तबाही: आखिर क्या हुआ था उस तूफानी रात को

सब कुछ पहले की तरह सामान्य होने लगा था. 1 सप्ताह से जिन दफ्तरों में काम बंद था, वे खुल गए थे. सड़कों पर आवाजाही पहले की तरह सामान्य होने लगी थी. तेज रफ्तार दौड़ने वाली गाडि़यां टूटीफूटी सड़कों पर रेंगती सी नजर आ रही थीं. सड़क किनारे हाकर फिर से अपनी रोजीरोटी कमाने के लिए दुकानें सजाने लगे थे. रोज कमा कर खाने वाले मजदूर व घरों में काम करने वाली महरियां फिर से रास्तों में नजर आने लगी थीं.

पिछले दिनों चेन्नई में चक्रवाती तूफान ने जो तबाही मचाई उस का मंजर सड़कों व कच्ची बस्तियों में अभी नजर आ रहा था. अभी भी कई जगहों में पानी भरा था. एअरपोर्ट बंद कर दिया गया था. पिछले दिनों चेन्नई में पानी कमरकमर तक सड़कों पर बह रहा था. सारी फोन लाइनें ठप्प पड़ी थीं, मोबाइल में नैटवर्क नहीं था. गाडि़यों के इंजनों में पानी चला गया था, जिस के चलते कार मालिकों को अपनी गाडि़यां वहीं छोड़ जाना पड़ा था. कई लोग शाम को दफ्तरों से रवाना हुए, तो अगली सुबह तक घर पहुंचे थे और कई तो पानी में ऐसे फंसे कि अगली सुबह तक भी न पहुंचे. कई कालेजों और यूनिवर्सिटीज में छात्रछात्राएं फंसे पड़े थे, जिन्हें नावों द्वारा सेना ने निकाला.  पूरे शहर में बिजली नहीं थी.

चेन्नई तो वैसे भी समुद्र के किनारे बसा शहर है, जहां कई झीलें थीं. उन झीलों पर कब्जा कर सड़कें व अपार्टमैंट बना दिए गए हैं. इन 7 दिनों में चेन्नई का दृश्य देख ऐसा मालूम होता था जैसे वे झीलें आक्रोश दिखा कर तबाही मचाते हुए अपना हक वापस मांग रही हों. चेन्नई की सड़कों पर हर तरफ पानी ही पानी नजर आ रहा था.

निचले तबके के लोगों के घर तो पूरी तरह डूब चुके थे. लोग फुटपाथों पर अपने परिवारों के संग सोने को मजबूर थे और सुबह के वक्त जब पेट की आग तन को जलाने लगी, तो वे झपट पड़े एक छोटे रैस्टोरैंट मालिक पर खाने के लिए. क्या करते बेचारे जब बच्चे भूख से बिलख रहे हों. जेब में एक फूटी कौड़ी न हो तो इनसान जानवर बन ही जाएगा न. हर तरफ तबाही का मंजर था. रात के करीब 11 बजे थे. जिस को जहां जगह मिली उस ने वहीं शरण ले ली. ऊपर से मूसलाधार बारिश और नीचे समुद्र का साम्राज्य. ऐसे में दफ्तर से निकली रिया पैदल एक स्टोर की पार्किंग में पनाह के लिए आ खड़ी हुई. धीरेधीरे पार्किंग में 2-4 और लोग भी शरण लेने आ पहुंचे. तभी 2-4 लोग शराब के नशे में धुत्त वहां आ गए और फिर रिया से छेड़छाड़ करने लगे. वह समझ चुकी थी कि उसे वहां खतरा है, लेकिन करती भी क्या? आगे समुद्र की तरह हाहाकार मचाता पानी और पीछे जैसे देह के भूखे भेडि़ए. वे उसे ठीक वैसे ही घूर रहे थे जैसे जंगली जानवर ललचाई नजरों से अपने शिकार को देखते हैं. वहां खड़ी भीड़ यह सब देख रही थी और समझ भी रही थी, लेकिन गुंडेबदमाशों से पंगा कौन ले? अत: सब समझते हुए भी अनजान बने हुए थे.

वहीं भीड़ में खड़े आकाश से यह सब होते देखा न गया तो वह बोल पड़ा, ‘‘अरे भाई साहब क्यों परेशान कर रहे हैं आप इन्हें? पहले ही पानी ने इतनी तबाही मचाई है, ऊपर से आप लोग एक अकेली लड़की को परेशान कर रहे हैं.’’

बस फिर क्या था. अब आफत आकाश पर आन पड़ी थी. उन शराबियों में से एक बोला, ‘‘तू कौन लगता है इस का? क्या लगती है यह तेरी? बड़ी फिक्र है तुझे इस की?’’ और फिर उस लड़की को छूते हुए बोला, ‘‘क्या छूने से घिस गई यह? अब बोल तू क्या कर लेगा? और छुएंगे इसे बोल क्या करेगा तू?’’

आसपास के सभी लोग सहमे से खड़े तमाशा देख रहे थे. सब देख कर भी नजरें इधरउधर घुमा रहे थे. कोई अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहता था.

रिया घबराई, सहमी सी आकाश के पीछे खड़ी हुई. आकाश ही उस का एकमात्र सहारा है, यह वह जान चुकी थी. अब तो उन शराबियों की हरकतें और बढ़ गईं.

आकाश ने रिया को घबराते देख कहा, ‘‘जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ नहीं होगा. तुम डरो नहीं.’’

रिया सिर्फ  रोए जा रही थी. अब तो उन शराबियों ने आकाश के साथ हाथापाई भी शुरू कर दी.

तभी भीड़ में से कुछ लोग आकाश का साथ देने लगे और रिया को घेर कर खड़े हो गए ताकि वे उसे परेशान न कर सकें. शराबियों को अब आकाश से मुकाबला करना भारी पड़ रहा था. उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे आकाश के कारण आज उन का शिकार उन के पंजे से छूट गया.

वे आकाश को गालियां दे रहे थे. तभी उन शराबियों में से एक ने छुरा निकाल कर आकाश के सीने में 5-6 वार कर दिए उसे बुरी तरह जख्मी कर वहां से भाग निकले. किसी के मुंह से खौफ के मारे उफ तक न निकली. ऐसी तबाही में आकाश को अस्पताल पहुंचाते भी तो कैसे? जैसेतैसे एक नाव का इंतजाम किया और उसे अस्पताल ले जाया गया. उस के शरीर से बहुत खून बह चुका था. डाक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया.

आकाश चेन्नई में सौफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत था और उस का परिवार मुंबई में रहता था. उसे कंपनी ने तबादले पर यहां भेजा था. मैं और आकाश एक ही दफ्तर में कार्य करते थे. जब मैं ने उस की मौत की खबर अखबारों में पढ़ी तो मुझ से रहा न गया और मैं अगले ही दिन मुंबई चल दी. ताकि उस के परिवार वालों को सांत्वना दे सकूं.

मुंबई पहुंची तो आकाश के घर में मातम पसरा था. उस के बच्चों के आंसू रोके न रुकते थे और उस की पत्नी वह तो स्वयं तबाही का एक मंजर लग रही थी. मैं मन ही मन कुदरत से पूछती रही कि अच्छे काम का तो इनाम मिलता है. तो फिर यह कैसी सजा मिली है आकाश व उस के परिवार को? एक असहाय लड़की की इज्जत को तबाह होने से बचाने की यह सजा? आखिर क्यों?

आकाश के घर में ऐसा हाहाकार मचा था मानो धरती का करूण हृदय भी फूट पड़े और आंसुओं की अविरल धारा में सारा शहर समा जाए. चेन्नई में तो तबाही के बाद जनजीवन सामान्य होने लगा था, किंतु वह तबाही जो चेन्नई से मुंबई आकाश के घर पहुंची थी शायद कभी सामान्य न हो. झीलें तो शायद अपना हक हाहाकार मचा कर मांग रही थीं, किंतु आकाश की पत्नी अपना हक किस से मांगे? क्या कोई लौटा सकता है उन बच्चों के पिता को? आकाश को?

डिवोर्सी: मुक्ति ने शादी के महीने भर बाद ही लिया तलाक

वह डिवोर्सी है. यह बात सारे स्टाफ को पता थी. मुझे तो इंटरव्यू के समय ही पता चल गया था. एक बड़े प्राइवेट कालेज में हमारा साक्षात्कार एकसाथ था. मेरे पास पुस्तकालय विज्ञान में डिगरी थी. उस के पास मास्टर डिगरी. कालेज की साक्षात्कार कमेटी में प्राचार्य महोदया जो कालेज की मालकिन, अध्यक्ष सभी कुछ वही एकमात्र थीं. हमें बताया गया था कि कमेटी इंटरव्यू लेगी, मगर जब कमरे के अंदर पहुंचे तो वही थीं यानी पूरी कमेटी स्नेहा ही थीं. उन्होंने हमारे भरे हुए फार्म और डिगरियां देखीं. फिर मुझ से कहा, ‘‘आप शादीशुदा हैं.’’ ‘‘जी.’’

‘‘बी. लिब. हैं?’’ ‘‘जी,’’ मैं ने कहा.

फिर उन्होंने मेरे पास खड़ी उस अति सुंदर व गोरी लड़की से पूछा, ‘‘आप की मास्टर डिगरी है? एम.लिब. हैं आप मुक्ति?’’ ‘‘जी,’’ उस ने कहा. लेकिन उस के जी कहने में मेरे जैसी दीनता नहीं थी.

‘‘आप डिवोर्सी हैं?’’ ‘‘जी,’’ उस ने बेझिझक कहा.

‘‘पूछ सकती हूं क्यों?’’ ‘‘व्यक्तिगत मैटर,’’ उस ने जवाब देना उचित नहीं समझा.

‘‘ओके,’’ कालेज की मालकिन, जो अध्यक्ष व प्राचार्य भी थीं, ने कहा. ‘‘तो आप आज से लाइब्रेरियन की पोस्ट संभालेंगी और कार्तिक आप सहायक लाइब्रेरियन. और हां अटैंडैंट की पोस्ट इस वर्ष नहीं है. आप दोनों को ही सब कुछ संभालना है.’’

‘‘जी,’’ हम दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. इस प्राइवेट कालेज में मेरा वेतन क्व15 हजार मासिक था. और मेरी सीनियर मुक्ति का क्व20 हजार. मुक्ति अब मेरे लिए मुक्तिजी थी क्योंकि वे मुझ से बड़ी पोस्ट पर थीं.

मुक्ति के बाहर जाते ही मैं भी बाहर निकलने ही वाला था कि प्राचार्य महोदया ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘कार्तिक डिवोर्सी है… संभल कर… भूखी शेरनी कच्चा खा जाती है शिकार को,’’ कह वे जोर से हंसती हुई आगे बोलीं, ‘‘मजाक कर रही थी, आप जा सकते हैं.’’ विशाल लाइब्रेरी कक्ष. काम बहुत ज्यादा नहीं रहता था. मैं मुक्तिजी के साथ ही काम करता था, बल्कि उन के अधीनस्थ था. मुझे उन के डिवोर्सी होने से हमदर्दी थी. दुख था… इतनी सुंदर स्त्री… कैसा बेवकूफ पति है, जिस ने इसे डिवोर्स दे दिया. लेकिन मुक्तिजी के चेहरे पर कोई दुख नहीं था. वे खूब खुश रहतीं. हरदम हंसीमजाक करती रहतीं. पहले तो उन्होंने मुझ से अपने नाम के आगे जी लगवाना बंद करवाया, ‘‘आप की उम्र 30 वर्ष है और मेरी 29. एक साल छोटी हूं आप से. यह जी लगाना बंद करिए, केवल मुक्ति कहा करिए.’’

‘‘लेकिन आप सीनियर हैं.’’ ‘‘यह कौन सी फौज या पुलिस की नौकरी है. इतने अनुशासन की जरूरत नहीं है. हम साथ काम करते हैं. दोस्तों की तरह बात करें तो ज्यादा सहज रहेगा मेरे लिए.’’

मैं उन की बात से सहमत था. इन 8 महीनों में हम एकदूसरे से बहुतघुल मिल गए थे. विद्यालय के काम में एकदूसरे की मदद कर दिया करते थे. अपनी हर बात एकदूसरे को बता दिया करते थे. उन्होंने अपने जीवन को ले कर, परिवार को ले कर कभी कोई शिकायत नहीं की और न ही मुझ से कभी मेरे परिवार के बारे में पूछा. वे सिर्फ इतना पूछतीं, ‘‘और घर में सब ठीक हैं?’’

उन के हंसीमजाक से मुझे कई बार लगता कि वे अपने अंदर के दर्द को छिपाने के लिए दिखावे की हंसी हंसती हैं. लेकिन मुझे बहुत समय बाद भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया उन में. कोई दर्द, तकलीफ, परेशानी नहीं और मैं हद से ज्यादा जानने को उत्सुक था कि उन के पति ने उन्हें तलाक क्यों दिया? हम लंच साथ करते. चाय साथ पीते. इधरउधर की बातें भी दोस्तों की तरह मिल कर करते. कालेज के काम से भी कई बार साथ बाहर जाना होता.

‘‘आप से एक बात पूछूं मुक्ति?’’ एक दोपहर लंच के समय मैं ने कहा. ‘‘मेरे डिवोर्स के बारे में?’’ उन्होंने सहज भाव से कहा.

फिर हंसते हुए बोलीं, ‘‘एक पुरुष को स्त्री के बारे में जानने की उत्सुकता रहती ही है, पूछिए.’’ ‘‘आप इतनी सुंदर हैं. सिर से ले कर पैरों तक आप में कोई कमी नहीं. व्यावहारिक भी हैं. पढी़लिखी भी हैं. फिर आप के पति ने आप को तलाक कैसे दे दिया?’’

उन्होंने सहज भाव से कहा, ‘‘सुंदरता का डिवोर्स से कोई तालमेल नहीं होता. और दूसरी बात यह कि तलाक मेरे पति ने नहीं, मैं ने दिया है उन्हें.’’

अब मैं विस्मय में था, ‘‘आप ने? क्या आप के पति शराबी, जुआरी टाइप व्यक्ति हैं?’’ ‘‘हैं नहीं थे. अब वे मेरे पति नहीं हैं. नहीं, वे शराबी, कबाबी, जुआरी टाइप नहीं थे.’’

‘‘तो किसी दूसरी औरत से …’’ मेरी बात बीच ही में काटते हुए उन्होंने कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘तो दहेज की मांग?’’ ‘‘नहीं,’’ मुक्ति ने कहा.

‘‘तो आप की पसंद से शादी नहीं हुई थी?’’ ‘‘नहीं, हमारी लव मैरिज थी,’’ मुक्ति ने बिलकुल सहज भाव से कहा. कहते हुए उन के चेहरे पर हलका सा भी तनाव नहीं था. अब मेरे पास पूछने को कुछ नहीं था. सिवा इस के कि फिर डिवोर्स की वजह? लेकिन मैं ने दूसरी बात पूछी, ‘‘आप के मातापिता को चिंता रहती होगी.’’

‘‘रहती तो होगी,’’ मुक्ति ने लापरवाही से कहा, ‘‘हर मांबाप को रहती है. लेकिन उतनी नहीं, बल्कि उन का यह कहना है कि अपनी पसंद की शादी की थी. अब भुगतो. फिर उन्हें शायद अच्छा लगा हो कि बेटी ने बगावत की. विद्रोह असफल हुआ. बेटी हार कर घर वापस आ गई. जैसा कि सहज मानवीय प्रकृति होती है. बेटी घर पर है तो घर भी देखती है और अपना कमा भी लेती है. एक भाई है जो अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहता है.’’ अब मुझे पूछना था क्योंकि मुख्य प्रश्न यही था, ‘‘फिर डिवोर्स की वजह?’’ उस ने उलटा मुझ से प्रश्न किया, ‘‘पुरुष क्यों डिवोर्स देते हैं अपनी पत्नी को?’’

मैं कुछ देर चुप रहा. फिर कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘शायद उन्हें किसी दूसरी स्त्री से प्रेम

हो जाता होगा इसलिए.’’ ‘‘बस यही एक वजह है.’’

‘‘दूसरी कोई वजह हो तो मुझे नहीं मालूम,’’ मैं ने कहा. फिर मेरे मन में अनायास ही खयाल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मुक्ति को किसी और से प्यार हो गया हो शादी के बाद. हो सकता है कि बड़े घर में शादी हुई हो. सोचा होगा तलाक में लंबी रकम हासिल कर के आराम से अपने प्रेमी से विवाह… लेकिन नहीं, इतने समय में तो कोई नहीं दिखा ऐसा और न ही कभी मुक्ति ने बताया… न कोई उस से मिलने आया.

