रोशन गलियों का अंधेरा: नानी किस सोच में खो गई

“अरी ओ चंचल… सुन क्यों नहीं रही हो? कब से गला फाड़े जा रही हूं मैं और तुम हो कि चुप बैठी हो. आ कर खा लो न…” 60 साल की रमा अपनी 10 साल की नातिन चंचल को कब से खाने के लिए आवाज लगा रही थीं, लेकिन चंचल है कि जिद ठान कर बैठ गई है, नहीं खाना है तो बस नहीं खाना है.
“ऐ बिटिया, अब इस बुढ़ापे में मुझे क्यों सता रही हो? चल न… खा लें हम दोनों,” दरवाजे पर आम के पेड़ के नीचे मुंह फुला कर बैठी चंचल के पास आ कर नानी ने खुशामद की.
“नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो नानी,” कह कर चंचल ने मुंह फेर लिया.
“ऐसा भी हुआ है कभी? तुम भूखी रहो और मैं खा लूं?” कहते हुए नानी ने उसे पुचकारा.
“तो फिर मान लो न मेरी बात. मम्मी से बोलो, यहां आएं.”
“अच्छा, बोलूंगी मैं. चल, अब खा ले.”
“10 दिन से तो यही बोल कर बहला रही हो, लेकिन मम्मी से नहीं कहती हो. अभी फोन लगाओ और मेरी बात कराओ. मैं खुद ही बोलूंगी आने के लिए. बोलूंगी कि यहीं कोई काम कर लें. कोई जरूरत नहीं शहर में काम करने की.
“मुझे यहां छोड़ कर चली जाती हैं और 3-4 महीने में एक बार आती हैं, वह भी एक दिन के लिए. ऐसा भी होता है क्या? सब की मां तो साथ में रहती हैं. लगाओ न फोन…” चंचल मन की सारी भड़ास निकालने लगी.
“तुम जरा भी नहीं समझती हो बिटिया. मम्मी काम पर होगी न अभी. अभी फोन करेंगे तो उस का मालिक खूब बिगड़ेगा और पैसा भी काट लेगा. फिर तेरे स्कूल की फीस जमा न हो पाएगी इस महीने की. जब फुरसत होगी, तब वह खुद ही करेगी फोन,” नानी ने उसे समझाने की कोशिश की.
“ठीक है, मत करो. अब उन से बात ही नहीं करनी मुझे कभी. जब मन होता है बात करने का तो मैं कर ही नहीं सकती. वे जब भी करेंगी तो 4 बजे भोर में ही करेंगी. नींद में होती हूं तब में… आंख भी नहीं खुलती है ठीक से, तो बात कैसे कर पाऊंगी? तुम ही बताओ नानी, यह क्या बात हुई…”
“अच्छाअच्छा, ठीक है. इस बार आने दो उसे, जाने ही नहीं देंगे,” नानी ने उस का समर्थन किया.
“हां, अब यहीं रहना पड़ेगा उन्हें हमारे साथ. चलो नानी, अब खा लेते हैं… भूख लगी है जोरों की.”
“हांहां, मेरी लाडो रानी. 12 बज गए हैं, भूख तो लगेगी ही. चल…”
चंचल उछलतीकूदती नानी के साथ चली गई. दोनों साथसाथ खाने बैठीं. चंचल भूख के मारे दनादन दालभात के कौर मुंह में ठूंसती जा रही थी.
“ओह हो, शांति से खा न. ऐसे खाएगी तो हिचकी आ जाएगी,” नानी ने टोका.
लेकिन वह कहां सुनने वाली थी. मुंह में दालभात ठूंसती जा रही थी.
“आने दो हिचकी. पानी है, पी लूंगी,” चंचल लापरवाही से बोली.
नानी मुसकराईं और उसे देखते हुए पुरानी यादों में खो गईं…
बेचारी नन्ही सी जान. इसे क्या पता कि इस की मम्मी इस के लिए कैसे कलेजे पर पत्थर रख कर दूर रह रही है. आह, दिसंबर की वह सर्द रात… जब वह 8 दिन की इस परी को मेरी झोली में डाल गई थी.
पेट दर्द की न जाने कैसी बीमारी लगी थी मुझे. गांवघर के वैद्यहकीम से दवादारू कर के हार गई थी, लेकिन पेट दर्द जाने का नाम ही नहीं ले रहा था. रहरह कर दर्द उभर आता था.
कुछ पढ़ेलिखे लोगों ने कहा कि शहर में अच्छे डाक्टर से दिखा लो. दिखा तो लेती, लेकिन अकेली कैसे जाती? न पति, न कोई औलाद. बाप की एकलौती बेटी थी मैं. मां मेरे बचपन में ही गुजर गई थीं. मेरी शादी के 2 साल ही तो हुए थे और कोई बच्चा भी नहीं हुआ था. तीसरे साल में पति को जानलेवा बीमारी खा गई. बापू भी बूढ़े हो कर एक दिन परलोक सिधार गए.
रह गई मैं अकेली. दूसरी शादी भी नहीं की, मन ही उचट गया था. हाथ में हुनर था सिलाईबुनाई का तो कुछ काम मिल जाता और घर के पिछवाड़े 3 कट्ठा जमीन में सागसब्जी उगा लेती. जो आमदनी होती उसी से गुजरबसर होती रही.
पेट दर्द अब असहनीय होने लगा था. बड़ी खुशामद के बाद पड़ोसी सहदेव का बेटा मुरली तैयार हुआ साथ में शहर जाने के लिए. शहर तो चली गई, लेकिन मुरली के मन में न जाने कौन सा खोट पैदा हुआ कि मुझे डाक्टर के यहां छोड़ कर बहाने से भाग निकला.
वह तो अच्छा था कि मैं ने पैसा उस को नहीं थमाया था, वरना…
खैर, मैं ने डाक्टर को दिखा तो लिया, लेकिन जब परचे पर जांचपड़ताल के लिए कुछ लिख कर दिया तो अक्कबक्क कुछ न सूझ रहा था. भला हो उस कंपाउंडर बाबू का, जिस ने सब काम करा दिया.
रिपोर्ट 4 बजे के बाद मिलने वाली थी तो मैं वहीं बरामदे पर बैठ कर रिपोर्ट और मुरली दोनों का इंतजार करने लगी. सोचा कि किसी काम से इधरउधर गया होगा, आ जाएगा. लेकिन यह क्या… 4 बज गए, रिपोर्ट भी आ गई, लेकिन मुरली का कोई अतापता नहीं. मन में चिंता हुई कि ठंड का मौसम है, 4 बज गए मतलब अब कुछ ही देर में अंधेरा घिर आएगा. घर कैसे जाऊंगी?
तभी कंपाउंडर बाबू ने रिपोर्ट ले कर बुलाया, तो मैं झोला उठाए चल दी.
डाक्टर साहब ने बताया, “जांच में कुछ गंभीर नहीं निकला है. ठीक हो जाओगी अम्मां. चिंता की कोई बात नहीं. ये सब दवाएं ले लेना,” कह कर डाक्टर ने एक और परचा थमाया.
मन को शांति मिली. पास ही दवा की दुकान थी, वहीं से दवा ले ली. अब घर जाने की चिंता होने लगी. बसअड्डा किधर है? किस बस पर बैठूं? इतनी देर हो गई, अभी बस खुलेगी भी कि नहीं? कुछ समझ नहीं आ रहा था.
कुछ ही देर में अंधेरा घिर आया तो मैं ने वहीं बरामदे के एक कोने में अपने झोले से चादर निकाली और ओढ़ कर यह सोच कर बैठ गई कि रात यहीं गुजार लेती हूं किसी तरह. सुबह कुछ उपाय सोचूंगी.
घर से लाई हुई रोटी और आलू की भुजिया रखी ही थी. भूख भी लग रही थी तो निकाल कर खा ली. 8 बजे वहां मरीजों की आवाजाही सी खत्म हो गई.
तभी गार्ड बाबू आ कर कड़क कर बोला, “ऐ माई, इधर सब बंद होगा अब. चलो, निकलो यहां से.”
“बाबू, रातभर रहने दीजिए न. अकेली हूं और घर भी दूर है. सुबहसवेरे निकल जाऊंगी,” मैं न जाने कितना गिड़गिड़ाई, लेकिन पता नहीं किस मिट्टी का बना था वह. अड़ा रहा अपनी बात पर.
क्या करती मैं भी. झोला उठा कर ठिठुरते हुए सड़क पर निकल पड़ी. भटकती रही घंटों, पर कहीं कोई आसरा न मिला. ठंड भी इतनी कि सब लोगबाग घरों में दुबके थे.
चलतेचलते पैर थक गए तो एक मकान के छज्जे के नीचे सीढ़ी पर रात गुजारने की सोच कर झोला रखा ही था कि 2-4 कुत्ते एकसाथ टूट पड़े.
तभी अचानक से किसी ने जोर से मुझे अपनी तरफ खींचा और धर्रर… से एक ट्रक गुजरा. मुझे कुछ देर होश ही नहीं रहा. जब होश आया तो देखा कि मैं एक पेड़ के नीचे लेटी थी और 22-23 साल की एक खूबसूरत युवती, जिस की गोद में नवजात बच्चा था, मेरा सिर सहला रही थी. तब सब समझ में आ गया कि अगर यह मुझे नहीं खींचती तो ट्रक मेरा काम तमाम कर देता.
“ऐसे बेखबर चलती हो… पता भी है रात के 12 बज रहे हैं, ऊपर से इतनी ठंड. और तो और आंख बंद कर के सड़क पर चलती जा रही हो. अभी ट्रक के नीचे आती और सारा किस्सा खत्म…” वह युवती मुझ पर बरसती जा रही थी, लेकिन उस का बरसना मन को सुकून दे रहा था.
पलभर में हमारे बीच न जाने कौन सी डोर बंध गई कि हम ने एकदूसरे के सामने अपने दिल खोल के रख दिए. उस के दर्द को जान कर कलेजा कांप गया मेरा.
उस का नाम मनीषा था. उसे उस की सौतेली मां ने 14 साल की उम्र में ही एक दलाल के हाथों बेच दिया था और यह बात फैला दी कि वह किसी के साथ भाग गई है.
दलाल ने उसे एक कोठे पर पहुंचा दिया और उस का नाम मोहिनी रख दिया गया. वह न चाहते हुए भी मालिक के इशारे पर नाचती. हर रात अलगअलग मर्द उस के जिस्म से खेलते. कई बार भागने की भी कोशिश की, लेकिन हर बार वह पकड़ी जाती और फिर दोगुनी मार सहती.
एक बार तो वह घर भी पहुंच गई थी, लेकिन सब ने अपनाने से इनकार कर दिया. खूब जलीकटी सुनाई. समंदर भर का दर्द ले कर वह लौट आई फिर उसी अंधेरी गली में.
8 दिन पहले ही उस ने बेटी को जन्म दिया था. पेट से तो वह पहले भी 2 बार रही थी, लेकिन जैसे ही पता चलता कि पेट में लड़का है, फौरन पेट गिरा दिया जाता, क्योंकि लड़कों के जिस्म से कमाई नहीं होती न. इस बार लड़की थी तो उस का मालिक खुश था .
लेकिन मोहिनी हर हाल में अपनी बच्ची को इस दलदल से, इस अंधेरी दुनिया से बाहर निकालना चाहती थी. यही सोच कर वह आज छिपतेछिपाते बाहर निकली थी कि या तो कहीं भाग जाएगी या फिर बेटी के साथ नदी में कूद कर जान दे देगी.
“तुम जान देने की बात कैसे कर सकती हो बेटी, जबकि तुम ने मेरी जान बचाई है. नहींनहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकती,” मुझे जान देने की बात बिलकुल भी पसंद नहीं आई.
“तो फिर मैं क्या करूं अम्मां? तुम ही बताओ भाग कर कहां जाऊं? लोग न मुझे चैन से जीने देंगे, न इस नन्ही सी जान को. ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी से अच्छा है कि हम दोनों मर ही जाएं.”
उस के मुंह से ‘अम्मा’ शब्द सुन कर मेरी छाती में ममता की धार फूट पड़ी.
“तुम ने मेरी जान बचाई है तो मेरी जिंदगी तुम्हारी हुई न. अभीअभी तुम ने अम्मां बुलाया मुझे और मैं ने तुम्हें बेटी… है कि नहीं? तो एक मां के रहते बेटी को किस बात की चिंता? मेरी बेटी और नातिन मेरे साथ रहेंगी, मेरे घर,” नन्ही सी बच्ची को चादर में लपेट कर अपनी छाती से लगा लिया था मैं ने.
“नहीं अम्मां, मैं तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं डाल सकती,” मोहिनी ने एकदम से इनकार कर दिया.
“कैसी मुसीबत? बच्चे मां के लिए मुसीबत नहीं होते हैं. तू चल मेरे साथ. मेरा गांव शहर से दूर है, कोई खोज भी नहीं पाएगा,” मैं ने खूब मनुहार की.
लेकिन वह थी कि मान ही नहीं रही थी. सुबकसुबक कर कहने लगी, “अम्मा, तुझे कुछ नहीं पता… नहीं पता कि इन चकाचौंध वाली गलियों के सरदार की पहुंच कितनी दूर तक है. बड़ेबड़े नेता, मंत्री, अफसर और भी न जाने कितने रसूखदारों को अपनी सेवा देते हैं ये लोग. ऐसी कई हस्तियों के हाथों लुट चुकी हूं मैं भी. मोहिनी का नाम और चेहरा सब का जानपहचाना है. फौरन ढूंढ़ लेंगे ये भेड़िए…
“अम्मा… अब इस नरक की आदी हो चुकी हूं मैं. अब तक कोई मलाल नहीं था, लेकिन अब इस नन्ही जान के लिए कलेजा मुंह को आ जाता है. इसे किसी भी कीमत पर इस नरक में न झोंकने दूंगी उस जालिम को, चाहे जान ही क्यों न देनी पड़े.”
“तो क्या सोचा है तुम ने ?” मुझ से रहा नहीं गया.
“अम्मां, एक एहसान करोगी मुझ पर?” वह कातर स्वर में बोली.
“तू बोल तो सही,” मैं ने आश्वासन दिया तो वह बोली, “तू इसे रख ले अपने पास. पाल ले इसे. मैं खर्च भेजती रहूंगी. खूब पढ़ानालिखाना. और हां, मैं कभीकभी मिलने भी आती रहूंगी सब से छिप कर. लेकिन मेरी सचाई मत बताना कभी, वरना नफरत हो जाएगी इसे. जब पढ़लिख कर समझदार हो जाएगी तो सही समय पर सब सच बता देंगे. बोल अम्मां, तू करेगी यह एहसान मुझ पर?”
मैं ने उसे गले से लगा लिया और हामी भर दी.
“अम्मां, तुम्हारे गांव की तरफ जाने वाली पहली बस सुबह 5 बजे खुलती है. मैं बिठा दूंगी, तुम चली जाना. अभी तो 2 ही बज रहे हैं और ठंड भी इतनी है. चलो, कोई कोने वाली जगह ढूंढ़ लें, कम से कम ठंडी हवा से तो राहत मिले. नींद तो वैसे भी नहीं आएगी,” कह कर उस ने मेरा झोला उठाया और चल पड़ी.
बच्ची मेरी गोद में थी. थोड़ी दूर चलने पर बसअड्डा आ गया. यात्री ठहराव के लिए बने हालनुमा बरामदे पर एक खाली कोने में हम ने रात काटी. वह रातभर बच्ची को अपनी छाती से लगाए रही.
हम दोनों सुबह मुंह अंधेरे उठ गईं. उस ने चादर से मुंह ढक लिया और टिकट ले आई. मुझे बस में बिठा कर उस ने अपने कलेजे के टुकड़े को सौंप दिया.
इस के बाद उस ने मेरे गांव का नामपता एक कागज पर लिख लिया, फिर बोली, “अम्मां, किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए. आज से यह तुम्हारी है. मैं वहां सब से कह दूंगी कि ठंड लगने से मर गई तो फेंक आई नदी में…” उस की आंखें नम थीं, लेकिन एक अलग ही चमक भी थी. बस खुलने ही वाली थी. वह बच्ची को चूम कर तेजी से नीचे उतर गई.
तब से यह मेरे साथ ही है. मोहिनी 2-4 महीने पर आ जाती है मिलने. अब तो फोन खरीद कर दे दिया है, तो जब मौका मिलता है बात भी कर लेती है…
“अरी ओ नानी, हाथ क्यों रुक गया तुम्हारा? खाओ न. मैं इतना सारा नहीं खा पाऊंगी न,” चंचल ने हाथ पकड़ कर अपनी नानी को झकझोरा तो वे वर्तमान में लौट आईं.
“अरे हां, खा ही तो रही हूं. हो गया तुम्हारा तो तुम उठ जाओ,” नानी हड़बड़ा कर बोलीं.
“तुम भी न नानी बैठेबैठे सो जाती हो,” चंचल हंसते हुए बोली और चांपाकल की ओर भागी.

लाल साया: आखिर क्या था लाल साये को लेकर लोगों में डर?

सफेद रंग की वह कोठी उस दिन खुशियों से चहक रही थी. होती भी क्यों ना, घर का इकलौता बेटा विशेष अपने दोस्तों के साथ आज आ रहा था.

‘‘भैया आ गए, भैया आ गए,” महेश ने उद्घोष सा किया. सेठ मदन लाल और उन की धर्मपत्नी विमला देवी तेजी से बाहर की ओर लपके. कार से उतर कर विशेष ने मातापिता के पैर छुए, तो मां ने अपने लाल को गले लगा लिया. उन की आंखें रो रही थीं.

‘‘क्या मां, आप मुझे देख कर हमेशा रोने क्यों लगती हैं? आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगता क्या?” विशेष लाड़ लड़ाते हुए बोला.

‘‘चल पागल,” मां ने नकली गुस्से के साथ हलकी सी चपत लगाई.

अब तक उमेश के साथ रिचा और उदय भी गाड़ी से उतर आए थे. उन के बैठक में बैठते ही महेश एक के बाद एक नाश्ते की प्लेटें लगाने लगा.

‘‘अरे भैया, एक हफ्ते का नाश्ता हमें आज ही करा दोगे क्या?” उदय आंखें फैला कर बोला.

‘‘उदय यार, मां को लगता है न, जब मैं उन के पास नहीं होता हूं, तब मैं शायद भूखा ही रहता हूं, इसलिए जब आता हूं तो बस खिलाती ही जाती हैं. बच नहीं सकते हो, इसलिए चुपचाप खा लो.”

रिचा जो मां के साथ सोफे पर बैठी थी, मां के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘मां तो होती ही ऐसी हैं.”

विमला देवी प्यार से उस का गाल थपथपाने लगीं.

‘‘उमेश बेटा, तुम क्या कर रहे हो?” समोसा उठाते हुए सेठ मदन लाल ने पूछा.

‘‘अंकल मेरी दिल्ली में इलेक्ट्रिकल सामान की शौप है. अच्छी चलती है,” उस के स्वर में सफलता की ठसक थी.

‘‘और शादी…?” मां ने पूछा.

‘‘बस अब शादी का ही इरादा है आंटी. चाहता हूं कि पत्नी को अपने ही मकान में विदा करा कर लाऊं. एक फ्लैट देखा है. पच्चीस लाख का है. लोन अप्लाई किया है. बस मिलते ही अगला कदम शादी होगा. आप लोगों को आना होगा.”

‘‘हां… हां, जरूर आएंगे. और उदय तुम क्या कर रहे हो?” सेठजी उदय की ओर घूमे.

‘‘बस अंकल, अभी तो हाथपैर ही मार रहा हूं. बिजनेस करना चाहता हूं, पर पूंजी नहीं है. व्यवस्था में लगा हूं. अब देखिए ऊंट किस करवट बैठता है,” कहते हुए उदय ने कंधे उचकाए.

‘‘मन छोटा क्यों करते हो बेटा. ऊपर वाला सब रास्ता बना देते हैं. अब चलो ऊपर के कमरे में जा कर तुम सब आराम कर लो,” मां स्नेह से बोलीं.

चारों बच्चों की चुहलबाजी से घर भर गया था. चारों रात का खाना खा कर ऊपर चले गए.

विमला देवी बोलीं, ‘‘यह 2 दिन तो पता ही नहीं चले, पर आप ने उन्हें ऊपर क्यों भेज दिया? बच्चे तो अभी गपें मार रहे थे?”

‘‘अरे भाग्यवान, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें थोड़ी प्राइवेसी चाहिए होती है. तो हम उन के आनंद में रोड़ा क्यों बनें?”

‘‘हां, यह तो सही कह रहे हैं,” कहते हुए विमला देवी मेज पर से प्लेटें उठाने लगीं.

‘‘अरे, तुम क्यों उठा रही हो? महेश कहां है?‘‘

‘‘उस के गांव से फोन आया था कि मां बीमार है उस की, तो मैं ने छुट्टी दे दी.‘‘

‘‘अरे, फिर कैसे होगा? अभी तो ये बच्चे हैं.‘‘

‘‘आप चिंता मत करिए. सब हो जाएगा.‘‘

‘‘मैं कल दूसरे खानसामे का पता करता हूं,‘‘ चिंतित स्वर में सेठजी बोले.

गोली की आवाज से सेठजी की नींद टूट गई. वे समझ नहीं पा रहे थे, यह कैसी आवाज है और कहां से आई. वे फिर से सोने की कोशिश करने लगे, तभी आंगन के पीछे के बगीचे में किसी भारी चीज के गिरने की आवाज आई.

उन्होंने पलट कर पत्नी की ओर देखा. वे गहरी नींद में थीं, तभी सीढ़ियों पर से कदमों की आवाजें आने लगी. वे सधे कदमों से उठे और आंगन में आ गए. आंगन का दरवाजा पूरा खुला हुआ था. वे दबे कदमों से धीरेधीरे दरवाजे की ओर बढ़े. बाहर झांका तो एकदम घबरा गए. तीन आकृतियां अंधेरे में भी स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. तभी एक आकृति ने लाइटर जलाया और सेठजी की आंखें फटी रह गईं.

यह तो विशेष, उदय और उमेश थे, पर अंधेरे में ये तीनों यहां क्या कर रहे हैं. सोचते हुए सेठजी ने कड़क कर पूछा, ‘‘कौन है वहां?”

उमेश लपक कर उन के पास आ गया और फुसफुसाया, ‘‘अंकल, आवाज मत करिए. बहुत गड़बड़ हो गई है.”

‘‘क्या हुआ?”

‘‘नशे में, विशेष ने रिचा को धक्का दे दिया… और वह ऊपर से गिर कर मर गई.”

‘‘क्या…?” सदमे से उन की आंखें फैल गईं. वे वहीं बैठ गए.

‘‘अंकल, आप खुद को संभालिए और विशेष को भी. मैं कुछ करता हूं,‘‘ उमेश सेठजी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘ठीक से देखो, शायद डाक्टर उसे बचा पाए,‘‘ डूबते स्वर में वे बोले.

‘‘नहीं अंकल, मैं देख चुका हूं… अंकल, यहां कहीं फावड़ा है क्या?‘‘

बिना कुछ बोले सेठजी ने एक ओर इशारा किया.

