आधी तस्वीर: भैया के लिए मनशा के मन में था कैसा शक?

वह दरवाजे के पास आ कर रुक गई थी. एक क्षण उन बंद दरवाजों को देखा. महसूस किया कि हृदय की धड़कन कुछ तेज हो गई है. चेहरे पर शायद कोई भाव हलकी छाया ले कर आया. एक विषाद की रेखा खिंची और आंखें कुछ नम हो गईं. साड़ी का पल्लू संभालते हुए हाथ घंटी के बटन पर गया तो उस में थोड़ा कंपन स्पष्ट झलक रहा था. जब तक रीता ने आ कर द्वार खोला, उसे कुछ क्षण मिल गए अपने को संभालने के लिए, ‘‘अरे, मनशा दीदी आप?’’ आश्चर्य से रीता की आंखें खुली रह गईं.

‘‘हां, मैं ही हूं. क्यों यकीन नहीं हो रहा?’’

‘‘यह बात नहीं, पर आप के इधर आने की आशा नहीं थी.’’

‘‘आशा…’’ मनशा आगे नहीं बोली. लगा जैसे शब्द अटक गए हैं.

दोनों चल कर ड्राइंगरूम में आ गईं. कालीन में उस का पांव उलझा, तो रीता ने उसे सहारा दे दिया. उस से लगे झटके से स्मृति की एक खिड़की सहसा खुल गई. उस दिन भी इसी तरह सूने घर में घंटी पर रवि ने दरवाजा खोला था और अपनी बांहों का सहारा दे कर वह जब उसे ड्राइंगरूम में लाया था तो मनशा का पांव कालीन में उलझ गया था. वह गिरने ही वाली थी कि रवि ने उसे संभाल लिया था. ‘बस, इसी तरह संभाले रहना,’ उस के यही शब्द थे जिस पर रवि ने गरदन हिलाहिला कर स्वीकृति दी थी और उसे आश्वस्त किया था. उसे सोफे पर बैठा कर रवि ने अपलक निशब्द उसे कितनी देर तक निहार कर कहा था, ‘तुम्हें चुपचाप देखने की इच्छा कई बार हुई है. इस में एक विचित्र से आनंद का अनुभव होता है, सच.’

मनशा को लगा 20-22 वर्ष बाद रीता उसी घटना को दोहरा रही है और वह उस की चुप्पी और सूनी खाली नजरों को सहन नहीं कर पा रही है. ‘‘क्या बात है, रीता? इतनी अजनबी तो मत बनो कि मुझे डर लगे.’’

‘‘नहीं दीदी, यह बात नहीं. बहुत दिनों से आप को देखा नहीं न, वही कसर पूरी कर रही थी.’’ फिर थोड़ा हंस कर बोली, ‘‘वैसे 20-22 वर्ष अजनबी बनने के लिए काफी होते हैं. लोग सबकुछ भूल जाते हैं और दुनिया भी बदल जाती है.’’

‘‘नहीं, रीता, कोई कुछ नहीं भूलता. सिर्फ याद का एहसास नहीं करा पाता और इस विवशता में सब जीते हैं. उस से कुछ लाभ नहीं मिलता सिवा मानसिक अशांति के,’’ मनशा बोली.

‘‘अच्छा, दीदी, घर पर सब कैसे हैं?’’

‘‘पहले चाय या कौफी तो पिलाओ, बातें फिर कर लेंगे,’’ वह हंसी.

‘‘ओह सौरी, यह तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा,’’ और रीता हंसती हुई उठ कर चली गई.

मनशा थोड़ी राहत महसूस करने लगी. जाने क्यों वातावरण में उसे एक बोझिलपन महसूस होने लगा था. वह उठ कर सामने के कमरे की ओर बढ़ने लगी. विचारों की कडि़यां जुड़ती चली गईं. 20 वर्षों बाद वह इस घर में आई है. जीवन का सारा काम ही तब से जाने कैसा हो गया था. ऐसा लगता कि मन की भीतरी तहों में दबी सारी कोमल भावनाएं समाप्त सी हो गई हैं. वर्तमान की चढ़ती परत अतीत को धीरेधीरे दबा गई थी. रवि संसार से उठ गया था और भैया भी. केवल उन से छुई स्मृतियां ही शेष रह गई थीं.

रवि के साथ जीवन को जोड़ने का सपना सहसा टूट गया था. घटनाएं रहस्य के आवरण में धुंधलाती गई थीं. प्रभात के साथ जीवन चलने लगा-इच्छाअनिच्छा से अभी भी चल ही रहा है. उन एकदो वर्षों में जो जीवन उसे जीना था उस की मीठी महक को संजो कर रखने की कामना के बावजूद उस ने उसे भूलना चाहा था. वह अपनेआप से लड़ती भी रही कि बीते हुए उन क्षणों से अपना नाता तोड़ ले और नए तानेबाने में अपने को खपा कर सबकुछ भुला दे, पर वह ऊपरी तौर पर ही अपने को समर्थ बना सकी थी, भीतर की आग बुझी नहीं. 20 वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं.

आज ज्वालामुखी की तरह धधक उठने के एहसास से ही वह आश्चर्यचकित हो सिहर उठी थी. क्या 20 वर्षों बाद भी ऐसा लग सकता है कि घटनाएं अभीअभी बीती हैं, जैसे वह इस कमरे में कलपरसों ही आ कर गई है, जैसे अभी रवि कमरे का दरवाजा खोल कर प्रकट हो जाएगा. उस की आंखें भर आईं. वह भारी कदमों से कमरे की ओर बढ़ गई.

कोई खास परिवर्तन नहीं था. सामने छोटी मेज पर वह तसवीर उसी फ्रेम में वैसी ही थी. कागज पुराना हो गया था पर रवि का चेहरा उतनी ही ताजगी से पूर्ण था. जनता पार्क के फौआरे के सामने उस ने रवि के साथ यह फोटो खिंचवाई थी. रवि की बांह उस की बांह से आगे आ गई थी और मनशा की साड़ी का आंचल उस की पैंट पर गया था. ठीक बीच से जब रवि ने तसवीर को काटा था तो एक में उस की बांह का भाग रह गया और इस में उस की साड़ी का आंचल रह गया.

2-3 वाक्य कमरे में फिर प्रतिध्वनित हुए, ‘मैं ने तुम्हारा आंचल थामा है मनशा और तुम्हें बांहों का सहारा दिया है. अपनी शादी के दिन इसे फिर जोड़ कर एक कर देंगे.’ वह कितनी देर तक रवि के कंधे पर सिर टिका सपनों की दुनिया में खोई रही थी उस दिन.

उन्होंने एमए में साथसाथ प्रवेश किया था. भाषा विज्ञान के पीरियड में प्रोफैसर के कमरे में अकसर रवि और मनशा साथ बैठते. कभी उन की आपस में कुहनी छू जाती तो कभी बांह. सिहरन की प्रतिक्रिया दोनों ओर होती और फिर धीरेधीरे यह अच्छा लगने लगा. तभी रवि मनशा के बड़े भैया से मिला और फिर तो उस का मनशा के घर में बराबर आनाजाना होने लगा. तुषार से घनिष्ठता बढ़ने के साथसाथ मनशा से भी अलग से संबंध विकसित होते चले गए. वह पहले से अधिक भावुक और गंभीर रहने लगी, अधिक एकांतप्रिय और खोईखोई सी दिखाई देने लगी.

अपने में आए इस परिवर्तन से मनशा खुद भी असुविधा महसूस करने लगी क्योंकि उस का संपर्क का दायरा सिमट कर उस पर और रवि पर केंद्रित हो गया था. कानों में रवि के वाक्य ही प्रतिध्वनित होते रहते थे, जिन्होंने सपनों की एक दुनिया बसा दी थी. ‘वे कौन से संस्कार होते हैं जो दो प्राणियों को इस तरह जोड़ देते हैं कि दूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगता है. ‘तुम्हें मेरे साथ देख कर नियति की नीयत न खराब हो जाए. सच, इसीलिए मैं ने उस चित्र के 2 भाग कर दिए.’ रवि के कंधे पर सिर रखे वह घंटों उस के हृदय की धड़कन को महसूस करती रही. उस की धड़कन से सिर्फ एक ही आवाज निकलती रही, मनशा…मनशा…मनशा.

वे क्षण उसे आज भी याद हैं जैसे बीते थे. सामने बालसमंद झील का नीला जल बूढ़ी पहाडि़यों की युवा चट्टानों से अठखेलियां कर रहा था. रहरह कर मछलियां छपाक से छलांग लगातीं और पेट की रोशनी में चमक कर विलीन हो जातीं. झील की सारी सतह पर चलने वाला यह दृश्य किसी नववधू की चुनरी में चमकने वाले सितारों की झिलमिल सा लग रहा था. बांध पर बने महल के सामने बड़े प्लेटफौर्म पर बैंचें लगी हुई थीं. मनशा का हाथ रवि के हाथ में था. उसे सहलातेसहलाते ही उस ने कहा था, ‘मनशा, समय ठहर क्यों नहीं जाता है?’

मनशा ने एक बहुत ही मधुर दृष्टि से उसे देख कर दूसरे हाथ की उंगली उस के होंठों पर रख दी थी, ‘नहीं, रवि, समय के ठहरने की कामना मत करो. ठहराव में जीवन नहीं होता, शून्य होता है और शून्य-नहीं, वहां कुछ नहीं होता.’

रवि हंस पड़ा था, ‘साहित्य का अध्ययन करतेकरते तुम दार्शनिक भी हो गई हो.’

न जाने ऐसे कितने दृश्यखंड समय की भित्ती पर बनते गए और अपनी स्मृतियां मानसपटल पर छोड़ते गए. बीते हुए एकएक क्षण की स्मृति में जीने में इतना ही समय फिर बीत जाएगा और जब इन क्षणों का अंत आएगा तब? क्या फिर से उस अंत को झेला जा सकता है? क्या कभी कोई ऐसी सामर्थ्य जुटा पाएगा, जीवन के कटु और यथार्थ सत्य को फिर से जी सकने की, उस का सामना करने की? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इसीलिए जीवन की नियति ऐसी नहीं हुई. चलतेचलते ही जीवन की दिशा और धारा मुड़ जाती हैं या अवरुद्ध हो जाती हैं. हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि सत्य घटित होने लगता है.

मनशा के जीवन के सामने कब प्रश्नचिह्न लग गया, उसे इस का भान भी नहीं हुआ. घर के वातावरण में एक सरसराहट होने लगी. कुछ सामान्य से हट कर हो रहा था जो मनशा की जानकारी से दूर था. मां, बाबूजी और भैया की मंत्रणाएं होने लगीं. तब आशय उस की समझ में आ गया. मां ने उस की जिज्ञासा अधिक नहीं रखी. उदयपुर का एक इंजीनियर लड़का उस के लिए देखा जा रहा था. उस ने मां से रोषभरे आश्चर्य से कहा, ‘मेरी शादी, और मुझ से कुछ कहा तक नहीं.’

‘कुछ निश्चित होता तभी तो कहती.’

‘तो निश्चित होने के बाद कहा जा रहा है. पर मां, सिर्फ कहना ही तो काफी नहीं, पूछना भी तो होता है.’

‘मनशा, इस घर की यह परंपरा नहीं रही है.’

‘जानती हूं, परंपरा तो नई अब बनेगी. मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

‘मनशा.’

‘हां, मां, मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

जब उस ने दोहराया तो मां का गुस्सा भड़क उठा, ‘फिर किस से करेगी? मैं भी तो सुनूं.’

‘शायद घर में सब को इस का अंदाजा हो गया होगा.’

‘मनशा,’ मां ने उस का हाथ कस कर पक लिया, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. जातपांत, समाज का कोई खयाल ही नहीं है?’

मनशा हाथ छुड़ा कर कमरे में चली गई. घर में सहसा ही तनाव व्याप्त हो गया. शाम को तुषार के सामने रोरो कर मां ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई. बाबूजी को सबकुछ नहीं बताया गया. तुषार इस समस्या को हल करने की चेष्टा करने लगा. उसे विश्वास था वह मनशा को समझा देगा, और नहीं मानेगी तो थोड़ी डांटफटकार भी कर लेगा. मन से वह भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि मनशा पराई जाति के लड़के रवि से ब्याह करे. वह जानता था, कालेज के जीवन में प्रेमप्यार के प्रसंग बन ही जाते हैं पर…

‘भैया, क्या तुम भी मेरी स्थिति को नहीं समझ सकते? मां और बाबूजी तो पुराने संस्कारों से बंधे हैं लेकिन अब तो सारा जमाना नईर् हवा में नई परंपराएं स्थापित करता जा रहा है. हम पढ़लिख कर भी क्या नए विचार नहीं अपनाएंगे?’

‘मनशा,’ तुषार ने समझाना चाहा, ‘मैं बिना तुम्हारे कहे सब जानता हूं. यह भी मानता हूं कि रवि के सिवा तुम्हारी कोई पसंद नहीं हो सकती. पर यह कैसे संभव है? वह हमारी जाति का कहां है?’

‘क्या उस के दूसरी जाति के होने जैसी छोटी सी बात ही अड़चन है.’

‘तुम इसे छोटी बात मानती हो?’

‘भैया, इस बाधा का जमाना अब नहीं रहा. उस में कोई कमी नहीं है.’

‘मनशा…’ तुषार ने फिर प्रयास किया, ‘‘आज समाज में इस घर की जो प्रतिष्ठा है वह इस रिश्ते के होते ही कितनी रह जाएगी, यह तुम ने सोचा है? यह ब्याह होगा भी तो प्रेमविवाह अधिक होगा अंतर्जातीय कम. मैं सच कहता हूं कि बाद में तालेमल बैठाना तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा. तुम एकसाथ दोनों समाजों से कट जाओगी. मां और बाबूजी बाद में तुम्हें कितना स्नेह दे सकेंगे? और उस घर में तुम कितना प्यार पा सकोगी? इस की कल्पना कर के देखो तो सही.’

मनशा ने सिर्फ भैया को देखा, बोली कुछ नहीं. तुषार ही आगे बोलता रहा, ‘व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर जीवन के सारे पहलुओं पर जरा ठंडे दिल से सोचने की जरूरत है, मनशा. जल्दी में कुछ भी निर्णय ठीक से नहीं लिया जा सकता. फिर सभी महापुरुषों ने यही कहा है कि प्रेम अमर होता है, किसी ने ब्याह अमर होने की बात नहीं कही, क्योंकि उस का महत्त्व नहीं है.’ अपने अंतिम शब्दों पर जोर दे कर वह कमरे से बाहर चला गया.

मनशा सबकुछ सोच कर भी भैया की बात नहीं मान सकती थी. किसी और से ब्याह करने की कल्पना तक उस के मस्तिष्क में नहीं आ पाती थी. घर के वातावरण में उसे एक अजीब सा खिंचाव और उपेक्षा का भाव महसूस होता जा रहा था जो यह एहसास करा रहा था मानो उस ने घर की इच्छा के विरुद्ध बहुत बड़ा अपराध कर डाला हो. भैया से अगली बहस में उस ने जीवन का अंत करना अधिक उपयुक्त मान लिया था. उसे इस सीमा तक हठी देख तुषार को बहुत क्रोध आया था, पर उस ने हंस कर इतना ही कहा, ‘नहीं, मनशा, तुम्हें जान देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.’

घर के तनाव में थोड़ी ढील महसूस होने लगी, जैसे प्रसंग टल गया हो. तुषार भी पहले की अपेक्षा कम खिंचा हुआ सा रहने लगा. पर न अब रवि आता और न मनशा ही बाहर जाती थी. मनशा कोई जिद कर के तनाव बढ़ाना नहीं चाहती थी.

तभी सहसा एक दिन शाम को समाचार मिला कि रवि सख्त बीमार है और उसे अस्पताल में भरती किया गया है. मांबाप के मना करने पर भी मनशा सीधे अस्पताल पहुंच गई. देखा इमरजैंसी वार्ड में रवि को औक्सीजन और ग्लूकोज दिया जा रहा है. उस का सारा चेहरा स्याह हो रहा था. चारों ओर भीड़ में विचित्र सी चर्चा थी. मामला जहर का माना जा रहा था. रवि किसी डिनर पार्टी में गया था.

नाखूनों का रंग बदल गया था. डाक्टरों ने पुलिस को इत्तला करनी चाही पर तुषार ने समय पर पहुंच कर अपने मित्र विक्टर की सहायता से केस बनाने का मामला रुकवा दिया. यह पता नहीं चल पा रहा था कि जहर उसे किसी दूसरे ने दिया या उस ने स्वयं लिया था. रवि बेहोश था और उस की हालत नाजुक थी.

मनशा के पांव तले से धरती खिसकती जा रही थी. एकएक क्षण काटे नहीं कट रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों और कैसे हो गया. फिर सहसा बिजली की तरह मस्तिष्क में विचार कौंधा. कल शाम को भैया भी तो उस पार्टी में गए थे. फिर तबीयत इन्हीं की क्यों खराब हुई? बहुत रात गए वह लौट आई.

डाक्टर पूरी रात रवि को बचाने का प्रयत्न करते रहे पर सुबह होतेहोते वे हार गए. दाहसंस्कार बिना किसी विलंब के तुरंत कर दिया गया. मनशा गुमसुम सी कमरे में बैठी रही. न बोल सकी और न रो सकी. रहरह कर कुछ बातें मस्तिष्क की सूनी दीवारों से टकरा जातीं और उन के केंद्र में तुषार भैया आ जाते.

‘तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’ कोई महीनेभर पहले उन्होंने कहा था, फिर पार्टी में तुषार के साथ रवि का होना उस की उलझन बढ़ा रहा था. वहां क्या हुआ? क्या भैया से कोई बहस हुई? क्या भैया ने उसे मेरा खयाल छोड़ने की धमकी दी? क्या इसीलिए उस ने आत्महत्या कर ली कि मुझे नहीं पा सकता था? एक बार उस ने कहा भी था, ‘तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता, मनशा.’ क्या यह स्थिति उस ने मान ली थी कि बिना उस से पूछे? या…उसे… नहीं…नहीं…कौन कर सकता है यह काम…क्या भैया… ‘नहीं…नहीं…’ वह जोर से चीखी. मां हड़बड़ा कर कमरे में आईं. देखा वह बेहोश हो गई है. थोड़ीथोड़ी देर में होश आता तो वह कुछ बड़बड़ाने लगती.

धीरेधीरे वह सामान्य होने लगी. उस ने महसूस किया, भैया उस से कतरा रहे हैं और इसी आधार पर उन के प्रति संदेह का जो सांप कुंडली मार कर उस के मन में बैठा वह भैया के जीवनपर्यंत वैसा ही रहा. उन की मृत्यु के बाद भी मन की अदालत में वह उन्हें निर्दोष घोषित नहीं कर सकी.

दुनिया और जीवन का चक्र जैसा चलना था चला. प्रभात से ही उस का ब्याह हुआ. बच्चे हुए और अब उन का भी ब्याह होने जा रहा था.

न जाने आंखों से कितने आंसू बह गए. रीता दरवाजे पर ही खड़ी रही. मनशा ने ही मुड़ कर देखा तो उस के गले लग कर फिर रो पड़ी. रवि की मृत्यु के बाद वह आज पहली बार रोई है. रीता कुछ समझ नहीं पा रही थी. हम सचमुच जीवन में कितना कुछ बोझ लिए जीते हैं और उसे लिए ही मर भी जाते हैं. यह रहस्य कोई कभी नहीं जान पाता है, केवल उस की झलक मात्र ही कोई घटना कभी दे जाती है.

वे दोनों ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गईं. मनशा ने स्थिर हो कौफी पी और अपने बेटे की शादी का कार्ड रीता की ओर बढ़ा दिया. वह बेहद प्रसन्न हुई यह देख कर कि लड़की दूसरी जाति की है. रीता की जिज्ञासा फूट पड़ी, ‘दीदी, जो आप जीवन में नहीं कर सकीं उसे बेटे के जीवन में करते समय कोईर् दिक्कत तो नहीं हो रही है?’