मुक्ति ने मुझे विचारों में खोया देख कर कहा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है कार्तिक जैसा आप सोच रहे हैं.’’ ‘‘मैं क्या सोच रहा हूं?’’ मुझे लगा कि मेरे मन की बात पकड़ ली मुक्ति ने. मैं हड़बड़ा गया.

उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे किसी दूसरे पुरुष से प्रेम नहीं हुआ. जैसा कि आजकल महिलाएं करती हैं. तलाक लो… तगड़ा मुआवजा मांगो. मेरा भूतपूर्व पति सरकारी अस्पताल में लोअर डिवीजन क्लर्क था. था से मतलब वह जिंदा है, लेकिन मेरा पति नहीं है.’’ मैं समझ नहीं पा रहा था कि फिर तलाक की क्या वजह हो सकती थी?

‘‘समाज डिवोर्सी स्त्री के बारे में क्या सोचता है?’’ मैं ने पूछा. ‘‘कौन सा समाज? मुझे क्या लेनादेना समाज से? समाज का काम है बातें बनाना. समाज अपना काम बखूबी कर रहा है और मैं अपना जीवन अपने तरीके से जी रही हूं,’’ उन्होंने समाज को ठेंगा दिखाने वाले अंदाज में कहा.

‘‘लेकिन कोई तो वजह होगी तलाक की… इतना बड़ा फैसला… शादी 7 जन्मों का बंधन होता है,’’ मैं ने कहा. ‘‘शादी 7 जन्मों का बंधन… आप पुरुष लोग कब तक 7 जन्मों की आड़ ले कर हम औरतों को बांध कर रखेंगे? ये औरतों को बेवकूफ बनाने की बात है,’’ मुक्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा.

‘‘आप तो नारीवादी विचारधारा की हैं.’’ ‘‘नहीं, मैं बिलकुल भी पुरुषविरोधी विचारधारा की नहीं हूं.’’

लंच समाप्त हो चुका था. मैं ने उठते हुए पूछा, ‘‘मुक्ति, शादीशुदा रही हैं आप… अपनी शारीरिक इच्छाएं कैसे…’’ मुझे लगा कि प्रश्न मर्यादा लांघ रहा है. अत: मैं बीच ही में चुप हो गया.

लेकिन उन्होंने मेरी बात का उत्तर अपने हाथ की मध्यमा और तर्जनी उंगली उठा कर दिया और फिर नारी सुलभ हया से अपना चेहरा झुका लिया.

शाम को हम अपनेअपने घर निकल जाते. कालेज की बस हमें हमारे स्टौप पर छोड़ देती. पहले उन का घर पड़ता था. वे हंसते हुए बाय कहते हुए उतर जातीं. उन्होंने मुझ से कभी अपने घर आने को नहीं कहा. मुझे जाना भी नहीं चाहिए. पता नहीं एक डिवोर्सी महिला के घर जाने पर उस के पासपड़ोस के लोग, उस के मातापिता क्या सोचें? कहीं मुझे उस का नया प्रेमी न समझ बैठें. फिर प्राचार्य महोदया ने कहा भी था भले ही मजाक में कि भूखी शेरनी है बच के रहना. कच्चा खा जाएगी.

मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा. इन 8 महीनों में व्यावहारिकता के नाते मैं तो उन्हें अपने घर आमंत्रित कर सकता हूं. अत: दूसरे दिन मैं ने कहा, ‘‘कभी हमारे घर आइए.’’ ‘‘औपचारिकता निभाने की कोई जरूरत नहीं है. आप से दिन भर मिलना होता है. आप के घर के लोगों को मैं जानती भी नहीं. उन से मिल कर क्या करूंगी? फिर मेरे डिवोर्सी होने का पता चलेगा तो तुम्हारी पत्नी के मन में शक बैठ सकता है कि कहीं मेरा आप से…’’ मुक्ति ने बात अधूरी छोड़ दी.

उसे मैं ने यह कह कर पूरा किया, ‘‘वह ऐसा क्यों सोचेगी?’’ ‘‘सोचने में क्या जाता है? सोच सकती है. क्यों बेचारी के दिमाग में खलल डालना. मुझे और आप को कोई यहां परमानैंट नौकरी तो करनी नहीं है. न ही कालेज वालों ने हमें रखना है. दूसरी अच्छी जौब मिली तो मैं भी छोड़ दूंगी… आप का परिवार है, आप को घर चलाने के लिए ज्यादा रुपयों की जरूरत है. आप भी कोई न कोई नौकरी तलाश ही रहे होंगे.’’

‘‘हां, मैं ने पीएससी का फार्म भरा है.’’ ‘‘और मैं ने भी सैंट्रल स्कूल में.’’

‘‘आप बिलकुल स्पष्ट बोलती हैं.’’ ‘‘सही बात को बोलने में हरज कैसा?’’

‘‘फिर आप ने तलाक की वजह क्यों नहीं बताई?’’

‘‘चलो, अब बता देती हूं. मैं और विनय एकदूसरे से प्यार करते थे, बल्कि वह मेरा ज्यादा दीवाना था. घर से भाग कर शादी की. दोनों के घर वालों ने अपनाने से इनकार कर दिया. समाज अलगअलग था दोनों का. लेकिन विनय के पास सरकारी नौकरी थी, तो कोई दिक्कत नहीं हुई. व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम हो तो बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जाता है.’’ ‘‘पता नहीं मेरी दीवाने पति को शादी की रात क्या सूझी कि उस ने एक फालतू प्रश्न उठाया कि मुक्ति, अब हम नई जिंदगी शुरू करने वाले हैं. अच्छा होगा कि हम विवाह से पूर्व के संबंधों के बारे में एकदूसरे को सचसच बता दें. इस से संबंधों में प्रेम, विश्वास और ईमानदारी बढ़ेगी.

‘‘और फिर उस ने विवाह से पूर्व के अपने संबंधों के बारे में बताया. एक रिश्ते की भाभी से और एक कालेज की प्रेमिका से संबंध होना स्वीकार किया. उस ने यह भी स्वीकारा कि जब मेरे साथ प्रेम में था तब भी उस के एक विवाहित स्त्री से संबंध थे. वह कई बार वेश्यागमन भी कर चुका है. उस के बताने में शर्म बिलकुल नहीं थी. बल्कि गर्व ज्यादा था. फिर उस ने कहा कि अब तुम बताओ?’’ ‘‘मैं ने कुछ याद किया. फिर कहा, ‘‘बहुत पहले की बात है. उस समय मेरी उम्र 16 साल रही होगी और मेरे साथ पढ़ने वाले लड़के की 16 या ज्यादा से ज्यादा 17. एक दिन मेरे घर में कोई नहीं था. वह आया तो था पढ़ाई के काम से, लेकिन उसे न जाने क्या सूझी कि उस ने मुझे चूमना शुरू कर दिया. ‘‘हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे. मैं मना नहीं कर पाई. तापमान इतना बढ़ चुका था शरीर का कि लौटना संभव नहीं था. मैं स्वयं आग में पिघलना चाहती थी. मैं पिघली और शरीर का सारा भार फूल सा हलका हो गया.

‘‘मेरे पति विनय के चेहरे का रंग ही बदल गया. उस के चेहरे पर अनेक भाव आ जा रहे थे, जिन में कठोरता, धिक्कार और भी न जाने क्याक्या था. उस ने कहा कि इस से अच्छा था कि तुम मुझे न ही बताती. मैं ने एक ऐसी लड़की से प्यार किया, जिस का कौमार्य पहले ही भंग हो चुका है वो भी उस की इच्छा से.

जिस लड़की के पीछे मैं ने सब कुछ छोड़ा, घर, परिवार, जाति, समाज, वही चरित्रहीन निकली.’’

‘‘मैं ने गुस्से में कहा कि यह तुम क्या कह रहे हो? जब तुम ये सब करते चरित्रहीन नहीं हुए तो मैं कैसे हो गई? मैं ने भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ा है. फिर तुम ने ही अतीत के बारे में पूछा. वह अतीत जिस से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं. उस समय तो मैं तुम्हें जानती तक नहीं थी. तुम ने तो उस समय भी चरित्रहीनता दिखाई जब तुम मेरे प्रेम में डूबे हुए थे.’’ ‘‘मेरी बात सुन कर वह बोला कि मेरी बात और है. मैं पुरुष हूं.’’

‘‘मैं ने कहा कि तुम करो तो पुरुषत्व और मैं करूं तो चरित्रहीनता… मेरा शरीर है… मेरी मरजी है, मेरी स्वीकारोक्ति थी. तुम ने पूछा इसलिए मैं ने बताया.’’ ‘‘इस पर उस का कहना था कि शादी से पहले बता देती.’’

‘‘मैं ने जवाब दिया कि तुम पूछते तो जरूर बताती.’’

‘‘इस के बाद वह मुझ से खिंचाखिंचा सा रहने लगा. जब देखो उस का मुंह लटका रहता. उस का मूड उखड़ा रहता.’’ ‘‘कई दिन बीत गए. एक दिन मैं ने उस से कहा कि इस में इतना तनाव लेने की क्या जरूरत है? हम अलग हो जाते हैं. डिवोर्स ले लेते हैं.’’

‘‘इस पर उस ने कहा कि शादी के 1 महीने बाद ही तलाक… मजाक है क्या?

लोग क्या सोचेंगे?’’ ‘‘मेरा जवाब था कि लोग गए भाड़ में. मैं ऐसे आदमी के साथ नहीं रहना चाहती जो अपने संबंध गर्व से बताए और पत्नी के बताने पर ऐसा जाहिर करे जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो. सच सुनने की हिम्मत नहीं थी तो पूछा क्यों? अपना सच बताया क्यों?’’

‘‘वह अभिमान से बोला कि मैं तो पुरुष हूं. लोग तुम्हें डिवोर्सी कहेंगे.’’ ‘‘मेरा कहना था कि मेरे बारे में इतना सोचने की जरूरत नहीं. लोग कहेंगे तो तुम्हारे बारे में भी. लेकिन मर्द होने के अहं में तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा. मेरे बारे में उलटासीधा कह कर तुम लौट जाओगे अपने घर वापस. तुम्हारी धूमधाम से शादी हो जाएगी और मुझे लोग वही कहेंगे जो तुम कह रहे हो. कहते रहें. मैं दोगले खोखले व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहती. सारी जिंदगी घुट कर जीने से अच्छा है कि हम एकदूसरे से मुक्त हो कर अपने जीवन को अपनेअपने तरीके से जीएं. मेरे लिए संबंध टूटने का अर्थ जीवन खत्म होना नहीं है और मैं डिवोर्सी हो गई.’’

मैं मुक्ति के सच को सुन कर एक ओर हैरान भी था तो दूसरी ओर उस के सच से प्रभावित भी. लेकिन फिर भी मैं ने उस से कहा, ‘‘मुक्ति, औरतों को कुछ बातें छिपा कर ही रखना चाहिए. उन्हें उजागर न करना ही बेहतर रहता है.’’

उस ने गुस्से से मेरी तरफ देख कर कहा, ‘‘छिपा कर गुनाह रखा जाता है. मैं ने कोई अपराध नहीं किया था. जब उस ने नहीं छिपाया, तो मैं क्यों छिपाती, क्योंकि मैं औरत हूं. मैं ऐसे पुरुषों को पसंद नहीं करती जो स्त्री के लिए अलग और अपने लिए अलग मानदंड तय करें. मेरे शरीर का एक अंग मेरा सर्वांग नहीं है. ‘‘मेरे पास अपना स्वाभिमान है… शिक्षा है… मेरा अपना वजूद है. अपनी स्वेच्छा से अपने शरीर को अपनी पसंद के व्यक्ति को एक बार सौंपने का अर्थ यदि पुरुष की नजर में चरित्रहीनता है तो हम क्या वेश्याओं से गएगुजरे हो गए… और वे पुरुष क्या हुए जो अपने रिश्ते की महिलाओं से ले कर वेश्याओं तक से संबंध बनाए हैं वे मर्द हो गए… नहीं चाहिए मुझे ऐसा पाखंडी पति.’’

मुक्ति की बात ठीक ही थी. हम दोनों के संबंध नौकरी करते तक मधुर रहे. वह सच्ची थी. सच कहने का हौसला था उस में. कोई भी आवेदन करते समय आवेदन के कौलम में क्यों पूछा जाता है विवाहित, अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा. किसी एक पर निशान लगाइए. नौकरी से इन सब बातों का क्या लेनादेना? नौकरी का फार्म भरवा रहे हैं या शादी का? मुझे मालूम था कि मुक्ति को कहीं अच्छी जगह नौकरी मिल चुकी होगी. और आवेदन के कौलम में उस ने डिवोर्सी भरा होगा बिना किसी झिझक के.

और सारे विभाग में उस के डिवोर्सी होने की चर्चा भी होने लगी होगी. लोग तरहतरह से उस के बारे में बातें करने लगे होंगे. लेकिन मुक्ति जैसी महिलाओं को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. जब व्यक्ति सच बोलता है, तो डरता नहीं है और न ही किसी की परवाह करता है. मुक्ति भी उन्हीं में से एक है.

अब आओ न मीता- भाग 2 क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

फिर वह बीते दिन की रिपोर्ट देने लगा. थोड़ी देर बाद मीता अपने डिपार्ट- मेंट में चली गई. सारे दिन उस के भीतर एक अजीब सी हलचल होती रही थी. सागर का अप्रत्याशित व्यवहार उसे आंदोलित किए हुए था. 30-32 साल की उम्र होगी सागर की, लेकिन इस उम्र का सहज सामान्य व्यक्तित्व न था उस का. जो गंभीरता और सौम्यता 36-37 वर्ष में मीता को खुद में महसूस होती, वही कुछ सागर को देख कर महसूस होता था. उसे न जाने क्यों वह किसी भीतरी मंथन में उलझा सा लगता. वह किसी और की व्यक्तिगत जिंदगी में न दखल देना पसंद करती न ही इस में उस की रुचि थी. पर सागर की आज की बातों ने उसे अंदर से झकझोर दिया था.

रात बड़ी देर तक वह बेचैन रही. सागर सर के शब्द कानों में गूंजते रहे. सच तो यह है कि मीता सिर्फ शब्दों पर ही विश्वास नहीं करती, क्योंकि शब्द जाल तो किसी अर्थ विशेष से जुड़े होते हैं.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी. मीता सोच रही थी, ‘मेरे जैसा इनसान जिस ने खुद को समेटतेसमेटते अब किसी से एक इंच भी फासले के लायक न रखा वह किसी भावनात्मक संबंध के लिए सोचेगा तो सब से बड़ी सजा देगा खुद को. मेरी जिंदगी तो खुला पन्ना है जिस के हाशिए, कौमा, मात्राएं सबकुछ उजागर हैं. बस, नहीं है तो पूर्णविराम. होता भी कैसे? जब जिंदगी खुद ही कटापिटा वाक्य हो तो पूर्णविराम के लिए जगह ही कहां होगी?’

आज अचानक सागर सर की गहरी आंखों ने दर्द की हदों को हौले से छू दिया तो भरभरा कर सारे छाले फूट गए. मजाक करने के लिए किस्मत हर बार मुझी को क्यों चुनती है. सोचतेसोचते करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगी थी मीता.

दूसरे दिन सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी कि कालबेल बज उठी. दरवाजा खोला तो सागर सर खड़े थे…

‘अरे, सागर सर, आप? भीतर आइए न?’

बीमार, परेशान सागर ने कहा, ‘माफ कीजिए, मीताजी, मैं आप को परेशान कर रहा हूं. मैं 3-4 दिन फैक्टरी न जा सकूंगा. प्लीज, यह एप्लीकेशन आफिस पहुंचा दीजिएगा.’

‘हांहां, ठीक है. पहुंचा दूंगी. आप अंदर तो आइए, सर.’

‘नहीं, बस ठीक है.’

शायद चक्कर आ रहे थे सागर को. लड़खड़ाते हुए दीवार से सिर टकरातेटकराते बचा. मीता ने उन्हें जबरदस्ती बिठाया और जल्दी से चायबिस्कुट टे्र में रख कर ले आई.

