घर को छोड़ कर चली जाऊं. लेकिन, कहां जाती अपने 2 छोटेछोटे बच्चों को ले कर? इस घर के सिवा और कोई सहारा था क्या?

ये भी पढ़ें- छत: क्या दीबा की वजह से छोड़ा शकील ने घर

कृति के जन्म के समय कैसे मैं ने अपने मायके में वह 5 महीने काटे, मैं ही जानती हूं. तो फिर तो वहां जाने का सवाल ही नहीं उठता है. वैसे भी शादी के बाद बेटियों का अपने मायके में कोई हक नहीं रह जाता. बेटियां 2-4 दिन से ज्यादा मायके में रह जाएं, तो मांबाप को ही बोझ लगने लगती हैं. यह बात ससुराल वाले भी जानते हैं, तभी तो लड़कियों पर आएदिन जुल्म होते रहते हैं. यही नहीं, उन्हें जला कर मार दिया जाता है.
जैसेजैसे बच्चे बड़े होने लगे, उन के और भी खर्चे बढ़ने लगे थे. इस के अलावा दोनों के स्कूल की फीस, ड्रेस आदि में भी पैसे लगने लगे, तो अर्णब झुंझला पड़ा. अर्णब अपनी कमाई का आधे से ज्यादा पैसा तो शराब पीने में और उस औरत पर ही खर्च कर देते थे, तो घरखर्च के लिए कहां से पैसे देते मुझे.

आगे पढ़ें- मेरी बुरी हालत देख मेरे ननद व ननदोई…

Serial Story: अब अपने लिए – भाग 5

मेरी बुरी हालत देख मेरे ननद व ननदोई को बहुत दुख होता था. एक वे ही तो थे, जो मेरा दुख समझते थे. लेकिन उन्हें भी अर्णब ऐसे कड़वे बोल बोलते थे कि उन्होंने फिर यहां आना ही छोड़ दिया. हर इनसान को अपनी इज्जत प्यारी होती है.

पढ़ाई की डिगरी तो थी ही मेरे पास, अपनी पैरवी से मेरे ननदोई ने एक स्कूल में मेरी नौकरी लगवा दी. दोनों बच्चों का भी उन्होंने उसी स्कूल में एडमिशन करवा दिया, ताकि मुझे ज्यादा परेशानी न हो.

मैं जल्दीजल्दी घर के काम खत्म कर दोनों बच्चों को ले कर स्कूल चली जाती और 5 बजतेबजते घर आ जाती थी, फिर घर के बाकी काम संभालती, बच्चों को होमवर्क करवाती. रोज की मेरी यही दिनचर्या बन गई थी. कोई मतलब नहीं रखती मैं अर्णब से कि वह जो करे. लेकिन उसे कहां बरदाश्त हो पा रहा था मेरा खुश रहना, इसलिए वह कोई न कोई खुन्नस निकाल कर मुझ से लड़ता और जब मैं भी सामने से लड़ने लगती, क्योंकि मैं भी कितना बरदाश्त करती अब… तो जो भी हाथ में मिलता, उसे ही उठा कर मारने लगता मुझे. और मेरी सास तो थीं ही आग में घी का काम करने के लिए.

कृति तो अभी बच्ची थी, लेकिन बेटा जिगर हम दोनों को लड़तेझगड़ते देख टेंशन में रहने लगा था. पढ़ाई से भी उस का मन उचटने लगा था. वह गुमसुम सा चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहता. ज्यादा कुछ पूछती तो रोने लगता या झुंझला पड़ता. वह अपने दोस्तों से भी दूर होने लगा था. हमारी लड़ाई का असर उस के दिमाग पर पड़ने लगा था अब. उस की मानसिक स्थिति बिगड़ते देख मैं तो कांप उठी अंदर से… और तभी मैं ने फैसला कर लिया कि अर्णब मुझे मार ही क्यों न डाले, पर मैं चुप रहूंगी सिर्फ अपने बेटे के लिए.

