रिश्तों का तानाबाना: क्या गीतिका ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया?

लेखिका- प्रेमलता यदु

एक महीने से गीतिका खुद को पूरी तरह भुला कर रातदिन अपने एक न‌ए प्रोजैक्ट पर काम कर रही है. यह प्रोजैक्ट उस के कैरियर को नया आयाम देने वाला है. प्रोजैक्ट के ऐप्रूव्ड होते ही कंपनी द्वारा उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक साल के लिए न्यूजर्सी जाने का मौका मिलने वाला है. और गीतिका यह मौका किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती.

गीतिका जितनी जल्दी हो सके इंडिया से बाहर चली जाना चाहती है. वह अपने काम में कुछ इस तरह गुम हो जाना चाहती है कि वह अपनेआप को भी भुला देना चाहती है और साथ ही, वह बचपन से जुड़ी हर कड़वी याद को अपने स्मृतिपटल से निकाल फेंकना चाहती है. जब से उस ने होश संभाला है तब से ले कर आज तक वह इसी कोशिश में रही है. इतने सालों बाद आज भी उसे अपना बचपन डरावना लगता है, लेकिन भला ऐसा कभी हुआ है. मनुष्य जिन यादों को जितना भूलना चाहता है वे उतना ही उस का पीछा करती हैं.

गीतिका का बचपन दूसरे बच्चों के बचपन से बिलकुल अलग रहा. वह चाह कर भी अपने बचपन को आम बच्चों की तरह जी नहीं पाई, जिसे ले कर आज भी उस के मन में गुस्सा और कसक है, जो उसे टीस की तरह चुभते हैं. उस की कोई गलती न थी, लेकिन सज़ा उसे मिली. स्कूल में, समाज में और फ्रैंड्स के बीच सदा उस का उपहास हुआ. अपने बड़े से मकान के एक छोटे से कोने में न जाने उस ने कितना ही वक्त अकेले रोते हुए गुज़ारा है.

हर रिश्ते से गीतिका का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है. वह न अब किसी पर भरोसा करती है और न ही कोई नया रिश्ता बनाना चाहती है. फिर भी उस का एक रिश्ता अपनी मैड रोज़ी आंटी और अपने कलीग विशिष्ट से बन ही गया है. रोज़ी आंटी सदा गीतिका का ध्यान ऐसे रखती आई है जैसा गीतिका हमेशा से चाहती थी कि उस की अपनी मां रखे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. उसे कभी भी अपनी मां से वह प्यार व दुलार न मिला जिस की उसे चाहत थी और वह पिता के स्नेह से भी सदा वंचित ही रही.

रात के 11 बजे अपने सहकर्मी विशिष्ट के साथ गीतिका घर पहुंची. घर के गेट पर पहुंच, विशिष्ट के कार रोकते ही गीतिका ने कहा-

“अंदर नहीं चलोगे, लेट्स हैव अ कप औफ कौफी.”

विशिष्ट ने कार स्टार्ट करते हुए कहा-

“नहीं गीतिका, आज नहीं, अभी काफी देर हो गई है, कल औफिस में मिलते हैं. वैसे भी, कल तुम्हारा प्रोजैक्ट फाइनल हो जाएगा. उस के बाद कौफी से काम नहीं चलेगा, तुम से पार्टी चाहिए”

गीतिका मुसकराती हुई कार की विंडो पर हाथ रखती हुई बोली-

” ओके, श्योर, व्हाय नौट.”

गीतिका के ऐसा कहते ही विशिष्ट वहां से चला गया और गीतिका घर की ओर मुड़ी. गीतिका बहुत अच्छे से जानती है कि विशिष्ट के दिल में उस के लिए जज्बात हैं. लेकिन वह किसी भी प्रकार के रिश्ते पर विश्वास नहीं करती, यह बात विशिष्ट भी अच्छी तरह जानता है. इसलिए, उस ने गीतिका से यह वादा किया है कि वह कभी भी उसे अपने साथ रिश्ते में बंधने के लिए मजबूर नहीं करेगा, जब तक वह स्वयं इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो जाती लेकिन वह आजीवन उस का इंतज़ार जरूर करेगा.

घर के अंदर पहुंचते ही रोज़ी गीतिका का औफिस बैग अपने हाथों में लेती हुई बोली-

“गीतिका बेबी, आप जल्दी से मुंहहाथ धो लो, मैं आप के लिए गरमागरम फुल्के बनाती हूं.”

गीतिका अपने दोनों हाथ रोज़ी के कंधे पर रखती हुई बोली-

“अरे आंटी, मैं ने आप से कितनी बार कहा है कि आप मेरा वेट मत किया करो, आप खाना खा कर सो क्यों नहीं जाती हैं, मैं खाना खा लूंगी.”

“हां, मुझे मालूम है, आप को अपने काम के अलावा कभी अपनी सुध रही है क्या… जिस दिन आप अपना ध्यान रखना शुरू कर दोगी न बेबी, उस दिन मैं सो जाऊंगी लेकिन तब तक नहीं,” रोज़ी डांटती हुई सी गीतिका से कहने लगी.

गीतिका चाहे कितना भी लेट क्यों न हो जाए, रोज़ी उसे बिना खाना खाए रात में सोने नहीं देती और सुबह बिना ब्रेकफास्ट के घर से निकलने नहीं देती. दोनों के बीच एक अलग ही रिश्ता है.

गीतिका के खाना खाने के बाद रोज़ी थोड़ा हिचकिचाती हुई बोली- “बेबी, मैडम का फोन आया था. आप से बात करना चाह रही थीं. शायद, मैडम ने आप के नंबर पर भी फोन किया था लेकिन आप ने फोन नही उठाया.”

“हां, नहीं उठाया क्योंकि मैं बिज़ी थी. वैसे भी, उन्हें क्या जरूरत है मुझे फोन करने की? जब 10 साल पहले वह हमें छोड़ कर जा चुकी है तो क्यों बारबार आ जाती है मेरी जिंदगी में मेरी दुखती रग पर हाथ रखने के लिए, क्यों चैन से मुझे जीने नहीं देती,” गीतिका गुस्से में चिढ़ती हुई बोली.

“नहीं बेबी, ऐसा नहीं कहते. आखिर, उन्होंने आप को जन्म दिया है, वे आप की मां हैं.”

“मां है, ऐसा आप कह रही हैं आंटी सबकुछ जानते हुए. आप अच्छी तरह से जानती हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दे कर छोड़ दिया मरने के लिए, कभी प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ नहीं फेरा, न ही कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं क्या चाहती हूं, मैं क्या सोचती हूं,” गीतिका गुस्से से डबडबाई आंखों से कहने लगी.

“बेटा, मैं यह सब जानती हूं. लेकिन मैडम जैसी भी हैं, आप की मां हैं, आप की जननी हैं, कल शाम की फ्लाइट से साहब और मैडम दोनों आ रहे हैं. आप दोनों से प्यार से मिलना, उन के साथ जरा भी बदतमीजी न करना,” गीतिका के सिर पर हाथ रखती हुई रोज़ी उसे समझाने की कोशिश करने लगी.

“आंटी, आप मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न रखें, तो बेहतर होगा,” ऐसा कहती हुई गीतिका वहां से अपने रूम में तेज़ी से चली गई.

अपने रूम की सारे लाइटें बंद कर गीतिका उन जगमगाती रोशन गलियों में अपने खोए हुए बचपन को देखने लगी जहां इतना ज्यादा शोरशराबा, चकाचौंध और चमक थी कि उस नन्ही सी जान को न कोई सुन पा रहा था और न ही समझ पा रहा था.

गीतिका की मां शालिनी गुप्ता शहर की जानीमानी हस्ती, प्रसिद्ध समाजसेविका होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित पद पर भी थी. पिता विनय गुप्ता भी अच्छे पद पर कार्यरत थे लेकिन गीतिका की मां और अपनी पत्नी के पद से शायद उन का ओहदा नीचे था, यह बात अकसर गीतिका अपने मातापिता के झगड़े के दौरान सुना करती थी, इसलिए वह यह जान चुकी थी कि उस के पिता का पद उस की मां के पद से नीचे है.

बचपन से ही वह एक और बात जान चुकी थी कि उस के मम्मी व पापा के बीच जिस की वजह से हर रोज़ लड़ाई झगडे होते हैं वह कोई और नहीं मम्मी के सहकर्मी व पुरुष मित्र हैं और शायद वह मित्र उस की मम्मी के लिए मित्र से भी कहीं ज्यादा माने रखता है, इसलिए तो उस की मम्मी अपने मित्र के लिए गीतिका और अपने पति को छोड़ने के लिए तैयार थी और यही हुआ भी जब गीतिका 16 साल की थी, गीतिका के माता और पिता के बीच तलाक हो गया.

कोर्ट में जब गीतिका से उस की मरजी पूछी गई कि वह किस के साथ रहना चाहती है- अपनी मम्मी के साथ या पापा के साथ. गीतिका चीखचीख कर कहना चाहती थी वह किसी के साथ नहीं रहना चाहती, लेकिन वह ऐसा कह नहीं पाई. वह बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि मम्मी के पास उसे देने के लिए बहुत पैसे हैं पर वक्त नहीं, वह यह भी जानती थी कि देने के लिए पापा के पास भी केवल पैसे ही हैं. लेकिन उसे अपने मातापिता दोनों से किसी एक को चुनना था, सो उस ने अपने पिता को चुना.

दूसरे बच्चों को जब वह अपने मातापिता के साथ देखती तो उस का मन तारतार हो जाता और वह क्रोध व आक्रोश से भर जाती. गीतिका भी अपने मातापिता के संग वैसे ही रहना चाहती थी जैसे उस के बाकी फ्रैंड्स रहते थे. लेकिन यह संभव नहीं था और इस बात ने गीतिका के मन को इतना प्रभावित किया कि वह अवसाद में चली गई और नशा करने लगी.

आज भी गीतिका भूली नहीं है वह दिन जब रोज़ी आंटी ने उसे ड्रग्स लेते हुए पकड़ लिया था. अपने मातापिता के तलाक के बाद जब वह अपने पापा के साथ रहने लगी थी तब उस के पापा ने रोज़ी को गीतिका की देखभाल के लिए रखा था, क्योंकि वे अकसर अपने काम के सिलसिले में बाहर ही रहते. अभी कुछ ही दिन हुए थे रोज़ी आंटी को घर में आए. एक दिन जब वह खाना ले कर उस के रूम में पहुंची तो गीतिका उसे नशे की हालत में मिली.

स्कूल के कुछ सीनियर स्टूडैंट्स के बहकावे में आ कर वह नशा करने लगी थी. रोज़ी को देख गीतिका घबरा गई. तभी रोज़ी आंटी ने गीतिका को अपने सीने से लगा लिया. गीतिका को ऐसा लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई और वह रोज़ी के सीने से लग कर फूटफूट कर रोने लगी.

रोज़ी उस के आंसुओं को पोंछती हुई कस कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया जैसे एक मां अपने बच्चे को आंचल में छिपा लेती है. गीतिका को उसे शांत कराती हुई रोजी बोली, “गीतिका बेबी, नशा किसी भी समस्या का समाधान नहीं. यदि आप किसी से नाराज़ हैं तो सज़ा अपनेआप को क्यों दे रही हैं. आप के नशा करने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन आप को फर्क पड़ेगा. आप बीमार हो जाएंगी, कमजोर हो जाएंगी, क्लास में आप का परफौर्मेंस बिगड़ जाएगा. फिर जो बच्चे अभी आप पर हसंते हैं, आप का मजाक बनाते हैं, वे आपको और ज्यादा परेशान करेंगे. इसलिए आप अपनी सारी एनर्जी पढ़ाई पर लगा दीजिए, खूब पढ़ाई करिए ताकि कोई आप का मज़ाक न बना पाए. सब आप से प्यार करें और आप अपना निर्णय स्वयं लेने के काबिल बनें.”

उस दिन के बाद से गीतिका ने अपनी सारी ऊर्जा पढ़ाई में लगा दी और रोज़ी आंटी ने गीतिका की देखभाल में. अभी गीतिका अपने बचपन में मिले नासूर घावों के असहनीय दर्द के साथ कमरे में कराह रही थी कि आवाज़ आई, “गीतिका बेबी, गीतिका बेबी.” एक न‌ई सुबह ने दस्तक दे दी थी.

गीतिका के दरवाज़ा खोलते ही सामने हाथों में कौफी का कप लिए रोज़ी आंटी खड़ी थी. रूम के साइड टेबल पर कौफी का कप रख, आंटी गीतिका का माथा चूमती हुई बोली, “कौफी पी कर तैयार हो जाइए आज, आपका प्रजेंटेशन है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आप को सफलता जरूर मिलेगी.”

इतना कह रोज़ी कमरे से लौट ग‌ई. गीतिका तैयार हो नाश्ते की टेबल पर पहुंची और जब नाश्ता कर वह जाने लगी तो रोज़ी ने कहा, “बेबी, शाम को जल्दी आने की कोशिश करना.”

गीतिका बिना कुछ कहे रोज़ी को गले लगा कर चली गई.

शाम को जब गीतिका घर पहुंची तो उस के मातापिता आ चुके थे. गीतिका को देखते ही उस की मां ने उसे बांहों में लेना चाहा लेकिन गीतिका ने उन्हें झटक दिया और कहने लगी, “क्यों आए हैं आप दोनों यहां. जो भी कहना है, जल्दी कहिए. मुझे कुछ ही दिनों में न्यूजर्सी के लिए निकलना है. बहुत सी जरूरी फौर्मैलिटीज हैं जिन्हें पूरी करनी है. आई हैव नो टाइम, सो प्लीज़, जो कहना है, जल्दी कहिए.”

गीतिका को इस प्रकार बात करता देख गीतिका की मां बोली, “हमें मालूम है बेटा, रोज़ी ने हमें सब बता दिया है. तुम आउट औफ इंडिया जा रही हो, इसलिए तो हम आए हैं. तुम्हारे पापा और मैं ने मिल कर तुम्हारे बैटर फ्यूचर के लिए यह फैसला लिया है कि तुम्हारे जाने से पहले हम तुम्हारी शादी करा देते हैं. लड़का कोई और नहीं, हमारे शहर के जानेमाने व्यापारी और मेरी फ्रैंड मिसेज चंद्रा का बेटा है. वे लोग चाहते हैं कि तुम उन के घर की बहू बनो और हम भी यही चाहते हैं.”

