Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस (भाग-5)

‘‘तुम इजाजत दो तो मैं आज उस की खबर लूं घर पहुंच कर?’’ पारिजात क्रोध से उबल रहा था.

‘‘नहीं, कहीं ऐसा न हो कि फिर आप से बात करने पर भी अंकुश लग जाए.’’

‘‘ऐसा कैसे कर सकता है वह? उस की ही चलेगी क्या? तुम सोचसमझा कर बता देना कि मैं कब और कैसे समझाऊं उसे? यों अपने को मार कर कब तक जीती रहोगी? घुटघुट कर मर जाओगी एक दिन.’’

मिहिका फूटफूट कर रो पड़ी. रुंधे गले से बोली, ‘‘मुझे न जाने कितनी खुशियां मिल जाने की आशा थी इस रिश्ते से, कितने कुंआरे शौक पूरा करना चाहती थी शादी के बाद, खास महसूस करना और करवाना चाहती थी अचल को…लेकिन मिला क्या? निराशा, अपमान और कभी दूर न होने वाली रिक्तता.’’

‘‘आज कहीं रुक कर कौफी पीएंगे. यह मत कहना कि टाइम से घर न पहुंची तो अचल झागड़ने लगेगा. पहुंचने पर कुछ कहे तो मुझे फोन कर देना, डरना नहीं अब. मैं हूं ना.’’

मिहिका का चेहरा एक बच्चे सा खिल उठा. कौफी पीते हुए एक सुखद शांति दोनों के बीच तैरती रही, एक सुहाना एहसास दोनों को सहलाता रहा कि रिश्तों से परे वे एकदूसरे से जुड़ रहे हैं.

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कुछ देर बाद रात वाली घटना से उद्विग्न पारिजात बोल उठा, ‘‘बिना किसी रिश्ते के प्रेम करते हुए 2 लोगों का शारीरिक संबंध बनाना समाज को स्वीकार्य नहीं, किंतु विवाहित पुरुष चाहे पत्नी से प्रेम करे या उस का तिरस्कार, उसे संबंध बनाने की पूरी अनुमति है. समाज के लिए प्रेम कितना महत्त्वहीन है. मैं हैरान हूं.’’

अचल नियत दिन टूर पर चला गया. शाम को लौटते हुए उस दिन मिहिका ने पारिजात से कहा कि वह आज उस के घर चले. प्रतिदिन उन की चर्चा अधूरी रह जाती है, जिसे आज वे आराम से बैठ कर पूरा करेंगे.

पारिजात सहर्ष इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए बोला, ‘‘बातोंबातों में रात अधिक हो गई तो तुम्हारे पास ही ठहर जाऊंगा.’’

मिहिका को छोड़ने के बाद अपने घर से नाइटसूट ले कर वह मिहिका के पास आ गया.

पुदीने और अदरक की चाय पीते हुए दोनों हंसीमजाक करते रहे. कुछ देर बाद मिहिका खाना बनाने के लिए उठी तो पारिजात ने उस का हाथ पकड़ कर बैठा दिया, ‘‘बाहर से मंगवा लेता हूं. बैठो न, अच्छा लगता है तुम्हारे साथ थौट्स शेयर करना.’’

मिहिका रुक गई. पारिजात की इस मनुहार भरे स्पर्श से उस के मन के मंजीरें खनकने लगीं, तन के सितार के तार में झांकार सी होने लगी.

पारिजात तो मिहिका को रोकना भर चाहता था. इस स्पर्श से उस के बदन में तरंगें उठने लगेंगी ऐसा तो उस ने सोचा भी न था. जैसे ठहरे हुए शांत पानी में सहसा कोई कंकड़ गिर गया हो. इन लहरों से पारिजात के मन में मची हलचल को केवल वही महसूस कर सकता था. उस का तन बारबार उस स्पर्श को दोहराने की जिद पर अड़े जा रहा था.

खाना खाने के बाद मिहिका नाइटी पहन कर आ गई. नैट के उस उजले परिधान में उस का गौरवर्ण शीशे सा दमक रहा था.

उसे देख पारिजात बोल उठा, ‘‘मिहिका, अपने नाम का अर्थ जानती हो न? ओस.

सचमुच तुम ओस सी पारदर्शी और उज्ज्वल हो. कोमल इतनी कि उड़ कर कहीं भी चली जाओ और जहां ठहर जाओ वहां सबकुछ निर्मल शीतल हो जाए. जो तुम को पा कर भी मलिन है उस ने कभी महसूसा ही नहीं ओस को, शायद जीभर  देख भी लेता तो निहाल हो जाता. मैं तो ख्वाब में भी तुम्हें छू लेता हूं तो ओस से भीग जाता हूं. सच कह रहा हूं मिहिका.’’

मिहिका जैसे सुधबुध खो बैठी थी. धीमे स्वर में बोली, ‘‘आप मेरी इतनी तारीफ न कीजिए, मेरे जज्बात बेतहाशा भाग रहे हैं. मर्यादा मुझा से लगातार सवाल कर रही है, रोकना चाह रही हूं खुद को खुद मैं, लेकिन मैं तो जैसे छूट कर भाग रही हूं आप के पास.’’

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पारिजात मिहिका के समीप आ गया. अपनी हथेलियां उस के गालों पर टिकाते हुए बोला, ‘‘ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि तुम भी मुझा से प्रेम करने लगी हो.’’

‘‘जो भावनाएं मुझे अपने वश में कर रही हैं, ऐसी तो कभी थीं ही नहीं मुझा में. मैं सचमुच प्रेम में हूं, लेकिन यह प्रेम अपने साथ देह को यों उन्मादी बना रहा है?’’ मिहिका अधखुली आंखों से पारिजात की ओर देखते हुए बोली.

‘‘क्योंकि प्रेम में उठती तरंगें बिना स्पर्श के शांत नहीं होतीं. प्रेम के साथ देह का नाता जुड़ा हुआ है.’’

‘‘मेरे तन का रेशारेशा आज तुम्हें पाने को व्याकुल है,’’ पारिजात धीरे से अपने होंठ उस के कान से सटा कर बोला.

‘‘लेकिन मुझे बारबार मेरा प्रतिरूप रोक रहा है, कह रहा है मुझा से कि मैं किसी और की विवाहिता हूं.’’

‘‘ये नियम समाज ने बनाए हैं प्रेम ने नहीं. प्रेम तो कहता है कि स्त्री का मन जिसे पहली बार अपनी इच्छा से सर्वस्व सौंप देना चाहता है वही वर होता है उस का.’’

पारिजात का निश्छल, निर्मल व निस्पृह रूप तो मिहिका के मन को कब से बांधे हुए था. उस रूप को सराहते हुए उस का विवाहित होना कभी आड़े नहीं आया. आज उस का रितम प्रेमी सा स्वरूप मिहिका के व्यक्तित्व पर बुरी तरह छा रहा था, जिस में खो जाना चाहती थी वह. आत्ममंथन कर उसे अब फैसला करना ही था कि पारिजात के कौन से स्वरूप से नाता जोड़ना है उसे?

पारिजात पर इश्क की खुमारी बढ़ रही थी. मिहिका को हौले से जकड़ कर बोला, ‘‘पारिजात का मतलब पता है न मिहिका? पारिजात के फूल को हरसिंगार भी कहते हैं. शीत ऋतु में ही खिलता है यह फूल और ओस भी तो सर्द मौसम में ही पड़ती है न… परिजात खिल रहा है, ओस की चाह है उसे, बिखर जाओ न आज मुझा पर ओस की तरह.’’

‘‘पारिजात का फूल तो 2 रंग समेटे होता है. सफेद पंखुडि़यां और बीच में नारंगी- कहां ठहरे यह ओस बताओ न?’’ मिहिका के नर्म अधरों से शब्द गुलाब की पंखुडि़यों से झाड़ रहे थे.

‘‘जब ओस पारिजात की सफेद पंखुडि़यों पर गिरती है, तो अधिक देर टिक नहीं पाती, गिर जाती है आसपास कहीं. तुम ने ही तो कहा था न कि प्लैटोनिक लव की उम्र लंबी नहीं होती. पारिजात का नारंगी रंग ओस को गिरते ही थाम लेता है. फिर दोनों का वजूद एक हो जाता है, कोई जुदा नहीं कर सकता उन को. पारिजात आज कह रहा है कि ओस तुम मुझा में लीन हो कर नारंगी हो जाओ न,’’ पारिजात मिहिका में डूबा जा रहा था.

‘‘तो मुझे गिरने मत देना अब. दुनिया की नजरों में और मेरी अपनी खुद की निगाह में भी,’’ कह मिहिका पारिजात के सीने में से

लग गई.

उस रात दोनों के बीच एक नए संबंध ने जन्म लिया था, दोस्त से ज्यादा, प्रियप्रियेसी

संबंध से गूढ़, पतिपत्नी के सप्तपदी बंधन से मुक्त अनदेखाअनसुनाअनमोल सा रिश्ता.

आसमान में छाई मंदमंद लालिमा जब सूर्योदय का संकेत दे रही थी तो दोनों उनींदी आंखों में रात की खुमारी लिए एकदूसरे को स्नेह से ताक रहे थे.

‘‘दैहिक भूख मिटाने का नहीं, हमारे प्रेम का विस्तार होगा यह संबंध, मैं बारबार जीना चाहूंगा इसे, तुम्हें थामे हुए.’’

‘‘मुझे इस रिश्ते से कोई शिकायत नहीं, तुम पर अटूट विश्वास है, लेकिन प्रेम और देह का यह संबंध जानने के बाद मैं अचल का अपने तन पर प्रहार अब सह नहीं पाऊंगी,’’ आज मिहिका के अंदर एक नई स्त्री जन्म ले रही थी.

‘‘मैं ने तुम संग एक रात में उस अनाम संबंध को जी लिया, जहां मर्यादा की जंजीर हमें बांध नहीं पाई और वर्जनाएं एक होने से रोक न सकीं हमें. अब इस रिश्ते को तुम कोई नाम देना चाहती हो तो मैं साथ हूं. अचल को बहुत समझाया मैं ने. अपने मद में मस्त अब तो वह कुछ सुनना ही नहीं चाहता. तुम उस से रिश्ता तोड़ना चाहती हो तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा.’’

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‘‘हां, मैं कानूनन अलग होना चाहती हूं उस से. पारिजात में समा कर ओस नारंगी हो जाना चाहती हैद हमेशा के लिए.’’

Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस (भाग-4)

‘‘यदि पतिपत्नी भी प्रेमीप्रेमिका की तरह एकदूसरे को अपना सबकुछ मान लें, प्रेमांध हो कर निगाहें एकदूजे पर टंगी रहें तो विवाह का दूसरा नाम प्रेम होगा, पर इस के लिए पति की आस्था और समर्पण भी तो जरूरी है न मिहिका.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? किसी को कैसे बदलूं?’’ मिहिका ने उसांस भरते हुए पूछा.

‘‘बदलना तुम्हें है. अपनी खुशियां वहां ढूंढ़ो जहां मिलें. अपने प्यार को यों व्यर्थ बहने दे रही हो? किसी बंजर में हरियाली क्यों नहीं करतीं? कुछ और नहीं तो औफिस वालों से हंसीमाजक कर मन बहलाया करो न अपना. पता है तुम्हारी चर्चा यहां के मेल स्टाफ में चलती रहती है. लोग कहते हैं तुम मैरिड ही नहीं लगतीं. तुम्हारी सुंदरता का सिर्फ मैं ही नहीं पूरा स्टाफ कायल है.’’

पारिजात की शरारत भरी बातें सुन उदास मिहिका की हंसी छूट गई, ‘‘आप भी तो कितने हैंडसम हैं, चर्चे तो आप के भी खूब होते होंगे. शादी नहीं करना चाहते ठीक है, लेकिन क्या कभी किसी से प्यार भी नहीं हुआ?’’ मिहिका ने भी नटखट अंदाज में पूछ लिया.

पारिजात कुछ सोचता सा गंभीर हो गया, ‘‘कई दिनों से अपने बारे में कुछ बताना चाहता था तुम्हें,’’ कह कर वह कुछ देर चुप हो गया जैसे अपनी बात कहने के लिए शब्द ढूंढ़ रहा हो. फिर बोला, ‘‘हुआ था प्यार, स्विट्जरलैंड में एक लड़की से. कुछ दिनों तक मेरे साथ रही थी मेरे घर पर. फिर एक दिन अचानक दोपहर में मैं घर आया. तो घर पर सन्नाटा था. मैं ने सोचा वह सो रही है.

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‘‘डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोल कर घुसा तो पाया कि वह अपने एक दोस्त के साथ हमबिस्तर थी. मेरा डिवोशन कराह उठा, लौयल्टी लहूलुहान हो गई. वह संबंध तोड़ दिया मैं ने. कुछ महीने लगे संभलने में मुझे. फिर सोचा कि फिजिकल नीड तो पूरी करनी होगी. दूसरा रिश्ता बना एक शादीशुदा स्त्री संग.

‘‘वह भी मेरी तरह केवल देह का रिश्ता चाहती थी. बहुत जल्दी खत्म हो गया यह रिश्ता भी. मैं ने ही अपने को अलग कर लिया था इस रिश्ते से. इस के बाद मैं नहीं बढ़ सका ऐसे रिश्तों में आगे.

‘‘ये दोनों घटनाएं मेरे स्विट्जरलैंड पहुंचने के बाद 6 महीनों के भीतर ही घट गई थीं. मुझे एहसास होने लगा था कि तन भोग चाहता है, लेकिन मन समर्पण और विश्वास. इस से बढ़ कर मैं ने यह भी महसूस किया कि बिना प्रेम के बनाए गए शारीरिक संबंध जानवरों की तरह हैं.’’

‘‘तो इसलिए ही आप शादी नहीं करना चाहते शायद. दोनों के बीच प्रेम पनपेगा या नहीं इस पर संदेह है आप को. जितना मैं ने समझा है आप रिश्तों का महत्त्व समझाते हैं, भावनाओं की कद्र है आप को, प्यार देना और पाना जानते हैं आप… तो करनी चाहिए शादी आप को.’’

पारिजात ने अचानक कार के ब्रेक लगा दिए. हलका सा झाटका लगा दोनों को. पारिजात बोला, ‘‘पता है तुम ने अभी मुझे जो कहा न, उसे सुन कर ऐसा ही झाटका लगा मुझे. क्या सचमुच मैं प्यार देना और पाना जानता हूं? मिहिका, तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं?’’

कुछ देर तक खामोशी से बैठे सुकून भरे लमहों को जीते रहे दोनों. मिहिका का

घर आया तो दोनों ने मंदमंद मुसकराते हुए ‘बाय’ कह कर विदा ले ली.

घर पहुंच कर मिहिका रोज की तरह चाय बना कर बैडरूम में ले गई. अचल रोज की तरह आज टीवी देखने में व्यस्त नहीं था. चाय की चुसकी के साथ बात शुरू करते हुए बोला, ‘‘चलो तुम्हें आनेजाने की थकान से छुट्टी मिली, पारिजात भैया की कार का पूरा फायदा उठा रही हो. मुझे तो लोकल या बाहर के टूर से ही फुरसत नहीं मिलती. मजबूरी है, क्या किया जाए.’’

‘‘लेकिन उस दिन जब शाम को आप के साथ औफिस से राकेशजी आए थे तो वे कह रहे थे न कि जब स्टाफ के सभी लोग बाहर जाने को मना करते हैं तो आप उन की जगह जाने को तैयार हो जाते हैं.’’

‘‘मैं तो हमेशा झाठ बोलता हूं, दुनिया ही सच्ची है न?’’ आंखें तरेरते हुए अचल बोला.

मिहिका ने चुप रहने में ही भलाई समझा. जल्दीजल्दी चाय पी कर वह खाना बनाने चली गई.

किचन में रखे मोबाइल से नोटिफिकेशन का स्वर कानों में पड़ा तो मिहिका देख कर सकते में आ गई कि उस के बैंक खाते से क्व1 लाख निकल गए. दौड़ते हुए कमरे में जा कर अचल से घबराई सी बोली, ‘‘मेरे अकाउंट से किसी ने…’’

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‘‘अरे किसी ने क्या, मैं ने ही ट्रांसफर किए हैं पैसे अपनी नई सैके्रटरी गरिमा के नाम. नैस्ट वीक टूर पर मलयेशिया मेरे साथ जाएगी. कह रही थी कि टिकट के लिए एडवांस नहीं मिला औफिस से. वापस दे देगी तुम्हारे पैसे जब मिल जाएंगे उसे. वहां खर्च करने को भी नहीं हैं उस के पास. तनख्वाह बीमार सास के इलाज में चली जाती है उस की.’’

‘‘लेकिन आप को मुझा से पूछना तो चाहिए था पैसे निकालने से पहले? छोटी सी तो रकम जमा थी, सारा अकाउंट खाली हो गया. अभी मुझे दिन ही कितने हुए हैं नौकरी करते हुए,’’ कहते हुए मिहिका की आंखें भर आईं.

‘‘यह तुम्हारामेरा क्या कर रही हो? इतने दिनों से मेरा कमाया खा रही हो, मेरे पैसों से कपड़े, मौजमस्ती चल रही है. मैं ने आज पहली बार इस्तेमाल किए तुम्हारे पैसे तो आंखें दिखा रही हो?’’

‘‘लेकिन वह रकम तो आप गरिमा को…’’

‘‘चुप रहो बस,’’ मिहिका की बात बीच में काटते हुए अचल उठ कर उस के पास आ गया और धकेलते हुए बोला, ‘‘जा कर रसोई में अपना काम पूरा करो. मुझे भूख लगी है इस बात की जरा सी भी चिंता नहीं. बहस कर रही हो बेशर्मों की तरह.’’

मिहिका का मन किया कि अभी यहां से भाग जाए. सड़क पर दौड़े, चीखे, चिल्लाए, सब से कहे कि मैं हार गई हूं इस रिश्ते के खेल में, नहीं ढोया जाता यह पतिपत्नी का छद्म संबंध मुझा से. कम से कम तब मेरी पीड़ा सब के सामने तो होगी. इस स्थिति की तरह तो नहीं जीना होगा मुझे कि रोजरोज अपमान की आग में मोम सी पिघल रही हूं और दुनिया सोच रही है कोई जश्न चल रहा है, दोहरे जीवन से तंग आ चुकी हूं अब.

रात में बिस्तर पर अचल मिहिका के पास खिसकता हुआ आ गया.

मिहिका का दिमाग कुछ सोचने की स्थिति में नहीं था. ‘‘नींद आ रही है,’’ कहते हुए उस ने करवट बदल ली.

अचल उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘‘बदन की प्यास बुझाने बाजारू औरत के पास जाऊं क्या?’’

निर्लज्जता से अपनी पिपासा शांत कर वह सो गया. मिहिका रातभर करवटें बदलती रही, लगा जैसे किसी ने जबरन उस की देह को निचोड़ दिया हो और वह लाचार घुट कर रह गई हो.

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अगले दिन औफिस में मिहिका उदास बैठी रही. बारबार रोना आ रहा था. शाम को वापसी के समय कार में बैठते ही पारिजात बोला, ‘‘कह दो जो मन में है. आज सारा दिन तुम्हें देख कर परेशान हो रहा था मैं.’’

मिहिका ने पिछली रात की सारी बातें बता दीं.

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Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस (भाग-3)

‘‘मिहिका, ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि विवाह की परिणति एक सुखद परिवार में हो, यही मान लिया गया है. विवाह का परिणाम 2 लोगों में प्रेम का पनपना तो कभी सोचता ही नहीं कोई. एक पुरुष अपने हिस्से का प्यार बाहर भी तलाश लेता है, लेकिन घर पर अपना साम्राज्य स्थापित करने से बाज नहीं आता. परिवार और संतान से जुड़ कर स्त्री को आजीवन यह दासता स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ता है.’’

‘‘न जाने आदमी आधिपत्य क्यों चाहता है? अपनी मनमानी करता है? अचल को भी मेरी किसी बात में न सुनना पसंद नहीं. औफिस में साथ काम करने वालियों से खूब दोस्ती है, लेकिन मेरा किसी आदमी से हंस कर बात करना बरदाश्त नहीं, जोे के लिए भी आप के कहने से मानना पड़ा या शायद इन दिनों बढ़ती महंगाई में अपनी सैलरी से मनचाहे खर्च नहीं कर पा रहे थे. मेरा बाहर निकलना तो अभी भी जी जलाता ही है इन का.’’