‘हुई थी…भैया ने जैसे सामाजिक स्तर की बातचीत की थी वैसा तो आज भी पूरी तरह नहीं, फिर भी हम इतना आगे तो बढ़े ही हैं कि इतना कर सकें…प्रभात नहीं चाहते थे. बड़ेबुजुर्ग भी नाराज हैं, पर मैं ने मनीष और दीपा के संबंध में संतोषजनक ढंग से सब जाना तो फिर अड़ गई. मैं बेटा नहीं खोना चाहती थी. किसी तरह का खतरा नहीं उठाने की ठान ली. सोच लिया अपनी जान दे दूंगी पर इस को बचा लूंगी, मन का बोझ इस से हलका हो जाएगा.’ उस के चेहरे पर हंसी की रेखा उभर कर विलीन हो गई.

घरपरिवार की कितनी ही बातें कर मनशा चलने को उद्यत हुई तो बैग से एक कागज का पैकेट सा रीता के हाथ में थमा कर कहा, ‘इसे भी रख लो.’

‘यह क्या है दीदी?’

‘आधी तसवीर, जिसे तुम्हारे रवि भैया जोड़ना चाहते थे. जब कभी तुम सुनो कि मनशा दीदी नहीं रहीं तो उस तसवीर से इसे जोड़ देना ताकि वह पूरी हो जाए. यह जिम्मेदारी तुम्हें ही सौंप सकती हूं, रीता.’ वह डबडबाती आंखों के साथ दरवाजे से बाहर निकल गई. अतीत को मुड़ कर दोबारा देखने की हिम्मत उस में नहीं बची थी.

शायद: क्या हो पाई निर्वाण और प्रेरणा की दोस्ती?

‘‘मेरेसपनों को हकीकत में बदलने वाले आप क्या हो, आप नहीं समझ सकते. आप के लंबे से घने ब्राउन बालों में उंगलियां फिराना ऐसा है जैसे जंगल की किसी घनेरी शाम में अल्हड़ प्रेमी के साथ रात बिताने का ख्वाब. आप का चेहरा तो जैसे भोर का सूरज. 6 फुट की आप की बलिष्ठ काया मेरे लिए तूफान का रास्ता रोक लेगी. प्रद्युमन, मैं वापस आऊंगी तो आप प्रांजल को एक भाई देंगे वादा करो… आप के शरीर का अंश अपनी देह में सजाना चाहती हूं मैं.’’

‘‘प्रेक्षा, अभी तुम्हारी पढ़ने की उम्र है. इन खयालों को अब दिल से निकाल फेंको. तुम्हें कई सालों से यही समझा रहा हूं मैं… विद्या साधना मांगती है. तुम्हारा ध्यान इतना भटकता क्यों है? क्यों तुम अपने मन को इतनी खुली छूट देती हो? कैरियर बनाने का समय है यह, यह क्यों नहीं समझती?’’

‘‘चलो कुछ भी नहीं कहूंगी आप से फिर कभी, बल्कि बात ही नहीं करूंगी आप से.’’

‘‘प्रेक्षा,’’ वे उसे अपनी ओर खींच आलिंगन में बांध उस के होंठों पर मिठास से भरपूर चुंबन रख देते हैं. फिर कहते हैं, ‘‘तुम्हारा कैरियर से ध्यान न बंटे यही चाहता हूं न मैं.’’

‘‘पर मेरा ध्यान तुम्हारी ओर तब तक रहेगा जब तक तुम मुझ पर पूरी तरह ध्यान नहीं दोगे,’’ मोहपाश में डूबीडूबी सी प्रेक्षा ने प्यार जताया.

‘‘मेरे प्यार को नहीं समझती तुम?’’

‘‘समझती हूं, तभी तो तुम्हारे आगोश में डूबी रहना चाहती.’’

‘‘अब तो तुम 19 साल की हो गई, बड़ी हो गई हो न… अब और ध्यान न भटकने दो… तुम्हें इतनी दूर पिलानी भेज कर मैं कितना चिंतित रहूंगा मैं ही जानता हूं, लेकिन हमेशा रिजल्ट अच्छा करोगी तो ये 4 साल निकाल ही लूंगा.’’

‘‘तुम्हारे ऊपर सालभर के प्रांजल की जिम्मेदारी दे कर जा रही हूं. एक तो पहले तुम्हारा ही खानेपीने और सोने का ठिकाना न था, कोई देखभाल को न था. अब कोचिंग की जिम्मेदारी के साथ मेरी गलती का खमियाजा भी… सौरी प्रद्युमनजी मुझे माफ कर दो.’’

एक बार फिर प्रेक्षा को प्रद्युमन ने कस कर आलिंगन में बांध लिया. प्यार से उस का कान मरोड़ते हुए बोले, ‘‘इस छोटी सी नासमझ बच्ची को अब बड़ीबड़ी बातें करना आ गया है… अब जरूर अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह समझेगी. तुम प्यारी बच्ची हो. तुम्हारे लिए सबकुछ करूंगा, पिलानी से पढ़ाई खत्म कर के आओ तुरंत प्रांजल को एक बहन से नवाजूंगा.’’

प्रेक्षा ने प्रद्युमन का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘हां ठीक है, लेकिन खबरदार जो फिर कभी बच्ची कहा.’’

समंदर सी गहरी और चांद सी शीतल नजर डाल प्यार से निहारते हुए प्रद्युमन ने कहा, ‘‘चलोचलो, ट्रेन का समय हो रहा है?’’

प्रद्युमन प्रांजल को गोद में उठाए सामान सहित प्रेक्षा को लिए स्टेशन की ओर निकल गए.

प्रेक्षा जिस से इतना लाड़ जता रही थी वे प्रद्युमन हैं. 44 साल के नौजवान से दिखते अधेड़. इन का अपना दोमंजिला मकान है, पुराना है. इन के पिता का मकान, जिन्हें अभीअभी इन्होंने नए सिरे से सजा कर कुछ लग्जरी रूप दिया है. वैसे तो वे शौकीनमिजाज ही हैं, लेकिन कारण यह भी है कि इन के घर अब एक परी जो हमेशा के लिए आ गई है उन की प्रेक्षा.

जिंदगी से जूझती बिस्तर पर पड़ी मां के काफी करीब रहे प्रद्युमन. उन का हर काम अपने हाथों से करने के लिए उन्होंने कभी नौकरी की तलाश ही नहीं की, जबकि मैथ बेस्ड साइंस के स्कौलर हैं वे.

इकलौता बेटा और बीमार मां, एकदूसरे को ले कर स्नेह की डोर में

बंधे, एकदूसरे को ले कर असुरक्षित. कभी शादी का खयाल न आतेआते 42 साल के हो चुके थे प्रद्युमन, जब प्रेक्षा से उन का पाला पड़ा. हां, पाला ही. समझ जाएंगे क्यों.

अपनी इच्छाओं और वासनाओं को मार कर मां के प्रति अदम्य सेवा की भावना से ओतप्रोत यह शख्स अपनी कोचिंग में आने वाले बच्चों के प्रति भी बहुत संवेदनशील था. प्रद्युमन हर बच्चे से साल के क्व10 हजार लेते, लेकिन बदले में उन की सफलता के प्रति इस से 10 गुना ज्यादा समर्पित रहते. इन में से कई बच्चे खुद ही अपने कैरियर के प्रति जागरूक थे, लेकिन कई बच्चे ऐसे भी थे, जिन्हें सही दिशा में प्रेरित करने के लिए उन्हें बड़ी जुगत लगानी पड़ती. इन्हीं में एक प्रेक्षा थी. यह 17 साल की 11वीं कक्षा में पढ़ती एक दुबलीपतली बालिका थी. थी तो वह छोटी सी बालिका, लेकिन अब जैसे उस की काया में वसंत का उल्लास बस प्रकट होने ही वाला था. वह पढ़ने में खासकर मैथ में तेज थी, लेकिन उम्र का कच्चापन उस के मन के बालक को हमेशा ही इधरउधर दौड़ा देता. वह भटक जाती… पढ़ाई कम होती. प्रेम विलास के सपने ज्यादा देखे जाते, कैरियर पर फोकस उसे ऊबा देता.

प्रद्युमन की मां का देहांत हो गया. कुछ दूर के रिश्तेदारों का आनाजाना लगा, कई लोग कई तरह की सलाह ले कर आगे आए. उन में से एक मुख्य सलाह थी कि प्रद्युमन की मां के खाली कमरे को वह पेइंग गैस्ट के रहने के लिए दे दे. दरअसल, एक रिश्तेदार के पहचान के लड़के को इस शहर में एक कमरा चाहिए था, जहां पेइंग गैस्ट की तरह रह कर वह 12वीं कक्षा के बाद कोचिंग इंस्टिट्यूट में इंजीनियरिंग की तैयारी कर सके.

रिश्तेदार ने प्रद्युमन को उस की मां के जाने के बाद के अकेलापन भरने के लिए इतना समझाया कि आखिर प्रद्युमन भी इस बात पर राजी हो गए कि उस लड़के को पेइंग गैस्ट की तरह रहने दिया जाए. बुरा भी क्या था अगर कुछ रुपए और आ रहे हैं? सच तो यह भी था कि आजकल मां का खाली कमरा उन्हें बारबार मां की याद दिलाता और वे दुखी हो जाते.

इस विकल्प में प्रद्युमन की सहमति की मुहर लगते ही रिश्तेदार के पहचान के लड़के की समस्या हल हो गई.

गेहुआं रंग, मध्यम हाइट, हाथ में एक सूटकेस, पीठ पर बैग और दूसरे हाथ में गिटार ले कर निर्वाण आ पहुंचा. घर के पीछे की सीढि़यों से ऊपर का कमरा बता दिया प्रद्युमन ने. निर्वाण इस बड़े शहर में इंजीनियरिंग कोचिंग के लिए आया था. उस के छोटे से शहर में इस तरह की अच्छी कोचिंग की सुविधा नहीं थी

और एक नामी इंस्टिट्यूट में कोचिंग के लिए भेजने का मतलब ही था उस के घर वालों का अटैची भर कर सपनों का बोझ साथ भेजना. उसे पूरी तैयारी के साथ जेईई की ऐंट्रेंस परीक्षा में बैठना था.

प्रद्युमन के घर निर्वाण को सारी सुविधाएं थीं. पढ़ाई के साथसाथ वह आसानी से गिटार के रियाज का समय भी निकाल लेता था. गिटार उस का पैशन था. जब वह एक के बाद एक गानों की धुन पर उंगलियां थिरकाता तो नीचे कोचिंग में बैठी प्रेक्षा अपनी सुधबुध खो देती. महीन सपने सतरंगी रथ पर बैठ इंद्रधनुष के पार चले जाते. अनुभूतियां सिहर कर सिर से पांव तक दौड़ जातीं और जब वह चौंक कर देखती तो गणित के सवाल पर उस की कलम मुंह के बल चारों खाने चित्त पड़ी मिलती.प्रद्युमन की सभी बच्चों पर बराबर नजर थी, लेकिन प्रेक्षा पर उन का ध्यान आजकल ज्यादा ही रहता. परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं पर इस लड़की का हाल कुछ सही नहीं था. सारा सिखाया हुआ भूलती जा रही थी, स्कूल की कौपी में बारबार खराब प्रदर्शन था. डांटने और चिंता व्यक्त करते रहने से जब प्रेक्षा पर कोई असर नहीं हुआ तो प्रद्युमन ने एक दिन अकेले में उसे रोक लिया. वे कुरसी पर बैठे थे. प्रेक्षा सिर झुकाए सामने खड़ी थी. उन में बातचीत कुछ यों हुई-

‘‘और कितना समझाऊं तुम्हें? क्यों न अब तुम्हारे पापा को खबर करूं? पर वे इतना रुपया खर्च कर रहये हैं… कुछ तो उम्मीद होगी तुम से… मैं यह नहीं कहता कि सौ प्र्रतिशत लाओ, लेकिन कुछ तो रिटर्न दोगी उन्हें.’’

‘‘पापा से न कहना प्लीज.’’

‘‘क्यों? उन्हें पता चलना चाहिए?’’

‘‘पापा को इस कोचिंग के बारे में पता नहीं है.’’

‘‘क्यों क्व10 हजार तुम्हारी मां ने तो दिए नहीं होंगे… नौकरी तो वे करती नहीं.’’

‘‘मां ने ही दिए, अपने कुछ गहने बेच कर.’’

‘‘क्या समस्या है? मुझे बताओ?’’

‘‘हम 3 बहनें हैं, मां चाहती हैं हम तीनों ही खूब पढ़ेलिखें और घर में लड़कों की कमी को पूरा करें, पर पापा को इन बातों से चिढ़ है. खासकर मुझ से… मेरी जगह उन्हें एक लड़के की चाह थी.

‘‘मेरी दीदी मुंबई में नौकरी करती हैं. वे वहां बहुत खुश हैं. वे अपने बौयफ्रैंड से शादी करने वाली हैं, हमें हमेशा ढेरों तसवीरें दिखाती रहती हैं… उन्हें पापा से अब कोई मतलब नहीं और न ही पापा उस की जिंदगी में दखल देते हैं. हम दोनों बहनों की वे जल्द शादी कर देंगे, लेकिन मैं अपनी पसंद की जिंदगी जीना चाहती हूं.’’

प्रद्युमन ने प्रेक्षा के घर वालों से सलाह करने की बात छोड़ दी, लेकिन उन की चिंता दिनोंदिन बढ़ती गई.

चोरीछिपे वैसे तो निर्वाण से प्रेक्षा की नजरें टकरातीं, लेकिन जहां इस की प्रेरणा ही हो वहां रोके से कौन रुका है? तो दोस्ती की शुरुआत कुछ इस तरह हुई-

निर्वाण ऊपर अपने कमरे में गिटार बजा रहा था. उस की धुनों ने प्रेक्षा की

कोमल कल्पनाओं में पंख लगा दिए. एक दिन उस ने जल्द पढ़ाई खत्म कर घर जाने की छुट्टी मांगी और अपना बैग समेट कर बाहर निकल आई. पीछे की  सीढि़यों का रास्ता पकड़ा उस ने और सीधे निर्वाण के कमरे के दरवाजे की ओट पकड़ कर लगभग उस के सामने खड़ी हो गई. आंखों में प्रशंसा, होंठों पर सलज्ज मुसकान, कच्ची सी कली का आगे बढ़ कर इस तरह मान प्रदर्शन नए शहर में नई उम्र के लड़के को भला क्यों न अच्छा लगता? इश्क की बग्घी चल पड़ी उन की. अब दोनों को अपनी इस भरी व्यस्तता के बीच प्यार के लिए भी समय निकालना था. दोनों तालमेल बैठाते रहे.

परीक्षाएं शुरू हो चुकी थीं. प्रेक्षा की तबीयत कुछ दुविधा में डालने वाली थी. घबराहट, भय, निर्वाण को खोने की शंका ने उसे परेशान कर दिया था. जैसेतैसे परीक्षा में ध्यान लगाने के बावजूद वह 11वीं कक्षा की परीक्षा में सफल नहीं हो पाई.

प्रद्युमन मर्माहत थे. उन की स्थिति कुछ विकट हो गई. उन्होंने प्रेक्षा की मां से प्रेक्षा की ट्यूशन फीस ली हुई थी. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद प्रेक्षा का प्रदर्शन बचा नहीं पाए. उन्होंने प्रेक्षा से बातचीत बंद कर दी. प्रेक्षा भी अब यहां नहीं आ पा रही थी.

समय कुछ और बीत गया. निर्वाण का जेईई में चयन हो गया और फिर रातोंरात वह प्रद्युमन से हिसाब चुकता कर के ज्यादा कुछ बोले बिना निकल गया.

इस के 10 दिन के बाद प्रेक्षा प्रद्युमन के घर आई और सब से पहले बेचैन सी निर्वाण को मिलने ऊपर गई. अपने अंदेशे को निर्वाण से साझा करना था उसे, लेकिन खाली कमरे की दीवारों ने उस के गाल पर करारा थप्पड़ जड़ दिया. वह हैरान सी हर दीवार को ताकती रही. वह दौड़ती हुई नीचे आई. ट्यूशन वाले बच्चों की आज छुट्टी थी.

वह प्रद्युमन के आगे जा कर खड़ी हो गई. बड़ा रोष था मन में. कहीं प्रद्युमन सर ने ही तो जाने का रास्ता नहीं दिखा दिया उसे? उन्हें पता तो चल ही रहा था उन दोनों के बारे में… सोचते हुए प्रेक्षा की सांसें फूल आईं. वह अपनी परीक्षा और रिजल्ट के बारे में भूल चुकी थी. निर्वाण के साथ उस के भविष्य के सपनों की चिंदीचिंदी बिखर जाना अभी उस का सब से बड़ा सच था और जिस के लिए प्रद्युमन नामक वास्तव के इस कठोर धरातल को वह पहला जिम्मेदार मान चुकी थी.

लुटीपिटी हांफती वह प्रद्युमन से पूछ रही थी, ‘‘निर्वाण क्यों चला गया? रोष से भरी प्रेक्षा लगभग फट पड़ी थी प्रद्युमन पर.’’

प्रद्युमन अचरज से भर गए, लेकिन तुरंत उन्हें प्रेक्षा की स्थिति का भान हुआ और फिर कुछ सहज हो गए. प्रेक्षा का हाथ पकड़ कर सब से पहले तो वे उसे अपने नजदीक लाए और फिर कहा, ‘‘प्रेक्षा, मैं ने निर्वाण से जाने को नहीं कहा. तुम वहम में इतना डूब गई हो कि तुम्हारे सिर के ऊपर से कितने ही युग निकल कर चले गए, तुम्हें पता ही नहीं चला. तुम 11वीं कक्षा में फेल हो चुकी हो. निर्वाण की कोचिंग समाप्त हो चुकी है. उस ने अपने सपने को पकड़ लिया है. उस का इंजीनियरिंग में चयन हो गया है और वह वापस चला गया, तुम्हें कुछ भी बताए बिना. अब तुम भी होश में आओ, उसे लगभग झंझोड़ते हुए प्रद्युमन आवेश में आ गए थे.

प्रेक्षा रोते हुए वहीं जमीन पर बैठ गई. उसे अब सबकुछ लुटपिट जाने का आभास  होने लगा था. वह देर तक जमीन पर बैठी रोती रही.

प्रद्युमन वहां से उठ कर अपने कमरे में चले गए. कुछ देर बाद प्रेक्षा अपने चेहरे पर पानी डाल थोड़ा शांत हुई और फिर प्रद्युमन के पास गई. जाते ही सीधे बोल पड़ी, ‘‘निर्वाण ने कहा था वह मुझ से शादी करेगा. उस ने मुझ से वादा किया और मुझे यह अंगूठी भी दी थी.’’

‘‘यह अंगूठी बनावटी है आर्टिफिशियल… उस के वादे की तरह.’’

‘‘मैं ने अंगूठी नहीं, उस की भावना देखी थी?’’

‘‘यह अंगूठी नहीं लाइसैंस था संबंध बनाने का… सब सौंप दिया या कुछ बचा भी? माफ करना मैं मजबूर हूं ये सब पूछने को… तुम ने मुझे बेइज्जत करने का पूरा इंतजाम कर दिया… तुम्हारी मां को क्या कहूंगा मैं?’’

‘‘नहीं पता यह लाइसैंस था या कुछ और… मैं क्या चाहती थी, खुद ही नहीं समझ पाई.’’

‘‘अब क्या? पापा से कहो जा कर अपने.’’

‘‘घर में कह पाती तो आप के पास कहने क्यों आती? आप निर्वाण से कहो न एक बार.’’

‘‘कैसी लड़की हो तुम? जानती हो उस ने तुम्हें बताया नहीं ताकि तुम से संपर्क न रहे, फिर भी… मैं ने उस के दिए नंबर पर पहले ही फोन कर के देख लिया है… सब खत्म है… सब खत्म है… उस का नंबर भी जीवित नहीं है?’’

‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं उस से नहीं तो किस से कहूं?’’ हताश हो कर चीख पड़ी प्रेक्षा.

‘‘मुझ से कहो… मैं ही ले जाऊंगा तुम्हें डाक्टर के पास और कौन है तुम्हारी इन बचकानी हरकतों से निबटने के लिए?’’ प्रद्युमन ने बड़ी सरलता से कहा.

मगर पहले से छली गई कमजोर प्रेक्षा मन ही मन अमरबेल सी प्रद्युमन से लिपट गई. उस पर निर्भर होने की प्रेरणा पैदा होने लगी उस में. बोली, ‘‘ले चलिए डाक्टर के पास जल्दी?’’