यह सुनते ही गीतिका के सब्र का बांध टूट गया और वह ऊंची आवाज़ में बोली, “मेरे बैटर फ्यूचर के लिए…? किस ने कहा आप लोगों को मेरे फ्यूचर के बारे में सोचने के लिए या फैसला लेने के लिए कहा? उस वक्त कहां थे आप दोनों जब आप लोगों की वजह से मेरी क्लास के बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे, उस वक्त कहां थे आप लोग जब आप दोनों के तलाक की वजह से मैं डिप्रेशन में चली गई थी, ड्रग्स लेने लगी थी. उस समय आप दोनों को मेरे बैटर फ्यूचर का ख़याल नहीं आया और आज जब मैं अपना फ्यूचर खुद संवार सकती हूं, संभाल सकती हूं तो आप लोगों को मेरे भविष्य की चिंता हो रही. आप दोनों यहां से चले जाइए, मुझे वहां शादी नहीं करनी है.”

गीतिका के मुख से ये सब कड़वी बातें सुन गीतिका के पापा उस के सिर पर हाथ रख कर कहने लगे, “बेटा, हम तुम्हारे पेरैंट्स हैं और हम हर हाल में तुम्हारी भलाई चाहते हैं. वैसे भी, आज नहीं तो कल, तुम्हें किसी न किसी लड़के से शादी तो करनी ही है. तो फिर, इस लड़के से क्यों नहीं? ”

“पापा, किसी भी बच्चे की भलाई तब होती है जब मातापिता दोनों अपने बच्चों के मनोभाव को समझते हैं. ‌उन्हें गिफ्ट के साथसाथ अपना वक्त, प्यार और दुलार भी देते हैं. रही बात शादी की, तो शादी तो मैं जरूर करूंगी लेकिन उस लड़के से नहीं जिस से आप दोनों चाहते हैं बल्कि उस से जो मुझे चाहता है और जिसे मैं चाहती हूं.”

“जिसे तुम चाहती हो, मतलब?” गीतिका की मां ने आश्चर्य से पूछा.

गीतिका मुसकराती हुई बोली, “हां, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा कलीग विशिष्ट है, जिस ने मुझे दोबारा रिश्तों पर विश्वास करना सिखाया, रिश्तों का मतलब बताया, रिश्तों को निभाना सिखाया. विशिष्ट मेरे जज्बात को समझता है, मुझे समझता है. आज मेरा प्रोजैक्ट ऐप्रूव्ड होते ही मैं ने उस से अपने दिल की बात कह दी है. मेरे न्यूजर्सी से लौटते ही हम शादी कर लेंगे और हम जब भी शादी करेंगे, आप दोनों को जरूर इन्फौर्म कर दूंगी लेकिन तब तक आप लोग न मुझे फोन करेंगे और न ही यहां आएंगे. अब आप दोनों यहां से जा सकते हैं.” और गीतिका अपने रूम में चली गई.

घरवाली और रसोई वाली: ऐग्जिक्यूटिव साहब का घर से बाहर निकालना क्यों मुश्किल हो गया था

पढ़ाई पूरी हुई. कैंपस सलैक्शन से कोलकाता में अच्छी जौब लग गई. मैं ने एक अच्छे कौंप्लैक्स में डबलबैड अपार्टमैंट किराए पर ले लिया. नौकरी जौइन करने भर की देर थी कि माताश्रीपिताश्री ने मेरे लिए अपनी ओर से कन्या फाइनल कर दी. मेरी सहमति के लिए मुझे रांची बुलावा भेजा. मैं चर्च कौंप्लैक्स स्थित विशेष रैस्टोरैंट में सुहाना से मिला. हम ने साथसाथ पनीर कटलेट, पनीर चिली का आनंद लिया. सुहाना बोकारो की थी. उसे रैस्टोरैंट का माहौल बेहद पसंद आया. हम ने नक्षत्र वन में लंबी बातचीत की.

‘‘मैं खाने का बेहद शौकीन हूं. चटपटा, मसालेदार खाना पसंद है,’’ मैं ने सुहाना को बताया.

‘‘मैं भी कुछ बताना चाहती हूं,’’ मितभाषी सुहाना ने हिम्मत की. अब तक केवल हूंहां ही कर रही थी.

‘‘बेहिचक बताओ. किसी को चाहती हो? कोई अफेयर रहा है? कोई समस्या है?’’ मैं ने कई प्रश्न एकसाथ कर दिए. मुझे चिंता हो आई थी. मैं अब तक गोरीचिट्टी, लंबीछरहरी और शर्मीली सुहाना को अपना चुका था.

‘‘कुकिंग नहीं आती. कभी की नहीं. अपने बड़े परिवार में रसोइए महाराज लगे हैं. बस खाना जानती हूं,’’ सुहाना ने सिर झुकाए बताया. वह मुसकरा भी रही थी. शायद उस ने मेरी परेशानी भांप ली थी.

‘‘नो प्रौब्लम. हम रसोई वाली रख लेंगे. वैसे भी कोलकाता की चिपकूचिपकू गरमी में कुकिंग सचमुच एक बड़ी प्रौब्लम है… सुहाना सांवली हो जाएगी,’’ मेरी अफेयर वाली चिंता दूर हो चुकी थी.  मैं सुहाना को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था.

मेरी ‘ओके’ रिपोर्ट के साथ ही शादी की तैयारी शुरू हो गई. 30 दिनों में ही सुहाना मेरी सुप्रिया, जानेमन, हंप्टी शर्मा की दुलहनिया यानी मेरी प्यारीदुलारी घरवाली बन गई. हम ने मुंबई, गोवा, महाबलेश्वर में हनीमून मनाया. मुंबई के सिनेमाघर में लंबे समय से चल रही ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ देखी. गोवा में सुहाना को बिकनी में कैमरे में उतारा. महाबेलश्वर में स्पैशल स्ट्राबैरी आइसक्रीम का आनंद उठाया. साथसाथ घुड़सवारी की, डूबते सूरज को निहारा.

‘‘रसोई वाली लगेगी तो फिर कोलकाता आ जाऊंगी,’’ सुहाना ने शर्त रखी.

मैं ने कोलकाता में औफिस के दोस्तों को पूरा किस्सा सुनाया. मेरे 2 दोस्त साथ ही कौंप्लैक्स में अलगअलग अपार्टमैंट में रहते थे. मैं ने सिक्युरिटी औफिस में रसोई वाली की अपनी जरूरत बता दी.

अगले दिन सुबहसुबह रसोई वाली हाजिर हो गई. छुट्टी का दिन था. मैं न्यूज पेपर में उलझा था.

मैं ने रसोई वाली को गौर से देखा. दुबलीपतली, सांवली, बड़ीबड़ी आंखें, कुल मिला कर सुंदर थी. सिकुड़ीमुड़ी लेकिन साफसुथरी सलवारकमीज में थी.

‘‘कुकिंग कर लेती हो?’’ मैं ने अटपटा प्रश्न पूछ लिया. मैं रसोई वाली के इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं था.

‘‘मुझे कुकिंग नहीं आती तो ऐसे ही 2 फ्लैटों में रसोई करती?’’ सांवली सपाट स्वर में बोली.

‘‘आलू के परांठे बना लेती हो?’’ नाश्ते में आलू के परांठे, मक्खन, दही और कसे कच्चे आम की मसालेदार चटनी मैं चटखारे ले कर खाता था.

‘‘नाश्ते में 6 भरवां परांठे या 12 पूरीभाजी, लंच के लिए 10 रोटियां, पसंद की 1 भाजी. रात के खाने में 6 रोटियां, थोड़े चावल, सूखी भाजी और रसदार सब्जी. इतवार को राइस चिकन, सलाद, चिकन करेगी तो बच्चों के लिए थोड़ा ले जाएगी. नाश्ते का 500, लंच का 1000, डिनर का

1000 लेगी. महीने में 2 दिन छुट्टी करेगी. मंजूर हो तो बोलने का नहीं तो जाएगी,’’ सांवली ने एक ही सांस में अपनी बात पूरी की और फिर लिफ्ट के पास खड़ी हो गई.

‘‘सारी शर्तें मंजूर हैं…पहली तारीख से आ सकती हो?’’ मुझे तुनकमिजाज सांवली पसंद  आई. तपे सोने की तरह खरी लगी.

मैं ने सुहाना को पूरी रिपोर्ट दी. बयान करने में मजा आया.

‘‘सुंदर है? क्या नाम बताया?’’ सुहाना ने पूछा.

‘‘फोटोजेनिक है…तुम्हारी तरह गोरी और चिकनी नहीं है. नाम तो पूछा ही नहीं,’’ मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘‘सांवली पर जनाब फिदा हो गए… घरवाली से जी भर गया… रसोई वाली अब सुप्रिया बनेगी,’’ सुहाना ने मुझे छेड़ा.

‘‘कुकिंग नहीं सीखने का खमियाजा तो भुगतना पड़गा,’’ मैं ने माकूल जवाब दिया.

‘‘पूरी निगरानी रहेगी…रिटायर्ड कर्नल की बेटी हूं…फटाफट कुकिंग सीख कर सांवली का कोर्टमार्शल कर दूंगी,’’ सुहाना अब छुईमुई, गूंगी गुडि़या से बातूनी घरवाली बन चुकी थी.

अब और इंतजार संभव नहीं था. महीने के आखिरी दिन सुहाना कोलकाता पहुंच रही थी. मैं ने पूरे हफ्ते की छुट्टी ले रखी थी. एअरपोर्ट से वापसी में हम ने मिल कर खरीदारी की. किचन के लिए पूरी व्यवस्था की. सुहाना ने अपने लिए भी शौपिंग की. डिनर रैस्टोरैंट में लिया. दोनों ने मिल कर किचन के सामान को यथास्थान रखा.

सुबह 6.30 बजे सांवली आ गई. सुहाना से मिली. थोड़ी देर की बातचीत के बाद वह नाश्ता तैयार करने में जुट गई. घंटे भर में नाश्ता डाइनिंगटेबल पर सजा कर निकल गई.

नाश्ते के लिए हम साथसाथ बैठे. सांवली ने आलू के 6 करारे परांठे बनाए थे. लौकी की सादी भाजी थी. मक्खन, मिक्स्ड अचार का जार, गरम चाय सब कुछ करीने से रख गई थी.

‘‘परांठे अच्छे हैं, लेकिन 3 परांठों से जीभ को बहलाने में मुश्किल होगी.’’

‘‘लौकी की सादी भाजी भी अच्छी बनी है,’’ सुहाना ने भी सांवली की तारीफ की.

‘‘मेरे लिए बस 2 परांठे,’’ सुहाना ने अपने हिस्से का 1 परांठा मेरी प्लेट में डाल दिया. गरमगरम आलू के परांठे और उन पर मक्खन का लेप. नाश्ते में मजा आ रहा था. हम उस के काम से संतुष्ट थे. हम दोनों ने सांवली को अच्छी कुक मान लिया.

सांवली किचन की ड्यूटी बखूबी निभा रही थी. नौनवैज में चिकन राइस, चिकन बिरयानी अच्छी बना लेती थी. बेहद फुरतीली थी. समय का पूरा उपयोग करती थी. सलीके से रहती भी थी. नैननक्श तीखे थे. चेहरे में चमक और खिंचाव था. सचमुच अच्छी दिखती थी.

सुहाना खूब सजसंवर रही थी. उस का रंग निखर रहा था. देह मक्खन सी चिकनी थी. अकसर पार्लर जाती थी. महंगी ड्रैस पहनती थी. विदेशी परफ्यूम इस्तेमाल करती थी. मैं मंत्रमुग्ध हो उसे निहारता था. देह की सुंगध में भावविभोर हो जाता था. औफिस जाने से कतराता था. सुहाना जबरदस्ती भेजती थी. बहाना बना कर समय से पहले छुट्टी करने पर नाराज होती थी. पास नहीं आने देती थी.

सुहाना सांवली को भी समय देती थी. रसोई के गुर सीखती थी. सांवली छुट्टी करती तो नाश्ता बना लेती थी. करारे आलू के परांठों के साथ कच्चे आम की मसालेदार चटनी भी बना लेती थी.

सुहाना ने सचमुच भरपूर निगरानी रखी थी. तरीका अलग था. उस ने दूल्हे मियां का ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर खींच रखा था. मुझे बांध रखा था. वह घरवाली थी, सुंदरी थी, सुप्रिया थी, सपनों की रानी थी, आकाश से उतरी परी थी, स्वर्गलोक की अप्सरा थी.

रसोई वाली सांवली अच्छी थी. उस में आकर्षण था, लेकिन सुहाना ने एमएनसी में कार्यरत सीनियर ऐग्जिक्यूटिव को पागल, दीवाना, मजनू, रांझा, रोमियो सब कुछ बना रखा था. रिटायर्ड कर्नल की बेटी यानी मेरी धर्मपत्नी यानी घरवाली ने रसोई वाली का कोर्टमार्शल कर दिया था.

‘‘ठीकठीक कुक बन गई हो, लेकिन रसोई वाली की छुट्टी नहीं होगी.’’

‘‘रसोई वाली अच्छी लगती है?’’

‘‘नहीं, रसोई में सांवली हो जाओगी. गरमी में पसीने से चिपकूचिपकू हो जाओगी.’’

‘‘रसोई में एसी लगा देना.’’

‘‘देह में मसाले की गंध समा जाएगी.’’

‘‘इत्र लगा देना.’’

यह कानाफूसी हमारी प्राइवेट बातें हैं. औफ द रिकौर्ड… नो नारेबाजी नो डिमौंस्ट्रेशन ऐंड नो रिमूवल डिमांड प्लीज.

ट्रिक: मां और सास के झगड़े को क्या सुलझा पाई नेहा?

“मम्मा आप को एक खुशखबरी देनी थी.”

“हां बेटा बता न क्या खुशख़बरी है? कहीं तू मुझे नानी तो नहीं बनाने वाली?” सरला देवी ने उत्सुकता से पूछा.