‘‘आप यहीं बैठिए अंकल,‘‘ कहता हुआ उमेश वापस दोस्तों के पास चला गया और नशे में धुत्त विशेष को सहारा दे कर सेठजी के पास ले आया. विशेष बडबडाए जा रहा था, ‘‘मैं ने मार दिया. मैं ने मार दिया.‘‘

बेटे का यह हाल देख कर सेठजी की आंखें बरसने लगीं.

उमेश ने उदय की मदद से बड़ा सा गड्ढा खोद कर उस में रिचा को गाड़ कर समतल कर दिया. फिर अंदर जा कर एक आदमकद स्त्री की मूर्ति जो कमर पर घड़ा लिए हुई थी उठा लाया और उस को घुटने तक उसी में गाड़ दिया. 5-6 गमले भी उस के अगलबगल सजा दिए.

पौ फटने लगी थी. विशेष वहीं जमीन पर सो गया था. सेठजी स्वयं को संभाल चुके थे. रातभर की कड़ी मेहनत से थके हुए उमेश व उदय उन के पास आए.

‘‘बेटा…” सेठजी के पास शब्द नहीं थे.

‘‘अंकल, आप चिंता मत कीजिए. विशेष हमारा बहुत प्रिय मित्र है. हम उसे किसी संकट में नहीं पड़ने देंगे. यह बात बस हम चारों के बीच में ही रहेगी.”

‘‘हम तुम्हारे आभारी रहेंगे बेटा,” सेठजी की रोबीली आवाज की जगह एक पिता की निरीहता ने ले ली थी.

‘‘अंकल, आप को अपना माली बदलना पड़ेगा,‘‘ उमेश मूर्ति की ओर देख कर बोला.

‘‘ठीक है.‘‘

‘‘और अंकल, हम विशेष को ऊपर ले जा रहे हैं. आज आप किसी को ऊपर मत आने दीजिएगा, नहीं तो रिचा की अनुपस्थिति को छुपाना मुश्किल हो जाएगा.‘‘

‘‘महेश तो आज छुट्टी पर है. गांव गया है.‘‘

‘‘फिर तो बहुत अच्छा है. हम दोनों आज शाम तक निकल जाते हैं. सब को लगेगा कि हम तीनों चले गए.‘‘

‘‘ठीक है, मैं ड्राइवर को बोल दूंगा.”

‘‘नहीं, नहीं, अंकल, आप के ड्राइवर के साथ नहीं.”

‘‘हां, ठीक कह रहे हो. मैं टैक्सी बुला दूंगा.‘‘

‘‘जी.”

दोपहर में तीनों लड़के नीचे आए तो विमला देवी की सूजी आंखें उन के दिल का भेद खोल रही थीं.

‘‘पापा मुझे माफ कर दीजिए. मैं आज के बाद कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाऊंगा,” कहते हुए विशेष पिता के पैरों में गिर पड़ा. वह फूटफूट कर रो रहा था.

निशब्द उन्होंने उठा कर बेटे को गले लगा लिया.

‘‘रिचा… पापा रिचा… मुझे कुछ याद नहीं है…” वह हिचकियों के साथ बोला.

‘‘मैं हूं ना बेटा… सब संभाल लूंगा… और फिर तुम इतने भाग्यशाली हो कि तुम्हारे इतने अच्छे दोस्त हैं.”

‘‘अंकल, हम दोनों दिन में ही निकल जाते हैं. हम ने ऊपर सब ठीक कर दिया है.”

‘‘मैं ने दूसरा ड्राइवर बुला रखा है. वह तुम्हें छोड़ आएगा. और हां बेटा, जैसे विशेष वैसे ही तुम लोग. इसलिए यह छोटी सी भेंट है. तुम्हारे मकान के लिए पच्चीस लाख का यह चेक है. और तुम्हारे बिजनेस के लिए पच्चीस लाख का यह चेक है.‘‘

‘‘अरे अंकल…‘‘

‘‘बस रख लो बेटा, मुझे खुशी होगी,‘‘ बिना आंखें मिलाए सेठजी बोले.

कालोनी में इस बात की चर्चा जाने कैसे फैल गई कि सेठ मदन लाल के घर रात में गोली चली थी. सफाई देदे कर दोनों परेशान थे. विमला देवी ने तो सब से मिलना ही बंद कर दिया. सेठ मदन लाल तनाव में रहने लगे. ऊपर से रिचा की गुमशुदगी की रिपोर्ट के चलते पुलिस जांच करने उन के घर आ धमकी. बड़ी मुश्किल से लेदे कर सेठजी ने मामला निबटाया.

इस घटना को 4-6 महीने बीत गए थे. एक दिन विमला देवी बोलीं, ‘‘सुनिएजी, कहीं विशेष की शादी की बात चलाइए. अब उस की शादी तो करनी ही है ना…‘‘

‘‘देखो, थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. जल्दबाजी ठीक नहीं. देख तो रही हो जितने शादी के प्रस्ताव थे, सभी कोई ना कोई बहाना कर पीछे हट गए. पता नहीं कैसे समाज में हमारे परिवार को ले कर नकारात्मक माहौल बन गया है. तो अब थोड़ी प्रतीक्षा ही करनी होगी.”

‘‘मुझे तो बड़ी चिंता हो रही है.”

‘‘मां, मुझे शादी नहीं करनी है. कितनी बार तो कह चुका हूं. फिर वही विषय ले कर बैठ जाती हैं आप,” विशेष अचानक कमरे में आ गया था.

तभी मदन लाल जी का फोन घनघनाया.

‘‘हां उमेश, बेटा.‘‘

‘‘अरे, पिछले हफ्ते ही तो 10 लाख तुम्हारे अकाउंट में डाले थे. नहीं, अब मैं और नहीं दे सकता,’’ कह कर उन्होंने गुस्से से फोन काट दिया.

‘‘उमेश… आप से पैसे मांग रहा है?” चकित सा विशेष पिता को देख रहा था.

‘‘पैसे नहीं मांग रहा है… ब्लैकमेल कर रहा है. 10-10 लाख दो बार ले चुका है और अब फिर…‘‘ गुस्से से वे हांफने लगे थे.

‘‘मुझे कुछ नहीं बताया उस ने,” विशेष के स्वर में हैरानी थी.

‘‘अरे, आप को क्या हो रहा है?” विमला देवी उठ कर पति के सीने पर हाथ फेरने लगीं, जिसे वे कस कर दबा रहे थे. उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया, परंतु बचाया नहीं जा सका.

हंसताखिलखिलाता घर बिखर गया. घर में जैसे मुर्दनी छा गई थी. विशेष पिता की जगह अपनी शर्राफे की दुकान पर बैठने लगा था. दिन जैसेतैसे कट रहे थे.

‘‘विशेष, छुटकी की शादी का न्योता आया है. जाना पड़ेगा,” मां विशेष के आते ही बोलीं.

‘‘ठीक है मां, मैं मामाजी के यहां आप के जाने की व्यवस्था कर देता हूं.”

‘‘नहीं बेटा तुझे भी चलना होगा.”

‘‘आप जानती तो हैं मां…”

‘‘जानती हूं, तू कहीं नहीं जाना चाहता. परंतु मीरा की शादी में भी तू पढ़ाई के कारण नहीं जा पाया था. उन्हें लगेगा, उन की गरीबी के कारण तू उन के घर नहीं आता.”

‘‘यह सच नहीं है मां. मेरे लिए रिश्ते महत्व रखते हैं. गरीबीअमीरी तो मैं सोचता भी नहीं. मैं मामाजी की बहुत इज्जत करता हूं,‘‘ विशेष ने प्रतिवाद किया.

‘‘जानती हूं, इसीलिए चाहती हूं कि तू मेरे साथ चल. दो दिन की ही तो बात है,‘‘ बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए वे बोलीं.

‘‘ठीक है मां, जैसा आप चाहे.‘‘

गांव में उन की गाड़ी के रुकते ही धूम मच गई ‘‘बूआजी आ गईं, बूआजी आ गईं.”

भाईभाभी के साथ छुटकी भी दौड़ी आई और उस के साथ में थी उस की प्यारी सहेली रजनी. विशेष पर नजर पड़ते ही अपनी सुधबुध खो बैठी. सब एकदूसरे को दुआसलाम कर रहे थे और रजनी अपलक विशेष को निहारे जा रही थी.

‘‘रजनी, भैया को ऐसे क्यों  घूर रही हो?‘‘ छुटकी ने कोहनी मारी.

सब उधर ही देखने लगे. रजनी के साथसाथ विशेष भी झेंप गया, ‘‘नहीं… कुछ नहीं…‘‘ कहते हुए रजनी बूआजी का सामान निकलवाने लगी.

‘‘आप रहने दीजिए, मैं निकलवा दूंगा,’’ विशेष ने उसे टोका.

‘‘आप तो पाहुन हैं,” वो खिलखिलाई और बैग उठा कर अंदर भाग गई.

‘‘बहुत ही प्यारी बच्ची है बीबीजी. अपनी छुटकी की सब से पक्की सहेली है. जान छिड़कती हैं दोनों एकदूसरे पर,” स्नेह से भौजाई बोलीं.

जब तक सब लोग आ कर बैठे, रजनी सब के लिए शरबत ले कर हाजिर थी. बूआजी सब से बोलतीबतियाती रहीं, पर निगाह उन की हर पल रजनी पर ही टिकी रही. एक आशा की किरण दिखाई दी थी उन्हें. रजनी का स्पष्ट झुकाव उन के सुदर्शन बेटे पर दिखाई दे रहा था. और कितने महीनों बाद विशेष भी खुश दिखाई दे रहा था. शाम को जब ढोलक की थाप पर रजनी नाची तो विमला देवी लट्टू ही हो गईं.

‘‘भाभी, रजनी तो वाकई बहुत अच्छा नाचती है.”

‘‘हां बीबीजी, बहुत भली और गुणी लड़की है. पढ़ने में भी अव्वल आती है. वजीफा पाती है. लगन की ऐसी पक्की कि जाड़ा, गरमी, बरसात साइकिल से कसबे तक पढ़ने जाती है,” स्नेह पगे स्वर में भौजाई बोलीं.

‘‘अपने विशेष के लिए कैसी रहेगी?” वे सीधे भाभी की आंखों में देख रही थीं.

‘‘बीबीजी, लड़की तो बहुत ही अच्छी है. लाखों में एक. जोड़ी भी बहुत अच्छी लगेगी, लेकिन…‘‘ बात अधूरी ही छोड़ दी उन्होंने.

‘‘लेकिन क्या…?‘‘

‘‘लेकिन, बहुत गरीब परिवार से है. आप की हैसियत की तो छोड़ दीजिए. साधारण शादी भी नहीं कर सकेंगे वे लोग.‘‘

‘‘क्या करते हैं इस के पिता?‘‘

‘‘खेतों में मजदूरी करते हैं. बहुत नेक इनसान हैं दोनों. ये उन की इकलौती संतान है.”

‘‘आप उन से बात कराइए.”

‘‘आप मजदूर परिवार से बहू लाएंगी?”

‘‘इतनी योग्य बहू मिल रही है, तो क्यों नहीं?”

‘‘बीबीजी, एक बार विशेष से तो पूछ लीजिए.”

‘‘वो देखिए भाभी, डांस कर के सीधे विशेष के पास खड़ी है. कैसे दोनों हंसहंस कर बातेें कर रहे हैं. आप को पूछने की जरूरत लग रही है क्या?” मुसकरा कर विमला देवी ने पूछा.

रजनी के लिए आए इस प्रस्ताव से छुटकी की शादी की खुशी दुगुनी हो गई. विशेष ने मौका देख रजनी को किनारे बुलाया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हें कुछ बताना है.‘‘

‘‘अब जो भी बताना, शादी के बाद ही बताना,” कहती हुई रजनी मंडप में जा कर छुटकी के पास बैठ गई.

दो दिन के आगेपीछे दोनों सहेलियां एक ही शहर में विदा हो कर आ गईं. गाड़ी से उतर कर रजनी अपनी कोठी को देख कर खुद ही अपने भाग पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे रजनी अपने इस नए घर में रचनेबसने लगी. परंतु उसे जाने क्यों किसी तीसरे के होने का एहसास लगातार होता. विशेष भी सपने में लगातार किसी से माफी मांगता रहता. कभीकभी अचानक वह डर कर उठ जाता. पूछने पर वह कहता, ‘‘कुछ नहीं, सो जाओ.‘‘

एक दिन उसे आंगन में एक लड़की लाल सूट में दिखाई दी. जब रजनी उस के पीछे भागी, तो वह आंगन से पीछे की बगिया की ओर चली गई. रजनी उस के पीछेपीछे वहां पहुंची तो उसे लगा कि वह लाल साया उस घड़े वाली मूर्ति में समा गया है.

यह देख रजनी बुरी तरह डर गई. सास से कहा, तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा भ्रम है बहू.‘‘

कई दिनों से रजनी देख रही थी कि विशेष के फोन पर किसी उमेश का फोन बारबार आ रहा था. परंतु वह उठा नहीं रहा था. पर उस फोन के बाद विशेष बहुत विचलित हो जाता था. रजनी समझ नहीं पा रही थी कि समस्या क्या है. पूछने पर विशेष टाल दे रहा था.

रजनी ने इस समस्या की तह में जाने का फैसला किया. रसोई में जा कर वह बोली, ‘‘महेश भैया चाय बन गई क्या?‘‘

‘‘हां, हां, बस बनी ही समझो बहूरानी. आज आप जल्दी जाग गए.‘‘

‘‘हां, अच्छा यह बताइए कि आप के भैया के दोस्त कौनकौन हैं?‘‘

‘‘काहे?‘‘

‘‘ऐसे ही, कोई आता ही नहीं है ना, इसीलिए पूछा. कोई काम नहीं था. जाने दीजिए.‘‘

‘‘बहूरानी, भैया के ज्यादा दोस्त नहीं हैं. घर पर तो केवल दो ही दोस्त देखे हैं हम ने. एक उदय और एक उमेश. बहुत समय पहले आए रहे,” चाय पकड़ता हुआ महेश बोला. पता नहीं, क्या सोच कर उस ने रिचा का नाम नहीं लिया.

दिन में रजनी अपनी सहेली छुटकी के घर चली गई. वहां लंच पर आए उस के पति सबइंस्पेक्टर विजय से भी मुलाकात हो गई.

‘‘जीजाजी, आप की थोड़ी मदद चाहिए थी.”

‘‘अरे साली साहिबा, आप आदेश दीजिए.”

‘‘मुझे लगता है कि मेरे पति को कोई परेशान कर रहा है.”

‘‘कौन…?”

‘‘यह मैं नहीं जानती, पर मुझे दो पर शक है.‘‘

‘‘अच्छा, किस पर…?‘‘

‘‘एक मेरे पति का दोस्त है उमेश, उस पर और एक आत्मा है.”

‘‘आत्मा…? पागल हुई है क्या रजनी तू?” छुटकी हड़बड़ा कर बोली.

‘‘एक मिनट छुटकी, उसे अपनी बात कहने दो.”

कमरे में मौन पसर गया.
‘‘तो साली साहिबा, आप को वह आत्मा कभी दिखाई दी क्या?”

‘‘जी, आज सपने में आ कर मुझसे मुक्ति दिलाने की प्रार्थना कर रही थी. न्याय दिलाने की गुहार लगा रही थी.”

‘‘सपने में…?”

‘‘हां, आज सपने में आई थी. वैसे दो बार घर के आंगन में लाल सूट पहन कर घूमते हुए देखा है मैं ने उसे. पर उस के पीछे जाने पर वह बगीचे में लगी मूर्ति में समा जाती है.‘‘

अपने पर्स में से रजनी ने एक कागज का टुकड़ा निकाला, ‘‘यह उमेश का नंबर है. मैं आप की सुविधा के लिए ले आई थी.”

‘‘यह आप ने बहुत अच्छा किया. आप मुझे विशेष का नंबर भी दे दीजिए. मुझे थोड़ा समय दीजिएगा. मैं इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करता हूं. आप का एरिया मेरे थाने में ही आता है.”

हफ्ता भी नहीं बीता था कि सुबहसुबह विनय रजनी के घर आ गए.

‘‘अरे रजनी देखो तो सही, तुम्हारी सहेली के पति आए हैं,” स्वयं को संयत रखते हुए विशेष ने पत्नी को आवाज दी और विनय को बैठक में ले आया.

‘‘मुझे आप से कुछ बात करनी थी?”

‘‘मुझ से…?‘‘ आश्चर्य और घबराहट दोनों थी विशेष की आवाज में.

‘‘आप को कोई ब्लैकमेल कर रहा है?‘‘ विजय ने सीधेसीधे पूछा.

‘‘ज्ज ज जी म म मेरा मतलब है क्या?” विशेष बुरी तरह घबरा गया.

‘‘देखिए विशेष, हम रिश्तेदार हैं. मेरी हमदर्दी आप के साथ है. मैं एक ब्लैकमेल के केस को हल करने की जांच में लगा हुआ हूं. उसी सिलसिले में आप का नंबर भी मिला. उमेश एक ब्लैकमेलर है. उसे तो खैर हम पकड़ ही लेंगे, परंतु वह आप को बारबार फोन क्यों कर रहा है. यही जानने के लिए मैं आया हूं,‘‘ विजय शांत स्वर में बोले.

विशेष सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गया. उस के नेत्र बरस रहे थे. पत्नी और मां भी आ गए थे. रजनी का हाथ पकड़ कर वह बोला, ‘‘रजनी ये ही वो बात है, जो मैं शादी से पहले तुम्हें बताना चाहता था, पर तब तुम ने सुना नहीं. बाद में इसे बताने, ना बताने का कोई अर्थ नहीं था. तुम्हारे पूछने पर भी नहीं बताया.

‘‘काश, वह काली रात मेरे जीवन में ना आई होती. उस रात हम छत पर पार्टी कर रहे थे. मैं पीता नहीं हूं. परंतु दोस्तों ने मुझे बहुत पिला दी थी. शायद इसीलिए मुझे चढ़ गई थी. मुझे कुछ होश नहीं था. दोस्तों ने बताया कि नशे में मैं ने रिचा को छत से धक्का दे दिया था. वह सिर के बल गिर कर मर गई.

‘‘मुझे तो होश नहीं था. उन दोनों ने ही रिचा की लाश को ठिकाने लगाया और इस राज को अपने तक सीमित रखने का वादा कर चले गए. पिताजी ने दोनों को पच्चीसपच्चीस लाख रुपए दिए थे. थोड़े समय बाद उमेश पिताजी को ब्लैकमेल करने लगा. एक दिन पिताजी को बहुत गुस्सा आ गया. उसी में हार्ट अटैक से उन की मृत्यु हो गई. दस महीने वह शांत रहा और अब फिर से वह मुझे फोन कर रहा है. मैं जवाब नहीं दे रहा. जानता हूं कि एक बार दे दूंगा तो इस का कोई अंत नहीं होगा. कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा. ऊपर से मुझे और रजनी को रिचा लाल सूट में आंगन में घूमती दिखाई देती है. उस दिन उस ने यही लाल सूट पहना था,” विशेष ने विजय की ओर देखा.

‘‘रास्ता तो एक ही है विशेष, आप को आत्मसमर्पण करना होगा,” विजय बोले.

‘‘लेकिन जीजाजी, ये तो वो दोस्त कह रहे हैं न कि धक्का विशेष ने दे दिया था. क्या पता, उन में से ही किसी ने दिया हो?‘‘

‘‘हां, यह संभव है, पर जब तक सिद्ध नहीं होता, तब तक तो…”

‘‘क्या हम उस लाश की फौरेंसिक जांच नहीं करा सकते? उस से तो पता चल जाएगा ना?” रजनी ने पूछा.

‘‘हां, उस से पता चल जाएगा. और यह मैं करा भी दूंगा. फिलहाल तो आप को समर्पण करना होगा. मेरा एक दोस्त है, बहुत अच्छा वकील है. मैं उस से बात कर लूंगा. वह आप का केस लड़ेगा. उदय और उमेश को पकड़ने के लिए दो टीमें जा चुकी हैं.”

फौरेंसिंक टीम ने कंकाल को जब निकाला तो उस के नीचे एक रिवौल्वर भी दबी मिली. और जब रिपोर्ट आई, तो सब चकित रह गए. रिपोर्ट हूबहू वही कह रही थी, जो उदय ने कोर्ट में बयान दिया था. रिचा की मौत गिरने से नहीं गोली लगने से हुई थी. रिवौल्वर पर उमेश के फिंगरप्रिंट्स भी मिले थे.

मजिस्ट्रेट के सामने इकबालिया स्टेटमैंट में उदय ने बयान दिया, ‘‘उस रात उमेश ने रिचा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था, जिसे उस ने मना कर दिया. गुस्से में उमेश ने गोली चला दी और वो रिचा के सिर के पार हो गई. विशेष नशे में धुत्त पड़ा था. उदय डर कर चिल्लाने लगा, तो उस ने उसे शांत कराया और समझाया कि जो हो गया, वह हो गया. विशेष के पिता बहुत अमीर हैं. हम रिचा को गिरा कर कहेंगे कि विशेष ने नशे में उसे धक्का दे कर मार डाला और इस राज के बदले उन से पैसे वसूल लेंगे. और यही हुआ. अंकल ने बिना मांगे हमें पच्चीस-पच्चीस लाख रुपए दे दिए. उस के बाद का मुझे कुछ पता नहीं. हम ने एकदूसरे से कोई संपर्क नहीं किया.”

फौरेंसिक रिपोर्ट और चश्मदीद की गवाही के आधार पर विशेष को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया.

पत्नी व मां के साथ कोर्ट से बाहर आ कर इंस्पेक्टर विजय से हाथ मिलाते हुए विशेष बोला, ‘‘आप ने और रजनी ने मिल कर मुझे जेल से ही नहीं, बल्कि लाल साए के आतंक से भी मुक्त करा दिया है. इतने समय बाद आज मैं सुकून से सो सकूंगा.”

लाल साए का राज अब राज नहीं था. वह असल में उमेश ही था, जो खिड़की से लाल ओढ़नी में घुस कर झलक दिखा कर भाग जाता था. उदय के साथ मिल कर उस ने यह नाटक इन फालतू बातों में विश्वास करने वाले परिवार को पैसे देते रहने के लिए रचा था.

रजनी ने पहले ही दिन पैरों के निशान से भांप लिया था कि वे मर्द के निशान हैं किसी आत्मावात्मा के नहीं.

पश्चात्ताप की आग: निशा को कौनसा था पछतावा

बरसों पहले वह अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन व पति नरेश को ले कर भारत से अमेरिका चली गई थी. नरेश पास ही बैठे धीरेधीरे निशा के हाथों को सहला रहे थे. सीट से सिर टिका कर निशा ने आंखें बंद कर लीं. जेहन में बादलों की तरह यह सवाल उमड़घुमड़ रहा था कि आखिर क्यों पलट कर वह वापस भारत जा रही थी. जिस ममत्व, प्यार, अपनेपन को वह महज दिखावा व ढकोसला मानती थी, उन्हीं मानवीय भावनाओं की कद्र अब उसे क्यों महसूस हुई? वह भी तब, जब वह अमेरिका के एक प्रतिष्ठित फर्म में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर थी. साल के लाखों डालर, आलीशान बंगला, चमचमाती कार, स्वतंत्र जिंदगी, यानी जो कुछ वह चाहती थी वह सबकुछ तो उसे मिला हुआ था, फिर यह विरक्ति क्यों? जिस के लिए निशा ससुराल को छोड़ कर आत्मविश्वास और उत्साह से भर कर सात समंदर पार गई थी, वही निशा लुटेपिटे कदमों से मन के किसी कोने में पछतावे का भाव लिए अपने देश लौट रही थी.