‘‘तुम्हारे हाथ का दर्द कैसा है?’’ पारिजात के सहसा पूछे गए इस प्रश्न से मिहिका अचकचा गई कि क्या पारिजात को मेरा अचल की बुराई करना नागवार गुजरा है या फिर…

मिहिका सोच ही रही थी कि पारिजात ने अगला सवाल खड़ा कर दिया, ‘‘क्या सचमुच तुम बाथरूम में फिसली थीं परसों? फिसलने से कलाई ऐसे तो नहीं मुड़ती.’’

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मिहिका ने छलछलाती आंखों को मूंद कर सिर झाका लिया. फिर

अपने को संयत कर बोली, ‘‘आप सही समझे, फिसली नहीं थी वाशरूम में. झाठ बोला था मैं ने आप से और औफिस में बाकी सब से भी.’’

‘‘इसी का नाम है न शादी? परसों तुम्हारे घर आया था. पहुंच कर बाहर ही खड़ा था कि अचल का स्वर कानों में पड़ा. तुम से कह रहा था कि किस का मैसेज पढ़ कर मुसकरा रही हो. तुम जवाब दिए बिना मैसेज पढ़ती रही होंगी शायद. फिर तुम्हारी दर्दभरी चीख सुनाई दी थी कि मेरी कलाई मुड़ गई. उस ने तुम्हारे हाथ से मोबाइल खींचा होगा, ऐसा मेरा अनुमान है. सच क्या है मिहिका?’’

मिहिका के गालों पर बहते आंसू सबकुछ कह गए.

‘‘शादी कर रिश्तों का ऐसा अंजाम हो यही तो नहीं चाहता मैं. पर ऐसा तो कब से होता आया है. औरत के लिए अपना पति ही सबकुछ होता है, लेकिन पति के लिए? क्या कहोगी जब एक रानी हो कर सीता को पति से परित्याग मिला, जो अपनी सुखसुविधाएं छोड़ 14 वर्ष के लिए पति के साथ वन में रहीं अपनी मरजी से. लक्ष्मण भी छोटे भाईर् का फर्ज निभाने चल दिए उन दोनों के पीछेपीछे. एक पति का फर्ज क्यों याद नहीं आया उन्हें? उर्मिला सी विरहिणी कौन होगी? पति के बिना महल का सुख चुभता रहा होगा न?’’

पारिजात लगातार बोल रहा था? ‘‘कहीं पढ़ी थी कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखी हुई कविता जो समर्पित थी सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा को. जब बुद्ध बनने चल दिए थे सिद्धार्थ बिना पत्नी को बताए, तब यही कहती होगी न यशोधरा ‘सखि वे मुझा से कह कर जाते…’ कितना दर्द भरा है इन चंद पंतियों में.’’

बातोंबातों में कब घर आ गया, दोनों को ही पता नहीं लगा. मिहिका उतरने लगी तो पारिजात बोला, ‘‘तुम उस दिन पूछ रही थीं न कि  आप को अचल की तरह ‘भैया’ कह कर बुलाऊं या औफिस वालों की तरह ‘सर’? तो इस का जवाब सुन कर उतरना.’’

मिहिका दरवाजा आधा खोले उत्तर की प्रतीक्षा में आंखें फैला कर पारिजात को देख रही थी.

‘‘तुम मुझा से बिना किसी संबोधन के बात किया करो. अच्छा लगता है मुझे कुछ न हो कर भी बहुत कुछ होना. मेरा साथ देने के लिए शुक्रिया.’’

‘‘थैंक्स तो मुझे कहना चाहिए. कोई तो है जो मेरे दर्द को समझा सकता है. अच्छा, कल मिलेंगे,’’ कह कर वह चल तो दी, लेकिन उसे लग रहा था जैसे वह तो कहीं कार में ही छूट गई है, घर तो बस एक पत्नी जा रही है, एक बंधाबंधाया रिश्ता निभाने.

पारिजात अपने घर की ओर बढ़ा तो कार की खाली सीट पर एक

अदृश्य सा व्यक्तित्व दिख रहा था उसे. अपने पास बुलाता, अपने आकर्षण में बांधता हुआ ठीक मिहिका की तरह. घर पहुंचा तो वहां पसरा खालीपन सुर्ख रंगत लिए था आज.

कार्यालय में उन दोनों को घरेलू बातचीत के लिए अवसर कम ही मिलता था. सुबह आते समय भी औफिस के काम को ले कर बातचीत होती थी. घर लौटते हुए ही वे अपने विचार एकदूसरे के सामने रख पाते थे.

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‘‘तुम्हारी पर्सनल लाइफ से जुड़ा एक सवाल पूछूं?’’ उस दिन पारिजात ने मिहिका से कहा तो उस ने मुसकरा कर हामी में सिर हिला दिया.

‘‘कोई नन्ही जान नहीं आई तुम दोनों के जीवन में?’’

‘‘शादी के शुरू में अचल ने कहा था कि अभी वह अफोर्ड नहीं कर सकता. मैं उस के प्रत्येक निर्णय से सहमत थी.’’

‘‘तुम्हारा समर्पण दिखता था मुझे दो साल पहले भी.’’

पारिजात की बात सुन कर मिहिका के मन का बांध टूट गया. शब्द बहने लगे नदी की तरह, ‘‘मैं ने तो हमेशा चाहा कि अचल का मनचीता होने दूंगी. सोचा था कि अपना मन, अपनी इच्छाएं ताक पर रख उन की मनमानी पर निसार हो जाऊंगी तो उन के दिल की मलिका बन कर रहूंगी.

‘‘छन्न से दिल के टूटने की आवाज तब स्पष्ट सुनाई दी, जब एक दिन अपने किसी दोस्त और उस की पत्नी के सामने इन को मेरे लिए यह कहते पाया कि इस का अपना दिमाग तो है ही नहीं, जैसा मैं कहूं कर लेती है. मेरा प्रेम, मेरा त्याग अचल को मेरी कमजोरी लगता था. सुन कर मैं सन्न रह गई थी. सुनते ही किचन में उन उन सब के लिए चाय बनाते हुए प्याला हाथ से छूट गया. फर्श से टुकड़े उठाए तो लगा मेरे सुनहरे सपनों का चुभती किरचों में बिखराव हो चुका है. इन को मैं एकत्र तो कर सकती हूं पर जोड़ नहीं सकती.

उस दिन के बाद एक अलगाव सा हो गया मुझे अचल से. इस चुभन से बचने के लिए मां बनने की ख्वाहिश फिर से जब अचल के सामने रखी तो जवाब मिला कि जीवन का आनंद ले कर फिर जिम्मेदारी संभालने की सोचेंगे. जीवन का आनंद किस के साथ ले रहे हैं अचल? पत्नी को रोज रात 10 मिनट रौंदना कैसा आनंद है? प्रेम और विवाह का कोई संबंध नहीं? ऐसे कितने ही प्रश्न

मन में उठ गए हैं और जवाब न मिलने से बढ़ते ही जा रहे हैं.’’

आगे पढ़ें- पारिजात की शरारत भरी बातें सुन उदास मिहिका…

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Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस (भाग-2)

‘‘मिहिका तुम्हें याद है अब तक?’’ मुसकराते हुए पारिजात बोला, ‘‘अचल, स्विट्जरलैंड में रहते हुए शायद ही कोई ऐसा दिन था जब मुझे पुदीनेअदरक की चाय याद नहीं आई हो. कम से कम एक वीक तक लगातार रोज आऊंगा चाय पीने, तभी मेरी तलब शांत होगी. थैंक यू मिहिका.’’

अचल खिसियानी हंसी हंस दिया. मिहिका के मन की सूखी रेत आज बहुत

दिनों बाद अचानक स्नेह के कतरे से नम हो गई. रात को सोने से पहले उस नम रेत पर हृदय स्पंदन बारबार एक नाम उकेर रहा था-पारिजात.

अचल की पीनेपिलाने और दोस्तों संग वक्त बिताने की आदत से पारिजात वाकिफ था, लेकिन उस का व्यवहार पत्नी के प्रति इतना शुष्क व कर्कश हो गया होगा ऐसा उस ने कभी नहीं सोचा था. अपने घर पहुंच कर आज का दृश्य उस की आंखों के सामने कौंधता रहा. ‘‘कैसा व्यवहार करता है अचल मिहिका के साथ. मैं ने तो इसे सदा हंसते हुए ही देखा था. अचल के साथ विवाह कर शायद भूल कर दी इस मिहिका ने, सोचते हुए पारिजात को नींद आ गई.

पारिजात के मन में उस दिन से मिहिका के प्रति सहानुभूति व स्नेह जाग उठा. मिहिका जब नई ब्याहता थी तब से वह देखता आ रहा था कि मिहिका अचल के प्रति कितनी समर्पित थी. इन दिनों 2-3 बार अचल के घर जाने के बाद पारिजात से मिहिका की घुटन छिप नहीं सकी. वह सोच रहा था कि यदि मिहिका चाहेगी तो वह उसे कहीं जौब दिलवा देगा. जल्द ही पारिजात को अपनी इच्छी पूरी करने का अवसर मिल गया. उस के इंस्टिट्यूट में डौक्यूमैंटेशन का काम देखने के लिए जो पोस्ट निकली वह मिहिका के सीवी से बिलकुल मैच करती थी.

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लाइब्रेरी साइंस में मास्टर्स डिगरी के साथ नैट की परीक्षा वालीफाई किए मिहिका जैसे स्टाफ की आवश्यकता थी वहां. पारिजात ने इस विषय में अचल व मिहिका से बात की और मिहिका ने अप्लाई कर दिया. इंटरव्यू हुआ और मिहिका को चुन लिया गया.

जौइन करने के बाद शुरूशुरू में मिहिका को थोड़ी तकलीफ जरूर हुई. सुबहसुबह घर का कामकाज, मैट्रो पकड़ने के लिए कसरत और पिछले कुछ वर्षों में अपने सब्जैट के टच में न होना. औफिस के काम की समस्या तो पारिजात के कारण सुलझा गई. उस ने एक लैपटौप इशू करवा दिया मिहिका के नाम पर. अब कोई प्रौब्लम आती तो मिहिका इंटरनैट की मदद से सुलझा लेती. अपने सब्जैट पर इन दिनों छपने वाले लेख भी पढ़ती रहती थी. एक मेड की मदद से घर के काम में आसानी होने लगी. तीसरी समस्या भी पारिजात ने सुलझा दी. अपनी पुरानी, जंग लगी कार कबाड़ी को दे कर पारिजात ने नई कार खरीद ली. मिहिका को मैट्रो के सफर से छुट्टी मिली और प्रतिदिन वह पारिजात के साथ ही आनेजाने लगी.