“जी मम्मा यही बात है,” कहते हुए नेहा खुद में शरमा गई.

आज सुबह ही नेहा को यह बात कंफर्म हुई थी कि वह मां बनने वाली है. एक बार जा कर हॉस्पिटल में भी चेकअप करा लिया था. अपने पति अभिनव के बाद खुशी का यह समाचार सब से पहले उस ने अपनी मां को ही सुनाया था.

मां यह समाचार सुन कर खुशी से उछल पड़ी थीं,” मेरी बच्ची तू बिलकुल अपने जैसी प्यारी सी बेटी की मां बनेगी. तेरी बेटी अपनी नानी जैसी इंटेलिजेंट भी होगी और तेरे जैसी खूबसूरत भी. ”

“मम्मा आप भी न कमाल करते हो. आप ने पहले से कैसे बता दिया कि मुझे बेटी ही होगी?”

“क्योंकि बेटा ऐसा मेरा दिल कह रहा है और मैं ऐसा ही चाहती हूं. मेरी बच्ची देखना तुझे बेटी ही होगी. मैं अभी तेरे पापा को यह समाचार दे कर आती हूं. ”

नेहा ने मुस्कुराते हुए फोन काटा और अपनी सास को फोन लगाया,” मम्मी जी आप दादी बनने वाली हो.”

“क्या बहू तू सच कह रही है? मेरा पोता आने वाला है? तूने तो मेरा दिल खुश कर दिया. सच कब से इस दिन की राह देख रही थी. खुश रह बेटा,” सास उसे आशीर्वाद देने लगीं.

नेहा ने हंस कर कहा,” मम्मी जी ऐसा आप कैसे कह सकती हो कि पोता ही होगा? पोती भी तो हो सकती है न. ”

“न न बेटा. मुझे पोता ही चाहिए और देखना ऐसा ही होगा. पर बहू सुन तू अपनी पूरी केयर कर. इन दिनों ज्यादा वजन मत उठाना और वह लीला आ रही है न काम करने?”

“हां मम्मी जी आप चिंता न करो वह रेगुलर काम पर आ रही है. आजकल छुट्टियाँ लेनी भी कम कर दी है. ”

” उसे छुट्टी बिल्कुल भी मत देना बेटा. ऐसे समय में तेरा आराम करना बहुत जरूरी है. खासकर शुरू के और अंत के 3 महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं.”

“हां मम्मी जी मैं जानती हूं. आप निश्चिंत रहिए. मैं अपना पूरा ख्याल रखूंगी,” कह कर नेहा ने फोन काट दिया.

प्रैग्नैंसी के इन शुरुआती महीनों में नेहा का जी बहुत मिचलाता था. ऐसे में अभिनव उस की बहुत केयर कर रहा था. कामवाली भी अपनी बीवी जी को हर तरह से आराम देने का प्रयास करती. सब कुछ अच्छे से चल रहा था. नेहा का पांचवां महीना चढ़ चुका था. उस दिन सुबहसुबह उठ कर वह बालकनी में आई तो देखा मां गाड़ी से उतर रही हैं. उन के हाथ में एक बड़ा सा बैग और नीचे सूटकेस भी रखा हुआ था. यानी मां उस के पास रहने आई थीं. खुशी से चिल्लाती हुई नेहा नीचे भागी. पीछेपीछे अभिनव भी पहुंच गया.

मां के हाथ से सूटकेस ले कर सीढ़ियां चढ़ते हुए उस ने पूछा,” मम्मी जी आप के क्लासेज का क्या होगा? आप यहां आ गए तो फिर बच्चों के क्लासेज कैसे कंटिन्यू करोगे?”

“अरे बेटा आजकल क्लासेज ऑनलाइन हो रहे हैं न. तभी मैं ने सोचा कि ऐसे समय में मुझे अपनी बिटिया के पास होना चाहिए.”

“यह तो आप ने बहुत अच्छा किया मम्मी जी. नेहा का मन भी लगेगा और उस की केयर भी हो जाएगी.”

“हां बेटा यही सोच कर मैं आ गई.”

“पर मम्मा पापा आप के बिना सब संभाल लेंगे?” नेहा ने शंका जाहिर की.

” बेटे तेरे पापा को संभालने के लिए बहू आ चुकी है. अब तो उन के सारे काम वही करती है. मैं तो वैसे भी आराम ही कर रही होती हूं.”

“ग्रेट मम्मा. आप ने बहुत प्यारा सरप्राइज दे दिया,” नेहा आज बहुत खुश थी. कितने समय बाद आज उसे मां के हाथों का खाना मिलेगा.

नेहा की मां को आए 10 दिन से ज्यादा समय बीत चुका था. मां उसे अपने हिसाब से प्रैग्नैंसी में जरुरी चीजें खिलातीं. उसे ताकीद करतीं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं. अपनी प्रैग्नैंसी के किस्से सुनातीं. सब मिला कर नेहा का समय काफी अच्छा गुजर रहा था. उस की मां काफी पढ़ीलिखी थीं. वह कॉलेज में लेक्चरर थीं और उसी हिसाब से थोड़ी कड़क भी थीं. जबकि नेहा का स्वभाव उन से अलग था. पर मां बेटी के बीच का रिश्ता बहुत प्यारा था और फिलहाल नेहा मां के सामीप्य और प्यारदुलार का भरपूर आनंद ले रही थी.

समय इसी तरह हंसीखुशी में बीत रहा था कि एक दिन अभिनव की मां का फोन आया,” बेटा मैं बहू के पास आ रही हूं. बड़ा मन कर रहा है अपने पोते को देखने का.”

“पर मौम आप का पोता अभी आया कहां है?” अभिनव ने टोका.

“अरे पागल आया नहीं पर आने वाला तो है. गर्भ में बैठे अपने पोते की सेवा नहीं करूंगी तो भला कैसी दादी कहलाउंगी? चल फोन रख मैं ने पैकिंग भी करनी है.”

“पर मौम आप का सत्संग और वह सेमिनार जहां आप रोज जाती हो? फिर आप का टिफिन सर्विस वाला बिजनेस भी तो है. उसे छोड़ कर यहाँ कैसे रह पाओगे?”

“अरे बेटे उस के लिए मैं ने 2 लोग रखे हुए हैं , माधुरी और निलय. दोनों अच्छी तरह बिजनेस संभाल रहे हैं. वैसे भी यह समय लौट कर नहीं आने वाला. सेमिनार बाद में भी अटैंड कर सकती हूं.”

“ओके मौम फिर आप आ जाओ. वैसे यहां नेहा की मम्मी भी आई हुई हैं. आप को उन की कंपनी भी मिल जाएगी.”

” वह कब आईं ?”

“वहीं करीब 15 दिन पहले.”

“चल ठीक है मैं फोन रखती हूं.”

दो दिन बाद ही अभिनव की मां भी पहुंच गईं. ऊपर से तो नेहा की मां ने उन का दिल खोल कर स्वागत किया और अभिनव की मां ने भी उन्हें गले लगाते हुए कहा कि हाय कितना अच्छा हुआ साथ रहने का मौका मिलेगा. पर अंदर ही अंदर दोनों के मन में एकदूसरे को ले कर प्रतियोगिता की भावना थी. जल्दी ही यह बात सामने भी आने लगी.

नेहा की मां सुबह 5 बजे उठ जाती थीं और नेहा को सैर के लिए ले जाती थीं. उन की देखादेखी अभिनव की मां 5 बजे से भी पहले उठ गईं और नेहा को योगासन सिखाने लगीं. उन्होंने टहलने के बजाय नेहा को प्रैग्नैंसी के समय काम आने वाले कुछ आसन करने का दबाव डालना शुरू किया. इधर नेहा की मां उसे अपने साथ वॉक पर ले जाना चाहती थीं. नेहा असमंजस में थी कि किस की सुने और किस की नहीं.

इस बात पर नेहा की मां उखड़ गईं,” बहन जी यह मेरी बेटी है और मैं इस वक्त इसे वॉक पर ले जाऊंगी. आप कोई और समय देख लो.”

” पर बहन जी आप समझ नहीं रहीं. व्यायाम का यही समय होता है. मैं ने अपनी प्रैग्नैंसी में सास के कहने पर योगा किया था तो देखो कैसा हैल्दी बेटा पैदा हुआ,” अभिनव की मां ने अपनी बात रखी.

अभिनव ने तुरंत समाधान निकाला और अपनी मां को समझाता हुआ बोला ,” मौम नेहा सुबह व्यायाम कर लेगी और शाम में योगा करेगी. वैसे भी योगा शाम में ज्यादा अच्छा होता है क्यों कि उस समय एनर्जी भी मैक्सिमम होती है.”

अब तो रोज ही किसी न किसी बात पर ऐसा ही कुछ नजारा देखने को मिलने लगा. जो काम नेहा की मां करने को कहती, अभिनव की मां कुछ अलग राग अलापने लगती. वैसे दोनों ही नेहा के हित की बात करतीं मगर कहीं न कहीं उन का मकसद दूसरे को नीचा दिखाना और खुद को ऊपर रखना भी होता था. अभिनव और नेहा कुछ दिनों तक तो यह सोचते रहे कि धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा मगर जल्द ही उन की समझ में आने लगा कि यहां कंपटीशन चल रहा है. दोनों अपनीअपनी चलाने की कोशिश में लगी रहतीं हैं.

उस दिन भी सुबह उठते ही नेहा की मां ने बेटी का माथा सहलाते हुए उसे जूस का गिलास पकड़ाया और बोलीं,” ले बेटा गाजर और चुकंदर का जूस पी ले. ऐसे समय में यह जूस बहुत फायदेमंद होता है. ”

तब तक अभिनव की मां भी पहुंच गईं,” अरे बेटा जूसवूस पीने से कुछ नहीं होगा. तुझे सुबहसुबह अनार और सेब जैसे फल कच्चे खाने चाहिए. इस से शरीर को फाइबर भी मिलेगा और शक्ति भी. यही नहीं अनार खून की कमी भी पूरी कर देगा”

नेहा हक्कीबक्की दोनों को देखती रही फिर दोनों की चीजें लेती हुई बोली,” मम्मी जी ये दोनों चीजें मुझे पसंद हैं. मैं जूस भी पी लूंगी और फल भी खा लूंगी. आप दोनों बाहर टहल कर आइए. आज मुझे आराम करना है. ”

उन्हें बाहर भेज कर नेहा ने लंबी सांस ली और अभिनव को आवाज लगाई. अभिनव बगल के कमरे से निकलता हुआ बोला,” यार नेहा अब तो दोनों सुबह से ही तुझे घेरे रहने का कोई मौका नहीं छोड़ती. इधर रात में भी 12 से पहले जाती नहीं हैं. हमारे पास अपना पर्सनल टाइम तो बचा ही नहीं.”

“हां अभिनव मैं भी यही सोच रही हूं. ये दोनों छोटीछोटी बातों पर खींचातानी में लगी रहती हैं. मेरी मम्मी को लगता है कि वह लेक्चरर हैं सो उन्हें ज्यादा नॉलेज है तो वहीँ तुम्हारी मम्मी को इस बात का गुमान है कि उन्होंने अपने दम पर तुम्हें पालापोसा है. सो हमारे लिए भी वह अपनी सलाह ही ऊपर रखती हैं.”

“यार मैं तो तुम से 4 पल प्यार की बातें करने को भी तरस जाता हूं. समझ नहीं आ रहा कि खुद को ऊपर दिखाने के इन के शीतयुद्ध में हम अपना सुकून कब तक खोते रहेंगे?”

तभी दोनों माएं टहल कर लौट आईं. रोज की तरह दोनों ने ही वाकयुद्ध शुरू करते हुए कहा,” सरला जी आप नेहा को मिठाइयां ज्यादा मत खिलाया करो. यह मेरी बच्ची की सेहत के लिए सही नहीं.”

“पर नैना जी मैं इसे गोंद और मेवों की मिठाइयां खिलाती हूं जो मैं ने अपने हाथों से बनाई हैं. आप नहीं जानतीं मेरी सास भी प्रैग्नैंसी के समय मुझे यही सब खिलाती थीं. तभी तो देखो अभिनव के पैदा होने में मुझे जरा सी भी तकलीफ नहीं हुई थी. अभिनव 4 किलोग्राम का पैदा हुआ था. देखने में इतना हट्टाकट्टा था और ऐसे मुस्कुराता रहता था कि नर्स भी बेवजह इसे गोद में उठा कर घूमती रहती थी.”

अभिनव ने कनखी से नेहा की तरफ देखा और दोनों मुस्कुरा उठे. नेहा की मां कहां हार मानने वाली थीं. तुरंत बोलीं,” अजी हमारी सास ने तो तरहतरह के आयुर्वेदिक काढ़े और फलों के सूप पिलाए थे तभी तो देखो नेहा बचपन से अब तक कभी बीमार नहीं पड़ी और कितना खिला हुआ रंग है इस का. मेरी जेठानी का बेटा बचपन में कभी खांसी तो कभी बुखार में पड़ा रहता था पर नेहा मस्त खेलतीकूदती बड़ी हो गई.

अभिनव की मां भी तुरंत बोल उठीं,” अरे बहन जी ऐसा भी कौन सा काढ़ा पिला दिया कि गर्भ के समय पी कर लड़की अब तक तंदुरुस्त रह जाए. ऐसा थोड़े ही होता है. आप भी जानें किस भ्रम में जीती हो.”

” मैं भ्रम में नहीं जीती बहन जी. हर बात का प्रैक्टिकल अनुभव कर के ही बताती हूं. मेरे मोहल्ले में तो मेरी इतनी चलती है कि किसी की भी बहू प्रैग्नैंट हो तो उन की सास पहले मुझ से सलाह लेने आती है कि बहू के खानेपीने का ख्याल कैसे रखा जाए. भ्रम में तो आप जीती हो.”

देखतेदेखते दोनों के बीच रोज की तरह घमासान छिड़ गया था. नेहा और अभिनव फिर से इस झगड़े को शांत कराने में जुट गए. अब तो ऐसा रोज की बात हो गई थी. कई बार तो दोनों इस बात पर झगड़ पड़ते कि आने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की. नेहा और अभिनव को पूरे दिन इन दोनों माओं के पीछे रहना पड़ता. एकदूसरे के साथ वक्त बिताने और प्यार जताने का अवसर ही नहीं मिलता.