उद्घोषिका की आवाज सुन कर नरेश ने निशा की सीटबेल्ट बांध दी. आंखें खोल कर निशा ने देखा तो पाया कि नरेश कुछ अधिक ही उत्साही नजर आ रहे थे. एकदम बच्चों की तरह बारबार किलक कर हंस रहे थे. इतने खुश इन 20 सालों में वह पहले कभी नहीं दिखे.

अमेरिका की धरती पर तो नरेश ने एक लंबी चुप्पी ही साध ली थी. और उन की चुप्पी को कमजोरी समझ कर निशा अब तक अपनी मनमानी करती रही थी.

आंखों ही आंखों में नरेश बारबार निशा को भरोसा दिला रहे थे कि देखना हवाईअड्डे पर हमें लेने बाबूजी जरूर आएंगे. मेरे रिश्तों की नींव इतनी कमजोर नहीं कि जरा से भूकंप से हिल जाए.

सामान ले कर बाहर आने के बाद भी जब कोई घर का सदस्य नजर नहीं आया तो नरेश थोड़ा परेशान हो गए पर तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘मुन्ना.’’ पलट कर देखा तो शीतल, गरिमामय व्यक्तित्व के स्वामी बाबूजी खडे़ थे. मां के अंतिम संस्कार में न आ सकने के कारण शरम से गडे़ जा रहे नरेश को आगे बढ़ कर बाबूजी ने हृदय से लगा लिया. बहू निशा, जो भारत की धरती पर उतरने से पहले तक चरणस्पर्श को ‘अति विनम्रता प्रदर्शन’ मानती थी, अनायास ही अपने ससुर के कदमों में झुक गई. बाबूजी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा. बचपन और बुढ़ापा एक जैसा होता है, बालक और बूढे़ जितनी जल्दी रूठते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं. बाबूजी से स्नेह पाते ही निशा और नरेश दोनों की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे और एक पिता के रूप में चौधरी निरंजन दास की अनुभवी आंखें ताड़ गईं कि दाल में जरूर कहीं कुछ काला है. पर वह यह सोच कर खामोश रहे कि बच्चे कितने भी बडे़ क्यों न हो जाएं मांबाप की गोद में अपने को हमेशा महफूज समझते हैं.

इस के बाद 2 सुंदर, सजीले, मजबूत कदकाठी के नौजवान आए और चट से निशा के पैरों में झुक गए. दोनों में से एक ने आंख दबा कर पूछा, ‘‘क्यों चाची, पहचान रही हो कि नहीं?’’ और फिर जोर से ठहाका मार कर हंसने लगा. निशा अपलक दोनों को देखती रह गई.

तो ये बडे़ जेठ के बेटे केशव और यश हैं, सुंदर, सुशील, विनम्र और रोबीले, बिलकुल अपने दादा की प्रतिकृति. जिन्हें कभी निशा देहाती, गंवार और उजड्ड कहा करती थी, जो धूल सने हाथों से कच्ची अमियां तोड़ कर खाते थे और जिन की नाक हमेशा बहती रहती थी, ऐसे दोनों बच्चों के चेहरों से अब विद्वता और शालीनता टपक रही थी. यह सोच कर निशा को शक भी हुआ कि हमेशा घरेलू कामों में व्यस्त रहने वाली जेठानी के हाथों ने कौन से सांचे में ढाल कर इन्हें इतना योग्य बनाया है.

निशा के विचारों की कड़ी अपनी जेठानी रमा की आवाज सुन कर टूटी. साधारण रूपरंग, थुलथुल बदन, चौडे़ किनारे की साड़ी पहने रमा ने भौंहों के बीच बड़ी बिंदिया लगाई थी. बडे़ प्रेम से वह निशा के गले मिली और कान में धीरे से फुसफुसा कर बोली, ‘‘देवरानीजी, कम से कम बिंदिया तो लगाया करो.’’

पहले निशा उन के इस तरह टोकने पर चिढ़ती थी क्योंकि वह उन्हें एक औसत सोच वाली घरेलू महिला भर समझती थी पर आज इस बात पर मन में कोई भाव नहीं आया. रमा के चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव, असीम तेज और आत्मत्याग की पवित्र आभा के दर्शन हुए.

गाड़ी में बैठने के बाद बाबूजी ने कहा कि रौनक और रौशन भी साथ आ जाते तो उन्हें भी नजर भर कर देख लेता और गीली पड़ गई आंखों की कोर को वे कंधे पर पडे़ सफेद गमछे से पोंछने लगे.

रौनक और रौशन का नाम सुनते ही निशा और नरेश दोनों के चेहरों से चमक गायब हो गई. क्या कहे निशा? कैसी परवरिश दे सकी वह अपने बेटों को. एक आज फ्लोरिडा की जेल में बंद है तो दूसरा आजाद जिंदगी के फैशन की तर्ज पर किसी पैसे वाली अमेरिकी महिला के साथ होटल में रह रहा है.

किस गर्व से अभिमानित हो कर वह अपने दोनों बेटों को ससुराल के सामने रखती और कहती कि देखो, तुम लोगों से दूर ले जा कर, उस नई दुनिया का नवीन चलन अपना कर किस कदर मैं ने इन की ंिजंदगी संवारी है.

गाड़ी रुकी तो देखा ससुराल आ गई थी. पुरखों की हवेली 2 हिस्सों में बांट दी गई थी. अंदर कदम रखते ही निशा ने देखा सामने सास की बड़ी तसवीर टंगी थी. तसवीर पर चढ़ाए ताजे फूल इस बात के गवाह थे कि उन के प्रति घर में रहने वालों की संवेदनाएं अभी बासी नहीं हुई थीं.

अतीत के चलचित्र परत दर परत निशा के सामने खुलने लगे. अमेरिका में उस का बड़़ा सा घर, पैसे को ले कर मां और बेटे के बीच बहस, फिर हाथ में हथौड़ा ले कर रौनक  का उस के सिर पर वार करना और पैसे ले कर घर से भागना, फिर पुलिस, हथकड़ी और इस के आगे वह कुछ नहीं सोच सकी और बेहोश हो गई.

होश में आई तो देखा केशव उस के पैरों के तलवे सहला रहा था. यश डाक्टर को लेने गया हुआ था और बाबूजी सिरहाने बैठे थे. वह फूटफूट कर रो पड़ी. बाबूजी उन बहते आंसुओं को देख कर सोच में पड़ गए. बडे़ प्रेम से निशा के सिर पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘बिटिया, तू हमेशा मुझ से लड़ती रही पर रोई नहीं, आज विदेश से ऐसा कौन सा दुख हृदय में बसा कर लाई है जो पलकों पर आंसू हैं कि सूखते नहीं.’’

निशा सूनी आंखें लिए बाबूजी को देखती रही.

दूसरे दिन जब निशा की नींद खुली तो देखा नरेश परिवार के साथ बैठ कर हंसहंस कर नाश्ता कर रहे हैं. मक्के की रोटी और सरसों का साग ऐसे उंगली चाटचाट कर खा रहे हैं जैसे इतने सालों तक अमेरिका में ये भूखे ही रहे. अमेरिका में गुमसुम से अकेले मेज पर बैठ कर टोस्ट चबाते थे. आफिस में भी ठंडागरम जैसा भी मिलता था खा लेते थे. तब निशा को ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि वह महज पेट भरने के लिए खा रहे हैं. अपने बच्चे थे फिर भी उन से बात इंटरनेट या ईमेल के जरिए होती थी. पैसों की जरूरत क्रेडिट कार्ड पूरी कर देता था. इस अकेलेपन से नरेश अंदर ही अंदर घुटते रहे और मुरझा गए.

निशा को लगा कि नरेश एक ऐसे पौधे की तरह थे जो खुली हवा और स्वतंत्र वातावरण में सांस लेना चाहता था, पर उस ने उस पौधे को सजावट बढ़ाने के लिए फैशनेबल ढंग से ट्रिम किया और गमले में सजा दिया, जिस से वह पौधा खिलने के बजाय मुरझा गया.

वह बिस्तर से उठी और फे्रश होने के बाद जा कर टेबल पर बैठ गई. यश और केशव उस से हंसहंस कर अपने बारे में बताने लगे. पता चला यश कुछ दिन हुए कंप्यूटर विज्ञान में स्नातक हो कर लौटा है और केशव खानदानी कामधंधे में पिता का हाथ बंटा रहा है. रमा रसोई और खाने की मेज के बीच आ जा रही थी और दोनों बच्चे अपनेअपने सामान के लिए मांमां करते हुए उन के आगेपीछे घूम रहे थे.

यह सब देख कर निशा को लगा, रमा दी ने त्याग, समर्पण और अपनत्व भरे स्वाभिमान के जो बीज कूटकूट कर दोनों बेटों में भरे थे, फलित हो रहे थे.

वहीं निशा ने अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन में भर दिया था, अहंकार से भरा लबालब आत्म अभिमान, किसी भी वस्तु को अपनी शर्तों पर पा लेने की लालसा, चाहे कुछ भी दांव पर लग जाए. अमेरिका के एक बहुत बडे़ फर्म की जनसंपर्क अधिकारी भारत की एक साधारण सी गृहस्थ महिला से तीव्र ईर्ष्या का अनुभव करने लगी.

रमा दी को एक बड़ी सी तश्तरी में बाबूजी के लिए गुड़, चना और दूध का गिलास रख ले जाते हुए निशा ने देखा. धीरेधीरे कलेवा लेते हुए ससुर और बहू आज के राजनीतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मामलों पर चर्चा कर रहे थे.

निशा ने रमा को इस बात के लिए कभी चिंतित व असुरक्षित नहीं देखा कि इस अटूट निष्ठा का उसे कैसा प्रतिफल या प्रतिदान मिलेगा, जबकि वह खुद इतनी असुरक्षित थी कि हर पल उसे अपने किए गए हर काम का सीधासीधा फल मिलना बहुत जरूरी था.

निशा व नरेश को अब पूरी तरह से एहसास हो गया कि अंगरेजियत का लबादा ओढे़ उन लोगों के शरीर में एक भारतीय दिल भी है, जो प्रेम व आस्था के प्रति श्रद्घा रखता है. दोनों पतिपत्नी मानसिक रूप से टूट चुके थे. तन से वे कितने ही धनी हो गए पर मन तो प्रेम व प्यार का कंगाल हो गया था.

सुबह ही नरेश और निशा हवेली के पश्चिमी हिस्से की तरफ टहलने निकल पडे़. नरेश उंगली से एक स्थान की ओर इशारा करते हुए निशा से बोले, ‘‘यह वह बैठक है जहां कभी बाबूजी आसन लगा कर बैठते थे और देहातियों की तमाम छोटीबड़ी समस्याओं का निबटारा करते थे. गांव वालों के मेहनत से कमाए धन को बिना किसी लिखापढ़ी के जमा करते और वक्त पड़ने पर उन्हें सूद समेत वापस भी करते थे.’’

किंतु वह बैठक अब एक सहकारी बैंक में बदल गई थी जिस का नाम था, ‘निरंजन दास सहकारी बैंक.’ बैंक में बहीखातों का स्थान कंप्यूटर ने ले लिया था. पास में ही एक निर्माणाधीन ई-सेवा केंद्र था, जहां गांव वाले अपनी शिकायतें दर्ज कराने के साथसाथ, बिजली, टेलीफोन, पानी आदि का बिल भी भर सकते थे. इस प्रगति का श्रेय वे छोटे चौधरी यानी यशराज चौधरी को देते थे, जो कंप्यूटर में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने गांव वापस लौटा था.

दोनों कृतज्ञता से गद्गद गांव वालों के चेहरे देखते रह गए. नरेश कहने लगे, ‘‘ठीक है, अपने देश में अमीर देशों की तरह जगमगाहट तो नहीं पर अंधेरा भी तो नहीं है.’’

पति की बातें सुन कर निशा बोली, ‘‘चंद सर्वेक्षणों के आधार पर विकासशील देशों को भ्रष्ट, पिछड़ा हुआ, लाचार और गरीब करार देना अन्याय है. इस से देश के युवावर्ग में देशभक्ति के बदले नफरत और वितृष्णा बढ़ती है और वे अपने देश से पलायन करने में ही अपनी भलाई समझते हैं.’’

तब तक दोनों के आसपास गांव वाले जमा हो गए. सामने से बाबूजी के साथ केशव, यश, रमा दी और बडे़ भाई साहब भी चले आ रहे थे. नरेश ने बाबूजी की ओर चमकती आंखों से देख कर कहा, ‘‘बाबूजी, इस हिस्से में मैं उभरती युवा प्रतिभाओं के लिए एक रिसर्च सेंटर का निर्माण करूंगा. यही मेरी स्वदेश के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि होगी.’’

निशा ने बाबूजी की आंखों में खुशी के आंसू देखे. सभी ने इस निर्णय का स्वागत किया. निशा, नरेश के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही थी क्योंकि इस बार वह पश्चात्ताप की आग में नहीं जलना चाहती थी.

बनारसी साड़ी : मां उस साड़ी को ताउम्र क्यों नहीं पहन पाई?

आज सुबह सुबह ही प्रशांत भैया का फोन आया. ‘‘छुटकी,’’ उन्होंने आंसुओं से भीगे स्वर में कहा, ‘‘राधा नहीं रही. अभी कुछ देर पहले वह हमें छोड़ गई.’’

मेरा जी धक से रह गया. वैसे मैं जानती थी कि कभी न कभी यह दुखद समाचार भैया मुझे देने वाले हैं. जब से उन्होंने बताया था कि भाभी को फेफड़ों का कैंसर हुआ है, मेरे मन में डर बैठ गया था. मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि भाभी को और थोड़े दिनों की मोहलत मिल जाए पर ऐसा न हुआ. भला 40 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है, मैं ने आह भर कर सोचा. भाभी ने अभी दुनिया में देखा ही क्या था. उन के नन्हेनन्हे बच्चों की बात सोच कर कलेजा मुंह को आने लगा. कंठ में रुलाई उमड़ने लगी.

मैं ने भारी मन से अपना सामान पैक किया. अलमारी के कपड़े निकालते समय मेरी नजर सफेद मलमल में लिपटी बनारसी साड़ी पर जा टिकी. उसे देखते ही मुझे बीते दिन याद आ गए.

कितने चाव से भाभी ने यह साड़ी खरीदी थी. भैया को दफ्तर के काम से बनारस जाना था. ‘‘चाहो तो तुम भी चलो,’’ उन्होंने भाभी से कहा था, ‘‘पटना से बनारस ज्यादा दूर नहीं है और फिर 2 ही दिन की बात है. बच्चों को मां देख लेंगी.’’

‘‘भैया मैं भी चलूंगी,’’ मैं ने मचल कर कहा था.

‘‘ठीक है तू भी चल,’’ उन्होंने हंस कर कहा था.

हम तीनों खूब घूमफिरे. फिर हम एक बनारसी साड़ी की दुकान में घुसे.

‘‘बनारस आओ और बनारसी साड़ी न खरीदो, यह हो ही नहीं सकता,’’ भैया बोले.

भाभी ने काफी साडि़यां देख डालीं. फिर एक गुलाबी रंग की साड़ी पर उन की नजर गई, तो उन की आंखें चमक उठीं, लेकिन कीमत देख कर उन्होंने साड़ी परे सरका दी.

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा, ‘‘यह साड़ी तुम्हें पसंद है तो ले लो न.’’

‘‘नहीं, कोई हलके दाम वाली ले लेते हैं. यह बहुत महंगी है.’’

‘‘तुम्हें दाम के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं,’’ कह कर उन्होंने फौरन वह साड़ी बंधवाई और हम दुकान से बाहर निकले.

‘‘शशि के लिए भी कुछ ले लेते हैं,’’ भाभी बोलीं.

‘‘शशि तो अभी साड़ी पहनती नहीं. जब पहनने लगेगी तो ले लेंगे. अभी इस के लिए एक सलवारकमीज का कपड़ा ले लो.’’

मेरा बहुत मन था कि भैया मेरे लिए भी एक साड़ी खरीद देते. मेरी आंखों के सामने रंगबिरंगी साडि़यों का समां बंधा था. जैसे ही हम घर लौटे मैं ने मां से शिकायत जड़ दी. मां को बताना बारूद के पलीते में आग लगाने जैसा था.

मां एकदम भड़क उठीं, ‘‘अरे इस प्रशांत के लिए मैं क्या कहूं,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘बीवी के लिए 8 हजार रुपए खर्च कर दिए. अरे साथ में तेरी बिन ब्याही बहन भी तो थी. उस के लिए भी एक साड़ी खरीद देता तो तेरा क्या बिगड़ जाता? इस बेचारी का पिता जिंदा होता तो यह तेरा मुंह क्यों जोहती?’’

‘‘मां, इस के लिए भी खरीद देता पर यह अभी 14 साल की ही तो है. इस की साड़ी पहनने की उम्र थोड़े ही है.’’

‘‘तो क्या हुआ? अभी नहीं तो एकाध साल बाद ही पहन लेती. बीवी के ऊपर पैसा फूंकने को हरदम तैयार. हम लोगों के खर्च का बहुत हिसाबकिताब करते हो.’’

भैया चुप लगा गए. मां बहुत देर तक बकतीझकती रहीं.

भाभी ने साड़ी मां के सामने रखते हुए कहा, ‘‘मांजी, यह साड़ी शशि के लिए रख लीजिए. यह रंग उस पर बहुत खिलेगा.’’

मां ने साड़ी को पैर से खिसकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे बहू, हम साड़ी के भूखे नहीं हैं. देना होता तो पहले ही खरीदवा देतीं. अब क्यों यह ढोंग कर रही हो? तुम्हारी साड़ी तुम्हें ही मुबारक हो.’’ फिर वे रोने लगीं, ‘‘प्रशांत के बापू जीवित थे तो हम ने बहुत कुछ ओढ़ा और पहना. वे मुझे रानी की तरह रखते थे. अब तो तुम्हारे आसरे हैं. जैसे रखोगी वैसे रहेंगे. जो दोगी सो खाएंगे.’’ साड़ी उपेक्षित सी बहुत देर तक जमीन पर पड़ी रही. फिर भाभी ने उसे उठा कर अलमारी में रख दिया.

मुझे याद है कुछ महीने बाद भैया के सहकर्मी की शादी थी और घर भर को निमंत्रित किया गया था.

‘‘वह बनारसी साड़ी पहनो न,’’ भैया ने भाभी से आग्रह किया, ‘‘खरीदने के बाद एक बार भी तुम्हें उसे पहने नहीं देखा.’’

‘‘भाभी साड़ी पहन कर आईं तो उन पर नजर नहीं टिकती थी. बहुत सुंदर दिख रही थीं वे. भैया मंत्रमुग्ध से उन्हें एकटक देखते रहे.’’

‘‘चलो सब जन गाड़ी में बैठो,’’ उन्होंने कहा.

मां की नजर भैया पर पड़ी तो वे बोलीं, ‘‘अरे, तू यही कपड़े पहन कर शादी में जाएगा?’’

‘‘क्यों क्या हुआ ठीक तो है?’’

‘‘खाक ठीक है. कमीज की बांह तो फटी हुई है.’’

‘‘ओह जरा सी सीवन उधड़ गई है. मैं ने ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘अब यही फटी कमीज पहन कर शादी में जाओगे? जोरू पहने बनारसी साड़ी और तुम पहनो फटे कपड़े. तुम्हें अपनी मानमर्यादा का तनिक भी खयाल नहीं है. लोग देखेंगे तो हंसी नहीं उड़ाएंगे?’’

‘‘मैं अभी कमीज बदल कर आता हूं.’’

‘‘लाइए मैं 1 मिनट में कमीज सी देती हूं,’’ भाभी बोलीं, ‘‘उतारिए जल्दी.’’

थोड़ी देर में भाभी बाहर आईं, तो उन्होंने अपनी साड़ी बदल कर एक सादी फूलदार रेशमी साड़ी पहन ली थी.

‘‘यह क्या?’’ भैया ने आहत भाव से पूछा,’’ तुम पर कितनी फब रही थी साड़ी. बदलने की क्या जरूरत थी?

‘‘मुझे लगा साड़ी जरा भड़कीली है. दुलहन से भी ज्यादा बनसंवर कर जाऊं यह कुछ ठीक नहीं लगता.’’

भैया चुप लगा गए.

उस दिन के बाद भाभी ने वह साड़ी कभी नहीं पहनी. हर साल साड़ी को धूप दिखा कर जतन से तह कर रख देतीं थीं.

मैं जानती थी कि भाभी को मां की बात लग गई है. मां असमय पति को खो कर अत्यंत चिड़चिड़ी हो गई थीं. भाभी के प्रति तो वे बहुत ही असहिष्णु थीं. और इधर मैं भी यदाकदा मां से चुगली जड़ कर कलह का वातावरण उत्पन्न कर देती थी.

घर में सब से छोटी होने के कारण मैं अत्यधिक लाडली थी. भैया भी जीजान से कोशिश करते कि मुझे पिता की कमी महसूस न हो और उन पर आश्रित होने की वजह से मुझ में हीन भाव न पनपे. इधर मां भी पलपल उन्हें कोंचती रहती थीं कि प्रशांत अब गृहस्थी की बागडोर तेरे हाथ में है. तू ही घर का कर्ताधर्ता है. तेरा कर्तव्य है कि तू सब को संभाले, सब को खुश रखे.

लेकिन क्या यह काम इतना आसान था? सम्मिलित परिवार में हर सदस्य को खुश रखना कठिन था.

भैया प्रशासन आधिकारी थे. आय अधिक न थी पर शहर में दबदबा था. लेकिन महीना खत्म होतेहोते पैसे चुक जाते और कई चीजों में कटौती करनी पड़ती. मुझे याद है एक बार दीवाली पर भैया का हाथ बिलकुल तंग था. उन्होंने मां से सलाह की और तय किया कि इस बार दीवाली पर पटाखे और मिठाई पर थोड़ेबहुत पैसे खर्च किए जाएंगे और किसी के लिए नए कपड़े नहीं लिए जाएंगे.

‘‘लेकिन छुटकी के लिए एक साड़ी जरूर ले लेना. अब तो वह साड़ी पहनने लगी है. उस का मन दुखेगा अगर उसे नए कपड़े न मिले तो. अब कितने दिन हमारे घर रहने वाली है? पराया धन, बेटी की जात.’’

‘‘ठीक है,’’ भैया ने सिर हिलाया.

मैं नए कपड़े पहन कर घर में मटकती फिरी. बाकी सब ने पुराने धुले हुए कपड़े पहने हुए थे. लेकिन भाभी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आई. जहां तक मुझे याद है शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा हो जब घर में किसी बात को ले कर खटपट न हुई हो. भैया के दफ्तर से लौटते ही मां उन के पास शिकायत की पोटली ले कर बैठ जातीं. भैयाभाभी कहीं घूमने जाते तो मां का चेहरा फूल जाता. फिर जैसे ही वे घर लौटते वे कहतीं, ‘‘प्रशांत बेटा, घर में बिन ब्याही बहन बैठी है. पहले उस को ठिकाने लगा. फिर तुम मियांबीवी जो चाहे करना. चाहे अभिसार करना चाहे रास रचाना. मैं कुछ नहीं बोलूंगी.’’

