Serial Story: गुलमोहर (भाग-1)

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

सुबह से ही बहुत व्यस्त कार्यक्रम था. अविनाश थक कर चूर हो चुका था. आज उस की रिकार्डिंग थी. रिकार्डिंग के बाद मैनेजर ने एक कार्ड अविनाश के हाथ में थमाया.

आज उस का अपना शहर उसे फिर से पुकार रहा था. गुलमोहर का पेड़, विद्यालय की सीढ़ियां, चाचा की चाय और न जाने क्याक्या…सबकुछ उस की आंखों से गुजरता चला गया.

कल सुबह ही निकलना था. परसों कार्यक्रम है और 8 घंटे का रास्ता. शाम तक पहुंच जाएगा.

एक अजीब सी बेचैनी थी. अविनाश समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस बैचेनी की वजह क्या थी? कुछ न कुछ तो जरूर होने वाला है, पर क्या? इस सवाल ने उसे और भी बेचैन कर दिया.

आज वर्षों बाद फिर अनायास ही उस के हाथ किताबों की अलमारी की तरफ बढ़ गए. ऐसा लगा मानों आज अविनाश का अतीत बारबार उसे अपनी ओर खींच रहा था. सुचित्रा की भेंट की हुई किताब उसे बहुत प्रिय थी. किताब को सीने से लगाए वह कार में बैठ गया. खिड़की से आती हवा से मनमस्तिष्क एक गहरे सुकून में डूबता चला गया.

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क्या नहीं था उस के पास… फिर भी वह अधूरा था. चचंल हिरनी सी वे आंखें उस का हर जगह पीछा करती रहतीं.

शहर के शोरशराबे से दूर कार तेजी से आगे भागती जा रही थी और यादों का कारवां कहीं पीछे छूटता चला जा रहा था. यादें…किताब के पन्नों की तरह… परत दर परत खुलती चली गईं.

सुचित्रा की लिखावट में पहले पन्ने पर लिखी गुलजार साहब की पंक्तियां ‘गुलमोहर गर नाम तुम्हारा होता, मौसम ए गुल को हंसाना भी हमारा काम होता…’

न जाने क्या सोच कर अविनाश के हाथ उस लिखावट की ओर बढ़ गए. शायद अविनाश आज भी उस के आसपास होने को महसूस करता था. सुचित्रा का दिया हुआ सुर्ख गुलमोहर आज भी उस की यादों की तरह किताब में दफन था. एक हलके से झोंके ने सबकुछ हिला कर रख दिया. कितना बदल गया था शहर.

8 घंटे का लंबा सफर…शरीर थक कर चूर हो चुका था. कितने सालों बाद यहां आया था अविनाश…अब तो पहचानने में भी नहीं आता. सच में, कितना कुछ बदल गया था. ऊंचीऊंची इमारतें, बाजार की चहलपहल, हर तरफ भीड़ ही भीड़.अविनाश की नजर एक बड़े से बोर्ड पर गई…कितना बड़ा बोर्ड लगा है उस का…

अविनाश के चेहरे पर चमक आ गई. बस यही तो चाहिए था उसे. सबकुछ तो था, पर फिर भी उस की निगाहें तेजी से उसे ढूंढ़ रही थीं पर वह अब यहां कहां? वह तो सुरसंगीत प्रतियोगिता के बाद बिना किसी से कुछ कहे अपने पिता के साथ दिल्ली चली गई थी. उस ने एक झटके से अपना सिर झटका जैसे उस की यादों से पीछा छुड़ाना चाहता हो. हर महफिल में अविनाश की निगाहें सुचित्रा को ही ढूंढ़ती रहतीं.

अविनाश ने गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर से होटल पहुंचने को कहा… आज इतने वर्षों बाद वह अपने शहर आया था. यादों की आंधी उसे किसी और ही दुनिया में ले जा रही थी.

अविनाश बारबार सोच रहा था कहीं कोई उसे पहचान न ले. एक हलकी सी मुसकान उस के चेहरे पर खिल गई.

कुछ भी नहीं बदला था… गुलमोहर का पेड़ चुपचाप जैसे अविनाश से न जाने कितने सवाल पूछ रहा था.
चाय के ढाबे वाले का दरवाजा और उस की वह सांकल आज भी अविनाश के आने का इंतजार कर रही थी. अविनाश इतने सालों बाद भी चाचा की अदरख वाली चाय की स्वाद को नहीं भूला था.

अविनाश ने जैकेट की टोपी और काला चश्मा चढ़ा लिया… कोई उसे पहचान न सके और कुल्हड़ को दोनों हाथों से दबाए गरमाहट का एहसास करता चाचा की अदरख वाली चाय का आनंद लेने लगा.

विद्यालय में बड़ी चहलपहल थी. कल उसे अपने ही कालेज में तो परफौरमेंस देनी थी. होस्टल के बच्चे खाना खा कर लौट रहे थे. उन की आवाजें अभी तक अविनाश के कानों में पड़ रही थीं,”बहुत बड़ा गायक आ रहा है मुंबई से….उसी की तैयारी चल रही है. हमारे ही कालेज में ही पढ़ता था. मजा आ जाएगा कल तो.”

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अविनाश के चेहरे पर मुसकान आ गई. कुछ भी तो नहीं बदला था. सबकुछ तो था, वैसा का वैसा ही.

लाल सुर्ख फूलों से लदा गुलमोहर का पेड़ अविनाश को हमेशा आकर्षित करता था. आज भी अविनाश उस के मोहपाश में बंधा खींचता चला गया. उसे देख कर उसे हमेशा लगता था कि हाथ पसारे अपनी आगोश में लेने को तत्पर उस का सुनहरा भविष्य खामोशी से उस का इंतजार कर रहा है. यादों के पन्ने 1-1 कर के खुलते चले गए…

वह अपने दोस्तों के साथ बैठा हुआ था. याद है आज भी उसे वह दिन… पीले रंग की सलवारकमीज पर लाल रंग की चुनरी, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में चांदी की चूड़ियां पहने उस ने विद्यालय में प्रवेश किया. उस की सादगी में भी गजब का जादू था.

बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और कमर तक लंबे बालों के साथ जब वह लहरा कर उस के पास आई तो मानों सांसें थम सी गईं.

“माफ कीजिएगा, म्यूजिक की क्लास…”

“हां जी, बस शुरू ही होने वाली है…”अविनाश के साथ पढ़ने वाली वेदिका ने तपाक से जवाब दिया.

अविनाश उस लड़की की खूबसूरती में कहीं खो सा गया. वेदिका ने अविनाश को कुहनी मारी.

“क्या बात है जनाब, सारा विद्यालय छोड़ कर मैडम हमारे तानसेन से पूछने आईं. वह भी संगीत में है. तानसेन जी को संगत देंगी क्या?”

‘तानसेन…’ अविनाश के मित्र उसे इसी नाम से प्यार से बुलाते थे.

“ऐसा कुछ नहीं वेदिका… मैं तो इसे जानता भी नहीं. मेरी टाइप की लड़की नहीं है.”

“सुचित्रा नाम है इस का…”

“तुम तो पूरा रिसर्च कर के बैठी हो…”

“मित्र के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और हमारा जन्म तो जनकल्याण के लिए ही हुआ है,”वेदिका ने चुटकी ली.

अविनाश सोच में पड़ गया. कितना सुंदर नाम है… जितना सुंदर नाम… उतनी ही सुंदर है वह. कुदरत ने बड़ी फुरसत से बनाया था उसे. विद्यालय का कोई भी कार्यक्रम हो और सुचित्रा और अविनाश की जुगल जोड़ी गाना न गाए ऐसा हो ही नहीं सकता था. दोनों ने मिल कर जिले स्तर पर न जाने कितनी प्रतियोगिताएं जीती थीं.अविनाश जितना सौम्य और गंभीर था सुचित्रा उतनी ही चंचल और अल्हड़.एक बार उस की बातें शुरू होतीं तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती.

एक दिन अविनाश और सुचित्रा गुलमोहर के पेड़ के नीचे गाने का रियाज कर रहे थे. आसमान में काले बादल घुमड़ रहे थे. शीतल मंद बयार में सुचित्रा का मनमयूर नाच उठा और वह अपने सुंदर गोरे मुख पर बादल की तरह घिरघिर आ रहे जुल्फों को कभी अपने दांतों से दबाती तो कभी उंगलियों से खेलने लगती.

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“अविनाश मुझे बारिश बहुत पसंद है.बारिश की बूंदें जब मेरे चेहरे को छूती हैं तो… उफ्फ, क्या बताऊं मेरा रोमरोम नाच उठता है…ऐसा लगता है मानों प्रकृति भी सुरीले साज पर जिंदगी के गीत छेड़ रही हो. बारिश की 1-1 बूंद कणकण में एक नया जीवन भर रही हो. ऐसी जिंदगी के लिए तो मैं न जाने कितनी बार जन्म ले लूं.”

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Serial Story: गुलमोहर (भाग-2)

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

“कितना बोलती हो तुम…और उस से भी ज्यादा बोलती हैं तुम्हारी आंखें.”