एक दिन आजिज आ कर अभिनव ने कहा,” यार नेहा अब हमें अपनी इस बड़ी वाली समस्या का कोई हल निकालना ही पड़ेगा.”

” क्यों न हम एक ट्रिक आजमाएं. मैं बताती हूं क्या करना है,” कहते हुए नेहा ने अभिनव के कानों में कुछ कहा और दोनों मुस्कुरा उठे.

अगले दिन सुबहसुबह नेहा के पापा का कॉल आया. वह अपनी पत्नी से बात करना चाहते थे.

नेहा की मां ने फोन उठाया, “हां जी कैसे हो आप?”

” बस आप की बहुत याद आ रही है बेगम साहिबा.”

” ऐसी भी क्या याद आने लगी? अभी तो आई हूं. ”

“मैडम जी आप अभी नहीं 2 महीने पहले गई थीं और जानती हो पिछले संडे से मेरी तबीयत बहुत खराब है.” पिताजी ने कहा.

” हाय ऐसा क्या हो गया और बताया भी नहीं,” घबराते हुए नेहा की मां ने पूछा.

“बस बीपी हाई हुआ और मुझे चक्कर आ गया. मैं बाथरूम में गिर पड़ा. दाहिने पैर के घुटने बोल गए हैं. चल नहीं पा रहा हूं. अब तू ही बता बहू से हर काम तो नहीं करवा सकता न. बेटे ने स्टिक ला कर दी है पर दिल करता है तेरे कंधों का सहारा मिल जाता तो बहुत सुकून मिलता.”

“अरे इतना सब हो गया और आप मुझे अब बता रहे हो. पहले फोन कर दिया होता तो मैं पहले ही आ जाती.”

“कोई नहीं गुल्लू अब आ जा. मैं ने अभिनव से कह दिया है तेरा टिकट बुक कराने को. बस तू आ जा.”

“आती हूं जी आप चिंता न करो. मुझे बस नेहा की चिंता थी सो यहां रुकी हुई थी,” मां ने नेहा की तरफ देखते हुए कहा.

“नेहा की सास तो है न वहां. कुछ दिन वह देख लेंगी. आप हमें देख लो,” कह कर पिताजी शरारत से मुस्कुराए.

नेहा की मां हंस पड़ी,” तुम भी न कभी नहीं बदलोगे. चलो मैं आती हूं.”

अभिनव ने टिकट बुक करा रखी थी. अगले ही दिन नेहा की मां नेहा को हजारों हिदायतें दे कर अपने घर चली गईं. नेहा और अभिनव ने राहत की सांस ली. नेहा की मां के जाने के बाद घर में शांति छा गई. अब सास जितना जरूरी होता उतना ही हस्तक्षेप करतीं. नेहा और अभिनव को भी एकदूसरे के लिए समय मिलने लगा.

इसी तरह एकडेढ़ महीना गुजर गया. नेहा को आठवां महीना लग चुका था. वह अब काम करने की हालत में नहीं थी. नौकरानी घर का सारा काम करती और सास नेहा का ख्याल रखती.

सब अच्छे से चल रहा था कि एक दिन फिर नेहा की मां का कॉल आया, “बेटी अब तेरे पापा ठीक हैं. मैं कल परसों में पहुंच जाऊंगी तेरे पास.”

“पर मां अब कोई जरूरी नहीं कि आप परेशान हो कर आओ.”

” जरूरत कैसे नहीं बेटा? तेरी पहली प्रैग्नैंसी है. मुझ को तो पास में होना ही चाहिए. मेरे भी भला कौन से कई दर्जन बच्चे हैं ? लेदे कर एक तू है और तेरा भाई है. तेरी देखभाल मैं ने ही करनी है. तेरी सास से तो कुछ होने वाला नहीं. चल रख फोन मैं तैयारी कर लूं.”

फोन रखते हुए नेहा घबराए स्वर में बोली,” अभिनव अब क्या करें? फिर वही महाभारत शुरू हो जायेगी. .”

“क्या हुआ यह तो बताओ ?” अभिनव ने पूछा.

“मम्मा लौट कर आ रही हैं. पापा भी चोट का बहाना आखिर कब तक बनाते. हमारी यह ट्रिक एक महीने में ही बेकार हो गई, ” उदास स्वर में नेहा ने कहा.

“बेकार कुछ नहीं हुआ. अब वही ट्रिक हमें मेरी मम्मी पर चलाना होगा. तुम रुको मैं कुछ सोचता हूं.”

अगले दिन सुबहसुबह अभिनव अपनी मां के पास पहुंचा,” “मौम आप को याद है न पिछले साल आप शिमला में होने वाले टॉप बिजनेसवूमैन समिट में भाग लेने जाने वाली थीं. आप वहां होने वाले वर्कशॉप और सेमिनार का हिस्सा बनना चाहती थीं. मगर ऐन वक्त पर लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और आप दोनों जा नहीं सके. ”

“हां बेटे तेरी लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और उस के बिना मैं अकेली जाना नहीं चाहती थी. तभी तो हमारा वह प्लान कैंसिल हो गया था. ”

“वही तो मौम मगर अब आप के लिए खुशख़बरी है कि इस बार लतिका आंटी फुल फॉर्म में हैं. वह रिजर्वेशन कराने जा रही हैं. आप बताओ आप का क्या प्लान है?”

“अरे नहीं बेटा इस बार मैं नहीं जा सकूंगी. मेरा पोता जो आने वाला है. अगले साल का प्लान बना लेंगे.”

“बट मौम फिर शायद आप की यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो पाएगी क्योंकि अगले साल लतिका आंटी हैदराबाद में होंगी अपने बेटेबहू के पास. आप के लिए यह गोल्डन ओपरच्यूनिटी है और आप पोते की चिंता क्यों करती हो? जब तक आप शिमला में हो तब तक नेहा कि मौम उस की देखभाल कर लेंगी. वह बस दोतीन दिन में आने वाली हैं. ”

“मगर बेटा… ”

“कोई अगर मगर नहीं मौम. आप ज्यादा सोचो नहीं बस अब तैयारी करो. दोबारा यह मौका नहीं मिलने वाला क्योंकि आप अकेले फिर जा नहीं पाओगे.”

“चल ठीक है बेटा. बोल दे लतिका को कि मेरा भी रिजर्वेशन करा ले,” कह कर अभिनव की मौम पैकिंग में लग गईं.

नेहा और अभिनव ने एक बार फिर चैन की सांस ली. नेहा को इस बात का सुकून था कि अब जब तक अभिनव की मौम लौट कर आएँगी तब तक उस का बेबी इस दुनिया में आ चुका होगा और उसे फिर से दोनों मांओं के बीच पिसना नहीं पड़ेगा.

अब आओ न मीता- भाग 3: क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

दिनोंदिन घर का सूनापन भरने लगा था. मीता ने इस बदलाव पर आशा दी को पत्र लिखा. तुरंत उन का जवाब आया, ‘शायद कुदरत अपनी गलती पर पछता रही हो…मीता, जो होगा, अच्छा होगा.’

सागर के रूप में उसे अपना एक हमदर्द मिला तो जीवन जीना सहज होने लगा, फिर भी हर वक्त एक आशंका और डर छाया रहता…सब कुछ वक्त के हवाले कर के आंखें मूंद ली थीं मीता ने.

‘‘आंटी, आप का पर्स नीचे गिरा है बहुत देर से,’’ आवाज से स्मृतियों की यात्रा में पड़ाव आ गया. सामने की सीट पर बैठी एक युवती मीता को जगा रही थी. उसे लगा मीता सो रही है. मीता ने पर्स उठाया और उसे थैंक्यू बोला.

कितनी अजीब होती हैं सफर की स्थितियां. या तो हम अतीत में होते हैं या भविष्य में. गाड़ी के  पहिए आगे बढ़ते और यादें पीछे लौटती हैं. पीछे छूटे लोगों की गंध और चेहरे साथ चलते महसूस होते हैं.

चलते वक्त आशा दी की आंखें रोरो कर लाल हो गई थीं. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर बोली थीं, ‘आज पहली बार लग रहा है मीता कि मैं अपनी बहन नहीं, बेटी को बिदा कर रही हूं. अब जब आएगी तो अपने परिवार के संग आएगी…तेरा सुख देखने को आंखें तरस गईं, मीता. सागर तो फरिश्ता बन कर आया है मेरे लिए वरना राजन ने तो…’

‘छोड़ो न आशा दी… मत याद करो वह सब. मत दिल दुखाओ.’ मीता रो उठी. दोनों बहनें एकदूसरे के गले लग कर बहुत देर तक रोती रहीं.

‘आशा दी, आप एक बार आ कर सागर से मिलो तो. अब कुछ पा कर भी खो देने का डर बारबार मन में समा जाता है. अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं रहा अब.’

‘पगली, ज्ंिदगी में सच्ची चाहत सब को नसीब नहीं होती. चाहत की, चाहने वाले की कद्र करनी चाहिए. उम्र के फासले को भूल जा, क्योंकि  प्यार उम्र को नहीं दिल को जानता है…सच के सामने सिर झुका दे मेरी बहन…नीलेश और यश के लिए भी सागर से बेहतर और कोई नहीं हो सकता.’

सागर को डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले जाना था. मीता फैक्टरी से सीधी सागर के घर चली आई. आज फिर घर में अंधेरा था…भीतर वाले कमरे में सागर सोफे पर लेटे थे. टेप रिकार्डर आन था :

‘तुझ बिन जोगन मेरी रातें, तुझ बिन मेरे दिन बंजारे…’ अंधेरे में गूंजता अकेलापन मीता की बरदाश्त से बाहर था. लाइट आन की तो सागर की पलकों की कोरें गीली थीं. मीता को देखा तो उठ कर बैठ गए.

‘यह गाना क्यों सुन रहे हो?’ ‘हमेशा यही तो सुनता रहा हूं.’ ‘जो चीज रुलाए उसे दूर कर देना चाहिए कि उसे और गले लगा कर रोना चाहिए?’ ‘लेकिन जो चीज आंसू के साथ शांति भी दे उस के लिए क्या करे कोई?’

‘क्या मतलब?’ ‘अच्छा छोडि़ए, डाक्टर के यहां चलना है न? मैं तैयार होता हूं…’ ‘नहीं, पहले बात पूरी कीजिए.’ ‘पिछले 3 सालों से…’ सागर की गहरी आंखें मीता पर टिकी थीं.

‘आगे बोलिए.’ ‘मुझे आप के आकर्षण ने बांध रखा है… मैं ने पागलों की तरह आप के बारे में सोचा है. आप के अतीत को जान कर, आप के संघर्ष, आप के ज्ंिदगी जीने के अंदाज को मन ही मन सराहा है. पिछले 3 सालों का हर पल आप के पास आने की ख्वाहिश में बीता है…ये गीत मेरे दर्द का हिस्सा हैं…’

‘यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में आप से बड़ी, 2 बच्चों की मां और एक शादीशुदा औरत हूं. मेरी शादी सफल नहीं हो पाई. मैं ने अकेले ही अपने बच्चों के भविष्य को संभाला है और किसी सहारे की दूरदूर तक गुंजाइश नहीं मेरे जीवन में. अपने बच्चों की नजरों में मैं अपना सम्मान नहीं खोना चाहती. हमारे बीच जो कुछ भी है, वह जो कुछ भी हो पर प्यार नहीं हो सकता.’

‘मैं ने कब कहा कि आप की चाहत चाहिए मुझे…प्यार का बदला प्यार ही हो यह जरूरी नहीं…यश, नीलेश और आप का साथ जो मुझे अपनी बीमारी के दौरान मिला, उस ने मेरा जीवन बदल दिया है. आप मेरे करीब, मेरे सामने हों. मैं जी लूंगा इसी सहारे से.’

‘मेरे साथ आप का कोई भविष्य नहीं. आप की ज्ंिदगी में अच्छी से अच्छी लड़कियां आ सकती हैं. अपना घर बसाइए…मेरी ज्ंिदगी जैसे चल रही है चलने दीजिए, सागर. ओह, सौरी.’

‘नहीं, सौरी नहीं. आप ने मेरा नाम लिया. इस के लिए शुक्रिया.’

फिर सागर तैयार होने भीतर चला गया और मीता वहीं सोफे पर बैठी कुछ सोचती रही.

सागर को सिविल इंजीनियर बनाना चाहते थे उस के डाक्टर पापा. असमय ही सिर से पिता का साया क्या उठा सागर रातोंरात बड़प्पन की चादर ओढ़ घर का बड़ा और जिम्मेदार सदस्य हो गया. 2-3 साल तक इंजीनियरिंग की डिगरी का इंतजार, फिर नौकरी की तलाश करना उस के लिए नामुमकिन था, इसलिए अपनी मंजिल को गुमनामी में धकेल कर सब से पहले फाइनल में पढ़ रही छोटी बहन सोनल के हाथ पीले किए उस ने…पापा के अधूरे कामों को पूरा करने का बीड़ा उठाया था सागर ने. सारी जमीनजायदाद का हिसाब कर के सारा पैसा बैंक में जमा कर रोहित का मेडिकल में एडमीशन करा कर वह यहां आ गया. मां को सारा उत्तरदायित्व सौंप कर वह निश्ंिचत था. अपने लिए कुछ सोचना उस की फितरत में न था. बहन अपने घर में खुश थी राहुल का कैरियर बनना निश्चित था. मां को आर्थिक सुरक्षा दे वह अकेला हो कर ज्ंिदगी जीने लगा.

बिल्ंिडग, पुल और सड़क बनाने वाली आंखें यहां शर्ट बनते देखने लगी थीं. मशीनों के शोर में वह सबकुछ भूल जाना चाहता था. कपड़ों की कतरनों में उसे अपने ध्वस्त सपनों के अक्स नजर आते. किनारे पर आ कर जहाज डूबा था उस का… बड़ा जानलेवा दर्द होता है किनारे पर डूबने का…

फिर यहां मीता को देखा. उस की समझौते भरी ज्ंिदगी का हश्र देखा तो ठगा सा रह गया वह. एक अकेली औरत का साहस देख कर कायल हो गया उस का मन. उस की प्रतिभा, शिक्षा और संस्कार का एहसास हर मिलने वाले को पहली नजर में ही हो जाता. दूसरों के मन को समझने वाली पारखी नजर मीता की विशेषता थी, न होती तो सागर के भीतर बसा खालीपन वह कैसे महसूस कर पाती भला?