ये भी पढ़ें- कसक: वर्षों बाद मिले नीरव ने जूही की जिंदगी में कैसे उथलपुथल मचा दी

लेकिन, रोज मुझे अर्णब के हाथों जलील होते देख एक रोज बेटा जिगर कहने लगा कि हम यह घर छोड़ कर कहीं और रहने चले जाएंगे.

“कहां जाएगा बेटा, कोई और ठिकाना है क्या इस घर के सिवा?” मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, “तुम जल्दी से पढ़लिख कर बड़ा डाक्टर बन जाओ, फिर अपने साथ मुझे भी वहां ले चलना.”

‘मेरा डाक्टर बनने का सपना भले ही सपना रह गया, लेकिन, मैं चाहती थी कि मेरा बेटा एक दिन जरूर डाक्टर बने. मेरी तरफ से कोई जबरदस्ती नहीं थी, बल्कि बेटा जिगर खुद इस फील्ड में जाना चाहता था. मैडिकल की पढ़ाई पूरी होते ही वहीं बैंगलुरु के एक बड़े अस्पताल में उस की जौब भी लग गई.

‘अपने वादे के मुताबिक वह मुझे लेने आया था, लेकिन मैं ने ही यह कह कर जाने से मना कर दिया कि रिटायर्ड होने के बाद तो उस के पास ही आ कर रहना है मुझे.

‘दिव्या की फोटो भेजी थी उस ने मुझे, जो उस के साथ ही उसी अस्पताल में डाक्टर थी. उस ने मुझ से वीडियो कालिंग पर बात भी करवाई थी 1-2 बार. दिव्या बड़ी ही प्यारी बच्ची लगी मुझे. दोनों की जोड़ी इतनी खूबसूरत लग रही थी कि लग रहा था कि कहीं मेरी ही नजर न लग जाए इन्हें.

‘मैं ने तुरंत ही दोनों की शादी के लिए हां बोल दिया. शादी के बाद वे दोनों हमारा आशीर्वाद लेने आए, पर अर्णब ने उन से सीधे मुंह बात तक नहीं की.उलटे, उन के जाने के बाद मुझे ही प्रताड़ित करने लगे यह बोल कर कि मैं ने बेटे जिगर के मन में उस के खिलाफ जहर भर दिया है, इसलिए वह उस से नफरत करता है. लेकिन, जिगर अब कोई दूध पीता बच्चा नहीं रह गया था, जो उसे कोई भी भड़का दे. बचपन से ही सब देखता आ रहा है वह. वह तो अब आना ही नहीं चाहता है इस नर्क में. तो मैं भी ज्यादा जोर नहीं डालती. जब मिलने का मन होता है खुद चली जाती हूं उस के पास.

‘कुछ साल बाद कृति ने भी अपने पसंद के लड़के से शादी कर ली. दोनों बच्चे अपनीअपनी लाइफ में सैटल हो गए. लेकिन, मेरे साथ होने वाला जुल्म खत्म नहीं हुआ. अभी भी अर्णब मेरे साथ वैसे ही व्यवहार कर रहा था. लेकिन अब मैं उस के हाथों जुल्म सहतेसहते थक चुकी थी. मेरा शरीर अब जवाब देने लगा था. मन करता था कि कहीं भाग जाऊं, जहां मुझे कोई ढूंढ़ न सके. बच्चों तक ठहरी थी मैं इस इनसान के साथ, पर अब नहीं. अब मैं इस के साथ नहीं रह सकती,’ तभी पीछे से हौर्न की आवाज से शीतल अतीत से बाहर आई. देखा तो आगेपीछे गाड़ियों की लाइन लगी है और सब हौर्न पर हौर्न बजाए जा रहे हैं.

पूछने पर पता चला कि ट्रक के नीचे आ कर एक गाय मर गई है, इसलिए गाड़ियों का जाम लगा हुआ है.

“ओह, वैसे, कब तक जाम हट सकेगा भाई साहब?” उस आदमी से शीतल ने पूछा, तो उस ने बोला, ‘नहीं पता.‘

ये भी पढ़ें- मातहत: क्यों नेहा के गले की हड्डी बन गया उसका ही आइडिया

‘शहर हो या गांव, हर जगह यही दुर्दशा है. इन जानवरों की वजह से सड़क पर कितनी दुर्घटनाएं होने लगी हैं आजकल… और बेचारे जानवर भी तो बेमौत तड़पतड़प कर मर जाते हैं. आखिर सरकार कुछ करती क्यों नहीं?’ शीतल मन ही मन बुदबुदाई.