“सच में? अच्छा और क्याक्या बोलती हैं मेरी आंखें?”

“सुचित्रा, पता नहीं क्यों मुझे हमेशा से ऐसा लगता है जैसे इन अल्हड़ और शरारती आंखों के पीछे एक शांत और परिपक्व लड़की छिपी है. मगर तुम ने कहीं उसे दूर छिपा दिया है, उस मासूम बच्चे की तरह जो इम्तिहान के डर से अपनी किताबें छिपा देता है.”

सुचित्रा खिलखिला कर हंस पड़ी,”जनाब, इतना सोचते हैं मेरे बारे में, मुझे तो पता ही नहीं था. वैसे एक बात कहूं अविनाश… तुम्हारी आंखें भी बहुत कुछ बोलती हैं.”

“मेरी आंखें? अच्छा मेरी आंखें क्या बोलती हैं, मुझे भी तो पता चले…”

“तुम्हारी आंखें तुम्हारे दिल का हाल बयां करती हैं… तुम्हारे सुनहरे सपनों को जीती हैं और… बहुत कुछ कहना चाहती हैं जिसे कहने से तुम डरते हो… डरते हो कि तुम कहीं उसे खो न दो.

“अविनाश एक बात कहूं… रिहा कर के तो देखो उस डर को, शायद तुम्हारा वह डर बेमानी और बेमतलब हो…

“दिल की गिरहों को खोल कर तो देखो हो सकता है कोई तुम्हारे जवाब की प्रतिक्षा कर रहा हो.”

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“सुचित्रा, सच में… क्या सच में इतना कुछ बोलती हैं मेरी आंखें? ऐसा कुछ नहीं… तुम्हें गलतफहमी हो गई है… मेरा दिल तो कांच की तरह साफ है.कुछ भी नहीं छिपा किसी से…और छिपाना भी नहीं है मुझे किसी से. तुम भी न जाने क्याक्या सोचती हो.”

सुचित्रा अचानक से गंभीर हो गई,”काश, तुम्हारी कही बातें सच होतीं. काश, तुम्हारी बातों पर मुझे यकीन आ जाता. अविनाश, कांच के उस पार भी एक दुनिया होती है जिसे हरकोई नहीं देख पाता. जो दिखाई तो देती है पर वह नहीं दिखाती… जो उसे दिखाना चाहिए.

“एक बात बताओ अविनाश, तुम क्या बनना चाहते हो?”

“सुचित्रा मैं बहुत बड़ा गायक बनना चाहता हूं. देशविदेश में मेरा नाम हो.मैं जहां भी जाऊं लोगों की भीड़ उमङ पङें.”

“बाप रे…अविनाश, तुम्हारे कितने बङे सपने हैं…”

“ज्यादा नहीं बस…जितने इस गुलमोहर के पेड़ पर लगे फूल…बस.”

अविनाश और सुचित्रा ठहाके मार कर हंस पङे.

“मान लो तुम्हारे सपने पूरे नहीं हुए तब?”

अविनाश की आंखों में दर्द उभर आया. सुचित्रा ने उस के हाथों को धीरे से अपने हाथ में लिया और उसे सहलाते हुए कहा,”चिंता ना करो… तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी होंगी.

“अविनाश, तुम्हें पता है एक बहुत बड़ा चैनल एक म्यूजिकल कार्यक्रम कराने वाला है. शहर में बड़ा हल्ला है…क्यों ना हम भी उस कार्यक्रम में भाग लें…”

“अरे हम जैसे लोगों को कौन पूछता है…तुम भी न…”

सुचित्रा ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को गोलगोल घुमाते हुए कहा,”ऐसा क्यों कहते हो… कोशिश करने में क्या हरज है. देखो मैं तो फौर्म भी ले आई हूं. अब कोई बहाना नहीं चलेगा. चलो फौर्म भरो और तैयारी शुरू करो…”

सुचित्रा की जिद के आगे अविनाश की एक न चली. उस सुरसंगीत के कार्यक्रम ने अविनाश की जिंदगी बदल दी. एक के बाद एक राउंड होते गए और अपने सुरीले गानों से अविनाश और सुचित्रा ने अपना लोहा मनवा दिया.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सुर संगीत कार्यक्रम का फाइनल राउंड था. अविनाश के गाने ने जजों और दर्शकों का दिल जीत लिया.

चारों तरफ एक अजीब सी खामोशी और तनाव छाया हुआ था. वोटिंग लाइन शुरू हो चुकी थी… और फिर परिणाम भी घोषित कर दिए गए… अविनाश के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, उस ने प्रतियोगिता जीत ली थी… पर अफसोस सुचित्रा को डिसक्वालीफाई कर दिया गया. गला खराब होने की वजह से सुचित्रा गाना नहीं गा पाई थी. अविनाश ने सुचित्रा के बारे में उस की सहेलियों से पता लगाने की कोशिश की पर किसी को भी कुछ भी पता नहीं था.

अविनाश ने प्रतियोगिता जीतने के बाद बड़ेबड़े शहरों में कई कार्यक्रम किए. कुछ ही दिनों बाद वह वापस उसी शहर में आया पर कोई भी सुचित्रा के बारे में कुछ भी नहीं बता पाया. दोस्तों ने बताया कि इम्तिहान देने के बाद वह अपने पापा के साथ दिल्ली चली गई. किसी के पास उस का नया पता और फोन नंबर नहीं था. संपर्क के सारे रास्ते बंद हो गए थे.

अविनाश ने बहुत हाथपांव मारे पर निराशा और हताशा के सिवा उस के हाथों में कुछ भी नहीं लगा.

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समय बीतता गया और अविनाश सफलता की सीढ़ियां चढ़ता चला गया. हर तरफ कैमरों की चकाचौंध, रंगबिरंगी लाइट्स और एक ही आवाज,”अविनाश… अविनाश…” कोई औटोग्राफ लेने कोई फोटो खिंचवाने को बेताब, तो कोई सिर्फ उसे एक बार छू लेना चाहता था.शोहरत है ही ऐसी चीज.

लड़के और लड़कियां खुशी से चीख रहे थे. अविनाश का अपना शहर पलकें बिछाए उस का इंतजार कर रहा था. एक बार फिर से उसे वे दिन याद आ रहे थे…

सुरसंगीत प्रतियोगिता के आखिरी दिन उस की सुचित्रा से आखिरी मुलाकात हुई थी. आज भी याद है उसे वह रात. हिरनी सी चंचल उस की आंखों में आज अजीब सा ठहराव उस ने महसूस किया था.

“अविनाश, शुभकामनाएं…” और उस ने एक सुर्ख गुलमोहर उस की ओर बढ़ा दिया.

“अविनाश यह प्रतियोगिता तुम्हारे लिए बहुत माने रखती है न?”

“हां सुचित्रा… मैं ने इस के लिए बहुत मेहनत की है. अगर आज मैं हार गया तो मैं कभी भी गाना नहीं गाऊंगा.”

सुचित्रा का चेहरा उतर गया.

“ऐसा ना कहो अविनाश… सब अच्छा होगा.”

“शुभकामनाएं सुचित्रा…”

अविनाश को आज भी उस की वह मुसकान याद है. अविनाश को आज तक अफसोस था कि सुचित्रा के चेहरे की 1-1 लकीर समझ लेने वाला अविनाश से उस दिन इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई?

स्टूडैंट्स अविनाश की एक झलक पाने के लिए बेचैन हो रहे हैं. प्रिंसिपल साहब के बारबार आग्रह करने पर अविनाश उन्हें मना नहीं कर पाया. अविनाश खुद भी आश्चर्य में था. यह तो उस के प्रोटोकाल के विरुद्ध था पर पता नहीं इस शहर में एक ऐसी कशिश थी कि वह उन को मना नहीं कर सका.

अविनाश ने जैकेट पहनी और बाल संवार कर स्टेज की तरफ चल पड़ा. अविनाश की शानदार ऐंट्री से छात्र खुशी से चीखने लगे.

अविनाश ने हिट गानों की झड़ी लगा दी. भीड़ खुशी से झूम रही थी. थोड़ी देर बाद अविनाश फिर उसी कमरे में लौट आया… प्रिंसिपल साहब कृतज्ञ भाव से उसे देख रहे थे. तभी एक लड़की ने कमरे ने प्रवेश किया.अविनाश को लगा चेहरा बहुत जानापहचाना है… उस ने दिमाग पर बहुत जोर दिया… कहां देखा है…कहां देखा है…अरे यह तो वेदिका है. साड़ी में कितनी अलग दिख रही थी…चेहरे पर चश्मा, शरीर भी पहले से कुछ अधिक भर गया था.

“सर, बहुतबहुत धन्यवाद, आजकल के बच्चों को तो आप जानते हैं. कितनी जल्दी बेकाबू हो जाते हैं. आप को थोड़ी असुविधा हुई. इस के लिए हम…”

“अरे ऐसा क्यों कह रही हैं आप. हम भी अपने समय में ऐसे ही थे, बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकता हूं?”