‘‘मां को नहीं बताओगी?’’

‘‘शायद नहीं.’’

शक सही ही था प्रेक्षा का, वह 5 महीने के गर्भ से थी. बात सिर्फ अब भविष्य की ही नहीं, बल्कि वर्तमान की भी थी. प्रद्युमन आश्चर्य में थे… प्रेक्षा बुझ गई थी.

निर्वाण तक पहुंचने के लिए अगर रिश्तेदार का सूत्र पकड़ा जाए तो बात को जंगल की आग बनते देर नहीं लगेगी… प्रद्युमन की भी बदनामी होगी सो अलग… गैरजिम्मेदार ठहराया जाना उन के लिए बेहद दुखदाई होगा.

प्रद्युमन की कोचिंग तो चल रही थी, लेकिन आजकल वे बड़े अनमने से रहते. प्रेक्षा के पिता को अगर भनक लगी तो प्रेक्षा के साथसाथ उस की मां और दूसरी बहनों की जिंदगी भी नर्क बन जाएगी. अब तक तो प्रेक्षा के घर में उस के फेल होने तक की ही खबर थी… दूसरी बड़ी खबर तो भूचाल ही ला देगी.

प्रद्युमन ने प्रेक्षा के लिए मंझधार में खेवैया की भूमिका ली और उसे किनारे पर लाने का जिम्मा उठाया. लेडी डाक्टर ने हाथ खींच लिया था. प्रेक्षा की मैडिकल कंडीशन बच्चे को नष्ट करने की इजाजत नहीं देती थी.

मुसीबत दोगुनी हो चुकी थी. असहाय सी प्रेक्षा प्रद्युमन के कमरे में

बैठी थी. वे नीचे कोचिंग में सभी को जल्दी छुट्टी दे कर ऊपर आ गए. कुरसी पर रोनी सी सूरत बना कर बैठी प्रेक्षा के सिर पर उन्होंने हाथ फिराया और अपने पलंग पर आ कर बैठ गए. फिर उसे अपने पास बुलाया, ‘‘मेरे करीब आ कर बैठो.’’

प्रेक्षा यंत्रचालित सी उन के पास पलंग पर जा कर बैठ गई.

‘‘बताओ मैं क्या करूं? न अबौर्शन की गुंजाइश है और न बच्चे को बिना पिता के सामने लाने की. अबौर्शन की स्थिति में तुम्हारी जिंदगी पर बन आए यह तो कभी नहीं चाहूंगा मैं… रही बात बच्चे की, तो अकेली तुम इस हालत में नहीं हो कि इस अजन्मे को बचाने के लिए तुम समाज की पाबंदियों से टकरा सको… कैसे सुलझाऊं प्रेक्षा… जब घर में भी मुश्किलें थीं तो बाहर भटकी क्यों?’’

‘‘घर की मुश्किलों की वजह से ही तो बाहर भटक गई… पर आप बहुत कुछ कर सकते हैं. आप… आप मुझे अपना लीजिए.’’

‘‘क्या कह रही हो? कुछ तो सोच कर बोलो?’’

‘‘आप ने अपना लिया तो मैं आप की खूब सेवा करूंगी, फिर आप को कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी… प्रौमिस.’’

‘‘तुम क्या बोल रही हो प्रेक्षा? मैं 43 साल का हो चुका हूं… तुम अभी 18 साल की हो… उम्र का फर्क नहीं समझती हो? कैरियर भी पड़ा है सामने.’’

‘‘ठीक है, फिर मैं मरने जा रही हूं,’’ प्रेक्षा ने रोते हुए कहा, ‘‘मैं इस घर से बाहर नहीं जाना चाहती, लोग खा जाएंगे मुझे.’’

प्रद्युमन लगातार उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे, ‘‘प्रेक्षा, शरण एक बात है और शादी दूसरी… मैं तुम्हें शरण दे सकता हूं, तुम्हारे लिए हजार बातें सुन सकता हूं, लेकिन शादी के लिए मेरे हिसाब से प्रेम जरूरी है वरना वह समझौता हो जाता है और समझौते की एक न एक दिन मियाद खत्म होती ही है.’’

‘‘तो आप नहीं कर सकेंगे प्रेम मुझ से? न सही, मैं करती हूं आप से… जब मेरा और आप का कोई नाता नहीं तो फिर आप मुझे ले कर इतना परेशान क्यों रहने लगे. अब शायद आप से दूर जा कर मैं नहीं रह पाऊंगी… जी नहीं पाऊंगी आप के बिना… आदत हो गई है आप की मुझे… और क्या पता उम्र के फासले ने मुझ में इतनी हिम्मत नहीं दी थी कि मैं यह बात स्वीकार पाती कि आप… शायद मैं कहीं और बह गई… इन दिनों जब मुझे खुद के अंदर झांकने का मौका मिला तो धीरेधीरे मेरे दिल में आप की तसवीर साफ होने लगी है,’’ कह प्रेक्षा ने प्रद्युमन के कंधे पर अपना सिर रख दिया और चुप हो गई.

प्रद्युमन अपनी तरफ से उसे छुए बिना दीवारों को ताकते शांत बैठे रहे.

इन दोनों की मैरिज की रजिस्ट्री हो चुकी थी. कुछ गिनेचुने रिश्तेदार, प्रेक्षा के मातापिता और बहनें ही थे उन के विवाह के साक्षी. प्रद्युमन ने सब के सामने स्वीकारा कि प्रेक्षा के प्रति मेरे प्रेम के अतिरेक ने प्रेक्षा को इस स्थिति में डाला, प्रेक्षा बेकुसूर है और हम दोनों का प्रेम सच्चा है. उम्र की खाई भले ही गहरी है, लेकिन प्रेक्षा को एक अभिभावक बन कर सहारा दूंगा मैं ताकि उस का कैरियर फिर से रफ्तार पकड़ सके. प्रेक्षा और बच्चे की जिम्मेदारी अब मेरी है. अब किसी को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं.

प्रेक्षा को बेटा हुआ. प्रद्युमन ने सारी जिम्मेदारी उठा ली और प्रेक्षा जीजान लगा कर इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर इंजीनियरिंग पढ़ने पिलानी चली गई. दिन दूनी पढ़ाई और चौगुनी सफलता उस के कदम चूम रही थी.

तब प्रेक्षा सैकंड ईयर में पहुंची थी. लास्ट बैच के सीनियर

स्टूडैंट पासआउट हो कर कालेज छोड़ रहे थे. स्टूडैंट और फैकल्टी मैंबर्स की एकसाथ तसवीरें ली गईं.

प्रेक्षा ने यह तसवीर भेजी थी प्रद्युमन को. प्रोफैसरों के पीछे की लाइन में एक किनारे जानापहचाना सा एक चेहरा दिखा. यह निर्वाण था. प्रद्युमन अपने बिस्तर पर बेटे को सुलाने के बाद तसवीर को गौर से देखते रहे. मोबाइल में भेजी गई तसवीर के इस खास चेहरे को जूम कर के कई बार देखा, कई बार प्रेक्षा के चेहरे को भी जूम किया उन्होंने जो सैकेंड ईयर की लाइन में खड़ी थी.

सबकुछ सामान्य था, लेकिन प्रद्युमन का दिल जोर से धड़कने लगा. वे सोच में पड़ गए कि क्यों डर लग रहा है मुझे जब खुद प्रेक्षा ने ही आगे बढ़ कर मेरे दिल में अपना बसेरा बनाया है? क्या पता वक्त की जरूरत थी.

शायद वह अकेली पड़ गई थी और उसे उसी वक्त एक सशक्त संबल की जरूरत थी. क्यों मैं उस का इतना ध्यान रखने लगा था? क्यों उस की परेशानियां मुझे दिनरात बेचैन किए थीं? क्यों प्रेक्षा की ओर से शादी का प्रस्ताव मुझे हास्यास्पद नहीं लगा जबकि यह इतना बेमेल है? क्या पता प्रेक्षा ने भी मुझ को चाहा हो या फिर मैं ठगा गया? नहीं पता कौन सही है?

क्या पता फिर से वहां निर्वाण का मिलना प्रेक्षा को कमजोर कर दे… आखिर निर्वाण के साथ अनगिनत रोमांस की यादें हैं उस की… वह प्रांजल का पिता भी तो है… तीनों साथ हो जाएं तो मेरी क्या जरूरत रह जाएगी प्रेक्षा के लिए?

मोबाइल रख कर प्रद्युमन बेटे को पीछे छोड़ करवट ले कर सो गए. नींद भला कैसे आती? कभी ऐसा किया था उन्होंने? हमेशा तो नन्ही जान को सहलाते हुए ही सोते रहे हैं.

मन उचाट था कि अगर प्रेक्षा के लिए बोझ सा बनने लगा मैं तो देर किए बिना उस की जिंदगी से निकल जाऊंगा.

सुबहसुबह प्रेक्षा का फोन आ गया था. प्रांजल को खिला कर वे खुद के लिए नाश्ता बना रहे थे.

‘‘बहुत दिन हो गए अब एक बार यहां आ जाओ… प्रांजल को कितने दिनों से नहीं देख मैं ने… उसे गोद में नहीं लिया… एक बार दिखाओगे न?’’

‘‘हां, आ जाऊंगा.’’

‘‘कुछ और नहीं कहोगे?’’

‘‘नाश्ता बना रहा हूं?’’

‘‘अच्छाअच्छा… जल्दी आना…’’

फोन रख देने के बाद काम करते हुए प्रद्युमन कुछ यों सोचते रहे कि निर्वाण का कोर्स खत्म, अब जाने वाला होगा वह… बेटे को बुलवा रही है. शायद अब प्रेक्षा मुझे अंतिम सत्य सुनाने के लिए बुला रही है. सही भी तो है, मेरी उम्र उस के लिए दोगुनी से भी ज्यादा है, जब उसे उस का पहला प्यार मिल ही गया है तो मैं इन के बीच क्या कर रहा हूं? कुछ सोचसमझ कर ही उस ने तसवीर भेजी होगी.

तय वक्त पर वे प्रांजल को ले कर प्रेक्षा के पास पहुंचे. इस मिलन में प्रद्युमन के दिलोदिमाग पर विरह का गीत छाया रहा. प्रेक्षा को देख वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सोचते तिरिया चरित्र बलिहारी. अंत में एक बार फिर से सब खत्म कर देगी.

प्रेक्षा ने कालेज और होस्टल से 3-4 दिन की छुट्टी ले ली थी. वे होटल में ठहरे थे. यह पहला दिन था. वह दोनों के साथ मौजमस्ती में मग्न रही. प्रद्युमन उस की खुशी में साथ था, लेकिन अपने दुख के साथ.

अंतत: रात को जब प्रांजल सो गया और अंधेरे की घनी सांसें दोनों को बाहुपाश में बांधने लगीं तब प्रद्युमन ने प्रेक्षा से धीरे से पूछा, ‘‘निर्वाण से नहीं मिलवाया तुम ने? वह यहीं पढ़ता रहा इतने दिन?’’

क्यों? उस से हमारा क्या काम? वह तो कोर्स खत्म कर के कब का जा चुका… उस की एक नहीं अब 2-2 गर्लफ्रैंड्स हैं और दोनों ही शादी की आस में बारीबारी से घूम रही हैं उस के इर्दगिर्द. कुछ लोग अपनी बुरी आदतों से ताउम्र बाज नहीं आते. मैं ने तो उसे यहां आते ही देख लिया था, लेकिन कभी उस से मुलाकात नहीं की. उस ने भी दूर ही रहना ठीक समझा… वह मेरी भूल थी. क्यों दोहराऊं भूल को बारबार? तब तुम से कहने का मुझ में साहस नहीं था और निर्वाण की ओर मुड़ गई थी… मुझे लगता था कि तुम से वैसा कुछ कहूंगी तो तुम खफा हो कर मुझे पढ़ाना छोड़ दोगे.’’

प्रद्युमन ने उसे अपनी ओर जोर से खींचते हुए पूछा, ‘‘क्या कुछ कहती, अब कह दो.’’

आंखें बंद हो गई थीं प्रेक्षा की. प्रद्युमन के कसे होंठों की गरमी उस की पलकों पर थी. वे आहिस्ताआहिस्ता प्रेम की गहराई को समझते रहे… उस के पार एक सपनों वाली झील में उन के विश्वास की नैया धीरेधीरे बहती रही. यकीनन.

दीपाली: क्यों बेचैन थी वह?

लेखक- वंदना आर्य

दीपाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी.

असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके.

एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप नया आया है न?’’ तो मैं चौंकी फिर उस के बाद जो भी हिंदीअसमी मिश्रित वाक्य उस ने कहे वह बिलकुल भी मेरे पल्ले नहीं पड़े. लेकिन उस का व्यक्तित्व इतना मोहक था कि उस से बातें करना हमेशा अच्छा लगता था. उस की बातें सुन कर मैं ने पूछा, ‘‘आप सूट सिलती हैं?’’

‘‘हां, हां,’’ वह उत्साह से बोली तो एक सूट का कपड़ा मैं ने ला कर उसे दे दिया.

‘‘अगला वीक में देगा,’’ कह कर वह चली गई.

यही थी दीपाली से मेरी पहली मुलाकात. पहली ही मुलाकात में उस से एक अपनेपन का रिश्ता जुड़ गया. उस से मिल कर लगा कि पता नहीं कब से उसे जानती थी. यह दीपाली के व्यवहार, व्यक्तित्व का ही असर था कि पहली मुलाकात में बिना उस का नामपता पूछे और बिना रसीद मांगे हुए ही मैं ने अपना महंगा सूट उसे थमा दिया था. आज तक किसी अजनबी पर इतना विश्वास पहले नहीं किया था.

वह तो मीरा ने बाद में बताया कि उस का नाम दीपाली है और वह एक सेल्सगर्ल है. कितना सजधज कर आती है न. कालोनी की औरतों को दोगुने दाम में सामान बेच कर जाती है. मैं तो उसे दरवाजे से ही विदा कर देती हूं. दीपाली के बारे में ज्यादातर औरतों की यही राय थी.

मैं ने कभी दीपाली को मेकअप किए हुए नहीं देखा. सिर्फ एक लाल बिंदी लगाने पर भी उस का चेहरा दमकता रहता था. उस का हर वक्त खिल- खिलाना, हर किसी से बेझिझक बातें करना और व्यवहार में खुलापन कई लोगों को शायद खलता था. पर मस्तमौला सी दीपाली मुझे भा गई और जल्द ही वह भी मुझ से घुलमिल गई.

उस के स्वभाव में एक साफगोई थी. उस का मन साफ था. जितना अपनापन उस ने मुझ से पाया उस से कई गुना प्यार व स्नेह उस ने मुझे दिया भी.

‘आप इतना सिंपल क्यों रहता है?’ दीपाली अकसर मुझ से पूछती. काफी कोशिश करने पर भी मैं स्त्रीलिंगपुल्ंिलग का भेद उसे नहीं समझा पाई थी, ‘कालोनी में सब लेडीज लोग कितना मेकअप करता है, रोज क्लब में जाता है. मेरे से कितना मेकअप का सामान खरीदता है.’

अकसर लेडीज क्लब की ओर जाती महिलाओं के काफिले को अपनी बालकनी से मैं भी देखती थी. मेकअप से लिपीपुती, खुशबू के भभके छोड़ती उन औरतों को देख कर मैं सोचती

कि कैसे सुबह 10 बजे तक इन का काम निबट गया होगा, खाना बन गया होगा और ये खुद कैसे तैयार हो गई होंगी.

दीपाली ने एक बार बताया था, ‘आप नहीं जानता. ये लेडीज लोग सब अच्छाअच्छा साड़ी पहन कर, मेकअप कर के क्लब चला जाता है और पीछे सारा घर गंदा पड़ा रहता है. 1 बजे आ कर जैसेतैसे खाना बना कर अपने मिस्टर लोगोें को खिलाता है. 4 नंबर वाली का बेटाबेटी मम्मी के जाने के बाद गंदी पिक्चर देखता है.’

मुझे दीपाली का इंतजार रहता था. मैं उस से बहुत ही कम सामान खरीदती फिर भी वह हमेशा आती. उसे हमारा खाना पसंद आता था और जबतब वह भी कुछ न कुछ असमी व्यंजन मेरे लिए लाती, जिस में से चावल की बनी मिठाई ‘पीठा’  मुझे खासतौर पर पसंद थी. मैं उसे कुछ हिंदी वाक्य सिखाती और कुछ असमी शब्द मैं ने भी उस से सीखे थे. अपनी मीठी आवाज में वह कभी कोई असमी गीत सुनाती तो मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रह जाती.

हमेशा हंसतीमुसकराती दीपाली उस दिन गुमसुम सी लगी. पूछा तो बोली, ‘जानू का तबीयत ठीक नहीं है, वह देख नहीं सकता,’ और कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. जानू उस के बेटे का नाम था. मैं अवाक् रह गई. उस के ठहाकों के पीछे कितने आंसू छिपे थे. मेरे बच्चों को मामूली बुखार भी हो जाए तो मैं अधमरी सी हो जाती थी. बेटे की आंखों का अंधेरा जिस मां के कलेजे को हरदम कचोटता हो वह कैसे हरदम हंस सकती है.

मेरी आंखों से चुपचाप ढलक कर जब बूंदें मेरे हाथों पर गिरीं तो मैं चौंक पड़ी. मैं देर तक उस का हाथ पकड़े बैठी रही. रो कर कुछ मन हलका हुआ तो दीपाली संभली, ‘मैं कभी किसी के आगे रोता नहीं है पर आप तो मेरा अपना है न.’

मेरे बहुत आग्रह पर दीपाली एक दिन जानू को मेरे घर लाई थी. दीपाली की स्कूटी की आवाज सुन मैं बालकनी में आ गई. देखा तो दीपाली की पीठ से चिपका एक गोरा सुंदर सा लगभग 8 साल का लड़का बैठा था.

‘दीपाली, उस का हाथ पकड़ो,’ मैं चिल्लाई पर दीपाली मुसकराती हुई सीढि़यों की ओर बढ़ी. जानू रेलिंग थामे ऐसे फटाफट ऊपर चला आया जैसे सबकुछ दिख रहा हो.

‘यह कपड़ा भी अपनी पसंद का पहनता है, छू कर पहचान जाता है,’ दीपाली ने बताया.

‘जानू,’ मैं ने हाथ थाम कर पुकारा.

‘यह सुन भी नहीं पाता है ठीक से और बोल भी नहीं पाता है,’ दीपाली ने बताया.

वह बहुत प्यारा बच्चा था. देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि उसमें इतनी कमियां हैं. जानू सोफा टटोल कर बैठ गया. वह कभी सोफे पर खड़ा हो जाता तो कभी पैर ऊपर कर के लेट जाता.

‘आप डरो मत, वह गिरेगा नहीं,’ दीपाली मुझे चिंतित देख हंसी. सचमुच सारे घर में घूमने के बाद भी जानू न गिरा न किसी चीज से टकराया.

जाते समय जानू को मैं ने गले लगाया तो वह उछल कर गोद में चढ़ गया. उस बेजबान ने मेरे प्यार को जैसे मेरे स्पर्श से महसूस कर लिया था. मेरी आंखें भर आईं. दीपाली ने उसे मेरी गोद से उतारा तो वह वैसे ही रेलिंग थामे सहजता से सीढि़यां उतर कर नीचे चला गया. दीपाली ने स्कूटी स्टार्ट की तो जा कर उस पर चढ़ गया और दोनों हाथों से मां की कमर जकड़ कर बैठ गया.

‘अब घर जा कर ही मुझे छोड़ेगा,’ दीपाली हंस कर बोली और चली गई.

मैं दीपाली के बारे में सोचने लगी. घंटे भर तक उस बच्चे को देख कर मेरा तो जैसे कलेजा ही फट गया था. हरदम उसे पास पा कर उस मां पर क्या गुजरती होगी, जिस के सीने पर इतना बोझ धरा हो. वह इतना हंस कैसे सकती है. जब दर्द लाइलाज हो तो फिर उसे चाहे हंस कर या रो कर सहना तो पड़ता ही है. दीपाली हंस कर इसे झेल रही थी. अचानक दीपाली का कद मेरी नजरों में ऊपर उठ गया.