आज वैसे भी स्कूल से निकलतेनिकलते उसे देर हो गई और अब यह सब सोच कर दर्द से शीतल का सिर फटा जा रहा था. लग रहा था, जल्दी से घर जा कर दवाई खा कर सो जाए. तकरीबन घंटाभर लग गया सड़क से गाय उठाने में. घर पहुंचतेपहुंचते शीतल को 8 बज गए.

घर पहुंच कर शीतल ने अपने लिए चाय बनाई और दवाई खा कर लेटी ही थी कि मीनाक्षी का फोन आ गया. वह कहने लगी कि कल उस के पति की पुण्यतिथि है, तो वह अनाथ आश्रम जाएगी. इसलिए कल वह स्कूल नहीं जा पाएगी, तो वह संभाल ले.

“हां… हां, तुम इतमीनान से जाओ, मैं संभाल लूंगी,” कह कर शीतल ने फोन रख दिया.

मीनाक्षी हर साल अपने पति की पुण्यतिथि पर अनाथ आश्रम में जा कर बच्चों को कपड़े और खाना वगैरह बांटती है. ‘सही तो करती है, पंडितों को दानदक्षिणा देने से अच्छा है इन अनाथ बच्चों को उन की जरूरतों का सामान, खाना आदि देना चाहिए,’ शीतल ने अपने मन में ही बोला.

आज उसे ज्यादा भूख नहीं थी, इसलिए हलका सा कुछ बना कर खा लिया और सो गई. सुबह फोन पर ‘गुड मौर्निंग’ के साथ कृति के कई मैसेज थे. लिखा था, पापा अब ठीक हैं, लेकिन कमजोरी बहुत है. उसे आने के लिए कह रही थी.

शीतल ने भी एक मैसेज भेज दिया कि उसे आज जल्दी स्कूल जाना होगा, इसलिए वह नहीं आ सकती.

कृति ने मैसेज में लिखा था कि अर्णब अब बहुत बदल चुके हैं. शराब पीना भी छोड़ दिया है. सुबहशाम राम भजन में लगे रहते हैं.

“हुम्म…,“ अपने होंठों को सिकोड़ते हुए शीतल बोली, “सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. क्या इस इनसान को मैं नहीं जानती? जो मेरी आंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहा है? सब दिखावा है और कुछ नहीं.

ये भी पढ़ें- सूखता सागर: करण की शादी को लेकर क्यों उत्साहित थी कविता?

“अरे, जिस आदमी ने घर की नौकरानी तक को नहीं छोड़ा, उस के मुंह से राम भजन, शब्द सुन कर अजीब लगता है. और वही राम ने अपनी पत्नी के साथ क्या किया? एक धोबी के कहने पर वनवास भेज दिया, वह भी उस समय जब वह उन के बच्चे की मां बनने वाली थी. ज्यादातर पुरुषों ने औरतों को छला ही है. हम इधर अपने पति की लंबी उम्र के लिए कामना करती हैं और उधर पति अपनी मनोकामना किसी गैर औरत की बांहों में पूरी करते रहें.

‘आज सब ठीक हो जाएगा, कल सब ठीक हो जाएगा,’ सोचसोच कर मैं ने इस घटिया इनसान के साथ अपनी जिंदगी के 30 साल बरबाद कर दिए. पर, अब नहीं. बाकी बची जिंदगी अब मैं अपने हिसाब से अपनी मरजी और सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूं. 2 दिन बाद कोर्ट में तलाक का अंतिम फैसला है. फिर मैं अपने रास्ते और वह अपने रास्ते… कोई मतलब नहीं मुझे उस से.”