कभी भाभी को सजतेसंवरते देखतीं तो ताने देतीं, ‘‘अरी बहू, सारा समय शृंगार में लगाओगी, तो इन बालगोपालों को कौन देखेगा?’’ कभी भाभी को बनठन कर बाहर जाते देख मुंह बिचकातीं और कहतीं, ‘‘उंह, 3 बच्चों की मां हो गईं पर अभी भी साजशृंगार का इतना शौक.’’

इधर भैया भाभी को सजतेसवंरते देखते तो उन का चेहरा खिल उठता. शायद यही बात मां को अखरती थी. उन्हें लगता था कि भाभी ने भैया पर कोई जादू कर दिया है तभी वे हर वक्त उन का ही दम भरते रहते हैं. जबकि भाभी के सौम्य स्वभाव के कारण ही भैया उन्हें इतना चाहते थे. मैं ने कभी किसी बात पर उन्हें झगड़ते नहीं देखा था. कभीकभी मुझे ताज्जुब होता था कि भाभी जाने किस मिट्टी की बनी हैं. इतनी सहनशील थीं वे कि मां के तमाम तानों के बावजूद उन का चेहरा कभी उदास नहीं हुआ. हां, एकाध बार मैं ने उन्हें फूटफूट कर रोते हुए देखा था. भाभी के 2 छोटे भाई थे जो अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. वे जब भी भाभी से मिलने आते तो भाभी खुशी से फूली न समातीं. वे बड़े उत्साह से उन के लिए पकवान बनातीं.

उस समय मां का गुस्सा चरम पर पहुंच जाता, ‘‘ओह आज तो बड़ा जोश चढ़ा है. चलो भाइयों के बहाने आज सारे घर को अच्छा खाना मिलेगा. लेकिन रानीजी मैं पूछूं, तुम्हारे भाई हमेशा खाली हाथ झुलाते हुए क्यों आते हैं? इन को सूझता नहीं कि बहन से मिलने जा रहे हैं, तो एकाध गिफ्ट ले कर चलें. बालबच्चों वाला घर है आखिर.’’

‘‘मांजी, अभी पढ़ रहे हैं दोनों. इन के पास इतने पैसे ही कहां होते हैं कि गिफ्ट वगैरह खरीदें.’’

‘‘अरे इतने भी गएगुजरे नहीं हैं कि 2-4 रुपए की मिठाई भी न खरीद सकें. आखिर कंगलों के घर से है न. ये सब तौरतरीके कहां से जानेंगे.’’

भाभी को यह बात चुभ गई. वे चुपचाप आंसू बहाने लगीं.

कुछ वर्ष बाद मेरी शादी तय हो गई. मेरे ससुराल वाले बड़े भले लोग थे. उन्होंने दहेज लेने से इनकार कर दिया. जब मैं विदा हो रही थी तो भाभी ने वह बनारसी साड़ी मेरे बक्से में रखते हुए कहा, ‘‘छुटकी, यह मेरी तरफ से एक तुच्छ भेंट है.’’

‘‘अरे, यह तो तुम्हारी बहुत ही प्रिय साड़ी है.’’

‘‘हां, पर इस को पहनने का अवसर ही कहां मिलता है. जब भी इसे पहनोगी तुम्हें मेरी याद आएगी.’’

‘हां भाभी’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘इस साड़ी को देखूंगी तो तुम्हें याद करूंगी. तुम्हारे जैसी स्त्रियां इस संसार में कम होती हैं. इतनी सहिष्णु, इतनी उदार. कभी अपने लिए कुछ मांगा नहीं, कुछ चाहा नहीं हमेशा दूसरों के लिए खटती रहीं, बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किए.’ मुझे उन की महानता का तब एहसास होता था जब वे अपने प्रति होते अन्याय को नजरअंदाज कर जातीं.

मेरी ससुराल में भरापूरा परिवार था. 2 ननदें, 1 लाड़ला देवर, सासससुर. हर नए ब्याहे जोड़े की तरह मैं और मेरे पति भी एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते. शाम को जब मेरे पति दफ्तर से लौटते तो हम कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बनाते. जब मैं बनठन का तैयार होती, तो मेरी नजर अपनी ननद पर पड़ती जो अकसर मेरे कमरे में ही पड़ी रहती और टकटकी बांधे मेरी ओर देखती रहती. वह मुझ से हजार सवाल करती. कौन सी साड़ी पहन रही हो? कौन सी लिपस्टिक लगाओगी? मैचिंग चप्पल निकाल दूं क्या? इत्यादि. बाहर की ओर बढ़ते मेरे कदम थम जाते. ‘‘सुनो जी,’’ मैं अपने पति से फुसफुसा कर कहती, ‘‘सीमा को भी साथ ले चलते हैं. ये बेचारी कहीं बाहर निकल नहीं पाती और घर में बैठी बोर होती रहती है.

‘‘अच्छी बात है,’’ ये बेमन से कहते, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’

मेरी सास के कानों में यह बात पड़ती तो वे बीच ही में टोक देतीं,

‘‘सीमा नहीं जाएगी तुम लोगों के साथ. उसे स्कूल का ढेर सारा होमवर्क करना है और उस को ले जाने का मतलब है टैक्सी करना, क्योंकि मोटरसाइकिल पर 3 सवारियां नहीं जा सकतीं.’’

सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था.

मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती.

एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’

मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.

मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’

मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’

‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं.

इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’

इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था.

मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.

‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’

‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.

मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे.

भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’

‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’

‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’

‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा.

मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.

नायिका : बंद कमरे में सीता को देख रेवा क्यों हैरान हो गई?

राइटर-  भावना केसवानी

‘‘सच ही तो है. हर इंसान अपने लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. दुनिया कहां पहुंच गई और ये लोग अपनी पुरानी सोच के वजह से पिछड़े ही रह गए. अफसोस तो इस बात का है कि इन की ऐसी मानसिकता के कारण इन के बच्चों का जीवन भी बरबाद हो जाता है,’’ कमरे में घुसते ही रेवा बड़बड़ाने लगी.

औफिस के लिए तैयार हो रहे पराग ने मुड़ कर रेवा की ओर देखा, ‘‘क्या हुआ? मेरे अलावा अब और किस की शामत आई है?’’

‘‘पराग, तुम्हें तो हर वक्त मजाक ही सूझता है. मैं तो सीता के बारे में सोच रही थी. शोभा को कितना समझ रही हूं. मगर वह तो उस की शादी करने पर तुली हुई है. अरे, अभी सिर्फ 16 की ही तो है. इतनी कच्ची उम्र में शादी कर देंगे, फिर जल्दी 3-4 बच्चे हो जाएंगे और फिर झाड़ूपोंछा, चौकाबरतन करते ही उस की जिंदगी कब खत्म हो जाएगी, उसे खुद भी पता नहीं पड़ेगा. कितना कह रही हूं कि लड़की छोटी है, थोड़ा रुक जाओ पढ़ना चाहती है तो पढ़ने दो… जो मदद चाहिए होगी मैं कर दूंगी पर नहीं… लड़की ज्यादा बड़ी हो जाएगी तो शादी में मुश्किल होगी… हुंह, रेवा, मेरे पास एक आइडिया है. तुम मेड लिबरेशन ऐसोसिएशन बनाओ और उस की प्रैसिडैंट बन जाओ. तुम्हारे जैसी कुछ और औरतें मिल जाएंगी तो सीता ही क्यों, सारी मेड्स की समस्याओं का समाधान मिल जाएगा. रेवा प्लीज… यू मस्ट डू इट. तुम्हारी मैनेजरियल स्किल्स भी काम आएंगी और फिर इतनी कामवालियों का उद्धार कर के तुम्हें कितना पुण्य मिलेगा… सोचो जरा.’’

पराग की चुहल से रेवा और चिढ़ गई, ‘‘सब से पहले तो मुझे खुद को लिबरेट करना है तुम से. आज फिर तुम ने गीला तौलिया पलंग पर फेंक दिया है. मेरे घर का अनुशासन तोड़ा न तो अच्छा नहीं होगा.’’

पराग ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘अभी उठाता हूं मेरी मां, माफ करो. वैसे तुम्हारा जोर सिर्फ मुझ पर चलता है. इतना प्यार करने वाला पति मिला है पर उस की कोई कद्र नहीं है.’’

‘‘अच्छा, अच्छा, अब ज्यादा नाटक मत करो. जल्दी औफिस जाओ वरना लेट हो जाओगे.’’

‘‘औफिस तो मैं चला जाऊंगा, बट औन ए सीरियस नोट, रेवा… प्लीज इतनी इमोशनल मत बनो. जिंदगी में प्रैक्टिकल होना ही पड़ता है. तुम सीता के बारे में सोच कर इतनी परेशान हो रही हो लेकिन तुम कुछ नहीं कर पाओगी. यह उन लोगों का निजी मामला है, हम इस में कुछ नहीं कर सकते. मुझे लगता है कि तुम घर पर बैठ कर स्ट्रैस्ड हो रही हो. पहले औफिस के कामों में इतनी व्यस्त रहती थीं कि किसी और बात में ध्यान ही नहीं होता था तुम्हारा और अब… अच्छा होगा कि तुम अपने लिए कोई नई नौकरी ढूंढ़ लो. घर पर रहोगी तो फालतू बातों में उलझ रहोगी.’’

थोड़ी देर में पराग तो चला गया लेकिन रेवा गहरी सोच में डूब गई. वह हमेशा से एक कैरियर वूमन रही थी और पराग इस बात को जानता था.

वह अपनी मेहनत से कामयाबी की सीढि़यां चढ़ भी रही थी पर रिसेशन के कारण उस की नौकरी चली गई. नौकरी छूट जाने का उसे बहुत मलाल हुआ था लेकिन उसे भरोसा था कि उसे दूसरी नौकरी जल्द ही मिल जाएगी… मगर आज पराग ने उस की हताशा को गलत अर्थ में लिया था. वह कुंठित जरूर थी लेकिन सिर्फ सीता की मदद न कर पाने के कारण. रेवा ने एक लंबी सांस ली और बाहर ड्राइंगरूम में आ गई.

सीता वहां नम्रा के साथ खेल रही थी. कितना हिल गई थी नम्रा सीता के साथ… अब जब कुछ दिनों में सीता चली जाएगी तो नम्रा बहुत मिस करेगी उसे. रेवा ने सीता की ओर देखा. दुबलीपतली, श्यामवर्णा सीता परिस्थितियों के कारण समझ से चाहे परिपक्व हो चुकी हो पर थी तो आखिर बच्ची ही. इतनी नाजुक उम्र में शादी का बोझ कैसे उठा पाएगी? रेवा की सोच फिर सीता पर ही आ कर अटक गई.

सीता रेवा की कामवाली शोभा की बेटी थी. नम्रा का जन्म सिजेरियन से हुआ था. सास तो रेवा की थी नहीं, मां भी कितने दिन रहती. तब शोभा सीता को ले आई थी, ‘‘दीदी, इसे रख लो. बच्ची को संभालने में भी मदद कर देगी और ऊपर का छोटामोटा काम भी करा लेना.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत छोटी है… यह कैसे कर पाएगी और यह स्कूल नहीं जाती है क्या?’’

‘‘स्कूल तो सुबह जाती है… 11 बजे तक आ जाएगी. काम तो यह सब कर लेती है. दूसरे घर में करती थी पर अब उन लोगों की बदली दूसरे शहर में हो गई है. आप 2-4 रोज देख लो… दिनभर आप के पास रहेगी और शाम को मेरे साथ वापस लौट जाएगी.’’

सीता ने पहले दिन से ही रेवा को प्रभावित कर दिया. उस ने धीरेधीरे नम्रा का सारा काम संभाल लिया. वह बड़े प्यार से नम्रा की मालिश कर उसे नहला देती, बोतल से दूध पिला देती, नैपी बदल देती और अपनी गोद में ही थपका कर सुला भी देती. इस के साथ ही वह रेवा को सब्जी काट देती, आटा गूंध देती और नम्रा के कपड़े धोसुखा कर तह कर देती. वह स्वभाव की भी इतनी शांत थी कि उस ने जल्द ही रेवा का विश्वास जीत लिया.

सीता के होने से रेवा नम्रा और घर के प्रति निश्चिंत हो गई थी इसलिए जब उसे नई नौकरी का औफर मिला तो उस ने शोभा से कह कर सीता को सारे दिन के लिए अपने घर रख लिया. 3 बैडरूम का फ्लैट था, रेवा ने एक कमरा सीता को दे दिया. अच्छा खानेपहनने को मिलता था तो सीता भी खुश ही थी.

सीता ने एक बार रेवा से कहा था कि वह कुछ बनना चाहती है. तब रेवा ने उसे मन लगा कर पढ़ने की सलाह दी थी. रेवा के काम का समय दोपहर से शुरू हो कर रात तक चलता था. उसे तो वर्क फ्रौम होम की सुविधा भी थी. रेवा ने इस बात का पूरा खयाल रखा कि सीता की पढ़ाई न छूटे. सीता पहले की तरह ही स्कूल जाती रही.

धीरेधीरे रेवा को सीता के प्रति एक अपनापन महसूस होने लगा. रेवा ने उस की स्कूल की कापियां देखी थीं. उसे लगता था कि सीता यदि लगन से पढ़ाई करती रहे तो अपने लिए अपनी नियति से हट कर कोई मुकाम बनाने में सक्षम हो सकती है. रेवा ने तय कर लिया था कि वह सीता की शिक्षा में हर तरीके से सहयोग करेगी.

मगर जिंदगी हमेशा पक्की सड़क पर तो आराम से नहीं चलती न… कभी कच्चे रास्तों की असुविधाएं भी सहन करनी पड़ती हैं, कभी घुमावदार रास्तों के जाल में भी उलझना पड़ता है और कभी स्पीडब्रेकर्स के ?ाटके भी लग ही जाते हैं. शोभा ने आ कर रेवा को सीता की शादी तय होने की खबर सुना दी.

‘‘अरे, ऐसे कैसे? सीता तो बहुत छोटी है अभी.’’

‘‘कहां दीदी… 16 की हो गई है. हमारे ही गांव का लड़का है, अच्छा घरपरिवार है. यह भी सुखी हो जाएगी और हम भी निबट जाएंगे.’’

‘‘शोभा, तुम भी कैसी बातें कर रही हो? इतनी छोटी उम्र में तो शादी गैरकानूनी है न और सीता का भी तो सोचो. इस नाजुक उम्र में वह शादी की जिम्मेदारी कैसे निभा पाएगी?’’

‘‘अरे दीदी, हम लोगों में तो ऐसा ही होता है. मेरा ब्याह भी तो 15 साल की उम्र में हुआ था.’’

‘‘पर शोभा इस का दिमाग अच्छा है. पढ़ने दो अभी. इस की पढ़ाई के खर्चे में मैं मदद कर दूंगी. पढ़लिख जाएगी तो जिंदगी बन जाएगी.’’

‘‘देखो दीदी, आप को हम लोगों का नहीं पता. ज्यादा पढ़ गई और उम्र बढ़ गई तो कोई नहीं मिलेगा इस से शादी करने के लिए. आप चिंता न करो. 2 महीने बाद इस का ब्याह ठहरा है. उस के पहले मैं आप को दूसरी कामवाली लगा दूंगी,’’ कह कर शोभा ने बात खत्म कर दी.

शोभा की बातें सुनने के बाद रेवा क्या कहती? वह मन मसोस कर चुप रह गई.

‘‘दीदी, नम्रा सो गई है. कौन सी सब्जी काटनी है?’’

रेवा ने महसूस किया कि जब से सीता का विवाह तय हुआ था तब से उस के व्यवहार में परिवर्तन आना शुरू हुआ था. वह सारे काम जैसे यंत्रवत करती…ध्यान तो उस का किसी और ही दुनिया में होता. हमेशा खोईखोई रहती, अपने ही खयालों में. पढ़ाई में भी उस का मन नहीं लगता था पहले की तरह. रेवा ने सोचा आज उस के मन को टटोल ले.

‘‘क्यों सीता… तू तो कहती थी तुझे पढ़ना है, कुछ बनना है. तेरी मां तो तेरी शादी करा रही है. तू मना क्यों नहीं करती?’’

‘‘क्या बोलेंगे, दीदी? अब कामवाली के घर पैदा हुए हैं तो कामवाली ही बनेंगे. ऊंची पढ़ाई में खर्चा भी तो बहुत होता है. आप का भी कितना एहसान लेंगे और फिर शादी भी तो जरूरी है. सारी उम्र अकेले कैसे रहेंगे?’’

रेवा चुप रह गई. वह सोचती थी कि सीता अपनी नियति के चक्रव्यूह को तोड़ गिराएगी लेकिन अब जब उस ने स्वयं ही अपने लिए यह रास्ता चुन लिया था तो रेवा कर भी क्या सकती थी?

‘‘दीदी, आप मां से कुछ न कहा कीजिए. मेरी हिस्से में यही लिखा है और मैं बहुत खुश हूं. आप को पता है. घर में सब बहुत खुश हैं. मां ने तैयारी करनी भी शुरू कर दी है. इसी बहाने आज सब को मेरा खयाल है नहीं तो कब मैं सूखी रोटी के टुकड़ों और फटेपुराने कपड़ों में बड़ी हो गई, किसी को पता ही नहीं चला. अब 2-4 जोड़ी ही सही, मेरे लिए नए कपड़े बनेंगे. मां मेरे लिए सोने के  जेवर बनवाएगी. फिर चाहे मेरे ही कमाए पैसों को जोड़ कर. सब सीतासीता कर के पूछेंगे. दीदी, एक गरीब की लड़की को इस से ज्यादा और क्या खुशी मिल सकती है?’’

रेवा फिर चुप रह गई. एक स्त्री के मन की गहराइयों में क्या है, यह खुद उस के अलावा कोई नहीं जान सकता. परिस्थितियों से समझौता करना और चंद लमहों की खुशियों को अपने जेहन में कैद कर उन्हीं के सहारे जिंदगी को आगे बढ़ाना, यह सिर्फ एक स्त्री ही कर सकती है. सीता की सोच के सिरे को पकड़ कर उस के मन की तहों को खोल कर रेवा को लगा कि कम से कम इतनी खुशी पाने का अधिकार तो था ही उसे. अपनी ही जिंदगी की पटकथा में हमेशा छोटेमोटे किरदार ही निभाती आई थी सीता. अब चंद लमहों के लिए ही सही, नायिका बनने की उस की हसरत कहां गलत थी.

शाम को ही बाजार जा कर रेवा सीता के लिए शादी की साड़ी और सोने की अंगूठी ले आई. उपहार देख कर सीता के चेहरे पर जो खुशी आई, उस से रेवा को भी जैसे आत्मिक तृप्ति का एहसास हुआ. वह दिल से सीता की खुशी चाहती थी.

रेवा नम्रा को ले कर बहुत पशोपेश में थी. सीता के रहते उसे नम्रा की कोई फिक्र नहीं होती थी लेकिन सीता के जाने के बाद नम्रा को वैसी देखभाल कौन देता? वह सोच ही रही थी कि एक दिन अचानक शोभा मायूस सूरत ले कर दरवाजे पर खड़ी थी, ‘‘इस लड़की के हिस्से शादी नहीं है… लड़का शादी से पहले ही भाग गया. किसी और से चक्कर था उस का. अब पता नहीं इस से कौन शादी करेगा? दीदी, अब यह आप का काम छोड़ कर नहीं जाएगी.’’

जीवन फिर पुराने रूटीन पर चल पड़ा लेकिन सीता में अब थोड़ा बदलाव आ गया था. वह पहले से कम बोलती और अपनी पढ़ाई पर अत्यधिक केंद्रित हो चुकी थी. रेवा को लगा कि जो हुआ शायद अच्छा ही हुआ. अब वह सीता के भविष्य को संवारने में उस की मदद करेगी. यह सोच कर रेवा सीता को बहुत प्रोत्साहित करती.

एक रात रेवा देर तक अपने लैपटौप पर काम कर रही थी. प्यास लगने पर पानी लेने उठी तो देखा कि सीता के कमरे की लाइट जल रही है. इतनी रात को सीता जाग क्यों रही है… रेवा ने धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर झांका तो हैरान रह गई.सीता शादी का जोड़ा और तमाम गहने पहने खुद को बड़ी हसरत से आईने में निहार रही थी.

रेवा ज्यादा देर वहां न खड़ी रह पाई. उस कमरे में कुछ दबी आकांक्षाएं थीं, कुछ अधूरे खवाब थे. समाज ने उस मासूम को यही यकीन दिलाया था कि चंद लमहों की नायिका बनना ही उस के जीवन की उपलब्धि थी.

अब रेवा की जिम्मेदारी बढ़ गई थी. उसे सीता को यह विश्वास दिलाना था कि वह सक्षम है अपने जीवन की पटकथा खुद लिखने के लिए और ताउम्र उस में नायिका का किरदार निभाने के लिए. रेवा ने अपने मन को इस संकल्प के लिए दृढ़ कर लिया.

ऐसा तो नहीं सोचा था

‘‘फोन की घंटी बज रही है, उठो,’’ सुबह का समय है, सर्दियों के दिन हैं. इस समय गरमगरम रजाई से निकल कर फोन उठाना एक आफत का काम है. मोबाइल में सिगनल नदारद रहता है तब पुराना लैंडलाइन फोन ही काम आता है. पति को सोता देख कर झल्ला कर ममता को ही उठ कर फोन उठाना पड़ा. हालांकि ममता को मालूम था, आज रविवार सुबह बच्चों का ही फोन होगा. अब किस का होगा, यह तो फोन उठाने पर ही मालूम होगा.

ममता ने फोन उठाया और बातों में मशगूल हो गई. आज उस की बेटी सुकन्या का फोन था. उस से ढेरों बातें होने लगीं. बृजमोहन भी उठ कर आ गए, फिर बेटी और दामाद से उन की भी बातें हुईं. आखिर घूमफिर कर वही बातें होती हैं, क्या हाल है? बच्चे कैसे हैं? छुट्टी में इंडिया आओगे? आज कौन सी दालसब्जी बनी है या बनेगी? मौसम का क्या हाल है?

पड़ोसियों की शिकायत, सब यही कुछ. सुकन्या को भी पड़ोसियों की बातें सुनने में

मजा आता था. ममता भी वही बातें दोहराती,

सारी पड़ोसिनें जलती हैं. पूरा 1 घंटा ममता और बृजमोहन का व्यतीत हो गया. सुबह 6 से 7 बज गए.

ममता और बृजमोहन के 3 बच्चे, सब से बड़ी लड़की सुकन्या फिर छोटे लड़का गौरव और फिर सौरभ. सभी अमेरिका में सैटल हैं. सभी शादीशुदा अपने बच्चों के साथ अमेरिका के विभिन्न शहरों में बसे हुए हैं.

सुकन्या खूबसूरत थी. एक पारिवारिक विवाह में दूर के रिश्ते में अमेरिका में बसे लड़के को पहली नजर में भा गई और फिर विवाह के बाद अमेरिका चली गई. कुछ समय बाद दोनों लड़के भी अमेरिका सैटल हो गए.

अब ममता और बृजमोहन दिल्ली में अकेले एक तिमंजिला मकान में रह रहे हैं. आर्थिक रूप से संपन्न बृजमोहन की कपड़े की दुकान थी जिसे वे आज भी चला रहे हैं. कभीकभी बच्चे मिलने आ जाते हैं और कभी वे बच्चों के पास मिलने चले जाते हैं.