“जी बिलकुल…”

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“आप…आप वेदिका शर्मा हैं? 2010 बैच…”

“जी मैं वही वेदिका हूं… जिस की आप बात कर रहे हैं. मैं आप के साथ ही पढ़ती थी. आप थोड़ा आराम कर लीजिए… कार्यक्रम देर तक चलेगा.आप थक गए होंगे.”

आगे पढ़ें- अविनाश के मन में बारबार सवाल उठ रहे थे….

Serial Story: बोझमुक्त (भाग-4)

दिल की धड़कनें तेज हो गईं. यह इंतजार बहुत असहनीय होने लगा. सारा दिन यों ही निकल गया. अब तो रात के खाने के बाद सोना और कल दोपहर में तो वे चले ही जाएंगे. कुछ गपशप भी नहीं हो पाएगी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. अर्चना आ गई.

अकसर औफिस से आ कर वह बेतहाशा घंटी बजाती थी. कितनी बार समझाया उसे कि इस समय मिली सोई होती है. इतनी जोर से घंटी न बजाया करे, लेकिन…सहसा मन भर आया, छोटी बहन को देखने को. उस ने नम आंखों से दरवाजा खोला. अर्चना ने अपनी दीदी को झुक कर प्रणाम किया.

‘‘सदा खुश रहो… फूलोफलो,’’ दिल भर आया आशीर्वाद देते हुए.

‘‘जी नहीं, तेरी तरह फूलने का कोई शौक नहीं है मुझे,’’ वही चंचल जवाब मिला.

गौर से अपनी ब्याहता बहन का चेहरा देखा. मांग में चमकता सिंदूर, लाल किनारी की पीली तांत साड़ी, दोनों हाथों में लाख की लाल चूडि़यां. सजीधजी प्रतिमा लग रही थी. वह लजा गई, ‘‘छोड़ दीदी, तंग मत कर. मिली कहां है?’’ और फिर मिली…मिली… पुकारती हुई वह बैडरूम में घुस गई.

मन ने टोकना चाहा कि अभी सो रही है. छोड़ दे. पर बोली नहीं. मौसी आई है. वह भी तो देखे अपनी सजीधजी मौसी को. बड़ी प्यारी लग रही है, अर्चना. सुंदर तो है ही और निखर गई है.

मौसी की गोद में उनींदी मिली आश्चर्य और कुतूहल से मौसी को निहारते हुए बोली, ‘‘मौसी, बहुत सुंदर लग रही हो, आप तो. एकदम मम्मी जैसे सजी हो.’’

उस के इस वाक्य ने सहज ही अर्चना को नई श्रेणी में ला खड़ा कर दिया. उसी एक पल में अनेक प्रतिक्रियाएं हुईं. अर्चना लजा गई. संजय ने प्यार से अपनी सुंदर पत्नी को निहारा. आकाश की नजर उन दोनों से फिसल कर सुमन पर स्थिर हो गई. सब के चेहरे पर खुशी और संतोष झलक रहा था. अर्चना के चेहरे पर लाली देख कर मन फूलों सा हलका हो गया.

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तभी अर्चना का अधिकार भरा स्वर गूंजा, ‘‘संजय, घर पर फोन कर दीजिए कि हम लोग पहुंच गए हैं और पूछिए बबलू की तबीयत अब कैसी है?’’

दोनों ही चौंके, अर्चना कब से लोकव्यवहार निभाने लगी. अभी 4 महीने

पहले की ही तो बात है. सुमन को बुखार हो गया था. किंतु घर में रह कर भी 3 दिन तक अर्चना को खबर नहीं हुई थी. नौकर के सहारे उस का काम चल रहा था. आकाश के हाथ में ब्लड रिपोर्ट और दवाओं को देख वह चौंकी थी. ‘‘किस की तबीयत खराब है… मिली की…’’

वही अर्चना आज चिंतातुर दिख रही थी. हमें लगा या तो यह चमत्कार है या फिर दिखावा. चाय पी कर दोनों फ्रैश होने अपने कमरे में चले गए थे. अर्चना के जाने के बाद से उस का कमरा वैसा ही था. ये दोनों भी अपने कमरे में आ गए.

आकाश अलमारी खोलते हुए बोले, ‘‘चलो तुम्हारी बहन गृहस्थी के दांवपेंच सीखने लगी है. अभी तक का परफौर्मैंस तो अच्छा है.’’

तभी अर्चना प्रकट हुई, ‘‘आप लोगों के पास मेरे अलावा और कोई बात नहीं है क्या?’’ वह इठलाते हुए बोली.

इन्होंने भी चुटकी ली, ‘‘है कैसे नहीं? अब इंटरवल के बाद का सिनेमा देखना बाकी है. फर्स्ट हाफ तो हम ने रोरो कर बहुत देखा. उम्मीद है अगला हाफ अच्छा होगा,’’ पहली बार आकाश ने प्यार से उस के सिर पर चपत लगाई और बाहर चले गए.

‘‘और बता तेरी ससुराल में सब कैसे हैं? सब से निभती है न तेरी? तू खुश तो है न?’’

अर्चना सिलसिलेवार बताती चली गई. इस 1 महीने में कब क्या हुआ? किस ने क्या कहा? उसे कैसा लगा? कैसे उस ने सहा? कैसे छिपछिप कर रोई? कैसे सिरदर्द और बुखार में न चाहते हुए भी काम करना पड़ा था. ननद के जिद्दी बच्चों की अनगिनत फरमाइशें. छोटी ननद के नखरे आदि.

वह मिली को चूमते हुए बोली, ‘‘अपनी मिली कितनी अच्छी है, जरा भी जिद नहीं करती.’’

अपनी प्रशंसा सुन मिली खुश हो गई. मौसी का लाया प्यारा सा लहंगा पहनने लगी.

एकाएक अर्चना दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘‘दीदी, तुम ही कहती थी, न कि

कुछ बातें लोकव्यवहार और कुछ शालीनता या कहो फर्ज के दायरे में आ कर जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं. इन के परिवार का अधिकार है मेरे आज के जीवन पर उसी के एवज में तो पति का स्नेहमान पाती हूं. ये तमाम सुखसुविधाएं, गहनेजेवर, घूमनाफिरना, होटलों में खाना सब सासससुर की कृपा से ही तो है. उन्होंने ही मेरे पति पर अपना प्रेम, पैसा, मेहनत लुटाई तभी तो वे इस काबिल हुए कि मैं सुख भोग रही हूं…

‘‘तुम ठीक कहती थीं, दीदी. ससुराल वालों के लिए करने का कोई अंत नहीं है. बस चेहरे पर मुसकान लिए करते जाओ. पर सब अपनेआप हो गया. मैं तुम्हें कितना कमेंट करती थी कि बेकार अपना पैसा लुटाती हो, व्यर्थ सब के लिए मरती हो. किंतु, जब खुद पर पड़ी तो तुम्हारी स्थिति समझ आई…’’

इन चंद दिनों में ही वह कितना कुछ बटोर लाई थी कहनेसुनने को. फिर वह संजीदा हो कर बोली, ‘‘तुम्हारी बातों को अपना कर अब तक तो सब ठीक ही रहा है. मैं अपनी सारी बदतमीजियों के लिए दीदी माफी मांगती हूं.’’

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‘‘चल पगली कहीं की…मुझे तेरी किसी बात का दुख नहीं. बस तुम अच्छे से सामंजस्य बैठा कर चलना. तेरी खुशी में ही हमारी खुशी है. और…बता…संजय अच्छे स्वभाव के तो हैं न…बेंगलुरु जा कर…फिर जौब ढूंढ़नी पड़ेगी तुझे,’’ आंसू छिपाते हुए सुमन ने बात बदली.

‘‘हां. नौकरी तो मिल जाएगी. लेकिन अभी नए घर की सारी व्यवस्था देखनी होगी. अब वे दिन लद गए जो कमाया उसे उड़ाया. तुम यही चाहती थीं न, दीदी. इसलिए मेरी शादी की इतनी जल्दी थी तुम्हें.’’

दोनों बहनों की आंखें सजल हो उठीं. तभी संजय ने पुकारा, ‘‘अर्चना…’’

अर्चना आंखें पोंछती हुई उठ खड़ी हुई. चंद ही महीनों में कितना बदलाव आ गया था उस में… उसे अपनी कमाई का कितना गर्व था.

एक बार उसे फुजूलखर्ची न करने की सलाह दी तो पलट कर यह टका सा जवाब दे कर मुंह बंद कर दिया था उस ने, ‘‘मेरा पैसा है मेरी मरजी जो करूं. मेरी मानो दीदी, तुम भी कोई नौकरी कर लो. नौकरी करोगी तो इन छोटीछोटी चिंताओं में नहीं पड़ोगी. जब देखो यही रोना. इस की क्या जरूरत है? कोई शौक नहीं. क्या सिर्फ जरूरत के लिए ही आदमी जीता है. इच्छाएं कुछ नहीं होती हैं जीवन में?’’