अब अपने लिए: आखिर किस मुकाम पर पहुंचा शीतल के मन में चल रहा अंतर्द्वंद्व

वह चालाक लड़की: क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-1)

रोज की तुलना में अंजुल आज जल्दी उठ गई. आज उस का औफिस में पहला दिन है. मास मीडिया स्नातकोत्तर करने के बाद आज अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए उस ने थोड़ा अधिक परिश्रम किया. अनुपम देहयष्टि में वह किसी से उन्नीस नहीं.

सभी उस की खूबसूरती के दीवाने थे. अपनी प्रखर बुद्धि पर भी पूर्ण विश्वास है. अपने काम में तीव्र तथा चतुर. स्वभाव भी मनमोहक, सब से जल्दी घुलमिल जाना, अपनी बात को कुशलतापूर्वक कहना और श्रोताओं से अपनी बात मनवा लेना उस की खूबियों में शामिल है. फिर भी उस ने यह सुन रखा है कि फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन. तो फिर रिस्क क्यों लिया जाए भले?

मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी का माहौल उसे मनमुताबिक लगा. आबोहवा में तनाव था भी और नहीं भी. टीम्स आपस में काम को ले कर खींचातानी में लगी थीं किंतु साथ ही हंसीठिठोली भी चल रही थी. वातावरण में संगीत की धुन तैर रही थी और औफिस की दीवारों पर लोगों ने बेखौफ ग्राफिटी की हुई थी.

अंजुल एकबारगी प्रसन्नचित्त हो उठी. उन्मुक्त वातावरण उस के बिंदास व्यक्तित्व को भा गया. उस की भी यही इच्छा थी कि जो चाहे कर सकने की स्वतंत्रता मिले. आज तक  अपने जीवन को अपने हिसाब से जीती आई थी और आगे भी ऐसा ही करने की चाह मन में लिए जीवन के अगले सोपान की ओर बढ़ने लगी.

ये भी पढे़ं- अजनबी: आखिर कौन था उस दरवाजे के बाहर

बौस रणदीप के कैबिन में कदम रखते हुए अंजुल बोली, ‘‘हैलो रणदीप, आई एम अंजुल, योर न्यू इंप्लोई.’’ उस की फिगर हगिंग यलो ड्रैस ने रणदीप को क्लीन बोल्ड कर दिया. फिर ‘‘वैलकम,’’ कहते हुए रणदीप का मुंह खुला का खुला रह गया.

अंजुल को ऐसी प्रतिक्रियाओं की आदत थी. अच्छा लगता था उसे सामने वाले की ऐसी मनोस्थिति देख कर. एक जीत का एहसास होता था और फिर रणदीप तो इस कंपनी का बौस है. यदि यह प्रभावित हो जाए तो ‘पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में’ वाली कहावत को चिरतार्थ होते देर नहीं लगेगी. वैसे रणदीप करीब 40 पार का पुरुष था, जिस की हलकी सी तोंद, अधपके बाल और आंखों के नीचे काले घेरे उसे आकर्षक की परिभाषा से कुछ दूर ही रख रहे थे.

अंजुल अपना इतना होमवर्क कर के आई थी कि उस का बौस शादीशुदा है. 1 बच्चे का बाप है, पर जिंदगी में तरक्की करनी है तो कुछ बातों को नजरअंदाज करना ही होता है, ऐसी अंजुल की सोच थी.

अपने चेहरे पर एक हलकी स्मित रेखा लिए अंजुल रणदीप के समक्ष बैठ गई. उस का मुखड़ा जितना भोला था उस के नयन उतने ही चपल दिल मोहने की तरकीबें खूब आती थीं.

रणदीप लोलुप दृष्टि से उसे ताकते हुए कहने लगा, ‘‘तुम्हारे आने से इस ऐजेंसी में और भी बेहतर काम होगा, इस बात का मुझे विश्वास है. मुझे लगता है तुम्हारे लिए मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट सही रहेगा. अपने ए वन ग्रेड्स और पर्सनैलिटी से तुम जल्दी तरक्की कर जाओगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. अपनी सफलता के लिए आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी,’’ द्विअर्थी संवाद करने में अंजुल माहिर थी. उस की आंखों के इशारे को समझाते हुए रणदीप ने उसे एक सरल लड़के के साथ नियुक्त करने का मन बनाया. फिर अपने कैबिन में अर्पित को बुला कर बोला, ‘‘सीमेंट कंपनी के नए प्रोजैक्ट में अंजुल तुम्हें असिस्ट करेंगी. आज से ये तुम्हारी टीम में होंगी.’’