अब बिना किसी बंधन के अकेले रहने का सुख भी बहुत है. ममता कुछ नखरैल अधिक हो गई. जब आर्थिक संपन्नता हो तब चिंता किस बात की.

बृजमोहन का हर सुबह कालोनी के मंदिर जाने की दिनचर्या है. अकेले समय भी काटना है, मंदिर में चंदा दे दिया और धार्मिक कार्यों में मुख्य अतिथि का तमगा मिल जाता.

‘‘पंडित रामराम,’’ मंदिर में घुसते ही बृजमोहन ने आवाज दी.

‘‘रामराम सेठजी,’’ पंडित भी आरती के बीच में बोल पड़ा. मंदिर में उपस्थित श्रद्धालुओं में कुछ मुसकरा दिए और कुछ की भृकुटियां तन गईं. यह क्या? सेठ होगा अपने घर में. मंदिर में भगवान के आगे सब बराबर हैं. चंदा ज्यादा देता है, इस का यह मतलब तो नहीं आरती में विघ्न डालेगा. आरती के बाद बात नहीं कर सकता है. पंडित को चंदा चाहिए, प्रभु की प्रतिमा से चंदा मिलेगा नहीं, देना सेठ ने है, अब उन की कुछ तो जीहुजूरी बनती है.

‘जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,’ सेठ जी नवरात्रि आ रही हैं, पूरे मंदिर को लाइट्स से रोशन करना है.

‘‘सम?ा हो गया पंडित. लाइट्स मेरी तरफ से. अभी ताजेताजे डौलर आए हैं. डौलर भी महंगा है,’’ बृजमोहन सब को यह जताना चाहते हैं, लड़के ने कल ही डालरों की एक खेप भेजी है. उन के लड़के कितना खयाल रखते हैं.

‘‘‘मांग सिंदूर विराजत टीको मृदमद को,’ सेठजी भंडारा भी हर रोज होगा.’’

‘‘पंडित, मेरी जेब काट ले, सबकुछ मेरे से करवाएगा? भंडारे का नहीं दूंगा. लाइट्स लगवा रहा हूं वह क्या कम है?’’ बृजमोहन ने दो टूक मना कर दिया. पैसों के बड़े पक्का इंसान थे. पाईपाई का हिसाब रखते थे.

‘‘‘चंड मुंड संहारे शोणित बीज हरे,’ सेठजी हर शाम मंदिर में कीर्तन भी होगा.’’

‘‘पंडित कर कीर्तन, तेरा काम है. मैं तो कीर्तन करूंगा नहीं?’’ बृजमोहन ने आरती में सुर लगाया.

‘‘‘तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता,’ सेठजी माता रानी से डरो, तुम ही भरता हो, कीर्तन के बाद प्रसाद भी बांटना है,’’ पंडित उन की जेब ढीली करवाने पर तुला था.

‘‘‘कहत शिवानंद स्वामी, सुख संपत्ति पावे,’ सेठजी और डौलर आएंगे, प्रसाद का प्रबंध तो आप के जिम्मे है,’’ पंडित भी कौन से कम होते हैं, उन को भी हजार तरीके आते हैं.

‘‘पंडित अष्ठमी वाले कीर्तन का प्रसाद दे दूंगा. तू भी क्या याद करेगा पंडित, किसी रईस से पाला पड़ा है.’’

आरती समाप्ति के बाद पंडित ने मुंह ही मुंह में कहा, ‘‘इन की जेब से पैसे निकलवाने का मतलब ऐवरैस्ट की चोटी पर चढ़ने के बराबर है.

मंदिर में पंडित और अन्य श्रद्धालुओं के साथ कुछ बातचीत, कुछ गपशप लगाने के बाद बृजमोहन घर वापस आए और नाश्ता करने के बाद कालोनी के पार्क में चक्कर लगाने चले गए. शाम के समय 1-1 कर के बेटों का फोन आया. ममता ने नवरात्रि पर पूजाअर्चना की विशेष हिदायत दी.

‘‘चलो कोटपैंट पहन लो, रविवार छुट्टी के दिन घर पर डिनर नहीं करना है,’’ ममता ने और्डर दे दिया.

हर रविवार शाम को मौल घूम कर रैस्टोरैंट में डिनर करना उन की आदत थी. सिर्फ 2 जने. उम्र 70 के करीब, खुद कार चला कर मौल जाते हैं. लौटते समय कार ट्रैफिक सिगनल पर बंद हो गई. ग्रीन लाइट हुई, तब स्टार्ट करने में दिक्कत हुई. पीछे खड़े वाहनों ने बारबार हौर्न बजाने चालू कर दिए.

‘‘देखो इस खटारा को बदल दो. एक बार बंद हो जाए तब स्टार्ट ही नहीं होती है. हमारी लाइन में सब के पास चमचमाती नई कारें हैं,

बड़ी वाली और हम खटारा ले कर घूम रहे हैं. मैं पड़ोस में और हंसी नहीं उड़वा सकती हूं. देखो अगले हफ्ते से नवरात्रि आरंभ हो रहे हैं.

नई कार घर में आनी चाहिए और वह भी बड़ी वाली.’’ बृजमोहन दुनिया के आगे अपनी जेब सिल कर रखते थे, परंतु परमप्रिय ममता के आगे सदा खुली रहती थी. बिलकुल चूंचपड़ नहीं करते थे.

जब 4-5 सैल्फ मारने पर कार स्टार्ट हुई, बृजमोहन ने पक्का वाला प्रौमिस कर दिया, ‘‘बिलकुल ममता, इस बार बड़ी वाली कार खरीदते हैं.’’

पिछले 15 वर्ष से बच्चों से अलग रह रहे ममता और बृजमोहन को अकेले रहना रस आने लगा था.

न बच्चों की चिकचिक न कोई बंधन, जो दिल में हो, करो. संपूर्ण आजादी में रह रहे दंपती को किसी का दखल पसंद नहीं था.

बृजमोहन और ममता बेफिक्र आजादी के संग अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. आराम से सुबह उठना, पार्क में सुबह की सैर करना उन की दिनचर्या थी. ममता अपनी किट्टी पार्टी में मस्त रहती. बृजमोहन आराम से 11 बजे दुकान जाने के लिए निकलते थे. उन के बच्चे उन को डौलर भेजते थे फिर भी अपनी दुकान बंद नहीं की. आरामपरस्त होने के कारण उन की दुकानदारी कम हो गई थी, किंतु उन को इस की कोई चिंता नहीं थी. एक पुराना विश्वासपात्र नौकर था. वही दुकान संभालता था. पड़ोस के दुकानदार उस से कहते कि असली मालिक तो तू ही है. देख लेना, मरने पर दुकान तेरे नाम लिख कर जाएंगे.

नौकर भी हंस देता. मजाक करने का कोई टैक्स नहीं लगता है. एक बात पक्की है, बृजमोहन दुकान को अपने साथ बांध कर ले जाएंगे. नौकर अपने मालिक की हर रग से वाकिफ था.

हर जगह सुपर मार्केट और स्टोर खुलने से महल्ले की छोटी परचून की दुकानों का कामधंधा गिरने लगा. आज की युवा पीढ़ी हर छोटे से बड़ा सामान औनलाइन खरीदती है. ऊपर से इन सुपर स्टोर्स ने छोटी दुकानों का धंधा लगभग चौपट ही कर दिया. इसी कारण बृजमोहन के मकान के करीब एक परचून की दुकान बंद हो गई.

एक शाम बृजमोहन अपनी दुकान से लौटे तो उस परचून के मालिक ने बृजमोहन को लपक कर पकड़ लिया, ‘‘सेठजी, रामराम.’’

‘‘रामराम तो ठीक है, तूने दुकान बंद क्यों कर रखी है? पहले तो रात के 10 बजे तक दुकान खोलता था?’’

‘‘अब क्या बताऊं सेठजी, इन औनलाइन और सुपर स्टोर्स की वजह से धंधा चौपट हो गया. दुकान बंद कर दी है. सारा स्टाक खरीद रेट पर बेच रहा हूं. खरीद लो, आप का फायदा ही सोच रहा हूं.’’

बृजमोहन ने सस्ते में 2 महीने का राशन खरीद लिया.

ममता राशन समेटने में लग गई, ‘‘किस ने कहा था, उस की दुकान खरीद लो. 2 महीने का राशन जमा हो गया है. हम 2 जने हैं, हमारे से अधिक तो चूहे खा जाएंगे. असली मौज तो उन की लगेगी,’’ ममता ने तुनक कर कहा.

‘‘भाग्यवान, आधे दाम पर सारा सामान खरीदा है, थोड़ा चूहे खा भी जाएंगे तब भी शुद्ध लाभ ही होगा. खाने दो चूहों को, अब क्या करें, ऐसा सौदा हर रोज नहीं मिलता.’’

‘‘हम दो जने हैं, कितना खाएंगे? चूहों की मौज रहेगी.’’

ममता बृजमोहन की कंजूसी पर परेशान रहती थी. जब बच्चे डालर भेजते हैं तब आराम

से बुढ़ापे में ऐश से रहें. इसी कारण ममता टोकाटाकी करती थी, जिस से बृजमोहन परेशान हो जाते थे.

सस्ता राशन खरीद कर बृजमोहन अपनी ताल खुद ठोंक रहे थे. ममता इस बात पर परेशान थी, कामवाली बाई 2 दिन से नहीं आ रही है. सारा राशन कौन संभालेगा. किसी नए नौकर को घर में कैसे घुसा लें? खैर, कामवाली बाई 2 दिन छुट्टी की बोल गई, 1 हफ्ते बाद आई. 1 सप्ताह ममता का भेजा एकदम फ्राई ही रहा.

बृजमोहन को इस का यह लाभ मिला कि ममता नई कार खरीदना भूल गई. ममता का भेजा बच्चों से फोन पर बात कर के खुश हो गया. वे कुशलमंगल हैं और अपनी कामवाली का नहीं आना भी भूल सी गई.

दोनों का जीवन सरलता से बीत रहा था. दिन बीतते गए लेकिन उम्र ंका तकाजा था जो कभी नहीं सोचा था, वही हो गया.

एक रात नींद में बृजमोहन को बेचैनी महसूस हुई और इससे पहले वे पास लेटी ममता को हाथ लगाता या फिर आवाज दे कर पुकारता, उस की जीवनलीला समाप्त हो गई. थोड़ी नींद खुली, थोड़ी तड़पन हुई और फिर जीवनसाथी को छोड़ दूसरे लोक की सैर को निकल पड़े.

ममता ने यह कभी नहीं सोचा था. अभी तो वह नींद में थी. उस का जीवनसाथी अब उस का नहीं रहा, इस का इल्म उस को नहीं था. 70 की उम्र में रात को 2-3 बार नींद खुलती है, करवट बदल कर देखा, बृजमोहन सो रहा है, बस इतना पूछा, ‘‘सो रहे हो?’’ बिना कोई उत्तर सुने फिर आंखें बंद कर लेती, यही हर रात की कहानी थी.

ममता सुबह उठी, नित्यक्रिया से निबट कर चाय बनाई और बृजमोहन को आवाज दी, ‘‘उठो.’’

बृजमोहन नहीं उठा. ममता ने हाथ लगाया, बृजमोहन का मुंह खुला था, कोई सांस नहीं, उस का कलेजा धक से थम गया.

‘‘बृज क्या हुआ? बृज,’’ लेकिन बृज का शरीर अकड़ गया था. बदहवास ममता घर से बाहर आई और पड़ोस का दरवाजा खटखटाया.

बदहवास ममता को देख पड़ोसी रमन घबरा गया ‘‘क्या हुआ भाभी जी?’’

‘‘भाई साहब इन को देखो, मालूम नहीं क्या हुआ है, बोल ही नहीं रहे हैं.’’

रमन तुरंत ममता के संग हो लिए. बृज को देखते ही उन्होंने तुरंत अस्पताल फोन कर के ऐंबुलैंस बुलाई. अस्पताल जाना मात्र औपचारिकता ही थीं. तुरंत ईसीजी कर के आईसीयू में डाल दिया.

अस्पताल के वेटिंगरूम में अकेली बैठी ममता आंसुओं में डूबी सोच रही थी. ऐसा नहीं सोचा था, बृज की यह हालत होगी और मैं अकेली कुछ करने में भी असमर्थ हूं. कोई साथ नहीं है. 3 बच्चे हैं, 2 बहुएं, 1 दामाद, 6 पोते, पोतियां, दोतेदोतियां, इस दुख की घड़ी में कोई साथ नहीं है. अकेली किस को पुकारे. बच्चे बाहर विदेश में सैटल हैं, खुश थी, बूढ़ाबूढ़ी पिछले 15 वर्षों से बिना रोकटोक के आनंद से जी रहे थे.

बृज को हार्ट अटैक हुआ था और चुपचाप चल बसा. अस्पताल ने पूरा एक दिन रोक लिया और रात को उस की मृत्यु घोषित की. पड़ोसी रमन ने अस्पताल में 2 चक्कर लगा कर चाय खाना ममता को दिया.

2 पड़ोसी और भी ममता से हालचाल पूछने आ गए. नहीं था तो कोई अपना. जिस आजादी को वह अपनी जीत सम?ाती थी, वह आज पराजय थी. ममता ने बच्चों को सूचना दी. बच्चे 7 समंदर पार से सिर्फ सांत्वना ही दे सकते थे. कोई इस संकट की घड़ी में उस की मदद के लिए 7 समंदर पार से उड़ कर आ नहीं सकता था. पड़ोसी अवश्य उन के संग खड़े थे. पड़ोसियों संग रोतीबिलखती ममता घर आ गई.

ममता ने बच्चों को फोन किया. बड़े लड़के गौरव ने आने का तुरंत कार्यक्रम बनाया. किसी भी हालात में वह 2 दिन से पहले नहीं आ सकता था. ममता और बृजमोहन, दोनों की बहनें शहर में रहती थीं, वे ममता के पास पहुंचीं और सांत्वना दी.

रात के अंधेरे में ममता अपने बिस्तर पर लेटे रोती जा रही थी. ऐसा तो नहीं सोचा था. ऐसा समय अचानक से आ जाएगा और कोई अपना साथ नहीं होगा. बहनें भी सिर्फ दिखावे के आंसू बहा रही थीं. ममता चिल्लाए जा रही थी, ‘‘इतना बड़ा परिवार है, बच्चे पास नहीं. भाई, बहन, कोई सगा नहीं. क्या जमाना आ गया है? मुसीबत की घड़ी में सिर्फ नाममात्र का दिखावा. हिम्मत देने वाला कोई बच्चा भी नहीं है. ऐसा तो नहीं सोचा था. आगे का जीवन कैसे कटेगा?’’

रात के सन्नाटे में ममता की आवाज बहनों के कानों में पड़ रही थी, लेकिन वे मन ही मन मुसकरा रही थीं, यहां अकेले रह कर खूब मजे लिए. हम पर रोब झड़ती थी कि बच्चे डौलर भेज रहे हैं. डौलर के साथ रहो. कितनी बार कहा था, बच्चों के साथ अमेरिका रहों लेकिन आजाद जीवन प्यारा था. हम क्या करें? हमारा नाता तो केवल श्मशान तक का है. उस के बाद इस नखरैल के साथ कौन रहेगा? बुढ़ापे में भी पूरी आजादी चाहिए. बच्चों संग नहीं रहना. हर किसी पर रोब झड़ना है.

तीसरे दिन उस का लड़का गौरव अमेरिका से आया. उस की बहू और परिवार का अन्य सदस्य नहीं आया. सीधे एअरपोर्ट से अस्पताल. मृत देह का श्मशान ले जा कर अंतिम संस्कार किया. घर

पहुंच कर ममता से कहा, ‘‘चलो मां, मेरे साथ चलो. मैं टिकट ले कर आया हूं. तुम्हारा वीजा अभी 1 महीने तक वैध है. वहां बढ़ जाएगा.’’

‘‘क्रिया यहां कर ले, फिर चलती हूं,’’ ममता की आंखों से गंगाजमुना बह रही थी कि वह बस यही बुदबुदा रही थी. ऐसा तो नहीं सोचा था. आजादी चली जाएगी. अकेली रह जाऊंगी. मालूम नहीं अमेरिका में बच्चे कैसा व्यवहार करेंगे.

सबक के बाद: क्या पति प्रयाग का व्यवहार बदल पाई उसकी पत्नी

मेज पर फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह सामने लगे शीशे को देख रहे थे. आने वाले समय की तसवीरें एकएक कर उन के आगे साकार होने लगीं. झुकी हुई कमर, कांपते हुए हाथपांव. वह जहां भी जाते हैं, उपेक्षा के ही शिकार होते हैं. हर कोई उन की ओर से मुंह फेर लेता है. ऐसे में उन्हें नानी के कहे शब्द याद आ गए, ‘अरे पगले, यों आकाश में नहीं उड़ा करते. पखेरू भी तो अपना घोंसला धरती पर ही बनाया करते हैं.’

तनाव से उन का माथा फटा जा रहा था. उसी मनोदशा में वह सीट से उठे और सोफे पर जा धंसे. दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए वह चिंतन में डूबने लगे. उन के आगे सचाई परत दर परत खुलने लगी. उन्होंने कभी भी तो अपने से बड़ों की बातें नहीं मानी. उन के आगे वह अपनी ही गाते रहे. सिर उठा कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा तो 1 बज रहा था. चपरासी ने अंदर आ कर पूछा, ‘‘सर, लंच में आप क्या लेंगे?’’

‘‘आज रहने दो,’’ उन्होंने मना करते हुए कहा, ‘‘बस, एक कौफी ला दो.’’

‘‘जी, सर,’’ चपरासी बाहर चल दिया.

लोगों की झोली खुशियों से कैसे भरती है? वह इसी पर सोचने लगे. परसों ही तो उन के पास छगनलाल एक फाइल ले कर आए थे. उन्होंने पूछा था, ‘‘कहिए छगन बाबू, कैसे हैं?’’

‘‘बस, साहब,’’ छगनलाल हंस दिए थे, ‘‘आप की दुआ से सब ठीकठाक है. मैं तो जीतेजी जीवन का सही आनंद ले रहा हूं. चहकते हुए परिवार में रह रहा हूं. बहूबेटा दोनों ही घरगृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं. वे तो मुझे तिनका तक नहीं तोड़ने देते. अब वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी हैं.’’

‘‘बहुत तकदीर वाले हो भई,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल पर हस्ताक्षर कर छगनलाल को लौटा दी थी.

चपरासी सेंटर टेबल पर कौफी का मग रख गया. उसे पीते हुए वह उसी प्रकार आत्ममंथन करने लगे.

उन के सिर पर से मांबाप का साया बचपन में ही उठ गया था. वह दोनों एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब नानाजी उन्हें अपने घर ले आए थे. उन का लालनपालन ननिहाल में ही हुआ था. उन की बड़ी बहन का विवाह भी नानाजी ने ही किया था.

नानानानी के प्यार ने उन्हें बचपन से ही उद्दंड बना दिया था. स्कूलकालिज के दिनों से ही उन के पांव खुलने लगे थे. पर उन का एक गुण, तीक्ष्ण बुद्धि का होना उन के अवगुणों पर पानी फेर देता था.

राज्य लोक सेवा आयोग में पहली ही बार में उन का चयन हो गया तो वह सचिवालय में काम करने लगे थे. अब उन के मित्रों का दायरा बढ़ने लगा था. दोस्तों के बीच रह कर भी वह अपने को अकेला ही महसूस किया करते. वह धीरेधीरे अलग ही मनोग्रंथि के शिकार होने लगे. घरबाहर हर कहीं अपनी ही जिद पर अड़े रहते.

उन के भविष्य को ले कर नानाजी चिंतित रहा करते थे. उन के लिए रिश्ते भी आने लगे थे लेकिन वह उन्हें टाल देते. एक दिन अपनी नानी के बहुत समझाने पर ही वह विवाह के लिए राजी हुए थे.

3 साल पहले वे नानानानी के साथ एक संभ्रांत परिवार की लड़की देखने गए थे. उन लोगों ने सभी का हृदय से स्वागत किया था. चायनाश्ते के समय उन्होंने लड़की की झलक देख ली थी. वह लड़की उन्हें पसंद आ गई और बहुत देर तक उन में इधरउधर की बातें होती रही थीं. उन की बड़ी बहन भी साथ थी. उस ने उन के कंधे पर हाथ रख कर पूछा था, ‘क्यों भैया, लड़की पसंद आई?’

इस पर वे मुसकरा दिए थे. वहीं बैठी लड़की की मां ने आंखें नचा कर कहा था, ‘अरे, भई, अभी दोनों का आमना- सामना ही कहां हुआ है. पसंदनापसंद की बात तो दोनों के मिलबैठ कर ही होगी न.’

इस पर वहां हंसी के ठहाके गूंज उठे थे.

ड्राइंगरूम में सभी चहक रहे थे. किचेन में भांतिभांति के व्यंजन बन रहे थे. प्रीति की मां ने वहां आ कर निवेदन किया था, ‘आप सब लोग चलिए, लंच लगा दिया गया है.’

वहां से उठ कर सभी लोग डाइनिंग रूम में चल दिए थे. वहां प्रीति और भी सजसंवर कर आई थी. प्रीति का वह रूप उन के दिल में ही उतरता चला गया था. सभी भोजन करने लगे थे. नानाजी ने उन की ओर घूम कर पूछा था, ‘क्यों रे, लड़की पसंद आई?’

‘जी, नानाजी,’ वह बोले थे, पर…

‘पर क्या?’ प्रीति के पापा चौंके थे.

‘पर लड़की को मेरे निजी जीवन में किसी प्रकार का दखल नहीं देना होगा,’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यही एक शर्त है.’

‘प्रयाग’, नानाजी उन की ओर आंखें तरेरने लगे थे, ‘तुम्हारा इतना साहस कि बड़ों के आगे जबान खोलो. क्या हम ने तुम में यही संस्कार भरे हैं?’

नानाजी की उस प्रताड़ना पर उन्होंने गरदन झुका ली थी. प्रीति की मां ने यह कह कर वातावरण को सहज बनाने का प्रयत्न किया था कि अच्छा ही हुआ जो लड़के ने पहले ही अपने मन की बात कह डाली.

‘वैसे प्रयागजी’, प्रीति के पापा सिर खुजलाने लगे थे, ‘मैं आप के निजी जीवन की थ्योरी नहीं समझ पाया.’

‘मैं घर से बाहर क्या करूं, क्या न करूं,’ उन्होंने स्पष्ट किया था, ‘यह इस पर किसी भी प्रकार की टोकाटाकी नहीं करेंगी.’

‘अरे,’ प्रीति के पापा ने जोर का ठहाका लगाया था, ‘लो भई, आप की यह निजता बनी रहेगी.’

रिश्ता पक्का हो चला था. 6 महीने बाद धूमधाम से उन का विवाह हो गया था. विवाह के तुरंत बाद ही वे दोनों नैनीताल हनीमून पर चल दिए थे. सप्ताह भर वे वहां खूब सैरसपाटा करते रहे थे. दोनों ही तो एकदूसरे में डूबते चले गए थे. वहां उन्होंने नैनी झील में जी भर कर बोटिंग की थी.