मीता अपनी सीमा जानती थी. उस ने सबकुछ वक्त और हालात पर छोड़ दिया था. लेकिन मीता जानने लगी थी, सागर वह नहीं है जो नजर आता है, कई बार उस की गहरी आंखें कुछ सोचने पर विवश कर देतीं मीता को. मीता झटक देती जल्दी से अपना सिर…नहीं, उसे यह सब सोचने का हक नहीं. पर सिर झटकने से क्या सबकुछ छिटक जाता है. इनसान अकेलापन तो बरदाश्त कर लेता है लेकिन भीड़ के बीच अकेलापन बहुत भारी होता है.

पहले कम से कम उस का जीवन एक ढर्रे पर तो था. अपने बारे में उस ने सोचना ही बंद कर दिया था. लेकिन सागर का साथ पा कर कमजोर होने लगी थी वह. दूसरी ओर एक जिम्मेदार मां है वह…यह भी नहीं भूलती थी. अनिश्चय के झूले में झूल रही थी मीता. भावनाओं का चक्रवात उसे निगलने को आतुर था.

हैप्पी एंडिंग: भाग-2

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

शाम को जब सभी भाई गली में क्रिकेट खेल रहे होते, मां, चाचियां रसोई में और

दादी ड्योढ़ी में बैठी पड़ोस की महिलाओं से बात कर होतीं, मुझे अच्छा समय मिल जाता छत पर जाने का… उम्मीद के मुताबिक सुमित मेरा ही इंतजार कर रहे होते… संकोच और डर के साथ शुरू हुई हमारी बात, उन की बातों में इस कदर खो जाती… कब अंधेरा हो जाता पता ही नहीं चलता.

उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं प्रेम की दुनिया से यथार्थ में आई, सुमित से विदा ले कर नीचे आई ही थी कि घरवालों के सवालों के घेरे में खड़ी हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘छत पर इतनी रात को अकेले क्या कर रही थी?’’

‘‘दिमाग सही रहता है कि नहीं तुम्हारा.’’

मैं चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी, क्या बोलूं… सच बोल दूं… ‘‘आप सभी की तमाम बंदिशों को तोड़ कर किसी से प्यार करने लगी हूं, मेरे जन्म के साथ ही जिस डर के साये में दादी ने सभी को जिंदा रखा है आखिरकार वह डर सच होने जा रहा है.’’ मेरे शब्द मेरे दिमाग में चल रहे थे जुबां पर लाने की हिम्मत नहीं थी… कुछ नहीं बोली मैं, सुनती रही… जब सब बोल कर थक गए तो मैं अपने कमरे में चली गई.

ऐसे ही समय बीतता गया और मेरा प्यार परवान चढ़ता गया. 10 दिनों के बाद सुमित मद्रास के लिए निकल गए, उस दिन मैं छत पर उस की बाहों में घंटों रोती रही वह मुझे समझाता रहा, विश्वास दिलाया कि वह मुझे कभी नहीं भूलेगा, हमारा प्रेम आत्मिक है जो मरने के बाद भी जिंदा रहेगा.

‘‘हमें इंतजार करना होगा रीवा, पढ़ाई पूरी करने के बाद ही हम घर वालों से बात कर

सकते हैं.’’

‘‘मैं तो पढ़ाई पूरी करने के बाद भी बात नहीं कर सकती, तुम जानते हो मेरे परिवार को… जिस दिन उन्हें भनक भी लग गई तो वे बिना सोचे मेरी शादी किसी से भी करा देंगे और मैं रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘हम्म… मुझे एहसास है इस बात का, मैं ने एक डरपोक लड़की से प्रेम कर लिया है,’’ हंसते हुए सुमित ने कहा तो मेरी भी हंसी छूट गई.

इसी तरह 4 वर्ष बीत गए… हर गर्मियों

की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए सुमित आते हम ऐसे छिप कर मिलते फिर पूरा साल खतों

के सहारे बिताते… बीना आंटी को हम दोनों के बारे में सब पता था… मेरे खत उन्हीं के पते पर आते थे, बीना आंटी मुझे बहुत प्यार करती थी. उन के लिए तो मैं 4 साल पहले ही उन की बहू बन गईर् थी.

मैं बीकौम कर रही थी उधर सुमित को डाक्टर की डिगरी मिल गई. एमडी करने के लिए वह पुणे शिफ्ट हो गया और मैं दादी की आंखों की किरकिरी बनती जा रही उन्होंने वह मेरी शादी के लिए पिताजी पर जोर डालना शुरू कर दिया था, हर दिन पंडितजी को बुलावा जाता, नएनए रिश्ते आते, कुंडली मिलान के बाद रिश्तों की लिस्ट बनती फिर शुरू हो जाता आनाजाना, मैं ने बीना आंटी से कहा वे मां से बात करें नहीं तो दादी मेरी शादी कहीं और करा देंगी.

बीना आंटी ने मां से बात की तो मां को विश्वास नहीं हुआ इतनी बंदिशों के बाद उन की बेटी ने प्रेम करने की हिम्मत कैसे कर ली वह भी दूसरी जाति में.

‘‘तू चल अपने कमरे में’’ पहली बार मां का यह सख्त रूप देख रही थी.

‘‘मां, मैं सुमित से ही शादी करूंगी नहीं तो खुद को मार लूंगी.’’

‘‘तो किस ने रोका तुम्हें. वैसे भी मारी जाओगी इस से अच्छा है खुद को मार लो, मेरा परिवार तो गुनाह करने से बच जाएगा.’’

‘‘मां’’ मैं ने तड़पते हुए कहा.

गुस्से से मां कांप रही थी उन की ममता ने उन्हें रोक लिया था नहीं तो शायद उस

दिन उन्होंने मेरा गला दबा दिया था.

चुपचाप मेरे लिए दूल्हा ढूंढ़ने का तमाशा देखने वाली मेरी मां… दादी के साथ मिल कर खुद दूल्हा ढूंढ़ रही थी.

इस घर में एकमात्र सहारा मेरी मां मुझ से दूर हो गई थी, बीना आंटी ने सुमित से बात की… सुमित उधर परीक्षा शुरू होने वाली थी और इधर मेरी जिंदगी की.

कभी सोचती…

‘‘खुद को मार लूं या सुमित के पास भाग जाऊं?’’

‘‘नहीं… नहीं सुमित के पास नहीं जा सकती नहीं तो ये लोग उस को मार देंगे, बीना आंटी को भी बदनाम कर देंगे… कुछ भी कर सकते हैं.’’

भाइयों को रईसी विरासत में मिली थी पढ़ाई छोड़ राजनीति और गुंडागर्दी में आगे थे.

मेरी कोई सहेली भी नहीं थी जिस से दिल की बात कर सकूं. बीना आंटी से बात न करने की मां की सख्त हिदायत थी. अब तो सुमित के खत भी नहीं मिलते, उस की कोई खबर नहीं… मैं कहां जाती… किस से बात करती, यहां सब दादी के इशारे पर चलते थे.

कालेज से घर… घर से कालेज यही मेरी लाइफ थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब मेरी शादी की डेट फिक्स हो गई… एनआरआई दूल्हा, पैसेरुपए वाले और क्या चाहिए था इन लोगों को.

मैं एक जीतीजागती, चलतीफिरती गुडि़या बन गई थी जिस के अंदर भावनाओं का ज्वार ज्वालामुखी का रूप ले रहा था, मैं चुप थी… क्योंकि मेरी मां चुप थी. यहां बोलने का कोई फायदा नहीं सभी ने अपने दिल के दरवाजे पर बड़ा ताला लगा रखा था, जहां प्रेम को पाप समझा जाए वहां मैं कैसे अपने प्रेम की दुहाई दे कर अपने प्रेम को पूर्ण करने के लिए झोली फैलाती, यहां दान के बदले प्रतिदान लेने की प्रथा है, इन के लिए सच्चा प्रेम सिर्फ कहानियों में होता है. लैला मजनू, हीररांझा ये सब काल्पनिक कथाएं ऐसे विचारों के बीच मेरा प्रेम अस्तित्वहीन था.

अब तो कोई चमत्कार ही मुझे मेरे प्रेम से मिला सकता था. हैप्पी ऐंडिंग तो

कहानियों में होती है असल जिंदगी में समझौते से ऐंडिंग होती है. फिर भी एक आस थी मेरे मन में, सुमित मुझे नहीं छोड़ेगा, वह जरूर आएगा… दुलहन के लाल जोड़े में बैठी उसी आखिरी आस के सहारे बैठी थी… कभी लगता… अभी दूसरे दरवाजे से सुमित निकल कर आएंगे और मैं उन का हाथ थामे यहां से निकल जाऊंगी… लेकिन उस को नहीं आना था और वह नहीं आया, मेरा प्रेम झूठा था या उस के वादे… दिल टूटा और

मैं रीवा… उस पल में मर गई, प्रेम कहानियों

से प्यार करने वाली मैं… कहानियों से नफरत करने लगी, सब कुछ झूठ और धोखे का पुलिंदा बन गया…

मंडप में बैठी मैं शून्य थी, मुझे याद भी नहीं कैसे रस्में हुई, शादी हुई… मैं होश में नहीं थी.

विदाई के वक्त बीना आंटी दरवाजे पर खड़ी थीं मैं रोते हुए उन के गले लग गई… मैं ने फुसफुसा कर कहा ‘‘मेरा प्यार छिन लिया अभी कुछ वक्त पहले मैं ने सुमित को बेवफा समझा… वह वहां अनजान बैठा है और मैं किसी और के नाम का सिंदूर सजा कर खड़ी हूं.’’

आगे पढें- मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई…

अब आओ न मीता- भाग 1 क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन…और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी…वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी. ‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’ ‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो…’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’ ‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’ ‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’ ‘तो एग्जाम्स के बाद चली जाना.’

‘सागर, हर चीज का अपना समय होता है. थोड़ा तो समझो. मेरी दीदी बहुत चाहती हैं मुझे, जानते हो न? मेरी तहसनहस जिंदगी का बुरा असर पड़ा है उन पर. वह टूट गई हैं भीतर से. मुझे देख लेंगी, दोचार दिन साथ रह लेंगी तो शांति हो जाएगी उन्हें.’ ‘तो उन्हें यहीं बुला लीजिए…’

‘हां, जाऊंगी तभी तो साथ लाऊंगी. एक बार तो जाने दो मुझे. मेरे जाने का मकसद तुम ही तो हो. दीदी को बताने दो कि अब अकेली नहीं हूं मैं.’

इतने में नीलेश और यश आ गए, अपनी तूफानी चाल से. अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने की दोनों में होड़ लगी थी. मीता ने दोनों की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी. टेस्ट में दोनों ही फर्स्ट थे. दोनों को गले लगा कर मीता ने आशीर्वाद दिया…पर उस की आंखें नम थीं…कितने अभागे हैं राजन. बच्चों की कामयाबी का यह गौरव उन्हें मिलता पर…

दोनों बच्चों ने अपने कार्ड उठाए. वापस जाने को पीछे मुड़ते इस के पहले ही दोनों सागर के पैरों पर झुक गए, ‘…और आप का आशीर्वाद?’

‘वह तो सदा तुम दोनों के साथ है,’ कहते हुए सागर ने दोनों को उठा कर सीने से लगा लिया और कहा, ‘तुम दोनों को इंजीनियर बनना है. याद है न?’ ‘हां, अंकल, याद है पर शाम की आइसक्रीम पक्की हो तो…’ ‘शाम की आइसक्रीम भी पक्की और कल की एग्जीबिशन भी. वहां झूला झूलेंगे, खिलौने खरीदेंगे, आइसक्रीम भी खाएंगे और जितने भी गेम्स हैं वे सब खेलेंगे हम तीनों.

‘हम तीनों मीन्स?’ यश बोला. ‘मीन्स मैं, तुम और नीलेश.’ ‘और मम्मी?’ ‘वह तो बेटे, कल तुम्हारी आशा मौसी के पास कटनी जा रही हैं. 4-5 दिन में लौटेंगी. मैं हूं ना. हम तीनों धूम मचाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे और मम्मी को बिलकुल भी याद नहीं करेंगे. ठीक?’

दोनों बच्चे खुश हो कर बाहर चल दिए. मीता आश्चर्यचकित थी. पहले बच्चों के उस व्यवहार पर जो उन्होंने सागर से आशीर्वाद पाने के लिए किया, फिर सागर के उस व्यवहार पर जो उस ने बच्चों के संग दोहराया. सागर की गहराई को अब तक महसूस किया था आज उस की ऊंचाई भी देख चुकी वह.

किस मिट्टी का बना है सागर. चुप रह कर सहना. हंस कर खुद के दुखदर्द को छिपा लेना. कहां से आती है इतनी ताकत? मीता शर्मिंदा हो उठी. ‘नहीं, सागर, तुम्हें इस तरह अकेला कर के नहीं जा सकती मैं. एक हफ्ता हम घर पर ही रहेंगे. माफ कर दो मुझे. तुम्हारा मन दुखा कर मुझे कोई भी खुशी नहीं चाहिए. मैं बाद में हो आऊंगी.’

‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मुझ से पहले तो आप पर आप के परिवार का हक है. फिर रोकने का हक भी तो नहीं है मुझे…आप की अपनी जिम्मेदारियां हैं जो मुझ से ज्यादा जरूरी हैं. फिर आशा दी को यहां बुलाना भी तो है…’

एकाएक झटके से ट्रेन रुक गई. आसपास फिर वही शोर. पैसेंजरों का चढ़नाउतरना, सब की रेलपेल जारी थी.

मीता पर सीधी धूप आ रही थी. हलकी सी भूख भी उसे महसूस होने लगी. एक कप कौफी खरीद कर वह सिप लेने लगी. सामने की सीट पर बैठे 3-4 पुलिस अफसर यों तो अपनी बातों में मशगूल लग रहे थे लेकिन हरेक की नजरें उसे अपने शरीर पर चुभती महसूस हो रही थीं.