उस वक्त अर्चना की बातों ने अंदर तक चोट की थी. उसे लगा ठीक ही तो

कहती है. वह हर चीज जरूरत भर की ही तो खरीदती है… उसे कमी तो किसी बात की नहीं थी पर हां, अर्चना जैसी स्वतंत्र भी तो नहीं. तुरंत जो जब चाहती है वह तब ही कहां ले पाती है.

अर्चना नौकरी करती है तो उसे किसी के मशवरे की जरूरत नहीं रहती. उस के अंदर एक टीस सी उठी थी. वह उस दिन बिना बात ही आकाश से लड़ पड़ी थी.

वही अर्चना अब कह रही है कि नौकरी देखेगी. सच है. हर नारी स्वाभाविक रूप से ही परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है. अर्चना ने अपना कहा सच कर दिखाया था कि जब पड़ेगी न, तो तुम से बेहतर सब संभाल लूंगी. मन पर लदा बोझ पूरी तरह से हट गया.

आकाश ने आ कर टोका, ‘‘भई, घर में मेहमान हैं जरा, उन की तरफ ध्यान दो.

अर्चना की चिंता छोड़ो. उसे अपनी समझ से अपनी गृहस्थी बसाने दो. मुझे तो आशा है वह अच्छी पत्नी साबित होगी. शादी ऐसा बंधन है, जो, वक्त के साथ सब निभाना सिखा देता है.’’

तभी बगल वाले कमरे से चूडि़यों की खनखनाहट गूंजी. आकाश शरारत से होंठ दबा कर मुसकराए, ‘‘अब तो हम पर से भी धर्मपत्नीजी का सैंसर खत्म हो जाएगा वरना कैसे दूर भागती थीं. शर्म करो अर्चना घर में है. अब देखते हैं कैसे भगाती हैं,’’ कह कर वे बांहें फैला कर आगे बढ़े तो सुमन भी बिना किसी दुविधा के उन बांहों के घेरे में बंध गई.

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बोझमुक्त: क्या सुमन के खिलाफ जाकर शादी करना अर्चना का सही फैसला था?

Serial Story: बोझमुक्त (भाग-2)

कुछ ही दिनों में नए काम पर जाने लगी थी वह. अच्छी नौकरी का गरूर स्वभाव में भी झलकने लगा था. वह जबतब ऊंचे स्वर में नौकर पर चिल्लाती. ‘चाय नहीं बनी अभी तक?’, ‘मेरा नहाने के पानी का क्या हुआ?’, ‘मैं कह कर गई थी, मेरा कमरा क्यों नहीं ठीक किया?’, ‘आज का पेपर कहां है?’, ‘मेरे जूते किस ने हटाए?’ आदि.

अर्चना ऊंचे स्वर में अपनी बौखलाहट दिखाती और सुमन सारे काम छोड़ दौड़ कर उस की परेशानी दूर करने में लग जाती. ममता में अंधी जान ही नहीं पाई कि कब और कैसे वह अपनी छोटी बहन के हाथों की कठपुतली बन गई. यहां तक कि नौकर भी उस की अवहेलना कर अर्चना का काम पहले करता. अपने घायल स्वाभिमान की रक्षा वह नौकर को डांट कर या मिली को पीट कर करती.

मन ही मन सुमन अर्चना को अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगी. अकसर दोनों में कहासुनी हो जाती. आकाश चुटकी लेते, ‘‘भई, तुम दोनों पहले एक ही घर में एकसाथ रहा करती थीं न… पर लगता नहीं.’’

पर क्या सारा कुसूर सुमन का ही था. अर्चना का रूखा व्यवहार ही उसे उकसाता. बड़ी बहन का आदर करना तो दूर, उलटा उस में दोष ढूंढ़ने में उसे आनंद आता.

‘‘दीदी, तुम कैसे आउटडेटेड कपड़े पहनती हो. जरा लेटैस्ट ट्राई करो. क्या आंटी बनी घूमती रहती हो, चलो, तुम्हारा हुलिया चेंज करवा कर आते हैं.’’

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अपनी बिंदास पर्सनैलिटी का वह बड़े फख्र से प्रदर्शन करती, इतना ही नहीं, सब के सामने बातबात में दीदी के लिए ‘ईडियट’, ‘स्टूपिड’ और ‘शटअप’ जैसे संबोधनों का भी प्रयोग करने से वह नहीं चूकती.

एक दिन तो खाने की टेबल पर आकाश से परिहास कर बैठी कि क्या जीजाजी, किस से शादी कर ली. आप की बीवी को तो न घर सजाना आता है न ढंग का खाना बनाना.

‘‘सारे अदबलिहाज ताक पर रख दिए तुम्हारी बहन ने. क्या कहना चाहती थी… वह बहुत काबिल है तुम से? तुम्हारे कारण बरदाश्त करता हूं उस को वरना…क्या मुसीबत मोल ले ली.’’

पति का प्रेम भरा स्पर्श पा कर सुमन रो पड़ी, ‘‘देखो सुमन, तुम बहुत इमोशनल हो और वह तुम्हारी इसी भावुकता का फायदा उठा कर तुम्हें बेवकूफ बनाती है. तुम उस के लिए बस एक सुविधा का साधन मात्र रह गई हो.’’

अब तक सुमन आकाश के सामने बात न बढ़े, यह सोच कर मन मसोस कर रह जाती थी. सोचती, व्यक्ति का व्यवहार उस की परवरिश का ही परिचायक होता है. क्या सोचेंगे वे जराजरा सी बात पर लड़ पड़ती हैं दोनों बहनें. इसलिए कभी हंस कर तो कभी क्रोध जता कर शांत रहती. पर आकाश, वे तो सब जानते थे कि कैसे उस की अपनी ही बहन उस के अपने ही घर में उस के प्रभुत्व को नकार रही है.

एक दिन की घटना ने सुमन को जमीन पर ला पटका. वह अपनी सहेली से फोन पर बात कर रही थी कि अचानक उस के हाथ से रिसीवर छीनते हुए मिली बोली, ‘‘यू ईडियट. ममा, जरा चुप करोगी… मैं कार्टून देख रही हूं.’’

अपनी बेटी के मुंह से अपने लिए ‘ईडियट’ शब्द सुन सन्न रह गई थी, सुमन.

5 बरस की मिली भी मौसी से प्रभावित हो कर उसी की नकल करने लगी थी. सुमन अपमान न सह सकी और 3-4 थप्पड़ मिली के कोमल गालों पर लगा दिए.

कई घंटों की कोशिशों के बाद वह चुप हो पाई थी. सुमन मिली को सीने से चिपकाए सोचती रही कि किस कगार पर आ कर लुप्त हो गया उस का व्यक्तित्व अपने ही घर में?

5 बरस की बच्ची भी भाषा के अंतर की महिमा समझ गई थी. नौकर की दबी हंसी फांस सी चुभ गई सुमन के कलेजे में. उस के दिए संस्कारों की धज्जियां उड़ गई थीं. सारे आदर्श ताक पर रख दिए गए.

शाम को बेटी का उतरा चेहरा देख घबरा गए थे आकाश. पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? किस ने मारा?’’

मिली ने रोरो कर पापा से सब कह दिया. उन का भी पारा चढ़ गया. दिन भर के थकेहारे वे फट पड़े, ‘‘बहन इतना कुछ बोल जाती है, मजाक उड़ाती है, इसलिए, सब सहन होता है और छोटी सी बच्ची पर हाथ उठ गया. तुम मां हो कि कसाई?’’

सहमी सी मिली और चिपट गई पापा से कि कहीं मां फिर न मार दे कि शिकायत क्यों की. इस सब से बेखबर अर्चना टीवी देख रही थी. उस पर जीजाजी के चिल्लाने का, मिली के रोने का कोई असर नहीं था.

उसे इस बात की भी परवाह नहीं थी कि घर का नौकर पीछे खड़ा नायकनायिका का झरने के नीचे चिपटने का दृश्य आंखें फाड़े देखे जा रहा है. सुमन ने जा कर टीवी बंद कर दिया.

‘‘यह क्या तरीका है, दीदी,’’ वह तमतमा कर टीवी की ओर बढ़ी.

सुमन ने बीच में ही रोक दिया, ‘‘देखो अर्चना, घर में रहने के कुछ कायदे होते हैं. तुम अकेली नहीं हो यहां और भी लोग रहते हैं. तुम्हें ध्यान रखना चाहिए कि घर में एक नौकर भी है. कम से कम ऐसे वाहियात प्रोग्राम मेरे घर में नहीं चलेंगे. थोड़ा तमीज सीखो.’’

‘‘तुम्हें नहीं देखना, तो मत देखो. नौकर के पास कोई काम नहीं है तो उसे बरामदे में बैठा दो. नौकर के डर से मैं टीवी देखना बंद नहीं कर सकती.’’

‘‘जो भी है मिली की तबीयत खराब है, टीवी नहीं चलेगा,’’ उस ने दृढ़ता से कहा.