‘‘इस ऐजेंसी में तुम्हें कितना समय हो गया?’’ अंजुल ने पहला प्रश्न दागा.

अर्पित एक सीधा सा लड़का था. बोला, ‘‘1 साल. अच्छी जगह है काम सीखने के लिए. काफी अच्छे प्रोजैक्ट्स आते रहते हैं. तुम इस से पहले कहां काम करती थीं?’’

अर्पित की बात का उत्तर न देते हुए अंजुल ने सीधा काम की ओर रुख किया, ‘‘मुझे क्या करना होगा? वैसे मैं क्लाइंट सर्विसिंग में माहिर हूं. मैं चाहती हूं कि मुझे इस सीमेंट कंपनी और अपनी क्रिएटिव टीम के बीच कोऔर्डिनेशन का काम संभालने दिया जाए.’’

अगले दिन अंजुल ने फिर सब से पहले रणदीप के कैबिन से शुरुआत की, ‘‘हाय रणदीप, गुड मौर्निंग,’’ कर उस ने पहले दिन सीखे सारे काम का ब्योरा देते हुए रणदीप से कुछ टिप्स लेने का अभिनय किया और बदले में रणदीप को अपने जलवों का भरपूर रसास्वादन करने दिया. रणदीप की मधुसिक्त नजरें अंजुल के सुडौल बदन पर इधरउधर फिसलती रहीं और वह बेफिक्री से मुसकराती हुई रणदीप की आसक्ति को हवा देती रही.

जल्द ही अंजुल ने रणदीप के निकट अपनी जगह स्थापित कर ली. अब यह रोज का क्रम था कि वह अपने दिन की शुरुआत रणदीप के कैबिन से करती. रणदीप भी उस के यौवन की खुमारी में डुबकी लगाता रहता.

ये भी पढ़ें- कैसा मोड़ है यह: माला और वल्लभ को कैसा एहसास हुआ

उस सुबह कौफी देने के बहाने रणदीप ने अंजुल के हाथ को हौले से छुआ. अंजुल ने इस की प्रतिक्रिया में अपने नयनों को झाका कर ही रखा. वह नहीं चाहती थी कि रणदीप की हिम्मत कुछ ढीली पड़े. फिर काम दिखाने के बहाने वह उठी और रणदीप के निकट जा कर ऐसे खड़ी हो गई कि उस के बाल रणदीप के कंधे पर झालने लगे. इशारों की भाषा दोनों तरफ से बोली जा रही थी.

तभी अर्पित बौस के कैबिन में प्रविष्ट हुआ तो दोनों संभल गए. उफनते दूध में पानी के छींटे लग गए. किंतु अर्पित के शांत प्रतीत होने वाले नयनों ने अपनी चतुराई दर्शाते हुए वातावरण को भांप लिया.

इस प्रकरण के बाद अर्पित का अंजुल के प्रति रवैया बदल गया. अब तक अंजुल को नई

सीखने वाली मान कर अर्पित उस की हर मुमकिन मदद कर रहा था, परंतु आज के दृश्य के बाद वह समझा गया कि इस मासूम दिखने वाली सूरत के पीछे एक मौकापरस्त लड़की छिपी है. कौरपोरेट वर्ल्ड एक माट्स्करेड पार्टी की तरह हो सकता है जहां हरकोई अपने चेहरे पर एक मास्क लगाए अपनी असली सचाई को ढकते हुए दूसरों के सामने अपनी एक छवि बनाने को आतुर है.

आज लंच में अर्पित ने अंजुल को टालते हुए कहा, ‘‘आज मुझे कुछ काम है. तुम लंच कर लो,’’ वह अब अंजुल से बहुत निकटता नहीं चाह रहा था. उस की देखादेखी टीम के अन्य लोगों ने भी अंजुल को टालना आरंभ कर दिया. इस से अंजुल को काम समझाने और करने में दिक्कत आने लगी.