कार्यालय में मिहिका पूरी लग्न से अपने कार्य में जुटी रहती थी. पारिजात प्रसन्न था कि मिहिका को रिकमैंड कर उस ने कोई गलती नहीं की. मिहिका का लावण्य न चाहते हुए भी उसे चुपके से छू जाता था.

उधर अचल के अभद्र व्यवहार से क्षुब्ध मिहिका के अंदर एक किशोरी जाग

रही थी जो प्रेम की चाहना रखती थी, किसी के कंधे पर सिर टिका कर अपने को भूल जाना चाहती थी, रिश्तेनातों के बंधन को नकार देना चाहती थी, लेकिन उस के भीतर बैठी एक परिपक्व स्त्री यह जानती थी कि एक विवाहिता के लिए ये सब सोचना भी वर्जित है.

पारिजात को धीरेधीरे यह एहसास होने लगा कि मिहिका न केवल सुंदरता और तीक्ष्ण बुद्धि की स्वामिनी है वरन उस के विचार भी बहुत सुलझे हुए हैं, पारिजात जैसे दार्शनिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को उस का साथ भाने लगा था. दोनों  की मानवीय संवेदनाओं व मूल्यों को ले कर अकसर बातचीत होती रहती है.

‘‘क्या तुम्हें लगता है कि प्लैटोनिक लव जैसा कुछ होता है?’’ ड्राइव करते हुए एक दिन सहसा पारिजात अपने पास बैठी मिहिका से पूछ बैठा.

‘‘हो सकता है, लेकिन उस की उम्र ज्यादा नहीं होती होगी.’’

‘‘क्यों?’’

यद्यपि पारिजात के क्यों में प्रश्न का नहीं सहमति का भाव था, फिर भी मिहिका बोल पड़ी, ‘‘आप क्या समझेंगे ये बातें? आप तो ऐसे रिश्तों से बचते हैं न? तभी तो शादी नहीं की अब तक. है न?’’

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‘‘तो तुम्हें लगता है कि शादी कर लेने से ये बातें समझा जाता कोई इंसान?’’ मिहिका की ओर भरपूर नजर डालते हुए पारिजात ने पूछ लिया.

मिहिका अपने ही सवाल में उलझा गई.

पारिजात मुसकराते हुए बोला, ‘‘क्या सोचने लगीं? अच्छा कोई और बात करते हैं. पता है जब मैं ने पहली बार तुम्हें देखा था तो क्या सोचा था?’’

‘‘क्या?’’ मिहिका की आंखों में अजब सी जिज्ञासा थी.

‘‘मैं तब खुद से कह रहा था कि अपने छोटे भाई हिमांशु के लिए लड़कियां ढूंढ़ते समय मेरे जेहन में जो तसवीर थी वह हूबहू मिहिका से मिलती थी. मैं गलत नहीं था. तुम में वह सबकुछ है जो किसी लड़के मेरा मतलब अच्छे पति को चाहिए.’’

मिहिका ने कभी नहीं सोचा था कि पारिजात ऐसी बात कह सकता है. उस का मन चाह रहा था कि पारिजात उस के लिए कुछ और कहे, थोड़ी और प्रशंसा कर दे उस की. कुछ देर प्रतीक्षा के बाद मिहिका ने अपने मन की बात जानने के लिए उस से ही प्रश्न कर दिया, ‘‘आप लड़कियों को ले कर इतनी समझा रखते हैं तो अब तक किसी को चुना क्यों नहीं अपने लिए? शादी क्यों नहीं की अब तक?’’

‘‘मैं एक इमोशनल पर्सन हूं, प्यार की कद्र करता हूं, रस्म के नाम पर किसी पिंजरे में कैद नहीं होना चाहता. रिश्तों को ढोना नहीं चाहता मैं,’’ कह कर पारिजात चुप हो गया, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे वह बहुत कुछ कहना चाहता है.

‘‘पुरुष कब होता है किसी पिंजरे में कैद? यह पिंजरा तो औरत के लिए है जहां कैद हो कर वह ताउम्र अपना वजूद तलाशती है, आकाश को देख सकती है पर उड़ नहीं सकती,’’ मिहिका ठंडी आह भरते हुए बोली.

‘‘मैं किसी को कैद भी नहीं कर सकता…’’ कह कर पारिजात ने चुप्पी ओढ़ ली.

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मिहिका के मन में विचारों और सवालों की उथलपुथल चल रही थी. कुछ देर बाद बोली, ‘‘प्यार, इश्क, प्रेम… शब्द कुछ भी हों, लेकिन सब के सब अर्थहीन हैं. विवाह से पहले लगता है जैसे बहुत चमक है इन में, आंखों को चकाचौंध करता तिलिस्मी सा उजाला… शादी हुई कि प्रेम की परिभाषा अंधेरे में तलाशी जाने लगती है. रात का संबंध प्यार कहलाने लगता है.’’

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Serial Story: तुम नारंगी हो जाओ न ओस (भाग-1)

‘‘कलरात को खाना ज्यादा बना लेना,’’ अचल ने कहा तो मिहिका ने सोचा कि पूछ ले कि कितने दोस्त आ रहे हैं. मगर फिर यह सोच कर चुप रही कि अचल के मूड का क्या भरोसा? मन चाहा तो जवाब दे देगा वरना ‘तुम्हें क्या लेनादेना जितना कहा है करो’ कह कर अपमानित कर देगा.

अचल प्राय: अपने मित्रों को खाने पर बुलाता रहता था. उन शामों में वाइन का दौर चलता, हंसीमजाक और पत्नियों पर बनाए गए बेहूदा चुटकुले सुनेसुनाए जाते. यों तो अचल को मिहिका का अकेले कहीं भी आनाजाना, किसी पुरुष से हंस कर बात करना पसंद न था, लेकिन अपने मित्रों के लिए मिहिका को घंटों खाना बनाते देखना उस के अहम को संतुष्ट करता था.

मिहिका का आए हुए मित्रों के हंसीमजाक को अनसुना करते हुए सिर झाकाए खाना परोसना और देर रात उन के जाने तक जागते रहना मित्र मंडली में अचल का सीना अहंकार से चौड़ा कर देता था.

‘कभी तो पत्नी का दुखदर्द समझेगा, उस के साथ को दोस्तों सा पसंद करेगा’ सोच कर चुपचाप अचल की निरंकुशता सहती रहती थी मिहिका. प्रतिदिन की तरह ही सोते समय आज अचल जब कुछ मिनटों के लिए एक खुशमिजाज पति में तबदील हो गया तो मिहिका ने पूछ ही लिया, ‘‘कितने लोगों का खाना बनाना है कल शाम?’’

‘‘पारिजात भैया लौट रहे हैं स्विट्जरलैंड से. कल का डिनर हमारे घर पर ही होगा उन का,’’ अचल ने बताया.

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पारिजात का नाम मिहिका के मन को उल्लसित कर गया. अचल के मित्र हिमांशु से 5 वर्ष बड़ा उस का भाई पारिजात मिहिका का कुछ नहीं लगता था, फिर भी कुछकुछ अपना सा लगता था उसे.

पारिजात के नाम का जिक्र हुआ तो 3 वर्ष पूर्व के दिनों में खो गई मिहिका, जब उस का अचल से विवाह हुआ था. विवाह के बाद तब पारिजात के लिए मिहिका के मन में अलग सा स्थान बन गया था, जब मिहिका का स्वागत पारिजात ने यह कहते हुए किया था कि अचल की मुझे कोई चिंता नहीं रहेगी अब. तुम सी खूबसूरत, पढ़ीलिखी समझादार पत्नी जो मिल गई है उसे.

यों भी पारिजात सुदर्शन, सहृदय और सुलझे व्यतित्त्व का स्वामी होने के साथसाथ प्रतिभावान भी था. हिमांशु जब बीएससी कर रहा था तभी एक दुर्घटना में उस के मातापिता चल बसे थे. उस समय पारिजात का एक रिसर्र्च इंस्टिट्यूट में असिस्टैंट डाइरैटर की पोस्ट पर चयन हुआ था. हिमांशु को मातापिता का स्नेह देते हुए पारिजात ने पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्लेसमैंट होने पर कई लड़कियां देखने के बाद हिमांशु की हां होने पर उस का विवाह करवाया था.

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अचल पर भी पारिजात के कई उपकार थे. पारिजात ने उस की लिखनेपढ़ने में बहुत मदद की थी. इतना ही नहीं मिहिका के विवाह से कुछ वर्ष पूर्व जब अचल की विधवा मां कैंसर से पीडि़त हो अस्पताल में अंतिम दिन गिन रही थीं, तब पारिजात प्रतिदिन उन के पास जा कर बैठता, बातें कर उन का दिल बहलाता और कभीकभी रात में भी वहां ठहर जाता था. अचल की मां का देहांत हुआ तो अचल की बहन का अपने एक मित्र से रिश्ता तय करवा कर अचल का बोझा भी हलका कर दिया था पारिजात ने. यह बात अलग है कि दूसरों की जोडि़यां बनाने वाले पारिजात ने अपने लिए अविवाहित रहने का रास्ता चुना था.

अचल का विवाह हुआ ही था कि उस का मित्र हिमांशु अपनी पत्नी को ले कर आस्ट्रेलिया चला गया, लेकिन अचल के पास पारिजात का आनाजाना पहले की तरह ही चलता रहा. पारिजात जब भी आता था तो मिहिका का मन होता कि वह भी उन दोनों के साथ ही बैठी रहे. पारिजात की बातें सुनते हुए बहुत कुछ सीखने को मिल जाता था. बातों ही बातों में पारिजात उन की समस्याएं जान जाता व सुलझाने का पूरा प्रयास करता.

मिहिका उन दिनों अचल के देर रात तक घर लौटने से बहुत परेशान हो जाती थी. छुट्टी के दिन भी यारदोस्त डेरा जमाए रहते थे उस के घर पर. मिहिका अचल के साथ समय बिताने को तरस जाती थी. पारिजात ने न जाने कैसे मिहिका के मन को पढ़ लिया था. अचल को समझाते हुए कहता कि रात को वह घर देर से आना छोड़ दे. मिहिका के कानों ने कई बार पारिजात को अचल से यह कहते सुना था कि सारा दिन वह तुम्हारे इंतजार में काट देती है और संडे को भी तुम उसे किचन में लगा देते हो. पतिपत्नी का यही समय अपना होता है. बाद में बच्चे, घरगृहस्थी, ढेरों जिम्मेदारियां. जी लो अचल, इन सालों को मिहिका के साथ. कितनी खूबसूरत बीवी पाई है तुम ने.’’ लेकिन पारिजात के इतना समझाने पर भी अचल की आदतें नहीं बदल रही थीं.