सागर और मीता का परिचय भी एक संयोग ही था. कभी- कभी किसी डूबते को तिनका बन कर कोई सहारा मिल जाता है और अपने हिस्से का मजबूत किनारा तेज बहाव में कहीं खो जाता है. यही हुआ था मीता के संग. अपने बेमेल विवाह की त्रासदी ढोतेढोते थक गई थी वह. पूरे 11 सालों का यातनापूर्ण जीवन जिया था उस ने. जिंदगी बोझ बनने लगी थी पर हारी नहीं थी वह. आत्महत्या कायरता की निशानी थी. उस ने वक्त के सामने घुटने टेकना तो सीखा ही न था. एक मजबूत औरत जो है वह.

मगर 11 सालों में पति रूपी दीमक ने उस के वजूद को ही चाटना शुरू कर दिया था.

तानाशाह, गैरजिम्मेदार और क्रूर पति का साथ उस की सांसें रोकने लगा था. प्रेम विवाह किया था मीता ने, लेकिन प्रेम एक धोखा और विवाह एक फांसी साबित हुआ आगे जा कर. पति को पूजा था बरसों उस ने, उस की एकएक भावना की कद्र की थी. उसे अपनी पलकों पर बैठाया, उसे क्लास वन अफसर की सीट तक पहुंचाने में भावनात्मक संबल दिया उस ने. यह प्रेम की पराकाष्ठा ही तो थी कि मीता ने अपनी शिक्षा, प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षाओं को परे हटा कर सिर्फ  पति के वजूद को ही सराहा. सांसें राजन की चलतीं पर उन सांसों से जिंदा मीता रहती, वह खुश होता तो दुनिया भर की दौलत मीता को मिल जाती.

पुरुष प्रधान समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राय: हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई महिला होती है, लेकिन सफल होते ही वही पुरुष किसी और मरीचिका के पीछे भागने लगता है. प्रेम विवाह करने वाला प्रेम की नई परिभाषाएं तलाशने लगा. एक के बाद दूसरे की तलाश में भटकने लगा.

पद के साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है यह भूल ही गया था राजन. यहां तो पद के साथसाथ शराब, ऐयाशी और ज्यादतियां आ जुड़ी थीं. प्रतिष्ठा को ताख पर रख कर राजन एक तानाशाह इनसान बनने लगा था, मीता का जीवन नरक से भी बदतर हो गया था. पतिपत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मीता की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. उस का स्वाभिमान उसे उकसाने लगा. दोनों बेटों की परवरिश, उन का भविष्य और ममता से भारी न था यह नरक. नतीजा यह हुआ कि शहर छूटा, कड़वा अतीत छूटा और नरक सा घर भी छूट गया. धीरेधीरे आत्मनिर्भर होने लगी मीता. नई धरती, नए आसमान, नई बुलंदियों ने दिल से स्वागत किया था उस का. फैशन डिजाइनिंग का डिप्लोमा काम आ गया सो एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. दोनों बच्चों की परवरिश और चैन से जीने के लिए पर्याप्त था इतना कुछ. ज्ंिदगी एक ढर्रे पर आ गई थी.

मारने से मन नहीं मरता न? मीता का भी नहीं मरा था. बेचैन मीता रात भर न सो पाती. नैतिकता की लड़ाई में जीत कर भी औरत के रूप में हार गई थी वह. लेकिन जीवन तो कार्यक्षेत्र है जहां दिल नहीं दिमाग का राज चलता है. मीता फिर अपनी दिनचर्या से जूझने को कमर कस कर खड़ी हो जाती, चेहरे पर झूठा मुखौटा लगा कर दुनियादारी की भीड़ में शामिल हो जाती.

लेकिन पति से अलग हो कर जीने वाली अकेली औरत को तो कांटों भरा ताज पहनाना समाज अपना धर्म समझता है. अपने अस्तित्व, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की रक्षा करना यदि किसी नारी का गुनाह है तो बेशक समाज की दोषी थी वह…

नीलेश अब चौथी और यश दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था. उस दिन पेरेंट्सटीचर्स  मीटिंग में जाना था मीता को. जाहिर है छुट्टी लेनी पड़ती. सागर दूसरे डिपार्टमेंट में उसी पद पर था. मीता ने जा कर उसे अपनी स्थिति बताई और न आने का कारण बता कर अपना डिपार्टमेंट संभालने की रिक्वेस्ट भी की. सागर ने मीता को आश्वासन दिया और मीता निश्ंिचत हो कर मीटिंग में चली गई.

पिछले 3 साल से सागर इसी फैक्टरी में सुपरवाइजर था…अंतर्मुखी और गंभीर किस्म का व्यक्तित्व था सागर का… सब से अलग था, अपनेआप में सिमटा सा.

दूसरे दिन मीता सब से पहले सागर से मिली. पिछले दिन की रिपोर्ट जो लेनी थी और धन्यवाद भी देना था. पता चला, सागर आया जरूर है लेकिन कल से वायरल फीवर है उसे.

‘तो आप न आते कल… जब इतनी ज्यादा तबीयत खराब थी तो एप्लीकेशन भिजवा देते,’ मीता ने कहा.

‘तो आप की दी जिम्मेदारी का क्या होता?’

‘अरे, जान से बढ़ कर थी क्या यह जिम्मेदारी.’

‘हां, शायद मेरे लिए थी,’ जाने किस रौ में सागर के मुंह से निकल गया. फिर मुसकरा कर बात बदलते हुए बोला, ‘आप सुनाइए, कल पेरेंट्सटीचर्स मीटिंग में क्या हुआ?’ फिर सागर खुद ही नीलेश और यश की तारीफों के पुल बांधने लगा.

आश्चर्यचकित थी मीता. सागर को यह सब कैसे पता?

‘हैरान मत होइए, क्योंकि जब मां आइडियल होती है तो बच्चे जहीन ही होते हैं.’

 

 

दाहिनी आंख: भाग 3- अनहोनी की आशंका ने बनाया अंधविश्वास का डर

 

मन अच्छा हो गया. मैं ने कमर पर कसे बेटे के हाथों को नरमी से थपथपाया. उस ने जैसे मेरी देह की भाषा पढ़ ली और पटरपटर बातें करने लगा, ‘‘मम्मा, पापा का काम कितनी देर में होगा?’’

‘‘बस, थोड़ी देर में.’’

‘‘फिर हम क्या करेंगे?’’

‘‘घर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, मम्मा, हम भारत भवन चलेंगे,’’ उस ने पूछा नहीं, बताया.

सपने सी वीआईपी सड़क खत्म हुई और अब हमें अतिव्यस्त चौराहा पार करना था. ठीक इसी समय, दाहिनी पलक फिर थरथराई और माथे की शिकन में तबदील हो गई. मैं सामने सड़क से गुजरती गाडि़यों को गौर से देखने लगी. स्कूटी बढ़ाने को होती और रुकरुक जाती. रहरह कर आत्मविश्वास टूट रहा था और मुझे लगने लगा कि जैसे ही मैं आगे बढ़ूंगी, इन में से एक बड़ा ट्रक तेज रफ्तार में अचानक आ निकलेगा और हमें रौंदता चला जाएगा. मेरे पैर स्कूटी के दोनों तरफ जमीन पर टिके थे. यह मैं थी जो हमेशा कहती रही कि ड्राइविंग करते वक्त बारबार जमीन पर पैर टिकाने वाले कच्चे ड्राइवर होते हैं और उन बुजदिल लमहों में मेरा बरताव नौसिखिए स्कूटर ड्राइवरों से भी बदतर था.

कई बार मैं आगे बढ़ी, डर और परेशानी से पीछे हटी और इस तरह पता नहीं मैं कितनी देर वहां तमाशा बनी खड़ी रहती, उस मोड़ पर जिसे मैं सैकड़ों दफा पार कर चुकी थी. पर भला हो उस कार वाले का जिस ने मेरे पीछे से आते हुए सड़क पार करने का इंडीकेटर दिया. झट मैं ने अपनी दुपहिया उस बड़ी कार की ओट में कर ली और उस के समानांतर चलते हुए आखिर सड़क पार कर ली.

अब हम कमला पार्क वाली व्यस्त रोड पर शनिमंदिर के सामने से गुजरे और पलभर को स्कूटी की गति धीमी कर के सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘हमारी रक्षा करना.’

स्कूटी की गति कितनी कम हो गई थी, यह मुझे तब ध्यान आया जब पीछे से आते स्कूली बच्चे की साइकिल मुझ से आगे निकल गई. बेटे को और एकदो बार बेवजह डांटा या शायद मेरा तनाव था जो शब्दों में ढल रहा था, ‘‘चुपचाप चिपक कर बैठे रहना वरना आगे से कभी साथ नहीं लाऊंगी.’’

 

मां को डरा जान बच्चे कहीं ज्यादा डर जाते हैं. नैवेद्य अपनी कुल जमा ताकत से मुझ से चिपक गया. उस की सांसें भी सहमीसहमी सी थीं और मैं विचारहीन मन, कांपती अपशकुनी आंख माथे और चौकन्ने दिमाग से ड्राइविंग कर रही थी.

औफिस आ गया, दिल ने राहत की सांस ली. स्कूटी पार्क कर ही रही थी कि बेटे ने बिल्ंिडग की ओर दौड़ लगा दी.

‘‘नैवेद्य…’’ इतनी जोर से मेरी चीख निकली कि आसपास के लोग ठहर से गए. अपनी गलती महसूस होते ही मैं सकपका सी गई. बेटे के पास जा कर दबी जबान में उसे डांटा और फिर उस के लिए मुझे इतनी भयंकर असुरक्षा महसूस हुई कि मैं ने उसे गोद में उठा लिया. 5 साल के स्वस्थ बच्चे को गोद में उठाए सीढि़यों पर हांफती हुई चढ़ रही थी. मुझ को लोग आंखें फाड़ कर देख रहे थे. मैं बच्चे को कंधे से चिपकाए हुए थी. मन की स्थिति उस गाय जैसी हो गई थी जो अपने नवजात बच्चे की रक्षा के लिए भेडि़यों सरीखे कुत्तों का सामना करने को पूरी तरह तैयार होती है.

हम तीसरी मंजिल पर बने औफिस के गलियारे में पहुंचे. सूने, ऊंचे, धूल से भरे गलियारे की सधी हवा में कबूतरों का संगीत पसरा था. औफिस के भीतर जाने से पहले मैं ने बेटे को गोद से उतार कर अपने को संयत किया.

अपना परिचय दे कर फाइल मैं ने एक बाबूनुमा आदमी को दे दी. काम करते क्लर्क ने बीच में रुक कर कहा कि मैं फाइल यहीं छोड़ जाऊं, वह बड़े साहब तक पहुंचा देगा, पर मैं वहीं खड़ी रही किसी नासमझ गूंगीबहरी की तरह. उस ने अपना काम रोका, अजीब तरह से मुझे घूरा और फाइल उठा कर अपने बड़े साहब के केबिन की ओर चला गया. जब उसे फाइल सहित केबिन में घुसते देख लिया तब जा कर मुझे यकीन हुआ कि फाइल इन के बौस के हाथों में सहीसलामत पहुंच जाएगी.

सीढि़यां उतरते हुए मन पहले से कुछ हलका था. एक तो इसलिए कि आधा काम निर्विघ्न पूरा हो चुका था. दूसरे किसी कष्टप्रद दशा में पड़े हुए जब कुछ देर हो जाती है तब हम परिस्थिति का सामना करने के लिए स्वाभाविक तौर पर तैयार हो चुके होते हैं. नदी में भीगे पंजों से जब हम घाट की रपटीली सीढि़यां चढ़ते हैं तो किस कदर चौकन्ने होते हैं, लेशमात्र को हमारा ध्यान नहीं भटकता, मैं उसी मनोस्थिति में पहुंच चुकी थी. बेटे को पीछे बैठाया, स्कूटी स्टार्ट की और चारों तरफ देखतेपरखते हुए घर के लिए चल पड़ी. बिलकुल बाएं किनारे बचबचा कर चलते हुए मैं स्वयं को लगातार आश्वस्त करती जा रही थी, सब सामान्य है.

‘‘मम्मा, पापा का काम हो गया?’’

‘‘हां, बेटा, हो गया.’’

‘‘तो अब हम भारत भवन जाएंगे,’’ बहुत देर बाद वह खुश लगा.

भारत भवन नैवेद्य को हद दर्जे तक पसंद है और वह जबतब वहां जाने की जिद लगाए रहता है. लंबेचौड़े कैनवास सा परिसर, सजावटी पाषाण प्रतिमाएं, सिरेमिक वर्कशौप के विचित्र शिल्प और झील का सुख भरा किनारा जहां जंगली फूलों में तितलियों का एक लोक बसा है, उसे जैसे पुकारता है. वहां वह अपनी ड्राइंग कौपी और मोम के रंग अकसर साथ ले जाता है और झील, जंगली फूलों, अपरिचित तितलियों और शाम के आकाश पर छाई चमगादड़ों की घुचड़पुचड़ पेंटिंग बनाया करता है और मैं एक मध्यवर्गीय मां, जो बेटे के अतिरिक्त काबिलीयत में अपना असुरक्षित भविष्य तलाशती है, उसे वहां ले जाने का अवसर कभी नहीं गंवाती.

‘‘नहीं नानू, आज नहीं.’’

‘‘क्यों नहीं?’’ वह इस कदर ठुनका कि स्कूटी डगमगाने लगी.

मैं इतना डरी कि गाड़ी रोक कर खड़ी हो गई. वह जिद पर था और मैं हरसंभव तरह से उसे टाल रही थी. वह नहीं माना और मुझे एक ग्लानिभरा झूठ बोलना पड़ा.

‘‘बेटा, गाड़ी में पैट्रोल बहुत कम है, बस इतना कि हम घर पहुंच पाएंगे. अगर भारत भवन गए तो पैट्रोल बीच में ही खत्म हो जाएगा, फिर हम घर कैसे जाएंगे? पापा भी शहर में नहीं हैं. हमारी मदद को कोई नहीं आएगा.’’