‘‘जो नई पिच आई है, उस में मैं तुम्हारे साथ चलूं? मुझे पिच प्रेजैंटेशन करना आ जाएगा,’’ अंजुल ने अपनी पूरी कमनीयता का पुट लगा कर अर्पित से कहा. अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी उस ने अर्पित की ईगो मसाज की.

‘‘उस का सारा काम हो चुका है. तुम्हें अगली पिच पर ले चलूंगा. आज तुम औफिस में दूसरी प्रेजैंटेशन पर काम कर लो,’’ अर्पित ने हर प्रयास करना शुरू कर दिया कि अंजुल केवल औफिस में ही व्यस्त रहे.

अपने हाथ से 2 पिच के अवसर निकलते ही अंजुल भी अर्पित की चाल समझाने लगी, ‘उफ, बेवकूफ है अर्पित जो मुझे इतना सरलमति समझा रहा है. क्या सोचता है कि यदि यह मुझे अवसर नहीं प्रदान करेगा तो मैं अनुभवहीन रह जाऊंगी,’ सोचते हुए अंजुल ने सीधा रणदीप के कैबिन में धावा बोल दिया.

‘‘रणदीप, क्या मैं आप के साथ आज लंच कर सकती हूं? आप के साथ मेरे इंडक्शन की फीडबैक बाकी है,’’ अंजुल ने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा कि वह आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ. अत: रणदीप ने सहर्ष स्वीकारोक्ति दे दी.

ये भी पढ़ें- खौफ: क्या था स्कूल टीचर अवनि और प्रिंसिपल मि. दास के रिश्ते का सच

लंच के दौरान अंजुल ने अपने काम का ब्योरा दिया और साथ ही दबेढके शब्दों में एक स्वतंत्र क्लाइंट लेने की पेशकश कर डाली, ‘‘टीम में सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि किसी से काम सीखना मुझे उन के काम में रुकावट बनना लगता है और फिर अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण व अनुभव के बल पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक क्लाइंट मैं हैंडल कर सकती हूं, यदि आप अनुमति दें तो?’’

आगे पढ़ें- बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों…

Serial Story: वह चालाक लड़की (भाग-2)

बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों का मटकना, उस के भावों का अर्थपूर्ण चलन उस के अधरों पर आतीजाती स्मितरेखा, कभी पलकें उठाना तो कभी झाकाना, सबकुछ इतना मनमोहक था कि रणदीप के पुरुषमन ने उसे एक अवसर देने का निश्चय कर डाला, ‘‘ठीक है, सोचता हूं कि तुम्हें किस अकाउंट में डाल सकता हूं.’’

उस शाम अंजुल ने आर्ट गैलरी में कुछ समय व्यतीत करने का सोची. जब से जौब लगी तब से उस ने कोई तफरी नहीं की. दिल्ली आर्ट गैलरी शहर की नामचीन जगहों में से एक है सो वहीं का रुख कर लिया. मंथर गति से चलते हुए अंजुल वहां सजी मनोरम चित्रकारियां देख रही थी कि अगली पेंटिंग पर प्रचलित लौंजरी ब्रैंड ‘औसम’ के मालिक महीप दत्त को खड़ा देखा. ऐजेंसी में उस ने सुना था कि पहले महीप दत्त का अकाउंट उन्हीं के पास था, किंतु पिछले साल से उन्होंने कौंट्रैक्ट रद्द कर दिया, जिस के कारण ऐजेंसी को काफी नुकसान हुआ. स्वयं को सिद्ध करने का यह स्वर्णिम अवसर वह जाने कैसे देती. उस ने तुरंत महीप दत्त की ओर रुख किया.

‘‘आप महीप दत्त हैं न ‘औसम’ ब्रैंड के मालिक?’’ अपने मुख पर उत्साह के सैकड़ों दीपक जला कर उस ने बात की शुरुआत की.