अपने संस्थान के एक प्रोजैट में दिनरात परिश्रम करते हुए पारिजात को बहुत सराहना मिली और फिर निदेशक के पद पर प्रमोशन के साथ ही 2 वर्ष के लिए स्विट्जरलैंड जाने का औफर मिल गया था. आज उस के लौटने का समाचार सुन मिहिका उत्साह से भर उठी थी.

पारिजात की फ्लाइट का समय दोपहर 2 बजे का था. उस का घर अचल के घर से कुछ ही दूरी पर था. मिहिका ने अपने घर रखी डुप्लीकेट चाबी ले कर उस के घर की साफसफाई करवा दी, कुछ सामान ला कर रख दिया और गुलाब के ताजा फूल ला कर टेबल पर सजा दिए. एक मेड से पारिजात के घर का काम करने के लिए बात कर उस का मोबाइल नंबर अचल से कह कर पारिजात को व्हाट्सऐप करवा दिया.

अगले दिन दोपहर पारिजात जब अपने घर पहुंचा तो सब कुछ व्यवस्थित देख मन ही मन मिहिका को सराहे बिना नहीं रह सका. सायंकाल वह अचल व मिहिका से मिलने उन के घर जा पहुंचा. इन 2 वर्षों में उस में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ देर साथ बैठने के बाद मिहिका चाय बना कर ले आई.

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चाय टेबल पर देख अचल मिहिका पर चिल्ला उठा, ‘‘तुम्हें कभी अकल नहीं आएगी. पारिजात भैया इतने दिन स्विट्जरलैंड में रह कर आए हैं, कौफी, जूस या सौफ्ट ड्रिंक ले कर आतीं न इन के लिए. सबकुछ मैं ही बताऊंगा?’’

‘‘मुझे याद है पहले भी ये जब आते थे मुझा से पुदीने और अदरक की चाय बनाने को कहते थे, इसलिए आज भी…’’ मिहिका ने मंद स्वर में उत्तर दिया.

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गुलमोहर: सफलता छोड़ गुमनामी के अंधेरे में क्यों चली गई सुचित्रा?

Serial Story: गुलमोहर (भाग-3)

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

अविनाश के मन में बारबार सवाल उठ रहे थे. इतने सालों बाद… वेदिका मेरी आंखों के सामने खड़ी थी. क्या मैं उस से सुचित्रा के बारे में पता करूं? हो सकता है उसे पता हो कि सुचित्रा कहां है, कैसी है…और किस हाल में…पर शब्द होंठों तक आतेआते रह गए. अविनाश आंख बंद कर शांति से कुरसी पर बैठ गया.

तभी एक जानीपहचानी सी खुशबू ने उसे फिर से बेचैन कर दिया. ऐसा परफ्यूम तो सुचित्रा लगाती थी. मगर उस ने आंखें नहीं खोलीं. परछाइयों के पीछे भागतेभागते वह थक गया था…

“अविनाशजी, इन से मिलिए आज के कार्यक्रम की कर्ताधर्ता मिस सुचित्रा. यह हमारे संगीत विभाग में शिक्षिका हैं.”

अविनाश को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. यह उस का भ्रम तो नहीं, जिस को इतने वर्षों तक न जाने कहांकहां ढूंढ़ा… वह यहां ऐसे मिलेगी? कितना कुछ कहना था शायद और कितना कुछ सुनना भी था उस को…पर इतने लोगों के बीच…

सुचित्रा… कुछ भी तो नहीं बदला. वैसी ही खूबसूरत… उस की हिरनी सी चंचल आंखें, कमर तक काले लंबे बाल, जिस की लटें आज भी उस के चेहरे से अठखेलियां कर रही थीं.

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अविनाश का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. सुचित्रा ने वेदिका का हाथ कस कर पकड़ रखा था. शायद उस की भी हालत अविनाश जैसी ही थी.

“मिस सुचित्रा, इतना अच्छा इंतजाम किया है आप ने, एकदम मेरी पसंद का. आप ने काफी रिसर्च की है मेरी पसंदनापसंद पर…”

अविनाश ने कनखियों से सुचित्रा की ओर देखा. दोनों की आंखे टकरा गईं. सुचित्रा का चेहरा शर्म से लाल हो गया. दोनों की एकजैसी स्थिति थी.ऐसा लग रहा था मानों उन की चोरी पकड़ी गई हो.

अविनाश को बहुत कुछ कहना और सुनना था… पर लोगों की भीड़ के सामने… उसे समझ में नहीं आ रहा था और ना ही उसे मौका मिल पा रहा था…

“मिस सुचित्रा, अपना कालेज तो दिखाइए…”

“आइए अविनाशजी… चलिए मैं आप को अपना कालेज दिखाती हूं.”

वेदिका ने शरारती नजरों से अविनाश को देखा.

“आप यहीं बैठिए वेदिका जी, मिस सुचित्रा मुझे कालेज दिखा देंगी. क्यों सुचित्रा जी, आप को कोई दिक्कत तो नहीं?”

सुचित्रा कुछ कहती इस से पहले वेदिका ही बोल पड़ी,”दिक्कत कैसी यह तो खुशी की बात है. मिस, आप सर को अपना कालेज दिखाइए.”

जिंदगी 2 मित्रों या फिर 2 प्रेमियों को ऐसे मिलाएगी यह तो कभी उन दोनों ने भी नहीं सोचा होगा.

एक लंबे से गलियारे को पार कर वे एक तरफ मुड़ गए. वहां थोड़ा अंधेरा था. दोनों के पांव वहीं जम गए. बहुत कुछ कहना था उन्हें एकदूसरे से… पर शुरुआत कौन करे? तब अविनाश ने ही हिम्मत दिखाई.

“कैसी हो सुचित्रा? कितने साल बीत गए. कभी सोचा भी नहीं था कि तुम से इस तरह मुलाकात होगी. एक बात पुछूं?”

सुचित्रा के चेहरे पर एक मासूम सी मुसकान खिल गई. बिलकुल नहीं बदला अविनाश. आज भी वैसा ही शरमीला और संकोची. कुछ भी कहने से पहले 10 बार सोचता है.

“सुचित्रा, तुम यों अचानक बिना कुछ कहेसुने कहां गायब हो गई थीं?कितना ढूढ़ा मैं ने… पर किसी को भी तुम्हारे बारे में कुछ भी पता नहीं था. तुम्हारा फोन नंबर तक नहीं था किसी के पास. कम से कम तुम एक बार… सिर्फ एक बार तो बात कर सकती थीं.

“एक बात बताओ, यह तो तुम भी जानती थीं कि तुम मुझ से बेहतर गाती थी… तुम चाहती तो तुम आसानी से प्रतियोगिता जीत जाती.तुम्हारी सहेलियों ने बाद में मुझे बताया कि तुम ने प्रतियोगिता से पहले बहुत सारी आइसक्रीम खाई थी जबकि तुम्हें पता था कि तुम्हें आइसक्रीम से ऐलर्जी है. फिर भी तुम ने ऐसा क्यों किया?”

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अविनाश का चेहरा क्रोध और हताशा से लाल हो गया. गलियारे में सन्नाटा पसर गया. अविनाश और सुचित्रा के सांसों के अलावा कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी. सुचित्रा चुपचाप अविनाश की बातों को सुनती रही.

“माफ कीजिएगा अविनाशजी, मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई…” तभी अचानक वहां वेदिका आ गई थी.

“तुम सच जानना चाहते हो तो सुनो एक ऐसा सच जिसे तुम्हें छोड़ कर पूरा कालेज जानता था. एक ऐसा सच जो न तुम कभी कह सके और न ही सुचित्रा. सुचित्रा तुम्हें हारता हुआ नहीं देख सकती थी.

“याद है तुम्हें प्रतियोगिता से पहले जब सुचित्रा तुम से मिलने आई थी… बहुत कुछ कहना था उसे पर… सुचित्रा तुम्हारी प्रतिभा को पहचानती थी… लेकिन जब तुम ने कहा कि अगर तुम यह प्रतियोगिता नहीं जीत पाए तो संगीत छोड़ दोगे, तब उसी पल सुचित्रा ने यह निर्णय ले लिया कि तुम्हारे सपनो को यों टूटने नहीं देगी.एक दोस्त की उम्मीदों और सपनों को कुचल कर सफलता का महल खड़ा करना सुचित्रा को मंजूर नहीं था, इसलिए सुचित्रा…

“अविनाश, वह सुचित्रा की हार नहीं उस की जीत थी. आज तुम्हें इस जगह पर देख कर मैं और सुचित्रा बहुत खुश हूं. सुचित्रा हार कर भी जीत गई. अविनाश तुम सोच रहे होगे कि मैं सबकुछ जानती थी तब मैं ने तुम्हें सच क्यों नहीं बताया?

“अविनाश, सुचित्रा तुम से… सच में बहुत प्यार करती थी और वह तुम्हें टूटते हुए नहीं देख सकती थी. उस ने मुझे कुछ भी बताने को मना किया था… मैं मजबूर थी पर आज नहीं. मैं जानती थी कि आज भी सुचित्रा तुम से कुछ नहीं कह पाएगी,”वेदिका एक ही सांस में बोलती चली गई.

कितना कुछ भरा था उस के मन में.सबकुछ, हां सबकुछ कह देना चाहती थी वह. पर सुचित्रा आज भी चुप थी.वर्षों से भरा दिल का गुबार आंखों से छलकने लगा थि. कितना हलका महसूस कर रही थी वह.

सुचित्रा का चेहरा गर्व से चमक रहा था. अविनाश को बहुत कुछ कहना था… शायद. वह अल्हड़ और चंचल सी लड़की अपने अंदर कितना कुछ समेटे हुए थी.

“सुचित्रा….सुचित्रा जो बात मैं इतने वर्षों में न कह सका आज…”

“अविनाशजी… प्रिंसिपल साहब आप को ढूंढ़ रहे हैं. जनता बेकाबू हो रही है.”

अविनाश ने सुचित्रा की तरफ हाथ बढ़ाया .