उस की नन्ही आंखों ने मेरे परेशान चेहरे पर सौ फीसदी यकीन कर लिया और गाड़ी स्टार्ट करते हुए भारी दिल से मैं ने अपनी दाहिनी आंख को कोसा, जिस के कारण मैं ने अपने बच्चे को आज धोखा दिया.

अब हम घर के रास्ते पर थे. बगल से तकरीबन मेरी ही उम्र की एक स्त्री कार चलाती हुई गुजरी, पैसेंजर सीट पर नैवेद्य के बराबर बच्चा बैठा था और ड्राइविंग करती अपनी मां से खुश हो कर बातें कर रहा था. उन पलों में मैं ने जाना कि डर, आस्थाओं और अंधविश्वासों का हैसियत और ताकत से कितना गहरा नाता है. अगर मैं इस समय मामूली दुपहिए पर न होती, जिसे चारों दिशाओं के वाहनों से उसी तरह सतर्क रहना पड़ता है जैसे तालाब में किसी नन्ही, अकेली मछली को बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से, बल्कि किसी लग्जरी कार में होती तो क्या पता, दाहिनी आंख के फड़कने का अपशकुन मुझे इतना न डरा रहा होता? ईश्वर, धर्म और अंधविश्वास कमजोरों की देन है.

 

जैसे-जैसे हम घर के करीब आने लगे, मेरा खुद पर भरोसा लौटने लगा. हैंडिल पर कलाइयों की पकड़ मजबूत होने लगी और कालोनी के मोड़ से पहले का फोरलेन हाइवे मैं ने इंडीकेटर हौर्न दे कर सहजता से पार कर लिया.

‘रात होते ही सारे नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं.’ मन इस प्रसिद्ध खयाल को दोहरा कर मुसकराया और अपने घर के सामने मैं ने स्कूटी रोकी.

हाथों में फूले गुब्बारे लिए बालकनी में मिसेज सिंह शायद नैवेद्य की ही प्रतीक्षा में थीं.

‘‘नानू, देखो, तुम्हारे लिए कितने गुब्बारे फुला कर रखे हैं. आओ खेलें.’’

बेटे ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा और मेरे मुसकराते ही उस ने दौड़ लगा दी.

मैं हंस पड़ी, कमबख्त दाहिनी आंख अब तक फड़क रही है. मुझे भरोसा हो गया कि इस से कुछ होता नहीं है. मेरा आत्मविश्वास अंधविश्वासों से ज्यादा मजबूत है. अब चाहे दोनों आंखें फड़कें, मुझे वही करना है जो जरूरी है. आंख की वजह से न मैं रुकूंगी और न किसी पंडे को दान देने के बारे में सोचूंगी.

फौरगिव मी: भाग 3- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

मैं गाउन ले कर बाथरूम में गई. मेरा दिल उसे माफ करना चाहता था. मैं गाउन पहनने लगी. अचानक मु झे लगा यह उस की जीत होगी. उस की ही नहीं यह उन सारी दूसरी औरतों की जीत होगी जो बच्चों को मौम या डैड किसी एक के पास रहने को मजबूर कर देती हैं. मेरा मुंह का स्वाद कसैला हो गया. मैं ने गाउन पर कैंची चलानी शुरू कर दी. पाइपिंग लेस और गुलाब के फूल सब बिखर गए. पर शायद गाउन ही नहीं कटा उस दिन से बहुत कुछ कट गया. बहुत से फूल बिखर गए. मैं ने तमतमाते हुए उसे वह गाउन वापस करते हुए कहा, ‘‘लो अपना गाउन. तुम इस से मु झे नहीं खरीद सकती. मैं बिकाऊ नहीं हूं.’’

इस बार मोनिका की आंखें डबडबाई नहीं. वह फूटफूट कर रोने लगी. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘आखिर मेरी गलती क्या है? आखिर तुम मु झे किस अपराध की सजा दे रही हो? अगर तुम्हें कुछ गलत लगता भी है तो क्या तुम उस बात को भूल कर मु झे माफ कर फिर से आगे नहीं बढ़ सकती?’’

‘‘तुम मेरी मां के आंसुओं का कारण हो. तुम ने मेरी हैपी फैमिली को तहसनहस किया. मौमडैड को अलग किया, फिर डैड को मु झ से अलग किया. अब ओछी हरकतों से मु झे खरीदने की कोशिश कर रही हो,’’ मैं चिल्लाती जा रही थी. अपनी सारी नफरत एक बार में निकाल देना चाहती थी.

मैं ने आरोपों की  झड़ी लगा दी. मैं उसे रोता छोड़ कर अपने कमरे में चली गई. उस के बाद से हमारे बीच बातचीत बहुत कम हो गई. मोनिका ने मु झे मनाने की सारी कोशिशें बंद कर दीं. मैं खुश थी. मु झे लगा मैं ने अपनेआप को बिकने नहीं दिया. यह मेरी जीत थी.

समय आगे बढ़ता गया और मैं अपने कमरे में और कैद होती गई. कमरा जहां

लैपटौप था, जो मु झे सोशल मीडिया के हजारों लोगों से जोड़े रखता… काल्पनिक ही सही पर मैं ने भी अपनी एक फैमिली बना ली थी. एक बड़ी फैमिली जहां दर्द और खुशियां भले ही न बंटती हों पर इस से पहले कि मु झे काटने को दौड़े वह बेदर्द समय जरूर कट जाता था.

तभी अलार्म बजा और मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई. वर्तमान, जहां मैं जीत के बाद हार का सामना कर रही थी. मैं बारबार उसे हर्ट करने के लिए, उस का दिल दुखाने के लिए अपराधबोध महसूस कर रही थी. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं जब भी उस से मिलने जाऊंगी उसे बांहों में भर कर कहूंगी, ‘‘मैं ने उसे माफ किया.’’

अब मैं अमेरिका में पलीबढ़ी 15 साल की किशोर लड़की थी या यों कह सकते हैं कि मैं एक होने वाली नवयुवती थी. नई जैनरेशन और आजाद खयाल होने के नाते अब मैं जानती थी कि किसी भी खत्म हो चुके रिश्ते के टूटने की वजह हमेशा दूसरी औरत ही नहीं होती. उस रिश्ते को तो टूटना ही होता है. मैं ने मोनिका को हमेशा दोषी माना क्यों? इस का उत्तर खुद मेरे पास नहीं था.

़वह भी जानती थी कि वह मेरी मां नहीं है और न ही कभी हो सकती है पर ‘हैपी फैमिली’ के अपने सपने को पूरा करने की उस ने बहुत कोशिश की. परंतु उस के सारे प्रयास मु झे उस की चाल लगते और उसे विफल करने में अपनी जीत. मैं हर साल उम्र में तो बड़ी हो रही थी, पर पता नहीं क्यों इस बात को सम झने में बड़ी नहीं हो पाई. काश, वक्त मु झे थोड़ा और वक्त दे और मैं अतीत को भूल कर आगे जी सकूं. क्या ऐसा होगा? मैं अधीर हो उठी.

1 हफ्ते तक कीमो व रैडीऐशन के चलते उसे उसी शीशे के कैबिन में रहना था. मैं उस से मिल नहीं सकती थी. पर मैं यह वक्त बरबाद नहीं करना चाहती थी. मैं ने बाजार जा कर वैसे ही गाउन का और्डर दे दिया, जो 1 हफ्ते बाद मिलना था. मैं मोनिका के सामने उसी गाउन में जाना चाहती थी. मोनिका की हालत बिगड़ने लगी थी. उस पर ट्रीटमैंट का कोई असर नहीं हो रहा था. रैडीऐशन की हीट से उस का सारा शरीर जल रहा था. मैं चिंतित थी पर उस के वार्ड में जाने और ठीक होने का इंतजार करने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

मेरी आशा के विपरीत शीशे के कैबिन से निकाल कर उसे वार्ड में शिफ्ट नहीं

किया गया, बल्कि उसे होस्पिक केयर के लिए हौस्पिटल में ही बने एक विशेष कक्ष में भेज दिया गया. डैड ने ही मु झे बताया कि होस्पिक केयर उन मरीजों को दी जाती है जो अपने जीवन की अंतिम अवस्था में होते हैं. यहां कोई ट्रीटमैंट नहीं होता. केवल मरीज का दर्द कम करने और उसे शांतिपूर्वक मृत्यु के आगोश में जाने देने की कोशिश भर होती है. मरीज के साथ यहां उन का परिवार भी रह सकता है. जो स्प्रिचुअल हीलिंग के वातावरण में अपने प्रियजन को फाइनल गुडबाय कह सके. डैड और जौन मोनिका के साथ रहने के लिए हौस्पिटल शिफ्ट हो गए. पर मैं मोनिका का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. मैं घर पर ही रह गई. यह हिम्मत जुटाने में मु झे 2 दिन लग गए. पर उस रैड गाउन को मैं नहीं पहन पाई. साधारण सा

मोनिका को इतनी कमजोर अवस्था में बैड पर

लेटे देख कर मैं भीतर तक कांप गई. मेरी आंखों में आंसू भर आए. मोनिका ने मु झे अपने करीब बुलाया. हम दोनों को कमरे में छोड़ कर डैड और जौन बाहर चले गए. मोनिका ने मु झे उठाने का इशारा किया.

मैं ने उसे सहारा दे कर उठाया. उस ने दूसरी बार मु झे प्यार से गले लगा लिया. मैं आंसुओं का वेग नहीं रोक पाई.  झर झर आंसू बहते ही जा रहे थे. मैं अपने दिल की बात कहना ही चाहती थी कि मु झे महसूस हुआ कि मोनिका ने मु झे कुछ ज्यादा ही कस के पकड़ा है. मैं ने सप्रयास उसे अपने से अलग किया. उस की आंखें मुझे ही घूर रही थीं. मु झे उस समय तक पता नहीं था कि मरना क्या होता है. पर किसी अनिष्ट की आशंका से मैं डाक्टरडाक्टर चिल्लाई. मोनिका हमें छोड़ कर सदा के लिए जा चुकी थी.

मोनिका के जाने के बाद हमारे जीवन में एक खालीपन सा भर गया. अब मैं ने महसूस किया कि उस ने न सिर्फ इस घर में, बल्कि

मेरे मन में भी एक जगह बना ली थी. जबजब उस पल को सोचती हूं एक टीस से उठती है. काश, मैं वह कह पाती जो मैं कहना चाहती थी. पर क्या वह उस समय सुन पाती? क्या कोई इंसान जब वह मृत्युशैया पर होता है, तो उस के लिए उन शब्दों का कोई महत्त्व होता है, जिन्हें वह जीवनभर सुनना चाहता है? क्यों हम जीवन को हमेशा चलने वाला मानते हैं. क्यों हमसमय रहते अपनी बात नहीं कह देते?

हम अपने क्रोध, नफरत, गुस्से को सहेजने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि जिस थाली को हम बड़ी शान से अगले पल को सौंप देना चाहते वह अगला पल 2 लोगों के जीवन में रहता भी है या नहीं. मु झे अपनी ही बातों से घबराहट होने लगी. मैं बालकनी में चली आई.

नीले आकाश में सफेद बादल तेजतेज घूम रहे हैं. मु झे चक्कर सा आ रहा है. मेरे मन में कोई चिल्ला रहा है मोनिका… मोनिका… मैं फिर ऊपर देखती हूं. घूमते बादलों को देख कर मैं जोर से चीखने लगती हूं, ‘‘मोनिका, प्लीज… प्लीज फौरगिव मी.’’

मगर मैं जानती हूं, इस बार अनसुना करने की बारी मोनिका की है.

संदेह के बादल- भाग 4

सुरभि को शक निश्चित रूप से शीतला पर ही था, क्योंकि दूसरा कोई घर में आता ही नहीं था. उन्होंने लाख समझाना चाहा, उस से चेन ढूंढ़ने के लिए कहा, पर वह नहीं मानी थी. शीतला हर प्रकार से अपनी सफाई दे रही थी. पर उन्हें इस बात की जरूरत ही नहीं थी. जिस औरत ने कभी 4 पैसे की हेराफरी नहीं की वह इतना बड़ा अपराध कैसे कर सकती है, यह तो वे जानते थे.

अपराधी के कठघरे में भयातुर, डरीसहमी सी शीतला के माथे पर उन्होंने ज्यों ही हाथ रखा था, वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी, ‘‘साहब, आप के घर का नमक खाया है. आप के साथ इतना बड़ा विश्वासघात मैं कैसे करूंगी?’’

पर सुरभि ने शीतला को जेल की चारदीवारी में बंद करवा कर ही चैन की सांस ली. आंख की किरच आंख से निकली ही भली. पर वह शायद यह नहीं समझ पाई थी कि झूठे अहं और संदेह के पलीते से भरा यह ऐसा भयानक विस्फोट था जिस ने पतिपत्नी के भावनात्मक संबंधों को हिला कर रख दिया.

प्रारूप शीतला की जमानत करवा आए थे, अपने घर पर उन्होंने उसे फिर काम नहीं दिया था. उन के लिए उस की आंखों में तिरते उन अनुत्तरित प्रश्नों की शलाकाएं झेलना सहज नहीं था. उस के बाद वे अकसर दौरे पर रहते. घर पर रहते भी तो उदास से, बहुत कम बोलते थे. अपनी किताबों की दुनिया में ही खोए रहते. मृदुल के साथ जरूर बोलबतिया लेते थे. उस विद्रोहिणी नारी ने उन का चैन लूट लिया था. उस का सान्निध्य उन्हें वितृष्णा से भर देता था.

शीतला के भूख से तड़पते बच्चे और अपाहिज पति की जब कभी कल्पना करते, मन तिरोहित हो उठता. उसे निकालना ही था, तो यों ही निकाल देती सुरभि, यों लांछन लगा कर तो उस ने उस बेचारी को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अपमानित तो वह हुई ही, अब तो कोई काम पर भी नहीं रखेगा उसे. मन खिन्न हो उठा था. वे खुद भी तो छटपटाने के सिवा कुछ नहीं कर सके. उन का अब घर पर जी नहीं लगता था. पत्नी कई बार रोकने का प्रयत्न करती, पर उन का हर प्रयत्न अकारथ सिद्ध होता, अब उन का मन बुरी तरह उचट गया था.