एक दिन सुबहसुबह दीपाली आई. मेखला चादर में बहुत जंच रही थी. ‘आप हमेशा ऐसे ही अच्छी तरह तैयार हो कर क्यों नहीं आती हो?’ मैं ने प्रशंसा करते हुए कहा. इस पर दीपाली ने खुल कर ठहाका लगाया और बोली, ‘सजधज कर आएगा तो लेडीज लोग घर में नहीं घुसने देगा. उन का मिस्टर लोग मेरे को देखेगी न.’

मुझे तब मीरा की कही बात

याद आई कि दीपाली के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो औरतों में ईर्ष्या जगाता था.

‘मैं भाग कर शादी किया था. मैं ऊंचा जात का था न अपना आदमी

से. घर वाला लोग मानता नहीं था,’ दीपाली कभीकभी अपनी प्रेम कथा सुनाती थी.

जहां कालोनी में मेरी एकदो महिलाओं से ही मित्रता थी वहां दीपाली के साथ मेरी घनिष्ठता सब की हैरानी का सबब थी. जानू हमारे घर आता तो पड़ोसियों के लिए कौतूहल का विषय होता. एक स्थानीय असमी महिला से प्रगाढ़ता मेरे परिचितों के लिए आश्चर्यजनक बात थी.

जब दीपाली को पता चला कि हमारा ट्रांसफर हो गया है तो कई दिनों पहले से ही उस का रोना शुरू हो गया था, ‘आप चला जाएगा तो मैं क्या करेगा. आप जैसा कोई कहां मिलेगा,’ कहतेकहते वह रोने लगती. दीपाली जैसी सहृदय महिला के लिए हंसना जितना सरल था रोना भी उतना ही सहज था. दुख मुझे भी बहुत होता पर अपनी भावनाएं खुल कर जताना मेरा स्वभाव नहीं था.

आते समय दीपाली से न मिल पाने का अफसोस मुझे जिंदगी भर रहेगा. हमें सोमवार को आना था पर किन्हीं कारणवश हमें एक दिन पहले आना पड़ा. अचानक कार्यक्रम बदला. दोपहर में हमारी फ्लाइट थी. मैं सुबह से दीपाली के घर फोन करती रही. घंटी बजती  रही पर किसी ने फोन उठाया नहीं, शायद फोन खराब था. मैं जाने तक उस का इंतजार करती रही पर वह नहीं आई. भरे मन से मैं एअरपोर्ट की ओर रवाना हुई थी.

बाद में मीरा ने फोन पर बताया था कि दीपाली सोमवार को आई थी और हमारे जाने की बात सुन कर फूटफूट कर रोती रही थी. वह मुझे देने के लिए बहुत सी चीजें लाई थी, जिस में मेरा मनपसंद ‘पीठा’ भी था.

मैं ने कई बार फोन किया पर वह फोन शायद अब तक खराब पड़ा है. पत्र वह भेज नहीं सकती थी क्योंकि उसे न हिंदी लिखनी आती है न अंगरेजी और असमी भाषा मैं नहीं समझ पाती.

दीपाली का मेरी जिंदगी में एक खास मुकाम है क्योंकि उस से मैं ने हमेशा जीने की, मुसकराने की प्रेरणा पाई है. हमारे शहरों में बहुत ज्यादा दूरियां हैं पर अब भी वह मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.

वह छोटा लड़का: जब उस के बारे में जान कर मैं हैरान रह गई?

एक हाथ में पर्स व टिफिन और दूसरे हाथ में गाड़ी की चाबी ले कर तेजी से मैं घर से बाहर निकल रही थी कि अचानक चाबी मेरे हाथ से छूट कर आंगन के एक तरफ जा गिरी.

‘ओफ्फो, एक तो वैसे ही आफिस के लिए देरी हो रही है दूसरे…’ कहतेकहते जैसे ही मैं चाबी उठाने के लिए झुकी तो मेरी नजर कूड़ेदान पर गई, जो ऊपर तक भरा पड़ा था. लगता है कूड़े वाला आज भी नहीं आया, यह सोच कर झल्लाती हुई मैं घर से बाहर निकल गई.

गाड़ी में बैठ कर मैं अपने आफिस की ओर चल पड़ी. जितनी तेजी से मैं सड़क पर दूरी तय कर रही थी, मेरा मन शायद उस से भी तेजी से छलांगें भर रहा था.

याद आया मुझे 15 साल पहले का वह समय जब मैं नईनई इस कालोनी में आई थी. सामान को ठीक जगह पर लगातेलगाते रात के 12 बज गए थे. थकान के मारे बदन टूट रहा था. यह सोच कर कि सुबह देर तक सोऊंगी और फिर फ्रैश हो कर सामान सैट करूंगी, मैं सो गई थी.

सुबहसुबह ही दरवाजे की घंटी बज उठी और उस गहरी नींद में मुझे वह घंटी चीत्कार करती लग रही थी.

‘अरे, इतनी सुबह कौन आ गया,’ झल्लाती हुई मैं बाहर आ गई.

‘‘अरे, बीबीजी, कूड़ा दे दो और कूड़े का डब्बा कल से रात को ही बाहर निकाल दिया करना. मेरी आदत बारबार घंटी बजाने की नहीं है.’’

वह यहां का कूड़ा उठाने वाला कर्मचारी था. धीरेधीरे मैं नई कालोनी में रम गई. पड़ोसियों से जानपहचान हो गई. बाजार, पोस्टआफिस, डाक्टर आदि हर चीज की जानकारी हो गई. नए दफ्तर में भी सब ठीक था. काम वाली बाई भी लगभग समय पर आ जाती थी. बस, अगर समस्या रही तो कूड़े की. रात को मैं कूड़ा बाहर निकालना भूल जाती थी और सुबह कूड़ा उठाने वाला अभद्र भाषा में चिल्लाता था.

गुस्से में एक दिन मैं ने उस से कह दिया, ‘‘कल से कूड़ा उठाने मत आना. मैं कोई और कूड़े वाला लगा लूंगी.’’

‘‘कैसे लगा लेंगी आप कोई दूसरा कूड़े वाला? लगा कर तो दिखाइए, हम उस की टांगें तोड़ देंगे. यह हमारा इलाका है. इधर कोई दूसरा देख भी नहीं सकता,’’ उस की आवाज में किसी आतंकवादी सा दर्प था.

मेरा स्वाभिमान आहत हो गया. उस की ऊंची आवाज सुन कर मेरी पड़ोसिन श्रीमती शर्मा भी बाहर आ गईं. उन्होंने किसी तरह कूड़े वाले को शांत किया और उस के जाने के बाद मुझे समझाया कि इस से पंगा मत लो वरना तुम्हारे कूड़े उठवाने की समस्या खड़ी हो जाएगी. इन के इलाके बटे हुए हैं. ये किसी दूसरे को लगने नहीं देते.

श्रीमती शर्मा का कालोनी में काफी रुतबा था. उन के पति किसी अच्छी पोस्ट पर थे. उन के घर में सुखसुविधा का हर सामान था. नौकरचाकर, गाडि़यां, यहां तक कि उन के इकलौते बेटे को स्कूल लाने ले जाने के लिए भी एक गाड़ी तथा ड्राइवर अलग से था. तो अगर वह भी इस कूड़े वाले के आगे असहाय थीं तो मेरी क्या बिसात. मैं मन मार कर रह गई. पर मन में एक फांस सी चुभती रहती थी कि काश, मैं उस कूड़े वाले को हटा पाती.

एक दिन शाम को मैं किसी काम से अपनी कालोनी के सामने वाली कालोनी में गई थी. गाड़ी रोक कर मैं ने एक छोटे से लड़के से अपने गंतव्य का पता पूछा. अचानक मुझे लगा कि यह लड़का तो घरों से कूड़ा उठा रहा है.

समाज के प्रति जागरूकता के अपने स्वभाव के चलते मैं उस लड़के से पूछने ही जा रही थी कि बेटा, आप स्कूल क्यों नहीं जाते लेकिन मेरा स्वार्थ और मेरा आहत स्वाभिमान आड़े आ गया. मैं ने पूछा, ‘बेटा, मैं सामने वाली कालोनी में रहती हूं, क्या तुम मेरा कूड़ा उठाओगे?’ मेरी आशा के विपरीत उस का जवाब था, ‘उठा लेंगे.’

मैं हैरान हो गई. मैं ने उसे अपने कूड़े वाले की बात बता देना उचित समझा. मेरी बात सुन कर वह लड़का मुसकराया और बोला, ‘हम किसी से नहीं डरते, हम क्या किसी से कम हैं पर हम कूड़ा उठाने शाम को ही आ पाएंगे.’

10-12 साल के उस बच्चे की आवाज में इतना आत्मविश्वास था कि मैं ने उसे अपना पता दे दिया तथा अगले दिन से आने को कह दिया.

मुझे लगा, मेरी समस्या सुलझ गई. लड़का शाम को कूड़ा लेने आने लगा. उस के आने तक अकसर मैं अपने आफिस से वापस आ जाती थी. पुराने कूड़े वाले को मैं ने यही कहा कि मैं खुद ही अपना कूड़ा कहीं डाल आती हूं. वैसे भी वह लड़का शाम को आता था और पुराने कूड़े वाले को पता भी नहीं चलता था. पर यह नया लड़का छुट्टियां बहुत करता था. कभीकभी तो कईकई दिन. मैं मन ही मन बहुत कुढ़ती थी. बीमारी फैलने का डर बना रहता था. मैं सोचती, काश, भारत में भी विदेशों की तरह मशीन मिलने लगे, जिस में कूड़ा डालो बटन दबाओ और बस कूड़ा खत्म. कूड़े की यह परेशानी जैसे हमेशा मेरे व्यक्तित्व पर हावी रहती थी.

छुट्टी करने के बाद जब वह आता तो मैं इतनी झल्लाई हुई होती कि गुस्से से पूछती, ‘कहां मटरगश्ती करते रहे इतने दिन तक?’

उस का वही चिरपरिचित जवाब, ‘कहीं भी, हम क्या किसी से कम हैं.’

मेरा मन करता कि मैं उस की छुट्टियों के पैसे काट लूं पर कहीं वह काम न छोड़ दे यही सोच कर डर जाती और मन मसोस कर रह जाती थी. उस की छुट्टियां करने की आदत से मैं उस से इतनी नाराज रहती कि मैं ने कभी भी उस के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की कि उस के मांबाप क्या करते हैं, वह स्कूल क्यों नहीं जाता, आदि. हां, एकाध बार उस का नाम जरूर पूछा था पर वह भी जहन से उतर गया.

मेरी छुट्टी वाले दिन अकसर श्रीमती शर्मा मेरे पास आ कर बैठ जातीं. उन की बातों का विषय उन का बेटा ही होता. उन का बेटा शहर के सब से महंगे स्कूल में पढ़ता था. घर पर भी बहुत अच्छे ट्यूटर पढ़ाने आते थे. उन के बेटे के पास महंगा कंप्यूटर, महंगे वीडियो गेम्स तो थे ही साथ में एक अच्छा सा मोबाइल फोन भी था. वह अपने बच्चे का पालनपोषण पूरे रईसी ढंग से कर रही थीं. यहां तक कि मैं ने कभी उसे कालोनी के बच्चों के साथ खेलते भी नहीं देखा था. कभीकभी मुझे लगता था कि श्रीमती शर्मा अपने बेटे की चर्चा कम मगर बेटे की आड़ में अपनी रईसी की चर्चा ज्यादा कर रही हैं. पर फिर भी मुझे उन से बात करना अच्छा लगता क्योंकि मेरे बच्चे होस्टल में थे और उन के बेटे के बहाने मैं भी अपने बच्चों की बातें कर लेती थीं.

वक्त गुजरता रहा, जिंदगी चलती रही. श्रीमती शर्मा का लड़का जवान हो गया और कूड़े वाला भी. पर उस की आदतें नहीं बदलीं. वह अब भी बहुत छुट्टियां करता था. पर मेरे पास उसे झेलने के सिवा कोई चारा नहीं था क्योंकि मैं पुराने कूड़े वाले की सुबहसुबह की अभद्र भाषा सहन नहीं कर सकती थी. ‘इतने वर्षों में भी कोई मशीन नहीं बनी भारत में’ कुढ़तेकुढ़ते मैं ने अपने आफिस में प्रवेश किया.

रोज की तरह आफिस का दिन बहुत व्यस्त था. कूड़ा और कूड़े वाले के विचारों को मैं ने दिमाग से झटका और अपने काम में लग गई.

शाम को घर आई तो देखा कि मेरे पति अभी नहीं आए थे. मैं ने अपने लिए चाय बनाई और चाय का कप ले कर लौन में बैठ गई. अचानक मैं ने देखा कि सफेद टीशर्ट और नीली जींस पहने मिठाई का डब्बा हाथ में लिए कूड़े वाला लड़का मेरे सामने खड़ा है. उस ने पहली बार मेरे पांव छुए तथा मिठाई मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ने नौन मैडिकल में यूनिवर्सिटी में टौप किया है. यह सब आप लोगों की उन छुट्टियों की बदौलत है, जो मैं ने जबरदस्ती की हैं. दिन में मैं सरकारी स्कूल में पढ़ता था. इसलिए शाम को कूड़ा उठाता था लेकिन परीक्षाओं के दिनों में मैं शाम को आ नहीं पाता था. कूड़ा उठाना मेरी पढ़ाई के खर्च का जरिया था. अगर आप लोग मुझे सहयोग नहीं देते और हटा देते तो मैं यह सब नहीं कर पाता.’’

मैं हैरान रह गई. अचानक ही मुझे उस की बात ‘हम क्या किसी से कम हैं’ याद आ गई. मैं ने पूछा कि तुम ने कभी इस बारे में बताया नहीं तो वह हंस कर बोला, ‘‘आंटी, आप ने कभी पूछा ही नहीं.’’

मैं ने आशीर्वाद दिया तथा उस की लाई मिठाई भी खाई. कूड़े वाला अचानक ही मेरी नजर में ऊंचा, बहुत ऊंचा हो गया था. जिसे इतने वर्षों तक कोसती रही थी तथा हमेशा ही जिस के पैसे काटना चाहती थी आज मन ही मन मैं ने उस की आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने का निश्चय कर लिया था.

अरे, श्रीमती शर्मा के बेटे का भी तो आज ही परीक्षाफल आया होगा. वह भी तो नौन मैडिकल की परीक्षा दे रहा था. याद आते ही मैं श्रीमती शर्मा के यहां चली गई. उन का चेहरा उतरा हुआ था.

‘‘मैं ने अपने बेटे को सभी सुविधाएं व ऐशोआराम दिए हैं फिर भी वह मुश्किल से पास भर हुआ है,’’ श्रीमती शर्मा बोलीं.

अचानक ही श्रीमती शर्मा की रईसी मुझे उस कूड़े वाले की गरीबी के आगे बहुत बौनी लगने लगी थी.

पैबंद: क्या रमा ने पति को छोड़ दिया

घंटी बजी तो दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला. सामने लगभग 20 साल का एक नवयुवक खड़ा था.

उस ने वहीं खड़ेखडे़ दरवाजे के बाहर से ही अपना परिचय दिया,”जी मैं मदन हूं, पवनजी का बेटा. पापा ने आप को संदेश भेजा होगा…”

“आओ भीतर आओ,” कह कर उस ने दरवाजे पर जगह बना दी.

मदन संकोच करता हुआ भीतर आ गया,”जी मैं आज ही यहां आया हूं. आप को तकरीबन 10 साल पहले देखा था, तब मैं स्कूल में पढ़ रहा था.

“आप की शादी का कार्ड हमारे घर आया था, तब मेरे हाईस्कूल के  ऐग्जाम थे इसलिए आप के विवाह में शामिल नहीं हो सका था. मैं यहां कालेज की पढ़ाई के लिए आया हूं और यह लीजिए, पापा ने यह सामान आप के लिए भेजा है,”कह कर उस ने एक बैग दे दिया. बैग में बगीचे के  ताजा फल, सब्जियां, अचार वगैरह थे.

उस ने खूब खुशी से आभार जता कर बैग ले लिया और उस को चायनाश्ता  वगैरह सर्व किया.

इसी बीच उस ने जोर दे कर कहा,”तुम यहीं पर रहो. मैं तुम्हारे पापा को कह चुकी हूं कि सबकुछ तैयार मिल जाएगा. तुम अपनी पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देना.”

मदन यह सुन कर बस एक बार में ही मान गया मानों इसी बात को सुनने के  लिए बैचेन था. वह उठा और जल्दी से अपना सब सामान, जो उस ने बाहर बरामदे मे रखा था भीतर ले आया.

उस दिन मदन अपना कमरा ठीक करता रहा. कुछ ही देर बाद वह वहां अपनापन महसूस करने लगा था मगर उस का दिल यहां इतनी जल्दी लग जाएगा यह उस ने सोचा ही नहीं था.

अगले दिन मदन को उस ने अपने पति से मिलवाया. मदन हैरान रह गया कि वे मकान के सब से पिछले कमरे मे खामोश लेटे हुए थे.

‘कमाल है, कल दोपहर से रात तक इन की आवाज तक सुनाई नहीं दी,’मदन सोचता रहा .

उस ने मदन की सोच में व्यवधान डालते हुए कहा,”दरअसल, बात यह है कि यह दिनभर तो सोते रहते हैं  और रातभर जागते हैं. मगर कल कुछ ऐसा हुआ कि दिनभर और रातभर सोते ही रहे.”

वह मदन के आने से बहुत ही खुश थी. 2 लोगों के सुनसान घर में कुछ रौनक तो हो गई थी.

1 सप्ताह बाद एक दिन मदन रसोई में आ कर उस का हाथ बंटाने लगा तो वह हंस कर बोली,”अभी तुम बच्चे हो. तुम्हारा काम है पढ़ना.”

जवाब में उस ने कहा,”हां, पढ़ना तो मेरा काम जरूर है मगर इतना भी बच्चा नहीं हूं मैं, पूरे 21 बरस का हूं…”

उस ने आश्चर्य से देखा तो मदन बोला,”12वीं में 1 साल खराब हो गया था इसलिए वरना अभी कालेज में सैकेंड ईयर में होता.”

“हूं…” कह कर वह चुप हो गई.

एक दिन बातोंबातों में मदन ने उस से पूछा,”आप के पति को क्या हुआ है? वे कमरे में अकसर क्यों रहते हैं?”

“वे बिलकुल फिट थे पहले तो. अच्छाखासा कारोबार देख रहे थे. हमारा सेब और चैरी का बगीचा है.  उस से बहुत अच्छी आमदनी होती है.

“हुआ यह कि ये पिछले साल ही पेड़ से गिर पड़े. सब इलाज करा लिया है… कंपकंपा कर चल पाते हैं फिलहाल तो.

“10 कदम चलने में भी पूरे 10 मिनट लगते हैं. इसलिए अपने कमरे में ही चहलकदमी करते हैं. सप्ताह में 2 दिन फिजियोथेरैपी कराने वाला आता है बाकी फिल्में देखते हैं, उपन्यास पढ़ते हैं.

“धीरेधीरे ठीक हो जाएंगे. डाक्टर ने कहा है कि समय लगेगा पर फिर आराम से चलने लगेंगे.”

“ओह…”

मदन ने यह सुन कर उन की तरफ देखा. वह जानता था कि मुश्किल से 4-5 साल ही हुए होंगे इन के विवाह को. उस ने अंदाज लगाया और अपनी उंगली में गिनने लगा.

वह फिर बोली,”हां 4 साल हो गए हैं इस अप्रैल में. याद है ना तुम्हारी 10वीं के पेपर चल रहे थे तब.

“और उस से पहले भी मैं आप से नहीं मिला था. शायद 7वीं में पढ़ता था तब एक बार आप को देखा था. आप पापा के पास कुछ किताबें ले कर आई थीं.”

“हां…हां… तब तुम्हारे पापा मेरे इतिहास के शिक्षक थे और मैं उन को किताबें लौटाने आई थी. उस के बाद मैं दूसरे स्कूल में जाने लगी थी और तुम्हारे पापा मेरे अध्यापक से मेरे भाई बन गए थे.”

दिन गुजरते रहे. मदन को वहां रहते 5 महीने हो गए थे. वह यों तो लड़कपन के उबड़खाबड़ रास्ते पर ही चल रहा था लेकिन यह साफ समझ गया था कि इन दोनों की खामोश जिंदगी में फिजियोथेरैपिस्ट के अलावा वही है जो थोड़ाबहुत संगीत की सुर, लयताल पैदा कर रहा था.