‘डाक्टर को दिखाया, सर, आप ने?’

‘नहीं. ठीक हो जाऊंगा एकाध दिन में.’

‘बिना दवा के कोई चमत्कार हो जाएगा?’

‘चमत्कार तो हो जाएगा… शायद…दवा के बिना ही हो.’

‘आप की फैमिली को भी तो च्ंिता होगी?’

‘मां और भाई गांव में हैं. भाई वहीं पास के मेडिकल कालिज में है.’

‘और यहां?’

‘यहां कोई नहीं है.’

‘आप की फैमिली…यानी वाइफ, बच्चे?’

‘जब कोई है ही नहीं तो कौन रहेगा,’ सागर का अकेलापन उस की आवाज पर भारी हो रहा था.

‘यहां आप कहां रहते हैं, सर?’

‘यहीं, आप के मकान की पिछली लाइन में.’

‘और मुझे पता ही नहीं अब तक?’

‘हां, आप बिजी जो रहती हैं.’

फिर आश्चर्यचकित थी मीता. सागर उस के रोजमर्रा के कामों की पूरी जानकारी रखता था.

चाय पी कर सागर जाने के लिए खड़ा हुआ. दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि वापस पलट कर बोला, ‘एक रिक्वेस्ट है आप से.’

‘कहिए.’

‘प्लीज, बुरा मत मानिए… मुझे आप सर न कहिए. एक बार और रिक्वेस्ट करता हूं.’

‘अरे, इतने सालों की आदत बन गई है, सर.’

‘अचानक कभी कुछ नहीं होता. बस, धीरेधीरे ही तो सबकुछ बदलता है.’

जवाब सुने बिना ही वह वापस लौट गया. हाथ में टे्र पकड़े मीता खड़ी की खड़ी रह गई. सागर की पहेलियां उस की समझ से परे थीं.

धीरेधीरे 4-5 दिन बीत गए. सागर का कोई पता, कोई खबर न थी. छुट्टियां खत्म हुए भी 2 दिन बीत चुके थे. मैनेजर ने मीता को बुलवा कर सागर की तबीयत पता करने की जिम्मेदारी सौंपी.

घर आने से पहले उस ने पीछे की रो में जा कर सागर का घर ढूंढ़ने की कोशिश की तो उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई.

बहुत देर तक बेल बजाती रही लेकिन दरवाजा न खुला. किसी आशंका से कांप उठी वह. दरवाजे को एक हलका सा धक्का दिया तो वह खुल गया. मीता भीतर गई तो सारे घर में अंधेरा ही अंधेरा था. टटोलते हुए वह स्विच तक पहुंची. लाइट आन की. रोशनी हुई तो भीतर के कमरे में बेसुध सागर को पड़े देखा.

3-4 आवाजें दीं उस ने, पर जवाब नदारद था, सागर को होश होता तब तो जवाब मिलता.

उलटे पैर दरवाजा भेड़ कर मीता अपने घर आ गई. सागर का पता बता कर नीलेश को सागर के पास बैठने भेजा और खाना बनाने में जुट गई. खिचड़ी और टमाटर का सूप टिफिन में डाल कर छोटे बेटे यश को साथ ले कर वह सागर के यहां पहुंची. इनसानियत के नाते तो फर्ज था मीता का. आम सामाजिक संबंध ऐसे ही निभाए जाते हैं.

घर पहुंच कर देखा, शाम को जो घर अंधेरे में डूबा, वीरान था अब वही नीलेश और सागर की आवाज से गुलजार था. मीता को देखते ही नीलेश उत्साहित हो कर बोला, ‘मम्मी, अंकल को तो बहुत तेज फीवर था. फ्रिज से आइस निकाल कर मैं ने ठंडी पट्टियां सिर पर रखीं, तब कहीं जा कर फीवर डाउन हुआ है.’

प्रशंसा भरी नजरों से उसे देख कर वह बोली, ‘मुझे पता था, बेटे कि तुम्हारे जाने से अंकल को अच्छा लगेगा.’

‘और अब मैं डाक्टर बन कर अंकल को दवा देता हूं,’ यश कहां पीछे रहने वाला था. मम्मी के बैग से क्रोसिन और काम्बीफ्लेम की स्ट्रिप वह पहले ही निकाल चुका था.

‘चलिए अंकल, खाना खाइए. फिर मैं दवा खिलाऊंगा आप को.’

यश का आग्रह न टाल सका सागर. आज पहली बार उसे अपना घर, घर महसूस हो रहा था… सच तो यह था कि आज पहली बार उसे भूख लगी थी. काश, हर हफ्ते वह यों ही बीमार होता रहे. घर ही नहीं उसे अपने भीतर भी कुछ भराभरा सा महसूस हो रहा था.

खाना खातेखाते मीता से उस की नजरें मिलीं तो आंखों में छिपी कृतज्ञता को पहचान लिया मीता ने. इन्हीं आंखों ने तो बहुत बेचैन किया है उसे. मीता की आंखों में क्या था सागर न पढ़ सका. शायद पत्थर की भावनाएं उजागर नहीं होतीं.

सागर धीरेधीरे ठीक होने लगा. नीलेश और यश का साथ और मीता की देखभाल से यह संभव हो सका था. उस की भीतरी दुनिया भी व्यवस्थित हो चली थी. अंतर्मुखी और गंभीर सागर अब मुसकराने लगा था. नीलेश और यश ने भी अब तक मां की सुरक्षा और छांव ही जानी थी. पापा के अस्तित्व को तो जाना ही न था उन्होंने. सागर ने उस रिश्ते से न सही लेकिन किसी बेनाम रिश्ते से जोड़ लिया था खुद को. और मीता? एक अनजान सी दीवार थी अब भी दोनों के बीच. फैक्टरी में वही औपचारिकताएं थीं. घर में नीलेश और यश ही सागर के इर्दगिर्द होते. मीता चुप रह कर भी सामान्य थी, लेकिन सागर को न जाने क्यों अपने करीब महसूस करती थी.

 

फौरगिव मी: भाग 2- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

वैसे मोनिका की पर्सनैलिटी बहुत चार्मिंग थी. वह एमएनसी में सौफ्टवेयर इंजीनियर होने के साथसाथ चुस्तदुरुस्त महिला भी थी. वह इतनी हैल्थ कौंशस थी कि सुबह 5 बजे उठ कर मौर्निंग वाक और ऐक्सरसाइज करती और बैलेंस डाइट पर बहुत जोर देती. हैल्दी फूड, हैल्दी ड्रिंक, हैल्दी लाइफस्टाइल… बस हैल्दी, हैल्दी, हैल्दी. उस के सिर पर अच्छी हैल्थ का भूत सवार रहता. उस के इतने गुणों के बावजूद मेरे मन में उस के लिए सिर्फ और सिर्फ नफरत थी. मु झे लगता था मोनिका मेरी मौम के आंसुओं का कारण है. हालांकि जहां तक मु झे याद है मैं ने कभी अपनी खुद की मौम और डैड के  झगड़े के बीच कभी मोनिका का नाम नहीं सुना था.

‘‘अरे, कहां खो गई?’’ रीता की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी और मैं फिर से कोक और चिप्स में मगन हो गई.

अगले 4 5 दिन मेरी जिंदगी के सब से अच्छे बीते. मैं खुद में खुश थी. इयर प्लग लगा कर गाने सुनती और अपने में मस्त रहती. घर

में क्या चल रहा है, इस का मु झे अंदाजा भी नहीं था. करीब हफ्ताभर बीत जाने के बाद जौन ने बताया कि मौम हौस्पिटल में हैं. अरे हां, कुछ दिनों से मु झे मोनिका घर में दिखी भी नहीं थी. पर मेरी नफरत इतनी ज्यादा थी कि मैं उसे होते हुए भी नहीं देखती थी तो उस के न होने पर

क्या खाक ध्यान देती? खैर, हौस्पिटल में है तो भी मु झे क्या?

फिर भी औपचारिकता के नाते मैं ने जौन से पूछ ही लिया, ‘‘क्या हुआ है उन्हें?’’

जौन सुबक पड़ा, ‘‘मौम को लंग कैंसर है… टर्मिनल स्टेज.’’

‘‘व्हाट,’’ मैं चीखी, ‘‘अभी पता चला और इतनी जल्दी टर्मिनल स्टेज कैसे?’’

दरअसल, कैंसर शुरू में लंग्स में ही था पर अब ब्रेन तक फैल गया है,’’ जौन ने आंसू पोंछते हुए कहा.

मुझे  झटका सा लगा. फिर बोली, ‘‘तुम चिंता मत करो जौन, एवरीथिंग विल बी फाइन,

कह कर मैं अपने कमरे में चली गई.

 

अब मु झे डैड की बात का मतलब सम झ में आया कि वे मु झे क्यों कह रहे थे कि उसे माफ कर दो. वह हमें छोड़ कर जाने वाली है. तो क्या छोड़ कर जाने का मतलब यह था? ओह नो. मैं मोनिका से मिलने के लिए अधीर हो उठी. शाम को मैं डैड के साथ हौस्पिटल गई पर उस से मिल न सकी. उसे शीशे के कैबिन में सब से दूर रखा गया था.

‘‘पर क्यों डैड?’’ मैं ने डैड से पूछा.

‘‘बेटा, मोनिका को कीमो के बाद शरीर कमजोर होने के कारण सीवियर चैस्ट इन्फैक्शन ने घेर लिया है. उसे सब से अलग इसलिए रखा गया है कि आगे उसे कोई इन्फैक्शन न लगे.’’

मैं शीशे के पार मोनिका के शरीर में लगी तमाम ट्यूब्स को देख रही थी. यह सच है कि मैं मोनिका को डैड से दूर देखना चाहती थी पर ऐसे नहीं. मैं उस से नफरत करती थी पर इतनी भी नहीं कि उसे इस हालत में देखूं. उस समय मैं बस कहना चाहती थी कि मैं ने उसे माफ किया. पर शीशे के उस पार वह क्या सुन पाती? मेरी आखें छलक पड़ीं.

उस रात मैं सो नहीं पाई और उस दिन को याद करने लगी जिस दिन मोनिका मेरे डैड की पत्नी बन कर मेरे घर आई थी और मैं ने उस

के बारे में एक बुरी औरत होने का विचार बना लिया था. मैं उस की सुंदरता, उस की काबिलीयत, उस के हैल्दी लाइफस्टाइल को

वह अवगुण मानने लगी जिस के कारण मेरी मौम मु झ से दूर हो गईं. ऐसा नहीं है कि मोनिका ने मु झ से प्यार जताने की कभी कोशिश नहीं की. पिछले 6 सालों में उस ने मेरा दिल जीतने के लाखों प्रयास किए. कितनी बार उस ने आंखों में आंसू भर कर मु झ से प्लीज, फौरगिव मी कहा पर मैं ने उस के हर प्रयास को एक साजिश सम झा, जिस के द्वारा वह मेरे मन से मेरी मौम की जगह छीन सके.

मु झे याद है कि अकसर ब्रेकफास्ट मोनिका ही बनाती थी. ज्यादातर वही बनता जो जौन को पसंद था. उस के लाख पूछने के बावजूद मैं ने उसे अपनी पसंद नहीं बताई. पर शायद उस ने डैड से पूछा लिया और अगली सुबह ब्रेकफास्ट के समय चहकते हुए यह कह कर परोसा कि आज मैं ने अपनी बेटी प्रिया की पसंद का ब्रेकफास्ट बनाया है. बस इतना सुनना था कि मेरे तनबदन में आग लग गई. मैं ने उस के सामने ही ब्रेकफास्ट डस्टबिन में फेंक दिया और फ्रिज से ब्रैडबटर निकाल कर खा लिया. मोनिका मु झे देखती रही, पर मैं ने पलट कर नहीं देखा.

उस के बाद उस ने मु झे तोहफे देने शुरू किए. मेरी पसंद के

कपड़े, मेरी पसंद के जूते, खिलौने या कुछ और महंगे से महंगा. इतने महंगे उस ने कभी जौन के लिए भी नहीं लिए थे. पर मैं ने हर बार यह कहते हुए कि मेरा प्यार बिकाऊ नहीं है. तुम मु झे सारी दुनिया की दौलत से भी खरीद नहीं सकती उस के तोहफे लौटा दिए.

हर बार वह दुखी होते हुए कहती, ‘‘प्लीज, फौरगिव मी.’’

हर बार उस की आंखें डबडबातीं. कभीकभी एक पल के लिए मेरा दिल पिघलता भी, पर मैं तुरंत संयत हो जाती. वह मेरी मां के आंसुओं का कारण थी, इसलिए मैं बिना परवाह किए सिर  झटक कर चल देती.

वह हमारे रिश्तों को सुधारने के लिए कभी मौल, कभी पार्क, कभी मूवी चलने का प्रोग्राम बनाती, पर मैं सिर या पेट दर्द का बहाना बना कर अपने बिस्तर पर पड़ी रहती.

सचाई तो यह थी कि मैं उसे एक मौका नहीं देना चाहती थी कि वह मु झे खरीद सके. मु झे लगता था इसी में उस की हार है. हां, एक वक्त था, जब मैं काफी कमजोर पड़ गई थी. मु झे कई दिनों से बुखार था. मोनिका मेरा ध्यान रखने में कोई कमी नहीं रखना चाहती थी. वह मु झे अपने हाथ से दवा देती, जबकि मैं चाहती कि डैड

मु झे दवा दें. मैं दवा खाती नहीं थी. अगर उस ने मुंह में डाल दी तो निगलनी बिलकुल नहीं थी. गाल के बीच में फंसा लेती. उस के जाने के बाद थूक देती. इसी कारण बुखार बहुत बढ़ गया. मैं शायद अर्धबेहोशी की अवस्था में ‘मौममौम’ बड़बड़ा रही थी, जब मोनिका मेरे कमरे में आई. वह मेरे बिस्तर पर बैठ गई और मेरे तपते सिर पर ठंडे पानी की पट्टियां रखने लगी. मु झे बहुत अच्छा लगा. मौम के होने का एहसास हुआ और मैं धीरे से उठ कर उस से लिपट गई. मोनिका ने भी मु झे गले से लगा लिया. दिल को बहुत सुकून मिला.

अचानक मु झे एहसास हुआ कि वह मेरी मौम नहीं है. मैं ने जल्दी से अपने को उस की बांहों से छुड़ाया. माथे से ठंडे पानी की पट्टी

हटा कर पानी का जग फेंक दिया. पानी फर्श पर फैल गया. उस पानी के बीच मु झे मोनिका की आंखों का पानी दिखाई नहीं दिया. बस शब्द सुनाई पड़े, ‘‘आर यू ओ के? प्लीज फौरगिव मी, प्लीज’’

उस के बाद डैड ने ही मु झे दवा दी. तन से मैं ठीक हो गई पर मन पहले से अधिक बीमार हो गया. मु झे लगा यह मेरी बहुत बड़ी हार थी और उस की बहुत बड़ी जीत. मैं कई दिनों तक उस से आंखें चुराती रही. मु झे लगता वह मुसकरा रही होगी, जश्न मना रही होगी. नहीं मैं उसे माफ नहीं कर सकती. मु झे और कठोर होना पड़ेगा.

शायद वह मोनिका की मु झे मनाने की आखिरी कोशिश थी. मेरे स्कूल में फैंसी ड्रैस कंपीटिशन था और मु झे परी बनना था. वह जानती थी कि महंगे गिफ्ट मु झे नहीं रि झा सकते, इसलिए उस ने अपनी व्यस्तताओं से समय निकाल कर खुद मेरा गाउन डिजाइन किया. सुनहरी पाइपिंग व लेस से सजा मेरा रैड गाउन और साथ में हैट पर लगे रैड रोज. मैं देखती ही रह गई.

मेरी सहमति देखते ही वह चहक कर बोली, ‘‘प्रिया, प्लीज मु झे अभी पहन कर दिखाओ. जिस दिन तुम्हारा फंक्शन है मेरा टूर है. तब मैं देख नहीं पाऊंगी.’’

 

 

दंश: क्या था श्रेया की जिंदगी से जुड़ा एक फैसला?

अपने साथ काम करने वाली किसी भी लड़की से गौतम औपचारिक बातचीत से ज्यादा ताल्लुकात नहीं बढ़ाता था. एक रोज एक रिपोर्ट बनाने के लिए उसे और श्रेया को औफिस बंद होने के बाद भी रुकना पड़ा और जातेजाते बौस ने ताकीद कर दी, ‘‘श्रेया को घर जाने में कुछ परेशानी हो तो देख लेना, गौतम.’’