एक रात प्रारूप दौरे पर गए थे. सुरभि और मृदुल बंगले में अकेले थे. अचानक बत्ती गुल हो गई. एक तो अकेली, ऊपर से अंधेरा. गरमी और उमस से बचने के लिए उस ने खिड़की खोली और स्टोर में जा कर लालटेन में मिट्टी का तेल भरा. उसे ला कर वह ज्यों ही तिपाई पर रखने लगी थी कि लालटेन औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी और पूरा तेल मेजपोश पर छलक गया और पलक झपकते ही आग ने मेज, परदों और फर्नीचर को अपने चुंगल में ले लिया. फिर देखते ही देखते आग ने विकरालरूप धारण कर लिया. अंधेरे  में जब वह पानी की बालटी लेने बाथरूम में पहुंची तब तक आधा कमरा आग की लपटों में जल गया.

कृत्यअकृत्य के चक्रवात में फंसी सुरभि को यह भी समझ नहीं आया कि बेटे को उठा कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दे. डर और दहशत से आवाज भी घुट कर रह गई थी. चीखतीचिल्लाती भी तो उस नई अनजान जगह में उस की चीखें दीवारों से ही टक्कर मार कर, उस के कर्णपटल को भेद जातीं. कौन आता उस की सहायता करने?

तभी उस ने झोंपडि़यों की ओर से कुछ लोगों को अपने बंगले की ओर आते देखा. उस ने सोचा, सभी शीतला के रिश्तेदार होंगे. प्रारूप की अनुपस्थिति में लूटखसोट कर के घर का सामान ले जाएंगे और उसे और मृदुल को मार भी डालेंगे. कलुषित मन और सोच भी क्या कर सकता था? घबराहट के मारे सुरभि गश खा कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के बाद क्या घटा, उसे नहीं मालूम.

आंख खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थी. पास में बिस्तर पर मृदुल लेटा था. सामने प्रारूप खड़े थे. उन के सामने शीतला सपरिवार खड़ी थी.

उस के हाथों की ओर सुरभि की नजर चली गई थी. दोनों हाथों पर पट्टियां थीं. पूरा चेहरा जगहजगह से झुलस गया था. उस ने क्षीण स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथों को क्या हुआ?’’

‘‘आप को और मृदुल को बचाने के प्रयास में इस के हाथ बुरी तरह झुलस गए हैं. समय पर अगर यह आप को न बचाती तो आप का बचना नामुमकिन था,’’ डाक्टर ने सुरभि को बताया तो एकाएक वह भयानक मंजर उसे याद हो आया था.

देर तक वह शीतला को निहारती रही. पश्चात्ताप के आंसुओं की अविरल धारा अपनी सारी सीमाएं तोड़ कर बह निकली थी, पर तब भी वह कुछ कह नहीं सकी थी. एक बार फिर अहं सामने आ गया.

कुछ दिनोें तक अस्पताल में रहने के बाद सुरभि और मृदुल पूरी तरह से स्वस्थ हो घर आ गए थे. एक शाम प्रारूप के साथ सैर करते हुए वह शीतला की झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगी तो प्रारूप ने उसे रोका, ‘‘उधर कहां जा रही हो?’’

‘‘आज मत रोको मुझे. एक बार वहां जा कर प्रायश्चित्त कर लेने दो,’’ कह कर वह आगे बढ़ी और शीतला की झोंपड़ी के बाहर जा कर रुक गई. चिथड़ों में लिपट शीतला के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई, दौड़ कर उस ने चारपाई बिछाई और नम्रतापूर्वक उन के बैठने की प्रतीक्षा करने लगी. भूखेनंगे बच्चों को देख कर सुरभि का मन ग्लानि से भर उठा. वह मन ही मन सोचने लगी कि ईर्ष्या और डाह की विषबेल बो कर कैसा बदला लिया था उस जैसी शिक्षित नारी ने उस गरीब से? उस के पास पति था, प्यारा बेटा था, ऐश्वर्य, समृद्धि सभी कुछ तो था. खुद ही तो सहेजसमेट नहीं पाई इस सुख को. इस में दूसरों का क्या दोष? गाज गिराई भी तो उस पर जिस ने उस के पति की सेवा की? शीतला के साथ उस के पूरे परिवार को उस ने अपने परिहास की परिधि में घसीट लिया?

शीतला को पास बुला कर उस ने उसे अपने पास बैठाया. फिर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तुम्हारे ऊपर मैं ने इतने आरोप लगाए, फिर भी मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की तुम ने, तुम वास्तव में ही महान हो, शीतला.’’

‘‘नहीं बीबीजी, मैं तो कुछ भी नहीं, महान तो बाबूजी हैं. इन्होंने मेरे बच्चों की भूख मिटाई. मेरे अपाहिज पति के इलाज के लिए ठेकेदार से पैसा दिलवाया और सब से बड़ा उपकार तो इन्होंने मेरी इज्जत बचा कर किया.’’

शीतला फिर बोली, ‘‘बीबीजी, एक रात शराब के नशे में मेरे पति ने मुझे ठेकेदार के पास भेज दिया था. उस ने सोचा, इसी तरह से 4 पैसे का जुगाड़ भी हो जाएगा और बच्चों को रोटी, कपड़ा मिलता रहेगा. अब आप ही बताओ कि जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो उस औरत पर क्या बीतती होगी? तब बाबूजी ने ही मेरी रक्षा की थी. मैं तो अपना भाई, पिता सबकुछ ही इन्हें मानती हूं. मैं ने आप के घर का नमक खाया है और फिर जब मेहनत करने के लिए ये 2 हाथ दिए हैं तो इंसान कुकर्म करे ही क्यों?’’

सुरभि की नजरों में शीतला बहुत ऊपर उठ गई थी. आसमान से भी ऊपर. आज शीतला के कथन ने उसे इस अवधारणा से मुक्त कर दिया था कि औरत और मर्द के बीच हर रिश्ता शरीर तक ही सीमित नहीं, भावनाओं व संवेदनाओं का भी अपना स्थान है.

प्रारूप कुछ कहना चाह ही रहे थे कि उस ने अपनी हथेली उन के होंठों पर रख दी. शीतला को अगले दिन ही काम पर आने के लिए कह कर वह लौट आई थी. अब नई सुबह, वह उस की प्रतीक्षा में खड़ी थी, जिस में संदेह और शंका के लिए कोई स्थान नहीं था.

हैप्पी एंडिंग: भाग-1

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

आज10 वर्ष के बाद फिर उसी गली में खड़ी थी. इन्हीं संकरी पगडंडियों के किनारे बनी इस बड़ी हवेली में गुजरा मेरा बचपन, इस हवेली की छत पर पनपा मेरा पहला प्यार… जिस का एहसास मेरे मन को भिगो रहा था. एक बार फिर खुली मेरी यादों की परतें, जिन की बंद तहों पर सिलवटें पड़ी हुई थीं, गलियों से निकलते हुए मेरी नजर चौराहे पर बने गांधी पार्क पर पड़ी, छोटेछोटे बच्चों की खिलखिलाहट से पार्क गुंजायमान हुआ था, पार्क के बाहर अनगिनत फूड स्टौल लगे हुए थे जिन पर महिलाएं खानेपीने के साथ गौसिप में खोई थीं… सुखद एहसास हुआ… चलो, आज की घरेलू औरतें चाहरदीवारी से कुछ समय अपने लिए निकाल रही हैं, मैं ने तो मां, चाचियों को दादी के बनाए नियम के अनुसार ही जीते देखा है, पूरा दिन घर के काम और रसोई से थोड़ी फुर्सत मिलती तो दादी बडि़यां, चिप्स और पापड़ बनाने में लगा देतीं.

चाचियां भुनभुनाती हुई मां के पीछे लगी रहतीं, किसी के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी

कि कुछ समय आराम करने के लिए मांग सके. दादी के तानाशाही रवैये से सभी त्रस्त थे लेकिन ज्यादातर उन की शिकार मैं और मां बनते थे.

पूरे खानदान में मेरे रूपसौंदर्य की चर्चा होती तो वहीं दादी को मैं फूटी आंख नहीं सुहाती, मेरे स्कूल आनेजाने के लिए भाई को साथ लगा

दिया जो कालेज जाने तक साए की तरह साथ लगा रहता.

10 बेटों के बीच मैं एक एकलौती बेटी थी. सभी का भरपूर प्यार मिला लेकिन साथ कई बंदिशें भी, पिताजी अपने 5 भाइयों के साथ बिजनैस संभालने में व्यस्त रहते और भाइयों को मेरी निगरानी में लगा रखा था जो अपना काम बड़ी ईमानदारी से करते थे.

परीक्षा खत्म होने के साथसाथ गर्मियोें की छुट्टियों में कुछ दिन आजादी के मिलते थे जब मां अपने मायके और मैं और भाई मामा के घर खुद के बनाए नियम में जीते थे. मैं बहुत खुश थी, मामा के घर जाना है लेकिन अगली सुबह ही दादी ने घर में एक नया फरमान जारी किया… ‘‘रीवा कहीं नहीं जाएगी… लड़की जवान हो रही है. ऐसे में तो अपने सगों पर भरोसा नहीं तो मैं कैसे जाने दूं उसे तेरी ससुराल, कुछ ऊंचनीच हो गई तो सारी उम्र सिर फोड़ते रहोगे. तुम्हारी घरवाली जाना चाहे तो जा सकती है बस रीवा नहीं जाएंगी. पिताजी हमेशा की तरह सिर झुकाए हां में हां मिलाए जा रहे थे.’’

मेरी आंखों से गंगाजमुना की धार बह चली थी. पता नहीं उन दिनों इतना रोना क्यों आता था अब तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए आंखें सूखी रहती हैं.

खूब रोनाधोना मचाया लेकिन कुछ काम नहीं आया. मुझ पर लगी इस बंदिश ने मां का मायका भी छुड़ा दिया. मां की तकलीफ देख कर दिल से आह निकली ‘‘काश… मैं लड़की नहीं होती’’ उस दिन पहली बार लड़की होने पर दु:ख हुआ था.

छत की मुंडेर पर बैठी चाची के रेडियो से गाने सुन रही थी, रफी के हिट्स चल रहे थे… दर्द भरे गानों में खुद को फिट कर दुखी होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. तभी पीछे की छत से आवाज आई ‘‘गाना अच्छा है.’’

पीछे मुड़ कर देखा एक हैंडसम लड़का मेरी तरफ देख कर मुसकरा रहा था… ‘‘पर ये हैं कौन?’’ खुद से सवाल किया.

‘‘हाय… मैं सुमित, यह मेरी बूआ का घर है… आप का नाम?’’

अच्छा… तो ये बीना आंटी का भतीजा है.

‘‘मेरा नाम जानने की कोशिश न ही करो यही तुम्हारे लिए बेहतर होगा’’ कहते हुए मैं

अपने कमरे में चली आई. मैं वहां से चली तो आई पर न जाने कैसा एहसास साथ ले आई

थी. 17 की हो गई थी और आज तक कभी

किसी भी लड़के ने मुझ से बात करना तो दूर… नजर उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं की थी और इस का पूरा श्रेय मेरे आदरणीय भाइयों को जाता है.

और उस दिन पहली बार किसी लड़के ने मुझ से मुसकरा कर मेरा नाम पूछा था… जैसे मेरे अंदर प्रेम की सुप्तावस्था को थपकी दे कर उठा रहा हो, मैं उस के उठने के एहसास से ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि मैं जानती थी कि यह एहसास एक बार जग गया तो मेरे साथ मेरी मां भी कभी न शांत होने वाले तूफान में फंस जाएंगी, जिस से निकलने की कोशिश मात्र से ही मेरे अस्तित्व की धज्जियां उड़ जाएंगी.

अगले दिन दिमाग के लाख मना करने के बाद भी दिल ने अपनी बात मुझ से मनवा ली और मैं फिर छत की मुंडेर के उस कोने में खड़ी हो गई. वह सामने ही खड़ा था लैमन यलो कलर की शर्ट के साथ ब्लू जींस में. बहुत हैंडसम दिख रहा था, बीना आंटी भी साथ में थी. उन्हें देख कर मैं ने अपने कदम पीछे करना चाहे तब तक बीना आंटी ने मुझे देख लिया था.

‘‘रीवा, इस बार अपने मामा के घर नहीं गई.’’

‘‘नहीं, आंटी… मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए दादी ने मना कर दिया.’’

‘‘ओह, काफी दिनों से सुरेखा भाभी से मिली नहीं, समय मिलते ही आऊंगी उन से मिलने.’’

‘‘जी… आंटी.’’

‘‘अरे हां… इस से मिलो, मेरा भतीजा सुमित… कल ही मद्रास से आया, वहां मैडिकल कालेज में पढ़ता है. 10 दिन की छुट्टियों में इस को बूआ की याद आ गई,’’ हंसते हुए बीना आंटी ने कहा.

‘‘बूआ, अच्छा हुआ मैं इस बार यहां आ गया यह तो पता चला आप के शहर में कितनी खूबसूरती छिपी है,’’ सुमित की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं.

मैं गुलाबी हो रही थी… शर्म से, प्रेम से, आनंद से.

मैं ही जानती हूं उस पल मैं वहां कैसे खड़ी थी. आंटी के जाते ही आंधी की तरह भागती हुई अपने कमरे में पहुंच गई, सुमित की आंखें जाने क्याक्या बयां कर गई थीं, उस की आंखों का स्थायित्व मुझे एक अदृश्य डोर में बांध रहा था… मैं बंधती जा रही थी… दिल के साथ अब दिमाग भी विद्रोही हो गया था… क्या इसे ही पहला प्यार कहते हैं, यह कैसा अनुभव है, दिल का चैन खत्म हो चुका था, अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी, भूखप्यास सब खत्म… घर वालों को लगता मैं मामाजी के घर न जाने के कारण ऐसे गुमसुम सी, बेचैन हो कर छत के चक्कर लगाती हूं और उन का यह सोचना मेरे लिए अच्छा था, मुझ पर नजर थोड़ी कम रखी जाती.

आगे पढ़ें-  उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं…

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