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रिमोट पटक कर उठ खड़ी हुई अर्चना और फिर बोली, इसीलिए मैं यहां तुम लोगों के साथ रहने आना नहीं चाहती थी. तुम सब ने ही जिद कर के मुझे बुलाया. तब तो सब की बोली में प्रेम टपक रहा था… और अब मैं बोझ लगने लगी हूं. अगर मेरे रहने से इतनी तकलीफ है तो चली जाऊंगी मैं यहां से…’’

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. सुमन पति के सामने शर्म से निगाहें नहीं उठा पा रही थी. कितने प्यार और विश्वास के साथ उन्होंने अर्चना को घर में जगह दी थी. जिसे सामंजस्य बैठाना चाहिए था, वही मौज मना रहा था. उलटा घर वाले मन मसोस कर जी रहे थे. मिली का रोना भी उसे नहीं पिघलाता. महीने भर में ही वह सब के लिए सिरदर्द बन गई थी. सब उस से कन्नी काटते, जो उस के लिए अच्छा ही था. उस पर से अंकुश जो हट गया था.

‘‘मम्मी, मौसी कब आएंगी?’’ मिली बोली.

‘‘आ जाएंगी, बेटी. तुम सो जाओ. वे आएंगी तो मैं तुम्हें जगा दूंगी.’’

हलके हाथों की थपकियों ने थोड़ी ही देर में मिली को नींद के आगोश में सुला दिया. पता नहीं अब भी उस में बदलाव आया या नहीं. ससुराल में कौन उस के नखरे सहता होगा. उम्र बढ़ने के साथ थोड़ी परिपक्वता, स्वभाव में नर्मी, धैर्य तो हर लड़की में आता है, लेकिन वह इन सब किताबी बातों से अछूती थी.

आगे पढ़ें- उस से छुटकारा पाने के लिए सुमन ने…

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Serial Story: बोझमुक्त (भाग-1)

‘‘मम्मी, मौसी कब आएंगी?’’

‘‘बस थोड़ी देर में बेटा, पापा गए हैं लाने.’’

‘‘अब मौसाजी भी हमारे साथ ही रहेंगे जैसे मौसी रहती थीं?’’

‘‘नहीं बेटा सिर्फ 1 रात रुकेंगी. मौसी का बहुत सारा सामान है न यहां. कल वे लोग अपने घर चले जाएंगे बेंगलुरु.’’

‘‘तो फिर मौसी हमारे यहां कभी नहीं आएंगी?’’

‘‘हां बेटा, अब तंग मत करो. जा कर खेलो. मुझे काम करने दो…’’

आकाश अर्चना को लेने स्टेशन पहुंच गए. आज अर्चना आ रही थी. खुशी से सुमन की आंखें गीली हो रही थीं.

महीना भर पहले अर्चना इस घर की एक सामान्य सदस्य थी. जब वह पहली बार यहां आई थी तब भी इतनी तैयारियां नहीं हुई थीं, उस के स्वागत की. लेकिन शादीशुदा होते ही मानो उस का ओहदा बढ़ गया था. छोटी बहन की आवभगत में वह कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहती थी.

आकाश ने छेड़ा भी था, ‘‘एक दिन के लिए इतनी तैयारी? कोई गणमान्य अतिथि आ रहा है क्या?’’

वह भावुक हो उठी थी, ‘‘अतिथि ही तो हो जाती है, ब्याहता बहन. अब चाह कर भी उसे और नहीं रोक पाऊंगी और न ही पहले की तरह वह जब जी चाहे छुट्टी ले कर मेरे पास आएगी. इस एक रिश्ते ने बरसों के हमारे रिश्ते और अधिकारों की परिभाषा बदल दी. पर जब रोकने का अधिकार था तब मैं ने ही तो उसे घर से निकाल दिया था…’’

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सुमन सुबकने लगी तो आकाश ने प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, सब ठीक होगा. तुम व्यर्थ अपने को दोषी मानती हो. अब उस के सामने इन सब बातों का जिक्र नहीं करना. उसे प्यार से विदा करना,’’ और फिर तैयार हो कर वे स्टेशन रवाना हो गए.

किंतु सुमन के मन में उथलपुथल सी मची रही. वह सोचने लगी कि यह सब वह अर्चना के प्रति अपने प्रेम के लिए कर रही है या उस ग्लानि से नजात पाने का उस का प्रयास भर है. शायद वह तब भी स्वार्थी हो उठी थी और अब भी यह उस का स्वार्थ ही है, जो वह उसे खुश कर देना चाहती है ताकि उस के पति के सामने उन के गिलेशिकवे न प्रकट हों.

सुमन सोचने लगी कि पता नहीं अर्चना कैसी होगी? शादी से खुश भी है या नहीं? उस की ही जिद के आगे मजबूर हो कर शादी की थी उस ने. कितना लड़ी थी वह उस से. जाने कितने उलाहने ले कर आएगी, अर्ची. पर मिलने की खुशी से उस की नाराजगी पल भर में छूमंतर हो गई.

फिर सुमन की सोच उड़ान भरने लगी… कि उस ने कोई गुनाह तो नहीं किया था. उस का भला ही तो चाहा था. सांसारिक नियमों का पालन करते हुए ही तो उस का विवाह कराया था. माना लड़का उस को पसंद नहीं था, पर उस की जिद के आगे कितने रिश्ते हाथ से निकल गए थे. पढ़ीलिखी एम.ए. पास, सुंदर, स्मार्ट और एक जानीमानी ऐडवर्टाइजिंग फर्म में अच्छी तनख्वाह पाने वाली अर्चना सब को भा जाती पर उसे ही कोई अच्छा नहीं लगता था.

धीरेधीरे अर्चना के अच्छे भविष्य की कामना रखने वाली, सदा ‘अपने जीवन का फैसला खुद करना चाहिए’ का पाठ पढ़ाने वाली, सुमन, अनजाने ही उस की लापरवाह, मस्त, अल्हड़ जिंदगी जीने के अंदाज से चिढ़ने लगी थी. उस की अपनी भी एक जिंदगी थी, जिस की लय बिखर रही थी. बहुत हद तक इस की जिम्मेदार वह अर्चना को मानने लगी थी. कितने समीकरण बने और बिगड़े इस 1 साल में.

आकाश एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में ब्रांचमैनेजर बन कर दिल्ली आ गए. कंपनी की तरफ से फ्लैट, गाड़ी, फोन और तमाम सुविधाएं पा कर बहुत खुश थे दोनों. मिली का दाखिला भी एक अच्छे पब्लिक स्कूल में हो गया. नए घर में दिन मजे में बीत रहे थे.

एक दिन आकाश बोले, ‘‘इतना बड़ा घर कंपनी ने दिया है और हम कुल मिला कर ढाई प्राणी. यहां जौब मार्केट अच्छा है. अर्चना को भी यहीं बुला लेते हैं. उसे भी घर का माहौल मिलेगा और साथ ही तुम्हें भी बहन का साथ मिल जाएगा.’’

आकाश की बातें सुन खुशी से बौरा गई थी. सुमन शादी के इतने बरसों के बाद छोटी बहन का साथ पाने की लालसा से मन गद्गद हो उठा और फिर अगले ही पल उस ने अर्चना को फोन पर सारी बातें बताईं और आने का आग्रह किया.

‘‘थैंक्यू, सो मच दीदी. पर मैं यहां ठीक हूं. जौब अच्छी है. यहां एक रैपो बना हुआ है सब के साथ. वहां फिर से फ्रैश स्टार्ट करना पड़ेगा. आप लोगों को भी परेशानी होगी. मैं यहां सैटल हो गई हूं…’’

पर काफी जोर देने पर वह मान गई. मम्मीपापा सब इस प्रस्ताव से खुश थे. पापा ने कहा, ‘‘वह तुम्हारे साथ रहेगी तो हम चिंतामुक्त रहेंगे. अकेली लड़की घर से इतनी दूर रहती है, सोच कर मन हमेशा आशंकित रहता है.’’

मम्मी ने कहा था, ‘‘उसे कुछ घर के तौरतरीके भी सिखाना. उस के लिए लड़का भी देखना. अब वह अपने पैरों पर भी खड़ी है. एक ही जिम्मेदारी है इस से भी मुक्त हो जाएं.’’

एक महीने बाद ही इस्तीफा दे कर अर्चना अपना सारा सामान समेट कर सुमन के पास आ गई. कुछ दिन तो उस ने नएताजे अनुभव सुनने और हंसने में गुजर गए. लेकिन धीरेधीरे उस के स्वभाव की खामियां जाहिर होने लगीं. अपनी नींद, अपना आराम, अपनी सुविधाओं के साथ जरा सी भी ऐडजस्टमैंट उसे बुरी लगती.

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शुरूशुरू में उस की तमाम हरकतों और नादानियों को दोनों यह सोच कर नजरअंदाज करते रहे कि कम उम्र में परिवार से अलग रहने की वजह से वह आत्मकेंद्रित हो गई है. आखिर होस्टल की जिंदगी जहां पूरी आजादी देती है, वहीं इंसान को अकेला भी तो कर देती है. व्यक्ति जरूरत से ज्यादा आत्मनिर्भर और आत्मकेंद्रित हो जाता है. अपने अच्छेबुरे कर्मों के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होता है. सारी तकलीफें, अकेलापन, परेशानियां, खुशियां सब अपने तक रखने की आदत हो जाती है. आखिर घर के लोगों से दूर परायों के बीच आप कितना कुछ बांट पाते हैं?