पार्किंग में आने पर श्रेया को अपनी एक्टिवा स्टार्ट करने की असफल कोशिश करते देख गौतम ने कहा, ‘‘इसे आज यहीं छोड़ दो, श्रेया. ठोकपीट कर स्टार्ट कर भी ली तो रास्ते में परेशान कर सकती है. कल मेकैनिक को दिखाने के बाद चलाना.’’

‘‘ठीक है, पंकज से कहती हूं पिक कर ले,’’ श्रेया ने मोबाइल निकालते हुए कहा, ‘‘वह 15-20 मिनट में आ जाएगा.’’

‘‘उसे बुलाने से बेहतर है मेरी बाइक पर चलो,’’ गौतम बोला.

‘‘लेकिन मेरा घर दूसरी दिशा में है, तुम्हें लंबा चक्कर लगाना पड़ेगा.’’

‘‘यहां खड़े रहने से बेहतर होगा तुम मेरे साथ चलो. वैसे भी तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर तो जाऊंगा नहीं.’’

बात श्रेया की समझ में आई और वह गौतम की बाइक पर बैठ गई. घर पहुंचने पर श्रेया का आग्रह कर के गौतम को अंदर ले जाना स्वाभाविक ही था. अपने पापा देवेश, मां उमा, छोटी बहन रिया और जुड़वां भाई पंकज से उस ने गौतम का परिचय करवाया.

‘‘ओह, मैं समझा था पंकज तुम्हारा बौयफ्रैंड है, सो तुम्हें लिफ्ट देने में कोई खतरा नहीं है,’’ गौतम बेसाख्ता कह उठा.

‘‘बेफिक्र रहो, पंकज के रहते मुझे बौयफ्रैंड की जरूरत ही महसूस नहीं होती,’’ श्रेया हंसी.

‘‘इसे छोड़ने आने के चक्कर में तुम्हें घर जाने में देर हो गई,’’ उमा ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं आंटी, घर जा अकेले

चाय पीता, यहां सब के साथ नाश्ता भी कर

रहा हूं.’’

उमा को उस की सादगी अच्छी लगी. उस ने गौतम के परिवार के बारे में पूछा. गौतम ने बताया कि उस के कोई बहनभाई नहीं है. मातापिता यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक थे. अब उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रत्याशियों के लिए अपना कोचिंग कालेज खोल लिया है.

‘‘छोटी सी फैमिली है मेरी, आप के यहां सब के साथ रौनक में बैठ कर बहुत अच्छा लग रहा है,’’ गौतम ने श्रेया के भाईबहन की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज पहली बार मम्मीपापा से शिकायत करूंगा कोई बहनभाई न देने के लिए.’’

‘‘अब मम्मीपापा तो बहनभाई दिलाने से रहे, यहीं आ जाया करो सब से मिलने. हमें भी अच्छा लगेगा,’’ देवेश ने कहा.

‘‘जी जरूर, अभी चलता हूं, पापा के आने से पहले घर पहुंचना है.’’

‘‘देर से पहुंचने पर पापा नाराज होंगे?’’ पंकज ने पूछा.

‘‘नाराज तो नहीं लेकिन मायूस होंगे जो मुझे पसंद नहीं है,’’ गौतम ने उठते हुए कहा, ‘‘पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं और मैं उन्हें.’’

उस के बाद औफिस में तो दोनों के ताल्लुकात पहले जैसे ही रहे लेकिन जबतब श्रेया पापा की ओर से घर आने का आग्रह करने लगी जिसे गौतम तुरंत स्वीकार कर लेता था. एक रोज यह सुन कर कि गौतम को बिरयानी बहुत पसंद है, देवेश ने कहा, ‘‘हमारे यहां हरेक छुट्टी के रोज बिरयानी बनती है. कभी लखनवी, कभी हैदराबादी तो कभी अमृतसरी. तुम किसी रविवार को लंच पर आ जाओ.’’

‘‘रविवार की दावत तो मैं स्वीकार नहीं कर सकता अंकल, क्योंकि एक रविवार ही तो मिलता है पापा के साथ लंच करने को.’’

‘‘तो पापा को भी यहीं ले आओ.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ गौतम फड़क कर बोला, ‘‘पापा को भी बिरयानी बहुत पसंद है.’’

‘‘तो ठीक है, इस रविवार को तुम पापामम्मी के साथ लंच पर आ रहे हो. मुझे उन का नंबर

दो, मैं स्वयं उन से आने का आग्रह करूंगी,’’ उमा ने कहा.

‘‘इतनी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है आंटी, पापा मेरे कहने से ही आ जाएंगे. मम्मी तो शुद्ध शाकाहारी हैं, इसीलिए हमारे यहां यह सब नहीं बनता. मम्मी को फिर कभी ले आऊंगा, रविवार को मुझे और पापा को ही आने दीजिए,’’ कह कर गौतम चला गया.

रविवार को गौतम अपने पापा ब्रजेश के साथ आया. देवेश और उमा को

ब्रजेश बहुत सहज और मिलनसार व्यक्ति लगे और बापबेटे के आपसी लगाव व तालमेल ने उन्हें बहुत प्रभावित किया.

‘‘इतनी स्वादिष्ठ चिकन बिरयानी तो नहीं लेकिन गीता भी उंगलियां चाटने वाली मटर की कचौड़ी और अचारी आलू वगैरा बनाती है,’’ ब्रजेश ने कहा, ‘‘अगले रविवार को आप सब हमारे यहां आ रहे हैं?’’

देवेश और उमा सहर्ष मान गए.

देवेश, उमा और श्रेया रविवार को गौतम के घर पहुंच गए.

गीता भी बापबेटे की तरह ही मिलनसार और हंसमुख थी. कुछ ही देर में दोनों परिवारों

में अच्छा तालमेल हो गया और वातावरण सहज व अनौपचारिक. उमा किचन में गीता का हाथ बंटाने चली गई, ब्रजेश ने बड़े शौक से सब को अपना पूरा घर दिखाया और फिर आने का अनुरोध किया.

‘‘जरूर आएंगे लेकिन उस से पहले गीता बहन को हमारे यहां आना है,’’ उमा ने कहा.

‘‘आप न कहतीं तो भी मैं इसे ले कर आने वाला ही था और आऊंगा भी,’’ ब्रजेश के कहने के अंदाज पर सभी हंस पड़े.

एक रोज गौतम लंचब्रेक में श्रेया के

पास आया, ‘‘मेरे पापामम्मी तुम्हारे घर हमारी शादी की बात करने जा रहे हैं और यह तुम

भी जानती हो कि तुम्हारे घर वाले इनकार नहीं करेंगे लेकिन इस से पहले कि तुम हां कहो, मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं, अपने और अपने परिवार के बारे में. मेरे जीवन में हमेशा सर्वोच्च स्थान मेरे पापा का ही रहेगा क्योंकि उन के मुझ पर बहुत एहसान हैं. वे मेरे जन्मदाता नहीं हैं. उन का देहांत तो मेरे जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया था.

‘‘वैसे तो पापा भी वहीं पढ़ाते थे जहां

मम्मी लेकिन वे मेरे मामा के दोस्त भी थे. सो, अकसर घर पर आया करते थे और मेरे साथ

बहुत खेलते थे. एक रोज मामा से यह सुनने

पर कि घर में मम्मी की दूसरी शादी की चर्चा चल रही है, उन्होंने छूटते ही पूछा, ‘गौतम का क्या होगा?’

‘‘शादी ऐसे व्यक्ति से ही करेंगे जो गौतम को अपने बेटे की तरह अपना मानेगा,’’ मामा ने जवाब दिया.

‘‘इस की क्या गारंटी होगी कि शादी के बाद वह अपनी बात पर कायम रहेगा?’’ पापा ने फिर प्रश्न किया.

‘‘ऐसे रिश्तों में तो हमेशा ही गारंटी से ज्यादा रिस्क रहता है, जो लेना पड़ता ही है,’’ मामा ने फिर जवाब दिया.

‘‘गौतम बहुत प्यारा बच्चा है, उस के

साथ कोई रिस्क नहीं लेना चाहिए. मैं वादा

करता हूं, गौतम को आजीवन

पिता का प्यार दूंगा, गीता की शादी मुझ से कर दीजिए,’’ पापा ने छूटते ही कहा.

‘‘मम्मी के घर वाले तो तुरंत मान गए लेकिन पापा के घर वालों को यह रिश्ता मंजूर नहीं था. इसलिए पापा ने उन से रिश्ता

तोड़ कर मेरे मोह में पुश्तैनी

जायदाद भी छोड़ दी. यही नहीं, पापा उस समय आईएएस प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे लेकिन शादी के बाद उन्होंने पढ़ाई के बजाय अपना सारा ध्यान मेरे लालनपालन में लगा दिया और परीक्षा नहीं दी क्योंकि उन्हीं दिनों मम्मी का औपरेशन हुआ था और उन के लिए कई सप्ताह तक बैडरैस्ट अनिवार्य था.

‘‘यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पापा ने अपना अस्तित्व ही मुझ में लीन कर दिया है. अब यह मेरा कर्तव्य है कि आजीवन पापा की खुशी को ही अपनी खुशी समझूं, शादी के बाद मेरी पत्नी को भी यह दायित्व निभाना पड़ेगा. जानता हूं श्रेया, घर वाले ही नहीं, हम दोनों भी एकदूसरे को चाहने लगे हैं, फिर भी हां करने से पहले मैं चाहूंगा कि तुम अच्छी तरह से सोच लो. तुम्हें उम्रभर संयुक्त परिवार में रहना

होगा और वह भी पापामम्मी की आज्ञा या इच्छानुसार.’’

‘‘पापा बहुत सुलझे हुए सहृदय व्यक्ति हैं और तुम्हारी मम्मी भी. उन के साथ रहने में मुझे कोई परेशानी नहीं होगी और अगर होगी भी तो उस की शिकायत मैं कभी तुम से नहीं करूंगी,’’ श्रेया ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘करोगी भी तो मैं सुनूंगा नहीं, यह अच्छी तरह समझ लो,’’ गौतम के स्वर में चुनौती थी.

जल्दी ही दोनों की शादी तय हो गई लेकिन तुरंत

बाद ही एक अड़चन आ गई. औफिस के नियमानुसार वहां पतिपत्नी एकसाथ काम नहीं कर सकते थे. श्रेया ने बेहिचक नौकरी छोड़ दी. हनीमून से लौटने के बाद वह भी गीता और ब्रजेश के साथ कोचिंग कालेज में जाने लगी. उस ने वहां औफिस की सब व्यवस्था संभाल ली जो अब तक ब्रजेश संभालते थे. यह सब करने में वह ब्रजेश के और भी करीब आ गई, वैसे भी बहुत स्नेह करते थे वे

उस से.

‘‘यह काम संभाल कर तुम

ने मुझे बहुत राहत दी है श्रेया,

थक जाता था, पढ़ाने और फिर

उस के बाद यह सब सिरखपाई

वाले काम करने में. काम इतना ज्यादा भी नहीं है कि इस के लिए किसी को नियुक्त करूं,’’ एक रोज ब्रजेश ने कहा.

‘‘ऐसा है पापा तो यह काम अब आप मुझ पर ही छोड़ दीजिए, दूसरी नौकरी मिलने के बाद भी मैं इस के लिए समय निकाल लिया करूंगी,’’ श्रेया ने कहा.

‘‘मेरे लिए यानी अपने व्यथित पापा के लिए भी कभी थोड़ा समय निकाल सकोगी श्रेया?’’ ब्रजेश ने कातर भाव से पूछा.

श्रेया चौंक पड़ी, ‘‘क्या कह रहे हैं, पापा? आप और व्यथित? मम्मी और गौतम को पता चल गया तो वे आप से भी अधिक व्यथित

हो जाएंगे.’’

‘‘उन दोनों को तो पता भी नहीं चलना चाहिए. वैसे भी वे कुछ नहीं कर सकते.’’

‘‘तो कौन कर सकता है, पापा?’’

‘‘तुम, केवल तुम, श्रेया,’’ ब्रजेश ने बड़े विवश भाव से कहा.

‘‘वह कैसे, पापा?’’ श्रेया ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘मेरी व्यथा, मेरी करुण कहानी सुनोगी?’’

‘‘जरूर, पापा. अभी सुना दीजिए न, अभी तो आप की क्लास भी नहीं है.’’

‘‘लेकिन यहां नहीं. लौंगड्राइव पर चलोगी मेरे साथ?’’

‘‘चलिए, एनिथिंग फौर यू, पापा.’’

‘‘मैडम को कह देना हम लाइबे्ररी जा रहे हैं, अगर लौटने में देर हो जाए तो वे मेरी क्लास में कल रात तैयार किया प्रश्नपत्र बांट दें,’’ ब्रजेश ने चपरासी से कहा और श्रेया के साथ बाहर आ गए.

गाड़ी चलाते हुए ब्रजेश चुप रहे, शहर से दूर एक बहुत बड़े अहाते में बनी हवेलीनुमा

बहुमंजिली कोठी के सामने उन्होंने गाड़ी रोक दी.

‘‘यह हमारी पुश्तैनी कोठी

है. पिताजी मेरे और गीता के

विवाह के लिए एक ही शर्त पर राजी थे कि इस जायदाद पर सिर्फ उन के अपने खून यानी मेरी औलाद का ही हक होगा, गौतम का नहीं. गौतम के लिए ही तो मैं शादी कर रहा था, इसलिए मुझे यह बात इतनी बुरी लगी कि मैं ने फैसला कर लिया कि मेरी अपनी औलाद होगी ही नहीं.

‘‘गीता के गर्भाशय में फाइब्रौयड्ज थे जिन का वह इलाज करवा रही थी लेकिन मैं ने उसे दवाएं खाने के बजाय औपरेशन करवा कर गर्भाशय ही निकलवाने को मना लिया. उस के बाद एक शहर में रहते हुए भी न कभी पिताजी ने मुझे बुलाया, न मैं स्वयं ही गया.

‘‘कुछ वर्ष पहले ही पिताजी का निधन हुआ है. मरने से पहले उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि अंतिम संस्कार के लिए मुझे बुला लिया जाए. जायदाद तो खैर

लाचारी में मेरे नाम करनी ही थी क्योंकि दान देने से तो जायदाद पराए लोगों को ही मिलती, जो वे चाहते नहीं थे.

‘‘लेकिन मरने से पहले एक मार्मिक पत्र भी लिखा था उन्होंने जिस में मुझ पर अपने परिवार की वंशबेल नष्ट करने व पुरखों की मेहनत से बनाई जायदाद को पराए खून के हाथों देने का आरोप लगाया था और अनुरोध किया था कि हो सके तो ऐसा होने से रोक दूं, अपने पूर्वजों का नाम जीवित रखने के लिए गौतम के अतिरिक्त भी अपना बच्चा पैदा करूं.

‘‘उस पत्र को पढ़ने के बाद मैं

आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गया हूं. एक जानेमाने परिवार की वंशबेल

नष्ट करने का मुझे कोई हक नहीं है. क्या नहीं किया था दादाजी और पापा ने अपने वंश का गौरव बढ़ाने के लिए, मुझे खुशहाल जीवन देने के लिए और मैं ने उन का बुढ़ापा ही खराब नहीं किया बल्कि उन का वंश ही खत्म कर दिया, महज इसलिए कि गौतम के मन में हीनभावना न आए. गौतम और गीता समझदार थे.

‘‘हमारा दूसरा बच्चा होने पर और उसे पिताजी की जायदाद मिलने पर उन्हें कोई मलाल नहीं होता, दोनों ही पिताजी की भावनाएं समझ सकते थे और गौतम के

लिए तो मेरी और उस की मां की कमाई ही काफी थी.

‘‘लेकिन भावावेश में आ

कर मैं ने गीता की हिस्ट्रेक्टोमी करवा कर सब संभावनाएं ही

खत्म कर दीं,’’ ब्रजेश बुरी तरह बिलख पड़े.

‘‘शांत हो जाइए, पापा. हुआ तो गलत ही पर उसे सुधारने के लिए अब कुछ नहीं हो सकता,’’ श्रेया ने असहाय भाव से कहा.

‘‘बहुतकुछ हो सकता है यानी सब ठीक हो सकता है श्रेया, अगर तुम चाहो तो.’’