‘क्योंजी,’ बोटिंग करते हुए प्रीति ने उन से पूछा था, ‘उस दिन मैं आप की फिलौस्फी नहीं समझ पाई थी. जब आप मुझे देखने आए थे तो अपने निजी जीवन की बात कही थी न.’

‘हां,’ उन्होंने कहा था, ‘मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, इस पर तुम्हारी ओर से किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी. मैं औरतमर्द में अंतर माना करता हूं.’

‘अरे,’ प्रीति भौचक रह गई थी. वह गला साफ  करते हुए बोली, ‘आज के युग में जहां नरनारी की समता की दुहाई दी जाती है, वहां आप के ये दकियानूसी विचार…’

‘मैं ने कहा न,’ उन्होंने पत्नी की बात बीच में काट दी थी, ‘तुम किसी भी रूप में मेरे साथ वैचारिक बलात्कार नहीं करोगी और न ही मैं तुम्हें अपने ऊपर हावी होने दूंगा.’

तभी फोन की घंटी बजी और उन्होंने आ कर रिसीवर उठा लिया, ‘‘यस.’’

‘‘सर, लंच के बाद आप डिक्टेशन देने की बात कह रहे थे,’’ उधर से उन की पी.ए. कनु ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘अरे हां,’’ वह घड़ी देखने लगे. 2 बज चुके थे. अगले ही क्षण उन्होंने कहा, ‘‘चली आओ, मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देना है.’’

इतना कह कर वह कल्पना के संसार में विचरने लगे कि उन की पी.ए. कनुप्रिया कमरे में आएगी. उस के शरीर की गंध से कमरा महक उठेगा. ऐसे में वह सुलगने लगेंगे…तभी चौखट पर कनु आ खड़ी हुई. वह मुसकरा दिए, ‘‘आओ, चली आओ.’’

कनु सामने की कुरसी पर बैठ गई. वह उस के आगे चारा डालने लगे, ‘‘कनु, आज तुम सच में एक संपूर्ण नारी लग रही हो.’’

कनु हतप्रभ रह गई. बौस के मुंह से वह अपनी तारीफ सुन कर अंदर ही अंदर घबरा उठी. उस ने नोट बुक खोल ली और नोटबुक पर नजर गड़ाए हुए बोली, ‘‘मैं समझी नहीं, सर.’’

‘‘अरे भई, कालिज के दिनों में मैं ने काव्यशास्त्र के पीरियड में नायिका भेद के लक्षण पढे़ थे. तुम्हें देख कर वे सारे लक्षण आज मुझे याद आ रहे हैं. तुम पद्मिनी हो…तुम्हारे आने से मेरा यह कमरा ही नहीं, दिल भी महकने लगा है.’’

‘‘काम की बात कीजिए न सर,’’ कनु गंभीर हो आई. उस ने कहा, ‘‘आप मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देने जा रहे थे.’’

‘‘सौरी कनु, मुझे पता न था कि तुम… मैं तो सचाई उगल रहा था.’’

‘‘आप को सब पता है, सर,’’ कनु कहती ही गई, ‘‘आप अपनी आदत से बाज आ जाइए. प्रीति मैडम में ऐसी क्या कमी थी, जो आप ने उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया?’’

अपनी स्टेनो के मुंह से पत्नी का नाम सुन कर प्रयाग को जबरदस्त मानसिक झटका लगा. कनु तो उन्हें नंगा ही कर डालेगी. उन की सारी प्राइवेसी न जाने कब से दफ्तर में लीक होती आ रही है…यानी सभी जानते हैं कि उन के अत्याचारों से तंग आ कर ही उन की पत्नी मायके में बैठी हुई है. कनु के प्रश्न से निरुत्तर हो वह अपने गरीबान में झांकने लगे, तो अतीत फिर उन के सामने साकार होने लगा.

नैनीताल से आ कर वह नानाजी से अलग एक किराए का फ्लैट ले कर रहने लगे थे. नानाजी ने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन उन्होंने उन की एक भी नहीं सुनी थी. फ्लैट में आ कर वह अपने आदेशनिर्देशों से प्रीति का जीना ही हराम करने लगे थे.

‘रात की रोटियां क्यों बच गईं?’

‘तुम तार पर कपडे़ डालती हुई इधरउधर क्यों झांकती हो?’

‘तुम्हें लोग क्यों देखते हैं?’

आएदिन वह पत्नी पर इस तरह के प्रश्नों की झड़ी सी लगा दिया करते थे.

उस फ्लैट में प्रीति उन के साथ भीगी बिल्ली बन कर रहने लगी थी. जबतब उसे उन की शर्त याद आ जाया करती. पति के उन अत्याचारों से आहत हो वह आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी थी. एक बार तो वह मरतीमरती ही बची थी.

उन की आवारगी अब और भी जलवे दिखलाने लगी थी. एक दिन वह किसी युवती को फ्लैट में ले आए थे. प्रीति कसमसा कर ही रह गई थी. उन्होंने उस युवती का परिचय दिया था, ‘यह सुनंदा है. हम लोग कभी एक साथ ही पढ़ा करते थे.’

विवाह के दूसरे साल उन के यहां एक बच्चा आ गया था लेकिन वे वैसे ही रूखे बने रहे. बच्चे के आगमन पर उन्हें कोई भी खुशी नहीं हुई थी. प्रीति उन के अत्याचारों के नीचे दबती ही गई.

‘देखिएजी,’ एक दिन प्रीति ने अपना मुंह खोल ही दिया, ‘मुझे आप प्रतिबंधों के शिंकजे से मुक्त कीजिए… नहीं तो…’

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने लगी.

उलझे रिश्ते: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

दिनभर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ? सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

‘‘नहींनहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

‘‘जानती हूं पर यह कौन सा तरीका है?’’ रश्मि ने प्यार से समझाने की कोशिश की,  ‘‘कुछ दिन इंतजार करो मिस्टर. रश्मि तुम्हारी है. एक दिन पूरी तरह तुम्हारी हो जाएगी.’’ परंतु सुधीर पर कोई असर नहीं हुआ. हद से आगे बढ़ता देख रश्मि ने सुधीर को धक्का दिया और हिरणी सी कुलांचे भरती हुई घर से बाहर निकल गई. उस रात रश्मि सो नहीं पाई. उसे सुधीर का यों बांहों में लेना अच्छा लगा. कुछ देर और रुक जाती तो…सोच कर सिहरन सी दौड़ गई. और एक दिन ऐसा आया जब पढ़ाई की आड़ में चल रहा प्यार का खेल पकड़ा गया. दोनों अब तक बी.कौम अंतिम वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और एकदूजे में इस कदर खो चुके थे कि उन्हें आभास भी नहीं था कि इस रिश्ते को रश्मि के पिता और भाई कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उस दिन रश्मि के घर कोई नहीं था. वह अकेली थी कि सुधीर पहुंच गया. उसे देख रश्मि की धड़कनें बढ़ गईं. वह बोली,  ‘‘सुधीर जाओ तुम, पापा आने वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हो गया. दामाद अपने ससुराल ही तो आया है,’’ सुधीर ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘नहीं, तुम जाओ प्लीज.’’

‘‘रुको डार्लिंग यों धक्के मार कर क्यों घर से निकाल रही हो?’’ कहते हुए सुधीर ने रश्मि को अपनी बांहों में भर लिया. तभी जो न होना चाहिए था वह हो गया. रश्मि के पापा ने अचानक घर में प्रवेश किया और दोनों को एकदूसरे की बांहों में समाया देख आगबबूला हो गए. फिर पता नहीं कितने लातघूंसे सुधीर को पड़े. सुधीर कुछ बोल नहीं पाया. बस पिटता रहा. जब होश आया तो अपने घर में लेटा हुआ था. सुधीर और रश्मि के परिवारजनों की बैठक हुई. सुधीर की मम्मी ने प्रस्ताव रखा कि वे रश्मि को बहू बनाने को तैयार हैं. फिर काफी सोचविचार हुआ. रश्मि के पापा ने कहा,  ‘‘बेटी को कुएं में धकेल दूंगा पर इस लड़के से शादी नहीं करूंगा. जब कोई काम नहीं करता तो क्या खाएगाखिलाएगा?’’ आखिर तय हुआ कि रश्मि की शादी जल्द से जल्द किसी अच्छे परिवार के लड़के से कर दी जाए. रश्मि और सुधीर के मिलने पर पाबंदी लग गई पर वे दोनों कहीं न कहीं मिलने का रास्ता निकाल ही लेते. और एक दिन रश्मि के पापा ने घर में बताया कि दिल्ली से लड़के वाले आ रहे हैं रश्मि को देखने. यह सुन कर रश्मि को अपने सपने टूटते नजर आए. उस ने कुछ नहीं खायापीया.

भाभी ने समझाया, ‘‘यह बचपना छोड़ो रश्मि, हम इज्जतदार खानदानी परिवार से हैं. सब की इज्जत चली जाएगी.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? इस घर में बच्चों की खुशी का खयाल नहीं रखा जाता. दोनों दीदी कौन सी सुखी हैं अपने पतियों के साथ.’’

‘‘तेरी बात ठीक है रश्मि, लेकिन समाज, परिवार में ये बातें माने नहीं रखतीं. तेरे गम में पापा को कुछ हो गया तो…उन्होंने कुछ कर लिया तो सब खत्म हो जाएगा न.’’

रश्मि कुछ नहीं बोल पाई. उसी दिन दिल्ली से लड़का संभव अपने छोटे भाई राजीव और एक रिश्तेदार के साथ रश्मि को देखने आया. रश्मि को देखते ही सब ने पसंद कर लिया. रिश्ता फाइनल हो गया. जब यह बात सुधीर को रश्मि की एक सहेली से पता चली तो उस ने पूरी गली में कुहराम मचा दिया,  ‘‘देखता हूं कैसे शादी करते हैं. रश्मि की शादी होगी तो सिर्फ मेरे साथ. रश्मि मेरी है.’’ पागल सा हो गया सुधीर. इधरउधर बेतहाशा दौड़ा गली में. पत्थर मारमार कर रश्मि के घर की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले. रश्मि के पिता के मन में डर बैठ गया कि कहीं ऐसा न हो कि लड़के वालों को इस बात का पता चल जाए. तब तो इज्जत चली जाएगी. सब हालात देख कर तय हुआ कि रश्मि की शादी किसी दूसरे शहर में जा कर करेंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. अब एक तरफ प्यार, दूसरी तरफ मांबाप के प्रति जिम्मेदारी. बहुत तड़पी, बहुत रोई रश्मि और एक दिन उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘मैं अपने प्यार का बलिदान देने को तैयार हूं. परंतु मेरी एक शर्त है. मुझे एक बार सुधीर से मिलने की इजाजत दी जाए. मैं उसे समझाऊंगी. मुझे पूरी उम्मीद है वह मान जाएगा.’’

भाभी ने घर वालों से छिपा कर रश्मि को सुधीर से आखिरी बार मिलने की इजाजत दे दी. रश्मि को अपने करीब पा कर फूटफूट कर रोया सुधीर. उस के पांवों में गिर पड़ा. लिपट गया किसी नादान छोटे बच्चे की तरह,  ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रश्मि. मैं नहीं जी  पाऊंगा, तुम्हारे बिना. मर जाऊंगा.’’ यंत्रवत खड़ी रह गई रश्मि. सुधीर की यह हालत देख कर वह खुद को नहीं रोक पाई. लिपट गई सुधीर से और फफक पड़ी, ‘‘नहीं सुधीर, तुम ऐसा मत कहो, तुम बच्चे नहीं हो,’’ रोतेरोते रश्मि ने कहा.

‘‘नहीं रश्मि मैं नहीं रह पाऊंगा, तुम बिन,’’ सुबकते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘अगर तुम ने मुझ से सच्चा प्यार किया है तो तुम्हें मुझ से दूर जाना होगा. मुझे भुलाना होगा,’’ यह सब कह कर काफी देर समझाती रही रश्मि और आखिर अपने दिल पर पत्थर रख कर सुधीर को समझाने में सफल रही. सुधीर ने उस से वादा किया कि वह कोई बखेड़ा नहीं करेगा. ‘‘जब भी मायके आऊंगी तुम से मिलूंगी जरूर, यह मेरा भी वादा है,’’ रश्मि यह वादा कर घर लौट आई. पापा किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए एक दिन रात को घर के सब लोग चले गए एक अनजान शहर में. रश्मि की शादी दिल्ली के एक जानेमाने खानदान में हो गई. ससुराल आ कर रश्मि को पता चला कि उस के पति संभव ने शादी तो उस से कर ली पर असली शादी तो उस ने अपने कारोबार से कर रखी है. देर रात तक कारोबार का काम निबटाना संभव की प्राथमिकता थी. रश्मि देर रात तक सीढि़यों में बैठ कर संभव का इंतजार करती. कभीकभी वहीं बैठेबैठे सो जाती. एक तरफ प्यार की टीस, दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से रश्मि टूट कर रह गई. ससुराल में पासपड़ोस की हमउम्र लड़कियां आतीं तो रश्मि से मजाक करतीं  ‘‘आज तो भाभी के गालों पर निशान पड़ गए. भइया ने लगता है सारी रात सोने नहीं दिया.’’ रश्मि मुसकरा कर रह जाती. करती भी क्या, अपना दर्द किस से बयां करती? पड़ोस में ही महेशजी का परिवार था. उन के एक कमरे की खिड़की रश्मि के कमरे की तरफ खुलती थी. यदाकदा रात को वह खिड़की खुली रहती तो महेशजी के नवविवाहित पुत्र की प्रणयलीला रश्मि को देखने को मिल जाती. तब सिसक कर रह जाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता था रश्मि के पास.

संभव जब कभी रात में अपने कामकाज से जल्दी फ्री हो जाता तो रश्मि के पास चला आता. लेकिन तब तक संभव इतना थक चुका होता कि बिस्तर पर आते ही खर्राटे भरने लगता. एक दिन संभव कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था और रश्मि तपती दोपहर में  फर्स्ट फ्लोर पर बने अपने कमरे में सो रही थी. अचानक उसे एहसास हुआ कोई उस के बगल में आ कर लेट गया है. रश्मि को अपनी पीठ पर किसी मर्दाना हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. वह आंखें मूंदे पड़ी रही. वह स्पर्श उसे अच्छा लगा. उस की धड़कनें तेज हो गईं. सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं. उसे लगा शायद संभव है, लेकिन यह उस का देवर राजीव था. उसे कोई एतराज न करता देख राजीव का हौसला बढ़ गया तो रश्मि को कुछ अजीब लगा. उस ने पलट कर देखा तो एक झटके से बिस्तर पर उठ बैठी और कड़े स्वर में राजीव से कहा कि जाओ अपने रूम में, नहीं तो तुम्हारे भैया को सारी बात बता दूंगी, तो वह तुरंत उठा और चला गया. उधर सुधीर ने एक दिन कहीं से रश्मि की ससुराल का फोन नंबर ले कर रश्मि को फोन किया तो उस ने उस से कहा कि सुधीर, तुम्हें मैं ने मना किया था न कि अब कभी मुझ से संपर्क नहीं करना. मैं ने तुम से प्यार किया था. मैं उन यादों को खत्म नहीं करना चाहती. प्लीज, अब फिर कभी मुझ से संपर्क न करना. तब उम्मीद के विपरीत रश्मि के इस तरह के बरताव के बाद सुधीर ने फिर कभी रश्मि से संपर्क नहीं किया.

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

रश्मि चाय बना लाई और दोनों सोफे पर बैठ गए. रश्मि ने बताया कि वह राधाकृष्ण की एक बहुत बड़ी पोट्रेट तैयार करने जा रही है. उस में राधाकृष्ण के प्यार को दिखाया गया है. यह बताते हुए रश्मि अपने अतीत में डूब गई. उस की आंखों के सामने सुधीर का चेहरा घूम गया. हिमेश कुछ और समझ बैठा. उस ने एक हिमाकत कर डाली. अचानक रश्मि का हाथ थामा और ‘आई लव यू’ कह डाला. रश्मि को लगा जैसे कोई बम फट गया है. गुस्से से उस का चेहरा लाल हो गया. वह अचानक उठी और क्रोध में बोली, ‘‘आप उठिए और तुरंत यहां से चले जाइए. और दोबारा इस घर में पांव मत रखिएगा वरना बहुत बुरा होगा.’’ हिमेश को तो जैसे सांप सूंघ गया. रश्मि का क्रोध देख उस के हाथ कांपने लगे.

‘‘आ…आ… आप मुझे गलत समझ रही हैं मैडम,’’ उस ने कांपते स्वर में कहा.

‘‘गलत मैं नहीं समझ रही आप ने मुझे समझा है. एक शिक्षक के नाते मैं आप की इज्जत करती रही और आप ने मुझे क्या समझ लिया?’’ फिर एक पल भी नहीं रुका हिमेश. उस के बाद उस ने कभी रश्मि के घर की तरफ देखा भी नहीं. जब कभी साहिल ने पूछा रश्मि से तो उस से उस ने कहा कि सर बाहर रहने लगे हैं. रश्मि की जिंदगी फिर से दौड़ने लगी. एक दिन एक पांच सितारा होटल में लगी डायमंड ज्वैलरी की प्रदर्शनी में एक संभ्रात परिवार की 30-35 वर्षीय महिला ऊर्जा से रश्मि की मुलाकात हुई. बातों ही बातों में दोनों इतनी घुलमिल गईं कि दोस्त बन गईं. वह सच में ऊर्जा ही थी. गजब की फुरती थी उस में. ऊर्जा ने बताया कि वह अपने घर पर योगा करती है. योगा सिखाने और अभ्यास कराने योगा सर आते हैं. रश्मि को लगा वह भी ऊर्जा की तरह गठीले और आकर्षक फिगर वाली हो जाए तो मजा आ जाए. तब हर कोई उसे देखता ही रह जाएगा.

ऊर्जा ने स्वाति से कहा कि मैं योगा सर को तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दूंगी. वे तुम से संपर्क कर लेंगे. रश्मि ने अपने पति संभव को मना लिया कि वह घर पर योगा सर से योगा सीखेगी. एक दिन रश्मि के मोबाइल घंटी बजी. उस ने देखा तो कोई नया नंबर था. रश्मि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई,  ‘‘हैलो मैडम, मैं योगा सर बोल रहा हूं. ऊर्जा मैडम ने आप का नंबर दिया था. आप योगा सीखना चाहती हैं?’’‘‘जी हां मैं ने कहा था, ऊर्जा से,’’ रश्मि ने कहा.

‘‘तो कहिए कब से आना है?’’

‘‘किस टाइम आ सकते हैं आप?’’

‘‘कल सुबह 6 बजे आ जाता हूं. आप अपना ऐडै्रस नोट करा दें.’’

रश्मि ने अपना ऐड्रैस नोट कराया. सुबह 5.30 बजे का अलार्म बजा तो रश्मि जाग गई. योगा सर 6 बजे आ जाएंगे यही सोच कर वह आधे घंटे में फ्रैश हो कर तैयार रहना चाहती थी. बच्चे और पति संभव सो रहे थे. उन्हें 8 बजे उठने की आदत थी. रश्मि उठते ही बाथरूम में घुस गई. फ्रैश हो कर योगा की ड्रैस पहनी तब तक 6 बजने जा रहे थे कि अचानक डोरबैल बजी. योगा सर ही हैं यह सोच कर उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोला तो सामने खड़े शख्स को देख कर वह स्तब्ध रह गई. उस के सामने सुधीर खड़ा था. वही सुधीर जो उस की यादों में बसा रहता था.

‘‘तुम योगा सर?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘हां.’’

फिर सुधीर ने, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ कहा तो रश्मि हड़बड़ा गई.

‘‘हांहां आओ, आओ न प्लीज,’’ उस ने कहा. सुधीर अंदर आया तो रश्मि ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने को कहा. दोनों एकदूसरे के सामने बैठे थे. रश्मि को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले, क्या नहीं. सुधीर कहे या योगा सर. रश्मि सहज नहीं हो पा रही थी. उस के मन में सुधीर को ले कर अनेक सवाल चल रहे थे. कुछ देर में वह सामान्य हो गई, तो सुधीर से पूछ लिया, ‘‘इतने साल कहां रहे?’’

सुधीर चुप रहा तो रश्मि फिर बोली, ‘‘प्लीज सुधीर, मुझे ऐसी सजा मत दो. आखिर हम ने प्यार किया था. मुझे इतना तो हक है जानने का. मुझे बताओ, यहां तक कैसे पहुंचे और अंकलआंटी कहां हैं? तुम कैसे हो?’’ रश्मि के आग्रह पर सुधीर को झुकना पड़ा. उस ने बताया कि तुम से अलग हो कर कुछ टाइम मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा रहा. फिर थोड़ा सुधरा तो शादी की, लेकिन पत्नी ज्यादा दिन साथ नहीं दे पाई. घरबार छोड़ कर चली गई और किसी और केसाथ घर बसा लिया. फिर काफी दिनों के इलाज के बाद ठीक हुआ तो योगा सीखतेसीखते योगा सर बन गया. तब किसी योगाचार्य के माध्यम से दिल्ली आ गया. मम्मीपापा आज भी वहीं हैं उसी शहर में. सुधीर की बातें सुन अंदर तक हिल गई रश्मि. यह जिंदगी का कैसा खेल है. जो उस से बेइंतहां प्यार करता था, वह आज किस हाल में है सोचती रह गई रश्मि. अजब धर्मसंकट था उस के सामने. एक तरफ प्यार दूसरी तरफ घरसंसार. क्या करे? सुधीर को घर आने की अनुमति दे या नहीं? अगर बारबार सुधीर घर आया तो क्या असर पड़ेगा गृहस्थी पर? माना कि किसी को पता नहीं चलेगा कि योगा सर के रूप में सुधीर है, लेकिन कहीं वह खुद कमजोर पड़ गई तो? उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. गृहस्थी जैसी भी है बिखर जाएगी. उस ने तय कर लिया कि वह सुधीर को योगा सर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी. कहीं दूर चले जाने को कह देगी इसी वक्त.

‘‘देखो सुधीर मैं तुम से योगा नहीं सीखना चाहती,’’ रश्मि ने अचानक सामान्य बातचीत का क्रम तोड़ते हुए कहा.

‘‘पर क्यों रश्मि?’’

‘‘हमारे लिए यही ठीक रहेगा सुधीर, प्लीज समझो.’’