“सुचित्रा इन बीते दिनों में सब कुछ तो पा लिया था मैं ने. रुपयापैसा, गाड़ी, बंगला… पर फिर भी… कहीं कुछ छूटा और अधूरा सा लगता था.

“सुचित्रा….तुम्हें याद है, तुम ने मुझे एक किताब भेंट की थी और उस के पहले पन्ने पर तुम ने कुछ लिखा भी था. आज मैं तुम्हारी उस बात का जवाब देना चाहता हूं.

“एक मशहूर शायर ने कहा है, ‘जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए…'”

सुचित्रा को मानों इतने वर्षों से दिल में दफन सवालों का जवाब मिल गया.अविनाश ने धीरे से उस के चेहरे पर लटकती लटों को संवारा और उस की नाजुक हथेलियों को अपने हाथ में ले कर बड़ी उम्मीद भरी निगाहों से उसे देखा.

सुचित्रा अविनाश की आंखों की तपिश को झेल न पाई और उस ने अपनी पलकें झुका ली.

सुचित्रा की झुकी पलकों ने अविनाश के सवालों का जवाब दे दिया. सुचित्रा की मौन स्वीकृति ने अविनाश को मानों नया जीवन दे दिया. उस ने सुचित्रा के हाथों को कस कर पकड़ा और सभागार की ओर चल पड़ा.

सुचित्रा भी अविनाश के मोहपाश में बंधी बिना किसी नानुकुर के पीछेपीछे चलती चली गई. यही अधिकार हां बस यही अधिकार तो उसे अविनाश की आंखों में चाहिए था.

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अविनाश ने मंच पर माइक हाथ में ले कर कहा,”दोस्तो, यह शहर सिर्फ एक शहर नहीं…मेरे सपनों की जमीन है जिस ने मुझे फर्श से अर्श तक पहुंचाया. आप सभी के प्यार का मैं सदा आभारी रहूंगा.

“दोस्तो, आप ने अब तक मुझे सुना और मेरी आवाज को सराहा. आज मेरी आवाज को एक नया मुकाम देने के लिए, मेरे साथ देने के लिए मैं आमंत्रित करता हूं मिस सुचित्रा को…”

आसमान एक बार फिर बादलों से घिर रहा था…आज एक बार फिर प्रकृति अविनाश और सुचित्रा के प्रेम की साक्षी बन रही थी. सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. आज वर्षों से बिछुड़े प्यार को मंजिल जो मिल गई थी.

Serial Story: गुलमोहर (भाग-1)

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

सुबह से ही बहुत व्यस्त कार्यक्रम था. अविनाश थक कर चूर हो चुका था. आज उस की रिकार्डिंग थी. रिकार्डिंग के बाद मैनेजर ने एक कार्ड अविनाश के हाथ में थमाया.

आज उस का अपना शहर उसे फिर से पुकार रहा था. गुलमोहर का पेड़, विद्यालय की सीढ़ियां, चाचा की चाय और न जाने क्याक्या…सबकुछ उस की आंखों से गुजरता चला गया.

कल सुबह ही निकलना था. परसों कार्यक्रम है और 8 घंटे का रास्ता. शाम तक पहुंच जाएगा.

एक अजीब सी बेचैनी थी. अविनाश समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस बैचेनी की वजह क्या थी? कुछ न कुछ तो जरूर होने वाला है, पर क्या? इस सवाल ने उसे और भी बेचैन कर दिया.

आज वर्षों बाद फिर अनायास ही उस के हाथ किताबों की अलमारी की तरफ बढ़ गए. ऐसा लगा मानों आज अविनाश का अतीत बारबार उसे अपनी ओर खींच रहा था. सुचित्रा की भेंट की हुई किताब उसे बहुत प्रिय थी. किताब को सीने से लगाए वह कार में बैठ गया. खिड़की से आती हवा से मनमस्तिष्क एक गहरे सुकून में डूबता चला गया.

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क्या नहीं था उस के पास… फिर भी वह अधूरा था. चचंल हिरनी सी वे आंखें उस का हर जगह पीछा करती रहतीं.

शहर के शोरशराबे से दूर कार तेजी से आगे भागती जा रही थी और यादों का कारवां कहीं पीछे छूटता चला जा रहा था. यादें…किताब के पन्नों की तरह… परत दर परत खुलती चली गईं.

सुचित्रा की लिखावट में पहले पन्ने पर लिखी गुलजार साहब की पंक्तियां ‘गुलमोहर गर नाम तुम्हारा होता, मौसम ए गुल को हंसाना भी हमारा काम होता…’

न जाने क्या सोच कर अविनाश के हाथ उस लिखावट की ओर बढ़ गए. शायद अविनाश आज भी उस के आसपास होने को महसूस करता था. सुचित्रा का दिया हुआ सुर्ख गुलमोहर आज भी उस की यादों की तरह किताब में दफन था. एक हलके से झोंके ने सबकुछ हिला कर रख दिया. कितना बदल गया था शहर.

8 घंटे का लंबा सफर…शरीर थक कर चूर हो चुका था. कितने सालों बाद यहां आया था अविनाश…अब तो पहचानने में भी नहीं आता. सच में, कितना कुछ बदल गया था. ऊंचीऊंची इमारतें, बाजार की चहलपहल, हर तरफ भीड़ ही भीड़.अविनाश की नजर एक बड़े से बोर्ड पर गई…कितना बड़ा बोर्ड लगा है उस का…

अविनाश के चेहरे पर चमक आ गई. बस यही तो चाहिए था उसे. सबकुछ तो था, पर फिर भी उस की निगाहें तेजी से उसे ढूंढ़ रही थीं पर वह अब यहां कहां? वह तो सुरसंगीत प्रतियोगिता के बाद बिना किसी से कुछ कहे अपने पिता के साथ दिल्ली चली गई थी. उस ने एक झटके से अपना सिर झटका जैसे उस की यादों से पीछा छुड़ाना चाहता हो. हर महफिल में अविनाश की निगाहें सुचित्रा को ही ढूंढ़ती रहतीं.

अविनाश ने गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर से होटल पहुंचने को कहा… आज इतने वर्षों बाद वह अपने शहर आया था. यादों की आंधी उसे किसी और ही दुनिया में ले जा रही थी.

अविनाश बारबार सोच रहा था कहीं कोई उसे पहचान न ले. एक हलकी सी मुसकान उस के चेहरे पर खिल गई.

कुछ भी नहीं बदला था… गुलमोहर का पेड़ चुपचाप जैसे अविनाश से न जाने कितने सवाल पूछ रहा था.
चाय के ढाबे वाले का दरवाजा और उस की वह सांकल आज भी अविनाश के आने का इंतजार कर रही थी. अविनाश इतने सालों बाद भी चाचा की अदरख वाली चाय की स्वाद को नहीं भूला था.

अविनाश ने जैकेट की टोपी और काला चश्मा चढ़ा लिया… कोई उसे पहचान न सके और कुल्हड़ को दोनों हाथों से दबाए गरमाहट का एहसास करता चाचा की अदरख वाली चाय का आनंद लेने लगा.

विद्यालय में बड़ी चहलपहल थी. कल उसे अपने ही कालेज में तो परफौरमेंस देनी थी. होस्टल के बच्चे खाना खा कर लौट रहे थे. उन की आवाजें अभी तक अविनाश के कानों में पड़ रही थीं,”बहुत बड़ा गायक आ रहा है मुंबई से….उसी की तैयारी चल रही है. हमारे ही कालेज में ही पढ़ता था. मजा आ जाएगा कल तो.”

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अविनाश के चेहरे पर मुसकान आ गई. कुछ भी तो नहीं बदला था. सबकुछ तो था, वैसा का वैसा ही.

लाल सुर्ख फूलों से लदा गुलमोहर का पेड़ अविनाश को हमेशा आकर्षित करता था. आज भी अविनाश उस के मोहपाश में बंधा खींचता चला गया. उसे देख कर उसे हमेशा लगता था कि हाथ पसारे अपनी आगोश में लेने को तत्पर उस का सुनहरा भविष्य खामोशी से उस का इंतजार कर रहा है. यादों के पन्ने 1-1 कर के खुलते चले गए…

वह अपने दोस्तों के साथ बैठा हुआ था. याद है आज भी उसे वह दिन… पीले रंग की सलवारकमीज पर लाल रंग की चुनरी, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में चांदी की चूड़ियां पहने उस ने विद्यालय में प्रवेश किया. उस की सादगी में भी गजब का जादू था.

बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और कमर तक लंबे बालों के साथ जब वह लहरा कर उस के पास आई तो मानों सांसें थम सी गईं.

“माफ कीजिएगा, म्यूजिक की क्लास…”

“हां जी, बस शुरू ही होने वाली है…”अविनाश के साथ पढ़ने वाली वेदिका ने तपाक से जवाब दिया.

अविनाश उस लड़की की खूबसूरती में कहीं खो सा गया. वेदिका ने अविनाश को कुहनी मारी.

“क्या बात है जनाब, सारा विद्यालय छोड़ कर मैडम हमारे तानसेन से पूछने आईं. वह भी संगीत में है. तानसेन जी को संगत देंगी क्या?”

‘तानसेन…’ अविनाश के मित्र उसे इसी नाम से प्यार से बुलाते थे.

“ऐसा कुछ नहीं वेदिका… मैं तो इसे जानता भी नहीं. मेरी टाइप की लड़की नहीं है.”

“सुचित्रा नाम है इस का…”

“तुम तो पूरा रिसर्च कर के बैठी हो…”

“मित्र के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और हमारा जन्म तो जनकल्याण के लिए ही हुआ है,”वेदिका ने चुटकी ली.

अविनाश सोच में पड़ गया. कितना सुंदर नाम है… जितना सुंदर नाम… उतनी ही सुंदर है वह. कुदरत ने बड़ी फुरसत से बनाया था उसे. विद्यालय का कोई भी कार्यक्रम हो और सुचित्रा और अविनाश की जुगल जोड़ी गाना न गाए ऐसा हो ही नहीं सकता था. दोनों ने मिल कर जिले स्तर पर न जाने कितनी प्रतियोगिताएं जीती थीं.अविनाश जितना सौम्य और गंभीर था सुचित्रा उतनी ही चंचल और अल्हड़.एक बार उस की बातें शुरू होतीं तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती.