मदन ने देखा था कि बगीचे में काम करने वाले ठेकेदार वगैरह भी एकाध बार आए थे और कोई बैंक वाला भी आता था, पर कभीकभी.

मदन आज बिलकुल ही फुरसत में था इसलिए वह गुनगुनाता हुआ रसोई में गया और चट से उस की दोनों आंखें बंद कर के उस के कानों में मुंह लगा कर बोला,”रमा, आज मैं कर दूंगा सारा काम. तुम इधर आओ…यहां बैठो, इस जगह…” और वह हौलेहौले रमा के मुलायम, अभीअभी धुले गीले और खुशबूदार बालों को लगभग सूंघता हुआ उस को एक कुरसी पर बैठाने लगा लेकिन रमा उस को वहां बैठा कर खुद उस की गोद में आसीन हो गई.

दोनों कुछ पल ऐसे ही रहे. न हिलेडुले  न कुछ बोले बस, चुपचाप एकदूसरे को महसूस करते रहे. 2 मिनट बीते होंगे कि कहीं से कुछ खांसने की सी आवाज आई तो दोनों चौंक गए और घबरा कर रमा ने मदन को अपनेआप से तुरंत अलग किया हालांकि मदन की इच्छा नहीं थी कि वह उस से अलग हो.

मदन मन ही मन बीती दोपहर की उस मधुर बेला को अचानक याद करने लगा और उस के चेहरे पर एक शरारती मुसकान तैर गई. रमा ने यह सब ताड़ लिया था वह उस के दाहिने गाल पर एक हलकी सी चपत लगा कर और बाएं गाल पर मीठा सा चुंबन दे कर उठ खड़ी हुई.

उसी पल मदन भी यह फुसफुसाता हुआ कि दूसरे गाल से इतनी नाइंसाफी क्यों, अपनी जगह से खड़ा हो गया और उस के बगल में आ कर  काम करने लगा.

रमा के बदन में जैसे बिजली कौंध रही थी. वह कितनी प्रफुल्लित थी, यह उस का प्यासा मन जानता था. वह तो ऐसे अद्भुत अनुभव को तरस ही गई थी मगर मदन ने उस का अधूरापन दूर कर दिया था. तपते  रेगिस्तान में इतनी बरसात होगी और इतनी शानदार वह खुद बीता हुआ  कल याद कर के पुलक सी उठी थी.

खांसने की आवाज दोबारा आने लगी थी. वह 2 कप चाय ले कर मदन को प्यार से देखती हुई वहां से निकली और पति के कमरे तक पहुंच गई. मदन चाय की चुसकियां लेते हुए  अपने लिए नाश्ता बनाने लगा.

उस ने जानबूझ कर 2 बार एक छोटी कटोरी फर्श पर गिराई मगर रमा उस के इस इशारे को सुन कर भी उस के पास नहीं गई.

पति की दोनों हथेलियों को सहलाती हुई रमा उन में मदन की देह को महसूस करती रही और अपनेआप से बोलती रही,’प्यार हमारे जीवन में बिलकुल इसी तरह आना चाहिए किसी उन्मुक्त झरने की तरह,’उस के भीतर गुदगुदहाट सी मदहोशी छा रही थी.

लेकिन रमा इस बात से बिलकुल ही  बेखबर थी कि पति को उस का अनजाना सा स्पर्श उद्वेलित कर रहा था. वे कल से एक नई रमा को देख कर हैरान थे.

इस पूरे हफ्ते रमा ने और भी कुछ नयानया सा रूप दिखाया था. वह उन की तरफ पीठ कर के लेटती थी मगर अब तो वे दोनों बिलकुल आमनेसामने होते थे.

यह वही रमा है… वे हैरान रह गए थे. उन को याद आ रहा था कि जिस को अपने पति की इतनी सी गुजारिश भी नागवार गुजरती थी, जब वे कहते थे कि रमा मेरी दोनों हथेलियां थाम लो ना… रमा वे कुछ सैकेंड अनमने मन से उन को अपने हाथों में पकड़ लेती और फिर करवट ले कर गहरी नींद में खो जाती थी.

अब आजकल तो चमत्कार हो रहा था. रमा जैसे नईनवेली दुलहन सी बन चुकी थी और उस के ये तेवर और अंदाज उन को चकित कर रहे थे.

मदन भी जो शुरूशुरू में उन से कभीकभार ही एकाध सैकेंड को ही  मिलता था, वह अब कंधे भी दबा रहा था, चाय भी पिला रहा था.

एक दिन रसोई से कुछ अजीब सी आवाजें आ रहीं थीं जैसे 2 लोग लड़ाई कर रहे हों लेकिन बगैर कुछ बोले वे पहले तो हैरान हो कर कल्पना करते रहे फिर छड़ी के सहारे हौलेहौले वहां तक पहुंचे तो देख कर स्तब्ध ही रह गए. वहां 2 दीवाने एकदूसरे मे खोए हुए थे और इतना कि उन दोनों में से किसी एक को भी उन के होने की आहट तक नहीं थी.

वे वापस लौट गए तो कुछ कदम चलने के बाद अपने कमरे के पास ही अचानक ही लड़खङा गए.

खट…की सी आवाज आई. इस आवाज से मदन चौंक गया था मगर रमा की किलकारी गूंज उठी थी,”10 कदम में भी उन को पूरे 10 मिनट लगते हैं…”

और फिर 2 अलगअलग आवाजों की  खिलखिलाहट कोई दैत्य बन कर रसोई से दौड़ कर आई और अपना रूप बदल लिया. अब वह छिछोरी हंसी उन के कानों में गरम तेल बन कर दिल तक उतरती चली गई. सीने की जलन से तड़प कर वे चुपचाप लेट गए. आंखें बंद कर लीं, दोनों मुट्ठियां कस कर भींच ली और लेटे रहे मगर किसी भी हालत में एक आंसू तक नहीं बहने दिया.

रमा को जो जीवन एक लादा हुआ जीवन लग रहा था अब वही जीवन फूल सा, बादलों सा, रूई के फाहे सा लग रहा था. वह मदन के यहां आने को कुदरत के किसी करिश्मे की तरह मान चुकी थी.

मदन को यहां 1 साल पूरा होने जा रहा था और रमा अब खिल कर निखरनिखर सी गई थी.

सुबहशाम और रातरात भर पूरा जीवन मस्ती से सराबोर था. बस एक ही अजीब सी बात हो रही थी…

रमा ने गौर किया कि इन दिनों पति शाम को जल्दी सो जाते हैं. इतना ही नहीं वे अपने दोनों हाथ तकिए में बिलकुल छिपा कर रखते हैं.

सहारा: सुलेखा के आजाद ख्याल ने कैसे बदली उसकी जिंदगी

‘‘शादी…यानी बरबादी…’’ जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी तो सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, ‘‘मां मुझेशादी नहीं करनी है, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारा देखभाल करना चाहती हूं.’’

‘‘नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते,’’ मां ने स्नेहभरी नजरों से अपनी बेटी की ओर देखा.

‘‘मां मुझेशादी जैसी रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं… विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… आप जरा अपनी जिंदगी देखो, शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है? पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…’’ कहती हुई वह अचानक रुक गई और फिर आंसू भरे नेत्रों से मां की ओर देखने लगी.

मां ने दूसरी तरफ मुंह घुमा अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अरे छोड़ो इन बातों को… इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन. देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,’’ और फिर बेटी को गले लगा कर उस के माथे को चूम लिया.

मालती अपनी बेटी को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए, जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था तब सुलेखा सिर्फ 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का प्यार दिया. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं उन की सुखदुख की साथी भी थी. अपने टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया वह अपनी बेटी पर ही खर्च किया. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरत का खयाल रखा. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी भले खुद कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब मालती अपनी बेटी से उस की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया ताकि उसे कोई कष्ट न हो.

सुलेखा आजाद खयालोंकी लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिशें नहीं लगाईं.

सुलेखा ने अपनी मां को हमेशा स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें ?ोलना पड़े, ?ोल लेंगी परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा की शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती भावुक हो कर कहतीं, ‘‘बेटा तू क्यों नहीं समझती… तुझेले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी… एक न एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,’’ और फिर हंसते हुए आगे बोलती हैं, ‘‘और तुम्हें एक अच्छा जीवन साथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छिपा हुआ है… कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक न एक दिन मैं इस दुनिया को अलविदा तो कहूंगी ही… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी?’’ कहते हुए उन का गला भर्रा गया.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है और एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी है जो 80 या 85 साल की है. मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आया है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में खुशहाल जिंदगी जीएगी… यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं… वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं और फिर उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

मालती अपनी जिंदगीभर की सारी जमापूंजी यहां तक की अपने सारे जेवर भी शादी का खर्चा जुटाने हेतु बेच दिए ताकि बड़ी धूमधाम से अपनी बेटी को ससुराल विदा कर सकें. बेटी के ससुराल वालों को किसी भी बात की कोई परेशानी न हो. इस बात का पूरापूरा खयाल रखा गया. आखिर एक ही तो बेटी थी उन की और उसी की खातिर तो उन्होंने वर्षों से पाईपाई जमा कर रखी थी.

विदाई के वक्त सुरेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. उस ने धुंधली आंखों से मां और उस घर की ओर देखा जिस में उस का बचपन बीता था.

‘‘अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो,’’ ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से ?िड़कते हुए कहा और फिर उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया.’’

‘‘आंखें पल्लू में ढक गईं… मैं देख कैसे पाऊंगी…’’ उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए अपनी जेठानी को देखा जिस ने बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने हेतु घूंघट अपनी नाक तक खींच रखा था.

‘‘तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट किया जाता है?’’ यह उस की सास की आवाज थी.

‘‘आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल न उठाएं,’’ सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई.

‘‘तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,’’ योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्लाया.

सुलेखा ने तिलमिला कर गुस्से से योगेंद्र की ओर देखा.

‘‘अरे, नई बहू दरवाजे पर कब तक खड़ी रहेगी… इसे कोई अंदर क्यों नहीं ले आता,’’ दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं वैसे भी उन के कानों ने भी उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. मौत तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गई थी क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखती थी. अपनी लंबी उम्र तथा घर की उन्नति के लिए कई बार बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड करवा चुकी हैं ताकि मौत को टाला जा सके.

उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी की कि उन के छोटे पोते  की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो उसी लड़की से इन के छोटे पोते की शादी कराई जाए. अत: सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा प्रदान कर दिया गया था. अब उन्हें बेचैनी इस बात की हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए वरना कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए.

मगर घूंघट पर छिड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

‘‘आप मुझ से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं?’’ सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोली.

‘‘तुम्हें अपने पति से कैसे बात करनी चाहिए क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया?’’ घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

‘‘अरे इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,’’ सुलेखा की सास ने गुस्से में कहा.

‘‘आप मुझेतमीज मत सिखाइए,’’ सुलेख का स्वर भी ऊंचा हो गया.

‘‘पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए…’’

‘‘सुलेखा…’’ योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ा.

‘‘चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझेभी आता है,’’ सुलेखा ने भी उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा.

‘‘इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है… पति से जबान लड़ाती है,’’ सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

‘‘आप लोगों के संस्कार क्या हैं… नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है?’’ सुलेखा ने भी चिल्लाते हुए कहा.

‘‘तुम सीमा लांघ रही हो…’’ योगेंद्र चिल्लाया.

‘‘और आप लोग भी मुझेमेरी हद न सिखाएं…

‘‘सुलेखा…’’ और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ गया.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठी. साथ में उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और फिर आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उठ खड़ा हुआ.

अचानक उस के पैर डोल गए और फिर नीचे रखे तांबे के कलश से  उस के पैर जा उछल कर और वह कलश उछल कर सीधा दादी सास के सिर से जा टकराया और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर लुढ़क गईं. चारी तरफ कुहराम मच गया.

‘‘देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के. गुस्से में दादी सास को ही कलश दे मारा,’’ लोग कानाफूसी करने लगे.

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झका हुआ था. यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें जैसे क्षणभर के लिए रुक गईं.

‘‘अरे हाय यह क्या कर दिया तुम ने,’’ सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई दादी सास की ओर दौड़ पड़ीं.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा. उस के होंठों पर लाल गहरे रंग की लिपस्टिक लगी हुई थी तथा साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आंखों पर नीले रंग का आईशैडो भी लगा रखा था तथा गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहना था. उन का यह बनावशृंगार उन के अति शृंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा गई और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस से पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,’’ योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी हो गया. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. वह मन ही मन सोचने लगी कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है. जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है, जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया जितना कुंठित विचारधारा इन सबों की है वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी.

उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इस सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी. अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि को उस ने संजोया था वह अब एक झटके में ही टूटतीबिखरती नजर आ रही थी.

सभी तरफ कुहराम मचा हुआ था. तभी कोई डाक्टर को बुला लाता है. आधे घंटे के  निरीक्षण के बाद डाक्टर बताते हैं, ‘‘चिंता की कोईर् बात नहीं सभी कुछ ठीकठाक है. मैं ने दवा दे दी है जल्द ही इन्हें होश आ जाएगा.’’

दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

‘‘अरे अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,’’ सास ने बड़े ही क्रोध में आवाज लगाई.

‘‘नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,’’ सुलेखा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘क्या कहा… कैसी कुलक्षणी है यह… अब और कोईर् कसर रह गईर् है क्या…’’ सास ने क्रोध से गरजते हुए कहा.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो अंदर चलो…’’ योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

‘‘नहीं मैं अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रूकूंगी,’’ कह सुलेखा ने एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लिया, ‘‘जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया, जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,’’ कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल अपनी मां के घर चल दी.

सुलेखा मन ही मन सोचती जा रही थी कि जिस रिश्ते में सम्मान नहीं उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी… जो परंपरा एक औरत के खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे, जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करे और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो वैसे रिश्ते से तो अकेले ही जिंदगी जीना बेहतर है. मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के… उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है अब मैं उन का सहारा बनूंगी.’’

जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है.

जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.

बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.

मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’

कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.

शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.

कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.

कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है.

बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?

सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’

मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’

वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं.

जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’

कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…

टीनऐजर्स लव: अस्मिता ने क्या लांघ दी रिश्ते की सीमारेखा

‘‘आसमानी ड्रैस में बड़ी सुंदर लग रही हो, अस्मिता. बस, एक काम करो जुल्फों को थोड़ा ढीला कर लो.’’ अस्मिता कोचिंग क्लास की अंतिम बैंच पर खाली बैठी नोट बुक में कुछ लिख रही थी कि समर ने यह कह कर उन की तंद्रा तोड़ी. यह कह कर वह जल्दी ही अपनी बैंच पर जा कर बैठ गया और पीछे मुड़ कर मुसकराने लगा. किशोर हृदय में प्रेम का पुष्पपल्लवित होने लगा और दिल बगिया की कलियां महकने लगीं. भीतर से प्रणयसोता बहता चलता गया. उस ने आंखों में वह सबकुछ कह दिया था जो अब तक पढ़ी किताबें ही कह पाईं.

अस्मिता इंतजार करने लगी कि ब्रैक हो, समर बाहर आए और मैं उस से कुछ कहूं. आधे घंटे का समय एक सदी के बराबर लग रहा था. ‘क्या कहूंगी? शुरुआत कैसे करूंगी? जवाब क्या आएगा,’ ये सब प्रश्न अस्मिता को बेचैन किए जा रहे थे. कुछ बनाती, फिर मिटाती. मन ही मन कितने ही सवाल तैयार करती, जो उसे पूछने थे और फिर कैंसिल कर देती कि नहीं, कुछ और पूछती हूं. घंटी की आवाज अस्मिता के कानों में पड़ी. जैसे मां की तुतलाती बोली सुन कर कोई बच्चा दौड़ आता है, वह तत्क्षण क्लासरूम से बाहर आ गई. सोच रही थी कि वह अकेला आएगा. मगर हुआ इच्छा और आशा के प्रतिकूल. वह अपने दोस्तों से बतियाते हुए क्लासरूम से बाहर निकला. समर दोस्तों की टोली में बैठा गपें मार रहा था और चोर नजरों से उसे अकेला देखने की कोशिश भी कर रहा था. घर जाने का समय हो रहा था और आशाइच्छा धूमिल हो रही थी.

कहते हैं न, जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कोई न कोई रास्ता अवश्य निकलता है. अस्मिता किसी काम से अकेली क्लास में आई और समर इसी ताक में था. अस्मिता के पास मात्र 2 मिनट का समय था और कहने को ढेर सारी बातें. उस ने समर के पास आने पर कहा, ‘‘तुम भी न, बहुत स्मार्ट हो.’’ समर ने थैंक्स कहते हुए अस्मिता की हथेली के पृष्ठ भाग पर अपने हाथ से स्पर्श किया. फिर धीरेधीरे उस की पांचों उंगलियां अस्मिता की उंगलियों में समा चुकी थीं. यह थी अस्मिता के जीवन की प्रथम प्रणय गीतिका. जीवन का मृदुल वसंत प्रारंभ हो चुका था. उन दोनों ने एकदूसरे को जी भर कर देखा.

तभी अस्मिता की कुछ सहेलियां क्लासरूम में आ गईं. प्रेममयी क्षणों के चलते दोनों को न ध्यान रहा, न कोई भान. वे उन दोनों की यह हरकत देख कर मुसकराईं और बाहर चली गईं. स्कूल की छुट्टी हुई. अस्मिता घर आ गई. रातभर सो नहीं पाई, करवटें बदलती रही. कब सुबह हो गई, पता ही न चला. सुबह फिर तैयार हो, स्कूल चली गई. उस दिन समर भी जल्दी आ गया था. अस्मिता ने ध्यान से समर की तरफ देखा. समर ने स्कूलबैग क्रौस बैल्ट वाला डाला हुआ था, जोकि किसी बदमाश बच्चे की भांति इधरउधर हो रहा था. ‘‘हैलो,’’ समर ने अन्य लोगों की नजर से बचते हुए अस्मिता से कहा.

‘‘हाय समर, कैसे हो?’’ उस ने जवाब के साथ ही समर से प्रश्न किया. ‘‘मैं ठीक हूं और तुम से कुछ कहना चाहता हूं. क्या कह सकता हूं?’’

‘‘बिलकुल,’’ अस्मिता समर से मन ही मन प्यार करने लगी थी. कच्ची उम्र में ही उस ने समर को अपना सबकुछ मान लिया था. ‘‘क्या तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’ समर ने संकोच करते हुए कहा.

‘‘ओह हां, अच्छा, तो क्या करोगे नंबर का?’’ अस्मिता ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा. ‘‘मुझे तुम से कुछ कहना है,’’ समर ने कहा.

‘‘ओके, लिखो…97….’’ अस्मिता ने नंबर दे दिया. ‘‘थैंक्स.’’

एकदूसरे को देखते, हंसतेमुसकराते समय निकल रहा था जैसे मुट्ठी में से रेत देखते ही देखते उंगलियों के बीच की जगह से निकल जाती है. दोनों को ही छुट्टी होने की अधीर प्रतीक्षा थी. समर तो मन ही मन योजना बना रहा था…‘12 बजे छुट्टी होगी, 1 बजे यह घर पहुंचेगी, 2 बजे तक फ्री होगी और मुझे ठीक ढाई बजे कौल करना होगा.’ उस का दिमाग तेजगति से काम कर रहा था जैसे मार्च में अकाउंटैंट का दिमाग किया करता है. आखिर ढाई बज ही गए. समर ने बिना क्षण गंवाए, मोबाइल उठाया और अस्मिता का नंबर डायल किया.

पहली बार में तो अस्मिता ने कौल काट दी. फिर मिस्डकौल की. सामान्य औपचारिक बातचीत के बाद समर गंभीर मुद्दे पर आना चाहता था. शायद अस्मिता भी यही तो चाहती थी. ‘‘क्या तुम मुझ से इसी तरह रोज बात करोगी?’’ समर ने पूछा.

‘‘किसी लड़की के भोलेपन का फायदा उठा रहे हो?’’ अस्मिता ने जान कर प्रतिप्रश्न किया. ‘‘नहींनहीं, ऐसे ही, अगर तुम्हें उचित लगे तो,’’ समर ने शराफत दिखाते हुए कहा.