‘‘देखो, अब तक तो अपनेआप को वही संभाल रही थी न? अब उसे घर के माहौल में ढलने में तो थोड़ा वक्त लगेगा ही.’’

‘‘पर घर से बाहर तो 4-5 सालों से रह रही है. पहले तो घर में ही रहती थी.’’

‘‘तुम्हारी शादी के समय वह 15 साल की थी. मम्मीपापा की लाडली रही है. तुम खुद को परेशान मत करो.’’

किंतु, अपनी ही बहन का अजनबियों सा व्यवहार उसे सालने लगा था कि कल तक जिस बहन की काबिलीयत पर उसे इतना गुमान था, जिस की छोटीछोटी उपलब्धियां भी बड़ी लगती थीं, अब उसी लाडली बहन में उसे सौ खोट दिखाई देने लगे थे.

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Serial Story: बोझमुक्त (भाग-3)

उस से छुटकारा पाने के लिए सुमन ने जोरशोर से लड़का देखना शुरू किया. अच्छा रिश्ता मिलना बहुत ही कठिन काम था, लेकिन उसे हर रिश्ता ही अच्छा लगता और फिर अच्छे रिश्ते की कोई विशेष परिभाषा तो होती नहीं. उसे बस एक ही चिंता रहती कि ज्यादा देर हो गई तो अर्चना को सामंजस्य बैठाने में परेशानी होगी. कितने जतन किए थे अर्चना की शादी के लिए. कितने झूठ बोले थे.

जहां परिचय बढ़ता वह चुस्त हो जाती. अपने चेहरे की मुसकान और मधुर व्यवहार से पहली ही मुलाकात में लड़के वालों को प्रभावित कर लेना चाहती थी, मानो उस के गुणों को देख कर ही वे लोग अर्चना से रिश्ते के लिए हां कर देंगे.

सुमन कहती, ‘‘मेरी बहन बहुत जिम्मेदार और मेहनती है. जौब के साथसाथ घर के कामों में भी निपुण है. घर सजाने और नएनए व्यंजन बनाने का बहुत शौक है इसे. मेरी बहन है, इसलिए नहीं कह रही. सच में शी इज वैरी नाइस, वैरी टैलेंटेड.’’

अर्चना सिर झुकाए उस की बेबसी पर मंदमंद मुसकराती रहती. कैसी विडंबना थी? जो मन का बोझ थी, उसी की तारीफ में कसीदे पढ़ती. उस के सारे अवगुण छिपा जाती. कहती कैसे? कोई अपने सिक्के को खोटा बताता है? अपनी बहन का अच्छाबुरा सोचना सुमन का फर्ज था. किंतु अर्चना इन सब परेशानियों से बेखबर, बिंदास जीवन जी रही थी. उसे किसी से कोई सरोकार नहीं था.

कभीकभी तो सुमन चिढ़ कर कहती, ‘‘भाड़ में जाए, मेरा क्या. जब उम्र निकल जाएगी और ठोकर खाएगी तब अक्ल आएगी.’’

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पर तब तक तो उसे ही झेलना पड़ेगा और उस का धैर्य चुकता जा रहा था. वह जल्द से जल्द बोझमुक्त हो जाना चाहती थी या फिर अर्चना को सबक सिखाना चाहती थी. उस ने प्रयास जारी रखा.

किसी को ऐसी नहीं वैसी तसवीर चाहिए. लड़के के मांबाप पूछते, ‘‘लड़की गांवदेहात में रह लेगी?’’

कहीं मातापिता को सब भाता तो लड़के को लड़की तेज लगती. कहीं सुंदरता भाती तो हाइट कम लगती. किसी को पापा का रिटायर होना कमतर लगता, क्योंकि दहेज खास नहीं मिलेगा. किसी को उस की प्राइवेट नौकरी ही पसंद नहीं आती. सरकारी होती तो अच्छा था. बहुत समय तक बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में घर कैसे संभालेगी? हर बार कोई न कोई कसर रह ही जाती.

एक समान प्रश्न हर लड़के की मां पूछती, ‘‘आप की बहन होस्टल में रही है. परिवार में नहीं पली है. तो क्या परिवार में सामंजस्य बैठा पाएगी? नौकरी के साथसाथ घर, रिश्तेदारी सब निभा पाएगी?’’

यह कठिन प्रश्न था, जिस का जवाब देते जबान लड़खड़ा जाती. कैसे झूठ बोले? बात तो सच थी. दिल सौ बंधनों में जकड़ जाता. इस सौदे में हर व्यक्ति थोड़ाबहुत छल तो करता ही है. किंतु उस के अंदर धोखा देने का एहसास ज्यादा गहरा जाता.

फिर भी मुसकरा कर धीमे स्वर में कहती, ‘‘परिवार में ही पली है, आंटी. होस्टल में तो कुछ साल ही रही है. अपने संस्कार तो परिवार से जुड़ कर रहना ही सिखाते हैं. मेरी ही बहन है. जैसा आप कहेंगी आप के सिखाए अनुसार सब करेगी.’’

सच तो यह था जब बात नहीं बनती तो एक प्रकार का हलकापन महसूस करती, जैसे कोई बड़ा अपराध करने से बच गई. अंतत: काफी दौड़धूप, देखनेदिखाने के बाद यह रिश्ता आया था. अर्चना को यह रिश्ता भी पसंद नहीं था. सुमन को, उस का अपने जीवन पर ऐसा नियंत्रण देख उस से ईर्ष्या होने लगी थी.

‘‘पापा, आप लोगों को मेरी शादी की चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं कोई मजबूर व लाचार नहीं हूं कि आप लोग जिसतिस के पल्ले बांध कर मुझ से छुटकारा पाना चाहते हैं,’’ अर्चना ने कहा.

पापा की खामोशी ने आग में घी का काम किया. सुमन का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा, ‘‘तुझ जैसी बददिमाग, जिद्दी लड़की से जो भी शादी कर रहा है, हम पर एहसान कर रहा है. उस का तो भविष्य अंधकारमय है ही… हम लोग तुम्हारे कन्यादान के कर्ज से मुक्त हो जाना चाहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरे घर की शांति नष्ट हो रही है. तुम जल्द से जल्द इस घर से विदा होओ. फिर उस घर को जोड़ो चाहे तोड़ो, मेरी बला से. पर अब मेरा घर खाली करो.’’

डबडबाई आंखों से बिना कुछ कहे वह उठ गई थी. पापा को भी स्थिति के विस्फोटक होने का भान नहीं था. सब सहम गए थे कि कहीं वह कुछ कर न बैठे. लेकिन वह खामोश ही रही सारा दिन. पापा फैसला नहीं कर पा रहे थे. एक तरफ जान से प्यारी चांद सी अर्चना और दूसरी तरफ मनचाहे वर का मुंहमांगा दाम और अनिश्चित इंतजार. 2 दिन तक वे टकटकी लगाए दोनों बहनों का शीतयुद्ध देखते रहे.

आकाश ने इन सब से खुद को अलग कर लिया था. सुबह दफ्तर निकल जाते और शाम को दफ्तर से आते ही मिली के साथ खेलने में व्यस्त हो जाते.

एक बेटी का घर बसाने में कहीं दूसरी बेटी का बसाबसाया संसार न उजड़ जाए, यह सोच कर और उस की खामोशी का फायदा उठा कर पापा ने इस रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगा दी. आननफानन में दिन भी तय कर दिया गया. बिना किसी हीलहुज्जत के यह शादी संपन्न हो गई थी.

फेरों के समय अर्चना सूनी आंखों से शून्य में देखती रही थी. उस की बेबसी सब को अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. सारी यादें आंसू बन कर गालों पर बह आईं. इस 1 महीने में न जाने कितनी बार स्वयं को दोषी मान कर पछताई थी सुमन.

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जिस अर्चना ने कभी नियमपूर्वक कोई काम नहीं किया था उस के हाथ में इतने बड़े परिवार की बागडोर थमा दी गई थी.

4 भाईबहनों में सब से बड़े संजय, बेंगलुरु की एक प्रतिष्ठित कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर थे. एक बहन ब्याहता, एक कुंआरी और एक ग्रेजुएट देवर. पिता रिटायर स्कूल मास्टर थे. लड़के की मां नहीं थी.

‘‘हमें और कुछ नहीं चाहिए. आप अपनी सुविधानुसार ही सब करें. संजय की मां को बस सुंदर दुलहन की आस थी,’’ संजय के पिता ने कहा तो दोनों बहनों ने भी मुसकरा कर पिता की बात का समर्थन किया था.

और पापा ने भी निरर्थक मुसकरा कर लाचार पिता की भांति अर्चना का हित नजरअंदाज कर दिया. विवाह के मामले में आज भी लड़की वाले समझौते का ही सौदा करते हैं. पर यहां तो मजबूरी और भी थी. विवाह होने तक सब अपनी राय देते रहे.