एक दिन अविनाश और सुचित्रा गुलमोहर के पेड़ के नीचे गाने का रियाज कर रहे थे. आसमान में काले बादल घुमड़ रहे थे. शीतल मंद बयार में सुचित्रा का मनमयूर नाच उठा और वह अपने सुंदर गोरे मुख पर बादल की तरह घिरघिर आ रहे जुल्फों को कभी अपने दांतों से दबाती तो कभी उंगलियों से खेलने लगती.

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“अविनाश मुझे बारिश बहुत पसंद है.बारिश की बूंदें जब मेरे चेहरे को छूती हैं तो… उफ्फ, क्या बताऊं मेरा रोमरोम नाच उठता है…ऐसा लगता है मानों प्रकृति भी सुरीले साज पर जिंदगी के गीत छेड़ रही हो. बारिश की 1-1 बूंद कणकण में एक नया जीवन भर रही हो. ऐसी जिंदगी के लिए तो मैं न जाने कितनी बार जन्म ले लूं.”

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Serial Story: गुलमोहर (भाग-2)

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

“कितना बोलती हो तुम…और उस से भी ज्यादा बोलती हैं तुम्हारी आंखें.”

“सच में? अच्छा और क्याक्या बोलती हैं मेरी आंखें?”

“सुचित्रा, पता नहीं क्यों मुझे हमेशा से ऐसा लगता है जैसे इन अल्हड़ और शरारती आंखों के पीछे एक शांत और परिपक्व लड़की छिपी है. मगर तुम ने कहीं उसे दूर छिपा दिया है, उस मासूम बच्चे की तरह जो इम्तिहान के डर से अपनी किताबें छिपा देता है.”

सुचित्रा खिलखिला कर हंस पड़ी,”जनाब, इतना सोचते हैं मेरे बारे में, मुझे तो पता ही नहीं था. वैसे एक बात कहूं अविनाश… तुम्हारी आंखें भी बहुत कुछ बोलती हैं.”

“मेरी आंखें? अच्छा मेरी आंखें क्या बोलती हैं, मुझे भी तो पता चले…”

“तुम्हारी आंखें तुम्हारे दिल का हाल बयां करती हैं… तुम्हारे सुनहरे सपनों को जीती हैं और… बहुत कुछ कहना चाहती हैं जिसे कहने से तुम डरते हो… डरते हो कि तुम कहीं उसे खो न दो.

“अविनाश एक बात कहूं… रिहा कर के तो देखो उस डर को, शायद तुम्हारा वह डर बेमानी और बेमतलब हो…

“दिल की गिरहों को खोल कर तो देखो हो सकता है कोई तुम्हारे जवाब की प्रतिक्षा कर रहा हो.”

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“सुचित्रा, सच में… क्या सच में इतना कुछ बोलती हैं मेरी आंखें? ऐसा कुछ नहीं… तुम्हें गलतफहमी हो गई है… मेरा दिल तो कांच की तरह साफ है.कुछ भी नहीं छिपा किसी से…और छिपाना भी नहीं है मुझे किसी से. तुम भी न जाने क्याक्या सोचती हो.”

सुचित्रा अचानक से गंभीर हो गई,”काश, तुम्हारी कही बातें सच होतीं. काश, तुम्हारी बातों पर मुझे यकीन आ जाता. अविनाश, कांच के उस पार भी एक दुनिया होती है जिसे हरकोई नहीं देख पाता. जो दिखाई तो देती है पर वह नहीं दिखाती… जो उसे दिखाना चाहिए.

“एक बात बताओ अविनाश, तुम क्या बनना चाहते हो?”

“सुचित्रा मैं बहुत बड़ा गायक बनना चाहता हूं. देशविदेश में मेरा नाम हो.मैं जहां भी जाऊं लोगों की भीड़ उमङ पङें.”

“बाप रे…अविनाश, तुम्हारे कितने बङे सपने हैं…”

“ज्यादा नहीं बस…जितने इस गुलमोहर के पेड़ पर लगे फूल…बस.”

अविनाश और सुचित्रा ठहाके मार कर हंस पङे.

“मान लो तुम्हारे सपने पूरे नहीं हुए तब?”

अविनाश की आंखों में दर्द उभर आया. सुचित्रा ने उस के हाथों को धीरे से अपने हाथ में लिया और उसे सहलाते हुए कहा,”चिंता ना करो… तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी होंगी.

“अविनाश, तुम्हें पता है एक बहुत बड़ा चैनल एक म्यूजिकल कार्यक्रम कराने वाला है. शहर में बड़ा हल्ला है…क्यों ना हम भी उस कार्यक्रम में भाग लें…”

“अरे हम जैसे लोगों को कौन पूछता है…तुम भी न…”

सुचित्रा ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को गोलगोल घुमाते हुए कहा,”ऐसा क्यों कहते हो… कोशिश करने में क्या हरज है. देखो मैं तो फौर्म भी ले आई हूं. अब कोई बहाना नहीं चलेगा. चलो फौर्म भरो और तैयारी शुरू करो…”

सुचित्रा की जिद के आगे अविनाश की एक न चली. उस सुरसंगीत के कार्यक्रम ने अविनाश की जिंदगी बदल दी. एक के बाद एक राउंड होते गए और अपने सुरीले गानों से अविनाश और सुचित्रा ने अपना लोहा मनवा दिया.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सुर संगीत कार्यक्रम का फाइनल राउंड था. अविनाश के गाने ने जजों और दर्शकों का दिल जीत लिया.

चारों तरफ एक अजीब सी खामोशी और तनाव छाया हुआ था. वोटिंग लाइन शुरू हो चुकी थी… और फिर परिणाम भी घोषित कर दिए गए… अविनाश के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, उस ने प्रतियोगिता जीत ली थी… पर अफसोस सुचित्रा को डिसक्वालीफाई कर दिया गया. गला खराब होने की वजह से सुचित्रा गाना नहीं गा पाई थी. अविनाश ने सुचित्रा के बारे में उस की सहेलियों से पता लगाने की कोशिश की पर किसी को भी कुछ भी पता नहीं था.

अविनाश ने प्रतियोगिता जीतने के बाद बड़ेबड़े शहरों में कई कार्यक्रम किए. कुछ ही दिनों बाद वह वापस उसी शहर में आया पर कोई भी सुचित्रा के बारे में कुछ भी नहीं बता पाया. दोस्तों ने बताया कि इम्तिहान देने के बाद वह अपने पापा के साथ दिल्ली चली गई. किसी के पास उस का नया पता और फोन नंबर नहीं था. संपर्क के सारे रास्ते बंद हो गए थे.

अविनाश ने बहुत हाथपांव मारे पर निराशा और हताशा के सिवा उस के हाथों में कुछ भी नहीं लगा.

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समय बीतता गया और अविनाश सफलता की सीढ़ियां चढ़ता चला गया. हर तरफ कैमरों की चकाचौंध, रंगबिरंगी लाइट्स और एक ही आवाज,”अविनाश… अविनाश…” कोई औटोग्राफ लेने कोई फोटो खिंचवाने को बेताब, तो कोई सिर्फ उसे एक बार छू लेना चाहता था.शोहरत है ही ऐसी चीज.

लड़के और लड़कियां खुशी से चीख रहे थे. अविनाश का अपना शहर पलकें बिछाए उस का इंतजार कर रहा था. एक बार फिर से उसे वे दिन याद आ रहे थे…

सुरसंगीत प्रतियोगिता के आखिरी दिन उस की सुचित्रा से आखिरी मुलाकात हुई थी. आज भी याद है उसे वह रात. हिरनी सी चंचल उस की आंखों में आज अजीब सा ठहराव उस ने महसूस किया था.

“अविनाश, शुभकामनाएं…” और उस ने एक सुर्ख गुलमोहर उस की ओर बढ़ा दिया.

“अविनाश यह प्रतियोगिता तुम्हारे लिए बहुत माने रखती है न?”

“हां सुचित्रा… मैं ने इस के लिए बहुत मेहनत की है. अगर आज मैं हार गया तो मैं कभी भी गाना नहीं गाऊंगा.”

सुचित्रा का चेहरा उतर गया.

“ऐसा ना कहो अविनाश… सब अच्छा होगा.”

“शुभकामनाएं सुचित्रा…”

अविनाश को आज भी उस की वह मुसकान याद है. अविनाश को आज तक अफसोस था कि सुचित्रा के चेहरे की 1-1 लकीर समझ लेने वाला अविनाश से उस दिन इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई?

स्टूडैंट्स अविनाश की एक झलक पाने के लिए बेचैन हो रहे हैं. प्रिंसिपल साहब के बारबार आग्रह करने पर अविनाश उन्हें मना नहीं कर पाया. अविनाश खुद भी आश्चर्य में था. यह तो उस के प्रोटोकाल के विरुद्ध था पर पता नहीं इस शहर में एक ऐसी कशिश थी कि वह उन को मना नहीं कर सका.

अविनाश ने जैकेट पहनी और बाल संवार कर स्टेज की तरफ चल पड़ा. अविनाश की शानदार ऐंट्री से छात्र खुशी से चीखने लगे.

अविनाश ने हिट गानों की झड़ी लगा दी. भीड़ खुशी से झूम रही थी. थोड़ी देर बाद अविनाश फिर उसी कमरे में लौट आया… प्रिंसिपल साहब कृतज्ञ भाव से उसे देख रहे थे. तभी एक लड़की ने कमरे ने प्रवेश किया.अविनाश को लगा चेहरा बहुत जानापहचाना है… उस ने दिमाग पर बहुत जोर दिया… कहां देखा है…कहां देखा है…अरे यह तो वेदिका है. साड़ी में कितनी अलग दिख रही थी…चेहरे पर चश्मा, शरीर भी पहले से कुछ अधिक भर गया था.

“सर, बहुतबहुत धन्यवाद, आजकल के बच्चों को तो आप जानते हैं. कितनी जल्दी बेकाबू हो जाते हैं. आप को थोड़ी असुविधा हुई. इस के लिए हम…”

“अरे ऐसा क्यों कह रही हैं आप. हम भी अपने समय में ऐसे ही थे, बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकता हूं?”

“जी बिलकुल…”

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“आप…आप वेदिका शर्मा हैं? 2010 बैच…”

“जी मैं वही वेदिका हूं… जिस की आप बात कर रहे हैं. मैं आप के साथ ही पढ़ती थी. आप थोड़ा आराम कर लीजिए… कार्यक्रम देर तक चलेगा.आप थक गए होंगे.”

आगे पढ़ें- अविनाश के मन में बारबार सवाल उठ रहे थे….