रुकरुक कर दिन में 5-6 बार बातें होने लगीं. समर कभी मिस्डकौल करता तो कभी जोखिम उठाते हुए सीधा कौल कर देता. दिन बीतते गए, बातें बढ़ती गईं और उन दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता आती गई. हंसीमजाक, स्कूल की बातें, दोस्तोंसहेलियों के किस्से उन के विषय रहते थे. वे स्कूल में बहाना खोजते ताकि एकांत में बैठ कर प्यारभरी बातें कर सकें. रास्ते सुहाने होते गए, हलके स्पर्श में मिठास का एहसास होता.

एक दिन आया जब उन के प्रेम का जिक्र क्लास के हर स्टूडैंट की जबां पर तो था ही, टीचर्स के बीच में भी बात फैल गई और प्रधानाचार्य ने दोनों को स्टाफरूम में बुला कर ऐसी हरकतों के दुष्परिणामों से अवगत करवाया. उन दोनों ने भविष्य में इस प्रकार की गलती दोहराने की प्रतिबद्घता व्यक्त कर पीछा छुड़ा लिया. अब लगभग सब लोग उन के बीच का सबकुछ जान चुके थे. यह वह वक्त था जब अर्धवार्षिक परीक्षाएं सिर पर थीं. दोनों को ही किताब खोले महीनों हो गए थे. अस्मिता अपनी बौद्धिकता के अहं में थी और समर अपने बौद्धिक होने के वहम में.

एक रोज फोन पर समर कुछ उदास आवाज में बोला, ‘‘क्या मैं पास हो सकूंगा? मैं ने पढ़ा तो कुछ नहीं. तुम तो फिर भी होशियार हो, मेरा क्या होगा?’’ ‘‘सब ठीक होगा, क्लास में तुम से कमजोर भी बहुत हैं,’’ अस्मिता ने उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं बताओ? तुम से बात किए बिना एक पल भी नहीं रहा जाता. हर बार मोबाइल उठा कर देखता हूं कि कहीं तुम्हारा मैसेज या कौल तो नहीं आई, अस्मिता.’’ ‘‘मेरा भी यही हाल है. सभी सखीसहेलियों, परिजनों के इतर जीवन अब सिर्फ तुम पर केंद्रित हो गया है. मेरी हर कल्पना, हर सपने का प्रधान किरदार तुम ही हो, समर. मैं इन सभी चीजों को ले कर मजाक में थी. मगर अब यह बेचैनी बताती है, छटपटाहट बताती है कि दिल पर अब मेरा बस नहीं रहा. अब मैं तुम्हारी हो गई हूं. पर क्या वह सब संभव है? मैं भी न, क्याक्या बकती जा रही हूं.’’

दिन बीतते गए, फोन पर उन की बातें चलती गईं. ‘‘कहीं मिलते हैं, कुछ घंटे साथ बिताते हैं, अब सिर्फ बातों से मन नहीं भरता, अस्मिता.’’ अब समर कभीकभी अस्मिता पर, घर से बाहर मिलने पर भी जोर डालने लगा.

एक दिन निश्चय किया कि कहीं एकांत में मिलते हैं. लेकिन कहां? यह प्रश्न था कि कहां मिला जाए. परेशानी को दूर किया अस्मिता की सहेली दीपिका ने. उसी ने रास्ता सुझाया. दीपिका ने कहा, ‘‘मैं अपनी मम्मी को अपनी बहन के साथ मूवी देखने के लिए भेज दूंगी. उन लोगों के जाते ही तुम दोनों मेरे फ्लैट में आ जाना. मैं बाहर से ताला लगा कर चली जाऊंगी. और ठीक 2 घंटे बाद आ कर ताला खोल दूंगी. अगर कोई आएगा भी तो समझेगा कि घर में कोई नहीं है. देख अस्मिता, तुझे समर के साथ समय बिताने का इस से अच्छा कोई मौका नहीं मिल सकता. तू और समर वहां खूब मस्ती करना.’’ समर को भी इस में कोई आपत्ति न थी. 2 दिन बाद मिलने का कार्यक्रम तय कर लिया गया. मौसम साफ था, हवा में संगीत था, पंछियों की कोमल आवाज मनमस्तिष्क में नव स्फूर्ति भर रही थी. नीयत स्थान और निश्चित समय. समर का पहला और आखिरी काम जो पूर्व तैयारी के साथ संपन्न होने जा रहा था वरना अब तक तो उस ने परीक्षा तक के लिए कोई तैयारी नहीं की थी.

तय दिन तय समय पर, अस्मिता समर के साथ दीपिका के फ्लैट पर पहुंची. प्लान के मुताबिक दीपिका ने अपनी मम्मी और बहन को नई मूवी देखने के लिए भेज दिया. वे दोनों फ्लैट के अंदर और बाहर ताला. लेकिन उन की ये सब गतिविधियां फ्लैट के सामने दूसरे फ्लैट में रहने वाले एक अंकल खिड़की से देख रहे थे. उन्हें शायद कुछ गड़बड़ लगा. वे अपने फ्लैट से नीचे उतर कर आए और कालोनी के 2-3 लोगों को एकत्र कर धीरे से बोले, ‘‘यह जो फ्लैट है, अरे वही सामने, बख्शीजी का फ्लैट, उस में एक लड़का और एक लड़की बंद हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल ने पूछा. ‘‘मतलब… बख्शीजी की लड़की तो बाहर से ताला लगा गई है पर अंदर लड़कालड़की बंद हैं.’’

‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें क्या मतलब. इस में नया क्या है? आजकल तो यह आम बात है,’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल टालते हुए बोले. ‘‘अमा यार, कैसी बात कर रहे हो? अपनी आंखों के सामने, यह गलत काम कैसे होने दूं्?’’

‘‘गलत?’’ ‘‘हां जी, मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है दोनों को फ्लैट के अंदर जाते हुए.’’

तभी पड़ोस की एक आंटी भी आ गई, ‘‘क्या हुआ भाईसाहब?’’ ‘‘अरे, सामने बख्शीजी के फ्लैट में एक लड़कालड़की बंद हैं,’’ पहले वाले अंकल बोले.

‘‘तो ताला तोड़ दो,’’ महिला ने मशवरा दिया. ‘‘नहीं, यह सही नहीं है, जिस का मकान है, उसे बुलाओ,’’ दूसरे अंकल ने सलाह दी.

शोर बढ़ता गया. लोग इकट्ठे होते चले गए. तभी कहीं से पुलिस का एक हवलदार भी पहुंच गया. लोगबाग दरवाजा पीटने लगे. ‘‘बाहर निकलो, दरवाजा खोलो…’’ बिना यह सोचेसमझे कि ताला तो बाहर से बंद है, तो दरवाजा खुलेगा कैसे? प्लान के मुताबिक, दीपिका समय पूरा होने से 10 मिनट पहले वहां पहुंच गई, लेकिन भीड़ को देख कर एक बार वह भी घबरा गई. उस ने लोगों से वहां इकट्ठे होने का प्रयोजन पूछा और गुस्से में बोली, ‘‘मेरा फ्लैट है, मैं जानूं. आप लोगों को क्या मतलब?’’

हवलदार ने दीपिका की हां में हां मिलाई और भीड़ से जाने के लिए कहा. और फिर दीपिका के पीछेपीछे वह भी सीढि़यां चढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद हवलदार फ्लैट से वापस आया और बोला, ‘‘फ्लैट में तो कोई नहीं था. किस ने कहा कि वहां लड़कालड़की बंद हैं. फालतू में इतना शोर मचा दिया.’’ सामने के फ्लैट वाले अंकल चुपचाप वहां से गायब हो गए, लेकिन उन का दिमाग अभी भी चल रहा था…जैसे ही भीड़ छटी, दीपिका ने अस्मिता और समर को चुपचाप बाहर निकाल दिया. दरअसल, सीढि़यां चढ़ते समय ही दीपिका ने हवलदार को कुछ रुपए दे कर उस का मुंह बंद कर दिया था. जैसेतैसे आई हुई बला टल गई, लेकिन अस्मिता और समर को मुंह देख कर साफ पता लग रहा था कि उन्होंने इन 2 घंटों के दौरान कितना अच्छा समय बिताया होगा.

जब दोनों फ्लैट के अंदर थे तब समर ने कहा, ‘‘सौरी, जल्दीजल्दी में तुम्हारे लिए कोई उपहार लाना तो भूल ही गया.’’ ‘‘तुम आ गए हो तो नूर आ गया है,’’ कहते हुए अस्मिता हंस पड़ी. तब दोनों ने हृदय के तार झंकृत हो उठे थे. दिल में एक रागिनी बज उठी थी. रहीसही कसर आंखों से छलकते प्रेम निमंत्रण ने पूरी कर दी थी. सहसा ही समर के हाथ उस के तन से लिपट गए और यह आलिंगन हजारोंलाखों उपहारों से कहीं ज्यादा था.

असल तूफान तो उस के बाद आया जब समर अचानक अस्मिता से दूर होने लगा. फिर 6 महीने में सबकुछ बदल गया था. अब सिर्फ अस्मिता उसे फोन करती थी. और…समर, अस्मिता का फोन भी नहीं उठाता था. वह अब उस से बात नहीं करना चाहता था. जब उस की मरजी होती, मिलने को बुलाता, पर उस दौरान भी बात नहीं करता. ऐसा लगता था जैसे वह जिस्म की भूख मिटा रहा है. अस्मिता उस से प्यार करती थी, लेकिन वह अस्मिता को सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था.

अस्मिता की तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी. वह खुद से नफरत करने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल गया था. वह अकसर अपनेआप से कहती, ‘मैं इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हूं? मैं अंधों की तरह एक मृगतृष्णा की ओर भागती जा रही हूं.’ वह घंटों रोती. निराशा उस की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. इस हार को बरदाश्त न कर पाते हुए इसी बीच अस्मिता बारबार समर को वापस लाने की नाकाम कोशिश करने लगी. उसे मेल भेजना, प्रेम गीत भेजना, कभीकभी गाली लिख कर भेजना, अब यही उस का काम था.

इसी बीच, एक दिन- समर : तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता? मुझे दोबारा फोन मत करना.

अस्मिता : देखो, तुम क्यों ऐसा कर रहे हो? मुझे पता है कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो, लेकिन क्या है जिस से तुम परेशान हो? समर : ऐसा कुछ नहीं है. हमारा रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता. मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है. मेरे पास इन चीजों के लिए वक्त नहीं है.

अस्मिता : नहीं, देखो समर, प्लीज मेरी बात सुनो. हम दोस्त बन कर भी तो रह सकते हैं? हम इस रिश्ते को वक्त देते हैं. अगर कई साल बाद भी तुम को ऐसा ही लगा. तब सोचेंगे. समर : तुम पागल हो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है. और मैं तुम से आगे कभी बात नहीं करना चाहता.

टैलीफोन की यह बातचीत अस्मिता को आज भी याद है. यह उन दोनों के बीच आखिरी बातचीत थी. इसे सुन कर कोईर् भी कह सकता है कि अस्मिता बेवकूफ थी, भ्रम में जी रही थी. लेकिन वह भी क्या करती? कुल 16 की थी, और उसे लगता था, सब फिल्मों की तरह ही होता है. ‘जब वी मेट’ फिल्म से वह काफी प्रभावित थी. वैसे भी 16 का प्यार हो या 60 का, जब कोई प्यार में होता है, तो कुछ भी सहीगलत नहीं होता.

पर स्कूल में समर उस से बचता, नजरें छिपाता, अस्मिता उस से बात करने जाती तो वह झिड़क देता या दोस्तों के साथ मिल कर उस की खिल्ली उड़ाता, कहता, ‘‘कितनी बेवकूफ है जो उस की बातों में आ कर सबकुछ लुटा बैठी. उस ने तो यह सब एक शर्त के लिए किया था.’’ ‘ओह, तो यह सिर्फ उस की एक चाल थी. काश, मैं पहले ही समझ जाती,’ वह घंटों रोती रही.

आज प्यार के मामले में भी उस का भरोसा टूट गया था. प्यार पर से विश्वास तो पहले ही उठने लगा था. वार्षिक परीक्षाएं सिर पर मंडरा रही थीं. वह खुद से जूझ रही थी. पर अस्मिता ने पढ़ाई या स्कूल बंद नहीं किया. यह शायद उस की अंदरूनी शक्ति ही थी जिस से वह उबर रही थी या उबरने की कोशिश कर रही थी. हालांकि चिड़चिड़ाहट बढ़ रही थी और उस के बढ़ते चिड़चिड़ेपन से घर पर सब परेशान थे. अगर घर पर कोई कुछ जानना चाहता भी तो उस ने कभी नहीं बताया कि उस के साथ क्या हुआ है.

अस्मिता नई क्लास में आ गई थी. हर बार से नंबर काफी कम थे. समर ने नई कक्षा में पहुंच कर स्कूल ही बदल लिया था. यही नहीं, मोबाइल नंबर भी. अस्मिता के लिए यह सब किसी बहुत बड़े जलजले से कम न था. बात न करे पर रोज वह समर को देख कर ही अपना मन शांत कर लेती थी. पर अब तो… अस्मिता ने खाना बंद कर दिया था. इस कारण उस की तबीयत बिगड़ रही थी.

बहुत मेहनत से उस ने समर का नया नंबर पता किया. समर ने फोन उठाया मगर सिर्फ इतना कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? किस से नंबर मिला तुम्हें? आइंदा फोन किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. मेरे पास तुम्हारे कुछ फोटोज हैं. मैं उन्हें सार्वजनिक कर दूंगा. फिर मत कहना, हा…हा…हा… और समर ने फोन काट दिया.’’ समर के लिए यह सब खेल था, लेकिन अस्मिता के लिए वह पहला प्यार था. ‘कितनी बेवकूफ थी न मैं, जो अपने आत्मसम्मान को पीछे रख कर भी उसे मनाना और पाना चाहती थी,’ अस्मिता ने सोचा. अब उसे अपनेआप से घिन और नफरत सी होने लगी थी. अस्मिता खुद को खत्म करना चाहती थी.

लेकिन, दीपिका जो उस के अच्छे और बुरे दोनों ही पलों की सहेली थी, ने अस्मिता के मनोबल और उसे, एक हद तक टूटने नहीं दिया. उसे समझाया, ‘‘ऐसे एकतरफा रिश्तों से जिंदगी नहीं चलती. अगर आप किसी से प्यार करते हो और वह नहीं करता. तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे में आत्मसम्मान सब से अहम होता है.’’ कहीं न कहीं अस्मिता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद को भी ठहराती थी. उस ने कभी भी अस्मिता को अकेला नहीं छोड़ा. हर समय उसे टूटने से बचाया वरना इतना अपमान और असम्मान सहना किसी लड़की के लिए आसान नहीं था. दीपिका की कोशिश का ही नतीजा था कि इतने अपमान, असम्मान के बाद भी अस्मिता ने ठान लिया, ‘‘अब मैं नहीं रोऊंगी. मैं जिंदगी में आगे बढ़ूंगी, कुछ करूंगी. एक हादसे की वजह से मेरी पूरी जिंदगी खराब नहीं हो सकती.’’

अब वह समर को याद भी नहीं करना चाहती थी. समर उस की जिंदगी में अब कोई माने नहीं रखता. लेकिन उस के धोखे को वह माफ नहीं कर पाई. प्यार करना उस ने यदि समर से मिल कर सीखा तो प्यार का सही मतलब और वादे का सही मतलब, शायद समर को अस्मिता से समझना चाहिए था. समर ने सिर्फ प्यार ही नहीं, धोखा क्या होता है, यह भी समझा दिया था. समर से मिल कर उस के साथ रिश्ते में रह कर, अस्मिता का प्यार पर से यकीन उठ चुका अब. वाकई कितनी छोटी उम्र होती है ऐसे प्यार की. शायद सिर्फ शारीरिक आकर्षण आधार होता है. तभी तो इसे कच्ची उम्र का प्यार कहते हैं ‘टीनऐजर्स लव.’

बहन का सुहाग: क्या रिया अपनी बहन का घर बर्बाद कर पाई

आनंद रंजन अर्बन बैंक में क्लर्क थे. उन की आमदनी ठीकठाक ही थी. घर में सुघड़ पत्नी के अलावा 2 बेटियां और 1 बेटा बस इतना सा ही परिवार था आनंद रंजन का.

गांव में अम्मांबाबूजी बड़े भाई के साथ रहते थे, इसलिए उन की तरफ की जिम्मेदारियों से आनंद मुक्त थे, हां… पर गांव में हर महीने पैसे जरूर भेज दिया करते थे.

वैसे तो आनंद रंजन का किसी के साथ कोई मनमुटाव नहीं था. सब के साथ उन का मृदु स्वभाव उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बनाए रखता था, चाहे बैंक का काम हो या सामाजिक काम, सब में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे वे. साथ ही साथ अपने परिवार को आनंद रंजन पूरा समय भी देते थे. जहां हमारे देश में एक लड़के को ही वंश चलाने के लिए जरूरी माना जाता है और लड़कियों के बजाय लोग लड़कों को वरीयता देते हैं, वहीं आनंद की दोनों बेटियां, बड़ी बेटी निहारिका और छोटी बेटी रिया उन की आंखों का तारा थीं. बड़ी बेटी सीधीसादी और छोटी बेटी रिया थोड़ी चंचल थी.

आनंद रंजन बेटे और बेटियों दोनों को समान रूप से ही प्यार करते थे और यही वजह है कि जब बड़ी बेटी को इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाने की बात आई, तो आनंद रंजन सहर्ष ही बेटी को लखनऊ भेजने के लिए मान गए थे और लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए खुद वे अपनी बेटी निहारिका के साथ कई बार लखनऊ आएगए.

निहारिका को लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन मिल गया था और उस के रहने का इंतजाम भी आनंद रंजन ने एक पेइंग गेस्ट के तौर पर करा दिया था.

एक छोटे से कसबे से आई निहारिका एक बड़े शहर में आ कर पढ़ाई कर रही थी. एक नए माहौल, एक नए शहर ने उस की आंखों में और भी उत्साह भर दिया था.

यूनिवर्सिटी में आटोरिकशा ले कर पढ़ने जाना और वहां से आ कर रूममेट्स के साथ में मिलनाजुलना, निहारिका के मन में एक नया आत्मविश्वास जगा रहा था.

वैसे तो यूनिवर्सिटी में रैगिंग पर पूरी तरह से बैन लगा हुआ था, पर फिर भी सीनियर छात्र नए छात्रछात्राओं से चुहलबाजी करने से बाज नहीं आते थे.

‘‘ऐ… हां… तुम… इधर आओ…‘‘ अपनी क्लास के बाहर निकल कर जाते हुए निहारिका के कानों में एक भारी आवाज पड़ी.

एक बार तो निहारिका ने कुछ ध्यान नहीं दिया, पर दोबारा वही आवाज उसे ही टारगेट कर के आई तो निहारिका पलटी. उस ने देखा कि क्लास के बाहर बरामदे में 5-6 लड़कों का एक ग्रुप खड़ा हुआ था. उस में खड़ा एक दाढ़ी वाला लड़का उंगली से निहारिका को पास आने का इशारा कर रहा था.

यह देख निहारिका ऊपर से नीचे तक कांप उठी थी. उस ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने से पहले विद्यार्थियों की रैगिंग के बारे में खूब सुन रखा था.

‘तो क्या ये लोग मेरी रैगिंग लेंगे…? क्या कहेंगे मुझ से ये…? मैं क्या कह पाऊंगी इन से…?‘ मन में इसी तरह की बातें सोचते हुए निहारिका उन लड़कों के पास जा पहुंची.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?”

‘‘ज… ज… जी… निहारिका.‘‘

‘‘हां, तो… इधर निहारो ना… इधर… उधर कहां ताक रही हो… जरा हम भी तो जानें कि इस बार कैसेकैसे चेहरे आए हैं बीए प्रथम वर्ष में,‘‘ दाढ़ी वाला लड़का बोला.

हलक तक सूख गया था निहारिका का. उन लड़कों की चुभती नजरें निहारिका के पूरे बदन पर घूम रही थीं. अपनी किताबों को अपने सीने से और कस कर चिपटा लिया था निहारिका ने.