कोई कहता, ‘‘उम्र में अर्चना से 7 साल बड़ा और सुंदरता में अर्चना के बराबर नहीं है तो क्या हुआ? वह अपने पैरों पर खड़ा है और फिर आगे तरक्की ही करेगा.’’

कोई कहता, ‘‘लड़के की सुंदरता नहीं, गुण देखने चाहिए.’’

अर्चना रोधो कर अपनी ससुराल विदा हो गई थी. पर उस का मन खुद को कभी माफ नहीं कर पाया.

‘‘मेरे अहम और जिद ने क्या से क्या कर दिया. मेरे ही कारण अर्चना ने मन मार कर समझौता किया. वह कहीं से अर्चना के लायक नहीं था. इतना बड़ा परिवार…मैं ने उस की जिंदगी बरबाद कर दी…अब कभी उस को हंसतामुसकराता नहीं देख पाऊंगी…कैसे निभाएगी?’’

फोन की घंटी बजी. सुमन ने दौड़ कर रिसीवर उठाया, आकाश ने सूचना दी, ‘‘हम लोग चल पड़े हैं. बस थोड़ी देर में पहुंचते हैं.’’

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हार गयी दीदी: किस की खुशी के लिए हार गई थी दीदी

Serial Story: हार गयी दीदी (भाग-2)

हमारे पड़ोसी डा. दीपक का सब से बड़ा बेटा अमित इस प्रोग्राम में विशेष रुचि लेने लगा था. धीरेधीरे अमित दीदी को स्वयं सुझाव देता. ‘यह रंग तुम पर अधिक सूट नहीं करेगा. कोई सोबर कलर पहनो. इस साड़ी के साथ यह ब्लाउज मैच करेगा. ऊंह, लिपस्टिक ठीक नहीं लगी, जरा और डार्क कलर यूज करो. काजल की रेखा जरा और लंबी होनी चाहिए. बाल ऐसे नहीं, ऐसे बनने चाहिए.’ प्रोग्राम के समय भी अमित की आंखें दीदी के चेहरे पर ही टिकी रहतीं, और यदि दीदी की नजरें कभी अकस्मात उस की नजर से टकरा जातीं तो उन के चेहरे पर हजारों गुलाबों की लाली छा जाती.

यह सब किसी से छिप सकता था भला? बस, मझली दीदी कुछ तो यह ईर्ष्या दीदी के प्रति पाले हुए थीं कि अमित उन की ओर ध्यान न दे कर रागिनी दीदी को ही आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनाए रहता है. दूसरे, मां की आंखों में अपनेआप को ऊंचा उठाने का अवसर भी वे कभी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती थीं. उन्होंने दीदी के विरुद्ध अम्मा के कान भरने आरंभ कर दिए.

मां को एक दिन पापा के कान में कहते सुना था, ‘इस लड़की को आप इतनी छूट दे रहे हैं, फिर वह लड़का भी तो अपनी जातबिरादरी का नहीं है.’

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‘अरे, बच्चे हैं, उन के हंसनेखेलने के दिन हैं. हर बात को गलत तरीके से नहीं लेते,’ पापा इतनी लापरवाही से कह रहे थे जैसे उन्होंने कुछ देखा ही न हो.

सचमुच पापा की मृत्यु के बाद ही दीदी ने भी अमित के प्रति ऐसा रुख अपनाया था जैसे कि कभी कुछ हुआ ही न हो. एकदम उस से तटस्थ, अमित कभी घर में आता तो दीदी को उस के सामने तक आते नहीं देखा.

दिल में आता उन्हें पकड़ कर झकझोर दूं. ‘क्या हो गया है दीदी, तुम्हें? तुम्हारे अंदर की हंसने, नाचने व गाने वाली रागिनी कहां मर गई है, पापा के साथ ही?’ विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही दीदी हैं.

अमित के आने में जरा सी देर हो जाती तो वे बेचैन हो उठतीं. तब वे मुझे प्यार से दुलारतीं, फुसलातीं, ‘सुधी, जा जरा अमित को तो देख क्या कर रहे हैं?’ मैं मुंह मटका कर, नाक चढ़ा कर उन्हें चिढ़ाती, ‘ऊंह, मैं नहीं जाती. कोई जरूरी थोड़े ही है कि अमित डांस देखें.’

‘देख सुधी, बड़ी अच्छी है न तू, जा चली जा मेरे कहने से. मेरी प्यारी सी, नन्ही सी बहन है न तू.’

वे खुशामद पर उतर आतीं तो मैं अमित के घर दौड़ जाती. वहीं दीदी अमित से तटस्थ रह कर चाचाजी द्वारा भेजे गए लड़कों की तसवीरों को बड़े चाव से परखतीं और अपनी सलाह देतीं. मेरे मस्तिष्क में 2 विपरीत विचारों का संघर्ष चलता रहता. क्या दीदी विवश हो कर ऐसा कर रही हैं या फिर पापा के मरते ही उन्हें इतनी समझ आ गई कि अपना जीवनसाथी चुनने के उचित अवसर पर यदि वे जरा सी भी नादानी दिखा बैठीं तो उन का पूरा जीवन बरबाद हो सकता है?

एक दिन उन के हृदय की थाह लेने के लिए मैं कह ही बैठी, ‘दीदी, क्या इन तसवीरों में अमित का चित्र भी ला कर रख दूं?’

उन्होंने अत्यंत संयत मन से मेरे गाल थपथपा दिए थे, ‘सुधी, हंसीखेल अलग वस्तु होती है और जीवनसाथी चुनने का उत्तरदायित्व अलग होता है. अमित अभी मेरा भार वहन करने योग्य नहीं है.’

तब मैं समझ पाई थी कि दीदी ने अपने बोझ से हम सब को मुक्त करने के लिए, उन के बोझ को वहन न कर सकने योग्य अमित की तसवीर को अपने मानसपटल से पोंछ दिया था.

उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से ऐसेयोग्य, स्वस्थ, सुंदर व कमाऊ पति का चुनाव किया था कि सभी ने उन की रुचि की प्रशंसा की थी. दुलहन बनी दीदी जिस समय जीजाजी के साथ अपना जीवनरूपी सफर तय करने को कार में बैठीं, उन के चेहरे पर कहीं भी कोई ऐसा भाव नहीं था, जिस से किंचित मात्र भी प्रकट होता कि वे विवश हो कर उन की दुलहन बनी हैं.

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उन के विदा होते ही अम्मा के घुटे निश्वासों को स्वतंत्रता मिल गई थी, ‘‘यही तो अंतर है लड़का लड़की में. बाप की सारी कमाई खर्च करवा कर चली गई. इस की जगह लड़का होता तो कुछ ही वर्षों में सहारे योग्य हो जाता.’’

उधर, दीपा दीदी का पार्ट घर में प्रमुख हो गया. पापा ने वास्तव में ही कहीं गड़बड़ की तो दोनों दीदियों के नाम रखने में. दीपा तो बड़ी दीदी का नाम होना चाहिए था जो आज भी घर के लिए प्रकाशस्तंभ हैं. दीपा दीदी तो अपने नाम का विरोधाभास हैं. उन के मन में तो अंधकार ही रहता है.

रागिनी दीदी घर से क्या गईं, मेरे लिए तो सबकुछ अंधकारमय हो गया था. अम्मा ने तो बचपन से ही मुझे प्यार नहीं दिया. अमर भैया के बाद वे मेरी जगह एक और लड़के की आशा लगाए बैठी थीं. उधर, मझली दीदी उन्हें इसलिए प्यारी थीं कि वे अमर भैया को आसमान से धरती पर हमारे घर में खींच लाई थीं. मझली दीदी समय की बलवान समझी जाती थीं, इसलिए उन्हें दीपा नाम भी दिया गया. अम्मा द्वारा रखा गया मेरा नाम ‘अपशकुनी’ है.

दीपा दीदी की आजादी दीदी के जाने के बाद प्रतिदिन बढ़ती गई और सारे घर के कार्य का बोझ मुझ पर ही लाद दिया गया. रागिनी दीदी के डांस प्रोग्राम घर पर ही होते थे. उन में हम सब की प्रसन्नता सम्मिलित थी. पर दीपा दीदी तो अधिकतर बाहर ही रहतीं. एक कार्यक्रम समाप्त होता तो दूसरे में जुट जातीं. उन्हें खूब पुरस्कार मिलते तो मां उन की प्रशंसा के पुल बांध देतीं. मुझे प्रोत्साहित करने वाला घर में कोई न था. नाचगाने से मेरा संबंध छूट कर केवल रसोईघर से रह गया. बस, कभी विवश हो जाती तो दीदी को याद कर के रोती. मन हलका हो जाता.

बाद के 5 वर्षों में मेरे लिए कुछ सहारा था तो दीदी से फोन पर बात करना. कितनी तसल्ली होती थी जब दीदी प्यार से फोन पर मुझ से बात करतीं. एक बार उन्होंने मुझ से फोन कर के कहा, ‘सुधी, मैं जानती हूं कि तू मेरे बिना कैसी जिंदगी जी रही होगी, परंतु तू धैर्य मत खोना, जिंदगी में हर स्थिति का सामना करना ही पड़ता है. उस से भागना कायरता है. मैं यह कभी सुनना नहीं चाहूंगी कि सुधी कायर है.’