‘‘अब तुम शादीशुदा हो. अब वह बचपन वाली बात नहीं है रश्मि. क्या हम अच्छे दोस्त बन कर भी नहीं रह सकते?’’ सुधीर ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘नहीं सुधीर, मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मेरी गृहस्थी, मेरे बच्चों पर असर पड़े,’’ रश्मि ने कहा. सुधीर ने लाख समझाया पर रश्मि अपने फैसले पर अडिग रही. सुधीर बेचैन हो गया. सालों बाद उस का प्यार उस के सामने था, लेकिन वह उस की बात स्वीकार नहीं कर रहा था. आखिर रश्मि ने सुधीर को विदा कर दिया. साथ ही कहा कि दोबारा संपर्क की कोशिश न करे. सुधीर रश्मि से अलग होते वक्त बहुत तनावग्रस्त था. पर उस दिन के बाद सुधीर ने रश्मि से संपर्क नहीं किया. रश्मि ने तनावमुक्त होने के लिए कई नई फ्रैंड्स बनाईं और उन के साथ बहुत सी गतिविधियों में व्यस्त हो गई. इस से उस का सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया. उस दिन वह बहुत से बाहर के फिर घर के काम निबटा कर बैडरूम में पहुंची तो न्यूज चैनल पर उस ने वह खबर देखी कि सुधीर ने दिल्ली मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया था. वह देर तक रोती रही. न्यूज उद्घोषक बता रही थी कि उस की जेब में एक सुसाइड नोट मिला है, जिस में अपनी मौत के लिए उस ने किसी को जिम्मेदार नहीं माना परंतु अपनी एक गुमनाम प्रेमिका के नाम पत्र लिखा है. रश्मि का सिर घूम रहा था. उस की रुलाई फूट पड़ी. तभी संभव ने अचानक कमरे में प्रवेश किया और बोला, ‘‘क्या हुआ रश्मि, क्यों रो रही हो? कोई डरावना सपना देखा क्या?’’ प्यार भरे बोल सुन रश्मि की रुलाई और फूट पड़ी. वह काफी देर तक संभव के कंधे से लग कर रोती रही. उस का प्यार खत्म हो गया था. सिर्फ यादें ही शेष रह गई थीं.

चक्रव्यूह प्रेम का : क्या मनोज कुमार अपनी बेटी की लव मैरिज से खुश थे?

‘‘भैया सादर प्रणाम, तुम कैसे हो?’’ लखन ने दिल्ली से अपने बड़े भाई राम को फोन कर उस का हालचाल जानना चाहा.

‘‘प्रणाम भाई प्रणाम, यहां सभी कुशल हैं. अपना सुनाओ?’’ राम ने अपने पैतृक शहर छपरा से उत्तर दिया. वह जयपुर में नौकरी करता था. वहां से अपने घर मतापिता से मिलने आया हुआ था.

‘‘मैं भी ठीक हूं भैया. लेकिन दूर संचार के इस युग में कोई मोबाइल फोन रिसीव नहीं करे, यह कितनी अनहोनी बात है, तुम उन्हें क्यों नहीं समझते हो? मैं चाह कर भी उन से अपने मन की बात नहीं कह पाता, यह क्या गंवारपन और मजाक है,’’ मन ही मन खीझते हुए लखन ने राम से शिकायत की.

‘‘तुम किस की बात कर रहे हो लखन, मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है?’’ राम ने उत्सुकता जताते हुए पूछा.

‘‘तुम्हें पता नहीं है कि कौन मोबाइल सैट का उपयोग नहीं करता है? क्यों जानते हुए अनजान बनते हो भैया?’’ लखन ने नाराजगी जताते हुए कहा.

‘‘सचमुच मुझे याद नहीं आ रहा है. तू पहेलियां नहीं बुझ मेरे भाई, जो भी कहना है साफसाफ कहो,’’ इस बार राम ने थोड़ी ऊंची आवाज में कहा.

‘‘खाक साफसाफ कहूं…’’ उत्तेजित हो कर लखन ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हीं ने मेरी कौल मातापिता को उठाने से मना कर दिया है इसलिए मैं परेशान हूं. घर में 2-2 स्मार्टफोन हैं. रिंग बजती रहती है लेकिन कोई रिसीव तक नहीं करता है, जबकि घर में 2-2 नौकरानियां भी हैं. मेरे साथ अनाथों जैसा बरताव क्या शोभा देता है?’’

‘‘बकबास बंद करो… फुजूल की बातें सुनने की मुझे आदत नहीं है… ऐसे बोल रहे हो जैसे वे मेरे मातापिता नहीं कोई नौकर हों… हां, नौकर को मना किया जा सकता है लेकिन देवतुल्य मातापिता को नहीं… वे तो अपनी मरजी के मालिक हैं… किस से बातें करनी हैं किस से नहीं वही जानें. अवश्य तुम उन के साथ कोई बचपना हरकत की होगी… इसलिए वे तुम से नाराज होंगे…’’ इतनी फटकार लगा कर राम ने फोन काट दिया.

फोन कट जाने से लखन काफी नाराज हुआ. वह सोचने लगा कि नौकरी से अच्छा तो घर पर बैठना ही था. नाहक घर छोड़ कर दिल्ली में ?ाक मार रहा हूं. इसी तरह 1 सप्ताह बीत गया. एक दिन लखन का मन नहीं माना, उस ने फिर राम को फोन किया, ‘‘मम्मीपापा कैसे हैं भैया? उन की चिंता लगी रहती है. उन की सेहत ठीक तो है न? उन से जरा बात करा दो न,’’ लखन ने सहजता के साथ अपने मन की बात रखी.

जवाब में तुनकमिजाज राम ने उत्तर दिया, ‘‘वे तो ठीक हैं पर तुम्हें किस बात की चिंता लगी रहती है, मु?ो बताओ तो सही? तूने रोजरोज यह क्या तमाशा लगा रखा है. कभी मम्मी से बात करा दो तो कभी पिताजी से. अब तू कोई दूध पीता बच्चा तो है नहीं. तेरे पास सब्र नाम की कोई चीज है कि नहीं? तू रोज फोन पर मुझे डिस्टर्ब न किया कर.’’

‘‘मम्मीपापा का हालचाल पूछना डिस्टर्ब करना है? क्या मैं डिस्टर्ब करता हूं? तो तुम ही बताओ उन से कैसे बात करूं. भैया तुम तो किसी विक्षिप्त की तरह बातें कर रहे हो, जैसे मैं छोटा भाई नहीं कसाई हूं.’’

‘‘हां, बिलकुल कसाई हो, तभी तो किसी निर्दयी की तरह व्यवहार करते हो. मुझे विक्षिप्त बोला. पागल कहा… बोलने की तमीज है कि नहीं? जो मन में आया बके जा रहे हो. मांबाप से उतना ही प्यार है तो सादगी से बात करो.’’

‘‘सौरी भैया, आई एम वैरी सारी.’’

‘‘ओके, लो पहले मां से बात करो,’’ कह कर राम ने अपने फोन का विजुअल वीडियो औन कर दिया, जिस के अंदर अपनी मां का मुसकराता हुआ चेहरा देख कर लखन आह्लादित हो गया और पूछा, ‘‘कैसी हो मां? तेरी बहुत याद आती है.’’

‘‘मैं तो ठीक हूं लखन बेटा लेकिन तू कितना दुबलापतला हो गया है. समय पर खाना नहीं खाता है क्या?’’

‘‘खाना खाता हूं मां, मगर तेरे हाथ का खाना कहां मिलता. आप दोनों के साथ रहने के लिए मम्मीपापा के नाम से दिल्ली में एक फ्लैट खरीद लिया है. अब आप लोगों को यहीं रहना होगा.’’

‘‘अरे बेटा फ्लैट क्यों खरीद लिया, यहीं मजे में दिन कट रहे हैं. लो थोड़ा अपने पिताजी से बात कर लो,’’ पार्वती ने मोबाइल अपने पति महादेव के हाथों में थमा दिया.

‘‘हैलो लखन बेटा, मांबेटे की बातें ध्यान से सुन रहा था. तुम हमें दिल्ली में रखना चाहते हो और राम हमें जयपुर में. दोनों के जज्बात और प्यार की कद्र करता हूं बेटा पर तुम्हारी मां और मैं यहीं ठीक हूं. तुम लोग खुश रहो, यही हमारी दिली तमन्ना है,’’ महादेव ने हर्षित मुद्रा में कहा.

‘‘मगर पिताजी आप के आशीर्वाद से आज मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं. मातापिता के प्रति मेरा भी कुछ कर्तव्य और अधिकार है, जिसे निभाना चाहता हूं. आप मेरी इच्छाओं का दमन नहीं कीजिए,’’ लखन ने व्यग्र होते हुए विनती की.

‘‘लखन बेटा, जब ऐसी बात है तो कुछ दिनों के लिए हम अवश्य तुम्हारे पास रहेंगे. अच्छा ठीक है, फिर बातें होंगी.’’

राम ने मोबाइल वापस लेने के बाद डिस्कनैक्ट कर दिया.

राम और लखन दोनों भाई किसान महादेव और पार्वती के पुत्र थे. उन के दोनों लाड़ले बचपन से ही बड़े नटखट और शरारती थे. वे बातबात पर लड़ते और झगड़ते रहते थे. उन की शरारतों की वजह से मातापिता को पड़ोसियों के उलाहने सुनने पड़ते थे.

खेलखेल में राम और लखन ने अपने शहर के ही हाई स्कूल से मैट्रिक व इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त की. उस के बाद पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर किया. दोनों भाइयों ने दिल्ली के एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान से एमबीए किया. प्रौद्योगिकी विज्ञान में एमबीए करने के बाद दोनों भाई नौकरी की तलाश में जुट गए.

इधर बड़े भाई राम ने सीईओ बनने के लिए अकाउंटिंग मैंनेजमैंट में डिगरी प्राप्त की. उस के बाद उसे जयपुर में अमेरिकी कंपनी में सीईओ की नौकरी मिल गई. उस का सालाना पैकेज 40 लाख रुपए था.

वहीं लखन की नौकरी दिल्ली के एक बैंक में पर्सनल औफिसर के रूप में लग गई. वह बैंक की ह्यूमन रिसोर्स एक्टिविटीज को संभालने लगा. दोनों भाइयों की नौकरी लग जाने के बाद से उन के घर में खुशियों का माहौल था. उन की माता पार्वती और पिता महादेव बेहद प्रसन्न थे. उन के मन की मुरादें पूरी हो गई थीं.

महादेव की अब एक ही इच्छा शेष थी कि दोनों बेटों का विवाह किसी अच्छे घराने की शिक्षित, सुंदर और सुशील लड़की से हो जाए ताकि बहुओं के आ जाने से उन के बेटों का दांपत्य जीवन सुखमय हो सके. अब उन के विवाह के लिए रिश्ते आने लगे थे.

एक दिन मांझ के विधायक मनोज कुमार अपनी बेटी का रिश्ता ले कर महादेव के घर पहुंचे. महादेव और पार्वती ने उन के स्वागतसत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसी बीच विधायक ने राम के साथ अपनी बेटी के शादी का प्रस्ताव रखा.

महादेव कुछ जवाब दे पाते उस के पहले ही पार्वती ने विधायक से पूछा, ‘‘विधायकजी आप की सुपुत्री क्या करती है?’’

‘‘मेरे बेटी का नाम सत्या है. उस ने कंप्यूटर साइंस में एमबीए किया है. फिलहाल वह जयपुर में एक विदेशी कंपनी में काम करती है. वह देखने में सुंदर और होनहार लड़की है.’’

‘‘अति उत्तम, उस की मां को यहां क्यों नहीं लाए?’’ पार्वती ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘सत्या की मां इस दुनिया में नहीं है. वह सत्या को बचपन में ही छोड़ कर चल बसी थी. सत्या का लालनपालन मैं ने ही किया है,’’ विधायक ने दुखी मन से कहा.

‘‘उफ, कुदरत की जो मरजी. उस के आगे तो सब बौने हैं. बहरहाल आप लोग बात करें. जलपान के बाद अभी तक पान, सुपारी, सौंप वगैरह नहीं आया, देखती हूं क्या बात है,’’ कह पार्वती घर के अंदर चली गई.

‘‘हां, महादेव बाबू. अपनी बेटी की शादी राम से करने का प्रस्ताव लाया हूं. क्या हमारे यहां रिश्ता जोड़ेंगे?’’ विधायक मनोज कुमार ने आग्रह किया.

‘‘शादीविवाह तो विधाता की एक रचना है. बिना उस की मरजी के हम रिश्ता जोड़ने वाले होते कौन हैं? इस मामले में राम की पसंद ही सर्वोपरि होगी. हम ने पढ़ालिखा कर इतना योग्य बना दिया है कि वह अपनी जिंदगी के बारे में स्वयं निर्णय ले सके. अपनी जीवनसंगिनी खुद चुन सके. इस मामले में आप चाहें तो राम से वीडियो कौलिंग कर सकते हैं.’’

‘‘जी नहीं, हम जनता के बीच रहते हैं. हमें अपनी पुरानी परंपराओं और संस्कारों से ज्यादा लगाव है. गार्जियन की रजामंदी से जो लड़केलड़कियां शादीविवाह करते हैं, वे हमें खूब पसंद हैं. देखिए महादेव बाबू, अभी हम इतने एडवांस नहीं हुए हैं कि पाश्चात्य संस्कृति को अपना सकें. अच्छा, अब हम चलते हैं…’’ अपनी कुरसी से उठते हुए विधायक ने कहा.

‘‘विधायकजी, एक बार राम से बात कर के तो देखिए. शायद बात बन जाए,’’ महादेव ने आग्रह किया.

‘‘जी नहीं, जब वे आप की बात नहीं मानेंगे तो बात करने का क्या मतलब? धन्यवाद.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरी बात नहीं मानेगा. यह तो गलत आरोप है विधायकजी,’’ परेशान होते हुए महादेव ने कहा.

‘‘अभी से बेटों को बेलगाम छोड़ देना आप दोनों के लिए ठीक नहीं होगा. आने वाला वक्त आप लोगों पर भारी पड़ सकता है. शादीविवाह के बाद दोनों बेटे बिगड़ जाएंगे. बुढ़ापे में न बहुएं पूछेंगी न बेटे इसलिए सोचसम?ा कर निर्णय लें महादेव बाबू.’’

‘‘मैं ने तन, मन, धन लगा कर अपने नवजात पौधों को सींचा है. मुझे पूरा भरोसा है कि पौधे बड़े होकर अच्छे फूल और फल देंगे. हमें उन के बारे में न कुछ सोचना है न समझना है,’’ महादेव ने गर्व के साथ विधायकजी को जवाब दिया.

आखिर में महादेव के दोनों बेटों की शादी उन की मनपसंद लड़की से हो गई. जयपुर में बड़े भाई राम ने सत्या से लव मैरिज कर ली, जबकि दिल्ली में शोभा से लखन ने प्रेमविवाह किया. दोनों युवतियां उन के औफिस में काम करती थीं. इसी क्रम में उन के बीच प्रेम का बीज अंकुरित हुआ. 2 वर्षों में उन का प्रेम ऐसे परवान चढ़ा कि उन्होंने एकदूसरे से कोर्ट मैरिज कर ली. कोर्ट मैरिज के मौके पर उन्होंने अपने मातापिता को आशीर्वाद लेने के लिए बुलाया भी था, लेकिन अस्वस्थता के कारण पार्वती और महादेव नहीं जा सके.

राम और लखन शादी के बाद हनीमुन मनाने के लिए नैनीताल चले गए, जहां पहाड़ों की हरी भरी वादियों में जमकर मौज मस्ती लूटी. 1 माह हवा खोरी के पश्चात पूरे परिवार को 2 सप्ताह के लिए पैतृक शहर छपरा जाना था. इसी बीच लखन को कंपनी का इमरजैंसी कौल आ गई, जिस की वजह से उसे दिल्ली लौट जाना पड़ा, जबकि राम दोनों बहुओं को ले कर अपने मातापिता के पास छपरा पहुंच गया.

एकसाथ घर पर आए अपने बेटे राम और 2 पुत्र वधुओं को देख कर पार्वती और महादेव फूले नहीं समाए. वे समझ नहीं पाए कि उन का स्वागत कैसे करें. मारे खुशी के पार्वती उन की आरती उतारने लगी, जबकि महादेव अपने नौकर और नौकरानियों को बहुओं का कमरा सुसज्जित करने और उन की पसंद का खानपान तैयार करने की बात सम?ाने लगे.

पार्वती की बहुओं के घर आने की खबर महल्ले में चंदन की सुगंध की तरह फैल गई. पासपड़ोस की महिलाएं उन्हें देखने के लिए पहुंच गईं. वे बारीबारी से सत्या और शोभा की मुंहदिखाई की रस्मअदायगी में जुट गईं.

दोनों बहुओं के पास उपहारों का ढेर लग गया, जिसे देख कर सत्या और शोभा अपने प्रेम विवाह को भूल गई. उन्हें लगा कि वे अपनी ससुराल में अरेंज्ड मैरिज कर लाई गई हों. ससुराल में उन के दिनरात सुकून से कटने लगे.

एक दिन राम अपनी पत्नी सत्या और भाभी शोभा के साथ गौतम ऋषि और त्रिलोक सुंदरी अहिल्या का पौराणिक मंदिर देखने के लिए गोदना सेमरिया ले कर गया. वे मंदिर के पुजारी से अहिल्या के श्राप व उद्धार की कहानी सुन रहे थे, तभी उस की मां पार्वती ने राम को फोन किया, ‘‘किसी मामले में पुलिस तुम्हारे पिताजी को पकड़ कर थाने ले गई है. तुम लोग जल्दी भगवानपुर थाना पहुंचे.’’

‘‘पिताजी को पुलिस पकड़ कर ले गई… बिलकुल असंभव बात है मां,’’ राम ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए आशंका जताई.

‘‘राम देर न करो… जल्दी थाना पहुंचो…’’

‘‘आप चिंता न करें, तुरंत पहुंच रहा हूं,’’ राम ने जवाब दिया और सभी वहां से थाने के लिए चल दिए.

राम जैसे ही सत्या के साथ भगवानपुर थाना पहुंचा पुलिस ने दोनों को हिरासत में ले कर अंदर बैठा दिया, जहां पहले से महादेव बैठे हुए थे.

‘‘सर, हमें किस जुर्म में बैठाया गया है उस की जानकारी हमें होनी चाहिए?’’ राम ने थानेदार संजय सिंह से पूछा.

‘‘तुम पर सत्या नाम की लड़की का जबरन अपहरण करने, उस की इच्छा के विरुद्ध शादी रचाने और शारीरिक संबंध बनाने का आरोप है. तुम्हारे विरुद्ध जयपुर थाना में लड़की के पिता मनोज कुमार ने लिखित आवेदन दिया है. जयपुर कोर्ट के आदेश पर तुम दोनों की बरामदी के लिए जयपुर पुलिस छपरा पहुंची है. औपचारिक पुलिसिया काररवाई के बाद थोड़ी देर में तुम लोगों को अपने साथ ले जाएगी. मेरी बात कुछ समझ में आई?’’ थानेदार संजय सिंह ने रोबदार आवाज में राम पर धौंस जमाई.

‘‘यह तो कानून का खुला उल्लंघन है सर… किसी ने हम पर ?ाठा आरोप लगा दिया… और पुलिस काररवाई के नाम पर हमें परेशान करेगी,’’ महादेव थोड़ा उत्तेजित होते हुए बोले.

‘‘अपहृत लड़की आप के सामने बैठी है, फिर भी आरोप झूठा लगता है? इस मामले में पूरे परिवार को जेल जाना पड़ेगा, तब सारी हेकड़ी निकल जाएगी,’’ थानेदार ने महादेव को धमकाया.

तभी जयपुर पुलिस ने राम, सत्या, महादेव को एक वाहन में बैठाया और जयपुर ले कर चली गई. निराश और हताश शोभा और उस की सास पार्वती दोनों थाने से अपने घर वापस आ गईं. शोभा ने अपने पति लखन को फोन पर सारे घटनाक्रम के बारे में बताया और कहा, ‘‘पता नहीं, किस की बुरी नजर हमारे परिवार को लग गई है. लखन, ट्रेन से हम दोनों आज जयपुर निकल जाएंगे. तुम भी वहीं पहुंचो… उन की जमानत कराने की जिम्मेदारी हमारी होगी.’’

‘‘ओके शोभा, मां का खयाल रखना मैं भी कल पहुंच जाऊंगा,’’ लखन ने जवाब दिया.

जयपुर पुलिस ने अपहृत सत्या के आरोपी राम को अपने घर में छिपा कर रखने के दोषी महादेव को भी जेल भेज दिया. बापबेटा को जेल भेजने के बाद पुलिस ने सत्या को सदर अस्पताल में मैडिकल जांच कराई. उस के बाद सत्या का फर्द बयान अदालत में दर्ज कराने के लिए पेश किया गया.

वहां मजिस्ट्रेट बीबी केस की सुनवाई कर रहे थे. उन के समक्ष मुखातिब होते हुए सत्या बोली, ‘‘जज साहब, मैं 25 वर्ष की बालिग युवती हूं. अपने होशोहवास और अपनी इच्छा के अनुसार भगवानपुर छपरा, बिहार निवासी राम वल्द महादेव से जयपुर कोर्ट में कोर्ट मैरिज की है. यहीं एक मल्टी इंटर नैशनल कंपनी में कार्यरत हूं. मां?ा, जिला सारण, बिहार निवासी सह विधायक मनोज कुमार का मेरे पिता राम पर लगाया गया आरोप निराधार है. आप जानते हैं कि भादवि की धारा 98 ए के तहत कोई भी युवती अपने मनपसंद साथी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह सकती है. उस पर जबरन कोई केस थोपा नहीं जा सकता है. बावजूद मेरे पिता ने मेरे पति राम पर अपहरण, शारीरिक शोषण आदि का मामला दर्ज किया है. जज साहब, मेरे और जेल में बंद मेरे पति के साथ इंसाफ किया जाए. यह तो कानून और नारी सशक्तीकरण का खुला उल्लंघन है.’’

कठघरे में खड़ी सत्या अपना फर्द बयान देने के बाद तनावमुक्तलग रही थी.उसे लगा कि उस के माथे का भार कम हो गया हो. उस ने अदालत में खड़ी अपनी सास पार्वती, देवर लखन और शोभा के मायूस चेहरों को देखा, जो काफी उदास और गमगीन लग रहे थे. उस ने आंखों के इशारे से सब्र रखने का भरोसा दिलाया.

उसी समय विधायक मनोज कुमार के अधिवक्ता बीएन राम ने कहा, ‘‘हुजुर, सत्या पर प्रेम का नशा सवार है इसलिए वह अपने प्रेमी का सहयोग कर रही है. उसे उस के पिता के साथ घर जाने की इजाजत दी जाए ताकि वह अपने बीमार पिता की सेवा कर सके. सत्या के अलावा उस के पिता के घर में सेवा करने वाली कोई दूसरी औरत नहीं है.’’

अधिवक्ता के बयान पर कोर्ट में उपस्थित लोग तरह तरह की चर्चा करने लगे.

‘‘और्डरऔर्डर,’’ मजिस्ट्रेट बीबी ने मेज पर हथौड़ा ठकठकाया और काया और सत्या से पूछा, ‘‘तुम्हारे पिता अकेला रहते हैं? क्या तुम उन के साथ रहना पसंद करोगी?’’

‘‘नहीं सर, पिताजी के साथ नहीं जा सकती. राम और उस के परिवार के सदस्य कोर्ट में मौजूद हैं, मैं उन के साथ ही रहूंगी. अब मेरा यही परिवार है.’’

‘‘अरे बेटी, इतना गुस्सा ठीक नहीं. तुम्हारे पिता ने जो भी केस किया है वह तेरी भलाई के लिए किया है. अब वे तेरी शादी शानोशौकत के साथ करना चाहते हैं, जिसे दुनिया वर्षों तक याद रखे. राम के परिवार के साथ नहीं जाओ, जब प्रेम का नशा उतरेगा तो बहुत पछताओगी.’’