‘‘मैं समझी नहीं, पापा. मैं भला क्या कर सकती हूं?’’ श्रेया ने हैरानी

से पूछा.

‘‘मेरी वंशबेल को बढ़ा सकती हो, मुझे

मेरे खून का वारिस दे कर,’’ ब्रजेश ने आकुलता से कहा.

‘‘वह तो समय आने पर मिल ही जाएगा पापा,’’ श्रेया ने शरमा कर कहा.

‘‘गौतम का नहीं, मेरे अपने खून का वारिस, श्रेया,’’ ब्रजेश ने शब्दों

पर जोर दिया, ‘‘जिसे मैं पापा की अंतिम इच्छानुसार अपने पुरखों की विरासत सौंप सकूं. पापा ने वसीयत में बगैर किसी शर्त के सारी जायदाद मेरे नाम कर दी है जिस का मैं कुछ भी कर सकता हूं. केवल उस व्यक्तिगत पत्र में अपनी इच्छा जाहिर की है जिस का मेरे सिवा किसी को कुछ पता नहीं है. लेकिन मैं ग्लानिवश न उस जायदाद का स्वयं उपयोग कर रहा हूं न गीता और गौतम को करने दूंगा.

‘‘उस का उपयोग केवल पापा के खून का वह असली वारिस करेगा जो दुनिया की नजरों में तो गौतम की पहली संतान होगी पर वास्तव में वह मेरी… ब्रजेश की होगी. गौतम की उस पहली संतान के नाम हर्षावेग में आ कर अपनी पुश्तैनी जायदाद करने पर किसी को न शक होगा न कुछ पता चलेगा.’’

ब्रजेश की बात का मतलब समझ आते ही श्रेया सिहर गई. इतनी घिनौनी, इतनी अनैतिक बात पापा जैसा संभ्रांत व्यक्ति कैसे कर सकता है? तो यह वजह थी पापा का उस पर इतना स्नेह लुटाने की? अच्छा सिला दे रहे थे पापा गौतम के प्यार और विश्वास का?

लेकिन वह तो गौतम से विश्वासघात नहीं कर सकती, मगर गौतम को पापा की कलुषित भावनाओं के बारे में बताए भी तो कैसे? अव्वल तो गौतम इस बात पर विश्वास ही नहीं करेगा और करने पर सदमा बरदाश्त नहीं कर पाएगा…तो फिर क्या करे वह?

‘‘घबराओ मत श्रेया, न तो मैं तुम से जोरजबरदस्ती करूंगा और न ही कोई अश्लील या अनैतिक हरकत,’’ ब्रजेश ने समझाने के मकसद से कोमल स्वर में कहा, ‘‘मेरे पास इस समस्या का बहुत ही सरल समाधान है. बस, तुम्हें थोड़ी सी सतर्कता और गोपनीयता रखनी होगी. तुम ने स्पर्म ट्रांसप्लांट यानी आईवीएफ तकनीक के बारे में सुना होगा? जी, पापा सुना है.’’

श्रेया का स्वर कांप गया. पूर्णतया सक्षम पति के रहते किसी अन्य के वीर्य को अपनी कोख में रखने का विचार मात्र ही असहनीय था.

लेकिन ब्रजेश की कातरता और विवशता, गौतम के लिए असीम मोह, गौतम का ब्रजेश से लगाव और उस के प्रति कृतज्ञता उसे बाध्य कर रही थी कि वह अपनी भावनाओं को कुचल कर, ब्रजेश की वंशबेल को हरीभरी रखे. इस के सिवा उस के पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था.

ब्रजेश को मना कर सकती थी लेकिन उस के बाद अगर वे उदास

या व्यथित रहने लगे तो स्वाभाविक

है उन पर जान छिड़कने वाला गौतम भी परेशान रहने लगेगा और एक खुशहाल परिवार अवसादग्रस्त हो जाएगा.

‘‘डा. अवस्थी मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं, उन के क्लीनिक में सबकुछ बहुत सावधानी से हो सकता है,’’ ब्रजेश ने कहा.

‘‘तो करवा लीजिए, पापा. आप जब कहेंगे मैं वहां चली जाऊंगी,’’ श्रेया ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘चलिए, वापस चलते हैं. आप की क्लास का समय हो रहा है.’’

ब्रजेश ने विस्फारित नेत्रों से श्रेया को देखा. उन्होंने बहुत पौराणिक कथाएं पढ़ रखी थीं

लेकिन जो श्रेया करने जा रही थी ऐसा तो उन काल्पनिक कथाओं की किसी भी नायिका ने कभी नहीं किया था.

सब छत एक समान: अंकुर के जन्मदिन पर क्या हुआ शीला के साथ?

शीला को जरा भी फुरसत नहीं थी. अगले दिन उस के लाड़ले अंकुर का जन्मदिन था. शीला ने पहले से ही निर्णय ले लिया था कि वह अंकुर के इस जन्मदिन को धूमधाम से मनाएगी और एक शानदार पार्टी देगी.

बारबार पिताजी ने सुरेश को समझाया कि वह बहू को समझाए कि इस महंगाई के दौर में इस तरह की अनावश्यक फुजूलखर्ची उचित नहीं. उन की राय में अपने कुछ निकटतम मित्रों और पड़ोसियों को जलपान करवा देना ही काफी था.

सुरेश ने जब शीला को समझाया तो वह अपने निर्णय से नहीं हटी, उलटे बिगड़ गई थी.

शीला बारबार बालों की लटें पीछे हटाती रसोई की सफाई में लगी थी. उस ने महरी को भी अपनी सहायता के लिए रोक रखा था. दिन में कुछ मसाले भी घर पर कूटने थे, दूसरे भी कई काम थे. इसलिए वह सुबह से ही काम निबटाने में लग गई थी.

‘‘शीला, जरा 3 प्याली चाय बना देना. पिताजी के दोस्त आए हैं,’’ सुरेश रसोई के दरवाजे पर खड़ा अखबार के पन्ने पलटते हुए बोला.

‘‘चाय, चाय, चाय,’’ शीला उबल कर बोली, ‘‘सुबह से अब तक 5 बार चाय बन चुकी है और अभी 10 भी नहीं बजे हैं. तुम्हें अखबार पढ़ने से फुरसत नहीं और पिताजी को चाय पीने से.’’

‘‘शीला, कभी तो ठंडे दिमाग से बात किया करो,’’ सुरेश अखबार मोड़ते हुए बोला, ‘‘जब कल पार्टी दे रही हो तो काम तो बढ़ेगा ही. अब तुम्हारा काम ही पूरा नहीं हुआ. बाहर का सारा काम पिताजी और मैं ने निबटा लिया है.’’

‘‘अकेली जान हूं, देख नहीं रहे. 10 दिन पहले कार्ड डाल दिए थे, न तो अब तक देवरानीजी पधारीं और न ही आप की प्यारी बहन,’’ शीला डब्बों से धूल झाड़ती हुई बोली, ‘‘काम करना पड़ता न. कल पधारेंगी पार्टी में, बड़े आदमी हैं दोनों ही, आप के भाईसाहब और जीजाजी भी.’’

थोड़ी देर बाद उस ने हाथ धो कर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया और गुस्से से पति की ओर देखा, ‘‘6 साल का हो गया है मेरा अंकुर. कल उस का जन्मदिन है. मगर है जरा सी भी खुशी किसी के चेहरे पर?’’

सुरेश समझ गया कि शीला अब फिर शुरू हो गई है, इसलिए वह चुप ही रहा.

‘‘आप के पिताजी तो पार्टी को ही मना कर रहे थे, फुजूलखर्ची बता रहे थे, उन्हें तो घर से बाहर निकलना नहीं. समाज में रहना है तो साथ तो चलना पड़ेगा.’’

‘‘पिताजी ठीक कह रहे थे,’’ सुरेश ने उस के पास जा कर कहा.

‘‘क्या ठीक कहा? उन्हें तो मेरी हर खरीदी वस्तु फुजूलखर्ची लगती है. जब नया सोफा लाई तो कहने लगे कि क्या जरूरत थी इस की. नया रंगीन टैलीविजन लिया तो भी बड़बड़ करने लगे, ‘बहू, पैसा बचा कर रखो, काम आएगा.’

‘‘खुद तो अपनी गांठ ढीली करते नहीं. 700-800 से कम तो पैंशन भी नहीं मिलती. मगर मजाल है कि कभी अंकुर को भी 5-10 रुपए पकड़ा दें. सारा पैसा उस छोटे को पकड़ा दिया होगा, वरना कैसे इतनी जल्दी अपना मकान बना लेता इतने बड़े शहर में?’’

‘‘शीला, अरुण हमारा छोटा भाई है. पिताजी ने अगर उसे कुछ दे भी दिया होगा तो क्या बुरा है. तुम कुछ भी कहो, लेकिन पिताजी हमें भी उतना ही चाहते हैं जितना अरुण को,’’ सुरेश समझाने के लहजे में बोला.

‘‘तो क्यों नहीं हमारा भी मकान बनवा दिया? पड़े हैं हम इस किराए के मकान में. गांव में खाली पड़ा मकान बेच कर यहां क्यों नहीं ले लेते हमारे लिए एक मकान, तुम्हारे प्यारे पिताजी,’’ शीला ने फिर पुराना राग अलापना शुरू कर दिया था.

सुरेश चाय ले कर बैठक में चला गया.

अरुण अपनी पत्नी सीमा के साथ पहुंच चुका था. दीदी व जीजाजी भी आ गए थे. शीला, सीमा और दीदी तीनों रसोई में थीं. रात का खाना खाया जा चुका था. अंकुर व दीदी के दोनों बच्चे सो चुके थे. तीनों महिलाएं रसोई का काम निबटा रही थीं.

अरुण, सुरेश, पिताजी, जीजाजी सभी बैठक में बातें कर रहे थे.

‘‘सुरेश, अब तुम लोग भी आराम करो. काफी रात हो चुकी है. सुबह फिर काम में लगना है,’’ पिताजी ने यह कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गए.

अंकुर बड़ा खुश था. उस के जन्मदिन पर पार्टी जो दी जा रही थी. उसे ढेर सारे उपहार मिलने थे. वह बच्चों के साथ हंसखेल रहा था. हलवाई की पूरी टीम आ चुकी थी. खाने की तैयारी शुरू हो गई थी. शीला की भागदौड़ बढ़ती जा रही थी.

‘‘सुरेश, मैं जरा बाजार हो कर आता हूं, थोड़ा काम है,’’ पिताजी बोले.

अंकुर पीछे दौड़ने लगा तो दीदी ने उसे रोका, ‘‘बेटा, दादाजी के साथ जा कर क्या करेगा. अरे, तेरे लिए वह सुंदर सा उपहार लाएंगे. इकलौता, प्यारा पोता है तू उन का.’’

‘‘अरे, जानती नहीं दीदी, पिताजी को फुजूलखर्ची बिलकुल पसंद नहीं. क्या करेंगे तोहफा ला कर, दे देंगे ढेर सारे ‘आशीर्वाद’ अपने पोते को.’’

शीला फिर शुरू हो गई थी. उस के कटाक्ष को सब समझ रहे थे. सीमा, दीदी, अरुण, जीजाजी और सुरेश भी. मगर सब खामोश रहे.

केक पर अंकुर की कब से नजर टिकी थी. आखिर वह समय भी आ गया. उस ने फूंक मार कर मोमबत्तियां बुझा दीं. ‘हैप्पी बर्थ डे’ गाया गया. अंकुर केक के टुकड़े सब के मुंह में रखने लगा.

अंकुर को बहुत से उपहार मिले थे. सीमा उस के लिए बड़े सुंदर कढ़ाई किए हुए कपड़े लाई थी. दीदी भी कपड़े और खिलौने लाई थीं.

शीला बड़ी खुश नजर आ रही थी. लाल साड़ी में लिपटी वह अपने को काफी गर्वित महसूस कर रही थी.

‘‘अंकुर बेटा, इधर आना,’’ पिताजी छड़ी पकड़े उसे अपनी ओर बुला रहे थे.

वह सुरेश की बांहों से फिसल कर दादाजी की ओर लपक गया.

शीला मुंह बना कर उधर ही देखने लगी.

‘‘दादाजी, आप हमारे लिए क्या लाए हैं?’’ अंकुर को उन से उपहार मिलने की बड़ी उम्मीद थी.

‘‘हां बेटा,’’ पिताजी ने जेब में हाथ डाला. फिर एक लंबा लिफाफा जेब से निकाला और अंकुर के हाथों में थमा दिया. अंकुर को यह उपहार पसंद नहीं आया.

सुरेश ने उस के हाथ से लिफाफा ले लिया. शीला की नजरें अब सुरेश पर थीं. पिताजी चश्मा उतार कर उस के शीशे साफ करने में लगे थे

सुरेश ने ध्यान से कागज देखे और शीला की ओर बढ़ गया, ‘‘पिताजी ने अंकुर को एक छोटा सा उपहार दिया है. पता नहीं तुम पसंद करोगी या नहीं?’’ यह कह कर उस ने कागजों का वह छोटा सा पुलिंदा शीला के हाथ में थमा दिया.

‘‘मकान के कागज,’’ शीला को यकीन नहीं हो रहा था कि वह जिस किराए के मकान में अब तक रहती आई है, अब उस की मालकिन बन गई है और यह सब पिताजी ने किया है.

एक परदा सा हटने लगा था.

‘‘पिताजी,’’ शीला का स्वर बिलकुल बदला सा था.

‘‘हां, बेटी,’’ पिताजी बोले, ‘‘आखिर कब तक तुम्हें किराए के मकान में देखता. जब देखा कि अरुण ने भी मकान बना लिया है तो डरने लगा कि तुम्हें अपने घर में देखने से पहले ही न चल बसूं. गांव के घर की इतनी कीमत नहीं बनती थी कि यह खरीद पाता. इसलिए अपनी पैंशन के पैसे भी बचाने लगा. पिछले हफ्ते ही यह घर खरीद कर तुम्हारे नाम करवा दिया था. सोचा था, अंकुर के जन्मदिन पर यह खुशखबरी तुम्हें दूंगा. कई बार तुम्हारे गुस्से के बोल मेरे कानों में पड़ जाते थे मगर मैं ने कभी बुरा न माना.

‘‘बेटी, मैं यह नहीं कहता कि समाज या रीतिरिवाज के साथ न चलो. मगर बढ़ती महंगाई को भी देखना चाहिए और अपनी जेब को भी,’’ पिताजी अब खामोश हो गए.

शीला की नजरों के सामने से एकसाथ कई परदे उठ गए. वह कह तो कुछ न सकी. बस, पिताजी को निहारती रही, फिर उन के पैर छू लिए.

शीला अब भी पिताजी की ओर देखे जा रही थी. शायद वह समझ गई थी कि औलाद के लिए तो मांबाप बादल समान होते हैं जिन के लिए सब छत एक समान होती है. वे औलाद में भेदभाव नहीं करते.

‘‘शीला, अब जरा देखो…सब को खाना भी खिलाना है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘हां, आप, अरुण और पिताजी बाहर का देखिए. हम यहां का काम संभालती हैं,’’ शीला सीमा और दीदी के साथ अंदर बढ़ती हुई बोली, ‘‘और हां, पिताजी को याद से खाना खिला देना, पार्टी देर तक चलेगी. वे थक जाएंगे.’’ शीला के ये शब्द सुरेश की खुशी के लिए पर्याप्त थे.

मिटते फासले: शालिनी की जिंदगी में क्यों मची थी हलचल?

मोबाइल फोन ने तो सुरेखा की दुनिया ही बदल दी है. बेटी से बात भी हो जाती है और अमेरिका दर्शन भी घर बैठेबिठाए हो जाता है. अमेरिका में क्या होता है, सुरेखा को पूरी खबर रहती है. मोबाइल के कारण आसपड़ोस में धाक भी जम गई कि अमेरिका की ताजा से ताजा जानकारी सुरेखा के पास होती है.

सर्दी का दिन था. कुहरा छाया हुआ था. खिड़की से बाहर देख कर ही शरीर में सर्दी की एक झुरझुरी सी तैर जाती थी. अभी थोड़ी देर पहले ही शालिनी से बात हुई थी.

शालिनी 2 महीने बाद छुट्टियों में भारत आ रही है. कुरसी खींच कर आंखें मूंद प्रसन्न मुद्रा में सुरेखा शालिनी के बारे में सोच रही थी. कितनी चहक रही थी भारत में आने के नाम से. अपनों से मिलने के लिए, मोबाइल पर मिलना एक अलग बात है. साक्षात अपनों से मिलने की बात ही कुछ और होती है.