Serial Story: बोझमुक्त (भाग-4)

दिल की धड़कनें तेज हो गईं. यह इंतजार बहुत असहनीय होने लगा. सारा दिन यों ही निकल गया. अब तो रात के खाने के बाद सोना और कल दोपहर में तो वे चले ही जाएंगे. कुछ गपशप भी नहीं हो पाएगी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. अर्चना आ गई.

अकसर औफिस से आ कर वह बेतहाशा घंटी बजाती थी. कितनी बार समझाया उसे कि इस समय मिली सोई होती है. इतनी जोर से घंटी न बजाया करे, लेकिन…सहसा मन भर आया, छोटी बहन को देखने को. उस ने नम आंखों से दरवाजा खोला. अर्चना ने अपनी दीदी को झुक कर प्रणाम किया.

‘‘सदा खुश रहो… फूलोफलो,’’ दिल भर आया आशीर्वाद देते हुए.

‘‘जी नहीं, तेरी तरह फूलने का कोई शौक नहीं है मुझे,’’ वही चंचल जवाब मिला.

गौर से अपनी ब्याहता बहन का चेहरा देखा. मांग में चमकता सिंदूर, लाल किनारी की पीली तांत साड़ी, दोनों हाथों में लाख की लाल चूडि़यां. सजीधजी प्रतिमा लग रही थी. वह लजा गई, ‘‘छोड़ दीदी, तंग मत कर. मिली कहां है?’’ और फिर मिली…मिली… पुकारती हुई वह बैडरूम में घुस गई.

मन ने टोकना चाहा कि अभी सो रही है. छोड़ दे. पर बोली नहीं. मौसी आई है. वह भी तो देखे अपनी सजीधजी मौसी को. बड़ी प्यारी लग रही है, अर्चना. सुंदर तो है ही और निखर गई है.

मौसी की गोद में उनींदी मिली आश्चर्य और कुतूहल से मौसी को निहारते हुए बोली, ‘‘मौसी, बहुत सुंदर लग रही हो, आप तो. एकदम मम्मी जैसे सजी हो.’’

उस के इस वाक्य ने सहज ही अर्चना को नई श्रेणी में ला खड़ा कर दिया. उसी एक पल में अनेक प्रतिक्रियाएं हुईं. अर्चना लजा गई. संजय ने प्यार से अपनी सुंदर पत्नी को निहारा. आकाश की नजर उन दोनों से फिसल कर सुमन पर स्थिर हो गई. सब के चेहरे पर खुशी और संतोष झलक रहा था. अर्चना के चेहरे पर लाली देख कर मन फूलों सा हलका हो गया.

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तभी अर्चना का अधिकार भरा स्वर गूंजा, ‘‘संजय, घर पर फोन कर दीजिए कि हम लोग पहुंच गए हैं और पूछिए बबलू की तबीयत अब कैसी है?’’

दोनों ही चौंके, अर्चना कब से लोकव्यवहार निभाने लगी. अभी 4 महीने

पहले की ही तो बात है. सुमन को बुखार हो गया था. किंतु घर में रह कर भी 3 दिन तक अर्चना को खबर नहीं हुई थी. नौकर के सहारे उस का काम चल रहा था. आकाश के हाथ में ब्लड रिपोर्ट और दवाओं को देख वह चौंकी थी. ‘‘किस की तबीयत खराब है… मिली की…’’

वही अर्चना आज चिंतातुर दिख रही थी. हमें लगा या तो यह चमत्कार है या फिर दिखावा. चाय पी कर दोनों फ्रैश होने अपने कमरे में चले गए थे. अर्चना के जाने के बाद से उस का कमरा वैसा ही था. ये दोनों भी अपने कमरे में आ गए.

आकाश अलमारी खोलते हुए बोले, ‘‘चलो तुम्हारी बहन गृहस्थी के दांवपेंच सीखने लगी है. अभी तक का परफौर्मैंस तो अच्छा है.’’

तभी अर्चना प्रकट हुई, ‘‘आप लोगों के पास मेरे अलावा और कोई बात नहीं है क्या?’’ वह इठलाते हुए बोली.

इन्होंने भी चुटकी ली, ‘‘है कैसे नहीं? अब इंटरवल के बाद का सिनेमा देखना बाकी है. फर्स्ट हाफ तो हम ने रोरो कर बहुत देखा. उम्मीद है अगला हाफ अच्छा होगा,’’ पहली बार आकाश ने प्यार से उस के सिर पर चपत लगाई और बाहर चले गए.

‘‘और बता तेरी ससुराल में सब कैसे हैं? सब से निभती है न तेरी? तू खुश तो है न?’’

अर्चना सिलसिलेवार बताती चली गई. इस 1 महीने में कब क्या हुआ? किस ने क्या कहा? उसे कैसा लगा? कैसे उस ने सहा? कैसे छिपछिप कर रोई? कैसे सिरदर्द और बुखार में न चाहते हुए भी काम करना पड़ा था. ननद के जिद्दी बच्चों की अनगिनत फरमाइशें. छोटी ननद के नखरे आदि.

वह मिली को चूमते हुए बोली, ‘‘अपनी मिली कितनी अच्छी है, जरा भी जिद नहीं करती.’’

अपनी प्रशंसा सुन मिली खुश हो गई. मौसी का लाया प्यारा सा लहंगा पहनने लगी.

एकाएक अर्चना दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘‘दीदी, तुम ही कहती थी, न कि

कुछ बातें लोकव्यवहार और कुछ शालीनता या कहो फर्ज के दायरे में आ कर जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं. इन के परिवार का अधिकार है मेरे आज के जीवन पर उसी के एवज में तो पति का स्नेहमान पाती हूं. ये तमाम सुखसुविधाएं, गहनेजेवर, घूमनाफिरना, होटलों में खाना सब सासससुर की कृपा से ही तो है. उन्होंने ही मेरे पति पर अपना प्रेम, पैसा, मेहनत लुटाई तभी तो वे इस काबिल हुए कि मैं सुख भोग रही हूं…

‘‘तुम ठीक कहती थीं, दीदी. ससुराल वालों के लिए करने का कोई अंत नहीं है. बस चेहरे पर मुसकान लिए करते जाओ. पर सब अपनेआप हो गया. मैं तुम्हें कितना कमेंट करती थी कि बेकार अपना पैसा लुटाती हो, व्यर्थ सब के लिए मरती हो. किंतु, जब खुद पर पड़ी तो तुम्हारी स्थिति समझ आई…’’

इन चंद दिनों में ही वह कितना कुछ बटोर लाई थी कहनेसुनने को. फिर वह संजीदा हो कर बोली, ‘‘तुम्हारी बातों को अपना कर अब तक तो सब ठीक ही रहा है. मैं अपनी सारी बदतमीजियों के लिए दीदी माफी मांगती हूं.’’

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‘‘चल पगली कहीं की…मुझे तेरी किसी बात का दुख नहीं. बस तुम अच्छे से सामंजस्य बैठा कर चलना. तेरी खुशी में ही हमारी खुशी है. और…बता…संजय अच्छे स्वभाव के तो हैं न…बेंगलुरु जा कर…फिर जौब ढूंढ़नी पड़ेगी तुझे,’’ आंसू छिपाते हुए सुमन ने बात बदली.

‘‘हां. नौकरी तो मिल जाएगी. लेकिन अभी नए घर की सारी व्यवस्था देखनी होगी. अब वे दिन लद गए जो कमाया उसे उड़ाया. तुम यही चाहती थीं न, दीदी. इसलिए मेरी शादी की इतनी जल्दी थी तुम्हें.’’

दोनों बहनों की आंखें सजल हो उठीं. तभी संजय ने पुकारा, ‘‘अर्चना…’’

अर्चना आंखें पोंछती हुई उठ खड़ी हुई. चंद ही महीनों में कितना बदलाव आ गया था उस में… उसे अपनी कमाई का कितना गर्व था.

एक बार उसे फुजूलखर्ची न करने की सलाह दी तो पलट कर यह टका सा जवाब दे कर मुंह बंद कर दिया था उस ने, ‘‘मेरा पैसा है मेरी मरजी जो करूं. मेरी मानो दीदी, तुम भी कोई नौकरी कर लो. नौकरी करोगी तो इन छोटीछोटी चिंताओं में नहीं पड़ोगी. जब देखो यही रोना. इस की क्या जरूरत है? कोई शौक नहीं. क्या सिर्फ जरूरत के लिए ही आदमी जीता है. इच्छाएं कुछ नहीं होती हैं जीवन में?’’

उस वक्त अर्चना की बातों ने अंदर तक चोट की थी. उसे लगा ठीक ही तो

कहती है. वह हर चीज जरूरत भर की ही तो खरीदती है… उसे कमी तो किसी बात की नहीं थी पर हां, अर्चना जैसी स्वतंत्र भी तो नहीं. तुरंत जो जब चाहती है वह तब ही कहां ले पाती है.

अर्चना नौकरी करती है तो उसे किसी के मशवरे की जरूरत नहीं रहती. उस के अंदर एक टीस सी उठी थी. वह उस दिन बिना बात ही आकाश से लड़ पड़ी थी.

वही अर्चना अब कह रही है कि नौकरी देखेगी. सच है. हर नारी स्वाभाविक रूप से ही परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है. अर्चना ने अपना कहा सच कर दिखाया था कि जब पड़ेगी न, तो तुम से बेहतर सब संभाल लूंगी. मन पर लदा बोझ पूरी तरह से हट गया.

आकाश ने आ कर टोका, ‘‘भई, घर में मेहमान हैं जरा, उन की तरफ ध्यान दो.

अर्चना की चिंता छोड़ो. उसे अपनी समझ से अपनी गृहस्थी बसाने दो. मुझे तो आशा है वह अच्छी पत्नी साबित होगी. शादी ऐसा बंधन है, जो, वक्त के साथ सब निभाना सिखा देता है.’’

तभी बगल वाले कमरे से चूडि़यों की खनखनाहट गूंजी. आकाश शरारत से होंठ दबा कर मुसकराए, ‘‘अब तो हम पर से भी धर्मपत्नीजी का सैंसर खत्म हो जाएगा वरना कैसे दूर भागती थीं. शर्म करो अर्चना घर में है. अब देखते हैं कैसे भगाती हैं,’’ कह कर वे बांहें फैला कर आगे बढ़े तो सुमन भी बिना किसी दुविधा के उन बांहों के घेरे में बंध गई.

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