‘‘अरे, तनिक ऊपर भी देखो न, नीचेनीचे ही नजरें गड़ाए रहोगे, तो गरदन में दर्द हो जाएगा,‘‘ उस ग्रुप में से दूसरा लड़का बोला.

निहारिका पत्थर हो गई थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन लड़कों को क्या जवाब दे. निश्चित रूप से इन लड़कों को पढ़ाई से कोई लेनादेना नहीं था. ये तो शोहदे थे जो नई लड़कियों को छेड़ने का काम करते थे.

‘‘अरे क्या बात है… क्यों छेड़ रहे हो… इस अकेली लड़की को भैया,‘‘ एक आवाज ने उन लड़कों को डिस्टर्ब किया और वे सारे लड़के वास्तव में डिस्टर्ब तो हो ही गए थे, क्योंकि राजवीर सिंह अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचा था और उस अकेली लड़की की रैगिंग होता देख उसे बचाने की नीयत से वहां आया था.

‘‘और तुम… जा सकती हो  यहां से… कोई तुम्हें परेशान नहीं करेगा,’’ राजवीर की कड़क आवाज निहारिका के कानों से टकराई थी.

निहारिका ने सिर घुमा कर देखा तो एक लड़का, जिस की आंखें इस समय उन लड़कों को घूर रही थीं, निहारिका तुरंत ही वहां से लंबे कदमों से चल दी थी. जातेजाते उस के कान में उस लड़के की आवाज पड़ी थी, जो उन शोहदों से कह रहा था, ‘‘खबरदार, किसी फ्रेशर को छेड़ा तो ठीक नहीं होगा… ये कल्चर हमारे लिए सही नहीं है.‘‘

निहारिका मन ही मन उस अचानक से मदद के लिए आए लड़के का धन्यवाद कर रही थी और यह भी सोच रही थी कि कितनी मूर्ख है वह, जो उस लड़के को थैंक्स भी नहीं कह पाई… चलो, कोई बात नहीं, दोबारा मिलने पर जरूर कह देगी.

उस को थैंक्स कहने का मौका अगले ही दिन मिल गया, जब निहारिका क्लास खत्म कर के निकल रही थी. तब वही आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘अरे मैडम, आज किसी ने आप को छेड़ा तो नहीं ना.‘‘

देखा तो कल मदद करने वाला लड़का ही अपने दोनों हाथों को नमस्ते की शक्ल में जोड़ कर खड़ा हुआ था और निहारिका की आंखों में देख कर मुसकराए जा रहा था.

‘‘ज… जी, नहीं… पर कल जो आप ने मेरी मदद की, उस का बहुत शुक्रिया.‘‘

‘‘शुक्रिया की कोई बात नहीं… आगे से अगर आप को कोई भी मदद चाहिए हो तो आप मुझे तुरंत ही याद कर सकती हैं… ये मेरा कार्ड है… इस पर मेरा फोन नंबर भी है,‘‘ एक सुनहरा कार्ड आगे बढाते हुए उस लड़के ने कहा.

कार्ड पर नजर डालते हुए निहारिका ने देखा, ‘राजवीर सिंह, बीए तृतीय वर्ष.’

राजवीर एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखता था और उस ने एडमिशन तो विश्वविद्यालय में ले रखा था, पर उस का उद्देश्य प्रदेश की राजनीति तक पहुंचने का था और इसीलिए पढ़ाई के साथ ही उस ने छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए तैयारी शुरू कर दी थी.

निहारिका इतना तो समझ गई थी कि पढ़ाई संबंधी कामों में यह लड़का भले काम न आए, पर विश्वविद्यालय में एक पहचान बनाने के लिए इस का साथ अगर मिल जाए तो कोई बुराई  भी नहीं है.

तय समय पर विश्वविद्यालय में चुनाव हुए, जिस में राजवीर सिंह की भारी मतों से जीत हुई और अब वह कैंपस में जम कर नेतागीरी करने लगा.

पर, राजवीर सिंह के अंदर नेता के साथसाथ एक युवा का दिल भी धड़कता था और उस युवा दिल को निहारिका पहली ही नजर में अच्छी लग गई थी. निहारिका जैसी सीधीसादी और प्रतिभाशाली लड़की जैसी ही जीवनसंगिनी की कल्पना की थी राजवीर ने.

और इसीलिए वह मौका देखते ही निहारिका के आगेपीछे डोलता रहता. अब निहारिका को आटोरिकशा की जरूरत नहीं पड़ती. वह खुद ही अपनी फौर्चूनर गाड़ी निहारिका के पास खड़ी कर उसे घर तक छोड़ने का आग्रह करता और निहारिका उस का विनम्र आग्रह टाल नहीं पाती.

दोनों में नजदीकियां बढ़ गई थीं. राजवीर सिंह का रुतबा विश्वविद्यालय में काफी बढ़ चुका था और निहारिका को भी यह अच्छा लगने लगा था कि एक लड़का जो संपन्न भी है, सुंदर भी और विश्वविद्यालय में उस की अच्छीखासी धाक भी है, वह स्वयं उस के आगेपीछे रहता है.

थोड़ा समय और बीता तो राजवीर ने निहारिका से अपने मन की बात कह डाली, ‘‘देखो निहारिका, अब तक तुम मेरे बारे में सबकुछ जान चुकी हो… मेरे घर वालों से भी तुम मिल चुकी हो… मेरा घर, मेरा बैंक बैलेंस, यहां तक कि मेरी पसंदनापसंद को भी तुम बखूबी जानती हो…

“और आज मैं तुम से कहना चाहता हूं कि मैं तुम से शादी करना चाहता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि तुम इनकार नहीं कर पाओगी.”

बदले में निहारिका सिर्फ मुसकरा कर रह गई थी.

‘‘और हां, तुम अपने मम्मीपापा की चिंता मत करो. मैं उन से भी बात कर लूंगा,‘‘ इतना कह कर राजवीर सिंह ने निहारिका के होंठों को चूमने की कोशिश की, पर निहारिका ने हर बार की तरह इस बार भी यह कह कर टाल दिया कि ये सब शादी से पहले करना अच्छा नहीं लगता.

राजवीर सिंह ने खुद ही निहारिका के घर वालों से बात की. वह एक पैसे वाले घर से ताल्लुक रखता था, जबकि निहारिका एक सामान्य घर से.
निहारिका के मम्मीपापा को भला इतने अच्छे रिश्ते से क्या आपत्ति होती और इस से पहले भी वे निहारिका के मुंह से कई बार राजवीर के लिए तारीफ सुन चुके थे. ऐसे में उन्हें रिश्ते को न कहने की कोई वजह नहीं मिली.

ग्रेजुएशन करते ही निहारिका की शादी राजवीर सिंह से तय हो गई.

और शादी ऐसी आलीशान ढंग से हुई, जिस की चर्चा लोग महीनों तक करते रहे थे. इलाके के लोगों ने इतनी शानदार दावत कभी नहीं खाई थी. बरात में ऊंट, घोड़े और हाथी तक आए थे.

शादी के बाद निहारिका के सपनों को पंख लग गए थे. इतना अच्छा घर, सासससुर और इतना अच्छा पति मिलेगा, इस की कल्पना भी उस ने नहीं की थी.

‘‘राजवीर… जा, बहू को मंदिर ले जा और कहीं घुमा भी ले आना,‘‘ राजवीर को आवाज लगाते हुए उस की मां ने कहा.

राजवीर और निहारिका साथ घूमतेफिरते और अपने जीवन के मजे ले रहे थे. रात में वे दोनों एकदूसरे की बांहों में सोए रहते.

सैक्स के मामले में राजवीर किसी भूखे भेड़िए की तरह हो जाता था. वह निहारिका को ब्लू फिल्में दिखाता और वैसा ही करने के लिए उस पर दबाव डालता.

निहारिका को ये सब पसंद नहीं था. राजवीर के बहुत कहने पर भी वह ब्लू फिल्मों के सीन को उस के साथ नहीं कर पाती थी. कई बार तो निहारिका को ऐसा करते समय उबकाई सी आने लगती.

ये राजवीर का एक नया और अलग रूप था, जिस से निहारिका पहली बार परिचित हो रही थी.

अपनी इस समस्या के लिए निहारिका ने इंटरनैट का सहारा लिया और पाया कि कुछ पुरुषों में पोर्न देखने और वैसा ही करने की कुछ अधिक प्रवत्ति होती है और यह बिलकुल ही सहज है.

निहारिका ने सोचा कि अभी नईनई शादी हुई है, इसलिए  अधिक उत्साहित है. थोड़ा समय बीतेगा, तो वह मेरी भावनाओं को भी समझेगा, पर बेचारी निहारिका को क्या पता था कि ऐसा कभी नहीं होने वाला था.

शादी के 5 महीने बीत चुके थे. निहारिका की छोटी बहन रिया अपने पापा आनंद रंजन के साथ निहारिका से मिलने आई थी. पापा आनंद रंजन तो अपनी बेटी निहारिका से मिल कर चले गए, पर रिया निहारिका के पास ही रुक गई थी.

राजवीर सिंह ने निहारिका के पापा आनंद रंजन को बताया कि वे सब आगरा जाने का प्लान बना रहे हैं और इस में रिया भी साथ रहेगी, तो निहारिका को भी अच्छा लगेगा.

निहारिका के पापा आनंद रंजन को कोई आपत्ति नहीं हुई.

रिया के आने के बाद तो राजवीर के चेहरे पर चमक और भी बढ़ गई थी, बढ़ती भी क्यों नहीं, दोनों का रिश्ता ही कुछ ऐसा था. अब तो दोनों में खूब चुहलबाजियां होतीं. अपने जीजा को छेड़ने का कोई भी मौका रिया अपने हाथ से जाने नहीं देती थी.

वैसे भी रिया को हमेशा से ही लड़कों के साथ उठनाबैठना, खानापीना अच्छा लगता था और अब जीजा के रूप में उसे ये सब करने के लिए एक अच्छा साथी मिल गया था.

एक रात की बात है, जब खाने के बाद रिया अपने कमरे में सोने के लिए चली गई तो उसे याद आया कि उस के मोबाइल का पावर बैंक तो जीजाजी के कमरे में ही रह गया है. अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी, इसलिए वह अपना पावर बैंक लेने जीजाजी के कमरे के पास गई और दरवाजे के पास आ कर अचानक ही ठिठक गई. दरवाजा पूरी तरह से बंद नहीं था और अंदर का नजारा देख रिया रोमांचित हुए बिना न रह सकी. कमरे में जीजाजी निहारिका के अधरों का पान कर रहे थे और निहारिका भी हलकेफुलके प्रतिरोध के बाद उन का साथ दे रही थी और उन के हाथ जीजाजी के सिर के बालों में घूम रहे थे.

किसी जोड़े को इस तरह प्रेमावस्था में लिप्त देखना रिया के लिए पहला अवसर था. युवावस्था में कदम रख चुकी रिया भी उत्तेजित हो उठी थी और ऐसा नजारा उसे अच्छा भी लग रहा था और मन में देख लिए जाने का डर भी था, इसलिए वह तुरंत ही अपने कमरे में लौट आई.

कमरे में आ कर रिया ने सोने की बहुत कोशिश की, पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. वह बारबार करवट बदलती थी, पर उस की आंखों में दीदी और जीजाजी का आलिंगनबद्ध नजारा याद आ रहा था. मन ही मन वह अपनी शादी के लिए राजवीर सिंह जैसे गठीले बदन वाले बांके के ख्वाब देखने लगी.

किसी तरह सुबह हुई, तो सब से पहले जीजाजी उस के कमरे में आए और चहकते हुए बोले, ‘‘हैप्पी बर्थ डे रिया.‘‘

‘‘ओह… अरे जीजाजी, आप को मेरा बर्थडे कैसे पता… जरूर निहारिका  दीदी ने बताया होगा.’’

‘‘अरे नहीं भाई… तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की का बर्थडे हम कैसे भूल सकते हैं?‘‘ राजवीर की आंखों में शरारत तैर रही थी.

‘‘ओह… तो आप ने मुझ से पहले ही बाजी मार ली, रिया को हैप्पी बर्थडे विश कर के…‘‘ निहारिका ने कहा.

‘‘हां… हां… भाई, क्यों नहीं… तुम से ज्यादा हक है मेरा… आखिर जीजा हूं मैं इस का,‘‘ हंसते हुए राजवीर बोला.

कमरे में एकसाथ तीनों के हंसने की आवाजें गूंजने लगीं.

शाम को एक बड़े होटल में केक काट कर रिया का जन्मदिन मनाया गया. बहुत बड़ी पार्टी दी थी राजवीर ने और राजनीतिक पार्टी के कई बड़े नेताओं को भी इसी बहाने पार्टी में बुलाया था.

रिया आज बहुत खूबसूरत लग रही थी. कई बार रिया को राजवीर सिंह के साथ खड़ा देख लोगों ने उसे ही मिसेज राजवीर समझ लिया और जबजब कोई रिया को मिसेज राजवीर कह कर संबोधित करता तो एक शर्म की लाली उस के चेहरे पर दौड़ जाती.

राजवीर सिंह की शानोशौकत देख कर रिया सोचती कि निहारिका कितनी खुशकिस्मत है, जो इसे बड़ा और अमीर परिवार मिला. उस के मन में भी कहीं न कहीं राजवीर सिंह जैसा पति पाने की उम्मीद जग गई थी.

‘‘ये लो… तुम्हारा बर्थडे गिफ्ट,‘‘ राजवीर सिंह ने एक सुनहरा पैकेट रिया की और बढ़ाते हुए कहा.

‘‘ओह, ये क्या… लैपटौप… अरे, वौव जीजू… मुझे लैपटौप की सख्त जरूरत थी. आप सच में बहुत अच्छे हो जीजू…‘‘ रिया खुशी से चहक उठी थी.

राजवीर को पता था कि रिया को अपनी पढ़ाई के लिए एक लैपटौप चाहिए था, इसलिए आज उस के जन्मदिन पर उसे गिफ्ट दे कर खुश कर दिया था राजवीर ने.

रात को अपने कमरे में जा कर लैपटौप औन कर के रिया गेम्स खेलने लगी. कुछ देर बाद उस की नजर लैपटौप में पड़ी एक ‘निहारिका‘ नाम की फाइल पर पड़ी, तो उत्सुकतावश रिया ने उसे खोला. वह एक ब्लू फिल्म थी, जो अब लैपटौप की स्क्रीन पर प्ले हो रही थी.

पहले तो रिया को कुछ हैरानी हुई कि नए लैपटौप में ये ब्लू फिल्म कैसे आई, पर युवा होने के नाते उस की रुचि उस फिल्म में बढ़ती गई और फिल्म में आतेजाते दृश्यों को देख कर वह भी उत्तेजित होने लगी.
यही वह समय था, जब कोई उस के कमरे में आया और अपना हाथ रिया के सीने पर फिराने लगा था.

रिया ने चौंक कर लैपटौप बंद कर दिया और पीछे घूम कर देखा तो वह राजवीर था, ‘‘व …वो ज… जीजाजी, वह लैपटौप औन करते ही फिल्म…‘‘

‘‘अरे, कोई बात नहीं… तुम खूबसूरत हो, जवान हो, तुम नहीं देखोगी, तो कौन देखेगा… वैसे, तुम ने उस दिन मुझे और निहारिका को भी एकदूसरे को किस करते देख लिया था,‘‘ राजवीर ने इतना कह कर रिया को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ लिया और उस के नरम होंठों को चूसने लगा.

जीजाजी को ऐसा करते रिया कोई विरोध न कर सकी थी. जैसे उसे भी राजवीर की इन बांहों में आने का इंतजार था.

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राजवीर रिया की खूबसूरती का दीवाना हो चुका था, तो रिया भी उस के पैसे और शानोशौकत पर फिदा थी.
दोनों की सांसों की गरमी से कमरा दहक उठा था. राजवीर ने रिया के कपड़े उतारने शुरू कर दिए. रिया थोड़ा शरमाईसकुचाई, पर सैक्स का नशा उस पर भी हावी हो रहा था. दोनों ही एकदूसरे में समा गए और उस सुख को पाने के लिए यात्रा शुरू कर दी, जिसे लोग जन्नत का सुख कहते हैं.

उस दिन जीजासाली दोनों के बीच का रिश्ता तारतार क्या हुआ, फिर तो दोनों के बीच की सारी दीवारें ही गिर गईं.

राजवीर का काफी समय घर में ही बीतता. जरूरी काम से भी वह बाहर जाने में कतराता था. घर पर जब भी मौका मिलता, तो वह रिया को छूने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता. और तो और दोनों सैक्स करने में भी नहीं चूकते थे.

एक दोपहर जब निहारिका कुछ रसोई के काम निबटा रही थी, तभी राजवीर रिया के कमरे में घुस गया और रिया को बांहों में दबोच लिया. दोनों एकदूसरे में डूब कर सैक्स का मजा लूटने लगे. अभी दोनों अधबीच में ही थे कि कमरे के खुले दरवाजे से निहारिका अंदर आ गई. अंदर का नजारा देख उस के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई. दोनों को नंगा एकदूसरे में लिप्त देख पागल होने लगी थी निहारिका.

‘‘ओह राजवीर, ये क्या कर रहे हो मेरी बहन के साथ… अरे, जब मेरा पेट तुम से नहीं भरा, तो मेरी बहन पर मुंह मारने लगे. माना कि मैं तुम्हारी सारी मांगें पूरी नहीं कर पाती थी, पर तुम्हें कुछ तो अपने ऊपर कंट्रोल रखना चाहिए था.

‘‘और तुम रिया…‘‘ रिया की ओर घूमते हुए निहारिका बोली, ‘‘बहन ही बहन की दुश्मन बन गई. तुम से अपनी जवानी नहीं संभली जा रही थी तो मुझे बता दिया होता. मैं मम्मीपापा से कह कर तुम्हारी शादी करा देती, पर ये क्या… तुम्हें मेरा ही आदमी मिला था अपना मुंह काला करने के लिए. मैं अभी जा कर यह बात पापा को बताती हूं,‘‘ कमरे के बाहर जाते हुए निहारिका फुंफकार रही थी.

राजवीर ने सोचा कि आज तो निहारिका पापा को यह बात बता ही देगी. अपने ही पिता की नजरों में वह गिर जाएगा…
‘‘मैं कहता हूं, रुक जाओ निहारिका… रुक जाओ, नहीं तो मैं गोली चला दूंगा…‘‘

‘‘धांय…‘‘

और अगले ही पल निहारिका के मुंह से एक चीख निकली और उस की लाश फर्श पर पड़ी हुई थी.

अपनी जेब में राजवीर हमेशा ही एक रिवौल्वर रखता था, पर किसे पता था कि वह उसे अपनी ही प्रेमिका और नईनवेली दुलहन को जान से मारने के लिए इस्तेमाल कर देगा.

यह देख रिया सकते में थी. अभी वह पूरे कपडे़ भी नहीं पहन पाई थी कि गोली की आवाज सुनते ही पापामम्मी ऊपर कमरे में आ गए.

अंदर का नजारा देख सभी के चेहरे पर कई सवालिया निशान थे और ऊपर से रिया का इस अवस्था में होना उन की हैरानी को और भी बढ़ाता जा रहा था.

‘‘क्या हुआ, बहू को क्यों मार दिया…?‘‘ मां बुदबुदाई, ‘‘पर, क्यों राजवीर?‘‘

‘‘न… नहीं… मां, मैं ने नहीं मारा उसे, बल्कि उस ने आत्महत्या कर ली है,‘‘ राजवीर ने निहारिका के हाथ के पास पड़े रिवौल्वर की तरफ इशारा करते हुए कहा और इस हत्या को आत्महत्या का रुख देने की कोशिश की.

यह देख कर सभी चुप थे.

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राजवीर, रिया… और अब उस के मम्मीपापा पर अब तक बिना कहे ही कुछकुछ कहानी उन की समझ में आने लगी थी.

निहारिका के मम्मीपापा को खबर की गई.

अगले साल निहारिका के मम्मीपापा भी रोते हुए आए. पर यह बताने का साहस किसी में नहीं हुआ कि निहारिका को किस ने मारा है.