विवाह के 5 वर्षों बाद शालिनी परिवार से मिलने भारत आएगी. 5 वर्षों  में काफीकुछ बदल गया है. शालिनी भारत से गई अकेली थी, वापस 2 बच्चों के साथ आ रही है.

परदेस की अपनी मजबूरी होती है. सुखदुख खुद अकेले ही सहना पड़ता है. इतने दिनों में बहुतकुछ बदल गया है. छोटे भाई की शादी हो गई. उस के भी 2 बच्चे हो गए. बड़े भाई का एक बच्चा था, एक और हो गया. नानी गुजर गईं. जिस मकान में रहती थी उस को बेच कर दिल्ली में आशियाना बना लिया. पापा बीमार चल रहे हैं. दुकान अब दोनों भाई चलाते हैं. पापा तो कभीकभार ही दुकान पर जाते हैं.

पंजाब का एक छोटा सा शहर है राजपुरा, जहां शालिनी का जन्म हुआ, पलीबढ़ी. पढ़ाई में मन लगता नहीं था. बस जैसेतैसे 12वीं पास कर पाई. मांबाप को चिंता विवाह की थी. घरेलू कामों में दक्ष थी, इसलिए बिना किसी खास कोशिश के राजपुरा से थोड़ी ही दूर मंडी गोबिंदगढ़ में एक मध्यवर्गीय परिवार के बड़े लड़के महेश के साथ रिश्ता संपन्न हुआ. महेश के पिता सरकारी कर्मचारी थे. महेश एक किराना स्टोर चलाता था.

सुरेखा शालिनी के विवाह से काफी खुश थी कि लड़की आंखों के सामने है. राजपुरा और मंडी की दूरी एक घंटे की थी, जब दिल चाहा मिल लिए. लेकिन यह खुशी मुश्किल से 5 महीने भी नहीं चल सकी. एक दिन सड़क दुर्घटना में महेश की मौत हो गई. शालिनी का सुहाग मिट गया. वह विधवा हो गई. उस पर दुखों का पहाड़ टूट गया.

सास के तानों से तंग और व्यवहार से दुखी बेटी को सुरेखा अपने घर ले आई. आखिर कितने दिन तक ब्याहता पुत्री को घर में रखे, चाहे विधवा ही सही, ब्याहता का स्थान तो ससुराल में है.

एक दिन सुरेखा ने शालिनी से कहा, ‘बेटी, तेरी जगह तो ससुराल में है, आखिर कितने दिन मां के पास रहेगी?’

‘मां, वहां मैं कैसे रहूंगी?’

‘रहना तो पड़ेगा बेटी, दुनिया की रीति ही यही है,’ सुरेखा ने शालिनी को समझाया.

‘मां, आप तो मेरी सास के तानों और व्यवहार से परिचित हैं. मैं वहां रह नहीं सकूंगी,’ शालिनी ने अपनी असमर्थता जाहिर की.

‘दिल पर पत्थर तो रखना ही पड़ेगा, दुनियादारी भी तो कोई चीज है.’

‘मां, दुनियादारी तो यह भी कहती है कि बेटे की मृत्यु के बाद बहू को पूरा हक और सम्मान देना चाहिए. किसी भी ग्रंथ में यह नहीं लिखा कि बेटे की मौत के बाद बहू को घर से धक्के मार कर निकाल दिया जाए,’ कहतेकहते शालिनी की आंखें भर आईं.

फिर भी कुछ रिश्तेदारों के साथ शालिनी ससुराल पहुंची तो सास ने घर के अंदर ही नहीं घुसने दिया. घर के बाहर अकेली सास 10 रिश्तेदारों पर हावी थी.

‘शालिनी घर के अंदर नहीं घुस सकती,’ कड़कती आवाज में सास ने कहा.

‘यह आप की बहू है,’ सुरेखा ने विनती की.

‘बेटा मर गया, बहू भी मर गई,’ सास की आवाज में कठोरता अधिक हो गई. शालिनी के पिता ने महेश के पिता से बात करने की विनती की.

‘जो बात करनी है, मुझ से करो. मेरा फैसला न मानने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता.’

महेश के पिता केवल मूकदर्शक बने रहे. यह देखसुन कर सारे रिश्तेदारों ने शालिनी के मांबाप को समझाया कि लड़की को ससुराल में रखने का मतलब है कि लड़की को मौत के हवाले करना. गर्भवती लड़की को मायके में रखना ही ठीक होगा. थकहार कर शालिनी मायके आ गई. जवान दामाद की मृत्यु के बाद गर्भवती लड़की की दशा ने शालिनी के पिता को समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया. शालिनी क्या कहे और क्या करे? वह तो अपने बच्चे के जन्म का इंतजार करने लगी.

समय पर शालिनी ने एक खूबसूरत बेटे को जन्म दिया. एक खिलौना पा कर शालिनी अपना दुख भूल गई, लेकिन यह सुख केवल कुछ पलों तक ही सीमित रहा. पोते के जन्म की खबर सुन कर शालिनी की सास पोते पर अपना अधिकार जताने पहुंच गई. शालिनी ने अपने बच्चे को सौंपने से मना कर दिया.

‘आप ने तो मुझे महेश की मृत्यु के बाद घर से बाहर कर दिया था, अब मैं अपने बच्चे को अपने से जुदा नहीं करूंगी,’ शालिनी ने दोटूक जवाब दे दिया.

महेश की मां से कोई पहले जीत न सका तो अब भी किसी को कोई आस नहीं रखनी चाहिए थी. शोर मचा कर अधिकार जताया, ‘मेरा पोता है, कोई मुझ से मेरे पोते को जुदा नहीं कर सकता. उस की जगह मेरे घर में है.’

‘जब मेरे गर्भ में आप का पोता पल रहा था, तब आप को अधिकार याद नहीं आया. तब मैं सब से बड़ी दुश्मन थी. बिरादरी के सामने आप ने घर में नहीं घुसने दिया था. अब किस मुंह से हक जता रही हैं. मैं आप की तरह निष्ठुर नहीं हूं कि धक्के मार कर बेइज्जत करूं, लेकिन न तो मैं आप के साथ जाऊंगी और न ही अपने बच्चे को जाने दूंगी,’ शालिनी ने जवाब दिया.

शालिनी की सास भी हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने पुलिस का सहारा लिया. कानूनी रूप से तो बहू और पोते का स्थान मरणोपरांत भी पति के घर में ही है. पुलिस के कहने पर भी शालिनी ने सास के साथ जाने से मना कर दिया. कुछ बड़ेबूढ़ों ने सुझाया कि शालिनी को मायके में ही रहना चाहिए और बच्चे को उस की सास को सौंप दिया जाए.

उन का तर्क यह था कि बच्चे के साथ शालिनी का दूसरा विवाह करना मुश्किल होगा. यदि उस की सास बच्चे को पा कर खुश है तो यह शालिनी के भविष्य के लिए सही है. दूसरे विवाह की सारी अड़चनें अपनेआप दूर हो जाएंगी.

शालिनी बच्चे को छोड़ने को तैयार नहीं थी. फिर बड़ेबूढ़ों के समझाने पर वह बच्चे को अपने से जुदा कर सास को देने को तैयार हो गई. सारी उम्र अकेले बच्चे के साथ बिताना कठिन है. मांबाप भी कब तक साथ रहेंगे, जीवनसाथी तो तलाशना होगा. उस के और बच्चे के भविष्य के लिए बलिदान आवश्यक है.

कलेजे पर एक शिला रख कर शालिनी ने बच्चा सास के सुपुर्द कर दिया. सास को शालिनी से कोई मतलब नहीं था. उसे तो वंश चलाने के लिए वारिस चाहिए था, जो मिल गया.

जहां चाह वहां राह. शालिनी के लिए वर की तलाश शुरू हुई, अमेरिका में रह रहे एक विधुर से रिश्ता पक्का हो गया. परिवार के फैसले को मानते हुए सात फेरे ले कर पति सुशील के साथ नई गृहस्थी निभाने सात समंदर पार चली गई.

समय सभी जख्मों को भर देता है. धीरेधीरे वह अपना अतीत भूल कर वह नई दुनिया में व्यस्त हो गई. अपने अंश की जुदाई की याद आती तो कभी व्यक्त नहीं करती थी. एक बच्चे की जुदाई ने अब 2 बच्चों की मां बना दिया. मां से अकसर फोन पर बातें हो जाती थीं तो ऐसा लगता था कि आसपास बैठ कर बातें कर रही हैं, वैसे तो कोई कमी नहीं खटकती थी. उदासी, मजबूरी, सुख और दुख में अपनों से दूरी जरूर परेशान करती थी.

समय हवा के झोंकों के साथ उड़ जाता है. आज शालिनी अपने पति सुशील और 2 बच्चों के साथ मायके आई तो मांबेटी गले मिल कर आत्मविभोर हो गईं. बच्चों को देख कर सुरेखा ने प्यार से पुचकारते हुए कहा, ‘‘शालिनी, बच्चे तो एकदम गोरेचिट्टे हैं.’’

हंसते हुए शालिनी ने कहा, ‘‘बोलते भी अंगरेजी ज्यादा हैं.’’ एकदम अमेरिकन अंगरेजी बोलते देख हैरानपरेशान हो कर सुरेखा ने पूछा, ‘‘हिंदी नहीं जानते?’’

‘‘समझ सब लेते हैं, पर बोलते नहीं हैं. आप की सब बात समझ लेंगे,’’ शालिनी ने कहा.

सर्दियों के दिन थे. सुरेखा और शालिनी दोपहर में फुरसत के समय धूप सेंकते हुए बातें कर रही थीं. बातोंबातों में शालिनी ने मां से महेश की मां अर्थात अपनी पहली सास और अपने बच्चे के बारे में पूछा तो सुरेखा अचंभे में आ गई. फिर कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बेटे, क्या तू अभी भी उस के बारे में सोचती है?’’

‘‘क्या करूं मां, अपनी कोख से जनमे बच्चे की याद कभीकभी आ ही जाती है. इंसान अतीत को कितना ही भुलाने की कोशिश करे, यादें पीछा नहीं छोड़ती हैं.’’

‘‘तू खुद ही सोच, अगर तू बच्चे को पालती तो क्या तेरी शादी सुशील से हो सकती थी? क्या यह सब तुझे मिलता? आज जो तेरे पास है.’’

‘‘वह तो ठीक है मां, फिर भी.’’

कुछ कहने से पहले सुरेखा ने शालिनी को बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘जो तेरे मन में है, मन में ही रख. अतीत भूल जा. यदि भूल नहीं सकती तो कभी भी किसी के आगे जबान पर ये बातें मत लाना. लोगों के कान बड़े पतले होते हैं. किसी का सुख कोई देख नहीं सकता है.’’ तभी फोन की घंटी बजी और बातों का सिलसिला रुक गया. सुशील ने बात की. सुशील ने शाम को सिनेमा देख कर बाहर होटल में डिनर का कार्यक्रम तय किया था.

‘‘शालिनी, अपनी सफल गृहस्थी को अपने हाथों में रख. सुशील ने सब जानते हुए तुझे अपनाया था. कोई ऐसी बात जबान पर मत ला जिस से कोई जरा सी भी दरार आए. शाम को सिनेमा देख और पुरानी बातों को भूल जा. जितनी खुश तू आज है, बच्चे को रख कर नहीं होती. भूल जा शालिनी, भूल जा.’’

मां की बात पल्ले बांध कर शाम को शालिनी ने परिवार के साथ सिनेमा देखा. 2 महीने कैसे बीते, सुरेखा को पता ही नहीं चला. आज शालिनी सपरिवार अमेरिका वापस जा रही है. एयरपोर्ट पर बेटी को विदा करते समय सुरेखा की आंखें नम हो गईं. मां को उदास देख कर शालिनी बोली, ‘‘यह क्या, बच्चों जैसी रो रही हो? मोबाइल पर हमेशा हम साथ ही तो रहते हैं? बातें तो होंगी ही तुम से बात न करूं तो मन फिर भी तो नहीं होता. सुरेखा को लगा जैसे फोन रिश्तों के फासलों के बीच एक पुल है. शालिनी का चेहरा उस की छलछलाई आंखों में तैरता रह गया.

नई रोशनी की एक किरण

बेटियां जिस घर में जाती हैं खुशी और सुकून की रोशनी फैला देती हैं. पर पता नहीं, बेटी के पैदा होने पर लोग गम क्यों मनाते हैं. सबा थकीहारी शाम को घर पहुंची. अम्मी नमाज पढ़ रही थीं. नमाज खत्म कर उन्होंने प्यार से बेटी के सलाम का जवाब दिया. उस ने थकान एक मुसकान में लपेट मां की खैरियत पूछी. फिर वह उठ कर किचन में गई जहां उस की भाभी रीमा खाना बना रही थीं. सबा अपने लिए चाय बनाने लगी. सुबह का पूरा काम कर के वह स्कूल जाती थी. बस, शाम के खाने की जिम्मेदारी भाभी की थी, वह भी उन्हें भारी पड़ती थी. जब सबा ने चाय का पहला घूंट लिया तो उसे सुकून सा महसूस हुआ.

‘‘सबा आपी, गुलशन खाला आई थीं, आप के लिए एक रिश्ता बताया है. अम्मी ने ‘हां’ कही है, परसों वे लोग आएंगे,’’ भाभी ने खनकते हुए लहजे में उसे बताया. सबा का गला अंदर तक कड़वा हो गया. आंखों में नमकीन पानी उतर आया. भाभी अपने अंदाज में बोले जा रही थीं, ‘‘लड़के का खुद का जनरल स्टोर है, देखने में ठीकठाक है पर ज्यादा पढ़ालिखा नहीं है. स्टोर से काफी अच्छी कमाई हो जाती है, आप के लिए बहुत अच्छा है.’’

सबा को लगा वह तनहा तपते रेगिस्तान में खड़ी है. दिल ने चाहा, अपनी डिगरी को पुरजेपुरजे कर के जला दे. भाभी ने मुड़ कर उस के धुआं हुए चेहरे को देखा और समझाने लगीं, ‘‘सबा आपी, देखें, आदमी का पढ़ालिखा होना ज्यादा जरूरी नहीं है. बस, कमाऊ और दुनियादारी को समझने वाला होना चाहिए.’’

सबा ने दुख से रीमा को देखा. रीमा एक कम पढ़ी, नासमझ लड़की थी. वह आटेसाटे की शादी (लड़की दे कर लड़की ब्याहना) में सबा की भाभी बन कर आ गई थी. सबा की छोटी बहन लुबना की शादी रीमा के भाई आजाद से हुई थी. आज वही रीमा कितनी आसानी से सबा की शादी के बारे में सबकुछ कह रही हैं.

अब्बा ने एक के बाद एक लड़कियां होने का इलजाम भी अम्मी पर लगाया, हफ्तों बेटियों की सूरत नहीं देखी. वह तो अच्छा हुआ तीसरी बार बेटा हो गया, तो अम्मी की हैसियत का ग्राफ कुछ ऊंचा हो गया और अब्बा भी कुछ नरम पड़े. बेटियों का भार कम करने की खातिर बचपन में ही भाई की शादी मामू की बेटी रीमा से और छोटी बहन लुबना की शादी रीमा के भाई आजाद से तय कर दी. आजाद सबा से उम्र में छोटा था इसलिए लुबना की बात तय कर दी. आज पहली बार उसे लड़की होने की बेबसी का एहसास हुआ.

‘‘रीमा, तुम क्या जानो इल्म कैसी दौलत है? कैसी रोशनी है, जो इंसान को जीने का सलीका सिखाती है? वहीं यह डिगरी मर्दऔरत के बीच ऐसे फासले भी पैदा कर देती है कि औरत की सारी उम्र इन फासलों को पाटने में कट जाती है.’’

सबा का कतई दिल न चाह रहा था कि एक बार फिर उसे शोपीस की तरह लड़के वालों को दिखाया जाए पर अम्मी की मिन्नत और बेबसी के आगे वह मजबूर हो गई. वे कहने लगीं, ‘‘सबा, मेरी खातिर मान जाओ. मुझे पूरी उम्मीद है कि वे लोग तुम्हें जरूर पसंद करेंगे.’’