‘‘मर गई उन की बेटी. उन की झूठी शान और राजनीति उन्हीं को मुबारक. एक विधायक की जवान व कुंआरी लड़की दूसरे प्रदेश में नौकरी करती है. उन से फोन पर बारबार जयपुर आने का आग्रह करती है, लेकिन विधायक को राजनीतिक बैठकों और चुनाव से फुरसत नहीं है. लेकिन वहीं लड़की जब कोर्ट मैरिज कर लेती है तो बाप की कुंभकर्णी नींद टूट जाती है. सीधे प्रेमी और प्रेमिका पर केस दर्ज करा देते हैं, माई लार्ड आप से जानना चाहती हूं कि क्या यही बेटी के प्रति एक बाप का अपनापन, स्नेह और प्यार है?’’

अदालत में उपस्थित लोगों में एक बार फिर सत्या के फर्द बयान पर तरहतरह की चर्चा होने लगी. कोई कहता, ‘‘लड़की अपनी जगह पर ठीक है,’’ दूसरा कहता, ‘‘जो एक बार राजनीति की चक्रव्यूह में फंस जाता, उस के लिए सारे रिश्तेनाते अक्षुण्ण हो जाते हैं…’’ तीसरा बोला, ‘‘बाप बेटी की जंग में प्रेमी क्यों पिसेगा, उसे जेल से रिहा करो….’’

‘‘और्डरऔर्डर,’’ मजिस्ट्रेट बीबी ने मेज पर पुन: हथौड़ा ठकठकाया और बोले, ‘‘सत्या और उस के प्रेमी राम के साथ काफी नाइंसाफी हुई है. सत्या ने अगर कोर्ट मैरिज कर भी ली तो समाज के प्रति जिम्मेदार उस के विधायक बाप को 1-2 बार मिल कर समझना चाहिए न कि केस करना चाहिए. अगर विधायक ने सू?ाबू?ा से काम लिया होता तो यह मामला कोर्ट नहीं पहुंचता. बहरहाल, यह अदालत सत्या व उस के प्रेमी राम को बाइज्जत बरी करती है. राम को जेल से बाहर आने तक सत्या अपनी इच्छा के अनुसार सुरक्षित जगह पर रह सकती है. अगर प्रतिवादी इन्हें परेशान करने की कोशिश करता है तो अदालत की अवहेलना के आरोप में उसे सजा भी हो सकती है,’’ इस आदेश के बाद मजिस्ट्रेट बीबी अपनी कुरसी से उठ कर अंदर चले गए.

सत्या कठघरे से निकल कर शोभा के पास पहुंची, जहां पार्वती ने उसे अपनी बाजुओं में भर लिया. तत्पश्चात् अपने पिता महादेव और भाई राम की जमानत कराने के लिए लखन सभी को ले कर अधिवक्ता पीएन के पास पहुंचा.

तब उस के अधिवक्ता ने कहा, ‘‘मजिस्ट्रेट बीबी का आदेश होते ही मैं ने दोनों को जेल से रिहा करने के लिए बेल पिटिशन भर कर कोर्ट में जमा कर दी. मंजूरी मिलते ही जज साहब के इजलास में बेलरों को हाजिर कराना होगा. आप लोग बेलर तैयार रखें.’’

‘‘वकील साहब, मेरे साथ नौकरी पेशाधारी, वाहन चालक, बिल्डर आदि लोग मौजूद हैं. उन से बेलर का काम हो जाएगा न?’’

‘‘बिलकुल हो जाएगा. देखिए, आप पहले 4 बेलरों को जज साहब के सामने कठघरे में खड़ा कराइए,’’ कह कर अधिवक्ता पीएन इजलास की ओर बढ़ गए.

लखन और शोभा के प्रयास से महादेव और राम जेल से बाहर आ गए. उन्हें देख कर सब के चेहरे खुशी से खिल उठे.

‘‘मेरी गैरहाजिरी और विपरीत परिस्थितियों में शोभा बेटी और लखन ने अपनी मां और घर को बखूबी संभाला. अब लगता है कि सारी जिम्मेदारियां सौंप कर पार्वती के साथ देशाटन पर निकल जाऊं. तुम लोगों की जिम्मेदारियां देखकर मेरी उम्र और कद दोनों काफी बढ़ गए हैं. क्यों, सत्या बेटी सही कहा न?’’

‘‘हां पिताजी, आप हमारे गार्जियन हैं. आप का आशीर्वाद और मां की ममता तो हमारे साथ है.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन एक गार्जियन छूट रहा है. विधायकजी के आशीर्वाद के बिना सबकुछ अधूरा लग रहा है. चलो, वे रहे विधायकजी,’’ महादेव इतना बोल कर आगे बढ़ गए.

विधायक मनोज कुमार अपने समर्थकों के साथ जाने के लिए अपनी गाड़ी की ओर जैसे ही बढ़े, वैसे ही उन के सामने से शोभा और लखन ने उन का पैर स्पर्श कर लिया. उन का हाथ आशीष देने के लिए उठा ही था कि सत्या और राम ने भी झुक कर चरण स्पर्श करना चाहे,

तभी विधायक ने अपने पैर पीछे खींच लिए और गुस्से में बोल पड़े, ‘‘तू मेरी बेटी नहीं है…’’ दूर हटो मेरी नजरों से… इज्जत को तारतार कर दिया, अब क्या लेने आई हो, आज से मैं नहीं रहा तेरा बाप.’’

विधायक की बात सुन कर सत्या की आंखें भर आईं. वह किसी अपराधी की तरह सिर ?ाका कर राम के साथ ठगी सी खड़ी रही.

तभी महादेव ने बात को संभालते हुए नम्रता के साथ कहा, ‘‘विधायकजी गुस्सा थक दीजिए और मेरी बातों पर ध्यान दीजिए. सत्या की शादी का प्रस्ताव ले कर आप खुद मेरे घर आए थे.’’

‘‘हां आया था तो क्या हुआ. आप ने कौन सा रिश्ता जोड़ लिया था?’’ विधायक ने व्यंग्य कसा.

‘‘उस दिन कहा था कि  राम अपनी शादी खुद तय करेगा, एक बार उस से बात कर लें, लेकिन आप ने ऐसा नहीं किया. आज कोर्ट मैरिज कर दोनों आप के सामने हैं, उन्हें आशीर्वाद दे कर विदा कीजिए विधायकजी.’’

महादेव की तार्किक बातें सुन कर विधायक मनोज कुमार के साथ खड़े उन के वकील बीएन राम ने आश्चर्य प्रकट किया और कहा, ‘‘विधायकजी, आप सत्या की शादी का प्रस्ताव ले कर राम के घर गए थे, फिर यह ड्रामाबाजी क्यों? आप यह न भूलिए कि आप एक जनप्रतिनिधि भी हैं. समाज की सेवा करना आप का फर्ज है. दूसरों की बेटियों का आप घर बसाते रहे हैं, वहीं आप की पुत्री आशीष के लिए खड़ी है, यह कैसी विडंबना है?’’

वकील बीएन राम की बातें सुन कर महादेव ने प्रसन्नता जाहिर की और कहा, ‘‘वकील बीएन रामजी, आप ने बात कही है. विधायकजी को तो सत्या व राम पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने युवा पीढ़ी में एक नई चेतना, ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है, समाज को नई दिशा दी है. बेटीदामाद को घर ले जाइए और उन के सम्मान में एक समारोह कीजिए, जहां आप के रिश्तेदारों का स्नेह, दुलार और प्यार पा कर सत्या का आंचल खुशियों से भर जाएगा.’’

यह बात विधायक मनोज कुमार के दिल को छू गई. उन का आक्रोश जाता रहा. फिर अपने स्वाभिमान के विरुद्ध सादगी से बोले, ‘‘वाह महादेवजी वाह, सचमुच आप महादेव हैं,’’ इतना कह कर विधायक मनोज कुमार ने महादेव को अपने सीने से लगा लिया और कहा, ‘‘मेरी आंखों पर पुरातन परांपराओं और दकियानूसी बातों का चश्मा चढ़ा हुआ था. जिस से आधुनिक बातें अच्छी नहीं लगती थीं. हमेशा उन का वहिष्कार किया करता था. आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मैं ने केस कर दोनों कुल का सर्वनाश करना चाहा. आप सभी हमें माफ करें.’’

‘‘अरे नहींनहीं विधायकजी, सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते हैं.’’

प्रसन्नता जाहिर करते हुए विधायक ने अपनी बेटी व दामाद को अपने से लगा लिया. यह देख कर बीएन राम, महादेव, लखन और शोभा की आंखें मारे खुशी के छलक उठीं.

ईगल के पंख : आखिर वह बच्ची अपनी मां से क्यों नफरत करती थी?

Writer- Naresh Kaushik

नवंबर का महीना. हलकी ठंड और ऊपर से झामाझम बारिश. नवंबर के महीने में उस ने अपनी याद में कभी ऐसी बारिश नहीं देखी थी. खिड़की से बाहर दूर अक्षरधाम मंदिर रोशनी में नहाया हुआ शांत खड़ा था. रात के 11 बजने वाले थे और यह शायद आखिरी मैट्रो अक्षरधाम स्टेशन से अभीअभी गुजरी थी.

‘‘अंकल… अंकल… प्लीज आज आप यहीं रुक जाओ मेरे पास,’’ रूही की आवाज सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ.

बर्थडे पार्टी खत्म हो चुकी थी. पड़ोस के बच्चे सब खापी कर, मस्ती कर अपनेअपने घर चले गए थे. अब कमरे में केवल वे 3 ही लोग थे. समीरा, 6 साल की बेटी रूही और प्रशांत.

‘‘मम्मा? आप अंकल को रुकने के लिए बोलो,’’ रूही ने प्रशांत का लाया गिफ्ट पैकेट खोलते हुए कहा.

बार्बी डौल देख कर वह फिर खुशी से चिल्लाई,’’ अंकल यू आर सो लवली. थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू…’’ कहते हुए रूही प्रशांत के गले से लिपट गई, ‘‘अब तो मैं आप को बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ रूही ने फिर से कहा और उछल कर सोफे पर बैठे प्रशांत की गोदी में बैठ गई.

रूही ही क्यों, आज तो समीरा का भी मन था कि प्रशांत यहीं रुक जाए. उस के पास उस के करीब. बेहद करीब, समीरा की सोचने भर से धड़कनें बढ़ने लगीं.

प्रशांत ने नजरें उठा कर समीरा की ओर देखा, ‘‘रूही बेटा, अंकल तो रुकने को तैयार हैं लेकिन मम्मा से तो परमिशन लेनी ही पड़ेगी न,’’ उस की नजरों में एक शरारत थी.

प्रशांत की नजरों से समीरा की नजरें टकराईं. वो समझ गई थी. एक बारिश बाहर हो रही थी और एक तूफान दोनों के भीतर घुमड़ रहा था. सारे बांधों को तोड़ने को बेताब. उसे एक डर सा लगा और उस ने न जाने क्या सोच कर रूही को मना कर दिया

प्रशांत रिश्ते में उस का देवर था और जब वह ब्याह कर गांव आई थी तो तभी समझ गई थी कि वह सुधांशु का कितना मुंह लगा है. सुधांशु ने तो सब के सामने कह दिया था, ‘‘प्रशांत मेरा ममेरा भाई ही नहीं मेरा जिगरी दोस्त भी है. समीरा, तुम्हें मेरे साथ इस के नखरे भी उठाने होंगे.’’

और जब कैंसर से शादी के 4 साल बाद  सुधांशु समीरा को बेसहारा छोड़ गया तो प्रशांत ने ही उसे संभाला था. पति की मौत के बाद सारे रिश्ते ऐसे धुंधले पड़ गए थे मानो किसी ने कागज पर लिखे हरफों पर पानी गिरा दिया हो.

डैथ सर्टिफिकेट लेने से ले कर सुधांशु के बैंक अकाउंट, एलआईसी पौलिसी क्लेम के लिए भागदौड़ करने से ले कर 2 कमरे का यह छोटा सा फ्लैट समीरा के नाम करवाने जैसे सारे जरूरी काम प्रशांत ने ही किए.

यह संयोग ही था कि सुधांशु की मौत से कोई सालभर पहले ही प्रशांत का तबादला लखनऊ से दिल्ली हो गया था. 2 साल गुजर चुके थे सुधांशु को गए.

6 महीने बाद ही उस ने स्कूल फिर से जौइन कर लिया. सरकारी स्कूल में टीचर थी तो उस के सामने यह सवाल नहीं था कि अब रोजीरोटी कैसे चलेगी.

पहले तो समीरा के दिमाग में कोई बात आई ही नहीं. प्रशांत जो भागभाग कर उस की मदद कर रहा था, उस में उसे अपने लिए कुछ नहीं लगा था. वह यही सोचती रही कि सुधांशु का जिगरी दोस्त और भाई होने के नाते शायद वह अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है.

मगर एक दिन शाम होने वाली थी. सूरज का बड़ा सा गोला अक्षरधाम मंदिर के पीछे छिपने ही वाला था. सोचा चाय बना ले, उस के बाद शाम के खाने का कुछ इंतजाम करेगी. रूही खिड़की के पास ही कुरसी पर बैठी अपना होमवर्क कर रही थी.

तभी अचानक दरवाजे की घंटी बजी. इस वक्त कौन होगा? यह सोचते हुए वह उठी और दरवाजा खोला तो देखा सामने प्रशांत खड़ा था. हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डियर समीरा भाभी,’’ उस ने चहकते हुए कहा.

समीरा बड़ी हैरान हुई. उसे तो खुद याद नहीं था कि आज उस का जन्मदिन है. प्रशांत लाल गुलाबों का बड़ा सा बुके ले कर आया था. उस के बाद तो जैसे प्रशांत  उस के लिए फूल लाने का बहाना ही ढूंढ़ने लगा था. कभी भी शाम को आ कर दरवाजे की घंटी बजा देता और कहता, ‘‘आज शाम बेहद खूबसूरत है. आप की जुल्फों की तरह. ये फूल आप की जुल्फों के नाम, ये फूल आप की मुसकराहट के नाम, ये फूल आज की सुरमई शाम के नाम.’’

पहले तो उसे लगा प्रशांत उस का मन बहलाने के लिए ऐसी हरकतें कर रहा है लेकिन एक दिन रसोई में जब वह खाना बना रही थी और रूही ट्यूशन गई थी तो प्रशांत मदद के बहाने उस से बेहद सट कर खड़ा हो गया. उसे अपनी गरदन पर उस की गरम सांसें दहकती सी लगीं. अचानक लगा  उस के भीतर भी कोई आग धधक उठी है जो अभी तक राख के नीचे दबी पड़ी थी.

अब समीरा के कान भी दरवाजे की घंटी की आवाज सुनने को बेचैन रहने लगे थे. यह बात तो वह भी सम?ा रही थी कि अब प्रशांत और उस के बीच की सारी दूरियां मिटने वाली हैं, बस कब वह क्षण आएगा, उसे इसी का इंतजार था.

भीतर से कहीं सवाल भी उठ रहे थे, यह तुम क्या करने जा रही हो. एक बच्ची की मां हो. क्या सीखेगी रूही तुम से?

मगर तुरंत ही वह अपने बचाव में उठ खड़ी होती कि मैं अपने तन की, मन की चाहतों को कहां दफन कर दूं? क्यों मैं अपनी ख्वाहिशों का कत्ल कर आत्महत्या करूं? और प्रशांत वह रूही को भी तो कितना प्यार करता है. एक बाप की तरह. मैं रूही की खुशियों के लिए ये सब कर रही हूं. रूही की खुशियां. यही तर्क दे कर वह सब सवालों पर परदा डाल देती. मगर ये सवाल हर वक्त उसे घेरे रहते.

प्रशांत का फोन आया था, ‘‘सिम्मी तैयार रहना, फिल्म देखने चलेंगे, नाइट शो. हां, रूही को पड़ोस की आंटी के पास छोड़ देना.’’

समीरा भाभी की जगह अब वह सिम्मी हो गई थी. प्रशांत की आवाज सुन कर ही समीरा का रोमरोम उन्मादित होने लगता था और आज तो फिल्म जाने का प्रोगाम बन चुका था. उस ने अपनी कमनीय देह पर नजर डाली कि अभी उम्र ही कितनी है मेरी. मात्र 28 साल. उसे अपने सौंदर्य पर गरूर हो आया जैसे कभी कालेज के जमाने में होता था.

वह सबकुछ भूल गई और भूल भी जाना चाहती थी. उस ने अलमारी से शिफौन की सुर्ख रंग की साड़ी निकाली और स्लीवलैस ब्लाउज. उस ने साड़ी पहनी भी अलग अंदाज में. शिफौन की नाभिदर्शना साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज में वह कयामत ढा रही थी.

दरवाजे की घंटी बजी तो उस ने भाग कर दरवाजा खोला. प्रशांत उसे देखता ही रह गया. दरवाजा बंद कर उस ने समीरा को कस कर बांहों में भर लिया. समीरा भी उस की मजबूत बांहों के गरम घेरे में पिघल जाना चाहती थी.

‘‘जल्दी चलो, पिक्चर का वक्त हो गया है,’’ उस ने खुद को प्रशांत की बांहों से छुड़ाते हुए कहा.

‘‘रूही… रूही बेटा…’’ उस ने आवाज लगाई.

‘‘बेटा, मम्मा और अंकल बाजार जा रहे हैं. आप सामने वाली आंटी के यहां रह जाना थोड़ी देर.’’

रूही ने कुछ नहीं कहा लेकिन वह समीरा को अजीब तरीके से देख रही थी आज. जैसेकि अपनी ही मां को पहचान नहीं पा रही हो. प्रशांत के लिए भी रूही की नजरों में कुछ ऐसे भाव थे कि समीरा भीतर तक हिल गई.

परदे पर फिल्म चलती रही और उस के भीतर घमासान. प्रशांत ने कई बार उसे बांहों में भरने, उसे छूने की कोशिश की लेकिन आज उस के भीतर कोई और ही तूफान चल रहा था. उस ने प्रशांत के हाथों को ?ाटक दिया.

रात घर लौटी तो रूही सो चुकी थी. उस ने प्रशांत से भीतर आने को भी नहीं कहा. वह भी समीरा का बरताव देख कर परेशान था.

समीरा ने बगल में लेटी रूही के बालों में हाथ फिराया. उस के दिमाग का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा था. सवाल पर सवाल.

‘इस में रूही की भी तो खुशी है?’ उस के मन ने फिर से बचाव के लिए हथियार उठा लिया.

‘अपनी वासना की पूर्ति को रूही की खुशी का नाम मत दो. तुम्हें क्या लगता है प्रशांत रूही को अपने बच्चे की तरह प्यार करता है? धिक्कार है तुम पर समीरा. तुम और प्रशांत अपनी शारीरिक भूख को मिटाने के लिए एक नन्ही बच्ची का इस्तेमाल कर रहे हो.’

आज तुम ने देखा नहीं रूही की आंखों में तुम्हारे और प्रशांत के लिए कैसा भाव था? एक

6 साल की बच्ची को जब रिश्ते की सचाई समझ आ रही है तो क्या वह बड़ी हो कर तुम्हें माफ कर पाएगी? क्या उस की नजरों में तुम्हारा मां का दर्जा कायम रहेगा? समीरा भोग का नाम जिंदगी नहीं है. इच्छाओं और वासनाओं में फर्क होता है. वासनाओं की पूर्ति में खुशी नहीं है. भोग कर तो धरती से न जाने कितने अरबों लोग चले गए लेकिन इतिहास ने उन्हीं को याद रखा है जिन्होंने त्याग किया, जिन्होंने खुद को तपाया. तुम्हें आज भोग और त्याग के बीच में से किसी एक को चुनना होगा.

समीरा, भोग रसातल है जिस की कोई थाह नहीं है और त्याग हिमालय की ऊंचाई है और क्या सिखाओगी रूही को? भोग के सहारे जिंदगी काटना आसान होता है लेकिन ऐसी जिंदगी परजीवी की जिंदगी से बदतर होती है. याद रखो, भोगने की शरीर की एक सीमा होती है लेकिन त्याग और समर्पण की मजबूती का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं कर सकता. यह तुम्हें तय करना है, तुम अपनी बच्ची को कैसे संस्कार देना चाहती हो. भोग या त्याग. उफ यह कैसा तूफान उठ रहा था समीरा के दिमाग में.

इन्हीं सब सवालों से रातभर जू?ाती रही समीरा. एक पल को भी पलकें नहीं मूंद पाई. पलकें तो नहीं लेकिन उस ने जिंदगी के एक अध्याय को बंद करने का फैसला जरूर कर लिया था. अब भीतर के सारे सवाल मिट चुके थे. अगले दिन संडे था. समीरा रातभर न सोने के बावजूद खुद को तरोताजा महसूस कर रही थी.

दिनभर रूही के साथ ऐसे ही निकल गया. रूही नन्ही जान. रात की बात भूल चुकी थी. शाम होते ही फिर से दरवाजे की घंटी बज उठी.

उस ने दरवाजा खोला… और कौन होता. वह किचन में जा कर चाय का पानी चढ़ा कर ड्राइंगरूम में आ गई. प्रशांत उस के करीब जाने का मौका ढूंढ़ रहा था और वह ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती थी. प्रशांत बीती रात के उस के बरताव की वजह जानना चाहता था.

उस ने चाय और नाश्ता ट्रे में लगा कर टेबल पर रख दिया. खिड़की से खुला आसमान नजर आ रहा था.

दूर आसमान में पंछी उड़ रहे थे. हर रोज की तरह अक्षरधाम मंदिर के पीछे सूरज डूब रहा था.

‘‘मम्मा, वह आसमान में ईगल उड़ रही है न.’’

‘‘हां बेटा…’’ समीरा ने प्यार से जवाब दिया और चाय का प्याला प्रशांत की ओर बढ़ाया.

‘‘मम्मा, क्या ईगल सीढ़ी लगा कर इतने ऊंचे आसमान तक जाती है?’’ रूही के सवाल पर प्रशांत हंस दिया.

‘‘नहीं बेटा, ईगल के अपने पंख इतने मजबूत होते हैं कि उसे किसी के सहारे की जरूरत ही नहीं पड़ती. वह सारे आसमान में उड़ती है लेकिन सिर्फ और सिर्फ अपने पंखों के सहारे,’’ समीरा ने जवाब दिया.

‘‘बेटा, अपने पंख मजबूत हों तो तुम कहीं तक की भी उड़ान भर सकते हो, सीढ़ी के सहारे आसमान में नहीं उड़ा जा सकता,’’ समीरा ने खिड़की के पास खड़ी रूही के बालों में उंगलिया घुमाते हुए कहा और प्रशांत की ओर देखा.

प्रशांत उस की निगाहों की ताब न ला सका. आज समीरा की आंखों में एक भूख, एक लालसा, एक समर्पण की जगह गजब का आत्मविश्वास था. यह क्या हो गया था समीरा को? लेकिन कुछकुछ उसे भी समझ आ रहा था. चाय खत्म की और प्रशांत बिना कुछ कहे उठ कर चला गया.

समीरा ने रूही को गले से लगाया और उस का माथा चूम लिया, ‘‘मेरी रूही भी ईगल की तरह मजबूत पंखों वाली बनेगी और आसमान में उड़ेगी. हमें नहीं चाहिए सीढ़ी.’’

‘‘मम्मा, आप इस सूट में बहुत अच्छी लग रही हो. रात वाली साड़ी आप कभी मत पहनना. मम्मा कल रात मैं डर गई थी, मुझे लगा था आप मुझे छोड़ कर जा रही हो.’’

समीरा ने रूही को और कस कर गले से लगा लिया.

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