आनंद रंजन ने रोते हुए कहा, ‘‘अच्छीखासी तो थी, जब मैं मिल कर गया था उस से… अचानक से क्या हो गया और भला वह आत्महत्या क्यों करेगी? बोलो दामादजी, बोलो रिया, तुम तो उस के साथ थे. वह अपने को क्यों मारेगी…

आनंद रंजन बदहवास थे. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वे पुलिस को बुलाना चाहते थे और मामले की जांच कराना चाहते थे.

उन की मंशा समझ राजवीर ने खुद ही पुलिस को फोन किया.

आनंद रंजन को समझाते हुए राजवीर ने कहा, ‘‘देखिए… जो होना था हो गया. ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, इस की तह में ज्यादा जाने की जरूरत नहीं है… हां, अगर आप को यही लगता है कि हम निहारिका की हत्या के दोषी हैं, तो बेशक हमारे खिलाफ रिपोर्ट कर दीजिए और हम को जेल भेज दीजिए…

‘‘पर, आप को बता दें कि अगर हम जेल चले भी गए, तो जेल के अंदर भी वैसे ही रहेंगे, जैसे हम यहां रहते हैं. और अगर आप जेल नहीं भेजे हम को तो आप की छोटी बेटी की जिंदगी भी संवार देंगे.

“अगर हमारी बात का भरोसा न हो तो पूछ लीजिए अपनी बेटी रिया से.‘‘

इतना सुनने के बाद आनंद रंजन के चेहरे पर कई तरह के भाव आएगए. एक बार भरी आंखों से उन्होंने रिया की तरफ सवाल किया, पर रिया खामोश रही, मानो उस की खामोशी राजवीर की हां में हां मिला रही थी.

आनंद रंजन ने दुनिया देखी थी. वे बहुतकुछ समझे और जो नहीं समझ पाए, उस को समझने की जरूरत भी नहीं थी.

पुलिस आई और राजवीर के पैसे और रसूख के आगे इसे महज एक आत्महत्या का केस बना कर रफादफा कर दिया गया.

किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि सभी राजवीर के जलवे को जानते थे, पर हां, आनंद रंजन के नातेरिश्तेदारों और राजवीर के पड़ोसियों को जबरदस्त हैरानी तब जरूर हई, जब एक साल बाद ही आनंद रंजन ने रिया की शादी राजवीर से कर दी.

निहारिका के बैडरूम पर अब रिया का अधिकार था और राजवीर की गाड़ी में रिया घूमती थी. इस तरह एक बहन ने दूसरी बहन के ही सुहाग को छीन लिया था.

ये अलग बात थी कि जानतेबूझते हुए भी अपनी बेटी को इंसाफ न दिला पाने का गम आनंद रंजन सहन न कर पाए और रिया की शादी राजवीर के साथ कर देने के कुछ दिनों बाद ही उन की मृत्यु हो गई.
रिया अब भी राजवीर के साथ ऐश कर रही थी.

सातवें आसमान की जमीन

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस अजीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

नंदा की इस शरारत पर बड़ी दी ने खीझ कर उसे पकड़ते हुए कहा, ‘‘तेरा यह कौन सा नया नाटक है, कुछ बता तो सही.’’

‘‘बड़ी दी, सुप्रिया दीदी एक कांटेस्ट जीत गई हैं. ईनाम में उसे अपने फेवरिट हीरो के साथ टीवी पर आना है. अब तो समझ में आ गया कि नहीं?’’ नंदा ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम्हारा मतलब सुप्रिया टीवी पर अपने ड्रीम बौय के साथ, फैंटास्टिक.’’ संदीप ने किताब बंद करते हुए नंदा की बात का समर्थन किया. नंदा ने आगे कहा, ‘‘भैया इतना ही नहीं, वह हीरो, सुप्रिया दीदी के लिए परफोर्म करेगा, गाना गाएगा. डांस करेगा. अब और क्या चाहिए? पर है कहां अपनी गोल्डन गर्ल?’’

‘‘नहा रही है लकी गर्ल, लेकिन उस ने तो मुझ से कुछ बताया ही नहीं, पर बाकी लोग तो हैं. सुप्रिया दीदी को लग रहा होगा, पता नहीं किसे बुरा लग जाए. इसीलिए किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है. और जीतना तो एक सपना था. उसे कहां पता था कि सच हो जाएगा.’’

तभी परदे के पीछे से सुप्रिया आती दिखाई दी. अपार आनंद में डूबी सुप्रिया के चेहरे पर अजीब तरह की चमक थी. नंदा ने दौड़ कर सुप्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘सुप्रिया दी…लकी…लकी गर्ल.’’

दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर नाचने लगीं. थक गईं तो निढाल हो कर सोफे पर गिर पड़ीं. इस बीच किसी को भी एक भी शब्द बोलने का मौका नहीं मिला. दोनों के सोफे पर बैठते ही बड़ी दी बोलीं, ‘‘यह क्या पागलपन है, सुप्रिया, घर में किसी को कुछ बताए बगैर तुम कांटेस्ट के फाइनल तक पहुंच गईं. चलो जो किया, ठीक किया. अमित को इस बारे में बताया है?’’

सुप्रिया आंखों से मधुर मुसकान मुसकराईं, उस के बजाए नंदा बोली, ‘‘बड़ी दी, इस तरह के काम कोई पूछ कर करता है? मान लीजिए आप से पूछने आती तो आप कांटेस्ट में हिस्सा लेने देतीं? दीदी अब छोड़ो इसे टीवी पर देखने के लिए तैयार हो जाइए. कमर कस कर तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

‘‘तैयारी किस बात की. कोई ब्याह थोड़े ही करने जा रही हैं,’’ वह थोड़ा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘आजकल के बच्चे भी न पागल… नादान…’’

‘‘दीदी, ब्याह क्या, यह तो उस से भी जबरदस्त है. लाखों दिलों की धड़कन, चार्मिंग, अमेजिंग लवर बौय अपनी सुप्रिया के साथ…’’

नंदा की बात पूरी होती, उस के पहले ही शैल, सुकुमार और नेहा का झुंड आ पहुंचा. इस के बाद तो जो हंगामा मचा. कान तक पहुंचने वाला शब्द भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था. बड़ी दी, भैयाभाभी और घर के अन्य लोग परेशान थे. हवा रंगबिरंगी और सुगंधित हो गई थी. कौन सी डे्रस, कैसी हेयरस्टाइल, स्किनकेयर, फुटवेयर, परफ्यूम, डायमंड या पर्ल, गोल्ड या सिलवर… बातों की पतंगें उड़ती रहीं और सुप्रिया उन पर सवार विचारों में डूबी थी कि जीवन इतना भी सुंदर और अद्भुत हो सकता है.

वह असाधारण और अविस्मरणीय घटना घटी और विलीन हो गई. वह दृश्य देखते समय सुप्रिया के मित्रों में जो उत्तेजना थी, उस का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. फिर भी इस पागल उत्साह में बड़ी दीदी ने थोड़ा अवरोध जरूर पैदा किया था. इस के बावजूद उन्होंने सभी को आइस्क्रीम खिलाई थी. सुप्रिया की ठसक देख कर सभी ने अनुभव किया कि अमित कितना भाग्यशाली है. उस की अनुपस्थिति थोड़ा खल जरूर रही थी. पता नहीं, चेन्नै में उस ने यह प्रोग्राम देखा या नहीं. सुप्रिया ने उसे कांटेस्ट की बात बताई भी थी या नहीं?

सुप्रिया के राजकुमार ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय फिल्म का प्रसिद्ध गाना पेश किया था. उस ने उस का हाथ पकड़ कर डांस भी किया. एक प्रेमी की तरह चाहत भरी नजरों से उसे निहारा भी और घुटनों के बल बैठ कर उसे गुलाब भी दिया.

‘‘इस समय आप को कैसा लग रहा है?’’ कार्यक्रम खत्म होने पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले ने पूछा था. खुशी में पागल हो कर उछल रही सुप्रिया कुछ पल तो बोल ही नहीं सकी. उस आनंद में उस की आंखों की पलकें तक नहीं झपक रही थीं. खुशी में आंसू आ जाते हैं. इस के बारे में उस ने पढ़ा और सुना था. पर सचमुच वह क्या होता है. उस दिन उसे पता चला. सातवां आसमान मतलब यही था, आउट आफ दिस वर्ल्ड. दिल से अनुभव किया था उस ने. उसे ऐसा भाग्य मिला. इस के लिए उस ने उस अदृश्य शक्ति को हाथ जोड़े और इसी के साथ तालियों की गड़गड़ाहट…

मेघधनुष लुप्त हो गया. सुप्रिया ने यह सप्तरंगी सपना समेट कर यादों के पिटारे में रख लिया कि जब मन हो पिटारा खोल कर देख लेगी. आखिर सुप्रिया पूरी तरह जमीन पर आ गई. इस की मुख्य वजह चेन्नै से अमित वापस आ गया था. आते ही उस ने फोन कर के यात्रा और अपने काम की सफलता की कहानी सुना कर पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या हाल है, कुछ नया सुनाओ?’’

‘‘कुछ खास नहीं, बस चल रहा है.’’

‘‘नथिंग एक्साइटिंग?’’

‘‘कुछ नहीं, यहां क्या एक्साइटिंग हो सकता है. बस सब पहले की तरह…’’ सुप्रिया ने कहा. कांटेस्ट जीतने की परीकथा उस के होंठों तक आ कर लौट गई. शायद मन में कुछ खटक रहा था.

‘थाटलेस और मीनिंगलेस… चीप इंटरटेनमेंट…’ अमित टीवी के ज्यादातर प्रोग्रामों के लिए यही कहता था. जबकि उस की इस मान्यता का सुप्रिया से कोई लेनादेना नहीं था.

‘‘क्यों कोई लेनादेना नहीं है. उस के साथ शादी करने जा रही है. पूछ तो सही उस से कि उस ने तेरे कार्यक्रम की डीवीडी देखी थी या नहीं? वह देखना चाहता है या नहीं? दुनिया ने उस प्रोग्राम को देखा है. ऐसा भी नहीं कि उसे पता न हो. तब इस में उस से छिपाना क्या?’’ नंदा ने पूछा.

देखा जाए, तो एक तरह से उस का कहना ठीक भी था. सुप्रिया बारबार खुद से पूछती थी कि आखिर उस ने अमित से इस विषय पर बात क्यों नहीं की? किसी न किसी ने तो उसे बताया ही होगा. यह कोई छोटीमोटी बात नहीं थी. चारों ओर चर्चा थी. फिर यह कौन सी चोरी की बात है, जो उस से छिपाई जाए. पर अमित ने भी तो उस से इस बारे में कुछ नहीं पूछा.

सुप्रिया ने सब को पार्टी दी. सभी इकट्ठे हुए. बड़ी दी ने सब का स्वागत किया. क्योंकि मम्मीपापा के बाद इस समय घर में वही सब से बड़ी थीं. धमालमस्ती में उन्होंने कोई रुकावट नहीं डाली थी. अमित को भी आना था, इसलिए सुप्रिया पूरी एकाग्रता से तैयार हुई थी.

‘‘गौर्जियस?’’

उस दिन उस के प्रिय अभिनेता ने भी यही शब्द कहा था और उस समय सुप्रिया को जो सुख प्राप्त हुआ था, वह उसे अभी अमित तक पहुंचा नहीं सकी थी. अमित उस स्वप्नलोक जैसा कहां था. यह तो देखने की बात है, वर्णन करने की नहीं. नंदा तो जैसे मौका ही खोज रही थी. अन्य दोस्त भी कहां पीछे रहते.

सभी ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘यार अमित, यू रियली मिस्ड समथिंग. क्या ठसक थी सुप्रिया की. वह जैसे सचमुच प्रेम कर रहा हो और प्रपोज कर रहा हो… इस तरह घुटने के बल बैठ कर… मान गए यार.’’

‘‘अरे इन एक्टरों के लिए तो यह रोज का खेल है. दिन में दस बार प्रपोज करते हैं ये. यही अभिनय करना तो उन का काम है. यह उन के लिए बहुत आसान है.’’

‘‘सुप्रिया की आंखों में आंखें डाल कर अपलक ताक रहा था और बैकग्राउंड में वह गाना बज रहा था… कि तुम बन गए हो मेरे खुदा…ही वाज सो इंटेंस, सो इमोशनल, माई गौड. अमित, तुम देखते तो पता चलता. उस सब को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता.’’

‘‘इस का मतलब अमित ने उसप्रोग्राम की डीवीडी नहीं देखी. इसे जलन हो रही होगी.’’ रौल ने कहा.

‘‘नो यंगमैन, जलन किस बात की. मुझे इन नाटकों में जरा भी रुचि नहीं है. यह सब दिखावा है. इस सब के लिए मेरे पास जरा भी समय नहीं है.’’

अमित की इन बातों पर सुप्रिया एकदम से उदास हो गई. उस का चेहरा एकदम से उतर गया.

‘‘अमित, तुम जिसे पल भर का नाटक कह रहे हो, उसी पल भर के नाटक में सुप्रिया किस तरह आनंद समाधि में समा गई थी, इस से पूछो. इस का हाथ पकड़ कर जब उस ने अपने होंठों से लगाया तो यह सहम सी गई. सच है न सुप्रिया?’’

सुप्रिया ने हां में सिर हिलाया.

नंदा ने उस के सिर पर ठपकी मार कर कहा, ‘‘चिंता में क्यों पड़ गई, अमित तुझे खा नहीं जाएगा. यह कोई 18वीं सदी का मेलपिग नहीं है.’’

अमित ने नंदा के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘थैंक्यू.’’

सुप्रिया उस समय बड़ी दी को याद कर रही थी. उन्होंने कहा, ‘‘लड़की के व्यवस्थित होने तक तमाम चीजों का ध्यान रखना पड़ता है. हर चीज बतानी पड़ती है. कांटेस्ट में भाग लिया है, इस में क्या बताना. भूल हो गई, कह देना. पर यह झूठ है. कांटेस्ट में हिस्सा लेने के लिए किसी ने जबरदस्ती तो नहीं की थी. अपनी मरजी से हिस्सा लिया था और जीतने की इच्छा के साथ. यह भी सच है कि जीतने की तीव्र इच्छा थी जीत का नशा भी चढ़ा था, इस में कोई झूठ भी नहीं, अब बचाव में कुछ कहना भी नहीं. जो अच्छा लगा, व किया. कोई अपराध तो नहीं किया. साथ रहना है तो यह स्पष्टता होनी ही चाहिए.’’

मन नहीं था, फिर भी सुप्रिया अमित के साथ इंडिया गेट आ गई थी. अब आ ही गई तो इस बारे में क्या सोचना, आने से पहले ही उस ने काफी सोचविचार कर तय कर लिया था कि उसे अपनी बात किस तरह कहनी है. इस के बावजूद काफी गुणाभाग और सुधार कर उस ने कहा, ‘‘अमित, तुम्हें मेरा यह निर्णय खराब तो नहीं लगा?’’

‘‘खराब, किस बारे में?’’

‘‘वही टीवी और कांटेस्ट वाली बात.’’

‘‘छोड़ो न, डोंट टाक रबिश, तुम्हें यह पूछना पड़े, इस का मतलब तुम ने मुझे अभी जानापहचाना नहीं.’’

‘‘ऐसा नहीं है अमित, तुम मुझे मूडलेस लगते हो. तुम ने मुझ से कांटेस्ट की कोई बात तक नहीं की. घर में किसी ने प्रोग्राम देखा हो और किसी को कुछ न अच्छा लगा हो.’’

‘‘तुम्हें पता है मेरे यहां कोई रुढि़वादी या पुरानी सोच वाला नहीं है.’’

‘‘भले ही पुराने विचारों वाला नहीं है. पर कुछ न अच्छा लगा हो.’’

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है.’’

अमित ने दोनों हाथ ऊपर की ओर कर के सूरज की ओर देखते हुए कहा, ‘‘सूर्यास्त देख कर चलना है न?’’

सुप्रिया थोड़ा खीझ कर बोली, ‘‘सूर्यास्त को छोड़ो, तुम अपनी बात करो. चेन्नै से आने के बाद तुम काफी गंभीर हो गए हो. ऐसा क्यों?’’

‘‘नथिंग पार्टिक्युलर. तुम्हें ऐसे ही लग रहा है. तुम्हें इस चिंतित अनुभव के बाद तुम्हें सब कुछ डल और लाइफलेस लग रहा है.’’

‘‘अब आए न लाइन पर. सो यू डिड नाट लाइक इट. सही कहा जा सकता है.’’

‘‘तुम्हें जो अच्छा लगा. तुम ने वह किया. इस में मुझे अच्छा या खराब लगने का कोई सवाल ही नहीं उठता. हमारे संबंधों के बीच अब ये बातें नहीं आनी चाहिए.’’

‘‘सवाल है न. कुछ दिनों बाद हमें साथ जीना है. इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है.’’

‘‘तुम बेकार में पीछे पड़ी हो, फारगेट इट. कोई दूसरी बात करते हैं. कुछ खाते हैं.’’

‘‘अमित, तुम बात बदलने की कोशिश मत करो. मैं आज तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं. चलो, दूसरी तरह से बात करती हूं. तुम ने डीवीडी क्यों नहीं देखी? वैसे तो तुम मुझ में बहुत रुचि लेते हो, भले ही इस बात को तुम चीप इंटरटेनमेंट मानते हो, इस के बाद भी तुम्हें मेरा प्रोग्राम देखना चाहिए था. मेरा प्रोग्राम देखने का तुम्हारा मन क्यों नहीं हुआ? मेरी खातिर तुम्हारे पास इतना समय भी नहीं है?’’

‘‘इस में समय की बात नहीं है. तुम्हें पता है, मुझे ऐसावैसा देखना पसंद नहीं है.’’

‘‘ऐसावैसा मतलब? अमित ऊपर देख कर चलने की जरूरत नहीं है और जिसे तुम चीप कह रहे हो, उसी तरह के अन्य प्रोग्राम तुम देखते हो. यह जो तुम क्रिकेट देखते हो, वह क्या है.’’

‘‘जाने दो न सुप्रिया, बेकार की बहस कर के क्यों शाम खराब कर रही हो.’’

‘‘शाम खराब हो रही है, भले हो खराब. आज मैं यह जान कर रहूंगी कि आखिर तुम्हारे मन में मेरे प्रति क्या है. सचसच बता दो. बात खत्म.’’

अमित ने एक लंबी सांस ली. शाम को पंक्षी अपने बसेरे की ओर जाने लगे थे. उस ने सुप्रिया की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘तुम ने कांटेस्ट में हिस्सा लिया, तुम्हारी मरजी. ठीक है न?’’

‘‘एकदम ठीक.’’

‘‘तुम्हें जीतना था, जिस की मुख्य वजह यह थी कि जीतने पर तुम्हारा फेवरिट हीरो तुम्हारे साथ परफोर्म करता. सच है न?’’

‘‘एकदम सच.’’

‘‘तुम जीतीं और तुम्हारा सपना पूरा हुआ, जिस से तुम्हें खुशी हुई. यह स्वाभाविक भी है. आई एम राइट?’’

‘‘एकदम सही, पर यह क्या मुझे गोलगोल घुमा रहे हो. मुद्दे की बात करो न. शाम हो रही है, मुझे घर भी जाना है. दीदी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘चलो मुद्दे की बात करते हैं. वह अभिनेता, जो इस जीवन में कभी नहीं मिलने वाला तुम से झूठमूठ में प्रपोज किया, तुम से मिलने को आतुर हो इस तरह का नाटक किया, मात्र नाटक, इस झूठमूठ के नाटक में तुम मारे खुशी के रो पड़ीं. सचमुच में रो पड़ीं. तुम्हारी खुशी कोई एक्टिंग नहीं थी. सच कह रहा हूं न?’’

‘‘हां, मैं एकदम भावविभोर हो गई थी. वह खुशी… इट वाज जस्ट टू मच. अकल्पनीय आनंद की अनुभूति हुई थी मुझे.’’

‘‘तुम ने जो कहा, यह सब… अब याद करो, मैं ने तुम्हें प्रपोज किया, अंगूठी पहनाई, गुलाब दिया, हाथ में हाथ लिया, मेरे लिए तुम्हारी आंखें कभी भी एक बार भी प्यार में नहीं छलकीं. सो आई वाज जस्ट थिंकिंग कि यह सब क्या है? सचमुच, मैं यही सोचते हुए यहां आया था. तब से यही सोचे जा रहा हूं. खैर, चलो अब चलते हैं.’

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