उस ने दुखी हो सोचा, ‘उस की ख्वाहिश व पसंद का किसी को एहसास नहीं. वह एमएससी पास है और एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में नौकरी करती है फिर भी पसंद लड़का ही करेगा,’ उस ने उलझ कर कहा, ‘‘अम्मी, कितने लोग तो आ कर रिजैक्ट कर गए हैं, किसी को सांवले रंग पर एतराज, किसी को उम्र ज्यादा लगी, किसी को पढ़ालिखा होना और किसी को नौकरी करना नागवार गुजरा. अब फिर वही नाटक.’’

अम्मी रो पड़ीं, ‘‘बेटी, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. तुम्हारी शादी मुझे सब से पहले करनी थी पर तुम हमारी मजबूरी और हालात की भेंट चढ़ गईं.’’

सबा यह नौकरी करीब 8 साल से कर रही थी, जब वह बीएससी फाइनल में थी तो अब्बा की एक ऐक्सिडैंट में टांग टूट गई, नौकरी प्राइवेट कंपनी में थी. बहुत दिनों के इलाज के बाद लकड़ी के सहारे चलने लगे. इस अरसे में नौकरी खत्म हो गई.

कंपनी से मिला पैसा कुछ इलाज में खर्च हुआ, कुछ घर में. अब आमदनी का कोई जरिया न था. लुबना और छोटा भाई जोहेब अभी पढ़ रहे थे. उस ने बीएससी पास करते ही नौकरी की तलाश शुरू कर दी. अच्छी डिवीजन होने के कारण उसे इसी स्कूल में प्राइमरी सैक्शन में नौकरी मिल गई. उस ने नाइट क्लासेस से एमएससी और बीएड पूरा किया और फिर सेकेंडरी सैक्शन में प्रमोट हो गई. अब अब्बा उसे बेहद प्यार करते. वही तो घर की गाड़ी खींच रही थी.

शाम को गहरे रंगों के रेशमी कपड़ों में लड़के की अम्मी और 2 बहनें आईं. उन लोगों ने बताया कि लड़के, नईम की ख्वाहिश है कि लड़की पढ़ीलिखी हो, इसलिए वे लोग सबा को देखने आए हैं.

लड़के की अम्मी ने हाथों में ढेर सी चमकती चूडि़यां पहन रखी थीं. खनखनाते हुए वे बोलीं, ‘‘हमारे बेटे की डिमांड पढ़ीलिखी लड़की है, इसलिए हमें तो आप की बेटी पसंद है.’’

अम्मी ने शादी में देर न की क्योंकि जोहेब की बहुत अच्छी नौकरी लगे 2 साल हो चुके थे. काफी कुछ तो उन्होंने दहेज में देने को बना रखा था. कुछ और तैयारी हुई और सबा दुलहन बन कर नईम के घर पहुंच गई.

सबा उस मामूली से सजे कमरे में दुलहन बनी बैठी थी. उस की ननदें और उस की सहेलियां कुछ देर उस के पास बैठी बचकाने मजाक करती रहीं, फिर भाई को भेजने का कह कर उसे तनहा छोड़ गईं. काफी देर बाद उस की जिंदगी का वह लमहा आया जिस का लड़कियां बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हैं. नईम हाथ में मोबाइल लिए अंदर दाखिल हुआ और उस के पास बैठ गया, उस का घूंघट उठा कर कोई खूबसूरत या नाजुक बात कहने के बजाय वह, उसे मोबाइल से अपने दोस्तों के बेहूदा मैसेज पढ़ कर सुनाने लगा जो खासतौर पर उस के दोस्तों ने उसे इस रात के लिए भेजे थे. सबा सिर झुकाए सुनती रही. उस का दिल भर आया. वह खूबसूरत रात बिना किसी अनोखे एहसास, प्यार के जज्बात के गुजर गई.

सुबह नाश्ते में पूरियां, हलवा, फ्राइड चिकन देख उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं सुबहसुबह इतना भारी नाश्ता नहीं कर सकती.’’

‘‘ठीक है, न खाओ,’’ नईम ने लापरवाही से कहा, फिर उस के लिए ब्रैडदूध मंगवा दिया, न कोई मनुहार न इसरार.

फिर जिंदगी एक इम्तिहान की तरह शुरू हो गई. सबा अभी अपनेआप को इस बदले माहौल में व्यवस्थित करती, उस से पहले ही सब के व्यवहार बदलने लगे. सास की तीखी बातें, ननदों के बातबात पर पढे़लिखे होने के ताने. जैसे उसे नीचा दिखाने की होड़ शुरू हो गई. उस का व्यवहारकुशल और पढ़ालिखा होना जैसे एक गुनाह बन गया. सबा इसे झेल नहीं पा रही थी इसलिए उस ने खामोशी ओढ़ ली. धीरेधीरे सब से कटने लगी. उन लोगों की बातों में भी या तो किसी की बुराई होती या मजाक उड़ाया जाता, वह अपने कमरे तक सीमित हो गई.

नईम का नरम और बचकाना रवैया उसे खड़े होने के लिए जमीन देता रहा. इतना भी काफी था. जब वह स्टोर से आता मांबहनों के पास एकडेढ़ घंटे बैठता, तीनों उस की शिकायतों के दफ्तर खोल देतीं. हर काम में बुराई का एक पहलू मिल जाता, खाने में कम तेल डालना, छोटी रोटियां बनाना कंजूसी गिना जाता, साफसफाई की बात पर मौडर्न होने का इलजाम, चमकदमक के रेशमी कपड़े न पहनने पर फैशन की दुहाई, ये सब सुन उस का मन कसैला हो जाता.

नईम पर कुछ देर इन शिकायतों का असर रहता फिर वह सबा से अच्छे से बात करता. क्योंकि यह उसी की ख्वाहिश थी कि उसे पढ़ीलिखी बीवी मिले और वह अपने दोस्तों पर उस की धाक जमा सके पर सबा को एक शोपीस बन कर नईम के दोस्तों के यहां जाना जरा भी अच्छा नहीं लगता था.

नौकरी तो वह छोड़ ही चुकी थी. एक तो स्कूल ससुराल से बहुत दूर था, दूसरे, शादी की एक शर्त नौकरी छोड़ना भी थी. अपना काम पूरा कर अपने कमरे में किताबें पढ़ती रहती. कानून की डिगरी लेना उस के सपनों में से एक था पर हालात ने इजाजत न दी, न ही वक्त मिला. अब वह अपने खाली टाइम में कानून की किताबें पढ़ अपना यह शौक पूरा करती. वह एक समझदार बेटी, एक परफैक्ट टीचर, एक संपूर्ण औरत तो थी पर मनचाही बहू नहीं बन पा रही थी.

कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि नईम कुछ उलझाउलझा और परेशान है. न पहले की तरह दिनभर के हालात उसे सुनाता है न बातबेबात कहकहे लगाता है. अम्मी व बहनों की बातों का भी बस हूंहां में जवाब देता है. पहले की शोखी, वह बचपना एकदम खत्म हो गया था. उस रात सबा की आंख खुली तो देखा नईम जाग रहा है, बेचैनी से करवटें बदल रहा है. सबा ने एक फैसला कर लिया, वह उठ कर बैठ गई और बहुत प्यार से पूछा, ‘‘नईम, मैं कई दिनों से देख रही हूं, आप परेशान हैं. बात भी ठीक से नहीं करते, क्या परेशानी है?’’

नईम ने टालते हुए कहा, ‘‘नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं, स्टोर की कुछ उलझनें हैं.’’

सबा ने उस के बाल संवारते हुए कहा, ‘‘नईम, हम दोनों ‘शरीकेहयात’ हैं यानी जिंदगी के साथी. आप की परेशानी और दुख मेरे हैं, उन्हें बांटना और सुलझाना मेरा भी फर्ज है, हो सकता है कोई हल हमें, मिल कर सोचने से मिल जाए. आप खुल कर मुझे पूरी बात बताइए.’’

‘‘सबा, मैं एक मुश्किल में फंस गया हूं. एक दिन एक सेल्सटैक्स अफसर मेरे स्टोर पर आया. ढेर सारा सामान लिया. जब मैं ने पैसे लेने के लिए बिल बना कर दिया तो वह एकदम गुस्से में आ गया. कहने लगा, ‘तुम जानते हो मैं कौन हूं, क्या हूं? और तुम मुझ से पैसे मांग रहे हो?’

‘‘मैं ने विनम्र हो कर कहा, ‘साहब, काफी बड़ा बिल है, मैं खुद सामान खरीद कर लाता हूं.’

‘‘इतना सुनते ही वह बिफर उठा, ‘मैं देख लूंगा तुम्हें, स्टोर चलाने की अक्ल आ जाएगी. तुम मेरी ताकत से नावाकिफ हो. ऐसे तुम्हें फसाऊंगा कि तुम्हारी सारी अकड़ धरी की धरी रह जाएगी.’ और सामान पटक कर स्टोर से निकल गया. उस के बाद उस का एक जूनियर आ कर सारे खातों की पूछताछ कर के गया और धमकी दे गया कि जल्द ही पूरी तरह चैकिंग होगी और एक नोटिस भी पकड़ा गया. इतना लंबा नोटिस अंगरेजी में है, पता नहीं कौनकौन से नियम और धाराएं लिखी हैं. तुम तो जानती हो मेरी अंगरेजी बस कामचलाऊ है, हिसाबकिताब का ज्यादा काम तो मुंशी चाचा देखते हैं.’’

सबा ने सुकून से सारी बात सुनी और तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल परेशान न हों, जब आप कोई गलत काम नहीं करते हैं तो आप को घबराने की जरा भी जरूरत नहीं है. अगर खातों में कुछ कमियां या लेजर्स नौर्म्स के हिसाब से नहीं हैं तो वह सब हो जाएगा. आप सारे खाते और नोटिस, नौर्म्सरूल्स सब घर ले आइए, मैं इत्मीनान से बैठ कर सब चैक कर लूंगी या आप मुझे स्टोर पर ले चलिए, पीछे के कमरे में बैठ कर मैं और मुंशी चाचा एक बार पूरे खाते और हिसाब नियमानुसार चैक कर लेंगे. अगर कहीं कोई कमी है तो उस का भी हल निकाल लेंगे, आप हौसला रखें.’’

सबा की विश्वास से भरी बातें सुन कर नईम को राहत मिली. उस के होंठों की खोई मुसकराहट लौट आई.

दूसरे दिन एक अलग तरह की सुबह हुई. सबा भी नईम के साथ जाने को तैयार थी. यह देख अम्मी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘हमारे यहां औरतें सुबहसवेरे शौहर के साथ सैर करने नहीं जाती हैं.’’

नईम अम्मी का हाथ पकड़ कर उन्हें उन के कमरे में ले गया और उस पर पड़ने वाली विपदा को इस अंदाज में समझाया कि अम्मी का दिल दहल गया. वे चुप थीं, कमरे में बैठी रहीं. सबा नईम के साथ चली गई. बात इतनी परेशान किए थी कि अम्मी का सारा तनतना झाग की तरह बैठ गया.

सबा के लिए यह कड़े इम्तिहान की घड़ी थी. यही एक मौका उसे मिला था कि अपनी तालीम का सही इस्तेमाल कर सकती थी. उस ने युद्धस्तर पर काम शुरू कर दिया. एक तो वह सहनशील थी दूसरे, बीएससी में उस के पास मैथ्स था, और जनरलनौलेज व कानूनी जानकारी भी अच्छीखासी थी.

पहले तो उस ने नोटिस ध्यान से पढ़ा, फिर एकएक एतराज और इलजाम का जवाब तैयार करना शुरू किया. मुंशीजी ईमानदार व मेहनती थे पर इतने ज्यादा पढ़े न थे लेकिन सबा के साथ मिल कर उन्होंने सारे सवालों के सटीक व नौर्म्स पर आधारित, सही उत्तर तैयार कर लिए. शाम तक यह काम पूरा कर उस ने नोटिस का टू द पौइंट जवाब भिजवा दिया.

एक बोझ तो सिर से उतरा. अब उन्हें बिलबुक के अनुसार सारे खाते चैक करने थे कि कहीं भी छोटी सी भूल या कमी न मिल सके. एक जगह बिलबुक में एंट्री थी पर लेजर में नहीं लिखा गया था. नईम ने उस बिल पर माल भेजने वाली पार्टी से बातचीत की तो खुलासा हुआ कि माल भेजा गया था पर मांग के मुताबिक न होने की वजह से वापस कर के दूसरे माल की डिमांड की गई थी जो जल्द ही आने वाला था. सबा ने उस के लिए जरूरी कागजात तैयार कर लिए. पार्टी कंसर्न से जरूरी कागजात पर साइन करवा के रख लिए.

3 दिन की जीतोड़ मेहनत के बाद नईम और सबा ने चैन की सांस ली. अब कभी भी चैकिंग हो जाए, कोई परेशानी की बात नहीं थी. शाम 4 बजे जब सबा घर वापस जाने की तैयारी कर रही थी उसी वक्त सेल्सटैक्स अफसर अपने 2 बंदों के साथ आ गया. आते ही उस ने नईम और मुंशीजी से बदतमीजी से बात शुरू कर दी.

दोनों जब तक जवाब देते, सबा उठ कर सामने आ गई और उस ने बहुत नरम और सही अंगरेजी में कहा, ‘‘सर, आप सरकारी नौकर हैं. जांच और पूछताछ करना आप का फर्ज है. आप तरीके से पूछें फिर भी आप को तसल्ली न हो तो आप लिखित में नोटिस दें, हम उस का जवाब देंगे. आप की पहली इन्क्वायरी का संतोषप्रद जवाब दिया जा चुका है. आप को जो भी मालूमात चाहिए, मुझ से पूछिए क्योंकि लेजर मैं मेंटेन करती हूं पर पूछताछ में अपने लहजे और भाषा पर कंट्रोल रखिएगा क्योंकि हम भी आप की तरह संभ्रांत नागरिक हैं.’’

इतनी सटीक और परफैक्ट अंगरेजी में जवाब सुन अफसर के रवैए में एकदम फर्क आ गया. काफी देर जांच चलती रही, सबा ने बड़े आत्मविश्वास से हर शंका का बड़े सही ढंग से समाधान किया क्योंकि पिछले 4 दिनों में वह हर बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी. सेल्सटैक्स अफसर कोई घपला न निकाल सका, इसलिए अपने साथियों के साथ वापस चला गया, पर धमकी देते गया कि उस की खास नजर इस स्टोर पर रहेगी. अकसर परेशान करने को नोटिस आते रहे जिन्हें सबा ने बड़ी सावधानी से संभाल लिया.

घर पहुंच कर नईम खुशी से पागल हो रहा था, अम्मी और बहनों को सबा की काबिलीयत विस्तार से जताते हुए बोला, ‘‘सबा का पढ़ालिखा होना, उस की गहरी जानकारी और अंगरेजी बोलना सारी मुसीबतों से टक्कर लेने में कामयाब रहे. पहले यही अफसर मुझ से ढंग से बात नहीं करता था. मेरा अंगरेजी मेें ज्यादा दखल न होने से और विषय की पकड़ कमजोर होने से मुझ पर हावी हो रहा था. अपनी जानकारी से सबा ने ऐसा मुंहतोड़ जवाब दिया है कि अब बेवजह मुझे परेशान न करेगा. मैं ने फैसला कर लिया है कि सबा हफ्ते में 2 बार आ कर हिसाबकिताब चैक करेगी ताकि आइंदा ऐसा कोई मसला न खड़ा हो.’’

एक अरसे के बाद अम्मी ने प्यार से सबा को गले लगाया. बहनें भी प्यार से लिपट गईं. सबा को लगा उस की मुश्किलों का खत्म होने का वक्त आ गया है. उन्हें हंसता देख कर नईम बोला, ‘‘अम्मी, मैं ने शादी के वक्त शर्त रखी थी कि लड़की पढ़ीलिखी होनी चाहिए तो आप सब खूब नाराज हो रहे थे पर उस वक्त पढ़ीलिखी बीवी की ख्वाहिश इसलिए थी कि मैं कम पढ़ालिखा था. उस कमी को मैं अपनी पढ़ीलिखी बीवी से पूरी करना चाहता था और मैं गर्व से अपने दोस्तों से कह सकूं कि मेरी बीवी एमएससी है.