‘‘यस. आप हमारी क्लाइंट हैं क्या?’’ महीप अपने ब्रैंड को प्रमोट करने का कोई मौका नहीं चूकते थे.

‘‘मैं आप की क्लाइंट हूं और आप मेरे.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

ये भी पढे़ं- कर्तव्य: क्या दीपक और अवनि इस इम्तिहान में खरे उतरे

‘‘दरअसल, मैं आप के ब्रैंड की लौंजरी इस्तेमाल करती हूं और एक हैप्पी क्लाइंट हूं. मेरा नाम अंजुल है और मैं मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी में कार्यरत हूं, जिस के आप एक हैप्पी क्लाइंट नहीं हैं. सही कहा न मैं ने?’’ वह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘तो आप यहां मचल की तरफ से आई हैं?’’ महीप ने हैंड शेक करते हुए कहा, परंतु उन के चेहरे पर तनाव की रेखाएं सर्वविदित थीं, ‘‘मैं काम की बात केवल अपने औफिस में करता हूं,’’ कहते हुए वे आगे बढ़ गए.

‘‘काम की बात तो यह है महीप दत्तजी कि मैं आप को वह फीडबैक दे सकती हूं, जो आप के लिए सुननी जरूरी है और वह भी फ्री में. मैं यहां आप से मचल की कार्यकर्ता बन कर नहीं, बल्कि आप की क्लाइंट के रूप में मिल रही हूं. विश्वास मानिए, मुझे आइडिया भी नहीं था कि मैं यहां आप से मिल जाऊंगी,’’ अंजुल के चेहरे पर मासूमियत के साथ ईमानदारी के भाव खेलने लगे. वह अपने चेहरे की अभिव्यक्ति को स्थिति के अनुकूल मोड़ना भली प्रकार जानती थी.

बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि अब आप अपने विज्ञापन किसी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर इन्फ्लुऐंसर के जरीए करते हैं. किंतु एक इन्फ्लुऐंसर की पहुंच केवल उस के फौलोअर्स तक सीमित होती है. मेरा एक सुझाव है आप को- आप का प्रोडक्ट प्रयोग करने वाली महिलाएं आम गृहिणियां या कामकाजी महिलाएं अधिक होती हैं, उन की फिगर मौडल की दृष्टि से बिलकुल अलग होती है.

‘‘मौडल का शरीर एक आदर्श फिगर होता है, जबकि आम महिला की जरूरत भिन्न होती है. तो क्यों न आप अपने विज्ञापन में मौडल की जगह आम महिलाओं से अपनी बात कहलवाएं. यदि वे कहेंगी तो यकीनन अधिक प्रभाव पड़ेगा,’’ अपनी बात कह कर अंजुल महीप दत्त की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी.

कुछ क्षण मौन रह कर महीप ने अंजुल के सुझाव को पचाया. फिर अपनी कलाई पर

बंधी घड़ी देख कहने लगे, ‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, अंजुल. आल द बैस्ट,’’ और महीप चले गए.

उन के चेहरे पर कोई भाव न पढ़ने के कारण अंजुल असमंजस में वहीं खड़ी रह गई.

अगले दिन अंजुल औफिस में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रही थी कि रणदीप का फोन आया, ‘‘क्या मेरे कैबिन में आ सकती हो?’’

अंजुल तुरंत रणदीप के कैबिन में पहुंची. वहां उन के साथ महीप दत्त को बैठा देख कर उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सिर हिला कर हैलो किया. रणदीप ने उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘महीप हमारे साथ दोबारा जुड़ना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि उन का अकाउंट तुम हैंडल करो,’’ कहते हुए रणदीप के मुख पर कौंटै्रक्ट वापस मिलने की प्रसन्नता थी तो अंजुल के चेहरे पर अपनी जीत की दमक. अब उस के रास्ते में कोई रोड़ा न था. उस ने साधिकार अपना स्वतंत्र अकाउंट प्राप्त किया था.

‘‘इस कौंट्रैक्ट की खुशी में क्या मैं आप को एक डिनर के लिए इन्वाइट कर सकती हूं?’’ अचानक अंजुल ने पूछा.