सच पूछो तो दीदी का जीवन ही मेरे लिए प्रेरणास्रोत था. सब से अधिक प्रेरणा तो मुझे तब मिली जब मुझे यह पता चला कि विवाह के बाद भी दीदी अपनी पढ़ाई कर रही थीं. जीजाजी के रूप में उन्हें ऐसा जीवनसाथी मिला जो केवल पति नहीं था, बल्कि पापा की भांति उन्होेंने दीदी को संरक्षण दे कर पापा के सपने को साकार करना चाहा था.

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Serial Story: हार गयी दीदी (भाग-1)

न जाने जीवन में कभी कुछ इतना अप्रत्याशित व असामयिक क्यों घट जाता है कि जिंदगी की जो गाड़ी अच्छीखासी अपनी पटरी पर चल रही होती है वह एक झटके से धमाके के साथ उलटपलट जाती है. जिस गाड़ी में बैठ कर हम आनंदपूर्वक सफर कर रहे होते हैं, वही हमें व हमारे अरमानों को कुचल कर कितना असहाय व लंगड़ा बना देती है.

ऐसा ही कुछ उस दिन घटा था जब पापा की बस दिल्लीकानपुर मार्ग पर एक पेड़ से टकरा गई थी और इधर हमारे पूरे 5 प्राणियों की जीवनरूपी गाड़ी अंधड़ों व तूफानों से टकराने के लिए शेष रह गई थी. पापा थे, तो यही सफर कितना आनंददायक लगता था. उन की मृत्यु के बाद लगने लगा था कि जिस गाड़ी में हम बैठे हैं उस का चालक नहीं है और टेढे़मेढे़ रास्तों से गुजरती हुई यह गाड़ी हमें खींचे ले जा रही है.

समाचार पाते ही सब नातेरिश्तेदार इकट्ठे हो गए थे. सभी ओर दार्शनिकताभरे दिलासों की भरमार थी, ‘जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. बेचारे अच्छेखासे गए थे, क्या मालूम था लौटेंगे ही नहीं आदि.’

जो कोई भी घर में आता, हम बच्चों को छाती से चिपका कर रो उठता. घर की दीवारों को भी चीरने वाला क्रन्दन कई दिनों तक घर में छाया रहा.

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लेकिन दीदी को न तो किसी ने छाती से लगाया, न ही वे दहाडें़ मार कर रोईं. उन का विकसित यौवन, गदराई देह और मांसल मांसपेशियां उन्हें छाती से चिपकाने के लिए प्रत्येक परिचितजनों को कुछ देर सोचने को विवश कर देतीं और छाती से दीदी को चिपकाने के लिए उठे उन के हाथ सहसा ही पीछे हट जाते. न तो दीदी को किसीने दुलरायाचिपकाया, न ही वे दहाड़ें मारमार कर रो सकीं, सूनीसूनी आंखें, उदास व भावहीन चेहरा लिए वे जहां बैठी होतीं, वहीं बैठी रहतीं.

जिस किसी की भी नजर उन पर पड़ती, उन्हें देख कर कुछ चिंतित सा हो उठता. किसी दूसरे के कान में जा कर कुछ फुसफुसाता. दीदी के कानों में यद्यपि कुछ न पड़ता पर उस फुसफुसाहट की अस्पष्ट भाषा वे अच्छी तरह समझ लेतीं. उन्हें लगने लगा था जैसे कि अपने घर की चारदीवारी में वही सब से अधिक पराई हो गई हैं.

तेरहवीं तक यह फुसफुसाहट कुछ गुमसुम सी भाषा में रही, पर 14वें दिन में ही वह स्पष्ट शब्दों में सुनाई देने लगी, ‘जवान लड़की है, इस के हाथ पीले हो जाते तो सरला का एक भारी बोझ उतर जाता.’ तब निश्चय ही दीदी के अकेलेपन को घर के सदस्यों के बीच पैदा होते हुए मैं ने देखा था. पापा के बिना दीदी एकदम अकेली पड़ गई थीं. मां को तसल्ली देने वाले बहुत थे पर उन का सहयोग कभी भी दीदी को नहीं मिल पाया था.

पापा के जाते ही मां की आंखों में घर के आंगन के बीच दीदी एक बड़ा भारी पत्थर बन गई थीं. लगता था, दीदी के भार का गम मां के लिए पापा की मृत्यु के भार से भी अधिक असहनीय हो गया था. यही कारण था कि दीदी के लिए सबकुछ अचानक ही पराया हो गया था, शायद दूसरों पर अपने बोझ का एहसास भी वे स्वयं करने लगी थीं.

मझली दीदी भी तो थीं. पापा तो उन के भी चले गए थे, मेरे भी और अमर के भी. हम सब के पापा नहीं थे तो घरआंगन तो वही था. पर दीदी के लिए तो घरआंगन भी पराए हो गए थे, इसीलिए कुछ ही दिनों में दीदी अपनी सारी चंचलता खो कर जड़ हो गई थीं.

परंतु जड़ होने का मतलब दीदी के लिए जीवन के प्रति निष्क्रिय होना नहीं था. यह बात दूसरी थी कि वे अपने बोझ को मां के सिर से उतारने की चिंता में अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार व परिपक्व हो गई थीं, इसीलिए घर में चर्चा किए जाने वाले किसी  भी सुझाव का विरोध उस समय उन्होंने नहीं किया. ताऊजी बैठते, चाचाजी भी साथ देते, चाची व ताई भी राय देतीं, मां गुमसुम उन की हां में हां मिलातीं.

‘‘इंश्योरैंस कितना है?’’

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‘‘पीएफ?’’

‘‘बैंक बैलेंस कुछ है?’’ आदि प्रश्न पूछे जाते.

‘‘सब जोड़ कर 20 लाख रुपए होते थे. यह तो अच्छा है कि सिर छिपाने को बापदादा का बनाया यह पुराना मकान है. अब इन 20 लाख रुपयों में से खींचतान कर के भले घर का कोई लड़का देख कर रागिनी के हाथ पीले कर ही दो. एक की नैया तो पार लगे. जवान लड़की है, तुम कहां तक देखभाल करोगी? दीपा तो अभी 4-5 साल तक ठहर सकती है, सुधी के वक्त तक अमर संभाल ही लेगा,’’ ताऊजी इन शब्दों के साथ ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते.

मां केवल गरदन हिला कर स्वीकृति दे देतीं. मेरे अंदर बोलने को कुछ कुलबुलाता, परंतु इतने बुजुर्गों के सम्मुख हिम्मत न होती. ‘आज क्या दीदी ही सब से बड़ा बोझ बन गई हैं, केवल 17 साल की उम्र में ही? क्या होगा उन के उन सपनों का जो पापा ने उन्हें दिखाए थे?’

पापा थे, तो दीदी का अस्तित्व ही घर में सर्वोपरि था. क्याक्या नहीं सोच डालते थे पापा दीदी को ले कर, ‘अपनी बेटी को डाक्टर बनाऊंगा, फिर लंदन भेजूंगा, वहां से स्पैशलिस्ट बन कर आएगी. खूब औपरेशन किया करेगी. महिलाओं की भीड़ से घिरी रहेगी मेरी बिटिया. एक शानदार प्राइवेट अस्पताल बनाएगी अपने लिए. बस, फिर यह सभी को संभाल लेगी. एक से बढ़ कर एक होंगे मेरे बच्चे.’

‘रहने भी दो, किस दूसरी दुनिया में घूमते रहते हैं आप भी, क्यों भूल जाते हैं कि बेटी तो पराया धन होती है.’

‘ऊंह, मैं अपनी रागिनी को कहीं नहीं भेजूंगा. जिसे गरज होगी वही शादी करेगा इस से. मैं थोड़े ही किसी की खुशामद करने वाला हूं. फिर वह रहेगा भी यहीं, इसी के साथ.’ वे दीदी को झटक कर अपनी गोद में बैठा लेते और उन के बाल सहलाने लगते. तब दीदी रही होंगी यही 12-13 वर्ष की. तब पापा के चेहरे से लगता उन की हर खुशी वही थीं. इतने संतुष्ट और प्रसन्न दिखाई देते जैसे कि उस खुशी से परे उन्हें कुछ और चाहिए ही नहीं था.

सतत ही तो थी पापा की वह खुशी. संतान जब गुणवान हो तो किसे प्रसन्नता नहीं होती? रागिनी दीदी को तो न जाने किन हाथों से रचा गया था कि किसी भी गुण से अछूती नहीं हैं. वे देखने में सुंदर, पढ़ाई में निपुण व कलाओं में प्रवीण, क्या घर क्या बाहर, सब जगह ही दीदी की धाक रहती.

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पापा अकसर डांस प्रोग्राम करवाते, जिस में रागिनी दीदी स्टार डांसर होती थीं. उन के साथ दीपा दीदी व महल्ले की अन्य लड़कियां भी डांस प्रस्तुत करती थीं.

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