‘‘यह हकीकत तो अब खुली है कि इल्म सिर्फ दिखाने या नाज करने के लिए नहीं होता. इस मुश्किल घड़ी में जब मैं बेहद निराश और डिप्रैस्ड था, उस वक्त सबा ने अपनी तालीम, समझदारी व जानकारी से मामला संभाला. आज मैं अपनी ख्वाहिश की जिंदगी और कारोबार में इल्म की अहमियत को समझ गया हूं. इल्म कोई शोपीस नहीं है बल्कि हर समस्या, हर मुश्किल से जूझने का सफल हथियार है.’’

सबा ने खुशी से चमकती आंखों से नईम को शुक्रिया कहा.

सबा के स्टोर में मदद करने से एक एहसान के बोझ से दबी अम्मी उस से कुछ हद तक नरम हो गईं पर दिल में जमी ईर्ष्या और कम होने के एहसास की धूल अभी भी अपनी जगह पर थी. बहनें भी रूखीरूखी सी मिलतीं. सबा सोचने लगी, उस से कहीं गलती हो रही है. एकाएक उस के दिमाग में धमाका हुआ. उसे एहसास हुआ, कोताही उस की तरफ से भी हो रही है. अभी लोहा गरम है, बस एक वार की जरूरत है. वह पढ़ीलिखी है यह एहसास उस पर भी तो हावी रहा था. अनजाने में वह उन से दूर होती गई.

अगर वे लोग अपनी जहालत और नासमझी से उसे अपना नहीं रहे थे तो उस ने भी कहां आगे बढ़ कर कोशिश की. वह तो समझदार थी. उसे ही उन लोगों का  साथ निभाना था. उस ने अपनी बेहतरी को एक खोल की तरह अपने ऊपर चढ़ा लिया था. अब उसे इस खोल को तोड़ कर उन लोगों के लेवल पर उतर कर उन के दिलों में धीरेधीरे जगह बनानी होगी. यही तो उस की कसौटी है कि उसे अपनी तालीम को इस तरह इस्तेमाल करना है कि वे सब दिल से उस के चाहने वाले हो जाएं. उन की नफरत मुहब्बत में बदल जाए. पहल उसे ही करनी होगी. अपने गंभीर और आर्टिस्टिक मिजाज को छोड़ कर अपने घमंड के पीछे डाल कर उसे यह रिश्तों की जंग जीतनी होगी.

दूसरे दिन सबा ने गहरे रंग का रेशमी सूट पहना. झिलमिल करता दुपट्टा ओढ़ नीचे आ गई. उस की सास तख्त पर बैठी सिर में तेल डाल रही थीं. वह उन के करीब जा कर बैठ गई. उन्होंने मुसकरा कर उस के खूबसूरत जोड़े को देखा, उस ने उन के हाथ से कंघा ले कर कंघी करते हुए कहा, ‘‘अम्मी, अगर नासमझी में मुझ से कोई भूल हुई है तो माफ करें, अपनेआप को मैं आप की ख्वाहिश के मुताबिक बदल लूंगी.’’

अम्मी हैरान सी उसे देख रही थीं. आज इस चमकीले सूट में वह उन्हें बड़ी अपनी सी लग रही थी. वह उस के संजीदा व्यवहार से बदगुमान हो गई थीं. उन्हें लगा था कि तालीमयाफ्ता, होशियार बहू उन से उन का बेटा छीन लेगी, क्योंकि नईम वैसे भी उसे खूब चाहता था. कहीं बहू बेटे पर हावी न हो जाए, इसलिए उन्होंने उस के नुक्स निकाल कर उस की अहमियत कम करना शुरू कर दिया. बेटियों ने भी साथ दिया क्योंकि सबा ने भी अपने आसपास एक नफरत की दीवार खड़ी कर दी थी.

आज वही दीवार, अपनेपन और मुहब्बत की गरमी से पिघल रही थी. उस ने अम्मी की चोटी गूंथते हुए कहा, ‘‘अम्मी, आप मुझे रिश्तों का मान दीजिए, मुझे अपनी बेटी समझें, मुझे भी रिश्ते निभाने आते हैं. मैं आप के बेटे को कभी आप से दूर नहीं करूंगी बल्कि मैं भी आप की बन जाऊंगी. मैं मुहब्बत की प्यासी हूं. रमशा और छोटी मेरी बहनें हैं. आप उन्हीं की तरह मुझे अपनी बेटी समझें. तालीम और काबिलीयत ऐसी चीज नहीं है जो दिलों के ताल्लुक और मुहब्बत में सेंध लगाए.’’

अम्मी को लग रहा था जैसे उन के कानों में मीठा रस टपक रहा है. वे ठगी सी काबिल बहू की बातें सुन रही थीं जो सीधे उन के दिल में उतर रही थीं. उसी ने उन के बेटे को कितनी बड़ी मुश्किल से निकाला है पर जरा सा गुरूर नहीं है. सबा ने रमशा और छोटी को दुलारते हुए कहा, ‘‘आप इन के लिए परेशान न हों, मैं इन दोनों को भी जमाने के साथ चलना सिखाऊंगी. मेरी कुछ, बहुत अच्छे घरों में पहचान है. वहां इन दोनों के लिए रिश्ते भी देखूंगी,’’ यह बात सुन कर दोनों ननदों की आंखों में नई जिंदगी के ख्वाब तैरने लगे.

शाम को नईम जब स्टोर से आया तो घर में खाने की खुशगवार खुशबू के साथ प्यार की महक भी थी. सब ने हंसतेमुसकराते खाना खाया. सबा की एक छोटी सी पहल ने सारा माहौल खुशियों से भर दिया. उस ने अपनी समझदारी से अपना अहं छोड़ कर अपना घर बचा लिया, क्योंकि कुछ पाने के लिए झुकना जरूरी है. उसे यह बात समझ में आ गई कि नीचे झुकने से कद छोटा नहीं होता बल्कि ऊंचा हो जाता है. उन सब में इल्म की कमी से एक एहसासेकमतरी था, उसे छिपाने के लिए वे सबा में कमियां ढूंढ़ते थे. आज उस ने उन के साथ कदम से कदम मिला कर उन के खयालात बदल दिए.

दरअसल, एक रंग पर दूसरा रंग मुश्किल से चढ़ता है. नया रंग चढ़ाने को पुराने रंग को धीरेधीरे हलका करना पड़ता है. दूसरी शाम नईम की पसंद के मुताबिक तैयार हो कर वह उस के दोस्त के यहां खुशीखुशी मिलने जा रही थी. यह नई जिंदगी का खुशगवार आगाज था जिस का उजाला उस के ख्वाबों में नए रंग भरने वाला था.

हैप्पी एंडिंग: ऐसा क्या हुआ रीवा और सुमित के साथ?

हैप्पी एंडिंग: भाग-3

मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई, आसपास रिश्तेदारों की भीड़ थी इसलिए थोड़ा पास आ कर मैं ने उन से कहा ‘‘आज कसम ले कर जा रही हूं, पीछे मुड़ कर नहीं देखूंगी, आज के बाद आप लोग मुझ से मिलने की कोशिश मत करना, खत्म हुआ इस घर से

मेरा रिश्ता.’’

फिर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा, हेमंत ने शादी तो की लेकिन पति बनने की कोशिश नहीं की… मुझ से दूर रहते थे… पहले तो मुझे लगा शायद मेरी बेरुखी और उदास रवैए की वजह से मुझ से दूर है, मगर मेरी यह गलतफहमी अमेरिका जाने के बाद दूर हुई… वहां पता चला हेमंत पहले से शादीशुदा है, मुझ से शादी उस ने घर वालों के लिए किया है, मुझे ये सुन कर बहुत खुशी हुई क्योंकि मैं खुद इस रिश्ते के बंधन से आजादी चाहती थी, मैं सिर्फ सुमित की थी मरते दम तक उसी की रहूंगी लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं हेमंत के साथ रहूं, उस की पत्नी जेनी का मेरे साथ व्यवहार अच्छा था.

कुछ दिनों के बाद उस ने तलाक देने की बात कर मुझे इस मुश्किल परिस्थिति से अपना रास्ता निकालने का उपाय दे दिया… मैं ने एक शर्त रखी, ‘‘तलाक देने के लिए मैं तैयार हूं, बस मुझे यहां रहने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सपोर्ट करो. लेकिन सपोर्ट मुझे लोन की तरह चाहिए क्योंकि मैं वापस भारत नहीं जाना चाहती, मेरी पढ़ाई पूरी होते ही सारे पैसे चुका दूंगी.’’

वे दोनों मान गए और शुरू हुई मेरी एक नई कहानी… वह कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है, यह मेरे लिए अच्छा था… चार्टड एकाउंटैंट बनने का मेरा सपना पूरा हुआ, अमेरिका में मेरा खुद का लौ फर्म है, कुछ साल काम करने के बाद हेमंत का एकएक पैसा मैं ने वापस कर दिया था, लेकिन उस का एहसान नहीं भूल सकती. जब सारे रास्ते बंद थे तब हेमंत और जेनी ही मेरे साथ थे… बीते इन सालों में हेमंत का परिवार ही मेरा परिवार था, उस की पत्नी जेनी मेरी बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. सुमित की बहुत याद आती थी. उस से बात करने के लिए न जाने कितनी बार फोन उठाया पर हिम्मत नहीं कर पाई… अनजाने में ही सही मैं अपनी प्रेम कहानी में गलत बन गई.

सालों के बाद काम की वजह से भारत आई तो यहां आने से खुद को रोक नहीं

पाई. खुद को दी कसम मैं भूलना चाहती हूं.

‘‘रीवा… तुम रीवा हो न, कितनी खूबसूरत हो गई हो, सुंदर पहले से थी लेकिन अब नूर टपक रहा है तुम पर’’ बीना आंटी सब्जियों की थैलियों को संभालते हुए मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘जी, आंटी… रीवा हूं. कैसी हैं आप’’ उन को देख कर मुझे कोई खुशी नहीं हुई जो उन्हें समझ आ गया था.

‘‘रीवा, मैं जानती हूं तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगी, सुमित ने भी आज तक मुझे माफ नहीं किया, तुम दोनों के बीच संवाद का सूत्र मैं थी लेकिन तुम्हारे दिए गए खत सुरेखा भाभी के कहने पर मैं ने भेजना बंद कर दिया और सुमित को कुछ नहीं बताया.’’

‘‘आंटी, अब इन सभी बातों का कोई फायदा नहीं… जो मेरी किस्मत में था वह मिला मुझे’’

‘‘रीवा… तू यहां… कितनी बदल गई है.’’

बड़ी चाची भी सब्जी ले कर आ रही थीं.

‘‘चाची नमस्ते… आप सब्जी लेने आई हैं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अब सब बदल गया बिटिया. घर के 6 हिस्से हो गए सब अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं, अब कोई रोकटोक नहीं, तुम्हारी शादी की सचाई सुन कर भाभी तो जैसे पत्थर हो गई हैं, माताजी का रौब धीरेधीरे खत्म हो गया, अब तो बेटा… सब बदल गया’’ चाची ने एक सांस में घर की सारी कहानी बता दी.

‘‘अच्छा… चाची, बीना आंटी… मुझे कुछ काम है, कल घर आऊंगी.’’

मुझे निकलना था वहां से, अभी मां को फेस करने की हिम्मत नहीं थी मुझ में, आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. उस समय मेरा दिल टूटा था, गुस्से में थी लेकिन बाद में कई मौके थे जब मैं मां से बात कर सकती थी, गुस्से में लिए मेरे एक फैसले के कारण मेरी मां अपराधबोध में जीवन जी रही है… तड़प उठी मैं, मां से मिलने की इच्छा तीव्र हो रही थी, किसी तरह रात गुजरी, सूरज की किरणों के निकलने से पहले मैं हवेली के गेट के सामने खड़ी थी. मेरे आने की सूचना घर के अंदर पहुंच चुकी थी, सभी नींद से उठ कर बाहर निकल आए थे… ड्योढ़ी में दादी मिल गईं. मुझे अपनी बाहों में ले कर रोने लगी… यह मेरे लिए नया अनुभव था, आज तक मुझे कभी दादी की गोद नसीब नहीं हुई और अब इतना प्यार… सच कहा था चाची ने… सब बदल गया है.

मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थी, पिताजी के पास गई उन्होंने सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘अच्छा किया बिटिया… घर आ गई, सुना है बड़ी अफसर बन गई है… जीती रहो, दुनिया भर की खुशियां मिलें तुम्हें.’’

‘‘पिताजी, मां कहां है?’’

‘‘बिटिया… वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलती, जाओ उस के पास, हो सकता है तुम्हें देख कर ठीक हो जाए.’’

मैं भारी कदमों से कमरे में पहुंची… मां बिस्तर के एक कोने में सिर टिकाए छत को घूर रही थी, निस्तेज आंखें, उन का गोरा सुंदर चेहरा फीका पड़ा था. मां को ऐसे देख मेरा दिल तड़प उठा.

‘‘मां… देखो मैं आ गई, तुम मुझे कैसे भूल गई. माना मैं नाराज थी, तुम ने भी कभी मिलने की कोशिश नहीं की, ऐसे यहां आराम से बैठी हो. इतनी दूर से आई हूं, अपनी रीवा को कुछ खिलाओगी नहीं.’’

जैसेतैसे खुद को सयंत करते हुए मां से बात करने लगी.

‘‘रीवा… मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… बहुत अन्याय किया मैं ने तेरे साथ.’’

मां ने कहा.

मेरी आंखें आज वर्षों बाद आंसुओं से भीग गईं. दोनों गले लग कर खूब रोए… आंसुओं के साथ गिलेशिकवे दूर हो रहे थे, 10 वर्षों के बाद आज मांबेटी का मिलन हो गया, मेरी मां आज मुझे वापस मिल गई. जिन रिश्तों से मुंह मोड़ कर में चली गई थी आज वो रिश्ते पहले से कहीं ज्यादा प्यार के साथ एक सुखद बदलाव के साथ मिले. कुछ नए रिश्ते भी… इस घर में आई बहुएं जो आजाद थीं, अपनी मर्जी की जिंदगी जी रही थीं, वे खुश थीं… जिंदगी में बदलाव हर लिहाज से अच्छा होता है.

शाम को सब से नजरें छिपाते मैं फिर मुंडेर पर आ गई… सब से मिल कर भी मेरे दिल का एक कोना उदास था.

‘‘सुमित… इतने वर्ष बीत गए अब तो तुम मुझे भूल गए होगे’’ बुदबुदाते हुए मैं मुंडेर पर बैठ गई.

‘‘ऐसा सोच भी कैसे लिया रीवा… तुम्हारा सुमित तुम्हें भूल जाएगा’’ सुमित की आवाज सुन कर मैं मुंडेर से कूद पड़ी.

‘‘संभल कर उतरो, चोट लग जाएगी.’’

सुमित ही है… मेरे सुमित, कितने बदल गए हैं. लड़कपन की छवि से निकल कर धीरगंभीर बेहद खूबसूरत प्रभावशाली व्यक्ति के मालिक सुमित मेरे सामने है. मैं स्तब्ध थी. वाकई क्या

वही है या मेरी आंखों को छलावा हुआ. मुझे

न मेरी आंखों पर भरोसा था न कानों पर. वो मुसकान कैसे भूल सकती हूं जिस के सहारे इतने वर्ष बिता दिए, मेरा वजूद उस के पास होने के अनुभव मात्र से परिपूर्ण हो रहा था. रिक्तता भरने लगी, दिल के उस दर्द भरे हिस्से को जैसे अमृत मिल गया हो.

‘‘रीवा… तुम ठीक हो, बूआ ने फोन किया कि तुम वापस आ गई हो. मैं जानता था एक न एक दिन तुम मेरे पास आओगी. जब प्रेम सच्चा हो तो मिलन जरूर होता है देर से ही सही,’’ मेरा हाथ उस ने अपने हाथों में ले लिया. उस की बातें, उस के स्पर्श से मैं भीग रही थी.

‘‘तुम सच में मेरे पास हो’’मेरे शब्दों में कंपन था, चेतना खो रही थी… मैं बेसुध हो उस की बाहों में झूल गई.

आंख खुली तो सभी घरवाले मुझे घेर कर खड़े थे, बीना आंटी, मां एकदूसरे का

हाथ थामे मुसकरा रही थीं.

सुमित मेरे सिरहाने बैठे थे.

मैं ने हैरत से सब को देखा सब के चेहरे पर सहमति दिख रही थी, सुमित का हाथ मैं ने अपने हाथों में थाम लिया… आखिरकार मेरे प्यार की हैप्पी ऐंडिंग हो ही गई.

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