यह सुन कर रणदीप चौंक गया. फिर बोला, ‘‘कल चलते हैं. आज मुझे अपनी पत्नी के साथ बाहर जाना है,’’ रणदीप ने जानबूझा कर अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ा ताकि अंजुल भविष्य की कोई कल्पना न करने लगे और फिर फ्लर्ट किसे बुरा लगता है खासकर तब जब सबकुछ सेफजोन में हो.

ये भी पढ़ें- Short Story: नाम की केंचुली

‘औसम’ के औफिस में जब अंजुल मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट की तरफ से क्रिएटिव दिखाने पहुंची तो वहां उसे करण मिला. करण ‘औसम’ की ओर से अंजुल को काम समझाने के लिए नियुक्त किया गया था. आज एक लौंजरी ब्रैंड के साथ मीटिंग के लिए अंजुल बेहद सैक्सी ड्रैस पहन कर गई. उसे देखते ही करण, जोकि लगभग उसी की उम्र का अविवाहित लड़का था, अंजुल पर आकृष्ट हो उठा. जब उसे ज्ञात हुआ कि अंजुल के यहां आने का उपलक्ष्य क्या है, तो उस के हर्ष ने सीमा में बंधने से इन्कार कर दिया.

‘‘हाय अंजुल,’’ करण की विस्फारित आंखें उस के मन का हाल जगजाहिर कर रही थीं, ‘‘मैं तुम्हारा मार्केटिंग क्लाइंट हूं.’’

होंठों को अदा से भींचती हुई अंजुल ने जानबूझा कर अपना हाथ बढ़ा कर मिलाते हुए कहा, ‘‘और मैं तुम्हें सर्विस दूंगी, पर कोई ऐसीवैसी सर्विस न मांग लेना वरना…’’ कहते हुए अंजुल ने उस के कंधे पर आहिस्ता से अपना हाथ रखा और हंस पड़ी.

उस के शरारती नयन करण के अंदर एक सुरसुरी पैदा करने लगे. मन ही मन वह बल्लियों उछलने लगा. आज से पहले उस ने कभी इतनी हौट लड़की के साथ काम नहीं किया था. बहुत जल्दी दोनों में दोस्ती हो गई. करण ने अंजुल को अगले हफ्ते अपने औफिस की पार्टी का न्योता दे डाला.

‘‘इतनी जल्दी पार्टी इन्वाइट? हम आज ही मिले हैं,’’ अंजुल ने करण की गति को थामने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘मैं टाइम वेस्ट करने में विश्वास नहीं करता,’’ वह अपने पूरे वेग से दौड़ना चाह रहा था.

‘‘दिन में सपने देख रहे हो…’’

‘‘दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं, मैडम,’’ अंजुल की खुमारी पहले ही दिन से करण के सिर चढ़ कर बोलने लगी.

पार्टी में अंजुल काली चमकदार ड्रैस में कहर ढा रही थी. करण तो उस के पास से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. कभी दौड़ कर स्नैक्स लाता तो कभी ड्रिंक.

‘‘क्या कर रहे हो करण. मैं खुद ले लूंगी जो मुझे चाहिए होगा,’’ उस की इन हरकतों से मन की तहों में पुलकित होती अंजुल ने ऊपरी आवरण ओढ़ते हुए कहा.

‘‘ये सब मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कर रहा हूं. मुझे पता है किस को खुश करने से मैं खुश रहूंगा,’’ करण फ्लर्ट करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता था.

ये भी पढ़ें- ई. एम. आई.: क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

पार्टी में सब ने बहुत आनंद उठाया. खायापीया, थिरकेनाचे. पार्टी खत्म होने

को थी कि अंजुल के पास अचानक महीप आ पहुंचे. इसी बात की राह वह न जाने कब से देख रही थी.

औसम की पार्टी में आने का एक कारण यह भी था.

‘‘तुम्हें यहां देख कर अच्छा लगा,’’ संक्षिप्त सा वाक्य महीप के मुख से निकला.

आगे पढें- कुछ माह बीतने के बाद इतने…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें